बुधवार : सत्रह मई : मुम्बई दिल्ली विंस्टन प्वायन्ट
लिफ्ट के रास्ते इरफान टॉप फ्लोर पर पहुंचा ।
जैसा कि अपेक्षित था, गलियारे में उसे तीन आदमी दिखाई दिये । उनमें एक सूटधारी व्यक्ति था, एक बैलब्वाय था और एक वेटर था । सूट वाला व्यक्ति हाउस डिटेक्टिव था, बैलब्वाय की वर्दी में सिक्योरिटी वाला था और वेटर असल में भी वेटर ही था ।
जिस लिफ्ट पर वो वहां पहुंचा था, वो उस मंजिल और नीचे की मंजिल के बीच में ही - यानी कि सत्रहवीं और अट्ठारहवीं मंजिल के बीच में ही आपरेट करती थी और उसमें अनधिकृत व्यक्ति का प्रवेश वर्जित था । उस वर्जना पर अमल होता देखने के लिये निचली मंजिल पर भी सिक्योरिटी स्टाफ तैनात था ।
वो हालिया इन्तजाम था जो कि टॉप फ्लोर पर नीलम और सूरज की सुरक्षा के लिये किया गया था ।
उसने अपनी कलाई घड़ी पर निगाह डाली तो पाया कि ग्यारह बजे थे ।
उसे देखकर तीनों आदमी सावधान हुए, उन्होंने उसकी तरफ कदम बढाने का उपक्रम किया तो उसने उन्हें हाथ के इशारे से रोक दिया और स्वयं लम्बे डग भरता उनके करीब तक पहुंचा ।
“सब ठीक है ?” - उसने पूछा ।
“जी हां ।” - हाउस डिटेक्टिव बोला ।
“मैडम ने ब्रेकफास्ट कर लिया ?”
“जी हां । साहब के साथ ही किया था । साहब ब्रेकफास्ट के बाद ही नीचे गये थे ।”
“हूं । मेरे को इधर के खाली कमरे चैक करने का है ।”
“जी !”
“खाली कमरे । चैक कराओ ।”
“सब लॉक हैं, बाप ।” - सिक्योरिटी वाला बोला ।
“मैं खुद देखने का है । खासतौर से हर कमरे का बाल्कनी में खुलने वाला दरवाजा जो कि मैं मजबूती से भीतर से बन्द होना मांगता है ।”
“मजबूती से बन्द है, बाप ।”
“खुद देखना मांगता है ।”
“ठीक ।”
“और फायर एस्केप की सीढियों पर खुलने वाला दरवाजा भी । पता नहीं किसी को उसका ख्याल आया कि नहीं आया ।”
“बरोबर आया, बाप । बन्द है एकदम फिट और चौकस ।”
“देखेंगा । हिलो ।”
इरफान ने तालों वगैरह की बाबत अपनी भरपूर तसल्ली करने में आधा घन्टा लगाया । उस दौरान केवल वेटर गलियारे में रहा ।
फिर वो भी गलियारे में लौटे ।
तभी नीलम वाले सुइट का दरवाजा खुला और लिनन की ट्राली ठेलता एक छोकरा वहां से बाहर निकला ।
“ये क्या है ?” - इरफान तत्काल बोला ।
“सूइट की चादरें, तौलिये, गिलाफ वगैरह बदलने को आया न, बाप !” - वेटर बोला ।
“थाम्बा !” - इरफान उच्च स्वर में बोला ।
लिनन की ट्राली वाला छोकरा ठिठका ।
“उधर ही खड़ा रह । बोलेंगा तो हिलने का है ।”
छोकरे ने सहमति में सिर हिलाया । वो नाजुक सा, क्लीन-शेव्ड, कमउम्र छोकरा था जो इरफान की एक घुड़की से ही दहल गया जान पड़ता था ।
“क्या नाम है तेरा ?” - फिर इरफान वेटर से सम्बोधित हुआ ।
“भाटे, बाप । गोविन्द भाटे ।”
“भाटे ! अक्खा ईडियट भाटे !”
“बाप ! - वेटर बौखला कर बोला ।”
“मैं तेरे को क्या बोला ?”
“क्या बोला, बाप ?”
“भूल भी गया, साला ।”
“बाप, मां कसम कुछ नहीं भूला । पण मेरे को कैसे मालूम होयेंगा कि मैं क्या भूल गया !”
“मैं बोला इधर की रूम सर्विस लिफ्ट तक ही हो । आगे तेरे को सम्भालने का था । बोला कि नहीं बोला ?”
“बरोबर बोला, बाप । पण इधर सर्विस के लिये आये वेटर लोगों के लिये बोला न ! अभी जब इधर वेटर बिरेकफास्ट की ट्राली लेकर आया था तो मैं उसको लिफ्ट से ही चलता किया और खुद ट्राली मैडम के सुइट में ले जाकर मैडम और सर को बिरेकफास्ट सर्व किया और बाबा को फीड दिया ।”
“पण लिनन वाला सुइट में गया ?”
“बाप, वो रूम सर्विस थोड़े ही है ! वो तो हाउसकीपिंग वाला स्टाफ है । उसका काम वेटर कैसे करेंगा ?”
“क्यों ? तेरे को बैड की चादर बदलना मुश्किल ? सिरहाने के गिलाफ बदलना भारी ? मेजपोश तौलिये तब्दील करना अक्खा डिफीकल्ट ।”
“नहीं, बाप । मामूली काम । पण मैं सोचा...”
“तेरा काम सोचना है ?”
“मिस्टेक हुआ, बाप ।”
“किचन सर्विस हो या लिनन सर्विस हो या कोई और इस्पेशल सर्विस हो, सब सर्विस स्टाफ है और कोई सर्विस स्टाफ सुइट में नहीं जाने का है । लिफ्ट से बाहर भी कदम नहीं रखने का है । क्या ?”
“सुइट में नहीं जाने का है । लिफ्ट से बाहर नहीं निकलने का है ।”
“उधरीच से वापिस चला जाने का है ।”
“बरोबर बाप ।”
“तुम दोनों भी सुना ?”
हाउस डिटेक्टिव और सिक्योरिटी वाले के सिर सहमति में हिले ।
“जो सुना वो समझा ?”
सब के सिर सहमति में हिले ।
“कोई पंगा नहीं मांगता । कोई गफलत नहीं मांगता । क्या ?”
“बरोबर, बाप ।”
फिर इरफान लम्बे डग भरता लिनन की ट्राली के करीब पहुंचा ।
“बाजू हट ।” - वो छोकरे से बोला ।
छोकरा सहमा से एक तरफ हट गया ।
इरफान ने देखा, जैसा कि लिनन की ट्राली में होता था, उसके ऊपरले टायर पर नयी चद्दरें, तौलिये, गिलाफ वगैरह करीने से तह किये रखे हुए थे और नीचे के हैम्पर जैसे टायर में पुरानी चादरें और इस्तेमालशुदा तौलिये वगैरह मौजूद थे । उसने नीचे के हैम्पर में हाथ डाल कर उसे दायें बायें टटोला और फिर सीधा हुआ ।
“छोकरा ।” - वो बोला - “आइन्दा ये ट्राली लिफ्ट में ही छोड़ के इधर से चला जाने का है । ट्राली लेने बाद में आने का है । जो कि लिफ्ट में ही मिलेंगा । समझ गया ?”
छोकरे ने जल्दी जल्दी सहमति में सिर हिलाया ।
“नवां भरती हुआ ?”
उसने फिर सहमति में सिर हिलाया ।
“फूट ।”
बाकी लोगों की तरफ पीठ फेरे ट्राली धकेलता छोकरा आगे बढ गया और फिर लिफ्ट में दाखिल हो गया ।
तत्काल लिफ्ट का दरवाजा बन्द हुआ और लिफ्ट नीचे सरकने लगी ।
“इधर ही ठहरने का है ।” - इरफान बोला - “मैं मैडम को सलाम बोल के आता है ।”
“बरोबर, बाप ।”
इरफान नीलम के सुइट के दरवाजे की ओर बढ गया ।
***
किंग्सवे कैम्प के इलाके में बिजली की तार बनाने का एक कारखाना था जिसके पिछवाड़े के एक कमरे में बिरादरीभाई जमा थे । वो इमारत ब्रजवासी की मिल्कियत थी जो कि उसने किराये पर दी हुई थी । कारखाना उन दिनों बन्द था और उसके निकट भविष्य में चलने के कोई आसार नहीं थे । लिहाजा कारखानेदार ने अपनी मशीनरी और सामान उठा लेने के वादे के साथ इमारत का कब्जा ब्रजवासी को वापिस दे दिया हुआ था ।
बिरादरी की खुफिया मीटिंग के लिये ब्रजवासी ने ही वो जगह सुझाई थी जो कि सब को कुबूल हुई थी ।
उस घड़ी चारों को इस बात से खुश दिखाई देना चाहिये था कि वो सोहल के हाथों मौत का सामूहिक निवाला बनने से बाल बाल बचे थे - वो न सिर्फ आजादा थे, किसी पुलिस कार्यवाही से भी मुक्त थे - लेकिन सब संजीदासूरत थे ।
बहरहाल उनकी दुश्वारियां खत्म नहीं हो गयी थीं, इसलिये अभी भी वो अपने नेता का ही - जो कि झामनानी था - मुंह देख रहे थे ।
“साईं लोगो ।” - झामनानी बोला - “जो हुआ, बहुत बुरा हुआ । एक इकलौती मक्खी ने हमारी खीर बिगाड़ दी और बिग बॉस के सामने हमारी वो साख न बनने दी जो कि अगर वो न होता तो बन कर रहती ।”
“न होन विच की प्राब्लम सी ?” - पवित्तर सिंह भुनभुनाया - “मां ने पैदा ही न किया होता तो कहां से होत्ता ?”
झामनानी सकपकाया, उसने घूर कर पवित्तर सिंह की तरफ देखा ।
पवित्तर सिंह ने जानबूझकर उससे निगाह न मिलाई ।
“सरदार साईं” - झामनानी बोला - “वडी कौन सी जुबान बोल रहा है नी ?”
“मैनूं एक ही जुबान आती है, सिंधी भाई ।”
“वडी क्या कहना चाहता है नी ?”
“कैना नईं चात्ता, पूछना चात्ता हूं ।”
“वडी क्या नी ?”
“इतवार सात मई की तुगलकाबाद के खंडहरों में हुई साडी मीटिंग में सोल की बाबत क्या तय हुआ था साडे बीच ?”
“वडी क्या तय हुआ था नी ?”
“भूल भी गया ?”
“वडी कुछ नहीं भूला नी । वडी पता तो लगे, सरदार साईं, कि तेरा इशारा कौन सी बात की तरफ है ?”
“तय हुआ था कि हम सोल को नंगा करके मारेंगे । नंगा किया भी हमने बराबर उसे । दिल्ली और मुम्बई में उसके कई हिमायती मार डाले । आखिरकार ऐसी जुगत भी भिड़ा ली कि ओ साडी गिरफ्त विच आ गया । फिर मारा क्यों नईं ? ओ मरया क्यों नईं ?”
झामनानी के मुंह से बोल न फूटा, वो अवाक पवित्तर सिंह की तरफ देखता रहा ।
“परसों रात तेरे फार्म में जैसा निहत्था और बेयारोमददगार वो साडे सामने खड़ा था, उससे जादा नंगा हम और क्या कर पाते उसे ? तब क्यों न उसे फौरन मार डाला ? क्यों उस दे नाल खिलवाड़ कीत्ती ? क्यों उसे अपने आदमियों के सामने तमाशा बनाने में वक्त जाया कीत्ता ?”
“वडी मैंने किया नी ?”
“और किसने कीत्ता ? ऐसे काम लीडर के किये ही होते हैं, जो कि तू है, सिन्धी भाई ।”
“वडी उसने ‘भाई’ से मिलना था नी । बड़े साहब फिगुएरा से मिलना था नी ?”
“गलत ! झूठ ! उन्हें पता भी नहीं था कि सोल हमारी गिरफ्त में था । कहो कि मैं झूठ बोलया । कहो कि मैं कुफ्र तोलया ।”
झामनानी ने पनाह मांगती निगाहों से ब्रजवासी की तरफ देखा ।
“‘भाई’ को पता था ।” - ब्रजवासी बोला - “उसे पता था कि सोहल की बीवी हमारी गिरफ्त में थी, इसलिये उसे ये भी पता था कि सोहल का हमारी गिरफ्त में आ जाना महज वक्त की बात थी ।”
“सरदार जी” - भोगीलाल बोला - “सोहल हमारी गिरफ्त में था, हमारी खुद की स्ट्रेटेजी की कामयाबी की वजह से हमारी गिरफ्त में था, इससे बड़े भाई लोगों की निगाह में हमारा क्रेडिट बने था ।”
“जो कि” - पवित्तर सिंह व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला - “इस हकीकत से तो न बनता कि हम ने सोल को मार गिराया था ?”
“उससे भी बनता लेकिन....”
“क्या लेकिन ?”
भोगीलाल ने झामनानी की तरफ देखा ।
“ये लेकिन” - पवित्तर सिंह बोला - “कि फिर तमाशबीनी न होती । शरेआम सोल की फजीहत करने का सुख न मिलता । सिन्धी भाई के चमचे बन्दर और लंगूर की तरह राजा साहब का तमाशा न देख पाते तालियां बजा बजा कर ।”
“वडी जो हुआ था” - झामनानी गुस्से से बोला - “उसमें, सरदार साईं, तू शामिल नहीं था ? भैय्यन शामिल नहीं था ? लाला शामिल नहीं था ?”
“हमें शामिल होना पड़ा था ।”
“वडी क्यों होना पड़ा था नी ?”
“क्योंकि तूने वहां माहौल ही ऐसा बना दित्ता था कि साडे वास्ते तेरी हां में हां मिलाना जरूरी हो गया सी ।”
“असल में के होना चाहिये था ?” - भोगीलाल बोला ।
“वो शख्स हमारे लिये साक्षात मौत था । असल में उसे देखते ही गोली मार दी जानी चाहिये थी ताकि कजिया ही खत्म हो जाता ।”
“वडी ऐसा तब क्यों न बोला नी ?”
“वजह दस्स से दित्ती । उस वेले हम अपने लीडर के प्राइवेट एन्टरटेनमेंट शो में शरीक थे । शो देख रहे थे और सीख रहे थे कि राजा साहब कैसा होता था ?”
“वडी ये तो चित्त भी मेरी पट भी मेरी वाली बात हुई । पहले तो झामनानी के हर किये में शरीक बन के दिखा दिया, फिर कोई माकूल नतीजा न निकला तो किये में खोट निकाल दी ।”
“वीरे मेरे जिसके सिर पर लीडरी का ताज होता है, उसी का कम्म होता है माकूल नतीजा निकाल के दिखाना । ओनू सोचना चाईदा सी कि वो ऐसे शख्स के साथ बेजा खिलवाड़ न करे जो हममें से हर किसी को मार गिराने के लिये सौं खाये बैठा था ।”
“वडी सरदार साईं, क्यों झामनानी के मुंह पर कालिख पोतने को आमादा है ? वडी उस वक्त क्या हम में से किसी ने सोचा था कि वो सूखे कुयें में से बाहर निकल आने का करिश्मा कर दिखायेगा ?”
“सोचना चाईदा सी । खुद सोचना चाईदा सी और सानूं सुचवाना चाईदा सी । हम सब उसकी केस हिस्ट्री से पूरी तरह से वाकिफ हैं । हम में से किस से छुपा था कि वो एक मायावी बन्दा है । कौन नहीं जानता था कि वो काल पर फतह पाया मानस कहलाता है । ऐसे मानस की बाबत सानू नईं सोचना चाईदा सी कि ओनू मारना खिलवाड़ नहीं, गम्भीर मसला था । साडे सामने जो पैल्ला कम्म था, वो सोल की लाश गिराना था, इसी वास्ते हमने उसे अपनी जनानी के पिच्छे दिल्ली खिंचा चला आने के लिये मजबूर किया था । फिर पैल्ला काम पैल्ले क्यों न कीत्ता ?”
“वडी जवाब दिया तो है नी । सरदार साईं, अपने कलेजे पर हाथ रख । हाथ रख और बोल अपने वाहेगुरु का नाम लेकर कि उस वक्त तूने सोचा था कि वो कुयें में से निकल आयेगा ? तेरी शक्कल पर लिखा है कि नहीं सोचा था । सोचा होता तो तभी बोलता ।”
पवित्तर सिंह खामोश रहा ।
“तब कोई न बोला नी । तब तो सब बढ बढ के बोल रहे थे और सोहल को जलील करने में मेरे से बेहतर अपनी हाजिरी लगा रहे थे, मेरे से ज्यादा फैंसी फबतियां कस रहे थे, सरदार साईं उसकी खास खिल्ली उड़ाता उसको चोर और आशिक बता रहा था । वडी तब क्यों न किसी को याद आया कि वो काल पर फतह पाया शख्स था, वो कुयें से बाहर निकल आने का नामुमकिन काम करके दिखा सकता था ?”
कोई कुछ न बोला ।
“वडी अब बोल्लो नी । अब क्यों जुबान को ताला लग गया ?”
“भाई लोगो ।” - ब्रजवासी बोला - “अब इस बात को ये मान के खत्म करो कि परसों रात सोहल की बाबत हम से चूक हुई । हम शेखी में आ गये, अपनी बेमिसाल कामयाबी पर इतरा गये इसलिये हम से चूक हुई । हम से बोला मैं । किसी एक से नहीं । सरदार जी, तुगलकाबाद वाली सात मई की मीटिंग में वन फार ऑल और ऑल फर वन का नारा किसने लगाया था ? खुद आपने लगाया था । मेरी दरख्वास्त है कि जो हुआ, उसे एक बदमजा वाकया मान कर, उस पर खाक डाल कर, हम अपनी ये वन फार ऑल एण्ड ऑल फान वन वाली भावना को बरकरार रखें ।”
“वा में ही गति है हम सब की इब ।” - भोगीलाल बोला ।
“हम ये मान के चलते हैं कि सबब से या तकदीर से परसों रात हम अपना विनिंग कार्ड गलत खेल गये । लेकिन हमें इस बात से तसल्ली भी होनी चाहिये कि कल वो गलती सोहल ने भी की । उसने भी अपना विनिंग कार्ड गलत खेला ।”
“की मतलब ?” - पवित्तर सिंह बोला ।
“मतलब साफ है । नये साल की रात को वो हम लोगों के खिलाफ वार्निंग जारी करके गया था कि अगर हमने ड्रग्स के धन्धे में हाथ डाला तो वो हम सब को मार गिरायेगा । कल मौका था उसके हाथ में एक ही बारगी हम सब को मार गिराने का लेकिन किसी मुलाहजे में, किसी कमअक्ली में या किसी गलत सोच के तहत वो मौका वो चूक गया । हमारी लाशें पीछे छोड़ने की जगह वो पुलिस के हवाले होने के लिये हमें बन्धा छोड़ के गया । लिहाजा उसका पुलिस पर एतबार हमारी जानबख्शी की वजह बना । भाई लोगों, इतनी बड़ी दुश्वारी में से हम बेदाग निकल आये, ये क्या कोई छोटी बात है ? मौजूदा हालात में अपनी सलामती के लिये हमें अपने अपने इष्ट देवों का शुक्रगुजार होना चाहिये या मैं उजला तू काला, मैं चंगा तू बुरा, मैं ठीक तू गलत में अपना वक्त जाया करना चाहिये ?”
“भैय्यन ठीक कह रिया है ।” - भोगीलाल बोला ।
झामनानी ने पवित्तर सिंह की तरफ देखा ।
पवित्तर सिंह ने हिचकिचाते हुए सहमति में सिर हिलाया ।
“मूंडी ने हिला सरदार साईं, मुंह जुबानी बोल ।”
“ब्रजवासी ठीक कैंदा ए ।”
“क्या ठीक कहता है नी ?”
“हमें बीती बातों पर खाक डाल कर अग्गे की सोचनी चाईदी ए ।”
“तेरा साईं जीवे ।”
“आपसदारी में” - ब्रजवासी बोला - “मन में मैल नहीं लाना चाहिये, सरदार जी ।”
“मन चंगा” - भोगीलाल बोला - “तो कठौती मां गंगा होवे है जी ।”
“ऊंच नीच किसी से भी हो सकती है नी ।” - झामनानी बोला - “गलत फैसला किसी से भी हो सकता है...”
“सिन्धी भाई” - पवित्तर सिंह उतावले स्वर में बोला - “हुन छोड़ ओ किस्सा । बिरादरीभाइयों ने बोल दित्ता तां ओ गल हुन खत्म हो गयी । अब अग्गे की सोच और अग्गे की बोल । बल्कि पैल्ले मेरे इक सवाल दा जवाब दे ।”
“पुच्छो नी ।”
“उस डी.सी.पी. श्रीवास्तव के कहने पर तूने उन लोगों की एक लिस्ट उसे दित्ती थी जो कि बतौर मेहमान वहां तेरी पार्टी में मौजूद थे लेकिन जो बखेड़ा खड़ा होने पर पुलिस के आने से पहले वहां से कूच कर गये थे ।”
“वडी ठीक बोला नी ।”
“पुलिस ने ऐसे ही तो लिस्ट लीत्ती नईं होगी । वो उन नामों की पड़ताल करेगी, तसदीक करेगी कि वो सब सच में पार्टी में थे । मेरा मतलब ये है कि क्या वो तमाम के तमाम लोग उस पड़ताल ते खरे उतरन गे ?”
“बराबर उतरेंगे, सरदार साईं । तू उस बाबत कोई फिक्र न कर नी, मैंने बहुत सोच समझ कर लिस्ट में नाम दर्ज किये थे ।”
“उन्हें तो नहीं मालूम होगा न कि ऐसी किसी लिस्ट में उनके नाम दर्ज थे और जवाबदारी होने पर उन्होंने उस बाबत क्या कहना था ?”
“वडी अब मालूम है नी ।”
“किद्दां ?”
“कल पहली फुरसत में उस बाबत मैंने सब को फोन लगाया नी ।”
“सब को ?”
“तकरीबन सब को । दो साईं फोन पर नहीं मिले थे, उनके लिये फिर कोशिश करूंगा ।”
“अभी की नहीं ?”
“वडी टाइम नहीं लगा नी ।”
“पुलिस पड़ताल के लिये सबसे पहले उन्हीं दो के पास पहुंची तो ?”
“वडी ऐसा नहीं होगा नी । जब वो मुझे नहीं मिल रहे अभी तो पुलिस को किधर से मिल जायेंगे ?”
“वीर मेरे, टैम खराब होना चाईदा ए, फिर ओहोई कम्म सबसे पहले होत्ता है जो नहीं हो सकता होत्ता या जो नहीं होना चाईदा ।”
“साईं” - ब्रजवासी चिन्तित भाव से बोला - “हैरानी है कि इस बात का जिक्र पहले नहीं आया ।”
“पहले कब आता नी ? उस फजीहत के बाद से ये पहली ही तो मुलाकात है हम लोगों की ।”
“पार्टी के हमारे बताये वक्त के दौरान वो ही दो जने किसी और जगह बिजी हुए या किसी ऐसी जगह हुए जहां अपनी मौजूदगी की बाबत वो मुकर न सकते हुए तो कैसे बीतेगी ?”
“किसी की टंगड़ी टूट गयी हो” - भोगीलाल बोला - “कोई बुखार में पड़ा हो, कोई परदेस गया हुआ हो ते...”
“वडी लाल, क्यों फिक्र में डालता है नी मेरे को ? वडी झूलेलाल की मेहर की छतरी अभी है न हमारे सिर पर ! तभी तो सलामत हैं अभी हम सब ! वडी बड़ा साईं इतना जुल्म नहीं कर सकता नी हमारे ऊपर कि अब इस छोटी सी बात के लिये हमारी आंख में डण्डा होने दे । झूलेलाल के सदके सब ठीक होगा नी । यहां से उठते ही मैं खुद उन दोनों साईं लोगों की तलाश में निकलूंगा और उनको फिट करके आऊंगा ।”
“ठीक है ।” - ब्रजवासी बोला - “अब बोलो आगे सिलसिला कैसे चलेगा ?”
“अभी तो माल ही हाथ से निकला पड़ा है ।” - भोगीलाल बोला ।
“माल काबू में आ जायेगा नी ।” - झामनानी बोला - “माल कहीं नहीं जाता ।”
“रेट तां डबल हो गया न साडे वास्ते ।” - पवित्तर सिंह बोला ।
“डबल ?”
“ओये, उस पुलिसिये नू माल छुड़ाने वास्ते जब करोड़ रुपया देवांगे तां रेट दे डबल होने च की कसर रह गयी ? जो माल सानूं एक करोड़ वी लक्ख रुपये दी पेमंट नाल मिलया, ओ हुन दो करोड़ वी लक्ख दा न हो गया ?”
“सरदार साईं, फिर भी कोई पौने चार करोड़ का फायदा है । वडी समझ लेंगे कि इस बार कम कमाया ।”
“वो तो समझ लेंगे” - ब्रजवासी बोला - “लेकिन उस इंस्पेक्टर नसीबसिंह को देने के लिये एक करोड़ रुपया इकट्ठा भी तो करना होगा !”
“वो तो है । पच्चीस पच्चीस लाख का फौरन इन्तजाम करो, साईं लोगो ।”
सब ने - पवित्तर सिंह ने बड़े अनिच्छापूर्ण भाव से - सहमति में सिर हिलाये ।
“अग्गे” - फिर पवित्तर सिंह बोला - “किदां चल्लेगा सिलसिला ?”
“वडी वैसे ही चलेगा नी जैसे कि इस बार चला ।”
“के मतलब होया जी ?” - भोगीलाल बोला ।
“साईं लोगो, हेरोइन की मुम्बई से दिल्ली ट्रांसपोर्टेशन का हमारा पिछला तरीका अभी भी कारगर है । पिछली बार जो गड़बड़ हुई, वो इसलिये हुई कि हमारी बदकिस्मती से हुमने ने हेरोइन का कन्टेनर बनाने के लिये ऐसी लड़की को चुना था जो सोहल की सगेवाली निकल आयी थी । वो लाखों में से, बल्कि करोड़ों में से, एक वाला इत्तफाक था जो कि हमारे साथ हुआ । लेकिन हर बार ऐसा नहीं हो सकता । आइन्दा ऐसा हो ही नहीं सकता । वो तो समझ लो, साईं लोगो, कि हमारे ऊपर बिजली गिरी थी जो कि एक से ज्यादा बार एक जगह नहीं गिरती । कहने का मतलब ये है कि हमारी हेरोइन तब तक आगे भी ऐसे ही आयेगी जब तक कि हमें डिलीवरी दिल्ली में मिलनी नहीं शुरू हो जाती ।”
“सिन्धी भाई” - ब्रजवासी बोला - “हमें जिद करनी चाहिये कि डिलीवरी दिल्ली में मिले ।”
“करेंगे नी, जरूर करेंगे । पहले वो वक्त तो आये । पहले मौजूदा माल तो कब्जे में आये ताकि हम उसे बेच कर चार पैसे कमाने वाले बनें ।”
“ठीक ।”
“हम आज ही शाम तक उस नसीबमारे नसीबसिंह से अपना माल हासिल कर लेंगे और फिर सप्लाई में लगेंगे । तो साईं लोगो, कहना न होगा कि नसीबसिंह इन्सपेक्टर को देने के लिये अपने अपने हिस्से की रकम का इन्तजाम हमें शाम से पहले करना होगा ।”
“हो जायेगा ।”
“करना ही पड़ेगा, जी ।” - भोगीलाल बोला ।
पवित्तर सिंह ने केवल सहमति में सिर हिलाया ।
“चोखो ।” - झामनानी सन्तुष्टिपूर्ण स्वर मे बोला - “एक बार माल हाथ में आ जाये नी फिर उस कम्बख्तमारे इन्स्पेक्टर की मैं ऐसी खबर लूंगा झूलेलाल की मेहर से कि अगले जन्म तक याद रखेगा ।”
“पैल्ले सोल दी खबर लैन दी सोच, वीर मेरे ।” - पवित्तर सिंह बोला - “वीर भ्रावो, ये समझने की गलती हरगिज न करना कि वो अभी गफलत में ही होगा, कि हमारी बाबत उस तक खबर नहीं पहुंची होगी ।”
“खबर तो जरूर पहुंची होगी ।” - ब्रजवासी बोला - “इतने हिमायती हैं उसके दिल्ली में ।”
“जो सुसरे धोबी कहलावें हैं ।” - भोगीलाल बोला ।
“साईं लोगो” - झामनानी बोला - “डरने घबराने की कोई बात नहीं, सिर्फ युक्ति लगाने की बात है नी । अपनी धमकी पर खरा उतर कर दिखाने के लिये पीछे तो वो हमारे यकीनन पड़ेगा लेकिन पीछे पड़ने के लिये उसे इधर आना पड़ेगा । उसकी बाबत हम खबरदार हैं इसलिये जरूरी नहीं कि उसका ही वार चले, हमारा वार भी चल सकता है, चलेगा ।”
“की मतलब होया इसदा ?”
“मतलब साफ है, सरदार साईं । आयेगा तो देख लेंगे ।”
“ये वैसी ही शेखी ए जिस से हम इक वार खता खा चुके हैं । आयेगा तो देख लेंगे कैत्ता है सिन्धी भाई । ओये ओ मजबूरी में आया न देखा गया, मर्जी से आया कहां देखा जायेगा ?”
“सरदार जी” - ब्रजवासी बोला - “क्या कहना चाहते हो ?”
“एहोई के उससे भिड़ने का ख्याल भी करना मौजूदा हालात विच आ बैल मुझे मार जैसी बात होगी ।”
“वडी मुकाबला तो करना ही होगा न !” - झामनानी बोला - “उसके खौफ से हम छुप के तो नहीं बैठ सकते !”
“बैठ सकते हैं ।”
“वडी क्या बोला नी ?”
“मैं लीडर से बाहर नहीं लेकिन मेरी अक्ल ये कैत्ती है कि वक्ती तौर ते सानूं अन्डरग्राउन्ड हो जाना चाईदा ए ।”
“अन्डरग्राउन्ड ?” - ब्रजवासी सकपकाया सा बोला ।
“उसको और उसके हिमायतियों को” - भोगीलाल बोला - “हमें ढूंढे नहीं मिलना चाहिये आने वाले दिनों में । यही कर रिये हो न, सरदार जी ?”
“हां ।” - पवित्तर सिंह बोला ।
“वडी साईं” - झामनानी बोला - “यूं खतरा मुल्तवी हो जायेगा, टल जायेगा, खत्म तो नहीं हो जायेगा नी ?”
“खत्म की कोई तरकीब करन दा खुल्ला टैम तां होयेगा साडे कोल !”
“दुम दबाने वाली बात होगी ।” - ब्रजवासी धीरे से बोला ।
“तू शेर है, वीर मेरे । बड़े किले फतह करके लौटा था मुम्बई से । तू न दबाना । मैं तां कुछ अरसा ढूंढे नहीं मिलन वाला किसे नू ।”
“वडी बिरादरीभाइयों को भी नहीं नी ?” - झामनानी बोला ।
“उनको क्यों नहीं ? उनको बराबर । बिरादरीभाइयों को मैं पाताल में भी उतर जाऊंगा तो मेरी खबर होगी ।”
“हम एक बात भूल रहे हैं ।” - ब्रजवासी बोला ।
“वडी क्या नी ?”
“बच्चा अभी भी हमारे कब्जे में है ।”
“सपने देख रहा है नी ।”
“क्या मतलब ?”
“बच्चा न हमारे कब्जे में है, न हो सकता है ।”
“वजह ?”
“वजह पूछता है नी । अक्कल से काम लेगा तो वजह खुद समझ आ जायेगी । सोहल की आमद पर परसों रात जो बच्चे की बाबत बोला था, उसे याद करेगा, वजह तो भी समझ आ जायेगी ।”
“क्या बोला था ?”
“बोला था, हैरान होकर बोला था, कि सोहल नीलम नीलम ही भज रहा था, बच्चे का नाम नहीं ले रहा था । तब मैं बोला था कि वो बच्चे को मां में शामिल समझ कर बात कर रहा था लेकिन वो बात नहीं थी, अब असल बात साफ मेरी समझ में आ रही है ।”
“क्या असल बात ?”
“बच्चा उसके दिल्ली का रुख करने से भी पहले हमारी पकड़ से निकल चुका था इसीलिये नीलम की रिहाई की मांग करते वक्त वो बच्चे का नाम नहीं ले रहा था ।”
“ये नहीं हो सकता । बच्चा मुम्बई में शिवांगी शाह के हवाले था । सोहल को शिवांगी शाह की खबर - वो भी इतनी जल्दी - लगना नामुमकिन था ।”
“जैसे उसका कुयें से निकलना नामुमकिन था ! जैसे हम सब की आंख में डंडा करके अपनी बीवी ले के चल देना नामुमकिन था !”
“मैं... मैं पता करूंगा ।”
“जितना मर्जी पता कर ले, भैय्यन साईं, जवाब एक ही मिलेगा नी ।”
“क्या ?”
“मां की तरह बच्चा भी निकल गया हाथ से ।”
ब्रजवासी के चेहरे पर गहन असंतोष के भाव आये ।
“सिन्धी भाई” - वो बोला - “बच्चे की बाबत जो कर रहे हो, अन्दाजन कह रहे हो ।”
“वडी ठीक बोला नी । लेकिन अन्दाजे की भी कोई बुनियाद होती है नी । वडी बच्चे की बाबत सोहल का परसों रात का मिजाज ही इस अन्दाजे की पुख्ता बुनियाद है । इसलिये अक्कल से काम ले और बच्चे को भूल जा नी ।”
ब्रजवासी चुप रहा ।
“इब फिनिस करो जी ये तकरार” - भोगीलाल बोला - “और आगे की बोल्लो के फाइनल होया । मेरे ख्याल से तो सरदार जी ने लक्ख रुपये की राय दी है ।”
“वडी क्या नी ?” - झामनानी बोला - “ये कि हमें अन्डरग्राउन्ड हो जाना चाहिये ?”
“फिलहाल ! फिलहाल इस राय पर अमल करने में मन्ने कोई हर्ज न दीखे है । के फायदा कि वो सच में ही प्रेत की तरह हमारे सिर पर आन खड़ा होवे जैसे कि वो बोल के गया था ।”
“ढूंढेगा तो” - पवित्तर सिंह बोला - “सिर पर खड़ा होगा न ?”
“वही तो । वही तो ।”
“वडी भैय्यन, तू भी तो कुछ बोल नी ।”
“एहतियात की बात है” - ब्रजवासी बोला - “जो कि हमने वैसे भी बरतनी ही है । ये भी एक तरीका है एहतियात बरतने का । कुछ अरसा आजमा लेने में कोई हर्ज तो दिखाई नहीं देता ।”
“ठीक है फिर । आज हम अपना माल कब्जे में कर लेते हैं और उसके डिस्ट्रीब्यूशन का इन्तजाम कर लेते हैं, फिर कल से हम अपनी अपनी कोशिशों में लगते हैं कि हम अपने दुश्मनों को ढूंढे न मिलें ।”
“चोखो ।” - भोगीलाल बोला ।
“लेकिन आपसी कान्टैक्ट हमारा बना रहना चाहिये नी ।”
“वो कैसे होवेगा ?”
“वडी मोबाइल के जरिये होगा नी । जो कि हम सबके पास हैं । ठीक है, सरदार साईं ?”
“आहो ।” - पवित्तर सिंह बोला ।
“अब राजी ?”
“आहो ।”
फिर मीटिंग बर्खास्त हो गयी ।
***
होटल सी-व्यू की मारकी में एक टैक्सी आकर रुकी ।
टैक्सी का इकलौता पैसेंजर एक कोई चालीस साल का व्यक्ति था जो कि ब्राउन थ्री पीस सूट पहने थे और सिर पर वैसा ही फैल्ट हैट लगाये था । उसकी टाई में हीरे का पिन था, तीन उंगलियों में हीरे की अंगूठियां थी, एक कलाई पर हीरे जड़ा सोने का आइडेन्टिटी ब्रेसलेट था और दूसरी पर राडो की कीमती घड़ी थी ।
डोरमैन ने आगे बढ कर बड़ी मुस्तैदी से टैक्सी का दरवाजा खोला । एक निगाह में उसने साहब की सजधज भांपी और तन कर सैल्यूट मारा ।
हैट वाला टैक्सी से बाहर निकला ।
टैक्सी ड्राइवर भी बाहर निकला, उसने टैक्सी के पीछे पहुंच कर उसकी डिक्की खोली और उसमें रखे सूटकेस बाहर निकालने लगा ।
डोरमैन ने एक बैलब्वाय को इशारा किया ।
बैलब्वाय तत्काल ड्राइवर के करीब पहुंचा और उसने चमड़े के कीमती, भारी सूटकेस सम्भाल लिये और फिर घूम कर होटल के भीतर की ओर बढा ।
हैट वाले ने टैक्सी का भाड़ा चुकाया । टैक्सी वहां से रुख्सत हो गयी ।
डोरमैन ने हैट वाले के लिये शीशे का दरवाजा खोला तो हैटवाले ने उसमें से गुजरते हुए डोरमैन की मुट्ठी में एक नोट सरका दिया ।
डोरमैन ने फिर सैल्यूट मारा और साहब के पीछे दरवाजा बन्द किया । फिर उसने मुट्ठी में मौजूद नोट पर निगाह डाली तो उसके नेत्र फैले ।
वो सौ का नोट था ।
मोटा सेठ था साहब - डोरमैन मन ही मन बोला - वरना आते ही डोरमैन को टिप में सौ का पत्ता कौन थमाता था ?
अपने सामान के पीछे हैट वाला रिसैप्शन पर पहुंचा ।
उस वक्त साढे ग्यारह से ऊपर का - यानी कि चैक - आउट टाइम के करीब का - टाइम था इसलिये रिसेप्शन पर काफी भीड़ थी ।
बैलब्वाय ने दोनों सूटकेस रिसैप्शन के करीब रख दिये ।
हैट वाले ने उसे भी एक नोट थमाया और एक रिसैप्शन क्लर्क की ओर आकर्षित हुआ ।
साहब को चैक-इन करता छोड़ कर बैलब्वाय एक दूसरे बैलब्वाय से बतियाने लगा ।
“यस, सर ।” - रिसैप्शन क्लर्क मुस्कराता हुआ बोला - “मे आई हैल्प यू, सर ।”
“यस । प्लीज ।” - हैट वाला बोला - “मेरे को डालर्स को रुपयों में तब्दील करवाना है ।”
“इधर पेमेंट फारेन करेन्सी में भी हो सकती है, सर ।”
“मालूम है मुझे । मैं कोई पहली बार किसी बड़े होटल में नहीं ठहरा ।”
“सॉरी, सर ।”
“आपकी पेमेंट की नौबत आने में अभी टाइम लगेगा । मुझे वैसे ही लोकल करेन्सी की जरूरत है ।”
“मनी चेंजर का काउन्टर उधर है, सर ।”
“उधर किधर ?”
“आपके पीछे, सर । लॉबी बार की एन्ट्रेंस के करीब ।”
हैट वाले ने घूम कर पीछे एक निगाह दौड़ाई और बोला - “थैंक्यू ।”
“यू आर वैलकम, सर ।”
हैट वाला घूम कर आगे बढा ।
उसका बैलब्वाय बतियाना छोड़ कर क्षण को खामोश हो गया । उसके देखते देखते साहब मनी चेंजर के काउन्टर पर पहुंचा तो वो फिर अपने जोड़ीदार की तरफ घूम कर बतियाने लगा । होटल के मेहमानों का यूं मनी चेंजर के पास जाना आम बात जो थी ।
हैट वाले ने हजार डालर के नोट मनी चेंजर को सौंपे और बदले में रुपये हासिल किये ।
उसने घूम कर एक सरसरी निगाह अपने पीछे डाली ।
“फ्रंट !” - पीछे रिसैप्शन पर घन्टी बजी ।
एक बैलब्वाय काउन्टर पर पहुंचा ।
“साहब को 523 में ले के जाओ ।” - रिसैप्शनिस्ट एक वृद्ध अंग्रेज और उसके बीवी बच्चों की तरफ इशारा करता हुआ बोला ।
बैलब्वाय ने जब देखा कि उठाने के लिये सात नग थे तो उसने इशारे से दो और बैलब्वायज को बुला लिया । यूं बुलाये गये बैलब्वायज में वो बैलब्वाय भी था जो कि हैट वाले के सूटकेस भीतर लाया था ।
हैट वाला बड़े सहजभाव से बार में दाखिल हो गया ।
बार में उस वक्त कोई खास भीड़ नहीं थी ।
वो बार के एक नीमअन्धेरे कोने की टेबल पर जा बैठा ।
तत्काल एक स्टीवार्ड उसके करीब पहुंचा ।
“बियर ।” - हैटवाला बोला ।
“यस, सर ।” - स्टीवार्ड बोला ।
“एण्ड फ्रेंच फ्राइज ।”
“यस सर ।”
स्टीवार्ड वहां से हटा, उसने एक वेटर को साहब का आर्डर समझाया । वेटर ने तत्काल बियर सर्व की ।
“फ्रेंच फ्राइज विल टेक ए कपल आफ मिनट्स, सर ।” - स्टीवार्ड बोला ।
“नो प्राब्लम ।” - हैटवाला बोला - “मैं इधर ज्यादा नहीं ठहरने वाला इसलिये बिल भी अभी दो ।”
“यस, सर ।”
स्टीवार्ड ने बिल पेश किया ।
“मैं इधर ही ठहरा हुआ हूं ।” - हैट वाला बोला - “साइन कर सकता हूं ?”
“आफकोर्स, सर ।” - स्टीवार्ड बोला - “साइन के साथ अपना रूम नम्बर भी दर्ज कर दीजियेगा ।”
“रूम नम्बर ?” - हैट वाला सकपकाया - “वो तो मैंने पूछा ही नहीं ।”
“सर !”
“दरअसल मैंने अभी चैक-इन किया है । सफर से थका हुआ आया इसलिये रूम में जाने की जगह प्यास मिटाने पहले बार में पहुंच गया ।”
“नो प्राब्लम, सर । आप मुझे अपना शुभ नाम बताइये, मैं आपका रूम नम्बर पता करवा लेता हूं ।”
“मेरा नाम... मैं ही जाता हूं रिसैप्शन पर । मैंने उधर एक लोकल फ्रेंड के लिये मैसेज भी छोड़ना है कि मैं बार में हूं ।”
“ऐज यू विश, सर ।”
बियर को बिना छुए हैट वाला उठा और लम्बे डग भरता बाहर की तरफ बढा ।
रिसैप्शन की तरफ के आधे रास्ते तक स्टीवार्ड को वो रिसैप्शन की तरफ बढता दिखाई दिया, फिर एक पिलर की ओट आ जाने की वजह से वो उसे दिखाई देना बन्द हो गया ।
हैट वाला पिलर के पीछे ठिठका, उसने एक सरसरी निगाह बार की तरफ डाली और फिर रिसैप्शन की तरफ बढने के स्थान पर होटल के मेहमानों के एक ग्रुप के साथ साथ चलता बाहर को चल दिया ।
दरवाजे से बाहर कदम रखने के बाद वो ग्रुप एक मिनी बस में सवार होने लगा ।
हैट वाला उनकी ओट से परे सरका और उसने ड्राइव-वे पर कदम डाला ।
डोरमैन ने सौ रुपये टिप देने वाले साहब को देखा तो वो तत्पर स्वर में बोला - “टैक्सी बुलाऊं, सर ?”
“नहीं ।” - हैट वाला बोला - “पास ही जाने का है ।”
“यस, सर ।”
हैट वाला ड्राइव-वे पर अभी कुछ ही कदम आगे बढा था कि किसी ने पीछे से उसे पुकारा ।
वो ठिठका, घूमा ।
काला सूट पहने और काली टाई लगाये एक व्यक्ति उसके करीब पहुंचा ।
“क्या है ?” - हैट वाला उतावले स्वर में बोला ।
“आप जा रहे हैं, सर ?” - काले सूट वाला बोला ।
“तुम्हें क्या दिखाई देता है ?”
“यही कि आप जा रहे हैं ।”
“तो ?”
“आप ने चैक इन नहीं किया ?”
“मैं बार में गया था, वहां जाने के लिये भी क्या होटल में चैक इन करना पड़ता है ?”
“नो, सर । लेकिन बार में अपनी बियर को तो आपने छुआ ही नहीं ! अपनी फ्रेंच फ्राइज के आर्डर के तो सर्व होने का इन्तजार न किया !”
“मैं... सिग्रेट लेने जा रहा था ।”
“टोबैकोनिस्ट तो लॉबी में ही है, सर ।”
“मुझे नहीं मालूम था ।”
“कौन सा सिग्रेट पीते हैं आप ?”
“डनहिल । क्यों पूछते हो ?”
“आप बार में चल के अपनी बियर और फ्रेंच फ्राइज एनजॉय कीजिये, आपका पसन्दीदा सिग्रेट आप को वहीं सर्व हो जायेगा ।”
“तुम हो कौन ?”
“और अपने सूटकेस भी काबू में कीजिये । कीमती हैं, चोरी चले जायेंगे ।”
तब पहली बार हैट वाला विचलित दिखाई दिया ।
“मुझे ये बदतमीजी पसन्द नहीं ।” - फिर वो तीखे स्वर में बोला - “रास्ते से हटो ।”
पलक झपकते काले सूट वाले के व्यवहार से तमाम विनयशीलता गायब हो गयी ।
“नाओ, लिसन, यू सन आफ बिच” - वो सांप की तरह फुंफकारा - “वाक बैक टु दि लॉबी ऑर आई विल शूट यू हेयर एण्ड नाओ ।”
“क... क... क्या ?”
काले सूट वाले ने रिवॉल्वर की नाल यूं उसकी पसलियों में गड़ाई कि कोई उधर देखता तो लगता एक दोस्त दूसरे दोस्त की बांह में बांह डाल रहा था ।
हैट वाले के चेहरे पर हवाईयां उड़ने लगीं ।
“मूव ।” - काले सूट वाला उसके कान में बोला ।
मन मन के कदम उठाता हैट वाला वापिस लॉबी की तरफ बढा ।
***
थाने के परिसर में ही स्थित स्टाफ क्वार्टरों में इन्सपेक्टर नसीबसिंह - भूतपूर्व एस. एच. ओ. थाना पहाड़गंज का फ्लैट था । उस वक्त वो बैठक में बैठा अखबार पढ रहा था जिसमें उसका कतई मन नहीं लग रहा था ।
सस्पेंशन उसके लिये बहुत अप्रत्याशित घटना थी । अपने उच्चाधिकारियों से सख्त पूछताछ की उम्मीद वो बराबर कर रहा था लेकिन ऐसा उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि वो यूं आनन फानन, एकाएक, बिना किसी पूर्वचेतावनी के, सस्पेंड कर दिया जायेगा । ऊपर से डी.सी.पी. मनोहरलाल की धमकी कि उसकी हर मूवमेंट पर नजर रखी जायेगी । पता नहीं वो धमकी उसे डराने के लिये थी या सच में ही उस पर अमल होने वाला था । सच में अमल होने वाला था तो...
तभी कालबैल बजी ।
कहां गलती हो गयी - बड़बड़ाता हुआ वो उठ कर दरवाजे की ओर बढा - सब कुछ आम पुलिसिया ढर्रे से तो किया था, फिर भी पंगा क्यों पड़ गया ? माल में हिस्सा बंटाने का खुला इशारा देने की जगह बड़ा साहब खिलाफ क्यों हो गया ? वो भी इतना खिलाफ कि खड़े पैर सस्पेंड कर दिया ?
उसने दरवाजा खोला ।
चौखट पर उसे मुकेश बजाज खड़ा दिखायी दिया ।
बजाज ! - वो सकपकाया - झामनानी का खास आदमी ! उसके घर पर !
“हल्लो !” - वो मुस्कराता हुआ बोला ।
“क्या है ?” - नसीबसिंह भुनभुनाया - “यहां क्यों चले आये ?”
“क्यों ? पाबन्दी है यहां आने पर ?”
“पाबन्दी नहीं, भैया, कर्फ्यू है । मार्शल ला है ।”
“तुम्हारी सस्पेंशन की वजह से ?”
“पता चल गया ?”
“मैं पहले थाने गया था ।”
“ओह !”
“अब रास्ते से तो हटो ।”
“पहले आमद की वजह बोलो ।”
“झामनानी ने भेजा है । तुम से जरूरी बात करनी है ।”
“तुम्हें यहां नहीं आना चाहिये था ।”
“ऐसा कहने की कोई वजह तो होगी ?”
“है न ! तभी तो बोला कि....”
“वजह मैं भीतर चल के सुनता हूं ।”
“लेकिन....”
“थानेदार साहब, मैं झामनानी का मुलाजिम हूं, तुम्हारा हुक्मबरदार नहीं । जो काम करने आया हूं उसे किये बिना मैं नहीं टलने वाला ।”
“आओ ।”
नसीबसिंह ने उसे एक सोफे पर बिठाया और भीतर का बीच का दरवाजा मजबूती से बन्द किया ।
“जो कहना है, धीरे कहना ।” - वो बोला - “बीवी न सुने । अभी मैंने उसे अपनी सस्पेंशन की बाबत नहीं बताया है ।”
बजाज की भवें उठीं ।
“वो एक बात सुनेगी, सौ सवाल पूछेगी । जिससे फिलहाल मैं बचना चाहता हूं ।”
“ओह !” - बजाज बोला ।
“तुम्हें यहां नहीं आना चाहिये था । थाने भी नहीं जाना चाहिये था ।”
“अब मुझे क्या पता था कि....”
“क्या बोला थाने में ? क्या बताया खुद को वहां ?”
“इंश्योरेंस एजेन्ट । तुम्हारी लाइफ इंश्योरेंस पालिसी लैप्स हो रही थी, खबर करने को आया ।”
“ये अच्छा किया तुमने इत्तफाक से ।” - नसीबसिंह ने उसके सूट और ब्रीफकेस पर निगाह डाली - “लगते भी हो इंश्योरेंस एजेंट ।”
फिल्मी अभिनेताओं जैसे व्यक्तित्व के स्वामी मुकेश बजाज की वो खास खूबी थी कि वो अपने आपको वकील बताता था तो वकील लगता था, डाक्टर बताता था तो डाक्टर लगता था, इन्जीनियर या चार्टर्ड एकाउन्टेंट या ब्यूरोक्रेट बताता था तो ऐन वही लगता था । उसके चेहरे पर सदा ऐसी बुद्धिमत्ता की छाप रहती थी कि देखने वाला उसे सहज ही कोई उच्च शिक्षाप्राप्त व्यक्ति मान लेता था जबकि असल में वो सिर्फ बारहवीं पास था ।
“अब बोलो कैसे आये ?” - नसीबसिंह बोला ।
“तुम्हें मालूम होना चाहिये कैसे आया !” - बजाज बोला - “तुम्हारा माल तैयार है, अपने माल पर कब्जा करो और हमारा माल हमारे हवाले करो ।”
पूरी बात सुन चुकने से पहले ही नसीबसिंह इनकार में सिर हिलाने लगा ।
“क्यों ?” - बजाज की भवें उठीं - “क्या हुआ ?”
“ये नहीं हो सकता ।”
“क्या कह रहे हो ?”
“वही जो तुमने सुना । मौजूदा हालात में ये नहीं हो सकता । मैं इस वक्त न रकम कुबूल कर सकता हूं, न माल डिलीवर कर सकता हूं । मैंने ऐसी कोई कोशिश की तो रकम भी पकड़ी जायेगी, माल भी पकड़ा जायेगा, मैं भी पकड़ा जाऊंगा और कोई बड़ी बात नहीं कि झामनानी भी पकड़ा जायेगा । सारे बिरादरीभाई नहीं तो झामनानी तो जरूर ही पकड़ा जायेगा ।”
“वजह ? वजह ?”
नसीबसिंह ने वजह बतायी ।
“ओह !” - बजाज चिन्तित भाव से बोला - “ये तो तुमने बहुत बड़ी समस्या खड़ी कर दी हमारे लिये ।”
“सिर्फ तुम्हारे लिये ?” - नसीबसिंह कलप कर बोला - “खुद नहीं फांसी लगा हुआ मैं ?”
“धीरे बोलो । बीवी सुन लेगी । भूल गये ?”
“अभी खामोश रहने में ही सब की गति है, भाई मेरे ।”
“माल फौरन हमारे कब्जे में आना जरूरी है इसीलिये आननफानन तुम्हारी रकम तैयार की गयी है । मैं तो उसे साथ ही लेकर आने वाला था....”
“खबरदार ! खबरदार ! ऐसी कोई कोशिश हरगिज न करना । मैं न वो रकम ले सकता हूं, न लेने आ सकता हूं ।”
“ठीक है । समझ लो कि तुम्हारी रकम हमारे पर तुम्हारी अमानत के तौर पर महफूज है लेकिन माल का तो कुछ करो, वो फौरन हमें वापिस मिलना जरूरी है ।”
“मैं उसके करीब भी फटकने की जुर्रत नहीं कर सकता ।”
“हम कर लेंगे जुर्रत । बोलो, कहां छुपाया माल ?”
“मैं नहीं बता सकता ।”
“बता नहीं सकते या बताना नहीं चाहते ?”
“बता नहीं सकता ।”
“क्यों भला ?”
“वो जगह कुतुब और झामनानी के फार्म के बीच का एक खंडहर है ।”
“वहां तो दर्जनों खंडहर हैं ।”
“तभी तो बोला जगह की बाबत नहीं बता सकता । मेरे पास माल छुपाने के लिये बहुत कम वक्त था इसलिये जो पहली मुनासिब उजाड़ जगह मुझे दिखाई दी थी, मैंने माल वहां छुपा दिया था । खुद मुझे उस जगह को तलाश करने में दिक्कत हो सकती है ।”
“ये तो बहुत नाजायज हरकत की तुमने !”
“जब मैंने की थी तब ये ही हरकत जायज और मुनासिब थी । तब मुझे क्या मालूम था कि मेरे पर पहरे लग जायेंगे !”
“झामनानी को ये बात पसन्द नहीं आने वाली । वो बहुत खफा होगा ।”
“अब मैं क्या करूं ?”
“तुम न करो तो और कौन करे ? तुम तो पहले ही उससे पंगा लेकर अपनी हालत आ बैल मुझे मार जैसी कर चुके हो । अब तो समझ लो कि बैल आये ही आये और मारे ही मारे ।”
“क्या मतलब ?”
“मतलब समझाने क्या कोई बाहर से आयेगा ? मतलब साफ है । तुम्हारी खैर नहीं, नसीबसिंह ।”
“मुझे कुछ हुआ तो भाई लोगों को सात जन्म माल की सूरत देखना नसीब नहीं होगा । भाई लोग मेरे खिलाफ गये तो बोल देना उन्हें कि उनकी धमकी का मुकाबला करने का एक रास्ता अभी भी मेरे सामने खुला है ।”
“क्या ?”
“मैं तमाम हकीकत अपने आला अफसरों के सामने बयान कर दूंगा । फिर भाई लोगों का भगवान ही मालिक होगा ।”
“और तुम्हारा ?”
“मेरा कुछ नहीं होगा । बड़ी हद मेरी नौकरी छूट जायेगी ।”
“बस ?”
“और क्या ? दिल्ली के इतने बड़े दादाओं के खिलाफ अप्रूवर बनने की मेरी हामी मेरी बहुत खतायें माफ करवा देगी । आपने डी.सी.पी. की ऐसी आफर है भी मेरे को ।”
“कैसी आफर ?”
“यही कि में अपनी जुबानी तमाम हकीकत कह सुनाने की तैयार हो जाऊं । मेरे पर बेजा दबाव डाला गया तो मैं तैयार हो भी जाऊंगा, फिर भले ही मेरे साथ कुछ भी बीते ।”
बजाज के मुंह से बोल न फूटा, वो हकबकाया सा उसका मुंह देखता रहा ।
“मुझे झामनानी से बात करनी होगी ।” - आखिरकार वो चिन्तित भाव से बोला ।
नसीबसिंह खामोश रहा ।
“बल्कि तुम्हें झामनानी से बात करनी होगी ।”
“सवाल ही नहीं पैदा होगा । मैं झामनानी के पास भी नहीं फटक सकता । जो हालात मैंने बयान किये हैं, उनकी रू में भाई लोगों को भी बोल देना कि कोई मेरे पास फटकने की कोशिश न करे । तुम भी ।”
“ऐसे कैसे बीतेगी ?”
“फिलहाल तो ऐसे ही बीतेगी । किसी ने मुझे फोन तक भी किया तो सब की शामत आ जायेगी ।”
“कमाल है ! अरे, हमारा माल दबाये बैठे हो, तुम्हारे से कान्टैक्ट नहीं होगा, डायलाग नहीं होगा तो कैसे बीतेगी ?”
“भाई मेरे, पहले कान्टैक्ट का, डायलाग का नतीजा सोचो और फिर सवाल करो ।”
“तौबा ! कितनी बड़ी जहमत खड़ी कर दी खामखाह !”
“जहमत सिर्फ तुम्हारे लिये है ? मेरे लिये नहीं है ?”
“तुम्हारी करतूत, तुम्हारा लालच, तुम्हारी नासमझी, नालायकी वजह है तुम्हारी जहमत की, हमें किस बात की सजा है ?”
“मैं तुम्हारे जैसी फैंसी बातें नहीं कर सकता ।”
“कर ही रहे हो । माल भींच के बैठ गये, ऊपर से कहते हो....”
“इरादतन नहीं, मजबूरन ।”
“मैं जाता हूं ।” - बजाज एकाएक उठ खड़ा हुआ - “और जा कर झामनानी से बात करता हूं । लेकिन मैं लौट के आऊंगा ।”
“खबरदार !”
“मैं जरूर आऊंगा ।”
“अरे” - नसीबसिंह कलप कर बोला - “क्या करने आओगे....”
“धीरे । धीरे । बीवी सुन लेगी । भूल गये ?”
“....सब कुछ बोल तो दिया, अब और....”
“दारोगा जी, मुझे झामनानी से तुम्हारी मुलाकात लाजमी दिखाई दे रही है, उसका छः करोड़ का माल दबाये बैठे हो, वो रूबरू तुम से बात किये बिना नहीं मानेगा ।”
“वो भी तो मेरी रकम दबाये बैठा है ।”
“तुम्हारी रकम अभी तुम्हारे मुंह पर मारी जा सकती है ।”
“नहीं । नहीं ।”
बजाज ने जेब से बालपैन निकाल कर सैन्टर टेबल पर पड़े अखबार पर एक नम्बर लिखा और बोला - “ये झामनानी के मोबाइल का नम्बर है । पहली फुरसत में फोन लगाना ।”
“हरगिज नहीं । मेरी मजाल नहीं हो सकती यहां से झामनानी को फोन लगाने की । मुझे क्लियर वार्निंग है कि मेरा फोन टेप करके रखा जायेगा ।”
“मोबाइल से करना ।”
“मेरे पास नहीं है ।”
“कोई टैम्परेरी इन्तजाम कर लो ।”
“वो टेप नहीं होता ?”
“होता है । लेकिन सरकारी फोन जैसी आसानी से नहीं होता । ऊपर से जब तुम्हारे महकमे वालों को पता नहीं लगेगा कि तुम्हारे पास मोबाइल है - है किस का है - तो वो कुछ नहीं कर सकेंगे ।”
“लेकिन....”
“शाम तक झामनानी से फोन पर बात कर लेना । उसके मोबाइल पर तुम्हारा फोन न आया तो मैं जरूर ही यहां आ धमकूंगा । हो सकता है झामनानी भी मेरे साथ आने की जिद करे ।”
“हरगिज नहीं । मैं बेमौत मारा जाऊंगा ।”
“तो फोन की बाबत मेरी राय पर अमल करना । नमस्ते ।”
***
काले सूट वाले का नाम पवन डांगले था । वो होटल के सिक्योरिटी चीफ तिलक मारवाड़े का खास आदमी था और लॉबी में तैनात बेवर्दी और बाबर्दी दोनों किस्म के सिक्योरिटी स्टाफ का इन्चार्ज था । उस घड़ी होटल की बेसमेंट में उसके साथ विमल, इरफान, शोहाब और तिलक मारवाड़े मौजूद थे, वो सब को उस हैट वाले की दास्तान सुना चुका था जो कि उस घड़ी उनके सामने एक लोहे की कुर्सी पर बैठा हुआ था ।
उसके दोनों सूटकेस रिसैप्शन पर से उठवाये जा चुके थे और उस घड़ी वो उसके सामने उसके पैरों के करीब पड़े थे ।
किसी को इस बारे में कोई शंका नहीं थी कि सूटकेसों में क्या था ?
खासतौर से विमल को ।
ऐन वही हरकत बखिया के निजाम के दौरान ऐन वैसे ही तुकाराम कर चुका था । कोई फर्क था तो सिर्फ ये कि तुकाराम की बखिया के हैडक्वार्टर को नुकसान पहुंचाने की कोशिश कामयाब रही थी जबकि वो शख्स वैसा खुशकिस्मत नहीं निकला था ।
विमल उस वक्त बतौर राजा साहब के सैक्रेट्री कौल वहां मौजूद था इसलिये नासिकाओं में फंसाईं प्लास्टिक की गोलियों की वजह से उसकी नाक पकौड़े जैसी फूली लग रही थी और उसी वजह से वो बोलता था तो उसकी आवाज भी यूं निकलती थी जैसे घिसे हुए आडियो टेप में से निकल रही हो । आंखों में उसने प्लेन, नीले कान्टैक्ट लैंस लगाये हुए थे और ऊपर से प्लेन ग्लासिज वाला तार के फ्रेम वाला, बड़ा नाजुक सा चश्मा लगाया हुआ था । दांतों की ऊपरली कतार में उसने सामने के दान्तों पर दो दान्त नकली चढाये हुए थे ।
“सूटकेस लॉबी में छोड़ के खिसक रहा था ।” - मारवाड़े धीरे से बोला - “शर्तिया बड़े विस्फोट का इरादा था दुश्मनों का ।”
विमल ने सहमति में सिर हिलाया ।
“इसका काम तो मुकम्मल हो ही गया था” - इरफान बोला - “विस्फोट अभी हो सकता है ।”
“अभी नहीं हो सकता” - अनुभवी मारवाड़े पूरे विश्वास के साथ बोला - “अभी टाइम है । काफी टाइम है ।”
“कैसे मालूम ?”
“इसकी शक्ल देखो । लगता है कि ये सूटकेसों से फिलहाल कोई खतरा महसूस कर रहा है ?”
इरफान ने घूर कर हैट वाले को देखा, हाथ मार कर उसके सिर पर से हैट उड़ाया और फिर देखा ।
“बरोबर बोला, बाप ।” - वो बोला ।
“फिर भी रिस्क लेने का क्या फायदा ?” - विमल बोला - “सूटकेसों की बाबत जो करना है, जल्दी करो ।”
मारवाड़े ने सहमति में सिर हिलाया । वो आगे बढ कर बन्दी के ऐन सामने जा खड़ा हुआ । हाथ बढा कर उसने उसके बाल दबोचे, बड़ी बेरहमी से बाल खींच कर उसका सिर ऊंचा किया और फिर क्रूर भाव से बोला - “नाम बोल ।”
“बिलाल ।” - बन्दी घुटी आवाज में बोला ।
“सूटकेसों में क्या है ?”
“वही ।”
“वही क्या ?”
“आर.डी.एक्स. ।”
“कितना ?”
“बहुत ।”
“कितना ?”
“चौदह किलो ।”
“फटने में कितना टाइम है ?”
उसने कलाई पर बन्धी घड़ी देखी और फिर बोला - “अभी पच्चीस मिनट हैं ।”
“सूटकेस खोल ।”
“मैं नहीं खोल सकता ।”
“क्यों ?”
“मुझे ऐसीच मिले । बन्द । लॉक करने वाला कोई दूसरा ।”
“पक्की बात ?”
“हां ।”
“ठीक है ।” - मारवाड़े डांगले की तरफ घूमा - “दो आदमी और पकड़ और गोदाम के रास्ते इसे समुद्र किनारा ले जा । वहां किसी सुनसान जगह पर ये दोनों सूटकेस इसके आजू बाजू बांध के इसे वहीं छोड़ आना ताकि सब काम आटोमैटिक हो जाये ।”
बन्दी के चेहरे पर आतंक के भाव आये ।
सहमति में सिर हिलाता डांगले बाहर की तरफ बढा ।
“थाम्बा ।” - बन्दी एकाएक बोला ।
डांगले ठिठक गया ।
बन्दी ने अपनी टाई उतारी, जैकेट और कमीज के बटन खोले और छाती पर जंजीर के साथ लटकती एक चाबी बरामद की । फिर उसने दोनों सूटकेस खोले । दोनों सूटकेसों में टाइम क्लॉक थीं, सब की निगाह सबसे पहले उन्हीं पर पड़ीं ।
विस्फोट में वाकई अभी पच्चीस - अब बाइस - मिनट बाकी थे ।
“इतना लम्बा टाइम क्यों ?” - विमल धीरे से बोला ।
“वजह साफ है ।” - मारवाड़े बोला - “इत्तफाक से ये जल्दी फारिग हो गया लेकिन असल में इसे अपने काम को अंजाम देने वक्त लग सकता था ।”
“आई सी ।”
“डिटोनेटर अलग कर ।” - मारवाड़े ने बन्दी को हुक्म दिया - “घड़ियां अलग कर ।”
बन्दी ने आदेश का पालन किया ।
फिर सूटकेस परे हटा दिये गये और बन्दी को वापिस कुर्सी पर धकेल दिया गया ।
“‘भाई’ का आदमी है ?” - इरफान ने कड़क कर पूछा ।
बन्दी ने इनकार में सिर हिलाया ।
इरफान ने खुले हाथ का एक करारा झांपड़ उसके चेहरे पर रसीद किया और फिर बोला - “‘भाई’ का आदमी है ?”
“नहीं ।” - बन्दी बड़ी कठिनाई से बोल पाया ।
“किसके लिये काम करता है ?” - विमल ने पूछा ।
“किसी के लिये नहीं ।” - बन्दी बोला ।
“यानी कि जो करने आया था, अपनी खातिर करने आया था ?”
“नहीं ।”
“ओह ! किसी एक के लिये काम नहीं करता ? भाड़े पर उठता है ? फ्रीलांसर है ?”
“हां ।”
विमल ने इरफान की तरफ देखा ।
इरफान का सिर सहमति में हिला, वो फिर बन्दी से सम्बोधित हुआ - “ये काम किसने सुपुर्द किया ? नाम बोल उसका ?”
“इनायत दफेदार ।”
“वो कौन है ?”
“बड़ा बाप है ।”
“वो ‘भाई’ का आदमी है ?”
“नहीं मालूम । पण बोला कि काम ‘भाई’ का था इसलिये करने का था । इनकार नक्को ।”
“कितना पैसा मिला ?”
“दो लाख ।”
“आर. डी. एक्स. किधर से आया ?”
“दफेदार ने दिया ।”
“इधर ब्लास्ट करने आया ।” - मारवाड़े गुस्से से बोला - “जिसमें जान माल का भारी नुकसान होता । कोई वान्दा नहीं तेरे को ?”
“क्या बोलेंगा, बाप ! दफेदार बहुत कड़क । नक्की बोलता तो जान से, जाता....”
“जैसे अब बच जायेगा ?”
“अभी तो रोकड़ा दिया, फोकट में करने को भी बोलता तो करना पड़ता ।”
“दफेदार कहां पाया जाता है ?” - इरफान बोला ।
“मालूम नहीं ।”
“ये कैसे मालूम है कि बड़ा बाप है ?”
“गेस किया ।”
“कैसे गेस किया ?”
“शक्ल से लगता था, मिजाज से लगता था । बाप, इतने आर. डी. एक्स. का इन्तजाम कोई बड़ा बाप ही कर सकता है न !”
“काफी श्याना है । कहां मिला वो तेरे को ?”
“भायखला । दगड़ी चाल के एक रेस्टोरेंट में ।”
“जब तू उसे नहीं जानता था तो वो तुझे कैसे जानता था ?”
“बीच में एक और आदमी था । उसने जनवाया ।”
“नाम बोल उसका ।”
“जेकब परदेसी ।”
“वो किधर पाया जाता है ?”
“मालूम नहीं । मेरे को जब मिला, दमड़ी चाल में ही कहीं मिला ।”
“तू तो बड़ी वारदात करने आया” - मारवाड़े बोला - “आर. डी. एक्स. के साथ सिर्फ पकड़े जाने पर भी जानता है कितनी सजा होती है ?”
बन्दी ने इनकार में सिर हिलाया ।
“दस साल । छोटी मोटी बरामदी पर । चौदह किलो बड़ी बरामदी मानी जायेगी । टाडा लगेगा । अक्खी लाइफ के लिये अन्दर जायेगा । फांसी भी लग जाये तो बड़ी बात नहीं । क्या ?”
बन्दी का शरीर जोर से कांपा ।
“कहने का मतलब ये है कि हमें कुछ नहीं करना पड़ेगा तेरी बाबत । पुलिस इधर आयेगी, तेरे इन सूटकेसों के साथ तुझे गिरफ्तार करेगी और फिर आगे जो करना होगा पुलिस खुद करेगी ।”
“हां ।” - इरफान बोला - “हम तेरी खबर लेने की जहमत से बच जायेंगे ।”
“बकश दो, बाप ।” - बन्दी घिघियाता सा बोला - “बिरादरीभाई समझ कर बकश दो ।”
“अच्छा ! इधर किसका बिरादरीभाई है तू ?”
“तुम्हेरा, बाप ।”
इरफान ने उसे घूर कर देखा ।
“मेरे को जानता है ?” - फिर वो बोला ।
“हां, बाप । तब से जानता हूं जब तुम तुकाराम के अन्डर में नवां था अभी ।”
“कमाल है ! मैं तो तुझे नहीं जानता ।”
“बकश दो, बाप । मेरी इधर किसी से कोई जाती अदावत नहीं । जो काम इधर मैं किया, वो मैं न करता तो कोई दूसरा करता । और....”
“क्या और ?”
“वो शायद मेरी तरह नाकाम भी न होता ।”
इरफान ने विमल की तरफ देखा ।
“इधर मेरी तरफ देख ।” - विमल बोला ।
बन्दी ने देखा ।
“इधर काम सब फिट हो गया, इसकी रिपोर्ट किसको करता ? कैसे करता ?”
“रिपोर्ट की किधर जरूरत, बाप । चौदह किलो आर. डी. एक्स. का लॉबी में फटना अपने आप में रिपोर्ट होता । अक्खा होटल हिल जाता । इतना बड़ा वारदात किधर छुपता ? चुटकियों में अक्खा शहर जान जाता ।”
“हूं । फीस मिल गयी ?”
“फीस ?”
“पैसा । रोकड़ा । दो लाख रुपया ।”
“आधा मिला । आधा बाद में मिलने को था ।”
“किधर से ?”
“दगड़ी चाल से ।”
“कौन देता ?”
“मालूम नहीं ।”
“पहले किसने दिया ?”
“बीच वाले भीड़ू ने ।”
“जिसका नाम तू जेकब परदेसी बोला ?”
“हां । वो दिया मेरे को । बोला, उसको दफेदार ने दिया । मेरे को देने का वास्ते ।”
“एक तरीके से तरी जानबख्शी हो सकती है ।”
“बोलो, बाप ।”
“दागड़ी चाल पहुंच । उधर जाके अपने बिचौलिये परदेसी को बोल कि तू अपना काम फिट करके आया । फिर अपनी बाकी की रकम मांग ।”
“वो आगे से ला के देगा ।”
“ला के देने को वो जिधर जायेगा, तू उधर उसके साथ जाने की जिद करेगा ।”
“वो मुझे ले जाने को नक्की बोला तो ?”
“कोई वान्दा नहीं । तो हम परदेसी को थाम लेंगे और फिर वो बोलेगा कि दफेदार क्या बला है और कहां पाया जाता है !”
वो खामोश रहा ।
“ज्यादा सोच विचार का वक्त नहीं है । जल्दी जवाब दे ।”
“बाप, ये तो आगे कुआं और पीछे खाई जैसा बात है ।”
“बराबर है लेकिन एक फर्क है । कुआं तेरे सामने है और उसमें तेरा गिरना लाजमी है । खाई अभी दूर है इसलिये शायद उसमें गिरने से बच जाये ।”
वो फिर खामोश हो गया ।
“बाप, ऐन चौकस बोला मेरे जबरदस्ती के बिरादरीभाई ।” - इरफान कर्कश स्वर में बोला - “जो फैसला करना है एक सैकेंड में कर ।”
“आप जैसा बोलेंगा” - वो मरे स्वर में बोला - “मैं करेंगा ।”
“शाबाश ।”
***
होटल से कोई एक किलोमीटर दूर एक बनती हुई मल्टीस्टोरी इमारत थी जिसके तब तक बने टॉप फ्लोर के एक पिलर के पीछे एक व्यक्ति मौजूद था । उसका नाम जमीर मिर्ची था, पेशे से टैक्सी ड्राइवर था लेकिन साथ ही जेकब परदेसी का खास आदमी था । जेकब परदेसी भायखला का रसूख वाला दादा था इसलिये उसका खास आदमी कहलाने में जमीर मिर्ची फख्र महसूस करता था और उसके कहे किसी काम को करने से कभी इनकार नहीं करता था ।
उस घड़ी अपने उस्ताद का जो काम वो कर रहा था वो ये था कि वो एक शक्तिशाली दूरबीन की सहायता से होटल सी-व्यू को वाच कर रहा था । दूरबीन इतनी शक्तिशाली थी कि होटल की लॉबी उसे अपने यूं करीब जान पड़ती थी जैसे कि वो हाथ बढा कर वहां मौजूद किसी को भी छू सकता हो ।
उस घड़ी उसे बारह बजने का इन्तजार था ।
आखिरकार बारह बजे ।
उसे दिखने लायक कुछ दिखाई न दिया ।
होटल का कारोबार अपनी स्थापित रूटीन के मुताबिक चल रहा था । कहीं कुछ असाधारण घटित नहीं हो रहा था ।
उसने पांच मिनट और इन्तजार किया ।
कुछ नहीं ।
पांच मिनट और उसने बड़ी कठिनाई से गुजारे ।
फिर भी सब शान्त था ।
उसने अपनी जेब से परदेसी का दिया मोबाइल फोन निकाला और उसे कॉल लगायी ।
“मिर्ची बोलता हूं ।” - वो फोन में बोला ।
“क्या हुआ ?”
“कुछ नहीं ।”
“क्या ?”
“कुछ नहीं हुआ ।”
“दस मिनट ऊपर हो गये, फिर भी कुछ नहीं हुआ ?”
“बोला तो ।”
“बिलाल चला गया उधर से ?”
“चला ही गया होगा । मैं तो उसे लॉबी में उतारकर इधर आ गया था ।”
“देखा नहीं जाता ?”
“नहीं । मेरी निगाह तो होटल पर थी इसलिये हो सकता है उसकी तरफ ध्यान न गया हो । वैसे भी बहुत रश का टेम उधर ।”
“हूं । तू पांच मिनट और ठहर उधर । कुछ हो तो फिर फोन करना नहीं तो नक्की करना उधर से ।”
“ठीक । पण...”
“अब क्या है ?”
“कुछ हुआ क्यों नहीं ? किधर वान्दा पड़ा ?”
“मैं खुद हैरान हूं । फिक्रमन्द भी । तू लाइन कट कर और जो बोला वो कर ।”
मिर्ची ने मोबाइल बन्द करके जेब में रख लिया ।
पांच मिनट और बीते ।
उसने दूरबीन में से आखिरी बार होटल की तरफ देखा और फिर सीढियां उतरने लगा । बेशुमार बनती सीढियां उतरकर वो अपनी टैक्सी के पास पहुंचा, उसमें सवार हुआ और वहां से रुख्सत हो गया ।
उसे भायखला लौटने का कोई हुक्म नहीं हुआ था, फिर भी वो उधर ही जा रहा था क्योंकि वो भी ये जानने का इच्छुक था कि उस्ताद का काम क्यों नहीं बना था ।
उसकी टैक्सी बान्द्रा से गुजर रही थी जबकि माहिम काजवे से पहले के एक क्रासिंग पर ऐन उसके मुंह पर सिग्नल लाइट लाल हो गयी और उसे टैक्सी रोकनी पड़ी ।
स्टियरिंग थपथपाता वो बत्ती हरी होने की प्रतीक्षा करता रहा ।
तभी उसके पहलू में एक और टैक्सी आकर रुकी । वो टैक्सी थी इसलिये स्वयंमेव ही उसकी निगाह ड्राइवर की ओर उठ गयी ।
फौरन उसने ड्राइवर को पहचाना ।
जो कि विक्टर था ।
उसने देखा टैक्सी फुल थी ।
आगे विक्टर के साथ एक भीड़ू बैठा था और पिछली सीट पर तीन जने मौजूद थे ।
तीन जने ।
जिनमें से बीच के पैसेंजर पर उसकी निगाह पड़ी तो उसके नेत्र फैले ।
वो बिलाल था और यूं लगता था जैसे अंगारों पर बैठा हो ।
उसके आजू बाजू बैठे दोनों भीड़ू एकदम संजीदा थे और उनके हावभाव से कतई नहीं लगता था कि बिलाल से उनके दोस्ताना ताल्लुकात थे ।
क्या माजरा था ?
विक्टर की तब तक भी उसकी तरफ तवज्जो नहीं गयी थी, वो सीधा सामने देखता बत्ती हरी होने का इन्तजार कर रहा था ।
मिर्ची ने हाथ बढा कर जल्दी से परली तरफ का शीशा गिराया और फिर बोला - “अरे विक्टर !”
विक्टर ने सकपकाकर आवाज की दिशा में देखा । अपने साथी टैक्सी ड्राइवर को देखकर वो जबरन मुस्कराया और उसने अनमने भाव से सहमति में सिर हिलाया ।
“अरे, मैं जमीर मिर्ची । पहचाना नहीं क्या ?”
“पहचाना, भई ।” - विक्टर बोला - “कैसा है, मिर्ची ?”
“बढिया । तू बोल ।”
“इधर भी वैसीच है ।”
“किधर जाता है ?”
“भायखला ।”
“कभी दिखायी नहीं देता ? क्या....”
तभी बत्ती हरी हो गयी ।
विक्टर की टैक्सी तत्काल सामने दौड़ी ।
मिर्ची के पीछे हॉर्न बजने लगे ।
मिर्ची सीधा हुआ, उसने चौराहा पार किया और फिर टैक्सी को फुटपाथ के साथ लगाकर रोक दिया ।
मोबाइल पर उसने फिर जेकब परदेसी को फोन लगाया ।
“मैं मिर्ची ।” - वो जल्दी से बोला - “मेरी समझ में आ गया है कि पीछे सी-व्यू में तेरा पिरोगराम क्यों नहीं हुआ ।”
“क्यों नहीं हुआ ? क्या समझ में आ गया है ?”
“बिलाल पकड़ा गया है ।”
“क्या ! कैसे जाना ?”
मिर्ची ने बताया ।
“अरे, क्या पता वो उसके यार दोस्त हो, मिलने जुलने वाले हों ?”
“भाया, वो भायखला क्यों जा रहा होगा ?”
“बाकी का रोकड़ा लेने के लिये ?”
“ऐसे टॉप सीक्रेट काम के लिये वो तीन जोड़ीदार साथ ले के चलेगा ?”
दूसरी तरफ से जवाब न मिला ।
“ऊपर से पीछे काम न हुआ । और ऊपर से वो उसके यार दोस्त जोड़ीदार किधर मालूम पड़ते थे !”
“ओह ! ओह !”
“तू किधर है ?”
“इधर भायखला में ही ।”
“फिर क्या वान्दा है ? फिर तो टेम है तेरे पास । वो तो अभी उधर पहुंचते पहुंचते पहुंचेंगे ।”
“ठीक । कट कर फोन ।”
परदेसी ने बड़े चिन्तित भाव से दफेदार के मोबाइल पर कॉल लगायी ।
“काम बिगड़ गया ।” - वो जवाब मिलते ही बोला - “बिलाल पकड़ा गया । उसकी वजह से आगे भायखला में कोई लफड़ा होने का अन्देशा है ।”
“कैसे जाना ?”
“बाद में बोलेगा । अभी बोलो क्या हुक्म है ?”
“वो पता नहीं क्या बका ? और अभी आगे क्या बकेगा ?”
“हुक्म बोलो, बाप ।”
“मुंह बन्द कर उसका ।”
“मैं ?”
“या काला चोर । एक पेटी तेरे पास है जो तू उसे काम मुकम्मल होने पर देने का था । दो और मिलेंगी । साथ में ‘भाई’ की शाबाशी । काम कर या करा, जो करना है जल्दी कर । रोकड़ा कम लगे तो बोल ।”
“बोलेगा । बाद में बोलेगा । अभी कट करता है ।”
दगड़ी चाल का जो रेस्टोरेंट बिलाल का निशाना था, वो एक बीते जमाने का टिपीकल ईरानी रेस्टोरेंट था और खूब बड़ा था । उस घड़ी वहां काफी भीड़ थी, काफी शोरशराबा था और लगता था कि अधिकतर ग्राहक वहां के रेगुलर थे और एक दूसरे को जानते थे ।
बिलाल एक कोने की टेबल पर अकेला बैठा हुआ था और धीरे धीरे चाय चुसक रहा था ।
उसके बाजू की एक टेबल पर उसकी तरफ पीठ किये इरफान बैठा हुआ था और वो दीवार पर लगे शीशे में से बिलाल पर निगाह रखे था ।
प्रवेश द्वार के करीब की एक टेबल पर बुझेकर और पिचड़ मौजूद थे ।
बाहर सड़क पर विक्टर की टैक्सी प्रवेश द्वार के करीब ही खड़ी थी और वो ड्राइविंग सीट पर बैठा कैसी भी इमरजेन्सी के लिये पूरी तरह से तैयार था ।
पांच सात मिनट यूं ही गुजरे ।
वेटर बिलाल के पास पहुंचा तो उसने और चाय मंगायी ।
एक बार शीशे में से उसकी इरफान से निगाह मिली । इरफान की भवें उठीं । उसने हौले से अनभिज्ञता जताने के अन्दाज से कन्धे उचकाये और परे देखने लगा ।
तभी काउन्टर पर बैठा मालिक उच्च स्वर में बोला - “अरे, छोकरा, बिलाल को देख इधर कहीं होयेंगा । उसका फोन है ।”
वो आवाज बिलाल ने भी सुनी । उसने गर्दन निकाल कर मालिक की तरफ देखा और फिर उच्च स्वर में बोला - “मैं इधर है, मूसा भाई ।”
“फोन है तेरा ।” - मालिक उसे रिसीवर दिखाता हुआ बोला - “इधर आ के सुन ।”
बिलाल की शीशे में से इरफान से निगाह मिली ।
इरफान का सिर हौले से सहमति में हिला ।
“आता है ।” - बिलाल उठता हुआ बोला ।
मेजों के बीच से गुजरता वो काउन्टर पर पहुंचा, उसने मेज पर टैलीफोन से अलग पड़ा रिसीवर उठा कर कान से लगाया ।
“बिलाल बोलता है ।” - वो संशक भाव से बोला - “कौन है ?”
“मैं परदेसी ।” - जवाब मिला ।
“कहां है, बाप । मैं इधर इन्तजार करता है ।”
“मेरे को मालूम । तभी तो फोन लगाया ।”
“पण....”
“सुनने का है । बीच में नहीं बोलने का है । खास बात है और उसमें तेरे हर पण का जवाब है । समझा ?”
“हां । क्या खास बात है ?”
“किसी ने मेरी मुखबिरी कर दी है जिसकी वजह से पुलिस मेरे पीछे पड़ी है । खामखाह पड़ी है लेकिन पड़ी है । मेरे लिये दगड़ी चाल का इलाका खासतौर से पुलिस की निगाह में है । मैं उधर पहुंचा तो गिरफ्तार हो जायेंगा ।”
“तो तू इधर नहीं आ रहा, बाप ?”
“कैसे आयेंगा ? कौन खाली पीली गिरफ्तार होना मांगता है ?”
“तो मेरा रोकड़ा ?”
“मिल जायेंगा । इसीलिये तो फोन लगाया । काम हो गया ।”
“हां ।”
बरोबर ? हल्ले से ?”
“हां ।”
“सवा बारह के करीब मैं जुहू पर से गुजरा था, तब तो उधर कुछ शोरशराबा नहीं था ।”
“घड़ियों में कोई नुक्स था । वो... सामान... देर से फूटा मैं भी नाउम्मीद हो चला था, तब फूटा ।”
“पण फूटा ?”
“हां ।”
“फिर तो मैंने अच्छा किया कि तेरे बाकी के रोकड़े का इन्तजाम करवा के रखा ।”
“करवा के ! करवा के बोला ?”
“हां । मैं तो उधर ईरानी के रेस्टोरेंट में नहीं आ सकता न ! आया तो पुलिस....”
“हां, हां । रोकड़ा इधर है ?”
“हां ।”
“किसके पास ?”
“किसी के पास नहीं ।”
“क्या मतलब ?”
“बताता है । तू रेस्टोरेंट के टायलेट में पहुंच । वहां पांच संडास हैं । मालूम ?”
“मालूम ।”
“बीच के संडास में जा । जा के उसकी पानी की टंकी का ढक्कन उठा । भीतर काले रंग का एक वाटरप्रूफ पैकेट होयेंगा, उसी में तेरा रोकड़ा है । पूरा एक पेटी ।”
“कमाल है !”
“जा, जा के काबू में कर ।”
“पैकेट पहले ही कोई और ले गया हुआ तो ?”
“कैसे ले जायेंगा ? संडास की टंकी में कौन झांकता है ?”
“ओह !”
“अब टेम खोटी न कर और जा के रोकड़ा काबू में कर । मैं दस मिनट में फिर फोन करता है ।”
लाइन कट गयी ।
बिलाल ने हौले से रिसीवर वापिस क्रेडल पर रख दिया और वापिस घूमा ।
उसकी इरफान से निगाह मिली ।
बिलाल ने निगाहों से उसे आश्वासन दिया कि सब ठीक था और फिर अपनी कनकी उंगली उठाई ।
इरफान ने सहमति में सिर हिलाया ।
टायलेट रेस्टोरेंट के पिछवाड़े में था और, इरफान पहले ही तसदीक कर चुका था, रेस्टोरेंट में उसके प्रवेश द्वार के अलावा आवाजाही का कोई रास्ता नहीं था ।
बिलाल टायलेट में पहुंचा ।
संयोगवश उस वक्त वहां केवल एक आदमी था जो एक यूरीनल स्टाल पर खड़ा था । उसके देखते देखते वो वहां से हटा और बिना बिलाल पर निगाह डाले वहां से रुख्सत हो गया ।
बढिया ! - बिलाल मन ही मन बोला ।
वो बीच वाली लैवेटरी के दरवाजे पर पहुंचा । उसने उसके दरवाजे को धक्का दिया तो वो निशब्द खुल गया । उसके भीतर झांका । खुले दरवाजे की वजह से जैसा कि अपेक्षित था, भीतर कोई नहीं था ।
उसने भीतर कदम रखा, उसने पीछे दरवाजा बन्द करने का उपक्रम किया तो पाया कि उसकी चिटकनी टूटी हुई थी ।
क्या वान्दा था ? - उसने मन ही मन सोचा - एक मिनट की तो बात थी और फिर अभी तो वहां कोई था भी नहीं ।
वो वापिस घूमा और उसने सामने निगाह डाली ।
पुराने जमाने की इमारत के पुराने जमाने के रेस्टोरेंट की वो लैवेटरी भी पुराने जमाने की ही थी । उसमें पुराने स्टाइल की लोहे की टंकी थी जो कि सिर से ऊंची लगी हुई थी और जो उसके सहारे नीचे लटकी हुई लोहे की एक लम्बी जंजीर को खींचने से चलती थी । नीचे पॉट की खुली सीट की जगह कमोड था जिससे कि वो सम्बद्ध थी । जाहिर था कि जब कभी नीचे की सीट के जगह कमोड लगाया गया था तब टंकी को भी कमोड के साथ ही जुड़ जाने वाली आधुनिक टंकी से बदलना जरूरी नहीं समझा गया था ।
वो कमोड पर चढ गया । बड़ी कठिनाई से पंजों पर उचक कर वो टंकी के लोहे के भारी ढक्कन को एक सिरे से ऊंचा उठा कर भीतर झांक पाया ।
भीतर पोलीथीन में लिपटा और रस्सी से बन्धा एक पैकेट उसे दिखाई दिया । कांपते हाथों से उसने वो पैकेट पानी में से निकाल कर अपने काबू में किया और ढक्कन को नीचे गिराया ।
वो कमोड पर से नीचे उतरा ।
बंडल पतला सा था, इसका मतलब था कि भीतर पांच पांच सौ के नोट थे !
क्या वो उसे वहीं खोल कर देखे ?
नहीं । कोई जल्दी नहीं थी । वो बाद में, अपने साथ आये लोगों से पीछा छूट जाने के बाद, बंडल खोल सकता था । उनसे पीछा न छूटता तो वो रकम वैसे ही उसके लिये बेमानी थी ।
उसने बंडल को पोंछ कर अपने कोट की भीतरी जेब के हवाले किया । फिर वो वापिस घूमा तो सन्न रह गया । दरवाजे की तरफ बढता उसका हाथ हवा में ही फ्रीज हो गया ।
दरवाजे पर, उसके साथ लगा, जेकब परदेसी मौजूद था ।
“क्या ?” - वो हौले से बोला ।
“क... क... क्या ?” - बिलाल के मुंह से निकला - “क्या ?”
“कमीने ! निकम्मे ! गद्दार ! तू बोल क्या ?”
“बाप... बाप, मैं मजबूर...”
“अभी नक्की होती है तेरी मजबूरी ।”
परदेसी के हाथ बिजली की तरह सामने को लपके ।
बिलाल ने चिल्लाने के लिये मुंह खोला लेकिन परदेसी ने टंकी की जंजीर पहले ही उसके गले के गिर्द लपेट दी और उसे पूरी शक्ति से खींचना शुरू किया । बिलाल की चीख उसके गले में ही घुट कर रह गयी । उसके दोनों हाथ जंजीर से लिपटे और वो जोर से तड़पा । जो थोड़ी बहुत आवाज उसके मुंह से निकली वो जंजीर खिंचने से चले पानी की आवाज में गुम होकर रह गयी ।
शैतानी ताकत से परदेसी जंजीर खींचता रहा, खींचता रहा ।
कहां मर गया ? - भुनभुनाता हुआ इरफान मन ही मन बोला ।
उसकी निगाह बार बार पिछवाड़े के उस बन्द दरवाजे की ओर उठ जाती थी जिसके पीछे बिलाल गायब हुआ था ।
एकाएक वो उठ खड़ा हुआ, उसने बुझेकर को इशारा किया और उस दरवाजे की ओर बढा ।
बुझेकर लपक कर उसके करीब पहुंचा और उसके साथ चलने लगा ।
इरफान ने पिछवाड़े का दरवाजा खोल कर भीतर झांका । आगे एक गलियारा था जो कि सुनसान पड़ा था । गलियारे के सिरे पर ऊपर को जाती सीढियां थीं जिससे पहले एक दरवाजा था जिसके ऊपर लगे ग्लोब पर ‘टायलेट जैंट्स’ लिखा था ।
वैसा ही एक दरवाजा बायीं तरफ था जिसके ऊपर लगे रोशन ग्लोब पर ‘टायलेट लेडीज’ लिखा था ।
वे आगे बढे और जैंट्स टायलेट का दरवाजा ठेल कर भीतर दाखिल हुए ।
भीतर कोई नहीं था ।
इरफान ने लैवेटरी के बन्द दरवाजों की तरफ इशारा किया ।
सहमति में सिर हिलाता बुझेकर आगे बढा । उसने पहले दरवाजे को धक्का दिया तो पाया कि वो भीतर से बन्द था ।
दूसरे में कोई नहीं था ।
तीसरे में जंजीर के सहारे बिलाल की लाश लटक रहीं थी ।
***
विमल होटल के नये जनरल मैनेजर कपिल उदैनिया के आफिस में मौजूद था । उसके साथ सिक्योरिटी चीफ तिलक मारवाड़े था ।
लॉबी में क्या हुआ था - बल्कि क्या होने से बाल बाल बचा था - उदैनिया मारवाड़े की जुबानी सुन चुका था ।
“कमाल है !” - उदैनिया भौंचक्का सा बोला - “ऐसी दीदादिलेरी ।”
“मैंने आपको पहले ही बोला था” - विमल गम्भीरता से बोला - “कि कुछ जरायमपेशा लोग अपने अंडरवर्ल्ड बासिज की शह पर होटल को नुकसान पहुंचाने की कोशिश कर सकते थे । मैंने ये भी बोला था कि ये कोशिश किन किन तरीकों से हो सकती थी । आज इधर मेरे बताये तरीकों में से ही एक तरीका आजमाया गया जो कि शुक्र है वाहेगुरु का...”
“किसका ?” - उदैनिया सकपकाया सा बोला ।
“ऊपर वाले का, कि कामयाब न हुआ ।”
उदैनिया ने बड़ी संजीदगी से सहमति में सिर हिलाया ।
“आप होटल के मैनेजमेंट के टॉप बॉस हैं, इसलिये वाकया आपकी जानकारी में लाया जाना जरूरी था ।”
उदैनिया ने फिर सहमति में सिर हिलाया ।
“राजा साहब बहुत फिक्रमन्द हैं । कुछ हो जाता हो उन्हें माल से ज्यादा जान के नुकसान का अफसोस होता । बहरहाल राजा साहब का सवाल है कि अब आप क्या करेंगे ? बतौर सिक्योरिटी चीफ उनका ये सवाल आप से भी है, मिस्टर मारवाड़े ।”
“मैं सिक्योरिटी और टाइट करता हूं ।” - मारवाड़े बोला ।
“यस ।” - उदैनिया बोला - “डू दैट इमीजियेटली ।”
“हम कहां कहां निगाह रख सकते हैं और सावधानी बरत सकते हैं” - विमल बोला - “ये मैंने जी. एम. साहब को पिछले शनिवार बताया था ।”
“आई वैल रिमैम्बर ।” - उदैनिया बोला ।
“मिस्टर मारवाड़े की खातिर फिर दोहराता हूं । मारवाड़े साहब, होटल की रसद वगैरह की सप्लाइज को डेली चैक करना होगा और ऐसा इन्तजाम करना होगा कि सप्लाइज होटल के बाहर ही पिछले यार्ड में सर्विस एंट्रेस के सामने डिलीवर हों ताकि सप्लायर का प्रतिनिधि बन कर कोई अवांछित व्यक्ति होटल में दाखिल न हो सके ।”
“ये सावधानी पहले से ही बरती जा रही है ।” - मारवाड़े बोला - “इस बाबत शनिवार को ही मेरी उदैनिया साहब से बात हुई थी ।”
“गुड । फिर तो पार्किंग और टैक्सी स्टैण्ड की तरफ भी आपकी तवज्जो होगी ?”
“जी हां, बराबर है । दोनों जगह सिक्योरिटी स्टाफ बढा दिया गया है । अब इस बात पर खास नजर रखी जाती है कि पार्किंग में होटल के मेहमानों के ही वाहन खड़े हों, कोई सन्दिग्ध वाहन वहां पार्क न होने पाये, लावारिस न छुटने पाये और टैक्सी स्टैण्ड पर रेगुलर टैक्सी वालों की पहचान बनायी जा रही है । अब वहां नोन टैक्सी ऑपरेटर्स को ही ठहरने दिया जाता है ।”
“गुड । राजा साहब सुनेंगे तो खुश होंगे ।”
“बाकी भी जो इन्तजामात आपने जी. एम. साहब से डिस्कस किये थे, उन पर अमल किया जा रहा है । कुछ डिसिप्लिंस मैंने अपनी तरफ से भी लागू किये हैं ।”
“वैरी गुड । फिर तो मेरे कहने को कुछ भी बाकी नहीं बचता । लेकिन एक बात मैं फिर भी कहना चाहता हूं ।”
दोनों उच्चाधिकारियों की प्रश्नसूचक निगाहों विमल की तरफ उठीं ।
“बरायमेहरबानी ये खुशफहमी कोई न पाले कि होटल को हिट करने की दुश्मनों की जो कोशिश आज नाकाम रही है, वो उसी पर फिर से अमल करने की कोशिश नहीं करेंगे ।”
“मिस्टर कौल” - उदैनिया हैरानी से बोला - “आप कहना चाहते हैं कि ये ही कोशिश फिर हो सकती है ?”
“जी हां । यही कहना चाहता हूं मैं । किसी भरे पूरे होटल की बिजी लॉबी में सामान छोड़ कर खिसक जाना कितना आसान है, मुझे इस बात का जाती तजुर्बा ।”
“जा... जाती तजुर्बा है ! आपको !”
“राजा साहब को ।”
“ओह !”
“उनका नैरोबी में भी होटल था । वहां भी उनके दुश्मनों ने यूं ही वारदात स्टेज करने की कोशिश की थी ।”
“ओह !”
“मिस्टर कौल” - मारवाड़े बोला - “क्यों राजा साहब के इतने दुश्मन हैं ?”
“सबके होते हैं ।”
“सबके ?”
“जिनका भी शुमार बड़े और कामयाब लोगों में होता है । तरक्की और कामयाबी के ऊंचे मुकाम पर पहुंचे लोगों के सौ दुश्मन होते हैं, हजार दुश्मन होते हैं और दुश्मनों की एक ही मंशा होती है, उन्हें टांग पकड़ कर नीचे घसीटने की ।”
“यू और एब्सोल्यूटली राइट देयर, मिस्टर कौल ।”
“तो क्या कहते हैं अब जी. एम. साहब और सिक्योरिटी चीफ, साहब ।”
उदैनिया ने मारवाड़े की तरफ देखा ।
“राजा साहब को हमारा आश्वासन है” - मारवाड़े दृढता से बोला - “कि वो बिल्कुल निश्चिंत रहें, इधर कोई वारदात नहीं होने दी जायेगी, मैं और मेरे आदमी अपनी जान से ज्यादा इधर के जानोमाल की हिफाजत करेंगे, ये मेरा राजा साहब से वादा है ।”
“राजा साहब को आपकी निष्ठा और कार्यकुशलता पर पूरा ऐतबार है, मारवाड़े साहब । वो इस बात से बेखबर नहीं हैं कि अभी भी जो हादसा टला है वो आपके आदमी पवन डांगले की मुस्तैदी और चौकन्नेपन की वजह से ही टला है ।”
“मेरे तमाम आदमी मेरे खास आदमी हैं मिस्टर कौल । सब डांगले जैसे ही जिम्मेदार, मुस्तैद और चौकन्ने हैं ।”
“गुड । आई एम ग्लैड ।”
***
इरफान बुझेकर और पिचड़ रेस्टोरेंट से बाहर निकल कर सड़क पर पहुंचे ।
“तुम दोनों इधर ही ठहरो” - इरफान बोला - “और खामोशी से जेकब परदेसी के बारे में पूछताछ करो । वो इलाके का आदमी है, कोई बड़ी बात नहीं कि रहता भी इधर ही कहीं हो, इधर बहुत लोग जानते होंगे उसे । उसका कोई पता ठिकाना निकालो फिर देखेंगे उसे ।”
बुझेकर और पिचड़ ने सहमति में सिर हिलाया ।
“मिल जाये तो खुद ही नहीं थाम लेने का है । वाच करके रखने का है और मेरे को खबर करने का है । बरोबर ?”
“बरोबर ।” - दोनों बोले ।
“मैं होटल वापिस जाता है ।”
“ठीक है ।”
“टैक्सी इधरीच छोड़ के । ताकि विक्टर भी तुम्हारे काम आ सके । दो से तीन भले । क्या ?”
“बरोबर बोला, बाप ।”
“जाता है ।”
***
झामनानी से मुकेश बजाज की रिपोर्ट सुनी तो वो आपे से बाहर हो गया ।
“अरे, खुदा की मार पड़े, कर्मांमारे पर, बिजली टूटे अभी उसके सिर पर ।” - वो कलप कर बोला - “ये क्या नयी मुसीबत खड़ी कर दी अब खड़े पैर ?”
“बॉस” - बजाज दबे स्वर में बोला - “वो बहुत परेशान था ।”
“वडी उसकी परेशानी का हमने अचार डालना है नी ? धूप में सुखा के रखना है उसकी परेशानी को पापड़ की तरह ।”
“मैं ये कहना चाहता था कि उसकी इस बात में दम है कि हमारा उसके पास या उसका हमारे करीब फटकना हमारे लिये खतरनाक हो सकता है ।”
“वडी पुटड़े, खतरा हो या न हो, माल हाथ आना बहुत जरूरी है ।”
“और माल भी तो मुहैया किया जा सकता है ।”
“वडी क्या बोला नी ?”
“जो एक करोड़ रुपया नसीबसिंह को देने के लिये इकट्ठा किया गया है, फिलहाल नसीबसिंह उसका तलबगार नहीं है । मौजूदा हालात में वो उस रकम के करीब भी फटकने की हिम्मत नहीं कर सकता । हम उसी रकम से और हेरोइन खरीद सकते हैं ।”
“वडी नहीं हो सकता नी ।”
“गुस्ताखी माफ, बॉस, क्यों नहीं हो सकता ?”
“वडी पहले तो ये चुटकियों में होने वाला काम नहीं है । डील होगा, पेमेंट होगी, मुम्बई में डिलीवरी होगी, माल को इधर लाने के लिये पापड़ बेलने पड़ेंगे और पता नहीं क्या कुछ होगा । दूसरे, ‘भाई’ से कान्टैक्ट का जो जरिया हमारे पास था, वो काम नहीं आ रहा । उसके मोबाइल से कोई जवाब नहीं मिल रहा ।”
“हम सीधे टॉप बॉस से बात कर सकते हैं ?”
“फिगुएरा से ?”
“हां ।”
“नहीं कर सकते । हमारे पास उससे कान्टैक्ट का कोई जरिया नहीं है नी । इसलिये वो हमसे कान्टैक्ट करे तो करे, हम उससे कान्टैक्ट नहीं कर सकते ।”
“ये तो.... ये तो....”
“गलत है । नाजायज है । नहीं होना चाहिये । वडी मेरे को मालूम है नी । मैंने इस बाबत ‘भाई’ और फिगुएरा दोनों से बात करनी थी लेकिन वो तो आन्धी की तरह आये और तूफान की तरह चले गये ।”
“हालात ही ऐसे पैदा हो गये थे ।”
“वडी ठीक बोला नी । अब तू नये आर्डर का ख्याल छोड़ - उस बाबत फिलहाल कुछ नहीं हो सकता - और मौजूदा माल को ही काबू में करने की कोई जुगत कर ।”
“एक जुगत हो सकती है ।”
“वडी क्या नी ?”
“कामयाबी की वैसे कोई गारन्टी तो नहीं, बॉस, लेकिन कोशिश करने में क्या हर्ज है ?”
“वडी अब कुछ कहेगा भी !”
“नसीबसिंह कहता था कि उसने हेरोइन आपके फार्म और कुतुब के बीच के किसी खंडहर में छुपायी थी ।”
“वडी उधर तो कितने ही खंडहर हैं ।”
“मुझे मालूम है । आप सुनिये तो । प्लीज ।”
“वडी बोल नी ।”
“बॉस, याद कीजिये अपने लावलश्कर के साथ डी.सी.पी. श्रीवास्तव के आने से पहले वो मुश्किल से बीस मिनट हेरोइन के साथ फार्म से गैरहाजिर रहा था ।”
“जीप पर गया था, पांव पांव चल कर नहीं गया था, जीप पर जाने के लिये बीस मिनट थोड़े होते हैं ?”
“जाने के लिये नहीं होते, बॉस, लेकिन उसने लौटना भी था और जाने और लौटने के बीच किसी महफूज जगह पर हेरोइन को छुपाना भी था । ऊपर से अभी जब मेरी उसके घर पर उससे बात हुई थी तो उसने खुद कहा था कि माल छुपाने के लिये उसके पास बहुत कम वक्त था, जो पहली उजाड़ जगह उसे दिखाई दी थी, उसने वहां माल छुपा दिया था ।”
“वडी मतलब क्या हुआ इसका ?”
“यही कि वो फार्म से कोई बहुत ज्यादा दूर नहीं गया होगा । जिस उजाड़ खंडहर में उसने माल छुपाया था, वो फार्म से ज्यादा दूर नहीं हो सकता ।”
“तेरा मतलब है कि फार्म से कुतुब की तरफ जाते रास्ते में जो पहला खंडहर उसे दिखाई दिया, उसने उसमें कहीं माल छुपा दिया ?”
“सिर्फ पहला नहीं, बॉस, सिर्फ पहला नहीं । उसने पहली जगह नहीं कहा था, मुनासिब जगह कहा था । ऐसी पहली जगह उसे मुनासिब नहीं लगी होगी तो जाहिर है कि वो आगे बढा होगा ।”
“वडी अब क्या मालूम कि कर्मांमारे को कौन सी जगह मुनासिब लगी थी ?”
“जगह की जरूरत को मद्देनजर रख कर उधर पड़ताल की जायेगी तो वो जगह हमें भी तो मुनासिब लगेगी !”
“पता नहीं इस बाबत कमीना सच भी बोल रहा था या नहीं । क्या पता माल किसी के हवाले कर आया हो और हमें गुमराह करने को बोल रहा हो कि माल किसी खंडहर में छुपाया ।”
“ट्राई मारने में क्या हर्ज है, बॉस ?”
“चड़या हुआ है ? वडी तू अकेला ट्राई मार सकता है ?”
“नहीं । पांच छः आदमी तो होने ही चाहियें साथ में । ज्यादा हों तो और भी अच्छा ।”
“वडी किधर से आयेंगे नी इतने आदमी । मेरे सारे आदमी तो परसों रात उस गंजे मुसलमान के बहकाये झामनानी के मुंह पर थूक कर चले गये ।”
“वो वक्ती जोशोजुनून था जिसके कि वो हवाले थे । परसों रात उन्होंने जो कुछ किया था इसलिये किया था क्योंकि - जैसा कि मुझे पता लगा है - वो अपनी औरतों की दुरगत होती देखने की ताब नहीं ला सके थे, इसलिये नहीं किया था कि पलक झपकते वो सुधर गये थे, कि दुश्मनों के एक ही लैक्चर ने उन्हें काले से उजला बना दिया था ।”
“वडी दम तो है नी तेरी बात में लेकिन मतलब किया हुआ इस का ? तू कहना क्या चाहता है ?”
“बॉस, आप नर्माई से पेश आयें, अभयदान दें तो सब के सब नहीं तो आधे तो वापिस लौट ही आयेंगे आपकी छत्रछाया में पहले की तरह ?”
“वडी ऐसा नी ?”
“हां, बॉस ।”
“वडी दिया नी अभयदान । कर्मामारों ने क्या झामनानी को, क्या बिरादरीभाइयों को बाज की तरह दबोचा और गेंद की तरह उछाला लेकिन दिया नी अभयदान । तू जो वापिस आते हैं, उन्हें बुला नी । बोल दे कि झामनानी को उनकी मजबूरी का अहसास है इसलिये वो सब भूल गया, उसने सब माफ किया । यूं आधे क्या एक तिहाई भी लौट आयें, फौरन तो एक चौथाई भी लौट आये, तो कम से कम नये लोगों से तो मत्था मारने से बच जायेंगे ।”
“यू सैड इट, बॉस । वैसे अभी तो खंडहरात टटोलने को मेरे साथ चलने को सात-आठ भी लौट आयें तो काम बन जायेगा ।”
“वडी शाबाशी है नी तुझे । बहुत मौके की बात सोची । वडी जीता रह नी । अब जा और आज रात तक ही कुछ चोखा करके दिखा । फिर झामनानी तुझे अपने साथ बिठा के विस्की पिलायेगा और पापड़ खिलायेगा ।”
“थैंक्यू, बॉस ।”
***
विमल होटल के टॉप फ्लोर पर पहुंचा ।
वो लिफ्ट से निकला तो उसने पाया कि गलियारे में इरफान द्वारा तैनात किये गये दोनों आदमी बदस्तूर पूरी मुस्तैदी से ड्यूटी भर रहे थे ।
तीनों ने उसका खामोश अभिवादन किया ।
विमल ने अपने सुइट के दरवाजे पर दस्तक दी ।
कोई जवाब न मिला ।
उसने दरवाजे को धक्का दिया तो पाया कि वो खुला था ।
उसने भीतर कदम रखा और अपने पीछे दरवाजा बन्द कर लिया ।
नीलम उसे कहीं दिखाई न दी ।
“नीलम !” - उसने आवाज लगायी ।
कोई जवाब न मिला ।
उसने बैडरूम में झांका तो पाया कि पालने में सूरज नहीं था ।
जरूर मां बेटा बाथरूम में थे ।
वो बाथरूम पर पहुंचा ।
बाथरूम का दरवाजा खुला था और वो खाली था ।
वो बाल्कनी के दरवाजे पर पहुंचा ।
दरवाजा उसे मजबूती से भीतर से बन्द मिला ।
वो फिर पूरे सुइट में फिर गया । हर जगह उसने निगाह दौड़ाई ।
नीलम और सूरज कहीं नहीं थे ।
कहां गयी नीलम बच्चे को लेकर ?
जरूर सुइट की तनहाई से बोर होकर वो तफरीहन होटल में ही कहां चली गयी थी, क्योंकि होटल से बाहर तो वो उसे बताये बिना नहीं जाने वाली थी ।
वो दरवाजे पर पहुंचा । उसने गलियारे में कदम रखा और गलियारे में मौजूद लोगों को करीब आने का इशारा किया ।
सब दौड़े हुए करीब पहुंचे ।
“मैडम कहां है ?” - विमल सख्ती से बोला ।
“भीतर हैं, सर ।” - हाउस डिटेक्टिव बोला ।
“भीतर नहीं हैं । बच्चा भी नहीं है ।”
“ये” - सिक्योरिटी वाले के मुंह से निकला - “कैसे हो सकता है ?”
“मैं बताऊं ?”
“सर, मेरा मतलब है उन्हें भीतर ही होना चाहिये । वो भीतर ही थीं । हम में से किसी ने उन्हें बाहर निकलते नहीं देखा ।”
हाउस डिटेक्टिव और वेटर ने जल्दी से सहमति में सिर हिलाया ।
“जरूर गाफिल हो गये होंगे ।”
“नैवर, सर ।” - हाउस डिटेक्टिव बोला - “सर, एक ही तो काम है हमें यहां । कैसे गाफिल हो सकते हैं ?”
“सुबह से ड्यूटी पर हो, ड्यूटी खत्म होने का टाइम करीब होता है तो गफलत आ जाती है ।”
“सर, ऐसा नहीं है । नहीं हो सकता ।”
बाकी दो के सिर बड़ी मजबूती से सहमति में हिले ।
“तो फिर कहां गयीं मैडम ? कहां गया बच्चा ? क्या जादू के जोर से गायब हो गये दोनों ?”
“सर, सर, जरा हम देखें ?”
“क्यों ? वो सुई है जो मुझे दिखाई न दी लेकिन तुम्हें दिखाई दे जायेगी ?”
“नो, सर । बट...”
“ठीक है । देखो ।”
तीनों झिझकते हुए सुइट में दाखिल हुए ।
विमल दरवाजे पर ही ठिठका खड़ा रहा ।
थोड़ी देर बाद वो तीनों वापिस उसके सामने पहुंचे तो उनके चेहरों पर हवाइयां उड़ रही थीं ।
“अब क्या कहते हो ?” - विमल बोला ।
“सर, क्या कहें ?” - सिक्योरिटी वाला कांपता हुआ बोला - “कुछ कहने का मुंह नहीं बनता । लेकिन सर, ये नहीं हो सकता ।”
“जो हो चुका है, उसे कहते हो नहीं हो सकता ?”
किसी के मुंह से बोल न फूटा ।
“इधर कोई आया था ?”
“नहीं, सर ।”
“खाली इरफान साहब आया था सुबह बिरेकफास्ट के वक्त के थोड़ा देर बाद ।” - वेटर बोला - “पण तब मैडम इधर ही थीं । इरफान साहब सलाम बोल कर गया मैडम को । और भी सब चौकस करके गया ।”
“लेकिन तुम लोगों से न हुई चौकसी । मैडम इधर से निकल कर कहीं चल दीं और तुम्हें खबर ही न लगी ।”
“ये तो सर” - सिक्योरिटी वाले के मुंह से निकला - “नामुमकिन है ।”
“जो कि मुमकिन हो भी चुका है । अब जाओ जाकर होटल में ढूंढो । लॉबी से पता करो ।”
“यस, सर ।”
“और इरफान का पता करो, वो होटल में हो तो उसे इधर आने को बोलो ।”
“यस सर ।”
***
रामरुद्र झामनानी के उन पचास आदमियों में से एक था जो उसके फार्म पर हुए हाईटेंशन ड्रामा के बाद उसकी चाकरी से किनारा कर गये थे । वो जमना पार के चांद मौहल्ला नाम के इलाके में रहता था और उस घड़ी अपने घर में अपने सामने बैठे हिम्मतसिंह और भागचन्द को देख कर हैरान हो रहा था और बेचैनी से पहलू बदल रहा था ।
सिर पर पड़ी भारी चोट की वजह से हिम्मतसिंह की हालत तब भी बद थी लेकिन उस इलाके से क्योंकि वो ही वाकिफ था इसलिये वो जैसे तैसे वहां चला आया था ।
“मेरे को जानता है न ?” - हिम्मतसिंह बोला ।
रामरुद्र ने अनमने भाव से सहमति में सिर हिलाया और बोला - “हां ।”
“मैं हिम्मतसिंह । उधर छतरपुर फार्म में...”
“बोला न, हां ।”
“इसे भी जानता है ?”
“हां । ये भागचन्द है । झामनानी की गाड़ी चलाता है ।”
“गाड़ी भी चलाता है । और भी बहुत कुछ करता है । जैसे मैं फार्म की गार्डगिरी के अलावा और भी बहुत कुछ करता हूं ।”
“मसलन क्या ?”
“जो भी झामनानी साहब बोले । जैसे इस वक्त तेरे द्वारे बैठा हूं ।”
“कैसे आये ?”
“बुलाने आया ।”
रामरुद्र की भवें उठीं ।
“झामनानी बुलाता है ।”
“हूं ।”
“तुम लोगों ने साहब लोगों के साथ बहुत बुरा किया कि उनके दुश्मनों का साथ दिया ।”
“फिर भी बुलाता है ?”
“हां । ये झामनानी की दरियादिली है कि वो इस बात को गांठ बान्ध कर नहीं बैठा हुआ ।”
“सिर्फ मुझे बुलाता है ?”
“नहीं, भई । सब को बुलाता है । सब ने एक ही खता की थी । वो एक खता जब एक की माफ हो गयी तो सब की माफ हो गयी ।”
“सब को बुला चुका ?”
“भई, तुम लोगों के पास कोई टेलीफोन तो लगे नहीं हुए कि घन्टी खड़काई और काम हो गया । एक एक के पास जा जाकर खबर करनी पड़ रही है बुलावे की ।”
“कितनों को खबर कर चुके ?”
“अभी तो तेरे ही द्वारे आये हैं ।”
“जाना तो हर द्वारे होगा ?”
“वो तो है ।”
“कन्हैया और नेपाली इसी गली में रहते हैं । मैं उनको यहीं बुला देता हूं ।”
“बढिया ।”
तभी पिछले दरवाजे का पर्दा हटाकर एक किशोरी ने उस कमरे में झांका । उसकी रामरुद्र से निगाह मिली तो वो बोली - “मां बुलाती है ।”
“मालूम क्यों बुलाती है ।” - रामरुद्र गम्भीरता से बोला - “तू दौड़ के जा और कन्हैया और नेपाली को बुला कर ला ।”
“वो तो मैं जाती हूं पर मां....”
“उसे बोल धीरज रखे ।”
“बापू, कुछ भूल रहे हो ।”
“नहीं भूल रहा । यकीन कर मेरा । मां को भी करा । जा ।”
लड़की पर्दे के पीछे गायब हो गयी ।
“क्या माजरा है ?” - हिम्मतसिंह बोला ।
“कुछ नहीं ।”
“कुछ तो है जो....”
“बोला न कुछ नहीं । लो, बीड़ी पियो ।”
दोनों में से किसी ने बीड़ी लेने का उपक्रम न किया तो रामरुद्र ने एक बीड़ी खुद सुलगा ली ।
“रेलवे लाइन के पार जी. टी. रोड पर एक तार की फैक्ट्री है ।” - वो बीड़ी का धुआं उगलता धीरे से बोला - “कन्हैया को वहां तार खींचने का काम मिला है ।”
“अच्छा !” - हिम्मतसिंह सकपकाया सा बोला ।
“नेपाली ने करीब ही झील के चौक में फलों की रेहड़ी लगानी शुरू की है ।”
“अच्छा !”
“अभी जब भीतर घुसे थे तो बाहर गली में दरवाजे पर खड़ा एक आटो देखा होगा ?”
“हां, देखा तो था ।”
“किराये का है । आठ घन्टे की शिफ्ट के दो सौ रुपये देने पड़ते हैं । जमा पैट्रोल का खर्चा । टूट फूट मालिक की । किराया और पैट्रोल का खर्चा निकाल कर दो सवा दो सौ पीछे बच जाते हैं ।”
“आटो तू चलाता है ?”
“आज से ही शुरू किया । लाइसेंस पहले से था । काम आया ।”
“ये सब क्यों बता रहा है ?”
“सिर पर चोट लगी है ?”
“हां । तगड़ी ।”
“तभी दिमाग ने काम करना बन्द कर दिया ।”
“क्या मतलब है भई तेरा ?”
“मतलब सुनेगा ? समझेगा नहीं ?”
“क्या पहेलियां बुझा रहा है, भई ?”
“कन्हैया और नेपाली को आने दे फिर एक ही बार मालूम होता है । लो, आ गये दोनों ।”
कन्हैया और नेपाली दोनों रामरुद्र की ही उम्र के थे । दोनो ने आगन्तुकों का अभिवादन किया ।
“इत्तफाक से घर में थे हम दोनों ।” - फिर कन्हैया बोला ।
“मालूम था ।” - रामरुद्र बोला - “तभी लड़की को भेजा ।”
“क्या माजरा है ?”
“ये झामनानी का बुलावा ले के आये हैं । झामनानी ने सब को माफ कर दिया है । वापिस बुलाता है ।”
“जवाब दे दिया ?”
“दे तो दिया लेकिन इनकी समझ में आया नहीं जान पड़ता ।”
“ऐसा ?”
“हां ।”
“मैं समझाता हूं ।”
कन्हैया ने आस्तीन चढा ली और घूंसा उनके सामने लहराया ।
“झामनानी को बोलना” - वो बोला - “इस बार दूत समझ कर तुम लोगों को माफ किया । फिर कभी इधर का रुख किया तो पांव पांव चल कर वापिस जा पाना मुमकिन नहीं होगा ।”
“तुम पागल हो” - हिम्मतसिंह गुस्से से बोला - “और दुश्मनों के बहकावे में आये हुए हो । अरे, ये करने लायक काम हैं जो पकड़े हुए हो ? झामनानी ने तुम्हारी औकात बना दी और तुम हो कि वापिस वहीं पहुंच गये जहां से चले थे । तुम लोग साहब के पुराने, भरोसे के आदमी हो इसलिये वो तुम्हें बुला रहा है वरना क्या दिल्ली शहर में उसे आदमियों का घाटा है ?”
“ऐसी औकात का क्या फायदा जो सगों का मरा मुंह दिखाये !”
“जो बहन बेटी की अर्थी उठवाये ।” - नेपाली बोला ।
“महतारी का खून सिर लेना पड़े” - रामरुद्र बोला - “बीवी की लाश पर रोना पड़े ।”
“इसे कहते हैं नौ सौ चूहे खा के बिल्ली हज को चली । तमाम मुंह सिर गुनाह की कालख से रंग चुकने के बाद अब उजले बनने चले हैं । अरे कम्बख्तो, एक बार तर माल की आदत हो जाने के बाद कहीं सूखे टुकड़े चबाये जाते हैं ?”
“कोशिश करेंगे सूखे टुकड़े चबाने की आदत डालनी की । कर रहे हैं ।”
“हां ।” - कन्हैया बोला - “कामयाब नहीं हो पायेंगे तो पहुंच जायेंगे झामनानी के द्वारे ।”
“तब कुत्ते की तरह दुत्कार के भगा दिये जाओगे ।”
“कोई बात नहीं । कुत्ता ही बनना है तो किसी की भी देहरी का सही । एक झामनानी दुत्कारेगा तो कोई दूसरा पुचकार लेगा ।”
“ये तो हद है मूर्खताई की । अरे, मैं तुम्हें चेताने की
कोशिश कर रहा हूं और तुम हो कि....”
“चेताने की नहीं” - नेपाली बोला - “बहकाने की कोशिश कर रहे हो । चेते तो हम हुए हैं ।”
“अरे, रामरुद्र, तू ही समझा इन्हें ।”
“क्या समझाऊं ?” - रामरुद्र बोला - “पहले खुद तो समझूं !”
“तो फिर ये तुम लोगों का आखिरी जवाब है कि तुम्हें झामनानी का बुलावा कुबूल नहीं ।”
“हां ।”
“दुश्मन का साथ देने का अंजाम जानते हो ?”
“हम किसी दुश्मन का साथ नहीं दे रहे । जो रास्ता हम छोड़ चुके हैं, उस पर हम झामनानी के बुलाये नहीं चल सकते तो किसी और के बुलाये भी नहीं चल सकते ।”
“हमने अपनी मां बहन बेटियों से वादा किया है कि हम गुनाह की जिन्दगी से हमेशा के लिये किनारा कर लेंगे ।” - कन्हैया बोला ।
“हां ।” - नेपाली बोला - “मैंने पशुपतिनाथ की कसम खा के वादा किया है । मैंने कसम तोड़ी तो नर्क की आग में भी मेरे लिये पनाह नहीं होगी ।”
“अच्छी बात है, भई ।” - हिम्मतसिंह उठता हुआ बोला - “चलता हूं । मुझे खुशी है कि इतने धर्म कर्म वालों के, इतने पहुंचे हुए महात्माओं के, इतने पारस पत्थर से छुए हुए प्राणियों के दर्शन हो गये ।”
कोई कुछ न बोला ।
“मुकेश बजाज को जानते हो न या भूल गये उसे भी ?”
“जानते हैं ।” - रामरुद्र बोला ।
“मैं झामनानी के खास आदमी मुकेश बजाज की बात कर रहा हूं ।”
“बोला न, जानते हैं ।”
“वो हमारे साथ आया है । गाड़ी गली में नहीं आ सकती थी इसलिये पीछे गाड़ी में बैठा है । मेरी मानो तो एक बार उससे बात कर लो ।”
“इस बाबत हमने किसी से बात नहीं करनी । न बजाज से, न झामनानी से, न किसी और से ।”
हिम्मतसिंह ने कन्हैया और नेपाली की तरफ देखा ।
दोनों के सिर दृढता से हिले ।
पिटा हुआ मुंह ले कर हिम्मतसिंह भागचन्द के साथ वहां से रुख्सत हुआ ।
पर्दे के पीछे छुपी खड़ी तमाम वार्तालाप सुनती रामरुद्र की बीवी की आंखों से झर झर आंसू बह रहे थे लेकिन वो मुस्करा रही थी, हंस रही थी और अपने पति पर गर्व महसूस कर रही थी जिसने गुनाह की जिन्दगी मे किनारा कर लेने की वक्ती हामी नहीं भरी थी, जो अपने उस इरादे से अडिग था ।
फटकार बरसता चेहरा लिये इरफान विमल के रूबरू हुआ ।
***
“भाभी जान होटल में नहीं हैं ।” - वो दबे स्वर में बोला - “हर कोना खुदरा तलाश कर लिया । किसी ने होटल से बाहर जाते भी नहीं देखा ।”
वाहेगुरु सच्चे पातशाह ! तेरी कुदरति तू है जाणहि, अऊर न दूजा जाणै ।
“कमाल है !” - प्रत्यक्षतः वो बोला - “अभी बात जेहन में आई नहीं, जुबान से निकली नहीं कि वाकया भी हो गयी । अभी कल ही तो नीलम और सूरज को बाबत मैंने अपना अन्देशा जाहिर किया था । मुझे दुश्मनों से ऐसी सुपर एक्सप्रैस सर्विस की उम्मीद नहीं थी ।”
“पण ये तो करिश्मा हुआ, बाप । पिछली बार वाली तमाम खामियां तो दुरुस्त कर दी गयी थीं फिर भी... फिर भी....”
“यकीन नहीं आता ।” - शोहाब बोला - “एक दिन में दो वार....”
“चन्द घन्टों में ।” - इरफान असहाय भाव से बोला - “एक वार नाकाम रहा तो दूसरा कामयाब हो गया ।”
“वो काम आसान था ।” - विमल बोला - “लॉबी में आवाजाही की कोई पाबन्दी नहीं है । न है, न हो सकती है । लेकिन यहां तो पाबन्दियां ही पाबन्दियां लागू हैं ।”
“तभी तो हैरानी है कि जो हुआ, वो क्योंकर हुआ ?”
“अपने आप तो न हुया । किसी ने किया तभी हुआ ।”
“बाप, मैं तेरा खतावार । मैं बड़ा बोल बोल दिया कि मैं इधर हिफाजत का बहुत पुख्ता इन्तजाम किया था । मेरी नालायकी की वजह से....”
“छोड़ वो किस्सा ।” - विमल अनमने स्वर में बोला - “जो होना होता है, वो हो के रहता है । अब अहम सवाल ये है कि पता कैसे लगे कि जो हुआ वो किसके किये हुआ और किसके इशारे पर हुआ ।”
“पता लगेगा, बाप । अभी पता लगेगा । तू मुझे पांच मिनट की मोहलत दे और खुद बाजू हो के बैठ । बाप, प्लीज ।”
विमल सहमति में सिर हिलाता ड्राईंगरूम के परले सिरे पर पहुंचा और वहां पड़े एक सोफे पर ढेर हो गया ।
“बुला उन तीनों को ।” - इरफान शोहाब से बोला ।
सहमति में सिर हिलाते शोहाब ने बाहर गलियारे में कदम रखा और फिर स्टाफ के तीनों जनों के साथ वापिस लौटा ।
इरफान ने खा जाने वाली निगाहों से बारी बारी तीनों सूरतों का मुआयना किया और फिर सांप की तरह फुंफकारा - “कैसे हुआ ?”
किसी के मुंह से बोल न फूटा ।
“कौन आया था इधर ?”
“कोई नहीं ।” - तीनों सम्वेत स्वर में बोले ।
“लिनन वाले छोकरे की माफिक कोई नहीं ?” - वो वेटर के सामने जाकर खड़ा हुआ - “क्या नाम बोला था तू अपना ?”
“गो... गोविन्द भाटे ।” - वेटर कांपता हुआ बोला ।
“भाटे, मैं खास तेरे से पूछता है । लिनन की ट्राली वाले छोकरे की माफिक कोई नहीं या कोई ही नहीं ? बोल ! जवाब दे !”
“बाप” - वेटर तब थर थर कांपने लगा - “वो कार्पेट वाले तो....”
“कार्पेट !” - इरफान ने उसे गिरहबान से पकड़ कर झिंझोड़ा - “कैसा कार्पेट ? कौन सा कार्पेट ?”
“बैडरूम में एक ट्रे को बाबा का हाथ लगा । ट्रे उलट गया । उस पर जो सॉस और दूध का बाटल रखा था, वो आपस में टकरा कर टूट गया । कार्पेट खराब हो गया । काफी कांच बीना फिर भी काफी कांच कार्पेट में रह गया हो सकता था । बाबा उस पर छाती के बल चलता था । इस वास्ते कार्पेट चेंज करने को हाउसकीपर को बोला । वो नया कार्पेट भेजा ।”
“कौन लाया ?”
“दो वेटर लोग लाया । वो पुराना कार्पेट रोल करके ले गया और नया इधर बिछा गया ।”
“पुराने कार्पेट में ही रोल करके मैडम और बाबा को भी ले गया । तू अन्धा जो पीछे रह गया बोलने को कि इधर कोई नहीं आया ।”
“बाप, पुराने कार्पेट में कुछ नहीं था ।”
“कैसे मालूम ?”
“मैं टटोल कर देखा ।”
“तूने भी देखा ?” - इरफान सिक्योरिटी वाले से बोला ।
सिक्योरिटी वाले ने भयभीत भाव से इनकार में सिर हिलाया ।
“तूने ?” - उसने हाउस डिटेक्टिव से पूछा ।
उसका भी सिर इनकार में हिला ।
“बढिया हाउस डिटेक्टिव है । बढिया सिक्योरिटी वाला है । ईनाम के काबिल । मैडल मिलेगा ।”
“बाप” - सिक्योरिटी वाला बोला - “मेरे सामने भाटे कार्पेट चैक किया ।”
“और बोला सब चौकस था ?”
“हां, बाप ।”
“सब चौकस था क्योंकि ये ऐसा बोला ?”
“हां, बाप ।”
“हां बाप । बोलता है हां बाप । जी चाहता है गोली मार दूं । तुझे भी ।”
हाउस डिटेक्टिव जोर से कांपा ।
“तीन जनों को इसलिये इधर ड्यूटी पर छोड़ा कि एक भीड़ू जो बोले, बाकी दो उसकी तसदीक करने की जगह उस पर ऐतबार करें ?”
कोई कुछ न बोला ।
“हाउसकीपर को फोन लगा ।” - इरफान शोहाब से बोला ।
शोहाब फोन तक पहुंचा ।
दो मिनट बाद जब उसने फोन वापिस रखा तो उसका चेहरा पहले से कहीं ज्यादा संजीदा था ।
“क्या हुआ ?” - इरफान लरजते दिल से बोला ।
“हाउसकीपर को किसी कार्पेट की खबर नहीं ।” - शोहाब धीरे से बोला - “उसने कोई नया कार्पेट इधर नहीं भेजा । उसके पास इधर का कार्पेट तब्दील करने के लिये कोई टेलीफोन कॉल नहीं आयी थी ।”
इरफान सन्न रह गया । फिर उसकी आंखों से खून बरसने लगा ।
“कमीने !” - वो भाटे का गला पकड़ कर झिंझोड़ता हुआ बोला - “कमीने !”
“रहम !” - भाटे बड़ी मुश्किल से बोल पाया - “रहम !”
“क्यों किया ऐसा ?”
“मैंने... मैंने कुछ नहीं किया ।”
“कौन बोला तुझे ऐसा करने को ?”
“कोई नहीं ।”
“इनायत दफेदार ? जेकब परदेसी ? बिलाल ? या सीधे ‘भाई’ से आर्डर मिला ?”
“कोई नहीं... कोई नहीं बोला ।”
“दफेदार, परदेसी और बिलाल में से किस को जानता है ?”
“किसी को नहीं ।”
इरफान ने एक घूंसा उसके पेट में रसीद किया, पीड़ा से बिलबिलाता वो दोहरा हो गया, उसकी आंखों में आंसू छलक आये ।
“कौन है तेरा जोड़ीदार ?”
“कोई नहीं ।”
“बिलाल भी नहीं जो नीचे वारदात करने को आया ?”
“मुझे नीचे की कोई खबर नहीं ।”
“जो खबर है, वो बोल । बोल, क्या किया ?”
“कुछ नहीं । कुछ नहीं किया ।”
“इसे बेसमेंट में ले कर चलते हैं ।” - शोहाब बोला ।
होटल की बदनाम बेसमेंट के नाम से ही भाटे के प्राण कांप गये ।
“बकरे की तरह उधर हुक से लटका होगा तो बकेगा ।”
“रहम !” - वो बिलखता सा बोला - “रहम !”
“कुछ भौंकेगा तो रहम भी हो जायेगा, साले ।” - इरफान बोला - “तेरी जानकारी के लिये तेरे जैसा ही दुश्मन का सगा भीड़ बिलाल अपनी करतूत में रंगे हाथों पकड़ा गया था । वो बेसमेंट में ले जाया गया था तो वहां पूरे दो मिनट भी अपना थोबड़ा बन्द नहीं रख सका था जबकि वो तेरे से जबर था । वो खुद वारदात करने पहुंचा, तूने तो खाली मदद किया वारदात करने वालों का ।”
“मैं किसी बिलाल को नहीं जानता । मैं किसी दुश्मन का सगा नहीं ।”
“सगा नहीं है तो उसके हाथों बिका तो हुआ है !”
“नहीं । नहीं ।”
“कितने में बिका ?”
“मैं कुछ नहीं बता सकता ।”
“किसके हाथों बिका ?”
“वो लोग मुझे जान से मार डालेंगे ।”
“कौन लोग ?”
“मैं कुछ नहीं बता सकता ।”
“साले !” - इरफान ने उसके जबड़े पर एक घूंसा जड़ा - “तोते की तरह एक बात रटे जायेगा ? अभी का अभी ‘मैं कुछ नहीं बता सकता’ की रट छोड़ कर आगे बढ ।”
“नहीं । नहीं । वो लोग मुझे जान से मार डालेंगे ।”
“पहले भी बोला । ऐसे बच जायेगा ?”
“मेरी जुबान नहीं खुलेगी ।”
“खुलेगी । बेसमेंट में जब परत दर परत तेरे जिस्म से गोश्त उतारा जायेगा तो खुलेगी ।”
“रहम ! रहम !”
“तूने तो रहम न किया, कुत्ते ! नमकहराम, मालिक के साथ दगा किया ! मालकिन को, उसके दुधमुंहे बच्चे को दुश्मनों के हवाले कर दिया !”
“मुझे मजबूर किया गया था ।”
“क्यों मजबूर हुआ ? मेरे पास क्यों न आया ?”
उसके मुंह से बोल न फूटा ।
“कमीने कुत्ते, तूने मजबूरी में नहीं, लालच में अपना ईमान बेचा । इस करतूत के बाद तू अब जिन्दा नहीं रह सकता ।”
“रहम ! रहम !”
“बेसमेंट की दीवारें बहुत अरसे से खामोश हैं । आज वो तेरी चीखों से गूंजेंगी । बिलाल तो उधर बच गया, तू नहीं बचेगा ।”
“रहम !”
“इसे बेसमेंट में ले के चलो ।”
तत्काल उसके जोड़ीदारों ने उसे दबोच लिया ।
***
श्याम किशोर और मुरली मनोहर सगे भाई थे, झामनानी की चाकरी से किनारा करने के बाद सिनेमा टिकटों की ब्लैक का जो नया धन्धा उन्होंने चुना था, वो असल में नया नहीं, वो धन्धा था जो वो ‘सिन्धी दादा का आदमी’ कहलाना कुबूल करने से पहले करते थे ।
बजाज और उसके जोड़ीदार डिलाइट सिनेमा पर तब पहुंचे जबकि वहां ईवनिंग शो की गहमागहमी का माहौल था । सिनेमा के प्रवेश द्वार पर ‘हाउस फुल’ का बोर्ड रखा दूर से ही दिखाई दे रहा था इसलिये सिनेमा प्रेमियों को टिकट हासिल होने की कोई उम्मीद थी तो ब्लैकियों से ही थी ।
भागचन्द ने सिनेमा से पार की सड़क पर गाड़ी रोकी ।
“कहां होंगे ?” - बजाज बोला ।
“सिनेमा के पिछवाड़े की सड़क पर ।” - हिम्मतसिंह बोला ।
“जा के देख । हों तो आ के बता । बात मैं करूंगा ।”
“ठीक है ।”
हिम्मतसिंह गया और सहमति में सिर हिलाता उलटे पांव वापिस लौटा ।
बजाज कार से निकला और निर्देशित दिशा में बढा ।
पिछवाड़े की सड़क पर सिनेमा की नुक्कड़ पर ही कई लोगों से घिरे वो दोनों मौजूद थे । उसने देखा एक भाई पैसे बटोर रहा था और दूसरा टिकटें बांट रहा था । बटोरे जा रहे पैसे और बांटी जा रही टिकटें दोनों उनकी मुट्ठी में थीं यानी कि सरेआम ब्लैक हो रही थी ।
बजाज करीब पहुंचा, उसने जेब से एक सौ का नोट निकाला और नोट बटोरते भाई का, जो कि श्याम था, कंधा टहोकता हुआ बोला - “बाल्कनी की एक मेरे को ।”
श्याम की उससे निगाह मिली तो उसके नेत्र फैले । उसने अपने भाई को कोहनी मारी । मुरली ने सिर उठा कर पहले भाई को देखा और फिर उसकी निगाह का अनुसरण करते हुए बजाज को देखा । उसके भी नेत्र फैले ।
बजाज मुस्कराया ।
“एक टिकट बाल्कनी ।” - वो फिर बोला ।
मुरली ने मुट्ठी में दबी टिकटें जबरन श्याम को थमाईं, वो भीड़ से अलग हुआ और लम्बे डग भरता हुआ पिछली सड़क पर ही आगे बढा ।
सहज भाव से चलता बजाज उसके पीछे हो लिया ।
आखिरकार मुरली ठिठका, घूमा ।
बजाज उसके सामने जा खड़ा हुआ ।
कुछ क्षण अपलक दोनों एक दूसरे को देखते रहे ।
“क्या बात है, भई !” - फिर बजाज शिकायतभरे स्वर में बोला - “झामनानी के काम से गया तो राम सलाम से भी गया ?”
“नहीं, नहीं ।” - मुरली हड़बड़ाया - “नमस्ते । नमस्ते, बजाज साहब । इधर कैसे ?”
“सिनेमा देखने आया था । हाउस फुल पाया, ब्लैक की टिकट की टोह में निकला था तो तू दिखाई दे गया । तेरा भाई दिखाई दे गया ।”
“मजाक छोड़ो, साहब ।”
“अच्छी बात है । तो ये धन्धा पकड़ा झामनानी से किनारा करने के बाद ?”
“कुछ तो करना ही था ।”
“जो धन्धा पकड़ा है, वो झामनानी के धन्धे से बेहतर है ? झामनानी का धन्धा एकाएक तुम्हें काला लगने लगा तो ये सफेद है ? झामनानी के काम तुम्हें गुनाहभरी जिन्दगी के रास्ते पर चलाते हैं, सिनेमा टिकटों की ब्लैक गुनाह नहीं है ?”
“नहीं है ।” - मुरली गुस्से से बोला ।
उस अप्रत्याशित जवाब पर बजाज सकपकाया ।
“क्या ?” - उसके मुंह से निकला ।
“मैं दस रुपये की साबुन की टिकिया बारह रुपये में बेच सकता हूं तो पचास रुपये की सिनेमा की टिकट सत्तर रुपये में क्यों नहीं बेच सकता ?”
“क्योंकि साबुन की टिकिया का बिक्री मूल्य बारह रुपये है जो कि बेचने वाले को दस रुपये में मिलती है तो वो दो रुपये कमाता है । सिनेमा की टकट का बिक्री मूल्य सत्तर रुपये नहीं है । उसका बिक्री मूल्य पचास रुपये है और पचास रुपये में वो तेरे निजी व्यापार के लिये उपलब्ध नहीं है ।”
“है । ली न मैंने बुकिंग आफिस से !”
“क्या कह कर ली ? पचास टिकट देना, सौ टिकट देना, ब्लैक करनी हैं । ऐसा बोला जाकर ?”
“मैं कुछ नहीं जानता । एक चीज जब हासिल नहीं है तो जिसके पास वो है, उससे वो महंगे दामों में ही तो मिलेगी ।”
“क्यों हासिल नहीं है ? क्योंकि जहां वो होनी चाहिये थी, वहां से तुमने खिसका ली । ऐसा न करता तो क्यों न हासिल होती ?”
“सब को तो फिर भी न होती ।”
“जिनको न होती, वो वापिस चले जाते या किसी आइन्दा शो की, आइन्दा दिन की खरीद लेते । वो ऐसा नहीं करते क्योंकि तुमने सिनेमा से पैरेलल ब्लैक के रेट पर टिकट बेचने का गैरकानूनी धन्धा स्थापित किया हुआ है और उन्हें इस बात की खबर है ।”
“खिसका ली तो रिस्क भी तो लिया ।”
“रिस्क कैसा ?”
“क्यों ? नई फिल्म रिलीज होती है तो हम हफ्ते की टिकट निकालते हैं । तीन दिन की, इतवार नाइट शो तक की तो जरूर ही निकालते हैं, फिल्म पहले शो में बैठ जाती है, दूसरे शो में ही हाल में उल्लू बोलने लगते हैं । तब बाल्कनी की टिकट नीचे की टिकट की कीमत पर भी बेचो तो कोई नहीं लेता ।”
“इसलिये अपने उस नुकसान की भरपाई के लिये तुम लोग टिकट को दुगने दामों में बेचो तो ऐसा करना जायज है ?”
“हां ।”
“एक बात बता । कोई बस का मुसाफिर पांच रुपये का टिकट न ले और विदाउट टिकट सफर करता पकड़ा जाये तो क्या वो ये कह कर सजा से पीछा छुड़ा सकता है कि पिछली एक बार उसने पांच रुपये का टिकट लेने के लिये कन्डक्टर को दस का नोट दिया था तो वो उससे पांच रुपये वापिस लेना भूल गया था ?”
मुरली को जवाब न सूझा, वो कुछ क्षण खामोश रहा और फिर झुंझलाये स्वर में बोला - “क्या करने आये हो, साहब ? मेरे काम की बाबत मुझे लैक्चर देने ? जलील करने ?”
“हरगिज नहीं ।”
“तो ?”
“तुझे अक्ल देने । तुझे यह अहसास दिलाने कि तूने गुनाह की जिन्दगी से किनारा नहीं किया, महज अपनी गुनाह की रेल की पटड़ी बदली है । काले को छोड़कर कर सलेटी चुन लो तो हाजिरी उजले में नहीं लग जाती ।”
“क्या कहना चाहते हो, बजाज साहब ?”
“तुम जानते हो मैं क्या कहना चाहता हूं ! मैं तुम्हें ये खुशखबरी देने आया हूं कि झामनानी के दरवाजे अब भी तुम्हारे लिये खुले हैं ?”
“क्या !”
“मैं सच कह रहा हूं ।”
“बावजूद इसके कि परसों रात हमने उनकी - और बाकी बिरादरीभाइयों की - इतनी दुरगत की ? उन्हें दबोच कर उनके दुश्मनो के हवाले किया ?”
“झामनानी साहब बहुत काबिल और दाना आदमी है । वो समझता है कि किन हालात में तुम लोगों को ऐसा करना पड़ा । अरे, मुरली, हालात की रौ में बह कर आदमी अपने बाप की जान ले लेता है, बीवी का गला घोंट देता है, औलाद को कुचल डालता है, ये क्या झामनानी साहब जानता नहीं । वो सब जानता है, सब समझता है, इसलिये उसकी तरफ से सब माफ है ।”
“सब माफ है ?”
“हां । समझ ले कुछ भी नहीं हुआ । समझ ले एक बुरा सपना था जो परसों रात दिखा और भूल गया । मुरली, झामनानी की छत्रछाया से किनारा करने का अगर तुझे जरा भी अफसोस है....”
“है तो सही ।”
“तो समझ ले कि वो छत्रछाया तुझे फिर हासिल है । पहले से सवाया उजरत और दुगनी इज्जत से हासिल है । तेरे भाई को भी ।”
“भाई को भी ?”
“और भी जिसे तू कहे ?”
“मैं कहूं ?”
“बिल्कुल ! और झामनानी का ये न्योता सब के लिये नहीं है ।”
“सब के लिये नहीं है ?”
“तू अपने को खुशकिस्मत समझ कि तेरे लिये है, तेरे भाई के लिये है, तेरे खास जोड़ीदारों के लिये है वरना साहब तो जिद पकड़े बैठा है कि कुछ लोगों को तो उसने पास नहीं फटकने देना, भले ही वो उसके जूतों पर नाक रगड़ कर माफियां मांगें ।”
“यकीन नहीं आता ।”
“यकीन दिलाने ही तो मैं आया हूं । खुद चल के आया हूं वरना किसी को भेज भी सकता था झामनानी के पैगाम के साथ ।”
“ओह !”
“अब अभी भी कोई शंका हो तो बोल, ताकि मैं उसका निवारण करूं ।”
“शंका तो नहीं है लेकिन एतबार नहीं आता कि झामनानी साहब ऐसा दरियादिल हो गया ।”
“सब के लिये नहीं । सब के लिये नहीं । कुछ खास लोगों के लिये । जिनमें कि तू है, तेरा भाई है और और भी जिसका तू नाम ले, वो है । रामरुद्र को जानता है न ?”
“हां ।”
“गिड़गिड़ाता हुआ मेरे पास आया कि साहब खता माफ करा दो, मैंने डांट के भगा दिया, झामनानी के पास जाता तो पीट के भगाता । किराये का आटो चलाता है अब ।”
“ओह !”
“कन्हैया को भी जानता होगा । कारखाने में मजबूरी करता है । नेपाली को तो जरूर ही जानता होगा । फलों की रेहड़ी लगाने लगा है । दोनों रोते कलपते आये थे । भगा दिया । अभी और भी ऐसी मिसालें गिनाऊं ?”
“क्या ? नहीं, नहीं । नहीं ।”
“तो फिर क्या कहता है ?”
“अब क्या कहूं, बजाज साहब । मुंह तो बनता नहीं कुछ कहने का ।”
“ठीक है । तू न कह, मैं कहता हूं । मैं कहता हूं क्योंकि मैं तेरा खैरख्वाह हूं ।”
“क्या ? क्या कहते हो ?”
“कल सवेरे दस बजे अपने भाई के साथ और अपने उन जोड़ीदारों के साथ जो झामनानी की छत्रछाया में वापिसी चाहते हों, छतरपुर झामनानी के फार्म पर पहुंच जाना ।”
“लेकिन....”
“अरे, अब छोड़ न लेकिन वेकिन । समझ ले कुछ नहीं हुआ । समझ ले जैसा परसों रात से पहले चल रहा था, ऐन वैसा ही चल रहा है । ठीक ?”
मुरली ने मन्त्रमुग्ध भाव से सहमति में सिर हिलाया ।
“तो कल सुबह उधर इन्तजार करूं मैं तुम लोगों का ?”
“हां । जरूर । मैं और मेरे भाई को मिला कर हम सात जने हैं जो समझ लीजिये कि बड़ा बोल बोल कर पछता रहे हैं । हम दस बजे से पहले हाजिर होंगे ।”
“शाबाश ! मिला हाथ ।”
मुरली ने झिझकते हुए हाथ आगे बढाया ।
हाथ मिला कर, मुरली से बगलगीर होकर, चेहरे पर संतोष के भाव लिये बजाज वहां से रुख्सत हुआ ।
***