मंगलवार ।
कत्ल का हल पेश करने के लिये मैजिस्ट्रेट फर्स्ट क्लास छाया प्रजापति की बारी का दिन ।
छाया प्रजापति ने नाक से अपना चश्मा उतारकर रूमाल से अच्छी तरह से रगड़ा और फिर उसे वापिस नाक की फुंगी पर टिका लिया । अपने चश्मे में से उसने अपने श्रोताओं पर निगाह डाली ।
कत्ल का जो हल उसने निकाला था, उससे वो पूर्णतया सन्तुष्ट थी । उसकी निगाह में उसकी थ्योरी परफेक्ट थी ।
“आर यू रेडी, मैडम ?” - सभापति आगाशे बोला ।
छाया प्रजापति ने बड़ी गम्भीरता से सहमति में सिर हिलाया, अपने नोट्स के पन्ने फड़फड़ाये और फिर बोलना आरम्भ किया - “सभापति महोदय, केस का हल तो मैंने निकाल किया है लेकिन हकीकत ये है कि उस हल ने मुझे बहुत डिस्टर्ब किया है । पिछली सारी रात मैं सो न पायी और मुझे ऐसा महसूस होता रहा कि क्राइम क्लब के सामने अपनी थ्योरी पेश करने की नहीं, बतौर मैजिस्ट्रेट किसी मुजरिम को फांसी की सजा सुनाने की बदमजा जिम्मेदारी मेरे सिर पर थी ।”
“यानी कि आप केस का हल निकाल चुकी हैं और अपराधी को पहचान चुकी हैं ?”
“जी हां ।” - छाया दृढ स्वर में बोली ।
“वैरी गुड !”
“मेरी राय में ये केस प्रेम तिकोन का है । प्रेम तिकोन में दो ही सम्भावनायें होती हैं । एक पुरुष दो स्त्रियां । या एक स्त्री दो पुरुष । यानी कि तिकोन के दो कोने तो एक तरह से पूर्व-निर्धारित हैं । इन दो कोनों में से एक पर पुरुष का और दूसरे पर स्त्री का होना लाजमी है । बाकी बचे तीसरे कोने पर या एक पुरुष हो सकता है या एक स्त्री । मेरी थ्योरी के प्रेम तिकोन के एक कोने पर तो निर्विवाद रूप से दुष्यन्त परमार विराजमान है । दूसरे कोने पर, जैसा कि मैंने पहले ही कहा, एक स्त्री का होना अवश्यम्भावी है और तीसरे कोने पर स्त्री या पुरुष कोई भी हो सकता है । अपनी तफ्तीश द्वारा मैं ये स्थापित कर चुकी हूं कि तीसरे कोने पर स्त्री का नहीं, पुरुष का दखल है ।”
“यानी कि” - मिस्ट्री राइटर अशोक प्रभाकर बोला - “आपका प्रेम तिकोन एक स्त्री और दो पुरुषों से बना है ?”
“जी हां । यहां मैं एक बात स्पष्ट कर देना चाहती हूं कि मैं जरूरी नहीं मानती कि प्रेम तिकोन प्रेम करने वालों द्वारा ही बनता है । जरूरी नहीं कि ये तिकोन ‘पति-पत्नी’ और वो वाला हो या प्रेमी-प्रेमिका और अन्य प्रेमी या अन्य प्रेमिका वाला हो । तिकोन का ‘वो’ वाला तीसरा कोना कोई बाप हो सकता है, कोई भाई हो सकता है, कोई बेटा हो सकता है, कोई बेटी हो सकती है, कोई भी हो सकता है ।”
“बड़ी अनोखी बात कह रही हैं आप । मैं तो समझता हूं कि प्रेम तिकोन प्रेमी युगल और खलनायक या खलनायिका का ही बनता है ।”
“फिल्मों में । या शायद आपके उपन्यासों में ।”
“ठीक कह रही हैं आप । तो आपके प्रेम तिकोन में आशिकी के अलावा किन्हीं और समाजी रिश्तों का दखल है ?”
“जी हां ।”
“वैरी इन्टरेस्टिंग ।”
“आफकोर्स ।” - वो एक क्षण खामोश रही और फिर बोली - “केस का हल मुझे वर्तमान केस से मिलते-जुलते एक ऐसे केस में सूझा था, साहबान, जो कि कुछ अरसा पहले मेरी अदालत में ट्रायल के लिये पेश हुआ था । उस केस ने अखबारों में बहुत प्रसिद्धि प्राप्त की थी और अभी मेरे याद दिलाने पर, मुझे यकीन है कि, वो आप सबको याद आ जायेगा । वो केस कुछ यूं था कि गोल्फ क्लब के एस.के. कोटरू नाम के एक सदस्य के पास क्लब के पते पर एक चांदी के गिलास और फ्रूट साल्ट के एक नये ब्रांड का फ्री गिफ्ट डाक से आया था । कोटरू ने उसे किसी द्वारा किया गया मजाक समझा था और उन दोनों चीजों को पार्सल और रैपर समेत घर ले जाकर रख छोड़ा था । रैपर उसने इस उम्मीद में नहीं फेंका था कि देर-सवेर वो उस जोकर को पहचानने में काम आयेगा जिसने कि वो अजीबोगरीब गिफ्ट उसे भेजा था । कुछ दिन बाद उसके पड़ोस की एक औरत पेट दर्द की शिकायत करती उसके पास आयी और पूछा कि क्या उसके पास उस अलामत की कोई गोली-वोली थी । तब कोटरू को फ्रूट साल्ट की वो बोतल याद आयी । उसने फ्रूट साल्ट के दो चम्मच पानी में घोले, जायका देखने के लिये एक घूंट खुद पिया और बाकी उस औरत को पीने को दे दिया । नतीजा ये हुआ कि वो औरत अपने फ्लैट में जाकर पांच मिनट तड़पी और कोई डाक्टरी इमदाद हासिल हो पाने से पहले ही मर गयी । कोटरू ने क्योंकि एक ही घूंट पिया था इसलिये वो मरने से तो बच गया लेकिन तबीयत उसकी भी बहुत खराब हुई । बाद में गोल्फ क्लब के ही एक अन्य, सत्यप्रकाश नामक सदस्य को पुलिस ने गिरफ्तार किया था जिस पर कि मेरी अदालत में मुकद्दमा चला था ।”
“मुझे उस केस की याद है ।” - रुचिका बोली - “मैंने ही उसे अपने अखबार के लिए कवर किया था ।”
“ट्रायल के दौरान” - सहमति में सिर हिलाती छाया आगे बढी - “जो कहानी सामने आयी थी वो ये थी कि सत्यप्रकाश कोटरू से सख्त नफरत करता था और कुछ महीने पहले एक बार वो क्लब में ही उससे मारपीट भी कर चुका था । इसके अलावा एक साल पहले भी क्लब के योगेश पाल नामक एक सदस्य की डाक से यूं ही चांदी के गिलास और फ्रूट साल्ट का गिफ्ट प्राप्त हुआ था और वो भी उस फ्रूट साल्ट को पीने से ही मरा था । यानी कि अपने दुश्मनों का पत्ता साफ करने का सत्यप्रकाश का ये पसन्दीदा तरीका था । तब ये तथ्य भी सामने आया था कि कोटरू वाली घटना से कुछ ही अरसा पहले सत्यप्रकाश ने एक ऐसी लड़की से शादी की थी जिसकी वास्तव में योगेश पाल से शादी होने वाली थी । उस लड़की को हासिल करने के लिये ही उसने योगेश पाल की हत्या की थी क्योंकि योगेश पाल के होते वो लड़की उसकी होने वाली नहीं थी । जिन लोगों को इस केस की याद है, उन्हें ये भी याद होगा कि मैंने सत्यप्रकाश को फांसी की सजा के काबिल मानकर केस को सेशन सुपुर्द किया था । सेशन कोर्ट ने उसे फांसी की ही सजा सुनायी थी । लेकिन हाईकोर्ट ने उसे इनसेनिटी की प्ली पर बरी कर दिया था ।”
कई सिर सहमति में हिले ।
“साहबान, हमारा केस भी इस सत्यप्रकाश वाले केस से मिलता-जुलता ही है । दोनों केसों में कत्ल का हथियार जहर है और उसको अपनी मंजिल तक पहुंचाने के लिये डाक का इस्तेमाल किया गया है । दोनों ही केसों में गलत शख्स मारा गया । दोनों ही केसों में केस के हल में पार्सल के रैपर ने मेजर रोल अदा किया । इसी बात ने मुझे ये सोचने की प्रेरणा दी कि हो न हो, हमारा केस भी प्रेम तिकोन पर आधारित था । मैं इसी लाइन पर आगे बढी तो प्रेम तिकोन की तसदीक हो गयी - इस फर्क के साथ कि मेरी थ्योरी वाले प्रेम तिकोन में प्रेमी युगल और खलनायक या खलनायिका वाला दखल नहीं था । अपनी इसी प्ररेणा की वजह से मैंने केस का मुकम्मल पोस्टमार्टम सत्यप्रकाश वाले केस की छत्रछाया में किया । पिछले केस में योगेश पाल इसलिये मरा क्योंकि जिस लड़की से वो शादी करना चाहता था, हत्यारा उस लड़की से उसकी शादी नहीं होने देना चाहता था । तब मेरा ये सोचना स्वाभाविक था कि हमारे वाले केस में भी जरूर शादी में अड़ंगे का ही दखल था ।”
“मैजिस्ट्रेट साहिबा” - वकील दासानी तीव्र विरोधपूर्ण स्वर में बोला - “आपका इशारा कहीं मेरी बेटी की तरफ तो नहीं ।”
“मुझे” - छाया सख्ती से बोली - “क्लब के मेम्बरान के सामने अपनी थ्योरी पेश करने का पूरा अख्तियार है ।”
“लेकिन किसी पर व्यक्तिगत आक्षेप करने का, किसी पर झूठा इलजाम लगाने का अख्तियार आपको नहीं है ।”
“मैंने अभी किसी पर कोई इलजाम तो लगाया ही नहीं है । मेरी थ्योरी को मुकम्मल तौर पर सुने बिना आप कैसे ये फैसला कर सकते हैं कि ये इलजाम झूठा है ?”
“लेकिन...”
“आप तो कानून के ज्ञाता हैं, दासानी साहब । सौ बार आप मेरी ही अदालत में ये एतराज उठा चुके हैं कि सरकारी वकील आपकी पूरी जिरह सुने बिना ही उससे नतीजे निकाल रहा है । अब इस वक्त वही काबिलेएतराज हरकत क्या आप नहीं करके दिखा रहे ?”
दासानी ने बेचैनी से पहलू बदला ।
“और क्या कल शाम हमारे में ये फैसल नहीं हो चुका कि केस का हल पेश करने की कोशिश में कुछ भी निसंकोच कहा जा सकता है, किसी का भी निसंकोच नाम लिया जा सकता है ? क्या हम सब पहले ही इस बात पर अपनी सहमति नहीं जाहिर कर चुके कि हमारी क्लब की मीटिंगों में जो कुछ भी कहा-सुना जाता है, वो बिना किसी पूर्वाग्रह और दुर्भावना के कहा-सुना जाता है ?”
“मिस्टर दासानी” - आगाशे बोला - “मैडम ठीक कह रही हैं ।”
निगाहों से छाया और आगाशे दोनों पर भाले-बर्छियां बरसाते हुए दासानी खामोश हो गया ।
“प्रोसीड, मैडम ।” - आगाशे बोला ।
“तो” - छाया बोली - “मेरे तिकोन का दूसरा कोण भी अब स्थापित हो गया है । पहला दुष्यन्त परमार और दूसरा विभा दासानी जिससे कि दुष्यन्त परमार शादी करना चाहता है । सत्यप्रकाश वाले केस के जेरेसाया अब तीसरे कोण का अन्दाजा सहज ही लगाया जा सकता है । तीसरे कोण पर, साहबान, कोई ऐसा शख्स होना चाहिये जो कि ये शादी नहीं होने देना चाहता ।”
“ये तो” - अभिजीत घोष दबे स्वर में बोला - “वैसी सिचुएशन हो गयी जैसी कल दासानी साहब ने बयान की थी ।”
“आप गलत नहीं कह रहे ।” - छाया बोली - “चाहे उन्होंने घोषित करके ऐसा नहीं किया था लेकिन वास्तव में कल दासानी साहब ने भी एक प्रेम तिकोन ही पेश की थी । उस तिकोन के दो कोण तो मेरे वाले ही थे लेकिन तीसरा कोण जुदा था । उसका तीसरा कोण दुष्यन्त परमार की पत्नी पार्वती परमार थी जो कि, कल ही स्थापित हो गया था कि, हत्यारी नहीं हो सकती । रुचिका केजरीवाल के बयान से ये भी स्थापित हो गया था कि पार्वती परमार के चरित्र का जो खाका मिस्टर दासानी ने खींचा था, वो गलत था, बेबुनियाद था । पार्वती परमार कोई लालची, दौलत की दीवानी औरत नहीं है । वास्तव में वो एक शरीफ और नेकबख्त औरत है, कत्ल करना जिसके वश की बात नहीं । दासानी साहब ने कत्ल का जो उद्देश्य बयान किया था, उससे भी मुझे इत्तफाक नहीं । इनकी निगाह में कत्ल का उद्देश्य आर्थिक लाभ था । मेरी थ्योरी के मुताबिक ये कत्ल किसी लाभ की खातिर नहीं किया गया । ये कत्ल एक जरूरत के तहत किया गया । कत्ल कभी जायज करार नहीं दिया जा सकता लेकिन कभी-कभी ऐसे हालात पैदा हो जाते हैं कि न चाहते हुए भी हमें कबूल करना पड़ता है कि कत्ल ही इकलौता रास्ता था इसलिये जायज था ।”
“जस्टीफायेबल होमीसाइड ?” - आगाशे बोला ।
“यस ।”
“आपकी तिकोन का तीसरा कोण कोई ऐसा शख्स कब्जाये बैठा है जिसने कत्ल एक जरूरत के तहत किया है ?”
“जी हां ।”
“कौन है वो ?”
“मैं अभी बताती हूं । उस शख्स की शिनाख्त का क्लू मुझे दुष्यन्त परमार की कैरेक्टर स्टडी से हासिल हुआ था । अब जरा देखिये क्या है इस शख्स का कैरेक्टर ! वो एक अत्यन्त विलासी प्रवृति वाला, औरतों का रसिया आदमी है जो अपनी कला को, अपनी खूबसूरती को, अपने व्यक्तित्व की मिकनातीसी कशिश को अपने नापाक इरादों की पूर्ति के लिये इस्तेमाल करता है, जो कि दिल्ली का लार्ड बायरन कहलाता है । जो कि इस बात में फख्र महसूस करता है कि उसने ऐसा कोई कुनबा नहीं छोड़ा जिसकी बहन-बेटी उसने खराब न की हो । ऐसे कैरेक्टर वाले शख्स की मौत की कामना करने वालों का क्या घाटा होगा शहर में ! अब आप लोग अपने जेहन में एक ऐंसे संजीदा, निष्ठावान शख्स का अक्स लाइये जो किसी ऐसी लड़की का चाहने वाला है, हितचिन्तक है जो कि दुष्यन्त परमार के हाथों तबाह होने के लिये एकदम तैयार केस है । अब जरा सोचिये कि क्या वो शख्स उस लड़की को तबाही के गहरे गर्त में गिरने से बचाने के लिए कोई कोशिश, कोई भी कोशिश, उठा रखेगा ! उसकी निस्वार्थ ईमानदारी, उसकी पाक मुहब्बत, उसके आला जज्बात क्या उसे कत्ल का रास्ता अख्तियार करने के लिए प्ररित नहीं करेगें ! ऐसे शख्स को दुष्यन्त परमार का कत्ल क्या पुण्य का काम - हमारे सभापति महोदय के शब्दों में, जस्टीफायेबल होमीसाइड - नहीं लगेगा !”
सभा में चुप्पी छा गयी ।
फिर वो चुप्पी दासानी ने तोड़ी ।
“आप” - वो पिस्तौल की नाल की तरह अपनी उंगली छाया प्रजापति की तरफ तानता हुआ बोला - “ये कहना चाहती हैं कि मेरी बेटी का कोई ब्वाय-फ्रेंड है जिसने कि ये कत्ल किया है ?”
छाया ने बड़े धैर्य से इनकार में सिर हिलाया ।
“तो फिर इतना कुछ कहने का क्या मतलब हुआ ?”
“वो मैंने महज एक मिसाल दी थी । उन हालात का खाका खींचा था जिनमें ये कत्ल जायज लग सकता था । कत्ल का उद्देश्य स्थापित करने की कोशिश की थी । नाम तो मैंने लिया ही नहीं किसी का । मैंने तो आपकी बेटी का भी नाम नहीं लिया था । असल में तो आप ही वो शख्स थे जिन्होंने अपनी बेटी का नाम लिया था ।”
दासानी सकपकाया । वो कुछ क्षण अपलक छाया की तरफ देखता रहा, फिर उसने सन्दूक के ढक्कन की तरह अपना मुंह बन्द किया और परे देखने लगा ।
“तो मैं आगे बढूं ?” - छाया बोली ।
दासानी के अलावा सबके सिर सहमति में हिले ।
“अब आप” - छाया बोली - “इतनी तो तसव्वुर कर ही सकते हैं कि मेरी तिकोन का तीसरा कोण क्या चीज होगा !”
“वो कोई ऐसा शख्स है” - अशोक प्रभाकर बोला - “जो कि विभा दासानी की मुहब्बत के मामले में दुष्यन्त परमार का प्रतिद्वन्द्वी है ।”
“ऐग्जैक्टली ।”
“उसका नाम लेने में क्या हर्ज है ?”
“कोई हर्ज नहीं लेकिन मैं उसका नाम आखिर में लेना चाहती हूं । पहले में अपना केस साबित करना चाहती हूं । पहले मैं ये स्थापित करना चाहती हूं कि मेरी थ्योरी का आधार कोरी कल्पना ही नहीं है, उसको सिद्ध करने के लिये तथ्य भी मेरे पास हैं ।”
“देट इज गुड न्यूज ।” - आगाशे बोला - “लेकिन मैडम, ये न भूलिये कि हम यहां किस्सागोई के लिये जमा नहीं हुए । हमारा मिशन इस मुश्किल केस को हल करना है, न कि हाजिर मेम्बरान को सस्पैंस में डालना है, उन्हें हैरान करना है ।”
“मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं ।”
“बहरहाल बात सबूतों की हो रही थी जो कि अपनी थ्योरी को बल देने के लिये आपके पास हैं ।”
“हां । मेरे पास एक नहीं, दो सबूत हैं । और दोनों ऐसे हैं जो पहले कभी प्रकाश में नहीं लाये गये ।”
“वैरी गुड !”
“पहला सबूत ये है कि ये धारणा ही भ्रान्तिपूर्ण है कि दुष्यन्त परमार को विभा दासानी से मुहब्बत हो गयी थी । हकीकतन दुष्यन्त परमार को विभा दासानी से कतई मुहब्बत नहीं थी । ऐसे जलील चरित्र के आदमी को किसी से मुहब्बत हो ही नहीं सकती । वो सिर्फ शादी करना चाहता था एक सोने की चिड़िया से । उसकी घाघ निगाहें बेटी की मुहब्बत पर नहीं, बाप की दौलत पर टिकी थीं । दासानी साहब, इस बात की तसदीक तो आप करते हैं न कि आप रईस आदमी हैं क्योंकि आपकी आला माली हालत का मेरी थ्योरी से बहुत गहरा रिश्ता है ?”
“जब आप अपनी तफ्तीश से ही इस बात की तसदीक कर चुकी हैं” - दासानी भुनभुनाया - “तो मेरी हां न से क्या फर्क पड़ता है ।”
“फर्क तो कोई नहीं पड़ता ।”
“फिर तो बात ही खत्म ही गयी ।”
“चलिये, ऐसे ही सही ।” - वो एक क्षण ठिठकी और फिर बोली - “हां तो मैं ये कह रही थी कि दुष्यन्त परमार बाप की दौलत हथियाने के लिये बेटी को फंसाकर उससे शादी करना चाहता था ।”
“कैसा जाना ?” - आगाशे बोला ।
“दुष्यन्त परमार के नौकर से जाना । उसे शीशे में उतार कर उससे कुबुलवाया । वो परमार का पुराना, बहुत मुंहलगा नौकर है और परमार उससे हर बात करता है । नौकर ने मुझे बताया कि ‘साहब’ की माली हालत एक तो वैसे ही खराब है, ऊपर से तलाक के फैसले के बाद और खराब हो जाने वाली थी । उसने ये भी बताया कि उन दिनों परमार पर कर्जे का भी बोझ था । ‘एक बार सात फेरे फड़ जायें वकील की बेटी से’ - नौकर के कहने के मुताबिक ये वास्तविक उदगार हैं दुष्यन्त परमार के - ‘फिर सब वारे-न्यारे हो जायेंगे’ - ये इकलौता फिकरा दुष्यन्त परमार की नीयत चुगली करने के लिये काफी है, साहेबान ।”
“वो नौकर” - अशोक प्रभाकर बोला - “आपके सामने मुंह खोलने को तैयार कैसे हो गया ?”
“यूं ही फोकट में नहीं हो गया, जनाब । हजार रुपये की रिश्वत खाकर तैयार हुआ ।”
“वैरी गुड ! यानी कि एक मैजिस्ट्रेट ने रिश्वत देने का गैरकानूनी काम किया ?”
“मैंने ऐसा एक मिशन की खातिर किया ।” - छाया अप्रसन्न स्वर में बोली ।
“रिश्वत के हर लेन-देन में कोई-न-कोई मिशन तो होता ही है । बिना मिशन के कहीं रिश्वत का आदान-प्रदान होता है ! बिना मिशन दी गयी रकम तो दान होती है, चन्दा होती है, इनाम होती है । यकीनन आपने परमार के नौकर को दान या चन्दा या इनाम तो दिया नहीं होगा ?”
“मिस्टर प्रभाकर” - छाया के बचाव के लिये आगाशे आगे आया - “ये हमारी बहस का मुद्दा नहीं । यहां जूडीशरी के मारल कैरेक्टर पर कोई सेमिनार नहीं हो रहा । यहां एक दुरूह केस का हल निकालने की कोशिश हो रही है । एण्ड ऐंड जस्टीफाइज द मीन्स । रिमेम्बर ?”
“आई डू ।”
“नतीजा नेक हासिल हो तो साधन पर उंगली नहीं उठानी चाहिये ।”
“आई एम सारी ।”
“यू नीड नाट बी ।”
“गुस्ताखी की माफी के साथ मेरा भी एक सवाल ।” - बड़े नर्वस भाव से अभिजीत घोष जल्दी से बोला - क्या यूं रिश्... पैसे का लालच देकर हासिल की गयी जानकारी भरोसे के काबिल हो सकती है ? क्या कोई नौकर यूं अपना ईमान बेच खायेगा ?”
“दुष्यन्त परमार जैसे” - छाया तिक्त स्वर में बोली - “जलील मालिक का नौकर होगा तो क्यों नहीं बेच खायेगा ?”
“जैसी रूह” - रुचिका उपहासपूर्ण स्वर में बोली - “वैसे फरिश्ते ।”
“जो जानकारी मुझे हासिल हुई है” - छाया बोली - “वो पूरी तरह से भरोसे के काबिल है । मुझे सच-झूठ में तमीज करने को निजी तजुर्बा है । आखिर मैं एक मैजिस्ट्रेट हूं जिसे रोज ही थोक में सच और झूठ से दो-चार होना पड़ता है । मैं यूं धोखा नहीं खाने वाली ।”
“कबूल ।” - आगाशे मुस्कराता हुआ बोला ।
“थैंक्यू । मुझे एक अन्य साधन से ये भी मालूम हुआ है कि विभा दासानी पर अपनी दावेदारी मजबूत बनाने के लिये दुष्यन्त परमार ने मण्डी हाउस के एक आडीटोरियम के एक कमरे में विभा से जबरन शारीरिक सम्बन्ध स्थापित करने की भी कोशिश की थी लेकिन” - दासानी को भड़कने को तत्पर पाकर वो जल्दी से बोली - “कामयाब नहीं हो सका था । आडीटोरियम का एक अटेण्डेन्ट उसकी इस हरकत का गवाह है । ये हरकत दुष्यन्त परमार ने ये सोचकर की थी कि एक बार ऐसा समर्पण कर चुकने के बाद विभा उससे शादी से इनकार नहीं कर सकेगी । अपनी उस नाकामयाबी को परमार ने अपने नौकर के सामने इन शब्दों में बयान किया था - ‘यार किसी मुंहजोर घोड़ी को पानी के पास तक ले जाना आसान है लेकिन उसे जबरन पानी पिलाना मुमकिन नहीं’ । साहबान, अब और क्या सबूत चाहिये आपको दुष्यन्त परमार नाम के कमीने की बदनीयती का ?”
कोई कुछ न बोला ।
“अब आप सोच ही सकते हैं कि जो शख्स विभा से असली, सच्ची और बेपनाह मुहब्बत करता होगा वो विभा को ऐसे दरिन्दे की पहुंच से दूर रखने के लिए क्या कुछ नहीं कर सकता होगा !”
“तो ये है आपका एक सबूत ?” - आगाशे बोला ।
“जी हां ।”
“और दूसरा ?”
“वो भी पेश करती हूं । सभापति महोदय, दूसरा सबूत तो मेरी थ्योरी की बुनियाद का दर्जा रखता है । वो ही कातिल द्वारा कत्ल की जरूरत का आधार है । और वो ही मेरे द्वारा की गयी क्राइम की रीकंस्ट्रक्शन का आधार है । हकीकत ये है, साहबान, कि दुष्यन्त परमार नाम के भेड़िये के नापाक ख्यालात से विभा कतई बेखबर थी । उस शख्स की मिकनातीसी शख्सियत का जादू उसके सिर पर चढकर बोल रहा था । परमार के आकर्षण में वो मुकम्मल तौर से जकड़ी हुई थी और बुरी तरह से उससे फंसी हुई थी ।”
दासानी का चेहरा कानों तक लाल हो गया ।
“ये कैसे जाना, मैजिस्ट्रेट साहिबा ?” - वो बड़े जब्त के साथ बोला - “मेरी बेटी की नौकरानी का ईमान खरीदकर ?”
“आपने बात व्यंग्य में कही, दासानी साहब” - छाया बड़े खेदपूर्ण भाव से मुस्कराती हुई बोला - “लेकिन हकीकत तो ये ही है । हकीकत ये ही है कि महानगरों में नौकरों-चाकरों का ईमान बहुत सस्ता हो गया है । आपकी बेटी की नौकरानी तो पांच सौ रुपये में ही बिक गयी ।”
दासानी ने बड़े बेबस भाव से दांत पीसे ।
सभापति विवेक आगाशे के मुंह से एक असहाय आह निकल गयी । वो ऐन अपनी नाक के नीचे अपने द्वारा स्थापित क्लब के दो सदस्यों में हाथापायी की सम्भावनाओं पर विचार करने लगा । क्या आपे से बाहर होता जा रहा दासानी छाया पर, औरतजात पर, झपट सकता था ?
हे भगवान - वो मन-ही-मन बुदबुदाया - ऐेसी नौबत न आने देना ।
“कहने का मतलब ये है” - छाया बोली - “कि किसी सलाह से या किसी उपेदश से या किसी धमकी से विभा दासानी को तबाही की उस राह पर चलने से नहीं रोका जा सकता था जिस पर कि वो अपनी मर्जी से चल रही थी । मेरी तिकोन का तीसरा कोण ये जानता था कि उसको तबाही से बचाने के लिये दुष्यन्त परमार की मौत लाजमी थी । यूं कत्ल का उद्देश्य निर्विवाद रूप से स्थापित हो जाता है ।”
“लेकिन क्या” - अशोक प्रभाकर बोला - “आप अपराधी का कत्ल के उपलब्ध बाकी तथ्यों से रिश्ता जोड़ने में भी कामयाब हो पायी हैं ?”
“जी हां । निहायत खूबसूरती से ।”
“कैसे ?”
“पहले चाकलेट के पार्सल में से बरामद हुई जाली चिट्टी की बाबत सुनिये । मैंने उस चिट्ठी का बहुत बारीकी से मुआयना किया है । औरों ने भी किया होगा लेकिन उस चिट्ठी से एक बात केवल मैंने जानी है ।”
“कौन-सी बात ?”
“कि वो चिट्ठी रेमिंगटन-ट्रैवलर के नाम से जाने जाने वाले एक पोर्टेबल टाइपराइटर पर टाइप की गयी थी ।”
“वैरी गुड ! लेकिन इसे आप की मौलिक सोच का नतीजा तो नहीं कहा जा सकता ।”
“क्या मतलब ?”
“टाइपराटर का जिक्र कल रुचिका ने किया था । इसी ने चिट्ठी की टाइपराइटिंग को महत्व दिये जाने की जरूरत पर जोर दिया था और ये सवाल उठाये थे कि वो टाइपराइटर किस किस्म का था, कहां उपलब्ध था और किस की मिल्कियत था ?”
“तो क्या हुआ ? जो बात एक जने को सूझे, वो किसी दूसरे को नहीं सूझ सकती ?”
“सबको सूझ सकती है ।” - आगाशे बीच में बोल पड़ा - “इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता, मिस्टर प्रभाकर, कि टाइपराटर मैडम की मौलिक सोच का नतीजा है या टाइपराटर के कल यहां हुए जिक्र से प्रेरित होकर मैडम ने इस लाइन पर काम किया । आप मैडम को आगे बढाने दीजिये ।”
अशोक प्रभाकर खामोश हो गया ।
“हां तो आप कह रही थीं” - आगाशे छाया से सम्बोधित हुआ - “कि वो चिट्ठी रेमिंगटन-ट्रैवलर पर टाइप की गयी थी ।”
“जी हां ।” - छाया आगे बढी - “और मुझे यकीनी तौर से मालूम है कि ऐसा एक टाइपराटर मेरे अपराधी के आफिस में उपलब्ध है ।”
“ये एक आम टापराइटर है” - आगाशे बोला - “जो किसी के पास भी उपलब्ध हो सकता है । वो टाइपराटर आप के अपराधी के पास भी होना महज इत्तफाक की बात हो सकती है ।”
“सभापति महोदय, एक इत्तफाक होता है लेकिन जब कई इत्तफाक जमा हो जाते हैं तो वो हकीकत बन जाते हैं ।”
“यानी कि अभी ऐसे और भी इत्तफाक हैं आप के जेहन में ?”
“जी हां । दूसरा इत्तफाक सोराबाजी एण्ड संस के लेटरहैड से ताल्लुक रखता है । मैं अपने अपराधी का बहुत पक्का वास्ता सोराबजी एण्ड संस से स्थापित कर चुकी हूं ।”
“वो कैसे ?”
“शायद किसी की याद हो कि दो साल पहले किसी चाकलेट के रैपर के डिजाइन को लेकर सोराबजी एण्ड संस का चाकलेट बनाने वाली अपनी एक प्रतिद्वन्द्वी कम्पनी से हाइकोर्ट में मुकद्दमा चला था जिस में सोराबाजी एण्ड संस का अपनी प्रतिद्वन्द्वी कम्पनी पर इलजाम था कि उन्होंने उन के पेटेन्ट डिजाइन की नकल मार ली थी !”
“मुझे याद है वो मुकद्दमा ।” - दासानी कठिन स्वर में बोला - “इसलिये याद है क्योंकि उस मुकद्दमे में सोराबजी एण्ड कम्पनी का वकील मैं था ।”
“थैंक्यू । तो मैं ये कह रही थी कि मेरे अपराधी का उस केस से गहरा सम्बन्ध था । इसलिये उस केस दौरान कम्पनी के मैनेजिंग डायरेक्टर के आफिस में उस शख्स की आवाजाही आम थी और उस दौरान उसके अधिकार में सम्बन्धित लेटरहैड की एकाध शीट आ जाना मामूली बात थी । ऐसा कोई लेटरहैड उसके पास किन्हीं तिरस्कृत कागजों में पड़ा रहा हो सकता है जिसका इस्तेमाल अब दो साल बाद उसे सूझा हो सकता है । लेटरहैड के पीले पड़ चुके किनारे भी इस बात की चुगली करते हैं कि वो जरूर इतना अरसा कहीं इधर-उधर पड़ा रहा था ।”
“ऐसा कागज तो कोरा उपलब्ध होना चाहिये था” - दासानी ने तुरन्त प्रतिवाद किया - “जब कि मेरी जांच निश्चित रूप से बताती है कि उस पर से कोई इबारत पहले मिटाई गयी थी ।”
“कबूल । लेकिन ये आप कैसे कह सकते हैं कि वो इबारात टाइपशुदा कागज को खाली करने के लिये मिटायी गयी थी ? वो टाइप के दौरान गलत टाइप हो गयी कोई इबारत हो सकती है जो कि हाथ-के-हाथ मिटाई गयी थी और उस पर सही अक्षर टाइप किये गये थे ।”
“और उस पर मैनेजिंग डायरेक्टर के हस्ताक्षर ?”
“वो जाली हो सकते हैं ।”
“पुलिस कहती है वो हस्ताक्षर असली हैं ।”
“जो पुलिस ऐसा कहती है वो जरूर आजकल के अति-आधुनिक जालसाजों की साधन सम्पन्नता को नहीं समझती ।”
दासानी खामोश हो गया ।
“अब बात आती है पार्सल को पोस्ट करने की ।” - छाया आगे बढी - “यहां मैं आपके इस नतीजे से पूरा इत्तफाक जाहिर करती हूं कि ये किसी दूसरे से कराने वाला काम नहीं था । किसी दूसरे को पार्सल सौंपा जाता तो वो उस पर लिखा दुष्यन्त परमार का नाम जरूर पढता और जब उसे पता लगता कि कैसे उसका कत्ल हुआ था तो उसे उस पार्सल की याद जरूर आती जो कि किसी के कहने पर उसने पोस्ट किया था । कातिल ऐसा करना अफोर्ड नहीं कर सकता था इसलिये वो पर्सल जरूर उसने खुद अपने हाथों से पोस्ट किया था । ऐसा खुद करने के लिये सवा एक और पौने तीन बजे के बीच उसका जनपथ पर उपलब्ध होना जरूरी है । साहबान, मैंने इस बात की तसदीक की है कि मेरा अपराधी इस वक्फे के दौरान जनपथ पर उपलब्ध था । वो वहां इम्पीरियल होटल में अपने कोई दर्जन-भर हमपेशा साहबान के साथ लंच कर रहा था । इम्पीरियल होटल से इन्डियन आयल की इमारत कोई ज्यादा दूर नहीं । बड़ी हद पांच मिनट में इम्पीरियल से इन्डियन आयल के सामने वाले लेटर बाक्स तक जाकर वापिस लौटा जा सकता है । महफिल में से महज पांच मिनट की गैरहाजिरी कोई नोट नहीं करता । इतना टाइम तो टायलेट में लग जाता है ।”
आगाशे ने सहमतिपूर्ण हुंकार भरी ।
“साहबान, सत्यप्रकाश वाले केस का जिक्र मैंने केवल दोनों केसों को एक जैसा बताने के लिये ही नहीं किया था । प्रस्तुत केस को सत्यप्रकाश वाले केस का समानान्तर बताने के पीछे मेरी कुछ और मंशा भी थी । वो मंशा ये थी कि वो समानता महज इत्तफाक नहीं थी । मेरा दावा है कि किसी ने बाकायदा उस केस को स्टडी करके अपनी कार्यप्रणाली निर्धारित की थी । मेरे अपराधी ने खूब सोच-समझकर उस केस को अपने नापाक इरादों के लिये कापी किया है । ऐसा करना किसी ऐसे शख्स को ज्यादा सहूलियत से सूझ सकता है जो कि अपराधशास्त्र विशेषज्ञ हो, या अपराध से दो चार होना जिसके कारोबार का हिस्सा हो । साहबान, मेरा अपराधी ऐसा ही एक शख्स है ।”
“क्रिमिनालोजिस्ट ?”
“जी हां ।”
“हूं ।”
“अब मेरा आखिरी प्वायन्ट ये है कि जब कुछ अरसा पहले स्थानीय अखबारों में दुष्यन्त परमार और विभा दासानी की शादी की अफवाहें छपी थीं तो बाद में उन अफवाहों का खंडन भी छपा था । साहबान, महत्वपूर्ण सवाल ये है कि वो खंडन किसने छपवाया था ? परमार का नौकर कहता है कि वो खंडन उसके साहब ने नहीं छपवाया था । विभा की नौकरानी कहती है कि वो खंडन उसकी मेमसाहब ने नहीं छपवाया था । खंडन से सम्बन्धित विज्ञाप्ति उन दोनों से बिना कोई मशवरा किये किसी तीसरे शख्स ने अखबारों में छपने को भेजी थी और उसी शख्स के कातिल होने का मैं दावा पेश करती हूं ।”
छाया प्रजापति खामोश हो गयी ।
“एक मुद्दा रह गया, मैडम ।” - अशोक प्रभाकर बोला - “आपने जहर का जिक्र नहीं किया । क्या आप अपने अपराधी का सम्बन्ध कत्ल में इस्तेमाल हुए जहर नाइट्रोबेंजीन से भी जोड़ सकती हैं ?”
“इस एक मुद्दे में” - छाया बोला - “मैं दासानी साहब से सर्वदा सहमत हूं । ये कोई अहम बात नहीं । चाकलेट या उसमें इस्तेमाल हुआ जहर कोई अहम नहीं । दोनों आम आइटम हैं जो कि आम उपलब्ध हैं ।”
“चलिये, ऐेसे ही सही । लेकिन अब अपने अपराधी का नाम तो लीजिये ।”
छाया प्रजापति बड़े रहस्यपूर्ण ढंग से मुस्कराई ।
“अजीब रवैया है ये ।” - दासानी भुनभुनाया - “आप क्या हमें तपा रही हैं ? इतनी देर इतना कुछ कहते रहने के बाद जब असल बात कहने का वक्त आया तो आप खामोश हो गयी हैं । साफ बोलिये, कौन है मुजरिम आपकी निगाह में ? किसे कातिल करार दे रही हैं आप ?”
“कमाल है, दासानी साहब !” - छाया अचरजभरे स्वर में बोली - “आप भी ये सवाल कर रहे हैं ?”
“मैं ‘भी’ क्या मतलब ?” - दासानी हड़बड़ाया ।
“क्योंकि आपको तो मालूम है कि कातिल कौन है ! मेरे से बेहतर मालूम है । सबसे बेहतर मालूम है ।”
“क्या ? क्या मालूम है मुझे ? साफ-साफ कहिये क्या कहना चाहती हैं आप ?”
“मैं ये कहना चाहती हूं कि आप” - छाया ने खंजर की तरह एक उंगली दासानी की तरफ भौंकी - “आप कातिल हैं । आप हैं मेरे तिकोन का तीसरा कोण । मिस्टर लौंगमल दासानी, मैं आपको कातिल करार देती हूं ।”
दासानी हक्का-बक्का-सा छाया का मुंह देखने लगा ।
“ये” - फिर वो भड़ककर बोला - “ये औरत पागल हो गयी है ।”
“मेरे खिलाफ” - छाया सख्ती से बोली - “गाली-गलौज की जुबान इस्तेमाल करके आप अपने माथे पर लगा इतना बड़ा कलंक नहीं धो सकते, मिस्टर दासानी । आप इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि आपको अपनी बिन मां की बेटी से बेपनाह मुहब्बत है । उस मुहब्बत ने आपको मजबूर किया था कि आप किसी भी कीमत पर अपनी बेटी को दुष्यन्त परमार के चंगुल में फंसने से रोकें । आप अपनी नादान, मासूस लेकिन दिशाभ्रमित बेटी को एक वहशी दरिंदे की जलालत का शिकार होता नहीं देख सकते थे । अपनी बेटी की हिफाजत के लिये आप कुछ भी कर सकते थे । कत्ल भी । जो कि आपने किया । कल आप ने खुद अपनी जुबानी कबूल किया कि दुष्यन्त परमार से सम्बन्धित कुछ बातें ऐसी थीं जिन्हें सिर्फ आप जानते थे । कैसे जानते थे ? ऐसे जानते थे कि वो बातें तब उजागर हुई थीं जब कि विभा से अपनी शादी की बात को लेकर वो आप से मिला था । उन बातों में से एक बात ये थी कि उस मुलाकात के दौरान आपने परमार को धमकी दी थी कि अगर वो आपकी बेटी को लेकर अपने नापाक इरादों से बाज न आया तो आप उसे जान से मार डालेंगे । लेकिन वो अपने इरादों से बाज न आया । इसलिये न आया क्योंकि उसे आपकी बेटी की शह हासिल थी । वो समझता था कि देर-सवेर आपकी बेटी आपको उसके हक में झुका लेगी । लेकिन आप झुकने वाले शख्स नहीं । आप झुके नहीं । झुकने की जगह आपने कत्ल का रास्ता अख्तियार किया । आपने कत्ल किया । अपनी बेटी की भलाई के लिये किया लेकिन किया । मिस्टर लौंगमल दासानी, मे गाड बी युअर जज, बिकाज आई कैन नाट ।”
वो खामोश हो गयी और परे देखने लगी । बाकी सब की इलजाम लगाती निगाहें किसी प्रतिक्रिया को पढने की कोशिश में दासानी के चेहरे पर टिक गयीं ।
“सभापति महोदय” - दासानी कड़क कर बोला - “क्राइम क्लब का वरिष्ठ सदस्य होने के नाते मैं आपसे मांग करता हूं कि आप इस औरत को मजबूर करें कि ये अपनी बेहूदा, बेबुनियाद बकवास से बाज आये ।”
“इलजाम क्योंकि आप पर आयद है” - आगाशे के बोल पाने से पहले ही छाया बोल पड़ी - “इसलिये आपको मेरी बात बेहूदा लगती है, बेबुनियाद लगती है, बकवास लगती है । बतौर कातिल मैंने किसी और का नाम लिया होता तो आप ही इसे ठीक, तर्कपूर्ण और सटीक बता रहे होते और बढ-बढके मुझे बधाइयां दे रहे होते । बात खुद पर आन पड़ी है तो आप अपनी तहजीब भूल गये हैं और पागलों की तरह प्रलाप करने लगे हैं । बतौर मशहूर एडवोकेट जिस दानाई और सूझबूझ के लिये आप मशहूर हैं, वक्ती विक्षिप्तता के आलम में आप अपनी इन खूबियों से नाता न तोड़ बैठे होते तो भद्रता से अपने पर आयद इलजाम का खंडन करते और तर्कपूर्ण ढंग से मेरी थ्योरी के कोई नुक्स गिनाते । साबित करके दिखाते कि जो कुछ मैं कह रही हूं, वो झूठ है । हाथ झटक-झटक कर और चिल्लाकर जो ड्रामाई इफेक्ट आप पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं, वो कचहरी में शायद किसी काम आ भी सकता हो - और नहीं तो अपने क्लायन्ट को ही प्रभावित करने के काम आ सकता हो - लेकिन यहां किसी काम नहीं आने वाला । यहां या तो ये बताइये कि क्यों मेरी थ्योरी गलत है, क्या नुक्स है मेरी थ्योरी में या चुप रहिये । मिस्टर दासानी, ईदर पुटअप ऑर शटअप ।”
“मैडम ठीक कह रही हैं ।” - अशोक प्रभाकर प्रभावित स्वर में बोला ।
“आप कुछ कहना चाहते हैं ?” - आगाशे दासानी से बोला ।
दासानी ने जोर से थूक निगली ।
“मेरी राय में आपको जरूर कुछ कहना चाहिये ।”
“मौन स्वीकृति का लक्षण होता है ।” - अशोक प्रभाकर बोला ।
दासानी के मुंह से बोल न फूटा ।
“हैरानी है !” - रुचिका केजरीवाल बोली - “दासानी साहब तो अपना अपराध कबूल करते मालूम हो रहे हैं ।”
“ऐसा है तो” - अभिजीत घोष बोला - “इंस्पेक्टर शिवनाथ राजोरिया को बुलाना चाहिये और उसे खबर करनी चाहिये कि हमने केस हल कर लिया है ।”
“जल्दबाजी में कोई कदम उठाना ठीक न होगा, मिस्टर घोष ।” - आगाशे बोला ।
अभिजीत घोष सकपकाकर चुप हो गया ।
“मेरी राय में” - रुचिका बोली - “हमें सारे सिलसिले पर कानूनी नुक्तानिगाह से ही नहीं, इखलाकी और जज्बाती नुक्तानिगाह से भी गौर करना चाहिये । मुल्क का कायदाकानून जिस बात को गलत और सजा के काबिल करार देता हो, जरूरी नहीं वो हमें भी गलत और सजा के काबिल लगे । हालात ये जाहिर कर रहे हैं कि दुष्यन्त परमार जैसे दुष्ट की इस दुनिया से विदाई तो एक ऐसा काम माना जाना चाहिये जिसमें कि हर किसी का हित है । ये महज इत्तफाक था कि ऐसी किसी कोशिश में एक बेगुनाह की जान चली गयी । मेरी राय में तो इस बात को यहीं खत्म कर दिया जाना चाहिये । पुलिस को तो मैजिस्ट्रेट साहिबा की थ्योरी की भनक भी नहीं लगने दी जाने चाहिये । दासानी साहब की व्यक्तिगत समस्या से सहानुभूति दिखाते हुए हमें इनको कवर करने चाहिये ।”
“शुक्रिया” - दासानी एकाएक बड़े शुष्क स्वर में बोला - “लेकिन मुझे किसी ऐसे रहमोकरम की जरूरत नहीं । मैं किसी की दया का पात्र बनने का ख्वाहिशमन्द नहीं । वक्ती जज्बात और जनून को हवाले होकर मैजिस्ट्रेट साहिबा से मैंने जो बद्जुबानी की, उसके लिये क्षमाप्रार्थना करते हुए मैं फिर पुरजोर लफ्जों से अर्ज करता हूं कि कत्ल से मेरा कुछ लेना-देना नहीं । देखने-सुनने में मैडम की थ्योरी कितनी भी दमदार क्यों न लग रही हो लेकिन अन्त-पन्त ये गलत है । ये ठीक है कि मैं क्रिमिनालोजिस्ट हूं लेकिन एक वकील का क्रिमिनालोजिस्ट होना स्वाभाविक होता है । वो अपराध विज्ञान का ज्ञाता नहीं होगा तो कामयाब एडवोकेट कैसे होगा ? ये भी ठीक है कि जनपथ पर पार्सल पोस्ट दिये जाने के वक्त के आसपास मैं करीब ही इम्पीरियल होटल में एक लंच में शामिल था । मैं ये भी कबूल करता हूं कि मैंने दुष्यन्त परमार को ये धमकी दी थी कि अगर उसने मेरी बेटी का पीछा नहीं छोड़ा तो मैं उसे जान से मार दूंगा । लेकिन इनमें से एक भी बात ऐसी नहीं है जो कि निर्विवाद रूप से मुझे अपराधी सिद्ध कर सकती हो । ये कोई पुख्ता सबूत नहीं है । ये महज सरकमस्टांशल एवीडेंस हैं, अदालत में जिनकी बड़ी आसानी से धज्जियां उड़ाई जा सकती हैं । जहां तक चाकलेट का पार्सल मेरे द्वारा पोस्ट किये जाने का सवाल है, तो मेरा यह कहना है कि लंच के दौरान अपने दायें-बायें बैठे दो दोस्तों को पेश कर सकता हूं जो कि इस बात की गवाही देंगे कि एक बजे से लेकर तीन बजे तक मैं अपनी टेबल से हिला तक नहीं था । और जहां तक परमार को कत्ल की धमकी का सवाल है, मैं ये साबित करता हूं कि उस पर अमल करना मेरे लिये जरूरी ही नहीं रह गया था ।”
“वो कैसे ?” - आगाशे उत्सुक भाव से बोला ।
“वो ऐसे कि जब मैंने और कुछ अन्य बुजुर्ग रिश्तेदारों ने मिल-बैठकर प्यार से मेरी बेटी को उसका भला-बुरा समझाया था तो उसे अक्ल आ गयी थी और उसने परमार से शादी करने का अपना इरादा छोड़ दिया था । आजकल मेरे उन्हीं रिश्तेदारों के पास वो बम्बई में रह रही है ताकि वक्ती तौर पर वो परमार की पहुंच से दूर रह सके । इस बात की सत्यता को प्रमाणित करने के लिये आप चाहें तो मैं उन रिश्तेदारों को और अपनी बेटी को यहां बुलाकर उनसे आपकी बात करा सकता हूं ।”
“आप कहते हैं तो ऐसा जरूर हुआ होगा” - छाया जिदभरे स्वर में बोली - “लेकिन ये सब कत्ल के बाद हुआ हो सकता है ।”
“बदकिस्मती से कत्ल के बाद ही हुआ है लेकिन आप मुझे एक बात का जवाब दीजिये । जो बाप अपनी बेटी से इतना प्यार करता हो कि उसकी भलाई की खातिर किसी का कत्ल कर सकता हो, उससे आप लोग ऐसी उम्मीद करतें हैं कि वो अपनी बेटी की भी जान को खतरे में डाल दे ?”
“क्या मतलब ?”
“एक मिनट के लिये फर्ज कीजिये कि जहर वाली चाकलेटों का पार्सल दुष्यन्त परमार को मैंने ही भेजा । एक बार वो पार्सल पोस्ट हो जाने के बाद मेरा तो उस पर से कन्ट्रोल खत्म हो गया । अब जैसे वो पार्सल परमार ने मुकेश निगम को सौंप दिया, वैसे वो पार्सल वो मेरी बेटी को दे देता तो सोचिये क्या होता ! तब मिसेज अंजना निगम की जगह मेरी बेटी की जान गयी होती । क्या मैं इतना ही अहमक हूं कि ये नहीं समझ सकता कि उस तरीके से मेरी वो चाकलेटें मेरी बेटी के लिये जान का खतरा बन सकती थीं ?”
उस बात का श्रोताओं पर भारी प्रभाव पड़ा । तब छाया प्रजापति भी पहली बार विचलित दिखाई दी ।
“बाकी बची लेटरहैड तक मेरी पहुंच की और पोर्टेबल टाइपराटर पर मेरे अधिकार की बात तो वो बातें तो इतनी बोदी हैं कि उनकी बाबत कुछ न कहना ही मेरे लिये बेहतर होगा ।”
कई सिर सहमति में हिले ।
“साहबान, मैंने उम्र भर लोगों को मुजरिमों के कठघरे में खड़ा करके उनसे जिरह की है और उन्हें उनके गुनाहों की सजा दिलायी है । आज ये मेरी जिन्दगी का पहला मौका है जब मैं खुद कटघरे में खड़ा हूं और अपनी बेगुनाही की दुहाई दे रहा हूं । भाग्य की इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है !”
दासानी एक क्षण श्रोताओं पर अपने कथन का प्रभाव देखने के लिये रुका और फिर बोला - “इस सन्दर्भ में मैं आपको एक मामूली लेकिन मेरे लिये अब एकाएक अहम हो उठी बात की आपको याद दिलाना चाहता हूं । साहबान, पिछले हफ्ते जब इसी वक्त, इसी जगह इस मेंटल एक्सरसाइज के रूल निर्धारित किये जा रहे थे, जब पर्चियां डालकर मेम्बरान की बारी निकालने का प्रस्ताव पास हो रहा था, तो उस घड़ी हमारे जासूसी उपन्यासकार सदस्य अशोक प्रभाकर ने एक बात कही थी जिसने थोड़ा-बहुत सबको चौंका दिया था । इन्होंने कहा था कि उन्हें तो कत्ल के केस का हल सूझ भी चुका था । अब मौजूदा हालात में हम मिस्टर प्रभाकर से इतना तो पूछ सकते हैं कि क्या वो हल वो ही है जो कि मैडम ने पेश किया है या उससे मुख्तालिफ है ! मेरी दरख्वास्त है कि सभापति महोदय सम्बन्धित मेम्बर को इस सवाल का जवाब देने की इजाजत दें ।”
“इजाजत है ।” - आगाशे हिचकिचाता हुआ बोला ।
“थैंक्यू । मिस्टर प्रभाकर, अब आप बताइये कि आपका सोचा हल मैडम द्वारा सुझाये गये हल वाला ही है या उससे मुख्तलिफ है ?”
“मुख्तलिफ है ।” - अशोक प्रभाकर बोला ।
“फिर तो आपके हल के मुताबिक हत्यारा भी कोई और होगा ?”
“और ही है ।”
“थैंक्यू, मिस्टर प्रभाकर । साहबान, अब आप ये फैसला कीजिये कि जब एक और तैयारशुदा हल पेश होने के लिये सामने मौजूद है तो क्या आप मैडम के सुझाये हल को ही अन्तिम मानकर इस दिमागी व्यायाम का समापन कर देंगे ? क्या ये मुनासिब होगा ? एक हल कल पेश हुआ जिसकी धज्जियां मिस रुचिका ने उड़ा दी, एक हल आज पेश हुआ जिसकी धज्जियां तो मैं कबूल करता हूं कि मैं नहीं उड़ा सका हूं लेकिन इतना आप भी मानेंगे कि मैंने उस पर कुछ मजबूत सवालिया निशान लगाये हैं । अब एक हल मिस्टर प्रभाकर के पास है जो कि कायदे के मुताबिक ये कल पेश करेंगे और वो हल मुमकिन है ऐसा हो कि मैडम की थ्योरी की पालिश उतार कर रख दे । फिर उससे आगे अभी तीन मेम्बर और हैं, जो कि अपनी जेहनी कूवत में एक से बढकर एक साबित हो सकते हैं । साहबान, तमाम बातों की रूह में मेरा आपसे जो सवाल है वो ये है कि क्या आप इतनी ढेर सारी सम्भावनाओं को नजरअन्दाज करके एक मिसेज छाया प्रजापति की झोलझाल थ्योरी से चिपके रहना कबूल फरमायेंगे ? क्या ये मुनासिब होगा ? क्या ये इंसाफ होगा ? जवाब देते वक्त ये भी ध्यान में रखियेगा कि जहां इस वक्त बैठे हैं वो कोई कोर्ट-कचहरी नहीं, वो कोई इंसाफ का मन्दिर नहीं और जो लोग यहां मौजूद हैं, इंसाफ करना उनकी यहां मौजूदगी की जरूरत नहीं । क्राइम क्लब में क्राइम की डिस्कशन का मतलब, जहां तक मैं समझता हूं, अपनी दिमागी कूवत और सूझबूझ को धार देना है, न कि किसी फैलो मेम्बर के लिये जज, ज्यूरी और एग्जीक्यूशनर बन के दिखाना ।”
“आई एग्री ।” - छाया नम्र स्वर में बोली - “देट्स वाई आई सैड दैट मे गाड बी युअर जज, बिकाज आई कैन नाट ।”
“लेडीज एण्ड जन्टलमैन” - आगाशे बोला - “दिस हैज नाओ बिकम ए मैटर आफ ओपीनियन । अब हमने ये फैसला करना है कि हमारा भविष्य में क्या कदम होना चाहिये ! जो कुछ दासानी साहब ने कहा, उससे इत्तफाक जाहिर करते हुए मैं ये प्रस्ताव पेश करता हूं कि जब तक तमाम-के-तमाम मेम्बरान को अपनी-अपनी राय पेश करने का मौका न हासिल हो जाये, कोई अन्तिम निर्णय न लिया जाये । अब मिसेज छाया प्रजापति की थ्योरी पर पुनर्विचार तब होगा जबकि बाकी के चार मेम्बरान भी अपनी थ्योरी पेश कर चुके होंगे । तभी इस बात पर भी नये सिरे से विचार होगा कि मैडम की थ्योरी के मुताबिक मिस्टर दासानी कत्ल के अपराधी हैं या नहीं । जो मेम्बरान मेरे प्रस्ताव से सहमत हों, वो बरायमेहरबानी हाथ खड़ा करें ।”
सबने - छाया प्रजापति ने तनिक हिचकिचाते हुए, उसे अपनी ‘शानदार’ थ्योरी की वांछित वाहवाही जो नहीं हासिल हुई थी - हाथ खड़े किये ।
“तो फिर ये प्रस्ताव सर्वसम्मति से पास हुआ” - आगाशे बोला - “कि पहले तमाम मेम्बरान को बोलने का मौका दिया जायेगा और फिर आखिर में जैसे हालात पाये जायेंगे, वैसा निर्णय लिया जायेगा । इसी के साथ मैं आज की मीटिंग की बरखास्तगी की घोषणा करता हूं ।”
सब उठ खड़े हुए ।
***
विवेक आगाशे पुलिस हैडक्वार्टर में स्थित इन्स्पेक्टर राजोरिया के सामने उसके आफिस में बैठा था जहां कि वो आफिस खुलते ही पहुंच गया था ।
“मैं तुम्हें ये बताने आया था” - आगाशे बड़ी संजीदगी से बोला - “कि तुम्हारी ये टिप, कि केस का हल दुष्यन्त परमार की रंगीनमिजाजी और निहायत काबिलेएतराज जाती जिन्दगी में निहित है, मेरे किसी काम नहीं आ रही ।”
“क्यों ?” - इन्स्पेक्टर की भवें उठीं - “मेरी टिप गलत है ?”
“तुम्हारी टिप नहीं गलत । लेकिन मेरी पेश नहीं चल रही परमार पर । मैं नहीं कामयाब हो पा रहा उसकी जाती जिन्दगी के बखिये उधेड़ने में ।”
“मैंने ये तो आपको कभी भी नहीं कहा था कि ये कोई आसानी से हो जाने वाला काम था । आसानी से हो जाने वाला काम होता तो क्या पुलिस को हार माननी पड़ती ?”
“पुलिस की बात और होती है । पुलिस से लोग आदतन कन्नी कतराते हैं । इसी वजह से मैं सोचता था कि मेरी चल जायेगी, लेकिन नहीं चली । उस कम्बख्त ने तो अपने इर्द-गिर्द बेशुमार पर्दे डाले हुए हैं । मैंने उसके करीबी दर्जनों लोगों को, उसके हमपेशा लोगों को, उसके दोस्तों को, उसके दोस्तों के दोस्तों को, और पता नहीं किस-किसको उसकी बाबत कुरेदा है लेकिन उतने से ज्यादा मैं कुछ भी मालूम नहीं कर पाया हूं जितना कि तुम मुझे पहले ही बात चुके हो । मैंने दर्जनों ऐसी लड़कियों और औरतों को क्रासक्वेश्चन किया है जिनके कि जिन्दगी की किसी-न-किसी स्टेज पर परमार से ताल्लुकात रहे हैं लेकिन नतीजा सिफर निकला है ।”
“आपने एक मिलते-जुलते केस का जिक्र किया था जिसमें एक आदमी ने इसी तरीके से किसी के कत्ल की कोशिश की थी लेकिन मर कोई और गया था !”
“हां । वो सत्यप्रकाश नाम के अपराधी वाला केस, जिसने डाक से चाकलेटों की जगह जहर मिला फ्रूट साल्ट भेजा था ।”
“वो भी आपके किसी काम नहीं आया ?”
“मेरे तो नहीं लेकिन कल शाम मेरे एक फैलो मेम्बर के वो केस खूब काम आया । मेरी तरह उसे भी उस की बाबत सूझा था और उसने उस केस से बड़े सनसनीखेज नतीजे निकाल कर दिखाये थे ।”
“मैजिस्ट्रेट छाया प्रजापति को ? जो कि समझती है कि एडवोकेट लौंगमल दासानी अपराधी हैं ?”
आगाशे हकबकाया था ।
“तुम्हें कैसे मालूम ?” - वो इन्स्पेक्टर को घूरता हुआ बोला - “जरूर उस औरतजात ने क्राइम क्लब से गद्दारी की होगी । सब कुछ बक दिया होगा तुम्हारे सामने ।”
“खामखाह अपने फैलो मेम्बर को गद्दार न कहिये, जनाब उन्होंने तो हमारे सामने जुबान तक नहीं खोली है । न ही हम जूडीशियरी के इतने महत्वपूर्ण पुर्जे से कोई जोर जबरदस्ती करने की कोशिश कर सकते हैं । अलबत्ता उन्हें खुद चाहिये था कि वो अपना फर्ज मान कर पुलिस को सब कुछ बतातीं ।”
“उसका क्राइम क्लब के लिये भी कोई फर्ज है ।”
“जाहिर है कि उन्होंने उसी को तरजीह दी ।”
“तो फिर तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि छाया प्रजापति ने दासानी को अपराधी ठहराया था ?”
“बता दूं ?”
“अब कह भी चुको ।”
“उनके पीछे लग कर । उनकी निगाहबीनी करवा कर । आपकी जानकारी के लिये आपकी क्राइम क्लब के हर मेम्बर का हर कार्यकलाप हमारी निगाह में है ।”
“मेरा भी ?” - आगाशे हड़बड़ाया ।
“हां ।”
“मुझे तो कोई अपने पीछे लगा नहीं दिखाई दिया ।”
“यही तो कमाल है हमारे जासूसों का !”
“जबकि मैं खुद जासूस हूं ।”
इन्स्पेक्टर हंसा ।
“ये तो बड़ी ज्यादती है तुम्हारी ।”
“आप हमें अपने कन्फीडेंस में नहीं लेंगे तो ये ज्यादती तो हमें करनी पड़ेगी । आखिर हमने भी तो अपनी ड्यूटी भुगतानी है ।”
“तुम दासानी को गिरफ्तार करोगे ?”
“किस बिना पर ! हमें सिर्फ इतना मालूम है कि मैजिस्ट्रेट साहिबा ने दासानी को मद्देनजर रखकर अपनी थ्योरी का ताना-बाना बुना है । हमें उनकी मुकम्मल थ्योरी तो नहीं मालूम ! उस थ्योरी के हक में उन्होंने जो दलीलें पेश कीं, वो तो नहीं मालूम !”
“मालूम होंगी भी नहीं ।” - आगाशे सन्तुष्टिपूर्ण स्वर में बोला ।
“ये तो खामख्याली है आपकी । जो बातें एक अकेली औरत खोज के निकल सकती है, उन्हें क्या पुलिस फोर्स खोज कर नहीं निकाल सकती ?”
“तो निकालो ।”
“निकालेंगे ।”
“तब दासानी को गिरफ्तार करोगे ?”
“तब की तब देखी जायेगी । वो किस्सा छोड़िये, आप अपनी बात कीजिये । आप बताइये आप कौन सी थ्योरी पेश करने वाले हैं ?”
“कोई भी नहीं ।”
“मजाक न कीजिये ।”
“मैं सच कह रहा हूं । अभी तो मैं किसी थ्योरी की स्थूल रूपरेखा तक नहीं तैयार कर पाया हूं जबकि क्राइम क्लब के सामने बोलने की मेरी कल ही बारी है ।”
“क्या करेंगे आप अपनी बारी पर ?”
“देखेंगे । कुछ नहीं होगा कहने को तो अंग्रेज बन जायेंगे ।”
“क्या मतलब ?”
“सॉरी बोल देंगे ।”
इन्स्पेक्टर हंसा ।
“मेरी समस्या ये है कि मेरी कारोबरी नीयत मेरी तफ्तीश में आड़े आ रही है । बिना फीस के कभी किसी केस पर काम जो नहीं किया । इसलिये इस केस की तफ्तीश के लिये मेरे में वो जोशोखरोश पैदा नहीं हो रहा जो कि होना जरूरी है ।”
“आप मजाक कर रहे हैं ।”
आगाशे ने प्रतिवाद नहीं किया । वह कुछ क्षण खामोश रहा और फिर उठ खड़ा हुआ ।
“चल दिये, जनाब ?” - इन्स्पेक्टर बोला ।
“हां ।” - आगाशे बोला - “कहो तो ये बता के जाऊं कि यहां से कहां जाऊंगा ताकि तुम्हारे आदमियों को दिक्कत न हो ।”
“जरूरत नहीं ।” - इन्स्पेक्टर बड़े इत्मीनान से बोला - “मालूम कर लेंगे ।”
दोनों ने अट्टहास किया ।
फिर आगाशे ने इन्स्पेक्टर से हाथ मिलाया और वहां से विदा हुआ ।
हैडक्वार्टर की इमारत से बाहर निकल कर वो टैक्सी स्टैण्ड की ओर बढा ।
इन्स्पेक्टर राजोरिया से उसने झूठ नहीं बेाला था । केस का कोई सिर-पैर अभी तक उसकी पकड़ में नहीं आ पाया था । और ये बात भी गलत नहीं थी कि केस में उसका सौ फीसदी मन नहीं लग रहा था । जो कुछ वो कर रहा था, वो महज इस अन्देशे से कर रहा था कि अगर उसने केस का कोई हल प्रस्तुत न किया तो बतौर क्राइम क्लब के सभापति उसकी बहुत नाक कटने वाली थी ।
“मिस्टर आगाशे !”
आगाशे ने हड़बड़ा कर सर उठाया तो सामने रोज पद्मसी को खड़ा पाया ।
रोज पद्मसी दिल्ली की हाई सोसाइटी का अंग एक रईस विधवा थी जो कि कभी आगाशे की क्लायन्ट रह चुकी थी । आयु में वो कोई चालीस साल की थी और अपनी उम्र के लिहाज से निहायत खूबसूरत व्यक्तित्व की मालकिन थी । आगाशे ने उसे ब्लैकमेलिंग के एक बड़े घिनौने रैकेट से निकाला था जिसकी वजह से वो उसका बहुत एहसान मानती थी ।
आगाशे को उससे दो एतराज थे जिनकी वजह से उसकी हमेशा कोशिश उससे कन्नी कतराने की होती थी ।
एक तो वो बोलती बहुत थी । इतना बोलती थी कि बोलती ही चली जाती थी । दूसरे को मुंह खोलने तक का मौका नहीं देती थी ।
दूसरे, वो आगाशे से ‘यारी’ गांठना चाहती थी जो कि अपनी मौजूदा उम्र में आगाशे को मन्जूर नहीं था ।
“हल्लो ।” - आगाशे प्रत्यक्षत: मीठे स्वर में बोला - “गुड मार्निंग ।”
“वैरी गुड मार्निंग ।” - रोज पद्मसी अपने सुडौल दान्त चमकाती हुई बोली ।
“कैसे हैं आप ?”
“सुपर । आन टॉप आफ दि वर्ल्ड । नथिंग टु कम्पलेंट ।”
“इधर कैसे ?”
“आजाद भवन में काम था ।”
“हो गया ?”
“हां । आप इधर कैसे ?”
“पुलिस हैडक्वार्टर गया था ।”
“जरूर कोई खास केस होगा ।”
“जाहिर है ।”
“अंजना निगम के कत्ल वाला केस ही तो नहीं ?”
“कैसे जाना ?” - आगाशे हकबका कर बोला ।
“यानी कि वही केस है !”
“कैसे जाना, मैडम ?”
“गेस किया । आजकल हाट केस तो वो ही है कैपिटल में । मिस्टर आगाशे, नहीं भी कर रहे हैं तो आपको उस केस पर काम करना चाहिये । मेरी राय में अगर कोई उस केस को हल कर सकता है तो वो सिर्फ आप हैं ।”
“जर्रानवाजी का शुक्रिया मैडम, लेकिन...”
“मरने वाली मेरी सहेली थी । आप कहें तो मैं आपकी फीस भरने को तैयार हूं ।”
“नहीं, नहीं । फीस की बात नहीं है ।”
“है भी तो कोई बात नहीं । बट यू मस्ट इनवैस्टिगेट । आपको पता लगाना चाहिये कि वो जहरभरी चाकलेटें दुष्यन्त परमार को किसने भेजीं ! आप जरूर पता लगा लेंगे । मुझे गारन्टी है ।”
“मैडम, ये आपकी महानता है कि आप मुझे किसी काबिल समझती हैं ।”
“ओह, कम आन । डोंट बी टू माडेस्ट । यू आर ए ग्रेट डिटेक्टिव । इस बात से मुझसे बेहतर कौन वाकिफ है !”
आगाशे जबरन मुस्कराया और वार्तालाप के तुरन्त समापन की कोई तरकीब सोचने लगा ।
“मेरा तो दिल हिल गया था, बेचारी की मौत की खबर सुनकर ।” - वो कह रही थी - “बेचारी कितनी नौजवान थी ! कितनी खूबसूरत थी । एण्ड हैपीली मैरिड टू । आगे सारी जिन्दगी पड़ी थी एनजाय करने के लिए सब खत्म । ऊपर से किस्मत की मार देखिए, एक तरह से अपनी मौत के लिए वो खुद जिम्मेदार थी !”
“जी ! क्या फरमाया आपने ?”
“मैंने कहा एक तरह से अपनी मौत की वो खुद जिम्मेदार थी ।”
“वो कैसे ?”
“उस शर्त की वजह से जो कि उसने अपने हसबैंड से लगायी थी । न वो शर्त लगाती, न वो शर्त जीतती और न वो चाकलेट का डिब्बा उसके गले मढा जाता ।”
“लेकिन मिसेज अंजना निगम शर्त हार भी तो सकती थीं ।”
“नहीं हार सकती थीं ।”
“ऐसा कैसे हो सकता है ! ऐसी शर्तों में तो हार-जीत का फिफ्टी-फिफ्टी चांस होता है ।”
“वो जीरो और हंड्रेड चांस वाली शर्त थी । वो ऐसी शर्त थी जिसमें अंजना हार सकती ही नहीं थी ।”
“मिसेज पद्मसी, मैं आपकी बात कतई नहीं समझ पा रहा हूं । जरा ठीक से बताइये आप क्या कहना चाहती हैं ?”
“बताती हूं । वैसे ये बात मैंने आज तक किसी को नहीं बताई है । आपको भी इसलिए बता रही हूं क्योंकि आप डिटेक्टिव हैं और ये मेरी दिली ख्वाहिश है कि अंजना के कत्ल के केस को आप” - अपनी तर्जनी उंगली के आधा इंच लम्बे नाखून से उसने आगाशे की छाती को टहोका - “हल करें । मैं चाहती हूं कि आप...”
“ओह मैडम, प्लीज । कम आन विद इट आलरेडी । शर्त की क्या बात है जो आपने किसी को नहीं बतायी है ?”
“मिस्टर आगाशे, उस शर्त के मामले में अंजना ने अपने हसबैंड को चीट किया था ।”
“वो कैसे ?”
“अगर उसने ईमानदारी से काम लिया होता तो उसने वो शर्त लगायी ही न होती । बेईमानी से शर्त जीतना, वो भी अपने पति से, क्या कोई...”
“क्या बेईमानी की थी उसने ?”
“मर गई बेचारी इसलिए कहना तो नहीं चाहिए लेकिन सच ये ही है कि मुझे उसकी वो बात अच्छी नहीं लगी थी । अब भी जब भी रात को सोने से पहले मुझे अंजना का ख्याल आता है तो...”
“आप पहले ये बताइये कि उसने शर्त में क्या बेईमानी की थी । क्यों वो शर्त नहीं लगानी चाहिये थी उसे अपने पति से ? कैसे चीट किया था उसने निगम को ?”
“वाई, मिस्टर आगाशे ? आर यू इन ए हरी ?”
“नो, नाट एट आल । मैं तो शाम तक यूं ही फुटपाथ पर खड़ा रह सकता हूं ।”
“आज मजाक कर रहे हैं ।”
“मिसेज पद्मसी, प्लीज फार गाड सेक । पहले शर्त की बात पर आइये । सस्पैंस से मेरा बी.पी. बढा जा रहा है । क्यों नहीं वो शर्त लगानी चाहिए थी मिसेज निगम को ?”
“क्योंकि वो फिल्म उसने पहले ही देखी हुई थी ।”
“पहले ही देखी हुई थी ?” - आगाशे अचकचा कर बोला ।
“जी हां ।”
“लेकिन उस शुक्रवार दोपहर को तो वो उस फिल्म का पहला शो था । वो उस फिल्म के आल इन्डिया प्रीमियर वाला दिन था ।”
“करेक्ट ।”
“फिर उस प्रीमियर शो से भी पहले वो फिर मिसेज निगम ने कैसे देखी ली ? जरूर वीडियो कैसेट उपलब्ध होगा उसका ।”
“हरगिज भी नहीं । प्रीमियर से पहले ‘अपराधी कौन’ का वीडियो कैसेट उपलब्ध नहीं था । प्रोड्यूसर की गारन्टी है । डिस्ट्रीब्यूटर की गारन्टी है ।”
“तो फिर प्रीमियर से पहले कैसे देख ली वो फिल्म मिसेज निगम ने ?”
“मैंने दिखाई ।”
“आपने दिखाई !”
“हां ।”
“कब ?”
“प्रीमियर वाले दिन से दो दिन पहले ।”
“कहां ।”
“हाउस आफ सोवियत कल्चर में ।”
“जो फिरोजशाह रोड पर है ?”
“हां । वहां बुधवार को सोवियत एम्बैसी की ओर से इनवाइटिड गैदरिंग के लिए इसका एक शो हुआ था जिसकी कि किसी को खबर भी नहीं । मैं अंजना को खुद अपने साथ उस शो में लेकर गयी थी । इस तरीके से उसे अपने हसबैंड के साथ फिल्म देखने जाने से दो दिन पहले ही मालूम था कि फिल्म में कत्ल का अपराधी घर का चौकीदार था । अब आप बताइये शुक्रवार को कातिल पहचानने की शर्त लगाकर अंजना ने क्या अपने हसबैंड को चीट नहीं किया था ? उसने बेईमानी से वो शर्त नहीं जीती थी ?”
“कह तो आप ठीक रहीं हैं ।”
“उस बेईमानी की वजह से बेचारी की जान गयी । वो शर्त न लगाती, साफ-साफ हसबैंड को बता देती कि वो फिल्म उसने पहले ही देख ली थी इसलिए उसे मालूम था कि कातिल कौन था तो चाकलेट के डिब्बे की स्टोरी ही न बनती । फिर अपने नाम आयी जहरभरी चाकलेटें दुष्यन्त परमार खुद खाता और खुद जहन्नुमरसीद होता जो कि” - वो नाक चढाकर बोला - “अच्छा ही होता ।”
आगाशे सोच में पड़ गया । वो बहुत दिलचस्प रहस्योद्घाटन था लेकिन उसकी अहमियत क्या थी ? उसका इस्तेमाल क्या था ?
“खुदाई इन्साफ हो गया बेचारी के साथ ।” - वो कह रही थी - “हसबैंड से झूठ बोलने की सजा मिल गयी उसको । लेकिन बहुत छोटे गुनाह की बहुत बड़ी सजा दी गॉड ने उसे । ये इन्साफ नहीं हुआ । अगर गॉड अपने हसबैंड से झूठ बोलने वाली हर वाइफ को ऐसी सजा देने लगे तो कोई वाइफ ही न बचे ।”
“उसने ऐसा झूठ क्यों बोला ?”
“क्या पता क्यों बोला ! कैरेक्टर में ऐसी थी तो नहीं वो । इतनी भली लड़की थी वो । हसबैंड से इन्डीपैन्डेन्टली इतनी दौलतमन्द थी लेकिन फिर भी अभिमान तो छू तक नहीं गया था उसे ।”
“कुछ बीवियों को अपने पति को उल्लू बनाने में दिलचस्पी होती है । इसमें किसी बदनीयती का या किसी लाभ के लालच का हाथ नहीं होता । वो महज इस बात का यश लेने की ख्वाहिशमन्द होती हैं कि उनका पति उनके बनाये बेवकूफ बना और यूं वो अपने को पति से ज्यादा सयाना साबित करके खुश होती हैं ।”
“वैरी वैल सैड, मिस्टर आगाशे ।” - वो प्रशंसात्मक स्वर में बोली - “जरूर यही बात होगी । या फिर ...”
उसने एक नाटकीय खामोशी अख्तियार की ।
“या फिर क्या ?” - आगाशे उत्सुक भाव से बोला ।
“या फिर अंजना को समझने में, उसके कैरेक्टर को पहचानने में मेरे से भूल हुई होगी । अब उसकी मौत के बाद उसके बारे में कुछ गलत सोचना मुनासिब तो नहीं होगा न, मिस्टर आगाशे !”
“हां । जन्नतनशीन लोगों के बारे में तो अच्छा-अच्छा ही सोचने का दस्तूर है हमारी सोसायटी में ।”
“यू आर राइट एज यूजुअल, मिस्टर आगाशे । अब आप ये बताइये कि वो विलेन, वो दुष्यन्त परमार भी तो जिम्मेदार है अंजना की मौत के लिए ?”
“ऐसा तो आपको नहीं कहना चाहिए, मैडम ।”
“मैं जरूर कहूंगी ।” - वो नाक चढाकर बोली - “आप उस आदमी से कभी मिले नहीं मालूम होते, मिस्टर आगाशे । मिले होते तो कभी उसे अंजना की मौत की जिम्मेदारी से बरी करने की कोशिश न करते । कोई इन्सान है वो ! हर वक्त किसी-न-किसी औरत के पीछे पड़ा रहता है, एक से आजिज आ जाता है तो पूरी बेशर्मी से उससे किनारा करके नई के पीछे पड़ जाता है । इतना कैरेक्टरलैस आदमी है कि तौबा भली । आप वाकई नहीं मिले उससे ?”
“नहीं ।”
“मुझे तो वो आदमी इतना खराब लगता है कि मेरा बस चले तो मैं भूचाल आ आ जाने के लिए या बाढ आ जाने के लिए या कोई तूफान आ जाने के लिए भी उसे ही जिम्मेदार ठहराऊं ।”
“इन हादसों पर कहीं इन्सान का बस होता है, मैडम ?”
“न होता हो । लेकिन उनका किसी पर इल्जाम ठोकने की चायस अगर मुझे हो तो मैं उस दुष्यन्त परमार को ही चुनूंगी । आजकल” - वो आगाशे के और करीब, इतना करीब सरक आयी कि दोनों के वक्ष छूने लगे - “वो किसके पीछे पड़ा हुआ है, मालूम ?”
आगाशे ने इनकार में सिर हिलाया । वह तनिक पीछे हटा ।
“मिसेज कापड़िया के ।” - तत्काल बीच का फासला फिर जीरो करती हुई वो बोली - “सिलवर किंग कहलाता है उसका हसबैंड । फिल्दी रिच, यू नो ?”
“मुझे कोई इल्म नहीं, मैडम ।”
“अभी ताजी बात है न ! वन वीक ही तो हुआ है । विभा दासानी के हाथ से निकल जाने का गम गलत कर रहा है कमीना मिसेज कापड़िया के पहलू की पनाह में । पता नहीं दासानी कैसे अक्ल देने में कामयाब हो पाया अपनी गुमराह हुई बेटी को । लेकिन एक बाप के हक में तो ये अच्छा हुआ के विभा का उस कमीने से पीछा छूट गया ।”
“यू आर राइट ।”
“मिस्टर आगाशे, आपकी राय में उसको अंजना निगम की मौत का कोई अफसोस होगा ? आखिर वो इन्स्ट्रूमेंट था उस मौत में !’
“ऐसी खामखाह की मौत का तो हर किसी को अफसोस होगा ।”
“उस कमीने को नहीं है । कतई नहीं है ।”
“आपको क्या पता ?”
“मुझे सब पता है ।”
“एक बात बताइये, मिसेज पद्मसी ।”
“दो पूछिए ।”
“बात जरा नाजुक है । आप बुरा तो नहीं मानेंगी ?”
“क्या कहते हो, मिस्टर आगाशे ! मैं और आपकी बात का बुरा मानूंगी ? आप जो कहना चाहते हैं, बेहिचक कहिये ।”
“दुष्यन्त परमार ने कभी आप पर डोरे डालने की कोशिश नहीं की ?”
“क्या कह रहे हो, मिस्टर आगाशे ! मैं तो ऐसी आदमी को पास भी न फटकने दूं ।”
“यानी कि ऐसी कोई बात नहीं ?”
“नहीं ।”
“कोशिश तो जरूर की होगी उसने !”
“वो किसलिये ?”
“एक तो इसलिये कि वो आदत से मजबूर है, उसने अपना इमेज जो मेनटेन करना है । दूसरे आप उसकी तवज्जो की पूरी-पूरी हकदार कैन्डीडेट हैं ।”
“मैं !”
“आप ही तो । आप खूबसूरत हैं, खुदमुख्तार हैं, सोसायटी में आपका रुतबा है और ऊपर से दौलतमन्द हैं । वो तमाम खूबियां तो हैं आपमें जिनकी कि दुष्यन्त परमार को औरतजात में टोह रहती है ।”
“किसी चीज की टोह रखने से ही तो वह चीज अपनी नहीं हो जाती, मिस्टर आगाशे ?”
“बिल्कुल सही फरमाया आपने । तो ऐसी कोई बात नहीं आपके और परमार के बीच ?”
“हरगिज भी नहीं ।”
“न पहले कभी थी ?”
“नैवर ।”
“फिर भी आप उससे इतनी खफा हैं ?” - आगाशे एक क्षण ठिठका और धीरे से बोला - “कहीं ऐसा तो नहीं कि आपने अपनी तरफ से कोई कोशिश की हो जो कि उसने कामयाब न होने दी हो ?”
“डोंट बी सिल्ली, मिस्टर आगाशे ।”
“लेकिन...”
“नाओ यू आर इनसल्टिंग मी ।”
“नैवर । आपको अगर ऐसा लगा तो मैं सॉरी बोलता हूं ।”
“यू नीड नॉट बी ।”
“और बताइये, कोई नया प्ले नहीं देखा ?”
“सभी देखे हैं । आप तो जानते ही हैं कि राजधानी की हर थियेटर एक्टीविटी की मैं एक्टिव पार्टिसिपेंट होती हूं ।”
“हां । आजकल ‘सनमकदा’ की बहुत तारीफ हो रही है । बार-बार रिपीट शोज हो रहे हैं । वाकई इतना काबिलेतारीफ है । ये प्ले ?”
“मैंने इसका स्पेशल शो देखा था । अंजना की मौत से एक दिन पहले । खुद डायरेक्टर ने इनवाइट किया था । आपने देखा ?”
“जी हां, देखा ।”
“कैसा लगा ?”
“बढिया । शुरू में जो मंझली बेगम का विलाप वाला सीन था, वो तो बहुत ही बढिया था ।”
“मंझली बेगम के विलाप वाला सीन !” - वो उलझनपूर्ण स्वर में बोली ।
“जी हां ।”
“मैंने वो सीन नहीं देखा । दरअसल मैं जरा लेट हो गयी थी पहुंचने में । वो क्या हैं कि” - वो बड़े संकोचपूर्ण भाव से हंसी - “लेटलतीफी मेरी आदत बन गयी है । न चाहते हुए भी खामखाह लेट हो जाती हूं ।”
“होता हैं कभी-कभी ऐसा भी ।”
“सनमकदा’ में भी मुझे याद है, मैं पूरे पन्द्रह मिनट लेट पहुंची थी । एक बजे का टाइम था प्ले शुरू होने का और मैं पहुंची थी जाके सवा एक बजे ।”
“हो जाता है ।”
मन-ही-मन आगाशे कुछ और सोच रहा था । जिस दृश्य का उसने जिक्र किया था, प्ले के पहले आधे घन्टे में तो वो था ही नहीं । अगर वो केवल पन्द्रह मिनट लेट पहुंची होती तो तब तो उसने वो दृश्य देखा होता ।
“और मिस्टर आगाशे, जानते हैं उस प्ले के इन्टरवल में क्या हुआ ! इन्टरवल में...”
“मैडम, मुझे अब इजाजत दीजिये । मेरी कहीं की एक फिक्स्ड टाइम अप्वायन्टमैंट है और अभी लेटलतीफी मेरी आदत नहीं बनी ।”
“हा हा । फिर जोक मारा, मिस्टर आगाशे !”
“मैं आपसे फिर मिलूंगा ।”
“जरूर । ऐनी टाइम । आई विल लुक फारवर्ड टु दी मीटिंग । लेकिन जाने से पहले एक बात कबूल करके जाइये कि आप अंजना निगम के कत्ल के केस की तफ्तीश कर रहे हैं ।”
“है तो सही ऐसा, मैडम, लेकिन बरायमेहरबानी किसी से कहियेगा नहीं ।”
“सवाल ही नहीं पैदा होता । मिस्टर आगाशे, देख लीजियेगा आप जरूर कायाब होंगे । आप ही कामयाब होंगे इस केस में ।”
“थैंक्यू, मैडम । ऐसा होगा तो यकीनन आपकी दुआओं से ही होगा ।”
“आई विश यू आल दि बैस्ट ।”
“थैंक्यू । गुडनाइट ।”
आगाशे तत्काल वहां से खिसका ।
***
आगाशे ‘रीगल’ पहुंचा ।
अभी भी वहां ‘अपराधी कौन’ ही लगी हुई थी और नून शो की बुकिंग खुली थी ।
उसने बालकनी की एक टिकट खरीदी और जाकर अपनी सीट पर बैठ गया ।
साढे बारह बजे फिल्म आरम्भ हुई जिसे कि आगाशे ने पूरी बेध्यानी से ऊंघते-आंघते देखा ।
सवा दो बजे इन्टरवल हुआ ।
आगाशे हाल से बाहर निकल आया ।
उसने नोट किया कि वो सिनेमा एक वन-वे ट्रैफिक वाली चलती सड़क पर स्थित था और उसका कोई अपना टैक्सी या स्कूटर स्टैण्ड नहीं था । वहां से जनपथ वन-वे ट्रैफिक के लिहाज से उल्टी तरफ था यानी किसी वाहन द्वारा जनपथ पहुंचने के लिए या तो कनाट प्लेस का एक किलोमीटर का पूरा घेरा काटना पड़ता था और या फिर इर्विन रोड के रास्ते टालस्टाय मार्ग पहुंच कर कनाट प्लेस वाले जनपथ के सिरे से ऐन विपरीत सिरे से वहां पहुंचा जा सकता था ।
तेज कदमों से चलता हुआ वो जनपथ पर इण्डियन आयल की इमारत के सामने वाले लेटर बाक्स पर पहुंचा और फिर वैसे ही चलता वापिस ‘रीगल’ पहुंचा ।
उसने घड़ी देखी तो पाया कि उस चक्कर में उसे पूरे सात मिनट लगे थे । जब वह हाल में वापिस पहुंचा तो उसने पाया कि हाल की बत्तियां बुझ चुकी थीं अलबत्ता फिल्म का शेष भाग अभी शुरू नहीं हुआ था । हाल में उस घड़ी केवल एक डोम लाइट जल रही थी कि, आगाशे जानता था कि, तब बन्द की जाती थी जबकि उस घड़ी दिखाई जा रही विज्ञापन फिल्मों का सिलसिला खत्म हो जाता था ।
तभी डोम लाइट बुझ गयी ।
बाकी फिल्म के लिये वहां रुकने का उपक्रम उसने न किया ।
***
आगाशे शिवालिक क्लब पहुंचा ।
पिछले एक हफ्ते से लंच के वक्त वह हर रोज वहां होता था और हर रोज क्लब के किसी मुख्तलिफ मेम्बर के साथ लंच करता था । यूं उसने दुष्यन्त परमार की बाबत कोई जानकारी खोजने की भरपूर कोशिश की थी लेकिन कोई कामयाबी हासिल नहीं हुई थी । उसने हमेशा कोई ऐसा मेम्बर चुना था जो कि दुष्यन्त परमार से भली-भांति परिचित होता था लेकिन जब उसका चर्चा छिड़ता था तो या तो वो परमार की जाती जिन्दगी से पूरी तरह से अनभिज्ञ निकलता था और या फिर वो चुप्पी साध जाता था । यूं अब तक सारा सिलसिला वक्त और पैसे की बरबादी ही साबित हुआ था ।
उसका उस रोज का लंच का साथी मुकेश निगम और दुष्यन्त परमार दोनों को जानता था, दोनों को वो अपना जिगरी यार बताता था और जहरभरी चाकलेटों की कहानी और उनके साथ जुड़ी ट्रेजेडी से भी वो भलीभांति परिचित था । लेकिन इस बाबत बातचीत अभी जरा गर्माई ही थी, वो मुकेश निगम के बारे में अपने कोई उद्गार प्रकट करने की वाला था कि मुकेश निगम वहां पहुंच गया । उस पर निगाह पड़ते ही आगाशे का लंच का साथी खामोश हो गया ।
मुकेश निगम उसकी टेबल के काफी करीब से गुजरता हुआ बार की तरफ बढा ।
तब तक आगाशे ने उसकी अखबार में छपी तस्वीर ही देखी थी ।
“ये मुकेश निगम ही है न ?” - वो सन्दिग्ध स्वर में बोला ।
“हां, वही है ।” - उसका लंच का साथी धीमे स्वर में बोला - “वही है । जब से बीवी मरी है पहली बार क्लब में आया है । क्या हालत बन गयी है बेचारे की !”
आगाशे ने हमदर्दी से सहमति में सिर हिलाया ।
लग वाकई वो निहायत खस्ताहाल रहा था । उसकी रंगत पीली थी, बाल बिखरे थे, आंखो में उदासी थी और चेहरे पर थकान के भाव थे ।
“यूं तो” - आगाशे बोला - “बीवी के गम में ये भी मर जायेगा ।”
“कोई बड़ी बात नहीं ।” - उसका लंच का साथी बोला - “बहुत मुहब्बत थी इसे अपनी बीवी से । जान छिड़कता था बीवी पर । बीवी का कातिल ही पकड़ा जाये और अपनी करतूत की सजा पा जाये तो बेचारे को कोई तसल्ली मिले ।”
“तुम तो इसे अपना जिगरी यार बता रहे थे । इसने तो करीब से गुजरते वक्त तुम्हारे से हल्लो तक नहीं की ।”
“हलकान है न बेचारा ! कुछ देख के भी नहीं देखता । कुछ समझ के भी नहीं समझता । सदमे ने मति हर ली है बेचारे की ।”
आगाशे इसी नतीजे पर पहुंचा कि उस शख्स की मुकेश निगम से कोई बहुत ही मामूली वाकफियत थी और दुष्यन्त परमार से शायद उतनी भी नहीं थी । अत: उससे कोई जानकारी हासिल होने की उम्मीद करना वक्त की मुकम्मल बरबादी के अलावा कुछ न था ।
उसने खामोशी से लंच किया ।
बाकी जितनी देर वो क्लब में ठहरा, रोज पद्मसी से हुआ उसका वार्तालाप उसके जेहन में टेपरिकार्डर की तरह बजता रहा । उस वार्तालाप की एक बात तो उसके जेहन से निकल ही नहीं रही थी ।
मरने वाली ने शर्त की बाबत अपने पति से झूठ क्यों बोला ?
जब वो अपने लंच के साथी से रुख्सत लेने की तैयारी कर रहा था तो एकाएक बिजली की तरह उस सवाल का जवाब उसके जेहन में कौंधा ।
“ओह माई गाड !” - उसके मुंह से निकला ।
“क्या हुआ ?” - उसका लंच का साथी हड़बड़ा कर बोला ।
“कुछ नहीं ।” - आगाशे तत्काल उठ खड़ा हुआ - “फिर मिलेंगे । नमस्ते ।”
जीती रह पट्ठी ! - मन-ही-मन रोज पद्मसी को बधाइयां देता हुआ आगाशे वहां से विदा हुआ था । पहली बार उस औरत के मुंह से कोई काम आने वाली बात निकली थी ।
वो बाकी का दिन आगाशे का बहुत ही ज्यादा व्यस्तता में गुजरा ।
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