दोपहरबाद सर्वेश सावन्त ऑलिव बार पहुंचा।

वो वहां को-ओनर एण्ड पार्टनर सुबोध नायक की शिफ्ट ड्यूटी का वक्त था।
उसे आया देख कर नायक ने हैरानी ज़ाहिर की।
“एक उलझन में था” – सावन्त ऑफिस में उसके सामने एक विज़िटर्स चेयर पर ढेर होता बोला – “इधर से गुजर रहा था, सोचा, दर करता चलूं।”
“कैसी उलझन?” – नायक बोला।
“मैंने तेरे को बोला था तेरे वाकिफ थानेदार से मिलने कल मैं तारदेव थाने गया था क्योंकि उस मवाली की धमकी के तहत तू नहीं जा सका था, तेरा बार में रहना जरूरी था। कल शाम को भारकर ख़ुद भी यहां आया था, उसने जाने के बाद मैंने तेरे को ख़बर की थी।”
“उलझन बोल।”
“वो परसों रात की सीसीटीवी फुटेज चैक करने आया था।”
“वो भी बोला तू।”
“उसके जाने के बाद मॉनीटर पर मैंने भी यूं ही विनायक घटके की यहां विज़िट की सीसीटीवी फुटेज पर निगाह फिरानी चाही थी तो मैं ऐसा नहीं कर सका था।”
“बोले तो!”
“वो फुटेज रिकॉर्डिंग में नहीं थी।”
नायक सम्भल कर बैठा।
“अभी भी बोले तो?” – वो बोला।
“परसों रात की बार में विनायक घटके की आमद से लेकर उसकी वहां से रुखसती के वक्त तक की फुटेज रिकॉर्डिंग में से गायब थी।”
“गायब थी क्या मतलब?”
“इसके अलावा और क्या मतलब हो सकता था कि इरेज़्ड थी?”
“कैसे हो गई?”
“तू बता।”
“इत्तफाक से ही हुई होगी!”
“इत्तफाक तभी हुआ जब थानेदार आया?”
“अरे, इत्तफाक ने कभी तो होना होता है, हो गया। अनजाने में भारकर ने कोई गलत कमांड इशु कर दी, कोई गलत कन्ट्रोल पंच कर दिया, नतीजतन वो फुटेज डिलीट हो गई।”
“अनजाने में?”
“और क्या!”
“ऐन वहां से शुरू कर के जहां विनायक घटके की ऑलिव बार में आमद हुई और वहां तक जहां वो रुख़सत हुआ?”
नायक ख़ामोश हो गया।
“इत्तफाक इतनी एक्यूरेसी से होते हैं?”
“क्या कहना चाहता है? जो किया भारकर ने जानबूझ कर किया?”
“ये तो मैं नहीं कहना चाहता क्योंकि उसके ऐसा करने की कोई वजह दिखाई नहीं देती।”
“ऐग्जैक्टली! ऐसी फुटेज कोई एक बार ही नहीं देखता। कोई बार-बार देखता है तो बिगिनिंग और एण्ड मार्क करके रखता है। यूं किसी गलत कमांड के तहत अनजाने में वो फुटेज इरेज़ हो जाना क्या बड़ी बात है?”
“क-कोई . . . कोई बड़ी बात नहीं।”
“तो?”
सावन्त से ‘तो’ का जवाब देते न बना।
“इरेज़ हो गई इत्तफाक से” – फिर हिम्मत करके बोला – “तो उसे ऐसा बोलना तो चाहिए था!”
“बोलना चाहिए था। अब नहीं बोला तो क्या! कोई इलज़ाम खड़ा करें उसके - एक थाना प्रभारी के खिलाफ?”
“ये मैंने कब कहा!”
“तो?”
“क्या तो?” – सावन्त झुंझलाया – “वो इस बारे में कुछ बोलता तो मेरे को इत्मीनान महसूस होता।”
“इस फुटेज के इरेज़ हो जाने से हमारा कोई केस बिगड़ गया, हमें कोई नुकसान हो गया?”
“वो तो नहीं लेकिन . . .”
“अगर ऐसा है तो कॉपी मेरे पास है।”
सावन्त सकपकाया।
“तेरे पास है!” – उसके मुंह से निकला।
“हां। कल मैंने पैन ड्राइव में उसको कॉपी किया था ताकि भारकर से मिलने जाते वक्त वो तेरे पास होती लेकिन अपनी मसरूफियत में पैन ड्राइव मैं तुझे सौंपना भूल गया।”
“वो फुटेज अभी अवेलेबल है?”
“और मैं क्या बोला? लेकिन अब गैरज़रूरी है क्योंकि फुटेज देखने के लिए भारकर ख़ुद ही यहां पहुंच गया।”
“हमें उसको ख़बर करनी चाहिए कि इरेज़्ड फुटेज अभी भी उसे मुहैया कराई जा सकती है?”
नायक ने उस बात पर विचार किया, फिर इंकार में सिर हिलाया।
“अब तो ये” – वो बोला – “उसकी कोताही को – या लापरवाही वो - ख़ामख़ाह हाईलाइट करना होगा, उसको एमबैरेस करना होगा, जो कि मैं नहीं समझता कि जिससे फेवर हासिल करनी हो, उसे करना चाहिए। क्या?”
सावन्त ने सहमति में सिर हिलाया।
“पैन ड्राइव को महफूज़ रखते हैं, कभी उसकी अहमियत सामने आई तो काम में लाएंगे। कभी भारकर उस फुटेज को किसी वजह से मिस करता लगेगा तो बोलेंगे कि फुटेज अवेलेबल थी। मांगेगा तो कॉपी भी नज़र कर देंगे।”
“नहीं मांगेगा तो?”
“तो ख़ामोश रहेंगे। समझेंगे उस फुटेज की कोई अहमियत नहीं।”
“ये ठीक है।” – सावन्त निर्णायक भाव से बोला।
वार्तालाप आगे न बढ़ा।
□□□
पांच दिन निर्विघ्न गुजरे।
ऑलिव बार में गैरमामूली कुछ न हुआ। सब कुछ नॉर्मल चला। किसी भी मेहमान को कभी भनक तक न पड़ी कि वहां पहले से ज़्यादा बाउन्सर थे और कहीं ज़्यादा सिक्योरिटी स्टाफ था।
दोनों पार्टनरों ने यही फैसला किया कि विनायक घटके कोई फर्जी आदमी था जिसने बड़े-बड़े नाम उछाल कर उन्हें हूल देने की कोशिश की थी लेकिन जब कोई पुड़िया चलती नहीं पाई थी तो ख़ुद ही ख़ामोशी से पीछे हट गया था।
फिर भी दोनों पार्टनरों ने आइन्दा कुछ दिन कोई कोताही न बरतने का फैसला किया।
उन पांच दिनों में दो बार इन्स्पेक्टर भारकर भी बार का चक्कर लगा गया था और दोनों बार जानबूझ कर वर्दी में आया था। बार के पैट्रन पुलिस की इस मुस्तैदी से खुश हुए थे और सिक्योरिटी स्टाफ का मनोबल बढ़ा था। उनमें ये खुसर-पुसर हुए बिना नहीं रही थी कि एक आला पुलिस ऑफिसर बार के मालिकान का दोस्त था।
थाना प्रभारी के तौर पर अपनी मसरूफियात के बावजूद दो कामों की तरफ भारकर ने ख़ास तवज्जो दी :
अपने भेदियों और खबरियों के जरिए विनायक घटके के बारे में भारकर को ढेर तो नहीं लेकिन छोटी-मोटी जानकारी बराबर हासिल हुई जो आगे चल कर वसीह सूरत अख्तियार कर सकती थी। मालूम हुआ कि विनायक घटके टोपाज़ क्लब के कर्ता-धर्ता रेमंड परेरा का ख़ास था, अलबत्ता ख़ास किस हैसियत में था, ये स्पष्ट न हो सका। कोई उसे परेरा का जनरल हैण्डीमैन बताता था, कोई ट्रबलशूटर बताता था तो कोई और आर्टिस्ट बताता था जो परेरा के एक इशारे पर बेहिचक किसी को भी कमती कर सकता था।
ज़ीरो नम्बर बताते थे कि घटके टोपाज़ क्लब का रेगुलर एम्पलाई नहीं था फिर भी उसका वहां आना-जाना जाना रेगलर था, वो वहां अक्सर देखा जाता था।
क्यों देखा जाता था?
क्योंकि रेमंड परेरा की निगाह में उसका ख़ास दर्जा किसी से छुपा नहीं था।
विनायक घटके के बारे में भारकर को जो आगे जानकारी मिली थी वो ये थी कि घटके भले ही पिछले तीन सालों में गिरफ्तार दो बार ही हुआ था लेकिन गिरफ्तारी और सज़ा के काबिल खुल्ली हरकतें उसने कई बार की थीं। जीरो नम्बर अक्सर कहते पाए गए थे कि बलात्कार के मामलों में पहले भी कई बार उसका नाम आ चुका था अलबत्ता गिरफ्तार होकर सज़ा के करीब सिर्फ दो बार पहुंचा था और तब भी लैक ऑफ ईवीडेंस की बिनाह पर बरी हो गया था।
यानी हैबिचुअल सैक्स ऑफेंडर था।
टोपाज़ प्राइवेट क्लब तो नहीं थी लेकिन उसे बहुत एक्सक्लूसिव क्लब बताया जाता था। उसमें दाखिला पाने के लिए हज़ार रुपए कवर चार्जिज़ थे जो कोई भर नहीं सकता था या कोई भरना नहीं चाहता था। रेमंड परेरा भले ही उसे लिमिटिड क्लायन्टेल वाली एक्सक्लूसिव क्लब के तौर पर प्रोजेक्ट करता था लेकिन कहने वाले यही कहते थे कि वो एक ग्लोरीफाइड रेस्टोबार के अलावा कुछ नहीं थी।
निकट भविष्य में कभी ‘टोपाज़’ का चक्कर लगाना भारकर के निजी एजेन्डा के टॉप पर था।
सब-इन्स्पेक्टर अनिल गोरे एक दोपहरबाद इत्तफाक से ही थाना परिसर के एक गलियारे में अपने आला अफसर थाना प्रभारी उत्तमराव भारकर से टकरा गया। गोरे ने उसे शिष्ट सैल्यूट मारा।
भारकर ने गर्दन के खम से सैल्यूट कुबूल किया और बोला – “कैसा है, गोरे?”
“ठीक।” – गोरे जबरन मुस्कुराता बोला।
“दिखाई नहीं देता?”
“सर, आप बहुत बिज़ी रहते हैं।”
“मैं! मैं बहुत बिज़ी रहता हूँ?”
“बोले तो . . . हैं तो ऐसीच!”
“और तू खाली फिरता है!”
“सर, ऐसा तो नहीं है . . .”
“है भी तो क्या वान्दा है!”
“. . . पर आपकी मसरूफियात के मुकाबले में ... .”
“छोड़! पुलिस की नौकरी में खाली कौन है, इत्मीनान किसे है, सबको आन टोज़ रहना पड़ता है।”
“बरोबर बोला, सर।”
“तू मेरे को एक वीडियो क्लिप फॉरवर्ड करने वाला था!”
“जी!”
“क्या जी? वीडियो क्लिप नहीं समझता या वो फॉरवर्ड कैसे की जाती है, नहीं समझता?”
“सर, मैंने बोला तो था कि वक्ती जोश में वो बात तो यूं ही . . . यूं ही मेरे मुंह से निकल गई थी!”
“तू फिर कह रहा है ऐसी कोई वीडियो क्लिप नहीं?”
“अब . . . कह तो रहा हूँ!”
“पहले तो कहता था वीडियो क्लिप किसी ख़ास जगह महफज़ थी!”
“जोश में...जोश में, वक्ती झांय-झांय के तहत ऐसा मुंह से निकल गया था।”
“यानी कोरी धमकी दी!”
“अब क्या बोलूं! वो .... वो . . . माथा फिर गया था न!”
“और मोतीराम ओहरे वाले केस में जो पीआईएल तू कोर्ट में डालने वाला था!”
“सर, अब छोड़िए न!”
“फिर भी?”
“सर, मैं आपके खिलाफ कोई कदम क्यों उठाऊंगा अगरचे कि . . . आप . आप मेरे खिलाफ कोई कदम नहीं उठायेंगे!”
“यानी आइन्दा मेरे को तेरे से डर के रहना होगा!”
“सर, इजाज़त दीजिए।”
“एक बात फिर सुनता जा।”
“सर!”
“दरिया में रह के ...”
“मगर से बैर नहीं होता। ये आपका कुछ ख़ास ही पसन्दीदा मुहावरा जान पड़ता है। लेकिन वान्दा नहीं, मैं दरिया बदलने की कोशिश कर रहा हूँ ताकि मगर से दूर रह सकू।”
“क्या बोला?”
“मैंने आपके थाने से ट्रांसफर के लिए एसीपी साहब से बात की है...”
“अच्छा! क्या जवाब मिला?”
“एसीपी साहब कहते हैं ये उनके अख्तियार से बाहर है, ट्रांसफर की मेरी दरख्वास्त पर डिस्ट्रिक्ट के डीसीपी साहब ही विचार कर सकते हैं। मैंने इस बाबत उनसे अप्वायन्टमेंट की दरख्वास्त दाखिल की है, जवाब आजकल में आता ही होगा।”
“कहां ट्रांसफर चाहता है?”
“आपके थाने से दूर कहीं भी। हो सके तो तारदेव से ज़्यादा से ज़्यादा फासले वाले थाने में।”
“यानी गोद में बैठ के दाढ़ी मंडने का चांस खो देगा?”
गोरे ने आहत भाव से एसएचओ को देखा।
“ओके।” – एकाएक भारकर बदले स्वर में बोला – “आई विश यू ऑल दि बेस्ट। गैट अलांग।”
गोरे ने ख़ामोशी से सैल्यूट मारा, रुख़सती पाई।
‘नहीं सुधरेगा कमीना हलकट!’ – पीछे भारकर बड़बड़ाया – ‘नहीं बाज़ आएगा मेरी जान को जंजाल में डालने से! अभी साला जल्दी ही कुछ करना होगा। साला वॉर फुटिंग पर। पहले इसकी ख़बर लूँगा, फिर उस वीडियो क्लिप की, जिसकी हूल देता है। इसकी विकेट तो अब लेनी ही होगी।’
फिर छठे दिन ऐसा कुछ हुआ कि उसने बाकी के दिनों की तमाम कसर एक ही बार में निकाल दी। जो हुआ, अप्रत्याशित हुआ, हाहाकारी हुआ, किसी की भी उम्मीद से बाहरा हुआ।
□□□
सुबोध नायक ऑलिव बार की अपनी पहली शिफ्ट की ड्यूटी से फारिग हुआ तो शाम छ: बजे ऑलिव बार से अपने घर का - जो कि तुलसीवाडी में था – रुख करने की जगह अन्धेरी और आगे लोखण्डवाला कम्पलैक्स पहुंचा जहां कि एक स्टैग पार्टी में उसकी शिरकत थी।
स्टैग पार्टी, यानी सिर्फ मर्दो की पार्टी लेकिन जिसमें शराब के साथ-साथ शबाब का भी पूरा इन्तज़ाम था। तीन-चार हफ्ते में एक बार वो ऐसी किसी पार्टी में शामिल होता था जिसमें बीवियों की हाजिरी की सख़्त मनाही होती थी।
ऐसी पार्टियों में शौक से उसकी गाहे बगाहे की शिरकत की वजह उसकी बीवी भी थी जिससे शादी किए उसे चौदह साल हो गए थे लेकिन औलाद के सुख से पति-पत्नी अभी भी वंचित थे। पांच साल में दो बार उम्मीद बन्धी लेकिन गर्भपात हो गया – दूसरी बार तो पांचवें महीने में जबकि जान जाते-जाते बची। फिर डाक्टरों ने बताया कि उस दूसरे गर्भपात की वजह से बच्चेदानी में ऐसा विकार आ गया था कि अब उसके मां बन पाने की सम्भावना कम ही थी। डॉक्टर से उसे ये भी हिदायत मिली कि पत्नी से सहवास में अब उसे अतिरिक्त सावधानी बरतनी होगी और पत्नी से इस मामले में कम से कम अपेक्षा रखनी होगी। इस बात से खिन्न वो डाइवर्जन तलाश करने लगा था और उसकी तलाश कभी-कभार की स्टैग पार्टी में शिरकत पर जाकर ख़त्म हुई थी। वो वूमेनाइज़र नहीं था, इस बात से उसकी बीवी भी वाकिफ थी, लिहाज़ा अपनी मजबूरी से पस्त बीवी को उस बाबत आंखें मूंद लेना मंजूर था।
आज नायक की फिर स्टैग पाटी में हाजिरी थी।
ऐसी पार्टी भोर-भए तक चलती थी लेकिन वो उसमें आधी रात तक ही ठहरता था और सन्तुष्ट लौटता था।
वो मूलरूप से पुणे का रहने वाला था जहां कि उसके माता-पिता का स्थायी आवास था। उसकी मां की ऐज रिलेटिड कई हैल्थ प्रॉब्लम्स थीं जिनके ज़्यादा सिर उठाने पर उसकी बीवी ही पुणे जाकर सास को सम्भालती थी और इस बात के लिए अपनी कर्त्तव्यपरायण बीवी का वो बाकायदा अहसान मानता था।
संयोगवश, उस फ्रंट पर आज कल खैरियत थी, अब बीवी नीरजा अपने पति के पास मुम्बई में थी।
रात एक बजे नायक तुलसीवाडी आकर लगा।
उसकी बीवी अमूमन तब तक सो चुकी होती थी लेकिन फ्रंट डोर की चाबियां उसके पास भी होती थीं जिसकी वजह से घर में दाखिले के लिए बीवी को डिस्टर्ब करना ज़रूरी नहीं होता था।
नायक की ये भी एक खूबी थी - बल्कि ज़िद थी - कि वो कितना भी टुन्न क्यों न हो, अपनी गाड़ी ख़ुद चला कर ही घर लौटता था। बावजूद इसके आज तक उसने कभी एक्सीडेंट नहीं किया था, जबकि कई बार तो उसे ये भी याद नहीं आता था कि वापसी में वो कौन से रास्ते से घर लौटा था।
उसका घर एक बहुत पुराना एकमंजिला मकान था जिसके आगे पीछे दोनों तरफ खुला यार्ड था। बाजू में एक चौड़ी राहदारी थी जिसके सिरे पर, बैकयार्ड में, गैराज था। उसने कार से उतर कर आयरन गेट को खोला और वापिस आकर कार को ख़ामोशी से बाजू की राहदारी पर डाला ताकि इंजन के शोर से बीवी की नींद डिस्टर्ब न होती। कार को गैराज में खड़ी करने की जगह उसने उसे गैराज के बन्द फाटक के सामने पार्क कर दिया और बाहर निकला।
तभी उसे लगा कि बाजू की चौड़ी राहदारी में कोई था।
उधर बाजू की दीवार के साथ एक शेड वाला बल्ब जलता था जो सारी राहदारी रौशन करने में नाकाम था।
“कौन है वहां?” – उसकी आवाज़ नशे में थरथरा रही थी फिर भी वो रौब से बोला।
जवाब में एक फायर हुआ।
नायक के मुंह से एक घुटी हुई चीख निकली। वो पछाड़ खाकर धराशायी हुआ।
शूटर ने उसकी छाती को निशाना बनाकर गोली चलाई थी और वहीं वो उसे लगी थी।
करीब आते हुए उसने एक गोली और चलाई जो कि पता नहीं उसे कहां लगी लेकिन उसकी तड़पन बन्द हो चुकी थी, वो मर चुका था।
“गोली चली!” – तभी कहीं से एक तीखी, आतंकित आवाज आई।
साथ ही इलाके के चौकीदार की सीटी बजने लगी।
शूटर दबे पांव वापिस लौटा।
तभी भड़ाक से इमारत का फ्रंट का दरवाज़ा खुला, बगूले की तरह नायक की बीवी बाहर निकली और राहदारी के सिरे पर पहुंची।
जो उसे दिखाई दिया, उससे उसके नेत्र फट पड़े।
“खून! खून!” – वो गला फाड़कर चिल्लाई – “पकड़ो! पकड़ो!”
तब तक इमारत के फ्रंट की तरफ दौड़ते आते कदमों की आवाजें आने लगी थीं और औरत को चुप कराना ज़रूरी था।
उसने निःसंकोच फायर किया।
नीरजा वहीं ढेर हो गई।
अब आगे का रास्ता ब्लॉक हो चुका था। शूटर पिछवाड़े की तरफ लपका। बैकयार्ड को आनन-फानन पार करके वो पिछवाड़े की दीवार फांद गया और उधर के अन्धेरे में विलीन हो गया।
फ्रंट गेट पर तीन चार लोग प्रकट हुए जिनमें से एक इलाके का – न होने जैसा – चौकीदार भी था।
“भीतर जाना ठीक नहीं होगा।” – कोई बोला – “गनर अभी भी भीतर हो सकता है। पुलिस को फोन लगाओ।”
किसी ने अपने मोबाइल से वो काम किया।
आनन-फानन फलाईंग स्क्वॉयड की एक जीप वहां पहुंची। पुलिस ने फौरन मौका-ए-वारदात को अपने कब्जे में ले लिया। पुलिस की फौरी तफ्तीश का जो नतीजा निकला, वो था :
शूटर कब का फरार हो चुका था।
एक आदमी पिछवाड़े में गैराज के सामने खड़ी क्रीम कलर की स्विफ्ट’ के सामने मरा पड़ा था, चौकीदार ने जिसकी शिनाख्त घर के मालिक सुबोध नायक के तौर पर की।
राहदारी में ढेर हुई पड़ी औरत की शिनाख़्त सुबोध नायक की बीवी नीरजा नायक के तौर पर हुई। उसके कन्धे में दिल से ज़रा ऊपर उसे गोली लगी थी लेकिन उसकी फंस-फंस कर आती सांस चल रही थी।
तत्काल उसे हस्पताल पहुंचाने का प्रबन्ध किया गया।
तब तक इलाके के बहुत लोग मौका-ए-वारदात पर इकट्ठे हो चुके थे जिनमें सर्वेश सावन्त भी था, जो अभी बार में ही था जब किसी ने फोन पर उसे उस वारदात की ख़बर दी थी। वो इस ख़याल से ही बदहवास था कि ऑलिव बार किसी का निशाना था ही नहीं, इसमें तोड़-फोड़ की, उसका धन्धा बिगाड़ने की किसी की कोई मंशा नहीं थी, वहां तो राई के पीछे पहाड़ छुपा था, उसपर तो इतनी बड़ी चोट हुई थी जिसकी उसने सपने में कल्पना नहीं की थी। उसके जेहन में परसों रात के विज़िटर विनायक घटके की आवाज गूंजी :
“परेरा साहब जो मांगता है, मांगता है बरोबर। और जब मांगता है तो खुदीच बहुत कहर ढा सकता है। फिर उसको ‘भाई’ की शह है सीधे कराची से। परेरा साहब की मांग ठुकराने का नतीजा बुरा होगा बाप, बहुत बुरा होगा!”
देवा! देवा!
उसने एसएचओ भारकर को कॉल लगाने की कोशिश की लेकिन मोबाइल पर घंटी बजती रही, कॉल रिसीव न हुई।
तब तक और पुलिस वहां पहुंच चुकी थी। सावन्त ने साथ आए एसआई को अपना परिचय दिया और सवाल किया कि नीरजा नायक को कहां ले जाया गया था और वो किस हाल में थी। जवाब मिला कि उसे रतन टाटा मार्ग पर स्थित एक हस्पताल में ले जाया गया था, क्योंकि वही मौका-ए-वारदात के सबसे करीब था, और उसकी हालत नाजुक थी।
सावन्त हस्पताल पहुंचा तो उसे नीरजा नायक के करीब भी न फटकने दिया गया। बोला गया कि गोली निकालने के लिए उसे तुरन्त आपरेशन थियेटर में ले जाया गया था, जान बच गई तो जहां से उसे इन्टेन्सिव केयर यूनिट में ट्रांसफर किया जाएगा। लिहाज़ा दोनों ही जगह उसकी पहुंच से बाहर थीं।
उसने काफी देर इन्तज़ार किया लेकिन नीरजा के बारे में कहीं से कुछ मालूम न हुआ। वो वापिस तुलसीवाडी लौटा तो मालूम हुआ कि शुरूआती तफ्तीश मुकम्मल हो जाने के बाद हत्प्राण की लाश को पोस्टमार्टम के लिए भिजवा दिया गया था, मौका-ए-वारदात पर अभी भी पुलिस का कब्ज़ा था जो इसलिए भी अभी रहने वाला था क्योंकि पीछे घर सम्भालने वाला कोई नहीं था। लिहाज़ा अब उसका वहां कोई काम नहीं था।
सिवाय उस हौलनाक वारदात की ख़बर नायक के माता-पिता को पहुंचाने के।
□□□
अगले दिन भारकर ने मौका-ए-वारदात का राउन्ड लगाया।
तब दो हवलदारों के साथ उसका पसन्दीदा सब-इन्स्पेक्टर रवि कदम भी था जो पिछली रात को भी तफ्तीश के लिए मौका-ए-वारदात पर मौजूद था। तब तक हत्प्राण सुबोध नायक के माता-पिता पुणे से वहां पहुंच चुके थे।
भारकर उनसे मिला, उनको सांत्वना दी और आश्वासन दिया कि हत्यारा बहुत जल्दी पकड़ा जाएगा।
अन्त में पुलिस का स्टैण्डर्ड, बेमानी सवाल पूछा कि बतौर कातिल उन्हें किस पर शक था, जिसका जवाब देने में पुणे से आए माता-पिता असमर्थ थे।
विनायक घटके के पिछले हफ्ते ऑलिव बार में फेरे की वजह से घटके पहले ही पुलिस के राडार पर था, लेकिन उसे कातिल तसलीम करने की या उसको थामने की उसकी कोई कोशिश नहीं थी जबकि वो उसकी बाबत पहले से ज़्यादा जानकारी रखता था और ये भी जानता था कि वो सागर अपार्टमेंट्स वरली में एक दो कमरों के फ्लैट में अकेला रहता था, फ्लैट रेमंड परेरा की मिल्कियत था लेकिन घटके के हवाले था। उस कत्ल और कातिल की बाबत भारकर का अपना एजेन्डा था और खुराफाती दिमाग वाले एसएचओ भारकर के नापाक इरादों पर घटके फिट नहीं बैठता था, भले ही वो कत्ल हकीकत में उसी का कारनामा होता। वो तो कहीं और ही मार करने की फिराक में था जिसके रास्ते में घटके की कोई जगह नहीं थी इसलिए वो घटके को बाकायदा नज़रअन्दाज़ कर सकता था।
बहरहाल अभी सब कुछ शोचनीय दशा में हस्पताल के आईसीयू में पड़ी नीरजा नायक की गवाही पर निर्भर करता था जो पता नहीं वो दे पाती या न दे पाती!
“नायक की बीवी किस हाल में है, मालूम?” – एकाएक भारकर ने एसआई कदम से सवाल किया।
“अभी तो क्रिटिकल बताई जाती है, सर।” – कदम तत्पर स्वर में बोला - “गोली तो डाक्टरों ने रात को ही निकाल दी थी लेकिन ऐसे केसिज़ को डाक्टर गम्भीर बताते ही हैं और अड़तालीस घन्टे भारी होने की बात कहते ही हैं।”
“यहां की तफ्तीश से क्या पता लगा?”
“कुछ ख़ास नहीं। किसी ने कातिल को इमारत में दाखिल होते या वारदात के बाद पिछवाड़े से फरार होते नहीं देखा था।”
“बीवी ने?”
“हालात और चश्मदीद कहते हैं कि बीवी ने कातिल को देखा हो सकता है। इसी वजह से कातिल को बीवी को भी शूट करना ज़रूरी जान पड़ा था लेकिन वो हसबैंड की तरह फौरन जान से जाने से बच गई। कातिल को फिर गोली चलाने का मौका न मिला इसलिए वो पिछवाड़े के रास्ते फरार हो गया।”
“बिना कोई क्लू छोड़े?”
“सर, एक काफी अहम क्लू पीछे छोड़ा है उसने।”
“क्या?”
“वो क्या है कि बैकयार्ड का फर्श एक जगह से टूटा हुआ था, यूं कि कोई फुट भर जगह से सीमेंट उखड़ गया था और नीचे से भुरभुरी मिट्टी झलकने लगी थी जो कि हायर्ड हैल्प के फर्श धोते वक्त गीली हो गई थी और रात को वारदात के वक्त तक पूरी तरह सूखी नहीं थी। पिछवाड़े से फरार होते कातिल का एक पांव इत्तफाक से फर्श के उस टूटे हिस्से में मौजूद गीली मिट्टी में पड़ा था और उसके जूते के सोल की छाप उस मिट्टी में बन गई थी?”
“क्लियर?”
“जी हां। बाएं पांव की छाप बहुत साफ पीछे छूटी थी।”
“गुड!”
“हमने लैब के टैक्नीशियंस की तवज्जो उस तरफ दिलाई थी तो उन्होंने अपने स्टैण्डर्ड तरीके से उस छाप को वहां से उठा कर महफूज़ किया था। सर, आपको मालूम ही है कि ऐसी छाप की पहले तस्वीरें खींची जाती हैं फिर उस पर प्लास्टर ऑफ पैरिस का घोल डाला जाता है जो जब सूख कर सॉलिड हो जाता है तो उसे वहां से उठाकर महफूज़ कर लिया जाता है ताकि वो कातिल की शिनाख्त के काम आ सके।”
“जूते के सोल के पैटर्न की वजह से? जूते के साइज़ की वजह से?”
“जी हां। पैटर्न की तस्वीरें उपलब्ध हैं और साइज़ नौ नम्बर बताया गया है।”
“पांव कौन-सा बोला?”
“बायां।”
“वो प्लास्टर कास्ट अब कहां है?”
“अभी तो लैब टैक्नीशियंस के पास ही है लेकिन आप जब चाहेंगे, आपको सौंप दिया जाएगा।”
“इन्तज़ाम करो।”
“राइट, सर।”
तभी सर्वेश सावन्त वहां पहुंचा।
“भारकर साहब” – वो गमगीन लहजे से बोला – “क्या कहते हैं कल की वारदात की बाबत?”
“अभी कुछ कहना प्रीमैच्योर होगा।” – भारकर बोला – “मकतूल की बीवी के बयान का इन्तज़ार करना ज़रूरी है।”
“वो बयान हफ्ता भर न हो पाया तो?”
“तो हफ्ता भर इन्तज़ार करना पड़ेगा।”
“हो ही न पाया तो?”
“तो केस ठण्डे बस्ते में ही जाएगा। जब आगे बढ़ने के लिए कोई क्लू ही न होगा, कोई लीड ही न होगी .....”
“क्यों नहीं होगा क्लू?”– सावन्त ने उतावला होते उसकी बात काटी – “क्यों नहीं होगी लीड?”
“क्या कहना चाहते हैं?”
“अरे, एसएचओ साहब, उस मवाली विनायक घटके का किरदार इस केस में एक बड़ी लीड ही तो है! कैसे आप उसे नजरअन्दाज़ कर सकते हैं! तीस करोड़ की इनवेस्टमेंट वाले बार में वन-थर्ड की पार्टनरशिप का सपना अपने बॉस रेमंड परेरा को दिखाता वो ऑलिव बार में आया और बाकायदा धमकी जारी करके गया कि रेमंड परेरा की मांग ठुकराने का अंजाम बुरा होगा क्योंकि उसकी पीठ पर ‘भाई’ का हाथ था। उसकी भाईगिरी वाली धमकी की रू में आप रेमंड परेरा को नहीं तो कम से कम विनायक घटके को तो थामिए!”
“थामेंगे।” – भारकर शान्ति से बोला – “लेकिन मकतूल की बीवी का बयान हो जाने के बाद।”
“आपका ये रवैया तो ठीक नहीं है, जनाब! घटके को तो आपको मर्डर सस्पैक्ट के तौर पर फौरन हिरासत में लेना चाहिए! और नहीं तो पूछताछ के लिए तो तलब करना चाहिए!”
“करेंगे लेकिन कोई बेसिक तफ्तीश, बेसिक कार्यवाही हो जाने के बाद।”
“तब तक वो छुट्टा घूमेगा?”
“मजबूरी है।”
“साफ ब्लैकमेल की, एक्सटॉर्शन की धमकी जारी करेगा? बाजरिया रेमंड परेरा कराची वाले ‘भाई’ की हूल देगा?”
“मजबूरी है।”
“लेकिन ...”
“सावन्त साहब, आप आपा न खोएं और पुलिस की लिमिटेशंस को समझें। पुलिस ने जो काम करना होता है, प्रोसीजरली करना होता है। ये मर्डर और नियर मर्डर का केस है, इसमें पुलिस यूँ ही किसी पर नहीं चढ़-दौड़-पड़ सकती। एक बात घटके ने कही और आपने सुनी, कैसे हो सच की पड़ताल! इट इज़ हिज़ वर्ड अगेंस्ट युअर वर्ड।”
“कमाल है! आप तो बाकायदा उसकी हिमायत कर रहे हैं! बावजूद इस बात को खातिर में लाए हिमायत कर रहे हैं कि घटके एक सन्दिग्ध चरित्र का व्यक्ति है जो दो बार जबरजिना के जुर्म में गिरफ्तार हो चुका है और मैं लॉ अबाइडिंग सॉलिड सिटिजन हूँ। आप मेरा मुकाबला एक बैड कैरेक्टर से कर रहे हैं!”
“ए पर्सन इज़ इनोसेंट अनटिल प्रूवन गिल्टी।”
सावन्त ने मुंह बाये उसकी तरफ देखा।
“यानी” – फिर धीरे से बोला – “आप उसके खिलाफ कोई एक्शन नहीं लेंगे?”
“लेंगे। ज़रूर लेंगे। लेकिन अभी नहीं। नीरजा नायक का बयान हो जाने के पहले नहीं। और मैं पूरी कोशिश करूँगा कि बयान जल्द से जल्द हो, उसमें एक हफ्ता न लगे। ओके?”
सावन्त ने अनिच्छा से सहमति में सिर हिलाया।
“शुक्रिया। अब मुझे अपना काम करने दीजिए।”
सावन्त परे हट गया।
एसएचओ के रवैये से अत्यन्त असन्तुष्ट वो वापिस लौटा।
□□□
दो दिन गुज़रे।
उस दौरान नायक की लाश का औपचारिक पोस्टमार्टम हुआ, लाश की सुपुर्दगी हुई और नायक का अन्तिम संस्कार हुआ।
फिर तीसरे दिन दोपहर से पहले भारकर हस्पताल पहुंचा।
अकेला!
अपनी खुराफाती, नापाक, पूरी तैयारी के साथ।
वो वारदात के बाद का चौथा दिन था।
आईसीयू में उसने एक ऑर्डरली से डॉक्टर ऑन ड्यूटी की बाबत पूछा।
तत्काल डॉक्टर उसके रूबरू हुआ। अपने सामने तीन सितारों वाले बावर्दी इन्स्पेक्टर को पाकर वो तनिक सकपकाया।
“यस?” — वो बोला।
“मैं उत्तमराव भारकर।” – वो अधिकारपूर्ण स्वर में बोला – “एसएचओ, तारदेव स्टेशन हाउस।”
“वेलकम!”
डॉक्टर के सफेद कोट पर लगी नेम प्लेट पर साफ उसका नाम लिखा था फिर भी वो बोला – “नाम बोले तो?”
“डॉक्टर अधिकारी।”
“नीरजा नायक आपका केस है?”
“जी हां।”
“अभी किस हाल में है?”
“स्टेबल है।”
“कोई कम्पलीकेशन?”
“अभी ऑब्जरवेशन में हैं। लगता तो नहीं कि कोई कम्पलीकेशन पेश आएगी लेकिन ... . क्या पता लगता है!”
“कोई अनहोनी हो सकती है?”
“क्या पता लगता है!”
“जबकि आपने स्टेबल केस बताया!”
“सीरियस भी। ऐसे केस में अनएक्सपैक्टिड की हमेशा गुंजायश होती है।”
“आई सी। छुट्टी कब मिलेगी?”
“उसमें अभी बहुत टाइम लगेगा। तीन-चार दिन और तो अभी आईसीयू में ही लगेंगे। उसके बाद रूम में भी एक हफ्ता तो लग ही जाएगा!”
“हूँ। अभी बोल पाने की हालत में हैं?”
उसने उस बात पर विचार किया।
“हालत में हों भी” – फिर दृढ़ता से बोला – “तो मैं इसकी राय नहीं दे सकता। मैं नहीं चाहूँगा कि बोलने की कोशिश में वो अपने आपको एग्ज़र्ट करें।”
“मेरे लिए उनका बयान लेना ज़रूरी है।”
“ये अभी नहीं हो सकता।”
“मैं ज़रूरी बोला।”
“तो भी नहीं।”
“वैसे होश में हैं?”
“जी हां।”
“जो कहा जाए, वो समझती हैं?”
“हां।”
“मेरा उनसे कुछ ख़ास मालूमात करना ज़रूरी है . . . सुनो, सुनो। बीच में न टोको . . . मैं उन्हें ज्यादा डिस्टर्ब नहीं करूँगा, महज़ दो-चार सवाल पूछंगा जिनका जवाब वो हाँ, न में भी दे सकती हैं।”
“जनाब, वो भी ठीक नहीं होगा।”
“अरे, वो भी न करें, गर्दन तो हिला सकती हैं? सवाल समझ सकती हैं तो इशारे से हाँ, न तो कर सकती हैं? गर्दन को ऊपर से नीचे या दाएं से बाएं हिलाने में कितनी एग्ज़र्शन हो जाएगी आपके पेशेंट को?
“यू मीन शी विल जस्ट शेक ऑर नॉड हर हैड?”
“और मैं क्या बोला?”
“ओके। लेकिन पेशेंट को अकेले मैं नहीं छोडूंगा। आपकी पूछताछ के दौरान मेरी मौजूदगी ज़रूरी होगी।”
“वान्दा नहीं। मैं ख़ुद यही चाहता हूँ।”
“आइये।”
डॉक्टर के साथ चलता वो एक आईसीयू स्टेशन पर पहुंचा। वो एक बड़ा हाल था जहां वैसे कई स्टेशन थे। उसने बैड के इर्द-गिर्द पर्दे खींच कर प्राइवेसी का माहौल पैदा किया।
“प्लीज़, गो अहेड।” — फिर बोला।
भारकर ने सहमति में सिर हिलाया, वो नीरजा के सिरहाने पहुंचा और बोला – “हल्लो! उत्तमराव भारकर, एसएचओ, तारदेव स्टेशन हाउस। आप का केस मेरे थाने में दर्ज हुआ, इसलिए हाज़िर हुआ। ... . कैसी हैं आप?”
जवाब नदारद।
“जो हुआ” – भारकर के स्वर में सहानुभूति का पुट आया – “उसका मुझे अफसोस है। मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि मुजरिम को .... आई मीन आपके पति और आपके हमलावर को बख्शा नहीं जाएगा। वो बहुत जल्द अपने किए की .....”
“इन्स्पेक्टर साहब” – डॉक्टर व्यग्र भाव से बोला – “प्लीज़ कम टु दि प्वॉयन्ट।”
भारकर हड़बड़ाया, उसके चेहरे पर व्यवसायसुलभ सख़्त भाव आए, उसने घूर कर डॉक्टर को देखा।
डॉक्टर विचलित न हुआ।
कुछ क्षण दोनों में ख़ामोश मुकाबला-सा चला, फिर भारकर ने धीरे से सहमति में सिर हिलाया और फिर पेशेंट की ओर आकर्षित हुआ।
“आपने शूटर को देखा था?” – उसने सवाल किया।
पेशेंट का सिर हौले से ऊपर नीचे हिला।
“साफ?”
हामी।
“बावजूद इसके कि साइड की राहदारी में रौशनी काफी नहीं थी?”
हामी।
“शूटर को देबारा देखें तो पहचान लेंगी?”
हामी।
“पक्की बात?”
हामी।
“मेरे पास उसकी एक तस्वीर है, ज़रा देखिए।”
भारकर ने पांच गुणा सात का एक प्रिंट ऐन पेशेंट की आंखों के सामने किया।
“गौर से देखिये” – वो बोला – “और फिर बोलिए। पहचानती हैं?”
हामी।
“यही वो शख्स था जिसने आपके पति को शूट किया था?”
जवाब नदारद।
सवाल पेचीदा हो गया था। उसने नायक को शूट किया जाता नहीं देखा था।
“यही वो शख्य था” – भारकर ने संशोधन किया – “जिसने आप पर गोली चलाई थी!”
हामी।
“श्योर?”
हामी।
“गुड! तस्वीर की पीठ पीछे अपने साइन कीजिए और तारीख डालिए।”
डॉक्टर ने तत्काल विरोध करना चाहा लेकिन इस बार भारकर ने इस कदर सख़्ती से उसे घूरा कि डॉक्टर बेचैनी से पहलू बदलता ख़ामोश हो गया।
नीरजा ने कांपते हाथों से दोनों काम किए।
“एन्डोर्स कीजिए।” – भारकर बोला।
डॉक्टर हड़बड़ाया।
“अरे, भई, मैडम के दस्तख़तों की तसदीक कीजिए। अपने दस्तख़तों के जरिए तसदीक कीजिए कि मैडम ने आपके सामने उस तस्वीर की बैक पर अपने साइन किए जिसे उन्होंने बतौर अपने हमलावर बाजरिया तस्वीर साफ पहचाना।”
“ओह! दैट!”
“एनडोर्स हर सिग्नेचर्स विद युअर ओन सिग्नेचर्स एण्ड डेटा”
डॉक्टर ने आदेश का पालन किया।
“बैंक्यू!”– भारकर ने तस्वीर अपने काबू में की।
उसने नीरजा का शुक्रिया अदा किया और डॉक्टर के साथ एनक्लोज़र से बाहर कदम रखा। आईसीयू के नर्सिंग स्टेशन पर दोनों ठिठके।
तसदीकशुदा तस्वीर तब भी भारकर के हाथ में थी।
“ये है वो शूटर?” – डॉक्टर मन्त्रमुग्ध भाव से बोला – “वो कातिल?”
“अभी आपके पेशेंट ने बेहिचक शिनाख्त की न!”– भारकर बोला – “इसकी पीठ पर अपने दस्तख़त किए न! आपने उस दस्तख़तों को एनडोर्स किया न!”
“हाँ।” – डॉक्टर सहमति से सिर हिलाता बोला।
“सो देयर!”
“कौन है?” – डॉक्टर उत्सुक भाव से बोला।
“अभी तो यही कहा जा सकता है कि कातिल है।”
“पकड़ा जाएगा?”
“यकीनन।”
“यानी नोन ऑफेंडर है?”
“ऐसा तो नहीं है!”
“जब आपके पास उसकी तस्वीर है . . .”
“सीसीटीवी रिकॉर्डिंग में से अन्दाज़न निकाली थी। अब जबकि मैडम ने इसकी बतौर कातिल शिनाख्त कर ली, तो इसकी गिरफ्तारी और सज़ा महज़ वक्त की बात होगी।”
“गुड।”
“सहयोग के लिए शुक्रिया कुबूल कीजिए और इजाज़त दीजिए।”
डॉक्टर का सिर स्वयमेव सहमति में हिला।
अपने थाने में बैठकर अपने ऑफिस की प्राइवेसी में भारकर ने इत्मीनान से आपस में जुड़ी दो तस्वीरों को एक-दूसरे से अलग किया।
वो दो तस्वीरें रबड़ सॉलूशन से ऐसी नफासत से जोड़ी गई थीं कि ग़ौर से देखने पर भी एक तस्वीर ही जान पड़ती थीं। उसने तीखे ब्लेड से जुड़ी तस्वीरों की चारों तरफ से ट्रिमिंग की थी जिसका नतीजा ये था कि हाथ फिराने पर भी कहीं किनारे दो नहीं महसूस होते थे- दिखाई तो देते ही नहीं थे। ।
दोनों तस्वीरें अलग हो गईं तो उसने सामने वाली की पीठ पर से और पिछली के फ्रंट से सावधानी से उंगली से रगड़-रगड़ कर रबड़ सॉलूशन के अवशेष गायब किए।
सामने की तस्वीर विनायक घटके की उस तस्वीर का रिप्रिंट थी जो उसके थाने में उससे अपनी पहली मुलाकात के दौरान सर्वेश सावन्त ने उसे मुहैया कराई थी।
पिछली तस्वीर एसआई अनिल गोरे की थी।
वो तस्वीर पिछले साल थाने में हुई नए साल की पार्टी के फोटो शूट में उपलब्ध थी जहां से उसका एक प्रिंट उसने बड़ी सहूलियत से हासिल कर लिया था।
उसने सामने की, विनायक घटके की, तस्वीर का पुर्जा-पुर्जा करके डस्टबिन में डाल दिया और आराम से, इत्मीनान से दूसरी तस्वीर को निहारा।
अनिल गोरे, डेढ़ दीमाक का वॉटरलू। उसके ताबूत में आखिर कील। साला घौंच! मेरे से पंगा लेने चला था।
गोरे की तस्वीर की पीठ पर अब गवाह नीरजा नायक के दस्तख़त थे जिन्हें ड्यूटी डॉक्टर ने बाकायदा एनडोर्स किया था। यानी अब सामने की तस्वीर पर, जो कि गवाह को दिखाई गई थी, पेशेंट और डॉक्टर के दस्तख़त नहीं थे और जिस तस्वीर पर दस्तख़त थे, वो सम्भावित कातिल की नहीं थी लेकिन उसको कातिल करार दिया जाना निश्चित था।
बढ़िया!
साला खजूर याद करेगा कोई मिला था!
दुश्मन का खात्मा करने के लिए दरकार रामबाण उसके कब्जे में था और दुश्मन जितनी जल्दी ठिकाने लगता, उतना ही अच्छा होता।
बहरहाल अपने कारनामे से वो सन्तुष्ट था।
सन्तुष्ट क्या, मुग्ध था अपने आप पर वो खुशफहम पुलिसिया।
उस रोज़ गोरे का ऑफ था।
वान्दा नहीं।
रात को देखता हूँ न अड़वा पट्टे को!
शाम को एक और वाकया भारकर की जानकारी में लाया गया, जिससे वो बहुत खुश हुआ।
हस्पताल से ख़बर आई कि अच्छी-भली रिकवर करती नीरजा नायक ने एकाएक प्राण त्याग दिए थे।
खास भारकर की सहूलियत के लिए।
बढ़िया!
अब वो इस दुनिया से किनारा का चुकी थी इसलिए अपने बयान से नहीं फिर सकती थी, नहीं कह सकती थी कि जो तस्वीर उसे और डॉक्टर अधिकारी को दिखाई गई थी, उसी पर उसने और डॉक्टर ने अपने दस्तख़्त नहीं किए थे।
अब वो एनडोर्समेंट मैटर ऑफ रिकॉर्ड थी जिसमें कोई रद्दोबदल नहीं हो सकती थी।
उस सिलसिले में डॉक्टर अधिकारी का रोल अब न के बराबर था। अव्वल तो उसे पता ही नहीं लगने वाला था, आखिर लग भी जाता तो इसे वो अपनी ही कोताही करार देता और ख़ामोश रहने में ही अपना कल्याण मानता।
जो फरेब भारकर ने डॉक्टर और मरीज के साथ किया था, उसके जानकारी में आ जाने के बाद उस बाबत कोई दुहाई दे सकता था तो वो अनिल गोरे था जिसे वो दुहाई देने के काबिल ही नहीं छोड़ने वाला था।
उसके रास्ते का कांटा खल्लास!
केस सक्सैसफुल्ली क्लोज्ड।
बढ़िया।
लेकिन अपनी साज़िश के फिनिशिंग टच के तौर पर अभी एक बड़ी चाल उसने और चलनी थी।
जैसे ज़ीरो नम्बर से भारकर को घटके का वरली का पता मालूम हुआ था, वैसे ही उसका मोबाइल नम्बर मालूम हुआ था।
एसआई कदम ने भारकर के हुक्म पर उस नम्बर पर फोन लगाया।
“घटके बोलता है?” – जवाब मिला तो कदम अधिकारपूर्ण स्वर में बोला।
“कौन पूछता है?” – घटके रुखाई से बोला।
“एसआई कदम। तारदेव थाने से।”
तत्काल घटके का लहजा बदला।
“क्या मांगता है, बाप?’
“मेरे को कुछ नहीं मांगता। एसएचओ उत्तमराव भारकर को मांगता है।”
“देवा! बड़ा साहब क्या मांगता है?”
“तेरे को थाने में आने का। किधर भी है, वन आवर में तारदेवथाने में पहुंचने का।”
“पण, बाप, काहे वास्ते?”
“अपने बाप से मशवरा करना हो तो कर लेना।”
“बाप!”
“रेमंड परेरा।”
“बाप, कुछ बोलता कि थानेदार क्या मांगता है तो ....”
“वन आवर।”
लाइन कट गई।
घटके ने भारी सस्पेंस में मोबाइल जेब के हवाले किया।
अपने बॉस परेरा के हुक्म पर गुरुवार को उसने जिस वारदात को अंजाम दिया था, उसे यकीन था कि उसने पीछे उसका कोई क्लू नहीं छोड़ा था। उसने नायक के घर लौटने का इन्तज़ार करना था, लौटते ही उसे शूट करना था और निकल लेना था। लेकिन जो बेवजह फच्चर पड़ा था, वो ये था कि नायक की बीवी जाग गई थी और गोली की आवाज़ सुनते ही बाहर दौड़ी चली आई थी। उसमें भी कोई वान्दा नहीं था अगरचे कि गोली खाकर खाविन्द की तरह वो भी मर गई होती। लेकिन उसे यकीन था वो उसके लिए कोई पंगा नहीं खड़ा कर सकती थी। अख़बार के ज़रिए उसे जान पड़ा था कि बीवी बहुत नाजुक हालत में रतन टाटा मार्ग के हस्पताल के आईसीयू में पड़ी थी जहां आखिर वो बिना बयान दे पाने की हालत में आए मर गई थी।
न मरती तो घटके को उसको भी फौरन खल्लास करने की कोई जुगत करनी पड़ती जो वो करके रहता, भले ही वो हस्पताल के आईसीयू में थी।
यानी उस वारदात का नाम घटके के साथ जोड़ने वाला कोई नहीं था।
अब थानेदार बुलाता था और वो उसके बुलावे को नज़रअन्दाज़ भी नहीं कर सकता था।
एसआई कदम रेमंड परेरा से उस बाबत मशवरा करने को बोला था लेकिन उसने पहले तारदेव जाकर एसएचओ भारकर की हाजिरी भरने का फैसला किया।
अपने गुरुवार के कारनामे से वो बेखतर था, सब कुछ ऐन पर्फेक्ट करके हुआ था।
सर्वेश सावन्त उसके खिलाफ मुंह फाड़ सकता था लेकिन उसके मुंह फाड़ने से क्या होता था! वो कह कुछ भी सकता था लेकिन साबित कुछ नहीं कर सकता था - सिवाय इसके कि सावन्त से मिलने वो एक बार, सिर्फ एक बार, ऑलिव बारगया था।
फिर भी कोई उलटी पड़ती तो परेरा था न! तब सैट करने के वास्ते!
वो आश्वस्त हुआ और तारदेव थाने पहुंचा।
एक हवलदार को उसने बताया कि वो थाने के बड़े साहब के हक्म पर वहां हाज़िर हुआ था।
“मालूम।” – हवलदार रुखाई से बोला – “ख़बर करता है एसएचओ साहब को। वेट करने का!”
“बरोबर।”
हवलदार उसे बेचैनी से गलियारे में इन्तज़ार करता छोड़ कर वहां से चला गया। एसएचओ का ऑफिस उसी गलियारे में था जहां से हवलदार पांच मिनट में लौट सकता था फिर भी उसने लौटने में आधा घन्टा लगाया।
हवलदार ने उसे एसएचओ के ऑफिस में पहुंचाया।
“सलाम बोलता है, बाप।” – अत्यन्त विनयशील बनता घटके बोला।
“घटके!” – भारकर सहज भाव से बोला – “विनायक घटके?”
“हां, बाप। वन आवर से पहले आया।”
“बाहर सड़क पर जा और बस स्टैण्ड पर इन्तज़ार कर।”
“क्या बोला, बाप?”
“बहरा है?” – भारकर कड़क कर बोला – “सुनाई में लोचा तेरे को?”
घटके ने शरीर में झुरझुरी-सी दौड़ी।
“जाता है न, बाप।”
वो थाना परिसर से निकल कर बस स्टैण्ड पर पहुंचा। उसने एक सिग्रेट सुलगा लिया और प्रतीक्षा करने लगा।
वो कोई विशेष चिन्तित नहीं जान पड़ता था, थाने-कचहरी से उसका ऐसा वास्ता पड़ता ही रहता था जिसका अब वो पूरी तरह से आदी हो चुका था।
भारकर ने करीब से ही आना था वो पांच मिनट में बस स्टैण्ड पर पहुंच सकता था लेकिन आधे घन्टे में आया।
जानबूझ कर।
उसे तपाने के लिए।
हाकिम जो ठहरा!
वो जीप पर सवार था जिसे वो ख़ुद ड्राइव कर रहा था। उसने जीप को बस स्टैण्ड पर रोका और घटके को जीप में सवार होने का इशारा किया। घटके हिचकिचाया तो भारकर ने पैसेंजर सीट को एक बार थपथपाया।
पूर्ववत् हिचकता घटके जीप में सवार हो गया। भारकर ने जीप तत्काल आगे बढ़ा दी। कुछ क्षण ख़ामोशी रही, फिर एकाएक घटके बोला – “बाप, ये टेम अमला किधर गया?”
“अमला क्या?” – पीछे दौड़ती सड़क पर से निगाह हटाए बिना भारकर बोला।
“लाव लटकर! स्टाफ! हाकिम की रौनक!”
“बोलता हूँ।”
उसने जीप को फुटपाथ से लगा कर रोका, पैसेंजर की ओर घूमा और एक थप्पड़ उसके थोबड़े पर रसीद किया।
घटके तिलमिलाया, उसके चेहरे पर एकाएक बड़े हिंसक भाव आए।
“पॉकेट में स्ट्रेट है” – भारकर भावहीन ढंग से बोला – “तो घुमा मेरे पेट में। चप्पल है तो शॉट दिखा मेरे को।”
“म-मैं . . . मैं कुछ बोला, बाप?”
“अच्छा, नहीं बोला? ठहर के बोलेगा?”
वो ख़ामोश रहा, उसने बेचैनी से पहलू बदला। “अभी पूछ, मैं तेरे को लाफा क्यों दिया?”
“क... क्यों दिया?”
“क्योंकि तेरे को याद रखने का, भूलने का नहीं, कि मैं साला थानेदार . . . तारदेव थाने का . . . और तू साला फंटर।”
“है तो नहीं, बाप, पण . . . क-क्या . . . क्या किया मैं?”
“मालूम पड़ेगा। अभी ख़ामोश बैठने का। क्या?”
“बरोबर, बाप।” भारकर ने जीप आगे बढ़ाई।
थोड़ी देर बाद फिर घटके की जुबान पर सवाल आया कि वो कहां जा रहे थे लेकिन उसने होंठ भींच लिए।
जीप ख़ामोशी से सड़क पर दौड़ती रही।
हाकिम के पहलू में बैठा घटके सस्पेंस के हवाले था जिसे वो भरसक छुपा कर रख रहा था।
जीप एनी बेसेंट रोड पर दौड़ती आगे वरली की ओर बढ़ी तो घटके का माथा ठनका।
“बोले तो” – वो बोला – “किधर जाता है, बाप?”
“मैं बोला न, ख़ामोश बैठने का!”
“पण, बाप, फिर भी .....”
“ठीक है फिर भी। वहीं जाता है जो जगह तेरे मगज में है।”
“वरली?”
“हां।”
“वरली में किधर?”
“तेरे घर।”
“म-मेरे घर?”
“फ्लैट 203, सागर अपार्टमेंट्स। क्या!”
“कम्माल है! बाप, सच में उधरीच जाता है?”
“हाँ।”
“मेरे फिलेट पर ही जाना था तो थाने काहे वास्ते बुलाया?”
“किसी फंटर का घर-बार, रहन-सहन देखने का था न?”
“बाप, मैं फंटर नहीं है।”
“तो क्या है?”
“रिस्पेक्टेबल करके भीड़। रेमंड परेरा बॉस का ख़ास। रेमंड परेरा बोला मैं . . . टोपाज़ क्लब, कोलाबा . . . मालूम?”
“मालूम।”
“बाप, मेरे घर काहे वास्ते? सच्ची में बोलो न, क्या मांगता है?”
“अभी। अभी। खाली दो मिनट चुप बैठ।”
चेहरे पर असंतोष और उलझन के भाव लिए घटके ख़ामोश हुआ।
जीप सागर अपार्टमेंट्स के सामने रुकी।
सागर अपार्टमेंट एक दसमंजिला इमारत थी जिसके दूसरे माले पर घटके का आवास था।
“जा के अपने फ्लैट का दरवाज़ा खोल” – भारकर बोला – “मैं आता हूँ।”
प्रतिवाद के लिए तैयार लेकिन मजबूरन ख़ामोश घटके सहमति में सिर हिलाता जीप से उतरा और लम्बे डग भरता इमारत में दाखिल हो गया।
भारकर जीप में बैठा रहा। वो पुलिस की जीप थी, थानेदार के अधिकार में थी, उसको कहीं पार्किंग में लगाए जाने की ज़रूरत नहीं थी, वो जहां खड़ी थी, बिना किसी के ऐतराज़ के वहीं खड़ी रह सकती थी फिर भी वो स्टियरिंग ठकठकाता जानबूझ कर घटके को तपाने के लिए देर लगाता रहा।
आखिर वो जीप से उतरा और दूसरे माले पर पहुंचा।
घटके फ्लैट के खुले प्रवेश द्वार पर ही खड़ा था और मन ही मन भारकर को कोसता बेचैनी से पहलू बदल रहा था। भारकर को देखकर उसका हाथ नाहक सलाम के लिए उठा, वो सादर चौखट पर से हटा।
भारकर भीतर दाखिल हुआ, उसने ख़ामोशी से सारे फ्लैट का चक्कर लगाया। आखिर वो सामने के कमरे में, जो कि बैठक की तरह सुसज्जित था, वापिस लौटा।
“तो” – वो बोला – “इधर रहता है तू!”
“हां, बाप।”– वो संजीदगी से बोला।
“भाड़े पर?”
“भाड़े पर तो नहीं पण मालिक नहीं है, खाली भाड़ा नहीं भरता।”
“क्योंकि रेमंड परेरा मेहरबान?”
“बोले तो ऐसीच है।”
“बैठ।”
“बाप, आप बैठो न!”
“अरे, मैं क्या खड़ा रहूँगा तेरे सामने?”
“ओह!”
दोनों आमने सामने बैठे।
भारकर ने आंख भर कर उसे देखा।
“क्या देखता है, बाप?”– घटके विचलित भाव से बोला।
“कातिल को देखता हूँ” – भारकर सहज भाव से बोला – “उसकी दिलेरी को, उसकी निडरता को देखता हूँ जो मेरे सामने बैठा है।”
“क-क्या बोलता है बाप? मैं तो...”
“न जान पड़ा हो तो अब जान ले, मकतूल सुबोध नायक की बीवी ने भी पिछली रात हस्पताल में दम तोड़ दिया था। अब तेरे पर डेलीब्रेट, कोल्डब्लडिड डबल मर्डर का चार्ज है। क्या करेगा? बच निकलेगा? बेगुनाह साबित कर लेगा अपने आपको? साबित कर लेगा कि पिछले गुरुवार को आधी रात के बाद तुलसीवाडी में हुई शूटिंग का शूटर तू नहीं था या तेरे वास्ते रेमंड परेरा हथेली लगाएगा? कराची से ‘भाई’ हिदायत जारी करेगा तेरे बारे में?”
“अरे, क्यों मेरे को डराने के वास्ते खाली पीली बोम मारता है, बाप, मेरा किसी कत्ल से कोई वास्ता नहीं।”
“हो। वान्दा नहीं मेरे को।”
“क्या बोला, बाप?”
“घटके, तेरे वास्ते गुड न्यूज़।”
“क्या?”
“उस कत्ल के मामले में तू मेरा निशाना नहीं।”
“मैं . . . मैं निशाना नहीं! तो ... . तो ...”
“अभी पकड़ में आएगा तेरे तेरा तो तो।”
“ओह! अभी पकड़ में आएगा। बाप कुछ ठण्डा गर्म पेश करे?”
“अभी नहीं।”
“वर्दी में है, ड्यूटी पर है, और गर्म पेश करने की र्जुरत तो मैं नहीं कर सकता पण अगर ...”
“अरे, बोला न, अभी नहीं। बाद में बोलूँगा न!”
“ठीक!”
“घर से बाहर जूता पहनता है या चप्पल ही चटखाता फिरता है?”
“जूता पहनता है, बाप।”
“क्योंकि औकात बना के रखता है! जो चप्पल से नहीं बनती। जूता पहनना ज़रूरी। क्या?”
“अब है तो ऐसीच!”
“वान्दा नहीं मेरे को।” – भारकर एक क्षण ठिठका, फिर बोला – “वो क्या है कि पिछले गुरुवार पन्द्रह तारीख को तुलसीवाडी में जो खून-खराबे की वारदात हुई थी, उसको अंजाम देने वाला शूटर वारदात के बाद पिछवाड़े से भागा था क्योंकि गोली चलने की आवाज़ सुनकर फ्रंट में अड़ोसी-पड़ोसी जमा होने लगे थे। पिछवाड़े के यार्ड का फर्श वैसे तो पक्का था लेकिन एक जगह से फुट भर की एक टाइल हाल में यूं टूट कर उखड़ी थी कि नीचे से नम मिट्टी वाली ज़मीन झलकने लगी थी। बैकयार्ड में अन्धेरा होने की वजह से शूटर को उस बात की ख़बर नहीं लगी थी और भागते वक्त इत्तफाक से उसका बायां पांव वहां पड़ा था जहां से कि एक टाइल टूटी हुई थी। बाद में मौका-ए-वारदात पर पहुंचे पुलिस के टैक्नीशियनों को पांव की उस छाप की ख़बर लगी थी जिसे कि तफ्तीश के प्रोसीजर के मुताबिक हैंडल किया गया था।”
“क-कैसे?”
“दो तरीके होते हैं। एक तो जूते की उस छाप के कैमरा फोटोग्राफ़ निकाले जाते हैं, दूसरा, ज़्यादा मज़बूत और भरोसे का तरीका ये होता है कि टूटे फर्श में नम मिट्टी वाले हिस्से पर – जहां कि फरार होते शूटर के बाएं पांव की छाप बनी थी – प्लास्टर ऑफ पैरिस का घोल डाला जाता है जो जब खुश्क होकर सैट हो जाता है तो यूँ बने प्लास्टर मोल्ड को उस जगह से उखाड़ लिया जाता है और फिर उसका बारीक मुआयना किया जाता है। यूं लैब एक्सपर्ट को मालूम हुआ था कि जिस बाएं पांव के जूते से फर्श के टूटे हिस्से में वो छाप बनी थी, जिसका प्लास्टर मोल्ड अवेलेबल था, वो नौ नम्बर का था जिसके सोल का पैटर्न प्लास्टर मोल्ड में साफ बना पाया गया था। घटके, वो प्लास्टर मोल्ड तो मैं तेरे को ये टाइम नहीं दिखा सकता लेकिन मोल्ड की और टूटे फर्श में बने बाएं पांव के नौ नम्बर के जूते की छाप की तस्वीरें मेरे मोबाइल में हैं। मैं दिखाता हूँ।”
“बाप, मैं क्या करेगा देख के?”
“अरे, देख न! देखने में क्या है!”
“पण, बाप ...”
“देख!” – भारकर का लहजा एकाएक सख्त हुआ – “मैं बोला, इस वास्ते देख।”
“देखता है, बाप।”
भारकर ने प्लास्टिक मोल्ड और जूते के सोल की मौका-ए-वारदात पर बनी छाप की चन्द तस्वीरें मोबाइल की स्क्रीन पर घटके को जबरन दिखाईं, उन्हें दो तीन बार देखने के लिए उसे मजबूर किया।
फिर उसने मोबाइल ऑफ करके जेब में डाला।
“अभी बोल।” – वो बोला।
“क्या बोलेगा, बाप!” – घटके बोला।
“ठीक है। मैं बोलता हूँ। कितने जोड़ी जूते हैं तेरे पास?”
“एकीच है, बाप।”
“जो तू ये टाइम पहने है?”
“हां।”
“बाएं वाला उतार कर मेज पर रख। सोल ऊपर।”
“क्या बोला, बाप?”
“हिन्दुस्तानी नहीं समझता!” – भारकर का लहजा क्रूर हुआ— “साला मराठी में समझाने का तेरे को! या अभी कोई और जुबान है जो बेहतर समझता है?”
घटके ने अनिच्छा से लेकिन ख़ामोशी से जूते का बायां पांव उतार कर हाकिम के निर्देशानुसार मेज़ पर रखा।
भारकर ने जूते पर झुक कर बारीकी से उसका मुआयना किया तो उसने सोल का पैटर्न प्लास्टर कास्ट की और मौका-ए-वारदात की तस्वीरों से ऐन मिलता पाया। यहां तक कि पंजे के करीब एक जगह से सोल कटा हुआ था, वो भी मोबाइल की तस्वीरों में साफ चित्रित था। शक की कतई कोई गुंजायश नहीं थी, जिस जूते की छाप पुलिस के पास उपलब्ध थीं, वही वो पहने था।
ज़ाहिर था कि वारदात की रात बैकयार्ड के रास्ते पलायन करते वक्त उसे ख़बर नहीं लगी थी कि यार्ड में उसके पांव फर्श की टाइलों के अलावा भी कहीं पड़े थे।
जैसी बारीकी से भारकर जूते का मुआयना कर रहा था, वैसी ही बारीकी से घटके हाकिम के हर एक्शन को नोट कर रहा था। लिहाज़ा अब कुछ कहने सुनने की कोई ज़रूरत नहीं थी।
“क्या!” – भारकर विजेता के से भाव से बोला।
घटके के मुंह से बोल न फूटा।
“तेरे सामने गुरुवार रात की तेरी करतूत का पक्का सबूत मौजूद है। तू नहीं मुकर सकता – तेरा जूता नहीं मुकरने देगा जिसकी छाप तूने पीछे छोड़ी - कि गुरुवार रात को तू मौका-ए-वारदात पर मौजूद था। क्यों मौजूद था? क्योंकि वारदात को अंजाम तूने ही दिया था।”
घटके बगलें झांकने लगा।
“काबू में कर।”
घटके ने मेज पर से उठा कर जूता वापिस अपने बाएं पांव में पहना।
उस दौरान भारकर ख़ामोश रहा।
“जूते के अलावा” – फिर बोला – “तेरे खिलाफ चश्मदीद गवाह है।” घटके ने तमक कर सिर उठाया।
“यूँ ढक्कन बन के दिखाने की कोई ज़रूरत नहीं। बाजरिया तेरी तस्वीर मकतूल नायक की बीवी नीरजा – अब वो भी मकतला - तेरी पक्की शिनाख्त करके मरी है कि उसके मरद को टपकाने के बाद तूने ... तूने उस पर भी गोली चलाई थी लेकिन महज़ इत्तफाक से वो जान से जाने से बच गई थी वर्ना तने तो कोई कसर नहीं छोड़ी थी। अभी कैसे अपने खिलाफ बीवी के बयान को झुठलायेगा? कैसे बचेगा?”
घटके ने जबरन थूक निगली, उसके गले की घन्टी जोर से उछली।
“तेरे बॉस को फोकट में ऑलिव बार में पार्टनरशिप मांगता था। फोकट में बोला मैं क्योंकि बकौल ख़ुद तेरे, परेरा को कराची वाले ‘भाई’ की शह थी। जवाब सख़्त इंकार में मिलने पर, लताड़ जैसे इंकार में मिलने पर, तू पीछे धमकी जारी करके गया कि रेमंड परेरा की मांग ठुकराने का नतीजा बहुत बुरा होगा। अभी तू इस बात से मुकरेगा, बोलेगा बिना गवाह के नहीं साबित किया जा सकता था कि तूने ऐसा कुछ कहा था। मेरे को तेरा ऐसा बोलना मंजूर। तू दावा कर सकता है कि, जैसे कि फिरंग ज़ुबान में कहते हैं, ‘इट वॉज़ हिज़ वर्ड अगेंस्ट युअर वर्ड’। बोले तो – ‘साबित करके दिखाओ कि मैंने ऐसा कुछ कहा था’। घटके, ये अकेली बात तेरे खिलाफ होती तो तेरा दावा चल सकता था लेकिन जब तेरी इस बात को तेरे खिलाफ बाकी दो बातों से जोड़ कर देखा जाएगा तो वो बात भी तेरे खिलाफ ऐन फिट होकर खड़ी होगी। तेरे खिलाफ ऐन ओपन एण्ड शट केस है, घटके। तू नीरजा नायक की डाइंग डिक्लेयरेशन को नहीं झुठला सकता कि उस पर गोली चलाने वाला तू था। तू मौका-ए-वारदात पर मिले अपने फुटप्रिंट को नहीं झुठला सकता। इसलिए तू उस धमकी को भी नहीं झुठला सकता जो तूने रेमंड परेरा के नाम पर, कराची वाले ‘भाई’ की शह पर सर्वेश सावन्त को जारी की। तेरे खिलाफ इन तमाम बातों का एक ही नतीजा होगा। पछ क्या?’
“क-क्या?”
“तेरे गले में फांसी का फंदा जिसके सिरे पर झूलता तेरा मुर्दा जिस्म। क्या?” उसने बेचैनी से पहलू बदला।
“अभी तेरा मगज बहुत ज़ोर मारेगा इस ज़हमत से निकलने की कोई तरकीब सोचने के वास्ते। ये शैतानी ख़याल भी तेरे जेहन में आ सकता है कि मैं इस घड़ी तेरे फ्लैट पर अकेला हूँ और मेरे थाने के रोजनामचे में मेरी ऐसी कोई मूवमेंट दर्ज भी नहीं है। लिहाज़ा मेरा पोटला बनाने का आइडिया तेरे ऊपर के माले में आ सकता है लेकिन जब तू ऐसा कोई कदम उठायेगा जो असल में मेरा काम आसान कर रहा होगा।”
भारकर को ख़ुद ही नहीं पता लगा था कि कब वो घटके वाली ज़ुबान बोलने लग गया था।
“ब-बोले तो?”
“अभी।”
भारकर ने वर्दी में कहीं छुपी गन बरामद की और लापरवाही से उसे घटके की तरफ तान दिया।
“खड़े पैर ज़ीरो नम्बर से टिप मिली” – वो भावहीन स्वर में बोला – “कि तुलसीवाडी वाली वारदात का मुजरिम वरली में सागर अपार्टमेंट्स के फ्लैट नम्बर 203 में मौजूद था। तारदेव थाने का थानेदार तब फील्ड में था, बैकअप बुलाने का, उसका इन्तज़ार करने का टाइम नहीं था इसलिए गोली की रफ्तार से वो ख़ुद वरली पहुंचा जहां उसने मुजरिम विनायक घटके को फरार होने की तैयारी करते पाया। उसे फरार होने से रोकने के लिए थाना प्रभारी इन्स्पेक्टर भारकर को मजबूरन उस पर गोली चलानी पड़ी जिससे वो लुढ़क गया। केस ऑफ डबल मर्डर सॉल्व्ड। ऐनी प्रॉब्लम?”
“बाप, क्या चूहे बिल्ली का गेम खेलता है!” – अब बुरी तरह से हिल चुका घटके गिड़गिड़ाता-सा बोला- “अभी जब ख़ुद बोला कि मैं तुम्हेरा निशाना नहीं तो काहे वास्ते खाली-पीली में हूल देता है!’’
“नहीं देता। पण तू हाँ किधर बोला कि तुलसीवाडी वाली वारदात तेरा कारनामा? किधर बोला कि सुबोध नायक का विकेट तू लिया और एकाएक वारदात की गवाह बन गई उसकी बीवी को भी तूने कमती किया!”
“पण, बाप, अगर मैं तुम्हेरा निशाना नहीं तो . . . तो मांगता क्या है?”
“तू कातिल है लेकिन किसी खास वजह से, जो ख़ास मेरे से ताल्लुक रखती है, तेरा इस डबल मर्डर के वास्ते ज़िम्मेदार निकल आना मेरे को माफिक नहीं।”
“क्यों, बाप?”
“क्योंकि मेरे को किसी और भीड़ को कातिल प्रोजेक्ट करने का, उस वारदात के लिए ज़िम्मेदार प्रोजेक्ट करने का।”
“किसी और भीड़ को?”
“हाँ।”
“जबकि जो किया, मैं किया?”
“हां।”
“कमाल है! कैसे होगा बाप?”
“तू साथ देगा, तू कोऑपरेट करेगा तो होगा, बराबर होगा।”
“कैसे? मेरे खिलाफ चश्मदीद गवाह है!”
“वो गवाह अब इस दुनिया में नहीं है। खाली उसकी गवाही इस दुनिया में है जो कातिल की, शूटर की शिनाख्त किसी और भीड़ के तौर पर करेगी। और उस शिनाख्त का अस्पताल के आईसीयू का उसका डॉक्टर गवाह होगा।”
“मैं शूटर नहीं?”
“नहीं।”
“बावजूद पहचान लिए जाने के, मैं शूटर नहीं?”
“नहीं।”
“कोई और भीड़ शूटर?”
“हां।”
“जबकि असल में मैं . . . मैं ही शूटर?”
“हां।”
“कम्माल है! कैसे होगा? फिर पूछता है, बाप - कैसे होगा?”
“होगा। कैसे होगा पूछा तेरा काम नहीं। आखिर जो होगा, वो सबके सामने आएगा। तेरे भी।”
“मेरे को क्या करने का?”
“तेरे को दो काम करने का।”
“क्या?”
“एक तो अपना थोबड़ा हमेशा, हमेशा के लिए बन्द रखने का कि जो किया, तू किया। जब साबित हो चुकेगा कि वारदात के लिए कोई दूसरा भीड़ ज़िम्मेदार तो ऐसा कोई दावा करता तू वैसे भी अक्खा ईडियट लगेगा।”
“बरोबर बोला, बाप। मैं काहे वास्ते मुंह फाड़ेगा कि तुलसीवाडी का शूटर मैं! नायक और उसकी बीवी का कातिल मैं! किसी दूसरे पर कामयाबी से ये इलज़ाम आता है तो आए, मेरे को क्या वान्दा है!”
“अभी पड़ी बात मगज में।”
“दसरा काम बोले तो?”
“गन निकालकर मेरे सामने मेज पर रख।”
“गन!”
“मर्डर वैपन। जिससे नायक को खल्लास किया। जिससे नायक की बीवी को शूट किया। निकालकर मेज पर रख।”
घटके एकाएक बेहद ख़ामोश हो गया।
“अभी ये नहीं बोलने का कि गन को वारदात के बाद नक्की किया।”
“बाप, किया तो यहीच।”
“किया तो बुरा किया। अपने लिए।”
“बाप, ऐसी वारदात के बाद गन को कौन पास में रखता है! उसको तो फोरन नक्की करना मांगता होता है!”
“अगर तूने ऐसा किया है तो अपना भारी नुकसान किया है। घटके, गन नहीं तो वो डील भी नहीं।”
“पण ...”
“नो पण। गन का” – भारकर ने एक उंगली से मेज ठकठकाई – “इधर मेरे सामने होना ज़रूरी। उसकी बरामदी के बिना तू मेरे किसी काम का नहीं।”
“तो?”
“तो नायक पति-पत्नी के कत्ल के इलज़ाम में तेरे को बमय सबूत गिरफ्तार करके इन्स्पेक्टर भारकर, एसएचओ, स्टेशन हाउस, तारदेव ने रिकॉर्ड टाइम में केस हल किया।”
“वो दूसरा भीड़ ...”
“अब नहीं मांगता। केस तो हल हो गया! एक कत्ल में दो कातिल काहे वास्ते मांगता होयेंगा मेरे को!”
“हूँ| आता है, बाप।”
वो एकाएक यूँ उठ के चला गया कि भारकर को उसे रोकते न बना। वैसे भी वो घर खुला छोड़कर कहीं नहीं जा सकता था। जाता भी तो कहां जाता! फरार हो जाता! वो ऐसा करता तो ख़ुद अपने गुनाह को मोहरबन्द करता।
दसेक मिनट में वो वापिस लौटा।
भारकर की सवालिया निगाह उसकी तरफ उठी।
घटके ने ख़ामोशी से एक गन हाकिम के सामने मेज़ पर रखी।
भारकर ने गन पर झुक कर उसका मुआयना किया। उसने देखा कि वो 38 कैलीबर की छ: फायर करने वाली स्मिथ एण्ड वैसन रिवाल्वर थी जो मुम्बईया अन्डरवर्ल्ड की भाषा में ‘आठ नम्बर चप्पल’ कहलाती थी।
“पुराने टेम की है”– घटके धीरे से बोला – “पण काम बढ़िया करती है। नम्बर एक्सपर्ट ने रेत कर मिटाया इस वास्ते छोड़ने को मन न किया।”
“चैम्बर खाली जान पड़ता है!”
“बरोबर जान पड़ता है। दाना निकाल लिया न!’
“किधर थी?”
“बाप, जो मांगता था, मैं किया न बरोबर! अब किधर थी काहे पूछता है?”
“फ्लैट में तो नहीं थी! यहां से तो तू मेरे सामने बाहर निकल कर गया था!”
“मर्डर में हाल में काम आया हथियार मैं इधर रखता! बोले तो मैं अक्खा घोंचू! मगज से पैदल!”
“दस मिनट से कम टेम में वापिस लौटा। ज़्यादा दूर तो न जाना पड़ा होगा! करीब ही कहीं गया गन के वास्ते!”
घटके खामोश रहा।
“तो ये है मर्डर वैपन! आलायकत्ल!”
“हां।”
“जिससे नायक और उसकी बीवी को ठोका!”
“हां।”
“उठा के मेरे पर तान!”
“क्या बोला, बाप?”
“तान!”
“बाप, खाली गन है।”
“तभी तो बोला तान।”
“माथा फिराने वाली बात है पण ठीक है, करता है।”
उसने मेज़ पर से गन उठाकर हाकिम पर तानी।
“बढ़िया। ऐन जेम्स बांड का माफिक पोज़ बनाता है। अब घोड़ा खींच के देख, बिना अटके ऐन फिट चलता है?” ।
घटके ने दो बार ट्रीगर खींचा। दोनों बार ऐन नफ़ासत से दो क्लिक्स के साथ चैम्बर घूमा।
“बढ़िया।” – भारकर बोला – “वापिस रख।”
घटके ने आदेश का पालन किया।
“जूतों का क्या करेगा?”
“जूते?”
“जो तू पहने है। जिसके बाएं सोल की छाप तूने पीछे मौका-ए-वारदात पर छोड़ी!”
“क्या करूँगा! पहली फुरसत में नए जूते खरीदूंगा।”
भारकर ने मजबूती से इंकार में सिर हिलाया।
“बोले तो?”
“खड़े पैर नए जूते खरीदेगा तो अपने पर शक की वजह ख़ुद पैदा करेगा।
क्या?”
घटके ने चिन्तित भाव से सहमति में सिर हिलाया।
“फोर्ट में क्रॉफोर्ड मार्केट के सामने पटड़ी पर मरम्मत करके, पालिश से चमका के नए जैसे बनाए गए पुराने जूते बिकते हैं। नए जैसे बनाए गए’ बोला मैं। यूँ नए बन नहीं जाते। समझा?”
“हां, बाप।”
“तेरे को उधर जाके अपने नाप का एक जोड़ा खरीदने का। बोले तो नौ नम्बर का। उसको थोड़ा रफ हैंडल करने का ताकि पहना हुआ, इस्तेमाल में आया हुआ लगे। अभी ये ख़ास एहतियात रखने का कि यूँ खरीदे जूतों के जोड़े का सोल पैटर्न में उन जूतों जैसा हरगिज, न हो जो तू पहने है। बरोबर?”
“हां, बाप।”– वो एक क्षण ठिठका, फिर बोला – “इनका क्या करूँ?”
“ये भी कोई पूछने की बात है! पुर्जा-पुर्जा करके कहीं कचरे में डाल या इनमें गीला सीमेंट भर के सीमेंट के सैट हो जाने के बाद इन्हें कहीं समन्दर में डाल ताकि ये तेरे खिलाफ सबूत न बने रह सकें। क्या!”
घटके ने सहमति में सिर हिलाया।
“फौरन! पहली फुरसत में! सब काम छोड़कर!”
“ऐसीच होगा, बाप।”
“बढ़िया।”
उसने वर्दी की जेब से अपना रूमाल बरामद किया, पूरा खोल के उसे गन के ऊपर डाला और गन को एहतियात से रूमाल में लपेटकर अपनी वर्दी की एक जेब के हवाले किया।
घटके ने वो सब देखा, उसके नेत्र सिकुड़े लेकिन उसने ख़ामोश रहना ही बेहतर समझा। हाकिम ने उसे बुरी तरह से घेरा था इसलिए कोई ऐतराज़ उठाकर वो उसका मिज़ाज़ तुर्श नहीं करना चाहता था।
“घटके!”– सिर उठाकर उसे देखता भारकर बोला – “एक बात में मैं तेरे को अन्धेरे में नहीं रखना चाहता।”
“बोले तो?” – घटके बोला।
“देख, तू कोई कच्चा लिम्बू तो है नहीं जिसे कुछ सिखाना पड़े, ट्रेनिंग देनी पड़े। परेरा के अन्डर में चलता है तो जाहिर है कि ऊपर के माले में कुछ रखता है। इस वास्ते जाहिर है कि इस गन को कहीं छुपाने से पहले अपनी उंगलियों के निशान तूने उस पर से मिटा दिए होंगे। लेकिन अभी जब तूने गन को मेरे सामने हैंडल किया, दो बार उसका घोड़ा खींच कर दिखाया कि ऐन चौकस चलती थी तो तेरी उंगलियों के निशान गन पर फिर बन गए। घटके, वो गन, जिसकी गोलियों का शिकार तूने नायक और उसकी बीवी को बनाया और जिस पर तेरी उंगलियों के निशान हैं, इस गारन्टी के लिए मेरे पास महफूज़ रहेगी कि तू मेरे से बाहर नहीं जाएगा। कभी मेरी ही बिल्ली मेरे को म्याऊं नहीं करने लगेगी। जिस साज़िश में अब तू मेरे साथ शरीक है लेकिन जो अभी सामने आएगी - उसके बारे में अगर तूने कभी ज़रा भी मुंह फाड़ने की कोशिश की तो अकेली ये गन ही तेरी फल वाट लगा देगी। क्या!”
“खाली गन पर मेरी उंगलियों की छाप साबित कर देगी कि मैं तुलसीवाडी का शूटर! मैं नायक और उसकी बीवी का कातिल?”
“घटके, पुलिस लैब वाले एक्सपर्ट टैक्नीशियन आजकल क्या कर सकते हैं, लगता है तेरे को इसका कोई अन्दाज़ा नहीं।”
“अब है तो ऐसीच, बाप!”
“पोस्टमार्टम से लाश में से बरामद हुईगोली–यागोलियाँ का आलायकत्ल से फायर की गई, टैस्ट बुलेट से माइक्रोस्कोप के ज़रिए मिलान किया जाता है। अगर दोनों गोलियों पर फायरिंग के दौरान बनी लकीरें मिलती पाई जाती हैं तो ये सौ टांक पक्का सबूत होता है कि वही गन आलायकत्ल थी। फिर जिसके पास से गन बरामद हुई, जिसकी उंगलियों की छाप गन पर थी, उसको कातिल साबित करना चुटकियों का काम। क्या!”
घटके ने नर्वस भाव से अपने होंठों पर ज़ुबान फेरी फिर बोला – “बाप, तुम्हेरे से सवाल नहीं होगा कि इतना इम्पोर्टेट करके सबूत तुम दबाये क्यों बैठा था?”
“होगा, बराबर होगा। जब होगा तो मेरे से जवाब देते नहीं बनेगा। लेकिन वो नौबत आने से पहले तेरा फुल काम हो चुका होगा। जब ऐसा होगा तो ये तेरे लिए क्या तसल्ली होगी कि मेरा भी अंजाम बुरा होगा?”
“दिल पर नहीं लेने का बाप। समझो मैं कुछ नहीं बोला।”
“बढ़िया।” — भारकर उठ खड़ा हआ – “जाने से पहले एक आखिरी बात।”
“बोलो, बाप।”
“अभी हमारे बीच जो पका, उसकी वजह से तू मेरा यार नहीं हो गया है। जो हुआ एक समझौते के तहत हुआ कि मैं तेरे काम आऊंगा, बदले में तू मेरे काम आएगा - जैसे फिरंगियों में कहते हैं मैं तेरी पीठ खुजाऊँगा, तू मेरी पीठ खुजाएगा। इसके अलावा तेरा मेरा कोई वास्ता नहीं। इसके अलावा मैं तुझे नहीं जानता। एक वक्ती ज़रूरत के तहत मैंने तेरे को मुंह लगाया तो इसका मतलब ये नहीं कि कभी तू तारदेव से गुजरे तो तू हाल चाल पूछने, मेरे साथ चाय शेयर करने आ सकता है। क्या!”
“बाप, भाव नहीं खाने का। मेरे को मेरी जगह मालूम।”
“औकात में रहने का!”
“बरोबर।”
“बढ़िया।”
फिर बिना एक भी अतिरिक्त शब्द बोले अपने मेज़बान से पूरी तरह से विमुख होकर भारकर वहां से रुखसत हो गया।
बुरी तरह से हिले हुए विनायक घटके को पीछे छोड़ कर।
हाकिम के पीठ फेरते ही घटके ने सीधे कोलाबा का रुख किया।
और टोपाज़ क्लब में उसके निजी ऑफिस में रेमंड परेरा के रूबरू हुआ।
रेमंड परेरा कोई पचास साल का, गठीले बदन वाला, कद में कदरन मात खाया क्लीनशेव्ड व्यक्ति था जो आदतन हमेशा बढ़िया सूट-बूट में सजा-धजा रहता था। अपने स्याह काले बालों को बड़े स्टाइल से जैल से सैट कर के, चमका के रखता था। घटके उसका मुंहलगा था इसलिए बेरोकटोक कभी भी परेरा के पास चले आने की उसको खुली इजाज़त थी।
“क्या बात है?” – परेरा अपनी रूखी, खुरदरी आवाज में बोला – “आज जल्दी आ गया!”
“लफड़ा लाया न, बाप!” – घटके कातर भाव से बोला – “बड़े साइज का लफड़ा!”
“अच्छा! बैठ पहले।”
घटके उसके सामने एक विज़िटर्स चेयर पर ढेर हुआ।
परेरा ने पहले एक सिगार सुलगाया, तृप्तिपूर्ण भाव से उसके दो तीन कश लगाए फिर तनिक उत्सुक भाव से बोला – “क्या हुआ?”
“बोलता है, बाप।”
घटके ने बड़े धीरज से इन्स्पेक्टर भारकर से हुई अपनी मुलाकात को अक्षरशः दोहराया।
आखिर वो ख़ामोश हुआ, उसने चिन्तित भाव से अपने बॉस की तरफ देखा।
“हम्म!”– सिगार का लम्बा कश खींचते परेरा ने गम्भीर हँकार भरी– “अभी तू वो बोला जो तेरे और उस थानेदार के बीच हुआ। अभी बोल, इस बाबत क्या है तेरे मगज में जो तू उससे छुटकारा पाते ही दौड़ा इधर चला आया?”
“बोलता है।” – घटके दबे स्वर में बोला – “बाप, पीछू जो भी हुआ, सब मेरे को फुल कनफ्यूज़ किया। मेरे को हाकिम का हुक्म मिला कि वो बुलाता था। मैं तारदेव थाने उसकी हाजिरी भरने पहुंचा तो मेरे से बात भी किए बिना, मेरे को एक अक्खर भी बोलने का मौका दिए बिना आउट बोल दिया। मैं हैरान कि आउट ही बोलना था तो बुलाया काहे वास्ते था! फिर वो मेरे को थाने से बाहर फिर मिला और अपनी जीप में बिठा कर जीप खुद चलाता अपने साथ वरली ले के गया। वरली किधर, बाप! उधर सागर अपार्टमेंट्स में मेरे अपने फिलेट पर। अभी बोले तो वो सीधे मेरे को उधर तलब करता तो क्या मेरी न पहुंचने की जुर्रत होती?”
“आगे!”
“फिर साबित कर दिखाया कि मैं कातिल। तुलसीवाड़ी वाली वारदात का शूटर मैं। सबूत के तौर पर मौका-ए-वारदात से उठाई गई मेरे बाएं पांव से जूते के सोल से नायक के घर के बैकयार्ड में बनी छाप पेश की जब कि मेरे को खबर तक नहीं थी कि ऐसी छाप मैंने पीछे छोड़ी थी।”
“पण छाप, बोले तो फुट प्रिंट, तेरे जूते का बरोबर!”
“हाँ, बाप।”
“तू बोल सकता था कि छाप करके जो तू बोला, वो तेरे जूते की नहीं थी।”
“नहीं बोल सकता था। हाकिम साबित करके दिखाया कि नहीं बोल सकता था।”
“काहे? फैक्ट्री कोई एक ही पेयर तो न बनाया ख़ास तेरे वास्ते!”
“मेरे जूते के बाएं पांव का सोल पंजे के करीब एक जगह से कटा हुआ था, ‘एल’ की शक्ल का एक टुकड़ा सोल पर से गायब था। सोल के प्लास्टर ऑफ पैरिस से बनाए सांचे पर भी ऐसीच था। मैं नहीं मुकर सकता था कि वहां से भागते वक्त मेरा ही पांव पिछले यार्ड में कहीं कच्ची जमीन पर पड़ा था और मेरे बाएं जते के सोल की छाप वहां छूटी थी।”
“छाप पर तारीख थी?”
“नहीं थी पण मैं कभी तो गया उधर! क्या बोलता कब गया? फिर पिछले यार्ड में मेरा क्या काम था? रात के वक्त मेरा क्या काम था जबकि यार्ड के फर्श का कच्चा हिस्सा मेरे को दिखाई न दिया?”
“तेरा जूता किसी और ने काबू किया – कैसे किया, किसने किया, वो सब तू ये टाइम छोड़, खाली मान के चल कि किया – तेरे को सैट करने के वास्ते तेरा जूता पहन कर जो किया, किसी दूसरे भीड़ ने किया।”
“बाप, नहीं चलेगा।”
“काहे?”
“सावन्त को मेरी वो धमकी भी तो है जो मैंने तुम्हेरे हुक्म पर सावन्त को जारी की थी! फिर मेरे खिलाफ वारदात का चश्मदीद गवाह! फिर वो गन बरामद जिससे मैं उस रात सुबोध नायक को कमती किया, उसकी बीवी को शूट किया। बाप, बोले तो वो हाकिम ऐन फिट किया मेरे को। हिलने की गुंजायश न छोड़ी।”
“फिर भी छोड़ी।”
“यही तो फाडू बात है कि फिर भी छोड़ी। खुद मेरे को बिलाशक कातिल साबित करके दिखाया और खुद बोला कि उस दोहरे कत्ल के मामले में मैं उसका निशाना नहीं। बोला, उस खूनी वारदात के लिए मेरा जिम्मेदार निकल आना उसको माफिक नहीं। वो मेरे को फ्रेम से बाहर करके किसी और भीड़ को उस वारदात के लिए जिम्मेदार साबित करना मांगता था।”
“किसको?”
“मालूम नहीं। कोई नाम वो न लिया!”
“कैसे?”
“ये भी साफ कुछ न बोला। खाली मेरे को ख़बरदार किया कि असलियत के बारे में कभी भी मैंने मंह फाड़ा तो वो मेरी ऐसी वाट लगाएगा जैसी को मैं जिन्दगी भर नहीं भूलेगा।”
“बतौर कातिल तेरे को थाम लेगा?”
“वान्दा किधर, बाप? इतने सबूत उसने मेरे खिलाफ पेश किए – खासतौर से अब गन उसके कब्जे में जिससे मैं वारदात किया और जिस पर मेरी उंगलियों की छाप – मैं तो अब यूँ समझने का बाप, कि उसके लिए पतंग जिसकी डोर उसके हाथ और वो जब चाहे पतंग को ढील दे दे और जब चाहे वापिस खींच ले।”
“ठीक। पण वो तेरे को बोल के रखा न कि तू उसका निशाना नहीं! तू उससे बाहर नहीं जाएगा तो क्यों वो कोई ऐसा स्टैप लेगा? घटके, तू डेन्जर में तब जब कि तू मुंह फाड़े। तू मत फाड़ना मुंह। खयाल भी न करना। फिर आगे जो होता है, होने देना।”
“भले ही किसी बेगुनाह की वाट लगे।”
“एक की तो लगेगी। या तेरी या उस भीड़ की जो अभी गुमनाम है और तेरी जगह थानेदार का निशाना है। तू चाहता है तेरी वाट लगे?”
घटके का मजबूती से इंकार में सिर हिलाया।
“तेरी वजह से उस गुमनाम भीड़ के खिलाफ दारोगा की साजिश फेल हो जाए? मांगता है ऐसा होना?”
“नहीं, बिल्कुल नहीं।”
“तो इतना कांशस वाला साला तू कब से बन गया कि एक बेगुनाह भीड़ के किसी बुरे अंजाम की तेरे को फिकर! अरे, उसको कुछ नहीं होगा तो तेरे को होगा क्योंकि एक कत्ल में दो कातिल तो हो नहीं सकते! मांगता है?”
“नहीं, बाप।”
“तो आसान रास्ता पकड़। हाकिम का कहना मान। हाकिम तेरी जगह किसी और भीड़ को - ऑफकोर्स किसी इनोसेंट भीड़ को – कातिल प्रोजेक्ट करता है तो करने दे। ये न भूल कि ख़ास इस वजह से तेरे सिर पर से डबल मर्डर की बला टलेगी वर्ना तू झूल रहा होगा झूला।”
“जब कि जो किया मैं किया!”
“कोई वान्दा तेरे को?”
“नहीं, बाप, पण सोचता है कौन होगा वो, थानेदार हाथ धोकर जिसके पीछू पड़ा है?”
“जो होगा सामने आएगा। जब तुलसीवाड़ी वाले डबल मर्डर के लिए तेरी जगह वो ज़िम्मेदार ठहराया जाएगा – बाकायदा सबूतों के साथ ज़िम्मेदार ठहराया जाएगा - तो सामने आएगा न! कैसे छपा रह सकेगा?” ।
“हाकिम मेरी जगह उसके खिलाफ ऐसा मजबूत केस खड़ा करेगा कि उसे सजा हो के रहेगी?”
“बरोबर।”
“एक बेगुनाह को ....”
“फिर पहुंच गया उसी जगह! ओके, तू एसएचओ भारकर की हुक्मउदूली कर और फिर उसका नतीजा देख। बल्कि भुगत। भारकर का निशाना बेगुनाह भीड़ को तो कुछ होते-होते होगा, तेरे को अभी होगा। भारकर को हूल दे के देख, क्या होता है! देगा?”
उसने इंकार में सिर हिलाया। “तो इस बात का पीछा छोड़ और अपनी खैर मना। खुशकिस्मत जान अपने आपको कि अपने आप ही ऐसे हालात बन गए कि फुल फंसा होने के बावजूद तू नपने से बच गया। हाकिम खुद बोला, ख़ास तेरे को बोला, कि कत्ल के उस मामले में तू उसका निशाना नहीं तो और क्या मांगता है तेरे को? बोल?”
“कुछ नहीं।”
“सूपर। अभी मेरे साथ चर्च चलना, मैं तेरे वास्ते, तेरी सलामती के वास्ते उधर कैंडल जला के आएगा।”
“जरूर।”
“अभी कुछ और बोलना मांगता है?”
“मांगता तो है, बाप!”
“बोला”
“पण सोचता है बोले कि न बोले।”
“सोच। सोच। जी भर के सोच। मैं वेट करता है। साला, और कोई काम तो हैइच नहीं मेरे को!”
“सॉरी बोलता है, बाप। बाप, वो क्या है कि मेरे को हाकिम पहले तो अर्जेंट करके थाने बुलाया, मैं साला, टेंशन में हवा का माफिक पहुंचा तो अपने ऑफिस में बुलाने में ही मेरे को साला आधा घन्टा वेट कराया। फिर आखिर में हाकिम के ऑफिस में पेश हुआ तो मेरे को मुंह भी खोलने दिए बिना हुक्म दिया कि मैं बाहर सड़क पर जाकर बस स्टैण्ड पर बैठे और वेट करे। वो पांच मिनट में मेरे पीछू बस स्टैण्ड पर पहुंच सकता था पण फिर आधा घन्टा में आया।”
“तपाता था। साइकॉलोजिकल प्रेशर बनाता था।”
“बरोबर बोला, बाप।”
“आगे बोल।”
“फिर मेरे को वरली ले गया तो फिर आधा घन्टा इन्तजार कराया। मेरे को बोला मैं जाकर अपने फिलेट का दरवाजा खोलूं, वो आता था। साला, जीप पार्क करके पीछे पीछू आना था, आधा घन्टा में आया।”
“फिर तपाया!”
“बोले तो बरोबर।”
“अब तू बोलना क्या मांगता है जो तू बोला, बोले कि न बोले?”
“अभी, बाप, अभी। बाप, हाकिम मेरे को अपने तरीके से हैण्डल किया, अपना कोई स्ट्रेटेजी लगाया पण मैं बोले तो मिस्टेक किया।”
परेरा की भवें उठीं।
“मेरे को मेरे फिलेट में पहले भेजना हाकिम का मिस्टेक। साला खामखाह मेरे को तपाता था, उसकी उंगली से परेशान मेरे को, बोले तो, पलटवार का मौका मिल गया।”
“पलटवार बोला?” – परेरा सम्भल कर बैठा।
“हां, बाप।”
“क्या किया?”
“उसके मेरे फिलेट पर पहुंचने से पहले मैंने उधर वीडियो रिकॉर्डिंग का खुफिया इन्तजाम करके रखा।”
“क्या! तेरे पास था वो इन्तजाम?”
“था न, बाप। मैं तुम्हेरा ट्रबल का शूटर है . . .”
“ट्रबल शूटर!”
“वही। ऐसी चीजें बहुत काम आती हैं मेरे।”
“तो की रिकॉर्डिंग?”
“अक्खी। ऐसी कि हाकिम को भनक न लगी।”
“गुड!”
“अब वो सब मेरे पास वीडियो में रिकॉर्ड है जो हाकिम उधर मेरे फिलेट में बोला। रिकॉर्ड है कि साबित करके दिखाया कि मैं कातिल था पण मेरे को गिरफ्तार करने की जगह बोला कि कत्ल के मामले में मैं उसका निशाना नहीं था, साफ बोला कि मेरा किया वो किसी दसरे पर थोपना मांगता था क्योंकि वो उस दूसरे को फुल सैट करना मांगता था। वो गन भी मेरे से ले लिया जिससे मैं शूटिंग किया।”
“किसी दूसरे को सैट करने के वास्ते?”
“हां।”
“कत्ल के इलज़ाम में?”
“बोले तो हां। तभी तो मर्डर वाला गन काबू में किया!”
“घटके, देर सवेर तो उस भीड़ पर से पर्दा उठेगा ही जिसे एसएचओ भारकर कातिल प्रोजेक्ट करना मांगता है। पुलिस का एक बड़ा अफसर किसी के खिलाफ इतनी बड़ी साजिश रच रहा है और, कर्टसी दैट वीडियो रिकॉर्डिंग, तू उसके इस राज से वाकिफ है। क्या?”
“बरोबर! पण अभी मैं उस रिकॉर्डिंग का क्या करे?”
“सम्भाल के रखने का। एसएचओ मर्डर वैपन पर तेरा फिंगरप्रिंट्स लिया, किस वास्ते? तेरे को अपनी तरफ रखने के वास्ते . . . तेरे पर प्रेशर बनाने के वास्ते। अभी तू उस पर प्रेशर बनाने की पोज़ीशन में है और वक्त आने पर देखना, ये इक्वेशन तेरे बहुत काम आयेगी।”
“बोले तो मैं जो किया, ठीक किया? हाकिम गलत किया जो उसने मेरे को पहले फिलेट पर जाने दिया?”
“ऐग्जेक्टली!”
“बढ़िया! मेरे को बाप, ये जो तुम इक्वेशन करके बोला, पसन्द।”
“और?”
“और तो बस, यही पूछना मांगता था कि ऑलिव बार के बारे में अभी आगे क्या सोचा?”
“उस मामले में मैं अभी बैकफुट पर है।” – परेरा ठिठका, उसने अपलक घटके को देखा – “तेरी वजह से।”
घटके ने आहत भाव से परेरा की तरफ देखा।
“मैं तेरे को ब्लेम नहीं करता। तू जो किया मेरे प्लान के मुताबिक किया और चौकस किया, पण जो फच्चर पड़ना होता है, पड़के रहता है। साला इज़ी इन एण्ड आउट वाला एक गुड, क्लीन मर्डर था जिसमें खामखाह पंगा पड़ गया।”
“बाप, मैं कब सोचा कि आधी रात के बाद नायक की बीवी जाग रही होगी और गोली चलने की आवाज सुनते ही बाहर दौड़ी चली आएगी! मैं पहले से मालूम कर के रखा कि नायक कभी लेट आता था- आधी रात के भी बाद आता था – तो वो बीवी को बोल के रखता था कि उसके इंतजार में उसको जागने का नहीं था, उसके पास अपनी चाबियां थीं, वो आराम से उसको जगाए बिना भीतर जा सकता था। लेकिन बैड लक खराब कि उस रात वो जाग रही थी, गोली का आवाज सुनते ही वो बाहर राहदारी में निकल आई और लगी गला फाड़ कर ‘खून-खून’ चिल्लाने। मैं फौरन उसको शूट किया पण बोला न, बैडलक खराब कि अपने मरद की तरह बीवी मरी नहीं, फिर गोली चलाने का मेरे को चानस न लगा और मेरे को निकल लेना पड़ा।”
“तभी तो बोला एक गुड, क्लीन मर्डर में फच्चर।”
“पण अभी क्या करने का?”
“किस को?”
“हमेरे को! तुम्हेरे हुक्म पर मेरे को!”
“मैं बोला न, उस मामले में अभी मैं बैक फुट पर है। ऑलिव बार के मामले में अभी ये टेम नवां कुछ नहीं करने का। तूने पार्टनर नायक को स्ट्रेट जॉब में लुढ़काया होता तो ये दूसरे पार्टनर के लिए बड़ी वार्निंग होती जो वो साइलेंटली कैच करता। अभी वो मामूली केस इम्पोर्टेट करके केस बन गया और उसमें तारदेव थाने का एसएचओ भारकर ख़ुद एक्टिव। अभी क्या मैं दूसरे पार्टनर को भी लुढ़काने का हुक्म दे?”
घटके से जवाब देते न बना।
“अभी मेरे को दूसरा पार्टनर सर्वेश सावन्त मांगता है, कोआपरेटिव फ्रेम ऑफ माइन्ड में जिन्दा मांगता है। अभी मेरे को वेट एण्ड वाँच की पॉलिसी पर चलना मांगता है, क्योंकि, मेरे को पक्का कि ये गलाटा ख़त्म हो जाने के बाद सावन्त ख़ुद ही मेरे को अप्रोच करेगा और सुलह की कोई सूरत निकालेगा वर्ना वो क्या जानता नहीं कि पुलिस हमेशा ही उसको प्रोटेक्शन देती नहीं रह सकती। क्या!”
“बरोबर बोला, बाप। तो . . . तो क्या मैं अब चैन से बैठे?”
“यस। और वेट करे, वाँच करे। क्या!”
“बरोबर, बाप।”
“कोई और काम तेरे को मेरे से?”
“नहीं, बाप, अभी नहीं।”
“निकल ले।”