11 नवम्बर-सोमवार

सोमवार शाम सात बजे के करीब विमल घर लौटा।
उसने कार बाहर ही खड़ी की और कोठी के बरामदे में जाकर काल बैल बजायी।
मेन डोर मेड ने खोला।
ऐसा अमूमन नहीं होता था।
“मैडम कहाँ हैं?” — उसने भीतर दाखिल होते हुए सवाल किया।
“मार्केट गया।” — पीछे दरवाजा बंद करती क्रिश्चियन मेड अदब से बोली।
“अच्छा! क्या करने?”
“बाबा का लैक्टोजेन फिनिश। बाबा का सम टॉयलेट आर्टिकल्स फिनिश। लेने का वास्ते गया।”
“ओह! कब गया?”
“हाफ एन आवर बैक।”
“फिर तो अब तक आ जाना चाहिये था!”
“किचन में सम ग्रोसरी आइटम्स भी माँगता था।”
“ओह! ठीक है।”
“मैं चाय बनाये?”
“अभी नहीं। मैडम आ जायें तो बनाना।”
“मे बी ए ग्लास आफ वॉटर!”
“यस, प्लीज।”
विमल बैडरूम में चला गया।
कपड़े बदल कर वो ड्राईंगरूम में वापिस लौटा तो सैंटर टेबल पर पानी का गिलास उसका इन्तजार कर रहा था।
मेड वहाँ नहीं थी।
आधा घंटा गुजर गया।
वो बेचैन होने लगा।
उसने नीलम का मोबाइल बजाया।
मोबाइल घर में ही बजा।
बैडरूम में ड्रेसिंग टेबल पर पड़ा था।
कोई बड़ी बात नहीं थी।
घर से निकलते वक्त नीलम अक्सर मोबाइल पीछे भूल जाती थी।
उसने मेड को आवाज लगाई।
मेड उसके रूबरू हुई।
“अरे, एक घंटे से ऊपर हो गया, मैडम आई नहीं।”
“मैं भी यही सोचता था।” — मेड दबे स्वर में बोली।
“बाबा क्या करता है?”
“सोता है। अभी वन आवर नहीं उठने का! मैं मार्केट जाये?”
“नहीं, तुम बाबा के पास ठहरो, मैं जाता हूँ।”
मेड ने सहमति में सिर हिलाया।
फिक्रमन्द विमल घर से निकला।
मार्केट एक किलोमीटर के फासले पर थी।
उसने उन तमाम शोरुम्ज का चक्कर लगाया जहाँ लैक्टोजेन और बच्चों के टायलेटरी के आर्टीकल्स उपलब्ध होते थे।
नीलम उसे कहीं दिखाई न दी।
एक अज्ञात आशंका से उसका मन लरजने लगा।
उसने घर की लैंडलाइन बजाई।
“मैडम लौटीं?” — मेड ने काल रिसीव की तो उसने सवाल किया।
“नो, सर।”
कहाँ चली गयी!
“घर में लेक्टोजेन की क्या पोजीशन है?”
“फिनिश, सर।”
“ओके। मैं करता हूँ कुछ।”
उसने एक कैमिस्ट शॉप से ढाई साल के बच्चे के लिये उपयुक्त लैक्टोजेन खरीदा और वापिस लौटा।
इन्तजार।
आधा घंटा और गुजरा।
अब विमल के लिये बेचैनी बर्दाश्त से बाहर होने लगी।
उसने अजीत लूथरा के मोबाइल पर काल लगायी।
‘दिस नम्बर इज ईदर स्विच्ड ऑफ ऑर प्रेजेन्टली आउट ऑफ रीच।’
वो थाने पहुँचा।
लूथरा अपने आफिस में नहीं था।
तभी कारीडोर में उसके पहलू से एक हवलदार गुजरा।
“सुनो।” — वो व्यग्र भाव से बोला — “लूथरा साहब कहाँ हैं?”
“क्या काम है?” — वो व्यवसायसुलभ रुक्ष स्वर में बोला।
“भई, फ्रेंड हूँ, मिलना है।”
“ओह! फ्रेंड हैं। फील्ड ड्यूटी पर हैं।”
“कब लौटेंगे?”
“लौटने का कोई टाइम मुकरर्र नहीं। अभी लौट सकते हैं, हो सकता है आधी रात तक न लौटें।”
“ओह!”
“फ्रेंड हैं तो मोबाइल बजाइये न!”
“बजाया था। काल नहीं लगी।”
“इधर कुछ दिनों से सिग्नल की प्रॉब्लम है। कभी-कभार ऐसा हो जाता है। फिर बजाइये।”
विमल ने राय पर अमल किया।
इस बार तुरन्त जवाब मिला।
विमल ने उसे बताया कि वो थाने में था और क्यों था।
“मैं लौट ही रहा हूँ।” — लूथरा की आवाज आयी — “मेरे आफिस में बैठो।”
“किसी ने टोका तो?”
“पास कोई है?”
“एक हवलदार है।”
“बात कराओ।”
हवलदार ने क्षण भर फोन पर बात की और फिर सादर उसे एएसएचओ साहब के आफिस में ले जाकर बिठाया।
“कोई ठण्डा गर्म लेंगे?” — उसने पूछा।
“नहीं। शुक्रिया।”
“मेरा नाम दानवीर सिंह है। कोई जरूरत हो तो मैं गलियारे में दायीं ओर कोने के कमरे में हूँ।”
“जरूर।”
वो चला गया।
पीछे विमल बेचैनी से पहलू बदलता बैठा रहा।
बार-बार उसे पाइप का ख़याल आता था और हाथ जेब की तरफ बढ़ता था, बार-बार उसे खुद को याद दिलाना पड़ता था कि वो धुम्रपान त्याग चुका था।
दस मिनट गुजरे।
फिर लूथरा ने अपने आफिस में कदम रखा। टेबल के पीछे की अपनी चेयर पर बैठने की जगह वो विमल के पहलू में एक विजिटर्स चेयर पर बैठ गया।
दोनों ने अपलक एक दूसरे का मुँह देखा।
“कहीं वाकफियत में चली गयी हों।” — फिर लूथरा ने सुझाया।
“कैसी वाकफियत इधर उसे कोई नहीं जानता।”
“और कहीं?”
“और कालिंदी कुंज योगेश पाण्डेय रहते हैं। इतनी दूर वो बिना बताये नहीं जा सकती। वो भी शाम की इस घड़ी।”
“कबसे पता नहीं है?”
“नौ बज गये हैं। दो घंटे से ऊपर हो गये हैं।”
“हम्म!”
“घर से छोटी मोटी परचेज के लिये मार्केट को निकली वो कहीं और ही चल दे, ये नहीं हो सकता। और फिर वो भी कालिन्दी! जो यहाँ से सत्ताइस किलोमीटर दूर है!”
“फिर भी पूछ देखो।”
उसने कालिन्दी फोन किया।
नीलम वहाँ नहीं गई थी।
हालांकि कोई दूर-दराज की भी सम्भावना नहीं थी, फिर भी उसने अपनी वर्तमान बॉस शोभा शुक्ला के घर फोन किया, क्योंकि शुक्ला साहब अपनी जिन्दगी में नीलम से वाकिफ थे।
नीलम वहाँ नहीं आयी थी।
“आता हूँ।” — लूथरा एकाएक उठ खड़ा हुआ।
“लेकिन . . .” — विमल ने व्यग्र भाव से कहना चाहा।
“धीरज रखिये।” — वो आश्वासन-सा देता बोला — “मीडिया कितना भी दुष्प्रचार करे, दिल्ली में अभी इतनी बद्अमनी नहीं है कि . . .”
“चुप करो।”
“आता हूँ।”
लूथरा लम्बे डग भरता कमरे से निकल गया।
दस मिनट बाद वो वापिस लौटा।
“मैंने दरयाफ्त किया है।” — वो वापिस विमल के करीब बैठता बोला — “पिछले दो घंटों में इलाके में कोई एक्सीडेंट की या फौजदारी की वारदात नहीं हुई है। सैन्ट्रल कन्ट्रोलरूम से भी दरयाफ्त किया है, उनके पास शाम से इधर की कैसी भी कोई कम्लेंट दर्ज नहीं हुई।”
“हूँ।”
“मैं इलाके से पूछताछ करवाता हूँ। कोई ख़बर मिलेगी तो खुद पहुँचाऊँगा। आप घर जाइये।”
विमल ने मजबूती से इंकार में सिर हिलाया।
“आप मेरे सिर माथे हैं लेकिन यहाँ बैठने को कोई फायदा नहीं। घर जाइये, हो सकता है मैडम अब तक घर लौट ही आई हों।”
विमल ने हिचकिचाते हुए सहमति में सिर हिलाया।
ग्यारह बज गये।
नीलम न घर लौटी, न तब तक उसकी कोई खोज ख़बर मिली।
संयोग से उस रोज लूथरा की थाने में नाइट ड्यूटी थी। वो निरन्तर विमल के संपर्क में था लेकिन विमल के लिये कोई गुड न्यूज उसके पास नहीं थी।
मेड विमल की मैडम की फिक्र में शरीक होना चाहती थी और उसके साथ जागना चाहती थी लेकिन विमल ने उसे समझा बुझा कर सोने भेज दिया था, क्योंकि उसने सूरज का भी ख़याल रखना था।
उस रात घर में खाना नहीं पका था। मेड ने शायद दिन का बचा खुचा कुछ खा लिया था या वो भी विमल की तरह भूखी थी, उसे नहीं मालूम था।
साढ़े ग्यारह बजे विमल ने अपने लिये ब्लैक कॉफी बनायी लेकिन उसका एक ही घूँट भर पाया। कॉफी उसके करीब पड़ी ठण्डी होती रही, दोबारा उसने उसकी तरफ हाथ न बढ़ाया।
बारह बजने को थे जबकि एकाएक काल बैल बजी।
विमल चिहुँक कर उठा।
काल बैल ने मेड को जगा दिया था और वो दरवाजे की ओर बढ़ रही थी।
“मैं देखता हूँ।” — विमल बोला।
मेड रास्ते में ठिठक गयी।
विमल ने जाकर मेन गेट खोला।
जो नजारा उसे दिखाई दिया, उसने उसकी रूह कँपा दी।
दरवाजे पर चौखट का सहारा लिये नीलम अन्धड़ के हवाले दरख़्त की तरह झूल रही थी। उसके कपड़े तार-तार थे और चेहरा और जिस्म ख़ून रिसती खरोंचों से भरा पड़ा था। उसकी आँखों में वीरानी थी और बाल यूँ अस्त-व्यस्त थे जैसे नोचे-खसोटे गये हों। उसका निचला होंठ कटा हुआ था और बायीं आँख सूज कर बंद हो गयी हुई थी। होंठों की कोरों पर, चेहरे पर, गर्दन पर कई जगह खून सूख कर पपड़ी बन गया हुआ था।
“नीलम!” — हाहाकारी लहजे से विमल बोला।
नीलम के मुँह से आवाज न निकली, उसका जिस्म यूँ आगे को भरभराया कि विमल अगर उसे संभाल न लेता तो वो उसके कदमों में ढेर हो गयी होती।
“फ्रान!” — विमल चिल्लाया।
लेकिन मेड पहले ही उसके करीब पहुँच चुकी थी।
नीलम को बैडरूम तक ले जाने का हाल नहीं था, दोनों ने आजू-बाजू से संभाल कर उसे ड्राईंगरूम में एक सोफे पर डाला।
नीलम का शरीर निश्चेष्ट हो गया, उसकी आँखें बंद हो गयीं, सिर्फ साँस धौंकनी की तरह चलती रही।
“पानी!” — विमल बोला — “पानी ला।”
मेड किचन की तरफ लपकी।
“डॉक्टर! हस्पताल! तुझे मैडीकल एड की जरूरत है।”
“नहीं!” — बिना आँखें खोले वो हाँफती-सी बोली — नहीं।”
“लेकिन तेरी हालत . . .”
“हस्पताल नहीं।”
“लेकिन . . .”
“मैंने . . . मैंने हस्पताल जाना होता . . . तो चली गयी होती। . . . जैसे . . . जैसे यहाँ प-पहुँची, वैसे हस्प-हस्पताल पहुँच गयी होती।”
मेड पानी लायी।
नीलम बहुत मुश्किल से एक घूँट पानी पी पायी।
“तू . . . तू बुरी तरह से जख़्मी है।” — विमल बोला।
“बुरी . . . बुरी तरह से नहीं। ऊपरी खरोंचे हैं . . . जो अस्मत पर ज्यादा हैं, जि-जिस्म पर कम हैं।”
“लेकिन . . .”
“बात तो समझो, सर . . . वि-विमल। इस हालत में मैं हस्प . . . हस्पताल में होती तो . . . तो . . . वो क्या कहते हैं . . . हाँ . . . हाँ . . . मैडिकोलीगल केस बनता। पुलिस आकर सवाल पूछती। तुम्हारे से भी। ऐसी . . . ऐसी जवाबदारी . . . ठी-ठीक होती?”
“होती। मैं अरविन्द कौल हूँ। पुलिस इस हकीकत से मुझे नहीं हिला सकती।”
“मालूम। इसीलिये हम दिल्ली में हैं। ले-लेकिन . . . लेकिन क्-क्या फायदा हालत आ-आ बैल मुझे मार जैसी क-करने की!”
“फिर भी तुझे मैडीकल अटेंशन की जरूरत है। मैं यहीं इन्तजाम करता हूँ।”
“करना। कर लेना। पर . . . पर पहले मेरी सुनो।”
“बोल। . . . नहीं, पहले बोल, हुआ क्या?”
“बोलूँगी। . . . बोलूँगी। . . . माता भगवती भवानी की मेहर से घर आ गयी न! . . . बोलूँगी। पर . . . पर पहले कुछ और करो।”
“क्या? क्या?”
“फ्रान को बोलो . . . बोलो, मेरे लिये बाथ . . . बाथ तैयार करे।”
“तू इस हालत में नहायेगी!”
“जरूरी है।”
“लेकिन . . .”
“मैं अस्मत को उ-उजला नहीं कर सकती लेकिन . . . लेकिन जिस्म को तो क-कर सकती हूँ।”
“क्या हुआ तेरे साथ?”
“अरे, बोला न बोलूँगी। यकीन क्यों नहीं करते हो? तुमसे नहीं बोलूँगी तो और किससे बोलूँगी? लेकिन पहले हॉट बाथ . . .। नहाये बिना मुझे . . . मुझे चैन नहीं आयेगा। मेरे जिस्म पर है-हैवानों के ख़ूनी प-पंजों की छाप हैं, मेरे को उनसे मु-मुक्ति पानी है। मेरी सुनो . . . फ्रान को बोलो बाथ टब को गर्म पानी से भर दे। मेहर करो।”
मेड को कहने की जरूरत न पड़ी, वो सब सुन रही थी, विमल की गर्दन सिर्फ एक बार हामी में हिली और वो बैडरूम की तरफ दौड़ चली।
“कोई चाय कॉफी पियेगी?”
“नहीं। बाद में।”
“हॉट वाटर बाथ तैयार होने में टाइम लगेगा, तब तक कुछ तो बता क्या हुआ। मेरी जान सूली पर टंगी है।”
“अच्छा! इतना प्यार करते हो मेरे से?”
“ज्यादा। कहीं ज्यादा। इतना कि बयान नहीं किया जा सकता।”
“इस हाल में देख कर भी?”
“इस हाल में देख कर ही।”
“तुम्हें मेरे से नफरत नहीं?”
“हरगिज नहीं।”
“गिला नहीं?”
“बिल्कुल नहीं। अलबत्ता गुस्सा बहुत है . . .”
“मेरे लिये?”
“उन वहशियों के लिये जिन्होंने तेरा ये हाल किया। अब वो . . .”
“चिल! सरदार जी, चिल!”
विमल ख़ामोश हो गया।
“मेरा जीवन धन्य हो गया कि माता रानी की किरपा से मुझे इतना बेपनाह प्यार करने वाला पति मिला। मुझ अभागन को और क्या चाहिये!”
“ज्यादा मत बोल। तकलीफ होगी!”
“होती है। पर तुम्हें सामने पाकर अब महसूस नहीं होती। मैं अपने साईं की छत्रछाया में पहुँच गयी, मेरे सब दुःख दूर हो गये। हे, शेरां वाली माता, ये सपना न हो। सपना न हो। . . . सपना है तो टूटे न! मैं नींद से जाग न जाऊँ . . .”
तब मेड लौटी, विमल ने सिर उठाकर उसकी तरफ देखा तो उसने सहमति में सिर हिलाया।
“बाथ तैयार है।” — विमल बोला।
“मुझे वहाँ . . . पहुँचा दो।”
दोनों ने मिलकर उसे मास्टर बैडरूम के बाथरूम में पहुँचाया।
“तू जा।” — विमल मेड से बोला — “मैं यहाँ ठहरता हूँ।”
“नहीं।” — नीलम ने तत्काल विरोध किया — “ तुम भी जाओ।”
“लेकिन . . .”
“कहना मानो।”
“ठीक है। फ्रान यहाँ ठहरती है।”
“नहीं।”
“नीलम, अकेले में कुछ ऊँच नीच हो गयी तो . . .”
“कैसी ऊँच नीच?”
“तेरी हालत बद् है। तुझे बेहोशी आ सकती है। तू बाथटब में . . .”
“डूब जाऊँगी?”
“ऐसा हो सकता है।”
“नहीं हो सकता। ऐसा होना होता तो मैं घर लौटने लायक न बची होती।”
“लेकिन मेरे, या मेड के, करीब रहने में हर्ज क्या है?”
“नहीं।”
“लेकिन . . .।”
“मैं जानती हूँ तुम्हारे मन में क्या है?”
“तू . . . तू जानती है?”
“हाँ।”
“क-क्या है?”
“मैं ऐसे जान नहीं दूँगी। डूब के नहीं मरूँगी। मेरी ऐसी कोई मर्जी होती तो घर न लौटी होती, वहीं जान से चली गयी होती जहाँ जान पर आ बनी थी। अब बोलो, क्या कहते हो?”
विमल से जवाब देते न बना।
“मेरी किस्मत में अभी सुहाग का बहुत सुख पाना लिखा है। लिखा है न?”
विमल का सिर मजबूती से सहमति में हिला।
“जब तक मैं अपनी आँखों से अपने बूटे को बाप सरीखा पेड़ बनता नहीं देख लूँगी, इस जहान से नहीं हिलूँगी।”
विमल ख़ामोश रहा।
“जाओ।”
वो बाहर को बढ़ा।
“मेरे कोई कपड़े निकाल कर बैड पर रख देना और खुद जाकर बैठक में बैठना। मेरे बुलाने पर आना। ठीक?”
विमल ने सहमति में सिर हिलाया।
आधे घंटे बाद नीलम ने बैडरूम का दरवाजा खोला।
इस दौरान तमाम अरसा विमल का मन किसी अज्ञात आशंका से लरजता रहा।
विमल लपक कर उसके करीब पहुँचा। उसने आशापूर्ण नेत्रें से उसकी तरफ देखा।
नीलम के सूजे होंठों पर एक फीकी मुस्कान आयी और लुप्त हुई।
“बैठ जा।” — नीलम की बाँह थामता वो बोला।
“सोने को जी चाहता है।” — नीलम होंठों में बुदबुदाई।
“नींद आ रही है?”
“नहीं।”
“आये तो सोना। अभी बैठ।”
“वो . . . सूरज . . .”
“बैठ तो! बोलता हूँ।”
सप्रयास विमल ने उसे बैड पर बिठाया, उसकी पीठ के पीछे दो सिरहाने लगाये। नीलम ने पाँव समेट लिये और घुटनों पर ठोढ़ी रख ली।
विमल ने निहार कर उसे देखा।
उसके चेहरे पर, गर्दन पर, छाती पर, बाँहों पर की खरोंचें अब धूल मिट्टी से मुक्त हो गयी थीं लेकिन एक आँख अभी भी इतनी सूजी हुई थी कि मुश्किल से खुल पाती थी।
विमल ने वहाँ मौजूद इकलौती कुर्सी बैड के करीब खींच ली और उस पर बैठता बोला — ‘तेरी डॉक्टर से मुलाकात जरूरी है।”
उसने इंकार में सिर हिलाया।
“अरे, और नहीं तो टिटनस का इन्जेक्शन ही लगवाना होता है . . .”
“कल देखेंगे। मुझे मालूम है वो चौबीस घंटे बाद भी लगवाया जा सकता है।”
“तुझे मालूम है?”
“हाँ। और मैंने एक पेन किलर खा लिया है, उससे मुझे बहुत राहत है।”
“अंग्रेजी दवाइयों के बारे में कितना कुछ जान गयी साली देसी मिडल फेल!”
उस पर कोई प्रतिक्रिया न हुई, हमेशा की तरह उसने ऐतराज न जताया।
“भूख लगी है?” — उसने नया सवाल किया।
“नहीं।”
“फिर भी कुछ खायेगी?”
“हाँ।”
“क्या? बोल, मैं अभी . . .”
“उन दरिन्दों का कलेजा।” — अनजाने में नीलम दाँत किटकिटाने लगी।
“वो तेरे करने का काम नहीं। मैं . . .”
“छोड़ो। सूरज कैसा है!”
“ठीक है। सोया हुआ है।”
“क्या खाया उसने? मैं तो उसके लिये लैक्टोजेन लेने गयी थी तो . . .”
“मैं ले आया था।”
“तुम ले आये थे!”
“हाँ। तेरी तलाश में निकला था न! तलाश तो कामयाब न हुई, लेकिन बच्चे की जरूरत तो पूरी करनी थी न!”
“हूँ। तुमने क्या खाया?”
“जो मेड ने बना दिया।”
“क्या?”
“अब ध्यान नहीं।”
“यानी भूखे हो।”
“अरे, नहीं।”
“मैं कुछ बनाती हूँ।” — उसने उठने का उपक्रम किया।
“पागल हुई है!” — विमल ने मीठी झिड़की दी — “ख़बरदार जो हिली भी तो।”
“अच्छा!” — वो अनिश्चित भाव से बोली।
“हाँ। अब बोल, क्या हुआ था?”
“मुझे नींद आ रही है।”
“शायद पेन किलर का असर है।”
“हाँ, शायद।”
“ठीक है, सो जा। लेकिन पहले थोड़ा हल्दी मिला गर्म-गर्म दूध पी ले। सुना है जैसी तेरी हालत है, उससे आराम आता है।”
“पेन किलर से आ रहा है। आराम भी और नींद भी।”
“लेकिन कुछ बता तो सही क्या हुआ था?”
“सुबह। अभी हिम्मत नहीं।”
“अच्छी बात है।”
“एक प्रार्थना और है?”
“हुक्म करो, सरदारनी जी।”
“आज मुझे अकेला सोने दो।”
“क्या!”
“प्रार्थना है। ठुकराना नहीं। समझो चैम्बूर के दाता से की।”
“कमाल है! बहकी-बहकी बातें कर रही है!”
“वजह तुम्हें मालूम है। दिल, दिमाग, शरीर, आत्मा सब छलनी है। अब बोलो, प्रार्थना स्वीकार हुई?”
“रात को कुछ ऊँच-नीच हो गयी तो?”
“तो तुम दूर थोड़े ही हो! आवाजें देने लगूँगी।”
“अगर मेड यहाँ फर्श पर सो जाये तो?”
“नहीं। नहीं। अब जिद छोड़ो।”
“वो तो छोड़ दी।” — विमल उठ खड़ा हुआ — “लेकिन नींद नहीं आयेगी मुझे।”
“क्यों? अकेले सोने की तो आदत है तुम्हें!”
“सारी रात सस्पेंस रहेगा कि तेरे साथ क्या बीती!”
“जो बीतनी थी, बीत गयी न! बुरी घड़ी गुजर गयी न! मैं घर में हूँ न! तुम्हारे करीब! अपने सूरज के करीब।”
“अच्छी बात है, जाता हूँ।”
वो दरवाजे की तरफ बढ़ा, करीब पहुँच कर ठिठका, घूमा, उसने कातर भाव से नीलम की तरफ देखा।
“अब क्या है?” — नीलम अनमने भाव से बोली।
“इतना तो बता दे, तेरे साथ . . . तेरे साथ कुछ . . . बुरा तो नहीं हुआ!”
“ऐसा कुछ बुरा नहीं हुआ जो पहले कभी नहीं हुआ।”
“साफ जवाब दे!”
“साफ जवाब ही दिया है।”
“अरे, कोई . . . कोई बद्फेली तो नहीं हुई?”
“हुई न! चार जंगली जानवरों ने झिंझोड़ा, भंभोड़ा, निचोड़ा, गेंद की तरह अपने बीच उछाला . . .”
“मेरा मतलब कुछ और था।”
“यानी जो मैंने बोला, वो किसी गिनती में नहीं आता?”
“आता है, बराबर आता है लेकिन . . . लेकिन मैं पूछ रहा था कि . . . कि . . .”
“औरत की अस्मत गैरमर्द की परछाईं से दागदार हो जाती है, सरदार जी। अब मैं कहूँ कि परछाईं भी न पड़ी तो . . .”
“जाता हूँ।”
12 नवम्बर-मंगलवार
अगले रोज घर में एक अप्रत्याशित मेहमान का आगमन हुआ।
ग्यारह बजने को थे जबकि घर में कोमल ने कदम रखा।
विमल के किन्हीं अहसानों के तले दबी कोमल वो युवती थी हर संकट की घड़ी में जिसके पास सूरज को छोड़ा जाता था। विमल से हासिल हुए एकमुश्त पैसे से उसने विखरौली में — मुम्बई में जहाँ कि वो रहती थी — एक बुटीक शॉप खोल ली थी जो कि खूब चल निकली थी। वो विमल की बार-बार शुक्रगुजार होती थी कि उसने उसे पतन के रास्ते से उबारा था, ऐसी जिन्दगी से किनारा करने में मदद की थी, जिसका आखिरी अंजाम बर्बादी के अलावा कुछ न था।
सूरज उससे कितना हिला मिला था, इस बात का यही काफी सबूत था कि वो अभी चौखट पर ही थी कि सूरज दौड़ कर उसके करीब पहुँचा और उसकी टाँगों से लिपट गया।
कोमल ने अपना ट्रैवल बैग हाथ से निकल जाने दिया और उसे गोद में उठा लिया।
सूरज कसकर उसके गला लगा।
“तोमल!” — उत्साह से दमकता वो बोला — “तोमल!”
कोमल ने उसके माथे पर एक चुम्बन अंकित किया।
“ये तेरे को नाम ले के बुलाता है?” — विमल हैरानी से बोला।
“हाँ।” — कोमल बोली — “वान्दा नहीं मेरे को। अच्छा लगता है।”
“पर . . .”
“दीदी कहाँ हैं?”
“दीदी! अभी।” — वो करीब खड़ी मेड की तरफ घूमा — “देख!”
सहमति से सिर हिलाती मेड मास्टर बैडरूम की ओर लपकी।
दस बजे विमल ने नीलम को जबरन जगाया था, क्योंकि तब उसका तलब किया एक डॉक्टर वहाँ पहुँचा था, जिसने उसे टिटनस का इंजेक्शन दिया था और कुछ गोलियाँ दी थीं। उसे और कुछ करने देने को नीलम तैयार नहीं हुई थी। डॉक्टर उसका फिजीकल एग्जामीनेशन करना चाहता था जिससे उसने साफ इंकार कर दिया था। न ही वो अपनी घायलावस्था की कोई वजह बताने को तैयार हुई थी।
डॉक्टर चला गया था, तो उसने मेड का लाया हल्का सा नाश्ता किया था और तकियों के सहारे लेट कर फिर आँखें बंद कर ली थीं।
“बैठ।” — विमल बोला।
सूरज को लिये दिये कोमल एक सोफे पर ढेर हुई।
विमल उसके सामने एक सोफाचेयर पर बैठा और बोला — ‘कैसे आ गयी?”
“वो . . . बोले तो . . .”
तभी मेड का सहारा लिये नीलम वहाँ पहुँची।
तत्काल कोमल ने सूरज को गोद से उतारा और लपककर नीलम के साथ बगलगीर हुई।
नीलम के मुँह से घुटी सी कराह निकली।
कोमल तत्काल पीछे हटी। तब जैसे पहली बार उसने नीलम का मुआयना किया।
“अरे! — उसके मुँह से निकला — “क्या हुआ?”
“क-कुछ . . . कुछ नहीं।”
“आप . . . आप घायल लग रही हैं!”
“नहीं, नहीं। मामूली खरोंचें हैं।”
“पर हुआ क्या?”
“मंदिर गयी थी। उसकी सामने की संगमरमर की सीढि़याँ गीली थीं, पाँव फिसल गया।”
“ओह!”
“तू कैसे आ गयी एकाएक?”
“बोलती हूँ। आप पहले बैठ जाइये।”
दोनों अगल-बगल एक सोफे पर बैठीं।
“अब बोल” — नीलम फिर बोली — “कैसे आ गयी?”
“दिल किया।” — वो संजीदगी से बोली — “सूरज से मिलने का बहुत दिल किया। सच्ची बोलती हूँ, अभी तक भी मुझे इसके बिना रहने की आदत नहीं हुई। कल तो बहुत ही दिल उदास हुआ। आज मार्निंग को जिस पहली फ्लाइट की टिकट मिली, चली आयी।”
“ख़बर तो करनी थी!”
“सरप्राइज देने का था न!”
“मुझे?”
“सूरज को।”
“इसको तो ये सरप्राइज बहुत रास आया है। लगता नहीं कि तेरे को आसानी से चला जाने देगा।”
“मैं साथ ले के जाऊँगी न!”
नीलम एक फीकी हँसी हँसी, फिर विमल की ओर घूमी — “कोई ब्रेकफास्ट के लिये फ्रान को बोला?”
“नहीं माँगता” — विमल से पहले कोमल बोल पड़ी — “एयरपोर्ट पर किया न!”
“फिर भी . . .”
“फिर चाय। एक कप चाय खाली।”
“पक्की बात?”
“हाँ।”
नीलम ने मेड को इशारा किया।
किसी आदेश की प्रतीक्षा में परे खड़ी मेड किचन में चली गयी।
“और कैसा चल रहा है!” — पीछे कोमल बोली — “दिल लग गया दिल्ली में! दिल वालों की दिल्ली में!”
“लग ही गया।” — विमल बोला।
“या” — नीलम बोली — “यूँ कहो कि लगा लिया।”
“जहाँ रिजक हो” — विमल बोला — “रहना पड़ता है।”
“ठीक!”
“अब बोल, कैसे आयी एकाएक?”
“वजह वही है जो मैं बोल चुकी, पर एक बात जोड़ने का।”
“कौन सी बात?”
“सूरज को साथ ले के जाऊँगी।”
“क्या!”
“इंकार नहीं सुनूँगी।”
“लेकिन . . .”
“आप की मर्जी हो तो आप सूरज को मेरे पास छोड़ सकते हैं, मैं मेरी मर्जी हो तो उसे साथ नहीं ले जा सकती?”
“वो बात तो नहीं है लेकिन . . .”
“जब वो बात नहीं है तो ‘लेकिन’ किसलिये?”
“अरे, तेरे को जहमत होगी!”
“आज तक हुई?”
विमल ने असहाय भाव से नीलम की तरफ देखा।
“ले जाने दो।” — नीलम धीरे से बोली।
“क्या!”
“जब आई ही सूरज को ले जाने के लिये है तो ले जाने दो।”
“तू रह लेगी उसके बिना?”
“अरे, कोई हमेशा के लिये तो नहीं ले जा रही!”
“फिर भी . . .”
“सूरज से पूछो।”
“अरे, बच्चे से क्या पूछूँ!”
“पूछो।”
“सूरज, तोमल के साथ जायेगा?”
“हाँ।” — सूरज का चेहरा खिल उठा — “हाँ।”
“ममी के पास कौन रहेगा?”
“आप।”
“कमाल है!”
तभी मेड चाय ले आयी।
तीनों ने छोटी मोटी बातें पूछते, बताते चाय पी।
आखि़र कोमल ने खाली कप सेन्टर टेबल पर रखा और बोली — “सूरज को जाने के वास्ते तैयार कर दो।”
“अरे!” — विमल बोला — “इतनी जल्दी!”
“मेरी पाँच बजे की फ्लाइट है। रिटर्न टिकट ले के आयी।”
“अरे, जब आई है तो कुछ दिन हमारे पास रुकना था!”
“बुटीक स्टोर में काम बहुत बढ़ गया है, सेल्स गर्ल्स के हवाले छोड़ के आयी हूँ, मैं ज्यादा देर मुम्बई से बाहर नहीं रह सकती।”
“कमाल है!”
“फ्रान!” — नीलम ने मेड को आवाज लगाई — “सूरज का सामान पैक कर।”
“यस, मैम।”
विमल ने प्रतिरोध में मुँह खोला।
नीलम ने अपलक उसे देखा।
विमल ने तत्काल होंठ भींच लिये और परे देखने लगा।
उस रात भी नीलम ने अकेले सोने की जिद की।
विमल ने तीव्र विरोध किया।
नीलम टस-से-मस न हुई।
“ठीक है।” — विमल हथियार डालता बोला — “लेकिन अगर मेड के साथ कोई ऊंच-नीच हो गयी हो मुझे जिम्मेदार न ठहराना।”
“तुम” — नीलम के माथे पर बल पड़े — “वही कह रहे हो जो मैं समझ रही हूँ?”
“हाँ।”
“मत कहो। तुम्हें शोभा नहीं देता।”
“अगर तुम्हें पति से दूर रहना शोभा देता है तो . . .”
“ठीक है, करना ऊंच-नीच। मेरी तरफ से इजाजत है।”
विमल के जेहन में कभी अपने ही मुँह से निकले अलफाज गूंजे:
“मैं एक शादीशुदा, बाऔलाद शख़्स हूँ, मैं सपने में भी अपनी बीवी से बेवफाई की कल्पना नहीं कर सकता। मेरा दिल, मेरी जान, मेरा जिस्म, मेरा सब कुछ मेरी बीवी का है और इनमें से किसी भी शै को कोई शेयर नहीं कर सकता।”
“ठीक है।” — प्रत्यक्षतः वो धीरे से बोला।
“मुझे मालूम है ठीक है।” — नीलम सप्रयास मुस्कुराई — “मुझे तुम पर गर्व है। मुझे गर्व है कि मैं तुम्हारी भार्या हूँ। मेरी माता भगवती भवानी से सदा प्रार्थना है कि मैं जब भी मानव जन्म पाऊँ, तुम्हें अपना पति पाऊँ।”
उसकी आँखें नम हुईं।
विमल भी जज्बाती हुए न रह सका।
कुछ क्षण खामोशी रही।
“चल, तुझे सुला के आऊँ।” — फिर विमल बोला — “या वो भी मंजूर नहीं?”
“उठा के ले के चलो।” — वो मुदित मन से बोली — “ताकि मुझे हमारी सुहागरात याद आ जाये।”
विमल ने आदेश का पालन किया।
आधी रात को विमल की नींद खुली।
कहीं खट खट की आवाज हो रही थी।
उसने साइड टेबल पर पड़े टेबल लैम्प का स्विच ऑन किया।
आवाज फौरन बंद हो गयी।
घर में कहीं से एक चूहा घुस आया था, जो दिन में तो पता नहीं कहाँ गर्क हो जाता था लेकिन रात को हरकत में आ जाता था।
रोज ऐसा होता था, रोज वो सुबह पैस्ट कन्ट्रोल वालों को बुलाने का इरादा करता था और रोज भूल जाता था।
अब नहीं भूलूँगा — दृढ़ता से उसने मन-ही-मन दोहराया!
वो उठ कर खड़ा हुआ।
चूहा उसे कहीं दिखाई न दिया।
शायद रौशनी होते ही भाग गया था।
कहाँ?
बगल के कमरे में। जो कि मास्टर बैडरूम था, जहाँ नीलम सोई हुई थी।
वो उठकर बगल के कमरे में पहुँचा।
वहाँ निपट अंधकार था।
विमल ने एक फुटलाइट ऑन की।
चूहा उसे कहीं दिखाई न दिया।
उसकी बैड की तरफ निगाह उठी।
नीलम बैड पर नहीं थी।
वो सकपकाया।
शायद दृष्टिभ्रम था।
उसने करीब जाकर टेबल लैम्प का स्विच ऑन किया।
नहीं, दृष्टिभ्रम नहीं था। डबल बैड खाली था।
शायद टॉयलेट में . . .।
उसने उधर निगाह उठाई।
नीमअँधेरे में भी उसे दिखाई दिया कि टॉयलेट का दरवाजा खुला था। फिर भी वो दरवाजे पर पहुँचा।
टॉयलेट खाली था।
कहाँ गयी!
ख़ामोशी से उसने सारी कोठी का चक्कर लगाया।
नीलम कहीं नहीं थी।
मेन डोर बंद था।
मेन डोर पर आटोमैटिक लॉक था जो दरवाजा भिड़काये जाने से ही सैट हो जाता था लेकिन वो भीतर से चिटकनी भी चढ़ाते थे।
चिटकनी गिरी हुई थी।
वो दरवाजा खोल कर बाहर निकला। बाहर उसने गैराज में झाँका, गेट पर आकर रात की उस घड़ी सुनसान पड़ी गली की दोनों दिशाओं में झाँका, फिर वापिस मास्टर बैडरूम में लौटा। ट्यूबलाइट का स्विच ऑन कर के उसने वहाँ तीखी रौशनी की और कमरे में चारों तरफ निगाह फिराई।
उसकी निगाह एक तकिये पर ठिठकी।
वहाँ एक खुला कागज पड़ा था जो शायद किसी राइटिंग पैड पर से फाड़ा गया था। कागज पर — शायद वजन के लिये, कि उड़ न जाये — टीवी का रिमोट रखा था।
लम्बे डग भरता वो बैड पर पहुँचा। हाथ बढ़ा कर उसने रिमोट के नीचे से कागज उठाया और उस पर सरसरी निगाह दौड़ाई।
चिट्ठी!
उसके नाम!
उसने कागज के निचले भाग पर निगाह डाली।
नीलम की।
अत्यन्त आंदोलित भाव से उसने चिट्ठी पढ़ी। लिखा था:
मेरे सरदार जी,
भूले न होंगे कि कभी तुम मुझे और सूरज को — जो तब महज बीस दिन का था — आधी रात को सोते छोड़ कर चल दिये थे, जब तुम्हें अपनी तमाम सजायें उस एक ईनाम के आगे हेच लगती थीं, जो वाहेगुरु सच्चे पातशाह ने नन्हें सूरज की शक्ल में तुम्हें दिया था, आज मैं तुम्हें सोता छोड़ कर जा रही हूँ। कहाँ जा रही हूँ, अभी मुझे खुद नहीं मालूम, लेकिन आखि़र जहाँ जाऊँगी, तुम्हें ढूँढ़े नहीं मिलूँगी। मैं कल रात ही चली गयी होती, जो मेरे साथ बीती, उसके बाद मैं घर ही न लौटी होती अगरचे कि मुझे सूरज की फिक्र न होती। कोमल उसको ले गयी और मैं अपना — अगला बहुत बड़ा, बहुत अहम — कदम उठाने के लिये आजाद हो गयी।
मेरे साईं, मैं तुम्हारे पैरों की बेड़ी हूँ जिससे अब तुम मुक्त हो और आगे कुछ भी करने के लिये आजाद हो। इस चिट्ठी के जरिये मैं तुम्हें अपनी हर कसम से मुक्त करती हूँ और गुरु महाराज के शब्दों में सिंहनाद करते तुम्हारी कल्पना करती हूँ:
जाके बैरी सन्मुख जीवै, ताके जीवन को धिक्कार
मैंने तुम्हारी बात न मानी, अपनी बात मनवाई तो सुख शांति के लिये, जो लगता है हमारे नसीब में लिखी ही नहीं। तुमने बिल्कुल ठीक कहा था कि ये दुनिया एक ऐसा अत्याचार का डेरा है जहाँ कोई जान महफूज नहीं। मैं ही हकीकत को झुठलाती रही और खुद को भरमाती रही कि ये दुनिया आखि़र इतनी बुरी नहीं। कल रात बड़ी शिद्दत से अहसास हुआ कि दुनिया इससे कहीं ज्यादा बुरी है।
मैं फिर दोहराती हूँ कि जो कसम मैंने तुम्हें दी थी, मैं उसे वापिस लेती हूँ। तुम्हें जो मुनासिब लगे, वो करने के लिये तुम मेरी हर कसम, हर जिद, हर मनुहार से आजाद हो। मैं नहीं समझती कि गुराँ दे सिंह का बाल भी बाँका होगा, लेकिन फिर भी अगर कुछ हो जाये तो मैं तुम्हारी ही चिट्ठी का लिखा याद करूँगी:
जब आउ की अउध निदान बनै,
अथि ही रण में तु जूझ मरौ।
मेरे सरदार जी, अगर तुम न रहे तो मैं मवाली की बेवा नहीं — जैसा कि तुम अक्सर कहते हो — शहीद की विधवा कहलाऊँगी, ऐसे शहीद की जिसने इंसाफ का परचम बुलन्द रखने की ख़ातिर अपनी जान कुर्बान कर दी। जिसने सिर दिया, आन बान शान न दी।
धर्म हेत साका जिन किया,
सीस दिया पर सिरड़ न दिया।
मेरे मालिक, मैं तुम्हारी याद को हमेशा के लिये सीने में संजोये सूरज को बड़ा करूँगी और उसी राह पर चलने के लिये प्रेरित करूँगी, जो जमाने की निगाह में गलत है, नाजायज है लेकिन जिस पर उसका पिता अपनी जिन्दगी की आखि़री साँस तक चला। मुझे जमाने की निगाह से कुछ नहीं लेना-देना, अब मुझे अपने मर्द की निगाह से, अपने मर्द की सोच से मतलब है। जिस राह पर चलने से चार आदमियों का भला होता हो, वो राह गलत कैसे हो सकती है! जिस राह पर चलने से जालिम के जुल्म को अंकुश लगता हो, वो राह कैसे गलत हो सकती है! खालसा का धर्म है दुष्ट को मारना, दुष्ट को गालना, फिर खालसा गलत कैसे हो सकता है! ऐसे ही तो गुरु महाराज जी ने नहीं कहा:
देह शिवा वर मोहे इहै,
सुभ करमन तौं कबहू न टरौ;
न डरौ अरि सौ जब जाई लरौ,
निसचै करि अपनी जीत करौ।
माता भगवती न करे तुम्हें कुछ हो जाये लेकिन अगर हुआ तो तुम्हारा बेटा — हमारा बेटा, सरदार सूरज सिंह सोहल सन ऑफ़ सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल — उसी राह का राही बनेगा जिस पर तुम हमेशा चले, चलते रहे।
और उसके पैरों में बेडियाँ डालने वाला, उसे कसम देकर उस राह से डिगाने वाला कोई न होगा।
जो लिखा है, तुम्हीं से सीखा है। कोई गलती हुई हो तो तुम्हें सूरज का सदका है, माफ कर देना।
आखि़री बार।
तुम्हारी खतावार मिडल फेल,
नीलम
कितनी ही देर वो चिट्ठी हाथ में थामे जड़ सा खड़ा रहा। रह रहकर उसकी निगाह बैड पर वहाँ उठ जाती थी, रात की उस घड़ी जहाँ नीलम को दीन दुनिया से बेखकर सोई पड़ी होना चाहिये था।
कहाँ गयी होगी!
अनायास उसकी तवज्जो साइड टेबल पर पड़ी।
लैंड लाइन के फोन के करीब एक स्क्रैच पैड पड़ा था, जिस पर कुछ लिखा था। करीब जाकर उसने स्क्रैच पैड उठाया और तहरीर का मुआयना किया तो पाया कि वो ऊपर नीचे लिखे दो लैंडलाइन नम्बर थे।
नीचे वाले नम्बर को वो पहचानता था।
वो इलाके के ट्वेन्टी-फोर-आवर्स टैक्सी स्टैण्ड का नम्बर था।
उसने उसे खड़काया।
घंटी बजती रही, कोई जवाब न मिला।
दूसरा नम्बर उसके लिये सर्वदा अपरिचित था।
तनिक हिचकिचाते हुए उसने उस पर काल लगायी।
“रेलवे इंक्वायरी!” — रात की उस घड़ी भी तत्काल उत्तर मिला।
“हल्लो!” — वो संजीदा लहजे से बोला — ये कौन से रेलवे स्टेशन की इंक्वायरी है?”
“नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन की। क्या जानना चाहते हैं?”
“इस वक्त कहाँ की गाड़ी छूटने वाली है . . . याा अभी-अभी छूटी है?”
“कहीं की भी नहीं। सुबह सवा चार से पहले कोई आउटगोइंग ट्रेन नहीं है।”
“कभी लांग रूट की कोई गाड़ी लेट हो जाती है . . .”
“सवा चार बजे वाली ऐसी ही गाड़ी है। जम्मू-चेन्नई एक्सप्रैस। रास्ते में ट्रैक पर एकाएक आई इमरजेंसी की वजह से छः घंटे लेट है।”
“ओह! रूटीन में अर्ली मॉर्निंग फर्स्ट ट्रेन कौन सी होती है!”
“अमृतसर एक्सप्रैस। सवा पाँच बजे छूटती है। आपने जाना कहाँ है?”
विमल ने रिसीवर वापिस क्रेडल पर रख दिया।
जल्दी से उसने सारे कमरे के हर सामान का जायजा लिया।
एक ट्रैवल बैग और नीलम के बहुत थोड़े से कपड़े गायब थे।
वार्डरोब में एक नम्बर्ड लॉकर था, जिसका फोर डिजिट कोड नीलम को भी मालूम था।
उसने लॉकर खोला।
भीतर काफी नकद रुपया मौजूद था, लेकिन उसे न लगा कि उसे छेड़ा भी गया था। नीलम के भारी जेवर भी वहाँ मौजूद थे।
उसने फुर्ती से कपड़े तब्दील किये और जाकर मेड को जगाया।
“मैं जा रहा हूँ . . .”
“ये टेम?” — वो नींद से भरी आँखें मिचमिचाती हैरानी से बोली।
“हाँ। काम ऐसा है कि नहीं मालूम मैं कब लौट पाऊँगा . . .”
“ओह! मेरे को मैडम का ख़याल रखने का?”
“मैडम घर में नहीं हैं।”
उसके चेहरे पर सख्त हैरानी के भाव आये।
“इसी वजह से जा रहा हूँ . . .”
“ऐट ऑलमोस्ट वन थर्टी . . .”
“पीछे सब ख़याल रखना। काल बैल बजे तो दरवाजा देख कर, सोच समझ कर खोलना। ओके?”
उसने सहमति से सिर हिलाया।
“लैंडलाइन की तरफ खास तवज्जो रखना, अगर बजे तो . . .”
“आई अंडरस्टैण्ड, सर।”
“गुड! दरवाजा बंद कर ले।”
विमल ने बाहर जा कर गैराज से कार निकाली और वहाँ से रुख़सत हुआ।
बाहर गली सुनसान थी।
रात को उधर एक चौकीदार होता था, लेकिन वो चार गलियों का इकलौता चौकीदार था। पता नहीं उस घड़ी वो कहाँ था — कहीं था भी या नहीं।
कथित ट्वेन्टी-फोर-आवर्स टैक्सी स्टैण्ड उसके रास्ते में ही था, वो वहाँ से गुजरा तो उसने स्टैण्ड को भाँ भाँ करता पाया। वहाँ न कोई टैक्सी थी अौर न स्टैण्ड के खोखे में कोई — सोता, जागता — अटेंडेंट था।
सुनसान सड़कों पर कार चलाता वो नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुँचा। कार को पार्किंग में डालकर बुकिंग विंडो से उसने एक प्लेटफार्म टिकट हासिल किया और भीतर दाखिल हुआ। जिस प्लेटफार्म पर उसके कदम पड़े, वो पहला ही था — एक नम्बर — जहाँ कि दफ़्तर, रेस्टोरेंट, वेटिंग रूम्ज जैसे मुकाम भी थे।
उसने करीब से गुजरते एक कुली को रोका और पूछा — “जम्मू-चेन्नई एक्सप्रैस, जो बहुत लेट चल रही है, कहाँ आ के लगेगी?”
“एक नम्बर प्लेटफार्म पर।” — जवाब मिला — “सवा चार पहुँचेगी।”
“एक नम्बर प्लेटफार्म! वो तो यही है न?”
“हाँ।”
“यहाँ सिर्फ महिलाओं के लिये कोई वेटिंग रूम है?”
“है न!”
कुली ने घूम कर एक तरफ इशारा किया।
विमल उस दिशा में बढ़ा तो कुछ ही कदम चलने के बाद उसे एक दरवाजो पर ‘लेडीज वेटिंग रूम’ लिखा एक साइनबोर्ड दिखाई दिया। वो उसके आगे ठिठका। उसने उसके बंद दरवाजे के एक पट को हौले से धकेल कर खोला और व्यग्र भाव से भीतर झांका।
वो भीतर मौजूद थी।
वो यूँ बैठी हुई थी कि दरवाजे की तरफ उसकी पीठ थी, फिर भी फासले से भी नीलम को उसने साफ पहचाना। उसने विशाल वेटिंगरूम में निगाह दौड़ाई तो पाया नीलम के अलावा वहाँ और कोई नहीं था।
उसने भीतर कदम डाला और ख़ामोशी से चलता नीलम के सामने जा खड़ा हुआ।
नीलम ने सिर न उठाया।
वो हौले से खाँसा।
नीलम पर कोई असर न हुआ।
“सत् श्री अकाल, सोहनयो!”
नीलम ने चिहुँक कर सिर उठाया। विमल पर निगाह पड़ते ही उसके नेत्र फैले।
विमल आश्वासनपूर्ण भाव से मुस्कराया।
“तुम!” — नीलम के मुँह से निकला — “यहाँ?”
“हाँ, जी। बुरे के घर तक पहुँचने का तो मुझे पुराना तजुर्बा है, अब भले के घर तक पहुँचना भी सीख लिया।”
“यकीन नहीं आता।” — वो होंठों में बुदबुदाई — “मैंने इतनी एहतियात बरती . . .”
“किसलिये! जिससे जन्म-जन्म का नाता बताती है, उससे इसी जन्म में विमुख हो जाने के लिये?”
“अब . . . क-क्या बोलूँ?”
“मैं बताऊँ?”
वो खामोश रही, उसने बेचैनी से पहलू बदला।
“बोल, ‘दारजी, खड़े क्यों हो, बैठ जाओ’।”
नीलम सकपकाई, फिर खामोशी से वो बैंच पर एक तरफ सरकी।
विमल उसके पहलू में बैठ गया, उसने अपलक उसकी तरफ देखा।
नीलम ने सिर न उठाया।
“मेरी तरफ देख।” — विमल साधिकार बोला।
उसने सप्रयास सिर उठाया।
“कहाँ जा रही थी?”
उसने जवाब न दिया।
“जवाब दे। तैनू वाहे गुरु दी सौं, जवाब दे।”
“प-पता नहीं।”
“पता नहीं! टिकट कहाँ की ली?”
“कहीं की नहीं।”
“क्या!”
“जब पता ही नहीं कहाँ जाना है, तो कहाँ की टिकट लेती!”
“तो जो भी गाड़ी रवाना होती, उस पर सवार हो जाती?”
“हाँ।”
“बिना टिकट?”
वो फिर खामोश हो गयी।
“टिकट सफर में भी बन जाती है। टीटीई बना देता है। ये सोचा?”
“न-नहीं।”
“तो?”
खामोशी।
“लेकिन टिकट बिना . . . दाता! तेरे पास पैसे तो हैं टिकट के लिये?” — विमल ने एक क्षण जवाब का इन्तजार किया, फिर सख़्ती से बोला — जवाब दे!”
उसने इंकार में सिर हिलाया।
“घर में इतना पैसा था। लाना न सूझा?”
“सूझा।”
“तो लाई क्यों नहीं?”
फिर खामोशी।
“विदाउट टिकर सफर! वो भी तेरे तेवरों से लगता है लांग रूट का। अंजाम जानती है?”
उसने जवाब न दिया।
“टीटीई तुझे ट्रेन से उतारता और रेलवे पुलिस के हवाले कर देता। आगे तेरा मुकाम सिविल पुलिस का कोई चौकी थाना होता। और आगे क्या होता ये मालूम है या ये भी मुझे ही बताना पड़ेगा?”
“क्या होता?” — वो तमक कर बोली।
“बुरा होता। बहुत बुरा होता।”
“जो हो चुका, उससे ज्यादा बुरा होता?”
विमल हड़बड़ाया। उसके बोल पाने से पहले एक अधेड़ व्यक्ति हाल में दाखिल हुआ। विमल को देखकर वो लपकता-सा उसके करीब पहुँचा।
“ए!” — वो कर्कश स्वर में बोला — “इधर क्यों बैठे हो? जानते नहीं, ये लेडीज वेटिंग रूम है!”
“भई, ये लेडीज मेरी बीवी है।”
“फिर भी इधर नहीं बैठ सकते। चलो। निकलो।”
“हमने जरूरी, प्राइवेट बात करनी है, थोड़ी देर बैठने दो, फिर . . .”
“नहीं, इजाजत नहीं। इधर सिर्फ लेडीज को इजाजत है।”
“अरे, दो बजे हैं रात के! अब कौन आयेगा यहाँ पर?”
“पता लगता है? ये भी तो आयी हैं!”
“यार, तू तो . . .”
“चलो! उठो!”
“इधर आओ!”
विमल के स्वर में एकाएक ऐसा अधिकार का पुट आया कि उस व्यक्ति से विरोध करते न बना। अनिश्चित सा वो विमल के सामने आकर खड़ा हुआ।
“मैंने थोड़ी देर यहाँ बैठना है।” — विमल एक एक शब्द पर जोर देता बोला — “क्योंकि बहुत जरूरी, बहुत प्राइवेट बात करनी है। इस घड़ी यहां न हमारे सिवाय कोई है, न किसी के आने की उम्मीद है। फिर भी कोई महिला आ गयीं तो उनके चौखट से भीतर कदम रखते ही मैं यहाँ से बाहर निकल जाऊँगा। समझ गया?”
“हँ-हाँ।”
“अब अभी भी तू ने हुज्जत की” — विमल का स्वर एकाएक ऐसा हिंसक हुआ कि वो व्यक्ति घबरा कर एक कदम पीछे रह गया — “तो हुज्जत करने लायक नहीं बचेगा। अब बोल, क्या कहता है?”
“कोई . . . कोई लेडीज आये तो बाहर! ठीक?”
“ठीक!”
“दस मिनट में जरूरी बात कर लो।”
“पन्द्रह।”
“ठीक है, पन्द्रह। पन्द्रह मिनट बाद देखने आऊँगा।”
“आना। हॉल खाली मिलेगा।”
वो चला गया।
“शुक्रिया।” — विमल पीछे से बोला।
वो न घूमा, न रुका।
“क्या ख़याल है” — तल्ख माहौल को नॉर्मल करने की नीयत से विमल नाहक बोला — “आयेगा पन्द्रह मिनट बाद?”
नीलम ने इंकार में सिर हिलाया।
“क्यों?”
“एक क्षण को तुम्हारी आँखों में वो कहर झलका था, जो अन्डरवर्ल्ड में सोहल की शिनाख़्त माना जाता है, जो दुश्मनों के प्राण कँपा देता है।”
“कँपा देता था।”
“शेर शेर ही होता है, भले ही सोया हुआ हो।”
“फिर दुश्मनों के न!”
“हाँ।”
“यहाँ तो कोई दुश्मन नहीं! यहाँ तो या तू है या मैं हूँ!”
“वो तो है!”
“औरत की अस्मत पर हाथ डालने वाले दोस्त तो नहीं कहला सकते!”
“हाँ।”
“वो तो दुश्मन हुए, बैरी हुए जो छुट्टे घूम रहे हैं!”
“हाँ।”
“क्या लिखा था चिट्ठी में?”
“क्या लिखा था?”
“जाके बैरी सम्मुख जीवै, ताके जीवन को धिक्कार।”
“हाँ।”
“तू चाहती है मेरे जीवन को धिक्कार?”
“नहीं।”
“तो बोल, क्या हुआ था?”
वो व्याकुल दिखाई देने लगी, पहलू बदलने लगी।
“तुझे तेरे साईं का वास्ता है। बोल।”
“मेरी फजीहत की कहानी है, जुबान पर नहीं आती।”
“मैं तेरा मर्द हूँ। मर्द औरत में सब साँझा होता है। पति-पत्नी में ऊँच-नीच, घट-बढ़, दुख-सुख सब साँझा होता है। उनमें दुई का भेद नहीं होता। या होता है?”
उसने इंकार में सिर हिलाया।
“तू मेरी अर्धांगिनी है। आधे अंग पर प्रहार हो तो बाकी आधे अंग को कुछ महसूस नहीं होगा?”
“होगा।”
“तो दुराव कैसा? छुपाव कैसा?”
“बोलती हूँ। सुनो।” — उससे अलग होकर नीलम संभल कर बैठी और सिर झुकाये बोली — “मैं सूरज की जरूरत के सामान की ख़रीददारी के लिये मार्केट गयी थी। जब घर से निकली थी तो सूरज कब का डूब चुका था लेकिन माहौल में अभी कदरन रौशनी थी। ख़रीददारी में मुझे पन्द्रह-बीस मिनट लगे थे। वापसी के टाइम तक रात तारी हो चुकी थी। वापसी के रास्ते में एक सड़क पर स्ट्रीट लाइट्स काम नहीं कर रही थीं, इस बात का अहसास जाती बार मुझे नहीं हुआ था। जाती बार वहाँ छोटी मोटी आवाजाही भी थी, लेकिन लौटती बार सड़क का वो हिस्सा बिल्कुल सुनसान पड़ा था। मैंने उस हिस्से में कदम डाला ही था कि एकाएक एक कार वहाँ पहुँची, ब्रेकों की चरचराहट के साथ मेरे करीब रुकी, एक साथ उसके तीन दरवाजे खुले, तीन जने बाहर निकले और उन्होंने मुझे दबोच लिया। मैं उनकी पकड़ में बुरी तरह से झटपटाई, ख़रीददारी के बैग पता ही न लगा कब मेरी पकड़ से निकल गये, चिल्लाने की कोशिश की तो किसी ने मुंह दबोच लिया और फिर उन्होंने मुझे उठाया, पलक झपकते कार में डाला, खुद भी कार में सवार हुए और कार भाग निकली। कार की खिड़कियों पर पर्दे पड़े हुए थे और मैं पिछली सीट पर ऐसी पोजीशन में थी कि बाहर नहीं झाँक सकती थी। कार काफी तेज रफ्तार से दौड़ रही थी और मेरे पास ये जानने का कोई जरिया नहीं था कि वो कहाँ से गुजर रही थी या किधर जा रही थी। फिर . . .”
वो ठिठकी।
“फिर क्या?” — विमल व्यग्र भाव से बोला — “आगे बोल।”
“वो तीनों जंगली जानवरों की तरह मेरे पर टूट पड़े। कार में एक जना और था, वो कार चला रहा था, फिर भी बाज नहीं आ रहा था।”
“वो भी?”
“हाँ। कभी भी एक हाथ बढ़ाता था और मुझे नोचने लगता था। दो बार कार कहीं टकराई — शायद रोड डिवाइडर से — और उलटने से बाल-बाल बची। तब किसी ने घुड़क कर उसको बोला कि वो कार चलाने की तरफ तवज्जो दे, माल में उसका हिस्सा कहीं भागा नहीं जा रहा था।”
“माल!”
“मैं।”
“दाता!”
कुछ क्षण खामोशी रही।
“वो . . . वो तीन दरिन्दे” — फिर नीलम आगे बढ़ी — “इस बात से भड़क रहे थे कि वो तीन थे फिर भी मैं उनके काबू में नहीं आ रही थी। पेश न चलती पायी तो मुझे मारने लगे, गन्दी-गन्दी गालियाँ देने लगे, मेरे कपड़े उघाड़ने लगे। उसी हाथापायी के दौरान कभी पिछली एक खिड़की के पर्दे पर मेरा हाथ पड़ा और वो अपनी जगह से उखड़ गया। तब कभी कभार बाहर की रौशनी कार के भीतर पड़ने लगी, लेकिन वो इतनी वक्ती होती थी कि मैं ठीक से उनमें से किसी की सूरत न देख पायी। फिर तीनों में जैसे कोई समझौता हुआ। उन्होंने मुझे अगली और पिछली सीट के बीच कार के फर्श पर पटक दिया। दो जनों ने मेरे हाथ पाँव जकड़ लिये, तीसरा मेरी छाती पर सवार हो गया और जबरन मेरे कपड़े मेरे जिस्म से अलग करने की कोशिश करने लगा। उस दौरान जो कार चला रहा था, वो गोलीवजना अपनी सलाहें दे रहा था।”
“क-क्या?”
“‘सिगरेट से दागो साली को’। ‘थोबड़ा तोड़ो ऐसा कि एकाध दाँत उखड़ जाये’। ‘मिनरल वाटर की बोतल घुसेड़ दो,’ सीधी हो जायेगी बहन की . . .’।”
विमल अनजाने में दाँत किटकिटाने लगा।
“फिर?” — बड़ी मुश्किल से वो बोल पाया।
“उनकी नयी ताकतआजमाई मेरे पर कामयाब हो भी गयी होती कि तभी बाहर से जोर-जोर से हॉर्न बजने लगा। उनकी मनमानी को तब वक्ती अंकुश लगा तो मैंने तड़प कर हाथ पाँव चलाये तो मेरी छाती पर चढ़ा लड़का परे जाकर गिरा और मेरे हाथ पाँव भी बाकी दो की पकड़ से आजाद हो गये। तब एक बार बिना पर्दे वाली खिड़की से बाहर झाँकने का मौका मुझे मिला तो मुझे बस एक झलक मिली कि उस कार के साथ-साथ एक जीप दौड़ रही थी, जिसमें कई जने सवार थे और वही लगातार हॉर्न बजा रहे थे।”
“चेता रहे होंगे कि वो सब देख रहे थे!”
“ऐसा ही जान पड़ता था।”
“फिर?”
“उस बात से शह पाकर मैं गला फाड़ कर ‘बचाओ बचाओ’ चिल्लाई लेकिन पता नहीं रफ़्तार से दौड़ती बंद कार से बाहर मेरी आवाज पहुँची या न पहुँची। फिर किसी ने मेरे मुँह पर इतनी जोर का घूँसा जड़ा कि मेरी आवाज गले में ही घुट कर रह गयी। फिर कोई बोला जीप वाले कॉल लगा रहे थे। कोई और बोला जरूर पुलिस को लगा रहे थे। तीसरा बोला कि आजकल रात के वक्त पीसीआर वैन सड़कों पर बहुत घूमती थीं, गश्त की ड्यूटी करती पुलिस की ऐसी कोई गाड़ी उनको घेर सकती थी और रुकने पर मजबूर कर सकती थी। जीप अभी भी बगल में दौड़ रही थी, जीप का हॉर्न अभी भी बज रहा था, फिर दूर कहीं सायरन गूँजा।”
“कैसा सायरन?”
“सायरन जैसा सायरन। अब ये पता नहीं कि पीछे कोई पुलिस की गाड़ी थी या एम्बुलेंस थी, लेकिन मेरे आतताइयों पर उसका असर अच्छा हुआ। जरूर ये पकड़े जाने की दहशत का ही नतीजा था कि कार ने एक तीखा मोड़ काटा, उस कोशिश में उसकी रफ़्तार कम हुई तो उन्होंने जबरन मुझे चलती कार से बाहर धकेल दिया और कार हवा हो गयी। मैं सड़क पर जाकर गिरी और कई कलाबाजियाँ खाने के बाद एक खड्ड में जाकर पड़ी। फौरन बाद मैं होश खो बैठी।”
“दाता!”
“होश आया तो मैंने खुद को जीप में पाया। मैंने देखा कि जीप में चार नौजवान सिख लड़के सवार थे और एक मेरे मुँह पर पानी के छींटे मार रहा था। मैंने आँखें खोलीं तो वो मुझे तसल्ली देने लगे कि अब मैं सेफ़ थी और उन्होंने मुझे हस्पताल ले जाने की बाबत बोला। मैंने सख़्त इंकार किया। वो बोले मैं चलती कार में से गिरी थी, मुझे ऐसी चोटें लगी हो सकती थीं जिनकी मुझे अभी ख़बर नहीं थी। मैंने अपनी जिद बरकरार रखी कि मैं हस्पताल नहीं जाना चाहती थी, क्योंकि मुझे नहीं लगता था कि मुझे कोई गंभीर चोट लगी थी। और कहा कि वो मुझे मॉडल टाउन के लिये किसी टैक्सी में सवार करा दें। वो लड़के इतने भले निकले कि मॉडल टाउन उनका रास्ता भी नहीं था, फिर भी मुझे घर पर छोड़ कर गये।”
“कोठी के आगे गेट पर?”
“मेरी जिद पर। वो तो मुझे सहारा देकर भीतर पहुँचाना चाहते थे।”
“ओह! कार में . . . उन बदमाशों ने जो तुझे उठाके ले गये . . . क्या . . . क्या किया?”
“सरदार जी, बात को लम्बा न घसीटो। ऐसा कुछ न किया जो मेरे साथ पहले कभी नहीं हुआ। ये न भूलो कि मैं वही नीलम हूँ जिसे तब मायाराम बावा हिमाचल के मेरे गाँव हरीपुर से भगा कर लाया था, जबकि मैं अभी बालिग भी नहीं थी। हीरोइन बनाने का झाँसा देकर। फिल्मों की हीरोइन तो मैं न बनी, कोई और ही हीरोइन बन गयी। पूरा एक साल उसने मुझे पायदान की तरह इस्तेमाल किया और फिर मुझे लावारिस, बेसहारा छोड़ कर भाग गया। मैं वही नीलम हूँ जिसे ‘कम्पनी’ के बड़े ओहदेदार मुहम्मद सुलेमान ने तुम पर दबाव बनाने के लिये होटल सी-व्यू में मुझे अपनी हवस का शिकार बनाया। मैं वही नीलम हूँ जिसे इनायत दफेदार ने कड़कड़ाती ठण्ड में विंस्टन प्वायंट के एक उजाड़ कमरे में नंगी ठिठुरती इसलिये बंद रखा था क्योंकि मैं उसे सोहल का पता बताने को तैयार नहीं थी . . .”
“बस कर।” — विमल व्याकुल भाव से बोला — बीती बातें मत दोहरा। उन्हें याद भी न कर।”
“तुम्हें याद दिलाने के लिये याद करना जरूरी था कि नीलम एक ऐसी धरती का नाम है जिस पर कोई भी आता है, हल चला कर चला जाता है। नीलम ऐसी दुधारू गाय का नाम है जो जिसके करीब से गुजरती है, उसे दूहने बैठ जाता है। नीलम तो खूँटे से बंधी बकरी है, जिसको जिबह करना हर किसी के लिये सबाब का काम है। शायद ये मेरे पापों की सजा है, जो मुझे मिलती है, मिलती ही रहती है।”
“कोई सजा नहीं, सब संयोग है।”
“सारे संयोग मेरे साथ ही क्यों होते हैं?”
“सब के साथ होते हैं। मैं जिन्दगी का कम सताया हुआ शख़्स हूँ! अपनी दुश्वारियाँ बयान करूँ तो यहीं सवेरा हो जाये। बुरा वक्त सब पर आता है . . .”
“आता है लेकिन नीलम पर आता है तो लंगर डाल कर बैठ जाता है।”
“ख़ामख़याली है। कभी मैं सन्तप्त था, मेरा चित्त चलायमान था तो तब किसी ने प्रवचन के तौर पर जो मुझे कहा था, आज मैं तुझे कहता हूँ। उस महान आत्मा का नाम भोजराज शास्त्री था जिसका कथन था कि दुःख की घड़ी का भी उतनी ही बहादुरी से मुकाबला करना चाहिये जितनी उमंग से आप सुख की घड़ी का भोग करते हैं। जैसे कोई सुख स्थायी नहीं होता, वैसे कोई दुःख भी स्थायी नहीं होता। इसलिये तेरी ये सोच भ्रामक है, मौजूदा विपत्ति का नतीजा है कि तेरे साथ बुरा वक्त आता है तो लंगर डाल कर बैठ जाता है। हर काम के होने का एक वक्त होता है और वो अपने वक्त पर हो कर रहता है। तूने अपने पर आयी इतनी आपदायें गिनाईं, उनमें से किसने तेरी जिन्दगी में लंगर डाल दिया? मायाराम ने तुझे धोखा दिया तो क्या जिन्दगी खत्म हो गयी?”
नीलम का सिर इंकार में हिला।
“लेकिन उसकी जिन्दगी खत्म हो गयी। क्यों खत्म हो गयी? क्योंकि यही खुदाई इंसाफ है जिसमें मैं निमित्त बना। मुहम्मद सुलेमान नाम के वहशी दरिन्दे ने तुझे अपनी हवस का शिकार बनाया तो आखि़र क्या अंजाम हुआ उसका? जिसकी बीवी के साथ उसने मुँह काला किया, उसने उसके हलक से उसके प्राण खींच लिये। इनायत दफेदार ने मुझ तक पहुँचने के लिये तुझे जरिया बनाया, कड़कती ठण्ड में सारी रात तुझे निर्वसन रखा तो दिन चढ़े क्या अंजाम हुआ उसका? मेरी बीवी की आबरू से खिलवाड़ करने वाला चाण्डाल कुत्ते की मौत मरा। ऐसा कोई शख़्स मलेरिया तपेदिक से नहीं मरता, बस के नीचे आने से नहीं मरता, कोई पुल, कोई इमारत उस पर ढेर नहीं हो जाती; वो मरता है अपने कुकर्मों से ठोकर खा के जो उसे अपनी राह में आन पड़े दिखाई नहीं देते। पर नारी पर कुदृष्टि रखने वाले हर जालिम का, हर जाबर का यही हश्र होता है। वो सब तो एक शीश के मानवा हैं, लंकापति रावण गया, बीस भुजा दस शीश। क्यों गया? क्योंकि पर नारी पर कुदृष्टि रखी।”
नीलम ख़ामोश रही।
“अब बोल, जिन्होंने तेरे को अपनी वहशत का शिकार बनाया, वो जिन्दा बचेंगे?”
नीलम के चेहरे पर गहन उत्कण्ठा के भाव आये।
“तुम . . . तुम उनको . . . मारोगे?” — वो बोली।
“कौन किसको मारता है, कमलिये, उनका बुरा वक्त उनको मारेगा।”
“उन के मर जाने से जो मेरी दुरगत उन्होंने की, क्या सच में उसकी तलाफी हो जायेगी?”
विमल ने अपलक उसकी तरफ देखा।
“जिन्होंने मुझे अपवित्र किया, उनका ख़ून मुझे फिर पवित्र कर देगा?”
“तू अपवित्र नहीं है। तू दुनिया की सबसे पवित्र औरत है। तू” — विमल का गला भर्रा आया — “मेरी भार्या है। अर्धांगिनी है। शरीर से आधा अंग अलग हो जाये तो क्या कोई जिन्दा रह सकता है!”
विमल की आँखों से आँसुओं की दो मोटी बूंदे ढुलक पड़ीं।
“अरे, सरदार होके रोते हो!”
“घर चल!”
“घर चलूँ?”
“हाँ। ये शहर, ये मुल्क, ये दुनिया कितना भी बड़ा अत्याचार का डेरा क्यों न हो, हम यहीं रहेंगे और हर विपत्ति का मिलकर मुकाबला करेंगे।”
“मिलकर मुकाबला करेंगे!” — नीलम होंठों में बुदबुदाई।
“याद कर, बखिया के निजाम के दौरान जब मैंने क्लब ट्वेन्टी नाइन पर धावा बोला था, तो कन्धे से कन्धा मिलाये कौन मेरे साथ था?”
“मैं!”
“चर्च गेट के यतीमखाने में जब ‘कम्पनी’ का तब का बिग बॉस व्यास शंकर गजरे अपने प्यादों की फौज के साथ यतीमखाने पर काबिज था और मैं पूरी तरह से उसकी मुट्ठी में था, तो तब किसने एकाएक वहाँ पहुँच कर मेरी जान बचाई थी?”
“मैंने!”
“अभी हाल ही में जब मैं मनोरी-गोरई रोड पर के उजाड़ चर्च में दिल्ली की तिहाड़ जेल से फरार हरनामसिंह गरेवाल के कब्जे में था तो मुझे छुड़ाने की ख़ातिर तू ताबूत में बंद होकर वहाँ पहुँच गयी थी, क्या भूल गयी?”
“न-हीं।”
“तो फिर? तू कोई मामूली औरत है! तू सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल की बीवी है, तू जब चाहे माता भगवती का भवानी वाला रूप अखि़्तयार कर सकती है।”
“मैं तुम्हारे साथ!”
“जरूरत पड़ने पर।”
“जैसी जिन्दगी को पीछे छोड़के आये, वैसी फिर शुरू?”
“जिव तिसु भावे तिवें चलावे जिव होवै फरमानु। बख़्शनहार का जैसा हुक्म होगा, जैसा वो चाहेगा, वैसा चलायेगा।”
“हूँ।”
“तूने हमारी जिन्दगी को अपने ढंग से ढालने की कोशिश करके देख लिया न . . .”
“मैंने?”
“हमने। अब जिन्दगी को वैसे चलने देकर देख जैसी वो प्रारब्ध के हवाले चलती है।”
“अच्छा!”
“हाँ। अब हम घर चल रहे हैं। लेकिन पहले दो बातों का जवाब दे।”
“पूछो।”
“कोमल खुद न आयी, तेरे बुलावे पर आयी?”
“हाँ।”
“इसीलिये अपने मंसूबे पर अमल करने में तू एक दिन लेट हो गयी! सूरज की फिक्र न होती तो सोमवार रात ही वो कदम उठाती जो आज उठाया?”
“घर ही न लौटती।”
“यानी बच्चे की खैर घर लायी, बच्चे के बाप को इस तवज्जो के काबिल न जाना!”
“बच्चा बच्चा है, बाप सामर्थ्यवान है। मैं क्या जानती नहीं मुम्बई में सोहल के मुरीद उसे क्या बोलते हैं।”
“क्या बोलते हैं?”
“पीर पैगम्बरों वाली सलाहियात वाला आदमी। काल पर फतह पाया हुआ मानस। चलता फिरता प्रेत . . .”
‘कमली! ऐसा कोई आदमजात होता है!”
“मेरा मरद होता है। दूसरा सवाल पूछो।”
“जिन चार शैतानों ने तुझे उठाया, उनमें से किसी की सूरत देखी?”
“नहीं देखी। पहले ही बोला।”
“मुझे याद है पहले क्या बोला तूने। अच्छी तरह सोच विचार के जवाब दे। तू कहती है कार की एक खिड़की से पर्दा हट गया था और गाहे बगाहे ट्रैफिक लाइट्स उस खिड़की के रास्ते भीतर चमकती थीं। ऐसा बेशक क्षण भर को होता था, लेकिन ऐसा क्षण कई बार आये तो फिर भी कुछ तो दिखाई दे ही जाता है! अब इस बात को ध्यान में रखकर जवाब दे।”
कई क्षण वो ख़ामोश रही।
“मैं गारन्टी कोई नहीं कर सकती। लेकिन जो लड़का मेरी छाती पर सवार था, उसकी शक्ल मुझे कुछ-कुछ पहचानी-पहचानी लगी थी।”
“किसकी लगी थी?”
“देखो, अगर मुझे पहचान में मुगालता लगा था, तो गरीबमार हो सकती है।”
“नहीं होगी। यकीन कर मेरा। अब नाम ले।”
उसने लिया।
वे वापिस लौटे।
कार की आहट पर ही भीतर की बत्ती जली और मेड ने मेन डोर खोला।
फ्रान ऐसी ही वफादार मेड थी।
विमल की गैरहाजिरी में उसने पलक नहीं झपकी थी।