अगले दिन सुबह आठ बजे के करीब मैं नित्य कर्म से निवृत हो कर गैस्ट हाउस से निकल आया । उस समय मेरी पिछली रात की संगिनी हिप्पी बाला अपने अन्य तमाम संगी साथियों के साथ दीन दुनिया से बेखबर सोई पड़ी थी । कोई भी दोपहर से पहले जागने के मूड में नहीं मालूम होता था ।
मेरी जेब में गंजे की जेब से निकाली रकम अभी भी सुरक्षित थी । पिछली रात से अब तक मैंने उसमें से मुश्किल से तीस रुपये खर्च किये थे ।
रीगल से मैं तांगे पर बैठ कर कुतुब रोड पहुंचा । वहां से पैदल चलता हुआ मैं तेलीवाडे़ पहुंचा । तेलीवाडे़ का वह मकान तलाश करने में मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई जहां रश्मि मुझे पहली बार लेकर आयी थी और जहां नासिर ने मेरी तसवीरें खींची थी । मकान के दरवाजे पर अब भी एक बड़ा सा ताला झूल रहा था ।
मैंने ताले की सूरत पहचानी और वापस लौट पड़ा ।
करतारसिंह नाम के जिस तांगे वाले ने मुझे शुरू में घोड़ा तांगा किराये पर दिलाया था, और बाद में भी कई मामलों में मेरी भारी मदद की थी, वह बहुत भरोसे का आदमी था और उस समय मुझे उसकी मदद की सख्त जरूरत थी ।
मैं बाराटूटी चौक पर पहुंचा । वहां आधा पौना घन्टा इन्तजार करने के बाद मेरी करतारसिंह से मुलाकात हो गयी । वह भी फव्वारे और बाराटूटी के बीच ही तांगा चलाता था । देर सबेर उसने बाराटूटी चौक पहुंचना ही था ।
करतारसिंह ने घोड़े को पानी पिलाने के लिए खेल के सामने ला खड़ा किया और स्वयं उसकी बगल में खड़ा होकर बीड़ी सुलगाने लगा।
“करतारे !” - मैं उसके समीप जाकर धीरे से बोला ।
करतारसिंह मेरी ओर घूमा । उसकी निगाह मुझ पर पड़ी और फिर फौरन मुझ से उचट कर दांये बांये फिरने लगी । उसके चेहरे पर उलझन के भाव थे ।
“कमाल है !” - वह जैसे घोडे़ से बोला ।
“क्या कमाल है ?” - मैं बोला ।
“अभी किसी जानी पहचानी आवाज ने मुझे पुकारा था ।”
“करतारे, तुझे मैंने पुकारा था ।”
“बाबू साब” - वह हैरानी से मेरी ओर देखता हुआ बोला - “आप मेरा नाम कैसे जानते हैं ?”
“ओये करतारे दया पुत्तरा” - मैं सख्त शिकायत भरे स्वर से बोला - “ओये अपने बनवारी को नहीं पहचानता ।”
करतारसिंह की आंखें फट पड़ीं । उसने कई बार सिर से पांव तक मुझे घूरा । मेरी नीली आंखें, साफ सुथरा चेहरा, फ्रेंच कट दाढ़ी मूंछ, हिप्पी लिबास और फिर मुंह में दबा पाइप उसे चकरा देने के लिये काफी थे ।
“ओये बनवारी” - एकाएक वह हर्षित स्वर से बोला - “ओये कन्जर दया, ओये तू तो विलायती साब बन गया है ।”
“श श” - मैंने उसे चुप रहने का इशारा किया - “जरा मेरे साथ इधर आओ । जरूरी बात करनी है ।”
उसने एक अन्य तांगे वाले को अपने घोड़े तांगे पर निगाह रखने के लिए कहा और मेरे साथ हो लिया । मैं उसे वेस्ट एण्ड तक अपने साथ ले आया ।
“माजरा की ए मित्तरा ?” - करतारसिंह फिर बोला - “तू तां साब...”
“देख करतारे” - मैंने उसकी बात काटी - “इस वक्त मैं बड़ी मुश्किल में हूं और मुझे तेरी मदद की सख्त जरूरत है । बाद में मैं कभी गांधी नगर तेरे घर आऊंगा और फिर बड़े इत्मीनान से तुझे सारी दास्तान सुनाऊंगा फिलहाल तू मेरी बात सुन ।”
“सुना ।” - वह उलझनपूर्ण स्वर से बोला ।
“मैंने एक ताला खोलना है ।”
“किसका ?”
“किसी का । किसी के घर का ।”
“फड़या जायेंगा सालया ।”
“बीच में मत टोक करतारसिंहा ।”
“हला ।”
मैंने ताले की निर्मात्री कंपनी का नाम और हुलिया वगैरह बयान कर दिया और कहा - “मुझे पता है तेरा बल्ली मारान वाला यार तालों में चाबियां लगाने का काम करता है । तू मुझे उससे इस ताले की चाबी लाकर दे ।”
“लेकिन बिना ताला देखे...”
“जो कुछ मैंने ताले के बारे में बताया है, उससे चाबी बना लेना नामुमकिन काम नहीं है । अगर एक नहीं तो उससे कह तीन चार चाबी बना दे, आठ दस चाबी बना दे ।”
“लेकिन माजरा क्या है ?”
“देख करतारे” - मैं उसका हाथ दबाता हुआ बोला - “तू मेरा यार है न ? तो फिर इस वक्त माजरा न पूछ । जल्दी ही मैं तुझे सब कुछ बताऊंगा ।”
“और तू अचानक गायब कहां हो गया था ?”
“वह भी बताऊंगा । मैं जल्दी ही गांधी नगर आऊंगा । मैं बोतल ले आऊंगा । मच्छी का इन्तजाम तू करना । ठीक है ।”
करतारसिंह अनिश्चित सा मेरे सामने खड़ा रहा ।
मैंने दस-दस के दो नोट उसकी मुट्ठी में ठूंस दिये । और बोला- “जरा काम जल्दी का है । फटाफट लौटना । मैं तुझे चौक में ही मिलूंगा ।”
करतारसिंह असमंजसपूर्ण ढंग से सिर हिलाता हुआ वहां से चला गया ।
मेरे बुरे दिनों के साथी करतारसिंह का मन्दबु्द्धि होना मेरे लिये तो फायदे की ही बात थी । वह सोच भी नहीं सकता था कि उसके दोस्त बनवारी का यूनियन बैंक की डकैती या जेल से फरार किसी अपराधी से कोई वास्ता हो सकता था ।
लगभग बारह बजे मुझे करतारसिंह फिर बाराटूटी चौक में मिला । उसने मुझे एक अखबार के कागज में लिपटी हुई छ: चाबियां सौंप दीं । साथ में उसने मुझे दस रुपये वापिस करने की कोशिश की जो मैंने नहीं लिये । मैं जल्दी ही गांधी नगर आकर उससे मिलने का वादा बारबार दोहरा कर और ‘भरजाई नूं ससरीकाल कहना’ कहकर वहां से विदा हुआ ।
मैं वापिस तेलीवाड़े के मकान के सामने पहुंचा ।
गली में इक्का-दुक्का आदमी ही आता-जाता दिखाई दे रहा था ।
करतारसिंह की दी चाबियों में से एक चाबी से वह ताला खुल गया । मैं भीतर घुसा और अपने पीछे दरवाजा बन्द कर लिया ।
मैंने सावधानी से इमारत को टटोलना आरम्भ कर दिया । उस सजे सजाये ड्राइंग रूम को छोड़कर, जहां मैं पहली बार लाया गया था इमारत के तमाम कमरों को ताले लगे हुए थे और तालों की शक्ल देखकर साफ मालूम होता था कि वे काफी अरसे से खोले नहीं गये थे ।
मैं ड्राइंग रूम में पहुंचा ।
मैंने इतनी बारीकी से वहां की तलाशी लेनी आरम्भ की जैसे मैं कोई सुई तलाश कर रहा होऊं । वास्तव में मुझे किसी ऐसे सूत्र की तलाश थी जो अजीत वगैरह को ढूंढने में मेरी सहायता कर सके ।
लम्बी और कड़ी तलाश के बाद संयोगवश ही टेलीविजन के पीछे गिरे पड़े एक अंग्रेजी के जासूसी उपन्यास के बीच में रखी एक रसीद मेरे हाथ में आयी । रसीद पर एस्प्लेनेड रोड पर स्थित एक फोटोग्राफिक स्टूडियो का पता लिखा हुआ था । रसीद के अनुसार उस स्टूडियो को एक 35 मिलीमीटर की फिल्म धुलने और प्रिन्ट बनाने के लिये दी गयी थी । रसीद पर थामसन रोड वाली डकैती से दो दिन पहले की तारीख पड़ी हुई थी ।
मैंने वह रसीद जेब के हवाले की और इमारत से बाहर निकल आया । मैंने मुख्य द्वार को पूर्ववत् ताला डाल दिया और छ: की छ: चाबियां रास्ते में एक गटर में फेंक दी ।
कुतुब रोड से एक तांगे पर सवार होकर मैं फव्वारे पहुंचा ।
वहां से एस्प्लेनेड रोड पास ही था ।
मुझे रसीद वाले फोटोग्राफिक स्टूडियो को तलाश करने में कोई दिक्कत नहीं हुई ।
मैंने रसीद स्टूडियो पर बैठे आदमी के सामने रख दी ।
दुकानदार ने रसीद देखी और बोला - “बड़ी पुरानी रसीद है ?”
“हां ।” - मैंने संक्षिप्त सा उत्तर दिया ।
दुकानदार अपने दराज टटोलने लगा । उसे अपने दराजों में उस रसीद के नम्बर वाली फिल्म और प्रिन्ट नहीं मिले । उसने असमंजसपूर्ण नेत्रों से फिर रसीद के नम्बर को देखा । उसने अपनी डुप्लीकेट बुक निकाली । वह कुछ क्षण तक डुप्लीकेट बुक देखता रहा और फिर निर्णयात्मक स्वर से बोला - “लेकिन, भाई साहब, यह फिल्म और प्रिन्ट तो हम सप्लाई कर चुके हैं ।”
“कब कर चुके हैं ? रसीद तो मेरे पास है ।” - मैं बोला ।
“फिल्म हमारे पास आप लाये थे ?”
“नहीं” - मैं तनिक हिचकिचाता हुआ बोला - “फिल्म मेरे एक दोस्त की है और वही आपके पास उसे लाया था । मेरा दोस्त दिल्ली से बाहर चला गया है । मैं दिल्ली आ रहा था । उसने मुझे यह रसीद दी थी कि मैं पेमेंट करके फिल्म और प्रिन्ट ले आऊं ।”
“आपके दोस्त का नाम नासिर खां है ?”
“हां ?”
“वे भोपाल चले गये हुए हैं ?”
“हां ।”
“लेकिन उन्होंने तो हमें फिल्म और प्रिन्ट रजिस्टर्ड पार्सल द्वारा भोपाल भेज देने का निर्देश दिया था जो कि हमने कब के भेज दिये हुऐ हैं ।”
“तो फिर यह रसीद उनके पास कैसे रह गयी ?”
“यह रसीद तो उनके कथनानुसार खो गयी थी । उन्हें आपको बताना चाहिए था । हमने तो डुप्लीकेट बुक पर ‘रसीद खो गयी है’ लिखकर उनसे हस्ताक्षर भी करवा लिये थे । यह देखिये ।”
और दुकानदार ने डुप्लीकेट बुक उसके सामने कर दी ।
दुकानदार ठीक कह रहा था ।
“समझ में नहीं आता नासिर ने फिर रसीद मुझे क्यों दी ?”
दुकानदार चुप रहा ।
“आपने पार्सल कब भेजा था ?”
“एक महीना हो गया है ।”
“लेकिन पार्सल तो उसे आज तक नहीं मिला ।”
“यह कैसे हो सकता हैं ?”
“यही हुआ है ।”
“लेकिन...”
“भई, मैं कल ही तो भोपाल से आया हूं । कल तक तो पार्सल पहुंचा नहीं था । रसीद की बात यूं हुई होगी । नासिर की गुम हो चुकी रसीद बाद में मिल गयी होगी । आपका पार्सल पहुंचा नहीं । मैं दिल्ली आ रहा था । उसने रसीद मुझे देकर यहां आने के लिये कहा ताकि अगर पार्सल आपने न भेजा हो तो मैं पेमेंट करके प्रिन्ट ले लूं ।”
“लेकिन साहब, पार्सल हम कब का भेज चुके हैं और पेमेंट तो आपके दोस्त तभी कर गये थे जब वे हमें पार्सल भेजने के लिये कहने आये थे ।”
“समझ नहीं आता क्या गोरख धंधा है । आपको पूरा विश्वास है आपने पार्सल भेज दिया है ।”
“कमाल है साहब । यह भी कोई भूलने वाली बात है ।”
“शायद आपने पता गलत लिख दिया हो ।”
“हमने वही पता लिखा था जो आपके दोस्त हमें लिखकर दे गये थे ।”
“जरा पता दिखाइये तो ?”
“पता तो एक कागज पर लिखा हुआ था जो हमने पार्सल करवाने के बाद ही फेंक दिया था ।”
“तलाश कर लीजिये । शायद कहीं रखा हो ।”
“नहीं रखा है साहब । अब तक पता रखकर हमने क्या करना था ।”
मेरा मन निराशा से भर उठा । नासिर का पता मालूम होता होता रह गया था । मैं वहां से लौटने ही वाला था कि एकाएक मुझे एक ख्याल आया ।
“लेकिन आपने पार्सल की रजिस्ट्री की डाकखाने से मिलने वाली रसीद तो रखी होगी या वह भी फेंक दी है ?” - मैं बोला ।
“वह तो रखी हुई है” - दुकानदार बोला - “इसीलिये रखी हुई है कि बाद में कोई घपला हो तो हम रसीद से यह साबित कर सकें कि हमने पार्सल वाकई भेज दिया है ।”
“जरा रसीद दिखाइये तो ?”
दुकानदार ने कहीं से खोज-खाज कर डाकखाने की रसीद निकाली और मेरे सामने रख दी ।
मैंने रसीद देखी और फिर मेरे मुंह से शान्ति की सांस निकल गयी ।
रसीद पर नासिर खां का पता लिखा हुआ था - सुलतानिया रोड, मध्यप्रदेश स्टेट एम्पोरियम के पास, भोपाल ।
मैं दुकान से उतर आया ।
नासिर खां का भोपाल का पता मैंने अच्छी तरह याद कर लिया । और पहला मौका हाथ आते ही एक कागज पर नोट कर लिया ।
तीनों में से एक का पता लग जाने के बाद बाकी दो को तलाश कर लेना मेरे लिए कठिन काम नहीं था ।
अब मेरे लिये समस्या थी दिल्ली से बाहर निकलने की ।
मेरा वर्तमान बहुरूप कितना ही अच्छा क्यों नहीं था लेकिन फिर भी एक फरार कैदी की तलाश की ताजा गर्मागर्मी में मेरे पहचानने जाने और पकड़े जाने की काफी सम्भावना थी । फिर नवम्बर का महीना चल रहा था । मेरे पास न कपड़े थे और न रहने का ठिकाना । ऐसी संदिग्ध स्थिति मेरे लिये और भी खतरनाक साबित हो सकती थी । वर्तमान स्थिति में मुझे इसी में अपना कल्याण लगता था कि मैं ज्यादा से ज्यादा समय तक रीगल के हिप्पी टोले के साथ चिपका रहूं । पुलिस की तलाश ठण्डी हो जाने के बाद ही भोपाल का रुख करना श्रेयस्कर था ।
और अब मेरी तलाश केवल पुलिस ही नहीं गंजे चौधरी के आदमी भी कर रहे होंगे । वे लोग मेरे लिये पुलिस से भी ज्यादा खतरनाक साबित हो सकते थे क्योंकि पुलिस को मेरे बहुरूप का ज्ञान नहीं था जबकि मेरा वर्तमान बहुरूप मुझे प्रदान किया ही गंजे के आदमियों द्वारा गया था ।
लाजपत राय मार्केट के सामने से मैं फोर सीटर पर बैठा और रीगल पहुंच गया । मैं वापिस गैस्ट हाउस में पहुंचा जहां मेरी पिछली रात की संगिनी हिप्पी बाला अभी भी सोई पड़ी थी ।
***
उस हिप्पी बाला का नाम मार्गरेट था । पता नहीं उसे मुझ में क्या भाया था कि उसने न केवल सहज ही मुझे अपना दोस्त कबूल कर लिया था बल्कि उसने मुझे बड़ी सहूलियत से अपने हिप्पी टोले में भी खपा लिया था ।
अगले आठ दिन का मेरा एक-एक क्षण उन्हीं लोगों के, विशेष रूप से मार्गरेट के संसर्ग में गुजरा । रोज सामूहिक रूप से मारो ‘दम मारो दम’ का प्रोग्राम, रोज किसी न किसी डिस्कोथेक में - अधिकतर सैलर में ही - राग रंग की दीवानगी से भरपूर महफिलें और फिर हर रात को उन्मुक्त अभिसार का आलम ।
जिन्दगी का आनन्द आ गया ।
उस दौर में मैंने अपने लिए कुछ जरूरी सामान खरीद लिया था - एक छोटा सा एयरबैग जैसा बैग, टायलेट का सामान, एक पाजामा सूट, एक हाई नेक का स्याह काला गर्म स्वेटर, एक अतिरिक्त जीन और कमीज और अन्डर वियर वगैरह ।
उन दिनों में चौधरी या उसके किसी आदमी से मेरा टकराव नहीं हुआ था ।
और मैं पुलिस की निगाहों में आने से भी बचा रहा था ।
नवें दिन मेरी दिल्ली से निकासी की समस्या अपने आप ही हल हो गयी ।
मार्गरेट और उसके साथी खजुराहो जाने का प्रोग्राम बना रहे थे । मुझे भी साथ चलने का निमन्त्रण दिया गया जो कि मैंने बेहिचक स्वीकार कर दिया । उन लोगों का साथ मेरे पुलिस की निगाहों से बचे रहने की काफी हद तक गारन्टी थी ।
गैस्ट हाउस में मार्गरेट की मुलाकात एक ब्रिटिश दम्पत्ति से हुई थी जो टूरिस्ट थे, जिनके पास एक बहुत बड़ी बसनुमा, फरनिश्ड वैन थी । और वे झांसी तक मार्गरेट, उसके दो हिप्पी साथियों को और मुझे लिफ्ट देने के लिये तैयार हो गये थे ।
अगले दिन सुबह हम सब लोग दिल्ली से कूच कर गये ।
मुझे एक छोटी-सी बात की अतिरिक्त चिन्ता थी । मेरे बैग में चौधरी की भरी हुई रिवॉल्वर थी । रास्ते में किसी स्थान पर कहीं तलाशी हो जाने पर मुझे उस रिवॉल्वर की सफाई देना मुहाल हो जाता । वह रिवॉल्वर ही मुझे फंसाने का इकलौता साधन बन सकती थी । विदेशी हिप्पी अफीम और चरस की तस्करी के लिए सारे एशिया में बदनाम थे इसलिए रास्ते में कहीं भी तलाशी का माहौल पैदा हो जाना कोई हैरानी की बात नहीं थी । लेकिन मेरे लिए यह खतरा उठाना जरूरी था । मैं रिवॉल्वर से किनारा नहीं कर सकता था । अजीत वगैरह से टकराव के सन्दर्भ में मुझे रिवॉल्वर से बहुत उम्मीदें थीं ।
मथुरा, आगरा और ग्वालियर पड़ाव डालते हुए हम लोग कोई एक सप्ताह में झांसी पहुंचे । सौभाग्यवश रास्ते में पुलिस द्वारा रोका टोकी या तलाशी की कहीं नौबत नहीं आयी थी । इतने दिन सुरक्षित गुजर जाने के बाद वैसे भी अब मेरा हौसला बुलन्द हो चुका था । जेल से मेरे फरार होने का सनसनीखेज मामला भी अब ठण्डा पड़ चुका था और बैंक डकैती का तो अब अखबार में जिक्र तक नहीं आता था ।
तब तक मार्गरेट से मेरी दोस्ती इतनी गहरी हो चुकी थी जैसे हम एक दूसरे को बरसों से जानते थे । उसने इस हद तक मुझे अपने आप में लपेट लिया था कि मुझे चिन्ता होने लगी थी कि समय आने पर मैं उससे अलग कैसे हो पाऊंगा । कोई और वक्त होता तो मैं मार्गरेट के मादक संसर्ग से किनारा करने की कल्पना तक न करता । उल्टे वह मुझे अपने से झटकने की कोशिश करती तो मैं बेशर्मो की तरह उससे चिपका रहता लेकिन मेरे सामने एक मिशन था, एक ध्येय था । मैंने कसम खायी थी कि मैं अजीत वगैरह को उनकी दगाबाजी की सजा दिये बिना नहीं छोड़ूंगा ।
झांसी में हम ब्रिटिश दम्पत्ति से अलग हो गये ।
एक सुबह हम बस पर सवार हुए और लगभग पांच घंटे के सफर के बाद खजुराहो पहुंचे ।
खजुराहो में हम चारों चन्देला होटल के दो विशाल कमरों में ठहरे । लंच के तुरन्त बाद हम खजुराहो के मन्दिर देखने के लिए रवाना हो गये ।
रात को हम होटल वापिस लौटे ।
वह रात मेरी मार्गरेट के संसर्ग में गुजरी आखिरी रात थी । पता नहीं यह खजुराहो के मन्दिरों में रतिक्रियाओं को दर्शाती पत्थरों में से तराश कर बनायी मूर्तियों का प्रभाव था, या खजुराहो गांव के रहस्यपूर्ण वातावरण का प्रभाव था, या सर्दियों की रात की बढती हुई ठंडक का प्रभाव था, या हशीश के जरूरत से ज्यादा नशे का प्रभाव था कि मार्गरेट सारी रात लता की तरह मुझसे चिपकी रही । एक क्षण के लिए भी तो उसने मुझे नहीं छोड़ा । मैं उसे बल-पूर्वक अपने से अलग करने की कोशिश करता था तो वह नींद में ही और जोर से मुझसे लिपट जाती थी । भोर का उजाला फैला तो कहीं उसकी गिरफ्त मेरे शरीर से ढीली पड़ी । मैंने उसे अपने शरीर से अलग किया और उठ खड़ा हुआ ।
कूच की तैयारी में मैंने केवल दस मिनट लगाये ।
मैंने एक आखिरी हसरतभरी निगाह उसके दूध से गोरे, पुष्ट, नग्न शरीर पर डाली और वहां से रवाना हो गया ।
मार्गरेट दोपहर तक सोने की आदी थी । उसके जागने तक मैं खजुराहो से बहुत दूर निकल चुका होऊंगा ।
हिचहाइकिंग और छोटे-छोटे फासले तय करने वाली बसों का सहारा लेता अगले दिन रात को मैं भोपाल पहुंचा ।
भोपाल में मैं एक ऐसे घटिया से होटल में ठहरा जिसके मालिक को कैसा भी ग्राहक बिना किसी जवाबतलबी के स्वीकार था । संयोगवश वहां एक हिप्पी पार्टी भी ठहरी हुई थी ।
मैं वहां सुरक्षित था ।
अगले दिन मैंने रिवॉल्वर को बैग में से निकालकर अपनी पतलून की बैल्ट में खोंस लिया और ऊपर से जैकेट की जिप बन्द कर ली । मैं होटल से निकला और सुलतानिया रोड पहुंचा । वहां मध्यप्रदेश स्टेट एम्पोरियम के पास मामूली सी पूछताछ करने पर ही मुझे मालूम हो गया कि नासिर खां कहां रहता था । नासिर खां एक तिमंजिली इमारत की दूसरी मंजिल के एक फ्लैट में रहता था ।
कई घण्टे मैं उस फ्लैट की निगरानी करता रहा ।
मुझे नासिर खां, अजीत या रश्मि में से किसी के भी दर्शन नहीं हुए ।
अन्त में मैंने हिम्मत करके फ्लैट का चक्कर लगाने का फैसला किया ।
मैं दूसरी मंजिल पर पहुंचा ।
मैंने दरवाजे को धीरे से धक्का दिया । मुझे यह जानकर बड़ी हैरानी हुई कि दरवाजा खुला था । मैंने रिवॉल्वर निकालकर हाथ में ले ली और दरवाजे का एक पल्ला पूरा खोल दिया । वह दरवाजा एक ड्राइंगरूम में खुलता था ।
ड्राइंगरूम खाली था ।
मैंने सावधानी से भीतर कदम रखा । अपने पीछे मैंने दरवाजा बन्द कर दिया और चिटखनी चढा दी । ड्राइंग रूम के पृष्ठ भाग में एक और दरवाजा था जो बन्द था । मैं दबे पांव उस दरवाजे की ओर बढा । समीप आकर मैंने धीरे से दरवाजे को भीतर की ओर धकेला । वह दरवाजा भी खुला था । दरवाजे के दोनों पल्लों में जब लगभग एक इंच की झिरी पैदा हो गई तो मैंने उसमें आंख लगाकर भीतर झांका ।
वह एक बैडरूम था । कमरे का अधिकतर भाग एक डबल बैड ने घेरा हुआ था । बैड पर पीठ के बल कोई सोया पड़ा था । उसका शरीर छाती तक एक कम्बल से ढका हुआ था ।
मैंने दरवाजे का एक पल्ला पूरा खोल दिया और भीतर कदम रखा । मैं पलंग के समीप पहुंचा ।
वह नासिर खां था ।
मैंनें शान्ति की सांस ली । कोई तो हाथ आया । मेरी तलाश नाकाम नहीं गयी थी ।
मैं बैडरूम से बाहर निकल आया । सबसे पहले मैंने फ्लैट का मुख्य द्वार भीतर से बंद किया । फिर मैंने बैडरूम समेत सारे फ्लैट की तलाशी ले डाली । पचास लाख रुपये के नोटों से भरे हुए लोहे के सात बक्से छुपाने के लिए या केवल इतनी बड़ी रकम छुपाने के लिए काफी जगह दरकार थी । रुपया कम से कम उस फ्लैट में नहीं था । रुपये की अनुपस्थिति ही यह सिद्ध करने के लिए काफी थी कि उन लोगों का कोई और भी ठिकाना था ।
बैडरूम में ड्रैसिंग टेबल पर मुझे एक चाबियों का गुच्छा पड़ा मिला जिसकी दो चाबियां मैं अच्छी तरह पहचानता था । एक मौरिस माइनर की इग्नीशन की थी और दूसरी चाबी उसके दरवाजों को लगती थी ।
बैडरूम के पायताने एक स्टूल पड़ा था । मैं उस पर बैठ गया ।
नासिर खां की आंखें भी बन्द थीं । उसके सांस लेने के ढंग से ऐसा लगता था जैसे वह बहुत तकलीफ में हो ।
मैंने पतलून की बैल्ट में खुंसी रिवॉल्वर निकाल कर हाथ में ले ली । फिर मैंने बांया हाथ बढाकर नासिर खां के शरीर से कम्बल खींच लिया ।
कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई ।
मैंने रिवॉल्वर की नाल से पलंग की पट्टी खटखटाई ।
नासिर ने आंखें खोंलीं ।
सबसे पहले उसकी निगाह अपनी ओर तनी रिवॉल्वर की नाल पर पड़ी । निगाह नाल से उचटी तो सीधी मेरे चेहरे से आकर टकराई । उसका मुंह खुल गया और नेत्र फट पड़े । फिर उसने यूं जोर से आंखें मिचमिचाई जैसे जो वह देख रहा था, उसे उस पर विश्वास न हो रहा हो । उसने दोबारा आंखें खोलीं तो उसे अपने सामने फिर मैं ही दिखायी दिया ।
“हैलो नासिर” - मेरे होंठों पर एक क्रूर मुस्कराहट उभरी - “रिमैम्बर मी ?”
मेरे हिप्पी रंगरूप के बावजूद भी उसने मुझे तुरन्त पहचान लिया था ।
“त-तू.... तुम !” - उसके कांपते होंठों से केवल इतना ही निकला । भय और आंतक के आधिक्य से उसका चेहरा लाश की तरह सफेद हो गया था ।
“हां, मैं । तुम्हारा पुराना दोस्त । उठकर मेरा स्वागत नहीं करोगे ? मेरे गले नहीं मिलोगे ?”
उसने असहाय भाव से मेरी ओर देखा ।
“क्या बात है ?” - मैं उत्सुक स्वर में बोला - “तबीयत तो ठीक है ?”
“मैं बहुत तकलीफ में हूं” - वह कम्पित स्वर से बोला - “मेरी रीढ की हड्डी टूट गयी है ।”
“अच्छा कब ?” - रीढ की हड्डी टूटने का मतलब था कि अगर वह मरा नहीं तो जिन्दगी भर के लिए अपाहिज तो हो ही गया था । फिर तो वह अपने स्थान से हिलने-डुलने के भी काबिल नहीं रहा था ।
“आज सुबह एक्सीडेन्ट हो गया ।” - वह बोला ।
“कैसे ?”
“मैं अपनी कार की डिकी में कुछ सामान रख रहा था । अजीत अपनी जीप बैक कर रहा था । पता नहीं उससे ब्रेक नहीं लगी या जाने क्या हुआ कि जीप का पृष्ठ भाग सीधा मेरी पीठ से आकर टकराया । मैं धक्के से हवा में उछल गया । नीचे जमीन से टकराने से पहले ही मेरी चेतना लुप्त हो चुकी थी । होश आया तो मैंने स्वंय को इस बिस्तर पर पाया । मालूम हुआ कि मेरी रीढ की हड्डी दो जगह से टूट गयी है ।”
उसका जिन्दा रहना मुश्किल था । मेरा काम उसकी तकदीर ने कर दिया था । उसकी तकदीर ने ही उसे सजा दे दी थी ।
“तुम हिल डुल नहीं सकते ?” - मैंने पूछा ।
“कतई नहीं । केवल गर्दन हिला सकता हूं । गर्दन मैं तकिये से उठा तक नहीं सकता । और कमर से नीचे तो सारा भाग मुझे ऐसे लगता है जैसे मेरे शरीर के साथ है ही नहीं ।”
“अजीत और रश्मि कहां हैं ?”
“वे डॉक्टर को बुलाने गये थे ।”
“डॉक्टर को क्या वे बम्बई से बुलाने गये हैं । मैं चार घण्टे से तुम्हारे फ्लैट के बाहर मौजूद हूं मुझे तो उनकी सूरत दिखाई दी नहीं । कितने बजे गये थे ?”
“ग्यारह बजे ।”
“और अब साढे तीन बज गये हैं ।”
नासिर के चेहरे पर चिन्ता के लक्षण प्रकट हुए ।
“नासिर” - मैं गम्भीर स्वर में बोला - “तुम धोखेबाज ही नहीं, अक्ल के अंधे भी हो । क्या इतनी मामूली बात तुम्हारी मोटी अक्ल में नहीं घुस रही कि वे लोग तुम्हें मरने के लिए यहां छोड़ गये हैं ? उन्होंने जानबूझ कर तुम्हें दुर्घटना का शिकार बनाया है ताकि तुम मर जाओ और लूट का सारा माल वे दोनों हड़प जायें ।”
“नहीं” - नासिर चिल्लाया - “ऐसा नहीं हो सकता । वे लोग मुझे धोखा नहीं दे सकते ।”
“वे लोग तुम्हें धोखा दे चुके हैं । वे लोग तुम्हें मरने के लिए यहां छोड़ गये हैं । तुम्हारे लिए डॉक्टर बुलाने का कभी इरादा था ही नहीं ।”
“मैं उन्हें जान से मार डालूंगा ।”
“इस वक्त तो तुम एक मक्खी मारने के भी काबिल नहीं हो लेकिन” - मैं अर्थपूर्ण स्वर से बोला - “तुम्हारा यह काम मैं करने के लिए तैयार हूं । कहां हैं वे ?”
“तुम जेल से कैसे निकल भागे ?”
उत्तर में मैं केवल मुस्कराया ।
“तुम्हें मेरा पता कैसे लगा ?”
“बस लग गया ।”
“कैसे ?”
“छोड़ो । पता कैसे भी लगा, बहरहाल इस समय मैं तुम्हारे सामने मौजूद हूं ।”
“तुम यहां क्यों आये हो ?”
“यह भी बताने की जरूरत है ?”
“जाहिर है कि तुम अपना हिस्सा हासिल करने के लिए ही यहां आये हो । तुम्हारा हिस्सा दस लाख रुपये है । अगर तुम उन धोखेबाजों के खिलाफ मेरी मदद करना कबूल करो तो हम सारी रकम आधी-आधी बांट सकते हैं । इस प्रकार तुम्हें पच्चीस लाख रुपये मिलेंगे ।”
“अजीत है कहां ?”
“पहले तुम मेरे लिये डॉक्टर बुलाओ । ड्राइंग रूम में टेलीफोन है । जल्दी करो ।”
मैंने अपने स्थान से हिलने का कोई उपक्रम नहीं किया ।
“तुम पछताओगे !” - वह धमकी भरे स्वर से बोला ।
मैं अपने स्थान से उठा । रिवॉल्वर मैंने पतलून की बैल्ट में खोंस ली और उसकी ओर बढा ।
वह कुछ क्षण असमंजसपूर्ण नेत्रों से मुझे घूरता रहा और फिर एकदम आतंकित स्वर से चिल्लाया - “खबरदार, मेरे पास मत आना । गैट बैक ! गैट बैक ! आई से गैट बैक !”
मैं पलंग के सिरहाने पहुंचा । मैंने हाथ बढाकर उसके सिर के बाल अपनी मुट्ठी में पकड़ लिए । उसके चीखने चिल्लाने की परवाह किए बिना मैंने उसका सिर तकिये से कोई चार इंच ऊंचा उठाया और फिर छोड़ दिया ।
उसके मुंह से एक घुटी हुई चीख निकली । फिर उसकी आंखें उलट गयीं और सिर एक ओर लटक गया ।
मैंने उसकी नब्ज देखी । नब्ज काफी धीमी चल रही थी । वह नहीं जानता था कि वह कितनी बुरी हालत में था । वह समझ रहा था कि डॉक्टर आयेगा और उसे ठीक कर देगा लेकिन मेरा ख्याल था कि अगर वह फौरन अस्पताल पहुंचा दिया जाये तो भी वह कुछ घन्टों से अधिक जीने वाला नहीं था ।
मैं किचन में से एक गिलास पानी भर लाया । मैंने थोड़ा सा पानी जबरदस्ती उसके हलक में धकेला और बाकी उसके चेहरे पर उलट दिया ।
नासिर के नेत्र फड़फड़ाये ।
मैं वापिस स्टूल पर जा बैठा ।
उसके पूरी तरह होश में आने तक मैं चुपचाप स्टूल पर बैठा रहा ।
“अजीत कहां है ?” - अन्त में मैंने फिर अपना पुराना सवाल दोरहाया ।
वह अपलक मेरी ओर देखता रहा ।
“नासिर, जिन्दा रहने के लिये तुम्हें फौरन डॉक्टरी सहायता की जरूरत है । अगर तुम चाहते हो कि मैं तुम्हारे लिये डॉक्टर बुलाऊं तो जो मैंने पूछा है उसका जवाब दो ।”
“मुझे नहीं मालूम ।” - वह क्षीण स्वर से बोला ।
“तुम एक ऐसा झूठ बोल रहे हो जिससे तुम्हें कोई फायदा पहुंचने वाला है । अजीत और रश्मि तुम्हें यहां मरने के लिये छोड़ गये हैं और तुम उनकी सलामती के लिये उनका पता मुझसे छुपा रहे हो । यह मूर्खता नहीं तो और क्या है ?”
“तुम पहले डॉक्टर को फोन करो ।”
“पहले तुम मुझे अजीत का पता बताओ ।”
“मुझे नहीं मालूम ।”
“ईडियट” - मैं दांत पीसकर बोला - “मैं तुम्हारे साथ बहुत नर्मी से पेश आ रहा हूं । मैं एक बार तुम्हें पलंग से उठाकर सीधा खड़ा करके भी छोड़ दूं तो तुम्हारी आत्मा शरीर से किनारा कर जायेगी । इसलिए अक्ल से काम लो ।”
वह चुप रहा ।
“अजीत कहां है ?” - मैंने फिर पूछा ।
“मुझे नहीं मालूम ।”
मैं अपने स्थान से उठा ।
उसकी आंखों में आतंक की छाया तैर गयी ।
“अगर तुम समझते हो कि इस हठधर्मी से तुम्हें कोई फायदा पहुंचने वाला है तो यह तुम्हारी मूर्खता है ।”
“रुक जाओ” - वह चिल्लाया - “रुक जाओ मेरे पास मत आना ।”
“तो फिर बोलो अजीत कहां है ?”
वह चुप रहा ।
मैंने उसे सिर के बालों से पकड़ लिया ।
“बताता हूं । बताता हूं ।” - वह चिल्लाया ।
मैंने उसके बाल छोड़ दिये ।
वह जोर-जोर से हांफने लगा और असहाय भाव से मेरी ओर देखने लगा ।
“मैं उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा हूं ।”
“अजीत” - वह क्षीण स्वर से बोला - “इलाहीबाग के फार्म हाउस में है ।”
“और इलाहीबाग कौन सी जगह है ?”
“सांची की ओर जाने वाली सड़क के चौदहवें मील के पत्थर के पास से एक कच्ची सड़क दांयी ओर फूटती है । वह सड़क सीधी इलाहीबाग पहुंचती है ।”
“वह बाग किसका है ?”
“अजीत के दोस्त का ।”
“दोस्त भी वहीं है ?”
“हां ।”
“क्या नाम है उसका ?”
“वजाहत अली ।”
“बाग में और कौन-कौन हैं ?”
“तीन चार नौकर चाकर हैं और बस ।”
“अजीत वहां क्यों रह रहा है ?”
“उसे वह जगह नगर के मुकाबले में सुरक्षित लगती है ।”
“तो तुम नगर में क्यों रह रहे हो ?”
“मैं कल ही यहां आया हूं । पहले मैं भी वहीं था लेकिन मैं वहां की बोर जिन्दगी से तंग आ गया था ।”
“तुम्हें कैसे पता है कि अजीत वहीं होगा ?”
“क्योंकि भोपाल में इस फ्लैट और उस फार्म हाउस के अलावा उसका और कोई ठिकाना नहीं है ।”
“रश्मि ने अजीत के किसी काफी बार का जिक्र किया था ?”
“वह काफी बार किलोल पार्क में था । अब बन्द हो चुका है ।”
“रश्मि भी इलाहीबाग में अजीत के साथ है ?”
“हां ।”
“और डकैती का रुपया भी वहीं है ?”
नासिर हिचकिचाया ।
“चुप रहने से क्या फायदा ? तुम्हारे साथी तो तुम्हें धोखा दे ही चुके हैं । तुम्हारा उनसे कोई उम्मीद करना बेकार है । एक्सीडेन्ट अगर मैं मान भी लूं कि संयोगवश हो गया था तो भी उनका तुम्हें इस प्रकार असहाय हाल में यहां छोड़ जाना ही क्या यह सिद्ध करने के लिये काफी नहीं है कि वे तुम्हें लूट के माल में से हिस्सा नहीं देना चाहते ? नासिर, उनसे तुम्हें कोई फायदा होने वाला नहीं है लेकिन मैं फिर भी तुम्हारा भला कर सकता हूं । मैं तुम्हारे लिये डॉक्टर बुला सकता हूं । लूट की रकम में से तुम्हारा हिस्सा तुम्हें दिला सकता हूं ।”
“तुम ऐसा करोगे ?”
“यह तो तुम्हारे सहयोग पर निर्भर करता है ।”
“रुपया फार्म हाउस में ही है ।” - नासिर बोला ।
“फार्म हाउस में कहां ?”
“इमारत में ही कहीं । पक्का ठिकाना मुझे नहीं मालूम । वह घर वजाहत अली का है इसलिए उसी ने रुपया कहीं छुपाया है ।”
“यह वजाहत अली कैसा आदमी है ?”
“क्या मतलब ?”
“कहीं ऐसा तो नहीं कि रुपया वह ही हड़प कर जाये ।”
“ऐसा नहीं हो सकता । अजीत को उस पर पूरा विश्वास है ।”
“आजकल का पूरा विश्वास कैसा होता है, इसके बहुत नमूने मैं देख चुका हूं ।”
“लेकिन वह वाकई भरोसे का आदमी है ।”
“जैसे अजीत तुम्हारे भरोसे का आदमी था ।”
“मुझे अभी भी विश्वास नहीं है कि अजीत मुझे धोखा दे गया है ।”
“सपने देखते रहो । दिल बहला रहेगा ।”
वह चुप रहा ।
मैंने ड्रेसिंग टेबल से चाबियों का गुच्छा उठा लिया ।
“कार तुम्हारी है या यह भी चोरी की है ?” - मैंने पूछा ।
“मेरी नहीं है ।” - नासिर बोला - “लेकिन चोरी की भी नहीं है ।”
“तो फिर किसकी है ?”
“अजीत की ।”
“आई सी । कहां खड़ी है ?”
“मध्यप्रदेश स्टेट एम्पोरियम की पार्किंग में ।”
मैंने चाबियों के गुच्छे में से मौरिस माइनर की दोनों चाबियां निकाल लीं और गुच्छा वापिस ड्रेसिंग टेबल पर उछाल दिया । मैं दरवाजे की ओर बढा ।
“कहां जा रहे हो ?” - नासिर व्यग्र स्वर से बोला ।
“यहां से बाहर ।”
“लेकिन पहले डॉक्टर को तो फोन करो ।”
“फोन खुद कर लो ।”
“लेकिन मैं तो अपने स्थान से हिल भी नहीं सकता ।”
“च... च... च । कितने अफसोस की बात है ।”
“तुम मुझे इस असहाय हालत में छोड़ कर यहां से नहीं जा सकते ।” - वह यूं बोला जैसे रोने लगा हो ।
“तुम्हारे जैसे धोखेबाज आदमी के लिए तो मैं एक उंगली हिलाना भी पसन्द नहीं करुंगा ।” - मैं नफरतभरे स्वर से बोला - “अच्छा हुआ तुम मुझे यहां इस हालत में मिले वर्ना तुम्हारे नापाक खून से मुझे अपने हाथ रंगने पड़ते और फिर अगर डॉक्टर आ भी जाए तो वह तुम्हें नहीं बचा सकता । तुम्हारी जिन्दगी की केवल चन्द घड़ियां बाकी हैं । तुम्हारी मौत निश्चित है ।”
अपने पीछे रोते चिल्लाते, गालियां देते, फरियाद करते, बेबस नासिर खां को छोड़कर मैं फ्लैट से बाहर निकल आया ।
***
अन्धेरा हुए बहुत देर हो चुकी थी ।
इलाहीबाग तलाश करने में मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई थी । लेकिन यह देखकर मुझे सख्त हैरानी हुई कि फार्म हाऊस के अगले और पिछले दरवाजों पर दो सशस्त्र आदमी पहरा दे रहे थे ।
फार्म हाउस एक विशाल चबूतरे पर बनी एक पुराने ढंग की दो मन्जिली इमारत थी । इमारत बाग के एकदम बीच में थी और चारों ओर से पेड़ों से घिरी हुई थी । मुझे इमारत में अजीत और रश्मि के अतिरिक्त दो और व्यक्तियों की झलक मिल चुकी थी ।
इमारत से बाहर मौजूद रायफलधारी आदमी मुझे भारी उलझन में डाल रहे थे । यह सावधानी क्यों ? वहां हमेशा ही ऐसे सावधानी बरती जाती थी या अजीत को किसी खतरे का आभास मिल गया था ।
कितनी ही देर मैं पेड़ों में छुपा पाइप के कश लगाता रहा और इमारत की निगरानी करता रहा ।
अजीत या रश्मि में से कोई इमारत से बाहर नहीं निकला ।
मैं वापिस लौट पड़ा । कच्ची सड़क से होता हुआ मैं मेन रोड पर पहुंचा । वहां वह खटारा मौरिस माइनर खड़ी थी जो मैंने नासिर के निर्देश पर मध्यप्रदेश स्टेट एम्पोरियम के कम्पाउन्ड में से उठाई थी ।
मैं वापिस सुलतानिया रोड नासिर के फ्लैट में पहुंचा ।
नासिर वहां नहीं था जहां उसे होना चाहिये था - अर्थात पलंग पर । मुझे उसका मृत शरीर ड्राईंग रूम में पड़ा मिला । टेलीफोन का रिसीवर अभी भी उसके हाथ में था । शायद आखिरी क्षण उसे अजीत को मेरे आगमन की चेतावनी देने का ख्याल आ गया था । फार्म हाउस में सशस्त्र आदमियों की मौजूदगी की इसके अतिरिक्त कोई और वजह नहीं हो सकती थी ।
मैं फ्लैट से बाहर निकल आया ।
दुकानें बन्द होने से पहले मैंने एक लगभग बीस गज लम्बी सिल्क की डोरी खरीदी और मौरिस माइनर पर वापिस इलाहीबाग पहुंचा । कार इस बार भी मैंने मेन रोड पर छोड़ दी और एक हाथ में रिवॉल्वर और दूसरे में सिल्क की डोरी सम्भाले, पेड़ों के पीछे छुपता-छुपता मैं फिर फार्म हाउस की ओर बढा ।
फार्म हाउस का वातावरण वैसा ही था जैसा मैं छोड़कर गया था । अजीत और रश्मि तक पहुंचने से पहले मेरा सशस्त्र पहरेदारों से निपटना जरूरी था । यह बात तो निश्चित थी कि वे लोग मुझसे थोड़े बहुत भयभीत जरूर थे वर्ना इमारत के बाहर मुझे सशस्त्र पहरेदार दिखाई न देते लेकिन फिर भी शायद वे इतने भयभीत नहीं थे कि मुझसे निपट न सकें और वहां से भाग निकलने का इरादा कर लें । या शायद किसी वजह से उनका वहां से तुरन्त भाग निकलना सम्भव नहीं हो पाया था । बहरहाल मुझे जो कुछ करना था आज की रात ही करना था । कल तक स्थिति मेरे काबू से और बाहर हो सकती थी ।
और फिर एक खतरा और भी था मुझे ।
अजीत बड़ी आसानी से पुलिस को एक गुमनाम टेलीफोन कॉल करके यह सूचना दे सकता था कि दिल्ली की जेल तोड़कर भागा हुआ खतरनाक अपराधी सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल इस समय भोपाल में मौजूद था और शायद इलाहीबाग के आसपास कहीं था । मैं अजीत से निपट सकता था लेकिन पुलिस जैसी संगठित शक्ति का मुकाबला न कर सकता था और न करना चाहता था ।
मैंने सबसे पहले फार्म हाउस के टेलीफोन की ही तारें काटी । अगर अजीत को अभी तक मेरे बारे मैं पुलिस को फोन करने का ख्याल नहीं आया तो अब उस ख्याल की कोई कीमत नहीं थी । अब वह पुलिस को कम से कम फोन नहीं कर सकता था ।
मैं पेड़ों के पीछे-पीछे छुपता हुआ इमारत के पृष्ठ भाग में पहुंचा ।
पिछले दरवाजे के सामने पूर्ववत सशस्त्र आदमी मौजूद था । उसने रायफल कंधे पर रखी हुई थी और वह फौजियों की तरह बड़ी मुस्तैदी से इधर-उधर फिर रहा था ।
मैं बिल्ली की तरह चुपचाप एक पेड़ पर चढ गया । उस पेड़ की एक शाखा चबूतरे के ऊपर तक पहुंची हुई थी । मैं उस शाखा पर पत्तों में छुप कर बैठ गया । सिल्क की डोरी के एक सिरे पर मैंने फिसलने वाली गांठ लगाकर एक फंदा सा बना लिया और प्रतीक्षा करने लगा ।
मेरा हाथ जेब में रखे पाइप की ओर बढा लेकिन मैंने फौरन वापिस खींच लिया । उस निस्तब्ध वातावरण में तम्बाकू जलने की गंध बहुत दूर-दूर तक फैल सकती थी और उसकी मौजूदगी का भेद खोल सकती थी ।
“वजाहत अली !” - एकाएक इमारत के सामने के भाग से आती एक आवाज मेरे कानों में पड़ी - “सब ठीक ठाक है न ?”
वह आवाज अजीत की थी । अजीत ज्यादा ऊंचा नहीं बोल रहा था लेकिन फिर भी बाग के असाधारण रूप से शान्त वातावरण की वजह से उसकी आवाज मेरे कानों में पहुंच गयी थी ।
“फिक्र मत करो, दोस्त” - एक दूसरी आवाज आयी - “मेरे आदमी पूरी मुस्तैदी से पहरा दे रहे हैं और फिर मेरे ख्याल से तुम खामखाह बात का बतंगड़ बना रहे हो । एक अकेला आदमी क्या कर सकता है ?”
“सुनो, टेलीफोन में करेन्ट नहीं है ।”
“अच्छा । फिर बिगड़ गया । यह टेलीफोन बिगड़ा ही रहता है ।”
“कहीं इसमें विमल की तो कोई शरारत नहीं ।”
“कैसी शरारत ?”
“शायद उसने हमारा शहर से सम्पर्क काटने के लिए लाइन काट दी हो ।”
“तुम वहम कर रहे हो । अरे, यह टेलीफोन तो अक्सर बिगड़ जाता है । और सच पूछो तो मुझे विश्वास नहीं कि वह छोकरा इस जगह के पास भी फटकने की हिम्मत करे ।”
“मैं एक बार उसे समझने में भूल कर चूका हूं, अब दोबारा नहीं करना चाहता । जिस दिन मैंने अखबार में उसके पुलिस की गाड़ी से निकल भागने की खबर पढी थी, मेरा हार्ट फेल होता-होता बचा था । वह वाकई कोई बेहद खतरनाक और साधन-सम्पन्न मुजरिम है । जेल के भीतर रहते रहते जेल से निकासी का कोई इन्तजाम कर लेना एक करिश्मे से कम नहीं है । हम धोखे में रहे । अपना उल्लू सीधा करने के लिये हम एक गलत आदमी फांस बैठे । अनजाने में हमने भिड़ के छत्ते में हाथ दे दिया । जिसे हम मिट्टी का माधो समझ रहे थे, वह तो हमारा भी बाप निकला । अगर यह बात मुझे पहले समझ में आ जाती तो मैं उसे फंसवाने की कभी कोशिश न करता । मैं या कोई और आदमी तलाश करता या बड़ी शराफत से उसे उसका हिस्सा दे देता । आज भी अगर उसके साथ सुलह का कोई सिलसिला बन जाये तो मैं उसे उसका हिस्सा देने के लिये सहर्ष तैयार हूं ।”
“लेकिन अब मैं तुम्हें ऐसा नहीं करने दूंगा । तुम खामखाह डर रहे हो, अजीत ! उसे यहां आने की गलती करने दो । मैं उसे मच्छर की तरह मसल दूंगा ।”
“लेकिन टेलीफोन लाइन...”
“वहम मत करो । वह लाइन अक्सर डैड हो जाती है । तुम कहां टेलीफोन करना चाहते थे ?”
“मैं सोच रहा था क्यों न हम उसकी सूचना पुलिस को दे दें । वह फरार मुजरिम है । पुलिस उस पर चढ दौड़ेगी तो हमारा पीछा छूट जायेगा ।”
“ऐसा भूल कर भी मत करना । अगर वह पुलिस के हाथ में आ गया तो फिर तुम्हारी भी ऐसी तैसी हो जायेगी । पहली बार तुम लोगों के बारे में वह कुछ जानता नहीं था इसलिये उसके पुलिस को दिये बयान में कोई दम नहीं था लेकिन इस बार तुम लोगों के बारे में बहुत खतरनाक बातें पुलिस को बता सकता है । तुम्हारे लिये यही अच्छा है कि वह पुलिस के हाथ में न पड़े । अच्छा यही है कि वह यहां आने की गलती कर बैठे और फिर हम उसका काम तमाम कर दें । इतने बड़े बाग में एक लाश गायब कर देना मामूली बात है ।”
“तुम्हारे सब आदमी भरोसे के हैं न ?”
“उसकी तुम बिल्कुल फिक्र मत करो । सब मेरे मुरीद हैं ।”
“रात को पहरे का क्या इन्तजाम है ?”
“एक रायफल वाला आदमी तुम्हारे सामने खड़ा है । एक दूसरा रायफल वाला आदमी पिछवाड़े में है । एक रायफल वाला आदमी भीतर है और फिर मैं हूं ।”
“आओ जरा पिछवाड़े का भी चक्कर लगायें ।”
“चलते हैं । जरा काफी तो खतम कर लूं ।”
वार्तालाप बन्द हो गया ।
उसी क्षण पिछवाड़े में चबूतरे पर टहलता हुआ आदमी रुक गया । वह चबूतरे के सिरे पर पहुंचा और नीचे टांगे लटका कर बैठ गया । रायफल उसने अपनी बगल में रख ली । उसने जेब से बीड़ी का बण्डल और माचिस निकाल ली ।
मैं जिस डाल पर बैठा था, उस समय वह आदमी एकदम उसके नीचे था । ऐसे ही किसी मौके की मैं तलाश में था । मैंने धीरे-धीरे सिल्क की डोरी नीचे लटकानी आरम्भ कर दी ।
अगले ही क्षण डोरी के सिरे पर बना फन्दा उस आदमी के सिर पर था जो सिर पर मंडराती मौत से बेखबर बड़े इत्मीनान से बीड़ी के कश लगा रहा था ।
फन्दा सीधा उसकी गर्दन में जाकर पड़ा ।
इससे पहले कि वह कुछ समझ पाता मैंने दोनों हाथों से रस्सी ऊपर खींचनी आरम्भ कर दी । फन्दा उसकी गर्दन में इस बुरी तरह कस गया कि उसके मुंह से हल्की सी आवाज भी नहीं निकली कुछ क्षण वह चबूतरे और पेड़ के बीच में अधर में लटका हाथ पांव झटकता रहा, फिर उसका शरीर निश्चेष्ट होकर डोरी के साथ लटक गया ।
मैंने डोरी को ढील देनी आरम्भ कर दी । उसके पांव जमीन से लगते ही मैंने डोरी छोड़ी दी । वह चबूतरे पर लोट गया ।
मैं जल्दी से पेड़ से नीचे उतरा और उसके समीप पहुंचा । उसी क्षण मुझे इमारत की बगल से अपनी ओर बढते कदमों की आहट मिली । शायद वजाहत अली और अजीत उधर आ रहे थे ।
बिजली की फुर्ती से मैंने चबूतरे पर पड़ी रायफल उठाकर अपने कन्धे पर डाली और उस निश्चेष्ट व्यक्ति की बगलों में हाथ डालकर उसे घसीटता हुआ पेड़ों की ओर ले चला । जिस क्षण मैं पेड़ों की ओट में पहुंचा, उसी क्षण दो साये पिछवाड़े के चबूतरे पर पहुंचे ।
“मुझे तो यहां कोई भी नहीं दिखाई दे रहा ।” - मुझे अजीत का स्वर सुनाई दिया ।
“वह यहीं तो था ।” - एक अन्य झुंझलाहट भरा स्वर, जो शायद वजाहत अली का था, मेरे कानों में पड़ा - “अभी दस मिनट पहले मैं उसे यहां देखकर गया हूं । पता नहीं कहां मर गया । अहमद ! अहमद !”
प्रत्युत्तर में कोई आवाज सुनाई नहीं दी ।
दोनों सायों में से एक हाथ में एक टार्च चमकी और चारों ओर फिरने लगी । मैं निश्चेष्ट व्यक्ति के साथ जमीन पर लेटा हुआ था । रोशनी का दायरा मेरे ऊपर से गुजर गया ।
फिर टार्च बन्द हो गयी ।
मैंने शान्ति की सांस ली । मेरा रिवॉल्वर वाला हाथ तनिक नीचे झुक गया । मैंने कभी रिवॉल्वर नहीं चलाई थी । इसीलिये इस बात की कतई गारंटी नहीं थी कि इतने फासले से मेरी चलाई गोली उन दोनों सायों में से किसी को लगेगी वर्ना मैं अजीत को वहीं शूट कर देना पसन्द करता और फिर दोनों साये एक से थे मुझे यह भी तो पता नहीं लग रहा था कि उनमें से अजीत कौन था ।
“शायद वह भीतर पानी-वानी पीने चला गया है ।” - वजाहत अली बोला - “अभी आ जायेगा ।”
“मैं सन्तुष्ट नहीं हूं ।” - अजीत बोला ।
“खामखाह वहम करते हो, यार । तुम क्या समझते हो कि उसे विमल ने गायब कर दिया है । “
“हो सकता है ।”
“नहीं हो सकता । अहमद मेरा सबसे ज्यादा चौकन्ना और सबसे ज्यादा परखा हुआ आदमी है । वह अभी यहां आ जायेगा ।”
“नहीं । उसके आने तक यहीं ठहरो ।”
मैंने अपनी बगल में पड़े वजाहत अली के सबसे चौकन्ने और परखे हुए आदमी की नब्ज देखी । नब्ज बहुत धीमी चल नही थी । वह मरा नहीं था लेकिन वह काफी देर तक होश में आने वाला भी नहीं था । फन्दा मैं उसकी गर्दन से पहले ही ढीला कर चुका था । मैंने फन्दा और ढीला करके उसकी गर्दन से निकाल लिया और उसे और उसकी रायफल को वहीं छोड़कर मैं पेड़ों के पीछे-पीछे ही छाती के बल इमारत के सामने के भाग की दिशा में सरकने लगा । जब पिछवाड़े में खड़े साये मेरी दृष्टि से ओझल हो गये तो मैं उठ खड़ा हुआ और दबे पांव सामने की ओर बढा ।
सामने के चबूतरे पर भी रायफलधारी पहरेदार मौजूद था ।
मैं फिर एक पेड़ पर चढ गया । पहले वाली क्रिया दोहरा कर बिल्कुल वही हाल मैंने सामने वाले गार्ड का कर दिया लेकिन इस बार मैं उसका निश्चेष्ट शरीर ही घसीट कर पेड़ों के पीछे ले जा सका । उसकी रायफल उठाने के लिये जब मैं वापिस लौटा तो उसी समय मुझे पिछवाड़े से सामने की ओर बढते कदमों की आहट मिली । इमारत के सामने वाले भाग में पेड़ अपेक्षाकृत ज्यादा फासले से आरम्भ होते थे इसलिए मेरा लपक कर उनकी ओट में पहुंच जाना सम्भव नहीं था ।
मेरी व्याकुल निगाहें चारों ओर घूम गयी ।
इमारत का मुख्य द्वार खुला था ।
मैं लपक कर उसके पास पहुंचा ।
भीतर एक रायफलधारी आदमी मौजूद था लेकिन उस समय मेरी ओर उसकी पीठ थी । वह हॉल कमरे के पिछले सिरे पर मौजूद था और खिड़की से बाहर झांक रहा था । साइड में ऊपरली मंजिल की ओर जाने वाली सीधी सीढियां थीं । सीढियों के नीचे मुझे एक अधखुला दरवाजा दिखाई दिया । मैं दबे पांव उसकी ओर लपका । वह सीढियों के नीचे बना एक छोटा सा केबिन था । जिसमें बिजली के मीटर लगे हुए थे और सफाई के काम में प्रयुक्त होने वाले झाड़ू और बाल्टियां वगैरह पड़ी थी । मैं उस केबिन में घुस गया और अपने पीछे दरवाजा भिड़ा लिया ।
भीतर मौजूद गार्ड को मेरी आहट नहीं मिली थी ।
मैं दरवाजे की दरार में आंख लगाकर बाहर झांकता रहा । भीतर का प्रकाश खुले मुख्य द्वार से बाहर पड़ रहा था इसलिए चबूतरे पर लावारिस पड़ी रायफल मुझे स्पष्ट दिखाई दे रही थी । उसी क्षण रायफल के पास अजीत और वजाहत अली प्रकट हुए ।
वजाहत अली ने जमीन पर पड़ी रायफल उठा ली और फिर तनिक दहशत भरे स्वर से बोला - “या अल्लाह ! यह क्या गोरखधंधा है । अब हमीद गायब हो गया है ।”
“वजाहत अली” - अजीत तीव्र स्वर से बोला - “फौरन भीतर चलो । बहुत डींग हांक ली तुमने । विमल ने जिस सफाई से तुम्हारे दो कथित सबसे चौकन्ने पहरेदारों को गायब कर दिया है उससे हम भी बाहर सुरक्षित नहीं हैं ।”
वजाहत अली ने भी प्रतिवाद नहीं किया । उसका आत्मविश्वास पहले ही हिल चुका था । दोनों इमारत के भीतर आ गये । मुख्य द्वार मजबूती से बन्द कर लिया गया ।
लेकिन उन्हें यह नहीं मालूम था कि मैं भी भीतर था और उनसे थोड़ी ही दूर छुपा हुआ था ।
“घनश्याम !” - अजीत भीतर मौजूद गार्ड से बोला – “देख लो कि सब खिड़कियां दरवाजे मजबूती से भीतर से बन्द हैं ।”
“बेहतर ।” - घनश्याम बोला ।
“और इमारत की भीतर बाहर की सारी बत्तियां जला दो । अंधेरा हमारे लिये घातक साबित हो सकता है ।”
“बेहतर ।”
सारी बत्तियां जल गयीं । घनश्याम ने दोनों मंजिलों के खिड़कियां दरवाजे चैक करने आरम्भ कर दिये ।
“अजीत” - एकाएक मुझे पहली मंजिल से कहीं से रश्मि का स्वर सुनाई दिया - “क्या हो रहा है ?”
“तुम भीतर अपने कमरे में जाओ और दरवाजा भीतर से बन्द कर लो ।” - अजीत कर्कश स्वर से बोला - “विमल यहां पहुंच गया है । उसने हमारे दो आदमियों का सफाया भी कर दिया है ।”
रश्मि के मुंह से निकली दहशतभरी सिसकारी सारी इमारत में गूंज गई ।
“और कमरे का दरवाजा किसी सूरत में मत खोलना । दरवाजा केवल तब खोलना जब मैं दरवाजे पर पहले तीन, फिर एक और फिर दो दस्तक दूं समझ गयीं ?”
“समझ गयी ।”
कुछ क्षण शान्ति रही ।
“अब क्या इरादा है ?” - अन्त में अजीत बोला ।
“तुम ऊपर जाकर आराम करो ।” - वजाहत अली बोला - “जो हो गया मुझे उसके लिए अफसोस है लेकिन अब मैं पूरी शक्ति से तुम्हारी हिफाजत करूंगा । मुझे विश्वास है विमल अब इस इमारत के भीतर कदम नहीं रख सकता लेकिन फिर भी मैं और घनश्याम सारी रात पहरा देंगे । पहली मंजिल पर जाने का केवल ये सीढियां ही एक रास्ता है । मैं और घनश्याम इसके दोनों सिरों पर सारी रात पहरा देंगे । तुम भी सावधान रहना । कुछ घंटों की बात है । सुबह अमजद तुम्हारी जीप ठीक करवा कर ले आयेगा । तब हम लोग यहां से निकल चलेंगे । फिर विमल हमें दोबारा नहीं ढूंढ़़ पायेगा ।”
“लेकिन...”
“वहम मत करो । तुम ऊपर पहुंचो ।”
“अच्छा ।”
मुझे अजीत के सीढ़ियों पर पड़ते कदमों की आवाज सुनाई दी ।
सारे खिड़कियां दरवाजे चैक कर चुकने के बाद घनश्याम वापिस आ गया ।
“घनश्याम” - वजाहत अली का स्वर सुनाई दिया - “तुम यहां ठहरो । मैं ऊपर की मंजिल पर सीढ़ियों के दहाने पर जाता हूं । पूरी तरह चौकस रहना । इस बार किसी प्रकार की चोट नहीं होनी चाहिए ।”
“इस बार क्या हो सकता है, साहब ? वह हवा थोड़े ही है जो झरोखों में से भीतर आ जायेगा ।”
“फिर भी होशियार रहना ।”
“आप चिन्ता मत कीजिये ।”
फिर सीढियों पर पड़ते भारी कदमों की आवाज आयी । शायद वजाहत अली ऊपर जा रहा था ।
मैंने देखा वजाहत अली हमीद की रायफल, जो उसने बाहर चबूतरे पर से उठाई थी, हॉल के बीच में रखी एक मेज पर छोड़ गया था । अवश्य उसके पास कोई और हथियार था । रायफल की बगल में एक टार्च पड़ी थी जो पता नहीं वजाहत अली जानबूझ कर वहां छोड़ गया था या अनजाने में वहां भूल गया था ।
हॉल में लगी दीवार घड़ी ने ग्यारह बजाये ।
इमारत में पूर्ण निस्तब्धता थी । कभी-कभी सीढ़ियों के निचले सिरे पर मौजूद घनश्याम या ऊपर के सिरे पर मौजूद वजाहत अली की आहट या कोई छोटी-मोटी बातचीत की आवाज मुझ तक पहुंच जाती थी ।
मैं बडे़ धैर्य से प्रतीक्षा करता रहा ।
बारह बज गये ।
मैंने पहलू बदला । अब तक वे दोनों अवश्य थोड़े-बहुत असवाधान हो गये होंगे । और नहीं तो नींद की खुमारी ने ही उन्हें थोड़ा बहुत असावधान कर दिया होगा ।
साढ़े बारह बजने के थोड़ी देर बाद मैंने हाथ बढाकर बिजली का मेन स्विच आफ कर दिया ।
इमारत में एकदम गहरा अंधेरा छा गया
“घनश्याम” - वजाहत अली का व्यग्र स्वर सुनाई दिया - “यह क्या हुआ ?”
“बत्ती चली गयी मालूम होती है, साहब ।” - घनश्याम सावधान स्वर से बोला ।
“कोई फ्यूज उड़ गया होगा । जरा मेन स्विच पर देखो ।”
“माचिस मोमबत्ती और फ्यूजवायर मेन स्विच के ऊपर ही पड़ी है । टार्च पता नहीं कहां रख बैठा हूं ।”
“फ्यूज देखता हूं ।”
मैं दरवाजे की बगल में एकदम दीवार के साथ चिपक कर खड़ा हो गया और प्रतीक्षा करने लगा ।
घनश्याम उस ओर बढ़ रहा था ।
ज्यों ही उसने दरवाजा खोल कर भीतर कदम रखा मैंने उसे दबोच लिया । वह मेरे ही कद का मेरे ही जैसा हल्का-फुल्का आदमी था । मैंने अपनी एक बांह मजबूती से उसकी गर्दन के गिर्द लपेट दी और दूसरे हाथ में थमी रिवॉल्वर उसकी कनपटी से सटा दी ।
“खबरदार” - मैं उसके कान में फुंफकारा - “जरा भी आवाज निकली तो भेजा उड़ा दूंगा ।”
उसके मुंह से धीमी सी गों-गों की आवाज निकली ।
“रायफल गिरा दो ।”
उसने आदेश का पालन किया । रायफल जमीन पर लुढक गयी ।
रायफल जमीन पर गिरने की हल्की सी खट की आवाज भी वजाहत अली के कानों तक पहुंच गयी ।
“घनश्याम” - वह एकदम बोला - “क्या हुआ ?”
“कहो, अनजाने में रायफल जमीन पर गिर गयी थी” - मैं उसके कान में बोला और गर्दन से अपनी पकड़ ढीली कर दी - “कोई और शब्द मुंह से न निकले ।”
“कुछ नहीं हुआ, साहब” - घनश्याम खोखले स्वर से बोला - “अनजाने में रायफल जमीन पर गिर गयी थी ।”
“फ्यूज देखा ?”
“कहो, फ्यूज ठीक है” - मैं बोला - “यहां मोमबत्ती नहीं है । लेकिन तुमने टटोल कर देखा है । बत्ती पीछे से ही गयी हुई है ।”
उसने मेरी बात दोहरा दी ।
“लेकिन मोमबत्ती वगैरह तो हमेशा ही वहीं रहती है ।”
“कहीं इधर-उधर गिर गयी होंगी” - वह मेरे निर्देश पर बोला - “अंधेरे में कुछ पता नहीं लग रहा है ।”
“हॉल में बीच की मेज पर देखो । शायद वहां मेरी टार्च पड़ी हो ।”
“अच्छा जी ।”
मैंने उसे कुछ क्षण वहीं खड़ा रहने दिया और फिर बोला - “उसे कहो कि टार्च मेज पर नहीं है ।”
“टार्च मेच पर नहीं है, साहब ।” - घनश्याम बोला ।
“पता नहीं कहां रख बैठा हूं मैं ।”
“तुम कहां हो ?”
“नीचे सीढियों के पास ।” - मेरे निर्देश पर वह बोला ।
“तुम ऊपर आओ । मैं नीचे आकर टार्च या मोमबत्ती तलाश करता हूं ।”
“अच्छा, साहब ।” - मेरे निर्देश पर घनश्याम बोला ।
मैं घनश्याम से एक कदम परे हटा, रिवॉल्वर मैंने नाल की ओर से पकड़ ली और फिर इससे पहले कि वह कुछ समझ पाता मैंने रिवॉल्वर के दस्ते का भरपूर प्रहार उसकी कनपटी पर किया ।
घनश्याम के मुंह से एक हल्की-सी कराह निकली और उसका शरीर हवा में लहराया । उसके धराशायी होने से पहले ही मैंने उसको थाम लिया और फिर धीरे से उसे मीटरों से परे एक कोने में लिटा दिया । मैंने उसे अच्छी तरह हिला कर देख लिया, वह पूर्णतया अचेत था । मैंने उसकी रायफल सम्भाली और सीढियों के नीचे बने उस छोटे से केबिन से बाहर निकल आया । मैंने केबिन का दरवाजा बंद कर दिया और अंदाजे से उस मेज की ओर बढा जहां रायफल और टार्च पड़ी थी ।
मैंने टार्च उठाकर अपनी जैकेट की जेब में डाल ली । मैं सीढियों के समीप पहुंचा ।
“वजाहत अली, क्या बात है ?” - उसी क्षण ऊपर से अजीत का स्वर सुनाई दिया ।
“कुछ नहीं ।” - वजाहत अली बोला - “बत्ती चली गयी है । मैं नीचे टार्च तलाश करने जा रहा हूं । तुम अपने कमरे में जाओ ।”
“बत्ती कैसे चली गयी ?” - अजीत सतर्क स्वर से बोला ।
“बत्ती कैसे चली जाती है ? पीछे से करेंट बंद हो गया होगा और क्या ?”
“कहीं विमल ने टेलीफोन की तरह बिजली की तारें भी तो नहीं काट दीं ।”
“हो सकता है । लेकिन इससे उसे क्या फायदा पहुंच सकता है ? भीतर तो वह कदम रख नहीं सकता ।”
“फिर भी...”
“और फिर शायद फ्यूज ही उड़ी हो । मैं टार्च तलाश करके अच्छी तरह देखता हूं । मैं नीचे जा रहा हूं । तुम अपने कमरे में जाओ ।”
“अच्छा !” - अजीत अनिश्चित स्वर से बोला ।
“घनश्याम” - वजाहत अली झल्लाये स्वर से बोला - “कहां मर गया है ?”
“मैं यहां हूं, साहब ।” - मैं जानबूझ कर खांसता हुआ घरघराती आवाज से बोला ।
“ऊपर क्यों नहीं आते हो ?”
“आया, साहब !”
मैं सीढियां चढने लगा ।
आधे रास्ते में वजाहत अली मेरी बगल से गुजरा । निपट अन्धकार में उसका मुझे पहचान पाना असंभव था ।
मैं ऊपर पहुंच गया ।
ऊपर सीढियों के दहाने के पास मुझे एक साया दिखाई दिया ।
वह जरूर अजीत था जो अभी तक अपने कमरे में नहीं गया था ।
“घनश्याम !” - मेरे समीप आने की आहट पाकर वह बोला ।
“हां, साहब ।” - मैं खांसता हुआ बोला ।
“यह तुम्हारी आवाज को क्या हो गया है ?”
“पता नहीं, साहब ।”
“लेकिन घनश्याम तुम... यह आवाज - तुम तो - तुम तो...”
खेल चौपट होने जा रहा था । अजीत शायद मेरी आवाज पहचान गया था । मैंने रायफल अपने हाथों से निकल जाने दी । अंधकार में अपने दोनों हाथ आगे फैलाये मैं अजीत की ओर झपटा । उसकी एक बांह मेरे हाथ में आ गयी ।
अजीत चिल्लाया ।
“साहब” - मैं गला फाड़कर चिल्लाया - “वह यहां है । उसने मेरी रायफल छीन ली है । वह सीढियों की ओर भाग रहा है । गोली चलाइये, साहब ।”
और साथ ही मैंने अजीत की बांह खींची और उसे पूरी शक्ति से सीढियों की ओर धकेल दिया । अजीत के मुंह से एक चीख निकली । उसने सम्भलने की कोशिश की लेकिन उसका संतुलन बिगड़ चुका था । वह सीढियों पर कलाबाजी खा गया । लकड़ी की सीढियों पर उसके भारी शरीर के लुढकने से बहुत शोर मचा ।
तभी नीचे से फायर हुआ ।
“अजीत ! अजीत !” - पहली मंजिल के किसी कमरे से रश्मि चिल्ला रही थी - “क्या हो रहा है ?”
अजीत के मुंह से एक खून जमा देने वाली चीख निकली ।
“साहब” - मैं फिर चिल्लाया - “उसे गोली लग गई मालूम होती है ।”
और साथ ही मैंने रायफल सीढियों पर लुढकते अजीत के पीछे उछाल दी और स्वयं दीवार की ओट में हो गया ।
एक और फायर हुआ ।
अजीत का कलाबाजियां खाता शरीर और खड़खड़ करती हुई रायफल दोनों लगभग एक साथ हॉल के फर्श से जाकर टकराये और फिर शान्ति छा गयी ।
कई क्षण इमारत में मरघट का सा सन्नाटा छाया रहा ।
“मैं नीचे आ रहा हूं, साहब ।” - मैं चिल्लाया । मुझे भय था कि वह धोखे में मुझे भी न शूट कर दे । मैं दो दो सीढियां फांदता हुआ नीचे भागा ।
नीचे घुप्प अंधेरे में मैं सीधा वजाहत अली से जाकर टकराया ।
“संभल के, हरामजादे ।” - वजाहत अली गर्जा ।
“माफी चाहता हूं, साहब ।” - मैं हकलाता हुआ बोला ।
अब मुझे मालूम था कि वजाहत अली कहां था । मैं दो कदम पीछे हटा । तभी मेरे पैर राइफल से टकराये । मैंने झुक कर रायफल उठा ली और फिर एक भी क्षण बरबाद किये बिना मैंने रायफल को दोनों हाथों में पकड़कर पूरी शक्ति से लाठी की तरह वजाहत अली की दिशा में घुमा दिया ।
पता नहीं रायफल वजाहत अली के शरीर के कौन से भाग से टकराई । उसके मुंह से एक घुटी हुई चीख निकली और फिर मुझे उसके धड़ाम से जमीन पर गिरने की आवाज आयी ।
मैं कुछ क्षण प्रतीक्षा करता रहा । जब वजाहत अली की दिशा में कोई हरकत नहीं हुई तो मैंने रायफल फेंक दी । मैंने जेब से टार्च निकाली । टार्च के प्रकाश के सहारे मैं सीढियों के नीचे बने केबिन तक पहुंचा और मेन स्विच ऑन कर आया ।
इमारत के कोने-कोने में फिर प्रकाश फैल गया ।
मैं सीढियों के पास पहुंचा ।
सीढियों के पास फर्श पर वजाहत अली और अजीत एक दूसरे से गड्ड मड्ड हुए पड़े थे । मैंने दोनों को एक दूसरे से अलग किया ।
अजीत मर चुका था । वजाहत अली की दोनों गोलियां उसे लगी थीं । एक छाती में घुस गयी थी और दूसरी नाक और उसके आसपास के अधिकतर भाग के परखचे उड़ाती हुई खोपड़ी में घुस गयी थी । अजीत का खूबसूरत चेहरा उस समय खून से सना हुआ मांस का लोथड़ा बना हुआ था । इतना वीभत्स दृश्य था कि मुझे उबकाई आ गई । मैंने जल्दी से उसकी ओर से निगाहें फेर लीं ।
वजाहत अली भी बेहोश पड़ा था । रायफल का कुन्दा उसकी खोपड़ी से टकराया था । खोपड़ी खुल गई थी और उसमें से बुरी तरह खून बह रहा था ।
मैंने वजाहत अली की रिवॉल्वर और दोनों रायफलें उठा ली और सीढियां चढ गया ।
ऊपरली मंजिल पर पांच-छ: कमरे थे । पहला कमरा खुला था ।
दोनों रायफलें और रिवॉल्वर मैंने उस कमरे में छुपा दीं ।
अगले तीन कमरे भी खुले थे ।
पांचवें कमरे का दरवाजा भीतर से बन्द था ।
जरूर उसी में रश्मि थी ।
मैं उस कमरे के सामने कुछ क्षण ठिठका सा खड़ा रहा । फिर मैंने दरवाजे पर पहले तीन बार फिर एक बार और फिर दो बार दस्तक दी ।
दरवाजा तुरन्त खुला ।
चौखट पर रश्मि दिखाई दी ।
“हल्लो डार्लिंग !” - मैं मुस्कराकर बोला - “लोंग टाइम । नो सी ।”
शायद उसने मुझे आवाज से पहचाना । मेरी चश्मा रहित हिप्पी सूरत से तो वह मुझे तुरन्त नहीं पहचान पायी होगी । उसके मुंह से एक भयभरी चीख निकली और उसने भड़ाक से दरवाजा बन्द कर लेने की कोशिश की । लेकिन दरवाजा बन्द न हो सका । मैं अपना पांव पहले ही दरवाजे की चौखट में फंसा चुका था । मैंने अपना दांया हाथ उसकी छाती पर रखा और उसे जोर से पीछे को धक्का दिया । दरवाजे से उसकी पकड़ छूट गयी और वह लड़खड़ाती हुई अपने सन्तुलन को बनाये रखने की कोशिश करती हुई कई कदम पीछे हट गयी ।
मैंने बड़े इत्मीनान से कमरे के भीतर कदम रखा और अपने पीछे दरवाजा बन्द कर लिया ।
वह गला फाड़ कर चिल्लाई ।
“खूब चीखो, चिल्लाओ ।” - मैं शान्ति से बोला - “अपने चाहने वालों के नाम ले-लेकर उन्हें आवाज दो, उन्हें मदद के लिए बुलाओ । लेकिन यहां कोई नहीं आयेगा । यहां कोई तुम्हारी आवाज सुनने की स्थिति में नहीं है ।”
वह फटी-फटी आंखों से मुझे घूरती रही ।
“उम्मीद है सुन्दर नगर के फ्लैट में मेरे साथ लिया शावर बाथ तुम्हें अभी भूला नहीं होगा ।”
“तुम” - वह कंपित स्वर से बोली - “तुम क्या चाहते हो ?”
“अजीब सवाल है ?” - मैं बनावटी हैरानी जाहिर करता हुआ बोला - “तुम्हारे पास और है ही क्या ? क्या आज मैं तुम्हें पहले जैसा खूबसूरत नहीं लग रहा ?”
वह चुप रही ।
मैं उसकी ओर बढ़ा ।
“नहीं, नहीं ।” - वह आतंकित स्वर में चिल्लाई - “मेरे पास न आना ।”
“कमाल है ! सुन्दर नगर के फ्लैट में तो तुम मुझे अपने से कतई अलग नहीं करना चाहती थीं ।”
वह भयभीत-सी और पीछे हटने लगी ।
मैंने झपटकर उसे बालों से पकड़ लिया । दूसरे हाथ का एक झन्नाटेदार झापड़ मैंने उसके गाल पर रसीद किया और उसके बाल छोड़ दिये ।
उसके मुंह से फिर एक चीख निकली और वह उलट कर पलंग पर जाकर गिरी ।
मैं इत्मीनान से चलता हुआ उसके सिर पर पहुंच गया ।
“उठ कर खड़ी हो जाओ ।” - मैं कर्कश स्वर से बोला ।
वह सुबकने लगी ।
मैंने उसे बालों से पकड़ा और एक झटके से उसे उसके पैरों पर खड़ा कर दिया ।
अब वह भय और आतंक से कांप रही थी ।
मैंने उसके नाइट गाउन के गिरहबान में हाथ डाला और उसे एक झटके से नीचे की ओर खींचा । एक चर्र की आवाज हुई । नाइट गाउन उसकी कमर से नीचे तक चिरता चला गया ।
उसने सिसकियां लेते हुए अपनी दोनों बांहें क्रॉस की सूरत में अपने अनावृत वक्ष के गिर्द लपेट लीं । उसने सिर झुका लिया और वह पलंग की पट्टी पर उकडू सी बैठ गयी ।
“सीधी खड़ी हो जाओ ।” - मैं बोला - “तुम्हारा जिस्म मेरा खूब देखा-भाला और ठोका-बजाया हुआ है । जो चीज तुम पहले अपनी मर्जी से मेरे हवाले कर चुकी हो, अब उसे मुझसे छुपाने का क्या मतलब ?”
“विमल” - वह रोती हुई बोली - “मुझ पर रहम करो । भगवान के लिए मुझ पर और जुल्म मत ढाओ ।”
“मैं क्यों रहम करूं तुम पर ?” - मैं क्रूर स्वर से बोला - “तुम लोगों ने रहम किया था मुझ पर ? तुम लोगों ने तो मुझे फांसी पर लटकवाने में कसर नहीं छोड़ी थी और मुझे गुमराह रखने में और पुलिस की गिरफ्त में पहुंचाने में सबसे बड़ा रोल तो तुम्हीं ने अदा किया था । आज तुम किस मुंह से मुझसे रहम की उम्मीद कर रही हो ?”
“मुझे माफ कर दो ।”
“क्यों माफ कर दूं ? मैं कोई साधु सन्यासी या पीर पैगम्बर नहीं जो तुम्हें माफ कर दूं । अपना अहित करने वाले को मैं माफ कैसे कर सकता हूं । मैं तो उसका दस गुणा अहित करना चाहूंगा ।”
वह फिर रोने लगी ।
मैंने बड़ी बेरहमी से उसकी दोनों बांहें उसके अनावृत वक्ष से अलग कर दीं और कहम भरे स्वर से बोला - “मेरी ओर देखो ।”
उसने सिर उठाया ।
“लूट का रुपया कहां है ?” - मैंने सवाल किया ।
वह बोली नहीं । वह विचलित नेत्रों से मेरा चेहरा देखती रही ।
मैंने रिवॉल्वर निकाल ली और बोला - “देखो, मैं बहुत परेशान हो चुका हूं । मुझमें ज्यादा सब्र नहीं है । अगर जान की सलामती चाहती हो तो फौरन मेरे सवाल का जवाब दो वर्ना, कसम वाहे गुरु की, ऐसी मौत मारूंगा कि तुम्हारी आत्मा त्राहि-त्राहि कर उठेगी ।”
उसका मुंह खुला और फिर बन्द हो गया ।
“और अगर तुम यह समझ रही हो कि अजीत या वजाहत अली या उनका कोई साथी तुम्हारी मदद के लिए यहां आयेगा तो यह ख्याल दिल से निकाल दो । इस वक्त कोई तुम्हारी मदद करने की स्थिति में नहीं है । बोलो, लूट का रुपया कहां है ?”
“रुपया यहां नहीं है ।” - वह धीरे से बोली ।
“यहां नहीं है ?” - मैं संदिग्ध स्वर से बोला - “तो फिर कहां है ?”
“रुपया दिल्ली में ही है ।”
“क्या ?” - मैं हैरानी से बोला ।
“मैं सच कह रही हूं ।” - वह बोली - “डकैती के फौरन बाद ही जिस मुस्तैदी से पुलिस ने हमारी तलाश आरम्भ कर दी उसमें रुपया न केवल दिल्ली से निकाल ले जाना असम्भव हो गया था, उल्टे रुपया हमें फंसा सकता था । इसलिए यही मुनासिब समझा गया था कि सारा मामला ठंडा होने तक रुपया दिल्ली में ही कहीं छुपा दिया जाये ।”
“दिल्ली में रुपया कौन-सी जगह छुपाया गया है ?”
“महरौली के पास छतरपुर नाम का एक गांव है । रुपया वहां ठाकुर हरफूलसिंह के घर में छुपा हुआ है ।”
“हरफूलसिंह के घर का पता ?”
“मुझे नहीं मालूम ।”
मैंने घूर कर देखा उसे ।
“भगवान कसम, मुझे नहीं मालूम लेकिन ठाकुर हरफूलसिंह को छतरपुर में हर कोई जानता है । किसी से भी पूछने से उसका पता मालूम हो जायेगा ।”
“यह ठाकुर हरफूल सिंह है कौन ?”
“अजीत का कोई रिश्तेदार है ।”
“भरोसे का आदमी है ?”
“क्या मतलब ?”
“कहीं ऐसा तो नहीं कि अभी तक सारा रुपया वह खुद ही हड़प गया हो ?”
“ऐसा नहीं हो सकता । अजीत को उस पर पूरा भरोसा है ।”
“तुमने ठाकुर हरफूलसिंह का घर देखा है ?”
“देखा है । मैं घर का पता नहीं जानती लेकिन रास्ता जानती हूं ।”
“गुड । तैयार हो जाओ । तुम फौरन यहां से मेरे साथ चल रही हो ।”
“कहां ?”
“दिल्ली ।”
रश्मि का चेहरा उतर गया ।
“क्या हुआ ? फ्यूज क्यों उड़ गया ?”
“तुम्हारी देश के कोने-कोने में तलाश हो रही है । तुम्हारी वजह से मैं भी खामखाह पुलिस के चक्कर में आ जाऊंगी ।”
“फिर क्या हुआ ? मुझे पूरा विश्वास है कि तुम पुलिस वालों को भी यूं ही बेवकूफ बनाने में कामयाब हो जाओगी जैसे तुमने दिल्ली में मुझे बेवकूफ बनाया था ।”
“लेकिन...”
“मैं थोड़ी देर में आता हूं । तब तक तुम तैयार हो जाना ।”
वह चुप रही ।
“वैसे तुम इसी हाल में भी मेरे साथ चलना चाहो तो कम-से-कम मुझे कोई एतराज नहीं है ।”
मैं कमरे से बाहर निकल आया । बाहर से मैंने कमरे की चिटकनी लगा दी ।
अगले दस मिनटों में मैं सारी इमारत में फिर गया ।
नोटों से भरे लोहे से सात बक्से कम-से-कम उस इमारत के भीतर कहीं छुपे हुए नहीं थे लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं था कि रश्मि सच बोल रही थी । बाहर इतना बड़ा बाग था । बक्से उस बाग में कहीं जमीन खोद कर दफन कर दिए जायें तो उन्हें तलाश करने के लिए पूरी फौज भी काफी नहीं थी ।
मैंने नीचे हॉल का चक्कर लगाया ।
वजाहत अली और घनश्याम अभी भी बेहोश थे और उनके होश में आने के कोई आसार दिखाई नहीं दे रहे थे । बाहर बाग में बेहोश पड़े अहमद और हमीद को देखने मैं नहीं गया । उनकी मुझे गारंटी थी कि वे जल्दी होश में आने वाले नहीं थे ।
मैं वापिस रश्मि के कमरे के सामने पहुंचा ।
मैंने चिटकनी खोली और दरवाजे को धक्का दिया ।
दरवाजा भीतर से बन्द था ।
मुझे अपने आप पर गुस्सा आने लगा । मैं समझ रहा था कि मैं रश्मि को काफी आतंकित कर चुका था और अब वह मेरे साथ कोई चाल चलने की स्थिति में नहीं थी लेकिन भूल गया था कि वह जरूरत से ज्यादा चालबाज लड़की थी । उसने खुद मुझे बताया था कि बैंक वैन डकैती की सारी स्कीम उसी की तैयार की हुई थी । मुझे उसको अकेला नहीं छोड़ना चाहिए था । उसने दरवाजा भीतर से बन्द कर लिया था । अब तक वह या तो वहां से निकल कर भाग चुकी थी या निकलने की तैयारी कर चुकी थी ।
“रश्मि !” - मैं चिल्लाया - “दरवाजा खोल दो वर्ना मुझसे बुरा कोई न होगा ।”
उत्तर नदारद ।
मैंने दरवाजे को दो-तीन तगड़े धक्के दिये ।
दरवाजा बहुत मजबूत था । मेरी सिंगल सिलेन्डर की बाडी में इतना दम नहीं था कि मैं उसको केवल धक्कों से तोड़ पाता ।
बगल के कमरे का दरवाजा खुला था । मैं लपक कर उसमें घुस गया । मैंने कमरे के पृष्ठभाग की खिड़की खोली और बाहर झांका । वह खिड़की इमारत की साइड में खुलती थी । उस ओर बाहर रोशनी नहीं थी । मुझे अपनी जैकेट की जेब में पड़ी टार्च का ख्याल आया । मैंने टार्च जलाई और उसका प्रकाश बाहर रश्मि के कमरे की खिड़की की दिशा में डाला ।
खिड़की खुली थी ।
“रश्मि !” - मैंने जोर से आवाज दी ।
प्रत्युत्तर में मुझे कहीं से हल्की-सी सरसराहट सुनाई दी ।
मैंने टार्च का प्रकाश चारों ओर डाला । खिड़की के सामने के एक स्थान पर टार्च की रोशनी का दायरा ठिठका । उस रोशनी में मुझे जो दृश्य दिखाई दिया उससे मेरी आंखें फैल गयीं ।
सामने एक विशाल पेड़ था जिसकी एक नाजुक-सी शाखा रश्मि के कमरे की खिड़की तक पहुंची हुई थी । रश्मि भारी खतरा उठाकर उस शाखा के सहारे उस पेड़ पर चढ गयी थी । किसी प्रकार वह नाजुक शाखा टूटने से बच गयी थी और तब तक वह उसको छोड़कर एक अन्य मजबूत शाखा पर पहुंच चुकी थी और अब बड़ी दक्षता से नीचे की ओर उतर रही थी । मेरे सीढ़ियों के रास्ते इमारत से बाहर पहुंचने तक वह पेड़ से उतर कर जंगल में कहीं गायब हो सकती थी और उसके बाद मैं सारी रात भी लगा रहता तो मैं उस घने और विशाल जंगल में उसे तलाश न कर पाता । जबकि मैं जल्दी से-जल्दी वहां से कूच कर जाना चाहता था ।
“रश्मि” - मैं कहर भरे स्वर से बोला - “मैंने तुम्हें देख लिया है । रुक जाओ वर्ना गोली मार दूंगा ।”
रश्मि केवल एक क्षण के लिये ठिठकी और फिर पहले से दुगनी रफ्तार से पेड़ से उतरने की कोशिश करने लगी ।
मैंने टार्च बांये हाथ में पकड़ ली और दांये हाथ से रिवॉल्वर निकाल ली । मैं केवल एक क्षण हिचकिचाया, फिर मैंने उसकी दिशा में रिवॉल्वर तानकर घोड़ा दबा दिया ।
निस्तब्ध वातावरण में गोली की आवाज बड़ी देर तक गूंजती रही ।
रश्मि के मुंह से एक हृदय विदारक चीख निकली । मैंने उसकी पकड़ पेड़ की डाल से छूटती देखी । फिर उसका शरीर उलट गया । जमीन तक पहुंचने से पहले वह रास्ते में बड़ी जोर से एक, पेड़ के तने जितनी ही मोटी शाखा से टकराई ।
मैं कमरे से निकला और नीचे भागा । इमारत से निकल कर मैं वहां पहुंचा जहां रश्मि गिरी थी । उसके समीप पहुंच कर मैंने टार्च का प्रकाश उसके शरीर पर डाला ।
वह होश में थी और जमीन पर पड़ी मछली की तरह तड़प रही थी । मैंने उसके शरीर का मुआयना किया ।
उस समय वह एक हाई नैक का पुलोवर और बैलबाटम पतलून पहने हुए थी । गिरने से उसकी दोनों टांगे टूट गयी थीं और सिर और बायें कंधे पर तगड़ी चोट आयी थीं । उसका खूबसूरत चेहरा भी काफी छिल गया था । मैंने उसका सारा शरीर टटोला लेकिन मुझे कहीं गोली लगी दिखाई नहीं दी । मैंने जिन्दगी में पहली बार रिवॉल्वर चलाई थी । अगर गोली उसे लग गयी होती तो मैं इसे करिश्मा मानता । शायद गोली चलने की दहशत से ही पेड़ की शाखा से उसके हाथ छूट गये थे और वह नीचे आ गिरी थी ।
“विमल ! विमल ?” - वह बड़ी मुश्किल से बोल पायी - “भगवान के लिए मेरी मदद करो । मुझे हस्पताल पहुंचा दो ।”
“कमाल है” - मैं बोला - “कहां तुम लोग मुझे एक फालतू सी चीज समझ कर पुलिस के हवाले कर आये थे और कहां अब हर किसी को मेरी मदद की जरूरत है ।”
“विमल, प्लीज !”
“बहरहाल जो हुआ अच्छा ही हुआ । तुम्हें भी अपने आप ही अपने कर्मों की सजा मिल गयी । शायद मैं अपने हाथों से तुम्हारी खूबसूरत गर्दन मरोड़ने की हिम्मत कभी न कर पाता ।”
“विमल ! विमल ! भगवान के लिए...”
“मैं भगवान का एजेंट नहीं जो उसके लिए कुछ करूं ।” - मैं उठकर खड़ा हो गया और शान्त स्वर में बोला - “सुबह तक तुम भगवान से अपने सलामती की डायरेक्ट प्रार्थना करती रहो । मैंने सुना है अमजद नाम का कोई आदमी अजीत की जीप ठीक करवाने गया हुआ है, वह सुबह तक वापिस लौटेगा । अगर सुबह तक तुम मर न गयीं तो वही तुम्हें हस्पताल पहुंचायेगा या शायद वजाहत अली, अहमद, हमीद और घनश्याम में से किसी को जल्दी होश आ जाये और उनमें से कोई तुम्हारी मदद कर सके । फिलहाल तो तुम मौजूदा दर्द और तकलीफ के आलम में चीखो, चिल्लाओ और जहन्नुम की आग में झुलसो ।”
“विमल” - वह कातर स्वर से बोली - “मुझ पर इतना जुल्म न ढाओ । मुझे इस हाल में न छोड़ो । विमल, प्लीज मुझे बचा लो । मैं जिन्दगी भर तुम्हारा अहसान बहुत नहीं भूलूंगी । विमल, मैं कसम खाकर कहती हूं, मैं तुम्हारी बहुत सेवा करूंगी । मैं तुम्हारे पांव की जूती बन कर रहूंगी ।”
“सो लांग, स्वीट हार्ट ।”
“विमल, मुझे यूं छोड़ कर मत जाओ । यहां तो मैं सर्दी से ही मर जाऊंगी । कम से कम मुझे इमारत के भीतर तो पहुंचा दो ।”
“गुड बाई, डियरेस्ट !” - मैं भावहीन स्वर से बोला - “उन घड़ियों को याद करने की कोशिश करो जो तुमने सुन्दर नगर के फ्लैट में मेरे साथ शावर के नीचे और बिस्तर में गुजारी थीं । अपने उन तमाम चाहने वालों को याद करो जिनके साथ तुम हमबिस्तर हो चुकी हो और रंगरलियां मना चुकी हो । इससे तुम्हारा दिल बहला रहेगा और तकलीफ की ओर से तुम्हारा ध्यान भी बंटा रहेगा और वक्त भी जल्दी कटेगा, बशर्ते कि सवेरा होने से पहले ही तुम्हारी राम कहानी समाप्त न हो जाये । सो लांग, डार्लिंग ।”
“विमल ! विमल !”
अपने पीछे तड़पती हुई रश्मि को छोड़कर मैं टार्च की रोशनी में कच्चे रास्ते पर आगे बढ गया ।
***
ट्रेन द्वारा मैं दिल्ली पहुंचा ।
मैं निर्विघ्न नगर में दाखिल हुआ । स्टेशन पर पुलिस की निगरानी अभी भी थी लेकिन वह दिल्ली से बाहर जाने वालों पर ही केन्द्रित थी । दिल्ली में प्रवेश करने वालों की ओर किसी का ध्यान नहीं था ।
मैं फतेहपुरी के एक घटिया से होटल में ठहरा ।
बाद में मैं डी. टी. यू. की एक बस पर सवार होकर महरौली पहुंचा और उसके बाद पैदल छतरपुर पहुंचा ।
ठाकुर हरफूलसिंह का घर तलाश करने में मुझे वाकई कोई दिक्कत नहीं हुई । वह एक मामूली सा एक मंजिला मकान था । उसकी साइड में बहुत बड़ा खलियान था और सामने खुला कम्पाउन्ड था जिसमें एक बैलगाड़ी खड़ी थी और कुछ खेती-बाड़ी का सामान और चारपाइयां पड़ी थीं ।
पूछताछ करने पर मालूम हुआ कि ठाकुर हरफूल सिंह एक लगभग पचपन साल का हृष्ट-पुष्ट वृद्ध था जो मकान में अपने एक नौजवान नौकर के साथ अकेला रहता था । उसके पास थोड़ी सी जमीन थी जिस पर वह ठेके पर काश्त करवाता था । दिन का अधिकतर समय उसका नौकर भी खेत पर ही गुजारता था । मुझे यह भी मालूम हुआ कि नौकर ठर्रा पीने का आदी था । ठाकुर को खाना वगैरह खिला कर वह रात को नौ बजे के करीब गांव में मौजूद एक ऐसे ठिकाने पर चला जाता था जहां कच्ची शराब मिलती थी और वहां से अक्सर आधी रात को वापिस लौटता था ।
इसका मतलब यह था कि रात के नौ बजे से लेकर आधी रात तक ठाकुर घर में अकेला होता था ।
मैं वापिस शहर में लौट आया ।
फतेहपुरी के सामने ही टैक्सी स्टैण्ड था । वहां बड़े ही संदिग्ध वातावरण में और रिपोर्ट हो जाने का काफी खतरा उठाकर मैंने एक टैक्सी वाले को तैयार किया कि रात को नौ बजे वह मुझे छतरपुर ले जाये और वहां से जब मैं चाहूं मुझे वापिस भी लेकर आये ।
टैक्सी वाला तैयार हो गया ।
मैंने पचास रुपये उसे तुरन्त दे दिये और बाकी के पचास रुपये उसे तब देने का वादा किया जब वह मुझे छतरपुर से वापिस फतेहपुरी मेरे होटेल में छोड़ जायेगा ।
रात के नौ बजने तक मैं एक क्षण के लिये भी अपने होटल के कमरे से बाहर नहीं निकला ।
ठीक नौ बजे टैक्सी वाला मुझे लेने आ गया ।
मैं उसके साथ छतरपुर रवाना हो गया ।
दस बजे के आस-पास हम छतरपुर पहुंचे ।
मैंने टैक्सी ठाकुर के मकान से काफी परे ही छोड़ दी और पैदल आगे बढ़ा । सर्दियों की रात थी । गांव का वातावरण लगभग उजाड़ हो चुका था । रास्ते में मुझे कोई इक्का-दुक्का आदमी ही मिला जिसने कि मेरी ओर कतई ध्यान नहीं दिया ।
मैं ठाकुर के मकान के सामने पहुंचा ।
वातावरण एकदम शान्त था ।
मैंने कम्पाउन्ड में कदम रखा ।
दूर कहीं कोई कुत्ता भौंका और फिर अपने आप शान्त हो गया ।
मकान में भीतर बत्ती जल रही थी । शायद ठाकुर अभी सोया नहीं था ।
मैंने धीरे से दरवाजा खटखटाया ।
“कौन है ?” - तुरन्त उत्तर मिला ।
“मैं ।” - मैं बोला ।
“मैं कौन ?”
“मेरा नाम विमल है । मैं भोपाल से आया हूं । मुझे अजीत ने भेजा है ।”
“ठहरो, खोलता हूं ।”
दरवाजा खुला ।
मैंने रिवॉल्वर ठाकुर की छाती पर रख दी ।
ठाकुर हक्का-बक्का-सा मेरा मुंह देखने लगा ।
“पीछे हटो ।” - मैं नम्र स्वर से बोला ।
ठाकुर ने तुरन्त आज्ञा का पालन किया ।
मैं भीतर प्रविष्ट हुआ । मैंने पांव की ठोकर से दरवाजा बन्द कर दिया ।
“घबराइये नहीं ।” - मैं सांत्वनापूर्ण स्वर से बोला - “मैं यहां आपको कोई नुकसान पहुंचाने नहीं आया हूं ।”
“ब-बेटा !” - ठाकुर कम्पित स्वर से बोला - “मैं बहुत गरीब आदमी हूं । मेरे पास कुछ भी नहीं है ।”
“आपका कुछ मुझे चाहिये भी नहीं । लूट का माल कहां है ?”
“लू- लू- लूट का म- माल ?”
“हां । डकैती का रुपया । सात बक्सों में बन्द वह 49 लाख रुपया जो अजीत ने आपको सुरक्षित रखने के लिये सौंपा है ।”
ठाकुर के चेहरे पर हवाईयां उड़ने लगीं ।
“मुझे सख्ती के लिए मजबूर न कीजिये, जनाब ।” - मैं नम्र स्वर से बोला ।
“ल - लेकिन- लेकिन...”
मैंने चारों ओर निगाह दौड़ाई । जिस कमरे में हम मौजूद थे उसके पीछे भी एक और कमरा था । दांयी ओर भी आगे-पीछे दो कमरे थे । मैंने आगे बढकर पहले पिछले कमरे में और फिर बारी-बारी दांयी ओर के दो कमरों में झांका । वे चारों ही कमरे लूट का माल छुपाने के लिए मुनासिब नहीं थे । मैंने जल्दी से मकान के पिछवाड़े का भी एक चक्कर लगाया ।
जब मैं वापिस पहले वाले कमरे में आया तो मैंने ठाकुर को एक लकड़ी का सन्दूक खोलकर उसमें से कुछ निकालने का उपक्रम करते हुए पाया । जो कुछ वह निकालने की कोशिश कर रहा था, उसकी झलक मुझे पहले ही मिल चुकी थी । वह एक पुरानी सी बन्दूक थी ।
“क्या फायदा !” - मैं धीरे से बोला ।
ठाकुर चिहुंककर सीधा खड़ा हो गया । बन्दूक उसके हाथों से निकल गयी ।
“क्यों बुढ़ापे में अपनी जान देने पर तुले हुए हैं आप ? पता नहीं बाबा आदम के जमाने की वह बन्दूक चलेगी भी यह नहीं ।”
ठाकुर ने होंठों पर जुबान फेरी ।
“रुपया खलिहान में है न ?” - मैंने पूछा ।
ठाकुर एकाएक बेहद व्याकुल दिखाई देने लगा ।
“रुपया जरूर खलियान में है” - मैं दृढ स्वर से बोला - “और इस बारे मैं आपसे पूछ नहीं रहा हूं, आपको बता रहा हूं । आपके इस मकान में मुझे रुपया छुपाने के लिये खलियान से बेहतर कोई जगह दिखाई नहीं दे रही है ।”
वह चुप रहा ।
“खलियान में ताला लगा हुआ है ?”
उसने जल्दी से सहमतिसूचक ढंग से सिर हिलाया ।
“चाबी सम्भालिये और मेरे साथ चलिये ।”
अनिच्छापूर्वक ही सही लेकिन ठाकुर ने मेरे आदेश का पालन किया ।
मैं उसके साथ मकान से बाहर निकल आया और खलियान की ओर बढ़ा ।
ठाकुर ने चाबी लगाकर खलियान का ताला खोला । हम दोनों भीतर प्रविष्ट हुए । मैंने अपने पीछे द्वार भिड़का दिये । सौभाग्यवश खलिहान में भी बिजली का कनेक्शन था । ठाकुर ने मेरे कहे बिना ही बिजली का स्विच ऑन कर दिया ।
वह एक विशाल खलियान था जो तीन चौथाई भूसे से भरा हुआ था । मैंने चारों ओर एक सरसरी निगाह डाली और फिर वृद्ध से बोला - “रुपया भूसे के नीचे दबा हुआ है ?”
वृद्ध चुप रहा ।
“मैंने पूछा है रुपया भूसे के नीचे दबा हुआ है ?” - मैं कर्कश स्वर से बोला और मैंने रिवॉल्वर की नाल से उसकी पसलियों को टहोका ।
“हां ।” - ठाकुर हकलाता हुआ बोला - “हां ।”
“गुड” - मैं बोला - “भूसा हटाना शुरू करो ।”
“म- मैं...”
“और कौन ? आगे बढ़ो ।”
“लेकिन मैं बूढ़ा आदमी हूं ।”
“लेकिन दमदार बूढ़े आदमी हो । शुरू हो जाओ ।”
वृद्ध ने तुरन्त भूसा हटाना आरंभ कर दिया ।
लगभग पन्द्रह मिनट बाद भूसे के नीचे दबा पहला लोहे का बक्सा दिखाई दिया ।
फिर अगले पांच मिनटों में सातों बक्से मेरे सामने प्रकट हो गये ।
मेरे नेत्र चमक उठे । मैं आगे बढ़ा । मैंने देखा बक्सों के बैंक के ताले पहले ही तोड़े जा चुके थे । एक बक्से का ताला तो मेरे सामने ही सुन्दर नगर के फ्लैट के गैरेज में तोड़ा गया था । बाकी के छ: बक्सों के ताले भी वैसे ही, लोहे की छड़ की सहायता से उमेठ कर तोड़ दिये गये थे ।
मैंने बक्सों में भरे नोटों का मुआयना करना आरम्भ किया ।
ज्यों-ज्यों मेरी निगाह नोटों पर पड़ती गयी मेरा मन निराशा से भरता गया । मैं इलाहाबाद में एकाउन्टेन्ट की नौकरी कर चुका था । मैं उस प्रकार के नोटों को अच्छी तरह पहचानता था । वे वे नोट थे जो बेहद पुराने और खस्ता हो चुके थे और जिन पर यूनियन बैंक की मोहर लगी हुई थी । तकदीर की मार कि जिस दिन हम लोगों ने बैंक की वैन लूटी थी, उस दिन वैन में वे नोट ढ़ोये जा रहे थे जो रिजर्व बैंक में नष्ट करने के लिये भेजे जा रहे थे । ऐसे नोट रिजर्व बैंक में जला दिये जाते थे और उनके स्थान पर नये नोट छापने की व्यवस्था की जाती थी । ऐसे नोटों को बाजार में चलाने की कोशिश करना खामख्वाह मुसीबत को दावत देना था । अजीत वगैरह को निश्चय ही इस हकीकत की जानकारी नहीं थी । वे एक साल बाद उन नोटों को खर्च करना आरम्भ करने का इरादा रखते थे । उस समय जब उन्हें यह मालूम होता कि उन नोटों की कीमत रद्दी कागजों जितना भी नहीं थी तो पता नहीं उन पर क्या गुजरती ।
केवल एक बक्से में कुछ नोट ऐसे थे जो स्क्रैप की श्रेणी के नहीं थे । शायद उसी बक्से में से वे एक लाख के नोट निकले थे जो मुझे फंसाने के लिए सुन्दर नगर के फ्लैट की किचन के एक ड्रम में छुपाये गये थे । उस बक्से में सौ-सौ के नोटों की केवल दस गड्डियां थीं जो मैंने अपनी जैकेट की भीतरी जेबों में डाल लीं । बाकी के नोटों की ओर मैंने अभी हाथ ही बढ़ाया था कि मुझे अपने पीछे से एक आवाज आयी ।
“नैवर माइन्ड । बाकी हमारे लिये छोड़ दो ।”
मैंने चिहुंक कर पीछे देखा ।
दरवाजे के पास गंजा चौधरी खड़ा था । उसकी बगल में एक सूट पहने और सिर पर फैल्ट पहने एक सूरत से ही खतरनाक लगने वाला आदमी खड़ा था । उन दोनों से थोड़ा पीछे हट कर दो और आदमी खड़े थे । एक नरपत था और दूसरा वह सशस्त्र गार्ड था जिसकी सूरत मुझे लारेंस रोड वाली इमारत के अपने जेलनुमा कमरे के गलियारे के बाहर अक्सर दिखाई देती रही थी ।
चारों आदमियों के हाथों में रिवाल्वरें थी और हर रिवॉल्वर की नाल मेरी ओर थी ।
मैं उठकर खड़ा हो गया और हक्का-बक्का सा उन लोगों का मुंह देखने लगा । पता नहीं वे लोग वहां कैसे टपक पड़े थे ।
चौधरी आगे बढ़ा । उसने मेरी पतलून की बैल्ट में खुंसी रिवॉल्वर निकाल कर अपने अधिकार में कर ली । आखिर वह रिवॉल्वर मूलरूप से थी तो उसी की ।
“विमल” - चौधरी बोला - “बॉस से मिलो ।”
हैटवाला मुस्कराया ।
मेरे होंठों पर भी एक खिसियानी मुस्काहट आयी ।
“तुम्हें हम लोगों को यहां देखकर बड़ी हैरानी हो रही होगी कि हम कहां से टपक पड़े ।” - हैटवाला बोला - “है न ?”
“सख्त हैरानी हो रही है, जनाब ।” - मैं बोला ।
“जबकि हकीकत यह है कि तुम्हारे लारेन्स रोड की इमारत से निकल कर भागने के पहले चौबीस घंटों के अतिरिक्त तुम एक क्षण के लिये भी हमारी दृष्टि से ओझल नहीं हुए हो ।”
मैं हक्का-बक्का सा उसका मुंह देखने लगा ।
“नहीं ।” - मैं अविश्वासपूर्ण स्वर से बोला ।
“चौधरी तो तुमसे इतना खफा था कि तुम्हें तभी कत्ल कर देना चाहता था” - हैटवाला बिना अपने कथन की मुझ पर हुई प्रतिक्रिया की ओर ध्यान देता हुआ बोला - “जब उसे यह मालूम हुआ था कि तुम जन्तर मन्तर के सामने के हिप्पियों के गैस्ट हाउस में मौजूद हो लेकिन मैंने उसे ऐसा करने से रोका । मैंने उसे समझाया कि शायद तुमने सच ही बोला हो । शायद तुम वाकई हमें अपने साथियों से पच्चीस लाख रुपया दिलाने की स्थिति में नहीं थे । शायद तुम वाकई अपने साथियों की धोखाधड़ी के शिकार हुए थे । हमें चोट तो हो ही गयी थी । भविष्य में दौलत मिलने के लालच में हम तुम्हें जेल से निकालने जैसे खतरनाक काम में हाथ डाल बैठे थे । वह पहला और आखिरी काम था जो हमने बाद में रुपया मिलने के आश्वासन पर किया था । अब चौधरी अगर तुम्हें मार भी देता तो हमें क्या हासिल होता ? कुछ भी नहीं । हासिल कुछ भी नहीं हुआ और बेवकूफ अगल से बने । इसीलिए मैंने इसे राय दी कि यह बड़े सब्र से तुम्हारी निगरानी करे । मुझे पूरा विश्वास था कि तुम अपना हिस्सा वसूल करने की खातिर अपने साथियों की तलाश की कोशिश जरूर करोगे चाहे तुम तलाश में कामयाब न हो सको । बहरहाल तुम कामयाब हुए और हमें सब्र का फल मिला । क्यों चौधरी ?”
चौधरी ने सहमतिसूचक ढंग से सिर हिलाया । वह अभी भी खा जाने वालों निगाहों से मुझे घूर रहा था ।
“यानी कि” - मैंने निरर्थक सा प्रश्न किया - “मैं हर जगह हर क्षण आप लोगों की निगाहों में था ?”
“बिल्कुल” - बॉस बोला - “चौधरी और उसके साथ हर क्षण साये की तरह तुम्हारे पीछे लगे रहे थे । दिल्ली, मथुरा, आगरा, ग्वालियर, झांसी, खजुराहो, भोपाल हर जगह । क्यों चौधरी ?”
“जी हां ।” - चौधरी बोला - “और मैं उन हरकतों की भी शहादत हूं जो तुमने खजुराहों में मार्गरेट नाम की उस हिप्पी छोकरी से अलग होने तक उसके साथ की ।”
“लक्की बास्टर्ड !” - बॉस प्रशंसापूर्ण स्वर से बोला ।
“इलाही बाग के फार्म हाउस में जो कुछ गुजरा वह भी तुम्हें मालूम है ?” - मैंने पूछा ।
“तुमसे ज्यादा मालूम है ।” - चौधरी बोला - “तुम्हारी जानकारी के लिये अहमद नाम के जिस गार्ड को तुम उसकी रायफल सहित इमारत के पिछवाड़े में पेड़ों के पीछे बेहोश पड़ा छोड़ आये थे, वह न केवल तुम्हारी उम्मीद से बहुत पहले होश में आ गया था बल्कि वह इतना होशियार भी था कि पलक झपकते ही सारी स्थिति समझ गया था । वह पिछवाड़े के परनाले के पाइप के सहारे छत पर चढ कर इमारत में पहुंचने की फिराक में था जब मैंने उसे ठंडा किया था । अगर वह भीतर पहुंच जाता तो तुम्हारा काम तमाम करना उसके लिये मामूली बात थी ।”
“कमाल है !” - मेरे मुंह से अपने आप निकल गया ।
“ओके ।” - एकाएक बॉस बड़े गम्भीर स्वर बोला - “स्टाप एक्सचेन्जिंग नोट्स । लैट्स स्नैप आउट आफ इट । चौधरी सारा माल समेटो ।”
“सारा !” - मैं अपने स्वर में ज्यादा से ज्यादा निराशा उंडेलता हुआ बोला । मेरे लिए तो वह माल रद्दी का ढ़ेर था मैं तो उसे वैसे ही वहां छोड़कर जाने वाला था लेकिन उन लोगों को अभी यह बात मालूम नहीं थी और भविष्य में भी पता नहीं मालूम होने वाली थी भी या नहीं ।
“हां ।” - बॉस क्रूर स्वर से बोला - “सारा । हमने तुम्हारी वजह से बहुत तकलीफ उठाई है । तुम्हारी यही सजा है ।”
“लेकिन...”
“शट अप । तुम यही गनीमत समझो कि हम तुम्हारी जान बख्श रहे हैं ।”
“लेकिन मुझे तो बताया गया था कि आप मुझे अपनी छत्रछाया में लेना चाहते हैं । आप चाहते हैं कि मैं आपके आदमियों के साथ काम करूं ।”
“कभी चाहता था । अब नहीं चाहता । तुम मेरी उम्मीद से ज्यादा खतरनाक आदमी हो । जो हाल तुमने भोपाल में अपने साथियों का किया है, उससे मुझे लगता है कि मेरे गैंग में आकर भी तुम कोई गुल खिलाये बिना नहीं रहोगे । मैं होशियार आदमी की कद्र करता हूं इसीलिए तुम्हें जिन्दा छोड़ रहा हूं, तुम्हारा माल हजम करके तुम्हें वापिस पुलिस के हवाले नहीं कर रहा । लेकिन तुम हमारे काम के आदमी नहीं हो ।”
मैं चुप रहा ।
“चौधरी, जल्दी करो ।”
चौधरी और नरपत खलियान से बाहर निकल गये । जब वे वापिस लौटे तो उनके साथ दो आदमी और थे । वे अपने साथ कई उस प्रकार के बड़े-बड़े केनवस के बैग लेकर आये थे जैसे डाकखानों में डाक भरने के लिये प्रयुक्त होते हैं ।
पलक झपते ही बक्सों का सारा रुपया उन बैगों में भर दिया गया ।
अपने पीछे खाली बक्सों और भूसे से भरे खलियान के बीच में खड़े मुझे और ठाकुर हरफूलसिंह को छोड़ कर वे वहां से विदा हो गये ।
कुछ क्षण बाद बाहर से गाड़ियां स्टार्ट होने की आवाज आयी और फिर सन्नाटा छा गया ।
कितनी ही देर में बुत की तरह वहां खड़ा रहा ।
“वाहे गुरु सच्चे पातशाह” - अन्त में एक गहरी सांस के साथ रेमे मुंह से निकला - “तेरे रंग निराले ।”
मैंने ठाकुर हरफूलसिंह के चेहरे पर दृष्टिपात किया । रुपया चले जाने के गम से उसकी सूरत लाश जैसी सफेद हो गयी थी ।
“घबराइये नहीं, जनाब ।” - मैं बोला - “अजीत मर चुका है । आपसे माल वापिस मांगने के लिये कोई नहीं आने वाला । लेकिन बक्सों को ठिकाने लगाना न भूलियेगा ।”
मैं खलियान से बाहर निकल आया ।
मैंने अपने दोनों हाथ पतलून की जेबों में धंसा दिये और धीरे-धीरे सीटी बजाता हुआ उस ओर बढ़ा जिधर मैं टैक्सी वाले को अपना इन्तजार करने लिये छोड़ आया था ।
समाप्त
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