शनिवार : तेरह मई : मुम्बई दिल्ली
टेलीफोन की घन्टी बजी।
विमल ने रिसीवर उठाया और माउथपीस में बोला — “हल्लो।”
“इरफान बोलता हूं, बाप।” — आवाज आयी — “कल की अफरातफरी में एक खास बात बोलना भूल गया।”
“क्या?”
“होटल से बाहर जाये तो गोदाम के रास्ते जाने का नहीं है। न ही गोदाम के रास्ते वापिस लौटने का है।”
“वजह?”
“मुलाकात पर बोलूंगा।”
“ठीक है।”
उसने रिसीवर वापिस क्रेडल पर रख दिया।
होटल में राजा साहब तो स्थापित हो ही चुके थे, उनका सैक्रेट्री और चीफ असिस्टेंट कौल भी स्थापित हो चुका था। दोनों की होटल में मौजूदगी का भरम बनाये रखने के लिये बावक्तेजरूरत विमल का होटल से बिना किसी की निगाह में आये चुपचाप खिसकना जरूरी था जो कि गोदाम के रास्ते ही सम्भव था।
अब इरफान उस रास्ते के इस्तेमाल पर पाबन्दी लगा रहा था तो जरूर कोई खास ही वजह थी।
उसने ‘भाई’ का मोबाइल नम्बर निकाला और उस पर फोन लगाया।
तत्काल उत्तर मिला।
“मैं तुझे रात को ही फोन करना चाहता था” — विमल बोला — “लेकिन तेरा लिहाज किया। तुझे सोते से न जगाया। तुझे डिस्टर्ब न किया।”
“क्या चाहता है?” — ‘भाई’ की आवाज आयी।
“खबर लग गयी?”
“हां, लग गयी।”
“रात को ही लग गयी थी या अभी लगी?”
“रात को ही लग गयी थी।”
“यानी कि तेरे सगेवालों ने, तेरे करीबियों ने, तेरा वो लिहाज न किया जो कि मैंने किया?”
“अब क्या चाहता है?”
“मैंने बोला था कि ईंट का जवाब पत्थर से मिलेगा।”
“सोहल, तूने एक बेगुनाह का खून किया जिसके लिये तेरा खुदा तुझे कभी माफ नहीं करेगा।”
“तेरे कहने से बेगुनाह हो गया तेरा छोटा अंजुम?”
“हां। क्योंकि मेरे से बेहतर कौन जानता हो सकता है कि वो फिरोजा का कातिल नहीं था, उसका तुका और वागले की मौत से कुछ लेना देना नहीं था। तेरे बारे में ये बहुत मशहूर है कि तूने कभी किसी बेगुनाह की जान नहीं ली लेकिन आज के बाद ऐसा दुनिया तेरे बारे में कहे तो कहे, तू खुद अपने बारे में ऐसा नहीं कह सकेगा।”
“ये वो शख्स बोल रहा है जो अभी कल इन्हीं वाकयात की एवज में बधाइयां बटोरने की कोशिश कर रहा था?”
“मैंने कभी ये नहीं कहा था कि वो कत्ल मैंने करवाये थे।”
“लेकिन ये भी नहीं कहा था कि नहीं करवाये थे। साथ में जो हुआ, उससे मुझे सबक लेने की राय दी थी, मुझे खुली धमकी दी थी कि सिर्फ तुका, वागले और फिरोजा ही मेरे करीबी नहीं थे।”
“तू जो मर्जी बकता रह लेकिन हकीकत यही है कि अभी तक ‘भाई’ ने कुछ नहीं किया, जो किया किन्हीं और लोगों ने ही किया...”
“किन्होंने? नाम ले उनका?”
“...लेकिन अब आइन्दा जो करेगा, ‘भाई’ करेगा। कोई शेर की मूंछ का बाल नोच ले और शेर खामोश रहे, ये नहीं हो सकता।”
“यानी कि तू इधर आ रहा है? आ रहा है तो मैं तेरे लिये लाल कालीन बिछा कर रखूंगा और शाही दस्तरख्वान सजा कर रखूंगा। नहीं आ रहा तो मैं आता हूं।”
“तू आता है?”
“हां। तेरे से गले लग के मिलने के लिये। मैंने पासपोर्ट का इन्तजाम कर लिया है। बहुत जल्द तू मुझे अपने सिरहाने खड़ा पायेगा।”
“मैं उस मुबारक दिन का इन्तजार करूंगा लेकिन तब तक मेरी एक बात सुन ले। तुका वगैरह के कत्ल से भड़क कर मेरे खिलाफ तू जो कदम उठायेगा, गलत उठायेगा, नाजायज उठायेगा, गैरजरूरी उठायेगा। दुश्मन को पहचाने बिना वार करने वाला आदमी हमेशा खुदकुशी का तमन्नाई होता है। पहले अपने दुश्मन पहचान वरना बेमौत मारा जायेगा।”
“अगर तेरा इशारा दिल्ली वालों की तरफ है तो समझ ले कि वो भी अब चन्द घड़ियों के ही मेहमान हैं।”
“और दोस्तों को भी पहचान।”
“दोस्त, यानी कि तू?”
“यकीनन मैं। सोहल, या मेरी दोस्ती कुबूल कर या चौतरफा हमले के लिये तैयार रह।”
“दोस्ती कुबूल करूं तो चौतरफा हमला नहीं होगा?”
“नहीं होगा। फिर मैं छोटा अंजुम की मौत का भी गम खा जाऊंगा। फिर तेरे दुश्मन मेरे दुश्मन होंगे। फिर मैं ही उनका सफाया कर दूंगा जो कि तेरे पीछे पड़े हैं।”
“लेकिन जिनसे आजकल तू हाथ मिला रहा है?”
“यही समझ ले।”
“लिहाजा सगा तो तू किसी का न हुआ न! आज जैसे तू सोहल की खातिर उनकी दोस्ती पर थूकेगा कल तू किसी और की खातिर सोहल की दोस्ती पर थूक देगा।”
“ऐसा नहीं होगा।”
“क्या गारन्टी है?”
“भाई’ की जुबान गारन्टी है।”
“भाई’ की जुबान न हुई, टकसाली सिक्का हो गयी।”
“तू बहुत बोलता है, भई। लगता है मैं तेरे से बहस में नहीं जीत सकता।”
“तू मेरे से कैसे भी नहीं जीत सकता।”
“वहम है तेरा। तूने मिसेज सिक्वेरा के ठीये का एक कमरा उड़ाया, मैं पूरा होटल सी-व्यू उड़ा दूंगा तो सोच तू कहां होगा और तेरे हिमायती कहां होंगे?”
विमल सकपकाया।
“सी-व्यू का नाम किसलिये?” — वो बोला।
“सोच। समझ जायेगा। समझाने के लिये ही नाम लिया है। अभी नहीं समझ पा रहा तो जब समझ जाये तो फिर फोन करना। तब तक के लिये खुदा हाफिज।”
सम्बन्धविच्छेद हो गया।
दस बजे एस.एच.ओ. नसीब सिंह अपने थाने में अपने आफिस में आकर बैठा। आते ही उसने हवलदार तरसेम लाल को तलब किया।
“बैठ।” — वो बोला।
तरसेम लाल सकपकाया-सा उसके सामने एक कुर्सी पर बैठ गया।
“कितनी उम्र हो गयी?” — एस.एच.ओ. ने सहज भाव से पूछा।
“जी!” — सकपकाया-सा तरसेम लाल बोला।
“ऊंचा सुनता है?”
“जी नहीं।”
“मैंने पूछा था कितनी उम्र हो गयी?”
“चालीस।”
“चालीस तो कोई खास उम्र नहीं! ठीक दिखाई देता होगा? ठीक सुनाई देता होगा?”
“जी हां। अभी तो सब चौकस है!”
“मैंने अभी का ही पूछा। खासतौर से सुनाई देने के बारे में।”
“सब बढ़िया है, जनाब।”
“बढ़िया ही होना चाहिये।”
एस.एच.ओ. ने घन्टी बजाई तो एक सिपाही ने भीतर कदम रखा।
“दरवाजा बन्द कर दे।” — एस.एच.ओ. ने आदेश दिया — “जब तक मैं न बुलाऊं, कोई भीतर कदम न रखे।”
सिपाही ने सहमति में सिर हिलाया और फिर आदेश का पालन किया।
तरसेम लाल को एकाएक फिजा भारी लगने लगी।
किस फिराक में था एस.एच.ओ.!
एस.एच.ओ. ने दराज में से टेप रिकार्डर निकाला, उसमें एक आडियो कैसेट डाला और फिर बोला — “मैं तुझे एक टेप सुनाने जा रहा हूं। गौर से सुनना। वाल्यूम कम लगे तो बताना। कोई बात समझ में न आये तो भी बताना ताकि मैं टेप को पीछे सरका कर वो हिस्सा तुझे फिर सुना सकूं। समझ गया?”
“समझ तो गया, साहब, लेकिन बात क्या है?”
“बात भी समझ जायेगा। तो मैं शुरू करूं?”
“मर्जी है आपकी।”
एस.एच.ओ. ने टेप चालू किया।
तरसेम लाल को खुद अपनी आवाज साफ सुनायी दी तो वो चौंका।
फिर हवलदार हरपाल सिंह नेगी की आवाज।
फिर उसकी। फिर नेगी की।
माजरा समझते उसे देर न लगी।
पिछली रात नेगी ने खामखाह ही उसकी दावत नहीं की थी। जल्दी ही उसकी समझ में आने लगा कि नेगी ने जो किया था, एस.एच.ओ. के सिखाये पढ़ाये किया था।
ज्यों ज्यों टेप आगे बढ़ता गया, तरसेम लाल के चेहरे का रंग उड़ता गया।
आखिर जब टेप खत्म हुआ तो उस घिसे हुए, करप्ट पुलिसिये का चेहरा कागज की तरह सफेद था।
टेप समाप्त हुआ।
“एक बार फिर सुनेगा?” — एस.एच.ओ. बोला।
तरसेम लाल का सिर मशीन की तरह इनकार में हिला।
“यानी कि सब पल्ले पड़ गया! चौकस!”
तरसेम लाल के मुंह से बोल न फूटा।
“अब क्या कहता है?”
“बचा लो, माईबाप” — तरसेम लाल गिड़गिड़ाता-सा बोला — “पांव पकड़ता हूं।”
“सारी हेकड़ी निकल गयी?” — एस.एच.ओ. व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला — “परसों तो बहुत फैल रहा था। एस.आई. जनकराज को जलील कर दिया! खुद मेरी बोलती बन्द करा दी!”
“खता हुई, माईबाप।”
“परसों रात की वारदात तो छोटा वाकया था। तेरी कमीनगी की वजह से मायाराम बावा को लेकर कितनी बड़ी वारदात हुई? जान तक गयी एक पुलिस अधिकारी की। सब तेरी वजह से हुआ। तरसेम लाल, तू तो गया काम से! लम्बी सजा पायेगा।”
तरसेम लाल के रहे सहे हवास भी उड़ गये।
“सजा!” — वो घबराकर बोला।
“हां, भैया। जेल तो तू जाये ही जाये। उससे पहले ही तेरा खून भी हो जाये तो बड़ी बात नहीं।”
“खून!”
“जिस की बाबत तूने नशे में मुंह फाड़ा, जब उसको तेरी करतूत की खबर लगेगी तो तेरा मुंह बन्द करने के लिये वो और क्या करेगा?”
“साहब, मेरे से खता हुई। बस, इस बार बचा लो। कैसे भी बचा लो। मैं ताजिन्दगी आपके पांव धो धो के पिऊंगा।”
“जिन्दगी बचेगी तो ऐसा कुछ करेगा न?”
“साहब, आप बचायेंगे तो बच जायेगी।”
“मैं क्यों बचाऊंगा?”
“साहब, मैं आपकी भेड़। मैं आपका पालतू कुत्ता। बचा लीजिये। मुझे गरीबी ने मारा।”
“गरीबी ने नहीं, कम्बख्त, लालच ने मारा। ऐय्याशी ने मारा। हराम के माल की अन्धा कर देने वाली चमक ने मारा। थाने की मुखबिरी करते वक्त अपनी करतूत का अंजाम न सोचा। कोई मरे चाहे जिये, सुथरा घोल बताशा पिये वाली मसल सच करके दिखाई तूने।”
“साहब, बचा लो। बस, एक बार बचा लो।”
“ठीक है। इतना गिड़गिड़ा रहा है तो बचा लेते हैं।”
“भगवान आपका भला करे, साहब।”
एस.एच.ओ. ने उसके सामने एक फूलस्केप कागज और बालपैन रखा।
“ये... ये क्या?”
“इस पर अपना इकबालिया बयान दर्ज कर।”
“साहब, बयान ही दर्ज कर दिया तो फिर क्या बचा मैं!”
“बचेगा।”
“बयान का क्या होगा?”
“उसे झामनानी को फांसने के लिये उसके खिलाफ इस्तेमाल किया जायेगा और...”
तरसेम लाल पहले ही इनकार में सिर हिलाने लगा।
“क्या हुआ?”
“साहब, झामनानी ने मेरे से कोई बात नहीं की थी। न मायाराम की बाबत और न सोहल की तसवीरों की बाबत।”
“तो किसने बात की थी?”
“उसके एक आदमी ने जिसकी बाबत मैं अलग से जानता था कि वो झामनानी का आदमी था।”
“यानी कि उसको झामनानी का आदमी समझ कर तूने ये अन्दाजा लगाया था कि तेरी खिदमत का खरीदार असल में झामनानी था?”
“हां, साहब।”
“टेप में तो तू झामनानी का जिक्र यूं कर रहा था जैसे वो तेरा हमप्याला, हमनिवाला हो!”
“नेगी पर रौब गांठने के लिये, साहब, नेगी पर रौब गांठने के लिये। इतना बड़ा और रसूख वाला आदमी भला क्योंकर मेरा, एक मामूली हवलदार, का हमप्याला, हमनिवाला होगा?”
एस.एच.ओ. के चेहरे पर असंतोष के भाव आये।
“फिर क्या बात बनी?” — वो बड़बड़ाया।
तरसेम लाल खामोश रहा।
“उस आदमी का नाम बोल” — एस.एच.ओ. बोला — “जो इस बाबत तेरे से मिला था।”
तरसेम लाल ने एक फर्जी नाम बोला।
“पता बोल।”
उसने एक फर्जी पता बोला।
“अब कागज पर अपना इस्तीफा लिख।”
तरसेम लाल जैसे आसमान से गिरा।
“जी!” — उसके मुंह से निकला।
“लिख कि किन्हीं व्यक्तिगत कारणों से तू पुलिस की नौकरी करता नहीं रह सकता। तू स्वेच्छा से अपने पद से इस्तीफा दे रहा है जिसे कि आज ही से लागू माना जाये।”
“साहब, रहम।”
“ये रहम ही हो रहा है, कमीने।”
“साहब, मेरे बच्चे भूखे मर जायेंगे।”
“फौरन तो नहीं मर जायेंगे, क्योंकि अभी तेरे पल्ले पचास हज़ार रुपये हैं।”
“साहब! साहब, मैं...”
“तरसेम लाल, अभी जेल में बन्द नहीं होना चाहता तो फौरन मैं जो कहता हूं, वो कर। तेरी रिहाई इसी शर्त पर हो सकती है कि तू महकमे से इस्तीफा दे।”
“साहब, इतनी बड़ी सजा न दीजिये। ट्रांसफर करा दीजिये, लाइन हाजिर करा दीजिये।”
“नो!”
“साहब, महकमे में क्या मैं अकेला करप्ट हूं? जिस हमाम में सब नंगे हों, वहां...”
“पकड़ा तू गया है। कोई और पकड़ा जायेगा तो उसका भी अंजाम तेरे से जुदा नहीं होगा। बल्कि तेरे से बुरा होगा। क्योंकि उसके सिर पर बचा लेने की दुहाई से पिघल जाने वाला कोई इन्स्पेक्टर नसीब सिंह नहीं होगा। तरसेम लाल, अपने आपको खुशकिस्मत जान और फौरन हुक्म की तामील कर वरना अभी हवालात में बन्द होने के लिये तैयार हो जा।”
कांपते हाथों से तरसेम लाल ने बाल पैन उठाया और कुल जहान को — खासतौर से अपनी तकदीर को और अपने दगाबाज सहकर्मी हरपाल सिंह नेगी को — कोसता अपना इस्तीफा लिखने लगा।
विमल नेपियन हिल पहुंचा।
लोहिया कोठी में मौजूद था। वो विमल को अपने आफिसनुमा कमरे में मिला।
“वैलकम।” — वो बोला — “सुबह सवेरे आये हो तो कोई खास ही बात होगी!”
“बात तो खास ही है, लोहिया साहब।” — विमल बोला।
“क्या?”
“मुझे हाल में इशारा मिला है कि मेरी वजह से आप पर आंच आ सकती है।”
“क्या!”
“कुछ लोग मेरे पर प्रैशर बनाने के लिये उन लोगों पर हमले कर रहे हैं जो मेरे करीबी हैं, मेरे मेहरबान हैं। ऐसे एक शख्स आप भी हैं।”
“तुम्हारा मतलब है कि मेरे पर भी हमला हो सकता है?”
“जानलेवा। लेकिन आप से किसी जाती अदावत की वजह से नहीं।”
“तो?”
“मेरे से दुश्मनी निकालने के लिये। मेरे तक पहुंच बनाने के लिये।”
“कमाल है! ऐसा कहीं होता है!”
“होता है। हो रहा है। इसीलिये आपको चेताने के लिये मैं खुद चल कर आया हूं।”
“चेत तो मैं गया, भई, लेकिन चेत कर क्या करूं? घर में बन्द होकर बैठ जाऊं?”
“उसका क्या फायदा होगा? ऐसी कोई गारन्टी नहीं है कि घर पर हमला नहीं हो सकता।”
“तो?”
“मेरी आप से दरख्वास्त है कि आइन्दा चन्द दिन आप बहुत सावधान रहें, कहीं अकेले ने जायें, गैर, नावाकिफ लोगों से परहेज रखें और डेली रूटीन का भेद तो किसी को दे ही नहीं, उसे बदलते भी रहें। किसी ऐसे शख्स का कोई दावतनामा कुबूल न करें जिसे कि आप जाती तौर से न जानते हों।”
“हूं।”
“लोहिया साहब, ये चन्द दिनों की जहमत है, फिर बहुत जल्द सब ठीक हो जायेगा।”
“ठीक है।”
“आप करेंगे ये सब?”
“जरूर करूंगा, भाई। मरना कौन चाहता है!”
“ऐग्जैक्टली। तो मैं निश्चिन्त हो जाऊं?”
“हां। कोई खुदाई मार पड़ गयी तो बात दूसरी, वरना इंसानी मार से तो मैं पूरी तरह से सावधान रहूंगा।”
“थैंक्यू।”
“अब एक सवाल मेरा भी।”
“फरमाइये।”
“कल रात मदाम सिक्वेरा के ब्रॉदल में बम फटा और उसकी चपेट में आकर उसका एक स्टेडी कस्टमर मारा गया। तुम्हारा तो उस वारदात से कुछ लेना देना होगा नहीं!”
“कैसे होगा?”
“मेरा भी यही खयाल था। अब तो वहां विजिट करना भी जरूरी नहीं रहा होगा?”
“जी हां। समझ लीजिये कि जो एक बार देखा, उसे दोबारा देखने की कोई हवस नहीं।”
“ठीक।”
विमल होटल सी-व्यू के नये जनरल मैनेजर के आफिस में उसके सामने बैठा था।
उस घड़ी वो अपने उस बहुरूप में था जिसमें उसने ओरियन्टल होटल्स एण्ड रिजार्ट्स के आफिस में पहली बार कदम रखा था।
“मेरा नाम कौल है।” — वो बोला — “मैं राजा साहब का सैक्रेट्री आैर पर्सनल असिस्टेंट हूँ। राजा साहब ने मेरा जिक्र किया होगा!”
“किया था।” — कपिल उदैनिया बोला — “मैं आप से मुलाकात होने की बाट ही जोह रहा था। मुझे आप से मिलकर बहुत खुशी हुई, मिस्टर कौल।”
“मुझे भी। तो... सब कुछ ठीक ठाक चल रहा है?”
“हां।”
“आगे?”
“आगे भी ठीक ही चलेगा, बल्कि बेहतर चलेगा। मेरी कई ट्रैवल एजेन्सीज से और टूर आपरेटर्स से बात हो गयी है। आइन्दा दिनों में हमें फॉरेन टूरिस्ट्स की बल्क बुकिंग्स बहुतायत में हैंडल करनी पड़ेंगी। ये बिजनेस हासिल करने के लिये हमने दो महीने के लिये अपने नार्मल रेट्स पर चालीस पर्सेंट डिस्काउन्ट की घोषणा की है।”
“इतने डिस्काउन्ट के बाद होटल को प्रॉफिट हो पायेगा?”
“आकूपेंसी पचास से पिचहत्तर पर्सेंट तक रही तो नहीं हो पायेगा लेकिन नुकसान भी नहीं होगा। पिचहत्तर से ऊपर गयी तो शर्तिया प्राफिट होगा। पचास से नीचे गयी तो नुकसान होगा।”
“आई सी।”
“बस यही पूछना चाहते थे आप?”
“नहीं। कुछ कहना चाहता था।”
“कहिये, क्या कहना चाहते हैं?”
“मुझे हिंट मिला है कि कुछ जरायमपेशा लोग अन्डरवर्ल्ड से ताल्लुक रखते बाहर से आये कुछ लोगों की शह पर होटल को नुकसान पहुंचाने की कोशिश कर सकते हैं।”
“होटल को या होटल के बिजनेस को?”
“होटल को। होटल को नुकसान पहुंचेगा तो बिजनेस को नुकसान तो अपने आप पहुंचेगा।”
“होटल को नुकसान से आपकी क्या मुराद है?”
“कोई खामखाह का खून खराबा हो सकता है। कोई बम फट सकता है।”
उदैनिया के नेत्र फैले। फिर वो विचलित भाव से बोला — “ऐसा तो नहीं होना चाहिये! इन्हीं बातों से तो पहले होटल की साख बिगड़ी थी।”
“होना तो नहीं चाहिये लेकिन रोका कैसे जाये?”
“पुलिस प्रोटेक्शन हासिल करने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता।”
“क्यों?”
“ऐसे होटल में कौन ठहरेगा जहां हर जगह उसे पुलिस तैनात दिखाई देगी?”
“तो फिर?”
“हमें अपनी सिक्योरिटी को मजबूत करना पड़ेगा।”
“मैं भी यही कहना चाहता था। मिस्टर उदैनिया, मुझे होटल चलाने का तो कोई तजुर्बा नहीं लेकिन कुछ ऐसी बातों का तजुर्बा है जिनका कि आपको नहीं है।”
“मसलन?”
“सुनिये। फाइव स्टार होटल के पैट्रंस का लगेज तो हम चैक नहीं कर सकते लेकिन इतनी सावधानी जरूर बरत सकते हैं कि कोई लावारिस लगेज लॉबी में न दिखाई दे। ऐसा न हो कि कोई चैक इन की नीयत से अपने ऐसे लगेज के साथ लॉबी में पहुंचे जिसमें कि बम रखे हुए हों और फिर लगेज को लावारिस छोड़ कर खुद खिसक जाये।”
“अरे!”
“यूं इस होटल की लॉबी में पहले एक बार विस्फोट हो चुका है।”
“आपको कैसे मालूम?”
“सुना है।”
“आई सी।”
“होटल की रसद वगैरह की सप्लाइज को भी डेली चैक कराना होगा और ऐसा इन्तजाम करना होगा कि सप्लाइज होटल से बाहर ही पिछले यार्ड में सर्विस ऐन्ट्रेंस के सामने डिलीवर हों ताकि सप्लायर का प्रतिनिधि बन कर कोई अवांछित व्यक्ति होटल में दाखिल न हो सके।”
“गुड आइडिया। ये इन्तजाम हो जायेगा।”
“पार्किंग में सिक्योरिटी स्टाफ इक्का दुक्का ही होता है। वहां ज्यादा आदमी होने चाहियें ताकि तसदीक हो सके कि वहां होटल के मेहमानों के ही वाहन खड़े थे। इसी तरह टैक्सी स्टैण्ड पर रेगुलर टैक्सी वालों की पहचान बनानी होगी।”
“ठीक। लेकिन इन तमाम सावधानियों के बावजूद कोई मवाली सम्भ्रान्त व्यक्ति बन कर होटल में चैक इन कर सकता है और अपने सामान में बम ला सकता है।”
“मैंने खुद कहा था कि ऐसा हो सकता है। लेकिन यूं लाया गया बम होटल नहीं उड़ा सकता जबकि किसी की मंशा होटल उड़ा देने की है।”
“ओह, नो।”
“मंशा है। पूरी नहीं होगी। हम पूरी नहीं होने देंगे। ऐसा कुछ हो गया तो राजा साहब का बहुत नुकसान हो जायेगा।”
“वो तो है!”
“फिर भी हमारा मारल डाउन करने के लिये यूं किसी कमरे में कोई बम फट सकता है। लेकिन ऐसा बम मेहमान की मौजूदगी में नहीं फट सकता। वो खिसक चुका होगा तो तभी कोई बम फटेगा। इस समस्या से पार पाने के लिये आप हर फ्लोर पर दो सिक्योरिटी वाले वेटर्स की यूनीफार्म में तैनात कीजिये जो कि मेहमान के जाते ही पास की से कमरा खोलें और मैटल डिटेक्टर की सहायता से उसका लगेज चैक करें।”
“हो जायेगा।”
“ये वो सावधानियां हैं जो कि मुझे सूझीं, अब आप अपना भी माइन्ड अप्लाई कीजिये और सिक्योरिटी चीफ और फ्लोर मैनेजर्स को भी माइन्ड अप्लाई करने के लिये कहिये।”
“जरूर। मैं आज ही लंच के बाद तमाम अधिकारियों की एक मीटिंग बुलाता हूं।”
“गुड। अब मुझे इजाजत दीजिये।”
उदैनिया का सिर सहमति में हिला।
विमल वहां से रुखसत हुआ और दो मंजिल सीढ़ियां चढ़ कर चौथी मंजिल पर पहुंचा जहां कि राजा साहब का आफिस था।
वहां रिसेप्शन पर इरफान और पिचड मौजूद थे।
दोनों ने विमल का अभिवादन किया।
“ये पिचड है।” — इरफान बोला — “ये वो शख्स है जिसे मैंने बाबू कामले की निगरानी पर लगाया था।”
पिचड ने फिर अभिवादन किया।
“कल नौरोजी रोड वाली अफरातफरी में” — इरफान बोला — “मैं बताना भूल गया था कि इसे उधर कमाठीपुरे में निगरानी के अपने काम में थोड़ी कामयाबी हासिल हुई है।”
“वैरी गुड। क्या मालूम हुआ?”
“बता, भीड़ू। वो सब बोल जो कल तू मेरे को बोला।”
पिचड ने अपनी पिछली रात वाली भौमिक और इन्दौरी से सम्बन्धित कहानी दोहराई।
“ओह!” — पिचड खामोश हुआ तो विमल बोला — “कोई पहुंचा गोदाम की निगरानी के लिये?”
“पहुंचा।” — इरफान बोला — “गोदाम से काफी परे तीसरी सड़क पर एक चारमंजिला इमारत है जो खाली पड़ी है। उसकी दूसरी मंजिल के एक कमरे में दो आदमी मौजूद हैं जो कि गोदाम और सिर्फ गोदाम की ताक में हैं।”
“कैसे जाना?”
“गोदाम के आफिस की एक झिरी में दूरबीन लगा के जाना।”
“उन्हें किस के दर्शन की आस है?”
“ये भी कोई पूछने की बात है! जाहिर है कि तेरे।”
“ऐसे दर्शनाभिलाषियों को हमें मायूस नहीं करना चाहिये। आस वालों की आस पूरी होनी चाहिये।”
“क्या करना मांगता है, बाप?”
विमल ने बताया।
लम्बी मार करने वाली टेलीस्कोपिक रायफल एक स्टैण्ड पर फिक्स थी। रायफल की नाल का रुख गोदाम के फाटक की तरफ था और इन्दौरी खुद कई बार चैक कर चुका था कि गोदाम के फाटक में से वो बाहर कदम रखता या भीतर कदम रखता तो रायफल के निशाने पर होता।
उसके साथ जो आदमी था, उसका नाम बाबया था, वो दिवंगत अब्दुल गनी की शागिर्दी में रह चुका था और उसी की तरह से क्रैक शॉट था।
इस बार इन्दौरी को यकीन था कि वो फेल नहीं होने वाला था। काम बड़े सब्र वाला था लेकिन उसमें कामयाबी निश्चित थी।
बाबू कामले और भौमिक गोदाम वाली सड़क पर उससे थोड़ा परे एक काले शीशों वाली वैन में मौजूद थे और उनकी तरह शिकार की ही ताक में थे। रायफल का निशाना चूकने वाली तो कोई बात ही नहीं थी, किसी वजह से उनका शिकार रायफल के सामने न आ पाता तो बाबू कामले और भौमिक अपना कोई करतब दिखा सकते थे जो कि कदरन ज्यादा खतरनाक कारनामा होता।
“दरवाजा खुल रहा है।” — एकाएक बाबया फुसफुसाया।
इन्दौरी ने तत्काल सामने देखा तो पाया कि गोदाम का शटर नहीं उठ रहा था बल्कि उसके पहलू में बना एक साधारण दरवाजा खुल रहा था जो कि वो जानता था कि गोदाम के आफिस का था।
वो एक टक सामने देखता रहा।
दरवाजे में से चार सिक्योरिटी गार्ड निकल कर बाहर सड़क पर आये। उन्होंने सड़क पर दायें बायें निगाह डाली तो सब की निगाह काले शीशों वाली वैन पर टिकी। फिर दृढ़ कदमों से चलते चारों वैन के करीब पहुंचे। उनमें से एक, जो कि उनका सरगना जान पड़ता था, वैन की ड्राइविंग सीट पर बैठे भौमिक से बात करने लगा।
“क्या हो रहा है?” — बाबया सस्पेंसभरे स्वर में बोला।
“चुप रह।” — इन्दौरी बोला — “जो हो रहा है, अभी सामने आ जायेगा।”
एकाएक वैन स्टार्ट हुई और वहां से रवाना हो गयी। थोड़ी देर बाद वो दूर दूर तक उस सड़क पर कहीं दिखाई नहीं दे रही थी।
“मैं समझ गया।” — इन्दौरी उत्तेजित भाव से बोला — “बाबया, तैयार हो जा। अपना काम होने वाला है।”
“मैं तो तैयार है, बाप, पण तू क्या समझ गया?”
“वो उधर से बाहर निकलने वाला है। इसलिये पहले सिक्योरिटी वाले आये और उन्होंने सड़क पर से वो हमारी वैन हटवा दी। भौमिक वैन की वहां मौजूदगी की कोई वजह तो बता नहीं सकता था इसलिये न हटाता तो क्या करता!”
“न हटाता तो वो क्या करते?”
“जरूर जोर जबरदस्ती करते। चार जनों की पेश न चलती तो और सिक्योरिटी वाले बुला लेते।”
“ओह!”
तभी एक टैक्सी आकर गोदाम के सामने रुकी।
“वही टैक्सी है।” — इन्दौरी और उत्तेजित हो उठा — “अब तो मुझे फुल गारन्टी है कि हमारा शिकार गोदाम से बाहर निकला कि निकला। बाबया, तैयार हो जा।”
“मैं तैयार है, बाप।”
दोनों की मुकम्मल तवज्जो उस दरवाजे की तरफ लग गयी जिसमें से कि सिक्योरिटी वाले बाहर निकले थे। वो दरवाजा उस घड़ी बन्द था। उसे खोल कर दो सिक्योरिटी गार्ड भीतर चले गये और दो दरवाजे के दायें बायें खड़े हो गये।
“बढ़िया।” — इन्दौरी खुशी से हाथ मलता हुआ बोला — “बढ़िया।”
तभी कोई चीज उसकी कनपटी से लगी।
उसने सिर उठाया तो सन्न रह गया।
जो आदमी उसकी निगाह में बस गोदाम से निकलकर टैक्सी में सवार होने ही वाला था, वो उसकी कनपटी से रिवॉल्वर की नाल सटाये उसके सिर पर खड़ा था।
वैसा ही हाल इरफान ने बाबया का किया हुआ था।
वो दोनों उनके सिर पर पहुंच गये थे और उन्हें भनक भी नहीं लगी थी।
तब उसकी समझ में आया कि गोदाम के सामने जो कुछ हुआ था, वो एक ड्रामा था जो उनकी मुकम्मल तवज्जो उधर लगाये रखने के लिये स्टेज किया गया था ताकि वो दोनों निशब्द उनके सिर पर आन खड़े होते।
इस बात का सबूत ये भी था कि अब सड़क पर से प्यादे गायब थे, टैक्सी गायब थी और शटर के पहलू का दरवाजा बन्द था।
विमल ने नाल से इन्दौरी की कनपटी को टहोका।
“क... क्या?” — वो थूक निगलता बोला।
“उठ के खड़ा हो” — विमल बोला — “और रायफल से परे हट।”
“तू भी।” — इरफान क्रूर स्वर में बाबया से बोला।
दोनों ने आदेश का पालन किया।
इरफान ने रायफल को अनलोड किया और उसे पांव की ठोकर से परे फेंक दिया।
शोहाब भीतर दाखिल हुआ। उसने किसी के कहे बिना ही दोनों की तलाशी ली तो इन्दौरी के पास से एक पिस्तौल बरामद हुई।
“ये वही है न” — विमल बोला — “जिसने पांच दिन पहले सोमवार आठ मई की रात को ईश्वर भवन के करीब मेरे पर गोली चलाई थी?”
इन्दौरी ने जोर से थूक निगली।
“तलवार कहां रखता है? पीठ पर? शोहाब, पीठ देखी इसकी!”
“देखी, जनाब।” — शोहाब बोला — “नहीं है।”
“मैं अपना काम करूं” — विमल इन्दौरी को घूरता हुआ बोला — “या मरने से पहले कुछ कहना चाहता है?”
इन्दौरी ने बेचैनी से पहलू बदला।
“मैंने कुछ नहीं किया, बाप” — एकाएक बाबया बोला — “मैंने कुछ नहीं किया।”
“नहीं किया क्योंकि कर नहीं सका। आया तो करने ही था न! तभी तो रायफल थामे बैठा था!”
“बाप, ये मेरे को बोला किसी पर गोली चलानी थी पण मेरे को नहीं मालूम था कि किस पर गोली चलानी थी!”
“अब मालूम?”
उसने भयभीत भाव से सहमति में सिर हिलाया।
“तेरे को तो मालूम ही मालूम।” — विमल इन्दौरी से बोला — “नहीं?”
इन्दौरी ने जवाब न दिया।
विमल ने एक फायर किया।
गोली इन्दौरी के दोनों पैरों के बीच में फर्श पर टकराई।
तत्काल उसके चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं।
“हं... हां।” — वो फंसे कण्ठ से बोला — “हां।”
“कैसे पता था?”
“रा... राजा साहब की वजह से।”
“राजा साहब!”
“राजा गजेन्द्र सिंह। जो होटल का नया मालिक बताया जाता था। मेरे को पक्की कि वो तुम्हारा ही नया बहुरूप था।”
विमल चौंका, उसने घूर कर उसकी तरफ देखा।
“कैसे पक्की?” — फिर वो सख्ती से बोला।
“नये मैनेजर ने होटल के स्टाफ में से ‘कम्पनी’ के प्यादों का छंटनी किया पण मुकम्मल तौर से न कर सका। अभी भी कई प्यादे स्टाफ में है जिनमें से कई मेरे करीबी हैं। वो गारन्टी से बोले कि राजा साहब और उनका खास असिस्टेंट कभी इकट्ठे दिखाई नहीं देते थे। राजा साहब सामने तो असिस्टेंट गायब। असिस्टेंट सामने तो राजा साहब गायब। ऐसीच होता था।”
“यानी कि सोहल ही बॉस था, सोहल ही असिस्टेंट था!”
“ऐसीच सोचा मैं।”
“फिर तो तेरे लिये एक ही बात थी कि रायफल के सामने बॉस आता था या उसका असिस्टेंट?”
“हां।”
“अगर तेरी सोच गलत निकलती?”
“मेरे को पक्की कि...”
“मैं अगर बोला। अगर। अगर तेरी सोच गलत निकलती तो?”
“तो राजा साहब मारा जाता। उसके बाद अगर होटल में राजा साहब का असिस्टेंट दिखाई देना बन्द हो जाता तो इसका साफ मतलब होता कि तू ही राजा साहब।”
“अगर असिस्टेंट मारा जाता?”
“तो राजा साहब दिखाई देना बन्द हो जाता। इसका भी साफ मतलब कि राजा साहब और असिस्टेंट एक ही आदमी। वो आदमी सोहल। मैं सोहल को मारा।”
“काफी खुराफाती दिमाग पाया है तूने। अब बोल किसका हुक्का भरता है? ‘भाई’ का या दिल्ली वालों का? या दोनों का?”
“भाई? दिल्ली वाले?”
“कुछ नहीं जानता?”
“ ‘भाई’ तो कुछ कुछ समझा, पण दिल्ली वाले?”
“गोलमोल बकवास मत कर।” — इरफान डपटकर बोला — “जो बोलना है, साफ बोल।”
“हां।” — विमल बोला — “कौन बोला तेरे को मेरी लाश गिराने को?”
“कोई नहीं।” — इन्दौरी बोला।
“तो क्यों मेरे पीछे पड़ा है?”
“तेरी लाश गिराने पर ‘कम्पनी’ की तरफ से पचास पेटी नकद और ओहदेदारी का ईनाम था।”
“अब कौन बैठा है वो ईनाम तुझे देने वाला?”
“अगर मैं तेरी लाश गिराने में कामयाब होता तो ओहदा मैं खुद हथिया लेता। फिर ओहदा ही मेरा ईनाम होता।”
विमल भौचक्का सा उसका मुंह देखने लगा।
“तू!” — वो बोला — “मामूली प्यादा! ‘कम्पनी’ की गद्दी हथियाने के सपने देख रहा है?”
“मैं मामूली प्यादा नहीं हूं।” — इन्दौरी के स्वर में गर्व का पुट आ गया — “मैं वो शख्स हूं अपनी मौत से पहले बिग बॉस गजरे ने जिसे श्याम डोंगरे की जगह ‘कम्पनी’ का नया सिपहसालार बनाया था। मैं वो शख्स हूं जिसने अपनी जान पर खेल कर पोखरा में इकबाल सिंह और उसकी बीवी लवलीन की लाश गिरायी थी और बीस पेटी नकद और ‘कम्पनी’ में ओहदेदारी का हकदार बन कर दिखाया था। ओहदेदारी मुझे मिली जो तेरी वजह से छ: घन्टे भी न चली, बीस पेटी मिलने की नौबत ही न आयी। एक अकेले तूने मुझे बर्बाद किया।”
“इसी का बदला उतारने के लिये पहले मेरे पर दो हमले किये?”
“हां। लेकिन तू कुछ ज्यादा ही खुशकिस्मत है जो दोनों बार बच गया।”
“तीन बार। इस बार को भी जोड़।”
“हां। तीन बार। तू बहुत खुशकिस्मत है।”
“वो तो मैं हूं ही।”
“और मैं बहुत बद्किस्मत।”
“तू ये कहना चाहता है कि जो कुछ तू मेरे खिलाफ कर रहा है, अपनी जाती हैसियत से कर रहा है?”
“और कैसे करूंगा?”
“किसी ‘भाई’ की हुक्मबरदारी नहीं कर रहा? किन्हीं दिल्ली के दादाओं का हुक्का नहीं भर रहा?”
“मैं नहीं जानता किन्हीं दिल्ली के दादाओं को।”
“लेकिन, बाजरिया छोटा अंजुम, ‘भाई’ को जानता है जो तेरे को सोहल की लाश गिराने को बोला?”
“बिल्कुल गलत।”
“तू एयरपोर्ट पर मेरी ताक में मौजूद नहीं था?”
“कब?”
“कभी भी। मसलन इसी इतवार को? सात तारीख को?”
“मेरे साथी थे उधर।”
“मेरी ताक में?”
“हां।”
“जो कि मुझे देखते ही वहीं मेरी लाश गिरा देते?”
“वहीं नहीं। वो नहीं।”
“मतलब?”
“वो मुझे खबर करते। फिर ये काम मैं करता।”
“कहीं और? एयरपोर्ट पर नहीं?”
“जाहिर है।”
“तुका और वागले का तो ऐसा लिहाज न किया तूने?”
“मेरा उनसे कोई मतलब नहीं था।”
“तूने एयरपोर्ट पर तुका और वागले को नहीं मारा?”
“नहीं।”
“चर्चगेट के यतीमखाने में बम नहीं लगाया?”
“नहीं।”
“दिल्ली जा के भी कोई गुल नहीं खिलाया?”
“नहीं।”
“सच कह रहा है?”
“हां।”
“मेरी लाश गिराना तेरा खुद का प्रोजेक्ट था क्योंकि तुझे उम्मीद थी कि तू बखिया बन सकता था, इकबाल सिंह बन सकता था, गजरे बन सकता था?”
“हां।” — वो पूरी ढिठाई के साथ बोला — “सौ बार भी पूछेगा तो यही जवाब मिलेगा। मैं जो किया उसका मेरे को कोई अफसोस नहीं। जंग में हारजीत होती ही रहती है।”
“क्या कहने! गजरे न बन सका लेकिन गजरे जैसी जुबान बोलना बाखूबी सीख गया।”
“तू तकदीर का बादशाह है, बाप। मेरी न चली तो सिर्फ तेरे पर पेश न चली।”
“अब और तो चलेगी भी नहीं। अब तो तेरी कहानी खत्म है। जिस आदमी ने तीन बार मेरी जान लेने की कोशिश की, उसकी जान लेने का तो मुझे पूरा अख्तियार होना चाहिये। नहीं?”
“मैंने कुछ नहीं किया।” — बाबया एकाएक विक्षिप्तों की तरह चिल्लाया — “मैंने कुछ नहीं किया।”
इरफान के खुले हाथ का एक करारा झांपड़ उसके चेहरे से टकराया।
“आवाज न निकले।” — वो घुड़क कर बोला — “वरना गला हंसता होगा।”
बाबया ने होंठ भींच लिये।
“जवाब नहीं दिया तूने!” — विमल इन्दौरी से बोला।
“इस वक्त वक्त तेरे साथ है।” — इन्दौरी बोला — “तू कुछ भी कर सकता है।”
“अगर मैं तुझे छोड़ दूं तो तू मेरा पीछा छोड़ देगा?”
“तू मुझे नहीं छोड़ने वाला इसलिये झूठ बोलना बेकार है।”
“मैं तेरी साफगोई की दाद देता हूं।”
इन्दौरी खामोश रहा।
“‘कम्पनी’ खत्म है। उसके मुर्दा जिस्म में जान कोई नहीं फूंक सकता। तू भी नहीं।”
“तू ऐसा कह सकता है, बाप। क्योंकि तू तू है। न होता तो कोई न होता ऐसा कहने वाला।”
“जो जुबान बोल रहा है, उससे तू जानबख्शी का ख्वाहिशमन्द नहीं लगता।”
उसने फिर होंठ भींच लिये।
“उन प्यादों के नाम बोल जो अभी भी होटल के स्टाफ में घुसपैठ किये बैठे हैं।”
उसने मजबूती से इनकार में सिर हिलाया।
विमल ने बाबया की तरफ देखा।
“ये कुछ नहीं जानता।” — इन्दौरी बोला — “ये ‘कम्पनी’ का आदमी नहीं। ये सिर्फ रायफल से फासले से निशाना लगाने का स्पेशलिस्ट है।”
“बाबू कामले और भौमिक के बारे में क्या खयाल है?”
“वो तेरी पकड़ाई में नहीं आने वाले।”
विमल ने शोहाब को इशारा किया।
शोहाब ने सहमति में सिर हिलाया और कमरे से बाहर निकल गया। एक मिनट बाद वो वापिस लौटा तो उसके साथ आकरे और विक्टर भी थे जो हाथ में थमी रिवॉल्वरों से बाबू कामले और भौमिक को पीठ पीछे से टहोकते आगे चलाते कमरे में दाखिल हो रहे थे।
“अब क्या कहता है नेपाल का हीरो” — विमल बोला — “और ‘कम्पनी’ का ताजातरीन सिपहसालार?”
इन्दौरी ने विमल से निगाह न मिलाई, अब उसके चेहरे पर पराजय के गहन भाव स्पष्ट अंकित थे, उसके मुंह से बोल न फूटा।
“बाप, तू जा” — इरफान बोला — “इधर मैं देखता है।”
विमल ने सहमति में सिर हिलाया। उसने अपनी रिवॉल्वर भी इरफान को थमा दी और वहां से रुखसत हुआ।
अभी उसने सीढ़ियों पर कदम डाला ही था कि उसे पीछे से पहली गोली चलने की आवाज आयी।
मन्दे कम्मी नानका जद कद मन्दा होये।
एक कार कोलीवाड़े में होटल ‘मराठा’ के सामने आकर रुकी।
कार में टोकस, चिरकुट, हुमने और कोली सवार थे। कोली ड्राइविंग सीट पर स्टियरिंग के पीछे था। उसको छोड़ कर बाकी तीनों कार से बाहर निकले।
“कोई पंगा दिखाई दे” — हुमने बोला — “तो हार्न बजाना।”
कोली ने सहमति में सिर हिलाया।
तीनों होटल में दाखिल हुए।
रिसेप्शन पर उस घड़ी सलाउद्दीन का सबसे छोटा लड़का आमिर मौजूद था।
“यस, सर।” — वो स्वागतपूर्ण स्वर में बोला।
“सलाउद्दीन साहब से मिलना है।” — टोकस रौब से बोला।
“क्या काम है?”
“उन्हीं को बतायेंगे।”
“आपकी तारीफ?”
“टोकस नाम है मेरा।”
“कहां से आये हैं, जनाब?”
“सब सवाल खुद ही पूछेगा या कुछ सलाउद्दीन को भी पूछने का मौका देगा?”
“सॉरी, सर। मैं अभी साहब को खबर करता हूं।”
उसने फोन उठा कर पीछे आफिस में घन्टी की और माउथपीस के साथ मुंह लगाकर कुछ कहा।
“आ रहे हैं।” — फिर रिसीवर रखता वो बोला।
टोकस ने सहमति में सिर हिलाया।
आफिस का दरवाजा खुला। सलाउद्दीन रिसेप्शन पर पहुंचा।
“फरमाइये!” — वो मीठे स्वर में बोला — “बन्दा हाजिर है।”
“सलाउद्दीन?” — टोकस बोला।
“जी हां।”
“जो कि इस होटल के मालिक हैं?”
“जी हां। मुझे ये फख्र हासिल है।”
“आप से कुछ खास बातें करनी हैं। खुफिया किस्म की। कहीं अकेले में हो हो सकती हैं?”
“जी हां। तशरीफ लाइये।”
सलाउद्दीन उन्हें आफिस में ले आया।
उसकी टेबल पर एक खास किस्म का हैण्ड फ्री इन्टरकॉम मौजूद था जिससे भीतर की बातें रिसेप्शन पर सुनी जा सकती थीं। उसने चुपचाप उसका स्विच ऑन कर दिया।
वैसा ही एक और स्विच दबाने पर रिसेप्शन की बातें भीतर सुनी जा सकती थीं।
वो इन्टरकॉम खास मौकों पर ही इस्तेमाल होता था और सलाउद्दीन का दिल गवाही दे रहा था कि सूरत से हल्के लगने वाले उन लोगों की वहां आमद खास मौका ही था।
“फरमाइये।” — सलाउद्दीन बोला।
“हमें सोहल की तलाश है।” — टोकस बोला।
“कौन सोहल?”
“आप किसी सोहल को नहीं जानते?”
“नहीं।”
“हमें पता चला है कि आप सोहल के करीबी हैं। पक्के दोस्त हैं उसके।”
“किससे पता चला है?”
“आप बताइये कि क्या ऐसा नहीं है?”
“हजरात, जिस शख्स के मैं नाम तक से वाकिफ नहीं, वो कैसे मेरा दोस्त हो सकता है?”
“वो आपके होटल में अक्सर ठहरता है।”
“बाहर रजिस्टर मौजूद है। आप खुशी से उसकी पड़ताल कर सकते हैं। उसमें किसी सोहल का नाम दर्ज दिखाई दे, तो कहियेगा।”
“ठहरता तो वो हमेशा यहीं है, अलबत्ता किसी और नाम से ठहरता हो सकता है।”
“और नाम?”
“हां। कौल। अरविन्द कौल।”
“कौल साहब तो, जनाब, हमारे स्टेडी कस्टमर हैं लेकिन हमें नहीं मालूम था कि वो सोहल के नाम से भी जाने जाते थे।”
“अब मालूम हो गया?”
“जी हां। कौल साहब तो इत्तफाक से आजकल भी यहीं ठहरे हुए हैं।”
तत्काल टोकस के चेहरे पर रौनक आयी।
उसने अपने साथियों की तरफ देखा।
वो भी उस खबर से उसकी तरह ही प्रसन्न थे।
क्यों ने होते! वो तो सलाउद्दीन पर दबाव बनाकर सोहल का कोई अता-पता निकालने की फिराक में आये थे, वहां तो सोहल ही मिला जा रहा था।
“ऐसा?” — वो बोला।
“जी हां।” — सलाउद्दीन ने जवाब दिया।
“इस वक्त वो अपने कमरे में मौजूद हैं?”
“मैं रिसेप्शन से पता करता हूं।”
सलाउद्दीन ने फोन उठा कर रिसेप्शन का नम्बर डायल किया, एक क्षण बात की और फोन वापिस रख दिया।
“जी हां।” — वो बोला — “होटल में ही हैं कौल साहब इस वक्त।”
“कौन से कमरे में?”
“वही जिसमें हमेशा आकर ठहरते हैं। चौथी मंजिल पर एक ही डबल रूम है, उसमें।”
“हम उनसे उनके कमरे में जाकर मिल सकते हैं?”
“शौक से।”
“हम उन्हें सरपराइज देना चाहते हैं इसलिये आपसे निवेदन है कि आप फोन पर हमारी बाबत उन्हें कोई खबर न करें।”
“नहीं करेंगे। आइये, मैं आपको रास्ता दिखाता हूं।”
वे सलाउद्दीन के साथ बाहर निकले।
एक क्षण को सलाउद्दीन की निगाह आमिर से मिली तो आमिर ने हौले से सहमति में सिर हिलाया।
वो लिफ्ट की तरफ बढ़े।
उनके आगे चलता सलाउद्दीन रास्ते में ही ठिठक गया।
लिफ्ट के बन्द दरवाजे के आगे ‘लिफ्ट खराब है’ का का बोर्ड लगा हुआ था।
“सॉरी, साहबान।” — वो खेदपूर्ण स्वर में बोला — “लिफ्ट एकाएक खराब हो गयी जान पड़ती है, आपको सीढ़ियों से जाना पड़ेगा।”
“कोई बात नहीं।” — टोकस बोला।
“आप खुद टॉप फ्लोर पर पहुंच जायेंगे या मैं किसी को साथ भेजूं।”
“पहुंच जायेंगे।”
“गुड।”
तीनों सीढ़ियां चढने लगे। उनके सीढ़ियों का पहला मोड़ काटते ही एक बैलब्वाय ने आगे बढ़ कर लिफ्ट के सामने रखा ‘लिफ्ट खराब है’ का बोर्ड हटा दिया।
रिसेप्शन के पीछे से निकल कर आमिर लिफ्ट के सामने पहुंचा।
लिफ्ट के पहलू के एक बन्द दरवाजे के पीछे से निकल कर जावेद और आरिफ वहां पहुंचे।
चारों लिफ्ट में सवार हुए।
लिफ्ट ऊपर को बढ़ चली।
टोकस, चिरकुट और हुमने चौथी मंजिल पर पहुंच कर वहां के इकलौते कमरे के सामने ठिठके। तीनों के हाथ कोट की जेबों में सरक गये जहां कि रिवॉल्वरें मौजूद थीं।
टोकस ने खाली हाथ से दरवाजे पर दस्तक दी।
“खुला है।” — भीतर से आवाज आयी।
तीनों ने चैन की सांस ली।
टोकस ने दरवाजा खोला। तीनों ने भीतर कदम रखा।
भीतर डबल बैड पर कोई मौजूद था जो कि अपने दोनों हाथों में खुला अखबार थामे था जिसकी वजह से उसकी कमर के ऊपर से लेकर सिर तक का सारा हिस्सा अखबार के पीछे छुपा हुआ था।
“सोहल!” — टोकस धीरे से बोला।
“हां।” — अखबार के पीछे से जवाब मिला — “कौन?”
“अखबार का पीछा छोड़ेगा तो जानेगा न!”
“अभी लो।”
अखबार फड़फड़ाता हुआ एक ओर जा गिरा। पीछे से जो आदमी प्रकट हुआ, उस पर निगाह पड़ने पर टोकस सकपकाया।
“तू कौन है?” — वो सख्ती से बोला।
“सोहल।” — नासिर बोला — “उर्फ कौल।”
“तू सोहल नहीं है।”
“ठीक पहचाना।” — पीछे से आवाज आयी — “सोहल तो इधर है।”
तीनों ने चिहुंक कर पीछे देखा तो उनके छक्के छूट गये।
पीछे सलाउद्दीन और उसके तीन बेटे मौजूद थे।
तीनों बेटों के हाथ में रिवॉल्वरें थीं, खुद सलाउद्दीन के हाथ में स्टेनगन थी।
“मैं सोहल हूं।” — आमिर बोला।
“नहीं, मैं सोहल हूं।” — आरिफ बोला — “इस बार मेरी बारी है।”
“तेरी बारी पिछली बार थी” — जावेद बोला — “इस बार मैं सोहल हूं।”
“अरे, कम्बख्तो।” — सलाउद्दीन बोला — “जो सोहल के करीबी हैं, उन्हें फैसला करने दो कि कौन सोहल है!”
तीनों को जैसे एकाएक सांप सूंघ गया था।
टोकस ने घूम कर पलंग की तरफ देखा तो पाया कि अब वहां मौजूद लड़के के हाथ में भी रिवॉल्वर थी।
“बोलो, हजरात” — सलाउद्दीन बोला — “कौन सा सोहल पसन्द है? ताकि वो अपना काम शुरू करे।”
“क... काम?” — टोकस के मुंह से निकला।
“और तुम लोगों का भी।”
“तु... तुम्हारी यहां गोली चलाने की म... मजाल नहीं हो सकती।”
“क्यों, भई? तुम्हारी हो सकती है तो हमारी क्यों नहीं हो सकती?”
“हमने अपना काम करके चले जाना था, तुम लोगों ने यहीं रहना है, इसलिये।”
“साहबान, मैं पहले ही बोला कि इस मंजिल पर एक ही कमरा है। यहां चली गोली की आवाज किसी को सुनायी नहीं देने वाली।”
“ला... लाशें? चार लाशें भरे पूरे होटल से बाहर निकालना हंसी खेल न होगा।”
“बाहर कौन निकालेगा?”
“तो क... क्या करोगे?”
“यहीं तुम्हारा कीमा कूटेंगे और कबाब बना कर मेहमानों को परोस देंगे।”
सलाउद्दीन ने वो शब्द ऐसे नृशंस भाव से कहे कि तीनों की रूह कांप गयी।
“हमारी... हमारी” — टोकस बोला — “तु... तुम्हारे से.. क... कोई अदावत नहीं।”
“हमारी है।”
“क... क्यों?”
“क्योंकि तुम सोहल के दुश्मन हो।”
“हमारी उससे भी कोई अदावत नहीं। हम सिर्फ हुक्म के गुलाम हैं।”
“किस के गुलाम हो? नाम बोलो उसका।”
“ब्रजवासी।”
“पूरा नाम?”
“माता प्रसाद ब्रजवासी।”
“कौन है? कहां पाया जाता है?”
“दिल्ली से आया बड़ा आदमी है।”
“आदमी है या मवाली है? गैंगस्टर है? या दिल्ली में दादा बोलते हैं?”
“वही है।”
“क्या?”
“दादा।”
“यहां कहां पाया जाता है?”
“होटल में।”
“कौन से होटल में? एक ही बार सब कुछ बोल।”
“गॉडविन में। कोलाबा में है। गार्डन रोड पर।”
“कमरा नम्बर बोल।”
“नहीं मालूम।”
“क्या?” — सलाउद्दीन ने खा जाने वाली निगाहों से उसे घूरा।
“नहीं मालूम। वो हमें कमरे में आने को कभी न बोला। जब भी मुलाकात हुई लॉबी में हुई या कार पार्किंग में हुई।”
“हूं।” — फिर सलाउद्दीन हुमने की तरफ घूमा — “तू तो लोकल मालूम होता है!”
हुमने ने जल्दी से सहमति में सिर हिलाया।
“मेरे को जानता है?”
उसका सिर फिर सहमति में हिला।
“फिर भी यहां आने की हिम्मत की?”
“मजबूरी, बाप।”
“अंगूठे और उंगली से थाम कर अपने अपने हथियार जेब से निकालो और फर्श पर फेंको। जिसका हाथ जरा भी सीधा हुआ, उसको गोली।”
पलक झपकते तीन रिवॉल्वरें कालीन बिछे फर्श पर आकर गिरीं।
“मैं तुम्हारी जानबख्शी कर रहा हूं।” — सलाउद्दीन बोला — “इसलिये नहीं क्योंकि तुम ऐसी किसी नवाजिश के काबिल हो बल्कि इसलिये क्योंकि मैं खामखाह का खून खराबा पसन्द नहीं करता।”
टोकस की जान में जान आयी।
“तो... तो हम... जायें?” — वो बोला।
“ऐसे कैसे जाओगे? शहर में अजनबी हो, कहीं भटक जाओगे। मैं तुम्हें भिजवाने का इन्तजाम करता हूं।”
“क.. क्या?”
“जावेद?”
“जी, अब्बा जानी।”
“पुलिस को फोन कर। बोल, लूटपाट मचाने की गरज से होटल में हथियारबन्द मवाली घुस आये हैं, आकर उन्हें गिरफ्तार करें।”
“जी, अब्बा जानी।”
टोकस का चेहरा उतर गया।
वही हाल उसके जोड़ीदारों का भी हुआ।
“ये” — विमल ने कपिल उदैनिया के सामने एक लिस्ट रखी — “होटल के मौजूदा स्टाफ के ग्यारह आदमियों के नाम हैं। इनमें से कोई वेटर है, कोई बैलब्वाय है, तो कोई क्लर्क है। राजा साहब का हुक्म है कि इन्हें फौरन डिसमिस कर दिया जाये।”
“वजह?” — उदैनिया बोला।
“मवाली हैं। ‘कम्पनी’ के आदमी हैं। आपकी परसों की स्क्रीनिंग से बच गये।”
“ओह! राजा साहब को कैसे खबर लगी इनकी?”
“मैं पूछूंगा उनसे” — विमल का स्वर शुष्क हो उठा — “अगरचे कि मेरी मजाल हुई।”
“सॉरी।” — इशारा समझ कर तत्काल उदैनिया खेदपूर्ण स्वर में बोला।
“इतने ढेर स्टाफ में अभी ऐसे आठ दस लोग और भी हो सकते हैं। सिक्योरिटी चीफ से कहियेगा कि वो इन्हीं लोगों से कुबुलवाने की कोशिश करे कि ऐसे और लोग कौन हैं, और हैं भी या नहीं हैं!”
“ठीक है।”
विमल वापिस चौथी मंजिल पर पहुंचा।
तभी फोन की घन्टी बजी।
उसने रिसीवर उठाया।
“राजा साहब के लिये कॉल है।” — ऑपरेटर की आवाज आयी।
“कौन है?”
“होटल ‘मराठा’ से कोई मिस्टर सलाउद्दीन हैं।”
“राजा साहब, इस वक्त होटल में नहीं हैं। कॉल मुझे दीजिये, मैं मैसेज रिसीव कर लूंगा।”
“यस, सर।”
एक क्लिक की आवाज हुई और फिर सलाउद्दीन की आवाज उसके कान में पड़ी।
“आदाब” — विमल मीठे स्वर में बोला — “मैं आपका खादिम।”
“पहचान लिया?” — सलाउद्दीन की आवाज आयी।
“कोई खास ही बात होगी जो इधर फोन लगाया।”
“खास ही बात है।”
“क्या?”
“इधर कुछ लोग तेरी फिराक में आये थे। हथियारबन्द थे और मेरे से जबरन तेरे बारे में कुबुलवाने के तमन्नाई मालूम होते थे। उन्हें मैंने गिरफ्तार करा दिया है। खत्म भी करा सकता था लेकिन मैंने खामखाह के खून खराबे से परहेज किया। खास बात ये नहीं है कि ऐसे लोग मेरे यहां पहुंचे, खास बात ये है कि वो सोहल को पूछते हुए पहुंचे। वो मेरे नाम तक से वाकिफ थे। बखिया से लेकर गजरे की बादशाहत तक जिस नाम से कोई ‘कम्पनी’ में वाकिफ न हुआ, उससे वो मामूली टपोरी वाकिफ थे, ये खास बात है।”
“कैसे वाकिफ थे?”
“सोच। कोई तो होगा उनको राह दिखाने वाला जो कि सोहल का रिश्ता सलाउद्दीन से जोड़ सकता था, ‘मराठा’ से जोड़ सकता था! कोई तो होगा जो तेरे बारे में ‘कम्पनी’ के झण्डाबरदारों से भी ज्यादा जानता था! कम से कम एक बात ज्यादा यकीनी तौर से जानता था कि सोहल का किसी सलाउद्दीन से भी गंठजोड़ था। सोच, कौन हो सकता है ऐसा आदमी?”
“मायाराम!” — विमल के मुंह से स्वयमेव ही निकल गया।
“वो कौन हुआ?”
“है एक कम्बख्त जो मेरी गुजश्ता जिन्दगी में से प्रेत की तरह सिर उठा के खड़ा हो गया था। वो ही कमीना दावा करता था कि उसने दस महीने लगाकर तिनका तिनका जोड़ कर मेरी मुकम्मल क्राइम लाइफ को रीकंस्ट्रक्ट किया था। जरूर वो ही कहीं से आप की भनक पा गया था।”
“उसी के भेजे वो मवाली ‘मराठा’ में पहुंचे थे?”
“नहीं, उसके भेजे तो नहीं पहुंचे हो सकते! क्योंकि पहले वो गिरफ्तार था और फिर उसका पुलिस कस्टडी से अगवा हो गया था। आज की तारीख में तो अभी ये भी नहीं मालूम कि वो जिन्दा है या मर गया। लेकिन आपकी बात सुनकर अब मेरी समझ में ये आ गया है कि क्यों उसको पुलिस कस्टडी से छुड़वाया गया था!”
“तेरी बाबत जानकारी हासिल करने के लिये?”
“यकीनन। उस जानकारी की ही बिना पर मेरे कुछ खास दुश्मन हर उस शख्स के पीछे पड़े हुए हैं जो कि मेरा खास या करीबी है। ऐसे ही एक शख्स आप हैं।”
“दुश्मन जाने पहचाने मालूम पड़ते हैं?”
“जी हां। वो दुश्मन ऐसे हैं जिनकी अपनी जान इसी सूरत में बच सकती है कि वो मेरी जान ले लें।”
“कहां हैं?”
“दिल्ली में। लेकिन उनमें से एक आजकल मुम्बई में है।”
“माता प्रसाद ब्रजवासी!”
विमल के मुंह से हैरानभरी सिसकारी निकली।
“आपने कैसे जाना?” — वो बोला।
“उन्हीं तीन मवालियों से जाना जो तेरी फिराक में ‘मराठा’ पहुंचे थे। उनमें से एक बढ़ बढ़ के बोल रहा था और बाकियों का लीडर जान पड़ता था, दिल्ली से इस ब्रजवासी के साथ ही आया जान पड़ता था, बाकी दो जने — हुमने और चिरकुट — लोकल थे।”
“बस, तीन ही थे?”
“होटल में तो तीन ही पहुंचे थे! बाहर आजू बाजू कोई रहा हो, जो माहौल गड़बड़ाता देख के खिसक गया हो तो कुछ कह नहीं सकता।”
“ओह! इस ब्रजवासी का लोकल पता मालूम हो पाता तो...”
“है न मालूम! वो भी तो वजह है जो मैंने तेरे को फोन लगाया।”
“दैट्स वैरी गुड। बताइये पता।”
“होटल गॉडविन, गार्डन रोड, कोलाबा। रूम नम्बर नहीं मालूम।”
विमल ने पता नोट किया और फिर बोला — “वैसे मवाली लोग वैसी ही नीयत के साथ फिर आ सकते हैं।”
“तू फिक्र न कर, बच्चे। सलाउद्दीन का दिल हमेशा ही नहीं पसीजता। इस बार जो आयेगा, चार भाइयों के कन्धों पर सवार होकर वापिस जायेगा। या फिर मैं सच ही उसका कीमा कूट दूंगा।”
“वो कई हो सकते हैं। एक बार खता खा चुकने के बाद वो ज्यादा ताकत के साथ आप पर हावी होने की कोशिश कर सकते हैं।”
“आम असलाह के अलावा मेरे पास एक तोप भी है जो काफी अरसे से इस्तेमाल में नहीं आयी। मैं उसे निकाल के चमकाता हूं और रवां करता हूं।”
“आप मजाक कर रहे हैं।”
“नहीं, भाई। मैं एकदम संजीदा हूं।”
“आपके कहने का मतलब ये है कि आप सब सम्भाल लेंगे?”
“हां। यही मतलब है मेरा।”
“तो मैं आपकी तरफ से निश्चिंत हो जाऊं?”
“बिल्कुल। खुदा हाफिज।”
लाइन कट गयी।
विमल ने रिसीवर वापिस क्रेडल पर रखा और इरफान को बुलाया।
“होटल में ठहरे एक आदमी से निपट लेगा” — विमल बोला — “या मैं साथ चलूं?”
“निपट लेगा के क्या मायने?” — इरफान निसंकोच बोला — “खल्लास करना है या पकड़ के लाना है?”
“दोनों में से जो काम आसान लगे, वो करना है। अन्त पन्त तो खल्लास ही होगा। पकड़ के ले आयेगा तो उसका गाना सुन लेंगे।”
“मैं समझ गया। पता बोल।”
विमल ने वो कागज उसे थमा दिया जिस पर उसने ब्रजवासी का पता नोट किया था।
आंधी तूफान की तरह कोली कोलाबा पहुंचा।
पीछे ‘मराठा’ में पुलिस पहुंचते ही वो समझ गया था कि पंगा पड़ गया था। उसने फौरन अपनी कार ‘मराठा’ के सामने से हटा ली थी और फासले से उस पर निगाह रखे इन्तजार करने लगा था। पांच मिनट बाद जब उसने पुलिस को अपने साथियों को गिरफ्तार करके ले जाते देखा था तो उसने फौरन ब्रजवासी को उसके होटल में फोन लगाया था। लेकिन मालूम हुआ था कि वो अपने कमरे में नहीं था। तब उसने उसके होटल पहुंचना ही मुनासिब समझा था।
वो रिसेप्शन पर पहुंचा।
मालूम हुआ कि मिस्टर ब्रजवासी अपने कमरे में नहीं थे।
तो कहां थे?
किसी को कोई खबर नहीं थी। उनके कमरे की चाबी क्योंकि की-बोर्ड पर मौजूद थी, इससे लगता था कि वो होटल में मौजूद नहीं थे।
लॉबी में बैठ कर उसका इन्तजार करने के अलावा कोली के पास कोई चारा नहीं था।
झामनानी अपने आफिस से उठने की तैयारी कर रहा था जबकि तरसेम लाल वहां पहुंचा।
झामनानी ने अप्रसन्न भाव से उसकी तरफ देखा और फिर भुनभुनाता सा बोला — “वडी, इधर कैसे आ गया, नी?”
परेशानहाल तरसेम लाल झामनानी की मेज के पीछे पहुंचा और उसकी टांगों से लिपट गया।
“बर्बाद हो गया, साहब” — वो कलपता हुआ बोला — “बर्बाद हो गया। अब तो आप ही रक्षक हो, आप ही पालनहार हो।”
“चड़या हुआ है, नी? क्या ड्रामा कर रहा है?”
“साहब, ये ड्रामा नहीं, फरियाद है। मैं...”
“पांव छोड़, नी।” — झामनानी उसे घुड़कता हुआ बोला।
“नहीं छोड़ूंगा। जब तक आप मुझे अपनी गुलामी में लेने की हामी नहीं भरोगे, जब तक नहीं छोड़ूंगा।”
“अरे, कम्बख्तमारे, कुछ कहेगा तो मैं कुछ समझूंगा न!”
“कहूंगा, साहब। कहने ही आया हूं।”
“मेरे घुटने को कहेगा, नी?”
“नहीं, साहब।”
“तो उठ के खड़ा हो।”
तरसेम लाल खड़ा हुआ।
“सामने जा के कुर्सी पर बैठ।”
तरसेम लाल ने आदेश का पालन किया।
“अब बोल, क्या हुआ?”
“साहब, नौकरी चली गयी इस उम्र में। बेइज्जत हुआ सो अलग।”
“वडी, कुछ बोल भी अब कि क्या हुआ? कैसे हुआ?”
तरसेम लाल ने बोला।
“वडी, तरसेम लाल” — झामनानी उसके खामोश होते ही भड़का — “तेरे पर खुदा की मार, नी। वडी, क्यों नशे में भौंका, नी?”
“खता हुई, साहब। अक्ल मारी गयी। ऊपर से मेरे ही यार ने मेरे को दगा दिया। एस.एच.ओ. का चमचा बन गया। मुझे इतनी पिला दी कि... अब मैं क्या बोलूं!”
“मेरा नाम भी भौंका होगा!”
“नहीं, साहब। बिल्कुल नहीं।” — तरसेम लाल साफ झूठ बोलता बोला — “अगर ऐसा हुआ होता तो क्या मैं आपको यहां आकर मुंह दिखाने के काबिल बचा होता?”
“तो किस का नाम लिया, नी? क्या बोला, नी, किस के कहने पर वो काम किया?”
“मैंने एक फर्जी नाम ले दिया। फर्जी ही पता भी बता दिया। साहब, यकीन कीजिये, एस.एच.ओ. टक्करें ही मारता रह जायेगा, कुछ नहीं जान पायेगा।”
“वडी, शक तो करेगा, नी, वो मेरे पर?”
“शक से क्या होता है, साहब? शक तो बड़े लोगों पर किये ही जाते हैं! आप जैसे बड़े और रसूख वाले आदमी पर शक की बिना पर तो कमिश्नर भी हाथ नहीं डाल सकता, एक मामूली एस.एच.ओ. की क्या बिसात है!”
“हूं। अब तू चाहता क्या है, नी? तेरे एस.एच.ओ. को कहूं कि तुझे नौकरी पर बहाल करे?”
“नहीं, साहब। वो तो अब मुमकिन भी नहीं रहा है। उसने तो मेरे सामने ही मेरा इस्तीफा डी.सी.पी. के पास भेज दिया था।”
“तो क्या चाहता है, नी?”
“साहब, अपनी खिदमत में ले लो, नहीं तो बाल बच्चे भूखे मर जायेंगे।”
“मेरी खिदमत उल्टी भी पड़ सकती है? हो सकता है कि जहां है, वहां के काबिल भी न रहे। सोच ले।”
“सोच लिया, साहब। सोच क्या लिया, निश्चय कर लिया। अब तो मरना जीना आपके साथ है।”
“झूलेलाल! कितनी लम्बी लम्बी छोड़ रहा है!”
“साहब, मैं जो कह रहा हूं, दिल से कह रहा हूं।”
“हूं। तू मेरे काम आया, भले ही नावां ले के कमा आया इसलिये तेरे लिये करना तो पड़ेगा कुछ न कुछ!”
“भगवान आपका भला करे।”
“वडी, कल दिन में आना, नी, मैं तेरे लिये कोई काम निकालूंगा।”
“शुक्रिया, साहब। आपने तो मुर्दे में प्राण फूंक दिये!”
उसने फिर झामनानी की चरण रज लेने की कोशिश की लेकिन झामनानी ने उसे डांट कर भगा दिया।
अली, वली सुजान सिंह पार्क के टैक्सी स्टैण्ड पर मुबारक अली के इन्तजार में मौजूद थे।
उस घड़ी अन्धेरा हो चुका था और टैक्सी स्टैण्ड के खोखे में बल्ब जलने लगा था। संयोग की बात थी कि उतना बिजी टैक्सी स्टैण्ड उस घड़ी सूना था। वहां जो दो टैक्सियां खाली मैदान के एक कोने में खड़ी थीं, वो दोनों बिगड़ी हुई थीं और ड्राइवर खोखे के पहलू में लगे तख्तपोश पर बैठे ताश खेल रहे थे। उसी तख्तपोश पर अली, वली विराजमान थे।
हुकमनी और अमरदीप वहां पहुंचे।
ताश खेलते एक ड्राइवर ने पत्तों पर से सिर उठाया और बोला — “टैक्सी नहीं है।”
“टैक्सी नहीं चाहिये।” — हुकमनी बोला।
“तो?”
“मुबारक अली से मिलना है।”
“वो तो है नहीं यहां। सवारी ले के गया है।”
“लौटेगा तो यहीं?”
“हां। लौटेगा तो जरूर यहीं! पक्का अड्डा है ये उसका। बारह बजे तक वो इधर ही होता है। अभी तो आठ भी नहीं बजे!”
“ओह!”
“आपको क्या काम है उससे?”
“मिलना है। हम उसके गांव से हैं।”
अली, वली के कान खड़े हुए। दोनों ने गौर से हुकमनी की सूरत देखी।
“अच्छा!”
“लेकिन हम उसे पहचानते नहीं हैं। आप बताइये, कैसे पहचानेंगे हम उसे?”
“कोई हुलिया बता दें तो हमें सहूलियत होगी।” — अमरदीप बोला।
“अरे, भाई। मुबारक अली की पहचान उसके हुलिये से नहीं होती, उसके जूते से होती है।”
“क्या?”
“बारह नम्बर का जूता पहनता है। कभी देखा किसी को बारह नम्बर का जूता पहनते?”
“ओह! वैसे उसकी टैक्सी का नम्बर क्या है?”
“डी एल टी 2619”
“ठीक है। हम थोड़ी देर में लौट के आते हैं।”
“जब मर्जी आना। हम मुबारक अली को बोल देंगे। वो तुम्हारे लिये रुक जायेगा।”
“शुक्रिया।”
दोनों वहां से हटे और खाली मैदान में चलते अन्धेरे में विलीन हो गये।
अली, वली की नजरें मिलीं। फिर वली अपने स्थान से उठा और टहलता हुआ उधर बढ़ा जिधर वो दोनों गये थे।
दस मिनट बाद वो वापिस लौटा।
“दो और हैं।” — वो धीमे स्वर में वली से बोला — “उधर मैदान में दाखिले के रास्ते पर खड़े हैं।”
अली ने सहमति में सिर हिलाया।
वली वापिस तख्तपोश पर बैठ गया। दोनों के चेहरों पर चिन्ता के किसी प्रकार के कोई भाव नहीं थे। अलबत्ता वे चौकन्ने जरूर हो गये थे।
आधा घन्टा यूं ही गुजरा।
उस दौरान तीन चार टैक्सियां वहां आयीं और चली गयीं।
फिर मैदान में दाखिले के रास्ते पर एक टैक्सी की हैडलाइट्स चमकीं, टैक्सी मैदान में दाखिल हुई ही थी कि रुक गयी। वहीं उसकी हैडलाइट्स ऑफ हुईं लेकिन यूं अन्धेरा होने से पहले उन्होंने देखा कि चार आदमी टैक्सी के ड्राइविंग सीट की ओर के पहलू में खड़े थे।
टैक्सी की हैडलाइट्स पूरी तरह से ऑफ हुईं तो प्रत्यक्ष हुआ कि उसकी पार्किंग लाइट्स जल रही थीं।
“मामू?” — वली दबे स्वर में बोला।
अली ने सहमति में सिर हिलाया।
तभी उधर से कोई जोर से बोला।
ताश खेलते दोनों ड्राइवरों की तवज्जो आवाज की तरफ गयी। फासले से भी उन्होंने अपने सहयोगी टैक्सी ड्राइवर का पहाड़ जैसा आकार साफ पहचाना।
“अरे!” — एक बोला — “ये तो अपना मुबारक अली है!”
“चार जने गले पड़ रहे हैं उसके।” — दूसरा बोला।
“लड़ रहे हैं।”
“एक से चार।” — पहले ने पत्ते फेंक दिये — “चल ओये, करतारया।”
दूसरे ने भी पत्ते फेंके।
दोनों तख्तपोश से नीचे उतरे।
“बैठे रहो।” — वली बोला।
“बैठे रहें!” — करतारे के नाम से पुकारा जाने वाला व्यक्ति बोला — “ओये, तेरे मामे नूं...”
“बैठे रहो और नजारा करो।” — वली बोला।
“ओये काका, वो चार हैं!”
“काफी नहीं हैं। मामू को किसी मदद की जरूरत नहीं पड़ने वाली।”
“कमाल की बात करता है, यार, तू!”
“बैठे रहो।”
“नजारा करो।” — अली बोला।
उधर मुबारक अली एक जने का चाकू वाला हाथ दबोचे था और दूसरे को गर्दन से पकड़ कर यूं उठाये था कि उसके पांव जमीन पर नहीं लग रहे थे। बाकी दो उसे पकड़ने की कोशिश कर रहे थे लेकिन वो मछली की तरह तड़पता उनके काबू में नहीं आ रहा था।
चाकू वाले के हाथ से चाकू निकल गया तो मुबारक अली ने उसे परे धकेल दिया और दूसरे हाथ में थमे दूसरे को भी उसके ऊपर फेंका।
एक के हाथ में डण्डा था जो उसने मुबारक अली के सिर को निशाना बना कर चलाया। डण्डा मुबारक अली के सिर की जगह उसके बैल जैसे कन्धे से टकराया। डण्डे वाले ने दूसरा वार किया तो उसने डण्डे को हवा में ही थाम लिया। वार तो रुक गया लेकिन बाकी के तीनों झपट कर मुबारक अली से लिपट गये।
“या अली!” — एकाएक मुबारक अली ने घनगर्जन किया — “मदद!”
चारों मुबारक अली के जिस्म से छिटक कर परे जा के गिरे।
फिर मुबारक अली ने उन्हें लात घूंसों पर धर लिया और बगूले की तरह उनके बीच घूमता उन्हें रुई की तरह धुनने लगा।
अब वो चारों मुकाबला नहीं कर रहे थे, सिर्फ पिट रहे थे।
फिर एकाएक वो वहां से भाग निकले।
“ठहर जाओ, अल्लामारो!” — किसी का जूता, किसी का चाकू, किसी का डण्डा उनके पीछे उछालता मुबारक अली चिल्लाया — “अभी तो हाथ भी नहीं गर्म हुए!”
चारों अन्धेरे में कहीं गायब हो गये।
“भाग गये, साले!” — मुबारक अली हाथ झाड़ता हुआ बोला।
अली, वली ने ड्राइवरों की तरफ देखा।
“बल्ले, भई!” — करतारा मन्त्रमुग्ध स्वर में बोला।
“कमाल है!” — दूसरा बोला — “हम तो तुम्हें कोस रहे थे कि अच्छे भांजे हो, जा के मामू की मदद नहीं करते।”
“मदद करने जाते तो मामू भड़क जाता।” — अली बोला।
“सिर्फ चार ही तो थे!” — वली बोला।
“मामू दस दस जनों में अकेला लंगोट घुमा चुका है।”
“शावाशे, भई।” — करतारा बोला।
मुबारक अली की टैक्सी करीब पहुंची और वो झूमता सा उसमें से बाहर निकला।
“मामू” — अली बोला — “मजा नहीं आया!”
“दो मिनट में खदेड़ दिया।” — वली बोला — “कुछ देर तो धुनना था!”
“कम्बख्तमारो!” — मुबारक अली बोला — “सब देख रहे थे?”
“हां, मामू।”
“फिर भी करीब न फटके?”
“फटकते तो अब चार पिट रहे थे, फिर छ: पिटते।”
मुबारक अली हंसा। उसने केवल एक क्षण को स्नेहसिक्त भाव से अपने भांजों की तरफ देखा, फिर तत्काल उसके चेहरे पर पहले जैसे कठोर भाव आ गये।
“वो तो है!” — वो सख्ती से बोला — “नसीबमारो, तुम्हारी मदद की जरूरत मुझे एक ही बार पड़ेगी जबकि तुम मेरी मैयत उठाओगे और मुझे कब्रिस्तान छोड़ के आओगे।”
“वहां भी तुम्हारी जिद होगी” — अली बोला — “कब्र मैं खुद खोदूंगा।”
मुबारक अली की हंसी छूट गयी। उसने एक जोर की धौल अली की पीठ पर जमाई।
“थे कौन वो?” — करतारा उत्सुक भाव से बोला।
“क्या पता कौन थे!” — मुबारक अली बोला।
“तेरी ही ताक में थे। यहां पहले पूछताछ कर गये थे तेरे बारे में।”
“लेकिन” — दूसरा बोला — “तेरी शक्ल नहीं पहचानते थे।”
“अब ताजिन्दगी नहीं भूलेंगे।” — मुबारक अली बोला — “सपनों में देखेंगे और, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, चौंक चौंक के उठ के भागेंगे।”
“वो तो ठीक है, वीर मेरे” — करतारा बोला — “लेकिन वो फिर आ सकते हैं।”
“ज्यादा बड़ी तादाद में आ सकते हैं।” — दूसरा बोला।
“अब नहीं आयेंगे।” — मुबारक अली इत्मीनान से बोला।
“क्यों?”
“क्योंकि पहले मैं ही उनके यहां पहुंच जाऊंगा।”
“अच्छा! पहचानता है उन्हें?”
“उन्हें नहीं पहचानता लेकिन उन्हें पहचानता हूं जिनकी ये तमाम के तमाम नाजायज औलाद हैं।”
श्रोता फिर न बोला।
“चलो।” — मुबारक अली ने भांजों को हुक्म दिया।
तत्काल अली, वली टैक्सी में आगे सवार हुए। मुबारक अली पिछली सीट पर पसर गया तो टैक्सी वहां से रवाना हो गयी।
इरफान और शोहाब होटल गॉडविन के रिसेप्शन पर पहुंचे।
“मिस्टर ब्रजवासी कौन से कमरे में हैं?” — शोहाब ने पूछा।
“मिस्टर ब्रजवासी!” — रिसेप्शनिस्ट बोला — “वो तो चैक आउट कर गये!”
“अरे! उनका तो बड़े लम्बे स्टे का प्रोग्राम था!”
“सर, वो एकाएक बहुत अफरातफरी में चैक आउट करके गये।”
“कब?”
“अभी बस कोई पन्दरह मिनट पहले।”
“कोई फारवर्डिंग अड्रैस छोड़ कर गये?”
“नो, सर।”
“वो आपके होटल से चले गये या मुम्बई से ही चले गये?”
“हमें कोई खबर नहीं, सर।”
“ओके। थैंक्यू।”
दोनों रिसेप्शन पर से हट गये।
“यकायक गया।” — इरफान धीरे से बोला — “अफरातफरी में गया। इसका एक ही मतलब हो सकता है।”
“क्या?” — शोहाब बोला — “हमारी आमद की खबर लग गयी उसे?”
“खबर न लग गयी। अन्देशा हो गया। किसी तरीके से मालूम पड़ गया कि उसका लोकल पता कोई राज नहीं रहा था।”
“इसलिये पता बदलना उसने जरूरी समझा?”
“हां।”
“फिर तो वो मुम्बई में ही कहीं होगा!”
“हां।”
“वो भी किसी दूसरे होटल में ही!”
“होटल में क्यों?”
“वो किसी के साथ रह सकता होता तो पहली बार ही क्यों होटल में ठहरता?”
“दुरुस्त। तो अब?”
“पूछताछ करनी होगी। शायद किसी बैलब्वाय ने उसकी मंजिल की बाबत कुछ सुना हो! शायद डोरमैन ने कुछ सुना हो! शायद वो टैक्सी वाला मिल जाये जो उसे इधर से कहीं लेकर गया था!”
“बशर्ते कि वो किसी प्राइवेट कार पर इधर से न गया हो!”
“देखेंगे।”
वो शराब और शबाब की एक भव्य पार्टी थी जो कि मुम्बई के एक नामी फिल्म फाइनांसर कुमुदभाई देसाई के प्राइवेट यॉट सी-हाक पर आयोजित थी। रोशनियों से जगमगाता यॉट मुम्बई हार्बर से एक मील परे समुद्र में खड़ा था। अपोलो बन्दर से यॉट तक मेहमानों को लाने ले जाने के लिये मेजबान की तरफ से कई तेज रफ्तार मोटरबोटों का इंतजाम था जो कि शटल की तरह किनारे और यॉट के बीच मुतवातर चल रही थीं।
वो एक पूर्वप्रचारित पार्टी थी जो कि कुमुदभाई देसाई की फाइनांस की गयी एक फिल्म की गोल्डन जुबली मनाने के लिये आयोजित की गयी थी।
उस पार्टी का निमन्त्रण हासिल करने के लिये ब्रजवासी को काफी पापड़ बेलने पड़े थे। अब वो सजधज में फिल्म स्टारों को भी मात करती शिवांगी शाह के साथ पार्टी में मौजूद था। खुद वो भी मुम्बई की वैसी चमक दमक वाली पार्टियों के रसमोरिवाज के मुताबिक खूब सजधज कर आया था।
शिवांगी शाह ब्रजवासी के कम्पैनियन का रोल अदा करने के लिये ही उस पार्टी में नहीं आयी थी, वहां वो ‘भाई’ के उस हुक्म की तामील के लिये भी पहुंची थी जो कि मूलरूप से छोटा अंजुम को हुआ था। छोटा अंजुम को ‘भाई’ का हुक्म हुआ था कि वो सोहल के किसी ऐसे करीबी को तलाश करे जिसके मरने से सोहल तड़पे। ऐसे किसी शख्स को तलाश कर पाने से पहले ही क्योंकि छोटा अंजुम का अपना ही काम हो गया था इसलिये अब वो काम शिवांगी के हवाले था। ब्रजवासी ने जब उसे बताया था कि उसे पक्की खबर थी कि लोहिया सोहल का करीबी था तो उसे उस पार्टी में चलने के लिये शिवांगी की कोई मनुहार नहीं करनी पड़ी थी। वो बात मालूम होते ही ‘भाई’ की फरमाबरदार और खासुलखास शिवांगी खुशी खुशी ब्रजवासी के साथ उस पार्टी में चली आयी थी जिसका — ब्रजवासी पहले ही तसदीक कर चुका था — शेषनारायण लोहिया खास मेहमान था।
बहरहाल शिवांगी के साथ ब्रजवासी पूरी कामयाबी से उस पार्टी में सेंध लगा चुका था।
ये बात अभी भी तफ्तीश का मुद्दा थी कि गॉडविन से खड़े पैर चैक आउट करके उसने समझदारी दिखाई थी या खामखाह की भगदड़ मचाई थी। इस बात ने भी उसे काफी हिलाया था कि सलाउद्दीन को कसने गये चार आदमियों में तीन पुलिस की गिरफ्त में थे और चौथे का — कोली का — गिरफ्तारी से बच गया होना महज इत्तफाक की बात थी। कोली उसे सिर्फ गिरफ्तारी की खबर दे पाया था, ये नहीं बता पाया था कि ‘मराठा’ के भीतर क्या बीती थी और क्योंकर उन लोगों की गिरफ्तारी की नौबत आयी थी।
टोकस की गिरफ्तारी के मामले में वो ज्यादा फिक्रमन्द था क्योंकि वो उसका आदमी था और उसके बारे में बहुत कुछ जानता था। वो खबर लगते ही उसने दिल्ली, झामनानी से बात की थी और झामनानी की राय पर ‘भाई’ से बात की थी। ‘भाई’ उससे बड़ी अच्छी तरह से पेश आया था और उसने उसे आश्वासन दिया था कि या तो आज ही वो उन्हें थाने से ही छुड़वा देगा या कल सुबह उनकी जमानत कराने का इन्तजाम तो हर हाल में कर देगा।
अब वो पार्टी के रंग में रंगने की और उन वाकयात को भूलने की कोशिश कर रहा था।
ये देखकर उसे बड़ी राहत महसूस हो रही थी कि उसकी सूचना और अपेक्षा के अनुसार शेषनारायण लोहिया पार्टी में पहुंच चुका था। वो नहीं जानता था कि शराब का रसिया और सदा परस्त्रीसुखअभिलाषी लोहिया उस पार्टी में शिरकत के लिये इतना उतावला था कि गैरहाजिर हो ही नहीं सकता था। वो तो जेकब सर्कल पर स्थित अपने आफिस से सीधा ही वहां चला आया था। जो डिनर सूट वो उस घड़ी पहने था, वो भी उसने शाम को ड्राइवर को घर भेज कर दफ्तर में ही मंगवाया था।
विमल की सुबह की वार्निंग उसे भूली नहीं थी लेकिन उसे यकीन था कि वो वार्निंग इतने बड़े आदमी की इतनी बड़ी पार्टी पर लागू नहीं होती थी जहां कि हाई सोसायटी के भी हाई ग्रेड लोगों की ही पहुंच हो सकती थी। देसाई को वो जाती तौर पर जानता था इसलिये ये बात भी उस पर लागू नहीं होती थी कि वो किसी गैर की पार्टी में आया था।
लोहिया पचपन के पेटे में था लेकिन उस उम्र में भी उसकी औरत की तृष्णा ऐसी थी जैसे कि वो कल जवान हुआ हो। उस रोज जैसी पार्टियों में हाई सोसायटी की तितलियों के पीछे तो वो पड़ा ही रहता था, रेशमवाला नाम के एक कालगर्ल्स सप्लायर से हाई प्राइस्ड कालगर्ल्स भी वो अक्सर तलब करता रहता था। ऊपर से गाहेबगाहे उसका चक्कर मदाम सिक्वेरा के ठीये का भी लगता था। फिर भी नित नयी लड़की के संसर्ग में आने की उसकी ऐसी भूख थी जो कि कभी शांत ही नहीं होती थी।
उसके उस शौक से बाखूबी वाकिफ उसके एक दोस्त ने एक बार मजाक में उससे सवाल किया था कि औरत की ख्वाहिश मर्द की जिन्दगी की कौन सी स्टेज पर कब जाकर खत्म होती थी तो उसने जवाब दिया था कि चिता पर लिटाये जाने के पन्दरह या बीस मिनट बाद।
यही वजह थी कि रंगीला राजा शेषनारायण लोहिया शिवांगी शाह पर पार्टी में एक निगाह पड़ते ही उस पर फिदा हो गया था। पार्टी में, जैसा कि हमेशा अपेक्षित होता था, और भी कई खूबसूरत लड़कियां मौजूद थीं लेकिन उनमें से अधिकतर ऐसी थीं जो कि ऐसी पार्टियों में उसे आम मिलती रहती थीं और उसकी निगाह में ‘बासी माल’ थीं।
नयी लड़की के साथ एक आदमी था जिसकी वजह से वो फौरन उस तक अपनी पहुंच नहीं बना पा रहा था।
फिर जब डांस के लिये बैंड बजने लगा तो एक मौका उसके हाथ लगा।
वो लड़की अपने पार्टनर के साथ डांस करती रही। बैंड बजना बन्द हुआ तो उसका पार्टनर उसके कान में कुछ बोला और हॉल से बाहर की तरफ चल दिया। फिर वो अकेली डांस फ्लोर के साथ लगी टेबलों में से एक की ओर बढ़ी।
लोहिया उसके पीछे हो लिया।
लड़की एक टेबल पर जा बैठी, वेटर ने उसे एक ड्रिंक सर्व किया जिसे कि वो हौले हौले चुसकने लगी।
लोहिया उसकी टेबल पर पहुंचा।
“हल्लो!” — एक गोल्डन जुबली मुस्कराहट में अपनी मुकम्मल फन्देबाजियां उंढेलता हुआ वो बोला — “मे आई सिट हेयर फार ऐ मूमेंट?”
“यस” — जवाब मिला — “प्लीज।”
“श्योर, यू डोंट माइंड?”
“आफकोर्स नॉट।”
“मे बी युअर पार्टनर...”
“माई पार्टनर डज नॉट ओन मी।”
“ओह! ओह!” — तब लोहिया उसके सामने बैठ गया — “मुझे लोहिया कहते हैं।”
“मैं शिवांगी।”
“मुझे आप से मिलकर बहुत खुशी हुई।”
“मुझे भी।”
“आप खुशकिस्मत हैं कि आप पार्टनर के साथ आयी हैं। मैं ऐसा खुशकिस्मत नहीं हूं।”
“मतलब?”
“मैं” — लोहिया ने जैसे पासा फेंका — “तनहा हूं।”
“तनहा कहां हैं आप?” — शिवांगी मुस्कराती हुई बोली — “मैं जो हूं आपके साथ!”
“ये साथ तो फूंक से उड़ जाने वाला है, मैडम।”
“कैसे भला?”
“अभी आपके पार्टनर लौट आयेंगे।”
“वो तो है।”
“कहते हैं दुआओं का असर होता है।” — महान तजुर्बेकार लोहिया ने नया पासा फेंका।
“आप क्या दुआ करना चाहते हैं?” — शिवांगी बोली।
“बेखौफ कहूं?”
“हां, हां। क्यों नहीं?”
“मैं दुआ करना चाहता हूं कि आपके पार्टनर लौट कर न आयें।”
शिवांगी खिलखिला कर हंसी।
“आप हंस रही हैं?” — लोहिया मुंह बिसूर कर बोला।
“मिस्टर लोहिया” — वो बोली — “आप दुआ नहीं कर रहे, सपने देख रहे हैं।”
“सपने देखने को क्या गुनाह करार दे दिया है नयी सरकार ने?”
“वो बात तो नहीं लेकिन...”
“क्या लेकिन?”
तभी बैंड फिर बजने लगा।
लोहिया ने अपना विस्की का गिलास खाली किया, उठ कर खड़ा हुआ और शिवांगी के सामने कमर से नीचे झुकता बोला — “मैडम, मे आई हैव दिस डांस विद यू?”
शिवांगी ने मुस्कराते हुए बड़ी अदा से अपना हाथ उसके हाथ में दे दिया और उठ खड़ी हुई।
दोनों डांस फ्लोर पर पहुंचे और संगीत की लय पर थिरकने लगे।
लोहिया ने थोड़ी देर ही शालीनता दिखाई फिर धीरे धीरे उसके कूल्हे पर रखा उसका हाथ उसकी कमर में कसने लगा।
शिवांगी पहले उसके साथ चिपकी और फिर जैसे रेशम की गठरी की तरह उस पर ढेर हो गयी।
लोहिया बाग बाग हो गया।
उसने उसे मुर्गी की तरह दबोचने में कसर न छोड़ी।
उसे कोई अन्देशा था तो ये था कि अभी लड़की का जोड़ीदार वहां पहुंचेगा, उसके कन्धे पर दस्तक देगा, मजबूरन उसे लड़की को अपने से अलग करना पड़ेगा और फिर वो कम्बख्त, जैसे उसे तपाने के लिये, लड़की को अपनी बांहों में भर लेगा।
काश उसे मालूम होता कि वैसा कुछ नहीं होने वाला था।
काश उसे मालूम होता कि ब्रजवासी खास उसके लिये लड़की को पीछे तनहा छोड़ कर गया था।
लोहिया ने उसके जिस्म की एक गोलाई को छुआ तो बाग बाग हो गया।
इसलिये नहीं क्योंकि जो उसने छुआ था, वो नायाब था।
बल्कि इसलिये कि लड़की ने कोई एतराज नहीं किया था।
अपनी उस हरकत से शह पाकर वो और दिलेर हो गया, नतीजतन डांस ने ऐसे अभिसार की सूरत अख्तियार कर ली जिसमें बस लेटने की कसर थी।
तभी बैंड बजना बन्द हो गया।
नृत्य करते जोड़े एक दूसरे से अलग हुए। सब ने तालियां बजायीं।
दोनों टेबल पर वापिस लौटे।
वेटर ने उन्हें नये जाम सर्व किये।
दोनों ने फिर चियर्स बोला और अपने अपने जाम से घूंट भरे।
“आपके पार्टनर नहीं लौटे!” — लोहिया बोला।
“आप चाहते हैं” — शिवांगी इठलाती हुई बोली — “कि वो लौट आयें?”
“अजी, तौबा मेरी। मैं क्यों चाहूंगा?”
“फिर क्यों पूछ रहे हैं?”
“यूं ही। उत्सुकतावश।”
“वो यहां नहीं हैं।”
“यहां तो नहीं हैं, होते तो दिखाई देते, लेकिन...”
“वो यॉट पर नहीं हैं।”
“जी!”
“वो किनारे पर गये हैं। एक निहायत जरूरी काम से। काफी देर से लौटेंगे।”
“ओह! ओह! आपको यहां छोड़ गये?”
“आपको कोई एतराज?”
“एतराज! मेरे लिहाज से तो ये उन्होंने एक ऐसा काम किया है जिस पर उन्हें कोई ईनाम मिलना चाहिये।”
शिवांगी हंसी।
“वैसे हैं कौन वो?” — लोहिया ने उत्सुक भाव से पूछा।
“बड़े आदमी हैं।”
“वो तो होंगे ही, वरना देसाई की पार्टी में इनवाइटिड न होते।”
“राइट।”
“नाम क्या है उनका?”
“एम.पी. ब्रजवासी।”
“लोकल तो नहीं जान पड़ते।”
“दिल्ली से हैं।”
“आप से कैसे वाकिफ हैं?”
“मैं मुम्बई में उनकी गाइड, एस्कार्ट और कम्पैनियन हूं।”
“कमाल है! फिर भी आपको पीछे छोड़ गये! जरूरी काम याद आ गया तो खुश्की पर साथ न ले गये!”
“साथ ले जाते तो आपका अंजाम बहुत बुरा होता।”
“जी!”
“आप जरूर मेरे बारे में सोच सोच के ही पागल हो जाते।”
“वो तो है! बहरहाल जो हुआ, अच्छा हुआ और...”
“और क्या?”
“जो आगे होगा वो भी अच्छा होगा।”
“आगे क्या होगा?”
“वो तो आपकी मर्जी पर मुनहसर है।”
“मेरी मर्जी।” — वो होंठ दबाकर हंसी।
“कहें तो हम भी किनारे पर चलें?”
“वो किसलिये?”
“तनहाई की तलाश में?”
“ओह, नो। मैं पार्टी छोड़ कर नहीं जा सकती। वो मुझे उनका यहीं इन्तजार करने को बोल कर गये हैं।”
“तो फिर क्या बात बनी?”
“इतना बड़ा यॉट है। यहां भी तो कहीं तनहाई मुमकिन होगी!”
“ओह! ओह!” — लोहिया एकाएक उठ खड़ा हुआ — “मैं अभी आया।”
“कहां चल दिये?”
“तनहाई की तलाश में। मैं बस गया और आया। हिलना नहीं यहां से।”
“ओके।”
लोहिया घूमकर चलने लगा तो किसी की छाती से टकराया।
उसने सिर उठाया तो ओरियन्टल होटल्स एण्ड रिजार्ट्स के चेयरमैन रणदीवे को अपने सामने खड़ा पाया।
“ओह, हल्लो!” — वो तनिक हकबकाया सा बोला।
“भई, हार्न देकर” — रणदीवे बोला — “ब्रेक लगा कर आगे बढ़ा करो।”
लोहिया खिसियाया सा हंसा।
रणदीवे ने एक गुप्त निगाह पीछे बैठी शिवांगी पर डाली और फिर प्रशंसात्मक स्वर में बोला — “लक्की डॉग!”
“वो... वो... क्या है कि...”
“यू डू गैट अराउन्ड, मिस्टर लोहिया।”
“रणदीवे साहब, मैं जरा...”
“हां, हां। अभी। मैं कौन होता हूं रंग में भंग डालने वाला! बस इतना बता दो। साथ लाये थे या यहां मिली?”
“यहां मिली।”
“भोग लगाने का मौका तो फिर अभी नहीं मिला होगा?”
“उसी फिराक में हूं लेकिन यहां पब्लिक ही बहुत है।”
“भई, पार्टी है। पार्टी में पब्लिक नहीं होगी तो और क्या होगा?”
“ये भी ठीक है।”
“मेजबान से बात करो। वो भी तुम्हारे जैसा ही रंगीला राजा है इसलिये तुम्हारी प्राब्लम को झट समझ जायेगा।”
“मैं वही करने जा रहा था कि...”
उसने जानबूझ कर वाक्य अधूरा छोड़ दिया।
“परसों तुम्हारा एक दोस्त मिला था।”
“मेरा!” — लोहिया सकपकाया।
“बहुत शानदार आदमी था। शानदार और रोबदार।”
“कौन?”
“राजा गजेन्द्र सिंह।”
“कौन?”
“भई, राजा गजेन्द्र सिंह। एन.आर.आई. फ्रॉम नैरोबी।”
“अच्छा, वो। वो तो है ही राजा आदमी।”
“अपने को पटियाला के शाही घराने से बताता था।”
“ठीक बताता था।”
“तुम्हारे से कैसे वाकफियत हुई?”
“हो गयी किसी तरह से। लम्बी दास्तान है...”
“तो क्या हुआ?”
“रणदीवे साहब, इस वक्त मैं कुछ कहने के नहीं, कुछ करने के मूड में हूं इसलिये दास्तान-ए-सोहल फिर कभी।”
“सोहल!”
तत्काल शिवांगी के भी कान खड़े हुए।
“सॉरी। जुबान फिसल गयी। मैं राजा गजेन्द्र सिंह की ही बात कर रहा था।”
“लेकिन सोहल...”
“अभी आप यहीं हैं न, रणदीवे साहब? जा तो नहीं रहे न?”
“नहीं लेकिन...”
“हम अभी थोड़ी देर में फिर मिलते हैं, फिर बैठ कर इत्मीनान से बातें करेंगे। ओके?”
रणदीवे ने अनमने भाव से सहमति में सिर हिला दिया।
मन ही मन सौ सौ बार रणदीवे को कोसता लोहिया उससे अलग हुआ और पार्टी में अपने मेजबान कुमुदभाई देसाई को तलाश करने लगा।
“...देर से पहुंचे।” — शोहाब विमल को बता रहा था — “होटल से चैक आउट कर गया।”
“भनक लग गयी होगी किसी तरह से” — विमल बोला — “कि ‘मराठा’ में उलटी पड़ गयी थी!”
“ऐसीच जान पड़ता है।” — इरफान बोला — “पण हम भी पता लगा के लौटे हैं कि वो किधर है!”
“अच्छा! किधर है!”
“नटराज में।”
“कैसे पता लगाया?”
“विक्टर ने आखिरकार अपना वो टैक्सी डिरेवर भाई ढूंढ निकाला था जो उसे गॉडविन से नटराज लेकर गया था।”
“ओह! अब वो नटराज में है?”
“नहीं है।” — जवाब शोहाब ने दिया — “मालूम हुआ है कि बहुत सजधज कर कहीं गया है। एक कड़क जवान लड़की के साथ।”
“लौटेगा तो वहीं?”
“आखिर तो लौटेगा ही! लड़की के साथ तफरीहन निकला होगा तो लौटने में देर हो सकती है लेकिन लौटगा तो यकीनन!”
“मैं उधर” — इरफान बोला — “अपना एक आदमी बैठा के आया है। लौटेगा तो मालूम पड़ जायेगा।”
“गुड।”
शिवांगी ने मन्त्रमुग्ध भाव से यॉट के उस भव्य और विशाल बेडरूम का मुआयना किया जो कि स्टेटरूम कहलाता था और टॉप बॉस के काम आता था।
“वाह!” — वो बोली — “दिल खुश हो गया।”
लोहिया का दिल जानता था कि कैसे उसने — आधे घण्टे से ज्यादा वहां न रुकने का वादा करके — देसाई से उसके स्टेटरूम की चाबी हासिल की थी।
“हो गया न?” — जवाब में वो भी चहका।
“बहुत जुगाड़ू आदमी हैं आप, मिस्टर लोहिया।”
“जुगाड़ू?”
“रिसोर्सफुल। एन्टरप्राइसिंग।”
“ओह! मुझे खुशी हुई ये सुनकर। लेकिन साथ में अफसोस भी है।”
“अफसोस!”
“इतनी बड़ी पार्टी की इतनी बड़ी गैदरिंग में मैंने एक तनहा जगह मुहैया कराने के नामुमकिन काम को मुमकिन करके दिखाया और फासला फिर भी हम दोनों में यूं बरकरार है जैसे कि अभी भी हम ऊपर मेन हॉल में ही हों।”
वो हंसी।
“इससे तो डांस फ्लोर ही अच्छा था जहां कम से कम तुम मेरी बांहों में तो थीं!”
“और” — वो इठला कर बोली — “कम से कम से आपका काम नहीं चलता। नो?”
“यस। कम हेयर।”
पूर्ववत् इठलाती शिवांगी उसके करीब पहुंची। लोहिया ने बाज की तरह झपट्टा मारकर उसे दबोच लिया।
“ईजी!” — शिवांगी उसके कान में फुसफुसाई — “ईजी, मिस्टर लोहिया। जरा धीरज से काम लीजिये।”
“अब धीरज गया तेल लेने।”
“मेरी ड्रैस फट जायेगी।”
“तो बचा इसे फटने से। उतार कर एक तरफ डाल।”
“आप छोड़ेंगे तो कुछ करूंगी।”
तीव्र अनिच्छा के भाव से लोहिया ने उसे अपने से अलग किया।
“बत्तियां बुझाइये।”
लोहिया ने तमाम बत्तियां तो न बुझाईं अलबत्ता इतनी जरूर बुझा दीं कि वहां नीमअन्धेरा छा गया।
शिवांगी ने अपनी ड्रैस अपने जिस्म से अलग की।
लोहिया उस पर फिर झपटने लगा तो शिवांगी बोली — “खबरदार!”
“क्या?” — लोहिया हकबकाया।
“आप तो मुझे मार ही डालेंगे!”
“मतलब?”
“मैं समझाती हूं लेकिन इस शर्त पर कि आप झपट्टेबाजी से परहेज रखेंगे, मुझे मुर्गी नहीं समझेंगे जिसे कि नोच खसोंट कर आपने खा जाना है।”
“मैं अभी भी नहीं समझा।”
“आप मुझे अपनी खिदमत करने का मौका दीजिये।”
“कमाल है! ऐसा तो कभी किसी ने मुझे नहीं कहा!”
“वैरी गुड। अब नया तजुर्बा एनजाय कीजिये।”
शिवांगी उसके करीब पहुंची और उसने उसे अपनी बांहों में भर लिया। उसके होंठ उसके होंठों, गालों, कानों और गर्दन पर फिरने लगे, दांत उसकी चमड़ी चुभलाने लगे और दोनों हाथ पता नहीं कहां कहां फिरने लगे।
लोहिया निहाल हो गया। यूं इनीशियेटिव लेने वाली कोई लड़की तो उसे पहले कभी नहीं मिली थी। उसे तो हमेशा सब कुछ खुद ही करना पड़ता था या हुक्म देकर या रिक्वेस्ट करके, मनुहार करके कराना पड़ाता था।
एक बार भी उसने ये सोचने की जहमत नहीं की थी कि क्यों इतनी शानदार, नितान्त अजनबी लड़की इतनी आसानी से उसके काबू में आ गयी थी। सोचता तो उसे सोहल की वार्निंग भी याद आ जाती कि उसने नावाकिफ लोगों से परहेज रखना था।
उसकी सांसें भारी होने लगी।
“कैसा लग रहा है?” — शिवांगी उसके कान की एक लौ चुभलाती हुई बोली।
“बढ़िया। बढ़िया।” — लोहिया हांफता सा बोला — “रुकना नहीं।”
“नैवर, सर।”
शिवांगी ने जोर से उसके होंठों का चुम्बन लिया और अपनी जुबान की नोक उसके दान्तों के बीच में धकेल दी।
वाह! वाह!
शिवांगी के दोनों हाथ उसकी गर्दन के पीछे पहुंचे हुए थे और ऐसी स्थिति में थे कि वहां तेज रोशनी भी होती तो उनकी हरकत लोहिया को दिखाई न देती। उसने एक हाथ में पहनी अपनी अंगूठी को दूसरे हाथ से घुमा कर उसका रुख हथेली के भीतर की ओर किया और अंगूठी पर कहीं दबाव डाला। तत्काल अंगूठी में से एक बारीक सुई उछल कर बाहर निकल आयी। वो सुई मुश्किल से आधा सेन्टीमीटर लम्बी थी जिसे कि उसने जोर से लोहिया की गर्दन में चुभो दिया।
खून की एक बून्द चमड़ी में से बाहर चमकी जिसे कि तत्काल उसने एक उंगली से पोंछ दिया।
लोहिया के मुंह से सिसकारी निकली लेकिन वो सिसकारी ऐसी थी जैसे कि दर्द की न हो, आनन्द के अतिरेक की हो।
“मेरी जान” — वो फुसफुसाया — “नाखून बड़े तीखे हैं तुम्हारे।”
“मेरा सब कुछ ही बड़ा तीखा है।” — शिवांगी उसके कान में जीभ घुसाती बोली।
“अभी देखता हूं। अभी पता करता हूं कि तू कहां कहां काटती है और कहां कहां से काटती है!”
लोहिया ने जबरन उसे बैड पर धकेल दिया और फिर उसके ऊपर ढेर हो गया। वो वहशियों की तरह अपने दोनों हाथ चलाता उसके नंगे जिस्म का आटा सा गूंथने लगा और होंठों को जाने कहां कहां फिराने लगा।
शिवांगी ने कोई एतराज न किया क्योंकि केवल वो ही जानती थी कि वो सिलसिला क्षणभंगुर था।
ऐन वैसा ही हुआ।
एकाएक लोहिया के हाथ पांव शिथिल पड़ने लगे।
शिवांगी ने उसे अपने ऊपर से परे धकेला तो वो उसे ऐसा करने से रोक न सका।
वो उठ कर खड़ी हुई। तेजी से उसने अपने कपड़े पहने और बाल व्यवस्थित किये।
फिर उसने लोहिया को पलंग पर से उठाकर एक सोफे पर धकेल दिया।
तब तक लोहिया की ऐसी स्थिति हो चुकी थी कि उसकी फिरती हुई पुतलियों से ही जान पड़ता था कि वो जिन्दा था वरना उसके जिस्म के किसी भी अंग में कोई हरकत बाकी नहीं रही थी।
शिवांगी स्टेटरूम के प्रवेश द्वार पर पहुंची। उसकी चिटकनी हटा कर उसने उसे खोला तो ब्रजवासी ने खामोशी से भीतर कदम रखा।
उसने प्रश्नसूचक नेत्रों से शिवांगी की तरफ देखा।
शिवांगी ने सहमति में सिर हिलाया और विजयसूचक ढंग से अपने दायें हाथ का अंगूठा ऊंचा किया।
ब्रजवासी ने आंखों से उसे खामोश शाबाशी दी।
“पीछे हॉल में ये किसी रणदीवे से मिला था।” — शिवांगी फुसफुसाई — “रणदीवे ने नैरोबी के किसी एन.आर.आई. राजा गजेन्द्र सिंह का जिक्र किया था तो इसने बेध्यानी में या लापरवाही में ऐसे कुछ कहा था जैसे कि वो राजा गजेन्द्र सिंह ही सोहल हो।”
“अच्छा!” — ब्रजवासी के नेत्र फैले।
“हां।”
“है कौन ये राजा गजेन्द्र सिंह?”
“ये जानता होगा। वो रणदीवे नाम का आदमी तो शर्तिया जानता होगा जो कि अभी पार्टी में ही होगा।”
“हूं।”
ब्रजवासी लोहिया के करीब पहुंचा।
“लोहिया” — वो गम्भीर, स्पष्ट लेकिन सख्त स्वर में बोला — “तू लकवे की हालत में है। तू देख सकता है, सुन सकता है, महसूस कर सकता है लेकिन हिल नहीं सकता। कोशिश करने पर बोल सकता है लेकिन चिल्ला नहीं सकता।”
लोहिया की आंखों में व्यग्रता भाव आया।
शिवांगी ने झुक कर बड़े प्यारे से उसके एक गाल पर थपकी दी और बोली — “बेचारा! औरत का मारा!”
बड़े व्याकुल भाव से लोहिया की पुतलियां फिरीं।
फिर उसे शिवांगी के हाथ में एक इंजेक्शन की सीरिंज दिखाई दी जिसमें कोई पीला तरल पदार्थ भरा हुआ था।
“ये सीरिंज देख रहे हो, मिस्टर लोहिया?” — वो बोली — “ये उस ड्रग का एन्टीडोट है जिसने कि आपको मौजूदा हालत में पहुंचाया है। पन्द्रह मिनट में आपको ये इन्जेक्शन न दिया गया तो आप मर जायेंगे। आप मरना चाहते हैं, मिस्टर लोहिया?”
लोहिया ने जोर से इनकार में सिर हिलाया और फुसफुसाता सा बोला — “नहीं।”
“तो फिर साहब जो पूछें, उसका जवाब दीजिये। करेंगे आप ऐसा?”
“हां।”
“लोहिया!” — ब्रजवासी बोला — “सोहल कहां है?”
“मुझे नहीं मालूम।”
“तू जानता तो है न सोहल को?”
“हां।”
“लेकिन ये नहीं जानता कि वो कहां है?”
“हां।”
“क्यों नहीं जानता?”
“कैसे जान सकता हूं? मैं यहां हूं। सोहल कहीं भी हो सकता है।”
ब्रजवासी ने उलझनपूर्ण भाव से पहले लोहिया की तरफ और फिर शिवांगी की तरफ देखा।
“मिस्टर लोहिया” — शिवांगी मधुर स्वर में बोली — “आपको नहीं मालूम कि सोहल इस वक्त कहां है लेकिन ये तो मालूम है कि वो कहां हो सकता है?”
“हां।”
शिवांगी ने विजेता के से भाव से ब्रजवासी की तरफ देखा। ब्रजवासी ने सहमति में सिर हिलाया और फिर बोला — “कहां हो सकता है सोहल?”
“होटल सी-व्यू में।” — लोहिया बोला।
“वो तो बहुत बड़ा होटल है! उसमें कहां?”
“मालूम नहीं।”
“क्यों नहीं मालूम?”
“नहीं मालूम।”
“अरे, कम्बख्त, क्यों नहीं मालूम?”
लोहिया खामोश रहा।
“राजा के बारे में पूछो।” — शिवांगी हौले से बोली।
“राजा गजेन्द्र सिंह कौन है?” — ब्रजवासी बोला।
“होटल सी-व्यू का मालिक है।” — लोहिया बोला।
जवाब अप्रत्याशित था।
सोहल करोड़ों की कीमत के होटल का मालिक कैसे हो सकता था!
“उसका सोहल से क्या रिश्ता है?”
“कोई रिश्ता नहीं।”
“सोहल उस होटल में क्यों है? क्या महज ठहरा हुआ है वो वहां? क्या उसका वहां होना इत्तफाक है?”
“हां। नहीं।”
“ड्रग की वजह से इसकी दिमागी हालत कमजोर है।” — शिवांगी बोली — “ये ऐसे सवालों के जवाब नहीं दे सकता जिनके लिये दिमाग पर जोर देना पड़े। ये एक साथ कई सवालों के जवाब भी नहीं दे सकता। सिम्पल सवाल पूछिये। एक एक करके पूछिये।”
ब्रजवासी ने सहमति में सिर हिलाया और फिर बोला — “क्या सोहल होटल का मालिक है?”
“नहीं।”
“राजा गजेन्द्र सिंह मालिक है?”
“हां।”
“क्या सोहल की वजह से राजा गजेन्द्र सिंह होटल का मालिक है?”
“हां।”
“सोहल ही राजा गजेन्द्र सिंह है?”
“हां।”
“तो फिर ये क्यों कहा कि दोनों का कोई रिश्ता नहीं?”
“कोई रिश्ता नहीं।”
“ठीक कह रहा है।” — शिवांगी बोली — “किसी का खुद अपने से क्या रिश्ता होगा भला?”
“हूं।” — ब्रजवासी बोला — “नीलम कहां है?”
“सोहल के साथ।”
“बच्चा कहां है?”
“मालूम नहीं।”
“ये तो मालूम है कि नीलम के एक बच्चा भी है?”
“मालूम है।”
“तो ये क्यों नहीं मालूम कि बच्चा कहां है?”
“मैंने बच्चा नहीं देखा।”
“लेकिन नीलम को देखा था?”
“हां।”
“कहां?”
“कौल के साथ।”
“जो कि सोहल है?”
“हां।”
“जो कि राजा गजेन्द्र सिंह भी है?”
“हां।”
“जब सोहल होटल में है तो नीलम भी तो वहीं होगी, बच्चा भी तो वहीं होगा?”
“मालूम नहीं।”
“क्यों मालूम नहीं?”
“मेरी कोठी में रहते वक्त नीलम के पास बच्चा नहीं था।”
“बच्चा किसी तरीके से बाद में उस तक पहुंचा था?”
“बाद की मुझे कोई खबर नहीं।”
“तुम्हारा सोहल से क्या रिश्ता है?”
“दोस्त! दोस्त है।”
“कैसे बना?”
लोहिया ने जवाब न दिया।
“छोड़ दो।” — शिवांगी बोली — “पेचीदा सवाल है।”
“तो और क्या पूछें?”
“और कुछ न ही पूछो तो अच्छा है क्योंकि वक्त नहीं है अब।”
“लेकिन...”
“हमें कांटे की बात मालूम हो गयी है। सोहल होटल सी-व्यू में है और वो ही राजा गजेन्द्र सिंह है। अब खत्म करो वरना अगला काम बिगड़ जायेगा।”
“अच्छी बात है।”
शिवांगी ने आगे बढ़ कर एक पोर्ट होल खोला और उसमें से हाथ में थमी इन्जेक्शन की सिरिंज बाहर समुद्र में फेंक दी। उस सिरिंज में मौजूद पीला तरल पदार्थ उस ड्रग का एन्टीडोट नहीं था जो कि उसने अपनी अंगूठी की सूई के जरिये लोहिया के शरीर में इंजेक्ट किया था। उस ड्रग को वस्तुत: किसी एन्टीडोट की जरूरत ही नहीं थी। पन्दरह बीस मिनट बाद उसका असर अपने आप ही खत्म हो जाता था और फिर उसका कोई अवशेष जिस्म में बाकी नहीं बचता था।
फिर दोनों जनों ने लोहिया को उठाया और पोर्ट होल के रास्ते से उसे बाहर समुद्र में धकेल दिया।
“लानत!” — झामनानी भड़का — “हज़ार बार लानत! वडी, लक्ख बार लानत, नी।”
मुबारक अली के हाथों अपनी हार की नामुराद खबर लेकर हुकमनी झामनानी की कोठी पर पहुंचा था और अब सिर झुकाये उसकी भीषण फटकार झेल रहा था।
“चार आदमी एक आदमी को काबू न कर सके!”
“साहब, वो कोई आदमी थोड़े ही था!” — हुकमनी दबे स्वर में बोला — “वो तो राक्षस था! ये ...लम्बे रामपुरी चाकू तक से न डरा। यूं मेरी चाकू वाली बांह पकड़ी जैसे मेरे हाथ में चाकू नहीं, लोलीपोप था। कम्बख्त की पकड़ ही ऐसी लोहे जैसी थी कि करिश्मा था कि कलाई न टूट गयी।”
“वडी, टूट ही जाती तो अच्छा था, नी, ऐसी कलाई जो चाकू थामे न रह सकी।”
“साहब, उसने तो हमें रुई की तरह धुना, उठा उठा के फेंका, फेंक फेंक के मारा, मार मार के फेंका, चारों एक साथ लिपट गये तो भी काबू में न आया। भागते ही बनी। न भागते तो उसी मैदान में हम चारों की हड्डी पसलियां बिखरी पड़ी होतीं।”
“वडी, ज्यादा आदमी ले के जाना था, नी!”
“ज्यादा ही ले के गये थे, साहब। एक आदमी के लिये चार आदमी ज्यादा ही होते हैं।”
“अब क्या करेगा?”
“आप बताइये क्या करें?”
“कल फिर जा। जरूरत समझे तो ज्यादा आदमी ले के जा। अगर वो मामूली टैक्सी ड्राइवर इतना कड़क है तो उसको काबू में करके उससे सोहल की बाबत कुछ कुबुलवाने का खयाल छोड़ दे। पहला दांव लगते ही गोली से उड़ा दे कर्मांमारे को।”
“ठीक है। साहब जरूरत तो है ज्यादा आदमियों की! कहां से लूं?”
“छतरपुर से ले, नी। कल से एक नया आदमी भी उधर काम करेगा।”
“कौन?”
“तरसेम लाल नाम है। जिम्मेदार आदमी है। पुलिस से निकाला गया हवलदार है। सुपरवाइजर का काम करेगा। कल सुबह उसको छतरपुर साथ लेकर जाना और उधर बजाज से मिला कर आना। फिर बजाज को ही अपनी जरूरत के आदमियों की बाबत बोलना। वडी, समझ गया, नी?”
“हां, साहब, समझ गया।”
“इस बार आकर खबर दी कि उस कर्मांमारे टैक्सी ड्राइवर ने तेरे ज्यादा आदमियों को भी गेंद की तरह हवा में उछाला तो जो कसर वो बाकी छोड़ेगा, वो इधर मैं पूरी कर दूंगा। समझ गया?”
“हां, साहब।”
“अब जा और कामयाबी की खबर ला के दिखा झूलेलाल की किरपा से।”
हुकमनी चैन की सांस लेता वहां से भागा।
आधी रात के करीब एक टैक्सी होटल सी-व्यू की मारकी में आकर रुकी।
टैक्सी में शिवांगी शाह और ब्रजवासी सवार थे।
डोरमैन ने आगे बढ़ कर टैक्सी का पिछला दरवाजा खोला। दोनों बाहर निकले।
टैक्सी ड्राइवर ने टैक्सी की डिकी खोल कर एक सूटकेस उसमें से निकाला और करीब आन खड़े एक बैलब्वाय के हवाले किया। फिर वो अपना भाड़ा लेकर वहां से रुखसत हो गया।
बैलब्वाय के साथ वो दोनों रिसेप्शन पर पहुंचे।
“वैलकम, सर।” — रिसेप्शनिस्ट अदब से बोला।
“मिसेज एण्ड मिस्टर शाह फ्राम सूरत।” — शिवांगी चहकी — “हमारी रिजर्वेशन की टेलीग्राम पहुंच गयी?”
“नो, मैडम।” — रिसेप्शनिस्ट खेदपूर्ण स्वर में बोला।
“कमाल है! खुद हमारे ट्रैवल एजेन्ट ने भिजवाई थी।”
“नो प्राब्लम, मैडम। वुई हैव लॉट ऑफ वेकेंसीज। नये मैनेजमेंट के अन्डर होटल हाल ही में फिर खुला है इसलिये फिलहाल इधर अकामोडेशन की कोई प्राब्लम नहीं है।”
“दैट्स वैरी गुड। प्लीज बुक अस इन ए माडरेट सुइट।”
“यस, मैडम।”
और दस मिनट बाद ब्रजवासी और शिवांगी होटल की छठी मंजिल के एक सुइट के बेडरूम में एक दूसरे से गुत्थम गुत्था हुए पड़े थे।
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