2 मई : शनिवार
ठीक ग्यारह बजे विमल महालक्ष्मी स्टेशन पहुँचा।
वो दोनों पहले से वहाँ मौजूद थे, बुकिंग विंडोज़ से परे हट कर खड़े थे। दोनों की निगाह बार-बार दूर मेन रोड तक भटक रही थी।
विमल उनके करीब पहुँचा।
तब भी वो उसी हाल में था जिसमें कल विक्टर से मिला था; खाली हाथ में झोला नहीं था और कमीज-पाजामा कल वाला नहीं था।
“बाजू हट!” – इरफ़ान रुखाई से बोला – “इधर नहीं खड़ा होने का।”
विमल मुस्कराया।
“साला सुनाई में लोचा!” – इरफ़ान और उखड़ा – “कुछ माँगता है तो अभी टल। बाद में . . .”
तब शोहाब ने उसे पहचाना।
उसके नेत्र फट पड़े।
“शुकर” – तब विमल अपने स्वाभाविक भाव से बोला।
“जनाब!” – शोहाब के मुँह से निकला – “ये मैं क्या देख रहा हूँ?”
तब इरफ़ान ने भी उसे पहचाना।
इरफ़ान शुरू से ही विमल से ज़्यादा बेतकल्लुफ़़ था, वो बड़े व्यग्र भाव से विमल से बग़लगीर होकर मिला।
“ये क्या हाल बना रखा है, जनाब!” – शोहाब का लहज़ा जज़्बाती हुआ।
“बना कर फ़क़ीरों का हम भेस ‘ग़ालिब’; तमाशा-ए-अहल-ए-करम देखते हैं।”
“मज़ाक न कर, बाप” – इरफ़ान भर्राए कण्ठ से बोला – “मैं नहीं देख सकता। मेरे से नहीं देखा जाता।”
उसका गला रुँध गया, आँखें डबडबा आईं ।
वो हमेशा से ही शोहाब से ज़्यादा जज़्बाती था।
“कुछ नहीं हुआ।” – विमल ने जबरन मुस्कराते हुए उसका कन्धा थपथपाया।
“हस्ती मिटा ली अपनी!” – इरफ़ान रुँधे कण्ठ से बोला – “बोलता है कुछ नहीं हुआ। ख़्वाब में भी नहीं सोचा था कि इस गुनहगार आँखों को कभी तेरे को इस हाल में देखना पड़ेगा।”
“जिसके ज़ेहन में” – शोहाब बोला – “राजा गजेन्द्र सिंह ऑफ़ पटियाला रॉयल फ़ैमिली के जद्दोजलाल का अक्स हो, वो कैसे आपका तसव्वुर फ़कीर की सूरत में कर सकता है जो आप कहते हैं कि आप हैं!”
“विक्टर कुछ न बोला?” – विमल ने सवाल किया।
“बोला। पर वो न बोला जो इस वक्त दिखाई दे रहा है।”
“बोले तो” – इरफ़ान बोला – “खाली ख़बर किया कि महालक्ष्मी में बड़ा बाप को गुरुद्वारे के लिए सौदा-सुलफ खरीदते देखा।”
“क्यों आप ऐसे थे” – शोहाब बोला – “ये वो कुछ बयान न कर सका।”
“कुछ जानता-समझता होता तो बयान करता!” – विमल बोला।
“इरफ़ान तो तभी महालक्ष्मी पहुँचने की जिद करने लगा था। बड़ी मुश्किल से इसको – ख़ुद को भी – रोका।”
“आँखों में रात काटी, बाप!” – इरफ़ान अभी भी कठिनाई से बोल पा रहा था – “अल्लाह, अल्लाह करते ये टेम किया और मुकर्रर टेम पर इधर पहुँचे।”
“देखा, पहचाना” – शोहाब बोला – “तो जान में जान आई।”
“मेरे को साला हर टेम अन्देशे ने सताया” – इरफ़ान बोला – “कि तू नहीं आने वाला था।”
“ख़ामख़ाह!” – विमल तनिक मुस्कराया।
“अभी क्या बोलेगा, बाप! जो मगज में फीलिंग आया बार-बार . . . वो बोला न!”
“अभी आया न मैं!” – विमल ने इरफ़ान के अन्दाजे़बयां की नकल करने की कोशिश की – “खड़ेला है तेरे सामने। क्या!”
“बाप, तू हँसता है पण देखकर मेरे को तू किधर से भी हँसता दिखाई नहीं दे रयेला है।”
“तो क्या दिखाई दे रयेला है?”
“दिल रोता दिखाई दे रयेला है। दिल रोता हो तो तेरे जैसा सब्र वाला भीड़ू नकली हँसी हँसके दिखा सकता है पण आँखों में जो चाक दिल झलकता है, उसे नहीं छुपा सकता। बाप, तू नहीं छुपा पा रहा कि ख़ुदा की कोई बड़ी मार पड़ी तेरे पर।”
विमल का सिर झुक गया। बीती-भुगती बातों ने उसे कहीं और ही धकेल दिया।
‘म-मेरा . . . स-सपना . . . प-पूरा हुआ। म-मैं . . .
मैं . . . तु-तुम्हारी . . . बाँहों में . . . म-मर रही हूँ। सु-सुहागन
. . . सुहागन मर . . . मर रही हूँ। ग-गलत . . . गलत . . .
ब-बोलते थे . . . क-क-कि . . . म-मवाली की . . . बी-
बी-बीवी . . . विधवा . . . विधवा . . . म-मरती थी . . .’
मैं . . . तु-तुम्हारी . . . बाँहों में . . . म-मर रही हूँ। सु-सुहागन
. . . सुहागन मर . . . मर रही हूँ। ग-गलत . . . गलत . . .
ब-बोलते थे . . . क-क-कि . . . म-मवाली की . . . बी-
बी-बीवी . . . विधवा . . . विधवा . . . म-मरती थी . . .’
“क्या हुआ?” – शोहाब ने दबे स्वर में पूछा।
“जो वाहेगुरु को मंज़ूर था” – विमल कातर भाव से बोला – “वो हुआ।”
“वो तो हुआ” – शोहाब का स्वर व्यग्र हुआ – “लेकिन ऐसा क्या हुआ जिसने आपके वजूद का पुर्ज़ा-पुर्ज़ा बिखेर दिया?”
“पीछू दिल्ली में तो” – इरफ़ान बोला – “सब ख़ैरियत छोड़ कर आया?”
विमल का सिर इंकार में हिला।
“अल्लाह! रहम! मेरे से पूछते नहीं बनता। शोहाब, तू पूछ। मेरे से तो सुनते भी नहीं बनेगा। पण . . . पूछ।”
“ब-बेगम साहिबा?” – शोहाब ने झिझकते हुए सवाल किया।
विमल ने सिर झुकाए इंकार में सिर हिलाया।
दोनों किसी नामुराद जवाब के लिए तैयार थे, फिर भी उनके चेहरे पर हाहाकारी भाव आए।
कई क्षण ख़ामोशी व्याप्त रही।
“बच्चा।”
विमल का झुका सिर ऊपर से नीचे हिला।
दोनों को राहत का अहसास होता लगा।
“बच्चा! कहाँ है?”
“विखरौली।”
“वा-वारदात के बाद से?”
“पहले से। माँ ने भेजा। वर्ना वो भी . . .”
“अल्लाह! मुम्बई में कब से हैं?”
“चार महीने से।”
“हमारी याद न आई! कम से कम ख़बर ही करते . . .”
“तमाम बातें” – इरफ़ान ने दखल दिया – “इधरीच होंगी?”
शोहाब चुप हो गया।
“बाहर बाजू में एक रेस्टोरेंट है। मेरा देखा-भाला है। ये टेम तकरीबन खाली होता है। उधर चल के बैठते हैं।”
शोहाब ने सहमति में सिर हिलाया।
इरफ़ान उन्हें जिस रेस्टोरेंट पर ले के आया, उसका नाम ‘कोर्टयार्ड’ था। रेस्टोरेंट में नीमअन्धेरा था और उस घड़ी ग्राहकों का तोड़ा था। एक काले सूटवाला स्टीवॉर्ड लपक कर उनके करीब पहुँचा। उसकी विमल पर निगाह पड़ी तो उसके चेहरे पर अरुचि के भाव आए।
जो इरफ़ान से छुपे न रह सके।
“अभी जैसी निगाह डाली” – इरफ़ान क़हरबरपा लहज़े से बोला – “वैसा मुँह से कुछ निकाला तो फोड़ देगा साला।”
स्टीवॉर्ड ने ज़ोर की थूक निगली।
“म-मैं तो” – वो बोला – “क-कुछ भी नहीं बोला!”
“ठीक किया। वर्ना ज़िन्दगी में आख़िरी बार बोला होता।”
शोहाब ने इरफ़ान का कन्धा दबाया।
इरफ़ान का सिर सहमति में एक बार हिला, उसके लहज़े की तल्खी घटी।
“चाय का ऑर्डर प्लेस करना माँगता है िफ़रंग का माफ़िक।” – वो बोला – “ख़ुद लाने का या किसी को बोलने का?”
“वेटर लाएगा।” – स्टीवॉर्ड धीरे से बोला।
“. . . उसके बाद कोई साला बुलाए बिना पास न फटके। क्या!”
स्टीवॉर्ड ने कठिन भाव से सहमति में सिर हिलाया।
“बिल एडवांस में चुकता करता है।” – इरफ़ान ने उसे जबरन पाँच सौ का एक नोट थमाया – “कमती हो तो बोलना। ज्यास्ती हो तो पास रखना। अभी रास्ता छोड़ने का।”
स्टीवॉर्ड हड़बड़ाता-सा एक तरफ हटा।
इरफ़ान ने ख़ुद प्रवेश द्वार से दूर कोने की एक मेज चुनी। तीनों जाकर उस पर काबिज़ हुए – वो और शोहाब अगल-बगल, विमल उनके सामने।
विमल ने देखा, इरफ़ान अभी भी आपे से बाहर लग रहा था।
“चिल!” – विमल पुरसुकून लहज़े से बोला।
“क्या चिल, बाप!” – इरफ़ान असहाय भाव से गर्दन हिलाता बोला – “ये टेम राजा गजेन्द्र सिंह ऑफ़ रॉयल फ़ैमिली ऑफ़ पटियाला – जो कि तू कभी था – इधर आया होता तो ये साला काली वर्दी, जो तेरे को िहकारत की निगाह से देखता था, तेरे इस्तकबाल में तेरे कदमों में लोटा होता। बिना जाने तू कौन था, ऐसा तेरा रौब उस पर ग़ालिब होता।” – इरफ़ान के मुँह से आह निकली – “अपनी हस्ती मिटा दी, बाप! ज़ुल्म किया ख़ुद पर।”
“मैंने कुछ नहीं किया। जो किया ऊपर वाले ने किया – वो जैसा चाहता है, जो उसे अच्छा लगता है, वही वो करता है, ऐसा कोई नहीं जो उसे हुक्म दे सके। जो तिसु भावै सोई करसी, हुकमु न करना जाई।”
“अब ये ज्ञान-ध्यान की बातें तो तू रहने ही दे। पहले ही बहुत आती थीं, गुरुद्वारे बैठ कर और सीख गया होगा! ऐसी बातें मलाड जाकर भोजराज शास्त्री जी से करना। मैं साला अनपढ़ टपोरी, मेरे को क्या समझ में आएंगी!”
“शांत! शांत!”
“बाप, तू हम दोनों बिरादरान को ही नहीं, अक्खी मुम्बई के गरीब-गुरबा को याद आता है। हर कोई तेरे बारे में बोलता है कि तू क्रिस्तान की क्रिसमस वाला सान्ता क्लास नहीं था, ऐसा सान्ता क्लास था जिसके सदके गरीब का क्रिसमस रोज़ होता था। अक्खी मुम्बई के ज़रूरतमंदों की निगाह तेरे पर थी क्योंकि उनकी निगाह में तू कोई पीर-पैगम्बर था, तू कोई काल पर फ़तह पाया मानस था। तू दाता था। ‘चैम्बूर का दाता’ था। वो साला दो टके का काली वर्दी तेरे पर िहकारत की निगाह डालकर गया। जी चाहता था आँखें नोच लूं। पण तेरे को मंज़ूर। वो तेरे को आउट बोलता तो ये टेम मेरे को यकीन तू आउट हो जाता। क्या!”
विमल को जवाब न देना पड़ा, तभी चाय आ गई।
वेटर चाय सर्व करके चला गया।
तीनों ख़ामोशी से चाय चुसकने लगे।
“तो” – विमल बोला – “हम यहाँ चाय पीने आए! बाई प्रायर अप्वायन्टमेंट!”
दोनों हड़बड़ाए। शोहाब ने इरफ़ान की तरफ देखा।
“नहीं, चाय पीने नहीं आए। अभी बोल, बाप” – इरफ़ान लरजते लहज़े से बोला – “बेगम बीमार होकर तो गुज़री न होंगी!”
“वर्ना आप इस हाल में न होते!” – शोहाब बोला।
“वर्ना, बाप, तू मुम्बई में ही न होता!”
विमल ने सहमति में सिर हिलाया।
फिर उसने धीमी, गम से डूबी आवाज़ में दिल्ली में वाकया हुआ तमाम माजरा बयान किया। शोहाब धीरज वाला था, लेकिन इरफ़ान शुरू से उतावला और जल्दी भड़कने वाला था। नतीजतन सुनते वक्त कई बार उसके जबड़े भिंचे, आँखों ने चिंगारियां बरसाई ं और यूँ बार-बार पहलू बदला जैसे अंगारों पर बैठा हो।
“मुझे ख़ुशी होती” – आख़िर में विमल सिर झुकाए बोला – “कल अगर विक्टर मुझे न मिला होता।”
“हमें ख़ुशी होती, बाप” – इरफ़ान कातर भाव से बोला – “अगरचे कि वो तेरे को पहले मिला होता। क्या?”
विमल ने जवाब न दिया।
“कमाल है!” – शाेहाब मन्त्रमुग्ध स्वर में बोला – “मामूली लोकल नाहंजारों ने शेर की मूँछ का बाल उखाड़ने की जुर्रत की! आप पर पेश न चली तो भाभीजान पर बुज़दिलाना हमला किया!”
“मेरे से एक ही गलती हुई।” – विमल डूबती आवाज़ में बोला – “मैं सोचता ही रह गया कि नीलम को किसी सेफ़ जगह रवाना कर दूँ लेकिन पहले ही . . . पहले ही . . .”
“बाप” – इरफ़ान बोला – “गुस्ताख़ी की माफ़ी के साथ बोलता है, जब सोचता नहीं रह गया था, जब इनायत दफेदार से मुकाबिल था तो भाभीजान को कोल्हापुर भेजा था न, मेरी बड़ी बहन नूरबानो की हिफाज़त में! तेरे ख़याल से मुम्बई से चार सौ किलोमीटर दूर कोल्हापुर में वो पूरी तरह से सेफ़ थीं। थीं क्या? नहीं थीं। दफेदार के आदमी उनका अता-पता निकाल लेने में कामयाब हो गए थे और तेरे पर दबाव बनाने के लिए उन्हें पकड़ कर विंस्टन प्वायन्ट ले आए थे . . .”
“तेरे को कैसे मालूम? तू तो तब सारी मुम्बई की निगाह में होटल सी-व्यू के मलबे में दफ़न था।”
“विक्टर ने बोला।”
“ओह!”
“बहरहाल, कहने का मतलब ये था, कि जब पहले भाभीजान के लिए चार सौ किलोमीटर दूर कोल्हापुर सेफ़ नहीं था तो अपनी ख़्वाहिश के मुताबिक, जिसका कि तेरे को पछतावा है, उन्हें किसी सेफ़ जगह भेज भी देता तो जैसे दफेदार का कारिन्दा नदीम हड्डी कोल्हापुर में भाभीजान का पता निकालने में कामयाब हो गया था और अपने साथियों के साथ उन्हें मंदिर जाती को उठा लाया था, तो क्या गारंटी थी कि यही करतब फिर न हो गया होता?”
विमल को जवाब न सूझा।
“होनी को कोई नहीं रोक सकता, बाप, होनी ने होके रहना होता है। क्या!”
विमल ने सहमति में सिर हिलाया।
“बाप, जब ये बात समझता है तो ख़ुद को इतनी . . . वसीह, मुसलसल सज़ा के क्या मानी? . . . अभी जवाब में ये नहीं बोलने का कि तू मौत का हरकारा है, हर तरफ मौत का पैगाम ले के जाता है, किसी को तू मारता है तो कोई तेरी वजह से मरता है, वग़ैरह! ऐसी बातें पंडित भोजराज शास्त्री से मिले तो उनको बोलना। अभी मलाड में ही हैं, किधर चले नहीं गए।”
विमल ख़ामोश रहा।
फिर ख़ामोशी शोहाब ने भंग की, वो उत्सुक भाव से बोला – “मुबारक अली किसी काम न आया?”
“वो ही काम आया।” – विमल बोला – “उसके भांजे काम आए।”
“क्या काम आए?” – इरफ़ान गुस्से से बोला – “अपनी आयी पर आए होते तो साला मोहल्ला उजाड़ देते।”
“वो कर सकते थे ऐसा। मुबारक अली ने काबू में रखा। मेरी दरख़्वास्त पर।”
“क्यों भला?”
“क्यों भला क्या मतलब? तुम भूल रहे हो तुम लोगों को हमेशा के लिए अलविदा बोलकर मुम्बई से दिल्ली सोहल नहीं गया था, अरविन्द कौल गया था जो वहाँ मामूली गृहस्थ था, मामूली व्हाइट काॅलर एम्पलाई था, गैलेक्सी का एकाउन्टेंट था। मैं वहाँ गैंगवार नहीं छेड़ सकता था। फिर वहाँ मेरे जैसे ही लोग थे जो अहंकार में ऐंठे हुए थे, जिनकी औलाद इतनी बिगड़ी हुई थी कि सब पुत्र मोह में अन्धे हुए हुए थे। ख़ुद गुमराह थे, औलाद उनसे ज़्यादा गुमराह थी इसलिए बेकार की मुसीबत गले पड़ी जिसमें पहले नीलम की फ़जीहत हुई, फिर बेचारी जान से गई।”
विमल की आवाज़ भर्रा गई।
“कोई अल्लामारा” – इरफ़ान भड़का – “इबलीस की औलाद ज़िन्दा तो बचा न होगा!”
“अरे, किससे पूछ रहा है?” – शोहाब बोला – “ये सोहल है!”
“अरविन्द कौल है।”
“अपनी मर्ज़ी से। जब इतना बड़ा वार हो गया तो तब ये कौल ही बना रहा होगा?”
“नहीं। हरगिज़ नहीं। मेरे को ख़ुशी कि कौल ही न बना रहा।”
“आपने” – शोहाब विमल की ओर घूमा – “स्टीफेन फेरा नाम के इधर के एक ‘भाई’ का ज़िक्र किया, दिल्ली वाले आपके दुश्मन जिसके अन्डर में चलते थे। हमने तो ऐसे किसी ‘भाई’ का नाम इधर कभी नहीं सुना था!”
“छोटा खिलाड़ी था।” – विमल बोला – “जो मुम्बई से दूर दिल्ली में छोटे लोगों के बीच ख़ुद को बड़ा करके प्रोजेक्ट करता था। इसीलिए उसका मुकाबला करने में मेरे को कोई दिक्कत पेश न आई, बहुत आसानी से वो मेरे हाथों मारा गया।”
“ये कोई बड़ी तसल्ली नहीं।” – इरफ़ान बड़बड़ाया – “मारने से मरने वाले तो नहीं लौट आते! आपकी बेगम तो गई ं !”
“और” – शोहाब अवसाद में डूबे स्वर में बोला – “ये प्राण कंपाने वाली ख़बर हमें चार महीने बाद मिल रही है, और वो भी ख़ुद आप की ज़ुबानी! विक्टर को कल आप इत्तफ़ाकन न दिखाई दे गए होते तो हम तो यही समझ रहे होते न, कि आप दिल्ली में अमन-चैन से रह रहे थे! जिस सुकूनभरी ज़िन्दगी की आपको जुस्तजू थी, जो आपका अरमान थी, वो आपको हासिल हो चुकी थी।”
“तेरे हुक्म पर” – इरफ़ान बोला – “तेरी ख्वाहिश को अल्लाह के फरमान की तरह सिर माथे जानकर तेरे लिए दुआ करते थे और हमेशा तेरा तसव्वुर शरीकेहयात और साहबज़ादे के साथ गुरुद्वारे मत्था टेकने जाते करते थे। ज़ुल्म किया, बाप” – इरफ़ान की आवाज़ फिर भर्रा गई – “ख़ुद पर भी और हमेरे पर भी।”
“ख़ुद पर ज़्यादा।” – शोहाब धीरे से बोला – “जो अल्लाह को मंज़ूर था, वो हुआ पर आप तो . . . अब क्या कहूँ। कैसे कहूँ! इस पश्चाताप की आग में मुतवातर जल रहे हैं कि आप अपनी शरीकेहयात की हिफ़ाज़त न कर सके और गुरुद्वारे में सेवादार बने ख़ुद को ऐसी सज़ा दे रहे हैं जिसका कोई ओर छोर ही नहीं। ऐसे कैसे बीतेगी? कब तक बीतेगी?”
“पता नहीं।” – विमल होंठों में बुदबुदाया – “अभी तो बीत ही रही है, आगे की वाहेगुरु जाने।”
“क्यों वाहेगुरु जाने? ये सज़ा वाहेगुरु ने तो नहीं दी आपको! ये सज़ा आपने ख़ुद अपने आपको दी है, तो आप क्यों न जाने? जब आप ही मुजरिम हैं, आप ही मुंसिफ हैं तो पलट दीजिए अपना फैसला। गुज़ारिश है आपसे।”
“जैसा चल रहा है, उससे मुझे कोई शिकायत नहीं।”
“हमें शिकायत है।” – इरफ़ान आवेश से बोला – “हम तेरे को यूँ बर्बाद होता नहीं देख सकते।”
“जो राह आपने पकड़ी” – शोहाब बोला – “जिस पर गुज़रे चार महीनों से आप चल रहे हैं, वो अपने आप में आपके मकसद की मुखालफत करने वाली है, आपका परपस बीट करने वाली है। यूँ आप बेगम साहिबा की जुदाई के ग़म से कभी निजात नहीं पाएंगे। गुरुद्वारे की कारसेवा में आपको ज़्यादा शिद्दत से जाने वाली की याद आएगी। यूँ आपका प्रायिश्चत का मंसूबा कोई और ही शक्ल अख़्तियार कर लेगा।”
“कैसी शक्ल?”
“आप सोसायटी से, दीन-दुनिया से कट जाएंगे। पहले मर्ज़ी से तनहाई का दामन थामेंगे, फिर तनहाई से पीछा ही नहीं छुड़ा पाएंगे।”
“बाप बोलेगा” – इरफ़ान के लहज़े में तंज़ था – “इसे उससे भी शिकायत नहीं। बोले तो आख़िर क्या होगा? आख़िर गुरुद्वारे की कारसेवा के ही काबिल रह जाएगा . . .”
शोहाब ने इरफ़ान का कन्धा दबाकर उसे ख़ामोश करना चाहा लेकिन उसने कन्धे पर से शोहाब का हाथ झटक दिया, ख़ामोश न हुआ – “जब कोई तेरे को जूता घर में अकीदतमन्दों के जूते पालिश करते देखेगा, भीतर गुरुद्वारे के सर्कल का फ़र्श धोते देखेगा तो क्या बोलेगा? मैं बोलता है क्या बोलेगा! बोलेगा, यही वो भीड़ू जिसने अकेले राजबहादुर बखिया के एम्पायर से टक्कर ली और उसको और उसके एम्पायर को नेस्तनाबूद कर दिया। बोलेगा, यही वो भीड़ू जिसने मुम्बई से आर्गेनाइज़्ड क्राइम का हमेशा के लिए ख़ातमा कर दिया। बोलेगा, ये भीड़ू राजा गजेन्द्रसिंह जो फ़ाइव स्टार होटल सी-व्यू चलाता था। फिर हमदर्दी दिखाता बोलेगा बेचारे का मगज हिल गया और इस हाल में पहुँच गया।”
“मुझे कौन पहचानेगा?” – विमल होंठों में बुदबुदाया – “कोई पहचानेगा तो कुछ बोलेगा न!”
“नहीं पहचानेगा। बोलेगा, हैरान होके बोलेगा, कितनी शक्ल मिलती थी इस कारसेवक की सोहल से! बस! ये बोलेगा खाली! सोहल कोई नहीं बोलेगा तेरे को। सोहल का कुछ बचा होगा तेरे में तो कोई सोहल बोलेगा न तेरे को!”
“इरफ़ान!” – शोहाब ने डपटा – “मुँह बन्द कर।”
“कैसे मुँह बन्द करूँ? कलेजा चाक होकर मुँह को को आ रहा है और अलफाज़ की सूरत में ख़ुद बिखरा जा रहा है!” – वो फिर विमल से मुख़ातिब हुआ – “बाप, अभी ये कमअक्ल टपोरी पंडित भोजराज शास्त्री का माफ़िक बोलता है – खाली मुर्दे और मूर्ख अपना मिज़ाज़ तब्दील नहीं करते। अभी बोल! तू मुर्दा है या मूर्ख?”
“इरफ़ान!”
“जंगल में जानवर तक अकेले नहीं रहते, झुण्ड में रहते हैं। कैसे तू इस दुनिया में अकेला रह सकता है, कब तक अकेला रह सकता है?”
“इरफ़ान, चुप कर!”
“अभी करता है। अभी थोड़ा और बोलने दे मेरे को।” – इरफ़ान बदस्तूर विमल से मुख़ातिब रहा पर इस बार फ़रियाद करते लहज़े से बोला – “बाप, हमें तेरे किसी फै़सले पर उंगली उठाने का कोई हक नहीं। हमेशा तू हमारा रहनुमा रहा है, अब हम तेरा रहनुमा बनने की जुर्रत नहीं कर सकते। चल, अभी हम मानते हैं कि तू दिल्ली को परमानेंट करके छोड़ के मुम्बई लौटा और लौट कर जो किया, ठीक किया। लेकिन बहुत किया। अब बस कर। जितनी सज़ा तू ख़ुद को दे चुका, जितना प्राय . . . प्राय . . .”
“प्रायिश्चत।” – शोहाब बोला।
“वही। वही करके जो तू कर चुका, उसको काफी मान और बस कर ख़ुदा के वास्ते। बाप, ये न भूल तू अपनी ज़िन्दगी में इससे भी बड़े, कहीं बड़े तूफ़ानों से गुज़र चुका है। जब तू पहले कभी न हारा तो अब क्यों हार रहा है! सरदार है। शेर बच्चा है। हौसलामन्द बन। यूँ टूट के न बिखर कि समेट ही न सके ख़ुद को। जो . . . वो क्या बोला शोहाब . . . पछतावा . . .”
“पश्चाताप!”
“वही। जो तू कर चुका, उसको काफी समझ। तू जानता है हम तेरे सामने कुछ नहीं। तेरे साथ जुड़ के ही हमारी कोई औकात हमेशा रही है वर्ना तेरे बिना हम किसी काबिल नहीं – होते तो मैं टैक्सी न चला रहा होता, शोहाब मुलाज़मत में न होता। हम दोनों उम्र में ही नहीं, हैसियत, हौसले, तजुर्बे, सब में तेरे से नीचे हैं, बहुत नीचे हैं, फिर भी फ़रियाद करते हैं अब बस कर। बस कर, बाप। जुदाई का जो गहरा ज़ख़्म खा चुका, उसे भरने दे। उसे कुरेद कर बार-बार हरा करते रहने से बाज़ आ।”
इरफ़ान का गला रुँध गया।
विमल को डर लगने लगा कहीं वो रोने न लगे।
“हम ज़ीरो हैं, बाप” – इरफ़ान पूर्ववत् रुँधे कंठ से बोला – “गुज़रा वक्त गवाह है, तू ख़ुद गवाह है, हमें जब भी तेरे साथ शाना-ब-शाना खड़े होने का मौका मिला, हम दस बन गए, वर्ना हमारी क्या औकात थी? या अब है? तू ऐसी ज़िन्दगी जीता रहेगा, जैसी जी रहा है, तो क्यों कर हम फिर दस बनने का सपना देख सकेंगे? बाप, इतना टेम गुरुद्वारे में अपनी मर्ज़ी की, अब हमारी, अपने मुरीदों की, मर्ज़ी कर। बस कर।”
“हाँ, प्लीज़, जनाब।” – शोहाब बोला – “हम आपसे सीखी बात आपको कहते हैं। वो मर्द नहीं जो डर जाए माहौल के ख़ूनी मंजर से, उस हाल में जीना लाज़िम है, जिस हाल में जीना मुश्किल है।”
विमल को पंडित भोजराम शास्त्री बोलते लगे :
‘दि डार्क टुडे लीड्स इन टु लाइट टुमारो,
देयर इज़ नो ऐण्डलैस जॉय, नो ऐण्डलैस सॉरो।’
विमल का सिर स्वयमेव सहमति में हिला।
“जनाब, पुरइसरार गुज़ारिश है अब गुरुद्वारे की अपनी सज़ावार ज़िन्दगी से किनारा कीजिए। जो सज़ा आप पा चुके, उसको अब काफी समझकर उस ज़िन्दगी से किनारा कीजिए चार महीने से जिसे आप अपने साथ जोंक की तरह चिपकाए हैं। अपना नहीं, तो अपनी औलाद का ख़याल कीजिए–जिसे पहले माँ का इन्तज़ार था, अब बाप का भी इन्तज़ार है – और जैसे ज़िम्मेदार आप बीवी के लिए थे, वैसे औलाद के लिए भी बनिए। जैसे आप काट रहे हैं, वैसे पल कटते हैं, ज़िन्दगी नहीं कटती। अपने माज़ी के हाहाकार से आप पहले भी कई बार उबरे हैं, लिहाज़ा इस बार भी आपको उबर कर दिखाना होगा। गुस्ताख़ी माफ़, जनाब, आप गुरुद्वारे का फ़र्श धोने के लिए नहीं बने।”
विमल को तुका बोलता लगा :
‘तू बेवड़ा पी के मरने के लिए पैदा नहीं हुआ, बेटा!’
“जनाब, जैसा हम आपको समझते हैं” – शोहाब कह रहा था – “ख़ुदा के वास्ते वैसा ख़ुद भी आप अपने आपको समझिए। आप फासले में हमसे दूर चले गए, दिल्ली चले गए,लेकिन ख़ुद को हमसे दूर न जानिए। हम आपके साथ थे, साथ हैं, और साथ रहेंगे। आप पर बड़ी विपत्ति आई है, कोई शक नहीं पर हम आपके ग़म में शरीक हैं। एक शायर की ज़ुबान में अर्ज़ करूँ तो – जो ग़म हद से ज़्यादा हो, ख़ुशी नज़दीक होती है; चमकते हैं सितारे रात जब तारीक होती है।”
“हूँ।”
“छोटा मुँह बड़ी बात है, बाप” – इरफान बोला – “वक्त बड़े-बड़े ग़म भुला देता है। ऐसा न हो तो जीना जहन्नुम बन जाए, हर कोई जीते जी मर जाए। न भूल, बाप, कि तू कोई आम आदमी नहीं है, हिमालय पहाड़ जैसा मज़बूत आदमी है। और पहाड़ टूट कर नहीं बिखरते। पहाड़ नहीं पिघलते, उन पर पड़ी बर्फ पिघलती है। बाप, तू समझ तेरे लम्बे पछतावे – पश्चा का ताप करके जो शोहाब बोला, उसने – वो बर्फ पिघला दी। फिर न भूल कि तू सोहल है, वो सोहल है बखिया के बाद जिसका दबदबा आज तक अंडरवर्ल्ड में किसी का नहीं बना। तेरा नाम सुनकर दुश्मन काँप जाते हैं, तू सामने पड़ जाए तो कलेजा थाम लेते हैं कि अगली बार दिल पता नहीं धड़केगा या नहीं! ऐसे शख़्स को कोई क्या सिखा सकता है! मैं साला ढक्कन फिर भी कोशिश करता है, बाज़ नहीं आता।”
“आप” – शोहाब ने आगे सूत्र पकड़ा – “इस पश्चाताप की आग में जलते, कि आप नीलम बीबी की हिफ़ाज़त न कर सके, ट्रांस में हैं। अब आपने ट्रांस से उबरना है और जागना है, सचेत होना है, उठकर मज़बूती से अपने पैरों पर खड़ा होना है। सोते से जाग जाइए, जनाब। उठके खड़े हो जाइए, खड़े का खालसा बन जाइए। खालसा . . . खालसा बन जाइए पहले की तरह! हमेशा की तरह . . .”
विमल को फिर तुका बोलता लगा :
‘हिम्मत न हार, बेटा। उठ कर अपने पैरों पर खड़ा हो और दुश्वारियों के आँधी-तूफ़ानों के आगे पहाड़ की तरह तन जा। बादलों की तरह गरज! बिजलियों से हाथ मिला। सोते से जाग जा, बेटा। खड़ा हो जा। खड़े का खालसा बन जा! खालसा बन जा!’
उसने वही सवाल तब किया जो उसने कभी तुका से किया था।
“क्या करूँ?” – वो बोला।
“महज़ पूछेंगे” – शोहाब बोला – “या करेंगे?”
“करूँगा।”
“तो सबसे पहले दो काम कीजिए। एक तो वंस फ़ॉर ऑल तसलीम कीजिए – पहले किया तो फिर कीजिए – कि आपके पश्चाताप का, प्रायिश्चत का दौर ख़त्म हुआ। दूसरे, फौरन, फौरन से पेश्तर, अपना हुलिया सुधारिए। फिर किसी ने – जैसे स्टीवॉर्ड ने – आपके मौजूदा हुलिए पर कोई तंज़ इरफ़ान की मौजूदगी में किया तो उस शख़्स को जहन्नुम का मुसाफ़िर बनाने से इरफ़ान को आप भी नहीं रोक पाएंगे। आप चाहते हैं ऐसा हो?”
विमल ने इंकार में सिर हिलाया।
“तो प्लीज़, पहली फ़ुरसत में अपना हुलिया सुधारिए। चेहरे पर जैसी दाढ़ी- मूँछ बढ़ आई है, उससे तो आप सिख लगने भी लगे हैं। ऊपर से सिर पर पीला पटका! वो भी तो पगड़ी का ही सबस्टीट्यूट है!”
“सिख लगने लगा हूँ, बोला; अभी बन नहीं गया! सिख तो मैं इस शहर में पहले भी था और एक लम्बा अरसा था!”
“आपका इशारा राजा गजेन्द्र सिंह की तरफ है, होटल सी-व्यू का मालिक बने जो आप थे?”
“हाँ।”
“आसमान से निगाह कोई नहीं मिलाता, जनाब। बड़े आदमी के सामने इतना ऊँचा सिर कोई नहीं उठाता। फिर राजा साहब एनआरआई फ़्रॉम नैरोबी थे। अपने मौजूदा हवाले में आप अपने में ऐसी कोई ख़ूबी पाते हैं?”
विमल का सिर इंकार में हिला।
“आपको अहसास नहीं है कि इस हुलिए के साथ आप अपने लिए कितनी बड़ी मुसीबत को दावत दे रहे हैं! गुस्ताख़ी की माफ़ी के साथ मैं आपको याद दिलाना चाहता हूँ कि आप इलाहाबाद जेल से फ़रार सज़ायाफ़्ता मुजरिम हैं। आपकी दो साल की सज़ा के दो महीने अभी बाकी थे जबकि आपको जेल से फरार होने का मौका मिला था और तब आप सिख थे, एरिक जाॅनसन के एकाउन्टेंट सुरेन्द्र सिंह सोहल थे। बतौर फरार मुजरिम आपकी सिख सूरत अभी एक नहीं, दो नहीं, सात . . . सात राज्यों की पुलिस के रिकॉर्ड में है। मैंने ख़ुद एक इश्तिहार लोकल थानों में लगा देखा था जिसका हैडिंग ‘फरार’ था, जिस पर नौ फरार मुजरिमों के क्लोज-अप छपे थे और उन नौ में एक आप थे। सिख। सुरेन्द्र सिंह। जनाब, ये हुलिया मुसीबत को ख़ुद दावत देना होगा। अपनी हालत आ बैल मुझे मार जैसी करना होगा।”
“मैं गुरुद्वारे से बाहर कभी नहीं निकलता था।”
“अभी कल ही निकले! तभी तो विक्टर से सामना हुआ!”
“ख़ामख़ाह कभी बाहर नहीं निकलता था। कल ख़रीदारी के लिए भेजा गया था। हुक्म की तामील करने निकला था।”
“ऐसे ही पिछले चार महीनों में कोई वजह बनी होगी जिसके तहत आपकी मर्ज़ी नहीं, आपकी मजबूरी आपको गुरुद्वारे से बाहर लाई होगी! आपकी हामी न होने के बावजूद आप बाहर कभी गए होंगे!”
विमल ख़ामोश रहा।
“बाप” – इरफ़ान बोला – “अभी बोले तो, तू गुरुद्वारे के टेम कभी भी बाहर न गया हो – चार महीने का अक्खा टेम भीतर ठहरा हो – तो क्या है! लोग तो अंदर आते हैं! इबादतगाह है तेरे मज़हब की, चौबीस घंटे की आवाजाही होती होगी! चार महीनों में लाखों अकीदतमन्दों के कदम उधर पड़े होंगे! किसी एक को भी खटक सकता है कि ये जूताघर में जूते उठाता सेवादार, ये चौतरफा संगमरमर की राहदारी का फ़र्श धोता सेवादार, ये लंगर पर खाना परोसता सेवादार, इसकी शक्ल तो कुछ देखी-भाली सी, कुछ जानी-पहचानी सी लगती है! इस आदमी को पहले गुरुद्वारे के अलावा कहीं देखा है! तो कहने की ज़रूरत है, बाप, कि आगे क्या होगा?”
विमल ने इंकार में सिर हिलाया।
“इस हवाले से एक बात और भी है जो तेरे को मालूम होनी चाहिए।”
“क्या?”
“एक अरसे से तेरी गिरफ़्तारी पर तीन लाख के ईनाम का ऐलान चला आ रहा था। कितने का?”
“तीन लाख का।”
“अब तेरे पीछे तेरी हैसियत बढ़ गई है, इस मामले में रुतबा बुलन्द हो गया है तेरा। अब तेरी गिरफ़्तारी पर ईनाम . . . पाँच पेटी है।”
“मेरे को क्या फ़र्क पड़ता है!” – विमल दबे स्वर में बड़बड़ाया – “मैं पहले भी फरार इश्तिहारी मुजरिम था, अब भी हूँ। अपनी गुनाहों से पिरोई ज़िन्दगी से – ख़ासतौर से उस ज़िन्दगी से, जिसे मैं अब जी रहा हूँ – आज़िज़ आकर पुलिस के सामने सरेन्डर कर दूँ तो क्या वो ईनाम मुझे मिल जाएगा!”
“क्या पता ऐसा कोई . . . कोई . . . शोहाब ! क्या बोलते हैं?”
“प्रावधान हो। प्रोविज़न हो।” – शोहाब बोला – “पर हम सबजेक्ट से भटक रहे हैं। बात कोई और ही हो रही थी।”
“बोलता है मैं, जो बात हो रही थी।” – इरफ़ान विमल से मुख़ातिब हुआ – “बाप, कोई अहद है कि सिख बन के ही रहना है तो ठीक, वर्ना और टेम ज़ाया किए बिना हज्जाम के पास पहुँच?”
“फ़र्ज़ करो पहुँच गया।” – विमल बोला – “फिर?”
“फिर क्या! फिर गुरुद्वारे को अलविदा बोल, बाप, और आ के हमारे साथ जुड़। सॉरी बोलता है, बाप, बड़ा बोल बोल गया, हमें अपने साथ जुड़ने का मौका दे ताकि” – उसकी आवाज़ फिर भर्रा गई – “हमारी भी औकात बने। हमारा भी इकबाल बुलन्द हो! ताकि हम भी ज़ीरो से दस बनें!” – उसने एक अरमानभरी आह भरी – “तेरे साथ बहुत अच्छा वक्त देखा, बाप, हम टपोरी लोगों ने! तेरे अन्डर में होटल सी-व्यू में हमारी शान और ज़िम्मेेदारी की मुलाज़मात का नतीजा हमारी ऐंठ देखते बनती थी। सी-व्यू की शानोशौकत की छत्रछाया में हमारे पाँव ज़मीन पर नहीं पड़ते थे। बहुत ऐश की बाप तेरे सदके, तेरी अज़ीमुश्शान हस्ती के सदके पण . . . वान्दा नहीं। वान्दा नहीं। श्याने भीड़ू बोलते हैं गया वक्त लौट कर नहीं आता। पण मेरे को एतबार नहीं। मेरे को तो गया वक्त लौट आता दिखाई देने भी लग गया है।”
इरफ़ान जज़्बाती हो रहा था। ऐसा ही था वो। मुँहफट लेकिन जज़्बाती। वो शोहाब से बहुत पहले से – तुकाराम के टाइम से – विमल से वाकिफ़ था इसलिए वो विमल से बेमुलाहजा पेश आता था।
शोहाब पढ़ा-लिखा, संजीदासूरत नौजवान था जो इरफ़ान की तरह टपोरी भाषा नहीं बोलता था और विमल को हमेशा आदर से ‘आप’ कह के बुलाता था। जब तक विमल की छत्रछाया रही, उन दोनों की जोड़ी बेमिसाल थी, विमल के लिए उनका जांनिसार जज़्बा बेमिसाल था।
“हमारा साथ पसंद नहीं” – शोहाब बोला – “तो शास्त्री जी के विधवा आश्रम में रहिए जहाँ कि आप पहले भी रह चुके हैं। उससे भी नाइत्तफ़ाकी हो तो अलहदा कहीं रहिए।”
“गुरुद्वारे में ही रहूँ तो?”
“बाप, मगज से नहीं बोल रहा।” – इरफ़ान ने तत्काल प्रतिवाद किया – “हज्जाम की हाजिरी और गुरुद्वारे की रिहायश दोनों एक साथ नहीं चल सकतीं।”
“ठीक कह रहा है।” – विमल बोला – “मेरे को वहाँ पहले ही टोका जा चुका है कि मैं सिख हूँ तो मेरे जिस्म पर सिखी के कोई निशान क्यों नहीं!”
“वही तो! हज्जाम के पास से वहाँ लौटेगा तो रही सही कसर भी पूरी हो जाएगी।”
“तो चैम्बूर में?”
“हाँ।”
“कहाँ?”
जवाब देने से पहले इरफ़ान में शोहाब की तरफ देखा।
“तू बोल।” – वो बोला।
शोहाब ने सिर हिला कर हामी भरी फिर विमल से मुख़ातिब हुआ – “जनाब, आप नहीं जानते तो अब जान लीजिए। कहते संकोच हो रहा है कि आपकी माली इमदाद के सदके तुकाराम का खड़ा किया चैरिटेबल ट्रस्ट अब बन्द है क्योंकि चैरिटी के लिए पैसा नहीं है . . .”
“पैसा नहीं है!” – विमल हैरानी से बोला – “मेरे मुम्बई छोड़ते वक्त ट्रस्ट में चार करोड़ रुपया था!”
“जी हाँ, बराबर था। लेकिन जिस घड़े में कुछ डाला न जाए, सिर्फ निकाला जाए, उसने कभी तो खाली होना ही होता है!”
“क्यों खाली होना होता है? क्यों न डाला जाए? हमारे इतने मेहरबान थे जो ट्रस्ट को रेगुलर डोनेशन देते थे!”
“अभी भी देते हैं लेकिन . . . अब क्या बोलूँ?”
“जो बोलना है, बोलो। मैं सुनना चाहता हूँ।”
“जो आप सुनेंगे वो आपके मौजूदा हालात के मद्देनजर आप को रास नहीं आएगा। आपकी अपनी ही मौजूदा दुश्वारियाँ कुछ कम नहीं, जो हम बोलेंगे, जो आप सुनेंगे, उनसे और इजाफ़ा होगा आपकी दुश्वारियों में।”
“बाप” – इरफ़ान बोला – “बोले तो तेरे मौजूदा हालात में हम तेरे से कोई बड़ी उम्मीद नहीं कर सकते . . . चाह कर भी नहीं कर सकते।”
“चाहते तो क्या करते?”
“अभी क्या बोलें?”
“तुम्हारी कोई पर्सनल प्रॉब्लम्ज़ हैं?”
दोनों का सिर इंकार में हिला।
“तुका के ट्रस्ट के लिए फि़क्रमन्द हो, जो पैसा ख़त्म हो गया होने की वजह से बन्द है?”
दोनों ने ख़ामोश हामी भरी।
“वो फिक्र तो मेरे को भी है! मैं ख़ुद ही जानना चाहता हूँ कि क्या हुआ, क्यों ट्रस्ट बन्द हुआ!”
“बाप, वो बड़े साइज़ का लफड़ा है। अभी टेम नहीं है उसकी लपेट में आने का। पहले ख़ुद को संभाल ले, नॉर्मल हो ले, सोहल बन ले, फिर जानना।”
“अभी जानने में कोई हर्ज नहीं – मैं हैरान हूँ इसलिए ख़ुद जानना चाहता हूँ। कोई शामत गले पड़ती लगेगी तो बाद में देखेंगे . . . सोचेंगे।”
“तो सुन, मैं बोलता है। सब डोनेशन देते हैं बरोबर ये टेम भी, पण पहले मर्ज़ी से देते थे, अब मजबूरी से देते हैं। पहले देते थे तो फ़ख्र महसूस करते थे, अब पिरेशर के हवाले हैं।”
“कैसा प्रेशर?”
“वसूली। वसूली का पिरेशर। पहले चन्दा दरख़्वास्त करके माँगा जाता था, सिर नवा कर माँगा जाता था कि सबाब का काम था, चन्दे से चार लोगों का, ज़रूरतमन्दों का भला होता था, अब गरदन अकड़ा के, ताकत बता के माँगा जाता है।”
“कौन करता है?”
“चैम्बूर का दाता।”
“क्या!”
“बाप, ये नाम जो तेरे को अहसानमन्द, शुक्रगुज़ार आवाम ने दिया था, तेरी गै ़रहाज़िरी में वो भी किसी ने हथिया लिया है।”
“इस फर्क के साथ” – शोहाब ने जोड़ा – “कि पहले तुका के नाम से चलाए जा रहे चैरिटेबल ट्रस्ट का ऑफ़िस, तू जानता है कि, चैम्बूर में कूपर कम्पाउन्ड में था, अब तीन किलोमीटर दूर चैम्बूर में ही शिवाजी चौक पर है और नाम छत्रपति चैरिटेबल ट्रस्ट है।”
“कमाल है!”
“तेरे टेम में” – इरफ़ान बोला – “कोई फरियादी आता था तो उसकी फरियाद गौर से सुनी जाती थी . . .”
“कई मर्तबा तो आप ख़ुद सुनते थे।” – शोहाब बोला।
“. . . और उसकी हर मुमकिन मदद की जाती थी; अब अक्सर ज़्यादातर फरियादियों को डांट कर भगाया जाता है।”
“ऐसा है तो” – विमल बोला – “चैरिटेबल ट्रस्ट खड़ा करने का फायदा क्या हुआ?”
“उन लोगों को हुआ न” – शोहाब बोला – “जिन्होंने तुका की लगाई कोंपल को, आपकी मेहनत ने सींच कर बड़ा किए पौधे को सहज ही हथिया लिया। कोई आपकी जगह ‘चैम्बूर का दाता’ बन बैठा और तकरीबन लोगों को इस बात की ख़बर ही नहीं। कोई ख़बर है तो ये कि ट्रस्ट का नाम बदल गया है, ऑफ़िस बदल गया है। दूसरी तब्दीली ये आई है कि छत्रपति चैरिटेबल ट्रस्ट अब एनजीओ रजिस्टर्ड है . . .”
“नॉन गवर्नमेंट ऑर्गेनाइज़ेशन!”
“हाँ, और उसे सरकारी ग्रांट मिलती है। ग्रांट जारी रहे . . .”
“ग़ैरकानूनी वसूली तो जारी है ही।” – इरफ़ान ने जोड़ा।
“. . . इसी वजह से ऑफ़िस खोल कर रखना ज़रूरी है और फरियादियों की आवाजाही दिखाना ज़रूरी है। रिकॉर्ड रखा जाता है कि हर महीने कितने फरियादियों की मदद की जबकि ऐसे सौ भीड़ू दर्ज किए जाते हैं तो अस्सी की मदद की कहानी फ़र्ज़ी होती है। कोई मदद नहीं होती, खाली रिकॉर्ड रखा जाता है कि हुई।”
“कमाल है! इतना सब कुछ मेरी सात महीने की मुम्बई से गै ़रहाज़िरी में हो गया!”
“कोई साला फ़ास्ट वर्कर!” – इरफ़ान भुनभुनाया – “मालूम पड़ गया किसी को कि तू – असली ‘चैम्बूर का दाता’ – मुम्बई छोड़ गया हमेशा के वास्ते।”
“जाने से पहले आपने कहा था” – शोहाब बोला – “कि ‘चैम्बूर का दाता’ किसी एक शख़्सियत का नहीं, एक मिशन का नाम है; लोग ख़त्म हो जाते हैं, मिशन ख़त्म नहीं होते; आदमी मर सकता है, इसकी परिकल्पना नहीं मर सकती। ठीक कहा था आपने। जो आपने कहा था, वही हो रहा है लेकिन किसी और ही रंग में, किसी और ही अन्दाज़ में हो रहा है।”
“तुम्हारा कोई ज़ोर न चला?”
“चला। कुछ अरसा चला। लेकिन चलता न रह सका। डोनेशन देने वालों की नवाजि़शें कहीं और ट्रांसफ़र हो गई ं । जो लोग पहले तुका के खड़े किए चैरिटेबल ट्रस्ट को बाख़ुशी डोनेशन देते थे और समझते थे – समझते क्या थे, बाख़ूबी जानते थे – कि सबाब का काम कर रहे थे, वो अब धमकी के तहत डोनेशन देते हैं और उस घड़ी को कोसते हैं जब ट्रस्ट के नए निजाम से उनका वास्ता पड़ा।”
“नए ट्रस्ट के?”
“वो नहीं कहते कि ट्रस्ट नया है, कहते हैं खाली नाम बदला है क्योंकि तुकाराम को कोई नहीं जानता, छत्रपति शिवाजी महाराज को सारा महाराष्ट्र जानता है, सारा हिन्दोस्तान जानता है।”
“इस नई मूव के, नए इन्तज़ाम के पीठ पीछे कौन है, मालूम?”
“ठीक से नहीं मालूम, मुकम्मल तौर से नहीं मालूम, क्योंकि पुरइसरार कभी मालूम करने की कोशिश न की।”
“क्या करते मालूम कर के!” – इरफ़ान वितृष्णापूर्ण भाव से बोला – “इधर सुनने में आया था कि जो भीड़ू तेरे पीछे तेरी जगह ‘चैम्बूर का दाता’ बना बैठा था, वो कोई बड़ा बाप था, ‘भाई’ था जिसके नेता लोगों से ताल्लुकात थे . . .”
“पोलिटिकल कनैक्शंस।” – शोहाब बोला।
“कोशिश कर के कुछ मालूम कर भी लेते तो क्या करते! ऐसे कड़क भीड़ू से हम भिड़ तो सकते नहीं थे!”
“अब मालूम करो।”
दोनों ने तमक कर सिर उठाया।
“मालूम करो जो मालूम कर सकते हो।”
“क्या इरादा है?” – शोहाब दबे स्वर में बोला।
“तुम्हें मालूम है, क्या इरादा है!” – विमल का स्वर शुष्क हुआ – “न मालूम होता तो तुमने ये ज़िक्र ही न छेड़ा होता!”
शोहाब ख़ामोश हो गया।
“नहीं?”
“नहीं।” – शोहाब हिम्मत करके बोला – “हमने न छेड़ा। हम तो बच रहे थे ज़िक्र से।”
“शोहाब ठीक कहता है।” – इरफ़ान बोला – “कैसे हम कह सकते थे – इशारा भी सरका सकते थे – कि, बाप, अपनी ज़ाती दुश्वारियों को बालायताक रख, अपने मूड-मिज़ाज-ग़म-मातम को नजरअंदाज़ कर और पहले जाकर डुप्लीकेट ‘चैम्बूर का दाता’ से भिड़ जा, उसकी हस्ती मिटा दे और उसका शिवाजी चौक वाला रजिस्टर्ड चैरिटेबल ट्रस्ट ढेर कर दे! तेरे को ऐसी किसी बात के लिए उकसाना, तेरी मौजूदा ज़ेहनी हालत को नज़रअंदाज़ करके उकसाना, ख़ुदगर्ज़ी होता।”
विमल ने शोहाब की तरफ देखा।
“जनाब” – शोहाब संजीदगी से बोला – “कोई आपके नाम को बट्टा लगा रहा था, आपको बदनाम कर रहा था, अपनी घटिया, ज़लील, नाकाबिलेबर्दाश्त मुजरिमाना हरकतों से ‘चैम्बूर का दाता’ की छवि खराब कर रहा था, हमें बर्दाश्त नहीं था। देखते, सुनते थे तो ख़ून का घूंट पी के रह जाते थे। अब एकाएक आपको सामने पाया तो ख़ामोश न रह सके। अल्लाह गवाह है कम-से-कम वक्ती तौर पर ख़ामोश रहना चाहते थे लेकिन इमोशंस ने ज़ोर मारा, न रह सके। आपके मौजूदा मिज़ाज के मद्देनजर कुछ ग़लत किया तो ख़ताबख्शी की इल्तिजा करते हैं।”
“नैवर माइन्ड। रिलैक्स।”
“शुक्रिया, जनाब।”
“हम मालूम करेंगे।” – इरफ़ान जोश में बोला।
“कब को मालूम करोगे?” – विमल बोला – “तुम दोनों तो कामकाजी हो गए! – वो एक क्षण ठिठका, फिर बोला – “इरफ़ान ने तो कैब पकड़ ली, तुम्हारा बोला कि मुलाज़मत में हो। क्या मुलाज़मत है?”
“जुहू के एक होटल में” – शोहाब संकोच से बोला – “सिक्योरिटी ऑफ़िसर हूँ।”
“आईसी! यानी होटल सी-व्यू से हुआ सिक्योरिटी मैनेजमेंट का तजुर्बा काम आया!”
“जी हाँ। उसी हवाले से नौकरी मिली।”
“कैसे कुछ कर पाओगे?”
“शिफ्ट की ड्यूटी है। कल से ही नाइट ड्यूटी शुरू हुई है। दो हफ्ते, पन्द्रह तारीख तक रहेगी।”
“तभी दिन में यहाँ हो!”
“रात को भी हो सकता हूँ। नाइट ड्यूटी को अगली सुबह भी जारी रखूँ तो रात को भी हो सकता हूँ। होटल मैनेजमेंट यूँ डबल शिफ्ट की इजाज़त देता है।”
“आई सी।”
“फिर बावक्तेज़रूरत छुट्टी भी मिल जाती है।”
“गुड!” – विमल ने इरफ़ान की तरफ देखा।
“कैब डिरेवरी में फि़क्स्ड टेम कोई नहीं।” – इरफ़ान बोला – “मैं चौबीस घंटे में कभी भी चला सकता हूँ। कोई टेम न भी चलाऊं तो वान्दा नहीं।”
“ठीक!”
“फिर आप” – शोहाब बोला – “अपने ख़ास मुरीदों को भूल रहे हैं!”
विमल की भवें उठीं।
“आकरे, मतकरी, परचुरे, जैक, साटम, बुझेकर, पिचड़। फिर मैं, इरफ़ान और विक्टर तो हैं ही!”
“ओह!”
“आपके सदके – ‘चैम्बूर का दाता’ के सदके – विक्टर की मुम्बई के अस्सी हज़ार पीली-काली कैब ड्राइवरों में कितनी पूछ है, उससे आप नावाकिफ़ तो हैं नहीं?”
“पूरी तरह से वाकिफ़ हूँ। गोरई पुलिस चौकी के सामने जब गरेवाल-कौल-झेण्डे के भड़काए लोग मुझे फांसी पर टाँगने पर आमादा थे तो विक्टर के करतब ने ही मेरी जान बचाई थी जब ऐन मौके पर उसके बुलाए सैकड़ों टैक्सी ड्राइवर वहाँ पहुँच गए थे।”
“हज़ारों!”
“ओके! तो तुम दोनों अब कारोबारी लोग हो! बाकायदा कारोबारी लोग हो!”
“अब” – इरफ़ान बोला – “है तो ऐसा ही अल्लाह ताला के करम से!”
“बाकी जोड़ीदार भी कुछ न कुछ करते ही होंगे!”
“हाँ, करते हैं बरोबर।”
“क्या?”
“मिलेंगे तो बोलेंगे न!”
“ठीक! मेरे बारे में क्या सोचा?”
“बोले तो?”
“गुरुद्वारा छोड़ूँगा तो क्या करूँगा?”
“अरे, बाप, तू बादशाह है। बादशाह बादशाही करेगा और क्या करेगा?”
“क्यों नहीं करेगा? बहुत काम आते हैं मेरे को। इधर मुम्बई जब पहली बार पहुँचा था तो डाकखाने के आगे बैठकर चार-चार आने में अनपढ़ लोगों की चिट्ठियाँ लिखता था। दिल्ली में आठ आना सवारी फव्वारे से बाराटूटी-सदर तक ताँगा हाँकता था, अमृतसर में शोफ़र था, गोवा में कैसीनो क्लर्क था, जयपुर में मोटर मकैनिक था। कोई भी काम इधर पकड़ लूँगा, खाली ताँगा नहीं चला पाऊँगा क्योंकि मुम्बई में विक्टोरिया बन्द हुए एक मुद्दत हो चुकी है।”
“मज़ाक करता है!”
विमल हँसा।
“जनाब” – शोहाब दबे स्वर में बोला – “जान की अमान पाऊँ तो अर्ज़ है कि इस वक्त, ख़ास इस वक्त, बेगम साहिबा की याद आ रही है?”
विमल हकबकाया, फौरन संजीदा हुआ।
“गुज़ारिश है कि आपको पशेमान करने के लिए ये सवाल नहीं पूछा था, जो जवाब का तालिब ही नहीं, ये याद दिलाने के लिए पूछा था कि मैन इज़ ए सोशल एनीमल, सोसायटी के बिना नहीं रह सकता। इरफ़ान का भी इसी बात पर ज़ोर था जब इसने कहा था कि आदमज़ात की तो बात ही क्या, जानवर भी अकेले नहीं रहते थे।”
“तो क्या मुझे” – विमल सिर झुकाए बोला – “नीलम को भूल जाना चाहिए?”
“हरगिज़ नहीं। क्योंकि वो आपकी शरीकेहयात ही नहीं थी, आपके बच्चे की माँ भी थी। आइन्दा कभी मुमकिन है आप बेगम को भूल जाएँ, सूरज की माँ को नहीं भूल पाएंगे, उस नेक ख़ातून को नहीं भूल पाएंगे जिसके सदके आपको बाप कहलाने का फ़ख्र हासिल हुआ।”
विमल का सिर सहमति में हिला।
कुछ क्षण ख़ामोशी रही।
फिर विमल ने ही ख़ामोशी भंग की, वो बदले स्वर में बोला – “तो चैम्बूर में शिवाजी चौक पर नए बने ट्रस्ट का ऑफ़िस रोज़ खुलता है – फरियादियों के लिए, ज़रूरतमंदों के लिए?”
“शुक्र को नहीं खुलता।” – इरफ़ान बोला।
“हफ्ते में दो छुट्टियाँ या इतवार की जगह?”
“इतवार की जगह”
“वजह?”
“वजह जुम्मे की नमाज़।”
“क्या कहने! बहुत ख़याल रखा मुसलमान फरियादियों का!”
“अरे, गरीब का ऐसे कौन ख़याल रखता है! उनकी अपनी कोई पिराब्लम, अपनी कोई मसरूफ़ियत होगी वजह!”
“तुका के होते तो ऑफ़िस हर घड़ी खुला रहता था! फिर तुका की ही वजह से उसके बाद भी!”
“तुका जुनून के हवाले था। उसे दूसरी दुनिया दिखाई दे रही थी, उसने तो, यूँ समझ कि, वहाँ फरियादियों के लिए, बस, जहाँगीरी घंटा टाँगने की कसर छोड़ी थी। उसकी ज़िन्दगी में तो हर दिन, हर घड़ी फरियादी का इस्तकबाल था।”
“वो सब मेरे को याद है। शोहाब की बात पूरी होने दे।”
“छ: दिन वो ऑफ़िस” – शोहाब बोला – “सुबह ग्यारह से दो तक तीन घंटे खुलता है।”
“बस!”
“और सिर्फ पाँच फरियादियों को भीतर कदम रखने की इजाज़त मिलती है।”
“असल में क्या भीड़ खड़ी हो जाती है?”
“कहते हैं कभी-कभी हो जाती है।”
“और कभी-कभी पाँच भी पूरे नहीं होते” – इरफ़ान बोला – “मेरे को पक्की करके ख़बर कि कभी-कभी कोई भी नहीं आता।”
“ऑफ़िस” – विमल बोला – “तब भी बद्स्तूर खुलता है?”
“हाँ। ऐसे उजाड़ खुलता है तो और भी कुछ होता है।”
“क्या?”
“एक मर्तबा फरियादी बनके चार भीड़ू आए और भीतर फरियाद सुनाने की जगह पत्थर बरसाने लगे। अपनी उस फौजदारी जैसी हरकत को अंजाम दे चुकने के बाद भाग निकलना चाहते थे लेकिन कामयाब न हो सके। बहुत बुरी बीती बेचारों के साथ।”
“भीतर जाे” – शोहाब ने आगे बताया – “फरियाद सुनने के लिए लॉर्ड बन के बैठते हैं, उनके साथ ‘भाई’ लोगों के प्यादों जैसे आदमी भी होते हैं। उन्होंने चारों को पकड़ लिया और बुरी तरह से धुना। पुलिस आई तो एम्बुलेंस में ले के गई।”
“सिर्फ उन्हें? प्यादों को नहीं, जिन्होंने क़हर ढाया? फरियाद सुनने वालों को नहीं?”
“दर्जनों लोगों ने गवाही दी थी कि जो किया था, उन चार जनों ने किया था और उनकी धुनाई उनको रोकने की कोशिश करती पब्लिक ने की थी जो बाद में वहाँ नहीं टिकी थी।”
“ओह!”
“मीडिया न्यूज़ थी। अख़बारों और टीवी चैनल्स दोनों जगह थी।”
“मार खाने वालों ने अपना बयान न दिया?”
“दिया! पुरज़ोर दुहाई दी कि उन्हें पब्लिक ने नहीं मारा था – वो ख़ुद पब्लिक थे, पब्लिक उन्हें क्यों मारती – उन्हें ट्रस्ट का इंतज़ाम करने वालों के गुण्डों ने मारा था लेकिन किसी ने उनकी बात का यकीन नहीं किया था। ट्रस्ट से बयान आया कि वहाँ ऐसे मवाली, प्यादे, गुण्डे वग़ैरह कभी थे ही नहीं; खाली एक चपरासी था जो चार जनों को नहीं मार सकता था।”
“प्रबन्धक?”
“तीन थे। लेकिन कहते थे कि पत्थरबाज़ी शुरू होते ही मेजों के नीचे छुप गए थे जिसकी वजह से बरसते पत्थरों की चपेट में आने से बच गए थे।”
“पत्थरबाज़ी की नौबत क्यों आई थी?”
“इरफ़ान कहता है कोई ट्रस्ट से नाखुश, नाउम्मीद फरियादी थे जिनको कोई मदद – इंसाफ़़ तो मिला ही नहीं था, बुरा सुलूक हुआ था जो वो हज़म नहीं कर पाए थे और गुस्से से भड़के हुए वो कदम उठा बैठे थे।”
“मैं बोले तो” – इरफ़ान बोला – “गुफ़्तगू पहले ही बहुत लम्बी घिसट गई है। अभी बाप का टेम खोटी हो रहा होगा। ये बातें हम बाद में भी कर सकते हैं।” – वो विमल की ओर घूमा – “कर सकते हैं, न, बाप?”
“हाँ, कर सकते हैं।” – विमल बोला।
“अपना मोबाइल नम्बर दे, बाप, ताकि तेरे को ढूँढ़ने तेरे गुरुद्वारे न आना पड़े। पुराना ही नम्बर चालू है तो पक्की कर।”
“मेरे पास मोबाइल नहीं है।”
“क्या बोला?”
“मोबाइल। नहीं है मेरे पास।”
“बंडल! आजकल तो साला बच्चे-बच्चे के पास है!”
“मेरे पास नहीं है।”
“किधर गया?”
“याद नहीं किधर गया! पर दिल्ली में ही मुिक्त मिल गई थी।”
“जानबूझ कर नक्की किया!”
“पता नहीं क्या किया! याद नहीं।”
“वांदा नहीं। नवां खरीद!”
“नहीं खरीद सकता। खरीदने को पैसा नहीं है।”
“अल्लाह!” – इरफ़ान ने असहाय भाव से गर्दन हिलाई – “बोलता है मोबाइल नहीं है, खरीदने को पैसा नहीं है। साला चालू नवां फोन हज़ार रुपए में आता है, सैकण्ड हैण्ड पाँच सौ में आता है, बोलता है पैसा नहीं है!”
“इरफ़ान!” – शोहाब डपट कर बोला।
इरफ़ान ने होंठ भींच लिए।
शोहाब ने बड़े अरमान से विमल की तरफ देखा, उसको अपने ज़ेहन में विमल की धीर-गंभीर आवाज़ गूंजती लगी:
“मैंने भीख माँगी है, राज दान किए हैं!”
ख़याल से ही उसका गला भर आया।
“शाम से पहले” – वो मुश्किल से बोल पाया – “आपके पास मय नया सिम मोबाइल पहुँच जाएगा – विक्टर पहुँचा देगा; अगरचे कि आपको खाली मोबाइल सौंपने के लिए उसके गुरुद्वारे आने से ऐतराज़ न हो।”
“आए” – विमल बोला – “कोई ऐतराज़ नहीं।”
“कुछ रोकड़ा भी लाएगा।”
विमल ने उस बात पर विचार किया।
“कहाँ से आएगा?” – उसने पूछा।
“उसकी आप फिक्र न कीजिए। बस बरायमेहरबानी इतना याद रखिए कि इस शहर में आपके मुरीद अभी ज़िन्दा हैं। आपके – ‘चैम्बूर का दाता’ के – अहसानों के नीचे दबे लोग अभी ज़िन्दा हैं और उनमें से कोई भी अहसानफ़रामोश नहीं।”
“कैसे होयेंगा, बाप!” – इरफ़ान बोला – “तू गरीबों का हमदर्द, दोस्तों का दोस्त, दुश्मनों का दुश्मन। सखी हातिम! रॉबिन हुड! चैम्बूर का दाता!”
“ये सब मैं?”
“बरोबर! भले ही शिवाजी चौक वाला कोई शैतान का जना कुछ भी बोले।”
“काले मैडे कपड़े, काला मेडा वेसु; गुनही भरिया मैं फिरां, लोकु कहै दरवेसु।”
“बाप, ये जन्म में ये बातें इरफ़ान की समझ में नहीं आने वाली। इन्हें पंडित भोजराज शास्त्री से मिले तो उन्हें सुनाना।” – इरफ़ान एक क्षण ठिठका, फिर बोला – “मिलेगा न?”
“ज़रूर मिलूँगा।” – विमल दृढ़ता से बोला – “क्योंकि मैंने उनसे एक सवाल करना है। और उसका जवाब पाना है।”
इरफ़ान ने शोहाब की तरफ देखा।
“कैसा सवाल?” – शोहाब उत्सुक भाव से बोला।
“शास्त्री जी को मेरे मस्तक पर राजयोग लिखा दिखाई देता था। मैंने जाकर उनसे सवाल करना है कि वक्त के थपेड़ों ने राजयोग मिटा डाला या मस्तक बदल गया?”
दोनों एक-दूसरे का मुँह देखने लगे।
“ख़ैर!” – विमल उठ खड़ा हुआ – “मिलते हैं।”
“कब?” – दोनों एक साथ व्यग्र भाव से बोले।
“टेलीफोन सच में डोनेट कर रहे हो तो फोन पर बोलूँगा।”
“एक बात अभी बोल के जा, बाप” – इरफ़ान बोला, विमल के साथ वो दोनों भी उठ खड़े हुए थे – “बल्कि दो।”
विमल की भवें उठीं।
“कूपर कम्पाउन्ड में आठ इमारतें हैं, आठों का मालिक तू है . . .”
“तुका था।”
“तूने बनाया था तो तुका था। अब तुका मर गया – ख़ुदा उसे जन्नतनशीन करे – उसके चारों भाई मर गए इसलिए तू है।”
“मतलब की बात कर न?”
“कहाँ रहना पसन्द करेगा?”
“तुम कहाँ रहते हो?”
“बताया तो था!”
“ध्यान नहीं। फिर बताओ।”
“तुका के घर के – ट्रस्ट के ऑफ़िस के – सामने वाले मकान में। वो एक ही है जो तिमंजला है, बाकी सब दोमंजिले हैं . . . सिवाय तुका के घर के, जो एकमंजिला है।”
“मालूम। अगर रहूँगा तो वहाँ रहूँगा जहाँ तुका रहता था, वर्ना मलाड, शास्त्री जी की शरण में जाऊँगा।”
“वहाँ किसलिए?” – शोहाब बोला।
“तुका मेरा सरपरस्त था, मेरा रहनुमा था, यूँ उसकी याद ताज़ा होगी।”
शोहाब के चेहरे पर आश्वासन के भाव न आए।
“कहीं भी रह, बाप” – इरफ़ान लापरवाही से बोला – “एकीच बात!”
इरफ़ान का ‘एकीच बात’ कहते वक्त जिस बात की तरफ इशारा था, शोहाब उससे पूरी तरह से वाकिफ़ नहीं था। बखिया के वक्त, ‘कम्पनी’ के वक्त शोहाब उन लोगों के साथ नहीं था लेकिन इरफ़ान तुका के भरोसे के आदमी के तौर पर शुरू से तुका के साथ था और इसलिए शुरू से विमल से भी वाकिफ़ था। ‘कम्पनी’ से टक्कर के दौर के वक्त तुका और विमल ने बहुत शिद्दत से इस बात की ज़रूरत महसूस की थी कि जैसे होटल सी-व्यू ‘कम्पनी’ का हैडक्वार्टर था और उसमें बखिया समेत उसके तमाम बड़े ओहदेदार सुरक्षित थे, वैसी सुरक्षा का कोई इन्तज़ाम उनका भी होना चाहिए था। बखिया के ख़त्म हो जाने के बाद भी ‘कम्पनी’ ख़त्म नहीं हो गई थी, पहले बखिया की जगह इकबाल सिंह बखिया बन बैठा था फिर इकबाल सिंह भी किसी काबिल नहीं रहा था और उसकी जगह व्यास शंकर गजरे ने ले ली थी तो अपना सुरक्षित ठिकाना विमल ने कूपर कम्पाउन्ड में खड़ा करने का फैसला किया था। उस कम्पाउन्ड में आठ इमारतें थीं जिनमें से एक तुका के कब्जे़ में शुरू से थी और ‘कम्पनी’ के ही लूटे हुए पैसे से विमल ने बाज़रिया प्राॅपर्टी एजेन्ट पोचखानावाला, बाकी सारी इमारतें मुँह माँगे दाम चुकता करके खरीद ली थीं। आगे उनकी योजना अहाते के दहाने पर आयरन गेट लगाने की थी और गेट पर सिक्योरिटी बिठाने की थी लेकिन वो योजना फलीभूत नहीं हो सकी थी। अभी काम शुरू ही हुआ था कि म्यूनीसिपैलिटी का एक जूनियर इंजीनियर ये कहता वहाँ पहुँच गया था कि अहाता पब्लिक प्रॉपर्टी था, उसपर आयरन गेट लगा कर पब्लिक का रास्ता नहीं रोका जा सकता था।
कौन पब्लिक!
कौन-सा रास्ता!
जब अहाते की तमाम इमारतों का एक ही मालिक था तो वो कौन-सी पब्लिक के लिए रास्ता था! कहाँ जाने के लिए रास्ता था!
उनकी एक न सुनी गई।
जूनियर इंजीनियर दूसरे फेरे आया तो साथ पुलिस लेकर आया। पुलिस ने भी सख़्ती से यही कहा कि अहाते पर आयरन गेट नहीं लगाया जा सकता था, अगर लगाया गया तो बुलडोजर बुलाकर उखाड़ दिया जाएगा और यूँ हुए खर्चे का सारा बिल वहाँ के बाशिन्दों को भेजा जाएगा जिसकी ग़ैरअदायगी की सूरत में कानूनी कार्यवाही होगी जिसके दौरान गिरफ़्तारी का भी प्रावधान था।
साफ़ ज़ाहिर था कि उनके दुश्मन नहीं चाहते थे कि ऐसी किसी सिक्योरिटी का इन्तज़ाम कूपर कम्पाउन्ड में होता और उन्हीं की शह पर कमेटी का जूनियर इंजीनियर वहाँ पहुँचा था, इलाके की पुलिस वहाँ पहुँची थी।
ये बात दोहरी साबित हुई थी जब तुका ने उन लोगों की जेबें गर्म करने की पेशकश की थी तो जेई और पुलिस दोनों ने इंकार कर दिया था। लोकन थाने से आए सब-इन्सपेक्टर ने तो ये तक कहा था कि रिश्वत की पेशकश के इलज़ाम में तुका को गिरफ़्तार किया जा सकता था।
साफ़ ज़ाहिर था कि वो किसी ‘ख़िदमत’ के तमन्नाई इसलिए नहीं थे क्योंकि उनकी उम्मीद से ज़्यादा ‘ख़िदमत’ पहले ही हो चुकी थी।
आयरन गेट तो कभी खड़ा न हो सका लेकिन सुरक्षा का ऐसा इन्तज़ाम फिर भी किया गया जिसकी विमल, तुका, वागले, इरफ़ान के अलावा किसी को ख़बर नहीं थी–शोहाब को ख़बर बहुत . . . बहुत बाद में हुई थी।
वो इन्तज़ाम ये था कि आठों इमारतों को खुफ़िया रास्तों के ज़रिए एक-दूसरे से जोड़ा गया था। कहीं सुरंग खोदी गई थीं, कहीं डक्ट बनाए गए थे तो कहीं ऐसे दरवाज़े बनाए गए थे जो दरवाज़े लगते ही नहीं थे, ठोस दीवारें लगती थीं।
तुका का शुरू करवाया वो काम उसकी ज़िन्दगी में ख़त्म नहीं हो सका था। तुका और वागले दोनों दुश्मनों के हाथों मारे गए थे तो इरफ़ान ने ही जैसे-तैसे वो काम ख़त्म करवाया था।
अब तुका वाली और उसके सामने वाली इमारत के अलावा बाकी छ: इमारतों में ‘किरायेदार’ रहते थे जिनकी बाबत सवाल हो तो वो दिखाई देने लगते थे, वहाँ ‘आए-गए’ रहते थे।
वहाँ के उन खुफ़िया रास्तों की वजह से ही इरफ़ान ने कहा था कि विमल कहीं भी रहे, एक ही बात थी।
और ये बात शोहाब की समझ में जरा देर से आई थी।
“साथ रहने में क्या हर्ज है?” – तभी वो पूछ रहा था।
“मुझे नींद में चलने की आदत है।” – विमल बोला – “साथ रहूँगा तो तुम लोगों को डिस्टर्बेंस होगी।”
“पहले तो नहीं थी! कब पड़ी?”
“सात दिसम्बर के बाद से।”
शोहाब ने होंठ भींच लिए, उसके चेहरे पर संजीदगी से भाव आए।
“मेरे को” – विमल इरफ़ान की तरफ घूमा – “दो बात बोल के जाने का था! दूसरी बोल!”
“वो . . . वो” – इरफ़ान बोला – “बोले तो . . . अब ज़रूरी नहीं।”
“अरे, बोल न! नहीं ज़रूरी, तो भी बोल!”
“अभी . . . इसरार करता है तो . . . तो . . . बाप, तकरीबन एक घन्टे से हम यहाँ हैं, मैं देखता था . . . सोचता था . . . तूने कश नहीं लगाया। पाइप पीना नक्की किया या किधर रह गया?”
“किधर कहाँ? गुरुद्वारे में?”
“ओह! सॉरी बोलता है, बाप। बोले तो ये टेम मगज में लोचा। तो अब पाइप की जगह सिग्रेट पीता है?”
“ख़ामख़ाह खप रहा है!” – शोहाब इरफ़ान को झिड़कता-सा बोला – “लगता है, इन्होंने स्मोक करना बन्द कर दिया है।”
“ऐसा?” – इरफ़ान बोला।
“हाँ।” – विमल बोला।
“क्योंकि गुरुद्वारे में रहता है? इसलिए टैम्परेरी कर के . . .”
“परमानेंट कर के।”
“कोई ख़ास वजह?”
“हाँ।”
“क्या?”
जवाब देते विमल के चेहरे पर ग़म की घटाएं छाने लगीं जो दोनों से छुपी न रह सकीं, अब दोनों संकोच में लग रहे थे कि नाहक धूम्रपान की बाबत सवाल किया।
“बीवी का हुक्म हुआ।” – विमल बोला।
फिर कोई कुछ न बोला, मीटिंग बर्ख़ास्त हो गई।
शाम को विमल प्रधान जी से मिलने का तमन्नाई बना उनके ऑफ़िस के दरवाज़े पहुँचा।
वो जानता था उस घड़ी प्रधान जी कदरन फ़ारिग होते थे।
उसने बंद दरवाज़े की तरफ हाथ बढ़ाया तो बाहर खड़ा सेवादार चानन सिंह मिज़ाज दिखाता बोला – “ओये, ठहर ओये! ऐसे कैसे सिर पे चढ़ा आ रहा है!”
“प्रधान जी से मिलना है।” – विमल नम्रता से बोला।
“प्रधान जी का हुक्म होगा तो मिलना होगा।” – वो झिड़क कर बोला – “पासे खलो।”
विमल दरवाज़े से थोड़ा परे हट कर खड़ा हुआ।
सेवादार भीतर गया, दो मिनट में बाहर लौटा।
“हुन जा।” – वो विमल पर अहसान-सा करता बोला।
विमल ने दरवाज़ा ठेल कर भीतर कदम रखा तो सेवादार ने उसके पीछे दरवाज़ा बन्द कर दिया।
विमल ने हाथ जोड़ कर, नतमस्तक होकर प्रधान जी को प्रणाम किया। प्रधान जी ने सहमति में सिर हिलाकर प्रणाम स्वीकार किया और उसे करीब आने का इशारा किया।
विमल पूर्ववत् हाथ जोड़े मेज के पास आ खड़ा हुआ।
“कुछ कहना ए?” – प्रधान जी बोले।
“आहो, जी।” – विमल अदब से बोला – “बेनती नाल ख़बर करनी ए।”
“क्या?”
“मैं कल यहाँ से चला जाऊँगा।”
“कोई गल्ल नहीं। कब मुड़ेगा?”
“हमेशा के लिए चला जाऊँगा।”
प्रधान जी हड़बड़ाए।
“कोई शिकायत होई?” – उन्होंने पूछा।
“जरा वी नहीं, जी। वाहेगुरु सच्चे पातशाह के द्वारे कहीं शिकायत होती हैं! यहाँ तो शिकायतें दूर होती हैं। सुखनां पूरी होती हैं।”
“ताती वाओ न लागई, पार ब्रह्म सरण आये। वाहेगुरु की शरण में आने से कोई कष्ट आना तो दूर, गर्म हवा करीब नहीं फटकती।”
“आहो, जी।”
“तो तेरा जाने का इरादा पक्का है?”
“आहो, जी।”
“संस्कारी मानस है। बिना बताए चला जाता तो क्या था!”
विमल ख़ामोश रहा।
प्रधान जी अपनी कुर्सी से उठे और मेज का घेरा काट कर विमल के करीब आए। उन्होंने बड़ी आत्मीयता से विमल के कन्धे पर हाथ रखा।
संकोच में विमल अपने आप में सिकुड़ गया।
“काका” – प्रधान जी संजीदगी से बोले – “धीरे-धीरे, कुछ कुछ तू मेरी समझ में आ रहा है।”
“जी!” – विमल ने सकपका कर सिर उठाया।
“तू कोई दिव्य पुरुष है जो अपनी किसी बुरी करनी के प्रायश्चित के लिए यहाँ – गुरां दे द्वारे – आया था। वाहेगुरु पार ब्रह्म परमेश्वर ने तेरे पाप बख्श दिए, तू जा रहा है।”
“मेरे पाप बख्शे जाने के काबिल नहीं।” – विमल होंठों में बुदबुदाया।
“उच्ची बोल!”
“मेरे पाप बख्शे जाने के काबिल नहीं। मैं अपराधी जन्म का, नख शिख भरा विकार!”
“हो सकता है। पर तूने कोशिश तो की! न कोशिश करने से तो बेहतर ही होता है पाप बख्शवाने की कोशिश करना। या नहीं?”
“आहो, जी।”
विमल ने झुककर प्रधान जी के पांव छुए।
“आशीर्वाद दीजिए।” – वो भावभीने स्वर में बोला।
“मैं तुझे क्या आशीर्वाद दे सकता हूँ! तेरे को पूरी तरह समझ पाऊँ तो आशीर्वाद दूँ न! लेकिन गुरां दे द्वारे खड़ा है इसलिए आशीर्वाद पाने का अधिकारी है।” – प्रधान जी का विमल के झुकने की वजह से उसके कन्धे पर से हटा हाथ अब आशीर्वाद की सूरत में उठा – “काका, जब तक यहाँ रहा, सुख से रहना तूने कुबूल न किया। इसलिए वाहेगुरु से मेरी अरज है तू जहाँ रहे, सुख से रहे और सुख से ज़्यादा चैन से रहे। सुख बिना ज़िन्दगी है, पुत्तरा, चैन बिना नहीं है। इसलिए मैंने सुख से ज़्यादा तेरे लिए चैन की दुआ की।”
“मैं मशकूर हूँ। मुझे चैन की सख़्त ज़रूरत है।”
“जीव जन्त सभि सरण तुम्हारी, सरब चिंत तुध पासे, जो तुध भावै सोई चंगा, इक नानक की अरदासे। . . . जा, काका, वाहेगुरु सदा तेरे अंग संग रहन।”
प्रधान जी ख़ुद उसे दरवाज़े तक छोड़ने आए।
“गलती नाल कोई मन्दा बोल मुहों निकलया होवे ते माफ़ी देना, जी!” – विदा होता विमल हाथ जोड़े विनीत भाव से बोला।
प्रधान जी ने आश्वासनपूर्ण ढंग से उसका कन्धा थपथपाया।
सेवादार ने वो नज़ारा देखा तो हैरानी से उसका निचला जबड़ा छाती तक लटक गया।
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