एक मार्च । पगार दिन ।
रत्नाकर स्टील मिल के भीतर फाटक की बगल में ही सिक्योरिटी ऑफिस था जिसके एक भीतरी कमरे में राजेन्द्र कुलश्रेष्ठ बैठा था ।
उसके चेहरे पर चिन्ता और उत्कंठा के भाव थे और वह बार-बार बड़ी बेचैनी से अपनी कुर्सी पर पहलू बदल रहा था ।
पिछली शाम को उसने उस राइफल का फायरिंग पिन रेती से घिस दिया था जिसे आज वह अवधबिहारी को सौंपने वाला था । लेकिन वह अपनी उस हरकत से खुश नहीं था । वह हालात से खुश नहीं था । वह अपनी अन्तरात्मा पर गुनाह का बोझ महसूस कर रहा था । वैसे तो वह डकैती की कामयाबी के बाद द्वारकानाथ से हासिल होने वाले बीस हजार रुपयों का रोब अपनी बीवी पर भी डाल चुका था और अपनी बीवी के साथ उन्हें खर्च करने का प्रोग्राम भी बना चुका था, लेकिन फिर भी वह चाहता था कि किसी प्रकार वह बखेड़ा टल जाता ।
अभी कल तो उसने अपने में हिम्मत जुटाकर द्वारकानाथ के सामने अपने-आपको बीस हजार से ज्यादा बड़ी रकम का हकदार साबित करने की कोशिश की थी लेकिन आज वह इतना भयभीत था कि अगर वक्त का पहिया किसी तरीके से वापस घूम पाता तो द्वारकानाथ से सौदा करके उससे इकत्तीस हजार रुपये हासिल करने के स्थान पर वह अपनी बीवी के जेवरों का गम खाना कबूल कर लेता, चाहे इसके लिए उसे बीवी और ससुराल वालों की कितनी ही लानत-मलानत क्यों न बर्दाश्त करनी पड़ती ।
लेकिन अब वह फंसा हुआ था और अपने-आपको हालात के हवाले किए रहने के अलावा उसके पास कोई चारा नहीं था
तभी योगेश ने भीतर कदम रखा ।
योगेश बख्तरबन्द गाड़ी का ड्राइवर था । वह नौजवान आदमी था और कम्पनी की खाकी वर्दी उस पर खूब फबती थी । बख्तरबन्द गाड़ी हालांकि एकदम सुरक्षित समझी जाती थी, लेकिन फिर भी उसको हैंडल करना जान जोखिम का काम समझा जाता था जिसकी वजह से उसे, और गाड़ी के गार्ड को भी, एक काफी मोटा अतिरिक्त भत्ता मिलता था ।
“नमस्ते, साहब ।” - योगेश प्रसन्न स्वर में बोला ।
कुलश्रेष्ठ ने दीवार पर लगी घड़ी पर निगाह डाली और फिर बोला - “अभी तो वक्त है ।”
“वक्त तो है, साहब, लेकिन मैं आपको यह बताने आया था कि अभी-अभी भीखाराम अवधबिहारी का सन्देश लाया है कि उसकी तबीयत बहुत खराब है । वह आज ड्यूटी पर नहीं आ सकता ।”
“क्यों ? क्या हुआ उसे ?”
“यह तो मुझे मालूम नहीं, साहब !”
“इस अवधबिहारी के बच्चे ने भी आज ही बीमार होना था ।” - कुलश्रेष्ठ झुंझलाकर बोला ।
“लो !” - योगेश हैरानी से बोला - “अब बीमारी पर भी किसी का बस चलता है, साहब !”
“अरे बीमार-वीमार काहे का होगा ? यूं ही आलस में घर पड़ गया होगा ।”
“आज पगार मिलने का दिन है साहब । आज के दिन यूं ही कौन रुकता है ! वह जरूर असली बीमार होगा, साहब ।”
“अच्छा-अच्छा । उसकी पैरवी मत करो तुम ।”
“नहीं करता । अब मेरे साथ किसे भेज रहे हैं आप ?
कुलश्रेष्ठ सोचने लगा ।
“प्रतापनारायण खाली है, साहब” - योगेश बोला - “उसे भेज दीजिए मेरे साथ ।”
प्रतापनारायण योगेश का दोस्त था । दोनों जीवनी मंडी में एक-दूसरे के पड़ोस में रहते थे । जिस दिन बख्तरबन्द गाड़ी की ड्यूटी होती थी, उस दिन ड्राइवर और गार्ड दोनों को बाकी के दिन की छुट्टी मिल जाती थी । योगेश की अवधबिहारी से कोई खास नहीं पटती थी इसलिए वह सोच रहा था कि आज अगर प्रतापनारायण की ड्यूटी उसके साथ लग जाती तो वे कोई तफरीह का प्रोग्राम बना लेते ।
वैसे भी फौज से निकला आदमी होने की वजह से प्रतापनारायण आदतन खुशमिजाज था ।
“ठीक है ।” - कुलश्रेष्ठ बोला - “उसे बोल दो उसने तुम्हारे साथ जाना है ।”
“शुक्रिया, साहब ।” - योगेश बोला और वहां से बाहर निकल गया ।
कुलश्रेष्ठ अपने स्थान से उठा । वह शीशे की उस अलमारी के पास पहुंचा जिसके भीतर तीन राइफलें रखी थीं । उसने उनमें से वह राइफल उठा ली, जिसका कल उसने फायरिंग पिन रेत दिया था ।
वह राइफल उसने अपने सामने मेज पर रख ली ।
वह मन-ही-मन भगवान से यही प्रार्थना कर रहा था डकैती का सम्बन्ध उससे न जुड़ने पाये, उसकी नौकरी पर कोई आंच न आये, उसके जेल जाने की नौबत न आ जाये ।
तभी एक चपरासी भीतर आया ।
“जी एम साहब आये हैं, साहब ।” - वह बोला - “आपको फौरन याद कर रहे हैं ।”
“अच्छा ।” - कुलश्रेष्ठ बोला और फौरन कुर्सी से उठ खड़ा हुआ ।
चपरासी चला गया ।
जनरल मैनेजर हैड ऑफिस में बैठता था और मिल में बहुत कम आता था । अगर वह आज मिल में आया था और उसे फौरन तलब कर रहा था तो जरूर कोई खास बात थी ।
वह अपने कमरे से बाहर निकला ।
बाहर बैठे तीन-चार वर्दीधारी सिक्योरिटी गार्ड उसे देखते ही उठ खड़े हुए ।
“प्रतापनारायण कहां है, धनीराम ?” - कुलश्रेष्ठ बोला ।
“वह तो योगेश के साथ अभी-अभी कैंटीन की तरफ गया है, साहब ।” - धनीराम के नाम से सम्बोधित व्यक्ति बोला ।
“ठीक है । मैं जी एम साहब के पास जा रहा हूं, अगर वह मेरे लौटने से पहले यहां आ जाये तो मैं भीतर मेज पर उसके लिए राइफल रखे जा रहा हूं, वह उसे दे देना । आज योगेश के साथ बख्तरबन्द गाड़ी में उसकी ड्यूटी है ।”
“बहुत अच्छा, साहब !”
कुलश्रेष्ठ फौरन एडमिनिस्ट्रेटिव ब्लॉक की तरफ झपटा, जिसमें कि जी एम आकर बैठता था ।
***
बात कुछ भी नहीं थी । जी एम ने उसे केवल औपचारिकतावश यह पूछने के लिए बुलाया था कि उसका विभाग ठीक से चल रहा था या नहीं और क्या वह अपनी कोई समस्या जी एम की जानकारी में लाना चाहता था । लेकिन फिर भी वह पौने घंटे से पहले अपने ऑफिस में वापस न लौट पाया ।
तब तक बख्तरबन्द गाड़ी मिल से जा चुकी थी ।
वह अपने ऑफिस में आकर बैठ गया ।
मेज पर राइफल मौजूद नहीं थी । प्रत्यक्षत: प्रताप नारायण उसे ले जा चुका था ।
वह थोड़ी देर यूं ही कुर्सी पर बैठा सोचता रहा । फिर एक बार खामखाह उसकी निगाह अलमारी की तरफ उठ गई ।
यह देखकर वह सकपकाया कि अलमारी में ताला नहीं लगा हुआ था ! जी एम के अप्रत्याशित बुलावे की वजह से वह हड़बड़ी में अलमारी को ताला लगाए बिना ही वहां से चला गया था ।
ताला उसके सामने मेज पर पड़ा था ।
ऐसी लापरवाही सिक्योरिटी के दस्तूर के खिलाफ थी । उसे राइफलों वाली अलमारी को ताला लगाना नहीं भूलना चाहिए था - चाहे वास्तव में इससे फर्क कुछ भी न पड़ता हो ।
उसने मेज पर से ताला उठाया और अलमारी की तरफ बढा ।
वह अलमारी को ताला लगाने ही लगा था कि एकाएक वह यूं चिहुंका जैसे उसे बिच्छू ने काट खाया हो ।
जिस राइफल का उसने फायरिंग पिन घिसा था, वह तो अलमारी में पड़ी थी ।
उसने झपटकर राइफल उठाई और उसे उलट-पलटकर देखा । संदेह की कोई गुंजायश नहीं थी । वह वही रायफल थी ।
वह लपककर मेज के पास पहुंचा । वह जोर-जोर से घंटी बजाने लगा और साथ ही चिल्लाने लगा - “धनीराम ! धनीराम !”
धनीराम भागता हुआ भीतर दाखिल हुआ ।
“मैं प्रतापनारायण को देने के लिए मेज पर यह रायफल रखकर गया था” - कुलश्रेष्ठ चिल्लाकर बोला - “यह यहीं कैसे पड़ी है ?”
“साहब” - धनीराम बौखलाए स्वर में बोला - “वह दूसरी रायफल ले जाना चाहता था । जो रायफल वह लेकर गया है वह कहता था कि वह उसके हाथ पर बैठी हुई थी ।”
“हाथ पर बैठी हुई थी ।” - कुलश्रेष्ठ गर्जा - “राइफल लेकर वह ड्यूटी बजाने जा रहा था या शिकार खेलने ?”
“वह कहता था...”
“वह कुछ कहने वाला कौन होता था ? तुमने उसे वही रायफल क्यों नहीं दी, जो मैं उसके लिए छोड़कर गया था ?”
“साहब, वह लेता नहीं था । ड्राइवर उतावला हो रहा था क्योंकि गाड़ी रवाना होने का वक्त हो चुका था । अलमारी खुली थी । मैंने रायफल बदल दी । साहब, कोई तो रायफल उसने ले जानी ही थी ।”
“तुम्हें ऐसा करने की इजाजात किसने दी ?” - कुलश्रेष्ठ बेबस ढंग से चिल्लाया ।
“साहब, गलती हो गई लेकिन रायफलें तो तीनों एक जैसी हैं । अगर मैंने रायफल बदल भी दी तो...”
“जुबान मत लड़ाओ ।” - कुलश्रेष्ठ कहरभरे स्वर में बोला ।
धनीराम सहमकर चुप हो गया । उसकी समझ में कतई नहीं आ रहा था कि यूं खफा होने वाली आखिर बात क्या हो गई थी ?
“अब दफा हो जाओ यहां से ।”
अपमान से जलता हुआ धनीराम कमरे से बाहर निकल गया ।
कुलश्रेष्ठ माथा पकड़कर बैठ गया ।
अब क्या होगा ?
फिर एकाएक वह सीधा हुआ । उसने अपनी जेब से अपना पर्स निकाला । वह कांपती उंगलियों से पर्स टटोलने लगा । उसके भीतर कहीं वह कागज था जिस पर वह टेलीफोन नम्बर लिखा था, जो उसे द्वारकानाथ ने बताया था ।
वह कागज उसके हाथ में आया तो जल्दी-जल्दी टेलीफोन पर उस पर लिखा नम्बर डायल किया ।
दूसरी ओर निरन्तर घंटी बजती रही लेकिन फोन किसी ने न उठाया । अन्त में हारकर कुलश्रेष्ठ ने टेलीफोन रख दिया ।
अब वह द्वारकानाथ को यह खबर भी नहीं कर सकता था कि जो रायफल गार्ड ले गया था, उससे गोली चल सकती थी ।
उसने फिर अपना सिर थाम लिया ।
***
जिस इलाके में रत्नाकर स्टील कम्पनी थी, वह आगरे का नया इंडस्ट्रियल एरिया बनने वाला था । और दो-तीन साल बाद वहां विभिन्न कारखानों की खूब रौनक अपेक्षित थी लेकिन अभी वहां केवल वही एक मिल लगी थी । मेन रोड से रत्नाकर स्टील कम्पनी एक मील दूर थी और जो सड़क उस मिल तक आती थी, वह बहुत संकरी और ऊबड़-खाबड़ थी । वह कई झाड़-झंखाड़ों में से गुजरकर मिल तक जाती थी । उस सड़क पर आधे रास्ते में एक बहुत बड़ा नाला बहता था, जिसके ऊपर बने लम्बे पुल पर से वह सड़क गुजरती थी । पुल सड़क से ऊंचा था इसलिये सड़क पहले चढाई-सी चढती थी और फिर नीचे ढलान की ओर उतरती थी ।
उन दिनों नाला सूखा पड़ा था । वह नाला साधारणतया सिर्फ बरसात में चलता था ।
पुल के नीचे एक स्टेशन वैगन खड़ी थी, जिसके स्टियरिंग व्हील पर कूका बैठा था ।
उसे मालूम था कि पुल से कोई तीन सौ गज परे मेन रोड पेड़ों के एक झुरमुट के पीछे उनका एक ट्रक खड़ा था जिसमें विमल और गंगाधर मौजूद थे । दूसरा ट्रक पुल से उतनी ही दूर मिल की तरफ एक टीले के पीछे खड़ा था जिसमें कि द्वारकानाथ मौजूद था । दोनों ट्रकों की स्थिति ऐसी थी कि उनकी वर्तमान स्थितियों में न उन्हें मेन रोड से देखा जा सकता था और न मिल में से । पुल क्योंकि सड़क से ऊंचा था इसलिए वह मिल से देखा जा सकता था लेकिन उसके नीचे मौजूद स्टेशन वैगन को फिर भी नहीं देखा जा सकता था ।
कूका के मन में उस वक्त एक ही ख्याल था ।
क्या वे अपने मिशन में कामयाब हो जायेंगे ?
क्या और कुछ घण्टों बाद वाकई उसके पास दस लाख रुपया होगा ?
कूका एक मुश्किल से पच्चीस साल का खूबसूरत युवक था । उसका कद छ: फुट से निकलता हुआ था, लेकिन शरीर से वह दुबला-पतला था । उसके सर पर खूब घने झबराले बाल थे जिनको वह बड़े यत्न से अमिताभ बच्चन के स्टाइल में सिर पर सजाकर रखता था । कद और बालों के अलावा उसके व्यक्तित्व की कोई बात अमिताभ बच्चन से नहीं मिलती थी, लेकिन वह इस वहम का बड़ा सख्त शिकार था कि वह अमिताभ बच्चन का हूबहू डुप्लीकेट था । अमिताभ बच्चन का वह बड़ा पक्का फैन था और वह उसकी एक-एक अदा की नकल करने की कोशिश करता था । उसकी हर फिल्म को वह कम-से-कम पांच बार देखता था । दीवार तो उसने कोई बीस बार देखी थी । दीवार देखकर ही उसके मन में यह भावना पैदा हुई थी कि जिस प्रकार फिल्म में अमिताभ बच्चन एक कुली से इतना बड़ा आदमी बन गया था, उसी प्रकार क्या वह जिन्दगी में कुछ नहीं बन सकता था ? उसके मन में घर कर गयी अमिताभ बच्चन की तरह फिल्मी अन्दाज से आनन-फानन रईस बन जाने की इच्छा का ही यह नतीजा था कि वह उस वक्त उस डे लाइट रॉबरी में शरीक था ।
आज तक कूका अपने-आपको बड़ा दिलेर और हौसलामन्द आदमी समझता आया था या आपने-आपको समझाता आया था कि वह दिलेर और हौसलामन्द आदमी था और नौबत आने पर वह भी अपने से चार गुणा बड़े आदमी को यूं ही मजे से पीट सकता था जैसे फिल्मों में अमिताभ बच्चन शेट्टी को पीट लेता था । लेकिन आज उसे पहली बार महसूस हुआ था कि उसमें चिड़िया जितना भी हौसला नहीं था । वह आधे घण्टे में दो बार पेशाब करने जा चुका था और रह-रहकर उसका मुंह सूखने लगता था । अगर उसे द्वारकानाथ का डर न होता तो शायद वह स्टेशन वैगन को वहीं खड़ा छोड़कर वहां से भाग खड़ा होता ।
और अभी तो कुछ हुआ भी नहीं था ।
एक बात से वह खुश था कि वह वहां अकेला था उसके साथियों में से अगर कोई भी उसके साथ मौजूद होता या वह उनमें से किसी के साथ मौजूद होता तो जरूर-जरूर उसकी पोल खुल जाती । और फिर पता नहीं उसकी कैसी दुर्गति होती ।
अपने पहलू में हथौड़े की तरह बजता दिल लिये, होंठों पर बार-बार जुबान फेरता कूका जीरो आवर के इन्तजार में स्टेशन वैगन में बैठा रहा ।
विमल ने पेड़ों के झुरमुट के पीछे ट्रक को इस प्रकार लाकर खड़ा किया था कि उसे सड़क पर से हरगिज नहीं देखा जा सकता था । वह ट्रक की ड्राइविंग सीट पर बैठा हुआ था । उसने रियर व्यू मिरर को इस प्रकार तिरछा कर लिया था कि उसमें प्रतिबिम्बित होती सड़क उसे साफ दिखाई देती रहे ।
ट्रक के पृष्ठभाग में गंगाधर मौजूद था । उसके और विमल के बीच में एक छोटी-सी खिड़की थी जिसमें से वे एक-दूसरे को देख सकते थे और बात कर सकते थे । लेकिन जब से वे वहां आ कर खड़े हुए थे, उनमें एक भी बात नहीं हुई थी । वे दोनों एकदम स्तब्ध बैठे हुए थे ।
गंगाधर को अपने स्थान से नाले के पुल के नीचे खड़ी स्टेशन वैगन दिखाई दे रही थी । उसे पुल के पार का वह टीला भी दिखाई दे रहा था जिसके पीछे द्वारकानाथ ने ट्रक खड़ा किया हुआ था लेकिन ट्रक उसे दिखाई नहीं दे रहा था । लेकिन उसे मालूम था कि स्टेशन वैगन में मौजूद कूका द्वारका के ट्रक को देख सकता था । बख्तरबन्द गाड़ी सड़क पर दिखाई देते ही उसने कूका को इशारा करना था और कूका ने आगे द्वारकानाथ को इशारा करना था ।
आरम्भ में गंगाधर के मन में विमल के लिये भारी असहिष्णुता के भाव थे, मौजूदा अभियान में उसकी निगाह में विमल की एक ड्राइवर की हैसियत थी जिसे उसके काम की भरपूर उजरत दे दी जानी चाहिये थी न कि उसे बराबर का हिस्सेदार बना लेना चाहिये था । कल सुबह तक उसकी मर्जी यही थी कि अव्वल तो वह द्वारका को विमल को बराबर का हिस्सा देने ही नहीं देगा, अगर द्वारका नहीं मानेगा तो वह खुद विमल से उसका हिस्सा छीन लेगा । द्वारका की चेतावनी सुन चुकने के बाद भी उसकी नीयत विमल से धोखा करने की थी लेकिन कल दोपहर को जब उसने द्वारका के मुंह से विमल के कारनामे सुने थे तो उसके छक्के छूट गये थे । अब वह मन-ही-मन बहुत राहत महसूस कर रहा था कि उसने अपनी ऐसी कोई नीयत विमल पर नहीं प्रकट होने दी थी । अब विमल उसे ऐसी शख्सियत लग रहा था जिसका भय मानना चाहिए और अदब के साथ जिससे दूर खड़ा होना चाहिये ।
गंगाधर एक मुश्किल से आठवीं जमात तक पढा हुआ विशुद्ध देहाती था । पन्द्रह साल की उम्र में वह टिहरी गढवाल से भागकर आया था और आज उसे आगरे में पच्चीस साल हो गए थे । इन पच्चीस सालों में उसने वक्त की बहुत मार सही थी लेकिन फिर भी वह इसे अपना सौभाग्य मानता था कि उसे कभी भूखा नहीं रहना पड़ा था । ऐसा शायद इसलिए भी सम्भव हुआ था क्योंकि वह आदतन मेहनतकश था । पन्द्रह साल की उम्र में एक मोटर मैकेनिक गैरेज में नया रंग होने को आई कारों की घिसाई के काम से उसने अपनी वह जिन्दगी शुरु की थी और उसी धन्धे में तरक्की करते-करते आज वह खुद एक मोटर मैकेनिक गैरेज चला रहा था । उसके धन्धे में मेहनत ज्यादा थी और कमाई कम और अब अपनी चालीस की मौजूदा उम्र में पहले जैसी मेहनत करना उसके बस का काम नहीं रहा था । अब वह आराम चाहता था । अपना घर बसाना चाहता था । बसई और किनारी बाजार के धक्के खा-खाकर वह दुखी हो गया था । अब वह शादी करना चाहता था । और वह भी अपने गांव वापस जाकर ।
गंगाधर पच्चीस साल शहर में रहा था लेकिन फिर भी वह शहरी नहीं बन सका था । उसका देहात का मोह आज तक भंग नहीं हुआ था । लेकिन टिहरी गढवाल की घोर गरीबी से वह नावाफिक नहीं था । जो धन्धा वह आगरे में कर रहा था, उस की देहात में पूछ नहीं थी और दुनिया का कोई दूसरा काम उसे आता नहीं था ।
जो अपराध वह करने जा रहा था, उसका हौसला उसने अपने मन में यही सोचकर जमा किया था कि ऐसा कोई काम उसे जिन्दगी में एक ही बार करना था । आर या पार । अगर सचमुच दस लाख रुपया उसके हाथ में लग गया तो गैरेज को झोंकेगा वह भाड़ में और सीधा अपने गांव जाकर ही दम लेगा । फिर बाकी की जिन्दगी अमन-चैन से गुजारने के भरपूर साधन उसके पास होंगे ।
“वैन आ रही है ।” - एकाएक उसके कानों में विमल की आवाज पड़ी ।
उसने चौंककर सिर उठाया ।
वैन मेन रोड को छोड़कर उसी क्षण उस सड़क पर दाखिल हुई थी और धूल उड़ाती हुई उनकी तरफ बढ रही थी ।
उस वक्त सारा इलाका एकदम सुनसान पड़ा था । आस-पास कहीं एक पंछी तक पर नहीं मार रहा था ।
वह ट्रक से बाहर हाथ निकालकर उसे पुल की दिशा में हिलाने लगा ।
पुल के नीचे से कूका का हाथ हिलता दिखाई देते ही उसने अपना हाथ वापस खींच लिया और फिर धाड़-धाड की आवाज के साथ अपनी पसलियों के साथ बजते दिल पर काबू पाने की कोशिश करता हुआ भगवान का नाम जपने लगा ।
बख्तरबन्द गाड़ी सड़क पर उनके सामने से गुजरी ।
विमल ने फुर्ती से इंजन स्टार्ट किया और ट्रक को आगे बढाया । वह उसे दक्षता से चलाता हुआ सड़क पर ले आया ।
उसने ट्रक को बख्तरबन्द गाड़ी के पीछे भगा दिया ।
बख्तरबन्द गाड़ी के ड्राइविंग केबिन और उसके पिछले बक्से के बीच में एक ट्यूब थी, जिसके माध्यम से गार्ड और ड्राइवर एक-दूसरे से बात कर सकते थे । लेकिन वे केवल बात कर सकते थे, एक-दूसरे को देख नहीं सकते थे ।
“तुम गिरफ्तार हो ।” - योगेश विनोदपूर्ण स्वर में ट्यूब में बोला - “अपने आप बक्से से बाहर नहीं आ सकते ।”
“मुझे गिरफ्तारी से एतराज नहीं ।” - भीतर से प्रतापनारायण की आवाज आई - “ऐसी गिरफ्तारी की मुझे आदत है । फौज में ऐसे चक्कर अक्सर पड़ जाते थे । लेकिन यहां भीतर गर्मी कितनी है ! मेरी तो चर्बी पिघली जा रही है ।”
“अच्छा है । बहुत मोटे हो गए हो ।”
“अभी और कितनी देर है ?”
“घबरा गये ?”
“गिरफ्तारी से नहीं, गर्मी से ।”
“अभी क्या गर्मी है ! मई-जून में तो यह गाड़ी साली भट्ठी बन जाती हैं । गर्मियों में मुझे अवधबिहारी पर बहुत तरस आता है ।”
“अभी देर कितनी है ?”
“बस, सिर्फ दस मिनट और ।”
“जल्दी करो, यार ।”
कुछ क्षण खामोशी रही ।
“योगेश” - थोड़ी देर बाद प्रतापनारायण फिर बोला - “इस वैन को क्या कभी किसी ने लूटने की कोशिश नहीं की ?”
“कोई क्या खा के कोशिश करेगा ?” - योगेश बोला - “यह वैन लुट सकती ही नहीं ।”
“यह बात तो जाने दो तुम । दुनिया में बड़े-बड़े उस्ताद बैठे हैं, जो असम्भव को सम्भव कर दिखाते हैं ।”
“तुम क्या चाहते हो कि वैन पर डाका पड़ जाये ?”
“सच-सच कह दूं ?”
“हां, हां । कहो ?”
“कसम भोलेनाथ की, यही चाहता हूं ।”
“क्या बक रहे हो ?”
“इसी बहाने अपनी सूरमाई दिखाने का मौका तो मिलेगा । जब से भरती हुआ हूं कन्धे पर बन्दूक रखकर टहल रहा हूं । साली गोली चलाने की तो कभी नौबत ही नहीं आई ।”
“शुभ-शुभ बोलो, यार । मेरे छोटे-छोटे बच्चों का ख्याल करो ।”
“डर गये ?” - प्रतापनारायण बोला । उसके अट्टहास की आवाज से सारी वैन गूंज गई ।
“हां, भाई, डर गया ।”
तभी योगेश ने गाड़ी को मिल की ओर जाने वाली संकरी लम्बी सड़क पर मोड़ा ।
बस एक मील और । - उसने शान्ति की गहरी सांस लेते हुए सोचा ।
आज सुबह से ही न जाने क्यों उसका मन किसी अनिष्ट की आशंका से कांपा जा रहा था । गाड़ी मिल वाली सड़क पर मुड़ी थी तो उसकी जान में जान आई थी ।
तभी एकाएक उसकी निगाह रियर व्यू मिरर पर पड़ी ।
शीशे में उसे एक ट्रक दिखाई दिया ।
हे भगवान ! यह ट्रक कहां से आ गया ? अभी तो सड़क खाली पड़ी थी ।
“प्रताप” - वह ट्यूब में बोला - “पीछे एक ट्रक देख रहे हो ?”
“हां ।” - प्रतापनारायण बुलेट प्रूफ जाली में से बाहर झाकंता हुआ बोला ।
“यह कहां से टपका ? अभी तो सड़क खाली पड़ी थी ।”
“आया तो सड़क से ही होगा । और कहां से टपकेगा ? तुमने पहले ध्यान नहीं दिया होगा ।”
“यार, कोई गड़बड़ है । यह ट्रक इतना तेज क्यों भाग रहा है ? यह जरूरत से ज्यादा तेज रफ्तार से हमारी तरफ बढ रहा है । प्रताप, जरूर कोई गड़बड़ है । अगर यह ट्रक मिल में भी जा रहा है तो इसे हमारे से आगे निकलने की क्या जल्दी है ?”
“तुम तो खामखाह घबरा रहे हो । अगर कोई गड़बड़ है भी तो यह ट्रक क्या बिगाड़ लेगा हमारा ?”
योगेश ने उत्तर नहीं दिया लेकिन उसने तुरन्त गाड़ी की रफ्तार बढा दी । न जाने क्यों उसका दिल पुकार-पुकार कर कह रहा था कि उसे उस ट्रक को अपने करीब नहीं आने देना चाहिये था ।
“मैं वायरलैस पर पुलिस से सम्पर्क स्थापित करूं ?” - योगेश बोला ।
“तुम पागल हो ।” - प्रताप फटकार-भरे स्वर में बोला - “अरे, हमें कुछ हो भी रहा है ? कुछ हो सकता भी है हमें ? एक इकलौता आदमी मुझे ट्रक के स्टियरिंग के पीछे बैठा दिखाई दे रहा है । वह कौन-से भुट्टे भून लेगा ?”
“ट्रक के भीतर और आदमी हो सकते हैं ।”
“और वे क्या करेंगे ? गाड़ी को कन्धों पर उठाकर ले जायेंगे ?”
योगेश तनिक शर्मिन्दा हो उठा । वह खुद ही अभी कहकर हटा था कि गाड़ी लुट नहीं सकती थी और अब वह खामखाह के वहम पाल रहा था ।
तभी गाड़ी नाले के पुल के समीप पहुंची । योगेश ने बड़ी सफाई से गाड़ी को पुल पर चढा दिया ।
उसने रियर व्यू मिरर में देखा कि ट्रक उनसे कोई बीस गज पीछे था । ट्रक ड्राइवर चाहता तो वह उसे गाड़ी के समीप ला सकता था लेकिन उसने ऐसा नहीं किया था ।
योगेश को लगने लगा कि वह वाकई खामखाह वहम कर रहा था ।
कूका का इशारा मिलते ही द्वारकानाथ ने ट्रक का इंजन चालू किया । उसने उसे गियर में डाला और धीरे से एक्सीलेटर का पैडल दबाया । ट्रक आगे को सरका और फिर टीले के पीछे से बाहर आया ।
सामने सड़क की स्थिति कुछ ऐसी थी कि जब तक बख्तरबन्द गाड़ी नाले का पुल पार करके ढलान से नीचे उतरकर मोड़ न काट लेती, तब तक गाड़ी से उसके ट्रक को नहीं देखा जा सकता था ।
अब मुश्किल से दो मिनट का समय बाकी था ।
दो मिनट बाद उसकी और उसके साथियों की तकदीर का फैसला होने वाला था ।
उस नाजुक घड़ी में पहली बार उसका दिल लरजा ।
कहीं वाकई वह आत्महत्या तो नहीं करने जा रहा था ?
कहीं ऐसा तो नहीं होने वाला था कि वह और उसका ट्रक खील-खील हुए सड़क पर बिखरे पड़े हों ?
या हो सकता था कि उत्तेजना के आधिक्य से उसका हार्ट फेल ही हो जाये ।
बड़ी कठिनाई से द्वारकानाथ ने उन ख्यालात को अपने जहन से झटका ।
उस ट्रक के - और विमल के ट्रक के भी - सामने बम्फर से लेकर विंडस्क्रीन तक चार इंच मोटे स्टील के गर्डर लगे हुए थे । सारे भाग पर प्लाई मंढ कर ऊपर से इस प्रकार स्प्रे कर दिया गया था कि एकबारगी देखने पर यह नहीं कहा जा सकता था कि ट्रक का अग्रभाग ऐसे स्टील से कवर हुआ हुआ था कि वह टैंक से टक्कर ले सकता था ।
अब परीक्षा की घड़ी आन पहुंची थी । अभी मालूम हुआ जाता था कि वह टैंक से टक्कर ले सकता था या नहीं ।
वह ट्रक को सड़क पर ले आया । फिर एकाएक उसने ट्रक को पूरी रफ्तार से पुल की दिशा में दौड़ा दिया ।
तभी बख्तरबन्द गाड़ी पुल पार करके ढलान पर उतरी और फिर सड़क पर सीधी हुई ।
ट्रक तोप से छूटे गोले की तरह सीधा उसकी तरफ लपका ।
द्वारकानाथ ने मजबूती से स्टियरिंग थामा हुआ था और एक्सीलेटर के पैडल को अपने पांव के भरपूर दबाव के नीचे रखा हुआ था ।
ट्रक को यूं अपनी ओर लपकता पाकर वैन के ड्राइवर के चेहरे पर पहले तो अविश्वास के भाव उभरे, फिर जब ट्रक ऐन उसके सिर पर आ पहुंचा तो आतंक से उनके नेत्र फट पड़े ।
योगेश, जो आंखों से देख रहा था, वह उसे सपना लग रहा था ।
“नहीं !” - एकाएक वह दहशतनाक स्वर में चिल्लाया ।
द्वारकानाथ ने ट्रक का स्टियरिंग छोड़ दिया । वह सीट पर दोहरा होकर लेट गया । उसने अपनी दोनों बांहों को एक-दूसरे के साथ बांधकर उनमें अपना चेहरा छुपा लिया और अपना शरीर ढील छोड़ दिया ।
कान फाड़ देने वाली धड़ाम की आवाज के साथ ट्रक जाकर बख्तरबन्द गाड़ी से टकराया । विंडस्क्रीन का शीशा चटाक से टूटा और कांच के टुकड़ों की बरसात-सी द्वारकानाथ पर होने लगी ।
जिस क्षण द्वारकानाथ ने बख्तरबन्द गाड़ी को सामने से टक्कर मारी, ठीक उसी क्षण विमल ने अपने ट्रक को गाड़ी के पृष्ठभाग में दे मारा ।
बख्तरबन्द गाड़ी की चादरें उधड़ गईं और दोनों ट्रकों के बीच वह प्यानो एकार्डियन की तरह इकट्ठी हो गई । गाड़ी की छत ऊपर को गोल घूम गई । उसके पिछले दरवाजे उखड़कर अपने कब्जों पर दायें-बायें लटकने लगे ।
द्वारकानाथ सीधा हुआ ।
यह देखकर उसका दिल खुशी से किलकारियां मारने लगा कि उसे कुछ नहीं हुआ था और बख्तरबन्द गाड़ी की वही गत बनी थी, जो उसकी योजनानुसार बननी अपेक्षित थी ।
वह झपटकर ट्रक से बाहर कूदा और आगे को लपका ।
उसने देखा ट्रक के अग्रभाग की ठोकर से गाड़ी का ड्राइवर वाला बक्सा एकदम पिचक गया था और ड्राइवर अपने स्टियरिंग व्हील और गाड़ी की पिछली दीवार के बीच उधड़ा हुआ फंसा पड़ा था । उसकी पसलियों का पिंजर इस प्रकार टूटा था कि छाती पीठ के साथ जा मिली थी । यह जानने के लिये कि वह मर चुका था द्वारकानाथ ने उस पर दोबारा निगाह डालने की भी जरूरत महसूस नहीं की ।
तभी एकाएक एक फायर की आवाज से वातावरण गूंज उठा ।
द्वारकानाथ का कलेजा उखड़कर मुंह को आने लगा ।
वह रायफल के फायर की आवाज थी और वैन के भीतर से आई थी ।
हे भगवान !
गार्ड फायर करने में कैसे कामयाब हो गया ?
उसने अपनी रिवॉल्वर निकालकर हाथ में ले ली और आगे को लपका ।
उसने देखा गार्ड के हाथ में रायफल थी और वह उसका रुख पिछले ट्रक की ओर करके फिर फायर करने जा रहा था ।
द्वारकानाथ ने गोली चलाई ।
गोली गार्ड को पता नहीं कहां लगी लेकिन वह एक हाय की आवाज के साथ तुरन्त पीछे को उलट गया । रायफल उसके हाथ से निकलकर एक ओर जा गिरी ।
द्वारकानाथ वैन के पृष्ठभाग के समीप पहुंचा ।
टक्कर में टेपरिकॉर्डर का लाउडस्पीकर से सम्पर्क कट चुका था, लेकिन टेपरिकॉर्डर अभी भी चालू था । उसमें से धीमी-सी पुकार निकल रही थी - ‘बचाओ ! बचाओ ! चोर ! चोर !’
“विमल !” - द्वारकानाथ आतंकित स्वर में बोला - “गंगाधर !”
तुरन्त विमल ट्रक से कूदकर बाहर निकला ।
“गंगाधर !” - द्वारकानाथ ने पूछा ।
“पीछे पड़ा है ।” - विमल बोला - “उसे गोली लगी है ।”
तभी कूका ने स्टेशन वैगन को उनकी बगल में ला खड़ा किया ।
“माल !” - द्वारकानाथ फुंफकारा - “माल निकालो ।”
विमल वैन के भीतर चढ गया ।
भीतर लोहे के पांच बक्से पड़े थे ।
विमल एक-एक करके बक्से उठाने लगा और द्वारकानाथ को पकड़ाने लगा और द्वारकानाथ उन्हें स्टेशन वैगन में लादने लगा ।
कूका स्टियरिंग पर बैठा रहा । स्टेशन वैगन का इंजन चालू था, गाड़ी गियर में थी और वहां से किसी भी क्षण भाग निकलने को तैयार थी ।
सारे बक्से लद चुकने के बाद विमल और द्वारकानाथ पिछले ट्रक के पृष्ठभाग की तरफ लपके ।
भीतर खून से लथपथ गंगाधर पड़ा था । गोली उसकी छाती में कहीं लगी थी ।
द्वारकानाथ ने बड़ी बेरहमी से उसकी टांगें पकड़कर उसे समीप घसीटा ।
“जिंदा है ।” - वह बोला और उसने उसे अपने कन्धे पर लाद लिया ।
विमल ने लपककर स्टेशन वैगन का एक दरवाजा खोला ।
द्वारकानाथ ने रेत के बोरे की तरह गंगाधर को स्टेशन वैगन के भीतर धकेल दिया । उसके पास गंगाधर को नजाकत से सम्भालने का वक्त नहीं था । न ही उसमें उस वक्त ऐसा सब्र था ।
तभी द्वाकानाथ ने पहली बार पीछे घूमकर देखा ।
जो नजारा उसे दिखाई दिया, उसने उसका खून जमा दिया ।
मिल के विशाल फाटक से सैकड़ों लोग यूं बाहर बिखरे पड़ रहे थे, जैसे एकाएक बांध टूट जाने से नदी का पानी बह निकलता है । वे पूरी रफ्तार से घटनास्थल की ओर भाग रहे थे और किसी भी क्षण उनके सिर पर पहुंच जाने वाले थे ।
द्वारकानाथ ने रिवॉल्वर का रुख उनकी तरफ करके फायर किया । लेकिन वह सैलाब न रुका ।
फिर वह घबराकर स्टेशन वैगन में घुस गया और चिल्लाया - “भागो !”
विमल, जो अभी तक सड़क पर खड़ा था, लपककर कूका की बगल में बैठ गया । कूका ने स्टेशन वैगन भगा दी ।
वे लोग मिल कर्मचारियों की पकड़ में आने से बाल-बाल बचे ।
तभी द्वारकानाथ ने देखा कि एक कुछ ज्यादा ही हौसलामन्द कर्मचारी छलांग मारकर चलती स्टेशन वैगन के बम्पर पर चढ गया था । उसने अपने दोनों हाथों से पिछली खिड़की के नीचे का हैंडल थामा हुआ था ।
तब तक स्टेशन वैगन ने रफ्तार पकड़ ली थी और मिल कर्मचारियों का समूह पीछे छूटता जा रहा था ।
द्वारकानाथ ने रिवॉल्वर नाल की तरफ से पकड़ ली और उसके लोहे के दस्ते के कई प्रहार पिछले शीशे पर किये । पिछले शीशे में एक बड़ा-सा छेद हो गया । द्वारकानाथ ने अपना रिवॉल्वर वाला हाथ उस छेद से बाहर निकाला और दस्ते का प्रहार पीछे लटके आदमी की उंगलियों पर किया ।
उस आदमी की हैंडल पर से पकड़ छूट गई और वह नीचे जा गिरा ।
द्वारकानाथ की जान-में-जान आई ।
तभी स्टेशन वैगन ने एक इतनी जोर का मोड़ काटा कि झटके से उसका एक दरवाजा खुल गया ।
नोटों से भरे पांच बक्सों में से एक बक्सा भी टक्कर के वक्त किसी प्रकार पिचक गया था और नोट उसमें से बाहर लटक रहे थे ।
तेज रफ्तार से चलती गाड़ी के भीतर एकाएक दरवाजा खुल जाने की वजह से हवा का एक शक्तिशाली झोंका फिर गया । बक्से से बाहर लटकते नोट एकाएक बक्से से अलग होने लगे और हवा के साथ-साथ गाड़ी में उड़ने लगे । फिर हवा का रुख अपने-आप ही पिछले शीशे में बने छेद की तरफ हो गया । हवा तेजी से उस छेद से बाहर निकलने लगी और उसके साथ-साथ नोट भी स्टेशन वैगन से बाहर उड़ने लगे ।
द्वारकानाथ एकाएक उस पूरे बक्से के ऊपर लेट गया और फिर कहरभरे स्वर में चिल्लाया - “दरवाजा बन्द करो ।”
विमल ने तुरन्त दरवाजा बन्द कर दिया ।
हवा शान्त हो गई तो नोट उड़ने भी बन्द हो गये ।
स्टेशन वैगन गोली की रफ्तार से भागी जा रही थी ।
द्वारकानाथ ने अपने पीछे देखा ।
उनके पीछे कोई नहीं था । सड़क उजाड़ पड़ी थी ।
फिर धीरे-धीरे उसके चेहरे से उत्कण्ठा और आतंक के भाव गायब होने लगे और फिर उसके होंठों पर मुस्कराहट खेलने लगी ।
वह जीत जो गया था ।
***
टक्कर की आवाज मिल के भीतर यूं सुनी गई, जैसे तोप से गोला छूटा हो या एकाएक बादल गर्ज पड़े हों ।
“यह कैसी आवाज थी ?”
कई लोगों के मुंह से एक साथ निकला ।
फिर जो लोग ऐसे कमरों में थे जिनकी खिड़कियां बाहर की तरफ खुलती थीं, वे उन खिड़कियों की तरफ लपके ।
अपने कमरे में बैठे राजेन्द्र कुलश्रेष्ठ ने भी आवाज साफ सुनी ।
उसकी हालत खस्ता होने लगी । उसने अपने स्थान से उठने तक का उपक्रम नहीं किया । उसे लग रहा था कि अगर वह उठकर अपने पैरों पर खड़ा हुआ तो उसकी टांगें उसका बोझ नहीं सम्भाल सकेंगी और वह जरूर त्योराकर फर्श पर गिर पड़ेगा ।
उसका दिल पुकार-पुकारकर कह रहा था कि अभी जो आवाज उसने सुनी थी, उसका रिश्ता डकैती से था ।
फिर उसके कानों में गोली चलने की धीमी-सी आवाज पड़ी ।
वह और भी डर गया ।
उस आवाज ने उसे विश्वास दिला दिया कि जरूर किसी की जान चली गई थी ।
तब तक मिल में शोर मचने लगा था ।
शोर में किसी की आवाज साफ गूंज रही थी - “वैन लुट गई ।”
हर कोई मिल के फाटक की तरफ भाग रहा था ।
वह सिर झुकाये बैठा रहा ।
एकाएक उसे ऐसा लगा, जैसे किसी की पैनी निगाहें उस पर टिकी हुई थीं ।
उसने घबराकर सिर उठाया ।
चौखट पर धनीराम खड़ा था और बड़ी गौर से उसकी तरफ देख रहा था । धनीराम सिक्योरिटी स्टाफ का सबसे सीनियर कर्मचारी था ।
वह और भी घबरा गया ।
तब उसे याद आया कि वह तो सिक्योरिटी ऑफिसर था । ऐसे मौके पर उसे तो सबसे पहले बाहर निकलना चाहिये था और सबसे आगे होना चाहिये था ।
बड़ी मेहनत से वह अपने स्थान से उठा और कांपते कदमों से चलता हुआ आगे बढा ।
धनीराम की बगल से गुजरते समय उसने धनीराम से आंख नहीं मिलाई ।
वह सिक्योरिटी ऑफिस से बाहर निकल आया ।
धनीराम उलझनपूर्ण निगाहों से उसकी तरफ देख रहा था । वह हैरान था कि ऐसे अवसर पर जो सहज स्वाभाविक सवाल उसके साहब की जुबान पर आना चाहिये था, वह क्यों नहीं आया था ? सिक्योरिटी ऑफिसर ने औपचारिक तौर पर भी यह नहीं पूछा था कि क्या हुआ था ?
फिर धनीराम भी वहां से हटकर अपने साहब के पीछे लपका ।
कुलश्रेष्ठ कम्पाउण्ड में पहुंचा ।
मिल का फाटक खुला था और लोग उसमें से बाहर भाग रहे थे ।
“ये लोग डाकुओं को कभी नहीं पकड़ पायेंगे ।” - कुलश्रेष्ठ के मुंह से निकला ।
“क्यों नहीं पकड़ पायेंगे, साहब ?” - उसके समीप आकर खड़े हुए धनीराम ने पूछा ।
कुलश्रेष्ठ ने अपनी जुबान काट ली । ऐसी बात उसे अपने मुंह से हरगिज नहीं निकालनी चाहिए थी । वह बौखलाकर बोला - “मेरा मतलब है यूं पैदल भागकर । धनीराम ! कार ! कार बुलाओ ।”
धनीराम फौरन कार पूल की तरफ भागा ।
फिर वह भी भीड़ के साथ फाटक की तरफ लपका ।
“वे लोग भाग गए ।” - कोई चिल्लाया ।
वह ठिठक गया ।
उसने सामने निगाह दौड़ाई ।
लोगों ने अब भागना-दौड़ना छोड़ दिया था । अब वे लोग नाले के पुल के पास जमघट लगा रहे थे । पुल के पास सिर-ही-सिर दिखाई दे रहे थे और सिरों के ऊपर उसे दो ट्रक और उनके बीच में फंसी वैन का ऊपरला भाग दिखाई दे रहा था ।
तभी धनीराम एक कार में बैठा वहां पहुंचा । कार एक वर्दीधारी ड्राइवर चला रहा था ।
कुलश्रेष्ठ कार में सवार हुआ । ड्राइवर ने बिना पूछे कार को घटनास्थल की तरफ दौड़ा दिया ।
कार भीड़ के पास रुकी । कुलश्रेष्ठ और धनीराम लपककर बाहर निकले ।
कुलश्रेष्ठ भीड़ में घुस गया ।
उसका दिल कांप रहा था और चेहरे की रंगत फक हुई जा रहा थी ।
पता नहीं उसे कैसा नजारा दिखाई देने वाला था !
फिर वह भीड़ में ठिठक गया । एक आदमी उसे पहचानकर उसके बिना पूछे ही बताने लगा - “दिन दहाड़े डाका पड़ गया, साहब ! ड्राइवर और गार्ड दोनों मर गए हैं ।”
“मुहम्मद अनीस फोरमैन डाकुओं की कार पर चढ गया था, साहब” - कोई और बोला - “लेकिन जालिमों ने बेचारे को धक्का दे दिया । चलती कार से गिरा बेचारा । खूब जख्मी हुआ है ।”
“क्या अंधेरगर्दी है ?” - एक क्रोधित आवाज आई - “इससे तो एमरजेंसी ही अच्छी थी ।”
“यह जनता सरकार नहीं चलने की ।”
“अब आज तनख्वाह तो मिलेगी नहीं ।” - कोई दबे स्वर में बोला ।
“चुप साले ! ऐसे में तुझे तनख्वाह की पड़ी हुई है ।”
“धनीराम ।” - वह बोला - “तुम यहीं रहो । मैं मिल में जा रहा हूं ।”
धनीराम ने सहमति में सिर हिला दिया । एक क्षण को उसे यूं लगा था, जैसे उसका साहब कहने लगा था कि वह डाकुओं के पीछे जा रहा था । लेकिन नहीं, वह तो मिल में जा रहा था ।
कुलश्रेष्ठ कार पर सवार हुआ और वापस लौटा ।
वह अपने कमरे में पहुंचा । वह धम्म से कुर्सी पर ढेर हो गया । उसने टेलीफोन अपने पास घसीट लिया और पुलिस का नम्बर डायल किया । सम्पर्क स्थापित होते ही वह बोला - “मैं रत्नाकार स्टील कम्पनी का सिक्योरिटी ऑफिसर कुलश्रेष्ठ बोल रहा हूं । यहां...”
“फोन आ चुका है, साहब ।” - दूसरी ओर से कोई बोला - “पुलिस वहां पहुंच रही है ।”
“ओह !” - वह बोला । उसने धीरे से रिसीवर क्रेडल पर रख दिया ।
तो किसी ने पहले ही फोन कर दिया था । उसे अफसोस होने लगा कि वह मुस्तैदी वह क्यों नहीं दिखा पाया था ! मिल का सिक्योरिटी ऑफिसर होने के नाते सबसे पहले उसे पुलिस से सम्पर्क स्थापित करना चाहिए था ।
अब वहां पुलिस आएगी । मौकायेवारदात की जांच होगी । लोगों से सवाल पूछे जाएंगे । उससे भी सवाल पूछे जाएंगे ।
पुलिस से आमना-सामना होने के ख्याल से ही पता नहीं क्यों उसके छक्के छूटे जा रहे थे ।
फिर उसे ख्याल आया कि जी एम अभी मिल से गया नहीं था । उसे उसके आसपास होना चाहिये था ।
वह उछलकर अपनी कुर्सी से खड़ा हुआ और आतंकित-सा बाहर को भागा ।
***
“गोली कैसे चल गई ?” - एकाएक कूका ने पूछा । उसकी निगाह सड़क पर ही थी । वह बड़ी दक्षता से गाड़ी चला रहा था ।
“गार्ड की रायफल का फायरिंग पिन सही-सलामत था, द्वारका ।” - विमल बोला - “तुम्हारा वह कुलश्रेष्ठ दगा दे गया ।”
“शायद उसने दगा न दिया हो ।” - द्वारकानाथ धीरे से बोला - “शायद गंगाधर की तकदीर ही खराब थी ।”
“मतलब ?”
“यह वो गार्ड नहीं था जो वैन के साथ हमेशा हुआ करता था । वह कोई नया गार्ड था । वैन के साथ हमेशा अवधबिहारी नाम का गार्ड हुआ करता था । शायद कुलश्रेष्ठ ने उसकी रायफल को फिक्स किया हो लेकिन ऐन मौके पर किसी वजह से गार्ड यूं बदल गया हो कि उसका बस न चला हो ।”
“ओह !”
“उस डरपोक गार्ड की जगह किसी हौसलामन्द गार्ड ने भी आज ही लेनी थी ।” - कूका बड़बड़ाया ।
“यह तो ट्रक के पीछे था ।” - द्वारकानाथ विमल से बोला - “इसे गोली कैसी लग गई ?”
“गोली मेरी बगल से गुजरी थी और बीच के झरोखे में से गुजरती हुई सीधी इससे जा टकराई थी ।” - विमल बोला ।
“मैं फौरन न पहुंच गया होता तो गार्ड ने तुम्हारा भी काम तमाम कर देना था ।”
“वह तो है ही ।”
“इसकी हालत कैसी है ?” - कूका ने पूछा ।
द्वारकानाथ ने गंगाधर पर निगाह डाली । गंगाधर की हालत देखकर एकाएक उसे उबकाई आने लगी ।
गंगाधर को फंस-फंसकर सांस आ रही थी । उसकी छाती धौंकनी की तरह उठ-गिर रही थी लेकिन मुंह से निकलती हर सांस के साथ उसके मुंह से गाढा झागदार खून निकल रहा था ।
वह जिन्दा जरूर था लेकिन द्वारकानाथ जानता था कि वह बचने वाला नहीं था ।
उसने गंगाधर की तरफ से मुंह फेर लिया और बोला - “अभी जिन्दा है ।”
तभी कूका ने गाड़ी को एक सुनसान गली में मोड़ा और उसे गली के आखिरी सिरे पर, जहां कि गली बन्द थी, ले जाकर खड़ा कर दिया ।
सामने एक लकड़ी का बहुत बड़ा फाटक था ।
द्वारकानाथ झपटकर स्टेशन वैगन से बाहर निकला । उसने फाटक के पास पहुंचकर चाबी लगाकर उसका ताला खोला और फाटक के पल्ले पूरे खोल दिए ।
वह भीतर दाखिल हो गया । भीतर से उसने कूका को इशारा किया ।
कूका ने स्टेशन वैगन आगे बढाई और उसे उस विशाल गैरेज में दाखिल कर दिया, जिसमें द्वारकानाथ खड़ा था । वहां एक नीली फियेट पहले ही खड़ी थी । कूका ने स्टेशन वैगन को उसकी बगल में ले जाकर खड़ा किया ।
द्वारकानाथ ने तुरन्त फाटक को भीतर से बन्द कर दिया ।
वे सुरक्षित वहां पहुंच गये थे । किसी ने उन्हें वहां तक पहुंचते नहीं देखा था ।
उसने गैरेज के भीतर की बत्ती जला दी ।
कूका और विमल भी स्टेशन वैगन से बाहर निकल आये ।
“यह गैरेज और इसके ऊपर का फ्लैट किराये पर लेते समय” - द्वारकानाथ बोला - “मैंने वही मेकअप इस्तेमाल किया था, जो मैंने ट्रक खरीदते समय इस्तेमाल किया था । अगर कभी पुलिस की तफ्तीश हो गई तो यहां का सम्बन्ध मुझसे कभी नहीं जोड़ा जा सकेगा ।”
कोई कुछ न बोला ।
“बरखुरदार” - वह विमल की पीठ ठोंकता हुआ बोला - “तुम्हारी कल की समझदारी ने आज हमें बचा लिया । यह स्टेशन वैगन हमें शर्तिया फंसा देती । इसकी शिनाख्त के लिए तो इसका टूटा हुआ पिछला शीशा ही काफी था । हमने इसे कहीं तो लेकर जाना ही था और बड़ी दरेसी में गंगाधर के गैरेज के अलावा हमारे पास कोई जगह नहीं थी । वहां तक इसे लेकर जाने में तो हमारा जलूस निकल जाता । इसे हम छोड़ भी नहीं सकते थे क्योंकि फिर नोटों से भरे पांच बक्से क्या हम कन्धों पर ढोते ?”
विमल खामोश रहा ।
“बक्से निकालो ।” - द्वारकानाथ बोला ।
विमल और कूका स्टेशन वैगन में से बक्से निकालकर गैरेज के फर्श पर रखने लगे ।
द्वारकानाथ ने फियेट से चमड़े के बने चार बड़े-बड़े सूटकेस निकाले । उसने उन्हें खोलकर फर्श पर रख दिया ।
फिर तीनों ने बड़ी सावधानी से बिना किसी प्रकार का शोर किये पांचों बक्सों के ताले तोड़े और नोटों को सूटकेसों में भरना आरम्भ कर दिया ।
उस दौरान गंगाधर यूं स्टेशन वैगन में पड़ा था, जैसे उसका कोई अस्तित्व ही नहीं था ।
केवल कूका रह-रहकर व्याकुल भाव से स्टेशन वैगन की तरफ देख लेता था । कई बार उसने उस बारे में कुछ कहने के लिए मुंह खोला लेकिन फिर होंठ भींच लिए ।
सारे नोटों को चमड़े के सूटकेसों में भरकर मजबूती से बन्द कर दिया गया । फिर चारों सूटकेस फियेट की डिक्की में बन्द कर दिए गए ।
फिर द्वारकानाथ ने स्टेशन वैगन की अगली पिछली दोनों नम्बर प्लेटें उतारकर फियेट में रख लीं । इसके बाद उसने बड़ी बारीकी से स्टेशन वैगन की तलाशी लेकर इस बात की पुष्टि की कि उसमें ऐसा तो कुछ नहीं था जिसकी वजह से किसी भी तरह उनका सम्बन्ध स्टेशन वैगन से जोड़ा जा सकता ।
उसने अपने कपड़ों पर निगाह डाली ।
उसकी कमीज पर कुछ जगह खून के धब्बे लगे हुए थे लेकिन उस वक्त उस समस्या का उसके पास कोई हल नहीं था । वैसे उसकी कमीज गहरी रंगत की थी और बहुत गौर से देखने पर ही उस पर खून के धब्बों का आभास मिलता था ।
सबसे अन्त में गंगाधर की बारी आई ।
द्वारकानाथ स्टेशन वैगन के भीतर दाखिल हुआ । उसने उसकी डोम लाइट जलाई और जी कड़ा करके फिर गंगाधर का मुआयना किया ।
उसकी हालत पहले से भी बद थी ।
वह बाहर निकल आया ।
“यह नहीं बचने का ।” - वह धीरे से बोला ।
“हमें इसे किसी डॉक्टर को दिखाना चाहिए ।” - कूका व्यग्र स्वर में बोला ।
“डॉक्टर को ! पागल हुए हो ! डॉक्टर को क्या बताएंगे हम, क्या हुआ है इसे ?”
“ऐसे तो यह मर जाएगा ।”
“कूका, यह बच तो हरगिज नहीं सकता । सिर्फ वक्त की बात है ।”
“तो फिर ?”
“हमें इसको यहीं छोड़कर जाना होगा ।”
“मरने के लिए ?”
“मजबूरी है ।”
“लेकिन यह तो बड़ी अमानवीय हरकत है ।”
“कूका ।” - द्वारकानाथ डपटकर बोला - “बकवास बन्द करो । यह भावुकता झाड़ने का वक्त नहीं है ।”
“द्वारका” - कूका दांत भींचकर बोला - “अगर तुमने इसको मरने के लिए यहां छोड़ा तो मैं यहां से सीधा पुलिस स्टेशन जाऊंगा और जाकर तुम्हारी सारी पोल खोल दूंगा ।”
“अच्छा ! फिर तुम्हारा क्या होगा ?”
“मुझे अपनी परवाह नहीं । मुझे जो साल-दो साल की सजा होगी, वह मैं भुगत लूंगा ।”
“साल-दो साल की सजा ! यह तुम्हें किसने कह दिया कि पकड़े जाने पर तुम्हें साल-दो साल की सजा होगी ?”
“और क्या ! डकैती में...”
“सिर्फ डकैती ? और जो दो आदमी जान से मारे गये हैं ?”
“क.. क्या ?”
“शायद तुम्हें मालूम नहीं कि वैन का ड्राइवर और गार्ड दोनों मर चुके हैं । बेटा, अगर पकड़े गए तो फांसी से कम सजा नहीं होगी ।”
कूका हक्का-बक्का-सा द्वारकानाथ को देखता रहा और फिर कातर कुछ क्षण यूं ही अपलक द्वारकानाथ को देखता रहा और फिर कातर स्वर में बोला - “द्वारका, तुमने तो गारण्टी की थी कि कोई खून-खराबा नहीं होने वाला था ?”
“हां” - द्वारकानाथ बोला - “की थी गारण्टी मैंने । लेकिन अब ऐसा कुछ हो गया है तो मैं क्या करूं ?”
“द्वारका, तुम बहुत मक्कार आदमी हो । तुम्हें पता था कि...”
“जाकर कार में बैठो ।” - द्वारकानाथ उसकी बात काटकर कर्कश स्वर में बोला ।
कूका अपने स्थान से हिला भी नहीं । वह अपलक स्टेशन वैगन की तरफ देखने लगा था ।
द्वारकानाथ उसके समीप पहुंचा । उसने कूका के चेहरे पर इतनी जोर का झापड़ रसीद किया कि कूका की आंखों से आंसू छलक आए ।
“जाकर कार में बैठो ।” - द्वारकानाथ सांप की तरह फुंफकारा ।
कूका यन्त्रचलित-सा फियेट की ड्राइविंग सीट पर जा बैठा ।
द्वारकानाथ के इशारे पर विमल भी उसके साथ कार में सवार हो गया ।
द्वारकानाथ ने आगे बढ़कर गैरेज का दरवाजा खोला ।
कूका ने कार स्टार्ट की और उसे गैरेज से बाहर निकाल दिया ।
“गाड़ी गली के मोड़ तक ले जाओ” - द्वारकानाथ बोला - “मैं आ रहा हूं ।”
कूका ने गाड़ी आगे बढा दी ।
द्वारकानाथ फिर स्टेशन वैगन की तरफ आकर्षित हुआ ।
वह जानता था कि गंगाधर बच नहीं सकता था । डॉक्टरी सहायता हासिल हो जाने पर भी नहीं बच सकता था, लेकिन फिर भी वह रत्तीभर भी चांस लेने को तैयार नहीं था । कभी-कभी करिश्मे भी तो हो जाते हैं । क्या पता वह जिन्दा पुलिस के हाथ लग जाये और सबकी पोल खोल दे !
द्वारकानाथ ने गैरेज के एक कोने में पड़ा इन्सुलेशन टेप का रोल उठाया और उसकी सहायता से स्टेशन वैगन के पिछले शीशे में बने छेद को इस प्रकार बन्द कर दिया कि हवा भीतर न जा सके । फिर उसने उसकी सारी खिड़कियों के शीशे चढा दिए ।
यह काम वह कूका की मौजूदगी में करता तो वह भावुक छोकरा जरूर मरने-मारने का उतारू हो जाता ।
फिर द्वारकानाथ ने गैरेज की बत्ती बुझाई और बाहर निकला । उसने गैरेज को ताला लगाया और सुनसान पड़ी गली में आगे बढ गया ।
तब कहीं जाकर उसने अब तक अपने हाथों में पहने दस्ताने उतारकर गटर में फेंके ।
***
गंगाधर के बिना गैरेज में बड़ी अजीब-सी उदासीभरी खामोशी छायी हुई थी । उस माहौल का असर उन पर हुए बिना न रह सका । कूका तो पहले से ही खमोश था, अब द्वारकानाथ और विमल के भी जबड़े भिंच गए थे ।
द्वारकानाथ यहां पहुंचते ही आदतन कूका को चाय लाने के लिए कहने लगा था, लेकिन फिर फौरन उसने अपना इरादा बदल दिया ।
वे पिछवाड़े के कमरे में पहुंचे । फियेट में से चारों सूटकेस निकालकर वे वहां ले आए ।
कितनी ही देर कोई कुछ न बोला ।
विमल ने अपना पाइप निकालकर उसमें तम्बाकू भरा और उसे सुलगाकर उसके छोटे-छोटे कश लगाने लगा ।
कामयाबी का जो जोशोखरोश वहां उस वक्त दिखाई देना चाहिये था, वह कतई गायब था । खुद द्वारका के चेहरे पर ऐसे भाव थे, जैसे अभी-अभी उसे अपने किसी नजदीकी रिश्तेदार की मौत की खबर मिली हो ।
“कूका” - एकाएक द्वारकानाथ धीरे से बोला - “गंगाधर मेरा भी उतना ही दोस्त था जितना कि तुम्हारा । मुझे क्या उसकी मौत का गम नहीं ?”
“लेकिन वह अभी मरा कहां था ?” - कूका गमगीन स्वर में बोला ।
“वह मर चुका था” - द्वारकानाथ सरासर झूठ बोलता हुआ बोला - “मेरे सामने उसने अपनी आखिरी सांस ली थी ।”
“तुम झूठ बोल रहे हो ?”
“मैं सच कह रहा हूं । कसम दुर्गा भवानी की ।”
“फिर भी क्या हमें उसकी लाश यूं लावारिस वहां पड़ी छोड़ देनी चाहिए थी ।”
“और हम क्या करते ?”
“हमें उसके दाह-संस्कार का इन्तजाम करना चाहिए ।”
“अच्छा, बाबा । रात होने दे । मैं वह भी कर दूंगा ।” - द्वारका बोला । वास्तव में उसका ऐसा कोई इरादा नहीं था । उसे उम्मीद थी कि मौजूदा हालात की गर्मा-गर्मी गुजर चुकने के बाद कूका को अक्ल आ जाएगी ।
कूका खामोश रहा ।
द्वारका ने अपनी जेब से सिगरेट का पैकेट निकाला और नर्वस भाव से एक सिगरेट सुलगा लिया ।
कमरे का वातावरण फिर ब्लेड की धार जैसा पैना हो उठा ।
द्वारकानाथ महसूस कर रहा था कि उस माहौल में तब्दीली बहुत जरूरी थी ।
“जरा अलमारी में देखो” - एकाएक वह बोला - “गंगाधर कोई बोतल होगी वहां ।”
कूका उठा और यन्त्रचालित-सा अलमारी के पास पहुंचा । वह उसमें से सोलन नम्बर वन की एक तीन-चौथाई भरी बोतल और गिलास निकाल आया । गिलास वहां दो ही थे और उनमें से भी एक में तीन-चार मक्खियां मरी पड़ी थीं । वह बोतल द्वारकानाथ के सामने रखकर गिलास धोने चला गया । कुछ क्षण बाद जब वह वापस लौटा तो वह कहीं से एक तीसरा गिलास भी तलाश कर लाया था । साथ में वह गंदे से लोटे में पानी भी लेकर आया था । उसने तीनों गिलास और लोटा द्वारकानाथ के सामने रख दिया ।
द्वारकानाथ ने तीन पैग तैयार किए ।
तीनों खामोशी से विस्की पीने लगे ।
आधे घंटे बाद बोतल खाली हो गई । द्वारकानाथ ने कूका को जान-बूझकर ज्यादा विस्की पिलाई थी । विस्की पीते-पीते एकाएक वह रोने लगा था । रोते-रोते उसकी हिचकियां बंध गई थी लेकिन द्वारकानाथ ने उसे चुप कराने की कोशिश नहीं की थी । अच्छा था कि उसका यूं ही दिल हल्का हो जाता । फिर कूका रोते-रोते आप ही खामोश हो गया था ।
“अब पैसे का बंटवारा हो जाए ।” - द्वारकानाथ बोल पड़ा ।
कोई न बोला ।
“अब तो गंगाधर का हिस्सा भी हमें आपस में बांटना पड़ेगा ।”
“मैं गंगाधर के हिस्से को हाथ नहीं लगाऊंगा ।” - कूका तीव्र स्वर में बोला ।
द्वारकानाथ को सुनकर खुशी हुई कि कूका ने यह नहीं कहा था कि वह लूट के माल को हाथ नहीं लगाएगा । ये अच्छे आसार थे ।
“तो फिर गंगाधर का हिस्सा मैं और विमल आपस में बांट लें ?”
“बांट लो ।”
“तुम्हें कोई एतराज नहीं ?”
“नहीं ।”
उसके बाद नोटों से ठुंसे सूटकेस खोले गए और नोट गिने गए ।
रकम लगभग पैंतालीस लाख की ही थी । जो कमी थी वह जाहिर था कि उन नोटों की वजह से थी जो स्टेशन वैगन से बाहर उड़ गए थे ।
द्वारकानाथ के अपने लिए बीस लाख रुपये अलग निकाल दिए जो उसने दूसरे सूटकेस में भर लिए ।
उसने विमल के पन्द्रह लाख रुपये अलग किये जो उसने दूसरे सूटकेस में भर लिये ।
कूका के दस लाख रुपये एक तीसरे सूटकेस में बन्द करके उसने सूटकेस कूका को थमा दिया ।
चौथा सूटकेस, जिसमें गंगाधर का हिस्सा होना चाहिए था, उपेक्षित-सा एक ओर पड़ा था ।
तीन बजे की खबरों में उस सनसनीखेज डे लाइट रॉबरी का जिक्र था ।
उन खबरों से ही उन्हें मालूम हुआ कि डकैती में जान केवल ड्राइवर की गई थी । गार्ड तुरन्त अस्पताल पहुंचा दिया जाने की वजह से बच गया था और अब उसकी हालत संतोषजनक बताई गई थी ।
मुहम्मद अनीस नामक वह फौरमैन भी अस्पताल में था, जिसने अपनी जान पर खेलकर डाकुओं का पीछा करने की कोशिश की थी, लेकिन अब उसकी जान को कोई खतरा नहीं था ।
पुलिस डाकुओं को बहुत सरगर्मी से तलाश कर रही थी । आगरे से बाहर जाने वाले निकासी के सारे रास्ते पुलिस ने बन्द कर दिए थे और नगर में मौजूद हर स्टेशन वैगन को चैक किया जा रहा था ।
फिर द्वारका ने रेडियो बन्द कर दिया ।
“द्वारका” - विमल बोला - “इस तरह तो कभी-न-कभी तुम्हारी स्टेशन वैगन के बारे में भी पूछताछ हो सकती है । अगर तुमसे पूछा गया कि तुम्हारी स्टेशन वैगन कहां गई ? तो तुम क्या जवाब दोगे ?”
“पुलिस को यह पता कैसे लगेगा कि मेरे पास कोई स्टेशन वैगन है ?”
“तुम्हारे अड़ोसी-पड़ोसी बता सकते हैं ।”
“नहीं बता सकते । वह स्टेशन वैगन मैं हमेशा यहीं खड़ी किया करता था ।”
“पुलिस को मोटर व्हीकल्स रिकॉर्ड से मालूम हो सकता है कि वह स्टेशन वैगन तुम्हारे नाम रजिस्टर्ड है ।”
“वह मेरे नाम रजिस्टर्ड है ही नहीं । मैंने गाड़ी सैकण्डहैंड खरीदी थी और आज तक उसका रजिस्ट्रेशन मैंने अपने नाम नहीं कराया । जिस आदमी से मैंने गाड़ी खरीदी थी वह दुबई चला गया हुआ है । पुलिस उसको क्या तलाश कर पाएगी ?”
“फिर तो ठीक है वरना तुम्हारे लिए मुश्किल हो जाती ।”
“अब इस गैरज का क्या होगा ?” - कूका बोला ।
“क्या मतलब ?” - द्वारकानाथ उसकी तरफ घूमा ।
“गंगाधर जब यहां लौटेगा नहीं तो लोग सोचेंगे नहीं कि वह कहां चला गया ?”
“सोचेंगे तो सोचते रहें । लोग क्या शहर से बाहर कहीं नहीं जाते ?”
“कोई-न-कोई शक जरूर करेगा ।”
“कुछ नहीं होता । कूका, तुम खामाखाह की चिन्ता मत किया करो ।”
कूका कुछ क्षण खामोश बैठा रहा और फिर बोला - “अब मैं जाना चाहता हूं ।”
“ठीक है ।” - द्वारकानाथ बोला - “लेकिन कूका, बरखुरदार, अब जरा जिम्मेदारी से काम लेना । भगवान के लिए कोई ऐसी हरकत मत करना, जो तुम्हें भी फंसा दे और हमें भी ।”
वह खामोश रहा ।
द्वारकानाथ ने उठकर उसकी पीठ थपथपाई और फिर उसे दरवाजे तक छोड़कर गया ।
कूका अपने सूटकेस के साथ वहां से विदा हो गया ।
“इस लौंडे के मिजाज ने मुझे चिन्ता में डाल दिया है” - द्वारकानाथ चिंतित स्वर में बोला - “मुझे इस पर निगाह रखनी पड़ेगी ।”
विमल खामोश रहा ।
“अब तुम्हारा क्या इरादा है ?”
“मेरा क्या इरादा होना है !” - विमल हड़बड़ाकर बोला - “जैसा तुम कहो । फिलहाल आगरे से तो मैं कूच कर नहीं सकता । तुमने रेडियो पर सुना ही है कि शहर से निकासी के हर रास्ते की कड़ी निगरानी हो रही है । मैं इस डे लाइट रॉबरी के चक्कर में फंसू या न फंसू, अपनी असलियत के चक्कर में जरूर फंस जाऊंगा ।”
“गंगाधर की गैर-मौजूदगी में अब तुम्हारा यहां गैरेज में रहना भी ठीक नहीं ।”
“तो फिर ?”
“तुम मेरे साथ चलो” - द्वारकानाथ निर्णयात्मक स्वर में बोला - “मैं कुछ दिन तो तुम्हें अपने पास ही रख सकता हूं ।”
“शुक्रिया ।” - विमल बोला । वह एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “द्वारका, क्या गंगाधर वाकई तुम्हारे सामने मर गया था ?”
“नहीं ।” - द्वारकानाथ कठिन स्वर में बोला - “अब उस लौंडे को और क्या कहता मैं ? मुझे नहीं मालूम था कि अपने आपको अमिताभ बच्चन से दस कदम आगे समझने वाला यह छोकरा असलियत में इतना कमजोर-दिल निकलेगा ।”
विमल खामोश रहा ।
“लेकिन मौत तो उसकी लाजिमी है । गंगाधर अब तक कब का मर चुका होगा ।”
“कहीं कूका यह देखने गैरेज में न पहुंच जाये कि वह मर गया है या जिन्दा है ।”
“इसी बात की तो मुझे चिन्ता सता रही है ।” - द्वारकानाथ धीरे से बोला - “मुझे लग रहा है कि यह लड़का जरूर मेरे लिए कोई मुसीबत खड़ी करेगा ।”
***
शैलजा अपने घर के सामने बरामदे में कुर्सी डाले बैठी एक उपन्यास पढ रही थी ।
उसका पति राजेन्द्र कुलश्रेष्ठ साधारणतया छ: बजे घर लौटता था और उससे कोई आधा घण्टा पहले ही वह पड़ोस में होती ताश की बैठक में से घर आती थी । आज किसी वजह से पड़ोस में ताश की महफिल नहीं जमी थी इसलिए वह बदामदे में बैठी बोर हो रही थी और मजबूरन उपन्यास पढ रही थी ।
उसने अपनी कलाई-घड़ी पर दृष्टिपात किया ।
अभी मुश्किल से साढे तीन बजे थे ।
उसने एकाएक उपन्यास बन्द कर दिया और सोचने लगी ।
उसके पति ने कहा था कि बहुत जल्दी वह नकद बीस हजार रुपया उसकी हथेली पर रखेगा ।
क्या वह सच कह रहा था ?
और अगर वह सच कह भी रहा था तो कहां से लाएगा वह इतना रुपया ? 
जरूर वह झूठ बोल रहा था । ऐसी कोई रकम पैदा कर लेना उसके बस की बात नहीं थी । अगर वह ऐसा ही उस्ताद होता तो यह काम उसने आज से पहले क्यों न कर दिखाया होता ।
एक बार इस बात की तरफ ध्यान जाते ही, कि शायद उसका पति झूठ बोल रहा था, शैलजा का मन वितृष्णा से भर उठा ।
क्या मुसीबत थी ? क्यों उसकी शादी किसी ज्यादा साधन-सम्पन्न आदमी से न हो सकी ?
जो उपन्यास वह पढ रही थी, उसमें भी हीरोइन की शादी एक ऐसे आदमी से हुई थी, जो निहायत मामूली हैसियत का था और जो हीरोइन को पसन्द नहीं था लेकिन उपन्यास के तो चौथे ही चेप्टर में उसकी जिन्दगी में एक और नौजवान आ गया था जो उसके पति से हर हाल में बेहतर था । ज्यादा खूबसूरत, ज्यादा कद्र करने वाला, ज्यादा साधन-सम्पन्न, ज्यादा सब कुछ ।
क्या ऐसा कोई मर्द कभी उसकी जिन्दगी में भी आएगा ? शैलजा चरित्रहीन तो नहीं थी लेकिन कोई बहुत ऊंचे आदर्शों वाली निष्ठावान और चरित्रवान पत्नी भी वह नहीं थी । पति को धोखा देते समय उसका कलेजा लरजेगा, इसकी आशंका उसे नहीं थी । लेकिन पति को धोखा देने के काबिल कोई मर्द उसकी जिन्दगी में आए तो सही ।
वह एक खूबसूरत युवती थी और बहुत लोग उसे लालसाभरी निगाहों से देखते थे लेकिन वे लोग या तो बहुत गरीब होते थे या बहुत बदसूरत होते थे या बहुत बूढे होते थे ।
वह अक्सर अपनी तकदीर को कोसा करती थी कि अगर भगवान उसे अच्छा पति नहीं दिला सका था तो क्या उसे एक अच्छा प्रेमी भी नहीं दिला जा सकता था !
जिस घर में वह ताश की महफिल में शामिल होने जाती थी, वहां एक युवक उस पर बहुत मरता था । वह खूबसूरत था, नौजवान था लेकिन नादान था । शैलजा जानती थी कि उससे उस युवक से बहुत हासिल हो सकता था लेकिन उस युवक से शैलजा को कुछ नहीं हासिल हो सकता था ।
शैलजा ने हमेशा एक ऐसे मर्द के संसर्ग की तमन्ना की थी, जो फिल्म अभिनेताओं जैसा खूबसूरत हो, शानदार कपड़े पहनता हो, जिसके पास गाड़ी हो और जिसका बटुवा हर वक्त नोटों से भरा रहता हो । जो खूबसूरत औरत की मुनासिब कद्र करना जानता हो और होटलों, क्लबों में जाने का शौकीन हो । जिसके साथ चलना उसे जीवन की उपलब्धि महसूस हो । जिस से प्यार से उसका मन कभी न भरे ।
लेकिन जो मर्द पति की सूरत में उसे मिला था, उसमें वैसा एक भी गुण नहीं था । 
तभी तेरह-चौदह साल का एक लड़का भागता हुआ उसके घर के कम्पाउण्ड में दाखिल हुआ ।
“आंटी ! आंटी !” - वह उत्तेजित भाव से चिल्लाया - “डाका पड़ गया ।”
“कहां ?” - शैलजा हड़बड़ाकर बोली ।
“रत्नाकर स्टील कम्पनी में । जहां अंकल जी काम करते हैं ।”
सुनते ही पहला ख्याल जो शैलजा के मन में आया वह यह था कि क्या डाके में कम्पनी का सिक्योरिटी ऑफिसर मारा गया था । फिर ऐसा ख्याल मन में आने पर वह खुद ही शर्मिन्दा हो गई ।
“अरे, ठीक से बता क्या हुआ ?” - वह बोली ।
“अभी-अभी रेडियो में आया है” - लड़का बोला - “कि डाकुओं ने मिल की गाड़ी लूट ली है । वे पैंतालीस लाख रुपया लूटकर ले गए हैं । एक आदमी मारा गया है और दो जख्मी हो गए हैं ।”
फिर वह लड़का शैलजा के आवाज देते-देते भी तुरन्त वहां से भाग खड़ा हुआ - कहीं और वही खबर सुनाने के लिए ।
शैलजा अपने घर से बाहर निकली । वह पड़ोस में कहीं से पूछकर आना चाहती थी कि वास्तव में क्या हुआ था ।
अभी वह गेट पर ही पहुंची थी कि उसे दूर से अपने पति की मोटरसाइकल आती दिखाई दी ।
वह ठिठक गई । उसने गेट पूरा खोल दिया ।
कुलश्रेष्ठ ने मोटरसाइकल को गेट से भीतर दाखिल किया और उसे इमारत की बगल में बनी राहदारी से गुजारता हुआ पिछले कम्पाउण्ड में बने सायबान तक ले गया । उसने मोटरसाइकल सायबान में खड़ी की और चेहरे का पसीना पोंछता वापिस लौटा ।
“आज जल्दी कैसे आ गए ?” - शैलजा ने पूछा ।
कुलश्रेष्ठ ने उत्तर नहीं दिया । वह उसकी बगल में से होता हुआ इमारत में दाखिल हुआ और सीधा बैडरूम में पहुंचा । वहां जाते ही वह पलंग पर ढेर हो गया ।
शैलजा भी उसके पीछे-पीछे वहां पहुंची ।
“क्या बात है ?” - उसने पूछा - “तुम्हारी तबीयत तो ठीक है ?”
“उहूं” - वह हांफता हुआ बोला - “तबीयत खराब है जरा ।”
“आज जल्दी कैसे आ गये ?”
“अरे बतया न” - वह झुंझलाकर बोला - “कि तबीयत खराब है ।”
“चाय लाऊं ?”
“नहीं ।”
“कोई कह रहा था कि तुम्हारी मिल में डाका पड़ गया है । कहीं उसी की वजह से तो परेशान नहीं हो ?” 
उसने उत्तर नहीं दिया ।
उत्तर देने के स्थान पर कुलश्रेष्ठ ने करवट बदलकर उसकी तरफ पीठ कर ली ।
शैलजा उसके सामने ठिठकी खड़ी रही ।
फिर एक ख्याल बिजली की तरह उसके मस्तिष्क में कौंध गया ।
कहीं उस डकैती का उसके पति से कोई रिश्ता तो नहीं था ?
बीस हजार रुपये की जिस रकम का राग वह अलाप रहा था, उसका कोई रिश्ता डकैती से तो नहीं था ?
लेकिन डकैती से उसका क्या रिश्ता हो सकता था ?
क्या वह किसी रूप में डकैती में शामिल हो सकता था ?
नामुमकिन ।
अगर वह इतना हौसलामन्द होता तो फिर रोना ही क्या था ।
फिर शैलजा सिर झटकती हुई बैडरूम से बाहर निकल गई ।
वह अपने पति की आदतों से खूब परिचित थी । देर-सवेर वह खुद ही उसे बतायेगा कि वह क्यों पेरशान था ।
***
द्वारकानाथ ने मैटकाफ रोड की एक इमारत के सामने अपनी फियेट रोकी ।
“इस इमारत की दूसरी मंजिल पर मेरा फ्लैट है ।” - द्वारकानाथ ने उसे बताया - “बाकी मंजिलों पर दो-दो फ्लैट हैं । सिर्फ दूसरी मंजिल पर ही दो कमरों का एक इकलौता फ्लैट है जो कि मेरे पास है ।”
“बड़ी सीढियां चढनी पड़ती होंगी ।” - विमल बोला ।
“क्या मतलब ?”
“तुम दिल के मरीज हो । डॉक्टर तुम्हें दो मंजिल सीढियां चढने से मना नहीं करता ?”
“करता है लेकिन क्या करूं ? रहने को और कोई ढंग की जगह मिलती भी तो नहीं ।”
“अब तो तुम खूब रईस हो । जैसी मर्जी जगह में रहना ।”
“हां । वह तो है । वैसे मेरा इरादा तो यह शहर ही छोड़ देने का है । जरा मामला ठंडा पड़ जाये, उसके बाद मैं तो दिल्ली जाकर रहूं ।”
“हूं ।”
दोनों ने कार में से अपने-अपने सूटकेस निकाल लिये ।
फिर द्वारकानाथ ने गाड़ी को बन्द किया और फिर इमारत में दाखिल हुआ ।
विमल उसके पीछे-पीछे हो लिया ।
द्वारकानाथ धीरे-धीरे सीढियां चढने लगा । 
“सूटकेस भारी लग रहा होगा !” - विमल बोला - “लाओ मैं उठा लूं ।”
“नहीं, बरखुरदार” - द्वारकानाथ हंसता हुआ बोला - “यह सूटकेस तो मुझे फूलों से हल्का लग रहा है । इतना प्यारा बोझ तो मैं खुद ही उठाऊंगा ।”
“मर्जी तुम्हारी ।”
पहली और दूसरी मंजिल के बीच की सीढियों के ऊपरले सिरे पर एक दरवाजा था, जो उस वक्त बन्द था और जिस पर बाहर से ताला लगा हुआ था ।
द्वारकानाथ उस दरवाजे से अभी दो-तीन सीढियां परे ही था कि एकाएक वह ठिठक गया । सीढियां चढने के उपक्रम में आगे को झुका हुआ शरीर और आगे को झुक गया फिर उसके मुंह से एक अजीब-सी घरघराहट की आवाज निकली और सूटकेस पर उसकी पकड़ ढीली पड़ गई ।
सूटकेस कलाबाजियां खाता हुआ सीढियों पर लुढका और पता नहीं कैसे वह खुल गया । उसमें से नोटों की गड्डियां निकल-निकलकर सीढियों में बिखरने लगीं और जो नोट गड्डियों की सूरत में बन्धे हुए नहीं थे, वो हवा में उड़ने लगे ।
विमल भौचक्का-सा सीढियों में थमका खड़ा रहा । उसकी समझ में ही नहीं आ रहा था कि एकाएक द्वारका को हो क्या गया था ।
फिर द्वारकानाथ औंधे मुंह सीढियों में ढेर हो गया । विमल ने अपना सूटकेस सीढियों में रख दिया और लपककर उसके पास पहुंचा ।
“द्वारका ! द्वारका !” - वह आतंकित स्वर में बोला - “क्या हो गया ?”
द्वारकानाथ का चेहरा पहले लाल फिर सफेद और फिर काला पड़ गया ।
विमल आतंकित भाव से कभी उसे और कभी सारी सीढियों में बिखरे नोटों को देखता रहा ।
फिर विमल की समझ में आ गया कि द्वारकानाथ को एकाएक दिल का दौरा पड़ गया था ।
फिर उसे द्वारकानाथ को संभालने से ज्यादा जरूरी काम नोटों को सम्भालना लगा । द्वारकानाथ तो क्या पता मर ही गया हो !
विमल जल्दी-जल्दी सीढियों से नोट समेटने लगा और उसे वापस द्वारकानाथ के खुले सूटकेस में भरने लगा ।
थोड़ी देर बाद उसने सारे नोटों को सूटकेस में भरकर उसे फिर से बन्द कर दिया ।
“धन्न करतार !” - हांफते हुए उसके मुंह से निकला । 
दाता की उस पर बड़ी मेहर हुई थी कि तब तक भी पहली मंजिल के दो फ्लैटों में रहने वालों में से किसी ने सीढियों में नहीं झांका था ।
फिर वह वापिस द्वारकानाथ के पास पहुंचा ।
उसने द्वारकानाथ की नब्ज टटोली ।
नब्ज चल रही थी ।
“द्वारका ! द्वारका !” - उसने द्वारका को फिर पुकारा ।
“मुझे.. मुझे” - द्वारकानाथ क्षीण स्वर में बोला - “दिल का दौ... दौरा... पड़ा है । मुझे अन्दर.. ले... चलो ।”
“चाबी ! फ्लैट की चाबी कहां है ?”
“मेरी... ज... जेब में ।”
विमल ने जल्दी-जल्दी उसकी जेबें टटोलनी आरम्भ कीं । एक जेब में उसे एक चाबी मिल गई । विमल ने आगे बढकर फ्लैट का दरवाजा खोला ।
फिर उसने बड़ी मुश्किल से द्वारकानाथ को उठाया और उसे लेकर लड़खड़ाता, गिरता-पड़ता उसके बैडरूम तक ले आया । उसने उसे सावाधानी से पलंग पर लिटा दिया और फिर बोला - “द्वारका ! कैसा लग रहा है ?”
“नीचे... डॉक्टर है । ...रस्तोगी । बुला... लाओ ।”
विमल फ्लैट से बाहर झपटा ।
पहले वह सीढियों में से दोनों सूटकेस उठा लाया । उसने सूटकेस बैडरूम में पलंग के नीचे सरका दिये ।
वह वापस सीढियों में भागा ।
पहली मंजिल का मोड़ घूमते समय एकाएक वह ठिठका । सबसे नीचे की सीढी के पास दरवाजे के एक पल्ले के नीचे से सौ-सौ की एक गड्डी उसकी तरफ झांक रही थी ।
दाता ! - उसके मुंह से निकला । उसने झपटकर गड्डी उठाकर अपनी जेब में रखी और सावधानी से सीढियों का मुआयना किया ।
पचास का एक नोट फड़फड़ाता हुआ ऊपर रोशनदान के सीखचों से लिपटा हुआ था ।
विमल ने उस नोट को भी झपटकर अपनी जेब में रखा और नीचे भागा ।
वह इमारत से बाहर निकला ।
वहां जो पहला आदमी उसे दिखाई दिया, उसने उससे पूछा कि डॉक्टर रस्तोगी का क्लिनिक कहां था ।
मालूम हुआ कि क्लिनिक चार इमारतें आगे था ।
विमल भागता हुआ वहां पहुंचा ।
वहां डॉक्टर अभी क्लिनिक में आकर बैठा ही था ।
“डॉक्टर साहब” - वह हांफता हुआ बोला - “जल्दी मेरे साथ चलिये । एक आदमी को हार्ट-अटैक हो गया है ।”
“कहां ?” - डॉक्टर हड़बड़ाकर बोला ।
“पास ही ।”
“किसको ?”
“मेरे अंकल को । शायद वे आपके पेशेण्ट हैं ।”
“क्या नाम है उनका ?”
“द्वारकानाथ ।”
डॉक्टर ने अपना बैग संभाला और तुरन्त उसके साथ हो लिया ।
रास्ते में डॉक्टर ने उसे बताया कि द्वारकानाथ उसका पेशेण्ट नहीं था, लेकिन वह जानता था कि उसे दिल की शिकायत थी ।
विमल डॉक्टर के साथ वापस द्वारका के पास पहुंचा ।
द्वारकानाथ की सूरत पर एक निगाह डालते ही उसका चेहरा बेहद गम्भीर हो गया । उसने बड़ी फुर्ती से पैथाडीन का एक इंजेक्शन तैयार करके द्वारका को दे दिया । फिर वह स्टेथस्कोप कान से लगाकर बड़ी देर तक उसकी छाती को टटोलता रहा ।
अन्त में वह सीधा हुआ ।
विमल ने प्रश्नसूचक नेत्रों से उसकी तरफ देखा ।
“बहुत भीषण अटैक हुआ है ।” - डॉक्टर धीरे से बोला - “हैरानी है कि बच गया है ।”
“ओह !”
“लेकिन इसकी हालत बहुत शोचनीय है । किसी भी वक्त कुछ भी हो सकता है ।”
“तो क्या इन्हें अस्पताल...”
“सवाल ही नहीं पैदा होता । इसे इस वक्त अपनी जगह से एक इंच भी हिलाना खतरनाक हो सकता है ।”
“तो ?”
“सब इंतजाम यहीं करना होगा । बहुत खर्चा होगा । तुम लोग खर्चा अफोर्ड कर सकते हो ?”
“जरूर कर सकते हैं ।”
“फिर ठीक है । तुम मुझे दो हजार रुपये एडवांस दो । मैं सब इंतजाम करता हूं ।”
विमल ने सौ-सौ के बीस नोट उसके हवाले कर दिये ।
“आओ मेरे साथ ।”
विमल फिर उसके साथ हो लिया ।
“अटैक कहां हुआ था ?” - डॉक्टर ने पूछा ।
“सीढियों में ।” 
“एकाएक हो गया था ?”
“भगवान जाने । अभी पांच मिनट पहले तक तो अच्छे-भले थे ।”
“लेकिन कुछ तो हुआ होगा ? कोई एक्साइटमेंट ?”
विमल के जहन में डकैती का सारा नजारा घूम गया ।
“मुझे मालूम नहीं ।” - प्रत्यक्षत: वह बोला ।
“हूं ।”
डॉक्टर ने अपने क्लिनिक में पहुंचकर अपने कम्पाउण्डर को कुछ आवश्यक निर्देश दिये और फिर उसे विमल के साथ रवाना कर दिया ।
विमल उसे लेकर फिर द्वारकानाथ के पास पहुंच गया ।
पन्द्रह मिनट बाद डॉक्टर रस्तोगी एक हार्ट स्पैशलिस्ट के साथ लेकर आया । उसने भी द्वारकानाथ का मुआयना किया और बड़े चिन्ताजनक ढंग से सिर हिलाया ।
फिर वहीं द्वारकानाथ को ऑक्सीजन लगा दी गई ।
फिर बड़े डॉक्टर ने इलैक्ट्रोकार्डियोग्राम की मशीन मंगवाई, द्वारकानाथ के दिल की धड़कन का ग्राफ तैयार किया और उसे देखकर फिर पहले से ज्यादा चिंताजनक ढंग से सिर हिलाया ।
फिर वह बाहरले कमरे में जाकर रस्तोगी से खुसर-फुसर करने लगा ।
अन्त में वे दोनों विमल के पास वापस लौटे ।
“मरीज की हालत” - बड़ा डॉक्टर बोला - “बहुत नाजुक है । अगर यह चौबीस घंटे काट गया तो शायद बच जाये नहीं तो...” - बड़ा डॉक्टर जान-बूझकर आगे न बोला ।
“यहां एक नर्स हर वक्त मरीज के पास मौजूद रहेगी ।” - रस्तोगी बोला - “अच्छा है कि यहां टैलीफोन है । वह अगर जरूरत महसूस करेगी तो इन्हें फौरन बुला लेगी ।”
“मेरे लिए क्या हुक्म है ?” - विमल बोला ।
“तुम आराम करो । फिलहाल तुम मरीज के लिए कुछ नहीं कर सकते ।”
एक नर्स को पीछे छोड़कर अपने तामझाम समेत दोनों डॉक्टर वहां से विदा हो गए ।
***
अगले दिन योगेश के दाह-संस्कार में शामिल होने वाले लोगों में अधिकतर रत्नाकर स्टील कम्पनी के कर्मचारी थे ।
योगेश के माता-पिता नहीं थे । नजदीकी रिश्तेदारों में उसके दो चाचा थे, जो फैजाबाद में रहते थे लेकिन अन्तिम संस्कार के समय तक उनमें से कोई नहीं पहुंचा था ।
बाद में योगेश की पत्नी सरोज को सांत्वना देकर लोग धीरे-धीरे विदा होने लगे ।
अन्त में सरोज, उसके छोटे-छोटे दो बच्चे और उसके माता-पिता पीछे रह गये ।
फिर सरोज के माता-पिता सरोज के बहुत मना करने के बावजूद भी उसे और उसके बच्चे को जबरन अपने घर ले गये ।
सरोज के पिता लाला हरद्वारीलाल आगरे के माने हुए रईस थे । हेस्टिंग्स रोड पर उनकी शानदार दोमंजिली कोठी थी जहां वह बड़े ठाठ-बाट से रहते थे ।
उस रोज अपनी शादी के बाद पहली बार सरोज ने अपने पिता के घर में कदम रखा था ।
सरोज ने लव-मैरिज की थी । अपने मां-बाप की मर्जी के खिलाफ, उनके तीव्र विरोध का सामना करके, उनके भारी कोप का भाजन बन के उसने योगेश से कोर्ट में शादी की थी ।
योगेश से सरोज की शादी के नाम पर लाला हरद्वारीलाल बहुत आग बबूला हुए थे । उन्होंने योगेश को गिरफ्तार करवा देने की, गुण्डों से पिटवा देने की, जान तक से मरवा देने की धमकी दी थी लेकिन सरोज किसी भी धमकी से प्रभावित नहीं हुई थी । वह अपने इरादों से हिलकर नहीं दी थी ।
सरोज ने योगेश जैसे मामूली हैसियत वाले, बल्कि बेहैसियत आदमी से, शादी की और अपने पिता के घर के तमाम सुख और वैभव को लात मारकर उसके साथ रहने लगी ।
बाद में जब उसके पिता का गुस्सा उतर गया तो वे सरोज को मनाने के लिए उसके घर कई बार आए । उन्होंने योगेश से माफी तक मांगी और उनसे प्रार्थना की कि वे उनकी कोठी में आकर रहें लेकिन उनकी प्रार्थना कबूल न हुई । सरोज का जवाब था कि वह अपने पति के साथ पूरी तरह सुखी थी, जैसी जिंदगी वह जी रही थी उससे वह पूरी तरह सन्तुष्ट थी । लाला हरद्वारीलाल ने उनकी रुपये-पैसे की भी मदद करनी चाही लेकिन सरोज को उन की वह मदद भी कबूल न हुई । उसकी एक ही जिद थी कि उसका पति उसे जहां रखेगा, वह वहीं रहेगी, वह जो रूखी-सूखी लायेगा, वह उसे सिर माथे समझकर कबूल करेगी ।
लाला हरद्वारीलाल की अपनी जिद्दी बेटी के सामने एक न चली ।
चार साल पहले उनकी इकलौती बेटी अविवाहित उनका घर छोड़कर गई थी और आज विधवा होकर वापस लौटी थी ।
अपनी बेटी के दुर्भाग्य पर माता-पिता जार-जार रोये, घर के नौकर-चाकर तक अपने आंसू न रोक सके, सरोज के दोनों बच्चे जो अभी तक यह समझ ही नहीं सके थे कि उनका क्या खो गया, घर का माहौल देखकर रोने लगे लेकिन सरोज की आंखों से आंसू की एक बूंद न टपकी । वह न अपने पति की दर्दनाक मौत की खबर सुनकर रोई, न उसके दाह-संस्कार के समय रोई और न तब रोई । उसके माता-पिता ने उसकी आंखों में आंसुओं के स्थान पर ऐसी ज्वाला धधकती देखी जिसे समझ पाना उनकी पहुंच से बाहर था, लेकिन जिसका उन पर ऐसा असर था कि अपनी बेटी से कुछ कहने के स्थान पर वह सहमकर चुप हो जाते थे ।
सरोज योगेश से दो साल बड़ी थी और योगेश को बेपनाह प्यार करती थी । कई बार वह योगेश को मजाक में कहा करती थी कि उसके दो नहीं तीन बच्चे थे, फर्क केवल इतना था कि एक बच्चा अपने आपको बालिग समझता था । योगेश अगर स्वभाविक मौत मरा होता तो उसके प्यार की मारी सरोज शायद रो-रोकर जान दे देती । लेकिन उसका पति तो किन्हीं बेरहम लोगों के लालच और जुल्म का शिकार होकर खामखाह की मौत मर गया था, किन्हीं दौलत के दीवाने अधमों ने आकर उसकी और उसके बच्चे की जिन्दगी को पुर्जा-पुर्जा करके बिखरा दिया था । अब वह जानती थी कि अगर उसने अपने पति की जान लेने वाले लोगों से बदला लेना था तो रोने-धोने से काम नहीं चलने वाला था । उन जालिमों की हस्ती मिटा देने से पहले वह रो नहीं सकती थी । रोने से तो गम हल्का हो जाता है । वह अपना गम हल्का नहीं करना चाहती थी । वह चाहती थी कि उसका गम उसके भीतर यूं बेतहाशा उबले कि वह ज्वालामुखी बनकर फट पड़े और अपने पति की जान लेने वाले जालिमों को लील ले । जब उसका पति किन्हीं जालिमों की काली करतूत की वजह से उसकी आंखों के सामने राख का ढेर बन गया था तो वह रो कैसे सकती थी ।
उस रोज शाम को तनहाई का पहला मौका हाथ आते ही वह अपने पिता के उस ऑफिसनुमा कमरे में दाखिल हई थी जो उनके बैडरूम की बगल में था । उसे खूब याद था उस कमरे की एक अलमारी में उसके पिता ने एक रिवॉल्वर रखी हुई थी जो जब से खरीदी गई थी, वहीं पड़ी थी और कभी इस्तेमाल नहीं हुई थी । शायद अब उसके इस्तेमाल का वक्त आ गया था ।
यह देखकर उसे बड़ा संतोष मिला कि रिवॉल्वर अभी भी उसी अलमारी में मौजूद थी, जहां उसने चार-पांच साल पहले उसे आखिरी बार देखा था ।
उसने रिवॉल्वर अपने अधिकार में ले ली और चुपचाप वहां से निकलकर अपने कमरे में पहुंच गई ।
***
लाला हरद्वारीलाल को आगरे का बच्चा-बच्चा जानता था । जब उन्हें मालूम हुआ कि उनकी पुत्री अब उनकी कोठी पर आ गई थी तो लोग अफसोस करने के लिए आने लगे । सारा दिन आगन्तुकों का तांता लगा रहा । रात तक भी वह तांता न टूटा तो सरोज लोगों की, अपने पिता की परवाह किये बिना घर से निकल पड़ी । कार चलाना वह जानती थी । उसने अपने पिता की एक कार अपने अधिकार में की और माता-पिता के लाख पूछने के बावजूद भी बिना कुछ बताये वह घर से निकल पड़ी ।
वह सीधी थाने पहुंची ।
वहां इत्तफाक से हवेलीराम नाम का वह वद्ध इन्स्पेक्टर मौजदू था जो उस डकैती कांड की तफ्तीश कर रहा था ।
“मेरा नाम सरोज है ।” - उसने इन्स्पेक्टर को अपना परिचय दिया - “मैं योगेश की बीवी हूं । योगेश वह ड्राइवर है जो डकैती में मारा गया था...”
योगेश की मौत से पहले बहुत कम लोग वह बात जानते थे लेकिन अब आगरे का बच्चा-बच्चा जान गया था कि योगेश नामक रत्नाकर स्टील कम्पनी का मामूली ड्राइवर लाला हरद्वारीलाल जैसे बड़े रईस का दामाद था ।
“मैं जानता हूं आपको ।” - इन्स्पेक्टर आदरपूर्ण स्वर में बोला - “आप लाला हरद्वारीलाल की बेटी हैं ।”
“मैंने कहा” - सरोज कठोर स्वर में बोली - “मैं उस शख्स की बीवी हूं जो डकैती की शिकार वैन का ड्राइवर था ।”
“जी हां । जी हां ।” - इन्स्पेक्टर हड़बड़ाया - “फरमाइये मैं आपकी क्या खिदमत कर सकता हूं ?”
“डकैती का कोई सुराग मिला आपको ?”
“अभी तो नहीं मिला लेकिन तफ्तीश जारी है ।”
“वह तो हमेशा ही होती है । कोई तरक्की भी की आपने ?”
इन्स्पेक्टर ने बेचैनी से पहलू बदला और फिर धीरे से बोला - “हमें कुछ ऐसे सूत्र मिले हैं जिनसे लगता है कि वह इनसाइड जॉब है ।”
“इनसाइड जॉब क्या मतलब ? आपका मतलब है कि मिल के किसी कर्मचारी का डाकुओं से गठजोड़ था ?”
“जी हां ।”
“आपको किसी व्यक्ति विशेष पर शक है ?”
“जी हां ।”
“किस पर ?”
“देखिये हमारा शक गलत भी हो सकता है । हम दावे के साथ यह नहीं कह सकते कि...” 
“किस पर शक है आपको ?”
“मिल के सिक्योरिटी ऑफिसर कुलश्रेष्ठ पर ।”
“शक का कोई आधार ?”
“कई छोटी-छोटी बातें हमारी जानकारी में आई हैं लेकिन मैं फिर कहता हूं कि यह सरासर मुमकिन है कि उस आदमी का डकैती से कोई वास्ता न हो ।”
“मसलन क्या सन्देहजनक देखा आपने उसमें ?”
“डकैती के समय गाड़ियों में जो टक्कर हुई थी, उसकी आवाज मिल के भीतर तक सुनी गई थी । आवाज सुनते ही हर आदमी यह देखने के लिये भागा था कि क्या हो गया था लेकिन कुलश्रेष्ठ के धनीराम नाम के एक सहकारी का कहना है कि वह अपनी जगह से हिला तक नहीं था । उसने सिर तक नहीं उठाया था । वह तो यूं खामोश बैठा रहा था जैसे कि उसे मालूम हो कि बाहर क्या हुआ था ।”
“और ?”
“धनीराम से ही हमें मालूम हुआ था कि कल सुबह एक रायफल को लेकर कुलश्रेष्ठ धनीराम पर बहुत लाल-पीला हुआ था । गार्ड को देने के लिए वह कोई रायफल निकालकर मेज पर रख गया था लेकिन धनीराम ने गार्ड को उस रायफल की जगह कोई दूसरी रायफल दे दी थी और इस बात पर उसने धनीराम को बहुत डांटा था ।”
“आपने पूछा नहीं कि कुलश्रेष्ठ को कोई खास रायफल ही क्यों देना चाहता था ?”
“पूछा था । वह कहता था कि बात यह नहीं थी । सवाल इस बात का था कि उसके मातहत ने उसकी हुक्मउदूली क्यों की थी ? उसने तो उसूलन धनीराम को डांटा था कि उसने वैसा ही क्यों नहीं किया था जैसा उसे करने के लिए कहा गया था वरना रायफल में कोई फर्क नहीं था ।”
“क्या वाकई ?”
“जी, क्या फरमाया ?”
“मैंने पूछा है आपने देखा था कि रायफल रायफल में कोई फर्क था या नहीं ?”
“देखा था ।” - इन्स्पेक्टर धीरे से बोला । उसने फिर बेचैनी से पहलू बदला - “पीछे पड़ी दो रायफलों में से एक का फायरिंग पिन किसी ने रेती से घिस दिया था ।”
“और वही रायफल कुलश्रेष्ठ गार्ड को देना चाहता था ?”
“कुलश्रेष्ठ तो ऐसा नहीं कहता । वह तो कहता है कि रायफल उन दोनों में से एक थी । वह कौन-सी थी, यह उसे याद नहीं ।”
“वह झूठ बोल रहा है ।” 
“मुमकिन है ।”
“आपको उससे सच बुलवाना चाहिए ।”
“कैसे ? जबरन ?”
“क्यों नहीं ?”
“शक के किसी ठोस आधार के बिना हम उससे जबरदस्ती कैसे कर सकते हैं ? मुमकिन है वह निर्दोष हो । मुमकिन है धनीराम ने जो कुछ देखा-सुना, उसका मतलब वह न हो जो हमने निकाला है । सिक्योरिटी विभाग में कुलश्रेष्ठ और धनीराम के अलावा बयालीस आदमी और काम करते हैं । रायफल का फायरिंग पिन उन बयालीस में से भी किसी ने घिसा हो सकता है ।”
“फिर भी आपको बारीकी से चैक करना चाहिए ।”
“हम कर रहे हैं । हम गुप्त रूप से उसकी निगरानी करवा रहे हैं । अगर वह डकैतों का सहयोगी है तो कोई-न-कोई संदिग्ध हरकत वह जरूर करेगा । हम कल शाम से ही उसकी निगरानी करवा रहे हैं । फिलहाल उसने कोई संदेहजनक हरकत नहीं की है ।”
“लेकिन अगर वह डकैतों का सहयोगी है तो जाहिर है कि वह डकैतों को जरूर जानता होगा ?”
“जाहिर है ।”
“हूं । ये सिक्योरिटी ऑफिसर साहब रहते कहां हैं ?”
इन्स्पेक्टर ने उसे उसका पता बता दिया ।
सरोज इन्स्पेक्टर का धन्यवाद करके वहां से विदा हुई और अपनी कार पर सवार होकर सीधी शाहगंज पहुंची ।
कार को उसने बहुत परे खड़ा किया और फिर वह पैदल कुलश्रेष्ठ के घर की ओर बढी ।
कुलश्रेष्ठ का घर उस इलाके के गिने-चुने ऐसे मकानों में था जो कि नये और अपेक्षाकृत आधुनिक बने हुए थे । उसे कुलश्रेष्ठ के घर से थोड़ा परे एक बिजली के खम्बे के साथ टेक लगाए खड़ा एक आदमी दिखाई दिया जो धीरे-धीरे बीड़ी के कश लगा रहा था । कुलश्रेष्ठ के घर के सामने आकर वह ठिठकी । उसने देखा फाटक खुला था और भीतर कम्पाउण्ड में अंधेरा था । एक कमरे की खिड़की बरामदे में खुलती थी और उसी में रोशनी दिखाई दे रही थी । सरोज ने घूमकर बिजली के खम्बे के पास खड़े बीड़ी वाले को देखा । उस आदमी ने फौरन परे देखना आरम्भ कर दिया । सरोज को लगा कि शायद वही वह आदमी था जो इन्स्पेक्टर हवेलीराम द्वारा कुलश्रेष्ठ की निगरानी के लिए तैनात किया गया था । वह उसकी परवाह किये बिना दबे पांव कम्पाउण्ड में दाखिल हो गई है और बरामदे में पहुंची ।
खिड़की में से उसने भीतर झांका । 
भीतर एक सोफे पर एक आदमी बैठा था । उसके चेहरे पर चिन्ता और परेशानी के ऐसे गहरे भाव थे जैसे सरोज ने आज तक किसी के चेहरे पर नहीं देखे थे ।
क्या वह कुलश्रेष्ठ था ? और कौन हो सकता था वह ?
सरोज बरामदे में ठिठकी खड़ी रही ।
तभी पिछले दरवाजे के रास्ते एक बड़ी सुन्दर स्त्री ने भीतर कदम रखा ।
“मैं पूछती हूं यह कल से तुम्हें हो क्या गया है ?” - उसे स्त्री स्वर सुनाई दिया - “ऐसी क्या आफत आ गई है जो...”
“शैलजा” - पुरुष बोला - “चुप करो । कान न खाओ ।”
“देखो, अगर उस डकैती से तुम्हारा कोई रिश्ता है तो मुझे सच-सच बता दो । मैं तुम्हारी बीवी हूं । मुझे हक है जानने का ।”
पुरुष ने उत्तर नहीं दिया ।
“ठीक है । मत बताओ ।” - स्त्री बोली - “खाना तैयार है । खा लो ।”
“आता हूं ।”
फिर खामोशी । सरोज चुपचाप वहां से निकल आई ।
अपनी कार की तरफ लौटते समय उसने देखा कि बीड़ी पीता आदमी यूं गौर से उसे देख रहा था जैसे वह उसकी सूरत याद करने की कोशिश कर रहा हो ।
यह जरूर पुलिसिया है । - सरोज मन-ही-मन बोली ।
कार पर सवार होकार वह हेस्टिंग्स रोड वापस लौटी ।
अपने पिता के ऑफिस से उसने उनका पोर्टेबल टाइपराइटर और कुछ कोरे कागज उठाये और अपने कमरे में आ गई ।
वह कुलश्रेष्ठ को चिट्ठी लिखने जा रही थी । वह उसे रोज एक चिट्ठी लिखने का इरादा रखती थी । ऐसी चिट्ठी जिसे पढकर उसे अपने गुनाहों का अहसास हो, वह घबरा जाये, बौखला जाये और फिर कोई ऐसी हरकत करे जो उसकी पोल खोल दे । उसने रोलर में एक कागज चढाया और फिर एक-एक अक्षर तलाश करके एक उंगली से टाइप करने लगी ।
कुलश्रेष्ठ के नाम जो चिट्ठी वह लिखने जा रही थी, उसका आरम्भ उसने इस प्रकार किया:
राजेन्द्र कुलश्रेष्ठ, यू सन ऑफ बिच...
***
अगली शाम तक द्वारकानाथ की हालत तनिक सुधरी । डॉक्टर ने उसे हिलने-डुलने की इजाजत तो फिर भी न दी लेकिन उसने उसके बोलने-चालने पर पाबन्दी न लगाई ।
“नर्स को जरा बाहर भेजो ।” - द्वारकानाथ धीरे से बोला ।
विमल ने नर्स को संकेत किया ।
नर्स वहां से उठी और बैठक में चली गई ।
“यह डकैती की एक्साइटमेंट तो मुझ पर बहुत भारी गुजरी ।” - द्वारकानाथ बोला - “देख लो क्या गत बन गयी !”
“जो बीत गई उसे भूल जाओ, द्वारका ।” - विमल बोला ।
“डॉक्टर क्या कहता है ? मैं बच जाऊंगा ?”
“कैसी बातें करते हो, द्वारका ?” - विमल मीठे स्वर में बोला - “संकट तो टल गया । डॉक्टर ने कहा था कि अगर तुम चौबीस घंटे काट गए तो तुम बच जाओगे ।”
“उसने कहा होगा कि अगर मैं चौबीस घंटे काट गया तो मेरे बचने की उम्मीद हो जाएगी ।”
विमल खामोश रहा ।
“मैं डॉक्टरों की जुबान जानता हूं । मुझे पहली बार हार्ट अटैक नहीं हुआ है ।”
“द्वारकानाथ, खामखाह की चिन्ता मत करो । तुम्हें कुछ नहीं होने का ।”
“मुझे लग रहा है कि अब मैं नहीं बचने वाला ।”
“पागलों जैसी बातें मत करो । तुम...”
“सुनो, सुनो ।”
द्वारका इतनी धीमी आवाज में बोल रहा था कि बहुत आगे झुकने पर ही विमल को सुनाई दिया कि वह क्या कह रहा था ।
“वह सिक्योरिटी ऑफिसर - राजेन्द्र कुलश्रेष्ठ । काम के बाद मैंने उसे बीस हजार रुपया देने का वादा किया था ।”
“लेकिन काम कहां किया उसने ? उसी की वजह से तो गंगाधर की जान चली गई ।”
“शायद गलती उसकी न हो ।”
“एकाएक यह दयानतदारी किसलिए ? इसलिए क्योंकि तुम समझते हो कि तुम मर रहे हो ?”
“नहीं । इसलिए क्योंकि बीस हजार एक मामूली रकम है । मैं नहीं चाहता कि इसलिये कोई पेचीदगी पैदा हो क्योंकि हमने बीस हजार रुपये का लालच किया ।”
“वह सिक्योरिटी ऑफिसर अपने लिए मुसीबत बुलाये बिना कोई पेचीदगी पैदा करने की स्थिति में नहीं ।”
“कुछ पता नहीं लगता, बरखुरदार ! हमेशा वही नहीं होता जो कि हम सोचते हैं कि होना चाहिए । मुझे ही देख लो । मैंने क्या सोचा था कि मुझे फिर अटैक हो जाएगा ! और वह भी कामयाबी हासिल हो जाने के बाद !”
“एक बात कहूं, द्वारका ! बुरा तो नहीं मानोगे ?”
“हरगिज नहीं मानूंगा । कहो ।”
“दौलत की तरफदारी में बड़े लम्बे राग गाये तुमने । इस वक्त दौलत तुम्हारे किस काम की है ? तुम्हारे पलंग नीचे बीस लाख रुपये पड़े हैं और तुम...”
“अभी बच्चे हो, सरदार साहब” - द्वारका के होंठों पर एक क्षीण मुस्कराहट आई - “बहुत बच्चे हो । यह दौलत का ही जहूरा है कि मैंने इस इमारत की सीढियों में दम नहीं तोड़ दिया, मैं अभी जिन्दा हूं और मेरी जिंदगी को सलामत रखने के लिए जो इन्सानी कोशिश की जा सकती है, वह की जा रही है । मर मैं फिर भी जाऊं, वह बात दूसरी है लेकिन तब कोई यह नहीं कह सकेगा कि बेचारे के पास चार पैसे होते तो जान बच जाती ।”
विमल खामोश रहा ।
द्वारकानाथ के पास हर बात का जवाब था ।
“राजेन्द्र कुलश्रेष्ठ को उसके घर पर फोन करो ।”
“नम्बर ?”
द्वारकानाथ ने उसे नम्बर बताया ।
विमल बैठक में पहुंचा । वहां मलियाली नर्स अपनी यूनीफॉर्म की स्कर्ट को कमर तक ऊंचा करके अपनी जांघ के एकदम ऊंपरले सिरे पर कसे एक जुर्राब के इलास्टिक को ठीक कर रही थी । विमल को वहां पहुंचा पाकर उसने स्कर्ट नीचे गिरा दी लेकिन उसके चेहरे पर किसी प्रकार की झिझक या शर्म के भाव न उभरे ।
विमल टेलीफोन के पास पहुंचा । उसने द्वारकानाथ द्वारा दिये नम्बर पर टेलीफोन किया ।
विमल रिसीवर रखकर वापस बैडरूम में पहुंचा ।
“टेलीफोन खराब मालूम होता है ।” - विमल बोला - “घंटी जाती है लेकिन कोई रिसीवर नहीं उठाता ।”
“यह नुक्स उसके फोन में पहले भी था ।” - द्वारकानाथ बोला - “विमल, तुम्हें उसके घर जाना होगा ।”
“पता बोलो ।”
द्वारकानाथ ने उसे कुलश्रेष्ठ के घर का पता बता दिया और फिर बोला - “बीस हजार रुपये तुम मेरे हिस्से में से ले जाओ ।”
विमल ने हुज्जत नहीं की । उसने द्वारकानाथ वाले सूटकेस में से सौ-सौ के नोटों की दो गड्डियां निकाल लीं ।
“और सुनो ।” - द्वारकानाथ बोला ।
“बोलो ।” - विमल बोला ।
“मेरी पतलून की जेब में मेरा बटुवा है । उसमें कुलश्रेष्ठ का एक हल्फिया बयान और एक लाख रुपये का एक प्रोनोट हैं । वे दोनों चीजें भी तुम कुलश्रेष्ठ को सौंप देना ।”
“अच्छा ।”
विमल ने वे दोनों कागज भी अपने अधिकार में किये और बैठक में पहुंचा । उसने नर्स को वापस बैडरूम में भेज दिया और स्वयं फ्लैट से बाहर निकल गया । नीचे आकर वह द्वारकानाथ की फियेट पर सवार हुआ और वहां से रवाना हो गया ।
विमल को शहर की वाकफियत नहीं थी इसलिए शाहगंज के इलाके में पहुंचने तक उसे तीन-चार बार गाड़ी रोककर लोगों से रास्ता पूछना पड़ा ।
शाहगंज में उसने कार को एक स्थान पर रोका और फिर कुलश्रेष्ठ के घर का नम्बर पूछता हुआ पैदल आगे बढा । उसे कुलश्रेष्ठ के घर की यही पहचान बताई गयी थी कि वह उस इलाके में बनी दुर्लभ आधुनिक इमारत थी ।
विमल को उसके घर के सामने एक बिजली के खम्बे से टेक लगाए खड़ा एक आदमी दिखाई दिया जो बीड़ी पी रहा था । विमल उसके सामने से गुजर गया लेकिन फिर भी उसे यूं लगा जैसे उस आदमी की निगाह उसकी पीठ में चुभ रही हो ।
उसने देखा कि कुलश्रेष्ठ के घर की खिडकियों में रोशनी दिखाई दे रही थी । वह उस घर के सामने ठिठके बिना सीधा आगे निकल गया ।
थोड़ी दूर जाने पर विमल को एक पब्लिक टेलीफोन दिखाई दिया । उसने वहां से फिर कुलश्रेष्ठ के घर टेलीफोन किया । इस बार दूसरी ओर घंटी बजते ही किसी ने टेलीफोन को उठाया ।
“कुलश्रेष्ठ ?” - विमल सावधान स्वर में बोला ।
“हां ।” - आवाज आई - “कौन ?”
“अभी थोड़ी देर पहले तुम्हारा टेलीफोन खराब था ?”
“नहीं तो ?”
“मैंने घंटी की थी लेकिन कोई जवाब नहीं मिला था ।”
“घर पर कोई नहीं था । मैं बीवी के साथ बाजार गया था । अभी लौटा हूं । तुम कौन बोल रहे हो ?”
“वही जिसे बोलना चाहिए... न, न टेलीफोन पर नाम मत लेना ।” 
“ओह ! लेकिन तुम्हारी आवाज...”
“तुम्हें मालूम है तुम्हारी निगरानी हो रही है ?”
“क... क्या ?”
“यानी कि नहीं मालूम ।”
“लेकिन....”
“देखो, तुम्हारी निगरानी जरूर हो रही है लेकिन यह कोई भारी चिन्ता की बात नहीं । वे लोग इस उम्मीद में तुम्हारी निगरानी करवा रहे हैं कि या तो तुम घबरा जाओगे या कभी-न-कभी हमसे संपर्क स्थापित करोगे । अगर तुम खामखाह घबराओगे नहीं और चौकन्ने रहोगे तो तुम्हें कुछ नहीं होगा । लेकिन अगर तुमने कोई गलत हरकत की या अनाप-शनाप मुंह खोला तो तुम्हारा काम हो जाएगा । समझ गए ?”
“हां । लेकिन क्या पता हमारा यह वार्तालाप भी कोई सुन रहा हो ।”
“मुझे उम्मीद नहीं । लेकिन कोई सुन भी रहा हो तो कोई फर्क नहीं पड़ता । इस वार्तलाप के बारे में अगर तुमसे कुछ पूछा जाए तो साफ मुकर जाना । तुम्हारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा । मेरी गारण्टी है ।”
“लेकिन....”
“और सुनो । मैं तुम्हारी चीज लाया हूं ।”
“कौन सी चीज ?”
“समझने की कोशिश करो ।”
“ओह ! मुझे नहीं चाहिए वह चीज ।”
“पागल मत बनो । तुम्हारी ये बातें साफ जाहिर कर रही हैं कि तुम बहुत घबराये हुए हो । अपने-आपको सम्भालो ।”
दूसरी ओर से आवाज नहीं आई ।
“तुमने खाना खा लिया ?” - विमल ने पूछा ।
“अभी नहीं । क्यों ?”
“खाना खाने के बाद बीवी को जरा घुमाने ले जाना । खाना खाने के बाद चौक तक पान-वान खाने तो वैसे भी जाते होगे ।”
“लेकिन क्यों ?”
“बहस मत करो । जो कहा जाए वह करो ।”
“लेकिन मुझे मालूम तो हो कि...”
विमल ने रिसीवर हुक पर टांग दिया ।
आधे घंटे बाद विमल ने कुलश्रेष्ठ को अपनी पत्नी के साथ घर से बाहर निकलते देखा । कुलश्रेष्ठ ने फाटक को ताला लगा दिया और उससे विपरीत दिशा में बढ चला ।
बिजली के खम्बे के साथ लगकर खड़ा बीड़ी पीता आदमी सीधा हुआ । उसने अपनी बीड़ी फेंक दी और फिर लापरवाहीभरे ढंग से टहलता हुआ पति-पत्नी के पीछे हो लिया ।
कुलश्रेष्ठ और उसकी बीवी और उनके पीछे लगा आदमी वे तीनों जब उसकी दृष्टि से ओझल हो गए तो विमल भी ओट से बाहर निकला । वह आगे बढा । राजेन्द्र कुलश्रेष्ठ के घर के सामने पहुंचकर वह ठिठका, उसने एक बार सावधानी से दायें-बायें निगाह दौड़ाई और फिर फाटक को फांदकर भीतर कम्पाउण्ड में चला गया । इमारत के दायें पहलू में एक राहदारी थी । उस पर चलता हुआ वह पिछवाड़े में पहुंचा । पिछवाड़े में एक सायबान था, जिसके नीचे कुलश्रेष्ठ की मोटरसाइकल खड़ी थी ।
विमल कुछ क्षण सायबान में ठिठका खड़ा रहा ।
फिर उसकी निगाह दीवार पर पड़ी वहां उसे एक बिजली का स्विच दिखाई दिया । उसने हिचकिचाते हुए स्विच ऑन कर दिया । सायबान में मद्धिम-सी रोशनी फैल गई । उस रोशनी में उसने चारों ओर निगाह फिराई ।
फिर वह मोटरसाइकल पर चढ गया । उसकी सीट पर खड़े होने से उसका सिर सायबान की छत से मुश्किल से एक फुट दूर रह गया था । उसने जेब से सौ-सौ के नोटों की दोनों गड्डियां और दोनों कागज निकाले और उन्हें सायबान की टीन की छत से नीचे लगी कड़ियों में से एक में फंसा दिया ।
वह मोटरसाइकल से नीचे उतरा, उसने बत्ती बुझाई और तुरन्त वहां से बाहर निकल गया ।
वह वापस अपनी कार में पहुंचा ।
कार के डैशबोर्ड में बने खाने में उसे एक बॉल पॉइंट पैन, कुछ लिफाफे और कुछ कागज पड़े मिले । उसने एक कागज उठाया, बाल पैन से उस पर कुलश्रेष्ठ के नाम सन्देश लिखा, कागज को लिफाफे में बन्द किया और फिर वह लिफाफा वह कुलश्रेष्ठ के लैटर बॉक्स में डाल आया ।
उसके तुरन्त बाद वह वहां से विदा हो गया ।