रात के 10.30 हो रहे थे।

अजय वालिया डिनर ले चुका था और कॉफी के घूँट भरता अपने ही कमरे में कुर्सी पर बैठा था। मुरली यदा-कदा फेरा लगा जाता था कि वालिया को किसी चीज की जरूरत न हो।

वालिया के चेहरे पर गहरी सोच के भाव स्पष्ट दिखाई दे रहे थे। उसने मोबाइल उठाया और दिल्ली का नम्बर मिलाने लगा। दूसरी तरफ बेल जाने लगी। कुछ पल बेल बजती रही फिर फोन पर आवाज कानों में पड़ी-

"विनोद कुमार दिस साइड।"

विनोद कुमार प्राइवेट डिटेक्टिव था। करोल बाग के चैम्बर ऑफ जमुना प्रसाद की दूसरी मंजिल पर उसकी डिटेक्टिव एजेंसी का ऑफिस था। कभी वह पुलिस में कांस्टिबल हुआ करता था, परन्तु पचास रुपये की रिश्वत लेते हुए वह रंगों हाथों पकड़ा गया था और नौकरी चली गयी। उसके बाद उसने जासूसी का काम शुरू किया, जो कि चल निकला। आज विनोद कुमार दिल्ली का जाना-माना प्राइवेट डिटेक्टिव था।

"मैं वालिया, मुम्बई से।"

"ओह, कैसे हो मिस्टर वालिया?"

"एकदम ठीक। तुमसे एक छोटा सा काम था।"

"हुक्म कीजिये। मैं तो बैठा ही आप लोगों की सेवा के लिए हूँ।" विनोद कुमार की आवाज कानों में पड़ी।

"दिल्ली में जगन्नाथ सेठी का नाम आमतौर पर सुनने को मिल जाता है।"

"मोटा आसामी है।"

"मैं उसके परिवार के बारे में जानना चाहता हूँ।"

"कल शाम तक आपको रिपोर्ट मिल जाएगी मिस्टर वालिया।"

"जगन्नाथ सेठी कितनी दौलत का मालिक होगा, अपना यह अंदाजा भी मुझे बताना।"

"समझ गया।"

"कल मुझे तुम्हारे फोन का इंतजार रहेगा।" वालिया ने कहा और फोन बन्द करके रख दिया।

उसके चेहरे पर सोच दौड़ रही थी। तभी मुरली ने भीतर प्रवेश किया और कॉफी का प्याला उठाता बोला-

"कुछ और चाहिए मालिक?"

"नहीं! अब मैं नींद लूँगा।"

"मालिक, अब आप शादी कर लें। भगवान का दिया सब कुछ है। कब तो इस घर में बच्चे खेलते नजर आने चाहिए।" मुरली ने कहा।

"हो सकता है तुम्हारी यह इच्छा जल्दी पूरी हो जाये।" अजय वालिया मुस्कुरा पड़ा।

"कोई पसंद कर रखी है क्या?" मुरली के होंठों से निकला।

"अभी नहीं पता।"

मुरली चला गया।

वालिया ने फोन उठाया और रूपा का नम्बर मिलाने लगा। फौरन ही रूपा की आवाज कानों में पड़ी-

"हेलो!"

"कैसी हो?"

"ओह, तुम!" रूपा के गहरी साँस लेने की आवाज कानों में पड़ी।

"क्या किसी और के फोन का इंतजार था?" अजय वालिया के होंठों पर मुस्कान थी।

"ऐसा तो कुछ नहीं।"

"सोई नहीं अभी?"

"नहीं!"

"मैं तो नींद लेने जा रहा था कि तुम्हारी याद आ गयी। सोचा तुमसे बात ही कर लूँ।"

रूपा की आवाज नहीं आयी।

"तुम्हें मेरी याद आयी क्या?"

"बच्चों की तरह बातें मत करो।" इन शब्दों के साथ ही रूपा के हँसने का स्वर कानों में पड़ा।

"तुमने मुझे जवाब देना है।"

"अभी फैसला नहीं कर सकी।"

"जब भी तुम्हारी हाँ होगी, मैं शादी की तैयारियाँ शुरू कर दूँगा।" वालिया ने कहा।

रूपा की तरफ से आवाज नहीं आयी।

"मैं तुम्हें ज्यादा तंग नहीं करना चाहता।" वालिया मुस्कुराकर बोला, "कल बात करेंगे।"

"गुड नाईट!" रूपा की आवाज आई।

"गुड नाईट!" वालिया ने कहा और फोन बंद कर दिया।

■■■

अगले दिन, लंच का वक़्त।

उसी रेस्टोरेंट में अजय वालिया और रूपा मिले। परन्तु आज बुलावा रूपा की तरफ से था। वह गंभीर और व्याकुल नजर आ रही थी।

"तुम कुछ परेशान हो।" वालिया ने पूछा।

"तुमने परेशान कर रखा है।" रूपा ने बेचैनी से कहा।

"मैंने? नहीं, मैं तुम्हें परेशान नहीं कर सकता। बताओ मैंने क्या किया है?"

"तुम मेरे पति जो बनने वाले हो।" रूपा मुस्कुरा पड़ी।

वालिया दो पल तो उसे देखता रहा फिर खुशी का समुद्र उसके चेहरे पर नाच उठा।

"ओह, सच!" अजय वालिया ने उसका हाथ थाम लिया।

"छोड़ो भी।" रूपा ने अपना हाथ पीछे खींचा, "यहाँ और भी लोग बैठे हैं।"

"तुम्हें पाकर मेरी जिंदगी संवर जाएगी रूपा।" अजय वालिया बहुत खुश था।

"पता नहीं, मैं तुम पर इतना भरोसा क्यों कर रही हूँ।" रूपा ने कहा।

"तुम्हें पछतावा नहीं होगा इस बात का।" वालिया ने विश्वास दिलाया।

"मुझे अपने पिता की चिंता भी है।"

"पिता की चिंता? मैं समझा नहीं।"

"उन्हें पता चल गया कि मैं यहाँ हूँ तो, वह मुझे जबरदस्ती दिल्ली ले जायेंगे। उनकी पहुँच ऊपर तक है।"

"तो?"

"मैं चाहती हूँ कि इस शादी की खबर मेरे पिता को न हो। मैं उन्हें पसंद नहीं करती।"

"ठीक है। तुम ऐसा चाहती हो तो ऐसा ही सही।" वालिया ने सिर हिलाया।

"शादी हम सादे ढंग से करेंगे।"

"जो तुम कहोगी वैसा ही होगा रूपा। मैं तुम्हें खुश रखना चाहता हूँ।"

"थैंक्स!"

"कोई और बात हो तो बताओ?"

"नहीं! बस मैं तुम्हारे कंधे पर सिर रखकर सारी जिंदगी बिता देना चाहती हूँ। मुझे किसी तरह का धोखा मत देना।"

"धोखा? क्या बात करती हो रूपा?" वालिया प्यार भरे स्वर में कह उठा, "मैं तुम्हें अपनी पलकों पर बिठाकर रखूँगा।"

"बस यही चाहती हूँ मैं।"

■■■

अजय वालिया खुश था। रूपा ने हाँ कर दी थी। 

आज तो रूपा बहुत ज्यादा खूबसूरत लग रही थी। रूपा उस पर भरोसा कर रही थी। यह बात उसे बहुत अच्छी लगी थी। मन ही मन उसने तय किया कि दुनिया भर की खुशियाँ रूपा के कदमों में डाल दे।

वालिया ऑफिस पहुँचा और वहाँ से उसने जगमोहन को फोन किया।

"हेलो!" जगमोहन की आवाज कानों में पड़ी।

"मैं एक-दो दिन में शादी कर रहा हूँ।" वालिया ने छूटते ही कहा।

"बहुत खुश लग रहे हो।"

"हाँ! वह बहुत अच्छी लड़की है जिससे मैं शादी कर रहा हूँ। वह मुझे बहुत पसंद है।"

"बधाई हो!" जगमोहन का मुस्कुराहट भरा स्वर वालिया के कानों में पड़ा।

"तुमने और देवराज चौहान ने शादी पर हर हाल में आना है। कोई बहाना नहीं चलेगा।"

"हम नहीं आ पायेंगे।"

"मैंने पहले ही कहा है कि इनकार नहीं चलेगा। तुम लोग मेरे धंधे में आधे के पार्टनर हो और...।"

"तुम जहाँ भी आने को कहो, हम दस बार आयेंगे, परन्तु शादी में नहीं आयेंगे।"

"क्यों?"

"वहाँ और भी लोग होंगे। किसी ने हमें पहचान लिया तो तुम्हेँ जवाब देना भारी पड़ जायेगा। पुलिस यह साबित करने में लग जायेगी कि तुम्हारे अंडरवर्ल्ड से रिश्ते हैं। अंडरवर्ल्ड का पैसा तुम्हारी इमारतों में लगा है। तुम्हारे लिए पुलिस से जान छुड़ाना कठिन हो जाएगा। तुम्हारे खिलाफ दो-चार केस बन जाने तो मामूली बात है।"

"ओह!"

"ऐसे मौकों पर हमसे दूर ही रहो। हम बाद में आकर आशीर्वाद दे देंगे।"

"ठीक है!" वालिया ने गहरी साँस ली, "जैसा तुम ठीक समझो। देवराज चौहान को बता देना कि मैं शादी कर रहा हूँ।"

"बता दूँगा। काम ठीक चल रहा है, कोई समस्या तो नहीं?" उधर से जगमोहन ने पूछा।

"सब ठीक है।"

■■■

शाम छह बजे दिल्ली से प्राइवेट डिटेक्टिव विनोद कुमार का फोन आया।

"कहो!" वालिया बोला।

"जगन्नाथ सेठी के बारे में जानकारी हासिल की है। उसकी इकलौती बेटी रूपा लापता है और लाख ढूंढ़ने पर भी उसकी कोई खबर नहीं मिल रही है। उसकी तलाश में अखबारों में इश्तिहार तक दिए हैं।" उधर से विनोद कुमार ने कहा।

अजय वालिया के होंठों पर शांत मुस्कान उभरी।

"और?"

"तुमने यह पता लगाने को कहा था कि जगन्नाथ सेठी कितनी बड़ी आसामी है। इस बारे में अंदाजा है कि 20-30 अरब की दौलत उसके पास हो सकती है। जमीन-जायदाद सब कुछ मिलाकर।"

"ठीक है।" अजय वालिया ने कहा, "तुम्हारी फीस तुम तक पहुँच जाएगी।"

"कुछ और पता लगाना हो तो।"

"नहीं, अभी और कुछ नहीं।" अजय वालिया ने कहा और फोन बंद कर दिया।

उसके चेहरे पर चमक थी। 20-30 अरब के मालिक था जगन्नाथ सेठी। रूपा उसकी वारिस थी। वह उसकी पत्नी बनने जा रही थी। यानी कि सारी दौलत उसकी हो सकती है।

इतनी बड़ी दौलत हाथ में आते ही वह अपने कंस्ट्रक्शन के काम को शानदार ढंग से फैला सकता है।

रूपा उसके लिए कुबेर का खजाना साबित होने वाली थी।

लालच ने अपने पंख फैलाने शुरू कर दिए थे। पहले रूपा का चेहरा आँखों के सामने रहता था परन्तु अब रूपा के चेहरे की जगह नोटों ने ले ली थी। वालिया को अब हर जगह रूपा की दौलत ही नजर आ रही थी, जो कि शादी के बाद उसकी होने वाली थी।

■■■

अगले दिन रूपा का फोन आया अजय वालिया को।

"मैं बहुत बड़ी मुसीबत में फँस गयी हूँ।" रूपा की आवाज में घबराहट थी।

"क्या हुआ?" वालिया के माथे पर बल पड़े।

"रामसिंह ने मुझे पहचान लिया है, वो...।"

"रामसिंह कौन?"

"पापा का पुराना ड्राइवर। दो साल पहले वह नौकरी छोड़कर मुम्बई चला आया था। वह पापा को मेरी खबर देने को कह रहा है।"

"कहाँ है वह?"

"कुर्ला के बाजार में। मैंने उसे रोक रखा है। समझ में नहीं आता कि मैं क्या करूँ।"

"तुम उसे रोके रखो। मैं अभी वहाँ आता हूँ। तुम बताओ कि इस वक़्त तुम ठीक कौन सी जगह पर हो?"

"वह मुँह बन्द रखने के 25 लाख माँग रहा है।"

"25 लाख।" वालिया के होंठ भिंच गए, "तुम रोक के रखो, मैं आता हूँ।"

रूपा ने बताया कि वह कुर्ला के कौन से बाजार में कहाँ पर है।

अजय वालिया ने फोन बंद किया और ऑफिस के तिजोरी से हजार-हजार की नोटों की गड्डियाँ निकालकर, अपने ब्रीफकेस में ठूंसी और बाहर निकलता चला गया।

■■■

अजय वालिया कुर्ला पहुँचा। रूपा को तलाश करने में थोड़ी-बहुत परेशानी हुई, परन्तु रूपा मिल गयी। 

रूपा के पास महेश था। महेश की शेव तीन-चार दिन की बढ़ी हुई थी। पुरानी कमीज-पैंट पहन रखी थी और मुँह से शराब की बदबू आ रही थी। आँखें नशे में चढ़ी हुई थीं।

"शुक्र है, तुम आ गए अजय!" अजय के पास पहुँचते ही रूपा घबरायी सी कह उठी।

"चिंता मत करो, सब ठीक हो जाएगा।" अजय ने कहा और फिर महेश को देखा, "यह है रामसिंह?"

"हाँ! इसने तो मेरी जान ही निकाल रखी है।"

अजय वालिया महेश से बोला- "रूपा के पिता को रूपा के बारे में बताने की क्या जरूरत है?"

"मैंने सेठ साहब का नामक खाया है। अब वह मेमसाहब के घर से चले जाने से परेशान हैं। मैं उन्हें...।"

"ज्यादा ड्रामा मत कर।" अजय वालिया ने उसे घूरा।

"ड्रामा...?" महेश ने वालिया को घूरा। आवाज और चेहरे पर नशा झलक रहा था।

"तेरे जैसे शराबी की औकात, मैं पहचान रहा हूँ। यहाँ क्या करता है तू?"

"कुछ नहीं। कोई नौकरी नहीं देता।"

"तेरे जैसे शराबी को कोई नौकरी पर नहीं रखेगा। अब तू चाहता क्या है?"

"मेमसाहब के बारे में मुँह बन्द रखूँ तो इसके लिए 25 लाख लूँगा।"

"25 लाख कभी देखा है?"

"नहीं! लेकिन अब देखना चाहता हूँ।"

"एक लाख रुपया दूँगा मुँह बन्द करने का।"

"वो भी तू रख। मैं अभी सेठ जी को फोन पर खबर देता हूँ कि मेमसाहब मुम्बई में हैं।" महेश जाने को हुआ।

"रुको रामसिंह!"

महेश ठिठका। रूपा, वालिया से कह उठी- "यह तुम क्या कर रहे हो अजय। इसका मुँह बन्द न किया तो हम शादी नहीं कर सकेंगे।"

वालिया ने महेश को नफरत भरे ढंग से देखा फिर कहा-

"मैं तुम्हें पाँच लाख देता हूँ, तुम...।"

"मैं 25 लाख लूँगा।" नशे में होने का दिखावा करते महेश कह उठा, "नहीं तो मैं सेठ जी को बता दूँगा कि...।"

"प्लीज रामसिंह!" रूपा बोली, "कुछ पैसा कम करो। तुम ज्यादा माँग रहे हो।"

"ठीक है 24 दे दो।"

रूपा ने आहत भाव से वालिया को देखा। पाँच मिनट की सौदेबाजी के बाद पंद्रह लाख पर बात बनी।

वालिया ने पंद्रह लाख महेश को दिया।

महेश जाने लगा तो रूपा कह उठी- "अब तो तुम पापा को नहीं बताओगे कि मैं मुम्बई में हूँ?"

"नहीं बताऊँगा मेमसाहब! मैंने आपका नमक खाया है।"

महेश चला गया।

"ओह अजय!" रूपा गहरी साँस लेकर अजय की बाँह थामती कह उठी, "अभी तक मेरे पाँव काँप रहे हैं।"

"घबराओ मत!" अजय प्यार से मुस्कुरा पड़ा।

"अगर पापा को पता चल जाता कि मैं मुम्बई में हूँ तो वह किसी भी तरह मुझे ढूँढ निकालते।"

"अब तुम्हें डरना नहीं चाहिए।"

"हाँ, तुमने पंद्रह लाख देकर रामसिंह का मुँह बन्द कर दिया!"

"वैसे भी तुम कल मेरी पत्नी बनने जा रही...।"

"कल...?" रूपा ने वालिया को देखा।

"हाँ! मैंने कल शादी करने का फैसला किया है। मेरा मैनेजर सारी तैयारियाँ पूरी कर रहा है। कल मंदिर में हम शादी करेंगे और आठ-दस मेरे बेहद खास लोग ही शादी में शामिल होंगे।"

"यह सोचकर अजीब सा लग रहा है कि कल मैं शादी कर लूँगी।"

अजय ने मुस्कुराकर उसका कंधा थपथपाया।

"शादी के बाद भी मुझे प्यार करोगे न अजय?"

"यह कैसी बातें कर रही हो रूपा?"

"मुझे प्यार की, अपनेपन की जरूरत है।" रूपा की आँखें भर आईं, "मुझे कभी छोड़ना मत।"

"हम दोनों एक-दूसरे के लिये बने हैं रूपा।" वालिया ने प्यार से कहा, "शादी के बाद हनीमून के लिए कहा चलोगी?"

"जहाँ तुम ले चलो।"

"स्विट्जरलैंड चलेंगे।"

"तुम्हारी खुशी में ही मेरी खुशी है अजय।"

■■■

"कल वालिया मुझसे शादी करने जा रहा है।" रूपा, महेश, रंजन और दीपक को देखते गंभीर स्वर में कह उठी, "हमारी योजना का पहला हिस्सा खत्म होने जा रहा है। परन्तु अभी बहुत लम्बा खेल खेलना हमें।"

"यहाँ तक पहुँचने में हमें ज्यादा समस्या थी।"

"समस्या कहीं भी खड़ी हो सकती है। जब भी काम हमारी योजना के हिसाब से नहीं होगा,समस्या खड़ी हो जाएगी।" दीपक बोला।

"कतई जरूरत नहीं। शादी के बाद मैं वालिया के साथ रहूँगी और जहाँ भी बात बिगड़ेगी, मैं सम्भाल लूँगी।"

"यह पक्का नहीं कि तुम आने वाले हालातों को, अपनी मर्जी से चला सको।" दीपक ने कहा।

"यह जरूरी नहीं है कि जो मैं चाहूँ वह ही हो। फिर भी मेरी कोशिश होगी सब ठीक रहे।"

"हर कदम कठिन है।" महेश ने गंभीर स्वर में कहा।

"आगे का मामला नब्बे प्रतिशत तुम पर ही निर्भर है।" रंजन बोला।

"मैं समझती हूँ।"

"इन पंद्रह लाख का क्या करें?"

"तुम तीनों आपस में बाँट लो। जो मैं तुम लोगों को दे रही हूँ, वह तो अलग से है ही।" रूपा ने कहा, "पैसे की फिक्र मत करो। मुझे काम ठीक से पूरा चाहिए और मैं नहीं चाहती कि तुम तीनों में से कोई इस काम में फँसे।"

"हम अपना काम सावधानी से करते हैं।"

"काम वह बढ़िया होता है कि काम भी हो जाये और फँसो भी नहीं।" रूपा ने पुनः तीनों को देखा, "मैं तुम तीनों को बता चुकी हूँ कि अब आगे क्या करना है। उसकी तैयारी शुरू कर दो।"

रंजन और महेश ने दीपक को देखा तो दीपक कह उठा-

"मैंने असलम से बात कर रखी है। वह हमें हमारी जरूरत का बारूद देगा।"

"बारूद ज्यादा चाहिए।" रंजन बोला, "क्योंकि उड़ाने वाला सामान ज्यादा है।"

"मैंने ज्यादा बारूद की ही बात की है। उस सारे बारूद के वह 60 लाख माँगता है। 50 पर मैंने उसे तैयार कर लिया है।"

"50 लाख?" महेश ने रूपा को देखा।

"ज्यादा है।" रंजन ने कहा।

"हमें जरूरत का बारूद मिल रहा है, यही बड़ी बात है।" दीपक गंभीर स्वर में कह उठा, "हर किसी से बारूद लेना भी ठीक नहीं। असलम हमें एक आदमी भी देगा जो कि बारूद लगाने का काम जानता है। जहाँ हम कहेंगे, वह वहाँ बारूद लगा देगा।"

"कल सुबह 8 बजे आकर 50 लाख मुझसे ले जाना।" रूपा शांत स्वर में कह उठी, "मुझे अपना काम हर हाल में पूरा चाहिए।"

उसके बाद दीपक, महेश और रंजन वहाँ से चले गए।

रूपा के चेहरे पर गंभीरता नाच रही थी। उसने फोन उठाया और नंबर मिलाने लगी। बात हो गयी।

उधर से मर्दाना स्वर कानों में पड़ा।

"हेलो!"

"वासु!" रूपा बोली।

"हेलो मैडम! आप।"

"कल सुबह सात बजे 50 लाख मुझे दे जाना।"

"यस मैडम!"

"और उसके बाद तुम मुम्बई छोड़ देना। वापस चले जाना। वहाँ भी तुम्हारी जरूरत है।"

"यस मैडम। मैं कल सुबह सात बजे आपको 50 लाख देकर, वापस चला जाऊँगा। बाकी का पैसा साथ ले जाऊँ क्या?"

"हाँ! जरूरत होगी तो मैं तुम्हें फोन कर लूँगी।"

"ओ०के० मैडम!"

रूपा ने फोन बंद कर दिया।

■■■

शाम सात बजे अजय वालिया देवली के पास पहुँचा। देवली ने मुस्कुराकर उसका स्वागत किया।

"क्या बात है, आप मुझे भूलने लगे हैं? कहीं शादी तो नहीं कर ली?" देवली ने हँसकर कहा।

"कल कर रहा हूँ।" वालिया ने हँसकर कहा और सोफे पर जा बैठा।

"शादी?" देवली हैरान होती कह उठी।

"हाँ!"

"फिर तो मैं अकेली पड़ जाऊँगी।" देवली का चेहरा सच में उतर गया।

"मैं तुम्हें भटकने के लिए छोड़ नहीं दूँगा। तुम्हारा पूरा इंतजाम कर दूँगा।"

"मेहरबानी तुम्हारी।" देवली ने पास बैठते हुए कहा, "शादी के बाद भी तो मेरे पास आ सकते हो?"

"यह गलत होगा।"

"तुमने रूपा नाम बताया था न उसका?"

"हाँ, रूपा से ही मैं कल शादी कर रहा हूँ।"

"वह किस्मत वाली है जो उसे तुम जैसा इंसान मिला।" देवली ने मुस्कुराकर कहा।

अजय वालिया उसे देखकर मुस्कुराया।

"वह कहीं तुम्हारे पैसे के पीछे तो नहीं। तुम्हें फाँस तो नहीं रही।" देवली बोली।

"ऐसा कुछ नहीं है। वह खुद भी पैसे वाली है। मेरे से ज्यादा दौलत वाली है वह।"

"ओह! मुझे तो नहीं पता था।"

"आज मैं तुम्हारे हाथ का डिनर करने आया हूँ।"

"और मेंरे साथ प्यार नहीं करोगे?" देवली ने गहरी साँस ली।

"क्यों नहीं करूँगा। परन्तु शादी के बाद नहीं होगा यह सब।"

"मेरे पास आया तो करोगे?"

"मैं तुम्हारे पास आऊँ और रूपा को पता चल जाये तो वह खामखाह शक करेगी।"

"तुम ठीक कहते हो।"

"फिर भी कभी-कभार हम मिला करेंगे। तुम मेरे ऑफिस में आ सकती हो। मैं जल्दी ही तुम्हारे लिए बैंक में पैसा जमा करा दूँगा।"

"मुझे शादी में नहीं बुलाओगे?"

"नहीं बुला सकता। तुम मेरी मजबूरी समझती हो।"

"कोई बात नहीं। तुम हाँ कहते, तो मैं तब भी नहीं आती।" देवली मुस्कुराते हुए कहा उठी, "लेकिन मैं तुम्हें हमेशा याद रखूँगी। तुम शरीफ और अच्छे इंसान हो। ऐसे लोग मुझे कम ही मिले हैं।"

"तुम भी अच्छी हो देवली।"

देवली, वालिया को देखती रही फिर कह उठी-

"कभी मुसीबत में रही तो मुझे जरूर याद कर लेना।" वालिया का स्वर शांत था।

"मैं तुम्हारे लिए आज अपने हाथों से खाना बनाती हूँ। लेकिन मैं ज्यादा अच्छा खाना नहीं बना पाती।"

"तुम जो भी बनाओगी, मुझे खाने में अच्छा लगेगा।"

■■■

अजय वालिया और रूपा की शादी मंदिर में सादगी भरे अंदाज में हो गयी। दुल्हन बनी रूपा बहुत खूबसूरत लग रही थी।

शादी के साढ़े समारोह में वालिया के खास-खास बीस के करीब लोग पहुँचे। सब अमीर और लम्बी गाड़ियों वाले थे। उनसे दौलत की महक आ रही थी। उन्होंने उपहारों के बॉक्स उन्हें दिए।

अजय वालिया बहुत खुश था, जैसे जीवन की सारी खुशियाँ उसे मिल गयी हो। रूपा मेहमानों के सामने शर्मायी-शर्मायी सी थी। शादी के बाद अजय वालिया की लम्बी कार, सजावट से भरी करीब आ गयी। उसे हीरा ही चला रहा था। अजय वालिया और रूपा खुशी-खुशी पीछे वाली सीट पर बैठे और रूपा की डोली विदा हो गयी।

■■■

रूपा दुल्हन बनके, अजय वालिया के शानदार बंगले में आ गयी थी। मुरली और अन्य नौकर खुशी में डूबे इधर-उधर दौड़ते नजर आ रहे थे। उन्होंने बंगले को सजाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। आज बंगले में चहल-पहल का माहौल था।

रूपा बेडरूम में दुल्हन के लिबास में मौजूद थी कि तभी वालिया ने भीतर प्रवेश किया।

"आज मैं बहुत खुश हूँ रूपा।" अजय वालिया खुशी से आसमान में उड़ रहा था।

"मैं भी।" रूपा मुस्कुरायी।

"मुझे लगता है जैसे तुम्हें पाकर, पूरी दुनिया को मुट्ठी में कैद कर लिया हो।"

"मुझे तो नहीं लगता।"

"क्या मतलब?"

"पूरी दुनिया भला मुट्ठी में कैसे आ सकती है।" रूपा ने हँस कर कहा।

वालिया हँस पड़ा।

"तुम शरारते भी करने लगी हो अब।"

"तुमसे शरारत नहीं करूँगी तो किससे करूँगी।" रूपा ने उसका हाथ थामा, "अजय, मुझे हमेशा ऐसे ही प्यार करोगे न?"

"नहीं!"

"क्या?"

"इससे भी ज्यादा प्यार करूँगा। इतना ज्यादा कि तुम परेशान हो जाओगी।"

"मैं परेशान नहीं होऊँगी।"

"देखेंगे।"

"कुछ ही देर में हम डिनर करेंगे।"

"ठीक है।" रूपा ने सिर हिलाया।

"रूपा!"

"हूँ!"

"अगर शादी में तुम्हारे पिता भी शामिल होते तो कितना अच्छा रहता।"

"रहने दो अजय। अब पापा का जिक्र भी नहीं करना।"

"इतनी नफरत क्यों?"

"इन बातों को मत करो।"

"ठीक है, नहीं करता। एक बात तो तुम्हें बताना भूल ही गया।" वालिया एकाएक बोला।

"क्या?"

"कल हम हनीमून के लिए स्विट्जरलैंड जा रहे हैं।"

"लेकिन मेरा पासपोर्ट।"

"परसों मैंने तुम्हारी तस्वीरें खिंचवाई थीं। जो पासपोर्ट के लिए ही थी। स्पेशल सर्विस के दम पर 25 घण्टे में तुम्हारी पासपोर्ट तैयार।"

"तुम हर बात कक ध्यान रखते हो।"

"हाँ! अब तो मुझे तुम्हारा ध्यान ही रखना है।" वालिया हँस पड़ा।

"उलटा कह रहे हो। बल्कि मेरा काम बढ़ गया। अब मुझे तुम्हारा ध्यान रखना होगा।" रूपा भी हँसी।

"मैं अभी आया।" कहकर वालिया उठा और कमरे से बाहर निकल आया।

फोन निकालकर जगमोहन को कॉल किया

"हेलो!" जगमोहन की आवाज कानों में पड़ी।

"मैंने शादी कर ली।"

"बधाई हो!"

"देवराज चौहान से मेरी बात नहीं कराओगे?" वालिया ने कहा।

"वह कल ही पाकिस्तान गया है। तीन-चार दिन में लौटेगा।"

"ठीक है। कल मैं स्विट्जरलैंड जा रहा हूँ। सप्ताह भर में वापस आऊँगा।"

"जिंदगी का नया सफर अच्छा रहे। मेरी शुभकामनायें!" उधर से जगमोहन ने कहा।

"शुक्रिया मेरे पार्टनर! मेरे दोस्त...।"

■■■

अगले दिन सुबह दस बजे।

अजय वालिया बाथरूम में नहा रहा था। रूपा ने फोन निकाला और नम्बर मिलाया। दीपक से बात हो गयी।

"आज शाम की फ्लाइट से मैं और अजय वालिया स्विट्जरलैंड जा रहे हैं।" रूपा का स्वर धीमा था।

"ठीक है!"

"तुम तीनों ने शादी का तोहफा देना है वालिया को। तैयारी शुरू कर दो।"

"तैयारियाँ शुरू हो चुकी हैं।"

"वालिया के कितने प्रोजेक्ट हैं?"

"छह! एक होटल, दो...।"

"छह में से एक भी न बचे।" रूपा के स्वर में सख्ती आ गयी, "छह के छह उड़ जाने चाहिए।"

"निश्चिन्त रहो। काम उसी तरह पूरा होगा, जैसा कि तुम चाहती हो।"

रूपा ने फोन बंद कर दिया। चेहरे पर गंभीरता नजर आ रही थी।

■■■

शाम के छह बज रहे थे जब देवली ने जगत पाल को फोन किया।

"हेलो!" जगत पाल की आवाज उसके कानों में पड़ी।

"तुमने परसों से फोन नहीं किया। बताया नहीं कि कौन मुझपर नजर रखवा रहा है।"

"अपन पैर पकड़कर बैठा हूँ।" जगत पाल के बिगड़ा स्वर कानों में पड़ा।

"पैर?"

"हाँ! मेरा पैर कार के पहिये के नीचे आ गया था। सूजा पड़ा है।"

"तो अब तुम बूढ़े होते जा रहे हो। सड़क पर ठीक से नहीं चल सकते।"

"बकवास मत कर। सारी गलती कार वाले की थी।"

"तो अब तुमसे आशा न रखूँ कि इस मामले में तुम कुछ करोगे?" देवली ने कहा।

"अब काफी ठीक है। घर में ही चलना शुरू कर दिया है। कल बाहर निकालूँगा।"

"कल से काम शुरू करोगे?"

"सोचा तो यही है।"

"ठहरा कहाँ है? होटल में या...।"

"तेरे को नहीं बताऊँगा।"

"मत बता।"

"अभी भी तेरे पर नजर रखी जा रही है?"

"कह नहीं सकती। मैंने अक्सर बाहर देखा है, परन्तु किसी को पहचान नहीं पाई।"

"कोई बात नहीं। कल से मैं देखूँगा यह सब। तेरे आशिक का क्या हाल है?"

"तू क्यों पतला हो रहा है मेरे आशिक से।" देवली ने तीखे स्वर में कहा और फोन बंद कर दिया।

उसके बाद देवली ने वालिया को फोन किया। तुरंत ही बात हो गयी।

"मैंने सोचा शादी की बधाई दे दूँ।" देवली ने मुस्कुराकर कहा।

"थैंक्स!"

"बिस्तर पर कैसी लगी रूपा?" 

"मजेदार! तुम जैसी ही।" उधर से वालिया का हँसते हुए स्वर आया।

"अच्छा है।"

"तुम्हें किसी चीज की जरूरत हो तो कहो।"

"तुम्हारा दिया मेरे पास सब कुछ है। मैं तुम्हें खुश देखना चाहती हूँ, जो कि तुम हो।"

"हाँ, बहुत। इस वक़्त मैं एयरपोर्ट पर हूँ और रूपा के साथ स्विट्जरलैंड जा रहा हूँ।"

"यात्रा शुभ हो वालिया।" देवली ने कहा और फोन बंद कर दिया।

■■■

अगले दिन जगत पाल ने अपना पैर इस हद तक ठीक महसूस किया कि वह बाहर जा सके।

"मौसी।" जगत पाल पैर को हिलाता कह उठा, "आज मुझे बाहर जाना है। जरूरी काम है।"

"अभी आराम कर ले। कल चले जाना काम पर।"

"जरूरी काम है। जाना पड़ेगा।"

"ध्यान से चला कर। उम्र हर वक़्त एक जैसी नहीं रहती। कितनी उम्र है तेरी?"

"पचपन।"

"बहुत हो गया। अब तू बुढ़ापे में कदम रख चुका है। लड़का-वड़का नहीं रहा तू।"

जगत पाल ने बूढ़ी को देखा फिर मुस्कुराकर बोला-

"मैं भी यही सोचता हूँ कि मुझे भाग-दौड़ बन्द कर देनी चाहिए। तभी तो इस चक्कर में हूँ कि एक मुश्त बड़ी रकम मिल जाये।"

"मेरा बेटा जेल में भी होकर, तेरे साथ होता तो उसका भी भला हो जाता। दो पैसे वह भी कमा लेता।" वह बोली।

"उसके बाहर आने में पाँच साल बाकी है। तब तक तो तू लुढ़क जाएगी।"

"क्या बात करता है। अभी तो मैं पंद्रह साल और जिऊँगी।"

"मुझे क्या। पच्चीस साल जी ले।"

■■■

उस दिन जगत पाल को कोई काम की बात नहीं पता चली। वह देवली के फ्लैट के बाहर भी नजर रखता रहा, परन्तु वहाँ कोई ऐसा न दिखा कि जिस पर इस बात का शक कर सकें कि वह किसी के इंतजार में या फिर देवली के बाहर निकलने के इंतजार में मौजूद है।

उसके बाद तो उस होटल में भी पहुँचा, जहाँ वह महेश का पीछा करते आया था।

वहाँ भी उसने नजर रखी। होटल के एक-दो लोगों से महेश का हुलिया बताकर जानना चाहा, परन्तु कोई फायदा न हुआ।

जगत पाल काम के दौरान यही सोचता रहा कि उस दिन पाँव कार के पहिये के नीचे न आया होता तो अब तक सब कुछ जान चुका होता।

जगत पाल का वह पूरा दिन बेकार गया।

■■■

उससे अगली सुबह नौ बजे जगत पाल नींद में था कि पास में रखा उसका फोन बजने लगा।

फोन बजता रहा, परन्तु जगत पाल की नींद नहीं टूटी।

बुढ़िया ने पास आकर उसे उठाते हुए कहा-

"कम पिया कर। तेरे को तो फोन की आवाज भी नहीं सुनाई देती।"

जगत पाल कठिनता से उठा। चेहरा बता रहा था कि अभी नींद पूरी नहीं हुई।"

"हेलो!" कॉलिंग स्विच दबाकर उसने फोन कान से लगाया।

"अभी तक सो रहा है।" देवली की आवाज कानों में पड़ी।

"सुबह-सुबह तेरी शहद जैसी मीठी आवाज सुनने को मिल गयी। दिन बढ़िया निकलेगा मेरी जान!"

पास खड़ी बुढ़िया ने बुरा सा मुँह बनाया।

"वह आदमी आज फिर मुझ पर नजर रखने के लिए सोसाइटी के गेट के बाहर मौजूद है।"

"ओह! वही है, उस दिन वाला?"

"हाँ वही! तेरे को जल्दी पहुँचना होगा।"

"जल्दी आने की कोशिश करता हूँ। कब से है वह वहाँ पर?"

"अभी मैंने उसे देखा है खिड़की से। शायद आधा घण्टा पहले या अभी आया होगा।"

"बन्द कर फोन। मैं अभी पहुँचता हूँ।" जगत पाल ने फोन बंद कर दिया और उठ खड़ा हुआ।

"क्या मामला है?" बुढ़िया ने पूछा।

"तेरे को बताने वाली बात नहीं है। तू मस्त रह।"

"सलाह ले लेना अच्छा होता है। राजू भी मेरी सलाह ले लिया करता था।"

"तभी तो वह जेल में पहुँच गया। तू सलाह मत दिया कर। आलू-गोभी बनाने में ध्यान दे। वो तू अच्छा बनाती है।"

■■■

डेढ़ घण्टे बाद जगत पाल मरीन ड्राइव के पास बने सोसाइटी के फ्लैटों के बाहर पहुँचा तो महेश उसे कार में बैठा मिल गया। उस दिन भी वह वहीं पर ही कार लगाए भीतर बैठा था।

जगत पाल ने इस बात की पूरी कोशिश की कि महेश की नजरों में न आये। क्योंकि महेश उसे अवश्य पहचानता होगा। उसे, देवली के यहाँ आते-जाते देखा होगा। जगत पाल ने देवली को फोन किया।

"मैं आ गया हूँ। तुझ पर नजर रखने वाला सामने है।" जगत पाल ने कहा।

"वह तेरे को पहचान लेगा।"

"इतना भी सामने नहीं हूँ कि वह मेरे को देख ले। तेरे को शर्त याद है न मेरी?"

"याद है।"

"मैं तेरे को यह पता लगाकर दूँगा कि तुझ पर नजर रखने वाले कौन हैं और क्यों नजर रख रहे हैं। बदले में तूने मेरे साथ वो काम करना है, जो मैंने तेरे को बताया था। हमेशा की तरह तेरे को तीस प्रतिशत मिलेगा।"

"कर दूँगी तेरा वह काम।" देवली की आवाज कानों में पड़ी, "तेरे को प्रताप को नहीं मारना चाहिए था जगत पाल। हम दोनों प्यार करते थे। शादी भी कर लेना चाहते थे। वो मुझे अच्छा लगता था।"

"कितनी बार कहूँ कि मैंने नहीं मारा।"

"तूने ही मारा है। अब तू कानपुर से मेरे पीछे ही मुम्बई आया है कि मुझे हासिल कर सके।"

"वो रंगीन दिन मैं भूल नहीं पाता देवली, जब तुम मेरी बाहों में होती थी।"

"और मैं प्रताप का साथ नहीं भूल सकती।" देवली ने कहा और उधर से फोन बंद कर दिया।

"साली!" जगत पाल बड़बड़ा उठा, "मेरे में क्या बुराई है। जो प्रताप के पास था, वह सब मेरे पास भी तो है।"

■■■

तब 11.30 बजे थे, जब महेश का फोन बजा।

"हेलो!" महेश ने बात की।

"असलम से सामान का इंतजाम हो गया।" रंजन की आवाज आई, "हमारा आज का दिन बहुत व्यस्त है।"

"काम आज रात ही करना है।" महेश बोला।

"हाँ! असलम ने अपना बन्दा भी हमारे हवाले कर दिया है कि हम जहाँ बारूद उससे लगवा सकें। सब कुछ तैयार है तो फिर देर क्यों की जाए। तू कहाँ है?"

"देवली पर नजर रख रहा हूँ।" 

"तू हमारे पास आ जा। ठिकाने पर पहुँच। हम वहीं पहुँच रहे हैं।" रंजन की आवाज कानों में पड़ी।

"50 लाख दे दिया असलम को?"

"उसे लेने के बाद ही तो हरामी ने बात की। पहले तो वह ठीक से बात ही नहीं कर रहा था।"

"ठीक है, मैं ठिकाने पर पहुँचता हूँ!"

■■■

जगत पाल ने महेश की कार वहाँ से जाती देखी तो फुर्ती से अपनी कार पीछे लगा ली। उसने देवली को फोन किया।

"बोल...।"

"वो अब कार लेकर चल पड़ा है। मैं उसके पीछे हूँ।" जगत पाल ने कहा।

"ठीक से पीछा कर और पता लगा कि वह लोग कौन हैं और मुझपर नजर क्यों रख रहे हैं।"

"उठा लूँ साले को?" 

"ये काम मैं भी कर सकती थी। लेकिन पहले से खामोशी से पता लगा कि यह मुझसे चाहते क्या हैं?"

"यही तो पता लगाने के फेर में हूँ मेरी जान!"

"मेरी जान मत कहा कर मुझे। मुझे ऐसा लगता है जैसे कोई मेरा गला दबा रहा हो।"

जगत पाल हँस पड़ा। उधर से देवली ने फोन बंद कर दिया।

"पट्ठी!" कान से फोन हटा मुस्कुराया जगत पाल, "रास्ते पर आ जायेगी, लेकिन थोड़ा वक्त लेगी। हरामी है साली।"

■■■

जगत पाल ने बेहद सावधानी से महेश का पीछा किया। महेश कुर्ला के घटिया से इलाके में बना फ्लैटों में गया। वहाँ कहीं पर एक कमरे के फ्लैट थे तो कहीं दो कमरों के फ्लैट थे। महेश दो कमरों के फ्लैट पर पहुँचा। ताला लगा था। जेब से चाबी निकालकर वह भीतर प्रवेश कर गया।

कमरे में बैठने के लिए तीन कुर्सियाँ और टेबल था। दूसरे कमरे में फर्श पर ही तीन गद्दे बिछा रखे थे। यह उन तीनों का कमरा था।

यह फ्लैट रूपा के पैसे से काम शुरू करने से पहले खरीदा गया था। ताकि तीनों के लिए कोई एक ठिकाना बन सके। रूपा ने कह रखा था कि काम खत्म होने के बाद, यह फ्लैट बेचकर पैसा वह आपस में बाँट लेंगे। रंजन, महेश और दीपक तीनों ही एक-दूसरे को नाम से जानते थे। इसके अलावा वे एक-दूसरे के बारे में कुछ नहीं जानते थे। इन तीनों को रूपा ने तलाशा था और पैसा देकर अपने काम के लिए तैयार किया था।

परन्तु यह तीनों नहीं जानते थे कि रूपा यह सब क्यों कर रही है। तीनों को मिलने वाले पैसे से मतलब था, जो आधे उन्हें मिल चुके थे और आधे काम के बाद मिलने वाले थे। रूपा ने उन्हें कह रखा था कि वे अपने बारे में एक-दूसरे को कुछ न बताये और काम के बाद इस तरह अलग हो जाये कि दोबारा कभी भी मिल न सके। इत्तेफाक में मिल जाये, सामने पड़ जाए तो एक-दूसरे को पहचाने ही नहीं। इसी में सबका भला है।

पंद्रह मिनट बाद ही रंजन वहाँ आ पहुँचा।

"दीपक और वह आदमी कहाँ हैं?" महेश ने पूछा।

"उन दोनों को मैंने यहाँ से काफी दूर उतार दिया था। असलम के आदमी को यहाँ लाना ठीक नहीं। दीपक उसे वह सारी जगह दिखाने गया है, जहाँ-जहाँ पर उसे बारूद लगाने हैं।"

"बारूद कहाँ है?

"नीचे खड़ी कार में। डिग्गी भरी है। बाकी पैकेटों में पीछे वाली सीट पर रखा है।"

"इस तरह बारूद को लेकर में घूमना ठीक नहीं।" महेश ने गंभीर स्वर में कहा।

"तो क्या करें?"

"यहाँ से चलते हैं। कार को किसी पार्किंग में खड़ा कर देते हैं। दीपक और वह आदमी कब तक फारिग होगा?"

"चार तो बज ही जायेंगे।"

"कार पार्किंग में खड़ी करके, हम कहीं लंच लेंगे। इस तरह वक़्त बीत जाएगा।"

"रूपा की कोई खबर?" 

"नहीं! उसका कोई फोन नहीं आया अभी तक।"

"हमें अपना काम करते रहना चाहिए। वह हमें मुँह माँगे पैसे दे रही है तो हमारा काम भी उसे पसंद आने चाहिए।"

■■■

जगत पाल परेशान हो गया था दोनों पर नजर रखते हुए। उस फ्लैट से निकलकर पाँच-छः किलोमीटर दूर एक पार्किंग में उन्होंने कार को खड़ा कर दिया था और पैदल ही वह वहाँ से आगे बढ़ गए थे। जगत पाल ने भी कार को उसी पार्किंग में खड़ा किया और उनके पीछे लग गया। रंजन का चेहरा भी उसने अपने दिमाग मे बिठा लिया था। वह देखना चाहता था कि यह लोग कौन है और क्या कर रहे हैं।

जगत पाल को केवल एक ही परेशानी थी कि यह लोग उसका चेहरा पहचानते थे कि वो देवली के पास आता-जाता है। इसलिए उनकी नजरों से बचकर रहना चाहता था।

लंच का वक़्त हो चुका था। उन दोनों को उनसे रेस्टोरेंट में जाते देखा। जगत पाल पहचाने जाने के खतरे की वजह से भीतर नहीं जा सकता था। वह बाहर ही एक तरफ खड़ा हो गया। भूख उसे भी लग रही थी। परन्तु खाने की इच्छा को मन में रखे, वहीं खड़ा उनके बाहर निकलने का इंतजार करने लगा।

■■■

रंजन और महेश रेस्टोरेंट के भीतर एक टेबल सम्भाल चुके थे। तुरंत ही पानी सर्व हो गया। वेटर आर्डर लेने के लिए आ गया। महेश आर्डर देने लगा। रंजन ने फोन निकाला और दीपक को नम्बर मिलाए।

"कहाँ पर हो?" बात होते ही रंजन ने पूछा।

"अभी तो इसे दो जगह दिखाई है।" दीपक की आवाज कानों में पड़ी, "कहता है कि काम हो जाएगा। परन्तु पैसा और लगेगा।"

"और क्यों? असलम से तो हमारी बात हो चुकी है।"

"कहता है कि यह खतरनाक और बड़ा काम है। काफी फैली हुई इमारतें हैं। इन्हें बारूद से उड़ाना आसान नहीं।"

"उसे लाइन पर लाओ। असल में रेट तय हो चुका है।" रंजन ने कहा।

"तुम असलम से बात करो।"

"करता हूँ। तुम जब फारिग हो जाओ तो मुझे फोन करना।" कहकर रंजन ने फोन काटा और असलम का नम्बर मिलाया।

"हेलो!" असलम की आवाज रंजन के कानों में पड़ी।

"तुम्हारा आदमी काम करने के पैसे ज्यादा माँगता है।"

"काम ज्यादा होगा तभी।"

"मैंने तुम्हें पहले बता दिया था कि क्या-क्या काम है।"

"बताने और देखने में फर्क होता है। काम ज्यादा होगा तभी तो और पैसों के लिए कह रहा है।" असलम की आवाज कानों में पड़ रही थी, "मेरा आदमी बारूद लगाने और मुँह बन्द रखने वालों में से है। पाँच लाख उसे दे दोगे तो सब ठीक रहेगा।"

"यह जरूरी है?" रंजन ने पूछा।

"तभी तो कह रहा हूँ।"

"ठीक है! लेकिन उसे समझा देना कि काम ठीक से हो।"

"वह नया नहीं है और पहली बार काम नहीं कर रहा। इस बारे में मेरी गारंटी है कि वह ठीक काम करेगा।"

रंजन ने फोन बन्द करके, महेश को पाँच लाख वाली बात बतायी।

"इस वक़्त हमें पाँच लाख बचाने के बारे में नहीं सोचना चाहिए। काम ठीक से हो जाये, इस तरफ ध्यान देना है।"

"पैसा हम अपने पास से देंगे। वह पंद्रह लाख रखा है अभी, जो तुमने वालिया से झाड़ा था। बाद में रूपा से ले लेंगे।"

"रूपा खुला पैसा खर्च रही है। वह चाहती है कि सारा काम बढ़िया ढंग से हो।"

दोनों की नजरें मिलीं।

"हमें रूपा के बारे में कोई बात नहीं करनी।"

तभी महेश का फोन बजा।

"हेलो!" महेश ने बात की।

"मैं!" रूपा की आवाज कानों में पड़ी।

"तुम?" महेश के होंठों से निकला, "कहाँ हो तुम?"

"स्विट्जरलैंड में। इस वक़्त पब्लिक बूथ से बात कर रही हूँ। काम कैसा चल रहा है?"

"सब ठीक है।"

"काम अभी हुआ नहीं।" रूपा की आवाज कानों में पड़ी।

"शायद आज हो जाये। हम इसी काम पर लगे हैं। जिसने काम करना है उसे जगहें दिखा रहे हैं।" महेश ने कहा।

"जल्दी करो! इतनी देर नहीं होनी चाहिए।" कहने के साथ ही उधर से रूपा ने फोन बंद कर दिया था।

तभी वेटर आया और टेबल पर खाने का सामान लगाने लगा।

"रूपा का कहना है कि काम जल्दी किया जाए।"

"जल्दी ही हो रहा है।" रंजन ने सिर हिला कर कहा, "हमें जल्दी की तरफ ध्यान नहीं देना है। बढ़िया ढंग से काम हो जाये, कोई कमी न रहे, इस तरह ध्यान देना है। नतीजा अच्छा होना चाहिए।"

■■■

महेश और रंजन लंच के बाद रेस्टोरेंट से बाहर निकले तो तीन बज रहे थे।

जगत पाल पुनः उनके पीछे लग गया। महेश और रंजन पैदल थे और आगे बढ़े जा रहे थे। वक़्त बीतने के खातिर वे पास के बाजार में जा पहुँचे, जहाँ अक्सर भीड़ रहती थी। वे भी भीड़ का हिस्सा बन गए।

जगत पाल से जाने कहाँ चूक हुई, वह यही नहीं समझ सका। परन्तु उसकी निगाह से वे दोनों गुम हो गए। जगत पाल ने उन्हें ढूँढने की काफी चेष्टा की, परन्तु वे दोबारा नहीं दिखे।

जगत पाल समझ गया कि वे दोबारा नहीं मिलने वाले। परन्तु उसके लिए राहत की बात यह थी कि उनकी कार पार्किंग में खड़ी थी। वे वहाँ अवश्य पहुँचेंगे। इस विचार के साथ ही वह वापस चल पड़ा।

जब वह पार्किंग में पहुँचा तो महेश और रंजन को कार पर पार्किंग से बाहर जाते देखा। वह तेजी से अपनी कार की तरफ दौड़ा। परन्तु महेश-रंजन की कार वहाँ से जा चुकी थी। वह उन्हें ढूँढ नहीं पाया।

जगत पाल को खुद पर बहुत गुस्सा आया। आखिरकार उसने देवली को फोन किया।

"क्या हुआ?" उधर से देवली ने पूछा।

"वे मेरी नजरों से ओझल हो गए। वे दो थे।"

"अब तेरे को मान लेना चाहिए कि तू बूढ़ा हो गया है।" देवली का कड़वा स्वर उसके कानों में पड़ा।

"बकवास मत कर।"

"अगर तू चाहता है कि मैं तेरे साथ, तेरा कहा काम करूँ तो उन्हें ढूँढ और पता लगा कि वह मेरे पे क्यों नजर रख रहे हैं। यह काम नहीं कर सका तो मेरे को फोन मत करना।" यह कहकर देवली ने फोन बंद कर दिया।

"उल्लू की पट्ठी!" जगत पाल कलप कर बोला, "कमीनी के भाव सातवें आसमान पर पहुँच गए हैं।"

■■■

रूपा ने कमरे की खिड़की खोली तो ठंडी हवा का झोंका बदन से टकरा कर, कमरे में आ गया। सामने बर्फ से चमकती पहाड़ियाँ नजर आ रही थीं। लोग दूर पहाड़ों के पास घूमते नजर आ रहे थे। आज धूप निकली थी। मौसम खुल गया था। वरना दो दिन से स्विट्जरलैंड में बर्फ ही गिरती रही थी। वे होटल में ही बन्द रहे थे। अधिक सर्दी की वजह से रूपा का चेहरा और नाक लाल सा हुआ पड़ा था। दूर चमकती धूप को देखकर तो कमरे में सर्दी का अहसास ज्यादा ही लग रहा था।

तभी पीछे से अजय वालिया ने आकर रूपा को बाँहों में कैद कर लिया।

"छोड़ो भी।"

"क्या देख रही हो?"

"स्विट्जरलैंड की वादियों को। इन्हें अपनी आँखों में कैद कर रही हूँ कि जब भी आँखें बंद करूँ, तो सब मुझे दिखाई देने लगे।"

"इतना अच्छा लगा स्विट्जरलैंड?"

"बहुत अच्छा!"

वालिया उसके गले पर चूमते हुए बोला-

"मुझे भी घूमना बहुत अच्छा लगता है।"

रूपा के चेहरे के भाव उसी पल बदले, जिन्हें पीछे होने की वजह से वालिया नहीं देख सका।

"अच्छा!" रूपा का स्वर सामान्य था, "कहाँ-कहाँ घूमे?"

"बहुत जगह।"

"अकेले या किसी के साथ?" रूपा के स्वर में जानबूझकर शरारत भर ली।

"कम से कम किसी लड़की के साथ नहीं।"

"शुक्र है! वैसे पहली बार कहाँ घूमने गए थे?"

"याद नहीं। याद करना भी नहीं चाहता। मैं सिर्फ तुम्हारे और तुम्हारे बारे में ही सोचना चाहता हूँ।"

"बहुत शरारती हो।"

"तुम से कम।"

"चलो बाहर चलते हैं। आज मौसम अच्छा है। धूप निकल आयी है।"

"धूप की वजह से तो बर्फ पिघलेगी, उससे हर तरफ कीचड़ जैसा हो जाएगा।"

"चलो भी। वहाँ बर्फ पर चलते हैं। उधर वह देखो। लोग बर्फ में खेल रहे हैं।" रूपा ने कहा।

"तुम चलना चाहती हो तो मैं क्यों इनकार करूँ।" वालिया ने उसे खिड़की से हटाया और पल्ले बन्द करता कह उठा, "लेकिन जाने से पहले एक जरूरी काम कर लें।"

"नहीं।" रूपा उसकी बाँह से खुद को छुड़ाकर कमरे से भागी।

परन्तु वालिया ने उसे फौरन ही पकड़ लिया।

■■■

रूपा और अजय वालिया, दोनों के कपड़े बर्फ से भरे लग रहे थे। रूपा के सिर पर पड़ी कैप में भी बर्फ फँसी हुई थी। दोनों एक-दूसरे पर बर्फ के गोले फेंक रहे थे। वहाँ और भी लोग थे। वे भी इसी तरह खेल रहे थे।

बहुत अच्छा लग रहा था। दोपहर हो गयी उन्हें इस तरह समय बिताते। अजय वालिया ने अपने कपड़ों से बर्फ झाड़ी और रूपा के पास आकर बोला-

"तुम्हें खुश देखकर मुझे बहुत खुशी मिल रही है।"

"अभी और खेलो न।"

"थक गया। भूख भी लगने लगी है। लंच का वक़्त हो गया है।" वालिया ने कहा।

"मुझे भूख नहीं लगी। मैं तो बर्फ पर और खेलूँगी।"

"मैं नहीं।"

"मैं उन बच्चों के पास जाकर खेलती हूँ।" रूपा ने कहा और कुछ दूर खेलते बच्चों की तरफ बढ़ गयी।

वालिया मुस्कुराता हुआ रूपा को देखने लगा। रूपा बच्चों में जाकर, बर्फ के गोले फेंकने का खेल, खेलने लगी थी।

वालिया भी मौसम का खूब आनंद ले रहा था। सब कुछ उसे बहुत अच्छा लग रहा था। रूपा पास थी तो सब कुछ था उसके पास। यही सोच रहा था वालिया। उसकी खाली जिंदगी को रूपा ने भर दिया था। वह मुस्कुराती तो खूबसूरती की मिसाल लगती। हँसती तो उसके चेहरे से फूल झड़ते। दुनिया की हर खूबसूरती रूपा में नजर आ रही थी वालिया को।

तनाव से मुक्त ऐसा वक़्त वालिया की जिंदगी में पहली बार आया था। वालिया बर्फ पर टहलता रहा। उधर रूपा बच्चों के साथ खेलती रही।

घण्टे भर बाद रूपा हाँफते हुए उसके पास पहुँची। चेहरा लाल हो रहा था।

"तक गयी।" वो वालिया से कह उठी।

इस वक़्त रूपा वालिया को और भी खूबसूरत लग रही थी।

वालिया ने रूपा के चेहरे पर झूल आयी बालों की मोटी लट को पीछे करते हुए कहा-

"होटल चलें!"

"मुझे भूख भी लग रही है।" रूपा की आँखें अब संयत हो चुकी थीं।

"लंच के बाद कमरे में आराम...।"

"नहीं!" रूपा ने आँखें तरेर कर कहा, "कोई आराम नहीं। बहुत हो गया आराम। अब मैं घूमना चाहती हूँ।"

"शाम को...।"

"नहीं! हम लंच करके बाहर आ जायेंगे। बल्कि आज किसी दूसरी जगह लंच लेते...।"

रूपा की बात अधूरी रह गयी। वालिया का फोन बजने लगा।

वालिया ने स्क्रीन पर नजर मारी, जहाँ नम्बर की अपेक्षा स्टार जैसा निशान चमक रहा था।

"हेलो!" वालिया ने बात की।

"मैं मोहन दास बोल रहा हूँ।"

"कहो! क्या काम पड़ गया?" वालिया ने पूछा।

रूपा की शांत निगाह वालिया पर थी।

"गजब हो गया मालिक। सब कुछ तबाह हो गया।"

"क्या कहना चाहते हो?"

"किसी ने आपकी बन रही छः की छः इमारतों को बम लगाकर तबाह कर दिया। बीती रात यही सब होता रग। हर एक घण्टे के बाद आपकी इमारत उड़ा दी जाती। सुबह तक छः के छः प्रोजेक्टों को तबाह कर दिया गया। आप... आप बर्बाद हो गये मालिक। कुछ भी नहीं बचा। मैं रात से भागा फिर रहा हूँ।"

रूपा की निगाह वालिया के चेहरे के बदलते भावों पर थी। वालिया मोहन दास की बात सुनकर सन्न रह गया था।

मुँह से कोई बोल न फूटा।

"मालिक!" मोहन दास की आवाज पुनः कानों में पड़ी।

वालिया को अपनी टाँगे काँपती सी लगीं।

"म... मैं आ रहा हूँ वापस।" वालिया को अपनी ही आवाज जैसे अजनबी सी लगी। फोन वाला हाथ नीचे हो गया।

"क्या हुआ?" पास खड़ी रूपा ने सहज भाव से पूछा।

"म... मैनेजर का फोन था।" वालिया सूखे होंठों पर जीभ फेरकर बोला, "वो... वो कहता है मैं बर्बाद हो गया।"

"क्या?" रूपा चौंकी, "यह आप क्या कह रहे हैं?"

"मोहन दास कहता है कि बीती रात में किसी ने मेरे सारे प्रोजेक्टों को बम से उड़ा दिया। छः के छः।"

"यह नहीं हो सकता है।" रूपा के होंठों से चीख निकल गयी।

"हमें वापस इंडिया जाना होगा अभी।" वालिया की आवाज में कम्पन स्पष्ट झलक रहा था।

"हाँ, हाँ चलिए! लेकिन यह सब किया किसने?" रूपा ने अपने चेहरे पर परेशानी ओढ़ ली थी।

"मैं नहीं जानता। लेकिन मैं तबाह हो गया। मेरा सब कुछ लूट गया।"

"हौसला रखिये। मैं आपके साथ हूँ।" कहते हुए रूपा ने वालिया का हाथ थाम लिया।

■■■

मैनेजर मोहन दास बंगले पर ही मौजूद था, जब अजय वालिया और रूपा वहाँ पहुँचे।

मोहन दस बराबर फोन पर वालिया से सम्पर्क में था। मुरली और अन्य नौकर भी परेशान घूम रहे थे।

"मोहन दास यह सब कैसे हुआ?" वालिया ने भीतर पहुँचकर, बर्बाद हो चुके स्वर में पूछा।

रूपा भी साथ थी।

"समझने की कोशिश करता मैं तो पागल हो गया हूँ। लेकिन यह आपके किसी ऐसे दुश्मन ने किया है, जो आपको बर्बाद हुआ देखना चाहता है। पहला धमाका साढ़े आठ बजे हुआ, और बरसोवा वाली खड़ी इमारत एकदम ढह गई। उसके बाद एक-ढेड़ घण्टे बाद बाकी इमारतों में धमाके होते चले गए। आखिरी सबसे बड़ा धमाका, होटल प्रोजेक्ट पर हुआ। वहाँ काफी मात्रा में बारूद लगाया गया था, क्योंकि वह काफी बड़ी इमारत थी। सब कुछ बर्बाद हो गया आपका।"

वालिया के होंठ भिंच गए। रूपा ने कसकर वालिया का हाथ थाम लिया।

वालिया ने रूपा को देखा।

"घबराना नहीं। मैं तुम्हारे साथ हूँ।" रूपा ने तसल्ली भरे स्वर में कहा।

"मेरे पास अब कुछ भी नहीं बचा।" वालिया का चेहरा फफक पड़ा हुआ था।

"सब ठीक हो जाएगा। हिम्मत से काम लो।"

"हिम्मत भी नहीं बची मुझमें।"

"ऐसा न कहो। अभी तो तुमने बहुत कुछ करना है अजय।"

वालिया ने मुँह घुमा लिया। मोहन दास बोला-

"पुलिस आयी थी। वह आपसे पूछताछ करना चाहती है।"

"बुला लो।" वालिया ने मुरली से कहा, "एक पैग बनाकर लाओ।"

"दिन में मत पियो अजय।" रूपा ने टोका, "अभी तुमने कई लोगों से बात करनी है।"

"अब मेरे लिए दिन और रात में कोई फर्क नहीं रहा।" वालिया ने थके स्वर में कहा।

मुरली चला गया। मोहन दास पुलिस का नम्बर मिलाने लगा।

"आखिर यह सब कौन कर सकता है अजय?"

वालिया ने जवाब में कुछ नहीं कहा और उठकर टहलने लगा। उसके चेहरे पर ऐसे भाव थे जैसे किसी ने सारा खून निचोड़ लिया हो। उसमें जान ही न बची हो। एकाएक वह ठिठक कर बोला-

"मेरा ऐसा कोई दुश्मन नहीं, जो इस हद तक मुझे बर्बाद कर देना चाहते हो।"

"लेकिन किसी ने तो यह सब किया है।" रूपा अपने शब्दों पर जोर देकर कह उठी।

"हाँ! कोई तो है।" वालिया ने दाँत पीसकर कहा और फोन निकालकर नम्बर मिलाने लगा।

मोहन दास अपना फोन बंद करते हुए बोला-

"कुछ देर में पुलिस यहाँ आ जायेगी।"

"ऑफिस की क्या पोजीशन है?" वालिया ने मोहन दास से पूछा। उसने फोन कान से लगा लिया था।

"आज मैंने ऑफिस नहीं खोला। खोलना भी क्या। कुछ भी करने को बाकी नहीं बचा।"

वालिया ने दाँत किटकिटाए। दूसरी तरफ बेल जा रही थी फिर जगमोहन की आवाज कानों में पड़ी।

"यह सब क्या हो गया वालिया?"

"मैं खुद नहीं समझ पा रहा हूँ।" वालिया के होंठों से थका सा स्वर निकला।

"हमें मिलकर बात करनी चाहिए।" उधर से जगमोहन ने कहा।

"कहाँ आऊँ?"

"कुछ देर बाद तुम्हें फोन पर बताता हूँ।"

वालिया ने फोन बन्द करके जेब में रखा तो रूपा ने पूछा-

"कौन था ये? किससे बात की तुमने?"

"अपने पार्टनर से।"

"पार्टनर?" रूपा ने अजीब से स्वर में कहा, "तुम्हारा कोई पार्टनर भी है?"

"हाँ! साठ प्रतिशत पैसा तो उसका लगा था।" वालिया बेहद परेशान था।

"तुमने कभी पार्टनर का जिक्र नहीं किया।"

"वह स्लीपिंग पार्टनर था, जो कि पैसा लगाता है, काम की देखरेख नहीं करता।"

रूपा ने गहरी साँस ली और व्याकुल स्वर में बोली-

"अब क्या होगा अजय?"

"अब होने को बचा ही क्या है? जो होना था, वह तो हो चुका।"

■■■

रात 8.30 बजे अजय वालिया एक रेस्टोरेंट में पहुँचा। वहाँ देवराज चौहान और जगमोहन उसके इंतजार में पहले से ही मौजूद थे।

वालिया उनके पास पड़ी खाली कुर्सी पर जा बैठा। देवराज चौहान ने वेटर को बुलाकर तीन कॉफी लाने को कहा। वालिया ने फीकी निगाहों से उन दोनों को देखा।

देवराज चौहान और जगमोहन गंभीर थे।

"यह सब कैसे हुआ वालिया?" देवराज चौहान ने पूछा।

"मैं नहीं जानता।" वालिया ने सूखे होंठ पर जीभ फेरी।

"तुम्हारा कौन सा दुश्मन इस हद तक जा सकता है?"

"धंधे में दुश्मन तो कई हैं, परन्तु इस हद तक कदम कौन उठा सकता है, मैं नहीं जानता। मैं... मैं बर्बाद हो गया देवराज।"

"यह हम सब के लिए ही बुरा हुआ।" देवराज चौहान शांत नजर आ रहा था।

"हमारा 465-70 करोड़ रुपया इन इमारतों में लगा था।" जगमोहन ने कहा।

"300 करोड़ से ज्यादा मेरा लगा था। वही मेरी जमा-पूँजी थी। अब मैं कंगाल हो गया।"

"हमारा पैसा कैसे वापस होगा?"

"वापस?" वालिया ने उसे देखा।

"वापस नहीं दोगे। क्यों? तुम्हारे पास तो शानदार बंगला भी है।"

"वह दीपचंद के पास गिरवी पड़ा है। मेरा अपना अब कुछ नहीं हैं।"

जगमोहन कुछ कहने लगा कि देवराज चौहान ने टोका-

"ये पूरी तरह बर्बाद हो चुका है। लेकिन हम बर्बाद नहीं हुए। हमारी जितनी रकम डूबी है, वह हमारे लिए मामूली है।"

"तुम्हारा मतलब कि हम अपना पैसा भूल जाये।" जगमोहन ने उखड़े स्वर में कहा।

"यही करना होगा।"

"लेकिन जो इमारत तबाह हुई है, उनकी जमीनें अभी भी करोड़ों रुपयों की है। क्यों वालिया?"

"हाँ! लेकिन जमीनों के बारे में मैंने अभी हिसाब नहीं लगाया।" वालिया ने बेचैन स्वर में कहा।

"यह हिसाब हम फिर लगा लेंगे।" देवराज चौहान ने जगमोहन से कहा, "अभी ये अपने होशो-हवास में नहीं है। जो झटका इसे लगा है, उसमें से इसे बाहर आ लेने दो। एक-दो महीने के लिए इसे खुला छोड़ दो।"

जगमोहन ने फिर कुछ नहीं कहा।

वेटर तीन कॉफी के प्याले टेबल पर रख गया। इतने में देवराज चौहान वालिया से बोला-

"हमने तुम्हें यहाँ इसलिए बुलाया है कि अगर तुम्हें किसी पर शक हो कि यह काम उसने किया है तो हमें बता दो। उसे हम देख लेंगे।"

"मुझे किसी पर भी शक नहीं। अभी तक मुझे कोई ऐसा नहीं दिखा कि उस पर यह सब करने का भी शक कर सकूँ। पुलिस भी मुझसे मिली। वह भी यही जानना चाहती थी कि यह सब किसने किया। परन्तु मैं इस बारे में कुछ नहीं जानता।"

"ठीक है! अभी तुम आराम करो। बेहतर होगा कि नुकसान को दिल से मत लगाओ। उन छः प्रोजेक्टों की जमीनों की जो भी कीमत होगी, उसे हम आधा-आधा बाँट लेंगे।" देवराज चौहान ने कहा।

"आधा-आधा।" जगमोहन फौरन बोला, "लेकिन हमारा आधे से ज्यादा पैसा लगा है। हमारा हिस्सा ज्यादा बनता है।"

देवराज चौहान ने जगमोहन को देखा तो, जगमोहन ने हड़बड़ाकर मुँह फेर लिया।

"मैं बर्बाद हो गया देवराज चौहान।"

"जानता हूँ। लेकिन इसमें मैं कुछ खास नहीं के सकता। अगर तुम दोबारा से अपना काम खड़ा करना चाहते हो तो हम सोच सकते हैं। कुछ पैसा लगाया जा सकता है। छः जमीनों में से चार को बेचकर, उनसे मिला पैसा बाकी दो पर लगा सकते हो। कुछ और जरूरत होगी तो उसके बारे में जगमोहन से बात कर सकते हो। यह जो नुकसान हुआ है, वो तो हमें भूलना ही होगा।"

■■■

उसके बाद अजय वालिया ने मोहन दास को साथ लिया और रात भर के सारे प्रोजेक्टों की तबाही देखी। सिवाय मलबे के कुछ भी नहीं बचा था। उस मलबे को देखकर वालिया का खून सूख जा रहा था। कितनी मेहनत से सब कुछ उसने खड़ा किया था, परंतु आज सब कुछ किसी ने तबाह कर दिया था।

वह कंगाल हो गया था।

■■■

"तुम तीनों ने बहुत बढ़िया काम किया।" रूपा फोन पट बहुत धीमे स्वर में कह रही थी, "जैसा मैं चाहती थी, वैसा ही हुआ। मैं खुश हूँ तुम तीनों से कि मैंने इस काम के लिए सही लोगों का चुनाव किया।"

"पाँच लाख और असलम को दिए।"

"कोई बात नहीं। मैं तुम लोगों को पाँच लाख के साथ इनाम भी दूँगी। अब आगे का काम याद है?"

"याद है। लेकिन हालात के बारे में तुम ही बताओगी हमें।"

रूपा के चेहरे पर सोच के भाव उभरे। फिर बोली- 

"तुम तीनों में से एक दिल्ली चला जाये और जगन्नाथ सेठी पर नजर रखना शुरू कर दे।"

"ठीक है।"

"बाकी जो इधर होगा, वो खबर मैं दूँगी।"

"क्या वही होगा जो तुमने सोचा है?"

"होना तो वही चाहिए। देखते हैं।"

"तुम ठीक हो वहाँ?"

"मेरी फिक्र मत करो। मैं तो मजे में हूँ।"

"वालिया का बुरा हाल होगा।"

"बहुत बुरा। यह तो शुरुआत है। अभी तो बहुत कुछ होना बाकी है।" रूपा का स्वर बेहद शांत था।

"तुम बताओगी नहीं कि यह सब तुम क्यों कर रही?"

"रंजन!" रूपा की आवाज में सख्ती आ गयी, "इस बारे में पहले ही बात हो चुकी है कि यह सब मुझसे नहीं पूछोगे।"

"ठीक है।"

"तुम लोगों को जो पैसा दे रही हूँ, उसमें हर चीज की कीमत मौजूद है। मुँह बन्द रखने की भी और काम बढ़िया ढंग से पूरा करने की भी।"

■■■

रूपा की अजय वालिया से मुलाकात अगले दिन सुबह हुई। वालिया सुबह तीन-चार बजे उठा था। तब रूपा नींद में थी।

आठ बजे वालिया की नींद खुल गयी थी। परेशानी में वह नींद भी ठीक से नहीं ले पा रहा था। उसकी आँखें सूजी हुई थीं। चेहरा उतरा हुआ था। रूपा तब जागी हुई थी। वो उसके उठते ही पास आ गयी।

"रात तुम कब आये?" रूपा कह उठी, "मैं तुम्हारे इंतजार में सो गई। मुझे पता भी नहीं चला कि तुम कब आये।"

वालिया कुछ न बोला।

"बात करो अजय।" रूपा ने उसका हाथ थाम लिया।

"क्या बात करूँ?" वालिया की आँखों में आँसू आ गए, "मेरा सब कुछ बर्बाद हो गया।"

"सब ठीक हो जाएगा। तुम्हें हिम्मत रखनी चाहिए।"

"मैं जानता हूँ, अब कुछ ठीक नहीं होगा। एक पैसा भी नहीं बचा मेरे पास।"

"शायद मेरे पाँव ही ठीक नहीं रहे तुम्हारे लिए। मेरे आते ही...।"

"ऐसा न कहो रूपा! तुम ही सहारा हो मेरा। वरना मैं तो पागल हो गया होता।"

"आखिर किसने किया यह सब?"

"मुझे तो कुछ भी समझ नहीं आ रहा।"

"यह कैसे संभव है कि तुम्हें किसी पर शक भी न हो।" रूपा ने अपनेपन से कहा।

"सच में, मुझे किसी पर शक नहीं। दुश्मन बहुत है, परन्तु कोई इतना बड़ा काम करने की हिम्मत नहीं रख सकता। पुलिस भी पूरी कोशिश कर रही थी कि मैं किसी पर शक करूँ, लेकिन कोई ऐसा है नहीं, जिसकी तरफ मैं उँगली उठा दूँ।"

तभी मुरली दरवाजा खटखटाने के पश्चात भीतर आया।

"मालिक, पुलिस वाले आये हैं।"

"अब वह क्या जानना चाहते हैं? कल बात तो हो गयी थी।" वालिया गुस्से से बोला।

मुरली खामोश रहा।

"प्लीज अजय! अपने पर काबू रखो। मुरली को क्यों डाँटते हो।"

वालिया ने गहरी साँस ली और उठते हुए बोला-

"आता हूँ।"

मुरली चला गया।

उसी पल वालिया का फोन बजने लगा। वालिया ने बात की। दूसरी तरफ देवली थी।

"अजय, मैंने अखबार में पढ़ा। सब कुछ तुम्हारे बारे में ही लिखा है। यह सब कैसे हुआ? किसने किया यह सब?"

"मैं नहीं जानता। लेकिन मैं पूरी तरह बर्बाद हो गया। मेरे पास कुछ नहीं बचा।"

"मुझे इस बात का दुख है। मेरे पास जो फ्लैट है वह तुम ले सकते हो। इसे बेच दो।"

वालिया ने रूपा पर नजर मार कर कहा-

"उससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ेगा।"

"मैं तुम्हारे कोई काम आ सकूँ तो मुझे खुशी होगी।"

"तुम मेरे किसी काम नहीं आ सकती।"

"ओह! मैं समझ नहीं पा रही हूँ कि तुम्हारा दुख कैसे बाँटू। मैं कुछ भी नहीं कर सकती।"

"तुम्हारे इन शब्दों का शुक्रिया। इस समय मैं व्यस्त हूँ। तुमसे फिर बात करूँगा।"

"ओ०के०!"

वालिया ने फोन बंद कर दिया तो रूपा बोली-

"कौन थी?"

"मेरी पहचान वाली।" वालिया ने कहा और फोन थामे बाहर निकलता चला गया।

■■■

जगत पाल उस फ्लैट के बाहर, कुछ दूर अपनी कार में मौजूद था, जिस फ्लैट में दीपक, रंजन और महेश मौजूद थे। दिन के ग्यारह बज रहे थे। वह मन ही मन सोच रहा था कि यह अच्छा रहा कि उसने इनका ठिकाना ढूँढ लिया। परन्तु यह भी सोच रहा था इस तरह नजर रखने से बात नहीं बनेगी। मामला जानने के लिए कुछ और करना होगा। जगत पाल को यह तो महसूस हो गया था कि यह लोग किसी गहरे फेर में हैं।

देवली पर नजर क्यों रख रहे हैं, यह बात जगत पाल समझ नहीं पा रहा था।

दीपक को भी जगत पाल ने देख लिया था। यानी कि अब जगत पाल तीनों को बखूबी पहचानता था।

कार में बैठा, नजर रखता, बोर होते-होते जगत पाल ने देवली का फोन नम्बर मिलाया।

"कैसी हो मेरी जान?" जगत पाल उसकी आवाज सुनते ही मुस्कुराकर कह उठा।

"खामखाह मुझे फोन मत किया करो।"

"तुम्हारा काम कर रहा हूँ।"

"मेरा काम? लेकिन उस दिन तो वे तुम्हारी नजरों से ओझल हो गये थे। अब काम में बचा ही क्या?"

"उनका ठिकाना।"

"ठिकाना?" देवली की आवाज कानों में पड़ी।

"हाँ! उनका ठिकाना तो मैंने उस दिन ही देख लिया था। वे तीन हैं।"

"तीन?"

हाँ! इधर-उधर से उनके बारे में पता किया तो खास जानकारी नहीं मिली। इतना ही पता लगा कि दो महीने पहले उन तीनों ने यह फ्लैट खरीदा है और आस-पास वालों से बात नहीं करते। अपने में ही व्यस्त रहते हैं। इनके पास कोई आता भी नहीं।"

"और?"

"बस इतना ही पता लगा था।"

"और ज्यादा पता लगा।"

"उसी चक्कर में तो हूँ। तेरी खातिर कितना मेहनत कर रहा हूँ मैं।"

"जगत पाल!"

"बोल!"

"यह पता कर कि इन तीनों का अजय वालिया से कोई सम्बन्ध तो नहीं।" उधर से देवली ने कहा।

"वह तेरा आशिक है। इनका उससे क्या मतलब?"

"परसों रात वालिया की जितनी बिल्डिंग बन रही थीं, वह सब किसी ने उड़ा दी है बम लगाकर।"

"क्या?" जगत पाल के माथे पर बल पड़े, "मैंने सुना था कि परसों रात मुम्बई में कुछ धमाके हुए थे।"

"वो वही थे।"

"तुम्हारा मतलब वह धमाके इन तीनों ने किए हो सकते हैं?"

"पता नहीं। लेकिन मुझ पर नजर रखने वाले और मेरे पास आने वाले, यानी कि तुम्हारे बारे में खोजबीन करना, दाल में कुछ तो काला है ही। क्योंकि मैंने साल भर से कुछ भी ऐसा नहीं किया कि कोई मेरे ऊपर नजर रखे। यह सारा मामला वालिया का हो सकता है और वालिया मेरे पास आता-जाता है।"

"समझा। वैसे वालिया की बरबादी से तो तेरे को तगड़ा नुकसान हो गया। नोट मिलने बन्द हो गए होंगे।"

"वालिया शरीफ और अच्छा इंसान है। मैंने उसमें कोई बुराई नहीं देखी। शादी के बाद वह मेरे पास आना बंद कर देगा, यह बात उसने पहले ही कह दी थी। वह अपनी पत्नी का बनकर रहना चाहता है। परन्तु उसने यह भी कहा था कि वह मेरे को इतने पैसे दे देगा कि मेरी जिंदगी आराम से कट सके।" देवली की गंभीर आवाज कानों में पड़ी।

"फिर तो वास्तव में शरीफ है।"

"मुझे अच्छा नहीं लगा कि कोई उसकी इमारतें तबाह करके उसे बर्बाद कर दे।"

"पर वो तो हो गया।"

"पता लगा कि इस मामले में ये तीनों तो नहीं।"

"उन पर नजर रखकर यह बात नहीं जानी जा सकती।"

"क्या मतलब?"

"किसी की गर्दन पकड़नी होगी।"

"ऐसा मत कर। मैंने तेरे को पहले ही मना किया।"

"इसमें हर्ज ही क्या है?"

"वह लोग सतर्क हो जायेंगे कि कोई उन पर नजर रख रहा है। जो भी मालूम करना, खामोशी से करना।"

"इसमें काफी वक्त लग जायेगा।"

"लगने दो।"

"तेरे को इसमें क्या दिलचस्पी?"

"जिसने वालिया को बर्बाद किया है, उसके बारे में जानना चाहती हूँ।" देवली की आवाज में कठोरता आ गयी थी।

"क्यों फालतू के लफड़े में पड़ती है?"

"मैं वालिया से प्यार करने लगी हूँ। वह मुझे अच्छा लगता है।"

"तो रखैल, महारानी बनने के सपने देख रही है।" जगत पाल का स्वर कड़वा हो गया।

"महारानी बनाने को अब वालिया के पास कुछ नहीं बचा। लेकिन मैं उसे पसंद करती हूँ।"

"जानती है, मैं तेरा काम इसलिए कर रहा हूँ कि तू मेरे साथ वह काम करे, जो हमें पाँच-छः करोड़ दे देगा।"

"तू मेरा काम कर, मैं तेरा करूँगी।"

"सयानी हो गयी है तू। लेकिन मैं भी मजबूर हूँ तेरे हाथों। तुझे वापस लाइन पर जो लाना है।"

■■■

"रंजन!" दीपक ने कहा, "तू दिल्ली को अच्छी तरह जानता है। तूने ही एक बार यह बात कही थी। इसलिए ठीक यही होगा कि तू ही दिल्ली जाए और जगन्नाथ सेठी पर नजर रखे।"

"किसी को तो जाना ही है।" रंजन बोला, "मैं ही चला जाता हूँ।"

"पता है जगन्नाथ सेठी का?"

"हाँ! रूपा बता चुकी है।"

"लेकिन।" सोचों में डूबा महेश बोला, "यह जरूरी तो नहीं कि रूपा जैसा सोचे, वैसा ही हो जाये।"

"रूपा बेवकूफ तो है नहीं। वह कुछ सोचकर अपनी चालें चल रही है।" दीपक ने महेश को देखा, "मेरे ख्याल में रूपा वहाँ पर ऐसे हालात खड़े कर देगी कि वालिया वही करे, जो रूपा ने सोचा है।"

"अगर ऐसा न हुआ तो?"

"तो रूपा जाने।" रंजन गंभीर स्वर में बोला, "हमारा काम है, रूपा जो कहे उसे पूरा करना।"

"तू आज ही दिल्ली निकल जा।" दीपक ने कहा, "पता कर ले, दिल्ली के लिए प्लेन कब जाता है।"

"तुम दोनों यहाँ क्या करोगे?"

"रूपा के अगले आदेश का इंतजार।" महेश बोला, "अब रूपा के प्लान का दूसरा हिस्सा शुरू हो रहा है।"

"हम सुरक्षित हैं। किसी को हम पर कोई शक नहीं हुआ कि इमारतें हम लोगों ने उड़ाई है।"

"सब ठीक है। अब ये बात हमें अपने होंठों पर लानी भी नहीं है। आगे जो करना है, सिर्फ उस बारे में सोचना है।"

■■■