सोमवार : आठ मई : दिल्ली मुम्बई
दोपहर के करीब जनकराज ने अपने थाने में कदम रखा तो एक सिपाही ने बताया कि एस.एच.ओ. साहब दो तीन बार उसे पूछ चुके हैं।
जनकराज तत्काल एस.एच.ओ. नसीब सिंह के कमरे में पहुंचा। उसने उसे सैल्यूट मारा।
“आओ।” — एस.एच.ओ. बोला — “बैठो।”
“थैंक्यू, सर।” — जनकराज उसके सामने बैठ गया।
“कहां रह गये थे?”
“इन्डियन एक्सप्रैस के दफ्तर गया था।”
“उस रिपोर्टर रवि खोसला से मिलने?”
“जी हां।”
“कैसी बीती?”
“बढ़िया। ये सुन कर वो खुश हो गया कि मायाराम के प्रलाप के मामले में परोक्ष में हम उसकी तरफदारी कर रहे थे। बोला, अगर मैं उसे कोई गर्मागर्म टिप दे सकूं तो कल ही इस बाबत उसके पर्चे में सम्पादकीय छपेगा।”
“दी कोई टिप?”
“दे सकता था लेकिन आपकी इजाजत नहीं ली थी इसलिये नहीं दी।”
“क्या टिप दे सकते थे?”
“यही कि दिल्ली पुलिस के रिकार्ड में जो सोहल के फिंगरप्रिंट्स उपलब्ध हैं, वो जेनुइन नहीं हैं, उनके साथ कोई हेराफेरी हो चुकी है और इसी वजह से वो उस कथित अरविन्द कौल के फिंगरप्रिंट्स से नहीं मिले थे।”
“अभी टिप दी तो नहीं न उसे?”
“अभी नहीं दी लेकिन क्या खयाल है? दी जाये?”
“अभी सोचते हैं। पहले इस बाबत जो गुड न्यूज मेरे पास है, वो सुनो।”
“गुड न्यूज है तो जरूर सुनाइये। फौरन सुनाइये।”
“ये देखो क्या है?”
एस.एच.ओ. ने उसके सामने एक कागज रखा जिसमें कि कई बल थे।
“क्या है?” — जनकराज सकपकाया सा बोला।
“अरविन्द कौल के वो फिंगरप्रिंट्स जो हमने मायाराम की गुहार पर कौल के साथ आये योगेश पाण्डेय के सामने लिये थे।”
“ओह! ओह! यानी कि हमारा जमादार खत्ते पर से ये कागज तलाश कर लाने में कामयाब हो गया!”
“हां।”
“ये तो भारी शाबाशी के लायक काम किया उसने?”
“और इनाम के लायक भी। शाबाशी और इनाम दोनों उसे मिल चुके हैं।”
“वैरी गुड।”
“दूसरी खास खबर ये है कि हमारे कल के फैक्स मैसेज के जवाब में कूरियर द्वारा तीन जगह से सोहल के फिंगरप्रिंट्स की प्रतिलिपियां यहां पहुंच भी चुकी हैं।”
“कहां कहां से?”
“राजस्थान पुलिस के पास से, यू.पी. पुलिस के पास से और इलाहाबाद सैन्ट्रल जेल के रिकार्ड में से।”
“बाकी जगहों से...”
“आ जायेंगे। आज शाम तक या कल तक महाराष्ट्र, गोवा और तामिलनाडु से भी हमें हमारी वांछित जानकारी प्राप्त हो जायेगी। न प्राप्त होने का कोई मतलब ही नहीं है। आखिर सरकारी काम है। बहरहाल हमारा काम उन प्रतिलिपियों से भी बाखूबी चल सकता है जो कि हमें प्राप्त हो चुकी हैं। चल चुका है।”
“चल चुका है? यानी कि आप उनका एग्जामिनेशन कर भी चुके हैं?”
“हां। और मेरा एग्जामिनेशन ये कहता है कि सोहल के फिंगरप्रिंट्स के जो तीन सैट्स हमें आज कूरियर से प्राप्त हुए हैं, वो तीनों आपस में हूबहू मिलते हैं। कथित अरविन्द कौल के फिंगरप्रिंट्स, जो इस मुचड़े हुए कागज पर दर्ज हैं, वो भी उन तीनों सैटों से हूबहू मिलते हैं।”
“इसका तो साफ मतलब हुआ कि वो सफेदपोश बाबू अरविन्द कौल ही सोहल था।”
“फाइनल बात अभी हम बाद में करेंगे। पहले तुम बताओ, कल हैडक्वार्टर पर क्या हुआ? पंजाब पुलिस के भेजे सोहल के फिंगरप्रिंट्स से क्या हैडक्वार्टर में उपलब्ध फिंगरप्रिंट्स मिलते पाये गये थे?”
“जरा भी नहीं मिलते पाये गये थे। मैं हैडक्वार्टर वाले फिंगरप्रिंट्स की एक और प्रतिलिपि ले आया हूं। आप खुद मिलान करके देख लीजिये।”
एस.एच.ओ. ने मिलान किया और खुद तसदिक की कि वो दोनों सैट आपस में नहीं मिलते थे। फिर उसने उन्हें बारी बारी से उन तीन सैटों से मिलाया जो उस रोज कूरियर से वहां पहुंचे थे तो पाया कि पंजाब पुलिस वाले प्रिंट्स उन तीन सैटों में से हर किसी से मिलते थे लेकिन दिल्ली पुलिस वाले प्रिंट्स किसी से नहीं मिलते थे।
आखिरकार एस.एच.ओ. ने मैग्नीफाईंग ग्लास नीचे रख दिया और अपनी बारीक पड़ताल का नतीजा अपने मातहत पर उजागर किया।
“इसका तो साफ मतलब हुआ” — जनकराज तनिक उत्तेजित स्वर में बोला — “कि हमारे वाले प्रिंट्स के साथ छेड़ाखानी की गयी है।”
“छेड़ाखानी क्या” — एस.एच.ओ. बोला — “अब तो निर्विवाद रूप से साबित हो गया है कि हमारे पुलिस हैडक्वार्टर में भी सोहल का पाण्डेय और शुक्ला जैसा ही कोई हिमायती बैठा है जिसने उसकी खातिर उसके फिंगरप्रिंट्स रिकार्ड में से उड़ा दिये और उनकी जगह पता नहीं किस के फिंगरप्रिंट्स वहां रख दिये।”
“ये तो गम्भीर मामला है।”
“उसकी तफ्तीश हमारे उच्चाधिकारी करवायें या न करवायें, वो उनकी मर्जी है लेकिन जो कुछ इस वक्त हमारे सामने है, वो भी कोई कम गम्भीर मामला नहीं है। अब हमें यकीनी तौर पर मालूम है कि वो बाबू अरविन्द कौल ही मशहूर इश्तिहारी मुजरिम सोहल था जिसकी बाबत उसका गैलेक्सी का एम्पलायर शुक्ला तो अन्धेरे में रहा हो सकता था लेकिन वो योगेश पाण्डेय, जो इतना बड़ा सरकारी अफसर है, सब कुछ जानता था। वो शुरू से जानता था कि कौल कोई विस्थापित कश्मीरी ब्राह्मण नहीं, सोहल था। इस लिहाज से कोई बड़ी बात नहीं कि हैडक्वार्टर से सोहल के फिंगरप्रिंट्स तब्दील करवाने के पीछे भी उसी का हाथ हो।”
“सोहल की हिमायत की खातिर?”
“जाहिर है।”
“इतना बड़ा सरकारी आदमी एक इश्तिहारी मुजरिम का हिमायती क्योंकर बन गया?”
“कोई तो वजह होगी! बहरहाल हमारा उस पर इलजाम ये है कि उसने जानते बूझते सोहल को यहां से रिहा करवाया, उसने अपने रुतबे और रसूख का बेजा इस्तेमाल करके, बाकायदा हमारी आंखों में धूल झोंक कर, हमें मायाराम की सोहल की बाबत दाद फरियाद को नजरअन्दाज करने के लिए मजबूर करके एक इश्तिहारी मुजरिम को रिहा कराया और फरार हो जाने में उसकी मदद की। अपना ये केस हम अपने ए.सी.पी. के सामने रखेंगे। अगर उसने इस मामले में कोई पहल की तो बढ़िया, लेकिन अगर हर किसी ने योगेश पाण्डेय के रुतबे के रौब में आकर मामले को दबाने या रफा-दफा करने की कोशिश की तो हमारी अपने उच्चाधिकारियों से बाहर जाने की मजाल तो नहीं हो सकेगी लेकिन तब हम इस तमाम किस्से की एक गुमनाम टिप रवि चोपड़ा को ही नहीं, मुकम्मल प्रैस को दे देंगे और फिर पुलिस की जो फजीहत होगी, उसका भरपूर तमाशा देखेंगे।”
“खतरनाक कदम है, साहब।”
“हमारे उच्चाधिकारियों ने पाण्डेय की खबर लेने में कोई कोताही की तो उठाना पड़ेगा।”
“पाण्डेय की बाबत एक और बात मालूम हुई है, जनाब।”
“वो क्या?”
“एस.पी. दुबे साहब, जो कि नॉरकॉटिक्स कन्ट्रोल ब्यूरो के चीफ हैं, योगेश पाण्डेय के ससुर हैं।”
“सत्यानाश! ये तो वही मसल हो गयी कि करेला और नीम चढ़ा।”
जनकराज ने सहमति में सिर हिलाया।
“और क्या खबर है?”
“और खबर कोविल हाउसिंग कम्पलैक्स से है।”
“क्या?”
“नीलम — कौल की बीवी — कल से सुमन वर्मा के फ्लैट पर अपने बच्चे के पास वापिस नहीं लौटी है।”
“कमाल है! कहां चली गयी होगी वो?”
“क्या पता!”
“वहां की निगरानी करते हमारे आदमियों से कोई कोताही तो नहीं हुई? ऐसा तो नहीं कि वो आ के चली गयी हो? या वो फ्लैट में ही हो और उसके लौटने की उन्हें खबर ही न लगी हो?”
“नो, सर। ऐसा नहीं हो सकता।”
“हूं।” — एस.एच.ओ. कुछ क्षण सोचता रहा और फिर बोला — “अभी एकाध दिन और हम नीलम के लौट आने का इन्तजार करेंगे। उसके बाद हम उस लड़की सुमन वर्मा को थामेंगे और उसी से कुबुलवायेंगे कि नीलम कहां है। ओके?”
“यस, सर।”
“अब जा के ए.सी.पी. साहब का पता करो कि वो अभी आये या नहीं, ताकि हम अपनी सारी खोज खबर उनके हुजूर में पेश कर सकें और जान सकें कि वो आगे क्या करते हैं और क्या नहीं करते?”
“यस, सर।”
झामनानी के करोल बाग के इलाके में स्थित आफिस में उसके बाकी के तीनों बिरादरीभाई मौजूद थे।
“साईं लोगो” — झामनानी बोला — “हमारा नया धन्धा हमारी उम्मीद से बहुत जल्दी वजूद में आने के और रफ्तार पकड़ने के लच्छन दिखा रहा है।”
“के मतलब होया जी इस बात का?” — भोगीलाल बोला।
“आज सुबह ही बड़े साहब रीकियो फिगुएरा ने सिंगापुर से सीधे मेरे से बात की है। उससे मुझे मालूम हुआ है कि हेरोइन की हमारी पहली खेप आइन्दा दो या तीन दिनों में ही मुम्बई पहुंचने वाली है।”
“मुम्बई!” — ब्रजवासी सकपकाया — “यहां नहीं?”
“नहीं। बड़ा साहब कहता है कि कराची से मुम्बई हेरोइन पहुंचाने का उनका सेफ रूट शुरू से बना हुआ है। हमें डिलीवरी उधर ही मिलेगी। वहां से दिल्ली हेरोइन लाने का इन्तजाम हमें खुद करना होगा।”
“ऐ ते कोई गल्ल न होई।” — पवित्तर सिंह भुनभुनाया — “मैंनू पक्का मलूम है कि गुरबख्शलाल को डिलीवरी दिल्ली विच मिलदी सी।”
“उसका सप्लाई का सोर्स वो नहीं था जो हमारा है। वो हेरोइन ईरान से या थाईलैंड से मंगवाता था जहां कि रेट भी ज्यादा लगता था और जहां की हेरोइन की प्योरिटी की भी गारंटी नहीं होती थी। साईं लोगो, ‘भाई’ और रीकियो फिगुएरा की शह की वजह से हमें वो हेरोइन मिलेगी जो कि नम्बर फोर कहलाती है और जो 99% प्योर और अनकट होती है और भाव लगेगा अड़तालीस हज़ार डालर फी किलो का।”
“रुपयों में के भाव होया जी ये?” — भोगीलाल बोला।
“आज की डालर की कीमत के हिसाब से कोई बीस लाख रुपया।”
“पहले तो ” — ब्रजवासी बोला — “देसी मार्केट में खुदरा सेल करने पर प्योर अनकट हेरोइन का एक करोड़ रुपया खड़ा होता था, अब क्या हाल है?”
“वडी, अब भी यही हाल है, नी। एक करोड़ ही खड़ा होगा एक किलो हेरोइन का।”
“वदिया!” — पवित्तर सिंह संतोषपूर्ण स्वर में बोला।
“कितना माल आ रिया है?” — भोगीलाल बोला।
“फिलहाल छ: किलो” — झामनानी बोला — “जिसकी एक करोड़ बीस लाख रुपये की पेमेंट हमें एडवांस में करनी पड़ेगी।”
“मुम्बई में?” — ब्रजवासी बोला।
“आइन्दा मुम्बई में। डिलीवरी पर। लेकिन इस पहली बार दिल्ली में। मेरी खास दरख्वास्त पर।”
“कुबूल हो गयी दरख्वास्त?”
“हां। झूलेलाल की किरपा से हो गयी कुबूल।”
“सिन्धी भाई, माल की डिलीवरी की बाबत भी दरख्वास्त करनी थी कि वो दिल्ली में हो।”
“की थी, साईं, की थी, लेकिन वो दरख्वास्त कुबूल नहीं हुई नी। माल की डिलीवरी मुम्बई में लेकर उसे दिल्ली लाने का हमें अपना इन्तजाम करना होगा।”
“जोखम का काम है।”
“वडी साईं, ड्रग्स का तो सारा धन्धा ही जोखम का काम है, नी। साईं लोगो, है कोई गैरकानूनी धन्धा तुम्हारी निगाह में जिसमें कि जोखम नहीं है?”
“सिन्धी भाई ठीक कै रिया है।” — भोगीलाल बोला।
“ठीक ते कै रया ए वीर मेरा।” — पवित्तर सिंह बोला — “लेकिन अब ये समझाये तो सही कि साडा माल मुम्बई तों दिल्ली किस्त्रां आयेगा?”
“समझाता हूं, साईं समझाता हूं।” — झामनानी बड़े सब्र के साथ बोला — “पहले मैं साईं लोगो को एक और बात समझाता हूं।”
“क्या?” — ब्रजवासी बोला।
“साईं लोगो, गुजश्ता दिनों में हमारा बिरादरीभाई सलीम खान ही इकलौता आदमी नहीं था जो कि चोरी छुपे इधर हेरोइन के कारोबार में उतरा हुआ था। इस धन्धे में दासानी नाम का मेरा एक जातभाई भी था जो जयपुरिया नाम के एक और साईं से मिल कर सलीम खान से अलग हेरोइन का धन्धा दिल्ली और यू.पी. में चला रहा था। उन दोनों पार्टियों की आपसी लड़ाई में दोनों का ही बेड़ागर्क हो गया था जो कि हमारे लिये अच्छा ही हुआ। अब वो सभी लोग ऊपर पहुंच चुके हैं इसलिये हमारे लिये मैदान साफ है। मैं साईं लोगो के आगे दासानी और जयपुरिया की जुगलबन्दी का जिक्र करना चाहता हूं और ये बताना चाहता हूं कि वो कैसे हेरोइन मुम्बई से दिल्ली मंगवाते थे?”
“कैसे मंगवाते थे?”
“वो साईं लोग एक ट्रांसपोर्ट कम्पनी के भी मालिक थे जिसके ट्रक दिल्ली और मुम्बई के बीच आम चलते थे। उनकी गाजियाबाद में एक पेपर मिल थी जिसका कोई पुर्जा बिगड़ जाता था तो वो उन्हीं के ट्रक में लद कर मुम्बई से इधर आता था।”
“पुर्जा! कैसा पुर्जा?”
“कैसा भी? पेपर मिल में सैकड़ों की तादाद में बड़े पुर्जे होते हैं। मसलन कोई ड्राइव शाफ्ट, कोई फीड पाइप, कोई पिलर। साईं लोगो, नया पुर्जा मुम्बई से आता था या बिगड़ा हुआ पुर्जा मरम्मत के लिए मुम्बई भेजा जाता था तो उसी में छुपा कर हेरोइन की खेप इधर लायी जाती थी।”
“छुपा कर कैसे?”
“वडी, वो पुर्जा भीतर से खोखला होता था या कर दिया जाता था।”
“ओह!”
“आखिरी बार जिस पुर्जे में हेरोइन आयी थी और जिसकी वजह से इतना खूनखराबा हुआ था कि क्या दासानी, क्या जयपुरिया, क्या अपना सलीम खान सब मर खप गये थे, वो एक शाफ्ट था जो कि भीतर से खोखला था। साईं लोगो, उससे मिलता जुलता ही तरीका अपना माल दिल्ली लाने के लिए हम आजमायेंगे। झूलेलाल की मेहर से खोखले शाफ्ट जैसी ही कोई खोखली जगह छ: किलो हेरोइन छुपाने के लिए हमें भी हासिल होगी।”
“कौन सी जगह?”
झामनानी ने बताया।
सुनते ही बिरादरीभाईयों के चेहरे खुशी से दमकने लगे।
“बल्ले, भई” — पवित्तर सिंह बोला — “यानी कि साडा माल सरकार ढोयेगी।”
“सरकारी इन्तजाम के साथ” — ब्रजवासी बोला — “हमारा माल दिल्ली पहुंचेगा।”
“सिन्धी भाई” — भोगीलाल बोला — “तन्ने तो तेरे झूलेलाल से खास ही आला दिमाग मिला दीखे से।”
“वडी, तारीफ का शुक्रिया, साईं लोगो।” — झामनानी बोला — “अब हम अगली आइटम पर आयें?”
“अगली आइटम?” — ब्रजवासी की भवें उठीं — “यानी कि?”
“यानी कि कुशवाहा।”
पहाड़गंज जैसे तीन थानों का इंचार्ज ए.सी.पी. प्राण सक्सेना पहाड़गंज थाने की इमारत में ही बैठता था। वो सीधा ए.सी.पी. भरती हुआ बड़ा जहीन, युवा आई.पी.एस. अधिकारी था जिसने कि बड़े गौर से एस.आई. और एस.एच.ओ. की पूरी दास्तान सुनी और तमाम दस्तावेजों का खुद मुआयना किया।
“ये तो बड़ा गम्भीर मामला है।” — आखिरकार ए.सी.पी. बोला।
“सर” — एस.एच.ओ. अदब से बोला — “तभी तो हमने इसे आपकी जानकारी में लाना जरूरी समझा।”
“लेकिन पंछी तो उड़ गया! मुजरिम तो फरार हो गया!”
“अभी पूरी तरह से नहीं हो गया। अभी उसकी एक डोर हमारे हाथ में है।”
“उसका बच्चा, जो उस लड़की सुमन वर्मा की कस्टडी में है?”
“जी हां।”
“गुड। उस लड़की पर कड़ी नजर रखी जाये।”
“रखी जा रही है, सर।”
“एक वाजिब वक्फे में बच्चे की मां न लौटे तो उस लड़की को हिरासत में ले लिया जाये।”
“सर, यही इरादा है हमारा।”
“गुड।”
“अब आप कोई कदम उठायेंगे, सर?”
“जरूर। जरूर उठायेंगे। ये ऐसा मसला नहीं है जिसे कि इसलिये नजरअन्दाज किया जा सके कि इसमें एक बड़े सरकारी आदमी का हाथ है। तुमने मालूम किया कि ये पाण्डेय साहब कहां पाये जाते हैं?”
“मुझे उनके घर का पता मालूम है।” — एस.आई. जनकराज जल्दी से बोला — “लेकिन इस वक्त वे घर तो नहीं होंगे।”
“तो कहां होंगे?”
“अपने आफिस में। जो कि लोधी आफिस कम्पलैक्स में है। मैंने पता मालूम कर लिया है। ऐंटीटैरेरिस्ट स्क्वायड का दफ्तर भी वहां सी.बी.आई. वाले आफिस कम्पलैक्स में ही है।”
“गुड। तुम वहां चलने की तैयारी करो, तब तक मैं डी.सी.पी. साहब से बात करता हूं।”
“यस, सर।”
वो उठकर जाने लगे तो एकाएक ए.सी.पी. बोला — “इस कौल के बारे में हमें मुकम्मल जानकारी है?”
एस.एच.ओ. ने जनकराज की ओर देखा।
जनकराज ने हिचकिचाते हुए सहमति में सिर हिलाया।
“मैं वो भी सुनूंगा।” — ए.सी.पी. बोला — “लेकिन रास्ते में। राइट?”
“यस, सर।” — एस.एच.ओ. बोला।
“नाओ, गो अहेड।”
“यस, सर।”
विमल नागपाड़ा से दरबारी लाल के यहां चक्कर लगाकर लौटा ही था कि कोठी का एक नौकर उसके पास पहुंचा।
“साहब आपको आफिस में याद कर रहे हैं।” — वो अदब से बोला।
तत्काल विमल लोहिया के कोठी में ही बने उस आफिसनुमा कमरे में पहुंचा जो कि अब तक उसकी खूब जानी पहचानी जगह बन चुका था।
आफिस में एक अधेड़ावस्था का सूटबूटधारी व्यक्ति और मौजूद था।
“कहीं चले गये थे, भई, सवेरे सवेरे?” — लोहिया बोला।
“यूं ही जरा एक काम से गया था।” — विमल बोला — “फरमाइये।”
“पहले बैठो तो सही! फिर फरमाते भी हैं।”
विमल एक कुर्सी पर बैठ गया।
“इनसे मिलो।” — लोहिया बोला — “ये राजेश जठार हैं। मेरे दोस्त हैं।”
“हल्लो, सर।” — विमल अदब से बोला।
“और, जठार साहब, ये मेरा खास दोस्त और अजीज...”
“विमल।” — विमल जल्दी से बोला — “विमल नाम है मेरा।”
“हल्लो।” — जठार बोला।
“जठार साहब” — लोहिया बोला — “तुम्हारे लौटने के इन्तजार में ही यहां मौजूद हैं।”
“जी!” — विमल सकपकाकर बोला।
“ये ओरियंटल होटल्स एंड रिजोर्ट्स लिमिटेड के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स पर हैं।”
“ओह! ओह!”
“बड़े आदमी हैं। कई कम्पनियों के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स पर हैं। उनमें से एक कम्पनी इत्तफाक से मेरी भी है।”
“आई सी।”
“ये मेरे जिगरी दोस्त हैं। ओरियन्टल के बारे में जो कोई भी सवाल कल तुम मेरे से पूछ रहे थे, वो सब तुम निसंकोच इनसे पूछ सकते हो।”
विमल हिचकिचाया।
“तुम्हारी जुबान से निकली हर बात इनके पास भी उतनी ही महफूज होगी जितनी कि मेरे पास, इसे मेरा आश्वासन ही नहीं, मेरी गारन्टी भी जानो।”
“ऐसा है तो मेरा पहला सवाल तो महेश दाण्डेकर के बारे में ही है जो कि ओरियन्टल का मौजूद एम.डी. है और जाे, सुना है कि, बहुत कड़क आदमी है।”
“कड़क आदमी से क्या मुराद है तुम्हारी?” — जठार बोला।
“साफ बोलूं?
“हां, भई, दुरुस्त जवाब चाहते हो तो साफ तो बोलना ही पड़ेगा!”
“हल्का आदमी है। ढंका छुपा मवाली है।”
“है तो ऐसा ही!”
“पढ़ा लिखा है?”
“मामूली।”
“कार्पोरेट बिग बासिज जैसी कोई खूबी उसमें नहीं?”
“नहीं।”
“एम.डी. कैसे बन गया?”
“पैसे के जोर से।”
“पैसा कहां से आया?”
“वहीं से, जहां से जरायमपेशा लोगों के पास आता है।”
“काला?”
“हां।”
“कभी पकड़ा नहीं गया?”
“अभी तक तो नहीं पकड़ा गया! इतना रुतबे और रसूख वाला बन जाने के बाद अब तो क्या पकड़ा जायेगा!”
“ऐसे लोगों की पोल” — लोहिया बोला — “खुल भी जाये तो पुलिस उन पर हाथ डालने से कतराती है।”
“इनका फर्जी बड़प्पन इस बात में भी होता है” — जठार बोला — “कि ये बड़े बड़े नेता लोगों के हमप्याला हमनिवाला होते हैं। मामूली काम भी निकलवाना हो तो सीधे पुलिस कमिश्नर से, चीफ मिनिस्टर से बात करते हैं; बल्कि दिल्ली, होम मिनिस्टर को फोन लगाते हैं।”
“साथ बॉडीगार्ड क्यों रखता है?”
“दो वजहों से।”
“वो क्या हुई?”
“एक तो बॉडीगार्ड रखना आजकल बड़प्पन की निशानी बन गया है, स्टेटस सिम्बल बन गया है, दूसरे, भले ही आज वो एम.डी. की कुर्सी पर बैठा हुआ है, अपनी ओरीजिनल औकात तो नहीं भूलती होगी न उसे! अभी कल तक वो जिनके साथ काले धन्धे करता था, क्या पता उनमें से कितनों के साथ उसने यारमारी की होगी!”
“होटल सी-व्यू पर जो ओरियन्टल ने कब्जा किया है, उसकी नौबत क्योंकर आयी? क्या अकेले दाण्डेकर के किये ही ऐसा हो गया?”
“नहीं। ऐसे काम हमेशा बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स की मीटिंग में वोटिंग से होते हैं। अब ये बात दीगर है कि जिस बात में दाण्डेकर की दिलचस्पी दिखाई दे, उसमें उसकी चम्पी करने को बेताब डायरेक्टर लोग उसके हक में बिना सोचे समझे हाथ उठा देते हैं। जो कदरन गैरतमन्द होते हैं, जो एम.डी. की मुखालफत करके अपने आपको सिंगलआउट नहीं करना चाहते, वो वोटिंग के वक्त गैरहाजिर हो जाते हैं।”
“आई सी।”
“लेकिन सी-व्यू के टेकओवर के वक्त ऐसी नौबत नहीं आयी थी। वो होटल मवालियों के कब्जे से निकल पाता, ऐसी मंशा तकरीबन सब डायरेक्टर्स की थी।”
“ऐसी नौबत पहले कभी क्यों न आयी?”
“राजबहादुर बखिया की दहशत की वजह से। वो बहुत कड़क मवाली था। उससे हर कोई खौफ खाता था। सारी मुम्बई उसके नाम से थर थर कांपती थी। वो चाहता तो वैसे ही होटल का मालिक बन बैठता, जो मुखालफत करता, उसकी लाश का पता न लगने देता लेकिन उसने इतनी धांधली नहीं की थी। बाजरिया सुवेगा इन्टरनेशनल, ओरियन्टल में उसके बीस पर्सेंट शेयर थे। इतने से मैजोरिटी नहीं बनती लेकिन उसका खौफ ऐसा था कि उसकी मुखालफत में खड़ा होने की हिम्मत करने वाला कोई नहीं था। लिहाजा बखिया से ओरियन्टल का एक तरह से ये खामोश करार था कि कोई होटल पर उसके कन्ट्रोल को चैलेंज नहीं करेगा, कागजात में वो होटल का चेयरमैन और मैंनेजिंग डायरेक्टर होगा और उसके रुतबे को कोई डायरेक्टर विरोध नहीं करेगा।”
“करेगा तो मरेगा।”
“ऐग्जैक्टली।”
“बखिया के बाद क्या हुआ?”
“कुछ भी न हुआ। वक्ती तौर पर हमने चैन की सांस ली लेकिन जल्दी ही उसकी खाली गद्दी पर उस जैसे ही एक दूसरे मवाली इकबाल सिंह ने कब्जा कर लिया। फिर इकबाल सिंह एकाएक कहीं गायब हो गया तो गद्दी व्यास शंकर गजरे नाम के एक और मवाली की मिल्कियत बन गयी। अब गजरे की मौत के बाद ‘कम्पनी’ की, बल्कि यूं कहो कि गजरे की, गद्दी का कोई दावेदार सामने नहीं आया तो होटल को हमने अपने काबू में कर लिया।”
“ये तो एक जायज और माकूल कदम हुआ! इसमें दाण्डेकर की किसी जाती दिलचस्पी का कोई दखल तो न हुआ! ये तो बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स की हामी पर एक मुनासिब कदम उठाया उसने।”
“अभी तो ऐसा ही जान पड़ता है लेकिन ये खुसर पुसर बरकरार है कि दाण्डेकर के इस कदम में कोई पोल जरूर है।”
“कहीं वो बखिया तो नहीं बनना चाहता? होटल पर काबिज होकर ‘कम्पनी’ की ताकत को अपनी ताकत तो नहीं बनाना चाहता?”
जठार कुछ क्षण खामोश रहा, फिर हिचकिचाता हुआ बोला — “एक बात है जो उसकी इस मंशा की तरफ इशारा हो सकती है बशर्ते कि वो सच हो।”
“क्या बात?” — विमल उत्सुक भाव से बोला।
“खुसर पुसर ये भी हो रही है कि ‘कम्पनी’ के भूतपूर्व सिपहसालार श्याम डोंगरे का कत्ल उसने करवाया है।”
“इस बाबत आपका क्या खयाल है?”
“भई, उसके कत्ल का स्टाइल तो गैंग किलिंग जैसा ही था, अब आगे जो नतीजा निकालना हो, खुद निकालो।”
“ओरियन्टल को सोहल का कोई खौफ नहीं?”
“सोहल?”
“जिसकी वजह से ‘कम्पनी’ उजड़ी, जो ‘कम्पनी’ के तीन बड़े महन्तों की मौत की वजह बना?”
“मेरे खयाल से तो नहीं!”
“वजह?”
“‘कम्पनी’ पर उसकी कोई दावेदारी सामने नहीं आयी है। और होटल पर उसकी दावेदारी की कोई बुनियाद ही नहीं है। सोहल ‘कम्पनी’ को खत्म बताता है। ‘कम्पनी’ ही खत्म हो गयी तो कौन उसे होटल पर काबिज बने रहने देगा?”
“ओह!”
“पता नहीं कैसे उस शख्स ने सोच लिया था कि वो ‘कम्पनी’ के निजाम पर काबिज हुए बिना होटल पर काबिज हो सकता था?”
लोहिया ने विमल की तरफ यूं देखा जैसे खुद वो भी उससे — सोहल से — वही सवाल कर रहा हो।
“शायद इसलिये” — विमल ने भी जैसे सोहल की तरफ से ही सफाई दी — “क्योंकि उसे ये मालूम नहीं था कि असल में होटल सी-व्यू ‘कम्पनी’ की मिल्कियत नहीं था।”
“ये हो सकता है।” — जठार बोला।
“होटल पर कब्जा जमा लेने के बाद अब ओरियन्टल का इरादा क्या है?”
“कम से कम होटल चलाने का इरादा तो नहीं है। पहला इरादा तो उसे आफिस कम्पलैक्स बनाने का है। आफिस बड़ी बड़ी कम्पनियों को लीज पर या आउटराइट सेल पर दिये जा सकते हैं। वो प्रोजेक्ट कामयाब न हुआ तो इमारत को ही बेच देने का है।”
“शेयर होल्डर्स को ये कुबूल होगा?”
“इसका फैसला तो बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स की मीटिंग में वोटिंग से होगा।”
“तमाम फैसले ऐसे, वोटिंग से, ही होते हैं?”
“जाहिर है। ऐसा ही नियम है।”
“टोटल डायरेक्टर्स कितने हैं?”
“पन्द्रह।”
“सभी दाण्डेकर का हुक्का भरते हैं?”
“ऐसा तो नहीं है।”
“यानी कि उसके पेश किये सभी प्रस्ताव पास नहीं हो जाते?”
“सभी तो नहीं हो जाते। आखिर कई मामलों में डायरेक्टर्स ने शेयर होल्डर्स की भलाई भी देखनी होती है। अलबत्ता इतना जरूर है कि कुछ डायरेक्टर्स खुलकर दाण्डेकर की मुखालफत में हाजिरी लगवाना पसन्द नहीं करते। वो या तो वोट देते नहीं या वोटिंग के वक्त उठ के चले जाते हैं।”
“हर मीटिंग में तमाम डायरेक्टर्स मौजूद होते हैं?”
“नहीं, लेकिन इतने जरूर मौजूद होते हैं कि कोरम काल हो जाये।”
“बाकी डायरेक्टर्स कैसे हैं? दाण्डेकर जैसे ही?”
“मैं कैसा हूं?”
“मुझे अपना जवाब मिल गया। यानी कि ओरियन्टल होटल्स मवालियों की ही जमात नहीं है।”
“नहीं है।”
“होटल के भविष्य के बारे में आम राय क्या है? वो जो दाण्डेकर की है या कुछ ऐसे भी हैं जो उसे होटल ही देखना चाहते हैं?”
“ऐसे भी हैं जो उसे होटल ही देखना चाहते हैं। मैं भी उनमें से एक हूं।”
“सुवेगा के ओरियन्टल में बीस प्रतिशत शेयरों की इस वक्त क्या पोजीशन है?”
“अभी कोई पोजीशन नहीं। अभी उन शेयरों का कोई दावेदार सामने नहीं आया।”
“आयेगा तो क्या होगा?”
“तो वो अपना दावा लगायेगा तो शेयर उसके नाम ट्रान्सफर हो जायेंगे।”
“ऐसा होने के लिए कोई फौरी और मुनासिब वक्त सुझाइये।”
“वो वक्त तो आज ही है।”
“अच्छा!”
“आज साढ़े चार बजे बोर्ड की मीटिंग है। वो कथित दावेदार अपना ऐसा दावा उस मीटिंग में पेश करेगा तो जो फैसला होना होगा, हाथ के हाथ हो जायेगा।”
“दावेदार तो अभी पेश नहीं हो सकता लेकिन उसका एक प्रतिनिधि आज आपकी मीटिंग में पहुंचेगा।”
“प्रतिनिधि कौन?”
“देखियेगा। आखिर आप भी वहीं होंगे।”
ए.सी.पी. प्राण सक्सेना, इन्स्पेक्टर नसीब सिंह और सब-इन्स्पेक्टर जनकराज सी.बी.ई. के विभाग एन्टीटैरेरिस्ट्स स्क्वायड के डिप्टी डायरेक्टर योगेश पाण्डेय के आफिस में उसके सामने बैठे हुए थे।
“एक विकट समस्या हमारे सामने आन खड़ी हुई है, सर।” — ए.सी.पी. विनयशील स्वर में बोला — “जिस में अब आप ही हमारी कोई मदद कर सकते हैं।”
“कैसी समस्या?” — पाण्डेय सहज भाव से बोला।
“कुछ कहते नहीं बनता, सर। हमें तो यहां आते ही संकोच हो रहा था लेकिन क्या करें? ड्यूटी ले आयी।”
“बात क्या है?”
“डी.सी.पी. साहब खुद आना चाहते थे लेकिन ऐन वक्त पर उन्हें कमिश्नर साहब ने तलब कर लिया इसलिये ये बद््मजा जिम्मेदारी हमारे सिर आन पड़ी।”
“कैसी जिम्मेदारी? ”
“आप अभयदान दें तो कुछ अर्ज करें।”
“बोलो, भाई। अगर बात ड्यूटी की है तो मेरी तरफ से कुछ भी कहने की तुम्हें खुली छूट है। जो कहना है, निर्भय होकर कहो।”
“थैंक्यू, सर। सर, बात अरविन्द कौल नाम के उस शख्स से ताल्लुक रखती है जिसे आप तीन दिन पहले पहाड़ गंज थाने से छुड़ा कर ले गये थे।”
“बात कौल से ताल्लुक रखती थी, ये तो मैं एस.एच.ओ. साहब और इनके मातहत सब-इन्स्पेक्टर साहब की आपके साथ मौजूदगी से ही समझ गया था। लेकिन आपने कहा कि मैं कौल को वहां से छुड़ा कर ले गया था। क्या मतलब हुआ इसका? वो क्या वहां गिरफ्तार था?”
“गिरफ्तार हो सकता था।”
“क्यों भला?”
“वजह आप जानते हैं।”
“जानता भी हूं तो मैं उसे आपकी जुबानी सुनना पसन्द करूंगा।”
“सर, वो सोहल था।”
“ओहो, तो वो कहानी अब आप फिर से शुरू कर रहे हैं जो कि उस रोज एस.एच.ओ. साहब के सामने खुद इनके किये खत्म हो चुकी थी! एस.एच.ओ. साहब, उस दिन आपने सोहल के फिंगरप्रिंट्स के जरिये खुद फैसला नहीं किया था कि कौल सोहल नहीं हो सकता था?”
“हमें धोखा हुआ था।” — एस.एच.ओ. कठिन स्वर में बोला।
“क्या धोखा हुआ था?”
“हैडक्वार्टर से मंगवाये गये सोहल के फिंगरप्रिंट्स में भेद था।”
“क्या भेद था?”
“वो फिंगरप्रिंट्स सोहल के नहीं थे।”
“तौबा! अब आप अपने ही माल में खोट निकाल रहे हैं।”
“जो बात सच है, वो मजबूरन कहनी पड़ रही है।”
“क्या बात कहनी पड़ रही है? ये कि पुलिस हैडक्वार्टर के रिकार्ड में कोई हेराफेरी कर गया?”
“जी हां।”
“आप साबित कर सकते हैं कि ऐसा हुआ है?”
“जी हां।”
योगेश सकपकाया, उसने घूर कर एस.एच.ओ. को देखा। एस.एच.ओ. विचलित न हुआ।
“कीजिये।” — पाण्डेय चैलेंजभरे स्वर में बोला।
“जरूर।” — ए.सी.पी. बोला — “अभी। लेकिन पहले मुझे कौल की बाबत एकाध सवाल पूछने की इजाजत दीजिये।”
“कहिये, क्या कहना चाहते हैं?”
“वो आपका दोस्त है?”
“हां।”
“कैसे बना?”
“कैसे बना क्या मतलब? कैसे बनते हैं दोस्त?”
“मेरा मतलब है वो आप से कब मिला, कहां मिला, कैसे मिला?”
“भई, कुछ अरसा पहले दिल्ली में ही एक दोस्त ने मिलवाया था।”
“दोस्त का नाम?”
“वो तो मुझे याद नहीं!”
“आपको अपने दोस्त का नाम याद नहीं!”
“भई, मेरा मतलब है ये याद नहीं कि कौन से दोस्त ने मिलवाया था।”
“ये तो याद होगा कि कहां मिलवाया था? राह चलते मिलवाया था? अपने घर मिलवाया था? आपके घर मिलवाया था? या कौल के घर मिलवाया था?”
“इन बातों का मकसद क्या है?”
“मकसद है। तभी तो सवाल है, सर।”
“क्या मकसद है?”
“आप जवाब देंगे तो वो खुद उजागर हो जायेगा।”
“मेरा जवाब है कि मुझे ये सब याद नहीं।”
“जिससे जिगरी यारी हो, उसके बारे में ऐसी बातें भूलती तो नहीं, सर।”
“जिगरी यारी किस ने कहा?”
“सर, जिसे आपकी सिफारिश पर कोविल हाउसिंग कम्पलैक्स में फ्लैट किराये पर मिला हो, जिसका आपकी सिफारिश पर दिल्ली में राशन कार्ड और ड्राइविंग लाइसेंस बना हो, जिसको आपकी सिफारिश पर गैलेक्सी के मालिक मिस्टर शुक्ला ने अपने यहां अकाउंटेंट की नौकरी दी हो, जिसकी बीवी का आम आपके दौलतखाने पर आना जाना हो, जो कभी थाने जाता हो तो आपको साथ लेकर जाता हो तो वो आपका जिगरी यार ही तो कहलायेगा!”
“आप तो बहुत एक्सटेंसिव पड़ताल किये बैठे हैं मेरी बाबत!”
“कौल की बाबत। आपकी पड़ताल करने की तो हमारी मजाल नहीं हो सकती।”
पाण्डेय खामोश रहा।
“कौल कश्मीरी ब्राह्मण था, सोपोर से विस्थापित होकर दिल्ली आया था, वहां उग्रवादियों ने उसका घरबार और टिम्बर यार्ड जला डाला था, उसके परिवार के सारे सदस्यों को — मां को, बाप को, भाई को, बहनों को — मार डाला था और वो खुद भी बुरी तरह से जख्मी हुआ था, ये तमाम बातें आपको किसने बतायीं?”
“भई, कौल ने ही बताई, और कौन बताता?”
“सर, ये बातें सच तो नहीं हैं!”
“क्या!”
“हमने बहुत ऊंचे लैवल पर जे.के. स्टेट की पुलिस से सम्पर्क किया था” — यहां ए.सी.पी. ने साफ झूठ का सहारा लिया — “जनाब, उधर से तो ऐसे किसी वाकये की तसदीक नहीं हुई! सोपोर कोई बहुत बड़ी जगह नहीं, एक ही फैमिली के तमाम मेम्बरान के साथ इतना बड़ा वाकया हो गया हो तो इसे तो वहां के बच्चे बच्चे की जुबान पर होना चाहिये था लेकिन सोपोर में तो न कोई किसी अरविन्द कौल को जानता है और न कोई ऐसे किसी वाकये से वाकिफ है।”
“इसका क्या मतलब हुआ?”
“आप बताइये।”
“इसका एक ही मतलब हो सकता है कि कौल ने मेरे से झूठ बोला।”
“वजह?”
“होगी कोई?”
“जिससे जिगरी दोस्ती हो, उससे ऐसी गलतबयानी की तो नहीं जाती! की जाती तो उसकी कोई खास ही वजह होती है!”
“तो कोई खास वजह होगी।”
“जिसकी कि आपको खबर नहीं?”
“नहीं।”
“इस बाबत अपना कोई अन्दाजा ही बताइये।”
“मेरा कोई अन्दाजा नहीं।”
“आप से ऐसा झूठ बोलने की जरूरत क्या थी? उससे कौल को क्या हासिल था?”
“ये तो कौल ही जाने।”
“मेरा कहना है कि ये झूठ बेमानी था, इससे उसे कुछ हासिल नहीं था। दो दोस्तों में जब नयी नयी दोस्ती होती है तो वो अपनी गुजश्ता जिन्दगी के बारे में वो नोट्स एक्सचेंज करते ही हैं। कौल ने अपनी गुजश्ता जिन्दगी की अगर आपको फर्जी कहानी सुनायी तो इसका साफ मतलब है कि असली कहानी कुछ और थी। वो कहानी क्या थी, सर?”
“मुझे नहीं मालूम।”
“वो कहानी ये थी कि असल में वो एक इश्तिहारी मुजरिम था, आधे हिन्दोस्तान में जिसकी गिरफ्तारी के वारन्ट निकले हुए हैं।”
“कौल ऐसा शख्स नहीं हो सकता।”
“वो ऐन ऐसा ही शख्स था। और आपको इस बात की खबर थी।”
“खामखाह!”
“मैंने पहले ही अर्ज किया है कि...”
“सुनो, सुनो। तुम मुझे ये बताओ कि इस बाबत तुम लोग मेरे से इतने सवाल क्यों कर रहे हो? जो पूछना है जाकर कौल से ही क्यों नहीं पूछते?”
“काश ऐसा मुमकिन होता।”
“क्यों मुमकिन नहीं है?”
“क्योंकि वो तो ओवरनाइट नौकरी छोड़ कर, घरबार बेच कर दिल्ली से फरार हो गया।”
“अगर बात कौल की हो रही है तो वो फरार नहीं हो गया, दिल्ली छोड़ कर चला गया। ऐसा करना क्या गुनाह है?”
“यूं आनन फानन?”
“वो भी क्या गुनाह है? वो दिल्ली से बेजार था। कश्मीर के हालात सुधर रहे थे इसलिये वापिस अपने होमटाउन लौटने का वो तमन्नाई था...”
“होमटाउन! यानी कि सोपोर?”
“हां।”
“लेकिन मैंने अभी अर्ज किया कि साबित हो चुका है कि वहां से उसका कुछ लेना देना नहीं। आगे ये अर्ज करना चाहता हूं कि सोपोर का तो उसने रुख भी न किया! वो तो उससे उल्टी दिशा में गया! वो तो मुम्बई गया!”
“कमाल है!” — पाण्डेय कुछ क्षण विचारपूर्ण मुद्रा बनाये खामोश रहा और फिर बोला — “तुम लोग अब... अब ये साबित कर सकते हो कि कौल सोहल था?”
“जी हां।”
“कैसे?”
“बताइये, इन्स्पेक्टर साहब।”
एस.एच.ओ. ने फिंगरप्रिंट्स की तमाम प्रतिलिपियां निकाल कर मेज पर रखीं और उनसे सम्बन्धित अपनी थ्योरी को एक्सप्लेन किया।
“इन्स्पेक्टर साहब” — सुन चुकने के बाद पाण्डेय बोला — “मैं कुबूल करता हूं कि आपने बहुत मेहनत की है फिंगरप्रिंट्स के इस गोरखधन्धे पर। मैं ये भी कुबूल करता हूं कि यूं आप साबित करने में कामयाब हो गये हैं कि पुलिस हैडक्वार्टर में सोहल के जो फिंगरप्रिंट्स उपलब्ध हैं, वो असली नहीं हो सकते लेकिन इससे ये कैसे साबित हो गया कि कौल सोहल है?”
“कैसे साबित न हुआ?” — एस.एच.ओ. तनिक आवेशपूर्ण स्वर में बोला — “ये फिंगरप्रिंट्स” — वो सिलवटों से भरे कागज को एक उंगली से ठकठकाता हुआ बोला — “कौल के हैं जो थाने में आपके सामने मैंने लिये थे और ये सोहल के पंजाब, यू.पी. और राजस्थान से प्राप्त हुए फिंगरप्रिंट्स से मिलते हैं। फिर ये कैसे साबित न हुआ कि...”
“ये कैसे साबित हुआ कि ये सिलवटों भरा कागज वही कागज है जिस पर आपने मेरी मौजूदगी में कौल के फिंगरप्रिंट्स की छाप ली थी?”
“जी!”
“कैसे साबित हुआ?”
एस.एच.ओ. के मुंह से बोल न फूटा। वो हकबकाया सा कभी पाण्डेय की तरफ तो कभी अपने ए.सी.पी. की तरफ देखने लगा।
“सर, ये वही कागज है।” — ए.सी.पी. बोला — “ये वही कागज है जो पहले खो गया था और जिसे बड़ी शिद्दत से इन्स्पेक्टर साहब ने वापिस तलाश करवाया है।”
“क्या सबूत है” — पाण्डेय बोला — “कि जो कागज खोया था, वही वापिस बरामद हुआ है?”
“इन्स्पेक्टर साहब सबूत हैं। ये उस कागज को पहचानते हैं।”
“कैसे पहचानते हैं? कौन सा खास शिनाख्ती निशान है इस कागज पर? क्या इस पर इन्स्पेक्टर साहब के साइन हैं? क्या इस पर मेरे साइन हैं? क्या इस पर कौल के साइन हैं? क्या इस पर किसी और गवाह के साइन हैं?”
“सर” — एस.एच.ओ. फिर आवेशपूर्ण स्वर में बोला — “इस कागज पर अहमतरीन शिनाख्ती निशान ये है कि इस पर सोहल की उंगलियों की छाप है।”
“जरूर होगी लेकिन इसका क्या सबूत है कि ये वो ही कागज है जिस पर कौल के फिंगरप्रिंट्स उतारे गये थे?”
एस.एच.ओ. फिर गड़बड़ाया।
“ये वो कागज नहीं है” — फिर वो कलप कर बोला — “तो कौन सा कागज है?”
“आप बताइये।”
“ये वही कागज है।”
“साबित कीजिये।”
“सर, गुस्ताखी की माफी के साथ अर्ज करता हूं कि आपका इस बात से इनकार करना, कि ये वो कागज नहीं है, अपने आप में सबूत है कि आप सोहल की हिमायत के लिए कुछ भी कर सकते हैं।”
“मैं भी तुम्हारी गुस्ताखी को, जो कि वाकेई गुस्ताखी है, माफ करते हुए कह रहा हूं कि मैं किसी सोहल को नहीं जानता। मैं कौल को जानता हूं जो कि मेरा दोस्त है और दोस्त के लिए दोस्त कुछ भी कर सकता है।”
“लेकिन ये कागज...”
“कुछ साबित नहीं करता। चोर बहकाने के लिय तुम ऐसे सौ फर्जी कागज तैयार कर सकते हो।”
“कैसे कर सकते हैं? जब कौल भाग गया तो...”
“सुनो, कैसे कर सकते हो। ये फिंगरप्रिंट्स जो तुम मुझे दिखा रहे हो, ये सब असल डाकूमेंट की प्रतिलिपियां हैं, जेरोक्स कापियां हैं। ठीक?”
“जी हां।”
“आज की तरक्की के जमाने में कापी से कापी बनाना मुश्किल काम है?”
“जी नहीं।”
“तुम एक ऐसी कापी बना कर उसको गुच्छा मुच्छा करके कागज के बल निकाल कर उसे सीधा कर लो और ये दावा करने लगो कि ये तो वो कागज है जिस पर मेरे सामने कौल के फिंगरप्रिंट्स लिये गये थे तो ये क्या मुश्किल काम हुआ?”
“नहीं हुआ। लेकिन ये कापी नहीं है। ये ओरीजिनल है।”
“मुझे तो कापी ही जान पड़ती है।”
“सर, ये आपकी ढिठाई है जो...”
“इन्स्पेक्टर!” — पाण्डेय इस बार बोला तो उसके स्वर में कोड़े जैसी फटकार थी — “नाओ यू आर एक्सीडिंग युअर लिमिट। भूल गये हो कि कहां बैठे हो और किससे मुखातिब हो!”
एस.एच.ओ. गड़बड़ाया, उसने पनाह मांगती निगाहों से अपने ए.सी.पी. की तरफ देखा और फिर जोर से थूक निगलता हुआ बोला — “आई एम सॉरी, सर।”
“यस। बी सो।”
“सर” — ए.सी.पी. बोला — “मैं भी इन्स्पेक्टर नसीब सिंह की तरफ से माफी मांगता हूं और आप से दरख्वास्त करता हूं कि आफ मेरी सुनें। आप एक आखिरी बात मेरी सुनें।”
“आखिरी बात है तो बोलो।” — पाण्डेय अपेक्षाकृत नम्र स्वर में बोला।
“मैं कुबूल करता हूं कि जेरोक्स कापी अगर बहुत उम्दा हो तो उसमें और ओरीजिनल में फर्क करना मुहाल होता है। नंगी आंखों से ये स्थापित करना मुहाल है कि ये सिलवटों वाला कागज ओरीजीनल डाकूमेंट है, न कि जेरोक्स कापी लेकिन आप जानते हैं कि इसके वैज्ञानिक परीक्षण से ये बात साबित की जा सकती है कि ये ओरीजिनल डाकूमेंट है क्योंकि जेरोक्स की स्याही में और उस स्याही में, जिससे इन्स्पेक्टर साहब ने कौल की उंगलियों की छाप ली थी, फर्क होना लाजिमी है। एक बार ये स्थापित हो जाने के बाद, कि ये डाकूमेंट ओरीजिनल है, इसको नकारना आसान नहीं होगा। इसलिये आसान नहीं होगा क्योंकि ये शाश्वत सत्य है कि इस पर सोहल की उंगलियों के निशान हैं और सोहल की उंगलियों के निशान हमें, या किसी को भी, सोहल की सहायता के अलावा और किसी तरीके से हासिल नहीं हो सकते। कोई तरीका आपकी निगाह में हो तो बताइये।”
“आगे बढ़ो।”
“सर, ये अब पूर्णतया स्थापित है कि हमारे हैडक्वार्टर के रिकार्ड में उपलब्ध सोहल के फिंगरप्रिंट्स के साथ किसी ने हेराफेरी की है। वो हेराफेरी कराने के लिए रिकार्ड क्लर्क को उकसाने वाला या तो कोई सोहल का जिगरी और हिमायती हो सकता है या सोहल खुद हो सकता है। अब जबकि हेराफेरी उजागर हो चुकी है तो क्या रिकार्ड क्लर्क से ये कुबूलवा लेना बहुत मुश्किल काम होगा कि उसने वो काम किसकी शह पर किया था? फिर उस लीड को ट्रेस करते हुए चोर की मां तक पहुंचना क्या बहुम मुश्किल काम होगा?”
“और?”
“और ये कि किसी बात से इनकार करना या उससे मुकर जाना आसान होता है, मुकरने वाला अगर रसूख वाला आदमी हो तो उसकी जुबान पकड़ना बहुत मुश्किल काम होता है। हमारे पास रसूख वाले आदमी के खिलाफ सरकमस्टांशल एवीडेंस — परिस्थितिजन्य सबूत — बहुत हैं लेकिन ऐसी बात उसके खिलाफ हमारे पास कोई नहीं है जो कि कील ठोक कर कही जा सकती हो। रसूख वाला आदमी परिस्थितिजन्य सबूतों को नकार कर उनका डंक निकाल सकता है लेकिन प्रैस ऐसी बातों को दोनों हाथों से लपकती है। जो इलजाम इस घड़ी हम लगाने में असमर्थ हैं वो जब सारे भारत के अखबार चिल्ला कर लगायेंगे तो न तो वो चिल्लाती आवाज बन्द करना मुमकिन होगा और न ही कान बन्द कर लेने से कुछ हासिल होगा। बड़े और जिम्मेदारी के सरकारी ओहदे पर बैठे किसी बड़े आदमी के खिलाफ निर्विवाद रूप से साबित भले ही कुछ न हो पाये लेकिन उसकी तरफ शक की एक मजबूत उंगली उठना भी तो उसके लिए अहितकर बात होगी! पब्लिक ओपीनियन का उसके खिलाफ चले जाना भी तो उसके लिए अहितकर बात होगी! ये समझा जाना कि कोई गुनहगार तो था लेकिन कुछ साबित न हो सका भी तो किसी की थू थू करा सकता है!”
“और?”
“और बस।”
“तो तुम्हारा मेरे पर ये इलजाम है कि कौल सोहल था, मैं इस हकीकत से वाकिफ था और मैं उसको फरार कराने में उसका मददगार बना?”
“सर, ये छोटा मुंह बड़ी बात होगी लेकिन जवाब यही है कि हां।”
“तो अब तुम क्या करोगे? मुझे गिरफ्तार करोगे?”
“आप जानते हैं कि मैं ऐसा नहीं कर सकता। केस की बाबत मैं आपके स्पष्टीकरण के लिए आया था जो कि मुझे हासिल हो गया।”
“उस स्पष्टीकरण से तुम्हें इत्तफाक नहीं?”
“जी नहीं।”
“इसलिये अब तुम अपने उच्चाधिकारियों के पास तो जाओगे ही, प्रैस के पास भी जाओगे।”
“मैंने ऐसा कब कहा?”
“दो टूक नहीं कहा। लेकिन घुमा फिराकर, इशारेबाजी की जुबान में बहुत खूबसूरती से कहा। नो?”
ए.सी.पी. ने उत्तर न दिया।
“नो?” — पाण्डेय जिदभरे स्वर में बोला।
“सर” — ए.सी.पी. उठने का उपक्रम करता हुआ बोला — “अब हमें इजाजत दीजिये।”
“नहीं। अभी नहीं। अभी इजाजत नहीं है तुम्हें। अभी तुम्हें मेरा फाइनल जवाब नहीं मिला। थोड़ी देर यहीं बैठो। मैं बिल्डिंग में ही कहीं जा रहा हूं। लौट के आऊं तो जाना। मेरा फाइनल जवाब लेकर। या” — पाण्डेय एक क्षण ठिठका और फिर बोला — “मुझे लेकर।”
ए.सी.पी. सकपकाया।
“यहीं बैठना। जाना नहीं। मैं गया और आया। ओके?”
ए.सी.पी. का सिर अपने आप ही सहमति में हिला।
गुरबख्शलाल की यादगार, लोटस क्लब में दोपहरबाद के उस वक्त रौनक थी लेकिन वैसी नहीं थी जैसी कि शाम ढले और फिर देर रात तक होती थी।
अपनी अलग अलग गाड़ियों में बिरादरीभाई वहां पहुंचे।
उन चारों को ही क्लब का पुराना डोरमैन बाखूबी पहचानता था। चार गाड़ियों में उन दादाओं का एक साथ वहां पहुंचना उसे खटका। उसने तत्काल इन्टरकाम पर कुशवाहा को खबर दी।
गुरबख्शलाल के आफिस में उसकी कुर्सी पर बैठे उसके भूतपूर्व लेफ्टीनेंट कुशवाहा ने बहुत गम्भीरता से वो खबर सुनी। तत्काल उसने अपने खास आदमी द्विवेदी को तलब किया।
“बिरादरी पूरी की पूरी यहां पहुंच गयी है।” — कुशवाहा चिन्तित भाव से बोला — “मुझे आसार अच्छे नहीं लग रहे। उनकी यहां मौजूदगी के दौरान तुम ने भी यहां मेरे पास ही मौजूद रहना है। हथियारबन्द और चौकन्ना। वो लोग तुम्हारी मेरे साथ मौजूदगी पसन्द नहीं करेंगे लेकिन कोई कैसा भी मिजाज दिखाये, जब तक मैं न कहूं, तुमने यहां से नहीं टलना है। समझ गये?”
“समझ तो गया” — द्विवेदी चििन्तत भाव से बोला — “लेकिन आपके खयाल से क्या यहां दिनदहाड़े कोई खूनखराबे की नौबत आ सकती है?”
“कुछ नहीं कहा जा सकता। वो चारों ऐसे ही लाल साहब के बिरादरीभाई नहीं थे। सब घिसे हुए दादा हैं जो जो करना होता है, बेखौफ करते हैं, किसी अंजाम की परवाह किये बिना करते हैं। मेरे से वो सब खफा हैं और गाहेबगाहे अपनी नाराजगी जाहिर करते भी रहते हैं लेकिन ऐसे टीम बनाकर वो पहले यहां कभी नहीं आये।”
“अगर हम पहले ही पुलिस को खबरदार कर दें तो?”
“अभी नहीं। अभी हम उनका मिजाज भांपेंगे और फिर जरूरत समझेंगे तो पुलिस को खबर करेंगे। मैं जरूरी समझूंगा तो अपने पांव के करीब मौजूद वो बटन दबा दूंगा जिससे नजदीकी पुलिस स्टेशन पर घन्टी बजती है। फिर पुलिस खुद ही यहां पहुंच जायेगी।”
“लाल साहब के बाद ये इन्तजाम आपने बहुत उम्दा किया है जो...”
“वो सब छोड़ो। बाहर जा के देखो कि वो लोग तफरीहन यहां पहुंचे हैं या मैं ही उनका निशाना हूं! अगर दूसरी बात ठीक हो तो उन्हें अदब से यहां ले के आना लेकिन” — उसने फिर चेतावनी दी — “यहां से टलना नहीं।”
“ठीक।”
“और वो कितने भी बड़े मवाली क्यों न हों, जरूरत पड़ने पर उनके खिलाफ हथियार का इस्तेमाल करने से न चूकना। आगे जो होगा, देखा जायेगा।”
“वो यहां हथियार इस्तेमाल करने की जुर्रत करेंगे?”
“बोला न, जो होगा देखा जायेगा। अब वक्त खराब न करो।”
तत्काल द्विवेदी वहां से रुखसत हुआ।
पांच मिनट बाद वो चारों बिरादरीभाईयों के साथ वहां लौटा तो कुशवाहा ने उठ कर उनका इस्तकबाल किया।
“वैलकम।” — वो बोला — “आज तो चींटी के घर भगवान आ गये।”
“वडी, बातें बनाना तो” — झामनानी मुस्कराता हुआ बोला — “कोई अपने कुशवाहा से सीखे, नी।”
“बिराजिये।”
चारों विशाल आफिस टेबल के सामने अगल बगल बैठ गये।
द्विवेदी मेज के पीछे कुशवाहा के करीब दीवार से लग कर खड़ा हो गया। उसने बड़े सहज भाव से अपना दायां हाथ अपने कोट की बाहरी जेब में सरका लिया।
झामनानी ने नेत्र सिकोड़ कर द्विवेदी की तरफ देखा और फिर अपनी बगल में बैठे ब्रजवासी को कोहनी मारी।
ब्रजवासी का सिर हौले से सहमति में हिला।
“कैसे आना हुआ, साहबान?” — कुशवाहा बोला।
“वडी, यूं ही चले आये, नी।” — झामनानी बोला — “देखने आये कि अपना कुशवाहा गुरबख्शलाल के आफिस में उसकी कुर्सी पर बैठा कैसा सजता है?”
“क्या देखा?”
“वडी, यही देखा, नी कि तू तो बहुत जल्दी फिट हो गया इस आफिस में! अब तो उस कर्मांमारे गुरबख्शलाल को कोई याद भी नहीं करता, नी!”
“ऐसी कोई बात नहीं। यहां सब लाल साहब को याद करते हैं और बड़ी शिद्दत से उनकी कमी महसूस करते हैं।”
“मैं यहां की नहीं, दिल्ली के अन्डरवर्ल्ड की बात करता हूं, नी, जहां कि तेरा लाल साहब उतना ही याद किया जाता है जितना कि कोई कमेटी वालों के हाथों मरा खुजलीमारा कुत्ता याद किया जाता है।”
“ऐसी कोई बात नहीं। और मेरी प्रार्थना है कि आप लाल साहब के खिलाफ ऐसे... ऐसे अल्फाज न इस्तेमाल करें।”
“यानी कि” — ब्रजवासी बोला — “तुम्हें आज भी लाल साहब की कद्र है?”
“है। और हमेशा रहेगी। वो मेरे लिये पितातुल्य थे। मेरी कोई औकात है — या थी — तो लाल साहब की वजह से है।”
“फिर भी सोहल का साथ दिया? बिरादरी का साथ छोड़ा? बिरादरी की मुखालफत करके सोहल का सगा बना?”
“ये बात लाल साहब की मौत के इतने महीनों बाद दोहराना बेमानी है। फरीदाबाद में लाल साहब की कोठी पर नये साल की रात को जो कुछ हुआ था, वो न आप भूले हैं, न मैं भूला हूं। तब के हालात ये थे कि जो कोई भी सोहल के खिलाफ जाता, वो ठौर मार दिया जाता। जब आप लोगों को अपनी जान प्यारी थी तो क्या मुझे नहीं थी?”
“हमने” — पवित्तर सिंह बोला — “सोल का साथ नहीं दित्ता था।”
“क्यों नहीं दिया था? क्योंकि आपको ऐसी कोई आफर नहीं हुई थी। होती तो आप में से किसी की मजाल न होती सोहल की आफर को ठुकराने की।”
“जैसे” — भोगीलाल बोला — “थारी न हुई थी!”
“बिल्कुल!”
“अच्छी वकालत कर रहे हो, भैया, सोहल की।” — ब्रजवासी बोला।
“वडी, उसने तेरे को आफर दी” — झामनानी बोला — “हमें धमकी दी। ऐसा क्यों?”
“वजह उसी को मालूम होगी। कभी मौका लगे तो पूछियेगा।”
“वडी, तेरे को नहीं मालूम, नी?”
“नहीं। मेरे को नहीं मालूम। और मेरे को ये भी नहीं मालूम कि ये गड़े मुर्दे उखाड़ना एकाएक क्यों जरूरी हो गया है?”
“वही समझाने आये हैं, भैया।” — ब्रजवासी बोला।
“मैं सुन रहा हूं।”
“जो कि” — पवित्तर सिंह व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला — “तेरी साडे ऊपर मेहरबानी है?”
“अब मैं क्या कहूं?” — कुशवाहा बोला।
“तू नहीं कहे” — भोगीलाल बोला — “तो और कौन कहे?”
“ऐसी कोई बात नहीं। मेरी आप पर कोई मेहरबानी नहीं। मेरा आपका कोई मुकाबला नहीं। आपके जोड़ीदार, आपके बिरादरीभाई लाल साहब थे, मैं महज उनका एक अदना गुलाम था। मैं आप लोगों की बराबरी न तब कर सकता था, न आज कर सकता हूं।”
“वडी, आज तो कर सकता है, नी।” — झामनानी बोला — “आज जो तू झूलेलाल की मेहर से लाल साहब की जगह लाल साहब बना बैठा है!”
“आप क्या कहना चाहते हैं?”
“वडी, समझ, नी। वडी, तू समझे या न समझे, हम तो तुझे बिरादरीभाई समझते हैं।”
“तभी तो” — ब्रजवासी बोला — “यहां आये हैं।”
“मैं आपका शुक्रगुजार हूं” — कुशवाहा बोला — “कि आप मुझे बराबर का दर्जा दे रहे हैं। अब आमद की कोई खास वजह हो तो वो भी बताइये।”
“वडी, है तो खास ही वजह, नी।”
“क्या?”
“वो वजह” — झामनानी ने द्विवेदी की तरफ निगाह उठाई — “इसके सामने ही बयान करनी होगी?”
“झामनानी साहब, मेरी जिन्दगी में द्विवेदी की वही हैसियत है जो कि लाल साहब की जिन्दगी में मेरी थी। जब लाल साहब के साथ मेरी मौजूदगी से आपको कभी एतराज नहीं हुआ था तो मेरे साथ द्विवेदी की मौजूदगी पर भी आपको एतराज नहीं होना चाहिये।”
चारों एक दूसरे का मुंह देखने लगे।
“मैं आप लोगों के लिए कोई चाय पानी मंगवाऊं?” — कुशवाहा बोला।
सब ने इनकार में सिर हिलाया।
“तो फिर...”
“सिन्धी भाई” — भोगीलाल बोला — “ये हमें इशारा कर रिया है कि या तो हम मतलब की बात करें या अपनी अपनी राह लगें।”
“ऐसी कोई बात नहीं।” — कुशवाहा जल्दी से बोला — “मेरे पास तो आप लोगों के लिए के लिए कुल जहान का वक्त है लेकिन मैं समझता हूं कि आपका वक्त कीमती होगा।”
“ये तो अंग्रेज हो गया है, सिन्धी भाई।” — ब्रजवासी बोला — “वक्त की कीमत समझने लगा है। इसलिये मतलब की बात बोलो और नक्की करो।”
झामनानी ने सहमति में सिर हिलाया, उपेक्षापूर्ण निगाहों से एक बार फिर द्विवेदी की तरफ देखा और फिर बोला — “कुशवाहा, हम लोग एक सांझा व्यापार शुरू करने जा रहे हैं। तू कुछ भी समझे लेकिन हम क्योंकि तुझे गुरबख्शलाल की जगह अपना बिरादरीभाई समझते हैं इसलिये उस व्यापार में तेरी भी शिरकत की पेशकश लेकर यहां आये हैं।”
“कौन सा व्यापार?” — कुशवाहा बोला।
“वही, जो गुरबख्शलाल की मौत के बाद से ठप्प पड़ा है।”
“अगर आपका इशारा ड्रग्स के धन्धे की तरफ है तो...”
“वडी, हमारा इशारा उसी तरफ है, नी। और अगर तू...”
झामनानी ये देखकर खामोश हो गया कि कुशवाहा का सिर पहले ही बड़ी मजबूती से इनकार में हिलने लगा था।
“वडी, क्या हुआ, नी?”
“आप लोग भूल रहे हैं कि नये साल की रात को आप लोगों ने सोहल से कोई वादा किया था...”
“वडी, भूल नहीं रहे हैं, नी।”
“तो फिर जानबूझ कर नजरअन्दाज कर रहे हैं उस वादे को। इस बात को भी नजरअन्दाज कर रहे हैं कि उस वादे की वजह से ही आप लोगों की उस रात जानबख्शी हुई थी। आप सब ने वादा किया था कि आप ड्रग्स के धन्धे के करीब नहीं फटकेंगे।”
“सलीम खान ने भी वादा किया था।” — ब्रजवासी बोला — “सोहल ने उसका क्या उखाड़ लिया था?”
“जिन्दा रहता तो उखाड़ लेता। उसकी खुशकिस्मती थी कि वैसी नौबत आने से पहले ही वो अपने अल्लाह को प्यारा हो गया था।”
“अरे, हकीकत ये है” — भोगीलाल बोला — “कि तन्ने बेरा ही न था कि सलीम भाई ड्रग्स के धन्धे में था। होता तो तू सोहल का खबरची किब का वा को खबर कर चुका होता।”
“तेरी पेश न चल्ली” — पवित्तर सिंह बोला — “नहीं ते तू कित्थे चुगलखोरी तों बाज आन वाला सी!”
“साला विभीषण।” — ब्रजवासी तिरस्कारपूर्ण स्वर में बोला।
“आपको” — द्विवेदी सख्ती से बोला — “कुशवाहा साहब के साथ गाली गलौज की जुबान इस्तेमाल करने का कोई अख्तियार नहीं।”
“झूलेलाल!” — झामनानी माथा थामता हुआ बोला — “वडी, कितने बुरे दिन आ गये हैं, नी, बिरादरी के? अब तो उस पर कुत्ते भी भौंकने लगे हैं।”
“आप मुझे कुत्ता कह रहे हैं?”
“वडी, कुत्ते को कुत्ता नहीं कहेंगे तो और क्या कहेंगे, नी?”
द्विवेदी का चेहरा कानों तक लाल हो गया। जेब में पड़ी रिवॉल्वर पर उसकी उंगलियां कस गयीं। उसने फरियाद करती निगाहों से कुशवाहा की तरफ देखा।
“वडी, उधर क्या देखता है, नी?” — झामनानी हाथ नचाता बोला — “वडी, खुद भौंकना बन्द नहीं करेगा तो उस बाबत हमें कुछ करना पड़ेगा।”
“क्या करेंगे आप?”
“कुशवाहा, वडी, तेरा कुत्ता सवाल पूछ रहा है।”
“मैं भी पूछ रहा हूं।” — कुशवाहा सख्ती से बोला — “क्या करेंगे आप?”
“बिरादरीभाईयो!” — झामनानी बोला — “वडी, साईं लोगो, हम में से कौन बतायेगा इसे कि हम क्या करेंगे?”
“मैं बताता हूं।” — ब्रजवासी बोला।
“तो बता न, साईं। वडी, किसने रोका है, नी?”
ब्रजवासी के हाथ में एकाएक एक रिवॉल्वर प्रकट हुई। पलक झपकते उसने द्विवेदी को शूट कर दिया।
द्विवेदी पछाड़ खाकर गिरा और गिरते ही मर गया। अपनी जिन्दगी के आखिरी क्षणों में उसके चेहरे पर कोई भाव था तो वो आतंक और अविश्वास का था। ब्रजवासी का वो एक्शन इतना अप्रत्याशित था कि कुशवाहा के नेत्र भी आतंक से फट पड़े। उसका पांव स्वयंमेव ही पांव के करीब लगे पुश बटन पर दब गया और फिर वो उछल कर खड़ा हुआ।
“बैठ जा, कुशवाहा।” — ब्रजवासी कर्कश स्वर में बोला।
“ये... ये क्या किया तुमने?” — कुशवाहा बोला।
“भौंकते कुत्ते को चुप कराया।”
“लेकिन... लेकिन...”
“बैठ जा।”
कुशवाहा धम्म से वापिस अपनी कुर्सी पर बैठा।
“अब जो हम कहते हैं, उसे गौर से सुन। सोहल की धमकी का हवाला बेकार है। उसे हम में से कोई नहीं भूला है। लेकिन अब उसका जिक्र बेमानी है।”
“क्यों?” — कुशवाहा कठिन स्वर में बोला — “क्यों बेमानी है?”
“क्योंकि उस धमकी को जब एक सलीम खान किसी खातिर में नहीं लाया तो हम चार भी नहीं लाने वाले।”
“यानी कि आप ड्रग्स के धन्धे में हाथ डालने वाले हैं?”
“वडी, डालने नहीं वाले” — झामनानी बोला — “डाल चुके हैं। अब तूने ये फैसला करना है कि तू सोहल का खबरी बन के रहेगा या हम बिरादरीभाईयों का साथ देगा।”
“सोहल की धमकी को नजरअन्दाज करके आप में से कोई जिन्दा नहीं बच सकता।”
“मरे माईंयवा सोल।” — पवित्तर सिंह झल्लाकर बोला — “ओये, तब हमें उसने इसलिये डरा धमका लीत्ता सी क्योंकि ओ ताजा ताजा गुरबख्शलाल का खून करके हटया सी और वो हम सब की तरफ स्टेनगन ताने था।”
“बिल्कुल ठीक।” — ब्रजवासी बोला — “तब हमारा वादा मरता क्या न करता वाली किस्म का था।”
“यानी कि” — कुशवाहा बोला — “आप लोगों ने तब सोहल की शर्त की झूठी हामी भरी थी?”
“ओये चल, यही समझ ले।”
“झूठी हामी भरने वाले से सोहल का वादा था कि वो लाल साहब से भी बुरी मौत मरेगा। साहबान, आप लोग ये खामख्याली छोड़ दें कि सोहल आपकी करतूतों को नजरअन्दाज कर देगा, वो अपने वादे पर खरा नहीं उतरेगा।”
“खरा उतरने के लिए सलामत रहेगा तो खरा उतरेगा न?”
“ससुरा वो ही जाने हैं मारना!” — भोगीलाल बोला — “और कोई न जाने है!”
“मैं इस बात का एक ही जवाब दे सकता हूं।”
“के? के जवाब देवे है?”
“विनाशकाले विपरीतबुद्धि!”
“वेखीं माईंयवे नू!” — पवित्तर सिंह बोला — “विनाश काल आया कैत्ता है हमारा।”
“हमारी बुद्धि भ्रष्ट बतावे है।” — भोगीलाल बोला।
“सोहल ठीक कहता था।” — कुशवाहा धीरे से बोला।
“वडी, क्या कहता था, नी?” — झामनानी बोला।
“यही कि वादाखिलाफी आप लोगों की फितरत थी। उसके खौफ ने आप लोगों को एक वादा करने पर मजबूर किया था, खौफ का साया हटते ही आप लोग शेर हो जायेंगे और अपनी मनमानी पर उतर आयेंगे। कितना सही पहचाना था उसने आप लोगों को!”
सब एक साथ हंसे।
“उसने कुछ और भी कहा था जो आप भूल गये जान पड़ते हैं।”
“वडी, और क्या कहा था, नी?” — झामनानी बोला।
“उसने कहा था कि अगर किसी ने उसके साथ वादाखिलाफी को तो उसे खबर भी नहीं होगी कि वो प्रेत बन कर उसके सिरहाने खड़ा होगा उसे उसकी वादाखिलाफी की सजा देने के लिए, उसकी जिन्दगी पर अपना दावा पेश करने के लिए।”
“ऐसा करने के लिये वा को दिल्ली आना होगा।” — भोगीलाल बोला।
“सिंगल फेयर खर्च के।” — ब्रजवासी बोला — “रिटर्न टिकट लेकर आयेगा तो रिटर्न फेयर बेकार जायेगा।”
“क्योंकि जहां हम उसकी वापिसी करायेंगे” — झामनानी बोला — “वहां के लिए भाड़ा नहीं खर्चना पड़ता।”
कुशवाहा ने एक आह सी भरी और बोला — “मुझे अफसोस है कि...”
“अफसोस न कर साईं, फैसला कर। दो टूक फैसला कर। तू हमारे साथ है या हमारे साथ नहीं है?”
“मैं आपके साथ हूं लेकिन सवाल अगर ड्रग्स के धन्धे की बाबत है तो...”
“वडी, उसी की बाबत है, नी।”
“तो मेरा जवाब है कि उसमें मैं न आपके साथ हूं, न हो सकता हूं।”
“नतीजा जानता है क्या होगा?” — ब्रजवासी मृत द्विवेदी की तरफ निगाह डालता क्रूर स्वर में बोला।
“आप लोग मुझे नतीजे से नहीं डरा सकते। आपकी तरह मैं वादाखिलाफ नहीं बन सकता।”
“भले ही जान चली जाये?” — पवित्तर सिंह बोला।
“हां, सरदार जी” — कुशवाहा भर्राये कण्ठ से बोला — “भले ही जान चली जाये।”
पवित्तर सिंह ने हड़बड़ाकर झामनानी की तरफ देखा।
“चड़या हुआ है।” — झामनानी बोला — “मर के ही अक्ल आयेगी कर्मामारे को।”
“फिर तो भैया ” — ब्रजवासी बोला — “तैयार हो जा राम नाम सत्य है के लिए।”
कुशवाहा ने आंखें मूंद लीं।
ब्रजवासी के हाथ में थमी रिवॉल्वर ने आग उगली।
कुशवाहा अपनी कुर्सी पर ढेर हो गया। उसकी बन्द आंखें हमेशा के लिए बन्द हो गयीं।
तभी एकाएक आफिस का दरवाजा खुला।
सब ने चिंहुक कर पीछे देखा।
एक वर्दीधारी सब-इन्स्पेक्टर भीतर कदम रख रहा था।
पाण्डेय अपने बॉस और एण्टीटैरेरिस्ट्स स्क्वायड के डायरेक्टर जगदीप कनौजिया के आफिस में उसके सामने बैठा था।
पुलिस वालों की वहां आमद और उससे ताल्लुक रखता तमाम वाकया वो अपने बॉस के सामने दोहरा चुका था।
“सर” — आखिर में वो बोला — “अब मुझ पर ये इलजाम है कि मैं न सिर्फ एक इश्तिहारी मुजरिम का दोस्त, मददगार और किसी हद तक आश्रयदाता था बल्कि मैंने अपने रुतबे और रसूख का बेजा इस्तेमाल करके, पुलिस की आंखों में बाकायदा धूल झोंक कर उसे फरार हो जाने का मौका दिया।”
“ये तो गम्भीर इल्जाम है।” — कनौजिया गम्भीरता से बोला।
“यस, सर।”
“बट दैट इज युअर प्राब्लम।”
“सर, आई एग्री दैट इट इज माई प्राब्लम। लेकिन इसका हल आपके पास है।”
“तुम्हें एक इश्तिहारी मुजरिम को इतना सिर नहीं चढ़ाना चाहिये था, उससे दोस्ती नहीं गांठनी चाहिये थी।”
“सर, गुस्ताखी माफ हो, आप इस बात को सरासर नजरअन्दाज कर रहे हैं कि वो इश्तिहारी मुजरिम कौन था?”
“वो कोई भी हो...”
“वो ‘कोई’ नहीं था, वो सोहल था। और सोहल ने कभी हमारे महकमे पर कितना बड़ा उपकार किया था, मुझे उम्मीद है, कि इतनी जल्दी उसे आप नहीं भूल गये होंगे। भूल गये हों तो मैं याद दिला देता हूं कि सोहल वो शख्स था जिसने हमारे एक ऐसे काम को अंजाम दिया था जिसे हम सात जन्म लगे रहते तो खुद न कर पाते। वो अपनी जान पर खेल स्वैन नैक प्वायंट से बादशाह अब्दुल मजीद दलवई को हमारे लिये जिन्दा पकड़ कर लाया था। स्वैन नैक प्वायंट वो जजीरा था जिस पर हम इसलिये कदम नहीं रख सकते थे क्योंकि वो पाकिस्तान की मिल्कियत था। अगर हम स्वैन नैक प्वायंट पर कदम रखते तो आप जानते हैं कि हमारा ये कदम अपने आप में एक नयी इंडो-पाक वार की बुनियाद बन जाता। और बादशाह अब्दुल मजीद दलवई वो आदमी था जो हमारे मुल्क में फैले टैरेरिस्ट्स ग्रुप्स को ए.के.-47, राकेट लांचर्स जैसे आधुनिक हथियार और आर.डी.एक्स. जैसा विध्वंसक विस्फोटक पदार्थ सप्लाई करता था और हमारी सरहदों से पार टैरेरिस्ट्स कैम्प्स आर्गेनाइज करता था जहां कि उन्हें आधुनिक हथियार चलाने और मुल्क में अराजकता फैलाने की बाकायदा ट्रेनिंग दी जाती थी। वो भगोड़े टैरेरिस्ट्स को पनाहगाहें मुहैया कराता था और उसी के जरिये हिन्दोस्तान की दुश्मन विदेशी ताकतें हिन्दोस्तान में सक्रिय टैरेरिस्ट्स ग्रुप्स को आर्थिक सहायता पहुंचाती थीं। ऐसे शख्स को, जिसकी परछाई भी छू पाने में हम असमर्थ थे, स्वैन नैक प्वायंट से वो आदमी हमारे लिये जीता जागता पकड़ कर लाया था जिसका नाम सोहल है, जो इश्तिहारी मुजरिम है और मुल्क और मुल्क के कायदे कानून का दुश्मन है। उसने प्लेट में सजाकर बादशाह को हमारे सामने पेश किया। बादशाह की गिरफ्तारी के बाद ही, उससे हासिल जानकारी के दम पर ही हमारा सारे भारत में फैले टैरेरिस्ट्स ग्रुप्स के खिलाफ दमन चक्र चला था और सारे भारत से — खासतौर से आसाम, मिजोरम, नागालैंड और कश्मीर से — उनकी हस्ती मिटाने में और उनके अड्डों को नेस्तनाबूद करने में हमें बड़ी कामयाबियां मिली थीं। एक इकलौते शख्स की वजह से हमें वो कामयाबी मिली थी जो हमारे महकमे के लिए तो क्या, हमारी फौजों के लिए भी सपना थी। ऐसा कारनामा किसी इश्तिहारी मुजरिम ने अमरीका में करके दिखाया होता तो उसके जुर्मात की फेहरिस्त कितनी भी लम्बी क्यों न होती, वहां की सरकार ने उस पर काली लकीर फेर दी होती और खुद राष्ट्रपति ने उसे वाइट हाउस में बुला कर उसकी पीठ ठोकी होती।”
“हमारे यहां ऐसी पार्डन का कोई नियम नहीं।”
“नियम बराबर है। यूं कहिये कि उसे इस्तेमाल में लाना कभी जरूरी न समझा गया।”
“पाण्डेय, काइंडली कम टु दि प्वायंट।”
“सर, आई एम आलरेडी देयर। दिस इज दि प्वायंट। सर, प्वायंट यही है कि उस असल हीरो को हम कोई तमगा, कोई सनद, कोई खिताब न दे सके लेकिन खुद हमने वो सब बढ़ बढ़ के बटोरा।”
“हमने?”
“खासतौर से आपने। आपको उस बेमिसाल कामयाबी की एवज में तमगा भी मिला, खिताब भी मिला, तरक्की भी मिली और भरपूर वाहवाही भी मिली। क्यों मिली? क्योंकि बादशाह असल में कैसे हमारी पकड़ाई में आया था, ये आज भी कोई नहीं जानता। आज भी यही स्थापित है कि हमारे महकमे ने, हमारे महकमे के आला अफसरान ने अपनी कमाल की सूझबूझ और बहादुरी से उस नामुमकिन काम को मुमकिन करके दिखाया। मैं वो शख्स था सोहल ने बादशाह को जिसके हवाले किया था और जो मैक्सीमम सिक्योरिटी में बादशाह को मुम्बई से दिल्ली लेकर आया था। आप ये पसन्द करेंगे कि आज ये पर्दाफाश हो कि बादशाह की गिरफ्तारी में असल में हमारा कोई योगदान नहीं था?”
“ऐसा तो नहीं होना चाहिये!”
“हरगिज नहीं होना चाहिये। ऐसा हुआ तो महकमे की ऐसी छीछालेदारी होगी कि हम — खासतौर से आप जिन्हें कि विशेष सेवा मैडल से, पद्मश्री से और और भी सौ तरह को इनाम इकराम से नवाजा गया — किसी को मुंह दिखाने के काबिल नहीं रहेंगे।”
“लेकिन ऐसा होगा क्योंकर? क्या तुम अपना मुंह खोलोगे?”
“अगर चायस होगी तो नहीं खोलूंगा।”
“क्या मतलब?”
“सर, वन थिंग विल लीड टु अदर।”
“तुम्हारा मतलब है कि तुम्हारी गिरफ्तारी से ऐसी नौबत आ सकती है कि तुम्हें जबरन अपना मुंह खोलना पड़ सकता है?”
“यस, सर।”
“तौबा! ये क्या झमेला खड़ा कर दिया तुमने? क्या जरूरत पड़ी थी तुम्हें उस मामूली क्रिमिनल का तरफदार बनने की?”
“जरूरत थी, सर, वक्त की जरूरत थी। वक्ती जज्बात की जरूरत थी।”
“क्या जरूरत थी?”
“सर, मुझे अफसोस है कि जैसे मेरे महकमे ने अहसानफरामोश बन के दिखाया, वैसे मैं न कर सका। मैं इस हकीकत से न उबर सका कि सोहल ने हमारी बेमिसाल खिदमत की थी जिसके बदले में हमें — हमें नहीं तो मुझे — कुछ करना चाहिये था। इसलिये उसकी जो मदद मुझे मुमकिन दिखाई दी, वो मैंने की।”
“एक मामूली क्रिमिनल की?”
“सर, वो मामूली क्रिमिनल नहीं था। वो हालात का सताया हुआ एक ऐसा काबिलेरहम शख्स था जिसे उसके बुरे वक्त ने जबरन क्राइम की राह पर धकेला था। कभी वो एक उच्च शिक्षा प्राप्त, कुलीन और सम्भ्रान्त शहरी था, दिन में दो बार गुरुद्वारे जाकर मत्था टेक कर आने वाला वो खालिस इंसान था जो खालसा कहलाता है, मुल्क के कायदे कानून का आदर करने वाला एक नेक शहरी था।”
“ऐसा था तो क्राइम की राह पर कैसे चल दिया?”
“क्योंकि उसकी प्रारब्ध में ऐसा ही लिखा था। सर, फेट इज इनएविटेबल। नियति अटल है। वो क्योंकर अपने आज के अंजाम तक पहुंचा इसे मैंने तफसील से सुनाया तो इसी में शाम हो जायेगी। फिलहाल आप इतना ही समझिये कि उस शख्स की नियति ही कुछ ऐसी बन गयी है कि वो तो कम्बल को छोड़ता है लेकिन कम्बल उसे नहीं छोड़ता। वो क्राइम से किनारा करना चाहता है लेकिन वक्त की जरूरत, उसकी खोटी तकदीर की मार उसे ऐसा नहीं करने देती। इसका सबूत ये है कि इतना मशहूर इश्तिहारी मुजरिम, डकैत, खूनी, बैंक रॉबर, वाल्ट बस्टर और और पता नहीं क्या क्या अभी कल तक इसी शहर में एकाउन्टेंट की मामूली नौकरी करता था और उस तनखाह से भी खुश था जो उसे बतौर एकाउन्टेंट मिलती थी।”
“बना क्यों न रहा एकाउन्टेंट?”
“क्योंकि उसके बनाने वाले को ये मंजूर नहीं था। क्योंकि कुत्ते की तरह दुर दुर करती जिन्दगी ही उसकी नियति बन के रह गयी है। क्योंकि उसकी सैलाब जैसी जिन्दगी में ठहराव की कोई गुंजाइश नहीं। क्योंकि...”
“उसका गुणगान छोड़ो और ये बताओ कि उसके लिए तुमने ऐसा क्या किया था जो कि अब तुम्हारी मौजूदा दुश्वारी का बायस बन गया है?”
“सर, उसने जो कहा, मैंने किया। आइन्दा भी वो जो कहेगा, मैं करूंगा।”
“बिना अंजाम की परवाह किये?”
“यस, सर। बिना अंजाम की परवाह किये।”
“इस वक्त तो तुम्हें अपने अंजाम की पूरी पूरी परवाह जान पड़ती है। तभी तो मेरे पास आये हो।”
“आपके पास मैं इसलिये आया हूं क्योंकि मैं समझता हूं कि ये मुझ अकेले की प्राब्लम नहीं है।”
“क्यों नहीं है? महकमे ने तो तुम्हें ये नहीं कहा था कि तुम एक नोन क्रिमिनल के सगेवाले बन के दिखाओ।”
“कहा था। बराबर कहा था। वो असाइनमेंट मुझे सौंपते वक्त जब मुझे ये कहा गया था कि मैं कैसे भी — आई रिपीट, कैसे भी — बादशाह को पकड़ कर दिखाऊं तो कहा था। कैसे भी के दायरे में वो भी आता था जो कि मैंने सोहल के लिए किया था।”
“नहीं आता था। सोहल के लिए तुमने जो कुछ किया, बादशाह की गिरफ्तारी के बाद किया, अपनी जाती हैसियत से किया।”
“ये आप कह रहे हैं?”
“हां, मैं कह रहा हूं।”
“ये जानते बूझते कि सोहल पर हमारा काम करने के लिए कोई पाबन्दी नहीं थी! हमारा उस पर कोई जोर नहीं था!”
“जोर था। तुम जानते थे कि वो इश्तिहारी मुजरिम था।”
“जानता था लेकिन साबित नहीं कर सका था इस बात को। साबित करने की कोशिश में मेरी ऐसी किरकिरी हुई थी कि डूब मरने को जी चाहता था। खुद बाम्बे पुलिस कमिश्नर ने मेरे सामने, अपने अफसरान के सामने, प्रैस के नुमायन्दों के सामने ये तसलीम किया था कि वो सोहल नहीं था और उसे बाइज्जत रिहा किया गया था।”
“जबकि तुम जानते थे कि वो सोहल था।”
“मेरे जानने से क्या होता है, सर? कानून सबूत मांगता है। और मेरे पास जो वाहिद सबूत था, वो तो उसके खिलाफ टिक नहीं सका था!”
“तो फिर क्योंकर वो स्वैन नैक प्वायंट से बादशाह को तुम्हारे लिये जिन्दा पकड़ लाने को राजी हो गया?”
“क्योंकि वो एक राष्ट्रीय हित का काम था। और राष्ट्र हित एक हत्यारे और डकैत को भी उतना ही अजीज हो सकता है जितना कि किसी आम शहरी को।”
“हूं।”
“सर, अपने देश का वफादार सिपाही सिर्फ वो ही नहीं होता जो जंग के मुहाम में देश के बार्डर पर जाकर दुश्मन की फौज का मुकाबला करता है, सिपाही वो भी होता है जो देश के दुश्मन को, इन्सानियत के दुश्मन को देश के कायदे कानून की गिरफ्त के दायरे में लाकर अवाम की ऐसी खिदमत करता है जिसके लिए, वो जानता है कि, उसे कोई शाबाशी नहीं मिलने वाली। लेकिन शाबाशी मिलती है। खामोश शाबाशी मिलती है जो वैसी लाउड शाबाशी से बिल्कुल मुख्तलिफ होती है जैसी कि आपको मिली या महकमे को मिली। शाबाशी उन माओं से मिलती है जिन्हें अपनी मकतूल औलाद का सिर गोद में रख कर रोना नहीं पड़ता। शाबाशी उन बहनों से मिलती है जिनके भाई किसी टैरेरिस्ट की गोली का शिकार होने से बच जाते हैं। उन सुहागनों से मिलती है जिनकी मांग का सिन्दूर कोई दहशतगर्द नहीं नोच ले जाता। योगेश पाण्डेय जैसे अदना इंसान से मिलती है जो अपने महकमे की तरह, अपने आला अफसरों की तरह, नाशुक्रा नहीं बन सकता, जो कुछ नहीं कर सकता लेकिन फिर भी करता है।”
“तुम जज्बाती हो रहे हो।”
“जो कि शायद मेरा गुनाह है आपकी निगाह में। पुलिस वाला कोई इंसान का बच्चा थोड़े ही होता है! उसका जज्बात से क्या लेना देना! उसे तो गुण्डे बदमाशों डकैतों जैसा ही — या उनसे भी ज्यादा — जालिम और बेहिस होना चाहिये। ठीक?”
“पाण्डेय, यू आर वेस्टिंग माई टाइम। यू नो आई एम ए बिजी मैन।”
“सो यू आर, सर। सो यू आर।”
“तो फिर...”
कनौजिया ने बड़े अर्थपूर्ण ढंग से वॉल क्लाक की तरफ देखा।
“सर” — पाण्डेय बोला — “मैं आपका इशारा समझ रहा हूं इसलिये अब मेरा आप से एक आखिरी सवाल है।”
“वो भी बोलो।”
“बादशाह को जीता जागता स्वैन नैक प्वायंट से वापिस लाकर हमारे हवाले करने की एवज में सोहल ने अपनी कोई शर्त नहीं रखी थी। उसने ये काम एक हिन्दोस्तानी होने के नाते अपना फर्ज जान कर किया था इसलिये अपनी कोई मांग पेश नहीं की थी। मेरा सवाल ये है कि अगर वो कोई मांग पेश करता तो क्या मैं उसकी मांग को ठुकरा देता? जवाब ये सोच के दीजियेगा कि बादशाह के मामले में अपनी कामयाबी की उसे गारन्टी थी।”
“नहीं। तब उसकी कोई भी जायज मांग कुबूल करना दानिशमन्दी होती।”
“आप बात में खामखाह फुंदना टांक रहे हैं। हकीकत ये है कि उन हालात में उसकी जायज या नाजायज, कैसी भी मांग कुबूल करना दानिशमन्दी होती।”
“मे बी यू आर राइट।”
“अब कल्पना कीजिये कि उसने ये मांग की होती कि उसके मुकम्मल क्रिमिनल रिकार्ड को गायब कर दिया जाता या वाटर डाउन कर दिया जाता और उसे एक आम शहरी बन कर, अरविन्द कौल बन कर, नये सिरे से अपनी जिन्दगी शुरू करने का मौका दिया जाता तो क्या उसकी मांग ठुकरा दी जाती?”
“नहीं। उन हालात में तो नहीं!”
“तो फिर दिल्ली पुलिस के रिकार्ड से उसके फिंगरप्रिंट्स को तब्दील कराकर मैंने कौन सा बड़ा गुनाह कर दिया?”
“पाण्डेय, गुनाह करना खतरनाक नहीं होता, गुनाह करके पकड़ा जाना खतरनाक होता है। तुम्हारी अपनी कहानी ये कहती है कि अब हालात ऐसे पैदा हो गये हैं कि उस फिंगरप्रिंट्स की हेराफेरी में तुम्हारा हाथ होने की बात का उजागर हो जाना अब महज वक्त की बात है। तुम्हारे खिलाफ सबसे ज्यादा डैमेजिंग बात वो ही है। बाकी तुम्हारा कौल की हिमायत करना या उसकी शिनाख्त सोहल के तौर पर हो जाना ऐसी बातें हैं जिससे तुम मुकर सकते हो। पुलिस वाले कुछ भी कहते रहें तुम इस जिद पर अड़े रह सकते हो कि तुम्हें नहीं मालूम था कि वो सोहल था।”
“उंगलियों के निशानों की लीपापोती हो सकती है।”
“कैसे हो सकती है?”
“मेरे आदमी के कहने पर फिंगरप्रिंट्स विभाग के रिकार्ड क्लर्क ने रिकार्ड से सोहल की उंगलियों के निशान निकाल कर नष्ट नहीं कर दिये थे बल्कि इधर उधर कर दिये थे। वो निशान वापिस अपनी जगह पहुंच सकते हैं।”
“फिर क्या प्राब्लम है?”
“प्राब्लम उस ए.सी.पी. की ये खामोश धमकी है कि अगर मेरे खिलाफ कोई एक्शन कारगर न हो सका तो बात प्रैस तक पहुंच जायेगी, प्रैस के जरिये पब्लिक तक पहुंच जायेगी, जो कि मेरे खिलाफ कुछ साबित न हो पाने पर भी मेरी थू थू करा देगी।”
“ऐसा तो नहीं होना चाहिये!”
“नहीं सिर्फ इसलिये नहीं होना चाहिये क्योंकि ये मेरे लिये मुसीबत होगी, इसलिये भी नहीं होना चाहिये क्योंकि इस मामले में एक बार प्रैस के सक्रिय हो जाने पर हमारे महकमे की ये पोल भी खुल सकती है कि असल में बादशाह को अपने किसी ऑपरेशन के तहत हमने नहीं पकड़ा था, वो एक मामूली क्रिमिनल द्वारा — एक ऐसे क्रिमिनल द्वारा, हमारे मुकाबले में जिसकी सलाहियात न होने के बराबर थी — हमें डिलीवर किया गया था।”
“तुम जुबान नहीं खोलोगे तो ऐसा क्योंकर होगा?”
“प्रैस जब मेरे पीछे पड़ेगी तो मैं क्योंकर जुबान बन्द रख पाऊंगा?”
“तुम इस बाबत जुबान नहीं खोलोगे तो...”
“मैं इस बाबत जुबान क्यों नहीं खोलूंगा?”
कनौजिया ने घूर कर उसे देखा।
पाण्डेय ने बेखौफ उससे निगाह मिलाई।
“पाण्डेय” — कनौजिया सख्ती से बोला — “तुम वही कह रहे हो जो मैं समझ रहा हूं?”
“मैं नहीं जानता, सर” — पाण्डेय मासूमियत से बोला — “कि आप क्या समझ रहे हैं!”
“तुम खूब जानते हो कि... कि... पाण्डेय, दिस इज ब्लैकमेल।”
पाण्डेय खामोश रहा।
“मौन भी स्वीकृति का लक्षण होता है।”
“मैं आप जितना ज्ञानी नहीं, सर।”
कनौजिया खामोश रहा।
कितनी ही देर आफिस में मुकम्मल सन्नाटा छाया रहा।
“सर” — आखिरकार पाण्डेय ने ही जुबान खोली — “वो लोग मेरे जवाब का इन्तजार कर रहे हैं।”
“फिंगरप्रिंट्स को यथापूर्व स्थिति में पहुंचाना होगा।” — कनौजिया निर्णायक स्वर में बोला — “इससे बतौर सोहल कौल की शिनाख्त फेल नहीं हो जायेगी लेकिन फिर भी ये काम जरूरी है क्योंकि तभी वो फाइलिंग क्लर्क सेफ रह सकता हैं, आगे तुम्हारा आदमी सेफ रह सकता है और और आगे तुम सेफ रह सकते हो।”
“यस, सर।”
“बात का प्रैस तक पहुंचना रोकना होगा। इस बाबत बिल्कुल टॉप से हुक्म हो जायेगा लोकिन हुक्मअदूली आजकल आम बात है इसलिये अतिरिक्त सावधानी की जरूरत होगी।”
“अतिरिक्त सावधानी?”
“तुमने काफी अरसे से कोई लम्बी छुट्टी नहीं ली। एक लम्बी छुट्टी की दरख्वास्त दो और आज ही रात — या बड़ी हद कल तक — फैमिली को लेकर ऐसी किसी दूरदराज जगह के लिए निकल जाओ जहां कि प्रैस की तुम तक पहुंच न हो सके।”
“ओह!”
“कर सकोगे?”
“करना ही पड़ेगा।”
“ठीक। अब जाकर अपने आफिस में बैठो और फरदर डवैलपमेंट का इन्तजार करो। ”
“यस, सर। थैंक्यू, सर।”
“ये क्या हो रहा है?” — सब-इन्स्पेक्टर कड़क कर बोला।
“वडी, तू किधर से आया, नी?” — झामनानी असहाय भाव से गर्दन हिलाता बोला — “तूने भी अभी आना था, नी।”
“क्या हुआ यहां?”
“वडी, जो हुआ, तेरे सामने है, नी। अब जैसे आया है, वैसे लौट जा।”
“तेरा नजराना” — ब्रजवासी बोला — “तेरे घर पहुंच जायेगा।”
“नहीं हो सकता। मेरी यहां आमद की थाने में खबर है।”
“किद्दां खबर ए?” — पवित्तर सिंह बोला।
“पहुंच कैसे गया इधर?” — भोगीलाल बोला।
“थाने में इधर से बटन दबाने पर वार्निंग बैल बजती है।”
“कुशवाहा ने कराया था ये इन्तजाम?”
“हां।”
“सत्यानाश!”
“वडी, जब आ ही गया है तो इधर जो हुआ” — झामनानी बोला — “उस पर पर्दा डाल और अपनी फीस बोल।”
सब-इन्स्पेक्टर हिचकिचाया।
“वडी, मेरे को जानता है, नी?”
“जानता हूं। सरदार जी को भी जानता हूं। बाकी दो को नहीं जानता।”
“बाकी दो भी अपने बिरादरीभाई हैं। वडी, अब जल्दी फैसला कर, नी, या...”
“या क्या?”
“रिवॉल्वर अभी भी ब्रजवासी के हाथ में है।”
“ऐसी हिमाकत भूल कर न करना। मैं यहां अकेला नहीं आया।”
“तो बोला न, अपनी फीस बोल।”
“डबल मर्डर का केस है। मेरे अकेले के किये रफादफा नहीं होगा। एस.एच.ओ. को खबर करनी होगी।”
“उसकी फीस बोल।”
“वो आ के खुद बोलेगा।”
“तब तक अपनी फीस बोल।”
“वो भी वो आयेगा तो बोलूंगा।”
“बुला उसे।”
सब-इन्स्पेक्टर ने थाने फोन किया और फिर बोला — “अब बाेलो क्या हुआ?”
“वडी, ये दोनों’’ — झामनानी बोला — “आपस में लड़ मरे, नी।”
“नहीं चलेगा।”
“तो क्या चलेगा, नी?”
सब-इन्स्पेक्टर ने ब्रजवासी की तरफ देखा, फिर उसके चेहरे से फिसल कर उसकी निगाह उसके हाथ में थमी रिवॉल्वर पर पड़ी।
“लाइसेंस है?” — वो बोला।
“नहीं।” — ब्रजवासी बोला।
“यानी कि रिवॉल्वर लाइसेंसशुदा नहीं है। रजिस्टर्ड नहीं है?”
“नहीं है।”
“ये अच्छी खबर है।”
“कैसे? कैसे अच्छी खबर है?”
“अभी चुप करो। मुझे सोचने दो। एस.एच.ओ. को आने दो। तब तक रोकड़े का इन्तजाम करो।”
“वडी कितने का इन्तजाम करें, नी?” — झामनानी बोला — “कोई रकम तो बोल।”
“बीस लाख। घट बढ़ बाद में।”
“वडी, बीस लक्ख में भी घट बढ़ होगी?”
“हां। डबल मर्डर का केस है। ये तो समझो कि डाउन पेमेंट है।”
झामनानी ने पवित्तर सिंह की तरफ देखा।
“फोन।” — पवित्तर सिंह धीरे से बोला — “फोन करना पयेगा।”
“कर।”
पवित्तर सिंह ने सहमति में सिर हिलाया।
तत्काल वो फोन से उलझ गया।
पाण्डेय सीधा वापिस अपने आफिस न गया। पहले वो महकमे में ही कहीं और पहुंचा जहां से उसने फोन पर चुपचाप अपने उस आदमी से सम्पर्क किया जिसने उसके निर्देश पर आगे पुलिस हैडक्वार्टर के फिंगरप्रिंट्स विभाग के फाइलिंग क्लर्क को सांठा था और फिंगरप्रिंट्स की फिर से अदलाबदली की बाबत उसे वो जरूरी हिदायात दीं जिन पर वार फुटिंग पर अमल होना जरूरी था। उस बाबत तसल्ली हो जाने के बाद ही वो अपने आफिस में लौटा।
पुलिसियों को उसने जमहाइयां लेते और पहलू बदलते पाया।
“सॉरी जन्टलमैन” — वो अपनी एग्जीक्यूटिव चेयर पर ढेर होता बोला — “मुझे लौटने में देर हो गयी।”
“नैवर माइन्ड, सर।” — ए.सी.पी. अदब से बोला।
“थैंक्यू।”
“तो फिर आपका फाइनल जवाब क्या है?”
“मेरा जवाब... मेरा जवाब...”
तभी फोन की घंटी बजी।
“एक्सक्यूज मी।” — पाण्डेय बोला, उसने हाथ बढ़ा कर फोन पर से रिसीवर उठाया और काल रिसीव की। वो कुछ क्षण दूसरी ओर से आती आवाज सुनता रहा और फिर रिसीवर ए.सी.पी. की ओर बढ़ाता बोला — “तुम्हारा फोन है।”
“जी!” — ए.सी.पी. सकपकाया।
“तुम्हारा फोन है, भई।”
“लेकिन मेरी यहां आमद की तो किसी को कोई खबर नहीं!”
“किसी को तो होगी! वरना फोन कैसे आता!”
मन्त्रमुग्ध भाव से ए.सी.पी. ने पाण्डेय के हाथ से रिसीवर थामा और फिर माउथपीस में बोला — “हल्लो! ए.सी.पी. प्राण सक्सेना हेयर।”
“सर, मैं कमिश्नर साहब के आफिस से उनका प्राइवेट सैक्रेटी बोल रहा हूं।” — दूसरी ओर से कोई ऐसे उच्च स्वर में बोला कि आवाज पाण्डेय को भी साफ सुनायी दी — “साहब खुद आप से बात करेंगे। कृपया लाइन पर रहियेगा।”
“ओके।” — ए.सी.पी. तत्पर स्वर में बोला।
कुछ क्षण खामोशी रही।
उस दौरान ए.सी.पी. के चेहरे पर गहन उत्कण्ठा के भाव प्रकट हो चुके थे।
“हल्लो” — फिर दूसरी तरफ से आवाज आयी — “दिस इज कमिश्नर ऑफ पोलीस स्पीकिंग।”
“गुड आफ्टरनून, सर।” — तत्काल ए.सी.पी. बोला — “ए.सी.पी. प्राण सक्सेना आन दिस साइड, सर।”
“वॉट आर यू डूइंग देयर?”
प्रश्न इतना अप्रत्याशित, गैरवाजिब और फटकारभरा था कि ए.सी.पी. के छक्के छूट गये।
“सर... सर” — बड़ी कठिनाई से वो बोल पाया — “वो क्या है कि...”
“क्यों खामखाह एस.एच.ओ. को उसके थाने से इतनी दूर मूव किया?”
“सर... सर... वो...”
“उसे फौरन थाने वापिस भेजो। उसके साथ कोई और उसके थाने का आदमी है तो उसे भी वापिस भेजो और खुद तमाम डाकूमेंट्स के साथ मेरे पास रिपोर्ट करो।”
“यस, सर।”
“आधे घन्टे में मैं तुम्हें अपने सामने देखना चाहता हूं।”
“यस, सर।”
लाइन कटने की साफ आवाज आयी।
ए.सी.पी. ने यूं रिसीवर क्रेडल पर रखा जैसे वो एकाएक बहुत वजनी हो गया था। फिर उसने बड़े असहाय भाव से पाण्डेय की तरफ देखा।
“सर” — वो धीरे से बोला — “आई बो बिफोर युअर सुपीरियर रिसोर्सिज।”
“क्या?” — पाण्डेय जानबूझ कर अनजान बनता बोला — “मैं समझा नहीं।”
“मैंने अर्ज किया है कि मैं आपकी उत्कृष्ट साधनसम्पन्नता के आगे नतमस्तक हूं। बहुत खूबसूरती से आपने मुझे मेरी हैसियत समझाई और जात औकात दिखाई। मैं कुबूल करता हूं कि आपकी अजीमोश्शान हस्ती के आगे मैं बहुत बौना साबित हुआ हूं।”
आखिरी शब्द ए.सी.पी. ने ऐसे कातर भाव से कहे कि पाण्डेय का दिल पसीज गया।
“नो ऑफेंस, आफिसर।” — वो सहानुभूतिपूर्ण स्वर में बोला — “देयर इज नथिंग पर्सनल। इट इज आल इन लाइन ऑफ बिजनेस। यू विल लिव एण्ड लर्न।”
“गुड नाइट, सर।”
“गुड नाइट।”
कनाट प्लेस थाने का एस.एच.ओ. देवीलाल लोटस क्लब पहुंचा।
तत्काल उसका मातहत सब-इन्स्पेक्टर उसे आफिस के एक कोने में ले गया और जल्दी जल्दी उसके कान में खुसर पुसर करने लगा।
उस दौरान घिसे हुए पुलिसिये एस.एच.ओ. की निगाह बार बार चारों बिरादरीभाईयों के चेहरों पर फिरती रही और वो रह रहकर सहमति में सिर हिलाता रहा।
आखिरकार सब-इन्स्पेक्टर खामोश हुआ।
फिर दोनों आफिस का कोना छोड़ कर बिरादरीभाईयों के सामने पहुंचे।
चारों ने सशंक भाव से एस.एच.ओ. की तरफ देखा।
“तीस।” — एस.एच.ओ. दान्त भींचे बोला।
“ज्यादा है।” — तत्काल ब्रजवासी ने विरोध किया।
“कम है। ए.सी.पी. मांग सकता है। तब और देना पड़ सकता है। बड़ा केस है। बहुत लीपापोती करनी पड़ेगी। हां न जो करना है, जल्दी करो।”
“वडी, मंजूर है, नी।” — झामनानी बोला — “बीस अभी पहुंच रहे हैं, दस एक घन्टे में पहुंच जायेंगे।”
“बाकी” — भोगीलाल बोला — “जैसे थारा हुक्म होवेगा।”
“ठीक है।”
सब की जान में जान आयी।
“तुम लोगों को यहां आते किसी ने देखा था?”— एस.एच.ओ. ने पूछा।
“सिर्फ द्विवेदी ने देखा था।” — ब्रजवासी बोला — “जो कि मरा पड़ा है।”
“और क्लब में दाखिल होते?”
“सिर्फ एक डोरमैन ने देखा था।”
“सिर्फ उसने क्यों? और किसी ने क्यों नहीं?”
“हम हाल में से गुजर कर नहीं आये थे। हम साइड के एक रास्ते से यहां आये थे जो सीधा यहां पहुंचाता है और जिस पर सिर्फ एक डोरमैन तैनात था।”
“उस डोरमैन का मुंह बन्द करना होगा।”
“हो जायेगा।”
“आप लोगों को करना होगा।”
“बोला न, हो जायेगा।”
“वडी, जरूरत पड़ी” — झामनानी बोला — “तो हमेशा के लिए भी हो जायेगा, नी।”
“बढ़िया।”
“वडी, क्या बढ़िया, नी?”
“आप में से कोई यहां नहीं आया था। इस वक्त आप कहां थे, इसका कोई जवाब सोच के रखना।”
“ओये मां सदके” — पवित्तर सिंह बोला — “अगर जवाबतलबी वी होवेगी तां...”
“मैंने नहीं कहा कि होगी। लेकिन तैयार रहने में क्या कोई हर्ज होता है?”
“वडी, थानेदार ठीक बोला, नी।” — झामनानी बोला।
“चंगा।” — पवित्तर सिंह बोला।
“ठीक है।” — ब्रजवासी बोला।
भोगीलाल ने सिर्फ सहमति में सिर हिलाया।
एस.एच.ओ. द्विवेदी की लाश के करीब पहुंचा। मरने से पहले द्विवेदी अपना रिवॉल्वर वाला हाथ थोड़ा सा जेब से बाहर खींचने में कामयाब हो गया था। एस.एच.ओ. ने आगे बढ़ कर उसका हाथ पूरा जेब से बाहर खींच लिया और फिर अपने हाथ में रूमाल लपेटकर उसमें से रिवॉल्वर निकाल ली। उसने रिवॉल्वर को अपने सामने ताना और एक फायर किया।
गोली भोगीलाल के सिर के ऊपर से गुजरती पीछे दीवार में जा के लगी।
“अरे!” — तत्काल वो आतंकित भाव से बोला — “ये क्या...”
“शटअप!” — एस.एच.ओ. घुड़ककर बोला।
वो तत्काल खामोश हो गया। उसके समेत चारों बिरादरीभाईयों की व्याकुल निगाहें एस.एच.ओ. पर टिक गयीं।
एस.एच.ओ. ने रिवॉल्वर द्विवेदी की मुर्दा उंगलियों में फंसा दी।
“मारने की कोशिश की।” — एस.एच.ओ. बोला — “खुद मर गया। साथ में इसका बॉस भी।”
सब ने चैन की सांस ली।
“सिर्फ एक ही गोली चला पाया जो कि दूसरे को लगी नहीं।”
“दूसरा!” — ब्रजवासी की भवें उठीं।
“पता नहीं कौन था! तफ्तीश होगी। वापिसी में अपनी रिवॉल्वर किसी कूड़ेदान में या गटर में फेंकना न भूलना।”
“हरगिज नहीं भूलूंगा।” — ब्रजवासी बोला।
“उस पर से अपनी उंगलियों के निशान साफ करके।”
“जरूर। जरूर।”
“अब जाइये आप लोग। खामोशी से। जैसे बिना किसी की निगाहों में आये यहां तक पहुंचे थे, वैसे ही।”
“वी लख” — पवित्तर सिंह धीरे से बोला — “ऐदर पौंच गये होन गे।”
“वडी, हम बाहर ठहरे हैं, नी।” — झामनानी बोला — “आकर अपना सामान ले लेना।”
“मैं साथ ही चलता हूं।” — एस.एच.ओ. बोला।
“झूलेलाल! कितना फुर्तीला अफसर है, नी!”
पीछे सब-इन्स्पेक्टर को छोड़कर सब वहां से रवाना हो गये।
विक्टर ने टैक्सी तारदेव में उस मल्टीस्टेारी इमारत के सामने रोकी जिसमें ओरियन्टल होटल्स एण्ड रिजार्ट्स लिमिटेड का रजिस्टर्ड आफिस था।
विक्टर के पहलू में संजीदासूरत इरफान बैठा हुआ था और पीछे विमल और नीलम मौजूद थे। दोनों उस घड़ी डबल ब्रैस्ट के मैचिंग काले सूट और एक जैसी सफेद कमीजें और काली टाइयां पहने थे। विमल के ऊपरी होंठ पर नकली मूंछ थी जिसकी जोड़ीदार दाढ़ी उसकी जेब में थी। वो अपनी आंखों की पुतलियों पर नीले कान्टैक्ट लैंस लगाये था और ऊपर सुनहरी फ्रेम वाला सुरमई रंगत के शीशों वाला चश्मा लगाये था। वैसा ही चश्मा नीलम भी लगाये थी। उसके अतिरिक्त वो सिर पर इस्साभाई विगवाला की देन युवकों में बहुत आधुनिक कट का समझा जाने वाला विग, मोटी भवें और फ्रेंच कट दाढ़ी मूंछ लगाये थी। उसके हाथ में व्यवसायियों जैसा एक कीमती ब्रीफकेस था।
विमल अपनी नाक में प्लास्टिक की दो गोलियां डाले था जिसकी वजह से उसके नथुने फूले हुए थे और जब वो बोलता था तो आवाज में तब्दीली आ जाती थी।
उसकी ये भी खुशकिस्मती थी कि उसकी गिरफ्तारी की मंशा से ‘कम्पनी’ ने जो उसकी असली सूरत का, उसके नये चेहरे का और उसकी पी.एन. घड़ीवाला वाली फ्रेंच कट दाढ़ी मूंछ वाली सूरत का प्रचार कराया था वो सिर्फ अन्डरवर्ल्ड में ही हुआ था, वो आम पब्लिक या पुलिस में नहीं हो पाया था।
उसका इरादा पहले फ्रेंच कट दाढ़ी मूंछ के साथ ही बोर्ड की मीटिंग में पेश होने का था लेकिन ऐन मौके पर उसने दाढ़ी उतार कर जेब में रख ली थी क्योंकि उसने अनुभव किया था कि दाढ़ी और मूंछ दोनों में उसकी सूरत काफी हद तक राजा गजेन्द्र सिंह जैसी लगने लगती थी। वैसे भी जो थोड़ा बहुत मेकअप उसने अपनाया था वो परसनैलिटी चेंज करने के लिए था, हुलिया चेंज करने के लिए नहीं था। अलबत्ता नीलम का मेकअप हुलिया चेंज करने के लिए ही था जो दाढ़ी मूंछ के बिना अपनी चिकनी सूरत की वजह से ही पहचानी जा सकती थी कि औरत थी।
वो नीलम को साथ लाने के हक में कतई नहीं था लेकिन उसकी जिद के सामने उसकी एक नहीं चली थी। नतीजतन वो, उसके तकरीबन मिलते जुलते बहुरूप में ही, उसके साथ थी।
कर्टसी राजेश जठार, मिस्टर कौल की वहां साढ़े चार बजे की अप्वायंटमेंट पहले से फिक्स थी।
वो और नीलम टैक्सी से बाहर निकले।
“सब काबू में है न, बाप?” — इरफान व्यग्र भाव से बोला।
“बिल्कुल!” — विमल आश्वासनपूर्ण स्वर में बोला — “फिक्र नक्को, मियां। ये साहब लोगों के यहां की मीटिंग है। यहां कोई पंगा होने की उम्मीद नहीं।”
“उन साहब लोगों में एक साहब दाण्डेकर भी है!”
“एक। अकेला नहीं। इसलिये कोई वान्दा नहीं।”
“हम कब तक इन्तजार करें?”
“ये भी कोई पूछने की बात है? जाहिर है कि जब तक हम लौट न आयें।”
“न लौटे तो...”
“तू पागल है। अरे, यकीन कर मेरा, इधर ऐसा कोई खतरा नहीं।”
“बाप, तेरे साथ बाडीगार्ड होना मांगता...”
“है न बाडीगार्ड इधर!”
विमल ने कोट हटा कर उसे पतलून की बैल्ट में खुंसी रिवॉल्वर दिखाई।
“ओह!” — इरफान के मुंह से निकला।
“तू फिक्र न कर।” — विमल बोला — “और भी इन्तजाम हैं।”
“ठीक है। तू बोलता है तो....”
इरफान खामोश हो गया।
“बाप” — एकाएक विक्टर बोला — “वो कल वाली बात...”
“कौन सी कल वाली बात?” — विमल बोला।
“वो जो मैं धारावी से उस ‘भाई’ के आदमी के पीछू लगेला था। आकरे के साथ?”
“अच्छा वो! लौट के सुनूंगा।”
“और टेलीफोन नम्बर वाली बात” — इरफान बोला — “मैं भी बोलना भूल गया था।”
“सब लौट के सुनूंगा। अब टाइम नहीं है।”
दोनों खामोश हो गये।
विमल और नीलम इमारत में दाखिल हुए।
ठीक साढ़े चार बजे वो दोनों ओरियन्टल के विशाल बोर्ड रूम में बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स की मीटिंग में हाजिर थे।
वहां उन्हें केवल चेयरमैन और एम.डी. का परिचय प्राप्त हुआ।
एम.डी. जो कि महेश दाण्डेकर था।
और चेयरमैन एक सफेद बालों वाला सूरत से ही सम्भ्रान्त, सम्पन्न और इज्जतदार लगने वाला आदमी था। उसका नाम रणदीवे था और वो बोर्ड टेबल के हैड पर विराजमान था।
दाण्डेकर उसके पहलू में विराजमान था और उसके मुकाबले में वो सूरत से भी हल्का आदमी लगता था। उसके चेहरे पर सख्ती और काईंयापन के स्थायी भाव थे और उसकी मोटी तोंद, फूले हुए पपोटे और आंखों में खिंचे लाल डोरे उसकी विलासी प्रवृत्ति की साफ चुगली कर रहे थे।
हाजिर डायरेक्टर साहबान में से विमल ने राजेश जठार के अलावा एक सूरत और पहचानी।
ऐन उसके पहलू में एयरपोर्ट पर इत्तफाकन मिले अताउल्लाह खान साहब का बड़ा साहबजादा मोहसिन खान मौजूद था। मोहसिन खान दो तीन बार सरसरी निगाह से उसे देख चुका था और लगता नहीं था कि उसने उसे पहचाना था।
“सो, मिस्टर कौल” — चेयरमैन धीर गम्भीर स्वर में बोला — “काइन्डली स्टेट युअर बिजनेस।”
“यस सर।” — विमल तत्पर स्वर में बोला — “हाजिर साहबान की जानकारी के लिए अर्ज करता हूं कि हम राजा गजेन्द्र सिंह के प्रतिनिधि हैं जो कि एक नान-रेजीडेंट इन्डियन हैं, नैरोबी के बड़े बिजनेसमैन हैं लेकिन अब मुम्बई में सैटल होने की तैयारी कर रहे हैं।”
“क्या बिजनेस है उनका?”
“उनके कई बिजनेस हैं लेकिन यहां वो होटल बिजनेस में कदम रखना चाहते हैं” — विमल एक क्षण ठिठका और फिर बोला — “रख चुके हैं।”
“रख चुके हैं?” — चेयरमैन रणदीवे की भवें उठीं।
“जी हां।”
विमल ने नीलम को इशारा किया तो नीलम ने ब्रीफकेस को अपने घुटनों पर रख कर खोला, उसमें से एक लिफाफा निकालकर विमल को सौंपा और ब्रीफकेस को बदस्तूर बन्द कर दिया।
लेकिन इस बार उसने ब्रीफकेस को नीचे कुर्सी के पाये के साथ फर्श पर टिका कर रखने की जगह अपनी गोद में ही पड़ा रहने दिया।
विमल ने लिफाफा खोला और उसमें मौजूद एक कागज बाहर खींचा।
कागज शेयर सर्टिफिकेट था।
विमल ने बड़े स्टाइल से अपनी नाक पर लगे उस चश्मे को दुरुस्त किया जिसकी कि उसकी पर्फेक्ट आईसाइट जरा भी मोहताज नहीं थी, शेयर सर्टिफिकेट का कुछ क्षण फर्जी मुआयना किया और फिर उसे अपने सामने मेज पर डाल दिया।
“ये आपकी कम्पनी के बीस पर्सेन्ट शेयर्स का सर्टिफिकेट है” — वो बोला — “जो कि हाल ही में राजा साहब ने खरीदे हैं। मैं इन शेयर्स को राजा साहब के नाम ट्रांसफर के लिए पेश करता हूं।”
बोर्ड रूम में सन्नाटा छा गया।
फिर वो शेयर सर्टिफिकेट एक डायरेक्टर ने उठाया, उसका मुआयना किया और उसे अपने से आगे बैठे डायरेक्टर को थमा दिया। यूं सर्टिफिकेट कई हाथों से गुजरने लगा।
उस दौरान विमल ने अपना पाइप निकाला, उसके कप में तम्बाकू भरा और उसे सुलगा कर उसके छोटे छोटे कश लगाने लगा।
धूम्रपान पर वहां कोई पाबन्दी नहीं थी क्योंकि उसने आते ही देखा था कि हर चेयर के सामने मिनरल वाटर की बोतल और गिलास के साथ ऐश ट्रे भी पड़ी थी और दो तीन साहबान सिग्रेट पी भी रहे थे।
आखिरकार सर्टिफिकेट चेयरमैन के हाथों में पहुंचा।
चेयरमैन ने भी बड़ी बारीकी से उसका मुआयना किया।
फिर बड़े उतावले भाव से, कदरन बद्तमीजी से, सर्टिफिकेट दाण्डेकर ने उसके हाथ से झपट लिया। उसने भी सर्टिफिकेट का मुआयना किया और फिर रूखे स्वर में बोला — “हमें ऐसी किसी सेल की खबर नहीं।”
“आपको खबर ही की जा रही है, मिस्टर दाण्डेकर।” — विमल सुसंयत स्वर में बोला।
“हमें पहले से ऐसी किसी सेल की खबर नहीं।”
“ऐसी कोई खबर क्यों होनी चाहिये थी आपको?”
“क्यों होनी चाहिये थी, क्या मतलब?”
“मतलब आप समझिये और मुझे समझाइये।”
दाण्डेकर ने चेयरमैन की तरफ देखा।
“मिस्टर कौल” — चेयरमैन बोला — “दिस इज ए लार्ज ट्रांजैक्शन। इतने शेयरों को कोई एकमुश्त बेचता है तो वो कम्पनी को खबर करता है।”
“आपकी कम्पनी का” — विमल बोला — “ऐसा कोई नियम है कि अगर खबर नहीं की जायेगी तो शेयर नहीं बेचे जा सकते?”
“नियम तो नहीं है लेकिन अमूमन ऐसा ही होता है।”
“अमूमन कहा आपने। हमेशा नहीं कहा।”
“फिर भी...”
“फिर भी ऐसा कुछ किया जाना था तो ये बेचने वाले को सोचना चाहिये था। खरीददार का इसमें कोई रोल नहीं है। कोई रोल है तो बताइये।”
चेयरमैन खामोश रहा।
“राजा साहब ने डालर जैसी साउन्ड और इन्टरनेशनल करेन्सी में कैश पेमेंट देकर ये शेयर खरीदे हैं। मैं मांग करता हूं कि इन्हें फौरन उनके नाम ट्रांसफर किया जाये।”
“कब हुआ ये सौदा?” — दाण्डेकर बोला — “कहां हुआ?”
“पिछले महीने हुआ। काठमाण्डू में हुआ। वहां के फाइव स्टार डीलक्स होटल सोल्टी ओबराय में हुआ। उसी रोज गजरे साहब ने हासिल हुई रकम वहां के ज्यूरिच ट्रेड बैंक में जमा करवाई। वो बैंक काठमाण्डू में दरबार मार्ग पर एक छ: मंजिला इमारत में स्थित है। बैंक के प्रेसीडेंट का नाम मारुति देवाल है। ये” — विमल ने सामने पड़े पैड में से एक कागज फाड़ कर उस पर एक नम्बर घसीटा और उसे सामने मेज पर उछाल दिया — “प्रेसीडेंट का पर्सनल नम्बर है। इस पर काल लगाइये और जो कुछ मैंने कहा है, उसकी तसदीक कीजिये।”
“तसदीक होगी?” — चेयरमैन भवें उठा कर बोला।
“हाथ कंगन को आरसी क्या! फोन कीजिये और देखिये क्या होता है?”
“नाम से ये कोई स्विस बैंक जान पड़ता है!”
“जी हां। ये एक मशूहर स्विस बैंक की ही ब्रांच है।”
“स्विस बैंकों में तो ऐसी जानकारी किसी को देने पर पाबन्दी है।”
“ज्यूरिच ट्रेड बैंक में भी है लेकिन वो पाबन्दी राजा साहब पर लागू नहीं होती।”
“क्यों?”
“क्योंकि वो बड़े आदमी हैं।”
“बड़े आदमी!” — दाण्डेकर व्यंग्यपूर्ण स्वर में हंसा — “राजा साहब राकफेलर हैं या फोर्ड हैं या गेट्स हैं?”
“उनसे कम भी नहीं हैं और...”
“और क्या?”
“ज्यूरिच ट्रेड बैंक में भी राजा साहब के सबस्टैंशल शेयर्स हैं।”
दाण्डेकर खामोश हो गया।
“खरीद फरोख्त का” — चेयरमैन रणदीवे बोला — “कोई रसीद पर्चा भी तो होता है।”
“बराबर होता है।” — विमल ने लिफाफे में हाथ डाला और उसमें से कुछ कागजात बरामद किये — “ये रसीद की कुछ फोटोकापियां हैं जो मैं आप लोगों के लिए ही लाया हूं। ओरीजिनल रसीद राजा साहब के पास महफूज है।”
फोटोकापियां भी जनाबेहाजरीन में बंटी।
वो निरीक्षण खत्म हुआ तो कुछ डायरेक्टर साहबान प्रभावित दिखाई दिये तो कुछ चिन्तित दिखाई दिये।
“राजा साहब खुद क्यों नहीं आये?” — एक डायरेक्टर बोला।
“क्योंकि वो राजा साहब हैं। पटियाले के शाही घराने से ताल्लुक रखते हैं। छोटे मोटे कामों के लिए वो खुद नहीं जाते।”
“ये करोड़ों की परचेज छोटा मोटा काम है?”
“उनके लिए।”
“हूं।”
“तो फिर, चेयरमैन साहब, क्या जवाब है आपका?”
“जवाब वही है जो होना चाहिये।” — चेयरमैन गम्भीरता से बोला — “वुई कैन नाट ब्लाक ए जेनुइन ट्रांजेक्शन।”
“आपको इसके जेनुइन होने में अभी भी शक है।”
“शक तो नहीं है लेकिन...”
“क्या लेकिन?”
चेयरमैन ने दाण्डेकर की तरफ देखा।
“शेयर बेचने वाला” — दाण्डेकर बोला — “बद्किस्मती से आज की तारीख में इस दुनिया में नहीं है इसलिये उससे इस ट्रांजेक्शन की तसदीक नहीं की जा सकती।”
“तो?” — विमल सख्ती से बोला।
“ऐसी तसदीक हो पायी होती तो इसमें हमारी सहूलियत होती।”
“वर्ल्ड ऑफ फाइनांस आपकी सहूलियत को निगाह में रख कर नहीं चलता, मिस्टर एम.डी.। या तो सौदे में कोई नुक्स बताइये या शेयर राजा साहब के नाम ट्रांसफर कीजिये।”
“ये काम फौरन नहीं हो सकता।”
“क्यों नहीं हो सकता?”
“कुछ बातों की चैकिंग करनी होगी।”
“तो कीजिये। किसने रोका है?”
“ये आनन-फानन होने वाला काम नहीं है।”
“ये बात आप ये सोच के कह रहे हैं कि पैंडिंग ट्रांसफर, राजा साहब आपकी कम्पनी के सौ पचास शेयरों के नहीं, बीस प्रतिशत शेयरों के मालिक होंगे और इतने शेयरों के मालिक तो, हमें मालूम हुआ है कि, खुद आप नहीं है जो कि मैंनेजिंग डायरेक्टर की कुर्सी पर बैठे हैं।”
“मुझे मैंनेजिंग डायरेक्टर शेयर होल्डरों ने वोट से चुना है, इसमें कम्पनी में मेरी होल्डिंग का कोई दखल नहीं।”
“जब वक्त आयेगा तो राजा साहब को भी आपके शेयर होल्डर वोट से ही एम.डी. चुनेंगे।”
“तो ये इरादे हैं राजा साहब के?” — चेयरमैन बोला — “वो ओरियन्टल को टेकओवर करने के ख्वाब देख रहे हैं?”
“बिल्कुल भी नहीं। अलबत्ता जब वो ऐसा कोई ख्वाब देखेंगे तो वो जब चाहेंगे ख्वाब हकीकत में तब्दील हो जायेगा।”
“तो और क्या चाहते हैं वो?”
“वो सिर्फ होटल सी-व्यू को टेकओवर करना चाहते हैं।”
“होटल सी-व्यू ओरियन्टल की प्रॉपर्टी है। उसको टेकओवर करने के लिए बीस पर्सेन्ट शेयर्स की होल्डिंग काफी नहीं।”
“क्यों काफी नहीं? जब वो बखिया के लिए काफी थी, इकबाल सिंह के लिए काफी थी, गजरे के लिए काफी थी तो राजा साहब के लिए क्यों काफी नहीं!”
“तुम तो” — दाण्डेकर उसे घूरता हुआ बोला — “बहुत कुछ जानते हो!”
“जनाब, राजा साहब ने होटल सी-व्यू की केस हिस्ट्री स्टडी करके ही उसमें अपना पैसा झोंका है।”
“क्या स्टडी किया है उन्होंने?”
“जानना चाहते हैं?”
“हां।”
“वो बात जानना चाहते हैं जो आप पहले से जानते हैं?”
“ये जानने के लिए जानना चाहते हैं कि जो हम जानते हैं वो वाकेई तुम्हारी राजा साहब भी जानते हैं।”
“तो सुनिये। आपका होटल एक अरसे से ‘कम्पनी’ के नाम से जानी जाने वाली गैंगस्टर्स, स्मगलर्स और मर्डरर्स की एक माफिया स्टाइल जमात के कब्जे में था जिसका बड़ा महन्त कभी बखिया था, फिर इकबाल सिंह बना और अभी चन्द दिन पहले तक गजरे था। ये तीनों साहबान अब इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन अपनी जिन्दगी में ये तीनों ही खतरनाक मवाली थे। आप लोग उनमें से हर एक की हस्ती के आगे थर थर कांपते थे और इसीलिये सिर्फ बीस पर्सेन्ट शेयरों के दम पर वो लोग होटल पर काबिज थे। बीस पर्सेन्ट शेयर तो बहुत होते हैं, उनके पास तो सिर्फ बीस शेयर भी होते तो वो ये करतब कर दिखाते क्योंकि उन्होंने तो उस खौफ को कैश करना था जो कि आप ‘कम्पनी’ से बेतहाशा खाये हुए थे। आप को शुक्रगुजार होना चाहिये सोहल नाम के उस शख्स का जिसने उन तीनों को जहन्नुम का रास्ता दिखाया और आपको ये दिन देखना नसीब हुआ कि आप अपने होटल को रीक्लेम कर पाये।”
चेयरमैन समेत कई डायरेक्टरों का सिर बड़ी संजीदगी से सहमति में हिला।
“लेकिन आप का चैन, आपका ये इत्मीनान वक्ती है, साहबान। राजा साहब के दखल को आप नजरअन्दाज करें तो आपका होटल पर कब्जा भी वक्ती है। होटल को बेच देने की या उसे आफिस कम्पलैक्स बना देने की आपकी मुराद कभी पूरी नहीं होने वाली।”
सब चौंके।
“तुम ये भी जानते हो?” — दाण्डेकर उसे घूरता हुआ बोला।
“राजा साहब जानते हैं। और जो राजा साहब जानते हैं, वो मैं जानता हूं।”
“और जो तुम जानते हो, वो शायद तुम्हारा ये जोड़ीदार जानता है!”
“ये मेरा जोड़ीदार नहीं, मेरा पर्सनल सैक्रेट्री है, जैसे मैं राजा साहब का पर्सनल सैक्रेट्री हूं।”
“ये गूंगा है?”
“कैसे जाना?”
“जब से आया है, एक लफ्ज भी जो नहीं बोला!”
“जी हां। गूंगा ही है बेचारा।”
दाण्डेकर सकपकाया, प्रत्यक्षत: उसे उस जवाब की उम्मीद नहीं थी।
“ओह!” — वो बोला — “मुझे हमदर्दी है इससे।”
“बात कुछ और हो रही थी।” — चेयरमैन बोला।
“बात ये हो रही थी” — विमल बोला — “कि आप ये खामखयाली अपने मन से निकाल दें कि होटल पर आप ने कब्जा कर लिया है तो वो कब्जा बना भी रहेगा। होटल आपके पास बना नहीं रहने वाला।”
“क्यों?”
“क्योंकि बहुत जल्दी कोई और गैंगस्टर अपनी धांधली और दादागिरी को हथियार बना कर इस पर काबिज हो जायेगा और आप लोग फिर उसी लाचारी की हालत में पहुंच जायेंगे जो कि बखिया वगैरह के वक्त थी। जिसने ‘कम्पनी’ के भूतपूर्व सिपहसालार श्याम डोंगरे का कत्ल करवाया, इस बाबत क्या वो खामोश बैठा रहेगा?”
सब फिर चौंके। दाण्डेकर ने बड़े सन्दिग्ध भाव से विमल की तरफ देखा।
“मैंने ये बात ये मान के कही है कि डोंगरे का कत्ल आपने नहीं करवाया।”
“हमने नहीं करवाया।” — चेयरमैन बोला — “खूनखराबा हमारा कारोबार नहीं...”
विमल ने बड़े सहज भाव से दाण्डेकर की तरफ देखा।
उस बार दाण्डेकर पता नहीं क्यों उससे निगाहें मिलाये रखने की जगह परे देखने लगा।
“....ऐसे काम अगर हमारी सामर्थ्य में होते तो हम पहले ही बहुत कुछ कर गुजरे होते।” — चेयरमैन बोला।
“सर, मैं तो पहले ही ये मान के चल रहा हूं कि कत्ल आपने नहीं करवाया। अब आपने मेरी मान्यता की तसदीक भी कर दी है तो बात ही खत्म हो गयी।”
“आप आगे बढ़िये। आप होटल की बाबत कुछ कह रहे थे।”
“जी हां। अब मैं आपको याद दिलाना चाहता हूं कि ‘कम्पनी’ के निजाम में वो होटल क्या था और होटल बिजनेस में उसकी साख क्या थी! वो होटल ‘कम्पनी’ नाम की मवालियों की टोली का हैडक्वार्टर था। हेरोइन स्मगलिंग का अड्डा था। खूनियों और दहशतगर्दों की पनाहगाह था। प्रास्टीच्यूशन, लोन शार्किंग, कान्ट्रैक्ट किलिंग, मटका और प्रोटेक्शन रैकेट जैसे गैरकानूनी कारोबारों को वहां से सरपरस्ती हासिल होती थी। हालिया माहौल उस होटल का ये बन गया था कि इतनी प्राइम लोकेशन पर फाइव स्टार डीलक्स रेटिंग वाला होटल होने के बावजूद कोई भला और शरीफ आदमी, कोई फैमिलीमैन वहां फटक कर राजी नहीं था क्योंकि बच्चा बच्चा तो इस बात से वाकिफ था कि वो होटल असल में ‘कम्पनी’ का हैडक्वार्टर था। साहबान, होटल सी-व्यू के नाम पर पुती ये वो कालख है जिसे आप कभी नहीं पोंछ सकते, भले ही आप उसे होटल के तौर पर चलायें, उसे आफिस कम्पलैक्स बनायें या उसे बेच दें।”
“बेचने में क्या दिक्कत है?” — चेयरमैन बोला!
“कोई दिक्कत नहीं। रुपये के चालीस पैसे कुबूल करेंगे तो बिक जायेगा, तीस पैसे कुबूल करेंगे तो जरूर ही बिक जायेगा।”
चेयरमैन सकपकाया।
“आप भूल रहे हैं कि इतनी बड़ी इमारत का जो ग्राहक होगा, वो उसमें कोई हस्पताल, कोई धर्मशाला, कोई यतीमखाना या कोई विधवाश्रम नहीं चलायेगा। इतनी बड़ी इमारत का हर हाल में बेहतरीन इस्तेमाल वो ही है जिसके लिए कि वो बनी है।”
“होटल?”
“जी हां। और आज की तारीख में जो वाहिद शख्स होटल की बिगड़ी साख को संवार सकता है, उसे उस इज्जतदार तरीके से चला सकता है जैसे कि कोई बड़ा होटल चलना चाहिये, उस पर लगा बद््नामी का बद््नुमा दाग धोकर दिखा सकता है, उसका नाम राजा गजेन्द्र सिंह है। मैं आपके पास राजा साहब की वो गोल्डन पेशकश ले के आया हूं जिसके जेरेसाया आइन्दा दिनों में आप और आपके शेयर होल्डर्स वो मुनाफा कमायेंगे जिसकी सूरत आज तक किसी को देखनी नसीब नहीं हुई।”
“राजा साहब की कामयाबी की क्या गारन्टी है?”
“उनका बड़ा नाम गारन्टी है...”
दाण्डेकर ने मुंह बिचकाया।
“उनकी कािबलियत, उनकी दूरदर्शिता, उनकी सूझबूझ, उनका हौसला, उनका पिछला ट्रैक रिकार्ड गारन्टी है। फिर भी आपको अगर उनकी कामयाबी पर कोई शुबह है तो मैं आप से दरख्वास्त करता हूं कि आप उन्हें आजमा कर देखें।”
“कैसे?”
“आप उन्हें सिर्फ छ: महीने का वक्त दें। इतने वक्त में वो अपने मंसूबों पर और आपकी उम्मीदों पर खरा उतर कर न दिखा पाये तो राजा साहब वापिस नैरोबी में और आपका होटल आपके कब्जे में।”
“ये आप कह रहे हैं, राजा साहब तो नहीं कह रहे?”
“मुझे अख्तियार है राजा साहब की तरफ से कोई भी बात कहने का, ऐसी कोई भी पेशकश करने का, कोई भी वादा करने का।”
“राजा साहब कोई फर्जी नाम तो नहीं?” — दाण्डेकर बोला।
“फर्जी नाम की पुश्त पर करोड़ों रुपया कहां से आयेगा, एम.डी. साहब? क्यों आयेगा?”
“अभी ये साबित होना बाकी है कि ऐसी किसी रकम की अदायगी हुई थी?”
“क्यों बाकी है? क्या शेयर सर्टिफिकेट हमारे पास होना इस बात का सबूत नहीं? क्या इस पर व्यास शंकर गजरे की एंडोर्समेंट इस बात सबूत नहीं? क्या रकम की रसीद इस बात का सबूत नहीं? क्या उस रकम का ज्यूरिच ट्रेड बैंक में गजरे के नाम जमा होना इस बात का सबूत नहीं?”
“सब चैक किया जायेगा।”
“किसने रोका है? लेकिन कब किया जायेगा? अगले हफ्ते? अगले महीने? अगले साल? कब किया जायेगा? आप भूल रहे हैं कि ऐसी ट्रांसफर पर अड़ंगा लगाने पर फाइनांस मिनिस्ट्री तक शिकायत की जा सकती है, खुद प्रधानमन्त्री तक शिकायत की जा सकती है। आज जबकि हमारी सरकार अनिवासी भारतीयों को हिन्दोस्तान में अपना पैसा इनवैस्ट करने के लिए हाथ जोड़ कर न्योत रही है, आप...”
“कोई अड़ंगा नहीं लगाया जा रहा, मिस्टर कौल।” — चेयरमैन जल्दी से बोला — “आप निश्चिन्त रहिये इस बाबत।”
“आई एम ग्रेटफुल, सर। एण्ड सो इज माई बॉस।”
“इस वक्त अहम बात शेयर ट्रांसफर नहीं है। मैं अपने बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स से मुखातिब हूं कि इस वक्त अहम बात ये है कि बाजरिया मिस्टर कौल, राजा गजेन्द्र सिंह नाम के एन.आर.आई. की जो पेशकश हम तक पहुंची है, उसे हम कुबूल करें या नहीं? उनके दावे को आजमाने के लिए हम छ: महीने के लिए होटल सी-व्यू उनके हवाले करना कबूल करें या नहीं। जन्टलमैन, आई सजेस्ट दैट वुई मे गो फार वोट आन दिस सब्जेक्ट। जिन्हें मेरी राय से इत्तफाक हो, वो बरायमेहरबानी हाथ खड़े करें।”
लगभग सभी हाथ खड़े हुए।
“थैंक्यू।” — चेयरमैन बोला — “थैंक्यू जंटलमैन। अब फैसला वोट से होगा। मुझे उम्मीद है कि मिस्टर कौल को वोटिंग के नतीजे का इन्तजार करने से, बल्कि नतीजा अपनी आंखों से देखने से, एतराज नहीं होगा।”
“वोटिंग अभी होगी?” — विमल बोला।
“जी हां।”
“फिर भला मुझे क्या एतराज होगा! इससे ज्यादा वाजिब बात और क्या हो सकती है कि वोटिंग मेरे सामने होगी!”
“वोटिंग आपके सामने होगी।”
“मैं मशकूर हूं, चेयरमैन साहब।”
“रणदीवे साहब” — दाण्डेकर दान्त भींचकर बोला — “मैं अभी भी कहता हूं कि... कि कोई भेद है।”
“क्या भेद है?” — चेयरमैन बोला — “जो कहना है, साफ कहो।”
“साफ ही कहूंगा लेकिन” — उसने एक अर्थपूर्ण निगाह विमल पर डाली — “सिर्फ सहयोगी डायरेक्टर साहबान के कानों के लिए।”
“मैं समझ गया। मिस्टर कौल?”
“यस, मिस्टर चेयरमैन?” — कौल बोला।
“आपको और आपके प्राइवेट सैक्रेट्री साहब को थोड़ी तकलीफ फरमानी होगी।”
“हुक्म कीजिये।”
“आपको जरा यहां से उठकर बगल के कमरे में जाना होगा ताकि बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स आपस में कुछ मन्त्रणा कर सके।”
“हमें कोई एतराज नहीं। किधर है बगल का कमरा?”
चेयरमैन खुद उठकर उन्हें उस बगल वाले कमरे में लेकर गया जिसका दरवाजा बोर्डरूम के भीतर से ही था और जिसे विमल अब तक टायलेट का दरवाजा समझ रहा था। वो एक छोटा सा आफिसनुमा कमरा था जो उस घड़ी खाली था।
“तशरीफ रखिये।” — चेयरमैन बोला — “बड़ी हद पांच मिनट की जहमत है।”
“वुई डोंट माईंड।” — विमल बोला।
अपने पीछे दरवाजा मजबूती से बन्द करता चेयरमैन वहां से रुखसत हो गया।
तत्काल विमल ने अपना पाइप मेज के किनारे पर टिकाया, नीलम से ब्रीफकेस लेकर उसे खोला और उसमें से डाक्टरों वाला एक स्टेथस्कोप बरामद किया। स्टेथस्कोप को उसने कान में लगाया और दबे पांव बन्द दरवाजे के पास पहुंचा। वहां उकड़ूं होकर उसने स्टेथस्कोप का एम्पलीफायर जैसा टैस्ट पीस दरवाजे के की-होल के साथ लगाया।
तत्काल बोर्डरूम से आती धीमी लेकिन स्पष्ट आवाजें उसके कानों में पड़ने लगीं।
“मैं कहता हूं वो सोहल है।” — उसे दाण्डेकर का उत्तेजित स्वर सुनाई दिया।
“सोहल!” — चेयरमैन की हकबकाई-सी आवाज आयी।
“हां, सोहल। वो सोहल जिसने ‘कम्पनी’ का सर्वनाश किया था और गजरे को मारा था!”
“लेकिन मैंने तो सुना है कि गजरे खुदकुशी करके मरा था।”
“सुना मैंने भी है, सुना सब ने है, लेकिन मुझे यकीन नहीं। अव्वल तो ऐसा था नहीं, था तो जरूर खुदकुशी के हालात इस शख्स ने पैदा किये थे?”
“तुम्हें कैसे मालूम है वो सोहल है?” — राजेश जठार की आवाज आयी — “तुम सोहल को पहचानते हो?”
“नहीं।”
“तो फिर?”
“उसका ‘कम्पनी’ की बाबत, उसके नये पुराने टॉप बासेज की बाबत, उसके निजाम की बाबत, उसके धन्धों की बाबत इतना कुछ जानना ही साबित करता है कि वो सोहल है।”
“नानसेंस” — चेयरमैन की आवाज आयी — “ये बातें कोई भी मामूली पड़ताल से जान सकता है।”
“श्याम डोंगरे सी-व्यू का सिक्योरिटी आफिसर कहलाता था लेकिन उस शख्स ने उसे ‘कम्पनी’ का भूतपूर्व सिपहसालार बताया।”
“ये भी मामूली बात है। कोई भी जान सकता है।”
“उसने कहा कि डोंगरे का कातिल ‘कम्पनी’ पर, होटल पर, काबिज होने की कोशिश कर सकता था।”
“अन्दाजन कहा होगा।”
“अभी कल तो हमने होटल पर कब्जा किया है और उसे हमारे ये इरादे भी मालूम हैं कि हम होटल को बेचने का या उसे आफिस कम्पलैक्स बना देने का इरादा रखते हैं।”
“ये बात तमाम डायरेक्टर्स को मालूम है। किसी ने भी इस बाबत आगे कहीं मुंह फाड़ा हो सकता है।”
“रणदीवे साहब, आप कुछ ज्यादा ही वकालत कर रहे हैं उस शख्स की।”
“और तुम कुछ ज्यादा ही मुखालफत कर रहे हो उसकी।”
“ये बेकार की बहस है।” — राजेश जठार की आवाज आयी — “हमें इस बात से क्या लेना देना है कि वो कौन है? वो कोई हो, वो हमारे लिये एक ऐसे शख्स का नुमायन्दा है जो कि बहुत जल्द ओरियन्टल का मेजर शेयर होल्डर बनने वाला है। मिस्टर दाण्डेकर ने अगर कोई नुक्स निकालना है तो उस शख्स में या उसके क्लेम में निकालें।”
“क्लेम में भी कोई नुक्स हो सकता है।” — दाण्डेकर बोला।
“होगा तो सामने आ जायेगा। लेकिन अगर नहीं है तो हमें उसमें खामखाह के अड़ंगे नहीं लगाने चाहियें। खासतौर से तब जबकि उस राजा साहब को आजमाने में हमारा भी फायदा है।”
“क्या फायदा है?”
“क्या फायदा है? अरे, सुना नहीं कौल ने क्या कहा था!”
“क्या कहा था?”
“उसने कहा था कि होटल से राजा साहब के सदके हमारे शेयर होल्डर्स वो मुनाफा कमायेंगे जिसकी आज तक किसी को सूरत देखना नसीब नहीं हुआ।”
“ये हमारे फायदे की बात है।” — कोई और बोला — “ये हमारे भारी फायदे की बात है। होटल अगर मुनाफे पर चल सकता है तो हमें उसको बेचने की या लीज पर देने की जरूरत नहीं होगी। सिर्फ छ: महीने की बात है। इतने अरसे के लिए हम उस राजा साहब का एतबार कर सकते हैं।”
“फैसला वोट से होगा।” — चेयरमैन बोला।
“मुझे तो राजा साहब भी कोई फरेब का पर्दा जान पड़ता है।” — दाण्डेकर बोला — “पता नहीं ऐसा कोई शख्स है भी या नहीं!”
“डोंट टॉक नानसेंस, दाण्डेकर। वो शख्स हमेशा अपने सैक्रेट्री के जरिये ही अपना कारोबार नहीं चलाता रह सकता। आज नहीं तो कल उसे खुद बात करने के लिए हमारे सामने आना ही होगा।”
“वो न आया तो?”
“तो हम उसकी पेशकश को ठुकरा देंगे।”
“उसे आज ही क्यों नहीं बुलाया जाता?”
“क्योंकि ऐसा करना बेमानी होगा। अगर वोट से ये फैसला होता है कि होटल राजा साहब को नहीं सौंपा जाना चाहिये तो फिर राजा साहब की यहां आमद का क्या मससद रह जायेगा?”
“लेकिन अगर फैसला उसके हक में होता है तो...”
“वुई विल क्रास दैट ब्रिज वैन वुई रीच इट। फस्ट थिंग फस्ट। लैट्स गो फार वोट नाओ।”
“अच्छी बात है।”
“मैंने उससे वादा किया था कि वोटिंग उसके सामने होगी। मैं उसे बुलाकर लाता हूं।”
तत्काल विमल दरवाजे के पास से हटा और वापिस टेबल पर पहुंचा। उसने स्टेथस्कोप कान पर से उतारकर ब्रीफकेस के हवाले किया, ब्रीफकेस नीलम को सौंपा और दरवाजे की तरफ पीठ करके एक कुर्सी पर बैठ गया। उसने मेज पर से अपना पाइप उठाया और उसके कश लगाने लगा।
दरवाजा खुला।
“मिस्टर कौल!” — चौखट पर से चेयरमैन की आवाज आयी — “प्लीज कम।”
विमल और नीलम वापिस बोर्ड रूम में पहुंचे और यथास्थान बैठ गये।
वोटिंग की प्रक्रिया शुरू हुई।
“हमारे सामने” — चेयरमैन बोला — “छ: महीने के लिए होटल को राजा गजेन्द्र सिंह नाम के एन.आर.आई. को सौंप देने का प्रस्ताव है। जो लोग इस प्रस्ताव के खिलाफ हैं, वो कृपया हाथ उठायें।”
विमल ने देखा, चेयरमैन को मिला कर वहां कुल जमा ग्यारह लोग मौजूद थे।
मुखालफत में सबसे पहला हाथ दाण्डेकर का ही उठा। उसके बाद एक के बाद एक चार हाथ और उठे।
“हूं।” — चेयरमैन हाथ गिन चुकने के बाद बोला — “पांच वोट प्रस्ताव की मुखालफत में। प्रस्ताव के हक में वोटिंग इनवाइट करने से पहले मैं बाकी वोटर्स को याद दिला देना चाहता हूं कि अगर कोई साहब वोटिंग से परहेज रखना चाहते हैं तो वो या तो उठ के जा सकते हैं या हाथ उठाने से गुरेज कर सकते हैं।”
विमल ने सशंक भाव से बाकी डायरेक्टर्स पर निगाह दौड़ाई। उनमें से कोई एक भी उठ कर चला जाता तो दाण्डेकर की जीत निश्चित थी।
लेकिन ऐसा न हुआ।
किसी ने अपने स्थान से हिलने का उपक्रम न किया।
“अब” — चेयरमैन बोला — “जो साहबान इस प्रस्ताव के हक में हैं, वो बरायमेहरबानी हाथ उठायें।”
सबसे पहला हाथ राजेश जठार का उठा।
तत्काल बाद दो हाथ एक साथ उठे।
फिर हिचकिचाहटभरा एक हाथ और उठा।
बस।
चेयरमैन ने उठे हुए हाथों पर और फिर उस वाहिद शख्स पर निगाह दौड़ाई जिसने कि हाथ नहीं उठाया था।
वो शख्स विमल के पहलू में बैठा मोहसिन खान था।
“नाओ, वुई काउन्ट वोट्स इन फेवर।” — चेयरमैन बोला — “एक... दो...”
“जनाब” — तत्काल विमल मोहसिन खान की तरफ झुक कर व्यग्र भाव से उसके कान में फुसफुसाया — “मैं आपके वालिद साहब का दोस्त हूं...”
मोहसिन खान सकपकाया।
“...तीन...”
“...इस वक्त सिवाय इसके और कुछ कहने का हाल नहीं है। मैं आपको आपके वालिद अताउल्लाह खान साहब से अपनी दोस्ती का सदका देता हूं, हाथ उठा दीजिये।”
“...चार...”
मोहसिन खान ने हिचकिचाते हुए हाथ उठाया।
चेयरमैन ने सकपकाकर उसकी तरफ देखा और फिर अपने लहजे को किन्हीं जज्बात से कोरा रखने की भरपूर कोशिश करता हुआ बोला — “पांच।”
दाण्डेकर ने आग्नेय नेत्रों से मोहसिन खान की तरफ देखा।
“पांच के खिलाफ पांच वोट।” — चेयरमैन बोला — “जन्टलमैन, वुई हैव ए टाई हेयर।”
“सर” — विमल जल्दी से बोला — “आप इस टाई को ब्रेक कर सकते हैं। खुद आप भी तो कम्पनी के डायरेक्टर हैं। अगर आप अपना वोट...”
“मिस्टर कौल” — चेयरमैन बोला — “इस कम्पनी का दस्तूर है कि चेयरमैन वोटिंग में तटस्थ रहता है, वो अपना वोट न हक में इस्तेमाल करता है, न मुखालफत में ताकि उस पर पक्षपात का इल्जाम न आये।”
“फिर क्या बात बनी?”
“बोर्ड इस बाबत विचार करेगा और जरूरी समझा जायेगा तो कल फिर वोटिंग होगी। आज हमारे चार डायरेक्टर गैरहाजिर हैं, कल की हाजिरी आज से बेहतर हो सकती है और ये डैडलॉक टूट सकता है। आपके शेयर्स की ट्रांसफर की बाबत फैसला भी कल ही होगा इसलिये आप चाहें तो कल इसी वक्त फिर तशरीफ ला सकते हैं।”
“या” — दाण्डेकर बोला — “अपने राजा साहब को भेज सकते हैं।”
“कल राजा साहब बिजी हैं” — विमल बोला — “नहीं आ सकेंगे। हम ही आयेंगे।”
“आज रात का उनका क्या प्रोग्राम है?”
“क्या मतलब?”
“मैं अपने घर उन्हें डिनर पर इनवाइट करना चाहता हूं।”
“आज तो ये भी मुमकिन नहीं होगा। अपने दौलतखाने का पता बता दीजिये, इस बाबत बात करने के लिए राजा साहब आपसे सम्पर्क कर लेंगे।”
दाण्डेकर ने उसे एक कार्ड सौंपा।
“थैंक्यू।” — विमल बोला और फिर उठ खड़ा हुआ — “थैंक्यू जन्टलमैन, वुई बिल बी बैक टुमारो।”
अभिवादनों के आदान प्रदान के बाद विमल और नीलम वहां से रुखसत हुए।
विमल को उम्मीद थी कि मोहसिन खान उसके पीछे आयेगा लेकिन ऐसा न हुआ।
दोनों लिफ्ट में सवार हुए।
दरवाजा बन्द होते ही नीलम ने ब्रीफकेस खोला और उसमें से एक हैंड ग्रेनेड निकाल कर हाथ में लेती हुई बोली — “ये तो किसी काम न आया!”
“ईडियट!” — विमल ने घुड़का — “वापिस रख।”
“यहां कौन देख रहा है?”
“लिफ्ट चुटकियों में नीचे पहुंच जाती है। किसी को सवार कराने के लिए रास्ते में रुक सकती है।”
“तुम मुझे गधी घोड़ी जैसी कोई देसी गाली दिया करो जो कि मेरी समझ में आये। खसमाखाना ईडियो वीडियो नहीं चलेगा मेरे साथ।”
“अरी, कम्बख्त! पहले हैंड ग्रेनेड तो वापिस ब्रीफकेस में रख।”
“जो आज्ञा, प्राणनाथ। अब ये बताओ कि इसे साथ लाने का क्या फायदा हुआ?”
“फायदा होता, ऊपर वो एम.डी. का बच्चा गले पड़ने की कोशिश कर रहा था। वो मेरे पर सोहल होने का शक कर रहा था। बिल्कुल ही गले पड़ जाता, किसी तरीके से मुझे पहचान जाता और मुझे गिरफ्तार कराने के सपने देखने लगता तो ये काम आता।”
“कैसे? फोड़ देते इसे?”
“फोड़ नहीं देता, उन्हें धमकाता कि फोड़ दूंगा। ये बहुत शक्तिशाली ग्रेनेड है, फूटता तो वहां कोई जिन्दा न बचता।”
“हम भी?”
“जाहिर है।”
“तुम तैयार हो जाते फोड़ने को?”
“नहीं, लेकिन धमकी यकीनन कारगर होती।”
तभी लिफ्ट ग्राउन्ड फ्लोर पर रुकी। दोनों बाहर निकले।
“हमने कल भी यहां आना है।” — उसके साथ चलती नीलम बोली — “जो काम उसने आज नहीं किया, उसे वो कल कर सकता है, आज से ज्यादा जोर शोर से कर सकता है।”
“ये की न अक्ल की बात!”
“मैं हमेशा अक्ल की बात करती हूं लेकिन तुम सुनते कहां हो!”
“हमेशा! कहती है हमेशा!”
“चलो, इस बार ही सही। बिफरे हुए कुत्ते जैसी शक्ल वाला आदमी अगर फिर भौंका तो...”
“वो ऐसा न कर पाये, इसका इन्तजाम आज ही करना होगा।”
“कैसे?”
“जान जायेगी। पीछा नहीं छोड़ेगी तो जान जायेगी।”
“पीछा छोड़ने वाली बात तो भूल जाओ, सरदार जी।”
“पागल! राह चलते सरदार न बोल।”
नीलम ने होंठ भींच लिये।
वे इमारत से बाहर निकले।
तभी विक्टर ने टैक्सी लाकर उनके पहलू में खड़ी कर दी।
दोनों टैक्सी की पिछली सीट पर सवार हो गये।
तत्काल टैक्सी आगे बढ़ चली।
“क्या हुआ, बाप?” — इरफान व्यग्र भाव से बोला।
“अभी तक जो हुआ, ठीक हुआ।” — विमल ने जवाब दिया — “लेकिन काम नहीं बना। उसी कम्बख्त दाण्डेकर ने पंगा डाल दिया।”
“क्या हुआ?”
तब तक विक्टर टैक्सी मेन रोड पर ले आया था।
“किधर चलूं, बाप?” — वो बोला।
“रोक, बताता हूं।” — विमल बोला।
टैक्सी रुकी।
विमल ने जेब से दाण्डेकर का दिया विजिटिंग कार्ड निकालकर उसे पढ़ा और फिर उसे आगे विक्टर को सौंपता हुआ बोला — “ये मेरिन ड्राइव का पता है। इस पर चल।”
विक्टर ने कार्ड लेकर उसे पढ़ा, सहमति में सिर हिलाया और फिर टैक्सी आगे बढ़ाई।
फिर विमल ने मोटे तौर पर इरफान को बताया कि पीछे क्या हुआ था।
“ओह!” — विमल खामोश हुआ तो इरफान बोला — “पण उस भीड़ू की ऐसी कड़क मुखालफत का मतलब क्या हुआ, बाप?”
“मतलब साफ है” — विमल बोला — “कि उसके इरादे नेक नहीं हैं। वो होटल का किन्हीं गैर हाथों में पहुंचना गवारा नहीं कर सकता। क्यों नहीं कर सकता? क्योंकि होटल पर वो अपने दान्त गड़ाने की फिराक में है।”
“ऐसा क्योंकर होगा, बाप? जब डिरेक्टर लोग उसे बेचने या दफ्तर बनाने की फिराक में हैं तो...”
“उसने जरूर सोचा हुआ होगा कोई तरीका बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स को उस प्लान से किनारा करने के लिए मजबूर करने का। मुझे तो यकीन होता जा रहा है कि वो ‘कम्पनी’ के बड़े महन्तों की कैटेगरी का ही मवाली है। उधर मैंने श्याम डोंगरे के कत्ल का जिक्र चलाया था और ये हिंट दिया था कि उस कत्ल में उन लोगों का हाथ हो सकता था तो चेयरमैन ने फौरन इस बात का विरोध किया था — और बाकी डायरेक्टरों ने अनुमोदन किया था — कि खूनखराबा उनका कारोबार नहीं था। वहां सिर्फ दाण्डेकर ही था जो इस विषय पर खामोश रहा था और मेरे से निगाहें चुराता रहा था।”
“ओह!”
“शेयर ट्रांसफर पर भी उसकी मुखालफत इतनी तीखी नहीं थी जितनी कि होटल राजा साहब को सौंपे जाने के मुद्दे पर थी। शेयर ट्रांसफर में फच्चर तो वो इसलिये फंसाता लग रहा था कि उसमें कोई नुक्स निकल आता तो राजा साहब की दरख्वास्त को खारिज करने की वो अपने आप में वजह बन जाता। इसी लाइन पर काम करते हुए उसने डायरेक्टर्स को ये कह कर भी मेरे खिलाफ करने की कोशिश की थी कि मैं सोहल हो सकता था।”
“अल्लाह!” — इरफान के नेत्र फैले — “यकीन आ गया, बाप, उन लोगों को?”
“नहीं आया।”
“फिर तो गनीमत हुई!”
“उस अकेले शख्स की वजह से उधर सब घपला हुआ। मेरी पेशकश के खिलाफ उसकी वोट न होती तो आज ही फैसला हो गया होता।”
“क्यों न होती, बाप! अगर वो गजरे की खाली की जगह पर काबिज होने की फिराक में है तो देख लेना, कल वो चार डायरेक्टर भी वोटिंग के वक्त मौजूद होंगे, जो आज तू बोला कि गैरहाजिर थे और दाण्डेकर के ही सुर में सुर मिला रहे होंगे।”
“इसी बात का तो मुझे अन्देशा है। चार क्या, कल एक भी वोट दाण्डेकर की तरफ हो गया तो अपना मिशन फेल है। इसलिये वक्त रहते वो सुर खामोश करना होगा जिसमें कि और सुर मिल सकते हैं।”
“कैसे करेंगा, बाप?”
“ढूंढेंगे कोई तरीका।”
“बाप, वो कल जो टेलीफोन नम्बर तू मेरे को दिया था...”
“छोटा अंजुम का।”
“वही। बड़ी आसानी से डायरेक्ट्री इंक्वायरी से ही मालूम हो गया था कि वो कहां चल रहा था।”
“कहां चल रहा था?”
“भिंडी बाजार की एक ट्रैवल एजेन्सी में।”
“ट्रैवल एजेन्सी दादा लोगों की पसन्दीदा ओट मालूम होती है। इब्राहीम कालिया की ओट भी ट्रैवल एजेन्सी ही थी और वो भी भिंडी बाजार में ही थी।”
“उधर बहुत ट्रैवल एजेन्सियां हैं, बाप। जिधर सिर उठाओ ट्रैवल एजेन्सी का बोर्ड लगा दिखाई देता है।”
“यानी कि हो भी आया है उधर?”
“बुझेकर करके अपने एक आदमी के साथ आज सुबह मैं उधर गया था। मैंने उधर के एक पी.सी.ओ. से उस नम्बर पर काल लगाई थी तो कोई दूसरा शख्स बोला था पण उसने फौरन ही मेरी छोटा अंजुम से बात करा दी थी।”
“तूने क्या बात की थी?”
“कोई भी नहीं। उसके लाइन पर आते ही, उसकी आवाज पहचानते ही, मैंने लाइन काट दी थी।”
“फिर?”
“फिर मैंने उधर ट्रैवल एजेन्सी पर बुझेकर को पक्का फिट कर दिया। अब आइन्दा दिनों में छोटा अन्जुम जहां जायेगा, अपना बुझेकर परछाईं बना उसके साथ होगा।”
“उसे पता चल गया तो तेरे बुझेकर के हाथ पांव तोड़ कर ही मानेगा।”
“जान से भी मार दे तो कोई बड़ी बात नहीं पण अपना बुझेकर बहुत होशियार। पकड़ाई में नहीं आने का।”
“बढ़िया।” — फिर विमल विक्टर से सम्बोधित हुआ — “अब तुम बोलो, जनाब, तुम क्या कह रहे थे छोटा अंजुम की बाबत?”
“बाप, कल रात वो उधर धारावी से” — विक्टर बोला — “सीधा दादाभाई नौरोजी रोड पहुंचा था जहां कि फ्लोरा फाउन्टेन के करीब एक बड़ी हाई फाई जगह थी जो कि कोई प्राइवेट क्लब मालूम पड़ती थी।”
“कैसे जाना?”
“एक तो उस दोमंजिला इमारत पर कोई बोर्ड नहीं था जिस पर कि उसका कोई नाम वगैरह लिखा होता, दूसरे आवाजाही बहुत लिमिटिड थी और ऐसा लगता था कि कोई खास किस्म के लोग ही भीतर जा सकते थे।”
“जैसे कि अपने छोटा अंजुम की किस्म के लोग?”
“अब भीतर तो वो गया ही था, बाप। डोरमैन उसको रोका भी नहीं था। रोका क्या, तन के सैल्यूट मार रयेला था अपने भीड़ू को।”
“यानी कि वो वहां की जानी पहचानी सूरत था?”
“ऐसीच जान पड़ता था।”
“भीतर तो तू क्या जा पाया होगा ऐसी खास जगह के?”
“मैं गया न, बाप!” — विक्टर के स्वर में गर्व का पुट आया।
“अच्छा! कैसे गया?”
“मैं मार्केट में जा के एक फैंसी ब्रीफकेस और कुछ मैगजीन खरीदा। मैगजीन मैं ब्रीफकेस में भरा ताकि वो वजनी लगने लगे। नये ब्रीफकेस के भीतर से जो ए. बी. सी. के स्टिकर निकलते हैं उनसे ए.एन. नवलकर का नाम बना कर ब्रीफकेस के हैंडल पर चिपकाया।”
“ए.एन. नवलकर कौन?”
“काला चोर। ऐसे ही जो नाम भेजे से निकला, ब्रीफकेस पर स्टिकर बना कर ठोक दिया।”
“ओह। फिर?”
“फिर मैं इमारत के दरवाजे के सामने टैक्सी रोका, रौब से बाहर निकला और रौब से डोरमैन को बोला नवलकर साहब का ब्रीफकेस टैक्सी में रह गया था, भीतर देने जाना मांगता था।”
“उसने जाने दिया?”
“बहुत अड़ी किया। बोला ब्रीफकेस उसको दे दूं, भीतर नवलकर साहब के पास पहुंच जायेगा। मैं नक्की बोला। बोला, भीतर नवलकर साहब का कैश। किसी को कैसे देंगा ब्रीफकेस! उन्हीं को देना मांगता था। उस वक्त उधर कदरन ज्यादा आवाजाही हो गयी थी इसलिये खुद वो दरवाजे से हट नहीं सकता था। उसके सामने नवलकर साहब के गुस्से का मैं ऐसा हौवा खड़ा किया कि आखिरकार उसने मुझे भीतर चले जाने दिया।”
“क्या देखा भीतर?”
“अब बाप, क्या बताऊं क्या देखा! बस ये समझो कि जन्नत का नजारा किया।”
“ऐसा?”
“बरोबर ऐसा। बाप, उधर मेरे को इतना हाई क्लास छोकरी लोग दिखाई दिया कि मेरे को गारन्टी कि वो कोई ठीया था।”
“ठीया?”
“ब्रादल। रण्डीखाना। उस किस्म का जैसे कि कभी ‘कम्पनी’ की प्रोटेक्शन में कई चलते थे।”
“ओह! और क्या था वहां?”
“फैंसी बार था। एक कोने में बिलियर्ड का टेबल था, एक और कोने में उस खेल का इन्तजाम था जिसमें लोग बाग एक तेजी से घूमते व्हील में एक आइवरी की बाल डाल कर नम्बरों पर दांव लगाते हैं।”
“रौलेट व्हील।”
“वही। मैं कई फिल्मों में देखा।”
“और?”
“और एक और तरफ कार्ड्स की चार पांच टेबल लगी हुई थीं।”
“यानी कि वो कोई छोटा मोटा कैसीनो था?”
“छोटा मोटा तो नहीं था, बहुत बड़ी जगह थी वो।”
“जगह एरिया में बड़ी होगी लेकिन जहां ताश की चार पांच टेबल ही हों, बिलियर्ड और रौलेट की एक एक ही टेबल हो, कैसीनो के लिहाज से वो छोटा ही माना जाता है।”
“मैं समझ गया, बाप।”
“छोकरी लोग उधर क्या करती थीं?”
“साहब लोगों की बांह पकड़ती थीं और हाल से ही ऊपर को जाती सीढ़ियां चढ़ जाती थीं।”
“जरूर ऊपर कमरे होंगे।”
“जरूर होंगे, बाप। तभी तो ठीया बोला।”
“और अपना छोटा अंजुम धारावी से सीधा वहां पहुंचा?”
“बड़ी हलचल के साथ पहुंचा, बाप। ऐसे पहुंचा जैसे उसे देर हो जाने का अन्देशा हो। बार बार घड़ी देखता था। उधर टैक्सी से उतरते वक्त उसने ऐसे घड़ी देखी थी जैसे जान में जान आ गयी हो। बाप, तब ठीक ग्यारह बजे थे।”
“हूं। वो जगह दोबारा तलाश कर लेगा?”
“ईजीली। गोली का माफिक।”
“बाद में छोटा अंजुम तुम्हें हाल में कहीं दिखाई दिया था?”
“नक्को।”
“सीधा ऊपर गया होगा!”
“हो सकता है।”
“तू कब तक वहां रुका?”
“एक बजे तक। वो तब भी बाहर न निकला तो मेरे को लगा कि वो निकलने वाला भी नहीं था। तब मेरे को उधर टेम खोटी करना बेकार लगा।”
“क्यों भला?”
“बाप, लगता था वो उधर का रेगुलर विजिटर था। मैं सोचा जब उसको तलाश करना मांगता होयेंगा तो फिर रात को उधर पहुंच जायेंगा।”
“ग्यारह बजे से पहले?” — विमल विनोदपूर्ण स्वर में बोला।
“बरोबर बोला, बाप। जरूर इलेवन ओ’क्लाक उसका उधर का फिक्स्ड टाइम।”
“हूं।”
“और फिर” — इरफान बोला — “बुझेकर भी तो उसके पीछू!”
“ठीक।”
तभी टैक्सी रुकी।
विमल ने देखा कि वो मेरिन ड्राइव के चौपाटी की ओर वाले सिरे पर रुकी थी।
“बाप” — विक्टर बोला — “वो आर्ट एम्पोरियम के बाजू में छ: मंजिला इमारत देखेला है जिस पर ईश्वर भवन लिखा है?”
“हां।” — विमल निर्दिष्ट दिशा में निगाह दौड़ाता हुआ बोला।
“तेरे कारड का पता उसकी चौथी मंजिल का है।”
“हूं। इरफान?”
“बोल, बाप।” — इरफान बोला।
“जा के पता कर।”
“क्या?”
विमल ने बताया।
पिटा हुआ मुंह लिये ए.सी.पी प्राण सक्सेना पहाड़गंज थाने वापिस लौटा।
एस.एच.ओ. नसीब सिंह उसे थाने की इमारत के कम्पाउन्ड में बेचैनी से चहलकदमी करता मिला।
ए.सी.पी. को देखते ही एस.एच.ओ. लपक कर उसके करीब पहुंचा।
“क्या हुआ, सर, हैडक्वार्टर में?” — वो व्यग्र भाव से बोला — “मैं तो जब से यहां पहुंचा हूं, बस कम्पाउन्ड में ही टहल रहा हूं। सीट पर बैठा ही नहीं जा रहा। क्या बोले कमिश्नर साहब?”
ए.सी.पी. ने जवाब न दिया, उसने एस.एच.ओ. को अपने पीछे आने का इशारा किया और लम्बे डग भरता इमारत की तरफ बढ़ा।
एस.एच.ओ. उसके पीछे लपका।
अपने आफिस में पहुंच कर ए.सी.पी. अपनी कुर्सी पर ढेर हुआ और हताशा से सिर हिलाता यूं लम्बी लम्बी सांसें लेने लगा जैसे मैराथन रेस दौड़ कर आया हो।
“क्या हुआ, सर?” — एच.एच.ओ. ने पहले से ज्यादा सस्पेंस में अपना प्रश्न दोहराया।
ए.सी.पी. ने हाथ के इशारे से उसे बैठने कोबोला और मेज पर से पानी का गिलास उठा कर पानी के दो घूंट हलक से उतारे।
“इज्जत आबरू का जनाजा निकल गया, नसीब सिंह।” — फिर ए.सी.पी. बोला — “पहली बार अहसास हुआ कि नौकरी नौकर का ही काम होता है, भले ही नौकर ए.सी.पी. कहलाता हो।”
“कमिश्नर साहब से मुलाकात हुई?”
“हुई, भई। क्यों न होती? अल्टीमेटम नहीं मिला था आधे घन्टे में पेश होने का?”
“क्या हुक्म हुआ?”
“सुनो, क्या हुक्म हुआ! हुक्म हुआ कि हम योगेश पाण्डेय के करीब भी फटकने की गुस्ताखी न करें।”
“अरे!”
“ऐन यही हुक्म हुआ है। इंगलिश में बोले कमिश्नर साहब। बड़ा फैंसी, बड़ा विलायती फिकरा बोल के अपना हुक्म सुनाया।”
“क्या? क्या?”
“डोंट टच मिस्टर पाण्डेय ईवन विद ए टैन फुट पोल।”
“यानी कि हम भूल जायें कि उनकी एक इश्तिहारी मुजरिम से जुगलबन्दी है जिसे कि उन्होंने हमारी आंखों में धूल झोंक कर हमारे थाने से रिहा करवाया और फरार हो जाने में मदद की?”
“ऐन यही हुक्म हुआ है।”
“वजह? वजह?”
“मैं कमिश्नर से वजह पूछता?”
“लेकिन, सर, ये एक गम्भीर मसला है। कोई वजह उन्होंने खुद भी तो बयान की होगी कि ऐसा क्यों नहीं होना चाहिये था?”
“की थी। ये वजह बयान की थी कि वो आश्वस्त थे कि मिस्टर पाण्डेय ने इरादतन कोई गलत काम नहीं किया था। अगर कौल कोई शेडी पास्ट वाला शख्स था तो जरूर मिस्टर पाण्डेय को उसने इस बात की कोई भनक नहीं लगने दी थी। ऐसा धोखा कोई भी खा सकता है। इसलिये कमिश्नर साहब का हुक्म है कि इस बात को न उछाला जाये।”
“लिहाजा कमिश्नर साहब इतना तो मानते हैं कि वो अरविन्द कौल सोहल था?”
“हो सकता था।”
“हो सकता था?” — एस.एच.ओ. आवेशपूर्ण स्वर में बोला — “और जो फिंगरप्रिंट्स अपनी कहानी आप कह रहे हैं...”
“फिंगरप्रिंट्स का गोरखधन्धा तो और भी पेचीदा हो गया है।”
“वो कैसे?”
“जब मैंने बाहर से आये सोहल के फिंगरप्रिंट्स का हवाला देकर ये जिद की थी कि हैडक्वार्टर के हमारे वाले फिंगरप्रिंट्स से कोई छेड़ाखानी की गयी थी तो कमिश्नर साहब ने इसे मेरी खामख्याली बताया था। नसीब सिंह, ये ही एक जिद थी जो कि कमिश्नर के रौब से थर्राया हुआ मैं नहीं छोड़ सका था। तब कमिश्नर साहब ने रिकार्ड क्लर्क को सोहल के रिकार्ड में मौजूद फिंगरप्रिंट्स के साथ तलब किया था, फिंगरप्रिंट्स एक्सपर्ट को तलब किया था और अपने सामने उन फिंगरप्रिंट्स का मुआयना न सिर्फ एक्सपर्ट से करवाया था बल्कि खुद भी किया था और मुझे भी करने पर मजबूर किया था। नसीब सिंह, वो फिंगरप्रिंट्स बाहर से आये फिंगरप्रिंट्स से हूबहू मिलते थे।”
“ऐसा कैसे हो सकता है? सर, उन प्रिंट्स की प्रतिलिपियां हमने एक नहीं, दो बार निकलवाई थीं और...”
“उसमें से दूसरी बार वाली, वो जो तुम्हारा एस.आई. जनकराज खुद हैडक्वार्टर जाकर लाया था, तब मेरे पास थी। नसीब सिंह, उसके फिंगरप्रिंट्स रिकार्ड में मौजूद फिंगरप्रिंट्स से नहीं मिलते थे।”
“ऐसा कैसे हो सकता है?”
“ऐन ऐसा ही हुआ था। एक नहीं तीन तीन जने, जिनमें से एक जना खुद कमिश्नर साहब थे, इस बात का सबूत हैं।”
“कमाल है!”
“कमिश्नर साहब का कहना है कि खुद फाइल क्लर्क से कोई कोताही हो गयी थी, उसने कोई गलत फिंगरप्रिंट्स की प्रतिलिपि पहले थाने भेज दी थी और फिर जनकराज के हवाले कर दी थी। उसकी उस कोताही की वजह से कमिश्नर साहब ने उसे हाथ के हाथ फिंगरप्रिंट्स सैक्शन से ट्रांसफर कर दिया था।”
“सर, एक बार कोताही हो सकती है लेकिन वो ही कोताही दूसरी बार भी हुई हो लेकिन तीसरी बार न हुई हो, यकीन नहीं आता इस बात पर।”
“यकीन कर लो मेरे भाई, क्योंकि अब मैं खुद गवाह हूं कि हैडक्वार्टर में सोहल के जेनुइन फिंगरप्रिंट्स मौजूद हैं।”
“जो कि बाहर से आये फिंगरप्रिंट्स से मिलते हैं?”
“हां। तभी तो पता लगा कि वो जेनुइन हैं।”
“और कौल की उंगलियों के निशानों से, उस मुचड़े हुए कागज पर बने निशानों से जो कि मैंने खत्ते पर से ढुंढवाया, नहीं मिलते?”
“मिलते हैं।”
“फिर तो ये साफ साबित हुआ कि कौल सोहल था। कौल सोहल था और मायाराम की उसकी बाबत हालदुहाई सच्ची थी।”
“बराबर हुआ। और वहां मायाराम का भी जिक्र उठा था। मैंने कमिश्नर साहब को बताया था कि हम उसे पंजाब पुलिस के हवाले करने जा रहे थे लेकिन अब जब ये स्थापित हो गया था कि उसकी कौल की बाबत बात में दम था तो हम उसे इस उम्मीद में अभी यहीं डिटेन करके रख सकते थे क्योंकि वो अपने आपको सोहल की नस नस से वाकिफ बताता था इसलिये वो उसकी गिरफ्तारी में अभी भी हमारा मददगार साबित हो सकता था तो जानते हो कमिश्नर साहब ने क्या फरमाया?”
“क्या फरमाया?”
“मायाराम को जाने दिया जाये।”
“यानी कि... यानी कि हम सोहल की तलाश बन्द कर दें?”
“जारी रख सकते हैं तो रखें लेकिन मायाराम को जाने दें।”
“ताकि कौल की बाबत उसका प्रलाप बन्द हो जाये?”
“और शुक्ला और पाण्डेय पर सोहल के — कौल के नहीं, सोहल के — हिमायती होने के इलजाम का दम घुट जाये।”
“ये तो सरासर ज्यादती है! ये तो यूं हुआ जैसे कि कौल के शुक्ला और पाण्डेय से भी बड़े हिमायती हमारे कमिश्नर साहब बन बैठे हों!”
“बड़े लोगों की बातें हैं, भाई।”
“हद है ये तो!”
“नसीब सिंह, इस बाबत कमिश्नर साहब ने हमारे हाथ मुकम्मल तौर से बान्ध दिये हैं।”
“मुकम्मल तौर से तो नहीं बान्ध दिये, सर!”
“क्या मतलब है तुम्हारा?”
“फिंगरप्रिंट्स के गोरखधन्धे की गुमनाम टिप तो अभी भी प्रैस को मिल सकती है। जिस शक की मजबूत उंगली का आपने मिस्टर पाण्डेय के आफिस में जिक्र किया था, वो तो प्रैस के जरिये अभी भी उनकी तरफ उठ सकती है।”
“उस बाबत भी कमिश्नर साहब का हुक्म हुआ है। खासतौर से तुम्हारे लिये जो कि मैं तुम्हें सुना रहा हूं।”
“क्या? क्या हुक्म हुआ है?”
“अगर ये बात प्रैस को लीक हुई तो इसके लिए इस थाने को जिम्मेदार माना जायेगा और फिर अकेला एस.एच.ओ. ही नहीं, सम्बन्धित सब-इन्स्पेक्टर ही नहीं, पूरे का पूरा थाना मुअत्तल कर दिया जायेगा।”
“ओह!” — एस.एच.ओ. यूं पिचका जैसे गैसभरे गुब्बारे में से हवा निकाल गयी हो — “ओह!
“सो देयर यू आर।”
“ये तो तरफदारी की इन्तहा हुई!”
“गलत। कोई तरफदारी नहीं। कोई इन्तहा नहीं। कमिश्नर साहब का कहना है कि हमें सोहल को ट्रेस करके उसको गिरफ्तार करने की पूरी आजादी है लेकिन इस आजादी के साथ भी एक पुछल्ला लगा हुआ है।”
“क्या?”
“दिल्ली में क्राइम रेट बढ़ता जा रहा है जिसको चैक करने की तमाम थानों को स्पेशल हिदायत है। इसलिये कमिश्नर साहब की राय है कि हम सब इन्टरस्टेट केसों की या नेशनल लैवल के केसों की तफ्तीश करने में वक्त जाया करने की जगह लोकल केसों को तरजीह दें।”
“ये तो साफ साफ इशारा हुआ कि हम सोहल के पीछे सिर खपाई न करें!”
“इशारा नहीं हुआ, मेरे भाई, ढका छुपा हुक्म हुआ। डण्डा हुआ।”
“फिर तो हमें कोविल हाउसिंग कम्पलैक्स से अपने उन आदमियों को भी वापिस बुला लेना चाहिये जो कि वहां सुमन वर्मा की निगरानी पर तैनात हैं!”
“वो बात अब तुम्हारी सोच पर और तुम्हारे जजमेंट पर निर्भर करती है। अगर तुम उस नाशुक्रे काम के लिए आदमी स्पेयर कर सकते हो तो निगरानी चलने दो वरना वापिस बुला लो।”
“आप से क्या छुपा है ए.सी.पी. साहब, आखिर आप मेरे और मेरे थाने के इंचार्ज हैं। स्पेयर तो आदमी नहीं कर सकते क्योंकि बढ़ते हुए क्राइम रेट की वजह से काम का प्रैशर थाने पर वाकेई बहुत है । लेकिन सर, नाशुक्रा काम तो नहीं है वो! मुझे तो वहां से बहुत उम्मीदें हैं! अब जबकि साबित हो चुका है कि कौल ही सोहल है तो वो औरत नीलम किसी कौल की नहीं, सोहल की बीवी हुई और बच्चा सोहल का बच्चा हुआ। कभी तो मां बच्चे के पास लौटेगी ही! इसलिये आज नहीं तो कल उस निगरानी का नतीजा तो बढ़िया ही निकलेगा! वो औरत गिरफ्तार हो गयी तो उसे बताना पड़ेगा कि उसका खाविन्द कहां है!”
“वही बात वो लड़की सुमन वर्मा भी तो जानती हो सकती है?”
“जरूरी नहीं, सर। वो लड़की सोहल और उसकी बीवी की इतनी बड़ी राजदां हो, ये बात जरा हलक से उतर नहीं रही।”
“वो मॉडल टाउन उनके साथ रहती रही थी।”
“किनके साथ? जिन्हें कि वो मिस्टर एण्ड मिसेज अरविन्द कौल समझती थी।”
“यानी कि ये जरूरी नहीं कि उसे मालूम हो कि कौल असल में सोहल था?”
“मुझे तो जरूरी नहीं दिखाई देता।”
“आई सी।”
“सर, हम थोड़ा अरसा इन्तजार करते हैं नीलम कौल के लौट आने का। अगर वो न लौटी तो हम उस लड़की सुमन वर्मा को पूछताछ के लिए हिरासत में लेकर उस पर ये दबाव डालने की कोशिश तो जरूर करेंगे कि कौल का अता पता वो भले ही नहीं जानती थी, कम से कम ये तो बताये कि नीलम कहां थी जो कि उसके पास अपना दुधमुंहा बच्चा छोड़ गयी थी!”
“ये ठीक है। तुम कल तक उस लड़की की निगरानी चलने दो, कोई नतीजा सामने नहीं आया तो परसों सुबह हम उसे पकड़ मंगवायेंगे।”
“राइट, सर।”
शाम के सात बजे थे।
ओरियन्टल होटल्स एण्ड रिजार्ट्स लिमिटेड का आफिस बन्द हो चुका था लेकिन उसके उस फ्लोर पर तब भी रोशनी थी जिस पर कि कम्पनी का बोर्ड रूम था। विशाल बोर्ड रूम में उस घड़ी केवल दो व्यक्ति मौजूद थे:
कम्पनी का चेयरमैन रणदीवे।
और मैनेजिंग डायरेक्टर दाण्डेकर।
दोनों के चेहरे गम्भीर थे। रणदीवे गम्भीर होने के साथ साथ नाराज भी लग रहा था।
“तो फिर” — दाण्डेकर जिदभरे स्वर में बोला — “क्या कहते हैं आप?”
“दाण्डेकर, यू आर टाकिंग नानसेंस।” — रणदीवे बोला — “तुम जानते हो हम उस कथित राजा साहब के नाम शेयर ट्रांसफर ब्लाक नहीं कर सकते। तुम जानते हो, सारे डायरेक्टर्स जानते हैं, कि जांच पर वो शेयर सर्टिफिकेट जेनुइन पाया गया है, उस पर व्यास शंकर गजरे की एंडोर्समेंट जेनुइन पायी गयी है और रसीद पर भी गजरे के दस्तखत एकदम चौकस पाये गये हैं। ऊपर से ये साबित हो चुका है कि रसीद की तारीख को गजरे वाकेई काठमाण्डू में था और वहां के होटल सोल्टी ओबराय के कमरा नम्बर 906 में ठहरा हुआ था।”
“उसकी काठमाण्डू में मौजूदगी किसी और वजह से हो सकती है।”
“और कौन सी वजह?”
“मुझे नहीं मालूम लेकिन कोई तो होगी!”
“कोई हो सकती है तो वो भी हो सकती है जो कि हमारे सामने है। खामखाह अटकलें लगाने का कोई फायदा नहीं, दाण्डेकर।”
दाण्डेकर ने बेचैनी से पहलू बदला।
“और फिर सौ बातों की एक बात। तुमने खुद ज्यूरिच ट्रेड बैंक के प्रेसीडेंट मारुति देवाल को फोन लगाया था जिसने कि इस बात की तसदीक की थी कि पिछले महीने की उस तारीख को, जो कि रसीद पर दर्ज है, गजरे ने वहां अपने नम्बर्ड एकाउन्ट में ऐन वही रकम जमा कराई थी जो कि रसीद पर दर्ज है।”
“रणदीवे साहब, ये भी तो हकीकत है कि स्विस बैंकों में नम्बर्ड एकाउन्ट की जानकारी किसी तीसरे शख्स को नहीं दी जाती!”
“अमूमन नहीं दी जाती। खुद प्रेसीडेंट ने ऐसी जानकारी हमें क्यों दी थी, इसकी वजह कौल ने बताई थी जो कि भूल गये मालूम होते हो।”
“भूला तो नहीं हूं लेकिन...”
“अभी भी लेकिन?”
“रणदीवे साहब, कहीं दाल में कुछ काला है जरूर।”
“मुझे नहीं दिखाई देता। बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स को नहीं दिखाई देता। सिर्फ तुम्हें दिखाई देता है।”
दाण्डेकर खामोश रहा।
“दाण्डेकर, दस्तूर के मुताबिक शेयर ट्रांसफर होंगे। एण्ड दैट इज फाइनल। कल राजा गजेन्द्र सिंह के नाम नया सर्टिफिकेट जारी कर दिया जायेगा।”
“ठीक है। कीजिये मनमानी।”
“कैसी बातें करते हो, दाण्डेकर? ये मनमानी नहीं, मेजोरिटी की मर्जी है जिसको चुपचाप कुबूल कर लेने के सिवाय तुम्हारे पास कोई चारा नहीं है।”
“दिखाई दे रहा है मुझे। लेकिन मैं भी देखता हूं कि होटल कैसे उस शख्स को सौंपा जाता है?”
“क्या करोगे तुम?”
“अभी चार वोट और बाकी हैं जो कि चार डायरेक्टर्स की गैरहाजिरी की वजह से आज नहीं पड़ सके। इसे लिख लीजिये चेयरमैन साहब, कि कल की वोटिंग में वो चार वोटर मेरे साथ होंगे।”
“देखेंगे।”
“आज की तरह वो चार डायरेक्टर कल भी गैरहाजिर रहे या हाजिर हुए और उन्होंने वोट देने से परहेज किया तो देख लीजियेगा कि कम से कम एक की तो मैं बांह मरोड़ कर उसका हाथ खड़ा करवा लूंगा।”
“दाण्डेकर, यू विल डू नो सच थिंग। वोटिंग के मामले में जोर जबरदस्ती नियमों के खिलाफ है। यूं तुम्हारी खुद की वोट खारिज हो सकती है।”
“जोर जबरदस्ती का मेरा कोई इरादा नहीं।”
“बांह मरोड़ना जोर जबरदस्ती नहीं तो...”
“वो... वो” — दाण्डेकर जबरन हंसता हुआ बोला — “वो तो मैंने महज एक मुहावरा इस्तेमाल किया था।”
“आई सी।” — चेयरमैन सहमति में सिर हिलाता बोला — “आई सी।”
लेकिन उसके चेहरे पर आश्वासन के भाव न आये।
“ठीक है फिर।” — दाण्डेकर एकाएक उठता हुआ बोला — “देखते हैं कल क्या होता है! गुड नाइट।”
“गुड नाइट।”
रात के नौ बजे।
विमल और नीलम ईश्वर भवन की छत पर मौजूद थे।
छत सुनसान थी जहां कि विमल की जरूरत का सामान पहले ही पहुंचाया जा चुका था। छत के बारे में इरफान की तफ्तीश ये कहती थी कि वहां रात में तो क्या, दिन में भी कभी कोई नहीं आता था। फिर भी देर सबेर कभी कोई आता था तो उस विज्ञापन कम्पनी का कोई आदमी आता था जिसका एक नियोन साइन छत पर लगा हुआ था। कभी नियोन साइन बिगड़ जाने पर उसे ठीक करने कोई आदमी वहां आता था लेकिन उसकी आमद हमेशा दिन के वक्त होती थी।
नियोन साइन का कन्ट्रोल बाक्स छत पर ही नियोन साइन को स्पोर्ट करते स्टील के एक पिलर के साथ लगा हुआ था। विमल इस बात की तसदीक कर चुका था कि कौन से फ्यूज का कटआउट खींचने से सारा नियोन साइन ऑफ हो जाता था।
छत की सड़क की ओर वाली मुंडेर फर्श से कोई तीन फुट ऊंची थी और उसके ऊपर एक लोहे के गोल पाइप की रेलिंग लगी हुई थी।
विमल ने रेलिंग पर पहुंच कर सामने झांका तो उसे चौपाटी का नजारा हुआ। उसने रात को भी काम करने वाले स्पेशल नाइट ग्लासेज से फिट दूरबीन को एडजस्ट करके उसमें से सामने चौपाटी की तरफ झांका तो चौपाटी के मैदान के एक कोने में, जो कि ईश्वर भवन के बाजू में पड़ता था, उसे आतिशबाजी के इन्तजाम के साथ इरफान, आकरे और वो कारीगर दिखाई दिया जिसने कि विमल की हिदायत और जरूरत के मुताबिक आतिशबाजी डिजाइन की थी। वैसी ही दूरबीन इरफान के पास थी जिसे वो दाण्डेकर के फ्लैट की एक खिड़की पर फोकस किये था। वो खिड़की, इरफान मालूम कर चुका था कि, दाण्डेकर के बेडरूम की थी और अगर वो फ्लैट में होता तो बेडरूम में उसके कदम पड़ना लाजमी था। आतिशबाजी का प्रोग्राम और विमल का काम तभी शुरू होना था जबकि चौपाटी की तरफ से उसे इरफान का सिग्नल मिलता कि दाण्डेकर अपने बेडरूम में मौजूद था। वो सिग्नल एक सिंगल हवाई की सूरत में होता जो कि सुलग कर आसमान में बहुत ऊपर तक जाती।
वो इमारत अंग्रेजों की टाइम की बनी हुई थी, जबकि चोरी चकारी का मौजूदा दिनों जैसा अन्देशा नहीं होता था, इसलिये उसकी खिड़कियों पर किसी प्रकार की कोई ग्रिल वगैरह नहीं लगी हुई थीं और उनका निशाना खिड़की चौथी मंजिल पर होने की वजह से, जाहिर था कि, फ्लैट के मालिक ने भी ग्रिल को जरूरी नहीं समझा था जो विमल के लिए खास सहूलियत की बात थी।
सहूलियत की क्या, इन्तहाई जरूरी बात थी।
दाण्डेकर के फ्लैट के ऐन ऊपर का फ्लैट खाली पड़ा था। विमल ने उस फ्लैट में दाखिल होने की सम्भावना पर विचार किया था लेकिन वो न सिर्फ मजबूती से बन्द था, उसके बन्द दरवाजे के करीब भी जाने पर भीतर एक कुत्ता गुर्राने लगता था, ऐन दरवाजे पर पहुंच जाने पर और उसके साथ छेड़खानी करने पर वो जोर जोर से भौंकने लगता था और तभी चुप होता था जबकि आगन्तुक दरवाजे पर से टल जाता था। उसका देर तक भौंकना इसलिये खतरनाक था क्योंकि बन्द फ्लैट के सामने ही एक और — आबाद — फ्लैट का दरवाजा था जिसमें से कोई ये देखने के लिए ही बाहर निकल आ सकता था कि कुत्ता क्यों मुतवातर भौंक रहा था।
विमल को पूरा यकीन था कि आकरे उस फ्लैट के ताले खोल लेने में भी सक्षम था लेकिन कुत्ते की मौजूदगी की वजह से उसकी खिदमात कारगर साबित नहीं होने वाली थीं इसलिये उसे तलब नहीं किया गया था। बहरहाल विमल को इसमें भी अपनी एडवांटेज ही दिखाई देती थी कि उसकी छत पर की पोजीशन के और दाण्डेकर के बैडरूम के बीच का फ्लैट खाली था और अन्धेरे में डूबा हुआ था।
वहां उपलब्ध सामान में एक नायलोन की मजबूत रस्सी और एक लोहे की कोई साढे पांच फुट लम्बी छड़ भी थी जिसके एक कोने पर विमल ने रस्सी का एक सिरा बान्धा। फिर रस्सी के सहारे उसने छड़ को रेलिंग के पार नीचे लटकाया और धीरे धीरे रस्सी को छोड़ना शुरू किया। छड़ दाण्डेकर के बेडरूम की खिड़की के ऊपर तक एक खास मुकाम पर पहुंच गयी तो उसने रस्सी को ढील देना बन्द कर दिया और जहां रस्सी रेलिंग को छू रही थी, वहां चमकने वाले पेंट से उसने एक चौड़ी पट्टी जैसी लकीर खींची।
फिर उसने छड़ वापिस खींच ली और नीलम की तरफ घूम कर बोला — “तूने देखा मैंने क्या किया?”
“हां।” — नीलम सहज भाव से बोली — “देखा।”
“क्या किया?”
“कुयें में बाल्टी लटका कर पानी खींचने का अभ्यास किया।”
“लानत! लानत!”
“तो और क्या किया?”
“तुझे ये दिखाया कि कैसे मैंने रस्सी को टखने से बांध कर वैसे नीचे लटकना है जैसे कि अभी मैंने वो छड़ लटकायी थी।”
“हाय रब्बा! सिर के बल? इतनी ऊंचाई से?”
“हां। और तू ने रस्सी को कन्ट्रोल करना है।”
“कन्ट्रोल करना है?”
“हां। तूने रस्सी को धीरे धीरे तब तक छोड़ते रहना है जब तक कि वो फ्लोरेसेंट पेंट की सफेद लकीर रेलिंग के ऊपर न पहुंच जाये।”
“कौन से पेंट की?”
“फ्लोरेसेंट पेंट की। अन्धेरे में चमकने वाले पेंट की। देख नहीं रही है वो अन्धेरे में चमकती लकीर?”
“देख रही हूं। जरूर घड़ियों के अक्षर और सूईयां भी इसी पेंट से चमकाई जाती होंगी।”
“फालतू बातें मत कर।”
“जो हुक्म, सरदार जी।”
“मुझे सरदार मत बोल।”
“क्यों? यहां कौन सुन रहा है?”
“ठीक है, बोल। जी भर के बोल। बल्कि भजन कीर्तन की तरह बोल। यही काम करने के लिए तो हम यहां आये हैं!”
“सॉरी।”
“इसीलिये मैं तुझे साथ लाने के खिलाफ था। मेरे साथ होती है तो मसखरियां, सिर्फ मसखरियां सूझती हैं तुझे।”
“अब सॉरी बोल तो दिया।”
“आयी बड़ी अंग्रेज।”
“अब तुम ये मतलब की बातें कर रहे हो?”
“हां। तो समझ गयी तू?”
“हां।”
“क्या समझ गयी?”
“तुम पांव में रस्सी बांध कर रेलिंग पर से कुयें में बाल्टी की तरह लटकोगे और मैं रस्सी को तब तक धीरे धीरे छोड़ूंगी जब तक कि वो चमकीले पेंट वाली लकीर रेलिंग पर नहीं पहुंच जायेगी।”
“शाबाश। और जब मैं रस्सी को झटका दूंगा तो तू मुझे वापिस खींचेगी।”
“वापिस खींचूंगी।”
“कर सकेगी ये काम?”
“क्यों नहीं कर सकूंगी?”
“रस्सी के साथ टंगा मेरा वजन सम्भाल सकेगी?”
“सम्भाल सकूंगी।”
“रस्सी तेरे हाथ से छूट गयी तो जानती है क्या होगा?”
“जानती हूं। बाल्टी रस्सी समेत कुयें में जा गिरेगी।”
“जो कि तेरे लिये कोई फिक्र की बात नहीं!”
“हाय, जी। क्यों नहीं फिक्र की बात? मैं क्या ऐसा होने दूंगी? मैंने तो इस बात का जवाब दिया था कि रस्सी हाथ से छूट गयी तो क्या होगा! अब रस्सी सच में ही हाथ से थोड़े ही छूट जायेगी!”
“पक्की बात कि नहीं छूटेगी?”
“हां। पक्की बात।”
“फिर भी छूट गयी तो?”
“तो नीचे गिरते वक्त रस्सी के दूसरे सिरे के साथ मुझे भी गिरता पाओगे।”
“क्या मतलब?”
“मैं रस्सी को कमर से बान्ध लूंगी। तुम गिरे तो मैं भी तुम्हारे साथ गिरूंगी।”
विमल ने सकपकाकर उसकी तरफ देखा।
“लेकिन मैं ऐसा नहीं होने दूंगी।” — वो दृढ़ स्वर में बोली — “मैं हरगिज ऐसा नहीं होने दूंगी। माता भगवती भवानी मुझे ताकती देगी कि मैं अपनी जान की जी जान से रक्षा कर सकूं।”
“अपनी जान की?”
“तुम्हारी जान की। तुम्हारी जान मेरी जान है। हज़ार बार बताया।”
“चल चल। बातें न बना अब।”
“जो हुक्म प्राणनाथ... ऑफ दि सरदारजी फेम।”
“और अभी क्या बोली तू? माता भगवती भवानी क्या देगी तुझे?”
“ताकती।”
“अरी ईडियट! या शक्ति बोल या ताकत बोल।”
“शक्ति।”
“हां, शक्ति देगी माता तुझे। वैसे मेरा अभी भी यही खयाल है कि ये काम किसी मर्द के हवाले होना चाहिये था।”
“छोड़ो अपना खयाल। मैं क्या किसी मर्द से कम हूं! फुल आफ दि फुल शक्तिवर हूं मैं।”
“ताकतवर। ताकतवर बोल।”
“अभी तो बोला कि या शक्ति बोलूं य ताकत बोलूं। मैंने अब शक्ति बोला तो...”
“अब तेरे से कौन मगज खपाये!”
“अच्छा, अच्छा। ऐसे ही सही। तुम बात का मतलब समझो, शब्दों के पीछे मत पड़ो। मैं कह रही थी कि फुल शक्ति... ताकतवर हूं मैं। बहुत जान है मेरे में।”
“जान बनाने पर जोर दिया, भेजा बनाने पर जोर दिया होता तो पढ़ लिख जाती साली मिडल फेल।”
“पास। तुम हमेशा मेरी शिक्षा को कोसते रहते हो। नहीं जानते हो कि मेरे गांव में लड़कियों के लिए मिडल बहुत बड़ी पढ़ाई मानी जाती थी।”
“तो क्या हुआ? आगे भी पढ़ाई करने की कोशिश करती तो...”
“कैसे करती? गांव में मिडल तक ही स्कूल था। आगे की पढ़ाई के लिए कस्बे के हाई स्कूल में जाना पड़ता था जो कि गांव से चौदह मील दूर था। लड़कियों को कोई नहीं भेजता था रोज इतनी दूर पढ़ाई करने की खातिर।”
“ओह!”
“इसलिये मेरी पढ़ाई को कम न समझो। आजकल की रुड़जानी बी.ए. की पढ़ाई से बढ़िया है मेरी मिडल की पढ़ाई।”
“क्या कहने!”
“सुनो।”
“बोलो।”
“मुझे एक बात सूझी है।”
“तुझे एक बात सूझी है! यानी कि पढ़ाई का जिक्र आते ही अक्ल पर पालिश हो गयी!”
“सुनो तो!”
“बोलो।”
“क्यों न रस्सी का दूसरा सिरा हम पीछे इस लोहे के खम्बे के साथ बान्ध दें?”
“खम्भे के साथ?”
“कमर से बान्धने से तो अच्छा ही होगा!”
“बात तो तू ठीक कह रही है!”
“शुक्र है तुम्हें मेरी कोई बात ठीक लगी।”
“लेकिन रस्सी फिर भी धीरे धीरे ही सरकानी होगी। और वापिस तुझे ही खींचनी होगी क्योंकि खम्बा रस्सी नहीं खींच सकता।”
“मैं कर लूंगी। मैं सब कर लूंगी। तुम बिल्कुल फिक्र न करो।”
“बढ़िया।”
“बल्कि मुझे एक फिक्र है।”
“क्या?”
“ये मोया मर्दाना सूट न आड़े आ जाये। कभी कोहनी फंसने लगती है तो कभी घुटना तो कभी टाई आड़े आ जाती है।”
“है तो ये प्राब्लम ही!”
“वही तो!”
“तू ऐसा क्यों नहीं करती?”
“कैसा? कैसा क्यों नहीं करती?”
“अभी सूट उतार के एक तरफ रख दे, जब काम निपट जाये तो वापिस पहन लेना।”
“हाय रब्बा! कैसी बातें करते हो?”
“क्यों? क्या हुआ? यहां कौन है देखने वाला? ऊपर से नियोन साइन ऑफ होते ही यहां अन्धेरा हो जायेगा।”
“नहीं, नहीं। ऐसे ही ठीक है।”
“अरे, मैं भी तो यही करूंगा।”
“तुम्हारी और बात है।”
“मेरी क्यों और बात है?”
“अरे, तुम मर्द हो।”
“यानी कि मर्द को कोई नंगा देख ले तो कोई बात नहीं लेकिन औरत को...”
“अरे, सरदार जी, अब बन्द भी करो ये फिटे मुंह जैसी बातें।”
“ओके।”
विमल ने अपने तमाम कपड़े तो न उतारे अलबत्ता चश्मे को कोट की जेब में रखा और कोट उतार कर एक तरफ डाल दिया। उसने टाई को कमीज के भीतर खोंस लिया और अपने दायें टखने के साथ रस्सी बान्धने लगा। रस्सी बान्ध चुकने के बाद उसने कई बार, कई तरीकों से रस्सी की मजबूती को परखा।
“मैं सोच रही थी।” — नीलम धीरे से बोली।
“क्या?” — अपने काम में मग्न विमल ने पूछा।
“क्या कर रहा होगा सरदार सूरज सिंह सोहल इस वक्त?”
“कबड्डी खेल रहा होगा और पड़ोस की लड़की को आंख मार रहा होगा।”
“हाय, जी। कैसी बातें करते हो दुधमुंहे बच्चे की बाबत?”
“मैं कहां करता हूं? तू करती है। अरे, या सो रहा होगा या रो रहा होगा।”
“रो खामखाह रहा होगा? सरदार का बच्चा है। रोयेगा क्यों भला?”
“भूख लगेगी तो रोयेगा ही!”
“सुमन भला क्यों भूखा रहने देगी?”
“ठीक। अब बस कर।”
“कहीं सच में ही भूखा न हो सूरज!”
विमल ने सिर उठा कर उसकी तरफ देखा, फिर उसने हाथ बढ़ाकर उसकी ठोडी के नीचे उंगली लगायी और उसका चेहरा ऊंचा किया।
नीलम की आंखें नम थीं।
“बहुत याद आ रही है सूरज की?” — वो प्यार से बोला।
“हां।” — नीलम रुंधे कण्ठ से बोली।
“हौसला रख। बहुत जल्द वो हमारे पास होगा।”
“जल्दी ही कुछ करना, सरदार जी।” — वो कातर भाव से बोली — “मैं उसकी बाबत सोचती हूं तो मेरा दिल हिलता है।”
“सोचना बन्द कर। गंजी हो जायेगी।”
नीलम खामोश रही।
विमल कुछ क्षण अपलक उसे देखता रहा, फिर उसने हाथ बढ़ाकर उसे अपने पहलू में खींच लिया।
नीलम ने अपना सिर उसके सीने पर टिका दिया और आंखें मूंद लीं।
विमल हौले हौले उसकी पीठ थपथपाता रहा और फिर खुद भी सूरज के बारे में सोचने लगा।
दाता! तेरी कुदरति तू है जाणहि अऊर न दूजा जाणै।
सवा नौ बजे के करीब छोटा अंजुम भिंडी बाजार में स्थित उस पांचमंजिला इमारत में मौजूद था जिसके ग्राउन्ड फ्लोर पर वो ट्रैवल एजेन्सी थी जिसका नम्बर उसने विमल को दिया था। इमारत के टॉप फ्लोर पर एक रिहायशी फ्लैट था जो कि उसका अस्थायी हैडक्वार्टर था। ट्रैवल एजेन्सी के नम्बर की वहां एक्सटेंशन थी और सीधा फोन कनेक्शन भी वहां उपलब्ध था।
वो उसकी एक खास तफरीह का टाइम था जो कि वो मुम्बई में होता था तो जरूर करता था। ठीक ग्यारह बजे उसकी नौरोजी रोड पर हाजिरी होती थी जिसे पिछले रोज वो बड़ी मुश्किल से भर सका था क्योंकि खड़े पैर उसे उस कम्बख्त सोहल के चक्कर में धारावी रवाना हो जाना पड़ा था। आज उसे उम्मीद थी कि ऐसी कोई नौबत नहीं आने वाली थी क्योंकि ‘भाई’ को फोन लगा चुकने के बाद वो फारिग ही फारिग था।
उसने डायरेक्ट लाइन से ‘भाई’ के मोबाइल पर फोन लगाया।
तत्काल उत्तर मिला।
“आदाब!” — वो बोला — “छोटा अंजुम बोलता हूं।”
“बोल।” — जवाब मिला।
“उसका फोन आया?”
“नहीं।”
“कमाल है! कल उसने वादा किया था कि वो पहली फुरसत में आपके मोबाइल पर फोन लगायेगा।”
“गोया कल से फुरसत नहीं हुई उसे?”
“आपका मोबाइल फिर ऑफ तो नहीं हो गया था?”
“पागल हुआ है?”
“खता माफ, बाप।”
“उसका फोन नम्बर पूछना था।”
“पूछा था। बोलता था ‘फोन नहीं है, झौंपड़पट्टे में रहता हूं’।”
“बंडल! नम्बर बताना नहीं चाहता होगा!”
“ऐसीच जान पड़ता है।”
“कैसा निकला आदमी?”
“बहुत कड़क। मगरूर। इतराया हुआ। ऐंठा हुआ।”
“था सोहल ही?”
“अपनी जुबानी तो न बोला लेकिन यकीनन था सोहल ही।”
“हूं।”
“लेकिन एक नम्बर का बहूरुपिया था। मेरे आदमियों को कोई और सूरत बना के मिला, चन्द मिनटों बाद ही मुझे मिला तो कोई और सूरत बनाये था। अगली बार मिलेगा तो यकीनन कोई तीसरी ही शक्ल होगी उसकी...”
“इन्हीं करतबों से तो आज तक छुट्टा घूम रहा है।”
“...तब पता नहीं मैं उसे पहचान भी पाऊंगा या नहीं!”
“मिलेगा तो खुद अपने आपको पहचनवायेगा। बहरहाल कहता क्या है?”
“भाई’, जो वो कहता है, वो जुबान पर नहीं आ रहा।”
“उसे हमारी दोस्ती कुबूल नहीं?”
“यही बात है। उसे ‘कम्पनी’ की बादशाहत भी कुबूल नहीं। उस बाबत ऐसे कुत्ते की माफिक बोला जो न खुद खायेगा न किसी को खाने देगा। बाप, बहुत कड़क बोलता था। बोलता था ‘कम्पनी’ का निजाम हथियाने की कोशिश में जो सिर उठेगा, लुढ़का पड़ा होगा।”
“लिहाजा ‘कम्पनी’ के खाली तख्त पर न वो खुद बैठेगा, न किसी को बैठने देगा!”
“ऐसीच बोला वो।”
“अगर ‘भाई’ ही तख्त पर बैठने की कोशिश करेगा तो?”
“तो... तो... अब क्या बोलूं?”
“तो उसका सिर भी लुढ़का पड़ा होगा। ठीक?”
“ऐसीच है।”
“अब जब इतनी मजबूती से उसने अपने खयालात जाहिर कर दिये हैं तो उससे फोन पर बात का क्या फायदा होगा? मुलाकात का क्या फायदा होगा?”
“मैं सोचा शायद कोई फायदा हो!”
“कोई फायदा नहीं होगा। उसको खल्लास करने का ही कोई इन्तजाम करना होगा।”
“मैं बोला ऐसा। पण वो सुन के कान से मक्खी उड़ाया। ‘भाई’, आपको क्या, वो तो बिग बॉस फिगुएरा को भी हूल देता है। बिग बॉस के हवाले का खौफ खाने की जगह मेरे से पूछ रहा था कि ‘ये फिगुएरा साहब कहां पाया जाता है’?”
“वल्लाह! ये नहीं पूछा कि ‘भाई’ कहां पाया जाता है?”
“वो... वो... वो भी पूछा।”
“यानी कि पहले वो ही हमें खल्लास कर देगा।”
“अब क्या बोलूं!”
“बोल नहीं, सुन। तेरे से उसकी मुलाकात हुई तो ये तो गारन्टी हो गयी कि वो मुम्बई में है। अब कैसे भी उसे तलाश कर। तलाश कर और उसकी मूंडी काट के उसके हाथ में दे।”
“भाई’ मूंडी काटना कौन बड़ी बात है लेकिन तलाश कैसे करूं? जो काम ‘कम्पनी’ और उसके पूरे लाव लश्कर से न हुआ, वो मुझ अकेले से कैसे होगा?”
“तू अकेला नहीं है।”
“बाप, जो चन्द आदमी यहां मेरे हवाले हैं, वो...”
“अहमक! सुनता नहीं?”
“खता माफ, बाप।”
“बोला, बोल नहीं, सुन।”
“सुन रहा हूं।”
“जब तक दाण्डेकर उधर है, तू अकेला नहीं है। दाण्डेकर पर हमारे बहुत अहसान हैं। हमारी मदद और शह न होती तो उस मुकाम पर वो कभी न पहुंच पाया होता जिस पर कि वो आज है। ऊपर से वो गजरे की जगह लेने के ख्वाब देखता है। तू उसके पास पहुंच और उसको बोल कि ‘भाई’ उसका ये ख्वाब भी पूरा करके दिखा सकता है अगरचे कि वो सोहल को खुद खल्लास करके दिखाये या उसे खल्लास करने में तेरा साथ दे। समझ गया मैं क्या बोला?”
“समझ गया। अगर उसका अता पता मिल जाये और वो काबू में आ जाये तो क्या सीधे ही...”
“नहीं, सीधे ही नहीं। एक बार उससे बात करने का तमन्नाई मैं फिर भी हूं, भले ही अपना कड़क और गुमानभरा जवाब वो हमें दे चुका है। वो दाण्डेकर से कहीं बेहतर आदमी है। शायद मैं उसकी जिद तोड़ सकूं और ‘कम्पनी’ की गद्दी पर बैठने के लिए उसे मना सकूं।”
“मैं समझ गया। मैं कल ही दाण्डेकर से...”
“कल नहीं, आज ही। अभी।”
अभी!
हो गया काम।
उसे पहले ही अपनी उस रोज की तफरीह खटाई में पड़ती दिखाई देने लगी।
“ठीक है।” — वो मरे स्वर में बोला — “अभी।”
“उसके घर का पता याद है या भूल गया?”
“याद है।”
“अभी उधर पहुंच। इस वक्त वो घर पर होगा। न हो तो उसका उधर इन्तजार करना। जो मैं बोला, उसके लिए वो राजी से हामी भरे तो ठीक वरना मेरे से बात कराना।’’
“ठीक।”
सम्बन्ध विच्छेद हो गया।
आसमान में एकाएक हवाई उड़ी।
जो कि उनके मौजूदा मूड में गनीमत थी कि उन्हें दिखाई दी।
“हवाई!” — नीलम व्यग्र भाव से बोली।
“मैंने देखी।” — विमल उसे अपने से अलग करता हुआ बोला — “तैयार हो जा।”
नीलम ने मजबूती से रस्सी थाम ली।
विमल फ्यूज बाक्स के पास पहुंचा। उसने उसमें से पहले से नोट किया हुआ कटआउट निकाला तो नियोन साइन आफ हो गया और छत पर अन्धेरा छा गया।
वो रेलिंग पर वापिस लौटा और फुर्ती से उस पर चढ़ कर उसके पार लटक गया।
वाहेगुरु सच्चे पातशाह! तू मेरा राखा सबनी थाहीं।
“शुरू।” — वो फुसफुसाया।
नीलम धीरे-धीरे रस्सी छोड़ने लगी।
औंधे मुंह विमल दीवार के साथ साथ नीचे सरकने लगा।
नीचे मैरिन ड्राइव ट्रैफिक और स्ट्रीट लाइट्स से रोशन थी लेकिन वो रोशनियां चौथी मंजिल तक नहीं पहुंच रही थीं।
एकाएक रस्सी सरकनी बन्द हुई।
तब विमल ने अपना माथा उस खिड़की की, जो कि उसका लक्ष्य थी, चौखट के ऊपरी भाग से लगा पाया। चौखट के ऊपर शीशे के पल्ले वाला रोशनदान था जिसके रास्ते वो भीतर बेडरूम में झांक सकता था। सावधानी से उसने भीतर निगाह फिराई।
भीतर बेडरूम में दाण्डेकर मौजूद था और साफ साफ नशे में मालूम होता था। उसका कोट तिरस्कृत सा पलंग पर पड़ा था, कमीज का गिरहबान खुला था और टाई ढीली होकर खुले कालर से नीचे लटक रही थी। उसके सामने एक खूबसूरत, नौजवान लड़की मौजूद थी, विमल के देखते देखते जिसको उसने अपनी बांहों में ले लिया और उसका चुम्बन लेने की कोशिश करने लगा।
“छोड़ो!” — लड़की उसकी पकड़ में छटपटाई — “छोड़ो।”
“पागल हुई है!” — दाण्डेकर बोला — “छोड़ने के लिए लाया हूं।”
“अरे, मैं कुछ और कह रही हूं।”
“क्या?”
“लिपस्टिक तुम्हें लग जायेगी, तुम्हारे कपड़ों को लग जायेगी। मेरी साड़ी फट जायेगी।”
“तो?”
“एक मिनट छोड़ो। मैं सब ठीक करती हूं।”
“ले। तू भी क्या याद करेगी!”
“मुंह धो के आती हूं। बाथरूम किधर है?”
“वो सामने वार्डरोब के पहलू वाला दरवाजा बाथरूम का है।”
सहमति में सिर हिलाती लड़की बाथरूम की तरफ बढ़ी।
“साड़ी भी उतार के आना” — पीछे से दाण्डेकर बोला — “वरना फट जायेगी।”
“हौसला रखो। सब कुछ होगा।”
तभी बाहर आतिशबाजी फूटने लगी।
आतिशबाजी के बम इतने तीखी आवाज करने वाले थे कि लगता था जैसे बाहर सड़क पर ही फूट रहे हों और उसका डिस्पले इतना लुभावना था कि माहौल में बेतहाशा रौनक पैदा कर रहा था।
जैसा कि दाण्डेकर से अपेक्षित था, वो तुरन्त खिड़की पर पहुंचा। उसने उसके पल्ले दायें बायें खोले और बाहर झांका।
आसमान पर इन्द्रधनुषी रंगों के सितारे फूट रहे थे और पटाखों का घनगर्जन हो रहा था।
दाण्डेकर ने खिड़की से बाहर सिर निकाला और गर्दन आगे बढ़ा कर इमारत की उस बाजू में झांका जिधर कि आतिशबाजी हो रही थी।
विमल ने अपने दोनों हाथ आगे बढ़ाये और उसका सिर थाम लिया। फिर उसने पूरी शक्ति से उसके शरीर को बाहर को झटका दिया।
दाण्डेकर का शरीर खिड़की की चौखट पर से बाहर उलट गया।
उसके मुंह से एक हृदयविदारक चीख निकली जो कि पटाखों की आवाज से भी ऊंची विमल के कानों में गूंजी।
फ्लैट के भीतर कहीं से धम्म धम्म पड़ते कदमों की आवाज आने लगी।
विमल ने रस्सी को झटका दिया।
रस्सी तत्काल खिंचने लगी।
विमल का रस्सी के साथ उलटा लटका शरीर धीरे धीरे वापिस ऊपर सरकने लगी।
दाण्डेकर के दोनों बाडीगार्ड खिड़की पर पहुंचे और उसमें से लगभग बाहर लटक कर नीचे और दायें बायें झांकने लगे।
तब तक आतिशबाजी के पटाखे शांत होने लगे थे और लाल नीले पीले सितारे भी ठण्डे पड़ने लगे थे।
नीचे सड़क पर एक जगह भीड़ इकट्ठी हो रही थी।
“क्या हुआ?” — तभी उसके कानों में लड़की की मद्धम सी आवाज पड़ी।
“साहब!” — एक बोला — “नीचे गिर गया।”
लड़की के मुंह से एक घुटी हुई चीख निकली।
दोनों बाडीगार्ड खिड़की पर से हट कर वापिस दौड़ चले।
एक मिनट में विमल निर्विघ्न वापिस छत पर पहुंच गया।
फुर्ती से उसने अपने टखने पर से रस्सी का एक सिरा और पीछे खम्बे पर से दूसरा सिरा खोला और रस्सी को ले जाकर पिछवाड़े की अन्धेरी गली में फेंक दिया।
विमल के इशारे पर नीलम ने रस्सी के पीछे पीछे ही फ्लोरेसेंट पेंट की ट्यूब और दूरबीन फेंक दी।
विमल ने अपनी टाई और सिर के बाल व्यवस्थित किये और कोट पहना।
फिर दोनों ही अपनी उखड़ी सांसों को काबू में करते हुए नीचे को लपके। सीढियां तय करके वो छटी मंजिल पर लिफ्ट के दहाने पर पहुंचेे। विमल ने लिफ्ट का काल बटन दबाया और प्रतीक्षा करने लगा।
लिफ्ट वहां पहुंची तो दोनों उसमें सवार हो गये। विमल ने पहली मंजिल का बटन दबाया। लिफ्ट नीचे सरकने लगी।
“क... क्या हुआ?” — तब कहीं जा के नीलम ने सवाल किया।
जवाब देने से पहले विमल ने अपनी जेब से नकली फ्रेंच कट दाढ़ी निकाली और लिफ्ट में लगे शीशे में देख कर उसे अपनी ठोडी पर चिपकाया।
उनके नीचे पहुंचने तक वहां भारी भीड़ जमा हो गयी हो सकती थी, तब सूरत छुपाने के लिए वो दाढ़ी का एक्स्ट्रा कवर काम आता।
फिर नीलम के सवाल के जवाब में उसने अपने दायें हाथ का अंगूठा ऊपर उठाया।
“इसका क्या मतलब हुआ?” — नीलम बोली।
“कर दी न मिडल फेल वाली बात?”
“पास वाली बात। मतलब बोलो।”
“मतलब है फतह!”
“ओह!”
लिफ्ट पहली मंजिल पर रुकी।
विमल को उसके हर फ्लोर पर रुकने का अन्देशा था लेकिन गनीमत थी कि ऐसा नहीं हुआ था।
वे लिफ्ट से बाहर निकले, बाकी का रास्ता सीढ़ियों से तय करके ग्राउन्ड फ्लोर पर पहुंचे और इमारत से बाहर निकले।
बाहर कोहराम मचा हुआ था।
सड़क पर दाण्डेकर की खून से सराबोर लाश पड़ी थी और उसके इर्द गिर्द भीड़ जमा थी जो कि बढ़ती ही जा रही थी।
आतिशबाजी तब तक शान्त हो चुकी थी।
विमल और नीलम खामोशी से भीड़ से परे पैदल एक तरफ बढ़े।
निर्विघ्न, निर्विरोध वे ईश्वर भवन से काफी दूर निकल आये।
एकाएक विमल ठिठक गया।
“क्या हुआ?” — नीलम बोली।
“यहीं रुकते हैं।” — विमल बोला — “आकरे टैक्सी लेकर इधर ही आयेगा। खामखाह चलते रहने का...”
तभी एक फायर हुआ।
छोटा अंजुम की कार मैरिन ड्राइव पर जिस घड़ी अपने गन्तव्य स्थान पर पहुंची, तब आतिशबाजी के आखिरी शरारे बस दम तोड़ ही रहे थे।
कार हैदर चला रहा था।
हैदर ने कार ईश्वर भवन से थोड़ा परे ही रोक दी।
“क्या हुआ?” — छोटा अंजुम बोला।
“आगे भीड़ जमा है।” — हैदर बोला।
“वजह?”
“कोई लड़ाई झगड़ा हुआ जान पड़ता है। कई लोग ऊंचा ऊंचा बोल रहे हैं लेकिन पल्ले कुछ नहीं पड़ रहा।”
“मैं यहीं उतरता हूं।”
हैदर ने सहमति में सिर हिलाया।
कार से उतर कर छोटा अंजुम भीड़ के दायरे के करीब पहुंचा।
“क्या हुआ?” — उसने एक जने से पूछा।
“कोई ऊपर से गिरा।” — जवाब मिला — “ऐन पके आम का माफिक सिर के बल। खोपड़ी खुल गयी। मरा पड़ा है।”
“कैसे गिरा?”
“मालूम नहीं।”
“है कौन?”
“कैसे मालूम होंयेगा?”
होगा कोई — छोटा अंजुम ने लापरवाही से कन्धे उचकाते हुए सोचा। वो वहां से हटने ही लगा था कि उसे अहसास हुआ कि वो हादसा ऐन ईश्वर भवन के सामने हुआ था जिसकी चौथी मंजिल पर महेश दाण्डेकर का फ्लैट था। उसने ऊपर सिर उठाया तो उसे फ्लैट की एक खिड़की खुली दिखाई दी। तत्काल उसके मन को एक ऐसी आशंका सताने लगी जिसकी कोई बुनियाद नहीं थी।
ऊपर पहुंचता हूं — उसने मन ही मन सोचा — पता चल जायेगा।
लेकिन उसके कदम इमारत के भीतर की ओर न बढ़ पाये। वो घूमा और जबरन रास्ता बनाता भीड़ के दायरे में घुस गया।
सड़क पर मरे पड़े दाण्डेकर से भी पहले उसका एक बाडीगार्ड उसे दिखाई दिया जिसे कि वो पहचानता था।
“राणे!” — छोटा अंजुम उसके करीब पहुंच कर बोला।
राणे नाम के बाडीगार्ड ने अपनी गर्दन उसकी तरफ घुमाई, उसे पहचाना और फिर एक कांपती उंगली नीचे सड़क की तरफ उठा दी।
तब पहली बार छोटा अंजुम ने दाण्डेकर की छिन्न भिन्न लाश पर निगाह डाली।
“ओह! ओह!” — छोटा अंजुम के मुंह से निकला — “कैसे हुआ?”
“बस, हो गया।” — शॉक से थर्राये राणे ने अनिश्चित सा जवाब दिया।
“लेकिन कैसे... जरा इधर आ।”
उसकी बांह पकड़ कर छोटा अंजुम जबरन उसे भीड़ से जरा परे लाया।
“तेरा जोड़ीदार कहां गया?” — तब वो बोला।
“रावले!”
“जो भी नाम है उसका। कहां गया?”
“पुलिस को फोन करने गयेला है।”
“ओह! पुलिस को फोन करने गया है। यानी कि किसी ने ऊपर से धक्का दिया दाण्डेकर साहब को?”
“नहीं।”
“तो फिर पुलिस को फोन किसलिये?”
“कई श्याना लोग बाग बोला कि ऐसे मामलों की पुलिस को खबर करना जरूरी होता था।”
“हूं। किसी ने धक्का नहीं दिया तो कैसे हो गया ये हादसा?”
“बस, हो गया।”
“अरे, कैसे? कैसे?”
“साहब नशे में था। खिड़की से बाहर झांका होयेंगा। पांव उखड़ गये होयेंगा।”
“कहां से? कहां की खिड़की से?”
“वो ऊपर साहब के बेडरूम की खिड़की से।”
“तू बेडरूम में साहब के पास था जब...”
“नक्को। मैं तो रावले के साथ बाहर डिराइंग रूम में बैठेला था।”
“यानी कि साहब बेडरूम में अकेले थे! इसीलिये कह रहा है कि किसी ने धक्का नहीं दिया हो सकता!”
“अकेला नहीं था साहब। वो बाई थी न उधर उसके साथ!”
“बाई! कौन बाई?”
“साहब की फिरेंड।”
“अब कहां है वो?”
“चली गयी। ये... ये वारदात होते ही चली गयी। बोली पुलिस का पंगा नहीं मांगता था। जरूर कोई काल वाली बाई थी।”
“कालगर्ल?”
“वही।”
“क्या पता उसी ने साहब को धक्का दिया हो?”
“नक्को।”
“क्यों नक्को? इतना दावे के साथ कैसे बोलता है नक्को?”
“बाप, डिराईंग रूम और बेडरूम के बीच का दरवाजा खुला था। खुले दरवाजे में से बेडरूम में गुसल का दरवाजा दिखाई देता था। वो बाई तब गुसल में थी जबकि साहब नीचे गिरा था और उसकी चीख सुनाई दियेला था। बाई भी चीख सुन के ही हमेरे सामने गुसल से बाहर आयेला था। बाई, मैं और रावले एक साथ उस खिड़की पर पहुंचे थे जिससे कि साहब... इधर नीचे...”
वो खामोश हो गया।
“साहब का प्रोग्राम उस बाई के साथ मस्ती मारने का था?”
“और क्या होयेंगा पिरोगराम?”
“दरवाजा खुला छोड़ कर?”
“ऐसा कैसे होयेंगा?”
“तू खुद बोला कि बेडरूम का दरवाजा खुला था जिसमें से कि तूने बाई को बाथरूम में जाते देखा था!”
“तब खुला था। वो क्या है कि साहब अभी ऊपर पहुंचा ही था। बाद में बन्द करता न।”
“ओह!”
“न भी करता तो क्या वान्दा था! हमेरे होते कौन आ सकता था उधर?”
“ये गारन्टी है कि साहब या बाई के अलावा कोई तीसरा शख्स उस बेडरूम में या फ्लैट में नहीं था?”
“हां, बाप।”
“फिर तो हादसा ही हुआ!”
“आज साहब ज्यास्ती पियेला था और अभी और बाई के साथ भी पीना मांगता था। नशे में हिल गया। लापरवाह हो गया। खिड़की से बाहर ज्यास्ती झुक गया वो आतिशबाजी देखने के वास्ते।”
“कैसे मालूम?”
“हर कोई देख रयेला था। हम भी डिराईंगरूम में से देखा। वो भी देखता होयेंगा।”
“आतिशबाजी किधर हो रही थी?”
“चौपाटी पर। एक बाजू में। यकायक शुरू हुई। पटाखे। बम। चकाचौंध। बढ़िया नजारा था। कौन देखे बिना रह सकता था! जरूर साहब भी नहीं रह सका होयेंगा। खिड़की पर जा के बाहर ज्यास्ती झुक गया तो नीचे। फिनिश।”
“हो क्यों रही थी आतिशबाजी?”
“कैसे मालूम होयेंगा, बाप? वो तो यकायक शुरू हुई, यकायक खत्म हो गयी।”
तभी दूर कहीं फ्लाईंग स्कवायड का सायरन गूंजा।
तत्काल छोटा अंजुम उसके पास से हट गया।
बहुत उम्दा मौका ढूंढा था मरने वाले ने लापरवाह होकर जान देने के लिए।
अब उसने वो खबर ‘भाई’ को सुनाने की बद््मजा जिम्मेदारी निभानी थी।
इस अन्देशे के साथ कि ‘भाई’ खड़े पैर कोई नया हुक्म न दनदना दे।
उस अन्देशे से ही उसे अपनी तफरीह की सम्भावनायें धूमिल होती लगने लगीं।
गोली विमल के पीछे कहीं पार्किंग में खड़े किसी वाहन के शीशे से टकराई।
विमल ने नीलम को जोर से एक तरफ धक्का दिया और स्वयं एक कार की ओट में हो गया। बिजली की फुर्ती से उसने रिवॉल्वर निकाल कर अपने हाथ में ले ली।
एक फायर और हुआ।
गोली उनके सिर के ऊपर से गुजरी।
उसे अहसास हुआ कि फायर सड़क पर मौजूद एक टैक्सी में से किये जा रहे थे। उसने कार के हुड पर हाथ टिका कर टैक्सी की तरफ एक फायर झोंका।
तत्काल फायर का जवाब फायर से मिला।
तभी वातावरण में फ्लाईंग स्कवायड के सायरन की आवाज गूंजी।
तत्काल फायरिंग बन्द हुई और सड़क पर तब तक रेंगती सी टैक्सी एकाएक तोप से छूटे गोले की तरह वहां से भागी।
विमल सीधा हुआ।
फ्लाईंग स्कवायड की एक गाड़ी टैक्सी की जगह आकर रुकी और तत्काल कई पुलिसिये उसमें से बाहर बिखर पड़े।
विमल ने व्याकुल भाव से अपने दायें बायें देखा तो उसे करीब ही एक कूड़े का ड्रम दिखाई दिया। तत्काल उसने हाथ में थमी रिवाल्वर ड्रम में डाल दी।
सबसे पहले एक सब-इन्स्पेक्टर उसके करीब पहुंचा। उसके पीछे पीछे दो हवलदार भी डंडा हिलाते दौड़े चले आये। दो और पुलिसिये थोड़ा परे ही रुक गये और सतर्क निगाहों से दायें बायें देखने लगे।
सब-इन्स्पेक्टर के हाथ में उसकी सर्विस रिवाल्वर थी। उसकी तीखी निगाह दायें बायें फिरी, एक क्षण को कार के टूटे शीशे पर अटकी, वहां से हट कर विमल और नीलम के चेहरों पर फिरी और फिर विमल के चेहरे पर आकर टिक गयी।
“क्या हुआ?” — वो बोला।
“कोई मवाली थे टैक्सी में।” — विमल जानबूझ कर जोर जोर से हांफता हुआ बोला — “शायद हमें लूटना चाहते थे।”
“हो सकता है।” — सब-इन्स्पेक्टर सहनुभतिपूर्ण स्वर में बोला — “आजकल ऐसी राहजनी की वारदात इधर बहुत होने लगी हैं। यहीं के हैं आप लोग?”
“नहीं। दिल्ली से हैं।”
“नाम बोलिये।”
“मेरा नाम अरविन्द कौल है। ये मेरा छोटा भाई... सूरज कौल है।”
“शिनाख्त का कोई जरिया है आप लोगों के पास?”
“मेरे पास है। ड्राइविंग लाइसेंस।”
“दिखाईये।”
विमल ने ड्राइविंग लाइसेंस पेश किया।
लाइसेंस लेकर सब-इन्स्पेक्टर ने गौर से उसका मुआयना किया और फिर बोला — “दाढ़ी रख ली?”
“भाई ने रखी तो मेरा भी दिल कर आया।” — विमल खिसियाया सा बोला — “इसे अच्छी लगती थी। सोचा मुझे भी अच्छी लगेगी।”
“अच्छी ही लगती है। मैचिंग भी। कोई मील से देखे तो कह दे कि सगे भाई हैं।”
विमल हंसा
“आप में से किसी के पास कोई हथियार है?”
“हथियार का हमारे पास क्या काम?”
“हमें लगा था जैसे गोलियां दोनों तरफ से चली थीं।”
“तौबा! जनाब, हमारे जैसे मामूली टूरिस्ट लोगों के पास गन का क्या काम?”
“तलाशी लेनी होगी। कोई एतराज?”
“कतई नहीं।” — विमल ने अपने दोनों हाथ ऊपर उठा दिये। उसने नीलम को कोहनी मारी जिसने बहुत हिचकते हुए हाथ ऊपर उठाये।
“फिर जरूरत नहीं। हाथ नीचे गिरा लीजिये।”
“शुक्रिया।”
“मुम्बई में कहां ठहरे हुए हैं?”
“होटल में। मराठा नाम है। कोलीवाड़े में है।”
“मुम्बई आते जाते रहते हैं?”
“जी हां। अक्सर। हमेशा ‘मराठा’ में ही ठहरते हैं। ‘मराठा’ के मालिक सलाउद्दीन साहब बड़े मेहरबान हैं। हमें बीस पर्सेंट डिस्काउन्ट देते हैं।”
“रेगुलर कस्टमर होने की वजह से!”
“जी हां।”
“आप इस वारदात की रिपोर्ट दर्ज कराना चाहते हैं?”
“जी नहीं। जान बच गयी। माल बच गया। अब रिपोर्ट दर्ज कराने से क्या हासिल होगा? ऊपर से कल हम वापिस जा रहे हैं।”
“ठीक है फिर।”
“जनाब, आप कैसे ऐन मौके पर इधर पहुंच गये?”
“आपकी वजह से नहीं पहुंचे थे। करीब ही एक वारदात हो गयी है। कोई कई मंजिल ऊपर से गिर कर जान से हाथ धो बैठा है। उधर पहुंच रहे थे कि फायरिंग की आवाज सुनकर रुक गये।”
“आपका यूं रुकना हमारे लिये तो वरदान साबित हुआ! वरना हम तो लुट गये थे आज!”
“अब आइन्दा सावधान रहियेगा।”
“ये भी कोई कहने की बात है, जनाब!”
“अब कहां जायेंगे?”
“वापिस होटल ही जायेंगे।”
“टैक्सी हम बुलवा देते हैं।”
“वाह, साहब! नेकी और पूछ पूछ।”
सब-इन्स्पेक्टर ने एक सिपाही को इशारा किया। तत्काल उसने अपने पुलिसिये रौब से एक राह चलती टैक्सी रुकवाई।
“थैंक्यू, सर।” — विमल नीलम के साथ टैक्सी की ओर बढ़ता हुआ बोला।
“एक बात और।” — सब-इन्स्पेक्टर बोला।
“फरमाइये।” — विमल सशंक भाव से बोला।
“आपके भाई गूंगे हैं?”
“जी!”
“जब से हम आये हैं, एक अक्षर भी तो इनकी जुबान से नहीं निकला है!”
“ये सकते की हालत में हैं। पहली गोली चली थी तभी ऐसे लगा था जैसे लकवा मार गया हो। गनीमत है कि शॉक ने बोलती ही बन्द की, जान न ले ली।”
“ठीक हो जायेंगे। जाइये। टैक्सी इन्तजार कर रही है।”
चेहरे पर कृतज्ञता के भाव लिये दोनों टैक्सी में सवार हो गये।
टैक्सी तत्काल आगे बढ़ चली।
पुलिसिये ने ‘मराठा’ की बाबत उसे पहले ही बोल दिया जान पड़ता था।
पीछे पुलिस की गाड़ी भी अपने स्थान से हिली और फिर उधर बढ़ी जिधर दाण्डेकर की लाश के गिर्द भीड़ जमा थी।
टैक्सी अभी आधा मील ही आगे बढ़ पायी थी कि विमल ने उसे रुकवाया, मीटर देख कर भाड़ा चुकाया और नीलम के साथ बाहर निकल आया।
टैक्सी वाले ने कोई सवाल न किया, शायद इसलिये क्योंकि उसे पुलिस ने रोका था। तत्काल टैक्सी आगे बढ़ गयी।
“क्या हुआ?” — नीलम बोली।
“रिवॉल्वर हुई” — विमल बोला — “जो पीछे कूड़े के ड्रम में रह गयी।”
“ओह!”
दोनों पैदल वापिस चलने लगे।
“क्या सच में ही” — नीलम बोली — “हमें लूटने की कोशिश की गयी थी?”
“पागल हुई है! लूटा क्या फासले से जाता है! लूटने के लिए करीब आकर सिर पर सवार होना पड़ता है।”
“तो फासले से क्या होता है?”
“कत्ल!”
“हाय रब्बा! किसी ने हमें मार डालने की कोशिश की थी!”
“बिलाशक।”
“किसने?”
“मैं खुद हैरान हूं। वैसे तो मुम्बई में दुश्मनों का घाटा नहीं लेकिन ऐसा दुश्मन कौन था जो हमें हमारे मौजूदा बहूरूप में भी पहचानता था और ये भी जानता था कि हम कब कहां होंगे!”
“जरूर पीछे लगा होगा कोई खसमांखाना।”
“ऐसा ही जान पड़ता है।”
“लेकिन कौन?”
“मालूम करेंगे। और आइन्दा बहुत बहुत सावधानी भी बरतेंगे।”
तभी आकरे की टैक्सी उनके करीब आकर रुकी।
आधी रात होने को थी जबकि पुलिस की एक गाड़ी, जो कि जेल वैन कहलाती थी, जी.टी. रोड पर दौड़ी जा रही थी। गाड़ी गहरे नीले रंग की थी जिसके दोनों पहलुओं पर एक चौड़ी सफेद पट्टी पर ‘पंजाब पुलिस अमृतसर’ लिखा था। गाड़ी ने दिल्ली से अपना सफर शुरू किया था, उसकी मंजिल अमृतसर थी और अभी उसने पानीपत पार किया था।
गाड़ी के ड्राइवर और गार्ड्स के केबिन के बीच में एक लाकअप जैसा चैम्बर था जिसके भीतर हथकड़ियों और बेड़ियों में जकड़ा मायाराम बावा बन्द था। चैम्बर में रेलवे के स्लीपर कम्पार्टमेंट्स की तरह दायें बायें लोहे की जंजीरों के सहारे लटके दो फट्टे लगे हुए थे जिनको बावक्तेजरूरत फोल्ड करके चैम्बर की बाडी के साथ भी लगाया जा सकता था। उनमें से एक पर सोता जागता ऊंघता मायाराम पड़ा था, उसकी बैसाखियां उसी सीट के नीचे फर्श पर पड़ी थीं और उसे अपना भविष्य जेल वैन के बन्द चैम्बर जैसा ही अन्धकारमय लग रहा था। मौत सामने खड़ी पा कर अब एक ही खयाल बार बार उसके जेहन में उभर रहा था।
काश उसने सोहल से पंगा न लिया होता।
काश उसे इस खुशफहमी ने न सताया होता कि वो पिद्दी जैसा अपाहिज आदमी सिर्फ इसलिये सोहल को चित्त कर सकता था, क्योंकि उसकी बीवी उसके कब्जे में थी।
कैसा उल्लू बनाया था सोहल ने उसे! कैसे एकाएक बाजी उसके खिलाफ पलट दी थी कमीने ने! कैसा रसूख, कैसा रुतबा बना लिया था कम्बख्त ने कि कोई उसके खिलाफ कुछ सुनने को तैयार ही नहीं हुआ था! जिसे वो तुरुप का पत्ता समझा था — कि वो सोहल को पहचानता था और उसकी हर पोल से वाकिफ था — उसे तो उसने यूं पीट दिया था जैसे कि वो सब उसके लिए हंसी खेल था। कहां वो उम्मीद कर रहा था कि उसकी वजह से सोहल को गिरफ्तार कर पाने की खुशी में पुलिस वाले उसे सिर माथे बिठायेंगे और खुद ही उसको वादामाफ गवाह बनाने की कोई सूरत निकालेंगे और कहां अब सोहल तो छुट्टा घूम रहा था और वो एक चूहे की तरह उस पिंजरे में बन्द करके पंजाब ले जाया जा रहा था जहां कि उसे मौत की सजा होना महज वक्त की बात थी। टूटा हुआ, हारा हुआ और हताश वो पहले ही न मर गया तो फांसी के फंदे पर उसका झूलना निश्चित था।
मन ही मन सोहल और अपनी तकदीर को हज़ार हज़ार गालियां देता, बेचैनी से करवटें बदलता, हथकड़ियों और बेड़ियों की तकलीफ झेलता, किसी करिश्मासाज तरीके से रिहाई के सपने देखता वो हिचकोले लेती गाड़ी की हिचकोले लेती सीट पर पड़ा था।
लॉकअप का दरवाजा गार्ड्स की तरफ था जो कि बाहर से मजबूती से बन्द था और उस पर एक बड़ा मजबूत ताला जड़ा हुआ था। बन्द दरवाजे के बाहर एक नौजवान सिख सब-इन्स्पेक्टर और एक सिपाही आमने सामने बैठे ऊंघ रहे थे। सब-इन्स्पेक्टर की वर्दी की बैल्ट में लगे होलस्टर में उसकी सर्विस रिवॉल्वर खुंसी हुई थी, जबकि सिपाही के पास किसी तरह का कोई हथियार नहीं था। अलबत्ता आगे ड्राइवर के साथ बैठे हवलदार के पास एक रायफल थी।
लॉकअप के बन्द दरवाजे में एक छोटा सा जालीदार झरोखा था, बिना दरवाजा खोले जिसमें से भीतर झांक कर कैदी का मुआयना किया जा सकता था लेकिन तब तक एक बार भी भीतर बन्द लंगड़े, बूढ़े, कमजोर और हथकड़ियों, बेड़ियों में जकड़े कैदी का मुआयना जरूरी नहीं समझा गया था क्योंकि उस चैम्बर से बाहर तो कोई परिन्दा भी पर नहीं मार सकता था।
आगे पुलिस का जो सिपाही ड्राइवर की ड्यूटी भुगता रहा था, वो एक हट्टा कट्टा अधेड़ सिख था जो कि नाइट ड्राइविंग में एक्सपर्ट था।
वैसे भी जी.टी. रोड चौबीस घन्टे रवां रहने वाली सड़क थी।
“राजपुरे रुकांगे।” — ड्राइवर बिना सड़क पर से निगाह हटाये सहज भाव से बोला।
ऊंघते से हवलदार ने सहमति में सिर हिलाया और बोला — “आहो।”
“कम से कम एक घन्टा रैस्ट मार के आगे बढ़ेंगे?”
“वदिया।”
तभी एकाएक ड्राइवर को सामने सड़क पर ऐन उस जेल वैन जैसी एक गाड़ी खड़ी दिखाई दी जिसके पहलू में खड़े दो उन्हीं जैसी वर्दियां पहने पुलिस वाले हाथ हिला कर उन्हें रुकने का इशारा कर रहे थे।
ड्राइवर ने हवलदार को कोहनी मारी और सामने इशारा किया। साथ ही उसने गाड़ी की रफ्तार घटाई।
“महकमे के आदमी हैं।” — हवलदार बोला — “किसी मुश्किल में पड़े जान पड़ते हैं। रोक।”
ड्राइवर ने सहमति में सिर हिलाया और फिर सड़क पर खड़ी गाड़ी से थोड़ा आगे ले जाकर अपनी गाड़ी रोकी। गाड़ी रोकने से पहले ही उसको दिखाई दे गया था कि वो भी पंजाब पुलिस की, लेकिन फिरोजपुर डिवीजन की, गाड़ी थी। गाड़ी के पहलू में उन्हीं की टीम जैसा एक अधेड़ इन्स्पेक्टर और एक युवा ए.एस.आई. खड़े थे और दोनों उन्हीं की तरह हथियारबन्द थे।
“की होया, चानन सिंहां?” — गाड़ी रुकी तो पीछे बैठा सब-इन्स्पेक्टर उच्च स्वर में बोला।
“आपे देखो, मालको।” — ड्राइवर ने भी वैसे ही उच्च स्वर में जवाब दिया — “अपने महकमे दे बन्दे हण।”
सब-इन्स्पेक्टर ने अपने केबिन का बाहर की ओर का दरवाजा खोला तो सड़क पर खड़ा इन्स्पेक्टर और ए.एस.आई. लपक कर उसके करीब पहुंचे।
सब-इन्स्पेक्टर ने बाहर कदम रखा। सामने अपने ही महकमे के अपने से सीनियर पुलिस अधिकारी को खड़ा पाकर उसका हाथ अपने आप ही आधे अभिवादन और आधे सैल्यूट की सूरत में उठ गया।
उसके साथ के सिपाही ने भी बाहर निकलकर इन्स्पेक्टर को सैल्यूट मारा।
“क्या हुआ, सर?” — सब-इन्स्पेक्टर बोला।
“गड्डी बिगड़ गयी है।” — इन्स्पेक्टर परेशानहाल स्वर में बोला — “वड्डा नुक्स जान पड़ता है। ड्राइवर के बस का नहीं। तुसी लोग कहां जा रहे हो?”
“अम्बरसर।”
“तुम्हारे लॉकअप में कैदी है?”
“हां।”
“कितने?”
“एक।”
“फिर तो तुसी लोग हमारी मदद कर सकते हो।”
“कैसी मदद?”
“हमारे पास एक कैदी है जिसे हम रोहतक से ला रहे हैं। सुबह उसका अम्बरसर डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में पेश होना निहायत जरूरी है। तुसी लोग अम्बरसर जा रहे हो। तुम्हारी वैन में जगह भी है। अगर तुसी लोग हमारे कैदी को भी अपनी वैन में लाद लो और इसे अम्बरसर पहुंचा दो तो हमारा संकट हरण हो जाये।”
“और आप लोग! आप लोग क्या करोगे?”
“सवाल से लगता है कि साढे वास्ते वैन में जगह नहीं है!”
सिख सब-इन्स्पेक्टर ने इनकार में सिर हिलाया।
“लेकिन कैदी के लिए है?”
“आहो।”
“साढी खैर है, काका। हम बस पकड़ लेंगे। लेकिन कैदी बस विच नहीं लै जाया जा सकदा।”
“क्यों?”
“उग्गरवादी है। खतरनाक। इसीलिये चुपचाप अम्बरसर ले जाया जा रहा है। बस में तो ढोल पिट जायेगा।”
“ओह!”
“साढा ड्राइवर लिफ्ट लेकर अग्गे गया है। सुना है अग्गे किसी आल नाइट पैट्रोल पम्प पर रात को भी मिस्त्री मिलता है। लेकिन वड्डा फाल्ट है। गियरबाक्स टूट गया लगता है। जल्दी ठीक नहीं होने वाला। बिगड़ी वैन के साथ अगर हम ऐत्थे ही फंसे रहे तो टेम पर अम्बरसर पहुंचना मुमकिन नहीं होगा। ऐस वास्ते किरपा करो ते साढा कैदी अपने नाल लै जाओ।”
“ठीक है।”
“बौत बौत मेहरबानी, पुत्तरा।” — फिर वो उच्च स्वर में बोला — “चल्ल ओये जगननाथा। बाहर कड माईंयवे नूं।”
“चंगा, जी।” — दूसरी तरफ से आवाज आयी।
तब तक मायाराम वाली वैन के ड्राइवर और हवलदार भी सड़क पर आ गये थे।
बिगड़ी वैन का पिछला दरवाजा खुला और हथकड़ियों, बेड़ियों से जकड़े एक हट्टे कट्टे, छ: फुटे नौजवान ने बाहर कदम रखा। वो काले रंग का एक बहुत खुला सलवार सूट पहने था जिसकी कमीज उसके घुटनों से भी नीचे तक पहुंच रही थी। बेड़ियों की वजह से उसे अपनी टांगें फैला कर चलना पड़ रहा था। उसके सिर के बाल घने थे और रूखे होने की वजह से सिर के चारों तरफ यूं छितरे हुए थे कि उसकी शक्ल बहुत विकराल लग रही थी। वैसे भी वो निहायत खूंखार शख्स जान पड़ता था।
जगन्नाथ के नाम वाला हवलदार अपनी रायफल की बट से उस कैदी की पीठ को टहोकता उसे दूसरी वैन तक लाया। तब सबसे पहले बिगड़ी वैन के इन्स्पेक्टर ने उसकी हथकड़ियां, बेड़ियां चैक करना शुरू किया।
“अबे, कम्बख्तो!” — कैदी आग्नेय नेत्रों से पुलिसियों को घूरता हुआ भड़क कर बोला — “कितनी बार चैक करोगे अपने लोहे के जेवर?”
“जितनी बार साढा जी चाहेगा।” — इन्स्पेक्टर कड़क कर बोला।
“तुम्हारे जी की बहन की...”
कैदी के मुंह से गाली निकलते ही इन्स्पेक्टर ने एक ऐसा झन्नाटेदार थप्पड़ कैदी के चेहरे पर रसीद किया कि सिख सब-इन्स्पेक्टर और उसका सिपाही हड़बड़ा कर एक कदम पीछे हट गये।
“कुत्ती दा पुत्तर न होवे ते।” — इन्स्पेक्टर नफरतभरे स्वर में बोला — “गाल कढता है। हलक से जुबान खींच लूंगा।”
“प्राण खींच ले, कमीने!” — पूर्ववत् भड़के स्वर में कैदी बोला — “आगे पहुंच कर भी तो यही होगा! अच्छा है, अभी किस्सा खत्म कर।”
“चुप करता है या दूं एक और लप्पड़ खींच के?”
कैदी खामोश हो गया।
इन्स्पेक्टर ने पूरी दक्षता से हथकड़ियों बेड़ियों की बाबत अपनी तसल्ली की ओर पीछे हट कर सब-इन्स्पेक्टर से बोला — “खुद भी चैक करो।”
“सर, आपने देख लिया” — सब-इन्स्पेक्टर बोला — “काफी है।”
“नहीं काफी। ड्यूटी ड्यूटी की तरह होनी चाहिये, बेटा।”
“सॉरी, सर।”
सब-इन्स्पेक्टर ने भी आगे बढ़ कर कैदी के लोहे के जेवर खनखनाये और फिर सहमति में सिर हिलाया।
“चलो।” — इन्स्पेक्टर बोला — “बन्द करो।”
ए.एस.आई. ने सिपाही के साथ मिल कर कैदी को वैन के भीतर लॉकअप चैम्बर में पहुंचाया। सिपाही ने लाकअप के दरवाजे पर पूर्ववत् ताला जड़ दिया।
“ये चाबी” — इन्स्पेक्टर ने सब-इन्स्पेक्टर को चाबी सौंपी — “हमारे कैदी की बेड़ियों की है। इसे अब तुम सम्भालो।”
“ठीक है, जी।”
“अब मैं फारिग हूं। मैं अभी कहीं किसी फोन पर पहुंचूंगा और रोहतक और फिरोजपुर दोनों जगह फोन खड़का दूंगा। फिर वड्डे साहब लोग इस बाबत आपस में बात कर लेंगे। ठीक है?”
“आहो, जी।”
“अपना नाम और पेटी नम्बर बोल के जाओ और मेरा नाम और पेटी नम्बर ले के जाओ।”
उस जानकारी का आदाम प्रदान मुकम्मल हुआ तो सब-इन्स्पेक्टर और उनके साथी पुलिसिये वापिस अपनी वैन में सवार हो गये।
वैन एक की जगह अब दो कैदियों के साथ अपनी मंजिल की ओर फिर बढ़ चली।
तत्काल पेड़ों के झुरमुट के पीछे से एक कोन्टेसा प्रकट हुई और वहां से निकलकर सड़क पर पहुंची। इन्स्पेक्टर और ए.एस.आई. उसकी पिछली सीट पर सवार हो गये तो तत्काल कोन्टेसा आगे सड़क पर दौड़ चली।
पीछे रह गया हवलदार बिगड़ी वैन की ड्राइविंग सीट पर जा बैठा।
तत्काल बिगड़ी वैन खामोशी से आगे बढ़ चली।
वैन करनाल पार कर गयी।
तब नया कैदी अपनी सीट पर से चुपचाप नीचे फर्श पर सरक गया और लोहे को बजने से रोकने का भरपूर प्रयत्न करता हुआ मायाराम के करीब पहुंचा। उसने उसके कान के करीब मुंह किया और फुसफुसाया — “जाग जा।”
मायाराम ने हड़बड़ा कर आंखें खोलीं।
“मेरे बालों में चाबी है। निकाल।”
हथकड़ियों से जकड़े अपने हाथ मायाराम ने उसके सिर में फिराये। तत्काल चाबी से उसकी उंगलियां टकराईं। उसने चाबी को काबू में किया और हाथ वापिस खींच लिये।
नये कैदी ने अपने दोनों हाथ उसके सामने कर दिये।
मायाराम ने फुर्ती से उसकी हथकड़ियां खोल दीं।
हाथ खुलते ही नया कैदी वापिस अपनी सीट पर लौट गया जहां पहुंच कर अपनी बेड़ियां उसने खुद खोल लीं।
फिर कमीज उठा कर उसने अपनी शलवार में हाथ डाला जहां उसकी दायीं जांघ के साथ टेप से भीतर की तरफ एक रिवॉल्वर बन्धी हुई थी और टांगों के बीच में एक मुंह बन्द थैली लटक रही थी। उसने दोनों चीजें अपने काबू में कीं। रिवॉल्वर को उसने कमीज की दायीं जेब में डाल लिया और थैली का मुंह खोल कर उसे फर्श पर उलट दिया।
थैली में से निकलकर फर्श पर एक लम्बा, काला सांप गिरा।
नये कैदी ने हाथ बढ़ा कर मायाराम को कचोटा और सांप की तरफ इशारा किया।
सांप पर निगाह पड़ते ही मायाराम के नेत्र आतंक से फैले और वो अपने आप में सिकुड़ कर रह गया।
नये कैदी ने बेड़ियां पांव के करीब कर लीं और हथकड़ियां यूं कलाईयों में अटका लीं कि एक निगाह में देखने से कलाईयां उनमें जकड़ी हुई ही जान पड़तीं। फिर वो गला फाड़ कर चिल्लाया — “सांप! सांप! बचाओ! बचाओ!”
“बचाओ!” — उसकी देखादेखी मायाराम भी चिल्लाया — “सांप! सांप!”
बाहर ऊंघते बैठे सब-इन्स्पेक्टर और सिपाही सचेत हुए।
“सांप! सांप! बचाओ!”
सब-इन्स्पेक्टर झपट कर खड़ा हुआ, उसने हाथ बढ़ा कर वो स्विच ऑन किया जिससे लॉकअप चैम्बर के भीतर की डोम लाइट जलती थी और जाली वाले झरोखे से भीतर झांका।
मद्धम रोशनी में उसे फर्श पर लहराता कोई दो फुट लम्बा काला सांप दिखाई दिया।
“दाता!” — उसके मुंह से निकला — “सांप कहां से आ गया!”
“बचाओ! बचाओ!”
“चानन सिंहां!” — सब-इन्स्पेक्टर चिल्लाया।
“की होया, मालको?” — ड्राइवर की हड़बड़ाई आवाज आयी।
“गड्डी रोक।”
तत्काल वैन की रफ्तार घटने लगी। फिर वो सड़क के एक बाजू होकर रुकी।
“पिच्छे आओ दोनों जने।”
रायफलधारी हवलदार और ड्राइवर दोनों पीछे पहुंचे।
“लॉकअप में सांप है।” — सब इन्स्पेक्टर बोला।
“सांप है?” — हवलदार हैरानी से बोला — “कित्थों आ गया चलती गाड़ी में?”
“क्या पता कित्थों आ गया? बड़ा खतरनाक और जहरीला जान पड़ता है। उसने किसी कैदी को काट खाया तो साढे ऊपर कोताही का बड़ा सख्त इलजाम आयेगा। वर्दियां उतर जायेंगी सब की।”
सब घबराये।
“की करिये, मालको?” — हवलदार बोला।
“दाताराम ताला खोलता है” — सब-इन्स्पेक्टर सिपाही की तरफ इशारा करता हुआ बोला — “तू सांप को रायफल की बट से कुचल देना।”
“मैं!” — हवलदार घबरा कर बोला।
“और कौन? रायफल तो तेरे ही पास है।”
“मालको, गोली मारो, शूट करो।”
“ठीक है। शूट कर देना।”
“मैं कह रहा था अपनी रिवॉल्वर से...”
“बकवास न कर। तू एक दो बार बट मारेगा तो सांप खुद ही जिधर से आया था, उधर से निकल जायेगा।”
“वो उड़ना सांप हुआ तो?”
“क्या?”
“उड़ के वार करने वाला सांप!”
“दुर फिटे मूं। वो तेरे पर ही उड़ेगा? हमारे पर नहीं उड़ेगा?”
“बट तो मैं मारूंगा! जो वार करेगा, उसी पर तो वार होगा, मालको!”
“कमीना! डरपोक! तू पुलिस की नौकरी के काबिल नहीं।”
“मालको, सांपों से भिड़ने के लिए थोड़े ही न पुलिस की नौकरी की थी!”
“जुबान लड़ाता है! थाने पहुंच कर देखूंगा तुझे। इधर कर रायफल।”
सब-इन्स्पेक्टर ने जबरन हवलदार के हाथ से रायफल झटक ली।
“चल ओये, दातारामा” — सब-इन्स्पेक्टर बोला — “खोल जंदरा।”
सिपाही ने झिझकते हुए ताला खोला।
भीतर ‘सांप सांप बचाओ बचाओ’ की दुहाई बदस्तूर जारी थी।
सब-इन्स्पेक्टर रायफल उठा कर बट की तरफ से उसका वार सांप पर करने को तैयार हो गया।
सिपाही ने दरवाजे के पट खोले।
भीतर हथकड़ियों बेड़ियों से जकड़े दोनों कैदी अपनी अपनी सीटों पर सिमटे पड़े थे और आतंकित नेत्रों से फर्श पर कभी गुच्छा मुच्छा होते तो कभी खुल कर लहराते सांप को देख रहे थे।
“हौसला रखो।” — सब-इन्स्पेक्टर बोला — “सांप अभी मर जाता है या भाग जाता है।”
“क्या इन्तजाम है!” — मायाराम बोला — “सांप है या चींटी जो कहीं से रेंग के आ गयी!”
“जानबूझ के छोड़ा है।” — नया कैदी बोला — “ये मुझे यहीं खत्म करने की चाल है। कमीनों को दहशत होगी कि कहीं कोर्ट मुझे बरी न कर दे।”
“बकवास बन्द कर ओये कंजरीदया।”
नया कैदी चुप हो गया।
तब रायफल सम्भाले सब-इन्स्पेक्टर ने सांप की तरफ तवज्जो दी।
सांप तब कुंडली मारे बैठा था।
सब-इन्स्पेक्टर ने एक कदम दरवाजे से भीतर डाला और रायफल को कन्धे से ऊंचा उठाया।
नये कैदी ने उसे शूट कर दिया।
सब-इन्स्पेक्टर पछाड़ खाकर सांप के ऊपर गिरा।
बाकी के तीनों पुलिसिये भौंचक्के से उस कैदी का मुंह देखने लगे जो कि जैसे जादू के जोर से हथकड़ियों, बेड़ियों से आजाद हो गया था और जिसके हाथ में अब धुआं उगलती रिवॉल्वर दिखाई दे रही थी।
“खबरदार!” — वो क्रूर स्वर में बोला — “जो अपने साहब के साथ यहीं मरना चाहता हो, वो ही हिलने की कोशिश करे।”
किसी की हिलने की मजाल न हुई।
एक हथियारबन्द खूंखार कैदी के मुकाबले में वो निहत्थे कर भी क्या सकते थे?
“अब, सच में ही सांप लड़ गया?” — नया कैदी मायाराम की पसलियों में एक लात जमाता हुआ बोला — “अब हिलता क्यों नहीं? बाहर क्यों नहीं निकलता?”
तब कहीं जाकर मायाराम की समझ में आया कि असल में क्या माजरा था!
गिरता पड़ता वो उठा। बेड़ियों की वजह से बड़ी मुश्किल से वो सब-इन्स्पेक्टर के निश्चेष्ट शरीर को फांद कर आगे बढ़ पाया। वो दरवाजे पर पहुंचा तो एक बारगी पुलिसिये उसकी ओट में हो गये। तभी उसकी पीठ पर एक जोर की लात पड़ी, वो गेंद की तरह उछला और लुढकता हुआ वैन से नीचे सड़क पर जाकर गिरा।
नया कैदी छलांग मार कर बाहर निकला। उसके लोहे के जेवर अब पीछे सीट पर तिरस्कृत से पड़े दिखाई दे रहे थे।
पुलिसियों के लिए ये करिश्मा था कि वो न सिर्फ आजाद था, हथियारबंद भी था। अब उन्हें ये भी अहसास हो रहा था कि वे लोग एक गहरे षड्यन्त्र में फंस गये थे जिसका मूल मकसद उनके कैदी को आजाद कराना था।
हथियारबन्द कैदी वैन से बाहर निकला और उसने रिवॉल्वर के इशारे से पुलिसियों को भीतर दाखिल होने का हुक्म दिया।
फर्श पर सब-इन्स्पेक्टर का शरीर पड़ा होने की वजह से तीनों पुलिसिये बड़ी कठिनाई से वैन के लाकअप में समा पाये।
तभी वैन के करीब एक कोन्टेसा आकर रुकी। उसमें से तीन आदमी बाहर निकले, एक ने पीछे जाकर उसकी डिकी खोली, बाकी दो ने सड़क पर लुढके पड़े मायाराम को उठाया और उसे कार की डिकी में डाल दिया। पहले ने डिकी को बदस्तूर बन्द कर दिया। फिर उसने नये कैदी के पास जाकर उसे बियर के कैन जैसा एक डिब्बा थमाया।
कैदी ने उस डिब्बे को बियर के कैन की तरह ही खोला। तत्काल उसमें से सुर्मई धुआं निकलने लगा। उसने डिब्बे को लॉकअप के भीतर उछाल दिया और उसका दरवाजा बन्द करके बाहर से कुन्डी लगा दी।
तीनों पुलिसिये अभी चिल्लाने के लिए मुंह भी नहीं खोल पाये थे कि एक दूसरे से गड्ड-मड्ड हुए, मृत सब-इन्स्पेक्टर की तरह ही निश्चेष्ट लॉकअप में लुढ़के पड़े थे।
बाहर सब लोग कैदी समेत कोन्टेसा में सवार हुए और फिर कोन्टेसा यह जा वह जा।
‘छ: करोड़ का मुर्दा’ में जारी!
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