धारावी होटल नाम का ही होटल था । सूरत में वह एक खस्ताहाल बैरकनुमा इमारत थी । होटल के तमाम कमरों के दरवाजे उसके सामने ‘एल’ के आकार के बरामदे में खुलते थे ।
विमल ने अकबर और जयरथ के कमरे का नम्बर एक वेटर से मालूम किया । वह उन तक पूरी सावधानी के साथ पहुंचना चाहता था । अगर सारा किया धरा उन्हीं दोनों का था तो वे उसको वहां आया पाकर ही बेहिचक उसका काम तमाम कर सकते थे । भण्डारी, रुस्तमभाई और रामन्ना के साथ उसने वैसा खतरा नहीं महसूस किया था लेकिन वहां वैसा खतरा था । एक तो वह होटल वैसे ही उजड़ा था, ऊपर से वह जरायमपेशा लोगों का ही ठीया मालूम होता था ।
उसने दरवाजे पर दस्तक दी और बैग में रिवाल्वर पर अपना हाथ सरका लिया ।
आगंतुक की बाबत भीतर से कोई सवाल न किया गया । दरवाजा खुला ।
चौखट पर हाथ में ताश के पत्ते लिए और एक मैली सी लुंगी और बनियान पहने अकबर प्रकट हुआ ।
“सोहल !” - वह हैरानी से बोला - “तुम ! यहां !”
“हां ।” - विमल सहज भाव से बोला ।
“तुम यहां कैसे पहुंच गये ?”
“बस पहुंच गया किसी तरह ।”
“लेकिन क्यों ? तुम्हारा यहां क्या काम ? यहां क्या कर रहे हो तुम ?”
“इंतजार कर रहा हूं ।”
“किस बात का ?”
“तुम्हारे दरवाजे पर से हटने का, ताकि मैं भीतर जा सकूं ।”
“ओह !” - अकबर तुरंत दरवाजे से हटा - “आओ । आओ ।”
सावधानी से विमल ने अंदर कदम रखा ।
अकबर ने उसके पीछे दरवाजा बंद कर दिया ।
वह एक गंदा-सा कमरा था जिसके फर्श पर विस्की और सोडे की कई बोतलें लुढकी पड़ी थी । पलंग पर केवल एक अंडरवियर पहने आलथी पालथी मारे जयरथ बैठा था । उसके हाथ में भी पत्ते थे । कमरे में दो खिड़कियां थी और दोनों बंद थी जिस वजह से कमरा सिगरेट के कसैले धुएं से बुरी तरह रचा बसा हुआ था । लेकिन उन दोनों को उसका कोई अहसास नहीं मालूम होता था ।
“सोहल !” - उसे देखकर जयरथ भी चौंका । उसने फौरन हाथ के पत्ते फेंक दिए - “यहां क्यों चले आए ? मरवाओगे हमें ?”
“वो कैसे ?” - विमल बोला ।
“तुम्हारी वजह से यहां पुलिस आ सकती है ।”
“आई तो नहीं !”
“क्या पता आई हो !”
“बाहर जाकर तसल्ली कर आओ ।”
“लेकिन...”
“सोहल, अगर” - अकबर खंखारकर गला साफ करता हुआ बोला - “तू यहां आया है तो जरूर कोई खास वजह होगी ।”
जयरथ कुछ क्षण संदिग्ध भाव से सोहल को देखता रहा और फिर बोला - “तुम्हें यहां का पता कैसे मालूम हुआ ?”
“रामन्ना ने बताया ।” - विमल बोला ।
“यानी कि वहां भी हो आये हो ?”
“हां ।”
“क्या माजरा है ? क्या हो गया है ? क्या खास वजह है तुम्हारे यहां आने की ?”
“तुम्हारे तीनों सवालों का एक ही जवाब है ।”
“क्या ?”
“माल लुट गया ।”
“क्या !” - जयरथ बोला ।
“कैसे लुट गया ?” - अकबर चिल्लाया ।
“सब इसकी बदमाशी है” - जयरथ चिल्लाया, वह पलंग से नीचे उत्तर आया - “यह माल खुद पचा जाने की फिराक में मालूम होता है ।” - वह मुट्ठियां भींचे यूं विमल की तरफ बढ़ा जैसे उसे रौंदता हुआ गुजर जाना चाहता हो - “लेकिन हम भी इतनी आसानी से बेवकूफ बन जाने वाले नहीं । हम भी...”
विमल ने उसे थोड़ा और करीब आ जाने दिया । फिर बड़े अप्रत्याशित भाव से उसका दायां हाथ हवा में घूमा और एक प्रचंड घूंसे के तौर पर जयरथ की कनपटी से टकराया । जयरथ भरभराकर पीछे को उलटा और खुद लुढकता और कई खाली बोतलों को लुढकाता कमरे के कोने में जाकर गिरा ।
अकबर पहले तो बड़े आश्चर्य और अविश्वासपूर्ण ढंग से पलकें झपकाता रहा, फिर उसने एक खाली बोतल उसकी गर्दन से थामी और विमल पर झपटा ।
विमल ने बड़े सहज भाव से रिवाल्वर निकालकर हाथ में ले ली ।
उसको जुबान से कुछ न कहना पड़ा । उसके चेहरे पर हिंसा या कठोरता के भावों की जगह हल्की सी मुस्कराहट थी लेकिन फिर भी अकबर रास्ते में ही ठिठक गया ।
“बोतल !” - वह केवल एक शब्द बोला ।
अकबर ने धीरे से बोतल को एक करीबी मेज पर यूं धीरे से रखा जैसे आवाज होने से वहां की शांति भंग हो सकती हो और यह बात विमल को नागवार गुजर सकती हो ।
“मैं” - विमल बोला - “पहले ही तुम दोनों को शूट कर दूं या इंतजार करूं तुम दोनों के दोबारा मुझ पर झपटने का ?”
“जयरथ तुम पर झपटने वाला नहीं था ।” - अकबर मरे स्वर में बोला - “तुमने खामखाह उस पर वार किया ।”
“और तुम ! तुम क्या करने वाले थे ?”
“वो तो अपने यार के साथ ज्यादती होती देखकर मेरा खून खौल गया था ।”
“अब कैसा है खून ? खौल रहा है अभी भी ?”
अकबर ने उत्तर न दिया ।
“तुम्हारे खौलते खून में इस रिवाल्वर की एक गोली तल लूं मैं ?”
अकबर ने अपने एकाएक सूख आये होंठों पर जुबान फेरी ।
“अपने यार को उठाओ ।”
अकबर ने जयरथ को उठाकर उसके पैरों पर खड़ा किया । जयरथ की आंखें पीड़ा और अपमान से जल रही थीं ।
“अब क्या कहते हो ?” - विमल अपलक जयरथ को देखता हुआ बोला ।
“किस बाबत ?”
“किसी भी बाबत ?”
“हमने क्या कहना है ?”
“यानी कि करना था ! कहना कुछ नहीं ! हाथ पांव ज्यादा चलते हैं तुम्हारे ! जुबान कम चलती है !”
“हमें तुम्हारी बात पर विश्वास है ।”
“किस बात पर विश्वास है ?”
“इस बात पर कि माल चोरी चला गया है । जानकर खुशी हुई कि महान सरदार सुरेंद्र सिंह सोहल के पास से भी माल चोरी जा सकता है । चोरों को भी मोर पड़ सकते हैं । तुम्हारी इस मुस्तैदी की हम तुम्हें शाबाशी ही दे सकते हैं । हम लोग साधनसंपन्न होते तो किसी मैडल का इंतजाम करते ।”
“बक चुके ?” - विमल शांति से बोला ।
जयरथ खामोश रहा ।
“माल कैसे चोरी हो गया, यह जान चुकने के बाद अगर तुम इतना भौंके होते तो कोई बात होती । तुम्हारे जैसे अक्ल के दुश्मन की पहचान इस बात से भी होती है कि उसे यह नहीं मालूम होता कि कौन सा काम पहले होना होता है और कौन सा बाद में ।”
“माल कैसे चोरी हो गया ?” - अकबर ने पूछा ।
“तुम्हारा जोड़ीदार अभी भी यह जानने का ख्वाहिशमंद नहीं मालूम होता ।”
“माल कैसे चोरी हो गया ?” - जयरथ मरे स्वर में बोला ।
विमल ने बताया ।
अकबर ने बड़ी संजीदगी से विमल की सारी बात सुनी लेकिन उस दौरान जयरथ का मूड अवज्ञा और असहिष्णुता का ही बना रहा । उसने बात यूं सुनी जैसे वह विमल के वक्तव्य में दखलंदाजी न करके उस पर कोई अहसान कर रहा हो ।
“यह काम किसी बाहरी आदमी का है ।” - विमल खामोश हुआ तो अकबर बड़ी गम्भीरता से बोला - “तुम्हारी गैरहाजिरी में छोकरी का कत्ल करने की नीयत से कोई फ्लैट में घुसा । संयोगवश उसे वहां मौजूद माल की खबर हो गई और उसने माल पार कर दिया ।”
“उलट क्यों नहीं ?” - विमल बोला - “यह क्यों नहीं कि कोई माल की फिराक में आया और लड़की को अपने रास्ते में रुकावट मानकर उसने उसका कत्ल कर दिया ?”
अकबर ने जयरथ की तरफ देखा ।
“किसी बाहरी आदमी को माल की खबर कैसे लग सकती थी ?” - जयरथ भुनभुनाया - “माल की जानकारी अगर किसी बाहरी आदमी को थी तो वह वो छोकरी खुद थी जिसका कत्ल हुआ है ।”
“उसके लिए वह जानकारी किसी काम की नहीं थी ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि उस जानकारी को वह आगे कहीं किसी को ट्रांसफर नहीं कर सकती थी । नोटों से भरे चारों सूटकेस उस फ्लैट में आने के बाद से मंजुला एक क्षण के लिए भी मेरी निगाहों से ओझल नहीं हुई थी ।”
“तो फिर माल कौन ले गया ?”
“जो कोई भी ले गया, वक्त की जरूरत यह है कि हम सब मिलकर उसे तलाश करें ।”
“अब तुम एक्सपोज हो चुके हो ।”
“मतलब ?”
“जो पुलिसिये वारदात के बाद फ्लैट पर पहुंचे वे उनमें से एक ने तुम्हें पहचान लिया था । तुमने अभी खुद बताया है ।”
“तो क्या हुआ ?”
“तुम्हारी वजह से हम फंस सकते हैं । ऐसे आदमी का साथ देना हमारे लिए खतरनाक साबित हो सकता है जिसके पीछे पुलिस पंजे झाड़कर पड़ जाने वाली हो ।”
“जयरथ !” - अकबर चेतावनीभरे स्वर में बोला । अपने दोस्त की कही उस अप्रिय बात से उसे एतराज हुआ मालूम होता था ।
“और फिर वह आदमी क्या अब मिलेगा ?” - जयरथ अपने दोस्त की चेतावनी को अनसुना करता बोला - “वह क्या अभी मुम्बई में ही बैठा होगा ? उसकी जगह मैं होता तो कब का मुम्बई से हजारों मील दूर निकल गया होता ।”
“तुम मुझ पर दोबारा हमला करने के लिए भी न रुके होते, लेकिन उस आदमी ने किसी तरीके से कमाठीपुरे तक मुझे ट्रेस किया था और मुझे मार डालने की नीयत से मुझ पर गोली चलाई थी ।”
“यह ठीक कह रहा है ।” - अकबर बोला ।
“वैसे” - विमल बोला - “तुम दोनों हम आठ जनों के मौजूदा गठजोड़ से किनारा करना चाहते हो तो हमें कोई एतराज नहीं । बाकी बचे लोगों को आठवें हिस्से की जगह छटा हिस्सा ज्यादा पसंद आयेगा ।”
“हम यूं अपना हिस्सा नहीं छोड़ने वाले” - जयरथ बोला - “आखिर हमने भी इतनी मेहनत की है, इतना खतरा उठाया है, इतना जोखिम...”
“तो कोई एक फैसला कर न, हरामजादे !” - विमल कर्कश स्वर में बोला - “या तू हमारे साथ है, या तू हमारे साथ नहीं है । यह चित्त भी मेरी पट भी मेरी कैसे चलेगी ?”
“हम तुम्हारे साथ हैं ।” - फैसला अकबर ने किया - “हम पहले भी तुम्हारे साथ थे, अब भी तुम्हारे साथ है, आगे भी तुम्हारे साथ रहेंगे । हम तुमसे बाहर नहीं जा सकते ?”
“मैंने तुम्हारे जोड़ीदार को ऐसा कुछ कहते नहीं सुना ।”
“मैं माल के आठवें हिस्से का हकदार हूं ।” - जयरथ निर्णायात्मक स्वर में बोला - “जब तक मेरा हिस्सा मुझे हासिल होने की रत्तीभर भी सम्भावना है तब तक मैं उसके लिए कुछ भी करने को तैयार हूं ।”
“शाबाश ! कल सुबह नौ बजे वरसोवा के बस स्टैंड पर पहुंच जाना ।”
“वो किसलिए ?”
विमल ने बताया ।
“बस स्टैंड पर क्यों ?”
“क्योंकि तुकाराम का वहां का पता मुझे मालूम नहीं ।”
“मालूम नहीं या बताना नहीं चाहते ?”
“मतलब ?”
“तुम्हें डर होगा कि कहीं हम भागते चोर की लंगोटी से ही सब्र न कर लें ।”
“मतलब ?”
“कहीं हम तुम्हारी गिरफ्तारी पर घोषित इनाम की रकम हासिल करने के लिए तुम्हारी खबर पुलिस को न दे दें ।”
विमल ने असहाय भाव से गर्दन हिलाई ।
“यह नहीं सुधरेगा ।” - वह बोला ।
“तुम इसकी फिक्र छोड़ो ।” - अकबर जल्दी से बोला - “हम कल सुबह नौ बजे वरसोवा बस स्टैंड पहुंच जायेंगे ।”
“गुड ।”
***
अगले रोज के अखबारों में मंजुला के कल की खबर मुख्य पृष्ठ पर छपी ।
लेकिन ऐसा अखबार सिर्फ एक, इंडियन एक्सप्रैस, ही था जिसमें लाश के पास सोहल की मौजूदगी की खबर भी छपी थी । उस इकलौते अखबार में इस बात का विस्तुत वर्णन था कि सोहल दो पुलिसियों पर आक्रमण करके मौकाएवारदात से फरार हो गया था ।
पुलिस के उच्चाधिकारी उस खबर के लीक हो जाने से नाखुश थे । खबर लीक होने का साधन उस हवलदार को ही माना गया जिसने फ्लैट में सोहल को पहचाना था । उसकी जवाबतलबी हुई, उस पर इलजाम लगाया गया कि उसी ने किसी अखबार वाले के सामने शेखी बघारने के लिए मुंह फाड़ा था लेकिन उसकी यही रट रही कि उसने किसी अखबार वाले के सामने तो क्या, किसी के भी सामने उस घटना का जिक्र नहीं किया था ।
किसी को उसकी बात पर विश्वास न हुआ ।
उस रोज के अखबारों में फ्रांसीसी पेंटिंगों की प्रदर्शनी के फिर से शुरू हो जाने का भी जिक्र था, लेकिन उनके बदले में खामखाह अदा की गयी छ: करोड़ रुपये की फिरौती का जिक्र फिर सिर्फ इंडियन एक्सप्रैस में ही था । पुलिस जानती थी कि फिरौती की अदायगी की दास्तान सिर्फ फ्रांसीसी कल्चरल अटैची जेकुई आंद्रे डेलोन से ही जानी जा सकती थी जिसे कि इंडियन एक्सप्रैस के किसी रिपोर्टर ने किसी तरह शीशे में उतार लिया था । बहरहाल दोनों ही खबरों के प्रकाशन से पुलिस नाखुश थी । दोनों ही खबरें पुलिस की हार और अकर्मण्यता की दस्तावेज थीं ।
सुबह आफिस खुलते ही इंस्पेक्टर चटवाल की एसीपी मनोहर देवड़ा के सामने पेशी हुई ।
पिछले रोज जीप चोरी हो जाने ने उसकी जान को सांसत में डाल दिया था । अपने निजी साधनों से जीप तलाश की उसने भरपूर कोशिश की थी लेकिन जब कामयाबी हासिल नहीं हुई थी तो मजबूरन उसे उसकी चोरी की रिपोर्ट दर्ज करवानी पड़ी थी ।
उसी संदर्भ में अब उसकी एसीपी के सामने पेशी थी ।
वो उसकी साप्ताहिक छुट्टी का दिन था, लेकिन फिर भी सुबह सवेरे उसे दफ्तर में पेश होना पड़ रहा था ।
चटवाल ने एसीपी को सैल्यूट मारा ।
एसीपी देवड़ा ने एक सरसरी निगाह उस पर डाली और फिर बोला - “बैठो ।”
चटवाल एक कुर्सी पर बैठ गया ।
“मुम्बई पुलिस की हिस्ट्री में” - देवड़ा बोला - “यह पहला वाकया है जबकि किसी ने पुलिस की जीप चुराने की हिम्मत दिखाई है । तुम्हें अंदाजा है कि यह खबर अखबार में छप जाने से हमारे महकमे की कितनी फजीहत हो सकती है ?”
चटवाल खामोश रहा । उसने बेचैनी से पहलू बदला ।
“जीप कैसे चोरी चली गयी ?”
“जी, वो.. .वो.. .चाबी इग्नीशन में रह गयी थी ।”
“जो कि तुम्हारी लापरवाही थी ।”
“जी.. .जी हां..”
“बांद्रा का इलाका तुम्हारे जाने के अंदर तो नहीं आता ! तुम वहां क्या करने आए थे ?”
“वहां रहते एक आदमी की मुझे खबर लगी थी जो हमारे इलाके से कई चोरियों में चोरी गया माल पकड़वा सकता था ।”
“कैसे खबर लगी थी ?”
“एक मुखबिर ने बताया था ।”
“अकेले क्यों गए ? क्या जानते नहीं हो कि ऐसे मुहिम पर अकेले जाना नियम के खिलाफ है ?”
“मुखबिर ने कहा था कि अकेले जाने से ही उस आदमी से कोई जानकारी हासिल हो सकती थी ।”
“बिना वर्दी के जाना था । पब्लिक कन्वेयंस पर जाना था । थाने की जीप पर बावर्दी क्यों गये ?”
“गलती हुई, जनाब ।” - चटवाल दबे स्वर में बोला ।
“क्या जानकारी हासिल हुई ?”
“कुछ भी नहीं । जो नाम मुखबिर ने बताया था, उस नाम का कोई आदमी बांद्रा की उस इमारत में नहीं रहता था । वह टिप सरासर गलत निकली थी ।”
“यानी कि तुम बहुत थोड़ा अरसा इमारत में ठहरे थे ?”
“मुश्किल से पांच मिनट, जनाब ।”
“उतने में कोई जीप चुराकर ले गया !”
“जनाब, मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था कि कोई यूं पुलिस की जीप चुराने का हौसला कर सकता था ।”
“अमूमन ऐसा हौसला कोई नहीं कर सकता । लेकिन चाबियां इग्नीशन में ही छोड़ने की तुम्हारी लापरवाही ने मशहूर इश्तिहारी मुजरिम सरदार सुरेंद्र सिंह सोहल का वहां से फरार होना आसान कर दिया ।”
“पुलिस की जीप छुपने वाली चीज नहीं, जनाब ।” - चटवाल पूर्ववत् दबे स्वर में बोला - “बरामद हो जायेगी ।”
“सवाल इस वक्त जीप की चोरी या बरामदी का नहीं है” - देवड़ा कठोर स्वर में बोला - “सवाल इस वक्त तुम्हारे कन्डक्ट का है । युअर कन्डक्ट इज अनबिकमिंग आफ ए सीनियर पुलिस आफिसर ।”
“आई एम सारी, सर ।”
“तुम इमारत की कौन सी मंजिल पर गए थे ?”
“चौथी पर ।”
“तब तुम्हें कतई भनक न लगी कि उसी इमारत की दूसरी मंजिल पर एक कत्ल हो गया था ?”
“नहीं, जनाब ।”
“तुम उस इमारत में रहते किसी और शख्स को जानते थे ?”
“जी नहीं । मैं तो उस इलाके में ही पहली बार गया था ।”
“उस आदमी का नाम बोलो जिससे तुम वहां मिलने गए थे ।”
“उस आदमी का नाम मुझे प्रेम मलानी बताया गया था लेकिन साहब, मैंने अर्ज किया है कि इस नाम का कोई आदमी वहां नहीं रहता था । मुझे गलत टिप मिली थी ।”
“टिप देने वाले मुखबिर का नाम बोलो ।”
चटवाल खामोश हो गया । उसने एकाएक सूख आए अपने होंठों पर जुबान फेरी ।
“मुखबिर का नाम बोलो, भई ।”
“हसन ।” - चटवाल मरे स्वर में बोला - “बदरुल हसन ।”
“हमारा रेगुलर मुखबिर है ?”
“जी हां । बारह साल से पुलिस का भेदिया है ।”
“लेकिन टिप्स गलत देता है !”
“नहीं, जनाब, उसकी टिप हमेशा सही निकलती रही है ।”
“इस बार गलत क्यों निकली ?”
“हैरानी है, जनाब ।”
“उसे कसो ।”
“मैं कसूंगा, जनाब ।”
“और तुम...”
मेज पर पड़े तीन टेलीफोनी में से एक की घंटी बजी ।
देवड़ा ने फोन उठाकर कान से लगाया । वह कुछ क्षण फोन सुनता रहा, फिर उसने फोन वापिस क्रेडल पर रख दिया ।
“जीप मिल गयी है ।” - उसने बताया ।
“कहां से ?” - चटवाल सशंक स्वर में बोला ।
“बांद्रा से ही । एक अंधेरी गली में खड़ी थी ।”
“मैं उसे लेने जाता हूं ।”
“जरूरत नहीं । जीप तुम्हारे जाने में पहुंचा दी गयी है ।”
चटवाल खामोश रहा ।
“यू कैन गो गओ ।”
चटवाल उठ खड़ा हुआ । फिर वह लगभग गिड़गिड़ाता हुआ बोला - “साहब, यकीनन मुझसे बहुत लापरवाही हुई । अगर मेरी यह एक खता माफ हो जाए तो मैं आपको यकीन दिलाता हूं कि. ..”
“इंस्पेक्टर” - देवड़ा कठोर स्वर में बोला - “यू बिल बी चार्जशीटिड एज पर स्टैंडिंग रूल्स ।”
“लेकिन, जनाब. ..”
“यू कैन गो गओ ।”
पिटा सा मुंह लेकर चटवाल एसीपी के कमरे से बाहर निकल गया ।
***
सवा नौ बजे तक तुकाराम के वरसोवा वाले मकान में सब जने जमा थे ।
सिवाय रुस्तमभाई अंधेरीवाला के ।
रुस्तमभाई का अभी भी कुछ पता नहीं था ।
विमल खुद इस बात की तसदीक कर चुका था कि न वह अपने घर पहुंचा था और न अपने अंधेरी वाले आफिस में ।
लोगों को बस स्टैंड से मकान तक लाने की जिम्मेदारी वागले पर छोड़कर विमल खुद रुस्तमभाई की फिराक में गया था । उसके लौटने तक सब जने मकान पर पहुंच चके थे । वह वहां पहुंचा तो उसने सबको तुकाराम के पलंग के गिर्द कुर्सियां डाले बैठा पाया ।
“सोहल आ गया !” - विमल को देखते ही जयरथ नकली खुशी का इजहार करता हुआ बोला - “जरूर माल की कोई खबर लाया होगा । या शायद माल ही साथ लाया हो !”
विमल ने यूं उसकी तरफ देखा जैसे फैसला न कर पा रहा हो कि वह उसका कत्ल कर दे या फिलहाल उसके हाथ पांव तोड़कर ही सब्र कर ले ।
अकबर ने चेतावनीभरे ढंग से जयरथ का कंधा दबाया लेकिन ऐसा न लगा जैसे जयरथ ने उस चेतावनी की परवाह की हो ।
“रुस्तमभाई का अभी भी कोई पता नहीं ।” - विमल एक खाली कुर्सी पर बैठता हुआ बोला ।
“वो अब तक” - जयरथ बोला - “माल के चारों सूटकेसों के साथ दुबई पहुंच चुका होगा ।”
“अच्छा !” - विमल बोला ।
“हां ।”
“फिर तो यह मीटिंग बेमानी है । जब माल हमारी पहुंच से बाहर निकल गया है तो यहां जमा होने का क्या मतलब ? फिर तो अपने अपने घर पहुंचो सब लोग ।”
कोई अपनी जगह से न हिला ।
“तुम” - विमल जयरथ से बोला - “काफी भौंक चुके हो या अभी और भौंकोगे ?”
“यहां बोलने पर पाबंदी है ?” - जयरथ भुनभुनाया ।
“बोलने पर पाबंदी नहीं है । भौंकने पर भी पाबंदी नहीं है । तुम जी भरकर भौंक सकते हो । मतलब की बातें बाद में हो जाएंगी । उनके लिए सारा दिन पड़ा है ।”
“तुम मेरी तौहीन कर रहे हो ।”
“जो कि तुम्हें महसूस नहीं हो रही । हो रही होती तो थोड़ी देर थोबड़ा बंद करके बैठे होते ।”
“जयरथ” - इस बार अकबर बोला - “चुप कर ।”
“लेकिन..”
“कहा न, चुप कर ।”
जयरथ भुनभुनाता हुआ चुप हो गया ।
विमल भण्डारी की तरफ घूमा ।
“पुलिस तुम तक पहुंची ?” - वह बोला ।
“पहुंची ।” - भण्डारी सहमति में सिर हिलाता हुआ बोला - “पहुंचना ही था ।”
“हुआ क्या ?”
“मुझे कबूल करना पड़ा कि वह फ्लैट मेरे कब्जे में था और मरने वाली मेरी रखैल थी । कत्ल का रिश्ता मेरे साथ जोड़ने में वे लोग पूरी तरह से नाकाम रहे थे । मेरी खुशकिस्मती थी कि मेरे पास कल के वक्त की अकाट्य एलीबाई थी ।”
“हूं ।”
“उन्होंने मेरे से तुम्हारे बारे में भी बहुत सवाल किए थे ।”
“तो ?”
“मैंने फ्लैट में तुम्हारी मौजूदगी से पूरी तरह नावाकफियत जाहिर की थी । मैंने कहा था कि मैं तो कई दिन से वहां नहीं जा पाया था । जरूर तुम्हारा मरने वाली से सीधे कोई रिश्ता था ।”
“पुलिस को विश्वास आ गया था तुम्हारी बात पर ?”
“जैसी जान उन्होंने मेरी खायी थी, उससे लगता तो नहीं था कि उन्हें मेरी बात पर विश्वास आया हो ।”
“अब क्या स्थिति है ?”
“वक्ती तौर पर उन्होंने मेरा पीछा छोड़ दिया है लेकिन मेरी जान अभी सांसत से निकली नहीं मालूम होती । तुम्हारा, मेरा और मंजुला का तिकोन मुझे बहुत खराब कर सकता है । एसीपी देवड़ा को बहुत पहले से मुझ पर शक है कि पेंटिंगों की चोरी में मेरा हाथ है । तुम्हारा नाम उस वारदात से यकीनी तौर पर जुड़ ही चुका है । अब मंजुला को केंद्रबिंदु मानकर वे तुम्हारे मेरे गठजोड़ पर विचार जरूर करेंगे । मेरा मंजुला से अवैध सम्बंध था । तुम मेरे फ्लैट में उसकी लाश के करीब पाए गए थे । यह बात उनको बहुत मानीखेज लग सकती है और वे इससे बहुत खतरनाक - मेरे लिए - नतीजा निकाल सकते हैं ।”
“साबित कुछ नहीं कर सकते ।”
“अगर कर सके” - भण्डारी रुंधे स्वर में बोला - “तो मैं बेमौत मारा जाऊंगा ।”
“हौसला रखो, कुछ नहीं होता ।”
“तुम इतने बड़े सूरमा बनते हो, उस लड़की की हिफाजत नहीं कर सके ।”
“मैं वहां लड़की की हिफाजत के लिए मौजूद नहीं था ।”
“तुम माल की हिफाजत भी तो नहीं कर सके ।”
विमल निरुत्तर हो गया ।
“हादसा किसी के साथ भी हो सकता है ।” - तुकाराम बोला ।
जयरथ बड़े व्यंग्यपूर्ण भाव से हंसा ।
अकबर ने उसे कोहनी मारी तो वह खामोश हुआ ।
“माल कहीं नहीं जाता” - विमल बोला - “मैं माल को तलाश करके रहूंगा ।”
“मैं इन नारों से नहीं बहलने वाला ।” - जयरथ बोला ।
“मुझे दिखाई दे रहा है” - एकाएक विमल की आंखों में एक बेहद सर्द भाव आया, उसने अपलक जयरथ की ओर देखा - “लेकिन तू बहलेगा । अलग से बहलाऊंगा तुझे मैं ।”
इस बार जयरथ विचलित हुआ । उसने बेचैनी से पहलू बदला और फिर परे देखने लगा ।
“जयरथ” - तुकाराम बोला - “इधर मेरी तरफ देख ।”
जयरथ ने तुकाराम की तरफ गर्दन घुमाई ।
“तू क्या चाहता है ?”
“मैं कुछ नहीं चाहता । मैं सिर्फ अपना हिस्सा चाहता हूं ।”
“तेरा हिस्सा मुझे मिलेगा । जरूर मिलेगा इस जमात में शामिल होने की दावत मुझे मैंने दी थी । और किसी पर नहीं तो मुझ पर भरोसा रख । या कह कि मुझ पर भरोसा नहीं !”
“मुझे आप पर भरोसा है ।”
“तो फिर फालतू बोलना बंद कर और चुपचाप बैठ ।”
“ये ठीक कह रहे हैं ।” - अकबर जल्दी से बोला ।
“अच्छा ।” - जयरथ बोला - “अच्छा ।”
तभी वागले सबके लिए चाय ले आया ।
“अब आगे करना क्या है ?” - रामन्ना बोला ।
“जो आगे करना है” - विमल बोला - “वह एक निहायत अहम सवाल के निहायत ईमानदाराना जवाब पर मुनहसर है । यह फैसला तो हो ही चुका है कि यह काम हममें से किसी का नहीं है ।”
“रुस्तमभाई यहां मौजूद नहीं है” - अकबर बोला - “उसके बारे में यह फैसला नहीं हो चुका ।”
“यह काम रुस्तमभाई का नहीं हो सकता । उसका होता तो वह रामन्ना के घर के आगे मुझ पर हमला करने के लिए न रुका होता ।”
“वह गायब है ।”
“उसके गायब होने की कोई और वजह भी हो सकती है ।”
“और क्या वजह हो सकती है ?”
“कोई भी और वजह...”
“तुम” - भण्डारी बोला - “सोहल को आगे बढने दो । इसे अपनी बात मुकम्मल करने दो ।”
अकबर खामोश हो गया ।
“तुम्हारा वो अहम सवाल क्या था ?” - भण्डारी विमल से बोला ।
“वह सवाल मैं कुछ से पूछ चुका हूं कुछ से नहीं पूछ पाया ।” - विमल बोला - “जिनसे पूछ चुका हूं उनसे दोबारा पूछना चाहता हूं । साहबान, क्या अनजाने में भी हममें से किसी ने माल का जिक्र किसी से किया है ?”
“मैंने अपनी छोकरी को माल की बाबत बताया था ।” - रामन्ना बोला - “लेकिन इतना ही बताया था कि आने वाले दिनों में मुझे एक मोटी रकम हासिल होने वाली थी । वह रकम कितनी थी, कहां थी, मुझे कब हासिल होने वाली थी, यह सब मैंने उसे नहीं बताया था ।”
विमल ने बाकियों की तरफ देखा ।
सबके सिर इनकार में हिले ।
“यह सवाल” - विमल बोला - “अगर हम रुस्तमभाई से भी कर पाये होते तो ज्यादा अच्छा होता । लेकिन वह हमारी मजबूरी है । रुस्तमभाई इस सवाल का जवाब देने के लिए उपलब्ध नहीं । बहरहाल हम यही मानकर चलते हैं कि उसका जवाब भी वही होगा जो हम सबका है । अब बाकी सम्भावना एक ही रह जाती है । और वह है मंजुला । अब यही कहा जा सकता है कि कोई मंजुला की फिराक में फ्लैट में आया था और फ्लैट में मौजूद दौलत की खबर उसे इत्तफाकन लग गयी थी जिसे कि वह ले उड़ा था ।”
“मंजुला की फिराक में वहां कौन आ सकता था ?” - भण्डारी बोला ।
“उसका कोई चाहने वाला ।”
“लेकिन उसका चाहने वाला तो...”
“सारी दुनिया में तुम्हारे अलावा कोई दूसरा न था ? यही कहने जा रहे थे न तुम ?”
भण्डारी ने बड़ी कठिनाई से सहमति में सिर हिलाया ।
“मुझे तुम्हारे जाती मामलात से कोई वास्ता नहीं भण्डारी, लेकिन इस वक्त कहना जरूरी है इसलिए कह रहा हूं वह लड़की सिर्फ तुम्हारी मिल्कियत नहीं थी ।”
“झूठ !” - भण्डारी आवेशपूर्ण स्वर में बोला ।
“वह बहुत लोगों को हासिल थी । वह एक ढकी-छुपी कॉलगर्ल थी जो बड़े गोपनीय ढंग से अपनी लिमिटिड क्लायंटेल में फंक्शन करती थी ।”
“यह नहीं हो सकता । वो.. .सिर्फ मुझसे प्यार करती थी ।”
“किसलिए ? तुम्हारे में सुर्खाब के पर लगे हैं ?”
भण्डारी के मुंह से बोल न फूटा ।
“जरा उसके कत्ल के पहले के कुछ क्षणों की कल्पना करो । वह सम्पूर्ण नग्नावस्था में थी । वह तब भी सम्पूर्ण नग्नावस्था में थी जबकि हत्यारा वहां पहुंचा था । किसी के आगमन पर भी उसने अपना तन ढकने की कोशिश नहीं की थी । की होती तो लाश की बरामदी के वक्त उसके तन पर कोई कपड़ा होता ।”
“हत्यारे ने उसे कपड़े पहनने का मौका ही नहीं दिया होगा !”
“उस सूरत में वह लाज शर्म से दोहरी हुई होती, न कि पलंग पर चित्त लेटी हुई होती ।”
“तुम कहना क्या चाहते हो ?”
“मैं यह कहना चाहता हूं कि उसने अपना तन ढकने की कोई कोशिश नहीं की थी, इसी से काफी हद तक यह साबित होता है कि हत्यारा जो कोई भी था, उसके लिए अपरिचित नहीं था । न सिर्फ अपरिचित नहीं था बल्कि उसके सामने नंगी पेश होना लड़की के लिए कोई गैरमामूली बात नहीं थी ।”
सबकी निगाह अपने आप ही भण्डारी की तरफ उठ गयी ।
“भण्डारी को घूरना बेकार है ।” - विमल बोला - “इसके पास कत्ल के वक्त की अकाट्य एलीबाई है । यह काम इसका नहीं । हत्यारा कोई और था ।”
“और वह मंजुला से ।” - भण्डारी बोला - “मेरे जितना ही इंटीमेट था ?”
“हालात से यही जाहिर होता ।” - विमल एक क्षण ठिठका और बोला - “और ऐसा शख्स कोई एक जना भी नहीं था ।”
“यह तुम कैसे कह सकते हो ?”
“अंदाजन ।”
“अंदाजे की भी कोई बुनियाद होती है !”
“है । मंजुला के पास एक डायरी थी जिसे वह बहुत सम्भाल कर रखा करती थी । एक बार जब वह टायलेट में थी तो मैंने उत्सुकतावश उस डायरी पर एक निगाह डाली थी । भण्डारी, उसमें कोई दो ढाई दर्जन लोगों के नाम पते और टेलीफोन नम्बर दर्ज थे और वे तमाम पते मर्दों के थे ।”
“बस ! सिर्फ इतने से ही तुमने यह नतीजा निकाल लिया कि वह कॉलगर्ल थी ?”
“इतने से और एक और बात से ।”
“और बात कौन सी ?”
“उसने मुझे भी फांसने की कोशिश की थी ।”
“झूठ !”
“कल दोपहर मैं फ्लैट में से निकला ही इसी वजह से था । वह पंजे झाड़कर मेरे पीछे पड़ी हुई थी । अपने नग्न जिस्म की खुली नुमायश वह मेरे लिए कर रही थी । लड़की के उस व्यवहार की तुम्हें खबर देने की कोशिश में ही मैं फ्लैट से बाहर निकला था ।”
“तो फिर दी क्यों नहीं थी खबर ?”
“मुझे लगा था कि पीछे फ्लैट खुला छोड़ आना ठीक नहीं था । दौलत की हिफाजत की खातिर मैंने वापिस लौट जाना ही मुनासिब समझा था ।”
भण्डारी कुछ न बोला । उसका चेहरा फक पड़ चुका था ।
“लड़की का कोई यार, कोई क्लायंट, इसी ताक में था कि मैं वहां से रुखसत होऊं और वह फ्लैट में दाखिल हो । मैं सिर्फ दस मिनट बाहर रहा । उतने में उसने खून भी कर दिया और माल भी ले गया ।”
“लड़की का कोई यार ? कोई क्लायंट ?” - जयरथ बोला ।
“जाहिर है । अब साहबान, हमारे हक में पोजीशन यह है कि वह शख्स, यानी कि हत्यारा, अगर लड़की का कोई रेगुलर क्लायंट था तो उसका नाम पता लड़की की उस डायरी में जरूर दर्ज होगा जिसका मैंने अभी जिक्र किया है । उस डायरी में दर्ज नामों को टटोलकर हम अपने मुर्गे तक पहुंच सकते हैं । तुकाराम तो हरकत के काबिल नहीं, इसको निकालकर हम छ: जने हैं जो कि बड़ी हद एक दिन में डायरी में दर्ज सारे नामों को चैक कर सकते हैं । यही एक तरीका है हत्यारे की तलाश करने का और उससे अपना माल वापिस झटकने का ।”
“वह डायरी” - अकबर बोला - “अब तक पुलिस के कब्जे में नहीं पहुंच चुकी होगी ?”
“शायद न पहुंच चुकी हो ! शायद पुलिस ने उसे कोई अहमियत न दी हो ! डायरी पुलिस के कब्जे में पहुंची है या नहीं, यह बात भण्डारी बाखूबी पता कर सकता है ।”
“कैसे ?” - भण्डारी हड़बड़ाया ।
“फ्लैट में जाकर और कैसे ?”
“लेकिन वहां तो पुलिस तैनात होगी ?”
“अब काहे को होगी ? अखबार में छपी खबर के मुताबिक लाश तो वहां से कल ही उठाकर पोस्टमार्टम के लिये भिजवा दी गयी थी । कोई इक्का दुक्का सिपाही वहां अभी भी तैनात होगा तो वह तुम्हें थोड़े ही रोकेगा ! आखिर तुम उस फ्लैट के मालिक हो ।”
“मैंने वहां जाकर वह डायरी तलाश करनी है ?” - वह अनिश्चित स्वर में बोला ।
“हां ।”
“अगर डायरी पुलिस ले गयी हुई तो ?”
“तो हमें वे पते पुलिस से हासिल करने होंगे ?”
सबने यूं हैरानी से विमल की तरफ देखा जैसे उसका सिर फिर गया हो ।
“आप लोगों को फिक्र करने की जरूरत नहीं ।” - विमल बोला - “वैसी नौबत आयी तो यह काम मैं करूंगा ।”
“कैसे ?”
“कैसे भी करूंगा, करूंगा । आखिर उस डायरी पर ही हमारे भविष्य की तमाम उम्मीदों का दरोमदार है ।”
“लेकिन...”
“बाद की बात बाद में देखी जायेगी । शायद उसकी नौबत ही न आये । शायद डायरी भण्डारी को फ्लैट में मिल ही जाये ।”
सबने सहमति में सिर हिलाया ।
फिर तत्काल भण्डारी को बांद्रा के लिए रवाना कर दिया गया ।
***
इंस्पेक्टर चटवाल भिण्डी बाजार के इलाके में पहुंचा ।
उसका लक्ष्य वहां की एक चाल था जिसकी एक खोली में पुलिस का पुराना मुखबिर बदरुल हसन रहता था ।
हसन उसे अपनी खोली के सामने बरामदे में एक चटाई पर सोता मिला ।
चटवाल ने पांव की ठोकर मारकर उसे जगाया ।
हसन ने भुनभुनाते हुए आंखें खोलीं । चटवाल पर निगाह पड़ते ही वह उछलकर खड़ा हो गया ।
“बाप” - वह हड़बड़ाया - “तुम इधर..”
“भीतर चल ।” - चटवाल क्रूर स्वर में बोला ।
“आप मेरे को बुलाया होता...”
“भीतर चल । सुना नहीं !”
हसन ने खोली की कुंडी खोली और भीतर दाखिल हुआ । चटवाल ने भी उसके पीछे कमरे में कदम रखा । उसने अपने पीछे दरवाजा बंद किया और हसन को गिरहबान से दबोच लिया ।
“बाप !” - हसन की आंखें फट पड़ी, वह उसकी पकड़ में छटपटाता हुआ बोला - “अपुन क्या कियेला है ?”
“कुछ नहीं ।”
“तो फिर..”
“मैं मुझे कुछ कहने जा रहा हूं उसे गौर से सुन । मुझे कोई बात दोहरानी न पड़े ।”
“बोलो, बाप ।”
“तू होश में है ?”
“बरोबर ।”
“पूरे होश में है न, जो मैं कह रहा उसे सुन ही रहा है या समझ भी रहा है ?”
“अपुन बरोबर होश में है, बाप ।”
“नींद से जाग चुका है न ?”
“हां ।”
“तो सुन । पहले एक नाम याद कर ले । प्रेम मलानी । क्या ?”
“प्रेम मलानी ।” - हसन ने दोहराया - “बाप, गिरहबान तो छोड़ दो । दम घुटेला है ।”
चटवाल ने गिरहबान छोड़ा नहीं, सिर्फ अपनी पकड़ तनिक ढीली कर दी ।
“यह आदमी बांद्रा वैस्ट के इलाके में हिल रोड पर बनी आठ नम्बर इमारत के चौथे माले पर रहता है । पता सुना ?”
“बरोबर सुना, बाप ।”
“हसन, यह पता कल सुबह तूने मुझे बताया था ।”
“अपुन ने बताया था ?”
“हां ।”
“पण...”
“ज्यास्ती बात नहीं । अभी जिंदा रहना चाहता है तो ज्यास्ती बात नहीं ।”
“ठीक है” - वह मरे स्वर में बोला - “यह नाम पता अपुन तुम्हेरे को बतायेला था ।”
“मुझे कहीं से टिप मिली थी कि यह आदमी, प्रेम मलानी, अंधेरी के इलाके में हुई कई चोरियों का सुराग दे सकता था, माल पकड़वा सकता था ।”
“ऐसा अपुन को बोलना है ?”
“हां ।”
“ठीक है । बोलेंगा । बरोबर बोलेगा ।”
“शाबाश !”
“लेकिन कब बोलेगा ? किसको बोलेगा ?”
“शायद कभी नहीं । शायद किसी को नहीं ।”
“तो फिर...”
“लेकिन अगर कभी पूछा, अगर किसी ने पूछा तो तूने यही कहना है ठीक ?”
“ठीक ।”
“क्या कहना है ?”
हसन ने दोहराया ।
“शाबाश !” - चटवाल ने एक आखिरी झटका देकर उसका गिरहबान छोड़ दिया - “अब समझ ले तेरी जान बच गयी ।”
“बाप, अपुन तो तुम्हेरी बकरी है ।”
“तभी तो सलामत है । तभी तो अभी तक हलाल होने से बचा हुआ है ।”
“कोई और खिदमत हो तो बोलो, बाप ।”
“फिलहाल इतना ही काफी है । और किसी को बोलने का नहीं कि मैं इधर आया था ।”
“नहीं बोलेंगा, बाप । काहे कू बोलेंगा, बाप ! ये चाल क्या तुम्हारे इधर आने के काबिल है ! अपुन क्या तुम्हेरा...”
“बस, बस । ज्यास्ती बात नहीं ।”
हसन खामोश हो गया ।
चटवाल उसे आखिरी बार घुड़ककर, आखिरी बार अपनी अंगारे जैसी आंखों का जलवा दिखाकर वहां से विदा हो गया ।
***
भण्डारी डेढ घंटे में वापिस लौटा ।
डायरी के साथ ।
उसने बताया कि वहां केवल एक सिपाही तैनात था जो पिछली रात उससे हुई पूछताछ की वजह से उसे पहचानता था । उसने भण्डारी को फ्लैट में दाखिल होने से नहीं रोका था । वैसे भी पुलिस अपना वहां का काम मुकम्मल कर चुकी थी और वह सिपाही भी वहां से वापिस बुला लिये जाने के आदेश की ही प्रतीक्षा कर रहा था ।
डायरी उसे बड़ी सहूलियत से हासिल हो गयी थी ।
“कहीं ऐसा तो नहीं” - जयरथ बोला - “कि पुलिस ने इसमें लिखे पते नोट करके डायरी फिर से वापिस वहां रखी हो ?”
“ऐसा है भी तो क्या हुआ ?” - विमल बोला ।
“उस सूरत में पुलिस भी तो डायरी के नामों को चैक कर रही होगी । तब क्या हमारा और पुलिस का रास्ता क्रास नहीं होगा ?”
“हम सावधान रहेंगे तो नहीं होगा । पुलिस उन नामों को चैक कर रही होगी तो वे लोग हर शख्स के सिर पर ही तो नहीं बैठे रहेंगे ! जो नाम चैक हो जायेगा, वे उससे आगे बढेंगे । हम सावधान रहेंगे तो पुलिस से हमारा रास्ता क्रास नहीं होगा ।”
“हम चैक करेंगे क्या ?”
“यह मैं अभी समझाऊंगा । पहले एक समस्या और है ।”
“क्या ?”
“तुका, यहां कहीं हमें टेलीफोन उपलब्ध नहीं हो सकता ?”
“हो सकता है ।” - तुकाराम बोला - “यहां एक और मकान है जो खाली पड़ा है और जो मेरे अधिकार में है । वहां टेलीफोन तो है लेकिन उसमें फर्नीचर वगैरह कुछ नहीं है और छोड़ा हुआ होने की वजह से वह साफ भी नहीं है ।”
“सफाई हो जायेगी और फर्नीचर बिना गुजारा चल सकता है । मेरी राय है कि जब तक यह सिलसिला किसी सिरे नहीं लगता, हम सब लोग यहीं रहें ।”
“मैं नहीं रह सकता ।” - भण्डारी ने तुरंत प्रतिवाद किया - “मैं घर गृहस्थी वाला आदमी हूं । मेरा अपने परिवार के साथ मौजूद रहना जरूरी है । ऊपर से मुझे पुलिस की वार्निंग है कि मैं उनसे संपर्क बनाये रखूं ।”
“ठीक है । तुम शाम को अपने घर चले जाना ।”
“मैं अपनी छोकरी के बिना नहीं रह सकता ।” - रामन्ना बोला ।
“दिन को तू काम करेगा तो छोकरी को साथ ले लेकर फिरेगा ?” - तुकाराम ने पूछा ।
“नहीं” - रामन्ना बोला - “लेकिन रात को...”
“ठीक है । रात को बुला लाना । वहां बहुत कमरे हैं ।”
रामन्ना खामोश हो गया ।
“तुम जोड़ीदारों की कोई प्राब्लम हो ?” - विमल बोला ।
अकबर और जयरथ ने इनकार में सिर हिलाया ।
“गुड । अब सुनो कि कैसे लिस्ट के नामों को चैक करना है...”
***
जिस रोज मंजुला की हत्या हुई थी, उसी रोज से मुम्बई में भारत और वैस्टइंडीज के बीच क्रिकेट टैस्ट मैच शुरू हुआ था । मुम्बई दूरदर्शन ने टैस्ट मैच के मुम्बई से सीधे प्रसारण का प्रबंध किया था । लिस्ट के नामों को चैक करने की तरकीब उस टैस्ट मैच के टेलीविजन पर दिखाये जाने पर आधारित थी । लिस्ट के नामों में से जो कोई भी पिछली दोपहर को टेलीविजन पर टैस्ट मैच देख रहा था, वह मंजुला का हत्यारा नहीं हो सकता था । अलबत्ता जरूरी नहीं था कि हत्यारा वह शख्स होता जो कि टैस्ट मैच नहीं देख रहा था लेकिन तीस नामों की लिस्ट को सैंसर करने का फिर भी वह बेहतरीन तरीका था । बाकी बचे नामों को दूसरे राउंड में किसी और तरीके से चैक किया जा सकता था ।
रामन्ना अपने हिस्से आये नामों में से तीन नाम चैक कर चुका था ।वे तीनों शख्स सारा दिन गोंद की तरह टेलीविजन से चिपके रहे थे और एक क्षण के लिए भी अपने घर से बाहर नहीं निकले वे । उसने तुकाराम को फोन करके वे तीनों नाम लिस्ट में से कटवा दिये थे ।
हर चैकिंग के बाद फोन करने का सिलसिला इसलिए निर्धारित किया गया था ताकि अगर उन्हें अपने मुर्गे की बीच में ही खबर लग जाये तो बाकी की चेकिंग में वक्त बरबाद न किया जाये और आपरेशन को वहीं ड्राप करके सबको वापिस बुला लिया जाये ।
अब वह चौथे नाम को चैक करने की खातिर चिंचपोकली के इलाके में पहुंचा हुआ था । वह इस खयाल से रह रहकर विचलित हो जाता था कि हत्यारा उसकी लिस्ट में बाकी बचे दो नामों में से कोई हो सकता था और उसी के पास छ: करोड़ की रकम से भरे चार सूटकेस हो सकते थे । ऐसा आदमी उसके लिए निहायत खतरनाक साबित हो सकता था इसलिए वह अपने साथ एक भरी हुई रिवाल्वर लेकर आया था । उस रिवाल्वर का जिक्र उसने अपने साथियों से नहीं किया था । रिवाल्वर वह संकट की घड़ी में इस्तेमाल करने के इरादे से साथ लाया था लेकिन फिर भी वह भगवान से प्रार्थना कर रहा था कि हकीकतन उसके इस्तेमाल की नौबत न आए ।
लिस्ट के चौथे आदमी का घर एक इमारत की तीसरी मंजिल पर निकला ।
सीढियां तय करके वह तीसरी मंजिल तक पहुंचा । वहां दो फ्लैट और थे लेकिन दोनों को बाहर से ताला लगा हुआ था । केवल उसी फ्लैट पर ताला नहीं था जिसकी फिराक में वह वहां आया था ।
अपने कोट की दाईं जेब में पड़ी रिवाल्वर टटोलकर वह पहले आश्वस्त हुआ कि वह यथास्थान मौजूद थी और फिर उसने कालबैल बजाई ।
भारी भरकम चेहरे वाले एक अधेड़ व्यक्ति ने दरवाजा खोला ।
रामन्ना ने अपने हाथों में एक नोट बुक और बाल पॉइंट पैन थामा हुआ था और उसका पोज ऐसा था जैसे वह तत्काल कुछ नोट करने को तत्पर था ।
“क्या है ?” - वह आदमी बोला ।
“इस घर के मालिक आप हैं ?” - रामन्ना बड़े विनयशील स्वर में बोला ।
ठिगना तो वह था ही, उस लम्बे-चौड़े आदमी के सामने वह और भी बौना लग रहा था । उससे निगाह मिलाये रखने के लिए उसे अपना सिर पैंतालीस अंश के कोण पर छत की तरफ उठाना पड़ रहा था ।
“हां । तुम कौन हो ?”
“मैं टीवी सेंटर से आया हूं । हम लोगों की टीवी देखने की आदतों का और टीवी प्रोग्रामों के प्रति उनकी पसंद नापसंद का सर्वे कर रहे हैं । इसी संदर्भ में आप से कुछ सवाल पूछना चाहता हूं ।”
“पूछो ।”
“आपके पास टीवी है ?”
“हां । तुम कौन हो ?”
“आप टीवी देखते हैं ?”
“हां । अभी भी देख रहा हूं ।”
“आपका पसंदीदा प्रोग्राम कौन सा है ?”
“कोई भी नहीं ।”
“जी !”
“मैं सिर्फ खबरें सुनता हूं या स्पोर्ट्स इवेंट्स देखता हूं ।”
“फिर तो आप क्रिकेट का टैस्ट मैच देख रहे होंगे ?”
“हां, देख रहा हूं ?”
“कल भी देख रहे थे ?”
“हां, कल भी देख रहा था ।”
“कल दोपहर बारह बजे आप टीवी के सामने थे ?”
“था ।”
“फिर तो आपने गावस्कर को आउट होते देखा होगा ?”
“हां, देखा था ।”
“फिर तो आपने नोट किया होगा कि उसके आउट होने का एक्शन रीप्ले दिखाने में एक नई तकनीक इस्तेमाल की गयी थी ?”
“हां ।”
“आपने उसमें क्या विशेषता देखी ?”
“उसमें ध्वनि पर बाउलर, बैट्समैन और कैच लेने वाले प्लेयर को इकट्ठा दिखाया गया था ।”
“और जूम और स्लो मोशन का इकट्ठा इस्तेमाल किया गया था ।” - रामन्ना बोला ।
वह आदमी हत्यारा नहीं हो सकता था । वह तो वाकई कल दोपहर को टीवी देख रहा था ।
“वो क्या होता है ?”
“वो.. .वो.. .एक तकनीक...”
“इसे भीतर बुलाओ ।” - भीतर कमरे में से एक दबी सी आवाज आयी ।
रामन्ना खूब पंजों पर उचका, दायें-बायें भी झूला लेकिन दरवाजे पर खड़े आदमी से पार वह भीतर कमरे में न झांक सका और दबी आवाज में बोलने वाले की सूरत न देख सका ।
“तुम भीतर आ जाओ ।” - दरवाजे पर खड़ा आदमी बोला ।
“जी ?” - रामन्ना हड़बड़ाया - “जी, वो क्या है कि...”
“मैच अभी आ रहा है । जरा मुझे बताओ तो जूम क्या होता है और स्लो मोशन क्या होता है !”
“लेकिन...”
“अरे, आओ तो ! जब तुम इतना कुछ जानते हो तो हमारी नालेज में भी थोड़ा इजाफा होने दो ।”
रामन्ना ने झिझकते हुए आगे कदम बढाया ।
उसके बैठक में दाखिल होते ही दो लम्बे चौड़े आदमी अपने स्थानों से उठ खड़े हुए । उनके हाथ उनकी जेबों में सरक गए और वे दृढ कदमों से रामन्ना की तरफ बढे । दोनों के चेहरों पर कमीनगी और सख्ती के कुछ ऐसे स्थायी भाव थे कि रामन्ना भीतर ही भीतर सिहर उठा । उन भावों की उसको खूब पहचान थी, खूब ज्यादा पहचान थी ।
निश्चय ही वे पुलिसिये थे ।
उनमें से एक उसे टीवी सेंटर का अपना आईडेंटिटी कार्ड दिखाने को कह रहा था लेकिन रामन्ना को कुछ सुनाई नहीं दे रहा था । अपनी जेब में पड़ी रिवाल्वर उस घड़ी उसे मन भर की लग रही थी । वह रिवाल्वर चोरी की थी जिस पर से उसका सीरियल नम्बर रेती से घिसकर मिटाया जा चुका था और उसके पास रिवाल्वर रखने का लाइसेंस भी नहीं था । अकेली वह रिवाल्वर ही उसे बुरी तरह से फंसा सकती थी । वैसे वह सिर्फ पुलिस की सख्ती का ही शिकार होता लेकिन रिवाल्वर की वजह से उस पर साफ साफ अवैध हथियार रखने का चार्ज बनता था और वह एक चार्ज आधी दर्जन और झूठे सच्चे चार्जों की वजह बन सकता था ।
उस सोहल के बच्चे ने उसे बहुत बुरी तरह फंसाया था । कहता था कि उनके और पुलिस के रास्ते क्रास नहीं होंगे ।
अब अपनी कल्पना वह जेल के सींखचों के पीछे करने लगा ।
उस खयाल ने ही उसे अधमरा कर दिया । इस फानी दुनिया में अगर किसी चीज की उसे हद से ज्यादा दहशत थी तो वह जेल में जाने की थी । और अपने जेल जाने का सामान खुद उसने रिवाल्वर साथ लाकर कर लिया था । रिवाल्वर साथ लाते समय उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि उसका टकराव पुलिस से हो सकता था ।
“अबे, जवाब क्यों नहीं देता ?” - एक पुलिसिया कहरभरे स्वर में बोला - “ऊंचा सुनता है या बहरा है ?”
जवाब देने की जगह रामन्ना घूमा और अपनी कापी पेंसिल फेंकता हुआ बगुले की तरह वहां से भागा । रास्ते में उसका हाथ अपनी रिवाल्वर वाली जेब में सरक गया । वह रिवाल्वर को सीढियों में कहीं फेंक देना चाहता था ताकि वह उसके पास से बरामद न होती ।
लेकिन पीछे मौजूद पुलिसियों को जब रिवाल्वर की झलक मिली तो उन्होंने उसका उलटा मतलब लगाया । उन्होंने यही समझा कि रामन्ना उन पर गोली चलाने का इरादा रखता था । तुरंत उनमें से एक ने अपनी रिवाल्वर निकाली । उसने चिल्लाकर उसे रुक जाने के लिए और रिवाल्वर फेंक देने के लिए कहा लेकिन आतंकित रामन्ना ने जैसे कुछ सुना ही नहीं । वह सिर झुकाकर मेंढक की तरह सीढियां फलांगता रहा ।
दो फायर हुए ।
दोनों गोलियां उसके सिर के ऊपर से गुजरी और सीढियों की दीवार में कहीं जाकर टकरायी । ऐसा जरूर उसके ठिगने होने की वजह से हुआ था । लेकिन तब तक शायद पुलिसिये को भी सूझ गया था कि उसका निशाना क्यों चूका था ।
तीसरी गोली रामन्ना की खोपड़ी में धंस गयी ।
गोली के वेग से उसके दोनों पांव यूं सीढियों पर से उखड़े जैसे किसी ने उसे जोर से धक्का दिया हो । वह पछाड़ खाकर सीढियों पर गिरा और उसका शरीर सीढियों पर लुढकने लगा ।
आखिरी सीढी तक पहुंच सकने से पहले ही पिचहत्तर लाख रुपये के अपने हिस्से का तलबगार विजय रामन्ना स्वर्गीय विजय रामन्ना बन चुका था ।
***
एसीपी मनोहर देवड़ा अपने कमिश्नर के सामने हाजिर था ।
“सर” - वह तत्पर स्वर में बोला - “अभी कुछ ऐसे वाकयात सामने आये हैं जिनको फौरन आपकी जानकारी में लाना मैंने जरूरी समझा था ।”
“कोई नयी बात ?” - कमिश्नर भवें उठाकर बोला ।
“जी हां । नयी भी और उम्मीदअफजाह भी ।”
“मैं सुन रहा हूं ।”
“सर, हालात का साफ इशारा है कि आलमगीर आर्ट गैलरी से फ्रांसीसी पेंटिंगों की चोरी के नाटक का, उनके बदले फ्रांसीसी कल्चरल अटैची द्वारा अदा की गयी छ: करोड़ की रकम की फिरौती का और कल दोपहर को बांद्रा में हुए मंजुला नाम की लड़की के कत्ल का आपस में कोई रिश्ता है ।”
“कैसे ?”
“कत्ल के बाद मौकाएवारदात पर पहुंचे हमारे एक हवलदार ने वहां मौजूद सरदार सुरेंद्र सिंह सोहल को पहचाना था । उसने ठीक पहचाना था, वह सोहल ही था, तभी तो वह हमारे आदमियों पर हमला करके वहां से भाग खड़ा हुआ था । वह सोहल न होता तो भागने की जगह उसने अपनी सफाई दी होती और सोहल होने से पुरजोर इनकार किया होता । बाद की तफ्तीश के दौरान फ्लैट में से सोहल की उंगलियों के निशान साफ साफ बरामद हुए हैं ।”
“तुम यह कहना चाहते हो कि सोहल ने उस लड़की का कत्ल किया था ?”
“नो, सर । मैं यह नहीं कहना चाहता । बल्कि मैं यह कहना चाहता हूं कि सोहल उस लड़की का कातिल नहीं हो सकता । पुलिस कंट्रोल रूम में लड़की के कत्ल की बाबत आयी टेलीफोन काल का जो वक्त रिकार्ड किया गया था, वह सोहल की फ्लैट में मौजूदगी के वक्त से मेल नहीं खाता । कत्ल सोहल ने किया होता तो वह टेलीफोन काल के जवाब में पुलिस के वहां पहुंचने पर वहां मौजूद न होता । वह कब का वहां से खिसक चुका होता । ऊपर से उस सूरत में पुलिस पर जो आक्रमण उसने बाद में किया था, वह उसने पुलिस के फ्लैट पर पहुंचते ही कर दिया होता । हकीकतन पुलिस वालों पर आक्रमण उसने तब किया था जबकि हमारे हवलदार ने उसे सोहल के रूप में पहचान लिया था ।”
“तो फिर लड़की का कत्ल किसने किया ?”
“वह एक जुदा मसला है, सर । जो कुछ मैं कहना चाहता हूं उसमें इस बात की कोई अहमियत नहीं है कि लड़की का कत्ल किसने किया !”
“आगे बढ़ो ।”
“मेरी थ्योरी यह है कि बांद्रा वाला वह फ्लैट छ: करोड़ की रकम को वक्ती तौर पर छुपाकर रखने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा था, हतप्राण लड़की मंजुला भण्डारी की रखैल थी और वह फ्लैट भण्डारी के अधिकार में था । मैं भण्डारी के खिलाफ कुछ साबित नहीं कर सका लेकिन अभी भी मुझे भण्डारी पर पूरा शक है कि पेंटिंगों की चोरी में उसका भी हाथ था । ऊपर से सोहल की पनाहगाह का मालिक वह है ।”
“सोहल को पनाह उस लड़की ने दी हो सकती थी !”
“ऐसा भी भण्डारी की जानकारी के बिना मुमकिन नहीं था । लड़की भण्डारी की रखैल थी और वह फ्लैट भण्डारी का प्रेम घरौंदा था । भण्डारी के कदम वहां किसी भी क्षण पड़ सकते थे, फिर क्या भण्डारी से यह छुपा रहता कि उसी की माशूक ने उसी के फ्लैट में किसी इश्तिहारी मुजरिम को पनाह दी हुई थी !”
“तुम्हारे पास यह साबित करने के लिए क्या है कि फिरौती का माल वहां छुपाया गया था ?”
“कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है, सर, लेकिन हालात यही जाहिर करते हैं । उस माल के बिना सोहल की उस फ्लैट में मौजूदगी युक्तिसंगत नहीं लगती ।”
“वह वहां सिर्फ छुपा हुआ हो सकता था । आखिर वह इश्तिहारी मुजरिम है ।”
“वह वहां छुपा हुआ ‘भी’ हो सकता था लेकिन उसकी वहां मौजूदगी की यह इकलौती वजह मुमकिन नहीं । इसके लिए आपको यह मानना पड़ेगा कि उसका भण्डारी से गठजोड़ था । एक सरकारी संस्थान के सिक्योरिटी आफिसर का एक इश्तिहारी मुजरिम और शातिर चोर से गठजोड़ खामखाह नहीं हो सकता, सर ।”
कमिश्नर ने बड़ी विचारपूर्ण हुंकार भरी ।
देवड़ा आशापूर्ण भाव से कमिश्नर को देखता रहा ।
“लेकिन माल तो फ्लैट में बरामद नहीं हुआ !” - कुछ समय खामोश रहने के बाद कमिश्नर बोला - “अब क्या तुम यह कहना चाहते हो कि मौकाएवारदात पर पहुंचे हमारे आदमियों पर हमला करने के बाद वह माल सोहल ले गया ?”
“जी नहीं” - देवड़ा बोला - “सोहल को इतना माल ढोने लायक वक्त उपलब्ध नहीं था । वह हमारे आदमियों पर आक्रमण करते ही वहां से भाग खड़ा हुआ था । नीचे पुलिस की जीप में जो ड्राइवर बैठा था, जिसने सोहल को पहचाना नहीं था और जिसको सोहल ने बहाने से ऊपर फ्लैट में भेज दिया था, उसका कहना है कि भागते वक्त सोहल के हाथ में सिर्फ कैनवस का एक बैग था । एक हाथ में ढोये जा सकने वाले कैनवस के बैग में छ: करोड़ रुपये की रकम नहीं समा सकती, सर ।”
“तो फिर माल कहां गया, कब गया, कैसे गया ?”
“यह भी एक मिस्ट्री है, सर” - देवड़ा दबे स्वर में बोला - “जिसका फिलहाल कोई जवाब नहीं ।”
“माल वहां होगा ही नहीं !”
“सर, आई अगेन सबमिट दैट इट इज नाट स्टैंड टु रीजन । अगर सोहल वहां था तो माल का वहां होना जरूरी था ।”
“तुमने इस बाबत भण्डारी से बात की ?”
“जी हां, की । खुद की ।”
“वो क्या कहता है ?”
“वो सिर्फ इतना कबूल करता है कि फ्लैट उसका था और लड़की उसकी रखैल थी । इसके अलावा वो हर बात से अनभिज्ञता जाहिर करता है । हमने कहा था कि लड़की का कोई और यार होगा जिसने ईर्ष्या की भावना से प्रेरित होकर उसकी हत्या कर दी होगी लेकिन उसकी यही जिद थी, निहायत अहमकाना जिद थी, कि लड़की उसके लिए पूरी तरह से वफादार थी । न उसका कोई यार था और न हो सकता था ।”
“लड़की कैसी थी ? फ्लैट का रखरखाव कैसा था ?”
“दोनों चीजें बढिया । ऐश्वर्यश्गली नहीं तो शानदार तो शर्तिया । सर, भण्डारी जैसे साधनों वाला आदमी ऐसा कीमती रहन सहन और ऐसी शानदार लड़की आम हालात में अफोर्ड नहीं कर सकता था । यह अपने आप में इस बात की तरफ इशारा है कि अपनी एय्याशी बरकरार रखने के लिए उसे जो दौलत दरकार थी, उसी की खातिर उसने चोरों से गठजोड़ किया था ।”
“लेकिन हमारे पास इस बात का कोई सबूत नहीं !”
देवड़ा ने बड़े खेदपूर्ण ढंग से इनकार में सिर हिलाया ।
“फिर ?”
“फ्लैट में मौजूद लड़की के साजोसामान की तलाशी के दौरान लड़की की एक डायरी हमारे हाथ में लगी थी । उस डायरी में कोई ढाई दर्जन आदमी के पते लिखे हुए थे । उन पतों की वजह से हमें यह सम्भावना दिखाई दी थी कि लड़की सिर्फ भण्डारी की प्रापर्टी नहीं थी बल्कि वह ढकी छुपी कॉलगर्ल भी थी । उन आम पतों को चैक करने के लिए मैंने दो आदमी तैनात किये वे । मैंने रुटीन के तौर पर ही ऐसा किया था, हकीकतन मुझे उससे कुछ भी हासिल होने की उम्मीद नहीं थी लेकिन” - देवड़ा एक क्षण ठिठका और फिर बड़े नाटकीय स्वर में बोला - “हासिल हुआ ।”
“क्या हासिल हुआ ?”
“हमारे आदमी जब चिंचपोकली के इलाके में एक आदमी से पूछताछ करने पहुंचे थे तो वहां एक और आदमी पहुंच गया था । वह अपने आप को टीवी सेंटर का आदमी बता रहा था और ऐन उस वक्त की बाबत फ्लैट के मालिक से सवाल पूछ रहा था जबकि कल बांद्रा में मंजुला का कत्ल हुआ था । इस बात से हमारे आदमियों का माथा ठनका था । उन्होंने उस आदमी को भीतर बुलाया था । भीतर आने पर वह किसी तरह भांप गया था कि उसे भीतर बुलाने वाले आदमी पुलिस के थे । वह फौरन वहां से भाग खड़ा हुआ था । हमारे आदमियों के लिए यह सख्त हैरानी की बात थी । उससे ज्यादा हैरानी की बात यह हुई कि वह निर्दोष-सा लगने वाला टीवी सर्वेयर हथियारबंद था ।”
“हथियारबंद था !”
“जी हां । न सिर्फ हथियारबंद था बल्कि हथियार को इस्तेमाल करने का भी इरादा रखता था । उसने रिवाल्वर निकाल भी ली थी । तभी मजबूरन हमारे आदमियों को उस पर फायर करना पड़ा था । हालांकि हमारे आदमियों को उसे जान से मारने का कोई इरादा नहीं था लेकिन इत्तफाक ऐसा हुआ कि गोली उस आदमी की खोपड़ी पर लगी और वह वहीं इमारत की सीढियों में ही गिरकर मर गया ।”
“हकीकतन वह टीवी सेंटर का आदमी नहीं था ?”
“जी नहीं ।”
“तो कौन था ?”
“उसकी जेब से कमर्शियल व्हीकल्स चलाने का ड्राइविंग लाइसेंस बरामद हुआ था जिसके मुताबिक उसका नाम विजय रामन्ना था । फिर मामूली पूछताछ से ही मालूम हो गया था कि वह एक टैक्सी ड्राइवर था जो कि किराये की टैक्सी चलाता था और फारस रोड का टैक्सी स्टैंड जिसका पक्का अड्डा था ।”
“लेकिन” - इस बार कमिश्नर तनिक उलझनपूर्ण स्वर में बोला - “इसमें ऐसा क्या है जिसका फौरन मेरी जानकारी में लाना जरूरी था ?”
“सर, वह सिर्फ टैक्सी ड्राइवर ही नहीं था ।”
“तो क्या था ?”
“वह फ्रांसीसी पेंटिंगों के चोरों का साथी था और वह उन तीन कारीगरों में से एक था जिन्होंने आलमगीर आर्ट गैलरी के हाल की नकली छत बनायी थी ।”
“क्या !”
“यस, सर ।”
“कैसे मालूम हुआ ?”
“उसके ठिगने कद की वजह से मेरी उसकी तरफ तवज्जो गयी थी । ऊपर से वह उन पतों को चैक कर रहा था जो कि हतप्राण मंजुला की डायरी में दर्ज थे । डायरी बांद्रा वाले फ्लैट में थी जहां से कि प्रत्यक्षत: किसी मामूली टैक्सी ड्राइवर का कोई मतलब नहीं होना चाहिए था । सर, उसके पास पांच ऐसे पते थे जो कि हतप्राण की डायरी में दर्ज वे । पूछताछ पर मालूम हुआ था कि वैसे तीन पतों पर वह हो भी आया हुआ था । हर जगह उसके सवालों का उद्देश्य यही जानना था कि पते का मालिक पिछले रोज दोपहर को, यानी कि बांद्रा में मंजुला के कत्लल के वक्त, कहां था और क्या कर रहा था ! वे पते भण्डारी के अलावा उसे और कहीं से हासिल नहीं हो सकते थे । इससे साफ साबित होता था कि भण्डारी और वह दोनों ही चोरों की जमात में शामिल वे और चोरों के शागिर्द बने हुए थे । यह सूझते ही मैंने आलमगीर आर्ट गैलरी के गार्डों से उसकी शिनाख्त करवाई थी । कई गार्डों ने उसे साफ पहचाना था और कहा था कि वह ठिगना उन तीन कारीगरों में से एक था जो आर्ट गैलरी की दूसरी मंजिल के हाल की फाल्स सीलिंग बनाने वहां आया करते थे ।”
“ओह ! आई सी ! आई सी !”
“सर, यह हमारी बद्किस्मती है कि गोली उस ठिंगु की खोपड़ी में लगी और उसने फौरन प्राण त्याग दिये । अगर वह जिंदा रहा होता तो उसी से हासिल जानकारी से सारा केस हल हो गया होता और फिर निश्चय ही सोहल भी हमारी गिरफ्त में आ गया होता ।”
“इस आदमी का लड़की की डायरी में लिखे पते चैक करने के पीछे क्या मकसद हो सकता है ?”
“मकसद तो कोई खास ही होना चाहिए, सर । सिर्फ लड़की के यारों की जानकारी हासिल करने के लिये तो वे लोग उन पतों को चैक कर नहीं रहे होंगे !”
“वे लोग ! तुम्हारा मतलब है यह चैकिंग और लोग भी कर रहे होंगे ?”
“सर, ठिंगु की जेब में से केवल पांच पते बरामद हुए थे जबकि डायरी में कोई ढाई दर्जन पते दर्ज थे । इस हिसाब से कम से कम छ: आदमी यह काम करते होने चाहिए । और सर, ऐसी व्यापक तलाश तो एक ही चीज के लिए हो सकती है ।”
“किस चीज के लिए ?”
“दौलत के लिए । छ: करोड़ की उस रकम के लिए जो उन्होंने फ्रांसीसी कल्चरल अटैची से हासिल की थी ।”
“तुम्हारा मतलब है कि वह रकम उन लोगों के हाथों से निकल चुकी है ?”
“हालात का इशारा तो इसी तरफ है । फ्लैट से भागते वक्त रकम सोहल के पास नहीं थी । रकम फ्लैट से भी बरामद नहीं हुई थी । लड़की का कत्ल हुआ था लेकिन वह सोहल ने नहीं किया था । पुलिस हैडक्वार्टर पर कत्ल की बाबत जो टेलीफोन काल पहुंची थी, वह सोहल द्वारा की गयी नहीं हो सकती थी । वह जरूर हत्यारे की करतूत थी और उसने सोहल को फंसाने की नीयत से ऐसा किया था । हालात साफ जाहिर कर रहे हैं कि जिसने लड़की का कत्ल किया था, वही माल भी ले उड़ा था । लड़की का अपने कातिल के सामने पूरी बेबाकी से नंगी मौजूद होना भी यही जाहिर करता है कि कातिल कोई ऐसा शख्स था लड़की की जिस्मानी नवाजिशें जिसे खूब हासिल थीं । ऐसे शख्स का नाम लड़की की डायरी में दर्ज हो सकता है । यही नतीजा चोरों ने भी निकाला हो सकता है । इसीलिए उन्होंने यह जानने का अभियान शुरू किया था कि डायरी में मौजूद तीस नामों में से कौन कल दोपहर के वक्त की अपनी कोई सफाई नहीं दे सकता था । फिर ऐसे शख्स के पीछे वे सामूहिक रूप से पड़ सकते थे और माल अगर उसके पास था तो वे उसे वापिस हथिया सकते थे ।”
“हूं ।”
“और सर, यही बात और भी पुख्ता तरीके से भण्डारी का चोरों से रिश्ता जोड़ती है । यह डायरी कल की वारदात के बाद भी फ्लैट में मौजूद थी । उस तक सिर्फ भण्डारी की ही पहुंच हो सकती थी । सिर्फ भण्डारी ही चोरों को वे पते मुहैया करा सकता था ।”
“यू हैव ए पॉइंट देयर ।”
“सर, आप अभी भी यह कह सकते हैं कि भण्डारी का उन चोरों से कोई गठजोड़ नहीं था ?”
“नहीं, अब तो यह नहीं कहा जा सकता ।”
“फिर अब तो भण्डारी की गिरफ्तारी का हुक्म फरमाइये ।”
“ओके । अरैस्ट दैट मैन ।”
देवड़ा के चेहरे पर ऐसे भाव आये जैसे उसके मन की बहुत बड़ी मुराद पूरी हो गयी हो ।
“और ?” - कमिश्नर बोला ।
“एक दरखास्त और है ।” - देवड़ा बोला ।
“वो क्या ?”
“जैसा कि मैंने पहले अर्ज किया है कि मंजुला की डायरी के पते चैक करने के लिए दो आदमी तैनात किये थे । इतनी बड़ी मुम्बई में फैले ढाई दर्जन पते चैक करने में सिर्फ दो आदमी कई दिन लगा देंगे । रामन्ना से तो उनका टकराव संयोग से हो गया था । वे दो ही आदमी इस काम में लगे रहे तो ऐसा इत्तफाक दोबारा शायद न हो । रामन्ना के साथी भी वे पते टटोल रहे होंगे । उन्हें अभी रामन्ना के अंजाम की खबर नहीं होगी लेकिन देर सवेर होकर रहेगी । अखबार वालों से ऐसी बातें देर तक छुपाये रखना मुमकिन नहीं होगा । रामन्ना की मौत की खबर ईवनिंग न्यूज में ही छप सकती है । फिर हो सकता है कि वे लोग अपना आपरेशन ड्राप कर दें । अगर वक्त रहते चोरों का कोई साथी जिंदा हमारे हाथ लग जाये तो बाकी मुकम्मल तौर से हमारे हाथ में होगी । अपना यह मकसद पूरा करने के लिए हमें सिलसिले को रफ्तार देनी होगी ।”
“कैसे ? तुम क्या चाहते हो ?”
“मैं चाहता हूं कि डायरी के तमाम के तमाम पतों को एक ही वक्त में कवर किया जाये । जैसे हमने एक टीम तैनात की है वैसी तीस टीमें तैनात की जायें ताकि जब भी, जहां भी, रामन्ना जैसा आदमी टीवी सेंटर का प्रतिनिधि होने का बहाना करके पहुंचे, उसे हिरासत में ले लिया जाये ।”
“साठ आदमी !” - कमिश्नर विचारपूर्ण स्वर में बोला - “साठ आदमी दरकार होंगे ?”
“जी हां ।” - देवड़ा बोला - “और तीस वाहन । ताकि वक्त जाया न हो । जिन आदमियों को रामन्ना चैक कर चुका है अगर उन्हें निकाल भी दें तो कम से कम बावन आदमी और छब्बीस वाहन ।”
“वह भी फौरन !”
“फौरन से पेश्तर, सर । पहले ही बहुत वक्त जाया हो चुका है ।”
कमिश्नर कुछ क्षण सोचता रहा और फिर एकाएक बोला - “ठीक है । मुझे तुम्हारी योजना मंजूर है । तुम अपनी जरूरत के आदमी और वाहन हासिल कर सकते हो ।”
“थैंक्यू सर ।” - देवड़ा हर्षित स्वर में बोला - “नाओ आई प्रामिस टु सोल्व दिस केस विद इन ट्वेंटी फोर आवर्स ।”
“आई विश यू आल द बैस्ट ।”
“थैंक्यू सर । थैंक्यू आल ओवर अगेन ।”
***
चूना भट्टी के इलाके में विमल टैक्सी पर सवार होकर पहुंचा ।
वहां बैंक कर्मचारियों के लिए बने फ्लैट वे जो चारमंजिला इमारतों के कई ब्लाकों में बंटे हुए थे । उन्हीं ब्लाकों में से एक की सबसे ऊपरली मंजिल पर विमल के हिस्से आये पांच नामों में से एक नाम का स्वामी रहता था ।
विमल का वह दूसरा पड़ाव था । पहले पड़ाव से उसे कुछ हासिल नहीं हुआ था । वहां उसने जिस व्यक्ति से बात की थी, वह क्रिकेट का दीवाना था, टीवी पर क्रिकेट टैस्ट मैच का सीधा प्रसारण आ रहा हो तो वह टीवी के सामने से हिलना भी पाप मानता था ।
इमारत में लिफ्ट नहीं थी । सीढियां चढकर विमल सबसे ऊपरली मंजिल पर पहुंचा ।
मुख्य द्वार के पहलू में कालबैल के नीचे एक नेम प्लेट लगी हुई थी जिस पर बड़े साफ सुथरे अक्षरों में लिखा था - दीपक मेहरा ।
विमल ने हाथ में थमी नोट बुक और पेंसिल व्यवस्थित कर ली और कालबैल बजाई । दरवाजा खुलने की प्रतीक्षा में वह मन ही मन उन सवालों को दोहराने लगा जो उसने फ्लैट के मालिक दीपक मेहरा नाम के उस शख्स से पूछने थे मंजुला की डायरी में जिसका नाम पता दर्ज था ।
काफी देर इंतजार कर चुकने के बाद विमल दोबारा घंटी बजाने ही लगा था कि एकाएक दरवाजा खुला ।
चौखट पर एक बेहद उजड़ी हुई हालत वाला युवक प्रकट हुआ । उसकी शेव बढी हुई थी, बाल बिखरे हुए थे, कपड़े बेतरतीब थे, आंखें यूं सुर्ख थीं जैसे पिछली रात सोया न हो या पिछली रात का नशा न उतरा हो, सूरत पर बद्हवासी का बोलबाला था, चेहरे पर ऐसा पीलापन था जैसे वह अरसे से बीमार हो । दरवाजा खोल चुकने के बाद वह उसे यूं थामे था जैसे उसे छोड़ देने पर उसे अपना संतुलन बिगड़ जाने का अंदेशा हो ।
“नमस्ते !” - विमल अपने चेहरे पर एक मीठी मुस्कराहट लाता हुआ बोला - “मैं टीवी सेंटर का सर्वेयर हूं । हम टीवी दर्शकों की टीवी प्रोग्रामों की बाबत पसंद नापसंद का सर्वे कर रहे हैं, इसी सिलसिले में मैं..”
“तुम आ गए !” - उसके मुंह से निकला । उसकी आवाज ऐसी थी जैसे वह किसी कुएं की तलहटी में से निकली हो ।
“जी हां ।” - विमल तनिक हड़बड़ाकर बोला - “मैं यह अर्ज कर रहा था कि मैं...”
“मुझे पता था तुम जरूर आओगे ।”
“मैं जरूर आऊंगा !” - विमल अचकचाया ।
“हां । तुम या पुलिस ! या दोनों !”
“पुलिस !”
“वो तुम्हारे साथ आयी है या बाद में आयेगी ?”
“कौन ?”
“पुलिस !”
“मेरे साथ पुलिस के आने का क्या मतलब ? मैं तो टीवी सेंटर से..”
“यानी कि मुझे गिरफ्तार करवाकर ही सब्र नहीं कर लेना चाहते हो । खुद बदला लेना चाहते हो !”
दाता ! - विमल मन ही मन बोला - क्या गोरखधंधा था ! क्या बक रहा था यह लड़का ।
“तुम मुझे जानते हो ?” - फिर एकाएक वह बोला ।
“हां” - युवक बोला - “जानता हूं । अब बोलो, क्या बदला लेना चाहते हो मेरे से ! मुझे गिरफ्तार करवाकर फांसी पर लटकवाना चाहते हो या खुद मेरी जान लेना चाहते हो ?”
“मैं तुम्हारी जान लेना चाहता हूं ?” - विमल हैरानी से बोला ।
“ठीक है । लो मेरी जान । मैं हाजिर हूं तुम्हारे सामने । मार डालो मुझे मंजुला के बदले में और दिला दो मुझे इस नर्क से निजात जिसमें मैं कल दोपहर से भुन रहा हूं ।”
मंजुला का नाम उसकी जुबानी सुनकर विमल के कान खड़े हो गए ।
“तुमने मंजुला का कत्ल किया है ?” - वह कठोर स्वर में बोला ।
“हां ।” - युवक बोला - “और मैं...”
“पीछे हटो ।”
“...अपने किये की सजा भुगतने को तैयार हूं ।”
उसे पीछे हटता न पाकर विमल ने उसे पीछे को धक्का दिया । उसके हाथ से दरवाजा छूट गया । लड़खड़ाकर वह दो कदम पीछे हटा और गिरते गिरते बचा ।
विमल ने भीतर कदम रखा । उसने अपने पीछे दरवाजा बंद कर दिया और चिटखनी चढा दी ।
उसने चारों तरफ सरसरी निगाह दौड़ाई । वह एक मामूली फ्लैट था जिसमें कहीं से कोई आहट नहीं हो रही थी ।
“यहां और कौन है ?” - विमल ने पूछा ।
“कोई नहीं ।” - युवक अपने सूखे होंठों पर जुबान फेरता हुआ बोला ।
“तुम यहां अकेले रहते हो ?”
“हां ।”
“परिवार में कोई नहीं है ?”
“सब हैं लेकिन यहां मैं अकेला रहता हूं ।”
“शादीशुदा हो ?”
“नहीं ।”
“करते कया हो ?”
“सेंट्रल बैंक में एकाउंटेंट हूं ।”
“यह फ्लैट तुम्हें बैंक की तरफ से मिला हुआ है ?”
“हां ।”
“मंजुला से वाकिफ हो ?”
“हां ।”
“खूब अच्छी तरह से ?”
“हां ।”
“उसी मंजुला से जो बांद्रा में रहती है.. .रहती थी ?”
“हां ।”
“तुम भी उसके ग्राहक वे ?”
“ग्राहक !”
“हां ।”
“कैसा ग्राहक ?”
“वैसा ग्राहक जैसा कोई जरूरतमंद आदमी किसी पेशेवर औरत का होता है ।”
“वह पेशेवर औरत थी !”
“यानी कि तुम्हें नहीं मालूम ?”
“वह पेशेवर औरत नहीं थी ।”
“तो क्या थी ?”
“एक मजबूर औरत जिसके सिर पर एकाएक अपनी चार छोटी बहनों और कैंसरग्रस्त मां के भरण पोषण की जिम्मेदारी आन पड़ी थी । इसी वजह से उसने एक शादीशुदा बालबच्चेदार आदमी की रखैल बनना मंजूर किया था ।”
“तुम उससे मुहब्बत करते थे ?”
“हां ।”
“तभी उसकी इतनी हिमायत कर रहे हो ! उसके कुकर्मों को भी जस्टीफाई करके दिखा रहे हो !”
वह खामोश रहा ।
“भण्डारी भी तो मामूली आदमी था, वो उसकी माली जरूरियात कैसे पूरी कर सकता था ?”
“यह सवाल मैंने भी मंजुला से किया था ।”
“उसने क्या जवाब दिया था ?”
“उसने गोलमोल-सा कुछ कहा था कि आने वाले दिनों में भण्डारी बहुत दौलतमंद आदमी बन जाने वाला था । उसने मुझे यह नहीं बताया था कि ऐसा करिश्मा क्योंकर होने वाला था । लेकिन” - वह एक क्षण ठिठककर बोला - “अब मुझे मालूम है कि ऐसा करिश्मा क्योंकर होने वाला था, क्योंकर हुआ था ?”
“तुम कल बांद्रा गए थे ?”
“हां ।”
“मंजुला से मिलने ?”
“हां ।”
“यानी कि तुम्हें मेरी, वहां मंजुला के फ्लैट में, की खबर थी ?”
“हां ।”
“फिर तो तुम जरूर इस ताक में वहां थे कि कब मैं वहां से टलूं और तुम मंजुला तक पहुंचो ?”
“हां ।”
“तुम काफी अरसे से फ्लैट की ताक में थे ?”
“हां ।”
“परसों रात को तुमने फ्लैट का दरवाजा भी खटखटाया था ?”
“नहीं ।”
“कल ही गये थे ?”
“हां ।”
“और मेरे फ्लैट से निकलने के बाद भीतर दाखिल हुए थे ?”
“हां ?”
“मंजुला के कत्ल का इरादा लेकर ?”
“नहीं । मैंने तो कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि मेरे हाथों मंजुला का कत्ल होगा । मैं सिर्फ उससे एक बार और मिलना चाहता था ।”
“फिर कत्ल की नौबत कैसे आ गयी ?”
“यह एक लम्बी कहानी है ।”
“मेरे पास वक्त है सुनने के लिये ।”
“मैं बैठ जाऊं ?”
“हां । बैठ ही जाओ । खड़े खड़े तो तुम आंधी में पेड़ की तरह झूल रहे हो । पता नहीं कब धराशायी हो जाओ !”
वह फर्श पर ही बैठ गया ।
विमल उसके सामने एक कुर्सी पर बैठ गया । उसने देखा कि दीपक के चेहरे पर वीरानी और उदासी के भाव और गहरे हो गये थे । विमल को उस पर तरस आने लगा । बड़ी मुश्किल से उसने अपने मन के भावों को दबाया और चेहरे पर वह कठोरता बनी रहने दी जिससे थर्राकर दीपक उसके सामने सब कुछ उगल देने पर आमादा था ।
“मंजुला अच्छी लड़की थी ।” - दीपक आह भरकर बोला - “कम से कम कल दोपहर तक मैं समझता था कि वह अच्छी लड़की थी । बावजूद उसकी भण्डारी से नापाक रिश्तेदारी के मैं समझता था कि वह अच्छी लड़की थी । वह गुमराह थी, मजबूर थी, विवेकहीन थी लेकिन अच्छी थी । मैं उससे मुहब्बत करता था, दिलोजान से चाहता था मैं उसे । वह भी मुझसे मुहब्बत करती थी लेकिन मेरी मुहब्बत कबूल करने में उसकी एक शर्त थी जिसे मैं पूरी नहीं कर सकता था ।”
“मुहब्बत में शर्त का क्या काम ?”
“कोई काम नहीं लेकिन बकौल उसके उसकी मजबूरी से पनपी उसकी एक शर्त थी जिसको पूरी किये बिना मुझे उसकी मुहब्बत हासिल नहीं हो सकती थी ।”
“क्या शर्त थी ?”
“कि मैं रातोंरात उसे दौलतमंद बनकर दिखाऊं ।”
“कैसे ?”
“कैसे भी ! उसे इस बात से कोई सरोकार नहीं था कि दौलत मैं कैसे हासिल करता था । उसे सिर्फ दौलत से सरोकार था । दौलत ! बेशुमार दौलत जो मैं उस पर न्यौछावर कर सकता ।”
“यह मुहब्बत न हुई, खुदगर्जी हुई । इंसानी जज्बात को बेजा तरीकों से कैश करने का जरिया हुआ । इमोशनल ब्लैकमेलिंग हुई ।”
“कबूल । सब कबूल । लेकिन इससे वह हकीकत तब्दील नहीं होती कि मैं उससे मुहब्बत करता था । मेरी मुहब्बत ही मुझे कल फिर वहां ले कर गयी थी । एक बार दुत्कार कर भगा दिये जाने के बावजूद मैं वहां गया था, उसे यह फिर से समझाने के लिये वहां गया था कि वह घोर पतन की राह पर चल रही थी ।”
“वह समझी ?”
उसने फिर आह भरी ।
“यानी कि नहीं समझी ?”
वह खामोश रहा ।
“क्या हुआ था ? तफसील से बताओ । कल मेरे फ्लैट से निकलने के बाद तुम वहां घुसे थे ?”
“हां ।”
“फिर ?”
“मैंने फ्लैट का दरवाजा खुला पाया था । मैं चुपचाप भीतर दाखिल हो गया । बैडरूम का दरवाजा खोलकर मैंने भीतर कदम रखा तो मेरे छक्के छूट गये । वह सम्पूर्ण नग्नावस्था में पलंग पर चित लेटी हुई थी । उसने अपने दोनों हाथ अपनी गरदन के पीछे बांधे हुए थे जिसकी वजह से उसका नंगा, नौजवान, पुष्ट शरीर धनुष की तरह तना हुआ था और अभिसार का आवाहन देता मालूम होता था । उसके चेहरे पर आशा के ऐसे भाव थे जैसे उस घड़ी उसकी कोई बहुत बड़ी मुराद पूरी होने जा रही थी । मुझे देखकर वह चौंकी, उसके चेहरे पर सख्त नाराजगी के भाव आये लेकिन उसने अपना बदन ढकने की या उसे समेटने की कोशिश न की । बल्कि उस घड़ी उसने एक चैलेंज की तरह अपने जिस्म की मेरे सामने यूं नुमायश की जैसे मेरा मुंह चिढाना चाहती हो, मुझे जलील करना चाहती हो और जताना चाहती हो कि वह वो सोलह व्यंजनों से सजा थाल था जिसको खाना मेरी किस्मत में नहीं लिखा था । उस घड़ी उसने अपना तन ढक लिया होता, मुझे यूं जलील न किया होता, मुझे हीनता और तुच्छता का अहसास न दिलाया होता तो शायद बाद में वो नौबत न आती जो कि आयी । उसने मुझे ऐसी बातें कहीं जिन्हें सुनकर सर्द से सर्द खून भी खौल उठता है, जिन्हें सुनकर या आदमी जान ले लेता है या जान दे देता है । मैंने जान ले ली ।”
“क्या कहा उसने ?”
“उसने तुम्हारे मुकाबले में मुझे एक इन्तहाई हकीर इंसान साबित करने की कोशिश की..”
“मेरे मुकाबले में या भण्डारी के मुकाबले में ?”
“तुम्हारे मुकाबले में ।”
“अच्छा !”
“हां । उसने कहा कि तुम्हारे में उसे अपनी मंजिल मिल गयी थी । तुम्हारे में उसकी उस भर की जुस्तजू पूरी हो गयी थी । उसने कहा कि तुम्हारे में उसे वो सब हासिल था जो वो हासिल करना चाहती थी । मैंने दौलत के बारे में उससे सवाल किया तो वह मुस्कराई, पलंग से उठी और वैसे ही नंगी चलती हुई वार्डरोब तक पहुंची । उसने वार्डरोब का दरवाजा खोला और भीतर पड़े चार सूटकेस मुझे दिखाये जिनमें बकौल उसके छ: करोड़ रुपया बंद था । एक सूटकेस खोलकर उसने मुझे भीतर बंद नोटों के अम्बार की एक झलक भी दिखाई । फिर बार बार यह कहती हुई कि उसकी जिंदगी बन गयी थी वह वापिस पलंग पर जाकर लेट गयी थी । वह कह रही थी कि तुम न भण्डारी की तरह बूढे खूंसट थे और न मेरी तरह मुफलिस थे. ..”
“उसने तुम्हें यह बताया था कि मैं कौन हूं ?”
“सिर्फ नाम बताया था ।”
“क्या ?”
“सोहल ।”
“जो कि तुम्हारे लिये सिर्फ एक नाम है ?”
“तब था ।”
“यानी कि अब सोहल नाम के पीछे छिपे शख्स की हकीकत तुम जानते हो ?”
“हां ।”
“पहले नहीं जानते थे ?”
“नहीं ।”
“उसने बताया था कि वहां इतनी दौलत कहां से आयी ?”
“नहीं, लेकिन अब मुझे मालूम है । अब फ्रांसीसी पेंटिंगों के बदले में फ्रांसीसी कल्चरल अटैची द्वारा अदा की गयी छ: करोड़ की फिरौती की खबर प्रैस में लीक हो चुकी है ।”
“ओह !”
वह खामोश रहा ।
“फिर ! फिर क्या हुआ ?”
“फिर उसने मुझे कहा कि मैं उसके नंगे जिस्म की सूरत में पलंग पर सजे खूबसूरती और नौजवानी के उस खजाने का आखिरी बार दीदार कर लूं जो मुझे अब कभी हासिल नहीं होने वाला था । तभी मुझे पहली बार उसके निहायत घिनौने, घटिया चरित्र का अहसास हुआ । मैंने क्रोधित होकर कहा कि जिस खूबसूरत जिस्म का उसे इतना गुमान था, उसे मैं सैकेंडों में तबाह कर सकता था । मेरी इस बात का जवाब उसने एक उपहासपूर्ण अट्टहास से दिया । उसने यूं जाहिर किया जैसे वह कोई अजेय वस्तु थी और मैं चींटी भी मार सकने के नाकाबिल, तुच्छ, अधम इंसान था । उस घड़ी क्रोध से मैं पागल हो गया । दीवार पर क्रास की शक्ल में दो नंगी तलवारें टंगी हुई थीं । मैंने झपटकर एक तलवार वहां से उतार ली । मेरे हाथ में तलवार देखकर वह भयभीत न हुई, क्रोधित भी न हुई, उसने यूं जाहिर किया जैसे उसे किसी अहमक की निहायत बेहूदा और बचकाना हरकत से दो चार होना पड़ रहा हो । बड़ी तुच्छता से उसने मुझे कहा - ‘वापिस रख दो इसे, खामखाह हाथ वाथ काट बैठोगे’ ।” - वह एक क्षण के लिए ठिठका और फिर विषादपूर्ण स्वर में बोला - “उस एक फिकरे ने जैसे एक क्षण के लिए मेरे विवेक से मेरा मुकम्मल नाता तोड़ दिया । मैंने तलवार को अपने दोनों हाथों से थामा और दांत किटकिटाते हुए उसे पूरी शक्ति से उसकी छाती में घोंप दिया । तलवार उसके जिस्म से आर पार होकर पलंग में धंस गयी और मेरे हाथों से छूट गयी । वार इतना शक्तिशाली बन पड़ा था कि कितनी ही देर उसके जिस्म में फंसी तलवार झनझनाती रही और तलवार की तरह मेरा जिस्म झनझनाता रहा । आखिरी क्षण तक उसे इस बात का अहसास या विश्वास नहीं था कि मैं ऐसा कोई कदम उठा सकता था । उसके चेहरे पर एक बार भी भय के भाव आये होते तो मैंने उस पर वार न किया होता । मुकम्मल तौर से पगला दिया था मुझे उसकी ढिठाई ने । उसकी बेबाकी ने । उसके इस चैलेंज ने कि मैं जिंदगी में कुछ कर सकने के काबिल नहीं था । भण्डारी के संदर्भ में जब उसने मुझे कहा था कि मेरा उसका रिश्ता सम्भव नहीं था तो मुझे समझाने के और कुछ कुछ माफी मांगने के अंदाज से कहा था । अपनी जाती दुश्वारियों का रोना रोकर अपने गुनाह बखावाने के अंदाज से मुझे समझाया था और यूं जाहिर किया था कि वह निर्णय लेते हुए हकीकतन उसका कलेजा फटा जा रहा था । लेकिन तुम्हारे संदर्भ में तो वह बार बार मुझे यह अहसास दिलाकर साल रही थी कि तुम्हारे मुकाबले में मैं चीज क्या था, मेरी हस्ती क्या थी । यही तौहीन मुझसे बर्दास्त न हुई और मैं उस वक्ती जुनून के हवाले हो गया जिसका हासिल मेरे हाथों हुआ उसका कत्ल निकला ।”
वह खामोश हो गया ।
“फिर ?” - विमल मंत्रमुग्ध स्वर में बोला ।
“उसकी आंखों से जीवन ज्योति बुझती देखते ही मेरा जुनून ठंडा हो गया था” - वह बोला - “वहां से रवाना होने के लिए मैंने कदम बढाया ही था कि मुझे एकाएक बाहर मुख्य द्वार पर किसी के पहुंचने की आहट मिली । मैंने यही समझा कि तुम लौट आये थे । उस घड़ी मेरे मन में यह ख्वाहिश घर करने लगी कि जिस शख्स की खातिर मंजुला ने मुझे दुत्कारा था, धिक्कारा था, नकारा था, मैं उसकी भी जान ले लूं । मैं फिर कहता हूं कि अगर मैं उस वक्त तुम्हारी हकीकत से वाकिफ होता तो वह कदम उठाने का हौसला मैं कभी न कर पाता । तब मेरे लिए सोहल महज एक नाम था । तब...”
“आगे बढो ।” - विमल बेसब्रेपन से बोला ।
“मैंने दीवार पर से दूसरी तलवार भी उतार ली और बैडरूम के दरवाजे की ओट में छुपकर तुम्हारे फ्लैट में दाखिल होने की प्रतीक्षा करने लगा । फ्लैट का दरवाजा खुला लेकिन भीतर जिस आदमी ने कदम रखा वह तुम न थे ।”
“मैं नहीं था ?” - विमल चौंका ।
“हां ।”
“यानी कि उस घड़ी फ्लैट में मेरी जगह किसी और ने कदम रखा था ?”
“हां ।”
“किसने ?”
“पुलिस ने ।”
“क्या !” - विमल फिर चौंका ।
“हां ।”
“तुम्हें जरूर कोई वहम हुआ है ।”
“नहीं ।” - वह इनकार में सिर हिलाता बोला - “हालांकि मुझ पर से दीवानगी का दौर गुजर चुका था लेकिन वह बरकरार भी होता तो मुझे ऐसा वहम नहीं हो सकता था । फ्लैट में दाखिल होने वाला एक पुलिसिया था जो इंस्पेक्टर की वर्दी पहने था ।”
“इंस्पेक्टर की वर्दी पहने था ?” - विमल ने दोहराया ।
“हां ।” - दीपक बोला - “फ्लैट में तुम्हारी जगह उस इंस्पेक्टर को आया पाकर मैं डर गया । मैंने तलवार को वहीं बैडरूम के कालीन बिछे फर्श पर डाल दिया और फायर एस्केप के रास्ते वहां से खिसक गया ।”
“इंस्पेक्टर बाहर ड्राइंगरूम में ही ठिठक गया था ? वह बैडरूम में नहीं आया था ?”
“मेरे सामने तो वह ड्राइंगरूम में मुख्य द्वार के सामने ही ठिठका खड़ा था । उसके हाथ में रिवाल्वर थी और उसकी चौकन्नी निगाह चारों तरफ फिर रही थी । उसके बैडरूम की तरफ कदम उठाने से पहले ही मैं दरवाजे पर से हट गया था और अगर वह बैडरूम में आया था तो मेरे वहां से कूच कर जाने के बाद आया था ।”
“हाथ में रिवाल्वर लेकर फ्लैट में घुसा इंस्पेक्टर बाहरले कमरे में खड़ा नहीं रहा होगा, उसे खाली पाकर वह जरूर आगे बढ़ा होगा ।”
“हां ।”
“जल्दी ही वह बैडरूम में आ धमका होगा ?”
“जाहिर है ।”
“इस लिहाज से फायर एस्केप के रास्ते बैडरूम से चार सूटकेस निकालने में तो तुमने बहुत फुर्ती दिखाई !”
“क्या ?”
“मैंने कहा कि चार सूटकेस एक साथ तो तुमसे उठे नहीं होंगे ! दो फेरे तो लगाने ही पड़े होंगे तुम्हें ! इंस्पेक्टर के बैडरूम में कदम रखने से पहले ही तुमने दूसरा फेरा भी लगा लिया, यह तो बला की फुर्ती का काम करके दिखाया तुमने !”
“मैंने सूटकेसों की तरफ झांका भी नहीं था ।” - वह आहत भाव से बोला ।
“भीतर नहीं झांका होगा लेकिन...”
“मुझे तो उस घड़ी सूटकेसों का खयाल तक नहीं आया था...”
“.. .उनके भीतर मौजूद नोटों का खयाल जरूर आया होगा !”
“.. .पुलिस को वहां पहुंचा देखकर मुझे तो एक ही बात सूझी थी कि मैं वहां से खिसक जाऊं ।”
“तुम यह कहना चाहते हो कि फ्लैट में से सूटकेस तुमने नहीं निकाले ?”
“हां ।”
“मैं सिर्फ दस मिनट फ्लैट से बाहर रहा था । मैं जब वहां लौटा था तो सूटकेस वहां नहीं थे ।”
“तो फिर सूटकेस जरूर वह इंस्पेक्टर ले गया होगा ।”
“वहां कोई इंस्पेक्टर आया नहीं हो सकता । सूटकेसों की चोरी छुपाने की वह तुम्हारी मनगढंत कहानी है । वहां कोई इंस्पेक्टर आया होता तो फ्लैट में लाश पड़ी देखकर क्या वह चुपचाप वहां से खिसक गया होता ?”
“दौलत के साथ उसने वहां से चुपचाप खिसकना ही मुनासिब समझा होगा !”
“मुझे बेवकूफ बनाने की कोशिश मत करो” - विमल कठोर स्वर में बोला - “जितना वार्तालाप तुम अपना और मंजुला का हुआ बताते हो, दस मिनट तो उसी में लग गये होंगे । दस नहीं तो आठ कह लो । सात कह लो । दो या तीन मिनट में किसी तीसरे शख्स ने - तुम्हारे कथित इंस्पेक्टर ने - फ्लैट में चार सूटकेस तलाश भी कर लिए हों और उन्हें वहां से कहीं और ढो भी लिया हो, यह नहीं हो सकता । यह दो फेरों से कम में होने वाला काम नहीं था । पहले नहीं तो दूसरे फेरे में वह इंस्पेक्टर मुझे इमारत से बाहर निकलता जरूर दिखाई दिया होता । मुझे दो सूटकेस उठाये इमारत से बाहर निकलता कोई इंस्पेक्टर नहीं दिखाई दिया था ।”
“लेकिन एक इंस्पेक्टर उस फ्लैट में घुसा था । मैंने अपनी आंखों से उसे फ्लैट में दाखिल होते देखा था ।”
“झूठ !”
“वह वर्दीधारी इंस्पेक्टर था । वह पैदल तो वहां पहुंचा नहीं होगा ! क्या तुमने बाहर सड़क पर कोई वाहन भी खड़ा नहीं देखा था ?”
विमल को उस अतिरिक्त जीप की याद आयी जिस पर सवार होकर वह फ्लैट के सामने से भागा था ।
उसने दिमाग पर और जोर दिया तो उसे याद आया कि जब वह फ्लैट से निकला था तो उसे सड़क खाली दिखाई दी थी लेकिन वापसी में वहां सड़क पर एक वाहन मौजूद था जिसके पुलिस की जीप होने की तरफ उसका ध्यान नहीं गया था ।
“तुम यह कहना चाहते हो” - वह नम्र स्वर में बोला - “कि नोटों से भरे चार सूटकेस तुमने वहां से नहीं निकाले ?”
“नहीं निकाले ।” - वह रुआंसे स्वर में बोला - “निकाले होते तो मैं उन्हें कहां ले गया होता ? यहीं तो लाया होता ! तुम यहां की तलाशी ले लो । दो मिनट का तो काम है !”
“तुमने सूटकेस किसी दोस्त के पास रखवा दिये हो सकते हैं ।”
“मेरा यहां कोई दोस्त नहीं । कोई सगे वाला नहीं । कोई खैरखाह नहीं । एक मंजुला से जो निसबत थी, वो फरेब साबित हुई । उसके कत्ल के बाद एक प्रेत की तरह चलता मैं यहां पहुंचा था । तब से बेतहाशा कोशिशों के बावजूद मैं यह बात अपने जेहन से नहीं निकाल पाया हूं कि मैंने खून किया है । मैं खूनी हूं । फांसी पर लटका दिये जाने के काबिल हूं । कल दोपहर से मैंने न कुछ खाया है, न पिया है, न मेरी पलक झपकी है । हर क्षण अपनी मौत की सूरत में मैं तुम्हारा इंतजार करता रहा हूं ।”
“मेरा ?”
“हां । अब मुझे मालूम है कि तुम कौन से सोहल हो । मैं तुम से डरकर कहीं भाग जाना चाहता था, कहीं छुप जाना चाहता था लेकिन मुझसे यह भी नहीं हो पा रहा था । मैं यहां से बाहर कदम रखने लायक हिम्मत भी अपने आप में नहीं जुटा पा रहा हूं । मेरे मन में एक ही खयाल घर किये हुए था कि मैंने सोहल की प्रेमिका का खून किया था और सोहल मुझे पाताल से भी खोज निकाले बिना नहीं छोड़ने वाला था ।”
“यह बात वो शख्स कह रहा है जो कल मेरा भी कत्ल करने के लिए आमादा था ?”
“वह वक्ती जुनून की बात थी । तब तो मैंने फ्लैट से निकलते ही तुम्हारी बाबत पुलिस को फोन भी किया था । ऊपर से तब मुझे यह मालूम नहीं था कि तुम ‘वह सोहल हो ।”
“क्या तब भी तुम्हें मेरी हकीकत नहीं मालूम थी जब तुमने कमाठीपुरे में मुझ पर गोली चलाई थी ?”
“मैंने तुम पर गोली चलाई थी ?” - वह शख्स हैरानी से बोला ।
“क्या नहीं चलाई थी ?” - विमल आंखें निकालता बोला ।
“नहीं चलायी थी । मैंने तो कमाठीपुरे की दिशा में भी कदम नहीं रखा था । मैं बांद्रा से सीधा यहां आया था ।”
“कल दोपहर से ही तुम मेरे पीछे नहीं लगे रहे थे ?”
“नहीं । नहीं । हरगिज नहीं । मैंने कहा न मैं सीधा यहां आया था ।”
“जब पुलिस को मेरी बाबत फोन करने वाले तुम थे तो मुझ पर गोली चलाने वाले भी जरूर तुम ही थे ।”
“नहीं । मैंने फोन जरूर किया था लेकिन गोली नहीं चलाई थी । फोन भी सोहल की बाबत नहीं, उस शख्स की बाबत किया था, मंजुला जिसकी प्रेमिका होने का दम भरती थी । दूसरी तलवार से उसी शख्स की जान लेने पर मैं खुद आमादा था और उसी शख्स को मंजुला के कत्ल में फंसाने के लिए मैंने पुलिस को फोन किया था । लेकिन जहां मैंने कत्ल किया था, जहां मेरी ही फोन काल की वजह से पुलिस आने वाली थी, वहां मैं टिका नहीं रह सकता था, जबकि कमाठीपुरे तक तुम्हारे पीछे लगने के लिए मेरा वहां टिका रहना जरूरी था । दूसरे, अगर मैं यूं तुम्हारे पीछे लगा रहा होता तो क्या एक बार फेल हो जाने पर मैं तुम्हारा पीछा छोड़ देता ? अब तक मैंने फिर कोशिश न की होती तुम्हारे कत्ल की ? तब क्या मैं तुम्हें एक डरे हुए चूहे की तरह यूं बिल में दुबका बैठा मिलता ?”
विमल को वह सच बोलता लगा ।
“मुझे पर गोली अगर तुमने नहीं चलाई तो किसने चलाई ?” - विमल चिंतित भाव से बोला ।
दीपक खामोश रहा ।
विमल भी कई क्षण खामोश रहा ।
“ठीक है” - अंत में वह निर्णयात्मक स्वर में बोला - “मैंने मान ली तुम्हारी बात । वक्ती जुनून के हवाले होकर तुमने मंजुला का कल किया लेकिन छ: करोड़ के नोटों से भरे चार सूटकेस तुमने नहीं चुराये, कमाठीपुरे में मुझ पर गोली तुमने नहीं चलाई । अब तुम यह बताओ, तुम्हारे सामने वाकई किसी इंस्पेक्टर ने फ्लैट में कदम रखा था ?”
“मैं माता भगवती भवानी का भक्त हूं ।” - वह बोला - “मैं उसी की कसम खाकर कहता हूं कि उस इंस्पेक्टर की बाबत मैंने जो कहा है, सच कहा है ।”
“तुमने उसकी सूरत अच्छी तरह से देखी थी ?”
“हां ।”
“उसका हुलिया बयान कर सकते हो ?”
“हां । बाखूबी ।”
दीपक ने बड़ी बारीकी से उसका हुलिया बयान किया ।
इंस्पेक्टर के नखशिख का बयान विमल ने अच्छी तरह से याद कर लिया ।
“अब एक दो बातें अपने फायदे की सुनो ।” - विमल बोला ।
“मेरे फायदे की बातें ?” - दीपक उलझनपूर्ण स्वर में बोला ।
“और तुम्हारी मौजूदा हालत में तुम्हारे भले की भी ।”
“कौन सी बातें ?”
“एक तो मैं तुम्हारी जान लेने की, तुमसे कोई बदला लेने की नीयत से यहां नहीं आया । मंजुला मेरी कोई नहीं थी । सच पूछो तो मैं उसकी सूरत से बेजार था । उसके मरने जीने से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता ।”
“लेकिन वो तो कहती थी कि..”
“जो वो कहती थी, वो सच नहीं । वो मुझे अपने आप पर जबरन आशिक करवाने की ख्वाहिशमंद थी और इसके लिए जी तोड़ कोशिश उसने की थी लेकिन वह अपनी कोशिश में कामयाब नहीं हो सकी थी । हकीकतन मेरा उससे न कोई वास्ता था और न होना मुमकिन था ।”
दीपक ने बड़े उलझनपूर्ण भाव से विमल को देखा लेकिन मुंह से कुछ न बोला ।
“नंबर दो । वह औरत तुम्हारी मुहब्बत के काबिल नहीं थी । उसके कैरेक्टर का कुछ अंदाजा तो तुम्हें खुद ही हो चुका है लेकिन जितना अंदाजा तुम्हें हो चुका है, वह उससे ज्यादा बुरी थी । वह एक ढकी छुपी कालगर्ल थी जिसका धंधा अपनी लिमिटिड क्लायंटेल में चलता था ।”
“सच कह रहे हो ?”
“सौ फीसदी सच कह रहा हूं । अपने स्थायी ग्राहकों के नाम पते उसने अपनी एक डायरी में नोट किए हुए थे । उन्हीं पतों को टटोलता हुआ मैं संयोगवश तुम तक पहुंचा हूं । तीस तो उसके स्थायी ग्राहक थे जिसके पते उसकी डायरी में दर्ज थे, अभी अस्थायी ग्राहक पता नहीं कितने थे और ऐसे लोग पता नहीं कितने थे, तुम्हारी तरह जिन्हें उसने अपनी मुहब्बत का झांसा दिया हुआ था ।”
“यानी कि” - वह दबे स्वर में बोला - “वह मुझे ही नहीं, भण्डारी को भी धोखा दे रही थी ?”
“हां । वह एक खराब औरत थी । खराब औरत से खराब हरकतों की ही उम्मीद की जा सकती है । उससे मैं फंसा नहीं, फंसता तो वह जरूर मुझे भी धोखा देती । धोखा कुछ औरतों की फितरत में शुमार होता है । कहने का मतलब यह है कि उसकी वजह से हलकान होना छोड़ो और इसे अपनी खुशकिस्मती जानो कि यूं तुम्हारे तक मैं पहुंचा पुलिस न पहुंची टसुये बहा बहाकर अपनी दर्दभरी दास्तान तुमने मुझे सुनाई, पुलिस को न सुनाई । क्या समझे ?”
वह खामोश रहा ।
“वैसे पुलिस तुम तक अभी भी पहुंच सकती है लेकिन वे तुम्हें मरने वाली का ग्राहक समझकर ही तुम तक पहुंचेंगे, उसका कत्ल भी तुमने किया है, इस बात का खयाल उन्हें सपने में भी नहीं आएगा । इसलिए जो हुआ उसको भूलकर अपना यह देवदासी हुलिया सुधारो । हद से ज्यादा शरीफ हो और वाकई अपने किये की सजा पाने के लिए मरे जा रहे हो तो थाने जाकर अपना अपराध कबूल कर लो । यूं सस्पेंस में घुट घुटकर मरने से जाने जाना अच्छा है । हो सकता है टेम्परेरी इनसेनिटी की बिना पर कोई शातिर वकील तुम्हें बरी ही करा ले ।”
“मैं मरना नहीं चाहता ।”
“तो अपने आप में जीने की ख्वाहिश पैदा करो । अपनी मौजूदा हालत में तो तुम सदमे से ही मर जाओगे ।”
दीपक ने सहमति में सिर हिलाया । तब पहली बार उसके फक पड़े चेहरे पर तनिक रौनक आयी ।
“मैं चला ।” - विमल उठता हुआ बोला ।
दीपक को वही बैठा छोड़कर वह बाहर की तरफ बढ चला ।
उसने दरवाजा खोलकर बाहर कदम रखा तो सीधा एक भारी भरकम थानेदार की छाती से जाकर टकराया ।
***
अकबर और जयरथ क्योंकि इकट्ठे काम करने के ख्वाहिशमंद थे, इसलिए उनकी लिस्ट डबल थी । उनकी लिस्ट के आदमियों के पते बड़े फासले वाले थे और सारी मुम्बई में बिखरे हुए थे इसलिए उन्होंने एक कार का इंतजाम कर लिया था । कार सूरत से बहुत यतीम लगने वाली फियेट थी लेकिन चलती अच्छी थी । कार की ड्राइविंग सीट पर जयरथ था और उसकी बगल में टांगें पसारे बदन ढीला छोड़े ऊंघता सा अकबर बैठा था । उन दोनों की जोड़ी में सबसे दिलचस्प बात यह थी कि जो गुण अवगुण जयरथ में थे, वे अकबर में नहीं थे इसलिए दोनों एक तरह से एक दूसरे के पूरक थे और दोनों मिलकर एक आदर्श इकाई बनते थे । जयरथ आदतन झगड़ालू था तो अकबर आदतन अमनपसंद था । जयरथ चिड़चिड़ा था तो अकबर मृदुभाषी था । जयरथ रुखा, खुरदरा व्यक्ति था तो अकबर खूबसूरत, आकर्षक था । जयरथ काला था तो अकबर गोरा था । जयरथ मेहनती था तो अकबर कामचोर था । जयरथ पढा लिखा था तो अकबर अनपढ था । जयरथ ‘प्लग’ था तो अकबर ‘सॉकेट’ था ।
जयरथ माल चोरी हो जाने की वजह से सोहल से जिस हद तक नाखुश था, उसमें अगर अकबर का विपरीत स्वभाव आड़े न आया होता तो जरूर खून खराबा हो जाता । जयरथ अभी भी भुनभुना रहा था कि सोहल ने उन्हें खामखाह की बेगार पर लगा दिया था । अकबर ने ही उसे समझाया था कि उस काम को अंजाम देने के अलावा और कोई चारा नहीं था । दौलत के वापिस हासिल होने की अगर कोई उम्मीद थी तो उसी तरीके से थी । वैसे भी यह बात जयरथ नहीं समझता था लेकिन अकबर समझता था कि सोहल से तकरार सिर्फ जयरथ की नहीं, उन दोनों की मौत का कारण बन सकती थी । जयरथ की हर किसी से खामखाह उलझ पड़ने की आदत उन दोनों को पहले भी कई बार सांसत में डाल चुकी थी ।
उस घड़ी उनकी कार सड़क के किनारे लगी एक पेड़ की छांव में खड़ी थी । कार की ड्राइविंग सीट पर जयरथ बैठा पहलू बदल रहा था और भुनभुना रहा था । अकबर सड़क से पार सामने इमारत में सोहल का सिखाया इंटरव्यू लेने गया हुआ था । पहले तीन इंटरव्यू उन दोनों ने इकट्ठे किये थे लेकिन फिर अकबर ने महसूस किया था कि लोग जयरथ से असहिष्णुता से पेश आते थे लेकिन अकबर के सवालों को माइंड नहीं करते थे । इसलिये चौथी बार से उसने जयरथ को राय दी थी कि वह कार में ही बैठे और उसे अकेले को इंटरव्यू के लिए जाने दे ।
उस घड़ी दो बजने को थे और वह उनका पांचवां इंटरव्यू था ।
पहले चार इंटरव्यू बेकार गये थे । हर किसी से यही जवाब मिला था कि वह पिछले रोज की दोपहर को टीवी के सिरहाने बैठा था ।
जयरथ उस वक्त हथियारबंद था, यह बात खुद अकबर को भी नहीं मालूम थी । मालूम होती तो अकबर उसे हथियार न लाने देता इसलिए जयरथ ने वह हकीकत उससे छुपाकर रखी थी कि उस घड़ी उसके अधिकार में न केवल एक कमानीदार रामपुरी चाकू था, बल्कि एक देसी तमंचा भी था ।
आरम्भ में जयरथ ने हर बार यह आशंका व्यक्त की थी कि जो जगह उनका लक्ष्य थी, वह पुलिस की निगरानी में हो सकती थी लेकिन जब पहली तीन मर्तबा उनका टकराव पुलिस से न हुआ तो जयरथ आश्वस्त हो गया था । अब वो इस बात को अपने जेहन से निकाल चुका था कि उनका टकराव पुलिस से हो सकता था ।
तभी ऊंघते हुए जयरथ की निगाह सामने पड़ी तो उसने अकबर को इमारत से बाहर निकलता पाया ।
फिर एकाएक वह ऊंघना भूल गया और उसका शरीर स्प्रिंग की तरह ड्राइविंग सीट पर सीधा हुआ । यह देखकर उसके छक्के छूट गये कि अकबर के दायें बायें दो भारी भरकम, लटकती तोंदों और लाल भभूका चेहरों वाले आदमी चल रहे थे । उनके जिस्म पर वर्दियां न होने के बावजूद जयरथ उस नस्ल को एक मील से पहचान सकता था । उनका अकबर के दायें बायें चलने का स्टाइल पुलिसियों जैसा था और ऊपर से उसे अकबर के हाथ दिखाई नहीं दे रहे थे । उसके चलने के अंदाज से ही लग रहा था कि हाथ उसकी पीठ के पीछे थे ।
क्या वे हथकडियों से जकड़े हुए थे ?
क्या अकबर गिरफ्तार था ?
उस खयाल से ही उसका दिल उखड़ने लगा और कनपटियों में खून बजने लगा ।
अनजाने में ही उसके मुंह से सोहल के लिए एक भद्दी गाली निकली ।
उसने कार का इंजन स्टार्ट किया और उसे हौले से बैक गियर में डाला । कार हौले से पीछे को सरकी और फुटपाथ से अलग हुई ।
उसे लग रहा था कि अकबर कनखियों से उसे देख रहा था ।
कार को कोई सौ गज पीछे लाकर जयरथ ने उसे स्थिर किया और फिर सड़क की अकबर वाली साइड पार करके उसे मंथर गति से आगे बढाया । आगे कई गाड़ियां पार्किंग में खड़ी थीं । उनके पहलू से अपनी कार आगे बढाते समय उसने अपना बायां हाथ बढाकर हौले से कार का बायां दरवाजा इतना खोल दिया कि वह कार की बाडी से अलग हो गया ।
तब तक दोनों पुलिसियों के बीच में चलता अकबर फुटपाथ पर पहुंच गया ।
आगे पार्किंग में खड़ी दो कारों के बीच में बनी राहदारी में से वे लोग गुजरने वाले थे । वे तीनों अगल-बगल तो दो कारों के बीच की संकरी जगह से गुजर नहीं सकते थे इसलिए जयरथ ने यही अंदाजा लगाया कि वे अकबर को अपने सामने धकेलते हुए वहां से गुजरेंगे ।
वैसा ही हुआ ।
जयरथ ने कारों के बीच बनी उस राहदारी के सामने अपनी कार को एकाएक ब्रेक लगाई । कार इस प्रकार रुकी कि उसका अगला बायां दरवाजा राहदारी के ऐन सामने आ गया । उसने हाथ बढाकर कार का पहले से खुला अगला बायां दरवाजा राहदारी की तरफ पूरा खोल दिया ।
उससे एक क्षण पहले अकबर वह हरकत कर चुका था जिसकी कि जयरथ को उससे अपेक्षा थी । राहदारी के दहाने पर पहुंचकर वह थमककर खड़ा हो गया था, पलक झपकते उसकी दोनों कोहनियां बिजली की रफ्तार से पीछे को चली थीं, दोनों पुलिसियों को एक दूसरे में गड्ड मड्ड होता देखने के लिये पीछे घूमे बिना वह आगे को लपका था । तूफानी रफ्तार से दोनों कारों के बीच से भागते हुए वह राहदारी से बाहर निकला और उसने कार के खुले दरवाजे की तरफ छलांग लगा दी । उसके हाथ पीछे बंधे होने के कारण उसकी छलांग में वो रफ्तार न पैदा हो पाई जो यूं डाईव मारकर कार में दाखिल होने के लिये जरूरी थी । नतीजा यह हुआ कि वह डगमगा गया और धड़ाम से यूं गिरा कि उसका सिर और कंधे तो कार के भीतर जाकर पड़े और बाकी कमर से नीचे का भाग बाहर फुटपाथ पर ही रह गया । जयरथ ने उसे पकड़कर भीतर घसीटने की कोशिश की तो उसके हाथ अकबर के पसीने से तर चेहरे पर फिसलकर रह गये ।
तभी कार हरकत में आ गयी थी ।
अब जयरथ एक ही काम कर सकता था । वह या गाड़ी चला सकता था या अकबर को सम्भाल सकता था ।
“अकबर !” - वह चिल्लाया - “भीतर दाखिल होने की कोशिश कर ।”
फुटपाथ पर रपटते अपने पांवों को कहीं टिकाकर अकबर ने कार के भीतर पहुंच चुके अपने शरीर को आगे को हूला । जयरथ को यूं लगा कि अकबर अपने आपको कार के भीतर घसीट लेने में कामयाब हो गया था । उसने फौरन कार की रफ्तार बढ़ा दी ।
लेकिन ऐसा नहीं हुआ था ।
तभी पीछे रहते जा रहे पुलिसियों ने कार पर गोलियां बरसानी आरम्भ कर दीं ।
पहली गोली कार के पिछले शीशे से टकराते ही जयरथ और घबरा गया । उसने एकाएक एक्सीलेटर को पूरा दबा दिया ।
कार ने एक झटका खाया और फिर तोप से छूटे गोले की तरह आगे भागी ।
अकबर का शरीर कार के साथ साथ थोड़ी दूर तक घिसटा, फिर वह पीछे को सरककर सड़क पर उलट गया । अपने से दूर होती कार के पीछे अकबर ने सड़क पर दो तीन कलाबाजियां खाई और फिर वह बीच सड़क पर ढेर हो गया । हाथ पीठ के पीछे बंधे होने की वजह से उसका चेहरा बार बार पक्की सड़क से टकराया था और पलक झपकते ही खुनआलूदा गोश्त का लोथड़ा बनकर रह गया था ।
जयरथ को अब यह देखने के लिये रुकना बेकार लग रहा था कि पीछे अकबर मर रहा था या मर चुका था ।
सड़क के मोड़ पर पहुंचकर उसने ऐसी तूफानी रफ्तार से कार को बायें मोड़ा कि उसके दाईं ओर के दोनों पहिये सड़क छोड़ गये । कार उलटने से बाल-बाल बची ।
मोड़ काटते ही उसने कार की रफ्तार घटा दी और उधर भी पार्किंग में खड़ी बेशुमार कारों में एक खाली स्थान पर उसे खड़ा कर दिया । वह कार से बाहर निकल आया और उसे सदा के लिए अलविदा कहकर उससे परे हट गया ।
पुलिसियों ने कार के भीतर मौजूद उसकी सूरत नहीं देखी थी लेकिन कार को बाखूबी देखने और पहचानने का मौका उन्हें मिला था । वह कार उसे फंसा सकती थी इसलिए उसने पहला सुरक्षित मौका हाथ आते ही कार से फौरन किनारा कर लिया था ।
अकबर के लिये उसके दिल से हूक सी उठ रही थी । पता नहीं बेचारे की क्या दुर्गति हुई थी । पता नहीं वह मर रहा था या मर चुका था । वह उसे देखने भी तो वापिस नहीं जा सकता था । क्या फायदा होता वापिस जाने का । अब तक पीछे भीड़ का मेला लग गया होता । वह अकबर को छुड़ा तो सकता नहीं था । उसको छुड़ाने की जो एक कोशिश उसने की थी, वह बेचारे के हाथ पीठ पीछे बंधे होने की वजह से कामयाब नहीं हो सकी थी ।
वह सड़क पर आगे बढ़ा ।
कुछ ही कदम चलकर वह ठिठक गया ।
अकबर के अंजाम से बेखबर यूं आगे बढ जाने को उसका दिल न माना ।
भारी कदमों से वह वापिस लौटा ।
मोड़ पर पहुंचकर उसने सावधानी से उधर झांका जिधर अकबर सड़क पर गिरा था ।
वहां बहुत लोग जमा हो चुके थे और अभी और जमा हो रहे थे ।
कई क्षण वह वहीं ठिठका खड़ा रहा ।
तभी सायरन बजाती एक पुलिस वैन और एक एम्बुलेंस वहां पहुंची ।
वह आगे बढ़ा ।
एम्बुलेंस और पुलिस वैन के लिए भीड़ ने रास्ता बना दिया ।
उसके भीड़ तक पहुंचने से पहले ही अकबर को एम्बुलेंस में लादा जा चुका था और एम्बुलेंस का दरवाजा बंद हो चुका था ।
“क्या हुआ, बाप ?” - भीड़ में खड़े एक आदमी से उसने पूछा ।
“एक मवाली को पुलिस ने गोली मार दी ।” - उत्तर मिला ।
गोली ! - दहशत से जयरथ का दिल लरज गया - यानी कि उसके बचने की रही सही उम्मीद भी गयी ।
“मर गया बेचारा !” - दूसरा बोला ।
जयरथ का दिल जोर से उछला ।
“कैसे जालिम हैं पुलिस वाले !” - कोई और बोला - “यूं तो कमेटी वाले हड़काये कुत्ते को शूट नहीं करते !”
“बेचारा !”
जयरथ भीड़ से अलग हट गया ।
“सोहल ! हरामजादे सोहल !” - उसकी मुट्ठियां भिंच गयी और वह दांत किटकिटाता हुआ फुंफकारा - “कुत्ते के पिल्ले सोहल ! सब तेरी वजह से हुआ !” - फिर एकाएक उसके गालों पर आंसुओं के धारे यह निकले - “मेरा जोड़ीदार मर गया । मेरी जोड़ी टूट गयी ।” - उसका गला रुंध गया - “सोहल के बच्चे ! मैं मुझे नहीं छोडूंगा । नहीं छोडूंगा । नहीं छोडूंगा ।”
यूं ही विक्षिप्तों की तरह प्रलाप करता और आंसुओं की गंगा जमुना बहाता वह सड़क पर चलता चला गया ।
***
विमल हड़बड़ाकर एक कदम पीछे हटा ।
“यह दीपक मेहरा का घर है ?” - थानेदार बोला ।
उसके पहले सवाल से ही विमल की जान में जान आ गयी ।
पुलिस का वहां आगमन उसकी वजह से नहीं, दीपक मेहरा की वजह से हुआ था ।
“जी हां ।” - वह सुसंयत स्वर में बोला । उसने अपना सिर जानबूझकर थोड़ा नीचे झुका लिया ।
“दीपक मेहरा आपका नाम है ?”
“जी नहीं । यह मेरे भाई साहब का नाम है । बात क्या है ?”
“कहां हैं आपके भाई साहब ?”
“भीतर हैं ।”
“जरा बुलवाइये ।”
“आप ही भीतर चले जाइये, जनाब । मुझे जरा जल्दी है...”
“क्या जल्दी है ?”
“नीचे वाले फ्लैट में मेरी टेलीफोन काल आयी है । सुनने जाना है ।”
“ओह !”
विमल सीढियों की तरफ लपका ।
थानेदार और उसके साथ आये एक और पुलिसिये ने फ्लैट के भीतर कदम रख दिया तो वह ठिठका । दरवाजा बंद हो गया तो वह दबे पांव वापिस लौटा ।
वह कान लगाकर भीतर से आती कोई आवाज सुनने लगा ।
“आपका नाम दीपक मेहरा है ?” - भीतर से थानेदार की आवाज आयी ।
“हां ।” - दीपक की आवाज आयी ।
“आप मंजुला नाम की लड़की से वाकिफ हैं ?”
“एक मंजुला से मैं वाकिफ हूं लेकिन आप उसी मंजुला का जिक्र कर रहे है या नहीं जिससे कि मैं...”
“हम उसी मंजुला का जिक्र कर रहे हैं । उसकी डायरी में आपका नाम और पता दर्ज था ।”
“ओह !”
“हाल ही में आपके पास टीवी सेंटर का कोई सर्वेयर किसी तरह की पूछताछ करने आया था ?”
दीपक का जवाब सुनने के लिये विमल के कान खड़े हो गये ।
“नहीं ।” - दीपक बोला ।
“कैसा भी कोई आदमी हाल ही में आपसे कोई पूछताछ करने आया था ?”
“नहीं ।”
“तो आयेगा ।”
“आपको कैसे मालूम ?”
“मालूम है किसी तरह से । हम उसी आदमी की खातिर यहां आये हैं । यहां कोई आदमी टीवी का सर्वेयर बनकर आपसे एक खास किस की पूछताछ करने आयेगा । उस आदमी को हमने गिरफ्तार करना है । उसकी गिरफ्तारी में हमें आपका सहयोग चाहिए ।”
“मुझे क्या करना होगा ?”
थानेदार दीपक को समझाने लगा कि उसने क्या करना था ।
विमल दरवाजे से हट गया ।
वह बाल बाल बचा था ।
उसने वहां पहुंचने में सिर्फ पंद्रह मिनट देर की होती या वह थानेदार सिर्फ पंद्रह मिनट पहले वहां आ गया होता तो वह शर्तिया गिरफ्तार हो गया होता ।
नीचे एक पुलिस की जीप खड़ी थी लेकिन उसकी ड्राइविंग सीट पर ऊंघते-से बैठे सिपाही ने उसकी तरफ झांका तक नहीं । वह निर्विघ्न उस इलाके से कूच कर गया ।