5 दिसम्बर : गुरुवार
दोपहर के करीब अरमान अपने पिता के रूबरू हुआ।
“आप से एक जरूरी बात करनी है।” – वो संजीदगी से बोला।
“कर।” – चिन्तामणि सहज भाव से बोला।
“लम्बी बात है।”
“तो शाम को करना। अभी मैंने ज़रूरी कहीं जाना है। किसी से ज़रूरी मिलना है।”
“मुलाकात मुल्तवी कर दीजिये।”
चिन्तामणि सकपकाया, उसने अपने पुत्र की तरफ देखा।
पुत्र विचलित न हुआ।
“ऐसी क्या जरूरी बात है?” – चिन्तामणि तनिक उत्सुक भाव से बोला।
“बोलंगा न!”
“अरे, कोई हिन्ट तो दे!”
“जो अमित गोयल के साथ बीती, बात उससे ताल्लुक रखती है।”
“अच्छा! आज अखबार में ऐसी एक ताजा वारदात की बाबत छपा था, अलबत्ता जो नौजवान उस दरिन्दगी का शिकार हुआ, उसका नाम नहीं छपा था।”
“उसका नाम अशोक जोगी है।”
“तुझे कैसे मालूम?”
“मेरा दोस्त है। अमित का भी दोस्त है। हम म्यूचुअल फ्रेंड्स हैं।”
“बडी हैरान करने वाली बातें कर रहा है!”
“पापा, गम्भीर मसला है। वो अंजाम मेरा भी हो सकता है।”
“क्या! क्या अंजाम तेरा भी हो सकता है?”
“जो मेरे दो दोस्तों का हो चुका है, जिसके लिये एक तीसरे की अब बारी है और आखिरी नम्बर मेरा है।”
“अरे, ये क्या बहकी-बहकी बातें कर रहा है तू?”
“बोलूंगा न! बोलने के लिये ही तो कह रहा हूं कि अपनी मुलाकात मुल्तवी कीजिये।”
“की। बोल।”
“मेरे कमरे में चलिये।”
“चल।”
सीढ़ियाँ तय करके दोनों पहली मंजिल पर और आगे अरमान के बैडरूम में पहुंचे। वहां अरमान ने अपने राइटिंग डैस्क के बाजू की एक कुर्सी पर पिता को बिठाया और स्वयं डैस्क के सामने की कुर्सी पर बैठा।
“अब जल्दी बोल।” – चिन्तामणि उतावले स्वर में बोला – “सस्पेंस से मेरा बुरा हाल है।”
“बोलता हूं।” – अरमान का सिर झुक गया, उसका स्वर और संजीदा हो गया – “पापा मैं कुछ कनफैस करने जा रहा हूं।”
चिन्तामणि की भवें उठीं।
“क्या कनफैस करने जा रहा है?” – फिर सख्ती से बोला – “क्या किया है तूने?”
“ऐसा कुछ किया है, पापा, जो मुझे नहीं करना चाहिये था। हरगिज़ नहीं करना चाहिये था।”
“अरे, किसी का खून तो नहीं कर दिया, अभागे!”
“नहीं।”
“शुक्र है। तो क्या किया?”
“कहते नहीं बनता लेकिन मजबूरी है, कहना पड़ रहा है। आम हालात में मैं आपको भनक न लगने देता अपनी . . . अपनी करतूत की ...”
“करतूत!”
“नाकाबिलेमाफी करतूत। लेकिन हालात का तकाज़ा है कि उसका जिक्र मैं आप से करूं।”
“अरे, तो कर न! सस्पेंस क्यों फैला रहा है?”
“सुनिये।”
सिर झुकाये अरमान सोमवार, ग्यारह नवम्बर का वाकया बयान करने लगा। ज्यों-ज्यों वो बोलता गया, चिन्तामणि के नेत्र फैलते गये। वो खामोश हुआ तो चिन्तामणि भौंचक्का-सा उसका मुंह देखने लगा।
“मैं शर्मिंदा हूं” – पूर्ववत् सिर झुकाये अरमान बोला – “लेकिन ...”
“मुझे दिख रहा है तू शर्मिंदा है।” – चिन्तामणि कर्कश स्वर में बोला – “अब बोल अपनी और अपने यारों की इस नापाक, जलील, बेग़ैरत हरकत का अपने बाप से ज़िक्र करना क्यों जरूरी हो गया? शाबाशी चाहता है जवांमर्दी की?”
“पापा!” – अरमान आहत भाव से बोला।
“ठीक है। ठीक है। बोल, मेरे से ज़िक्र क्यों जरूरी जाना?” अरमान ने गुरुवार इक्कीस नवम्बर का वाकया बयान किया। पिता और हैरान हुआ।
“तुम चार दोस्तों में से उसने तुझे अपना निशाना बनाया, ख़ास तुझे थामा तो इसका मतलब है वो जानता था कि ग्यारह तारीख के वाकये में तू शामिल था। उसने तेरे से वाकये में शामिल तेरे तीन दोस्तों के नाम निकलवाये तो इसका आगे मतलब है कि किसी तरीके से वो सिर्फ तेरी शिनाख्त कर पाया था, बाकी तीन से बेखबर था!”
“हं-हां।”
“तेरी कैसे शिनाख्त कर पाया?”
“मुझे नहीं मालूम।”
“अरे, जब तुम चार जने उस नापाक वारदात में शामिल थे तो एक तेरे पर ही फोकस क्यों बना?”
“नहीं मालूम।”
“इतने दिन हो गये हैं, सोचा होता इस बाबत!”
“बहुत सोचा लेकिन ...”
“कुछ न सूझा?”
“हां।”
“अरे, पढ़ा लिखा, इंटेलीजेंट, दुनियादार लड़का है, कोई अन्दाज़ा ही लगाया होता!”
“अन्दाज़ा तो लगाया!”
“क्या?”
“कार में पर्दो की वजह से अन्धेरा था फिर भी किसी तरीके से वो औरत ...”
“जबरजिना का शिकार औरत बोल।”
“... वो औरत” – उसने न बोला – “मेरी, सिर्फ मेरी सूरत देखने में कामयाब हो गयी थी।”
“उससे क्या होता है! दो करोड़ की आबादी है दिल्ली की! उसमें से एक सूरत सिंगल आउट कर लेना कोई हंसी खेल है!”
“आप सुनिये तो!”
“लड़के, मैं सुन ही रहा हूं। और क्या कर रहा हूं मैं यहां बैठा?”
“वो औरत मॉडल टाउन की थी।”
“कैसे मालूम?”
“पाँव-पाँव शापिंग के लिये निकली हुई थी तो और कहां की हो सकती थी! वो अपनी खरीदारी के साथ लौट रही थी और खरीदारी की ऐसी जगह पीछे म्यूनीसिपल मार्केट ही थी। जस्से का ख़याल था कि वो म्यूनीसिपल मार्केट से आधा किलोमीटर के दायरे में ही कहीं रहती थी।”
“जस्से का खयाल था! तू जस्से से सब डिसकस कर चुका है?”
“हं-हां।”
“यानी लाला रघुनाथ गोयल के मुलाज़िम को मालूम है मेरी औलाद कैसी है!”
अरमान ने जवाब न दिया।
“अच्छी इज्जत लुटवाई, बेटा!”
“अब” – अरमान ने सिर उठाया और तमक कर बोला – “या तो आप अपनी इज़्ज़त का फ़ातिहा पढ़ लीजिये या मेरी बात सुन लीजिये।”
“तेरी ही सुनने को बैठा हूं, बेटा।” – चिन्तामणि ने गहरी सांस ली – “तो जस्से का सुपीरियर जजमेंट ये कहता है कि तुम चार यारों की हवस का शिकार बनी औरत न सिर्फ मॉडल टाउन की रहने वाली थी, मॉडल टाउन की म्यूनीसिपल मार्केट के आधा-पौना किलोमीटर के दायरे में रहने वाली थी!”
“हां।”
“और इस दायरे में हम भी आते हैं इसलिये वो तेरी सूरत से वाकिफ थी।”
“हां।”
“वो आदमी – फैंटम, जो महरौली के खंडहर में तेरे पीछे पड़ा – वो उसका क्या लगता होगा?”
“कुछ भी लगता हो सकता था लेकिन जस्से की राय थी कि हसबैंड था।”
“तुम लोगों ने एक शादीशुदा औरत पर हाथ डाला?”
“उस वक्त हमें मालूम था कि वो शादीशुदा औरत थी?”
“हूं। आगे बढ़।”
“जस्से का ख़याल था कि इतने दायरे में एक्सटेंसिव फुटवर्क से ऐसी किसी औरत को लोकेट किया जा सकता था जो कि हफ्ता दस दिन से घर से बाहर दिखाई नहीं दी थी।”
“करता कौन? तू?”
“उसने मुझे ही करने को बोला था लेकिन मैंने हाथ खड़े कर दिये थे। फिर उसने वो काम ख़ुद करवाना कुबूल किया था।”
“कोई नतीजा निकला?”
“निकला। आज सुबह ही नतीजे की खबर उसने मेरे तक पहुंचायी।”
“गुड! क्या नतीजा निकला?”
“पापा, ऐसी एक औरत, जो पिछले महीने की बारह तारीख के बाद से अपने घर से बाहर नहीं देखी गयी थी, वो” – अरमान के स्वर में रहस्य का पुट आया – “हमारे पड़ोस में रहती है।”
“क्या!” – चिन्तामणि चौंका – “कहां?”
“डी-नाइन में?”
“वहां! वहां तो एक सफेदपोश बाबू रहता है जो कनॉट प्लेस में कहीं एकाउन्टेंट की नौकरी करता है। कश्मीरी। नाम अरविन्द कौल! जो पिछले महीने एक सुबह हमारी ‘वरना’ की उसके गेट पर खड़ी होने की शिकायत करने यहां आया था।”
“वही।”
“वो औरत तो बच्चे वाली है! उसका तो दो-ढाई साल का एक बेटा है।”
“जो भी है, वही पिछले महीने हफ्ता भर घर से बाहर नहीं निकली थी।”
“अरे, लड़के, इतने से ही थे कैसे स्थापित हो गया कि तुम दोस्तों की बद्फ़ेली का शिकार वो औरत हुई थी? जो आधा-पौना किलोमीटर का पैरीमीटर तूने या जस्से ने या दोनों ने मुकरर्र किया है, उसमें तो दो-ढाई सौ फैमिलीज़ रहती हैं। कई इमारतें चारमंजिला हैं और एक फ्लोर पर किराये पर चढ़े दो-दो फ्लैट हैं। उन में रहती कोई औरत – एक से ज्यादा भी मुमकिन हैं – हफ्ता दस दिन के लिये कहीं, मान लो मायके, चली गयी हो तो कैसे वो घर से बाहर दिखाई देगी?”
“ये बात मेरे और जस्से के बीच उठी थी।”
“हैरानी है तूने जस्से को कंफीडेंस में लिया जो कि गोयल साहब का ख़ास है। क्या वो सब कुछ गोयल साहब को सुनाने से बाज़ आया होगा?”
“उसने मुझे जुबान दी थी ...”
“मुझे जस्से जैसे लोगों की जुबान पर ऐतबार नहीं। कल का कार चोर आज . . .”
“पापा, गड़े मुर्दे न उखाड़ो।”
चिन्तामणि ठिठका।
“और मुझे अपनी बात कह लेने दो।”
“अभी बात बाकी है?”
“बहुत बाकी है।”
“फिर तो सॉरी। बोल।”
“कुछ और भी है जो पड़ोस की उस औरत पर फोकस बनाता है। ऐसा कुछ जिसे इंगलिश में कोरोबोरेटिंग ईवीडेंस कहते हैं।”
“आगे!”
“आगे मैं आप को एक वीडियो क्लिप दिखाता हूं।”
अरमान ने लैपटॉप की स्क्रीन पर ‘लोटस पौंड’ वाली क्लिप चलाई।
“इस शख्स की ओर ध्यान दीजिये” – वो अंगली से स्क्रीन पर इशारा करता बोला – “जिसकी आंखों पर गॉगल्स हैं, जो का राय की डार्क ब्राउन पैंट, लाइट ब्राउन कोट, मैचिंग शर्ट, और मैचिंग जूते पहने है। तब तक स्क्रीन पर निगाह रखिये जब तक कि ये रेस्टोरेंट से रुखसत पा कर कैमरे के रेंज से निकल न जाये।”
चिन्तामणि ने निर्देश का पालन किया।
जब क्लिप का समापन हुआ तो अरमान बोला – “गॉगल्स वाले की शक्ल देखी?”
“हां। लेकिन फीचर्स तो न देखे न, गॉगल्स और नीमअन्धेरे की वजह से। क्लिप को बैक कर, फिर उसके फेस को जूम कर।”
“कोई फायदा नहीं होगा। मैंने कई बार किया। थोड़ा सा ही जूम करने पर ग्रेस फटने लगते हैं और सूरत उतनी भी नहीं पहचानी जाती जितनी कि नार्मल कंडीशन में पहचानी जाती है।”
“फिर क्या फायदा हुआ?”
“फायदा आगे आयेगा। आप इस शख्स के कदकाठ, हाव-भाव, चाल-ढाल को और जैसी शक्ल दिखाई दी, उस को ज़ेहन में रखना। मैं एक और क्लिप चलाता हूं।
चिन्तामणि ने सहमति से सिर हिलाया।
अरमान ने स्क्रीन पर अट्ठाइस नवम्बर, गुरुवार को ‘हाइड पार्क’ वाली क्लिप चलाई और पिता का ध्यान प्रियंका के साथ मौजूद युवक की तरफ आकर्षित किया। उसने पिता को वो क्लिप भी आखिर तक दिखाई।
“क्या कहते हैं?” – फिर आशापूर्ण स्वर में बोला।
“किस बाबत?” – चिन्तामणि ने पूछा।
“इसकी शक्ल पहली क्लिप के गॉगल्स वाले से मिलती है?”
“भई, कुछ कुछ मिलती तो है लेकिन क्या बड़ी बात है! आजकल के सारे मॉडर्न, फैशनेबल नौजवान लड़के एक ही जैसे लगते हैं ...”
“ये लड़का नहीं, आदमी है।”
“एक खास उम्र तक वो भी!”
“कद-काठ?”
“वो तो मिलता है लेकिन वो भी कॉमन है।”
“चाल-ढाल?”
“मिलती है।”
“हाव भाव।”
“उस सिलसिले में खास कुछ नोटिस में न आया।”
“ओके। अब एक क्लिप और देखिये।”
अरमान ने ‘हाइड पार्क’ की उससे अगले रोज की क्लिप स्क्रीन पर ली जिसमें विमल, नीलम और अल्तमश चित्रित थे और पिता से विमल की बाबत पहले वाला सवाल किया।
“शक्ल नहीं मिलती।” – चिन्तामणि बोला।
“मेकअप की वजह से। जस्सा कहता है ये पिछली क्लिप वाला ही शख्स है लेकिन मेकअप में है।”
“मेकअप में है!”
“हां। मूंछ, सोल-पैच, भवें, कलमें, विग, सब नकली है। आंखें रंगीन कान्टैक्स लैंसिज की वजह से नीली हैं।”
“तू कहना क्या चाहता है?”
“ये कि शक्ल में थोड़े बहुत ऊपरी हेर-फेर के साथ तीनों क्लिप्स में एक ही शख्स है।”
“है तो क्या?”
“और इसी शख़्स ने फैंटम का मास्क पहन कर महरौली के खंडहर में मुझे काबू किया था और जबरन मेरे से मेरे दोस्तों के नाम पते कबुलवाये थे।”
“तो भी क्या?”
“ये डी-नाइन वाला बाबू है जिसका नाम कौल है।”
“नानसेंस!”
“और इसके साथ रंग बिरंगी स्कर्ट, खुले गले की कमीज़ और ब्रीफ़ जैकेट वाली जो औरत है, वो इसकी बीवी है।”
“होगी।”
“आप तवज्जो नहीं दे रहे हैं। ये कौल है तो वो पड़ोस वाली वो औरत हुई या नहीं हुई जो पिछले महीने ग्यारह तारीख के बाद से हफ्ता घर से बाहर दिखाई नहीं दी थी?”
“नानसेंस! अरे, वो सिम्पल हाउसवाइफ है, मदर है, ये तो अपने फैशन से, रख-रखाव से, हेयर स्टाइल से, हर बात से कोई हाई-फाई सोसायटी वूमन लगती है!”
“शक्ल मिलती है।”
“मामूली। लेकिन वो भी इत्तफाक हो सकता है।”
“अगर मर्द कौल हो तो मानेंगे कि ये उसकी बीवी है, हमारी पड़ोसन है?”
“अगर हो तो?”
“इसी आदमी ने ऐसा एडवांस इन्तज़ाम किया था कि शुक्रवार उनतीस नवम्बर की रात को अमित ‘हाइड पार्क’ में अकेला हो।”
“क्या इन्तज़ाम किया था! और तुझे कैसे मालूम?”
जवाब में अरमान के पिछले रोज की जस्से के साथ अपनी ‘हाइड पार्क’ में विज़िट का तफसील से वर्णन किया। उसने ‘फैंटम, घोस्ट हू वॉक्स’ कहने की तरफ पिता की खास तवज्जो दिलाई।”
“कमाल है! इस आदमी ने दो लड़कों के गुप्तांग काटे!”
“इसने नहीं।” – अरमान बोला – “ये ऑर्गेनाइज़र है, एग्जीक्यूशनर वो तौबाशिकन हुस्न की मलिका लड़की है जिसे आपने इस क्लिप में उस मर्द, औरत के साथ देखा, जो बिना दुपट्टे सलवार सूट और मैचिंग कार्डीगन पहने थी और जिसने बार पर अकेले जाकर वहां अकेले बैठे अमित से जबरन यारी गांठी थी।”
“कमाल है! लड़के, यही बात साबित करती है कि ये आदमी हमारा पड़ोसी कौल नहीं हो सकता।”
“एक कोरौबोरेटिंग इवीडेंस मुझे और पेश करने दीजिये, उसके बाद जो कहना हो, कहिये।”
“कर।”
अरमान ने स्क्रीन पर पहली क्लिप वापिस चलाई।
स्क्रीन पर जब गॉगल्स वाला व्यक्ति प्रकट हुआ तो उसने शाट को फ्रीज़ किया और उसे उसके मेज़ पर टिके बायें हाथ पर जूम किया।
“हाथ को देखिये।” – वो बोला।
“देख रहा हूं।’ – चिन्तामणि अनमने भाव से बोला – “क्या दिखाना चाहता है?”
“अंगूठी। जो इसके हाथ की दूसरी उंगली में है। उस पर तवज्जो दीजिये। गौर से देखिये उसे।”
“देख रहा हूं। सिम्पल मर्दाना अंगूठी है जिसके टॉप की फ्लैट सर्फेस पर ‘ओम’ लिखा है।”
“ ‘ओम’ को गौर से देख लीजिये, क्योंकि ये अभी आप को दो बार फिर दिखाई देगा।”
“अच्छा! दिखा!”
अरमान ने बारी-बारी ‘हाइड पार्क’ वाली दोनों क्लिप चलाईं और पूववर्त “विमल’ के हाथ को जूम में ले कर अंगूठी पिता को दिखाई।”
“क्या देखा?” – अरमान बोला।
“वैसा ही ‘ओम’ देखा जो तूने पहली क्लिप में दिखाया।”
“क्या मतलब हुआ इसका?”
“क्या मतलब हुआ? तू बता!”
“ये मतलब हुआ कि तीनों क्लिप्स में एक ही शख्स है।”
“नॉनसेंस! मूखों जैसी बातें कर रहा है! अरे, क्या खासियत है ‘ओम’ लिखी अंगूठी में जो कोई दूसरा, तीसरा, तीसवां, पचासवां, सौवा जना नहीं पहन सकता?”
“एक ख़ासियत है जो आपके नोटिस में नहीं आयी।”
“क्या?”
“ये हिन्दुओं वाला ‘ओम’ नहीं है। हिन्दुओं वाला ओम” – अरमान ने एक कागज़ पर लिख कर दिखाया – “ यूं – ॐ – लिखा जाता है। ये सिखों वाला ओम है जो यूं – पर्छ – लिखा हुआ है। जिसे सिख ओंकार कहते हैं।”
अमरमणि ने ग़ौर से स्क्रीन को देखा।
“बात तो तेरी सही है लेकिन इस से चलो, किसी दूर की कौड़ी के तौर पर ये तो स्थापित हो गया कि ये तीनों बहुरूप एक ही शख्स के हैं लेकिन ये कैसे साबित हो गया कि वो शख्स हमारा पड़ोसी कौल है?” ।
“क्योंकि मैंने उसके बायें हाथ की दूसरी उंगली पर सिखों के ‘ओम’ वाली अंगूठी देखी थी।”
चिन्तामणि सकपकाया, वो सीधा हो के बैठ गया। उसने अपलक पुत्र की ओर देखा।
“यस!” – अरमान पूरे आत्मविश्वास के साथ बोला।
“कब? कब देखी थी?”
“जब वो हमारे यहां मेरी कार की पार्किंग की कम्पलेंट करने आया था।”
“ओह!”
“अब आप मुझे ये बताइये, अगर हमारा पड़ोसी कश्मीरी है, कौल है तो सिखों के ‘ओम’ वाली अंगूठी का उसकी उंगली पर क्या मतलब?”
“यार, मतलब तो कोई नहीं लेकिन एक धर्म का आदमी दूसरे धर्म को मानता है तो इसमें ऐतराज़ की क्या बात है! मैंने आम नॉनसिख्स को सिखों वाला कड़ा पहने देखा है, हिन्दुओं को अजमेर शरीफ का ताबीज़ बान्धे देखा है, यहां तक कि नॉनक्रिश्चियंस को क्रॉस पहने देखा है।”
“पापा, कोई एक बात ऐसी हो सकती है जिसकी कोई एक्सप्लेनेशन हो, लेकिन यहां तो कई बातें हैं जिनके बारे में अलग-अलग सोचने पर किसी मुकाम पर पहुंचना मुमकिन नहीं लगता लेकिन आप उन पर सामूहिक रूप से विचार करें तो हमारे पड़ोसी पर फोकस बनता है। पड़ोस की औरत पिछली ग्यारह तारीख की बद्फ़ेली का शिकार हुई हो सकती है और उसके खाविन्द पर प्रतिशोध का जुनून सवार हुआ हो सकता है।”
“एक अकेला आदमी . . .”
“वो अकेला नहीं है।”
“एक गऊ-गणोष आदमी ...”
“लगता है ऐसा। उसके ढोल में ज़रूर कोई पोल है।”
“तू . . . तू चाहता क्या है?”
“ये भी कोई पूछने की बात है! मैं अपना अमित और अशोक जैसा अंजाम नहीं चाहता। अपने अंजाम से मैं सिर्फ एक पायदान दूर हूँ – बीच में सिर्फ अकील है – मैंने कुछ न किया तो, जो अंजाम मैं अपना नहीं चाहता, वो मेरा होके रहेगा। मेरे लिये आत्म रक्षा ज़रूरी है और आत्म रक्षा की एक ही रणनीति है।
“क्या?”
“हमला!”
“क्या करेगा?”
“फूंक दूंगा। उसके घर को आग लगवा दूंगा।”
“मति भ्रष्ट है? दो घर दूर हम रहते हैं, आग फैल गयी तो हम भी भस्म होंगे!”
वो हड़बड़ाया।
“घर को ढेर करवा दूंगा।” – फिर बोला – “आजकल घर ढेर करने के ऐसे तरीके मुमकिन हैं कि इमारत अपनी बुनियाद पर गिरती है।”
“ये सब हड़बड़ी की सोच है। अभी पड़ोसी को बाबत कोई गारन्टी तो हो जाये!”
“न हो।”
“भले ही कोई बेगुनाह मर जाये?”
“हां। मेरे लिये मेरी खुद की सलामती अहम है, कोई मरता है तो मरे!”
“मूर्खों जैसी बातें मत कर। तेरी शिनाख्त जिन वीडियो क्लिप्स पर बेस्ड है, वो शार्प नहीं हैं, उनकी रिकार्डिंग नाकाफ़ी रोशनी में हुई है इसलिये उसने जो भी नतीजा निकाला जायेगा, वो नाकाबिलेएतबार होगा। जब तक कुछ एतबार के काबिल हाथ में नहीं आया ...”
“आयेगा। वो भी आयेगा। बहुत जल्द आयेगा।”
“क्या? कैसे?”
“परसों जो हुआ, एक भव्य शादी में हुआ जिसको कई स्टिल फोटोग्राफर और कई वीडियोग्राफर कवर कर रहे थे। उनका काम, कहने की ज़रूरत नहीं कि, पर्फेक्ट होगा। अशोक के हमलावर पार्टी में शामिल थे। उनकी कितनी ही स्टिल और मूवी तसवीरें वहां खिंची होंगी।”
“ठीक! लेकिन हमारी उन तक पहुंच कैसे बनेगी?”
“जस्सा बनायेगा, ऐसे बनेगी।”
“वो क्या करेगा?”
“पापा, जरा माईंड अप्लाई कीजिये। जिन लोगों ने वो करतब किया, वो शादी के मेहमान नहीं हो सकते, वो न लडकी वालों के इनवाइटी हो सकते हैं, न लड़के वालों ने।”
“गैट क्रैशर थे?”
“कामयाब गैट क्रैशर थे। मालूम पड़ा है कि पुलिस आज सुबह से ही उनको सिंगल आउट करने की ड्रिल में
“क्या कर रहे हैं वो लोग?”
“जस्से ने मालूम किया है कि उन्होंने एक ऐसा आदमी लड़की वालों का और एक लड़के वालों का पकड़ा है जो दोनों तरफ से इनवाइटिड तमाम मेहमानों को पहचानता है। स्टिल फोटोग्राफरों को हुक्म हुआ है कि वो अपनी खींची तमाम तसवीरें पुलिस वालों के हवाले करें। फिर जिस-जिस आने वाले की बतौर इनवाइटिड गैस्ट शिनाख्त होती जायेगी, उसकी तसवीर को खारिज करते जाया जायेगा। अब बोलिये आखिर में कौन बचेंगे जिनके बारे में दोनों ही पक्ष कहेंगे कि वो उनके मेहमान नहीं?”
“गैट क्रैशर्स।”
“ऐग्जैक्टली! ये एक लम्बी ड्रिल है जिसके मुकम्मल होने में शाम हो जायेगी। जस्से ने ऐसा जुगाड़ किया है कि गैट क्रैशर की तसवीरों की एक-एक कॉपी उसके भी हाथ लगे। ऐसा होते ही वो सीधा यहां आयेगा। प्रोफेशनल्स द्वारा खींची गयी उन तसवीरों में वो कमियां हरगिज नहीं होंगी, जो कि वीडियो क्लिप्स में हैं। उनसे भी पड़ोसी की शिनाख्त न हुई तो मैं पड़ोसी का ख़याल छोड़ दूंगा। लेकिन अगर हुई तो ...”
‘तो तू कुछ नहीं करेगा। तो जो करना होगा मैं करूंगा।”
अरमान ने विस्मय से पिता की तरफ देखा।
“मैं करूंगा।” – चिन्तामणि के स्वर में दृढ़ता का पुट आया – “वो शख्स सफेदपोश बाबू होने के अलावा कुछ और है तो हमें मालूम होना चाहिये कि क्या कुछ और है ताकि हमें उसकी ताकत का अन्दाज़ा हो सके।”
“ठीक! पर फर्ज़ करो, वो बहुत ताकतवर निकलता है!”
“ताकतवर की भी कोई-न-कोई कमज़ोरी होती है जिस पर हुआ वार वो नहीं झेल सकता, कोई दुखती रग होती है जिसको छुआ जाये तो वो तड़पता है।”
“उसकी क्या कमजोरी होगी?”
“एक तो उजागर है!”
“क्या?”
“उसकी औरत। तूने अभी रणनीति का हवाला दिया, अब मैं भी रणनीति का हवाला देता है। औरत मर्द की कमजोरी होती है और कमज़ोर अंग पर वार करना युद्ध की रणनीति होती है।”
“यूं तो वो और भड़केगा!”
“भडकेगा नहीं, तड़पेगा। जो मेरे बेटे को तड़पाना चाहता है, वो खुद तड़पेगा। तड़पेगा क्या, जीते जी मर जायेगा।”
“अगर ऐसा हो सका तो मुझे खुशी होगी।”
“यकीनन होगा, लेकिन एक शर्त पर होगा। और वो शर्त ये है कि जस्से की लायी तसवीरें किसी काम आयेंगी, कोई पॉजिटिव नतीजा निकलेगा, वर्ना रेत में मछली पकड़ने वाला काम न मैं खुद करूंगा, न तेरे को करने दूंगा।”
“शादी के मेहमानों की पुलिस स्क्रीनिंग की बहुत लम्बी प्रक्रिया है। हो सकता है उसके मुकम्मल होने में शाम की जगह रात हो जाये।”
“भले ही सवेरा हो जाये। भले ही जस्सा तसवीरों के साथ कल आये। हमें कौन सी जल्दी है! तेरे सिर पर जो धमकी की तलवार लटक रही है उसका वार होते-होते होगा क्योंकि पहले तेरे दोस्त अकील सैफी का नम्बर है। नहीं?”
“हां।”
“तो फिर हमें क्या जल्दी है?”
“कोई नहीं पापा” – अरमान का लहजा जज़्बाती हुआ – “मुझे खुशी है कि मेरी करतूत के बारे में सुन कर मेरे लिये आपके मन में नफ़रत न जागी।”
“पागल हुआ है! औलाद से कहीं नफ़रत की जाती है! बच्चे ग़लतियां करते ही हैं। बल्कि नौजवानी के वक्ती जुनून में हो जाती हैं गलतियां। जो बीता वो बिसार, आइन्दा के लिये सबक ले। बस, इतनी सी तो बात है!”
“थैक्यू, पापा। आई एम प्राउड ऑफ यू।”
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