हवेली के खण्डहरों में वापस पहुंचने तक मैं थककर चूर हो चुका था । मैं किसी प्रकार पहली मंजिल पर पहुंचा । सबसे पहले मैंने अपना सूटकेस वहां से निकाला जहां मैं उसे छिपाकर रख गया था । उस सूटकेस में चादर मौजूद थी । मैंने चादर निकाली और टार्च की रोशनी में उसे बिछाने के लिए कोई मुनासिब जगह तलाश करने लगा ।
तभी टार्च की रोशनी एक कोने में दीवार के साथ पीठ लगाये बैठे एक आदमी पर पड़ी । मेरे मुंह से एक सिसकारी निकल गई । मेरा दिल धक से रह गया । मैंने झपटकर जेब से रिवॉल्वर निकाल ली । मैंने रिवॉल्वर उसकी ओर तान दी और सशंक स्वर में पूछा - “कौन हो तुम ?”
वह आदमी मुस्कराया । वह मैला-कुचैला, सिर से लगभग गंजा लेकिन नौजवान आदमी था । वह एक घिसी हुई जीन और हाईनैक का पुलोवर पहने था । रिवॉल्वर से वह कतई भयभीत नहीं मालूम होता था ।
“कौन हो तुम ?” - मैं फिर बोला ।
“हैलो !” - वह बड़े सभ्य स्वर में बोला - “जिस आदमी के सूटकेस में सौ-सौ के नोटों का इतना मोटा बंडल हो, उसका इन भुतहे खण्डहरों में क्या काम ?”
“तुम्हें कैसे मालूम ?” - मैं कठोर स्वर में बोला ।
“अभी जब तुम सूटकेस में से चादर निकाल रहे थे तो टार्च की रोशनी में मेरी निगाह सूटकेस के भीतर पड़ी थी ।”
“ओह !”
“वैसे छिपने के लिए अच्छी जगह नहीं चुनी तुमने ।”
मैं घबरा गया ।
“तुम जानते हो मैं कौन हूं ?”
उसने बड़ी लापरवाही में सहमति में सिर हिलाया ।
“मुझे पहचानना इतना आसान तो न था ।” - मैं बोला - “यहां अंधेरा है । मेरा लिबास बदला हुआ है, चेहरा सूजा हुआ है, दाढी बढी हुई है...”
“ताड़ने वाले कयामत की नजर रखते हैं ।” - वह बड़े इत्मिनान से बोला ।
“तुम चाहते क्या हो ?”
“यह रिवॉल्वर भरी हुई है ?”
“हां ।”
“तो भगवान के लिए इसका रुख किसी और तरफ करो । मैं डरपोक आदमी हूं । मुझे डर लग रहा है । कहीं अनजाने में यह चल गई तो...”
“तुम चाहते क्या हो ?”
“कुछ नहीं चाहता, बिरादर, बल्कि तुम मुझसे कोई सेवा चाहते हो तो हुक्म करो ।”
“तुम मुझको पुलिस को नहीं पकड़वाना चाहते ?”
“राम-राम-राम । पुलिस में और मुझमें तो ईंट-कुत्ते का बैर है ।”
“हो कौन तुम ?”
“मेरा नाम मानक है । गरीब आदमी हूं । बहुत कड़का होता हूं तो यहां सोने आता हूं । आज यहां आया तो मुझे आते ही मालूम हो गया कि मेरे से पहले कोई और साहब तशरीफ ला चुके थे । मैं इन्तजार में बैठ गया । तभी तुम आ गये ।”
“हूं ।”
“वैसे मुझे तुम्हारे सूटकेस का अफसोस है ।” - वह उपहासपूर्ण स्वर में बोला - “अगर यह मुझे तुम्हारे आने से पहले दिखाई दे गया होता तो मैंने इसे जरूर पार कर देना था । कितना रुपया है इसमें ?”
“बहुत है ।”
“तो फिर इस खण्डहर में क्यों छिपे हो ?”
“और कहां जाऊं ?”
“अगर तुम पैसा खर्चो तो मैं तुम्हें एक बेहद सुरक्षित जगह ले जा सकता हूं । एक ऐसी जगह जहां तुम सुरक्षित तो रहोगे ही और अगर चाहोगे तो वहां तुम्हें ऐसे लोग भी मिल जायेंगे जो तुम्हें पुलिस की तमाम नाकाबन्दियों के बावजूद इस नगर से बाहर निकलवा देंगे ।”
“यूं ही ? फोकट में ?”
“फोकट में भी कोई काम होता है आज की दुनिया में ? पैसे के बदले में । मोटे माल के बदले में । मोटा माल है तुम्हारे पास ? लगता तो है कि है ।”
“इस जगह में क्या खराबी है ? सिवाय इसके कि यह टूटी-फूटी और गन्दी है ।”
“बहुत खराबी है । आज यहां केवल मैं आया हूं । कभी-कभी यहां मेरे जैसे दर्जनों लड़के जमा हो जाते हैं पुलिस का फेरा भी यहां अक्सर लगता रहता है । यह जगह पुलिस की जानकारी में है और पुलिस जानती है कि चोर-उचक्के छुपने के लिए यहां आते रहते हैं ।”
आखिरी बात ने मेरे छक्के छुड़ा दिये । यानी कि जब मैं वापस लौटा था तो मानक की जगह वहां पुलिस भी मौजूद हो सकती थी ।
“जिस जगह का तुम जिक्र कर रहे हो” - मैंने पूछा - “वह वाकई सुरक्षित है ?”
“एकदम ।”
“कहां है वो ?”
“बताता हू्ं पहले रिवॉल्वर जेब में रखो ।”
मैंने रिवॉल्वर जैकेट में रख ली और पूछा - “मेरी मदद करने में तुम्हारी क्या दिलचस्पी है ?”
“तुम्हारे पास पैसा है । तुम्हारे साथ चिपके रहने से शायद इस बन्दे की भी थोड़ी बहुत मौज आ जाये ।”
“जगह कहां है वह ?”
“चलो ।” - वह उठता हुआ बोला - “मैं तुम्हें ले चलता हूं ।”
मैंने चादर और टार्च वापिस सूटकेस में रख दी और सूटकेस बन्द कर दिया । उसने मेरा सूटकेस उठाना चाहा लेकिन मैंने उसे ऐसा नहीं करने दिया । उसने जिद नहीं की । मैंने सूटकेस उठा लिया । हम दोनों खण्डहरों से बाहर निकल आये ।
“एक बात याद रखना ।” - मैं चेतावनीभरे स्वर में बोला - “अगर मेरे साथ कोई धोखाधड़ी हुई तो तुम्हें मैं सबसे पहले शूट करूंगा ।”
“नहीं होगी ।” - वह बड़ी संजीदगी से बोला - “कसम दुर्गा भवानी की ।”
मैं खामोश हो गया ।
वह मुझे पैदल ही वापस शहर में ले आया । कई तंग गलियों में घुमाता-फिराता अन्त में वह मुझे मोती कटड़ा बाजार में स्थित एक इमारत के सामने ले आया । इस इमारत के नीचे दुकानें थीं और उनकी बगल में ऊपर को जाती सीढियां थीं जिनके दहाने पर लिखा था - होटल ।
“तुम यहीं ठहरो । मैं अभी आता हूं ।” - वह बोला और सीढियों की ओर बढ गया ।
उस समय सड़क सुनसान पड़ी थी । अपने खाली हाथ से रिवॉल्वर के दस्ते को टटोलता मैं इमारत से थोड़ी और परे अंधेरे में सरक गया ।
मैं आश्वस्त नहीं था । अगर वह मुझे किसी होटल में ठहराना चाहता तो उसमें सुरक्षा कहां थी ?
एकबारगी तो मेरे मन में यह ख्याल भी आया कि मैं उसकी गैरहाजिरी में वहां से खिसक जाऊं । लेकिन खिसककर जाता कहां मैं ? इतनी रात गये सुनसान सड़कों पर अकेले भटकना मेरे लिए इन्तहाई खतरनाक साबित हो सकता था ।
कोई पांच मिनट बाद वह सीढियों के दहाने पर प्रकट हुआ । उसने व्याकुल भाव से चारों तरफ देखा, फिर जब उसे मैं दिखाई दे गया तो उसने हाथ के इशारे से मुझे अपने पास बुलाया ।
मैं जल्दी से आगे बढा । उसके पीछे सीढियां चढता हुआ मैं ऊपर पहुंचा । ऊपर एक लम्बा पतला गलियारा था जिसमें से गुजरकर हम सिरे के कमरे में पहुंचे ।
वहां एक टूटी-फूटी कुर्सी पर एक मरदाने चेहरे वाली, लम्बी-चौड़ी, थुलथुली- सी औरत बैठी थी । उसने खुर्दबीन जैसी निगाहों से यूं मुझे देखा जैसे कोई कसाई किसी बकरे को परख रहा हो कि उसमें से कितना गोश्त निकलेगा । उसके चेहरे पर लालच की चमक दिखाई दे रही थी ।
“चाची ।” - मानक बोला - “इसी आदमी को स्पेशल कमरा चाहिए ।”
“और तुम्हें भी ।” - चाची खरखराती आवाज में बोली - “दो कमरों के एक दिन के तीन सौ रुपये । एडवांस निकालो ।”
“इतने पैसे ?” - मैं हैरानी से बोला - “यह क्या रामबाग पैलेस होटल है ?”
“बाबू !” - वह कर्कश स्वर में बोली - “तुम यहां तफरीह के लिए नहीं आये हो, छुपने के लिए आये हो । कीमत कमरे की नहीं, तुम्हारी हिफाजत की है जिसकी कि चाची हमेशा गारंटी करती है ।”
मैंने चुपचाप उसे तीन सौ रुपये निकालकर दे दिये ।
“ये एक दिन के हैं ।” - वह नोट उठाकर अपने गिरहबान में खोंसती हुए बोली - “आगे ठहरना हो तो चौबीस घण्टे खत्म होने से पहले अन्टी से नावां ढीला कर देना ।”
“अच्छा ।” - मैं बोला ।
“आओ ।”
मैं और मानक चाची के साथ हो लिए । वह हमें पहले जैसी अर्धप्रकाशित सीढियों के रास्ते उससे ऊपर की मंजिल पर ले आई । वहां एक गलियारे में ठिठककर उसने एक दरवाजा खोला और बोली - “मानक, यह तेरा कमरा है ।”
मैंने कमरे के भीतर झांका तो मुझे बड़ी मायूसी हुई । वह एक डिब्बा सा कमरा था जिसमें एक पलंग बिछा था और एक कुर्सी और मेज पड़ी थी ।
“डरो मत ।” - चाची मेरी दृष्टि का मन्तव्य समझकर बोली - “तुम्हारे लिए मेरे पास बेहतर कमरा है । इस भुक्खड़ के लिये यह ठीक है ।”
वह गलियारे के सिरे पर पहुंची । उसने चाबी लगाकर एक दरवाजा खोला । वह दरवाजा एक बहुत बड़ी अलमारी का था जिसमें सफाई में काम आने वाले झाड़ू और बाल्टियां वगैरह पड़ी थीं ।
मैं हड़बड़ाया ।
वह मेरी हड़बाड़ाहट का आनन्द लेती हुई हंसी । फिर उसने बाल्टियां, झाड़ू वगैरह एक ओर सरकाये और अलमारी में घुस गई । उसने भीतर लगी एक खूंटी को लीवर की तरह नीचे दबाया ।
अलमारी की पिछली दीवार निशब्द अपने स्थान से हट गई । आगे एक विशाल कमरा था । वह उसके भीतर घुस गई और उसने बिजली का स्विच ऑन कर दिया ।
कमरे में दो ट्यूब लाइट जल उठी ।
“आओ ।” - वह बोली ।
मैं आगे बढा । मानक ने अपने पीछे अलमारी का दरवाजा भीतरी ओर से बन्द कर लिया और मेरे साथ उस प्रकाशित कमरे में आ गया जिसमें चाची खड़ी थी ।
वह कमरा बहुत विशाल था और बहुत खूबसूरत ढंग से सजा हुआ था । पलंग पर फोम की मैट्रेस बिछी दिखाई दे रही थी । कुर्सियां भी गद्देदार थीं । मेज शीशे की थी और कमरे में एक एयर कण्डीशनर भी लगा हुआ था । साथ में अटैच्ड बाथरूम था । लेकिन उसमें खिड़की - रोशनदान वगैरह कुछ नहीं था । कमरे के एक कोने में एक छोटी-सी मेज पर टेलीफोन भी रखा दिखाई दे रहा था ।
“यह ठीक है ?” - चाची ने पूछा ।
मैंने सहमति में सिर हिलाया ।
“दुनिया की ऐसी कोई चीज नहीं जो पैसा खर्च करके यहां हासिल नहीं की जा सकती । तुम्हें यहां से हिलने तक की जरूरत नहीं । यह घण्टी है ।” - उसने मुझे एक बैल पुश दिखाया - “जब किसी चीज की जरूरत हो इसे बजा देना । मैं आ जाऊंगी ।”
जाहिर था कि कानून से भागे-फिरते लोगों को छुपाने के धन्धे का चाची को पुराना तर्जुबा था ।
मैंने सहमति से सिर हिलाया । मैंने सूटकेस मेज पर रख दिया और पलंग पर बैठ गया ।
“मानक कहता है तुम्हारे पास बहुत माल है ।” - चाची बड़े गौर से मुझे देखती हुई बोली ।
“बहुत तो नहीं ।” - मैं सहज भाव से बोला - “लेकिन है गुजारे लायक ।”
“मैं और भी बहुत कुछ हाजिर कर सकती हूं ।” - वह अर्थपूर्ण स्वर में बोली ।
“जो मुझे चाहिए था, मिल गया । एक रात की चैन की नींद । शुक्रिया ।”
“अकेले क्यों सोते हो ? कहो तो शराब और शबाब का इन्तजाम करूं ? बहुत उम्दा लड़की । बहुत उम्दा शराब । साठ रुपये की बोतल । सौ रुपये की लड़की ।”
मैंने इन्कार में सिर हिलाया ।
“लड़की कोई चीज होगी, रेत का बोरा नहीं । माल बढिया न हुआ तो मैं एक पैसा नहीं लूंगी ।”
“कौन-सी लड़की ?” - मानक व्यग्र स्वर में बोला ।
“जूली ।”
“भाई साहब ।” - मानक उत्तेजित स्वर में बोला - “वह तो वाकई बड़ी जानलेवा चीज है ।”
“मुझे नहीं चाहिए ।” - मैं रूखे स्वर में बोला ।
“तो मुझे दिलवा दीजिये, भाई साहब ।” - वह गिड़गिड़ाता हुआ बोला - “मैं उम्र-भर आपकी जय-जयकार करूंगा ।”
मैंने एक सौ का नोट निकालकर चाची की फैली हथेली पर रख दिया । मैं मानक का शुक्रगुजार था । आखिर वह मुझे ऐन मुनासिब जगह पर लाया था ।
“भाई साहब ।” - मानक और गिड़गिड़ाया - “वह बोतल भी...”
मैंने साठ रुपये और दे दिये ।
“हुजूर का इकबाल बुलन्द हो ।” - वह हर्षित स्वर में चिल्लाया - “मैं तो उम्र-भर ऐसा आनन्द हासिल होने की कल्पना नहीं कर सकता ।”
“अब फूटो ।”
वे दानों वहां से चले गये । उनके जाने के बाद अलमारी का पिछला भाग पूर्ववत अपने स्थान पर सरक आया ।
मैंने कपड़े उतारे, रिवॉल्वर तकिये के नीचे रखा और बिस्तर के हवाले हो गया ।
तकिये से सिर लगते ही मैं दीन-दुनिया से बेखबर सोया पड़ा था ।
***
दरवाजे पर दस्तक पड़ी तो मैं सोकर उठा ।
“कौन है ?” - मैंने सशंक स्वर में पूछा ।
“मानक ।” - उत्तर मिला ।
“आ जाओ ।”
मानक ने कमरे में कदम रखा ।
“बढिया नींद आई ?” - उसने पूछा ।
“हां ।” - मैं बोला, नींद वाकई बढिया आई थी - “कितने बजे हैं ?”
“दोपहर हो चुकी है ।”
“अच्छा ! बहुत सोया मैं ।”
“चाची तुमसे बात करना चाहती है ।”
“तुम जाओ । पन्द्रह मिनट बाद उसके साथ आना । तब तक मैं नहा-धो लूं ।”
वह सहमति में सिर हिलाता हुआ वहां से चला गया ।
मैं नित्यकर्म में निवृत्त हुआ । मैंने अपना हिप्पी परिधान फिर पहन लिया और पाइप निकालकर सुलगा लिया ।
तभी मानक के साथ चाची वहां पहुंची । वह चाय की ट्रे साथ लेकर आई थी । उसने पहले मुझे चाय बनाकर दी और फिर बोली - “मानक कहता है कि तुम नगर से बाहर निकलना चाहते हो । मैं इसका इन्तजाम कर सकती हूं । नगर से क्या, मैं तुम्हारा देश से भी निकलने का इन्तजाम कर सकती हूं ।”
“अच्छा ! कितने पैसे में ?”
“देश से निकलने का तीस हजार में । यहां से निकलने का पांच हजार में । इतना पैसा है तुम्हारे पास ?”
“अभी नहीं है, लेकिन मैं हासिल कर सकता हूं ।”
“ओह ! इस वक्त कितना पैसा है तुम्हारे पास ?”
उसे जबाव देने के स्थान पर मैंने उन दोनों से प्रश्न किया - “तुममें से किसी ने दिलावर सिंह का नाम सुना है ?”
मानक ने तुरन्त इन्कार में सिर हिला दिया लेकिन चाची सोचने लगी । कुछ क्षण बाद वह बोली - “दिलावर सिंह... इस नाम का तो एक बड़ा खतरनाक डकैत हुआ करता था । कोई तीन साल पहले उसने जयपुर में ही एक डाका डाला था और बड़े मोटे माल पर हाथ साफ करने में कामयाब हो गया था ।”
“तीन साल पहले ?”
“हां । लेकिन यह बात उससे ज्यादा पहले की भी हो सकती है । उसने दिन-दहाड़े नैशनल बैंक पर डाका डाला था और कोई पांच लाख रुपया लूट ले गया था लेकिन उस डाके के बाद जल्दी ही पकड़ा गया था वह ।”
“पकड़ा गया था ?”
“हां । और लम्बी सजा हुई थी उसे । शायद उम्र कैद । अभी भी जेल में होगा वह । तुम क्यों पूछ रहे हो ?”
जेल में तो दिलावर सिंह शर्तिया नहीं था ।
“यहां खाना कब मिलता है ?” - मैंने पूछा ।
“जब चाहो । कहो तो अभी ।”
“ठीक है । अभी ।”
“इक्कीस रुपये निकालो । बीस रुपये दो आदमियों के खाने के । एक रुपया चाय का ।”
मैंने उसे इक्कीस रुपये दे दियें ।
“और अगर अगली रात भी ठहरना है तो तीन सौ रुपये और निकालो ।”
“वह मैं शाम को दूंगा । लौटकर ।”
“कहीं जाने का इरादा है ?”
“हां ।”
“ठीक है । और अपनी नगर या देश से निकासी के बारे में भी सोच रखना ।”
“अच्छा ।”
वह चली गई ।
थोड़ी देर बाद जब वह खाने के साथ लौटी तो मैंने देखा, वह साथ में अखबार भी लाई थी । यह हैरानी की बात थी कि उसने अखबार के पैसे नहीं मांगे ।
मैंने खाते-खाते अखबार पढा ।
अखबार में मेरे फरार हो जाने की खबर मुखपृष्ठ पर छपी थी । साथ में मेरा हुलिया भी छपा था और मुझे पकड़वाने के लिए जयपुर पुलिस ने पांच सौ रुपये इनाम की भी घोषणा की थी ।
केवल पांच सौ रुपये ।
जबकि देश के छ: विभिन्न राज्यों द्वारा मेरी गिरफ्तारी पर छोटे-बड़े कुल मिलाकर पचास हजार रुपये के इनाम घोषित किये जा चुके थे ।
अखबार में यह भी छपा था कि कंचन का हत्यारा मोटर मैकेनिक बसन्त कुमार आदर्श नगर में सागर अपार्टमेंट्स में मैनेजर से जबरन चाबी छीनकर कंचन के फ्लैट में घुसा था । पुलिस यह समझ नहीं पाई थी कि कंचन के फ्लैट में घुसने के पीछे हत्यारे का मन्तव्य क्या था !
हत्यारे ने इमारत से निकलने के बाद अनिल नामक एक युवक पर आक्रमण करके उससे उसकी विलायती कार छीन ली थी । अखबार में कार का नम्बर भी छपा था और जनता से अपील की गई थी कि अगर कोई उस कार को कहीं देखे तो फौरन पुलिस को सूचना दे ।
एक बात बड़ी हैरान कर देने वाली थी ।
अखबार में शीतल नाम की उस लड़की का कतई जिक्र नहीं था जिसे वह मैनेजर के कमरे में छोड़कर आया था ।
चाची बर्तन लेने आई तो मैं उससे बोला - “मुझे एक कार चाहिए ।”
“कार नहीं मिलती” - वह रुखाई से बोली - “तुम लेकर भाग गये तो ?”
“लेकिन...”
“फिर भी चाहिए तो पन्द्रह हजार रुपये सिक्योरिटी जमा करानी पड़ेगी । बोलो हैं तुम्हारे पास ?”
“नहीं ।” - मैं बोला । मैं उसे ज्यादा पैसे की जानकारी नहीं देना चाहता था । उसके मन में बईमानी आ सकती थी ।
“तो फिर कार भी नहीं ।” - वह बोली और बर्तन उठाकर चली गई । अखबार वह अपने साथ चली गई । अखबार वह अपने साथ ले गई । शायद इसीलिए उसने अखबार के पैसे नहीं मांगे थे ।
“भाई साहब ।” - मानक विनीत स्वर में बोला - “कल रात आपने मुझ पर बहुत अहसान किया था । आपकी वजह से मुझे जन्नत का नजारा हुआ । कार मैं आपको दिला सकता हूं ।”
“कैसे ?”
“कैसे भी ।”
“अगर तुम मुझे कुछ घंटों के लिए एक कार दिला दो तो समझ लो कि जूली आज रात फिर तुम्हारे बिस्तर में । और विस्की की बोतल भी ।”
“जुग-जुग जियो मेरे राजा ।” - वह हर्षित स्वर में बोला और उठकर खड़ा हो गया - “बस मैं गया और आया ।”
“लेकिन कार तुम हासिल कैसे करोगे ?”
“मैं अभी अया ।” - वह दरवाजे की तरफ लपका ।
“अरे, मुझे चोरी की कार नहीं चाहिए ।”
लेकिन उसके सुना ही नहीं । वह वहां से बाहर निकल गया ।
***
एक घंटे के बाद मानक वापिस आया और एक विजेता के से स्वर में बोला - “कार बाहर खड़ी है । पुरानी फियेट है, लेकिन गारंटी है कि दगा नहीं देगी ।”
“लेकिन कार तुम लाए कहां से हो ?”
“चोरी करके ।” - वह सहज भाव से बोला - “और कहां से ?”
“मुझे चोरी की कार नहीं चाहिए । मरवाओगे मुझे ! मैं न पकड़ा जाता भी पकड़ा जाऊंगा ।”
“ऐसी नहीं होगा । कार मैंने ऐसी जगह से चुराई है जहां से रात से पहले उसकी गैरहाजिरी की किसी को खबर नहीं लगेगी । और मैंने उसकी नम्बर प्लेट बदल दी है ।”
मैं आश्वस्त तो नहीं हुआ । लेकिन वह कार इस्तेमाल करने के अलावा कोई चारा नहीं था । वह बेचारा गरीब आदमी और कहां से कार ला सकता था !
मैं उठ खड़ा हुआ ।
चाबी के नाम पर मानक ने मुझे एक टीन की मुड़ी-तुड़ी पत्ती थमा दी । उसने इमारत से बाहर आकर मुझे कार दिखा दी ।
मैं कार पर सवार हो गया और आगे बढा ।
किसी ने मेरी ओर ध्यान नहीं दिया ।
एक पब्लिक टेलीफोन से मैंने गुलाब महल फोन किया तो मुझे बताया गया कि शेखावत साहब उस वक्त वहां नहीं, अपनी मिल के ऑफिस में होते थे ।
मुझे ऐसी ही उम्मीद थी ।
साथ ही मुझे बताया गया कि कमला देवी जी, शेखावत साहब की पत्नी महल में मौजूद थीं और मैं उनसे बात कर सकता था लेकिन मैंने यह कहकर फोन बन्द कर दिया कि मुझे शेखावत साहब से ही काम था ।
मैं गुलाब महल पहुंचा ।
फाटक पार करके लम्बे अर्धवृताकार ड्राइव वे पर कार चलाते हुए मैंने कार को महल की पोर्टिको में ले जाकर रोका ।
तुरन्त कहीं से एक नौकर प्रकट हुआ और लपककर कार के पास पहुंचा ।
“शेखावत साहब वापिस आए ?” - मैंने अधिकारपूर्ण स्वर में उसे पूछा ।
“नहीं साहब ।” - वह विनीत भाव से बोला - “वे तो इस वक्त हमेशा मिल में होते हैं ।”
“मुझे मालूम है लेकिन आज मेरी उनसे यहां मुलाकात होनी पहले से ही निर्धारित हो चुकी थी । वे आते ही होंगे ।” - मैं कार से बाहर निकला - “कमला देवी तो होंगी घर पर ?”
“जी हां । अभी थोड़ी देरे पहले मैंने उन्हें स्वीमिंग पूल के पास देखा था ।”
“शुक्रिया । तक तक मैं उनसे बात करता हूं ।”
उसने सहमति में सिर हिलाया ।
महल की मुख्य इमारत का घेरा काटकर मैं पिछवाड़े की तरफ बढा मेरे ख्याल में स्वीमिंग पूल वहीं हो सकता था ।
स्वीमिंग पूल पिछवाड़े में ही था । उसमें एक टू पीस स्विम सूट पहने एक स्त्री तैर रही थी । मुझे समीप आता देखकर वह पानी से बाहर निकली और उसने एक लम्बा गाउन पहन लिया ।
मैं सन्नाटे में आ गया । अगर शेखावत की बीवी वह थी तो कमाल था । वह इन्तहाई खूबसूरत, सांचे में ढले जिस्म वाली औरत थी । नाहर सिंह के कथनानुसार उसकी शादी हुए बीस-इक्कीस साल हो चुके थे जबकि वह मुझे कुल ही बीस-इक्कीस साल की लग रही थी । मैं हरगिज नहीं मान सकता था कि वह ठण्डी औरत हो सकती थी । शेखावत की कंचन से आशनाई की बात से तो मैं समझा था कि वह कोई मोटी, थुल-थुल, अधपके बालों वाली अधेड़ अवस्था की औरत होगी । लेकिन इतनी ताजगी ! इतनी बानगी ! इतना जलाल !
“कमला देवी जी !” - मैंने समीप आकर पूछा ।
“हां ।” - वह मधुर स्वर में बोली - “फरमाइये ।”
तो वह और कोई नहीं शेखावत की बीवी ही थी । मैं दावे से कह सकता था कि उम्र के फर्क के अलावा कंचन उस औरत से किसी लिहाज से बेहतर नहीं थी ।
प्रत्यक्षत: मेरी तारीफी निगाहें अपने पर पड़ती पाकर वह परेशान नहीं हो रही थी बल्कि मन ही मन खुश हो रही थी ।
“माफ कीजियेगा” - मेरे मुंह से अपने आप ही निकल गया - “जो मैं देख रहा हूं, मुझे वह देखने की उम्मीद नहीं थी ।”
“अच्छा !” - वह लापरवाही से बोली - “आपको क्या उम्मीद थी ?”
मैं हंसा ।
“मुझे किसी ने कभी बताया ही नहीं कि कोई स्वर्ग की अप्सरा रूपसिंह शेखावत की बीवी थी ।”
“तारीफ का शुक्रिया । आप शेखावत साहब के दोस्त हैं ? या उनके किसी दोस्त के साहबजादे हैं ?”
“दोनों ही बातें गलत । दरअसल मेरा उनसे व्यापारिक सम्बन्ध है । दरअसल मैं उस एडवरटाइजिंग एजेन्सी का आर्ट डायरेक्टर हूं, जो शेखावत साहब की सारी मिलों के उत्पादनों का विज्ञापन करती है । दिल्ली से आया हूं । शेखावत साहब ने कहा था कि वे मुझे यहां मिलेंगे लेकिन शायद कहीं अटक गये वह ।”
“अगर उन्होंने आपको कहा था तो वे आते ही होंगे । आप तशरीफ रखिये । मैं कपड़े बदलकर आती हूं ।”
“जरूर ।”
“क्या नाम बताया था आपने अपना ?”
“विमल ।”
“आप टैरेस पर बैठिये । मैं अभी हाजिर हुई ।”
“जरूर ।”
उसने एक चित्ताकर्षक मुस्कराहट मुझ पर डाली और फिर मदमाती चाल चलती हुई इमारत की ओर बढ गई । मैं औरतों के उन नाज-नखरों से खूब वाकिफ था । वह मुझे रिझाने की कोशिश कर रही थी ।
मैं टैरेस पर पड़ी कुर्सियों में से एक पर बैठ गया ।
थोड़ी देर बाद वह एक खूबसूरत साड़ी में लिपटी इठलाती, बल खाती वापिस लौटी । वह समीप आकर मेरे सामने एक कुर्सी पर बैठ गई ।
तभी एक वर्दीधारी नौकर कॉफी सर्व कर गया ।
“अगर इससे ज्यादा गर्म ड्रिंक्स के शौकीन हो” - वह शरारतभरे स्वर में बोली - “तो तुम्हें शेखावत साहब के आने तक इन्तजार करना पड़ेगा ।”
“जी नहीं ।” - मैं बोला - “इस वक्त यही ठीक है । मुझे इतनी ज्यादा गर्म चीजों का शौक नहीं कि मुंह ही जल जाये और” - मैं एक क्षण ठिठका और बोला - “कलेजा भी ।”
वह हंसी ।
मैंने कॉफी का कप उठाया और बड़े अर्थपूर्ण ढंग से उसे देखता हुआ बोला - “जो सामने मौजूद है, वही ठीक है ।”
वह फिर हंसी ।
“एक बात कहूं ?” - मैं बोला ।
“कहो ।”
“आपसे मिलने के बाद हैरानी हो रही है कि शेखावत साहब इतना समय घर से बाहर गुजारते हैं ।”
वह सकपकाई । उसने गौर से मेरी तरफ देखा । मैं निडर भाव से उसकी आंखों में झांकता रहा फिर उसके चेहरे से सकपकाहट गायब हो गई और उसका स्थान उदासी ने ले लिया ।
“सारा शहर वजह जानता है ।” - वह बोली ।
“अगर कोई आप जैसी परम सुन्दरी मेरे घर में बैठी होती तो मैं तो छ:-छ: महीने घर की चौखट के बाहर कदम न रखता ।”
“सब कहने की बातें हैं । तुम सब मर्द एक ही जैसे होते हो । भंवरे । कली-कली का रस चूसने वाले । किसी एक के प्रति - खास तौर से घर की औरत के प्रति - तुम लोग भला कैसे ईमानदार रह सकते हो !”
“आप जैसी औरत घर पर हो तो लानत भेजिये उस पर जो कहीं और झांकने भी जाये ।”
“तुम बातें बड़ी अच्छी करते हो । तुम्हारी बातों ने तो मेरा हौसला बुलन्द कर दिया है । यहां आते-जाते रहा करो ।”
“अच्छा !”
अब मैं और दिलेर हो उठा - “मेरी समझ में नहीं आता कि आपके पति आप जैसी शानदार औरत घर में होते हुए उस कंचन नाम की घटिया लड़की से कैसे रिश्ता रखे हुए थे !”
यहां मुझसे गलती हो गई । शायद यह बात मुझे जरा चालाकी से कहनी चाहिए थी या थोड़ा रुककर, माहौल को परखकर कहनी चाहिए थी ।
उसके चेहरे से एकाएक मिठास के सारे भाव गायब हो गये और उसका स्थान सख्ती और सन्देह ने ले लिया ।
“क्या चक्कर है ?” - वह कठोर स्वर में बोली - “तुम कौन होते हो ऐसी बात कहने वाले ?”
“मैं एक प्राइवेट जासूस हूं ।” - मैं जल्दी से बिगड़ी बात बनाने की कोशिश में बोला - “आपके पति ने मेरी सेवायें प्राप्त की हैं ।”
“मेरे पति ने ? क्यों ? किसलिये ?”
“उन्हें किसी ब्लैकमेलर ने फोन किया था और कहा था कि कंचन की हत्या की रात उसने आपको कंचन के कॉटेज के पास देखा था ।”
“बकवास ।” - वह क्रोधित स्वर में बोली - “शेखावत साहब ऐसी किसी बात की तफ्तीश के लिये कोई प्राइवेट जासूस क्यों रखेंगे ? उन्हें खूब मालूम है कि हत्या की रात को मैं यहां पार्टी में महल में कई मेहमानों के बीच मौजूद थी । नहीं, नहीं । तुम मेरे पति द्वारा रखे कोई प्राइवेट जासूस नहीं हो सकते । सच-सच बोलो, कौन हो तुम ?”
मैं कोई जवाब सोच ही रहा था कि मुझे अपने पीछे इमारत की तरफ से आता एक स्त्री स्वर सुनाई दिया - “मम्मी, मैं... ओह, सॉरी । मुझे नहीं मालूम था कि तुम व्यस्त हो ।”
मैंने घूमकर आवाज की दिशा में देखा ।
मेरे पीछे शीतल खड़ी थी ।
वह लड़की जो मुझे सागर अपार्टमैंट्स में कंचन के फ्लैट में मिली थी ।
मुझे देखकर शीतल भी सकपकाई ।
मैंने देखा कमलादेवी से उसकी इतनी शक्ल मिलती थी कि मेरी समझ में नहीं आया कि मुझे पहले क्यों नहीं सूझा था कि उन दोनों में कोई रिश्ता हो सकता था ।
“बोलो, बेटी ।” - कमलादेवी बोली - “क्या बात थी ?”
“कुछ नहीं” - शीतल अभी भी अपलक मुझे देख रही थी - “कोई खास बात नहीं थी ।”
मैं अविचलित दिखने का भरकस प्रयत्न कर रहा था ।
“मैं फिर बात करूंगी ।” - वह बोली । एकाएक वह घूमी और लम्बे डग भरती हुई वापिस इमारत की ओर बढ गई ।
“अब आप बोलिये, जनाब !” - कमलादेवी मुझे कह रही थी - “किस चक्कर में हैं आप ?”
“मैं पहले ही अर्ज कर चुका हूं ।” - मैं बोला लेकिन मेरा ध्यान शीतल की तरफ लगा हुआ था - “आपके पति ने मुझे उस ब्लैकमेलर के दावे को चैक करने के लिए नियुक्त किया है ।”
“वह ब्लैकमेलर यह कहता है कि उसने मुझे हत्या की रात को कंचन के कॉटेज के पास देखा था ?” - वह तीव्र स्वर में बोली ।
मुझे जल्दी से जल्दी वहां से खिसकना था । पुलिस शायद अब तक वहां कि लिये रवाना हो भी चुकी थी । मैं उठ खड़ा हुआ और बोला - “वह मैंने झूठ कहा था । आपको टटोलने की खातिर । वास्तव में अभी यह बात स्पष्ट नहीं है कि वह ब्लैकमेलर क्या चाहता है । लेकिन वह कहता है कि उसके पास कोई ऐसा सबूत है जो आपका सम्बन्ध कंचन की हत्या के साथ जोड़ सकता है ।”
“कैसे ? क्या किया है मैंने ? मैंने कंचन का कत्ल किया है ?”
“या शायद करवाया हो ?”
“मुझे ऐसा करने की जरूरत क्या थी ?”
“मैडम, आखिर कंचन आपके पति की रखैल थी । आपको नापसन्द तो वह जरूर रही होगी ।”
“मुझे अपने पति के ऐसे रिश्तों की परवाह नहीं । मैंने बहुत पहले से ऐसी बातों पर सिर धुनना छोड़ दिया है !”
“लेकिन कम से कम आपको उसकी मौत पर अफसोस तो नहीं रहा होगा न ?”
“मेरी बला से वह मरे या जिये । देखो, मुझे तुम्हारी बातों पर कतई विश्वास नहीं । तुम कोई फ्रॉड हो । तुम मेरे पति द्वारा नियुक्त किये गये कोई प्राइवेट जासूस नहीं हो सकते । ऐसे मामलों में मेरे पति मुझसे बात किये बिना कोई कदम नहीं उठाते । अब सच-सच बताओ, असल में तुम किस फिराक में हो ? नहीं तो मैं पुलिस को फोन करती हूं ।”
“ऐसा मत कीजियेगा ।” - मैं चेतावनीभरे स्वर में बोला - “ऐसा कुछ करने से पहले अपने पति से बात जरूर कर लीजियेगा । और अब तक के लिए बन्दा चला ।”
मैं लम्बे डग भरता हुआ वहां से विदा हो गया । उसने मुझे रोका नहीं । वह चिन्तापूर्ण मुद्रा बनाये यथास्थान बैठी रही ।
पोर्टिको में आकर मैं कार में सवार हुआ और वहां से रवाना हो गया ।
फाटक से बाहर निकलकर अभी मैं सड़क पर थोड़ी ही दूर गया था कि मुझे सड़क पर एक किनारे एक लाल रंग की वोल्क्सवैगन खड़ी दिखाई दी । उसकी ड्राइविंग साइड का दरवाजा खुला था और वहां दरवाजे से बाहर टांगें लटकाये शीतल बैठी थी ।
यानी कि उसने पुलिस को फोन नहीं किया था ।
मैंने कार को उससे आगे ले जाकर रोका और उसमें से उतरकर वापिस लौटा ।
“हैल्लो !” - मैं समीप आकर मजाक भरे स्वर में बोला - “मेरा इन्तजार कर रही हो ?”
“क्यों ?” - वह बोली - “तुम शाहजादा गुलफाम हो ?”
“इस वक्त सूरत पर बारह बजे हुए हैं” - मैं अपने दायें हाथ की पीठ को अपने शेव बढे चेहरे पर रगड़ता हुआ बोला - “वैसे कम तो नहीं हूं शाहजादा गुलफाम से ।”
उसने एक बार गौर से मेरी सूरत देखी और फिर बोली - “ऐसे ही अच्छे लग रहे हो ।”
“शुक्रिया ।” - मैं बोला - “मैं तो समझा था कि तुम पुलिस को फोन करने वाली थी ।”
“न । मैंने तो ऐसा सोचा तक नहीं था ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि अब मुझे विश्वास नहीं कि तुम हत्यारे हो ।”
“अच्छा !”
“अगर तुमने कंचन की हत्या की होती तो तुम कहीं छुपकर बैठे होते । उसके बारे में पूछताछ न करते फिर रहे होते । पूछताछ के मामले में हमारे परिवार पर तो तुम खास-तौर से मेहरबान मालूम होते हो । पहले मैं, फिर मेरे पापा और मम्मी भी, तुम्हारे खोजपूर्ण सवालों का शिकार हुई है । नहीं, कत्ल तुमने नहीं किया । तुम तो यह मालूम करने की कोशिश रहे हो कि असल में कत्ल किसने किया है । ठीक ?”
“बहुत समझदार हो तुम ।”
“तुम चाहो तो मैं तुम्हारी मदद कर सकती हूं ।”
“तुम क्या मदद करोगी मेरी ?”
“कुछ भी ।”
“और क्यों करोगी ?”
“क्यों करूंगी ? क्या तुम्हें मदद हासिल होती बुरी लग रही है ?”
“नहीं-नहीं, मेरा यह मतलब नहीं था ?”
“तो क्या मतलब था ?”
“यहां से चलो । यह खतरनाक इलाका है । क्या पता तुम्हारी मम्मी पुलिस को फोन करने से बाज न आई हो ?”
और मैं उसकी कार में सवार हो गया ।
“तुम्हारी कार का क्या होगा ?” - उसने पूछा
“वह मेरी कार नहीं है ।”
उसने अपनी टांगें भीतर करके कार का अपनी ओर का दरवाजा बन्द किया और कार चला दी । लगभग फौरन ही कार सत्तर-अस्सी किलोमीटर की रफ्तार से चलने लगी । वह दक्ष ड्राइवर थी, इसमें कोई शक नहीं था ।
“कहां जा रही हो ?” - एकाएक मैंने पूछा ।
“एक बहुत अच्छी जगह ।” - वह बोली ।
“मैं किसी पब्लिक प्लेस नहीं जाऊंगा ।”
“वह वैसी पब्लिक प्लेस नहीं जैसी तुम समझ रहे हो । घबराओ मत । वहां तुम्हें कोई नहीं पहचानेगा ।”
“तुमने तो मुझे झट पहचान लिया था ।”
“मेरी बात और है ।”
मैं खामोश हो गया । वह चुपचाप कार चलाती रही और मैं उसे देखता रहा । वह बहुत ही शानदार लड़की थी, लेकिन उसके चेहरे के सख्त असन्तोष, कुण्ठा और संत्रास के भाव उसकी खूबसूरती को बिगाड़ रहे थे । हकीकत में उसके खूबसूरत चेहरे पर कोई खूबसूरत भाव होने चाहिए थे । मैं उस किस्म को खूब पहचानता था । अच्छे घरों की बुरी नीयत वाली सभी लड़कियां ऐसी ही होती थीं - जिन्दगी से बोर । हर बात से खफा । जिन्हें सब कुछ हासिल होने पर भी लगता है कुछ नहीं मिला ।
“वैसे” - मैंने एकाएक पूछा - “कंचन की हत्या की रात को तुम कहां थी ?”
“अब तुम यह कहना चाह रहे हो कि मैंने उसकी हत्या की है ?”
“नहीं । यूं ही पूछ रहा हूं ।”
“उस रात मैं अपने बॉयफ्रैंड के साथ थी । उसके फ्लैट पर । सारी रात । कहो तो पुछवा दूं ?”
“कौन से बॉयफ्रैंड के साथ ? उसके साथ जो कल रात सागर अपार्टमैंट्स के बाहर तुम्हारे साथ में बैठा था ?”
“अनिल ? नहीं, उसके साथ नहीं । किसी और के साथ ।”
“तुम्हारे बहुत बॉयफ्रैंड हैं ?”
“हां ।” - वह निर्भीक स्वर में बोली ।
“कल तुम कंचन के फ्लैट में क्यों गर्इ थीं ? और तुम्हारे पास उस फ्लैट की चाबी कहां से आई ?”
“चाबी मैंने अपने पापा की जेब से निकाली थी । और मैं वहां गई इसालिये थी क्योंकि मैं देखना चाहती थी कि रखैलें कैसे रखी जाती हैं । मुझे वह फ्लैट देखकर बड़ी निराशा हुई । मैंने तो समझा था कि फ्लैट किसी विलासी बादशाह के हरम की तरह सजा होगा । लेकिन वह तो मामूली फ्लैट निकला ।”
“अच्छा-भला फ्लैट था वह ।”
“रहने के लिए । लेकिन मैं तो उसे किसी और ही निगाह से देखने गई थी । बहरहाल पलंग बढिया था । खूब बड़ा । खूब नर्म । काफी कलाबाजियां खाई जा सकती थीं उस पर ।”
मैं खामोश रहा ।
तभी उसने कार को एक इमारत के सामने लाकर रोका । मैंने देखा उस पर लिखा था - हॉलीडे इन ।
मैं उसके साथ इमारत के भीतर दाखिल हुआ । वह मुझे रेस्टोरेन्ट के एक तनहा कोने में ले आई । रास्ते में उसने एक वेटर को पता नहीं क्या इशारा किया था कि वह हमारे बैठते ही हमें असाधारण रूप से लम्बे गिलासों से ब्लडी मैरी सर्व कर गया ।
हम दोनों ब्लडी मैरी की चुस्कियां लेने लगे ।
“तुम मेरी क्या मदद कर सकती हो ?” - मैंने उससे पूछा ।
“तुम्हारी पहली मदद तो मैं तुम्हें यह विश्वास दिलाकर करना चाहती हूं कि हमारे परिवार में से किसी ने कंचन का कत्ल नहीं किया है । पुलिस इस सन्दर्भ में हमसे खूब पूछताछ कर चुकी है । उन्हें विश्वास है कि हममें से कोई कातिल नहीं ।”
“और पूछताछ किसने की थी ?”
“एक जिम्मेदार पुलिस अधिकारी ने । एक इन्स्पेक्टर ने ।”
“जिसका नाम महिपाल सिंह है ?”
“तुम्हें कैसे मालूम ?”
“अन्दाजा लगाया है । वह इन्स्पेक्टर तो तुम्हारे बाप की जेब में है ।”
उसने क्रोधित भाव से मेरी तरफ देखा ।
“उसने तुमसे भी पूछा था कि हत्या की रात को तुम कहां थी ?” - मैंने सवाल किया ।
“हां ।” - वह बोली ।
“और तुमने बता दिया ?”
“हां । सब जानते हैं मैं कोई सती-सावित्री नहीं हूं ।”
“तुम्हारे मां-बाप नाराज नहीं हुए ?”
“खूब नाराज हुए । उनका तो काम ही नाराज होना है । लेकिन कौन परवाह करता है !”
“तुम्हारे मां-बाप तुम पर काफी अंकुश नहीं रख पाते मालूम होते ।”
“कोशिश तो बहुत करते हैं लेकिन कामयाब नहीं हो पाते ।”
“मैं तुम्हारा बाप होता तो तुम्हारी दोनों टांगें तोड़कर तुम्हें घर के किसी खाली स्टोर में बन्द कर देता ।”
“शुक्र है खुदा का कि तुम मेरे बाप नहीं हो ।”
ब्लडी मैरी में वोदका बहुत ज्यादा मालूम होती थी । आधा गिलास पीने तक मुझे तरंग महसूस होने लगी ।
“तुम्हें यह कैसे मालूम है कि कल मेरी तुम्हारे पापा से भी बात हुई थी ?” - मैने पूछा ।
“वे मम्मी को बता रहे थे । बात मुझे भी सुनाई दे गई थी ।”
“अखबार में कंचन के फ्लैट में मेरे जाने की तो खबर छपी थी, लेकिन उसमें तुम्हारा जिक्र नहीं था । क्यों ?”
“मैं नहीं चाहती थी कि यूं अखबार में मेरा नाम आये । फिर पापा को भी पता चल जाता कि मैं उनकी रखैल का फ्लैट देखने गई थी जो कि मैं कतई नहीं चाहती थी । इत्तफाक से तफ्तीश के लिये वहां इन्स्पेक्टर महिपाल सिंह आया था । मैंने उसे समझा दिया था ।”
“लेकिन तुम्हारे बारे में मैनेजर भी तो जानता था ?”
“उसे इन्स्पेक्टर ने समझा दिया था ।”
“आई सी । दौलतमन्द आदमी की औलाद होने के वाकई बड़े सुख हैं ।”
वह मुस्कराई । उसने वेटर को संकेत किया । वेटर दो ब्लडी मैरी और सर्व कर गया ।
“इसमें टोमैटो जूस कम है, वोदका ज्यादा है ।” - मैंने शिकायत की ।
“इसी में तो मजा है ।” - वह बोली ।
मैं खामोश रहा ।
वह गौर से मेरा चेहरा देखने लगी ।
“क्या देख रही हो ?” - मैं नर्वस भाव से बोला ।
“कुछ नहीं ।” - वह बोली - “अखबार के मुताबिक हत्या की रात को तुम सारी रात कंचन के साथ थे । उसके बिस्तर में ?”
“झूठ । सिर्फ एकाध घण्टा ।”
“कैसी थी वह ? मेरा मतलब है बिस्तर में ।”
“यह सवाल तुम अपने बाप से क्यों नहीं पूछतीं ? वह मुझसे बेहतर जानता है ।”
“स्साला बाप !” - वह जहरभरे स्वर में बोली ।
मैंने अपना दूसरा गिलास भी खाली किया और बोला - “चलो, चलें यहां से ।”
“हां ।” - वह बोली - “यहां मजा नहीं आ रहा । ड्राइव के लिये चलते हैं ।”
मैंने सहमति में सिर हिलाया ।
“यहां से वोदका की एक बोतल ले लेते हैं । रास्ते में...”
“खबरदार !”
“डरपोक ।”
वैसी ही टोन में वही शब्द उसने कल रात कार में अनिल को कहा था । मर्दों के पौरुष को ललकारने का वह शायद उसका अपना तरीका था ।
हम वहां से उठे । मेरे बहुत जिद करने पर भी शीतल ने मुझे बिल नहीं चुकाने दिया । हम बाहर पहुंचे । मैं उससे पहले कार की ड्राइविंग सीट पर बैठ गया ।
“अरे !” - वह हैरानी से बोली - “कार मेरी है ।”
“लेकिन इसे चलाऊंगा मैं ।” - मैं दृढ स्वर में बोला - “मुझे तुम्हारी ड्राइविंग से डर लगता है ।”
“तुम तो बहुत ही ज्यादा डरपोक हो ।” - वह तिरस्कारपूर्ण स्वर में बोली - “मुझे तो शक है कि तुमने कंचन की उंगली भी छुई होगी कि नहीं ।”
“उंगली तो छुई थी ।”
“एक बात बताऊं !” - वह बोली - “मैं कंचन से इतनी प्रभावित थी कि मैं केवल उसकी अदायें स्टडी करने के लिए चेतक क्लब जाया करती थी । मैं उसकी नकल करके चाहती थी कि मर्द को बेकाबू कर देने के जो गुण उसमें थे, वे मुझमें भी आ जायें ।”
“तुम्हें कब से मालूम है कि कंचन तुम्हारे बाप की रखैल थी ?”
“जब से मम्मी को मालूम है । मम्मी ने ही मुझे बताया था ।”
“उसने तुम्हें क्यों बताया ?”
“हमदर्दी हासिल करने के लिए । पापा के खिलाफ मुझे अपनी ओर मिलाने के लिये । लेकिन मुझे न मम्मी पसन्द है और न पापा । दोनों ही घटिया लोग हैं ।”
“और तुम बढ़िया हो ?”
“हां, मैं बढ़िया हूं ।” - वह बोली । एकाएक उसका पुष्ट वक्ष इतनी जोर से ऊपर उठा कि मुझे लगा कि उसकी कमीज के बटन पटाक-पटाक टूटने जा रहे थे लेकिन वे टूटे नहीं । मैंने हड़बड़ाकर गाड़ी स्टार्ट कर दी और उसे मंथर गति से चलाने लगा ।
“मुझे अपने मां-बाप के बारे में बताओ ।” - मैं बोला ।
“क्या बताऊं ?” - वह बोली ।
“तुम्हारी मां इतनी खूबसूरत है । फिर भी तुम्हारे पापा एक गैरऔरत के चक्कर में क्यों पड़े रहे ?”
“क्योंकि मेरी मां एक संगमरमर से तराशी मूर्ती की तरह है । बेहिस । बेजान । वह एकदम ठण्डी औरत है । उसने मुझे पैदा कर दिया, समझो करिश्मा कर दिया ।”
“कमाल है ! विश्वास नहीं होता ।”
“तुम्हें विश्वास इसलिये नहीं होता क्योंकि तुम उसके नाज-नखरे अपनी आंखों से देखकर आये हो । मेरी मां तुम पर डोरे डालने की कोशिश कर रही थी । है न ?”
मैंने झिझकते हुए हामी भरी ।
“वह हर मर्द के साथ यूं ही पेश आती है । मर्दों को मूर्ख बनाने का यह उसका अपना तरीका है । वह यह तो चाहती है कि मर्द उसकी खूबसूरती से प्रभावित होकर उस पर मर मिटें लेकिन वह यह नहीं चाहती कि उनके हाथ भी कुछ लगे । सैक्स में उसकी कतई कोई दिलचस्पी नहीं ।”
“ओह !”
“कंचन कोई पहली लड़की नहीं, जिसमें पापा ने ऐसी दिलचस्पी ली थी । पापा को पता लगने की देर थी कि उन्हें बीवी के स्थान पर एक बर्फ की सिल्ली हासिल हुई थी कि उन्होंने दायें-बायें ताक-झांक शुरु कर दी थी । मैंने तो जब से होश सम्भाला है, मैं अपनी मां के मुंह से अपने बाप की आशनाइयों के किस्से सुनती चली आ रही हूं ।”
“तुम्हें अपने मां-बाप से बड़ी विरक्ति मालूम होती है ।”
“मुझे नफरत है उनसे । उनके अपने ये लच्छन हैं और वे लोग मुझसे उम्मीद करते हैं कि मैं राम नाम की माला जपा करुं । मां मुझे हमेशा यह उपदेश देती रहती है कि सारे मर्द हरामजादे होते हैं, जो हमेशा एक ही चीज के पीछे भागते हैं और औरत को उनकी परछाई से भी बचकर रहना चाहिए । जबकि वह खुद बेयरों, खानसामों तक को अपनी सैक्स अपील से प्रभावित करने की कोशिश करती हैं । पहले मुझे अपनी मां से हमदर्दी होती थी, लेकिन जल्दी ही मेरी समझ में आ गया कि वह अक्ल की अन्धी थी, घटिया औरत थी और मुझे गलत पट्टी पढाने की कोशिश करती थी । वह मुझे अपने जैसा बनाना चाहती थी । भगवान का शुक्र है, मैं उसकी बातों में नहीं आई ।”
“न सिर्फ तुम उसकी बातों में नहीं आई, तुमने यह साबित करके दिखाना शुरु कर दिया कि तुम वह नहीं हो, जो तुम्हारी मां है । ठण्डी औरत ।”
“हां, मैं ठंडी औरत नहीं ।” - वह कहरभरे स्वर में बोली - “जयपुर के दर्जनों नौजवान इस बात के गवाह हैं । मैं असली औरत हूं । वैसी औरत जैसी हर औरत को होना चाहिये । शायद उससे भी बेहतर ।”
मुझे वह नशे में बहकती लगी ।
“मैं कंचन से भी बढिया हूं ।” - वह बोली । एकाएक उसने अपनी बांहें मेरे गले में डाल दीं और मुझे अपनी तरफ खींचकर अपने होंठ मेरे होंठों पर रख दिये ।
मुझे सड़क दिखाई देनी बन्द हो गई । गाड़ी सड़क पर लहराने लगी और एक पेड़ से टकराने से बाल-बाल बची । मैंने घबराकर गाड़ी रोक दी ।
मैंने देखा उसकी कमीज के बटन खुल गये थे और उसकी दूधिया छातियां तीन-चौथाई बाहर झांक रही थीं ।
लेकिन उसे किसी द्वारा देख लिये जाने की परवाह नहीं मालूम होती थी । उसने दोनों कनपटियों के पास से मेरा सिर पकड़ लिया और मुझे जबरन नीचे झुकाया । मेरा मुंह उसकी छातियों की घाटियों के बीच में धंस गया ।
मुझ पर प्रत्याशित प्रतिक्रिया होती न पाकर वह आहत भाव से बोली - “क्या बात है ? मैं पसन्द नहीं आई तुम्हें ?”
“तुम किसको पसन्द आओगी ? लेकिन यह कोई जगह है ? सारी दुनिया देख रही है ।
“सारी दुनिया की...”
उसके मुंह से बहुत गन्दी गाली निकली ।
मैं खामोश रहा ।
“और तुम्हारी भी...”
उसने मुझे परे धकेल दिया और वह अपनी कमीज के बटन बन्द करने लगी । एकाएक वह बेहद क्रोधित हो उठी थी ।
“मैं किसी मर्द पर गिरती नहीं ।” - वह आग बबूला होकर बोली - “मर्द तो कुत्तों की तरह दुम हिलाते मेरे पीछे फिरते हैं ।”
“जरूर फिरते होंगे ।” - मैं शान्त स्वर में बोला - “लेकिन मैं क्या करूं ! इस वक्त मेरा ध्यान इन बातों की तरफ नहीं है । पुलिस मेरी तलाश में है । मुझे अपनी जान की पड़ी हुई है ।”
“अपनी जान की तो तुम्हें हमेशा ही पड़ी रहती होगी ।” - वह सर्द स्वर में बोली ।
“क्या मतलब ?” - मैं सकपकाया ।
“मतलब समझना चाहते हो ?”
“हां ।”
उसने अपनी पतलून की जेब में हाथ डालकर एक कागज निकाला । मैंने देखा वह कागज एक लिफाफा था, जिसे एक ओर से फाड़कर, खोलकर, सीधा कर लिया गया था । उसके बीचों-बीच मेरी दिल्ली के यूनियन बैंक की डकैती के दौरान खिंची तस्वीर छपी थी । ऊपर लिखा था - ‘फरार’ । और नीचे लिखा था - ‘पकड़वाने वाले को दस हजार रुपये इनाम ।’
मैंने गहरी सांस ली ।
“धन्न करतार !” - मेरे मुंह से निकला ।
“क्या कहा तुमने ?”
“कब मालूम हुआ तुम्हें ?”
“आज सुबह । इत्तफाक से । मैंने चाकलेटें खरीदी थीं जो कि दुकानदार ने मुझे इस लिफाफे में रखकर दी थी । मैंने तुम्हें पहचान लिया ।”
“ओह !”
“ये तुम्हारे जितने कारनामे इस अखबार में छपे हैं, सब तुमने किए हैं ? ये सब सच हैं ?”
“हां ।”
“तुम तो बड़े खतरनाक आदमी हो ?”
“मैं...”
“लेकिन लगते नहीं हो ।”
“मैडम, मैं...”
“मुझे खतरनाक आदमी पसन्द हैं ।”
“मेरी खुशकिस्मती ।”
“लेकिन शायद तुम्हें मेरे जैसी औरत पसन्द नहीं ।”
“गलत ख्याल है तुम्हारा । मेरा बस चले तो मैं तुम्हें बिना नमक-मिर्च लगाए हजम कर जाऊं ।”
“ऐसी कोई नीयत अभी तक जाहिर तो नहीं की तुमने ?”
“वजह मैं बता चुका हूं । मैं माफी चाहता हूं ।”
“जाओ माफ किया !” - वह बड़ी दयानतदारी से बोली ।
“यह” - मैंने अखबार की तरफ इशारा किया - “अपनी इस नई जानकारी का तुमने किसी से जिक्र तो नहीं किया ?”
“नहीं ।”
“इरादा है ?”
“नहीं ।”
“मैं विश्वास कर लूं तुम्हारी बात पर ?”
“कर लो लेकिन एक बात बताओ ।”
“क्या ?”
“कंचन की हत्या के मामले में तुम अपने आपको निर्दोष साबित करने की इतनी कोशिश क्यों कर रहे हो ? तुम पर इतने जघन्य अपराधों में हिस्सेदार होने के इलजाम हैं । एक इलजाम और लग जाने से क्या फर्क पड़ता है ?”
“कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन एक इत्तफाक ऐसा हो गया है जिससे फर्क पड़ता है ।”
“क्या ?”
“अभी तक मुझे किसी ने इश्तिहारी मुजरिम के रूप में पहचाना नहीं है । जयपुर में मैं बड़ी चैन की जिन्दगी गुजार रहा हूं । यहां से मेरा खूंटा उखड़ा तो मुझे फिर आवारागर्द कुत्ते की तरह दर-दर भटकना पड़ेगा । मैं चाहता हूं कि असली अपराधी पकड़ा जाये, मैं इस अपराध से बरी हो जाऊं और यहीं टिका रहूं ।”
“आई सी । लेकिन एक बात मेरी समझ में नहीं आ रही । अखबार में तुम इतने खतरनाक अपराधी बताये गये हो । तुमने लाखों-करोड़ों रुपया लूटा, बताया गया है, फिर यह मोटर मैकेनिक बनने का क्या मतलब ?”
“अखबार में जो कुछ छपा है वह सच होते हुए भी सच नहीं है ।”
“यह कैसे हो सकता है ?”
“हो सकता है । सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल के साथ हो सकता है । यह एक लम्बी कहानी है । कभी सुनाऊंगा । लेकिन एक बात अभी कहना चाहता हूं । न मैं खतरनाक हूं न मैं अपराधी हूं और न मेरे पास कोई लूट का लाखों-करोड़ों रुपया है । मैं एक ऐसा दीन हीन, असहाय और दुनिया का सताया हुआ आदमी हूं जो उधार की जिन्दगी जी रहा है । मेरी जिन्दगी की हर आने वाली घड़ी मेरे लिए मौत की घड़ी होती है । तकदीर ने कभी मेरा साथ नहीं दिया ।”
“तुम गलत कह रहे हो । लगता है कि तकदीर ने हमेशा तुम्हारा साथ दिया है । अगर ऐसा न होता तो पहली ही बार तुम्हारा काम न हो गया होता ? इतने बड़े-बड़े अपराध करने के बावजूद तुम हर बार बच जाते हो, क्या यह इसलिए नहीं है, क्योंकि तकदीर ने तुम्हारा साथ हमेशा दिया है ? इस बार ही देख लो । अगर मेरी जगह इंस्पेक्टर महिपाल सिंह तुम्हें पहचान लेता तो वो कंचन के कत्ल का अपराध तुम पर साबित करने की कोशिश छोड़कर तुम्हें फांसी पर चढाने का सामान करने लगता । फिर पुलिस की पकड़ से छूटे भी तुम कैसे करिश्मासाज ढंग से ! अपनी तकदीर तो मत कोसो, मिस्टर ।”
“शायद तुम ठीक कह रही हो ।” - मैं बोला - “बात को इस ढंग से मैंने आज तक नहीं सोचा था ।”
“और तुम मेरी ओर से निश्चिन्त रहो ।” - उसने आश्वासन दिया - “मैं तुम्हारी हकीकत किसी पर जाहिर नहीं करूंगी ।”
“शुक्रिया ।” - मैं कृतज्ञ स्वर में बोला ।
“और मैं तुम्हारी हर मुमकिन मदद करने को तैयार हूं ।”
“शुक्रिया ।”
“लेकिन एक शर्त तुम्हें मेरी भी माननी होगी ।”
“क्या ?” - मैं सशंक स्वर में बोला ।
“यह उल्लू-सा नक्शा तानना छोड़ो । मैं ऐसा मर्द पसन्द नहीं करती, जो मुझसे बेजार दिखाई दे ।”
“सॉरी ।”
“मुस्कराकर दिखाओ ।”
मैं हंसा ।
“दैट्स लाइक ए गुड बॉय । अब मुझे अपनी बांहों में ले लो और मुझे जोर से किस करो ।”
“तुम नशे में हो ।”
“यू आर राइट । चलो, कहना मानो ।”
मैंने उसे अपनी बांहों में ले लिया और उसके आतुर होंठों पर अपने होंठ रख दिये ।
थोड़ी देर बाद मैंने उसे जबरन परे धकेल दिया ।
“शाबाश !” - वह बोली - “अब बोलो क्या मर्जी है ?”
“अभी कोई मर्जी नहीं ।”
“डरपोक !”
“एक बात बताओ ।”
“क्या ?”
“अपने पापा के अलावा तुम किसी ऐसे शख्स को जानती हो जो कंचन को खूब अच्छी तरह से जानता रहा हो ?”
“नाहर सिंह । चेतक क्लब का मालिक ।”
“उससे मैं बात कर चुका हूं । उसने मुझे कोई काम की बात नहीं बताई ।”
“और तो ऐसा कोई शख्स मेरी जानकारी में है नहीं ।”
“ओह !”
“और अगर तुमने मुझे यूं ही बोर करना है तो मैं जाऊं ?”
“मुझे यूं मंझधार में छोड़कर ? तुमने तो मेरी मदद करने का वादा किया था ।”
वह कुछ क्षण खामोश रही और फिर बोली - “क्या मदद चाहते हो ?”
“मुझे अपनी कार पर राजस्थान स्टेट होटल ले चलो ।”
“ड्राइविंग सीट पर तुम बैठे हो । चलो ।”
“तुम्हें ऐतराज तो नहीं ?”
“नहीं ।”
मैंने कार चला दी । मैंने उसे राजस्थान स्टेट होटल के पास ले जाकर रोका और फिर उसे कहा कि वह भीतर जाकर वहां ठहरे अल्बर्टो कोटीनो डिकास्टो फ्रांसिस नामक व्यक्ति को बाहर बुला लाए ।
उसने ऐसा ही किया ।
अल्बर्टो आया और कार में मेरी बगल में आ बैठा । शीतल जान-बूझकर कार से परे खड़ी रही ।
“लड़की कौन है ?” - अल्बर्टो ने पूछा ।
“है कोई तुम्हारे ही जैसी मेहरबान !” - मैं बोला - “कुछ पता लगा दिलावर सिंह के बारे में ?”
“हां, कुछ पता लगा है । कोई डकैत है जो पांच साल पहले पकड़ा गया था और जेल में डाल दिया गया था । पांच दिन पहले वह जेल से भाग निकला था । सारे राज्य की पुलिस उसकी तलाश में है । बस इतना ही पता लगा है ।”
“और कुछ पता लगने की उम्मीद है ?”
“नहीं लेकिन कोशिश तो मैं करूंगा । पराया शहर है न ! पता नहीं लगता कि ऐसे लोगों की कहां से टोह मिल सकती है ।”
“ठीक है । एक मेहरबानी और करो ।”
“क्या ?”
मैंने अपनी जेब में से सौ-सौ के नोटों का बंडल निकाला ।
उसमें से दो हजार रूपये मैंने अपने पास रख लिये और अड़तालीस हजार रुपये उसे सौंपता हुआ बोला - “यह अपने पास रख लो । जहां मैं ठहरा हुआ हूं, वहां यह रुपया सुरक्षित नहीं ।”
“कहां ठहरे हो ?”
“एक ऐसे होटल में जिसका कोई नाम नहीं और जहां लगता है कानून से भागे फिरते लोग ही ठहरते हैं ।”
“आई सी ।”
उसके बाद मैंने अल्बर्टो से विदा ली ।
शीतल वापिस कार में आ बैठी ।
“अब ?” - वह बोली ।
“मैं कार को चार दरवाजे तक ले जा रहा हूं ।” - मैं कार स्टार्ट करता हुआ बोला - “उसके बाद कार तुम्हारे हवाले ।”
“और तुम ?”
“तुम्हारे हवाले होकर मुझे बहुत खुशी होगी, लेकिन अभी नहीं । पहले मैं जरा इस मुसीबत के दौर से गुजर लूं ।”
“मर्जी तुम्हारी ।” - इस बार उसने जिद नहीं की ।
मैं कार को चार दरवाजे तक ले आया । वहां मैं कार से उतर गया । शीतल ड्राइविंग सीट पर सरक आई । मैंने उसका शुक्रिया अदा किया और उसके वहां से चले जाने की प्रतीक्षा करने लगा । उसकी कार के दृष्टि से ओझल हो जाने के बाद मैं दरवाजे से भीतर दाखिल हुआ और पैदल चलता हुआ मोती कटड़ा बाजार पहुंचा ।
होटल की सीढियां चढकर मैं ऊपर पहुंचा ।
मैंने मानक के कमरे के दरवाजे पर दस्तक दी । भीतर से कोई जवाब नहीं मिला । मैंने दरवाजे को धक्का दिया तो उसे खुला पाया ।
कमरा खाली था ।
मैं झाडुओं और बाल्टियों वाली अलमारी के पास पहुंचा । मैं अलमारी का दरवाजा खोलकर भीतर दाखिल हुआ । खूंटी नीचे खींचकर मैंने उसका पृष्ठभाग अपने स्थान से सरकाया और अपने कमरे में कदम रखा ।
कमरे में रोशनी थी और पलंग पर हाथ में रिवॉल्वर लिये एक दादा-सा लगने वाला आदमी बैठा था । मैं ठिठक गया ।
“भीतर आओ ।” - वह क्रूर स्वर में बोला ।
मैं हिचकता हुआ आगे बढा ।
तभी किसी ने पीछे से मेरी खोपड़ी पर किसी भारी चीज का प्रहार किया । मेरी आंखों के आगे सितारे नाच गए । मेरे घुटने मुड़ने लगे और फिर मैं फर्श पर ढेर हो गया ।
***
“नखरे मत करो ।” - कोई कह रहा था - “और होश में आ जाओ । तुम्हें मालूमी चोट लगी है, मर नहीं गये हो तुम ।”
मैंने बड़ी मेहनत से आंखें खोली ।
“उठकर खड़े हो जाओ ।” - रिवॉल्वर वाले ने आदेश दिया ।
बड़ी मुश्किल से मैं अपने पैरों पर खड़ा हो पाया । मेरा सिर घूम रहा था और फोड़े की तरह दुख रहा था । मैंने बड़ी कठिनाई से स्वयं को स्थिर किया और कमरे में चारों तरफ निगाह दौड़ाई ।
एक कोने में फर्श पर अगल-बगल दीवार से पीठ लगाए चाची और मानक बैठे थे । मानक का निचला होंठ कटा हुआ था और उसमें से खून रिस रहा था उसकी एक आंख सूजी हुई थी और लगभग बन्द हो गई थी ।
चाची के चेहरे पर भी खरोंचों के ताजे-ताजे निशान दिखाई दे रहे थे ।
मेरे पीछे एक मोटा-सा कमीनी सूरत वाला आदमी खड़ा था । उसके हाथ में एक लकड़ी का मोटा डंडा था । शायद उसी का प्रहार मेरी खोपड़ी पर पड़ा था और वह जरूरत पड़ने पर दूसरा प्रहार करने को तैयार दिखाई दे रहा था ।
उसके पीछे एक बहुत भरे-भरे हाथ-पांव वाली सुन्दर युवती दीवार के साथ पीठ लगाये खड़ी थी ।
“सब मेरी गलती थी, दोस्त ।” - मानक पश्चाताप में डूबे स्वर में बुदबुदाया - “मैं नशे में धुत्त हो गया था और जूली” - उसने दीवार के साथ लगी खड़ी लड़की की ओर संकेत किया - “के सामने मुंह फाड़ बैठा था । नशे में मेरे मुंह से निकल गया था कि मैंने तुम्हारे सूटकेस में सौ-सौ के नोटों का ये... मोटा बंडल देखा था । इसने अपने इस दल्ले को” - उसने रिवॉल्वर वाले की तरफ संकेत किया - “कह दिया और यह यहां चढ दौड़ा ।”
“तमीज से बात करो” - रिवॉल्वर वाला बोला - “वरना इस बार दो-चार दांत झाड़ दूंगा ।”
तभी एक गंजे व्यक्ति ने भीतर कदम रखा । उसके भी हाथ में रिवॉल्वर थी और वह कमरे में पहले से मौजूद बदमाशों का ही संगी-साथी मालूम होता था ।
“इसके साथ यहां तक कोई नहीं आया था, उस्ताद ।” - गंजा पहले रिवॉल्वर वाले से बोला - “मैंने इसे अकेले आते देखा था ।”
“बहुत खूब ।” - पहला रिवॉल्वर वाला बोला ।
“हरामजादो ! कमीनो !” - एकाएक चाची चिल्लाई - “तुमने मेरा धन्धा बिगाड़ दिया है । तुमने मेरी इतने सालों की जमाई साख को मिट्टी में मिला दिया है । मैं छोङूगी नहीं तुम लोगों को । देखते रहना, मैं तुम्हारी क्या गत बनाती हूं !”
रिवॉल्वर वाले ने एक जोर का झापड़ उसके चेहरे पर रसीद किया । चाची का सिर घूम गया और उसकी आंखों से आंसू छलक आए ।
मैंने आगे कदम बढाया ।
“खबरदार !” - डंडे वाला चेतावनीभरे स्वर में बोला ।
मैं ठिठक गया ।
“केसरी ।” - रिवॉल्वर वाला डंडे वाले से बोला - “इन दोनों को” - उसने चाची और मानक की तरफ संकेत किया - “बाथरूम में बन्द कर दो और इन्हें समझा दो कि इनके मुंह से आवाज न निकले ।”
केसरी ने दोनों को बाथरूम में बन्द कर दिया ।
“जूली ।” - रिवॉल्वर वाला जूली से बोला - “फिलहाल तुम भी फूटो यहां से ।”
उसने सहमति में सिर हिलाया और कूल्हे झुलाती हुई वहां से बाहर निकल गई ।
फिर तीनों बदमाशों ने मुझे घेर लिया ।
“तुम्हारे सूटकेस में जो नकद माल था, वह कहां गया ?” - रिवॉल्वर वाले ने कठोर स्वर में पूछा ।
“मेरे सूटकेस में कोई नकद माल नहीं था ।” - मैं बोला ।
“बकवास मत करो । मानक ने जूली को खुद बताया था कि उसने तुम्हारे सूटकेस में सौ-सौ के नोटों का बड़ा मोटा बंडल देखा था ।”
“वह नशे में था । यूं ही कह बैठा होगा ।”
“घिस्सा देने की कोशिश मत करो, वरना अन्जाम बहुत बुरा होगा ।”
“मेरे पास कोई पैसा नहीं ।”
“इसकी तलाशी लो ।”
केसरी ने मुझे दबोच लिया । गंजे ने मेरी तलाशी ली । उसने मेरी जेब में मौजूद लगभग चौबीस सौ रूपये निकाल लिए ।
“बस ?” - रिवॉल्वर वाला बोला ।
कोई कुछ न बोला ।
“देखो” - रिवॉल्वर वाले मुझसे बोला - “मोटा माल था तुम्हारे पास । जल्दी बोलो वह कहां गया वरना मार-मारकर भुर्ता बना दुंगा तुम्हारा ।”
“वह माल मेरे एक दोस्त का था । मैंने उसे वापिस सौंप दिया ।” - मैं बोला ।
“उससे वापिस हासिल करो ।”
“वह मुझे वापिस क्यों देगा भला ?”
“मुझे नहीं मालूम क्यों देगा लेकिन तुम्हारी सलामती के लिए माल तुम्हारे पास वापस पहुंचाना जरूरी है ।”
मैं खामोश रहा ।
“तुम पुलिस से भागे हुए अपराधी हो । हत्यारे हो । पुलिस तुम्हारी तलाश में फिर रही है । इस वक्त तुम हमारे काबू में हो । हम तुम्हारी कैसी भी गत क्यों न बनाएं तुम शिकायत लेकर पुलिस के पास नहीं जा सकते । तुम फंस चुके हो । बोलो, माल दिलाते हो या हम तुम्हारा पुर्जा-पुर्जा उड़ाना शुरु करें ?”
“मैं मजबूर हूं ।” - मैं बोला - “मैं इस बारे में कुछ नहीं कर सकता ।”
“केसरी !” - रिवॉल्वर वाला कर्कश स्वर में बोला - “जरा बाबू को दो-चार दांत झाड़ दे ।”
“माल तुम्हारे हाथ फिर भी नहीं आएगा ।”
“देखते हैं । तुम्हारे हाथ-पांव तो तोड़ेंगे ही हम । अगर तुम बहुत सख्त जान निकले और तुमने फिर भी हार न मानी तो मानक चौक का थाना यहां से करीब ही है, हम तुम्हें उसके सामने फेंक आएंगे ।”
“और शायद हमें पुलिस से ही कोई इनाम मिल जाए ।” - गंजा एक बड़ी कमीनी हंसी हंसता हुआ बोला ।
“बोलो, क्या इरादा है ?” - रिवॉल्वर वाले ने पूछा ।
जो कुछ वे लोग कह रहे थे, उसे कर गुजरने में वे पूरी तरह समर्थ लग रहे थे ।
“अगर मैं तुम्हारा कहना मान लूं तो तुम मेरा पीछा छोड़ दोगे ?” - मैंने पूछा ।
“फौरन ।” - रिवॉल्वर वाला बोला - “फिर तुम जिंदगी में दोबारा कभी हमारी सूरत भी नहीं देखोगे ।”
“ठीक है ।”
“शाबाश । कितना माल सौपा है तुमने अपने दोस्त को ?”
“अड़तालीस हजार रुपये ।”
“बहुत खूब । अब अपने दोस्त को फोन करो और उसे कहो कि वह माल लेकर यहां आ जाए ।”
“ऐसे काम नहीं चलेगा । पुलिस मेरे दोस्त पर निगाह रखे हुए है । मैंने फोन किया तो मुमकिन है कि पुलिस वार्तालाप बीच में सुन ले । मैंने उसे यहां बुलाया तो उससे पीछे-पीछे ही पुलिस यहां पहुंच जाएगी ।”
“अगर ऐसा है तो तुम उससे मिले कैसे ? तुमने उसको माल सौंपा कैसे ?”
“किसी ने मदद की थी । लेकिन वह मदद अब हासिल नहीं है ।”
“उससे सम्पर्क का तुम्हारे पास कोई और भी तरीका जरूर होगा । अब जबकि तुम्हें वह मदद हासिल नहीं तो तुम अब उससे कैसे मिल सकते हो ?”
मुझे बताना पड़ा कि मैंने अल्बर्टो को कहा था कि अगर मेरा फोन आए तो वह समझ जाए कि उसने अजमेरी गेट पर मुझसे मिलना था ।
“ठीक है ।” - रिवॉल्वर वाला बोला - “उसे फोन करो और कहो कि माल लेकर वह निर्धारित स्थान पर आ जाए । वह समझ जाएगा कि उसे कहा आना है और संभलकर आना है ।”
मैंने हामी भरी । मैंने रिसीवर उठाया और राजस्थान स्टेट होटल का नम्बर मिलाया । अल्बर्टो लाइन पर आ गया तो मैं बोला - “हैलो अल्बर्टो । पहचाना ?”
“हां ।” - वह उलझनपूर्ण स्वर में बोला ।
“जो कहना, सोच समझकर कहना ।” - रिवॉल्वर वाला चेतावनीभरे स्वर में बोला - “कोई शरारत न हो ।”
मैंने सहमति में सिर हिलाया और फोन में बोला - “पिछले दो दिनों से सब ठीक चल रहा है न ?”
“पिछले दो दिनों से ? हां, हां ।”
“वैरी गुड । अल्बर्टो, मुझे खेद है कि हमारी पिछली मुलाकात के बाद से मैं तुमसे सम्पर्क नहीं रखे रह सका । मैं बहुत फंस गया था ।” - मैं केवल एक क्षण के लिए ठिठका और फिर बोला - “काम काज में ।”
“मैं समझ गया ।” - अल्बर्टो सहज भाव से बोला । अब उसके स्वर में उलझन का भाव नहीं था ।
“अल्बर्टो, वह रुपया मुझे अभी चाहिए । फौरन ।”
“क्या सचमुच ?”
“नहीं ।” - मैं एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “मैं पूर्वनिर्धारित स्थान पर आ रहा हूं । तुम भी पहुंचो ।”
“ओके ।”
“आधे घंटे में ।”
“ओके ।”
“मुझे पहचान लोगे न ?” - मैं अर्थपूर्ण स्वर में बोला ।
“हां ।” - अल्बर्टो बोला - “मैं उस जमूरे को पहचान लूंगा जो तुम्हारी जगह आएगा । उसकी आंखें अड़तालीस हजार रुपये के लालच से चमक रही होंगी ।”
“वैरी गुड ।”
मैंने फोन रख दिया ।
“वह आ रहा है ?” - रिवॉल्वर वाले ने व्यग्र स्वर में पूछा ।
“हां ।” - मैं बोला - “आधे घंटे में वह अजमेरी गेट पहुंच जाएगा ।”
“उसका हुलिया बताओ ।”
मैंने अल्बर्टो का हुलिया बयान कर दिया ।
“ज्वाला ।” - रिवॉल्वर वाला गंजे से बोला - “तुम पहुंचो अजमेरी गेट ।”
ज्वाला ने सहमति में सिर हिलाया और वहां से निकल गया ।
केसरी ने अलमारी में घुसकर उसके पीछे दरवाजा भीतर से बन्द कर लिया ।
वक्त चींटी की रफ्तार से सरकने लगा ।
कोई पौना घंटा गुजर गया ।
तभी अलमारी के दरवाजे पर दस्तक हुई ।
मैं संभलकर बैठ गया ।
“कौन ?” - रिवॉल्वर वाले ने सशंक स्वर में पूछा ।
“मैं ।” - ज्वाला की आवाज आई - “ज्वाला ।”
रिवॉल्वर वाले ने दरवाजा खोल दिया ।
तभी किसी ने बाहर से दरवाजे को धक्का दिया और फिर ज्वाला यूं लड़खड़ाता हुआ कमरे में आकर पड़ा जैसे किसी ने उसे बाहर से जबरन भीतर धकेला हो । फिर उसके पीछे-पीछे रिवॉल्वर हाथ में लिए अल्बर्टो कमरे में पहुंचा ।
“सावधान ।” - मैं चिल्लाया ।
लेकिन उसके सावधान हो जाने से पहले केसरी का डंडा उसके रिवॉल्वर वाले हाथ से टकराया और रिवॉल्वर उसके हाथ से छिटककर परे जा गिरी ।
ज्वाला तब तक संभल चुका था । वह चिल्लाया - “यह साला वहां पहले से ही मेरी ताक में बैठा हुआ था । इस हरामजादे ने जरूर इसे टेलीफोन पर कोई इशारा दे दिया था । यह जबरन मुझे यहां ले आया ।”
उसने झपटकर जमीन पर अल्बर्टो के हाथ से निकलकर गिरी अपनी रिवॉल्वर उठाई । उसने रिवॉल्वर को नाल की तरफ से पकड़ा और उसका प्रहार अल्बर्टो की खोपड़ी पर करना चाहा लेकिन अल्बर्टो ने बड़ी फुर्ती से हवा में ही उसका हाथ थाम लिया और उसे रिवॉल्वर वाले पर धकेल दिया । ज्वाला के आकर रिवॉल्वर वाले के ऊपर गिरने से पहले रिवॉल्वर वाले ने एक फायर किया । गोली अल्बर्टो के कन्धे में लगी । वह फिरकनी की तरह एक ओर घूम गया । तभी ज्वाला रिवॉल्वर वाले से जा टकराया ।
तब तक केसरी के हाथ में डंडे के स्थान पर रिवॉल्वर प्रकट हो चुकी थी । वह मेरे सबसे करीब था और उसका ध्यान अल्बर्टो की ओर ज्यादा था । मैंने उस पर छलांग लगा दी । उसकी रिवॉल्वर ने आग उगली । गोली मेरी पसलियों को छीलती हुई गुजर गयी । तभी मैं उससे टकराया और उसे लिये-लिये फर्श पर लोट गया । मेरा एक हाथ उसके रिवॉल्वर वाले हाथ पर पड़ा और रिवॉल्वर मेरी पकड़ में आ गई । मैं एक कलाबाजी खाकर उससे अलग हटा ।
एक फायर हुआ ।
गोली मेरे चेहरे के पास फर्श से आकर टकराई । मैंने अन्धाधुंध दरवाजे के पास खड़े ज्वाला रिवॉल्वर वाले पर फायर झोंक दिया । गोली ज्वाला के पेट में लगी । वह चीख मारकर दोहरा हो गया । रिवॉल्वर उसके हाथ से निकलकर परे जा गिरी । मैंने रिवॉल्वर वाले को निशाना बनाकर फिर फायर किया, लेकिन तभी ज्वाला उलटा और उसका शरीर रिवॉल्वर वाले के सामने आ गया । रिवॉल्वर वाला मेरी गोली का शिकार होने से बच गया । वह गोली भी ज्वाला के शरीर में घुस गई ।
इससे पहले कि मैं फिर गोली चला पाता, रिवॉल्वर वाला छलांग मारकर अलमारी में घुस गया और गलियारे में निकल गया । लेकिन मुझे उसके गलियारे में भागते कदमों की आवाज न सुनाई दी । इसका एक ही मतलब था कि वह बाहर गलियारे में छुपा खड़ा मेरे बाहर निकलने की प्रतीक्षा कर रहा था ।
मैंने केसरी को उसके बालों से पकड़ लिया और जबरन घसीटकर उसे उसके पैरों पर खड़ा कर दिया । फिर इससे पहले कि वह संभल पाता मैं उसे घसीटता हुआ अलमारी में ले आया और फिर मैंने जबरदस्ती उसे गलियारे में धक्का दे दिया ।
चौखट से पार हो जाने के बाद उसकी समझ में आया कि उस पर क्या बीतने वाली थी लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी ।
एक फायर की आवाज से गलियारा गूंज उठा । फिर गलियारे में केसरी की एक ह्रदयविदारक चीख गूंजी ।
मैं छलांग मारकर चौखट पर पहुंचा और मैंने नीचे को झुककर बाहर गलियारे में मौजूद रिवॉल्वर वाले पर फायर किया । अपने ही साथी को अपनी गोली का शिकार बना पाकर वह सन्नाटे में आया हुआ था, लेकिन फिर भी उसने बड़ी फुर्ती दिखाई और जवाब में मुझ पर गोली चलाने में कामयाब हो गया ।
मेरी चलायी गोली उसके माथे में घुस गयी लेकिन उसकी गोली भी बेकार नहीं गयी । मुझे लगा जैसे मेरी जांघ में दहकती हुई सलाख घुस गयी हो । मैंने चौखट का सहारा लेकर बड़ी मुश्किल से स्वयं को धराशायी होने से बचाया ।
मैं किसी प्रकार वापस कमरे में आया ।
अल्बर्टो अपना कंधा थामे फर्श पर पड़ा था ।
“अल्बर्टो ।” - मैं व्यग्र भाव से बोला - “उठकर चल सकते हो ?”
उसने इन्कार में सिर हिलाया ।
मैं खुद घायल था । अल्बर्टो को वहां से निकाल ले जाना मेरी बस की बात नहीं थी । बाहर दूर कहीं से फ्लाइंग स्क्वाड के सायरन की आवाज आ रही थी । शायद गोलियों की आवाज बाहर तक पहुंच गयी थी और किसी ने आवाज सुनकर पुलिस को फोन कर दिया था ।
मैंने झपटकर बाथरूम का दरवाजा खोला और चाची और मानक को बाहर निकाला । बाहर का हाल देखकर उनके नेत्र फट पड़े ।
“पुलिस आ रही है ।” - मैं चाची से बोला - “यह मेरा दोस्त है । यह तुम्हारे होटल में कमरे की तलाश में आया था । ये तीनों बदमाश पहले से इसके पीछे लगे हुए थे । ये यहां जबरन घुस आये और इन्होंने इसे लूटना चाहा । अल्बर्टो, सुन रहे हो न ?”
अल्बर्टो ने सहमति में सिर हिलाया ।
“मेरा जिक्र मत करना” - मैं चाची और मानक से बोला - “वरना बखेड़ा जरूर होगा । इस आदमी ने उन तीन बदमाशों से लड़ाई की और तुम दोनों ने इसकी मदद की । जो हुआ, वह तुम्हारे सामने है । इसी कहानी पर अड़े रहना, पुलिस तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकेगी ।”
दोनों ने सहमति में सिर हिलाया ।
“मैं चला, अल्बर्टो ।” - बोला - “मैं यहां पकड़ा गया तो हम सब मुसीबत में फंस जायेंगे ।”
वह खामोश रहा । शायद उसे बोलने में भी तकलीफ हो रही थी ।
मैं अपनी घायल टांग के सहारे लड़खड़ाता, गिरता-पड़ता वहां से भागा ।
सायरन की आवाज समीप होती जा रही थी ।
बड़ी मुश्किल से मैं इमारत से बाहर निकला और फ्लाइंग स्क्वायड की गाड़ी वहां पहुंचने से पहले लंगड़ाता हुआ बगल की एक अंधेरी गली में दाखिल हो गया ।
मेरी जांघ में से खून बहकर पतलून के पांयचे में से होता हुआ मेरे जूते पर गिर रहा था । मुझे बहुत कमजोरी व दर्द महसूस हो रही थी और मुझे अपने पर बेहोशी तारी होती लग रही थी । एक बात की मुझे गारंटी थी कि गोली जांघ में हड्डी से नहीं टकरायी थी अन्यथा मैं अपने पैरों पर खड़ा न हो पा रहा होता ।
गली से पार आने पर मुझे सड़क पर एक टेलीफोन बूथ दिखायी दिया । मैं उसमें दाखिल हो गया और मैंने अपने पीछे दरवाजा बंद कर लिया । मेरी आंखें मुंदी जा रही थीं । मैं बड़ी मेहनत से अपने-आपको होश में रखे हुए था ।
मेरा इकलौता मददगार अल्बर्टो चाची के होटल में गोली खाये असहाय पड़ा था । इस नगर में जहां सभी मेरे दुश्मन थे वहां मुझे अब कोई उम्मीद हो सकती थी तो शीतल से ही हो सकती थी ।
मैंने जेब में हाथ डाला तो मुझे याद आया कि मेरे सारे पैसे तो उन बदमाशों ने निकाल लिए थे । मैंने तमाम जेबें टटोलीं तो कुछ खरीज मेरे हाथ लगी जिसमें कि दो अठन्नियां भी थीं ।
मैंने गुलाब महल फोन किया ।
शीतल वहां नहीं थी ।
मेरा दिल डूबने लगा ।
मेरे पास केवल एक फोन कॉल करने का साधन था और शीतल सारे जयपुर में कहीं भी हो सकती थी - किसी ऐसी जगह भी हो सकती थी जहां कि फोन न हो ।
बहुत सोच-विचार के बाद मैंने डायरेक्ट्री खोली और बूथ के नीमअंधेरे में आंखें फाड़-फाड़कर मैंने उसमें हॉलीडे इन का नम्बर तलाश किया ।
फिर ‘वाहे गुरु’ से प्रार्थना करते हुए कि शीतल वहां हो मैंने वह नम्बर डायल किया ।
“हॉलीडे इन ।” - आवाज आयी ।
मैंने जल्दी से कॉयन बॉक्स में अठन्नी डाली और बोलने के लिए मुंह खोला तो मुझे महसूस हुआ कि मुझमें बोलने की शक्ति नहीं बची थी ।
“वहां” - मैं फंसी-फंसी आवाज में बड़ी कठिनाई से कह पाया - “शीतल शेखावत है ?”
“होल्ड कीजिए । देखते हैं ।”
मैं रिसीवर कान से लगाये, केबिन की एक दीवार से पीठ लगाये खड़ा रहा । रिसीवर मुझे मन भर का लग रहा था । मेरी आंखें मुंदी जा रही थीं ।
तभी मेरे कानों में शीतल की आवाज पड़ी - “हल्लो ! कौन ?”
“शीतल !” - मैं हांफता हुआ बोला - “मैं बसन्त कुमार बोल रहा हूं ।”
“अब क्या चाहते हो ?” - मुझे उसकी नशे में डूबी आवाज सुनाई दी ।
“तुमने कहा था, तुम मेरी मदद करोगी । मुझे तुम्हारी मदद की जरूरत है । सख्त जरूरत । फौरन ।”
“क्या हो गया है ?”
“मुझे... मुझे गोली लग गयी है ।” - मैं बड़ी मुश्किल से कह पाया - “और इस शहर में मेरा कोई मददगार नहीं ।”
“वह तुम्हारा दोस्त अल्बर्टो ?”
“वह मेरे से ज्यादा खराब हालत में है । उसे भी गोली लगी है ।”
खामोशी ।
“हल्लो !” - मैं व्यग्र स्वर में बोला ।
“तुम कहां हो ?” - उसने अनिश्चित भाव से पूछा ।
“घोड़ा निकास रोड और मोती कटड़ा बाजार के चौराहे पर । टेलीफोन बूथ में ।शीतल, प्लीज...”
तभी रिसीवर मेरे हाथ से निकल गया । मेरे घुटने मुड़ गए मेरी आंखें मुंद गई, मैं बूथ की दीवार से टकराता हुआ दोहरा होकर उसके फर्श पर गिरा और बेहोश हो गया ।