मुम्बई
काल-बैल की आवाज सुनकर सुरजीत उठकर दरवाजे की तरफ बढ़ी।
बाहर अँधेरा हो चुका था। आज वह जल्दी सो जाने की तैयारी कर रही थी कि एकाएक काल-बैल बज उठी थी।
पता नहीं कौन आ गया था।
जरूर कोई पड़ोसी होगा, जो टेलीफोन करना चाहता होगा।
उस इमारत में एकाध ही और फ्लैट था, जिसमें कि टेलीफोन था, इसलिए यूँ कभी काल-बैल बजती थी तो साधारणतया कोई टेलीफोन करने ही आया होता था।
और कौन आता उसकी तनहा जिन्दगी में ?
अपने नाइट गाउन की डोरियाँ बाँधती वह फ्लैट के मुख्य द्वार पर पहुँची।
उसने दरवाजा खोला।
आगन्तुक पर निगाह पड़ते ही उसे यूँ लगा, जैसे एकाएक उस पर गाज गिरी हो। उसे अपनी आँखों पर विश्वास न हुआ। हैरानी से उसकी आँखें फट पड़ीं। उसके चेहरे से खून निचुड़ गया और होंठ कागज की तरह फड़फड़ाने लगे।
वाहेगुरू सच्चे पातशाह ! क्या वह सपना देख रही थी ? क्या वह सो चुकी थी और सपने में उसे ऐसा लगा था कि उसके फ्लैट की काल-बैल बजी थी और उसने जाकर दरवाजा खोला था ?
अगर वह जाग रही थी तो क्या वह भूत देख रही थी ?
वही लाल पगड़ी ! वही काली फिफ्टी !
वही बड़ी-बड़ी आँखें ! वही सुतवाँ नाक !
वहीं बड़े सलीके से फिक्सो द्वारा प्रेस की हुई दाढ़ी-मूँछ के बीच में से झाँकते अधखुले होंठ और मोतियों जैसे सफेद दाँत।
वैसा ही शानदार सूट और टाई, जिसे पहनकर उसने गुरुद्वारे में ग्रन्थ साहब के गिर्द उसके साथ फेरे लिये थे।
“सत श्री अकाल, बीबी सुरजीत कौर।”
वही मीठी दिलकश आवाज !
सुरजीत ने कसकर आँखे बन्द कर लीं।
फ्लैट नम्बर चार, दूसरा माला, रूपाबाई मैंशन, 22, हिल रोड, बान्द्रा वेस्ट, मुम्बई—400050।
लगातार दो दिन शिफ्ट लगाकर विमल और नीलम उस फ्लैट की निगरानी करते रहे थे।
उस फ्लैट में सुरजीत कौर मौजूद थी।
लेकिन ज्ञानप्रकाश डोगरा के दर्शन उन्हें नहीं हुए।
बड़ी सावधानी से आसपास पूछताछ करने पर मालूम हुआ कि उस इमारत के दूसरे माले के चार नम्बर फ्लैट में कोई पंजाबी औरत अकेली रहती थी, शुरू से ही अकेली रहती है। डोगरा की शक्ल-सूरत के या कैसी भी शक्ल-सूरत के किसी आदमी को उस फ्लैट में कभी नहीं देखा गया था।
विमल के लिए यह बड़ी हैरानी की बात थी।
सुरजीत वहाँ अकेली रहती थी।
अकेली !
डोगरा के साथ क्यों नहीं ?
रूपाबाई मैंशन एक आधुनिक पाँच मंजिला इमारत थी और उसके फ्लैट भी इन्तिहाई महंगे वाले थे।
सुरजीत इतने महंगे फ्लैट में अकेली रहती थी।
उस दौरान उन्होंने डाकिये पर भी निगाह रखी थी।
चार नम्बर फ्लैट की कोई चिट्ठी नहीं आयी थी।
उन दो दिनों में सुरजीत मुश्किल से दो या तीन बार घर से बाहर निकली थी और वह भी साग-सब्जी जैसी कोई रोजमर्रा की जरूरत की चीज खरीदने या यूँ ही ताजा हवा खाने।
विमल ने उसे दूर से ही देखा था।
सुरजीत, जैसी उसे याद थी, उससे दुबली हो गयी थी। चेहरे पर पहले जैसी हजार वॉट के बल्ब जैसी चमक भी नहीं थी, चाल-ढाल में पहले जैसी नौजवानी की उछाल के स्थान पर शिथिलता आ गयी थी, लेकिन खूबसूरत वह अभी भी कुछ कम नहीं थी।
विमल का दिल गवाही देने लगा कि जिन हालात में वह रह रही थी, उनमें वह खुश नहीं थी।
डोगरा ने उसे धोखा तो दिया नहीं मालूम होता था, जिस ठाठ-बाठ से वह वहाँ रह रही थी, वह किसी पैसे वाले की मदद के बिना मुमकिन नहीं था।
तो क्या उसने कोई और यार पाल लिया था ?
लेकिन उनकी पूछताछ तो बताती थी कि उसके फ्लैट में किसी मर्द के कदम पड़ते ही नहीं थे।
क्या माजरा था ?
“अब क्या इरादा है ?”—तीसरे दिन नीलम ने पूछा।
“हालात से लग रहा है”—विमल बड़ी गम्भीरता से बोला—“कि यूँ तो डोगरा का इन्तजार करते-करते हम बूढ़े हो जायेंगे। हमें सुरजीत से ही पूछना होगा कि डोगरा कहाँ है।”
“उससे मिलोगे ?”
“मिलना ही होगा।”
“उसके फ्लैट पर जाकर ?”
“और कहाँ ?”
“उसके रूबरू होने की ताब ला सकोगे ?”
“तुम मेरा मजाक उड़ा रही हो ?”
“नहीं।”
“तो फिर यह पूछो कि वह मेरे रूबरू होने की ताब ला सकेगी ?”
“वह तुम्हें पहचान लेगी ?”—नीलम ने तुरन्त बात बदली।
“क्यों नहीं पहचानेगी ? आखिर वह मेरी बीवी है।”
“तुम्हारी मौजूदा सूरत में ?”
“मुझे पूरी उम्मीद है पहचान तो वह मुझे मेरी मौजूदा सूरत में भी लेगी—नहीं पहचानेगी तो मैं पहचनवा लूँगा अपने-आपको—लेकिन मेरा इरादा उसके सामने उस सूरत में जाने का है, जिसे वह खूब पहचानती है और जिसे देखकर हो सकता है कि वह ‘भूत-भूत’ चिल्लाने लगे।”
“तुम सरदार बनकर उसके फ्लैट पर जाना चाहते हो ?”
“हाँ। यह फिल्मों का शहर है। यहाँ नकली दाढ़ी-मूँछ मुहैया कर लेना निहायत मामूली काम साबित होगा।”
“ठीक है। जो मुनासिब समझो, करो।”
विमल ने वही किया—जो उसने मुनासिब समझा।
वह एक बार फिर सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल बन गया।
सुरजीत ने दोबारा आँखें खोलीं तो फिर उसे अपने सामने पाया।
वह उसे देखकर मन्द-मन्द मुस्करा रहा था।
“मैं क्या जी, सत श्री अकाल।”—वह दोबारा बोला।
“नहीं !”—वह काँपती आवाज में फुसफुसाई—“यह नहीं हो सकता। यह नहीं हो सकता !”
“क्या नहीं हो सकता ?”
उसके मुँह से बोल न फूटा।
“क्या तुम्हारे इस नये घर में मेहमान को घर से बाहर ही खड़ा रखने का रिवाज है ?”
“दारजी।”—उसके मुँह से यूँ आवाज निकली जैसे किसी भीषण पीड़ा से कराहते हुए व्यक्ति के मुँह से निकलती है।
“बल्ले !”—विमल बोला—“वाहेगुरु दी मेहर ते होई। साढ़ी सरदारनी ने सानूँ पहचानया ते सही !”
“तुम...”—वह कातर स्वर में बोली। उसका शरीर भीषण हवा के थपेड़ों के सामने किसी भी क्षण हथियार डाल देने को तत्पर कमजोर पेड़ की तरह लहरा रहा था—“तुम मुझे मार डालोगे। तुम मुझे मार डालोगे।”
“पीछे हटो।”—विमल बोला। उसके स्वर में कर्कशता तो न आयी लेकिन दृढ़ता ऐसी थी कि सुरजीत तत्काल पीछे हटी।
विमल ने फ्लैट के भीतर कदम रखा।
उसके पीछे कीमती जेवरों से लदी हुई, जरी के काम की लाल साड़ी पहने, लाल चूड़ा पहने, ताजा-ताजा परवान चढ़ी उमगों से तमतमाये चेहरे वाली, जगमग-जगमग करती, नयी ब्याही दुल्हन ने भीतर कदम रखा।
“यह...”—सुरजीत ने फटी-फटी आँखों से उसे देखते हुए काँपती आवाज में पूछा—“यह कौन है ?”
उत्तर देने से पहले उसने फ्लैट के दरवाजे को भीतर से बन्द किया। फिर वह वापस घूमा। उसने हाथ बढ़ाकर नीलम को अपनी एक बाँह के घेरे में ले लिया और उसे अपने पहलू के साथ लगा लिया।
“यह”—वह बड़े सहज भाव से बोला—“मेरी बीवी है। मेरी धर्मपत्नी।”
सुरजीत के चेहरे से रहा-सहा खून भी निचुड़ गया। उसका चेहरा कोरे कागज से ज्यादा सफेद हो गया।
“आप बैठ जाइए, बहनजी।”—नीलम मधुर स्वर में बोली—“लगता है आपकी तबीयत खराब है।”
वह विमल से अलग हुई। उसने आगे बढ़कर सुरजीत को सहारा दिया और उसे पिछले एक दरवाजे की तरफ ले चली, जिसके पार एक बैडरूम दिखाई दे रहा था।
विमल वहीं ठिठका खड़ा रहा।
उसने एक हसरतभरी निगाह सुरजीत कौर के झीने ड्रैसिंग गाउन के नीचे से झलकते गोरे पुष्ट शरीर पर डाली। फिर शादी की पहली रात का नजारा अपने-आप ही उसकी आँखों के आगे घूम गया, जब उस गोरे पुष्ट शरीर को पहली बार उसने अपनी बाँहों में भरा था। फिर उसके मानस-पटल पर डोगरा का अक्स उभरा और उसके जेहन में आये सारे रोमांटिक खयालात का इन्तकाल हो गया।
विमल वहाँ अकेला आना चाहता था, लेकिन नीलम जबरन उसके साथ आयी थी। अच्छा ही हुआ वह उसके साथ आयी थी।
“धन्न करतार !”—एक आह की सूरत में उसके मुँह से निकला।
फिर उसने फ्लैट में चारों तरफ निगाह डाली।
वह एक बड़े ऐश्वर्यशाली ढंग से सजा हुआ फ्लैट था। ड्राइंगरूम में अखरोट की लकड़ी का सोफासैट लगा हुआ था और पूरे फर्श पर कीमती कालीन बिछा हुआ था। बगल में एक गोल मेज और छ: कुर्सियों के साथ बड़ी नफासत से सजा हुआ डायनिंग रूम था। उसके दायीं तरफ बड़ी खूबसूरत और साफ-सुथरी किचन थी। जिधर नीलम सुरजीत को लेकर गयी थी, उधर एक विशाल बैडरूम था, जिसमें एक असाधारण आकार का डबलबैड लगा हुआ था। एक कोने में तीन शीशों वाली ड्रैसिंग टेबल थी। एक पूरी दीवार के साथ वार्डरोब के दरवाजे दिखाई दे रहे थे।
फ्लैट किसी रईस आदमी का ऐशगाह लगता था, लेकिन सुरजीत वहाँ अकेली थी। आज भी अकेली थी, पहले भी अकेली थी।
क्या माजरा था ?
नीलम ने सुरजीत को बैडरूम में ले जाकर पलंग पर बिठा दिया।
विमल बैडरूम में पहुँचा।
सुरजीत ने उसकी तरफ निगाह न उठाई।
“इधर मेरी तरफ देखो।”—विमल ने आदेश दिया।
सुरजीत ने एक बार बड़ी कठिनाई से उसकी तरफ देखा और फिर बुरी तरह से काँपकर निगाह झुका ली।
“वो कहाँ है ?”—विमल ने पूछा।
“क-कौन ?”—सुरजीत बोली।
“तुम्हें मालूम है कौन। जवाब दो वो कहाँ है ?”
“मुझे नहीं मालूम।”
“यह फ्लैट तुम्हें किसने लेकर दिया है ?”
“उसी ने।”
“इतने कीमती साजोसामान के साथ इसकी सजावट में उसी का पैसा लगा है ?”
“हाँ।”
“फिर भी तुम्हें यह नहीं मालूम कि वह कहाँ है ?”
“मुझे नहीं मालूम।”
“वह यहाँ नहीं आता ?”
“नहीं।”
“कभी नहीं आता ?”
“न।”
“तुम कब से यहाँ हो ?”
“दो साल से।”
“उससे पहले तुम कहाँ रहती थीं ?”
“कोलाबा के एक फ्लैट में।”
“उसके साथ ?”
“हाँ।”
“उसने तुम्हें अपने से अलग क्यों कर दिया ?”
उसने उत्तर न दिया।
“जब उसकी तुम्हारे में कोई जिंसी दिलचस्पी नहीं रही तो वह तुम्हारे ऊपर इतना खर्चा क्यों कर रहा है ?”
“उसकी मेहरबानी है।”
“उसकी मेहरबानी है या किसी और की ?”
सुरजीत ने तमककर सिर उठाया।
“कोई और यार तो नहीं पाल लिया ?”
उसकी बुझी-बुझी निगाहों में एक क्षण के लिए वह चमक पैदा हुई, जो किसी भयंकर अपमान की प्रतिक्रियास्वरूप पैदा होती है। एक क्षण के लिए उसकी निगाह विमल की सलाखों की तरह उसे भेदती स्थिर निगाह से मिली, फिर उसने विचलित होकर निगाह झुका ली।
“मैं वेश्या नहीं हूँ।”—वह धीरे से बोली।
“नहीं, वेश्या नहीं हो तुम। वेश्या तो अपने-आपको बेचती है। तुमने तो मुझे बेचा था।”
वह खामोश रही।
“वेश्या नहीं हो तुम। वेश्या से ज्यादा गयी बीती हो तुम। वेश्या का कोई धर्म-ईमान होता है। पेशे का कोई उसूल होता है। लेकिन तुम्हारा कोई धर्म-ईमान नहीं, कोई उसूल नहीं। वेश्या सौदा करती है, तुम गिरह काटती हो। वेश्या की जलील हरकतों के पीछे कोई मजबूरी होती है, कोई जुल्म की दास्तान होती है। तुम्हारी क्या मजबूरी थी ? तुम्हारे साथ क्या जुल्म हुआ था ? वह दौलत की खातिर अपना जिस्म बेचती है। तुमने यह काम शौकिया किया। हवस की गुलाम बनकर किया। तुम एक ऐसी बद्कार औरत हो, ऐश के सिवाय जिसकी कोई आरजू नहीं, ऐश के सिवाय जिसकी जिन्दगी का कोई मकसद नहीं, ऐ हवस की गुलाम, बद्कार औरत ! बता, तू क्यों कर किसी वेश्या से बेहतर हुई ?”
“मैं वेश्या नहीं।”—वह एकाएक हिचकियाँ ले-लेकर रोने लगी—“मैं वेश्या नहीं। मैं इतना नहीं गिरी। मैंने तिजारत नहीं की। मुझसे एक गुनाह हुआ है और यह सिर्फ मैं जानती हूँ या मेरा वाहेगुरु कि उस गुनाह के लिए मैं कितना पछता रही हूँ, किस कदर मुतवातर खून के आँसू रो रही हूँ।”
“क्यों पछता रही हो ? क्यों रो रही हो ? जैसी शानोशौकत और ऐशोआराम की जिन्दगी इस वक्त तुम्हें हासिल है, वह क्या कोई सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल नाम का मामूली तनखाह पाने वाला मामूली आदमी तुम्हें दे सकता था ? गुनाह की ऐसी लज्जत भी हर किसी को कहाँ हासिल होती है, बीबी सुरजीत कौर !”
“मुझे यह सब कुछ नहीं चाहिए। मुझे अपनी वही जिन्दगी चाहिए...”
“जिसकी वक्त रहते तुम्हें कद्र न हुई। सुरजीत कौर, औरत की इज्जत-आबरू एक ऐसा मोती होती है, जिसकी आब जिन्दगी में सिर्फ एक ही बार उतरती है। फिर बाद में पछताने से कुछ नहीं होता।”
“मुझे माफ कर दो।”—एकाएक वह विमल के कदमों में लोट गयी और बिलखती हुई बोली—“दारजी, किसी भी तरह एक बार मुझे माफ कर दो।”
विमल ने पाँव की ठोकर से उसे परे धकेल दिया और नफरतभरे स्वर में बोला—“यह ड्रामा तुम एक बार पहले भी कर चुकी हो।”
“मुझे माफ कर दो ! दारजी, मैं तुम्हारी गुनहगार हूँ। तुम्हें वाहेगुरु का वास्ता, मुझे माफ कर दो।”
“मैं क्यों माफ कर दूँ तुम्हें ? मुझे तो इस बेरहम दुनिया में किसी ने माफ नहीं किया ! सुरजीत कौर, तुम्हारी एक करतूत की वजह से मेरी जिन्दगी का इतना सत्यानाश हुआ है कि सरकार के घर में फाँसी ही मेरी सजा है। तुम मुझे सरकार के घर से माफी दिला दो, तुम एक बार काल का पहिया इतना वापस फेर दो कि मैं फिर वही वाहेगुरु का खालसा सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल बन जाऊँ, जिसका दामन किसी के खून के छीटों से भीगा हुआ नहीं, जिसने किसी का माल नहीं लूटा, जिसने किसी का गला नहीं काटा, जिसने कोई डाका नहीं डाला, जिसने कभी जेल की सूरत नहीं देखी, जो इश्तिहारी मुजरिम नहीं, जिसके सिर पर एक लाख का इनाम नहीं, जिसकी किस्मत में फाँसी का फन्दा नहीं, जो अपनी खूबसूरत बीवी से भावभीनी विदा लेकर एक नेक शहरी की तरह रिजक कमाने के लिए सुबह घर से निकलता था, अपनी बीवी की याद में, हर क्षण उसकी मुहब्बत की तपिश महसूस करता हुआ इन्तजार करता रहता था कि कब शाम हो और कब वह अपनी बीवी के पहलू से जा लगे, वह उसकी गोद में गर्क होकर दीन-दुनिया भूल जाये। तुम कह दो कि किसी डोगरा नाम के शैतान के नापाक हाथों ने तुम्हारे जिस्म को नहीं छुआ, झूठ ही कह दो सुरजीत कौर, फिर मैं तुम्हें माफ कर दूँगा। न सिर्फ माफ कर दूँगा, बल्कि फिर पहले की तरह तुम्हें अपनी धर्मपत्नी मान लूँगा। बोलो, कर सकती हो ऐसा ? फेर सकती हो काल का पहिया ? इतनी शक्ति है तुममें ?”
सुरजीत के मुँह से बोल न फूटा।
नीलम मन्त्रमुग्ध-सी उन दोनों से परे खड़ी थी और कभी विमल को और कभी सुरजीत को देख रही थी।
एकाएक विमल ने अपने सिर से पगड़ी और फिफ्टी उतार फेंकी और चेहरे से दाढ़ी-मूँछ को नोचकर उतार दिया।
“इधर मेरी तरफ देखो।”—वह बड़े आहत भाव से बोला—“दो टाइम गुरुद्वारे जाकर मत्था टेकने वाले सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल को क्या बना दिया है तुम्हारी एक करतूत ने। कल तक जो आदमी मक्खी मारने के काबिल नहीं था, आज वो खतरनाक खूनी है, डकैत है, सात राज्यों में घोषित इश्तिहारी मुजरिम है। अपनी एक करतूत पर पर्दा डालने के लिए तुमने मेरी तबाही और बरबादी की दास्तान का सिर्फ पहला अध्याय लिखा था। तुम एक पढ़ी-लिखी औरत हो और शहरी सोसायटी का हिस्सा हो। यह नहीं हो सकता कि तुम इस बात से बेखबर रही हो कि मेरी गुनाहों से पिरोई हुई जिन्दगी पतन के गर्त की कितनी सीढ़ियाँ उतर चुकी है। मेरे किसी नये अपराध की दास्तान सुनकर या कहीं की पुलिस की यह घोषणा सुनकर कि बस अब मैं कुत्ते की मौत मारा ही जाने वाला था, तुम्हें कैसा लगता था, सुरजीत कौर ? क्या कभी भी तुम्हें अहसास हुआ कि मेरी जिन्दगी को तबाही और बरबादी की एक बेमिसाल दास्तान बना देने के पीछे, मुझे कुत्ते की तरह दुर-दुर करती काबिलेरहम जिन्दगी बिताने के लिए मजबूर करने के पीछे तुम्हारा, सिर्फ तुम्हारा, हाथ था ? यह मेरे कौन-से गुनाहों की सजा थी जो तुमने मुझे दी ? डोगरा तुम्हें इतना प्यारा था तो तुमने मुझसे शादी क्यों की थी ? तुमने उसका दामन क्यों नहीं थामा था ?”
“मैं मूर्ख थी, नादान थी, मुझसे भूल हुई। मैंने जो कुछ किया, गलत किया। मुझे गुमराह किया गया था।”
“तुम्हें किसी ने गुमराह नहीं किया। अपना गुनाह किसी दूसरे पर मत लादो। ये सारी बातें तुम इसलिए कर रही हो, क्योंकि तुम अपने मौजूदा हालात से खुश नहीं हो। तुम यहाँ सजावट के बाकी सामान की तरह सिर्फ सजा दी गयी हो। आज की तारीख में तुम्हें उस मर्द का वो प्यार हासिल नहीं है, जिसने कभी तुम्हें अपने मर्द के साथ बेवफाई करने के लिए प्रेरित किया था। डोगरा को अगर तुम आज भी उतनी ही प्यारी होतीं, जितनी कि कभी थीं तो तुम्हारे खयालात वो न होते जो तुम इस वक्त मुझ पर जाहिर कर रही हो। अब तुम्हारी हालत उस धोबी के कुत्ते जैसी है, जो न घर का रहा, न घाट का।”
सुरजीत फर्श पर दोहरी हुई बैठी खामोशी से आँसू बहाती रही।
“सुरजीत कौर, अपना मर्द फिर अपना मर्द होता है। अपना मर्द जिन्दगी की आखिरी साँस तक अपना मर्द होता है, उसकी वफादारी आपका हक होता है, आपकी नेमत होती है। लेकिन गैरमर्द के लिए पराई औरत एक हसीन फूल की तरह होती है, जो जब मुरझा जाता है तो उसे पैरों तले रौंद दिया जाता है। औरत भी मुरझाए फूल जैसे अँजाम तक पहुँच चुकने के बाद गैरमर्द की तारीफी निगाहों की हकदार नहीं बनी रह पाती, लेकिन इन तब्दीलियों से उसके अपने मर्द की निगाहों में उसकी कद्र नहीं घट जाती। गैरमर्द के लिए औरत उसका पहलू गर्म करने वाली एक चीज होती है, एक कमोडिटी होती है, जिसे वह एक स्याहीचूस की तरह चूसता है, एक गन्दे तौलिए की तरह इस्तेमाल करता है और फिर उसे कूड़े के उस ढेर में धकेल देता है, जहाँ इस्तेमाल के नाकाबिल हो चुकी ऐसी चीजें धकेली जाती हैं। अपने मर्द के लिए औरत का दर्जा एक पवित्र देवी का होता है, इसलिए होता है, क्योंकि वह उसके बच्चों की माँ होती है, उसकी माँ की बहू होती है, उसकी बहनों की बहन होती है, उसके भाइयों की भाभी होती है। गुनाहों और बद्कारियों का मजा वक्ती होता है। गैर की बाँहों में औरत को जो जन्नत दिखाई देती है, वह एक छलावा होता है, एक मृगतृष्णा होती है। देर-सवेर हर बद्कार औरत की समझ में यह बात आ जाती है—जैसे इस वक्त तुम्हारी समझ में आ चुकी है—लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।”
विमल हाँफने लगा। एकाएक उसका चेहरा तमतमा आया था और उसकी आँखों में ऐसी ज्वाला धधक उठी थी कि उसे देख कर नीलम को भी डर लगने लगा।
“मेरे साथ बेवफाई करके”—विमल फिर बोला—“मेरे प्यार को धोखा देकर तुमने सिर्फ मेरी जिन्दगी को ही तबाह नहीं किया, तुम मेरी माँ की ही मौत का कारण नहीं बनी, तुमने मेरी आने वाली तमाम पुश्तों की हस्ती मिटा दी। तुमने डोगरा के सामने अपना जिस्म नंगा नहीं किया था, तुमने मेरे खानदान की गैरत और शराफत को नंगा किया था। एक गैरमर्द के सामने नंगी होते समय काश, तुमने एक क्षण के लिए भी सोचा होता कि वह गरदन नंगी थी जहाँ किसी की निष्ठा और विश्वास ने मुहब्बत के फूलों के हार पहनाए थे, वो छातियाँ नंगी थीं जहाँ से किसी अबोध बालक ने ममता का रस पीना था, वो कोख नंगी थी जहाँ किसी की आने वाली हजारों पुश्तों का बीज पनपना था।”
सुरजीत ने एक जोर की हिचकी ली। उसकी सुबकियों के साथ उसकी पीठ ऊपर-नीचे हिचकोले-से खाने लगी। नीलम को डर लगने लगा कि कहीं वह रोती-रोती ही न मर जाये।
“मैं तुम्हें जान से मार डालने का खतरनाक इरादा लेकर यहाँ आया था। यह”—उसने नीलम की तरफ संकेत किया—“मुझ पर निगाह रखने के लिए मेरे साथ आयी थी कि कहीं मैं तुम्हारी दाद-फरियाद सुनकर पिघल न जाऊँ, मेरा दिल न पसीज जाये और मैं तुम्हारी जानबख्शी न कर दूँ। लेकिन मैं तुम्हें नहीं मारूँगा। तुम्हारे नापाक खून से अपने हाथ मैं नहीं रंगूँगा। मुझे यही देखकर बहुत सुकून हासिल हो रहा है कि गुनाह का जो बीज तुमने बोया था, उसका फल खाकर तुम खुश नहीं हो, सुखी नहीं हो। बाबे के घर देर है, अन्धेर नहीं है, यह बात मैं भूल गया था। तुम्हारी आज की तनहा और बेमानी जिन्दगी ही शायद तुम्हारी सजा है जो तुम्हें मुतवातर मिल रही है। अभी तुम्हें और सजा मिल सकती थी, जो कि तुम्हें नहीं मिली। तुमसे मन भर जाने के बाद डोगरा तुम्हें दूध में से मक्खी की तरह निकाल फेंक सकता था, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। उसने सिर्फ तुम्हें अपनी मुहब्बत से महरूम किया, अपनी मेहरबानियों से नहीं। वह चाहता तो यह ऐशोआराम भी वह तुमसे छीन सकता था।”
“मुझे यह ऐशोआराम नहीं चाहिए।”—वह सुबकती हुई बोली।
“तुम्हारे चाहने या न चाहने से कुछ नहीं होता। यह ऐशोआराम तुम्हारा इनाम नहीं, तुम्हारी सजा है। यह वो मक्खी है, जिसे न तुम उगल सकती हो, न निगल सकती हो। यह ऐशोआराम एक बेऔलाद माँ को उसकी प्रार्थनाओं के फलस्वरूप हासिल ऐसे बच्चे की तरह है, जिसे वाहेगुरु ने जिस्म तो दिया, लेकिन जिन्दगी न दी। चिपकाए रहो अपने गुनाह के इस बेहिस, बेजान इनाम को अपने कलेजे से। शायद कभी पत्थर में जान पड़ जाये। शायद कभी बख्शनहार तुम्हारे गुनाह भी बख्श दे।”
वह खामोश रही।
“इसे उठाओ।”—विमल ने नीलम को आदेश दिया।
नीलम सुरजीत की तरफ बढ़ी।
विमल बड़ी बारीकी से सारे फ्लैट की तलाशी लेने लगा।
दस मिनट तक वह फ्लैट का एक-एक कोना-खुदरा टटोलता रहा।
उसे वहाँ कोई मामूली-सी भी ऐसी चीज न दिखाई दी, जो किसी मर्द जात की कभी भी वहाँ मौजूदगी की चुगली करती होती—कोई मर्दाना कपड़ा, कोई शेव का सामान, कोई अतिरिक्त टूथब्रश, कुछ भी।
सुरजीत वाकई वहाँ अकेली रहती थी।
विमल बैडरूम में वापस लौटा।
सुरजीत गुच्छा-मुच्छा-सी पलंग पर बैठी थी। उसकी ठोड़ी उसके घुटनों पर टिकी हुई थी। उसकी आँखें रो-रोकर लाल हो गयी थीं और बुरी तरह से सूज आयी थीं। उसके कपोलों पर आँसुओं की लकीरें अभी भी दिखाई दे रही थीं।
नीलम के हाथ में पानी का एक गिलास था और वह सुरजीत से पानी पीने के लिए आग्रह कर रही थी।।
सुरजीत की दाद-फरियाद से वह भी पसीज गयी मालूम होती थी।
विमल के आगमन की आहट सुनकर सुरजीत ने सिर उठाया लेकिन फौरन ही फिर नीचे झुका लिया।
केवल एक क्षण के लिए विमल से उसकी निगाह मिली। उस एक क्षण में विमल ने उसकी आँखों में पश्चात्ताप का वह गहन भाव देखा, जो फर्जी नहीं हो सकता था।
“ये मुझसे पूछ रही हैं”—नीलम धीरे से बोली—“कि क्या मैं वाकई तुम्हारी धर्मपत्नी हूँ ?”
“तुमने क्या जवाब दिया ?”—विमल बोला।
“यही कि इसका बेहतर जवाब इन्हें तुम्हीं दे सकते हो।”
“बीबी सुरजीत कौर”—विमल बोला—“यह औरत मेरी धर्मपत्नी है तो भी तुम्हें क्या फर्क पड़ता है ? नहीं है, तो भी तुम्हें क्या फर्क पड़ता है ? लेकिन हकीकत जानना ही चाहती हो तो सुन लो। यह मेरी कुछ नहीं, लेकिन आज की तारीख में शायद सृष्टि में यह इकलौती शख्स है, जिससे मुझे कोई मुहब्बत या हमदर्दी हासिल है। अगर आज मैं मर जाऊँ तो दुनिया की यह इकलौती शख्सियत होगी, जिसकी आँख मेरे लिए नम होगी। वह कभी एक काल-गर्ल थी, लेकिन यह तुम जैसी कुलवन्तियों से हजार दर्जे बेहतर है। यह अगर लोहा है तो अपने-आपको सोना कहने वाली कुलवन्ती, तो लोहा भी न निकली।”
“विमल”—नीलम उसे झिड़कती-सी बोली—“बस करो।”
“क्यों बस करूँ ? इसे तुम्हारी असलियत मालूम होनी चाहिए, इसे औरत और औरत में फर्क मालूम होना चाहिए। इसे मालूम होना चाहिए कि तुम मेरे लिए वही नहीं हो जो इसके लिए डोगरा था। इसे मालूम होना चाहिए कि तुम्हारी रूह में किसी से मुहब्बत करने का, किसी को चाहने का, किसी का बन जाने का, किसी को अपना बना लेने का, किसी के गले लग जाने का, किसी को गले लगा लेने का, किसी के बच्चे को दूध पिलाने का वह जज्बा है, जो मेरी इस ब्याहता बीवी में कभी पैदा न हो सका।”
विमल एक क्षण ठिठका और फिर बोला—“सुरजीत कौर, सुनो। कान खोलकर सुनो। इस औरत ने मुझे सिर्फ अपना प्यार ही नहीं दिया, अपने प्यार से कहीं ज्यादा कीमती चीज, अपना विश्वास इसने मुझे दिया है। अपनी निष्ठा मुझे दी है। इसने मुझे वो सब कुछ बिना माँगे दिया है, जिसका मैं हकदार नहीं था। तुमने यह सब मेरा हक होने के बावजूद मुझे नहीं दिया। यह मेरी तरह एक मामूली इन्सान है—हालात से पिसी हुई, मजबूरियों से टूटी हुई, लोगों के बेपनाह जुल्मों से सताई हुई। मेरी तरह इसके पास भी ऐसा कुछ नहीं, जिसे यह अपना कह सके। किसी को कुछ दे पाने के नाम पर मेरी तरह इसकी भी झोली खाली है, लेकिन मुझे विश्वास है कि अगर यह मलिका विक्टोरिया होती तो अपना ताजोतख्त मुझे दे देती, अगर यह मुमताज होती तो ताजमहल मेरे हवाले कर देती, अगर यह क्लियोपेट्रा होती तो अपना सारा प्यार सिर्फ मुझे अर्पण कर देती। लेकिन यह तो एक मामूली औरत है, जो कभी एक काल-गर्ल थी। तुम्हारा इसका क्या मुकाबला ? समाज में तुम्हारा दर्जा तो इससे बहुत ऊँचा है। तुम तो कुलवन्ती हो। हाउसवाइफ हो। जो काम यह खुले आम करती है, वह तुम ढके-छुपे ढंग से करती हो। तुम जमाने को तो धोखा दे सकती हो, लेकिन क्या अपने-आपसे भी इस हकीकत को छुपा सकती हो कि तुम सिर्फ एक जनाना जिस्म हो, जिसका वाहिद इस्तेमाल गैर का पहलू गर्म करना है ?”
सुरजीत की आँखों से फिर आँसुओं की गंगा-जमुना बह निकली।
“अब रोना-धोना बन्द करो”—विमल कर्कश स्वर में बोला—“और मुझे डोगरा के बारे में बताओ। मैंने तुम्हारी जानबख्शी की है, तुम्हारे यार की नहीं।”
“क्या बताऊ ?”—वह फँसे कण्ठ से बोली।
“सबसे पहले यही बताओ कि वो कहाँ है ?”
“मैं पहले ही कह चुकी हूँ कि मुझे नहीं मालूम कि वो कहाँ है।”
“मुझे मालूम है, पहले तुम क्या कह चुकी हो। मैं न बहरा हूँ और न मेरी याद्दाश्त कमजोर है। जो आदमी तुम्हारी हर जरूरत पूरी करता हो, तुम्हारा रोजमर्रा का खर्चा भी तुम्हें देता हो, उसके बारे में तुम्हें यह न मालूम हो कि वह कहाँ है, यह नहीं हो सकता।”
“लेकिन यह हकीकत है”—सुरजीत ने फरियाद की—“दो साल से मैं यहाँ अकेली रह रही हूँ। दो साल से मैंने उसकी सूरत की एक झलक तक नहीं देखी।”
“वैसे होगा तो वो मुम्बई में ही ?”
“मुझे यह भी नहीं मालूम।”
“उसने तुम्हें छोड़ क्यों दिया ?”
“वह मुझसे बोर हो गया था।”
“फिर भी वह तुम पर इतना खर्चा क्यों कर रहा है ?”
“विमल।”—नीलम तिक्त स्वर में बाली—“होगी कोई वजह। एक ही सवाल बार-बार दोहराने का फायदा ?”
“वैसे अब तक तुम्हें यह तो मालूम हो ही चुका होगा ”—विमल सुरजीत को घूरता हुआ बोला—“कि तुम्हारा यार कोई शरीफ आदमी नहीं बल्कि स्मगलरों के एक बहुत बड़े गैंग का सदस्य है।”
सुरजीत ने एक झटके से सिर उठाया। उसके चेहरे पर हैरानी के असली भाव थे। यानी कि डोगरा के इतने लम्बे साथ के बावजूद डोगरा की हकीकत उसे नहीं मालूम थी।
“इलाहाबाद में भी एरिक जॉनसन कम्पनी का असली काम बहुत बड़े पैमाने पर अफीम की स्मगलिंग था।”
“तुम... तुम डोगरा का क्या करोगे ?”
“यह भी मुझे बताना पड़ेगा ? वह मेरे हाथ आ गया तो मैं उसका खून पी जाऊँगा। मैं उसका कलेजा खा जाऊँगा। मैं उसकी आँखें निकालकर उसके गले में उसका हार पहना दूँगा। मैं उसकी चमड़ी उधेड़कर अपने लिए उसका कोट बनवाऊँगा। लेकिन यह सब करने से पहले मैं उससे पचास हजार रुपये की वह रकम वसूल करूँगा, जिसके गबन के झूठे इल्जाम में उसने मुझे जेल भिजवाया था। उस रकम पर हर लिहाज से मेरा हक है। उसी की वजह से तो मुझे दो साल की जेल की सजा हुई थी ! सुरजीत कौर, मैं कुबेर के खजाने पर लात मार दूँगा, लेकिन पचास हजार रुपये की वह रकम—वह आज की तारीख में मेरे लिए निहायत मामूली रकम—मैं तुम्हारे यार से जरूर वसूल करके दिखाऊँगा। आज की तारीख में, मेरा उसकी जान लेने से भी ज्यादा अहम मिशन उससे वह रकम वसूल करना है, जिस पर मेरा हक है, जिस पर मेरी तकदीर ने मेरी इज्जत-आबरू को खाक में मिलाकर मेरा नाम लिखा है। सुरजीत कौर, सच-सच बता दो, डोगरा कहाँ है ?”
“दारजी।”—उसने फरियाद की—“अब मैं तुम्हें कैसे विश्वास दिलाऊँ कि मुझे नहीं मालूम कि वो कहाँ है ?”
“वह तुम्हें खर्चा-पानी कैसे भेजता है ? मनीऑर्डर से ?”
“नहीं।”
“तो ?”
“हर पहली तारीख को एक आदमी आता है। वह मुझे एक लिफाफा दे जाता है। उस लिफाफे में रुपया होता है।”
“कितना ?”
“दो हजार।”
“बल्ले ! जो आदमी तुम्हें छोड़ देने के बाद तुम्हारी इतनी कीमत मुतवातर अदा कर सकता है, वह जब तुम पर न्योछावर था, तब तो पता नहीं क्या कुछ करता होगा तुम्हारे लिए !”
सुरजीत ने गरदन झुका ली।
“तुम्हारे लिए रुपयों का लिफाफा लाने वाला आदमी हर बार एक ही होता है ?”
“नहीं। हर बार नया आदमी होता है, मैं जानती किसी को भी नहीं। हर आदमी मेरे लिए अजनबी होता है।”
“ऐसा क्यों ? रुपया लाने वाला आदमी हर बार अगर एक ही हो तो भी क्या फर्क पड़ता है ?”
“मुझे क्या मालूम ?”
“तुम मरने से डरती हो ?”
“हाँ। हाँ।”
“तो फिर सच बोलो। अपनी खातिर सच बोलो। अपनी जान की खातिर सच बोलो।”
“मुझे कसम है वाहेगुरु की कि मैं सच बोल रही हूँ। दारजी, मैं अब तुमसे झूठ नहीं बोल सकती। इसलिए झूठ नहीं बोल सकती क्योंकि अब झूठ बोलने से मुझे कोई फायदा नहीं। मेरे लिए मेरी जिन्दगी का कोई मकसद नहीं रहा, कोई मानी नहीं रहा। अब मैं मरने से ही नहीं, जीने से भी डरती हूँ। अब तो मैं चाहती हूँ कि किसी भी बहाने मुझे मौत आ जाये ताकि मैं अपनी तमाम दुश्वारियों से एक ही बार निजात पा जाऊँ। इस घड़ी मैं तो अपने आपको खुशकिस्मत समझूँगी कि अगर मेरी आत्मा तुम्हारे हाथों मेरे नापाक जिस्म से अलग हो।”
“आज क्या तारीख है ?”
“अट्ठाइस।”
“यानी कि पहली तारीख आने में अभी तीन दिन बाकी हैं।”
वह खामोश रही।
“तीन दिन बाद—यानी कि पहली तारीख को—तुम्हारे यार का भेजा कोई आदमी तुम्हें रुपयों का लिफाफा देने आयेगा। तुम उस आदमी को अपने यार के लिए सन्देशा दोगी कि वह सोहल से, जो कि एकाएक तुम्हारे यार के खून का प्यासा हो उठा है, सावधान रहे। अपने यार की खातिर इतना तो तुम करोगी ही ?”
उसने इन्कार में सिर हिलाया।
“नहीं करोगी !”—विमल ने नकली हैरानी जाहिर की—“तुम डोगरा को उसके सिर पर मंडराते खतरे से आगाह नहीं करोगी ?”
“नहीं।”
“वजह ?”
“क्योंकि डोगरा से अब मेरा कोई ऐसा रिश्ता बाकी नहीं, जिसकी वजह से मैं ऐसा करना जरूरी समझूँ।”
“लेकिन जब था, तब डोगरा से तुम्हारा मुझसे कहीं गहरा रिश्ता था। इसलिए हो सकता है कि बासी कढ़ी में उबाल आ जाये।”
सुरजीत ने आहत भाव से विमल की तरफ देखा और फिर गरदन झुका ली।
“ठीक है।”—विमल निर्णयात्मक स्वर में बोला—“देखते हैं तुम क्या करती हो ! पहली तक अगर हम यहाँ तुम्हारे फ्लैट में ठहर जायें तो तुम्हें कोई एतराज ?”
“मुझे क्या एतराज होगा ? आप लोग खुशी से यहाँ ठहरिए।”
“रुपये लेकर आने वाला आदमी पहली को आ तो जाता है न ? कभी लेट तो नहीं होता ?”
“नहीं। वह हमेशा पहली को आता है। दोपहर से पहले ही आ जाता है।”
“गुड।”
“मैं आप लोगों के लिए खाना बनाऊँ ?”
“घर में सब्जी वगैरह सब कुछ है ?”
“हाँ। कल ही मैं कई सब्जियाँ लायी हूँ।”
“तुम तकलीफ मत करो। मेरे लिए खाना मेरी धर्मपत्नी बना देगी।”
सुरजीत की सूरत से यूँ लगा, जैसे किसी ने खींचकर उसके मुँह पर तमाचा दे मारा हो।
विमल ने बैडरूम का मुआयना किया।
उसकी एक खिड़की बाहर को खुलती थी, लेकिन उस पर लोहे की मोटी ग्रिल लगी हुई थी।
फिर उसकी निगाह पलंग के समीप की एक टेबल पर रखे टेलीफोन पर पड़ी।
उसने टेलीफोन को एक झटके से तार पर से उखाड़ दिया और उसे अपनी बगल में दबाता हुआ बोला—“गुडनाइट। स्वीट ड्रीम्स।”
उसने नीलम को इशारा किया।
दोनों बैडरूम से बाहर निकल आये।
विमल ने बैडरूम को बाहर से कुण्डी लगा दी।
“तुम तो इसी के फ्लैट में इसे गिरफ्तार कर रहे हो !”—नीलम बोली।
“अच्छा कर रहा हूँ।”—विमल बोला—“मुझे इस पर रत्ती-भर भरोसा नहीं है।”
“ओह !”
“अब तुम किचन में घुसो और कोई खाना-वाना बनाओ। बहुत भूख लगी है।”
“खाना बाजार से न खा आयें ?”
“नहीं। आज इसी की किचन का खाना खाना है।”
“बेहतर !”
खाना बना चुकने के बाद नीलम ने पुकारकर सुरजीत से पूछा कि क्या वह थोड़ा-बहुत खाना खाना चाहती थी, लेकिन भीतर से कोई आवाज न आयी।
शायद तब तक वह सो चुकी थी। आखिर रो-रोकर हलकान भी तो बहुत हुई थी।
विमल और नीलम ने डटकर खाना खाया और फिर ड्राइंगरूम की सैन्टर टेबल एक तरफ सरकाकर कालीन पर सो गये।
अगली सुबह विमल की नींद जल्दी खुल गयी।
उसने बैडरूम का दरवाजा खोला तो चौखट पर ही थमककर खड़ा हो गया।
सुरजीत कौर अपनी एक साड़ी के सहारे पंखे से लटकी हुई थी।
विमल सन्नाटे में आ गया।
सुरजीत कौर यूँ जान दे देगी, इस बात की उसने कल्पना तक नहीं की थी।
उस वक्त उसकी सूरत इतनी वीभत्स लग रही थी कि खुद विमल के लिए उसके कभी हर वक्त ताजा गुलाब की तरह खिले रहने वाले चेहरे की कल्पना करना मुहाल था। उसकी जुबान उसके हलक से बाहर लटक रही थी, निचला जबड़ा इस प्रकार खिंच गया था कि चेहरे का आकार ही बदल गया था, आँखें फटी पड़ रही थीं, चेहरा काला पड़ गया था और होंठों की कोरों पर और ठोड़ी पर मुँह से निकला झाग जमा हुआ था।
सुरजीत कौर ने खुद ही अपनी तकदीर का फैसला कर लिया था, अपने लिए उसने खुद ही सजा तजवीज कर ली थी।
उसने आत्महत्या कर ली थी।
विमल ने घबराकर उसकी तरफ से निगाह फेर ली।
जिस औरत को जान से मार डालने के मकसद से ही वह वहाँ आया था, उसको उस क्षण मरा देखकर उसका दिल हिल गया था। उस क्षण उसे यूँ लगा, जैसे गुनाहगार सुरजीत नहीं थी, वह खुद था। उस क्षण उसे यूँ लगा, जैसे सुरजीत उसे पुकार-पुकारकर पूछ रही हो—दारजी, बोलो, अब तो मैं माफी की हकदार हो गयी हूँ न ? अब तो तुम मेरे गुनाह बख्श दोगे न ?
वह खुद सुरजीत की जान लेता तो बात दूसरी होती, लेकिन सुरजीत ने यूँ उसकी खातिर अपनी जान लेकर जैसे उसके मुँह पर तमाचा मारा था।
“मर गयी ?”—उसे नीलम की आवाज सुनाई दी।
विमल ने घूमकर देखा। वह उसके समीप उससे एक कदम पीछे खड़ी थी। पता नहीं कब वह वहाँ आ खड़ी हुई थी।
विमल ने सहमति में सिर हिलाया और धीरे से बोला—“मुझे नहीं मालूम था कि यह यूँ आत्महत्या कर लेगी।”
“कल तुमने इसे बहुत जलील किया था।”—नीलम भी धीरे से बोली—“न सिर्फ जलील किया था, एक तीसरे शख्स के सामने एक गैर औरत के सामने, मेरे सामने जलील किया था।”
“तुम गैर औरत नहीं हो।”—विमल तनिक तीखे स्वर में बोला।
“तुम्हारे लिए नहीं हूँ लेकिन उसके लिए तो हूँ ! इसका यूँ मर जाना साबित करता है कि तुम्हारी बीवी बेवफा थी, लेकिन बेहया नहीं थी। अपने मर्द के हाथों एक गैर औरत के सामने इतनी तौहीन बर्दाश्त कर लेने के बाद एक हयादार औरत जिन्दा रहना गवारा नहीं कर सकती।”
“अब मैं काहे का मर्द था उसका ?”
“एक औरत होने के नाते मुझे यह बात सूझनी चाहिए थी कि तुम्हारी बीवी ऐसा कोई कदम उठा सकती थी। लेकिन अफसोस है कि वक्त रहते यह बात मुझे नहीं सूझी।”
“सूझ जाती तो तुम क्या करतीं ?”
“तो कम से कम मैं इसे आत्महत्या न करने देती। विमल, तुम अपने मन की भड़ास निकाल लेने के बाद इसकी जानबख्शी कर चुके थे, तुम इसके कत्ल का इरादा लेकर यहाँ आये थे, लेकिन वह इरादा तुम छोड़ चुके थे, दिल से छोड़ चुके थे। लेकिन तुम्हारी जानबख्शी इसने कुबूल नहीं की। सच पूछो तो आत्महत्या करके इसने तुम्हें नीचा दिखाया है। यह हारकर भी जीत गयी है। तुम जीतकर भी हार गये हो।”
विमल चुप रहा।
“इसने तुमसे झूठ नहीं बोला था कि तुम्हारे साथ दगाबाजी करके यह हमेशा पश्चात्ताप की आग में जलती रही थी।”
“अब क्या करें ?”
“सबसे पहले तो इसे नीचे उतारो।”
दोनों आगे बढ़े।
विमल पलंग पर चढ़ गया। उसने जी कड़ा करके उसकी गरदन के गिर्द बँधी साड़ी की गाँठ को खोलने की कोशिश की, लेकिन उसके जिस्म के भार की वजह से गाँठ इतनी कस गयी थी कि विमल उसे टस से कस न कर सका।
नीलम फ्लैट में से एक कैंची तलाश कर लायी।
कैंची की सहायता से पंखे और उसके शरीर के बीच एक मजबूत रस्सी की तरह तनी हुई साड़ी को वह बड़ी कठिनाई से काट पाया।
उन्होंने सुरजीत के मृत शरीर को पलंग पर लिटा दिया और उसे ऊपर से चादर से ढंक दिया।
उसका शरीर बुरी तरह अकड़ा हुआ था। लगता था, उसने पिछली रात बीच का दरवाजा बन्द होने के तुरन्त बाद ही आत्महत्या कर ली थी।
वे दोनों बाहर के कमरे में आ गये।
“अब क्या करें ?”—विमल के मुँह से निकला।
“क्या करें ?”—नीलम भी बोली।
“इसने यूँ आत्महत्या करके बड़ी समस्या पैदा कर दी है। पहली तारीख को यहाँ आने वाले डोगरा के हरकारे को पकड़ने के लिए हमारा यहाँ रहना जरूरी है, लेकिन लाश के साथ हम इस फ्लैट में नहीं रह सकते। लाश तो आज शाम तक ही सड़ने लगेगी। लाश को हम इस फ्लैट में भी नहीं छोड़ सकते। पहली तक तो इसमें से इतनी सड़ांध निकलने लगेगी कि वह सारी इमारत में फैल जायेगी। फिर कोई न कोई पुलिस को खबर कर देगा। यहाँ एक बार पुलिस पहुँच गयी तो हमारा मिशन फेल हो जायेगा। इसकी मौत की खबर हर जगह फैल जायेगी, अखबार में भी छप जायेगी और किसी न किसी साधन से डोगरा तक भी पहुँच जायेगी। फिर वह इसे दो हजार रुपये देने आने वाले को भेजेगा ही नहीं।”
“ओह !”
“और हमारे पास उस हरकारे के अलावा डोगरा के पास पहुँचने का और कोई साधन नहीं है।”
“तो फिर क्या किया जाये ?”
“अगर करना है तो एक ही काम है करने लायक।”
“क्या ?”
“लाश को यहाँ से हटाना होगा।”
“कैसे ?”
“और यह काम रात होने से पहले किया नहीं जा सकता। तब तक तो लाश में से सड़ांध फूटने लगेगी।”
“हूँ।”—नीलम चिन्तित भाव से बोली।
“ऊपर से यह भी जरूरी है कि लाश या तो गायब हो जाये या इसकी ऐसी गत बन जाये कि सूरत पहचानी न जा सके। इसकी लाश यहाँ से बाहर भी कहीं पहुँचाई गयी तो भी यह खबर आम हुए बिना नहीं रहेगी कि यह मर गयी है। यूँ बरामद होने वाली लाश की तसवीर पुलिस अखबार में छपवा देती है। डोगरा की अखबार में छपी तसवीर पर निगाह पड़ गयी तो फिर यहाँ पहली को कोई हरकारा नहीं आयेगा।”
“यानी कि लाश ठिकाने लगाने से पहले इसका चेहरा भी बिगाड़ना होगा ?”
“हाँ।”—विमल बोला। उस खयाल से ही उसके सारे शरीर में कंपकंपी दौड़ गयी।
“कर सकोगे यह काम ?”
विमल ने इन्कार में सिर हिलाया।
“क्या मुश्किल है ? इसके चेहरे के साथ रिवॉल्वर सटाकर दो-तीन गोलियाँ दाग देना।”
विमल ने जोर से थूक निगली।
“मैं कर दूँगी ऐसा।”—नीलम दृढ़ स्वर में बोली।
विमल ने हैरानी से उसकी तरफ देखा।
“मैं तुम्हारी खातिर अपनी जान दे सकती हूँ, किसी की जान ले सकती हूँ। एक मुर्दा जिस्म पर दो-चार गोलियाँ दागना क्या बड़ी बात है !”
“यह बाद की बात है। हमारे सामने पहली समस्या तो यह है कि लाश को सड़ने से रोकने का क्या इन्तजाम किया जाये और फिर इसे यहाँ से बाहर कैसे निकाला जाये ? यह कोई उजाड़ जगह तो है नहीं ! अच्छी-खासी घनी आबादी वाला इलाका है यह। हर वक्त आवाजाही बनी रहती है।”
नीलम सोच में पड़ गयी।
विमल भी खामोश बैठा रहा।
कई क्षण फ्लैट में एक मातमी सन्नाटा छाया रहा।
“रेफ्रीजरेटर !”—एकाएक नीलम के मुँह से निकला।
“क्या ?”—विमल हड़बड़ाया।
“रेफ्रीजरेटर !”
“रेफ्रीजरेटर क्या ? क्या कहना चाहती हो ?”
“डायनिंग रूम में जो रेफ्रीजरेटर पड़ा है, वह देखा तुमने ?”
“देखा है लेकिन...”
“वह फुलसाइज का है।”
“तो ?”
“तुम्हारी अक्ल घास चरने तो नहीं चली गयी, सरदारजी ? अरे, उसमें लाश समा सकती है।”
“ओह !”—विमल के मुँह से निकला।
वह अपने स्थान से उठा और डायनिंग रूम में पहुँचा।
उसने रेफ्रीजरेटर का मुआयना किया।
रेफ्रीजरेटर खूब बड़ा था। अगर उसे मुकम्मल तौर पर खाली कर दिया जाता और उसके शैल्फ निकाल दिये जाते तो लाश उसमें समा सकती थी।
लेकिन रेफ्रीजरेटर आखिर रेफ्रीजरेटर था, डीप फ्रीज तो नहीं था। हो सकता था कि उसमें लाश पहली तारीख तक सड़े बिना न रह पाती।
बहरहाल वक्ती तौर पर इस्तेमाल में लाने के लिए नीलम का सुझाव बुरा नहीं था।
उसने नीलम को इशारे से पास बुला लिया।
दोनों ने मिलकर रेफ्रीजरेटर खाली करना आरम्भ कर दिया। रेफ्रीजरेटर में जमा सामान निकाल-निकालकर उन्होंने डायनिंग टेबल पर ढेर कर दिया और उसके भीतर के शैल्फ निकालकर दीवार के सहारे एक ओर रख दिये।
उसने भीतर लगे थर्मोस्टैट कन्ट्रोल को फुल वॉल्यूम पर कर दिया।
फिर वे बैडरूम में पहुँचे।
चादर से ढकी सुरजीत की लाश को विमल ने सिर की तरफ से और नीलम ने पैरों की तरफ से सम्भाला। दोनों लाश को उठाए-उठाए बैडरूम से बाहर निकले। वे अभी ड्राइंग रूम के मध्य में ही थे कि एकाएक बड़े कर्कश भाव से काल-बैल बज उठी।
काल-बैल ऐसे अप्रत्याशित ढंग से बजी थी और फ्लैट के स्तब्ध वातावरण में वह इस कदर गूँजी थी कि लाश दोनों के ही हाथों से छूटते-छूटते बची। दोनों की निगाहें पहले अपने-आप ही फ्लैट के बन्द दरवाजे की तरफ उठ गयीं और फिर एक दूसरे से मिलीं।
विमल ने वापस बैडरूम की तरफ इशारा किया।
दोनों तेजी से बैडरूम में पहुँचे। उन्होंने लाश फिर पलंग पर डाल दी।
तभी काल-बैल फिर बजी।
“कौन होगा ?”—नीलम फुसफुसाई।
विमल ने अनभिन्नता से कन्धे उचकाये और नीलम जैसे ही स्वर में फुसफुसाया—“जाकर देखो कौन है ! अगर कोई अड़ोसी-पड़ोसी हो तो उसे चलता कर देना, लेकिन अगर आने वाला डोगरा से ताल्लुक रखता कोई आदमी लगे तो उसे भीतर बुला लेना।”
नीलम ने सहमति में सिर हिलाया और बैडरूम से निकलकर तेजी से दरवाजे की तरफ बढ़ गयी।
विमल ने बैडरूम का दरवाजा आधा बन्द कर दिया और उसकी ओट में हो गया। अपनी रिवॉल्वर निकालकर उसने हाथ में ले ली। वह दरवाजे की ओट में से बाहर झाँकने लगा।
नीलम ने फ्लैट का मुख्यद्वार खोला।
“मिसेज सिंह कहाँ हैं ?”—बाहर से एक तनिक सकपकाई हुई-सी जनाना आवाज आयी।
“मिसेज सिंह ?”—नीलम सकपकाई।
“सुरजीत कौर जी।”
“ओह !”—नीलम सम्भली और सुसंयत स्वर में बोली—“वे कहीं गयी हैं।”
“कब तक लौटेंगीं ?”
“कोई पक्का नहीं। आप सेवा बताइए ?”
“आप कौन हैं ?”
“मैं सुरजीत की बहन हूँ। पंजाब से आयी हूँ।”
“ओह ! आज ही आयी होंगी।”
“नहीं, कल रात आयी थी।”
“मुम्बई पहली बार आयी हो ?”
“हाँ।”
विमल जहाँ खड़ा था, वहाँ से उसे नीलम तो दिखाई दे रही थी, लेकिन वह आगन्तुक महिला दिखाई नहीं दे रही थी, जिससे कि वह बातें कर रही थी। नीलम यूँ दरवाजे पर अड़ी खड़ी थी कि वह महिला फ्लैट के भीतर कदम न रख सके और महिला के बातें करने के अन्दाज से ऐसा लग रहा था, जैसे बातों का उसे चस्का था और वह भीतर आकर इत्मीनान से गप्पें हाँकना चाहती थी।
“बड़ा लम्बा सफर है पंजाब से यहाँ का।”—महिला बड़े सहानुभूतिपूर्ण स्वर में बोली—“तुम्हें अकेले आते डर नहीं लगा ?”
“मैं अकेली नहीं आयी।”—नीलम मन ही मन आगन्तुक महिला की मौत की कामना करती हुई बोली—“साथ में हमारे ‘वो’ भी हैं।”
“वो ?”
“जी हाँ। मेरे हसबैंड।”
“ओह ! नयी-नयी शादी हुई मालूम होती है !”
“जी हाँ।”
“हनीमून के लिए मुम्बई आये होंगे आप लोग !”
“जी हाँ।”
“शादी की बधाई हो।”
“शुक्रिया।”
“तुम मिसेज सिंह की छोटी बहन हो ?”
“जी हाँ। देखिए, मुझे जरा काम है। आप बताइए आप...”
“मेरा नाम मिसेज साराभाई है। मैं सामने वाले फ्लैट में रहती हूँ।”
“अच्छा !”
“मैंने जरा टेलीफोन करना था।”
“टेलीफोन तो खराब है !”
“ओह ! फिर खराब हो गया !”
“जी हाँ।”
“मैंने बहुत जरूरी टेलीफोन करना था।”
“आप कहीं और से कर लीजिए।”
“और कहाँ से करूँ ? मिसेज शिवालकर तो फोन करने नहीं देतीं। अच्छा-भला फोन होता है, लेकिन झूठ बोल देती हैं कि फोन खराब है। खुद फोन करना हो तो फोन जैसे जादू के जोर से ठीक हो जाता है। फ्लैट के भीतर से साफ-साफ डायल चलने की और हल्लो-हल्लो की आवाजें सुनाई दे रही होती हैं...”
‘अब दफा भी हो।’—विमल दाँत पीसता हुआ मन ही मन बोला।
“हालाँकि पैसे देते हैं। फोकट में नहीं करते, लेकिन फिर भी कह देती हैं कि फोन खराब है। एक और फोन सावन्त साहब के फ्लैट में है, लेकिन उनके फ्लैट पर आज सवेरे से ही ताला झूल रहा है।”
“आसपास कहीं गये होंगे।”—नीलम बोली—“लौट आयेंगे।”
“तुम जरा दोबारा देखो न, शायद फोन ठीक हो गया हो !”
“मैंने अभी देखा था, खराब है।”
“फिर देख लो। फोन तो मुम्बई में ऐसे ही चलते हैं। एकाएक चल पड़ते हैं, एकाएक डैड हो जाते हैं।”
“मैंने कहा न, फोन अभी खराब है।”—नीलम बोली उसके सब्र का प्याला बस अब छलकने ही वाला था।
“अच्छा-अच्छा। तुम कहती हो तो जरूर होगा। मिसेज सिंह कब तक आयेंगी ?”
“कहा न, कोई पक्का नहीं।”
“यूँ कभी टेलीफोन खराब होने पर आपकी बहनजी टेलीफोन ठीक होते ही मुझे खबर कर जाया करती हैं कि मिसेज साराभाई, टेलीफोन ठीक हो गया है, आओ आकर नम्बर मिला लो।”
नीलम ने दाँत पीसे। महिला के मुँह पर फ्लैट का दरवाजा बन्द कर लेने से उसने अपने आपको जबरन रोका।
“बड़ी अच्छी हैं आपकी बहनजी।”—महिला अत्यन्त संवेदनशील स्वर में बोली—“कितने अफसोस की बात है कि बेचारी भरी जवानी में विधवा हो गयी ! फौज की नौकरी की यही तो मुश्किल है ! जंग में तो ऐसी ट्रेजेडियाँ हजारों की तादाद में होती हैं, लेकिन आपकी बहनजी के साथ तो यह ट्रेजेडी अमन में हुई। खामखाह प्लेन क्रैश कर गया आपके जीजाजी का...”
“मुझे मालूम है।”—नीलम बीच में बोल पड़ी—“और टेलीफोन अभी भी खराब है। और मुझे बहुत काम करने हैं। अभी मैंने अपने पति के लिए नाश्ता तक तैयार नहीं किया।”
“मैं कोई मदद करूँ ? मैं पाव-भाजी बहुत बढ़िया बनाती हूँ।”
“जी नहीं। शुक्रिया।”
“या मैं अपने यहाँ से बनाकर भेज देती हूँ।”
“जरूरत नहीं। आपकी जरूरी टेलीफोन काल को देर हो रही होगी।”
“हाँ। एक काल तो बहुत ही जरूरी थी। अच्छा, चलती हूँ।”
“नमस्ते।”
“नमस्ते। वैसे टेलीफोन ठीक हो जाये तो मुझे सामने से बुला लेना। मेरा नाम मिसेज साराभाई है। मैं सामने वाले फ्लैट में रहती हूँ। मैं...”
“जी हाँ। जी हाँ। टेलीफोन ठीक होते ही मैं आपको खबर कर दूँगी।”
“मेहरबानी। मैं चलती हूँ। मिसेज सिंह को बता देना कि सामने वाले फ्लैट वाली मिसेज साराभाई आयी थी।”
“मैं बता दूँगी।”
“तुम्हारे वो दिखाई नहीं दिये ?”
नीलम का जी चाहा कि वह अपने बाल नोचने लगे या उसका सिर पकड़कर दीवार से टकरा दे।
शायद नीलम के मन के भाव उसके चेहरे पर प्रतिबिम्बित हुए बिना रह नहीं सके थे, तभी तो इस बार मिसेज साराभाई ने हड़बड़ा कर ‘मै जाती हूँ’ कहा तो सचमुच चली गयी।
नीलम ने दरवाजा भीतर से बन्द कर लिया।
वह बैडरूम में वापस लौटी।
“कमीनी !”—नीलम भुनभुनाई—“चुड़ैल ! दिमाग चाट गयी। हर बात में से बात निकाल लेती थी। जी चाह रहा था कि मुँह नोच लूँ कम्बख्त का।”
“यहाँ हमने अगर तीन दिन रहना है तो हमें बहुत सब्र से काम लेना होगा।”—विमल बोला—“हम गुस्सा करना अफोर्ड नहीं कर सकते। इस इमारत के किसी निवासी को हम पर शक हो गया और उसने हमारी शिकायत कर दी कि इस फ्लैट की मालकिन का कहीं पता नहीं है और कोई अनधिकृत लोग भीतर घुसे बैठे हैं तो हमारे लिए मुश्किल हो जायेगी। ऐसी किसी शिकायत पर यहाँ पुलिस पहुँच गयी तो हमारे मिशन की कामयाबी तो खटाई में पड़ ही जायेगी, खुद हमें भी लेने के देने पड़ जायेंगे।”
“लेकिन हमारा तीन दिन यहीं रहना क्यों जरूरी है ? हम तीन दिन अपने होटल में क्यों नहीं रह सकते और पहली की सुबह को यहाँ वापस क्यों नहीं आ सकते ?”
“एक तो लाश की वजह से। मुझे रेफ्रीजरेटर पर भरोसा नहीं। रेफ्रीजरेटर का टेम्प्रेचर लाश को सड़ने से रोक पायेगा, इस बात की कोई गारंटी नहीं, इसलिए यहाँ निगरानी के लिए मौजूद रहना जरूरी है।”
“मुझे उम्मीद नहीं कि रेफ्रीजरेटर में लाश को कुछ होगा। तीन दिन की तो बात है ! तीन दिन में फुल वॉल्यूम पर चलते खाली रेफ्रीगरेटर में लाश को कुछ नहीं होने वाला।”
“वाहेगुरु न करे कि कुछ हो। लेकिन फर्ज करो कुछ होने लगा तो ?”
“तो हम क्या करेंगे ?”
“तो हम लाश के सड़ने लगने से पहले इसे फौरन यहाँ से बाहर निकालने का कोई इन्तजाम करेंगे।”
“क्या इन्तजाम करेंगे ?”
“यह तो वक्त आने पर सोचेंगे। ऐसी नौबत आ जाने पर कुछ तो करना ही होगा !”
“तुम खामखाह की चिन्ता कर रहे हो, मुझे गारन्टी है कि रेफ्रीजरेटर में लाश को कुछ नहीं होने वाला।”
“मुझे तुम्हारी गारन्टी कुबूल है। मैं चिन्ता नहीं कर रहा। मैं सिर्फ सावधानी बरत रहा हूँ।”
“ओह !”
“दूसरे, टेलीफोन की निगरानी भी जरूरी है। फ्लैट में टेलीफोन खामखाह लगा नहीं हो सकता। क्या पता यहाँ ऐसी कोई काल आये जो डोगरा की तलाश के सिलसिले में हमारे लिए मददगार साबित हो सकती हो !”
“लेकिन टेलीफोन तो तुमने उखाड़ रखा है ?”
“मैं अभी वापस लगा देता हूँ।”
“ठीक है।”
“एक और भी वजह से हमें यहाँ रहना चाहिए।”
“क्या ?”
“तुम्हें सुरजीत की इस बात पर विश्वास आता है कि दो साल तक डोगरा ने यहाँ कदम नहीं रखा, लेकिन किसी कीमती रखैल की तरह उसे यह पाले फिर भी जा रहा है ?”
नीलम एक क्षण हिचकिचाई, फिर उसने इन्कार में सिर हिला दिया।
“फिर ?”—विमल बोला।
“तुम्हारा मतलब है कि शायद पहली से पहले खुद डोगरा के ही यहाँ कदम पड़ जायें ?”
“हाँ। अगर यह सच भी है कि डोगरा आज तक इस फ्लैट में नहीं आया तो भी इस बात की क्या गारंटी है कि वह आगे भी नहीं आयेगा ! कोई ऐसी खास वजह एकदम भी तो पैदा हो सकती है, जो आने वाले तीन दिनों में कभी भी, आज ही, अभी ही, उसे यहाँ आने के लिए मजबूर कर सकती है !”
“तुम ठीक कह रहे हो।”—नीलम बड़ी संजीदगी से बोली।
“अब चलो, अपना वह अधूरा काम पूरा करें, जो मिसेज साराभाई के एकाएक आ टपकने से बीच में ही लटक गया था।”
नीलम ने सहमति में सिर हिलाया।
दोनों ने लाश को फिर से उठाया और उसे डायनिंग रूम में ले आये।
लाश इस कदर अकड़ चुकी थी कि बड़ी कठिनाई से वे उसके घुटने और बाँहें मोड़ सके।
फिर किसी तरह उन्होंने लाश को रेफ्रीजरेटर में ठूँसा और उसको बाहर से ताला लगा दिया।
चाबी विमल ने अपनी जेब में रख ली।
उस सारी क्रिया के दौरान दोनों का यह हाल था जैसे खुद उनकी जान पर आ बनेगी। गलती से भी सुरजीत के चेहरे पर उनकी निगाह पड़ जाती थी तो उनकी आँतें उबल पड़ती थीं और उबकाइयाँ रोकनी मुहाल हो जाती थीं। उसके अकड़े शरीर को छूना ही एक ऐसे हौसले का काम था जो वही जानते थे कि कैसे उन्होंने अपने आपमें पैदा किया था। अकड़ी हुई लाश का स्पर्श ही बड़ा जानलेवा था। लाश रेफ्रीजरेटर में ठूँसने की क्रिया में किये गये तीन-चौथाई काम उन्होंने आँखें मींचकर किये थे।
लेकिन काम हो गया था।
लाश रेफ्रीजरेटर में पैक हो गयी थी।
उसके बाद वे कितनी ही देर यूँ हाँफते हुए एक-दूसरे के सामने बैठे रहे, जैसे पहाड़ चढ़कर आये हों।
तभी काल-बैल फिर बजी।
विमल फिर बैडरूम में दरवाजे की ओट में चला गया और नीलम ने आगे बढ़कर दरवाजा खोला।
मिसेज साराभाई फिर आ गयी थी।
“टेलीफोन अभी भी खराब है।”—उसके कुछ कहने से पहले ही नीलम बड़े खेदपूर्ण स्वर में बोल पड़ी।
“मैं अपना जरूरी वाला टेलीफोन तो पोस्ट ऑफिस से कर आयी हूँ। बाकी टेलीफोन मैं जब यहाँ का फोन ठीक होगा, तब कर लूँगी।”
“हमारा टेलीफोन तो पता नहीं कब ठीक हो !”
“जल्दी ठीक हो जायेगा।”—मिसेज साराभाई बड़े इतमीनान से बोली।
“अच्छा !”
“हाँ। मैं डाकखाने वाले फोन से आपके टेलीफोन की कम्प्लेंट जो लिखवा आयी हूँ। कम्प्लेंट के नम्बर पर तो काल फ्री होती है !”
“यह तो बहुत अच्छा किया”—मन ही मन उस कम्बख्त औरत को हजार-हजार लानत भेजते हुए प्रत्यक्षतः नीलम बड़े कृतज्ञ भाव से बोली—“जो आपने हमारी खातिर इतनी जहमत उठाई !”
“मैंने सोचा था कि मिसेज सिंह घर पर नहीं हैं और पता नहीं कब घर लौटें, तुम लोग यहाँ नये आये हो, तुम्हें तो पता भी नहीं होगा कि कहाँ कम्प्लेंट करनी है, कहाँ से कम्प्लेंट करनी है।”
“शुक्रिया।”
“तुम तो आते ही बहन के कामों में हाथ बंटाने में जुट गयीं !”
“जी !”
“रेफ्रीजरेटर की सफाई कर रही हो न ! भीतर का सारा सामान बाहर टेबल पर जो पड़ा है !”
“ज-जी, जी हाँ। रेफ्रीजरेटर, मुझे ऐसा लगा जैसे काफी अरसे से साफ नहीं किया गया था। सोचा, मैं ही साफ कर दूँ।”
“फ्रीजर का भी जमी हुई बर्फ के मारे बुरा हाल होगा ?”
“जी हाँ।”
“लगता है आप लोगों के फ्रिज में आटोमैटिक डिफ्राॅस्टर नहीं है।”
“जी हाँ, नहीं है।”
“हमारे में तो है ! हम सिर्फ एक बटन दबाते हैं और फ्रिज चलता भी रहा है और सारी जमी हुई बर्फ भी पिघल जाती है। पानी वैफल ट्रे में जमा हो जाता है, जिसे हम बाहर निकाल फेंकते हैं। आपकी तरह फ्रिज को खाली नहीं करते और न ही बन्द करते हैं।”
“आपका फ्रिज तो फिर बहुत अच्छा हुआ !”
“हाँ, जी। इस मामले में तो अच्छा है !”
नीलम खामोश रही। वह उसके विदा होने की प्रतीक्षा करती रही।
“तुमने अपना नाम तो बताया नहीं ?”
“मेरा नाम नीलम है।”
“तुम्हारी नयी-नयी शादी हुई है न, इसलिए तुम्हारी तवज्जो पूरी तरह से घर-गृहस्थी की बातों की तरफ न रह पाना स्वभाविक ही है।”
“जी !”
“मेरी भी जब नयी शादी हुई थी”—वह बड़े बेहूदे ढंग से शरमाने का अभिनय करती हुई हँसी—“तो मेरा ध्यान रात की बातों की तरफ ही लगा रहा था, इसलिए कभी चूल्हे पर चढ़ी दाल जल जाती थी, तो कभी इस्त्री चालू ही रह जाती थी तो कभी कोई और बेवकूफीभरी गड़बड़ हो जाती थी। लगता है सारे हिन्दुस्तान के हर कोने में नयी ब्याही लड़की एक ही जैसी होती है।”
“मैं आपका मतलब नहीं समझी।”
“अब देखो न, वैसे तो तुम फ्रिज की सफाई कर रही हो, सारा सामान तक निकालकर बाहर रखा है तुमने और इन्तजार कर रही हो फ्रिज के डिफ्रॉस्ट होने का, लेकिन फ्रिज डिफ्रॉस्ट कैसे होगा ! बिजली का स्विच ऑफ करना तो तुम्हें याद ही नहीं रहा !”
नीलम को जैसे बिच्छू ने काटा।
“फ्रिज के ऊपर रखे वोल्टेज स्टैबलाइजर की लाल बती मुझे यहीं से जलती दिखाई दे रही है। फ्रिज तो चालू है ! डिफ्रॉस्ट कैसे होगा ?”
नीलम ने घबराकर फ्रिज की तरफ देखा।
वोल्टेज स्टैबलाइजर की लाल बत्ती उसे एक खतरनाक, दहकती हुई आँख की तरह अपनी तरफ घूरती दिखाई दी।
“दरअसल”—वह हकलाकर बोली—“मैंने अपने उनको स्विच बन्द करने के लिए कहा था।”
“और वे भूल गये।”—मिसेज साराभाई ने ठहाका लगाया—“क्यों न भूलते ? सारा ध्यान तो उनका तुम्हारी तरफ लगा रहता होगा। हर घड़ी। हर वक्त। ये मर्द लोग सभी ऐसे ही होते हैं।”
“जी हाँ। जी हाँ।”
“अब तुम तो बन्द कर दो स्विच। खाली फ्रिज में तो बर्फ और भी तेजी से जमती है।”
“मैं कर दूँगी।”
“भूल जाओगी।”—मिसेज साराभाई ने उसे मीठी झिड़की दी—“इस उम्र में याद रहती है कहीं कोई बात ! अभी की बात अभी भूल जाती है।”
“मैं अभी करती हूँ।”
नीलम को मजबूरन दरवाजे से हटना पड़ा।
उसके दरवाजे से हटते ही मिसेज साराभाई बड़े इत्मीनान से फ्लैट में घुस आयी।
वह एक लगभग पैंतालीस साल की अजीबोगरीब शक्ल-सूरत वाली औरत थी। उसकी तीन ठोड़ियाँ थीं, जो उसके चलने से भी हिलती थीं और बोलने से भी। गर्दन जैसे थी ही नहीं। सिर सीधा कन्धों पर ही रखा मालूम होता था। उसके बाल कटे हुए थे। उनकी जड़ें सफेद थीं और तीन चौथाई बालों की रंगत लाल थी। दोनों बातें साफ चुगली कर रही थीं कि वह खिजाब लगाती थी, लापरवाही से खिजाब लगाती थी। वह साड़ी पहने थी और वह उसके जिस्म के साथ यूँ लिपटी मालूम हो रही थी, जैसे किसी पेड़ के तने से लिपटी हो। उसकी कंजी आँखों के ऊपर भवें इतनी बारीक थीं कि बहुत गौर से देखने पर ही उनके अस्तित्व का आभास होता था।
नीलम डायनिंग रूम की तरफ बढ़ी।
मिसेज साराभाई ने बैडरूम का रुख दिया। प्रत्यक्षत: वह वहाँ टेलीफोन करने अक्सर आती थी, इसलिए उसे मालूम था कि फ्लैट में फोन कहाँ था।
विमल दरवाजे के पीछे से हटा। उसने रिवॉल्वर को जल्दी से ड्रैसिंग टेबल की दराज में डाल दिया।
नीलम फ्रिज से सम्बद्ध बिजली का स्विच ऑफ करके जब तक वापस घूमी, तब तक मिसेज साराभाई बैडरूम की चौखट लाँघ चुकी थी।
भीतर बैडरूम में विमल को देखकर वह ठिठकी। फिर उसके चेहरे पर एक मशीनी मुस्कराहट आयी और वह बोली—“हल्लो !”
“हल्लो !”—विमल कठिन स्वर में बोला।
“तुम मिसेज सिंह के ब्रदर-इन-लॉ हो ?”
“जी हाँ।”
“वैरी हैण्डसम, वैरी स्मार्ट यंगमैन।”—वह प्रशंसात्मक स्वर में बोली—“तुम्हारी बीवी बहुत खुशकिस्मत है कि उसे तुम्हारे जैसा हसबैंड मिला।”
“जी, शुक्रिया।”—विमल शरमाने का अभिनय करता बोला।
“लेकिन तुम तो...आई मीन... तुम तो वो .. वो..”—उसने अपने एक हाथ को ऊपर उठाया और उसे अपने सिर के ऊपर गोल-गोल घुमाया—“वो नहीं हो।”
“सरदार ?”—विमल उसका इशारा समझकर बोला।
“हाँ। सिंह। सिंह नहीं हो तुम ? या पहले थे, अब नहीं हो ?”
“मैं पहले भी नहीं था।”
“अच्छा !”
“दरअसल मैंने और नीलम ने लव-मैरिज की है।”
“ओह !”
तब तक नीलम भी बैडरूम में आ गयी थी और खा जाने वाली निगाहों से मिसेज साराभाई को घूर रही थी।
“नीलम सिखनी है।”—विमल बोला—“मैं सिख नहीं हूँ।”
“तो क्या हुआ ?”—मिसेज साराभाई बोली—“प्यार में जात-पात मजहब वगैरह नहीं चलता, यंग मैन।”
“यू आर राइट, मैडम।”
“तुम्हारा नाम क्या है ?”
“विमल।”
“विमल।”—साराभाई ने नाम दोहराया—“उस टेबल पर से टेलीफोन किधर गया।”
विमल ने असहाय भाव से नीलम की ओर देखा।
“टेलीफोन”—नीलम बोली—“इन्होंने लाइन पर से उतारा था।”
“इन्होंने उतारा था ?”—मिसेज साराभाई हैरानी से बोली—“क्यों ?”
“ये कहते थे कि कई बार कोई पेच-वेच ढीला होने से भी टेलीफोन डैड हो जाता था।”
“ओह ! तो तुम टेलीफोन ठीक करना जानते हो ?”
“जानता तो नहीं”—विमल खेदपूर्ण स्वर में बोला—“लेकिन...।”
“लेकिन यूँ ही कोशिश की थी।”—मिसेज साराभाई ने अट्टाहास किया—“वैरी क्लैवर ऑफ यू। वैरी क्लैवर ऑफ यू इनडीड।”
विमल खामोश रहा।
“अब जरा टेलीफोन को दोबारा लाइन पर जोड़ो। क्या पता तुम्हारे पेंच वगैरह कसने से टेलीफोन ठीक ही हो गया हो !”
विमल ने नीलम की तरफ देखा और एक गुप्त संकेत ऊपर पंखे की तरफ किया। जिस साड़ी से सुरजीत फाँसी लगाकर मरी थी, उसका आधा हिस्सा एक रस्सी की सूरत में अभी भी पंखे के साथ झूल रहा था। कैंची से साड़ी काटकर लाश नीचे उतारने के बाद विमल ने पंखे के साथ बंधी रह गयी साड़ी की तरफ ध्यान नहीं दिया था। मिसेज साराभाई के जरा भी निगाह ऊपर उठाने पर साड़ी की वह रस्सी उसे दिखाई दे सकती थी और फिर वह उसके बारे में भी हजार सवाल कर सकती थी—न सिर्फ सवाल कर सकती थी, बल्कि सन्दिग्ध भी हो सकती थी।
“हम अभी टेलीफोन लगाते हैं।”—नीलम बोली—“अगर वह ठीक हुआ तो हम आपको आपके फ्लैट से बुला लायेंगे।”
“अरे, अभी का अभी लगाओ न !”—मिसेज साराभाई ने जिद की—“एक मिनट का तो काम है !”
पता नहीं उस औरत की सुरजीत से कितनी आत्मीयता थी ! उनका उसके साथ रुखाई या बेअदबी से पेश आना उसे खल सकता था और वह इसी सन्दर्भ में इमारत के चार और लोगों से उनका कोई उलटा-सीधा जिक्र कर सकती थी।
“ठीक है।”—विमल बोला—“लगाते हैं।”
“गुड।”—मिसेज साराभाई पलंग पर उस टेबल के सामने बैठ गयी, जिस पर टेलीफोन रखा रहता था।
नीलम टेलीफोन उठा लायी। उसने उसे टेबल पर रख दिया।
विमल टेबल के इर्द-गिर्द निगाह डालने लगा।
“क्या ढूँढ़ रहे हो ?”—मिसेज साराभाई बोली।
“पेचकस।”—विमल बोला—“पेचकस पता नहीं कहाँ रख दिया मैंने !”
“यहीं कहीं होगा।”
“कहीं मिल नहीं रहा।”
“रखा कहाँ था ?”
“यहीं कहीं रखा था।”
“तो फिर कहाँ गया ?”
“क्या पता कहाँ गया !”
“हम पेचकस तलाश करते हैं”—नीलम बोली—“वह मिल जायेगा तो...”
“पेचकस मेरे फ्लैट में है।”—मिसेज साराभाई उठती हुई बोली—“मैं अभी लेकर आती हूँ।”
विमल और नीलम दोनों ने सहमति में सिर हिलाया।
मिसेज साराभाई वहाँ से चल दी।
उसके फ्लैट से निकलते ही विमल ने बैडरूम का दरवाजा बन्द कर दिया। उसने पलंग पर एक मेज रखी और मेज पर चढ़ गया।
कैंची की सहायता से काट-काटकर वह पंखे पर से बाकी साड़ी को अलग करने लगा।
“वह हरामजादी अब मेरे से टेलीफोन जुड़वायेगी”—विमल बोला—“लेकिन मैं कैसे जोड़ूँगा टेलीफोन ! मुझे क्या पता कौन-सी तार कहाँ जोड़ी जाती है ! मैंने तो कल तारों की तरफ झाँके तक बिना एक ही झटका मार कर फोन को उखाड़ दिया था।”
“टेलीफोन की तारों के बारे में तुम्हें कुछ नहीं मालूम”—नीलम बोली—“तो उसे ही क्या मालूम होगा ? तुम तारों को जैसे मर्जी जोड़ देना। टेलीफोन चल जाये तो ठीक, न चले तो कह देंगे कि पीछे से खराब है।”
“ठीक है।”
“वैसे टेलीफोन चल ही जाये तो अच्छा है, क्योंकि लगता नहीं कि वह फोन किये बिना हमारा पीछा छोड़ेगी। सारा दिन यही जानने के लिए फ्लैट की काल-बैल बजाती रहेगी कि फोन ठीक हुआ या नहीं, मिसेज सिंह लौटीं या नहीं !”
“तुम ठीक कह रही हो।”
तभी बैडरूम के बन्द दरवाजे पर दस्तक पड़ी।
विमल ने पंखे पर से काट-काटकर उतारी साड़ी को नीलम की तरफ उछाल दिया।
नीलम ने उसे पलंग के नीचे डाल दिया।
विमल झपटकर मेज पर से उतरा। उसने मेज को पलंग पर से उठाया और उसे यथास्थान रख दिया।
नीलम ने दरवाजा खोल दिया।
हाथ में पेचकस लिए मिसेज साराभाई वापस लौटी।
“दरवाजा काहे कू बन्द किया ?”—वह बोली।
दोनों में से किसी ने जवाब नहीं दिया। उन्होंने यूँ सिर झुका लिया, जैसे कोई गुनाह करते पकड़े गये हों।
“यू नॉटी यंग मैन।”—मिसेज साराभाई यूँ कुत्सित भाव से हँसी, जैसे सारा माजरा उसकी समझ में आ गया था और जो कुछ उसकी समझ में आया था, स्वयं उसे भी उससे रति सुख की अनुभूति हो रही थी। फिर वह नीलम की तरह घूमी—“यू लकी यंग लेडी।”
दोनों ने बनावटी शर्मिन्दगी का इजहार किया।
“यह पेचकस पकड़ो।”—वह पेचकस विमल की ओर बढ़ाती हुई बोली—“और जल्दी से टेलीफोन जोड़ो। मेरी काल हो जाये तो मैं भी अपने काम-धाम से लगूँ और तुम लोग भी”—उसने बारी-बारी दोनों पर निगाह डाली—“अपने काम-धाम से लग सको। डिस्टर्बेन्स के बिना।”
विमल ने पेचकस ले लिया।
उसने टेलीफोन की तारें जोड़ीं।
टेलीफोन में डायल टोन आ गयी।
उसने मिसेज साराभाई को खबर की कि टेलीफोन ठीक हो गया था।
वह बहुत खुश हुई।
फिर वह टेलीफोन के सिरहाने बैठ गयी और नम्बर पर नम्बर मिलाने लगी।
आधे घण्टे से ज्यादा वह टेलीफोन से उलझी रही।
उस दौरान उसने कम से कम दस नम्बर मिलाए।
अन्त में वह उठी, उसने अपने गिरहबान में हाथ डालकर एक छोटा-सा पर्स निकाला और उसमें से एक मुड़ा-तुड़ा, रोता-कलपता पाँच का नोट बरामद किया।
“यह टेलीफोन काल का पैसा ले लो।”—वह नोट नीलम की तरफ बढ़ाती बोली। वैसे उसने उसे थामा यूँ हुआ था, जैसे वह जान दे देती, लेकिन नोट हाथ से न छोड़ती।
“पैसे आप”—नीलम बोली—“बहनजी को ही दीजियेगा।”
“मिसेज सिंह तो टेलीफोन काल का पैसा हमसे कभी नहीं लेतीं।”
“तो फिर हम कैसे ले सकते हैं ?”
“लेकिन ... अच्छी बात है।”—उसने नोट वापस पर्स में रख लिया और पर्स गिरहबान में ऐसी चीजें रखने के लिए दुनिया-भर की औरतों की पसन्दीदा जगह पर महफूज कर लिया—“थैंक यू वैरी मच।”
वह वहाँ से विदा हो गयी।
नीलम ने फ्लैट का दरवाजा भीतर से बन्द कर लिया।
फिर सबसे पहले उसने फ्रिज पर से वोल्टेज स्टैबलाइजर को उठाकर फ्रिज की ओट में इस प्रकार रखा कि वह सामने से दिखाई न देता और फिर उसका बिजली का स्विच ऑन कर दिया।
फ्रिज फिर चल पड़ा।
डायनिंगरूम और ड्राइंगरूम के बीच दरवाजा नहीं था। दरवाजे के स्थान पर केवल एक पर्दा लगा हुआ था जिसे कि नीलम ने खींचकर दरवाजे की तरह बन्द कर दिया।
तभी काल-बैल फिर बजी।
नीलम ने फिर दरवाजा खोला।
इस बार टेलीफोन कम्पनी का मैकेनिक आया था।
“टेलीफोन तो ठीक हो गया है !”—नीलम ने उसे बताया।
“देखना तो फिर भी पड़ेगा !”—मकैनिक बोला—“रिपोर्ट करनी होती है।”
नीलम की निगाह सामने फ्लैट के दरवाजे पर पड़ी। उसे लगा, जैसे दरवाजा थोड़ा-सा खुला था और यूँ बनी झिरी में से कोई बाहर झाँक रहा था।
“आओ।”—वह मकैनिक से बोली।
मकैनिक भीतर आया। उसने टेलीफोन चैक किया, एक नम्बर मिलाकर कहीं रिपोर्ट दी कि वह ‘फाल्ट क्लियर’ हो गया था और फिर वहाँ से चल दिया।
नीलम उसे दरवाजे तक छोड़ने आयी।
इस बार मिसेज साराभाई भी अपने फ्लैट का दरवाजा खोलकर बाहर हाल में निकल आयी।
“अब टेलीफोन पक्का ठीक हो गया होगा !”—वह बोली।
“जी हाँ।”—नीलम बोली।
“यह आदमी मेरी की कम्पलेन्ट पर आया होगा !”
“ऐसा ही लगता है। मेहरबानी है आपकी।”
“मैंने और कोई फोन नहीं करना है।”—वह बड़े अर्थपूर्ण स्वर में बोली।
“नहीं नहीं। आप शौक से कीजिए।”
“मिसेज सिंह नहीं आयी अभी ?”
“नहीं।”
फिर वार्तालाप समाप्त हो गया।
नीलम ने दरवाजा भीतर से बन्द कर लिया।
अगले दो घण्टों में इमारत की दो और औरतें मिसेज सिंह को पूछने आयीं।
“तुम्हारी बीवी तो यहाँ बहुत पॉपुलर मालूम होती है !”—नीलम बोली।
“एक तनहा रहने वाली औरत का”—विमल बोला—“जिसके पास अरबन सोसायटी में स्टेटस सिम्बल माने जाने वाले सुख-सुविधा के तमाम साधन भी मौजूद हों, इलाके की हाउसवाइव्स में पॉपुलर हो जाना क्या बड़ी बात है ?”
“लेकिन अगर उसकी यूँ ही पूछ होती रही तो हमारे लिए आने वाले तीन दिन गुजारना मुहाल हो जायेगा।”
“हमें अपना जवाब बदलना होगा। अब हमें लोगों को कहना होगा कि वह तीन दिन के लिए कहीं गयी हुई है।”
“कहाँ ?”
“पूना।”
“वहाँ किसलिए ?”
“मिसेज साराभाई से हुआ अपना वार्तालाप याद करो। लगता है, सुरजीत ने यहाँ अपने-आपको हवाई सेना के अफसर की विधवा बताया हुआ है। हम कह सकते हैं कि उसकी पेंशन के सिलसिले में उसको एकाएक पूना जाना पड़ गया था। सुबह स्थानीय ऑफिस से उसका बुलावा आया था, लेकिन वहाँ कोई ऐसी पेचीदगियाँ पैदा हो गयी थीं कि उसका फौरन पूना जाना जरूरी हो गया था। लोगों को यह बात जँच जायेगी। पेंशन कलैक्ट करने के लिए भटकती एक फौजी अफसर की विधवा के साथ हर किसी की हमदर्दी होती है।”
“ओह !”
“अब कोई मिसेज सिंह को पूछे तो उसे यही कहानी सुनाना। कहना कि उसका फोन आया था कि वह फौरन पूना जा रही थी और वहाँ उसे दो-तीन दिन लग सकते थे।”
“ठीक है।”
उसके बाद जो आया, उसे यही कहा गया।
एक बार दोबारा आयीं मिसेज साराभाई को भी।
किसी की सूरत से ऐसा न लगा कि कोई सन्दिग्ध हुआ हो।
दोपहर को विमल ने नीलम को उस होटल में भेजा, जहाँ कि वे ठहरे हुए थे। वह वहाँ से दोनों की रोजमर्रा की जरूरत का सामान, कुछ कपड़े और कहीं से पैक कराकर खाना भी ले आयी।
वे खाना खाकर हटे ही थे कि एकाएक टेलीफोन की घण्टी बज उठी।
नीलम ने फोन उठाया।
वह कुछ क्षण दूसरी ओर से आती आवाज सुनती रही, फिर उसने ‘रांग नम्बर’ कहकर टेलीफोन वापस क्रेडल पर पटक दिया।
“कौन था ?”—विमल उत्सुक भाव से बोला।
“कोई औरत थी।”—नीलम बोली—“कह रही थी कि तीसरे माले पर सामने के फ्लैट में रहती कान्ताबाई को बुला दो।”
“रांग नम्बर कहने से क्या होगा ? फोन फिर आ जायेगा।”
विमल अभी पूरा फिकरा कह नहीं पाया था कि टेलीफोन की घण्टी फिर बज उठी।
“बजने दो।”—विमल बोला।
नीलम ने सहमति में सिर हिलाया।
तभी काल-बैल भी बज उठी।
“ऐसे कैसे कटेंगे तीन दिन ?”—नीलम असहाय भाव से बोली।
“काटने ही होंगे।”
“अब फोन उठाऊँ या जाकर दरवाजा खोलूँ !”
“फोन बजने दो। दरवाजा खोलो।”
नीलम दरवाजे की ओर बढ़ गयी।
विमल ने हिचकिचाते हुए रिसीवर उठाया।
आखिर यूँ घण्टी बजने देना भी ठीक नहीं था। जरूरी नहीं था कि काल पहले वाली औरत की ही होती। काल उनके मतलब की भी हो सकती थी।
“हल्लो।”—वह बोला।
“यह मिसेज सिंह का नम्बर है ?”—दूसरी ओर से किसी स्त्री ने सावधानी से पूछा।
“आपने पहले भी फोन किया था ? कान्ताबाई के लिए !”
“हाँ।”
“आपको बताया नहीं गया था कि यह रांग नम्बर है ?”—विमल कर्कश स्वर में बोला—“यह बान्द्रा पुलिस स्टेशन का नम्बर है। यह पहले किसी मिसेज सिंह का नम्बर था, लेकिन अब नहीं है।”
“अब मिसेज सिंह का क्या नम्बर है ?”
“यह मिसेज सिंह से ही पूछना।”
“कौन-से नम्बर पर फोन करके ?”
विमल ने रिसीवर पटक दिया।
फिर उसका ध्यान मुख्यद्वार की तरफ गया।
नीलम दरवाजा खोल रही थी।
वह बैडरूम की चौखट पर पहुँच गया।
इस बार एक नयी औरत आयी थी।
वह भी मिसेज सिंह की तलबगार थी।
नीलम ने उसे बताया कि मिसेज सिंह दो-तीन दिन के लिए पूना चली गयी थीं। उसने यह भी बताया कि वह मिसेज सिंह की बहन थी।
“आपके फ्रिज में हमारा आइसक्रीम का डोंगा पड़ा है।”—वह औरत बड़े शिष्ट भाव से बोली—“जरा दे दीजिए।”
“आपका डोंगा !”—नीलम सकपकाई।
“जी हाँ। शीशे का बड़ा-सा डोंगा है। आजकल हमारा फ्रिज खराब है, इस लिए कल वह डोंगा मैं आपके यहाँ रख गयी थी। आज हमारे यहाँ कुछ मेहमानों का लंच है। अब उन्हें आइसक्रीम सर्व करनी है।”
“अब मुझे क्या पता था कि वह आपका डोंगा था !”
“क्यों ? क्या हुआ ? टूट गया ?”
“नहीं। टूटा तो नहीं, लेकिन आज सुबह हमारा फ्रिज भी खराब हो गया था। हमने फ्रिज को मकैनिक के पास भेजना था, इसलिए हमने उसका सारा सामान निकालकर बाहर रख दिया था।”
नीलम ने देखा, मिसेस साराभाई फिर अपने फ्लैट के दरवाजे पर प्रकट हो गयी थी और बड़े गौर से सारा वार्तालाप सुन रही थी।
“यानी कि हमारा डोंगा भी सुबह से फ्रिज से बाहर पड़ा है ?”
“जी हाँ।”
“सत्यानाश ! अब हम अपने मेहमानों को क्या खिलायेंगे ?”
“अब मैं क्या बताऊँ ?”
“आपको बताना तो चाहिए था कि आपका भी फ्रिज खराब हो गया था !”
“मुझे क्या पता था, उसमें आपका भी कोई सामान पड़ा था ?”—नीलम झुँझलाई।
“अब मैं मेहमानों को डैजर्ट में क्या खिलाऊँ ? और मैं उन्हें कहकर आयी हूँ कि मैं आइसक्रीम का डोंगा लेने जा रही हूँ।”
नीलम खामोश रही।
“अब लाइए तो सही हमारा डोंगा।”
नीलम डायनिंग टेबल पर जमा फ्रिज से निकाले सामान में मौजूद शीशे का इकलौता डोंगा ऊठा लायी। उसने डोंगा औरत को सौंप दिया।
उसने डोंगे का ढक्कन उठाया तो उसकी सूरत पर ऐसे भाव आये, जैसे उसने अपने किसी नजदीकी रिश्तेदार का मरा हुआ मुँह देखा हो।
आइसक्रीम लस्सी बनी हुई थी। लस्सी में फ्रूट के टुकड़े तैर रहे थे।
उसने नीलम पर यही मेहरबानी की कि डोंगा उसके सिर पर नहीं पटका। आँखों से भाले-बर्छियाँ बरसाती और बुरी तरह से पाँव पटकती वह वहाँ से विदा हुई।
“इसके घर में जो फ्रिज है”—मिसेज साराभाई अपने फ्लैट के दरवाजे से ही बोली—“उसे कोई कबाड़ी भी नहीं खरीदने वाला। तीन साल से खराब है। उसे ठीक कराने की जगह तीन साल से उसके खराब होने का हवाला देकर ये लोग दूसरों के फ्रिज इस्तेमाल कर रहे हैं।”
नीलम बड़े संकोचपूर्ण ढंग से हँसी।
“लेकिन सुबह तो तुम्हारा फ्रिज ठीक था ! तुम तो उसे डिफ्रॉस्ट कर रही थीं ! मैंने खुद उसे चलता देखा था।”
“हाँ। लेकिन बाद में पता नहीं क्या हुआ कि एकाएक ही बिगड़ गया। कम्प्रेशर चलता ही नहीं।”
“ओह !”
नीलम ने दरवाजा बन्द कर लिया।
वह वापस बैडरूम में लौटी।
“लगता है।”—वह भुनभुनाई—“तुम्हारी बीवी इस इमारत की हाउस वाइव्स की किसी यूनियन की प्रधान थी और सोशल सर्विस का जरूर कोई मैडल भी हासिल कर चुकी थी।”
विमल जबरन मुस्कराया।
“हमारा इतना एक्सपोजर हमारे लिए कोई समस्या न खड़ी कर दे !”
“जो होगा देखा जायेगा। पहली तारीख तक हिलना हमने भी नहीं यहाँ से।”
“ठीक है।”—नीलम गहरी साँस लेकर बोली।
वे दोनों बैडरूम में जा लेटे और सो जाने की कोशिश करने लगे।
लेकिन टेलीफोन बज उठने या काल-बैल बज उठने के सस्पैंस में दोनों में से किसी को भी नींद न आयी।
सुरजीत कौर की लाश रेफ्रीजरेटर में बन्द पड़ी रही।
रेफ्रीजरेटर चलता रहा।
शाम को एक नयी पेचीदगी पैदा हो गयी।
दिन ढलते ही सारे इलाके की बिजली गुल हो गयी।
रेफ्रीजरेटर बन्द हो गया।
पहले वे इसी इन्तजार बैठे रहे कि अस्थायी तौर पर पीछे से बिजली बन्द की गयी थी जो कि जल्दी ही चालू कर दी जाने वाली थी।
लेकिन जब एक घण्टा बीत गया और बिजली न आयी तो वे घबराने लगे।
नीलम ने किचन में से एक मोमबत्ती तलाश करके जला ली थी। उसी की रोशनी में विमल ने उस इलाके की बिजली की शिकायतें देखने वाले दफ्तर का नम्बर तलाश किया और उस पर टेलीफोन किया। मालूम हुआ कि उस इलाके का फीडर ट्रांसफार्मर एकाएक जल गया था, जिसकी वजह से कम से कम चार-पाँच घण्टे तक तो इलाके की बिजली चालू हो पाने का सवाल ही नहीं था, उससे ज्यादा वक्त भी लग सकता था।
विमल ने रिसीवर रख दिया और वह मनहूस खबर नीलम को सुनाई।
“सत्यानाश !”—नीलम के मुँह से निकला।
विमल खामोश रहा। उसके चेहरे पर गहन चिन्ता के भाव थे।
“अब क्या होगा ?”—नीलम ने पूछा।
“लाश को यहाँ से निकालकर कहीं ठिकाने न लगाया तो बहुत बुरा होगा।”
“ऐसा कैसे करेंगे हम ?”
“पता नहीं कैसे करेंगे, लेकिन कुछ तो करना ही होगा !”
नीलम खामोश हो गयी।
विमल सोच में पड़ गया।
बहुत विकट समस्या थी।
चलते रेफ्रीजरेटर में भी तीन दिन तक लाश का सलामत रह पाना उसे सन्देहजनक लग रहा था, बन्द में तो वह अब तक सड़ने भी लगी हो तो कोई बड़ी बात नहीं थी।
तुरन्त कुछ किया जाना निहायत जरूरी था।
फिर वह कपड़े बदलने लगा। रिवॉल्वर उसने पतलून की बेल्ट में खोंस ली और कोट के बटन ऊपर से बन्द कर लिए। कुछ अतिरिक्त गोलियाँ उसने कोट की भीतरी जेब में रख लीं।
“कहाँ जा रहे हो ?”—नीलम व्याकुल भाव से बोली।
“लाश के ही किसी इन्तजाम की फिराक में जा रहा हूँ।”—विमल बोला—“मेरे लौटने से पहले तुम डायनिंग टेबल पर पड़ा सारा सामान और फ्रिज के शैल्फ किचन में कहीं रख देना।”
“लेकिन...”
“और होशियारी से घर में बैठना।”
“यहा मैंने क्या होशियारी दिखानी है ? फ्लैट को ताला लगाकर हम दोनों चलते हैं।”
“क्या फायदा ?”
“मुझे नहीं पता। मैं तुम्हारे साथ चलूँगी।”
“क्यों ?”
“मुझे यहाँ डर लग रहा है।”
“बल्ले ! तो अब तुम्हें भी डर लगने लगा है !”
“मजाक मत करो। अँधेरे में यह फ्लैट मुझे भूत-बसेरा मालूम हो रहा है, मुझे लगता है कि तुम्हारे यहाँ से जाते ही तुम्हारी बीवी रेफ्रीजरेटर से बाहर निकलेगी और मेरी गरदन दबोच लेगी।”
“तुम पागल हो गयी हो।”
“पागल ही सही। लेकिन मैं तुम्हारे साथ जाऊँगी। मैं यहाँ लाश के साथ अकेली नहीं ठहरूँगी।”
“ठीक है। चलो।”
नीलम तैयार होने लगी।
उसके तैयार होने तक विमल से डायनिंग टेबल का सारा सामान किचन में पहुँचा दिया।
फिर उन्होंने मोमबत्ती बुझाई और फ्लैट को मजबूती से ताला लगाकर नीचे पहुँचे।
वे टैक्सी स्टैंड पर पहुँचे।
वहाँ से नीलम ने मालूम किया कि टैम्पो कहाँ से मिल सकता था। जो स्थान उन्हें बताया गया, एक टैक्सी पर ही सवार होकर वो लोग वहाँ पहुँचे।
वहाँ एक टैम्पो वाले को उन्होंने बताया कि एक बड़ा रेफ्रीजरेटर सान्ताक्रुज एयरपोर्ट के पास ले जाना था और यह कि रेफ्रीजरेटर को दूसरे माले से उतारने के लिए लेबर की भी जरूरत थी।
कुछ देर भाव-ताव चला, फिर सौदा पट गया।
टैम्पो वाले का एक आदमी अपना था, दो उसने अड्डे से पकड़ लिए।
सब लोग टैम्पो पर सवार हो गये।
टैम्पो हिल रोड पर रूपाबाई मैंशन के सामने आकर रुका।
इलाके में तब भी अन्धेरा था।
सब लोग दूसरी मंजिल पर पहुँचे।
नीलम ने फ्लैट का ताला खोला।
मिसेज साराभाई के फ्लैट का दरवाजा भी खुला और वह चौखट पर प्रकट हुई। छोटी से छोटी आवाज सुन लेने के लिए प्रशिक्षित उसके कान इतने ढेर सारे कदमों की आहट भला कैसे न सुन पाते !
अन्धेरे में आँखें फाड़-फाड़कर उसने पहले नीलम की सूरत पहचानी और फिर बोली—“क्या बात है ?”
“कुछ नहीं”—नीलम बड़े सहज भाव से बोली—“बिगड़ा हुआ रेफ्रीजरेटर मरम्मत के लिए ले जा रहे हैं।”
“जल्दी क्या थी ? अपनी बहन को आ जाने देतीं !”
“वो किस लिए ?”
“तुम इस शहर में नयी हो। या तो किसी ऐसी उल्टी-सीधी जगह फ्रिज दे आओगी, जहाँ ठीक से मरम्मत नहीं होती होगी और या फिर उजरत में ठगी जाओगी।”
“कोई बात नहीं। फ्रिज मुझसे बिगड़ा है, इसलिए मैं इसे बहनजी के लौटने से पहले ठीक करा लेना चाहती हूँ।”
“यह तो इत्तफाक हुआ। फ्रिज मिसेज सिंह के होते भी बिगड़ सकता था।”
“लेकिन नहीं बिगड़ा। कोई बात नहीं, आँटी। दस-बीस रुपये फालतू ही तो लग जायेंगे। हम अफोर्ड कर सकते हैं। हमारे ये बहुत पैसे कमाते हैं।”
“क्यों नहीं ! क्यों नहीं !”
नीलम फ्लैट में दाखिल हो गयी।
विमल ने मोमबत्ती जला दी थी।
उसने फ्लैट में से एक एयरबैग तलाश किया। उसमें उसने अपनी बंधी-बंधाई पगड़ी, फिफ्टी, दाढ़ी-मूँछ और एक छोटा-सा शीशा रख लिया और कन्धे पर टांग लिया।
फिर उसने रेफ्रीजरेटर का प्लग वोल्टेज स्टैबलाइजर के सॉकेट से निकाल दिया।
चार जनों ने रेफ्रीजरेटर को उठाया।
ड्राइंगरूम की चौखट पर पहुँचते-पहुँचते एक मजदूर कह ही बैठा—“तौबा ! यह तो बहुत भारी है। इसमें क्या पत्थर भरे हैं, बाप ?”
“किचन का सामान ही है, भाई।”—विमल सकपकाए स्वर में बोला।
“सामान तो निकाल लो, साहब।”—टैम्पो वाला बोला।
“नहीं निकाल सकते”—विमल खेदपूर्ण स्वर में बोला—“इसकी चाबी खो गयी है। अन्धेरे में उसे ढूँढ़ना मुहाल है और फ्रिज आज ही हमने सान्ताक्रुज पहुँचाना है।”
अपने फ्लैट के दरवाजे की चौखट पर खड़ी मिसेज साराभाई के कान खड़े हो गये।
क्या माजरा था ?—उसके आदतन खुराफाती दिमाग ने सोचा।
वे लोग फ्रिज के साथ सावधानी से सीढ़ियाँ उतर रहे थे। विमल सावधान की मुद्रा में उन पीछे चल रहा था और कभी जरूरत महसूस करता था तो सहारा भी लगा देता था।
नीलम ने फ्लैट को ताला लगा दिया।
वह बाकी लोगों के पीछे जाने को वापस घूमी तो मिसेज साराभाई ने उसे आवाज दी—“सुनो।”
“आकर सुनूँगी, आँटी।”—नीलम व्यस्तता जताती बोली—“अभी जरा जल्दी है।”
“अरे, जरा तो रुको।”
“अगर टेलीफोन करना है तो बेशक फ्लैट की चाबी रख लो।”
“नहीं, नहीं। वह बात नहीं।”
“तो फिर मैं लौटकर बात करूँगी !”
“तुम लौटोगी ?”
“क्यों नहीं लौटूँगी ?”—नीलम हैरानी जताती हुई बोली—“लौटूँगी नहीं तो और कहाँ जाऊँगी ?”
मिसेज साराभाई चुप हो गयी।
नीलम बाकी लोगों के पीछे लपकी।
सब लोग रेफ्रीजरेटर के साथ नीचे पहुँचे। रेफ्रीजरेटर टैम्पो में लाद दिया गया। तीन मजदूर पीछे रेफ्रीजरेटर के साथ उसको थामकर बैठ गये। विमल और नीलम आगे ड्राइवर के साथ बैठे।
टैम्पो में सवार होने से पहले नीलम ने एक निगाह इमारत पर ऊपर की तरफ डाली।
मिसेज साराभाई अपने फ्लैट की बालकनी में खड़ी थी और टैम्पो को ही देख रही थी।
अन्धेरे में भी नीलम ने उसे साफ पहचाना।
टैम्पो एक झटके के साथ वहाँ से रवाना हो गया।
वे सान्ताक्रुज पहुँचे।
विमल ने एयरपोर्ट से परे एक्सप्रेस हाईवे पर ही टैम्पो रुकवा लिया।
“बस यहाँ उतार दो ”—विमल बोला—“आगे इसे इण्डियन एयरलाइन्स की पिक-अप वैन ले जायेगी।”
टैम्पो वाले ने सहमति में सिर हिलाया।
मजदूरों ने रेफ्रीजरेटर को सड़क के किनारे फुटपाथ पर रख दिया।
विमल ने उनका भाड़ा चुकाकर उन्हें विदा कर दिया।
“मतलब ?”—नीलम असमंजसपूर्ण स्वर में बोली।
“मतलब अभी समझ जाओगी।”—विमल बोला—“अब तुम यहाँ फ्रिज के पास खड़ी होवो, मैं कहीं और से कोई दूसरा टैम्पो पकड़कर लाता हूँ।”
नीलम ने सहमति में सिर हिलाया।
विमल वहाँ से विदा हो गया।
थोड़ा आगे जाकर उसने वापस घूमकर देखा।
रात के समय तेज वाहनों वाली चलती सड़क के किनारे कद में अपने से बड़े रेफ्रीजरेटर के साथ अकेली खड़ी नीलम बड़ी अजीब लग रही थी।
मिसेज साराभाई का पति बसन्त साराभाई उतना ही दुबला-पतला था, जितनी कि मिसेज साराभाई मोटी थी और उतना ही धीर-गम्भीर था, जितनी कि मिसेज साराभाई वाचाल थी। वह स्थानीय एलफिंस्टन कॉलेज में सीनियर प्रोफेसर और हेड ऑफ फिजिक्स डिपार्टमेंट था और मिसेज साराभाई मुश्किल से मैट्रिक पास थी। उनकी इकलौती औलाद एक लड़का कैनेडा में नौकरी करता था और वे बान्द्रा के उस फ्लैट में अकेले रहते थे।
प्रोफेसर साहब साधारणतया आठ बजे तक घर आ जाते थे, लेकिन उस रोज वे दस बजे के करीब घर पहुँचे।
सारे इलाके में रोशनी तब भी नहीं थी।
मिसेज साराभाई ने उन्हें पानी पिलाया, उनके कपड़े तब्दील करवाने में उनकी मदद की और फिर किचन में चली जाने की जगह—जैसे कि वह साधारणतया करती थी—उनके सामने बैठ गयी।
प्रोफेसर साहब ने मोमबत्ती की रोशनी में अपनी बीवी के अत्यन्त गम्भीर और परेशानहाल चेहरे को देखा तो सशंक स्वर में बोले—“क्या बात है ? कोई बुरी खबर है ?”
“नहीं।”—मिसेज साराभाई बोली।
“तो फिर यूँ उल्लू-सा नक्शा क्यों ताने हुए हो ?”
“मुझे एक बात बताओ।”
“पहले तुम मुझे एक बात बताओ।”
“क्या ?”
“आज खाना बनाया है या नहीं ?”
“बनाया है। अभी परोसती हूँ, लेकिन पहले मेरी बात सुनो।”
“तुम्हारी बात इतनी जरूरी है कि उसे सुनाए बिना तुम मुझे खाना नहीं दोगी ?”
“उलटा-सीधा मत बोलो। जो मैं कहने जा रही हूँ, उसे गौर से सुनो।”
“अच्छी बात है। बोलो। सुन रहा हूँ मैं।”
“सामने मिसेज सिंह के फ्लैट में एक ताजा ब्याहा जोड़ा आया है। लड़की अपने आपको मिसेज सिंह की छोटी बहन बताती है।”
“बताती है क्या मतलब ? क्या हकीकत में नहीं है ?”
“सुनते जाओ। बीच में मत बोलो।”
“अच्छा।”
“जब से वे लोग सामने फ्लैट में आये हैं, तब से मिसेज सिंह दिखाई नहीं दी है। वे कहते हैं कि अपने पति की पेंशन के चक्कर में मिसेज सिंह को एकाएक पूना जाना पड़ गया है।”
“तो क्या बड़ी बात है इसमें ?”
“मिसेज सिंह की बहन की ताजी-ताजी शादी हुई है। वे लोग हनीमून मनाने पंजाब से यहाँ आये हैं। लेकिन मिसेज सिंह तो पिछले दो साल से एक दिन के लिए भी कहीं नहीं गयी ! क्या यह बात तुम्हें अजीब नहीं लगती कि मिसेज सिंह अपनी सगी बहन की शादी में शामिल होने न गयी हो ?”
“नहीं लगती। मिसेज सिंह की अपने माँ-बाप से नहीं बनती होगी। या कोई और वजह होगी।”
“और वजह क्या ?”
“शायद मिसेज सिंह की छोटी बहन ने लव-मैरिज की हो। एकाएक। बिना किसी को खबर किये।”
“यह तो वह कहती थी।”—मिसेज साराभाई के मुँह से निकला।
“कौन ?”
“नीलम।”
“नीलम कौन ?”
“मिसेज सिंह की छोटी बहन।”
“क्या कहती थी ?”
“कि उसने लव-मैरिज की थी। अपनी बिरादरी से बाहर। उसका पति सिख नहीं है।”
“फिर ? अपनी शंक का समाधान तो तुमने खुद ही कर लिया !”
“अभी आगे सुनो।”
“अभी और भी शंकाए हैं ?”
“सुनो तो।”
“आज मुझे खाना नसीब होता नहीं दिखाई देता।”
“अब सुनोगे भी या अपनी ही हाँके जाओगे।”—वह झल्लाकर बोली।
“सुन तो रहा हूँ ! तुम कुछ कहो भी तो सही !”
“मैं सुबह उनके यहाँ टेलीफोन करने गयी थी। उन लोगों ने रेफ्रीजरेटर का सारा सामान उसमें से निकालकर डायनिंग टेबल पर रखा हुआ था। मेरे पूछने पर नीलम ने मुझे बताया कि रेफ्रीजरेटर की सफाई कर रही थी।”
“तो क्या बुरा कर रही थी ? घर के काम-काज में जरूरी थोड़े ही है कि हर कोई तुम्हारी तरह लापरवाह हो !”
“हनीमून के लिए मुम्बई आयी कोई लड़की मुम्बई में कदम रखते ही यूँ ऊटपटांग घरेलू कामों में जुट जायेगी ? तब जुट जायेगी, जबकि वह फ्लैट में अपने पति के साथ अकेली हो ?”
“अगर बहुत सुघड़ होगी तो जुट जायेगी। शान्ताबाई, तुम्हें मालूम नहीं है। पंजाबी औरतें घर के काम-काज में बहुत मुस्तैद होती हैं।”
“होती होंगी। लेकिन मूर्ख भी।”
“वो कैसे ?”
“रेफ्रीजरेटर को डिफ्रॉस्ट करने के लिए उसे खाली किये बैठी थी, लेकिन बिजली का स्विच चालू था।”
“अरे, भूल गयी होगी बिजली का स्विच ऑफ करना ! बेचारी की नयी-नयी शादी जो हुई है ! तुम्हें अपना याद नहीं, जब तुम्हारी नयी शादी हुई थी तो तुम क्या कुछ नहीं भूल जाया करती थीं ?”
“यह बात मैंने भी उसे कही थी। ऐसे ही कही थी।”
“शान्ताबाई”—प्रोफेसर साहब आहत भाव से बोले—“जब हर सवाल का वाजिव जवाब तुम्हारे अपने ही पास है और तुम ऐसे जवाब इस्तेमाल भी कर चुकी हो तो अब मेरे कान क्यों खा रही हो ?”
“अभी आगे सुनो।”—शान्ताबाई ने आदेश दिया।
“अभी और भी सुनना है ?”
“हाँ।”
“बोलो, और भी बोलो।”
“रेफ्रीजरेटर आधे घन्टे में डिफ्रॉस्ट हो जाता है। और दस मिनट में उसकी झाड़-पोंछ हो जाती है, लेकिन दोपहर तक भी उन्होंने उसे दोबारा चालू नहीं किया था।”
“तुम्हें कैसे मालूम ?”
“चौथे माले की सावित्री का आइसक्रीम का डोंगा उनके रेफ्रीजरेटर में पड़ा था। दोपहरबाद जब वह उसे लेने आयी थी तो वह तब भी रेफ्रीजरेटर से बाहर डायनिंग टेबल पर पड़ा था।”
“उसको वापस फ्रिज में न रखने की नीलम ने कोई वजह तो बताई होगी ?”
“वह कहती थी कि फ्रिज एकाएक खराब हो गया था।”
“तो ठीक कहती होगी ! इतनी मामूली-सी बात में भी कोई झूठ बोलना जरूरी होता है !”
“लेकिन जो फ्रिज चल ही नहीं रहा था, जो डिफ्रॉस्टिंग के लिए ऑफ किया हुआ था, वह खराब कैसे हो गया ?”
“होगी कोई वजह। आजकल चीज बिगड़ते पता लगता है ?”
“अब आगे सुनो।”
“हे भगवान ! अभी भी आगे सुनूँ ?”
“हाँ।”—मिसेज साराभाई ने हुक्म दनदनाया।
“सुनाओ।”—प्रोफेसर साहब असहाय भाव से बोले—“सुनाओ।”
“फिर शाम ढलते ही एकाएक सारे इलाके की बत्ती चली गयी।”
“तो ?”
“जो रेफ्रीजरेटर सुबह से खराब था, बत्ती चली जाने के बाद एकाएक उन्हें उसे मरम्मत के लिए ले जाना सूझा।”
“अन्धेरे से वे लोग बोर हो रहे होंगे, खुद मेरा अन्धेरे में दिल घबरा रहा है, वह काम उन्होंने कभी तो करना ही था ! सोचा होगा, क्यों न अभी कर डालें !”
“कबूल। लेकिन वह रेफ्रीजरेटर, जिसका सारा सामान मैंने अपनी आँखों से उससे बाहर डाइनिंग टेबल पड़ा देखा था, चार आदमियों से, चार हट्टे-कट्टे मजबूत आदमियों से उठाए नहीं उठ रहा था।”
इस बार प्रोफेसर साहब सकपकाए। उनकी रीढ़ की हड्डी एकाएक सीधी हो गयी और वे सावधान की मुद्रा में तनकर बैठ गये।
“और सुनो। जब एक मजदूर ने शिकायत की कि रेफ्रीजरेटर बहुत भारी था तो नीलम का मर्द बोला कि वे रेफ्रीजरेटर के भीतर का सामान निकाल नहीं सकते थे, क्योंकि रेफ्रीजरेटर को ताला लगा हुआ था और उसकी चाबी उनसे फ्लैट में कहीं इधर-उधर रखी गयी थी जिसे कि अन्धेरे में ढूँढना मुहाल था।”
“अच्छा ! ऐसा कहा उसने ?”
“और मैंने अपने कानों से सुना था कि वे रेफ्रीजरेटर को मरम्मत के लिए सान्ताक्रुज ले जा रहे थे। अब तुम मुझे यह बताओ प्रोफेसर साहब, कि बान्द्रा में क्या रेफ्रीजरेटर की मरम्मत करने वालों की कमी है ?”
प्रोफेसर साहब सोच में पड़ गये।
“जबाब दो।”—मिसेज साराभाई चैलेंजभरे स्वर में बोली।
“तुम कहना क्या चाहती हो ?”
“मैं कुछ नहीं कहना चाहती। तुम मेरे से कहीं ज्यादा पढ़े-लिखे और ज्यादा समझदार आदमी हो। तुम बोलो, तुम क्या कहना चाहते हो ?”
प्रोफेसर साहब कुछ क्षण खामोश रहे, फिर एकाएक उनके नेत्र फैल गये और वे आतंकित स्वर में बोले—“शान्ताबाई, तुम यह तो नहीं कहना चाहतीं कि उन लोगों ने मिसेज सिंह की हत्या कर दी थी और उसकी लाश रेफ्रीजरेटर में बन्द की हुई थी ?”
“क्या ऐसा नहीं हो सकता ?”
“नहीं हो सकता।”
“क्यों नहीं हो सकता ?”
“अगर उन लोगों का उद्देश्य, मिसेज सिंह की हत्या ही करना था तो हत्या करने के बाद तक—बाद ही नहीं, बल्कि बहुत बाद तक—उनका फ्लैट में ठहरे रहना क्यों जरूरी था, उनके लिए लाश को फ्रिज में बन्द करना क्यों जरूरी था ?”
“मुझे क्या मालूम ?”
“अपने खुराफाती दिमाग पर जोर दो, कोई जबाब सूझ जायेगा।”
“फिर लगे मेरा मजाक उड़ाने ?”
“मैं तुम्हारा मजाक नहीं उड़ा रहा। मैं तुमसे एक सवाल कर रहा हूँ। अगर वे लोग मिसेज सिंह के कोई रिश्तेदार नहीं थे और उनके यहाँ आने के पीछे उनका इकलौता उद्देश्य मिसेज सिंह की हत्या करना था तो हत्या कर चुकने के बाद भी वे फ्लैट में टिके क्यों रहे, उन्होंने लाश को फ्रिज में बन्द करके फ्लैट से निकालने का निहायत खतरनाक और पेचीदा तरीका क्यों इस्तेमाल किया ?”
“मैंने यह कब कहा कि फ्रिज में मिसेज सिंह की लाश थी ?”—मिसेज साराभाई हड़बड़ाई।
“अच्छा ! नहीं कहा ?”
“नहीं कहा। मैंने तो सिर्फ पूछा था कि क्या ऐसा नहीं हो सकता था।”
“अगर यह बात नहीं थी तो फिर तुम्ही बताओ कि और क्या बात हो सकती थी, जिसकी वजह से फ्रिज चार आदमियों से उठाए नहीं उठ रहा था ?”
“चोरी का माल।”—मिसेज साराभाई के मुँह से निकला।
“क्या ?”
“मेरे खयाल से वे दोनों कोई चोर थे, जो मिसेज सिंह की गैरहाजिरी में उसके फ्लैट में घुसे थे। उन्होंने फ्रिज को खाली करके फ्लैट का सारा कीमती सामान उसमें भर लिया था, फिर यह जाहिर किया था कि फ्रिज खराब हो गया था और उसकी मरम्मत कराने के बहाने वे उसे यहाँ से ले गये थे।”
“तुम पहले यह फैसला करो कि सामने वाले फ्लैट में चोरी हुई है या कत्ल हुआ है ?”
“कुछ न कुछ तो हुआ ही है।”
“यानी कि जो होना था, वो हो चुका है।”
“हाँ।”
“तो फिर ? जब साँप निकल गया तो अब लकीर क्यों पीट रही हो ?”
“मेरे खयाल से हमें पुलिस को खबर करनी चाहिए।”
“किस बात की ? चोरी की या कत्ल की ?”
“दोनों में से एक बात की। या दोनों की।”
“तुम्हारे खयाल से अब वे लोग यहाँ नहीं आने वाले ?”
“सवाल ही नहीं पैदा होता। जो कुछ करने वे यहाँ आये थे, उसे कामयाबी से अँजाम दे चुकने के बाद वे अब क्यों आयेंगे यहाँ ?”
प्रोफेसर साहब सोच में पड़ गये।
“उस छोकरी ने तो मेरे सर फ्लैट की चाबी तक मंढ़ने की कोशिश की थी। अगर उनका लौटने का इरादा होता तो क्या वे फ्लैट की चाबी मुझे सौंप जाने की कोशिश करती ?”
“यह क्या बात हुई ?”
मिसेज साराभाई ने बात बताई।
“हूँ।”—प्रोफेसर साहब इस बार गम्भीर स्वर में बोले—“शान्ताबाई, फर्ज करो तुम्हारी धारणा सही है। फर्ज करो सामने वाले फ्लैट में या चोरी हुई है, या कत्ल हुआ है, या दोनों हुए हैं या कोई और ऐसा अपराध हुआ हैं, जिसे मिसेज सिंह के कथित रिश्तेदार कामयाबी से अँजाम दे चुके हैं और यहाँ से खिसक चुके हैं। ठीक ?”
“ठीक।”—मिसेज साराभाई ने स्वीकार किया।
“इस लिहाज से तो वे यहाँ वापस लौटकर नहीं आने वाले !”
“सवाल ही नहीं पैदा होता।”
“उनके लौट कर आने का ?”
“हाँ।”
“लेकिन अगर वो आ गये तो ?”
“वे हरगिज नहीं आने वाले। अपना मतलब हल करके एक बार यहाँ से खिसक जाने के बाद अब क्या करने आयेंगे यहाँ ?”
“मैं कहता हूँ अगर आ गये तो ?”
“नहीं आयेंगे।”
“बेवकूफों जैसी अपनी जिद छोड़ो और मेरे सवाल का जवाब दो। अगर वे लौटकर आ गये तो ?”
मिसेज साराभाई को जवाब नहीं सूझा।
“तो कबूल करो कि दूसरा मतलब यह होगा कि तुम्हारी सारी धारणायें बेबुनियाद थीं और तुम्हारे खुराफाती दिमाग की गैरजरूरी उपज थीं।”
वह खामोश रही। उसने बेचैनी से पहलू बदला।
“शान्ताबाई, हमने पुलिस को खबर की और बात कुछ भी न निकली तो जानती हो हमारी कितनी खिल्ली उड़ेगी ?”
तभी एकाएक सारे फ्लैट की बत्तियाँ जल उठीं।
“शुक्र है”—प्रोफेसर साहब ने चैन की गहरी साँस ली—“अन्धेरे में तो मेरा दम घुट रहा था।”
“लेकिन अगर वे न लौटे, तब तो तुम पुलिस को खबर करोगे ?”
“जरूर करूँगा। एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते करूँगा, एक पढ़ा-लिखा, समझदार आदमी होने के नाते करूँगा।”
“और उसके लौटने का इन्तजार कब तक करोगे ?”—मिसेज साराभाई के स्वर में व्यंग्य का पुट आ गया—“अगले हफ्ते तक ?”
“शान्ताबाई, खाना तो खिला दो। उसके बाद कहोगी तो मैं सीधा पुलिस स्टेशन ही चला जाऊँगा।”
“ठीक है।”—वह बोली और अपने स्थान से उठी।
तभी बाहर सीढ़ियों पर पड़ते कदमों की आहट हुई।
किचन की तरफ बढ़ती मिसेज साराभाई ठिठक गयी। वह फौरन फ्लैट के मुख्य द्वार की तरफ बढ़ी।
प्रोफेसर साहब एक क्षण हिचकिचाए, फिर वे भी उठकर उसके पीछे हो लिए।
मिसेज साराभाई ने हौले से दरवाजा खोला। उसने सावधानी से बाहर झाँका।
उसे सामने फ्लैट के ताले को चाबी लगाती नीलम दिखाई दी।
विमल उसके समीप खड़ा दरवाजा खुलने का इन्तजार कर रहा था।
“ये तो लौट आये !”—मिसेज साराभाई के मुँह से निकला।
“यही हैं वो लोग जो तुम्हें हत्यारे और चोर लग रहे थे ?”—प्रोफेसर साहब भी बाहर झाँकते हुए हौले से फुसफुसाए।
“हाँ।”—मिसेज साराभाई ने कबूल किया।
प्रोफेसर ने दरवाजा बन्द कर दिया और अपनी बीवी को बाँह पकड़कर दरवाजे से परे घसीट लिया।
“शर्म करो, शान्ताबाई।”—वे उसे झिड़कते हुए बोले—“क्या हो गया है तुम्हारी अक्ल को ? क्या हो गया है तुम्हारी आँखों को ? क्या हो गया है तुम्हारी नीयत को ? इतना नेकनीयत, भलामानस और शरीफ जोड़ा तुम्हें चोर और हत्यारा लग रहा था ! अरे, ये बेचारे तो दो फाख्ताओं के जोड़े की तरह निर्दोष मालूम हो रहे हैं। शान्ताबाई, क्या बनेगा तुम्हारा और तुम्हारे इस फसादी दिमाग का ! मुझे डर है, कहीं तुम पागल न हो जाओ।”
मिसेज साराभाई ने एक झटके से अपनी बाँह छुड़ाई और भुनभुनायी हुई किचन की तरफ बढ़ चली।
दूसरा टैम्पो विमल को अन्धेरी से मिला।
उस वक्त उसके चेहरे पर दाढ़ी-मूँछ मौजूद थीं और सिर पर पगड़ी थी। टैम्पो वाले से बात भी उसने ऐसे ठेठ सरदार की तरह की थी, जिसे पंजाबी के अलावा कोई भी जुबान बोलने में दिक्कत महसूस होती थी।
उसने टैम्पो वाले को फ्रिज के बारे में बताया और उससे दादर ले जाने का भाड़ा तय किया।
टैम्पो पर सवार होकर वह वापस सान्ताक्रुज लौटा।
टैम्पो वाले ने इस बारे में कतई कोई सवाल नहीं किया कि फ्रिज यूँ सरे रहा क्यों पड़ा था ! उसे अपना मनमाफिक भाड़ा मिल रहा था, और उसे क्या चाहिए था।
टैम्पो वाले ने, उसके एक इकलौते सहायक ने, विमल ने और नीलम ने मिलकर फ्रिज को टैम्पो में चढाया। नीलम और विमल टैम्पो वाले के साथ आगे सवार हो गये। विमल नीलम और टैम्पो वाले के बीच में था।
टैम्पो दादर की तरफ दौड़ चला।
नीलम और विमल खामोश बैठे रहे।
टैम्पो वाले का सारा ध्यान टैम्पो चलाने की तरफ था।
टैम्पो माहिम के इलाके में पहुँचा।
जब यह एक अपेक्षाकृत सुनसान इलाके में से गुजर रहा था तो एकाएक विमल बोला—“रोको।”
टैम्पो वाले ने तुरन्त टैम्पो रोक दिया। उसने असमंजसपूर्ण भाव से विमल की तरफ देखा।
“अपने सहकारी को यहीं उतार दो।”—विमल कठोर स्वर में बोला।
“क्यों ?”—टैम्पो वाला हैरानी से बोला।
विमल ने अपनी पतलून की बैल्ट में खुँसी रिवॉल्वर निकाली और उसे टैम्पो वाले की पसलियों में चुभोता हुआ बोला—“क्योंकि इसी में उसकी सलामती है।”
“क-क-कौन हो तुम ?”—टैम्पो वाला थर-थर काँपता हुआ हकलाया।
“तुमने सुना मैंने क्या कहा ?”
“सरदार साहब, मैं बहुत गरीब आदमी हूँ। मेरे पास कुछ नहीं है, यह टैम्पो भी किराये का है और...”
विमल ने इतनी जोर से रिवॉल्वर उसकी पसलियों में गड़ाई कि वह पीड़ा से बिलबिलाता हुआ फौरन खामोश हो गया।
“उसे चलता करते हो”—विमल कहरभरे स्वर में बोला—“या मैं तुम्हें शूट करूँ ? और फिर बाद में उसे भी ?”
“मारुतिराव !”—टैम्पो वाला इतनी जोर से बोला कि आवाज उसके गले में फँस गयी।
“बोलो, बाप !”—पीछे बैठा टैंपो वाले का सहकारी बोला।
“नीचे उतर।”
मारुतिराव छलांग मार कर टैम्पो से नीचे उतरा और आगे टैम्पो की ड्राइवर वाली साइड पर पहुँचा।
“इधर से बस पकड़कर अन्धेरी में अड्डे पर पहुँच।”—टैम्पो वाला बोला—“मैं आता हूँ।”
“लेकिन बाप”—मारुतिराव हैरानी से बोला—“फ्रिज कौन उतारेगा ?”
“सुना नहीं ?”—टैम्पो वाला घुड़ककर बोला।
“अच्छा बाप”—मारुतिराव भुनभुनाया—“पर अपुन की समझ में कुछ नहीं आ रयेला है।”
विमल के संकेत पर टैम्पो वाले ने टैम्पो आगे बढ़ा दिया।
विमल रिवॉल्वर उसकी पसलियों में सटाए रहा।
टैम्पो सड़क पर भागने लगा।
“शादीशुदा हो ?”—विमल ने पूछा।
“हाँ, बाप।”—टैम्पो वाला बोला।
“बाल-बच्चेदार भी ?”
“पाँच बच्चे हैं, बाप।”
“घर में कोई और कमाने वाला है ?”
“नहीं। बच्चे अभी छोटे हैं। और बीवी नौकरी के काबिल नहीं।”
“क्यों ?”
“उसकी एक टांग नहीं है। पहले मिल में काम करती थी, जहाँ एक हादसे में उसकी टांग कट गयी थी।”
“च-च-च। फिर तो तुम्हारे लिए बड़ी मुश्किल हो गयी !”
“क-क्या ! क्या मतलब ?”
“मेरा मतलब है अगर तुम मर गये तो तुम्हारी लंगड़ी बीवी और पाँच बच्चों का तो बड़ा बुरा हाल होगा।”
टैम्पो वाले के छक्के छूट गये। स्टियरिंग से उसकी पकड़ ढीली पड़ गयी।
“टैम्पो सम्भाल !”—विमल घुड़ककर बोला—“एक्सीडेंट करोगे क्या ?”
“बाप”—वह गिड़गिड़ाता हुआ—“मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है ?”
“अभी तो कुछ नहीं बिगाड़ा है। लेकिन हो सकता है आगे बिगाड़ने की कोशिश करो।”
“आगे।”
“अगर मैं तुम्हें भी टैम्पो से उतार दूँ और टैम्पो अपने अधिकार में लेकर यहाँ से चलता बनूँ तो तुम क्या करोगे ?”
“मैं क्या करूँगा ?”—उसने मूर्खों की तरह दोहराया।
“तुम सीधे पुलिस स्टेशन जाओगे और बताओगे कि एक बीवी वाले सरदार साहब ने तुम्हारा टैम्पो तुमसे जबरदस्ती छीन लिया था। ऐसा ही करोगे न तुम ?”
“नहीं। नहीं, बाप।”
“तुम जरूर ऐसा ही करोगे।”
“अगर आप मेरी जानबख्शी कर दोगे तो मैं नहीं करूँगा, बाप। टैम्पो किराये का है लेकिन मेरी जान अपनी है।”
“समझदार आदमी हो।”
“मैं टैम्पो रोकूँ, बाप ?”
“अभी नहीं।”
फिर थोड़ी देर बाद विमल ने उसे मेन रोड छोड़ने का आदेश दिया और टैम्पो माटूँगा रेलवे स्टेशन के समीप के रेलवे क्वार्टरों के समीप एक स्थान पर रुकवाया।
“नीचे उतरो।”—विमल ने आदेश दिया।
वह फौरन टैम्पो से बाहर निकला।
विमल भी उसके साथ बाहर निकला।
वह सुनसान जगह थी जहाँ उस वक्त आसपास कोई नहीं था।
“घड़ी में टाइम देखो।”—विमल ने आदेश दिया।
टैम्पो वाले ने अपनी कलाई पर बँधी घड़ी पर निगाह डाली और काँपते स्वर में बोला—“नौ बजे हैं, बाप।”
“वो सामने बस स्टैण्ड है। जाकर उसके बैंच पर बैठ जाओ। एक घण्टा तुमने यहाँ से हिलना भी नहीं है। एक घण्टे बाद मैं तुम्हारा टैम्पो तुम्हें वापस लौटा जाऊँगा। एक घण्टे बाद अगर मैं न आऊँ तो तुम यहाँ से चाहे पुलिस के पास जाना, चाहे मिलिट्री के पास। वैसे तुम्हारे टैम्पो को कुछ नहीं होगा। मैं यहाँ न लौटा तो कल सुबह यह तुम्हें चर्च गेट स्टेशन के सामने खड़ा मिल जायेगा। समझ गये ?”
उसने सहमति से सिर हिलाया।
“चलो !”
टैम्पो वाला लड़खड़ाता-सा आगे बढ़ा और जाकर बस स्टैण्ड के बैंच पर बैठ गया।
विमल टैम्पो की ड्राइविंग सीट पर बैठ गया।
उसने टैम्पो वहाँ से भगा दिया।
पाँच मिनट बाद वह वापस लौटा।
टैम्पो वाला बस स्टैंड के बैंच पर वैसे ही बैठा था, जैसे बैठा वह उसे छोड़कर गया था।
पीछे रेफ्रीजरेटर लदा होने की वजह से अन्धेरे में भी उसे अपना टैम्पो पहचानने में दिक्कत न हुई और वह यह भी समझ गया कि ‘सरदार’ वापस क्यों लौटा था।
वह और जमकर बैंच पर बैठ गया।
एक तो क्या—उसने मन ही मन निश्चय किया—मैं दो घण्टे बाद यहाँ से उठूँगा।
विमल टैम्पो को मेन रोड पर लाया। उसने उसे वापस घुमाकर अम्बेडकर रोड पर डाला। सायन से आगे निकलकर उसने टेम्पो को आगरा रोड पर डाल दिया।
मुम्बई में त्रिलोकीनाथ वकील की अपनी नौकरी के दौरान और उससे पहले गोकुलदास एस्टेट में लेडी शान्ता गोकुलदास की अपनी नौकरी के दौरान एक लम्बा अरसा वह मुम्बई में रहा था, इसलिए मुम्बई शहर से वह नावाकिफ नहीं था। मन ही मन उसने पहले से ही एक जगह निर्धारित की हुई थी, जहाँ कि वह रेफ्रीजरेटर और उसके भीतर मौजूद सुरजीत की लाश से पीछा छुड़ा सकता था।
एक लम्बा अरसा टैम्पो चलाते रहने के बाद वह आगरा रोड के उस भाग पर पहुँचा, जहाँ वह एक नदी के पुल पर से होकर गुजरती थी।
पुल पर उस वक्त बहुत कम ट्रैफिक था।
उसने टैम्पो को पुल की दीवार के साथ समकोण की तरह लगा दिया।
फिर यह और नीलम टैम्पो के पृष्ठ भाग में चढ़ गये।
भारी रेफ्रीजरेटर को उठाना उनके लिए असम्भव था लेकिन उसे सरकाना या धकेलना असम्भव काम नहीं था। उन्होंने फ्रिज को सरकाकर टैम्पो के बाहर के सिरे पर दीवार के ऐन किनारे कर लिया।
सड़क पर से कभी-कभार कोई वाहन गुजर जाता था लेकिन किसी का ध्यान टैम्पो की तरफ नहीं था।
वे सड़क खाली होने की प्रतीक्षा करने लगे।
ज्यों ही उन्हें दोनों तरफ दूर तक सड़क खाली दिखाई दी, उन्होंने पूरी शक्ति लगाकर फ्रिज को सामने को धकेला।
फ्रिज एक क्षण को पुल की मुँडेर पर ठिठका, फिर वहाँ से उलटकर नीचे नदी में जा गिरा।
एक बार बड़ी जोर की आवाज हुई, लेकिन फिर फौरन ही खामोशी छा गयी।
फिर उसने जेब से फ्रिज की चाबी निकाली और उसे भी नदी में फ्रिज के पीछे फेंक दिया।
उसने नीचे झाँका।
नीचे अँधेरा था। जहाँ फ्रिज गिरा था, वहाँ उठती गोल-गोल लहरों का उसे हल्का-सा आभास मिला, लेकिन फिर वे लहरें भी उसे दिखाई देनी बन्द हो गयी।
फ्रिज नदी में डूब गया था।
उसके साथ उसकी विधिवत् ब्याहता धर्मपत्नी सुरजीत कौर सोहल को भी जल समाधि मिल गयी थी।
विमल का दिल भारी होने लगा।
बेचारी का अन्तिम संस्कार भी नहीं हो सका था।
“अब चलो यहाँ से।”—नीलम यूँ बोली, जैसे उसने उसके मन के भाव पढ़ लिए हों—“इतनी बेचारी नहीं थी वो। जो जैसा बोता है, वैसा ही काटता है।”
विमल ने टैम्पो से नीचे छलाँग लगाई।
नीलम ने भी उसका अनुकरण किया।
दोनों फिर टैम्पो में सवार हो गये।
विमल ने टैम्पो घुमाया और वापस लौट पड़ा।
एक सुनसान स्थान पर उसने टैम्पो सड़क पर से उतारकर खड़ा कर दिया। उसने अपना सरदार वाला मेकअप उतारकर वापस एयरबैग में रख लिया और फिर वह और नीलम टैम्पो से उतर पड़े।
टैम्पो को वहीं खड़ा छोड़कर वे पैदल आगे बढ़े।
थोड़ा ही आगे जाने पर उन्हें एक टैक्सी मिल गयी।
वे बान्द्रा वापस लौटे।
इलाके में तब भी अन्धेरा था, लेकिन उनके इमारत में कदम रखते ही जैसे उनके स्वागत के लिए सारे इलाके की बत्तियाँ जल उठीं।
वे फ्लैट में पहुँचे और जाते ही सो गये।
उस रात उन्हें भूख-प्यास तक न लगी।
�
अगले दो दिन बड़े अमन-चैन से कटे। उस दौरान ‘फलाने फ्लैट से फलाने साहब को बुला दो’ मार्का कोई काल आयी तो उन्होंने उन साहब या साहिबा को बुला दिया। मिसेज साराभाई जब भी टेलीफोन करने आयी, उन्होंने उसे बड़े प्रेम-भाव से भीतर बुलाकर फोन कराया। मिसेज साराभाई की बेमानी बकवास के तमाम एलपी भी उन्होंने बड़े सब्र के साथ सुने। उसके कई खोजपूर्ण—लेकिन उनके लिए असुविधापूर्ण—सवालों के उन्होंने बड़े मुनासिब जवाब दिये। रेफ्रीजरेटर के बारे में उन्होंने बताया कि वह पहली तारीख की शाम को मिलने वाला था।
उन दो दिनों में न कोई ऐसी टेलीफोन काल आयी और न कोई ऐसा शख्स वहाँ आया, जिसका किसी भी प्रकार से कोई रिश्ता ज्ञानप्रकाश डोगरा से जोड़ा जा पाता।
तीस तारीख की सुबह को उन्होंने पूना के लिए एक प्राइवेट टैक्सी ठीक की, दोनों पूना गये। वहाँ से उन्होंने सुरजीत के बान्द्रा के पते पर सुरजीत की तरफ से नीलम को एक टेलीग्राम भेजी, जिसमें लिखा था कि उसके पति की पेंशन से ताल्लुक रखते काम में पेचीदगी आ गयी थी, इसलिए अभी और तीन दिन वह वापस नहीं लौट सकती थी।
वह टेलीग्राम भेजकर वे वापस लौट पड़े।
टेलीग्राम उनके मुम्बई पहुँचने से पहले ही पहुँच चुकी थी। और जैसी कि उन्हें उम्मीद थी, उनकी गैरहाजिरी में मिसेज साराभाई ने वह टेलीग्राम नीलम की तरफ से खुद रिसीव कर ली थी और उसे खोलकर पढ़ लिया था। वैसे उसने दावा यही किया था कि टेलीग्राम उसे खुली हुई ही मिली थी। उन लोगों ने टेलीग्राम के खुले होने का भला क्या ऐतराज करना था ! उन्होंने तो वह टेलीग्राम भेजी ही इसी विश्वास के साथ थी कि मिसेज साराभाई उसे रिसीव करेगी और उसे खोलकर पढ़ने से बाज नहीं आयेगी।
उस टेलीग्राम ने मिसेज साराभाई को विश्वास दिला दिया कि मिसेज सिंह पूना में सही सलामत मौजूद थी और वे दोनों उसके ‘खरे’ रिश्तेदार थे। कुछ बातों से सन्दिग्ध वह अभी भी थी, लेकिन वे बातें अब इतनी अहम नहीं रही थीं कि वह अपने पति से पुलिस बुलवाने की जिद करती।
उन दिनों में नदी में डूबे किसी फ्रिज की या उसमें मौजूद किसी लाश की बरामदी की खबर कम से कम अखबारों में न छपी।
फिर अन्त में वह दिन आया, जिसके इन्तजार में उन्होंने एक-एक क्षण गिन-गिनकर गुजारा था।
�
पहली तारीख।
वे सुबह तैयार होकर बैठ गये और बड़ी बेकरारी से हरकारे के आगमन का इन्तजार करने लगे।
विमल को एक ही सवाल सता रहा था।
अगर कोई हरकारा न आया तो ?
तो इतने बड़े हिन्दुस्तान में, बल्कि इतनी बड़ी दुनिया में, वह डोगरा को कहाँ ढूँढ़ेगा !
ग्यारह बज गये लेकिन काल-बैल न बजी।
उस रोज तो मिसेज साराभाई तक ने आकर काल-बैल न बजाई।
फिर कोई साढ़े ग्यारह बजे के करीब वह आवाज फ्लैट में गूँजी जिसको सुनने के लिए उनके कान तरस रहे थे।
हमेशा की तरह नीलम दरवाजा खोलने के लिए आगे बढ़ी तो विमल ने उसे रोक दिया। उसने नीलम को बैडरूम में जाने का संकेत किया और स्वयं आगे बढ़ा।
रिवॉल्वर उसने सुबह से ही अपने कोट की दाईं जेब में डाली हुई थी।
उसने दरवाजा खोला।
दरवाजे पर एक हल्के नीले रंग की कमीज, पतलून पहने एक लगभग पच्चीस साल का दुबला-पतला लड़का खड़ा था। उसके सिर पर उसके सारे चेहरे के आकार से ज्यादा बड़े क्षेत्रफल में अमिताभ बच्चन स्टाइल बाल थे और वह बड़े फिल्मी अन्दाज से हौले-हौले सीटी बजा रहा था। उसकी कमीज की दो जेबों में से एक का फ्लैप खुला था और उस जेब में से एक खाली लिफाफा एक चौथाई बाहर झाँक रहा था।
चौखट पर विमल को—एक पुरुष को—प्रकट हुआ देखकर वह सकपकाया। उसने सीटी बजानी फौरन बन्द कर दी और सन्दिग्ध भाव से विमल की तरफ देखा।
“क्या है ?”—विमल बोला।
“कुछ नहीं।”—वह हड़बड़ाकर बोला—“लगता है मैं गलत फ्लैट में आ गया हूँ। सॉरी।”
“तुम्हें मिसेज सिंह के फ्लैट की तलाश है ?”
“हाँ।”
“यही है उनका फ्लैट।”
उसने सन्दिग्ध भाव से दायें-बायें देखकर इस बात की तसदीक की कि वह दूसरे माले पर ही था और फ्लैट पर लगा नम्बर चार ही था।
“मैडम कहाँ हैं ?”—फिर वह बोला।
“भीतर हैं।”—विमल बोला।
मिसेज साराभाई ने अपने फ्लैट का दरवाजा थोड़ा-सा खोल लिया था और आदत से मजबूर वह औरत झिरी में आँख लगाए बाहर झाँक रही थी और कान खड़े करके बाहर चल रहा वार्तालाप सुनने की कोशिश कर रही थी।
“उन्हें जरा बुला दीजिए।”—लड़का बोला।
“तुम्हीं भीतर आ जाओ।”—विमल बोला।
“नहीं-नहीं। मैं यहीं ठीक हूँ। आप ही उन्हें...”
विमल ने हाथ बढ़ाकर उसका गिरहबान दबोच लिया और बड़ी सहूलियत से उसे भीतर घसीटकर पाँव की ठोकर से दरवाजा बन्द कर दिया।
वह नजारा देखकर मिसेज साराभाई के छक्के छूट गये। वह धड़कते दिल से किसी नयी, उससे ज्यादा भयंकर, घटना के घटित होने की प्रतीक्षा में झिरी के साथ अपनी एक आँख चिपकाए खड़ी रही।
विमल ने लड़के को ड्राइंगरूम के भीतर की तरफ धक्का देकर उसका गिरहबान छोड़ दिया।
लड़का बड़ी मुश्किल से एक सोफे का सहारा लेकर अपने आपको धराशायी होने से रोक पाया।
विमल ने जेब से रिवॉल्वर निकालकर उसकी तरफ तान दी और चेतावनीभरे स्वर में बोला—“खबरदार ! मुँह से उल्टी-सीधी आवाज निकाली तो गोली मार दूँगा।”
आतंक से लड़के के नेत्र फट पड़े। वह मुँह बाये कभी विमल की सूरत को और कभी उसके हाथ में थमी रिवॉल्वर को देखने लगा।
“जेब से लिफाफा निकालकर मुझे दो।”—विमल ने आदेश दिया।
“नहीं नहीं”—लड़का लिफाफे वाली जेब पर अपने दोनों हाथों को मजबूती से जकड़ता हुआ भयभीत भाव से बोला—“यह लिफाफा मिसेज सिंह के लिए है।”
“मैं उसका पति हूँ। लिफाफा मुझे दो।”
“मुझे लिफाफा सिर्फ मिसेज सिंह के हवाले करने के लिए कहा गया है।”
“किसने कहा है ऐसा तुम्हें ?”
“मिसेज सिंह कहाँ हैं ?”
“मेरे सवाल का जवाब दो।”
“मुझे यहाँ से जाने दो। प्लीज।”
विमल आगे बढ़ा। उसने अपने खाली हाथ का एक जोरदार झांपड़ लड़के के चेहरे पर रसीद किया। लड़के ने चिल्लाने के लिए मुँह खोला तो रिवॉल्वर की नाल उसने उसके मुँह में घुसेड़ दी। लड़के की चीख उसके गले में ही घुट गयी। उसकी आँखें फट पड़ीं और वह थर-थर काँपने लगा। उसके हाथ अपने-आप ही उसकी छाती पर से हट गये।
विमल ने उसकी जेब में से लिफाफा निकाल लिया।
उसने लड़के से परे हटकर लिफाफा खोला।
लिफाफे में सौ-सौ के नोट मौजूद थे।
विमल ने लिफाफा अपनी जेब में डाल लिया।
“साहब !”—लड़के ने फरियाद की—“साहब, यह... यह तो...”
“खामोश।”—विमल ने उसे घुड़का। वह फिर उसके सिर पर पहुँच गया।
लड़का फिर सहमकर चुप हो गया।
“तुम्हारे जूते का तस्मा खुल गया है।”—विमल बोला—“बांधो उसे।”
लड़के ने फौरन नीचे देखा।
विमल ने रिवॉल्वर की नाल का एक भरपूर प्रहार उसकी खोपड़ी पर किया।
लड़के के मुँह से एक हल्की-सी कराह निकली और वह एक धप्प की आवाज के साथ कालीन बिछे फर्श पर ढेर हो गया।
नीलम बैडरूम से निकलकर वहाँ पहुँची।
विमल ने रिवॉल्वर उसे थमा दी और वह स्वयं लड़के की तलाशी लेने लगा।
उसकी जेब से एक ड्राइविंग लाइसेंस बरामद हुआ, जिस पर उसकी तसवीर लगी हुई थी और जिस पर लिखे नाम के मुताबिक उसका नाम सखाराम चित्रे था। उसी जेब में एक चाबियों का गुच्छा था। चाबियाँ साफ-साफ किसी कार की मालूम हो रही थीं, एक दूसरी जेब से विमल ने एक रैक्सीन का पर्स बरामद किया, उसमें तेईस-चौबीस रुपये थे, एक पोस्टकार्ड था, जिस पर उसका नाम और चिंचपोकली का एक पता लिखा हुआ, एक कागज का पुर्जा था, जिस पर सुरजीत का नाम और उसके फ्लैट का पता लिखा हुआ था और बस।
विमल ने फ्लैट में से एक रस्सी तलाश की और बड़ी मजबूती से उसके हाथ-पाँव बाँध दिये।
फिर वह उसके मुँह पर तब तक पानी के छींटे मारता रहा, जब तक कि वह होश में न आ गया।
अपनी मुश्कें कसी पाकर तो जैसे उसके प्राण ही निकल गये। उसने ऐसे मुँह खोला, जैसे गला फाड़कर चिल्लाने लगा हो।
“खबरदार।”—विमल ने उसकी नाक पकड़कर हौले से मरोड़ दी—“चीखना-चिल्लाना नहीं।”
वह पीड़ा से बिलबिलाया। उसने जोर से थूक निगली, लेकिन गले से कोई आवाज न निकाली।
अभी तक उसे अपने पीछे रिवॉल्वर लिए खड़ी नीलम नहीं दिखाई दी थी।
“अगर अपनी खैरियत चाहते हो।”—विमल धमकीभरे स्वर में बोला—“तो जो में पूछूँ,उसका सच सच जवाब देना। समझ गये ?”
उसने फौरन सहमति में सिर हिलाया।
“डोगरा कहाँ है ?”
“कौन डोगरा ?”
“ज्ञानप्रकाश डोगरा।”
“मैं किसी ज्ञानप्रकाश डोगरा को नहीं जानता।”
“तुम्हें नोटों वाला लिफाफा यहाँ मिसेज सिंह के पास पहुँचाने के लिए डोगरा ने नहीं दिया ?”—विमल आँखें निकालकर बोला।
“नहीं दिया।”—लड़के ने दुहाई दी।
“तो फिर किसने दिया ?”
लड़के ने फिर जोर से थूक निगली।
“जवाब दे, हरामजादे।”—विमल कहरभरे स्वर में बोला।
“म... म... मैं... !”—लड़का लगभग रोता हुआ बोला—“नहीं बताऊँगा।”
“क्यों नहीं बतायेगा ?”
“उसे जब पता लगेगा कि मैंने उसके बारे में तुम्हें बताया था तो वह मुझे मार डालेगा।”
“वह तो तुम्हें पता लगने पर मारेगा। मैं तो तुम्हें अभी मार डालूँगा।”
“उसने मुझे खासतौर से ताकीद की थी कि रुपयों के इस सिलसिले में उसका नाम मेरी जुबान पर न आये।”
“किसका नाम ? नोटों वाला लिफाफा मिसेज सिंह को सौंपने के लिए यहाँ तुम्हें किसने भेजा था ?”
लड़का खामोश रहा।
विमल ने एक करारा घूँसा उसके जबड़े पर रसीद किया।
लड़के की गरदन घूम गयी। उसकी आँखों से आँसू छलक आये। विमल का हाथ दोबारा प्रहार के लिए उठता पाकर उसने आर्त्तनाद किया—“बताता हूँ। बताता हूँ।”
“जल्दी करो।”
“मुझे यहाँ रुस्तम भाई ने भेजा था।”
“रुस्तम भाई कौन ?”
“रुस्तम भाई अँधेरीवाला। सारी मुम्बई उसे जानती है।”
“मैं नहीं जानता। कौन है वो ?”
“वह बहुत बड़ा सेठ है। वह टूरिस्ट टैक्सी सर्विस चलाता है। एकदम नवीं कारों की फ्लीट है उसके पास। दो शेवरलेट, तीन मर्सिडीज, पाँच मार्क फोर एम्बेसेडर...”
“उसका पता बोलो।”
“उसकी कम्पनी का ऑफिस अन्धेरी में पी के स्टूडियो के पास है।”
“कम्पनी का कोई नाम तो होगा ?”
“न्यू बॉम्बे टूरिस्ट टैक्सी सर्विस। अगर रुस्तम भाई को पता लग गया कि मैंने तुम्हें इतना कुछ बताया है तो वह मेरा गला काट देगा।”
“बको मत। रुपयों वाला लिफाफा देकर तुम्हें रुस्तम भाई ने यहाँ भेजा था ?”
“हाँ।”
“पहले भी कभी यहाँ आये हो ?”
“नहीं।”
“उसने क्या कहा था तुमसे ?”
“उसने मुझे इस फ्लैट का पता लिखकर दिया था, वह नोटों वाला खाकी लिफाफा दिया था और कहा था कि लिफाफा मैं मिसेज सिंह को दे आऊँ। उसने मुझे खास तौर से ताकीद की थी कि लिफाफा मैंने मिसेज सिंह के अलावा किसी को नहीं देना था।”
“उसने तुम्हें बताया था कि लिफाफे में नोट थे ?”
“हाँ। दो हजार रुपये के। और साथ में कहा था कि अगर मैंने लिफाफा खोला तो वह मेरा गला काट देगा। अब मेरा क्या होगा ?”
वह रोने लगा।
“तुम उसके पास काम करते हो ?”
“हाँ।”
“क्या काम करते हो ?”
“ड्राइवर हूँ। गाड़ी चलाता हूँ।”
“यहाँ तक कैसे आये हो ?”
“कम्पनी की ही एक गाड़ी पर आया हूँ।”
“गाड़ी कहाँ खड़ी की है ?”
“नीचे इमारत के सामने।”
“नम्बर बोलो।”
“तुम क्या गाड़ी भी ले जाओगे ?”—वह गिड़गिड़ाया—“अब तो रुस्तम भाई मुझे कच्चा ही चबा जायेगा। नोटों के लिफाफे के साथ-साथ गाड़ी भी मेरे हाथ से निकल जायेगी तो...”
“नम्बर बोलो।”—विमल घुड़ककर बोला।
लड़के ने नम्बर बताया।
चाबियाँ विमल ने उसकी जेब से खुद ही निकाल लीं।
फिर उसने लड़के के मुँह में जबरन एक रूमाल ठूँस दिया और उसे उठाकर बाथरूम में ले जाकर बन्द कर दिया।
“अपना सामान समेटो”—वापस आकर विमल बोला—“और यहाँ से कूच की तैयारी करो, अब यहाँ ठहरना बेकार है।”
नीलम ने सहमति में सिर हिलाया। उसने रिवॉल्वर विमल को वापस कर दी और स्वयं एक एयरबैग में दोनों का वह सामान पैक करने लगी, जो वह खुद जाकर होटल से लायी थी।
पाँच मिनट बाद वे फ्लैट से बाहर निकले।
विमल ने फ्लैट को ताला लगा दिया।
मिसेज साराभाई अभी भी शर्तिया अपने फ्लैट के दरवाजे के पीछे मौजूद थी। उसने शायद विमल को लड़के को फ्लैट के भीतर घसीटते देखा भी था और यह भी जरूर नोट किया था कि फ्लैट को ताला लग गया था, लेकिन लड़का उनके साथ बाहर नहीं निकला था। लेकिन अब विमल को इस बात की परवाह नहीं थी कि वह औरत क्या सोचती थी, या क्या खुराफाती नतीजे निकालती थी, अब वे लोग वहाँ लौटकर नहीं आने वाले थे।
विमल अन्धेरी पहुँचा।
इस वक्त वह अपने सिख वाले मेकअप में था।
न्यू बॉम्बे टूरिस्ट टैक्सी सर्विस एक बहुत बड़े अहाते में स्थापित थी। अहाते पर बाहर कम्पनी का बहुत बड़ा बोर्ड लगा हुआ था। भीतर अहाते में कई नयी-पुरानी, देसी-विलायती कारें खड़ी थीं, एक ओर एक बहुत बड़ा नीम का पेड़ था, जिसके नीचे सखाराम चित्रे जैसी ही हल्के नीले रंग की कमीज-पतलून वाली वर्दी पहने चार-पाँच आदमी बैठे गप्पे हाँक रहे थे। अहाते के पृष्ठ भाग में खपरैल की छत वाली एक एकमंजिला इमारत थी। उसके दरवाजे पर एक तख्ती लगी थी जिस पर लिखा था—ऑफिस।
विमल अहाता पार करके ऑफिस में पहुँचा।
वह एक छोटा-सा कमरा था, जिसमें एक तरफ आगन्तुकों के बैठने का इन्तजाम था तथा दूसरी तरफ एक ऑफिस टेबल लगी हुई थी। टेबल पर दो टेलीफोन रखे थे और उनके पीछे एक ऊँघता-सा आदमी बैठा था।
“मुझे रुस्तम भाई से मिलना है।”—विमल मेज के समीप पहुँचकर बोला।
“क्या काम है ?”—वह आदमी बोला—“टैक्सी चाहिए ?”
“नहीं। रुस्तम भाई चाहिए।”
“काम मुझे बोलो।”
“तुम कौन हो ?”
“मैं यहाँ मैनेजर हूँ।”—वह बड़े गर्व से बोला।
“मुझे मैनेजर से नहीं, मालिक से काम है।”
“लेकिन पता तो लगे क्या काम है !”
“काम किसी नौकर-चाकर को बताने वाला नहीं है।”
उसका चेहरा लाल हो गया। उसने एक बार खा जाने वाली निगाहों से विमल को देखा और फिर बोला—“सेठ यहाँ नहीं है।”
“यहाँ नहीं है तो कहाँ है ?”
“अरे, क्यों कान खा रहे हो ? बोला न, वो यहाँ नहीं है।”
“देखो, मैं सेठ के लिए एक बहुत जरूरी सन्देशा लाया हूँ। अगर वक्त रहते वह सन्देशा सेठ तक न पहुँचा या तुम्हारी वजह से न पहुँचा, तो समझ लेना तुम्हारी नौकरी खल्लास।”
वह सकपकाया। उसने बड़े सन्दिग्ध भाव से एक बार फिर विमल का मुआयना किया और फिर तनिक विचलित स्वर में बोला—“क्या सन्देशा है ? कुछ अता-पता तो पता लगे !”
“सखाराम भाग गया है।”
“क्या मतलब ?”—वह हड़बड़ाया।
“तुम सखाराम को जानते भी हो या नहीं ?”
“सखाराम चित्रे ?”
“वही।”
“वह भाग गया है, क्या मतलब ?”
“तुम्हारे लिए इसका कोई मतलब नहीं, लेकिन तुम्हारे बाप के लिए है।”
“तमीज से बात करो।”
“तुम्हारे लिए इसका कोई मतलब नहीं, लेकिन तुम्हारे पिताजी के लिए है।”—विमल ने तमीज से बात की—“तुम्हारे अब्बा हुजूर के लिए है, तुम्हारे डैडी के लिए है, तुम्हारे रुस्तमभाई अन्धेरीवाला के लिए है।”
वह सोच में पड़ गया।
“जल्दी फैसला करो।”—विमल उतावले स्वर में बोला—“सारा दिन मैंने यहीं नहीं गुजारना है।”
“उधर सामने बैठ जाओ। मैं सेठ का पता करता हूँ।”
विमल एक सोफे पर बैठ गया।
“मैं अभी आता हूँ।”—वह मेज के पीछे से निकलता हुआ बोला।
विमल ने सहमति में सिर हिलाया।
मैनेजर पिछवाड़े का एक दरवाजा खोलकर भीतर दाखिल हो गया। अपने पीछे वह बड़ी सावधानी से दरवाजा बन्द कर गया।
विमल कुछ क्षण खामोश बैठा रहा, फिर वह उठा और दबे पाँव चलता हुआ दरवाजे तक पहुँचा। उसने धीरे से दरवाजे को धक्का दिया। दरवाजा खुला था। उसने सावधानी से भीतर झाँका। आगे एक गलियारा था जो कि खाली था। आगे गलियारे में दायें-बायें चार दरवाजे थे। दायीं ओर के परले दरवाजे के पीछे से लोगों के बोलने की धीमी-धीमी आवाजें आ रही थीं।
विमल ने गलियारे में कदम रखा। वह उस दरवाजे पर पहुँचा। उसने दरवाजे को धक्का दिया और भीतर दाखिल हो गया।
भीतर एक गोल मेज के गिर्द छ: आदमी बैठे थे। मेज पर हर किसी के सामने लगा नोटों का अम्बार बता रहा था कि वहाँ तगड़ा जुआ चल रहा था। कमरा सिगरेट के धुँए से इस कदर भरा हुआ था कि सब कुछ धुँधला-सा दिखाई दे रहा था।
मैनेजर दरवाजे से थोड़ा ही आगे कमरे में खड़ा बड़े अदब से कुछ कह रहा था, लेकिन वह गोल मेज के गिर्द बैठे छ: आदमियों में से किससे सम्बोधित था, विमल न समझ सका।
विमल ने उसे दरवाजे से परे धकेल दिया और स्वयं उसका स्थान लेता हुआ बोला—“तुममें से रुस्तम भाई कौन है ?”
छ: जोड़ी बेहद हैरान और चौंकी हुई निगाहें उसकी तरफ उठीं।
“यह भीतर कैसे घुस आया ?”—कोई कर्कश स्वर में बोला।
“म-मैं तो”—मैंनेजर हकलाया—“इसे ऑफिस में बिठाकर आया था !”
“लेकिन तुम्हें ही यहाँ आने की क्या जरूरत थी ?”—कोई गरजा।
“यह कह रहा था कि यह रुस्तम सेठ के लिए बहुत जरूरी सन्देशा लाया था। मैं इसे अभी बाहर निकालता हूँ।”
यह विमल पर झपटा।
विमल ने इस बार उसे इतनी जोर का धक्का दिया कि वह परली दीवार से जाकर टकराया और भरभराकर फर्श पर ढेर हो गया।
एक आदमी ने अपने हाथ के पत्ते मेज पर रख दिये। वह एक झटके से अपनी कुर्सी से उठा। उसने अपनी जेब से एक कमानीदार चाकू निकाला और उसका खटका दबाकर उसे खोलता हुआ कहरभरे स्वर में बोला—“तेरी शामत आयी है सरदार के बच्चे।”
विमल ने अपने दोनों हाथ अपने कोट की जेब में डाल लिए। उसका दायाँ हाथ उस जेब में मौजूद रिवॉल्वर की मूठ से लिपट गया। वह शान्ति से बोला—“हो सकता है। लेकिन अकेले मेरी ही शामत नहीं आयी, रुस्तम भाई की भी आयी है। तुम हो रुस्तम भाई ?”
“साफ-साफ बोलो, तुमने क्या कहना है रुस्तम भाई से”—चाकू वाला गुर्राया—“वरना अभी पेट फाड़कर आँतें बाहर निकाल दूँगा।”
और वह दृढ़ कदमों से विमल की तरफ बढ़ा।
“ठहरो।”—एकाएक उससे दो सीट परे बैठा एक आदमी बोल पड़ा।
चाकू वाला ठिठका।
“रुस्तम भाई के लिए क्या सन्देशा है, तुम्हारे पास ?”—नया आदमी बोला।
वह एक लगभग पचास साल का सिर से लगभग गंजा आदमी था और बड़ा कीमती सूट पहने हुए था।
“तुम रुस्तम भाई हो ?”—विमल ने उससे पूछा।
“तुम जो कहना चाहते हो, कहो। तुम्हारा सन्देशा रुस्तम भाई तक पहुँचा दिया जायेगा।”
“वह सन्देशा इतने आदमियों के कानों में पड़े, शायद यह बात रुस्तम भाई को पसन्द न आये।”
“तुम उसकी फिक्र मत करो। उसकी फिक्र रुस्तम भाई खुद कर लेगा। तुम सन्देशा बोलो।”
“सखाराम भाग गया है।”
“क्या ?”—वह आदमी चौंककर बोला।
“वह उन दो हजार रुपयों के साथ भाग गया है, जो तुमने बान्द्रा में रहने वाली...”
“खामोश !”—सूट वाला गंजा हड़बड़ाकर बोला।
विमल खामोश हो गया।
“तुम सच कह रहे हो कि सखाराम भाग गया है ?”
“हाँ।”
“तुम्हें कैसे मालूम है कि वह भाग गया है ?”
“इसके लिए मुझे फिर सारी कहानी शुरू करनी पड़ेगी और तुम कहोगे खामोश।”
“विश्वास नहीं होता। वह छोकरा ऐसा हौसला नहीं कर सकता।”
“कर चुका है।”
सूट वाले गंजे ने अपने हाथ के पत्ते मेज पर फेंक दिये और अपने सामने पड़े नोट बटोरने लगा। नोटों को उसने लापरवाही से अपने सूट की विभिन्न जेबों में ठूँसा और मेज से उठता हुआ बोला—“मेरे दो-चार हाथ मत बाँटना। मैं थोड़ी देर में आता हूँ।”
वह उठकर विमल के समीप पहुँचा।
“चलो।”—उसने आदेश दिया।
विमल उसके साथ हो लिया। उसके दोनों हाथ अभी भी उसके कोट की जेबों में थे।
“तो तुम्हीं रुस्तम भाई हो ?”—रास्ते में विमल बोला।
उसने जवाब न दिया।
“मैंने कहा था सन्देशा हर किसी के सुनने लायक नहीं था।”
“मैंने सुना था तुमने क्या कहा था।”—वह चिन्तित भाव से बोला।
वे इमारत से बाहर निकले।
पेड़ के नीचे बैठे ड्राइवर लोग उसे देखकर उठ खड़े हुए। गंजे ने हाथ के इशारे से सबको बैठे रहने का संकेत किया और अहाते में खड़ी गाड़ियों में से एक मर्सिडीज की तरफ बढ़ा। उसने जेब से चाबियाँ निकालकर उसका ताला खोला।
दोनों कार में सवार हो गये।
गंजा कार को अहाते से निकालकर बाहर सड़क पर ले आया, कार को अपने अहाते से कोई दो फरलांग आगे ला कर उसने उसे सड़क के किनारे करके रोक दिया और इंजन बन्द कर दिया।
“अब बोलो, क्या किस्सा है ?”—वह चिन्तित भाव से बोला—“यहाँ हम अकेले हैं। जो बात तुम कहने जा रहे थे, वह हर किसी के सुनने वाली नहीं थी।”
“मैं खुद यही कह रहा था”—विमल बोला—“तभी तो ...”
“बहुत समझदार आदमी हो तुम। अब बताओ बात क्या है। तुम सखाराम को कैसे जानते हो ? और तुम्हें कैसे मालूम है कि वह भाग गया है ?”
“तुमने अभी तक भी यह नहीं बताया है कि तुम ही रुस्तम भाई हो।”
“मैं ही रुस्तम भाई हूँ, बाप। अब क्या साबित करके दिखाना होगा ?”
“नहीं। मुझे तुम्हारी बात पर विश्वास है।”
“मेहरबानी है तुम्हारी। अब असल बात पर तो आओ। तुम सखाराम को कैसे जानते हो ?”
“जिस वक्त वह मिसेज सिंह के लिए रुपये लेकर बान्द्रा में उसके फ्लैट पर पहुँचा था, उस वक्त मैं मिसेज सिंह के फ्लैट में था।”
“सखाराम रुपये लेकर वहाँ पहुँचा था ?”
“हाँ।”
“लेकिन अभी तो तुम कह रहे थे कि वह रुपये लेकर भाग गया !”
“मैं गलत कह रहा था।”—विमल ने अपनी जेब में से नोटों वाला खाकी लिफाफा निकालकर उसे दिखाया—“वह रुपये लेकर भागा नहीं था। रुपये मैंने उससे छीन लिये थे।”
रुस्तम भाई ने हैरानी से उसकी तरफ देखा।
विमल अपलक उसके चेहरे को देखता रहा।
फिर रुस्तम भाई के जबड़े भिंच गये और उसका चेहरा कानों तक लाल हो गया। उसने इग्नीशन के स्विच के साथ लटकती चाबी की तरफ हाथ बढ़ाया।
“चाबी को”—विमल सर्द स्वर में बोला—“तुम्हारा हाथ लगा तो तुम्हारा हाथ टूटकर कार के फर्श पर गिरा होगा।”
“अच्छा !”—रुस्तम भाई व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला।
“हाँ।”
“कैसे करोगे ?”
विमल ने जेब से रिवॉल्वर निकाली, उसने उसकी नाल से हौले-हौले उसके चाबी की तरफ बढ़ते हाथ की उँगलियों पर तीन-चार बार दस्तक दी और सहज स्वर में बोला—“ऐसे करूँगा।”
रिवॉल्वर देखकर रुस्तम भाई सकपकाया। उसने एक बार जोर से थूक निगली और अपने चारों तरफ देखा।
सड़क पर आवाजाही बदस्तूर जारी थी।
“तुम दिन-दहाड़े चलती सड़क पर मुझ पर गोली नहीं चला सकते।”—वह बोला।
“मेरा ऐसा कोई इरादा भी नहीं है।”—विमल ने उसे आश्वासन दिया—“लेकिन अगर तुम मुझे मजबूर करोगे तो तुम पर गोली चलाना तो क्या, मैं तुम्हारी लाश के छत्तीस टुकड़े करके सारी सड़क पर बिखराकर जाऊँगा।”
“और तुम्हारा क्या होगा ?”
“रुस्तम भाई, जब तुम नहीं रहोगे तो इस बात से तुम्हें क्या तसल्ली हासिल होगी कि तुम्हारे बाद मेरा क्या हुआ ?”
“तुम कोई दादा या मवाली किस्म के आदमी लगते तो नहीं हो ?”
“मैं हूँ भी नहीं ऐसा आदमी। होता तो सबसे पहले तुम्हारी जेबों में ठुँसे सारे नोट निकालकर अपने अधिकार में करता।”
रुस्तम भाई सकपकाया। फिर उसने अभी भी विमल के हाथ में मौजूद खाकी लिफाफे की तरफ संकेत किया और बोला—“मेरे यह दो हजार रुपये भी तो तुमने मारे हुए हैं !”
“ये रुपये तुम्हारे थोड़े ही हैं !”
“तो और किसके हैं ?”
“डोगरा के हैं !”
रुस्तम भाई बुरी तरह चौंका। उसने सख्त हैरानी से विमल की तरफ देखा।
“अगर तुम्हारे हैं तो ले लो।”—विमल ने खाकी लिफाफा रुस्तम भाई की तरफ बढ़ाया।
रुस्तम भाई ने लिफाफा थामने का उपक्रम नहीं किया।
“डोगरा मेरा कर्जदार है।”—विमल बोला—“उसकी कोई भी रकम अपने काबू में कर लेने का हक मुझे पहुँचता है।”
रुस्तम भाई खामोश रहा। विमल ने खाकी लिफाफा अपने कोट की भीतरी जेब में रख लिया।
“तुम चाहते क्या हो ?”—रुस्तम भाई असमंजसपूर्ण स्वर में बोला।
“ऐसा कुछ नहीं चाहता जो तुम मुझे न दे सको।”
“क्या चाहते हो ?”
“डोगरा का पता। कहाँ है डोगरा ?”
“मुझे नहीं मालूम।”
“यह कोई मानने की बात है ?”
“यह हकीकत है। डोगरा का पता मुझे मालूम होता भी तो भी वह मैं तुम्हें न बताता।”
“क्यों ?”
“क्यों का जवाब तुम खुद समझ सकते हो। वह नहीं चाहता कि उसका पता किसी को मालूम हो। मुझे खुद उसका पता नहीं मालूम। उसका पता मुझे मालूम होता भी तो अपनी जान की सलामती के लिए वह मैं तुम्हें हरगिज न बताता।”
“डोगरा का पता किसी को बताने से तुम्हारी जान पर आ बन सकती है ?”
“हाँ।”
“वह इतना खतरनाक आदमी है ?“
“इससे ज्यादा। इससे कहीं ज्यादा।”
“पहले तो ऐसा नहीं था।”
“मुझे नहीं मालूम पहले वह कैसा था।”
“तुम उससे डरते हो ?”
“हाँ। बहुत।”
“और मुझसे ?”—विमल रिवॉल्वर से उसका एक घुटना ठकठकाता बोला।
उसने उत्तर न दिया। उसने खामोशी से अपने होंठों पर जुबान फेरी और थूक निगली।
“अगर तुमने डोगरा के पास उसी के हित का कोई सन्देशा पहुँचाना हो तो कैसे पहुँचाओगे ?”—विमल बोला।
“कैसा सन्देशा ?”
“मिसाल के तौर पर यही सन्देशा कि अब डोगरा के लिए बान्द्रा वाली औरत को तुम्हारे माध्यम से हर पहली तारीख को दो हजार रुपये भिजवाना जरूरी नहीं रह गया है !”
“क्यों जरूरी नहीं रह गया है ?”
“क्योंकि वह मर चुकी है।”
“क्या ?”
“मेरे हाथों।”
“क-क-क्या ?”
“और तुम्हारा वह सखाराम नाम का छोकरा भी। चाहो तो मैं तुम्हें भी उन्हीं के पास रुख्सत कर सकता हूँ।”
रुस्तम भाई ने फिर अपने सूखे होंठों पर जुबान फेरी और फिर आश्वासनहीन स्वर में बोला—“चारों तरफ लोग भरे पड़े हैं। अगर मैं शोर मचा दूँ तो ?”
“तो उससे तुम्हारी जान नहीं बच जायेगी, गंजे हरामजादे।”—इस बार विमल ने रिवॉल्वर की नाल से उसकी गंजी खोपड़ी पर दस्तक दी—“मैं गिरफ्तार हो गया या तुम्हारे साथ मैं भी मर गया, इससे तुम जिन्दा नहीं हो जाओगे।”
रुस्तम भाई ने पीड़ा से बिलबिलाते हुए अपनी गंजी खोपड़ी सहलाई।
“अब फटाफट बोलो, डोगरा कहाँ है ?”—विमल बोला।
“मुझे नहीं मालूम।”—वह बोला—“कसम खुदा की, मुझे नहीं मालूम।”
“उस औरत को हर पहली तारीख को पहुँचाने के लिए दो हजार रुपये तुम्हें डोगरा नहीं देता ?”
“वही देता है।”
“कैसे देता है ?”
“मेरे अहाते के पास ही एक बैंक है। उसमें डोगरा के कहने पर सौ रुपये जमा करवाकर मैंने खुद अपना खाता खुलवाया हुआ है। हर पहली तारीख को कोई उसमें दो हजार रुपये जमा करा जाता है, जो कि उतने का ही चैक भरकर मैं निकलवा लेता हूँ और हर बार किसी नये हरकारे के हाथ बान्द्रा भिजवा देता हूँ। दो साल से यह सिलसिला ऐसे ही चल रहा है।”
“यह मामूली काम वह इतने पेचीदा तरीके से क्यों करता है ?”
“मुझे नहीं मालूम। मेरे खयाल से वह नहीं चाहता कि उस औरत को उसका कोई अता-पता मालूम हो पाये।”
“इस सिलसिले में कभी कोई अड़चन आ सकती है, कोई ऐसी पेचीदगी खड़ी हो सकती है जो कि तुम दोनों की कल्पना से बाहर हो। ऐसी कोई नौबत आ जाने पर डोगरा से सम्पर्क स्थापित करने का कोई तो तरीका तुम्हारे पास होगा ?”
“नहीं है।”
विमल ने सन्दिग्ध भाव से उसे घूरा।
“सरदार साहब।”—रुस्तम भाई बड़ी संजीदगी से बोला—“मैं तुम्हें नहीं जानता। मैं उस औरत को नहीं जानता। मैं यह तक नहीं जानता कि डोगरा का उससे क्या रिश्ता है या कभी था और वह उसे हर महीने दो हजार रुपये क्यों भिजवाता है। डोगरा मेरा बचपन का दोस्त है। उसने मुझे यह एक छोटा-सा काम करने के लिए कहा, जो मैंने बचपन की दोस्ती का लिहाज करते हुए कर दिया।”
“वह तुम्हारा बचपन का दोस्त है, लेकिन तुम उसका पता नहीं जानते ?”
“नहीं जानता। पहले जानता था, अब नहीं जानता। सालों पहले वह मुम्बई छोड़कर यूपी में कहीं चला गया था तो अपना यहाँ का सायन वाला फ्लैट खाली कर गया था। उसके बाद जब वह दोबारा मुम्बई लौटा था तो उसने मुझे यह बताना जरूरी नहीं समझा था कि वह अब इधर कहाँ रहता था। कभी मिलता था तो वह ही मुझसे मिलता था।”
“तुमने अभी कहा था, तुम उससे बहुत डरते हो !”
“हाँ।”
“क्यों ?”
वह हिचकिचाया।
“जवाब दो।”
“क्योंकि”—वह बेहद धीमी आवाज में बोला—“मैंने सुना है कि अब वह काला पहाड़ के गैंग का एक बहुत महत्त्वपूर्ण आदमी हो गया है।”
“काला पहाड़ क्या चीज हुई ?”
“काला पहाड़ आज की तारीख में मुम्बई के अण्डरवर्ल्ड का बेताज बादशाह है। उसका वास्तविक नाम तो राजबहादुर बखिया है, लेकिन वह काला पहाड़ के नाम से ज्यादा मशहूर है।”
“ओह !”
“वह सिर्फ मुम्बई का ही नहीं, सारे हिन्दुस्तान का बहुत बड़ा गैंगस्टर माना जाता है। माफिया तक से उसका सम्बन्ध बताया जाता है और सारे हिन्दुस्तान के तो क्या, दुबई, हाँगकांग, सिंगापुर तक के जरायमपेशा लोग उसके नाम से थर-थर काँपते हैं। ड्रग्स की स्मगलिंग उसका मुख्य धन्धा है, जिसकी वजह से उसे एशिया का नॉरकॉटिक्स किंग भी कहा जाता है।”
“मुम्बई के अण्डरवर्ल्ड में ऐसा रुतबा और रसूख कभी विशम्भरदास नारंग का हुआ करता था।”—विमल धीरे से बोला।
“वह तो बहुत पुरानी बात हो गयी। बहुत पहले मुम्बई के अण्डरवर्ल्ड में उसी का सिक्का चलता था, लेकिन गोवा में जब वह अपने दो साथियों के साथ कत्ल कर दिया गया था तो यहाँ उसकी जगह लेने वाले कई लोग पैदा हो गये थे। लेकिन काला पहाड़ और उसके तीन भाइयों ने सबका डटकर मुकाबला किया था। एक भयंकर गैंग वार के बाद और अपने दो भाइयों की बलि देने के बाद काला पहाड़ ने सबको अपने सामने झुका लिया था। तब से आज तक मुम्बई के अण्डरवर्ल्ड पर काला पहाड़ का एकछत्र राज है।”
“आई सी।”—विमल गम्भीरता से बोला, वह सोच रहा था कि रुस्तम भाई क्या जानता था कि जिस आदमी ने नारंग और उसके दो साथियों का गोवा में कत्ल किया था, वह उस वक्त उसकी कार में उसकी बगल में बैठा था—“आई सी। तो डोगरा काला पहाड़ के गैंग का आदमी है।”
“सिर्फ आदमी ही नहीं, महत्त्वपूर्ण आदमी है। ऐसे आदमी से मैं न डरूँ तो क्या करूँ ? काला पहाड़ के किसी आदमी से वैर मोल लेने लायक हस्ती तो मुम्बई में किसी की भी नहीं है, उसके किसी आदमी को नाखुश करने का हौसला रखने के लिए भी गज-भर का कलेजा चाहिये।”
“जो कि तुम्हारा नहीं है।”
वह खामोश रहा।
“तुम कहते हो कि तुम हर पहली को जो दो हजार रुपये बैंक से निकलवाते हो, वह पहली को ही बैंक में जमा करवाए गये होते हैं ?”
“हाँ।”
“यह कैसे जानते हो तुम ?”
“क्योंकि एक बार बैंक के क्लर्क ने ही मुझे कहा था कि खाते में रुपये जमा हुए नहीं होते कि मैं निकलवाने आ जाता हूँ। हमेशा ऐसा ही होता है। वह कहता था कि जब इतनी जल्दी मैंने पैसे निकलवा लेने होते हैं तो मैं जमा क्यों करवाता हूँ ? वह तो नहीं जानता न कि पैसा निकलवाता कोई और है, जमा कोई और करवाता है।”
“लेकिन पैसा अगर हमेशा पहली को ही जमा कराया जाता है तो फिर तो डोगरा मुम्बई में ही रहता होगा !”
“जरूरी नहीं। वह बाहर से भी किसी को निर्देश भिजवा सकता है कि वह पहली को बैंक में दो हजार रुपया जमा करा आये।”
“ऐसा निर्देश अगर वह किसी और को भिजवा सकता है तो उसे तुम्हारी क्या जरूरत है ? वह उसी आदमी को यह नहीं कह सकता कि वह रुपया बान्द्रा में उस औरत को पहुँचा आये ?”
“तुम्हारे खयाल से डोगरा दो हजार रुपया बैंक में जमा करने खुद आता होगा ?”
“क्यों नहीं हो सकता ?”
“जितने खुफिया ढंग से वह यह सब कुछ मुझसे करवाता है, उसे देखते हुए तो हो सकता है ! सरदार साहब, फिर तो तुम अगली पहली तक इन्तजार करो। अगली पहली को बैंक की निगरानी करके...”
“मेरे पास इतना वक्त नहीं। मैं एक महीना इन्तजार नहीं कर सकता।”
रुस्तम भाई ने जवाब में कोई राय पेश न की।
“इस काला पहाड़ का हैडक्वार्टर अगर मुम्बई में है तो इसके गैंग के महत्त्वपूर्ण आदमी भी तो यहीं रहते होंगे ?”
“हो सकता है।”
“यह काला पहाड़ मुम्बई में कहाँ पाया जाता है ?”
रुस्तम भाई हिचकिचाया।
“अब यह मत कहना कि तुम्हें यह बात मालूम नहीं।”—विमल चेतावनीभरे स्वर में बोला—“जितना मशहूर आदमी तुम उसे साबित करने की कोशिश कर रहे हो, उस लिहाज से तो मुम्बई में बच्चे-बच्चे को मालूम होना चाहिए कि वह कहाँ पाया जाता है। तुम्हारा काला पहाड़ नारंग नाम के जिस गैंगस्टर का उत्तराधिकारी बना है, उसके बारे में मुम्बई का बच्चा-बच्चा जानता था कि वह मैरीन ड्राइव पर स्थित एक फाइव स्टार होटल के एक सूइट में रहता था।”
“काला पहाड़ भी होटल में ही रहता है।”—रुस्तम भाई धीरे से बोला।
“कौन-से होटल में ?”
“होटल सी-व्यू।”
“यह कहाँ हुआ ?”
“जुहू बीच पर। नया बना फाइव स्टार डीलक्स होटल है। कहते हैं कि यह होटल काला पहाड़ की अपनी मिल्कियत है।”
“और यही उसका हैडक्वार्टर है ?”
“हो सकता है।”
विमल खामोश हो गया।
कितनी ही देर कार में सन्नाटा छाया रहा।
“अब ?”—अन्त में रुस्तम भाई ने चुप्पी भंग की।
“क्या अब ?”—विमल बोला।
“अब मेरे लिए क्या हुक्म है ?”
“ओह ! कोई काम की बात तो तुमने मुझे बताई नहीं, रुस्तम सेठ !”
“जब मुझे कुछ मालूम ही नहीं तो मैं...”
“छोड़ो। मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं। मेरा मतलब है अब तक।”
“अब तक क्या मतलब ?”
“तुमने मुझे डोगरा का पता नहीं बताया, इसलिए नहीं बताया, क्योंकि तुम्हें मालूम नहीं। मैंने तुम्हारी बात मान ली। पता न मालूम होने की वजह से तुम डोगरा तक तो नहीं पहुँच सकते, लेकिन इत्तफाक से वह कभी कहीं टकरा सकता है तुमसे... सुनते रहो, बीच में बोलने की कोशिश मत करो। फर्ज करो आज ही शाम को, या उससे भी पहले, इत्तफाक से डोगरा तुमसे कहीं टकरा जाता है या तुम कहीं फोन करते हो तो रांग नम्बर मिल जाता है और तुम्हें दूसरी तरफ से डोगरा की आवाज सुनाई देने लगती है। इत्तफाक से ... सुनते जाओ। मैं जानता हूँ आमतौर पर ऐसे इत्तफाक नहीं होते हैं, लेकिन फर्ज करो ऐसा कोई इत्तफाक तुम्हारे साथ हो जाता है तो तुम क्या करोगे ?”
“मैं क्या करूँगा ?”—रुस्तम भाई ने असमंजसपूर्ण भाव से पलकें झपकाई।
“तो तुम डोगरा को—अपने बचपन के यार को—मेरे बारे में क्या बताओगे ?”
“कुछ भी नहीं।”
“शाबाश ! यह जवाब याद रखना, रुस्तम भाई। अगर यह जवाब तुम भूल गये और इसकी जगह तुम्हारी जुबान से कोई ऐसा गलत जवाब निकल गया, जो मुझे नापसन्द हुआ तो मैं वापस आ जाऊँगा। लेकिन वापस आकर मैं तुम्हें कुछ नहीं कहूँगा।”—विमल अपनी धमकी को नाटकीयता का पुट देने के लिए एक क्षण के लिए रुका और फिर बेहद क्रूर स्वर में बोला—“मैं तुम्हारी उँगली का एक नाखून भी नहीं छुऊँगा रुस्तम सेठ, लेकिन मैं तुम्हारे अहाते में खड़ी तुम्हारी सारी देसी-विलायती गाड़ियों को जलाकर खाक कर दूँगा। मैं ऐसा कर सकता हूँ, इस बात में तुम्हें शक हो तो कहो तो मैं अभी तुम्हारे साथ चलूँ ? इस वक्त तो वहाँ तुम्हारे दर्जन-भर हिमायती भी मौजूद हैं। बोलो ! चलें ?”
रुस्तम भाई ने विमल की आँखों में ऐसे हिंसक भाव देखे कि एक क्षण को तो उसकी जुबान को ताला लग गया। फिर वह बड़ी कठिनाई से कह पाया—“नहीं। नहीं।”
“गुड।”—विमल सन्तुष्टिपूर्ण स्वर में बोला—“अपने वादे पर खरे उतरोगे तो जिन्दगी में दोबारा कभी मेरी शक्ल नहीं देखोगे। और अगर वादाखिलाफी करोगे तो...”
“मैं नहीं करूँगा।”
“यह बान्द्रा वाले फ्लैट की चाबी है।”—विमल ने सुरजीत के फ्लैट की चाबी उसकी गोद में डाल दी—“तुम्हारा सखाराम फ्लैट के बाथरूम में बन्द है। उसे वहाँ से रिहा करवा लेना।”
“यानी कि वह जिन्दा है ?”
“हाँ।”
“और वह औरत ?”
“वह जिन्दा नहीं है। वह तो इस वक्त जहन्नुम में शैतान के साथ बैठी लंच कर रही होगी।”
“लाश ! उसकी लाश भीतर फ्लैट में ही है ?”
“नहीं। वह मैंने ठिकाने लगा दी है।”
“ओह !”—रुस्तम भाई ने चैन की साँस ली—“एक बात और बता दो।”
“क्या ?”
“गाड़ी। सखाराम के पास जो गाड़ी थी, वो कहाँ है ?”
“गाड़ी पहुँच जायेगी तुम्हारे पास।”—विमल लापरवाही से बोला।
“ओह ! तो गाड़ी तुम्हारे पास है।”
“गाड़ी तुम्हारे पास भाड़े समेत पहुँचेगी।”
“मुझे भाड़ा नहीं चाहिए। गाड़ी भिजवा देना।”
“ठीक है।”
“वो दो हजार रुपये।”—रुस्तम भाई झिझकता-सा बोला—“जब उस औरत के पास पहुँचे नहीं तो...”
“तो क्या !”
“तो वे मुझे डोगरा को लौटाने होंगे।”
“और ऐसा कैसे करोगे तुम ?”
“म-मेरा मतलब है, वह कभी तो मुझे मिलेगा ही ! कभी तो उसे उस औरत की मौत की खबर लगेगी ही !”
“खातिर जमा रखो। वह अब तुमसे कभी नहीं मिलेगा।”
“क्यों ?”
“क्योंकि ऐसी कोई नौबत आने से पहले उसका कत्ल हो चुका होगा।”
“क-कत्ल ?”
“मेरे हाथों।”
रुस्तम भाई ने जोर से थूक निगली।
विमल ने रिवॉल्वर वापस जेब में रख ली और एक आखिरी चेतावनीभरी निगाह रुस्तम भाई पर डालकर कार से बाहर निकल गया।
रुस्तम भाई ने यूँ कार आगे दौड़ाई, जैसे एक क्षण भी और फालतू वहाँ रुके रहने से कयामत आ सकती हो।
विमल वहीं सड़क पर खड़ा रहा।
कुछ क्षण बाद एक सफेद मार्क फोर एम्बैसेडर कार, जिसका नम्बर उसके प्राइवेट टैक्सी होने की चुगली कर रहा था, विमल के पहलू में आ खड़ी हुई।
कार नीलम चला रही थी।
विमल उसके साथ कार में सवार हो गया।
वह रुस्तम भाई की वही गाड़ी थी जिस पर सखाराम बान्द्रा तक पहुँचा था।
गाड़ी तुरन्त रुस्तम भाई के ऑफिस से विपरीत दिशा में दौड़ चली।
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होटल सी-व्यू मुम्बई के ऐश्वर्यशाली होटलों की श्रृंखला में शामिल हुआ सबसे नया होटल था। वह फाइव स्टार डीलक्स रेटिंग वाला होटल था और उसकी अट्ठारह मंजिला इमारत आधुनिक वास्तुकला की भव्यता का अद्वितीय करिश्मा था। वह होटल राजबहादुर बखिया उर्फ काला पहाड़ के योरोप-अमेरिका तक फैले हुए एम्पायर का हैडक्वार्टर था। होटल की दूसरी से पांचवीं मंजिल तक के तमाम कमरे बखिया के एम्पायर के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण लोगों के लिए सुरक्षित थे। उन चार मंजिलों पर किसी अनधिकृत आदमी के कदम पड़ना असम्भव था, अलबत्ता बाकी मंजिलों पर विधिवत् रूप से आधुनिक फाइव स्टार होटल चलता था, रईस मेहमान आते थे, होटल की शानदार सर्विस का आनन्द उठाते थे और चले जाते थे, लेकिन आज तक किसी को कानों-कान खबर तक नहीं हुई थी कि वह होटल किसी माफिया स्टाइल संस्था का हैडक्वार्टर था, किसी को यह तक पता नहीं लगा था कि होटल की दूसरी और पांचवीं मंजिल के बीच की चार मंजिलों में और बाकी मंजिलों में कोई फर्क था।
काला पहाड़ की बादशाहत एकदम माफिया स्टाइल से चलती थी लेकिन वहाँ माफिया का नाम नहीं इस्तेमाल किया जाता था, न ही उसे माफिया स्टाइल में आर्गेनाइजेशन, सिण्डीकेट या आउटफिट जैसे फैंसी नामों से पुकारा जाता था। काला पहाड़ की आर्गेनाइजेशन ‘कम्पनी’ कहलाती थी। किसी भी सन्दर्भ में स्मगलरों, गैंगस्टरों और गुण्डे-बदमाशों के उस गिरोह का जिक्र आता था तो उसे ‘कम्पनी’ के नाम से सम्बोधित किया जाता था। उसी कथित कम्पनी का एक इतना महत्त्वपूर्ण पुर्जा आज की तारीख में ज्ञानप्रकाश डोगरा भी बन चुका था कि वह ‘कम्पनी’ के हैडक्वार्टर होटल सी-व्यू की दूसरी मंजिल का एक सूइट स्थायी रूप से अपने नाम कराने का हकदार माना जाने लगा था।
कहने का मतलब यह था कि आज तक किसी को सपने में नहीं सूझा था कि होटल सी-व्यू एक फाइव स्टार डी-लक्स होटल के अलावा कुछ और भी हो सकता था और ‘कम्पनी’ की भी यह पूरी कोशिश थी कि ऐसी नौबत भविष्य में कभी न आये।
‘कम्पनी’ के उस हैडक्वार्टर को अस्तित्व में आये हुए तीन साल से अधिक हो गये थे, लेकिन आज तक वहाँ ऐसी कोई बात नहीं हुई थी, जो वहाँ के इन्तहाई इज्जतदार माहौल की सफेद चादर पर कोई हल्का-सा भी बद्नुमा दाग छोड़ पाती। कभी वहाँ कोई सन्दिग्ध चरित्र का व्यक्ति दाखिल होता या वहाँ से निकलता नहीं देखा गया था। कभी वहाँ पुलिस के कदम नहीं पड़े थे। कभी किसी सन्दर्भ में वहाँ की निगरानी तक नहीं हुई थी। होता वहाँ सब कुछ था, लेकिन ‘कम्पनी’ इस बात का पूरा खयाल रखती थी कि कभी कोई गलत निगाह या इलजाम लगाती उँगली होटल सी-व्यू की तरफ न उठ सके। होटल के तहखाने से एक सुरंग वहाँ से कोई दो फर्लांग दूर एक अन्य इमारत तक जाती थी और वह इमारत भी ‘कम्पनी’ की प्रापर्टी थी। कभी कोई इमरजेन्सी आ जाने पर वह रास्ता बाखूबी इस्तेमाल किया जा सकता था। ‘कम्पनी’ से सम्बन्धित जो लोग होटल के फाइव स्टार सैट-अप में खप पाने लायक परसनैलिटी नहीं रखते थे, उनका वहाँ आना-जाना उसी रास्ते से होता था। ‘कम्पनी’ का कोई ‘बड़ा आदमी’ अगर फिर भी पुलिस या सीआईडी की निगाहों में आ जाता था तो उसे फौरन आदेश मिल जाता था कि वह अपना होटल का सूइट खाली कर दे और कहीं और जाकर रहे।
उस वक्त ज्ञानप्रकाश डोगरा उसी होटल की दूसरी मंजिल के अपने सूइट के बैडरूम में मौजूद था और विमला नाम की उस काल गर्ल का इन्तजार कर रहा था जिसे कि अब तक वहाँ पहुँच जाना चाहिए था। उस वक्त उसने चायना सिल्क का एक ड्रैसिंग गाउन पहना हुआ था और वह विशाल डबल बैड पर कई तकियों के सहारे एक बादशाह की तरह बड़े इत्मीनान से लेटा हुआ था। अगर उसे रत्ती-भर भी इल्म होता कि उस वक्त वहाँ विमला के स्थान पर विमल भी आ सकता था तो शायद वह उतने इत्मीनान से न लेटा रह पाता।
आज डोगरा उतना स्मार्ट और अधेड़ावस्था में भी बड़ी चौकस तन्दुरुस्ती का वो नमूना नहीं रहा था, जो वह कभी इलाहाबाद में एरिक जॉनसन कम्पनी के अस्तित्व के जमाने में था। अब वह काहिल और आरामतलब हो गया था और उसका जिस्म ढीला-ढाला और थुल-थुल हो गया था। खाने-पीने के मामले में कोई पाबन्दी न बरतने की वजह से आँखों के नीचे गोश्त की थैलियाँ-सी लटकने लगी थीं और चेहरे की खाल स्थायी रूप से फटी-फटी और लाल-सी लगने लगी थी। इलाहाबाद वाले डोगरा के मुकाबले में मौजूदा डोगरा हर बात में बदल गया था, नहीं बदला था तो एक बात में—
नौजवान, खूबसूरत औरतों का रसिया अब भी वह पहले ही जैसा था।
उसने सामने दीवार पर लगी शानदान वाल-क्लॉक पर निगाह डाली और भुनभुनाता हुआ बोला—“कहाँ मर गयी, हरामजादी !”
पहली तारीख को उसका मूड ठीक नहीं होता था और उसके सब्र का पैमाना जल्दी छलकने लगता था। पहली तारीख को उसके जेहन में सुरजीत की याद आये बिना नहीं रह पाती थी। उसका विवेक उसे कचोटने लगता था और उसके दिल के किसी कोने से आवाज आने लगती थी कि वह सुरजीत के साथ अच्छा सलूक नहीं कर रहा था, लेकिन उस आवाज को वह हमेशा बड़ी बेरहमी से दबा देता था और इस काम को ज्यादा सहूलियत से अँजाम देने के लिए मिसेज पिन्टो के वेश्यालय से बेहतरीन काल-गर्ल तलब करता था।
आज कोई विमला नाम की काल-गर्ल वहाँ आने वाली थी, जिसके बारे में मिसेज पिन्टो ने दावा किया था कि उसकी सूरत और फिगर देखते ही उसका हार्ट फेल हो जायेगा।
हार्ट फेल हो जायेगा—मिसेज पिन्टो की बात याद करके उसके होंठों पर एक विद्रूपपूर्ण मुस्कराहट आयी।
लेकिन कम्बख्त मर कहाँ गयी थी ! अब तक तो उसे कब का उसके साथ लेटी होना चाहिए था।
इलाहाबाद में एरिक जॉनसन कम्पनी जब तक चली थी, बहुत उम्दा चली थी और ‘कम्पनी’ उसके काम से सन्तुष्ट थी। बाद में कम्पनी का पर्दाफाश होने पर भी डोगरा ने जिस होशियारी से स्थिति को हैण्डल किया था, उसके लिए उसे ऐन ऊपर से शाबाशी मिली थी। उसी शाबाशी ने उसे ‘कम्पनी’ के हैडक्वार्टर में रखा जाने लायक एग्जिक्यूटिव बनाया था और रुपये-पैसों के मामलों में उसे इतनी सामर्थ्य दी थी कि सुरजीत को फ्लैट खरीदकर देना और खर्चे-पानी के लिए उसे हर महीने दो हजार रुपये देना डोगरा को इतना ही आम काम लगता था, जैसे उसने किसी मँगते की झोली में एक रोटी का टुकड़ा डाला हो।
मैं इतना भी न करूँ तो क्या कर लेगी साली मेरा !—डोगरा हमेशा अपने-आपको यही कह कर समझाता था।
इलाहाबाद में सुरजीत के पति के जेल जाने के बाद से ही डोगरा को सुरजीत में भरपूर जोशोखरोश के साथ अपने साथ हमबिस्तर होने वाली उस औरत के दर्शन कभी भी नहीं हुए थे जो कि सुरजीत हमेशा से थी। कभी वह सोचा करता था कि सुरजीत के बाद रति सुख की दुनिया खतम थी और उसके होते किसी और औरत की इच्छा करने का खयाल भी करना हिमाकत थी, लेकिन धीरे-धीरे पता नहीं कैसे आग का धधकता शोला अपनी गर्मी खोता चला गया और पता नहीं कब राख का ढेर बन गया। शुरुआत में तो डोगरा का उन तब्दीलियों की तरफ ध्यान ही नहीं गया था, लेकिन उस जैसे ऐय्याश और कामवासना के सताए हुए मर्द का ध्यान कभी तो उन तब्दीलियों की तरफ जाना ही था। गया। वह फिर भी उसे बर्दाश्त करता रहा। लेकिन आग गर्म राख ही बनी रहती तो कोई बात थी। वह तो बर्फ की सिल बन गयी। वह तो ऐसे मशीनी अन्दाज से कपड़े उतारकर उसके साथ हमबिस्तर होने लगी, जैसे वह कोई जरूरी काम था, जो वह डोगरा का कर रही थी; जैसे वह कोई जिम्मेदारी थी, जो वह डोगरा के लिए निभा रही थी। डोगरा भी उससे बेजार होता होता इस हद तक बेजार हुआ कि उसे सुरजीत के साथ लेटना कब्रिस्तान में दफनाए जाने के लिए तैयार पड़ी लाश के साथ लेटने जैसा लगने लगा। वैसे करने को वह सब कुछ करती थी, लेकिन वह ऐसा ही होता था, जैसे बिजली का स्विच ऑन करने से कोई मशीन चालू हो जाती है और ऑफ करने से बन्द हो जाती है। सुरजीत में हुई, और होती जा रही, तब्दीलियों को वह जुबान से बयान नहीं कर सकता था, लेकिन उसका दिल जानता था कि सुरजीत के भीतर की ‘औरत’ मर चुकी थी।
फिर दो साल पहले ‘कम्पनी’ जब उस पर इतनी मेहरबान हुई कि ‘कम्पनी’ के हैडक्वार्टर में उसे उसका मौजूदा सूइट मिल गया तो उसने सुरजीत से पीछा छुड़ाने का फैसला कर लिया। उसने सुरजीत को बताया कि ‘कम्पनी’ उसे ट्रांसफर पर दुबई भेज रही थी और फिलहाल वह उसे वहाँ नहीं ले जा सकता था। उसने सुरजीत को बान्द्रा वाला फ्लैट खरीद दिया, उसे फरनिश कर दिया और उसकी दो हजार रुपये महीने की माहवारी बाँध दी। अपनी निगाह में उसने एक ऐसा इन्तजाम किया था जो दोनों के ही लिए निहायत मुनासिब था।
लेकिन फिर भी उसके दिल के किसी कोने में अभी भी जिन्दा कोई इन्सानी जज्बा कम से कम पहली तारीख को जरूर उसे सुरजीत की याद दिला देता था और उसके विवेक को थोड़ा-बहुत झकझोर जाता था। इसलिए पहली तारीख को उसे दिन में ही मिसेज पिन्टो के वेश्यालय की बेहतरीन काल-गर्ल की जरूरत होती थी और उस काल-गर्ल का नाम उसे विमला बताया गया था और वह अभी तक वहाँ नहीं पहुँची थी।
आने दो हरामजादी को—डोगरा दाँत पीसता बोला—पहले साली को लेट आने का ही मजा चखाऊँगा।
उसने फिर वाल-क्लॉक पर निगाह डाली।
तीन बीस हो गये थे।
जबकि उसे तीन बजे ही वहाँ पहुँच जाना चाहिए था।
तभी एकाएक फोन की घण्टी बज उठी।
उसने यही सोचा कि मिसेज पिन्टो उसे खबर करने के लिए फोन कर रही होगी कि किसी वजह से विमला नहीं आ सकती थी।
फोन सुने बिना ही उसे गुस्सा आने लगा।
फिर उसने हाथ बढ़ाकर मेज पर पड़े दो टेलीफोनों में से बजते फोन का रिसीवर उठा लिया।
“हल्लो !”—वह कर्कश स्वर में बोला।
“डोगरा साहब ?”—दूसरी तरफ से एक मर्दानी आवाज आयी।
“हाँ। कौन बोल रहे हो ?”
“डोगरा साहब, मैं घोरपड़े बोल रहा हूँ। मैं माफी चाहता हूँ कि मैंने आपको डिस्टर्ब किया।”
“माफी मत चाहो।”—डोगरा जले-भुने स्वर में बोला—“माफी चाहने से ज्यादा आसान काम करो। डिस्टर्ब मत करो।”
डोगरा फोन रखने ही वाला था कि उसके कान में घोरपड़े की व्यग्र आवाज पड़ी—“डोगरा साहब, बात निहायत जरूरी न होती तो मैं हरगिज आपको डिस्टर्ब न करता।”
घोरपड़े ‘कम्पनी’ का ही आदमी था और वह पिछले दो सालों से डोगरा और रुस्तम भाई के बीच की कड़ी का काम कर रहा था। वही पहली तारीख को रुस्तम भाई के अन्धेरी वाले बैंक में दो हजार रुपये जमा कर आता था।
“क्या हो गया है ?”—इस बार डोगरा तनिक नम्र स्वर में बोला।
“अभी कुछ ठीक से बात पल्ले नहीं पड़ी, डोगरा साहब। दरअसल मेरे पास रुस्तम भाई का टेलीफोन आया था। वह फौरन आपसे मिलना चाहता है।”
“ऐसा क्या हो गया है ?”—डोगरा सकपकाया—“जो तुमसे मिलने से उसका काम नहीं चल सकता ?”
“मालूम नहीं।”
“तुमने उसे मेरा कोई पता-वता तो नहीं बता दिया ?”
“नहीं, साहब।”
“या उसे मेरा फोन नम्बर दिया हो ?”
“नहीं, साहब, इतना बेवकूफ नहीं हूँ मैं। मैंने उसे यही कहा था कि आप मुझे महीनों से नहीं मिले हैं।”
“अच्छा किया तुमने।”
“लेकिन वह कहता है कि मैं आपको तलाश करूँ। वह कहता है कि बात इन्तहाई जरूरी है। आपके लिए।”
डोगरा सोच में पड़ गया। रुस्तम भाई के पास उसके लिए ‘इन्तहाई जरूरी’ बात कौन-सी हो सकती थी ! उसके पास तो अगर कोई बात हो सकती थी तो सुरजीत से ही ताल्लुक रखती हो सकती थी। लेकिन उससे ताल्लुक रखती भी क्या बात हो सकती थी !
सिवाय पैसों वाली बात के।
जरूर वह दो हजार रुपयों से ज्यादा बड़ी माहवारी की रकम चाहती होगी।
अगर हरामजादी ने पैसे से ताल्लुक रखती कोई बात की—डोगरा ने दाँत पीसते हुए मन ही मन फैसला किया—तो वह उसे दो हजार रुपये भिजवाना भी बन्द कर देगा। अब उसे हासिल क्या था कम्बख्त से ! वह तो खामखाह की भावनाओं के आवेग में बह कर उस पर मेहरबान हुआ जा रहा था। वह उसे हमेशा के लिए अपनी जिन्दगी से धक्का दे देता तो वह उसका कुछ बिगाड़ थोड़े ही सकती थी ! कुछ बिगाड़ना तो दूर, वह तो उसे ढूँढ़ तक नहीं सकती थी।
“रुस्तम भाई ने कतई कुछ नहीं बताया ?”—प्रत्यक्षत: डोगरा बोला—“कि आखिर हो क्या गया है, जो वह मुझसे मिलने के लिए मरा जा रहा है ?”
“वह कहता है कि कोई आदमी आपको तलाश कर रहा है।”
“मुझे ?”
“जी हाँ। और इसी चक्कर में उसने बान्द्रा में एक औरत का खून भी कर डाला है।”
“बान्द्रा में एक औरत का खून कर डाला है !”—डोगरा आतंकित भाव से बोला। उसकी उँगलियाँ रिसीवर पर कस गयीं।
“और अब वह आदमी आपकी फिराक में है। आपकी तलाश में ही वह रुस्तम भाई तक पहुँचा था। रुस्तम भाई कहता है कि वह आदमी उससे बहुत खतरनाक तरीके से पेश आया था।”
“लेकिन वह था कौन ?”
“पता नहीं। रुस्तम भाई ने इतना ही बताया है कि वह कैसे भी खून-खराबे के लिए उतारू कोई सिख नौजवान था।”
“सिख नौजवान था !”—डोगरा सन्नाटे में आ गया।
“जी हाँ।”
“घोरपड़े, मेरी रुस्तम भाई से मुलाकात का फौरन इन्तजाम कर।”
“आप कहाँ मिलना पसन्द करेंगे उससे ?”
“किसी भी पब्लिक प्लेस पर। लेकिन यहाँ से दूर। अन्धेरी से भी दूर।”
“लेमिंगटन रोड पर एल्फ्रेड के बार में ?”
“ठीक है।”
“कितने बजे ?”
“रात नौ बजे।”
“आज रात के ?”
“और कौन-सी रात के, बेवकूफ ?”
“मैं इन्तजाम करता हूँ।”—घोरपड़े बौखलाए स्वर में बोला।
डोगरा ने रिसीवर क्रेडल पर पटक दिया।
वह पलंग पर से उठा और बेचैनी से बैडरूम में चहलकदमी करने लगा।
दो ही लफ्ज हथौड़े की तरह उसके जेहन में बज रहे थे :
सिख नौजवान !
सिख नौजवान !
सिख नौजवान !
उसने बान्द्रा में एक औरत का खून कर दिया था।
अब अगर वह उसे तलाश कर रहा था तो वह औरत सुरजीत के अलावा और कौन हो सकती थी ?
और अगर वह औरत सुरजीत थी तो वह आदमी—वह सिख नौजवान जरूर—जरूर...
तभी एकाएक काल-बैल बज उठी।
डोगरा तत्काल खड़ा हुआ। फिर वह लम्बे डग भरता बाहर वाले कमरे में पहुँचा। मुख्यद्वार पर पहुँचने से पहले उसने कर्कश स्वर में सवाल किया—“कौन है ?”
“मुझे मिसेज पिन्टो ने भेजा है।”—दूसरी ओर से एक इन्तहाई सुरीली आवाज आयी।
डोगरा ने दरवाजा खाला।
एक अनिंद्य सुन्दरी ने भीतर कदम रखा। उसके खूबसूरत होंठों पर एक हजार वाट के बल्ब जैसी जगमगाती हुई मुस्कराहट उभरी और वह मधुर स्वर में बोली—“सॉरी, डार्लिंग। मुझे आने में देर हो गयी। मैं विमला हूँ।”
“विमला नहीं”—डोगरा ने उसके पेट में इतनी जोर का घूँसा जमाया कि वह पीड़ा से बिलबिलाती हुई दोहरी हो गयी—“विमल ! विमल ! विमल !”
डोगरा पढ़ा-लिखा, समझदार और दुनियादार आदमी था। विमल के कारनामों से वह नावाकिफ नहीं था। उसने बेशुमार बार अखबारों में पढ़ा था कि सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल, जो कभी इलाहाबाद में एरिक जॉनसन कम्पनी में एकाउंटेंट था और जहाँ से पचास हजार रुपये गबन करने की एवज में जिसे दो साल की जेल की सजा हुई थी और फिर जो जेल ब्रेक में फरार हो गया था, ही विमल था। डोगरा ने अखबार में उसकी सरदार वाली और क्लीनशेव्ड सूरतें भी अगल-बगल छपी देखी थीं, लेकिन फिर भी दिल से उसे कभी विश्वास नहीं हुआ था कि वह सीधा-साधा मक्खी भी मारने के नाकाबिल, कभी उसका मातहत रह चुका सिख नौजवान इतना खतरनाक डकैत और इतना दुर्दान्त हत्यारा बन सकता था। उसे अभी भी लगता था कि जरूर कहीं कोई गड़बड़ थी, किसी गलत आदमी को सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल समझा जा रहा था या सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल को कोई गलत आदमी समझा जा रहा था।
और फिर पिछले दिनों उसे एक ऐसी बात भी सुनने को मिली थी जो केवल अण्डरवर्ल्ड में ही कानों-कान फैली थी, लेकिन जिससे पुलिस या अखबार वाले कतई नावाकिफ थे।
उससे सुना था कि विमल कुछ महीने पहले राजनगर के पास कहीं एक मामूली मवाली के हाथों मारा जा चुका था। उस मवाली को विमल की छाती में सुआ उतारते समय नहीं मालूम था कि उसने एक ऐसे आदमी को मारा था जो सात राज्यों में घोषित इश्तिहारी मुजरिम था। बाद में जब राजनगर के एक अमरीकी डिप्लोमैट के अपहरण के सन्दर्भ के सिलसिले में विमल का नाम बहुत जोरों-शोरों से छपा था तो तभी उसे अपनी करतूत की अहमियत मालूम हुई थी और फिर राजनगर से भागकर मुम्बई में आया हुआ वह मामूली मवाली नशे की झोंक में अपनी किस्म के लोगों में अक्सर डींग हाँकने लगा था कि विमल नाम के इतने बड़े डाकू को उसने मारा था।
डोगरा ने अखबार में यह भी पढ़ा था कि ऐन मौके पर घटनास्थल पर पुलिस भी पहुँच गयी थी लेकिन विमल की लाश घटनास्थल पर पड़ी नहीं मिली थी। जरूर लाश विमल के साथी उठाकर ले गये थे और उन्होंने चुपचाप कहीं उसका दाह-संस्कार कर दिया था।
लेकिन अब मुर्दा जिन्दा कैसे हो उठा ?
और वह फिर से सरदार कैसे बन गया ?
हजार शंकाएँ मन में लिए डोगरा लेमिंगटन रोड पहुँचा। एल्फ्रेड का बार वाईएमसीए की बगल में था। उसने कार बार के सामने रोकने के स्थान पर वाईएमसीए के समीप रोकी।
उसने आस-पास निगाह दौड़ाई।
एक अन्य कार में घोरपड़े मौजूद था। वह डोगरा की कार को पहचानता था। उसकी कार के रुकते ही वह अपनी कार से निकला और लगभग दौड़ता हुआ डोगरा की कार के पास पहुँचा।
घोरपड़े एक भारी-भरकम आदमी था, जिसके चेहरे पर चेचक के गहरे दाग थे। उसका निचला होंठ कटा हुआ था और नाक चपटी थी। जो सूट वह पहने था, उसमें वह बुरी तरह से फँसा हुआ मालूम हो रहा था।
डोगरा कार से बाहर निकला।
“वह आ गया ?”—उसने सवाल किया।
“जी हाँ।”—घोरपड़े हाँफता हुआ बड़े अदब से बोला—“भीतर एक कोने की मेज पर बैठा है।”
“गुड।”—डोगरा ने एक सरसरी निगाह बार की तरफ दौड़ाई और फिर बोला—“घोरपड़े !”
“हाँ, साहब !”
“तुमने एक बार मुम्बई के बाहर से आये किसी मामूली मवाली का जिक्र किया था जो यह दावा करता था कि विमल नाम के एक बड़े खतरनाक इश्तिहारी मुजरिम को उसने मारा था ?”
“जी हाँ। अब तो यह बात ठण्डी पड़ चुकी है, लेकिन दो-ढाई महीने पहले उस आदमी ने जब मुम्बई में कदम रखा था तो नशे की झोंक में वह अक्सर अपने उस कारनामे की डींग हाँकने लगता था। इतने बड़े गैंगस्टर को मार डाला होने का दावा एक पिद्दी जैसा मामूली आदमी कर रहा था, इसलिये मेरी भी उसमें दिलचस्पी हुई थी। फारस रोड के एक थर्ड ग्रेड, गैरकानूनी बार में मैंने उसे नशे की झोंक में यह डींग हाँकते सुना था। मैंने उससे सवाल किया था कि उस डाकू के सिर पर तो एक लाख रुपये का इनाम था, उसने वह कारनामा सरकार को बताकर वह इनाम क्यों नहीं हासिल किया था, उसने हर किसी की वाहवाही क्यों नहीं हासिल की थी !”
“उसने क्या जवाब दिया था तुम्हारे इस सवाल का ?”
“इस सवाल का जवाब वह गोल कर गया था, लेकिन नशे में यह जिद उसने नहीं छोड़ी थी कि उसने विमल की छाती में यह लम्बा”—घोरपड़े ने हाथ के इशारे से सुए की लम्बाई बयान की—“बर्फ काटने वाला सुआ उतारा था।”
“क्यों ? ऐसी नौबत कैसे आयी थी ?”
“मालूम नहीं। साहब, मुझे तो वह आदमी झूठ बोलता लगा था इसलिए मैंने उसके साथ ज्यादा सिरखपाई नहीं की थी। मैं तो उसे इसलिए टटोलने गया था कि अगर वह वाकई ऐसा सूरमा था तो वह ‘कम्पनी’ के काम का आदमी हो सकता था, लेकिन वह कुछ भी नहीं था। लेकिन ‘मैंने विमल को मारा था’ की रट वह यूँ लगाए रहता था, जैसे किसी गुलेल चलाने वाले ने बब्बर शेर का शिकार किया हो।”
“उसने इस बात की तसदीक की थी कि विमल मर गया था ?”
“यह सवाल तो मैं उससे तब पूछता न, साहब, जबकि मुझे उसकी बात पर विश्वास होता।”
“उसका कोई नाम-धाम ?”
“नाम पीटर बताता था वह अपना। काम-धन्धे के बारे में जहाँ तक मेरा खयाल है, तब तक तो वह कुछ भी नहीं करता था। अब कुछ करता हो तो कह नहीं सकता। वैसे मुझे ऐसा सुनने को मिला था कि राजनगर में वह टैक्सी चलाता था और यहाँ मुम्बई में भी वह यही धन्धा पकड़ना चाहता था।”
“राजनगर भी मुम्बई जैसा ही बड़ा शहर है। उसने बताया नहीं कि राजनगर छोड़कर वह मुम्बई क्यों आया ?”
“मैंने उसके मुँह से निकली ऐसी कोई बात नहीं सुनी।”
“घोरपड़े !”
“हाँ, साहब।”
“उस आदमी को तलाश करो।”
“जी !”
“उस आदमी को जल्द से जल्द तलाश करो और उसे पकड़ कर मेरे पास लाओ।”
“डोगरा साहब, यह दो-ढाई महीने पहले की बात है, जब वह नशे में इस प्रकार की बड़क मारा करता था। लेकिन बाद में उसके एक ही बात बार-बार दोहराने से जब उसके श्रोता बोर होने लगे थे तो उसने इस बारे में कुछ बकना-झकना बन्द कर दिया था। तब तक मैं भी चैक कर चुका था कि वह ‘कम्पनी’ के काम का आदमी नहीं था। अब मौजूदा हालात में इतनी बड़ी मुम्बई में उस इकलौते, निहायत मामूली आदमी को तलाश करना तो बड़ा मुश्किल होगा !”
“मुश्किल ही होगा न”—डोगरा सख्ती से बोला—“नाममुकिन तो नहीं !”
“जी, हाँ। जी हाँ। नाममुकिन तो नहीं !”
“अगर वह मुम्बई में भी टैक्सी का ही धन्धा पकड़ने आया था तो उसे तलाश करना कोई खास मुश्किल काम साबित नहीं होगा।”
“बशर्ते कि जो वह कहता था, वह उसने किया भी हो।”
“घोरपड़े, यह ‘बशर्ते कि’ वाली जुबान मुझे मत सुनाओ। तुमने उस आदमी को तलाश करना है। समझ गये ?”
“हाँ, साहब। मैं कल से ही उसकी तलाश करवानी शुरू करता हूँ।”
“कल से नहीं, आज से। अभी से।”
“ठीक है, डोगरा साहब।”
फिर डोगरा बिना उसकी तरफ दृष्टिपात किये उसे अपनी कार के ही पास खड़ा छोड़कर बार की ओर बढ़ गया।
वह बार में दाखिल हुआ।
रुस्तम भाई उसे बार काउण्टर से बहुत परे एक तनहा कोने में एक मेज पर अकेला बैठा दिखाई दिया।
डोगरा को बार में दाखिल होता देखकर वह उठ खड़ा हुआ और उसने डोगरा की तरफ हाथ हिलाया।
डोगरा लम्बे डग भरता उसके पास पहुँचा। रुस्तम भाई ने उसका अभिवादन किया, जो कि डोगरा ने उस पर अहसान-सा करते हुए गरदन के एक झटके के साथ स्वीकार किया।
दोनों बैठ गये।
“डोगरा साहब।”—रुस्तम भाई ने व्याकुल भाव से कहना चाहा—“वो आदमी...”
“ठहरो।”—डोगरा ने उसे टोका—“सबसे पहले उस सरदार के बच्चे का हुलिया बयान करो।”
रुस्तम भाई ने किया :
मझोला कद। इकहरा बदन। बड़ी-बड़ी आँखें। सुतवां नाक। खूबसूरत होंठ। मोतियों जैसे सफेद, सुडौल दाँत। धीर-गम्भीर आवाज। नीले रंग का शानदार सूट। लाल टाई। लाल पगड़ी काली फिफ्टी। वगैरह ...
सोहल !—डोगरा ने बड़े वितृष्णापूर्ण भाव से मन ही मन सोचा।
“इतने मामूली आदमी से तुम डर गये, रुस्तम भाई ?”—प्रत्यक्षत: वह व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला।
“उसके पास रिवॉल्वर थी।”—रुस्तम भाई बोला।
“ओह !”
“लेकिन मैं रिवॉल्वर से नहीं डरा।”
“तो ?”
“मैं उसकी आँखों से डरा, उसकी निगाह से डरा। डोगरा साहब, उसके पास रिवॉल्वर होते हुए भी मैं खाली हाथों से उसकी गरदन मरोड़ सकता था, लेकिन उसकी आँखों में”—उसके शरीर ने झुरझुरी ली—“उसकी आँखों में मुझे ऐसा हिंसक भाव दिखाई देता था कि मैं उससे निगाह मिलाने की ताब नहीं ला पाता था। उसकी आँखों में ऐसी ज्वाला-सी धधकती थी कि मुझे लगता था कि वह आदमी सारी दुनिया को तबाह कर डालने की कूवत रखता था। उसने मेरे अहाते में खड़ी मेरी सारी कारों को तबाह कर देने की धमकी दी थी, तब धमकी दी थी, जबकि वहाँ मेरे दर्जन भर हिमायती भी मौजूद थे और वह अकेला था, लेकिन फिर भी मेरी हिम्मत नहीं हुई थी उसकी धमकी कबूल करने की।”
“उसने तुम्हें यह धमकी किस सिलसिले में दी थी ?”
“वह चाहता था कि मैं आपको उसके बारे में कुछ न बताऊँ।”
“लेकिन तुम तो बता रहे हो !”
“डोगरा साहब।”—रुस्तम भाई शिकायतभरे स्वर में बोला—“मैं आपका दोस्त हूँ। बचपन का...”
“अरे, हाँ। हाँ।”
तभी एक वेटर वहाँ पहुँचा।
“पाँच मिनट बाद आना।”—उसके मुँह भी खोल पाने से पहले डोगरा बड़ी सख्ती से बोला।
वेटर फौरन वहाँ से कूच कर गया।
“वह चाहता क्या था ?”—डोगरा ने पूछा—“तुम्हारे पास पहुँचा क्यों वो ?”
“वह मुझसे आपका पता जानना चाहता था।”
“किसलिए ?”
“वह... वह कहता था।”—रुस्तम भाई झिझकता हुआ बोला—“वह कहता था कि...”
“जरा जल्दी-जल्दी जुबान चलाओ।”
“डोगरा साहब, वह आदमी आपके कत्ल का इरादा रखता है।”—रुस्तम भाई फट पड़ा।
“मेरे कत्ल का इरादा रखता है !”—डोगरा हड़बड़ाया और फिर सम्भला—“मेरा कत्ल करना कोई मजाक है ! साला जानता नहीं मैं ‘कम्पनी’ का आदमी हूँ और मेरे पीछे एक फौज जैसी बड़ी आर्गनाइजेशन है ! कोई हँसी-खेल है मेरा कत्ल करना ! मैं हरामजदे को मक्खी की तरह मसलकर रख दूँगा।”
रुस्तम भाई खामोश बैठा रहा।
“मुझे सारी कहानी सुनाओ।”—डोगरा ने आदेश दिया।
रुस्तम भाई ने अपने और विमल के बीच में हुआ वार्तालाप दोहरा दिया।
“ओह !”—अन्त में डोगरा बोला—“तुमने किसी को बान्द्रा भेजा था ?”
“मैं खुद वहाँ गया था”—रुस्तम भाई बोला—“मुझे वहा मेरा अपना आदमी तो बेहोशी की हालत में बाथरूम में बन्द पड़ा मिला था लेकिन औरत वहाँ नहीं थी।”
“हूँ।”
“औरत के फ्लैट के सामने एक बड़ी खुराफाती बुढ़िया रहती है। उसने मुझे कोई रेफ्रीजरेटर कम्पनी का आदमी समझा था। वह मुझसे पूछ रही थी कि क्या मैं मिसेज सिंह का फ्रिज मरम्मत के बाद वापस लाया था और यह कि क्या कुछ मालूम हुआ था कि ले जाते वक्त फ्रिज इतना भारी क्यों था ? मेरे मामूली से इसरार पर उसने मुझे फ्रिज की कहानी कह सुनाई थी। डोगरा साहब, लगता है औरत के कत्ल के बाद उसकी लाश फ्रिज में बन्द करके फ्लैट से निकाली गयी थी। कहने का मतलब यह है कि सरदार ने सच बोला था कि उसने उस औरत का कत्ल कर दिया था और... और अब वह आपके कत्ल की फिराक में था।”
“और ?”
“और वह दो हजार रुपयों के बारे में कुछ कह रहा था।”
“क्या ?”
“कहता था कि आप उसके कर्जदार थे और आपकी कोई भी रकम अपने काबू में कर लेने का पूरा हक पहुँचता था उसे।”
“वह मुझे अपना कर्जदार बताता था ?”
“हाँ।
“मैंने कौन-सा कर्जा देना है हरामजादे का ?”
रुस्तम भाई खामोश रहा।
अपनी उस आन्दोलित अवस्था में डोगरा उस कथित कर्जे का रिश्ता गबन की उस पचास हजार की रकम के साथ न जोड़ सका जो हथियाई तो उसने थी, लेकिन जिसके लिए जेल सोहल गया था।
“उसने तुम्हें यह नहीं बताया”—डोगरा ने पूछा—“कि वह मेरा कत्ल करना क्यों चाहता था ?”
“नहीं।”—रुस्तम भाई बोला।
“या उसने बान्द्रा वाली औरत का कत्ल क्यों किया था ?”
“नहीं।”
“तुमने उसे क्या बताया ?”
“कुछ भी नहीं। मैं क्या बताता उसे ? वह तो मुझसे आपका पता पूछ रहा था ! और आपका पता मालूम कहाँ था मुझे ! अभी भी कहाँ मालूम है !”
“लेकिन तुम्हें घोरपड़े का नाम, पता, टेलीफोन नम्बर वगैरह सबकुछ मालूम है।”—डोगरा उसे घूरता हुआ बोला।
“घोरपड़े का मैंने नाम तक नहीं लिया था।”
“अगर लिया हो तो बता दो। यह बात मैं इसलिए कह रहा हूँ ताकि मैं घोरपड़े को सावधान कर दूँ कि वह सरदार उस तक पहुँच सकता था और फिर वही उसका काम तमाम कर दे।”
“मैंने घोरपड़े का नाम नहीं लिया था।”
“पक्की बात ?”
“एकदम पक्की बात, डोगरा साहब।”
“हूँ।”
“लेकिन जब वह पीछे ही पड़ गया था तो”—रुस्तम भाई संकोचपूर्ण स्वर में बोला—“मैंने उसे बैंक में दो हजार रुपये जमा होने और उन्हें निकलवाने के सिस्टम के बारे बताया था।”
“उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह कहानी अब खत्म है। तुम वह बैंक एकाउण्ट बन्द करा दो। उस औरत के मर जाने के बाद अब उस खाते की जरूरत नहीं रही। और बोलो ?”
“और मैंने उसे बताया था कि आप काला पहाड़ के गैंग के आदमी थे।”
वह फिकरा मुँह से निकलते ही उसने अपने होंठ काट लिए। वह फिकरा सुनते ही डोगरे के चेहरे के भावों में तुरन्त हुए परिवर्तन को देखकर वह सहम गया।
“तुमने मेरे सन्दर्भ में काला पहाड़ का नाम लिया ?”—डोगरा साँप की तरह फुँफकारा।
“मैंने ऐसा आपका रोब गाँठने के लिए किया था।”—रुस्तम भाई सहमकर बोला—“मैंने सोचा था कि वह कोई मामूली गुण्डा बदमाश था, जिसकी आपसे कोई बेमानी रंजिश थी और यह सुनते ही कि आप काला पहाड़ के गैंग के महत्त्वपूर्ण आदमी थे, उसका दम खुश्क हो जायेगा ...”
“फिर हो गया दम खुश्क उसका ?”—डोगरा आँखें निकालता बोला।
रुस्तम भाई के मुँह से बोल न फूटा। उसकी निगाह झुक गयी और वह अपने सूखे होंठों पर जुबान फेरने लगा।
“यानी कि नहीं हुआ !”
रुस्तम भाई ने थूक निगली।
“और क्या बताया था तुमने उसे काला पहाड़ के बारे में ?”
“कुछ नहीं।”—रुस्तम भाई धीरे से बोला। उसे लग रहा था कि आगे झूठ बोलने में ही उसका कल्याण था।
“यह तो जरूर बताया होगा कि काला पहाड़ चीज क्या है ? इसके बिना उस पर रोब कैसे पड़ता काला पहाड़ का ?”
रुस्तम भाई ने डरते-डरते सहमति में सिर हिलाया।
“तुमने मेरे सन्दर्भ में काला पहाड़ का नाम लेकर ही उसे यह संकेत दे दिया है कि मैं भी मुम्बई में ही होऊँगा। मुम्बई के अण्डरवर्ल्ड का बच्चा-बच्चा काला पहाड़ के बारे में जानता है। मामूली-सी पूछताछ से वह बहुत कुछ जान जायेगा। रुस्तम भाई, मेरा पता-ठिकाना न जानते हुए भी काला पहाड़ का नाम लेकर तुमने एक बड़ी मजबूत उँगली मेरी तरफ उठवा दी है। तुम्हें इतना मुँह नहीं फाड़ना चाहिए था।”
“मुझसे गलती हो गयी।”—रुस्तम भाई कम्पित स्वर में बोला।
“खैर। अब इस गलती को सुधारने का यही तरीका है कि इससे पहले कि सरदार मुझ तक पहुँचे, मैं उस तक पहुँच जाऊँ। उसका पता बोलो।”
“मुझे नहीं मालूम।”
“क्या ?”—डोगरा आँखें निकालता बोला।
“सरदार ने मुझे अपना कोई पता नहीं बताया था। उसने तो मुझे अपना नाम तक नहीं बताया था।”
“ऐसा कैसे हो सकता है ? उसने तुमसे जरूर कहा होगा कि अगर भविष्य में कभी तुम्हें मेरा पता मालूम हो जाये या इत्तफाक से तुम कहीं मुझसे टकरा जाओ तो तुम उसे फलां पते पर खबर कर दो।”
“उसने नहीं कहा था। इस बाबत तो उसके मुँह से एक लफ्ज भी नहीं निकला था। उसने मुझे सुझाया तक नहीं था कि मैं ऐसा कर सकता था।”
“यानी कि तुम उसे भरोसे के काबिल आदमी नहीं लगे थे।”
रुस्तम भाई खामोश रहा।
वह दोनों तरफ से बेवकूफ बन गया था। सरदार की चेतावनी को नजरअन्दाज करके उसने उसकी खबर डोगरा तक इस उम्मीद में पहुँचाई थी कि डोगरा उसे शाबाशी देगा—और उसकी निगाह में डोगरा की शाबाशी काला पहाड़ की शाबाशी थी—लेकिन यहाँ तो लेने के देने पड़े जा रहे थे। शाबाशी तो क्या मिलती, उसे डर लग रहा था कि कहीं कोई सजा न मिल जाये, कहीं काला पहाड़ का कोई कहर न टूट पड़े उस पर।
और अगर सरदार को भनक लग गयी कि वह डोगरा तक पहुँचा था तो वह जरूर ही उसे जान से मार डालेगा।
आज का दिन ही मनहूस था उसके लिए। आज फ्लैश में भी उसकी बहुत दुर्गति हुई थी। वह पूरे बत्तीस हजार रुपये हारा था। अभी वह उस रकम का मातम मनाकर हटा नहीं था कि अब डोगरा उसकी जान का जंजाल बना जा रहा था। कैसी साँप-छछूँदर जैसी हालत हो गयी थी उसकी।
“उस आदमी को तलाश करो।”—डोगरा कह रहा था।
“जी !”—रुस्तम भाई चौंककर बोला।
“बहरे हो ? मैं कह रहा हूँ, सरदार को तलाश करो।”
“मैं तलाश करूँ ?”—रुस्तम भाई अविश्वासपूर्ण स्वर में बोला।
“हाँ।”
“मैं कैसे तलाश करूँ ?”
“कैसे भी करो लेकिन करो।”
“लेकिन...”
“लेकिन-वेकिन कुछ नहीं। अपनी खैरियत चाहते हो तो किसी भी तरीके से यह काम करो। उस सरदार के बच्चे को कहीं से भी खोदकर निकालो। रुस्तम भाई, जो बेवकूफी काला पहाड़ का नाम अपनी जुबान पर लाकर तुम कर चुके हो, अगर उसकी सजा से बचना चाहते हो तो उस सरदार का ठीया-ठिकाना मालूम करो। यह काम अगर तुम न अँजाम दे पाये तो मुम्बई की सड़कों पर न तुम्हारी कोई प्राइवेट टैक्सी दिखाई देगी, न तुम्हारा कोई ड्राइवर दिखाई देगा और न तुम दिखाई दोगे। और”—डोगरा उठ खड़ा हुआ—“मैं चला।”
“डोगरा साहब।”—रुस्तम भाई चाबी लगे खिलौने की तरह उछलकर खड़ा हुआ और फरियाद करने लगा—“डोगरा साहब, जरा रुकिए। एकाध ड्रिंक तो...”
लेकिन डोगरा ने उसकी तरफ ध्यान न दिया। वह लम्बे डग भरता वहाँ से बाहर निकल गया।
रुस्तम भाई धम्म से वापस कुर्सी पर बैठ गया। उसने अपने हाथों से अपना माथा थाम लिया।
“अब ड्रिंक लाऊँ, साहब ?”
उसने सिर उठाया।
वेटर फिर उसके सामने आ खड़ा हुआ था।
“विस्की ला।”—रुस्तम भाई मरे स्वर में बोला—“कोई भी।”
“बड़ा पैग ?”—वेटर ने पूछा।
“बोतल ला, कमबख्त !”—वह एकाएक झल्लाकर बोला।
वेटर यूँ वहाँ से भागा, जैसे उसने भूत देख लिया हो।
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दो दिन विमल मुम्बई के अण्डरवर्ल्ड में राजबहादुर बखिया के बारे में पूछताछ करता रहा।
सबसे पहले उसे यही सुनने को मिला कि राजबहादुर बखिया काला पहाड़ क्यों कहलाता था। वह साढ़े छ: फुट कद का, खूब हट्टा-कट्टा अत्यन्त शक्तिशाली काला-भुजंग आदमी था और देखने में काला पहाड़ ही लगता था, इसलिए जब मुम्बई के अण्डरवर्ल्ड में आरम्भ में उसका आतंक फैला था तो वह काला पहाड़ कहलाने लगा था। उसी नाम से वह आज तक भी प्रसिद्ध था।
काला पहाड़ कभी बीस साल की उम्र का एक बालक था, जो गुजरात के एक छोटे-से गाँव से चलकर मुम्बई आया था। तब वह बहादुर के नाम से जाना जाता था और फ्लोरा फाउन्टेन के सामने बैठकर बूट-पॉलिश किया करता था। उन दिनों बूट पॉलिश कराने की इकन्नी लगा करती थी। एक दिन एक मामूली बदमाश ने उससे बूट पॉलिश कराया और उसे वह इकन्नी नहीं दी। बहादुर ने उस बदमाश को पीट दिया। मार खाने वाला बदमाश अपने तीन-चार हिमायतियों के साथ वापस लौटा, लेकिन बहादुर ने उन चारों की भी धुनाई कर दी। उन पिटे बदमाशों में से एक उस इलाके के एक मशहूर दादा का चमचा था और वह दादा खुद एक ऐसे स्मगलर का सहकारी था, जो स्मगलरों के एक बहुत बड़े गैंग का छोटा-सा पुर्जा था। पिटे हुए बदमाशों ने जाकर उस दादा से बहादुर की शिकायत की। वह दादा जमाना देखे हुए था। वह बहादुर जैसे लोगों की जात को पहचानता था। वह जानता था कि ऐसे लोग गरीबी और अभाव से तंग आकर मन में डैथ विश लेकर घर से निकलते थे, इसलिए उनका कोई बुरा या खतरनाक अँजाम उन्हें डरा नहीं सकता था। उस दादा ने बहादुर को कोई सजा देने के स्थान पर एक काम का आदमी समझकर उसे अपने संरक्षण में ले लिया। फिर बहादुर उस दादा के माध्यम से उसके उस्ताद स्मगलर तक पहुचा जहाँ कि उसे पहली बार दौलत की बू मिली। एक बार दौलत की बू लगने की देर थी कि कभी बूट पॉलिश करने वाले उस छोकरे ने तबाही मचा दी। वह सीढ़ी-दर-सीढ़ी तरक्की की बेशुमार मंजिलें तय करता चला गया। पहले उसने उस स्मगलर का खून करके उसकी जगह खुद ले ली। फिर उसने गैंग में अपने लिए एक महत्त्वपूर्ण स्थान बना लिया। फिर वह उस गैंग का बॉस बन गया। फिर उसने गाँव से अपने तीन भाइयों को भी बुला लिया और उन्हें भी अपने धन्धे में लगाकर अपनी शक्ति का विस्तार करना आरम्भ कर दिया। उसका वह बढ़ता हुआ प्रभुत्व मुम्बई के अन्य टॉप के स्मगलरों और बड़े गैंगस्टरों को पसन्द न आया। उन्होंने बहादुर और उसके भाइयों को पहले दबाने की, फिर अपनी तरफ मिलाने की और फिर उनको खत्म कर देने की कोशिश की, लेकिन तब तक बहादुर और उसके भाइयों पर भी शक्ति का नशा हावी हो चुका था। उन्होंने बॉस लोगों का डटकर विरोध किया। उसी चक्कर में मुम्बई के अन्डरवर्ल्ड में ऐसी गैंग वार छिड़ी, जिसकी दूसरी मिसाल सारे हिन्दुस्तान में मिलनी मुश्किल थी। बहुत खून बहा, बहुत लोगों की जानें गयीं, बहादुर के कई आदमियों के साथ उसके दो भाई भी मारे गये लेकिन अन्तिम जीत बहादुर की हुई। उस जीत ने उसका सिक्का सारी मुम्बई के गैंगस्टरों पर जमा दिया। सबने बहादुर के सामने घुटने टेक देने में ही अपना कल्याण समझा। बहादुर की मुम्बई में जय-जयकार हो गयी। वह बहादुर से, राजबहादुर बखिया और राजबहादुर बखिया से काला पहाड़ बन गया और तब मुम्बई के अण्डरवर्ल्ड के बेताज बादशाह माने जाने वाले बिशम्भरदास नारंग से दो या तीन कदम ही नीचे माना जाने लगा। नारंग का मुकाबला तब वह नहीं कर सकता था, क्योंकि नारंग तो सारे एशिया का स्मगलर किंग माना जाता था, लेकिन काला पहाड़ बन जाने पर नाम बखिया ने भी कम न कमाया। वक्त के साथ-साथ भंवर की लहरों की तरह उसका नाम भी मुम्बई से बाहर फैलता चला गया।
फिर बड़े रहस्यपूर्ण ढंग से गोवा में नारंग की और उसके जल्लाद रणजीत छौगुले की और उसके एक और अत्यन्त विश्वसनीय व्यक्ति की हत्या हो गयी।
नारंग की हत्या होते ही उसकी जगह के कई दावेदार निकल आये। उन दावेदारों में एक काला पहाड़ भी था। मुम्बई के अण्डरवर्ल्ड में फिर भयंकर गैंगवार छिड़ गयी, खूब मार-काट मची लेकिन उस बार भी अन्तिम विजय काला पहाड़ की ही हुई। उसने नारंग की जगह तो ली ही, अपना प्रभुत्व भी उसने नारंग से कई गुणा ज्यादा बनाकर दिखाया। उसने माफिया तक से गंठजोड़ पैदा कर लिया और इस बार एशिया को ही नहीं, लगभग सारी दुनिया को अपना कार्यक्षेत्र बना दिखाया। नॉरकॉटिक्स की स्मगलिंग के धन्धे पर उसने विशेष जोर दिया। यह एक ऐसा काम था जिसे नारंग कभी ठीक से अँजाम नहीं दे सका था लेकिन काला पहाड़ की सूझ-बूझ की उपज एरिक जॉनसन कम्पनी की ओट में नॉरकॉटिक्स का धन्धा खूब पनपा।
बाद में एरिक जॉनसन कम्पनी बन्द हो गयी।
लेकिन, विमल को तब मालूम हुआ कि, वह कम्पनी नाम को ही बन्द हुई थी। उसका स्थान लगभग फौरन ही सुवेगा इण्टरनेशनल नामक कम्पनी ने ले लिया था, कम्पनी की शाखाओं को इधर-उधर सरका दिया गया था और पुराना स्टाफ रिटायर कर दिया गया था या बदल दिया गया था। डोगरा जैसे चन्द लोग जो अपने-आपको ज्यादा मुस्तैद और विश्वसनीय साबित कर पाये थे, उन्हें हैडक्वार्टर की छत्रछाया में बुला लिया गया था।
विमल की पूछताछ से इस बात की तसदीक तो हुई कि जुहू का नया फाइव स्टार डी-लक्स होटल सी-व्यू काला पहाड़ का हैडक्वार्टर था, लेकिन इस बात की गारन्टी किसी ने न की कि खुद काला पहाड़ भी वहीं रहता था।
मुम्बई में सुवेगा इण्टरनेशनल का दफ्तर मुम्बई का ‘मैनहटन’ कहलाने वाले इलाके कफ परेड के में था जो कि जुहू के मुकाबले में मुम्बई का दूसरा सिरा था।
इस बात की भी स्पष्ट शब्दों में तसदीक न हो सकी कि ज्ञानप्रकाश डोगरा होटल सी-व्यू में ही रहता था लेकिन यह कई लोगों ने कहा कि अगर वह काला पहाड़ की आर्गेनाइजेशन का कोई महत्त्वपूर्ण पुर्जा माना जाता था तो वह जरूर सी-व्यू में ही रहता होगा। सी-व्यू में स्थायी रूप से रहने का मौका काला पहाड़ का ऐसा इनाम था, जो वह केवल अपने अत्यन्त विश्वासपात्र लोगों को ही देता था।
विमल को यह भी बताया गया कि माफिया के स्टाइल में काला पहाड़ का निजाम सीढ़ी-दर-सीढ़ी चलता था। प्रशासन का यह तरीका उसने माफिया से ही सीखा था कि टॉप बॉस तक हर किसी की पहुँच नहीं होनी चाहिए थी। इसलिए उसकी आर्गेनाइजेशन में चन्द ही लोग थे, जिनकी काला पहाड़ तक सीधी पहुँच थी।
विमल को डोगरा की सीधी पहुँच काला पहाड़ तक होने की सम्भावना नहीं के बराबर लगी। अभी कल तक जो आदमी एरिक जॉनसन की एक छोटी-सी ब्रांच का मैनेजर था, वह आनन-फानन इतनी तरक्की कर चुका नहीं हो सकता था कि काला पहाड़ का हमप्याला-हमनिवाला बन गया होता। उसका सुरजीत से निर्दयता तथा कमीनगी से न पेश आना भी इसी बात की ओर संकेत करता था।
फिर भी डोगरा से टक्कर लेना काला पहाड़ से टक्कर लेने जैसी सूरत अख्तियार कर सकता था।
उन दो दिनों की निरन्तर पूछताछ और भटकन से विमल को अपने बारे में भी एक निहायत दिलचस्प बात मालूम हुई।
मुम्बई के अण्डरवर्ल्ड में उसके भी खूब चर्चे थे। उसके कारनामों का जिक्र लोग बड़े तारीफी अन्दाज से करते थे और राजनगर में अमरीकी डिप्लोमैट के अपहरण के उसके ताजा-तरीन कारनामे की तो बहुत ही चर्चा थी। उस चर्चे के कई संस्करण विमल को सुनने को मिले।
जैसे:
विमल सीआईए के एजेण्टों द्वारा कत्ल कर दिया गया था।
विमल को उसके अपने साथियों ने मार डाला था।
विमल ने अपने सारे साथियों को मार डाला था और दस करोड़ की फिरौती लेकर भाग गया था।
फिरौती अदा हुई ही नहीं थी, क्योंकि अमरीकियों को खबर लग गयी थी कि उनका डिप्लोमैट—
—अपहर्त्ताओं द्वारा मार डाला गया था।
—उसका हार्ट फेल हो गया था।
—उसने आत्महत्या कर ली थी।
—वह अपहर्त्ताओं की कैद से आजाद होकर खुद ही वापस लौट आया था।
—दो मामूली बदमाशों ने विमल समेत सारे अपहर्त्ताओं का खून कर दिया था और अमरीकी डिप्लोमैट को प्लेट में सजाकर वापस एम्बैसी के ऑफिस में पहुँचा दिया था, जिसकी एवज में कि उन्हें बहुत मोटा इनाम मिला था।
कहने का मतलब यह था कि जितने मुँह उतनी बातें।
लेकिन अधिकतर लोगों का खयाल यही था कि विमल मर चुका था और शायद यही वजह थी कि किसी ने विमल की सूरत की तरफ कोई तवज्जो नहीं दी थी, वह पहचाना नहीं गया था।
अगला कदम विमल ने यह उठाया कि उसने अपना मौजूदा होटल छोड़ दिया और एक ‘हनीमूनिंग कपल’ की तरह जाकर होटल सी-व्यू में बस गया। उन्हें होटल की आठवीं मंजिल पर एक सूइट मिला।
“अगर यह वाकई काला पहाड़ का हैडक्वार्टर है।”—नीलम बोली—“तो यह तो शेर की माँद में कदम रखने जैसा काम किया है तुमने !”
“यह मैंने चिराग तले अन्धेरा वाली कहावत पर अमल किया है।”—विमल बोला—“मुझे इस बात की गारन्टी नहीं है कि मेरी तमाम धमकियों के बावजूद रुस्तम भाई मेरे बारे में अपनी जुबान बन्द रख सकेगा। अगर उसने डोगरा को मेरे बारे में बताया और डोगरा ने मेरी तलाश शुरु करवाई तो यह मुम्बई की आखिरी जगह होगी जहाँ उसे मेरी मौजूदगी का खयाल आयेगा।”
“ओह !”
“और फिर अगर डोगरा यहाँ है तो मेरे मिशन में मुझे यहाँ रहकर अपेक्षाकृत सहूलियत से कामयाबी हासिल हो सकती है।”
“तुम डोगरा का पीछा छोड़ क्यों नहीं देते हो ? तुम अपनी बीवी से बदला लेना चाहते थे, तुम्हारा वह मिशन तो तुम्हारी बीवी के साथ खत्म हो गया !”
“लेकिन वैसे नहीं खत्म हुआ जैसे कि मैं चाहता था कि वह होता। उसने आत्महत्या न की होती तो बात दूसरी थी लेकिन उसने आत्महत्या करके अपना इन्साफ खुद कर लिया और अपने सारे पाप धो लिए। अब मुझे डोगरा से अपना ही नहीं, अपनी बीवी का भी बदला लेना है। उस शख्स ने सिर्फ मेरी ही जिन्दगी तबाह नहीं की, सुरजीत की भी जिन्दगी तबाह की। अब मैं डोगरा का कत्ल इसलिए नहीं करना चाहता क्योंकि उसने मेरी जिन्दगी तबाह की या क्योंकि मैं उससे हद से बाहरी नफरत करता हूँ। अब मैं डोगरा का कत्ल इसलिए करना चाहता हूँ क्योंकि मैंने उससे एक हिसाब बराबर करना है, उसके साथ एक स्कोर सैटल करना है।”
नीलम खामोश रही। प्रत्यक्षत: वह विमल की बातों से आश्वस्त नहीं थी।
“और फिर मैंने अभी उससे अपनी वो रकम वसूल करनी है, जिसमें से अभी दो हजार रुपये ही मेरे हाथ लगे हैं। अभी मैंने उससे अपने अड़तालीस हजार रुपये हासिल करने हैं।”
“उसका कत्ल कर देने के बाद यह रकम हासिल हो सकेगी तुम्हें ?”
“जरूर हासिल हो सकेगी। तुम देखना तो सही मैं क्या करता हूँ ! नीलम, इस रकम के लिए मैं बहुत कोहराम मचाने का इरादा रखता हूँ।”
“इतनी मामूली रकम की खातिर...”
“यह रकम मामूली है या कुबेर का खजाना, लेकिन आज की तारीख में यह रकम मेरी नाक का बाल है और मैं इसे हासिल करके रहूँगा।”
“मर्जी तुम्हारी।”
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तीसरे दिन का एक बड़ा भाग विमल ने होटल सी-व्यू का जुगराफिया समझने की कोशिश में गुजारा।
उसने अनुभव किया कि दूसरी से लेकर पांचवीं तक की चार मंजिल बाकी होटल से एक तरह से सील करके अलग की गयी हुई थीं। जो लिफ्ट होटल की सबसे ऊपर की मंजिल तक जाती थीं, उनके इंडीकेटर पर दो से पाँच तक की मार्किंग तक नहीं थी। पहली मंजिल के बाद लिफ्ट सीधी छठी मंजिल पर पहुँचती थी। पहली मंजिल पर दो बड़े हाल, तीन कान्फ्रेंस रूम और एक रेस्टोरेन्ट था। ग्राउन्ड फ्लोर पर दो रेस्टोरेन्ट, एक कॉफी शॉप और होटल का प्रशासनिक कार्यालय था।
विमल ने सीढ़ियों के रास्ते छठी मंजिल से पाँचवीं पर या पहली से दूसरी पर जाने की कोशिश की तो उसने सीढ़ियों के आगे लोहे की भारी ग्रिलें लगी पायीं और उन्हें मजबूत तालों से बन्द किया गया पाया।
दूसरी और पाँचवीं मंजिल के बीच की मंजिलों के लिए अलग लिफ्टें थीं जिन तक पहुँचने के लिए रास्ता जाता तो होटल की मेन लॉबी से होकर ही था लेकिन उस रास्ते के दहाने पर एक बिजली द्वारा संचालित दरवाजा था जो हर वक्त बन्द रहता था। उस दरवाजे के सामने एक सशस्त्र गार्ड और दो सूट-बूटधारी व्यक्ति—जरूर वे भी सशस्त्र रहते होंगे—हर वक्त मौजूद रहते थे। वह दरवाजा तभी खुलता था जब तीनों आगन्तुक से पूरी तरह से सन्तुष्ट हो जाते थे। उसके बाद भी आमतौर पर एक सूटधारी व्यक्ति आगन्तुक के साथ जाता था।
विमल ने उधर जाने की कोशिश की थी तो उसे बड़ी नम्रता से, लेकिन बड़ी दृढ़ता से, वापस लौटा दिया गया था।
उसने होटल की लॉबी में लगे पब्लिक टेलीफोनों की कतार में से एक से होटल का ही टेलीफोन मिलाया। दूसरी ओर से उत्तर मिलने पर उसने ज्ञानप्रकाश डोगरा से बात करने की इच्छा व्यक्त की। ऑपरेटर ने उसे तुरन्त कहीं कनैक्ट कर दिया लेकिन जो आवाज दूसरी तरफ से आयी, वह डोगरा की नहीं थी।
“आप अपना टेलीफोन नम्बर और नाम बता दीजिए।”—उसे कहा गया—“डोगरा साहब अगर चाहेंगे तो आपको टेलीफोन कर लेंगे।”
“लेकिन जब मैंने फोन कर ही लिया है तो...”
“प्लीज स्पीक युअर नेम एण्ड टेलीफोन नम्बर।”—कोई बड़े सभ्य स्वर में बोला।
विमल ने रिसीवर धीरे से हुक पर टाँग दिया।
वह रिसैप्शन पर पहुँचा।
उसने डोगरा से बात करने की इच्छा व्यक्त की।
तुरन्त उसे रिसैप्शन के साथ लगे एक कमरे में भेज दिया गया।
वहाँ एक वैसा ही सूटधारी व्यक्ति बैठा था जैसा सूट पहने उसने होटल के तकरीबन कर्मचारियों को देखा था। शायद वह वहाँ के पढ़े-लिखे स्टाफ की वर्दी थी।
उस युवक ने उसके सामने एक लैटर-पैड और एक बाल प्वायन्ट पैन रख दिया और उसे कहा कि वह उस पर अपना नाम, पता और टेलीफोन नम्बर लिख दे, वहाँ से विदा हो जाये और शाम तक डोगरा साहब द्वारा बुलवाए जाने की प्रतीक्षा करे।
विमल ने पैड पर एक फर्जी नाम, पता और टेलीफोन नम्बर लिख दिया और युवक का धन्यवाद करके वहाँ से बाहर निकल आया।
अपनी इतनी कोशिशों के बावजूद अभी तक उसे इस बात का संकेत तक नहीं मिला था कि डोगरा उस होटल में था भी या नहीं।
वह वापस लॉबी में आ गया।
वह वहाँ पर मौजूद बेशुमार गद्देदार कुर्सियों में से एक पर बैठ गया और अपना कोई अगला कदम निर्धारित करने की कोशिश करने लगा।
तभी नीलम वहाँ पहुँची।
वह उसकी बगल में एक कुर्सी पर बैठ गयी और धीरे से बोली—“कोई बात बनी ?”
विमल ने इन्कार में सिर हिलाया।
“अब क्या इरादा है ?”
“कोई इरादा ही कायम करने की कोशिश कर रहा हूँ। इस होटल की दो से पाँच तक की चार मंजिलें एक किले की तरह महफूज हैं। इस किले को भेदने का कोई तरीका ही समझ में नहीं आ रहा, न यह जान पाने की कोई तरकीब सूझ रही है कि डोगरा यहाँ है या नहीं और न ही...”
एकाएक विमल बोलता-बोलता चुप हो गया।
उसकी निगाह इत्तफाक से ही प्राइवेट लिफ्टों की दिशा में उठ गयी थी और उसने देखा था कि उधर का बिजली द्वारा संचालित दरवाजा नि:शब्द खुल रहा था। दरवाजा खुलने पर दो आदमियों ने बाहर कदम रखा। एक चेहरे पर चेचक के दागों वाला भारी-भरकम आदमी था। उसका निचला होंठ कटा हुआ था और नाक चपटी थी।
विमल ने उस आदमी की पहले कभी सूरत नहीं देखी थी।
लेकिन उसके साथ खुले दरवाजे से बाहर कदम रखने वाले दूसरे, पहले के मुकाबले में निहायत दुबले-पतले, आदमी पर निगाह पड़ते ही विमल इस बुरी तरह से चौंका कि कुर्सी से उठकर खड़ा हो गया।
“क्या हुआ ?”—नीलम हड़बड़ाकर बोली। वह भी तत्काल उठ खड़ी हुई।
“उस चेहरे पर चेचक के दागों वाले भारी-भरकम आदमी के साथ जो आदमी है, उसे देख रही हो ?”—विमल अपने भीतर घुमड़ती उत्तेजना को भरसक काबू करने की कोशिश करता हुआ बोला।
“देख रही हूँ।”—नीलम बड़े सस्पैंसभरे स्वर में बोली—“कौन है वो ? तुम जानते हो उसे ?”
“इसका नाम मुझे नहीं मालूम लेकिन यही वो आदमी है, जिसने नूरपुर के समुद्र तट पर मेरी छाती में बर्फ काटने वाला सुआ घोंपा था और अपनी ओर से तो मुझे ऊपर वाले के घर पहुँचा ही दिया था।”
“क्या ?”
“यही अपने चार्ली नामक एक देसी हिप्पी साथी के साथ अमरीकी डिप्लोमैट फोस्टर को हम सबसे छीनकर वहाँ से गायब हो गया था।”
नीलम सख्त हैरानी के साथ उस आदमी को देखने लगी।
उन दोनों के पीछे स्वचालित दरवाजा अपने-आप बन्द हो गया था। दोनों कुछ क्षण बन्द दरवाजे के सामने खड़े बातें करते रहे फिर दुबले-पतले आदमी ने दूसरे आदमी का अभिवादन किया और घूमकर मुख्यद्वार की ओर बढ़ा।
दूसरा आदमी दरवाजे की तरफ घूमा। उसके लिए दरवाजा फिर खुला और उसके भीतर दाखिल होते ही उसके पीछे पूर्ववत् बन्द हो गया।
“मैं इस हरामजादे के पीछे लग रहा हूँ।”—विमल जल्दी से बोला—“तुम लॉबी में ही रहना। अगर मेरी गैरहाजिरी में वह चेचक के दागों वाला मोटा भैंसा बाहर निकले तो तुम उसका पीछा करके मालूम करना कि वह कहाँ जाता है ! वह सूट-बूट बढ़िया पहने है लेकिन फिर भी हल्का आदमी मालूम होता है। यहाँ रहने के काबिल उसकी औकात नहीं लगती। इसके माध्यम से हमें डोगरा के बारे में कोई जानकारी हासिल हो सकती है।”
नीलम ने सहमति में सिर हिलाया।
“जो करना, सावधानी से करना।”—विमल ने सिर एकदम नीचे झुका लिया। उसी क्षण वह दुबला-पतला आदमी उसके सामने से गुजरा था, लेकिन उसने विमल और नीलम की तरफ आँख तक उठाकर नहीं देखा था—“खामखाह कोई खतरा मोल मत लेना। ओके ?”
नीलम ने फिर सहमति में सिर हिलाया।
“मैं चला।”—विमल बोला और वह दुबले-पतले आदमी के पीछे हो लिया।
नीलम वापस एक कुर्सी पर बैठ गयी।
दो दिन के अनथक प्रयत्नों से घोरपड़े पीटर को तलाश करने में कामयाब हुआ था। उस काम को अँजाम देने के लिए उसे कई आदमी लगाने पड़े थे और सारी मुम्बई को बुरी तरह से छानना पड़ा था। उसे उम्मीद थी कि डोगरा उसकी उस कामयाबी पर उसे खूब शाबाशी देगा लेकिन शाबाशी देना तो दूर, वह तो उलटा भुनभुना रहा था कि इतने ‘मामूली काम’ को करने में घोरपड़े ने दो कीमती दिन जाया कर दिये थे।
बहरहाल घोरपड़े ने पीटर को डोगरा के सामने पेश किया।
पीटर वहाँ अपनी मर्जी के खिलाफ लाया गया था और उसे अच्छी तरह से जता दिया गया था कि उसके कोई हील-हुज्जत करने या कोई होशियारी दिखाने की कोशिश करने से पलक झपकने की सी तेजी से उसकी जान जा सकती थी।
डोगरा के कहने पर उसने डरते-झिझकते सारी कहानी सुनाई कि कैसे वह और उसका जग्गी नाम का एक और साथी चार्ली नाम के एक डोप पैडलर के कहने पर कुछ लोगों के पीछे लगे थे, जोकि वास्तव में अमरीकी डिप्लोमैट के अपहर्त्ता निकले थे और कैसे अन्त में नूरपुर समुद्र तट पर उनके साथी जग्गी की जान गयी थी और उन्होंने अपहर्त्ताओं के सरगने की जान ली थी, जिसके बारे में उसे बहुत बाद में अखबार पढ़कर मालूम हुआ था कि वह खतरनाक इश्तिहारी मुजरिम सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल था।
“तुम्हें कैसे मालूम है”—डोगरा ने पूछा—“कि तुम्हारे सुए के प्रहार से सोहल मर गया था ?”
“साहब”—पीटर तनिक दिलेरी से बोला—“वह कम से कम आठ इंच लम्बा सुआ था, जो मैंने सीधे उसकी छाती में उतार दिया था। वह तो मेरे सामने ही वहीं गिर गया था।”
“लेकिन तुम्हें यह कैसे मालूम है कि वो मर भी गया था ?”
“साहब, आठ इंच लम्बे सुए के दिल में उतर जाने के बाद कहीं कोई बच सकता है ?”
“शायद वह न मरा हो ?”
“तब नहीं मरा होगा तो थोड़ी देर बाद मर गया होगा, साहब। बचने का तो कोई मतलब ही नहीं था।”
“क्या पता उसके साथी उसे किसी डॉक्टर के पास ले गये हों ?”
“उसका एक ही साथी बचा था, साहब, और वह भी हमारी तरह वहाँ अजनबी था। उस वक्त अभी दिन भी नहीं चढ़ा था। उस उजाड़ जगह में कोई टिंचर का फाहा तक लगाने वाला आदमी तो ढूँढ़ना मुमकिन नहीं था, सुए के खतरनाक वार से उसे बचाने वाला सर्जन तो जरूर ही मिलता !”
“तुम कहते हो कि घटनास्थल पर पुलिस भी पहुँच गयी थी !”
“जी हाँ। लेकिन हमारे सेफ निकल जाने के बाद।”
“पुलिस को तो वहाँ से सोहल की लाश बरामद नहीं हुई थी। हुई होती तो यह बात अखबार में जरूर छपती।”
“साहब, लाश को सोहल का गैरेज वाला साथी ले गया होगा और उसी ने चुपचाप कहीं उसका अन्तिम संस्कार कर दिया होगा।”
“तुम्हारी बातों से गारन्टी नहीं होती कि वो मर गया था।”—डोगरा असन्तोषपूर्ण स्वर में बोला।
“साहब”—पीटर बोला—“यह हो ही नहीं सकता कि...”
“बको मत। तुमने उस पर घातक हमला जरूर किया था, लेकिन तुमने उसे अपनी आँखों से लाश बन चुका हुआ नहीं देखा था।”
“लेकिन साहब...”—डोगरा को कहरभरी निगाहों से अपनी तरफ घूरता पाकर वह सहम गया और मरे स्वर में बोला—“हाँ, साहब। ऐसे सोचो तो यह बात तो बराबर है !”
डोगरा कुछ क्षण सोचता रहा, फिर वह चुपचाप एक ओर खड़े घोरपड़े से बोला—“इसे चलता करो। और फिर मेरे पास वापस आओ।”
घोरपड़े ने सहमति में सिर हिलाया।
उसने पीटर को संकेत किया।
दोनों डोगरा के सूइट से निकल गये।
घोरपड़े ने पीटर को नीचे लॉबी तक पहुँचा दिया और वापस लौट आया।
उसने डोगरा को बेचैनी से ड्राइंगरूम में टहलते पाया।
घोरपड़े को आया देखकर वह उसके सामने ठिठका।
“वह जिन्दा है।”—डोगरा वितृष्णापूर्ण स्वर में बोला—“जैसा हाल यह पीटर का बच्चा उसका किया बताता है, उस लिहाज से उसे हर हाल में मर जाना चाहिए था लेकिन वह हरामजादा जिन्दा है। वह न सिर्फ जिन्दा है, बल्कि मुम्बई में मौजूद है और मेरा कत्ल करने के खतरनाक इरादे के साथ मौजूद है।”
“वह आपकी तरफ उँगली भी नहीं उठा सकता, डोगरा साहब।”—घोरपड़े बोला—“वह ‘कम्पनी’ की ताकत और रसूख से नावाकिफ है। वह नहीं जानता कि...”
“ओ, शट-अप !”
घोरपड़े ने होंठ भींच लिये।
तभी सूइट की काल-बैल बज उठी।
“देखो, कौन है।”—डोगरा बोला।
घोरपड़े ने आगे बढ़कर दरवाजा खोला।
होटल का एक सूटधारी कर्मचारी डोगरा साहब के लिए एक ‘मैसेज स्लिप’ लाया था।
घोरपड़े ने स्लिप लेकर दरवाजा बन्द कर दिया, उसने स्लिप डोगरा को थमा दी।
डोगरा ने स्लिप पर एक सरसरी निगाह डाली और फिर उसे घोरपड़े को लौटाता बोला—“मालूम करो कौन है यह और क्या चाहता है !”
“डोगरा साहब।”—घोरपड़े धीरे से बोला।
“अब क्या है ?”
“साहब, यह पता फर्जी है।”
“क्या ?”
“मैं खुद कमाठीपुरे में रहता हूँ। कमाठीपुरे में ऐसा कोई इलाका नहीं है जो इस पते में दर्ज है। और यह टेलीफोन नम्बर भी कमाठीपुरे का नहीं हो सकता। उस इलाके के फोन नम्बर तीन से शुरू होते हैं।”
डोगरा ने उसके समीप पहुँचकर फिर स्लिप पर निगाह डाली और फिर एकाएक उसने अपना माथा थाम लिया।
“साहब”—घोरपड़े कह रहा था—“यह नम्बर तो...”
“बान्द्रा वाले फ्लैट का है।”—वह धीरे से बोला।
“ऐसी शरारत कौन कर सकता है, साहब ?”
“वही। वही कर सकता है ऐसी शरारत। वह जरूर मेरी सूँघ में यहाँ आया था। बान्द्रा वाले फ्लैट का टेलीफोन नम्बर मैसेज स्लिप पर लिखा छोड़कर वह हरामजादा मुझे जता भी गया है कि वह आया था लेकिन यहाँ की सिक्योरिटी की वजह से उसकी दाल नहीं गली थी।”
घोरपड़े खामोश रहा।
“और फिर उसका हैंडराइटिंग भी मैं अभी तक भूला नहीं हूँ। उसने इलाहाबाद में बरसों मेरे अण्डर काम किया था। अपने एकाउंटेंट का हैंडराइटिंग मैं अभी तक भूला नहीं हूँ। घोरपड़े, यह उसी का हैंडराइटिंग है। यह सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल का हैंडराइटिंग है।”
“और सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल”—घोरपड़े धीरे से बोला—“यानी कि आपका भूतपूर्व एकाउंटेंट आज की तारीख में सात राज्यों में घोषित ऐसा इश्तिहारी मुजरिम है जिसके सिर पर एक लाख रुपये का इनाम है।”
इस बार डोगरा के मुँह से सम्भावना के तौर पर भी न निकला कि शायद सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल और इश्तिहारी मुजरिम विमल एक ही आदमी न हों।
“जरा नीचे से मालूम करो कि क्या थोड़ी देर पहले किसी ने मुझे फोन पर भी पूछा था ?”
घोरपड़े ने आदेश का पालन किया। उसने नीचे फोन किया। कुछ क्षण बाद उसने फोन वापस रख दिया और बड़े चिन्तित भाव से बोला—“अभी थोड़ी देर पहले किसी ने आपसे फोन पर बात करने की ख्वाहिश जाहिर की थी, लेकिन जब उसे अपना नाम और टेलीफोन नम्बर बताने के लिए कहा गया था तो एकाएक लाइन कट गयी थी।”
“सोहल”—डोगरा दाँत पीसता बोला।—“कुत्ते का पिल्ला सोहल। हरामजादा यह सूँघने की कोशिश कर रहा है कि मैं यहाँ रहता हूँ या नहीं !”
“आप नाहक परेशान हो रहे हैं, डोगरा साहब। वह अपनी कोशिश में कामयाब नहीं हुआ है और न ही हो सकेगा। लेकिन अगर वह कामयाब हो भी जायेगा तो क्या बिगाड़ लेगा आपका ? वह पूरी जिन्दगी भी कोशिश करता रहे तो आपके करीब नहीं फटक सकता।”
“तुम्हारा मतलब है”—डोगरा आँखें निकालता बोला—“कि उसके डर से मैं यहाँ अपने सूइट में दुबककर बैठ जाऊँ ? इसलिए यहाँ दुबककर बैठ जाऊँ क्योंकि यह महफूज जगह है ? क्योंकि यहाँ किसी बाहरी आदमी के कदम नहीं पड़ सकते ?”
“मेरा मतलब यह नहीं था।”—घोरपड़े बौखलाकर बोला।
“घोरपड़े ! उसे तलाश करो। उसके लिए सारी मुम्बई छान मारो। इससे पहले कि वह मुझ तक पहुँच जाये, तुम उस तक पहुँच जाओ और उसकी तिक्का-बोटी एक कर दो।”
“डोगरा साहब, उसे तलाश करना कोई इतना आसान काम तो नहीं !”
“घोरपड़े, हर काम को मुश्किल या नामुमकिन साबित करने की तुम्हारी आदत बनती जा रही है।”
“लेकिन साहब...”
“इस पीटर के बच्चे को भी तलाश किया ही है तुमने।”
“साहब, उसका कुछ तो अता-पता मुझे मालूम था ! इस आदमी के बारे में तो मुझे कुछ भी नहीं मालूम।”
“जब तलाश शुरु करोगे तो मालूम हो जायेगा।”
“और फिर बहुत आदमी चाहिए होते हैं, साहब। पीटर की तलाश में तो मैंने भाड़े के टट्टू लगाए थे, क्योंकि तब किसी के कुछ उल्टा-सीधा बक पड़ने से कोई फर्क नहीं पड़ता था, लेकिन यह काम भरोसे के आदमियों द्वारा करवाए जाने का है। अगर आप ‘कम्पनी’ के आदमियों का इन्तजाम करके दें तो...”
“ठीक है ! ठीक है, मैं इस बारे में ऊपर बात करूँगा। ‘कम्पनी’ के आदमियों की मदद का तुम्हारे लिए इन्तजाम हो जायेगा।”
“फिर मैं भी इस आदमी को ढूँढ़ निकालने में कोई कोशिश उठा नहीं रखूँगा।”
“बहरहाल और आदमियों का इन्तजाम होने तक जो कुछ तुम कर सकते हो, वह तो करो।”
“वह तो मैं जरूर करूँगा।”
“और रुस्तम भाई के भी टच में रहना। उसे भी मैंने इतना काफी डरा-धमका दिया है कि वह भी विमल की तलाश की भरपूर कोशिश कर रहा होगा।”
“बेहतर।”
“एक बात और।”
“क्या, साहब ?”
“अगर हम पुलिस को इस बात की टिप दे दें कि कुख्यात इश्तिहारी मुजरिम सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल मुम्बई में है तो क्या हमें कोई फायदा होगा ?”
“उल्टे नुकसान होगा, साहब।”—घोरपड़े इन्कार में सिर हिलाता बोला—“पुलिस के पास पहुँची ऐसी खबर अखबार में छपे बिना नहीं रहती। अखबार में छपी ऐसी कोई खबर उसे सावधान कर देगी और फिर हमारा काम मुश्किल हो जायेगा।”
“ठीक है। जाने दो फिर।”
उसके बाद अपने पीछे प्रत्यक्षत: बहुत दिलेरी दिखाते, लेकिन मन ही मन डरते हुए, डोगरा को छोड़कर घोरपड़े वहाँ से विदा हो गया। वह नहीं जानता था कि डोगरा पहले ही मन ही मन फैसला कर चुका था कि जब तक विमल का कोई तीया-पाँचा एक नहीं हो जायेगा, तब तक वह ‘कम्पनी’ के हैडक्वार्टर की मुकम्मल, गारन्टीशुदा, महफूजियत से बाहर कदम नहीं रखेगा।
पीटर होटल की इमारत से बाहर निकला और लम्बे डग भरता राहदारी में आगे बढ़ा।
विमल सावधानी से उसके पीछे चलता रहा।
पीटर होटल के कम्पाउण्ड के फाटक से बाहर निकला और टैक्सी स्टैण्ड की तरफ बढ़ा।
टैक्सी स्टैण्ड पर कई टैक्सियाँ मौजूद थीं। टैक्सी ड्राइवर सब एक ओर एक तख्तपोश पर बैठे हुए थे।
पीटर स्टैण्ड तक पहुँचा।
उसके पीछे लगे विमल को यह बात अजीब लगी कि किसी भी टैक्सी ड्राइवर ने उठकर पीटर का वैसा स्वागत न किया जैसा कि उसे टैक्सी की किसी सम्भावित सवारी का करना चाहिए था। फिर जल्दी ही विमल को टैक्सी वालों के उस अटपटे व्यवहार की वजह समझ में आ गयी।
पीटर खुद टैक्सी ड्राइवर था।
वह तख्तपोश पर बैठे ड्राइवरों से काफी परे खड़ी एक टैक्सी के पास पहुँचा और उसकी ड्राइविंग सीट पर जा बैठा।
विमल सिर तनिक नीचे झुकाए लपककर उसके समीप पहुँचा।
विमल और उसकी शानदार पोशाक फौरन तख्तपोश पर बैठे ड्राइवरों के आकर्षण का केन्द्र बन गयी।
“साहब।”—एक ड्राइवर तख्तपोश पर से उठता हुआ बोला—“इधर आ जाइए। मेरा नम्बर है।”
विमल ने जेब से रिवॉल्वर निकालकर पीटर की पसलियों से सटा दी और क्रूर स्वर में बोला—“अगर यहीं मर नहीं जाना चाहते हो तो उन्हें कहो कि मैं सवारी नहीं, तुम्हारा दोस्त हूँ।”
पीटर बुरी तरह हड़बड़ाया। विमल की सूरत वह तब भी ठीक से न देख पाया, लेकिन रिवॉल्वर की अपनी पसलियों में गड़ती नाल उसे बाखूबी दिखाई दी।
“अरे, यह ग्राहक नहीं”—वह उच्च स्वर में बोला—“अपनी सवारी है।”
“अच्छा !”—तख्तपोश से उठे ड्राइवर के मुँह से निकला, वह वापस तख्तपोश पर बैठ गया और अपने साथियों से बातें करने में मशगूल हो गया।
विमल उसके साथ टैक्सी में सवार हो गया।
“चलो।”—उसने आदेश दिया।
“कहाँ ?”—पीटर के मुँह से निकला।
“पहले यहाँ से निकलकर मेन रोड पर पहुँचो।”—विमल सिर झुकाए-झुकाए बोला—“फिर कहाँ का भी जवाब मिल जायेगा।”
पीटर ने टैक्सी चलाई और मेन रोड पर पहुँचा।
“मैं एक मामूली ड्राइवर हूँ।”—पीटर कम्पित स्वर में बोला—“मेरे पास कुछ नहीं है।”
“मुझे मालूम है।”—विमल शुष्क स्वर में बोला।
“मैं सच कह रहा हूँ, मेरे पास कुछ नहीं है। मैं बहुत गरीब आदमी हूँ।”
“बर्फ काटने वाला सुआ तो होगा !”—विमल के स्वर में अपने-आप व्यंग का पुट आ गया—“उसके लिए तो रईस होना जरूरी नहीं होता !”
एकबारगी पीटर के चेहरे पर कोई भाव न आये। फिर एकाएक वह बुरी तरह चौंका। उसने जोर से टैक्सी को ब्रेक लगायी।
“खबरदार !”—विमल ने रिवॉल्वर का जोरदार प्रहार उसके घुटने पर किया और उसे वापिस उसके पहलू से सटा दिया—“टैक्सी रोकी तो तुम्हारी साँस रुक जायेगी।”
पीटर ने फौरन ब्रेक से पाँव हटा लिया।
“रफ्तार बढ़ाओ।”—विमल ने आदेश दिया।
पीटर ने फौरन आदेश का पालन किया।
टैक्सी तोप से छूटे गोले की तरह सड़क पर भाग निकली।
“क-कौन !”—पीटर हकलाता हुआ बोला—“कौन हो तुम ?”
“मैं तुम्हारा रिश्तेदार हूँ।”—विमल मीठे स्वर में बोला—“बहुत नजदीकी। तुम्हारी उम्मीद से ज्यादा नजदीकी।”
“क-कौन ? कौन-सा नजदीकी रिश्तेदार ?”
“तुम्हारा बाप।”—विमल का मीठा स्वर एकाएक कहर में बदल गया—“क्योंकि इससे ज्यादा नजदीकी रिश्ता तो तुम्हारा अपनी माँ से ही हो सकता है।”
पीटर ने जोर से थूक निगली।
“अपना नाम बोलो।”—विमल ने आदेश दिया।
“पीटर।”—पीटर बोला—“पीटर परेरा। तु-तुम कौन हो ?”
“अच्छे बच्चों को अपने बाप का नाम मालूम होता है।”—विमल बोला—“सिर्फ हराम की औलाद को उनकी मांँएँ उनके बाप का नाम बताने से परहेज करती हैं।”
पीटर ने अपने एकाएक सूख आये होंठों पर जुबान फेरी।
विमल के आदेश के अनुसार टैक्सी ड्राइव करता वह उसे वरसोवा बीच तक ले आया। वहाँ एक सुनसान जगह पर विमल ने टैक्सी रुकवाई।
“डोम लाइट जलाओ।”—उसने आदेश दिया।
तुरन्त आदेश का पालन हुआ। टैक्सी के भीतर उजाला हो गया।
“मेरी तरफ घूमो।”
वह घूमा।
विमल ने रिवॉल्वर की नाल को उसके पहलू के पास से हटाकर उसकी छाती पर ऐन दिल के ऊपर टिका दिया। फिर वह उसकी तरफ घूमा और अपना चेहरा रोशनी की दिशा में तनिक ऊँचा उठाता बोला—“अब पहचानो अपने बाप को।”
तब पीटर ने पहली बार ठीक से विमल की सूरत देखी।
तुरन्त उसके चेहरे पर ऐसे भाव आये जैसे उसका हार्ट फेल हो जाने वाला हो। उसका निचला जबड़ा लटक गया, चेहरे की रंगत एकाएक कागज की तरह सफेद हो गयी और आँखें कटोरियों से बाहर उबल पड़ीं।
“तुम्हारे जुबान खोलने की जरूरत नहीं।”—विमल विषभरे स्वर में बोला—“तुम्हारी सूरत से ही जाहिर हो रहा है कि तुमने अपनी माँ के बेशुमार यारों में से उस शख्स को पहचान लिया है, जोकि तुम्हारा बाप है।”
उसके मुँह से बोल न फूटा।
“तुम्हारा जोड़ीदार कहाँ गया ?”
“च-चा-चार्ली ?”
“वही।”
“वह राजनगर से तो म-मेरे साथ ही नि-निकला था, लेकिन मु-मु-मु... मुम्बई मेरे स-साथ नहीं आया था।”
“कहाँ गया वो ?”
“मुझे नहीं मालूम।”
“फोस्टर का क्या किया था तुमने ?”
पीटर ने मुतवातर हकलाते हुए धीरे-धीरे बताया। बताने के अलावा और कोई चारा ही नहीं था।
“ओह ! तो आज की तारीख में तुम रईस आदमी हो।”—विमल बोला—“दो लाख रुपये के मालिक हो।”
“था।”—पीटर के मुँह से निकला।
“था क्या मतलब ?”
“सब माल चुक गया। एक टैक्सी बना ली। एक फ्लैट की पगड़ी भर दी और बचे-खुचे की ऐश कर ली।”
“यह बात तुम यह साबित करने के लिए तो नहीं सुना रहे हो मुझे कि मैं तुम्हें कड़का समझकर तुमसे कुछ छीनने की कोशिश न करूँ ?”
“यह बात नहीं है।”—वह गिड़गिड़ाता हुआ बोला—“रोकड़े के नाम पर मेरे पास कुछ नहीं है।”
“खातिर जमा रखो। मुझे तुम्हारे रोकड़े की जरूरत भी नहीं।”
“तो-तो... तो ?”
“तो यह कि अपना तमाम ताम-झाम अपने पास रखो और मेरी एक अक्ल की बात पर अमल करो।”
“कि-किस बात पर ?”
“इस बात पर कि अच्छे बच्चे कभी अपने माँ-बाप से झूठ नहीं बोलते।”
उसने जोर से थूक निगली।
“आज जो आदमी होटल सी-व्यू में ऊपर से नीचे लॉबी तक तुम्हें छोड़ने आया था, वह कौन था ?”
“घोरपड़े !”—पीटर के मुँह से निकला।
“घोरपड़े कौन ?”
“उसके नाम के अलावा उसके बारे में मैं कुछ नहीं जानता। लेकिन वह डोगरा का कोई खास आदमी लगता था।”
“होटल में तुम्हें वह लाया था ?”
“हाँ।”
“किसलिए ?”
“डोगरा नाम के एक साहब से मिलवाने के लिए।”
विमल को बड़ी राहत महसूस हुई। एक बात की तो तसदीक हो गयी थी कि डोगरा बखिया के हैडक्वार्टर, उस होटल में ही रहता था।
“तुम उससे मिले थे ?”
“हाँ।”
“क्या चाहता था वह तुमसे ?”
पीटर ने डरते-झिझकते बताया।
“बल्ले !”—विमल बोला—“तो मेरी छाती में सुआ उतार कर तुम समझ रहे थे कि तुमने सुलताना डाकू को मार लिया था।”
पीटर ने जवाब नहीं दिया।
“डोगरा को विश्वास हो गया था कि तुमने मुझे जान से मार डाला था ?”
पीटर ने हिचकिचाते हुए इन्कार में सिर हिलाया।
“हूँ।”—विमल एक क्षण ठिठका और फिर बोला—“डोगरा होटल के कौन-से फ्लोर पर है ?”
“दूसरे पर।”
“कमरा नम्बर ?”
“कमरा नम्बर की तरफ तो मैंने ध्यान नहीं दिया था !”
विमल ने रिवॉल्वर की नाल से यूँ उसकी छाती ठकठकाई जैसे मालूम करने की कोशिश कर रहा हो कि दिल कहाँ था।
“बाई गॉड, मुझे मुझे नहीं मालूम।”—पीटर आतंकित स्वर में बोला—“मुझे घोरपड़े ऊपर लेकर गया था। मैंने कमरा नम्बर की तरफ ध्यान नहीं दिया था।”
“इस बात की तरफ तो ध्यान दिया होगा कि कमरा होटल के बायें विंग में था या दायें विंग में ?”
“दायें विंग में।”
“शाबाश ! अब अन्दाजन बताओ कि कमरा विंग में कहाँ था ? किनारे पर ? बीच में ? कहाँ ?”
“किनारे पर नहीं। लेकिन बीच में भी नहीं। गलियारा बहुत लम्बा था। लेकिन फिर भी जहाँ तक मेरा अन्दाजा हैं, मैं बीच तक नहीं पहुँचा था।”
विमल को वह सच बोलता लगा।
लेकिन इतनी जानकारी भी विमल के लिए कम नहीं थी।
टैक्सी की हैडलाइट पीटर ने टैक्सी रोकते ही ऑफ कर दी थी। विमल ने हाथ बढ़ाकर हैडलाइट का स्विच दोबारा ऑन कर दिया। उसने सामने बीच के प्रकाशित हो उठे भाग पर निगाह डाली। थोड़ी दूर एक पेड़ के नीचे बीयर की एक खाली बोतल लुढ़की पढ़ी थी।
“उस सामने पेड़ के नीचे पड़ी वो बीयर की बोतल देख रहे हो ?”—विमल बड़े सहज भाव से बोला।
पीटर ने एक सरसरी निगाह उधर डाली और फिर बोला—“हाँ।”
“उसे उठाकर लाओ।”
“क-क्यों ?”
“मुझे जरूरत है उस बोतल की।”
पीटर के चेहरे पर अनिश्चय के भाव आये।
एकाएक विमल के चेहरे पर बड़े हिंसक-भाव आये। उसकी उँगलियाँ रिवॉल्वर के ट्रीगर पर कस गयीं।
“लाता हूँ।”—पीटर फौरन कम्पित स्वर में बोला—“लाता हूँ।”
वह टैक्सी से बाहर निकला और मन-मन के कदम उठाता बोतल की तरफ बढ़ा।
विमल स्टियरिंग के पीछे उसके द्वारा खाली किये गये स्थान पर सरक आया। टैक्सी का उस ओर का दरवाजा उसने खुला रहने दिया।
पीटर बोतल तक पहुँचा। झिझकते हुए उसने बोतल उठाई। उसने घूमकर वापस टैक्सी की तरफ देखा। विमल को बड़े निर्विकार भाव से टैक्सी में बैठा देखकर वह आश्वस्त हो गया। जाती बार के मुकाबले में वह ज्यादा दिलेरी से, ज्यादा मजबूती से कदम रखता वापस लौटा।
वह अभी आधे रास्ते में ही था कि विमल ने गोली चला दी।
पीटर का भेजा उड़ गया।
एक ही गोली ने उसका काम तमाम कर दिया।
विमल ने रिवॉल्वर कोट की जेब में रख ली, टैक्सी की डोमलाइट बुझाई, उसका इन्जन चालू किया, उसे रेतीली जमीन पर यू-टर्न दिया और वापस लौट पड़ा।
नीलम विमल से दो-ढाई घण्टे बाद जब तक वापस होटल में लौटी, तब तक शाम हो चुकी थी।
उसके वहाँ पहुँचने से पहले विमल एक बार फिर होटल की सील्ड मंजिलों के बारे में भरपूर सिरखपायी कर चुका था। उन मंजिलों तक पहुँच पाने की उसे अभी भी कोई तरकीब नहीं सूझी थी। उसने होटल से बाहर उसके आसपास के इलाके का भी मुआयना किया था। होटल के दायें पहलू में एक इमारत बन रही थी, जोकि लगता था कि होटल जितनी ही ऊँची जाने वाली थी, लेकिन अभी तक वह केवल पाँच ही मंजिलों तक उठी थी। उन मंजिलों में अभी तक केवल फ्लोर ही पड़े थे, कोई खिड़कियाँ-दरवाजे नहीं लगे थे, मंजिल-दर-मंजिल कोई दीवारें नहीं उठायी गयी थीं, अभी तो वह इमारत की जगह उसका कंकाल-भर मालूम होता था।
उस इमारत को देखकर डोगरा से दो-चार होने की विमल को एक तरकीब सूझी थी लेकिन उस तरकीब पर अमल करना नीलम की मदद के बिना मुमकिन नहीं था।
तभी नीलम आ गयी।
वह आकर धम्म से विमल की बगल में बैठ गयी।
“उस आदमी का नाम घोरपड़े है।”—उसने बताया—“वह मुम्बई सेण्ट्रल के पास कमाठीपुरे के इलाके में रहता है और वहाँ का मशहूर दादा बताया जाता है। वह सारा इलाका ही ऐसा है कि दादाओं की बस्ती मालूम होता है। वहाँ रहने वाला हर तीसरा आदमी दादा है।”
“उसे तुम पर शक तो नहीं हुआ ?”—विमल ने पूछा।
“नहीं। मैंने बहुत सावधानी से काम लिया था।”
“तुमने तो कमाल कर दिया, नीलम !”
नीलम शरमाई।
“ऐसे कमाल की तो तुम्हें शाबाशी मिलनी चाहिए !”
“क्या शाबाशी दोगे ?”
उत्तर में विमल ने उसे अपनी बाँहों में भर लिया और उसके कपोल पर एक भरपूर चुम्बन अँकित कर दिया।
“यह शाबाशी दूँगा।”—वह बोला।
“यह शाबाशी कम है।”—नीलम शरारतभरे स्वर में बोली—“मैंने इससे कहीं ज्यादा शाबाशी का काम करके दिखाया है।”
विमल हँसा। उसने नीलम को बन्धनमुक्त कर दिया और फिर बोला—“मेरी बात सुनो। मेरी ज्यादा जरूरी बात सुनो।”
“सुनाओ।”
विमल ने पहले उसे बताया कि उसके और पीटर के बीच क्या बीती थी।
उसके यह बताने पर, कि उसने पीटर को शूट कर दिया था, नीलम के चेहरे पर शिकन तक नहीं आयी। अब वह भी वो नीलम नहीं रही थी जिसने कभी चण्डीगढ़ में मायाराम बावा के मामले में उसे खास ताकीद की थी कि अगर उसने उसका कत्ल किया तो वह उसे बहुत गलत आदमी समझेगी।
फिर उसने वह तरकीब बताई जो उसने डोगरा से दो-चार होने के लिए सोची थी।
“वह होटल की दूसरी मंजिल पर है।”—विमल बोला—“वहाँ तक नीचे की आवाजें बाखूबी पहुँच सकती हैं। अगर बाहर एकाएक कोई हंगामा बरपा जाये तो यह देखने के लिए, कि एकाएक क्या आफत आ गयी थी, वह अपने कमरे की बाल्कनी में जरूर आयेगा। उत्सुकता, क्यूरिआसिटी, मानवीय प्रवृति होती है। एण्ड कयूरिआसिटी किल्ड दी कैट, यू नो !”
“अगर वह बाल्कनी पर न निकला तो ?”
“न निकला तो न सही। फिर कोई और तरकीब सोचेंगे।”
“ठीक है।”
फिर वे अन्धेरा होने की प्रतीक्षा करने लगे।
रुस्तम भाई की प्राइवेट टैक्सी मार्क फोर एम्बैसडर अभी भी उनके अधिकार में थी। सावधानीवश उन्होंने कार की नम्बर प्लेटें बदल दी थीं और प्राइवेट टैक्सी के नम्बर को बदलकर उन्होंने कार पर आम गाड़ी कर नम्बर लगा दिया था।
अन्धेरा होते ही होटल के समीप की नई बनती इमारत से लेबर विदा हो गयी थी और वह सुनसान हो गयी थी। इमारत के ग्राउण्ड फ्लोर के एक कोने में ईंटों का टैम्परेरी कमरा बना हुआ था जिसके भीतर तीन-चार आदमी मौजूद थे जो कि शायद वहाँ की रखवाली का काम करते थे—या शायद एक रखवाला था और बाकी उसके दोस्त थे।
विमल झाँककर देख आया था, वे लोग ठर्रा पीने की तैयारियाँ कर रहे थे।
एम्बैसेडर कार उस वक्त दोनों इमारतों के बीच में अन्धकार में खड़ी थी। सारी कार के भीतर अलग से कनस्तर लाकर खूब सारा पैट्रोल छिड़क दिया गया था और उसकी टंकी भी लबालब भरी हुई थी। टंकी का ढक्कन खुला था, उसके भीतर नीलम की एक पुरानी नायलॉन की साड़ी का एक सिरा डूबा हुआ था और दूसरा सिरा कार के भीतर से होता हुआ उसकी एक खिड़की से बाहर निकला हुआ था।
एक तरफ ओट में नीलम खड़ी थी और बनती इमारत में से विमल का इशारा हासिल होने का इन्तजार कर रही थी।
दूर बीच पर काफी लोग मौजूद थे, जो कि अपने मौज-मेले में व्यस्त थे।
किसी की तवज्जो पैट्रोल में नहाई एम्बैसडर कार की तरफ नहीं थी।
विमल नि:शब्द बनती इमारती की दूसरी मंजिल पर पहुँच गया। वहाँ घुप्प अन्धेरा था लेकिन सामने होटल सी-व्यू का सारा दायाँ विंग खूबसूरत रोशनियों से जगमगा रहा था।
उसने दूसरी मंजिल पर दायें-बायें निगाह दौड़ाई।
अगर पीटर ने उससे झूठ नहीं बोला था तो उसी मंजिल पर कहीं डोगरा मौजूद था। पीटर ने उसके कमरे का जो अन्दाजा बताया था, उसके लिहाज से विमल ने अन्धेरी इमारत की दूसरी मंजिल पर पोजीशन ले ली। वहीं एक खाली ड्रम पड़ा था, जो उसने अपने सामने कर लिया। उसने रिवॉल्वर निकालकर हाथ में ले ली और फिर सामने निगाह दौड़ाई।
डोगरा कौन-सी बाल्कनी पर प्रकट होगा ?
नीचे मचा कोहराम उसे बाल्कनी तक जरूर लायेगा इस बात की तो विमल को लगभग गारन्टी थी, लेकिन उस क्षण अगर वह अपने कमरे में हुआ ही न तो ?
तो सारे किये-धरे पर पानी फिर सकता था।
बहरहाल उस वक्त वह उस अप्रिय सम्भावना के बारे में नहीं सोचना चाहता था। वह यही उम्मीद लगाए रहना चाहता था कि डोगरा अपने कमरे में था।
उसने नीचे निगाह डाली।
नीचे अन्धेरे में नीलम उसे कहीं दिखाई न दी। लेकिन वह थी नीचे ही कहीं।
उसने जेब से माचिस निकालकर उसकी एक तीली जलाई।
तुरन्त नीचे अन्धेरे में खड़ी कार के पास कहीं वैसी ही रोशनी का एक जुगनू-सा चमका।
वह एक पूर्वनिर्धारित संकेत था कि विमल तैयार था।
विमल ने अपने रिवॉल्वर वाले हाथ की कोहनी अपने सामने पड़े ड्रम पर टिका ली और अपने हाथ को एकदम स्थिर कर लिया।
नीचे नीलम ने कार की खिड़की से बाहर निकले नायलॉन की साड़ी के सिरे को आग लगा दी और फिर कमान से निकले तीर की तरह कार से परे भागी।
पैट्रोल में डूबी कार में आग एकदम धधकी। पलक झपकते कार आग का विशाल गोला मालूम होने लगी। फिर आग पैट्रोल की टंकी तक पहुँची।
टंकी इतने भयंकर धमाके के साथ फटी कि विमल को इमारत का फर्श हिलता महसूस हुआ।
फौरन नीचे शोर मचा। ग्राउण्ड फ्लोर पर ठर्रा पीने की तैयारी करते लोग बाहर निकल आये। बीच की तरफ से भी कुछ लोग उस तरफ दौड़े।
सामने होटल की कई बाल्कनियों पर लोग प्रकट होने लगे।
होटल के कुछ कर्मचारी भी उधर दौड़े।
हर तरफ ‘क्या हुआ क्या हुआ’ का शोर मच गया।
विमल एकटक दूसरी मंजिल की अपने सामने मौजूद चार-पाँच बाल्कनियों की ओर देखता रहा। उनमें से किसी एक पर डोगरा को प्रकट होना चाहिए था।
नीचे जलती कार की लपटें पन्द्रह-बीस फुट ऊपर तक उठ रही थीं और उन्होंने उस अन्धेरे इलाके में दिन जैसी रोशनी फैला दी थी। वह रोशनी सामने होटल की और उस बनती इमारत की दो मंजिलों तक तो बाखूबी पहुँच रही थी।
विमल ने और सावधानी से ड्रम की ओट ले ली।
डोगरा दूसरी मंजिल की एक बाल्कनी पर प्रकट हुआ।
लेकिन वह बाल्कनी विमल के सामने की बाल्कनियों में से नहीं थी।
बाल्कनी के बारे में पता नहीं पीटर का अन्दाजा बेहूदा था या उसने झूठ बोला था लेकिन अब डोगरा पर गोली चलाने के लिए उसके लिए ड्रम की ओट छोड़ना जरूरी था। ऐसा करने से उसके रिवॉल्वर वाले हाथ की कोहनी को ड्रम का सहारा भी उपलब्ध नहीं रहना था।
डोगरा बाल्कनी की रेलिंग के पास खड़ा नीचे जलती कार की तरफ झाँक रहा था।
विमल ड्रम के पीछे से निकला और सिर नीचा किये दबे-पाँव आगे बढ़ा।
रह-रहकर उसके जूतों के नीचे केवल कन्क्रीट पड़े फर्श पर बिखरे रोड़ी या बजरी के टुकड़ों में से कोई टुकड़ा चरमराता हुआ पिस जाता था।
वह डोगरा की बाल्कनी के एकदम सामने अभी नहीं पहुँच पाया था कि तभी एकाएक अब तक नीचे झाँकते डोगरा की निगाह ऊपर उठी और बनती इमारत की दिशा में पड़ी। पता नहीं उसे वहाँ विमल दिखाई दे गया था या किसी अज्ञात भावना ने उसे ऐसा करने के लिए प्रेरित किया था, लेकिन वह फौरन वापस घूमा और बाल्कनी के पास से हटकर पीछे कमरे के खुले दरवाजे की तरफ लपका।
विमल वहीं थमककर खड़ा हो गया। उसने डोगरा की तरफ रिवॉल्वर का रुख करके गोलियाँ चलानी आरम्भ कर दीं।
डोगरा एकाएक उकड़ू हुआ।
क्या उसे गोली लगी थी या वह सावधानी बरत रहा था—विमल ने सोचा।
नीचे मचे शोर में गोलियों की आवाज का पता भी नहीं चल रहा था।
विमल ने सारी रिवॉल्वर डोगरा की बाल्कनी पर खाली कर दी।
डोगरा पेट के बल रेंगता दरवाजे से पार हुआ और फिर उसके पीछे दरवाजा बन्द हो गया।
निराशा से गरदन हिलाते हुए विमल ने रिवॉल्वर पतलून की बैल्ट में खोंसी और नीचे भागा।
उसने इमारत से बाहर कदम रखा ही था कि होटल के एक साइड डोर से आनन-फानन कई आदमी बाहर निकले और बनती इमारत की तरफ लपके।
विमल आगे बढ़ा और जलती कार के गिर्द जमा तमाशियों की भीड़ का अंग बन गया।
होटल से निकले आदमी बगूले की तरह बनती इमारत में घुस गये।
विमल सहज भाव से परे सरकता हुआ होटल वाली साइड में खड़ी नीलम के पास पहुँचा।
नीलम ने आँखों ही आँखों में उससे सवाल किया।
विमल ने इन्कार में सिर हिला दिया।
नीलम के मुँह से एक बड़ी निराशासूचक ‘ओह !’ निकली।
विमल ने बनती इमारत की तरफ निगाह डाली।
होटल से आये आदमी बनती इमारत की मंजिलों पर फैल चुके थे।
वे निश्चय ही होटल पर गोलियाँ चलाने वाले आदमी की तलाश में थे।
विमल ने हौले-से नीलम की बाँह थामी और होटल के मुख्य द्वार की ओर बढ़ चला।
गोलियों की बौछार से डोगरा बाल-बाल बचा था। उस अप्रत्याशित आक्रमण ने उसे हिलाकर रख दिया था। उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि कभी काला पहाड़ के हैडक्वार्टर पर ऐसा साहसिक आक्रमण हो सकता था।
बैडरूम में पहुँचते ही उसने तुरन्त नीचे फोन किया और काला पहाड़ के प्यादों के इन्चार्ज को बताया कि क्या हुआ था और उसे सामने बनती इमारत का चप्पा-चप्पा छान डालने का आदेश दिया।
फिर वह पलंग पर बैठ गया। उसने अपने दोनों हाथों से अपना सिर थाम लिया। उसकी कनपटियों में लोहार की ठक-ठक की तरह खून बज रहा था। ठक-ठक उसे अपने जेहन में बजते नाम को ताल देती मालूम हो रही थी।
सोहल ! विमल ! सोहल ! विमल ! सोहल ! विमल !
कितनी ही देर वह यूँ ही सिर थामे बैठा रहा।
फिर उसकी निगाह अपने-आप ही पलंग के समीप पड़ी मेज पर रखी ‘वैट-69’ की बोतल की तरफ उठ गयी। उसने बोतल की तरफ हाथ बढ़ाया। हाथ बोतल के समीप पहुँचकर ठिठका, उसके चेहरे पर हिचकिचाहट के भाव उभरे, फिर बड़े निर्णयात्मक ढंग से उसने बोतल की तरफ बढ़े हाथ से बोतल के पास ही पड़े दो टेलीफोनों में से एक टेलीफोन का रिसीवर उठा लिया। उसने काँपते हाथों से होटल का ही एक नम्बर डायल किया।
“मैं डोगरा बोल रहा हूँ।”—दूसरी ओर से उत्तर मिलते ही वह व्यग्र भाव से बोला—“मैं सुलेमान साहब से अप्वॉयन्टमेंट चाहता हूँ।”
सुलेमान—मुहम्मद सुलेमान—काला पहाड़ की बादशाहत में उससे दो सीढ़ियाँ ऊपर था। डोगरा की सीधी पहुँच अपने से दो सीढ़ी ऊपर तक ही थी। उससे ऊपर सीधे पहुँचने का उसे अधिकार नहीं था। उससे ऊपर वह तभी पहुँच सकता था जब सुलेमान ऐसा जरूरी समझता।
“कब की ?”—उससे पूछा गया।
“अभी की।”—डोगरा बोला—“आज की तो हर हालत में। काम इन्तहाई जरूरी है।”
“स्टैण्ड बाई।”—उसे कहा गया—“आपको खबर की जायेगी।”
डोगरा ने टेलीफोन का रिसीवर रख दिया।
फोन रखते ही उसे अपनी कमजोरी पर पछतावा होने लगा। जब वह सुलेमान को बतायेगा कि वह एक इकलौते आदमी से दहशत खाए हुए था तो उसकी नाक नहीं कट जायेगी, सुलेमान उसकी हँसी नहीं उड़ायेगा !
लेकिन सुलेमान से उसका बहुत पुराना वास्ता था, वह डोगरा की दुश्वारी समझ सकता था।
फिर भी उसे सुलेमान के सामने अपनी कमतरी तो कबूल करनी होगी !
उसके जेहन में इस बारे में शक की रत्ती-भर की गुँजायश नहीं थी कि उस पर गोलियाँ बरसाने वाला आदमी उसका इलाहाबाद का मातहत सोहल था। लेकिन वह मरियल-सा आदमी एकाएक इतना हौसलामन्द कैसे हो गया ? चींटी शेर कैसे बन गयी ?
उसका हाथ फिर ह्विस्की की बोतल की तरफ बढ़ा और फिर रास्ते में ही ठिठक गया।
सुलेमान पक्का मुसलमान था, वह शराब नहीं पीता था, उसके मुँह से शराब की गन्ध आती पाकर वह उस पर खफा हो सकता था।
दस मिनट गुजर गये।
अब डोगरा का जी चाहने लगा कि वह सुलेमान से अपनी अप्वॉयन्टमेंट की दरख्वास्त कैन्सिल कर दे। खामखाह अपनी हँसी उड़वाने का क्या फायदा !
लेकिन सुलेमान हमेशा उसके लिए अच्छा आदमी साबित हुआ था। उसने संकट की घड़ी में हमेशा उसकी मदद की थी। इलाहाबाद के पचास हजार के घोटाले को कवर करने में...
तभी टेलीफोन की घण्टी बज उठी।
डोगरा ने झपटकर रिसीवर उठाया।
“आप सुलेमान साहब से अप्वॉयन्टमेंट ‘कम्पनी’ से ताल्लुक रखते किसी काम की बाबत चाहते हैं ?”
“नहीं।”—डोगरा कठिन स्वर में बोला—“वह मेरा एक जाती मामला है, जो ‘कम्पनी’ के लिए भी प्रॉब्लम बन...”
“प्लीज स्टैण्ड बाई।”
लाइन कट गयी।
डोगरा ने फिर माथा थाम लिया और प्रतीक्षा करने लगा।
उसका दिमाग यही कह रहा था कि वह खामखाह डर रहा था लेकिन उसका दिल उसके दिमाग से इत्तफाक जाहिर करने को तैयार नहीं हो रहा था।
पाँच मिनट बाद फिर टेलीफोन की घण्टी बजी।
“दस मिनट बाद सुलेमान साहब के सूइट में पहुँच जाइए।”—उसे कहा गया।
“थैंक्यू।”
लाइन फिर कट गयी।
ठीक दस मिनट बाद डोगरा बड़े अदब से तीसरी मंजिल के एक दरवाजे की काल-बैल बजा रहा था।
उसे मालूम था उस मंजिल के सारे सूइट चार कमरों के थे।
दरवाजा एक खूबसूरत लड़की ने खोला।
कोई और वक्त होता तो इतनी शानदार लड़की को देखकर डोगरा की लार टपकने लगती और वह ईर्ष्या से जल मरता कि ‘कम्पनी’ के उससे ऊपर के लोगों को ‘कम्पनी’ की तरफ से इतना शानदार माल हासिल था, जबकि उसे ऐसी चीजें मिसेज पिन्टो के वेश्यालय से ‘खरीदनी’ पड़ती थीं, लेकिन उस वक्त उसके दिलोदिमाग पर विमल की ऐसी दहशत सवार थी कि उसने लड़की को लड़की की निगाह से ही देखा, फौरन हजम कर जाने लायक किसी लजीज चीज की तरह नहीं देखा।
“डोगरा।”—वह बोला—“सुलेमान साहब से मेरी अप्वॉयण्टमेंट है।”
लड़की ने सहमति में सिर हिलाया। वह दरवाजे से परे हट गयी। डोगरा भीतर दाखिल हुआ। उसने देखा, सुलेमान के सूइट का ड्राइंगरूम उसके सूइट के ड्राइंगरूम से तिगुना नहीं तो दुगना तो हर हाल में बड़ा था।
लड़की ने एक सोफे की तरफ इशारा कर दिया।
डोगरा बैठ गया।
“सुलेमान साहब एक मिनट में आते हैं।”—वह बोली।
डोगरा ने सहमति में सिर हिलाया।
लड़की मदमाती चाल चलती पिछवाड़े के एक दरवाजे तक पहुँची और उसे खोलकर भीतर दाखिल हो गयी। अपने पीछे उसने फौरन दरवाजा बन्द कर दिया।
डोगरा ने विशाल ड्राइंगरूम में चारों तरफ निगाह दौड़ाई।
कितना शानदार ड्राइंगरूम था ! उसका ड्राइंगरूम तो उसके मुकाबले में कुछ भी नहीं था। लेकिन एक दिन उसकी भी तरक्की हो सकती थी। एक दिन वह भी तीसरी मंजिल के चार कमरों वाले वैसे विशाल सूइट का और वैसी ही शानदार लड़की का हकदार हो सकता था।
लेकिन पहले वह विमल का बच्चा तो उसका पीछा छोड़े !
उसने बेचैनी से घड़ी पर दृष्टिपात किया।
पाँच मिनट गुजर चुके थे।
लेकिन सुलेमान का एक मिनट अभी नहीं हुआ था।
उसकी निगाह उस बन्द दरवाजे की तरफ उठ गयी जिसके पीछे वह लड़की गायब हुई थी।
क्या हो रहा होगा उस दरवाजे के पीछे ?
कम्बख्त जरूर ऐश लूट रहा होगा उस लड़की के साथ।
कोई बात नहीं—वह वितृष्णापूर्ण भाव से होंठों में बुदबुदाया—किसी दिन वह भी यूँ भीतर किसी ऐसी ही शानदार लड़की के साथ ऐश लूट रहा होगा और उस जैसा कोई आदमी बाहर उसके इन्तजार में बैठा एड़ियाँ रगड़ रहा होगा।
सुलेमान पन्द्रह मिनट बाद वहाँ प्रकट हुआ।
वह एक लगभग पचपन साल का, असाधारण रूप से अच्छी तन्दुरुस्ती वाला, लम्बा-तड़ंगा आदमी था। अपने जिस्म पर वह केवल ड्रेसिंग गाउन पहने हुए था। उसकी नंगी गरदन पर एक स्थान पर एक जोड़ी होंठों के आकार का लिपस्टिक का दाग दिखाई दे रहा था। वह उस दाग से बेखबर था लेकिन अपने स्वागत में सोफे पर से उठ खड़े हुए डोगरा के जब वह करीब पहुँचा तो उसने देखा कि लिपस्टिक की रंगत वही थी, जो लड़की के होंठों पर लगी लिपस्टिक की थी।
यानी कि उसका खयाल सही था। कम्बख्त उसे बाहर सूखने डालकर खुद भीतर बैठा मौज कर रहा था। उसकी मौज इन्तजार नहीं कर सकती थी, उससे केवल दो सीढ़ी नीचे का ‘कम्पनी’ का आदमी इन्तजार कर सकता था।
सुलेमान ने उससे हाथ मिलाया।
“बैठो।”—वह बोला।
डोगरा बैठ गया।
सुलेमान उसके सामने बैठ गया। बैठने की उस क्रिया में उसके गाउन का गिरहबान तनिक खुल गया। डोगरा को उसकी गरदन पर मौजूद लिपस्टिक के दाग जैसा ही दाग उसकी छाती पर भी दिखाई दिया।
“तुम कह रहे थे कि तुम्हारा कोई जाती मामला है जो तुम मुझसे डिसकस चाहते हो ?”—सुलेमान बोला।
“जी हाँ।”—डोगरा कठिन स्वर में बोला।
“तुम जानते हो ऐसे कामों के लिए मैं कफ परेड वाले ऑफिस में उपलब्ध होता हूँ। यहाँ मुझसे मिलने के लिए सिर्फ उस काम से आना चाहिए, जिससे ‘कम्पनी’ का ताल्लुक हो।”
“मैं जानता हूँ।”—डोगरा बड़े अदब से बोला—“लेकिन मेरे जाती मामले से आगे चलकर ‘कम्पनी’ का भी ताल्लुक निकल सकता है।”
“यह बात ?”
“जी हाँ।”
“मामला क्या है ?”
“एक आदमी है। मैं उसे मर गया समझ रहा था लेकिन वह जिन्दा निकल आया है और अब मेरे पीछे पड़ा हुआ है।”
“एक आदमी ? एक इकलौता आदमी ?”
“जी हाँ।”
“तुम यह कहना चाहते हो कि ‘कम्पनी’ के इतने ऊँचे ओहदे पर पहुँच चुके होने के बावजूद तुम्हारे में इतनी कूवत पैदा नहीं हुई कि तुम एक इकलौते आदमी को हैंडल कर सको ?”
“यह बात नहीं है।”—डोगरा हड़बड़ाकर बोला।
“तो फिर क्या बात है ?”
“मैं उसे बाखूबी हैंडल कर सकता हूँ।”
“तो फिर समस्या क्या है ?”
“मैं उसे तलाश नहीं कर सकता। वह शहर में कहीं है, लेकिन उसका पता मालूम कर सकने के लिए मुझे मदद दरकार है, मुझे ‘कम्पनी’ के आदमियों की जरूरत है।”
“अगर उस आदमी का पता-ठिकाना तुम्हें मालूम हो जाये तो तुम उसे खुद हैंडल कर लोगे ?”
“जी हाँ।”
“तुम्हें कैसे मालूम है कि कोई आदमी तुम्हारे पीछे पड़ा हुआ है ?”
“मुझे खबरें मिली हैं। मेरा अता-पता जानने की कोशिश में वह मुझसे ताल्लुक रखते लोगों पर हाथ डाल रहा है। मेरी फिराक में वह यहाँ भी आ चुका है। लेकिन यहाँ उसकी दाल नहीं गली थी। अभी थोड़ी देर पहले उसने मुझ पर गोलियाँ बरसाकर मेरा कत्ल करने की कोशिश की थी।”
“क्या !”—सुलेमान चौंका—“किसी की इतनी मजाल हुई कि उसने ‘कम्पनी’ के होटल पर गोलियाँ बरसाई ?”
डोगरा का मन फिर वितृष्णा से भर उठा। कम्बख्त को इस बात की परवाह नहीं थी कि गोलियाँ ‘कम्पनी’ के एक महत्वपूर्ण आदमी पर बरसी थीं, उसे इस बात की परवाह थी कि गोलियाँ ‘कम्पनी’ के हैडक्वार्टर पर बरसी थीं।
“जी हाँ।”—प्रत्यक्षत: वह बोला।
“ऐसी नौबत क्योंकर आयी ?”
“उस आदमी को किसी तरह से मालूम हो गया लगता है कि मैं होटल में हूँ और होटल की दूसरी मंजिल पर हूँ। उसने जानबूझकर बाहर एक कार को आग लगा दी जिसकी वजह से बाहर बम फूटने जैसा धमाका हुआ और खूब शोर-शराबा मचा। उत्सुकतावश मैं भी बाहर झाँकने के लिए बाल्कनी पर आ गया। उसने सामने बनती इमारत से फौरन मुझ पर गोलियाँ बरसानी शुरु कर दीं। मैं बाल-बाल बचा।”
“डोगरा !”—सुलेमान तिरस्कारपूर्ण स्वर में बोला—“तुम्हें मालूम था कि वो आदमी तुम्हारी जान के पीछे पड़ा था, फिर भी तुम उसके इतने मामूली झाँसे में आ गये ?”
“सुलेमान साहब”—डोगरा आहत भाव से बोला—“मेरी निगाह में उसे यह मालूम हो पाना मुमकिन नहीं था कि मैं यहाँ होटल में रहता था और अगर रहता था तो होटल में कहाँ रहता था !”
“लेकिन उसे मालूम था ?”
“लगता है, कमरा नहीं मालूम था, लेकिन फ्लोर मालूम था, विंग मालूम था।”
“कैसे मालूम था ?”
“यही तो समझ में नहीं आ रहा !”
“समझने की कोशिश करो। किले की महफूजियत बरकरार रखने का यही तरीका होता है कि जिस दीवार में छेद दिखाई दे, उसकी तरफ फौरन तवज्जो दी जाये और इससे पहले कि वह छेद बड़ा होता-होता पूरी दीवार को गायब कर दे, उस छेद को बन्द किया जाये और दीवार को मजबूत किया जाये।”
“मैं यही करूँगा।”
“अच्छा करोगे। अब बोलो, वह आदमी क्या चीज है ? उसकी हस्ती क्या है ? उसकी बिसात क्या है ?”
डोगरा ने बताया।
सुलेमान के नेत्र फैल गये। उसने हैरानी से डोगरा को देखा। डोगरा उसकी खुर्दबीन जैसी निगाह के नीचे सिकुड़कर रह गया।
“डोगरा।”—वह बोला—“तुम यह कहना चाहते हो कि सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल तुम्हारी जान के पीछे पड़ा हुआ है ?”
“ज-जी हाँ।”—डोगरा हकलाया—“जी हाँ।”
“तुम इतने खतरनाक डकैत को, इतने मशहूर इश्तिहारी मुजारिम को, इतने दुर्दान्त हत्यारे को, एक मामूली आदमी करार दे रहे हो ?”
“सुलेमान साहब, जरूर कहीं कोई गड़बड़ है। वो खतरनाक इश्तिहारी मुजरिम और मेरे पीछे पड़ा आदमी एक ही शख्स नहीं हो सकते। मेरा दुश्मन सोहल ही खतरनाक इश्तिहारी मुजरिम विमल होता तो मेरी जान का दुश्मन बनने का खयाल उसे इतने सालों बाद न आता। वह...”
“ओ, नॉनसेंस।”—सुलेमान मुँह बिगाड़कर बोला—“यह तुम हकीकत बयान नहीं कर रहे हो, डोगरा, अपने दिल को झूठी तसल्ली दे रहे हो।”
डोगरा ने बेचैनी से पहलू बदला। सुलेमान ने उसकी मानसिक स्थिति को एकदम ठीक पहचाना था।
“तुमने क्या किया था ?”—सुलेमान ने पूछा।
“जी !”—डोगरा हड़बड़ाकर बोला।
“उस आदमी के खिलाफ तुमने ऐसा क्या किया था, जिसकी वजह से वह आज तुमसे बदला लेने के लिए उधार खाये बैठा है ?”
डोगरा ने बहुत झिझकते-हिचकिचाते हुए बताया।
“ओह !”—उसकी इलाहाबाद की कहानी सुनकर सुलेमान के स्वर में फिर तिरस्कार का भाव आ गया—“तो तुम्हारी अपने मातहत की बीवी से आशनाई थी ! दुनिया-जहान की हासिल औरतों को छोड़कर तुमने एक शादीशुदा औरत पर हाथ डाला ! न सिर्फ हाथ डाला, बल्कि इतनी लापरवाही और हिमाकत भी दिखाई कि रंगेहाथों पकड़े गये !”
डोगरा का चेहरा शर्म और अपमान से जल उठा।
“अब वह औरत कहाँ है ?”
बड़ी कठिनाई से डोगरा ने सुरजीत का अंजाम भी बयान किया।
“डोगरा, मुझे किश्तों में कहानी मत सुनाओ। खुदा के वास्ते जो कुछ कहना है, एक ही बार कहो।”
“अब और कुछ कहना बाकी नहीं, सुलेमान साहब।”—डोगरा विनीत भाव से बोला।
“हूँ।”—सुलेमान सोफे पर पसरकर बैठ गया। उसने अपनी एक कोहनी सोफे के हत्थे पर टिका ली और उसी हाथ की एक उँगली से कनपटी ठकठकाने लगा—“हूँ।”
डोगरा बड़े अदब से खामोश बैठा रहा और सुलेमान की हुँकारें सुनता रहा।
“इस औरत को”—हुँकारों के बीच में सुलेमान ने पूछा—“सोहल की बीवी को मालूम था कि तुम यहाँ रहते हो ?”
“जी नहीं।”—डोगरा फौरन बोला—“उसे तो यह भी नहीं मालूम था कि मैं मुम्बई में था या काले पानी ?”
“यानी कि सोहल को तुम्हारा यहाँ का पता अपनी बीवी से मालूम हुआ हो, यह नहीं हो सकता।”
“जी हाँ।”
“हूँ।”
सुलेमान कनपटी ठकठकाता, हुँकारें भरता फिर सोच में डूब गया।
“डोगरा”—अन्त में सुलेमान बेहद गम्भीर स्वर में बोला—“इलाहाबाद में एरिक जॉनसन के मैनेजर के तौर पर ‘कम्पनी’ के निजाम में तुम्हारी हैसियत बहुत मामूली थी। तब से आज तक तुम बहुत तरक्की कर चुके हो, इतनी तरक्की कर चुके हो कि बखिया साहब की निगाह में हैडक्वार्टर की सुरक्षा के हकदार बन चुके हो। लेकिन इलाहाबाद की अपनी मैनेजरी के दौरान जो हरकत तुमने की थी, अगर उसे मैंने ऊपर वालों से छुपाकर न रखा होता तो ‘कम्पनी’ में न सिर्फ तुम्हारा कैरियर खत्म हो गया होता, जरूर तुम्हें कोई मुनासिब सजा भी मिलती। ‘कम्पनी’ को धोखा देने के अँजाम से तुम तब भी नावाकिफ नहीं थे।”
“मैं आपका शुक्रगुजार हूँ, सुलेमान साहब”—डोगरा लगभग गिड़गिड़ा पड़ा—“कि उस दुश्वारी की घड़ी में आपने मेरी रक्षा की थी।”
“तुमने ‘कम्पनी’ के पैसे में से पचास हजार रुपये की रकम का घोटाला किया था”—सुलेमान यूँ कहता रहा, जैसे उसने डोगरा की बात सुनी ही नहीं थी—“जो कि तुम्हारी खुशकिस्मती थी कि सिर्फ मेरी निगाहों में आया था। उस रकम को वापस ‘कम्पनी’ में जमा करा देने की मैंने तुम्हें एक हफ्ते की मोहलत दी थी। तुमने एक हफ्ते से पहले ही वह रकम जमा करा दी थी। अपनी उस वक्त की मामूली हैसियत में और उस वक्त के सस्ते जमाने में तुम्हारे लिए पचास हजार की रकम मामूली नहीं थी। होती तो तुमने या तो घोटाला किया ही न होता और या उसकी पोल खुल जाने से पहले रकम वापस जमा कर दी होती। लेकिन तुमने पचास हजार रुपये की रकम खुद मेरे हाथों में रखी थी और अपनी गुनाहबख्शी करवाई थी। उस वक्त मैंने तुमसे यह नहीं पूछा था कि उस रकम का इन्तजाम तुम कैसे कर पाये थे। न ही तब मुझे यह सूझा था कि वह वही रकम थी जिसकी एवज में तुम्हारा वह सरदार एकाउंटेंट दो साल की सजा पा गया था। तब तुमने सिर्फ यह खबर ऊपर भिजवाई थी कि ‘कम्पनी’ के एक कर्मचारी ने पचास हजार रुपये का गबन कर लिया था जिसकी एवज में उसे दो साल की सजा हो गयी थी। इतनी दूर मुम्बई में बैठे हम यह नहीं जान सकते थे कि उस गबन के साथ तुम्हारी उस सरदार की बीवी से आशनाई की कहानी भी जुड़ी हुई थी और यह कि तुमने गरीबमार की थी। तुमने अपने जाती फायदे के लिए एक बेगुनाह आदमी को जेल भिजवाया था। आज वही आदमी तुम्हारी मौत का परकाला बना हुआ है तो तुम्हारा दिल यह कबूल नहीं करना चाहता कि वह वही आदमी है। लेकिन डोगरा, तुम हकीकत को नहीं झुठला सकते। तुम इस हकीकत को भी नहीं झुठला सकते कि तुम उससे डरे हुए हो, वरना तुम यूँ मदद के लिए मेरे पास न आये होते।”
“मैं उससे डरा नहीं हुआ।”—डोगरा तनिक दिलेरी से बोला—“मैं उससे बाखूबी निपट सकता हूँ। मैं उसे मक्खी की तरह मसल सकता हूँ। लेकिन मुझे उसको तलाश करने के लिए ‘कम्पनी’ की मदद चाहिए।”
“हाँ।”—सुलेमान बड़ी संजीदगी से सहमति में सिर हिलाता बोला—“तुम्हें एक ऐसे मामले में ‘कम्पनी’ की मदद चाहिए जो पहले तुम्हारा जाती मामला था, लेकिन जो ‘कम्पनी’ के हैडक्वार्टर पर गोलियाँ बरसने की वजह बन चुका है। ठीक ?”
सुलेमान ने ऐसी तीखी निगाह से उसे देखा कि डोगरा ने घबराकर पलकें झुका लीं।
“बहरहाल तुम्हारे इस जाती मामले से दो-चार होने के तीन तरीके मुमकिन हैं। नम्बर एक”—सुलेमान उसके सामने एक उँगली खड़ी करता बोला—“‘कम्पनी’ की जो मदद तुम चाहते हो, वह तुम्हें मुहैया करा दी जाये। नम्बर दो”—पहली उँगली के साथ एक उँगली और उठी—“हम तुम्हारी जाती दुश्वारी को नजर अन्दाज कर दें और तुम्हें तुम्हारे हाल पर छोड़ दें। यानी कि हम इस बात को ‘कम्पनी’ की दिलचस्पी के काबिल न मानें कि वह आदमी तुम्हें मारता है या तुम उसे मारते हो। नम्बर तीन”—डोगरा के चेहरे के सामने सुलेमान की तीन उँगलियाँ लहराईं—“तुम्हारे इस झमेले को हम ‘कम्पनी’ के लिए खतरा मानें और हम ही तुम्हारी ‘छुट्टी’ कर दें।”
छुट्टी का मतलब डोगरा की समझ से बाहर नहीं था। एकाएक वह सिर से पाँव तक काँप गया। एकाएक उसका गला सूखने लगा और अपनी जुबान उसे अपने मुँह में रखा चमड़े का टुकड़ा मालूम होने लगी।
“इन तीन तरीकों में से हर तरीके के”—सुलेमान आगे बढ़ा—“अपने फायदे हैं, अपने नुकसान हैं। डोगरा, ‘कम्पनी’ ने तुम पर मेहनत की है। तुम्हें ‘कम्पनी’ के काबिल बनाने के लिए तुम पर पैसा खर्च किया है, वक्त खर्च किया है, एक खास तरह की ट्रेनिंग दी है तुम्हें। इलाहाबाद वाले पचास हजार रुपये के घोटाले के अलावा तुमने आज तक ‘कम्पनी’ को कोई शिकायत का मौका नहीं दिया। आज तुम ‘कम्पनी’ के निजाम में बहुत ऊँचे उठ चुके हो और अपनी बड़ी महत्वपूर्ण जगह बना चुके हो। अगर हम पहला तरीका इस्तेमाल में लायें यानी कि जो मदद तुम ‘कम्पनी’ से चाहते हो, वह तुम्हें मुहैया करा दें तो एक तरह से हम अपनी वो मेहनत बचा रहे होंगे जो कि इतने सालों में हमने तुम पर की है।”
“यह आपकी मुझ पर बहुत मेहरबानी होगी, सुलेमान साहब।”—डोगरा व्यग्रभाव से बोला—“मैं आपकी इस मेहरबानी को जिन्दगी भर नहीं भूलूँगा।”
“यह कोई बहुत बड़ी तसल्ली नहीं है तुम्हारे लिए। तुम्हारी जिन्दगी के तो सिर्फ चन्द मिनट बाकी रह गये हो सकते हैं।”
डोगरा के जिस्म में फिर ठण्डक की लहर दौड़ गयी। उस वातानुकूलित कमरे में उसके माथे पर पसीने की बूँदे चुहचुहा आयीं।
“अगर हम दूसरा तरीका इस्तेमाल करें।”—सुलेमान भावहीन स्वर में बोला—“यानी कि हम तुम्हारी जाती दुश्वारी को नजरअन्दाज कर दें और तुम्हें तुम्हारे हाल पर छोड़ दें तो तुम्हारी हार—जो कि तुम्हारी मौत होगी—की सूरत में नुकसान तो हमें यह हो सकता है कि ‘कम्पनी’ के निजाम में से सालों की मेहनत से तैयार किया गया भरोसे का एक आदमी कम हो सकता है, लेकिन तुम्हारी जीत की सूरत में ‘कम्पनी’ की निगाह में तुम्हारी कीमत बढ़ सकती है। आज की तारीख में वह खतरनाक इश्तिहारी मुजरिम सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल अपने-आप में एक आर्गेनाइजेशन माना जाता है। अपराध की दुनिया में वह बहुत नाम कमा चुका है, इतना नाम कमा चुका है कि एक बार खुद बखिया साहब ने ऐसा सोचा था कि उसे तलाश करके ‘कम्पनी’ में शामिल होने की दावत दी जाये लेकिन फिर यह सोचकर यह खयाल मुल्तबी कर दिया गया था कि अभी उसके बुलन्द हौसलों को थोड़ा और परख लिया जाये। ऐसे खतरनाक आदमी के खिलाफ, डोगरा, अगर तुम जीत जाते हो तो यह ‘कम्पनी’ के लिए फख्र की बात होगी। यह इस बात की गारण्टी होगी कि तुम ‘कम्पनी’ के हमारी उम्मीद से ज्यादा काम के आदमी हो और बेहतर पोजीशन के हकदार हो। तुम्हारी जीत तुम्हारी तरक्की की बुनियाद बन सकती है, डोगरा। तुम मेरे बराबर पहुँच सकते हो। तुम मेरे से आगे निकल सकते हो।”
“आपसे बराबरी करने का तो मैं सपना भी नहीं देख सकता सुलेमान साहब।”—डोगरा बड़े विनयशील स्वर में बोला—“लेकिन उस आदमी को मैं बड़ी सहूलियत से खत्म कर सकता हूँ। ‘कम्पनी’ से सिर्फ मुझे उसको तलाश करने के लिए मदद दरकार है। मुझे उसका अता-पता मालूम हो जाये सही, फिर मैं खुद ही उसकी हस्ती मिटा दूँगा।”
“अब तीसरे तरीके के नफे-नुकसान पर आओ।”—सुलेमान बोला, डोगरा के दावों से वह कोई प्रभावित हुआ नहीं मालूम होता था—“डोगरा, तुम्हारी इलाहाबाद की गुस्ताखी को मैंने कवर तो कर दिया था, लेकिन तुम्हारी वह हरकत आज भी मेरे मन को कचोटती है कि क्या मुझे ऐसा करना चाहिए था ? ‘कम्पनी’ के माल पर हाथ डालकर तुमने जो छिछोरापन दिखाया था, क्या उससे यह साबित नहीं होता था कि तुम ‘कम्पनी’ में किसी ऊँचे ओहदे पर पहुँचने के काबिल आदमी तो क्या, ‘कम्पनी’ के काम के ही आदमी नहीं थे ? क्या तुम्हारी तभी ‘छुट्टी’ नहीं कर दी जानी चाहिये थी ?”
“मैंने सिर्फ एक ही गलती की थी।”—डोगरा गिड़गिड़ाया।
“लेकिन वह तुम्हारी एक गलती, जिसके लिए तुम्हें बख्शा भी जा चुका है, आज ‘कम्पनी’ के सामने एक बहुत बड़ा खतरा बन कर आन खड़ी हुई है। वह खतरनाक इश्तिहारी मुजरिम ‘कम्पनी’ के लिए खतरा बन सकता है। उसकी वजह से तुम ‘कम्पनी’ के लिए खतरा साबित हो सकते हो। इस लिहाज से तुम खुद ही सोचो कि तीसरे तरीके पर अमल करने पर क्या ‘कम्पनी’ को फायदा नहीं है ? जिस शख्स से ‘कम्पनी’ को खतरा हो, अगर उस शख्स को खल्लास कर दिया जाये तो क्या वह खतरा टल नहीं जायेगा ?”
डोगरा पत्ते की तरह काँप गया। उसके चेहरे का रंग उड़ गया।
सुलेमान कुछ क्षण खामोश रहा और फिर बोला—“हाँ, तो अब हमने तीन तरीकों में से एक तरीका अख्तियार करना है। ‘कम्पनी’ तुम्हारी मदद करे, तुम्हें तुम्हारे हाल पर छोड़ दे या तुम्हें खल्लास कर दे। मेरे खयाल से मौजूदा हालात में दूसरे तरीके का अमल करना ही मुनासिब होगा। मेरे खयाल से अपने जाती मामलात को तुम्हें खुद ही हैंडल करना चाहिए। ऐसे मामलात में ‘कम्पनी’ का दखल पैदा नहीं होना चाहिए। डोगरा, अगर तुम उस आदमी को खुद ही हैंडल कर सको तो अच्छा है, न कर सको तो वापस मेरे पास आ जाना। तब हम पहले या तीसरे तरीके में से कोई एक चुन लेंगे। ओके ?”
“ओके।”—अपने सूखे गले से डोगरा बड़ी कठिनाई से आवाज निकाल पाया—“लेकिन उसको तलाश करने के लिए ‘कम्पनी’ के आदमियों की मदद...”
“तुम्हें नहीं हासिल होगी।”—सुलेमान सख्ती से बोला—“यह तुम्हारा सिरदर्द है, इसे तुम ही भुगतोगे। ‘कम्पनी’ के पास इतने फालतू आदमी नहीं हैं कि उन्हें तुम्हारी जाती दुश्वारियों को हल करने के लिए लगाया जाये।”
डोगरा के मुँह से बोल न फूटा।
“तुम ‘कम्पनी’ के एक महत्त्वपूर्ण ओहदे पर हो। ‘कम्पनी’ के कामकाज का एक महकमा देखने की जिम्मेदरी तुम पर भी है। उस जिम्मेदारी को अँजाम देने के लिए जो आदमी तुम्हारे साथ या तुम्हारे नीचे काम करते हैं, उन्हें भी अगर तुम इस आदमी की तलाश में लगाओगे तो ‘कम्पनी’ के काम का हर्जा होगा। मेरा मतलब समझ रहे हो न तुम ?”
“ज-जी हाँ। जी हाँ।”—डोगरा फँसे स्वर में बोला—“जी हाँ। समझ रहा हूँ।”
“गुड। कोई और बात ?”
“जी, नहीं। बस। मुझे वक्त देने का शुक्रिया।”
सुलेमान ने मुस्कराते हुए उसका शुक्रिया कबूल किया।
डोगरा अपने स्थान से उठा।
सुलेमान ने उठने का उपक्रम नहीं किया। उठकर उसे डोगरा से हाथ मिलाना पड़ता, जिस जहमत से शायद वह बचना चाहता था।
डोगरा ने उसका मन्तव्य समझकर उसका अभिवादन किया और घूमकर दरवाजे की तरफ बढ़ा।
“और, डोगरा”—एकाएक सुलेमान यूँ बोला, जैसे कोई भूली बात याद आ गयी हो—“एक बात और।”
डोगरा ठिठका, घूमा, उसने सशंक भाव से सुलेमान की तरफ देखा।
“मौजूदा हालात में तुम्हारा होटल में रहना मुनासिब नहीं होगा।”—सुलेमान बोला—“होटल पर गोलियों की बौछार होने की जो घटना आज घटी है, वह होटल की नेकनामी पर धब्बा लगा सकती है। ऐसी कोई और घटना घट गयी तो बखिया साहब का कहर तुम्हारे साथ-साथ मुझ पर भी टूट पड़ेगा। इस पहली घटना को ही कवर करने के लिए खुदा जाने मुझे क्या कुछ करना पड़ेगा ! कहने का मतलब यह है कि जब तक यह मामला आर या पार नहीं हो जाता, तुम्हारी हार जीत का कोई फैसला नहीं हो जाता, तब तक तुम्हें कहीं और जाकर रहना होगा।”
डोगरा के मुँह से बोल न फूटा। वह केवल सहमति में सिर हिला पाया।
“वैसे तुम्हारा सूइट तुम्हारे लिए रिजर्व रहेगा। जब तुम अपनी जीत की खबर लेकर आओगे तो तुम्हें फिर उसमें रहने की इजाजत दे दी जायेगी। समझ गये ?”
“जी हाँ।”
“और होटल से विदा होते समय सुरंग वाला खुफिया रास्ता इस्तेमाल करना। इसमें तुम्हारी ही भलाई है। अगर कोई आदमी तुम्हारी खातिर होटल की निगरानी कर रहा होगा तो उसे मालूम नहीं हो पायेगा कि तुम होटल से कूच कर चुके हो। ओके ?”
“यस, सर !”
सुलेमान फिर न बोला।
डोगरा उसका दोबारा अभिवादन करके मन-मन के कदम रखता वहाँ से विदा हो गया।
कैसी अजीब बात थी ? अपनी मुश्किलों का कोई हल ढूँढ़ने वह वहाँ आया था और अपनी मुश्किलों को दोबाला करके वहाँ से लौट रहा था।
विमल नीलम के साथ अपने सूईट में बैठा था और आधी रात होने की प्रतीक्षा कर रहा था।
डोगरा के कमरे तक पहुँचने की एक बड़ी खतरनाक योजना वह बना चुका था, जिस पर अमल करने के लिए वह आधी रात होने की प्रतीक्षा कर रहा था।
डोगरा जिस बाल्कनी पर प्रकट हुआ था, उसकी स्थिति उसे अच्छी तरह से याद थी। बाद में उसने बाहर से बाल्कनियाँ गिन कर इस बात की तसदीक भी कर ली थी कि वह होटल के उस विंग की बायीं ओर से आठवीं बाल्कनी थी।
बनती इमारत में से विमल ने एक बात नोट की थी कि हर बाल्कनी के पीछे रोशनी नहीं थी। उसने चार-पाँच बाल्कनियाँ ऐसी देखी थीं जो अन्धेरे में डूबी हुई थीं और कार जलने के हंगामे के बावजूद उनमें न कोई रोशनी प्रकट हुई थी और न कोई शख्स कमरे से निकलकर बाहर बाल्कनी में आया था।
वैसी एक बाल्कनी उनके आठवीं मंजिल पर स्थित सूइट के एकदम नीचे थी।
तब से काफी पहले विमल बाजार से एक नायलॉन की लम्बी, पतली लेकिन मजबूत रस्सी, एक रबड़ चढ़ा लोहे का हुक और अपने पहनने के लिए एक एकदम स्याह काली पोशाक खरीद लाया था। पोशाक में एक कॉटन का काला थैला भी शामिल था जिसमें आँखों की जगह दो छेद काटकर उसने उसे नकाब की सूरत दे दी थी।
जो कुछ वह करने जा रहा था, उससे नीलम बुरी तरह से त्रस्त थी लेकिन क्योंकि वह यह भी जानती थी कि विमल अपनी हठ छोड़ने वाला नहीं था, इसलिए बड़े सस्पेंसभरे वातावरण में वह एकदम खामोश बैठी रही थी।
आधी रात के बाद विमल ने अपनी बाल्कनी में से बाहर झाँका।
नीचे से आग से स्वाहा हुई कार हटाई जा चुकी थी। फायर ब्रिगेड वाले आग बुझाकर कब के जा चुके थे। पुलिस भी घटनास्थल पर आयी थी और तफ्तीश की औपचारिकता पूरी करके जा चुकी थी। नीचे अब एकदम सन्नाटा था। इमारत के दोनों कोनों पर पहले उसने कुछ आदमी टहलते देखे थे, लेकिन अब वहाँ उनमें से दो ही रह गये थे, जो दोनों कोनों पर मौजूद थे, बाकी आदमी जा चुके थे। वे दोनों सावधानी के लिए वहाँ तैनात किये गये मालूम होते थे। अब रात के समय बिना मुनासिब शिनाख्त के किसी का बनती इमारत की तरफ बढ़ पाना सम्भव नहीं था।
दूसरी मंजिल की जो बाल्कनी विमल का लक्ष्य थी, उसमें अभी भी अन्धेरा था।
होटल में मोटे तौर पर सन्नाटा छाया हुआ था। उसकी फालतू बत्तियाँ बुझाई जा चुकी थीं। फाईव स्टार होटल की गहमा गहमी भरी जिन्दगी के एक और रोज का समापन लगभग हो चुका था।
विमल ने अपनी काली पोशाक पहन ली। वह पोशाक थी काली जींस, काला हाईनैक का पुलोवर, काली नकाब, काली गोल्फ कैप, काले दस्ताने और काली अँगूठे वाली जुराबें। जूते उसने नहीं पहने थे, रिवॉल्वर उसने पतलून की पिछली जेब में रख ली थी।
हुक को उसने पहले ही रस्सी के साथ मजबूती से बाँध लिया था।
रस्सी का रंग भी काला था।
विमल ने हुक को बाल्कनी की रेलिंग के साथ मजबूती से अटकाया और धीरे-धीरे रस्सी नीचे लटका दी। रस्सी का दूसरा सिरा दूसरी मंजिल से भी थोड़ा आगे पहुँच गया। विमल कुछ क्षण प्रतीक्षा करता रहा, कोई प्रतिक्रिया होती न पाकर उसने आँखों ही आँखों में नीलम को आश्वासन दिया और रस्सी के सहारे बाल्कनी से बाहर लटक गया।
नीलम बाल्कनी के फर्श पर बैठ गयी। हुक हालाँकि रेलिंग पर से सरकने वाला नहीं था, फिर भी उसने उस पर अपने दोनों हाथ रख लिये।
एक विशाल काली मकड़ी की तरह रस्सी के सहारे सपाट दीवार पर सरकता विमल नीचे बढ़ता रहा। हर फ्लोर पर एक बाल्कनी के पहलू से वह गुजर रहा था लेकिन कहीं से कोई विघ्न-बाधा सामने नहीं आयी थी।
वह दूसरी मंजिल की बाल्कनी तक निर्विघ्न पहुँच गया।
बाल्कनी के भीतर खड़े होकर उसने रस्सी को दो झटके दिये।
नीलम ने हौले-हौले रस्सी वापस खींच ली।
विमल बाल्कनी के बन्द दरवाजे के पास पहुँचा।
उसने हैंडल घुमाकर दरवाजे को भीतर को धक्का दिया तो पाया कि दरवाजा भीतर से बन्द नहीं था।
उसने दरवाजे को थोड़ा-सा खोला। दरवाजा एक बार हौले से चरमराया और फिर खामोश हो गया। उसने भीतर कदम रखा और सावधानी से अपने पीछे दरवाजा भिड़का दिया।
जैसी कि उसे उम्मीद थी, वह बैडरूम था।
वह एक ही कदम और आगे बढ़ा था कि एकाएक ठिठक गया।
उसे लगा कि बैडरूम खाली नहीं था।
पलंग पर से बड़े व्यवस्थित ढंग से चलती किसी की साँसों की आवाज आ रही थी।
उसने कान लगाकर सुना तो उसे अहसास हुआ कि उन साँसों की आवाज डबल थी।
वह पशोपेश में पड़ गया।
जिस सूइट को वह खाली समझकर आया था, वह खाली नहीं था। वह पहले खाली था तो अब खाली नहीं था।
अब क्या करे वो ?
क्या वापस लौट जाये ?
नहीं। वहाँ तक पहुँच जाने के बाद अब वापस लौटने की कोई तुक नहीं थी।
उसने गलियारे में झाँकने का फैसला किया।
वह दबे-पाँव बाहर के कमरे के दरवाजे की तरफ बढ़ा।
अभी वह दरवाजे की चौखट तक ही पहुँचा था कि एकाएक बैडरूम में विशाल पलंग के दोनों पहलुओं में रखे दो टेबल लैम्पों में से एक जल पड़ा।
विमल ने फुर्ती से रिवॉल्वर निकालकर हाथ में ले ली और घूमकर पलंग की तरफ देखा।
एक कमर तक नंगी नौजवान लड़की पलंग पर बैठी थी और फटी-फटी आँखों से उसकी तरफ देख रही थी।
उसके समीप एक आदमी बड़ी चैन की नींद में सोया पड़ा था।
लड़की का मुँह एकाएक खुला। विमल समझ गया कि वह चीखने लगी थी। उसने रिवॉल्वर वाला हाथ उसकी तरफ तान दिया और कहरभरी निगाहों से घूरते हुए उसे चुप रहने का संकेत किया।
गला फाड़कर चिल्लाने को तत्पर लड़की की चीख उसके गले में घुटकर रह गयी, लेकिन फिर उसके गले से जो थोड़ी बहुत घरघराहट निकली, वह कमरे के स्तब्ध वातावरण में बहुत जोर से गूँजी।
आदमी ने करवट बदली और बड़ी मेहनत से आँखें खोलीं उसने अपनी नींद से भरी आँखों से लड़की तरफ देखा।
लड़की ने बड़े आतंकित भाव से अपनी एक उँगली विमल की तरफ उठा दी।
उस आदमी ने विमल की तरफ देखा। एक क्षण के लिए उसके चेहरे पर ऐसे असमंजस के भाव आये जैसे वह फैसला न कर पा रहा हो कि जो कुछ वह देख रहा था, वह हकीकत थी या सपना था। फिर एकाएक उसकी आँखों से नींद उड़ गयी। वह तनिक ऊँचा हुआ, उसने एक तकिये के नीचे हाथ डालने की कोशिश की।
“खबरदार !”—विमल दो कदम आगे बढ़ आया और रिवॉल्वर उसकी तरफ तानता हुआ बोला।
उस आदमी का हाथ रास्ते में ही ठिठक गया।
वह अपलक विमल को देखने लगा।
लड़की ने एक कम्बल अपनी तरफ खींच लिया था और उसका एक किनारा अपने दोनों हाथों से अपनी ठोड़ी के नीचे जकड़कर अपनी नंगी छातियों को ढंक लिया था।
“कौन हो तुम ?”—वह आदमी बड़ी दिलेरी से बोला—“तुम भीतर कैसे घुसे ?”
“मैं काला पहाड़ का सब्ज गुलजार हूँ।”—विमल सहज भाव से बोला—“और भीतर इस बाल्कनी के रास्ते घुसा हूँ जिसका दरवाजा खुला था।”
उस आदमी को तुरन्त कोई दूसरा सवाल न सूझा।
“जैसी शराफत से मैंने तुम्हारे दोनों सवालों का जवाब दिया है”—विमल बोला—“उम्मीद है वैसी शराफत से अब तुम मेरे सवालों का जवाब दोगे।”
“तुम हो कौन ?”
“बताया तो ! मैं तुम्हारे बाप काला पहाड़ का नजदीकी रिश्तेदार हूँ। सब्ज गुलजार।”
“तुम यहाँ से बचकर नहीं जा सकते।”
“अभी तो मैं यहाँ आया हूँ। जाने की बात मैं जाते वक्त सोचूँगा।”
“तुम बचकर नहीं जा सकते।”—उस आदमी ने फिर अपनी धमकी दोहराई।
“अच्छा ! कौन रोकेगा मुझे ? तुम ? या तुम्हारी यह बुढ़ापे की आँच ?”
“तुम ...तुम...”
“हो कौन ?”—विमल ने उसका फिकरा पूरा किया—“मौजूदा हालात में इससे बेहतर सवाल तुम्हें नहीं सूझ सकता। अब अगर”—एकाएक विमल का स्वर बेहद कर्कश हो उठा—“अपनी खैरियत चाहते हो तो अपनी बकवास बन्द करो और जो मैं पूछूँ, उसका जवाब दो।”
“तुम जानते नहीं हो कि तुम किससे मुखातिब हो और कहाँ घुस आये हो ! अगर तुम अपनी खैरियत चाहते हो तो...”
विमल ने गोली चला दी।
गोली उस आदमी की गरदन से थोड़ा उपर पलंग की पीठ में धँस गयी।
विमल की उस अप्रत्याशित हरकत का उस आदमी पर फौरन असर हुआ। उसके चेहरे का रंग उड़ गया और वह यूँ बद्हवास-सा रिवॉल्वर की नाल की तरफ देखने लगा जैसे निगाहों से ही वह उसमें से निकलने वाली अगली गोली को वापस धकेल सकता हो।
आतंक से लड़की की आँखें बन्द हो गयीं।
“पहले तुम फैसला करो”—विमल क्रूर स्वर में बोला—“कि तुम अपनी खैरियत चाहते हो या नहीं”
उसने जोर से थूक निगली।
“मैंने तेरे से एक सवाल पूछा है, हरामजादे !”
“चा-चाहता हूँ। चाहता हूँ।”
“गुड ! बिस्तर से निकलो और कपड़े पहनो।”
उस आदमी ने विमल के आदेश का पालन किया, लेकिन बिस्तर से निकलने से पहले उसने हाथ बढ़ाकर समीप ही पड़ी एक कुर्सी की पीठ पर से अपना ड्रैसिंग उठाया और फिर बिस्तर से निकला।
उसने ड्रैसिंग गाउन पहन लिया।
“उधर दीवार के साथ लगकर खड़े हो जाओ।”
उस आदमी ने फौरन वैसा ही किया।
“तुम भी।”—विमल युवती की तरफ घूमा—“तुम भी बिस्तर से बाहर निकलो।”
“म-मेरे कपड़े !”—वह हकलाती हुई बोली।
“कहाँ हैं ?”
उसने एक कोने में पड़े एक सोफे की तरफ इशारा किया।
विमल उस आदमी की तरफ से निगाह हटाए बिना सोफे तक पहुँचा। उसने लड़की के कपड़े उठाए और उनका एक गोला-सा बनाकर उन्हें लड़की की तरफ उछाल दिया।
कपड़ों का गोला लड़की की छाती से टकराता उसकी गोद में जाकर गिरा।
“कपड़े पहनो।”—विमल बोला—“और अपने साहब की बगल में जाकर खड़ी हो जाओ।”
“त-तुम-तुम...”
“क्या तुम ?”
“तुम उधर मुँह फेरो।”
“क्यों ?”
“ताकि मैं उठकर कपड़े पहन लूँ।”
“क्या कहने ! ज्यादा नखरे मत करो, वरना ऐसे ही बाँह पकड़कर साहब की बगल में खड़ी कर दूँगा।”
उसके शरीर ने जोर से झुरझुरी ली।
“सुना नहीं !”—विमल घुड़ककर बोला।
लड़की ने मजबूरन कम्बल की ओट छोड़ दी। उसने निगाहें नीचे गड़ाए-गड़ाए पहले अपनी अँगिया पहनी, फिर ब्लाउज पहना, फिर पेटीकोट को कम्बल के नीचे कहीं ले जाकर पहना और फिर पलंग से उतरकर साड़ी बाँधी। उसके बाद वह विमल से दोबारा कहलवाए बिना आदमी की बगल में जा खड़ी हुई।
विमल पलंग पर पहुँचा। सबसे पहले उसने उस तकिये को उठाया जिसके नीचे उस आदमी ने उसे देखते ही हाथ डालने की कोशिश की थी।
वहाँ एक नन्ही-सी पिस्तौल मौजूद थी।
विमल ने पिस्तौल अपने अधिकार में कर ली।
फिर वह बड़े इत्मीनान से पलंग पर बैठ गया।
“अपना नाम बोलो।”—उसने आदमी को आदेश दिया।
“शान्तिलाल।”—वह आदमी बड़ी बेबसी से विमल की तरफ देखता हुआ बोला।
“और तुम्हारा क्या नाम है ?”
“सिल्विया।”—वह बोली।
“तुम कौन हो ?”
उसने उत्तर नहीं दिया।
“काल-गर्ल !”—विमल बोला।
उसने शान्तिलाल की तरफ देखा।
“यह प्रोफेशनल नहीं।”—शान्तिलाल बड़े दयनीय स्वर में बोला।
“ओह ! तो फिर क्या चीज है यह ? तुम्हारी बीवी ?”
“यह ‘कम्पनी’ की होस्टेस है।”
“और तुम ? तुम क्या हो ‘कम्पनी’ के ?”
“मैं ‘कम्पनी’ के एक जिम्मेदारी के ओहदे पर हूँ।”
“और तुम्हारे जैसे ‘कम्पनी’ के अफसरान को ऐसी होस्टेसें फ्री एण्टरटेन करती हैं ?”
“हमेशा नहीं।”
“तो ?”
“जब हम कोई काबिलेतारीफ काम करके दिखाते हैं।”
“ओह ! तो हाल ही में तुमने कोई काबिलेतारीफ काम करके दिखाया है ?”
“हाँ।”
“और यह—सिल्विया—तुम्हारा इनाम है ?”
“हाँ।”
“यह इनाम तुम लोगों कौन देता है ? खुद बखिया ?”
बखिया का नाम विमल के मुँह से सुनकर उसके चेहरे पर हैरानी के भाव उभर आये।
विमल ने चेतावनीभरे ढंग से अपना रिवॉल्वर वाला हाथ ऊँचा किया।
“न-नहीं। नहीं।”
“तो ?”
“मुहम्मद सुलेमान। हमारा बॉस वो है ?”
“और उसे ऐसा इनाम कौन देता है।”
“उसे ऐसे इनामों की जरूरत नहीं होती। उसको ऐसी सारी चीजें परमानैंट मिली होती हैं।”
“आई सी।”—विमल ने एक सरसरी निगाह शान्तिलाल के इन्तहाई शानदार इनाम पर डाली और फिर बोला—“तुम ज्ञानप्रकाश डोगरा को जानते हो ?”
शान्तिलाल ने सहमति में हिलाया।
“तुम्हारी इस ‘कम्पनी’ में उसका ओहदा क्या है ?”
“वही, जो मेरा है।”
“यानी कि तुम दोनों का बॉस मुहम्मद सुलेमान है ?”
“हाँ।”
“ऐसा इनाम डोगरा को भी सुलेमान से हसिल होता होगा ?”
“हाँ।”
“उसका कमरा नम्बर बोलो।”
शान्तिलाल हिचकिचाया।
“देखो।”—विमल कहरभरे स्वर में बोला—“मेरे सब्र का इम्तहान मत लो। और यह बात याद रखो, तसल्ली के तौर पर याद रखो कि मेरी तुम्हारे साथ कोई अदावत नहीं है। मैं किसी पूर्वनिर्धारित योजना से तुम्हारे कमरे में नहीं आया। महज इत्तफाक मुझे यहाँ ले आया है इसलिए क्यों खामखाह अपनी और अपने इनाम की जान हलकान करना चाहते हो ?”
“दो सौ आठ।”—शान्तिलाल फौरन बोला।
“गलियारे में कमरों के नम्बर कौन से सिरे से शुरु होते हैं ?”
“बायें से।”
“कहाँ से शुरू होते हैं ?”
“दो सौ एक से।”
विमल को वह सच बोलता लगा। उसके कथन की पुष्टि उसकी अपनी गोलमोल तफ्तीश से भी एक लिहाज से होती थी।
फिर विमल का ध्यान मेज पर रखे दो फोनों की तरफ आकर्षित हुआ।
“ये दो फोन कैसे हैं ?”—उसने पूछा।
“एक बोर्ड से एक्सटेंशन है।”
“और दूसरा ? किस्तों में जवाब मत दो।”
“दूसरा ऑटो है।”
“वैसा ऑटो डोगरा के पास भी होगा ?”
“हाँ।”
“उसे ऑटो पर फोन करो।”
“इस वक्त ?”
“हाँ। और यह मत कहना कि तुम्हें उसका नम्बर नहीं मालूम या नम्बर तुम्हें भूल गया है। अगर तुम उसका नम्बर भूल गये तो हो सकता है मैं यह भूल जाऊँ कि रिवॉल्वर का घोड़ा खींचने से गोली चल पड़ती है।”
“लेकिन इस वक्त तो...”
“इसी वक्त।”—विमल गुर्राया—“वह तुम्हारे बराबर के ओहदे का आदमी है, तुम्हारा बाप नहीं। फोन करो।”
शान्तिलाल हिचकिचाता हुआ पलंग के समीप पहुँचा। बड़े अनिच्छापूर्ण भाव से उसने एक टेलीफोन का रिसीवर उठाया।
विमल ने दूसरे टेलीफोन का रिसीवर उठाकर कान से लगाया।
“यस सर।”—तुरन्त स्विच बोर्ड ऑपरेटर का आदरपूर्ण स्वर उसके कान में पड़ा।
विमल ने रिसीवर वापस रख दिया।
शान्तिलाल ने सही टेलीफोन का रिसीवर उठाया था।
“नम्बर मिलाओ।”—विमल बोला—“लेकिन खबरदार ! तुम्हारे मुँह से आवाज न निकले। उधर से डोगरा की आवाज आते ही फोन रख देना।”
शान्तिलाल ने सहमति में सिर हिलाया और फिर एक नम्बर मिलाया।
“घण्टी जा रही है।”—शान्तिलाल बोला—“उधर से कोई फोन नहीं उठा रहा।”
“डिस्कनैक्ट करके फिर मिलाओ।”
शान्तिलाल ने आदेश का पालन किया।
लेकिन उसने फिर वही जवाब दिया कि घण्टी जा रही थी, लेकिन कोई फोन नहीं उठा रहा था।
विमल ने उससे रिसीवर लेकर अपने कान से लगाया।
वह सच कह रहा था। घण्टी जाने की टोन इयरपीस में से आ रही थी।
“ऐसा हो सकता है कि वह जान-बूझकर फोन न उठाए ?”—उसने रिसीवर शान्तिलाल को वापस थमाते हुए पूछा।
“नहीं।”—शान्तिलाल बोला।
“क्यों ?”
“क्योंकि फोन सुलेमान का भी हो सकता है।”
“तो फिर फोन खराब होगा ?”
“वह अपने कमरे में नहीं होगा।”
विमल सोचने लगा। ग्यारह बजे तक तो उसने और नीलम ने शिफ्टों में लॉबी की निगरानी की थी। तब तक तो वह होटल से बाहर कहीं गया नहीं था। उसकी बाल्कनी पर हुई गोलियों की बौछार की रू में होटल से बाहर कदम रखने की हिम्मत तो वह शायद ही करता।
जरूर वह कमरे में ही था। या तो वह किसी वजह से जान-बूझकर फोन नहीं उठा रहा था और या फिर फोन खराब था।
“टेलीफोन रख दो।”—विमल ने आदेश दिया।
शान्तिलाल ने ऐसा ही किया।
“ऐसा इनाम”—विमल ने सिल्विया की तरफ संकेत किया—“अगर डोगरा को अभी मिल जाये तो क्या उसे हैरानी होगी ? क्या वह इनाम को हासिल करने से इन्कार कर देगा ? ऐसे शानदार इनाम को हासिल करने से इन्कार कर देगा ?”
“नहीं। लेकिन बाद में वह सुलेमान साहब से उस मेहरबानी की वजह जरूर पूछेगा।”
“बाद को छोड़ो। अगर यह इनाम अभी उसे हासिल हो जाये तो वह क्या करेगा ?”
“वह बाज की तरह इनाम पर झपट पड़ेगा।”
“गुड। अब रूम सर्विस को फोन करो।”
“किसलिए ?”
“बेहतरीन स्कॉच विस्की की एक बोतल और एक तन्दूरी चिकन मंगाओ।”
“इस वक्त ?”
“क्या हुआ है इस वक्त को ? तुम बूढ़े आदमी हो, जो आधी रात होते ही इतनी शानदार लड़की के पहलू से लगकर सो गये। तुम्हारी जगह कोई नौजवान होता तो इसके साथ उसकी पलक न झपकती। तब क्या आधी रात के बाद उसका ह्विस्की और चिकन का ऑर्डर अजीब लगता ?”
“अच्छी बात है।”—शान्तिलाल गहरी साँस लेकर बोला—“करता हूँ फोन।”
उसने फोन किया और निरन्तर अपनी ओर तनी रिवॉल्वर की धमकी में ऑर्डर दोहरा दिया।
“अब मुझे बाथरूम दिखाओ।”—विमल ने नया आदेश दिया।
शान्तिलाल ने बैडरूम की ही पिछली दीवार में बने एक बन्द दरवाजे की ओर संकेत कर दिया।
“साथ चलो।”
शान्तिलाल भारी कदमों से उस दरवाजे की तरफ बढ़ा।
“मैं अभी वापस आ रहा हूँ।”—विमल खा जाने वाली निगाहों से लड़की को घूरता हुआ बोला—“मेरे लौटने पर अगर तुम मुझे अपनी जगह से एक इंच भी सरकी दिखाई दीं तो मैं तुम्हारे इस खूबसूरत जिस्म की तिक्का-बोटी एक करके चील-कव्वों को खिला दूँगा।”
सिल्विया यूँ सिर से पाँव तक काँपी जैसे उसकी तिक्का-बोटी एक करने को कलाल उसके सामने खड़ा हो।
विमल शान्तिलाल के पीछे हो लिया।
आधे रास्ते में उसने वापस घूमकर देखा।
सिल्विया बुत बनी यथास्थान खड़ी थी।
शान्तिलाल बाथरूम के दरवाजे पर पहुँचा। विमल के संकेत पर उसने दरवाजा खोला और भीतर कदम रखा।
विमल ने फुर्ती से रिवॉल्वर को नाल की तरफ से थाम लिया और उसका एक भरपूर प्रहार उसकी खोपड़ी के पृष्ठ भाग पर किया।
शान्तिलाल के मुँह से कराह निकली और वह दरवाजे पर ही ढेर हो गया।
विमल ने झुककर उसकी नब्ज टटोली और उसकी अब तक उलट चुकी आँखों का मुआयना किया।
वह जल्दी होश में आने वाला नहीं था।
फिर भी सावधानीवश विमल ने एक प्रहार उसकी कनपटी पर भी रसीद कर दिया। उसने उसे दरवाजे की चौखट पर से धकेलकर बाथरूम के भीतर किया और बाहर से दरवाजा बन्द दिया।
वह वापस लौटा।
सिल्विया निश्चेष्ट खड़ी फटी-फटी आँखों से उसे देख रही थी।
तभी काल-बैल बजी।
“पूछो, कौन है ?”—विमल ने आदेश दिया।
“कौन ?”—सिल्विया उच्च स्वर में बोली।
“रूम सर्विस, मैडम।”—बाहर से आवाज आयी।
“जाकर दरवाजा खोलो”—विमल उसके फूल जैसे नाजुक एक कपोल को रिवॉल्वर की नाल से टहोकता हुआ बोला—“और वेटर को भीतर बुलाओ। अगर तुमने यहाँ से फूटने की कोशिश की, मेरा मतलब है, अगर तुमने वेटर की सूरत में अपना हिमायती आया पाकर उसके साथ ही यहाँ से खिसक जाने की कोशिश की या उसे भीतर की स्थिति का किसी तरह का संकेत देने की कोशिश की तो याद रखना, मैं चौखट से बाहर की तरफ तुम्हारा कदम उठते ही तुम्हें शूट कर दूँगा। समझ गयीं ?”
उसने जल्दी-जल्दी सहमति में सिर हिलाया।
“अब जाकर दरवाजा खोलो और वेटर को यहाँ लेकर आओ।”
वह फौरन दरवाजे की तरफ बढ़ गयी।
विमल ने बैडरूम के दरवाजे की ओट ले ली। रिवॉल्वर की नाल को उसने सिल्विया की पीठ की तरफ तान दिया।
सिल्विया ने दरवाजा खोला।
चौखट पर हाथ में ट्रे लिए एक नौजवान वर्दीधारी वेटर खड़ा था। ट्रे में एक अर्द्धवृत्ताकार ढक्कन से ढकी हुई एक प्लेट थी, एक ह्विस्की की बोतल थी, एक सोडा साइफन था, एक आइस बकेट थी और दो गिलास थे।
ट्रे के दो गिलास इस बात की तरफ इशारा कर रहे थे कि या तो वेटर को शान्तिलाल साहब को उस रात मिले इनाम की खबर थी या फिर दूसरी मंजिल के साहब लोगों के कमरों में रात के वक्त लड़कियों की मौजूदगी वहाँ की आम बात थी। सिल्विया ने वेटर को भीतर आने का संकेत किया। वेटर भीतर दाखिल हुआ। दरवाजे पर ऑटोमैटिक डोर क्लोजर लगा होने की वजह से सिल्विया के उसको छोड़ते ही वह अपने-आप बन्द हो गया।
सिल्विया ने वेटर को बैडरूम की तरफ चलने का संकेत किया और स्वयं उसके पीछे-पीछे चल दी।
दोनों आगे-पीछे चलते हुए, विमल की बगल से गुजरते हुए बैडरूम में दाखिल हुए।
वेटर ने आगे बढ़कर ट्रे मेज पर रख दी।
सिल्विया उससे परे हो गयी और फटी-फटी आँखों से विमल की तरफ देखने लगी।
विमल आगे बढ़ा।
तभी वेटर वापस घूमा। उसके चेहरे पर पहले से ही मौजूद आतंक के भावों से लगता था कि किसी प्रकार उसे अपने सिर पर मंडराते खतरे का इलहाम हो गया था।
“खबरदार !”—विमल साँप की तरह फुँफकारा—“मुँह से आवाज न निकले।”
आवाज तो उसके मुँह से क्या निकलती, उसकी सूरत से तो ऐसा लग रहा था जैसे उसका हार्ट फेल हो जाने वाला था।
“वर्दी उतारो।”—विमल ने आदेश दिया—“दोबारा न कहना पड़े।”
वेटर ने फौरन आदेश का पालन किया।
अब वह अण्डरवियर और बनियान पहने विमल के सामने खड़ा था।
विमल उसके समीप पहुँचा।
पलंग के समीप कालीन बिछे फर्श पर शान्तिलाल के स्लीपर पड़े थे।
“स्लीपर उठाओ।”—विमल बोला।
वेटर स्लीपर उठाने को झुका।
विमल ने एक भीषण प्रहार उसकी खोपड़ी पर किया।
वह फौरन बेहोश होकर विमल के कदमों में लोट गया।
विमल उसे भी शान्तिलाल के साथ बाथरूम में बन्द कर आया। वापस आकर उसने अपने कपड़ों के ऊपर ही वेटर की यूनिफॉर्म पहन ली।
“बाहर गलियारे में कोई सन्तरी जैसा जीव तो नहीं तैनात होता ?”—विमल ने लड़की को घूरते हुए पूछा।
सिल्विया ने इन्कार में सिर हिलाया।
“सच कह रही हो ?”
सिल्विया ने पहले से ज्यादा जोर से सिर हिलाकर हामी भरी।
विमल ने सिर से गोल्फ कैप उतारकर, लेकिन चेहरे से नकाब उतारे बिना ही, वेटर की पगड़ी अपने सिर पर रख ली। उसने अपने काले दस्ताने उतारकर गोल्फ कैप के साथ वेटर की वर्दी की एक जेब में ठूँस लिए और पैरों में जुराबों के ऊपर वेटर के जूते पहन लिए। जूते उसे बड़े थे, लेकिन उसने कौन-सा दो-चार मील चलना था !
वह ट्रे के पास पहुँचा। उसने अर्द्धवृत्ताकार ढक्कन को प्लेट पर से उठाया और प्लेट में मौजूद तन्दूरी चिकन को पलंग पर फेंक दिया। उसने प्लेट में अपनी रिवॉल्वर रखी और ढक्कन वापस प्लेट पर रख दिया।
शान्तिलाल की खिलौना-सी पिस्तौल उसने वेटर की वर्दी की जेब में रख ली थी।
उसने ट्रे उठा ली और सिल्विया से बोला—“चलो।”
“क-कहाँ ?”—वह फँसे स्वर में बोली।
“बाहर गलियारे में और फिर डोगरा के कमरे में। तुम और इस ट्रे में लदा माल डोगरा का इनाम है।”
“वह सवाल करेगा।”
“तुम कभी पहले उसे इनाम में मिल चुकी हो ?”
सिल्विया ने बड़ी शर्मिन्दगी महसूस करते हुए सहमति में सिर हिलाया।
“फिर तो वह तुम्हें और तुम्हारी आवाज को बाखूबी पहचानता होगा ?”
उसने फिर हामी भरी।
“यानी कि तुम्हें आया जानकर दरवाजा तो वह तुम्हें खोलेगा ही खोलगा। ठीक ?”
“हाँ।”
“गुड। एक बार दरवाजा खुल जाने के बाद मैं उसे सवाल करने के काबिल नहीं छोडूँगा।”
“तुम..तुम... क ...कौन हो ?”
“अच्छा ! तुम्हें भी सूझ गया यह सवाल पूछना !”—विमल व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला।
वह खामोश रही।
“मैं अमिताभ बच्चन हूँ और तुम उस फिल्म की साइड हीरोइन हो जिसकी कि यह शूटिंग हो रही है।”
उसने व्याकुल भाव से विमल की तरफ देखा।
“चलो।”—विमल फिर बोला।
वह तुरन्त आगे बढ़ी।
विमल ट्रे उठाए उसके पीछे-पीछे चलने लगा।
दोनों ने सूइट से बाहर कदम रखा।
“कोई होशियारी दिखाने की कोशिश मत करना।”—विमल चेतावनीभरे स्वर में बोला—“मैं पलक झपकते ही ढक्कन के नीचे से रिवॉल्वर निकालकर तुम्हें शूट कर सकता हूँ।”
“मेरा होशियारी दिखाने का कोई इरादा नहीं।”—वह फँसे स्वर में बोली—“मुझे अपनी जान बहुत प्यारी है।”
“गुड। तुम आगे-आगे चलो। लेकिन तेज चलकर मेरे और अपने बीच फासला बढ़ाने की कोशिश मत करना।”
“अच्छा।”
“चलो।”
गलियारा खाली था और रात के उस वक्त उसमें नीमअँधेरा था। वहाँ की तेज बत्तियाँ बुझाई जा चुकी थीं।
गलियारा अगर खाली न होता तो विमल के चेहरे पर चढ़ी काली नकाब उसके लिए समस्या बन सकती थी लेकिन विमल ने गलियारे में नकाब दिखाने और लड़की को अपनी सूरत दिखाने के दो खतरों में से एक को चुनना था और उसने पहले को चुना था।
वे निर्विघ्न दो सौ आठ नम्बर कमरे के दरवाजे के सामने पहुँच गये।
विमल के संकेत पर सिल्विया ने काल-बैल बजाई।
भीतर से उत्तर न मिला।
थोड़ी देर बाद उसने फिर काल-बैल बजाई।
जवाब नदारद।
“जरा दरवाजा चैक करो।”—विमल सिल्विया के कान में फुसफुसाया।
सिल्विया ने हैंडल घुमाकर दरवाजे को भीतर को धक्का दिया।
दरवाजा खुला था।
विमल के संकेत पर उसने दरवाजे को थोड़ा और ज्यादा खोल दिया। दोनों ने भीतर कदम रखा। उसके पीछे दरवाजा अपने आप बन्द हो गया।
भीतर घुप्प अँधेरा था।
“वह भीतर मालूम नहीं होता।”—सिल्विया फुसफुसाई।
“खामोश !”—विमल दाँत भींचकर बोला।
उसने ट्रे को धीरे से फर्श पर रख दिया, अँधेरे में ही टटोलकर प्लेट का ढक्कन उठाया और नीचे से रिवॉल्वर निकालकर हाथ में ले ली।
“कोई बत्ती जलाओ।”—विमल फुसफुसाया।
उस मंजिल में सभी सूइट एक जैसे थे, इसलिए सिल्विया को मालूम था कि स्विचबोर्ड कहाँ था। उसने एक स्विच दबाया।
तुरन्त ड्राइंगरूम में रोशनी फैल गयी।
ड्राइंगरूम खाली पड़ा था।
विमल ने दरवाजे को भीतर से चिटकनी लगा दी। उसने रिवॉल्वर की नाल से सिल्विया की पसलियों को टहोका। सिल्विया आगे बढ़ी। उसकी ओट लेता विमल भी आगे बढ़ा।
वे बैडरूम की चौखट पर पहुँचे।
विमल के संकेत पर सिल्विया ने वहाँ की भी एक बत्ती जलाई।
बैडरूम भी खाली था।
विमल बाथरूम में और बाल्कनी पर झाँक कर आया।
कहीं कोई नहीं था।
कहाँ चला गया कम्बख्त !
फिर एकाएक उसे एक खयाल आया। उसने बैडरूम में बनी विशाल वॉर्डरोब के दरवाजे खोल-खोलकर भीतर झाँकना आरम्भ किया।
कहीं कोई कपड़ा नहीं था। कहीं कोई जूतों का जोड़ा तक नहीं था। कहीं कोई सूटकेस तक नहीं था।
वह दोबारा बाथरूम में पहुँचा।
उसने वॉशबेसिन के ऊपर की शीशे की अलमारी खोली।
वहाँ एक टूथ-ब्रश तक नहीं था।
न कोई टॉयलेट का सामान। न कोई शेविंग सैट।
सूइट खाली था !
वहाँ अब कोई नहीं रहता था।
इसीलिए बाहर का दरवाजा खुला था।
डोगरा वहाँ से खिसक चुका था।
विमल की सारी मेहनत बेकार गयी थी।
क्रोध में एकबारगी तो वह इतना तड़फड़ाया कि अगर उसका बस चलता तो वह सारे होटल को आग लगा देता।
“हरामजादा !”—वह दाँत पीसता बोला—“खिसक गया, हरामजादा !”
सिल्विया ने उसके चेहरे पर ऐसे हिंसक भाव देखे कि वह घबराकर दो कदम पीछे हट गयी।
“वापस चलो।”—वह साँप की तरह फुँफकारा।
“क-कहाँ ?”—सिल्विया हकलाई।
“शान्तिलाल के सूइट में। और कहाँ ?”
सिल्विया ने सहमति में सिर हिलाया।
विमल ने रिवॉल्वर को वापस ढक्कन के नीचे प्लेट में रखा और ट्रे उठा ली।
दोनों ने आगे-पीछे फिर गलियारे में कदम रखा।
गलियारा पूर्ववत् खाली था।
वे वापस शान्तिलाल के सूइट में पहुँचे।
विमल ने दरवाजा भीतर से बन्द कर लिया।
सबसे पहले उसने वेटर की वर्दी को तिलांजलि दी। उसने अपनी गोल्फ कैप और दस्ताने फिर से पहन लिए। वेटर की वर्दी की जेब से शान्तिलाल की खिलौने-सी पिस्तौल निकालकर उसने अपनी पतलून की जेब में रख ली और ट्रे में से अपनी रिवॉल्वर बरामद करके हाथ में ले ली।
“क्या शान्तिलाल को मालूम हो सकता है”—विमल बोला—“कि डोगरा अपना यहाँ का सूइट खाली करके कहाँ चला गया है ?”
सिल्विया ने इन्कार में सिर हिलाया।
“क्यों ?”
“मैं कई घण्टों से यहाँ हूँ। मेरे यहाँ आने के बाद से शान्तिलाल ने सूइट से बाहर कदम नहीं रखा था। लेकिन जब मैं यहाँ आयी थी, तब डोगरा अपने सूइट में था। मैंने उसे अपने सूइट के दरवाजे पर खड़ा देखा था। अब तुम ही सोचो कि शान्तिलाल को कैसे मालूम होगा कि डोगरा कहाँ चला गया !”
“लेकिन अगर वह चाहे तो मालूम कर तो सकता है ?”
“जरूरी नहीं। लेकिन अगर कर भी सकता है तो कल सुबह से पहले नहीं कर सकता। डोगरा का एकाएक यूँ अपना सूइट खाली कर जाना साबित करता है कि वह किसी को अपनी खबर नहीं होने देना चाहता।”
“सुलेमान को भी नहीं ?”
“सुलेमान को उसका मौजूदा पता मालूम हो सकता है। लेकिन शान्तिलाल इतनी रात गये इतनी मामूली बात के लिए सुलेमान को डिस्टर्ब करने का हौसला नहीं कर सकता।”
“यह मामूली बात नहीं।”
“तुम्हारे लिए मामूली बात नहीं, लेकिन सुलेमान के लिए तो यह मामूली बात ही होगी।”
“तुम्हारी कतरनी तो एकाएक बहुत चलने लगी है ! पहले तो तुम्हारे मुँह से बोल नहीं फूट रहा था !”
सिल्विया ने उत्तर न दिया।
“बाहर एक कार को आग लगने से मचे हंगामे की खबर है तुम्हें ?”
“हाँ।”—वह बोली।
“तुम उस घटना से पहले यहाँ पहुँची थी या बाद में ?”
“पहले। बहुत पहले।”
“हूँ। अब मैं तुम्हारा क्या करूँ ?”
सिल्विया ने प्रश्नसूचक नेत्रों से उसकी तरफ देखा।
“मेरे लिये सहूलियत का तरीका तो यही है कि मैं तुम्हें गोली मार दूँ।”
तुरन्त सिल्विया के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। अभी थोड़ी देर पहले जैसे एकाएक उसमें थोड़ा हौसला और ठहराव पैदा हुआ था, वैसे ही एकाएक वह गायब हो गया।
“यह तजुर्बा तो हमें हो चुका है”—विमल उसे घूरता हुआ बोला—“कि यहाँ चली गोली की आवाज बाहर नहीं जाती।”
“ग-गो...गोली... म-मत चलाना।”—वह हकलाती हुई बोली।
“ओके। गोली नहीं चलाता।”—विमल दयातनदारी दिखाता बोला—“वेटर और शान्तिलाल जैसी ही तुम्हारी भी गत बनाकर मैं तुम्हें बाथरूम में बन्द कर जाता हूँ।”
“ऐसा न करना।”—वह फरियाद करती हुई बोली—“मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है ?”
“कुछ नहीं। लेकिन बिगाड़ सकती हो।”
“मैं... मैं कुछ नहीं करूँगी। मैं जो कुछ करती हूँ, पैसा कमाने के लिए करती हूँ, अपनी बूढ़ी माँ और अपने छोटे भाई-बहनों को पालने के लिए करती हूँ। मेरा इन लोगों से और कोई वास्ता नहीं है।”
“जानकर खुशी हुई। फिर समझ लो कि तुम्हारी जान बच गयी।”
सिल्विया ने चैन की लम्बी साँस ली।
“यही बात मैं तुम्हें समझाना चाहता था लेकिन तुम समझदार हो, बात को पहले से ही समझती हो कि मेरे बारे में अपनी जुबान खोलने से तुम्हें कोई फायदा नहीं, अलबत्ता नुकसान हो सकता है। बहुत ज्यादा नुकसान हो सकता है।”
“मैं तुम्हारे बारे में अपनी जुबान नहीं खोलूँगी।”
“लेकिन शान्तिलाल जानता है, वेटर जानता है कि तुम मेरे बारे में जानती हो।”
“वे दोनों सुबह तक होश में नहीं आने वाले। कल शाम से पहले इन्हें मैं नहीं मिलने वाली। उसके बाद इन्होंने तुम्हारे बारे में मेरी जुबान खुलवा भी ली तो तुम्हें क्या फर्क पड़ेगा ?”
“शाबाश ! बहुत समझदार हो तुम। चुपचाप यहाँ से निकल जाओ।”
“शुक्रिया।”
“आमतौर पर तो ऐसी असाइनमैन्ट से तुम्हें दिन में ही निजात मिलती होगी ?”
“हाँ।”
“तुम होटल में रहती हो ?”
“नहीं।”
“अगर किसी ने तुम्हें टोका तो तुम क्या जवाब दोगी ?”
“मैं कह दूँगी कि शान्तिलाल का मुझसे मन भर गया था और उसी ने मुझे चलता कर दिया था।”
“गुड। जाओ।”
वह फुर्ती से कमरे से बाहर निकल गयी।
विमल ने दरवाजा भीतर से बन्द कर दिया।
वह फौरन बाल्कनी पर पहुँचा।
नीचे ब्लॉक के दोनों किनारों पर दो पहरेदार अभी भी मौजूद थे लेकिन वातावरण के सन्नाटे में कोई अन्तर नहीं आया था।
विमल बाल्कनी के पहलू में पहुँचा। उसने जेब से एक सिगरेट लाइटर निकाला और उसे जल्दी-जल्दी तीन बार जलाया-बुझाया। फिर उसने लाइटर जेब में डाल लिया और रस्सी के अपने सामने प्रकट होने की प्रतीक्षा करने लगा।
सिल्विया अगर कोई मिसेज पिन्टो के वेश्यालय की काल-गर्ल होती तो शायद वह विमल से अपना वादा निभा लेती, वह होटल से निकलती और चुपचाप अपनी राह लगती, लेकिन वह ‘कम्पनी’ की होस्टेस थी और ‘कम्पनी’ में वह रुतबा उन्हीं लड़कियों को हासिल होता था जिनकी वफादारी की मुहम्मद सुलेमान को गारन्टी होती थी। ऐसी सारी होस्टेसें भरपूर ऐशोआराम के साथ होटल में ही रहती थीं और उन्हें मोटी तनखाहें मिलती थीं।
गलियारे में कदम रखने के बाद तीन-चार कदम वह बड़े सहज भाव से चली। फिर ज्यों ही उसके कानों में पीछे दरवाजा बन्द होने की आवाज पड़ी, उसे जैसे पंख लग गये।
वह बगूले की तरह डोगरा के खाली कमरे में दाखिल हो गयी।
झपटकर वह टेलीफोनों वाली टेबल के पास पहुँची। उसने जल्दी-जल्दी एक नम्बर डायल किया।
तुरन्त सम्पर्क स्थापित हुआ।
वह बिना कॉमा-फुलस्टॉप लगाए, पूरी रफ्तार से बोलती हुई लाइन के दूसरे सिरे पर मौजूद व्यक्ति को सारी स्थिति समझाने लगी।
विमल अभी अपनी बाल्कनी से दो मंजिल परे ही था कि नीचे ब्लॉक के दोनों सिरों मौजूद दो पहरेदारों के पास एकाएक कई आदमी प्रकट हुए और फिर सब नीमअँधेरी राहदारी में फैल गये।
होटल को बड़ी खामोशी से घेरा जा रहा था।
छठी मंजिल के करीब रस्सी के सहारे अधर में लटका हुआ विमल और तेजी से रस्सी चढ़ने की कोशिश करने लगा।
नीचे शान्तिलाल के सूइट के बन्द दरवाजे को जबरन तोड़कर खोल दिया जा चुका था।
कई आदमी शान्तिलाल की बाल्कनी पर प्रकट हुए। सब नीचे, दायें, बांये झाँक रहे थे।
“दगाबाज !”—सिल्विया के लिए विमल के मुँह से निकला।
उसने जरूर बदमाशों को बताया था कि उसने खुद कबूल किया था कि वह बाल्कनी के रास्ते आया था और हर किसी ने यही समझ लिया था कि वह नीचे से ऊपर आया था।
तभी बाल्कनी में मौजूद आदमियों में से एक की निगाह बाल्कनी के पहलू में दीवार के साथ लटके रस्सी के सिरे पर पड़ी।
“वह रस्सी कैसी है ?”—वह बोला।
एक अन्य आदमी उसके पास पहुँचा। रस्सी को देखकर उसने एकाएक हाथ बढ़ाकर उसे थाम लिया। उसने रस्सी को खींचा तो वह ऐंठकर स्थिर हो गयी। उसने ऊपर झाँका।
नीमअँधेरे में उसे अपने से बहुत ऊपर दीवार के साथ तनिक हरकत का आभास मिला। फिर कोई काली-सी चीज दीवार के साथ हिली।
उस आदमी ने फुर्ती से अपनी एक जेब से एक रिवॉल्वर और दूसरी से एक साइलेन्सर निकाला। उसने साइलेन्सर को रिवॉल्वर की नाल पर चढ़ाया और ऊपर दीवार के साथ हिलती-डुलती काली चीज का निशाना बनाकर दो फायर किये।
विमल बाल-बाल बचा।
दोनों गोलियाँ उसके समीप दीवार से कहीं टकराई।
तभी उसका हाथ बाल्कनी की रेलिंग पर पड़ा।
वहाँ उकड़ू-सी बैठी नीलम ने हुक पर से अपने हाथ हटा लिए और उसकी बाँहें थाम लीं।
दोबारा गोली चलने से पहले विमल बाल्कनी में था।
नीचे रिवॉल्वर वाला आदमी आँखें फाड़-फाड़कर ऊपर देख रहा था। जो हरकत उसे पहले दिखाई दी थी, वह अब दिखाई देनी बन्द हो गयी थी।
विमल ने हुक को रेलिंग में से निकल जाने दिया।
रस्सी भरभराती हुई नीचे को गिरी। उसका हुक बाल्कनी से बाहर सिर निकालकर ऊपर झाँकते रिवॉल्वर वाले के थोबड़े से टकराया।
लोहे के भारी हुक ने उसकी नाक तोड़ दी।
रस्सी नीचे राहदारी में जाकर गिरी।
तुरन्त वहाँ आसपास मौजूद तीन-चार आदमी उसकी तरफ लपके।
रस्सी देखकर सब ऊपर झाँकने लगे।
फिर उनमें से एक रस्सी की खबर भीतर पहुँचाने के लिए वहाँ से भागा।
विमल नीलम की बाँह पकड़कर उसे लगभग घसीटता हुआ भीतर ले गया। उसने बाल्कनी का शीशे का दरवाजा भीतर से बन्द कर दिया, लेकिन फिर तुरन्त ही कुछ सोचकर उसने उसके पल्ले एक-दूसरे से मिले रहने दिये, लेकिन चिटखनी खोल दी।
बैडरूम में केवल दो फुटलाइट जल रही थीं, जिनकी वजह से वहाँ बड़ी मामूली रोशनी थी।
बाहर ड्राइंगरूम में अँधेरा था।
“क्या हो गया था ?”—नीलम व्याकुल भाव से बोली—“इन्तजार करते-करते मेरे तो प्राण ही निकले जा रहे थे।”
“जैसी बेहरमी मैं मर्दों के साथ दिखा सकता हूँ वैसी औरतों के साथ नहीं दिखा सकता, इसलिए घपला हो गया था।”—विमल जल्दी-जल्दी अपनी काली पोशाक उतारता बोला—“तुम भी जल्दी से कपड़े उतारो।”
“मैं ?”—वह हड़बड़ा गयी।
“हाँ। यहाँ काला पहाड़ के आदमी किसी भी क्षण पहुँच सकते हैं।”
“यहाँ !”
“हाँ। रस्सी की लम्बाई से उन्हें अन्दाजा हो जायेगा कि वह ऊपर कौन-सी मंजिल से नीचे लटकाई गयी थी। बड़ी हद उन्हें एक मंजिल का धोखा हो सकता है। वे सातवीं-आठवीं और नौवीं मंजिल के हमारी स्थिति वाले कमरों को चैक करने जरूर आयेंगे। शायद वे यहाँ की तलाशी भी लें।”
“हाय राम ! फिर तुम अपनी यह काली पोशाक भी रस्सी की तरह बाहर क्यों नहीं फेंक देते ?”
“नहीं फेंक सकता। इससे उन्हें गारन्टी हो जायेगी कि उनका चोर होटल में ही कहीं ठहरा हुआ था। रस्सी से तो ऐसा लगता है जैसे कोई बाहरी आदमी यहाँ आया था। इस वक्त चोर की तलाश वक्ती होगी, लेकिन कपड़े फेंकने से वे आगे के लिए भी सावधान हो जायेंगे और फिर आने वाले दिनों में होटल के एक-एक मेहमान की हकीकत समझने में कसर नहीं छोड़ेंगे। उस तरह हम ज्यादा फँस जायेंगे।”
“हम सुबह ही होटल छोड़ देंगे।”
“यूँ एकाएक होटल छोड़ने वालों को तो वे और भी ज्यादा बारीकी से चैक करेंगे।”—विमल बोला। उसने अपनी काली पोशाक का एक गोला-सा बनाया और उसे विशाल डबल बैड में पायताने कम्बलों के नीचे छुपा दिया। उसी गोले में दोनों रिवॉल्वरें भी थीं।
“ओह !”—नीलम के मुँह से निकला।
“इस वक्त हमें हनीमूनिंग कपल का रोल ही बचा सकता है।”—विमल बोला। सम्पूर्ण नग्नावस्था में चलता हुआ वह वॉर्डरोब तक पहुँचा। वहाँ से अपना ड्रेसिंग गाउन निकालकर उसने पलंग के समीप पड़ी कुर्सी की पीठ पर डाल दिया। वहीं से नीलम की नाइटी निकालकर उसने यूँ पलंग के पास फर्श पर फेंक दी जैसे उसने कामांध होकर उसे अपनी नवविवाहिता बीवी के जिस्म से नोचकर उतारा हो।
तब तक नीलम ने भी अपने सारे कपड़े उतार डाले थे।
“पलंग में।”—विमल तीखे स्वर में बोला।
विमल ने सूटकेस में से उसका कुन्दन सैट, नथ, टॉप्स और दोनों कड़े निकालकर मेज पर डाल दिये।
हनीमूनिंग कपल में चीजें सम्भालकर रखने जितना सब्र भला कहाँ होता था !
विमल लपककर बाहर के दरवाजे की चिटकनी और सेफ्टी लैच खोल आया। फिर वह नीलम के साथ बिस्तर में दाखिल हो गया। उसने नीलम के बाल बिखरा दिये, उसके होंठों की लिपस्टिक पोंछ दी और उसके एक-दो निशान अपने गालों पर बना लिए। फिर उसने नीलम को अपनी बाँहों में भर लिया। नीलम ने उसकी छाती के साथ अपना सिर सटा दिया। दोनों को एक-दूसरे के तेजी से धड़कते दिल का भरपूर अहसास हो रहा था।
नींद का अभिनय करते हुए, लेकिन पूरी तरह जागते हुए, बड़े सस्पेंस के वातावरण में वे प्रतीक्षा करने लगे।
उसी क्षण उन्हें बाहर से अपने दरवाजे के सामने रुकते भारी कदमों की आवाजें सुनाई दीं।
“इसमें एक नवविवाहित जोड़ा है।”—बाहर कोई बोला—“जो हनीमून मनाने के लिए चण्डीगढ़ से आया है।”
“दरवाजा खटखटाओ।”—कोई अधिकारपूर्ण स्वर में बोला।
दरवाजे पर बड़ी सभ्य दस्तक पड़ी।
नीलम ने अँधेरे में आतंकित भाव से विमल की तरफ देखा।
“आँखें बन्द।”—विमल उसके कान में फुसफुसाया—“इस वक्त हमें दीन-दुनिया का होश नहीं है। अपार तृप्ति के बाद हम थककर सोए हैं। हम दरवाजे पर पड़ती दस्तक जैसे मामूली आवाज नहीं सुन सकते।”
नीलम ने कसकर आँखें बन्द कर लीं और उतनी ही कसकर विमल के साथ लिपट गयी।
फिर दस्तक ! इस बार पहले से लम्बी। पहले से ऊँची।
विमल प्रतीक्षा करता रहा।
“दरवाजा तो खुला है !”—एकाएक कोई बाहर से बोला।
फिर विमल को अपनी पीठ पीछे से दो-तीन आदमियों के सूइट के भीतर कदम रखने की आवाज आयी।
वे लोग सारे फ्लैट में फिरने लगे।
एकाएक विमल ने बड़ी बेचैनी से करवट बदली।
उस वक्त एक आदमी बाथरूम के दरवाजे पर था, एक वार्डरोब का दरवाजा खोलने जा रहा था और एक बाल्कनी के भीतर दाखिल हो रहा था। पलंग पर हरकत की आवाज सुनकर सब अपने-अपने स्थानों पर थमककर खड़े हो गये।
विमल तकियों के सहारे तनिक ऊँचा हुआ और सशंक स्वर में बोला—“कौन है ?”
कोई उत्तर न मिला।
उसने टेबल लैम्प का स्विच ऑन किया।
उसने एक आतंकित निगाह बारी-बारी तीनों पर डाली और बौखलाए स्वर में बोला—“कौन हो तुम लोग ?”
तभी नीलम ने भी कुनमुनाकर आँखें खोलीं। उसने अपनी बाँहें समेटीं। उसकी कलाइयों में मौजूद हाथीदाँत का चूड़ा सोने की चूड़ियों से टकराकर खनका। फिर उसके मुँह से एक घुटी हुई चीख निकली और उसने कम्बलों के नीचे डुबकी-सी भरी।
लेकिन उन तीनों आदमियों द्वारा उसके कमर तक नंगे, भरपूर नौजवान, गुलाबी जिस्म की एक झलक देख लिए जाने से पहले नहीं।
“हम होटल के सिक्योरिटी स्टाफ से हैं।”—बाल्कनी के पास खड़ा एक काला सूटधारी आदमी घूमकर दो कदम आगे बढ़ा और बड़े अदब से बोला—“होटल में एक चोर घुस आया है।”
“लेकिन तुम लोग यूँ एकाएक मेरे सूइट में कैसे घुस आये ?”—विमल कुर्सी की पीठ पर पड़े ड्रेसिंग गाउन की तरफ हाथ बढ़ता बोला।
“दरवाजा खुला था, साहब !”—जवाब मिला।
“यह नहीं हो सकता। तुमने जबरन दरवाजा खोला है।”
“दरवाजा खुला था, साहब !”—सूट वाला जोर देकर बोला। उसकी निगाह मेज पर पड़े नीलम के कुन्दन सैट, नथ, टॉप्स और कड़ों पर पड़ी—“आपको इतनी लापरवाही से काम नहीं लेना चाहिए, साहब। आपके कीमती जेवरात चोरी हो सकते हैं।”
“फाइव स्टार होटल में ?”—विमल गाउन की बाँहों में अपनी बाँहें फँसाता हुआ बोला।
“इन्सान की नीयत का क्या पता लगता है, साहब ! पता नहीं कब किस चीज पर बद् हो जाये।”
तब तक विमल का जिस्म गाउन से ढक चुका था। वह बिस्तर से बाहर निकल आया और उसकी डोरियाँ बाँधने लगा।
“किस्सा क्या है ?”—विमल बोला।
“मैंने अर्ज किया न”—सूट वाला बोला—“कि होटल में चोर घुस आया है। आपके सूइट का दरवाजा खुला था। वह अभी भी यहीं कहीं छुपा बैठा हो सकता है। आप जरा देख लीजिए।”
“मैं ? नहीं।”—विमल डरकर एक कदम पीछे हटता हुआ बोला—“वह हथियारबन्द हो सकता है।”
“फिर हम देख लें ?”
“शौक से।”
तीनों ने बत्तियाँ जलाकर बड़ी बारीकी से सूइट की तलाशी ली।
नीलम कम्बल को ठोड़ी तक खींचे एक सशंक कबूतरी की तरह बितर-बितर सब नजारा कर रही थी।
तलाशी लेने वालों को कहीं से कुछ हासिल न हुआ।
“आपको तकलीफ हुई।”—सूट वाला बोला—“उसके लिए हम माफी चाहते हैं।”
“माफी तो हुई”—विमल बोला—“लेकिन चोर यहाँ आया नहीं हो सकता।”
“जी ?”
“अगर वह यहाँ आया होता तो वह मेज पर पड़े जेवर न चुराता ?”
“वह उस तरह का चोर नहीं था।”
“तो किस तरह का चोर था ?”
“आप नहीं समझेंगे। दरवाजा बन्द कर लीजिए।”
तीनों फुर्ती से बाहर निकल गये।
विमल ने दरवाजा भीतर से बन्द कर लिया और शान्ति की एक मील लम्बी साँस ली।
वह बाल-बाल बचा था।
डोगरा मैरीन ड्राइव पर स्थित एक होटल में मौजूद था। वह बड़ी बेचैनी से कमरे में चहलकदमी कर रहा था और सोहल के बारे में सोच रहा था।
शाम होने को चली थी और अपने उत्कण्ठाभरे वर्तमान मूड में अभी तक उसने लंच तक नहीं किया था।
वह रुस्तम भाई को तीन बार फोन कर चुका था। फोन पर वह उसे केवल पहली ही बार मिला था और उसने उसे खबर दी थी कि अभी तक वह उस ‘सरदार’ को तलाश करने में कामयाब नहीं हो सका था। उसके बाद हर बार उसे यही जवाब मिला था कि रुस्तम भाई कहीं गया हुआ था।
हरामजादा जरूर जान-बूझकर उससे बात करने से बच रहा था—डोगरा ने वितृष्णापूर्ण भाव से सोचा।
घोरपड़े को भी वह कई बार फोन कर चुका था। उससे उसकी हर बार बात हुई थी और उसे हर बार यही जवाब मिला था कि अभी तक उसे सोहल का कोई सुराग नहीं मिला था।
सुलेमान ने उसे विशेषरूप से आदेश दिया था कि वह अपने व्यक्तिगत काम के लिए ‘कम्पनी’ के आदमी न लगाये लेकिन डोगरा फिर भी किसी तरह उसके आदेश का उल्लंघन करने का हौसला कर रहा था। वह घोरपड़े और उसके आदमियों से विमल की तलाश करवा रहा था।
‘कम्पनी’ के होटल से आनन-फानन निकाला जाना उसे अपने लिए भारी तौहीन का काम लगा था और वह इस बात के लिए अभी तक भुनभुना रहा था। वह जानता होता कि उसके होटल से आनन-फानन कूच कर जाने की वजह से पिछली रात उसकी जान बच गयी थी तो वह इस कदर न भुनभुना रहा होता।
वह एक कुर्सी पर ढेर हो गया और बाल्कनी के पार दिखाई देते समुद्र की तरफ देखने लगा।
वह कई क्षण खामोश बैठा रहा और अपनी मानसिक शक्तियों को अपने अधिकार में करने की कोशिश करता रहा।
उसका मस्तिष्क तनिक स्थिर होता था तो उसे लगने लगता था कि वह खामखाह उस सरदार के बच्चे को हौवा बना रहा था। वह खामखाह उससे डर रहा था। वह ‘कम्पनी’ का आदमी था। काला पहाड़ का आदमी था। उसके सामने सोहल की क्या बिसात थी ! कुछ भी नहीं। वह उसे मक्खी की तरह मसल सकता था। यूँ टाँगों में पूँछ दबाए सुलेमान साहब के पास पहुँच जाना भी उसकी नादानी थी—ऐसी नादानी थी, जिससे उसे फायदा तो रत्ती-भर नहीं हुआ था अलबत्ता नुकसान कई हो गये थे।
सबसे बड़ा नुकसान तो उसे यही हुआ था कि होटल की किले जैसी सुरक्षा उससे छिन गयी थी।
लेकिन उस सोहल के बच्चे का भी तो हौसला देखो—अनजाने में ही डोगरा दाँत पीसने लगा—‘कम्पनी’ के होटल पर गोलियाँ बरसाने पहुँच गया।
सुलेमान साहब के पास जाने का उसे और नुकसान यह हुआ था कि अब सोहल से निपटना उसके लिए इम्तहान बन रहा था। उसे वॉच किया जा रहा था कि वह इस इम्तहान में पास होता था या फेल। डोगरा खूब जानता था कि अगर उसने ‘कम्पनी’ की छत्रछाया में रहना था, न सिर्फ रहना था, बल्कि अपना खोया हुआ सम्मान भी वापस हासिल करना था, तो उसके लिए सोहल को ठिकाने लगाना इन्तहाई जरूरी था।
और यह काम सोहल से बचते फिरने से या छुपते फिरने से नहीं हो सकता था।
मुम्बई इतना बड़ा शहर था। वहाँ उस वाहिद आदमी को तलाश करने में हफ्तों, महीनों लग सकते थे।
अपने इम्तहान में पास होकर दिखाने के लिए इतना लम्बा वक्त उसे सुलेमान साहब नहीं देने वाले थे।
तो फिर क्या करे वह ?
कैसे निपटे वह इस सरदार के बच्चे से ?
सोहल से उसकी हार का मतलब ‘कम्पनी’ के हाथों उसकी मौत हो सकता था। उसे ‘कम्पनी’ के हित में खल्लास किया जा सकता था, यह बात उसे बाखूबी समझाई जा चुकी थी।
दूसरों के भरोसे यूँ हाथ पर हाथ रखकर छुपे बैठे रहने से काम नहीं चलने वाला था—उसके विवेक ने उसे राय दी—ऐसे तो वह न इधर का रहने वाला था, न उधर का। ऐसे तो अगर सोहल ने उसे खल्लास न किया तो ‘कम्पनी’ उसे खल्लास कर देगी।
उसे फौरन खुद कुछ करना चाहिए था।
लेकिन क्या ? क्या ?
वह कुर्सी से उठा और फिर चहलकदमी करने लगा।
घोरपड़े और उसके आदमियों को वह ज्यादा दिन तक विमल की तलाश में नहीं लगाये रह सकता था। काम लम्बा खिंचने से उसकी खबर सुलेमान साहब को हो सकती थी, जोकि वह हरगिज नहीं चाहता था।
तो ?
एकाएक वह थमककर खड़ा हो गया।
हे भगवान !—उसके मुँह से निकला—मुझे यह बात पहले क्यों न सूझी ?
विमल एक बार उसकी जान लेने में नाकामयाब हो जाने के बाद चुपचाप तो बैठ नहीं जाने वाला था। देर-सवेर यह भी उसे मालूम हो ही जाना था कि वह अब ‘कम्पनी’ के होटल में नहीं था। इसका मतलब यह था कि जैसे घोरपड़े के आदमी और रुस्तम भाई के आदमी सारी मुम्बई में उसे तलाश कर रहे थे, वैसे वह भी तो डोगरा को तलाश कर रहा होगा। अगर वह सरदार की इस तलाश को आसान कर दे तो क्या वह एक चूहे की तरह डोगरा के जाल में नहीं आ फँसेगा ?
उसके परेशानहाल दिमाग में इतनी मामूली बात पहले क्यों नहीं आयी थी कि सरदार वहाँ जरूर पहुँचेगा, जहाँ उसे डोगरा के होने की भनक मिलेगी।
वह पिंजरे को चूहे के पास ले जाने की कोशिश कर रहा था, जबकि वह चूहे को पिंजरे के पास ज्यादा सहूलियत से बुला सकता था।
वह फौरन टेलीफोन के पास पहुँचा और घोरपड़े का नम्बर डायल करने लगा।
विमल और नीलम अगले रोज बहुत देर से सोकर उठे।
विमल ने सबसे पहले बाल्कनी में जाकर बाहर झाँका। बाहर सब कुछ नॉर्मल था।
उसने दरवाजा खोलकर गलियारे में झाँका।
गलियारे में आवाजाही थी लेकिन उसे कोई सन्दिग्ध व्यक्ति दिखाई न दिया। उसे ऐसा कोई आभास न मिला जो साबित करता कि उनके सूइट पर खासतौर से किसी की निगाहें टिकी हुई थीं।
हैवी ब्रेकफास्ट के बाद पूरी लकदक के साथ वे अपने सूइट से निकले।
विमल एक एयरबैग उठाये था, जिसमें नीलम की एक सादी पोशाक के अलावा उसका हिप्पी परिधान, उसका सरदार वाला मेक-अप, कल वाली काली पोशाक और दोनों रिवॉल्वर थीं। हिप्पी परिधान की तो खैरियत थी, लेकिन बाकी चीजों की उसके पास मौजूदगी उन्हें फँसवा सकती थी। उनकी गैरहाजिरी में उनके सूइट की तलाश फिर से—सुई तलाश करने जैसी बारीकी से—हो सकती थी। उन चीजों का उनकी गैरहाजिरी में उनके सूइट में रहना खतरनाक हो सकता था।
दस मिनट वे बड़ी तन्मयता से रिसैप्शन पर मुम्बई के दर्शनीय स्थानों के बारे में पूछताछ करते रहे।
दोनों पूरी दक्षता से हनीमूनिंग कपल का रोल अदा कर रहे थे।
फिर उन्होंने एक टैक्सी बुलवाई और उस पर सवार हो गये।
वे तुलसी लेक पहुँचे।
वहाँ पहुँचने तक विमल को गारन्टी हो गयी कि कोई उनके पीछे नहीं लगा हुआ था।
थोड़ी देर बाद एक अन्य टैक्सी पर सवार होकर वे जुहू वापस लौटे।
वे चुपचाप उस स्थान पर पहुँचे, जहाँ पिछली रात उन्होंने पीटर परेरा की टैक्सी छुपायी थी।
टैक्सी यथास्थान मौजूद थी।
वे टैक्सी में सवार हो गये।
विमल ने टैक्सी आगे बढ़ाई और उसे एक और ज्यादा सुनसान स्थान पर ले जाकर रोका।
वहाँ दोनों ने अपनी लकदक वाली पोशाकें उतार दीं। विमल ने अपना हिप्पी परिधान पहन लिया और नीलम ने भी एक जींस और एक मामूली-सा टॉप पहन लिया। उसने सारे जेवर ही नहीं, अपना मेक-अप तक रूमाल से पोंछकर चेहरे से गायब कर दिया।
विमल ने अपनी काली पोशाक और उससे सम्बन्धित सामान एक खड्डा खोदकर रेत में दबा दिया।
उसने शान्तिलाल वाली नन्हीं पिस्तौल नीलम को थमा दी।
“मैं इसका क्या करूँ ?”—वह हड़बड़ाकर बोली।
“रख लो।”—विमल बोला—“शायद काम आये।”
“लेकिन मुझे तो यह चलानी नहीं आती।”
“वह क्या मुश्किल काम है। जिसको गोली का निशाना बनाना हो, उसकी तरफ नाल का रुख करके बस यह घोड़ा ही तो खींचना होता है जरा सा।”
“बस ?”
“और नहीं तो क्या ?”
“ठीक है।”
नीलम ने पिस्तौल अपने बैग में डाल ली।
“अब क्या इरादा है ?”—उसने पूछा।
“अब हमने कमाठीपुरे चलना है।”—विमल बोला—“घोरपड़े नाम के उस आदमी की फिराक में, जिसका कल तुमने पीछा किया था।”
“वह तो बहुत खतरनाक दादा था। और वह इलाका भी बहुत खतरनाक है।”
“होगा। इस वक्त घोरपड़े के अलावा कोई और लीड हमारे सामने नहीं है जोकि हमें डोगरा तक पहुँचा सके।”
“लीड क्या होती है ?”
“सूत्र। जरिया। साधन। मैंने तुमसे कभी पूछा नहीं। तुम कुछ तुम पढ़ी-लिखी भी हो कि नहीं ?”
“मैं मिडिल पास हूँ।”—वह गर्व से बोली।
विमल ने बहुत मीठी निगाहों से उसकी तरफ देखा। उस वक्त नीलम उसे बहुत अबोध, बहुत नेकनीयत, बहुत खूबसूरत लगी।
उसने टैक्सी को उस तनहा जगह से निकाला और उसे मेन रोड पर ले आया।
“घोरपड़े”—एकाएक नीलम बोली—“बदमाशों से ताल्लुक रखता आदमी तो शर्तिया है लेकिन इस बात की क्या गारन्टी है कि वह डोगरा से ताल्लुक रखता आदमी है ? हमने होटल की प्राइवेट लिफ्टों के रास्ते से उसकी आवाजाही ही तो देखी है ! इससे वह डोगरा से ताल्लुक रखता आदमी कैसे साबित होता है ?”
“पीटर को डोगरा के पास घोरपड़े ही लेकर गया था। पीटर ने कहा भी था कि वह डोगरा का कोई खास आदमी लगता था।”
“शायद वह इतना खास न हो कि हमारे किसी काम आ सके।”
“अब छोड़ो भी। जो होगा, सामने आ जायेगा।”
“अच्छी बात है।”
वे कमाठीपुरे के इलाके में पहुँचे।
विमल ने टैक्सी एक सुरक्षित स्थान पर खड़ी कर दी।
नीलम ने उसे वह इमारत दिखाई, उसकी पिछले रोज की रिसर्च के मुताबिक जिसकी सबसे ऊपरली मंजिल पर घोरपड़े रहता था।
दोनों बेशुमार सीढ़ियाँ तय करके घोरपड़े के दरवाजे पर पहुँचे।
वहाँ ताला झूल रहा था।
“अब ?”—नीलम बोली।
“इन्तजार।”—विमल बोला।
दोनों वापस सीढ़ियाँ उतर गये।
अँधेरा होने से थोड़ी देर पहले अपने दो चमचों के साथ घोरपड़े ने अपने घर वाली इमारत में कदम रखा।
सड़क के मोड़ पर स्थित एक गन्दे से रेस्टोरेन्ट में बैठे विमल और नीलम ने उसे देखा।
उन्होंने पाँच मिनट इन्तजार किया और फिर रेस्टोरेन्ट से बाहर निकल आये।
वे घोरपड़े के दरवाजे पर पहुँचे।
दरवाजा भीतर से बन्द था। भीतर से लोगों के बातें करने की आवाजें आ रही थीं। यानी उसके दोनों चमचे भी भीतर मौजूद थे। यानी उन्हें तीन आदमियों से निपटना पड़ना था।
विमल सोचने लगा।
“वापस चलते हैं।”—नीलम फुसफुसाई—“जब इसके साथी चले जायेंगे तो फिर आ जायेंगे।”
“नहीं।”—विमल भी वैसे ही फुसफुसाया—“क्या पता ये साथी भी इसके साथ ही रहते हों ! या जब साथी यहाँ से जायें तो यह भी उनके साथ ही चल दे !”
“तो ?”
“सोचने दो।”
नीलम खामोश हो गयी।
“उस्ताद !”—कोई भीतर से अपेक्षाकृत ऊँचे स्वर में बोला—“वह इत्तफाक से मिल जाये तो दूसरी बात है, वरना इतने बड़े शहर में एक आदमी को ढूँढ़ना क्या कोई हँसी खेल है ?”
“ढूँढ़ना पड़ेगा।”—दूसरी आवाज आयी—“वरना डोगरा मेरी ऐसी-तैसी फेर देगा।”
“लेकिन कोई तरीका तो हो !”—तीसरी आवाज आयी—“उसका कोई ठिकाना तो हो ! कोई जरिया तो हो !”
“अगर वह वाकई इतना बड़ा डाकू है तो उसको ढूँढ़ने की जगह हमें उसकी खबर पुलिस को कर देनी चाहिए कि वह मुम्बई में है। फिर पुलिस अपने-आप मुम्बई का चप्पा-चप्पा छान मारेगी। फिर या तो वह गोली खा जायेगा या फाँसी पर चढ़ जायेगा। अगर हमने उसको मारने के लिए ही उसे तलाश करना है तो यह तरीका क्या बुरा है ?”
“उस्ताद, यह ठीक कह रहा है। इस मामले में हम पुलिस जैसी बड़ी आर्गेनाइजेशन के रसूख, दबदबे और सलाहियात का मुकाबला नहीं कर सकते।”
“डोगरा ने भी इस बारे में मेरी राय पूछी थी, लेकिन तब मैंने कह दिया था कि पुलिस को खबर करना गलत था।”
“उस्ताद, डोगरा से दोबारा बात करके देखो।”
“मैं करूँगा।”
“अभी फोन कर लो।”
“वह खफा हो जायेगा। अभी उसका फोन आता ही होगा। तब मैं उससे यह बात कहूँगा।”
यानी कि अभी उन लोगों का वहाँ से टलने का इरादा नहीं लगता था।
“तैयार !”—विमल बोला, फिर उसने दरवाजे पर दस्तक दी।
“कौन ?”—भीतर से पूछा गया।
“मैं।”
“मैं कौन ? नाम बोलो।”
“कालीचरण।”
“क्या चाहते हो ?”
“मैंने घोरपड़े से बात करनी है। मैं होटल से आया हूँ। मुझे सुलेमान साहब ने भेजा है।”
तुरन्त दरवाजा खुला।
दरवाजा खुद घोरपड़े ने खोला था।
उसने बड़े सन्दिग्ध भाव से पहले विमल को, फिर नीलम को और फिर विमल को देखा।
“रास्ते से हटो।”—विमल बड़े अधिकारपूर्ण स्वर में बोला।
घोरपड़े एक तरफ हट गया।
विमल और नीलम भीतर दाखिल हुए।
“इन्हें चलता करो।”—विमल बोला।
“क्यों ?”—घोपरड़े बोला।
“जो बात मैं तुम्हें कहने आया हूँ, वह इनके सुनने लायक नहीं।”
“लेकिन बात क्या है ?”
“मैं बात तुम्हें इनके सामने बता सकता हूँ, लेकिन बाद में तुम्हीं पछताओगे कि मैंने ऐसा किया।”
घोपरड़े कुछ क्षण खामोश रहा, फिर सन्दिग्ध भाव से बोला—“तुमने सुलेमान साहब का नाम लिया था ?”
“हाँ। मैं उनका खास आदमी हूँ। उन्होंने ही मुझे तुम्हारे पास भेजा है।”
“लेकिन यह तो नियम के खिलाफ है ! सुलेमान साहब कभी मुझसे सीधे सम्पर्क स्थापित नहीं कर सकते। अगर उनका मुझसे कोई मतलब होता तो वे डोगरा साहब से बात करते।”
“तुम्हें नहीं मालूम ?”
“क्या ?”
“तुम डोगरा के लेफ्टिनेन्ट हो, फिर भी तुम्हें नहीं मालूम ?”
“अरे, क्या नहीं मालूम ?”
“डोगरा ने भी तुम्हें नहीं बताया ?”
“साले !”—घोरपड़े झुँझलाया, वह मुटि्ठ्याँ भींचे विमल की तरफ बढ़ा—‘‘मसखरी करता है।’’
“डोगरा का पत्ता कट गया है।”—विमल जल्दी से बोला।
घोरपड़े रास्ते में ही थमक गया। उसकी भिंची हुई मुटि्ठ्याँ खुल गयीं। उसके चेहरे पर गहन आश्चर्य और अविश्वास के भाव प्रकट हुए।
“क्या ?”—फिर उसके मुँह से निकला।
“तुम्हारे बॉस का पत्ता कट गया है।”
“छोकरे !”—घोरपड़े एकाएक कहरभरे स्वर में बोला—“अगर यह बात गलत निकली तो तेरी खैर नहीं।”
“और अगर यह बात सही निकली और तुमने अपनी बकवास बन्द करके मेरी बात न सुनी तो तुम्हारी खैर नहीं।”—विमल बोला।
“इन दोनों पर निगाह रखना।”—घोरपड़े ने चमचों को आदेश दिया—“ये भागने न पायें।”
दोनों ने सहमति में सिर हिलाया। एक ने आगे बढ़कर दरवाजे को भीतर से बन्द कर दिया और उसके साथ पीठ लगाकर खड़ा हो गया। दूसरे ने एक खटके वाला चाकू निकाल लिया।
नीलम सहमकर विमल के कंधे से लिपट गयी।
विमल ने आश्वासनपूर्ण भाव से उसका कंधा थपथपाया।
उसका दूसरा हाथ पतलून की बैल्ट में खुँसी रिवॉल्वर से ज्यादा दूर नहीं था। वह बड़ी सहूलियत से जब चाहता, उन तीनों को शूट कर सकता था।
घोरपड़े एक ओर पड़े टेलीफोन के पास पहुँचा।
उसने एक नम्बर डायल किया।
काफी देर तक कोई जवाब न मिलने पर उसने लाइन काटकर एक दूसरा नम्बर डायल किया।
इस बार तुरन्त जवाब मिला।
घोरपड़े ने पहले कोई कोड शब्द-सा बोला, जिसे कि विमल समझ न सका, और फिर कहा—“डोगरा साहब का दूसरा नम्बर खराब मालूम होता है। उनके सूइट में लाइन दो।... क्या ? ...सूइट खाली पड़ा है ? वे अब होटल में नहीं रहते ? अच्छा ! अब कहाँ हैं वो ? मालूम नहीं। कमाल है !”
उसने रिसीवर रख दिया और बड़बड़ाया—“कमाल है ! सुबह से छह बार तो डोगरा साहब मुझसे फोन पर बात कर चुके हैं। उन्होंने तो मुझे बताया नहीं कि अब वे होटल में नहीं थे।”
“तुम्हें यह बताने में”—विमल बोला—“कि उन्हें वहाँ से निकाला जा चुका था, उनकी हत्तक न होती ? अपने एक मामूली आदमी के सामने उनकी नाक न कट जाती ?”
“मैं मामूली आदमी नहीं हूँ।”—वह फुँफकारा।
“मुझे मालूम है। तुम डोगरा के खास आदमी हो। उसके लेफ्टिनेन्ट हो। लेकिन अपने साहब लोगों के मुकाबले में तो तुम मामूली आदमी ही हो।”
वह खामोश रहा।
“अब तुम लगे हाथों मेरे बारे में सुलेमान साहब को भी फोन कर लो।”
घोरपड़े ने दोबारा फोन की तरफ हाथ न बढ़ाया।
“बेवकूफ के बच्चे !”—एकाएक विमल साँप की तरह फुँफकारा—“अब क्या मैं सुलेमान साहब को जाकर यह रिपोर्ट दूँ कि तुम किसी तरक्की के काबिल नहीं हो ?”
“क्या ?”
“कि तुम किसी इनाम के काबिल नहीं हो ?”
“क-क-क्या ?”—उसकी निगाह अपने-आप ही नीलम की तरफ उठ गयी। सुलेमान साहब से हासिल होने वाले छप्पर फाड़कर टपके जैसे इनामों के बारे में उसने बहुत कुछ सुना हुआ था।
“कि तुम हरगिज भी डोगरा की जगह लेने के काबिल नहीं हो ?”
“डोगरा की जगह ?”—घोरपड़े के मुँह से निकला।
“जब डोगरा का पत्ता कटा है तो उसकी जगह कोई लेगा कि नहीं लेगा ?”
“लेगा।”—एकाएक उसके चेहरे पर से संशय के समस्त भाव गायब हो गये—“दफा हो जाओ।”—वह अपने साथियों से बोला—“नीचे सड़क पर जाकर मेरा इन्तजार करो। जब तक मैं न बुलाऊँ, ऊपर न आना। चलो। निकलो।”
अपने उस्ताद के रवैये में हुए उस अप्रत्याशित परिवर्तन से उसके दोनों चमचे सकपकाए, लेकिन उनकी हुक्मउदूली की हिम्मत न हुई। दोनों फौरन वहाँ से बाहर निकल गये।
घोरपड़े ने आगे बढ़कर दरवाजा मजबूती से भीतर से बन्द कर दिया। वह दरवाजे के पास से हटकर विमल और नीलम के सामने आ खड़ा हुआ। चेचक के दागों से भरे उसके मोटे, भद्दे चेहरे पर एक अजीब-सी मुस्कराहट आयी। वह बड़े प्रेम भाव से बोला—“अब बोलो।”
“मैं क्या बोलूँ ?”—विमल तीखे स्वर में बोला—“तुमने अपनी खोपड़ी से काम लिया होता तो तुम खुद ही न समझ गये होते कि हालात क्या करवट बदल रहे हैं ! क्या यह बहुत पेचीदा बात थी, जो तुम्हारे भेजे में नहीं घुसी कि अगर डोगरा का पत्ता कट जाये तो उसके आदमियों में उसकी जगह लेने लायक आदमी कौन हो सकता है !”
“मैं। मैं ! क्या मैं ?”
“और कौन ?”
“लेकिन मुझे पता नहीं था कि डोगरा साहब की होटल से छुट्टी हो चुकी थी।”
“उसकी न सिर्फ होटल से छुट्टी हो चुकी है, बल्कि बहुत जल्द उनको खल्लास किये जाने का भी हुक्म होने वाला है।”
“क्या !”
“यह काम होटल में इसलिए नहीं किया गया था, क्योंकि ऐसा करने से होटल की नेकनामी पर हर्फ आ सकता था। डोगरा को भी इस बात का अहसास हो गया है कि उसको खल्लास किया जा सकता है, इसलिए वह गायब हो गया है, कहीं जा छुपा है।”
“गायब हो गया है ? छुप गया है ? लेकिन मुझे तो वह दिन में कई बार फोन कर चुका है !”
“मुझे मालूम है। सुलेमान साहब को उससे यही उम्मीद थी कि अभी फिलहाल वह तुमसे सम्पर्क रखेगा। इसीलिए मुझे यहाँ तुम्हारे पास भेजा गया है। उसने पहले फोन किया है तो अभी फिर भी करेगा, लेकिन जैसे उसने पहले तुम्हें भनक नहीं पड़ने दी थी कि वह होटल से नहीं, कहीं और से बोल रहा था, वैसे ही अब भी नहीं पड़ने देगा। लेकिन इस बार उसका फोन आने पर तुमने मालूम करने की कोशिश करनी है कि वह कहाँ छुपा हुआ है !”
घोरपड़े ने बड़ी संजीदगी से सहमति में सिर हिलाया।
विमल ने अपनी जेब से अपना पाइप निकाला और बड़ी लापरवाही से उसे सुलगाने की क्रिया में रत हो गया।
“यह”—घोरपड़े अपने होंठों पर जुबान फेरता बोला—“लड़की कौन है ?”
“यह रोजी है।”—विमल बोला।
नीलम बहुत इठलाकर, बड़े चित्ताकर्षक ढंग से मुस्कराई।
घोरपड़े की लार टपक गयी।
“रोजी”—विमल बोला—“तुम्हारा इनाम”—वह एक क्षण ठिठका और फिर बड़े अर्थपूर्ण स्वर में बोला—“हो सकती है।”
“हो सकती है ?”
“हाँ। तुम जानते ही होगे कि काम के आदमियों की सुलेमान साहब कितनी कद्र करते हैं और इनाम के काबिल काम करके दिखाने वालों के लिए उनका पहला इनाम क्या होता है !”
घोरपड़े ने सहमति में सिर हिलाया। इस बार यूँ उसने नीलम की तरफ देखा जैसे वह उसे आँखों ही आँखों में हजम कर जाना चाहता हो।
“मुझे करना क्या होगा ?”—घोरपड़े बोला।
“बहुत ऊँचा उठने के लिए, होटल में डोगरा वाला सूइट हासिल करने के लिए, सुलेमान साहब का हमप्याला, हमनिवाला बनने के लिए, काला पहाड़ के कानों तक अपना नाम पहुँचाने के लिए तो अभी तुम्हें बहुत कुछ करना होगा लेकिन डोगरा की फौरन जगह लेने के लिए तो तुमने सिर्फ इतना करना है कि तुमने उसकी मुकम्मल छुट्टी करवाने में मेरी मदद करनी है।”
“उसे खल्लास करना होगा !”
“वह काम मैं करूँगा। इस काम के लिए मुझे खासतौर से तैनात किया गया है। देखो।”—विमल ने अपनी जैकेट सरकाकर पतलून की बैल्ट में खुँसी रिवॉल्वर उसे दिखाई जिसका कि घोरपड़े पर प्रत्याशित प्रभाव पड़ा—“तुमने सिर्फ यह पता लगाने में मेरी मदद करनी है कि डोगरा है कहाँ !”
“यह कैसे पता लगेगा ?”
“उसका फोन नहीं आयेगा, स्टुपिड ? वह अभी तुम पर भरोसा कर रहा है। वह समझ रहा है कि अभी तुम्हें नहीं मालूम कि उसका पत्ता कट चुका है। मैंने आकर न बताया होता तो मालूम होता भी नहीं तुम्हें। इस बार जब वह फोन करे तो तुम उसको मस्का मार कर उससे मालूम करने की कोशिश करना कि वह कहाँ टिका हुआ है।”
घोरपड़े ने सहमति में सिर हिलाया।
“लेकिन उसे तुम पर शक न होने पाये।”—विमल चेतावनीभरे स्वर में बोला।
“नहीं होगा।”—घोरपड़े छाती फुलाकर बोला—“मैं तो...”
तभी एकाएक फोन की घण्टी बज उठी।
घोरपड़े ने चिहुँककर फोन की तरफ देखा।
“वही होगा।”—विमल गम्भीरता से बोला।
घोरपड़े फोन की तरफ बढ़ा। विमल उसके साथ लपका। वह फोन उठाने लगा तो विमल बोला—“अगर वही हो तो उसे तसल्ली कराकर कि तुम्हीं बोल रहे हो, फोन मुझे दे देना।”
“उसे शक हो जायेगा।”—घोरपड़े बोला।
“मुझे ऐसा होता लगेगा तो फोन मैं तुम्हें वापस पकड़ा दूँगा। ठीक है ?”
उसने सहमति में सिर हिलाया और फिर फोन उठा लिया।
“हाँ, साहब।”—वह बड़े अदब से बोला—“नमस्ते साहब, मैं घोरपड़े बोल रहा हूँ। ... आप ही के काम में लगा हुआ था, डोगरा साहब। यहाँ होता तो फोन सुनता न ! बस, मैं अभी-अभी यहाँ पहुँचा हूँ। ... जी, मैं सुन रहा हूँ।”
फिर एकाएक उसने फोन विमल के कान से लगा दिया।
“सुनो।”—डोगरा की आवाज विमल के कानों में पड़ी—“यूँ वह सोहल का बच्चा ढूँढ़े नहीं मिलने वाला। यूँ वह मिल भी जायेगा तो बहुत वक्त लगेगा और मैं चाहता हूँ कि यह काम जल्द से जल्द हो जाये। उसको फँसाने की मैंने एक तरकीब सोची है।”
“क्या, साहब ?”—विमल भरसक घोरपड़े के स्वर की नकल करता बोला।
“सोहल अभी भी बदस्तूर मेरी तलाश कर रहा होगा। मैं चाहता हूँ उसकी तलाश कामयाब हो जाये।”
“जी।”
“तुम अण्डरवर्ल्ड में यह खबर फैला दो कि डोगरा साहब अब होटल सी-व्यू को छोड़कर अपने बान्द्रा वाले फ्लैट में रहने लगा है। मैं सुरजीत वाले फ्लैट की बात कर रहा हूँ। समझ गये ?”
“जी हाँ।”
“लेकिन यह बात ऐसी चतुराई से फैलाई जानी चाहिए कि उसे शक न हो। वह सुने तो यही समझे कि इत्तफाक से इस बात की भनक उसके कान में पड़ गयी है। वह रुस्तम भाई पर भी दोबारा हाथ डाल सकता है इसलिए मैंने उसे भी समझा दिया है कि दोबारा अगर वह सरदार का बच्चा उस पर चढ़ दौड़े तो थोड़ी बहुत हील-हुज्जत के बाद वह उसे बता दे कि मैं बान्द्रा वाले फ्लैट में था। सोहल को यह बात जँच भी जायेगी। उसकी निगाह में उसे उस फ्लैट को दोबारा टटोलना नहीं सूझ सकता था और इसीलिए उसे मैं अपने लिए सुरक्षित समझ सकता था। समझ गये ?”
“जी हाँ।”
“फिर अपने चार-पाँच आदमियों को उस फ्लैट के और फ्लैट वाली इमारत के इर्द-गिर्द यह समझाकर फैला दो कि ज्यों ही सोहल वहाँ कदम रखे, उन्होंने उसको खल्लास कर देना है। ठीक है ?”
“ठीक है, साहब।”—विमल तनिक खाँसता हुआ बोला—“मैं अभी सब इन्तजाम करवाता हूँ, साहब। आप अब होटल में नहीं हैं, साहब ?”
“नहीं।... वह तुम्हारी आवाज को क्या हो गया है ?”
“गले में कुछ अटक गया है, साहब।”—विमल पहले से जोर से खाँसता हुआ बोला—“मैं अभी पानी पीकर आपसे बात करता हूँ।”
उसने रिसीवर कान से हटाया और माउथपीस पर हाथ रखता हुआ घोरपड़े से बोला—“उसे मेरी आवाज पर शक हो गया है। तसल्ली कराओ उसको और पूछो कि वह कहाँ से बोल रहा है।”
घोरपड़े ने सहमति में सिर हिलाया। उसने फोन अपने हाथ में लेकर कान से लगा लिया और सुसंयत स्वर में बोला—“अब आवाज ठीक हो गयी है, साहब।”—वह तनिक हँसा—“और कौन बोलेगा, साहब ? इस फोन को तो मेरे सिवाय कोई हाथ भी नहीं लगाता। ... साहब, पहले भी यही आवाज थी। जरा गले में कुछ फँस गया था इसलिए थोड़ा फर्क आ गया था।... उस आदमी की वजह से आपका दिल दहला हुआ है न साहब, इसलिये ... मैं माफी चाहता हूँ साहब।... आप फिक्र न कीजिए, अभी सब इन्तजाम हो जायेगा। कोई नतीजा सामने आये तो होटल में मैं आपको खबर कर दूँगा।... आप होटल में नहीं हैं ?”—घोरपड़े ने हैरानी जाहिर की—“ओह ! जब तक वह आदमी मर नहीं जाता, तब तक के लिए आपने होटल छोड़ दिया है।... तो फिर मैं आपसे कहाँ सम्पर्क करूँ ? अब कहाँ हैं आप ?... यही बताना हो सकता है कि काम हो गया है या उसमें कोई अड़चन आ गयी है।... आप खुद तो फोन कर लेंगे लेकिन अगर कोई ऐसी इमरजेन्सी आन खड़ी हुई जिसमें आपके फोन आने का इन्तजार करना वक्त की बरबादी लगने लगा तो फिर आप ही खफा होंगे कि बात आपको फौरन नहीं मालूम हो सकी।... लेकिन साहब, हर्ज भी क्या है अगर...”
घोरपड़े के चेहरे पर एकाएक वितृष्णा के भाव आ गये। उसने रिसीवर कान से हटा लिया।
“क्या हुआ ?”—विमल व्यग्रता से बोला।
“लाइन काट दी साले ने।”—घोरपड़े बोला।
“ओह !”—विमल निराश स्वर में बोला—“अब कैसे पता लगे कि वह कहाँ से बोल रहा था ?”
“मैंने तो उसे बहुत पटाया लेकिन साला मानकर नहीं दिया। मुझे तुम्हारी ही बात सच लगती है।”
“क्या ?”
“उसे भी इस बात का डर सता रहा मालूम होता है कि कहीं उसे खल्लास न कर दिया जाये। और ऊपर से सीधे मिला कोई ऑर्डर मुझे भी उसके खिलाफ न कर दे।”
“और नहीं तो क्या ?”—विमल बोला। वह खुश था कि घोरपड़े पर उसका विश्वास पूरी तरह बैठ चुका था और अब उसका दिमाग भी वैसी ही बातें सोच रहा था, जैसी विमल ने बड़े मनोवैज्ञानिक ढ़ंग से उसके दिमाग में बिठाई थीं।
“लेकिन मैं भी साले की नस-नस से वाफिक हूँ।”—घोरपड़े मुँह बिगाड़कर बोला—“मैं चुटकियों में पता लगा लूँगा कि वह कहाँ गर्क हुआ हुआ है।”
“अच्छा !”—विमल के मन में नई उम्मीद जागी—“कैसे ?”
“डोगरा पक्का औरतखोर है। औरत के बिना वह एक दिन नहीं रह सकता। वह जहाँ भी होता है, रात को मिसेज पिन्टो के वेश्यालय से एक लड़की जरूर तलब करता है। आज की रात भी वह लड़की के बिना नहीं गुजारने वाला। वह जहाँ भी होगा, मिसेज पिन्टो की एक काल-गर्ल उसके साथ जरूर होगी। और मिसेज पिन्टो ने काल-गर्ल को डोगरा का पता बताकर ही तो उसके पास भेजा होगा ! कहने का मतलब है कि डोगरा और किसी को अपना मौजूदा पता बताये या न बताये, उसने मिसेज पिन्टो को अपना पता जरूर बताया होगा क्योंकि उसके बिना वह डोगरा के पास लड़की कैसे भेजेगी ?”
“मिसेज पिन्टो तुम्हें बतायेगी”—विमल सन्दिग्ध भाव से बोला—“कि उसने डोगरा के पास कहाँ लड़की भेजा थी ?”
“क्यों नहीं बतायेगी ? जरूर बतायेगी।”—घोरपड़े पूरे विश्वास के साथ बोला, आखिर उसकी आँखों के सामने उसके उज्ज्वल भविष्य के सपने लहरा रहे थे—“नहीं बतायेगी तो मैं चमड़ी नहीं उधेड़ दूँगा, साली की !”
“गुड।”
“तो चलें मिसेज पिन्टो के यहाँ ?”
“हाँ। चलते हैं। लेकिन पहले जरा मैं सुलेमान साहब को हालात से वाकिफ करा दूँ। उनका नम्बर डायल करो।”
“उनका नम्बर तो”—वह खेदपूर्ण स्वर में बोला—“मुझे मालूम नहीं।”
“ओह, हाँ। सुलेमान साहब का प्राइवेट नम्बर तुम्हें कहाँ मालूम होगा ! हटो, मैं करता हूँ फोन।”
वह फोन के पास से हट गया।
विमल ने नीलम को एक गुप्त संकेत किया और वह स्वयं फोन के पास पहुँचा।
नीलम बड़े मादक अन्दाज से मुस्कराती हुई घोरपड़े को देखने लगी।
घोरपड़े का सारा ध्यान नीलम की तरफ लग गया।
विमल ने अनाप-शनाप एक नम्बर डायल किया। उसे बिजी टोन सुनाई देने लगी। कुछ क्षण वह खामोश रहा और फिर यूँ बोला, जैसे सम्पर्क स्थापित हो गया हो—“मैं कालीचरण बोल रहा हूँ। सुलेमान साहब से बात करवाओ।”—वह कुछ क्षण रिसीवर कान से लगाए खड़ा रहा और फिर बड़े अदब से बोला—“साहब, मैं कालीचरण बोल रहा हूँ कमाठीपुरे से। डोगरा साहब का वह खास आदमी मुझे मिल गया है। उसने हालात को समझने में बड़ी समझदारी दिखाई है और वह ‘असल काम’ में हर तरह का सहयोग देने को तैयार है। आपका खयाल गलत नहीं निकला है। यह आदमी सरासर तरक्की के काबिल है। मैं आपसे बात कराता हूँ उसकी।... जी ?... जी, अच्छा। चलिए ऐसे ही सही। नमस्ते, साहब। मैं फिर खबर करूँगा।”
उसने रिसीवर क्रेडल पर रख दिया और नीलम पर दिलोजान से कुर्बान हुए घोरपड़े की तरफ घूमा।
“मैं तुम्हें फोन पर शाबाशी दिलाना चाहता था”—विमल बोला—“लेकिन सुलेमान साहब लगता है कि खुद तुम्हारी पीठ ठोकना चाहते हैं। उन्होंने कहा है कि बाद में तुम्हें मैं अपने साथ उनके सूइट में लेकर आऊँ।”
घोरपड़े फूलकर कुप्पा हो गया। वह सातवें आसमान पर उड़ने लगा। वह कुछ कर दिखाने के लिए तड़पने लगा।
“चलो।”—वह बड़े जोश से बोला।
विमल और नीलम उसके साथ हो लिये।
विमल द्वारा ‘सुलेमान साहब’ को की टेलीफोन काल ने घोरपड़े को बहुत प्रभावित किया था। अब उसके मन में विमल और उसके मिशन के बारे में कैसा भी कोई संशय नहीं रह गया था। वैसे उसको असली शीशे में इस बात ने उतारा था कि डोगरा के होटल से निकाल दिये जाने की अत्यन्त गोपनीय खबर ‘कालीचरण’ उस तक लाया था। डोगरा का खास आदमी होने के बावजूद जो बात उसे नहीं मालूम थी, वह ‘कालीचरण’ को मालूम थी। क्यों न मालूम होती ? आखिर वह सुलेमान साहब का आदमी था।
डोगरा अपने होटल के सूइट में पलंग पर लेटा हुआ था।
खाना उसने नहीं खाया था, लेकिन ह्विस्की की दो तिहाई बोतल वह खाली कर चुका था।
मिसेज पिन्टो को वह फोन कर चुका था और उसे ठीक से समझा चुका था कि उसे उस रात कैसी लड़की चाहिए थी। अपनी पसन्द बयान करते समय उसके मानसपटल पर उस लड़की की आकृति उभर रही थी जिसने पिछली रात उसे सुलेमान के सूइट का दरवाजा खोला था। एक तरह से उसने उसी लड़की को बयान कर दिया था।
उसे लड़की का नाम सन्ध्या बताया गया था और वह आठ बजे वहाँ पहुँचने वाली थी।
घोरपड़े के यहाँ घण्टे-घण्टे बाद निरन्तर फोन करते रहने के बाद अभी थोड़ी देर पहले उसकी घोरपड़े से बातचीत हुई थी। पता नहीं क्यों उस बातचीत ने उसे आन्दोलित कर दिया था। पता नहीं क्यों उसे लग रहा था कि वह दो आदमियों से बात कर रहा था।
लेकिन ऐसा कैसे हो सकता था ?
जरूर वह उसका वहम था।
वहम ही होगा, वरना यह कैसे हो सकता था कि वार्तालाप के ऐन बीच में उसे घोरपड़े की आवाज में फर्क लगने लगता और फिर उसकी आवाज अपने-आप ठीक हो जाती ?
वो कह तो रहा था उसके गले में कुछ फँस गया था ! गले में कुछ फँस जाने से आवाज में फर्क तो आ ही जाता था।
वह खामखाह वहम कर रहा था।
लेकिन अगर यह उसका वहम था तो उसके दिल को चैन क्यों नहीं आ रहा था ?
उसने हाथ बढ़ाकर ह्विस्की का गिलास उठाया और लेटे-लेटे ही उसमें से एक घूँट भरा।
अब तो सिर्फ वक्त की बात थी—उसने अपने-आपको तसल्ली दी—विमल का उसके जाल में फँसना अवश्यम्भावी था और फिर घोरपड़े और उसके आदमी बाखूबी उसका काम तमाम कर सकते थे।
एकाध दिन की बात थी, उसके बाद चैन ही चैन था।
चैन के लिए ही आज उसने मिसेज पिन्टो के वेश्यालय की सबसे महंगी काल-गर्ल तलब की थी। उसे बताया गया था कि वह मुश्किल से अट्ठारह साल की थी और उसका जिस्म ऐसा था जैसे संगमरमर में से तराशा गया हो।
कभी सुरजीत का जिस्म भी तो वैसा ही था।
सुरजीत की याद भर आने से वह झुँझला गया।
यह कोई वक्त था उसे याद करने का !
फिर वह जबरन सन्ध्या के नंगे जिस्म कि कल्पना करने की कोशिश करने लगा। उस कोशिश में उसकी आँखों में गुलाबी डोरे तैर गये और उसके दिल की धड़कन तेज हो गयी।
उसने घड़ी पर निगाह डाली।
आठ बजने में केवल दस मिनट बाकी थे।
उसने अपनी पतलून की जेब में से अपना पर्स निकाला और उसके भीतर मौजूद नोट गिनने लगा।
पच्चीस सौ रुपये—उसने वितृष्णापूर्ण भाव से सोचा।
दो हजार रुपये उसने सन्ध्या को देने थे और वह अभी ‘कम्पनी’ के लिए मिसेज पिन्टो का रियायती रेट था।
उसने सौ-सौ के बीस नोट पर्स में से निकाले। मेज पर होटल की छपी हुई स्टेशनरी पड़ी थी। वहाँ से उसने एक लिफाफा उठाया और उसमें बीस नोट बन्द कर दिये। लिफाफा उसने मेज पर डाल दिया।
कल उसने रुपया निकलवाने बैंक भी जाना था, जबकि वह सोहल की मौत से पहले सूइट से बाहर कदम भी नहीं रखना चाहता था।
लेकिन चैक को होटल वालों के माध्यम से भी कैश करवाया जा सकता था।
उसे अपने-आप पर गुस्सा आने लगा कि क्यों उसका मस्तिष्क इतना जड़ हो गया था कि उसे इतनी मामूली बात नहीं सूझी थी।
तभी काल-बैल बजी।
उसने पलंग पर से उठाकर अपना ड्रेसिंग गाउन पहन लिया। मेज पर पड़ी अपनी रिवॉल्वर उठाकर उसने गाउन की जेब में रख ली और दरवाजे की तरफ बढ़ा। रास्ते में उसने अपनी कलाई घड़ी पर निगाह डाली। आठ बजने में पाँच मिनट बाकी थे।
“कौन ?”—दरवाजे पर पहुँचकर उसने सवाल किया।
“सन्ध्या।”—बाहर से एक मधुर आवाज आयी।
डोगरा ने रिवॉल्वर वाली जेब में हाथ डाले-डाले दरवाजा खोला।
बाहर एक अनिन्द्य सुन्दरी खड़ी थी।
डोगरा को देखकर वह मुस्कराई और बोली—“हल्लो !”
उस रोज पहली बार डोगरा के चेहरे पर रौनक आयी। उसने लड़की का मुस्कराकर स्वागत किया और उसे भीतर बुलाकर दरवाजा बन्द कर लिया।
सन्ध्या को देखकर उसकी तबीयत खुश हो गयी थी। सुलेमान की जिस लड़की से रश्क खाकर उसने सन्ध्या को बुलाया था, वह अब सन्ध्या के मुकाबले में उसे आलुओं का बोरा लग रही थी। सन्ध्या मुश्किल से अट्ठारह साल की, लम्बी-ऊँची, कद्दावर, गोरे-चिट्टे रंग वाली लड़की थी। उसके चेहरे पर बच्चों जैसी निश्चलता थी, लेकिन जिस्म नौजवान औरत जैसे भरा-पूरा था। पोशाक के नाम पर वह एक टाइट जींस और स्कीवी पहने थी जो उसके जिस्म पर चमड़ी की तरह मढ़ी हुई थी। कहने को वह हर जगह से ढकी हुई थी लेकिन डोगरा को उसके स्प्रिंग की तरह कसे हुए जिस्म की एक-एक लकीर नुमायां होती लग रही थी।
मिसेज पिन्टो ने जो माल कहा था, उससे बेहतर माल भेजा था।
“बैठो।”—डोगरा बोला।
वह मुस्कराती हुई सोफे पर बैठ गयी।
डोगरा भी उसकी बगल में बैठ गया।
“कुछ खाओगी ?”—डोगरा ने पूछा।
“खा लूँगी।”—वह बड़े मीठे स्वर में बोली।
“कुछ पियोगी ?”
“पी लूँगी।”
“ह्विस्की ?”
“जो आपको मुनासिब लगे।”
खाया डोगरा ने भी कुछ नहीं था। उसने रूम सर्विस को फोन करके ह्विस्की की नयी बोतल और ढेर सारा खाने-पीने का सामान मँगाया।
सन्ध्या ने खाया तो तबीयत से, लेकिन पीने के नाम पर वह एक ही पैग को चुसकती रही और उसमें सोडा डालती रही।
डोगरा समझ गया कि लड़की को ग्राहक को कम्पनी देने की खास ट्रेनिंग दी गयी थी।
“मिसेज पिन्टो कहती थीं”—एकाएक सन्ध्या बोली—“कि आप ‘कम्पनी’ के आदमी हैं।”
“हाँ।”—डोगरा बोला।
“तो फिर आप यहाँ कैसे ?”
“किसी वजह से कुछ दिन मुझे यहाँ रहना पड़ रहा है। बाद में वहीं पहुँच जाऊँगा, जहाँ ‘कम्पनी’ के बड़े ओहदेदार रहते हैं। होटल सी-व्यू में।”
“मैं वहाँ गयी हुई हूँ।”
“अच्छा ! किसके बुलावे पर ?”
सन्ध्या ने दो नाम बताये। डोगरा जलकर कबाब हो गया। जलने की कोई वजह नहीं थी लेकिन फिर भी जलकर कबाब हो गया। ऐसी शानदार लड़की किसी और के पहलू में लेटी तो क्यों लेटी ?
फिर अपना ऐसा सोचना ही उसे मूर्खता लगने लगा। वह एक काल-गर्ल थी। जो उसकी कीमत अदा कर सकता था, वह उसकी रातों का मालिक बन सकता था।
“लेकिन वे लोग आप जैसे भले नहीं थे।”—सन्ध्या बोली—“आप बहुत अच्छे हैं।”
“अच्छा !”—डोगरा फिर खुश हो गया।
“आप ओहदे में भी उनसे बड़े लगते हैं।”
“बराबर ही हूँ। अलबत्ता मेरा काम जिम्मेदारी का ज्यादा है।”
“आपका क्या काम है ?”—उसने बड़े भोलेपन से पूछा।
जवाब में डोगरा बड़ी बारीकी से उसे अपना काम समझाने लगा। फिर एकाएक इत्तफाक से उसकी घड़ी पर निगाह पड़ गयी तो वह बोलता-बोलता बीच में ही रुक गया। दस बज गये थे।
जरूर उसकी अक्ल पर पत्थर पड़ गये थे। जरूर नशे और सोहल की दहशत ने उसका दिमाग खराब कर दिया था।
वह गप्पें लड़ा रहा था। इतनी महंगी लड़की के साथ गप्पें लड़ा रहा था। उसकी उस रात का वह मालिक था जिसके दो घन्टे गुजर भी चुके थे और अभी तक उसने उसकी उँगली तक नहीं छुई थी।
लड़की समझदार थी। वह डोगरा की निगाह का मतलब समझ गयी।
“बैडरूम में चलते हैं।”—वह मादक स्वर में बोली।
डोगरा ने सहमति में गरदन हिलाई।
वह उठकर बैडरूम की तरफ चल दी।
बैडरूम में जाकर लड़की ने सबसे पहले अपनी सैंडिलें उतारीं, फिर कटे हुए बालों में से हेयरपिन और क्लिप निकाले, फिर स्कीवी उतारकर उसे बहुत सलीके से तह करके एक कुर्सी पर रखा, फिर दोनों हाथ पीठ पीछे ले जाकर अपनी काले रंग की जालीदार अँगिया के हुक खोले और अँगिया को अपने असाधारण आकार के पुष्ट स्तनों के ऊपर से उतार एक कुर्सी की पीठ पर टाँगा, फिर बड़ी कठिनाई से अपनी जींस उतारी और उसे दोहरा करके स्कीवी के ऊपर रखा और फिर अन्त में काला अन्डरवियर उतारा।
डोगरा की पलक नहीं झपक रही थी। वह मुँह बाये बुत बना सब कुछ देख रहा था।
लड़की ने उसे देखकर पलकें फड़फड़ाई, मुस्कराई, उसने अपने दोनों हाथ सिर से ऊपर ले जाकर एक तौबाशिकन अँगड़ाई ली और फिर पंजों के बल खड़ी होकर एक बैले डांसर जैसा पोज बनाकर बोली—“कैसी लग रही हूँ ?”
“शानदार !”—डोगरा के मुँह से निकला, उसकी भूखी निगाह उसके साँचे में ढले जिस्म के एक-एक इंच पर फिर रही थी—“करिश्मासाज !”
“अब देखें आप कैसे लगते हैं !”
डोगरा को शर्म आ गयी।
उसने कैसा लगना था ! वह एक थुल-थुल, बेडौल जिस्म वाला अधेड़ावस्था पार कर चुका आदमी था। उस ताजी खिली कली के मुकाबले में उसने तो किसी बिजली गिरे पेड़ का ठूँठ ही लगना था।
“इधर आओ।”—उसने आदेश दिया।
सम्पूर्ण नग्नावस्था में छोटे-छोटे कदम रखती वह उसकी तरफ बढ़ी। वह काफी समीप आ गयी तो डोगरा बाज की तरह उस पर झपट पड़ा। उसने एतराज नहीं किया। कितनी ही देर वह खड़े-खड़े ही उसका अँग-अँग टटोलता रहा, सहलाता रहा, नोचता रहा। फिर अन्त में उसने उसे उसे पीछे पलंग पर धकेल दिया। वह पलंग पर चित्त लेट गयी। उसकी संगमरमर जैसी गोरी बाँहें उसके निमन्त्रण में फैल गयीं। डोगरा ने जल्दी-जल्दी अपने सारे कपड़े अपने जिस्म से अलग किये और फिर उस पर ढेर हो गया।
अगले दो घण्टों में लड़की ने उसे जन्नत का नजारा करा दिया। वह कमसिन थी लेकिन नादान नहीं थी। वह भोली थी, लेकिन नातजुर्बेकार नहीं थी। मर्द को, खासतौर से डोगरा जैसे मर्द को, तृप्त करने के वह सारे लटके जानती थी। वह यूँ ही तो मिसेज पिन्टो के वेश्यालय की सबसे महंगी काल-गर्ल नहीं मानी जाती थी !
पता नहीं कब डोगरा लड़की के ऊपर से लुढ़क गया और खर्राटे भरने लगा।
कोई दो बजे के करीब उसकी दोबारा नींद खुली। उसने आँखें खोलीं और एक कोहनी पर उचककर अपने पहलू में लेटी सन्ध्या की तरफ देखा। वह पलंग पर चित्त लेटी हुई थी। जो कम्बल उसने ओढ़ा हुआ था, वह उसकी कमर के खम से नीचे तक ढलक गया था और उसे उसकी साँसों के साथ बड़े यान्त्रिक ढंग से उठते-गिरते उसके उन्नत उरोज दिखाई दे रहे थे। बैडरूम में फैली मद्धम नीली रोशनी में उसका जिस्म शीशे की तरह चमक रहा था। उसके बाल बिखरे हुए थे, होंठ आधे खुले हुए थे और उनमें से उसके मोतियों जैसे दाँत नीली रोशनी में खूब चमक रहे थे।
डोगरा को फिर अपने में, पहले से कहीं ज्यादा प्रबल, कामवासना जागती महसूस हुई। उसने लड़की को जगाया।
लड़की में तुरन्त प्रतिक्रिया हुई। उसने करवट बदली, उसकी दोनों बाँहें उठीं और वह लता की तरह उसके साथ लिपट गयी। डोगरा ने उसे फिर दबोच लिया।
उस वक्त उसके मस्तिष्क में अपनी काम पिपासा शान्त करने का इकलौता खयाल न होता तो रात के सन्नाटे में हुई वह हल्की-सी खट की आवाज उसने जरूर सुन ली होती, जो उसी क्षण बाहर से बाथरूम की खिड़की खोले जाने की वजह से हुई थी।
डोगरा कुछ क्षण लड़की को अपने साथ लगाये रहा, फिर वह करवट बदलकर उसके ऊपर आ गया।
अब उसका मुँह बाथरूम के दरवाजे की तरफ था।
उसे लगा कि दरवाजा धीरे-धीरे खुल रहा था, लेकिन उसने उसे अपना वहम समझा। उस वहम को दिमाग से निकालकर अभी वह अपनी मुकम्मल तवज्जो लड़की की तरफ कर ही पाया था कि दरवाजा पूरा खुल गया और उसे बाथरूम में से बाहर कदम रखता सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल दिखाई दिया।
डोगरा बिजली की फुर्ती से लड़की पर से हटा और उसने एक कुर्सी की पीठ पर तिरस्कृत-से पड़े उस ड्रेसिंग गाउन की तरफ छलांग लगाई जिसकी जेब में उसकी रिवॉल्वर मौजूद थी।
मिसेज पिन्टो का सायन के इलाके में एक पुराने अन्दाज का लेकिन बड़ा आलीशान बंगला था, जहाँ कि शाम को वह हमेशा होती थी। शाम को वह कभी कहीं नहीं जाती थी लेकिन उस रोज वह कहीं गयी हुई थी।
घोरपड़े ने मालूम करके विमल को बताया कि वह किसी की शादी पर गयी थी और आधी रात से पहले लौटकर नहीं आने वाली थी। इन्तजार के अलावा कोई चारा नहीं था।
उनकी तकदीर अच्छी थी जो मिसेज पिन्टो वक्त से पहले वापस आ गयी। वह ग्यारह बजे ही लौट आयी।
मिसेज पिन्टो लगभग पचास साल की औरत थी जिसकी सारी जिन्दगी—बचपन तक—वेश्यावृत्ति के धन्धे में गुजरी थी। जब से उसे ‘कम्पनी’ के ओहदेदारों की पैट्रनेज हासिल हुई थी, तब से तो उसका धन्धा बहुत ही फला-फूला था और वह बहुत सम्पन्न ही नहीं, बहुत दिलेर भी हो गयी थी। आखिर उसका बिजनेस ‘कम्पनी’ से था। एक तरह से वह भी काला पहाड़ की प्रजा थी। उसका नब्बे प्रतिशत धन्धा तो ‘कम्पनी’ वालों के लिए ही था। ‘कम्पनी’ का बच्चा-बच्चा उसे जानता था और ‘कम्पनी’ के बच्चे-बच्चे को वह जानती थी।
इसलिए वह घोरपड़े को भी जानती थी। वह जानती थी कि घोरपड़े डोगरा का लेफ्टीनेन्ट था और डोगरा ‘कम्पनी’ का ओहदेदार था।
उसके साथ आये विमल को देखकर वह यही समझी कि वह ‘कम्पनी’ का कोई नया रंगरूट था जिसने कोई इनाम के काबिल काम कर दिखाया था और घोरपड़े उसे वहाँ किसी लड़की के साथ फिक्स करने आया था।
मिसेज पिंटो का खयाल गलत निकला।
घोरपड़े ने उससे डोगरा का पता पूछा।
“तुम डोगरा साहब के खास आदमी हो।”—मिसेज पिंटो से घूरती हुई बोली—“तुम्हें अपने बॉस का पता नहीं मालूम ?”
“नहीं मालूम।”—घोरपड़े बड़े सब्र से बोला—“इसीलिए तुमसे पूछ रहा हूँ।”
“अगर तुम्हें नहीं मालूम तो मुझे क्या मालूम होगा ?”
“तुम्हें जरूर मालूम होगा।”—घोरपड़े खा जाने वाली निगाहों से उसे घूरता हुआ बोला—“क्यों जरूर मालूम होगा, यह तुम्हें मालूम है। वैसे वजह मेरे ही मुँह से सुनना चाहती हो तो बात दूसरी है।”
मिसेज पिंटो ने व्याकुल भाव से पहलू बदला।
“आज डोगरा साहब का यहाँ फोन नहीं आया ?”—घोरपड़े फिर बोला।
“किसलिए ?”—मिसेज पिंटो बोली।
“उसी लिए, जिसलिए अक्सर आता है !”
वह खामोश रही।
“आज डोगरा साहब के लिए कहाँ लड़की भेजी है तुमने ?”
“मैं नहीं बता सकती।”—मिसेज पिंटो कठिन स्वर में बोली।
“क्यों नहीं बता सकती ?”
“मेरा इन बातों से क्या मतलब ? अगर तुम डोगरा साहब का पता जानना चाहते हो तो जाकर किसी और से पूछो।”
“और किसी को नहीं मालूम।”
“तो फिर डोगरा साहब अपना पता किसी को नहीं मालूम होने देना चाहते होंगे। तुम उनके खास आदमी हो। अगर उन्होंने तुम्हें अपना पता खुद नहीं बताया तो जाहिर है कि वे नहीं चाहते कि तुम्हें उनका पता मालूम हो।”
“मेरे से जुबानदराजी मत कर, बुढ़िया।”—घोरपड़े एकाएक हत्थे से उखड़ गया—“एक मिनट में डोगरा साहब का पता बोल नहीं तो मैं तेरा गला काट दूँगा।”
और घोरपड़े ने अपनी जेब से चाकू निकाल दिया। आखिर उसने ‘कालीचरण’ को, सुलेमान साहब के आदमी को, भी तो प्रभावित करना था।
मिसेज पिंटो सहमकर एक कदम पीछे हट गयी।
“घोरपड़े !”—वह तीव्र विरोधपूर्ण स्वर में बोली—“तुम मुझसे इस तरह पेश नहीं आ सकते। मेरा काम खामखाह के झमेलों में पड़ना नहीं है। अगर डोगरा साहब ने तुम्हें अपना पता नहीं बताया तो जरूर इसकी कोई वजह होगी। बाद में जब उनको पता लगा कि तुम्हें उनका पता मैंने बताया था तो, जरा सोचो, वे मेरी क्या गत बनायेंगे ?”
“तुम्हें कुछ नहीं होगा।”
“तुम्हारे कहने से क्या होता है ?”
“मैं गारन्टी करता हूँ तुम्हें कुछ नहीं होगा।”
“तुम्हारी गारन्टी की क्या कीमत है ? तुम ‘कम्पनी’ के कोई बड़े ओहदेदार थोड़े ही हो ?”
“नहीं हूँ तो हो सकता हूँ।”
“जब हो जाओ तब आना मुझ पर रोब गाँठने।”
“आ तो अब मैं गया ही हूँ। और जिस काम से मैं आया हूँ, उसे किये बिना मैं यहाँ से जाने वाला भी नहीं हूँ। मिसेज पिंटो, तुम सीधे से नहीं बोलोगी तो डोगरा का पता मैं तुम्हारे हलक में हाथ देकर निकाल लूँगा।”
और वह दृढ़ कदमों से मिसेज पिंटो की तरफ बढ़ा।
“मेरे पास न आना।”—मिसेज पिंटो दहशतभरे स्वर में बोली।
फिर एकाएक वह घूमी और दरवाजे की तरफ लपकी।
घोरपड़े बाज की तरह उस पर झपटा। उसने मिसेज पिंटो को बालों से पकड़कर बड़ी बेरहमी से वापस घसीट लिया। फिर उसने चाकू का फल उसके पेट में सटा दिया और कहरभरे स्वर में बोला—“बहुत बकवास हो चुकी। एक सैकेंड में डोगरा का पता बोल, वरना पेट फाड़कर आँतें बाहर निकाल दूँगा।”
“बताती हूँ।... बताती हूँ।”—वह हाँफती हुई बोली।
घोरपड़े ने उसके बालों से अपनी पकड़ थोड़ी ढीली की।
“होटल नटराज। सूइट नम्बर चार सौ बारह। मैरीन ड्राइव।”
“अगर यह पता गलत हुआ तो जानती हो न मैं तुम्हारी क्या गत बताऊँगा ?”
“बाई जीसस, डोगरा ने मुझे इसी पते पर लड़की भेजने के लिए कहा था।”
घोरपड़े ने उसे छोड़ दिया।
“चलो।”—वह विमल से बोला।
विमल ने इन्कार में सिर हिलाया।
“अब क्या है ?”—घोरपड़े सकपकाया।
“हमारे यहाँ से निकलते ही यह डोगरा को फोन पर खबर कर देगी कि तुमने इससे जबरन उस का पता कुबलवाया है। फिर जब तक हम मैरीन ड्राइव पहुँचेंगे, तब तक डोगरा के सूइट में उल्लू बोल रहे होंगे।”
“यह ऐसी दगाबाजी करने की हिम्मत नहीं कर सकती।”
“यह जरूर करेगी।”
“मैं हरगिज नहीं करूँगी।”—मिसेज पिंटो बोली।
“तुम हमारी पीठ फिरते ही सबसे पहला काम ही यही करोगी।”
“बाई जीसस, मैं...”
“शट-अप।”
“तो फिर क्या किया जाये ?”—घोरपड़े चिन्तित स्वर में बोला।
विमल सोचने का अभिनय करने लगा।
“इसे साथ ले चलें ?”—घोरपड़े ने सुझाव दिया।
“नहीं। यह खामखाह का सिरदर्द पालने जैसा काम होगा।”
“तो ?”
“तुम यहाँ इसके सिरहाने बैठो। मैं मैरीन ड्राइव जाता हूँ। अगर इस औरत ने पता गलत बताया हुआ तो मैं तुम्हें यहाँ फोन कर दूँगा। फिर तुम इसकी मिजाजपुर्सी करके दोबारा इससे सही पता पूछना।”
“मैंने सही पता बताया है।”—मिसेज पिंटो ने फरियाद की।
“शट-अप। बीच में मत बोलो।”
वह खामोश हो गयी।
“अगर पता सही हुआ तो असल काम”—विमल बड़े अर्थपूर्ण स्वर में बोला—“मैं खुद कर लूँगा। असल काम मुझे ही सौंपा गया है। उसके लिए मैंने बताया ही था कि मुझे खासतौर पर तैनात किया गया है। तुम अपने हिस्से का काम कर चुके हो। तुम्हारा काम था डोगरा का पता लगाने में मेरी मदद करना, जिसे कि तुम बहुत खूबसूरती से अँजाम दे चुके हो।”
“तुम अकेले सब सम्भाल लोगे ?”
“हाँ। मुझे इन कामों का बहुत तजुर्बा है। यह कोई पहला मौका नहीं है जबकि सुलेमान साहब ने मुझे ऐसा कोई काम सौंपा है।”
“माजरा क्या है ?”—मिसेस पिंटो व्याकुल भाव से बोली।
“तुम फिर बीच में बोलीं !”—विमल खा जाने वाली निगाहों से उसे घूरता हुआ बोला।
वह फिर सहमकर चुप हो गयी।
“ठीक है फिर ?”—विमल घोरपड़े से बोला।
“ठीक है।”—घोरपड़े बोला—“मैं यहीं इसके सिरहाने बैठता हूँ।”
“असल काम को अँजाम देने में अड़ंगे आ सकते हैं, इसलिए मुझे टाइम लग सकता है, लेकिन मैं आज यह काम कर जरूर डालूँगा। फिर भी अगर दिन चढ़े तक मैं यहाँ वापस न लौटूँ और मेरा फोन न आये तो समझ लेना उल्टे मेरा काम हो गया।”
“ऐसा हो सकता है ?”
“हो तो नहीं सकता, लेकिन फिर भी बता रहा हूँ।”
“रोजी। रोजी का क्या होगा ?”
“रोजी फिलहाल मेरे साथ जा रही है।”
“ओह !”—घोरपड़े के चेहरे पर मायूसी आ गयी।
“बेवकूफ मत बनो।”—विमल तनिक हँसता हुआ बोला—“इस वक्त तुम इस औरत को सम्भालोगे या अपना ईनाम हासिल करोगे ? ये दोनों काम कहीं एक साथ होने वाले हैं ?”
“तुम ठीक कह रहे हो।”
“लेकिन तुम खातिर जमा रखो। वह तुम्हारा ईनाम है। तुम्हें ही मिलेगा। तुम्हारी उम्मीद से पहले तुम्हें मिलेगा।”
“ठीक है।”
घोरपड़े को मिसेज पिंटो के सिरहाने बैठा छोड़कर विमल वहाँ से विदा हो गया। नीलम बंगले से थोड़ी दूर टैक्सी में बैठी थी। वह बड़ी बेचैनी से पहलू बदल रही थी।
“क्या बात है ?”—वह रुआँसे स्वर में बोली—“जहाँ जाते हो, बैठ ही जाते हो ?”
“सॉरी।”—विमल टैक्सी में सवार होता बोला—“मजबूरी थी।”
“डोगरा का पता लगा ?”
“हाँ।”
“घोरपड़े कहाँ रह गया ?”
विमल ने उसे सारी बात बताई।
“कोई घपला तो नहीं हो जायेगा ?”
“कैसा घपला ?”
“घोरपड़े की तरफ से ? या मिसेज पिंटो की तरफ से ? या दोनों की तरफ से ?”
“उम्मीद तो नहीं। फिर भी कुछ हो जाये तो मर्जी वाहेगुरु की।”
नीलम खामोश रही।
वे मैरीन ड्राइव पहुँचे। रास्ते में उन्होंने फिर अपने नवविवाहित जोड़ा लगने वाले कपड़े पहन लिये थे।
उन्होंने टैक्सी एक स्थान पर छुपा दी, एक और टैक्सी पकड़ी और होटल नटराज पहुँचे। तब तक आधी रात हो चुकी थी।
वहाँ उन्होंने स्वयं को प्लेन का ट्रांजिट पैसेंजर बताया जिन्होंने कि अगले रोज फिर प्लेन पकड़ना था और इसलिए वो अपना भारी सामान एयरपोर्ट पर ही छोड़ आये थे।
रिसेप्शन के पीछे लगे इन्डैक्स में विमल को चार सौ बारह में कोई कार्ड लगा न दिखाई दिया।
क्या डोगरा वहाँ नहीं था ?
क्या मिसेज पिंटो ने धोखा दिया था ?
उनसे कमरे की चायस पूछी गयी तो उन्होंने चौथी मंजिल पर कमरा माँगा। उन्हें बताया गया कि उस मंजिल पर केवल सूइट थे। उसने चार सौ बारह की माँग की तो बताया गया कि वह उपलब्ध नहीं था। विमल को तनिक तसल्ली हुई।
फिर चार सौ तेरह उन्हें मिल गया।
दोनों वहाँ पहुँचे। उन्होंने दरवाजा भीतर से बन्द कर लिया।
विमल अपने सूइट का और उस फ्लोर का मुआयना करता रहा और चुपचाप डोगरा के फ्लैट में पहुँचने की कोई तरकीब सोचता रहा।
एक ही तरीका उसे सूझा : कि वह इमारत के बाहर मुश्किल से एक फुट चौड़े प्रोजेक्शन पर उतर जाता और उस पर चलता हुआ बगल के सूइट की बाल्कनी तक पहुँचता।
उसने वही तरीका अपनाया। उसने चेहरे पर सरदार वाले मेक-अप का अंग दाढ़ी-मूँछ लगा ली और सिर पर पगड़ी बाँध ली।
नंगे पाँव वह प्रोजेक्शन पर उतर गया। नीचे इतनी रात गये भी सड़क पर भरपूर ट्रैफिक चल रहा था।
नीलम साँस रोके मन ही मन भगवान से उसकी मंगलकामना करती हुई उसे प्रोजेक्शन पर इंच-इंच आगे सरकता देखती रही।
कोई दस मिनट बाद विमल उसे बगल की बाल्कनी फाँदता दिखाई दिया तो उसकी जान में जान आयी।
विमल ने बाल्कनी के शीशे के दरवाजे से भीतर झाँकने की कोशिश की तो पाया कि शीशों के आगे भारी पर्दे पड़े हुए थे जिनकी वजह से भीतर झाँक पाना असम्भव था। भीतर हल्की नीली रोशनी जलती होने का आभास उसे मिल रहा था लेकिन भीतर से किसी प्रकार की रंच मात्र भी आहट उस तक नहीं पहुँच रही थी।
उसने नि:शब्द दरवाजे के पल्लों को हिलाया-डुलाया।
बाल्कनी का दरवाजा भीतर से बड़ी मजबूती से बन्द था।
वह सोचने लगा। फिर उसे बाल्कनी से थोड़ा और आगे एक खिड़की खुली दिखाई दी। क्या वह खिड़की उसी सूइट से सम्बद्ध हो सकती थी ? देखना होगा। वह बाल्कनी के पहले सिरे पर पहुँचा।
नीलम ने उसे फिर प्रोजेक्शन पर उतरते देखा। उसकी फिर साँस सूखने लगी।
फिर इंच-इंच सरकता बड़ी मेहनत से विमल उस खिड़की तक पहुँचा। वह खिड़की क्या थी, एक तरह से रोशनदान था, जो इतना ऊँचा था कि विमल अपने पंजों पर उचक उसके भीतर झाँक पाया। भीतर अँधेरा था। लेकिन उसे लगा कि वह बाथरूम था। बाथरूम की खिड़कियाँ ही यूँ ऊँची होती थीं और रोशनदान लगती थीं।
उसने खिड़की के पल्लों को धक्का दिया तो दोनों भीतर की तरफ खुल गये। एक पल्ला हल्की-सी खट् की आवाज के साथ पीछे दीवार से कहीं टकराया। विमल स्तब्ध खड़ा हो गया।
लेकिन जब उस आवाज की प्रतिक्रियास्वरूप भीतर से कोई आवाज न हुई तो वह समझ गया कि वह खट् की आवाज भीतर सुनी नहीं जा सकी थी।
सुनी नहीं जा सकी थी या आवाज सुनने के लिए भीतर कोई मौजूद नहीं था ? वह खिड़की की दहलीज के सहारे लटक गया और फिर ऊपर को उचका। बड़ी कठिनाई से वह खिड़की तक पहुँच पाया। कितनी ही देर वह खिड़की पर ही बैठा भीतर की आहट लेने की कोशिश करता रहा। कहीं कोई आहट न थी।
भीतर उतरने से पहले उसने एक बार नीचे सड़क पर झाँका।
उसके शरीर में झुरझुरी दौड़ गयी।
इतनी ऊँचाई से नीचे गिरने पर उसके परखच्चे उड़ सकते थे।
वह खिड़की के सहारे भीतर की तरफ लटक गया और नि:शब्द नीचे फर्श पर कूद गया। कुछ देर जहाँ उसके पाँव पड़े, वह वहीं बुत बना खड़ा आहट लेता रहा।
खामोशी। कहीं कोई आहट नहीं। कहीं कोई आवाज नहीं।
वह दबे-पाँव आगे दरवाजे की तरफ बढ़ा। पैरों से वह नंगा था इसलिए उसके कदमों की आहट कतई नहीं हो रही थी।
दरवाजे के पास पहुँचकर उसने उसके हैंडल को थामा और इंच-इंच करके उसे अपनी तरफ खींचना शुरू किया।
दरवाजा धीरे-धीरे खुलने लगा।
उसे बैडरूम के विशाल पलंग पर किसी की मौजूदगी का आभास मिला।
उसने रिवॉल्वर जेब से निकालकर हाथ में ले ली और दरवाजे को पूरा खोलकर बैडरूम के नीमअँधेरे में कदम रखा।
पलंग पर से एक साया बिजली की फुर्ती से समीप ही पड़ी एक कुर्सी की तरफ झपटा।
नीमअँधेरे में भी विमल ने उस साए को साफ पहचाना।
वह ज्ञानप्रकाश डोगरा था।
उसका हाथ ड्रैसिंग गाउन पर पड़ा, ड्रैसिंग गाउन की जेब में पड़ी रिवॉल्वर पर भी पड़ा, लेकिन उसकी हड़बड़ी में रिवॉल्वर की नाल जेब में कहीं उलझ गयी और जब उसने रिवॉल्वर को जेब से बाहर खींचा तो जेब भी, और साथ में सारा गाउन भी, खिंचता चला आया।
विमल चन्द ही कदमों में पलंग के समीप पहुँच गया। उसके पाँव की एक भरपूर ठोकर डोगरा के रिवॉल्वर के साथ उलझे हाथ पर पड़ी। रिवॉल्वर पर से डोगरा का हाथ हट गया और रिवॉल्वर गाउन समेत धप्प से कालीन बिछे फर्श पर जाकर गिरा।
डोगरा का आधा शरीर पलंग पर था और आधा पलंग से बाहर लटका हुआ था। विमल के हाथ में रिवॉल्वर देखकर वह वैसी ही हास्यास्पद स्थिति में फ्रीज हो गया।
“बत्ती जलाओ।”—विमल ने आदेश दिया।
डोगरा के शरीर में कोई हरकत न हुई।
“यानी कि मेरी शक्ल ठीक से देखे बिना जहन्नुमरसीद होना चाहते हो।”—विमल ने रिवॉल्वर उसकी तरफ तानी—“ठीक है ?”
“जलाता हूँ।”—वह आतंकित स्वर में बोला—“जलाता हूँ।”
उसने तेज रोशनी से सम्बद्ध बैडस्विच ऑन किया।
सन्ध्या ने अपना शरीर ढंक लिया। वह बड़े सहज भाव से विमल की तरफ देख रही थी। वह शान्तिलाल की सहेली की तरह आतंकित नहीं थी। शायद वह सोच रही थी कि जो कुछ हो रहा था, उससे उसका कोई मतलब नहीं था। जरूर वह पक्की प्रोफेशनल थी।
विमल को उसका वह रवैया पसन्द आया।
वह लड़की सिल्विया की तरह उसे धोखा नहीं देने वाली थी। वह अपनी जुबान बन्द रख सकती थी। एक फालतू खून करना उसके लिए जरूरी नहीं था।
“अपने”—विमल कहरभरे स्वर में बोला—“पुराने खिदमतगार को पहचाना, डोगरा साहब ?”
“सोहल !”—डोगरा होंठों में बुदबुदाया—“सोहल !”
विमल ने एक झांपड़ डोगरा के चेहरे पर रसीद किया। उस झांपड़ का काम डोगरा को चोट पहुँचाना नहीं, उसे अपमानित करना था। यह उसके लिए डूब मरने का मुकाम था कि वह, बखिया की बादशाहत का एक इतना बड़ा ओहदेदार, एक छोकरी के सामने एक मामूली आदमी से थप्पड़ खा रहा था।
उस थप्पड़ ने न केवल डोगरा को अपमानित किया, उसका रहा-सहा मनोबल भी तोड़ दिया।
“डोगरा साहब तो”—विमल लड़की से बोला—“यहाँ से स्ट्रेचर पर और आगे मुर्दा गाड़ी पर जायेंगे। तुम कैसे विदा होना चाहती हो ? ऐसे ही या चलकर ?”
“चलकर।”—वह सहज भाव से बोली।
“तो उठकर कपड़े पहनो और चलकर दिखाओ।”
वह बड़े निर्विकार भाव से पलंग से नीचे उतरी। वह अपने कपड़ों के पास पहुँची और जल्दी-जल्दी, लेकिन बड़े सलीके से, एक-एक कपड़ा अपने जिस्म पर उसकी मुनासिब जगह पहुँचाने लगी। दो मिनट में उसने कपड़े पहन लिये। और दो मिनट में उसने गुजारे लायक बाल भी संवार लिये और चेहरे पर बिखरी हुई लिपस्टिक के निशानों को भी साफ कर लिया।
“डोगरा।”—उसे तैयार देखकर विमल डोगरा से सम्बोधित हुआ—“यह यहाँ से पुलिस के पास जाये ?”
“नहीं।”—डोगरा के गले से फटे बाँस जैसी आवाज निकली।
“या तुम्हारे किसी और हिमायती के पास ?”
“नहीं। नहीं।”
“सुना, साहब ने क्या कहा ?”
“सुना।”—लड़की बोली।
“साहब के मुँह से अच्छी तरह सुन लो।”—विमल बोला। उसने डोगरा की मोटी तोंद में रिवॉल्वर की नाल खुबोई।
“किसी से बात नहीं करनी।”—डोगरा तुरन्त यूँ बोला जैसे कोई घिसा हुआ रिकॉर्ड चल रहा हो—“यहाँ के बारे में किसी से कुछ नहीं कहना। तुम्हारा लिफाफा उधर मेज पर पड़ा है। उसे उठाओ और सीधी घर जाओ।”
लड़की ने सहमति में सिर हिलाया। उसने मेज पर से सौ-सौ के नोटों से भरा लिफाफा उठाकर अपने पर्स में रखा और बिना उन दोनों पर दोबारा दृष्टिपात किये वहाँ से विदा हो गयी।
विमल ने फर्श पर गिरा डोगरा का गाउन उठाया। उसका वजन ही बता रहा था कि उसमें रिवॉल्वर थी। उसने जेब से रिवॉल्वर निकाल ली और गाउन पलंग पर फेंक दिया।
वह दरवाजे पर पहुँचा।
दरवाजा खुला था।
लड़की दरवाजा बाहर से बन्द नहीं कर गयी थी, यही इस बात का पर्याप्त प्रमाण था उसका अपनी जुबान खोलने का कोई इरादा नहीं था।
उसने दरवाजे को भीतर से बन्द कर दिया और वापस डोगरा के पास लौटा। तब तक वह पलंग पर से उठ गया था और उसने अपने नंगे जिस्म को गाउन से ढंक लिया था।
“अपना माल कहाँ रखते हो ?”—विमल बोला।
डोगरा ने एक ओर पड़ी अपनी पतलून की तरफ इशारा कर दिया।
विमल ने पतलून उठाई और उसमें से डोगरा का पर्स बरामद किया।
पर्स में केवल पाँच सौ रुपये थे।
“बस !”—वह पर्स डोगरा के मुँह पर मारता हुआ बोला—“यही औकात है तुम्हारी ?”
डोगरा खामोश रहा। उसने जोर से थूक निगली।
“मुझे अपना पचास हजार रुपया चाहिए। मुझे अपना वो रुपया चाहिए, जिसे डकार तुम गये थे लेकिन जिस का गबन करने के इलजाम में जेल मैं गया था। बोलो, क्या किया था तुमने उस रुपये का ?”
डोगरा ने डरते-डरते उसे बता दिया कि उसने रुपये का क्या किया था।
“ओह !”—विमल बोला—“तो तुमने एक तीर से दो शिकार किये थे। ‘कम्पनी’ को वह रकम वापस लौटाकर तुम अपने बाप काला पहाड़ के प्रकोप से भी बच गये और मुझे जेल भिजवाकर तुमने मेरी बीवी भी हथिया ली। कितने होशियार हो तुम। शुरू से ही कितने होशियार हो तुम। उस रोज अगर तुमने मेरे फ्लैट में पीछे से मुझ पर आक्रमण न कर दिया होता तो शायद मैंने अपनी बीवी का खून कर डाला होता, तो शायद बाद में मैंने तुम्हारा भी खून कर डाला होता, लेकिन तुमने अपनी एक चालाकी से अपनी सारी समस्याओं का हल निकाल लिया। तुमने एक तीर से दो कहाँ, कई शिकार किये। कितने ज्यादा होशियार हो तुम !”
डोगरा ने फिर जोर से थूक निगली।
“तो मेरा रुपया तुमने ‘कम्पनी’ को सौंप दिया है। तो अब अपनी रकम मुझे तुम्हारे बाप बखिया से वसूल करनी होगी।”
“सोहल”—डोगरा डरते-डरते बोला—“अगर रुपये की बात है तो वह मैं जितना चाहो दे सकता हूँ। कल सुबह मैं तुम्हें...”
“तुम्हारे लिए अब कोई और सुबह नहीं होने वाली।”
“मैं तुम्हें मालामाल कर दूँगा।”
“क्यों नहीं ? और फिर उसी माल से मेरी माँ जी उठेगी, उसी माल से मुझे मेरी बेगैरत बीवी पतिव्रता बनकर फिर हासिल हो जायेगी, उसी माल से मुझे सरकार के घर से अपने तमाम गुनाहों की माफी मिल जायेगी, उसी माल से मैं फिर सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल नाम का तनख्वाह कमाने वाला सफेदपोश बाबू बन जाऊँगा, उसी माल से मेरी तिनका-तिनका हो चुकी जिन्दगी की नोक-पलक फिर संवर जायेगी, वही माल मुझे यह भी भुला देगा कि मेरी जिन्दगी का बेड़ा गर्क करने वाले शख्स का नाम ज्ञानप्रकाश डोगरा है और मैंने उस हरामजादे का खून पी जाना है।”—आखिरी शब्द कहते-कहते विमल के चेहरे पर ऐसे हिंसक भाव आये कि डोगरा के प्राण काँप गये।
“मुझे माफ कर दो।”—वह गिड़गिड़ाया—“मैं तुम्हारा गुनहगार हूँ। मैं बहुत जलील आदमी हूँ। क्यों मेरे नापाक खून से अपने हाथ रंगते हो ? मुझे माफ कर दो, सोहल, माफ कर दो।”
एकाएक डोगरा विमल के पैरों में गिर पड़ा।
विमल ने बड़े जिरस्कारपूर्ण ढंग से पाँव की ठोकर मारकर उसे परे धकेल दिया।
“अपने किसी भगवान को मानते हो”—विमल उसकी तरफ उसी की रिवॉल्वर तानता हुआ धीरे से बोला—“तो उसे याद कर लो।”
“नहीं !”—आतंक से उसकी आँखें फट पड़ीं—“नहीं ! सोहल, गोली न चलाना। मुझे न मारना ! मुझे…”
विमल ने फायर किया।
एक ही गोली ने डोगरा का भेजा उड़ा दिया।
विमल ने साफ-साफ उसकी आँखों से जीवन ज्योति बुझती देखी।
वह वहीं धप्प से कालीन—बिछे फर्श पर ढेर हो गया।
उसका भेजा सारे कालीन पर बिखरा पड़ा था और खून से कालीन का लाल रंग और लाल होता जा रहा था।
उसने एक सन्तुष्टिपूर्ण निगाह डोगरा पर डाली और फिर अपनी रिवॉल्वर उसकी लाश पर फेंक दी।
उसने अपनी पगड़ी, फिफ्टी और दाढ़ी मूँछ भी अपने चेहरे से उतारकर रिवॉल्वर के पीछे लाश पर उछाल दीं।
उसने जोर से लाश पर थूका।
उसका इन्तकाम पूरा हो गया था।
एक पति के तौर पर जिस जिल्लत और रुसवाई का शिकार उसे होना पड़ा था, कम से कम उसका बदला उसने ले लिया था।
उसके साथ दगाबाजी करने वाली उसकी बीवी और उस पर जुल्म ढाने वाला उसका यार, दोनों जहन्नुमरसीद हो चुके थे।
लेकिन वह अपनी तमाम दुश्वारियों के बाद भी सलामत था। मौत का निशाना तक बन चुकने के बावजूद सलामत था।
शायद यही ऊपर वाले का इन्साफ था।
वाहेगुरु सच्चे पातशाह !—वह होठों में बुदबुदाया—जिसके सिर ऊपर तू स्वामी, वो दुख कैसे पावे !
फिर दोबारा डोगरा की लाश पर निगाह डाले बिना वह वहाँ से बाहर निकल गया।
समाप्त
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