सुनील दस बजे ‘ब्लास्ट’ के आफिस में पहुंचा।
सीढ़ियां चढ़कर वो पहली मंजिल पर पहुंचा और रिसैप्शन के आगे से गुजरा।
“हाल्ट!”
सुनील ठिठका, घूमा।
“इधर आओ।”—रिसैप्शन पर बैठी रेणु अधिकारपूर्ण स्वर में बोली।
सुनील रिसैप्शन पर पहुंचा।
“क्या है?”—वो बोला।
“तुम्हें नहीं पता क्या है?”
“नहीं। नहीं पता।”
“अच्छे नागरिक लाल बत्ती पर रुकते हैं। मालूम?”
“लाल बत्ती?”
“मैं।”
“तू लाल बत्ती है?”
“तुम्हारे लिये। जिस पर तुम्हारा रुकना बनता है।”
“लाल मिर्च कहती तो कोई बात भी थी!”
वो हँसी, फिर बोली—“कल सुबह यहां तुम्हारे यार के साथ जो लड़की आयी थी, वो कौन थी?”
“साढ़े ग्यारह बजे सुबह होती है?”
“बाल की खाल न निकालो। कौन थी?”
“कल की बात कल पूछनी थी। कल क्या लाल बत्ती काम नहीं कर रही थी?”
“जवाब दो।”
“मुझे नहीं मालूम।”
“क्या बोला?”
“रमाकान्त की वाकिफ थी, रमाकान्त के साथ आयी थी। बस।”
“लो! मैं समझी थी तुम्हारा यार तुम्हारे लिये तोहफा लाया था।”
“लड़की!”
“खूबसूरत लड़की।”
“यार पिम्प है?”
“क्या पता हो! मर्द जान का क्या पता लगता है!”
“शर्म कर।”
“शर्म करूं तो बता दोगे कि असल में कौन थी?”
“हां।”
“ठीक है, की शर्म। सॉरी भी बोला। अब बताओ।”
सुनील ने बताया।
“ओह!”—रेणु बोली—“आजकल इस किस्म के हाई फाई क्राइम बहुत बढ़ गये है। लड़कियां आम शिकार हो रही हैं फन्देबाजों की।”
“तू सम्भल के रहना।”
“मेरे को कोई खतरा नहीं। मेरे पास बाप-दादाओं का छोड़ा या खुद का कमाया कोई बड़ा रोकड़ा नहीं है। मेरे पीछे कौन पड़ेगा!”
“फिर भी!”
“फिर भी पड़ेगा तो खता खायेगा।”
“क्या करेगी?”
“भून के खा जाऊंगी।”
“मुझे पूरा यकीन है तू ऐसा कर सकती है।”
वो हँसी।
“हँसती बहुत अच्छा है।”
“और भी कई काम हैं जो मैं बहुत अच्छे करती हूं।”
“मसलन।”
वो होंठ दबा कर हँसी।
“ये खास हँसी ही बता रही है कि कोई वाहियात बात है तेरे जेहन में।”
“है तो सही!”
“क्या?”
“सोचो।”
“फुरसत में सोचूंगा, अभी ये बता, तुझे उस लड़की से हमदर्दी है?”
“हां।”
“दिल से कह रही है?”
“पंजे झाड़ कर तुम्हारे पीछे न पड़ जाये...”
“उसकी कोई गुंजाइश नहीं।”
“... तो है।”
“तो फिर एक काम कर।”
“क्या?”
“अपनी होशियारी कहीं और दिखा।”
“कहां? कैसे?”
सुनील ने उसका स्क्रैच पैड करीब घसीट कर उस पर नाम और नम्बर लिखा और पैड वापिस उसके सामने सरका दिया।
“तोरल मेहता।”—रेणु ने पैड पर से पढ़ा—“9815428653।”
“हां।”—सुनील बोला—“इस का कोई अता पता निकाल।”
“अता पता क्या?”
“अरे, नाम है, नम्बर है तो कोई अड्रैस भी होगा!”
“हूं। ये एयरटैल का नम्बर है और ऐसे नम्बर पोस्टपेड कनैक्शंस के होते हैं।”
“शाबाश! बैल बिगन इज हाफ डन।”
“मैं करती हूं कुछ।”
“अभी।”
“और क्या अगले हफ्ते?”
“जीती रह।”
वो वहां से हटा और अपने केबिन में पहुंचा।
उसकी मेज पर उस रोज का ‘ब्लास्ट’ पड़ा था। कत्ल की खबर मुखपृष्ठ पर छपी थी अलबत्ता सुनील ने साथ मकतूल की लाश की तसवीर छपवाने से परहेज किया था। वो तसवीर छपती तो सिर्फ ‘ब्लास्ट’ में छपती जो कि ‘ब्लास्ट’ के सिर सेहरा होता। लेकिन सुनील ने प्रभूदयाल से पंगा न लेने को ही तरजीह दी थी। उस सिलसिले की शुरुआत में ही प्रभूदयाल उस के खिलाफ हो जाता, ये वांछित नहीं था।
तभी रेणु ने भीतर कदम रखा।
उसने उसके सामने स्क्रैच पैड का वही वरका रखा जिस पर सुनील ने तोरल का नाम और मोबाइल नम्बर घसीटा था। अब उसके नीचे दर्ज था:
“जान भी लिया?”—सुनील हैरानी से बोला।
“यस, सर।”—रेणु शान से बोली।
“कैसे किया?”
“तुम्हारे वाली उड़ती चिड़िया को अप्रोच किया।”
“प्लीज, रेणु, बता न!”
“अरे, उस नम्बर पर काल लगायी और रौब से कहा ‘एयरटैल से बोल रहे हैं, आप का पिछला बिल जमा नहीं हुआ हैʼ। जैसा कि अपेक्षित था उसने कहा कि उसने तो चैक कलेक्शन बॉक्स में डाला था। मैंने चैक की डिटेल्स पूछीं जो उसने बता दीं। फिर मैंने पूछा उसके पास पिछला बिल था! जवाब मिला, था। मैंने उस को रिलेशनशिप और बिल नम्बर दोहराने को बोला। फिर बायें बॉक्स की ऐन्ट्री पढ़ के सुनाने को बोला। उस बॉक्स में, तुम जानते हो कि, नाम और पता ही होता है जो कि उसने दोहरा दिया और मैंने नोट कर लिया। मिशन अक्म्पलिश्ड।”
“रेणु”—सुनील प्रशंसात्मक स्वर में बोला—“तूने तो कमाल कर दिया!”
“साथ ही बोल दिया कि अगर दोबारा फोन न आये तो समझ ले कि चैक ट्रेस कर लिया गया था और चैक अमाउन्ट क्रैडिट कर दी गयी थी।”
“कम्माल!”
“अब मेरा ड्रिंक डिनर पक्का!”
“गुलेगुलजार, वो तो तेरे कुछ किये बिना भी समझ पक्का। लेकिन जब इतना किया है तो इसी काम को थोड़ा और आगे सरका।”
“और क्या करूं?”
सुनील ने उसे मकतूल के मोबाइल के फेवरिट्स कालम से नोट किये कियारा को छोड़ कर बाकी के तीन नाम और मोबाइल नम्बर लिखकर दिये।
“वैसी ही जुगत इन के पते निकालने की भी लगा।”—वो बोला।
“ट्राई करती हूं।”—पुर्जा थामती वो बोली—“फिर डबल ड्रिंक-डिनर पक्का?”
“ड्रिंक भी?”
“देखेंगे। जो पूछा है, उसका जवाब दो।”
“पक्का।”
“कब?”
“शनिवार शाम को। फिर अगले शनिवार शाम को।”
“जीता रह, जवान दी मुच्छ।”
वो चली गयी।
ग्यारह बजे जौहरी का फोन आया।
“मैं होटल स्टारलाइट से बोल रहा हूं”—वो बोला—“क्योंकि आप चाहते थे कि मैं आज भी होटल का, मौकायवारदात का, चक्कर लगाऊं।”
“क्या पोजीशन है।”
“इस वक्त पुलिस यहां मौजूद नहीं है लेकिन रूम नम्बर ‘506’ को पुलिस सील कर के गयी है।”
“वो तो रूटीन है। बस, इतनी सी बात के लिये फोन किया?”
“नहीं। असल बात ये है कि कल रिसैप्शन के स्टाफ ने गलतबयानी की थी कि पांचवीं मंजिल का सिर्फ एक कमरा—506—आकूपाइड था।”
“कैसी गलतबयानी?”
“बगल का कमरा—505—भी आकूपाइड है।”
“कैसे पता चला?”
“जब मैं पांचवीं मंजिल पर गया था तो मैंने ‘505’ के दरवाजे पर ब्रेकफास्ट की खाली ट्रे पड़ी देखी थी जो कि इस बात की साफ चुगली करती थी कि भीतर कोई था जिस को रूम में ब्रेकफास्ट सर्व किया गया था और जिसने ब्रेकफास्ट के बाद फ्लोर वेटर के पिक करने के लिये खाली ट्रे बाहर रख दी थी।”
“कौन था?”
“मैंने फ्लोर वेटर को ही पटा कर उससे मालूम किया था। वो रूम होटल के एक असिस्टेंट मैनेजर के कब्जे में है। बकौल वेटर, उसका नाम तुषार अबरोल है और वो कमरा मंथली बेसिज पर उसके कब्जे में है।”
“यानी किराया भरता है?”
“पच्चीस फीसदी।”
“क्या मतलब?”
“नये मैनेजमेंट के अन्डर वो होटल अभी ठीक से नहीं चल रहा। टेकओवर के बाद से ही आकूपेंसी मुश्किल से चालीस पर्सेंट हो पाती है इसलिये होटल का कोई अधिकारी चाहे तो वो डिस्काउन्टिड रेट पर होटल में कमरा हासिल कर सकता है।”
“कितना डिस्काउन्ट?”
“पिचहत्तर पर्सेंट।”
“इतना?”
“यही मालूम पड़ा है।”
“बड़ा जनरस मैनेजमेंट है स्टाफ के लिये!”
“सुनने में आया है कि वो दो महीने से उस रूम में है।”
“और आगे भी होगा?”
“आकूपेंसी रेट इम्प्रूव न हुआ तो होगा ही।”
“हूं। जब वो इतने अरसे से उस फ्लोर पर रह रहा था तो तुम्हें ये क्यों बोला गया था कि सिर्फ ‘506’ आकूपाइड था?”
“ये नहीं बोला गया था। ये बोला गया था कि उस फ्लोर के बारह कमरों में से सिर्फ एक ‘506’ गैस्ट के हवाले था।”
“क्या फर्क हुआ?”
“फर्क हुआ न! जिस रिसैप्शनिस्ट से कल मैंने ये जानकारी निकलवाई थी, आज मैं उससे फिर मिला था। वो कहता है उसने असिस्टेंट मैनेजर तुषार अबरोल के हवाले कमरे को काउन्ट नहीं किया था क्योंकि वो गैस्ट के हवाले नहीं था, होटल स्टाफ के हवाले था।”
“नानसेंस!”
“अब जो उसने कहा, मैंने बोल दिया।”
“तुषार अबरोल से मिले?”
“लॉबी में शक्ल देखी। मिलने वाली तो कोई बात ही नहीं थी।”
“शक्ल में क्या देखा?”
“चालीसेक साल का था, क्लीनशेव्ड था, हास्पिटेलिटी बिजनेस को सूट करने लायक अच्छी पर्सनैलिटी थी। तभी से वहां का मुलाजिम था जब से नये मैनेजमेंट ने टेकओवर किया था।”
“आई सी। और?”
“एक और बात मालूम तो हुई है लेकिन पता नहीं वो आपके किसी काम की है या नहीं!”
“बात सुन कर फैसला करूंगा।”
“मकतूल ने वारदात से चार दिन पहले जब होटल में चैक-इन किया था तो उसे चौथी मंजिल का एक कमरा मिला था लेकिन अगले ही दिन उसका कमरा चेंज कर दिया गया था और उसे एक मंजिल ऊपर ‘506’ में पहुंचा दिया गया था।”
“चेंज की वजह?”
“नहीं मालूम।”
“आकूपेंट को कोई शिकायत हुई होगी रूम से!”
“हो सकता है।”
“ठीक।”
“अब मेरे लिये क्या हुक्म है?”
“वापिस चले जाओ। तुम्हारे लिये अब वहां कुछ नहीं रखा। कुछ रखा होगा तो मैं देखूंगा।”
“ठीक।”
लाइन कट गयी।
तभी रेणु ने वहां कदम रखा।
सुनील ने आशापूर्ण निगाह से उसकी तरफ देखा।
“सॉरी!”—वो खेदपूर्ण स्वर में बोला—“कुछ पता न चला।”
सुनील की भवें उठीं।
“तीनों प्रीपेड नम्बर निकले इसलिये मेरी पुड़िया उन पर न चली।”
“कोई बात नहीं।”
“सॉरी अगेन!”
“नैवर माइन्ड, ब्राइटआईज़, कोई और जुगत करेंगे।”
सुनील सनातन रोड पहुंचा।
बाइस नम्बर इमारत मेन रोड पर ही थी।
फर्स्ट फ्लोर पर जा कर उसने फ्रंट के फ्लैट की घन्टी बजाई।
रास्ते में उसने ‘ताजा खबर’ अखबार खरीदा था जो कि दोपहर में प्रकाशित होता था इसलिये सुबह आठ बजे तक पिछले रोज की खबरें उस में जा सकती थीं जबकि इस मामले में ‘ब्लास्ट’ की डैडलाइन रात बारह बजे की थी। ‘ताजा खबर’ में अंशुल खुराना के कत्ल की न्यूज के साथ मकतूल का क्लोज अप भी छपा था जो जरूर पुलिस ने उसके होटल से उस द्वारा पेश किये प्रूफ आफ आइडेन्टिटी से निकाला था।
दरवाजा खुला।
चौखट पर शलवार कमीज पहने एक लम्बी, छरहरी सुन्दर युवती प्रकट हुई।
सुनील ने उसे तत्काल पहचाना।
जो तीन तसवीरें उसने मकतूल के बैडरूम में एक फ्रेम में लगी देखी थीं, उन में से एक से उसकी शक्ल हूबहू मिलती थी लेकिन वो वो युवती नहीं थी जिसकी तसवीर फ्रेम में फ्रंट में थी।
“यस?”—वो बोली।
“मिस तोरल मेहता?”
“हां।”
“मेरा नाम सुनील है, सुनील चक्रवर्त्ती, मैं मीडिया से हूं।”
“कहां से हो?”
“आई मीन प्रैस रिपोर्टर हूं। ‘ब्लास्ट’ का चीफ रिपोर्टर हूं। ‘ब्लास्ट’ से वाकिफ हो न?”
“हां। क्या चाहते हो?”
“आप से दो मिनट बात करना चाहता हूं।”
“करो।”
“मैं ज्यादा देर खड़ा रहूं तो मेरे कान झनझनाने लगते हैं और सुनने में दिक्कत महसूस होने लगती है।”
“दो मिनट।”
“मुहावरे के तौर पर कहा।”
“यानी मुमकिन है शाम तक यहीं पाये जाओ?”
“नहीं, नहीं मुमकिन। जहा देखी तवा परात, वहां बिताई सारी रात वाला मिजाज नहीं है मेरा।”
“बातें बढ़िया करते हो।”
“और मुझे आता क्या है?”
“आओ।”
उसने उसे ड्रार्इंगरूम में ले जाकर बिठाया और खुद उसके सामने बैठी।
“कुछ पियोगे?”
“जी नहीं। मैं तो शर्बतेदीदार से ही तृप्त हो गया हूं।”
“बातें...”
“बढ़िया करता हूं। अभी बताया आपने।”
“करो।”
“क्या?”
“बातें। बढ़िया।”
“ओह! बातें! लगता है आप यहां अकेली रहती हैं!”
“ठीक लगता है।”
“कोई खास वजह?”
“खास क्या, आम क्या, एक ही वजह है कि मैं इस शहर में अकेली हूं।
“पीछे कहां से हैं?”
“पंजाब से। पठानकोट से। फैमिली वहां है। मैं यहां हूं क्योंकि मेरी एम्पलायमेंट यहां है।”
“क्या है एम्पलायमेंट?”
“एक काल सेंटर में जॉब है।”
“वो तो शिफ्ट की जॉब होती है!”
“शिफ्ट की ही है।”
“ऐसी जॉब्स में मेरे खयाल से शिफ्ट्स तो रोटेट होती रहती है!”
“मेरी भी वैसी ही जॉब है लेकिन मेरी प्रेफ्रेंस नाइट शिफ्ट है।”
“जब कि लड़कियां नाइट शिफ्ट से परहेज करती हैं!”
“मुझे नाइट शिफ्ट पसन्द है। नाइट शिफ्ट में मसरूफियत कम होती है।”
“रात सोने के लिये होती है।”
“भई, सात-आठ घन्टे की नीन्द लेनी होती है, दिन क्या, रात क्या!”
“यानी दिन में आप हमेशा ही घर होती हैं।”
“इतने सवाल किसलिये?”
“बेवजह नहीं, मैडम, मैं आप को यकीन दिलाता हूं कि बेवजह नहीं।”
“वजह बोलो।”
“वजह बोलूं?”
“हां।”
“आप मुझे मेरी तरतीब से अपनी बात कहने दीजिए, वजह अपने आप सामने आ जायेगी।”
“वजह पहले बोलो वर्ना...”
“वर्ना क्या?”
“दरवाजा उधर है।”
“वो तो मुझे आते ही पता लग गया था किधर है। ठीक है, सुनिये। कुछ ऐस हालात सामने आये हैं जिनकी रू में आपका एक कत्ल से वास्ता बन सकता है।”
“कत्ल से वास्ता? मेरा?”
“हां।”
“वाट द हैल!”
“मैं सच कह रहा हूं। कल रात होटल स्टारलाइट में एक रेजीडेंट का कत्ल हुआ है...अखबार नहीं पढ़तीं?”
“नहीं। बारह बजे सो के उठती हूं, इसलिये।”
“ये आज का अखबार है।”—सुनील ने उसके सामने ‘ताजा खबर’ रखा।
“ये ‘ब्लास्ट’ तो नहीं है!”
“नहीं। ‘ब्लास्ट’ में खाली कत्ल की न्यूज छपी है, इसमें न्यूज के साथ मकतूल की तसवीर भी छपी है। इसलिये ‘ताजा खबर’ आपके सामने है। कत्ल की खबर के साथ छपी मकतूल की तसवीर को देखिये। आप इसे जानती हैं? पहचानती हैं?”
“नहीं।”
“इतनी जल्दी जवाब न दीजिये, तसवीर को गौर से देखिये, फिर जवाब दीजिये।”
“नहीं।”
“अखबार में छपी तसवीर वाला शख्स क्लीनशेव्ड है। मैं आप को इसकी एक जुदा तसवीर दिखाता हूं। ये देखिये, इस तसवीर में इस शख्स के चेहरे पर फ्रेंच कट दाढ़ी मूंछ है। शायद आप इसे इस रखरखाव में पहचानती हों?”
“नहीं।”
“फ्रेंच कट की जगह अगर दाढ़ी फुल होती...”
“अरे, नहीं, भई।”
“फुल बियर्ड, हाफ बियर्ड ऑर नो बियर्ड, आप का इस शख्स से कभी वास्ता नहीं पड़ा?”
“जब जानती नहीं, पहचानती नहीं, तो वास्ता पड़ने का क्या मतलब?”
“फेसबुक फ्रेंड हो! वाट्सएप पर चैटिंग होती हो!”
“न। है कौन ये?”
“कॉनमैन है। साइबर क्राइम्स स्पैशलिस्ट है। आप जैसी खूबसूरत, नौजवान, इन्डीपेंडेट लड़कियों को, जिन के पास मोटा माल हो, ठगता है। आप की क्या पोजीशन है इस महकमे में?”
“किस महकमे में?”
“मोटे माल के महकमे में!”
वो खामोश हो गयी।
“मैडम, प्लीज।”
“तुम मुझे भले आदमी लगे, इसलिये बोलती हूं...”
कालबैल बजी।
वो उठकर दरवाजे पर गयी।
सुनील ने पहलू बदल कर यूं उधर देखा कि दरवाजा खुलता तो आगन्तुक उस को दिखाई देता।
तोरल ने दरवाजा खोला।
सुनील को एक जतिन दास जैसी सफेद दाढ़ी और उस जैसी ही उम्र के एक व्यक्ति की सूरत चौखट पर दिखाई दी जो कि एक बैगी जींस और गोल गले वाली मोटे कपड़े की पूरी बांह की टी-शर्ट पहने था।
तोरल उसे वहीं खड़ा छोड़ कर किचन में गयी और एक कटोरी के साथ वापिस लौटी। उसने कटोरी उस व्यक्ति को थमाई, दरवाजा पूर्ववत् बन्द किया और वापिस लौटी।
सुनील ने प्रश्नसूचक नेत्रों से उसकी तरफ देखा।
“पड़ोसी थे।”—वो बोली—“इसी फ्लोर पर रियर फ्लैट में मेरी तरह अकेले रहते हैं। चीनी मांगने आये थे।”
“ओह!”
“फेमस आर्टिस्ट हैं। दिन रात कैनवस ही पेंट करते हैं।”
“फेमस बोला! क्या नाम है?”
“सफदर हुसैन!”
“नाम तो सुना है! वही न जो मकबूल फिदा हुसैन की शैली का अनुसरण करते हैं?”
“वही। बहुत मिलनसार, खुशमिजाज आदमी हैं। बिरयानी कमाल की बनाते हैं। जब बनायें, मुझे जरूर इनवाइट करते हैं।”
“लंच पर ही करते होंगे!”
“या मेरे ऑफ वाले दिन डिनर पर। बाकी दिन तो डिनर के वक्त मैं घर होती नहीं!”
“बहरहाल पड़ोसियों का एक दूसरे के यहां आम आना जाना है?”
“है तो ऐसा ही!”
“तो आप कह रही थीं!”
“क्या कह रही थी?”
“मैं आप को भला आदमी लगा इसलिये बोलती हैं!”
“हां। सुनो। वैसे तो मेरी माली हैसियत मामूली है, बतौर काल सेंटर एम्पलाई पैंतीस हजार रुपये सैलरी है मेरी जो इतने महंगे मैट्रोपोलिटन सिटी में किसी खास गिनती में नहीं आती...”
“पैसा घर भी भेजना पड़ता होगा!”
“नहीं, उस सिलसिले में खैरियत है। मेरे घरवाले मेरी कमाई के मोहताज नहीं।”
“शुकर। आपकी बातों से लगता कि हाल में तकदीर ने किसी सडन वैल्थ से आप को नवाजा।”
“सडन भी। और अनएक्सपैक्टिड भी।”
“क्या हुआ?”
“केबीसी में पार्टीसिपेट किया।”
“कौन बनेगा करोड़पति में?”
“हां।”
सुनील ने हैरानी से उसकी तरफ देखा।
वो मुस्कराई।
“किसी मुकाम पर पहुंचीं?”
“भई, जब सडन वैल्थ का मुद्दा है तो पहुंची ही।”
“कहां पहुंचीं? क्या जीता?”
“तेरहवें सवाल पर क्विट किया। टीडीएस काट के साढ़े बाइस लाख रुपये मिले।”
“मुबारक। ये कब की बात है?”
“छ: महीने पहले की। टीवी नहीं देखते हो?”
“देखता हूं कभी कभार। लेकिन केबीसी देखने का इत्तफाक कभी नहीं हुआ।”
“तभी।”
“वो रकम सेफ है आप के पास?”
“हां।”
“कहां है? बैंक में?”
“हां।”
“बैंक स्टेटमेंट या पासबुक दिखा सकती हैं?”
“नहीं।”
“लेकिन रकम बाकायदा, बराबर आप के कब्जे में है? सेफ एण्ड साउन्ड।”
“हां।”
“नैट के जरिये आप किसी फाइनांशल स्विंडलिंग का शिकार नहीं हुर्इं?”
“नहीं, भई।”
“सच कह रही हैं?”
“तुम्हारे से झूठ बोलने की कोई वजह?”
“दिखाई तो नहीं देती!”
“तो?”
“कल रात नौ और दस के बीच आप कहां थीं?”
“क्यों पूछ रहे हो?”
“मामूली सवाल है। जब इतना कुछ बताया तो इस छोटी सी बात का जवाब देने में हुज्जत किसलिये?”
“लेकिन पूछ क्यों रहे हो?”
“मैं जरूर बताऊंगा। बताये बिना नहीं जाऊंगा। आप जवाब तो दीजिये! कल रात नौ और दस के बीच आप कहां थीं? काल सेंटर में? अपनी ड्यूटी पर?”
“नहीं। कल मेरा ऑफ था।”
“तो फिर कहां थीं आप?”
“यहीं थी। रात को और कहां जाती?”
“कोई आया गया, जो उस घड़ी आप के यहां होने की तसदीक कर सकता हो? या आप खुद किसी तरीके से तसदीक कर सकती हों?”
“क्यों जरूरत है मुझे तसदीक की? क्या किया है मैंने?”
“आप बताइये।”
“अब तुम गले पड़ रहे हो।”
“अव्वल तो ऐसा है नहीं...”
“लगता है मैंने तुम्हें छूट दे कर गलती की।”
“... है तो इसी में आप की भलाई है।”
“क्या भलाई हैं?”
“बोलूंगा न!
“अभी बोलो। पहले बोलो।”
“आप बहुत जल्द पुलिस के फोकस में आने वाली हैं।”
“क्या!”
“बहुत जल्द यहां पुलिस होगी और दावा कर रही होगी कि जिस शख्स को जानती पहचानती होने से आप इंकार कर रही हैं, कल रात उसकी मौत से पहले आप उसकी सोहबत में थीं।”
“वाट नानसेंस!”
“इस बात को मजबूत करने वाली एक बात सामने आयी है जो पुलिस की नॉलेज में है, सच पूछिये तो मेरी नॉलेज में भी है।”
“कौन सी बात सामने आयी है? बोलो, कौन सी बात सामने आयी है?”
“मकतूल के पास से आपकी तसवीर बरामद हुई है, आप का नाम और फोन नम्बर बरामद हुआ है।”
वो खामोश हो गयी। फिर चिन्तित भाव से बोली—“सच कह रहे हो?”
“हां।”
“अगर है भी तो क्या हुआ?”
“आप को मालूम है क्या हुआ! आप पर कत्ल का इलजाम आयेगा।”
“खामखाह।”
“आप मंगला नाम की किसी महिला को जानती हैं?”
“नहीं।”
“या किसी की जुबानी मंगला नाम की किसी महिला का जिक्र सुना हो?”
“न।”
“ड्रिंक करती हैं?”
“ये क्या सवाल हुआ?”
“जवाब दीजिये।”
“मिस्टर, डोंट गैट पर्सनल।”
“मामूली सवाल है। वैसा ही है जैसों का जवाब आप अपनी मर्जी से दे रही हैं।”
“हां, करती हूं। निरी देवदासिनी हूं।”
“देवदासिनी!”
“देवदास का फीमेल वर्शन।”
“ओह! मैं समझा था जो पुरातन मन्दिरों में...”
“वो देवदासी होती हैं।”
“ओह!”
“कौन कम्बख्त बर्दाश्त करने के लिये पीती है! मैं तो पीती हूं कि गिला न रहे कि लिकर इन्डस्ट्री के लिये कुछ न किया।”
“आप मजाक कर रही हैं।”
“तुम मजाक कर रहे हो। इस शहर में कोई लड़की कामकाजी हो, इंडीपेंडेंट हो, अकेली रहती हो तो क्या नहीं करती वो सोशलाइज करने के लिये!”
“ठीक। फेवरेट ड्रिंक क्या है?”
“मेरा फेवरेट ड्रिंक वो है जिसकी पेमेंट कोई दूसरा करे।”
“वैरी वैल सैड। इसका मतलब है, गुस्ताखी माफ, कुछ भी पी लेती हैं!”
“हां।”
“विस्की भी!”
“हां।”
“फिर भी प्रेफर्ड ड्रिंक क्या है?”
“डे टाइम में वोदका, सांझ ढ़ले विस्की।”
“काफी एडवेंचरिस्ट नेचर पाई है आपने!”
“हैं तो ऐसी ही!”
“मैं देख रहा हूं कि आप अंगूठी नहीं पहनतीं।”
“अंगूठी! हां, नहीं पहनती।”
“कोई खास वजह?”
“नहाते, हाथ धोते वक्त अंगूठी के नीचे साबुन फंस जाता है। मेरी स्किन बहुत सैंसिटिव है, मुझे इचिंग होती है।”
“इसलिये नो अंगूठी?”
“हां।”
“लिपस्टिक कौन सी प्रेफर करती हैं?”
“मुझे लगता हैं”—उसके स्वर में व्यंग्य का पुट आया—“आगे ब्रा का साइज भी पूछोगे।”
सुनील हड़बड़ाया, फिर बोला—“नहीं। नहीं...”
“क्यों नहीं? पूछो। तुम्हें मुंह लगाया है, घर में बिठाया है, भला आदमी करार दिया है तो कुछ भी पूछो। आखिर मेहमां जो हमारा होता है वो जान से प्यारा होता है। नो?”
“तुम्हारी हर बात दुरुस्त है, जानेजमां, लेकिन यकीन जानो, तुम्हें एमबैरेस करने की मेरी मंशा बिल्कुल नहीं है।”
“लिपस्टिक में मेरी प्रेफ्रेंस रैड कलर का हर शेड है। दस रैड शेड हैं मेरे पास।”
“ग्रेट। सब साथ रखती हैं?”
“हां। हैण्डबैग में। यूं सम्भले रहते हैं। इधर उधर नहीं हो जाते।”
“उन में क्रिमसन भी है?”
“हां, है।”
“मैंने कभी क्रिमसन कलर की लिपस्टिक नहीं देखी। अब दिखा दें तो मेहरबानी होगी।”
वो बैडरूम में गयी और चमड़े के एक हैंडबैग के साथ वापिस लौटी। उसने बैग से निकाल कर दस लिपस्टिक उसके सामने रख दीं जिन में एक क्रिमसन भी थी।
सुनील ने क्रिमसन लिपस्टिक उठा कर उसका मुआयना किया।
“ये तो ब्रैंड न्यू है!”—फिर बोला—“अनयूज्ड है!”
“हां। आज ही नयी खरीदी।”
“पुरानी कहां गयी?”
“जाती कहां! खत्म हो गयी।”
“आई सी।”
“बाकियों को भी देखो। इन्स्पेक्ट करो।”
“जरूरत नहीं।”
“क्यों? क्यों जरूरत नहीं? कर्मचन्द जासूस बन के दिखा रहे हो तो पूरा ही बनो।”
सुनील खामोश रहा।
“तो मैं इन्हें समेट लूं?”
उसने सहमति में सिर हिलाया।
तोरल ने तमाम ट्यूब्ज उठाकर वापिस बैग में डालीं और बैग को बन्द करके अपने पहलू में रख लिया।
“आप का एकाउन्ट कौन से बैंक में है?”—सुनील ने नया सवाल किया।
“बैंक आफ अमेरिका में।”—इस बार बिना हुज्जत उसने जवाब दिया।
“गुड! वो लोग कस्टमर को फोन पर भी उसका बैलेंस बताते हैं। बैंक में फोन कीजिये। मोबाइल से। और उसको लाउड स्पीकर पर लगा कर अपना बैलेंस पूछिये।”
“लाउड स्पीकर पर लगा कर क्यों?”
“ताकि मैं भी सुन सकूं।”
उसने ऐसी कोई कोशिश न की।
“कीजिये फोन।”
“मैं जरूरी नहीं समझती। तुम अब जाओ यहां से।”
“आपके पास एक्स्ट्रा हाई हील की, लाल रंग की, कीमती सैंडलें हैं? कीमत बत्तीस हजार रुपये!”
“ओ, गॉड। तुम तो जुकाम हो, पीछा ही नहीं छोड़ते हो।”
“ऐन दुरुस्त पहचाना है आपने मुझे। ऐसा ही हूं मैं। अब जवाब दीजिये।”
“मैं इतनी महंगी सैंडलें अफोर्ड नहीं कर सकती।”
“जब कि केबीसी की विजेता हैं।”
“तो भी नहीं।”
“गिफ्ट में मिली हों?”
“मुझे इतनी महंगी सैंडलें गिफ्ट में देने वाला मेरा कोई वाकिफ नहीं।”
“कहीं पड़ी पायी हों!”
“वाट नानसेंस! कीमती सैंडलें डिस्पोजल आइटम हैं, चिंगम का रैपर हैं, जो पड़ी मिलेंगी!”
“यानी ऐसा नहीं है?”
“नहीं है।”
“फुटवियर्स कहां रखती हैं?”
“बैडरूम में वार्डरोब है, उसके बाटम ड्राअर में।”
“मैं वहां एक नजर डाल सकता हूं?”
“नहीं।”
“क्या हर्ज है?”
“मैं जरूरी नहीं समझती।”
“आप कत्ल के इलजाम को गम्भीरता से नहीं ले रहीं।”
“कत्ल का इलजाम खामखाह!”
“पहले भी बोला आपने। सनशाइन, जो बातें मैं दरख्वास्त से पूछ रहा हूं, उन्हें पुलिस आप से डंडे से कुबुलवायेगी। आप मेरे से झूठ बोल सकती हैं, पुलिस से नहीं बोल पायेंगी। बोलेंगी तो खता खायेंगी।”
“क्यों खता खाऊंगी? जब मैंने...”
“सुनिये। सुनिये। मेरी पूरी बात सुनिये। पुलिस के लिये आपकी बैंक एकाउन्ट पोजीशन जान लेना चुटकियों का काम होगा। अगर वहां बैलेंस को सेंध लगी पायी गयी तो ये कत्ल का अपने आप में उद्देश्य होगा। फिर यहां की तलाशी में अगर नयी नकोर एक्स्ट्रा हाई हील की एक्सपेंसिव लाल सैंडलें पायीं गयीं तो उन का दर्जा कोरोबोरेटिंग इवीडेंस का होगा। जमा, मकतूल के कमरे में फ्रेम में लगी आपकी तसवीर पायी गयी। एक स्क्रैच पैड पर लिखा आप का नाम और मोबाइल नम्बर पाया गया। इन तमाम बातों का मजमुआ जानती हैं आप को वहां पहुंचायेगा?”
“क-कहां पहुंचायेगा?”
“फांसी के फन्दे पर।”
वो घबरा गयी।
“सो, कम क्लीन! हो सकता है मैं आप को आपकी मौजूदा सांसत से निजात दिलाने के लिये कुछ कर सकूं।”
“तुम?”
“हां, मैं।”
“तुम क्यों?”
“क्योंकि सारे जहां का दर्द हमारे जिगर में है।”
उसने हैरानी से सुनील की तरफ देखा।
“मैडम, आई एम बिल्ट दैट वे।”
“कैसे आदमी हो तुम?”
“जलेबी जैसा हूं। मीठा लेकिन टेढ़ा मेढ़ा। पेचीदा।”
“मैंने तुम्हारे जैसा आदमी पहले कभी नहीं देखा।”
“आगे भी नहीं देखोगी। ये माडल बस फैसीमिल ही बना था, प्रोडक्शन लाइन पर नहीं गया था।”
“बातें बढ़िया करते हो।”
“होश उड़ाने वाली भी करता हूं। तो फिर क्या फैसला है आपका? कुछ उचरेंगी या...”
“मैंने कत्ल नहीं किया।”
“लेकिन कल रात आप उसके होटल में गयी थीं? उससे मिलने की नीयत से?
“नहीं। मैं कल रात हर वक्त यहां थी।”
“पड़ोसी से आपके कैसे ताल्लुकात हैं?”
“कौन पड़ोसी?”
“एक ही तो है! आर्टिस्ट। सफदर हुसैन। बिरयानी में शिरकत के अलावा कैसे ताल्लुकात हैं?”
“क्यों पूछते हो?”
“बावक्तेजरूरत पड़ोसी आप को किसी खास वक्त की एलीबाई दे सकता है?”
“क्या दे सकता है?”
“जरूरत पड़े तो हुसैन साहब कह सकते हैं कि कल रात नौ और दस के बीच आप उन के साथ डिनर में बिरयानी नोश फरमा रही थीं?”
“वो ऐसा क्यों कहेंगे भला?”
“आप बात को यूं समझिये कि अगर आप की खातिर ऐसा कहने की जरूरत आन पड़े तो क्या कहेंगे ऐसा? अब ये न कहियेगा कि जरूरत क्यों आन पड़ेगी!”
उसने उस बात पर विचार किया।
“पता नहीं।”—फिर बोली।
“पता नहीं?”
“भई, अल्लाह वाले फर्द हैं, पांच टाइम के नमाजी हैं, क्यों वो मेरी खातिर झूठ बोलेंगे। क्यों वो मुझे वो एलीबाई कर के जो तुम बोले, देना...”
कालबैल बजी।
“लगता है कलाकार साहब फिर आ गये।”—सुनील वितृष्णापूर्ण भाव से बोला—“अब शायद दूध की जरूरत है!”
“कौन?”—वो उच्च स्वर में बोली।
“पुलिस! दरवाजा खोलिये।”
सुनील ने प्रभूदयाल की आवाज साफ पहचानी।
“ये केस के इनवैस्टिगेटिंग आफिसर इन्स्पेक्टर प्रभूदयाल की आवाज है।”—सुनील जल्दी से बोला—“अगर उसने मुझे यहां देख लिया तो बुरा होगा।”
“किसके लिये?”—वो घबरा कर बोली।
“अभी तो मेरे लिये ही।”—सुनील उठ खड़ा हुआ—“लेकिन बाद में तुम्हारे लिये भी। यहां से निकासी का कोई और रास्ता है?”
“नहीं।”
कालबैल फिर बजी।
“ओपन दि डोर! नाओ!”
“तुम मुझे यहां कहीं छुपा सकती हो?”—सुनील व्याकुल भाव से आजू बाजू देखता बोला—“वो पीछे बैडरूम है? अगर मैं वहां...”
“नो! नैवर!”
“लेकिन...”
“नो! ये मेरा इमेज खराब करने वाला काम होगा जो कि मुझे मंजूर नहीं। मैंने घर में किसी मर्द को छुपाया हुआ है, ये बात जाहिर हो गयी तो मेरे चरित्र पर लांछन आयेगा।”
“फिर तो”—सुनील आह-सी भरता बोला—“जाओ, जाकर खोलो दरवाजा। सरकार को खफा करने का क्या फायदा!”
उसने जाकर दरवाजा खोला।
‘तोरल मेहता?”— आवाज़ आयी।
“हां। आप...”
“मैं इन्स्पेक्टर प्रभूदयाल। पुलिस हैडक्वार्टर से। एक केस के सिलसिले में आप से पूछताछ करनी है।”
“आइये।”
तोरल के पीछे प्रभूदयाल और उसके एक मातहत सब-इन्स्पेक्टर ने ड्रार्इंगरूम में कदम रखा।”
सब-इन्स्पेक्टर सुनील के लिये सर्वदा अपरिचित था।
सुनील एक सिग्रेट सुलगाने में मशगूल था।
“तुम!”—प्रभूदयाल थमककर खड़ा हुआ—“यहां!”
“अभी आया।”—सुनील सहज भाव से बोला।
प्रभूदयाल लम्बे डग भरता उसके करीब पहुंचा, उसने अपलक उसे देखा।
सुनील ने लापरवाही से सिग्रेट का एक कश लगाया।
“ये पार्क है? जहां तुम टहलने और स्मोक करने आये हो?”
“अरे, नहीं, माई बाप, मैं तो...”
“शट अप!”—प्रभूदयाल तोरल की तरफ घूमा—“ये कब से यहां है?”
सुनील ने आंखों में फरियाद भर के तोरल की तरफ देखा।
“अभी आये।”—तोरल बोली।
सुनील ने मन ही मन चैन की सांस ली।
“रिपोर्टर साहब, तुम बाज नहीं आओगे। तुम बाज आ ही नहीं सकते।”
“अब क्या हुआ?”
“तुम्हारी ये हरकत सबूत है कि कल रात तुम मकतूल के होटल रूम में घुसे थे...”
“अरे, नहीं, जनाब, मैंने पहले ही कहा...”
“झूठ बोला। पहले भी बोला और अब भी बोलने पर आमादा हो। कैसे लगी तुम्हें इस लड़की की खबर? और खबरदार, जो कहा कि उड़ती चिड़िया ने बताया।”
“मैं यहीं कहने लगा था।”
“तुम मकतूल के सुईट में घुसे, पीछे बैडरूम में गये, तभी तुम्हें इसकी खबर लगी।”
“वहां कहीं इसका ये पता दर्ज था?”
“नाम और मोबाइल नम्बर दर्ज था, जिस के जरिये अपनी किसी तिगड़म से तुमने ये पता जान लिया और दौड़े यहां चले आये।”
“हाथ तो कुछ न आया! मैं अभी डाल डाल ही था कि आला हजरत पात पात हो गये।”
“मैं तुमसे फिर निपटूंगा। अभी निकल लो।”
“आपका हुक्म सिर माथे लेकिन अगर अपनी पूछताछ के दौरान आप मुझे भी यहां...”
“आउट।”
“यस, सर। राइट अवे, सर। एण्ड थैंक्स फार नथिंग।”
उसने वहां टिकने की बात की थी तो प्रभूदयाल ने उसे पुरजोर आउट बोल दिया था, वो खुद निकल लेने की बात कहता तो प्रभूदयाल उसका वहां रुकना जरूरी करार देता।
ऐसा ही स्थापित मिजाज था हाकिम का।
सुनील ने फ्लोर के पृष्ठभाग में स्थित फ्लैट की कालबैल बजाई।
सफेद दाढ़ी ने दरवाजा खोला।
“सलाम, जनाब।”—सुनील मधुर स्वर में बोला—“मेरा नाम सुनील है। मैं...”
“तुम अभी तोरल के फ्लैट में थे!”
“जी हां। देखा था आपने?”
“हां। सलाम कर रहे हो तो तुमने भी मुझे देखा ही होगा!”
“देखा था, जनाब, और तोरल ने भी आपके बारे में बताया था।”
“तोरल से वाकिफ हो?”
“अभी हुआ?”
“यानी कोई पुरानी वाकफियत नहीं?”
“नहीं।”
“क्या चाहते हो?”
“जनाब, तोरल से जो चाहता था, वो मैं पा चुका...”
“अरे, भई, मेरे से क्या चाहते हो?”
“जनाब, मैं कला का पुजारी हूं, आप कलाकार हैं, यूं समझिये कि आपकी कला का रसस्वादन करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा...”
“बातें बढ़िया करते हो।”
“और मुझे आता क्या है!”
“नाम क्या है तुम्हारा?”
“सुनील। सुनील चक्रवर्त्ती।”
“बंगाली हो?”
“जी हां। लेकिन एक मुद्दत से राजनगर में हूं इसलिये अब तो समझिये कि यहीं का हूं।”
“आओ।”
“थैंक्यू।”
सुनील भीतर दाखिल हुआ।
उसने स्वयं को एक बहुत बड़े कमरे में पाया जो जाहिरा तौर पर दो कमरों के बीच की दीवार निकाल देने से वजूद में आया था। कमरे में चारों तरफ उस के पेंट किये हुए कैनवस दिखाई दे रहे थे और बीच में पेंटर का वर्क स्टेशन दिखाई दे रहा था। एक ईज़ल (EASEL : कैनवस टांगने का स्टैण्ड) पर एक अधूरी पेंटिंग मौजूद थी, प्रत्यक्षत: जिस पर कलाकार उन दिनों काम कर रहा था। उसके सामने एक ऊंचा स्टूल था जिस पर बैठ कर वो पेंटिंग पर काम करता था और दायें एक चौकोर टेबल थी जो पेंटिंग में काम आने वाले रंग रोगनों से अटी हुई थी। उन्हीं के बीच नक्काशीदार मूठ वाले पांच छ: चाकू पड़े थे जिन में से अधिकतर के फल पर पेंट लगा दिखाई दे रहा था। मेज के एक कोने में विभिन्न रंगों से अटा एक पालेट (PALETTE : चित्रकार की रंग मिलाने की पटिया) था।
सुनील पेंटिंग में दिलचस्पी लेने का बहाना करने लगा।
उस दौरान कलाकार अधूरे कैनवस के सामने स्टूल पर जा बैठा, उसने एक चुरूट सुलगा लिया और खामोशी से उसके कश लगाने लगा।
पेंटिंग्स के साथ दस मिनट सुनील ने जहरमार किया, फिर कलाकार के पास वापिस लौटा।
उसने चुरुट को रंगों की शीशियों के बीच मौजूद ऐश ट्रे पर रखा और सवालिया निगाह सुनील पर डाली।
“बढ़िया!”—सुनील प्रशंसात्मक स्वर में बोला—“बहुत बढ़िया। आप मकबूल फिदा हुसैन से किसी कदर कम नहीं।”
“बात बहुत बढ़ा चढ़ा के कह रहे हो, बरखुरदार।”—वो बोला—“मैं तो हुसैन साहब की परछार्इं भी नहीं।”
“ये आपका बड़प्पन है कि आप ऐसा सोचते हैं वर्ना जूनियर हुसैन तो आप यकीनन हैं।”
“नहीं, भई , मैं तो बड़ी हद हुसैन साहब का गैरऐलानिया शार्गिद हूं।”
“चलिये ऐसे ही सही। हुनरमन्द लोग मॉडेस्ट होते ही हैं, आप भी हैं।”—सुनील एक क्षण ठिठका, फिर बोला—“ये चाकू...इनके हैंडल बड़े खूबसूरत हैं!”
“हां। इसीलिये यहां हैं।”
“इतने सारे!”
“हैंडल की हाथ से की गयी नक्काशी की वजह से मुझे अच्छे लगते हैं।”
“आई सी।”
“फिर मेरे काम आते हैं।”
“काम आते हैं?”
“हां!”
“इतने सारे?”
“हां।”
“कैसे काम आते हैं?”
“मैं इन्हीं से पेंटिंग करता हूं।”
“जी!”
“ब्रश इस्तेमाल नहीं करता मैं अपनी पेंटिंग्स में। जरा ध्यान दोगे तो पाओगे कि मेरे स्टुडियो में ब्रश नाम की कोई चीज़ है ही नहीं।”
“कमाल है!”
“कोई कमाल नहीं। आज कल ब्रश की जगह नाइफ ऐज पेंटिंग बनाने के लिये इस्तेमाल किया जाना आम है।”
“मैंने तो कभी नहीं सुना था कि पेंटिंग्स...”
“आयल पेंटिंग्स।”
“... ब्रश की जगह चाकू से भी बनती थी।”
“अब सुन लिया न!”
“एक-दो-तीन-चार-पांच-छ:-सात। नक्काशीदार हैंडल वाले सात चाकू!”
“अच्छा! इतने हैं!”
“आप को नहीं मालूम?”
“नहीं, भई। मैंने गिनती करके क्या लेना है!”
“ठीक! कहां से लाते हैं? मुश्किल से ही मिलते होंगे!”
“नहीं, कोई मुश्किल नहीं। सैन्ट्रल पार्क के नार्थ गेट के बाहर खानाबदोशों का ठिकाना है जो पटड़ी पर ऐसी ऐंटीक लगने वाली आइटम्स बेचते हैं। गाहे बगाहे मैं वहां चक्कर लगाता हूं तो हैंडल पर किसी नयी नक्काशी वाला कोई चाकू दिखाई दे ही जाता है।”
“आई सी। सोनल से आपके काफी मधुर सम्बन्ध हैं!”
“अच्छी लड़की है। मेरी बेटी समान है। फिर पड़ोसन है।”
“यहां आती जाती रहती होगी!”
“बिरयानी खाने आती है न!”
“ठीक।”
“उस के ऑफ वाले दिन तो उसका काफी टाइम यहां गुजरता है।”
“आप के आर्ट में उसकी भी दिलचस्पी होगी!”
“न भई, मेरी तो एक ही चीज है जिसमें उसकी खास दिलचस्पी है।”
“वो क्या हुई?”
“बिरयानी।”
“हा हा। जोक मारा।”
“नहीं, भई, संजीदा बात कही। कभी आना मेरी बनी बिरयानी खाने।”
“आई विल हैव दि आनर, सर।”
“नानवैज खाते हो न?”
“हां, जी। खाता हूं।”
“आना कभी पहले खबर करके। बाजरिया तोरल।”
“श्योर, सर...इजाजत चाहता हूं।”
उसने सहमति में सिर हिलाया।
“खुदा हाफिज।”
“खुदा हाफिज।”
सुनील यूथ क्लब पहुंचा।
वो रिसैप्शन पर ठिठका तो रिसैप्शनिस्ट सोनल ने उसका अभिवादन किया। सुनील ने अभिवादन का जवाब दिया और रमाकान्त की बाबत दरयाफ्त किया।
“आफिस में हैं।”—वो बोली—“ऊपर से अभी आये।”
“अच्छा! इतना लेट!”
“हां। मेरी फ्रेंड आप को मिली?”
“फ्रेंड।”
“कियारा सोबती।”
“अच्छा, वो! हां, भई, मिली।”
“तो आप कुछ कर रहे हैं उसकी खातिर।”
“माई डियर, जबसे वो मिली है, तब से जो कर रहा हूं उसकी खातिर ही कर रहा हूं।”
“ओह! थैंक्यू। थैक्यू, सर।”
सुनील ने गर्दन के खम से ‘थैंक्यूʼ कबूल किया और रिसैप्शन के पीछे ही स्थित आफिस में कदम रखा।
रमाकान्त अपनी एग्जीक्यूटिव चेयर पर यूं ढ़ेर था कि चेयर काफी पीछे को झुकी हुई थी, मेज का बाटम ड्राअर खुला था जिस पर उसने अपने दोनों पांव टिकाये हुए थे, आंखें बन्द थीं और होंठों में एक ताजा सुलगता सिग्रेट लगा था।
“इसे कहते हैं ऑटोमैटिक सिग्रेट स्मोकिंग।”—सुनील उच्च स्वर में बोला—“सांस अन्दर, धुंआ अन्दर। सांस बाहर, धुंआ बाहर।”
रमाकान्त ने सप्रयास आंखें खोलीं, उसे देख कर उसने अपने पांव दराज पर से हटाये और कुर्सी पर सीधा हुआ। फिर सिग्रेट होंठों से निकाला और बोला—“आ, भई, काकाबल्ली, जी आयां नूं। बै जा। तशरीफ टिका।”
सुनील एक विजिटर्स चेयर पर ढ़ेर हुआ।
“कल रात जब महफिल बर्खास्त हुई थी तो एक बड़ा खतरनाक खयाल मेरे जेहन में आया था। अभी मैं उसी का पुनरावलोकन कर रहा था।”
“पुनरावलोकन। क्या कहने!”
“देख ले, शुद्ध हिन्दी बोली है।”
“इस बार तो वाकेई! क्या खयाल आया था?”
“कि मैं ड्रिंक करना छोड़ दूं।”
“तो अब छोड़ रहे हो?”
“कमला मार्इंयवा। तेरे को तो कोई बात सुनाना ही गुनाह है। ओये, इतना बड़ा फैसला नशे में कोई करता है!”
सुनील हँसा।
“हस्सया ई कंजर। अब बोल, कैसे आया?”
“लंच करने आया।”
“क्या?”
“अरे, लंच का टाइम है, लंच करने आया।”
“क्या! अपने वड्डे भापा जी से मिलने नहीं आया?”
“वो साइड डिश भी मेरी निगाह में थी।”
“मैं साइड डिश हूं?”
“हां, हो। अपने कल के मिजाज के मद्देनजर साइड डिश हो।”
“मार्इंयवा! जुलाहे दियां मस्खरियां, मां भैन नाल। मुझे साइड डिश कहता है।”
सुनील खामोश रहा।
“कल ज्यादा हो गयी थी।”
“रोज ही ज्यादा होती है।”
“कल रोज वाली ज्यादा से ज्यादा हो गयी थी। मार्इंयवी एक तो महफिल ही बड़ी रौनकी लगी थी, ऊपर से मैं मार्इंयवा शमयेमहफिल!”
“इसलिए हिल के न दिये! साफ टरका दिया मुझे!”
“अब सॉरी टिका लै न! बोल, टिका लई।”
“टिका ली।”
“ज्यूंदा रह। अब तू हिलने को नहीं भी कहेगा तो मैं हिलूंगा।”
“क्या?”
“तेरे साथ चलूंगा। तू जहां जहां रहेगा, तेरा ताया साथ होगा।”
“क्या?”
“साया। अब बोल, क्या हुआ कल? और आज अभी तक!”
“जौहरी ने कुछ न बताया?”
“मिला ही नहीं। अभी थोड़ी देर पहले तो मैं सो के उठा, नहाया धोया और यहां आ गया। जौहरी से मिलने की नौबत ही न आयी। पहले तू आ गया। अब अपटुडेट बोल, क्या हुआ?”
“लगता है तुम्हें कत्ल की भी खबर नहीं!”
“कत्ल हो गया? फिर?”
“हां।”
“तू जहां जाता है, अपनी अध्यक्षता में कत्ल करवाने जाता है?”
“मैं कुछ नहीं करता। जो होता है, अपने आप होता है।”
“अब कौन प्यारा हुआ रब नूं?”
“अपना साइबर कॉनमैन आदित्य खन्ना उर्फ अंशुल खुराना।”
“किसने किया? कहीं कियारा सोबती ने ही तो नहीं किया!”
“हो सकता है। नहीं भी हो सकता।”
“तमाम किस्सा तफसील से बयान कर।”
सुनील ने पहले एक सिग्रेट सुलगाया और फिर रमाकान्त के आदेश का पालन किया।
“कमाल है, भई।”—वो खामोश हुआ तो रमाकान्त बोला—“मार्इंयवे मकतूल की एक शहर में इतनी वारदात करने की हिम्मत हुई! वो भी एक ही किस्म की! वो क्या कहा करता है तू! हां, एक ही माडस अपरांडी के तहत!”
सुनील ने सहमति में सिर हिलाया।
“कियारा झूठ बोलती हो सकती है?”
“क्यों नहीं हो सकती! ऐसे मामलों में तो लोगबाग, खास तौर से लड़कियां, झूठ ही बोलती हैं। अपनी जुबानी कौन कुबूल करता है कि उसने कत्ल किया था या उसके हाथों कत्ल हो गया था। गैरइरादतन।”
“पर तेरे से झूठ!”
“औना पौना सच भी बोला। लेकिन मुकम्म्ल सच बोला, इस बात पर मुझे शक है।”
“तो उसकी क्लास क्यों नहीं लेता?”
“अभी नहीं। क्योंकि अभी एक और मर्डर सस्पैक्ट नमूदार हो गया है।”
“वो लड़की जिस का नाम तूने तोरल मेहता बताया!”
“हां। उसने कुछ शक उपजाऊ बातें की थीं, जैसे कि अपने एकाउन्ट का स्टेटस रिवील करने को तैयार नहीं थी। जैसे, कत्ल के वक्त के आसपास की उसके पास कोई एलीबाई नहीं थी। जैसे, उसके पास इस बात का कोई जवाब नहीं था कि मकतूल के पास उसका नाम और मोबाइल नम्बर दर्ज था, उस के पास उसकी एक तसवीर उपलब्ध थी।”
“ये काम लड़की को जाने बिना नहीं हो सकते?”
“हो सकते हैं लेकिन वजह तो फिर भी होनी चाहिये।”
“वजह तेरे वड्डे भापा जी सप्लाई करें?”
“करो।”
“मकतूल अपने नये शिकार के तौर पर उस लडकी की तरफ तवज्जो दे रहा था लेकिन तवज्जो ही दे रहा था अभी अपने मिशन में कामयाब नहीं हो गया था।”
“यानी मकतूल का अभी लड़की पर फोकस ही बन रहा था?”
“हां।”
“ऐसा था तो लड़की को अपना एकाउन्ट्स स्टेटस छुपा कर रखने की क्या जरूरत थी।”
रमाकान्त को जवाब न सूझा।
“एक और बात भी शक उपजाऊ थी।”—सुनील बोला।
“क्या?”
“क्रिमसन लिपस्टिक गायब थी तो नयी खरीद कर कमी पूरी कर ली। अपनी ड्रिंकिंग हैबिट्स के बारे में कोई झूठ न बोला। एक्सपेंसिव सैंडलों की बाबत बोल दिया कि अफोर्ड नहीं कर सकती थी। यानी जिन बातों का जवाब बनता था, उनकी बाबत तो सब कह डाला; जिन का जवाब नहीं बनता था, उन्हें टाल दिया। एकाउन्ट्स स्टेटस रिवील करने के मामले में सब से ज्यादा हुज्जत की।”
“लेकिन अगर ठगी जा चुकी थी तो तेरे से ये बात छुपाने की क्या जरूरत थी?”
“जरूर किसी वजह से पब्लिसिटी नहीं चाहती थी, अपने पर फोकस नहीं चाहती थी। मैंने उसे अपना परिचय ‘ब्लास्ट’ के चीफ रिपोर्टर के तौर पर दिया था। अगर वो मेरे सामने अपना मुंह फाड़ती तो उस पर फोकस भी बनता और उसकी पब्लिसिटी भी होती।”
“इसलिये वाणी मुखर न हुई बीवी दी!”
“हां।”
“वड्डे कलाकार के फैंसी चाकुओं की बाबत क्या कहता है?”
“उस बाबत अभी कुछ कहना ठीक नहीं होगा। यहां से मैं पुलिस हैड क्वार्टर जाऊंगा और मालूम करूंगा कि पुलिस ने मर्डर वैपन की बाबत क्या स्टेटमेंट जारी की है! इस बारे में मैं उसके बाद ही फैसला करूंगा।”
“ठीक।”
“अब अगर तुम रात की पी हुई के खुमार से आजाद हो तो मैं कोई संजीदा बात करूं?”
“कोई काम बतायेगा?”
“तो कौन सी आफत टूट पड़ेगी! ये न भूलो कि कियारा सोबती को तुमने मेरे सिर थोपा है।”
“ओये, मां सदके, लम्बी लम्बी क्यों छोड़ता है तू? तू जम जम काम बता। जिन्ने मर्जी काम बता।”
“फिलहाल एक ही काफी है।”
“काफी की तो इस वक्त मेरे को भी जरूरत है बचा खुचा खुमार उतारने के लिये लेकिन तू बोल।”
“सुनो। लैंडलाइन के नम्बर से हमने किसी का पता जानना हो तो टेलीफोन डायरेक्ट्री में एक ऐसी हैल्पलाइन दर्ज है जहां से नम्बर बता कर जाना जा सकता है कि वो नम्बर कहां काम कर रहा है। अगर नाम से पता जानना हो तो वो डायरेक्ट्री में ही दर्ज होता है। या वो भी डायरेक्ट्री इंक्वायरी के नम्बर से जाना जा सकता है। मोबाइल नम्बर के सिलसिले में इस बाबत क्या किया जा सकता है?”
रमाकान्त सोचने लगा।
“मालको”—फिर बोला—“मोबाइल कहां चल रहा है, ये तो सर्विस प्रोवाइडर की बता सकता है।”
“वो बतायेगा?”
“मेरे खयाल से नहीं।”
“तुम्हारा खयाल दुरुस्त है। मैंने ऐसी कोशिश की थी, साफ बोला गया था कि सब्सक्राइबर के नाम, पते जैसी इनफर्मेशन सीक्रेट रखी जाती थी, किसी को नहीं बतायी जा सकती थी।”
“ऐसा बोला? ”
“हां। दो टूक। रुखाई से। रुखाई को फोन बन्द करके अन्डरलाइन किया। कहने का मतलब ये है कि इस मामले में तुम भी कुछ नहीं कर पाओगे।”
“ये बात तो तू रहने दे, काकाबल्ली, मैं अपनी आयी पर आ जाऊं तो बुरे के घर तक पहुंच कर दिखा सकता हूं।”
“फौरन!”
“फौरन तो नहीं! पापड़ तो बहुत बेलने पड़ेंगे।”
“यानी वक्त लगेगा! कामयाब हो भी जाओगे तो एक अरसे के बाद!”
“वो तो है! माजरा क्या है?”
“माजरा ये है कि, जैसा कि मैंने अभी तुम्हें बताया, मकतूल के मोबाइल में उस के फेवरिट्स के कालम में पांच नाम और नम्बर दर्ज थे। उनमें से एक नाम का—तोरल मेहता के नाम का—खुलासा तो जैसे तैसे हो गया है, और एक नाम को—कियारा सोबती के नाम को—किसी खुलासे की जरूरत नहीं। लेकिन अभी तीन नाम और नम्बर और हैं जिन की बाबत कोई जानकारी हाथ नहीं आ पायी है जब कि इस केस की तह तक पहुंचने के लिये वो जानकारी हाथ आना जरूरी है। मुझे मालूम होना चाहिये कि कौन हैं प्रहलाद राज, काव्या और देवीना और कहां पाये जाते हैं ताकि मैं उन से मिल सकूं और मालूम कर सकूं कि क्यों वो मकतूल के लिये इतने इम्पार्टेंट थे कि उन के नाम और नम्बर मकतूल के मोबाइल में ‘फेवरिट्स’ में दर्ज थे! और क्या कत्ल से उन का कोई ताल्लुक था! नहीं था तो कत्ल के वक्त के आसपास वो कहां थे!”
‘मालूम तो, प्यारयो, मैं कर लूंगा...”
“लेकिन टाइम लगा के! ढ़ेर टाइम लगा के ! पर, रमाकान्त, एक तरीका है जिससे हमें ये जानकारी आननफानन हासिल हो सकती है।”
“केड़ा?”
“मकतूल के मोबाइल के ‘फेवरिट्स’ की बाबत जो बात मुझे मालूम हुई, वो पुलिस वो भी मालूम हुई होगी! नहीं?”
“हां। इतना तो मैं गारन्टी से कह सकता हूं कि प्रभूदयाल बहुत होशियार, बहुत एफीशेंट पुलिस आफिसर है। जो बात तेरी निगाह से न छुपी रही, ये हो ही नहीं सकता कि उसकी निगाह में न आयी हो।”
“ऐग्जैक्टली! तो अब बोलो मोबाइल सर्विस प्रोवाइडर सरकारी अलमदारी से, राजनगर पुलिस से, वो जानकारी शेयर करने से इंकार करेगा?”
“सवाल ही नहीं पैदा होता। जो पूछा जायेगा, दौड़ के बतायेगा।”
“तो समझ लो कि पुलिस को ये जानकारी हासिल हो चुकी है। अब मेरा अगला सवाल ये है कि क्या इस, पुलिस के लिये मामूली, काम के लिये प्रभूदयाल खुद भागा दौड़ा फिरेगा?”
“नहीं। अपने मातहत को हुक्म फरमायेगा।”
“यानी हमारे काम की जानकारी प्रभूदयाल के कब्जे में ही नहीं है, उसके किसी मातहत को भी है।”
“हां। क्या कहना चाहता है।”
“अभी भी नहीं समझे?”
“नहीं। चानन पा।”
“अरे, पुलिस हैडक्वार्टर में तुम्हारा भेदिया है जिसने वहां से जानकारी निकलवाने के मामले में तुम्हें कभी नाउम्मीद नहीं किया तो क्या अब करेगा?”
“मार्इंयवा! वड्डा सयाना! सब ताड़ के रखता है। कुछ नहीं भूलता।”
“करेगा?”
“नहीं। लेकिन वो वालंटियर नहीं है तेरी तरह!”
“किसकी तरह?”
“तेरी तरह। डराता क्या है मुझे? मैं क्या तुझे जानता नहीं! ये जो सारे जहां का दर्द तेरे जिगर में है, ये जो तेरे से डैमसेल इन डिस्ट्रेस नहीं देखी जाती, मुसीबतजदा हसीना नहीं देखी जाती और दौड़ा फिरता है असलियत की तह तक पहुंचने के लिये तो तू वालंटियर न हुआ तो क्या हुआ?”
“इनवैस्टिगेटिव जर्नलिस्ट हुआ! खोजी पत्रकार हुआ।”
“आया वड्डा खोजी पत्तरकार। हर काम मेरे से कराता है और खुद को कहता है खोजी पत्तरकार।”
“ऐसा है तो...तो आगे से नहीं कुछ बोलूंगा।”
“ठण्ड रख। ठण्ड रख। अपने वड्डे भापा जी की बात का मरम समझ...”
“मर्म। मर्म समझ।”
“...अलफाज के पीछे लट्ठ ले के न पड़। मैं ये कहना चाह रहा था, मां सदके, कि हैडक्वार्टर में मेरा जो भेदिया है, तेरी ही खातिर मेरा जो भेदिया है, वो फोकट में काम नहीं करता। हर खिदमत की फीस चार्ज करता है। बड़ी खिदमत की बड़ी फीस चार्ज करता है। मौजूदा केस में नगदऊ का कोई इन्तजाम है, कोई जुगाड़ है?”
“नहीं है। तुम जानते हो नहीं है। वो बेचारी लड़की जो पहले से ही उन्नीस लाख रुपये गंवा के हटी है...”
“तू बेचारा हिमायती उसका।”
“जबरन बनाया गया। वड्डे भापा जी, ने उसे मेरे सिर थोपा।”
“तेरी खोजी पत्तरकारता को केटर करने के लिये, उसको चमकाने के लिये ताकि तेरा ये दर्जा बरकरार रहे कि खोजी पत्तरकारता के फील्ड का तू कोकाकोला है, लता मंगेशकर है, सचिन तेंदुलकर है।”
“तो कराओगे कुछ?”
“कुछ क्यों? सब कुछ कराऊंगा। अब राजी?”
“हां।”
“हां तो त्योरी उतार और हँस के दिखा।”
सुनील हँसा।
“हंस्सया ई कंजर!”
सुनील पुलिस हैडक्वार्टर पहुंचा।
अर्जुन उसे प्रैसरूम में मिला।
“क्या खबर है?”—सुनील ने पूछा।
“कई खबरियां हैं”—वो अकड़ कर बोला—“कुछ प्रेस कान्फ्रेंस में पुलिस ने मीडिया के साथ सांझी कीं, कुछ मैंने खुद निकालीं।”
“हूं।”
“मैंने कहा, गुरुजी, कि कुछ जानकारी मैंने खुद निकालीं।”
“काफी होशियार हो गया है!”
“अभी तो बाली उमरिया है। अभी तो आगे आगे देखिये होता है क्या! आप की उम्र तक पहुंच लूं, कहर ढ़ा दूंगा।”
“मेरी उम्र तक।”—सुनील ने घूर कर उसे देखा।
“सॉरी, मैं तो भूल ही गया था कि अभी तो आप की भी बाली उमरिया है।”
“बोल रहा है, कह कुछ नहीं रहा!”
“जी! ओह, सॉरी। तो सुनिये क्या जाना! पहली बात तो ये है कि मकतूल ने होटल में रजिस्ट्रेशन के वक्त जो प्रूफ आफ रेजीडेंस और प्रूफ आफ आइडेन्टिटी पेश किये थे, वो दोनों नकली पाये गये हैं।”
“अच्छा!”
“जी हां। प्रूफ आफ रेजीडेंस के तौर पर उसने मुम्बई का वोटर आई-कार्ड पेश किया था और उसकी फोटोकापी जमा की थी। प्रूफ आफ आइडेन्टिटी के तौर पर उसने मुम्बई से ही जारी आधार कार्ड पेश किया था और उसकी फोटोकापी जमा की थी। पुलिस की तफतीश में वो दोनों ही कार्ड नकली पाये गये हैं। उन दोनों कार्डों पर उसकी तसवीर ही अपनी थी, बाकी सब नकली था।”
“तफ्तीश के नाम पर क्या किया था पुलिस ने?”
“लाश की शिनाख्त की कोशिश में, वोटर आई-कार्ड और आधार कार्ड के सन्दर्भ में पुलिस ने मुम्बई पुलिस से सम्पर्क साधा तो आगे से जवाब आया कि दोनों कार्डों पर नल बाजार मुम्बई का जो पता दर्ज था, वो गलत था।”
“उस पते पर कोई अंशुल खुराना नहीं रहता था?”
“गुरुजी, उस पते का कोई वजूद ही नहीं था। नल बाजार के इलाके में कोई गली नम्बर नौ नहीं थी और साथ में जो मकान नम्बर दर्ज था, उस नम्बर तक वहां किसी भी गली में मकान नहीं थे।”
“कमाल है! फिर ये कहने का तो कोई मतलब ही न हुआ कि वहां कोई अंशुल खुराना रहता था या नहीं रहता था!”
“नाम भी फर्जी था।”
“क्या मतलब?”
“और ये बात बड़े अनोखे तरीके से सामने आयी थी।”
“कैसे?”
“आप को मालूम ही है कि मीडिया में सिर्फ ‘ताजा खबर’ में मकतूल की शक्ल छपी थी क्योंकि वो दोपहर को प्रकाशित होने वाला अखबार है!”
“मालूम है। असल बात पर पहुंच।”
“हुआ ये है कि दोपहरबाद यहां एक औरत पहुंची जो कि लोकल रेज़ीडेंट थी, सुभाष नगर में हाउस नम्बर 3/5 के ग्राउन्ड फ्लोर पर रहती थी, और उसका दावा था कि ‘ताजा खबर’ में जिस शख्स के कत्ल की बमय तसवीर खबर छपी थी, उस का नाम अविनाश खत्री था और वो उसका पति था।”
“क्या!”
“है न हैरानी की बात! जो शख्स खुद को मुम्बई का बाबू बताता था और पिछले चार दिनों से होटल स्टारलाइट में ठहरा हुआ था, वो लोकल बाशिन्दा था, यहां सुभाष नगर का रहने वाला था और फैमिलीमैन था।”
“फैमिली भी!”
“बीवी कहती थी कि सात और चार साल के दो बच्चे थे।”
“उस औरत से...नाम क्या बोली वो अपना?”
“योगिता। योगिता खत्री।”
“योगिता खत्री! उससे उस लाश की बाबत तसदीक हो गयी?”
“हुई न! तभी तो खबर मीडिया तक पहुंची!”
“कैसे हुई?”
“उस को लाश दिखाई गयी जिसे फौरन उसने अपने पति की सूरत में पहचाना।”
“कमाल है! जो शख्स अपने आप को अमेरिका में स्थायी रूप से बसा बताता था और मुम्बई से राजनगर आया बताता था, वो लोकल बाशिन्दा था!”
“बिल्कुल था। अब ये बात स्थापित हो चुकी है।”
“औरत ने और क्या बताया?”
“उसने तो और कुछ न बताया क्योंकि सुना है वो तो लाश देखते ही धाड़े मार मार कर रोने लगी थी और विक्षिप्तता की हालत में पहुंच गयी थी, और तो जो कुछ बताया उस शख्स ने बताया जो उसके साथ आया था। बेवा की तरफ से भी मीडिया से बात उसी ने की थी।”
“कौन था वो?”
“मकतूल का बिजनेस पार्टनर था और फैमिली फ्रेंड था।”
“अरे, कोई नाम भी था या नहीं!”
“था न! नाम बिना भी क्या कोई होता है इस फानी दुनिया में!”
“तू मुझे फानी दुनिया के बारे में ही पहले मुकम्मल जानकारी दे, नाम बाद में बता देना।”
“सॉरी। नाम प्रहलाद राज था।”
“क्या!”
“प्रहलाद राज बोला मैंने। आप को कुछ और सुनाई दिया?”
“बिजनेस क्या था जिस में वो मकतूल का पार्टनर था?”
“प्रॉपर्टी का। लेकिन सेल परचेज में कमीशन खाने का काम नहीं।”
“तो और क्या? बिल्डर थे?”
“बहुत छोटे लैवल पर।”
“छोटे लेवल पर ही सही, लेकिन क्या करते थे छोटे लैवल पर? कहां करते थे?”
“ये तो...पूछा नहीं किसी ने!”
“तू तो पूछता!”
“गुरुजी, सच पूछें तो मुझे खयाल तक नहीं आया था। वो कोई अहम आदमी तो था नहीं, सिर्फ बेवा के साथ आया था क्योंकि औरत जात पुलिस हैडक्वार्टर अकेली आने से खौफ खाती होगी।”
“रहता कहां है?”
अर्जुन खामोश हो गया।
सुनील ने घूर कर उसे देखा।
“लेकिन अपना आफिस अड्रैस उसने बताया था।”
“वही बोल।”
“वैसे भी जब उसके पार्टनर का अड्रैस हमारे पास है तो बेवा से उसके घर का पता भी जाना जा सकता है।”
“बहुत सयाना है। अभी आफिस अड्रैस तो बोल।”
“शाप नम्बर सत्ताइस, म्यूनीसिपल मार्केट, विक्रमपुरा।”
“अब वो दोनों, बेवा और उसके साथ आया शख्स, योगिता खत्री और प्रहलाद राज कहां हैं?”
“यहां से तो मोर्ग गये थे क्योंकि लाश क्लेम करनी थी, वैसे पता नहीं कहां हैं!”
“और?”
“और तो एक शाबाशी वाला काम है वो मैंने किया है।”
“क्या?”
“गुरुजी, शायद आपने सुना नहीं। मैंने कहा, शाबाशी वाला काम है।”
“शाबाशी मलिक साहब देंगे, जाके मांगना उन से।”
मलिक साहब—बलदेवराज मलिक साहब—‘ब्लास्ट’ के मैनेजिंग एडीटर थे।
“मेरे मलिक साहब तो आप हैं!”
“अब कुछ कहेगा भी!”
“गुरु जी, जो बात मैं अब कहने जा रहा हूं, वो यूं समझिये कि मैंने ऐन घोड़े के मुंह से जानी है।”
“क्याबोला?”
“राइट फ्राम हार्सिज माउथ।”
“किस से?”
“सब-इन्स्पेक्टर बंसल से।”
“उसने तुझे भाव दिया? मुंह लगाया?”
“आप का सदका दिया तो लगाया न!”
“ठीक। बात क्या है?”
“गुरु जी”—अर्जुन का लहजा राजदाराना हुआ—“पुलिस की निगाह में एक मर्डर सस्पैक्ट आया है।”
“आ भी गया?”
“हां।”
“बहुत फास्ट वर्क किया इस बार पुलिस ने!”
“फास्ट वर्क में संयोग का भी हाथ रहा होगा। कई बार इत्तफाकन भी तो वाह वाह कुछ हो जाता है!”
“आगे बोल। क्या हुआ?”
“होटल स्टारलाइट का एक वेटर पुलिस की जानकारी में आया है। नाम जितेन्द्र है और वो कल रात होटल में रूम सर्विस की ड्यूटी पर था। वो कहता है कि कल रात साढ़े नौ बजे के करीब उसने एक खूबसूरत, माडर्न लड़की को पांचवें फ्लोर पर देखा था जिस की हरकतें उसे सन्दिग्ध लगी थीं।”
“क्यों?”
“क्योंकि पांचवें फ्लोर के मकतूल के कमरे को छोड़ कर सब कमरे खाली थे—यानी किसी में कोई गैस्ट नहीं ठहरा हुआ था—इसलिये उसका वहां कोई काम नहीं था। दूसरे, उसे ऐसा लगा था जैसे वो गलियारे के कोने में पड़े विशाल कैक्टस के पौधे के पीछे छुपने की कोशिश कर रही थी। उसने सन्दिग्ध भाव से युवती की तरफ देखा था तो युवती खुद ही कहने लग गयी थी कि उसने छठे फ्लोर पर लिफ्ट से उतरना था लेकिन गलती से पांचवें फ्लोर पर उतर गयी थी। फिर उसके सामने ही वो दोबारा लिफ्ट पर सवार हो गयी थी और लिफ्ट ऊपर उठने लगी थी। गुरु जी, वो वेटर पढ़ा लिखा, इंटेलीजेंट नौजवान था, उसने बहुत बारीकी से उस युवती का हुलिया और कद काठ बयान किया बताया जाता है।”
“आई सी।”
“फिर पुलिस ने लॉबी में लगे सीसीटीवी कैमरों की रिकार्डिंग स्कैन की थी तो बाजरिया कैमरा उस हुलिये वाली युवती उन्हें लॉबी में बेचैनी से टहलती दिखाई दी और फिर वहां से रुखसत होने की जगह वापिस लिफ्टों की ओर बढ़ती दिखाई दी। पुलिस ने वो फुटेज वेटर जितेन्द्र को दिखाई तो उसने फौरन उस युवती की शिनाख्त उस युवती के तौर पर की जिसे उसने कल रात साढ़े नौ बजे होटल की पांचवीं मंजिल पर विचरते देखा था। पुलिस ने वो फुटेज अपने कब्जे में कर ली है और अब पुलिस उसका पूछताछ के लिये हिरासत में लिया जाना महज वक्त की बात बताती है।”
“क्या पूछताछ? क्या पुलिस उसे मर्डर सस्पेक्ट करार दे रही है?”
“मुमकिन है कि दे।”
“राजनगर की एक करोड़ की आबादी है। घर घर जा के सीसीटीवी फुटेज से निकाली शक्ल पहचानेगी?”
“हीं हीं। ऐसा कहीं होता है! होता भी है तो साल छ: महीने लग जायेंगे होने में।”
“जरूर उस युवती की बाबत वो सूरत के अलावा भी कुछ जान गये हैं।”
“क्या जान गये हैं?”
“इतना सयाना बनता है, तू बता।”
“मुझे नहीं पता।”
“मुझे पता है।”
“क्या?”
सुनील खामोश रहा।
“कैसे पता है?”—अर्जुन ने जिद की।
“छोड़ वो किस्सा। उस बाबत फिर बात करेंगे। अभी एक और बात का जवाब दे।”
“पूछिये।”
“प्रभुदयाल कहीं फील्ड में था। लौट आया हुआ है?”
“हां। काफी अरसा पहले मैंने उसे लौटते देखा था। क्यों पूछ रहे हैं?”
“उससे मिलने का इरादा है।”
“ओह! लेकिन आप को ये कैसे मालूम है कि वो फील्ड में था? आप तो अभी यहां आये हैं!”
“मालूम है किसी तरह से। उस्ताद सारे ही गुर शागिर्द को नहीं सिखा देता।”
“लेकिन मैं कोई आम शागिर्द थोड़े ही हूं! मैं तो आप का प्रेफर्ड, प्रिविलेज्ड शागिर्द हूं!”
“इसी बात पर तेरी शाबाशी पक्की। शाम को यूथ क्लब में आना।”
“वो तो मैं दौड़ता हुआ आऊंगा।”—अर्जुन हर्षित स्वर में बोला—“अभी मेरे लिये क्या हुक्म है?”
सुनील ने कुछ क्षण उस बात पर विचार किया, फिर बोला—“आफिस चला जा।”
“थैंक्यू।”
“लेकिन मेरी मेज के राइट हैण्ड बाटम ड्राअर को हाथ नहीं लगाना है। अगर उसमें से बोतल निकाल का टांसिल्ज वैट करने की कोशिश की तो शाम की पार्टी कैंसल।”
“अरे, नहीं गुरुजी, मैं क्या पागल हूं जो...”
“जा।”
इक्कीस सीढ़ियां चढ़ कर सुनील पहली मंजिल पर पहुंचा जहां कि इन्स्पेक्टर प्रभूदयाल का आफिस था।
प्रभूदयाल अपने कमरे में मौजूद था।
“बन्दा हाजिर हो सकता है?”—कमरे में दाखिल होता सुनील बोला।
प्रभूदयाल ने सिर उठाकर उसकी तरफ देखा।
“हमेशा हाजिर होकर पूछता है बन्दा।”—फिर माथे पर बल डालता बोला—“पूछ कर हाजिर नहीं होता।”
“सॉरी।”
“आओ, बैठो।”
“थैंक्यू।”
“कैसे आये?”
“खता बख्शवाने आया।”
“यानी कबूल करते हो कि वारदात वाले कमरे में घुसे थे?”
“अरे नहीं, माई बाप।”
“तो और कौन सी खता बख्शवाने आये हो?”
“हुजूर की शान में अंजाने में भी इस गुनहगार बन्दे से कई खतायें हो जाती हैं, सोचा आन एकाउन्ट बख्शवाऊं।”
“लिफाफेबाजी है।”
“मुझे आप से पहले सनातन नगर में तोरल मेहता के फ्लैट पर मौजूद नहीं होना चाहिये था।”
“जब जानते हो तो क्यों मौजूद थे?”
“क्योंकि आप की वहां आमद का मुझे कोई इमकान नहीं था।”
“अब बको, कैसे उस लड़की की बाबत जाना, उस का पता जाना।”
“एक उड़ती चिड़िया ने बताया।”
“इस बार मुझे ये जवाब कुबूल है लेकिन उड़ती चिड़िया तो तुम्हारी सखी-सहेली है, बल्कि सगेवाली है, उसने कैसे जाना?”
“अब क्या बोलूं?”
“रिपोर्टर साहब, या तो इस बात का कोई माकूल जवाब दो या कुबूल करो कि तुम मकतूल के होटल रूम में घुसे थे।”
“दूसरी बात तो सच नहीं है!”
“तो पहली का खुलासा करो।”
“बन्दानवाज, मैं कुछ सुनने आया था, न कि कुछ कहने आया था।”
“कहना तुम्हारी आप्शन नहीं है, रिपोर्टर साहब, तुम्हारी मजबूरी है। मैं जो जानना चाहता हूं, वो डंडे से जान सकता हूं।”
“ये तो वही मसल हुई कि नमाज बख्शवाने आये, रोज़े गले पड़ गये।”
“अब उचरो कुछ?”
“मैं न आता तो?”
“तो बुला लिये जाते। और पुलिस कैसे बुलाती है, तुम से छुपा नहीं है।”
“तौबा! गरीबपरवर, आप तो ऐसे न थे!”
“ये भी वहम है तुम्हारा। एक बात की जवाबदेयी तुम दो बार टाल चुके हो। मैंने टाल लेने दी इसलिये टाल चुके हो, न कि तुमने कोई कमाल किया। अब बोलो, अगर तुम मकतूल के होटल रूम में नहीं घुसे थे तो कैसे तुम्हें तोरल मेहता की खबर लगी?”
“हाउसकीपिंग स्टाफ से लगी।”
“क्या बोला?”
“पांचवीं मंजिल पर रूम्स के डेली मेक अप के लिये ट्राली लेकर जो औरत वहां हाउसकीपिंग की ड्यूटी करती है, वो मेरी वाकिफ है...”
“कैसे वाकिफ है?”
“मुझे राखी बान्धती है।”
“क्यों? बहन है?”
“मुंहबोली। इसलिये लिहाज करती है।”
“पुड़िया है। फिर भी चलो, आगे बढ़ो।”
“अपनी रूम मेकअप करने की ड्यूटी में उसकी निगाह बैडरूम की टेबल पर पड़ी थी जिस पर कि वो तोरल का नाम और फोन नम्बर लिखा स्क्रैच पैड उसे पड़ा दिखाई दिया था। उसकी फोटोग्राफिक मेमरी है। नाम और नम्बर उसे याद रह गये जो कि बाद में जब कत्ल की खबर आम हो गयी तो मैंने उससे जाने।”
“वाह, रिपोर्टर साहब, इतने बड़े तीस मार खां बनते हो और इतनी लचर कहानी गढ़ कर सुना रहे हो। मैं अभी तुम्हें होटल ले के चलूं और कहूं कि ये बात अपनी मुंहबोली बहन से मेरे सामने कहलवाओ तो वो कहेगी?”
“इस घड़ी हाउसकीपिंग स्टाफ ड्यूटी पर नहीं होता।”
“कभी तो होता है! अगला सवेरा भी आना होता है या नहीं!”—वो एक क्षण ठिठका और फिर वितृष्णापूर्ण भाव से बोला—“लेकिन तब तक तुम किसी को सिखा पढ़ा लोगे।”
“मेरी मजाल नहीं हो सकती।”
“जानता हूं मैं तुम्हारी मजाल को।”
“माई बाप, आप छोटी सी बात को बेवजह मैग्नीफाई कर रहे हैं। अव्वल तो मैं उस कमरे के भीतर गया नहीं था। गया भी था तो क्या कयामत टूट पड़ी? मैं कोई मर्डर सस्पैक्ट हूं? हूं तो साफ ऐसा बोलिये। कहिये कि कत्ल ही मैंने किया है।”
“बहस अच्छी कर लेते हो! ऐन वकीलों की तरह।”
“आप एक मिनट के लिये ये मान के चलिये कि कोई कत्ल नहीं हुआ, कोई वारदात नहीं हुई। मैं किसी से मिलने गया, उसके कालबैल का जवाब न दिया, मैंने दरवाजा खुला पाया इसलिये भीतर दाखिल हो गया तो क्या गुनाह किया मैंने? ये मेरे और रूम के आकूपेंट के बीच की बात है।”
“नहीं है। आम हालात में गुनाह नहीं किया लेकिन तुम्हारी सोच में दो खराबियां हैं—एक तो हालात आम नहीं थे और दूसरे, विजिटर आम नहीं था, विजिटर एक हद दर्जे का खुराफाती, अपनी बेजा हरकतों से न बाज आने वाला ‘ब्लास्ट’ का चीफ रिपोर्टर था जो कि पुलिस से एक कदम आगे रहने की खातिर मौकायवारदात के साथ कैसी भी छेड़खानी कर सकता था, जो कि वहां कुछ जमा कर सकता था, वहां से कुछ घटा सकता था, कहने का मतलब है कुछ भी कर सकता था। आम, निर्दोष, सहज विजिटर ऐसा होता है?”
“अब मैं क्या कहूं?”
“वो न कहो जो अभी तक कहते रहे हो। अगर कोई औनी पौनी शराफत बची है तो साफ बोलो, क्या बात थी जो तुम्हें कल होटल स्टारलाइट ले कर गयी थी?
सुनील ने बेचैनी से पहलू बदला।
“फिर किसी डैससेल इन डिसट्रेस के सगे वाले बने हुए हो?”
“मैं सिग्रेट पी सकता हूं?”
“बात को टालो नहीं। मेरी बात का जवाब दो।”
“आज आपने कोई काफी-वाफी भी आफर नहीं की।”
“हैडक्वार्टर के सामने सड़क के पार काफी हाउस है, वहां जाके पीना, पैसे मेरे से ले के जाना।”
“कमाल है!”
“देखो, जो कुछ मैं कह रहा हूं, उसे गौर से सुनो और समझो। ओके?”
सुनील ने हिचकिचाते हुए सहमति में सिर हिलाया।
“तुम यहां क्यों आये हो? क्योंकि ताजा केस की बाबत इनवैस्टिगेटिंग आफिसर से ऐसी जानकारी हासिल करना चाहते हो जो कि तुम्हारे अखबार के काम की हो। नहीं?”
“हां।”
“यानी इनवैस्टिगेटिंग आफिसर की, जो कि मैं हूं, फेवर चाहते हो।”
“आपका फर्ज है केस की प्रॉग्रेस से मीडिया को वाकिफ कराना।”
“किस को वाकिफ कराना?”
“मीडिया को।”
“और तुम कौन हो? अब ये न कहना तुम मीडिया हो। तुम भेड़ों में भेड़ हो। कईयों में एक हो। क्यों समझते हो कि पुलिस को तुम्हें और सिर्फ तुम्हें अलग से ब्रीफ करना चाहिये?”
“क्योंकि...क्योंकि...”
“मैं तुम्हारा दोस्त हूं!”
“मैं यही कहने वाला था।”
“कोई बात नहीं। मैंने कह दिया। अब बोलो, जिसे दोस्त समझते हैं, उस के साथ ऐसे पेश आते हैं?”
“जनाब, आज तो आप मेरी बोलती ही बन्द किये दे रहे हैं!”
“गलत खयाल है। मैं तुम्हारी बोलती बन्द नहीं करना चाहता, तुम्हारी बोलती मुखर करना चाहता हूं। जानकारी का दरिया एकतरफा बहाओगे तो कुछ हाथ नहीं आयेगा। अब या तो केस से जो तुम्हारा वास्ता है, वो सच सच बयान करो या नीचे प्रेस रूम में जाकर बैठो और इन्तजार करो कि पुलिस का पीआरओ कब मीडिया को—मीडिया को बोला मैं, ‘ब्लास्ट’ को नहीं—ब्रीफ करता है।”
“अगर मैं तब कुछ सच सच बयान करूं तो जानकारी का दरिया उधर से इधर भी बहेगा?”
“हां।”
“पक्की बात?”
“हां।”
“तो सुनिये। आप का अन्दाजा सही है, मामला मुसीबतजदा हसीना का ही है। बात ये है कि कल...”
सुनील ने तमाम किस्सा बयान कर दिया लेकिन ये फिर भी कबूल न किया कि वो मकतूल के होटल रूम में घुसा था।
इस बार प्रभूदयाल ने भी उस बात पर जोर न दिया।
“अब बरायमेहरबानी”—आखिर में वो बोला—“फकीर की झोली में भी कुछ डालिये।”
“फकीर!”—प्रभूदयाल की भवें उठीं।
“सुनील भाई मुलतानी।”
“बातें बढ़िया करते हो।”
“वो तो मैं आगे भी करता रहूंगा, अब वो माल दिखाइये जो अलग बांध के रखा है।”
“क्या जानना चाहते हो?”
“पहले तो फूलदान के बारे में ही बताइये।”
“क्या?”
“उस पर कोई फिंगरप्रिंट्स मिले?”
“रिपोर्टर साहब, वो फूलदान, रूम सैटअप की स्टैण्डर्ड आइटम है जो हर रूम में होता है और तमाम के तमाम फूलदान बिल्कुल एक जैसे हैं। यानी जितने कमरे, उतने फूलदानों की मास परचेज। उसकी दूसरी खूबी ये है कि उसमें सजे फूल नकली हैं लेकिन इतनी नफासत, इतनी कारीगरी से बनाये गये हैं कि बहुत गौर से देखने पर ही मालूम पड़ता है कि नकली हैं। हमने मालूम किया है कि वो फूलदान हाउसकीपिंग स्टाफ की तवज्जो में आने वाली आइटम है। यानी रूम क्लीनिंग की प्रक्रिया में फूलदान को डेली झाड़ा पोंछा जाता है और कोलिन मार कर उसके पीतल को चमकाया जाता है। इस वजह से उस पर से फिंगरप्रिंट्स के दो स्पष्ट सैट्स उठाये गये है जो कि फूलदान की तरफ फौरन तवज्जो न दी जाती तो अगले रोज की क्लीनिंग में पुंछ गये होते।”
“इसी वजह से फिंगरप्रिंट्स स्पष्ट थे?”
“हां।”
“दो किस्म के?”
“हां। एक जनाना और एक मर्दाना। उनसे ये भी उजागर हुआ है कि मर्दाना प्रिंट्स पहले बने थे और जनाना बाद में।”
“ये कैसे उजागर हुआ?”
“जनाना प्रिंट्स एकाध जगह पर मर्दाना प्रिंट्स पर सुपरइम्पोज्ड थे।”
“ओके।”
“उन प्रिंट्स में एक और भी दिलचस्प और काबिलगौर बात थी।”
“वो क्या?”
“मर्दाना हाथों ने फूलदान को यूं थामा था कि पीतल के भारी फूलदान का मुंह हैंडलर की तरफ था और पेंदा उस की बॉडी से परे बाहर की तरफ था। जनाना प्रिंट्स यूं बने पाये गये थे जैसे कि फूलदान को गर्दन से थामा गया था, यूं कि उसका मुंह ऊपर की तरफ था, पेंदा नीचे फर्श की तरफ था।”
“क्यों कि जनाना हाथों ने फूलदान को नीचे से उठा कर ऊपर मेज पर रखा था। फूलदान मेज पर से लुढ़का था तो कुछ फूल बाहर...”
सुनील तत्काल खामोश हुआ, उसने होंठ काटे।
“तुम नहीं बाज आ सकते।”—प्रभूदयाल असहाय भाव से गर्दन हिलाता बोला—“तुम बाज आ ही नहीं सकते।”
“अब क्या करूं!”—सुनील खिसियाया सा बोला—“एएसएम जो ठहरा।”
“असिस्टेंट स्टेशन मास्टर?”
“आदत से मजबूर।”
प्रभूदयाल ने अपलक उसे देखा।
“अब जाने भी दीजिये न!”—सुनील फरियाद-सी करता बोला—“क्या भूल गये कि लिंक रोड वाले स्टॉक ब्रोकर के...”
सुनील एकाएक खामोश हो गया।
“क्या हुआ?”—प्रभूदयाल बोला।
सुनील ने जवाब न दिया।
“अरे, भाई, क्या हुआ? एकाएक कोई दौरा पड़ा क्या?”
“सॉरी!”—सुनील सम्भलता सा बोला—“एकाएक मैंटल ब्लैक आउट जैसा कुछ हो गया।”
“अब ठीक हो?”
“हां। हां तो मैं कह रहा था कि क्या भूल गये कि लिंक रोड वाले स्टॉक ब्रोकर के हालिया मर्डर के केस में आपने मुझे इस हद तक छूट दी थी कि लगता था कि हम दोनों मिल कर उस केस पर काम कर रहे थे! आप जरा पहले जैसी फराखदिली दिखाइये और मौजूदा केस को अपनी रिपीट परफारमेंस मान लीजिये।”
प्रभूदयाल की त्योरी ढ़ीली पड़ी, उसने सुनील पर से अपनी घूरती निगाह हटा ली।
“बहरहाल”—सुनील संजीदा लहजा अख्तियार करता बोला—“फूलदान पर मकतूल की उंगलियों के निशान थे जिन का होना कोई बड़ी बात नहीं क्यों कि वो रूम का आकूपेंट था इसलिये उसने वहां की किसी भी चीज को किसी भी वजह से हैंडल किया हो सकता था। जमा, उस पर जनाना उंगलियों के निशान थे जो कल उसके कमरे में किसी महिला की आमद की तसदीक करते थे।”
“कल क्यों? फ्रिंगरप्रिंट्स पर तारीख तो दर्ज होती नहीं!”
“आपने क्लीनिंग की रूटीन बयान की न! प्रिंट्स पहले बने होते तो रूम क्लीनिंग की प्रक्रिया में पोंछ दिये गये होते।”
“काफी सयाने हो गये हो!”
“रोज सुबह पहला काम यही करता हूं कि अक्ल को ब्रासो से पालिश करता हूं।”
“फिर शुरू हो गये!”
“जनाना मर्दाना प्रिंट्स में फर्क कैसे पता लगता है?”
“मर्दाना हाथ बड़ा होता है, जनाना हाथ छोटा और संकरा होता है और उंगलियां पतली होती हैं।”
“जनाना फिंगरप्रिंट्स की शिनाख्त हुई?”
“अभी नहीं हुई लेकिन होगी। कुछ मैडम्स हमारे राडार पर हैं, हमें उम्मीद है कि वो प्रिंट्स उन्हीं में से किसी के निकलेंगे।”
“वो मैडम्स कौन हुर्इं?”
“अभी कुछ मालूम नहीं लेकिन जांच पड़ताल जारी है। जब कोई नतीजा, कोई कारआमद नतीजा, केस को हल करने में मददगार नतीजा निकलेगा तो उस बाबत मीडिया को ब्रीफ किया जायेगा।”
“मौकायवारदात पर फूलदान जैसी एक आइटम कार्पेट पर लुढ़का पड़ा बटुवा भी थी, उस पर कोई फिंगरप्रिंट्स थे?”
“भई, मालिक के तो थे ही, और किसी के नहीं थे।”
“मालिक मकतूल?”
“हां।”
“जेब से गिरा? जब धराशायी हुआ, तब जेब से गिरा?”
“जैसे गिरा पड़ा मिला था, उस से तो यही लगता था लेकिन हैरानी है कि बटुवा जेब से गिरा। यूं गिरना तो नहीं चाहिये!”
“कोट या पैंट में से नहीं गिरता। जैकेट में से गिर सकता है।”
प्रभूदयाल की भवें उठीं।
“जैकेट की जेबें एक तो ज्यादा गहरी नहीं होतीं और दूसरे तिरछी होती हैं। कोई जैकेट पहने शख्स एकाएक वर्टीकल से हॉरीजंटल हो तो जैकेट की जेब से बटुवा छिटक कर बाहर गिर सकता है।”
“यही हुआ होगा।”
“बटुवे के कन्टैंट्स की इनवेंट्री से कुछ मालूम न हुआ?”
“न! रूटीन आइटम्स थीं उसमें। अलबत्ता एक बात अजीब थी।”
“वो क्या?”
“फाइव स्टार होटल में ठहरे शख्स के लिहाज से बटुवे में रकम बहुत मामूली थी। यूं समझो कि चिल्लर। गिनती के सौ पचास और बीस के नोट थे, बस।”
“क्रेडिट कार्ड होंगे न!”
“वो तो दो थे। एक डेबिट कार्ड भी।”
“तमाम पेमेंट्स कार्ड से करता होगा इसलिये बटुवे में कोई बड़ी रकम रखने की जरूरत नहीं महसूस करता होगा!”
“हो सकता है लेकिन फिर भी...”
“आप के मन में कुछ है?”
“शंका है।”
“क्या?”
“हो सकता है बटुवे में मौजूद बड़ी रकम कातिल ने निकाल ली हो।”
“हो तो सकता है! बटुवा यूं गिरा था कि नोट बाहर बिखरे पड़ रहे थे। बड़े नोट कातिल ने काबू कर लिये होंगे!”
प्रभूदयाल ने सहमति में सिर हिलाया।
“वो फुल्ली ड्रैस्ड अप था।”—सुनील बोला।
“तो?”
“जैसे कि कोई कहीं जाने के लिये तैयार होता है!”
“कोई जरूरी नहीं। वो कहीं से लौटा हो सकता है।”
“हो सकता है। मैं ये अर्ज करना चाहता था कि अगर कहीं जाने को तैयार था तो फिर तो जिस मेहमान को वो एन्टरटेन कर रहा था, ड्रिंक से नवाज रहा था, उस का आगमन शायद अपेक्षित नहीं था। वो एकाएक, बिना पूर्व-सूचना के वहां पहुंचा था!”
“हो सकता है।”
“पोस्टमार्टम की रिपोर्ट क्या कहती है?”
“रिपोर्ट प्रैस को जारी कर दी गयी है। प्रैस रूम में जा कर पता करो।”
“बन्दानवाज, आपके मुखारविन्द से उस बाबत सुनने का और ही मजा है।”
“क्या मजा है? मैं रिपोर्ट गा के सुनाऊंगा?”
“गा के भले ही नहीं सुनायेंगे लेकिन आप का बयान कर्णप्रिय होगा।”
“पोस्टमार्टम की रिपोर्ट न हुई, ऑर्गन रिसाइटल हुआ।”
“वो भी।”
“अपना मतलब निकालना खूब जानते हो।”
“अरे, नहीं, जनाब...”
“पोस्टमार्टम की रिपोर्ट से पहली खास बात तो ये मालूम हुई है कि मकतूल की छाती पर चाकू से एक नहीं, दो वार हुए थे।”
“दो?”
“दूसरा वार होने के बाद चाकू मकतूल के जिस्म में ही छूट गया था या छोड़ दिया गया था जिस की वजह से मकतूल की ट्वीड की जैकेट यूं खिंच गयी थी कि पहले वार से जिस्म में बना सुराख जैकेट की ओट में आ गया था और वो जैकेट को सरकाये बिना दिखाई देने वाला नहीं था।”
“लेकिन दो वार!”
“हां, पहले वार के बाद जब चाकू जिस्म से खींचा गया था तो, बकौल पुलिस डॉक्टर, जिस्म से खून का फव्वारा सा छूटा होगा, जिस की वजह से खून के छींटे जरूर वार करने वाले की, कातिल की पोशाक के फ्रंट पर भी पड़े होंगे। दूसरे वार से ऐसा नहीं हुआ था क्योंकि खंजर ने उसके बाद जिस्म में बने सुराख को यूं समझो कि प्लग कर दिया था।”
“मतलब क्या हुआ इस का?”
“मतलब अभी आगे आयेगा, पहले पूरी पोस्टमार्टम रिपोर्ट सुन लो।”
“सॉरी!”
“आटॉप्सी सर्जन ने कत्ल का वक्त नौ और दस के बीच का मुकर्रर किया है लेकिन हमारी पकड़ में एक जरिया आया है जो इस वक्फे को कम कर सकता है।”
“क्या है वो जरिया?”
“सवा नौ बजे रूम सर्विस के वेटर ने मकतूल के आर्डर पर वहां स्काच विस्की के दो ड्रिंक्स पहुंचाये थे। वेटर का नाम जितेन्द्र है और वो कहता है कि सर्विस के लिये वो कमरे में दाखिल नहीं हुआ था, कालबैल के जवाब में रूम का आकूपेंट दरवाजे पर प्रकट हुआ था, उसका वाउचर साइन किया था, उसे बीस रुपये टिप दी थी, ड्रिंक्स की ट्रे को वहां काबू में किया था और वेटर को डिसमिस कर दिया था।”
“यानी वेटर को नहीं मालूम कि भीतर जो मेहमान था, वो स्त्री थी या पुरुष था?”
“नहीं मालूम। या कोई था भी या नहीं!”
“आई सी।”
“मकतूल ने दोनों ड्रिंक्स अपने लिये मंगाये हो सकते हैं।”
“हाई एण्ड होटलों के रूम्ज में मिनी बार होता है, अगर उसी ने विस्की पीनी थी तो वो मिनीबार से खुद को सर्व कर सकता था।”
“कर सकता था लेकिन हो सकता है मिनी बार में उपलब्ध ब्रांड उसकी पसन्द का न हो इसलिये अपनी पसन्द के ब्रांड का उसने रूम सर्विस को आर्डर दिया हो।”
“एक साथ दो ड्रिंक्स का?”
“भई, प्रत्यक्ष है ये बात। स्थापित है।”
“लेकिन ये प्रत्यक्ष या स्थापित नहीं है कि दोनों ड्रिंक्स खुद उसके लिये थे या एक किसी मेहमान के लिये था। जनाब, मुझे अपनी राय जाहिर करने की इजाजत दें तो कत्ल के मद्देनजर मेहमान की ही सम्भावना ज्यादा है।”
“जिसने कि उसका कत्ल किया?”
“उस मेहमान ने किया या किसी और मेहमान ने किया। होटल में वो अकेला ठहरा हुआ था। इस काम को अंजाम देने के लिये साथ तो उसके कोई था नहीं!”
“चलो, ऐसे ही सही। हम इस बात पर ज्यादा तवज्जो देंगे कि दूसरा ड्रिंक किसी मेहमान के लिये था।”
“और?”
“और बात चाकू की बाबत है। रिपोर्टर साहब, वो चाकू किसी ब्रांड नेम की असैम्बली लाइन प्रोडक्शन नहीं था, हैण्ड-मेड चाकू था, उस पर की नक्काशी भी हैण्ड-मेड थी और हमें खबर लगी है कि ऐसे चाकू राजनगर में पटड़ी पर आम मिलते हैं। बहरहाल चाकू कैसे बन कर वजूद में आया था, ये अहम बात नहीं है। अहम, काबिलेजिक्र बात कोई और है।”
“क्या?”
“चाकू पर आयल पेंट के निशान थे...”
सुनील सावधान हुआ।
“आयल पेंट! जो घर के, फर्नीचर के, खिड़कियां-दरवाजों के रंग रोगन में काम आता है?”
“उसमें भी काम आता है लेकिन उस काम को ब्रश, से, रोलर से या स्प्रे-गन से अंजाम दिया जाता है, चाकू का उस काम में क्या काम?”
“तो?”
“हमें सुझाया गया है कि आयल पेंट आर्टिस्ट्स भी इस्तेमाल करते हैं।”
“आयल पेंटिंग करने वाले आर्टिस्ट्स इस्तेमाल करते ही होंगे। लेकिन उनकी कलाकारिता में भी चाकू का क्या काम?”
प्रभुदयाल ने अनभिज्ञता से कन्धे उचकाये।
“आप प्रत्यक्षत: चाकू पर के आयल पेंट के निशानों की बाबत अभी कुछ और कह रहे थे!”
“हां। आयल पेंट के निशान ऐसे थे कि वो नंगी आंखों से नहीं देखे जा सकते थे क्योंकि उन पर खून की परत चढ़ गयी थी लेकिन माइक्रोस्कोपिक एग्जामिनेशन में आयल पेंट डिटेक्ट हुआ था।”
“कहां पर?”
“फल पर भी और फल और हैंडल के जोड़ के करीब हैंडल पर भी।”
“ऐसे पेंट लगे चाकू का, भले ही उसे कोई इस्तेमाल करता हो, वहां होटल में मकतूल के कमरे में क्या काम?”
“जरूर कातिल साथ लाया।”
“इसका तो ये मतलब हुआ कि ये इरादतन हुआ कत्ल है! कातिल घर से ही कत्ल का इरादा कर के आया था!”
“ऐसा ही जान पड़ता है।”
“बतौर हथियार अपने साथ ऐसा चाकू लेकर जिस पर आयल पेंट के दाग़ थे?”
“उसे बावक्तेजरूरत वही हथियार उपलब्ध होगा!”
“कौन होगा कातिल?”
“क्या कहा जा सकता है! अभी तो तफ्तीश भी पूरी तरह से मुकम्मल नहीं हुई! अभी तो कत्ल हुए चौबीस घन्टे भी नहीं हुए!”
“ठीक! अब बरायमेहरबानी उस बात पर आइये जो आपने कहा था आगे आयेगी।”
“हां। मैंने चाकू के पहले वार से जिस्म से खून का फव्वारा छूटा होने की सम्भावना जाहिर की थी और कहा था कि जिस्म से यूं उछल पड़े खून के छींटे हमलावर के जिस्म पर पड़ने लाजमी थे क्योंकि चाकू का वार क्लोज प्रक्सिमिटी से ही किया जा सकता है।”
“फासले से फेंक कर मारा जा सकता है।”
“तो वार दो न हुए होते। ये बात तर्क की कसौटी पर खड़ी नहीं उतरती कि किसी ने फासले से चाकू फेंक कर मारा, करीब आया, जिस्म में चाकू खींचा और फिर वार किया, या चाकू खींच कर काफी परे हटा और फेंक कर फिर वार किया।”
“आप ठीक कह रहे हैं। तो आप की राय में कातिल कोई ऐसा शख्स हो सकता है, पेंट को हैंडल करना जिस का कारोबार है या किसी और वजह से रूटीन है।”
“अभी कुछ नहीं कहा जा सकता।”
“माई बाप, खून के छींटे कातिल के जिस्म पर पड़े, आप इस बात को किसी और वजह से अहमियत देते जान पड़ते हैं!”
“हां। मकतूल ने जब चैक-इन किया था तो वो अपनी एक बांह पर एक ओवरकोट डाले था जिस की तसदीक होटल के फ्रंट डैस्क से भी हुई है और उस बैल ब्वाय से भी हुई है जिसने मेहमान को चौथी मंजिल के उसके कमरे में पहुंचाया था। बैल ब्वाय कहता है कि उसने खुद उस ओवरकोट को एक हैंगर पर लटका कर वार्डरोब में टांगा था।
“मैं बीच में टोक रहा हूं लेकिन राजगर में तो ओवरकोट पहनने लायक ठण्ड नहीं पड़ती!”
“उसने यहां से आगे किसी ऐसी जगह जाना होगा जहां ओवरकोट लायक ठण्ड पड़ती होगी। जैसे झेरी। या कहीं और।”
“पीछे वो खुद को मुम्बई से आया बताया जाता है, वहां भी ओवर कोट वाली ठण्ड नहीं पड़ती। और सौ बातों की एक बात, वो मुम्बई से आया ही नहीं था, वो तो लोकल बाशिन्दा था जिसकी बीवी इस बात की तसदीक कर भी चुकी है।”
“खबर लग गयी।”
“प्रैस रूम में सब को खबर है। कर्टसी राजनगर पुलिस।”
“हूं। तो तुम्हारी निजी राय में क्यों था ओवरकोट उसके पास?”
“मैंने पहले ही अर्ज किया कि वो एक कॉनमैन था जो खुद को अमेरिका में बसा ऐसा शख्स बता कर नौजवान लड़कियों को ठगता था जो हमेशा के लिये परदेस को अलविदा कह कर भारत लौट आने का तमन्नाई था। मेरी हकीर राय ये है कि ओवरकोट उसके बहुरूप का हिस्सा था। उससे वो ये स्थापित करना चाहता था कि वो किसी ठण्डे मुल्क से आया था जहां कि बर्फवारी होती थी—जैसे कि न्यूयार्क में होती है और जहां कि वो अपने आप को फंसा हुआ बताता था।”
“हो सकता है।”
“ओवरकोट गायब होने का क्या मतलब? बड़े, हाई रेटिड होटलों में तो ऐसी चोरी चकारी नहीं होती! हुई भी तो ओवरकोट की क्यों जिसका कोई लोकल इस्तेमाल भी नहीं!”
प्रभूदयाल मुस्कराया।
“माई बाप, फिर कहना पड़ रहा है जो माल बढ़िया है, वो अलग बांध के रखा है।”
“ऐसी कोई बात नहीं है। ये कोई बड़ी पेचीदा घुंडी नहीं है। मार्इंड अप्लाई करोगे तो समझ में आ जायेगी।”
सुनील सोचने लगा।
“क्लू इस बात में है कि कातिल की ड्रैस का फ्रंट खून के छींटों से अटा था।”
“आई गॉट इट।”—सुनील ने उत्साहित भाव से चुटकी बजायी जो कि न बजी—“उसने वो ओवरकोट इसलिये पहना ताकि खून के छींटे उसके नीचे छुप जाते।”
“शाबाश! वो ऐसा न करता तो बिजी लॉबी में किसी न किसी की, बल्कि कईयों की, तवज्जो इसी वजह से उसकी तरफ जा सकती थी और उसके लिये प्राब्लम खड़ी कर सकती थी। यूं वो लॉबी में लोगों की तवज्जो का मरकज बन जाता तो क्या पता लॉबी में सिक्योरिटी स्टाफ उसे डिटेन कर लेता और सवाल करता कि क्यों उसकी ड्रैस पर ताजा खून के छीटें थे।”
“इसलिये ओवरकोट!”
“इसलिये मकतूल का उसके कमरे में उपलब्ध ओवरकोट।”
“बढ़िया। यानी कातिल कोई ऐसा शख्स था जिस का दिमाग जहमत में बड़ी तेजी से काम करता था।”
“अभी कुछ और बताऊं?”
“वाह! नेकी और पूछ पूछ! घर तक दुआ देता जाऊंगा, जनाब!”
“लॉबी की सीसीटीवी फुटिंग में वैसा या वही, ओवरकोट पहने एक शख्स लिफ्ट्स से बाहर निकलकर मेन ग्लास डोर की ओर जाता देखा गया था।”
“कौन था वो?”
“मालूम नहीं। स्कैन वाली क्लिप में उसकी शक्ल नहीं दिखाई दे रही थी।”
“वो क्लिप यहां है?”
“है तो सही!”
“क्या मैं उस पर एक नजर डाल सकता हूं?”
“नहीं।”
“जनाब, प्लीज। मामूली बात है। मैं भी लॉबी में था। क्या पता मैंने उस की सूरत देखी हो!”
“तुम लॉबी में कत्ल वाकया हो चुका होने के बहुत देर बाद थे।”
“क्या पता कातिल भी बहुत देर बाद होटल से रुखसत हुआ हो!”
“नानसेंस!”
“किसी वजह से। किसी भी वजह से।”
“बताओ कोई वजह! इस सिलसिले में कोई फट्टा ही मार के दिखाओ!”
“सर, प्लीज।”
“प्लीज ठीक है, दलील ठीक नहीं।”
“तो, सर, प्लीज का ही सदका कुबूल फरमाइये।”
“काम निकालता खूब जानते हो अपना!”
“सर, प्लीज़! डबल प्लीज़!”
प्रभूदयाल कुछ क्षण अपलक उसे देखता रहा, फिर उस का सिर सहमति में हिला।
सुनील ने मन ही मन चैन की सांस ली।
प्रभूदयाल ने अपने डैस्क कम्प्यूटर पर वो क्लिप चलाई और कम्प्यूटर का रुख सुनील की ओर कर दिया।
सुनील को सिर झुकाये, ओवरकोट पहने एक शख्स लॉबी में से गुजरता दिखाई दिया। उसके सिर पर स्टाइलिश गोल्फ कैप थी और ओवरकोट का कालर यूं उठा हुआ था कि वो गोल्फ कैप के रिम को छू रहा था और कालर ने उसका तकरीबन चेहरा अपनी ओट में ले लिया हुआ था। कैप और कालर के बीच से उसके लम्बे बाल दिख रहे थे जो रहे सहे चेहरे को भी अपनी ओट में ले रहे थे।
“जरा बैक कीजिए।”—वो बोला।
प्रभूदयाल ने किया।
“फ्रीज!”—वो एकाएक बोला।
इमेज स्क्रीन पर फ्रीज हो गया।
“सैंडलें!”—सुनील बोला—“पैरों में हाई हील वाली लाल सैंडलें हैं।”
“दिखाई दे गयीं!”—प्रभूदयाल बोला।
जो कि वो सैंडलें हो सकती थी जिन का खाली डिब्बा मकतूल के बैडरूम में मौजूद था, लेकिन सुनील अपनी जुबानी ऐसा नहीं कह सकता था।
“ओवरकोट पहनने वाले को”—वो फिर बोला—“साइज में बहुत बड़ा है। इतना कि टखनों तक पहुंच रहा है।”
“ये भी दिखाई दे गया!”
“क्या मतलब हुआ इसका?”
“ये कि ये कोई लड़की है।”
“कातिल लड़की!”
“अगर ओवरकोट मकतूल का है तो यकीनन।”
“ओह!”
“उसकी भरसक कोशिश है अपनी शक्ल छुपाने की इसीलिये सिर पर गोल्फ कैप है, जो कोई बड़ी बात नहीं कि मकतूल की ही हो, और ओवरकोट के कालर खड़े किये हुए हैं।”
“सैंडिलें एक्स्ट्रा हाई हील की हैं!”
“जो इसके खुद को छुपाने के अभियान को सपोर्ट कर रही हैं। यूं उसके कद में इजाफा होता है और वो मर्दों जैसा जान पड़ता है।”
“लेकिन...”
“कद में इजाफा और वजह से भी जरूरी बन गया था।”
“जी!”
“वो एक्स्ट्रा हाई हील की सैंडलें न पहनती तो ओवरकोट का निचला हिस्सा लॉबी में फर्श पर झाड़ू फेरता चल रहा होता।”
“सब आडम्बर इसलिये कि कातिल मर्द जान पड़ता?”
“हां।”
“लेकिन मर्द के पांव में सैंडलें!”
“पैरों की तरफ कोई तवज्जो नहीं देता। आम हाल में किसी गैर को, किसी बाजू से गुजरे गैर को छाती से, बड़ी हद कमर से नीचे कोई नहीं देखता।”
“तो कातिल कोई औरत?”
“हो सकती है।”
“निगाह में आयी कोई?”
“आयी तो सही! एक तो वही आयी, सनातन नगर में तुम जिसके सिर पर सवार थे। तोरल मेहता।”
“मैं बस पहुंचा ही था।”
“तुम्हीं तो ऐसा कहते हो!”
“लड़की ने मेरे कहे की तसदीक थी।”
“कोई सुनीलियन पुड़िया सरकाई होगी उसे!”
“ऐसा मुमकिन है, माई बाप, लेकिन उसके लिये टाइम दरकार होता है। टाइम कहां मिला मेरे को!”
“क्या पता क्या हुआ!”
“लड़की ने कुछ कुबूल किया?”
“ऐसे करता है कोई कुछ कुबूल! लेकिन अभी शुरुआती पूछताछ की है, अगली बार उसे यहां तलब करेंगे, फिर सख्ती से पेश आयेंगे तो जरूर कोई जुदा राग अलापेगी।”
“फिर भी कुछ तो बोली होगी?”
“काम का कुछ न बोली। मकतूल से वाकफियत कबूल न की। कल रात उसके होटल में गयी होना कबूल न किया और इस बात का तो बिल्कुल ही कोई जवाब न दिया कि क्योंकर मकतूल के पास उस का नाम और मोबाइल नम्बर दर्ज था!”
“और?”
“और क्या? और बस।”
“बाई दि वे, फूलदान के अलावा कहीं कोई फिंगरप्रिंट्स मिले?”
“मकतूल के मिले।”
“वो तो मिलने ही थे! आखिर वो उस सुइट का आकूपेंट था।”
“और कोई नहीं मिले। दो चार मिले तो वो अस्पष्ट थे, शिनाख्त के नाकाबिल थे।”
“वजह डेली डस्टिगं, क्लीनिंग भी होगी!”
“हां।”
“चाकू! चाकू पर से?”
“नहीं। चाकू के हैंडल का नक्काशीदार होना न मिलने की वजह था। नक्काशी की वजह से हैंडल स्मूथ सरफेस वाला नहीं था। उस पर फिंगरप्रिंट्स नहीं बन पाये थे।”
“आई सी।”
सुनील जड़ाऊ अंगूठी और लिपस्टिक का जिक्र न किया जो कि बाहरी कमरे में लाश के करीब लुढ़की पड़ी उस ने देखी थी। बैडरूम में मौजूद कीमती सैंडलों के खाली डिब्बे का भी जिक्र न किया। खुद सुनील उस बाबत उससे कोई सवाल नहीं कर सकता था, करता तो ये इस बात को मोहरबन्द करना होता कि वो मकतूल के होटल रूम में घुसा था, नतीजतन उस वक्त ठण्डा पड़ा प्रभूदयाल फिर भड़क उठता।
“फिर तो”—सुनील उठ खड़ा हुआ—“नाचीज इजाजत चाहता है।”
प्रभूदयाल ने सहमति में सिर हिलाया।
“वो हैडक्वार्टर के सामने वाला काफी हाउस... वहां काफी तीस रुपये की मिलती है। पांच रुपये वेटर को टिप भी देनी होगी।”
“तो?”
“आपने कहा था मैं वहां जा के काफी पियूं और पैसे आप से ले के जाऊं...”
“हां, ले के जाओ। शहर के मंगतों को माली इमदाद पहुंचाना राजनगर पुलिस का फर्ज है।”
उसने अपनी वर्दी की जेब की तरफ हाथ बढ़ाया।
सुनील तत्काल घूमा और दरवाजे की ओर लपका।
“अरे, भई, पैंतीस रुपये ले के जा न!”
सुनील न रुका।
सुनील शंकर रोड और आगे सिग्मा पब्लिशर्स के आफिस में पहुंचा।
मालूम पड़ा कि कियारा छुट्टी कर के जा चुकी थी।
उसने अपनी दस हार्स पावर की एम वी आगस्ता अमेरिका मोटर साइकल विवेक नगर की तरफ दौड़ाई जहां कि कियारा का आवास था।
उसने उसके फ्लैट की कालबैल बजाई।
तत्काल दरवाजा खुला।
“तुम!”—वो उसे देख कर बोली।
“हल्लो!”—सुनील संजीदगी से बोला।
“कैसे आये?”
“बोलता हूं। भीतर आने दो।”
वो एक तरफ हटी। सुनील भीतर दाखिल हुआ तो उसने उसके पीछे दरवाजा बन्द कर दिया।
“मैं अभी आयी।”—वो बोली—“बस पहुंची ही हूं।”
“अच्छा हुआ बीच में कहीं और न चली गयीं।”
उसकी भवें उठीं।
“मैं तुम्हारे आफिस भी गया था। मालूम पड़ा कि तुम छुट्टी कर के जा चुकी थीं।”
“ओह! लेकिन बात क्या है?”
“बोलता हूं। वो क्या है कि...”
“पहले बोलो, कुछ पियोगे?”
“नहीं।”
“तो बैठ तो जाओ! बैठ के बात करो।”
दोनों ड्रार्इंगरूम में आमने सामने बैठे।
“अब बोलो।”—वो तनिक चिन्तित भाव से बोली—“क्या बात है?”
“ऐंजलफेस, हालात कुछ ऐसे बन गये हैं कि तुम गिरफ्तार हो सकती हो।”
“ओ, माई गॉड!”—वो घबरा गयी।
“पुलिस ने बड़ी होशियारी और मुस्तैदी दिखाई है जो उन्होंने इतने थोड़े वक्फे में उस लड़की की बाबत जान भी लिया है जो कि कल रात साढ़े नौ बजे के आसपास होटल स्टारलाइट में पांचवीं मंजिल के गलियारे में सन्दिग्ध अवस्था में मौजूद पायी गयी थी। याद रहे कि ये वही वक्त है जिसके आसपास कत्ल वाकया हुआ था। वो वेटर—जितेन्द्र नाम है—जो तब गलियारे में तुम से टकराया था और तुमने कहा था कि तुम लिफ्ट से गलती से उस फ्लोर पर उतर गयी थीं, पुलिस की जानकारी में आ चुका है और तुम्हारी बाबत सब बता चुका है। पुलिस ने उस टाइम के आसपास की सीसीटीवी की फुटेज को स्कैन किया तो तुम उस फुटेज में भी दिखाई दीं और वेटर जितेन्द्र ने फिर तुम्हारी शिनाख्त उस लड़की की सूरत में की जिसे उसने पांचवीं मंजिल के गलियारे में देखा था। अब पुलिस तुम्हारी सूरत से वाकिफ है।”
“इतने से वो मेरे तक कैसे पहुंच जायेंगे?”
“आम हालात में ये मुश्किल काम होता। लेकिन हालात आम तो नहीं है न!”
“क्या मतलब?”
“मकतूल के मोबाइल में फेवरिट्स के कालम में तुम्हारा नाम है, मोबाइल नम्बर है और मटर के दाने के व्यास के साइज की तसवीर है।”
“उस मटर के दाने के व्यास जितनी तसवीर से मेरी शिनाख्त हो जायेगी?”
“तुम सुनो तो!”
“सॉरी!”
“तुम्हें मालूम ही होगा कि मोबाइल में फोन नम्बर्स की फेवरिट लिस्ट में जो होता है वो ‘आल कांटैक्ट्स’ में यानी जनरल लिस्ट में भी होता है और जनरल लिस्ट से ही ‘फेवरिट्स’ में डाटा ट्रांसफर किया जाता है। दोनों जगह तुम्हारे कहने के मुताबिक मटर के दाने के व्यास जितनी जो तसवीर डाली जाती है उसे मोबाइल में मौजूद तसवीरों में से ही पिक किया जाता है। यानी फोटोज के कालम में तुम्हारी तसवीर होना लाजमी है और वो तसवीर मटर के दाने जितनी नहीं, उतनी ही बड़ी होगी जितनी बड़ी कि आई-फोन की स्क्रीन होती है। उस तसवीर का मिलान जब वो बाजरिया सीसीटीवी कैमरा हासिल हुई तसवीर से करेंगे तो जवाब दो जमा दो बराबर चार ही निकलेगा। आगे पुलिस का दबदबा काम करेगा और वो चुटकियों में सर्विस प्रोवाइडर के रिकार्ड से जान लेंगे कि मकतूल के मोबाइल में दर्ज तुम्हारी सूरत, नाम, और नम्बर की मालकिन कहां रहती थी।”
“इतने से मैं कातिल?”
“उस तमाम ड्रिल से स्थापित होगा कि कल रात तुम होटल स्टारलाइट में थीं, कि कल रात तुम होटल की पांचवीं मंजिल पर थीं जो कि मौकायवारदात का मुकाम था। इतने से पुलिस को तुम्हारी जवाबदेयी तो बनती है न कि तुम वहां क्या कर रही थीं! उस मंजिल पर होटल का सिर्फ एक मेहमान ठहरा हुआ थाऔर वो मकतूल था। कैसे तुम उससे वाकिफ होने से इंकार कर सकोगी?”
“मैं करूंगी।”—वो दृढ़ता से बोली।
“करना। फिर वहां अपनी मौजूदगी की वजह क्या बताओगी? क्या कहोगी कि क्यों तुम होटल की पांचवीं मंजिल पर थीं जहां कि एक ही शख्स ठहरा हुआ था और वो मकतूल था। तुम होटल में अपनी मौजूदगी की ही क्या वजह बयान करोगी?”
“मैं सोच लूंगी कोई वजह।”
“चुटकियों में?”
उसने चिन्तित भाव से इंकार में सिर हिलाया।
“पहले से सोची हुई है कोई वजह?”
उसने फिर, पूर्ववत् इंकार में सिर हिलाया।
“लेकिन”—फिर तमक कर बोली—“मैं कातिल नहीं हूं। तुम तो मेरा यकीन करो कि मैं कातिल नहीं हूं!”
“किया, लेकिन साबित कर के दिखाना होगा। और सबूत के तौर पर मेरा यकीन मान्य नहीं होने वाला।”
“पुलिस के पास कोई चश्मदीद गवाह है? उस वेटर ने देखा मुझे कत्ल करते?”
“नहीं।”
“तो?”
“कत्ल के वक्त, मौकायवारदात के करीब तुम्हारी मौजूदगी तुम्हें सन्दिग्ध बनाती है। कत्ल के केस में गिरफ्तारी सन्देह के आधार पर भी होती है। ब्राइटआइज, एक बार पुलिस के फेर में आ जाने पर बड़ों बड़ों के कस बल निकल जाते हैं।”
उसका चेहरा पीला पड़ गया।
“जब तुम मकतूल के कमरे में दाखिल हुई थीं तो लाश के करीब तुमने कोई फूलदान लुढ़का पड़ा देखा था? ऐन असली लगने वाले प्लास्टिक के फूलों वाला फूलदान?”
“फूलदान की बाबत तुमने पहले भी पूछा था।”
“फिर पूछ रहा हूं। जवाब दो।”
“नहीं।”
“जिसे कि तुमने नीचे से उठा कर सेंटर टेबल पर रखा हो!”
“नहीं। सेंटर टेबल पर तो ऐसा फूलदान पहले से मौजूद था।”
“वही सही। तुमने उस को हैंडल किया था?”
“काहे को?”
“अरे, वजह को छोड़ो। जवाब दो।”
“नहीं।”
“पक्की बात?”
“हां।”
“लाश के करीब एक बटुवा लुढ़का पड़ा देखा था?”
“बटुवा?”
“मेल पर्स।”
“वहां कोई बटुवा था?”
“हां।”
“मैंने नहीं देखा था। मेरी निगाह नहीं पड़ी थी।”
“ये भी पक्की बात?”
“हां।”
सुनील खामोश हो गया।
“सुनो।”—वो व्यग्र भाव से बोली—“तुम मेरे लिये कुछ नहीं कर सकते?”
“मैं सिर्फ इतना कर सकता हूं कि ‘ब्लास्ट’ के जरिये तुम्हारी बेगुनाही की दुहाई दे सकता हूं जो कि मैं दूंगा। तुम्हें गिरफ्तार होने से मैं नहीं रोक सकता।”
उसने उस बात पर विचार किया।
“यही बताओ”—फिर बोली—“सलाह दो मुझे कि मौजूदा हालात में मुझे क्या करना चाहिये!”
“मेरी सलाह कुबूल होगी तुम्हें?”
“होगी, आनेस्ट, होगी।”
“तो मौजूदा हालात में तुम्हें मेरी नेक राय ये है कि इससे पहले कि पुलिस तुम तक पहुंचे, तुम पुलिस तक पहुंच जाओ। यूं पुलिस की निगाह में तुम्हारा क्रेडिट बनेगा।”
“मैं पुलिस के पास जाऊं!”—वो अनिश्चित भाव से बोली।
“तुम्हें तो तभी जाना चाहिये था जब तुमने लाश देखी थी।”
“वो मुझे ही कातिल समझ लेते।”
“वो तो अब भी समझ रहे हैं! नहीं?”
उसने जवाब न दिया।
“दूसरे, तुम एक अत्यन्त महत्वपूर्ण जानकारी दबाये बैठी हो।”
“क्या?”
“सिर्फ तुम जानती हो कि मरने वाला तत्काल मृत्यु को प्राप्त नहीं हुआ था, दम निकलने से पहले वो एक नाम ले कर मरा था। एक लफ्ज़ मंगला बोल कर मरा था। ये एक अहम बात है जो कि पुलिस की जानकारी में आनी चाहिए। ये मरने वाले की डार्इंग डिक्लेयरेशन है कि उसका कत्ल—जो कोई भी वो है—मंगला ने किया है। समझी कुछ?”
उसने कठिन भाव से सहमति में सिर हिलाया।
“जानती हो न, मानती हो न कि ये बात पुलिस को मालूम होनी चाहिये?”
“हां। लेकिन ये बात तुमने मुझे पहले, तब क्यों न बोली जब मैंने तुम्हें इस बाबत बताया था?”
“तब मैंने नहीं सोचा था कि इतनी जल्दी तुम पुलिस के फोकस में आ जाओगी। मेरा तो खयाल था कि जब तक पुलिस की तवज्जो तुम्हारी तरफ जायेगी, तब तक तो असली कातिल गिरफ्तार हो चुका होगा और इस बात की कोई अहमियत ही नहीं रह जायेगी कि तुम्हें खास क्या मालूम था, क्यों कर मालूम था।”
“हूं। तो...तो तुम्हारी राय में अब मैं खुद जाऊं पुलिस के पास!”
“हां। इसी में तुम्हारी भलाई है।”
“वो सवाल नहीं करेंगे कि मैं फौरन क्यों न पहुंची?”
“तुम घबरा गयी थीं। लाश देखकर सकते में आ गयी थीं। आखिर किसी मकतूल को देखना कोई रोजमर्रा का वाकया तो नहीं होता! जब तुम्हारे होशोहवास ठिकाने आये तो तब तुम्हें खयाल आया कि तुम्हारा अखलाकी फर्ज बनता था पुलिस के पास जाना और जो कुछ तुम्हें मालूम था, उसको पुलिस की जानकारी में लाना। देख लेना इस से तुम्हारा क्रेडिट बनेगा और इसी वजह से वो तुम्हारी इस कोताही को नजरअन्दाज कर देंगे कि तुम ने फौरन पुलिस का रुख नहीं किया था।”
“हूं।”
“तुम सीधे पुलिस हैडक्वार्टर जाना और वहां इन्स्पेक्टर प्रभूदयाल से मिलने की मांग करना जो कि इस केस का इनवेस्टिगेटिंग आफिसर है। मैं उसे अच्छी तरह से जानता हूं और इसी बिना पर कहता हूं वो तुम्हारे साथ रीजनेबली पेश आयेगा बशर्ते कि तुम वालंटेरिली सब कुछ सच सच बयान करो।”
“और?”
“और तो वही है जो मैं पहले भी बोला। हर बात सच सच बयान करना। अगर तुम कातिल नहीं हो तो...”
“नहीं हूं।”
“...तो तुम्हारे झूठ बोलने का न कोई हासिल है, न कोई वजह है। या है?”
उसका सिर इंकार में हिला।
“अब बोलो क्या कहती हो?”
उसके तत्काल जवाब न दिया।
“स्वीटहार्ट, फोरवार्न्ड इस फोरआर्म्ड। तुम्हें एडवांस में वार्निंग है कि तुम्हारे पर क्या विपत्ति आने वाली है। और उसका पुरजोर मुकाबला करने का यही तरीका है कि वो नौबत आने से पहले तुम एक्ट करो। अब जवाब दो।”
“मैं तुम्हारी राय पर अमल करने को तैयार हूं।”
“दैट्स लाइक ए गुड गर्ल।”
“लेकिन मैं पुलिस को बोलूंगी क्या?”
“वही बोलोगी जो सच के दायरे में आता है।”
“ये कबूल करने के खयाल से मेरा दिल हिलता है कि मैं कमरे में दाखिल हुई थी और वो मेरी आंखों के सामने मरा था।”
“दिल मजबूत करो।”
“अगर मैं तमाम वाकया कह सुनाऊं लेकिन ये न कहूं कि मैं कमरे में दाखिल हुई थी तो...”
सुनील पहले ही इंकार में सिर हिलाने लगा।
“सनशाइन, अहमतरीन बात मरते शख्स की जुबानी मंगला का जिक्र है। ये बात पुलिस की जानकारी में आना जरूरी है कि बतौर कातिल वो किसी मंगला का नाम लेकर मरा था। तुम मुकम्मल सच नहीं बोलोगी तो ये कैसे उजागर होगा? ये बात कैसे वजूद में आयेगी कि...”
कालबैल बजी।
दोनों सकपकाये।
“खुला है।”—फिर कियारा कदरन उच्च स्वर में बोली।
दरवाजा खुला।
दो मातहतों के साथ इन्स्पेक्टर प्रभूदयाल ने भीतर कदम रखा।
“तुम!”—सुनील पर निगाह पड़ते ही वो थमक कर खड़ा हुआ—“यहां भी पहुंच गये!”
सुनील निर्दोष भाव से मुस्कराया।
“तुम आदमी हो या प्रेत!”
“आप यहां कैसे आये?”
प्रभूदयाल ने जवाब न दिया, तो युवती की तरफ घुमा—“कियारा? कियारा सोबती? आप कियारा सोबती हैं?”
“हां।”
“इसे कैसे जानती हैं?”
“वैसे ही जैसे...जैसे जाना जाता है। ही इज माई फ्रेंड?”
“कैजुअल या इंटीमेंट?”
“इ-इन्टीमेट ।”
“वैसा, जिस से सुख दुख बांटा जाता है?”
“हं-हां।”
“यानी आपके बताये कत्ल के वाकये की इसको खबर है?”
“कौन-सा वाकया? कैसा वाकया?”
“आप को मालूम है कैसा वाकया! आप ये बताइये कि हमारे यहां पहुंचने से पहले ये शख्स आप को क्या पट्टी पढ़ा रहा था?”
“प्रभू, मैं...”—सुनील ने कहना चाहा।
“शट अप!”—प्रभूदयाल फुंफकारता-सा बोला।
सुनील ने होंठ भींच लिये।
“रामबल!”
“जी, साहब!”—तीन फीती वाला एक हवलदार तनिक आगे बढ़ कर तत्पर स्वर में बोला।
“ये आदमी अगर दोबारा बोले तो उसके मुंह में कपड़ा ठूंस दो।”
“जी, साहब।”
प्रभूदयाल कुछ क्षण सुनील को घूरता रहा फिर वापिस कियारा की तरफ घूमा।
“जवाब दीजिये”—वो सख्त लहजे से बोला—“क्या पट्टी पढ़ाई इसने आप को?”
“पट्टी नहीं पढ़ाई”—कियारा सुसंयत स्वर में बोली—“एक हितचिन्तक की तरह राय दी।”
“वही बोलिये।”—प्रभूदयाल उतावले स्वर में बोला—“क्या राय दी?”
“इस को जब मैंने कल रात का वाकया सुनाया तो इसने कहा कि मुझे फौरन पुलिस के पास जाना चाहिये और जो मैं जानती थी, सब बयान कर देना चाहिये।”
प्रभूदयाल के चेहरे पर हैरानी के भाव आये।
“ऐसा कहा इसने?”—वो बोला।
“जी हां। मैं तो पुलिस हैडक्वार्टर के लिये निकलने ही वाली थी कि आप आ गये।”
“और क्या कहा?”
“और कहा कि वहां मैं जो कहूं, बिल्कुल सच कहूं और झूठ हरगिज न बोलूं।”
प्रभूदयाल की हैरानी दोबाला हुई।
“जो आप ने कहना था, उस बाबत इस ने आप कोच न किया?”—वो बोला।
“ऐसा कुछ नहीं किया इसने। इसने वही कहा जो मैंने बोला।”
“ये कि आप पुलिस हैडक्वार्टर जाकर अपना बयान दें और जो बोलें सच बोलें और सच के अलावा कुछ न बोलें?”
“जी हां।”
“आप को मालूम था पुलिस हैडक्वार्टर में आपने कहां जाना था?”
“नहीं मालूम था। इसी ने बताया।”
“क्या? क्या बताया?”
“कि मुझे वहां जाकर इन्स्पेक्टर प्रभूदयाल से मिलना चाहिये था।”
“उस से क्यों?”
“क्योंकि एक तो वो केस का इनवैस्टिगेटिंग आफिसर था और दूसरे बहुत रीजनेबल पुलिस आफिसर था जिससे मैं बेखौफ मिल सकती थी।”
“इसने कहा ऐसा?”
“जी हां।”
“हूं। मैं हूं इन्स्पेक्टर प्रभूदयाल?”
“अरे!”
“मैं यहां आप को कत्ल के इलजाम में गिरफ्तार करने आया था लेकिन अब मैं सिर्फ दरख्वास्त करूंगा कि आप मेरे साथ पुलिस हैडक्वार्टर चलें और एक रूटीन पूछताछ में बतौर गवाह पुलिस को सहयोग दें। मैडम, मैं आपको हिरासत में भी नहीं ले रहा हूं, सिर्फ साथ चलने की दरख्वास्त कर रहा हूं।”
“आप नीचे चलिये, मैं बन्द करके आती हूं।”
प्रभूदयाल ने वो बात कबूल की लेकिन सुनील को उसने पीछे न छोड़ा।
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