रात को आंटी के घर जो मीटिंग हुई, उसमें तुकाराम भी शामिल था। तुकाराम एक ईजीचेयर पर तकियों के सहारे अधलेटा-सा बैठा था ।
वागले उसके करीब उसकी कुर्सी के हत्थे से टेक लगाए एक स्टूल पर यूं बैठा था जैसे कोई मां अपने नवजात शिशु के पालने के करीब बैठी हो ।
विमल पाइप के कश लगाता हुआ शाम के अखबार के पन्ने पलट रहा था ।
मुबारक अली और, उस घड़ी भी तरंग में, जामवंतराव यूं इकट्ठे बैठे थे जैसे जार्ज सैबेस्टियन की जगह जामवंतराव ने ले ही हो ।
उस रोज आंटी वहां से गैरहाजिर नहीं थी । उस रोज वो भी अपने बेटे के साथ वहां मौजूद थी ।
सतीश आनंद सबसे आखिर में वहां पहुंचा ।
वह कमरे में दाखिल हुआ तो विमल ने अखबार पर से सिर उठाया और उसका मुआयना किया । वह उस घड़ी नया सूट पहने था और शेव वगैरह बनाकर, कास्मैटिक्स वगैरह पोतकर, खूब चमका हुआ लग रहा था ।
“घर हो आए मालूम होते हो ।” - विमल बोला ।
“हां ।” - वह भीतर आकर एक खाली कुर्सी पर बैठता हुआ बोला - “अब घर जाने में क्या खतरा था !”
“तुम्हारा इशारा रूपचंद जगनानी की रिहाई की तरफ है ?”
“हां ।”
“उसकी रिहाई इस बात का सबूत नहीं कि पुलिस ने उसका पीछा छोड़ दिया है ।”
“वो साला एक पुलिस अफसर का बाप निकला ।” - मुबारक अली भुनभुनाया ।
“इतनी अहम बात” - जामवंतराव बोला - “उसे हमसे छुपा कर नहीं रखनी चाहिए थी ।”
“उसका कहना है” - आनंद बोला - “कि यह बात जानकर आप लोग कभी उसे अपने में शामिल न करते ।”
“उसके चुप रहने से” - मुबारक अली बोला - “यह, तो क्या कहते हैं अंग्रेजी में” - उसने अपने पहलू में निगाह डाली लेकिन जहां वह जार्ज सैबेस्टियन को देखने का आदी था वहां उसे जामवंतराव दिखाई दिया जो उसे नहीं बता रहा था कि किस बात को क्या कहते थे अंग्रेजी में - “हकीकत बदल थोड़े ही जाएगी कि वो एक पुलिस अफसर का बाप है ।”
“मुझे बुजुर्गवार पर पूरा भरोसा है ।” - आनंद दृढ स्वर में बोला - “वो हमारे खिलाफ अपनी जुबान नहीं खोलने वाले ।”
“वो कहता है ऐसा ?” - विमल बोला ।
“हां ।”
“तुम हाल ही में उससे मिले मालूम होते हो ?”
“हां ।”
“उसे यहां ले आना था ।”
“मैं जानकर नहीं लाया था । मुझे डर था कि तुम सब लोग कहीं उसके गले न पड़ जाओ कि क्यों उसने अपने इंस्पेक्टर बेटे की बाबत हमें कुछ नहीं बताया ।”
“हूं ।”
“वैसे वो अभी भी हर लिहाज से हमारे साथ है और कुछ भी करने को तैयार है ।”
“मुझे ऐसे शख्स के हमारे साथ होने पर” - मुबारक अली बोला - “वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, एतराज है जिसका बेटा पुलिस इंस्पेक्टर हो ।”
“अगर” - तुकाराम बोला - “वो अपनी जुबान बंद रख सकता है तो इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसका बेटा पुलिस इंस्पेक्टर है या कमिश्नर ।”
“अगर उसने अपनी जुबान खोलनी होती” - विमल बोला - “तो अब तक खोल चुका होता और तुम जब सजने के लिए घर गए थे तो तुमने वहां पुलिस को अपना इंतजार करता पाया होता ।”
“बिल्कुल ।” - आनंद बोला ।
“उसके सदके” - आंटी बोली - “पुलिस यहां भी पहुंच सकती थी ।”
“यह बहस अब छोड़ो” - जामवंतराव बेसब्रेपन से बोला - “और यह बताओ कि अब इरादा क्या है ?”
“यह तो हमारा, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, नेता बताएगा ।” - मुबारक अली बोला, उसके स्वर में व्यंग्य का स्पष्ट पुट था ।
सबकी निगाहें विमल की तरफ उठीं ।
“साहबान ।” - विमल गम्भीरता से बोला - “यह न भूलिए कि कल की नाकामयाबी से मुझे भी उतनी ही मायूसी हुई है जितनी कि आप लोगों को । इसीलिए मैंने नाकामयाबी को कामयाबी में बदलने का दृढ निश्चय किया हुआ है ।”
“यानी कि” - मुबारक अली हैरानी से बोला - “तू फिर वहीं हाथ डालने की कोशिश करना मांगता है ?”
“हां ।”
सब हैरानी से कभी विमल का तो कभी एक-दूसरे का मुंह देखने लगे ।
“पागल होयेला है क्या ?” - फिर मुबारक अली बोला - “कल की वारदात के बाद से अब वाल्ट की, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, सिक्योरिटी का इंतजाम दुगुना, तिगुना हो चुका होएंगा ।”
“दस गुना ।” - विमल बोला - “अब वाल्ट में घुसने की कोशिश करने से तो अच्छा है कि हम थाने जाकर आत्म-समर्पण कर दें । वाल्ट को तो अब भूल जाओ ।”
“तो ?” - मुबारक अली उलझनपूर्ण स्वर में बोला ।
“हमें दौलत से मतलब है । दौलत वाल्ट के अलावा भी वहां है ।”
“कहां ?”
“सुनारों की मार्केट में । इस बार हम अपना निशाना मार्केट में मौजूद वाल्ट को नहीं, दुकानों को बनाएंगे । और इसके लिए हमें मुबारक अली की उस मूल योजना को पालिश करना होगा जिसे हम पहले रिजैक्ट कर चुके हैं ।”
कोई कुछ न बोला ।
“मुबारक अली की स्कीम में” - विमल आगे बढा - “कर्फ्यू वाली बात दिलचस्पी से खाली नहीं । चौकी की और बाकी पुलसियों को काबू करने का ख्याल भी बुरा नहीं लेकिन इस काम को अंजाम देने के लिए पच्चीस नौसिखिए, अनजाने, बिनआजमाए प्यादे भरती करना मूर्खता है । यह काम हम खुद भी कर सकते हैं ।”
“कर तो सकते हैं, बाप” - मुबारक अली बोला - “लेकिन हम चौकी पर या पुलसियों पर कब्जा करेंगे या असल काम करेंगे ?”
“चौकी को और बाजार के दोनों सिरों पर तैनात पुलसियों को एक ही वक्त में कब्जाना जरूरी नहीं । ये काम बारी-बारी भी किए जा सकते हैं और एक बार काम हो जाने के बाद जितने आदमी जहां तैनात पाए जाएं उतने ही वहां हम भी तैनात करें, यह भी जरूरी नहीं ।”
“मतलब ?”
“मतलब समझो । पहले चौकी की मिसाल लो । जगनानी को मिलाकर मैं, तुम, वागले, आनंद, जामवंतराव हम छ: जने हैं । चौकी पर हम जगनानी को नहीं ले जा सकते क्योंकि वहां का कोई पुलसिया उसके बेटे की वजह से उसको पहचानने वाला निकल सकता है । बाकी हम पांच जने अगर आधुनिक हथियारों से लैस हों तो क्या चौकी पर तैनात पांच या छ: पुलसियों को नहीं कब्जा सकते ?”
“कब्जा सकते हैं ?”
“एक बार चौकी पर कब्जा हो जाने के बाद वहां पीछे अपने आधी दर्जन आदमी छोड़ना क्यों जरूरी है ? इतने लोग वहां क्या करेंगे ? वहां बंधे पड़े पुलसियों पर निगाह रखने के लिए, कोई टेलीफोन काल सुनने के लिए या एकाएक वहां पहुंच गए किसी व्यक्ति को हैंडल करने के लिए तो एक ही आदमी काफी है ।”
“वो एक आदमी कहां से आयेंगा ?” - मुबारक अली प्रभावित स्वर में बोला - “वो क्या हममें से होयेंगा ?”
“नहीं । उसे हमें बाहर से भरती करना होगा । दरअसल तीन आदमी हमें बाहर से भरती करने होंगे । एक चौकी के लिए और दो बाजार के दोनों सिरों पर तैनात करने के लिए । तुम्हारी मूल योजना के पच्चीस आदमियों को कोई माई का लाल कंट्रोल नहीं कर सकता था लेकिन तीन आदमियों को कंट्रोल किया जा सकता है ।”
“तीन आदमी तो भरोसे के भी हो सकते हैं ।” - तुकाराम बोला - “जैसे एक तो अपना इरफान ही है ।”
“इरफान कौन ?” - विमल बोला ।
“वही जिसने तेरे लिए इकबाल सिंह की बीवी लवलीन और उसके यार, ‘कम्पनी’ के जल्लाद, जोजो के मैरिन ड्राइव वाले लव नैस्ट की निगरानी की थी ।”
“अच्छा वो !”
“दूसरा” - मुबारक अली बोला - “अल्लाहताला उसे जन्नत नशीन करे, अपना जार्ज हो सकता था ।”
“यूं तो” - आनंद बोला - “अगर वो पुलसिये का बाप न होता तो तीसरा अपना जगनानी हो सकता था ।”
“वो अभी भी हो सकता है ।” - जामवंतराव बोला - “चौकी पर पुलसियों की मुश्कें कस जाने के बाद, उनके कहीं बंद कर दिए जाने के बाद, उसके पुलसिया बन कर चौकी पर बैठ जाने में क्या वान्दा है ।”
“बात तो सही है ।” - मुबारक अली बोला ।
“अब अगर” - तुकाराम बोला - “खांडेकर साथ दे तो घर का काम घर में ही हो जाए ।”
“मैं !” - खांडेकर हड़बड़ाया - “मैं डकैती में शामिल होऊं ?”
“डकैती में नहीं ।” - विमल बोला - “डकैती में तो हम शामिल होंगे । तुम्हें तो सिर्फ पुलिस की वर्दी पहनकर बाजार के एक सिरे पर पहरा देना होगा ।”
“नहीं, नहीं । मैं ऐसा कोई काम नहीं कर सकता ।”
विमल ने आंटी की तरफ देखा ।
“इसका भरोसा मत करो ।” - आंटी दबे स्वर में बोली - “तुम्हारा खौफ खाकर इसने हामी भर भी दी तो कोई बड़ी बात नहीं कि यह ऐन वक्त पर सब कुछ बीच में छोड़ कर भाग खड़ा हो ।”
“मुझे भी यही लग रहा है ।” - विमल बोला ।
“तुम यह बहस छोड़ो ।” - तुकाराम बोला - “भरोसे के तीन आदमी पैदा करना मेरे जिम्मे रहा । सरदार, तू आगे बढ ।”
“चौकी की तरह ही” - विमल बोला - “हम बाजार में दोनों सिरों पर तैनात चार-चार पुलसियों पर काबू पा सकते हैं और उनकी जगह अपना एक-एक आदमी बिठाने के बाद उन्हें लाकर चौकी में ही उनके साथी पुलसियों के साथ बंद कर सकते हैं ।”
“बाप” - मुबारक अली बोला - “जब पहले मैं यही बात बोला था तो तू बोलता था कि यह सब नहीं हो सकता था । बोलता था कि पुलिस वाले हमेरे प्यादों के थोबड़े देख लेंगे । अब नहीं देखेंगे वो हमेरे थोबड़े ?”
“नहीं ।”
“कैसे ?”
“अगर” - तुकाराम बोला - “यह नहीं कहता है तो समझ लो नहीं देखेंगे । तुम इसे आगे तो बढने दो ।”
“ठीक है ।” - मुबारक अली बोला - “चौकी हमारे कब्जे में । बाजार के दोनों सिरों पर हमारे आदमी तैनात । आगे ।”
“और कर्फ्यू लगा हुआ ।” - विमल बोला - “और टेलीफोन की बाजार को फीड करने वाली मेन केबल कटी हुई ।”
“वो कैसे होगा ?”
“जगनानी के लिए नक्शों की वजह से हमें इलाके की मेन टेलीफोन केबल की पहचान है । उसको काट देना क्या मुश्किल है !”
“लेकिन वो तो सीवर में है ।” - आनंद बोला ।
“तो क्या हुआ ?”
“इतने हंगामे के बाद सीवर में दोबारा घुसना मुमकिन होगा ?”
“क्यों नहीं मुमकिन होगा ? सीवर के भीतर क्या पहरा बिठाया जा सकता है ?”
“लेकिन अब जब कि मैनहोल नम्बर छत्तीस पुलिस की जानकारी में आ चुका है और उन्हें मालूम हो चुका है कि...”
“केबल के रूट में दर्जनों मैनहोल आते होंगे । वैसे तो कर्फ्यूग्रस्त इलाके में उस अकेले मैनहोल पर कोई पहरा नहीं बैठा होगा, उसकी चौकसी का कोई इंतजाम पुलिस ने कर भी दिया होगा, तो भी केबल का रूट का कोई भी मैनहोल खोलकर वो केबल काटी जा सकती है । और तो और वो केबल बाजार में भी काटनी जरूरी नहीं । एक्सचेंज से लेकर बाजार के मेन डिस्ट्रीब्यूशन पिलर तक के रास्ते में कहीं भी केबल काटी जा सकती है ।”
“आई सी ।”
“आगे ।” - मुबारक अली बेसब्रेपन से बोला - “आगे बढो, बाप ।”
“आगे चौकी पर बजने वाली अलार्म बैल की तो कोई प्राब्लम है ही नहीं” - विमल बोला - “जब वाल्ट हमारा निशान ही नहीं...”
“वाल्ट पर अब सिक्योरिटी बहुत बढा दी गई होगी ।” - आनंद बोला - “पहले की तरह अब वहां सिर्फ दो नाइट वाचमैन ही नहीं होंगे । जब उन्हें भनक लगेगी कि ऊपर मार्केट की दुकानों को लूटने की कोशिश की जा रही है तो वो भी तो अलार्म बैल को चालू कर सकते हैं !”
“तो कर दें । तुम भूल रहे हो कि चौकी, जहां कि अलार्म बैल बजती है, वो भी हमारे कब्जे में है ।”
“लेकिन बाप” - मुबारक अली बोला - “वो, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, वो भौंपा...”
“सायरन ।” - आनंद बोला ।
“...जो बजा था, वो साला अक्खी बम्बई में जाग करा देने वाला सायरन जो बजा था, उसका क्या होएंगा ?”
“हां ।” - आनंद बोला - “उसका क्या होगा ? अगर सिक्योरिटी वालों ने उसे एक्टीवेट कर दिया तो ?”
“वो ऐसा नहीं कर सकेंगे ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि उस सायरन पर उनका जोर नहीं । उस सायरन की बाबत अखबार में वाल्ट के मैनेजर भौंसले का बयान छपा है । उसके मुताबिक वह सायरन बंद वाल्ट के भीतर के हवा के दबाव में और बाहरी हवा के दबाव में एकाएक फर्क आ जाने से बजता है । हमने वाल्ट के शैल में जो छेद किया था, वो तो यकीनन अब तक बंद किया जा चुका होगा । ऐसा छेद भला कैसे यूं ही छोड़ा जा सकता है ! उस सायरन को बजाने के लिए एयर प्रेशर में सडन चेंज सिक्योरिटी वालों के लाए भला क्यों कर आएगी ?”
“वो वाल्ट का दरवाजा खोल सकते हैं । दरवाजा खोलने से भी तो...”
“नहीं खोल सकते । अखबार में यह भी छपा है कि दरवाजे में टाइम लाक लगा हुआ है जिसकी खबर जामवंतराव को नहीं थी ।”
“वो मेरे नौकरी छोड़ने चुकने के बाद लगा होगा ।” - जामवंतराव बोला ।
“कभी भी लगा था, लगा है । उस टाइम लाक की वजह से वाल्ट खुलने का जो टाइम निर्धारित करके वाल्ट बंद किया जाता है, उससे पहले खुद वाल्ट के मालिकान ही आकर वाल्ट खोल सकते हैं । और हमारा यह इंतजाम होगा ही कि सिक्योरिटी वाले फोन न इस्तेमाल कर सकें ।”
“तुमने गार्डों के पास वायरलेस टेलीफोन होने की सम्भावना व्यक्त की थी ।” - आनंद बोला ।
“हां । लेकिन वायरलेस टेलीफोन को भी बिगाड़ा जा सकता है ।”
“कैसे ?”
“एक ऐसे उपकरण की सहायता से जिसे स्क्रैम्बलर कहते हैं । वो उपकरण वायरलेस टेलीफोन की फ्रीक्वेंसी को यूं बिगाड़ देगा कि उस पर कुछ भी कहा-सुना जाना मुमकिन नहीं रहेगा ।”
“वाह !” - मुबारक अली हर्षित स्वर में बोला - “यह किया न वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, अंग्रेजों की आंख में डण्डा ।” - वह एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “जामवंतराव !”
उसके लहजे में आए अप्रत्याशित परिवर्तन से जामवंतराव हड़बड़ाया ।
“क्या है ?” - वह बोला ।
“साले, हलकट । तूने मरवा दिया होता । साले, कर्फ्यू लगवा कर, थाना कब्जा कर, पच्चीस आदमी भरती करवा कर भी, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, टाइम लाक की वजह से वाल्ट नहीं खुलने का था ।”
“बोला न” - वह दबे स्वर में बोला - “टाइम लाक बाद में लगा होगा ।”
“बाद में लगा होएंगा । साला !”
“आगे ।” - तुकाराम बोला - “आगे ।”
“बाजार में जो गलियां हैं” - विमल बोला - “आपने देखा होगा कि उन सब के दहाने पर लोहे के फाटक लगे हुए हैं जो कि वहां के दंगाग्रस्त इलाके में रहने वालों ने अपनी सुरक्षा के लिए लगवाए हैं । वे फाटक गली के अंदर की तरफ से बंद होंगे । हम उन्हें बाहर से भी बंद कर देंगे तो किसी भी गली में से कोई बाहर बाजार में कदम नहीं रख सकेगा । इस तरह किसी हद तक यह उम्मीद हो सकती है कि किसी के घर में कोई इमरजेंसी होगी तो भी वो बाजार में कदम नहीं रख सकेगा ।”
“कोई अपने फ्लैट की ऊपरले माले की खिड़की में से बाजार में उतर आया तो ?”
“क्यों ? कर्फ्यू में ऐसी हरकत का मतलब क्या वो समझता नहीं होगा ? उसे मालूम नहीं होगा कि ऐसी कोई हरकत करने पर उसे गोली मार दी जा सकती है ?”
“बाप” - मुबारक अली और बेसब्रा हो उठा - “सब कुछ काबू में और हम मार्केट के सामने । अब इस, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में प्वैन्ट...”
“प्वायंट ।” - आनंद बोला ।
“...से आगे बढो । बल्कि उस एक इकलौते चौकीदार से भी आगे बढो जोकि मार्केट के बंद शटर के आगे मौजूद होता है । उसको काबू करना मामूली काम है । तुम आगे बढो ।”
“आगे पहले नीचे बेसमेंट में वाल्ट को जाती सीढियों के दहाने पर लगे दरवाजे को हमने बाहर से बंद करना है ताकि सिक्योरिटी स्टाफ बेसमेंट में ही कैद होकर रह जाए । फिर हमने दुकानों से शटर तोड़ने हैं और भीतर मौजूद तिजोरियों को खोल कर माल हथियाना है ।”
“शटर तोड़ना अपने बाएं हाथ का काम है” - मुबारक अली बोला - “मैं तीन मिनट में एक शटर खोलकर दिखा सकता हूं ।”
“शटर या उसका ताला ?” - वागले बोला ।
“शटर, बाप, शटर । दंगा कराने के अलावा जो दूसरा काम मेरे कू महारत से आता है, वो शटर खोलना ही तो है । दंगों में शटर खोल-खोलकर अपुन बहुत दुकानें लुटवाएला है । मेरे कू बस लोहे की एक लम्बी, नोकीली छड़ की जरूरत होएंगी । शटर की एक कड़ी खोलना, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, उस्तादी होता है बाकी तो अपने आप खुलती चली जाती हैं ।”
“लेकिन तिजोरियां !” - जामवंतराव बोला - “तिजोरियां कैसे खुलेंगी ?”
“लेसर बीम से” - विमल बोला - “जोकि हमारे सौभाग्य से अभी भी हमारे पास है । लेसर बीम के आगे हर तिजोरी का लोहा मक्खन की तरह पिघलता चला जाएगा । लेकिन इस बार हमें बीम आपरेटरों द्वारा पहने जाने वाली स्पेशल हीटप्रूफ पोशाकों का इन्तजाम करना होगा ।”
“और गैर मास्कों का भी तो” - आनन्द बोला - “बीम के इस्तेमाल से बेतहाशा धुआं भी तो निकलता है !”
“वो भी ।” - विमल बोला ।
“लेकिन कितने ही दुकानदार तो” - जामवंतराव बोला - “शाम को अपना तिजोरी का माल वाल्ट में रखकर जाते हैं । हमने कोई दुकान खोली, तिजोरी खोली और पल्ले कुछ भी न पड़ा तो...”
“हम उसी दुकान का शटर तोड़ेंगे” - विमल बोला - “जिसकी तिजोरी का माल हमें मालूम होगा कि वाल्ट में जमा नहीं करवाया गया । ऐसी दुकानों की हमें शाम के वक्त मार्केट में जाकर पहचान करनी होगी । यह एक बहुत अहम काम है जिसे कोई भी अगला कदम उठाने से पहले अंजाम देना जरूरी है ।”
“लेकिन मामूली काम है ।” - आनंद बोला - “हम कल ही शाम वहां जाकर मार्केट में मंडराने लग सकते हैं ।”
“बिल्कुल ।”
“बाप” - मुबारक अली बोला - “पहले तो तू हमेरी स्कीम एकदम, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, फेल किएला था । अगर पहले ही यही पालिश स्कीम को मार लेता तो...”
“पहले यह पालिश नहीं चलने वाली थी” - विमल बोला - “क्योंकि पहले तुम्हारा निशाना वाल्ट था और तुम लोगों को जामवंतराव की नकली चाबियों का बड़ा गुमान था । तब वाल्ट के लाकरों के माल के मुकाबले में दुकानों की तिजोरियों का माल तुम्हें चिड़िया की बीट मालूम होता । क्यों ?”
जामवंतराव हड़बड़ाकर परे देखने लगा ।
विमल ने जेब से एक तह किया हुआ कागज निकाल कर आंटी को थमाया ।
“यह उस सामान की लिस्ट है” - विमल बोला - “जो हमें इस बार दरकार होगा । इसमें खास आइटम हैं कुछ आधुनिक हथियार, एक स्क्रैम्बलर, कुछ हीटप्रूफ पोशाकें जोकि पांच हजार डिग्री तक का टैम्प्रेचर बर्दाश्त कर सकें, कुछ गैसमास्क, पुलिस की वर्दियां, एक जीप...”
“ज-जीप !” - खांडेकर फंसे स्वर में बोला ।
“जो देखने में पुलिस की जीप जैसी लगे । जिस पर ‘पुलिस पेट्रोल’ लिखा हो ।
खांडेकर ने थूक निगली । उसने अपनी मां की तरफ देखा ।
आंटी ने कागज खोलकर लिस्ट पर एक निगाह डाली और फिर कागज अपने बेटे को थमा दिया ।
चेहरे पर गहन असंतोष के भाव लिए खांडेकर ने लिस्ट पढनी आरंभ की । ज्यों-ज्यों वह लिस्ट पढता गया, उसके चेहरे पर असंतोष के भाव बढते गए ।
“यह तो” - वह बोला - “फिर दो लाख रुपए का खर्चा कराने वाली लिस्ट है ! हमारा दो लाख रुपया पहले ही डूब गया है...”
“ये दो लाख खर्चोगे” - विमल सख्ती से बोला - “तो पहले वाला दो लाख उबरेगा न !”
“लेकिन...”
“लेकिन-वेकिन कुछ नहीं । यह काम होना ही है । अब हम न पीछे हट सकते हैं और न तुम पीछे हट सकते हो ।”
“लेकिन...”
“फिर लेकिन ?” - विमल का स्वर एकाएक बेहद हिंसक हो उठा ।
“हम करेंगे दो लाख का खर्चा ।” - आंटी व्यग्र भाव से बोली - “कैसे भी हो करेंगे । सब सामान मुहैया होगा ।”
“कल शाम तक ।” - विमल बोला ।
“कल शाम तक ।” - आंटी बोली ।
“क्या कल ही हल्ला बोलने का इरादा है ?” - आनन्द बोला ।
“तुम मूर्ख हो ।” - विमल चिढकर बोला - “हल्ला सामान के उपलब्ध होने का मोहताज नहीं, कर्फ्यू का मोहताज है ।”
“कर्फ्यू का क्या है ।” - मुबारक अली बोला - “वो तो अपुन कल ही लगवा देंगा ।”
“कल कर्फ्यू लग गया तो मार्केट भी बन्द हो जाएगी । फिर हम यह कैसे जान पाएंगे कि कौन-कौन से दुकानदार अपना माल दुकान में ही रखते हैं ?”
“ओह ! अपना मिस्टेक हुआ, बाप । कर्फ्यू परसों लगना मांगता है ।”
“हां ।”
“समझ लो लग गया ।”
“गुड । अब कल शाम छ: बजे जौहरी बाजार में मिलेंगे । हम में शामिल हैं मैं, वागले, मुबारक अली, जामवन्तराव और सतीश आनन्द ।”
“रूपचन्द जगनानी नहीं ?”
“नहीं । उसका बाजार में देखा जाना ठीक न होगा । वह कई घन्टे पुलिस की हिरासत में रहा है । उसको किसी पुलिसिये ने मार्केट में भटकते देख लिया तो वह उसकी वहां मौजूदगी पर हैरान हो सकता है ।”
“लेकिन वो शामिल तो है न इसमें ?” - आनन्द व्यग्र भाव से बोला ।
“हां । शामिल है ।”
आनन्द ने चैन की सांस ली ।
फिर मीटिंग बर्खास्त हो गई ।
***
मैटाडोर वैन की तरफ पुलिस की तवज्जो तक न आती अगर वो ऐसी जगह न खड़ी होती जहां कि दिन के वक्त गाड़ी खड़ी करने की मनाही थी । फिर एक बार उसकी तरफ तवज्जो जाने के बाद बीट के कांस्टेबल को पहली अजीब बात यह लगी थी कि वैन की चाबियां उसके इग्रीशन के साथ लटक रही थीं और दूसरी सन्देहजनक बात यह थी कि वह मैनहोल नम्बर छत्तीस के करीब खड़ी थी ।
गाड़ी पुलिस ने कब्जा ली ।
उसका रजिस्ट्रेशन चैक किया गया तो वह नकली पाया गया । इतने से पुलिस वालों को शक हो गया कि वैन का सम्भावित डकैती में कोई रोल था । उसको फिंगर प्रिंटस के लिए चैक किया गया तो उसे एकदम कोरी पाया गया । वह अपने आपमें सन्देहजनक बात थी । यदि वैन निर्दोष होती तो उस पर कोई तो फिंगर प्रिंट्स पाए ही जाने चाहिएं थे ।
फिर वैन के नकली नम्बर की पड़ताल आरम्भ हुई ।
चैकिंग के लिए वह नम्बर उन तमाम चैक पोस्टों पर भेजा गया जहां कि रात तो चैक पोस्ट से गुजरी गाड़ियों के नम्बर नोट किये जाते थे ।
रात को हैडक्वार्टर खबर पहुंची कि वह नम्बर माहिम क्रीक की चैक पोस्ट के रजिस्टर में तेरह तारीख में दर्ज था ।
तुरन्त तेरह तारीख की रात को माहिम क्रीक नाके पर तैनात तमाम पुलिसकर्मियों को अगले रोज पुलिस हैडक्वार्टर पेश होने का हुक्म जारी हुआ ।
***
“तूने मुझे खामखाह टोका ।” - खांडेकर भनभुनाया - “अब तक सोहल गिरफ्तार हो गया होता तो यह दो लाख रुपए के नए खर्चे की मुसीबत हमारे गले न पड़ी होती ।”
“विट्ठलराव” - आंटी बोली - “इसी में हमारी भलाई है । देख लेना इस बार ये लोग जरूर कामयाब होंगे ।”
“खाक और मिट्टी कामयाब होंगे । इस बार या सारे पकड़े जाएंगे, या सारे मारे जाएंगे । हमारा दो की जगह चार लाख रुपया डूब जाएगा । जबकि अभी भी वक्त है सारे नुकसान की भरपाई कर लेने का ।”
“विट्ठलराव, खबरदार !”
“क्या खबरदार ! पता नहीं तू क्यों सोहल को इतना बड़ा हौवा बनाए दे रही है । अरे, जब वो गिरफ्तार होकर फांसी पर लटक जाएगा तो...”
“उससे पहले तू परलोक सिधारा हुआ होगा । - बीच में मत बोल । मेरी बात सुन । तू उस आदमी को जानता है जिसकी एक टांग पर पलस्तर था और जो बैसाखियों के सहारे चलकर यहां पहुंचा था ?”
“उसका नाम तुकाराम है...”
“नाम के अलावा कुछ जानता है ?”
“नहीं ।”
“मैं जानती हूं । यह वो शख्स है जितने सोहल के साथ मिलकर अन्डरवर्ड किंग राजबहादुर बखिया उर्फ काला पहाड़ से टक्कर ली थी और उसकी बादशाहत नेस्तनाबूद कर दिया था । अब तू मुझे यह बता कि जब तू सोहल को गिरफ्तार करायेगा तो अपना नाम छुपाए रखकर तू उसकी गिरफ्तारी पर लगा इनाम क्लेम कर लेगा ? जब तेरा नाम नहीं छुपा रहेगा तो वो आदमी - तुकाराम, जो सोहल को अपनी औलाद की तरह मानता है - तुझे छोड़ देगा ? वो तुझे कच्चा नहीं चबा जाएगा ?”
खांडेकर ने उत्तर नहीं दिया ।
लेकिन तब पहली बार वह सोहल को गिरफ्तार कराने के नापाक ख्याल से हटा ।
“जवाब दे !” - आंटी बोली ।
“क्या जवाब दूं ?” - खांडेकर मरे स्वर में बोला - “मैं करता हूं इस लिस्ट के सामान का जुगाड़ ।”
✽✽***
जमीन-जायदाद की खरीद-फरोख्त के घोटाले करने वालों के लिए सरकार ने अगर कोई इनाम मुकर्रर किया होता तो वह निश्चय ही ठग शिरोमणि हरीश जेठामल मलूचन्दानी को मिलता । उसकी कामयाबी का राज यह था कि केवल उसी ने महसूस किया था कि महानगरों में रहने वाले मध्यमवर्गीय लोग जिस चीज की सबसे ज्यादा ख्वाहिश करते थे वह होती थी अपना घर । और घर बनता था जमीन के टुकड़े पर जोकि घर बनाने वाले की मिल्कियत होना होता था । वह जमीन का टुकड़ा, जिसे प्लाट कहा जाता था, हासिल कर लेना मध्यमवर्गीय प्राणी अपनी तीन-चौथाई जीत मानता था ।
हरीश जेठामल मूलचन्दानी ऐसे ‘अपना घर’ का सपने देखने वाले मध्यमवर्गीय लोगों को नकद व आसान किश्तों पर प्लाट बेचता था, भरपूर कामयाबी से बेचता था और बोरे भर-भरकर नोट कमाता था । वो ऐसे प्लाट बेचता था जिन पर कोई माई का लाल पहुंचे तो जाने, ऐसे प्लाट बेचता था जिन पर आठ-आठ फुट पानी खड़ा होता था, ऐसे प्लाट बेचता था जिनका मालिक असल में कोई और होता था, वो ऐसे प्लाट बेचता था जो सेलडीड की स्याही सूखने से पहले वापिस समुद्र में जा मिलते थे और वो ऐसे प्लाट बेचता था जिन्हें वह पहले ही छ:-छ: बार बेच चुका होता था ।
उसकी इस नापाक हरकतों में उसका जोड़ीदार था अग्रवाल नाम का एक वकील जोकि बार काउन्सिल से निकाला हुआ था लेकिन धोखाधड़ी और बेईमानी को कवर करने वाले बेशुमार कानूनी नुक्ते जानता था ।
तीन साल यह सिलसिला चला । उनते अरसे में हरीश जेठामल मूलचन्दानी ने करोड़ों रुपए कमाए । फिर उसके खिलाफ पुलिस इन्क्वायरी हो गई, धोखाधड़ी और चार सौ बीसी का केस रजिस्टर हो गया जिससे अग्रवाल की कोशिशों से, लेकिन बड़ी मुश्किल से, वह जमानत पर छूटा । एक बार जमानत पर छूटते ही उसने अपनी सारी दौलत समेटी और अहमदाबाद से फरार हो गया ।
दो साल वह राजनगर में रहा, हर क्षण गिरफ्तारी के भय से त्रस्त रह कर रहा लेकिन रहा ।
उस दौरान अग्रवाल गिरफ्तार हुआ, उस पर हरीश जेठामल मूलचन्दानी का साथी होने का और उसे जमानत पर रिहा कराकर फरार कराने का मुकद्दमा चला, उसे पांच साल की सजा हुई, जिसके पहले ही साल में वह जेल में मर गया । उस खबर ने मूलचन्दानी को और भी खौफजदा कर दिया । जेल के नाम से उसके प्राण कांपते थे ।
फिर किसी तरह उड़ती-उड़ती खबर उस तक पहुंची कि करीब ही सोनपुर में एक डॉक्टर था जोकि प्लास्टिक सर्जरी से इंसानी सूरत ऐसी तब्दील कर देता था कि कोई उसे पहचान नहीं सकता था ।
वह डॉक्टर स्लेटर की शरण में पहुंचा ।
पांच लाख रुपये की फीस की एवज में डॉक्टर स्लेटर ने उसे नया चेहरा दिया ।
मूलचन्दानी ने शीशे में अपनी सूरत देखी तो उसकी तबीयत खुश हो गई ।
अब वह वापिस अहमदाबाद लौट सकता था - अहमदाबाद वो जगह थी जिसके आगे उसे दुनिया की हर जगह हेच लगती थी ।
उसने अपना नाम एच.जे.एम. चन्दानी रख लिया और वापिस अहमदाबाद पहुंच गया । वहां उसने स्वयं को दुबई से स्वदेश लौटा एक व्यापारी जाहिर किया जोकि अपनी जिन्दगी के आखिरी दिन अपने देश की धरती पर गुजारना चाहता था । नल सरोवर के करीब एक विशाल फार्म हाउस खरीदकर हरीश जेठामल मूलचन्दानी नामक ठगराज एच.जे.एम. चन्दानी के नाम से वहां स्थापित हो गया ।
लेकिन वहां अपने नए चेहरे के साथ, अपने नए नाम के साथ, अपनी नई जिन्दगी में उसने अभी चार ही महीने गुजारे थे कि उसे फिक्र सताने लगी । उसके नए चेहरे से कोई वाकिफ था । उसके नए चेहरे का राज खुल सकता था । वह जेल जा सकता था । वह बरबाद हो सकता था । एक महीना और गुजरा तो उसने अपनी वह चिन्ता मिटाने का दृढ निश्चय कर लिया । उसने फर्जी नाम से एक सैकण्डहैण्ड लेकिन मजबूत कार खरीदी, उस पर सोनपुर पहुंचा, वहां उसने चुपचाप डॉक्टर स्लेटर का खून किया और उसी कार पर चुपचाप अहमदाबाद वापिस लौट आया ।
अब वो सुरक्षित था ।
अब अपने नए चेहरे की पोल खुल जाने का उसे कोई खतरा नहीं था ।
हरीश जेठामल मूलचन्दानी उर्फ एच.जे.एम. चन्दानी वो शख्स था जिसकी सोलंकी को तलाश थी ।
***
दफ्तर जाने से पहले रूपचन्द जगनानी अपने बेटे के घर पहुंचा ।
मीरा को उसने घर में अकेली पाया । शिल्पा स्कूल जा चुकी थी ।
यह जानकर उसे बड़ी निराशा हुई कि अशोक तब तक न वापिस लौटा था और न उसका कोई फोन आया था ।
वह वहां से विदा होने ही लगा था कि एकाएक फोन की घन्टी बज उठी ।
रूपचन्द ठिठका । उसने आशापूर्ण नेत्रों से फोन की तरफ देखा । क्या पता वह उसके बेटे का ही फोन हो !
मीरा ने फोन उठाया । उसने एक क्षण फोन सुना और फिर रिसीवर रूपचन्द की तरफ बढाती हुई बोली - “आपका फोन है ।”
रूपचन्द सकपकाया । उसका फोन ! उसका तो वहां कभी फोन नहीं आता था । उसने किसी को कहा तक नहीं था कि वह अपने बेटे के घर जा रहा था । शायद सतीश आनन्द का फोन हो । आखिर उसे मालूम तो हो ही चुका था कि वह इन्स्पेक्टर अशोक जगनानी का पिता था ।
उसने आगे बढकर झिझकते हुए अपनी पुत्रवधू के हाथ से फोन थामा ।
“हल्लो !” - वह बोला - “कौन ?”
“और कौन होगा, साले बुढऊ ?”
रूपचन्द के हाथ से रिसीवर छूटते-छूटते बचा । बड़ी मुश्किल से वह अपने मन के भाव अपने चेहरे पर प्रतिलक्षित होने से रोक पाया ।
वही कर्कश खूनी आवाज जो वह आफिस के फोन पर पहले भी सुन चुका था !
“क... क... क्या ?” - वह फंसे स्वर में बोला ।
“तारीख याद है न ?”
“याद है लेकिन अभी तो उसमें एक हफ्ता बाकी है ।”
“एक हफ्ता गुजर भी तो गया है, हरामजादे । अगर अब तक कुछ नहीं कर पाया तो अब तक कुछ नहीं कर पाया तो अब कौन-सा तीर मार लेगा !”
“मैं करूंगा । लेकिन मुकर्रर तारीख तक तो” - उसने एक सहमी हुई निगाह मीरा की दिशा में डाली और माउथपीस में फुसफुसाया - “मेरा पीछा छोड़ो ।”
“साले, जुबान लड़ाता है !”
“देखो, तुम खामखाह...”
“बकवास बन्द कर और तारीख फिर से याद कर ले । पच्चीस तारीख । इसी महीने की, हरामजादे, अगले महीने की नहीं । दोबारा न याद दिलाना पड़े ।”
“नहीं पड़ेगा । मैं पहले ही...”
लाइन कट गई ।
रूपचन्द ने धीरे से रिसीवर क्रेडल पर रख दिया ।
***
ए.सी.पी. देवड़ा ने अपने सामने खड़े एक ए.एस.आई., एक तीन फीती वाले हवलदार और दो सिपाहियों पर निगाह डाली ।
“तो” - देवड़ा बोला - “तेरह तारीख, इतवार की रात को तुम लोग माहिम काजवे की चैक पोस्ट पर तैनात थे ?”
“जी हां ।” - अटैंशन खड़ा ए.एस.आई. बड़े अदब से बोला ।
“तुम चार जने ?”
“सर, एक सिपाही और था । करीमबख्श । वो छुट्टी पर है ।”
“यह वैन” - देवड़ा उनके सामने एक सायबान के नीचे खड़ी वैन की ओर संकेत करता हुआ बोला - “उस रात तुम्हारे नाके से गुजरी थी । उसका नम्बर तुम्हारे रिकार्ड में दर्ज है, इसलिए शक की कोई गुंजाइश नहीं ।”
कोई कुछ न बोला ।
“आप लोगों में से कोई इस वैन को पहचानता हो ?”
“मैं पहचानता हूं ।” - एक सिपाही हिम्मत करके बोला ।
“कैसे पहचानते हो ? आज पांच दिन बाद इस गाड़ी की तुम्हें याद रह जाने की कोई वजह ?”
“साहब, इस गाड़ी के ड्राइवर के साथ जो आदमी बैठा था, वह सिपाही करीमबख्श का कोई जानने वाला था । करीमबख्श ने उसको सलाम किया था और उसका हालचाल भी पूछा था । इसी वजह से मुझे यह गाड़ी याद रह गई ।”
“उसका हुलिया बयान कर सकते हो ?”
“करीमबख्श का ?”
“स्टूपिड । उस आदमी का, वैन के उस पैसेंजर का, जो करीमबख्श का जानने वाला मालूम होता था ।”
“वह एक लम्बा-चौड़ा आदमी था ।”
“बस !”
“साहब, मैं परे रजिस्टर पर बैठा था । इससे ज्यादा मैं और कुछ नहीं देख पाया था । फिर वह मेरी तरफ से ड्राइवर की ओट में भी था ।”
“ड्राइवर को तो तुमने ठीक से देखा होगा ।”
“ठीक से नहीं, साहब, लेकिन पैसेंजर से ज्यादा अच्छी तरह से देखा था ।”
“वो कैसा था देखने में ?”
“वो एक दुबला-पतला, कमउम्र छोकरा था जो सूरत से क्रिश्चियन या गोवानी लगता था ।”
“वैन में माल क्या लदा हुआ था ?”
“वैल्डिंग में काम आने वाले गैस के सिलेंडर लदे हुए थे साहब ।”
ए.सी.पी. देवड़ा चौंका ।
“वो सिलेंडर तो तीन-चार फुट लम्बे होते हैं !” - वह बोला ।
“होते हैं, साहब ।”
“वो वैन में कैसे आ गए ?”
“वैन की पिछली सीटें उखड़ी हुई थीं, साहब, और पीछे लम्बे रुख छत तक सिलेंडर लदे हुए थे ।”
“तुम वैन के ड्राइवर को दोबारा देखो तो पहचान लोगे ?”
“उम्मीद तो है, साहब ।”
जार्ज सैबेस्टियन की लावारिस लाश तब भी सरकारी हस्पताल की मोर्ग में मौजूद थी । उस सिपाही को देवड़ा खुद सरकारी हस्पताल लेकर गया और उसने उसे जार्ज सैबेस्टियन की लाश दिखाई ।
“यही था उस रात वाला वैन ड्राइवर ?” - देवड़ा ने सिपाही को घूरते हुए पूछा ।
सिपाही ने तनिक हिचकिचाते हुए सहमति में सिर हिला दिया ।
देवड़ा ने जार्ज सैबेस्टियन के पांव देखे ।
वे बाहर नम्बर का जूता पहनने वाले आदमी के पांव न निकले ।
लेकिन बारह नम्बर का जूता पहनने वाले आदमी के पैसेंजर हो सकता था जोकि उस रात जार्ज सैबेस्टियन के साथ वैन में मौजूद था और जो महकमे के सिपाही करीम बख्श का कोई जानने वाला था ।
तुरन्त करीमबख्श को कहीं से भी तलाश करके हैडक्वार्टर पेश किए जाने का आर्डर इशू हो गया ।
***
सोलंकी ने कराहते हुए आंख खोली ।
कुछ क्षण तो वह यही याद न कर पाया कि वह कहां था । फिर दिमाग पर बहुत जोर देने पर उसे याद आया कि वह लाल दरवाजा के इलाके में स्थित एक घटिया से होटल में था । पिछली रात बहुत थका-मांदा और कांखता-कराहता वह अहमदाबाद पहुचा था और उस होटल में एक कमरा लेकर उसमें दाखिल होते ही सो गया था ।
उसने उठकर बैठने की कोशिश की तो उसके मुंह से एक कराह निकल गई ।
फिर उसने महसूस किया कि उसका बदन तप रहा था और गर्दन अकड़ी हुई थी ।
परसों बम्बई में अपनी कैदगाह वाले तहखाने की सीढियों पर उसने जो दिखावटी कलाबाजी खाई थी, वह उसे बहुत महंगी पड़ी जान पड़ती थी । उसने अपनी गर्दन पर हाथ फेरा तो पाया कि वह दायीं तरफ से बुरी तरह सूजी हुई थी और छूने से भी फोड़े की तरह दुखती थी ।
बड़ी कठिनाई से हाथ बढाकर वह काल बैल का बटन दबा पाया ।
कुछ क्षण बाद एक वेटर वहां पहुंचा । उसने सोलंकी की तरफ देखा ।
“मैं बीमार हूं ।” - सोलंकी क्षीण स्वर में बोला - “मुझे एक डॉक्टर की जरूरत है ।”
“इस होटल में” - वेटर हड़बड़ाया - “डॉक्टर किधर होएंगा, बाप ।”
“अरे, शहर में तो होगा !”
“फीस लगेगी ।”
“दूंगा ।”
“फिर क्या वान्दा है ।” - वह जाने के लिए घूमा ।
“और सुनो ।” - सोलंकी व्यग्रभाव से बोला ।
“अब क्या है ?”
“डॉक्टर आने तक मुझे चाय पिला दो ।”
“अच्छा ।”
वह चाय पीकर हटा ही था कि डॉक्टर पहुंच गया, उसकी अपेक्षा से बहुत जल्दी पहुंच गया ।
डॉक्टर एक झोलझाल-सा बूढा आदमी था जोकि डॉक्टर से ज्यादा किसी सरकारी महकमे का क्लर्क लगता था । उसने सोलंकी की जुबान देखी, टैम्प्रेचर देखा, नब्ज देखी, ब्लडप्रेशर देखा, स्टेथस्कोप से उसकी छाती टटोली और फिर अपना विजिट बैग बन्द करता हुआ गम्भीरता से बोला - “तुम काफी बीमार हो । जल्दी ठीक होना चाहते हो तो शराब पीना छोड़ दो ।”
“मैं तो शराब नहीं पीता ।” - सोलंकी बोला ।
“अपने डॉक्टर से झूठ नहीं बोलते । तुम शायद यह सोचकर ऐसा कह रहे हो कि अहमदाबाद में शराब पर पाबन्दी है इसलिए...”
“अरे मैंने जिन्दगी में कभी शराब नहीं पी ।”
डॉक्टर सकपकाया । उसने यूं सोलंकी की तरफ देखा जैसे फैसला न कर पा रहा हो कि वह अपने पेशेंट की जुबान पर विश्वास करे या न करे ।
“दरअसल” - सोलंकी बोला - “मैं सीढियों से गिर पड़ा था...”
“नशे में गिरे होगे ।”
“...सिर के बल लुढकनियां खाता गिरा था जिसकी वजह से मेरी गदर्न...”
“गर्दन ! जरा गर्दन दिखाओ ।”
सोलंकी ने तनिक करवट बदली, मुंह ऊंचा किया और गर्दन का सूजा हुआ हिस्सा उसकी तरफ कर दिया ।
डॉक्टर ने गर्दन का मुआयना किया, बड़ी संजीदगी से अपनी गर्दन हिलाई और फिर बोला - “केस गम्भीर है । अगर तुम हस्पताल भरती हो जाओ तो...”
सोलंकी पहले ही इन्कार में सिर हिलाने लगा ।
“प्राइवेट नर्स की फीस अदा कर सकते हो ?”
“हां ।”
“फिर तो तुम यहां रह सकते हो । कम से कम दो दिन तुम्हें बिस्तर में ही रहना होगा । तुम्हारी हस्पताल जैसी देखभाल नर्स यहीं कर देगी । ठीक ?”
“ठीक ।”
“अब मेरी और नर्स की फीस...”
“देता हूं ।” - सोलंकी ने उठने की कोशिश की तो स्वयं को इस काम में असमर्थ पाया - “उधर उस कुर्सी पर मेरी पैंट पड़ी है । उसमें मेरा बटुवा है । उसमें से अपनी और नर्स की फीस निकाल लीजिए ।”
डॉक्टर ने पैंट में से बटुवा बरामद किया । यह देखकर उसके चेहेर पर सख्त हैरानी के भाव आए कि बटुवा सौ-सौ के नोटों से ठुंसा हुआ था । उसने बटुवे में से सौ-सौ के दो नोट निकाले और फिर हिचकिचाते हुए एक नोट और खींच लिया । उसने बटुवा वापिस पैंट की जेब में डाल दिया और सोलंकी को तीन नोट दिखाता हुआ बोला - “पचास रुपए मेरी फीस है । ढाई सौ रुपए नर्स के लिए हैं, वो दो दिन चौबीस घण्टे यहीं रहेगी ।”
“ठीक है ।”
डॉक्टर चला गया ।
आधे घण्टे बाद एक काली-कलूटी, सूखी टहनी जैसे जिस्म वाली, उम्रदराज मलियाली नर्स वहां पहुंच गई ।
हरीश एम. चन्दानी की तलाश का प्रोग्राम फिलहाल स्थगित हो गया ।
***
अपने बेटे के घर से निकलकर आफिस जाने की जगह रूपचन्द जगनानी कोलाबा पहुंच गया ।
गोविन्द दत्तानी ने खुद दरवाजा खोला । रूपचन्द को आया देखकर उसने बुरा-सा मुंह बनाया और फिर उसे भीतर बुलाने की जगह खुद बाहर आ गया । उसने अपने पीछे कोठी का मुख्यद्वार बन्द किया और बड़े प्रसन्न स्वर में बोला - “तुम फिर आ गए ।”
“साईं मैं...”
“रोकड़ा वापिस करने आए हो तो ठीक है वर्ना फूट जाओ ।”
“साईं, अपने वादे पर तो खरे उतरो ।”
“कौन से वादे पर खरा उतरूं ?”
“तुमने मुझे पच्चीस तारीख तक की मोहलत दी है । तब तक के लिए अभयदान दिया है ।”
“जब रोकड़ा नहीं लाए तो आज क्यों आए हो ? पच्चीस से पहले आना था तो रोकड़ा लेकर आना था ।”
“साईं, तुम्हारे आदमियों को भी तो मालूम होना चाहिए कि तुमने मुझे पच्चीस तारीख तक के लिए अभयदान दिया है !”
“मतलब ?”
“तुम्हारे आदमी तो मुझे अभी भी धमका रहे हैं । आज उन्होंने मेरे लड़के के घर पर मुझे फोन कर दिया । अगर फोन मेरे लड़के ने सुन लिया होता तो...”
“तो क्या होता ?” - दत्तानी आंखें निकालकर बोला - “साले, हम क्या तेरे लड़के से डरते हैं !”
“मेरा मतलब है...”
“मुझे पता है तुम्हारा मतलब । मुझे यह बताओ कि तुम जब अब तक कुछ नहीं कर सके तो पच्चीस तक कौन-सा कमाल कर लोगे ?”
“मैं कर लूंगा ।”
“कमाल ?”
“हां ।”
दत्तानी ने घूरकर उसे देखा ।
“एक कमाल कर भी तो नहीं चुके हो ?” - वह बोला ।
“क-क्या ?”
“कहीं तुम सच ही उन सेंधमारों में तो शामिल नहीं थे जिन्होंने जौहरी बाजार का वाल्ट लूटने की कोशिश की थी ?”
रूपचन्द खामोश रहा । उसने जोर से थूक निगली ।
“मैंने अखबार में तुम्हारी गिरफ्तारी के बारे में पढा था और इकबाल सिंह से बात की थी । वो तो हंस-हंस के पागल हो गया था । कहने लगा कि अगर रूपचन्द जगनानी इतना हौसलामन्द हो सकता था तो उसे तो ‘कम्पनी’ का मामूली कलैक्टर नहीं, कोई बड़ा ओहदेदार होना चाहिए था । सिपहसालार बना दें तुम्हें कम्पनी का ? या वजीरेआजम !”
“साईं” - रूपचन्द रुआंसे स्वर में बोला - “तुम क्यों खामखाह मेरा मजाक उड़ा रहे हो !”
“दफा हो जा ।” - एकाएक दत्तानी सांप की तरह फुंफकारा - “अब मुझे तभी शक्ल दिखाना, जब तेरे पास लौटाने के लिए रोकड़ा हो । पच्चीस तारीख तक रोकड़े का इन्तजाम न हो सके तो तू मेरे पास आने की तकलीफ न करना । इस बार मैं तेरे पास आऊंगा । मैं आऊंगा तेरे पास । चल निकल यहां से ।”
और उसने रूपचन्द को इतनी जोर का धक्का दिया कि वह गिरते-गिरते बचा ।
अपमान की पीड़ा से तिलमिलाता, खून के आंसू पीता, रूपचन्द जगनानी वहां से विदा हुआ ।
शाम को मार्केट बन्द होने तक विमल और अन्य लोगों ने सोलह ऐसी दुकानें नोट कर लीं जिनकी कीमती तिजोरियों का माल मार्केट बन्द होते समय वाल्ट में नहीं जमा कराया जाता था ।
अगले दिन शनिवार था जबकि मुबारक अली ने कर्फ्यू लगवाकर दिखाना था ।
✽✽***
ग्यारह बजे के करीब सोलंकी ने आंख खोली ।
उसने अपनी तबीयत में इतना काफी सुधार पाया कि उसने डॉक्टर की राय को कबूल करके दो दिन बिस्तर में गुजारने का इरादा छोड़ दिया ।
नर्स उसके सिरहाने बैठी थी ।
“गुड मार्निंग ।” - वह बोली - “कैसा है ?”
“अच्छा है ।” - सोलंकी जबरन मुस्कराता हुआ बोला ।
उसने उठकर टायलेट जाना चाहा तो नर्स ने यूं उसकी बांह थामी जैसे वह वहां भी उसके साथ जाना चाहती हो और उसकी मदद करना चाहती हो । सोलंकी बड़ी कठिनाई से उसे रोक पाया ।
“ठीक है ।” - वह बोली - “तुम टायलेट हो के आओ । मैं चाय बुलाता है ।”
सोलंकी ने सहमति में सिर हिलाया और टायलेट में दाखिल हो गया ।
नित्यकर्म से निवृत होकर उसने नर्स के साथ चाय पी और हल्का सा नाश्ता किया ।
फिर डॉक्टर उसका मुआयना करने आया और उसे इधर-उधर ठकठकाकर फीस लेकर चला गया ।
“अब तुम रैस्ट मारो ।” - नर्स बोली - “मैं चेंज का वास्ते हाफ एन आवर कू घर जाना मांगता है ।”
“जरूर ।” - सोलंकी बोला ।
“बिस्तर से उठने का नहीं है ।”
“नहीं है ।”
“मैं हाफ ऐन आवर में लौट के...”
“जब मर्जी आना ।”
नर्स चली गई तो सोलंकी बिस्तर से निकला । उसने कपड़े तब्दील किए, जूते पहने और नीचे रिसैप्शन पर पहुंचा । वहां से उसने टेलीफोन डायरेक्ट्री हासिल की और उसमें चन्दानी के नाम की एन्ट्री तलाश करने लगा ।
अब उसे अनुभव हो रहा था कि पहले जिस काम को वह मामूली और आसान समझ रहा था, वो न मामूली था और न आसान था । डॉक्टर स्लेटर के चन्दानी नाम के पेशेन्ट की ऐंट्री डायरेक्ट्री में किसी और नाम से हो सकती थी, उसका टेलीफोन और नाम डायरेक्ट्री में दर्ज ही नहीं हो सकता था बल्कि यह भी हो सकता था कि उसके पास टेलीफोन ही न हो ।
बड़ी मेहनत से उसने डायरेक्ट्री में ‘चन्दानी’ तलाश किया ।
डायरेक्ट्री में एक ही जगह चार चन्दानी दर्ज थे । एक चन्दानी - एच. था, दूसरा चन्दानी - एच.एम. था और बाकी दो चन्दानी - हरीश थे ।
उसने चारों नामों के साथ दर्ज पते एक कागज पर नोट कर लिए ।
“कहीं से शहर का नक्शा मिल सकता है ?” - उसने रिसैप्शनिस्ट से पूछा ।
सड़क के मोड़ पर स्टेशनरी की दुकान है ।” - रिसैप्शनिस्ट बोला - “वहां पता करो ।”
सोलंकी को वहां से शहर का नक्शा मिल गया ।
अपनी स्टेशनवैगन में बैठे-बैठे उसने डायरेक्ट्री में से निकाले चारों पते उस नक्शे में तलाश किए और उनके गिर्द दायरे लगा दिए ।
फिर वह सबसे पहले सबसे नजदीकी पते पर पहुंचा ।
सबसे नजदीकी पता तीन दरवाजा का था जोकि उसके होटल के करीब ही एक जगह थी ।
पता एक बहुमंजिली इमारत का निकला जिसके ग्राउन्ड फ्लोर पर बेशुमार लेटर बक्स लटके हुए थे ।
उन लेटर बक्सों में से एक पर एच. चन्दानी दर्ज था ।
अपनी बीमार हालत की वजह से सोलंकी की अक्ल मुकम्मल तौर से उसका साथ नहीं दे रही थी लेकिन फिर भी इतना उसने जरूर महसूस किया कि वह पता ऐसे आदमी के रहने के काबिल नहीं था जोकि नया चेहरा हासिल करने के लिए पांच लाख रुपए खर्च कर चुका हो ।
फिर भी उसने इमारत में एच. चन्दानी का फ्लैट तलाश किया और जाकर काल बैल बजाई ।
दरवाजा एक निहायत खूबसूरत नौजवान लड़की ने खोला । उसने प्रश्नसूचक नेत्रों से सोलंकी की तरफ देखा ।
“एच. चन्दानी ?” - लड़की की खूबसूरती के रोब से थर्राया सोलंकी केवल इतना ही कह सका ।
“फरमाइये ।”
“मैंने एच. चन्दानी से मिलना था ।”
“मैं हूं एच. चन्दानी ।”
“जी !”
“मैंने कहा मैं हूं एच. चन्दानी ! हेमलता चन्दानी ।”
“आप टेलीफोन डायरेक्ट्री वाली एच. चन्दानी हैं ?”
“क्या मतलब हुआ इस सवाल का ?” - वह तीखे स्वर में बोली ।
“मैंने पूछा आप वो एच. चन्दानी हैं जो टेलीफोन डायरेक्ट्री में दर्ज है ।”
“है तो तुमसे मतलब ?”
“हो कि नहीं हो ?” - सोलंकी जिदभरे स्वर में बोला ।
“हूं ।”
“फिर मुझे कोई मतलब नहीं ।” - और वह जाने को घूमा ।
“तुम पागल तो नहीं हो ?”
“नहीं ।” - सोलंकी जाता-जाता बोला ।
“खामखाह घन्टी क्यों बजाई ?”
“खामखाह ही बजाई । माफी !” - वह सीढियां उतरता हुआ बोला ।
“मैं पुलिस को फोन करती हूं ।” - वह उसके पीछे चिल्लाई ।
सोलंकी के कान पर जूं भी न रेंगी पुलिस के नाम से ।
दूसरा चन्दानी, चन्दानी एच.एम., दिग्विजय कालोनी में रहता था जोकि वहां से बहुत दूर शहर की घनी आबादी वाले इलाके से एकदम बाहर थी ।
वहां तक वह बड़ी कठिनाई से पहुंचा । वहां पहुंचने के लिए उसने साबरमती नदी उसके तीन दरवाजा के करीब मौजूद एलिस ब्रिज से ही पार कर ली जिसकी वजह से उसने कई बार गलत सड़क पकड़ी और अपने लक्ष्य से विपरीत दिशा में भटका ।
अन्त में असल फासले से छ: गुणा ज्यादा स्टेशनवैगन चलाने के बाद वह दिग्विजय कालोनी पहुंचा ।
वहां उसका लक्ष्य एक कोठी निकली जोकि किसी सम्पन्न आदमी के रहने के काबिल मानी जा सकती थी लेकिन वहां भी उतनी रईसी नहीं झलक रही थी जोकि सोलंकी के ख्याल से डॉक्टर स्लेटर के पेशेन्ट के रहने की जगह से झलकनी चाहिए थी ।
उसने काल बैल बजाई ।
एक आदमी ने दरवाजा खोला ।
“एच. एम. चन्दानी से मिलना है ।” - सोलंकी बोला ।
“मैडम तो बोर्ड की मीटिंग में गई है ।”
“मैडम !”
“हां । मिसेज हीरामणि चन्दानी को पूछ रहे हो न ?”
“ये वो एच.एम. चन्दानी हैं जो टेलीफोन डायरेक्ट्री में दर्ज हैं ?”
“हां । तुम टेलीफोन एक्सचेंज से आए हो ?”
“नहीं । हां । यहां अकेली रहती हैं वो ?”
“हां । क्यों ?”
“तुम... आप कौन हैं ?”
“मैं उनका खानखामा हूं ।”
“और ये एच.एम. चन्दानी, जो फोन में दर्ज हैं, मैडम हैं, औरत हैं ?”
“हां । लेकिन इतने सवाल क्यों पूछ रहे हो तुम ? इनका टेलीफोन से क्या रिश्ता ?”
“कोई रिश्ता नहीं ।”
वह वापिस घूमा ।
पहले दोनों चन्दानी औरतें निकली थीं ।
कोई गड़बड़ थी ।
वह पोस्ट आफिस में पहुंचा । वहां से डायरेक्ट्री लेकर उसने फिर उसमें वह पृष्ठ निकाला जिस पर ‘चन्दानी’ दर्ज थे । तब उसे महसूस हुआ कि खुद उसकी गलती से यूं उसका आधा दिन बेकार गया था । एच. चन्दानी और एच. एम. चन्दानी दोनों के बाद क्रमश: मिस और मिसेज लिखा था जिसकी तरफ कि उसने ध्यान नहीं दिया था । उसने अब अच्छी तरह से तसदीक कर ली कि बाकी के दो चन्दानी मिस या मिसेज नहीं थे । वे हरीश चन्दानी क्रमश: प्रगति नगर और आयोजन नगर में रहते थे । प्रगति नगर क्योंकि दिग्विजय कालोनी से करीब था इसलिए वह पहले वहां पहुंचा ।
इस बार का पता एक बढिया फ्लैटों वाली आधुनिक इमारत का निकला ।
उसने हरीश चन्दानी के फ्लैट की काल बैल बजाई ।
कोई उत्तर न मिला ।
उसने दरवाजा खटखटाया ।
एक सजी-धजी अधेड़ औरत ने दरवाजा खोला ।
सोलंकी ने उसका अभिवादन किया और बोला - “हरीश चन्दानी साहब...!”
“फैक्ट्री गए हैं ।” - उत्तर मिला - “तुम ड्राइवर की नौकरी के लिए आए हो ?”
“ये जो हरीश चन्दानी साहब हैं” - सोलंकी उसके सवाल को नजरअन्दाज करता हुआ बोला - “इनके सिर पर बिना खिजाब लगाए घने, काले बाल हैं, बीच में मांग निकालते हैं और...”
“अरे, मेरे हसबैंड तो सिर से गंजे हैं ।”
“आपके हसबैंड ! हरीश चन्दानी ! जो डायरेक्ट्री में दर्ज है ।”
“हां, तुम...”
“ताजे-ताजे गंजे हुए हैं या अरसे से गंजे हैं ?”
“वो तो तब भी गंजे थे, जब मेरी उनसे शादी हुई थी । तुम इतने सवाल क्यों कर रहे हो ? तुम ड्राइवर की नौकरी के लिए आए हो या...”
“माफी । आप वाले हरीश चन्दानी की मुझे तलाश नहीं ।”
चौथा, आयोजन नगर वाला, हरीश चन्दानी सत्तर साल का अपाहिज बूढा निकला जोकि व्हील चेयर पर पड़ा-पड़ा अपनी जिन्दगी के बाकी दिन गिन रहा था ।
रात को थककर चूर हुआ सोलंकी होटल में पहुंचा ।
“तुम किदर चला गया था, मैन ?” - नर्स उस पर बरसी ।
“माफी ।” - थककर चूर हुआ सोलंकी पलंग पर ढेर होता हुआ बोला ।
तब कहीं जाकर उसे ख्याल आया कि दिन-भर से उसने कुछ नहीं खाया था ।
“कैसा है ?” - नर्स चिन्तित भाव से बोली ।
“भूखा है ।”
“अरे, तबीयत कैसा है ?”
“भूख की वजह से खस्ता है ।”
“दवाई खाया ?”
“नहीं ।”
“दैट्स टू बैड ।”
“कुछ खाने को मंगाकर दो, फिर दवाई खाऊंगा ।”
“स्ट्रेंज मैन । अपना हैल्थ का केयर नहीं करता ।”
“करता है । तभी तो खाना मांगता है ।”
“मंगाता है ।”
नर्स वेटर को बुलाने चली गई ।
***✽✽
जौहरी बाजार के ऐन बीचोंबीच एक शिवालय था जिसके आगे से गुजरते समय लोग अनायास ही नतमस्तक हो जाते थे । शाम के वक्त वहां अपेक्षाकृत ज्यादा भीड़ हो जाती थी क्योंकि तब लोग रुककर माथा टेकते थे और पीतल के जंगले के पीछे शिवलिंग के पहलू में बैठे पुजारी से चरणामृत पाकर जाते थे ।
तब शाम के पांच बजने को थे जबकि पुजारी के सामने पड़ी अक्षत वगैरह की थाली में एक भारी-सी चीज आकर गिरी । पुजारी हड़बड़ाया, पहले उसने समझा कि किसी ने शरारत में पत्थर फेंका था लेकिन जब उसकी उस चीज पर निगाह पड़ी तो उसके प्राण कांप गए ।
वह मांस का लोथड़ा था ।
“शिव शिव शिव ।” - पुजारी हाहाकार कर उठा और जोर-जोर से चिल्लाने लगा - “किसी ने मांस का लोथड़ा फेंका ! किसी ने शिवालय में मांस का लोथड़ा फेंका !”
“इसने फेंका है ।” - एकाएक सड़क पर से कोई चिल्लाया - “मैंने अपनी आंखों से इसे शिवालय की तरफ कुछ फेंकते देखा था ।”
“मैंने नहीं फेंका ।” - कोई आतंकित स्वर में बोला ।
“इसी ने फेंका है । मारो साले को !”
शिवालय के सामने भीड़ जमा होने लगी ।
“मियां, शर्म करो ।” - मुबारक अली टैक्सी स्टैंड पर मौजूद कई टैक्सी वालों में से एक से बोला - “तुम्हारा मुसलमान भाई पिट रहा है और तुम हाथ पर हाथ धरकर बैठे हुए हो । शर्म करो ।”
“मुसलमान भाई पिट रहा है !” - तुरन्त आवेशपूर्ण प्रत्युत्तर मिला ।
“हिन्दुओं के हाथों । हजार बार लानत है तुम पर । जरा भी शर्म हो तो जाकर डूब मरो समुन्दर में ।”
“अरे, छुड़ाओ उसे ।” - कोई और बोला ।
कई टैक्सी वाले एक व्यक्ति को, जोकि खुद मुबारक अली का आदमी था, पीटती हुई भीड़ की तरफ लपके ।
अगले ही क्षण बाजार में कोहराम मच गया ।
“मोड़ पर गोली चल गई हैं ।” - मुबारक अली चिल्लाया - “एक हाजी को गोली मार दी ।”
“हाजी को गोली मार दी !”
“बेचारे का कुछ भी कसूर नहीं था । सिर्फ सड़क से गुजर रहा था । बेचारे ने...”
कुछ आदमियों ने पंडित को शिवालय में से घसीट कर बाहर निकाल लिया । पंडित पर लात-घूसों की बौछार होने लगी ।
“अरे, पंडित को छुड़ाओ ।”
कुछ और लोग वहां पहुंचे ।
हाथापाई और धींगामुश्ती का बाजार गर्म होने लगा ।
फिर सोडे की बोतलें और ईंट पत्थर बरसने लगे ।
बाजार की दुकानों के शटर पटापट गिरने लगे ।
फिर दूर कहीं फ्लाईग स्क्वायड की आवाज गूंजी ।
भगदड़ मच गई ।
मुबारक अली अपने चार दंगाई साथियों के साथ एक कार में सवार हुआ, कार सायरन की आवाज से विपरीत दिशा में भाग निकली ।
उसने खिड़की में से हाथ निकाला और एक नुकसान कम करने वाला लेकिन आवाज ज्यादा करने बम एक बन्द होती दुकान पर फेंका ।
जोर का धमाका हुआ ।
इलाके में और खलबली मच गई ।
रेडियो से प्रसारित होने वाली आठ बजे की खबरों में बताया गया कि नगर के जौहरी बाजार के इलाके में कुछ असामाजिक तत्वों की शर्मनाक हरकतों की वजह से साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठने की स्थिति बम गई थी जिसकी वजह से इलाके में कर्फ्यू लगा दिया गया था ।
“देखा, बाप !” - मुबारक अली एक विजेता के से स्वर में बोला ।
“कहीं सिलसिला” - विमल बोला - “हमारी उम्मीद से ज्यादा गम्भीर न हो गया हो ।”
“क्या मतलब ?”
“ऐसे हालात में कई बार पुलिस की मदद करने के लिए स्टेट रिजर्व पुलिस की गारद या फौज भी तो बुला ली जाती है ।”
“वो तब होता है जब कि चार-छ: आदमी भी मरे हों और वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, इमकान हो और आदमी मरने का ।”
“फिर भी ।”
“फिर भी का भी जवाब है अपुन के पास । उस इलाके का काउंसलर मुसलमान है और हमेरा लिहाज करने वाला है । अपुन उसको बोलेंगा कि यो, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, अपने सम्प्रदाय के लोगों की सलामती की खबर लेने के लिए कर्फ्यू वाले इलाके का दौरा करे । उस दौरे पर अपुन उसके साथ होएंगा ।”
“गुड ।”
“मैं एक घण्टे में तुम्हेरे कू खबर करता हूं कि उधर एस.आर.पी. या मिलिट्री है या नहीं ।”
“या पुलिस का कोई अतिरिक्त प्रबन्ध है या नहीं ।”
“वो भी । अगर सब ठीक ठाक हुआ तो फिर आज ही हल्ला हो जाएंगा ?”
“हो जाएगा ।”
“बढिया । अपुन चला । बस गया और आया ।”
***
रेडियो पर कर्फ्यू का समाचार प्रसारित होते ही जामवन्तराव उठ खड़ा हुआ ।
“अब क्या हुआ ?” - अन्जना बोली ।
“कुछ नहीं ।” - जामवन्तराव अनमने स्वर में बोला ।
“उठ क्यों खड़े हुए ?”
“मैं जा रहा हूं ।”
“जा रहे हो ! खाने का वक्त हुआ तो जा रहे हो !”
जामवन्तराव ने उत्तर न दिया । वह जूते पहनने लगा ।
“अब सुनिए” - रेडियो पर उदघोषक कह रहा था - “फैज अहमद फैज की एक गजल पंकज उधास की जुबानी...”
“कहां जा रहे हो ?” - अन्जना ने जिदभरे स्वर में पूछा ।
“मैं एक जरूरी काम से जा रहा हूं । हो सकता है रात को घर न लौटूं ।”
“आजकल तुम्हारे सारे जरूरी काम रात को क्यों होते हैं ?”
जामवन्तराव ने आगे बढकर रेडियो बन्द कर दिया । फिर उसने अन्जना को अपनी बांहों में ले लिया और जबरन मुस्कराता हुआ बोला - “चन्द रोज और मेरी जान फकत चन्द ही रोज ।”
“ये सब झूठे दिलासे हैं ।” - अन्जना तड़पकर उसकी बांहों से निकलती हुई बोली ।
“अन्जना, मैं...”
“तुम नहीं सुधर सकते । तुम नहीं जानते कि तुम कितनी गलत राह पर चल रहे हो । तुम खुद तो बर्बाद होवोगे ही, साथ में मुझे भी बर्बाद करोगे ।”
“बर्बादी का इतना ही खौफ है तो अपने मायके चली जाओ ।”
“वहां क्या मुंह लेकर जाऊं ? मैं अपनी पोल खुलवाने शोलापुर जाऊं कि एक धनवान बाप की बेटी कैसी कंगाली की जिन्दगी जी रही है...”
“मुझे अपने बाप की दौलत की धौंस न दो । देख लेना एक दिन मैं इतना धनवान बनकर दिखाऊंगा कि...”
“यूं ही ख्यालों में जीते रहो ।” - वह एकाएक फफककर रो पड़ी - “अब और बर्दाश्त नहीं होता...”
“अन्जना, मेरी जान, मुझे एक दिन की मोहलत और दो, मैं कल अगर...”
“हे भगवान ! ऐसे जीने से तो मर जाना बेहतर है ।”
“सिर्फ एक दिन की मोहलत और अन्जना, सिर्फ एक दिन की । देख लेना, मैं तुझे नोटों के बिस्तर पर सुलाऊंगा ।”
“मुझे नहीं सोना नोटों के बिस्तर पर । मैं जैसी हूं, ठीक हूं । लेकिन तुम आदमी तो बनो ।”
“मैं...”
“देखो, भगवान के लिए वो नामुराद नशा छोड़ दो ! भगवान के लिए उस मवाली मुबारक अली जैसे लोगों की सोहबत छोड़ दो । भगवान के लिए...”
“मैं जाता हूं ।” - जामवन्तराव हड़बड़ाकर दरवाजे की तरफ बढता हुआ बोला - “मैंने तुमसे एक दिन की मोहलत मांगी है । देख लेना कल सब कुछ बदला होगा ।”
“मुझे जो कुछ जैसा है, वैसा ही मंजूर है । देखो, अगर दिल से मुझे चाहते हो तो आज मेरा एक कहना मानो ।”
“क्या ?”
“आज कहीं मत जाओ ।”
“आज क्या खास बात है ?”
“तुम्हें नहीं मालूम ?”
“नहीं ।”
“फिर भी कहते हो कि मेरे से मोहब्बत करते हो और मेरे लिए ये कर दोगे, वो कर दोगे !”
“अरे कुछ कहो भी ।”
“आज के दिन हमारी शादी हुई थी ।”
जामवन्तराव को जैसे सांप सूंघ गया । इतने सालों में वह पहली बार अपनी शादी की सालगिरह की तारीख भूला था ।
वह दरवाजे से वापिस लौटा, उसने करीब आकर अपनी पत्नी को बांहों में भर लिया और जोर से उसका मुंह चूमा ।
“सालगिरह मुबारक, मेरी जान ।” - वह अन्जना के कान की लौ चुभलाता हुआ फुसफुसाया ।
अन्जना भावविभोर हो उठी । वह कसकर अपने पति से लिफ्ट गई ।
“अब मैं जाता हूं ।”
अन्जना जैसे आसमान से गिरी । वह यूं छिटककर उससे अलग हुई जैसे एकाएक उसे अहसास हुआ हो कि वह किसी गैरमर्द की बांहों में थी ।
जामवन्तराव खोली से बाहर निकल गया ।
अन्जना बुत बनी अपलक उसे जाता देखती रही । उस घड़ी अपने पति से, अपनी जिन्दगी से, उसकी रही-सही उम्मीद भी खत्म हो गई ।
***
टेलीफोन की घण्टी बजी ।
आनन्द ने हाना की आगोश से सिर उठाया और सकपका कर टेलीफोन की तरफ देखा ।
घन्टी तब बजी थी जब उसे फोन आने की कतई उम्मीद नहीं रही थी ।
उसने हाथ बढाकर रिसीवर उठाया ।
हाना कुममुनाई, उसने करवट बदली तो उसके ऊपर से चादर सरक गई और एक सुडौल दूधिया छाती चादर से बाहर झांकने लगी । उसकी पलकें एक बार फड़फड़ाई और फिर बन्द होकर स्थिर हो गई ।
“हल्लो ।” - आनन्द आंखों से हाना के मखमली बदन का रसास्वादन करता हुआ माउथपीस में बोला ।
“मुबारक अली बोल रहा हूं ।”
आवाज इतनी तीखी थी कि आनन्द को रिसीवर कान से परे करना पड़ा ।
“हां, मियां । बोलो ।” - वह बोला ।
“कर्फ्यू लग गया है ।”
“गुड ।”
“आज ही का प्रोग्राम तय हुआ है ।”
“वैरी गुड ।”
“फौरन पहुंच जाओ ।”
“कहां ?”
“आटी के स्कैप यार्ड में ।”
“ठीक है । आता हूं ।”
उसने रिसीवर क्रेडल पर रखा और हाथ बढाकर ट्यूब लाइट का स्विच आन कर दिया ।
बैडरूम में तीखी रोशनी फैल गई ।
हाना ने मिचमिचाते हुए आंखें खोलीं । उसने चादर अपनी ठोड़ी तक खींच ली ।
“सारी, बुलबुलेजमां ।” - आनन्द बिस्तर से निकलता हुआ बोला ।
“किस बात के लिए ?” - हाना बोली ।
“मुझे फौरन कहीं जाना है ।” - आनन्द फर्श पर पड़े अपने कपड़े उठाता हुआ बोला । उसी के कपड़ों में हाना की स्कर्ट, ब्लाउज, पैंटी, ब्रेसियर उलझे हुए थे जिन्हें वह अलग कर-करके बिस्तर पर हाना की तरफ उछालने लगा ।
“कहीं जाना है !” - हाना की त्योरी चढी - “इस वक्त ?”
“हां ।”
“क्यों ?”
“एक बेहद अर्जेन्ट, अनएक्सपेक्टिड टेलीफोन काल आ गई है ।”
“बात क्या है ?”
“मर्दानी बात है । तुम्हारे सुनने लायक नहीं । उठकर कपड़े पहनो ।”
“ओह, नो ।”
“मिस्टर सतीश आनन्द ।”
“यस, डार्लिग !”
“तुम एक नम्बर के हरामी हो ।”
“एक नम्बर का नहीं । यह बम्बई शहर है, बुलबुलेजहान । यहां तो एक से एक बढकर हरामी मौजूद हैं । उनके मुकाबले में मेरी क्या बिसात है ।”
“मुझे पता है यूं एकाएक तुम कहां जा रहे हो ।”
आनन्द सकपकाया । कमीज के बटन बन्द करते उसके हाथ ठिठके । उसने उलझनपूर्ण भाव से हाना की तरफ देखा ।
“तुम” - वह बोली - “आंटी के सक्रैप यार्ड में मुबारक अली के पास कर्फ्यू लगा होने का फायदा उठाकर प्रोग्राम करने जा रहे हो ।”
“क.. क्या ?”
“मैंने ठीक कहा ?”
“तु... तुम्हें कैसे मालूम ?”
“अभी जो फोन काल आई थी, उसकी दूसरी तरफ की आवाज भी मुझे साफ सुनाई दे रही थी ।”
“तुम सोई नहीं हुई थीं ?”
“सोई हुई थी लेकिन घन्टी की तीखी आवाज ने जगा दिया था ।”
“ओह !”
“ये आंटी कौन है ?”
“आंटी आंटी है ।”
“कितनी उम्र है उसकी ?”
“पचपन साल ।”
“कोई मैडम है ?”
“मैडम !”
“चकला चलाने वाली । अपने यहां ओर्जी कराती होगी । यह मुबारक अली उसका दलाल है या तुम्हारा ओर्जी का पार्टनर ?”
“ओर्जी का पार्टनर ।”
“एक औरत से मन नहीं भरता तुम्हारा ?”
“नहीं ।”
“ऐसी नीयत कभी जाहिर तो नहीं की थी तुमने ?”
“करता तो तुम मेरे पास आतीं !”
“यह ऊटपटांग जवाब तुम इसलिए तो नहीं दे रहे हो क्योंकि सही-सही जवाब देकर तुम कोई असलियत मुझ पर जाहिर नहीं करता चाहते ?”
“नहीं ।”
“वैसे एक बात जानते हो न ?”
“क्या ?”
“कि मैं” - हाना की आवाज भर्रा गई - “तुमसे मुहब्बत करती हुं । यह जानते-बुझते तुमसे मुहब्बत करती हूं कि तुम्हारे कई नौजवान लड़कियों से ताल्लुकात हैं । उस रोज भी तुमने मुझे इसलिए टरका दिया था क्योंकि कोई और लड़की पहले से ही तुम्हारे पहलू में थी ।”
“किस रोज ?”
“जान-बूझकर अंजान मत बनो । उस रोज जिस रोज यहां वो जख्मी बुजुर्गवार मौजूद थे । तुम्हारे कहने पर मुझे जिनकी आया और नर्स बनना पड़ा था । पांच तारीख को । शनिवार की रात को । अब याद आ गया ?”
“तुम्हें गलतफहमी हुई है, स्वीट हार्ट । उस रोज तो मेरे साथ यहां डॉक्टर साहब थे और मुझे उनको लेकर फौरन कहीं जाना था ।”
“झूठ ।”
आनन्द ने प्रतिवाद नहीं किया । वह जूते पहनने लगा ।
“तुम्हें मेरी मुहब्बत की कोई कद्र नहीं ?”
“बहुत कद्र है लेकिन...”
“मैं तुम्हारे लिए महज एक जनाना जिस्म हुं ?”
“नहीं, यह बात नहीं लेकिन इस बारे में हम कल बात करेंगे ।”
“कल क्यों ? अभी क्यों नहीं ?”
“क्योंकि अभी मुझे वक्त नहीं और मुहब्बत जैसे नाजुक और पेचीदा मसले को डिसकस करने के लिए बहुत वक्त दरकार होता है ।”
“यह एक फिकरा जुबान से निकालने के लिए, कि तुम भी मुझसे मुहब्बत करते हो, तुम्हें बहुत वक्त चाहिए ?”
“जुबान से निकालने के लिए नहीं लेकिन दिल से निकालने के लिए बहुत वक्त चाहिए ।”
“यानी कि तुम उन मर्दो में से हो जिसके दिल में कुछ और होता है और जुबान पर कुछ और होता है ?”
आनन्द हड़बड़ाया ।
“जवाब दो ।”
“मैं तुमसे बातों में नहीं जीत सकता ।”
“लेकिन...”
“जो मेरे दिल में है वो अगर तुम खुद ही नहीं महसूस कर सकती हो तो लो, जुबान से कहता हूं । हाना, मैं तुमसे मुहब्बत करता हूं ।”
“दिल से कह रहे हो ?”
“दिल से तो हमेशा ही कहता हूं । जुबान से आज कह रहा हूं ।”
“मुहब्बत में झूठ नहीं बोला जाता ।”
“मैं कहां झूठ बोलता हूं ।”
“नहीं बोलते हो तो बताओ इस वक्त एकाएक तुम कहां जा रहे हो ?”
“आंटी के यहां !”
“क्या करने ?”
“अपने दोस्त मुबारक अली ने मिलने ।”
“किसलिए ?”
“ओर्जी (सामूहिक अभिसार) में शामिल होने के लिए ।”
हाना के मुंह से एक गहरी सांस निकली ।
“सान्ता मारिया !” - वह असहाय भाव से बोली ।
“अब उठकर कपड़े पहनो ।”
“मैं अगर यहीं तुम्हारा इन्तजार करूं तो तुम्हें कोई एतराज ?”
आनन्द हिचकिचाया ।
“घबराओ नहीं, तुम्हारी गैरहाजिरी में मैं यहां की कोई कीमती चीज उठाकर नहीं भाग जाऊंगी ।”
“तुम्हारे से ज्यादा कीमती कोई चीज नहीं यहां ।”
आनन्द को ऐतराज नहीं, अन्देशा था । उसे अन्देशा था कि हाना की मौजूदगी में उसकी कोई और बुलबुल न वहां आ टपके ।
“साफ-साफ जवाब दो ।” - यह बोली ।
“मैं हो सकता है, कल लौटूं ।”
“मैं इंतजार करूंगी ।”
“ओके ।”
“वैसे जहां तुम जा रहे हो, वहां मुझे साथ ले जा सकते हो ?”
“नहीं ।”
“ठीक है । मै इंतजार करूंगी तुम्हारे लौटने का और आकर मेरी बांहों में समा जाने का ।”
आनन्द के दिल को उस घड़ी अजीब-सा कु्छ होने लगा, ऐसा जैसा पहले कभी नहीं हुआ था । भावुकता के आवेग में प्यार-मुहब्बत की दुहाई उसकी बुलबुलें देती ही रहती थीं लेकिन वह भी पक्का चिकना घड़ा था । उस पर मुहब्बत की दुहाई का कभी कोई असर नहीं होता था लेकिन आज पता नहीं क्यों उसे अपना दिल पसीजता लग रहा था ।
“उठ कर दरवाजा भीतर से बंद कर लो ।” - वह बोला - “मैं बहुत जल्द लौटूंगा ।”
ओढने वाली चादर को ही बदन पर लपेटे हाना उठी, वह आनंद के साथ दरवाजे तक गई ।
“एक बात और सुनते जाओ ।” - आनंद ने चौखट के बाहर कदम रखा तो वह बोली - “मुझे लगता है तुम्हारे यहां हरजाई होना मर्द का कोई ऐब नहीं माना जाता । बेवफाई तुम्हारे यहां का लाइफ स्टाइल है, दस्तूर है, रिवाज है । प्यार में धोखा देना और खाना शायद तुम्हारे यहां की मामूली हरकत है लेकिन मैं एक गोवानी लड़की हूं जो प्यार के लिए जीती हो और प्यार के लिए मरती है ।”
उसने दरवाजा बंद कर लिया ।
मन में अजीब-सा भारीपन महसूस करता हुआ आनन्द वहां से रवाना हुआ ।
क्या उसे अपराधबोध हो रहा था ?
यही एक बात वह सारे रास्ते सोचता रहा ।
***
टी.वी. पर समाचारों का प्रसारण खत्म हुआ तो रूपचंद जगनानी उठ खड़ा हुआ ।
उसकी पुत्रवधु ने प्रश्नसूचक नेत्रों से उसकी तरफ देखा ।
“इस बार तो हद ही कर दी पुटडे़ ने ।” - वह बोला - “कोई चिट्टी-पत्री नहीं, कोई खोज-खबर नहीं । कितनी भी सीक्रेट ड्यूटी क्यों न हो, एक चिट्टी तो लिख सकता था । फोन तो कर सकता था ।”
“मैंने हैडक्वार्टर फोन किया था” - मीरा बोली - “उसका ए.सी.पी. कहता था कि वो आज या कल में लौटने वाले हैं ।”
“आज तो नहीं लौटा ।”
“कल जरूर लौटेंगे वो ।”
“इस बार आये तो जरा डांटना । घर के साथ कोई कान्टैक्ट तो रखना चाहिए कि नहीं रखना चाहिए ।”
मीरा खामोश रही ।
“मैं चलता हूं ।” - रूपचंद बोला ।
“आज यहीं रह जाइए ।”
“नहीं । आफिस के कुछ दोस्तों ने मुझे डिनर के लिए इनवाइट किया हुआ है । वो मेरा इंतजार कर रहें होंगे ।”
मीरा खामोश रही ।
“मैं कल फिर आऊंगा ।”
मीरा ने सहमति में सिर हिलाया ।
रूपचंद चला गया ।
पीछे मीरा अकेली रह गई ।
शिल्पा को दिन में उसकी नानी ले गई हुई थी । अब खाली घर उसे काटने को दौड़ रहा था ।
अगला आधा घंटा उसने टी.वी. के सामने बैठकर गुजारा लेकिन प्रोग्राम रोचक और लोकप्रिय होते हुए भी उसकी उसमें मन न लगा ।
एकाएक कालबैल बजी ।
मीरा ने चिहुंककर दरवाजे की तरफ देखा ।
“कौन ?” - वह उच्च स्वर में बोली ।
“टेलीग्राम, मेमसाहब ।” - आवाज आई ।
झूलेलाल ! - वह सशंक भाव से होठों में बुदबुदाई - रात के इस वक्त टेलीग्राम क्यों आ गई ? सब खैरियत तो थी न !
“आती हूं ।” - वह बोली और अशोक के किसी अनिष्ठ की आशंका से दरवाजे की ओर बढ़ी ।
उसने दरवाजा खोला ।
सामने अशोक खड़ा मुस्करा रहा था ।
मीरा के मुंह से एक हर्षभरी किलकारी निकली और वह उसके साथ लिपट गई ।
अशोक ने उसे गोद में उठा लिया और उसके कपोलों पर संक्षिप्त से चुम्बन अंकित करता हुआ भीतर दाखिल हुआ ।
मीरा ने पांव के प्रहार से दरवाजा बंद कर दिया ।
“अरे, सूटकेस तो बाहर ही रह गया ।” - वह बोला ।
“रह जाने दो ।” - मीरा झूमकर बोली ।
“उसमें कीमती सरकारी कागजात हैं । चोरी हो जाएंगे ।”
“हो जाने दो ।”
“अरे, नौकरी छूट जाएगी ।”
“छूट जाने दो ।”
“शिल्पा से तो मिलने दो ।”
“किसी से नहीं मिलना । सिवाय मेरे ।”
“यह तो पूछ लो कि जिस काम के लिए मैं गोवा गया था उसमें मु्झे कामयाबी मिली या नहीं ।”
“पूछूंगी लेकिन तुम्हारी उस कामयाबी के बाद जो तुम्हें अभी मिलने वाली है ।”
“लेकिन...”
“गुलाम । जो हुक्म दिया गया है, उसकी तामील करो ।”
“जो हुक्म, मलिकाआलिया ।”
और अशोक ने अपनी बीवी को उठाए-उठाए बैडरूम का रूख किया ।
***
आधी रात होने को थी । हल्की-हल्की बूंदाबांदी हो रही थी लेकिन माहौल बता रहा था कि वह किसी भी क्षण मूसलाधार वर्षा में तब्दील हो सकती थी । जौहरी बाजार सुनसान पड़ा था । कहीं कोई हरकत, कोई आवाज नहीं थी ।
पुलिस की एक जीप बाजार में से गुजर रही थी । जीप को एक सिपाही चला रहा था । उसकी बगल में ए.एस.आई नामदेव बैठा था । पीछे लम्बा डण्डा सम्भाले एक तीन फीती हवलदार बैठा था ।
जीप मंथर गति से चलती हुई वाल्ट वाली इमारत के सामने से गुजरी तो उसके बंद दरवाजे के सामने मौजूद गार्ड ने ‘जीप को’ सैल्यूट मारा । जीप पुलिस की थी और उसकी निगाह में उसके भीतर जो कोई भी बैठा था, सलाम का हकदार था ।
एकाएक वायरलेस टेलीफोन पर उनकी पुकार होने लगी ।
नामदेव ने छत के साथ लगे हुक पर टंगे रेडियो टेलीफोन के रिसीवर को वहां से उतारा, उसे कान से लगाया और अपनी शिनाख्त करवाई ।
“गोल मंदिर के पास एक एक्सीडेंट हो गया है ।” - उसके कान में डिस्पैचर की आवाज पड़ी - “जाकर तफ्तीश कीजिए और फिर अपनी चौकी के इंचार्ज को रिपोर्ट कीजिए ।”
नामदेव ने रिसीवर वापिस हुक पर टांग दिया और सिपाही की गोल मंदिर की तरफ चलने का निर्देश दिया ।
सुनसान सड़कों पर दौड़ती हुई पुलिस की जीप आनन-फानन गोल मंदिर के करीब पहुंच गई ।
वहां सड़क पर उन्हें बिजली के खम्बे से टकरा कर तिरछा हो गया एक ट्रक दिखाई दिया । ट्रक के करीब एक आदमी औंधे मुंह पड़ा था और गीली सड़क पर बरसाती पानी के साथ मिल कर उसका खून दूर-दूर तक बहता दिखाई दे रहा था । सड़क पर पडे़ आदमी के जिस्म में कोई हरकत नहीं थी । लगता था वो ट्रक के नीचे आ गया था और उसे मरा जानकर ड्राइवर या तो जान-बूझकर और या ट्रक चालू न हो पाने की मजबूरी में उसे वहीं छोड़कर भाग गया था ।
तीनों पुलसिये लाश के करीब पहुंचे और उसके आजू-बाजू जा खडे़ हुए । फिर लाश को उलटने की नीयत से ए.एस.आई. नामदेव नीचे को झुका ।
तभी एकाएक लाश ने करवट बदली और उनकी तरफ एक स्टेनगन तान दी ।
नामदेव घबरा कर सीधा हुआ और एक कदम पीछे हटा ।
फिर ट्रक का पिछला ढक्कन नीचे गिरा और कई हथियार उन्हें अपनी तरफ झांकते दिखाई दिए ।
स्टेनगन वाला, जोकि विमल था, फुर्ती उठकर खड़ा हुआ । उसका चेहरा एक लेटैक्स रबड़ की बनी लचकीली नकाब से ढंका हुआ था जिसमें आंखों और होठों की जगह छेद थे ।
“ट्रक के भीतर ।” - विमल फुंफकारा - “फौरन ।”
तीनों पुलिसिये भारी कदमों से चलते हुए ट्रक के करीब पहुंचे तो कई हाथों ने उन्हें भीतर घसीट लिया ।
ट्रक का पृष्ट भाग फिर बंद हो गया ।
थोड़ी देर बात पुलिस की वर्दी पहने विमल और वागले ट्रक से बाहर निकले और जीप पर सवार हो गए । लेटेक्स रबड़ के नकाब दोनों के चेहरों पर थे लेकिन उनका रंग चमड़ी जैसा ही होने की वजह से और सिर पर आंखों तक झुकी पीककैप होने की वजह से बहुत गौर से, बहुत करीब से, देखने पर ही मालूम हो सकता था कि चेहरे पर नकाब चढ़ी हुई थी ।
योजना में वो परिवर्तन एकाएक करना पड़ा था । ट्रक का इस्तेमाल इसलिए करना पड़ा था क्योंकि जीप का इंतजाम नहीं हो सका था जिसकी वजह से प्रोग्राम आगे के लिए टल सकता था और जो मुबारक अली को नामंजूर था । वैसे विमल को तो यह भी शक था कि खांडेकर ने जान-बूझकर जीप का इंतजाम करने में कोई विशेष रूचि नहीं दिखाई थी ।
विमल ने जीप चौकी की तरफ चला दी ।
ट्रक बैक होकर खम्बे से अलग हुआ और जीप के पीछे चल दिया उसकी ड्राइविंग सीट पर रूपचंद जगनानी था । उसके अलावा ट्रक में थे मुबारक अली, सतीश आनंद, जामवंतराव, इरफान अली और नागराज नाम का एक अन्य आदमी जो, बकौल तुकाराम, एकदम भरोसे का था ।
ट्रक में ए.एस.आई नामदेव से पूछा जा चुका था और अन्य दो पुलसियों से तसदीक की जा चुकी थी कि उनके अलावा चौकी पर दो ही और पुलसियै मौजूद थे । उनमें एक सौनगोत्रे नाम का दारोगा था और दूसरा टीकाराम नाम का सिपाही ।
जीप चौकी के कम्पाउंड में दाखिल हुई ।
ट्रक बाहर ही रूक गया ।
वागले ने जीप का हार्न बजाया और आवाज लगाई - “टीकाराम ।”
“आया, साहब ।” - भीतर से आवाज आई ।
फिर सिपाही टीकाराम इमारत से बाहर निकला । उसने चौकी की जीप को पहचाना और यह देखकर बहुत भुनभुनाया कि जीप इमारत के प्रवेशद्वार के सामने खड़ी होने की जगह पर नीम के पेड़ के नीचे खड़ी थी और बूंदाबांदी अब बाकायदा बरसात में तब्दील होने लगी थी ।
बडे़ बेसब्रेपन से जीप का हार्न बजा ।
“आया, साहब ।” - टीकाराम बोला और फिर जीप की तरफ लपका ।
वह जीप के करीब पहुंचा तो उसने एक रिवॉल्वर की नाल अपनी तरफ तनी पाई ।
“खबरदार ।” - विमल फुफकारा - “आवाज न निकले ।”
टीकाराम हक्का-बक्का सा सामने रिवॉल्वर वाले को देखने लगा लेकिन पीककैप के नीचे एक गोल दायरे के अलावा उसे कुछ न दिखाई दिया ।
तभी एक ट्रक कम्पाउंड में दाखिल हुआ । चलते ट्रक में से इरफान अली और नागराज बाहर कूदे और टीकाराम के करीब पहुंचे । उन्होंने टीकाराम को दबोचा और उसे घसीटते हुए ट्रक के करीब ले गए । आनन-फानन उसे ट्रक में लाद दिया गया और उसकी मुश्कें कसकर उसे भीतर पहले से उसी हालत में मौजूद उसके जोड़ीदार पुलसियों के करीब डाल दिया गया ।
फिर इरफान नागराज और रूपचंद जगनानी ट्रक में रह गए और बाकी सब दो स्टेनगनों और रिवॉल्वरों से लैस चौकी में दाखिल हुए ।
चौकी के आफिस में लकड़ी की विशाल मेज के पीछे, मेज के एक खुले दराज पर टांगे फैलाए सोनगोत्रे अधलेटा-सा बैठा ऊंघ रहा था । उसकी चौकी के इलाके में कर्फ्यू लग गया था इसलिए उसे चौकी में यूं बैठना पड़ रहा था वर्ना वह चौकी को मातहतों के हवाले करके कब का सोया पड़ा होता ।
अपने सामने प्रेतों की तरह आन खड़े हुए पांच व्यक्तियों को देखकर उसके छक्के छूट गए । हड़बड़ी में उसने दराज पर से पांव हटाए तो दराज मेज में से निकलकर भड़ाक से नीचे गिरा और वहा स्वयं कुर्सी समेत धराशायी होता-होता बचा । उसकी रिवॉल्वर उसकी पेटी समेत परे एक खूंटी से लटक रही थी, वह उसकी तरफ घूमा ही था कि एक आदमी फुर्ती से कूदकर उसके और रिवॉल्वर के बीच में आ गया ।
“आपके चार आदमी हमारे कब्जे में हैं ।” - विमल बोला - “आप ज्यादा होशियारी दिखाने की कोशिश करेंगे तो आप खुद तो मरेंगे ही, उनकी मौत के लिए भी आप ही जिम्मेदार होंगे ।”
दारोगा ठिठक गया । उसने जोर से थूक निगली । आततायी उसके साथ अदब से पेश आ रहा था, उसे आप कह रहा था लेकिन फिर भी उसका कुछ ऐसा प्रभाव उस पर पड़ा कि उसकी घिग्घी बंधने लगी । उसने कभी सपने में नहीं सोचा था कि उसकी पुलिस की नौकरी में कभी कोई ऐसा भी दिन आएगा जब कि कोई चौकी ही कब्जाने की जुर्रत कर डालेगा ।
“आपका नाम सोनगोत्रे है न ?” - विमल बोला ।
“हां ।” - सोनगात्रे बड़ी कठिनाई से कह पाया - “क-क्या चाहते हो ।”
“अभी मालूम हुआ जाता है । फिलहाल आप बरायमेहरबानी अपनी वर्दी दुरूस्त कर लीजिए और पीककैप पहन लीजिए ।”
उसने तुरंत आदेश का पालन आरम्भ किया ।
विमल ने खूंटी पर से बैल्ट उतारी, उसके होलस्टर में से रिवॉल्वर खींची और उसकी गोलियां निकालकर अपनी जेब में डाल लीं । उसने रिवॉल्वर वापिस होल्टर में रखी और फिर जब दारोगा वर्दी व्यवस्थित कर चुका तो उसने बैल्ट उसे सौंप दी ।
दारोगा ने बैल्ट अपनी मोटी तोंद पर अटका ली ।
फिर केवल वागले विमल के पास पीछे रह गया और बाकी लोग बाहर निकल गये ।
ऑफिस की बगल में एक बड़ा-सा कमरा था जहां कि थोड़ी देर बाद मुश्कें कसे चारों पुलसियों को बंद कर दिया गया ।
“अब आप मेरे साथ चलेंगे ।” - विमल बोला ।
“कहां ?” - दारोगा बोला ।
“जौहरी बाजार के दोनों सिरों पर जहां कि कर्फ्यू की वजह से पुलिस तैनात है । कितने-कितने आदमी है दोनों सिरों पर ?”
“चार-चार ।”
“उसके अलावा बाजार में कहीं और भी पुलिस तैनात है ?”
“नहीं ।”
“गश्त के लिए भी नहीं ?”
“उन्हीं आदमियों ने गश्त भी करनी होती है ।”
“चौकी की जीप पर आप मेरे साथ चल रहे हैं । मैं आपका ड्राइवर । आप मेरे साहब । अपने पुलसियों को यह कहना है कि कर्फ्यू हटा दिया गया है इसलिए वे फौरन चौकी में पहुंचें ।”
“लेकिन कर्फ्यू तो...”
“नहीं हटा । मुझे मालूम है । लेकिन आपने ऐसा कहना है । आपने ऐसा कोई शरारत किए बिना, कोई होशियारी दिखाए बिना कहना है । यह न भूलिएगा कि आपके व्यवहार पर उन चार पुलसियों की जिंदगी का दारोमदार है जोकि बगल के कमरे में बंद हैं । जीप पर बाजार का चक्कर लगाकर दस मिनट में यहां वापिस लौटा जा सकता है । मेरी यहां वापिसी में अगर ग्यारहवां मिनट लगा तो मेरे आदमी यहां मौजूद चारों पुलसियों को शूट कर देंगे ।”
“लेकिन जीप रास्ते में बिगड़ सकती है...”
“आप भगवान से प्रार्थना कीजिए कि जीप न बिगडे़ ।”
“कोई और अड़ंगा आ सकता है ।”
“वो आपके लाए आएगा इसीलिए तो आपको यह चेतावनी दी जा रही है ।”
दारोगा खामोश रहा । उसने अपने सूखे होंठों पर जुबान फेरी ।
“आप तैयार हैं ?”
दारोगा ने सहमति में गर्दन हिलाई ।
“चलें ?”
“हां ।”
“आइए ।”
“मैं साथ चलता हूं ।” - वागले व्यग्र भाव से बोला ।
“जरूरत नहीं ।”
“लेकिन...”
“कहा न, जरूरत नहीं ।”
विमल दारोगा सोनगोत्रे के साथ चौकी के बाहर निकला । वह जीप की ड्राइविंग सीट पर बैठा । अपनी रिवॉल्वर उसने अपनी दायीं जांघ के नीचे दबा ली । दारोगा बगल में बैठ गया ।
विमल न जीप आगे दौड़ाई ।
जौहरी बाजार के चौकी की ओर वाले दहाने पर तैनात पुलसिये उन्हें एक दुकान के सायबान के नीचे बैठे दिखाई दिए । पुलिस की जीप अपनी ओर आती पाकर उन्होंने बीड़ियां फेंक दीं और उठ खडे़ हुए ।
विमल ने जीप सायबान के करीब लाकर रोकी ।
चारों पुलसियों ने सैल्यूट मारा ।
विमल ने स्थिर नेत्रों से दारोगा की तरफ देखा ।
“कर्फ्यू हट गया है ।” - दारोगा फंसे स्वर में बोला - “अब तुम्हारी यहां जरूरत नहीं । चौकी पर पहुंचो ।”
सबके चेहरों पर उल्लास की लहर दौड़ गई । उस गंदे मौसम में कौन वैसी फील्ड ड्यूटी करना चाहता था । अब सबकी अपनी बीवियों के गर्म पहलू याद आने लगे । सब सायबान के नीचे से निकले और लगभग दौड़ते हुए चौकी की तरफ बढ़े ।
विमल ने जीप आगे बढ़ाई ।
जीप वाल्ट के आगे से गुजरी तो वहां तैनात सशस्त्र गार्ड ने फिर जीप को सलाम मारा ।
ईजी ! - विमल मन ही मन बोला ।
वे बाजार के दूसरे सिरे पर पहुंचे ।
दारोगा ने वही संदेश वहां भी दोहराया और विमल के कहने पर चारों पुलसियों को जीप में सवार हो जाने का अतिरिक्त आदेश दिया ।
नौ मिनट में जीप वापिस चौकी पर पहुंच गई ।
पहले वाले चार पुलिसिये पहले ही मुश्कें कस कर बगल वाले कमरे में पहुंचा दिए गए थे । अब बाकी के चार पुलसियों का और दारोगा का भी वही हश्र किया गया और सब-इंस्पेक्टर की वर्दी पहने रूपचंद जगनानी को स्टेनगन के साथ बाहर स्थापित कर दिया गया । उसे समझा दिया गया कि उसने सोना नहीं था, ऊंघना भी नहीं था और हर पांच मिनट बाद कैदियों के कमरे में झांककर तसदीक करनी थी कि कोई गड़बड़ नहीं हो गई थी । टेलीफोन बजने पर उसे सुनना था और मुनासिब जवाब देना था । किसी बात का जवाब देना उसकी सामर्थ्य से बाहर होता तो दारोगा सोनगोत्रे को टेलीफोन पर लाना था और स्टेनगन की नोंक पर उससे मुनासिब जवाब दिलवाना था ।
अलार्म बैल आफिस में ही लगी हुई थी, उसकी तारें काट दी गई ।
डकैती में काम आने वाला सारा सामान ट्रक में से निकालकर जीप में लाद लिया गया । ट्रक को मुबारक अली चौकी से कहीं परे खड़ा कर आया ।
फिर रूपचंद जगदानी के अलावा सब लोग जीप पर सवार होकर वहां से रवाना हुए ।
हवलदार की वर्दी पहने नागराज को पहले मोड़ पर उतार दिया गया ।
जीप वाल्ट वाली इमारत के सामने से गुजरी ।
वहां के गार्ड ने मशीनी अंदाज से जीप को सलाम मारा । पुलिस की जीप पर निगाह पड़ते ही उसका हाथ अपने आप ही सलाम की सूरत में उठ जाना मालूम होता था ।
विमल ने जीप मैनहोल नम्बर छतीस के करीब रोकी ।
वागले जीप से निकलर मैनहोल में दाखिल हुआ और नीचे सीवर से गुजरती टेलीफोन की केबल काट आया । अतिरिक्त सावधानी के तौर पर वह अलार्म बैल को जाती बिजली की तारें भी काट आया ।
जीप आगे बढी और बाजार के दूसरे सिरे पर हवलदार की वर्दी पहने इरफान अली को उतारकर वापिस लौटी ।
अंत में विमल ने जीप को वापिस वाल्ट वाली इमारत के सामने लाकर रोका ।
वाहे गुरु सच्चे पातशाह - वह होंठों में बुदबुदाया - तू मेरा राखा सबनी थाही ।
गार्ड ने फिर सलाम मारा ।
वागले ने उसे आवाज देकर करीब बुलाया ।
गार्ड निःसंकोच जीप के करीब पहुंचा और कई हाथों द्वारा दबोच लिया गया । फिर उसकी मुश्कें करा कर उसे जीप के पृष्ठभाग में ड़ाल दिया गया ।
जामवंतराव ने अपनी नकली चाबी मार्केट के बंद चैनल शटर पर टंगे भारी-भरकम ताले में लगाई ।
चाबी बड़ी सफाई से ताले में घूम गई ।
उसने चैन की सांस ली, स्वयंमेव ही उसके होंठों पर मुस्काराहट खेल गई । उसने ताले को शटर से अलग किया और शटर खोला ।
फिर वागले जीप की ड्राइविंग सीट पर बैठा रहा और बाकी चारों भीतर दाखिल हुए ।
मुख्यद्वार के पास ही दाईं ओर वो बंद दरवाजा था जिसके पीछे नीचे वाल्ट को जाती सीढियां थी । उस दरवाजे को उन्होने उसकी लोहे की चौखट के साथ वैल्डिंग टार्च से वैल्ड कर दिया । अब दरवाजे पर ताला लगा होना या न लगा होना बेमानी था । नीचे तहखाने में बंद वाल्ट के सामने मौजूद सिक्योरिटी गार्ड अब वहां पिंजरे में चूहों की तरह बंद थे ।
स्कैम्बलर डिवाइस आन करके दरवाजे के पास रख दी गई ।
मुबारक अली ने लोहे की मजबूत छड़ संभाल ली ।
वाकेई ऐन तीन मिनट में उसने पहली दुकान के शहर में इतना बड़ा छेद कर दिखाया कि कोई भी आसानी से दुकान के भीतर दाखिल हो सके ।
विमल आंनद और जामवंतराव ने हीट प्रूफ सूट पहन लिए । वे टूटे शटर में सें होकर दुकान में दाखिल हुए । उन्होनें निःसंकोच भीतर की बत्ती जलाई ।
सामने सेफ थी ।
लेसर बीम ऑन की गई ।
विमल ने उसे उस स्थान पर केंद्रित किया जहां कि उसका ताला था । वह ताले के इर्द-गिर्द वृत्ताकार में बीम घुमाने लगा ।
दो ही मिनट में वहां इतना धुआं हो गया कि उसके लिए गैसमास्क पहनना जरूरी हो गया और मुबारक अली को वहां उनके करीब खड़ा रहना असम्भव दिखाई देने लगा । वह दुकान से बाहर निकाल गया और प्रतीक्षा करने लगा ।
पांच-पांच मिनट की शिफ्टों में बाकी तीनों ने बीम आपरेट की ।
पंद्रह मिनट में बीम की सलाख जैसी तीखी लपट सेफ के कोई आधा फुट मोटे दरवाजे के आरपार हो गई ।
और पांच मिनट में ताले वाले हिस्से के ईर्द-गिर्द बीम परकार की तरह फिर गई ।
छेद का दायारा मुकम्मल हो गया तो विमल ने मुबारक अली को आवाज दी । वह करीब आया तो उसने उससे लोहे की छड़ ले ली । उस छड़ के उसने गले के करीब दायरे पर दो ही प्रहार किए तो लोहे में कटा सेफ के दरवाजे को दायरा सेफ के भीतर जा गिरा और सेफ में कोई आठ इंच व्यास का गोला खप्पा दिखाई देने लगा । उस गोल छेद में छड़ डालकर विमल ने छड़ को बाहर की तरफ उमेठा तो सेफ का भारी-भरकम दरवाजा निशब्द खुल गया ।
“या अली !” - मुबारक अली ने हर्षनाद किया और उसने सेफ की तरह हाथ बढाया ।
“खबरदार !” - विमल तत्काल बोला ।
“क्या हुआ ?” - वह हैरानी से बोला ।
“हाथ जलकर कबाब बन जाएगा ।” - विमल बोला - “अभी सेफ अंगारे की तरह दहक रही होगी । इसे ठंडा होने का वक्त देना होगा ।”
“ओह !”
“तब तक कोई और दुकान खोलो ।”
जामवंतराव को पीछे छोड़कर वे बाहर निकले और आगे बढे ।
उनके जाते ही जामवंतराव ने अपनी भूरे कागज में लिपटी हेरोइन की खुराक निकाल ली । उसने पुड़िया खोल कर उसमें मौजूद हेरोइन को अपने नथुनों में उतारा और बड़े तृप्तिपूर्ण भाव से गर्दन हिलाई । खाली भूरा कागज उसने तोड़-मरोड़कर शटर से बाहर उछाल दिया और अपनी खोपड़ी में अनार फूटने की प्रतीक्षा करने लगा ।
उसे ज्यादा देर प्रतीक्षा न करनी पड़ी । जल्दी ही नशे की तरंग का हिंडोला उसे झूला झुलाने लगा ।
***
मलानी रात पाली करके घर लौट रहा था ।
वह कांदीवली के समीप स्थित एक मिल में आपरेटर था और उस रोज डबल शिफ्ट की थी जिससे कि रात दो बजे उसकी छुट्टी हुई थी ।
अपने इलाके में पहुंचते-पहुंचते उसे तीन बज गए थे ।
वह जौहरी बाजार में रहता था ।
वह दोपहर से ही घर से निकला हुआ था इसलिए उसे पता नहीं था कि इलाके मे कर्फ्यू लगा हुआ था ।
जौहरी बाजार के करीब पहुंचने से पहले ही उसे हवा भारी लगने लगी ।
कहीं फिर तो कर्फ्यू नहीं लग गया था - उसने मन-ही-मन सोचा ।
अगर कर्फ्यू लगता था तो पुलसिये उसे उस घड़ी घर नहीं आने देने वाले थे । साला, कितना बेहूदा इलाका था वह ! रोज दंगे होते थे, रोज कर्फ्यू लगता था ।
बारिश हो रही थी जिसमें भीगता हुआ वह बाजार के दहाने के करीब पहुंचा । एक खम्बे की ओट में से उसने सामने झांका ।
बाजार के दहाने पर एक दुकान के सायबान के नीचे एक पुलसिया खड़ा था । वह सिगरेट पी रहा था जिसका वह कश लगाता था तो सायबान के नीचे अंधेरे में जुगनू-सा चमकता था ।
एक ही पुलसिया !
कर्फ्यू में तो वहां कई पुलसिये तैनात होते थे !
बाकी क्या गश्त कर रहे थे ?
नहीं, नहीं । इतनी बरसात में गश्त तो भला वो क्या करते ?
तो जरूर कहीं और पनाह हासिल किए हुए होंगे ।
नींद से उसकी आंखें मुंदी जा रही थीं, ऊपर से वह बुरी तरह से ठिठुर रहा था । उस नामुराद मौसम में वह किसी भी तरह अपने घर की पनाह में पहुंचना चाहता था ।
पहले उसने सोचा कि वह पुलसिये के पास जाए, उसे बताये कि वह वहीं का रहने वाला था और उसे पता नहीं था कि इलाके में कर्फ्यू लग गया था इसलिए वह उसे घर जाने दे । लेकिन फिर उसने वह ख्याल छोड़ दिया । पुलसिया निश्चत ही उसे डांटकर, मुमकिन था कि पीटकर भी, भगा देता ! या शायद गिरफ्तार ही कर लेता । आखिर कर्फ्यूग्रस्त इलाके में घूमना अपराध होता था ।
अगर किसी तरह से वह उस अकेले पुलसिये की निगाह से बचकर बाजार में दाखिल हो सके तो -
तभी उसके करीब एक कुत्ता पहुंचा और खम्बे के साथ पेशाब करने लगा ।
मलानी ने जोर से उसे एक लात जमाई ।
कुत्ता चें चें करता हुआ परे को भागा ।
सायबान के नीचे सिगरेट की लौ ने रुख बदला । जरूर उस पुलसिये की तवज्जो उस वक्त चें चें करके भागते हुए कुत्ते की तरफ थी । मलानी खम्बे की ओट से निकला और दबे पांव बाजार की तरफ भागा । पुलसिये की विपरीत दिशा की दुकानों की लाइन के बरामदे में उसके कदम पड़े तो वह ठिठका । कितनी ही देर सांस रोके प्रतीक्षा करते रहने के बाद वह इस नतीजे पर पहुंचा कि सायबान के नीचे मौजूद पुलसिये का ध्यान उसकी तरफ नहीं गया था ।
वह दबे पांव आगे बढा ।
बाजार एकदम सुनसान था । बारिश के गम्भीर शोर के अलावा वहां कोई आवाज नहीं हो रही थी ।
आगे सुनारों की मार्केट थी जिसके सामने एक सशस्त्र गार्ड रात को पहरा देता हमेशा मौजूद होता था लेकिन उस गार्ड की उसे फिक्र नहीं थी । मनबहादुर नाम का वह नेपाली गार्ड उसका वाकिफकार था और वह उसकी मौजूदा दुश्वारी को समझ सकता था ।
ज्यों-ज्यों वह मार्केट के करीब पहुंचता जा रहा था, बारिश के शोर के ऊपर उसके कानों में अजीब-अजीब आवाजें पड़ने लगी थीं ।
मार्केट सड़क से पार थी और अब थोड़ा ही आगे रह गई थी ।
यह देखकर उसे बड़ी हैरानी हुई कि मार्केट के सामने मनबहादुर मौजूद नहीं था और वहां पुलिस की एक जीप खड़ी थी ।
वहां पुलिस किसलिए ?
भीतर से जो आवाजें आ रही थी, वो तोड़-फोड़ जैसी थीं ।
क्या पुलिस ही भीतर कोई तोड़-फोड़ कर रही थी ?
नहीं, नहीं । ऐसा कैसे हो सकता था ?
और फिर मनबहादुर कहां था ? पुलिस वहां थी भी तो क्या हुआ ? मनबहादुर को तो फिर भी वहां होना चाहिए था ।
वह थोड़ा और आगे सरका तो उसने देखा कि जीप की ड्राइविंग सीट पर एक इकलौता पुलसिया चुपचाप बैठा था । मार्केट के भीतर से उठे रहे शोर-शराबे से उसे कतई कोई लगाव नहीं मालूम हो रहा था ।
अजीब बात थी ।
उसने थोड़ा और आगे सरककर मार्केट की तरह झांका तो उसकी निगाह सीधी मार्केट की दुकानों के बीच की राहदारी में पड़ी ।
जो दृश्य उसे दिखाई दिया, उसने उसके छक्के छुड़ा दिए ।
मार्केट की कई दुकानों के शटर टूटे पड़े थे । चार आदमी राहदारी में काफी आगे एक दुकान के सामने खड़े थे । उनमें से तीन ऐसी पोशाक पहने थे जैसे किसी दूसरे ग्रह के हों और किसी अंतरिक्ष यान पर से उतर के आए हों । चौथा आदमी पुलिस की वर्दी में था और एक छड़ की सहायता से एक दुकान का शटर तोड़ने की कोशिश में मशगूल था ।
अब मलानी को यह समझते देर न लगी कि मार्केट में डाका पड़ रहा था । जरूर जीप में बैठा पुलसिया नकली था और डाकुओं का साथी था । जरूर बाजार के दहाने पर मौजूद पुलसिया भी नकली था और डाकुओं का साथी था ।
वह क्या करे !
क्या मौहल्ले में जाग करा दे !
लेकिन उसके शोर मचाते ही डाकू उसे पकड़ लेते और फिर उसकी लाश वहीं सड़क पर बरसाती पानी में डुबकिया लगा रही होती ।
तो ?
वह दबे पांव आगे बढा ।
आगे एक गली थी । वह गली उसके मकान वाली नहीं थी लेकिन अगर वह उसके भीतर जाकर शोर मचाता तो वह डाकुओं के चगुल से और उनके प्रकोप से बच सकता था ।
वह गली के फाटक पर पहुंचा ।
फाटक को उसने बाहर से ताला लगा पाया ।
वह समझ गया कि वह भी डाकुओं की करतूत थी ।
आगे पोस्ट आफिस था जिसके सामने एक पब्लिक टेलीफोन बूथ बना हुआ था ।
वह लपककर बूथ के करीब पहुंचा और उसने उसके भीतर कदम रखा ।
तुरंत भीतर बत्ती जल उठी और पंखा चल गया ।
उसने हड़बड़ाकर कदम बाहर-निकाला ।
दोनों उपकरण बंद हो गए ।
वह समझ गया कि उनके स्विच बूथ के फर्श के नीचे थे ।
उसके जेब से अठन्नी निकाली और इस बार दरवाजा खोल कर बिना फर्श पर कदम रखे टेलीफोन के हुक पर से रिसीवर उठा लिया ।
संयोगवश ही उसे इलाके की चौकी का टेलीफोन नम्बर मालूम था जहां कि फोन करके वह सुनारों की मार्केट में पड़ रहे डाके की खबर पुलिस को, असली पुलिस को, दे सकता था ।
उसने रिसीवर कान से लगाया तो उसके मुंह से निराशाभरी सिसकारी निकल गई ।
टेलीफोन डेड था ।
उसने रिसीवर वापिस हुक पर टांग दिया और बाजार में दायें-बायें निगाह दौड़ाई ।
एकदम सुनसान ।
अब वह बाजार के परले सिरे से करीब था । उधर करीब ही लोकल का रेलवे स्टेशन था । शायद वहां से वह पुलिस को टेलीफोन कर सके ।
वह दबे पांव आगे बढा ।
दहाने पर पहुंचकर उसने देखा कि उधर भी एक पुलसिया मौजूद था लेकिन उसका रुख बाजार के भीतर की तरफ होने की जगह बाहर की तरफ था ।
वह उकडू-सा आगे बढा ।
उसने बाजार से बाहर कदम रखा ही था कि एकाएक पुलसिये ने कर्कश स्वर में उसे ललकारा ।
मलानी ने फौरन बाजार की तरफ मुंह कर लिया ।
पुलसिया - जोकि इरफान अली था - लपककर उसके करीब पहुंचा । उसने उसे गिरहबान से थाम लिया और गुर्राया - “किधर जाता है ।”
“बाजार में जाता है, बाप !” - मलानी गिड़गिड़ाया - “उदर अपुन का घर है ।”
“बाजार में जाता है !” - इरफान अली उसे बाजार के दहाने से परे धकेलता हुआ बोला - “साले, मालूम नहीं बाजार में कर्फ्यू लगेला है ।”
“लेकिन, बाप...”
“भाग जा नहीं तो अंदर कर देंगा ।”
उसने फिर मलानी को धक्का दिया ।
मलानी बाजार से विपरीत दिशा को चल दिया ।
वह स्टेशन पर पहुंचा ।
वहां के टेलीफोन में डायल टोन थी ।
उसकी उंगलियां तेजी से स्थानीय चौकी का नम्बर डायल करने लगीं ।
***
तीन घंटे के भगीरथ प्रयत्नों के बाद ए.एस.आई. नामदेव अपने हाथों के बधंन खोलने में कामयाब हो गया । इस कोशिश में उसकी दोनों कलाइयां छिल गई और उनमें से खून चुहचुहाने लगा लेकिन वह खुश था कि उसकी मेहनत रंग लाई थी । फिर धीरे-धीरे अपने बुरी तरह से दुखते हाथों से उसने अपने पैरों को भी बंधनमुक्त कर लिया । अपने मुंह पर बंधी पट्टी को उसने सिर्फ सिर के पीछे लगी गांठ पर से ढीला किया, उसे अपने दांतों के बीच में से न निकाला । बाहर बैठा डकैतों का स्टेनगन वाला साथी हर पांच मिनट बाद वहां झांकने आता था और सब के मुंह पर उसकी निगाह सबसे पहले पड़ती थी । वह नहीं चाहता था कि स्टेनगन वाले को भनक भी लगती कि वह बंधनमुक्त हो चुका था ।
अब उसके सामने दो रास्ते थे ।
वह अपने साथियों के बंधन खोल सकता था और फिर वे तेरह आदमी उस इकलौते डकैत को काबू में करने की कोई तरकीब सोच सकते थे ।
वह वहां से फरार हो सकता था और कहीं से हैडक्वार्टर सम्पर्क करके पुलिस की इतनी बड़ी गारद वहां तलब कर सकता था कि स्टेनगन वाला डकैत वहां चूहे की तरफ फंस कर रह जाता ।
पहले रास्ते के खिलाफ उसकी दलील थी कि निहत्थे आदमी गिनती में तेरह होने पर भी एक स्टेनगन का मुकाबला नहीं कर सकते थे ।
उसने दूसरा रास्ता ही अख्तियार करने का फैसला किया ।
कमरे में एक खिड़की थी जो पिछवाड़े में खुलती थी । उसकी ग्रिल टूटी हुई थी और जरा-सा धक्का देने पर चौखट से अलग हो जाती थी । यह बात स्टेनगन वाले डकैत को नहीं मालूम थी ।
तभी स्टेनगन वाला दरवाजे पर प्रकट हुआ । उसकी स्टेनगन की नाल और उसकी निगाह एक साथ सारे कमरे में फिर गयीं ।
नामदेव अधखुली आंखों से उसे देखता रहा ।
स्टेनगन वाला दरवाजे से हट गया तो उसने कुछ क्षण और इंतजार किया । फिर वह दबे पांव खिड़की के पास पहुंचा और उसने पल्लों को इंच-इंच सरकाकर खोला । फिर उसने ग्रिल को अपनी गिरफ्त में लिया और जोर लगाया ।
ग्रिल बड़ी सहुलियत से उखड़कर उसके हाथ में आ गई ।
वह निर्विघ्न, निशब्द बाहर कूद गया ।
उसने अपने पीछे खिड़की के पल्ले भिड़कए और फिर ग्रिल को फ्रेम के साथ टिका दिया ।
इमारत का घेरा काटकर वह सामने आया ।
आफिस की कम्पाउंड के फाटक की ओर वाली खिड़की खुली थी लेकिन उसमें से बाहर पड़ती रोशनी की आयत में स्टेनगन वाले की परछाई नहीं पड़ रही थी, इससे वह अनुमान लगा सकता था कि वह खिड़की के पास कहीं नहीं था और उम्मीद कर सकता था कि उसकी भी खिड़की से बाहर की तरफ नहीं उठी हुई थी । आखिर उसकी निगाह का स्वाभाविक केन्द्र तो उसके बंदियों का कमरा होना चाहिए था जिसका उस कमरे में खुलने वाला दरवाजा खिड़की से ऐन विपरीत दिशा में था ।
कुछ क्षण इमारत के पहलू में ठिठका खड़े रहने के बाद वह सिर नीचा किए हुए कम्पाउंड के फाटक की तरफ सरपट भागा ।
फाटक से निकलते ही वह धड़ाम से उतनी ही रफ्तार से फाटक के भीतर दाखिल होते किसी व्यक्ति की छाती से टकराया ।
***
तीन बजे तक वे दस दुकानें लूट चुके थे और हीरे-जवाहरात और सोने की सूरत में काफी माल बटोर चुके थे । अधिकतम माल उन्हें उस दुकान में से मिला था जिसकी सेफ सेफ क्या थी, बेसमेंट जैसा ही मिनी वाल्ट था और अधिकतम समय भी उन्हें उसी को खोलने में लगा था । विमल के अनुमान से अकेली उस सेफ में से ही,चोर बाजार की कीमतों पर भी, एक करोड़ से ऊपर का माल निकला था ।
“बस करें ।” - विमल बोला ।
“अभी तो तीन ही बजेला है, बाप” - मुबारक अली तीव्र विरोधपूर्ण स्वर में बोला - “अभी तो छः दुकानें और बाकी हैं ।”
“अब जिस्म में जान नहीं रही ।”
“बाप, चार बजे तक तो चलाओ प्रोग्राम । एक घंटा और काम करने में क्या वांदा है !”
विमल ने जामवंतराव और आनंद की तरफ देखा ।
उन दोनों के सिर भी सहमति में हिले ।
“लालच को बुरी बला कहते हैं ।” - विमल बोला ।
“बाप” - मुबारक अली बोला - “अगर चार बजे के बाद भी इधर रुकने की, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, जिद करें तो ऐसा बोलना ।”
“अच्छी बात है ।”
मुबारक अली ने फिर छड़ सम्भाल ली ।
अगली दुकान का शटर तोड़ने के लिए ।
***
स्तब्ध वातावरण में टेलीफोन की तीखी आवाज यूं गूंजी जैसे नगाड़े पर चोट पड़ी हो । रूपचंद जगनानी के हाथ से स्टेनगन छूटते-छूटते बची । उसने चिहुंककर पीछे मेज पर पड़े टेलीफोन की ओर देखा ।
कौन होगा टेलीफोन पर ?
वह टेलीफोन खुद सुने या दारोगा सोनगोत्रे के बंधन खोलकर उसे फोन सुनने पर मजबूर करे !
जब से वह वहां मौजूद था, फोन तब से पहली बार बजा था और अब तो वह यह उम्मीद करने लगा था कि फोन बजेगी ही नहीं ।
फिर हिम्मत करके उसने फोन उठा लिया ।
“हल्लो !” - वह सहमे स्वर में बोला ।
“हल्लो ।” - दूसरी ओर से कोई बोला - “कौन ?”
“स... सब इंस्पेक्टर सोनगोत्रे ।”
“बड़ी देर लगाई फोन उठाने में !”
“मैं बाहर था । आने में देर...”
“ठीक है । लाइन पर रहिए । ए.सी.पी. देवड़ा साहब बात करेंगे ।”
“अच्छा ।”
रूपचंद का दम खुश्क होने लगा ।
ए.सी.पी. देवड़ा ने अगर उसकी आवाज पहचान ली तो ?
या वह दारोगा सोनगोत्रे की आवाज पहचानता हुआ तो ?
अब सोनगोत्रे बंधन खोलकर उसे लाइन पर लगाने जितना भी वक्त नहीं था ।
“हल्लो ।” तभी उसे देवड़ा की आवाज सुनाई दी ।
“यस स्सर ।” वह दबे स्वर में बोला ।
“कर्फ्यू के इलाके में कैसा चल रहा है ?”
“सब अमन-शांति है, सर ।”
“कोई वारदात तो नहीं हुई ?”
“नो, सर ।”
“ठीक है । और दो घंटे तक अगर अमन-शांति ही रहे तो इलाके में माइक पर एनाउंस करवा देना कि कर्फ्यू टैम्परेरी तौर पर खोला जा रहा है ।”
“यस, सर ।”
लाइन कट गई ।
रूपचंद ने चैन की सांस ली और कांपते हाथों से रिसीवर क्रेडल पर वापिस रखा ।
अभी उसका रिसीवर से हाथ हटा भी नहीं था कि घंटी फिर बज उठी ।
जरूर ए.सी.पी. ही कोई बात कहना भूल गया था ।
उसने फोन उठाकर कान से लगाया और बोला “यस, सर ।”
“हल्लो !” एक उत्तेजित, अपरिचित स्वर उसके कानों में पड़ा “पुलिस चौकी ?”
“यस ।”
“आप कौन बोल रहे हैं ?”
“मैं चौकी का दरोगा बोल रहा हूं ।”
“दरोगा जी, सुनारों की मार्केट में डाका पड़ रहा है । दुकानें लूटी जा रही हैं ।”
“क्या !”
“मैं सच कह रहा हूं, जनाब । सारा नजारा मैंने अपनी आंखों से देखा है ”
“आंखों से देखा है ! कैसे देखा है ? कहां से देखा है ? बाजार में तो कर्फ्यू है ।”
“मुझे कर्फ्यू की खबर नहीं थी । मैं रात पाली करके लौट रहा था कि...”
“बाजार में कैसे घुसे ? दोनों दहानों पर तो सिपाही...”
“घुस गया किसी तरह से । साहब, आप बातों में वक्त जाया मत कीजिए और फौरन कुछ कीजिए । लुटेरे अभी मार्केट में ही हैं ।”
“तुम हो कौन ?”
“मेरा नाम मलानी है । किशन मलानी । मैं चार नम्बर गली में रहता हूं ।”
“इस वक्त बोल कहां से रहे हो ?”
“स्टेशन के बूथ से ।”
“लोकल के स्टेशन से ?”
“हां !”
“मलानी तुम ऐसा करो, तुम यहां चौकी में आ जाओ । हमें तुम्हारी...”
“कैसे आ जाऊं ? बाजार में तो सिपाही घुसने नहीं देता ।”
“पिछले बाजार से घेरा काटकर आ जाओ । वैसे भी अब तुम्हारा वाल्ट के सामने से गुजरना ठीक नहीं । मलानी, तुम सिपाही को डाज दे भी सको तो भी अब बाजार में दाखिल न होना और वाल्ट के आगे से न गुजरना । इसी में तुम्हारी भलाई है । समझे ।”
“हां !”
“फौरन चौकी पर पहुंचो । हमें तुम्हारी जरूरत पड़ेगी ।”
“आप डाकुओं को पकड़ने के लिए कुछ कर रहे हैं ?”
“तुम लाइन छोड़ो । मैं अभी पुलिस की पूरी गारद मंगवाता हूं ।”
“ठीक है । मैं आ रहा हूं ।”
सम्बंधविच्छेद हो गया ।
रूपचंद ने टेलीफोन वापिस क्रेडल पर रखा और अपने माथे पर चुहचुहा आई पसीने की बूंदें पोंछने लगा ।
फिर उसने अपने आपको तसल्ली दी कि फिलहाल स्थिति काबू में थी । मलानी नाम के उस मूर्ख ने उस चौकी पर फोन किया था । उसे 100 नम्बर पर फोन करना नहीं सूझा था, जोकि पुलिस हैडक्वार्टर के कंट्रोल रूम में बजता । उसे चौकी बुलाने के पीछे उसका मंतव्य भी यही था कि उसे दोबारा फोन करना या कोई और खुराफात न सूझे ।
फिर उससे स्टेनगन सम्भाली और कैदियों के कमरे के खुले दरवाजे पर पहुंचा ।
उसकी निगाह पैन होती हुई सारे कमरे में फिरने लगी ।
सब बंधे-बंधे सो गए थे वह आंखों-ही-आंखों में उन्हें गिनता हुआ सोचने लगा सब...
वह सकपकाया ।
उसने फिर से कैदियों को गिनना आरम्भ किया ।
इस बार वह आतंकित हो उठा ।
एक कैदी कम था ।
उसने फिर उन्हें गिना ।
नहीं, उससे गलती नहीं हो रही थी ।
वहां बारह कैदी थे । एक कैदी कम था ।
कौन कम था ?
आतंकित रूपचन्द कमरे में दाखिल हुआ और एक-एक कैदी को जूते की नोक से टहोकता हुआ फिर से उन्हें गिनने लगा और उनकी सूरतें पहचानने की कोशिश करने लगा ।
यकीनन वहां तेरहवां कैदी नहीं था ।
कौन गायब था ?
ए.एस.आई. ।
सारे कैदियों में ए.एस.आई. एक ही था । वही गायब था ।
कैसे गायब हो गया ?
खिड़की तो बन्द थी ।
और दरवाजे पर वह खुद मौजूद था ।
बन्धे हुई जिस्मों को ल्रांघता हुआ वह खिड़की तक पहुंचा । उसने खिड़की खोली तो चौखट के साथ सिर्फ अटकी खड़ी ग्रिल उसके ऊपर आकर गिरी ।
तो इधर से भागा था वो ए.एस.आई. का बच्चा !
लेकिन उसे भागे हुए अभी ज्यादा देर नहीं हुई थी । हर पांच मिनट बाद तो वह कमरे में आकर झांकता था और कैदियों को गिनकर जाता था । पिछली बार कैदी पूरे थे । यानी कि उसे वहां से भागे हुए अभी मुश्किल से पांच मिनट हुए थे ।
और ए.सी.पी. का टेलीफोन सिर्फ दो मिनट पहले आया था ।
यानी कि वो भगोड़ा ए.एस.आई. तब तक हैडक्वार्टर सम्पर्क स्थापित करने में कामयाब नहीं हुआ था ।
वह अभी भी मार्केट में जाकर अपने साथियों को आगाह कर पाता तो हालात बिगड़ने से बच सकते थे ।
स्टेनगल सम्भाले वह बाहर को भागा ।
***
ए.एस.आई. नामदेव आगन्तुक से उलझा-उलझा जमीन पर गिरा और फिर उसे लिए-दिए फाटक से बाहर तक लुढक गया ।
फिर दोनों एक-दूसरे से अलग हुए और उठकर खड़े हुए । उसके उठते ही नामदेव ने उसे कम्पाउन्ड की चारदीवारी की ओट में खींच लिया ।
“कौन हो तुम ?” - नामदेव हांफता हुआ बोला ।
मलानी की निगाह पुलिस की वर्दी पर और वर्दी पर टंके एक सितारे पर पड़ी । ए.एस.आई. - उसने सोचा - वो तो नकली नहीं हो सकता था । वो तो अभी चौकी के भीतर से निकला था ।
“मेरा नाम मलानी है” - वह धीरे से बोला - “मैंने अभी दरोगा जी को फोन पर बताया था कि सुनारों की मार्केट में डाका पड़ रहा था ।”
“डाका !”
“हां । उन्होंने मुझे यहां आने के लिए कहा था । मैं भीतर...”
“भीतर नहीं जाना, बेवकूफ । जिस आदमी ने तुमसे दरोगा बनकर फोन पर बात की थी, वो भी डाकुओं का साथी है । डाकुओं ने चौकी पर कब्जा किया हुआ है । तेरह पुलिस वाले भीतर गिरफ्तार थे जिनमें से एक मैं, ए.एस.आई. नामदेव, किसी तरह से बच निकलने में कामयाब हो गया हूं ।”
“ओह !”
“तुमने अपनी आंखों से मार्केट लुटती देखी थी ?”
“हां ।”
“बाजार में कोई नहीं था ?”
“शहरी कोई नहीं था लेकिन दोनों सिरों पर एक-एक सिपाही तैनात था और मार्केट के आगे एक पुलिस की जीप खड़ी थी ।”
“वो जीप इसी चौकी की है जो उन डकैतों ने छीन ली थी ।” - उसने परे बाजार के दहाने की तरफ निगाह दौड़ाई - “पक्की बात है वहां एक ही सिपाही है ?”
“हां ।”
“कहां ?”
“दहाने की इस ओर वाली पहली दुकान के सायबान के नीचे ।”
“चलो ।”
“क - कहां ?”
“सायबान की तरफ । तुमने एक सिपाही को काबू करने में मेरी मदद करनी है ।”
“क - कैसे ?”
“तुम उसकी तवज्जो अपनी तरफ करना, मैं उसे पीछे से दबोच लूंगा ।”
“वो - वो हथियारबन्द होगा ।”
“जरूर होगा । मुझे उसके हथियारबन्द होने का अन्देशा न होता तो हम दोनों जाकर वैसे ही न उसे दबोच लेते ।”
दोनों तेजी से बाजार की तरफ बढे । रास्ते में नामदेव ने मलानी को और अच्छी तरह से समझा दिया कि उसने क्या करना था ।
“तुम पुलिस की इस वक्त जो मदद कर रहे हो” - नामदेव अन्त में बोला - “उसके लिए देखना मैं खुद पुलिस कमिश्नर से तुम्हें इनाम दिलवाऊंगा, खुद मेयर से शाबाशी दिलवाऊंगा, कोई बड़ी बात नहीं कि खुद चीफ मिनिस्टर साहब तुम्हारी पीठ ठोंकना चाहें ।”
मलानी फूलकर कुप्पा हो गया ।
दोनों सायबान वाली दुकान की दीवार के साथ चिपककर खड़े हो गए ।
नागराज की उस वक्त उनकी तरफ पीठ थी ।
नामदेव ने मलानी को कोहनी से टहोका ।
मलानी आगे बढा । फिर उसने यूं बाजार में कदम रखा जैसे वह सायबान के नीचे मौजूद पुलिसिये के अस्तित्व से कतई बेखबर हो ।
“कौन है बे !” - नागराज ने उसे पीछे से ललकारा ।
मलानी न रुका, न उसने घूमकर पीछे देखा ।
नागराज ने रिवाल्वर निकालकर हाथ में ले ली और सायबान के नीचे से निकलकर मलानी की तरफ लपका । बरसात में कदम रखने को उसका जी नहीं चाह रहा था लेकिन उस नाफर्माबरदार आदमी को रोकना जरूरी था जो जरूर बहरा था ।
वह सायबान के नीचे से अभी निकला ही था कि नामदेव ने पीछे से चीते की तरह उस छलांग लगा दी । उसका एक हाथ उसकी गर्दन से लिपटा और दूसरे हाथ में थमा एक नोकीला पत्थर उसने नागराज की खोपड़ी पर कई बार पटका ।
तुरन्त नागराज का जिस्म उसकी पकड़ में ढीला पड़ा गया ।
रिवाल्वर उसके हाथ में से निकलकर अन्धेरे में कहीं लुढक गई थी ।
मलानी लपककर उसके करीब पहुंचा ।
“इसे घसीटकर सायबान के नीचे ले जाओ ।” - नामदेव बोला - “मैं इसकी रिवाल्वर तलाश करता हूं ।”
मलानी ने सहमति में सिर हिलाया । उसने नागराज की बगलों में हाथ डाला और उसे घसीटता हुआ सायबान की तरफ ले चला ।
नामदेव रिवाल्वर तलाश करने लगा ।
तभी दौड़ते कदमों की आवाज उसके कानों में पड़ी ।
उसने चिहुंककर बाजार की तरफ देखा । बाजार सुनसान था ।
उसकी निगाह चौकी की ओर वाली सड़क पर उठी तो उसने एक साया दौड़ता हुआ उधर ही आता पाया । रिवाल्वर की तलाश छोड़कर वह मलानी की तरफ लपका ।
“लेट जाओ ।” - वह तीखे स्वर में बोला - “मुझे लगता है चौकी से डकैतों का साथी आ रहा है ।”
दोनों सायबान के पहलू में लेट गए । अचेत नागराज को उन्होंने अपने बीच घसीट लिया ।
तभी हाथ में स्टेनगन लिए दौड़ता हुआ रूपचन्द जगनानी बाजार के दहाने पर पहुंचा और बरसात में आंखें फाड़-फाड़कर इधर-उधर देखने लगा ।
“नागराज !” - उसने आवाज लगाई लेकिन उसकी आवाज बरसात के शोर में गुम होकर रह गई ।
फिर वह सिर नीचा किए, लपकता हुआ बाजार में दाखिल हो गया ।
नामदेव उठा, उसने मलानी को टहोका तो वह भी उठ खड़ा हुआ ।
“चौकी में यही एक डकैत था जो बाजार में दौड़ा जा रहा है” - नामदेव बोला - “अब वहां बंधे पड़े पुलसियों के अलावा कोई नहीं होगा । तुम वहां के फोन से 100 नम्बर डायल करके सारे मामले की खबर कर दो और ऑफिस में स्विचबोर्ड पर लगा एक काला बटन तलाश करके उसे आन कर दो ।”
“उससे क्या होगा ?”
“जंग के दिनों में चौकी की छत पर एक हूटर लगाया गया था जोकि अब इस्तेमाल तो नहीं होता लेकिन लगा अभी भी हुआ है । वह हूटर हवाई हमले की वार्निंग देने के लिए था । तुम उसे आन कर दो ।”
“उससे क्या होगा ?”
“मुझे उम्मीद है अगर हूटर की आवाज पुलिस की किसी गश्ती गाड़ी को सुनाई दे जाएगी तो वो फौरन इधर का रुख करेगी । कुछ भी नहीं होगा तो कम- से-कम इलाके में जाग तो हो जाएगी । तुम वक्त जाया न करो और जो कहा है, वो करो । जो होगा, सामने आ जाएगा ।”
“और तुम ?”
“मैं वो नामुराद रिवाल्वर तलाश करता हूं । मिल गई तो उस स्टेनगन वाले डकैत के पीछे पडूंगा वर्ना मैं भी चौका पर पहुंचता हूं । अब भागो ।”
मलानी फिर चौकी की तरफ भागा ।
तभी जोर से बिजली कड़की ।
बिजली की चमक में नामदेव को रिवाल्वर कूड़े के एक ड्रम के पास पड़ी दिखाई दी ।
उसने लपककर रिवाल्वर उठाई और रूपचन्द जगनानी के पीछे भागा ।
***
हूटर की कर्कश आवाज वातावरण में गूंजी तो विमल सहित सब यूं चिहुंके जैसे बिजली का करेंट लगा हो ।
“यह क्या है ?” - मुबारक अली हकबकाकर बोला ।
“खतरा !” - विमल बोला - “घोटाला ! भागो !”
तब तक की लूट का माल कैनवस की तीन बड़े-बड़े झोलों मे भरा जा चुका था । झोलों को समेटे वे बाहर को भागे तो उन्होंने पाया कि उन्हें चेतावनी देने की नीयत से वागले वापिस भागा और जीप की ड्राइविंग सीट पर सवापर हो गया ।
वे चारों भी जीप में सवार हुए, विमल आगे वागले के साथ और अभी सरकी ही थी कि एकाएक आनन्द चिल्लाया - “रोको ! रोको !”
“क्या हुआ ?”
“जगनानी भागा आ रहा है । बैक करो ! बैक करो !”
वागले ने विमल की तरफ देखा ।
विमल ने जीप में से सिर निकालकर पीछे सड़क पर देखा ।
तभी हूटर के बीच-बीच में दूर कहीं से आती फ्लाइंग स्क्वायड के सायरन की आवाज भी सुनाई देने लगी ।
“बैक करो ।” - आनन्द आतंकित भाव से चिल्लाया - “मैं कहता हूं बैक करो !”
विमल ने वागले को देखकर सहमति में सिर हिलाया ।
तुरन्त जीप सड़क पर तूफानी रफ्तार से उलटी भागने लगी ।
जीप रूपचन्द के करीब पहुंची ।
“बुजुर्गवार !” - आनन्द जीप से बाहर रूपचन्द की तरफ हाथ बढाता हुआ बोला - “जल्दी ! जल्दी !”
पहले से ही जल्दी करते रूपचन्द ने और जल्दी करने की कोशिश की तो उसका एक पांव सड़क पर बहते बरसाती पानी के नीचे कहीं छुपे किसी खड्डे में पड़ा और वह औंधे मुंह सड़क पर गिरा । स्टेनगन उसके हाथ से छिटककर परे जा गिरा ।
आनन्द जीप में से कूद गया और लपककर रूपचन्द के पास पहुंचा । उसने रूपचन्द को जबरन उठाकर उसके पैरों पर खड़ा किया और उसे जीप की ओर धकियाने लगा । जीप के पृष्ठभाग में पहुंचकर उसने रूपचन्द को सामने मुबारक अली और जामवन्तराव की फैली बांहों में धकेल दिया । उन्होंने रूपचन्द को भीतर खींच लिया । फिर उसके पीछे आनन्द जीप में चढने ही लगा था कि उसी क्षण सड़क पर प्रकट हुए नामदेव की रिवाल्वर की गोली उसकी खोपड़ी के पृष्ठभाग में आकर लगी । उसका शरीर धुनष की तरह एक बार हवा में तना और फिर वह एक चीख के साथ सड़क पर ढेर हो गया ।
मुबारक अली ने बला की फुर्ती से दोबारा गोली चलाने को तत्पर नामदेव की दिशा में कई फायर झोंक दिए ।
गोलियों की बौछार की चपेट में नामदेव का शरीर फिरकनी की तरह हवा में घूमा और फिर धराशायी हो गया ।
मुबारक अली कूदकर जीप से बाहर निकला । उसने पानी में पड़े आनन्द को उठाने की कोशिश की तो आनन्द ने हाथ उठाकर उसे रोका ।
“म... मैं... मैं... मर रहा हूं ।” - खून के बुलबुलों के साथ उसके मुंह से आवाज निकली - “मेरे पर.. व.. वक्त... बरबाद न.. क.. करो ! मे... मेरा हिस्सा... मेरी मां... मां के पास... अ... अमृत... सर.. पहुंचा देना ।”
“पता बोलो ।” - मुबारक अली व्यग्र भाव से बोला ।
“म... मकान नम्बर... च... चार... चौर सा...बा...इस...”
“चार सौ बाइस !”
“हां... क-क-कटरा... आहलूवा-लिया । श... शकुन्तला... दे... देवी आनन्द को... म... मेरा हिस्सा... प... पहुंचा.. दोगे ?”
“पहुंचा दूंगा । जरूर पहुंचा दूंगा ।”
“म... मेरे फ्लैट पर... ए... एक... ल... लड़की है । हा... हा... हाना... गो.. गोंसाल्वेज । उ... उसे कह देना... कि... कि... जिसका... वो इन्तजार... क... कर रही है... वो... वो... अब इस... दु... दुनिया में.... नहीं रहा । क... कहना कि जिन्दगी... में... जब... प्यार... क... करने लायक... अ...अ... अक्ल आई तो... जिदगी... नहीं रही । हाना को... क... कहना... कि वो... इस... बे... बेवफा... मर्द को... म... म... मा... मा... माफ... क...”
उसकी आंखें उलट गई ।
तभी प्लाइंग स्क्वायड के सायरन की आवाज बहुत करीब से आई ।
“मुबारक अली !” - विमल बोला, उसके स्वर में कोड़े की फटकार थी ।
जीप पहले ही हरकत में आ चुकी थी । मुबारक अली लपककर जीप में सवार हो गया ।
दुकानों के ऊपर के फ्लैटों की खिड़कियां पटापट खुलने लगी थीं लेकिन सड़क अभी भी सुनसान थी और मूसलाधार बारिश अभी भी हो रही थी ।
जीप तोप से छूटे गोले की तरह वहां से भागी ।
रास्ते में विमल और जामवन्तराव ने अपने गैस मास्क और जिस्म पर मौजूद हीट प्रूफ पोशाकें उतारकर सड़क पर फेंक दी ।
बाजार के दहाने पर जीप पहुंची तो इरफान अली भी उस पर सवार हो गया ।
“नागराज !” - वागले बोला ।
“अब बाजार के दूसरे सिरे पर नहीं जाया जा सकता ।” - विमल सख्ती से बोला - “वो समझदार होगा तो हमसे पहले ही वहां से भाग चुका होगा, बेवकूफ होगा तो या तो पुलिस की गिरफ्त में होगा या आनन्द की तरह ही बाजार में कहीं मरा पड़ा होगा ।”
“बुजुर्गवार ।” - मुबारक अली रूपचन्द से बोला - “तुम्हारी खातिर उस शख्स ने अपनी जान दे दी ।”
प्रत्युत्तर में रूपचन्द के होंठ फड़फड़ाए लेकिन मुंह से कोई शब्द न निकला ।
“हुआ क्या था ?”
“फिर पूछेंगे ।” - विमल सख्ती से बोला - “इस वक्त सलामत भाग निकलने की तरफ तवज्जो दो ।”
जीप फ्लाईंग स्क्वायड के सायरनों से गूंजते वातावरण मे सुनसान सड़क पर दौड़ती रही । कई बार जीप का वायरलेस टेलीफोन बजा लेकिन किसी ने उसकी तरफ तवज्जो न दी ।
फिर मुश्कें बंधे नेपाली चौकीदार मनबहादुर समेत जीप को छोड़कर वे माल समेत ट्रक में सवार हो गए ।
आंटी के स्क्रैप यार्ड में सुरक्षिरत पहुंच जाने के बाद ही विमल को यकीन आया कि वे कामयाब हो गए थे ।
“तेरा अन्त न जाना मेरे साहिब “ - फिर विमल के मुंह से निकला - “मैं अन्धुले क्या चतुराई !”
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