दीपसिंह एयरपोर्ट के बाथरूम में पहुंचा और दरवाजा बंद कर लिया। चेहरे पर मुस्कान थिरक रही थी। उसने कलाई पर बंधी घड़ी की दोनों सुइयां तीन पर की और चेन में लगा, न नजर आने वाला बटन दबाया तो घड़ी से भिनभिनाहट की तीव्र आवाज आने लगी। वह घड़ी को मुंह के पास ले जाकर बोला।
“हैलो–हैलो। दीपसिंह दिस साइड। हैलो, दीपसिंह दिस साइड। हैलो.......।”
“कहो दीपसिंह।”
“देवराज चौहान एयरपोर्ट पर आया हुआ है।” दीपसिंह ने जल्दी से कहा –“उसने चेहरा बदलने के लिए हलका सा मेकअप कर रखा है। लेकिन मैंने उसे ताड़ ही लिया। अगर धोखा खा जाता तो गड़बड़ हो जानी थी।”
“वैरी गुड। हमारी योजना हर कदम पर ठीक काम कर रही है। मेरा ख्याल ठीक था कि वह एयरपोर्ट अवश्य पहुंचेगा। उससे बात हुई?”
“यस, दस हजार में पटा हूं मैं।” दीपसिंह के होंठों पर मुस्कान उभरी –“वह हीरों के बारे में जानना चाहता है। और इस वक्त उसे लॉबी में छोड़कर, हीरों के लिए ही मालूम करने आया हूं।”
“उसे शक मत होने देना।”
“दीपसिंह बेवकूफ नहीं है जो –।”
“वो तुमसे कहीं ज्यादा अक्लमंद है। सिर्फ इस बात को ध्यान रखो। यह अलग बात है कि इस वक्त हमारे सोचे-समझे जाल में फंसता जा रहा है। एक को दस घेरेंगे तो, वह भी क्या करेगा।” घड़ी में से पतली सी आवाज निकल रही थी।
“मैं लापरवाह नहीं हूं।”
“गुड। आगे भी संभल कर रहना। खास बात हो तो फौरन खबर करना।”
“ठीक है।” कहने के साथ ही दीपसिंह ने ट्रांसमीटर ऑफ किया और उसे पुनः घड़ी का रूप दे दिया।
आधे घंटे बाद हवलदार दीपसिंह लापरवाही भरे अन्दाज में चलता हुआ, एयरपोर्ट की लॉबी में मौजूद कुर्सियों तक पहुंचा तो पल भर के लिए हड़बड़ा कर रह गया।
देवराज चौहान वहां नहीं था।
दीपसिंह को लगा जैसे पांवों के नीचे से फर्श खिसक रहा हो तो देवराज चौहान को उस पर शक हो गया। वह चला गया। योजना बेकार हो गई। सबकी मेहनत, खराब गई। अब क्या होगा? श्याम सुन्दर की जान को खतरा हो सकता है। दीपसिंह को हर तरफ बुरा ही बुरा नजर आ रहा था। साथ ही साथ उसकी निगाह भी हर तरफ फिरती जा रही थी। चेहरा फक्क पड़ता जा रहा था।
एकाएक उसका दिल जोरों से धड़का।
देवराज चौहान उसकी तरफ बढ़ा चला, आ रहा था।
दो पल तो दीपसिंह बुत की तरह उसे देखता रहा फिर खुद को संभालते हुए गहरी सांस ली। सब ठीक तो है। वह यूं ही घबरा रहा है। योजना ठीक है और उस पर ठीक ढंग से काम हो रहा है।
पास पहुंचकर देवराज चौहान ने दीपसिंह के चेहरे पर निगाह मारी।
“इतने घबराये हुए क्यों हो?”
“घबराये हुए।” दीपसिंह ने लम्बी सांस ली –“वाह साहब जी, वाह! मेरा हार्ट अटैक हो जाता अगर आधा मिनट और नजर न आते। मैं तो समझा था कि मेरे दस हजार गये पानी में।”
“दस हजार इतने भारी नहीं होते कि उनके डूबने का खतरा पैदा हो जाये।” देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा।
“आप सामने हैं तो कह सकता हूं, साहब जी ठीक कह रहे हैं। लाइये दस हजार।”
“मालूम किया?”
“पक्का मालूम किया। लेकिन पहले नोट-माल रोकड़ा दान-दक्षिणा।”
“यहीं लोगे, सबके सामने?”
“हर्ज ही क्या है साहब जी।” हवलदार दीपसिंह ने दांत फाड़े –“रोज का काम है। मैंने आपको दस हजार उधार दिया था। आप वो दे रहे हैं। कौन से कानून में लिखा है कि वर्दी पहन कर, उधार लेना-देना मना है।”
देवराज चौहान ने जेब से सौ की गड्डी निकाली। दीपसिंह ने फौरन हाथ बढ़ाया। गड्डी थामी और जेब में डालने के बाद, छोटी सी मूंछ पर हाथ फेरा।
“बताओ।”
“पिछले दिनों भारी संख्या में कीमती हीरे पकड़े गये थे। वह अभी तक एयरपोर्ट के स्ट्रांग रूम में ही हैं। एक-दो दिन में सरकारी खजाने जमा करा दिए जायेंगे।” दीपसिंह ने धीमे स्वर में कहा –“आपका दोस्त ठीक कह रहा था।”
“एयरपोर्ट का स्ट्रांग रूम किस तरफ पड़ता है।”
हवलदार दीपसिंह ने देवराज चौहान को घूरा।
“बस साहब जी, बहुत हो गया। मुझे तो लगता है आप लूटपाट का प्रोग्राम बना रहे हैं।” दीपसिंह के माथे पर बल पड़े।
देवराज चौहान उसे देखकर मुस्कराया फिर बाहर जाने वाले रास्ते की तरफ बढ़ गया।
दीपसिंह ने चैन की सांस ली कि सब ठीक-ठाक निपट गया।
☐☐☐
कार के नम्बर, के बारे में मालूम करने जगमोहन और सोहनलाल अथॉरिटी पहुंचे। जहां हर तरफ भीड़ का बोलबाला नजर आ रहा था। अजीब सा शोर वहां उठा हुआ था। हर कोई अपने काम में व्यस्त, परेशान भागा-दौड़ा नजर आ रहा था।
“किसी दलाल को पकड़ने से काम जल्दी हो जायेगा।” सोहनलाल ने कहा।
यही सोचकर जगमोहन नजरें दौड़ा रहा था कि तभी चालीस वर्षीय व्यक्ति पास पहुंचा।
“जनाब कोई काम हो तो बताइये। लाइसेंस बनवाना है। नया नम्बर लेना है या फिर।”
“एक कार का नम्बर है। उसके मालिक का पता लगाना है।” जगमोहन ने कहा।
“कोई एक्सीडेंट मारा उस कार वाले ने।” उस व्यक्ति ने कहा।
“पूरी राम कहानी सुनाऊं तेरे को।” जगमोहन तीखे स्वर में बोला।
पल भर के लिए वह सकपकाया फिर जल्दी से कह उठा।
“मुझे राम कहानी से क्या लेना-देना, आप नम्बर दीजिये।”
“कितने लेगा?”
“पांच सौ।”
“छोटे से काम के पांच सौ।” जगमोहन ने जल्दी से कहा।
“इतने तो लगेंगे ही जनाब। भीतर वालों को भी देने होते हैं। सारे मेरी जेब में तो आते नहीं।”
“ठीक है ठीक है।” सोहनलाल हाथ हिलाकर बोला –“मैं दूंगा। जल्दी आना।” और कार का नम्बर बता दिया।
वह व्यक्ति चला गया।
जगमोहन ने सोहनलाल को घूरकर देखा।
“ज्यादा नोट आ गये हैं क्या?”
“रात ही तो ताजा-ताजा हाथ मारा है।” सोहनलाल ने गोली वाली सिगरेट सुलगाई –“पूरे बीस लाख का।”
“पहले क्यों नहीं बताया।”
“अब तो बता दिया।”
“तेरे को उस पुलिस वाले से बचाने के लिए दो बार पैसे दिए थे। मालूम है कितने बनते हैं।”
“डायरी में लिखकर रख। पक्की स्याही से।”
“फिर क्या होगा?”
“मिटेंगे नहीं।”
“मैं वापस मांग रहा हूं।” जगमोहन ने कड़वे स्वर में कहा –“कुल मिलाकर –।”
“जब मैं कहूं तब बताना। अभी मेरे पास पैसे नहीं हैं।” सोहनलाल हँसा।
“रात तूने बीस लाख का हाथ मारा है।” जगमोहन उखड़ा।
“हां। मैंने ही तो बताया है तेरे को।”
“और तू कहता है कि पास में पैसे नहीं हैं।”
“नहीं हैं। तेरे जैसे किसी और को देने थे। वो दे आया।”
“सारे?”
“हां। पचास हजार बचा है। वो तेरे किस काम का।”
“वो ही बहुत है। बाकी बाद में ले लूंगा। निकाल।”
सोहनलाल ने मुंह बनाकर, जगमोहन को देखा।
“बचा, पचास हजार भी तेरे को दे दिया तो, मैं कहां जाऊंगा। कुछ तो शर्म किया कर। आखिरी कपड़ा तो मत उतार।”
“ठीक है बेटे।” जगमोहन ने दांत भींचकर उसे घूरा –“अब की बार पुलिस वाले के हत्थे चढ़ना। मैं तेरे को बचाने से रहा। तब तो चूहा बन जाता है।”
“वो तो।” सोहनलाल हंसा –“मेरा स्टाइल है।”
“अब तेरा वो ही स्टाइल देखूंगा।” जगमोहन ने जले-भुने स्वर में कहा।
सोहनलाल कुछ नहीं बोला।
दस मिनट बाद वही व्यक्ति आता दिखाई दिया तो सोहनलाल बोला।
“मैं अभी आया।” कहने के साथ ही दाएं-बाएं हो गया।
वह व्यक्ति जगमोहन के पास पहुंचा।
“लीजिये साहब। जिस कार का नम्बर आपने बताया था, वह इस पते पर रजिस्टर्ड है। कहने के साथ ही उसने कागज पर लिखा पता उसे थमा दिया –“मेरा पांच सौ दीजिये।”
जगमोहन ने कागज थामते हुए, सोहनलाल की तलाश में नजरें घुमाई।
सोहनलाल कहीं नजर नहीं आया।
“वो कहां गया?” जगमोहन के होंठ सिकुड़े।
“कौन?”
“जो मेरे साथ था।”
“मुझे क्या मालूम जनाब। मेरे पांच सौ दीजिये। मैंने दूसरी पार्टी का काम करना है।”
सोहनलाल की याद में बुड़-बुड़ करते जगमोहन ने पांच सौ रुपये उसे दिये। वह आदमी वहां से चला गया कि तभी सोहनलाल आ पहुंचा।
“तुम कहां चले गये थे?” जगमोहन ने तीखे स्वर में कहा।
“यहां रहता तो पांच सौ मुझे देने पड़ते।” सोहनलाल ने दांत फाड़े –“नाराज क्यों होता है। डायरी में लिख लेना। कभी न कभी तो हिसाब हो ही जायेगा।”
जगमोहन खीझकर रह गया। फिर उसने कागज पर लिखे पते को देखा।
“वह कार इस पते की है।” जगमोहन बोला –“आओ, यहां से श्याम सुन्दर के बारे में पता चलेगा।”
वह व्यक्ति, जिसने पांच सौ लिए थे। जो दलाल बनकर जगमोहन और सोहनलाल से मिला था। दीवार की ओट से जगमोहन और सोहनलाल को जाता देखता रहा। जब वह चले गये तो अपनी जगह से हिला और वहां से बाहर आकर, इधर-उधर देखा।
जगमोहन और सोहनलाल कहीं भी नजर नहीं आये। स्पष्ट था कि वह जा चुके हैं।
वह एक तरफ खड़ी कार में बैठा और कलाई पर बंधी घड़ी की दोनों सुइयां तीन के अंक पर करके, घड़ी को ट्रांसमीटर का रूप दिया और बात की।
“हैलो-हैलो। मैं मदनलाल बोल –।”
“कहो मदनलाल। कोई खबर –?” घड़ी में से बारीक आवाज निकलकर उसके कानों में पड़ी।
“जगमोहन और सोहनलाल अथॉरिटी आए थे, श्याम सुन्दर वाली कार का नम्बर लेकर।”
“वैरी गुड। फिर?”
“मैं दलाल बनकर उनसे मिला। वह जानना चाहते थे कि कार किस पते पर रजिस्टर्ड है। मैंने उन्हें वही पता दे दिया। जो मुझे देने को कहा गया था।”
“ठीक किया। उन्हें किसी तरह का शक तो नहीं हुआ?”
“नहीं। हम लोगों का यह ख्याल ठीक निकला कि श्याम सुन्दर के बारे में जानने के लिए, उसकी कार के नम्बर से जानने की चेष्टा करेंगे कि उसकी हकीकत क्या है।”
“हमने उनके गिर्द ऐसी घेराबंदी कर दी है कि वह निकल नहीं सकते। वह समझ रहे हैं कि जो कर रहे हैं। वह खुद कर रहे हैं। इस बात को तो ख्वाब में भी नहीं सोच सकते कि वे हमारे इशारे पर नाच रहे हैं।”
“हां।”
“तुम वापस पहुंचो।” इसके साथ ही ट्रांसमीटर ऑफ कर दिया गया।
☐☐☐
दूसरी बार बेल बजाने पर दरवाजा खुला। छोटा सा, सादा सा मकान था वह। कॉलोनी भी कोई खास बढ़िया नहीं थी। दरवाजा खोलने वाली बीस वर्षीय युवती थी। जिने सस्ता सा सूती सूट पहन रखा था। चेहरा ठीक ही था। न तो वह ज्यादा सुन्दर थी और न ही गई गुजरी।
उसने प्रश्नभरी निगाहों से दोनों को देखा।
“श्याम सुन्दर से मिलना है।” जगमोहन ने कहा।
इसके साथ ही सामान्य–शांत नजर आ रही युवती के चेहरे पर गुस्सा उभर आया।
“कितनी बार कह चुकी हूं कि भैया यहां नहीं रहते। न ही उनसे हमारा रिश्ता बाकी रहा है। पापा ने तो अखबार में भी निकाल दिया है कि भैया से हमारा कोई वास्ता नहीं। फिर आप हमारा पीछा क्यों नहीं।”
“कौन है बेटी?” मर्दाना आवाज उनके कानों में पड़ी।
“पुलिस वाले ही हैं और कौन होंगे।” युवती का स्वर गुस्से से भरा हुआ था।
जगमोहन और सोहनलाल की नजरें मिलीं।
तभी युवती के पीछे, पचपन-साठ वर्षीय व्यक्ति का चेहरा नजर आया। युवती भीतर चली गई। अब वह व्यक्ति उनके सामने था। सिर के बाल अधिकतर सफेद थे। दो-तीन दिन की शेव भी बढ़ी हुई थी। वहां भी सफेद बाल ही थे। आंखों पर नजर का चश्मा पड़ा था। शरीर पर मैला हो रहा कुर्ता-पायजामा था।
“तुम लोगों को कितनी बार कहा है कि श्याम सुन्दर से हमारा कोई वास्ता नहीं।” उसने थकी टूटी आवाज में कहा –“उसे पकड़ो और फांसी पर चढ़ा दो। औलाद ही नालायक निकले तो हम क्या कर सकते हैं। नहीं होती तो अच्छा था। हर दूसरे दिन आकर उसे पूछना, हमें परेशान करना तुम लोगों को अच्छा लगता है तो आ जाया करो। बेटे ने तो बदनाम कर दिया हमें, जो कसर बची है, वह तुम लोग पूरी कर दो।”
जगमोहन ने गहरी सांस लेकर कहा।
“हम आपको फिर तकलीफ नहीं देंगे।”
“बहुत मेहरबानी होगी।” उस व्यक्ति ने आभार भरे किन्तु तीखे स्वर में कहते हुए हाथ जोड़े।
“नम्बरदार कहां रहता है।” जगमोहन ने पूछा।
“नम्बरदार।” उस व्यक्ति के चेहरे पर गुस्सा उभरा –“उसी के साथ मिलकर तो श्याम सुन्दर बिगड़ा है। उसके बरबादी तक पहुंचने में जो कसर बची थी, वह उस कमीने नम्बरदार ने पूरी कर दी। बस।”
“मैंने उसका पता पूछा है।”
“मैं नहीं जानता। कितनी बार कह चुका हूं। तुम लोग फिर नम्बरदार का पता पूछते हो। गुण्डा-बदमाश है। कहीं गलत काम कर रहा होगा। ढूंढ लो। लेकिन हमें तंग मत करो। जो थोड़ी-बहुत इज्जत बची है। उसे खराब मत करो।” कहने के साथ ही वह पलटा और दरवाजा बंद कर लिया।
सोहनलाल और जगमोहन की नजरें मिली।
“चल भाई –।” जगमोहन गहरी सांस लेकर कह उठा।
☐☐☐
श्याम सुन्दर की बात ठीक निकली थी कि एयरपोर्ट पर पकड़े गये हीरे मौजूद हैं और उन्हें एक-दो दिन में वहां से ले जाया जाने वाला है।
जगमोहन और सोहनलाल ने कार के नम्बर के दम पर श्याम सुन्दर के बारे में जो जानकारी हासिल की थी, उससे स्पष्ट था कि श्याम सुन्दर की हरकतों से तंग आकर, उसके घर वालों ने उसे बाहर निकाल दिया था और कानूनी तौर पर भी उससे नाता तोड़ लिया था।
तीनों ने अपनी जानकारियां एक-दूसरे को दी।
देवराज चौहान ने सोच भरे अन्दाज में सिगरेट सुलगाई।
“क्या इरादा बनाया?” जगमोहन ने आखिरकार पूछा।
“यह काम करने में कोई हर्ज नहीं।” देवराज चौहान ने कहा –“श्याम सुन्दर के मुताबिक करीब एक अरब की कीमत के हीरे हैं। यानी कि सौ करोड़ के हीरों के बदले, जो भी खतरा सामने आयेगा। वह कम होगा।”
“मतलब कि तैयारी शुरू।” जगमोहन खुशी से कह उठा।
देवराज चौहान ने सोहनलाल को देखा।
“कल श्याम सुन्दर तुम्हारे पास आयेगा। हम भी पहुंच जायेंगे। बाकी बातें तभी होंगी।”
“लेकिन –।” जगमोहन ने टोका –“हमें उस नम्बरदार को नहीं भूलना चाहिये। जिसने तुम्हें धमकी देकर कहा है कि श्याम सुन्दर जो कहेगा, वह बात नहीं माननी है। किसी खास मौके पर वह हमारी योजना खराब कर सकता है।”
“उसके बारे में श्याम सुन्दर से बात की जायेगी।” देवराज चौहान ने कहा –“वह ही बतायेगा कि नम्बरदार को बीच में आने से कैसे रोका जा सकता है। नहीं तो उसके बारे में कोई और रास्ता सोचेंगे।”
☐☐☐
अगले दिन श्याम सुन्दर ठीक वक्त पर, सोहनलाल के पास पहुंचा।
सोहनलाल उसके ही इन्तजार में था।
“लगता है तुम सुबह से ही, बारह बजने का इन्तजार कर रहे थे।” सोहनलाल का स्वर कुछ तीखा ही था।
श्याम सुन्दर ने उसे घूरा।
“कल मेरी रिवॉल्वर, यहां रह गई थी।”
“वो, उधर ही पड़ी है। उठा लो।”
श्याम सुन्दर ने उस तरफ देखा। जिस तरफ जगमोहन ने रिवॉल्वर को ठोकर मारकर, दूर किया था। रिवॉल्वर वहीं थी। आगे बढ़कर श्याम सुन्दर ने रिवॉल्वर उठाई । खोलकर चैम्बर चेक किया। फिर उसे बंद करके जेब में डालता हुआ पास आया और कुर्सी पर बैठ गया।
सोहनलाल की निगाह, उस पर ही टिकी थी।
“अब बताओ। देवराज चौहान ने क्या कहा –वह हीरे लूटने के लिए तैयार है या नहीं?” श्याम सुन्दर बोला।
“पहले तुम बताओ।”
“क्या?”
“यह तो तुमने ठीक कहा कि एयरपोर्ट पर, कुछ दिन पहले करीब सौ करोड़ के हीरे पकड़े हैं और वह एक-दो दिन में वहां से कहीं और भेजे जाने वाले हैं।”
“तो मालूम कर लिया।" श्याम सुन्दर होंठ सिकोड़कर कह उठा।
“हां।” सोहनलाल ने गोली वाली सिगरेट सुलगाई –“यह भी मालूम कर लिया कि तुम्हें घर से निकाला हुआ है।”
“तुम मेरे घर गये थे।” श्याम सुन्दर के होंठों से निकला।
“क्या हर्ज है? हर्ज है क्या?”
श्याम सुन्दर होंठ भींचे सोहनलाल को देखने लगा।
“कैसे मालूम किया मेरे घर के बारे में?”
“तेरी कार के नम्बर से।”
“वहां कौन मिला?”
“छोड़ इस बात को। वैसे जो भी मिला, तेरी तारीफों के पुल बांध रहा था।” सोहनलाल ने व्यंग्य से कहा –“वह तो हमसे और बात करना चाहते थे, लेकिन हम ही वहां से जल्दी चल दिए।”
“मेरे घर जाने की क्या जरूरत थी।” श्याम सुन्दर की आवाज कठोर हो गई।
“बहुत जरूरत थी। मालूम तो करना ही पड़ता है कि, पास में बैठने वाला कौन है।” सोहनलाल ने कहा –“तेरे बारे में सब ठीक ही निकला लेकिन मुझे अभी भी यह क्यों लगता है कि तू बंदा ठीक नहीं है।”
श्याम सुन्दर के होंठ भिंच गये।
“बहुत मालूम हो जायेगा कि मैं ठीक बंदा हूं।” उसने तीखे स्वर में कहा।
“हां। मालूम तो हो जायेगा।” सोहनलाल ने उसे देखते हुए सिर हिलाया –“लेकिन देखना यह है कि क्या मालूम होता है।”
“सोहनलाल।” श्याम सुन्दर उखड़े स्वर में कह उठा –“तुम फिजूल की बातों में वक्त खराब कर रहे हो। मेरे पास और भी काम हैं। देवराज चौहान यह काम करने को तैयार हुआ कि नहीं? अगर नहीं तो, मैं कोई और इन्तजाम करूं।”
“देवराज चौहान तैयार है।”
सोहनलाल के यह शब्द सुनकर श्याम सुन्दर ने मन ही मन मील भर लम्बी चैन की सांस ली कि सब ठीक रहा। कहीं भी कोई गड़बड़ नहीं हुई। सोहनलाल जाने क्यों उस पर शक कर रहा है। खासतौर से सिर्फ इससे, सतर्क रहने की जरूरत है। चेहरे के भावों में कोई बदलाव नहीं आया।
“ऐसा है तो देवराज चौहान से मेरी बात कराओ। हमारे पास वक्त कम है।” श्याम सुन्दर गम्भीर स्वर में कह उठा –“कल एयरपोर्ट से हीरे निकाले जायेंगे।”
सोहनलाल ने गोली वाली सिगरेट का तगड़ा कश लिया।
“तसल्ली रख। देवराज चौहान आने ही वाला है। गले लगकर बात कर लेना।”
श्याम सुन्दर कुछ नहीं बोला।
“घर से तो तेरे को निकाल रखा है।” सोहनलाल बोला –“तो आजकल ठौर-ठिकाना कहां बना रखा है?”
“होटल में।”
“तगड़ा ही हाथ मारा होगा कहीं।” सोहनलाल ने दांत फाड़े।
जवाब में श्याम सुन्दर उसे घूर कर रह गया।
“चाय पिला।” कुछ पल बाद श्याम सुन्दर बोला।
“तेरी बीवी नहीं हूं। सोहनलाल हूं मैं।” सोहनलाल बेहद शांत स्वर में बोला –“सब सामान रखा है। उठ और बना। दो घूंट मेरे लिये भी बना दे।”
“भाड़ में जा।”
☐☐☐
देवराज चौहान और जगमोहन वहां पहुंचे।
श्याम सुन्दर मन ही मन सतर्क हो गया। उनके भीतर प्रवेश करते ही बोला।
“हमारे पास सिर्फ आज का दिन बचा है कल एयरपोर्ट से, वैन पर हीरे रवाना होंगे। इस बारे में हमने जो भी तय करना है। वह फौरन तय करके, कल के लिए तैयारी कर लेनी चाहिये।”
देवराज चौहान और जगमोहन कुर्सियों पर बैठ गये।
“पहले नम्बरदार के बारे में बताओ। वह कहां रहता है।” देवराज चौहान ने कहा –“इस काम में वह ठीक मौके पर, हमारे लिए कोई दिक्कत खड़ी कर सकता है। उसके बारे में सोचना जरूरी है।”
श्याम सुन्दर के होंठों पर मुस्कान उभरी।
“उसकी अब फिक्र करने की जरूरत नहीं। पिछले किसी मामले में, आज सुबह ही पुलिस ने उसे धर लिया। इस वक्त वह माहिम थाने के लॉकअप में है।” श्याम सुन्दर के चेहरे पर बराबर मुस्कराहट छाई रही।
“पक्का?”
“हां। पक्की बात कह रहा हूं।” श्याम सुन्दर की आवाज में विश्वास के भाव थे।
सोहनलाल के होंठ सिकुड़े।
देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगा कर कश लिया।
“अब बताओ हीरे वैन में, एयरपोर्ट से कब और कैसे जायेंगे?” देवराज चौहान बोला।
श्याम सुन्दर के चेहरे पर पल भर के लिए सोच के भाव उभरे फिर सिर झटक कर बोला।
“अगर मुझे दो घंटे का वक्त मिल जाये तो, बात अच्छे ढंग से होगी।”
“क्या मतलब?” जगमोहन ने पूछा।
“मेरे पास, एयरपोर्ट से हीरों की रवानगी की जो खबर है, वह दो दिन पहले की है। कहीं वक्त के बारे में कोई फेर बदल न हो गया हो, इस बात को पक्के तौर पर जानने में मुझे दो घंटे लगेंगे।”
“कच्चे तौर पर ही बता दो कि अभी तक तुम्हें क्या जानकारी है?” जगमोहन की नजर उस पर थी।
“वैन ने शाम चार बजे के आस-पास रवाना होना था एयरपोर्ट से। यह खबर गुप्त रखी जा रही है कि उस वैन में करोड़ों के हीरे है। यही वजह है कि इस काम में सामान्य वैन इस्तेमाल की जाएगी। उस पर किसी भी तरह से कुछ नहीं लिखा होगा। यहां तक कि भारत सरकार भी नहीं। किसी को शक न हो, इस बात की सावधानी बरतते हुए, वर्दी में कोई गार्ड नहीं होगा। राइफल जैसा कोई बड़ा हथियार नहीं होगा। जो कि दूर से ही देखने में नजर आ जाये। वैन में ड्राइवर के अलावा साधारण से नजर आने वाले दो व्यक्ति होंगे। हकीकत में जो अच्छे निशाने वाले गनमैन होंगे। वह वैन उसी रास्तों से निकलेगी, जिनके बारे में बता चुका हूं। उन सड़कों का नक्शा बनाकर दे चुका हूं।” कहने के साथ ही पल भर के लिए श्याम सुन्दर ठिठका फिर कह उठा –“दो घंटे मैं इसलिए चाहता हूं कि वैन की रवानगी का वक्त पक्का जान सकूँ। और यह भी पक्के तौर पर जान सकूँ कि वैन वास्तव में उन्हीं सड़कों पर से गुजरेगी, जिसकी जानकारी मुझे पहले से ही है। इसके साथ ही अगर कोई और नई खबर हो तो मालूम हो सके। मैं सब कुछ तुम्हारे सामने तैयार करके रख देना चाहता हूं देवराज चौहान । अपनी तरफ से कोई कमी नहीं छोड़ना चाहता। उसके बाद तुमने इस बात का फैसला करना है कि वैन पर कहां और कैसे हाथ डालना है।”
दो पलों के लिए वहां खामोशी रही।
“जिन बातों को जानने के लिए तुम दो घंटे का वक्त मांग रहे हो। वह किससे पता करोगे?” देवराज चौहान ने पूछा।
“एयरपोर्ट पर मेरा खास सोर्स है। श्याम सुन्दर के होंठों पर मुस्कान उभरी।
“जिसके बारे में तुम बताओगे नहीं।” जगमोहन कह उठा।
“नहीं। बताने की कोई जरूरत भी नहीं है। हमारा काम निकल रहा है। जो खबर हमें चाहिये। वह हमें मिल रही है। इससे ज्यादा हमें और किसी बात से मतलब नहीं होना चाहिये।”
सोहनलाल गोली वाली सिगरेट के कश लेता, शांत भाव से उसे देखे जा रहा था।
“ठीक है।” देवराज चौहान सिर हिलाकर बोला –“दो घंटे बाद हम तुम्हें यहीं मिलेंगे।”
“ज्यादा देर नहीं लगेगी।” श्याम सुन्दर ने कहा –“एयरपोर्ट तक आना-जाना ही है। और वहां पर दस-पन्द्रह मिनट लगेंगे। मैं गया और अभी वापस पहुंचा।”
“मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूं।” एकाएक सोहनलाल कह उठा।
श्याम सुन्दर ने सोहनलाल को देखा और मुस्करा कर कह उठा।
“जब काम सिर्फ मेरे जाने से ही हो जायेगा तो फिर साथ में भीड़ ले जाने का क्या फायदा। ऐसे कामों में जितने कम लोग भागदौड़ करें, उतना ही बेहतर है। कहीं भी गड़बड़ हो सकती है। कोई पुलिस वाला हम दोनों को जानता हुआ तो, हमें साथ देखकर वह फौरन समझ जायेगा कि हम कोई काम करने जा रहे हैं।”
सोहनलाल मुस्कराया।
“बहुत सयाना है तू। लेकिन तेरा सयानापन मेरी पकड़ में नहीं आ रहा।” सोहनलाल बोला।
श्याम सुन्दर हौले से हंस कर बोला।
“सारी उम्र इसी शक में पड़े-पड़े तू दुनिया से चला जायेगा। मुझे समझ में नहीं आता कि तुम जैसे शक्की लोग इस धंधे में कैसे टिके हुए हैं। जबकि यह काम तो विश्वास पर होते हैं।”
“पहली बार ही, तेरे को देखकर मेरी छाती में भारीपन महसूस हो रहा है। इससे पहले कभी नहीं हुआ।”
श्याम सुन्दर ने लापरवाही से देवराज चौहान को देखा।
“मैं जा रहा हूं और दो घंटों में लौटता हूं।”
देवराज चौहान ने सहमति से सिर हिला दिया।
श्याम सुन्दर बाहर निकल गया।
“मेरी बात तुम दोनों में से कोई भी समझता क्यों नहीं।” सोहनलाल खीझकर कह उठा।
देवराज चौहान–जगमोहन ने उसे देखा।
“क्या?”
“कि यह श्याम सुन्दर ठीक आदमी नहीं है।” सोहनलाल के चेहरे पर झल्लाहट थी।
“क्यों?”
“इस क्यों का जवाब होता तो, पहले ही बता चुका होता।” सोहनलाल ने जगमोहन को घूरा –“लेकिन लिख लो कि श्याम सुन्दर सौ प्रतिशत कहीं न कहीं गड़बड़ कर रहा है। इसका थोबड़ा शुरू से ही मुझे खटक रहा है।”
“वो ठीक कह रहा था। ज्यादा शक-वहम में न पड़ो।” जगमोहन ने कहा –“तुम मेरे साथ ही थे, जब श्याम सुन्दर के बारे में हमने छानबीन की। उसकी कार के नम्बर से उसके घर का पता मालूम किया। वहां उसकी बहन-बाप मिले। उनके प्रवचन तुमने उनके मुंह से ही सुना। मेरे ख्याल में उसके बाद तो शक की गुंजाइश नहीं होनी चाहिए।”
“तो यह बात मेरे दिमाग में क्यों नहीं आ रही?” सोहनलाल होंठ भींचकर बोला।
“दिमाग ठीक करो। आ जायेगी।”
“सोहनलाल का कहना ठीक भी हो सकता है।” देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा।
“क्या मतलब?” जगमोहन के होंठों से निकला।
“मैंने कहा है, कि सोहनलाल का कहना ठीक भी हो सकता है कि श्याम सुन्दर कोई गड़बड़ करने का इरादा रखता हो।”
जगमोहन दो पलों तक देवराज चौहान को देखता रह गया।
“तो फिर–फिर क्या तुम यह सौ करोड़ की लूट नहीं करोगे?” जगमोहन के माथे पर बल पड़े।
“यह काम तो होगा ही।” देवराज चौहान ने सिर हिलाया –“करेंगे हम। साथ ही हमें श्याम सुन्दर के हरकत के प्रति सतर्क रहना होगा, सोहनलाल के शक को देखते हुए। सारे हालातों पर गौर करने के बाद, यह समझ में आता है कि श्याम सुन्दर एक ही जगह गड़बड़ कर सकता है।”
“कौन सी जगह?”
“जब वैन में पड़े हीरे, हथियाने में कामयाब हो जायें तो वह, अपनी अलग बना रखी योजना के तहत, अपने साथियों के दम पर, उन हीरों को हमसे छीनने की कोशिश करे।”
“हाँ। ठीक कहा।” जगमोहन का सिर हिला –“श्याम सुन्दर अगर गलत आदमी है और मन में चोर है ती यहीं पर आकर ही वह गड़बड़ कर सकता है। और कहीं तो कुछ करने का फायदा नहीं मिलेगा।”
“मैं –।” एकाएक सोहनलाल बोला –“माहिम थाने में होकर आता हूं।”
“माहिम थाने?”
“हां। श्याम सुन्दर का कहना है कि नम्बरदार को पुलिस ने पकड़ लिया है आज सुबह। मुझे तो विश्वास नहीं आता। मैंने तो आज तक ठीक मौके पर अड़चन आती देखी हैं। जाती नहीं देखी।”
“तेरा मतलब कि श्याम सुन्दर ने झूठ कहा है कि –।”
“बेशक सच कहा हो।” सोहनलाल उखड़े स्वर में बोला –“लेकिन उसने जो कहा है, वह मालूम तो करूंगा ही कि ठीक कहा है या गलत।” इसके साथ ही सोहनलाल बाहर निकलता चला गया।
देवराज चौहान और जगमोहन की नजरें मिलीं।
“क्या ख्याल है। सोहनलाल ठीक कहता है?” जगमोहन ने पूछा।
“हम लोगों की दुनिया में कभी भी, कुछ भी हो सकता है।” देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा –“सोहनलाल का शक ठीक भी हो सकता है और गलत भी। अगर कुछ हुआ तो, वक्त आने पर सामने आ जायेगा।
☐☐☐
हर रोज की तरह माहिम पुलिस स्टेशन में, भीड़ थी। लोगों का आना-जाना जारी था। पुलिस की वर्दियां हर तरफ नजर आ रही थी। कोई हथकड़ी में बंधा था तो किसी पुलिस वाले ने अपराधी की बांह थाम रखी थी। रोजमर्रा की तरह भागदौड़ और व्यस्तता का आलम था।
पुलिस स्टेशन की इमारत के सामने रास्ता और रास्ते के दोनों तरफ थोड़ी सी खुली जगह थी। जहां घास वगैरह कहीं-कहीं नजर आ रही थी। दो-चार लोग भी वहां बैठे थे। उसके बाद बाहरी गेट का नम्बर आता था। जहां से लोग थाने में आ या जा रहे थे।
वहीं पर एक कांस्टेबल खड़ा था जो आने-जाने वालों को गौर से देख रहा था। बगल में डण्डा दबा रखा था। उंगलियों में फंसी सुलगती बीड़ी से कश ले रहा था। इस वक्त दोपहर का डेढ़ बज रहा था और वह बारह बजे से इसी तरह खड़ा हर आने-जाने वाले पर नजरें टिकाता जा रहा था।
एकाएक ही उसकी आंखें सिकुड़ी। वह सतर्क नजर आने लगा। परन्तु चेहरे पर वही, वैसी ही लापरवाही मौजूद रही। नजरें सोहनलाल पर थीं। जो सामान्य चाल से इस तरफ बढ़ा चला आ रहा था। अन्य लोगों के साथ ज्योंही सोहनलाल ने गेट के भीतर प्रवेश करना चाहा कि उसने पुकारा।
“सोहनलाल।”
सोहनलाल ठिठका। उस कांस्टेबल की तरफ नजरें उठी। जिसे उसने पहले कभी नहीं देखा था।
“देखता क्या है। तेरे को ही कह रहा हूं। इधर आ जा।” वह पुलिसिया अकड़ से बोला।
सोहनलाल ने तीन कदम उठाए और उसके पास जा पहुंचा। उसके सीने पर वर्दी पर लगी पट्टी पर लिखा उसका नाम देखा कर्मवीर यादव लिखा था।
“हूँ।” कांस्टेबल कर्मवीर यादव ने बीड़ी का कश लेते हुए उसे घूरा –“पहचाना नहीं क्या तूने?”
“नहीं।” सोहनलाल ने इंकार में सिर हिलाया।
“अभी डण्डा पड़ेगा तो सब पहचान जायेगा। नखरे दिखाता है।” कांस्टेबल कर्मवीर यादव ने पुलिसिया स्वर में कहा –“दस साल में बारह थानों में रह चुका हूँ मुंबई के और तू कहता है पहचानता नहीं। जब चूना भट्टी के थाने में था, तब तू मेरे को मिला था। याद आया कि नहीं?”
“आ गया।” बिना याद आये ही सोहनलाल दांत फाड़कर कह उठा। मन में यही सोचा कि कभी हुई होगी इससे मुलाकात –“नहीं ध्यान रहा अब याद आ गया। कर्मवीर नाम है ना तुम्हारा।” उसकी छाती पर लगी पट्टी पर नाम तो वह पहले ही पढ़ चुका था –“कहो क्या हाल है। कैसी कट रही है। घर में सब ठीक तो है?”
कर्मवीर यादव उसे आंखें सिकोड़कर देखने लगा।
उसके इस ढंग पर सोहनलाल सकपका उठा।
“क्या हुआ? कुछ गलत कह दिया मैंने?”
“कल ही बांद्रा स्टेशन से ट्रांसफर होकर आया हूं।” कर्मवीर यादव ने उसे घूरते हुए कहा।
“अच्छा-अच्छा। यह तो बहुत अच्छा रहा।”
“क्यों–अच्छा क्यों रहा?”
“क्यों?” सोहनलाल की समझ में नहीं आया कि क्या कहे –“क्योंकि यह थाना, बांद्रा थाने से ज्यादा बढ़िया है।”
“कैसे?” कर्मवीर यादव उसी तरह उसे घूरे जा रहा था।
जवाब में सोहनलाल हंसकर रह गया।
“ज्यादा दांत मत दबा। मुँह बंद कर और मेरे को सुन।” कर्मवीर यादव ने तीखी आवाज में कहा –“ट्रांसफर के बाद रुखसत होने से पहले बांद्रा थाने में एक रिपोर्ट दर्ज कराई गई। एडवरटाइजिंग एजेंसी के मालिक ने वह रिपोर्ट दर्ज कराई कि, रात के नौ बजे जब वह अपने ऑफिस में अकेला था तो, एक आदमी आया और उसे डरा-धमकाकर, जान से मारने की धमकी देकर, उसका बीस लाख ले भागा।”
“उसने ऐसा कहा।”
“क्यों। गलत कहा?”
“मुझे क्या पता।” सोहनलाल जल्दी से कह उठा –“यह तो वही जाने।”
“आगे सुन।” कर्मवीर यादव ने बुझी बीड़ी फेंक दी–“तेरे पास सिगरेट है।”
“है। लेकिन गोली वाली है।”
“गोली वाली –तेरे को पहले भी बोला था जब चूना भट्टी थाने में था कि गोली वाली सिगरेट मत पिया कर।”
“दूसरी ला दूं।”
“कहाँ से?”
“वो सामने–उधर–दुकान है। वहां से पैकेट।”
“चुप रह। भागने की सोचता है।”
“भागने की–मैं भागने की क्यों सोचूंगा। ताले तोड़ना तो मैंने सालों से छोड़ रखा है।”
“हवा में मत उड़। पहले यह सुन, जो परसों रात बीस लाख ले खिसका था, उसका हुलिया क्या था?”
“क्या था?”
“तुम्हारा हुलिया उसने दर्ज करवाया।”
“मेरा। मैं–मैं तो परसों रात शादी में था।”
“किसकी?”
“वो-वो।”
“बोल दे, परसों रात तेरी ही शादी थी। तू तब मण्डप में दुल्हन के साथ बैठा था और पंडित मंत्रों का उच्चारण कर रहा था। ऐसे में तू उस बीस लाख को कैसे लूट सकता है। कहे तो तेरी शादी का गवाह भी मैं बन जाता हूं। कह दूंगा कि इसका मामा बनकर, लड़की वालों के मामे से मैंने ही मिलनी की थी।” कर्मवीर यादव कड़वे स्वर में कह उठा –“अब तक तो तेरा बच्चा भी हो गया होगा। अगर तेरी परसों शादी हुई हो तो।”
“मैंने कब कहा मेरी शादी थी परसों।”
“तो फिर मेरी होगी और तू तब मेरी शादी पर था, जब वो बीस लाख उस ऑफिस से लूटा जा रहा था।”
सोहनलाल, कर्मवीर यादव को देखने लगा।
“देखता क्या है?”
“देख नहीं रहा। समझ गया।”
“पूरी तरह समझ गया या कसर बाकी है?”
“कुछ नहीं बाकी। सब समझ गया।”
“मैंने अभी तक किसी को नहीं बताया कि उसका बताया हुलिया तेरा था।” कर्मवीर यादव ने एहसान चढ़ाने वाले अन्दाज में कहा।
“बहुत मेहरबानी।” सोहनलाल गहरी सांस लेकर रह गया। वह समझ गया कि खामख्वाह की मुसीबत गले में पड़ गई है।
कर्मवीर यादव ने इधर-उधर देखा कि किसी की खास निगाह उस पर तो नहीं है।
सोहनलाल कटने वाले बकरे की तरह खड़ा उसे ही देख रहा था।
कर्मवीर की निगाह पुनः सोहनलाल पर आ टिकी।
“वो उधर देख। बायीं तरफ।” कर्मवीर यादव बोला –“नीम के पेड़ के नीचे, चायवाला बैठा है?”
सोहनलाल ने उधर देखा।
“हां।”
“तू वहीं पहुंच। दो स्पेशल चाय बनवा। मैं आता हूं।”
सोहनलाल सिर हिलाकर उधर जाने लगा तो कर्मवीर यादव सख्त स्वर में बोला।
“अगर खिसकने की कोशिश की तो याद रख, सारे मुम्बई की पुलिस तेरे पीछे लगवा दूंगा। तू अभी मुझे जानता नहीं। कांस्टेबल हुआ तो क्या हुआ, दस साल से मुम्बई के थानों में, तैनाती होती रही है मेरी।”
“मैं कहां भागूंगा।” सोहनलाल मुंह लटका कर बोला –“मेरी सांस की नली तो तुमने पकड़ ली है।”
“चल-चल। चाय बनवा। आता हूँ मैं।”
नम्बरदार के बारे में मालूम करने के चक्कर में, वह खामख्वाह ही नई मुसीबत में आ फंसा था।
कांस्टेबल कर्मवीर यादव ने तसल्ली भरे अन्दाज में स्पेशल चाय का घूंट भरा।
“हां, अब बता।” कर्मवीर यादव ने सोहनलाल को देखा –“बांद्रा थाने में बता दूं कि वह हुलिया तेरा था। अब तक तो इसलिए नहीं बताया कि, सोचा था, पूछताछ करके, तेरे घर पर जाकर ही तेरे को मिलूंगा। लेकिन यह तो बहुत अच्छा हुआ कि तू यहां आ मरा। बोल, बता दूं क्या?”
“क्या जरूरत है, बताने की। पी जा। खत्म कर मामले को।” सोहनलाल ने दांत फाड़े।
“दांत मत फाड़। चाय पी। ठण्डी हो जायेगी।”
सोहनलाल ने जल्दी से चाय का घूंट भरा।
“ठीक है। तू कहता है तो नहीं बताता।”
सोहनलाल, कर्मवीर यादव को देखने लगा।
“देखता क्या है।” कर्मवीर यादव की आवाज धीमी हो गई –“बीस लाख में से, मेरा मुंह मीठा नहीं करायेगा।”
“क्यों नहीं कराऊंगा। अब तू इंकार करेगा तब भी जबरदस्ती कराऊंगा। अपनी जरूरत को कराऊंगा।”
“करा। आधी मिठाई तेरी आधी मेरी। चल।”
“आधी।” सोहनलाल को लगा जैसे चाय में मीठा खत्म हो गया होगा –“क्या आधी।”
“बीस में से दस।” कर्मवीर यादव ने फुसफुसाने वाले स्वर में कहा।
“पागल तो नहीं हो गया तू ?” सोहनलाल एकाएक खा जाने वाले ढंग में कह उठा।
“मुझे पागल कहता है। तेरी तो, चल अभी बंद कराता।”
“ओ कर्मवीर।” सोहनलाल उसे ठण्डा करते हुए बोला –“गुस्सा मत खा। पहले पूरी बात सुन लिया कर। तू तो जानता ही है कि यह काम अकेले नहीं होते। दूसरों को भी साथ लेना पड़ता है।”
कर्मवीर यादव ने दांत भींचकर उसे घूरा।
“तो तेरे साथ और भी थे।”
“हां।”
“कितने?”
“तीन । मतलब कि कुल मिलाकर चार हुए।” सोहनलाल समझाने वाले अन्दाज में कह उठा –“चारों को पांच-पांच मिला। मतलब कि मेरे हिस्से भी पांच आया।”
“लेकिन रिपोर्ट में तो तू अकेला नामजद कराया गया है।”
“ऐसा ही होगा। क्योंकि बाकी के तीन बाहर पहरे पर थे कि उस वक्त कोई आ जाये तो उसे संभाला जा सके। सीधी सी बात है। मेरे पल्ले पांच पड़ा। चार बचा पड़ा है। उसका आधा दो लाख बनता है। और –।”
“ठीक है। दो लाख तू दे और अपने बाकी साथियों के पास ले चल। उनसे भी।”
“नहीं।” सोहनलाल ने चाय का घूंट भरते हुए सिर हिलाया –“उनके पास चलना तो दूर, उनके बारे में बताना भी गद्दारी होगी। तुझे मेरे से दो लाख लेकर ही सब्र करना पड़ेगा। नहीं मंजूर तो चल, कौन से थाने में चलना है। चलता हूं। करा दे बंद ।” सोहन लाल जानता था कि अब यह दो लाख में ही तसल्ली कर लेगा।
“ज्यादा सयाना बनता है।” कांस्टेबल कर्मवीर यादव ने उसे गुस्से में घूरा।
“सयाना-वयाना छोड़। जो सच था। तेरे को बता दिया। फैसला कर ले। इतना बड़ा हाथ मारा और मेरे पल्ले क्या पड़ेगा, तेरे को दो लाख देकर। मेरा तो वो भी देने को दिल नहीं कर रहा।”
“थाने में बंद कराऊं।”
“तभी तो दो लाख दे रहा हूं तेरे को कि ऐसा कुछ न हो।” सोहनलाल ने गहरी सांस ली।
“चाय का सारा मजा खराब कर दिया। निकाल दो लाख।”
“गले में लटकाए नहीं घूम रहा।”
“तो जहां भी है, वहीं चल।”
“मेरे घर पर हैं। वहीं चलना पड़ेगा। लेकिन तेरे को, घर से दूर रहना होगा। क्योंकि तू वर्दी में है। लोग क्या सोचेंगे कि मेरे घर पुलिस आई। मैं तेरे को तब, पांच मिनट में ही, दो लाख लाकर दे दूंगा।”
“ठीक है चले।” कर्मवीर यादव के स्वर में अब जल्दबाजी भर आई थी।
“चलते हैं। जिस काम के लिए आया हूं, पहले वह काम निपटा दे।” सोहनलाल ने मुंह बनाया।
“क्या?”
“आज सुबह नम्बरदार नाम का आदमी पकड़ा गया है। थाने में बंद है वह।”
“होगा। यह सब तो रोज ही चलता रहता है।” कांस्टेबल कर्मवीर यादव ने लापरवाही से कहा –“तेरे को क्या?”
“मैं मालूम करना चाहता हूं कि क्या वास्तव में उसे पकड़ा गया है। जैसे भी हो, मुझे थाने के भीतर ले जाकर उसके दर्शन करा।” सोहनलाल ने कहा।
“तेरे को उससे क्या?”
“सवाल मत पूछ। काम करा फिर तेरे हवाले दो लाख करूंगा।”
“ठीक है। तू यहीं रह। मैं मालूम करके आता हूं।”
“मालूम नहीं करना है। मैं अपनी आंखों से देखना चाहता हूं कि वह बंद है या नहीं। खबर नहीं सुननी है मुझे। सिर से लेकर पांव तक, अपनी तसल्ली करनी है।”
“लेकिन –।”
“फिर सवाल।” सोहनलाल उखड़ा –“तेरे-मेरे बीच दो लाख का सौदा हुआ। मैंने कोई बेकार का सवाल किया?”
कर्मवीर यादव ने सोहनलाल को घूरा फिर सिर हिलाकर कहा।
“चल, साथ ही चल ले मेरे।”
दोनों, देखते ही देखते थाने में प्रवेश कर गये।
सोहनलाल के सामने कांस्टेबल कर्मवीर यादव ने, नम्बरदार के बारे में एक-दो पुलिस वाले से पूछा। फिर उसे लेकर थाने के उस हिस्से में गया, जहां वक्ती तौर पर मुजरिमों को बंद रखने का इन्तजाम था। वह दो कमरे थे। सामने की तरफ उनमें सलाखें लगी हुई थी। बाहर मोटे-मोटे ताले लटक रहे थे। एक में दो लोग बंद नजर आ रहे थे और दूसरे में तीन।
“देख ले। कौन है इनमें से नम्बरदार।” कर्मवीर यादव ने कहा।
सोहनलाल उन सबको देखने के बाद बोला।
“मैं नम्बरदार को नहीं पहचानता। तू इनसे पूछ नम्बरदार कौन है।”
“उल्लू का पट्ठा। नम्बरदार को जानता नहीं और उसकी फोटू खींचने को मरा जा रहा है।” हवलदार कर्मवीर यादव ने बड़बड़ाने के साथ ही हाथ में पकड़ा डण्डा दरवाजे पर मार कर पुलिसिया स्वर में बोला –“नम्बरदार कौन है, तुम में?”
“मैं तो नहीं हूं।” एक ने कहा।
“मैं भी नहीं हूं।” दूसरा भी बोला।
वह दोनों बगल के दूसरे सलाखों वाले कमरे पर पहुंचे और सलाखों पर डण्डा मारकर कर्मवीर यादव ने नम्बरदार के बारे में पूछा तो वहां मौजूद तीनों व्यक्तियों में से एक उठकर आगे आया।
“क्या है। मैं हूँ नम्बरदार। बोल क्या कहना है तेरे को?”
सोहनलाल ने सिर से पांव तक अच्छी तरह उसका हुलिया अपने दिमाग में बिठा लिया।
“तू यहीं ठहर।” सोहनलाल ने ऑटो को गली के बाहर ही रुकवाने के बाद कर्मवीर यादव से कहा –“मैं तेरे लिए मिठाई लेकर आता हूँ।”
“घर कहां है तेरा?”
“यहीं खड़ा देखता रह।” कहने के साथ ही सोहनलाल आगे बढ़ गया।
हवलदार कर्मवीर यादव ऑटो में बैठा उसे जाता देखता रहा। उसके देखते ही देखते वह एक खुले दरवाजे में घुसा और दो मिनट बाद हाथ में अखबार का पैकेट थामे बाहर निकला और उसके पास पहुंचकर उसे थमाता हुआ बोला।
“दो किलो मिठाई है।”
“पूरी दो किलो है या एक-आधा पीस खा लिया है।” कर्मवीर यादव ने मुंह बनाया।
सोहनलाल ने तीखी निगाहों से उसे देखा।
“ठीक है–ठीक है।” कर्मवीर यादव ने कहा फिर ऑटो ड्राइवर से बोला –“चल, यहां से चलो भाई।”
ऑटो ड्राइवर ने ऑटो स्टार्ट किया और आगे बढ़ा दिया।
पन्द्रह मिनट के बाद कर्मवीर यादव ने एक जगह ऑटो रुकवाया और किराया चुकता करके आगे बढ़ गया। फिर उसने यह तसल्ली की कि कोई उस पर नजर तो नहीं रख रहा। जब उसे विश्वास हो गया कि कोई उसके पीछे नहीं है तो पैकेट बगल में दबाकर उसने कलाई पर बंधी घड़ी की दोनों सुइयां तीन पर करके, बात की। उसकी सतर्क निगाह बातों के दौरान हर तरफ फिर रही थी।
“मैं, कर्मवीर यादव।”
“कहो यादव।” घड़ी से बारीक सी आवाज निकलकर कानों में पड़ी –“क्या रहा?”
“आपका ख्याल ठीक रहा। सोहनलाल माहिम थाने में, नम्बरदार के बारे में मालूम करने आया था कि उसे वास्तव में गिरफ्तार किया गया है या श्याम सुन्दर ने झूठ कहा है।”
“तुमने सोहनलाल की तसल्ली करा दी?”
“हां।”
“उसे कोई शक तो नहीं हुआ।”
“नहीं।” कांस्टेबल कर्मवीर यादव के चेहरे पर गम्भीरता थी –“मैंने बहुत अच्छी तरह सोहनलाल को संभाला। उसने जो बीस लाख की चोरी-लूट की थी, उसमें से उससे रिश्वत वाला पुलिस वाला बनकर दो लाख भी ले लिए। वह तो सपने में भी नहीं सोच सकता कि कहीं कुछ गलत है।”
“लेकिन वह श्याम सुन्दर पर जाने क्यों शक कर रहा है कि –।”
“श्याम सुन्दर की किसी हरकत पर उसे शक हो गया होगा।”
“श्याम सुन्दर बेवकूफ नहीं है जो उन लोगों को शक करने का मौका देगा। वह जानता है कि उसकी जरा सी चूक उसे मौत के मुंह में धकेल सकती है।” इसके साथ ही घड़ी से आवाज आनी बंद हो गई।
कर्मवीर यादव समझ गया कि सम्बन्ध खत्म कर दिया गया है। उसने ट्रांसमीटर को पुनः घड़ी का रूप दिया और नोटों वाला पैकेट थामे, दूसरे हाथ में डण्डा थामे आगे बढ़ गया।
☐☐☐
“गोली की रफ्तार से आये और तोप की रफ्तार से गड्डियों को लपेट कर वापस चले गये। बात क्या है।” सोहनलाल के दोबारा प्रवेश करने पर, जगमोहन ने माथे पर बल डालकर पूछा।
“पूछो मत।” सोहनलाल गहरी सांस लेकर कुर्सी पर बैठता हुआ बोला –“फंसते-फंसते बचा हूं।”
देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाई। नजरें सोहनलाल पर ही थी।
“हुआ क्या?”
“नम्बरदार के बारे में मालूम करने, माहिम थाने गया तो वहां एक पुलिस वाले ने पहचान लिया कि मैंने ही परसों रात बीस लाख पर हाथ मारा था। ले-देकर दो लाख में सौदा पटा। वह मेरे साथ आया और दो लाख देकर उसे दफा किया।”
“मतलब कि अब वो पुलिस वाला चला गया?”
“हां।”
“बाहर तो नहीं खड़ा?”
“नहीं।”
“अच्छा हुआ जो तेरे को दो लाख की ठुकी। मेरे पैसे देने में तेरे को तकलीफ हो रही थी।”
सोहनलाल की निगाह देवराज चौहान की तरफ उठी।
“मैंने नम्बरदार को थाने के लॉकअप में बंद देखा। लेकिन मैं तो उसे पहचानता नहीं।”
“तुमने भीतर जाकर उसे देखा था?” देवराज चौहान बोला।
“हाँ।”
“उसका हुलिया बताओ।”
सोहनलाल ने लॉकअप में देखे नम्बरदार का हुलिया बारीकी से बताया।
यह उसी का हुलिया था जो देवराज चौहान को मिला था और अपना नाम नम्बरदार बताया था।
सोहनलाल के खामोश होते ही देवराज चौहान ने सहमति से सिर हिलाया।
“ठीक –यही है नम्बरदार। जो मुझे मिला था। जिसने धमकी दी थी।” देवराज चौहान ने कहा।
“इसका मतलब, श्याम सुन्दर सच बोल रहा है।” जगमोहन के चेहरे पर तसल्ली उभरी फिर उसने सोहनलाल को देखा –“तू खामख्वाह उस पर शक कर रहा है।”
“वो तो मैं अभी भी कह रहा हूं। मालूम नहीं क्यों श्याम सुन्दर मेरे गले में अटक रहा है।” कहते हुए सोहनलाल ने अपने गले पर हाथ फेरा –“हड्डी की तरह फंसा लग रहा है।”
जगमोहन ने देवराज चौहान को देखा।
“श्याम सुन्दर आया नहीं अभी तक। दो घंटे में आना था और ढाई घंटे हो चुके...।”
तभी बाहर कार रुकने की आवाज आई।
“आ गया हड्डा।” सोहनलाल बड़बड़ा उठा।
☐☐☐
श्याम सुन्दर जब सोहनलाल के यहां से निकला तो अपनी कार में बैठकर सीधा एयरपोर्ट ही गया। ऐसा उसने सावधानी के नाते किया कि अगर देवराज चौहान वगैरह उस पर नजर रख रहे हों, या उनका कोई आदमी उसकी निगरानी पर हो तो उसे किसी तरह का शक न हो।
एयरपोर्ट पहुंचकर उसने कार पार्क की और भीतर प्रवेश कर गया।
यहां तक पहुंचने में, उसे पूरा विश्वास हो गया था कि कोई भी उसका पीछा नहीं कर रहा। फिर भी वह सतर्क था। किसी भी तरह की लापरवाही को इस्तेमाल करके वह सारा मामला खराब नहीं करना चाहता था। एयरपोर्ट के रेस्टोरेंट में बैठकर उसने कॉफी और स्नैक्स लिए। इस दौरान ही उसने घड़ी को ट्रांसमीटर का रूप देकर, बात की। दूर से देखने पर कोई नहीं कह सकता था कि वह बात कर रहा है। यही लगता था कि वह खा रहा है।
“मैं –श्याम सुन्दर।” सम्बन्ध बनने पर श्याम सुन्दर बोला।
“कहो।”
“सारा मामला तय है।” खाना खाते-खाते श्याम सुन्दर बोले जा रहा था। हाथ मुंह के पास ही था। इसलिए बातचीत में कोई दिक्कत नहीं हो रही थी –“अब मुझे उनको वैन के बारे में बताना है। मैं दो घंटे का वक्त लेकर, वहां से निकला हूं और अभी मुझे वापिस पहुंचना है।”
“क्या चाहते हो?” घड़ी में से बारीक सी आवाज निकलकर, कानों में पड़ी।
“एयरपोर्ट से वैन की रवानगी का क्या वक्त बताऊं उन्हें।”
“तुम्हें बताया था।”
“मैंने दुबारा पूछना ठीक समझा।”
“दिन के ग्यारह बजे का वक्त ठीक रहेगा।”
“ठीक ग्यारह कहना ठीक नहीं होगा। ग्यारह और बारह के बीच कहना ज्यादा ठीक रहेगा।”
“बढ़िया और बोलना वैन एयरपोर्ट के गेट नम्बर तीन से निकलेगी।”
“ठीक है। इस सिलसिले में कोई और बात?”
“तुम्हें सब बताया जा चुका है।” बारीक आवाज श्याम सुन्दर के कानों में पड़ी –“अगर किसी बात के बारे में तुम्हें शक है, या ऐसा कुछ तो पूछो।”
“नहीं। बाकी सब ठीक है।”
“अब देवराज चौहान से क्या बात करनी है, मालूम है?”
“हां। सब ध्यान में है।”
“सोहनलाल नम्बरदार के बारे में मालूम करने, माहिम पुलिस स्टेशन गया था।”
“तो?”
“नम्बरदार लॉकअप में ही बंद था। और कांस्टेबल बने कर्मवीर यादव ने उसकी तसल्ली करा दी।”
“ठीक है। अब मैं बंद करता हूं।” श्याम सुन्दर बोला –“जरूरत पड़ी तो फिर तुमसे बात करूंगा।”
उसके बाद श्याम सुन्दर ने खाने-पीने का ‘बिल’ पे किया। फिर यूं ही एयरपोर्ट के दो-तीन कर्मचारियों से बारी-बारी बात की। ताकि अगर कोई उस पर, नजर रख भी रहा हो तो, उसे किसी तरह का शक न हो। फिर कार पर वह वापसी के लिए रवाना हो गया।
भीतर प्रवेश करते ही श्याम सुन्दर ने पल भर ठिठक कर, तीनों पर नजर मारी। उसके चेहरे पर ऐसी गम्भीरता थी जैसे, बहुत व्यस्तता से निकल कर आ रहा हो। फिर आगे बढ़कर कुर्सी पर जा बैठा।
“सब कुछ पक्के तौर पर मालूम कर आया हूं।” श्याम सुन्दर ने कहा।
“तुम सारी बातें–सारी भागदौड़ खुद ही कर रहे हो।” जगमोहन बोला –“हम भी साथ रहते तो।”
“कोई साथ हो, इस बात की जरूरत ही महसूस नहीं हुई।” श्याम सुन्दर ने शांत स्वर में कहा –“वैसे भी जानकारी हासिल करने के लिए, ज्यादा लोगों को साथ रखना ठीक नहीं होगा।”
और सोहनलाल, श्याम सुन्दर को देखते हुए सोच रहा था कि इसकी वजह से दो लाख गये।
“अब बोलो।” जगमोहन ने कहा –“क्या मालूम किया। वैन के बारे में सारी जानकारी दी। उन हीरों के बारे में बताओ।”
श्याम सुन्दर की निगाहें देवराज चौहान पर जा टिकी।
“पहले मैं, वह बात कर लेना चाहता हूं जो सबसे जरूरी है।” श्याम सुन्दर ने कहा।
“क्या?” देवराज चौहान ने उसे देखा।
“अगर हम सफल होते हैं। जोकि होंगे तो अस्सी-नब्बे करोड़ के हीरों में से मुझे क्या मिलेगा?”
“तुम क्या चाहते हो?”
“हिस्सा बराबर का होना चाहिये।”
“खुलकर बताओ।”
“इस काम में जो शामिल होगा। जिसकी जरूरत पड़ेगी। उन लोगों में हीरे बराबर के बंटेंगे।” श्याम सुन्दर ने गम्भीर स्वर में कहा –“इस काम में जिसकी जरूरत नहीं पड़ेगी, उसे कुछ नहीं मिलेगा। मैंने हीरों के बारे में जानकारी इकट्ठी की। सारी खबरें दे रहा हूं और तुम उन खबरों के दम पर, योजना बनाकर, वैन से हीरों को हासिल करोगे। यानी कि हम दोनों की मेहनत बराबर रही। जो काम में साथ देगा, उसे भी बराबर का साथी माना जायेगा।”
“मुझे मंजूर है।” देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगा ली।
“जायज बात है।” जगमोहन ने कहा।
सोहनलाल गोली वाली सिगरेट के कश लेता उनकी बातें सुन रहा था।
“अब मैं उस वैन के बारे में बताता हूं, जो हीरों को लेकर एयरपोर्ट से निकलेगी।” श्याम सुन्दर ने सोच भरे स्वर में कहा –“वह वैन टर्मिनल नम्बर तीन के गेट से सुबह ग्यारह और बारह के बीच निकलेगी। और वह उन्हीं रास्तों से गुजरेगी, जिसका नक्शा मैं पहले ही तुम्हें दे चुका हूं। वैन के ड्राइवर के अलावा, उसमें दो सादे कपड़ों में सरकारी गनमैन होंगे। जो कि बहुत अच्छे निशानेबाज हैं। अगर उन्हें इस बात का जरा भी आभास हो गया कि वैन में मौजूद हीरों को लूटा जाने वाला है तो वह किसी की जान लेने में पीछे नहीं हटेंगे।”
श्याम सुन्दर खामोश हो गया।
सबकी निगाहें उस पर थी।
“मोटे तौर पर यह वैन की जानकारी है। जिसमें कल हीरों को ले जाया जाना है।” श्याम सुन्दर ने कहा –“कोई और बात पूछनी हो तो, पूछ लो।”
देवराज चौहान ने सोच भरे अन्दाज में कश लिया।
“बाकी की बातें, योजना बनाते समय, पूछी जायेंगी। जहां पूछने की जरूरत पड़ेगी।” कहने के साथ ही देवराज चौहान ने जेब से कागज पर बना सड़कों का वह नक्शा निकाला, जिस पर से वैन निकल कर आगे बढ़नी थी।
सबकी निगाह देवराज चौहान पर जा टिकी थी।
कुछ देर बाद देवराज चौहान ने कागज से निगाहें उठाई और सोच भरे स्वर में बोला।
“योजना बनाने से पहले एक बार इन सब रास्तों से गुजर कर, यह जानना जरूरी है कि वैन पर हाथ डालने के लिए कौन सी जगह सबसे ठीक रहेगी।”
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