बी-347, न्यू फ्रेंड्स कालोनी पवित्तर सिंह का वो ठिकाना था जो उसने मुम्बई रवाना होने से पहले अपने अज्ञातवास के लिये चुना था । वो एक छोटी सी एकमंजिला कोठी थी जिसका मालिक उसका इकलौता बेटा था लेकिन जो दो साल पहले सपरिवार कैनेडा चला गया था । तब से वो कोठी पवित्तर सिंह के कब्जे में थी जहां वो डेढ दो महीने में एक चक्कर इसलिये लगाता था ताकि बिजली, पानी, टेलीफोन वगैरह के बिलों का भुगतान हो पाता । किसी को उस कोठी के पवित्तर सिंह के अधिकार में होने की खबर नहीं थी इसलिये वो वहां अपने आपको सुरक्षित समझता था ।
पिछले रोज दोपहर को एयरपोर्ट से मजबूरन वापिस लौटना पड़ने के बाद उसने फिर किसी होटल में जाकर चैक-इन करने की जगह वहां पहुंचना ज्यादा पसन्द किया था । रेडीसन में तो - अब स्पष्ट हो चुका था कि - उसकी मौजूदगी छुपी नहीं रह सकी थी । वहां उसने टहलसिंह नाम का अपना एक नौकर बुला लिया था जो कि उसका पूरा पूरा वफादार था ।
ट्रेन की टिकट उसे सोमवार की मिली थी जो उसने ले तो ली थी लेकिन सफर का कोई और विकल्प वो अभी भी सोच रहा था ।
कोठी में पहुंचते ही उसने बैडरूम में जाकर विस्की की बोतल निकाली और टहलसिंह को सोडा और बर्फ लाने को बोला जो कि वो तुरन्त लाया ।
“मालको” - वफादार नौकर टहलसिंह चिन्तित भाव से बोला - “अज सरेशाम ही ?”
“कुज न पुछ, टहलसिंह” - पवित्तर सिंह विस्की के गिलास में बर्फ और सोडा डालता हुआ बोला - “बौत टेंशन हो गई ए । बड़े धक्के खादे अज ।”
“मुम्बई जाना नईं होया ?”
“नई होया न ! पर जाना ते है न ! ओदी वी ते टेंशन ए । इक स्यापा थोड़ी ए पवित्तर सिंह दी जान नू अजकल ।”
“वाहेगुरु सब भली करेगा ।”
“आहो । करेगा भली ।”
“मैं पकौड़े तल देवां ?”
“नईं । हाले नईं । तू फुट जा हुन ।”
टहलसिंह चला गया ।
पीछे पवित्तर सिंह ने गिलास खाली किया और नया पैग बनाया ।
तभी मोबाइल की घन्टी बजी ।
जो फोन नम्बर स्क्रीन पर आया वो उसके लिये अनजाना था ।
उसने फोन बजने दिया ।
कुछ क्षण बाद घन्टी बन्द हो गयी लेकिन तत्काल ही फोन फिर बजा ।
फिर वो ही नम्बर ।
उसने पहले तो फोन स्विच ऑफ कर देने का इरादा किया लेकिन फिर कुछ सोच कर फोन रिसीव किया ।
“हल्लो ।” - वो सावधानी से बोला ।
“मुबारक अली बोलता है, बाप ।” - आवाज आयी ।
ओह ! मुबारक अली ! - पवित्तर सिंह ने चैन की सांस ली ।
“हर बार अलग फोन से कॉल करता है, मुबारक अली !” - वो मोबाइल में बोला ।
“क्या करेंगा, बाप ? तुम्हेरी माफिक मोबाइल नहीं है न अपुन के पास ।”
“कैसे फोन कीत्ता, वीर मेरे ?”
“अभी किधर से बोलता है ? मुम्बई पहुंचा कि नहीं ?”
“नहीं ।”
“क्यों ? क्या हुआ ? अब क्या वान्दा था ?”
“पैल्ले वाला ई फच्चर फेर फंस गया । झामनानी दे बन्दे मेरी ई ताक विच एयरपोर्ट ते मजूद थे और मुम्बई तक मेरे पिच्छे लग्गन दी त्यारी कीत्ती बैठे थे ।”
“ऐसा ?”
“आहो ।”
“फिर तुमने क्या किया, बाप ?”
“मैं की करदा । छुपता छुपाता वापिस लौट आया ।”
“अब किधर है ?”
“दिल्ली में ही हूं ।”
“आगे क्या करने का है ?”
“गड्डी की टिकट निकाली है । पर ओ सोमवार दी ए । तब तक विच मौका लगा तो जहाज ते फेर चढन दी कोशिश करूंगा ।”
“अब उसकी जरूरत नहीं, बाप ।”
“क्या ?”
“तुम्हेरे लिये गुड न्यूज है, तभी फोन लगाया ।”
“गुड न्यूज ! क्या गुड न्यूज है ?”
“सोहल दिल्ली आ रहा है ।”
“अच्छा ! कब ?”
“इसलिये अब तुम्हेरे को मुम्बई जाने की जरूरत नहीं, अब तुम उससे इधरीच मिल सकता है और जो बोलना है, बोल सकता है ।”
“मैं पुच्छया कहों... कब आ रहा है ?”
“आज ही शाम । कल लौट जाने का है ।”
“एन्नी जल्दी ?”
“हां ।”
“क्यों आ रहा है ?”
“कैसे बोलेंगा ? पण तुम समझो आया तो तुम्हेरी खातिर आया । तुम्हेरा काम आसान किया ।”
“वदिया ।”
“पण बाप, तुम मिलना क्यों मांगता है सोहल से ?”
“मिलना क्यों चात्ता हूं । मुबारक अली, तेरे को नहीं मलूम ? उधर रेडीसन विच ऐन्नी लम्बी गल्ल बात होई फिर भी पूछता है मिलना क्यों चात्ता हूं ?”
“बाप, मतलब समझो ।”
“की मतलब समझां ?”
“जो मेरे को मालूम, उसके अलावा क्यों मिलना मांगता है ?”
“उसदे अलावा होर कोई वजह नईं । बस, ऐहो ही वजह ए कि मैंने सोल तों अपनी खता बख्शवानी है, जान छुड़ानी है ।”
“बिरादरी भाइयों से पंगा करके ।”
“मुबारक अली !”
“सॉरी बोलता है, बाप । जुबान फिसल गयी ।”
“कोई गल्ल नईं । हो जात्ता है । अब बोल मैं सोल से कब मिल सकता हूं ।”
“ये बोलना मुहाल है, बाप । सोहल का फुल प्रोग्राम अभी मेरे को किधर मालूम ?”
“तां फेर ?”
“वो तेरे को मिलेंगा ?”
“मेरे पास आयेगा ?”
“हां । फुरसत निकाल के । आज ही शाम । किसी भी टेम आयेगा पण आयेगा ।”
“किधर ?”
“जिधर तू है, बाप । पता बोल ।”
पवित्तर सिंह हिचकिचाया ।
“लाइन पर है न, बाप ?”
“हां ।”
“तो बोलता काहे नहीं ?”
“मुबारक अली, पता बोलता हूं पर ओ किसी को ट्रांसफर न करना ।”
“करेंगा न, बाप । सोहल को करेंगा । तभी तो पूछता है ।”
“सोल दे अलावा ।”
“और किस को करेंगा ? क्यों करेंगा ? नहीं करेंगा ।”
“वादा है न तेरा ?”
“हां । पक्का । अब पता बोल, बाप ।”
किसी अज्ञात भावना से प्रेरित पवित्तर सिंह एक बार फिर अटका लेकिन फिर आखिरकार उसने पता बोला ।
“थैंक्यू ।”
लाइन कट गयी ।
***
होटल कंचन की चौथी मंजिल के जो दो कमरे पुलिस पार्टी और उनके सरकारी गवाह के हवाले थे वो भीतर से आपस में कनैक्टिड थे, उनमें से एक बैडरूम की तरह सुसज्जित था और दूसरा बैठक की तरह । बैडरूम के प्रवेशद्वार को भीतर से बन्द करके उस पर स्थायी रूप से ताला लगा दिया गया था, वहां आवाजाही के लिये बैठक वाला दरवाजा इस्तेमाल किया जाता था और उसे भी अमूमन भीतर से बन्द ही रखा जाता था । बैडरूम गवाह अरुण खोपड़े के लिये था जो कि सुबह दोपहर शाम रात कभी भी वहां आराम फरमाता था, टी.वी. देखता था, लम्बी तान कर सोता था और सरकारी मेहमाननवाजी का भरपूर फायदा और लुत्फ उठाता था । पुलिसिये क्योंकि ड्यूटी पर होते थे इसलिये उन्हें बैठक में बैठना पड़ता था । वो चाहते तो बारी बारी सोफे पर या फर्श पर सो सकते थे और वो ऐसा करते भी थे । वैसे टाइम पास के लिये जो उनका पसन्दीदा शगल था, वो रमी थी जिसमें कि अरुण खोपड़े भी शरीक होता था लेकिन दिल से नहीं क्योंकि जल्दी ही वो ताश से बोर हो जाता था ।
पूरे पांच बजे अहिरे वहां पहुंचा ।
उसके जोड़ीदार हवलदार हरीश डोलस और अभय जोशी पहले वहां पहुंच चुके थे इसलिये दिन की शिफ्ट वाली टीम छुट्टी करके वहां से जा चुकी थी । उस घड़ी दोनों बैठक में मौजूद थे ।
उसने जाकर बैडरूम में झांका ।
बैडरूम में अन्धेरा था क्योंकि खिड़कियां बन्द थीं, उन पर पर्दे खिंचे हुए थे और भीतर कोई रोशनी नहीं जल रही थी ।
बड़ी कठिनाई से खोपड़े उसे पलंग पर पसरा पड़ा दिखाई दिया ।
“कैसा है खोपड़े ?” - वो बोला ।
“बढिया ।” - जवाब मिला ।
“कुछ मांगता है ?”
“हां । इस जेल से निजात मांगता है ।”
“हा हा हा । साला जिधर ऐश करता है, उसको जेल बोलता है । कभी जेल देखा नहीं न !”
खोपड़े खामोश रहा ।
“बैठक में आ जा ।” - अहिरे बोला ।
“इधरीच ठीक है ।”
“मर्जी तेरी ।”
उसने बीच का दरवाजा बन्द किया और अपने साथियों के पास पहुंचा ।
पांच पैसा प्वाइंट वाली रमी का खेल शुरू हुआ ।
खाने का वक्त होने तक उतने छोटे गेम में भी वो पौने दो सौ रुपये जीत चुका था । कोई और दिन होता तो उस जीत ने उसे बहुत तसल्ली दी होती लेकिन अब पौने दो सौ रुपये की रकम की उसके लिये क्या अहमियत थी !
“बढिया ।” - साथियों को दिखाने के लिये नोट गिनता वो बोला ।
“क्यो भई ?” - जोशी बोला - “पुलिस में भरती होने से पहले पेशेवर जुआरी तो नहीं थे ।”
अहिरे के दिल की धड़कन तेज हो गयी ।
ऐसे ही किसी मौके के तो वो इन्तजार में था जबकि एकाएक भड़क उठने का उसके पास कोई बहाना होता । वो बहाना जोशी ने उसे पेशेवर जुआरी कह कर जैसे प्लेट में सजा कर पेश किया था ।
“क्या बोला ?” - अहिरे आंखे निकालता बोला ।
“गड्डी के बीच से पत्ता खिसकाने का कमाल हर कोई तो नहीं कर सकता ।”
“किसने खिसकाया गड्डी के बीच से पत्ता ?”
“अब हारने वालों ने तो खिसकाया होगा नहीं ।”
“क्या मतलब है तेरा ? ये कहना चाहता है कि मैं बेइमानी से जीता हूं ।”
“क्या पता !”
“कल जब मैं हारा था, तब तो कुछ न बोला !”
जोशी परे देखने लगा ।
“जब मैं पत्ता खिसका रहा था तो हाथ क्यों नहीं पकड़ा मेरा ?”
“मैंने कब कहा कि तुमने पत्ता खिसकाया ?”
“और क्या कहा ?”
“मैंने कहा कि यूं पत्ता खिसकाना भी आर्ट होता है ।”
“जो कि मेरे को आता है !”
“मैंने बोला ऐसा ? मैंने नाम लिया तुम्हारा ? डोलस, मैंने नाम लिया अपने एस.आई. का ?”
“अब छोड़ो भी ।” - डोलस बोला ।
“क्या छोड़ो भी !” - अहिरे भुनभुनाया - “पहले जो जी में आया, इलजाम लगा दिया और फिर कह दिया, कुछ नहीं बोला । तमीज नहीं सालों को । इतना भी खयाल नहीं कि मैं इंचार्ज हूं, एस.आई. हूं, इंचार्ज से ऐसे पेश आते हैं ?”
“अरे, अहिरे साहब, अब खत्म भी करो ।”
“क्या खत्म भी करो । तुम लोगों के तो मुंह लगना गुनाह है....”
“इसीलिये खत्म करो ।”
“करीब बैठना भी गुनाह है ।” - वो यूं झटके से कुर्सी से उठा कि कुर्सी उलट गयी - “मैं खोपड़े के पास जा के बैठता हूं । तुम्हारे मनहूस थोबड़े तो दिखाई देने बन्द होंगे ।”
फर्श को रौंदता वो बीच के दरवाजे पर पहुंचा, जोर से धक्का देकर उसने दरवाजा खोला, भीतर दाखिल हुआ और फिर भड़ाक से अपने पीछे दरवाजा बन्द किया ।
पूर्ववत् पलंग पर परे खोपड़े ने आंख उठा कर उसकी तरफ देखा ।
अहिरे ने दरवाजे की चिटकनी चढाई ।
“क्या बात है ?” - खोपड़े बोला - “बाहर धमाल कैसा था ?”
जवाब देने की जगह अहिरे ने खोपड़े के पीछे खिड़की की तरफ देखा और नेत्र फैलाता हुआ बोला - “अरे ! ये क्या है ?”
तत्काल खोपड़े ने गर्दन घुमा कर खिड़की की तरफ देखा ।
अहिरे ने वर्दी की बैल्ट में लगे होलस्टर में से अपनी सर्विस रिवॉल्वर बाहर खींची, उसको घुमा कर नाल की तरफ से पकड़ा और उसके पक्के लोहे के दस्ते का ऐसा भरपूर वार खोपड़े के सिर पर किया कि उसे खोपड़ी चटकती साफ सुनाई दी । उसके फेफेड़ों में से सांस यूं छूटी जैसे गुब्बारे का मुंह खुल गया हो और उसमें से वेग से हवा निकली हो । वो औंधे मुंह पलंग पर गिरा । उसकी एक बांह पलंग से नीचे लटक गयी और सिर यूं लुढक गया जैसे धड़ के साथ न जुड़ा हो ।
अहिरे ने झुक कर उसकी गर्दन पर हाथ रखा और शाहरग को छुआ । उसे हल्का सा स्पंदन महसूस हुआ ।
क्या एक वार और ?
अब क्या जरूरत थी !
उसने उसकी बगलों में हाथ डालकर उसे पलंग से नीचे उतारा और उसे घसीटता हुआ खिड़की तक लाया । अचेत शरीर को खिड़की के साथ टिका कर उसने अपना एक हाथ फारिग किया और दूसरे से खिड़की खोली ।
चार मंजिल नीचे होटल का पिछला कम्पाउन्ड था जो कि नीमअन्धेरा था और उस घड़ी खाली था ।
उसने अचेत शरीर को खिड़की से ऊंचा करके चौखटे पर टिकाया और फिर उसे बाहर धकेल दिया ।
उसने खिड़की से सिर निकाल कर नीचे झांका तो ये देखकर उसकी जान हलक में आ अटकी कि शरीर एक मंजिल नीचे एक प्रोजेक्शन पर जा टिका था ।
लेकिन जल्दी ही हौले से वो वहां से सरका और धड़ाम की आवाज के साथ कम्पाउन्ड में जाकर गिरा ।
अहिरे की जान में जान आयी ।
अब उसका बच गया होना नामुमकिन था ।
वो खिड़की पर से हटा और वापस पलंग पर पहुंचा । एक झपट्टे के साथ उसने पलंग की दोनों चादरे खींची उनके सिरों को आपस में गांठ लगा कर जोड़ा, एक सिरा पलंग के खिड़की के करीबी पाये के साथ बान्धा और दूसरा खिड़की से बाहर लटका दिया ।
यूं चादर का दूसरा सिरा सिर्फ एक मंजिल नीचे तक पहुंच पाया ।
फिर वो दरवाजे के करीब पहुंचा, उसने निशब्द उसकी चिटकनी नीचे सरकाई, दरवाजे को तनिक खोला और फिर कदरन ऊंची आवाज में बोला - “खोपड़े ! अरे, क्या टायलेट में ही बैठा रहेगा ? जल्दी निकल, डिनर पहुंचने वाला है ।”
फिर उसने दरवाजे को पूरा खोल कर बाहर बैठक में कदम रखा और अपने पीछे दरवाजा भिड़काया । उसने बैठक में निगाह दौड़ाई तो पाया कि वहां केवल डोलस मौजूद था, जोशी प्रत्यक्षत: नीचे खाना लेने गया था ।
खाना लेने उन्हें खुद नीचे जाना पड़ता था क्योंकि वहां होटल स्टाफ की आवाजाही पूरी तरह से प्रतिबन्धित थी ।
“टायलेट में घुसा बैठा है अपना भीड़ू ।” - वो डोलस से बोला - “निकलता ही नहीं ।”
“निकल आयेगा ।” - डोलस लापरवाही से बोला ।
“इतनी देर भीतर घुसा बैठा क्या कर रहा होगा ?”
“वही कर रहा होगा” - डोलस हंसा - “जो तुम सोच रहे हो । अपना हाथ जगन्नाथ ।”
“ऐसा !” - अहिरे ने यूं नेत्र फैलाये जैसे डोलस के कहने से ही वो बोल उसे सूझी हो ।
“हां । जोशी के पीछे क्यों पड़ गये थे ?”
“हड़काता है साला । खामखाह ! जरा सा हार गया तो जो मुंह में आया, बोलने लगा । मैं पत्ते सरकाता हूं, मैं प्रोफेशनल गैम्बलर हूं । तुम कहोगे उसने साफ ऐसा नहीं कहा था पण हिन्ट तो दिया था । हिन्ट भी क्यों दिया ?”
“उसकी गलती थी ।”
“तुम मानते हो, वो तो नहीं मानता ।”
“वो भी मानता है । बोला, मजाक में कहा ।”
“तेरे को बोला वो ऐसा ?”
“हां ।”
“फिर तो वो अभी आता है तो मैं उसको सॉरी बोलता हूं । उसके पैसे भी लौटाता हूं ।”
“नहीं, नहीं । जो हारजीत हो गयी, वो हो गयी ।”
“तू ऐसा कहता है तो ठीक है ।”
अहिरे फिर बीच के दरवाजे पर पहुंचा, उसने दरवाजे को धक्का देकर थोड़ा खोला और उच्च स्वर में बोला - “अरे खोपड़े, इतनी देर में तो हाथ भी दुख जाता है, अब तो निकल ।”
“निकल आयेगा न !” - डोलस बोला - “क्यों हलकान हो रहे हो ?”
“बहुत देर हो गयी, यार । मैं... देखता हूं ।”
उसने दरवाजा पूरा खोला और भीतर झांका ।
“अरे !” - उसके मुंह से निकला ।
“क्या हुआ ?” - पीछे से डोलस की सशंक आवाज आयी ।
“जल्दी इधर आ ।”
वो कमरे में दाखिल हुआ ।
डोलस भी लपकता हुआ उसके करीब पहुंचा । उसने खुली खिड़की पर निगाह डाली, उससे बाहर लटकते और पलंग के पाये से बन्धे चादर के सिरे पर निगाह डाली तो उसके नेत्र फट पड़े ।
एक दूसरे से उलझते टकराते दोनों खिड़की पर पहुंचे, दोनों ने एक साथ खिड़की से बाहर गर्दन निकालीं और नीचे झांका ।
“देवा !” - डोलस के मुंह से निकला - “देवा !”
फिर उसने चादर को थामा और उसे वापिस खींचना शुरू किया ।
“खबरदार !” - अहिरे चेतावनीभरे स्वर में बोला - “किसी चीज को हाथ नहीं लगाने का है ।”
डोलस ने चादर छोड़ दी लेकिन वो अपलक कभी उसे और कभी कम्पाउन्ड को देखता रहा ।
“चादरों की रस्सी बना कर” - डोलस होंठों में बुदबुदाया - “वो नीचे तक कैसे पहुंच सकता था ?”
“नहीं पहुंच सकता था ।”
“तो ?”
“उस प्रोजेक्शन तक पहुंच सकता था । उस पर से वो निचली मंजिल के किसी कमरे में दाखिल हो सकता था ।”
“ओह !”
“हड़बड़ी में हाथ छूट गया । नीचे जा गिरा ।”
“मर गया होगा ?”
“और क्या चार मंजिल से गिरा कर बचा होगा ?”
“हमारे पर इलजाम आयेगा ?”
“क्या इलजाम आयेगा ? हमने धक्का दे दिया ?”
“लापरवाही से ड्यूटी की ।”
“भुगत लेंगे ।”
“अच्छा !”
“अरे, हमें कोई अन्देशा था कि वो ऐसा करेगा ?”
“नहीं । जरा भी नहीं । राजी से सरकारी गवाह बना था ।”
“जब बना था तो राजी था । बाद में डर गया । डर गया और भाग निकलने की सोचने लगा । नहीं ?”
“हां ।”
“तो फिर हिल यहां से । तू हैडक्वार्टर फोन लगा, मैं नीचे जा के देखता हूं । ठीक ?”
डोलस ने भारी मन से सहमति में सिर हिलाया ।
***
“भई वाह !” - झामनानी शर्माते सकुचाते युवक की पीठ थपथपाता हुआ बोला - “वडी तूने तो कमाल कर दिया नी । वडी मैं आंखें बन्द कर लेता तो मेरे को भी लगता कि तू नहीं, वो कर्मांमारा गंजा मुसलमान मुबारक अली बोल रहा था । वडी शाबाशी है नी तेरे को । काम बन गया तो देखना मैं तेरे को किधर से किधर पहुंचाता हूं ।”
जो युवक उस घड़ी शाबाशियों से नवाजा जा रहा था, उसका नाम पुखराज था । झामनानी के गैंग में शामिल होने से पहले वो स्टेज शोज करने वाली एक पार्टी में शामिल था और अपनी मिमिकरी आइटमों से दर्शकों का भरपूर मनोरंजन करता था । उसका आदर्श जानी लीवर था और जानी लीवर के अन्दाज में ही हर फिल्म स्टार के लहजे और मैनरिज्म की नकल करके वो दर्शकों को खूब हंसाता था ।
झामनानी को एकाएक ही उसकी याद आयी थी और ध्यान आया था कि मंगलवार को जब फार्म पर मुबारक अली लाउडस्पीकर पर उसके आदमियों को गुमराह कर रहा था तो उनमें पुखराज भी शामिल था ।
बजाज से उसने पुखराज की बाबत दरयाफ्त किया था तो पता चला था कि वो और श्याम किशोर लक्ष्मी और मुरली को रिलीव करके उनकी जगह तिराहा बैरम खान पर मुबारक अली की निगरानी की ड्यूटी भर रहे थे ।
झामनानी ने तत्काल आराकशां रोड के एक होटल के एक कमरे में जो कि उसका बहुत ही अस्थायी आवास था, पुखराज को तलब किया था ।
बजाज खुद पुखराज को लेकर वहां पहुंचा था ।
“पुखराज नाम है न नी तेरा ?” - झामनानी ने पूछा था ।
“हां, बॉस ।”
“वडी मेरे को मालूम है नी कि तू पहले स्टेज पर शो करता था लेकिन ये नहीं मालूम कि मिमिकरी की कला में तू कितना गुणी है । सुना है किसी के भी लहजे की नकल उतार लेता है !”
“हां, बॉस ।”
“वडी खाली फिल्म स्टार्स के लहजे की या किसी के भी लहजे की ?”
“किसी के भी लहजे की ।”
“भले ही लहजा एक बार सुना हो ?”
“हां, बॉस ।”
“वडी दिखा न कमाल ! अटल जी की नकल बात !”
“जया जी जो कर रही हैं” - पुखराज एकाएक यूं बोला कि झामनानी को उसकी शक्ल भी अटल जी जैसी लगने लगी - “चेन्नई में जो हुआ, हमारे सहयोगियों के साथ जैसे पेश आया गया, अच्छी बात नहीं है ।”
“बढिया । अब मेरी बता नी ।”
“आपकी नहीं, बॉस ।”
“वडी इजाजत है नी ।”
“वडी चड़या हो गया है नी” - पुखराज का स्वर एकाएक बदला - “वडी इजाजत दे दी तो गोद में बैठ के दाढी मूंडने लग गया नी । झामनानी की नकल उतारने को बोला तो झामनानी ही समझने लगा अपने आपको । झूलेलाल ! कैसा बदमाश छोकरा है ! वडी लक्ख दी लानत हई ।”
“शाबाश ! वडी पूरे नम्बरों से पास नी ।”
पुखराज शर्माया ।
“अब बोल मंगलवार का तुझे वो गंजा मुसलमान याद है जो लाउड स्पीकर पर बोल रहा था ?”
“लाउडस्पीकर पर दो जने बोल रहे थे ।”
“ठीक । लेकिन एक नौजवान था जो पढी लिखी जुबान बोल रहा था, दूसरा अनपढ टपोरी था और वैसी ही जुबान बोल रहा था । मैं दूसरे की बात कर रहा हूं । उसकी याद है तुझे ?”
“हां ।”
“उसके लहजे की ?”
“हां ।”
“वो अपने जोड़ीदार लाउड स्पीकर के मुकाबले में कम बोला था फिर भी ?”
“हां ।”
“उसके लहजे की नकल उतार लेगा ?”
जवाब में वो हां न बोला, एकाएक वो गूंजती आवाज में बोला - “झामनानी के कारिन्दो ! चमचो ! चाटुकारो ! हुक्मबरदारो ! मैं तुम्हारे साहब लोगों से नहीं, तुमसे मुखातिब हूं । बाहर निकलो और अपनी गैरत की नीलामी का नजारा करो । ये तुम्हारी जंग नहीं है, अहमको । इस जंग में तुम्हारी हारजीत नहीं होने वाली । इस जंग में जो जीतेगा, वो झामनानी जीतेगा । और इन पैंतालीस बेसहारा औरतों में से एक भी जिन्दा नहीं बचेगी ।”
“वडी कमाल किया नी ।” - झामनानी खुश होता हुआ बोला - “बल्कि करिश्मा किया । वडी क्या तेरा हुनर है और क्या तेरी याददाश्त है ! शाबाश !”
पुखराज फिर शर्माया ।
“अब सुन तूने कहां, किसको फोन लगाना है और इसी लहजे में क्या बात करनी है ।”
पुखराज ने सुना ।
और फिर जो सुना, उस पर पूरी कामयाबी से अमल करके दिखाया ।
झामनानी बाग बाग हो गया ।
न सिर्फ पुखराज के कमाल से बल्कि हासिल नतीजे से भी ।
“कमीना ! गोलीवजना !” - पवित्तर सिंह को कोसता झामनानी नफरत से बोला - “गद्दार ! बिलकुल ही निश्चय किये बैठा है दुश्मन के कदमों में जा के गिरने का । तभी मुबारक अली के पास जाता था ताकि वो उसके और सोहल के बीच में बिचौलिया बन सके । तभी मुम्बई दौड़ा जा रहा था सोहल के कदमों की धूल से सफेद दाढी रंगने । और बजाज !”
“यस, बॉस ।” - बजाज बोला ।
“गोली वज्जे तेरे लक्ष्मी को जिसे रेडीसन में पवित्तर सिंह के पहुंचने की खबर न लगी । अभी स्पीकर फोन पर तूने खुद पवित्तर सिंह को तसदीक करते सुना कि उसकी रेडीसन में मुबारक अली से लम्बी बातचीत हुई थी । वडी सुना कि नहीं सुना ?”
“सुना, बॉस ।”
“तो फिर नी ? अन्धा हुआ न तेरा लक्ष्मी ?”
“बॉस आदमियों का तोड़ा न होता तो गुद्दी पर एक हाथ जमाता और निकाल बाहर करता ।”
“वडी ठीक बोला नी । अभी चलने दे जैसा चलता है, बाद में सब की खबर लेंगे । इस घड़ी की बात कर ।”
“यस, बॉस ।”
“इस घड़ी इस काबिल पुटड़े की कोशिश से जो लक्ख रुपये की बात हमें मालूम हूई है वो ये है कि हमें पता है कि हमारा गद्दार जोड़ीदार कहां छुपा हुआ है ?”
“बी- 347, न्यू फ्रेंड्स कालोनी ।” - बजाज ने पता दोहराया ।
“हां । वडी अब तू जल्दी उसे श्मशान घाट का केस बना वरना वो जहाज से नहीं तो ट्रेन से मुम्बई भाग जायेगा । हमारे खिलाफ हमारे दुश्मन के हाथ मजबूत करने ।”
“मैं सब इन्तजाम करता हूं ।”
“अभी ।”
“अभी ।”
“जीता रह । ये कमरा मैं अभी छोड़ रहा हूं, आगे जो खबर करना, मोबाइल पर करना ।”
***
शोहाब और इरफान होटल सी-व्यू पहुंचे ।
दोनों ने विमल को अपनी रिपोर्ट पेश की ।
इरफान शरद भैय्या के पास भी नहीं फटक पाया था ।
शोहाब को अरुण खोपड़े के पास फटकना ही नहीं पड़ा था, वो खुद ही होटल की चौथी मंजिल से आम की तरह टपका था और उसके तत्काल बाद शोहाब परचुरे के साथ वापिस लौट आया था ।
“कोई बात नहीं ।” - विमल बोला - “काम बनेगा हमारा ।”
“कैसे ?” - इरफान बोला ।
“एक का अंजाम दूसरे के लिये सबक होगा, ऐसे ?”
“सबक ?”
“हैडमास्टर अभी पढाता है ।”
विमल ने फोन उठाया ।
“अगर 5229194 पर फोन लगाना मांगता है तो नतीजा कुछ नहीं निकलेगा । शरद भैय्या लाइन पर नहीं आता । मैं बहुत ट्राई किया ।”
“कोई तो फोन उठाता होगा ?”
“उठाता है न ! पुलिस वाला उठाता है ।”
“शरद भैय्या के घर में और कौन कौन हैं ?”
“बीवी है, तीन बच्चे हैं ।”
“बीवी का क्या नाम है ?”
“रुकमनी । और बच्चों के....”
“बीवी का ही काफी है फिलहाल ।”
विमल ने फोन पर 5229194 नम्बर लगाया । दूसरी ओर से पुरूष स्वर में जवाब मिला ।
“ताई को देना ।” - विमल अधिकारपूर्ण स्वर में बोला ।
“आप कौन ?” - पूछा गया ।
“उसका बड़ा भाई ।”
“होल्ड करो ।”
फिर एक स्त्री स्वर सुनाई दिया ।
“हल्लो ! आप....”
“आगे ‘कौन’ न कहना, बहनजी ।” - विमल तत्काल याचनापूर्ण स्वर में बोला - “वरना जो करीब खड़ा है, वो शक करेगा ।”
“लेकिन आप....”
“मैं कौन हूं, उसकी कोई अहमियत नहीं है, अहमियत उस बात की है जो मैं कहने जा रहा हूं ।”
“किस के लिये ?”
“आपके पति के लिये । उसके लिये इसलिये आपके लिये भी । आपके बच्चों के लिये भी ।”
“मैं सुन रही हूं ।”
“शुक्रिया । आप जानती ही होंगी कि आपके पति किसी के खिलाफ गवाह हैं और गवाही देने का उनका इरादा बहुत मजबूत है । वो मजबूती पुलिस की वजह से आयी है जो आपके घर में भी मौजूद है और जिनकी हरचन्द कोशिश शरद भैय्या को न मुकरने देने की होगी । आपको मालूम होगा कि ऐसा ही इरादा आपके पति के अरुण खोपड़े नाम के जोड़ीदार का था जो कि अभी थोड़ी देर पहले तक कल्याण के होटल कंचन में पुलिस प्रोटेक्शन में था ।”
“था ?”
“जी हां ।”
“अब नहीं है ?”
“नहीं है ।”
“क्यों ?”
“ऊपर पहुंच गया ।”
“कैसे ?”
“चौथे माले से छलांग लगा दी । कुछ न बचा ।”
“लगा दी ?”
“शायद आप ये पूछना चाहती हैं कि छलांग लगा दी या धकेल दिया गया ?”
“हां ।”
“बहन जी जब अहमियत मंजिल की हो तो इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि मुसाफिर किस रास्ते से गुजर कर अपनी मंजिल तक पहुंचा । या पहुंचाया गया ।”
“हूं ।”
“मौजूदा हालात में मेरी आपसे दरख्वास्त है कि आप चुपचाप किसी और टेलीफोन से होटल कंचन में कॉल लगायें और अरुण खोपड़े की तन्दुरुस्ती की बाबत दरयाफ्त करें । मैं आपको पांच मिनट में फिर फोन करूंगा, तब तक के लिये....”
“अभी ठहरो ।”
“जो... जो मैं दरफ्यात करूंगी उससे क्या होगा ?”
“सबक मिलेगा ।”
“क्या ?”
“ये कि मानव जीवन अमूल्य होता है, उसकी अपने लिये हिफाजत करना तो मानव का फर्ज होता ही है, उन लोगों के लिये हिफाजत करना भी फर्ज होता है जो कि उसके आश्रित होते हैं । आप पसन्द करेंगी कि आपके पति का खोपड़े जैसा अंजाम हो ? आप चाहेंगी कि आप विधवा हो जायें, आपके बच्चे यतीम हो जायें ?”
“ऐसा नहीं हो सकता । नहीं होने दिया जायेगा ।”
“आपका इशारा पुलिस प्रोटेक्शन की तरफ जान पड़ता है जो आपके पति को हासिल है ।”
“हां ।”
“ऐन वैसी ही प्रोटेक्शन कल्याण में खोपड़े को भी हासिल थी । किस काम आयी ?”
“उधर जो हुआ बोला, वो अभी पक्की किधर है ?”
“पक्की करो न, बहन जी । एक फोन ही तो लगाना होगा । वो भी नहीं होता तो कल का अखबार देखना । शरद भैय्या को भी दिखाना उसके कोर्ट के लिये रवाना होने से पहले । शायद गवाही की बाबत उसका खयाल बदल जाये ।”
“बदल जायेगा ।”
“कल्याण फोन लगाने से पहले ही कह रही हैं, बहन जी ?”
“हां ।”
“बड़े निर्णायक भाव से ?”
“हां ।”
“शरद भैय्या कहना मानेंगे आपका ?”
“मैं मना लूंगी ।”
“न मना पायीं तो ?”
“ऐसा नहीं होगा ।”
“बड़े यकीन से कह रही हैं ?”
“हां ।”
“फिर तो मैं नहीं समझता कि दोबारा फोन करने की कोई जरूरत है ।”
“कोई जरूरत नहीं है ।”
“सदा सुहागन रहो, बहन जी । मैं आपकी, आपके पति की, आपके बच्चों की लम्बी उम्र की दुआ करूंगा । नमस्ते ।”
उसने फोन वापिस रख दिया और हंसता हुआ बोला - “क्या ?”
“मना लेगी खाविन्द को गवाही न देने के लिये ?” - शोहाब सन्दिग्ध भाव से बोला ।
“हां । मुझे गारन्टी है ।”
“न मना पायी तो ?”
“तो हैदर की किस्मत । तो ‘भाई’ की किस्मत । तो हमारी किस्मत ।”
“खोपड़े भी शादीशुदा, बाल बच्चों वाला था, ये तरीका उस पर भी आजमाया होता ?”
“तब मिसाल कहां थी ? सबक कहां था जो एक के अंजाम से दूसरे को मिलना था ?”
“ठीक ।”
“बाप, एक बात है ।” - इरफान बोला ।
“क्या ?”
“तेरा बात करने का इस्टाइल अनोखा है । ऐसे धीरे धीरे हर बात फोन पर बाई को सरका रहा था जैसे जिन्दगी के ख्वाबों और मौत के अन्देशों की तिजारत न कर रहा हो, उसे ये समझा रहा हो कि उसे फायदा बटाटा आठ रुपये किलो खरीदने में था या सौ रुपये की बोरी खरीदने में था ।”
विमल हंसा ।
***
पवित्तर सिंह ने अपना तीसरा पैग खाली किया ।
“टहलसिंहा !” - उसने नौकर को आवाज लगायी ।
“हां जी ।” - बाहर कहीं से आवाज आयी ।
“ऐदर आ माड़ा जया ।”
“आया, मालको ।”
टहलसिंह बैडरूम के दरवाजे पर पहुंचा ।
“मैं जरा मार्केट तक जा रयां कुछ समान खरीदन ।”
टहलसिंह की निगाह स्वयंमेव ही वाल क्लॉक की ओर उठ गयी ।
“मेहमान आन वाला ए । ओदे लई कुछ खान पान दा समान घर होना चाईदा कि नईं होना चाइदा ए ?”
“होना चाइदा ए, मालको ।”
“ओहो ही करना जा रयां ।”
“मेहमान पीछे से आ गया तां ?”
“तां ओनू जी आयां नू करके बिठाईं इज्जत नाल बैठक च । मैं गया ते आया ।”
“जाओगे कैसे, मालको ?”
“स्टैण्ड पर फोन करके टैक्सी बुलाई ए ।”
तभी बाहर हॉर्न बजा ।
“आ गयी जापदी ए, जी ।” - टहलसिंह बोला ।
“आहो ।”
पवित्तर सिंह बाहर निकला ।
टैक्सी बाहर सड़क पर खड़ी थी ।
वो जाकर टैक्सी में सवार हो गया ।
तभी पीछे से एक मारुति वैन वहां पहुंची ।
वैन सफेद रंग की थी और उसके दायें बायें दोनों पहलुओं पर मोटे अक्षरों में लिखा हुआ था:
गति
एक्सप्रैस कूरियर्स
ट्वेन्टी फोर आवर्स सर्विस ।
वैन ऐन उसकी कोठी के सामने आकर रुकी तो पवित्तर सिंह को उसके अपनी ओर वाले पहलू पर से वो इबारत पढने को मिली ।
टैक्सी वाले ने इंजन स्टार्ट करके उसे गियर में डाला ।
“जरा रुक ।” - पवित्तर सिंह धीरे से बोला ।
ड्राइवर ने गियर न्यूट्रल पर कर दिया लेकिन इंजन ऑन रहने दिया ।
वैन की ड्राइविंग सीट की ओर का दरवाजा खुला और भूरे रंग की डिलीवरी ब्वायज जैसी वर्दी पहने एक युवक बाहर निकला । उसके हाथ में एक कागज था जिस पर दर्ज पता उसने सामने की कोठी के नम्बर से मिलाया । फिर उसने वैन के पीछे जाकर उसके पिछले दरवाजे का ताला खोल कर उसे ऊपर उठाया । उसने पीछे से कार्डबोर्ड का बना कोई डेढ फुट के घन के आकार का एक पार्सल उठाया, पार्सल को बगल में दबाया और कोठी की तरफ कदम बढाया, फिर एकाएक वो ठिठका, उसने टैक्सी की तरफ देखा जिसकी पिछली सीट पर एक सफेद खुली दाढी वाला सिख बैठा हुआ था । तत्काल कोठी का रुख छोड़ कर वो टैक्सी की तरफ बढा ।
पवित्तर सिंह के नेत्र सिकुड़े, उसने अपनी शलवार के नेफे में खुंसी रिवॉल्वर निकाल कर अपनी दायीं जांघ के नीचे दबा ली ।
डिलीवरी ब्वाय अभी टैक्सी से कोई बीस फुट दूर था ।
“क्या है ?” - पवित्तर सिंह उच्च स्वर में बोला ।
“पवित्तर सिंह के नाम का पार्सल है । कहीं आप ही तो नहीं ?”
“पता की लिखया ए ?”
“बी-347, न्यू फ्रेंड्स कालोनी ।” - फिर उसने जल्दी से जोड़ा - “लेकिन ये आल्टरनेट अड्रैस है । ओरीजिनल पता आजादपुर का है । मैं उधर गया था तो उधर ताला लगा पाया था । अब मैं डिलीवरी के लिये पार्सल पर लिखे पता नम्बर दो पर पहुंचा हूं ।”
“ओह ! कित्थों आया पार्सल ?”
तब तक डिलीवरी ब्वाय टैक्सी के बहुत करीब आ गया था । उसने अब पार्सल को बगल से निकाल कर दोनों हाथों में थाम लिया था ।
“पता नहीं, जी, मैंने सैंडर का....”
तभी पीछे कोठी का दरवाजा खुला और चौखट पर टहलसिंह प्रकट हुआ ।
“मालको ।” - वो उच्च स्वर में बोला - “तुहाडा मोबाइल पिच्छे रह गया । घन्टी वज रई ए ।”
उस अप्रत्याशित व्यवधान ने ही पवित्तर सिंह की जान बचाई । उस आवाज को सुनकर डिलीवरी ब्वाय आवाज की दिशा में घूमा तो पवित्तर सिंह को दिखाई दिया कि पार्सल का कार्डबोर्ड का डिब्बा उसकी छाती की तरफ से खुला था और उसका एक हाथ भीतर सरका हुआ था । फिर एकाएक उसने हाथ बाहर निकाला और पार्सल, जो कि खाली था, एक ओर उछाल दिया । उसके हाथ में एक रिवॉल्वर थी जिसका रुख टैक्सी की तरफ करके उसने अन्धाधुन्ध घोड़ा खींचना शुरु किया ।
लेकिन पवित्तर सिंह की रिवॉल्वर उसकी जांघ के नीचे से निकल कर पहले ही उसके हाथ में आ चुकी थी और वो फायर कर भी चुका था ।
उसकी चलाई गोली डिलीवरी ब्वाय की छाती में जाकर लगी । गोली के धक्के से उसका रिवॉल्वर वाला हाथ ऊंचा उठ गया, नतीजतन जो भी गोलियां वो चला पाया वो हवा में ही चलीं ।
फिर वो धड़ाम से धराशायी हुआ ।
पवित्तर सिंह टैक्सी से निकला, उसने एक सौ का नोट निकाल कर टैक्सी वाले की गोद में डाला और सख्ती से बोला - “फुट जा । तू कुज नईं वेख्या । कुज नईं सुनया । समझ गया ?”
टैक्सी वाले का एक बार सिर सहमति में हिला फिर टैक्सी तोप से छूटे गोले की तरह वहां से भागी ।
वो एक उजाड़ सा ब्लाक था जिसके एक ही तरफ इमारतें थीं और साफ लगता था कि किसी ने गोलियां चलने की आवाज की तरफ तवज्जों नहीं दी थी ।
टहलसिंह जिसे क्षण भर को सांप सूंघ गया था, चेता और कोठी के कम्पाउन्ड से बाहर को लपका ।
हाथ में रिवॉल्वर थामे पवित्तर सिंह धराशायी डिलीवरी ब्वाय के सिर पर पहुंचा, उसने रिवॉल्वर उसकी तरफ तान दी ।
दोनों हाथ छाती पर भींचे डिलीवरी ब्वाय ने बितर बितर उसकी तरफ देखा ।
“नां बोल ।” - पवित्तर सिंह कहरभरे स्वर में बोला ।
“पु... पु... पुख... पुखराज ।”
“मैनू मारन आया था ?”
“हं... हां ।”
“पवित्तर सिंह नूं ?”
“हां ।”
“किसने भेजा ?”
उसने जवाब न दिया ।
पवित्तर सिंह ने नीचे झुक कर रिवॉल्वर की नाल उसके माथे से सटा दी ।
“किस दा आदमी एं ?” - सांप की तरह फुंफकारता वो बोला - “सोल दा ?”
“न... नहीं ?” - वो बड़ी कठिनाई से बोल पाया ।
“तां किस दा ?”
“झामनानी का ।”
पवित्तर सिंह सन्न रह गया ।
उसका नशा तो उस लड़के के हाथ में रिवॉल्वर देख कर ही उतर गया था, झामनानी का नाम सुन कर तो रहा सहा नशा भी गायब हो गया ।
दाता !
उस घड़ी मुबारक अली से मोबाइल पर हुआ मुकम्मल डायलाग बिजली की तरह उसके जेहन में कौंधा । अब उसका दिमाग अलर्ट था तो उसे फौरन अहसास हुआ कि फोन करने वाला मुबारक अली नहीं हो सकता था, किसी ने मुबारक अली का विशिष्ट लहजा और अन्दाजेबयां नकल करके उससे बात की थी । अब उसे खूब याद आ रहा था कि वार्तालाप के दौरान मुबारक अली एक बार भी अपना तकिया कलाम ‘वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में’ जुबान पर नहीं लाया था ऊपर से उसने वार्तालाप के अन्त में बड़े पढे लिखे और कल्चर्ड शख्स की तरह कृतज्ञताज्ञापन में ‘थैंक्यू’ बोला था जबकि मुबारक अली थैंक्यू को ‘ठैंक्यू’ कहता था ।
वो फर्जी कॉल यकीनन उससे उसका मौजूदा, खुफिया, पता उगलवाने के लिये की गयी थी ।
तौबा ! और उसने उन्हें ये भी बता दिया कि वो अब सोमवार की ट्रेन से मुम्बई के लिये रवाना होने वाला था जहां उसने सोहल से मिलना था और अपनी खता बख्शवानी थी ।
तौबा ! तौबा !
कोई सोहल नहीं आने वाला था, कोई मुबारक अली नहीं बोला था, वो सब साजिश थी झामनानी की उसका खुफिया ठिकाना जानने की और फिर उसको खत्म कराने की ।
कुत्ती दा पुत्तर ! रण्डी दा तुख्म !
झामनानी को गालियां बकते और गुस्से से दान्त किटकिटाते उसने रिवॉल्वर का ट्रीगर खींच दिया ।
तत्काल जानी लीवर की जगह लेने के अभिलाषी महान मिमिकरी आर्टिस्ट पुखराज की आंखों से जीवन ज्योति बुझ गयी ।
उसने उसके हाथ से निकली रिवॉल्वर उठा कर उसका मुआयना किया तो पाया कि अभी उसमें तीन गोलियां बाकी थीं ।
अपनी रिवॉल्वर के साथ उसने वो रिवॉल्वर भी अपनी शलवार के नेफे में खोंस ली ।
वो सीधा । हुआ तो उसने टहलसिंह को अपने करीब खड़ा पाया ।
“सिर वल्लों फड़ माईंयवे नूं” - पवित्तर सिंह बोला - “वैन च लदना ए ।”
दोनों ने मिल कर लाश को वैन के तब भी खुले पिछल भाग में धकेला । वैन में और भी कार्डबोर्ड के कार्टन मौजूद थे ताकि वो सच में ही गति की डिलीवरी वैन लगती । उन्होंने लाश को कार्डबोर्ड के कार्टनों के नीचे दफना दिया, फिर पवित्तर सिंह ने पिछला दरवाजा बन्द कर दिया और ताले में से चाबी खींच ली ।
“तू जा वापिस कोठी च ।” - ड्राइविंग सीट की ओर बढता वो बोला ।
“मालको !” - टहलसिंह सशंक भाव से बोला ।
“मेहमान कोई नईं आन वाला । खेचल खत्म । अन्दर जा के चैन नाल बैठ ।”
“पर तुसी...”
“मैनूं जो होना सी, नईं होया । मुसीबत टल गयी । ओ कट्ठी दो वार नहीं आती । जा हुन ।”
भारी कदमों से टहलसिंह कोठी की तरफ वापिस लौट पड़ा ।
पवित्तर सिंह वैन की ड्राइविंग सीट पर जा बैठा । उसने पूरी रफ्तार से वैन को करोलबाग की तरफ दौड़ा दिया ।
वो करोलबाग पहुंचा तो उसने देखा कि मार्केट बन्द हो चुकी थी, सिर्फ झामनानी के ऑफिस में तब भी रोशनी थी । उसका शटर उठा हुआ था और उससे आगे का शीशे का दरवाजा - और वैसी ही फैंसी प्लेन ग्लास की खिड़की - रोशन था ।
पवित्तर सिंह ने वैन को यूं घुमाया की उसकी पीठ ऑफिस की तरफ हो गयी । फिर उसने वैन को बैक गियर में डाला और पूरी शक्ति से एक्सीलेटर दबाया ।
वैन तेज रफ्तार से शीशे के दरवाजे और खिड़की से टकराई और उन्हें तोड़ती हुई भीतर घुस गयी ।
वैन के टकराने की और शीशे टूटने की इतनी जो की आवाज हुई कि पुखराज के गुडन्यूज के साथ लौट के आने का इन्तजार करते मुकेश बजाज को यूं लगा जैसे प्रलय आ गयी थी । अनजानी दहशत में उसके प्राण कांप गये । फिर किसी तरह वो सम्भला, उठा और बाहर निकला ।
तब तक पवित्तर सिंह वैन से निकल आया था और पहाड़ की तरह उसके पहलू में खड़ा था ।
उसने मकतूल वाली रिवॉल्वर निकाल कर बजाज की तरफ तानी ।
बजाज सकते में आ गया ।
“कित्थे माईंयवा ?” - वो कड़क कर बोला ।
“क... कौन ?” - बजाज हकलाता सा बोला ।
“माईंयवा ! पुछदा ए कौन ? जैसे मलूम नईं । लाश रिसीव कर ।”
“ल... लाश !”
“ते अपने प्यो नूं कहीं पवित्तर सिंह आया सी ।”
उसने रिवॉल्वर की तीनों गोलियां बजाज के सिर के ऊपर दागीं और खाली रिवॉल्वर उसकी तरफ उछाल दी ।
फिर वो घूमा और जमीन को रौंदता सा चलता वहां से रुख्सत हो गया ।
पीछे बजाज को ऐसी हालत में छोड़ कर जैसे वो खड़ा खड़ा ही मर गया हो ।
पवित्तर सिंह गुस्से में काफी चल चुका तो उसको अहसास हुआ कि वो नाहक टांगें तोड़ रहा था उसने जेब से मोबाइल निकाला और उस पर झामनानी का मोबाइल नम्बर लगाया ।
तत्काल उत्तर मिला ।
“सरदार साईं !” - उसे झामनानी का सशंक स्वर सुनाई दिया ।
“ओये कुत्ती दया पुतरा !” - पवित्तर सिंह उसकी आवाज से ही फिर भड़क गया - “तेरी मां दी ! तेरी बहन दी !”
“वडी क्या हुआ नी ?”
“ओये माईंयवया, तैनू खुद नईं पता क्या हुआ ?”
“कुछ बतायेगा तो पता लगेगा न ?”
“भूतनीदया, मैनूं नईं पता तू कहां है लेकिन तैनूं पता है मैं कहां हूं ! अब वहीं खुद पौंच जहां अपना बन्दा भेजा था या अपना पता बोल, फेर मैं आकर बताता हूं कि क्या हुआ ?”
दूसरी ओर से जवाब न मिला ।
“हुन सप्प सुंघ गया ? या बेबे मर गयी ?”
जवाब न मिला ।
“ओये बोलदा क्यों नईं, कंजरा ?
पता नहीं कितनी देर पवित्तर सिंह यूं ही बकता झकता रहा ।
झामनानी के मोबाईल बन्द करते ही उस पर फिर घन्टी बजी ।
“बॉस” - उसे बजाज की आवाज सुनाई दी - “बजाज बोल रहा हूं । वो पवित्तर सिंह...”
“उधर पहुंच गया?”
“हां और बहुत हंगामा करके गया । पुखराज की लाश भी...”
“वो सब मैं बाद में सुनूंगा नी, पहले मेरी सुन ।”
“बोलो, बॉस ।”
“सारे आदमी इकट्ठे कर । सब को हथियारबन्द कर और उन्हें लेकर न्यू फ्रेंड्स कालोनी पहुंच । मैं भी पहुंचता हूं ।”
“आप भी !”
“वडी हां नी । देखता हूं झामनानी को मां बहन की गालियां देकर सरदार साईं कैसे जिन्दा रहता है !”
झामनानी न देख सका ।
पूरी दीदादिलेरी से पवित्तर सिंह की लाश गिराने की उसकी तमाम तैंयारियां जाया गयीं । पवित्तर सिंह पहले ही कोठी खाली कर गया था और उसी रात को बिना रिजर्वेशन के मुम्बई की ट्रेन पर सवार हो गया था ।
***
सोमवार : बाईस मई : मुम्बई
ठीक दस बजे डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट की कोर्ट में हैदर के केस की सुनवाई शुरू हुई तो पहले तो इसी बात पर मैजिस्ट्रेट की भवें उठीं कि उसके पिछले शनिवार के आदेश के अनुसार पुलिस दोनों गवाहों को अदालत में नहीं पेश कर सकी थी क्योंकि एक गवाह की पिछले रोज कल्याण में बड़ी रहस्यपूर्ण परिस्थितियों में मौत हो गयी थी ।
दूसरा गवाह !
अदालत में हाजिर था ।
शरद भैय्या अदालत में पेश हुआ ।
उसके बोलते ही पुलिस के वकील की बोलती बन्द हो गयी ।
उसने गीता पर हाथ रख कर कसम खाने के बाद कहा कि पुलिस ने उसका हल्फिया बयान उससे मारपीट करके, डरा धमका के, जबरदस्ती हासिल किया था । असल में उसने अभियुक्त को कोकीन की, या कैसी भी, कोई पुड़िया फेंकते नहीं देखा था । न ही वो अभियुक्त का साथी था वो तो फिल्म का ईवनिंग शो देख कर घर लौट रहा था पुलिस ने उसे धर दबोचा था और अभियुक्त के खिलाफ - जिसे कि वो जानता तक नहीं था - गवाह बनने पर मजबूर किया था ।
हैदर के खिलाफ पुलिस का केस धराशायी हो गया ।
हैदर का दो हफ्ते का रिमांड बड़ी आसानी से हासिल हो जाने की - और फिर नारकाटिक्स स्मगलरों का कोई बड़ा गैंग पकड़ने की - आस लगाये बैठी पुलिस को अपने कन्डक्ट की सफाई देना भारी पड़ने लगा । पुलिस के वकील ने पुरजोर पैरवी की कि किसी दबाव के तहत गवाह मुकर गया था लेकिन पुलिस के तौर तरीकों से बाखूबी वाकिफ मैजिस्ट्रेट उसे खातिर में न लाया ।
उसने जमानत पर हैदर की रिहाई का आदेश जारी कर दिया ।
शाम को इनायत दफेदार ने ‘भाई’ को फोन लगाया ।
“हैदर की खबर करने के लिये फोन किया, बाप ।” - वो बोला ।
“क्या हुआ ?” - पूछा गया ।
“छूट गया ?”
“इतनी देर क्यों लगी ?”
“लग जाती है, बाप जमानत की कार्यवाही होनी होती है । मैजिस्ट्रेट के आर्डर की कापी निकलवानी होती है । फिर पुलिस वाले भी देर लगाते हैं जानबूझ कर, ताकि जमानती चार पैसे झाड़े । हैदर को छोड़ने में तो खास लगायी क्योंकि गवाह के मुकर जाने से अदालत में उनकी किरकिरी हुई, रिमांड न मिला ।”
“अब क्या पोजीशन है ?”
“जेकब सर्कल के लॉकअप से बाहर आते ही उसे काबू में कर लिया गया था ।”
“सोहल के ही आदमी होंगे ?”
“और कौन होंगे, बाप ? जिन्होंने छुड़वाने का इन्तजाम किया वो ही तो पकड़ेंगे ।”
“काबू करके क्या किया ? कहां लेकर गये ?”
“होटल सी-व्यू ।”
“बढिया । हैदर को सब मालूम है न कि क्या कहना है, क्या कुबूलना है, क्या सरकाना है ?”
“सब, बाप । ऐन चौकस काम करेगा अपना हैदर ।”
“बढिया । साले समझते होंगे कि पुच पुच करके गवाह को बरगला लिया । नहीं जानते कि गवाह तो बरगलाया जाने को तैयर बैठा था ।”
“शरद भैय्या की बात कर रहे हो, बाप ?”
“और किस की ? वो तो साले यहीच समझ रहे होंगे कि अरुण खोपड़े के अंजाम से डरा कर उसे मुकरने के लिये पटा कर बड़ा तीर मारा ।
“पण, बाप, खोपड़े तो खामखाह जान से गया ?”
“मुझे उसका अफसोस है । मेरे को पक्की था कि उस तक भी गवाही से मुकरने का ही पैगाम पहुंचाया जायेगा लेकिन उसको तो लुढका ही दिया अल्लामारों ने । पण होता भी तो ऐसीच है । प्यादे ही पिटते हैं शतरंज के खेल में बादशाह को बचाने के लिये ।”
“बरोबर बोला, बाप ।”
“अब एक बात और सुन ।”
“बोलो, बाप ।”
“दिल्ली से झामनानी ने मुझे फोन लगाया था बोलता है उसका एक बिरादरीभाई पवित्तर सिंह गद्दारी पर उतर आया है । वो दिल्ली से गायब हो गया है और झामनानी को अन्देशा है कि वो सोहल की पनाह में मुम्बई पहुंचेगा । झामनानी चाहता है कि अगर ऐसा हो तो उसे इस बात की खबर हो ताकि वो खुद पवित्तर सिंह की लाश गिराने का कोई इन्तजाम कर सके ।”
“कैसे होयेंगा, बाप ? उसे अन्देशा ही तो है कि वो मुम्बई पहुंचेगा... क्योंकि उसकी जानकारी में सोहल मुम्बई में है । असल में तो उसने किधर का भी रुख किया हो सकता है । फिर भी इधर आना होगा तो वो हफ्ते बाद आ सकता है, महीने बाद आ सकता है । कैसे होयेंगा ?”
“मैं बोलता हूं कैसे होयेंगा ?”
“बोलो, बाप ।”
“इस काम पर तेरे को हलकान नहीं होने का है । वो चिरकुट करके एक भीड़ू है न ?”
“जो ब्रजवासी पहली बार मुम्बई आया था तो उसको दिया था ?”
“वही । तू उसको पकड़ और बोल कि पवित्तर सिंह की बाबत झामनानी क्या चाहता है ?”
“वो तो पवित्तर सिंह की लाश गिराना चाहता होगा !”
“यही चाहता होगा । बहरहाल आगे जो करना होगा, चिरकुट खुद करेगा ।”
“अकेला ?”
“अकेला कर सकता होगा तो अकेला करेगा, और भीड़ मांगता होगा तो खुद इन्तजाम करेगा । राजा साहब के अगवा के वास्ते भी तो इतने आदमियों का इन्तजाम उसी ने किया था ।”
“हासिल तो सिफर था न, बाप ! राजा साहब का तो कुछ भी न बिगड़ा, अपने तीन आदमी हलाक करवा लिये ।”
“क्या कहना चाहता है ?”
“बाप, पवित्तर सिंह के मुम्बई आने का हम भी तो फायदा उठा सकते हैं !”
“क्या ?”
“बाजरिया पवित्तर सिंह सोहल तक पहुंच सकते हैं ।”
“कैसे ?”
“अभी तो ये कहना मुहाल है । क्योंकि अभी तो यहीच पक्की नहीं कि वो मुम्बई आयेगा, आयेगा तो सोहल से मिलेगा ।”
“तो ?”
“बाप, मेरी हकीर राय ये है कि अपना एकाध आदमी चिरकुट के साथ जोड़ के रखने में कोई हर्ज नहीं है । वो क्या है, बाप, कि झामनानी के सामने इस वक्त जो अहम मसला है वो गद्दारी पर उतरे पवित्तर सिंह की लाश गिराना है जबकि हमेरे वास्ते ये कोई मसला नहीं । हमेरे वास्ते मसला सोहल है इसलिये....”
“मैं समझ गया । ठीक है, तू चिरकुट के वास्ते अपना कोई आदमी रिजर्व रख । किसे रखेगा ?”
“जेकब परदेसी है न ! भरोसे का भीड़ू है । काबिल है, हौसलामन्द है । दगड़ी चाल में किस सफाई से बिलाल का सफाया किया तुम्हेरे को मालूम ही है, बाप ।”
“ठीक है । पण वो तभी दख्लअन्दाज हो जबकि हमें कोई हमारा फायदा पहुंचने की गारन्टी दिखाई दे और हमारा फायदा, जैसे कि तू अभी बोला, खाली पवित्तर सिंह में नहीं है ।”
“बरोबर बोला, बाप ।”
“पवित्तर सिंह की बाबत जो करना होगा वो चिरकुट ही करेगा ।”
“न कर सका तो ?”
“तो दिल्ली वालों की किस्मत ।”
“मैं समझ गया ।”
“पण हमें पता लगता रहे कि पवित्तर सिंह ने मुम्बई आकर कुछ किया तो क्या किया ?”
“लगेंगा न, बाप । तभी तो अपना परदेसी जरूरी ।”
“ठीक है ।”
“कट करता है, बाप ।”
***
हैदर को विमल के सामने पेश किया गया ।
उसने अदब से विमल का अभिवादन किया ।
“आजादी मुबारक, हैदर ।” - विमल बोला ।
“थैंक्यू बोलता है, बाप ।” - हैदर एक क्षण खामोश रहा और फिर मन्त्रमुग्ध स्वर में बोला - “बाप, बहुत जिगरेवाला आदमी है ।”
“अच्छा !” - विमल बोला ।
“जेल में पहुंच गया ! ऐन पुलिस वालों की नाक के नीचे !”
“पहचान पड़ गयी थी ?”
“आखिर में जब तुम जाने से पहले है.. है.. हैदर बोला, बाप । तब गोली का माफिक मेरे को वो भीड़ू याद आया जो पिछले से पिछले इतवार को पास्कल के बारे के करीब के टेलीफोन बूथ में मेरे कान में रिवॉल्वर की नाल डाल कर बोला । ‘है.. है.. हैदर, अगर अभी था.. था.. हैदर नहीं बनना मांगता तो एक सैकंड में बोल क्या मांगता है’ ।”
“याददाश्त अच्छी है तेरी ।”
“और कभी कोई मेरे को है.. है.. हैदर नहीं बोला ।”
“गोया सूरत न पहचानी, अन्दाजेबयां पहचाना ?”
“आखिर में, बाप, आखिर में ।”
“जल्दी पहचान लेता तो क्या करता ? शोर मचा देता ? वहीं गिरफ्तार करा देता मेरे को ?”
“अरे नहीं, बाप । मैं ऐसा करता तो अन्दर ही बैठा होता ।”
“ओहो, तो लिहाज करता तो इसलिये करता क्योंकि ऐसा करने से तेरा खुद का काम होने से रह जाता ।”
“अरे नहीं, बाप । मेरी कोई औकात है तुम्हारे सामने ? मैं तो...”
“फट्टे मारना छोड़ ।” - इरफान उसका कन्धा थपथपाता बोला - “और मतलब की बात पर आ । टेम खोटी नहीं करने का है । क्या ?”
“बरोबर, बाप ।”
“बड़ा बाप अपने हिस्से का काम किया, तेरे को बाहर निकाला, अब तू अपने हिस्से का काम कर ।”
“हां ।” - विमल बोला - “बोल, किधर है ‘भाई’ ?”
जवाब में, जैसा कि उसे सिखाया पढाया गया था, हैदर ने विंस्टन प्वायंट के बंगले का सविस्तार वर्णन किया । बंगले की उस खास खूबी पर उसने विशेष जोर दिया कि उस तक कोई एकाएक नहीं पहुंच सकता था, कोई जबरन दाखिला हासिल कर भी लेता तो उसकी उस हरकत की खबर बंगले का रुख करने से भी पहले बंगले तक पहुंच जाती, फिर वो ऊपर पहुंचता तो या तो उसका काम हो जाता या उसे ‘भाई’ न मिलता ।
“अब ‘भाई’ वहां है ?” - विमल ने पूछा - “उस बंगले में ?”
“हां ।”
“कैसे मालूम ?”
“बाप, इधर उसके दो ही ठिकाने हैं । एक दहिशर के करीब बीच पर का कॉटेज और एक पनवल और नेराल के बीच विंस्टन प्वायंट का वो बंगला । वो कॉटेज में नहीं है इसलिये बंगले में है ।”
“इसलिये बंगले में है क्योंकि कॉटेज में नहीं है ?”
“हां ।”
“ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि वो दोनों ही जगह न हो ?”
“बाप, ऐसा होता तो मेरे को खबर होती ।”
“कौन करता ? खुद ‘भाई’ ? इतना करीबी है तू उसका ?”
“करीबी तो, बाप, मैं बराबर है ‘भाई’ का पण इनायत दफेदार जितना नहीं । मेरे को खबर दफेदार करता ।”
“कैसे करता ? तू तो अन्दर बन्द था ?”
“और क्यों करता ?” - शोहाब बोला - “तू बोलता है ‘भाई’ ने खुद तेरे को फंसाया ? फिर तू उसका करीबी कैसे रह गया ? फिर तू उसका भरोसे का आदमी कैसे बना रह सकता है ?”
वो गड़बड़ाया ।
“बाप” - फिर वो बोला - “कोई साजिश तो मेरे खिलाफ बरोबर हुआ, वो ‘भाई’ की वजह से हुआ, दफेदार की वजह से हुआ या काले चोर की वजह से हुआ, ये मेरे को नहीं मालूम । ‘भाई’ ने मेरे को छुड़वाने की कोशिश नहीं की इसलिये मैं भड़क कर सोचा कि वो लोग ही मेरे को फंसवाया, मेरी इस बात में लोचा हो सकता है लेकिन ‘भाई’ ने इधर ठिकानों के बारे में मैं जो बोला, उसमें कोई लोचा नहीं ।”
“ठिकाने दो किसलिये ?” - विमल बोला ।
“बाप, ‘भाई’ चोरी से इधर आता है इसलिये सेफ्टी का वास्ते ठिकाने दो क्या, दस बना सकता है ।”
“हूं ।”
“पण उसका असल और भरोसे वाला ठिकाना विंस्टन प्वायंट वाला बंगला ही है क्योंकि वहां कोई नहीं पहुंच सकता, पहुंच सकता है तो एकएक नहीं पहुंच सकता । बीच वाला कॉटेज तो वो तभी इस्तेमाल करता है जब उसने समुद्र के रास्ते दुबई या कराची खिसक जाना होता है ।”
“तू तीन दिन से अन्दर था इसलिये आउट ऑफ सर्कुलेशन था, तेरे को क्या मालूम कि ‘भाई’ पहले ही खिसक ही खिसक नहीं गया हुआ ?”
“अब क्या बोलेंगा, बाप !”
“यानी कि खिसक गया हो सकता है ?”
“होने को तो कुछ भी हो सकता है पण...”
“हां या न में जवाब दे । हो सकता है ?”
“हां ।”
“फिर तेरा क्या फायदा हुआ हमें ? तेरे पर नाहक हमने इतनी मेहनत और वक्त जाया किया ।”
“मैं पता कर सकता हूं ।”
“कैसे ? किससे ?”
“दफेदार से ।”
“जानता है वो कहां मिलता है ?”
“हां ।”
“कहां मिलता है ?”
“भिंडी बाजार मे एक ट्रैवल एजेन्सी है, वहां ।”
“वहां बैठता है वो ?”
“बैठता नहीं है । उधर खबर करो तो वो खुद कान्टैक्ट करता है ।”
“कोई पक्का ठिकाना भी तो होगा उसका ? जहां कि वो रात को जाकर सोता होगा ? सुबह उठकर नहाता धोता होगा ? कपड़े बदलता होगा ?”
“वो तो मेरे को नहीं मालूम ।”
विमल के चेहरे पर गहन असंतोष के भाव आये ।
“फिर तेरे को क्या मालूम है !” - वो बड़बड़ाया ।
“हैदर !” - इरफान एकाएक कर्कश स्वर में बोला - “इधर मेरी तरफ मुंडी घुमा ।”
हैदर ने सिहर कर उसकी तरफ देखा ।
“अभी तक तू जो बोला, बेकार बोला । मेरे को नहीं लगता तेरे को कुछ मालूम है । तूने ‘भाई’ के खाली दो ठीयों का नाम लिया जिनमें से एक पर तू कहता है कि वो होगा नहीं और दूसरे पर उसके होने की तेरे को कोई खबर नहीं है ।”
“मैं बोला तो” - हैदर याचनापूर्ण स्वर में बोला - “कि मैं दफेदार से मालूम कर सकता हूं कि वो किधर है !”
“पण दफेदार किधर है, वो तेरे को किधर मालूम ?”
“और खबरदार” - शोहाब बोला - “जो ट्रैवल एजेन्सी का नाम लिया ।”
हैदर कुछ क्षण सोचता रहा और फिर बोला - “परदेसी को मालूम हो सकता है ।”
“जेकब परदेसी को ?” - इरफान बोला ।
“हां ।”
“जो होटल धारावी के पांच नम्बर कमरे में रहता है ?”
हैदर के चेहरे पर हैरानी के भाव आये, फिर उसका सिर सहमति में हिला ।
“वो उधर नहीं है । अपने दगड़ी चाल वाले ठीये पर भी वो बुधवार के बाद से नहीं पहुंचा । अब बोल ।”
“फिर तो मैं एक ही बात बोल सकता हूं ।”
“क्या ?”
“मेरे को छोड़ दो । मैं कहीं न कहीं से मतलब की जानकारी निकालूंगा और फिर इधर लौट के आऊंगा ।”
“जरूर ही आयेगा ।”
“बाप, अल्लाह कसम मैं...”
“चुप कर । अल्लाह नाराज हो जायेगा ।”
हैदर ने होंठ भींचे ।
“हैदर” - विमल बोला - “तू अपने आपको ‘भाई’ का करीबी बताता है, उसका खास बताता है तो तुझे कुछ तो और मालूम होना चाहिये !”
“और क्या ?”
इरफान ने उसकी खोपड़ी पर एक चपत जमायी ।
“ये” - शोहाब बोला - “बड़ा बाप बतायेगा तेरे को ?”
“मैं” - हैदर बोला - “सोचता हूं ।”
“एक ही बार सोच जो सोचना है ।”
“अभी, बाप ।”
कई क्षण वो खामोश रहा ।
“एक बाई है ।” - आखिरकार वो बोला ।
“बाई !” - विमल की भवें उठीं ।
“‘भाई’ की खास । पहले फैशन माडल थी । फिर ‘भाई’ से फिट हो गयी तो माडलिंग छोड़ दी ।”
“नाम ?”
“यासमीन । कहते हैं ‘भाई’ ने उससे शादी बना ली हुई है । एक बच्चा भी है ।”
“कहां रहती है ? दुबई में ?”
“नहीं । पूना में । वहां कर्वे रोड पर मेपल हाइट्स करके एक मल्टीस्टोरी हाउसिंग कम्पलैक्स है । कहते है ‘भाई’ ने वहां उसको एक फ्लैट ले के दिया हुआ है ।”
“इस जानकारी का हमें क्या फायदा ?”
“‘भाई’ वहां जाता है । जाता है और रात को वहा ठहरता है ।”
“कब जाता है ?”
“जब भी इधर होता है ।”
“इधर किधर ?”
“मुम्बई में या आसपास ?”
“जैसे कि तेरे कहे मुताबिक वो आजकल है ?”
“हां । विंस्टन प्वायंट पूना से करीब है इसलिये कोई बड़ी बात नहीं कि वो हर रात वहां होता हो ।”
विमल ने इरफान और शोहाब की तरफ देखा ।
“तू मल्टी स्टोरी कम्पलैक्स बोला” - शोहाब बोला - “फिर तो वहां कई फ्लैट होंगे ?”
“हां ।” - हैदर बोला ।
“बाई के फ्लैट का माला बोल । नम्बर बोल ।”
“नौवां माला । फ्लैट नम्बर नौ सौ तीन ।”
“तेरे को इतनी बारीक जानकारी कैसे है ?”
“एक बार मैं और परदेसी बतौर बॉडीगार्ड उधर ‘भाई’ के साथ गये थे ।”
“वो उधर बॉडीगार्डस के साथ जाता है ?”
“वो किधर भी जाता है बॉडीगार्डस के साथ जाता है ।”
“दो के साथ ?”
“कम से कम । ‘भाई’ की मर्जी है । चार भी हो सकते हैं, छ: भी हो सकते हैं, दस भी हो सकते हैं ।”
“पण जब तेरी जानकारी में उधर गया, तब दो के साथ गया ?”
“हां । एक मैं, एक जेकब परदेसी ।”
शोहाब खामोश हो गया ।
“हैदर” - इरफान सख्ती से बोला - “जो तू बोला वो न काफी है और न तसल्लीबख्श है । फिर भी हम उसकी पड़ताल करते हैं । तब तक तू इधर ही तशरीफ रख ।”
“क्या बोला, बाप ?”
“इधर की मेहमाननवाजी का लुत्फ उठा ।”
“मैं... मैं कब इधर से आजाद होऊंगा ?”
“‘भाई’ की रूह के जिस्म से किनारा करते ही आजाद हो जायेगा ।”
“वो तो पता नहीं कब होगा ?”
“दुआ कर कि जल्दी हो ।”
“ये तो कोई पता न हुई । मैं जो जानता था, बोल दिया । अब मेरा इधर क्या काम ?”
“काम कोई नहीं । खाली मौज और सब कुछ फ्री ।”
“मेरा वो मतलब नहीं था ।”
“मेरा वोहीच मतलब था ।”
“पण....”
“अब चुप करता है या चुप कराऊं ?”
हैदर सहम कर चुप हो गया ।
“उठ के खड़ा हो ।”
हैदर उठा और इरफान के इशारे पर उसके साथ हो लिया ।
तब तक हर बात से आश्वस्त हैदर को अब एकाएक अपनी आजादी का ही नहीं, अपनी जिन्दगी का भी भरोसा नहीं रहा था ।
पीछे विमल कुछ क्षण विचारपूर्ण मुद्रा बनाये खामोश बैठा रहा और फिर बोला - “क्या खयाल है ?”
“खयाल जाहिर करूं या पहले कुछ और बोलूं ?” - शोहाब बोला ।
“और क्या ?”
“मेरे को अन्देशा था कि कहीं तुम हैदर को भी ‘फूट ले’ न बोल दो ।”
“क्या !”
“जैसे पिंटो को बोला ।”
विमल ने घूर कर उसे देखा ।
“खयाल” - शोहाब तत्काल बदले स्वर में बोला - “खयाल वही है जो इरफान जाहिर करके गया । दोनों जगहों की पड़ताल करनी होगी ।”
“कैसे ?”
“दोनों जगह दो टीम रवाना करते हैं । एक विंस्टन प्वायंट और दूसरी पूना ।”
“हैदर कह कर गया कि विंस्टन प्वायंट के बंगले के कोई करीब नहीं फटक सकता ।”
“देखेंगे । और नहीं तो ऐसे किसी बंगले का वजूद तो साबित होगा !”
“ये भी ठीक है ।”
“पूना वाला काम कदरन आसान है क्योंकि किसी हाउसिंग काम्पलैक्स में तो ऐसी पाबन्दियां मुमकिन नहीं ।”
“वहां से यही तो तसदीक होगी कि वहां मेपल हाइट्स के फ्लैट नम्बर नौ सौ तीन में कोई यासमीन नाम की एक्स फैशन माडल रहती है, ये कैसे पता चलेगा कि किसी किसी रात को कोई उससे मिलने आता है और जो मिलने आता है, वो ‘भाई’ है ?”
“बॉडीगार्ड्स के साथ कहीं पहुंचने वाला शख्स कभी किसी की निगाह में न आये, ये मुश्किल है । उसका लावलश्कर ही उसकी पोल खोलेगा ।”
“फर्ज करो कि सब कुछ स्थापित हो जाता है । फिर भी क्या हैदर झूठ बोलता हो सकता है ?”
शोहाब ने तत्काल उत्तर न दिया ।
“कहना मुहाल है ।” - आखिरकार वो बोला - “अभी इस लाइन पर तफ्तीश को जरा सरकने दो, उसके बाद दोबारा गौर करेंगे इस बात पर ।”
“ठीक ।”
***
रात आठ बजे पवित्तर सिंह को ट्रेन मुम्बई सैन्ट्रल स्टेशन पहुंची ।
रिजर्वेशन न होने की वजह से उसका सफर बड़ी दिक्कत से कटा था । कन्डक्टर ने उसे मथुरा स्टेशन पर उतार देने तक में कसर नहीं छोड़ी थी लेकिन फिर किराये के अतिरिक्त पांच सौ रुपये लेकर उसने उसे एक बैठने की सीट दी थी जिस पर उसने सफर का रात का हिस्सा सोते जागते ऊंघते काटा था ।
स्टेशन से बाहर आकर उसने एक पी.सी.ओ. होटल सी-व्यू में फोन लगाया ।
“होटल सी-व्यू ।” - तत्काल उसे आपरेटर का स्वर सुनायी दिया ।
“हल्लो !” - पवित्तर सिंह कायन बॉक्स में सिक्का डालता हुआ बोला ।
“बोलिये ।”
“सोल से मिलना है ?”
“किससे ? जरा ऊंचा बोलिये ।”
“सोल से बात करा बीबी ।”
“कौन सोल ?”
तब पवित्तर सिंह को अहसास हुआ कि वो गलत नाम ले रहा था ।
“राजा साब से गल्ल.... बात करनी ए ।”
“आप कौन ?”
“पवित्तर सिंह । दिल्ली से ।”
“किस विषय में बात करनी है ?”
“विषा पता ए राजा साब नूं । बीबी, मैं उन्हीं के बुलाये दिल्ली तों मुम्बई पोंचा हूं इस वास्ते...”
“होल्ड कीजिये ।”
जैसा कि तब तक दस्तूर स्थापित हो चुका था, आपरेटर ने कॉल इरफान को लगा दी ।
पवित्तर सिंह ने फिर से अपना परिचय दिया ।
“मुम्बई पहुंच गया, बाप !” - इरफान बोला ।
“मुबारक अली ने एहोई ही बोला था । अब मैं सोल से कैसे मिल सकता हूं ।”
“अभी नहीं मिल सकते ।”
“क्यों ?”
“बड़ा बाप अभी होटल में नहीं है । लौटेगा तो बोलूंगा ।”
“अब लौटेगा ?”
“पता नहीं ।”
“पता नईं ?”
“लौट के हो सकता है मुबारक अली से बात करे, इसमें भी टेम लगेगा ।”
“तां तक मैं की करां ?”
“अभी कहां से बोल रहे हो ?”
“रेलवे स्टेशन से । हुने तां गड्डी से उतरा हूं ।”
“किसी ढंग के होटल में पहुंचो । उधर से फिर फोन लगाना....”
“किसको ?”
“मेरे को । इरफान अली को ।”
“तू कौन एं ?”
“मैं बड़े बाप का खास हूं ।”
“बड़ा बाप ! राजा साब ? सोल ?”
“हां । फोन लगाना और होटल का नाम और कमरा नम्बर छोड़ना ।”
“ओये वीर मेरे, जहां सोल है, जहां मैंने फोन कीत्ता है, वो भी तो होटल है, मैं उधर पौंच जाता हूं ।”
“बड़ा बाप ये पसन्द नहीं करेगा ।”
“वजह ?”
“बोला न ।”
“तेरे को क्या मलूम तेरा साब क्या पसन्द करेगा, क्या पसन्द नईं करेगा ? मैं उधर आ के ठहरूंगा तो मेल में सहूलियत होगी ।”
“बाप, ये होटल तुम दिल्ली वालों की किस्म का नहीं है ।”
“मैं पैल्ले ही उधर पौंच जाता तो क्या होता ?”
“हाथ कंगन को आरसी क्या, बाप ! अभी पहुंच के देख लो ।”
“कमाल ए !”
“जो फैसला करना है, जल्दी करो । इधर पहुंच रहे हो या जैसा कहा है, वैसा करोगे ?”
“जैसा कहा है वैसा करूंगा ।”
“बढिया ।”
“वीर मेरे, फिर भी बता तो सई, मैनूं खुजली है या तपेदिक है जो मैं उधर आकर सोल से नईं मिल सकदा ?”
“ये हाई क्लास होटल है, इसका मालिक राजा साहब हाई क्लास है, वो इधर हाई क्लास लोगों से ही मिलता है ।”
“हाई क्लास लोग ! जो कि तेरी निगाह में पवित्तर सिंह नहीं है ?”
“अब क्या बोलेंगा, बाप ! जो बात तुम्हेरे को बेहतर मालूम, वो मेरे को क्यों पूछते हैं ?”
“अच्छा, भई । जो तेरा हुक्म । हुन ये तो बता कि हुक्म पर अमल हो जाने के बाद क्या होगा ?”
“मुलाकात होगी ।”
“कैसे ?”
“जैसे बड़ा बाप मुनासिब समझेगा । वो फोन लगा सकता है, खुद आ सकता है, तुम्हेरे को बुला सकता है ।”
“ठीक है । अद्दे घन्टे च फोन करता हूं ।”
“बढिया ।”
***
चिरकुट ने होटल नटराज के करीब के टैक्सी स्टैण्ड से दफेदार को फोन लगाया ।
“वो सरदार इधर पहुंच गया है ।” - वो फोन में बोला - “ट्रेन से आया । स्टेशन से सीधा इधर मेरीन ड्राइव होटल नटराज पहुंचा । पांच सौ पांच नम्बर में है । आगे क्या करने का है ?”
“उधर तेरे साथ कितने आदमी हैं ?”
“एकीच है । रघु ।”
“बाकी कहां गये ?”
“टेम पर हाथ नहीं आये । खाली रघु हाथ में आया ।”
“हूं । मैं ‘भाई’ से बात करता हूं, पांच मिनट में फिर फोन लगा ।”
“ठीक ।”
चिरकुट ने टैक्सी स्टैण्ड पर ही चहलकदमी करते पांच मिनट गुजारे और फिर फोन किया ।
“‘भाई’ बोलता है’ - दफेदार बोला - “कि दिल्ली वालों के मुताबिक मुम्बई पहुंचते ही उसे होटल सी-व्यू का रुख करना चाहिये था जहां कि राजा साहब पाया जाता है । उसने ऐसा नहीं किया तो इसका मतलब है कि कुआं प्यासे के पास आयेगा ।”
“क्या बोला, बाप ?”
“राजा साहब उधर आ सकता है ?”
“राजा साहब ?”
“सोहल । एक ही बात है ।”
“ओह !”
“मैं तेरे पास फौरन परदेसी को भेज रहा हूं, तब तक तेरे को चौकस रहने का है ।”
“वो तो मैं रहेंगा पण आगे क्या करने का है ?”
“परदेसी को मालूम । वो बोलेंगा । बरोबर ?”
“बरोबर ।”
विक्टर की टैक्सी मेरीन ड्राइव पर पहुंची और होटल नटराज की ओर बढी ।
टैक्सी में विक्टर की बगल में पैसेंजर सीट पर इरफान बैठा था और पीछे राजा साहब के बहुरूप में शोहाब और उनके सैक्रेट्री के बहुरूप में विमल मौजूद था ।
“बाप” - एकाएक पीछे गर्दन घुमा कर इरफान बोला - “एक बात अभी भी मेरी समझ से बाहर है ।”
“क्या ?” - विमल बोला ।
“हम क्यों उस सरदार से मिलने जा रहे हैं ? तूने उसको होटल क्यों नहीं बुलाया ?”
“क्योंकि मुझे अभी भी पूरी तरह से यकीन नहीं आया है कि सरदार पवित्तर सिंह अपने जोड़ीदारों से गद्दारी करके मेरी शरण में आना चाहता है । उसको गद्दार मशहूर करके मुम्बई रवाना करना मेरे दिल्ली वाले दुश्मनों की चाल हो सकती है मुझे एक्सपोज करने की । इसलिये जब तक उसकी नीयत पूरी तरह से हमारी समझ में न आ जाये हमारा उसे मेरे पास फटकने देना ठीक नहीं ।”
“दूर की कौड़ी है, बाप ।”
“मैं दिल्ली में उन लोगों के हुक्म के मुताबिक बतौर राजा साहब पेश हुआ था और उनकी आंखों के सामने राजा साहब सोहल बना था लिहाजा दिल्ली वालों से बेहतर कोई नहीं जानता कि सोहल ही राजा साहब है । मेरा जो एक्सपोजर दिल्ली में हुआ वो अब बाजरिया सरदार पवित्तर सिंह मुम्बई में हो, होटल सी-व्यू में हो, ये क्या ठीक होगा ?”
“नहीं होगा । मैं अब बरोबर समझा, बाप कि क्यों उसको अपने पास बुलाने की जगह तू उसके पास जा रहा है ।”
“गुड । मैं उससे तफसील से बात करूंगा । मुझे वो कोई छल कपट करता लगा तो वहीं अपने कमरे में मरा पड़ा होगा, वाकेई मेरी शरण मे आने का तमन्नाई लगा तो फिर हम कोई तरकीब सोचेंगे उसको उसके बाकी बचे दो बिरादरी भाइयों के खिलाफ इस्तेमाल करने की ।”
“उसके लिये तो दिल्ली जाना पड़ेगा ।”
“पड़ेगा ।”
“जायेगा ?”
“देखेंगे । शायद न भी जाना पड़े ।”
“वो कैसे ?”
“चार में से दो खुद-ब-खुद इधर चले आये कि नहीं ! हो सकता है बाकी दो के दिमाग में भी कोई कीड़ा कुलबुलाये और वो अपनी मौत को गले लगाने के लिये मुम्बई दौड़ चलें ।”
“सरदार का केस” - शोहाब बोला - “जेनुइन निकला तो सच में ही उसकी जानबख्शी कर दोगे ?”
“हां । शरणागत की जान लेना तो गलत है न, मेरे भाई ! झुकी गर्दन पर वार करने में क्या शूरवीरता है ! गिरे हुए को धक्का देने में क्या मर्दानगी है ?”
“बरोबर बोल, बाप ।” - इरफान बोला ।
शोहाब का सिर भी सहमति में हिला ।
टैक्सी होटल नटराज की मारकी में जाकर रुकी ।
हाथ में एक ब्रीफकेस थामे इरफान टैक्सी में से उतर गया ।
टैक्सी आगे बढ गयी ।
मंथर गति से चलती वो अर्धवृत्ताकार सड़क के सिरे पर पहुंची और फिर वापिस लौटी ।
उसके दोबारा मारकी में आकर खड़े होने तक दस मिनट गुजर चुके थे ।
विमल टैक्सी से बाहर निकला, उसने परली तरफ जाकर बड़े अदब से ‘राजा साहब’ के लिये दरवाजा खोला ।
शोहाब ने बाहर कदम रखा ।
विक्टर टैक्सी को आगे पार्किंग की तरफ बढा ले गया ।
दोनों शीशे का दरवाजा लांघ कर भीतर दाखिल हुए, उन्होंने लॉबी में मौजूद मल्टीकुजिन रेस्टोरेंट का रुख किया ।
रेस्टोरेंट में नीमअन्धेरा था और वो तीन चौथाई के करीब भरा हुआ था ।
एक स्टीवार्ड उन्हें एक टेबल पर लेकर आया ।
“दो शीवाज रीगाल ऑन रॉक्स फौरन ।” - विमल बोला - “बाकी बाद में बोलेंगे ।”
दो मिनट में ड्रिंक्स उनकी टेबल पर पहुंच गये ।
दोनों ने चियर्स बोला ।
विमल ने गिलास को मुंह भर लगाया और उसे मेज पर रख के उठ खड़ा हुआ । वो वापिस लॉबी में पहुंचा और फिर एक कोने में मौजूद टायलेट के करीब पहुंचा । भीतर दाखिल होने से पहले उसने घूम कर पीछे देखा तो अपने से कुछ गज परे एक पतले से युवक को ठिठकते पाया जो विमल की नजर उधर उठते ही तत्काल परे देखने लगा ।
विमल टायलेट में दाखिल हुआ ।
इरफान भीतर मौजूद था ।
टायलेट बहुत बड़ा था जो उस घड़ी खाली था । केवल दरवाजे के करीब स्टूल पर एक अटेंडेंट बैठा हुआ था । उसमें और विशाल वाल मिरर के सामने फिट सिंक्स के बीच में एक लकड़ी की स्क्रीन खड़ी थी । स्क्रीन से पार एक सिंक के सामने इरफान खड़ा था ।
विमल उसकी बगल में जा खड़ा हुआ, उसने सिंक का नलका चला दिया लेकिन पानी के नीचे हाथ करने का उपक्रम न किया ।
“ऊपर तो कोई नहीं है ।” - इरफान धीरे से बोला - “पण लॉबी में एक छोकरा दिखा जो कि एक तो इधर के माहौल में खपता नहीं जान पड़ता था...”
“पतला सा ! स्याह काले घुंघराले बाल ! सांवली रंगत ! सफेद कमीज ! हल्की नीली पतलून !”
“वही ।”
“टायलेट के बाहर खड़ा है ।”
“राजा साहब के सैक्रेट्री को पहचानता होगा ?”
“हो सकता है । तू कुछ और भी कहने जा रहा था ।”
“और ये कि मुझे उस छोकरे की शक्ल कुछ पहचानी - सी लगी थी । मेरे खयाल से वो नकली पुलिस वालों की उस टीम में था जो परसों तुझे कमिश्नर से मिलवाने कि लिये होटल से लेने आये थे ।”
“इसका मतलब तो ये हुआ कि दिल्ली वाले सरदार की यहां होटल में मौजूदगी कोई राज नहीं रही है ।”
“फिर तो हमने समझदारी की कि खबरदार हो के इधर पहुंचे ।”
“हां । लेकिन वो लोग पवित्तर सिंह की फिराक में तो हो नहीं सकते ।”
“क्यों ?”
“तू खुद तो बोला कि ऊपर कोई नहीं है ।”
“वो तो है । शायद राजा साहब के पीछे जायेंगे ।”
“राजा साहब तो रेस्टोरेंट से हिलने का नहीं है और उनका सैक्रेट्री अभी गायब हो रहा है ।”
विमल ने चश्मा, कान्टैक्ट लैंस, सामने के दो नकली दान्त, नाक में फंसी प्लास्टिक की गोलियां, फ्रेंचकट दाढी मूंछ, अधपके बालों वाला विग, सब उतारकर इरफान को थमा दिया ।
इरफान ने सब सामान ब्रीफकेस के हवाले किया और उसमें से एक सफेद कोट निकाला ।
विमल ने अपना काला कोट उतारकर उसे थमाया और उसकी जगह सफेद कोट पहन लिया ।
“मैं चला” - विमल बालों में कंघी फिराता हुआ बोला - “मेरे जाने के बहुत देर बाद उस घुंघराले बालों वाले छोकरे को सूझेगा कि राजा साहब का सैक्रेट्री भीतर कुछ ज्यादा ही देर लगा रहा था, तब वो वो शख्स हुआ जो तू उसे समझ रहा है तो वो भीतर झांकने जरूर आयेगा ।”
“मैं इधर ही है ।” - इरफान इत्मीनान से बोला - “आयेगा तो सम्भाल लूंगा ।”
विमल ने सशंक भाव से अटेंडेंट की तरफ देखा ।
“फिट कर लिया है ।” - इरफान एक आंख दबा कर बोला - “कुछ नहीं बोलेंगा । कुछ नहीं देखेंगा ।”
“बढिया ।”
“गन चौकस है न ?”
“हां ।” - विमल ने अपनी पतलून की बैल्ट में खुंसी छोटी नाल वाली बत्तीस कैलीबर की रिवॉल्वर को थपथपाया और फिर सिंक के सामने से हटा ।
वो टायलेट से बाहर निकला ।
घुंघराले बालों वाले छोकरे ने - जो कि रघु था - एक उड़ती निगाह उसकी तरफ डाली और फिर फौरन उसे नजर अन्दाज कर दिया ।
विमल लिफ्टों के सामने पहुंचा । एक लिफ्ट पर सवार होकर वो छटी मंजिल पर पहुंचा ।
उस मंजिल पर लिफ्ट में से दो व्यक्ति और निकले लेकिन वो उसके देखते देखते एक कमरे के दरवाजे का ताला खोल कर भीतर दाखिल हो गये ।
लिफ्ट भी तब तक उस फ्लोर से रुख्सत हो चुकी थी ।
सीढियों के रास्ते विमल एक मंजिल नीचे पहुंचा ।
वहां गलियारा खाली था ।
सहज भाव से चलता वो कमरा नम्बर पांच सौ पांच के बन्द दरवाजे पर पहुंचा । उसने हौले से दरवाजे पर दस्तक दी ।
“खुल्ला ए ।” - भीतर से आवाज आयी ।
विमल ने हैंडल घुमा कर दरवाजे को धक्का दिया तो दरवाजा चौखट से अलग हुआ । उसने पतलून की बैल्ट में से रिवॉल्वर निकाल कर हाथ में ली और वो हाथ कोट की जेब में डाल लिया । दूसरे हाथ से उसने दरवाजा पूरा खोला और भीतर कदम रखा । उसने सामने निगाह डाली ।
पवित्तर सिंह एक सोफाचेयर पर बैठा हुआ था, उसका दायां हाथ उसकी गोद में था और गोद में उसने एक तकिया रखा हुआ था । उसने एक सतर्क निगाह आगन्तुक की ओर डाली, उसे पहचाना और फिर तकिये के नीचे से हाथ खींच लिया ।
विमल ने अपने पीछे दरवाजे को पूर्ववत् बन्द किया और आगे बढता बोला - “सत् श्री अकाल ।”
“सत् श्री अकाल ।” - पवित्तर सिंह स्वागतपूर्ण स्वर में बोला - “जी आयां नूं । आ बैठ ।”
“शुक्रिया ।”
विमल उसके सामने सोफाचेयर पर बैठ गया ।
“तकिये के नीचे गन है” - विमल सहज भाव से बोला - “तो ये बहुत उम्दा मौका है उसे अपने घोर शत्रु पर इस्तेमाल करने का ।”
पवित्तर सिंह के चेहरे पर खिसियाहट के भाव आये, उसने तकिया परे किया, दूसरे हाथ में थमी रिवॉल्वर को पलंग पर रखा और तकिया उसके ऊपर रख दिया !
“माफी ।” - वो बोला ।
“कोई मुजायका नहीं ।”
“सारे दुश्मन । अजनबी शहर । सावधान तां रहना पड़ता है न !”
“आई अन्डरस्टैण्ड ।”
“अब तू भी तो जेब से हाथ निकाल ।”
“मेरे हाथ में” - उसने हाथ निकाल कर पवित्तर सिंह के सामने किया - “कुछ नहीं है ।”
“जेब विच तो होगा ?”
“तलाशी लेना चाहते हो ?”
“नहीं । नहीं ।”
“गुड । अब बोलो क्या चाहते हो ?”
“मुबारक अली ने बताया ही होगा ।”
“बताया था । तभी तो तुम्हारे सामने बैठा हूं । लेकिन मैं फिर सुनना चाहता हूं । तुम्हारी जुबानी ।”
“विस्की पियेगा ?”
“ये क्या सवाल हुआ ?”
“जानीवाकर ब्लू लेबल । होटल के बार में नहीं है । बाहर तों मंगायी । खास तेरे वास्ते । आती ही होगी ।”
“मेरे आने की कोई गारन्टी थी ?”
“नहीं । गरन्टी ते नईं सी ।”
“तो फिर ?”
“फिर क्या ! खुद पी लेता ।”
“अब जुबान को स्टार्ट विस्की से ही मुमकिन होगा ?”
“नहीं । बोलता हूं । वीर मेरे, तू गल्ल को यूं समझ कि मैंनूं अकल आ गयी ए । सवेरे दा भुल्लया शाम नूं घर आ गया है । मैनू पूरा पूरा अहसास ए कि मैं जो कीत्ता, गलत कीत्ता । बिरादरीभाइयों की बातों में आकर मैं पंगा लीत्ता ते अपनी जान सांसत में डाली । नये साल दी रात नूं जो वार्निंग तूने बिरादरी भाइयों को दित्ती सी, मैं उस ते पूरा अमल करन नूं तैयार सी पर झामनानी ने मेरी अक्ल खराब कर दित्ती, मैनूं गुमराह कीत्ता, और उसकी तरह मैं भी समझ बैठा कि मैं गुरां दे सिंह नूं मार सकदा सी ।”
“गुरां दा सिंह कौन ?”
“तूं, वीर मेरे, होर कौन ? दशमेश पिता दा मेहर भरया हत्थ तेरे सिर ते है....”
“वो हाथ पहले नहीं दिखाई दिया था ? झामनानी के फार्म में तो मैं तुम्हें चोर जान पड़ता था जिसे कि नींद नहीं आती, आशिक जान पड़ता था, जिसे भूख नहीं लगती ।”
“सब मेरी खतायें हैं, वड्डी खतायें हैं, वीर मेरे, तभी तो तेरे दरबार विच सिर नवाये, माफी दा तलबगार बनया खड़ा हूं । मैनूं यकीन ए कि तेरे वरगा सच्चा-सुच्चा बन्दा, मैनूं जरूर माफ करेगा ।”
“माफी तो मिल ही गयी है, गुरमुखो, वरना मैं तुम्हारे सामने न बैठा होता लेकिन माफी की वजह पश्चाताप नहीं, खौफ है । तुम्हारे केस में सुबह का भूला इसलिये घर नहीं आया क्योंकि उसे भूल का अहसास हो गया है बल्कि इसलिये घर आया है क्योंकि जिस रास्ते पर वो चल रहा था उसके सिरे पर उसे मौत खड़ी दिखाई देने लगी थी । कहने का मतलब ये है कि फरेबी बातें छोड़ो - नहीं छोड़ सकते तो कम से कम मेरे से न करो - वाहेगुरु वल्ल ध्यान करके मन निर्मल करो, आप भी सच्चे सुच्चे बनो और फिर मेरे से बात करो ।”
पवित्तर सिंह ने कुछ कहने के लिये मुंह खोला लेकिन फिर कुछ सोच कर होंठ भींच लिये ।
“पतीला केतली को ‘तू काली’ कहता नहीं सुहाता । मैं तुम्हारे में कोई नुक्स निकालूंगा तो वो पाट कालिंग दि कैटल ब्लैक वाली मसल होगी । मैं तुमसे बड़ा पापी हूं, मेरे गुनाहों की फेहरिस्त तुम्हारे से कहीं लम्बी है लेकिन मैंने अपने जाती फायदे के मद्देनजर कभी कोई गुनाह नहीं किया । मैं ड्रग्स का व्यापार नहीं करता, मैं ड्रग्स का व्यापार करने वालों की सोहबत नहीं करता, मैं ड्रग्स के व्यापारियों को अपना, कौम का और मुल्क का घोर शत्रु मानता हूं । मैं किसी की बहन बेटी नहीं उठाता । उग्रवादियों को असला नहीं सफ्लाई करता, सोने की स्मगलिंग नहीं करता, लोगों को बिना पासपोर्ट बार्डर नहीं क्रास कराता, बेसहारा, लाचार, सामने खड़े दुश्मन की खिल्ली नहीं उड़ाता, गिरे को नहीं गिराता, मरे को नहीं मारता । अपने काले कारनामों पर पर्दा डालने के लिये इलैक्शन नहीं लड़ता, नेता बनने की कोशिश नहीं करता ।”
“वीर मेरे” - वो दबे स्वर में बोला - “तू मेरे, सिर्फ मेरे, काले कारनामे गिना रहा है पर मेरा यकीन कर, सब छड दित्ते । हुन मेरे कदम गुनाह के रास्ते पर नहीं हैं ।”
“अठ सठ तीरथ नहाइये, उत्तरे नांहीं मैल ।”
पवित्तर सिंह का सिर झुक गया ।
उस नदामत से उसे दरवाजे पर पड़ी दस्तक ने बचाया ।
“खुल्ला ए ।” - वो उच्च स्वर में बोला ।
एक वर्दीधारी वेटर भीतर दाखिल हुआ । वो एक ट्रे उठाये था जिस पर जानीवाकर ब्लू लेबल का डिब्बा, दो गिलास, दो सोडे और काजुओं का एक कटोरा रखा था । वेटर ने करीब आकर ट्रे उन दोनों के बीच रखी, डिब्बा उठा कर उसमें से दूसरा डिब्बा निकाला, दूसरे डिब्बे में रेशमी कपड़े में जेवर की तरह सैट हुई हुई बोतल निकाली और उसे खोला । उसने गिलासों में विस्की डाली और सोडा खोल कर विस्की में मिलाया । फिर वो वहां से रूख्सत हो गया ।
“वीर मेरे” - पीछे पवित्तर सिंह बोला - “मैं बहुत शर्मिंन्दा हूं लेकिन तेरी शरण विच आया हूं । हुन तू बैर छड के शरणागत के साथ चियर्स बोलें तो तेरी बडियाई ए ।”
विमल ने एक गिलास उठा लिया ।
“न कोई बैरी न ही बिगाना सगल संगी हमको बनि आयी ।” - वो बोला - “चिसर्स ।”
पवित्तर सिंह ने बड़े जोश के साथ उससे गिलास टकराया ।
विमल ने उम्दा विस्की का एक घूंट पिया ।
“गुरमुखो” - फिर वो बोला - “एक मेरा साथी बनने के लिये बहुत साथ छोड़ने पड़ेंगे, बहुत मुलाहजे तोड़ने पड़ेंगे । कर सकोगे ?”
“जरूर । हुन तेरा हुक्म सदा सिर मत्थे । तू जो कहेंगा, करांगा ।”
“झामनानी और भोगीलाल गायब हैं, उनको ढुंढवाने में मदद कर सकोगे ?”
“पूरी पूरी । पैल्ले माईंयवा झामनानी । कुत्ती दे पुत्तर ने मेरा कत्ल करान दी कोशिश कीत्ती । वाहेगुरु ने बचाया वरना ओस कंजर दे तुख्म ने तां कोई कसर नहीं छड्डी सी ।”
“दोनों के सब ठिकाने जानते हो ?”
“हां । कोई इक्का दुक्का नहीं पता होवेगा तां उसदा वी पता कर लवांगा ।”
“गुड ।”
“हुन गिलास तां खाली कर ।”
विमल ने गिलास खाली करके सामने मेज पर रखा ।
पवित्तर सिंह अपना गिलास पहले ही खाली कर चुका था ।
उसने गिलास रख कर बोतल की तरफ हाथ बढाया तो हाथ जैसे रास्ते में ही फ्रीज हो गया । उसके चेहरे पर हैरानी के भाव आये । उसने विमल की तरफ देखा तो उसे छाती पर सिर डाले सोफाचेयर पर लुढका पाया । उसके नेत्र फैले, उसने उठने की कोशिश की लेकिन उठ न सका ।
फिर उसकी भी चेतना लुप्त हो गयी ।
***
पुलिस हैडक्वार्टर सेन्ट्रल कन्ट्रोल रूम में ‘100’ से सम्बद्ध कई फोनों में से एक फोन बजा तो उसके सामने बैठे हवलदार ने उसे उठा कर कान से लगाया ।
“हल्लो ।” - वो बोला - “पुलिस कन्ट्रोल रूम ।”
“बाप, मैं जो बोलेंगा, उसे गौर से सुनने का है ।” - दूसरी ओर से आवाज आयी - “होटल नटराज के कमरा नम्बर पांच सौ पांच में एक कत्ल हो गया है । कातिल अभी भी लाश के सिरहाने उस कमरे में मौजूद है । जल्दी करेंगा तो पकड़ाई में आ जायेंगा । कातिल सोहल हो सकता है ।”
“सोहल ! कौन सोहल ? वो जो....”
“लाइन कट चुकी थी ।
डी.सी.पी. डिडोलकर महज इत्तफाक से उस घड़ी कन्ट्रोल रूम में मौजूद था । सोहल के नाम पर उसके कान खड़े हुए । वो हवलदार के करीब पहुंचा और बोला - “कैसी काल थी ? सोहल का क्या जिक्र था ?”
हवलदार ने बताया ।
कत्ल की तफ्तीश सम्बद्ध थाने से होती थी लेकिन सोहल के नाम पर डिडोलकर ने खुद मेरीन ड्राइव का रुख किया ।
आखिर उसने अपने नये आका को खुश करना था ।
‘भाई’ से शाबाशी का शुकराना हासिल करना था ।
विमल को होश आया ।
उसने महसूस किया कि उसका सिर घूम रहा था और कनपटियों में खून बज रहा था । उसके कानों में किसी के बोलने की आवाज पड़ रहा था लेकिन वो कुछ समझ नहीं पा रहा था ।
उसने अपने सिर को जोर का झटका देकर स्थिर किया, आंखें मिचमिचाईं और सामने झांका ।
जो पहली चीज उसे दिखाई दी, वो फर्श पर लुढकी पड़ी पवित्तर सिंह की लाश थी । उसके पहलू में एक बत्तीस कैलीबर की छोटी नाल वाली रिवॉल्वर लुढकी पड़ी थी ।
तत्काल उसका हाथ अपने कोट की जेब पर पड़ा ।
रिवॉल्वर वहां नहीं थी ।
जो रिवॉल्वर लाश के करीब लुढकी पड़ी थी, वो यकीनन उसकी अपनी थी ।
क्या माजरा था ?
क्या वो इतना ज्यादा नशा कर बैठा था कि किसी बात से आन्दोलित होकर उस पर गोली चला बैठा था ।
उसने मेज पर निगाह डाली तो वहां पड़ी बोतल में विस्की का लैवल उसने उतना ही पाया जितना कि उसमें से दो पैग निकाल लिये जाने पर होना चाहिये था ।
बड़ी मुश्किल से वो उठ कर खड़ा हुआ, कुछ क्षण वो अपने पैरों के सहारे पैंडुलम की तरह झूलता रहा, फिर बड़े यत्न से उसने अपने शरीर को स्थिर किया । उसने आगे बढ कर लाश के पास लुढकी पड़ी रिवॉल्वर उठायी तो पायी कि उसके एक चैम्बर में गोली नहीं थी और नाल में से जले बारूद की स्पष्ट गंध आ रही थी ।
दाता !
क्या माजरा था !
तभी भड़ाक से कमरे का दरवाजा खुला और कोई कड़क कर बोला - “खबरदार ! रिवॉल्वर गिरा दो वरना शूट कर दिये जाओगे ।”
विमल ने दरवाजे की तरफ देखा तो भीतर एक वर्दीधारी डी.सी.पी. को दाखिल होता पाया ।
उसके पीछे एक वर्दीधारी सब-इन्सपेक्टर था । सब-इन्सपेक्टर के हाथ में रिवॉल्वर थी जिसका रुख विमल की तरफ था ।
विमल ने रिवॉल्वर अपनी उंगलियों में से निकल जाने दी ।
उसे बाहर गलियारे में कुछ सूरतें दिखाई दीं लेकिन उनमें उसकी जानी पहचानी सूरत कोई नहीं थी ।
सब-इन्सपेक्टर ने अपने पीछे दरवाजा बन्द कर दिया ।
फिर दोनों पुलिसिये - जो कि डिडोलकर और अठवले थे - आगे बढे और विमल के करीब आ खड़े हुए ।
डिडोलकर कई क्षण अनिश्चय के भाव लिये विमल की सूरत का मुआयना करता रहा लेकिन, उसे वो किधर से भी पुलिस के रिकार्ड में मौजूद सोहल की तसवीर से मिलता जुलता न लगा ।
प्लास्टिक सर्जरी !
लेकिन उस पर तो उसका एतबार कभी भी नहीं बना था ।
जरूर फोन पर किसी ने फट्टा मार दिया था ।
“सोहल !” - फिर भी वो कड़क कर बोला - “तुम गिरफ्तार हो ।”
“सोहल !” - उपने झूलते जिस्म और घूमते सिर को काबू करता विमल बोला - “वो कौन है ?”
“तुम हो और कौन है ?”
“मैं सोहल नहीं हूं, न मैं किसी सोहल को जानता हूं ।”
“कत्ल क्यों किया ?”
“मैंने नहीं किया ।”
“रिवॉल्वर तुम्हारे हाथ में थी ?”
“किसी ने थमा दी ।”
“किसने ?”
“पता नहीं ।”
“अनजान बन के तुम इतनी बड़ी वारदात की जिम्मेदारी से नहीं बच सकते ।”
“मैंने कोई वारदात नहीं की ।”
“ये आदमी कौन है ?”
“इसका नाम पवित्तर सिंह है, दिल्ली से आया है ।”
“तुम इसे कैसे जानते हो ?”
“दोस्त है । इसने मुझे यहां मिलने के लिये बुलाया था । मेहमाननवाजी में विस्की आफर की थी, विस्की में बेहोशी की दवा मिली थी जिससे दोनों बेहोश हो गये । फिर कोई यहां आया जिसने इसको गोली मारी और रिवॉल्वर मेरे हाथ में थमा गया ।”
“क्यों ? तुम्हारे से उसकी क्या अदावत थी ?”
“क्या मालूम ! उसका पता चले तो अदावत का पता चले न !”
“ऐसा कोई आदमी नहीं था । कत्ल तुमने किया है ।”
“मैंने नहीं किया । किसी ने साजिश रची जिसके मैं और मरने वाला दोनों शिकार हुए । किसी ने एक तीर से दो निशाने साधे, उसका कत्ल कर दिया और मुझे कत्ल में फंसाने का सामान कर दिया ।”
“किसने ? नाम लो किसी का ? अपना शक जाहिर करो किसी पर ?”
विमल खामोश रहा, उसका सिर अभी भी घूम रहा था और वो अभी भी पूरी तरह से सचेत नहीं हुआ था ।
“तुम हो कौन ?” - डिडोलकर ने नया सवाल किया ।
“मेरा नाम कौल है । अरविन्द कौल ।”
“इधर कहां रहते हो ?”
“कहीं नहीं । मैं भी दिल्ली से हूं ।”
“इसी होटल में ठहरे हुए हो ?”
“नहीं । ‘मराठा’ में ।”
“वो कहां है ?”
“कोलीवाड़े में ।”
“उधर का अपना कमरा नम्बर बोलो ।”
“‘मराठा’ में टॉप फ्लोर पर एक ही कमरा है, उसका नम्बर नहीं है ।”
“उधर फोन लगाने पर इस बात की तसदीक होगी कि तुम वहां के टॉप फ्लोर के कमरे में ठहरे हुए हो ?”
“क्यों नहीं होगी ? जरूर होगी । सीधे मालिक को फोन लगाकर देखो, सलाउद्दीन नाम है ।”
“देखेंगे । काम क्या करते हो ?”
“नौकरी ।”
“क्या नौकरी ? कम्पनी का नाम भी बोलो ।”
“एकाउन्टेंट की नौकरी । गैलेक्सी ट्रेडिंग कारपोरेशन में जो कि उधर दिल्ली में के.जी. मार्ग पर है ।”
“वहां फोन लगाये जाने पर तुम्हारी मुलाजमत की तसदीक होगी ?”
“नहीं ।”
डिडोलकर सकपकाया, फिर उसके चेहरे पर ऐसे संतोष के भाव आये जैसे मुलजिम के खिलाफ कोई क्लू पकड़ में आ गया हो ।
“क्यों ?” - वो विमल को घूरता हुआ बोला ।
“क्योंकि ‘कम्पनी’ के मालिक की मौत हो गयी है । अभी सिर्फ नौ दिन पहले । इसलिये ‘कम्पनी’ का ऑफिस बन्द है, क्रिया के बाद खुलेगा ।”
“तुम्हारा एम्पलायर मर गया, तुम दिल्ली में क्यों नहीं हो ?”
“पहले से टूर पर था । इधर ही मौत की खबर लगी । क्रिया से पहले दिल्ली पहुंच जाऊंगा ।”
“कैसे मरा ?”
“खबर नहीं । जा के पता चलेगा ।”
“तुम साबित कर सकते हो कि तुम दिल्ली की गैलेक्सी ट्रेडिंग कारपोरेशन के एकाउन्टेंट अरविन्द कौल हो ?”
जवाब देने से पहले गैलेक्सी के मालिक शिवशंकर शुक्ला की धीर गम्भीर सूरत उसके मानसपटल पर उभरी । उसके कानों में शुक्ला का स्वर गूंजा :
­‘मैं जानता हूं तुम मामूली आदमी नहीं हो । तुम्हारे में ऐसा कुछ है जो प्रत्यक्षतः किसी को दिखाई नहीं देता । तुम मेरे पास एकाउन्टेंट की मामूली नौकरी करते थे लेकिन मेरा दिल गवाही देता है कि तुम्हारी हस्ती एक मामूली एकाउन्टेंट से कहीं ऊंची है, तुम्हारी औकात किसी की भी औकात से कहीं बड़ी है । मुझे इस बात का यकीन नहीं कि तुम अरविन्द कौल नाम के कश्मीरी विस्थापित हो लेकिन असल में तुम क्या हो, मैं नहीं जानना चाहता । तुम कोई आम आदमी नहीं हो । हो ही नहीं सकते । ये सृष्टि बनाने वाला प्राणीमात्र के लिये जब किसी सद्कार्य की जरूरत महसूस करता है तो जरूरी नहीं होता कि वो खुद ही अवतरित हो । वो किसी को अपना प्रतिनिधि बना सकता है, किसी को अपनी पावर्स डेलीगेट कर सकता है । ऐसी आनर के लिये हो सकता है इस बार तुम्हें चुना गया हो । मुझे मुकम्मल एतबार है कि वो काम अच्छा ही होगा । जिसके होने में कि तुम निमित्त हो इसलिये मुझे तुम्हारी ये दरख्वास्त कुबूल है कि गैलेक्सी में तुम्हारी नौकरी बरकरार रहे, भले ही तुम कभी ऑफिस में कदम न रखो । तुम गैलेक्सी के मुलाजिम हो और रहोगे । इस बाबत जब भी, जहां से भी कोई सवाल होगा, यहां से यही जवाब मिलेगा जो तुम चाहते हो कि मिले ।”
“जवाब दो, भई ।” - डिडोलकर उतावले स्वर में बोला ।
“मेरे पास गैलेक्सी का आइडेन्टिटी कार्ड है ।” - विमल बोला ।
“दिखाओ ।”
विमल ने दिखाया ।
दिल्ली से जारी हुआ अरविन्द कौल के नाम का ड्राइविंग लाइसेंस भी दिखाया ।
वो दोनों चीजें देख कर डिडोलकर के चेहरे पर सख्त नाउम्मीदी के भाव उभरे ।
फिर उसने ‘मराठा’ में खुद फोन लगाया ।
नाउम्मीदी के भाव और गहरे हो गये ।
“मेरी राय में” - विमल बोला - “आपको विस्की की इस बोतल की भी जांच करानी चाहिये जिसमें कि शर्तिया बेहोशी की दवा मिला मिलेगी ।”
“मुमकिन है” - डिडोलकर बोला - “लेकिन इससे कुछ साबित नहीं होता ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि वो दवा विस्की में तुमने खुद मिलाई हो सकती है ।”
“मैं क्यों मिलाता ?”
“ताकि मकतूल बेहोश हो जाता और तुम आराम से उसे शूट कर पाते ।”
“लेकिन वो ही विस्की मैंने भी तो पी थी, मैं भी तो बेहोश हुआ था ।”
“तुम्हारी बेहोशी मुझे पाखण्ड जान पड़ती है । हम एकाएक यहां पहुंच गये थे इसलिये तुमने बेहोशी का नाटक रच लिया था, ताकि वो ही नाटक तुम्हारे हाथ में थमे मर्डर वैपन की सफाई भी बन पाता ।”
“ये झूठ है ।”
“यही सच है और मुझे इस पर एतबार है ।”
“आप एकाएक क्योंकर यहां पहुंच पाये ?”
“ये तुम्हें बताना जरूरी नहीं ।”
“क्यों जरूरी नहीं ? आपको क्या इलहाम हुआ था कि इधर कत्ल हुआ था ? और फिर कत्ल की तफ्तीश के लिये डी.सी.पी. कब से जाने लगा है ?”
“शटअप ।”
“मैं मांग करता हूं कि आप उस वेटर को बुलायें जो विस्की की बोतल लेकर आया था । आपकी जानकारी के लिये ये विस्की होटल के स्टाक की नहीं है, ये बाहर से मंगायी गयी थी । मुझे अब याद आ रहा है कि वेटर ने बिना किसी आदेश के विस्की की बोतल खोल दी थी और पैग बना दिये थे । उसने जरूर ऐसा इसलिये किया था ताकि हमें पता न चल पाता की बोतल की सील के साथ छेड़ाखानी की गयी थी । विस्की में बेहोशी की दवा मिलाने के लिये जरूर वो छेड़ाखानी या तो वेटर ने खुद की थी या वेटर ने किसी को करने दी थी । आप अभी उस वेटर को यहां तलब कीजिये ।”
“वेटर का बयान दर्ज कर लिया जायेगा । मैं उसे यहां बुलाना जरूरी नहीं समझता । अब बोलो, तुम अपना अपराध कुबूल करते हो या नहीं ?”
“कौन सा अपराध ? कैसा अपराध ? मैंने कोई अपराध नहीं किया ।”
“हर अपराधी यही कहता है ।”
“मुझे आपकी नीयत कत्ल की निष्पक्ष जांच करने की नहीं जान पड़ती ।”
“खबरदार ! जानते नहीं किससे बात कर रहे हो ?”
“जानता हूं इसीलिये आपकी नीयत पर शक हो रहा है ।”
डिडोलकर सकपकाया ।
“जानते हो ?” - उसकी भवें उठीं - “कैसे जानते हो ?”
“तमाम करप्ट पुलिसिये एक ही तरह के होते हैं, ऐसे जानता हूं ।”
डिडोलकर का चेहरा कानों तक लाल हो गया । उसने खींच कर एक घूंसा विमल के जबड़े पर जमाया तो पहले से ही हवा में पेड़ की तरह हिलता हुलता विमल पीछे पलंग पर जाकर गिरा । उसका एक हाथ धीरे से उस तकिये की तरफ सरक गया जिसके नीचे पवित्तर सिंह ने अपनी रिवॉल्वर रखी थी ।
आंखों में खून लिये डिडोलकर उसकी तरफ बढा ।
विमल की उंगलियां रिवॉल्वर की मूठ से टकराईं ।
“साले !” - दान्त पीसता डिडोलकर बोला - “अभी मिलता है सबक तुझे पुलिस के आला अफसर से जुबानदराजी का ।”
विमल की पकड़ मूठ पर मजबूत हुई । उसने एक सतर्क निगाह परे हाथ में रिवॉल्वर थामे सब-इन्स्पेक्टर पर डाली ।
“स्टैण्ड अप, डैम यू । खड़ा हो उठ के ।”
“होता हूं ।” - विमल हांफता सा बोला - “होता हूं ।”
एकाएक उसने तकिया एक ओर उछाला और रिवॉल्वर का रुख सब-इन्स्पेक्टर की तरफ करके फायर किया ।
सब-इन्सपेक्टर के हाथ से रिवॉल्वर निकल गयी । वो हक्का बक्का सा विमल की तरफ देखने लगा ।
डिडोलकर थमक कर खड़ा हो गया, उसके चेहरे पर सख्त हैरानी के भाव थे ।
विमल उठ कर अपने पैरों पर खड़ा हुआ ।
“हल्लो !” - वो विषभरे स्वर में बोला - “कैसे हैं डी.सी.पी. साहब ? कातिल को अभी गिरफ्तार करेंगे या थोड़ी देर बाद ?”
डिडोलकर के मुंह से बोल न फूटा, उसने बड़े नर्वस भाव से अपने एकाएक सूख गये होंठों पर जुबान फेरी ।
“लगता है थोड़ी देर बाद । क्योंकि हवास ठिकाने आने में थोड़ी देर तो लगेगी ही ।”
“तुम बच नहीं सकते ।”
“अच्छा !”
“हम जानते हैं तुम कौन हो ? तुम्हारे खुद के बताये जानते हैं ? हमें तुम्हारा ‘मराठा’ का लोकल पता मालूम है, हमें तुम्हारा दिल्ली का पता मालूम है, तुम्हारा गिरफ्तार हो जाना महज वक्त की बात होगी ।”
“तो आप जानते हैं मैं कौन हूं ?”
“हां ।”
“कौन हूं मैं ?”
“अरविन्द कौल । तुमने खुद ऐसा कहा ।”
“जो मैं कहूं उस पर आप यकीन कर लेते हैं तो अभी थोड़ी देर पहले सोहल सोहल क्यों भज रहे थे ? जबकि मैं कह रहा था मैं सोहल नहीं हूं । तो आप इस बात पर यकीन क्यों नहीं करते कि मैं कातिल नहीं हूं ?”
“तुम जो कोई भी हो, अपनी मौजूदा हरकत से खुद साबित कर रहे हो कि तुम्हीं कातिल हो ।”
“ऐसा ?”
“हां ।”
“फिर मुझे दो और कत्ल करने से क्या गुरेज होगा ?”
“द... दो और कत्ल !”
“एक आपका और एक आपके सब-इन्स्पेक्टर का ।”
“तुम्हारी मजाल नहीं हो सकती ।”
विमल ने रिवॉल्वर वाला हाथ ऊंचा किया ।
डिडोलकर ने जोर से थूक निगली ।
“क... क्या” - वो फंसे कण्ठ से बोला - “क्या चाहते हो ?”
“सबसे पहले अपने एस.आई. को हुक्म दीजिये कि मैं जो कहूं, उस पर अमल करे । कोई गड़बड़ की तो गोली ।”
“अठवले !” - डिडोलकर डोला ।
“यस, सर ।” - सब-इन्स्पेक्टर बोला ।
“सुना तुमने ?”
“यस, सर ।”
“गुड ।” - विमल बोला - “पांव की ठोकर से अपनी रिवॉल्वर इधर करो ।”
अठवले ने रिवॉल्वर को ठोकर मारी तो वो निशब्द कालीन पर फिसलती हुई विमल के पैरों के करीब आकर रुकी । विमल ने सावधानी से झुक कर उसे उठाया, उसमें से गोलियां निकाल कर अपने कोट की जेब में डाल लीं और रिवॉल्वर साइड टेबल पर टेलीफोन के पहलू में रख दी ।
“अब बाहर जाओ” - वो अठवले से बोला - “और गलियारे में जमा भीड़ को डिसमिस करो । उलटे पांव वापिस न लौटे तो तुम्हारे साहब को गोली ।”
भारी कदमों से सब-इन्स्पेक्टर अठवले की ओर बढा ।
एक मिनट में वो वापिस लौटा ।
“गलियारा खाली है ?” - विमल ने पूछा ।
अठवले ने सहमति में सिर हिलाया ।
“कत्ल की बाबत क्या बोला ?”
“कुछ भी नहीं । अभी बाहर किसी को मालूम नहीं है कि यहां क्या हुआ है !”
“तो लोग क्यों जमा हुए ?”
“सब होटल के स्टाफ के थे जो पुलिस आयी देख कर उत्सुक हो उठे थे ।”
“अब आप बताइये ।” - वो डिडोलकर की तरफ घूमा - “इधर कैसे पहुंचे ?”
“कन्ट्रोल रूम में एक गुमनाम टेलीफोन कॉल आयी थी कि यहां एक कत्ल हो गया था और कत्ल करने वाला सोहल हो सकता था” - डिडोलकर मरे स्वर में बोला - “तब मैं बाई चांस कन्ट्रोल रूम में था । सोहल का नाम सुन कर मैंने इसे बड़ा केस माना और तफ्तीश के लिये खुद आया ।”
“ताकि सोहल को गिरफ्तार करने के यश के भागी बन पाते ?”
वो खामोश रहा ।
“आप सीनियर पुलिस आफिसर हैं, डी.सी.पी. हैं, फिर भी नहीं जानते कि कत्ल की सबसे पहले खबर कातिल को होती है और वो आपकी गुमनाम फोन कॉल कातिल के सिवाय और किसी ने नहीं की हो सकती थी ?”
डिडोलकर खामोश रहा ।
“मैं बेगुनाह हूं । कातिल मैं होता तो इस घड़ी आपके सामने खड़ा आपसे गप्पें न लड़ा रहा होता, आप दोनों को शूट करके कब का यहां से निकल गया होता । मैं” - विमल ने अपलक डी.सी.पी. की तरफ देखा - “अभी भी ऐसा कर सकता हूं । आप चाहते हैं मैं ऐसा करूं ?”
डिडोलकर का सिर अपने आप ही इनकार में हिला ।
“तो अपने मातहत को हिदायत दीजिये कि ये बिना कोई हरकत किये यहां टिक के बैठे और आप मुझे बाहर छोड़ के आइये ।”
“बाहर कहां ?”
“बाहर चल के बोलूंगा ।”
“अठवले, मेरे लौटने तक टिक के बैठना । कुछ नहीं करना ।”
“यस, सर ।” - सब-इन्स्पेक्टर बोला ।
“साहब आधे घन्टे में लौटेंगे ।” - विमल बोला - “तब तक न लौटें जो जी में आये करना ।”
अठवले का सिर सहमति में हिला ।
“आपके साथ और भी पुलिसिये होंगे ।” - विमल फिर डी.सी.पी. से सम्बोधित हुआ - “पुलिस के आला अफसर हैं आप । अमले बिना तो न चलते होंगे ?”
“ड्राइवर के अलावा कोई नहीं है हमारे साथ ।”
“हैरानी है ।”
“इधर आकर लोकल थाने फोन लगाना था लेकिन मौका ही न लगा । पहले ही....”
वो खामोश हो गया ।
“अब लग जायेगा । लौट के आ के भले ही तमाम थाना इकट्ठा कर लीजियेगा ।”
विमल उसके करीब पहुंचा, उसने यूं उसकी एक बांह में अपनी रिवॉल्वर वाली बांह पिरोई कि नाल उसकी पसलियों से जा लगी ।
“हम ऐसे ही बाहर चलेंगे ।” - विमल बोला - “किसी को रिवॉल्वर दिखाई नहीं देगी । आपको भी नहीं । लेकिन आपको देखने की नहीं, महसूस करने की जरूरत है । आपकी मामूली सी भी बेजा हरकत आपकी जान ले लेगी ।”
“और तुम्हारी ?”
“पहले... पहले आपकी । लेकिन इससे आपको क्या तसल्ली हासिल करेगी कि बाद में मेरा भी अंजाम आप वाला ही हुआ ?”
“तुम कोई मामूली एकाउन्टेंट नहीं हो सकते । तुम्हारा ये बेपनाह हौसला मुझे ये सोचने पर मजबूर कर रहा है कि गुमनाम फोन कॉल करने वाले ने ठीक ही शक जाहिर किया कि....”
तभी दरवाजा खुला ।
दो फायर हुए ।
डी.सी.पी. डिडोलकर और उसके मातहत सब-इन्स्पेक्टर अठवले दोनों के माथों में सुराख दिखाई देने लगे । फिर दोनों पछाड़ खाकर फर्श पर गिरे ।
विमल हक्का बक्का सा दरवाजे पर प्रकट हुए इरफान को देखने लगा ।
“ये क्या किया तूने ?” - उसके मुंह से निकला ।
“चल जल्दी ।” - धुआं उगलती गन की अपनी पोशाक में छुपाता इरफान तीखे स्वर में बोला ।
“लेकिन....”
इरफान ने आगे बढ कर उसकी बांह पकड़ी और उसे कमरे से बाहर घसीटा । उसने पीछे दरवाजा बन्द कर दिया ।
“ऊपर ।” - वो बोला ।
दोनों सीढियों की तरफ लपके ।
पीछे लिफ्ट का दरवाजा खुला और उसमें से तीन चार व्यक्ति बाहर निकले । सब का ध्यान कमरा नम्बर 505 की तरफ था ।
दोनों सीढियां चढने लगे ।
“क्यों ?” - विमल गुस्से से बोला - “क्यों किया ऐसा ?”
“चुप कर ।” - इरफान डपट कर बोला - “बहुत वक्त है ये बातें करने को । अभी अहम काम यहां से निकल चलना है ।”
विमल खामोश हो गया ।
छठी मंजिल से वो लिफ्ट पर सवार हुए और नीचे लॉबी में पहुंचे ।
“ब्रीफकेस पकड़ ।” - इरफान बोला - “रेस्टोरेंट में भी टायलेट है, जैसे राजा साहब और उनका सैक्रेट्री इधर पहुंचे थे, वैसे ही बाहर लॉबी में आने का है । मैं टैक्सी के साथ उधर पहुंचता हूं ।”
“वो निगरानी करता छोकरा....”
“सब खिसक गये । पवित्तर सिंह का काम होते ही सब खिसक गये । अब उनके लिये यहां क्या रखा था ! कातिल के साथ क्या बीती, वो कोई बिका हुआ पुलिसिया बता देगा या सुबह अखबार में पढ लेंगे ।”
“ओह !”
“जा अब ।”
विमल रेस्टोरेंट की तरफ बढा ।
पांच मिनट बाद राजा साहब और उनका सैक्रेट्री बड़ी शान से रेस्टोरेंट से निकले और लॉबी पार करके बाहर इन्तजार करती खड़ी टैक्सी में जा बैठे ।
विक्टर ने टैक्सी आगे बढाई ।
विमल ने अपना मेकअप उतार कर वापिस ब्रीफकेस में डाल दिया और ब्रीफकेस आगे इरफान को थमा दिया ।
शोहाब ऐसा नहीं कर सकता था, उसका मेकअप पेचीदा था ।
तब तक टैक्सी होटल के परिसर से निकल कर मेन रोड पर पहुंच चुकी थी ।
“अब बोल ।” - विमल भड़क कर बोला - “क्यों तूने....”
“अभी, बाप ।” - इरफान बोला - “अभी तू जरा....”
तभी एक व्यक्ति टैक्सी के सामने प्रकट हुआ और जोर जोर से हाथ हिलाता उसे रुकने का इशारा करने लगा ।
विक्टर ने डिपर मारा ।
वो व्यक्ति रास्ते से न हटा ।
“मिर्ची है ।” - एकाएक विक्टर बोला ।
“रोक ।” - इरफान बोला ।
विक्टर ने सहमति में सिर हिलाया और फिर तत्काल टैक्सी को एक बाजू करके रोका ।
जमीन मिर्ची लपक पर टैक्सी के पहलू में पहुंचा ।
“इधर क्या करता है ?” - इरफान बोला ।
“बाप” - मिर्ची हांफता सा बोला - “वो परदेसी....”
“क्या हुआ उसे ?” - इरफान बोला ।
“पीछे होटल में । सफेद दाढी वाले सरदार को उसने शूट किया । मैं सब अपनी आंखों से देखा ।”
“क्या !”
“आंखों से देख के तू कैसे बच गया ? अगर तूने....”
विमल ने हाथ बढा कर इरफान का कन्धा दबाया ।
इरफान खामोश हो गया ।
फिर विक्टर को छोड़ कर सब टैक्सी से बाहर निकले ।
“अब” - विमल आश्वासनपूर्ण ढंग से उसका कन्धा थपथपाता हुआ बोला - “ठीक से, इत्मीनान से, कह जो कहना चाहता है !”
“बाप, परसों से मैं परदेसी की तलाश में था ।” - मिर्ची धीरे से बोला - “दिन रात ढूंढता था, बाप, उसे क्योंकि मैं” - उसने सशंक भाव से इरफान की तरफ देखा - “बकरे का माफिक हुक पर टंगना नहीं मांगता था, कचालू का माफिक पानी में उबलना नहीं मांगता था....”
“आगे ।” - इरफान उतावले स्वर में बोला - “आगे बढ, आगे ।”
“ये जैसे बोलता है, इसे बोलने दे ।” - विमल बोला ।
इरफान खामोश हो गया ।
“तेरी बातों से लगता है” - विमल नम्र स्वर में बोला - “कि आखिरकार जेकब परदेसी तेरे को मिला ।”
“मिला न, बाप । आज ही शाम को मिला ।”
“कहां ?”
“बन्दरगाह के इलाके में । उधर डिमेलो रोड पर ‘प्रिंसेस’ करके एक बार है । वहां । बाप, मैं किधर किधर नहीं भटका उसके लिये ! उसने किधर तो मिलना ही था, आखिरकार मिला ।”
“फिर ?”
“बाप, मैं उधर उसको वाच करता था । मैं उधर से उसके पीछू लगता और फिर वो पता निकालता धारावी होटल के अपने ठिकाने को छोड़ कर जिधर वो छुप के बैठेला था । फिर उधर उसका एक टेलीफोन आया । मोबाइल पर । उसने फोन सुना, जो फिरेंड उसके साथ बैठेला था, उसको कुछ बोला और फिर उधर से नक्की किया । उसके पीछू लगा मैं इधर मेरीन ड्राइव के इस बड़े होटल में पहुंचा । इधर उसको चिरकुट मिला ।”
“वो कौन है ?”
“वैसीच मवाली है जैसा परदेसी है ।”
“आगे ।”
“बाप, फिर वो पांचवें माले पर गया । उधर उसने एक वेटर से, जो तभी पांच सौ नम्बर कमरे से बाहर निकला था, कुछ बात किया, उसको कुछ दिया और नीचे आ गया ।”
“क्या दिया ?”
“मैं फासले पर था पण मेरे को लगा कि कुछ रोकड़ा दिया और एक वैसी छोटी सी शीशी दी जिसमें से दवा निकाल कर डॉक्टर लोग इन्जेक्शन लगाते हैं ।”
“फिर ?”
“पन्द्रह मिनट बाद उसी वेटर ने लॉबी में आकर उसे कुछ इशारा किया और चला गया । उसके बाद परदेसी दस मिनट नीचे ठहरा और फिर लिफ्टों की तरफ बढा । बाप, मेरे को मालूम कि वो पांचवें माले पर जाना मांगता था पण उसके साथ मैं लिफ्ट में सवार नहीं हो सकता था क्योंकि वो मेरा फिरेंड । वो मेरे से सवाल करता कि मैं उधर क्या करेला था तो मैं क्या जवाब देता ? इस वास्ते मैं सीढियों के रास्ते ऊपर गया ।”
“ठीक किया ।”
“मैं जब पांचवें माले पर पहुंचा तो गलियारा खाली था । तब मैं डरता डरता पांच सौ पांच नम्बर कमरे के दरवाजे पर पहुंचा, मैंने उसको धीरे से धक्का देकर जरा सा खोला तो मुझे भीतर परदेसी दिखाई दिया । बाप मेरे देखते देखते उसने तुम्हेरे कोट की जेब से गन निकाला और उससे उस सफेद दाढी वाले सरदार को शूट कर दिया । फिर उसने गन का रुख तुम्हेरी तरफ किया । मैं फौरन समझ गया कि वो तुम्हेरे को भी शूट करना मांगता था । तब मुझे एक ही काम सूझा ।”
“क्या ?”
“मैंने जोर से दरवाजे पर दस्तक दी, जोर से चिल्लाया और भाग खड़ा हुआ ।”
“भाग कर किधर गया ?”
“सीढियों के मोड़ पर जा छुपा । पण परदेसी को तो नहीं मालूम था न कि मैं अब बाहर नहीं था । वो यहीच समझा होयेंगा कि वो एक सैकंड भी फालतू उधर रुकेंगा तो पकड़ा जायेंगा ।”
“लिहाजा दरवाजे पर दस्तक पड़ते ही और तुम्हारे चिल्लाते ही वो रिवॉल्वर फेंक कर वहां से भाग खड़ा हुआ ।”
“ऐसीच था, बाप । मैं देखा उसको लिफ्ट पर सवार होकर नीचे जाते ।”
“फिर ?”
“फिर मैं अपनी सकते की हालत से उबरा और भारी कदमों से नीचे पहुंचा पण....”
“क्या पण ?”
“तब न मुझे उधर परदेसी मिला और न कहीं चिरकुट दिखाई दिया ।”
“बहरहाल ऐन मौके पर तेरे दरवाजा खटखटाने ने और तेरे चिल्लाने ने मेरी जान बचाई ?”
वो खामोश रहा ।
“परदेसी के चले जाने के बाद भी” - इरफान ने पूछा - “तू अभी इधर ही क्यों है ?”
जवाब में उसने झिझकते हुए विमल की तरफ इशारा कर दिया ।
“क्या मतलब हुआ इसका ?” - इरफान सख्ती से बोला ।
“बाप, तीन दिन पहले जब तुम मेरे को फाकलैंड रोड से थामा और मेरी डंडा परेड किया तब यहीच साहब तो बैठेला था रोशनी के दायरे से बाहर एक कुर्सी पर ।”
“निगाह बड़ी तीखी है, साले तेरी !”
“यहीच तो तब परदेसी का घर का पता पूछने को बोला था ।”
“देखो साले हलकट को ! हवास उड़े हुए थे, हलक में जान अटकी हुई थी फिर भी सब वॉच करके रखा, सब सुन के रखा ।”
मिर्ची खामोश रहा, उसने बेचैनी से पहलू बदला ।
“जानता है, बाप कौन है ?”
उसने इनकार में सिर हिलाया ।
“सच बोलता है ?”
“हां ।”
“कभी ‘कम्पनी’ का प्यादा नहीं रहा ?”
“नहीं ।”
“तभी ।”
“तू इस बात को” - विमल इरफान से बोला - “किसी खातिर में नहीं ला रहा कि इसने मेरी जान बचायी है ।”
“ला रहा हूं न, बाप ।” - इरफान बोला ।
“ईनाम के काबिल काम किया है ।”
इरफान ने सहमति में सिर हिलाया और फिर बड़े नर्म लहजे में मिर्ची से मुखातिब हुआ - “क्या ईनाम चाहता है ?”
“बकश दो, बाप ।” - मिर्ची बड़े दयनीय स्वर में बोला - “जान बकश दो ।”
“वो तो कब की बकश दी । वो तो परसों तभी बकश दी थी जब दोस्तों में शामिल होने की पेशकश की थी । तभी तो आजाद किया था । अब तो ईनाम का पूछा ।”
“यहीच ईनाम है, बाप, जान बकश दी, यहीच बहुत बड़ा ईनाम है ।”
“तो अब तू हमेरे साथ ?”
“हां, बाप । बरोबर ।”
“जबकि असल काम तू न कर पाया ।”
“क्या बोला, बाप ?”
“परदेसी को काबू नहीं करा पाया ।”
“करायेंगा न, बाप ।” - वो उत्साह से बोला ।
“अच्छा ! वो इधर से निकल गया फिर भी अभी उम्मीद है ?”
“है न ।”
“कैसे ?”
“वो उधर प्रिंसेस बार में अपने जिस फिरेंड के साथ बैठेला था, मैंने परदेसी को उसको बोलते सुना था कि वो उधरीच रहे, वो बड़ी हद एक घन्टे में वापिस लौट आयेंगा ।”
“तेरा मतलब है” - इरफान उसे अपलक देखता हुआ बोला - “कि परदेसी इधर से निकल कर उधर प्रिंसेस बार वापिस गया होगा ?”
“यहीच तो मैं बोला ।”
“प्रिंसेस बार, जो कि बन्दरगाह के इलाके में डिमेलो रोड पर है ?”
“हां ।”
“बढिया ।” - फिर इरफान विमल की तरफ घूमा - “बाप मेरे को गाड़ी भी मांगता है, विक्टर भी मांगता है । तू दूसरा टैक्सी पकड़ ।”
“उसमें कोई प्राब्लम नहीं ।” - विमल बोला - “लेकिन मेरी बात तो बीच में ही रह गयी....”
“कौन सी बात ?”
“तेरे को मालूम है कौन सी बात ! जो मिर्ची के मिलने से पहले हमारे बीच हो रही थी । इरफान मेरे को सफाई मांगता है ।”
“देंगा न, बाप । अभी तो हिल । टेम खोटी हो रहा है ।”
विमल खामोश हो गया ।
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