जगदीप भंडारे जब रत्ना के यहां पहुंचा तो रात का एक बज रहा था। बेल बजने पर रत्ना सोई उठी और दरवाजा खोला। बदन पर गाउन पहन रखा था। नींद से भरा उसका चेहरा सामने वाले को बेईमान कर देने की हिम्मत रखता था।

"तुम, इस वक्त...।" रत्ना ने दरवाजा खोलते ही भंडारे से कहा--- "खैर तो है?"

भंडारे भीतर आया।

रत्ना ने दरवाजा बंद किया। पलटकर बोली---

"तुम्हारे चेहरे से तो सब ठीक नहीं लग रहा।"

"यूं ही, कुछ उखड़ा हुआ हूं।"

दो पलों तक उसे देखने के बाद रत्ना ने कहा---

"खाना खाएगा?"

"खा लिया है।"

"चाय-कॉफी?"

"मन नहीं है। मेरे कपड़े दे। रात यहीं पर रहूंगा।" भंडारे ने कुर्सी पर बैठते हुए कहा।

रत्ना समझ चुकी थी कि भंडारे कुछ परेशान है। उस पर उसने जरा भी ध्यान नहीं दिया था।

भंडारे ने नाइट सूट पहना।

रत्ना उसके सामने कुर्सी पर बैठी और कह उठी---

"अब बता तू परेशान क्यों है?" रत्ना ने उसका हाथ थामा।

भंडारे खामोश रहा।

"आज क्या-क्या किया?"

"कृष्णा पाण्डे, मोहन्ती और जैकब कैंडी से बात की।"

"वो तीनों तैयार हैं काम में आने के लिए?"

"हां। दस करोड़ मिलेगा तो काम क्यों नहीं करेंगे?"

"मोहन्ती को समझा देना कि किसी भी हाल में गुस्से से काम ना ले। तूने बताया था कि एक बार मोहन्ती के गुस्से ने गड़बड़ कर दी थी।"

"वो कहता है इस बार समझदारी से काम लेगा।"

"पर तू किस चिंता में पड़ा है। वागले रमाकांत की चिंता है या अशोक गानोरकर की?"

भंडारे में रत्ना के खूबसूरत चेहरे को देखा फिर कह उठा---

"बाबू भाई देवराज चौहान को इस मामले में लेने को कह रहा है।"

"देवराज चौहान कौन?"

"बहुत बड़ा डकैती मास्टर है। नामी बंदा है। खतरनाक माना जाता है।"

"तुम मिले हो उससे?"

"नहीं, लेकिन नाम बहुत सुना है।"

"बाबू भाई देवराज चौहान को इस काम में लेने को क्यों कह रहा है?" रत्ना गंभीर थी। सोच रही थी।

"बाबू भाई का कहना है कि ये काम बड़ा है। 180 करोड़ का काम है और पैसा वागले रमाकांत और अशोक गानोरकर का है। अगर डकैती असफल रही तो हम सब मारे जाएंगे। सफल रहे तो भी वागले रमाकांत और अशोक गानोरकर पीछे पड़ जाएंगे और अपना पैसा वसूल के हमें खत्म करके ही रहेंगे। ऐसे में देवराज चौहान साथ होगा तो डकैती की सफलता चांसेस ज्यादा हो जाएंगे। वो पहुंची हुई चीज है और कठिन-से-कठिन डकैतियों में भी सफलता हासिल करता है। बाबू भाई कहता है डकैती के बाद जब ये बात खुलेगी कि देवराज चौहान इस मामले में है तो वागले रमाकांत और अशोक गानोरकर सबको भूलकर देवराज चौहान के पीछे पड़ जाएंगे। इस तरह हमें भाग जाने का मौका मिल जाएगा।"

"बाबू भाई सही कहता है।" रत्ना के होंठों से निकला।

"देवराज चौहान बहुत खतरनाक है रत्ना!"

"तो?"

"पहली बात तो ये कि वो दस करोड़ पर नहीं मानने वाला। दूसरी बात है कि मुझे डर है वो सारा पैसा लेकर ना खिसक जाए।"

"बाबू भाई इस बारे में क्या कहता है?"

"वो कहता है देवराज चौहान ऐसी बातों में ईमानदार बंदा है। धोखा नहीं देता।"

"बाबू भाई बेवकूफ तो नहीं जो वो देवराज चौहान को इस मामले में लेने को कह रहा है।"

"बाबू भाई इस काम में हर हाल में सफलता चाहता है। तभी वो देवराज चौहान को ले रहा है।"

"काम सफल रहा तो तुम लोग बच सकते हो। वरना वो लोग पैसा लूटने के दौरान ही तुम सबको खत्म कर देंगे।" रत्ना बोली।

"काम में तो हम सफल ही रहेंगे, परन्तु देवराज चौहान...।"

"तुम कैसे कहते हो कि काम में सफल रहोगे। वहां पर 180 करोड़ नकद पड़ा होगा। उन्होंने सुरक्षा के तगड़े इंतजाम कर रखे होंगे। ये भी हो सकता है तुम लोग पैसे तक भी ना पहुंच सको और वो तुम सबको खत्म कर दें।"

भंडारे ने बेचैनी से रत्ना को देखा।

"मेरे ख्याल में तो इस काम में देवराज चौहान को साथ मिला लेना चाहिए। फायदा तभी है ये काम करने का कि काम में सफलता मिले, वरना जान चली जाएगी। सब कुछ खत्म हो जाएगा हीरो! सबसे पहला काम, काम करके जान बचाने का है। जान ही नहीं रही तो पैसे का क्या करना है। ये काम खतरनाक है।" रत्ना ने गंभीर स्वर में कहा।

"देवराज चौहान का ईमान इतनी बड़ी रकम देखकर बदल सकता है। वो सारी दौलत लेकर भाग गया तो?" भंडारे ने कठोर स्वर में कहा--- "या फिर उसने अपना हिस्सा ज्यादा मांगा तो मेरे हाथ कुछ भी नहीं आएगा। वो बड़ा डकैती मास्टर है। थोड़ी दौलत पर सब्र करने वाला नहीं। वागले रमाकांत से बचते-बचते कहीं देवराज चौहान के हाथ में ना फंस जाएं।"

रत्ना कुछ देर के लिए चुप कर गई।

भंडारे में सिगरेट सुलगाई।

लंबे मिनट ख़ामोशी में बीत गए फिर रत्ना कह उठी---

"हीरो! ये तो पक्की बात है कि इस काम के बाद तुझे मुंबई छोड़कर भागना पड़ेगा। वागले रमाकांत और अशोक गानोरकर पैसा लूटकर तू मुंबई में टिका तो मरेगा। जो इस काम में तेरे साथ होंगे, वो भी मरेंगे। सबको मुंबई छोड़नी पड़ेगी।"

भंडारे ने रत्ना को देखा।

"बोल हीरो, मैंने सही कहा?"

"सही कहा। मेरे दिमाग में है ये बात।" भंडारे ने गंभीर स्वर में कहा।

"तो फिर तेरे पीछे वागले रमाकांत और अशोक गानोरकर के अलावा देवराज चौहान भी पड़ जाए तो क्या फर्क पड़ता है।"

भंडारे की आंखें सिकुड़ी।

"क्या बोली तू...? मैं समझा नहीं?"

"देख हीरो! तू देवराज चौहान को तो इस काम में ले। तबीयत से ले। अगर तेरे को आगे लगे कि वो ज्यादा पैसा मांग रहा है या सारा ही ले भागने की फिराक में है तो ये काम तो कर दे।" रत्ना ने अपनी जाल में लपेटा भंडारे को।

"तेरा मतलब है कि मैं सारा पैसा लेकर...।"

"यही मतलब है मेरा।"

"दिमाग खराब हो गया है तेरा जो ऐसा कह...

"मैं तेरी समस्या हल कर रही हूं। शांत रहकर मेरी बात पर सोच। पाण्डे, मोहन्ती, जैकब कैंडी को दस-दस करोड़ देना है या नहीं, ये तो सोच। मैं तो देवराज चौहान की बात कर रही हूं। साले को झटका दे दे। ऐसे मौके पर झटका दे कि वो कहीं का ना रहे। जैसा कि बाबू भाई कहता है कि वागले रमाकांत को जब पता चलेगा कि डकैती मास्टर देवराज चौहान ने उसके पैसों पर हाथ मारा है तो वो देवराज चौहान के पीछे पड़ जाएगा। देर-सवेर में देवराज चौहान वागले रमाकांत के हाथों में आ जाएगा और मारा जाएगा। ये देवराज चौहान और वागले रमाकांत की लड़ाई होगी और जब तक वो इस झगड़े से निपटेंगे, तू मुंबई से बहुत दूर, मेरी गोद में बैठा आराम कर रहा होगा।"

भंडारे की आंखों में तेज चमक नाच उठी।

"ठीक लगी मेरी बात?"

"बहुत ही शानदार। तूने तो मेरी परेशानी दूर कर दी रानी।" भंडारे हौले से हंस पड़ा।

रत्ना के फेंके जाल में आ फंसा था भंडारे।

"तेरे को अब अपनी योजना तैयार करनी है जिस पर तूने खेल खेलना है। परन्तु पहले देवराज चौहान से बात कर ले। हो सकता है कि वो दस करोड़ पर ही काम करने को राजी हो जाए।" रत्ना ने कहा।

"मैं ऐसा ही करूंगा।"

"पता है तेरे को देवराज चौहान किधर मिलेगा?"

"कल इस बारे में बाबू भाई कुछ बताएगा।"

"बढ़िया है। अभी तू मन साफ रख के बात कर देवराज चौहान से। देख तो क्या बात होती है। क्या पता वो तैयार भी होता है इस काम के लिए या नहीं होता। शांत रहकर चल।"

"बाबू भाई ने योजना बना ली?"

"अभी योजना नहीं बन सकती।"

"ऐसा क्यों?"

"बलवीर सैनी अभी नहीं बता पा रहा कि दौलत पहुंचने के दौरान वहां पहरेदारी के क्या इंतजाम होंगे। ऐसे में योजना बना पाना संभव नहीं। सैनी एक या दो दिन पहले ही ये बात बता पाएगा। बाबू भाई कहता है कि उसे वक्त मिल जाएगा योजना बनाने का। तब तक डकैती की बाकी सारी तैयारी कर ली जाएगी, नोट डालने के लिए बड़ी वैन का इंतजाम करना है जिनमें पैसा डालकर भागा जाएगा। टाइम टू टाइम दो या तीन गाड़ियां चोरी की जाएंगी, जिन्हें काम में इस्तेमाल किया जाएगा। आने वाले दिनों में व्यस्तता बढ़ जाएगी। मैं इस काम में हर हाल में सफल होकर, इस काम को अपना आखिरी काम बना देना चाहता हूं और बाकी की जिंदगी मैं तेरे साथ आराम से बिताऊंगा।" आखिरी शब्दों में भंडारे मुस्कुरा पड़ा।

परन्तु रत्ना गम्भीर थी। वो बोली---

"मुझे बताना मत भूलना कि अब तक की कमाई दौलत तूने कहां रखी है। भगवान ना करे, अगर तेरे को कुछ हो गया तो मैं उस दौलत के सहारे अपनी जिंदगी को बिता लूंगी। लेकिन मेरा दिल कहता है कि तुझे कुछ होगा नहीं।"

■■■

अगले दिन ग्यारह बजे जगदीप भंडारे, बाबू भाई के फ्लैट पर पहुंचा।

बाबू भाई उसके इंतजार में ही था। सुबह फोन पर बात हुई थी।

"जैकब कैंडी से बात हुई या नहीं?" बाबू भाई ने पूछा।

"हो गई। मोहन्ती से भी हो गई।" भंडारे ने कहा--- "सैनी से कोई खबर आई?"

"अभी नहीं।"

"अब हमें गाड़ियों का इंतजाम करना है, जिन्हें काम के दौरान इस्तेमाल करना है। कोई बड़ी वैन चाहिए हमें, जिसमें एक सौ अस्सी करोड़ के नोटों को डाला जा सके। परन्तु हमें ये तो अभी तक पता नहीं कि नोट किसमें रखे होंगे। ट्रंकों में या थैलों में?"

"बड़े वाले थैलों में।" बाबू भाई बोला--- "ये सरकारी पैसा नहीं है जो ट्रंकों में रखा जाए। गाड़ियों के इंतजाम के बारे में बाद में बात करेंगे। पहले देवराज चौहान से तुम्हें बात कर लेनी चाहिए।"

भंडारे ने बेचैनी से बाबू भाई को देखा।

"इस काम में देवराज चौहान को लेना जरूरी है?" भंडारे कह उठा।

"मेरी नजरों में जरूरी है। उसके बीच में आते ही हम पर से मुसीबतें हटकर उसे घेर लेंगी।"

"यकीन मानो, मैं सारा काम ठीक से निपटा लूंगा।"

"जानता हूं परन्तु देवराज चौहान का साथ हमें मिल गया तो, सबकुछ बढ़िया हो जाएगा।"

"तुम देवराज चौहान पर फिदा हो।" भंडारे ने नाराजगी से कहा।

"ये बड़ा काम है और वागले रमाकांत, अशोक गानोरकर जैसे लोगों से वास्ता रखता है। तुमने देवराज चौहान को ये नहीं बताना है कि पैसा वागले रमाकांत या अशोक गानोरकर का है। हो सकता है ये सुनकर वो काम में दिलचस्पी ना ले।"

"तो?"

"उसे कुछ भी नहीं बताना है। जैसे दूसरों से बात की है, वैसे ही बात करनी है।"

"तुम्हारा मतलब कि वो दस करोड़ पर मान जाएगा?"

"पता नहीं। तुम बात करके तो देखो।"

"वो डकैती मास्टर देवराज चौहान है। उसे ज्यादा खाने की आदत है। वो आधा भी मांग सकता है।"

"उससे बात करो। अपने विचारों के दम पर फैसला मत करो।"

"मैं तो उसे पहचानता भी नहीं।"

"वो मिलेगा तो पहचान लेना। टेबल पर कागज रखा है, उठा लो। उस पर दो मोबाइल नंबर लिखे हैं। ऊपर वाला नंबर देवराज चौहान का है और नीचे वाला नंबर उसके खास साथी जगमोहन का है।"

"जगमोहन से बात करने की क्या जरूरत है?"

"किसी से भी बात करो। एक ही बात है। दोनों एक साथ ही रहते हैं।" बाबू भाई ने कहा।

भंडारे ने टेबल पर रखा कागज हाथ बढ़ाकर उठा लिया।

उस पर लिखे नंबरों को देखा। फिर बाबू भाई से कहा---

"अगर मैं देवराज चौहान को इस काम में न लूं तो तब तुम क्या रुख करोगे?"

"तुमने हमेशा मेरी योजना मानी है और ज्यादातर कामों में सफलता मिली है। पन्द्रह सालों से अभी तक तुम ये नहीं जाने कि बाबू भाई की बात के पीछे भी बात होती है। मैं हर तरफ सोचकर चलता हूं...।"

"लेकिन...।"

"मुझे इस बात की चिंता नहीं है कि डकैती सफल होती है या नहीं। मुझे चिंता है कि तुम सब लोग जिंदा रहो और पैसा हमारे हाथ में आ जाए। बेशक देवराज चौहान को आधा देना पड़े। तब भी हम फायदे में रहेंगे। आधा नब्बे करोड़ हमारे हिस्से में आएगा जिसमें से तीस करोड़ दूसरों को देकर भी 60 करोड़ हमारे पास बचता है। ये एक बहुत बड़ी रकम है। काम के बाद हमें नोटों को लेकर मुंबई से दूर जाने का मौका मिल जाएगा क्योंकि वागले रमाकांत को जल्दी ही पता चल जाएगा कि ये काम देवराज चौहान ने किया है और वो देवराज चौहान के पीछे पड़ जाएगा। देवराज चौहान से निपटकर वागले रमाकांत की निगाह जब हमारी तलाश में उठेगी तो तब तक हम कहीं दूर पहुंचकर इस प्रकार छिप चुके होंगे कि वो हमें कभी भी ढूंढ नहीं पाएगा।"

भंडारे बाबू भाई को देखता रहा।

"देवराज चौहान की वजह से हम पक्के सफल होंगे और हमें भाग जाने का भी वक्त मिल जाएगा। वो करामाती ढंग से डकैती डालता है। उसके काम करने के ढंग का जवाब नहीं है। मैंने हमेशा उसके कारनामों पर नजर रखी है भंडारे! मेरी प्लानिंग कभी भी गलत नहीं होती। इस काम में देवराज चौहान को लेना जरूरी है।"

"ठीक है।" भंडारे ने शांत भाव से कहा--- "मैं तुम्हारी बात मानूंगा। तुम गलत प्लानिंग करने वाले नहीं।"

"देवराज चौहान को फोन करो।" बाबू भाई बोला।

"तुम उससे बात नहीं करोगे?"

"तुम करो। क्योंकि तुमने ही उससे मिलना है। मिलने पर तुम्हारी आवाज वो पहचान लेगा। ये ठीक रहेगा।"

भंडारे ने फोन निकाला और कागज पर लिखा देवराज चौहान का नंबर मिलाने लगा।

■■■

देवराज चौहान बंगले के बैडरूम में गहरी नींद में था।

जगमोहन कुछ देर पहले ही उठा था और हाथ-मुंह धोकर कॉफी बनाकर अखबार पढ़ने बैठ गया था। सुबह चार बजे वे दस दिनों बाद अहमदाबाद से लौटे थे। अश्विन पटेल ने वहां दिमाग खराब कर दिया था। परन्तु मन में राहत थी कि उसका साढ़े छः करोड़ ज्यादा ले आए हैं। अब तो कलप रहा होगा साला पटेल। शाम साढ़े छः बजे कार पर से मुंबई रवाना हो गए थे और सुबह चार बजे मुंबई पहुंचे।

जगमोहन ने कॉफी समाप्त की ही थी कि देवराज चौहान का फोन बजने की आवाज उठी।

जगमोहन तुरन्त उठा और बैडरूम की तरफ बढ़ गया। वो नहीं चाहता था कि देवराज चौहान की नींद खराब हो। जब उसने कमरे में प्रवेश किया तो तभी देवराज चौहान को हिलते और फोन उठाते देखा।

लेटे-ही-लेटे देवराज चौहान ने मोबाइल कान से लगाया।

"हैलो...।"

"देवराज चौहान?" दूसरी तरफ से भंडारे की आवाज आई।

"तुम कौन हो?"

"मेरा नाम जगदीप भंडारे है। मैं अंडरवर्ल्ड से वास्ता रखता हूं। एक काम में मुझे तुम्हारी सहायता की जरूरत है। ज्यादा-से-ज्यादा आधे दिन का काम होगा और तुम्हें दस करोड़ मिल जाएगा।"

देवराज चौहान ने आंखें खोली तो जगमोहन को खड़ा देखकर कह उठा---

"तुम बात करो।" फोन जगमोहन की तरफ बढ़ाया।

"कौन है?"

"बात कर लो।"

जगमोहन ने फोन थामा और कमरे से बाहर आ गया।

देवराज चौहान पुनः सोने की चेष्टा करने लगा।

"कहो...।" जगमोहन फोन पर बोला।

"तुम कौन हो?"

"जगमोहन। तुम्हारा नाम क्या है?"

"जगदीप भंडारे। मैं देवराज चौहान से बात करना चाहता हूं। पहले कौन मुझसे बात कर रहा था?"

"देवराज चौहान...।"

"मुझे देवराज चौहान से बात करनी है। उससे मेरी बात कराओ।"

"वो नींद में है। तुमसे मैं ही बात करूंगा। ये नंबर तुम्हें कहां से मिला?"

"बहुत मुश्किल से हासिल किया है।"

"कहां से?"

"कहीं से भी ले लिया। तुम्हें क्यों बताऊं। देवराज चौहान से मेरी बात...।"

"बात मेरे से ही होगी। या तो बात कर या फोन बंद कर दे।" जगमोहन ने सख्त स्वर में कहा।

"ठीक है। इसमें नाराज होने वाली क्या बात है। एक काम में मुझे देवराज चौहान की सहायता की जरूरत है।"

"देवराज चौहान मुफ्त में किसी की सहायता नहीं करता।"

"नोट मिलेंगे। आधे दिन का काम है और दस करोड़ देवराज चौहान को मिल जाएगा।"

जगमोहन फौरन सतर्क हो गया।

आधे दिन का काम और मिलेगा दस करोड़?"

वक्त के हिसाब से रकम ज्यादा थी।

"काम क्या है?" जगमोहन ने पूछा।

"ये उसी दिन बताया जाएगा जब काम करना है।"

"साले तू हमें चूतिया समझता है।" जगमोहन तीखे स्वर में बोला।

"क्या मतलब?" भंडारे की अजीब-सी आवाज आई।

"एक तरफ से तू कहता है सहायता की जरूरत है। दूसरी तरफ से तू नवाब बनकर बात कर रहा है। अकल तो ठीक है तेरी।"

"मैंने क्या गलत कह दिया?"

"काम के दिन तू कहेगा जलते कुएं में छलांग लगा दूं तो क्या देवराज चौहान छलांग लगा देगा।"

"मेरा ये मतलब नहीं...।"

"तेरा मतलब गया भाड़ में। सीधी स्पष्ट बात कर। हम पहले काम के बारे में जानते हैं। सारा मामला जानते हैं। उसके बाद ही काम करते हैं। वैसे भी हम बाहर के काम नहीं करते। अपने ही काम करते हैं।"

"मेरा तो छोटा-सा काम है और दस करोड़...।"

"सारा मामला बता, तभी सोचूंगा कि काम होगा या नहीं?"

"तुम सोचोगे?"

"तो मेरे दिमाग में नहीं है क्या? मैं नहीं सोच सकता।"

"मेरा मतलब कि फैसला तो देवराज चौहान लेगा। वो तुम्हारा बड़ा है।"

"बड़ा होगा तेरे लिए। यहां सारे फैसले मेरे ही इशारे पर चलते हैं।" जगमोहन ने उखड़े स्वर में कहा।

"अभी मैं काम नहीं बता सकता।"

"तो बात खत्म कर...।"

"सोच ले। आधा दिन और दस करोड़।" भंडारे की आवाज आई।

जवाब में जगमोहन ने फोन बंद कर दिया। टेबल पर रखते बड़बड़ा उठा।

"पता नहीं कहां से ये पागल लोग नंबर घुमा देते हैं।"

■■■

भंडारे ने फोन कान से हटाकर बाबू भाई से कहा---

"जगमोहन से बात हुई। सुनी होगी तूने...।"

"क्या कहता है?"

"पहले पूरा मामला जानना चाहता है। उसके बाद हां या ना करेगा।"

बाबू भाई ने गहरी सांस ली और सिर हिलाकर बोला---

"मेरा भी कुछ ऐसा ही ख्याल था कि वो ये बात कह सकते हैं।"

"देवराज चौहान को छोड़ो, हम ही ये काम निपटा लेंगे।"

"नहीं भंडारे! देवराज चौहान को साथ में लेना जरूरी है। वो हमारे काम की, हमारे हालातों की जरूरत है। ये बड़ा मामला है और अंडरवर्ल्ड किंग से वास्ता रखता है। देवराज चौहान का हमारे साथ हो जाना ठीक है।"

"दस करोड़ की बात सुनकर भी वो ढीला नहीं पड़ा।"

"ये क्यों भूल जाता है कि वो डकैती मास्टर देवराज चौहान और जगमोहन हैं। पैसा उनके पास भी बहुत होगा।"

"जगमोहन तो मुझे पागल-सा लगा। सनकी, अकड़ू...।"

बाबू भाई जवाब में मुस्कुराकर रह गया।

"हम बात करेंगे देवराज चौहान से...।"

"क्या बात?"

"उसे मामला बताकर साथ में लेंगे।"

"क्या?" भंडारे की आंखें सिकुड़ी--- "तुम सारा मामला देवराज चौहान को बताने वाले हो।"

"क्या हर्ज है।"

"सबकुछ जानकर वो हमें गोली मारकर एक तरफ फेंक देगा और खुद ही एक सौ अस्सी करोड़ पर...।"

"ऐसा नहीं होगा। देवराज चौहान ऐसा नहीं है।"

"वो अगर ऐसा हो गया तो?"

"मेरी बात पर भरोसा करके तो देख...।"

"तुम पागल होने लगे हो बाबू भाई, वो देवराज चौहान हमें खत्म करके खुद इस मामले को संभाल लेगा।"

"चुप हो जा भंडारे! मेरी बात सुन। देवराज चौहान और जगमोहन को हम वागले रमाकांत और अशोक गानोरकर के नाम नहीं बताएंगे। रसूख वाले कोई और नाम बताएंगे। ताकि वो पीछे ना हटें। हमें थोड़ा-सा चालाकी से काम लेना होगा। मैं कोशिश करूंगा कि वरसोवा वाले उस ठिकाने के बारे में भी बताने की जरूरत ना पड़े, जहां पैसा गानोरकर पहुंचाएगा। उन्हें उतना ही बताया जाएगा कि काम चल जाए। उन्हें अपने काम में मिलाना भी, अपने प्लान का हिस्सा है। इसका फायदा हमें आगे जाकर मिलेगा। तुम नंबर मिलाओ और उनसे क्या बात करनी है, सुन लो...।"

बाबू भाई ने भंडारे को समझाया।

भंडारे ने पुनः देवराज चौहान का नंबर मिलाया। दूसरी तरफ बेल गई।

"हैलो।" जगमोहन की आवाज को भंडारे ने पहचाना।

"मैं भंडारे, मैंने अभी-अभी तुमसे बात की थी।" भंडारे शांत स्वर में बोला।

"तुमने फिर फोन कर दिया।"

"तुम जो जानना चाहते हो मैं बताने को तैयार...।"

"छोटे कामों में हमारी दिलचस्पी नहीं है, तुम...।"

"ये बड़ा काम है।"

"कितने का?"

भंडारे पल भर के लिए हिचकिचाया। बाबू भाई को देखा फिर कह उठा---

"एक सौ अस्सी करोड़ का।"

"कितना?"

"एक सौ अस्सी करोड़ का।"

"तेरे को पता है एक सौ अस्सी करोड़ कितना होता है या यूं ही बोले जा रहा है।"

"लगता है तुम्हें यकीन नहीं आ रहा।" भंडारे ने गहरी सांस ली।

"मुझे इस बात का यकीन नहीं आ रहा कि कोई बेवकूफ इतनी बड़ी दौलत तक कैसे पहुंच सकता है।"

"हम देवराज चौहान को भी अपने साथ मिलाना चाहते हैं, ताकि वो भी बेवकूफ बन जाए।"

"ये डकैती होगी?"

"हां।"

"दौलत किस रूप में है?"

"नकद...।"

"सत्यानाश। इतनी बड़ी दौलत, वो भी नकद, कोई कन्धे पर भी उठा नहीं सकेगा। पूरा मामला क्या है?"

"सारी बात फोन पर ही करोगे क्या?"

"तो?"

"मैं तुम्हारे पास आ जाता हूं। जगह बोलो, कहां हो तुम?"

"यहां तो हम दो के लिए ही जगह है। तंगी में रह रहे हैं। एक ही बैड पर दोनों को सोना पड़ता है। तुम नहीं यहां बैठ सकते।"

"तो कहां मिलोगे?"

"दो घंटे बाद फोन करना।"

"देवराज चौहान को भी साथ लाना?"

"जहां मैं हूं समझो देवराज चौहान भी वहां है। पहले मुझे तो मामला समझ में आए। दो घंटे बाद फोन करना।" इसके साथ ही उधर से जगमोहन ने फोन बंद कर दिया था।

भंडारे ने कान से मोबाइल हटाया और बाबू भाई से बोला---

"दो घंटे बाद फोन करने को कह रहा है। मेरे ख्याल में वो इस बारे में देवराज चौहान से बात करेगा।"

बाबू भाई ने सिर हिलाकर कहा।

"मैं तुम्हारे साथ चलूंगा। तुम शायद उनसे ना निपट सको। वो देवराज चौहान और जगमोहन जैसे शातिर हैं।"

"जाने क्यों मेरा दिल नहीं मान रहा देवराज चौहान को इस मामले में लेने से। अभी भी सोच लो कि...।"

"चुप रहो।" बाबू भाई ने शांत स्वर में कहा--- "हमें इस काम में सफल होना है, वरना सब मारे जाएंगे। सफल होने के लिए मैं देवराज चौहान को आधी दौलत भी देने को तैयार हूं।"

"तुम बहुत ज्यादा उन्हें देने को तैयार हो।"

"खतरा भी तो उन्हीं का होगा। वागले रमाकांत तब देवराज चौहान के पीछे पड़ेगा, हमारे नहीं...।"

"क्या गारण्टी है कि देवराज चौहान इस डकैती को सफल बना देगा।"

"गारण्टी की बात मैं नहीं करता, परन्तु आशा है कि देवराज चौहान काम निपटाता चला जाएगा। ऐसे कामों में वो माहिर है। ये हमारा आखिरी काम होगा, क्योंकि वागले रमाकांत और अशोक गानोरकर से पंगा लेकर अंडरवर्ल्ड में नहीं रहा जा सकता। तुम्हें ये बात पहले ही सोचकर रखनी चाहिए कि काम के बाद किस तरह भागना है। मैं बहत्तर साल का हो गया हूं। अब मैं भी आराम करूंगा। जिंदगी में बहुत भागदौड़ कर ली है।"

"डकैती के दौरान हम मारे भी जा सकते हैं।" भंडारे ने गंभीर स्वर में कहा।

"सम्भव है। ये भी हो सकता है।" बाबू भाई उसे देखकर सिर हिलाने लगा।

■■■

देवराज चौहान में कॉफी का घूंट भरा कि जगमोहन भी कॉफी का प्याला लेकर आ गया। अभी सोकर ही उठा था देवराज चौहान। सिर के बाल बिखरे हुए थे। आंखों पर पानी की छींटे मार आया था और जगमोहन ने देर नहीं की थी कॉफी बनाने में कि देवराज चौहान से 180 करोड़ की बात कर सके। पास बैठता जगमोहन बोला।

"फोन करने वाला अपना नाम भंडारे बताता है।" जगमोहन ने कहा--- "वो कहता है 180 करोड़ का मामला है। कहीं पर कैश रकम पड़ी है और उस पर हाथ डालना है।"

"और...।"

"वो मिलकर बात करने को कह रहा है। हमें उसकी बात सुन लेनी चाहिए।"

"पैसा कहां पड़ा है?"

"ये बातें तो मिलकर ही होंगी। मैंने उसे दो घंटे बाद फोन करने को कहा है।

"वो नए रंगरूट ना हो। बेकार की बातें ना कर रहा हो।"

"वो जो भी था घिसा हुआ बंदा लगा मुझे। नया नहीं था। जिस तरह की बात कर रहा था, वैसी बात नया बंदा नहीं कर सकता। पहले उसने दस करोड़ की ऑफर दी थी साथ में काम करने को। पूरा मामला बताने को तैयार नहीं था। मैंने मना करके फोन बंद कर दिया तो अगले फोन पर वो तैयार हो गया सब कुछ बताने को।"

"इसका मतलब मामले में दम है।" देवराज चौहान ने सोच भरे स्वर में कहा--- "उसने पहले कोशिश की कि हम दस करोड़ में उसके लिए काम में शामिल हो जाएं। हमारा इंकार होने पर उसे लगा कि हमें अपने काम में लेना जरूरी है, इसलिए वो सबकुछ बताने को तैयार हो गया। 180 करोड़ की दौलत पर हाथ मारना आसान भी तो नहीं। खतरा तगड़ा होगा।"

"तो मिला जाए उससे?"

"तुम मिलो। देखो वो क्या कहता है। उसकी सुनने के बाद ही सोचेंगे।" देवराज चौहान बोला--- "वो हमें दस करोड़ ऑफर करके काम में ले रहा था तो स्पष्ट है कि उसने योजना बना रखी होगी कि काम कैसे करना है।"

"उनकी योजना की भी पड़ताल करनी होगी।"

"पहले उनकी सुनना, वो क्या कहता है।"

"वो अकेला नहीं होगा।"

देवराज चौहान ने जगमोहन को देखा। कॉफी का घूंट भरा।

"तुमने ठीक कहा। वो अकेला नहीं होगा। जो काम में हमें लेने की चेष्टा में है, तो स्पष्ट है कि उसने अपनी पूरी तैयारी कर ली है या करने को है। सब सोच-समझ रखा है। साथी भी तैयार कर रखे होंगे। परन्तु किसी वजह से उसे लगा कि इस काम में हमारा होना जरूरी है तो उसने हमसे संपर्क किया। यकीनन वो ज्यादा लोग होंगे।"

"उनकी योजना बेकार भी हो सकती है।"

"पता चल जाएगा। पहले सारा मामला जान लो। 180 करोड़ की रकम बहुत बड़ी होती है।"

"तुम्हारा फोन नंबर उन्हें कहां से मिला?"

"ये बड़ी बात नहीं है। फोन नंबर कहीं से लिया जा सकता है। ये उनके संबंधों पर निर्भर है।" देवराज चौहान ने कहा--- "तुम्हें उनसे मिलना है। ये जानना है कि वो क्या करने का इरादा रखते हैं, उसके बाद ही हम कुछ सोचेंगे कि हमें क्या करना है।"

सही वक्त पर, दो घंटे बाद फिर फोन बजने लगा।

जगमोहन में बात की।

"हैलो...।"

"मैं भंडारे...।"

"आवाज पहचान ली है। बोल...।"

"हमें कहीं मुलाकात करनी चाहिए। ताकि हम खुलकर बात कर सकें।" उधर से भंडारे ने कहा।

"कहां मिलता है?"

"यहीं आ जाओ। ये सोसाइटी का एक फ्लैट है। मेरे साथी का है।"

"उसी साथी का, जो इस काम में तुम्हारे साथ है?" जगमोहन ने पूछा।

"हां।"

"पता बोलो...।"

उधर से भंडारे ने पता बताया।

"तुम दो ही वहां होंगे। जब मैं उधर आऊंगा।"

"हां। देवराज चौहान नहीं आएगा साथ में क्या?" भंडारे ने उधर से पूछा।

"तुम्हारा काम मेरे से ही चल जाएगा। देखूं तो सही कि तुम लोग कितने पानी में हो।"

■■■

जगमोहन, बाबू भाई के फ्लैट पर पहुंचा।

बाबू भाई और भंडारे उसके इंतजार में पल-पल गिन रहे थे।

दरवाजा खुला था। जगमोहन दरवाजे पर खड़ा हो गया। सामने ही दोनों बैठे थे।

"भंडारे कौन है?"

भंडारे ने जगमोहन की आवाज पहचानी और उठता हुआ बोला---

"आओ-आओ। मैं ही हूं।"

जगमोहन आगे बढ़ा।

भंडारे ने उससे हाथ मिलाया।

जगमोहन की निगाह बाबू भाई पर जा ठहरी।

"ये बाबू भाई सोनावाला है। मेरा साथी...।"

"मैं तो समझा था कि ये तुम्हारा बाप है।" जगमोहन का स्वर शांत था।

"ये मेरे बाप जैसा ही है। मैं इनकी बहुत इज्जत करता हूं।"

"तुम दोनों के अलावा यहां और कौन है?" जगमोहन ने वहां नजरें दौड़ाते हुए कहा।

"कोई नहीं...।"

"मैं देखकर आता हूं।"

जगमोहन ने पूरे फ्लैट का फेरा लगाया फिर वापस आ गया।

तब तक भंडारे ने दरवाजा बंद कर लिया था।

जगमोहन बैठता हुआ बाबू भाई को देखकर कह उठा---

"एक सौ अस्सी करोड़ की डकैती को कह रहे हो और बूढ़े लोगों को साथ में लेकर चल रहे हो। इसी से मैं समझ सकता हूं कि तुम्हारे काम में कितना दम होगा। ये बेकार का काम होगा।"

"मैं प्लानर का काम करता हूं। फील्ड में काम नहीं करता।" बाबू भाई बोला।

"तो काम करने वाले अलग हैं और प्लान करने वाले अलग। ऐसे काम कैसे होता होगा।" जगमोहन बोला।

"पन्द्रह सालों से हो रहा है।" बाबू भाई मुस्कुराया--- "दस में से एक काम में ही असफल होते हैं। बाकी पूरे होते हैं।"

"एक सौ अस्सी करोड़ का मामला भी तुम ही प्लान कर रहे हो?"

"हां...। सालों से मैं यही काम कर रहा हूं। कभी मार नहीं खाई...।"

"ये तो अच्छी बात है।"

"देवराज चौहान भी तुम्हारे साथ आता तो बहुत अच्छा रहता।"

"उसकी तुम फिक्र मत करो। काम की बात करो। मैं सुनने आया हूं कि तुम लोग क्या बात करने वाले हो। बाबू भाई सोनावाला नाम है तुम्हारा। नाम नहीं सुना कभी। कहो, बात शुरू करो...।"

"क्या तुम और देवराज चौहान हमारे साथ काम करने को तैयार हो?"

"ये तो सारी बात सुनने के बाद ही कुछ कह सकूंगा।"

"मान लो बात सुनने के बाद तुम्हें मामला नहीं जंचा तो तब क्या होगा?"

"मैं चला जाऊंगा।"

"परन्तु हमारी बात, हमारी योजना तो बाहर चली गई।" बाबू भाई ने गम्भीर स्वर में कहा।

"समझो नहीं गई। मुझे बताई गई बात मुझ तक ही रहेगी।" तभी भंडारे कह उठा---

"बाद में तुम लोग भी तो 180 करोड़ पर हाथ मारने का प्लान कर सकते हो।"

"ऐसी बेईमानी हम नहीं करते।" जगमोहन मुस्कुराया--- "आज तक तो नहीं की। अगर ऐसी बातें ही करनी थीं तो मुझे बुलाया क्यों? ये सब बातें तो विश्वास पर होती हैं। ये मत भूलो कि इस वक्त तुम मुझसे और देवराज चौहान से बात कर रहे हो। जिस मामले में देवराज चौहान आ जाता है, वहां धोखेबाजी खत्म हो जाती है।"

बाबू भाई मुस्कुराया।

भंडारे ने बाबू भाई को देखा।

"मुझे देवराज चौहान पर भरोसा है। उसके बारे में मैं काफी कुछ जानता हूं, तभी तो देवराज चौहान को साथ में लेने की सोची। आज से पहले कभी ऐसा नहीं हुआ कि हमें किसी नामी शख्सियत को साथ लेना पड़ा। मैं योजना बनाता और भंडारे मेरी योजना पर काम करता। जरूरत के मुताबिक लोगों को इकट्ठे कर लेता। परन्तु इस बार बड़ी रकम का मामला 180 करोड़ का सवाल है और मैं इस काम में हर कीमत पर सफल होना चाहता हूं इसलिए देवराज चौहान की तरफ ध्यान गया।" बाबू भाई ने कहा।

"मेहरबानी।" जगमोहन ने शांत स्वर में कहा।

"क्या लोगे? चाय-कॉफी या...।"

"कुछ नहीं। तुम काम की बात शुरू करो। मैं अपने कई काम छोड़कर आया हूं।" जगमोहन बोला।

बाबू भाई ने सिर हिलाया फिर कह उठा।

"कहां से बात शुरू करूं... मैं...।"

"इस तरह शुरू करो कि मुझे कम-से-कम सवाल पूछने पड़ें और बात मेरी समझ में आ जाए।"

"विक्रम मदावत मुंबई का तगड़ा बिजनेसमैन है। मुंबई में बहुत धंधे चलते हैं इसके और एक्सपर्ट का भी काम है, लेकिन इसका असर धंधा हथियारों को सप्लाई करना है। हथियारों का दलाल है और खासकर आतंकी गुटों को ये हथियार सप्लाई करता है। दो-तीन महीने पहले इसने श्रीलंका के एक संगठन से हथियार लेकर पाकिस्तान के एक संगठन को हथियार सप्लाई किए। विक्रम मदावत का पहले का पैसा भी पाकिस्तान के संगठन के पास था। ऐसे में विक्रम मदावत कुल मिलाकर 180 करोड़ का लेनदार बन गया और पाकिस्तान का संगठन हवाला के जरिए मुंबई में विक्रम मदावत को 180 करोड़ की दौलत देने जा रहा है।"

"ये बात तुम्हें पता चल गई?"

"हां। मेरे अपने खबरी अंडरवर्ल्ड में मौजूद रहते हैं जो नोट लेकर मुझे खबर देते हैं।"

"हवाला व्यापारी कौन है?"

"अशोक गानोरकर...।"

जगमोहन ने सिर हिलाया।

भंडारे शांत बैठा था बीच में।

"तो अब तुम उसी 180 करोड़ पर हाथ डालने की सोच रहे हो, जो अशोक गानोरकर, विक्रम मदावत को देने वाला है। क्या तुम्हें ये पता है कि उनका लेन-देन कहां होगा?"

"पता है।"

"दिन और समय भी पता है?"

"नहीं पता। परन्तु मेरा खबरी एक या दो दिन पहले ये बात मुझे बता देगा।"

"इसमें खतरा भी होगा। मौके पर उनके लोग होंगे।" जगमोहन बोला।

"हां...।" बाबू भाई ने सहमति से सिर हिलाया।

"कहां पर लेन-देन होगा?"

"ये बात अभी रहने दो। मत पूछो। इससे पहले कई मुद्दे हमारे सामने पड़े हैं। जिन पर बात होनी चाहिए।"

जगमोहन के चेहरे पर गंभीरता थी।

बाबू भाई की निगाह जगमोहन पर थी।

"ये काम करना तुम्हें पसंद आएगा?"

"काम किया जा सकता है। हथियारों के व्यापारी की दौलत पर हाथ मारकर मुझे खुशी होगी।" जगमोहन ने कहा।

"देवराज चौहान तैयार होगा?"

"हां। इस काम में उसे भी कोई परहेज नहीं होगा।"

"देवराज चौहान से पूछोगे नहीं?"

"ये तुम्हारी सिरदर्दी नहीं है। तुमने इस काम की प्लानिंग क्या की है?"

"अभी तो कुछ नहीं। जरूरी सामान की तैयारी की जा रही है। तीन लोगों को इस काम में साथ लिया है। उन्हें दस-दस करोड़ दिया जाएगा। जब दिन और वक्त का हमें पता चलेगा तो योजना बनाऊंगा। शायद तब ये भी पता चल जाए कि दौलत पर सुरक्षा के क्या-क्या इंतजाम होंगे।" बाबू भाई ने कहा।

"जिन लोगों को इस काम में लिया है, वो पुरानी पहचान के हैं या नए हैं?"

"पुरानी पहचान के हैं।"

"तैयारी में क्या-क्या किया है?"

"वो अब शुरू होने जा रही है। हमें मिनी बस जैसी गाड़ी की जरूरत है जिसे एंबुलेंस का रूप दिया जाएगा और उसकी सीटें उखाड़ दी जाएंगी ताकि दौलत जिस रूप में भी हो, उसे रखने में कोई परेशानी ना हो। मेरी खास पहचान वाला गैराज वाला है ये काम वो कर देगा। काम के वक्त हमें दो-तीन कारों की जरूरत पड़ेगी, उन्हें चोरी करके इस्तेमाल किया जाएगा और काम के फौरन बाद उन्हें छोड़ दिया जाएगा। हथियार हमारे पास हैं। वक्त पर सबको बांट दिए जाएंगे।"

"तुम्हारा क्या ख्याल है, इस काम में लाशें बिछेंगी?" जगमोहन ने पूछा।

"जो दौलत की रखवाली पर होंगे, उन्हें तो मारना ही पड़ेगा।"

"ये बात देवराज चौहान नहीं मानेगा।"

"क्या मतलब?"

"दौलत पाने के लिए देवराज चौहान ने आज तक किसी को नहीं मारा और मारेगा भी नहीं...।"

"तुम्हारा मतलब कि देवराज चौहान ने आज तक किसी की हत्या नहीं की?" भंडारे कह उठा।

"की। बहुत की। बहुतों को मारा। गिनती भी नहीं होगी। परन्तु दौलत पाने के लिए किसी को नहीं मारा। इसके अलावा ढेरों मामले खड़े हो जाते हैं, जिनमें जान लिए बिना काम नहीं चलता।" जगमोहन शांत स्वर में बोला।

"विश्वास नहीं होता तुम्हारी बात पर।"

"कर ले भरोसा, ये सही है।"

"तुम्हारा मतलब कि 180 करोड़ पाने के चक्कर में देवराज चौहान किसी की जान नहीं लेगा?"

"नहीं।"

"फिर काम कैसे होगा?"

"ये तो योजना पर निर्भर है। ये हमारी पहली डकैती तो है नहीं कि तुम हमें समझाओ।"

भंडारे ने बाबू भाई से कहा---

"सुना तुमने। ये कहता है कि देवराज चौहान डकैती के दौरान किसी की जान नहीं लेगा।"

"असंभव-सा लगता है।" बाबू भाई ने कहा।

"सबकुछ संभव है कि तुम ऐसी योजना बनाओ कि किसी की जान नहीं जाए।"

बाबू भाई जगमोहन को देखने लगा।

"काम दिन में करना है या रात में?"

"अभी पता नहीं।"

"पता करो, फिर योजना बनाओ। तब...।"

"मैं ऐसी योजना नहीं बना सकता कि कोई भी ना मरे। वहां गोलियां तो चलानी ही पड़ेंगी। वो कोई शरीफ लोग तो होंगे नहीं। हथियारों के व्यापारी से वास्ता रखने वाले लोगों को शूट करने में क्या हर्ज है?" बाबू भाई बोला।

"तो तुम बिना खून-खराबे वाली योजना नहीं बना सकते?"

"नहीं। मुझे ऐसा संभव नहीं लगता।"

"तो योजना बनाने का काम हम पर छोड़ दो।"

बाबू भाई ने भंडारे को देखा।

"इसमें तुम्हें कोई एतराज?"

"इसके लिए तुम लोगों को वो जगह बतानी होगी जहां पैसों का लेन-देन होगा।"

"वो तो बतानी ही पड़ेगी। हम वो जगह देखेंगे। उसी हिसाब से योजना बनाएंगे। किस दिन होगा ये काम?"

"दस दिन तक।"

"काफी वक्त पड़ा है। तुम सोच लो। अगर तुम बिना खून-खराबे की योजना बना सकते हो तो बना लो। नहीं तो हमें बता देना, हम बना लेंगे। तब तक बाकी तैयारी कर लो।" जगमोहन ने कहा।

"सोचना पड़ेगा।"

"बेशक सोचो। फोन नंबर तुम्हारे पास है ही। जरूरत समझो तो फोन कर लेना, नहीं तो बात खत्म।" जगमोहन उठ खड़ा हुआ।

"मान लो, देवराज चौहान काम करता है तो वो क्या हिस्सा लेगा?" भंडारे बोला।

"अभी ये तय नहीं हुआ कि देवराज चौहान ये काम करेगा या नहीं। दौलत पाने के लिए देवराज चौहान खून-खराबा नहीं करता। वो तो खामोशी से माल को निकाल ले जाने में विश्वास रखता है। सबकुछ इस पर निर्भर है कि बाबू भाई योजना हमारी पसंद की बना पाता है या नहीं। या फिर योजना बनाने का मौका हमें देता है। 180 करोड़ की दौलत बड़ी होती है। मेरी इसमें दिलचस्पी है, परन्तु अपनी शर्तों पर। हम अपने ढंग से काम करते हैं और काम भी हमारी पसंद का होता है। शायद ये पहली बार होगा, अगर इस तरह हम तुम्हारे साथ काम करेंगे।"

"ठीक है।" बाबू भाई ने गम्भीर स्वर में कहा--- "मैं सारी बातों पर एक बार फिर से गौर करूंगा।"

"करो और जरूरत महसूस हो तो फोन कर देना।" कहने के साथ ही जगमोहन बाहर निकलता चला गया।

भंडारे ने आगे बढ़कर दरवाजा बंद किया और वापस आ बैठा।

चंद क्षणों तक दोनों के बीच खामोशी रही।

"कर ली बात देवराज चौहान से।" भंडारे ने शांत स्वर में खामोशी तोड़ी--- "सुने जगमोहन के विचार।"

बाबू भाई चुप रहा।

"मैंने तो ये नई बात सुनी है कि 180 करोड़ की डकैती हो और खून-खराबा ना हो।" भंडारे पुनः बोला।

"देवराज चौहान द्वारा की गई डकैतियों में ऐसा ही होता है।" बाबू भाई ने कहा।

"तुम्हें पता है?"

"हां। मैंने ये बात खासतौर से नोट की है। देवराज चौहान के कामों की मैं हमेशा खबर रखता हूं।"

"ये कैसे संभव हो सकता है कि डकैतियों मे खून-खराबा ना हो।"

"देवराज चौहान की डकैतियों में ये संभव हो जाता है भंडारे...!"

"हैरानी है। दस लाख भी लूटने हों तो आजकल गोली चलानी पड़ती है।"

बाबू भाई चुप रहा।

"मेरी मान तो देवराज चौहान का ख्याल छोड़ दे बाबू भाई! हम ऐसे ही ठीक हैं।"

"इस काम में देवराज चौहान को लेना जरूरी है।"

"ऐसा भी क्या जो...।"

"हमारी औकात से बड़ा है ये काम। तेरे को नजर नहीं आ रहा। मेरे को दिख रहा है।"

"लेकिन देवराज चौहान से हमारा मामला कैसे पटेगा?"

"देखते हैं। सैनी को कोई खबर दे लेने दे, उसके बाद देखेंगे कि मैं योजना बनाता हूं या देवराज चौहान।"

"मतलब कि देवराज चौहान इस काम में जरूर होगा?"

"कितनी बार पूछेगा।"

भंडारे कंधे उचकाकर रह गया।

"तू तैयारी की तरफ ध्यान दे।" बाबू भाई ने कहा--- "अंधेरी में मयूर ट्रैवल्स है। काफी मशहूर है। वहां जाकर किसी से भी पूछेगा तो पता चल जाएगा। मयूर ट्रेवल्स के पास मिनी बसें हैं। छोटी बसें, बीस सीटर। अपने काम के लिए, दौलत डालने के लिए हमें वैसी ही किसी गाड़ी की जरूरत है। वहां से मिनी बस उठा और शिंदे के गैराज पर पहुंचा दे। ये काम तू नहीं करना, इसके लिए जैकब कैंडी का इस्तेमाल करना। वो ऐसे कामों में एक्सपर्ट है। शिंदे को कहना कि मिनी बस को बाहर से एंबुलेंस में बदल दे और उस पर नीली बत्ती लगा दे, जैसे कि एंबुलेंस में लगी होती है। आगे-पीछे हर तरफ एंबुलेंस लिखा हो और भीतर से सीटें उखाड़ दे। शीशों पर काली फिल्में लगा दे। नंबर प्लेट बदल दे। कहना कि जब सारे काम कर दे तो बाबू भाई को फोन करना। मैं देखकर आऊंगा कि कोई कमी तो नहीं रह गई।"

भंडारे ने सिर हिलाया और फोन निकालकर कैंडी का नंबर मिलाया। बात हुई।

"किधर है?" भंडारे ने पूछा।

"काम बोल...।"

"मेरे को अंधेरी में मिल। वहां मामूली-सा काम करना है बताऊंगा। आधे घंटे में वहां पहुंचेगा क्या?"

"एक घंटे में। इधर से अंधेरी पहुंचने में टैम लगता है।"

"मिलते हैं।" भंडारे में कहकर फोन बंद किया--- "और क्या करना है?"

"मैं चाहता हूं कि अम्बे पेपर एजेंसी पर नजर रखी जाए।" बाबू भाई बोला।

"ये कैसे हो सकता है। वो व्यवसायिक बिल्डिंग है। अम्बे पेपर एजेंसी का ऑफिस चौथी मंजिल पर है। दिन भर में हजार से ज्यादा लोग उस इमारत में जाते और इतने ही बाहर निकलते हैं। नजर कैसे रखी जाएगी।"

बाबू भाई ने भंडारे को देखा, फिर कह उठा---

"सोचूंगा इस बारे में...।"

भंडारे उठा और शांत स्वर में कह उठा---

"ये भी सोचना कि हम ये मामला संभाल सकते हैं। देवराज चौहान की जरूरत नहीं है हमें।"

बाबू भाई ने तीखी निगाहों से भंडारे को देखकर कहा।

"वो मेरा रिश्तेदार नहीं लगता जो उसे इस मामले में ले रहा हूं। उसका हमारे साथ इस मामले पर काम करना हमारी बेहतरी के लिए ही है। हमारा ही भला है, अगर वो हमारे साथ काम करे।"

"बदले में वो करोड़ों के नोट ले जाएगा।"

"सफलता भी तो मिलेगी। मारे तो नहीं जाएंगे। इस बड़े काम को देवराज चौहान ही संभाले तो ठीक है। मैं तो चाहता हूं कि उसे आगे करके उससे काम लो, ताकि वागले रमाकांत की निगाहों में वही आए।"

"तुमने जगमोहन से झूठ बोला। वागले रमाकांत का नाम ना बताकर, विक्रम मदावत का नाम ले लिया। उसे अगर पता चल गया कि तुमने झूठ बोला है तो वो तुम्हारा सिर तोड़ देगा।" भंडारे ने उसे घूरा।

"मैंने बात ही इस ढंग से की है कि उसे शक नहीं हो सकता। इस बात पर मामला बिगड़ा तो मैं संभाल लूंगा। तुम अपने कामों की तरफ ध्यान दो। अंधेरी में मिनी बस उठाकर शिंदे के गैराज पर पहुंचाओ।"

भंडारे बाहर निकल गया।

बाबू भाई ने बलबीर सैनी को फोन किया।

"कोई खबर दे सैनी...।"

"परेशान क्यों होते हो बाबू भाई! खबर मिलते ही खबर दे दूंगा।" बलबीर सैनी की आवाज कानों में पड़ी।

"यहां पर सारे काम रुके पड़े हैं। दिन, वक्त और सुरक्षा के बारे में मालूम ना होने पर हमारे हाथ बंधे हैं।"

"मैं इसी काम पर लगा हूं, मुझे भी आगे से खबर लेनी होती है फिर अभी तो काफी दिन पड़े हैं।"

"जल्दी खबर देने की कोशिश करना।" बाबू भाई ने कहा और फोन बंद कर दिया।

■■■

भंडारे रात नौ बजे रत्ना के पास पहुंचा।

"बहुत लंबी उम्र है तेरी। तेरे बारे में ही सोच रही थी।" रत्ना ने मुस्कुराकर कहा।

"क्या?"

"यही कि मेरा हीरो क्या कर रहा होगा। सुबह से एक फोन भी नहीं किया।"

"तू कर लेती।"

"सोचा तो था, फिर सोचा कि तू व्यस्त होगा। क्यों परेशान करूं तेरे को।" रत्ना ने कहा--- "खाना तो खाएगा ना?"

"हां।"

"तैयार ही है, थोड़ा-सा काम बचा है, तब तक तू पैग तैयार कर ले।"

"तू भी लेगी।" भंडारे अलमारी की तरफ बढ़ता कह उठा।

"नहीं। आज दिन में क्या-क्या किया है?"

भंडारे ने सबकुछ बताया।

"तो मिनी बस मयूर ट्रैवल्स से उड़ाकर शिंदे के गैराज में पहुंचा दी।"

"हां। चार-पांच दिन में वो हमारी पसंद के हिसाब से एंबुलेंस के रूप में तैयार हो जाएगी।"

भंडारे किचन से गिलास लाया और व्हिस्की डालने लगा।

"देवराज चौहान और जगमोहन हत्थे नहीं चढ़े?"

"बात हुई है। आगे देखो क्या होता है। मैं तो इस पक्ष में नहीं कि उन्हें साथ लिया जाए।"

"बाबू भाई बेवकूफ है क्या?" रत्ना बोली।

"नहीं तो...।" भंडारे ने रत्ना को देखा।

"तो वो कुछ सोचकर देवराज चौहान को इस मामले में ले रहा है। पहले तो उसने ऐसा कभी नहीं किया कि किसी को लिया हो।"

"बाबू भाई कहता है कि ये काम बड़ा है। इसलिए देवराज चौहान को ले रहा है।"

"प्लानिंग के मामले में बाबू भाई समझदार है। वो जो करता है उसे करने दे। गलत नहीं करेगा। पर ये बात जगमोहन की मुझे अजीब लगी कि देवराज चौहान डकैतियों के दौरान खून-खराबा नहीं करता।"

"बाबू भाई कहता है कि देवराज चौहान इसी तरह डकैतियां करता है।"

"फिर तो वो कमाल का है।

"परन्तु 180 करोड़ की डकैती में ऐसा नहीं होगा।" भंडारे ने घूंट भरा--- "ये वागले रमाकांत से वास्ता रखता मामला है। सुरक्षा के तगड़े इंतजाम होंगे। उस दौलत को पाना है तो खून-खराबा होगा।"

"देवराज चौहान तो नहीं जानता कि इस मामले में वागले रमाकांत का दखल है। वो तो किसी विक्रम मदावत के बारे में सोचता है।"

"जैसा बाबू भाई ने बताया, वो वैसा ही तो सोचेगा।"

"बाद में देवराज चौहान को सच पता चला तो?" रत्ना बोली।

"तो बाबू भाई कह देगा कि उस तक जो खबर आई, वो ही उसने बताई थी।" भंडारे मुस्कुराया।

"तो अभी तक योजना नहीं बन सकी हीरो...।"

"नहीं, योजना बनाने लायक जानकारी अभी तक हाथ नहीं लगी।"

"वो तो सैनी ने कहा ही है एक-दो दिन पहले तक सारी जानकारी दे देगा।" रत्ना ने सोच भरे स्वर में कहा--- "उसे भी तो कहीं से जानकारी इकट्ठी करनी पड़ती होगी।"

"देवराज चौहान को बीच में लेकर बाबू भाई ने ठीक नहीं किया।"

"तेरे को बोला था मैंने कि उसे देवराज चौहान को लेने दे। तू आराम से काम कर और देवराज चौहान को झटका देने के लिए अपनी योजना तैयार कर ले, अगर ठीक समझे तो...। इस बार दौलत में से उनके हिस्से की कोई बात नहीं हुई तो अगली बार ये बात होगी। पहले देख तो ले कि वो क्या मांगते हैं। शायद दस-बीस करोड़ में निपट जाए। कुछ करना ही ना पड़े।"

"वो डकैती मास्टर देवराज चौहान है। दस-बीस करोड़ में चुप नहीं बैठेगा। 180 करोड़ का मामला है।"

"अभी देख, आगे क्या होता है।"

■■■

अगले दिन भंडारे नाश्ता करके रत्ना के घर से निकल गया।

रत्ना ने दरवाजा बंद किया और वापस कमरे में आकर टेबल पर से मोबाइल उठाया। चेहरे पर सोच के भाव उठ रहे थे। वो बेहद शांत लग रही थी। फिर उसने नंबर मिलाया और फोन कान से लगा लिया।

दूसरी तरफ बेल गई, फिर सदाशिव की आवाज कानों में पड़ी।

"हैलो...।"

"कैसा है हीरो?"

"ओह, रत्ना तुम?"

"तूने कॉल रिसीव करने से पहले फोन पर आया मेरा नंबर नहीं देखा क्या?" रत्ना मुस्कुराकर कह उठी।

"नहीं, यूं ही कॉल रिसीव कर ली। तू सुना कैसी है?"

"एकदम फिट।"

"कई दिन से तू मिली नहीं। ऐसा मत किया कर। मेरा दिल नहीं लगता।"

"तेरा दिल हमेशा लगाए रखूं, उसी के चक्कर में तो हूं।"

"अभी आऊं क्या?" कानों में पड़ने वाली सदाशिव की आवाज में बेसब्री थी।

"नहीं। यहां आने की गलती मत करना।"

"तू आ जा...।"

"जल्दबाजी करके खेल मत बिगाड़। तू सबकुछ जानता है कि क्या चल रहा है इधर...।"

"मुझे सिर्फ तेरे से मतलब है।"

"वही इंतजाम कर रही हूं कि हम दोनों इकट्ठे रह सकें। तू मुझे बहुत प्यारा लगता है हीरो...।"

"तो छोड़ भंडारे को, वो...।" उधर से सदाशिव ने मुंह बनाकर कहा।

"उसे तो छोड़ा हुआ ही है। नोट मिल जाएं तो हमारी जिंदगी बढ़िया कटेगी।"

"चल क्या रहा है?"

"इस काम में वो सफल नहीं होने वाला। वागले रमाकांत के नोटों पर हाथ डालकर कोई जिंदा नहीं रह सकता। तू ये बात अपने दिमाग से निकाल दे कि भंडारे सफल हो जाएगा।" उधर से युवक का दृढ़ स्वर कानों में पड़ा।

"मैं जानती हूं वो मरेगा।"

"तो फिर तू किन नोटों के चक्कर में है?"

"भंडारे के पास बहुत माल है। करोड़ों की दौलत है। बीस-तीस करोड़ तो होगा ही। जब 180 करोड़ की डकैती करने जाएगा तो मुझे बताकर जाएगा कि वो दौलत कहां पर पड़ी है। वो वापस नहीं आने वाला हीरो! वागले रमाकांत और अशोक गानोरकर के आदमी उसे और उसके साथियों को खड़े पांव भून देंगे। भंडारे की दौलत जिंदगी भर हमारा साथ देगी।"

"बहुत लंबा प्लान है तेरा।"

"लेकिन जानदार प्लान है। भंडारे की दौलत से हमारी जिंदगी मजेदार बन जाएगी।"

"देखते हैं।"

"एक नई बात बताऊं तेरे को।"

"बोल।"

"डकैती मास्टर देवराज चौहान का नाम सुना है?"

उधर से सदाशिव अचकचाकर बोला--- "इस मामले में इसका क्या काम?"

"बाबू भाई इस काम में उसे भी अपने साथ मिला रहा है।" रत्ना फोन पर धीमे स्वर में बात कर रही थी।

"नहीं...।"

"सुनकर मजा आया ना?"

"ये देवराज चौहान तो बहुत खतरनाक है। सुनकर हैरानी हुई कि ये भी इस काम में है।"

"ये भी मरेगा।"

"तू कहे तो ये सारी बात किसी तरह वागले रमाकांत के कानों तक पहुंचा दूं कि...?"

"कभी नहीं। हमें कुछ नहीं करना है। हमारे हक में जो होना है, वो अपने आप होता चला जाएगा।" रत्ना बोली।

"जैसी तेरी मर्जी। एक बार मिल लेना मेरे से।"

"वक्त बदलने वाला है, फिर हमने एक साथ रहना है।" रत्ना मुस्कुरा पड़ी--- "तू और मैं, मैं और तू।"

दूसरी तरफ से सदाशिव के गहरी सांस लेने की आवाज आई।

"भंडारे आता-जाता है तेरे पास?" उधर से युवक ने पूछा।

"हां...।"

"तू उसके साथ सोती है?"

"कभी-कभी। वैसे आजकल तो वो अपने ही काम में उलझा हुआ है।"

"तू उसके साथ मत सोया कर।" उधर से सदाशिव ने नाराजगी से कहा--- "मुझे अच्छा नहीं लगता।"

"चिंता मत कर। दो-चार बार में घिस थोड़े ना जाऊंगी। तेरे लिए एकदम फिट हूं।"

"फिर भी ध्यान रख। जो बात मेरे को अच्छी नहीं लगती, उसका ध्यान रख।"

"मेरा हीरो कितनी प्यारी बातें करता है।" रत्ना हंसी।

"नोटों की जरूरत है। हाथ तंग चल रहा है।"

"दोपहर को पिज़्ज़ा डिलीवरी ब्वॉय बनकर आना और नोट ले जाना।"

"एक घंटा तेरे पास रुक भी जाऊंगा और...।"

"बेवकूफों वाली बातें मत कर हीरो। ऊपर से भंडारे आ गया तो सारा खेल बिगड़ जाएगा।" रत्ना सख्त स्वर में कह उठी।

"ठीक है। तू तो तड़पा-तड़पाकर ही मारेगी। रहम नहीं आता तुझे मुझ पर। एक बात सुन मेरी।"

"बोल...।"

"अगर हमारे पास बीस-तीस करोड़ आ गया तो हम फिल्म बनाएंगे।"

"कभी नहीं। मैं पैसा बर्बाद नहीं करूंगी।

"बात समझा कर रत्ना। मैं घर से मुंबई हीरो बनने आया था और यहां पिज्जा डिलीवर करना पड़ रहा है। एक बार फिल्म में हीरो बनकर आ गया तो सब ठीक हो जाएगा। फिल्म हिट हो जाएगी और...।"

"और तू मुझे छोड़कर किसी और हीरोइन का हाथ पकड़ लेगा।" रत्ना कड़वे स्वर में बोली।

"तू ऐसा क्यों सोचती...।"

"कान खोल कर सुन ले सदाशिव। हम कोई फिल्म नहीं बनाएंगे। फिल्मों को तू भूल जा। ये हमारी दुनिया नहीं है। मैं पैसा खराब नहीं करूंगी। हम दोनों शादी करके प्यार से एक साथ रहेंगे। तू मेरा ध्यान रखना, मैं तेरा ध्यान रखूंगी। मैं शांत और प्यारी जिंदगी चाहती हूं। मेरे जैसी लड़की तुझे कहीं नहीं मिलेगी जो खूबसूरत भी हो और तुझे बिठाकर खिलाए। तू भी मुझे जंचता है। फिल्मों का भूत अपने दिमाग से उतार दे। नहीं तो मैं तुझे छोड़ दूंगी। ये बात हममें पहले भी हो चुकी है।"

"ऐसा क्यों कहती है। तू क्या किसी फिल्मी हीरोइन से कम है जो...।"

"बातें बंद। दोपहर को पिज्जा लाने के बहाने आना और पैसे ले जाना। कितना पैसा तैयार रखूं?"

"पचास हजार।"

"आजकल तेरे खर्चे ज्यादा होते जा रहे हैं हीरो...।"

"बहुत महंगाई हो गई है। अभी नए कपड़े सिलाने हैं और...।"

"ठीक है-ठीक है, ले जाना।" रत्ना ने कहा और फोन बंद कर दिया। चेहरे पर मुस्कान आ ठहरी थी।

■■■

तीन दिन बाद!

देवराज चौहान बाहर जाने के लिए तैयार हुआ। दिन के ग्यारह बज रहे थे। जबकि जगमोहन का बाहर जाने का कोई इरादा नहीं लग रहा था। जगमोहन ने पूछा---

"कहां जा रहे हो?"

"विक्की भाटिया के पास। अमदाबाद जाने से पहले उसके दो फोन आए थे। वो कह रहा था कि उसे कुछ काम है।"

"फोन किया उसे?"

"हां। बात हो गई है। बारह बजे वो मेरा इंतजार करेगा अपने ऑफिस में।"

देवराज चौहान कार पर बंगले से बाहर निकला।

तभी एक तरफ खड़ी कार स्टार्ट हुई और फासला रखकर देवराज चौहान की कार के पीछे लग गई।

ये देवराज चौहान की लापरवाही ही थी कि पीछे लगी कार का उसे पता ना चल सका। दो मिनट में ही उसकी कार मुख्य सड़क पर पहुंच गई, ऐसे में पीछे लगी कार को पहचान पाना उसके लिए असंभव हो गया था। सड़क पर भारी भीड़ थी। वाहनों की कतारें ही नजर आ रही थीं। हार्न और गाड़ियों का शोर।

भीड़ में देवराज चौहान की कार सामान्य रफ्तार से बढ़ रही थी।

आधे घंटे बाद देवराज चौहान की कार ऐसी सड़क पर पहुंची जहां कम भीड़ थी। तभी पीछे लगी कार ने रफ्तार पकड़ी और उसकी कार को ओवरटेक करके, उसके सामने रुकती चली गई।

देवराज चौहान को भी ब्रेक लगाने पड़े। परन्तु वो सतर्क हो गया था। सीट के नीचे हाथ डालकर रिवाल्वर निकाल ली थी। देखते-ही-देखते सामने वाली कार के दरवाजे खुले और तीन आदमी बाहर निकले। चौथा ड्राइविंग सीट पर बैठा रहा था। तीनों उसकी कार के पास आ पहुंचे। एक ने दरवाजा खोला और भीतर बैठने लगा।

देवराज चौहान ने रिवाल्वर आगे कर दी।

दोनों की नजरें मिलीं।

तब तक पीछे का दरवाजा भी खोला जा चुका था और एक पीछे वाली सीट पर आ बैठा था, फिर दूसरा भी पीछे वाली सीट पर आ बैठा। देवराज चौहान ने दरवाजा खोले खड़े व्यक्ति को देखा।

"रिवाल्वर पीछे कर लो देवराज चौहान!" दरवाजा खोले खड़े व्यक्ति ने शांत स्वर में कहा।

देवराज चौहान भारी तौर पर उलझन में फंस गया था कि ये क्या हो रहा है।

तभी पीछे की सीट पर बैठे एक ने रिवॉल्वर निकालकर देवराज चौहान के सिर से लगा दी।

"कौन हो तुम लोग?"

"अभी तक तो दोस्त ही हैं जो गोली नहीं चला रहे।" दरवाजा खोले खड़े व्यक्ति ने मुस्कुरा कर कहा और उसके हाथ से रिवाल्वर लेने के लिए हाथ बढ़ाया--- "रिवाल्वर मुझे दे दो, नहीं तो गोली भी चल सकती है।"

ऐसी स्थिति में झगड़ा करने का कोई फायदा नहीं था।

देवराज चौहान ने रिवाल्वर से पकड़ ढीली की और रिवाल्वर उस व्यक्ति ने ली और आगे वाली सीट पर बैठकर कार का दरवाजा बंद कर दिया। इतने में पीछे वाहनों की भीड़ इकट्ठा हो गई थी। हार्न बज रहे थे।

देवराज चौहान के सिर से लगी रिवाल्वर हटा ली गई।

तभी आगे खड़ी कार आगे बढ़ गई।

"चलो।" बगल में बैठे व्यक्ति ने शांत स्वर में कहा--- "उस कार के पीछे चलो।"

"तुम कौन?"

"पहले यहां से तो चलो।" देवराज चौहान ने होंठ भींचे कार आगे बढ़ा दी।

पीछे रुका ट्रैफिक फिर चल पड़ा।

पीछे की सीट पर बैठे दो में से एक व्यक्ति कह उठा।

"दो दिन से तुमने हमें लटका रखा था देवराज चौहान!"

"क्या मतलब?"

"परसों से हम तुम्हारे बाहर निकलने का इंतजार कर रहे हैं। हमें ऑर्डर था कि तुम्हारे बाहर निकलने तक इंतजार किया जाए। तभी तुम पर हाथ डाला जाए। दो दिन का इंतजार बहुत लंबा होता है। तुम डकैती मास्टर देवराज चौहान ही हो ना?"

देवराज चौहान को खतरा महसूस होने लगा कि मामला गम्भीर है।

"किसके कहने पर तुम लोग मुझे...?"

"तू देवराज चौहान ही है ना?"

"हां...।"

"बड़ी आसानी से हमारे हाथों पर चढ़ गया। हमने तो सोचा था कि तुझे पकड़ने में बहुत पापड़ बेलने पड़ेंगे।"

देवराज चौहान के होंठ सिकुड़े।

"कौन हो तुम लोग?"

"पता चल जाएगा।"

"मेरे ठिकाने का तुम लोगों को कैसे पता चला?" देवराज चौहान ने पूछा।

"हमें बताया गया।"

"किसने?"

"पता चल जाएगा।"

देवराज चौहान को लगा कि अब उसे ठिकाना बदल लेना चाहिए। वो दूसरों की नजरों में आ गया है।

"आगे देख, वो कार दाईं तरफ मुड़ रही है। उसके पीछे जाना है तुमने।"

देवराज चौहान का चेहरा अब कठोर होने लगा था। वो जानता था कि इस तरह कार में बैठे इन लोगों से नहीं निपट सकता। तीनों ही खतरनाक लग रहे थे।

"आखिर तुम लोग चाहते क्या हो?"

"तुम्हें कहीं पर ले जाने का हुक्म हुआ है। वहीं ले जा रहे हैं। आगे जो कार चला रहा है उसने खबर आगे दे दी है कि डकैती मास्टर देवराज चौहान को लाया जा रहा है। जल्दी ही तुम्हारे सवालों का जवाब मिल जाएगा।"

"तुम लोग ठीक नहीं कर...।"

"ध्यान से कार चला। हम ठीक कर रहे हैं। अभी तेरा दिमाग ठिकाने पर आ जाएगा।"

आधे घंटे बाद कार एक छः मंजिला इमारत में प्रवेश कर गई। बाहर से देखने पर इमारत शांत-सी लग रही थी, परन्तु भीतर कुछ भी शांत नहीं था। इमारत के नीचे की जगह पार्किंग के लिए इस्तेमाल होती थी। वहां पच्चीस-तीस कारें खड़ी थीं। उनकी कार भी वहां जा रुकी। देवराज चौहान ने इंजन बंद कर दिया।

"शराफत से बाहर आ। कोई चालाकी मत करना।"

कार के दरवाजे खुले सब बाहर निकले।

देवराज चौहान की निगाह हर तरफ घूम रही थी। पहरा देते कई गनमैन दिखे उसे।

तभी उस कार को चलाने वाला आ गया, जिसके पीछे वो यहां तक पहुंचे थे। वो पचास बरस का चुस्त-सा व्यक्ति था। उसने गहरी निगाहों से देवराज चौहान को देखकर कहा---

"परेशान तो नहीं किया इसने?"

"नहीं। ये तो शरीफ आदमी है।"

"तलाशी लो...।"

देवराज चौहान की तलाशी में कुछ नहीं मिला।

"एक रिवाल्वर थी इसके पास, वो पहले ही ले ली।"

"तुम मेरे साथ आओ देवराज चौहान!" उस व्यक्ति ने कहा और एक तरफ बढ़ गया।

देवराज चौहान उसके साथ चल पड़ा।

वो तीनों वहीं खड़े रह गए थे।

"तुम कौन हो?"

"मैं बंसल हूं।"

"मुझे इस तरह क्यों पकड़ा गया है।" देवराज चौहान ने सख्त स्वर में कह--- "कौन हो तुम लोग?"

"हम किसी को बिना वजह नहीं पकड़ते।"

"तुम लोग हो कौन?"

"पांच मिनट में तुम्हें इस बात का जवाब मिल जाएगा।" बंसल ने कहा और वे एक लिफ्ट के पास जा पहुंचे।

लिफ्ट के पास एक गनमैन खड़ा था।

बंसल ने एक बटन दबाया तो लिफ्ट के दरवाजे खुल गए।

"आओ।" कहते हुए बंसल लिफ्ट में प्रवेश कर गया।

देवराज चौहान ने भी भीतर प्रवेश किया।

बंसल ने तीसरी मंजिल के लिए बटन दबाया तो दरवाजे बंद होते ही लिफ्ट ऊपर को बढ़ गई।

"इस वक्त मैं आसानी से तुम्हारी गर्दन तोड़ सकता हूं।" देवराज चौहान ने उसे घूरा।

बंसल मुस्कुराया।

"मेरी बात पर दांत फाड़ने की क्या जरूरत है।" देवराज चौहान के दांत भिंच गए।

"इस वक्त हमें देखा और सुना जा रहा है। तुम नहीं जानते तुम कहां हो, वरना ऐसी बात ना कहते।"

तभी लिफ्ट रुकी और दरवाजे खुलते चले गए।

बंसल बाहर निकला। देवराज चौहान भी बाहर निकला।

एक गनमैन लिफ्ट के पास खड़ा था। देवराज चौहान ने गनमैन को देखा फिर आसपास नजर दौड़ाईं। ये कोई कारपोरेट ऑफिस जैसी जगह लगती थी। फर्श पर नीले रंग का कालीन बिछा था। सामने हॉल में पच्चीस-तीस लोग अपनी-अपनी टेबल पर कंप्यूटर के सामने काम कर रहे थे। वे सब व्यस्त थे। किसी ने भी इधर देखने की चेष्टा नहीं की थी।

दूसरी तरफ एक गैलरी जा रही थी जिसके दोनों तरफ कमरों के दरवाजे नजर आ रहे थे।

बंसल देवराज चौहान को लेकर गैलरी में आगे बढ़ा और चंद दरवाजे पार करने के बाद एक दरवाजा हैंडल दबाकर खोला और देवराज चौहान से बोला---

"चलो भीतर...।"

होंठ भींचे देवराज चौहान भीतर प्रवेश कर गया। फिर बंसल भी भीतर आया और दरवाजा बंद हो गया।

देवराज चौहान की निगाह कमरे में घूमी।

कमरे में दो व्यक्ति मौजूद थे।

एक तो बड़ी-सी टेबल के पीछे बैठा था। वो कोई साठ बरस का होगा। सफेद कमीज पहनी हुई थी। सिर के बाल काले-सफेद थे। क्लीन शेव्ड था और शांत निगाहों से उसे देख रहा था।

परन्तु दूसरे व्यक्ति को देखकर देवराज चौहान चौंका था।

वो अश्विन पटेल था। अहमदाबाद में इसी से पंगा पड़ा रहा था।

जबकि अश्विन पटेल कठोर, खतरनाक निगाहों से उसे देख रहा था।

"तो ये तुम हो।" देवराज चौहान ने सख्त स्वर में कहा--- "मैंने तुम्हें अमदाबाद में जिंदा छोड़कर गलती की। तुम्हारी इतनी हिम्मत हो गई कि तुम मुझे इस तरह उठवा लाओ। ये सब करके अपनी ताकत दिखाना चाहते हो। जबकि अहमदाबाद में तो तुम मेरे हाथों मरते-मरते बचे। शायद मैंने ही तुम्हें जिंदा छोड़ दिया था।"

अश्विन पटेल ने टेबल के पीछे बैठे सफ़ेद कमीज़ वाले की तरफ इशारा किया।

देवराज चौहान ने सफ़ेद कमीज़ वाले को देखा फिर अश्विन पटेल से कठोर स्वर में कहा।

"मैं तेरे से बात कर रहा हूं।"

बंसल शांत खड़ा था।

अश्विन पटेल ने पुनः सफ़ेद कमीज़ वाले की तरफ इशारा किया।

देवराज चौहान की निगाह सफ़ेद कमीज़ वाले पर जा टिकी।

"कौन हो तुम?" देवराज चौहान ने पूछा।

"तुम मुझे नहीं जानते?" सफेद कमीज वाला मुस्कुराया।

"जानता होता तो अब तक तुम्हें पता चल गया होता।" देवराज चौहान ने तीखे स्वर में कहा।

"कैसे डकैती मास्टर हो तुम जो मुझे नहीं जानते। मैं वागले रमाकांत हूं।"

"कौन?"

"वागले रमाकांत। इतना ही परिचय काफी है या और बताऊं।"

देवराज चौहान फौरन संभल गया।

उसे हैरानी का झटका भी लगा कि इस वक्त वो मुंबई अंडरवर्ल्ड डॉन वागले रमाकांत के सामने खड़ा है। जबकि वो ऐसा काम नहीं करता था कि बड़े दादाओं से उसका आमना-सामना हो।। उसका कई अंडरवर्ल्ड डॉनों से झगड़ा हो चुका था और बात मौत के साथ खत्म होती थी। वक्त भी बहुत खराब होता था।

"वागले रमाकांत!" देवराज चौहान बोला--- "मुंबई अंडरवर्ल्ड डॉन। तुमसे मिलकर ना तो मुझे अच्छा लगा ना बुरा। लेकिन मुझे इस तरह बुलाना क्या ठीक था। मेरे ख्याल में तुम्हारे-मेरे रास्ते अलग हैं।"

वागले रमाकांत ने सिर हिलाया, फिर बोला---

"अश्विन पटेल मेरा आदमी है।"

देवराज चौहान की निगाह वागले रमाकांत पर टिकी रही।

"अहमदाबाद में मेरे धंधे को संभालता है।"

"तो ये बात है।" देवराज चौहान ने सिर हिलाया।

"बैठ जाओ देवराज चौहान! मैंने झगड़ा करने के लिए तुम्हें नहीं बुलाया।"

देवराज चौहान एक कुर्सी खींचकर बैठ गया।

"तुम्हें नहीं पता था कि अश्विन पटेल मेरा आदमी है?"

"नहीं पता था।"

"कोई बात नहीं। ऐसा अंजाने में हो जाता है। अब तो पता चल गया।"

"हां...।" देवराज चौहान ने गहरी सांस ली। वो वागले रमाकांत से कोई झगड़ा खड़ा नहीं करना चाहता था।

"अश्विन से बात करो। वो तुमसे कुछ कहना चाहता है।" वागले रमाकांत बोला।

देवराज चौहान ने अश्विन पटेल को देखा।

"क्या परेशानी है तुझे?" देवराज चौहान ने पूछा।

"मैंने तेरा साढ़े चार करोड़ देना था तू ग्यारह करोड़ ले गया।" अश्विन पटेल बोला--- "बाकी का साढ़े छः करोड़ वापस दे।"

"उस पर मेरा हक बनता है।"

"क्यों? तेरा तो साढ़े चार करोड़...।"

"वो तू नहीं दे रहा था। मैं जबर्दस्ती तेरे ठिकाने पर घुसकर सूद के साथ ग्यारह करोड़ ले आया।"

"मैं दे रहा था। मैं व्यस्त था और तीन दिन का समय मांगा था तेरे से।"

"तीन दिन का वक्त तू छः बार मांग चुका था। मुझे पैसा देने में तू लटका रहा था। अगर तेरी नियत साफ होती तो तू कितना भी व्यस्त सही, किसी के हाथ पैसा भिजवा सकता था।"

"मेरे हालात ऐसे नहीं थे कि...।"

"तो तू कह देता कि महीने बाद आना। मुंबई से फोन करके ही मैं अहमदाबाद पहुंचा था। मुझे बुलाकर तू गायब हो गया। फोन करो तो छः में एक बार तू फ़ोन सुनता, तब भी गोल-गोल जवाब देता, पैसा देने की बात नहीं करता। ऐसे में तो मैं साढ़े चार करोड़ के बदले तेरा ग्यारह करोड़ उठा ले गया, जबकि मुझे तुम्हारा सिर भी फोड़ना चाहिए था।"

अश्विन पटेल ने गहरी सांस लेकर वागले रमाकांत से कहा---

"भाई, ये तो तेरी मौजूदगी में भी बोल रहा है।"

"बात तो ठीक कह रहा है।" वागले रमाकांत ने कहा--- "तूने देवराज चौहान को अहमदाबाद बुलाया तो नोट भी देता। व्यस्त था तो बुलाता नहीं। सारी गलती तेरी है पटेल!"

अश्विन पटेल चुप रहा।

"बात करो...।"

देवराज चौहान की निगाह अश्विन पटेल पर थी।

"अब मुझे साढ़े छः करोड़ वापस चाहिए जो तू फालतू ले गया। मुझे भाई का हिसाब देना है।"

"ये तेरा-मेरा मामला था। वागले रमाकांत को मैं नहीं जानता। तूने मेरे साथ जो किया, वो ही तो भुगताया है तुझे।"

"साढ़े छः करोड़ दे।"

"वो मेरा है।" देवराज चौहान ने होंठ भींचकर कहा।

"नहीं देगा?"

"नहीं...।"

अश्विन पटेल ने वागले रमाकांत से कहा---

"ये बहुत उड़ रहा है भाई! साढ़े छः करोड़ देने से मना करता है।"

"देवराज चौहान!" वागले रमाकांत मुस्कुराकर बोला--- "दे दे...।"

"इसने मुझे बहुत तंग किया अहमदाबाद में, ये...।"

"वो मैं समझा दूंगा। रुपया इसे दे दे। इसने मुझे हिसाब देना है और वो पैसा मेरा है।"

देवराज चौहान जानता था कि रुपया वापस ना देने का मतलब है झगड़ा और वो इस वक्त वागले रमाकांत की मुट्ठी में था। उसके ठिकाने पर, उसके आदमियों के बीच था जबकि देवराज चौहान झगड़े के मूड में जरा भी नहीं था।

"तुम्हारे बीच में आ जाने की वजह से मैं रुपया वापस दे रहा हूं।  वैसे मैं किसी हाल में भी नहीं देता।" देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा।

"मेहरबानी तेरी।" वागले रमाकांत ने शांत स्वर में कहा।

"अपना आदमी मेरे साथ भेज, मैं...।"

"तू यहीं रहेगा देवराज चौहान! रुपया मेरा आदमी ले आएगा। बता कहां पड़ा...।"

"वागले रमाकांत!" देवराज चौहान ने उसकी आंखों में झांकते दृढ़ स्वर में कहा--- "मैं यहां से जाऊंगा और रुपया दूंगा। तुम्हारा कोई भी आदमी मेरे रखे रुपए तक नहीं पहुंच सकता। पैसा चाहिए तो मुझे जाने दो।"

"ठीक है।" वागले रमाकांत ने बंसल की तरफ इशारा किया--- "मेरा ये आदमी तुम्हारे साथ जाएगा।"

देवराज चौहान ने सिर हिला दिया। कुर्सी से खड़ा हो गया।

"हमारे रास्ते, हमारे काम-धंधे अलग-अलग हैं। हमें एक-दूसरे के रास्ते में नहीं आना चाहिए।" वागले रमाकांत ने शांत स्वर में कहा--- "एक तालाब में हर तरह के लोग रहते हैं, परन्तु वो आपस में नहीं झगड़ते।"

"ये सारी गलती पटेल की थी। इसे मेरे साथ ठीक से पेश आना चाहिए था। तुम्हारा कोई भी आदमी मेरे से गलत ढंग से पेश आएगा तो बात बिगड़ेगी ही। अगर मुझे पता होता कि पटेल तुम्हारे लिए काम करता है तो मैं इसका काम ही नहीं करता।"

"ऐसा क्यों?" वागले रमाकांत मुस्कुराया।

"क्योंकि किसी-ना-किसी बात पर झगड़ा खड़ा हो ही जाता है। मैं किसी भी बड़े झगड़े में नहीं आना चाहता।"

"तुम्हारा बहुत नाम सुना था देवराज चौहान, परन्तु आज मुलाकात भी हो गई।"

देवराज चौहान ने कुछ नहीं कहा और बंसल के साथ बाहर निकल गया।

■■■

जगमोहन माथा पकड़े बैठा था।

देवराज चौहान उसके सामने ही सूटकेस में साढ़े छः करोड़ भरकर बंसल को देने गया था जिसे कि वो बंगले से कुछ दूर खड़ा कर आया था। भला जगमोहन को ये बात कैसे पसंद आती कि पैसा किसी को वापस दिया जाए। वो बोलता रहा और देवराज चौहान गड्डियों की गिनती करके सूटकेस में रखता रहा था।

जगमोहन को ऐसा लग रहा था कि जैसे उसे कोई लूट ले गया हो।

बीस मिनट बाद देवराज चौहान लौटा तो जगमोहन झल्लाकर कह उठा---

"क्या जरूरत थी साढ़े छः करोड़ वापस देने की। पटेल ने हमें इतना तंग किया था कि...।"

"वागले रमाकांत बीच में आ गया था। पैसा उसका था। मैं झगड़ा नहीं करना चाहता था।" देवराज चौहान ने कहा।

"वागले को किसी तरह सुन-सुनाकर शांत कर देते।"

"अंडरवर्ल्ड डॉन है वागले रमाकांत। वो बातों से बहलने वाला नहीं था। फिर हम साढ़े छः करोड़ तो ज्यादा उठा ही लाए थे। उनका पैसा था, उनको मिल गया। हमें इसमें परेशानी क्यों?"

"परेशानी क्यों?" जगमोहन भड़का--- "साढ़े छः करोड़ हाथ से निकल गया और तुम कहते हो कि मैं परेशान भी ना होऊं। उधर वो साले 180 करोड़ की डकैती डालने की प्लानिंग कर रहे हैं और चार दिन से उनका भी फोन नहीं आया। नुकसान-पर-नुकसान हो रहा है। पता नहीं 180 करोड़ की डकैती को लेकर वो क्या कर रहे होंगे।"

"तुम फोन करके पूछ लो।" देवराज चौहान मुस्कुराकर बोला।

"मेरी उनके साथ बात इस मुकाम पर नहीं पहुंची कि मैं फोन करके पूछूं...। इतनी बड़ी डकैती को बेवकूफ लोग अंजाम देने जा रहे हैं। कहीं से भी 180 करोड़ उठा लेना इतना आसान नहीं है।"

"तुम्हें उनसे बात कर लेनी चाहिए।"

"उन्होंने जितना बताना था बता दिया। इससे ज्यादा बताने में परहेज कर रहे हैं। अभी उन्हें ये नहीं पता कि पैसा कब उस जगह पर लाया जाएगा। पैसा कितनी देर वहां रहेगा। वहां पर सुरक्षा के क्या इंतजाम होंगे। ये सब खबर अभी उनके पास आनी है तभी तो वो कुछ प्लान बना सकेंगे। वो बूढ़ा पता नहीं कितना घटिया प्लान बनाएगा। उनका इरादा वहां गोलियां चलाकर सबको शूट करके पैसा ले भागने का है। हम ऐसे प्लान पर काम नहीं कर सकते, जहां खून बहे।"

"दौलत पाने के लिए खून बहाना गलत है।"

"यही तो मैंने कहा, पर सालों के दिमाग में जाने क्या घुसा है। उन्हें अभी ये भी नहीं पता कि काम दिन में करना है या रात में। वो हम पर भरोसा करके चले तो हम मामले को संभाल लेंगे। लेकिन वो खुलकर बात नहीं कर रहे।" कहते हुए जगमोहन ने जेब से मोबाइल निकाला और नंबर मिलाते बोला--- "तुमने आज साढ़े छः करोड़ का नुकसान करा दिया।"

"वो पैसा हमारा नहीं था।"

"हमारे पास था तो हमारा ही था।" जगमोहन ने फोन कान से लगा लिया।

"किसे फोन कर रहे हो?"

"भंडारे को। जगदीप भंडारे को...।"

"क्यों, तुम तो...।"

तभी उधर से भंडारे की आवाज जगमोहन के कानों में पड़ी।

"हैलो...।"

"मैं जगमोहन।" जगमोहन ने कहा--- "याद है मेरी या याद कराऊं...।"

"याद है। तुम्हें भूला नहीं...।"

"बात ये है भंडारे भाई। हमारे सामने कोई और काम आ गया है। अब क्या करना है?"

"देवराज चौहान हमारे साथ काम करेगा। अभी कोई दूसरा काम नहीं करना।" भंडारे की आवाज कानों में पड़ी।

"पक्का?"

"पक्का-पक्का...।"

"काम कब होगा?"

"हम तैयारी कर रहे हैं पैसा पहुंचने की खबर मिलते ही, हमारी तरफ से काम शुरू हो जाएगा।"

"वो याद है ना कि काम के दौरान किसी की जान नहीं जानी चाहिए।"

"ये बात तुम बाबू भाई से करो। काम कैसे करना है, ये वही तय करेगा।"

"तुम लोग मुझे फोन कब करोगे?"

"जल्दी ही। बाबू भाई हर हाल में देवराज चौहान को इस काम में लेना चाहता है।"

"फिर तो हमें अभी कई बातें करनी हैं। हम दूसरा काम हाथ में नहीं लेते। मैं तुम्हारे फोन के इंतजार में हूं।" जगमोहन ने कहा और फोन बंद करके बोला--- "वो तुम्हें हर हाल में 180 करोड़ के काम में शामिल करना चाहते हैं।"

■■■

चार दिन बाद!

बाबू भाई, शिंदे के गैराज पर मौजूद था।

शिंदे का गैराज काफी बड़ा था। लोहे की चादरों की छत डाली हुई थी। जिसके नीचे इस वक्त छः गाड़ियां खड़ी ठीक हो रही थीं। किसी गाड़ी के पास एक मैकेनिक था तो किसी के पास दो। ठोका-पिटी का शोर, बातों का शोर बराबर उठ रहा था। एक तरफ रखा टेपरिकॉर्डर बज रहा था, बिंदिया चमकेगी, चूड़ी खनकेगी वाला गाना लगा हुआ था। तीन कारें गैराज के भीतर एक तरफ खड़ी थीं। उन पर कोई काम नहीं हो रहा था।

एक कोने में लकड़ी का बड़ा-सा केबिन बना हुआ था, जिस पर सनमाइका लगा था। केबिन के बाहर की दीवारें मैली हो रही थीं। जमीन से चार फीट ऊपर काले शीशे की दो फुट की पट्टी थी कि भीतर बैठकर गैराज का पूरा हाल देखा जा सकता था। यहां रात बारह बजे तक कारों का काम चलता था। जरूरत हो तो पूरी रात भी काम चलता रहता था। पचास बरस का शिंदे केबिन का दरवाजा खोलकर बाहर निकला और ठीक होती एक कार की तरफ बढ़ गया। वो सांवले रंग का व्यक्ति था। थोड़ा मोटा या फिर सेहतमंद था। सादी कमीज-पैंट पहन रखी थी। मूंछें थीं। सिर के बाल छोटे-छोटे थे। उस कार के पास पहुंचकर ठिठका। एक कार के भीतर स्टेयरिंग के नीचे काम कर रहा था दूसरा बोनट खोले कार के नीचे घुसा हुआ था। वो तीन साल पुरानी होंडा सिटी कार थी।

"जीवन!" शिंदे ने कार में घुसे मैकेनिक से कहा--- "इस कार को 'टिच' कर देना है। जो चीज भी खराब होती लगे उसे बदल देना। इसका मालिक कार को बढ़िया देखना चाहता है। पैसे की परवाह मत करना। जो सामान लगता हो लगाओ।"

"ठीक है बॉस...।"

"कम-से-कम एक साल तक इस कार में कोई खराबी ना आए।"

"कार को बिल्कुल 'टिच' कर दूंगा बॉस!" जीवन ने ऊंचे स्वर में कहा।

शिंदे ने एक नजर अन्य कारों पर मारी फिर गैराज के कोने की तरफ बढ़ गया। कोने में लगे एक पल्ले के छोटे से दरवाजे को धकेला और भीतर प्रवेश कर गया।

ये खुली जगह थी और इस पर भी लोहे की चादरों की ऊंची छत पड़ी हुई थी।

यहां बड़े साइज की एंबुलेंस खड़ी थी। दो मकैनिक नीचे घुसे हुए थे। दो भीतर थे। शिंदे के गैराज का पेंटर एंबुलेंस की साइड में लाल रंग से मोटे शब्दों में एंबुलेंस लिख रहा था। एंबुलेंस पर नया सफेद पेंट हो चुका था। स्प्रे की गई थी। खिड़कियों की जगह काले शीशे की दो फीट चौड़ी पट्टी अंत तक जा रही थी। ये वही मिनी बस थी जो मयूर ट्रैवल्स की थी। जिसे भंडारे और जैकब कैंडी ने यहां पहुंचाया था। परन्तु अब अंदर बाहर से उसकी सूरत इस तरह बदल दी गई थी कि मयूर ट्रेवल्स वाले भी पहचान नहीं सकते थे कि ये उनकी चोरी हुई बस है।"

भीतर से सीटें उखाड़ दी गई थीं।

ड्राइवर की सीट के अलावा बाकी सारा फर्श मैदान की तरह खाली था।

तभी बाबू भाई मिनी बस के भीतर से बाहर निकला।

शिंदे उसके पास आ पहुंचा और मुस्कुराकर बोला---

"कोई कमी है तो बता दो बाबू भाई...?"

"सब ठीक है। नीली बत्ती और सायरन लगा देना।" बाबू भाई ने कहा।

"आज रात तक तुम्हारे मुताबिक सारा काम खत्म हो जाएगा। कल सुबह तुम एंबुलेंस ले जा सकते हो।"

"दो-तीन-चार दिन तक, कभी भी ले जाऊंगा।"

"इसे यहां से जल्दी-से-जल्दी ले जाने की कोशिश करना।" शिंदे ने सिर हिलाया।

"तुम्हारा बिल कितना हुआ?"

"लाख रुपए दे देना।"

"भंडारे के हाथ भेज दूंगा। इसमें एक कमी ही मुझे दिख रही है।"

"वो क्या?"

"एंबुलेंस का बड़ा दरवाजा पीछे की तरफ होना चाहिए। जबकि इसमें साइड में तीन फीट चौड़ा दरवाजा है।"

शिंदे ने एंबुलेंस के पीछे के हिस्से को देखा।

"तुम ठीक कहते हो। क्या जरूरी है कि दरवाजा पीछे हो। कुछ एंबुलेंस का दरवाजा इस तरह का भी होता है।"

"ऐसे ही रहने दो। मेरा काम चल जाएगा।"

शिंदे वहां से चला गया।

बाबू भाई एक तरफ पड़ी कुर्सी पर जा बैठा कि तभी उसका मोबाइल बज उठा---

"हैलो।" बाबू भाई ने मोबाइल निकाल कर बात की।

"दो दिन से तुमने भी फोन नहीं किया।" जगदीप भंडारे की आवाज कानों में पड़ी।

"शिंदे के गैराज पर एंबुलेंस तैयार करवा रहा हूं।"

"एंबुलेंस का काम पूरा हो गया?"

"आज रात को खत्म हो जाएगा।"

"शिंदे ने बढ़िया काम किया है?"

"हां। हमारा काम वो बढ़िया ही करता है।" बाबू भाई ने शांत स्वर में कहा।

"बलबीर सैनी का फोन आया?"

"नहीं...।"

"ये सैनी कोई गड़बड़ तो नहीं कर रहा हमारे साथ। उसके बताए दिनों में से आज आठवां दिन है। उसे अब तक बता देना चाहिए था पैसा किस ढंग से पहुंचाया जा रहा है। कब होगा ये सब और सुरक्षा के क्या इंतजाम हैं।"

"वो बताएगा।"

"तुमने उसे फोन नहीं किया?"

"नहीं।"

"करो। साले के कान खींचो। दस-बीस गालियां दो उसे। मैं करूं सैनी से बात?"

"उसने मुझे कहा था कि भंडारे को ना बताऊं कि मुझे उससे खबर मिल रही है।" बाबू भाई ने बताया।

"तो फिर तुम उससे बात करो।"

"कृष्णा पाण्डे, मोहन्ती और जैकब कैंडी की क्या स्थिति है?"

"तीनों के रोज फोन आ रहे हैं। वो काम करने के बारे में पूछते हैं।"

"हूं।" बाबू भाई के चेहरे पर गंभीरता थी।

"तुमने देवराज चौहान से भी बात नहीं की होगी।"

"नहीं...।"

"बेहतर होगा एक बार बात कर लो। उसे कहो कि दो-तीन दिन में काम शुरू हो जाएगा। ऐसा ना हो कि तुमसे बात ना होती पाकर वो किसी और काम में हाथ डाल दे।"

"बात कर लूंगा देवराज चौहान से।"

"और सैनी से भी बात करके पूछो कि उसने अभी तक कुछ बताया क्यों नहीं?"

"तू शाम को मुझसे मिलना। जहां हथियार रखे हैं। वहां जाना है। उनकी साफ-सफाई करनी है।

"वो साफ ही हैं। चार महीने पहले तो साफ...।"

"हमें वो दोबारा साफ करने होंगे।" बाबू भाई बोला।

"देवराज चौहान और जगमोहन नहीं चाहते कि वहां किसी की जान जाए। तुम देवराज चौहान को भी काम में साथ लेना चाहते हो और हथियारों की भी बात कर रहे...।"

"मौके पर जैसा वक्त सामने आएगा, वैसा ही कर लेंगे।" गोलियां चले या न चले, हथियार तो पास में होने ही चाहिए। काम के दौरान पता नहीं कब क्या हो जाए...।" बाबू भाई ने कहा।

"ठीक है, मैं शाम को तुम्हारे पास आऊंगा। गैराज पर तुम कब तक हो?"

"यहां मेरा कोई काम नहीं। आधे घंटे में निकल जाऊंगा।"

"देवराज चौहान को फोन करना मत भूलना।"

बात खत्म हो गई। बाबू भाई ने मोबाइल हाथ में पकड़े रखा।

नजरें एंबुलेंस पर घूमती रहीं फिर बलबीर सैनी को फोन किया। बात हुई।

"तूने अभी तक कुछ बताया...।"

"खबर आ गई है बाबू भाई...!' सैनी का तेज स्वर कानों में पड़ा--- "मैं खबर लेने ही जा रहा था।"

"काम कब होगा?"

"अभी पता चल जाएगा। दो घंटे तक तेरे को फोन करता हूं।" कहकर उधर से सैनी ने फोन बंद कर दिया था।

बाबू भाई के होंठ सिकुड़े। सिर थोड़ा-सा सहमति से हिला, फिर बड़बड़ा उठा---

"काम होने का वक्त आ गया लगता है।"

उसके बाद बाबू भाई ने देवराज चौहान को फोन किया।

"हैलो...।" उधर से देवराज चौहान की आवाज आई।

"तुम देवराज चौहान हो?" बाबू भाई देवराज चौहान की आवाज नहीं पहचानता था--- "मैं बाबू भाई हूं।"

"मैं तुम्हें पहचान गया। तुम भंडारे के साथ हो।"

"हां, वही।" बाबू भाई ने कान से फोन लगाए सिर हिलाया--- "तुम तैयार हो ना काम के लिए।"

"अगर काम मेरी पसंद के हिसाब से होता है तो मैं तैयार हूं।" देवराज चौहान की आवाज कानों में पड़ी।

"तुम्हारी पसंद से क्या मतलब?"

"मुझे योजना पसंद आनी चाहिए और खून-खराबा नहीं किया जाएगा।"

"देवराज चौहान! तुम्हें योजना तो पसंद आ जाएगी, परन्तु तुम्हारी दूसरी बात मेरी समझ से बाहर है।"

"खून-खराबे वाली बात?"

"हां। 180 करोड़ की डकैती हो और लाशें ना गिरें, ये कैसे हो सकता है।"

"मैंने बड़ी-बड़ी डकैतियां कीं, लेकिन खून नहीं बहाया। सब कुछ प्लान पर निर्भर है कि काम कैसे...।"

"मैं जानता हूं कि तुमने जो डकैतियां कीं, उन्हें खून नहीं बहा। मैंने हमेशा तुम्हारी जानकारी हासिल की है।"

"तुमने योजना बना ली?"

"मैं जो भी योजना बनाऊंगा उसमें खून-खराबा तो होगा ही। पहरे पर जो लोग होंगे, उन्हें शूट करना ही...।"

"फिर तो बेहतर है कि योजना मैं बनाऊं या फिर तुम इस काम में मुझे मत लो।"

चंद क्षण खामोश रहकर बाबू भाई बोला---

"ये बड़ा काम है। मैं तुम्हें जरूर लेना चाहता हूं।"

"ऐसे में प्लानिंग मेरी रहेगी।"

"ठीक है। ये डकैती तुम प्लान करो। क्या हम सफल रहेंगे?"

"तुम सारे हालात मेरे सामने रखोगे तभी मैं कुछ बता पाऊंगा। तुम्हारे पास काम की पूरी जानकारी है?"

"शायद शाम तक मुझे पूरी जानकारी ही मिल जाए...।"

"तो जब जानकारी मिले, मुझे फोन करना।"

"तुम क्या लोगे। 180 करोड़ की डकैती होगी?"

"ये बात जगमोहन तय करेगा। मैं सिर्फ काम की तरफ ध्यान देता हूं। जब तुम हमें फोन करोगे। मिलोगे, तब सारी बात हो जाएगी। मैंने अभी वो जगह भी देखनी है, जहां पैसा मौजूद होगा। मुझे अभी कुछ भी नहीं पता।"

"मैं तुम्हें जल्दी ही फोन करूंगा देवराज चौहान!" बाबू भाई ने गम्भीर स्वर में कहा।

■■■

शाम के चार बज रहे थे।

जगदीप भंडारे, रत्ना वाले फ्लैट में सोया हुआ था कि उसका फोन बजने लगा। फोन बजने की आवाज सुनकर रत्ना कमरे में पहुंची, तब तक भंडारे ने मोबाइल उठा लिया था। दूसरी तरफ बाबू भाई था।

"सैनी ने खबर दे दी है।" बाबू भाई की आवाज कानों में पड़ी।

भंडारे फौरन सीधा होकर बैठ गया।

"काम कब शुरू होगा?" भंडारे के होंठों से निकला।

"परसों...।"

"ओह, वक्त पूरा-पूरा ही है। तुम्हें फौरन योजना बनानी...।"

"प्लानिंग का काम मैंने देवराज चौहान के हवाले कर दिया है।"

"क्या मतलब?" भंडारे की आंखें सिकुड़ी।

"मैंने देवराज चौहान को इस काम में लेना ही था। वो आगे-आगे रहे तो ये बात हमारे हक में अच्छी रहेगी। वागले रमाकांत की नजरों में वो आएगा हम नहीं। देवराज चौहान बिना खून-खराबे की योजना बनाना चाहता है तो हमें क्या एतराज हो सकता है।" बाबू भाई उधर से कह रहा था--- "मैंने देवराज चौहान को फोन कर दिया है। वो वरसोवा में हीरा स्वीट्स से बाहर मुझसे मिलने वाला है। तब मैं उसे अम्बे पेपर एजेंसी दिखाऊंगा और सब कुछ समझाऊंगा कि...।"

"तो तुमने इस काम में देवराज चौहान को आगे कर दिया?" भंडारे ने सोच भरे स्वर में कहा।

"हां। क्या कुछ गलत किया मैंने?"

"मुझे तुम पर पूरा भरोसा है बाबू भाई कि तुम जो भी प्लान करोगे सही करोगे।" भंडारे ने कहा--- "वो क्या हिस्सा लेंगे?"

"वहां से देवराज चौहान को मैं अपने फ्लैट पर लाऊंगा। सात बज जाएंगे हमें पहुंचते-पहुंचते। तुम भी वहां आ जाना भंडारे! लेन-देन की बात के अलावा बाकी सब बातें होंगी।"

"मैं आ जाऊंगा।"

बातचीत खत्म हो गई।

भंडारे ने फोन कहां से हटाया तो पास खड़ी रत्ना कह उठी---

"क्या हुआ हीरो?"

"बाबू भाई ने देवराज चौहान के हवाले ये काम कर दिया है। देवराज चौहान ही योजना बनाएगा।"

"तो क्या बुरा है। देवराज चौहान को संभालने दो। वो काबिल इंसान हैं।"

भंडारे ने सोच भरी निगाहों से रत्ना को देखा।

"काम कब होना है?" रत्ना ने पूछा।

"परसों...।"

"डकैती की प्लानिंग करने के लिए कल का दिन अभी पड़ा है। सारे काम निपटाए जा सकते हैं।"

"वो तो ठीक है।" भंडारे ने गंभीर स्वर में कहा--- "मैं सोच रहा हूं कि देवराज चौहान क्या हिस्सा लेगा?"

"वो ज्यादा हिस्सा ले तो काम के बाद उसे झटका देने का प्रोग्राम बना लेना।" रत्ना ने आगे बढ़कर भंडारे के सिर के बालों में उंगलियां फेरी--- "उससे बात करो कि वो क्या हिस्सा लेंगे।"

"शाम को बात होगी। बाबू भाई तो उन्हें आधा भी देने को तैयार है।" भंडारे ने रत्ना को देखा।

"हीरो! बाकी का आधा भी बहुत बड़ी रकम होती है। अगर वो आधा लेते हैं तो नब्बे करोड़ तुम्हारे पास आता है। अगर नब्बे में से दस-दस तुम मोहन्ती, कृष्णा पाण्डे और जैकब कैंडी को भी दे देते हो तो तुम्हारे पास साठ करोड़ बचता है। उसमें से तुम कितना बाबू भाई को दोगे, ये सोच लो। यानि कि देवराज चौहान को आधा देने के बाद भी तुम्हारे हिस्से जो आएगा वो बहुत होगा।"

"180 करोड़ में से चालीस मेरे पल्ले पड़े तो तुम इसे बहुत कह रही हो।"

"मेरे ख्याल में तो बहुत है।"

भंडारे खामोश रहा। चेहरे पर असहमति के भाव थे।

"क्या सोच रहा है?" रत्ना कह उठी।

"कुछ नहीं...।"

"तो परसों तू काम करेगा हीरो। खतरे वाला काम है। तेरे को कुछ हो गया तो मेरे को संभालने वाला कोई भी नहीं होगा। तेरे को मेरी चिंता है कि नहीं...।"

"तेरी ही तो चिंता है।"

"तो मुझे बता दे कि तूने अपना पैसा कहां रखा है। भगवान ना करे अगर तेरे को कुछ हो गया तो मेरे पास रोटी खाने को तो पैसा होगा किसी के सामने मुझे हाथ तो नहीं फैलाना पड़ेगा।" कहकर रत्ना ने लंबी सांस ली।

"मैं अभी तेरे को सबकुछ लिख कर बता देता हूं कि पैसा कहां-कहां रखा है मैंने। लेकिन मुझ पर भरोसा रख, मुझे कुछ भी नहीं होगा। जिंदगी भर ऐसे ही काम किए हैं मैंने।" भंडारे मुस्कुराकर कह उठा।

"मैं कब कहती हूं कि तुझे कुछ हो। इस काम के बाद हम शादी करके कहीं आराम से रहेंगे।" रत्ना प्यार से बोली।

"हां, घर बसा लेंगे। परिवार बनाएंगे। बच्चे होंगे और...।"

■■■

हीरा स्वीट्स के बाहर देवराज चौहान और बाबू भाई मिले। बाबू भाई ने देवराज चौहान को पहचान लिया था, क्योंकि उसकी तस्वीर उसने देख रखी थी। वे कार में जा बैठे। देवराज चौहान ने कार आगे बढ़ा दी। पिछली सीट पर जगमोहन मौजूद था। बाबू भाई और जगमोहन की नजरें मिलीं तो दोनों ही मुस्कुराए।

"कहां जाना है?" देवराज चौहान ने बाबू भाई से पूछा।

"इसी इलाके में दाऊद मैनशन नाम की इमारत है। वहीं चलना है, मैं रास्ता बताता हूं अभी सीधा चलो।"

शाम के पौने पांच बज रहे थे। सड़कों पर भीड़ थी।

"तुम्हारी उम्र कितनी है?" देवराज चौहान ने पूछा।

"बहत्तर साल।"

"इस उम्र में तुम्हें ये सब काम नहीं करना चाहिए।"

"मैं हमेशा से ही काम को सिर्फ प्लान करता हूं। इसलिए उम्र मुझे परेशान नहीं करती। वैसे ये मेरा आखिरी काम है। पैसा इकट्ठा कर लिया है मैंने। अब आराम से रहूंगा।" बाबू भाई ने कहा।

"कब से ये काम कर रहे हो?"

"पन्द्रह सालों से लूट और डकैती प्लान कर रहा हूं। भंडारे मेरे प्लान पर काम करता है। सब कुछ बढ़िया चल रहा है। वो जरूरत के मुताबिक लोगों का इंतजाम करके, मेरे बनाए प्लान को संभाल लेता है। लेकिन इस बार का काम मेरे लिए मेरी जिंदगी का खास है।"

"वो क्यों?"

"आगे से बाएं ले लो...।"

देवराज चौहान ने कार को बाएं रास्ते पर मोड़ लिया।

"एक तो ये काम 180 करोड़ जैसी मोटी रकम का है, दूसरे इस काम में तुम मेरे साथ हो। मैंने तो कभी सोचा भी नहीं था कि डकैती मास्टर देवराज चौहान के साथ कभी काम कर पाऊंगा। ये तो अच्छा हुआ कि तुम हमारे साथ काम करने को तैयार हो गए। वरना भंडारे के लिए कठिन था इतने बड़े काम को संभाल लेना।"

"ये तो काम करने के ऊपर निर्भर है। योजना कैसी है, वो देखा जाता है। हो सकता है भंडारे मेरे से भी बढ़िया काम कर जाता। वक़्त और हालातों का कुछ पता नहीं चलता।"

देवराज चौहान मध्यम गति से कार चला रहा था।

"परसों काम करना है। तुम्हें कल दोपहर तक योजना बना लेनी चाहिए। दूसरों को भी सब समझाना पड़ेगा कि...।"

"ये बातें बाद में करेंगे। पहले मुझे वो जगह देख लेने दो, जहां पैसा पहुंचेगा।" देवराज चौहान बोला।

"तुम्हारे पास सारी जानकारी है कि पैसा कब, कैसे यहां आएगा और सुरक्षा के क्या...।"

"सब पता चल गया है।"

"जानकारी पक्की होनी चाहिए।"

"जो खबर मुझे पीछे से मिल रही है, वही तो बताऊंगा। बताने वाला भरोसेमंद है। वो पहले भी बहुत बार मेरे काम आ चुका है। अब कोई जानकारी ही गलत निकले तो उसमें मेरा कसूर नहीं। मेरे ख्याल में जानकारी सही है। वो देखो, वो पीले रंग वाली पांच मंजिला इमारत दाऊद मैनशन है। तुम कार को पहले ही रोक देना या फिर आगे जाकर रोकना। जितने कम लोग हमें देखें, वही बेहतर है।"

देवराज चौहान ने कार को इमारत के पार, दूसरी इमारत के पास ले जा रोका। इंजन बंद किया और सिगरेट सुलगाकर कश लिया। चंद पलों की शांति के बाद बाबू भाई ने कहा---

"दाऊद मैनशन की तीसरी मंजिल पर अम्बे पेपर एजेंसी है। मैं वहां भीतर जाकर देख चुका हूं। बेहतर होगा कि तुम भीतर जाने का खतरा मोल मत लेना। कोई तुम्हें पहचान सकता है। तुमने मेकअप नहीं कर रखा। ऐसा हुआ तो वे लोग सतर्क हो जाएंगे। हमारा काम खराब हो जाएगा। भीतर क्या है, वो मैं तुम्हें नक्शा बनाकर समझा दूंगा। तुम अम्बे पेपर एजेंसी की स्थिति देख आओ। तीसरी मंजिल पर। उस ऑफिस के बाहर अम्बे पेपर एजेंसी लिखा है। लिफ्ट से जाओ या सीढ़ी से, तीसरी मंजिल पर बाईं तरफ जाना। तुम आसानी से ढूंढ लोगे।"

देवराज चौहान ने जगमोहन से कहा।

"तुम दस मिनट बाद आना। अम्बे पेपर एजेंसी को देख लेना तुम्हारे लिए भी जरूरी है। लिफ्ट से भी जाना, सीढ़ियों से भी जाना। हर तरह के रास्ते की पहचान करना और उसके अगल-बगल, सामने भी देख लेना।" कहने से साथ ही देवराज चौहान ने कार का दरवाजा खोला फिर बाबू भाई से बोला--- "तुम अम्बे पेपर एजेंसी के भीतर जा चुके हो, इसलिए तुम कार में ही रहना। तुम्हें कोई भी पहचान सकता है, उधर काम करने वाला।"

■■■

शाम के साढ़े सात बज रहे थे।

देवराज चौहान, जगमोहन, जगदीप भंडारे, बाबू भाई के फ्लैट पर मौजूद थे। कुछ देर पहले ही वे पहुंचे थे तो भंडारे वहां पहले से ही मौजूद था।

बाबू भाई ने सबके लिए बियर के गिलास तैयार किए।

"मैं नहीं पीता।" जगमोहन ने सोफे पर धंसे हुए कहा।

"हैरानी है।" बाबू भाई ने मुस्कुराकर जगमोहन को देखा।

"मुझे इन चीजों की जरूरत नहीं पड़ती। मैं वैसे ही हर वक्त नशे में रहता हूं।" जगमोहन भी मुस्कुराया।

"कौन-सा नशा करते हो?" भंडारे ने पूछा।

"दौलत का।" जगमोहन ने भंडारे को देखा--- "दौलत से बढ़कर कोई नशा नहीं है। मैं अपनी दौलत के नशे में ही डूबा रहता हूं। इन नशों का क्या है, अब लो तो दो-चार घंटे में उतर जाता है। दौलत का नशा ही ऐसा है जो हर समय चढ़ा रहता है।"

बाबू भाई मुस्कुराया।

भंडारे ने गहरी सांस ली।

देवराज चौहान ने बीयर का गिलास उठाकर घूंट भरा।

"देवराज चौहान को दौलत का नशा नहीं है?" भंडारे ने पूछा।

"जरा भी नहीं है। मुझे इसलिए है कि मैं नोटों को संभालने और गिनती करने का काम करता हूं।"

"भगवान तुम्हारा ये नशा हमेशा बनाए रखे।" बाबू भाई ने सिर हिलाकर कहा फिर देवराज चौहान से बोला--- "तुमने अम्बे पेपर एजेंसी देख ली होगी कि दाऊद मैनशन में उसकी क्या स्थिति है। उसके आस-पास क्या है। मैं तुम्हें अम्बे पेपर एजेंसी के भीतर का नक्शा अभी बनाकर देता हूं कि तुम जान सको भीतर से वो कैसी है। उसके बाद मैं तुम्हें बताऊंगा कि वहां पर कब पैसा लाया जाएगा और सुरक्षा के क्या इंतजाम...।"

"ये बाद की बातें हैं।" जगमोहन बोला--- "पहले काम की बात कर ली जाए।"

"काम की बात?" बाबू भाई ने जगमोहन को देखा है।

"हां। ये बातें शुरू करने से पहले नोटों की बातें तय हो जानी चाहिए कि सफल हो जाने की स्थिति में हमें क्या मिलेगा। ऐसा ना हो कि हम यूं ही सिर खपाते रहें और हाथ कुछ भी ना लगे।"

बाबू भाई ने भंडारे को देखा।

"तुम क्या चाहते हो?" भंडारे ने गंभीर स्वर में कहा।

"तुम हमें क्या देने की सोचे हुए हो, पहले वो बताओ।" जगमोहन ने कहा।

"बीस करोड़...।" भंडारे बोला।

"बीस? बस?" जगमोहन ने मुंह बिगाड़ा--- "इतने में तो हम काम के बारे में सोचते भी नहीं। एक सौ अस्सी करोड़ में से बीस करोड़। ये कहकर तुम हमारी बेइज्जती कर रहे हो।"

"तुम क्या चाहते हो?"

"सौ करोड़ हमारा।" जगमोहन बोला।

"ये नहीं हो सकता।" भंडारे ने पहलू बदला--- "और लोग भी तो हमारे साथ काम कर रहे हैं।"

"कितने?"

"तीन और हैं। दस-दस करोड़ उन्हें देने की बात हो चुकी है।"

"एक सौ अस्सी करोड़ में से सौ करोड़ हम लेंगे। बाकी तुम बांट लेना।" जगमोहन बोला--- "अस्सी करोड़ बहुत होता है। तीस करोड़ अगर उन तीनों में भी बांटा तो तुम दोनों के पास पचास करोड़ बच जाएगा।"

"तुम लोग ज्यादा ले रहे हो।" भंडारे ने कहा।

देवराज चौहान खामोश बैठा बियर के घूंट भर रहा था।

"वो बात करो जो जंच जाए देवराज चौहान!" बाबू भाई ने कहा।

"सौदेबाजी में मैं कभी दखल नहीं देता। ये मेरा काम नहीं है।" देवराज चौहान मुस्कुराया--- "जब ये बातचीत खत्म होगी तो मेरा काम उसके बाद शुरू होगा। ये बात जगमोहन से करो अगर ये एक करोड़ में भी तैयार होता है तो भी मुझे एतराज नहीं होगा।"

बाबू भाई ने जगमोहन को देखा।

"सौ करोड़ जरा भी ज्यादा नहीं हैं हमने सारा काम संभालना है। डकैती को सफल बनाना है। ये कोई मामूली डकैती नहीं है। 180 करोड़ की डकैती है। हवाला किंग गानोरकर का दखल इस मामले में है और वो जो विक्रम मदावत है जिसे पैसा दिया जाना है वो भी कम नहीं होगा। बाद में कोई पंगा खड़ा हुआ तो वो भी देखना पड़ेगा। वो लोग ये नहीं देखेंगे कि देवराज चौहान के साथ कौन लोग हैं। वो सिर्फ देवराज चौहान को जानेंगे और पीछे पड़ जाएंगे हमारे। इसे मामूली काम मत समझो।"

भंडारे ने गम्भीर निगाहों से बाबू भाई को देखा।

बाबू भाई बोला---

"180 करोड़ में से तीस करोड़ तो उन तीनों का निकाल दो, जिन्हें हमने साथ में मिलाया है। बाकी बचा 150 करोड़ अब ये सोचो कि डेढ़ सौ करोड़ हम चारों में कैसे बंटना चाहिए।"

"चारों में नहीं, दो में। एक पार्टी तुम दोनों की है दूसरी हम दोनों की है।" जगमोहन ने कहा।

"ठीक है दो पार्टी में डेढ़ सौ करोड़ को बांटो...।" बाबू भाई ने कहा--- "ये मत भूलना कि हम देर से इस काम पर लगे हुए हैं। हमने ही ये खबर हासिल की थी कि 180 करोड़ का लेन-देन हो रहा है। इस पर खर्चा भी किया। तुम लोगों को तो हमने सीधे-सीधे इस मामले में ले लिया। सबकुछ परोसकर सामने रख दिया।"

"परोस के तो रख दिया, लेकिन जब तक हम उस पर काम नहीं करेंगे, माल खाना कठिन है। तुमने यूं ही हमें साथ नहीं लिया। तुम जानते हो कि 180 करोड़ के मामले के लिए दमदार आदमी चाहिए, और वो तुम्हें देवराज चौहान ही लगा। तुम असफल नहीं होना चाहते, इसलिए हमें साथ में ले लिया।"

"ये तो सच है।" बाबू भाई ने कहा।

"एक सौ पचास करोड़ बचता है।" भंडारे बोला--- "वो हमें आधा-आधा कर लेना चाहिए।"

"आधा...?"

"भंडारे ने ठीक कहा है।" बाबू भाई बोला।

"अस्सी हमारा, सत्तर तुम्हारा।" जगमोहन बोला।

भंडारे ने बाबू भाई को देखा।

बाबू भाई ने सहमति से सिर हिला दिया।

"हमें मंजूर है।" भंडारे गंभीर स्वर में बोला।

"वैसे मेरा इरादा तो सौ करोड़ लेने का था।" जगमोहन दोनों को देखकर बोला--- "चलो, बीस करोड़ का घाटा ही सही। इस घाटे को ऊपरवाला कहीं और से पूरा कर देगा। अब कर लो तुम लोग बात आगे की।"

बाबू भाई ने बियर का घूंट भरकर गिलास रखा और उठते हुए बोला---

"मैं अभी अम्बे पेपर एजेंसी के भीतर का नक्शा बनाकर दिखाता हूं।"

बाबू भाई ने एक कागज पर पांच मिनट में ही नक्शा तैयार किया और टेबल पर रखकर बोला---

"थोड़ा करीब आ जाओ देवराज चौहान! तुम दोनों भी। ये देखो, ये प्रवेश द्वार है। यहां से भीतर प्रवेश करते ही सबसे पहला कमरा दस बाई दस का है। इस कमरे को रिसेप्शन बनाया हुआ है। इस तरह रिसेप्शन का डैस्क है और जब मैं गया तो डेस्क के पीछे एक लड़की बैठी थी। डेस्क पर दो फोन रखे देखे थे मैंने। डेस्क के बाईं तरफ एक दरवाजा दिखेगा, वो अम्बे पेपर एजेंसी का ऑफिस है। ऑफिस सजा हुआ साफ-सुथरा है। बड़ी टेबल के पीछे का वहां का मालिक बैठता है। टेबल के इस तरफ तीन कुर्सियां हैं। वहां एक अलमारी है। एक रैक है जिस पर कागजों के सैंपल की फाइलें रखी थीं। चपरासी भी वहां मौजूद रहता है। मैं वहां आधा घंटा बैठा था और इस बीच चपरासी पांच-सात चक्कर लगा गया था। जहां पर अलमारी पड़ी है, वहां पास में दरवाजा भी है, जो कि भीतर की तरफ खुलता है। चपरासी वहां भी दो-तीन बार गया था। मैंने देखा वहां भी कमरा है और जब मैं जाने के लिए उठा तो उसी दरवाजे को खोलकर भीतर चला गया जैसे कि वो बाहर जाने का रास्ता हो। परन्तु मैं देखना चाहता था कि वो क्या है। मैंने देखा कि वो काफी खुला कमरा है और उसके पीछे अन्य कमरे को जाता है एक दरवाजा है, जो कि उस वक्त खुला हुआ था।"

"तुम्हारा मतलब कि वहां चार कमरे हैं?" देवराज चौहान बोला।

"हां। चार कमरे हैं और पीछे वाले दो कमरे बड़े हैं। मेरे ख्याल में दो ऑफिसों को मिलाकर एक ऑफिस बनाया गया है। पीछे के दो कमरों में आसानी से 180 करोड़ की दौलत आ सकती है।"

"उन कमरों में कोई था?" देवराज चौहान ने पूछा।

"दो आदमी थे तब...।"

"वे क्या कर रहे थे?"

"एक टेबल के गिर्द दो कुर्सियां डाले किन्हीं कागजों में उलझे हुए थे। मेरे वहां पहुंचते ही उन्होंने कहा कि मैं वहां कैसे आ गया। तभी चपरासी वहां आ पहुंचा और मुझे बाहर तक ले गया। मैं सॉरी-सॉरी कहता रहा। चूंकि मैं बूढ़ा हूं इसलिए उन्हें मेरी किसी हरकत का शक नहीं हुआ। वैसे मेरा मानना है कि वहां पेपर एजेंसी तो मात्र दिखावे के लिए खोल रखी है, जबकि वहां कोई और काम होते हैं। जैसे कि परसों वहां रुपयों के लेन-देन का काम होगा।"

"वहां का मालिक कौन है?"

"जिससे मैं कागज खरीदने के बहाने मिला था, वो अम्बेलाल था। वही मालिक था। परन्तु मेरा ख्याल है कि वो नकली मालिक था। असली मालिक वहां का अशोक गानोरकर या विक्रम मदावत होगा।"

"ऐसा आभास तुम्हें क्यों हुआ?"

"यूं ही हो गया। मेरे मन ने कहा कि ये मालिक नहीं हो सकता।" बाबू भाई बोला।

"तुमने ये बात तो सही कही कि दो ऑफिसों को मिलाकर वहां एक ऑफिस बनाया गया है।" देवराज चौहान ने कहा--- "क्योंकि अम्बे पेपर एजेंसी के बगल वाले ऑफिस का शटर कुछ इस तरह से बंद था जैसे उसे लंबे समय से ना खोला गया हो।"

बाबू भाई ने सिर हिला दिया।

"रुपया कब वहां पहुंचेगा। फिर कब रुपया ले जाया जाएगा और सुरक्षा के क्या इंतजाम होंगे जब तक रुपया वहां पर होगा। कैसी गाड़ी में पैसे वहां पहुंचेंगे?" देवराज चौहान ने पूछा।

बाबू भाई देवराज चौहान को देखकर कह उठा---

"परसों सुबह साढ़े नौ बजे पैसों से भरी गाड़ी वरसोवा के दाउद मैनशन में अम्बे पेपर एजेंसी के लिए पहुंचेगी। गत्ते के मजबूत बड़े डिब्बों में 180 करोड़ पैक होगा। वो नौ डिब्बे होंगे और हर डिब्बे में 20 करोड़ होगा। एक डिब्बे को दो आदमी उठाकर भीतर ले जाएंगे। एक आदमी अकेला डिब्बा नहीं उठा सकता है। लाने वाले पांच लोग होंगे। एक गाड़ी चला रहा होगा और वो हर वक्त गाड़ी के पास ही रहेगा। बाकी के चार डिब्बों को उठाकर भीतर ले जाएंगे। ये हवाला किंग अशोक गानोरकर के आदमी होंगे। आधे घंटे में वो नौ के नौ डिब्बे अम्बे पेपर एजेंसी के ऑफिस में पहुंचा देंगे। विक्रम मदावत के कुछ आदमी पहले से ही वहां पहुंच चुके होंगे और वो 180 करोड़ की गड्डियों की गिनती करेंगे और उन्हें वैसे ही डिब्बों में पैक करेंगे। इस दौरान अशोक गानोरकर के आदमी भी वहां मौजूद होंगे। ये काम दोपहर के साढ़े तीन बजे तक निपट जाएगा। उसके बाद बाहर खड़ी उसी गाड़ी में डिब्बों को वापस लादा जाएगा और विक्रम मदावत के किसी ठिकाने पर पहुंचा दिया जाएगा।"

"तब तक वैन बाहर ही खड़ी रहेगी?" देवराज चौहान ने पूछा।

"हां। वो पार्किंग में लग जाएगी। वहां पार्किंग की काफी जगह है। तुम देख ही चुके हो।"

"हवाला की रकमें इस तरह गिनी नहीं जाती। ये धंधा तो विश्वास पर चलता है।" देवराज चौहान ने कहा।

"ये सवाल मैंने अपने उस आदमी से भी किया था जो मुझे खबर दे रहा है।" बाबू भाई ने शांत स्वर में कहा--- "उसने बताया कि एक बार पहले भी बड़ी रकम अशोक गानोरकर ने विक्रम मदावत को दी थी परन्तु उसमें करोड़ों रुपया कम था। तब विक्रम मदावत और अशोक गानोरकर में काफी नाराजगी पैदा हो गई थी। अशोक गानोरकर का कहना था कि उसने पूरी रकम भेजी है। इस बात को लेकर चार महीने तक मदावत और गानोरकर में खुंदक रही फिर गानोरकर के उस आदमी को विक्रम मदावत ने ढूंढ निकाला जो तब रकम लाया था और उसी ने ही पैसा पहुंचाने के दौरान हेराफेरी की थी। ऐसे में इस बार विक्रम मदावत सतर्कता बरतते हुए नोटों को गानोरकर के आदमियों की मौजूदगी में चैक कर लेना चाहता है।"

देवराज चौहान ने सिर हिलाया।

"पांच से छह घंटों तक पैसा अम्बे पेपर एजेंसी में मौजूद रहेगा।" बाबू भाई बोला।

"कब ले जाया जाएगा वहां से पैसा?"

"साढ़े तीन बजे के करीब...।"

"सुरक्षा के तब क्या इंतजाम होंगे वहां?"

"अशोक गानोरकर की तरफ से वहां पांच आदमी मौजूद होंगे, वही जो नोट लाए थे। गाड़ी चलाने वाला भी बाद में वैन को पार्क करके भीतर पहुंच जाएगा। वो पांच आदमी अम्बे पेपर एजेंसी के भीतर-बाहर कहां मौजूद होंगे, ये नहीं कहा जा सकता। इस बात को मौके पर ही देखना होगा। तब हमारे पास पांच-साढ़े-पांच घंटे होंगे और सोच-समझकर काम करने के लिए काफी वक्त होगा।"

"विक्रम मदावत के भी आदमी वहां पहुंच चुके होंगे।" देवराज चौहान बोला--- "उनकी क्या स्थिति होगी?"

"विक्रम मदावत के आदमियों के बारे में मेरे पास कोई खबर नहीं है और आएगी भी नहीं। क्योंकि मुझे खबर देने वाले ने स्पष्ट कह दिया है कि ये खबर वो नहीं दे सकेगा। लेकिन अंदाजा लगा सकते हैं हम कि चार-पांच आदमी उसके भी होंगे। वैसे उसके वे लोग तो भीतर ही होंगे जो नोटों को चैक करेंगे। उनकी संख्या चार से कम क्या होगी। हो सकता है उनके अलावा दो-तीन आदमी पहरे पर हों।"

"इस बारे में कोई पक्का नहीं?"

"नहीं। विक्रम मदावत की कोई खबर हम तक नहीं पहुंचेगी। उसके आदमियों का अंदाजा हमें लगाकर चलना होगा।"

देवराज चौहान ने सोच भरे अंदाज में सिगरेट सुलगा ली।

कई पल खामोशी के बाद देवराज चौहान बोला---

"तुम्हारी बात के हिसाब से सोचा जाए तो उन लोगों से हमारी सीधी टक्कर ही होगी।"

"हां। ऐसा ही होगा और हमें गोलियां चलानी ही पड़ेंगी।"

"पैसे के लिए खून बहाना मेरी आदत नहीं है।"

"इसके बिना हम सफल नहीं हो सकते।"

"तुम मुझे पूरी जानकारी नहीं दे सके। विक्रम मदावत के आदमियों के बारे में तुम्हें नहीं पता कि वो कितने हैं और उनकी पहरेदारी का क्या रुप होगा। या फिर गानोरकर के आदमी पहरेदारी में कहां-कहां खड़े मिलेंगे?"

"देवराज चौहान तब हमारे पास साढ़े पांच घंटों का वक्त होगा। जबकि हम एक-आध घंटे में ही ये जान लेंगे कि वहां पर किस ढंग की पहरेदारी है। हम आसानी से सबको संभालकर अपना काम कर सकते हैं। दो-चार मर भी गए तो...।"

"किसी को मारने की मत सोचो!"

"तो?"

"हालातों को अपने काबू में करने की सोचो कि...।"

"जैसा तुम सोच रहे हो, वो संभव नहीं है।" बाबू भाई इंकार में सिर हिलाकर कह उठा--- "हवाला किंग अशोक गानोरकर खतरनाक है, दौलत के साथ आए उसके आदमी भी खतरनाक होंगे। विक्रम मदावत भी खतरनाक है, वो भी सख्त लोगों को वहां भेजेगा। ऐसे लोगों की मौजूदगी में वहां के हालातों को अपने काबू में करना संभव नहीं हो सकेगा।"

"इसका फैसला तो परसों ही होगा।"

"और अगर तुम हालातों पर काबू ना कर पाए तो?"

"तो काम को छोड़ दिया जाएगा।"

बाबू भाई ने पहलू बदलकर भंडारे को देखा।

भंडारे गम्भीर स्वर में देवराज चौहान से बोला---

"तुम 180 करोड़ को छोड़ने के लिए कह रहे हो।"

"खून-खराबे की स्थिति में...।" देवराज चौहान ने कहा।

"दो-चार मर भी जाएं तो क्या फर्क पड़ता है। ये 180 करोड़ की दौलत का मामला है।"

"ये बात तो हमेशा के लिए अपने दिमाग से निकाल दो कि मेरी मौजूदगी में वहां खून-खराबा होगा और मैं आसानी से पीछे हटने वाला नहीं। ये भी जान लो। जैसे भी हालात होंगे, उन पर काबू पाने का प्रयत्न किया जाएगा। अगर वहां की सुरक्षा के बारे में मुझे जानकारी मिल जाती तो मैं कल तक कोई योजना बना सकता था। परन्तु अब हमें परसो तक इंतजार करना होगा।"

"देवराज चौहान!" भंडारे बोला--- "हमने 180 करोड़ की दौलत नहीं छोड़नी है।"

"मेरी पूरी कोशिश होगी कि ऐसा ही हो।"

"क्या तुम्हें शक है कि तुम पीछे हट सकते हो?"

"मैं तभी पीछे हटूंगा जब मुझे इस बात का भरोसा हो जाएगा कि खून-खराबा हर हाल में होकर रहेगा।"

"आज तक कितनी बार अपने मामलों से पीछे हटे हो?"

"एक बार भी नहीं...।"

भंडारे ने होंठ भींचकर गहरी सांस ली।

कुछ पल चुप्पी रही, फिर बाबू भाई कह उठा---

"ऐन मौके पर तुम पीछे हट गए तो हम अपने ढंग से काम करेंगे।"

"बेशक करना। तब मैं तुम लोगों के साथ नहीं होऊंगा। वहां से जा चुका होऊंगा।"

भंडारे ने राहत की सांस ली।

"तब दौलत हमारे हाथ लग गई तो उसमें तुम्हारा हिस्सा नहीं होगा?"

"जब मैं मामले से पीछे हट गया तो मेरे हिस्से की बात वहीं पर खत्म हो जाती है।"

"ज्यादा खुश मत हौवो...।" जगमोहन कह उठा--- "हम आसानी से पीछे हटने वाले नहीं...।"

बाबू भाई जगमोहन को देखकर मुस्कुराया।

"तुमने मुझे बताया था कि तुम किसी वैन का इंतजाम कर रहे थे नोटों को भरने के लिए...।"

"हां, मिनी बस को एंबुलेंस का रूप दिया गया है वो तैयार हो चुकी है।" बाबू भाई ने कहा।

"कहां है वो?"

"मेरी खास पहचान वाले के गैराज पर।"

"हम उसे देखना चाहेंगे...।"

"बेशक। अभी चलो...।"

तभी देवराज चौहान ने कहा---

"इस काम में और कितने लोगों को लिया गया है। वो तीन बताए थे तुमने?"

"हां...।"

"योजना के बिना ही उन तीनों को तैयार कर लिया गया?"

"मुझे मालूम था कि इस काम में कम-से-कम इतने लोगों की तो जरूरत पड़ेगी ही। सोच-समझकर ही उन तीनों को लिया गया है।"

"उनके नाम क्या हैं?"

"मोहन्ती, जैकब कैंडी और कृष्णा पाण्डे। तीनों ही मेरी पुरानी पहचान के हैं और भंडारे के साथ पहले भी काम कर चुके हैं।"

"मैं कल इनसे मिलना चाहूंगा।"

"कल जब भी मिलना चाहो, बता देना।" बाबू भाई ने कहा।

"अब मुझे वो एंबुलेंस दिखाओ, जिसमें नोट डालकर ले जाने की सोची है तुमने।" देवराज चौहान ने कहा।

"क्यों नहीं, परन्तु वहां तुम और मैं ही चलें तो कैसा रहे। उधर हम चारों का जाना ठीक नहीं। गैराज वाले मेरे दोस्त को इतने लोगों का वहां जाना अच्छा नहीं लगेगा। वो किसी वजह से फंसना नहीं चाहेगा।" बाबू भाई बोला।

"मैं तुम्हारे साथ चलूंगा।" देवराज चौहान ने कहा।

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