“नीलम की रिहाई की बाबत” - विमल ने शान्ताराम के भाइयों से पूछा - “आप लोग शाम तक कुछ करने वाले थे, अब तो आधी रात होने को है, कुछ किया आपने ?”
“अभी तो हम कुछ नहीं कर सके ।” - तुकाराम खेदपूर्ण स्वर में बोला ।
“कुछ कर नहीं सके” - विमल उखड़े स्वर में बोला - “या कोई कोशिश ही नहीं की ?”
“कोशिश सरासर की है, दोस्त !” - तुकाराम बोला - “विश्वास जानो, हाथ पर हाथ धरकर हम नही बैठे हुए हैं ।”
“ऐसा होता” - बालेराम बोला - “तो हमें यह न मालूम होता कि नीलम अभी भी आठवीं मंजिल पर तुम्हारे वाले सुइट में ही है ।”
“जो कि” - जीवाराम बोला - “अपने आपमें इस बात का सबूत है कि वह सही सलामत है ।”
“देवाराम ने बताया था” - तुकाराम बोला - “कि रोडरीगुएज ने तुमसे वादा किया है कि कल सुबह आठ बजे तक नीलम का बाल भी बांका नहीं होगा ।”
“जाहिर है” - देवाराम बोला - “कि फिलहाल रिडरीगुएज अपने वादे पर खरा उतर कर दिखा रहा है ।”
“अगर ऐसा न होता” - बालेराम बोला - “तो अब तक नीलम जोजो के हवाले हो चुकी होती ।”
“जोजो कम्पनी का जल्लाद है ।” - देवाराम ने बाताया ।
“और होटल की बेसमेंट उसकी वर्कशाप ।” - बालेराम बोला ।
“नीलम अभी बेसमेण्ट में नहीं पहुंची ।” - जीवाराम बोला - “यह अपने आपमें एक खुशखबरी है, दोस्त !”
“आप तब कुछ कर पायेंगे” - विमल बोला - “जब वह बेसमेण्ट में पहुंच जाएगी ?”
“ऐसी नौबत नहीं आयेगी ।” - तुकाराम पूरे विश्वास के साथ बोला ।
“ऐसी नौबत आई” - बालेराम बोला - “तो उसे छुड़ाने के लिए हम सीधे हमला बोल देंगे होटल पर ।”
“या तो हम नीलम को छुड़ाकर दिखायेंगे” - जीवाराम बोला - “या फिर हम चारों भाइयों में से एक भी जिन्दा नहीं बचेगा ।”
विमल खामोश रहा ।
“अब जाकर चैन की नींद सोवो ।” - तुकाराम बोला - “सुबह बात होगी ।”
लेकिन विमल चैन की तो क्या, कैसी भी नींद नहीं सो सका ।
सारी रात नीलम की चिन्ता करते हुए उसने आंखों में काटी ।
रह रहकर उसकी आंखों के आगे वह नजारा घूम जाता था । जिसमें जोजो और उसके आदमी किसी लड़की पर जुल्म ढा रहे होते थे और मिसेज पिन्टो के वेश्यालय की लड़कियां उन्हें घेरे खड़ी नजारा देख रही होती थीं
हर बार मजलूम लड़की को जगह उसे नीलम की शक्ल दिखाई देती थी और उसका जी चाहता था कि वह उसी क्षण होटल पर हमला बोल दे ।
बड़ी मुश्किल से वह अपने आप पर जब्त किये रह पाया ।
***
अगले रोज के किसी भी अखबार में नीलम की गिरफ्तारी की खबर नहीं छपी थी ।
इस बात से जितनी राहत बखिया के यहां महसूस की गई, उतनी ही शान्ताराम के भाइयों के यहां भी महसूस की गयी ।
यानी कि कम से कम एक दिन और नीलम के पुलिस की हिरासत में होने की खबर विमल ले छुपी रहने वाली थी ।
और एक दिन में तो बहुत कुछ हो सकता था ।
देवाराम हाथ में एक ट्रे उठाये विमल के कमरे में पहुंचा ।
उसने विमल को विस्तर के स्थान पर एक कुर्सी पर बैठे पाया । सारा कमरा सिगरेट के टुकड़ों से भरा पड़ा था और उस वक्त भी एक सिगरेट विमल के हाथ में था ।
“जल्दी उठ गये ।” - देवाराम ट्रे एक मेज पर रखता हुआ बोला ।
विमल ने उत्तर न दिया । उसने सिगरेट का एक लम्बा कश लगाया ।
देवाराम ने चाय बनायी और कम उसकी तरफ बढाया ।
तब पहली बार उसकी निगाह विमल के सूरत पर पड़ी ।
उसकी आंखे कबूतर की तरह लाल लग रही थीं और चेहरे पर फटकार बरस रही थी ।
“हे भगवान् !” - देवाराम के मुंह से निकला - “तुम तो, लगता है, रात को सोये ही नहीं ।”
विमल ने सिगरेट का एक और कश लगाकर उसे परे फेंक दिया और देवाराम के हाथ से कप ले लिया ।
देवाराम ने बड़े आश्वासन और सहानुभूतिपूर्ण नाव से उसकी तरफ देखा । विमल के बताये बिना भी वह जानता था कि पिछली रात वह सो क्यों नहीं सका था ।
नीलम से उसकी बेपनाह, बेमिसाल, मुहब्बत का असर देवाराम के नौजवान दिल पर हुए बिना न रह सका ।
उसने ट्रे वाली मेज विमल के सामने सरका दी । ट्रे में आमलेट सेंडविच और बिस्कुट वगैरह ये ।
विमल ने बड़े विरक्तितूर्ण ढंग से ट्रे की तरफ से निगाह हटा ली ।
“तुमने रात को भी खाना नहीं खाया था ।” - देवाराम धीरे से बोला - “तुमने कल सुबह से ही कुछ नहीं खाया ।”
“मुझे भूख नहीं है ।” - विमल बोला । चाय की चुस्की भी उसने बड़े अनमने ढंग से ली ।
“मुझे मालूम है, तुम्हें क्यों भूख नहीं है । लेकिन दोस्त; जिस्म का यह इंजन इसमें खाने का ईधन न झोंका जाने पर नहीं चलता । भूखे तो भजन नहीं होता ।”
विमल खामोश रहा ।
“मेरे कहने पर कुछ खा लो, अपने छोटे भाई की दरख्वास्त पर कुछ खा लो ।”
बड़े अनिच्छापूर्ण ढंग से विमल ने ट्रे में से एक बिस्कुट उठा लिया ।
लेकिन उस इकलौते बिस्कुट को भी वह हलक के नीचे न उतार सका ।
उससे चाय भी न पी गयी ।
नीलम की फिक में उसकी भूख प्यास मर चुकी थी ।
शान्ताराम के भाइयों के आवास पर दो टेलीफोन लाइनें थीं लेकिन विमल ने हमेशा की तरह पब्लिक टेलीफोन का इस्तेमाल ही मुनासिब समझा ।
चैम्बूर रेलवे स्टेशन से उसने जॉन रोडरीगुएज के प्राइवेट नम्बर पर फोन किया ।
जिस वक्त सम्पर्क स्थापित हुआ, उस वक्त ठीक आठ बजे थे ।
“मैं बोल रहा हूं ।” - विमल टेलीफोन पर बोला - “आपने पहचाना मुझे ?”
“पहचाना ।” - रोडरीगुएज सहज भाव से बोला - “मैं तुम्हारी टेलीफोन कॉल का ही इन्तजार कर रहा था ।”
“जानकर खुशी हुई ।” - विमल शुष्क भाव में बोला - “बखिया आ गया ?”
“हां । बखिया साहब कल रात लौट आए थे ।”
“क्या फैसला सुनाया उन्होंने ?”
“वे तुमसे मिलना चाहते हैं ।”
“मैं उनसे नहीं मिलना चाहता ।”
“लेकिन...”
“मैने क्या करना है उनसे मिलकर ?”
“वे तुम्हारे एडमायरर हैं । तुमसे मिल बैठना चाहते हैं, गुफ्तगू करना चाहते हैं...”
“ये सब बाद की बातें हैं । पहले पहली बात कीजिए । पहले मुझे यह बताइये कि नीलम के बारे में क्या फैसला हुआ ?”
“तुम बखिया साहब से मिलने होटल में आ जाओ; फिर नीलम को अपने साथ ही ले जाना ।”
“रोडरीगुएज साहब, मैं क्या आपको ऐसा ही अन्धा का अन्धा दिखाई देता हूं कि यूं वहां चला आऊंगा ?”
“और कैसे आओगे ?”
“कैसे भी नहीं । मैं वहां जाना जरूरी नहीं समझता । आप दो टूक जवाब दीजिए, आप लोग नीलम को छोड़ रहे हैं या नहीं ?”
“सरदार साहब, मैं पूछता हूं, आखिर बखिया साहब से मिलने मैं हर्ज क्या है ?”
“सवाल हर्ज का नहीं, जरूरत का है । मैं ऐसी किसी मुलाकात की जरूरत नहीं समझता ।”
“लेकिन बखिया साहब कहते हैं कि...”
“बखिया साहब के ख्यालात का इजहार मुझे दरकार नहीं ।”
“लेकिन...”
“और आप जो ये बेमानी बातें कर रहे हैं और मेरे लिए पुच पुच को जो जुबान इस्तेमाल कर रहे हैं, उसका मतलब मैं समझता हूं ।”
“क्या समझते हो तुम ?”
“आप ज्याद से ज्यादा देर तक मुझे टेलीफोन वार्तालाप में अटकाये रखना चाहते हैं ताकि आप इस टेलिफोन कॉल को ट्रेस करके अपने प्यादे मेरे खबर लेने के लिए मेरे पास पहुंचा सकें ।”
“हमारा ऐसा कोई इरादा नही ।”
“हो भी तो मुझे क्या फर्क पड़ता है ! शाम तक यूं ही आप से गुफ्तगू करते रहने का मेरा भी कोई इरादा नहीं है ।”
“तुम खामखाह कम्पनी से वैर-भाव बढाये जा...”
“एक बात बताइये ।”
“पूछो ।”
“अपना वादा निभाया है आपने ?”
“कौन सा वादा ?”
“कि सुलेमान के हाथों या किसी और के हाथों नीलम का बाल भी बांका नहीं होगा ?”
“हां । मुकम्मल तौर से ।”
“वह सही सलामत है ?”
“एकदम । चाहो तो उसी से पूछ लो । मैं बुलवाऊं नीलम को ?”
“नहीं । जरूरत नहीं । मुझे आपकी बात पर विश्वास है । मैं नहीं चाहता कि नीलम से बात करवाने के बहाने आप मुझे टेलीफोन पर और लटकाये रखें ।”
“हमारी ऐसी कोई नीयत नहीं ।”
“आपकी ऐसी कोई नीयत नहीं तो एक सैकण्ड में जवाब दीजिए । आप नीलम को छोड़ रहे हैं या नहीं ?”
“ऐसे नहीं ।”
“ऐसे वैसे मैं नहीं सुनना चाहता । हां या ना में जवाब दीजिए । आप नीलम को छोड़ रहे हैं या नहीं ?”
“नीलम को हमने पकड़ा नहीं हुआ । वह पूरी तरह से आजाद है । सिर्फ उसे लेने के लिए तुम्हें खुद आना पड़ेगा ।”
“क्यों ? क्योंकि बखिया मुझसे मिलने के लिए मरा जा रहा है ?”
“यही समझ लो ।”
“समझ लिया । आज नीलम को छोड़िये । जब वह मुझे आजाद और महफूज दिखाई देगी तो मैं बखिया से मिलने आ जाऊंगा ।”
“पहले आओ ।”
“यह नहीं हो सकता ।”
“तो फिर मर्जी तुम्हारी ।”
“यानी कि आप नीलम को नहीं छोड़ रहे ?”
“ऐसे नहीं ।”
“ठीक है । मुझे आपका जवाब मिल गया । नमस्ते ।”
“सुनो । सुनो ।”
“क्या सुनूं ?”
“जल्दबाजी में कोई फैसला न करो ।”
“आप भी मुझे बातों में उलझाने की अपनी बेहूदा और लचर कोशिश छोड़िये ।”
“अगर हम नीलम को छोड़ दें तो तुम्हें कैसे पता लगेगा कि हमने नीलम को छोड़ दिया है ?”
“मुझे पता लग जाएगा ।”
“कैसे पता लग जाएगा ? उसे मालूम है; तुम कहां हो ? उसे मालूम है, छूटकर उसने कहां जाना है ?”
“मैंने कहा न मुझे पता लग जाएगा । आप उसे होटल से बाहर निकालिये, वह मुझ तक पहुंच जाएगी ।”
“आई सी !”
“तो निकाल रहे हैं आप उसे होटल से बाहर ?”
“नहीं । ऐसे नहीं ।”
“ठीक है । तो फिर आज के खूबसूरत दिन की खूबसूरत शुरुआत के तौर पर सोहल की मोहर के साथ अपने सिपहसालार की लाश का तोहफा कबूल फरमाइये !”
“क्या ? क्या हुआ दण्डवते को ?”
“खास कुछ नहीं हुआ । वही हुआ जो आपका भी होने वाला है । वही हुआ जो बखिया का भी होने वाला है । रोडरीगुएज साहब, इन्तजार कीजिये सोहल के हाथों का अपनी गरदनों तक पहुंचने का, इस वादे के साथ कि आपको ज्यादा इन्तजार नहीं करना होगा ।”
विमल ने रिसीवर हुक पर टांग दिया ।
वह बूथ से बाहर निकला और फौरन वहां से कूच कर गया ।
***
पुलिस हैडक्वार्टर में सुबह-सवेरे लाइन अप का इन्तजाम किया गया ।
नीलम को उसी की उम्र और कदकाठ की छः अन्य युवतियों के बीच में खड़ा कर दिया ।
फिर पहले बोरीवली के होटल के उस वेटर को यहां लाया गया जिसने नीलम को होटल के पिछवाड़े के रास्ते ने निकलते देखा था ।
उसने नि:संकोच नीलम की तरफ संकेत कर दिया ।
फिर होटल के रिसैप्शनिस्ट को लाया गया ।
उसने भी पलक झपकते ही लाइन अप में से नीलम को पिक कर लिया ।
वही वह युवती थी जो परसों रात वहां अकेली पहुंची थी और जिसने वहां बाद में अपेक्षित अपने कथित पति का नाम कालीचरण मल्होत्रा बताया था ।
“अब क्या कहती हो ?” - सबको डिसमिस कर चुकने के बाद कमिश्नर ने नीलम से सवाल किया ।
“मैंने क्या कहना है ?” - नीलम उदासीन स्वर में बोली ।
“कुछ तो कहना ही चाहिए तुम्हें ।”
“मैंने कुछ नहीं कहना ।”
“अब इस बात से तुम्हारा इनकार मुमकिन नहीं कि परसों रात और कल सुबह बोरीवली के उस होटल में तुम्हारे साथ मशहूर इश्त‍िहारी मुजरिम सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल था ।”
“मैं किसी इश्त‍िहारी मुजरिम को नहीं जानती । मैं किसी सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल को नहीं जानती ।”
“तुम अपनी यह रट छोड़ोगी नहीं ?”
नीलम खामोश रही ।
“तुम इस बात से इनकार करती हो कि परसों रात तुम बोरीवली के होटल में थीं ?”
“परसों रात मैं होटल सी व्यू में थी ।”
“झूठ । अभी बोरीवली होटल के स्टाफ ने तुम्हारी शिनाख्त की है । तुम्हें लाइन अप में से पिक किया है ।”
“उनसे भूल हुई है ।”
“उस कमरे में से तुम्हारे और सोहल की उंगलियों के निशान बरामद हुए हैं ।”
“आप लोगों से भूल हुई है ।”
“किस बात में ? निशानों की शिनाख्त करने में ?”
“हां ।”
“ऐसी भूलें यहां नहीं होती । निशानों की शिनाख्त कोई मजाक का काम नहीं । वह साइंटिफिक तरीकों से बड़े काबिल लोगों द्वारा किया जाता है ।”
“मैं यह सब नहीं समझती ।”
“तो क्या समझती हो ?”
“यह कि आप लोग मुझे जबरदस्ती यहां रोके हुए हैं । मेरे साथ ज्यादती हो रही है । मुझसे जबरन यह कुबुलवाने की कोशिश की जा रही है कि मैं सोहल नाम के किसी इश्त‍िहारी मुजरिम को जानती हूं ।”
“देखो ।” - कमिश्नर बड़े सब्र से उसे समझाता हुआ बोला - “इतनी ढिठाई अच्छी नहीं । कबूल तो तुम्हें करना ही पड़ेगा कि तुम सोहल की सहयोगिनी हो । इसी मैं तुम्हारी भलाई है ।”
“मेरी क्या भलाई है ?”
“तुम सजा पाने सब बच जाओगी ।”
“कैसे ?”
“कोर्ट अप्रूवर बनकर । हम तुम्हें वादा माफ गवाह बना देंगे । फिर तुम्हें सजा नहीं होगी । फिर तुम...”
कमिश्नर उसे समझाता रहा ।
नीलम समझती रही ।
अन्त में बड़े आशापूर्ण ढंग से कमिश्नर ने जब अपना घिसा-पिटा सवाल दोबारा किया तो नीलम ने उसका घिसा-पिटा जवाब फिर दोहरा दिया -
“मैं किसी सोहल को नहीं जानती ।”
कमिश्नर हत्थे से उखड़ गया ।
***
रोडरीगुएज बखिया के पास उसके सुइट में मौजूद था ।
बखिया को वह विमल से हुए वार्तालाप की रिपोर्ट दे चुका था और उस पर अपनी यह शंका व्यक्त कर चुका था कि उसने दण्डवते को मार डाला था ।
“ऐसा उसने साफ-साफ लफ्जों में कहा था ?” - बखिया चिन्त‍ित भाव से बोला ।
“नहीं ।” - रोडरीगुएज बोला - “लेकिन इशारा उसने साफ यही किया था । दण्डवते कल रात से अपने दो बॉडीगार्डों समेत गायब है । सोहल की बात सही हो सकती है ।”
“आखिरी बार कब देखा गया था वह ?”
“कल शाम को । ऊपर सोहल के सुइट में । जबकि पुलिस कमिश्नर वहां आया था और सोहल की छोकरी को अपने साथ ले गया था ।”
“उसके बाद उसकी मूवमेण्ट्स ट्रेस करवाओ ।”
“बेहतर ।”
तभी इकबालसिंह ने वहां कदम रखा ।
“सोहल की अभी-अभी यहां रोडरीगुएज साहब के पास आई टेलीफोन कॉल” - उसने घोषणा की - “चैम्बूर रेलवे स्टेशन के पब्ल‍िक टेलीफोन से आई थी ।”
“सुबह-सवेरे सोहल वहां कोई दस-बीस मील चलकर तो पहुंचा नहीं होगा ।” - बखिया बोला - “और रात उसने कहीं तो गुजारी ही होगी । वह जरूर उसी इलाके में कहीं छुपा हुआ है । चैम्बूर का चप्पा-चप्पा छनवाने की इन्तजाम करो ।”
“ओके ।”
“बखिया साहब !” - रोडरीगुएज दबे स्वर में बोला - “शान्ताराम के भाई चेम्बूर में रहते हैं ।”
“कौन शान्ताराम ?”
“आप शान्ताराम को भूल गए !”
“तुम उस शान्ताराम की बात कर रहे हो जो कभी हमारे सामने सिर उठा रहा था और जिसे उसके कुनबे समेत शिवाजी राव ने जहन्नुम रसीद किया था ?”
“हां ।”
“वह चैम्बूर में रहता है ?”
“वह नहीं, उसके चारों भाई । वह तो अब जहन्नुम में रहता है ।”
“मेरा वही मतलब था ।”
“बखिया साहब, क्या विमल शान्ताराम के भाइयों की शरण में हो सकता है ?”
“उम्मीद नहीं । उन पांचों भाइयों में से अगर किसी में कोई दमखम था तो शान्ताराम में था । शान्ताराम की मौत के बाद से उसके भाई भीगी बिल्ली बने बैठे हैं । कभी ‘कम्पनी’ की तरफ आंख तक उठाने की मजाल उनकी नहीं हुई । वे इतना बड़ा कदम उठाकर अपने लिए मौत का सामान नहीं कर सकते ।”
“लेकिन आपका अपना ख्याल था कि सोहल को कोई मदद हासिल है । शान्ताराम के भाई खुद ‘कम्पनी’ की खिलाफत करने का हौसला नहीं कर सकते लेकिन ‘कम्पनी’ की खिलाफत करने वाले को शह देने का काम वे कर सकते हैं ।”
बखिया सोच में पड़ गया ।
“ठीक है ।” - बखिया निर्णयात्मक स्वर में बोला - “इस लाइन पर काम करवाओ । देखते हैं, क्या होता है ।”
तभी मैक्सवैल परेरा वहां पहुंचा ।
“मैंने आठवीं मंजिल की भरपूर चैकिंग कराई है ।” - आते ही उसने बताया - “वहां कोई सन्द‍िग्ध व्यक्त‍ि तो नहीं मिला लेकिन कुछ ऐसे क्लू जरूर मिले हैं जो यह जाहिर करते हैं कि 805 नम्बर का सुइट किसी की निगरानी में था ।”
“मतलब ?”
“805 से ऐन अगला सुइट-सुइट नम्बर 806 - इस वक्त खाली पड़ा है । रिसैप्शन से मुझे मालूम हुआ है कि यहां चन्द्रकांत नाम का अहमदाबाद से आया एक व्यक्ति ठहरा हुआ था । फ्लोर वेटर से मुझे मालूम हुआ है कि वह कल दोपहर से वहां नहीं देखा गया और रिसैप्शन पर वह अपनी चाबी भी नहीं लौटाकर गया । पास-की की सहायता से मैंने यह सुइट खुलवाया था और उसकी बड़ी बारीकी से चैकिंग करवाई थी । बॉस, उसकी और सोहल के सुइट की बीच की दीवार में मुझे दो ऐसे छेद मिले थे जिसमें से आर-पार झांका जा सकता था ।”
“अच्छा !”
“और उस सुइट की तलाशी में एक इलैक्ट्रिक ड्रिल भी बरामद हुई है जो कि जरूर वही छेद करने में इस्तेमाल हुई थी । उसके अलावा वहां से दो शक्तिशाली माइक्रोफोन बरामद हुए हैं जो जरूर उन छेदों मे से बगल के सुइट में चलता वार्तालाप सुनने के काम आते थे ।”
“वही शख्स सोहल का हिमायती था ।” - बखिया पूरे विश्वास के साथ बोला - “उसी ने सोहल को उस खतरे से आगाह किया था जो कि होटल में उसका इन्तजार कर रहा था । वह आदमी - क्या नाम बताया था तुमने उसका ?”
“चन्द्रकांत ।”
“तुमने सुइट में मौजूद उसका सामान टटोला ?”
“सामान के नाम पर कमरे में एक छोटा-सा सूटकेस ही था जिसे कि पूरी बारीकी के साथ टटोला गया था । उस तलाशी से कुछ हासिल नहीं हो सका है ।”
“मुमकिन है, वह आदमी वापिस लौटकर आए !”
“उम्मीद तो नहीं । लेकिन अगर वह आएगा तो यहां से वापिस नहीं जाएगा । ऐसा इन्तजाम मैंने कर दिया है ।”
“कर दिया है या अभी करोगे ?”
“कर दिया है ।”
“शाबाश ! और ?”
“एम आर ए बयालीस बहत्तर ।”
“यह क्या है ?”
“यह उस काली फियेट कार का नम्बर है, गंगवानी के कथनानुसार जिस पर सवार होकर सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल कल महालक्ष्मी रेस कोर्स वाले पेट्रोल पम्प पर डाका डालने आया था ।”
“तो ?”
“मैंने मोटर व्हीकल्स के रजिस्ट्रेशन ऑफिस से यह नम्बर चैक करवाया है । इस नम्बर की कोई कार महाराष्ट्र स्टेट में रजिस्टर्ड नहीं । कहने का मतलब यह है कि वह नम्बर जाली था ।”
“यह कौन-सी बड़ी बात है । डकैती में इस्तेमाल की जाने वाली कार पर जाली नम्बर प्लेट्स लगाने का ख्याल तो किसी नौसिखिये को भी आ सकता है ।”
“आप बजा फरमा रहे हैं । लेकिन बात यहीं खत्म नहीं हो जाती, बखिया साहब !”
“मतलब ?”
“गंगवानी दण्डवते के भांजे से ज्यादा समझदार आदमी है । वह कहता है कि सोहल की दाढी-मूंछ नकली थीं ।”
“परेरा !” - बखिया उसे घूरता हुआ बोला - “तुम रात को ज्यादा तो नहीं पी गए थे ?”
“नहीं, बखिया साहब !”
“बातें तो ऐसी ही कर रहे हो जैसे अभी तक पिछली रात की पी का खुमार न उतरा हो । सोहल जब हमारे हर ठिकाने पर क्लीनशेव्ड देखा गया तो वह आनन-फानन दाढी-मूंछे कैसे उगा सकता था ? यह तो स्वाभाविक बात है कि उसकी दाढी-मूंछें नकली होंगी ।”
“कबूल । लेकिन इस बात का क्या सबूत है कि उस नकली दाढी-मूंछ के नीचे जो चेहरा छुपा हुआ था, वह सोहल का ही था ?”
तुरन्त बखिया के चेहरे पर गम्भीरता के भाव आए !
“किसी नकली दाढी-मूंछ वाले व्यक्ति ने” - परेरा आगे बढा - “पेट्रोल पम्प की सेफ लूटते समय अपना नाम सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल बताया और सबने बड़ी शराफत से कबूल कर लिया कि वह सोहल था ।”
“इस बात का क्या सबूत है” - इकबालसिंह बोला - “कि वह सोहल नहीं था ?”
“सबूत है ।” - परेरा जिद-भरे स्वर में बोला ।
“क्या सबूत है ?” - बखिया बोला ।
“सबूत यह है कि जिस वक्त पेट्रोल पम्प पर डाका पड़ रहा था, ऐन उसी वक्त कफ परेड वाले हमारे ऑफिस में मोटलानी का कत्ल हो रहा था और मोटलानी का कातिल टेलीफोन पर रोडरीगुएज साहब से बात कर रहा था और वह कातिल भी अपने-आपको सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल बता रहा था ।”
सब सकपकाये-से परेरा का मुंह देखने लगे ।
“महालक्ष्मी रेस कोर्स और कफ परेड के हमारे ऑफिस में कम-से-कम बीस मील का फासला है । कोई एक आदमी एक ही वक्त में उन दोनों जगहों पर नहीं पहुंच सकता । अगर मोटलानी का कत्ल करने वाला व्यक्त‍ि सोहल था तो पेट्रोल पम्प पर डाका डालने वाला व्यक्त‍ि सोहल नहीं था । अगर वह आदमी सोहल था तो मोटलानी का कातिल सोहल नहीं था ।”
“मोटलानी का कातिल सोहल था ।” - रोडरीगुएज निश्चयात्मक स्वर में बोला ।
बखिया ने प्रश्नसूचक नेत्रों से उसकी तरफ देखा ।
“मेरी सोहल से टेलीफोन पर कई बार बात हो चुकी है ।” - रोडरीगुएज बोला - “मैं उसकी आवाज बखूबी पहचानता हूं । आज सुबह आठ बजे जिस शख्स ने मुझसे बात की थी, उसी ने कल मोटलानी की लाश के सिरहाने खड़े होकर बात की थी । वह सोहल था, इस बात का सबूत उसने कुछ ऐसी खास बातों का जिक्र करके दिया था जिसे सोहल के अलावा और कोई नहीं जानता हो सकता ।”
“फिर तो बात साफ है ।” - परेरा बोला - “फिर पेट्रोल पम्प की सेफ लूटने वाला सोहल नहीं हो सकता ।”
“अगर वह सोहल नहीं था तो कौन था ?” - इकबालसिंह बोला ।
“या तो वह सोहल का कोई हिमायती था, जिसने सोहल के निर्देश पर वह काम किया था और उसी के निर्देश पर सरदार का बहुरूप धारण किया था और अपना नाम सोहल बताया था और या फिर...”
परेरा ठिठका ।
“या फिर क्या ?” - रोडरीगुएज बोला ।
“या फिर वह कोई छोटा-मोटा बदमाश था जो मौके से फायदा उठा गया था । लगता है, उसे पेट्रोल पम्प की सेफ में मौजूद माल की खबर पहले से थी और साथ ही यह भी मालूम था कि वह रकम ‘कम्पनी’ की मिल्क‍ियत थी । पहले उसका ‘कम्पनी’ के माल पर हाथ डालने का हौसला नहीं हुआ था लेकिन अब सोहल को ‘कम्पनी’ को चोट पर चोट पहुंचाते देखकर उसने भी बहती गंगा में हाथ धो लिए थे । उसने अपनी करतूत सोहल के सिर थोप दी थी ।”
“दूसरी बात ठीक है ।” - बखिया निर्णयात्मक स्वर में बोला - “यह काम सोहल का नहीं किसी बहुरूपिये का है । सोहल ने ‘कम्पनी’ के खिलाफ जो भी काम किया है, रोडरी, तुम गवाह हो इस बात के कि, उसने हमेशा ‘कम्पनी’ तक उसकी खबर पहुंचायी है ताकि ‘कम्पनी’ उसकी करतूतों के भौतिक और मनोवैज्ञानिक दबाव को महसूस कर सके । आज सुबह आठ बजे भी तुमसे वार्तालाप करते समय उसने यह इशारा किया कि उसने ‘कम्पनी’ के सिपहसालार दण्डवते का खून कर दिया था लेकिन पेट्रोल पम्प की डकैती का जिक्र नहीं किया । दुरुस्त ?”
रोडरीगुएज ने सहमति में सिर हिलाया ।
“यानी कि इत्तफाक से हमें गारण्टी के साथ यह मालूम न होता कि पेट्रोल पम्प की डकैती वे वक्त सोहल यहां से बहुत दूर कहीं और था तो हम उस बहुरूपिये की करतूत से कभी खबरदार न हो पाते । लगता है कि सोहल की करतूतों के जेरेसाया चींटियों के भी पर निकलने लगे है । रोडरी, हमें ये पर काटने होंगे ।”
“आप ठीक कह रहे हैं ।”
“परेरा !”
“सर !”
“जिस हरामजादे ने सोहल के नाम की ओट लेकर बखिया को चोट पहुंचाने की जुर्रत की है उसे यूं तलाश करो जैसे भूसे के ढेर में से सुई तलाश की जाती है लेकिन तलाश करो उसे । तलाश करो उसे और उसे उसकी करतूत की मुनासिब सजा दो ।”
“यस, बॉस !”
“अब क्या यह भी बताना होगा कि उसे तुमने कैसे तलाश करना है ?”
“नहीं ।”
“शाबाश !”
उनका अगला काफी वक्त आपसी मन्त्रणा में गुजरा ।
उस मन्त्रणा का एक ही विषय था ।
सोहल ! सोहल !
***
विमल स्टेशन से वापिस लौटा तो उसने चारों भाइयों के चेहरों पर मनहूसियत छाई पायी ।
“क्या हुआ ?” - वह सशंक स्वर में बोला ।
“सोहल !” - तुकाराम गमगीन स्वर में बोला - “बहुत बुरी खबर है ।”
“बुरी खबर ?” - वह सकपकाया ।
“तुम्हारे लिए ।” - बालेराम बोला ।
“मेरे लिए ! कहीं नीलम को तो कुछ नहीं हो गया ?”
“उसी को कुछ हो गया है ।” - तुकाराम बोला ।
“क्या हो गया है ?”
चारों भाई एक-दूसरे का मुंह देखने लगे ।
“जल्दी बताइये, क्या हो गया है, नीलम को ?” - विमल व्याकुल भाव से बोला - “कसम वाहेगुरु की, मेरा दिल बैठा जा रहा है ।”
“सोहल !” - तुकाराम कठिन स्वर में बोला - “नीलम अब इस दुनिया में नहीं ।”
“क्या !” - विमल चिल्लाया - “उसे मार डाला उन जालिमों ने ?”
“यही समझ लो ।” - तुकाराम बोला ।
“उन्होंने” - जीवाराम बोला - “अपने हाथों से तुम्हारी नीलम की जान नहीं ली लेकिन उसकी मौत के लिए जिम्मेदार सरासर वही लोग हैं ।”
“क्या हुआ है, साफ-साफ बताइये ! खुदा के वास्ते पहेलियां न बुझाइये !”
“सोहल !” - देवाराम बोला - “नीलम ने होटल की आठवीं मंजिल से नीचे छलांग लगाकर आत्महत्या कर ली है ।”
“आत्महत्या !”
“सोहल !” - तुकाराम बोला - “या तो वे लोग अपने वादे पर जान-बूझकर खरे नहीं उतरे और या फिर रोडरीगुएज ने सुलेमान और उसके साथियों को बताया ही नहीं था कि उसने आज सुबह आठ बजे तक लड़की को कुछ न कहने का तुमसे वादा किया था । हमारा भेदिया कहता है कि तुम्हारे सुइट में नीलम के साथ सामूहिक बलात्कार का प्रोग्राम सारी रात चला था...”
विमल ने अपने दोनों हाथ अपने कानों पर रख लिये । उसकी आंखें मुंद गयीं । वह होंठों में बुदबुदाया - “वाहे गुरु !”
“सुबह तक” - तुकाराम आगे बढा - “वे लोग नीलम की ऐसी हालत बना चुके थे अपनी निगाह से उन्होंने उसे हिलने डुलने के काबिल भी नहीं छोड़ा था । इसलिए उन लोगों की तवज्जो उसकी तरफ से हट गयी और वह सुइट की बाल्कनी से नीचे छलांग लगाने में कामयाब हो गयी ।”
“यह कब की बात है ?” - विमल कम्पित स्वर में बोला ।
“आज सुबह सात बजे की । लेकिन हमारे पास फोन सवा आठ बजे आया था जबकि तुम यहां से गये हुए थे ।”
“उसकी लाश...”
“गायब कर दी गयी । इतने बड़े फाइव स्टार डीलक्स होटल की इज्जत का जो सवाल था ।”
“मैं उसका अन्त‍मि संस्कार भी नहीं कर सकता ।” - विमल बोला । उसके चेहरे पर आंसुओं की दो मोटी-मोटी बूदें ढुलकीं ।
“नहीं कर सकते ।”
“बहुत बहादुर लड़की निकली वो ।” - बालेराम बोला - “उसने यूं जान देकर अपने-आपको तो जिल्लत से बचाया ही, साथ ही तुम्हारी भी मदद की ।”
“मेरी मदद ?”
“और नहीं तो क्या ? वही तो एक दबाव था जो कम्पनी तुम पर डाल सकती थी । अपनी जान देकर उसने तुम्हें अपने-आपको कम्पनी के हवाले कर देने जैसा कोई कदम उठाने की जिम्मेदारी से बरी कर दिया है ।”
“मुझे तो लगता है” - जीवाराम बोला - “कि उसने जान अपनी खातिर नहीं दी, बल्कि तुम्हारी खातिर दी ।”
“दाता ! दाता !!”
“हम थोड़ा धोखा खा गये ।” - तुकाराम खेदपूर्ण स्वर में बोला - “हमने समझा था कि नीलम जब तक आठवीं मंजिल पर थी, तब तक सलामत थी लेकिन अब हमें मालूम हुआ है कि उसको तहखाने में जोजो के पास पहुंचाने के स्थान पर जोजो को ही वहां बुला लिया गया था ।”
“जोजो ! इस सामूहिक बलात्कार में जोजो भी शामिल था ?”
“हां । जोजो भी । शान्त‍िलाल भी । लेकिन उस हरकत का चीफ आर्टिटेक्ट मुहम्मद सुलेमान ही था । यह भी हो सकता है कि उसने जान रोडरीगुएज का कहना न माना हो ! उसके मना करने पर भी वह नीलम के साथ मुंह काला करने से बाज न आया हो !”
“सुलेमान !” - विमल ने जोर से दांत किटकिटाये । उसकी आंखों से कहर बरसने लगा ।
चारों खामोश रहे । मन-ही-मन खुश थे । वे विमल के ऐसे ही मूड के ख्वाहिशमन्द थे ।
कई क्षण कमरे में मरघट का-सा सन्नाटा छाया रहा ।
“तुम्हारे उस भेदिये ने” - फिर विमल ने ही चुप्पी भंग की - “अपनी आंखों से नीलम की लाश देखी थी ?”
“नहीं ।” - तुकाराम तनिक विचलित स्वर में बोला ।
“तो फिर ?”
“लेकिन यह गारन्टी शुदा बात है कि नीलम अब इस दुनिया में नहीं है ।”
“कैसे गारण्टीशुदा बात है ?”
“वो कहता है कि उसे पता लगा था कि आठवीं मंजिल से एक लड़की के नीचे छलांग लगा दी थी । जब वह नीचे पहुंचा था तो उस वक्त लाश जा चुकी थी लेकिन नीचे राहदारी पर बेतहाशा खून बिखरा तब भी दिखाई दे रहा था, जिसे कि उस वक्त आनन-फानन साफ किया जा रहा था । वह आठवीं मंजिल पर पहुंचा था तो उसने सुलेमान, शान्त‍िलाल और जोजो को तुम्हारे सुइट से निकलते देखा था । तीनों के चेहरों पर फटकार बरस रही थी । उसने पीछे वे सुइट खुला छोड़ गए थे । हमारा भेदिया भीतर घुसा था तो उसने नीलम को वहां नहीं पाया था । और नीचे जहां से खून साफ किया जा रहा था, वह जगह ऐन तुम्हारे सुइट की बालकनी के नीचे थी ।”
“वह जगह तो और मंजिलों की बालकनियों के भी ऐन नीचे रही होगी । हो सकता है, मरने वाली नीलम न हो । हो सकता है, कोई और लड़की मरी हो !”
“अगर ऐसा हो तो इससे ज्यादा खुशी की बात और क्या हो सकती है लेकिन यूं हकीकत को कैसे झुठलाया जा सकता है ?”
“अभी सिर्फ पन्द्रह मिनट पहले फोन पर रोडरीगुएज से बात कर रहा था । उसने मेरे कहे बिना खुद अपनी तरफ से नीलम को फोन पर बुलाने की मुझे आफर दी थी ।”
“अगर उसने ऐसी कोई आफर दी थी तो वह उसका फरेब था ।”
“यह हो सकता है कि उसे नीलम की आत्महत्या की खबर न लगी हो ।”
“नहीं हो सकता ।”
“तो फिर वह कैसे मेरी नीलम से बात करवाने पर आमादा था ?”
“मैंने कहा न, वह उसका फरेब था ।”
“रोडरीगुएज बहुत चालाक आदमी है ।” - जीवाराम बोला - “वह यूं ही बखिया का दायां हाथ नहीं बना हुआ । उसे मालूम होगा कि तुम उसकी ऐसी ऑफर को तुम्हें लाइन पर अटकाये रखने की कोशिश समझोगे और वह ऑफर नामंजूर कर दोगे ।”
“मैं उसे अब कह सकता हूं कि वह मेरी नीलम से बात करवाये ।”
“हाथ कंगन को आरसी क्या !” - तुकाराम बोला - “कहकर देख लो । वह कभी तुम्हारी नीलम से बात नहीं करवाएगा ।”
“वह बात करवा ही नहीं सकता ।” - बाले राम बोला ।
विमल ने वहीं पड़ा टेलीफोन अपनी तरफ घसीट लिया ।
उसने रोडरीगुएज का नम्बर डायल किया ।
तुरन्त सम्पर्क स्थापित हुआ ।
रोडरीगुएज बखिया के पास से उसी वक्त वापिस लौटा था ।
“रोडरीगुएज साहब ?”
“हां ।”
“मैं सोहल बोल रहा हूं ।”
“सोहल !” - रोडरीगुएज के स्वर में हैरानी का स्पष्ट पुट था ।
“हां । रोडरीगुएज साहब, मैंने आपकी बात पर विचार किया है ।”
“कौन सी बात पर ?”
“इस बात पर कि मुझे बखिया से खामखाह बैर-भाव नहीं पालना चाहिए । बखिया अगर वाकई मेरा एडमायरर है तो मैं किन्हीं इज्जतदार शर्तों पर उससे सुलह करने को तैयार हूं ।”
“यह तो तुमने बहुत अच्छा फैसला किया है । बखिया साहब सुनेंगे तो बहुत खुश होंगे । क्या शर्ते हैं तुम्हारी ?”
“मेरी सबसे पहली और सबसे जरूरी शर्त नीलम की सलामती है ।”
“उसकी तुम चिन्ता मत करो, वह एकदम सही-सलामत है ।”
“मुझे कैसे विश्वास हो ?”
“मैं जो कह रहा हूं ।”
“यह बात मैं नीलम की जुबानी सुनना चाहता हूं ।”
“यह तो इस वक्त मुमकिन न होगा ।”
“आठ बजे मुमकिन था तो अब क्यों मुमकिन नहीं ?”
“तब तो मैंने उसे यहां बुलाकर रखा हुआ था क्योंकि मेरे ख्याल से तुम उससे बात करने के ख्वाहिशमन्द हो सकते थे । मैंने तो तुमसे कहा भी था कि कहो तो तुम्हारी बात करवाऊं उससे ।”
“मुझे याद है, आपने क्या कहा था । नीलम को आप एक बार अपने फोन के पास बुला सकते थे तो दोबारा भी बुला सकते हैं ।”
“बुला क्यों नहीं सकता । सरासर बुला सकता हूं ।”
“तो बुलाइए ।”
“वक्त लगेगा ।”
“कितना वक्त लगेगा ? साल-छ: महीने तो नहीं लग जाएंगे ।”
“नहीं, नहीं । लेकिन पांच-सात मिनट तो लगेंगे । तब तक तुम होल्ड करोगे ?”
“नहीं । मैं पन्द्रह मिनट बाद दोबारा फोन करूंगा । नीलम को बुलाकर रखिएगा ।”
“ठीक है ।”
विमल ने रिसीवर क्रेडिल पर पटक दिया ।
“वह तो बुला रहा है नीलम को !” - वह तुकाराम की तरफ आंखें तरेरता हुआ बोला ।
“बुला नहीं रहा ।” - तुकाराम दृढ स्वर में बोला - “सिर्फ कह रहा है ऐसा । बुलाएगा तो जानना ।”
विमल खामोश हो गया ।
वह यूं घड़ी देखने लगा जैसे उसके डायल को घूरने से सुईयों की रफ्तार तेज हो सकती हो ।
***
रोडरीगुएज लगभग दौड़ता हुआ बखिया के सुइट में पहुंचा ।
“उसका फिर फोन आया था ।” - वह हांफता हुआ बोला ।
“किसका ?” - बखिया तनिक सकपकाया ।
“सोहल का । लगता है, उसे किसी तरह से शक हो गया है कि लड़की हमारे कब्जे में नहीं है । वह उससे बात कराने की मांग कर रहा है ।”
“ओह !”
“वह पन्द्रह मिनट बाद फिर फोन करेगा । जब अगर उसकी नीलम से बात न करवाई गई तो वह समझ जाएगा कि नीलम हमारे पास नहीं है । फिर फिलहाल जो हमारा उस पर होल्ड है, वो खत्म हो जाएगा ।”
बखिया सोच में पड़ गया ।
“हम उसकी नीलम से बात करवाएंगे ।” - अन्त में बखिया निर्णयात्मक स्वर में बोला - “फोन आने दो उसका ।”
“कैसे ?” - रोडरीगुएज हैरानी से बोला - “कैसे कराएंगे ?”
बखिया ने बताया ।
***
नीलम की मौत की खबर ने विमल के दिमाग को कुन्द कर दिया था इसलिए पहली बार वह जोश में शान्ताराम के भाइयों का फोन इस्तेमाल कर बैठा था लेकिन दोबारा उसने वैसी गलती न की ।
दूसरी बार उसने पोस्ट आफिस के पीसीओ से फोन किया ।
रोडरीगुएज लाइन पर आया ।
“सोहल !” - वह बोला ।
“हां ।” - सोहल बोला - “आपने नीलम को...”
“हां । हां । लो बात करो उससे ।”
उस एक फिकरे ने जैसे विमल में प्राण डाल दिए ।
उसने कसकर रिसीवर अपने कान से लगा लिया ।
“हल्लो !” - दूसरी तरफ से आवाज आई ।
“नीलम !” - विमल व्यग्र भाव से बोला ।
“हां ।”
“तुम ठीक हो ?”
“मैं ठीक हूं । तुम मेरी परवाह मत करो । मेरी वजह से तुम इन जालिमों की गिरफ्त में न आना । कसम है तुम्हें जो तुम मेरी वजह से इन कमीनों के हवाले हुए । कसम है तुम्हें ।”
विमल उम्मीद कर रहा था कि पिछली बार की तरह नीलम के वे शब्द सुनकर कोई उससे रिसीवर छीन लेगा लेकिन वैसा न हुआ ।
लाइन में एकाएक कोई डिस्टर्बेन्स पैदा हो गई थी जिसकी वजह से वह नीलम की आवाज ठीक से नहीं सुन पा रहा था । जब वह रोडरीगुएज से बात कर रहा था तो लाइन एकदम क्लियर थी, तब उसमें कोई डिस्टर्बेन्स नहीं थी ।
विमल संदिग्ध हो उठा ।
“नीलम !” - वह बोला ।
“हां ।” - वह बोली - “विमल, मैं फिर कह रही हूं, मेरी परवाह न करना । तुम हरगिज भी...”
“एक मिनट चुप करो और मेरी बात सुनो ।”
“बोलो ।”
“इलाहाबाद में मैंने बनारसी की कौन-सी बांह में चाकू मारा था ?”
“चाकू !”
“हां । इलाहाबाद में हम बनारसी के घर गए थे । वहां मैंने तुम्हारे सामने उसे चाकू मारा था न ?”
“हां ।”
“चाकू उसकी कौन-सी बांह में लगा था ?”
“मुझे ध्यान नहीं ।”
“ध्यान करो ।”
“यह कोई वक्त है ऐसी बातें पूछने का !”
“है । याद करके बताओ, चाकू बनारसी की कौन-सी बांह में लगा था ?”
एक क्षण खामोशी रही ।
“हल्लो !” - विमल व्यग्र भाव से बोला ।
“मैं याद कर रही हूं ।” - आवाज आई ।
“याद आया कुछ ?”
“हां । चाकू बनारसी की दायीं बांह में लगा था ।”
“शाबाश !” - विमल का स्वर तुरन्त बदल गया - “तुम पूरे नम्बरों से पास हो गई हो । अपने बाप को फोन दो ।”
“विमल तुम...”
“सुना नहीं, हरामजादी !” - विमल सांप की तरह फुंफकारा ।
फिर फोन पर लड़की की आवाज न आई ।
इलाहाबाद में विमल ने बनारसी को चाकू नहीं, गोली मारी थी और वह उसकी बांह में नहीं, टांग में मारी थी । उसने गोली से बनारसी का घुटना फोड़कर आम के शौकीन बनारसी को ‘बनारसी लंगड़ा’ बना दिया था । लाइन पर नीलम होती तो यह बात उसे मालूम होती ।
कुछ क्षण बाद रोडरीगुएज लाइन पर आया ।
अब लाइन फिर क्लियर हो गई ।
प्रत्यक्ष था कि लाइन में डिस्टर्बेन्स जान-बूझकर फीड की जा रही थी ताकि विमल लड़की की आवाज न पहचान सके ।
“हल्लो !” - रोडरीगुएज बोला ।
“रोडरीगुएज साहब !” - विमल विष-भरे स्वर में बोला - “जिस स्कूल में आप अभी पढते हैं, उसका मैं हैडमास्टर रह चुका हूं ।”
“मतलब ?”
“मतलब मालूम है आपको । साफ-साफ बताइए, नीलम का क्या किया है आपने ?”
“कुछ भी नहीं ।” - वह बड़ी मासूमियत से बोला - “कुछ किया होता तो हम नीलम से तुम्हारी बात कराते ?”
“बकवास मत कीजिए । आदत से मजबूर होने की वजह से बकवास बिल्कुल बन्द नही कर सकते तो जरा कम कीजिए । मुझे बेवकूफ बनाने की आपकी चाल कामयाब नहीं हुई है । जिस लड़की से अभी आपने मेरी बात कराई थी, वह नीलम नहीं थी ।”
“वह नीलम थी ।” - रोडरीगुएज ने जिद की ।
“मैं आप ही के हित में आपको कह रहा हूं, साफ-साफ बताइए, नीलम का क्या किया है आपने ?”
“हमने कुछ नहीं किया ।”
“अगर आप उसकी लाश भी मुझे सौंप देंगे तो मैं आप लोगों को बख्श दूंगा ।”
“लाश !”
“हां । लाश की मिट्टी खराब किए बिना उसे मुझे सौंप दीजिए और फिर मेरी तरफ से यह जंग खत्म मान लीजीए ।”
“ठीक है । आकर लाश ले जाओ ।”
“ओफ्फोह ! खुदा के वास्ते यह बेहूदा राग अलापना बन्द कीजिए, रोडरीगुएज साहब ! ऐसा नहीं हो सकता ।”
“तो क्या हो सकता है ?”
“लाश को एक एम्बुलेंस में लदवाइये और अब से ठीक एक घन्टे बाद वह एम्बुलेंस...”
“एक घण्टे में एम्बुलेंस का इन्तजाम होना मुश्किल है ।”
“तो किसी भी बड़ी गाड़ी का इन्तजाम कीजिए जिसमें कि लाश को इज्जतदार ढंग से ढोया जा सके ।”
“मेटाडोर चलेगी ?”
“चलेगी । उसका नम्बर बोलिये ।”
“एम जी आर - 4637 ।”
“ठीक एक घण्टे बाद नीलम की लाश के साथ वह मेटाडोर महालक्ष्मी रेसकोर्स के सामने के मैदान में पहुंच जाये । ड्राइवर को समझा दीजिए कि वह गाड़ी को वहां छोड़कर चलता बने ।”
“यानी कि तुम लाश के साथ गाड़ी भी ले जाओगे ?”
“मरिये नहीं गाड़ी आपको वापस मिल जाएगी ।”
“शुक्रिया ।”
“और कोई शरारत करने की कोशिश न कीजिएगा ।”
“कैसी शरारत ?”
“गाड़ी में ड्राइवर के अलावा कोई न हो ।”
“कोई नहीं होगा ।”
“गुड ।”
विमल ने सम्बन्ध विच्छेद कर दिया ।
***
“वह लड़की को मरा समझ रहा है ।” - रोडरीगुएज ने बखिया को बताया ।
“ऐसा समझने की कोई वजह भी होगी ।” - बखिया बोला ।
“जरूर होगी । लेकिन वह वजह हमें नहीं मालूम ।”
बखिया खामोश रहा ।
“मैंने उसकी बात इसलिए मानी है क्योंकि इसमें मुझे उसका सफाया करने का बड़ा अच्छा मौका दिखाई दे रहा है । हमारी समस्या यह है कि हमें उसका कोई अता पता नहीं मालूम । अब हम यह जानते हैं कि एक घण्टे बाद वह महालक्ष्मी रेसकोर्स के आसपास होगा ।”
“खुद आने की जगह वह किसी और को भी भेज सकता है ।”
“उस सूरत में उस शख्स को सोहल का अता पता मालूम होगा । हम उसे धर दबोचेंगे और उससे सोहल का पता कुबुलवा लेंगे ।”
“बात तो तुम ठीक कह रहे हो ।”
“मैंने एडवांस में पचास आदमी महालक्ष्मी रेसकोर्स भेज दिये हैं और उन्हें पूरे इलाके को घेर लेने का हुक्म दे दिया है । सोहल या उसका कोई साथी जब मेटाडोर लेने वहां पहुंचेगा तो बचकर नहीं जा सकेगा ।”
“बहुत खूब !” - बखिया सन्तुष्टिपूर्ण स्वर में बोला ।
***
“तुम बहुत मूर्खता करोगे ।” - तुकाराम चिन्तित स्वर में बोला - “लाश तो तुम्हारे हाथ आएगी नहीं, अलबत्ता तुम उन लोगों के हाथ जरूर आ जाओगे ।”
“लाश का मोह बेकार है; दोस्त !” - बालेराम बोला - “मिट्टी के साथ मिट्टी होने का क्या फायदा !”
“फायदा आप लोगों की समझ में नहीं आयेगा ।” - विमल रोषपूर्ण स्वर में बोला ।
“सोहल !” - देवाराम बोला - “रोडरीगुएज का इतनी आसानी से लाश तुम्हें सौंप देने के लिए हामी भर देना ही उसकी काली नीयत का सबसे बड़ा सबूत है ।”
“इसका तो यह मतलब हुआ” - तुकाराम बोला - “कि काले पहाड़ को तुमने झुका लिया । अगर उन्होंने झुकना ही होता तो ऐसा क्या वे इतने खून खराबे और अपने इतने नुकसान के बाद करते ?”
“बखिया कल ही लौटा है । वह औरों से ज्यादा समझदार हो सकता है ।” - विमल बोला ।
“वह औरों से ज्यादा समझदार है तो औरों से ज्यादा जिद्दी और और औरों से कहीं ज्यादा ढीठ भी है ।”
“और फिर सबसे बड़ी बात यह है” - देवाराम बोला - “कि वे लाश तुम्हें दे ही नहीं सकते ।”
“क्यों ?” - विमल के माथे पर बल पड़ गये ।
“क्योंकि लाश पहले ही ठिकाने लगाई जा चुकी है ।”
“कौन कहता है ?”
“हमारा भेदिया कहता है ।”
“उसने कहा था कि लाश गायब कर दी गयी है ।”
“हां । ऐसी जगह गायब कर दी गई है जहां से कि वह वापिस बरामद नहीं की जा सकती ।”
“कहां ?”
“समुद्र की तह में ।”
“उसें क्या पता ? लाश क्या उसकी आंखों के सामने समुद्र में डुबोई गयी थी ?”
“नहीं । लेकिन...”
“क्या लेकिन ?”
“उसने अपनी आंखों से लाश नहीं देखी थी लेकिन अब खुद रोडरीगुएज इस बात की तसदीक कर चुका है कि नीलम मर चुकी है । इस प्रकार उसने लाश डुबोई जाती नहीं देखी थी लेकिन वह जानता है कि...”
“मैं मेटाडोर जरूर कब्जाऊंगा ।”
“तुम अपनी जान दे बैठोगे ।”
“कोई परवाह नहीं । मेरी जान की अब कोई कीमत नहीं । जान तो मेरी पहले ही जा चुकी है ।”
“अगर मेटाडोर में लाश न हुई तो ?”
“और अगर उसमें लाश हुई तो ?”
चारों भाइयों ने असहाय भाव से एक दूसरे की तरफ देखा । भाग्य की कैसी विडम्बना थी कि विमल नीलम की लाश के लिए जान देने पर तुला हुआ था और वे उसे यह नहीं बता सकते थे कि रोडरीगुएज झूठ बोल रहा था । वह मेटाडोर में नीलम की लाश भेज सकता ही नहीं था । नीलम तो पुलिस की कस्टडी में सही सलामत, जिन्दा मौजूद थी ।
“अब तक ‘कम्पनी’ के कम से कम सौ आदमी रेसकोर्स को घेर चुके होंगे ।” - तुकाराम चिन्तित भाव से बोला - “तुम वहां गये तो हरगिज भी सलामत वापिस नहीं लौट पाओगे ।”
“मेरा रेसकोर्स जाने का कोई इरादा नहीं है ।” - विमल बोला ।
“तो ।”
“मैं मेटाडोर को रास्ते में ही कहीं घेर लेना चाहता हूं । आखिर मुझे उसका नम्बर मालूम है और यह मालूम है कि जूहू से रेसकोर्स पहुंचने के लिए वह तुलसी पाइप रोड से ही गुजरेगी ।”
“मेटाडोर में सशस्त्र आदमी छुपे हो सकते हैं ।”
“उसका मुकाबला करना होगा ।”
“सारी कोशिश बेकार जाएगी । लाश तुम्हें नहीं मिलने वाली । वे लोग मेटाडोर में लाश नहीं भेजने वाले ।”
“देखिये” - विमल सख्ती से वोला - “मैं आपके अहसानों के तले दबा हुआ हूं इसलिए कोई सख्स बात नहीं कहना चाहता । लेकिन इस बार में मैं आपकी कोई बात नहीं सुनूंगा ।”
चारों भाई एक दूसरे का मुंह देखने लगे ।
***
जीवाराम एयरपोर्ट पर पहुंचा ।
साढे ग्यारह बजे वाली इण्डियन एयलाइन्स की फ्लाइट पर दिल्ली के लिए जो सीट रोज बुक कराई जाती थी, आखिर आज उसके इस्तेमाल का वक्त आ गया था ।
उनका जो आदमी पटवर्धन की निगरानी कर रहा था; उसने टेलीफोन पर सूचना दी थी कि उस रोज पटवर्धन अपना शानदार नीला सूट पहनकर अपने घर से निकला था और सीधा कफ परेड पर सुवेगा इण्टरनेशनल के दफ्तर में पहुंचा था ।
यानी कि उस रोज पटवर्धन के माध्यम से पन्द्रह लाख रुपये की हेरोइन दिल्ली रवाना हाने वाली थी ।
ठीक ग्यारह बजे पटवर्धन एयपोर्ट पर पहुंचा ।
दोनों लगभग आगे पीछे चलते हुए प्लेन में सवार हुये ।
पटवर्धन आगे खिड़की के पास की एक सीट पर बैठा था ।
जीवाराम को उससे कोई छ: लाइन पीछे सीट मिली ।
प्लेन जब टेक ऑफ कर गया और मुसाफिरों ने सीट बैल्ट खोल दी तो जीवाराम ने एयर होस्टेस को अपने पास बुलाया । उसने पटवर्धन की तरफ इशारा करके उसे बताया कि वह उसका दोस्त था और अभी उसकी उस पर निगाह पड़ी थी और यह कि अगर उसकी बगल में बैठा पैसेंजर माने तो बरायमेहरबानी उसके साथ उसकी सीट बदल दे ।
एयर होस्टेस पटवर्धन की बगल की सीट वाले पैसेंजर के पास पहुंची ।
दो मिनट बाद वह उस पैसेंजर के साथ वापस लौटी ।
जीवाराम ने पैसेंजर और एयर होस्टेस दोनों का धन्यवाद किया और आगे जाकर पटवर्धन की बगल में बैठ गया ।
पटवर्धन ने एक उड़ती निगाह उस पर डाली ।
जीवाराम मुस्काराया ।
पटवर्धन परे देखने लगा ।
“मैं” - जीवाराम बोला - “आन्धी-तूफान की मानिन्द एयरपोर्ट पर पहुंचा था । शुक्र है कि प्लेन छूट नहीं गया ।”
पटवर्धन ने उसकी बात की तरफ ध्यान दिया हो ऐसा कम से कम उसके किसी एक्शन से न लगा ।
“पटवर्धन !” - जीवाराम बोला - “मैं तुमसे बात कर रहा हूं ।”
पटवर्धन ने चौंक कर उसकी तरफ देखा ।
उसने बड़े गौर से अपनी बगल में बैठे व्यक्ति की सूरत का मुआयना किया ।
जीवाराम उसके लिए नितान्त अजनबी था ।
“अच्छा हुआ” - जीवाराम बोला - “मैं वक्त पर पहुंच गया ।”
“तुम मुझे जानते हो ?” - पटवर्धन सन्दिग्ध भाव से उसे घूरता हुआ बोला ।
“और क्या मुझे तुम्हारी शक्ल देखने का शौक हो जो अभी मैंने इतनी मुश्किल से तुम्हारी बगल में सीट हासिल की है ?”
“कौन हो तुम ?”
“मेरा नाम जोगी है ।”
“नाम तो हुआ, हो कौन तुम ?”
“मैं ‘कम्पनी’ का आदमी हूं ।”
“कम्पनी ? कौन सी कम्पनी ?”
“धीरे बोलो ।”
“कौन सी कम्पनी ?”
“वो ‘कम्पनी’ जो कफ परेड पर है ।”
“कफ परेड पर तो दर्जनों कम्पनियां हैं ?”
“लेकिन तुम तो उनमें से सिर्फ एक ही कम्पनी का पन्द्रह पन्द्रह लाख रुपये का माल हर बम्बई से दिल्ली लेकर जाते हो ।” - जीवाराम आगे को झुका और लगभग उसके कान में बोला - “अपने इस शानदार कोट में ।”
पटवर्धन और भी बुरी तरह से चौका ।
“तुम्हारी जानकारी के लिए” - जीवाराम पूर्ववत उसके कान में फुसफुसाता हुआ बोला - “चन्द्रगुप्त की नीयत में खोट आ गया है । आज जब वह तुमसे कोट बदलेगा तो उसके वाले कोट में सोने के बिल्कुट नहीं होंगे ।”
पटवर्धन हक्का बक्का सा उसका मुंह देखने लगा ।
वह आदमी उसका नाम जानता था, वह चन्द्रगुप्त का नाम जानता था । वह सारे ऑपरेशन को जानता था लेकिन वह उसके लिए नितान्त अजनबी था ।
“कौन हो तुम ?” - पटवर्धन भौंचक्का सा बोला ।
“कहा न” - जीवाराम बोला - “मेरा नाम जोगी है और मैं ‘कम्पनी’ का आदमी हूं और इस वक्त तुम्हारा बॉडीगार्ड हूं ।”
“बॉडीगार्ड !”
“हां । जोशी को अभी थोड़ी ही देर पहले टिप मिली थी कि चन्द्रगुप्त दोनो पार्टियों को धोखा देकर माल के साथ फरार हो जाना चाहता है । तुम्हें जो कोट वह देगा, उसमें से सोना उसने पहले ही निकाल लिया होगा और तुम कोट उसे दोगे, उसकी हेरोइन वह अपने मालिक को नहीं पहुंचाएगा ।”
“जरूर वह पागल हो गया है । वह ऐसा करेगा तो कुत्ते की मौत मारा जाएगा ।”
“जाहिर है ।”
“वह टिप गलत है ।”
“जोशी कहता है, टिप बहुत विश्वसनीय आदमी से हासिल हुई है ।”
पटवर्धन खामोश हो गया ।
उसने खुद कई बार सोचा था कि वह एक फेरे की टिप और हेरोइन लेकर कहीं खिसक जाये, या वापिसी में कोट में से सोना निकल ले और जाहिर करे कोट उसे वैसे ही मिला था यानी कि सोना चन्द्रगुप्त ने निकाला था ऐसा करने की उसकी कभी हिम्मत नहीं हुई थी ।
और अब जो हिम्मत वह नहीं कर सका था वह चन्द्रगुप्त करने जा रहा था ।
“अब प्रोप्राम क्या है ?” - पटवर्धन बोला ।
“प्रोग्राम यह है कि दिल्ली तो तुम पहुंचोगे लेकिन इस बार तुम चन्द्रगुप्त से कोट नहीं बदलोगे । तुम दिल्ली में होटल में जाकर ठहर जाओगे और बाद में खुद तुम्हें ट्रंककॉल पर बताएगा कि माल तुमने कहां पहुंचाना था, कैसे पहुंचाना था ।”
“तुम्हारा काम मुझे सिर्फ इतना सन्देश देना ही है ?”
“नहीं । दिल्ली पहुंचने पर चन्द्रगुप्त को चैक करना भी है, हो सकता है, वह अकेला न हो ! हो सकता है, इस बार वह अपने साथ हिमायती लाया हो जो जबरन तुमसे माल हथियाने की कोशिश करे !”
पटवर्धन के चेहरे पर घबराहट के भाव आये ।
“घबराओ नहीं ।” - जीवाराम आश्वासनपूर्ण स्वर में बोला - “ऐसा न होने पाये, इसीलिए तो मैं तुम्हारे साथ हूं ।”
“लेकिन” - वह कठिन स्वर में बोला - “लेकिन मुझे कैसे पता लगे कि तुम ‘कम्पनी’ के आदमी हो ?”
“कमाल है ।” - जीवाराम हैरानी जाहिर करता हुआ बोला - “इतने गोपनीय ऑपरेशन के बारे में इतनी बातें और कौन जानता होगा ?”
“फिर भी ?”
“तुम्हारी फिर का भी मेरे पास जवाब है । ठीक है, तुम मेरे कहे पर विश्वास मत करो । दिल्ली पहुंचकर तुम चन्द्रगुप्त को कोई पुड़िया देकर थोड़ी देर के लिए टाल देना । दिल्ली एयरपोर्ट पर ट्रंक डायलिंग की सुविधा वाला सार्वजनिक टेलीफोन है । वहां से तुम जोशी को बम्बई फोन करके मेरी बाबत अपनी पूरी तसल्ली कर लेना । ठीक है ?”
पटवर्धन ने सहमति में सिर हिलाया ।
अब वह पहले से ज्यादा आश्वस्त लग रहा था ।
“लेकिन फोन करने की नौबत आने से पहले ही अगर चन्द्रगुप्त तुम्हारे साथ कोई गलत हरकत करने पर उतारू हो जाए तो फौरन मुझे इशारा कर देना । समझ गए ?”
“हां ।”
“जोशी यही सुनकर तुम पर बहुत खुश होगा ।”
“क्या सुनकर ?”
“कि तुमने मेरी बात पर ही विश्वास नहीं कर लिया बल्कि उसे फोन करके मेरी बाबत बाकायदा तसदीक की ।”
“ओह ?”
“अब मैं जरा झपकी मारने लगा हूं । जब हम दिल्ली पहुंच जायें तो मुझे जगा देना ।”
“अच्छा !”
जीवाराम बड़े इत्मीनान से सीट पर पसर गया । उसने आंखें बंद कर ली ।
***
एम. जी. आर. - 4937 नम्बर की मेटाडोर तुलसी पाइप रोड पर दादर रेलवे स्टेशन के आगे से गुजरी ।
मेटाडोर की बॉडी एकदम बन्द थी । उसमें कोई खिड़कियां वगैरह नहीं थीं । केवल पिछवाड़े में दो पल्लों का एक दरवाजा था जो कि बन्द था ।
उस बन्द दरवाजे के पीछे चार सशस्त्र प्यादे छुपे हुए थे ।
गाड़ी की ड्राइविंग सीट और बॉडी के बीच में ट्रकों के अंदाज की पार्टीशन थी । इसका ड्राइवर भी कम्पनी का और सशस्त्र था ।
गाड़ी परी रफ्तार से तुलसी पाइप रोड पर दौड़ रही थी ।
एकाएक फर्गसन रोड से एक विशाल बन्द ट्रक बाहर निकला और मेन रोड पर आकर मुड़ने या आगे सीधा फर्गसन रोड पर ही बढ जाने के स्थान पर दीवार बनकर ऐन तुलसी पाइप रोड के माथे पर जम गया ।
आतंकित मेटाडोर ड्राइवर अपनी गाड़ी को रोकने की कोशिश में ब्रेक के पैडल पर लगभग खड़ा हो गया ।
ट्रक यूं एकाएक उसके सामने अड़ गया था । कि पूरी रफ्तार से दौड़ती अपनी गाड़ी की रफ्तार वह चैक नहीं कर सका था ।
वातावरण ब्रेकों की चरचराहट से गूंज उठा ।
ब्रेकों से लॉक हुए मेटाडोर के पहिये यूं सड़क पर रपटे कि टायर जलने लगे और उनमें से धुआ निकलने लगा ।
मेटाडोर की रफ्तार काफी घट गई लेकिन ट्रक के सिर पर पहुंच जाने तक गति शून्य न हो सकी ।
एक भीषण आवाज के साथ मेटाडोर ट्रक के साथ टकराई ।
विशाल ट्रक का तो बाल भी बांका न हुआ लेकिन मेटाडोर के अगले भाग के परखच्चे उड़ गए । स्टियरिंग ड्राइवर की छाती पर इस बुरी तरह ठुका कि उसकी कई पसलियां चटक गयीं और वह उसी के पीछे फंसा-फंसा बेहोश हो गया ।
मेटाडोर के भीतर मौजूद चारों प्यादे टक्कर की वजह से गेंदों की तरह से उछले । पहले उनके सिर मेटाडोर की छत से टकराये और फिर वे एक-दूसरे में गड्ड-मड्ड होते हुए उसकी साइडों से ठोकर खाने लगे ।
उसी क्षण एक कार मेटाडोर के पीछे आकर रुकी ।
कार की ड्राइविंग सीट पर देवाराम था ।
उसकी बगल में विमल बैठा था ।
विमल के हाथ में वह मशीनगन थी जो उसने परसों रात बोरीवली स्टेशन के पास कम्पनी के आदमियों की कार में से बरामद की थी और जिसे उसने जूहू में छुपाई अपनी टैक्सी में रख दिया था ।
कार अभी गति-शून्य भी नहीं हुई थी कि वह कार से बाहर कूद गया था और उसने मेटाडोर के पृष्ठ भाग पर गोलियों की बरसात शुरू कर दी थी ।
पलक झपकते ही कई गोलियों से बिंधे मेटाडोर के पिछले दरवाजे के दोनों पल्ले दांयें-बांयें झूल गये ।
भीतर एक-दूसरे के ऊपर गड्ड-मड्ड हुए चारों प्यादे मरे पड़े थे ।
एक कोने में एक स्ट्रेचर पड़ा था ।
स्ट्रेचर एक सफेद चादर से ढंका हआ था ।
स्ट्रेचर देखकर विमल का गला रुंधने लगा ।
शान्ताराम के भाइयों का ख्याल गलत था ।
नीलम की लाश कम्पनी ने गायब नहीं की थी ।
वह लपककर मेटाडोर में चढ गया ।
कांपते हाथों से उसने स्ट्रेचर पर से चादर खींची ।
नीचे उसे एक तकिया दिखाई दिया ।
उसने सारी चादर एक झटके से एक ओर उछाल दी ।
नीचे से तीन तकिये प्रकट हुए ।
विमल की आंखों में खून उतर आया ।
वह मेटाडोर से बाहर कूद गया ।
वह ड्राइवर के पास पहुंचा ।
उसने ड्राइवर का खोपड़ी पर मशीनगन की नाल से दस्तक दी । ड्राइवर ने कराहते हुए अपनी आंखें खोलीं ।
“मेटाडोर वापस होटल ले जाना” - विमल बड़े हिंसक स्वर में बोला - “और बखिया को मेरा एक पैगाम देना ।”
ड्राइवर ने उल्लुओं की तरह पलकें झपकाते हुए उसकी तरफ देखा ।
“उसे कहना” - विमल बोला - “भीतर पड़े स्ट्रेचर को संभाल कर रखे क्योंकि उसकी मौत के बाद उसे अर्थी नसीब नहीं होने वाली । फिर यही स्ट्रेचर काम आएगा अर्थी की जगह । समझ गए ?”
ड्राइवर ने बड़ी कठिनाई से सहमति में सिर हिलाया । तभी बालेराम जो ट्रक की ड्राइविंग सीट ने नीचे कूद आया था, विमल के पास पहुंचा । उसने विमल की बांह खींची । अंगारों पर लोटता हुआ विमल कार में जाकर सवार हुआ ।
बालेराम भी उसकी बगल में जा बैठा ।
देवाराम ने बड़ी दक्षता से कार को बैक करके उसे यू टर्न दिया और फिर अगले ही क्षण कार यह जा, वह जा ।
पीछे सड़क पर मेटाडोर ट्रक के साथ ‘टी’ (T) बनाती हुई उसके साथ भिड़ी खड़ी थी ।
सब कुछ पलक झपकते हो गया था ।
***
प्लेन पालम एयरपोर्ट पर उतरा ।
अन्य मुसाफिरों के साथ जीवाराम और पटवर्धन भी प्लेन ले उतरे ।
“चन्द्रगुप्त पर यह मत जाहिर होने देना” - टर्मिनल की इमारत के रास्ते में जीवाराम दबे स्वर में बोला - “कि मैं तुम्हारे साथ हूं । चन्द्रगुप्त जब तुम्हें टर्मिनल में दिखाई दे तो उसे जरा इन्तजार करने का इशारा कर देना और सीधे इमारत के दांयें कोने में स्थित उस पब्लिक टेलीफोन बूथ की तरफ बढ जाना जहां से कि ट्रंक डायलिंग होती है । वहां से तुम जोशी को फोन करके मेरे बारे में तसल्ली कर लेना । ओके ?”
पटवर्धन ने सहमति में सिर हिलाया ।
अभी भी वह सस्पेंस से मरा जा रहा था और मन-ही-मन चन्द्रगुप्त के हौसले से रश्क कर रहा था कि तीस लाख का माल हथियाने की हिम्मत चन्द्रगुप्त की हुई थी, उसकी नहीं ।
जीवाराम बहुत भरोसे की बातें कर रहा था लेकिन वास्तव में उसके प्रति वह अभी भी सन्दिग्ध था । उस शख्स की - जो कि अपना नाम जोगी बताता था - उसको कोई खबर नहीं थी; उसने उसे कभी देखा नहीं था; उसके लिए तो वह एकाएक आसमान से टपका था । ऐसे आदमी का वह आनन-फानन कैसे भरोसा कर सकता था ?
लेकिन राय तो उसने बड़ी संजीदा दी थी ।
वह जोशी को फोन करके उससे पूछ सकता था कि क्या उसने जोगी नाम के किसी आदमी को उसके पीछे भेजा था ?
वैसे वह अगर कोई बोगस आदमी होता तो खुद अपनी जुबान से जोशी से बात करने की राय हरगिज न देता ।
अगर वह बोगस आदमी था भी - पटवर्धन ने लापरवाही से कन्धे भटकाये - तो इतने भरे-पूरे टर्मिनल में वह क्या कर सकता था ।
अगर जोशी ने कहा कि उसने जोगी नाम का कोई आदमी उसके पीछे नहीं भेजा था तो वह देख लेगा साले को । फिर वह मदद के लिये चन्द्रगुप्त को इशारा कर देगा ।
लेकिन ज्यों-ज्यों यह बात उसके मन में जमती जा रही थी कि चन्द्रगुप्त माल लेकर भागने की फिराक में हो सकता था; त्यों-त्यों उसे अपना यह सन्देह भी गैरवाजिब लगता जा रहा था कि जोगी कोई बोगस आदमी था ।
कोई बोगस आदमी इतनी गोपनीय अन्दरूनी जानकारी भला कैसे कर सकता था ?
अभी असलियत सामने आ जाएगी - फिर उसने अपने सिर को एक झटका देते हुए सोचा ।
वे टर्मिनल में पहुंचे ।
वहां जीवाराम जान-बूझकर उससे दो कदम पीछे हो गया था ।
टर्मिनल के निकास-द्वार के करीब उसे प्रधान दिखाई दिया । प्रधान की निगाहों का केन्द्र जो आदमी था; वह ऐन पटवर्धन जैसा ही शानदार नीला सूट पहने था ।
जरूर वही चन्द्रगुप्त था ।
तभी प्रधान ने इशारे से इस बात की तसदीक की कि वही चन्द्रगुप्त था ।
पटवर्धन ने उसे कुछ उधर इशारा-सा किया और फिर उससे कतराता हुआ दायीं ओर को बढा जिधर कि जीवाराम ने उसे बताया था कि ट्रंक ड्रायलिंग वाला पीसीओ था ।
चन्द्रगुप्त सकपकाया ।
यह साला पटवर्धन आज उससे कन्नी क्यों काट रहा था ?
वह उसे टर्मिनल में ही स्थित कैफेटेरिया में जाने का इशारा क्यों कर रहा था ?
“तुम जाकर अपना काम करो ।” - जीवाराम इतने दबे स्वर में बोला कि उसके होंठ कम-से-कम हिले - “मैं तुम्हारे यार को संभालता हूं ।”
पटवर्धन ने हौले से सहमति में सिर हिलाया ।
जीवाराम घूमा और लम्बे डग भरता हुआ निकास-द्वार की तरफ बढा ।
चन्द्रगुप्त का उसकी तरफ कतई ध्यान नहीं था ।
वह प्रधान के पास पहुंचा ।
प्रधान ने अपने हाथ में थमा ब्रीफकेस जमीन पर रख दिया और एक सिगरेट सुलगाने लगा ।
जीवाराम ने भी एक सिगरेट अपने होंठों से लगाया । उसने अपना ब्रीफकेस प्रधान के ब्रीफकेस के समीप रखा और उससे लाइटर की मांग की ।
प्रधान ने लाइटर से उसका सिगरेट भी सुलगा दिया ।
“थैंक्यू !” - जीवाराम बोला ।
उसने झुककर ब्रीफकेस उठाया तो उसका ब्रीफकेस वहीं और प्रधान वाला ब्रीफकेस उसके हाथ में आ गया ।
एक खम्बे की ओट में आकर उसने वह ब्रीफकेस खोला ।
भीतर एक साइलेंसर लगी रिवॉल्वर थी ।
उसने सावधान से ब्रीफकेस में से रिवॉल्वर निकाली और उसे अपनी पतलून की बैल्ट में खोंसकर ऊपर से कोट का बटन बन्द कर लिया ।
फिर लम्बे डग भरता हुआ वह चन्द्रगुप्त के समीप पहुंचा ।
चन्द्रगुप्त का ध्यान उसकी तरफ नहीं था ।
उसने उसके कन्धे पर दस्तक दी ।
चन्द्रगुप्त हड़बड़ाकर उसकी तरफ घूमा ।
“बाकी लोग कहां हैं ?” - जीवाराम दबे स्वर में बोला ।
“बाकी लोग ?” - चन्द्रगुप्त अचकचाया ।
“हां । कहां हैं बाकी लोग ?”
“कौन बाकी लोग ? भाई साहब; आप किसी गलत आदमी से मुखातिब हैं ।”
“गलत आदमी !” - जीवाराम उलझन का बड़ा जीवन्त अभिनय करता हुआ बोला - “तुम्हारा नाम चन्द्रगुप्त नहीं है ?”
चन्द्रगुप्त हिचकिचाया ।
क्या उसे मुकरना चाहिए ?
कौन था वह आदमी ?
और कैसे जानता था उसका नाम ?
“अरे, बोलते क्यों नहीं हो, बाकी लोग कहां हैं ?” - जीवाराम झल्लाया - “यह वक्त खराब करने का वक्त नहीं है । यूं ही बुत बने मेरे सामने खड़े रहोगे तो वह निकल जाएगा ।”
“कौन निकल जाएगा ?”
“पटवर्धन ! और कौन ?”
“कहां निकल जाएगा ?”
“मुझे क्या पता कहां निकल जाएगा !”
“लेकिन...”
“सुनो-सुनो । तुम लोगों को हमारी टेलीग्राम मिली कि नहीं मिली ?”
“कैसी टेलीग्राम ?”
“यानी कि नहीं मिली । वर्ना तुम यूं उल्लू-सा नक्शा ताने मेरे सामने न खड़े होते ?”
“क्या पहेलियां बुझा रहे हो ! मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ रहा ।”
“सुनो !” - जीवाराम और आगे सरक आया और लगभग फुसफुसाता हुआ बोला - “पटवर्धन दोनों पार्टियों को धोखा देने और माल के साथ भाग जाने की फिराक में है । वह तुम्हें अपना जो कोट देगा; उसमें से हेरोइन की थैलियां वह पहले ही निकाल चुका होगा । फिर तुम्हारे वाले कोट में से वह सोने के बिस्कुट भी निकाल लेगा और फूट जाएगा ।”
“क्या ?” - चन्द्रगुप्त चौंका ।
यह बात हमें आज ही मालूम हुई है लेकिन तब तक पटवर्धन कम्पनी के ऑफिस से हेरोइन के साथ रवाना हो चुका था । मैं बड़ी मुश्किल से उसी की फ्लाइट में एक सीट हासिल करने में कामयाब हो पाया था । मैं पीछे कह आया था कि फौरन तुम्हें एक अर्जेण्ट टेलीग्राम भिजवा दी जाए ताकि तुम उस घोटाले के लिए तैयार हो जाओ जो कि पटवर्धन करने पर आमादा है ।”
“हमें कोई टेलीग्राम नहीं मिली ।”
“पता नहीं क्यों नहीं मिली ? लेकिन अब कोई बात नहीं, अब टेलीग्राम की जगह मैं जो आ गया हूं ।”
“ओह ! पटवर्धन जानता है तुम्हें ?”
“नहीं जानता । जानता होता तो अभी तक सोच-सोचकर उसकी हालत पतली हो गई होती कि मैं उसके पीछे दिल्ली क्यों आया हूं ।”
“ओह !”
“लेकिन मैं उसे जानता हूं । चला कहां गया है कम्बख्त ? अभी तो यहीं हॉल में ही था, अब कहीं दिखाई नहीं दे रहा ।”
“वह” - चन्द्रगुप्त के मुंह से अपने आप निकल गया - “उधर टेलीफोन बूथ की तरफ गया है ।”
“यहां हो सकता है उसके कोई संगी साथी भी मौजूद हों । हमें भी मदद बुलानी होगी । उस तरफ के अलावा फोन कहीं और भी है ?”
“है, लेकिन...”
“जल्दी बोलो, कहां है ? यह बहस का वक्त नहीं है । वह निकल जाएगा ।”
“हॉल के बायें कोने में भी वैसे ही बूथ हैं ।” - चन्द्रगुप्त जल्दी से बोला - “जैसे दायें कोने में हैं । लेकिन तुम पहले मेरी बात तो सुनो...”
“सुनूंगा । बाद में । अब वक्त नहीं है । अभी तुम उन दूसरी साइड के टेलीफोनों की तरफ दौड़ जाओ और वहां जाकर अपने बॉस को फोन करो । उससे टेलीग्राम के बारे में भी पूछ लो कि पहुंची या नहीं पहुंची और उसे कहो कि वह फौरन से पेश्तर अपने चुने हुए तीन चार आदमी यहां भेजे । पता नहीं कितने हिमायती है साले पटवर्धन के यहां ! मैं अकेला कितने आदमियों को हैंडल कर सकता हूं । लोकल मदद हासिल होनी बहुत जरूरी है, चन्द्रगुप्त ! अब जाओ । जल्दी करो ।”
“लेकिन...”
“मैं चला । पटवर्धन कहीं खिसक न जाए ।”
और वह चन्द्रगुप्त से अलग हटकर परे को लपका ।
किंकर्तव्यविमूढ सा चन्द्रगुप्त पीछे खड़ा रहा ।
पटवर्धन का व्यवहार उसे सन्देहास्पद लग तो जरूर रहा था । उसे देखते ही पटवर्धन हमेशा सीधे उसकी तरफ आता था लेकिन आज वह उसे देखते ही उससे कन्नी काटने लगा था ।
हो तो सकता था पटवर्धन कोई शरारत करने पर आमादा !
कम से कम उसका आज का बर्ताव तो सन्देह से परे नहीं था ।
उन हालात में उसकी अक्ल ने यही राय दी कि उसे वही करना चाहिए था जो बम्बई से पटवर्धन के पीछे आया आदमी - हड़बड़ी में जिसका उसने नाम तक नहीं पूछा था - उसे करने को कह रहा था ।
वह बायीं ओर वाले टेलीफोन बूथों की दिशा में लपका ।
तुरन्त प्रधान, जो इतनी देर से खामोशी से उनसे थोड़ा परे खड़ा था, उसके पीछे लपका ।
जीवाराम लम्बे डग भरता हुआ बायीं ओर के टेलीफोन बूथों की तरफ बढा ।
पटवर्धन उसे कोने के एक बूथ में दिखाई दिया ।
जीवाराम की तरफ उसकी पीठ थी और वह बड़े उत्तेजित भाव से टेलीफोन पर बात करता मालूम हो रहा था ।
जीवाराम दबे पांव बूथ के समीप पहुंचा और फिर दरवाजा खोलकर भीतर दाखिल हुआ ।
पतलून में खुंसी साइलेन्सर लगी रिवॉल्वर उसने हाथ में ले ली ।
अपने पीछे आहट सुनकर पटवर्धन उसकी तरफ घूमा ।
उस पर निगाह पड़ते ही आतंक से उसके नेत्र फैल गये ।
प्रत्यक्षत: जोशी से उसकी बात हो चुकी थी और उसे मालूम हो चुका था कि उसके पीछे जोगी नाम का कोई आदमी नहीं भेजा गया था ।
जीवाराम ने रिवॉल्वर को उसकी छाती के साथ सटाया और दो बार रिवॉल्वर का घोड़ा दबाया ।
तुरन्त उसने पटवर्धन की आंखों से जीवन ज्योति बुझती देखी ।
उसने एक सतर्क निगाह चारों तरफ दौड़ाई ।
किसी का ध्यान बूथ की तरफ नहीं था ।
बगल के बूथ में एक आदमी मौजूद था लेकिन उसे अपनी कॉल से फुरसत नहीं थी ।
जीवराम ने बड़ी फुर्ती से उसका कोट उतारा और ब्रीफकेस में डाल लिया ।
अभी भी धुआं उगलती रिवॉल्वर भी उसने ब्रीफकेस में रख ली ।
टेलीफोन का रिसीवर पटवर्धन की मृत उंगलियों से निकल कर अपनी डोरी के सहारे नीचे लटक रहा था ।
इयर पीस में से ऐसी खड़खड़ की आवाज आ रही था जैसे दूसरी तरफ से कोई ओर जोर से बोल रहा हो ।
उसने रिसीवर उठाकर कान से लगाया ।
“हल्लो ! हल्लो !” - उसे जोशी की आवाज सुनाई दी - “पटवर्धन ! क्या हो गया ? तुम बोल क्यों नहीं रहे हो ?”
“बोल रहा हूं ।” - जीवाराम बोला - “बीच में लाइन को कुछ हो गया था ।”
“अरे, वह आदमी ‘कम्पनी’ का नहीं है । तुम उससे बच कर रहना । उसके फेर में मत पड़ना । जरूरत पड़े तो चन्द्रगुप्त से मदद हासिल करना । वह कुछ भी कहे, तुम...”
“जोशी साहब !” - जीवाराम ने उसकी बात काटी ।
“हां ।”
“अपने आदमी और अपनी हेरोइन का फातिहा पढ लेना । वैसी ही राय मुख्तियार सिंह को उसके आदमी और उसके गोल्ड बिस्कुट्स के बारे में दे देना ।”
“क... कौन... कौन बोल रहे हो तुम ?”
“सोहल !”
और जीवाराम ने रिसीवर हुक पर टांग दिया ।
वह बूथ से बाहर निकल आया और लम्बे डग भरता हुआ सामने बढा ।
आधे रास्ते में उसे अपनी तरफ आता हुआ प्रधान दिखाई दिया ।
दोनों एक-दूसरे के करीब पहुंचे ।
“हो गया उसका भी काम ?” - जीवाराम ने पूछा ।
“हां ।” - प्रधान बोला - “कोट मेरे पास है ।”
“गुड !”
फिर दोनों कोट प्रधान को सौंपकर हेरोइन और सोने को ठिकाने लगाने के लिए उसे आवश्यक निर्देश देकर जीवाराम एयरपोर्ट से ही बम्बई वापिस लौट गया ।
***
“अब” - बखिया बोला - “इस बात की गारण्टी हो गई है कि बम्बई शहर में सोहल को बड़ी मुस्तैद मदद हासिल है । जिस ढंग से मेटाडोर को इण्टरसैप्ट किया गया है, वह न एक आदमी का काम है और न एक आदमी की प्लानिंग ।”
अमीरजादा आफताब खान ने सहमति में सिर हिलाया ।
वह मुहम्मद सुलेमान की हिमायत की नीयत से वहां पहुंचा था लेकिन बखिया से वह अभी उस विषय पर वार्तालाप शुरू भी नहीं कर पाया था कि जॉन रोडरीगुएज वहां आ धमका था ।
“ऐसी कोई मदद” - रोडरीगुएज बोला - “शान्ताराम के भाइयों के अलावा उसे और कहीं से हासिल नहीं हो सकती ।”
“मदद तो उसे बहुत जगह से हासिल हो सकती है - बम्बई शहर में बखिया के दुश्मनों की कमी नहीं - अलबत्ता यूं कहो कि इस वक्त हमारी निगाह सिर्फ शान्ताराम के भाइयों पर है ।”
“आपके ख्याल से हमारा कोई दुश्मन ‘कम्पनी’ के खिलाफ सिर उठाने की हिम्मत कर सकता है ?”
“आम हालात में नहीं कर सकता लेकिन इस वक्त हालात आम नहीं है । एक हफ्ते से वह सरदार का बच्चा हमारे खिलाफ कोहराम मचाए है, वह क्या हमारे दुश्मनों से छुपा होगा ? रोडरी ! बहुत लोगों को यह गलतफहमी हो सकती है कि उस मौके का फायदा उठाकर वे भी बखिया के खिलाफ सिर उठा सकते हैं । ऐसी गलतफहमी क्या उस बहुरूपिये को हो नहीं चुकी जिसने पेट्रोल पम्प की सेफ लूटी थी ?”
“ठीक कह रहे हैं आप ।”
“फिर भी उसकी तरफ हम खास तवज्जो दे सकते हैं । तुमने उन लोगों की चैकिंग का कोई इन्तजाम किया है ?”
“मैंने कुछ आदमी उनकी निगरानी पर तैनात करवाए हैं ।”
“निगरानी होती रहेगी । बखिया उनमें से किसी के साथ फौरन बात करना चाहता है । शान्ताराम की जगह उन भाइयों में से कौन-सा आजकल उनका सरगना बना हुआ है ?”
“तुकाराम ।”
“उसे यहां तलब करो ।”
“बेहतर ।”
तभी मैक्सवैल परेरा ने वहां कदम रखा ।
दण्डवते की गैरमौजूदगी में ‘कम्पनी’ के सिपहसालार के काम को वह अंजाम दे रहा था ।
सबकी निगाहें उसकी तरफ उठ गयीं ।
उसने बखिया का अभिवादन किया और बोला - “मैंने खुद दण्डवते की कल रात की मूवमैण्ट्स ट्रेस की हैं ।”
“क्या जाना ?” - बखिया ने पूछा ।
“यहां से वह सीधा सायन में मिसेज पिन्टो के पास गया था । मिसेज पिन्टो का कहना है कि वह संध्या नाम की उसकी एक लड़की की फिराक में वहां पहुंचा था । संध्या” - परेरा बड़े अर्थपूर्ण स्वर में बोला - “वही लड़की है जो डोगरा के कत्ल की रात को उसके साथ थी ।”
“तो क्या हुआ ?” - बखिया बोला ।
“दण्डवते को शक था कि वह लड़की सोहल से मिली हुई थी । इस बाबत संध्या का एक झूठ वह पकड़ भी चुका था ।”
“क्या किस्सा है ?”
परेरा ने मिसेज पिन्टो के पास सुलेमान के नाम से आई टेलीफोन कॉल और उसके अंजाम के बारे में बताया ।
“ओह !”
“मिसेज पिन्टो का कहना है कि दण्डवते उसके पास से सीधा दादर गया था जहां कि संध्या रहती है । मुझे दादर में संध्या के फ्लैट को ताला लगा मिला था । मैंने फ्लैट का ताला जबरन खुलवाकर भीतर का मुआयना किया था । मुझे बैडरूम में बनी वार्डरोब का ताला टूटा मिला था । ताला गोली मारकर तोड़ा गया था, गोली मैंने वार्डरोब से बरामद की थी । वह गोली वैसी ही 45 कैलीबर की हैवी रिवाल्वर की थी जैसी कि दण्डवते रखता था । अगर इस बात को सबूत न माना जाए तो यह कहना भी मुहाल है कि दण्डवते दादर पहुंचा भी था या नहीं ।”
“चली हुई गोली को देखकर यह थोड़े ही बताया जा सकता है” - खान बोला - “कि वह कब चली । गोली पिछले रोज की जगह पिछले हफ्ते भी चली हो सकती है ।”
“यह भी ठीक है ।” - परेरा बोला ।
“यानी कि दण्डवते अभी भी गायब है ।” - बखिया वितृष्णापूर्ण स्वर में बोला - “और वह क्यों गायब है, कहां गायब है, इसकी अभी भी हमें कोई खबर नहीं ।”
“जी हां ।” - परेरा संकोचपूर्ण स्वर में बोला ।
“और वह लड़की भी गायब है ?”
“लड़की के बारे में अभी यह कहना मुहाल है कि वह गायब है या कहीं गई हुई है । बहरहाल मैंने उसके फ्लैट की निगरानी का इन्तजाम कर दिया है ।”
“और ?”
“शान्ताराम के भाइयों की निगरानी का इन्तजाम रोडरीगुएज साहब के निर्देश पर मैंने कर दिया था । जब से निगरानी शुरु हुई थी, तब केवल तुकाराम और बालेराम ही घर में थे । बाकी दो भाई अभी हमें नहीं पता कि कहां हैं लेकिन ऐसा इन्तजार बराबर है कि जब वे लौटें तो उस क्षण के बाद से वे हमारे आदमियों की निगाहों से ओझल न हो सकें ।”
“बढिया ।”
“अब एक खबर ऐसी है जिसका कोई महत्व फिलहाल मेरी समझ से बाहर है ।”
“क्या ?”
“जीवाराम इण्डियन एयरलाइन्स की साढे ग्यारह बजे वाली दिल्ली की फ्लाइट पर सवार होता देखा गया था ।”
फौरन उस खबर के साथ कोई अहमियत न जोड़ी जा सकी ।
“दिल्ली में” - फिर बखिया बोला - “मुख्तियारसिंह को जो हर महीने हेरोइन का कोटा भिजवाया जाता है, वो क्या जा चुका है ?”
“उसके लिए” - रोडरीगुएज बोला - “कोरियर महीने के पहले हफ्ते में किसी दिन जाता है । आज हफ्ते का आखिरी दिन है । वह अब तक नहीं गया होगा तो आज गया होगा ।”
“मालूम करो ।”
कफ परेड में जोशी को फोन किया गया ।
जोशी वहां नहीं था ।
लेकिन इस बात की तसदीक फिर भी उसके एक मातहत ने कर दी कि उस रोज साढे ग्यारह बजे की फ्लाइट से पटवर्धन माल लेकर दिल्ली रवाना हो चुका था । जोशी के बारे से उसने बताया था कि अभी थोड़ी देर पहले कहीं से एक ट्रंककाल आई थी जिसे सुनते ही जोशी ने पहले कहीं फोन करने की कोशिश की थी और फिर फोन पटककर आंधी तूफान की तरह वहां से कूच कर गया था ।
“साहबन !” - बखिया बोला - “शान्ताराम के एक भाई का हमारे आदमी के साथ एक ही फ्लाइट पर मौजूद होना क्या महज इत्तफाक हो सकता है ?”
किसी के चेहरे पर आश्वासन के भाव न आए ।
तभी भड़ाक से कमरे का दरवाजा खुला और बगोले की तरह जोशी ने भीतर कदम रखा ।
सबकी निगाहें उसकी तरफ उठ गयीं ।
“माल लुट गया ।” - वह हांफता हुआ बोला ।
“क्या ?” - सम्वेत स्वर में सबके मुंह से निकला ।
“और हमारे आदमी का और मुख्तियारसिंह के आदमी का दोनों का कत्ल हो गया है ।”
“जोशी !” - बखिया तीखे स्वर में बोला ।
“हां, साहब !” - जोशी बौखलाया-सा बोला ।
“बैठ जाओ ।”
जोशी बैठ गया ।
“शान्ति से बताओ, क्या हुआ है ?”
“मेरे पास दिल्ली एयरपोर्ट से पटवर्धन का फोन आया था । वह कह रहा था कि कोई जोगी नाम का आदमी अपने-आपको कम्पनी का आदमी बता रहा था जो कि खास तौर से मैंने उसके पीछे भेजा था । मैं अभी पटवर्धन को बता ही रहा था कि मैंने ऐसा कोई आदमी उसके पीछे नहीं भेजा था और वह उस फ्रॉड से बचकर रहे कि लाइन पर कोई और आ गया था । बकौल उसके उसने पटवर्धन और चन्द्रगुप्त का कत्ल कर दिया था और दोनों कोटों का माल हथिया लिया था ।”
“वह दूसरा आदमी कौन था ?”
“सोहल !”
“क्या ?”
“उस आदमी ने मुझे अपना नाम सोहल बताया था ।”
“सोहल ! सोहल ! सोहल !” - बखिया ने दांत पीसते हुए मेज पर घूंसा जमाया - “बम्बई में सोहल । दिल्ली में सोहल । हर जगह सोहल ।”
कोई कुछ न बोला ।
फिर हिम्मत करके रोडरीगुएज ने शान्ति भंग की ।
“तुम्हें” - वह जोशी से सम्बोधित हुआ - “इस बात की तसदीक करनी चाहिए थी कि वह खबर सच थी या नहीं ।”
“मैंने की थी ।” - जोशी बोला - “दिल्ली एयरपोर्ट पर हमारा एक कॉण्टैक्ट है । मैंने फौरन उसे ट्रंककॉल की थी । उसने कहा था कि टर्मिनल के दो टेलीफोन बूथों में दो लाशें पड़ी थीं । दोनों लाशों के कोट गायब थे । वह उन लोगों को पहचानता नहीं था लेकिन वे जरूर पटवर्धन और चन्द्रगुप्त की ही लाशें थीं ।”
“दो आदमियों को हैंडल करने के लिए” - रोडरीगुएज बखिया की तरफ घूमा - “कम-से-कम दो आदमी तो दरकार होते ही हैं । अगर जोशी से सोहल ने बात की थी तो जरूर सोहल भी था साढे ग्यारह बजे की फ्लाइट पर ।”
“अगर यह कारनामा सोहल का है” - खान बोला - “तो जीवाराम की उस फ्लाइट पर मौजूदगी महज इत्तफाक हो सकती है ।”
“बखिया को ऐसे इत्तफाक पसन्द नहीं ।” - बखिया दहाड़ा - “पसन्द नहीं बखिया को ऐसे इत्तफाक । शान्ताराम का यह भाई लौटेगा तो यहीं । वह रेल से लौटे या प्लेन से । जब भी, ज्यों ही उसके बम्बई में कदम पड़ें, उसे पकड़ लो । बखिया खुद मालूम करेगा उससे कि उसकी उस फ्लाइट पर मौजूदगी इत्तफाक थी या नहीं । परेरा, सुना तुमने ?”
“यस, बॉस ।” - परेरा तुरन्त बोला ।
तभी इकबाल सिंह के कदम वहां पड़े ।
“बहुत फड़कती हुई खबर है ।” - उसने आते ही घोषणा की ।
सब उसकी तरफ देखने लगे ।
“रोडरीगुएज साहब !” - इकबाल सिंह बोला - “आपके पास आज सुबह सोहल की जो दूसरी टेलीफोन कॉल आयी थी, टेलीफोन एक्सजेंच में मौजूद हमारा कॉण्टैक्ट कहता है कि वह चैम्बूर में शान्ताराम के भाइयों के घर से हुई थी ।”
बखिया एकाएक बेहद गम्भीर हो गया ।
“पक्की बात ?” - वह बोला ।
“एकदम पक्की बात ।” - इकबालसिंह निश्चयात्मक स्वर में बोला ।
“कॉल आए तो चार घन्टे हो गए हैं” - रोडरीगुएज बोला - “यह बात तुम अब बता रहे हो ?”
“बात मुझे मालूम ही अब हुई है ।” - इकबालसिंह बोला - “अभी एक मिनट पहले ही तो टेलीफोन एक्सचेंज से फोन आया है मेरे पास । हमारे कान्टैक्ट ने मुझे फौरन भी फोन किया था, लेकिन इत्तफाक से तब मैं फोन पर उपलब्ध नहीं था ।”
“दूसरी कॉल के पन्द्रह मिनट बाद सोहल ने मुझे फिर फोन किया था । क्या वह फोन कॉल भी शान्ताराम के भाइयों के घर से ही की गयी थी ?”
“नहीं । वह फोन कॉल चैम्बर के एक पोस्ट ऑफिस से की गयी थी और वह पोस्ट ऑफिस” - इकबालसिंह अपने कथन को नाटकीय पुट देने के लिए एक क्षण ठिठककर बोला - “शान्ताराम के भाइयों के घर से मुश्किल से दो फर्लांग दूर है ।”
एकाएक बखिया उठ खड़ा हुआ ।
“रोडरी !” - वह कहर भरे स्वर में बोला ।
रोडरीगुएज ने उसकी तरफ देखा ।
“तुकाराम को यहां तलब करने की जरूरत नहीं ।” - बखिया बोला - “अब बखिया उससे कोई अमन-शान्ति मार्का बातचीत करना जरूरी नहीं समझता । अब उसे पकड़कर यहां लाओ । अब शान्ताराम के बाकी बचे सारे भाइयों पर कहर बनकर टूट पड़ो ।”
“ओके ।” - रोडरीगुएज बोला ।
***
फोन की घण्टी बजी ।
तुकाराम ने खुद उठकर फोन उठाया ।
जीवाराम दिल्ली गया हुआ था और सोहल के साथ गए बालेराम और देवाराम अभी वापिस नहीं लौटे थे ।
घर में वागले और उसके सिवाय कोई नहीं था ।
वैसे चारों भाई विवाहित थे और बीवी-बच्चों वाले थे । लेकिन जब से शान्ताराम के साथ-साथ उसके परिवार का भी कत्ल हुआ था, तभी से उन्होंने अपने बीवी-बच्चों को अपने गांव भेज दिया हुआ था । बम्बई में उनके परिवारों की खामखाह गेहूं के साथ घुन की तरह पिसने की नौबत आ सकती थी ।
“हल्लो !” - वह माउथपीस में बोला ।
“कौन ?” - दूसरी ओर से पूछा गया - “तुकाराम ?”
“हां । तुम कौन ?”
“तुकाराम, मैं तुम्हारा एक खैरख्वाह बोल रहा हूं और तुम्हारी ही भलाई की खातिर तुम्हें यह टेलीफोन कर रहा हूं ।”
“मतलब ?”
“बखिया को पता लग गया है कि तुम मशहूर इश्तिहारी मुजरिम सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल का पनाह दिए हो और तुम और तुम्हारे सारे भाई उसके मददगार बने हुए हैं ।”
“यह झूठ है ।” - मन-ही-मन किसी अज्ञात आशंका से कांपता हुआ तुकाराम प्रत्यक्षत: दिलेरी से बोला ।
“देखो । झूठ-सच का विश्वास मुझे दिलाने का कोई फायदा नहीं और बहस में वक्त जाया करने का यह मौका नहीं । तुम लोगों का सोहल से कोई रिश्ता नहीं, इस बात का बखिया को विश्वास दिलाने की कोशिश करने का भी कोई फायदा नहीं । उसे विश्वास नहीं आने वाला । इसलिए अगर बखिया के कहर से बचना चाहते हो तो अपने भाइयों और हिमायतियों समेत अपने इस चैम्बूर मकान से फौरन गायब हो जाओ । बखिया पहले ही अपने आदमी तुम्हारी तरफ रवाना कर चुका है ।”
“क्या ?”
“मैं हकीकत बयान कर रहा हूं । अपने आपको खुशकिस्मत समझो कि आने वाले तूफान की खबर यूं तुम्हें एडवांस में मिल रही है ।”
“तुम कौन हो ?”
“यह भी बताऊंगा लेकिन अभी नहीं ।”
“तो फिर कब ?”
“वक्त आने पर ।”
“कैसे ?”
“तुम मुझे अपना कोई ऐसा फोन नम्बर बता दो जिस पर तुमसे बात हो सकती हो । मैं तुम्हें दोबारा फोन करूंगा ।”
“हमें कैसे पता लगेगा कि वही आदमी दोबारा फोन कर रहा है ।”
“हम आपस में एक कोडवर्ड फिक्स कर लेते हैं ।”
“क्या ?”
“लाल सूरज ।”
“ठीक है ।”
“नम्बर बोलो ।”
तुकाराम ने उसे एक टेलीफोन नम्बर बता दिया ।
फिर एकाएक सम्बन्ध विच्छेद हो गया ।
तभी विमल और उसके दो भाई वहां पहुंचे ।
“क्या हुआ ?” - तुकाराम रिसीवर क्रेडिल पर पटकते हुए बोला ।
“मेटाडोर में लाश नहीं थी ।” - विमल दबे स्वर में बोला ।
“मैंने पहले ही कहा था ।” - तुकाराम बोला ।
फिर उसने सबको उसी क्षण आई टेलीफोन कॉल के बारे में बताया ।
“बखिया को पता कैसे लगा ?” - बालेराम के मुंह से निकला ।
“हो सकता है” - तुकाराम बोला - “हमारी पहले से निगरानी हो रही हो और हमें खबर न लगी हो !”
“वह टेलीफोन कॉल भी इस झमेले की वजह हो सकती है” - देवाराम बोला - “जो सुबह सोहल ने यहां से की थी ।”
“वह मेरी गलती थी ।” - विमल ने कबूल किया - “आप लोगों को मुझे टोकना चाहिये था ।”
“उस वक्त तुम बड़े खराब मूड में थे ।” - तुकाराम बोला - “तुम खफा हो सकते थे ।”
“अब हमें करना क्या चाहिये ?” - देवाराम बोला ।
“वह टेलीफोन कॉल चाहे होक्स हो” - तुकाराम बोला - “फिलहाल तो हमें यहां से कूच कर ही जाना चाहिये । बाद में जो असलियत होगी, वो सामने आ जायेगी ।”
“ठीक है ।” - बालेराम बोला ।
“वागले को कोई नहीं पहचानता” - तुकाराम बोला - “कोई यह भी नहीं जानता कि वह हमारा आदमी है । उसे हम पीछे छोड़ जाते है ।”
“घर में ?” - बोलराम बोला ।
“घर में नहीं । घर से बाहर । इलाके में । बखिया को अगर हमारी खबर लग गयी है तो उसका कहर हर उस शख्स पर टूट सकता है जो कि यहां मौजूद होगा । वागले इस घर में अगर उन लोगों के हाथ पड़ गया तो कुम्हार का गुस्सा गधे पर उतरने वाली बात हो जायेगी ।”
वागले को बुलाया गया और जल्दी जल्ली उसे सारी स्थिति समझाई गयी ।
फिर वे फौरन वहां से कूच कर गये ।
तुकाराम के कथनानुसार वरसोवा में मछुआरों की बस्ती में उनका एक और ठिकाना था जहां फिलहाल वे पनाह हासिल कर सकते थे ।
वे नहीं जानते थे कि वे बाल बाल बचे थे ।
उनके वहां से कूच करते ही ‘कम्पनी’ के आदमियों से भरी दो स्टेशन वैगन वहां पहुंची थी और मैक्सवैल परेरा खुद उनके साथ आया था ।
लेकिन तब तक पंछी उड़ चुके थे ।
***
बखिया का बम्बई में पहला लंच जॉन रोडरीगुएज और अमीरजादा आफताब खान की शिरकत में हुआ ।
लंच के बाद जब कॉफी सर्व की गयी तो बखिया ने खान की तरफ तवज्जो दी ।
“खान !” - वह गम्भीरता से बोला - “तुम सुबह से बखिया को कुछ कहने की कोशिश कर रहे हो । ठीक ?”
“एकदम ठीक बखिया साहब !” - खान तनिक हौसले से बोल - “मैं...”
“अगर तुम सुलेमान की बाबत कुछ चाहते हो तो कुछ न कहना ही अच्छा होगा ।”
“जी !” - वह सकपकाया ।
“बखिया अपने संगी साथियों की सलाह की कद्र करता है लेकिन जो सलाह जबरन उस पर थोपी जाये, उसका तलबगार बखिया नहीं ।”
“मैं जबरन कोई सलाह आप पर नहीं थोपने वाला था, बखिया साहब !”
“जानकर खुशी हुई ।”
“और सुलेमान की बाबत आपको सलाह देने की कोई कोशिश करना तो मेरी सख्त नालायकी और नामाकूलिअत होगी ।”
मन ही मन वह इस बात पर संतोष कर रहा था कि बखिया ने सुलेमान की बाबत अपना मूड पहले ही जाहिर कर दिया था जिसकी वजह से उसने मुंह नहीं फाड़ा था और वह खामखाह रोडरीगुएज के सामने बेइज्जत होने से बच गया था ।
“आज बखिया अपने बीमार भाई से मिलने कल्याण जाना चाहता था लेकिन जनाब सुलेमान साहब के सदके यहां फैले हाहाकार की वजह से लगता है कि आज बखिया अपने भाई से नहीं मिल सकेगा और उसे उस चीज का तोहफा नहीं पेश कर सकेगा जो वह खासतौर से गोवा से लाया है ।”
“क्या चीज ?” - रोडरीगएज उत्सुक भाव से बोला ।
“व्हील चेयर” - बखिया के स्वर में तनिक गर्व का पुट आ गया - “जो मैंने वहां के एक ओटो-मोबाइल इंजीनियर से खासतौर से बनवाई है । हर लिहाज से ओटोमैटिक वह व्हील चेयर बखिया के भाई को अब काफी नहीं तो कुछ तो बिस्तर से निजात दिला पायेगी । केवल बटनों की सहायता से अब बाजबहादुर उसे खुद चला सकेगा और बंगले के बाहर कदम रख सकेगा ।”
बखिया का इकलौता सलामत भाई उम्र में उससे बड़ा था लेकिन एक तो टांगों से लाचार हो चुका था और ऊपर से अक्सर बीमार रहता था । बम्बई से कोई चालीस मील दूर कल्याण के एक खूबसूरत बंगले में वह अपनी जिन्दगी के आखिरी दिन काट रहा था ।
“आज कल्याण जाना मुमकिन नहीं होगा ।” - बखिया बोला - “लेकिन कल बखिया का डिनर अपने भाई के साथ होगा ।”
“कल शाम को आप कल्याण जायेंगे ?” - खान ने तनिक हड़बड़ाये स्वर में पूछा ।
“हां ! शाम को बखिया के लिए कोई झमेला न खड़ा किया जाए । सात बजे बखिया यहां से रवाना हो जायेगा और आठ बजे वह कल्याण में अपने भाई के पास होगा ।”
“कल रात ही वापिस लौट पायेंगे आप ?” - रोडरीगुएज ने पूछा ।
“नहीं ।” - बखिया बोला - “परसों सुबह ।”
रोडरीगुएज ने सहमति में सिर हिलाया ।
“शान्ताराम के भाइयों की कोई खबर ?”
“अभी कोई खबर नहीं लेकिन खबर माकूल ही होगी । चैम्बूर अपने आदमियों को लेकर पेररा खुद गया है और जीवाराम की फिराक में एयरपोर्ट पर भी आदमी पहुंच चुके हैं ।”
“बढिया ।” - बखिया सन्तुष्टिपूर्ण स्वर में बोला ।
जीवाराम अपने भाइयों जितना खुशकिस्मत साबित न हुआ ।
उसको यह वार्निंग देने का इन्तजाम तो उसके भाइयों ने किया था कि एयरपोर्ट से उसने चैम्बूर नहीं जाना था लेकिन वह इन्तजाम दुश्मन के मुकाबले के काबिल नहीं था । उन्होंने तो सपने में नहीं सोचा था कि ‘कम्पनी’ को मालूम था कि जीवाराम प्लेन द्वारा दिल्ली गया हुआ था । मालूम होता तो उन्होंने जीवाराम से सम्पर्क स्थापित करने के लिए एक इकलौता आदमी एयरपोर्ट पर न भेजा होता । वह आदमी जीवारावम के टर्मिनल से बाहर निकलने का अभी इन्तजार ही कर रहा था कि ‘कम्पनी’ के प्यादों ने उसे टर्मिनल में ही धर दबोचा ।
जीवाराम गिरफ्तार हो गया ।
उसकी खातिर उसके भाइयों द्वारा वहां भेजे गये आदमी को इस बात की खबर तक न लगी । वह यही समझा कि जीवाराम उस फ्लाइट से नहीं लौटा था ।
दिल्ली से आने वाली अगली फ्लाइट की प्रतीक्षा में वह एयरपोर्ट के बाहर जमा रहा ।
***
विमल के निर्देश पर देवाराम ने कार को मैरीन ड्राइव पर उस इमारत के सामने रोका जिसमें रतनलाल जोशी का फ्लैट था ।
कार से निकलकर वे इमारत में दाखिल हुए ।
“अगर जोशी घर में हुआ तो ?” - देवाराम ने शंका व्यक्त की ।
“उम्मीद नहीं ।” - विमल बोला ।
“फिर भी हुआ तो ?”
“तो देखा जाएगा ।”
वे लिफ्ट में सवार हुए और पांचवीं मंजिल पर पहुंचे ।
विमल ने जोशी के फ्लैट की कॉलबैल बजाई ।
“कौन ?” - भीतर से पूछा गया ।
“हम कम्पनी से आये हैं ।” - विमल बोला - “सुलेमान सहाब ने भेजा है ।”
“जोशी साहब घर पर नहीं हैं ।”
“वे कफ परेड के ऑफिस में भी नहीं है इसलिए हमें यहां आना पड़ा है ।”
“बात क्या है ?”
“सुलेमान साहब ने एक पैकेट भेजा है जो फौरन जोशी साहब के पास पहुंचाना निहायत जरूरी है ।”
“मैंने कहा न, जोशी साहब घर पर नहीं है ।”
“कोई बात नहीं हमारा काम आपसे भी चल सकता है ।”
“मेरे से ?”
“हां । वह पैकेट आप ले लीजिए ।”
“मैं केसे ले सकती हूं ?”
“आप जोशी साहब की बीवी बोल रही है न ?”
“हां ।”
“तो पैकेट क्यों नहीं से लगतीं आप ?”
“मुझे उन्होंने ऐसा कोई पैकेट लेने के लिए नहीं कहा हुआ ।”
“कैसे कहा होता ? उन्हें क्या मालूम था कि कोई पैकेट आने वाला था ?”
“फिर भी पैकेट मैं नहीं ले सकती ।”
“वह पैकेट जोशी साहब के पास फौरन पहुंचाना निहायत जरूरी है । हम कम्पनी के कफ परेड के ऑफिस में पहले ही कह आये हुए हैं कि जोशी साहब अगर वहां आयें तो उन्हें बता दिया जाए कि पैकेट हम उनके घर में छोड़ रहे थे । अब अगर आपने पैकेट न लिया तो बहुत गड़बड़ हो जाएगी ।”
“तुमने पैकेट ऑफिस में ही क्यों नहीं छोड़ा था ?”
“क्योंकि तब हमें जोशी साहब के यहां मिल जाने की उम्मीद थी ।”
“अब वापिस ऑफिस चले जाओ ।”
“हमारे वापिस वहां पहुंचने तक अगर जोशी साहब वहां से चल चुके हुए तो हम फुटबॉल की तरह मैरीन ड्राइव और कफ परेड के बीच ही उछलते रहेंगे ।”
“मैं पैकेट नहीं ले सकती । मुझे इस बारे में जोशी साहब ने कुछ नहीं कहा हुआ ।”
“ठीक है हम वापस जाकर सुलेमान साहब को बोल देते हैं कि जोशी साहब की बीवी ने पैकेट लेने से इनकार कर दिया है ।”
“ठहरो ।”
“आप खोल रहीं है दरवाजा ?”
“मैं जोशी साहब को फोन करती हूं ।”
“मैंने कहा न कि वो ऑफिस में नहीं हैं ।”
“मैं कहीं और फोन करती हूं उन्हें ।”
“तब तक हम यहां बाहर गलियारे में ही खड़े रहें ?”
“क्या हर्ज है ! इतनी देर से खड़े हो । दो मिनट और नहीं खड़े हो सकते ?”
भीतर से आवाज आनी बन्द हो गयी ।
“सत्यानाश !” - विमल होंठों में बुदबुदाया ।
“फोन वाली बात तुम्हें सूझनी चाहिए थी ।” - देवाराम धीरे से बोला ।
“मुझे क्या पता था कि दरवाजा ही खोलने में यह औरत इतनी अड़ी करेगी ।”
“वह सीधे सुलेमान को भी फोन कर सकती है और उससे पैकेट और हमारे बारे में पूछ सकती है ।”
“यह तो बड़ी गड़बड़ हो गई है ।”
“ताला तोड़ डालें ?”
“न । गोली की आवाज सुनकर सारी बिल्डिंग यहां इकट्ठी हो जाएगी ।”
“तो ?”
तभी भीतर से जोशी की बीवी की आवाज आयी - “फोन तो खराब पड़ा है ।”
“धन्न करतार !” - विमल चैन की सांस लेता हुआ बोला ।
“तो” - प्रत्यक्षत: वह बोला - “अब क्या इरादा है आपका ?”
“ठहरो । खोलती हूं ।”
और एक क्षण बाद दरवाजा खुला और चौखट पर एक अत्यन्त सुन्दर युवती प्रकट हुई ।
विमल बिना एक क्षण नष्ट किए उसे धकेलता हुआ अन्दर घुस गया ।
देवाराम भी भीतर घुसा । अपने पीछे उसने दरवाजा बन्द करके उसकी चिटकनी चढा दी ।
युवती के चेहरे पर आतंक के भाव पैदा हुए । उसने चीखने के लिए मुंह खोला ।
“खबरदार !” - विमल रिवॉल्वर निकालकर उसकी तरफ तानता हुआ बोला ।
युवती के गले से निकलने की तत्पर चीख गले में ही घुटकर रह गयी । वह आतंकित भाव से कभी विमल को कभी देवाराम का मुंह देखने लगी ।
“शोर मचाया तो” - विमल बड़े हिंसक भाव से बोला - “गोली मार देंगे ।”
तब तक देवराम ने भी अपनी रिवॉल्वर निकालकर हाथ में ले ली थी ।
युवती खामोश रही ।
“नम्बर बोलो ।” - विमल बोला ।
“क...कौन सा ?” - युवती हकलाई - “कौन सा नम्बर ?”
“सेफ का नम्बर ! छ: अंकों का वो नम्बर जो तुम्हारा पति रोज तुम्हें टेलीफोन पर बताता है ।”
“मुझे नहीं पता, तुम क्या कह रहे हो ?”
“तुम्हें सब पता है । नम्बर बोलो जल्दी ।”
“मुझे नहीं मालूम ।”
“क्यों नहीं मालूम ?”
“मेरा पति पहले मुझे कोई एक नम्बर बताया करता था लेकिन अब नहीं बताता ।”
“अब क्यों नहीं बताता ?”
“मर्जी उसकी ।”
“अब क्या उसकी याददाश्त दुरुस्त हो गयी है ?”
“मुझे नहीं मालूम ।”
“नम्बर तो” - विमल उसके चेहरे के सामने रिवॉल्वर की नाल को लहराता हुआ बोला - “तुम्हें बताना पड़ेगा ।”
“कौन हो तुम लोग ?” - वह फुसफुसाई ।
“हम तुम्हारे पति के बचपन के दोस्त हैं ।”
“तुम... तुम उसके दुश्मन हो ।”
विमल हंसा । उसकी हंसी में भी ऐसा कहर था कि युवती के शरीर में झुरझुरी दौड़ गई ।
“देखो ।” - फिर वह उसे समझाता हुआ बोला - “हमारी तुमसे कोई अदावत नहीं है । हम कतई नहीं चाहते कि हमारी वजह से तुम्हें कोई नुकसान पहुंचे । लेकिन ऐसा तभी हो सकता है जब तुम्हारा सहयोग नहीं हासिल हो । खामखाह ढीठ बनकर दिखाओगी तो जान से हाथ धो बैठोगी । अब फटाफट जो पूछा गया है, उसका जवाब दो । नम्बर बोलो । बोलो नम्बर !”
“मुझे कोई नम्बर नहीं मालूम ।” - वह तनिक दिलेरी से बोली ।
विमल ने दायीं तरफ दीवान पर एक बच्चे के लिए ही माकूल आकर के कम्बल से लिपटा एक बच्चा पड़ा था । उसके इर्द-गिर्द छोटी-छोटी गद्दियां पड़ी थी ताकि ऐसा न हो कि वह करवट ले और दीवान से नीचे आ गिरे ।
“तुम्हारा बच्चा है ?” - विमल ने पूछा ।
“हां ।” - वह फंसे स्वर में बोली ।
“लड़का ?”
“हां ।”
विमल दीवान के पास पहुंचा ।
उसने हौले से बच्चे के गाल को छुआ और उसे पुचकारा ।
“खूबसूरत है” - विमल बोला - “तुम्हारे जैसा । अच्छा हुआ शक्ल-सूरत के मामले में बाप पर नहीं गया ।”
“उससे परे हट जाओ ।” - युवती व्याकुल भाव से बोली - “वह जाग जाएगा ।”
“यह लो ।” - विमल फौरन दीवान से परे हट गया - “पीछे क्या है ?”
“बैडरूम ।”
“वहां चलो ।”
युवती को अपने आगे लगभग धकेलते हुए वे बैडरूम में पहुंचे । बैडरूम की एक विशाल खिड़की खुली थी और उसमें से मैरी ड्राइव की खूबसूरत इमारतों की चौपाटी तक फैली कतार तथा नीचे मोटर ट्रैफिक से भरी हुई अर्धवृताकार सड़क दिखाई दे रही थी ।
“नम्बर बता दो ।” - विमल सहज भाव से बोला, जैसे उससे तारीख पूछ रहा हो ।
“मैं नहीं जानती ।”
“यह तुम्हारा आखिरी फैसला है ?”
“मैं नहीं जानती ।”
“यह जवाब तुम यह समझकर दे रही हो कि इस मामले में तुम्हारी खामोशी तुम्हारी जान ले सकती है ।”
“जो बात मैं जानती ही नहीं, वो मैं बता कैसे सकती हूं ?”
“शायद जानती होवो ।”
“नहीं जानती ।”
“बेहतर ।”
विमल बैडरूम से बाहर निकल गया ।
वह वापिस लौटा तो उसकी गोद में कम्बल में लिपटा बच्चा था । बच्चे को वह अपनी छाती से लगायें बांहें हिला कर झुला रहा था और पुचकार रहा था ।
वह खुली खिड़की के समीप पहुंचा ।
एकाएक उसने बच्चे को थामे अपने दोनों हाथ खिड़की से बाहर निकाल दिये ।
“नम्बर बोलो ।” - वह कहर भरे स्वर में बोला - “नहीं तो बच्चे की खिड़की के बाहर फेंक दूंगा ।”
“ऐसा न करना ।” - युवती आतंकित भाव से बोली - “भगवान के लिए ऐसा न करना ।”
“नम्बर बोलो ।”
“मैं नहीं जानती ।”
“इसे मजाक मत समझो ।” - विमल आग्नेय नेत्रों से घूरता हुआ गुर्राया - “आखिरी बार पूछ रहा हूं । नम्बर बोलती है या मैं बच्चे को खिड़की से बाह फेंकू ?”
“मुझे नहीं मालूम । मुझे नहीं मालूम । मेरे बच्चे को...”
विमल ने बच्चे को छोड़ दिया ।
युवती के मुंह से जिबह होती बकरी जैसी चीख निकली । वह विक्षिप्तों की तरह हाथ फैलाए खिड़की की तरफ दौड़ी । विमल ने उसे पकड़कर वापिस न धकेल दिया होता तो वह जरूर अपने बच्चे के पीछे खिड़की से बाहर कूद गई होती । विमल के धक्के से वह पीछे फर्श पर जाकर गिरी ।
युवती उठी और चेहरे पर बड़े बहशी भाव लिए फिर खिड़की की तरफ लपकी ।
“मेरा बच्चा ! मेरा बच्चा !” - वह बिलख रही थी - “मेरा बच्चा !”
विमल ने उसकी कमर में दोनों हाथ डालकर उसे खिड़की से परे किया और फिर वापिस धकेला ।
वह फिर धड़ाम से फर्श पर गिरी ।
तभी बाहर ड्राइंगरूम से बच्चे के रोने की आवाज आई ।
रोती-बिलखती मां को जैसे सांप सूंघ गया ।
देवाराम ने सख्त हैरानी से पहले ड्राइंगरूम की ओर और फिर विमल की ओर देखा ।
“यह कैसी आवाज है ?” - वह बोला ।
“बच्चे के रोने की आवाज है ।” - विमल बोला - “और कैसी आवाज है !”
देवाराम ड्राइंगरूम में पहुंचा ।
बच्चा दीवान पर सही-सलामत मौजूद था । केवल उसक नन्हा-सा कम्बल और उसके नन्हे-नन्हे तकिए उसके इद-गिर्द नहीं दिखाई रे रहे थे ।
“बच्चा यहां कैसे पहुंच गया ?” - देवाराम मन्त्रमुग्ध स्वर में बोला ।
“पहुंच क्या गया” - विमल बोला - “शुरु से ही यहीं था । मैंने तो सिर्फ उसके दो तकियों को कम्बल में लपेटकर उठाया था ।”
“ओह !”
मां अभी भी सकते की हालत में उकडू-सी फर्श पर बैठी थी । शायद वह फैसला नहीं कर पर रही थी कि वह अपनी आंखों पर विश्ववास करे या अपने कानों पर ।
“इसे नम्बर नहीं मालूम ।” - देवाराम बोला ।
“इसे नम्बर शर्तिया मालूम है ।” - विमल बोला - “मुझे इस बात की पहले से गारण्टी न होती तो मैं भी यही समझता कि इसे नम्बर नहीं मालूम कि इसे नम्बर नहीं मालूम ।”
“अगर इसे नम्बर मालूम है तो तुम्हें बच्चा खिड़की से बाहर फेंकने को तैयार देखकर यह नम्बर बोली क्यों नहीं ?”
“क्योंकि इसे विश्वास नहीं था कि मैं बच्चे को सचमुच खिड़की से बाहर फेंक दूंगा ।”
“कहीं इसे मालूम तो नहीं था कि कम्बल में बच्चा नहीं था ?”
“तुम्हें मालूम था ?”
“नहीं ।”
“तो फिर इसे क्या जादू से मालूम होना था ?”
देवाराम खामोश हो गया ।
विमल ड्राइंगरूम में गया और बच्चे को उठा लाया ।
उसकी गोद में आते ही बच्चे ने रोना बन्द कर दिया ।
“अब यह नम्बर बताएगी ?” - देवाराम संदिग्ध भाव से बोला ।
“जरूर बताएगी ।” - विमल निश्चयात्मक स्वर में बोला - “अब इसे दिखाई जो दे गया है कि मैं बच्चे को खिड़की से बाहर फेंक देने जैसी बेरहमी दिखा सकता हूं ।”
युवती बरसों के बीमार की तरह उठकर अपने पैरों पर खड़ी हुई ।
विमल ने बच्चा उसकी तरफ बढाया ।
युवती ने भाव-विह्ल होकर बच्चे को अपनी गोद में लेने के लिए हाथ बढाए तो विमल ने बच्चे को उसकी पहुंच से परे कर लिया ।
“बच्चा आपका सलामत है ।” - विमल सर्द स्वर में बोला - “मैंने खिड़की से बाहर बच्चे को नहीं, उसके कम्बल में लिपटे तकिए को फेंका था । लेकिन अगली बार आप इतनी खुशकिस्मत नहीं होंगी । अगर आप अब भी खामोश रहीं तो मैं सचमुच बच्चे को खिड़की से बाहर फेंक दूंगा । एक सैकेण्ड में फैसला कीजिए । मुझे नम्बर बताना है या नीचे फुटपाथ पर से खील-खील हुई अपने बच्चे की हड्डिहयां-बोटियां बीननी हैं ?”
“मेरा बच्चा मुझे दे दो ।” - वह फुसफुसाई ।
“क्यों नहीं ! फौरन लीजिए । फौरन से पेश्तर लीजिए । लेकिन पहले नम्बर बोलिए । और इस बाद ‘मुझे नहीं मालूम’ जैसा कोई भी जवाब मजाक में भी आपकी जुबान से निकला तो समझ लीजिए, बच्चा गया । नाओ । नम्बर । नम्बर, प्लीज !”
“353465 ।” - वह कांपती आवाज में बोली ।
“गलत नम्बर बताकर आप वक्ती तौर पर तो अपने बच्चे की जान बचा लेंगी, लेकिन...”
“353465 ।” - उसने नम्बर दोहराया ।
“मुझे आपको बात पर विश्वास है । शुक्रिया । संभालिए अपना बच्चा ।”
युवती ने व्यग्रता से हाथ बढाए । विमल ने बच्चा उसे थमा दिया । युवती ने बच्चे को अपने कलेजे के साथ भींच लिया । उसने आंखे बन्द कर लीं और उसकी बन्द आंखों से झर-झर आंसू बहने लगे ।
“वैसे” - विमल बोला - “यह मेरे पास भी ऐसा खुश था जैसे अपने मामा की गोद में हो ।”
युवती ने आंखे खोलीं । उसने विमल की ओर देखा । आंसुओं से डबडबाई उसकी आंखों में हैरानी का भाव था ।
विमल मुस्कराया ।
“इतना तो आप समझती होंगी” - वह बोला - “कि हमारे यहां से कूच करते ही आपने बच्चे के बाप को फोन करके सारा वाकिया नहीं कह सुनाना है ।”
“फोन खराब है ।” - वह बोली ।
“इस वक्त खराब है । लेकिन जरूरी नहीं कि बाद में भी खराब रहे । और फिर बड़ी इमारत में यह इकलौता फोन तो होगा नहीं । इकलौता फोन हो भी तो आप हमारे पीठ फेरते ही खुद भी तो टैक्सी पर सवार होकर कहीं भी पहुंच सकती हैं ।”
“मैं कहीं नहीं जाऊंगी ।”
“आप जा सकती हैं । लेकिन हम भी वापिस लौट सकते हैं । आपके पास । आपके बच्चे के पास ।”
युवती बच्चे के ऊपर यूं दोहरी हो गई जैसे उसे विमल की परछाई से भी बचाना चाहती हो ।
“मैं कहीं नहीं जाऊंगी ।” - वह बोली - “मैं कुछ नहीं करूंगी ।”
“आई बिलीव यू । थैंक्स ।”
दोनों फ्लैट से बाहर निकल गए ।
“तुमने कर दिया होता ?” - कार में देवाराम ने विमल से पूछा ।
“क्या ?” - विमल बोला ।
“तुम जानते हो क्या ? वो बच्चा । उसे फेंक दिया होता तुमने खिड़की से बाहर ?”
“हमारा मतलब हल हो गया या नहीं ?”
“हो तो गया लेकिन फर्ज करो, न होता । फर्ज करो, वह अब भी न बताती नम्बर ।”
“उसने बताया है ।”
“फर्ज करो, न बताती, तो तुमने कर दिया होता बच्चे का काम ?”
विमल ने उत्तर न दिया ।
“जवाब दो ।” - देवाराम ने जिद की ।
“नहीं ।” - विमल बोला ।
“सच कह रहे हो ?”
“हां ।”
“चाहे एक इसी बात पर नीलम की जान चली जाती ?”
विमल घूरकर उसे देखा ।
“नीलम की जान चली जाती क्या मतलब ?” - वह बोला - “उसकी जान तो जा चुकी है ।”
“अगर न जा चुकी होती और इसी बात पर नीलम की जान निर्भर होती, तो भी क्या तुम बच्चे को न फेंकते ?”
“नहीं ।”
“जानकर खुशी हुई ।” - देवाराम गहरी सांस लेकर बोला - “मेरे मन में तुम्हारे लिए सम्मान कई गुणा ज्यादा बढ गया है ।”
विमल मुस्कराया ।
“मैं तुम्हें नीलम से मिलवाऊंगा ।” - देवाराम दृढ स्वर में बोला ।
“क्या ?” - विमल अचकचाकर बोला - “तुम मुर्दे को जिंदा कैसे कर दोगे ?”
“शायद वह न मरी हो !”
“लेकिन तुम्हारे भाई तो कहते हैं - तुम्हारे भाई क्या, तुम खुद भी कहते हो कि नीलम...”
“हम किसी दूसरे की बात पर विश्वास करके ऐसा कह रहे हैं । हो सकता है, हमारे भेदिये से भूल हुई हो । अगर नीलम मर, चुकी होती तो ‘कम्पनी’ को उसकी लाश भेज देने से क्या गुरेज था ?”
“बकौल तुकाराम, वे लाश को पहले ही ठिकाने लगा चुके थे ।”
“तो वे ऐसा कह सकते थे । नीलम को जिन्दा बताने में उन्हें कौन-सा अतिरिक्त फायदा है जो उसे मर गया करार देने से उन्हें न होता ?”
“दोस्त, तुम मेरे मन में एक नई उम्मीद जगा रहे हो, एक नामुमकिन उम्मीद बंधा रहे हो तुम मुझे ।”
देवाराम खामोश रहा ।
“फिर तो मुझे” - विमल धीरे से बोला - “कम्पनी’ के खिलाफ छेड़ा अपना जिहाद बन्द कर देना चाहिए ।”
“नहीं, नहीं ।” - देवाराम हड़बड़ाकर बोला - “उसे तो उल्टे दोबाला कर देना चाहिए । शायद बेपनाह मार खा चुकने के बाद ही बखिया यह कबूल करेगा कि नीलम जिन्दा है और उसे तुम्हारे हवाले करेगा ।”
“देवा !”
“हां ।”
“आज तुम बहुत रहस्मयी बातें कर रहे हो ।”
“छोड़ो । एक बात बताओ ।”
“पूछो ।”
“जोशी की बीवी को यूं आजाद छोड़कर तुमने अच्छा किया ? तुम्हें कैसे विश्वास है कि वह जोशी को सचेत करने की कोशिश नहीं करेगी ? अगर उसने जोशी को बता दिया कि तुम जबरन उससे नम्बर कुबुलवा चुके हो तो जोशी कम्प्यूटर पर उस नम्बर को ही कैंसिल कर देगा । फिर इतनी शिद्दत से जाना वह नम्बर तुम्हारे किस काम का रह जाएगा ? उल्टे वे लोग जान जाएंगे कि तुम उनके कौन-से पहलू को अपना अगला निशाना बनाने की फिराक में हो और फिर ऐसे सावधान हो जाएंगे कि तुम्हारा कफ परेड के पास भी फटकना मौत को दावत देना होगा ।”
“तुम्हारी तमाम बातें सही हैं लेकिन मुझे विश्वास है कि जोशी की बीवी खामोश बैठेगी ।”
“क्यों विश्वास है ?”
“क्योंकि मुझे इनसानी फितरत पर विश्वास है । क्योंकि मेरा वास्ता जोशी की बीवी की सूरत में एक इनसान की बच्ची से था, बखिया के ओहदेदारों जैसे किसी हैवान से नहीं । जैसे मैं बच्चे को खिड़की से नीचे नहीं फेंक सकता था, वैसे ही वह भी जोशी को आगाह करके बच्चे की जान को फिर से खतरे में नहीं डाल सकती ।”
देवराम खामोश हो गया ।
लेकिन उसकी सूरत बता रही थी कि वह आश्वस्त नहीं हुआ था ।
***
जीवाराम को होटल के तहखाने में बखिया के सामने पेश किया गया ।
एक तो वह तहखाना ही बुरे लक्षणों की तरफ इशारा था, ऊपर से जोजो वहां मौजूद था ।
और रही सही कसर खुद बखिया की मौजूदगी ने पूरी कर दी थी ।
बखिया और जोजो के अतिरिक्त वहां मौजूद लोगों में से जॉन रोडरीगुएज, आफताब खान और इकबालसिंह को वह पहचानता था । उनके अलावा वहां ओहदेदार केवल एक - मैक्सवैल परेरा - ही था, जिसकी सूरत से जीवाराम वाकिफ नहीं था ।
प्यादे वहां कई थे ।
परेरा जीवाराम की मुकम्मल तलाशी ले चुका था । उसे यह देखकर तनिक मायूसी हुई थी कि जीवराम के पास से न हेरोइन बरामद हुई थी और न सोने के बिस्कुट ।
परेरा बखिया को बता चुका था कि चैम्बूर में शान्ताराम का कोई भी भाई उन्हें नहीं मिला था अलबत्ता वह वहां बड़ा सख्त पहरा बिठा आया था । किसी के भी वहां कदम रखते ही उनकी गिरफ्त में आ जाना लाजमी था ।
शान्ताराम के तुकाराम सहित तीन भाईयों की अपने घर से गैरहाजिरी को उन्होंने महज इत्तफाक माना हो, ऐसा नहीं था । बखिया इस सम्भावना को भी नजर अन्दाज नहीं कर रहा था कि शायद शान्ताराम के भाईयों का कोई भेदिया उनके कैम्प में हो और उन्हें आने वाले खतरे से आगाह कर दिया हो ।
बखिया कुछ क्षण खा जाने वाली निगाहों से जीवाराम को घूरता रहा ।
“लगता है” - फिर वह बोला - “शान्ताराम और उसके कुनबे की मौत से तुम बाकी भाईयों ने कोई सबक नहीं लिया है ।”
“अब” - जीवाराम दबे स्वर में बोला - “क्या भूल हुई, बखिया साहब ?”
“बखिया के दुश्मन का मददगार बनने का अंजाम जानता है ?”
“जानता हूं ।”
“तेरे भाई भी जानते हैं ?”
“वे भी जानते हैं ।”
“फिर भी तुम लोगों ने सोहल को पनाह दी ?”
“यह हम पर झूठा इल्जाम है । सोहल से हमारा कोई वस्ता नहीं ।”
“वह आज सुबह चैम्बूर में तुम लोगों के घर पर नहीं था ?”
“हरगिज भी नहीं था । हमारे घर पर उसका क्या काम ? वह क्या कोई हमारे सगे वाला है ?”
“हरामजादो” - बखिया एक ही गाली में उसके वहां से अनुपस्थित भाईयों को भी लपेटता हुआ बोला - “उसे बखिया के खिलाफ सिर उठाता पाकर और एकाध छोटी-मोटी कामयाबी हासिल करता पाकर तुम उसे अपना सगेवाला बनाने की कोशिश कर रहे हो ।”
“यह एक झूठा और बेबुनियाद इल्जाम है जो कि...”
“बकवास बन्द !” - बखिया दहाड़ा ।
जीवाराम ने फौरन होंठ भींच लिए ।
“आज सुबह सोहल ने ‘कम्पनी’ में जो टेलीफोन कॉल की थी वह उस टेलीफोन से हुई थी जो तुम्हारे घर में लगा हुआ है । तुम लोगों ने उसे अपने घर पर पनाह नहीं दी हुई तो ऐसा क्योंकर मुमकिन हुआ ?”
“मैं इस बारे में क्या कह सकता हूं । मैं तो सिर्फ इतना जानता हूं कि सोहल ने हमारे घर पर है और न हमारे टेलीफोन तक उसकी पहुंच है ।”
“झूठ ! बकवास !”
“बखिया साहब !” - रोडरीगुएज धीरे से बोला - “यह शांताराम का भाई है । यह क्या अपनी जुबान से कबूल करेगा कि सोहल इन लोगों के घर में है ?”
“करेगा । जरूर करेगा । क्यों नहीं करेगा ? यह जानता है नहीं क्या कि यह कहां खड़ा है और कौन इससे सवाल कर रहा है ?”
रोडरीगुएज चुप हो गया । उसे जीवाराम से ऐसी जवाबतलबी वक्त की बरबादी लग रही थी ।
“आज दिल्ली क्या करने गया था ?” - बखिया फिर अपनी कड़कती आवाज में जीवाराम से सम्बोधित हुआ ।
“काम था ।” - जीवाराम धड़कते दिल से बोला ।
“कैसा काम था ?”
“धन्धे से ताल्लुक रखती एक पार्टी से मिलना था ।”
“तो मिला क्यों नहीं ? उल्टे पांव लौट क्यों आया ?”
“पार्टी ने काबुल से आना था । दिल्ली एयरपोर्ट पर ही मुझे उसके एक एजेण्ट का सन्देशा मिल गया था कि उसका प्रोग्राम तब्दील हो गया था, वह काबुल से तेहरान चला गया था और दो हफ्ते तक दिल्ली वापिस नहीं आने वाला था । मैं वहां क्या करता ? मैं उल्टे पांव लौट आया ।”
“जवाब तूने हर बात का पहले से ही तैयार करके रखा मालूम होता है ।”
जीवाराम खामोश रहा ।
“सोहल नहीं गया था तेरे साथ दिल्ली ?”
“नहीं गया था । मेरा उसका कोई साथ नहीं । मेरा उसका कोई वास्ता नहीं । अगर वह दिल्ली मेरे साथ गया होता तो लौटा भी मेरे साथ न होता ?”
“वह वहां माल ठिकाने लगा रहा होगा ।”
“कैसा माल ?”
“देखो ! देखो हरामजादे को !” - बखिया अपने साथियों की तरफ हाथ फैलाता हुआ बोला - “पन्द्रह लाख की हेरोइन डकार गया, पन्द्रह लाख के गोल्ड बिस्कुट हड़प गया और पूछता है, कैसा माल ?”
कोई कुछ न बोला ।
“पटवर्धन और चन्द्रगुप्त के लिंक की तुम लोगों को खबर कैसे लगी ?”
“बखिया साहब !” - जीवाराम विनीत भाव से बोला - “आप मुझसे बहुत बेमानी सवाल कर रहे हैं । आपकी कोई बात मेरी समझ में नहीं आ रही है ।”
“हर बात समझ में आएगी । कैसे नहीं आएगी । जरूर आएगी । देख लड़के - क्या नाम है तेरा ?”
“जीवाराम ।”
“जीवाराम ! देख जीवाराम ! इस वक्त बखिया बहुत भन्नाया बैठा है । वह टालमटोल और लाग लपेट सुनने के मूड में नहीं है । अपनी और अपनी भाईयों की खैरियत चाहता है तो गौर से मेरी बात सुन ।”
“फरमाइये ।”
“शान्ताराम से मेरी कोई जाती अदावत नहीं थी । उसका कत्ल एक बिजनेस था । वह बखिया के खिलाफ सिर उठा रहा था । तुम लोग बखिया की छत्रछाया से अलग रहकर स्मगलिंग का धन्धा खड़ा करने की कोशिश कर रहे थे जो अपने आप में बखिया के निजाम के लिए एक चैलेंज था । बखिया एक शान्ताराम को यूं अपनी खिलाफत में सिर उठा लेने देता तो पलक झपकते दस शान्ताराम खड़े हो जाते, सौ शान्ताराम पर निकालने लगते । इसीलिए ऐसे इरादे रखने वाले लोगों को और तुम्हारे भाइयों को सबक देने के लिए, उनकी औकात दिखाने के लिए, शान्ताराम का कत्ल जरूरी हो गया था । समझा ?”
जीवाराम ने सहमति में सिर हिलाया ।
“बखिया चाहता तो तभी तुम पांचों भाइयों को जहन्नुम रसीद कर सकता था । बखिया चाहता तो तुम्हारे कुनबों में तुम्हारी चिताओं को कोई आंच देने वाला बाकी न बचता । लेकिन तुम चार भाई जिन्दा हो । तुम्हारे बीवी बच्चे जिन्दा हैं । क्यों जिन्दा हैं ? इसलिए जिन्दा हैं क्योंकि बखिया नाहक खून बहाना पसन्द नहीं करता । तुकाराम तेरे से छोटा है कि बड़ा ?”
“बड़ा है ।”
“यह बात बखिया तुकाराम को समझाना चाहता था लेकिन वह अभी बखिया को मिल नहीं रहा इसलिए तुझे कह रहा है । बखिया की आज भी तुम लोगों से कोई जाती अदावत नहीं । बखिया के दुश्मन को पनाह देकर, उसके मददगार बन कर तुम लोगों ने जाती अदावत का जो माहौल पैदा कर दिया है, बखिया तेरी नौजवानी पर तरस खाकर उसे नजरअन्दाज करने को तैयार है । लेकिन ऐसा एक ही शर्त पर हो सकता है ।”
“कौन सी शर्त ?”
“यह शर्त कि तुम लोग सोहल को बखिया के हवाले करो । तुम्हारे इस काम को बखिया तुम्हारे नाकाबिलेमाफी गुनाहों की तलाफी का दर्जा देगा और तुम सबकी जानबख्शी कर देगा । बदले में तुम लोग बखिया के कहर से तो महफूज रहोगे ही, साथ ही तुम्हें बोनस के तौर पर बखिया की दोस्ती भी हासिल होगी । कसम है बखिया को अपने पुरखों के खून की, ऐसी नर्मदिली उसने आज तक किसी के लिए नहीं दिखाई । जीवाराम, इस मौके को कैश कर और जल्दी बोल, सोहल कहां है ?”
“मुझे नहीं मालूम ।”
“वह इस वक्त कहां है, यह शायद तुझे न मालूम हो, क्योंकि तू दिल्ली गया हुआ था, लेकिन कहीं भी वह है वहां से वह लौटकर कहां आएगा, यह तुझे जरूर मालूम होगा ।”
“मुझे नहीं मालूम ।”
सब सांस रोके बखिया की शक्ल देख रहे थे । सबको लग रहा था कि उसके सब्र का पैमाना अब छलकने ही वाला था ।
“तेरे भाई कहां हैं ?” - बखिया बोला ।
“घर पर होंगे ।” - जीवाराम बोला ।
“चैम्बूर में ?”
“हां ।”
“वे वहां नहीं हैं ।”
“नहीं है तो कहीं काम से गए होंगे, आ जायेंगे ।”
“तुम लोगों का कोई और भी घर है ?”
“और घर ?”
“हां ।”
“नहीं तो ।”
“कोई और ठीया ठिकाना ?”
“ऐसा कोई नहीं जिससे ‘कम्पनी’ नावाकिफ हो ।” - अमीरजादा आफताब खान बोला ।
“लेकिन कहीं तो वो होंगे ।” - बखिया अपने एक हाथ का घूंसा दूसरे हाथ की हथेली पर जमाता हुआ बोला - “और यह हो नहीं सकता कि उस जगह की इसे खबर न हो । आखिर इसे भी तो उन्हीं के पास जाना है ।”
बात नाजायज थी लेकिन बखिया के मौजूदा मूड में उससे बहस कौन कर सकता था ।
“तो तू नहीं बताएगा” - बखिया बोला - “कि सोहल कहां है ?”
“मैं नहीं जानता, सोहल...”
“वह कबूल भी नही करेगा कि सोहल तेरे भाइयों की पनाह में है ?”
“वह हमारी पनाह में नहीं है ।”
“तुम उसके मददगार भी नहीं हो ?”
“नहीं ।”
“आज सुबह इत्तफाकिया भी वह तुम्हारे घर पर नहीं था ?”
“नहीं ।”
“जोजो को जानता है ?”
“जानता हूं ।”
“इसकी खससियात से भी वाकिफ है ?”
“हां ।” - एकाएक जीवाराम का स्वर उसके कण्ठ में फंसने लगा ।
“तमाम खसूसियात से शायद न वाकिफ हो तू । क्योंकि अपनी तमाम खसूसियात से तो खुद जोजो वाकिफ नहीं । मैं इसकी एक खासियत बताता हूं तुझे । उस खासियत को कमाल का दर्जा हासिल है । और जब बखिया कहता है वह कमाल है तो वह कमाल ही है ।”
जीवाराम ने डलझनपूर्ण नेत्रों से बखिया को देखा ।
“चाकू चाले के हुनर में” - बखिया बोला - “जोजो से ज्यादा हिन्दोस्तान में भी इसके मुकाबले का कोई दूसरा चाकूबाज मिल जाये तो मुझे हैरानी होगी । जो कोई भी जोजो का कमाल देखता है, दंग रह जाता है । उंगली दबा लेता है दांतों तले । क्यों साहबान, बखिया गलत बोला ?”
“कतई नहीं ।” - कई स्वर एक साथ बोले ।
“जोजो ! पहले शान्ताराम के भाई को अपना चाकू दिखा और फिर हमें उसका कमाल दिखा ।”
जोजो मुस्कराया । उसने अपनी जेब से एक चाकू निकाला । उसका खटका दबाकर उसने इसे खोला । चाकू का फल कोई साढे पांच इंच लम्बा था और उसकी धार ब्लैड पैनी थी । उसने चाकू जीवाराम को आंखों के सामने लहराया ।
“जोजो को कहा जाये” - बखिया प्रशंसात्मक स्वर में बोला - “कि बीस तहों में मुडे़ कागज की आठ तहें कट जायें और नौवीं पर हर्फ तक न आये, यह ऐसा कर सकता है । जोजो की कलाई की मामूली जुम्बिश आदमी की सिर्फ चमड़ी पर लकीर बना सकती है या उसके गोश्त को हड्डी तक काट सकती है । बन्द गोभी छीलने की तरह यह आदमी के जिस्म में गोश्त की परतें उतार सकता है । बनियायन पहनता है ?”
“हां ।” - उस प्रत्यक्षत: निरर्थक प्रश्न के उत्तर में जीवाराम यन्त्रचालित स्वर में बोला ।
“जोजो अभी तेरी छाती पर अपने चाकू का वार करेगा तो देख लेना तेरी बनियान तक तेरे सारे कपड़े कटे होंगे लेकिन तेरे जिस्म पर अगर तुझे इसके चाकू की एक खरोंच भी दिखाई दी तो मैं इसे उल्टा टांग दूंगा ।”
इससे पहले कि जीवाराम कुछ समझ पाता, जोजो ने बिजली की फुर्ती से उस पर चाकू का वार किया ।
जीवाराम हक्का बक्का-सा अपने कोट में, कोट के नीचे कमीज में और कमीज के नीचे बनियान में पैदा हुई झिरी को देखने लगा ।
अपने जिस्म पर उसे चाकू छूता हुआ भी महसूस नहीं हुआ था ।
“बोल ।” - बखिया बोला - “जोजो पास हुआ या फेल ?”
“पास ।” - जीवाराम के मुंह से निकला ।
“बढिया । अब ऐसा ही वार यह तेरे जिस्म पर करेगा लेकिन अगर तेरी पसली से इसका चाकू टकराया या तेरी पसली तक तेरा गोश्त न कटा तो तब भी इसकी खैर नहीं ।”
जोजो दूसरा बार भी यूं हुआ जैसे बिजली चमककर गायब हो गयी हो ।
जीवाराम के मुंह से एक चीख निकली । वह हक्का-बक्का सा अपने कपड़ों पर एकाएक बह आये खून को देखने लगा । खून देखकर ही वह कह सकता था कि वार उसके जिस्म को काट गया था अन्यथा अभी तक उसे दर्द की अनुभूति नहीं हुई थी ।
दूसरे वार ने उसके कपड़ों में कोई नयी झिरी नहीं बनायी थी । दूसरा वार पहले वार वाली जगह के ऐन ऊपर हुआ था ।
“बोटी-बोटी काट डालो हरामजादे की !” - बखिया यूं दहाड़ा कि तहखाने की दीवारें कांप गयीं - “गोश्त का एक छिछड़ा न बचे कुत्ते के पिल्ले की हडिडयों पर ।
जोजो ने खुश होकर यू जोर का अट्टहास किया जैसे उसे अपना पसन्दीदा काम मिल गया हो । उसने चाकू को जीवाराम की आंखो के सामने चमकाया ।
आतंकित जीवाराम तुरन्त दो कदम पीछे हटा । लेकिन तभी उसके पीछे खड़े प्यादों ने उसे दबोच लिया । उन्होंने आनन-फानन उसके जिस्म के सारे कपड़े उधेड़ दिये और उसकी दोनों कलाइयां उसकी पीठ पीछे बांध दीं । फिर उसके दोनों टखने हुक के साथ उल्टा लटका दिया गया ।
जोजो ने उसके उल्टे लटके जिस्म को यूं हरकत दी जैसे वह बॉक्सरों का पंचिंग बैग हो ।
जीवाराम का उल्टा लटका शरीर घड़ियाल के पैन्डुलम की तरह से दायें-बायें झूलने लगा ।
फिर चाकू का एक नपा-तुला वार जीवाराम के जिस्म पर हुआ ।
वह जोर से चीखा ।
फिर वार ।
फिर चीख ।
फिर वार ।
फिर चीख ।
जीवाराम तड़प रहा था और गला फाड़-फाड़कर चीख रहा था लेकिन उसकी हौलनाक चीखों की आवाज तहखाने की साउन्डप्रफ दीवारों से टकराकर लौट आती थी ।
“चेहरे पर वार न हो ।” - उसकी चीखों के बीच में बखिया की चेतावनी गूंजी - “वर्ना इसके भाई इसकी लाश कैसे पहचानेंगे ?”
जोजो का चाकू वाला हाथ हवा में लहराता रहा ।
जीवाराम की ह्रदय-विदारक चीखों से तहखाना गूंजता रहा - गूंजता रहा ।