सुनील विक्टोरिया हस्पताल पहुंचा ।
उसने सुखवीर के कमरे का दरवाजा खटखटाया ।
दरवाजा एक सिपाही ने खोला ।
“क्या है ?” - सिपाही कर्कश स्वर में बोला ।
“मैं इन्स्पेक्टर प्रभूदयाल से लिखवाकर लाया हूं” - सुनील उसकी ओर एक कागज बढाता हुआ बोला - “कि मुझे सुखवीर से मिलने दिया जाये ।”
सिपाही ने कागज लेकर पढा और फिर नम्र स्वर में बोला - “आ जाओ ।”
सुनील भीतर घुसा सिपाही ने दरवाजा फिर बन्द कर दिया ।
सुखवीर पहले की तरह ही पीठ के बल पलंग पर पड़ा था । उसकी प्लास्टर चड़ी टांग ट्रेक्शन में लटक रही थी ।
“हल्लो !” - सुनील बोला - “कैसी तबियत है ?”
“मेरी तबियत कभी खराब नहीं होती ।”
“मैं तुमसे कुछ सवाल पूछने आया हूं ।”
“इसकी मौजदूगी में ।” - यह सिपाही की ओर इशारा करते हुये बोला ।
“क्या हर्ज है ? सवाल सुन लो शायद उनके जवाब ऐसे हों जिन्हें सुनने न सुनने से पुलिस को कोई फर्क न पड़ता हो ।”
“बोलो ।”
“जो आदमी बुधवार की दोपहर को तुमने लोलिता का सामान लेकर उसके फ्लैट से निकलता देखा था तुम उसका हुलिया ब्यान कर सकते हो ?”
“वह एक ठिगना लेकिन गठे शरीर का आदमी था ।” - सुखवीर याद करता हुआ बोला - “उसके सिर के बाल पड़ी अजीब सी लाल रंगते के थे ।”
“जैसे निरन्तर खिजाब के इस्तेमाल से ही जाते हैं ।” - सुनील बोला ।
“करैक्ट और उसके ऊपरी जबड़े में से सामने एक दांत गायब था ।”
“मूछें थी ?”
“हां थी । राजकपूर जैसी ।”
सुनील बड़ी मुश्किल से अपनी उत्तेजना दबा पाया ।
सुखबीर सरासर राजपाल का हुलिया बयान कर रहा था ।
“डेनी नाम के किसी आदमी को जानते हो ?” - सुनील ने नया प्रश्न किया ।
“जानता हूं ।” - सुखबीर बोला - “उल्टा डेनी मुझे ज्यादा जानता है । साले को सपने में भी मेरी सूरत दिखाई दे जाये तो उसका पेशाब निकल जाता होगा ।”
“मतलब की बात करो यार । अपनी तड़ी जाने दो ।”
“कैसे जाने दूं ? अपनी तड़ी की वजह से ही तो मैं डेनी को जानता हूं । लोलिता मेरे से पहले उसी से इश्क करती थी लेकिन मुझसे मुलाकात होते ही उसने डेनी को छोड़ दिया था ।”
“डेनी ने इस बात पर कोई कोई बखेड़ा नहीं किया ?”
“अपनी ओर से तो उसने बहुत बड़ा बखेड़ा करने की कोशिश की थी लेकिन मैंने जल्दी ही उसे ठण्डा कर दिया था । एक दिन जब मैं लोलिता के फ्लैट पर पहुंचा था तो वह मेरे को लेकर लोलिता से झगड़ रहा था और लोलिता को कह रहा था कि वह मेरा साथ छोड़ दे । ऊपर से मैं आ गया । मैं उसे उठाकर खिड़की के रास्ते से बाहर फेंकने लगा था लेकिन लोलिता ने मुझे रोक लिया । मैंने डेनी को छोड़ दिया और उसे चुपचाप फ्लैट से निकल जाने के लिये कहा । पट्ठा चुपचाप वहां से दफा होने की जगह चाकू निकाल कर मुझ पर झपट पड़ा । मुझे गुस्सा आ गया । मैंने उसका चाकू छीन लिया और उसे अपने घुटनों पर उल्टा लिया । फिर मैंने उसकी पतलून फाड़ दी और उसकी दुम पर उसी के चाकू से लपना नाम खोद दिया ।”
“मैं यह बात इन्सपेक्टर साहब को बताऊंगा ।” - एकाएक सिपाही बोला ।
“जरूर बताना ।” - सुखवीर बोला - “लेकिन तुम्हारे इन्स्पेक्टर का बाबा भी इसे सिद्ध नहीं कर सकेगा । तुम क्या समझते हो कि डेनी अपनी पतलून खोलकर पुलिस को अपनी दुम पर मेरा नाम लिखा हुआ दिखलायेगा । और फिर वह तो मेरा नाम ही सुन कर थर-थर कांपने लगता है ।”
सिपाही चुप हो गया ।
“उस दिन मैंने डेनी को कह दिया था ।” - सुखवीर सुनील से बोला - “कि अगर मैंने दुबारा उसे लोलिता के पास भी पटकते देखा तो मैं उसी के चाकू से उसका कलेजा निकाल कर उसके मुंह में ठूंस दूंगा ।”
“जगत नारायण ने तुम्हें पकड़ कर लाने के लिये केनी और उसके साथी को भेजा था ।” - सुनील बोला - “जगत नारायण तुमसे क्या चाहता था ?”
“हवलदार साहब !” - सुखवीर सिपाही से बोला - “जाओ दो चार मिनट के लिये कहीं चाय पानी पी आओ ।”
सिपाही यूं हंसा जैसे उसने भारी मजाक की बात सुन ली हो ।
“सॉरी मिस्टर !” - सुखवीर सुनील से बोला ।
“और मोटरबोट का क्या किस्सा है ?” - सुनील बोला ।
“सब एक ही किस्सा है । मैं सिपाही के सामने कुछ नहीं बता सकता ।”
“आल राइट ।” - सुनील बोला - “मैं फिर जाऊंगा ।”
सुनील हस्पताल से निकल गया ।
वह सीधा ‘ब्लू रूम’ पहुंचा ।
उस वक्त अभी दोपहर हुई थी । ‘ब्लू रूम’ की वास्तविक रौनक तो अन्धेरा होने के बाद ही शुरू होती थी लेकिन फिर भी वे लोग दिन में भी रेस्टोरेन्ट और बार खुला रखते थे । उस समय रेस्टोरेन्ट में उल्लू बोल रहे थे लेकिन बार काउन्टर पर एक दो आदमी बैठे थे ।
“राजपाल कहां है ?” - सुनील ने अधिकारपूर्ण स्वर में बार टेण्डर से पूछा ।
“साहब” - बार टेण्डर बार के आखिरी सिरे पर जाकर उच्च स्वर में बोला - “आपसे कोई मिलने आया है ।”
बार के आखिरी सिरे के समीप का एक दरवाजा खुला और उसमें से राजपाल बाहर निकला । सुनील पर निगाह पड़ते ही वह उसे पहचान गया ।
“तुम फिर आ गये !” - वह कठोर स्वर में बोला - “मैंने तुम्हें कहा था कि मनोरंजन के अलावा किसी और मतलब से तुम यहां कदम मत रखना ।”
“मुझे याद है और मुझे यह भी याद है कि तुमने कहा था कि बुधवार को तुम्हें लोलिता को फोन आया था कि वह ब्लू रूम की नौकरी छोड़कर हमेशा के लिये कहीं जा रही है और मुझे यह भी याद है कि तुमने पुलिस को यह बयान दिया था तुम्हें लोलिता के यूं खिसक जाने पर बहुत गुस्सा आया था कि और तुम उसको ‘ब्लू रूम’ के साथ हुआ कान्ट्रैक्ट तोड़कर भाग जाने के चक्कर में नोटिस देने वाले थे ।”
“बिल्कुल ठीक है, क्या खराबी है इसमें ?”
“खराबी इसमें यह है, प्यारे लाल, कि अगर तुम्हें लोलिता के यूं चुपचाप खिसक जाने का इतना गुस्सा था तो तुम बुधवार की दोपहर की उसके फ्लैट से उसका सामान लेने क्यों गये थे ?”
राजपाल का मुंह खुले का खुला रह गया ।
“और झूठ बोलने की कोशिश मत करना । मैं इस बात की बड़ी ठोस शहादत पेश कर सकता हूं कि अपना सामान लेने अपने फ्लैट पर लोलिता नहीं गई थी, तुम गये थे ।”
“मैं भला ऐसी मामूली बात के लिये झूठ क्यों बोलूंगा !” - राजपाल सावधानी से बोला - “लोलिता के फ्लैट से उसका सामान मैं ही लाया था । उसने मुझसे प्रार्थना की थी कि मैं उसके प्लैट से उसका सामान बाहर निकाल कर एयरपोर्ट पर पहुंचा दूं ।”
“कौन मानेगा तुम्हारी इस बात को । कहां तो तुम उसे नोटिस दे देने की धमकियां दे रहे थे और कहां तुम खुद उसका सामान एयरपोर्ट पर पहुंचा रहे थे ।”
“बाद में मेरा गुस्सा उतर गया था ।”
“बहुत अच्छे मालिक हो तुम । अपने कर्मचारियों का सामान ढोते फिरते हो ?”
“लोलिता से मेरा निजी लगवा भी था ।”
“तुम्हें यह कैसे मालूम हुआ कि फ्लैट में लोलिता का सामान कौन सा था और रोजी का सामान कौन सा था ?”
“मेरा वह फ्लैट पहले से देखा हुआ था । लोलिता ने मुझे बता दिया था कि फ्लैट की कौन सी अलमारियों में उसका सामान होता था और कौन सी में रोजी का ।”
“एयरपोर्ट पर तुम लोलिता का सामान कहां छोड़ कर आये थे ?”
“सामान के काउन्टर पर ।”
“यानी कि एयरपोर्ट पर तुम्हारी लोलिता से मुलाकात नहीं हुई थी ?”
“नहीं ।”
“और लोलिता जा कहां रही थी ?”
“मुझे मालूम नहीं । उसने मुझसे केवल इतनी प्रार्थना की थी कि मैं फ्लैट से उसका सामान समेट कर एयरपोर्ट के बैगज काउन्टर पर पहुंचा दूं ।”
“तुम्हारे पास फ्लैट की चाबी कहां से आई ?”
“मैंने रोजी की मांग ली थी ।”
“और रोजी यह बताने के लिये जीवित नहीं है कि उसने अपनी चाबी तुम्हें दी थी या तुम खुद ताला तोड़कर भीतर घुस गये थे ।”
“फिर लगे बकवास करने ।”
“मंगलवार को रत्ना देवी की पार्टी में तुम लोलिता के साथ गये थे । क्या लोलिता के साथ पार्टी में कोई ऐसा आदमी भी था जिसके पास कैमरा रहा हो ?”
“हंसराज शर्मा के अलावा मैंने कैमरे वाला कोई आदमी पार्टी में नहीं देखा ।”
“हंसराज शर्मा कौन है ?”
“वह कमर्शियल फोटोग्राफर है । वह रत्ना देवी की हर पार्टी में आता है और लोगों की तस्वीरें खींचता है ।”
“फोटोग्राफर का पता बताओ ।”
“जैसे मैं तुम्हारे बाप का नौकर हूं !” - राजपाल एकाएक बेहद नाराज हो उठा ।
“लोलिता पार्टी से किस वक्त वापस गई थी ?”
“मैंने बहुत बकवास सुन ली है तुम्हारी । अब भगवान के लिये मेरी जान छोड़ो ।”
“वह पार्टी में तुम्हारे साथ ही गई थी । वह वापस किसके साथ गई थी ?”
“तुम यहां से अपनी राजी से जाते हो या मैं तुम्हें धक्के देकर बाहर निकालूं ?”
“राजपाल तुम एक हत्या के अपराध पर परदा डालने की कोशिश कर रहे हो । पुलिस अगर तुम्हारे पीछे लग गई तो तुम भी हत्यारे के साथ ही रगड़े जाओगे । इसलिये...”
“जानी” - राजपाल कर्कश स्वर से बारटेण्डर से बोला - “जरा डण्डा देना ।”
बारटेण्डर ने काउन्टर के नीचे से एक मोटा डण्डा निकाल कर राजपाल के हाथ में रख दिया ।
एकाएक क्रोध से सुनील की खोपड़ी घूम गई । वह जिससे बात करता था, वही उसे पीटने की उतारू हो जाता था । अब तक वह इस हद तक पिट चुका था कि इस बार वह भी अपनी जान की परवाह किये बिना मरने-मारने पर उतारू हो गया । और क्रोध के उफान की वजह से ही पता नहीं कहां से उसमें इतनी दानवी शक्ति आ गई कि उसने राजपाल को घूंसों पर धर लिया ।
राजपाल की मुट्ठी अभी डण्डे पर बन्द भी नहीं हुई थी कि सुनील ने अपनी सारी शक्ति लगाकर एक वज्र जैसा प्रचण्ड घूंसा राजपाल की छाती में जमा दिया । डण्डा राजपाल के हाथ से निकल गया और वह बार से जा टकराया ।
दो ग्राहक जो बार काउन्टर पर बैठ थे, लडाई होती देख कर चुपचाप वहां से खिसक गये ।
सुनील के बांये हाथ का घूंसा राजपाल के जबड़े से टकराया । राजपाल की खोपड़ी फिरकनी की तरह घूम गई । सुनील ने बायें हाथ से उसका गिरहबान थामा और दांये हाथ के कई घूंसे ताबड़-तोड़ उसके पेट में जमा दिये ।
राजपाल की टांगें मुड़ गईं और वह फर्श पर ढेर हो गया वह जोर-जोर से हांफ रहा था । उसमें उठकर अपने पैरों पर खड़ा होने की शक्ति नहीं रही थी ।
सुनील ने देखा बारटेण्डर बार के पीछे से निकल आया था और राजपाल के हाथ से मिलाकर जमीन पर गिर डण्डे की ओर बढ रहा था ।
सुनील आंखों में खून लिये और मुट्ठियां भीचे बारटेण्डर की ओर बढा ।
बारटेण्डर ने सुनील की आंखों में पता नहीं क्या देखा कि वह सहम कर पीछे हट गया ।
सुनील ने डण्डा उठा लिया ।
वह धमकी भरे अन्दाज में बारटेण्डर की ओर बढा । बारेटण्डर एकदम घूमा और भागकर बार काउन्टर के पीछे पहुंच गया । वह भयभीत सा सुनील की ओर देखने लगा ।
सुनील ने इतनी जोर से डण्डा काउन्टर पर मारा कि काउन्टर पर रखे आधा दर्जन गिलास और बोतलें उछल पड़ीं, उसने डण्डा वहीं छोड़ दिया ।
वह द्वार की ओर बढ़ा ।
उसी क्षण द्वार खुला और डैनी ने भीतर कदम रखा ।
उसने पहले सुनील को देखा, फिर जमीन पर पड़े राजपाल को देखा, फिर दीवार के साथ पीठ सटाये भयभीत से खड़े बारटेण्डर को देखा और फिर सारी स्थिति उसकी समझ में आ गई । उसने अपनी जेब में हाथ डाला । अगले ही क्षण उसके हाथ में चाकू था । उसने चाकू का खटका दबाया, चाकू का तेज धार वाला पतला लम्बा फल खटाक से सीधा हो गया ।
सुनील ने एकदम से हटकर काउन्टर से डण्डा फिर उठा लिया ।
डैनी चाकू अपने सामने फैलाये दृढ़ता के एक-एक कदम रखता हुआ आगे बढ़ा । सुनील से तीन फुट दूर आकर वह खड़ा हो गया ।
“चला न चाकू हरामजादे” - सुनील विष भरे स्वर से बोला - “हिचकता क्यों है । चाकू चला, ताकि मुझे तरबूज की तरह तेरी खोपड़ी खोलने का बहाना मिल सके ।”
डैनी अपने स्थान से हिला भी नहीं ।
“सुखवीर ने तो तुम्हारी दुम पर अपना नाम गोदा था लेकिन मैं अपना नाम तुम्हारे माथे पर खोदकर जाऊंगा ।”
सुखवीर का नाम सुनने की देर थी कि डैनी एकदम सुनील के रास्ते से हट गया । उसका चाकू वाला हाथ नीचे सरक गया ।
“मैं जा रहा हूं” - सुनील द्वार की ओर बढता हुआ बोला - “और अपने बाप जगत नारायण से कह देना कि जल्दी ही मैं उस तक पहुंचूंगा ।”
डैनी चुप रहा ।
“और अगर हौंसला हो तो चाकू मेरी पीठ पीछे मुझ पर फेंक मारना ।”
और सुनील लम्बे डग भरता हुआ आगे बढ गया । द्वार के पास पहुंचकर वह वापस घूमा । उसने देखा डैनी अभी भी पत्थर की प्रतिमा की तरह अपने स्थान पर खड़ा था । सुनील ने हाथ में थमा डण्डा जमीन पर पड़े राजपाल के कदमों में उछाल दिया और ‘ब्लू रूम’ से बाहर निकल आया ।
उसका खून अभी भी खौल रहा था । जब उसका गुस्सा उतरा तो उसने मन ही मन इस बात पर खुदा का शुक्रिया अदा किया कि केनी और उसके साथी की मौत के समय से पुलिस द्वारा जब्त की हुई उसकी रमाकान्त के कमरे से चुराई 38 कैलिबर की रिवाल्वर उसे लौटाई नहीं गई थी वर्ना आज जैसा खून सवार हुआ था, शायद वह बारटेण्डर, राजपाल और डैनी तीनों को शूट कर देता ।
एक पब्लिक काल से सुनील ने यूथ क्लब फोन किया ।
रमाकान्त से उसका सम्पर्क फौरन स्थापित हो गया ।
“एक-दो छोटे-छोटे काम करवाओ, प्यारेलाल ।” - सुनील बोला
“काम तो हो जायेगा” - रमाकान्त चिन्तित स्वर में बोला - “पहले यह बताओ, तुम्हारी तबीयत कैसी है ?”
“धीरे-धीरे ठीक हो रही है लेकिन अभी थोड़ी देर पहले पहले से ज्यादा खराब होते-2 बची है ।”
“यानी कि फिर पिटने लगे थे ?”
“हां” - सुनील ने बड़ी शराफत से स्वीकार किया - “लेकिन पिटने की जगह एक-आध को पीटकर आया हूं ।”
“कमाल है । तुम्हारे पिट-पिटकर हलकान हुए शरीर में इतना दम कहां से आ गया ?”
“मैं खुद हैरान हूं ।”
“काम क्या बता रहे थे तुम ?”
“हंसराज शर्मा नाम का कोई कमर्श‍ियल फोटोग्राफर है जो रत्ना देवी की हर पार्टी में आता है । उसका पता मालूम करो ।”
“आसान काम है । हो जायेगा । दूसरा काम क्या है ?”
“लगभग दो महीने पहले अन्धे टापू के करीब एक मोटरबोट एक चट्टान से टकराकर डूब गई थी । मोटरबोट लोलिता की थी और उस पर रोजी और ‘ब्लू रूम’ की तीन-चार अन्य लड़कियां सवार थीं । वे लड़कियां तैर कर अन्धे टापू तक पहुंची थीं । बाद मे कस्टम वालों की एक लांच उन्हें अन्धे टापू से राजनगर लेकर आई थी । कोस्टल पुलिस इस प्रकार की तमाम दुर्घटनाओं का रिकार्ड रखती है कि कौन-सी मोटरबोट कब डूबी थी और कहां डूबी थी । तुम अन्धे टापू के समुद्री इलाके के आसपास का एक नक्शा ले आओ और उस पर कोस्टल पुलिस के अधिकारियों से यह अंकित करवा लाओ कि मोटरबोट एकदम ठीक कौन-सी जगह पर डूबी थी ?”
“यह भी हो जायेगा ।”
“मैं तुम्हें फिर फोन करूंगा ।”
“ओके ।”
सुनील ने रिसीवर क्रेडिल पर टांग दिया ।
वह वापस आकर फिर मोटर साइकिल पर सवार हो गया ।
वह सीधा एयरपोर्ट पर‍ पहुंचा ।
चार घण्टे के अनथक परिश्रम के बाद वह बुधवार को राजनगर से देश या विदेश कहीं के लिये भी रवाना होने वाले प्लेनों की पैसेन्जर लिस्टें चैक कर चुका था ।
लोलिता का नाम किसी भी पैसेन्जर लिस्ट में नहीं था ।
सुनील वापस लौट पड़ा ।
बैंक स्ट्रीट में उसके अपने फ्लैट तक पहुंचते-पहुंचते अन्धेरा होने लगा था ।
सुनील अपने फ्लैट में पहुंचा ।
उसने बिजली की केतल में पानी डाला और उसे प्लग से लगा दिया । पानी उबलने की प्रतीक्षा में वह बैडरूम में जाकर पलंग पर लेट गया ।
उसी क्षण फोन की घन्टी घनघना उठी ।
सुनील ने लेटे-लेटे ही टेलीफोन की ओर हाथ बढा दिया ।
“हल्लो ।” - वह बोला ।
“कौन बोल रहे हैं ?” - दूसरी ओर से आवाज आई ।
“सुनील ।”
“सुनील, मैं राजपाल बोल रहा हूं ।”
सुनील फौरन उठकर बैठ गया । राजपाल क्यों फोन कर रहा था उसे ?
“बोलो ।” - सुनील बोला ।
“आज दोपहर क्लब में जो कुछ हुआ उसका मुझे अफसोस है । तुम्हारे जाने के बाद यहां कुछ ऐसी बात हुई है जिससे मुझे लगता है कि अगर मैंने जल्दी ही बदमाशों का साथ नहीं छोड़ा तो मेरी ऐसी तैसी हो जायेगी ।”
“तुम्हे बदमाशों का साथ छोड़ने की क्या दिक्कत है । अपने रेस्टोरेन्ट के धन्धे का ढर्रा बदल दो, होस्टेसों वगैरह का बखेड़ा निकाल दो और फिर चैन की बंसी बजाओ ।”
“यह बात तुम इसलिये कह रहे हो क्योंकि तुम समझते हो कि मैं ‘ब्लू रूम का मालिक हूं ।”
“और नहीं तो क्या हो तुम ?”
“मैं तो वहां का वेतनभोगी कर्मचारी हूं । मैनेजर समझ लो ।”
“तो मालिक कौन है ?”
“जगत नारायण । जगत नारायण के निर्देश पर पूछे जाने पर हर जगह मुझे यही कहना पड़ता है कि मालिक मैं हूं ।”
“यानी कि अगर कोई कानूनी गड़बड़ हो जाये तो तुम्हीं फंसो । जगत नारायण पर कोई आंच न आ पाये ।”
“बिल्कुल ।”
“तुमने मुझे क्यों फोन किया है ?”
“देखो किसी के आदेश पर अब तक मैं तुम्हारे किसी भी सवाल का कोई सही उत्तर नहीं दे रहा था लेकिन अगर वक्त आने पर तुम मेरी हर तरह की मदद करो तो मैं अब तुम्हारे हर सवाल का ठीक जवाब देने के लिये तैयार हूं ।”
“कोई घिस्सा तो नहीं दे रहे हो ।”
“बाई गॉड मैं कोई घिस्सा नहीं दे रहा हूं । मैं हर हाल में इस दादागिरी और बदमाशी के धन्धे से किनारा करना चाहता हूं । शायद तुम्हें मालूम नहीं, मैं बीवी बच्चों वाला आदमी हूं ।”
“कहां मिलोगे ?”
“रेस्टोरेन्ट में ही । जिस दरवाजे से दोपहर को तुमने मुझे निकलते देखा था । वही मेरा आफिस है ।”
“कब आऊं ?”
“जब तुम मुनासिब समझो । चाहो तो अभी आ जाओ ।”
“मैं फौरन आ रहा हूं । मुझे डर है कि कहीं तुम्हारा इरादा न बदल जाये ।”
“मैं इन्तजार कर रहा हूं ।”
सुनील ने रिसीवर क्रेडिल पर टांग दिया ।
उसने किचन में जाकर केतली देखी । पानी अभी गर्म ही हुआ था, उबला नहीं था । उसने केतली से सम्बन्धित बिजली का प्लग निकाल दिया । उसने एक गिलास को गर्म पानी से आधा भरा और गिलास बैड रूम में ले गया । अलमारी से उसने एक ब्रांडी की बोतल निकाली । ब्रांडी की ढेर सारी मात्रा उसने गिलास में डाली और फिर उसने एक ही सांस में गिलास खाली कर दिया ।
वह फ्लैट को ताला लगाकर इमारत से बाहर निकल आया ।
वह मोटर साइकिल पर सवार हुआ और सीधा ‘ब्लू रूम’ पहुंचा ।
उसने मोटर साइकिल को ‘ब्लू रूम’ से थोड़ी दूर ही पार्क किया और पैदल आगे बढा ।
वह ‘ब्लू रूम’ में प्रविष्ट हुआ ।
‘ब्लू रूम’ में रंगीनी का वक्त हो चुका था । हाल की तीन चौथाई मेजें भरी हुई थीं । बार काउन्टर पर भी केवल दो तीन स्टूल खाली थे । केवल कैबरे अभी आरम्भ नहीं हुआ था लेकिन बैंड बज रहा था जो इस बात का संकेत था कि कैबरे शीघ्र ही आरम्भ होने वाला था ।
सुनील आगे बढा । बार टेन्डर अपने ग्राहकों के साथ बहुत बिजी था । उसका सारा ध्यान ग्राहकों को सर्व करने की ओर था । सुनील पर उसकी निगाह नहीं पड़ी ।
सुनील उस दरवाजे के समीप पहुंचा जिसमें से उसने दोपहर को राजपाल को निकलते देखा था और जिसका राजपाल ने टेलीफोन पर जिक्र किया था । सुनील द्वार खोलकर भीतर प्रविष्ट हो गया ।
कमरे में एकदम अन्धेरा था ।
इससे पहले कि अभी सुनील कुछ समझ पाता, एकाएक कमरे में तीव्र प्रकाश फैल गया ।
“पकड़ो !” - कोई जोर से चिल्लाया और फिर कोई चीज हवा में उछलती हुई सुनील की ओर आई । सुनील ने झपटकर उसे लपक लिया । अगर वह उसे लपक न लेता तो वह चीज सीधी उसके चेहरे से आकर टकराती ।
वह एक रिवाल्वर थी ।
उसी क्षण कमरे की बांई ओर का एक दरवाजा खुला, एक साया कमरे से दरवाजे के बाहर लपका और फिर दृष्टि से ओझल हो गया ।
सुनील दौड़कर उस दरवाजे के पास पहुंचा ।
वह एक लम्बा गलियारा था जिसके दूसरे सिरे का दरवाजा एक गली में खुलता था ।
साया गायब हो चुका था ।
गली में से एक कार स्टार्ट होने की आवाज आई ।
सुनील वापिस कमरे में आया ।
राजपाल अपनी मेज के पीछे एक कुर्सी पर पड़ा था । उस के माथे में एक सुराख दिखाई दे रहा था ।
सुनील ने अपने हाथ में थमी रिवाल्वर को नाक के पास ले जाकर सूंघा ।
उसमें से ताजे जले बारूद की बू आ रही थी ।
प्रत्यक्ष था कि उसी रिवाल्वर से राजपाल को शूट किया गया था ।
सुनील विकट स्थिति में था । अगर उसी समय पुलिस वहां पर आ जाती तो सुनील हरगिज भी यह सिद्ध नहीं कर पाता कि अपने राजपाल का खून नहीं किया था ।
उसने अपनी जेब से रूमाल निकालकर रिवाल्वर को अच्छी तरह पोंछ दिया ताकि उस पर उंगलियों के निशान न रह जायें और‍ फिर रिवाल्वर वहीं फेंक दी ।
फिर वह कमरे से बाहर निकल आया । उसने चुपचाप सावधानी से अपना रुमाल वाला हाथ द्वार के हेंडिल पर भी फिरा दिया ।
उसी क्षण सुनील की निगाह काउन्टर पर पड़ी ।
बार टेन्डर के हाथ में टेलीफोन का रिसीवर था और वह विचित्र नेत्रों से सुनील की ओर देख रहा था । फिर उसने टेलीफोन का रिसीवर क्रेडिल पर रख दिया और सुनील को पूरी तरह नजर अन्दाज करके अपने काम में लग गया ।
सुनील ने रूमाल जेब में रखा और मेजों के बीच से होता हुआ तेजी से बार की ओर बढा ।
स्टेज पर कैब्रे डांसर का पदार्पण हो चुका था और हाल में मौजूद सभी आदमियों की निगाह स्टेज पर टिकी हुई थी ।
सुनील ‘ब्लू रूम’ से बाहर निकल आया ।
वह अपनी मोटर साइकिल के समीप पहुंचा । उसने मोटर साइकिल को किक मारी और उस पर सवार हो गया ।
उसी क्षण विपरीत दिशा से पुलिस की एक जीप आकर ‘ब्लू रूम’ के सामने रुकी ।
सुनील ने वहीं से मोटर साइकिल को यू टर्न दिया और बन्दूक से छटी गोली की तरह वहां से भाग निकला ।
***
सुनील अपने फ्लैट पर नहीं गया ।
वह यूथ क्लब भी नहीं गया ।
बार टेन्डर ने उसे राजपाल के दफ्तर से निकलते देखा था और सुनील ने उसके हाथ में टेलीफोन का रिसीवर भी देखा था । पुलिस वहां पहुंच गई थी । उसे विश्वास था कि उसके नाम को लेकर जरूर कोई हंगामा होगा ।
उसने अपनी मोटर साइकिल रेलवे स्टेशन की पार्किंग में छोड़ दी और वह स्वयं एक स्कूटर पर सवार होकर रौनक बाजार के एक गन्दे से होटल में पहुंच गया । वह होटल ऐसा था जहां अक्सर चोर बदमाश और संदिग्ध व्यक्ति ही ठहरते थे इसलिये काउन्टर क्लर्क ने उसे कमरा देते समय न उससे उसके समान के बारे में पूछा और न उसकी ओर विशेष ध्यान दिया ।
सुनील अपने कमरे में पहुंचा । उसने वहीं मंगाकर खाना खाया और फिर सो गया ।
सुबह सवेरे उठकर वह सड़क पर गया और दो-तीन विभिन्न अखबार खरीद लाया ।
ब्लास्ट में केवल इतना छपा था कि ‘ब्लू रूम’ के संचालक की पिछली रात को हत्या हो गई थी और हत्यारा फरार था ।
लेकिन ‘क्रानिकल’ ने वही समाचार पहले पृष्ठ पर मोटी-मोटी सुर्खियों के द्वारा छापा था और साथ ही सुनील की वह तस्वीर भी छाप दी थी जो उस अखबार में पहले भी छप चुकी थी और जो ललित ने खींची थी ।
क्रानिकल के अनुसार रविवार दोपहर को सुनील का ब्लू रूम के संचालक राजपाल से भारी झगड़ा हुआ था जिसमें सुनील ने राजपाल को बुरी तरह पीटा था । रेस्टोरेन्ट का बार टेन्डर और डैनी नाम का एक युवक इस बात के गवाह थे । उसके बाद सुनील गुस्से से उफनता हुआ, गालियां बकता हुआ और राजपाल को ऊंट-पटांग धमकियां देता हुआ वहां से विदा हो गया था ।
रात होने के बाद सुनील फिर वापिस आया था और सीधा राजपाल के आफिस में घुस गया था । थोड़ी देर बाद वह वहां से निकला था और लम्बे डग भरता हुआ ब्लू रूम से बाहर निकल गया था । बार टेन्डर ने क्योंकि दिन में सुनील को राजपाल की पिटाई करते देखा था इसलिये वह सुनील के दुबारा आगमन से बहुत चिन्तित हुआ था । सुनील के जाते ही वह राजपाल के कमरे में गया था । राजपाल अपने आफिस में मरा पड़ा था । सुनील ने रिवाल्वर से उसका भेजा उड़ा दिया था । रिवाल्वर भी वहीं आफिस में पड़ी थी । बार टेन्डर ने तत्काल पुलिस को फोन कर दिया था ।
पुलिस को रिवाल्वर पर किसी प्रकार की उंगलियों के निशान नहीं मिले थे जिससे जाहिर होता था कि या तो सुनील दस्ताने पहने हुये था और या फिर उसने गोली चलाने के बाद रिवाल्वर को किसी कपड़े से पोंछ दिया था ।
पुलिस को सुनील के हत्यारा होने में कोई सन्देह नहीं था । हत्या के अधिक से अधिक दस मिनट पहले राजपाल ने पुलिस स्टेशन पर फोन किया था और कहा था कि उसे भय है कि सुनील उसका खून कर देगा । राजपाल ने पुलिस को बताया कि सुनील ने उसे कुछ ही क्षण पहले फोन किया था । शराब के नशे में उसकी आवाज थरथरा रही थी और उसने गालियां देते हुये राजपाल को वीरवार की हुई अपनी पिटाई के लिये जिम्मेदार ठहराया था और उसे जान से मार डालने की धमकी दी थी । राजपाल ने पुलिस से सुरक्षा की अपील की थी ।
लेकिन शायद राजपाल ने - और पुलिस ने भी - यह नहीं सोचा था कि सुनील इतनी जल्दी राजपाल पर चढ दौड़ेगा ।
पुलिस हर जगह सुनील को तलाश कर रही है । पिछली रात को न वह अपने फ्लैट पर वापिस लौटा था, न वह ‘ब्लास्ट’ के दफ्तर में गया था जहां कि वह नौकरी करता था और न वह यूथ क्लब पहुंचा था जहां कि वह अक्सर जाया करता था । पुलिस को केवल उसकी रेलवे स्टेशन की पार्किंग में खड़ी मोटर साइकिल मिली थी ।
पुलिस इन्सपेक्टर प्रभूदयाल का दावा था कि वह अड़तालीस घन्टे से पहले ही सुनील को गिरफ्तार कर लेगा । पुलिस ने जनता से अपील की थी कि जिसे भी सुनील कहीं दिखाई दे वह फौरन पुलिस हैडक्वार्टर को सूचित करे ।
सुनील ने अखबार फेंक दिया ।
उसको राजपाल की हत्या के मामले में बड़ी चालाकी से फंसाया गया था । अब तो उसे यह भी सन्देह होने लगा था कि टेलीफोन पर उससे राजपाल ने बात की थी या राजपाल का नाम लेकर किसी और आदमी ने । वह राजपाल की आवाज अच्छी तरह पहचानता नहीं था । किसी ने उसे टेलीफोन पर कहा था कि वह राजपाल बोल रहा है और सुनील ने मान लिया था ।
और पता नहीं जिस आदमी ने पुलिस स्टेशन फोन करके यह कहा था कि सुनील उसे हत्या की धमकी दे रहा था, वह भी राजपाल था या नहीं ।
जगत नारायण अन्त में उसे किसी न किसी प्रकार फंसाने में कामयाब हो ही गया था । अन्तर केवल इतना पड़ा था कि उसे सुनील को फंसाने के लिये अपने एक आदमी की बलि देनी पड़ी थी ।
अब उसके बचने का एक ही तरीका था कि खुद पकड़े जाने से पहले वह वास्तविक हत्यारे को पकड़कर पुलिस के सामने पेश कर दे ।
और वास्तविक हत्यारा जो भी था, वह जगत नारायण से जरूर सम्बन्धित था ।
सुनील उठ खड़ा हुआ और बेचैनी से उस छोटे से कमरे में टहलने लगा ।
उसका रमाकांत से फौरन सम्पर्क स्थापित करना बहुत जरूरी था और सम्पर्क का कोई तरीका उसकी समझ में नहीं आ रहा था । वह स्वयं यूथ क्लब जा नहीं सकता था क्योंकि उसे पूरा विश्वास था कि प्रभूदयाल यूथ क्लब की निगरानी जरूर करवा रहा होगा और न ही वह रमाकांत को टेलीफोन कर सकता था क्योंकि उसकी टेलीफोन लाईन भी पुलिस द्वारा टेप की होने की पूरी सम्भावना थी ।
अन्त में सुनील के दिमाग में एक तरकीब आई ।
उसने अपनी टाई उतारकर जेब में रख ली और कोट के कालर खड़े कर लिये । वह सीढियां उतरकर होटल से बाहर की ओर बढा ।
रिसैप्शनिस्ट को उसकी परवाह नहीं थी, वह सुनील से दो दिन का एडवांस पहले ही वसूल कर चुका था । उसने सुनील पर एक उड़ती सी निगाह डाली और फिर अपने सामने पड़े रजिस्टर पर झुक गया ।
किसी ने सुनील की ओर ध्यान नहीं दिया ।
रौनक बाजार में ही सुनील के मित्र फ्रैंक का काफी बार था । उसे यकीन था कि प्रभूदयाल को सुनील के फ्रैंक से किसी प्रकार के सम्बन्ध की जानकारी नहीं थी ।
रौनक बाजार भारी भीड़ वाला था लेकिन अभी वहां भीड़ इकट्ठी नहीं हुई थी । सुनील निर्विरोध फ्रैंक के काफी बार में पहुंच गया ।
फ्रैंक काउन्टर पर बैठा था ।
सुनील को देखते ही उसके नेत्र फैल गये । उसने एक बार अपनी छाती पर लकटते हुये क्रॉस को छुआ फिर हाल में बैठे सात-आठ ग्राहकों की ओर देखा और फिर एकदम काउन्टर से उठकर हाल की पिछली दीवार के समीप बने द्वार की ओर बढ गया ।
सुनील लापरवाही से चलता हुआ उसके पीछे हो लिया ।
काफी बार के पिछवाड़े में ही फ्रैंक रहता था । सुनील फ्रैंक के थोड़ी देर बाद उसके कमरे में प्रविष्ट हुआ ।
फ्रैंक ने फौरन द्वार भीतर से बन्द कर लिया ।
“मास्टर आप” - फ्रैंक हैरानी से बोला - “आपको तो पुलिस नगर के चप्पे-चप्पे में तलाश कर रही है ।”
“मुझे मालूम है ।”
“वह खून...”
“मैंने नहीं किया ।”
फ्रैंक ने शांति की गहरी सांस ली ।
“मुझे तुम्हारी मदद की जरूरत है ।”
“गुलाम हाजिर है ।”
“यह जगह मेरे यहां ठहरने के लिये सुरक्षित है ?”
“एकदम सुरक्षित है ।”
“तुम यूथ क्लब चले जाओ । और किसी प्रकार पुलिस की जानकारी में आये बिना रमाकांत को यहां ले आओ ।”
“ठीक है मास्टर, मैं अभी जाता हूं ।”
“और रमाकांत को बता देना कि पुलिस उसकी निगरानी जरूर कर रही होगी, पुलिस उसका यहां तक पीछा न कर पाये और न ही पुलिस तुम पर सन्देह हो ।”
“मैं ख्याल रखूंगा ।”
फ्रैंक चला गया ।
रमाकांत वहां दो घन्टे बाद आया । फ्रैंक रमाकांत को सुनील के पास छोड़कर स्वयं बाहर चला गया ।
“यह क्या तमाशा है ?” - रमाकांत आते ही बोला - “मैं क्या सुन रहा हूं ? यह...”
“अरे, बैठो तो ।” - सुनील बोला ।
“तुम पर राजपाल के खून का इलजाम है ।” - रमाकांत बैठ गया और धीरे से बोला ।
“मैंने उसका खून नहीं किया है ।”
“लेकिन हर बात उसी ओर संकेत करती है कि...”
“मुझे फंसाया गया है ।”
“क्या किस्सा है ?”
“किस्से को गोली मारो । तुम बताओ कोई काम हुआ है ।”
“हां ! हंसराज शर्मा फोटोग्राफर का हर्नबी रोड पर स्टूडियो है और उसकी ऊपर की मंजिल पर वह रहता है ।”
“तुम अन्धे टापू के आस-पास के समुन्द्री इलाके का नक्शा लाये हो ?”
“लाया हूं ।” - रमाकांत बोला और उसके सामने एक नक्शा फैला दिया - “यह राजनगर का समुद्र तट है । यह अन्धा टापू है और यह जहां लाल निशान लगा हुआ है, यह स्थान है जहां तुम्हारी बताई मोटरबोट डूबी थी ।”
सुनील ने राजनगर और अन्धे टापू के सन्दर्भ से लाल निशान की स्थिति अच्छी तरह याद कर ली और फिर नक्शे के टुकड़े-टुकड़े कर दिये ।
“जगत नारायण के बारे में कुछ और मालूम हुआ ?” - सुनील ने पूछा ।
“कई पुरानी छोटी-छोटी लेकिन बड़ी रोचक बातें मालूम हुई हैं ।” - रमाकांत बोला ।
“मैंने तुम्हें बताया था कि जेल जाने से कुछ दिन पहले सुखवीर ने राजनगर के किसी बहुत बड़े दादा द्वारा चलाये जाने वाले जुआघर पर डाका डाला था और वह वहां से लगभग पांच लाख रुपये ले उड़ा था । वह जुआघर जगत नारायण का था ।”
रमाकांत को यह देखकर बहुत निराशा हुई कि सुनील को उसकी बात सुनकर कोई हैरानी नहीं हुई ।
“और ?” - सुनील ने पूछा ।
“वह जुआघर तो तभी बन्द हो गया था” - रमाकांत बोला - “उस जुआघर का एक कर्मचारी मुझे मिल गया था । उससे मैंने थोड़ी जानकारी ‘खरीदी’ है ।” - उसने खरीदी शब्द पर अति विशेष जोर दिया ।
“क्या !”
“जगत नारायण सुखवीर द्वारा अपना पांच लाख रुपया लूटे जाने पर पागल हो गया था । वह किसी भी प्रकार सुखवीर से वह रुपया वापिस हासिल करना चाहता था । लेकिन सुखवीर कहीं गायब हो गया था और जगत नारायण को उसका पता नहीं मालूम हो पा रहा था । फिर किसी ने उसका ध्यान लोलिता की ओर आकर्षित किया । सुखवीर लोलिता पर मरता था और लोलिता डैनी पर मरती थी और डैनी तब भी जगत नारायण के लिये काम करता था । जगत नारायण को सन्देह था कि लोलिता को सुखवीर का पता जरूर मालूम होगा । लोलिता से सुखवीर का पता उगलवाने का काम उसने डैनी को सौंपा । डैनी की सहायता के लिये जगत नारायण ने उसके साथ ठाकुर को भी लगा दिया है । जगत नारायण चाहता था कि जब डैनी लोलिता से सुखवीर का पता जान ले तो वे लोग सुखवीर को पकड़ कर उसके पास ले आयें ताकि वह उससे मालूम कर सकें कि पांच लाख रुपया उसने कहां छुपाया था ।”
“फिर ?”
“स्कीम अच्छी थी लेकिन कामयाब नहीं हुई । उन लोगों से टकराव होने से पहले ही सुखवीर पुलिस की गिरफ्त में आ गया । मैंने तुम्हें बताया ही था कि पुलिस को एक गुमनाम टेलीफोन कॉल आई थी कि सुखवीर धर्मपुरे के एक मकान में छुपा हुआ था ।”
“यह पता नहीं लगा कि वह कॉल किसने की थी ?”
“नहीं । और न ही अब एक साल बाद पता लगेगा ।”
“कॉल आदमी ने की थी या औरत ने ?”
“आदमी ने ।”
रमाकांत द्वारा लाई जानकारी ने कई बातें स्पष्ट कर दीं । अब सुनील को सुखवीर से पूछने की जरूरत नहीं थी कि जगत नारायण उससे क्या चाहता था । जगत नारायण उससे अपने पांच लाख रुपये वापिस चाहता था । और इसीलिये मंगलवार को जब सुखवीर जेल से छूटा तो जगत नारायण के आदमी केनी और उसका साथी पहले ही जेल से बाहर उसके स्वागत के लिये तैयार खड़े थे लेकिन सुखवीर किसी प्रकार तब उन्हें डॉज दे गया था । बाद में केनी और उसके साथी को सुखवीर के घर का पता मालूम हो गया था और वे सुखवीर को पकड़ कर जगत नारायण के पास ले जाने के लिये वहां जा पहुंचे थे । लेकिन यह उनका दुर्भाग्य था कि सुखवीर तो उनके हाथ आया नहीं, वे दोनों अपनी जान से हाथ धो बैठे ।
“मैं हंसराज शर्मा फोटोग्राफर से बात करना चाहता हूं” - सुनील बोला - “लेकिन मैं उसके पास हर्नबी रोड जाने का रिस्क नहीं लेना चाहता । इस चक्कर में कोई न कोई मुझे जरूर पहचान लेगा और मैं गिरफ्तार हो जाऊंगा ? तुम किसी प्रकार फोटोग्राफर को यहां ला सकते हो ?”
“ले आऊंगा । तुम कह रहे हो तो लाना ही पड़ेगा ।”
“प्लीज ।”
“इसमें देर लग सकती है । हो सकता है, फोटोग्राफर मुझे फौरन न मिले ।”
“कोई बात नहीं ।”
“ओके ।” - रमाकांत बोला और वहां से विदा हो गया ।
सुनील के पास फिलहाल मक्खियां मारने के अलावा कोई काम नहीं था ।
रमाकांत हंसराज शर्मा फोटोग्राफर को रात के नौ बजे फ्रैंक के कॉफी बार में सुनील के पास लेकर आया ।
हंसराज शर्मा मुश्किल से पच्चीस साल का गठे बदन का युवक था । सुनील पर निगाह पड़ते ही उसके नेत्र फैल गये । प्रत्यक्ष था कि सुनील की अखबार में छपी फोटो के आधार पर उसने सुनील को पहचान लिया था ।
“मैंने इससे सौ रुपये के फोटोग्राफी के काम का वादा किया है ।” - रमाकांत बोला ।
“मैं सौ रुपये तुम्हें वैसे ही दे दूंगा” - सुनील बोला - “फोटोग्राफर साहब, तुम्हारे चेहरे पर लिखा है कि तुम मुझे उस फरार अपराधी के रूप में पहचान गये हो जिसकी आज के अखबार में तस्वीर छपी है ।”
“मैं आपको वैसे ही पहचानता हूं” - फोटोग्राफर बोला - “आप का नाम सुनील है । आप ब्लास्ट के बड़े हंगामाखेज प्रतिनिधि हैं । मैं नियमित रूप से ब्लास्ट पढता हूं और आपकी रिपोर्टों को बड़े चाव से पढता हूं । एक प्रकार से मैं आपका फैन हूं ।”
“बड़ी खुशी की बात है । लेकिन फिर भी तुम मेरे चन्द सवालों का जवाब दो, अपने सौ रुपये लो और फिर चाहे यहां से निकलने के बाद पुलिस स्टेशन जाकर ही दम लेना । हममें से कोई तुम्हें रोकेगा नहीं ।”
“आप क्या पूछना चाहते हैं ?” - फोटोग्राफर सुसंयत स्वर से बोला ।
“तुम रत्ना देवी के बंगले पर होने वाली हर पार्टी में फोटोग्राफर की हैसियत से बुलाये जाते हो ।”
“जी हां ।”
“पिछले मंगलवार को जो पार्टी वहां हुई थी, तुम उसमें भी मौजूद थे ?”
“जी हां ।”
“तुम पार्टी में मौजूद मुख्य-मुख्य लोगों को तो पहचानते ही होंगे ?”
“मुख्य-मुख्य क्या, मैं लगभग सभी को पहचानता हूं ।”
“जैसे जगत नारायण को, डैनी को, राजपाल को, लोलिता को, ठाकुर को, केनी को ।”
“आखिरी दो सहबान का नाम कभी नहीं सुना, बाकी सबको जानता हूं ।”
“मंगलवार वाली पार्टी में ये सब लोग थे ?”
“शुरू में जगत नारायण नहीं था । वह लगभग बारह बजे के करीब आया था लेकिन लोलिता, राजपाल और डैनी वहां ग्यारह बजे से भी पहले पहुंच गये थे ।”
“पार्टी के बारे में कुछ बताओ ।”
“हमेशा की तरह पार्टी में बहुत लोग मौजूद थे । शराब के दौर चल रहे थे । स्त्रियां पुरुष सब पी रहे थे और मैं उन लोगों के बीच में घूम-घूमकर उनकी तस्वीरें खींच रहा था । रत्ना देवी उस दिन जरा ज्यादा पी गई थीं और वे काफी डाऊन नजर आने लगी थीं । रत्नी देवी के कहने पर राजपाल और डैनी कुछ अन्य लोगों को पार्टी में लिवाने चले गये थे लेकिन जब तक वे लोग और मेहमानों को लेकर वापिस लौटे थे, तब तक रत्ना देवी पर नशा पूरी तरह हावी हो चुका था और वह पार्टी छोड़कर अपने बैडरूम में चली गई थीं ।”
“लोलिता उस समय कहां थी ?”
“वह मेहमानों के बीच तो नहीं थी लेकिन मैंने उसे बाहर जाते भी नहीं देखा था । मेरा ख्याल था कि वह भी ज्यादा शराब पी गई थी और बंगले के किसी अन्य बेडरूम में जाकर सो गई थी ।”
“तुमने उसे बंगले से बाहर जाते नहीं देखा था ?”
“नहीं । मैं पार्टी से सबसे आखिर में गया था लेकिन लोलिता के मुझे दुबारा दर्शन नहीं हुये ।”
“और जगत नारायण के ?”
“वह बारह बजे के करीब दिखाई दिया था । मेहमानों के पास पांच सात मिनट ठहरकर वह बंगले के भीतर कहीं चला गया था । लगभग आधे घन्टे बाद वह वहां से विदा हो गया था । कुछ लोग उसे रोकने की कोशिश कर रहे थे लेकिन वह कह रहा था कि उसे बहुत जरूरी काम था ।”
सुनील कई क्षण चुप रहा ।
“थैंक्यू मिस्टर !” - अन्त में वह बोला और उसने सौ रुपये का एक नोट फोटोग्राफर की ओर बढा दिया ।
फोटोग्राफर ने रुपये नहीं लिये ।
और न ही उसने पुलिस स्टेशन का रुख किया ।
***
रात के ग्यारह बजे थे ।
सुनील चोरों की तरह रत्ना देवी के बंगले में घुसा । उस समय बंगले के केवल एक ही कमरे की बत्ती जल रही थी । सुनील दबे पांव उस कमरे की खिड़की के नीचे पहुंचा । खिड़की खुली थी । फिर उसने सावधानी से सिर उठाकर खिड़की से भीतर झांका ।
रत्ना देवी अभी भी जाग रही थी । उसके चेहरे पर गहरी उदासी थी, उसकी आंखों में आंसू तैर रहे थे और उसके सामने आधी खाली बोतल और एक गिलास रखा था ।
“हे भगवान !” - रत्ना देवी के मुंह से कराह की तरह निकला । उसने विस्की का गिलास उठाकर होंठों से लगाया और उसे एक ही सांस में खाली कर दिया ।
खाली गिलास का तसा ठक से मेज से टकराया ।
रत्ना देवी बैडरूम के कोने में रखे रेफ्रीजरेटर की ओर बढी । थोड़ी देर के लिये उसकी पीठ सुनील की ओर हो गई । सुनील फुर्ती से खिड़की की चौखट पर चढ गया और कमरे में कूद गया ।
“गुनाह के अहसास को शराब के नशे में घोल पाना बहुत मुश्किल का काम है, रत्ना देवी ।” - सुनील धीरे से बोला ।
रत्ना देवा चौंकी नहीं । वह धीरे से वापिस घूमी । उसके हाथ में बर्फ की ट्रे थी । उसने दो तीन बार आंखें मिचमिचाई जैसे उसे सुनील की सूरत साफ न दिखाई दे रही हो । फिर जैसे सुनील उसकी आंखों के फोकस में आ गया ।
“तुम !” - वह नशे में थरथराती हुई आवाज से बोली ।
“शुक्र है अभी आप इतने नशे में नहीं हैं कि मुझे पहचान न पायें” - सुनील गम्भीरता से बोला - “रत्ना देवी, इन्सान गुनाह करता है, उसकी सजा भुगतता है और उसकी शुद्धि हो जाती हो जाती है लेकिन आप क्योंकि गुनाह करके सजा नहीं भुगतना चाहती इसलिये तड़प रही हैं और मन की शांति को शराब के नशे में तलाश कर रही है लेकिन आपकी सूरत बता रही है कि आपके गुनाहगार मन मस्तिष्क के लिये शराब भी कोई भारी सहारा सिद्ध नहीं हो रही । शराब का नशा उतर जायेगा और आपको फिर याद आने लगेगा कि आपने एक निर्दोष इन्सान के खून से अपने हाथ रंगे हैं ।”
रत्ना देवी के हाथ से ट्रे छूट गई । मोटे कलीन पर ट्रे गिरने की आवाज नहीं हुई लेकिन बर्फ के टुकड़े हर ओर फैल गये ।
“आप अपनी जुबान से कुछ बतायें या न बतायें, मैं पहले ही सब कुछ जानता हूं कि मंगलवार की रात को क्या हुआ था ?”
“क्या हुआ था ?” - रत्ना देवी फुसफुसाई ।
“मंगलवार की रात को आपके बंगले में लोलिता का खून हुआ था और वह खून आपने किया था ।”
रत्ना देवी सोफे पर ढेर हो गई । उसका चेहरा राख की तरह सफेद हो गया । उसका हाथ मेज पर रखी शराब की बोतल की ओर बढा लेकिन रुक गया ।
“तुम्हें कैसे मालूम है कि लोलिता का खून मैंने किया है ?” - वह बलहीन स्वर में बोली ।
“आपका एक-एक एक्शन जाहिर कर रहा है । आपके चेहरे पर लिखा है कि लोलिता का खून आपने किया है । डैनी की वजह से आपका लोलिता से झगड़ा हो गया था । लोलिता डैनी पर अपना अधिकार जमाना चाहती थी जबकि आप समझती थी कि डैनी आप पर फिदा है । हर कोई शराब के नशे में था । डैनी यह कहकर कि आप और लोलिता आपस में फैसला कर लें कि वह किसका है, वहां से चला गया । आप में और लोलिता में झगड़ा हुआ और आपने उसकी छाती में चाकू घोंप दिया ।”
रत्ना देवी पत्थर की प्रतिमा की तरह सोफे पर पड़ी रही ।
“जब आपको यह अहसास हुआ कि आपने क्या कर दिया है तो आप आतंकित हो उठीं । उस हालत में आपने वही किया जो धनवान औरत होने की वजह से करना आपकी आदत बन गई थी - यह कि दूसरा आदमी आपकी मुसीबत को भुगते । आपने जगत नारायण को बुलाया । जगत नारायण पर ऊंची से ऊंची सोसायटी का इज्जतदार आदमी बनने का भूत सवार था । उसने शायद आपको उस मुसीबत से निकालने की यह शर्त रखी कि बाद में आप उससे शादी कर लें । आपने फौरन हामी भर दी क्योंकि उस समय आप किसी भी कीमत पर उस बखेड़े से निकलना चाहती थी । बाद में डैनी और राजपाल वापिस आये तो जगत नारायण ने उन्हें भी बता दिया कि क्या हो गया है । फिर डैनी और राजपाल ने जगत नारायण के किराये के बदमाशों के साथ मिलकर लाश वहां से गायब कर दी । वे लाश को एक पुरानी फोर्ड में रखकर उसे तारकपुर की पहाड़ियों में एक खड्ड में धकेल आये । उनका ख्याल था कि खड्ड में गिरते ही कार को आग लग जायेगी और लोलिता की लाश जलकर राख हो जायेगी । फिर यह कहना कठिन हो जायेगा कि वह हत्या थी या दुर्घटना । लेकिन बदमाशों की स्कीम में दो गड़बड़ें हो गई । एक तो कार का पैट्रोल की टंकी नहीं फटी और उसे फौरन आग नहीं लगी । उन्हें कार को आग लगाने के लिये हथगोले इस्तेमाल करने पड़े । और दूसरे मैं वहां पहुंच गया । मैंने लाश को पूरी तरह जलकर राख होने से पहले ही कार से बाहर खींच लिया था ।”
रत्ना देवी कुछ नहीं बोली ।
“रत्ना देवी” - सुनील तीव्र स्वर में बोला - “स्वीकार कीजिये कि आपने लोलिता का खून किया था । उस एक खून की वजह से पहले ही बहुत जानें जा चुकी हैं । लोलिता के खून को कवर करने के लिये बदमाशों ने बेगुनाह रोजी का खून किया क्योंकि उन्हें भय था कि वह मुझे कोई ऐसी बात न बता दे जिससे मैं वास्तविकता जान जाऊं ।”
“रोजी कौन है ?”
“यह पूछिये कि रोजी कौन थी ? रोजी लोलिता के साथ रहती थी । जगत नारायण के किसी बदमाश ने उसका गला घोंट दिया । रोजी की ही तरह जगत नारायण ने राजपाल की भी हत्या करवा दी क्योंकि उसे भय था कि यह मेरे सामने अपनी जुबान खोलने ही वाला था । और राजपाल को एक ऐसी नपी-तुली स्कीम के अनुसार मारा गया कि उसकी हत्या का सीधा इलजाम मेरे सिर पर आ गया । लोलिता की मौत के चक्कर में ही केनी और उसका साथी मारे गये हैं और सुखवीर नाम का एक आदमी हस्पताल में पड़ा है ।”
रत्ना देवी लड़खड़ाती हुई सोफे से उठ खड़ी हुई ।
“यह... यह...” - वह कांपते स्वर में बोली - “यह सब... मेरी वजह से हुआ ?”
“बिल्कुल ।”
“मैंने लोलिता का खून किया था” - वह यूं बोली जैसे नींद में बड़बड़ा रही हो - “मैं अपने होश में नहीं थी । मैं समझती थी कि डैनी मेरे सिवाय किसी का हो ही नहीं सकता क्योंकि मेरे पास रुतबा है, दौलत है, रूप है लेकिन लोलिता कहती थी कि डैनी मेरे साथ केवल दिखावा करता था । वास्तव में लोलिता से प्यार करता था । लोलिता उस समय यही मेरे बैडरूम में थी । ज्यादा नशे की वजह से मुझे बेहद गुस्सा आ गया । मैंने मेज से एक कागज काटने वाला चाकू उठा लिया ।”
एक कागज काटने वाला चाकू अभी भी मेज पर पड़ा था । रत्ना देवी का दांया हाथ आगे बढा और उसकी उंगलियां उस चाकू पर कस गई ।
“मैंने चाकू से यूं” - उसका चाकू वाला हाथ अर्धवृत में ऊपर से नीचे की ओर घूमा - “लोलिता पर वार किया और फिर मैं बेहोश होकर गिर गई । जब मुझे होश आया तो लोलिता मेरे सामने मरी पड़ी थी और मेरे हाथ में उसके खून से लथपथ चाकू था । मैं, मैं... बाई गॉड, मैं उसे... मारना नहीं चाहती थी लेकिन शराब के नशे और क्रोध ने मुझे पागल कर दिया था और मैं ऐसा कर बैठी । और सच पूछो तो मुझे यह सपना ही लगता है कि मैंने उस लड़की का खून किया है ।”
“आपको याद नहीं कि आपने उसकी छाती में चाकू घोंपा था ?”
“वह तो मैंने किया ही था वरना वह मर कैसे गई ? लेकिन मैं बहुत नशे में थी और मेरा दिमाग मेरा साथ नहीं दे रहा था । मेरी आंखें धुंधलाई जा रही थीं । उस पर वार करने के फौरन बाद ही शायद मेरी चेतना लुप्त हो गई थी ।”
“ज्यादा शराब पीने से ऐसा हो जाता है कि बाद में इन्सान को अपने ही किये काम सपना सा लगते हैं ।”
“मिस्टर” - एकाएक रत्ना जोर-जोर से रोने लगी । उसकी आवाज शराब के नशे में थरथरा रही थी - “मैं खूनी हूं । मैं हत्यारिणी हूं । मुझे फांसी पर चढा दो । मैंने बहुत बड़ा गुनाह किया है । मैं जिन्दा नहीं रहना चाहती । मैं...”
“शट अप !” - एक गर्जदार आवाज सुनाई दी ।
सुनील ने आवाज की दिशा में घूमकर देखा ।
खिड़की से बाहर जगत नारायण खड़ा था । उसके हाथ में रिवाल्वर थी जिसका रुख सुनील की ओर था ।
जगत नारायण कमरे में आ गया ।
“मुझे इस बात का खतरा था” - जगत नारायण बोला - “कि तुम शराब पीकर भावुकता में बह जाओगी और प्रलाप करने लगोगी । मुझे पता था कि अगर किसी ने तुम पर जरा सा भी दबाव डाला तो तुम स्वीकार कर लोगी कि लोलिता का खून तुमने किया है और अपने साथ मुझे भी मरवाओगी । इसलिये मैंने तुम्हारे कमरे में एक माइक्रोफोन छुपा दिया था । अच्छा हुआ कि मैं तुम्हारा और सुनील का वार्तालाप सुनने के लिये अपने कमरे में मौजूद था और जाग रहा था । मैं अपने बंगले से दौड़ा चला आ रहा हूं ।”
“हैरानी है” - सुनील बोला - “आज खलीफा खुद कैसे दौड़े चले आये । चमचे कहां गये ?”
“वे कोई और काम करने गये हैं । और वैसे भी तुम क्या समझते हो कि तुम्हारे जैसे मच्छर को मसलने के लिये मुझे किसी चमचे की जरूरत पड़ेगी ।”
वह सुनील के पास पहुंचा । अपनी रिवाल्वर उसने सुनील की कनपटी से लगा दी और फिर उसके दक्ष हाथ उसकी तलाशी लेने लगे । उसके पास कोई हथियार न पाकर वह उससे अलग हो गया । फिर वह रत्ना देवी की ओर मुड़ा ।
“मुझे तुमसे बहुत मायूसी हुई है रत्ना देवी” - वह बोला - “तुमने एक लड़की का खून कर दिया और मेरे पास मदद की भीख मांगती हुई आई । मैंने तुम्हारी खातिर लोलिता की लाश को ठिकाने लगाया, रोजी का कत्ल करवाया, सुनील को उसके कत्ल के इलजाम में फंसाने के लिये राज्यपाल का कत्ल करवाया, इतना सब कुछ मैंने तुम्हारे लिये किया और इस आदमी के सामने जुबान खोलते समय तुमने एक बार भी नहीं सोचा कि तुम्हारी जुबान खुलने से मैं भी फंस जाऊंगा । अगर मैं तुमसे मुहब्बत न करता होता तो मैं इसी वक्त मार-मार कर तुम्हारी चमड़ी उधेड़ देता ।”
रत्ना देवी राख सा सफेद चेहरा लिये कांपती खड़ी रही । जगत नारायण के आगमन ने उसका आधा नशा हिरण कर दिया था ।
“चलो ।” - वह सुनील से बोला ।
सुनील हिचकिचाया ।
“तुम इस आदमी को कोई हानि नहीं पहुंचाओगे ।” - रत्ना देवी घबराये स्वर में बोली ।
“नहीं” - जगत नारायण व्यंग पूर्ण स्वर में बोला - “इसे तो मैं अपनी गोद में बिठाकर खिलाऊंगा ।”
“मैं नहीं चाहती कि मेरी वजह से अब और खून खराबा हो ।”
“अब तुम्हारी वजह से कुछ नहीं हो रहा है । अब जो कुछ मैं कर रहा हूं अपनी गरदन बचाने के लिये कर रहा हूं ।” - वह सुनील की ओर मुड़ा - “दरवाजे की ओर बढो ।”
सुनील दरवाजे की ओर बढा ।
रत्ना देवी मुंह बाये सुनील की ओर देख रही थी । उसके पास से गुजरते समय जगत नारायण ने रिवाल्वर को नाल की ओर से पकड़ लिया और उसका एक भरपूर वार रत्ना देवी की कनपटी पर किया ।
रत्ना देवी निःशब्द कालीन बिछे फर्श पर ढेर हो गई ।
जगत नारायण के आदेश पर सुनील ने कमरे के द्वार की चिटखनी खोली और बाहर आ गया । जगत नारायण ने रिवाल्वर उसकी पीठ से लगाई हुई थी । गलियारा खाली था । जगत नारायण उसे चलाता हुआ बंगले के पिछवाड़े में ले आया । वे समुन्द्र की ओर बढे ।
समुन्द्र के समीप पहुंचकर जगत नारायण सुनील से दो कदम परे हट गया ।
सुनील उसकी ओर घूमा ।
जगत नारायण ने रिवाल्वर सुनील की ओर तान दी । उसकी उंगलियां ट्रेगर पर कस गई ।
“भगवान को याद कर लो” - वह धीरे से बोला ।
“ठहरो” - सुनील हांफता हुआ बोला - “अगर तुमने मुझे शूट किया तो तुम्हारा भारी नुकसान हो जायेगा ।”
“मेरा क्या नुकसान हो जायेगा ?”
“केवल मुझे मालूम है कि रुपया कहां है ?”
जगत नारायण के नेत्र सिकुड़ गये ।
“कौन सा रुपया ?” - वह बोला ।
“पांच लाख रुपया” - सुनील जल्दी से बोला - “जो सुखवीर ने एक साल पहले तुम्हारे जुआघर पर डाका डालकर तुमसे छीना था ।”
“यह तो मुझे सुखवीर से ही मालूम हो जायेगा । इस वक्त मेरे आदमी सुखवीर को विक्टोरिया हस्पताल से निकालकर मेरे पास लाने के लिये ही गये हुये हैं ।”
“उसके कमरे में पुलिस का पहरा लगा हुआ है ।”
“मुझे मालूम है । वहां केवल एक सिपाही बैठा हुआ है । मेरे आदमियों के सामने एक सिपाही क्या अहमियत रखता है ?”
“लेकिन तुम्हें फिर भी मालूम नहीं होगा कि रुपये कहां है ?”
“क्यों ?”
“क्योंकि खुद सुखवीर को भी मालूम नहीं कि रुपया कहां है ?”
“क्या बक रहे हो ?”
“मैं ठीक बक रहा हूं ।”
“तुम्हें कैसे मालूम है ?”
“सुखवीर ने वह रुपया अपनी मोटरबोट में छुपाया था और वह मोटरबोट उसने जेल जाने से पहले लोलिता को दे दी थी लेकिन लोलिता को मालूम नहीं था कि मोटरबोट में कहीं पांच लाख रुपया छुपा हुआ था । दो महीने पहले एक एक्सीडेन्ट से मोटरबोट समुद्र में डूब गई थी । केवल मुझे वह जगह मालूम है जहां मोटरबोट डूबी थी ।”
“अगर दो महीने से मोटरबोट पानी में डूबी हुई है तो अब तक तो नोटों का सत्यानाश हो गया होगा ।”
“सुखवीर इतना मूर्ख नहीं कि वह पांच लाख के नोट मोटरबोट में छुपाता और उन्हें भीगने से बचाने का कोई इन्तजाम न करता ।”
जगत नारायण कई क्षण चुप रहा ।
“मार्च ।” - अन्त में वह अपने बंगले की ओर संकेत करता हुआ निर्णयात्मक स्वर में बोला ।
सुनील ने एक गहरी सांस ली ।
वक्ती तौर पर तो वह मौत के मुंह से निकल ही आया था ।
***
भोर का उजाला तो समुद्र की सतह पर फैल रहा था ।
जगत नारायण की विशाल मोटरबोट अन्धे टापू के पास समुद्र की सतह पर हिचकोले ले रही थी ।
मोटरबोट पर सात आदमी मौजूद थे ।
रत्ना देवी एक कुर्सी पर बैठी थी । उसकी कलाइयां कुर्सी के हत्थों के साथ मजबूती से बंधी हुई थीं ।
सुनील डैक के फर्श पर पड़ा था । उसके हाथों को उसकी पीठ के पीछे ले जाकर उनमें हथकड़ियां डाल दी गई थी । उसके पांव उसके शरीर के पीछे इकट्ठे हुये थे और रस्सियों में जकड़े हुये थे ।
सुनील की बगल में सुखवीर बैठा था । उसके हाथ भी पीठ पीछे रस्सियों से बंधे हुये थे । शायद बदमाशों के पास कोई ऐसा हथकड़ियों का जोड़ा नहीं था जो सुखवीर की विशाल कलाइयों में फिट हो सकता । उसकी प्लास्टर चढी टांग और दूसरी अच्छी टांग दोनों उसके सामने फैली हुई थीं ।
सुनील ने बदमाशों को बता दिया था कि मोटरबोट अन्धे टापू के पास कहीं डूबी थी ।
बदमाशों ने सुखवीर की प्लास्टर पड़ी टांग को लोहे के डण्डों से पीटा था लेकिन वह उसके मुंह से यह नहीं निकलवा पाये थे कि उसने डूब चुकी मोटरबोट के किस स्थान पर रुपया छुपाया था । सुखवीर की पहले से ही टूटी टांग पर चढे प्लास्टर के परखच्चे उड़ चुके थे और वह फिर से लहुलुहान दिखाई देने लगी थी लेकिन उसके जबड़े एक दूसरे पर मजबूती से कसे हुये थे ।
डैनी मोटरबोट के ड्राइविंग केबिन की दीवार के साथ लग कर खड़ा था । उसके हाथ में एक मोजर रिवाल्वर थी जिससे वह पहले से ही असहाय सुनील और सुखवीर को कवर किये हुये था ।
जगत नारायण इन लोगों के सामने एक अन्य कुर्सी पर बैठा हुआ था । उसके चेहरे पर व्यग्रता और झुंझलाहट के भाव थे ।
ठाकुर गोताखोरी का परिधान पहने हुये था । वह डूबी हुई मोटरबोट तलाश कर चुका था लेकिन तब तक उसकी ऑक्सीजन खत्म हो गई थी ।
देवी उसकी कमर पर नया सिलेन्डर बांध रहा था ।
कुछ क्षण बाद ठाकुर फिर समुद्र में गोता लगा गया ।
सुनील की घड़ी में एक छोटा सा खटका था जिसे दबाने से एक इन्च लम्बाई का एक पतला सा तेज धार वाला चाकू बाहर निकल आता था । सुनील को वह घड़ी पिछले मिशन के दौरान में कर्नल मुखर्जी ने दी थी लेकिन आज तक सुनील को उसमें फिट चाकू की जरूरत नहीं पड़ी थी । दो घन्टे पहले सुनील ने खटका दबाकर चाकू बाहर निकाल लिया था और तभी से वह धीरे-धीरे उसे अपने पैरों की बंधी रस्सियों पर घिस रहा था । चाकू बहुत छोटा था और रस्सियां बहुत मजबूत थीं । हर क्षण सुनील को यह खतरा लग रहा था कि कहीं चाकू जड़ से टूट न जाये या किसी को वह रस्सियां काटता दिखाई न दे जाये ।
वह अपने आखिरी बन्धन की दो तिहाई रस्सी काट चुका था ।
“सुनील” - जगत नारायण बोला - “अगर रुपया मोटरबोट में न निकला तो तुम उस आसानी से नहीं मरोगे जैसे कि तुम पिछली रात समुद्र के किनारे मरने वाले थे । बाई गॉड मैं तुम्हें तड़पा-तड़पा कर मारूंगा ।”
“रुपया जरूर निकलेगा ।” - सुनील बोला ।
“अच्छा” - सुखवीर सुनील की ओर घूमा - “तो यह है वह हरामजादा जिसने जगत नारायण को मोटरबोट और उसमें छिपे रुपये के बारे में बताया है ।”
“चुप रहने से क्या फायदा था” - सुनील बोला - “रुपया मिलने के बाद ये लोग जहां हमें भेजने वाले हैं वहां न रुपया तुम्हारे काम आयेगा और न मेरे ।”
“लेकिन फिर भी तुम्हें अपनी जुबान खोलने की क्या जरूरत थी ?”
“क्योंकि मैं तुम्हारी तरह ऐसा फौलाद का बना आदमी नहीं कि मेरी पहले से टूटी टांग को लोहे के डण्डों से पीटा जाये और मैं अपनी जुबान बन्द रखूं ।”
“बातें बन्द करो” - डैनी गुर्राया - “वर्ना मैं डण्डा लेकर आ रहा हूं ।”
“आओ न बेटे” - सुखवीर विषैले स्वर में बोला - “लेकिन जरा इस बार अकेले आना । अपने साथियों से यह मत कहना कि ये मेरे को पकड़ कर रखें ।”
डैनी के होंठ भिंच गये ।
“साले चूहे” - सुखवीर बोला - “मुझे इस हालत में देखकर शेर हो गया है । भूल गया है वह दिन जब मैंने तेरी दुम पर...”
डैनी का चेहरा लाल हो गया । वह रिवाल्वर ताने सुखवीर की ओर झपटा ।
“खबरदार !” - जगतनारायण चिल्लाया । रुपया हाथ आ जाने तक तुम कोई शरारत नहीं करोगे । बाद में मैं इन दोनों को तुम्हें सौंप दूंगा ।”
डैनी के होंठों पर एक क्रूर मुस्कराहट आ गई ।
“मैं चाकू से इन दोनों का कलेजा चाक कर दूंगा ।” - वह धीरे से बोला ।
“रिवाल्वर के मुकाबले में चाकू तो तुम्हें हमेशा ही पसन्द है” - सुनील बोला - “क्योंकि वह शोर नहीं करता । इसलिये तुमने लोलिता का कत्ल चाकू से ही किया था क्योंकि बाहर पार्टी में बहुत लोग मौजूद थे और वे गोली की आवाज सुन सकते थे ।”
“लेकिन” - रत्ना देवी तीव्र स्वर में बोली - “लोलिता का कत्ल तो...”
“नहीं मैडम, लोलिता का कत्ल आपने नहीं किया । लोलिता का कत्ल आप पर थोपा गया था, आपको यह विश्वास करने के लिये मजबूर किया गया था कि लोलिता का कत्ल आपने किया था । आप बेहद नशे में थी । आपको कुछ याद नहीं है । आपने लोलिता पर चाकू चलाया था लेकिन यह उसके जिस्म को छुआ भी नहीं था । फिर आप नशे की अधिक्य से बेहोश हो गई थीं । बाद में जब आपको होश आया तो आपने लोलिता को मरा पाया था । और उसके खून से सना चाकू आपके हाथ में था । वास्तव में डैनी ने लोलिता का खून किया था और आपकी बेहोशी की हालत में चाकू आपके हाथ में थमा दिया था । और यह खलीफा जगत नारायण जो अपने आपको बड़ा सयाना समझता है, अपने ही छोकरे से धोखा खा गया । डैनी ने...”
डैनी ने एकाएक रिवाल्वर सुनील की ओर तान दी ।
“डैनी !” - जगत नारायण का स्वर कोड़े की तरह डैनी की चेतना से टकराया ।
डैनी ठिठका । उसने घूमकर जगत नारायण की ओर देखा । जगत नारायण के हाथ में रिवाल्वर दिखायी दे रही थी ।
“डैनी” - जगत नारायण धीरे से बोला - “रिवाल्वर फेंक दो वरना भेजा उड़ा दूंगा ।”
“यह झूठ बोल रहा है” - डैनी चिल्लाया - “यह मेरे पर सरासर गलत इल्जाम लगा रहा है ।”
“हो सकता है लेकिन मैं इसकी पूरी बात सुनना चाहता हूं । और मैंने तुम्हें रिवाल्वर फेंक देने का आदेश दिया है ।”
डैनी का रिवाल्वर वाला हाथ झुक गया लेकिन उसने रिवाल्वर फेंकी नहीं ।
देवी ने अपनी पतलून की बैल्ट से रिवाल्वर खिंची और उसे डैनी की पीठ से लगा दिया ।
“डैनी” - वह बोला - “तुमने सुना नहीं बॉस ने क्या कहा है ।”
डैनी ने असहाय भाव से सिर हिलाया और रिवाल्वर से अपनी पकड़ ढीली कर दी । रिवाल्वर धम्म से डैक के ऊपर आ गिरी ।
“बॉस” - डैनी बोला - “आप इस हरामजादे की बात सुन रहे हैं लेकिन मेरी बात पर विश्वास नहीं कर रहे हैं । मैं कहता हूं मैंने...”
“तुम्हारी भी सुनूंगा” - जगत नारायण ने उसे रोका - “फिलहाल चुप रहो । पहले सुनील जो कह लेना चाहता है उसे कह लेने दो ।”
सुनील तब तक अपने बन्धन काट चुका था लेकिन वह पूर्ववत उकडूं बैठा रहा ।
“मैं सुन रहा हूं, सुनील ।” - जगत नारायण भावहीन स्वर में बोला ।
“रत्ना देवी ने पिछली रात को मुझे बताया था कि उन्होंने कैसे चाकू का वार लोलिता पर किया था । उन्होंने चाकू को मूठ से इस प्रकार पकड़कर घुमाया था कि फल का रूख नीचे की ओर था । जैसे उन्होंने हाथ चलाया था उससे जाहिर होता है कि चाकू ऊपर से नीचे की ओर चलाया गया था जबकि पोस्टमार्टम की रिपोर्ट के अनुसार चाकू नीचे से ऊपर की ओर चलाया गया था और वह लोलिता की पसलियों से होता हुआ सीधा उसके दिल में घुस गया था । ऐसा वार करने की काबलियत रत्ना देवी में हरगिज भी नहीं है । ऐसा वार कोई डैनी जैसा चतुर चाकू चलाने वाला ही कर सकता था । जब पिछली रात को रत्नी देवी ने मुझे यह बताया था कि उन्होंने किस ढंग से चाकू का वार लोलिता पर किया था मैं तभी समझ गया था कि रत्ना देवी ने लोलिता का खून नहीं किया था और दूसरा सम्भाविक हत्यारा डैनी ही हो सकता था क्योंकि वही चाकू चलाने में विख्यात है ।”
“लेकिन डैनी को लोलिता की हत्या करने की क्या जरूरत थी ?”
“क्योंकि मंगलवार सुखवीर जेल से छूटकर आ रहा था और उसकी लोलिता से मुलाकात होते ही डैनी की एक भारी पोल खुल सकती थी ।”
“क्या मतलब ?”
“मैं तुम्हें शुरू से बताता हूं । एक साल पहले जब सुखवीर ने तुम्हारा पांच लाख रुपया लूटा था तो तुमने डैनी को लोलिता के पीछे लगाया था । क्योंकि सुखवीर लोलिता पर मरता था और लोलिता डैनी पर मरती थी और तुम्हारे ख्याल से लोलिता को सुखवीर का पता मालूम था । तुम्हारा ख्याल एकदम ठीक था । लोलिता को सुखवीर का पता मालूम था । और डैनी ने उसे अपनी चिकनी-चुपड़ी बातों से प्रभावित करके उससे सुखवीर का पता मालूम भी कर लिया था । लेकिन स्कीम के दूसरे हिस्से को कार्यरूप में परिणत करने का हौंसला सुखवीर में नहीं था । अब डैनी ने ठाकुर को साथ लेकर उस पते पर जाना था जहां सुखवीर छुपा हुआ था और उसे पकड़ कर तुम्हारे पास लाना था लेकिन यह सुखवीर से इतना डरता था कि इसमें सुखवीर के पास फटकने की भी हिम्मत नहीं थी ।”
“यह बकवास कर रहा है” - डैनी चिल्लाया - “मैं...”
“मैंने तुम्हें अपना थोबड़ा बन्द रखने के लिये कहा था ।” - जगत नारायण गर्जा । डैनी फौरन चुप हो गया ।
“अब बोलो” - जगत नारायण ने आदेश दिया - “डैनी सुखवीर से क्यों डरता था ?”
“क्योंकि एक बार लोलिता के फ्लैट में सुखवीर और डैनी का आमना-सामना हो गया था । सुखवीर निहत्था था और डैनी के पास चाकू था । डैनी सारे राजनगर में मशहूर चाकू चलाने वाला है लेकिन फिर भी सुखवीर ने बड़ी आसानी से उससे चाकू छीन लिया था और उसको अपने घुटनों पर उल्टा लिटा कर इसकी पतलून फाड़ दी थी और लोलिता के सामने इसकी दुम पर इसी के चाकू से अपना नाम खोद दिया था । उस दिन से डैनी सुखवीर के मामले में अपना आत्मविश्वास खो बैठा था और गहरी हीन भावना का शिकार हो गया था । ठाकुर के साथ सुखवीर के ठिकाने पर जाकर उसको पकड़ कर लाने के ख्याल से ही डैनी का कलेजा हिल जाता था । डैनी को पूरा विश्वास था कि वह किसी के साथ जाये और कितना ही तैयार होकर जाये सुखवीर उसकी धज्जियां जरूर उड़ा देगा । इस मुश्किल से निकलने की इसने ऐसी तरकीब सोची कि जिससे इसका सुखवीर से आमना-सामना भी न हो और तुम भी इससे शिकायत न कर सको कि इसने काम नहीं किया ।”
“कौन सी तरकीब ?”
“उसने पुलिस को फोन कर दिया कि सुखवीर धर्मपुरे के एक मकान में छुपा हुआ है । परिणाम वही हुआ जो इसने सोचा था । जब तक यह ठाकुर को साथ लेकर धर्मपुरे पहुंचा तब तक सुखवीर पुलिस की हिरासत में आ चुका था ।”
“लेकिन...” - सुखवीर ने कहना चाहा ।
“मुझे मालूम है तुम क्या कहना चाहते हो” - सुनील बोला - “तुम समझते हो कि तुम्हारे बारे में लोलिता ने पुलिस को फोन किया था लेकिन मैं पुलिस हैडक्वार्टर से पता लगा चुका हूं । फोन करने वाला स्वर किसी आदमी का था औरत का नहीं । सुखवीर, यह ठीक है कि सिर्फ लोलिता को मालूम था कि तुम कहां छुपे हुये हो लेकिन तुम यह बात भूल जाते हो कि केवल डैनी ऐसा आदमी था जो लोलिता से यह बात कुबुलवा सकता था । मेरी लोलिता के साथ रहने वाली लड़की रोजी से भी बात हुई थी । उसके कथनानुसार - शायद तुम्हें सुनकर अफसोस हो - लोलिता को तुमसे कभी मुहब्बत नहीं थी । वह सिर्फ डैनी पर मरती थी । उसने तुम्हें इसलिये लिफ्ट दी थी ताकि डैनी को जलन हो और वह लोलिता के और समीप खिंच आये ।”
सुखवीर के होंठ भिंच गये ।
“डैनी एक मामले में तकदीर से मात खा गया” - सुनील जगत नारायण की ओर देखता हुआ बोला - “इसने सोचा था कि सुखवीर पकड़ा जायेगा और जितने इसने अपराध किये हैं, इस हिसाब से इसे कम से कम दस बारह साल की सजा हो जायेगी । लेकिन वास्तव में पुलिस इसका एक भी अपराध सिद्ध नहीं कर सकी । इसे गिरफ्तारी के दौरान में पुलिस से मारपीट करने के इल्जाम में एक साल की सजा हुई । पिछले हफ्ते जब डैनी को मालूम हुआ कि सुखवीर जेल से छूटकर आ रहा है तो इसकी हवा खुश्क हो गई । इसे मालूम था कि जेल से निकलते ही सुखवीर सीधा लोलिता के पास आयेगा और फिर लोलिता के माध्यम से सुखवीर को मालूम हो जायेगा कि पुलिस को गुमनाम काल करने वाला आदमी डैनी था । डैनी को अपना भविष्य बड़ा अन्धकारमय लगने लगा था । सुखवीर के प्रकोप से बचने का एक ही तरीका था कि वह उसकी लोलिता से मुलाकात न होने दे और इस मुलाकात को रोकने का इसे यही तरीका सूझा कि यह लोलिता की हत्या कर दे । मंगलवार दिन भर डैनी ने लोलिता को अपने साथ रखा । रात को यह राजपाल के साथ उसे रत्ना देवी की पार्टी में ले गया । रत्ना देवी पहले ही डैनी की ओर आकर्षित हो चुकी थी । यहां इसे वह तरकीब सूझी जिससे लोलिता मर भी जाये और उस पर आंच भी न आये । पार्टी में रत्ना देवी भी और लोलिता भी ढेर सारी शराब पी चुके थे । डैनी के लिये अपनी वजह से उन्हें आपस में भिड़वा देना कठिन काम नहीं था । यह दोनों को भिड़वाकर पार्टी के लिये रत्ना देवी के कुछ अन्य मित्रों को लिवाकर लाने के लिये राजपाल के साथ चला गया । लेकिन यह किसी प्रकार राजपाल को डॉज देकर वापिस लौट आया । यह चुपके से रत्ना देवी के बैडरूम में पहुंचा । वहां इसने रत्ना देवी को लोलिता पर चाकू से वार करते देखा लेकिन उस वार से लोलिता पर एक खरोंच भी नहीं आई । रत्ना देवी नशे के अधिक्य से बेहोश हो गई । डैनी बैडरूम में प्रविष्ट हुआ । उसने उसी चाकू से लोलिता का काम तमाम किया और खून से सना चाकू रत्ना देवी के हाथ में देकर वहां से खिसक गया । रत्ना देवी जब होश में आई तो इन्होंने तुम्हें बुला भेजा । तुमने रत्ना देवी की खातिर लाश को ठिकाने लगवा दिया । यानी कि डैनी का रहा सहा काम तुमने पूरा करवा दिया लेकिन डैनी की तकदीर कि सारे मामले के बीच में मेरी टांग अड़ गई ।”
सुनील चुप हो गया ।
जगत नारायण गहरी सोच में पड़ा हुआ था ।
“वैसे रोजी और राजपाल की हत्यायें किसने की थी ?” - सुनील ने पूछा ।
“डैनी ने ।” - जगत नारायण बोला ।
“वाह । यानी कि डैनी तुम्हारे लिये काम नहीं कर रहा था । तुम इसके लिये काम कर रहे थे । हुक्म यह तुम्हारा मान रहा था लेकिन रास्ता यह अपना साफ कर रहा था । मतलब यह अपना गांठ रहा था और अहसान तुम्हारे पर चढा रहा था और शायद तुमसे ढेर सारा रुपया और तारीफ भी हासिल कर रहा था ।”
“तुम्हें और कुछ कहना है ?”
“नहीं !”
“डैनी” - जगत नारायण अब डैनी की ओर घूमा - “अब तुम बोलो ।”
तब तक डैनी का आत्मविश्वास काफी हद तक उसका साथ छोड़ चुका था ।
“मैं क्या बोलूं” - वह बलहीन स्वर में बोला - “आपको मालूम ही है मैंने क्या बोलना है । यह आदमी सरासर झूठ बोल रहा है ।”
“मैं झूठ बोल रहा हूं या सच” - सुनील तीव्र स्वर में बोला - “इसका फैसला एक बात यहीं कर सकती है । तुम इससे यह पूछो कि यह सुखवीर से डरता है या नहीं ।”
“मैं नहीं डरता ।” - डैनी हकलाता हुआ बोला ।
“तो फिर जगत नारायण, तुम डैनी का मुकाबला सुखवीर से करवा दो । सुखवीर की टांग की हालत तुम्हारे से छुपी नहीं है । वह शायद अपने पैर पर खड़ा भी न हो सके । सुखवीर निहत्था है । तुम सिर्फ इसके बन्धन काट दो और डैनी के हाथ में चाकू दे दो । अगर डैनी सुखवीर से डरता नहीं तो उस हालत में सुखवीर का काम तमाम कर देना इसके लिये मामूली बात होगी ।”
जगत नारायण कुछ क्षण सोचता रहा और फिर बोला - “डैनी अपना चाकू निकालो और आगे बढकर सुखवीर के बन्धन काट दो ।”
“यह क्या बकवास है” - डैनी चिल्लाया - “मैं...”
“डैनी आगे बढो ।”
सुखवीर की कहर भरी निगाहें डैनी के शरीर में सलाखों की तरह घुसी जा रही थी । उसके होंठों पर मौत की मुस्कान थी ।
डैनी अपने स्थान से हिला भी नहीं । उसका चेहरा राख की तरह सफेद हो गया था ।
“या ऐसा करो” - सुनील फिर बोला - “इसको कहो यह अपनी पतलून उतारे । फिर देखो इसकी दुम पर सुखवीर का नाम लिखा है या नहीं ।”
“डैनी...” - जगत नारायण फुसफुसाया ।
तब डैनी की हिम्मत जवाब दे गई । वह एकदम नीचे झुका और पागलों की तरह अपनी डैक पर गिरी रिवाल्वर की ओर झपटा ।
जगत नारायण के हाथ में थमी रिवाल्वर ने आग उगली ।
रिवाल्वर की गोली डैनी के दांये कन्धें में घुस गई । डैनी के मुंह से चीख निकल गई । वह डैक पर ढेर हो गया ।
सुनील ने अपनी घड़ी से बाहर निकले छोटे से चाकू के फल को डैक की पक्की लकड़ी पर दबाया । चाकू जड़ से टूट गया ।
“मैंने तुम्हें पहले ही चेतावनी दे दी थी, डैनी !” - जगत नारायण बोला ।
डैनी का चेहरा पीड़ा से विकृत हो उठा था । उसके कन्धे से खून का फव्वारा छूट रहा था ।
उसी क्षण ठाकुर ने मोटरबोट के करीब पानी से सिर निकाला ।
“बॉस !” - ठाकुर उत्तेजित स्वर में बोला । उसने अपना दांया हाथ ऊपर किया । उसके हाथ में वाटरप्रूफ रबर का भारी बैग था ।
थोड़ी देर के लिये सबकी निगाहें ठाकुर की ओर उठ गयी ।
सुनील ने चाकू का टुकड़ा जल्दी से सुखवीर की पीठ पीछे बन्धी हथेलियों में सरका दिया । कुछ क्षण सुखवीर की समझ में नहीं आया कि सुनील उसे क्या दे रहा है । सुनील ने चाकू जोर से उसकी हथेली में चुभो दिया । सुखवीर फौरन समझ गया कि क्या किस्सा था उसकी भारी हथेली चाकू के टुकड़े पर बन्द हो गई ।
“रुपया मिल गया ।” - देवी रबड़ का थैला देखकर हर्ष से चिल्लाया ।
सुनील ने एक गहरी सांस ली और फिर उसने तोप से छूटे गोले की तरह पानी में छलांग लगा दी । वह सिर के बल पानी में जाकर गिरा और पानी में डूबता चला गया । फिर उसने अपने शरीर को इकट्ठा किया और अपने पीछे बन्धे हाथ अपने पैरों के नीचे से अपने सामने निकाल लिये । तब तक वह एकदम ठाकुर के नीचे पहुंच चुका था उसने ठाकुर की टांग पकड़कर खींच ली ।
ठाकुर के हाथ से थैला छूटकर छपाक से पानी में गिरा और नीचे डूबने लगा । उसके दूसरे हाथ से मोटरबोट का किनारा छूट गया । सुनील ने अपने हथकड़ी लगे हाथों से झपट कर उसके अन्डर वियर की बैल्ड में खुंसा चाकू खींच लिया । उसने एक बार सांस लेने के लिये पानी से बाहर सर निकाला ।
ठाकुर उसकी ओर झपटा ।
सुनील ले नीचे डुबकी लगाई । वह ठाकुर के पीछे पहुंचा और उसने अपने दोनों हाथों में दबा चाकू पूरी शक्ति से ठाकुर की गरदन में घोंप दिया ।
ठाकुर की गर्दन से खून का फव्वारा छुट पड़ा । उसका मुंह खुल गया और उसके फेफड़ों को पीठ पर बन्धे सिलेन्डर से ऑक्सीजन सप्लाई करने वाला माउथ पीस उसके मुंह से निकल गया ।
सुनील ने सांस के लिये छटपटाते हुए फिर पानी से ऊपर सिर निकाला ।
देवी और जगत नारायण दोनों की रिवाल्वरों ने एक साथ फायर किये । सुनील बाल बाल बचा । वह फिर पानी में डुबकी लगा गया और उस बार मोटरबोट के नीचे से तैरता हुआ मोटरबोट की दूसरी साइड में पहुंच गया ।
उसने पानी के ऊपर सिर निकाला ।
देवी दूसरी ओर देख रहा था लेकिन उसका सिर निकलते ही एकदम उस ओर घूमा ।
सुनील ने पूरी शक्ति से अपने हथकड़ी लगे हाथों में थमा चाकू उसकी ओर फेंका और पानी में दुबारा डुबकी लगा गया ।
चाकू देवी की छाती में घुस गया । उसके हाथ में रिवाल्वर निकल गई । उसके मुंह से एक चीख निकली और उसके दोनों हाथ छाती में घुसे चाकू की मूठ से लिपट गये । उसने चाकू को शरीर से बाहर खींचा । चाकू बाहर निकल आया । साथ ही उसकी छाती से ढेर सारा खून निकल पड़ा । उसका शरीर एक क्षण को पैन्डुलम की तरह आगे पीछे लहराया और फिर धड़ाम से डैक पर ढेर हो गया ।
जगत नारायण रिवाल्वर हाथ में लिये सुनील के दुबारा प्रकट होने की प्रतीक्षा करने लगा ।
सुनील ने हवा की खातिर पानी से सिर निकाला ही था । सुनील का सिर पानी से उभरते ही जगत नारायण ने फायर किया लेकिन उसी क्षण बगोले की तरह सुखवीर जगत नारायण की ओर झपट पड़ा । उसने सुनील से बहुत ज्यादा तेजी से ब्लेड चलाकर अपनी कलाइयों पर बन्धी रस्सी काट ली थी और बाकी को उसने अपनी अपार शारीरिक शक्ति के दम पर ही तोड़ दिया था । रस्सियों के टूटे हुए टुकड़े अभी भी उसकी कलाइयों से लिपटे हुए थे ।
जगत नारायण का ध्यान सुनील की ओर से हट गया और इसी लिए इसका निशाना चूक गया । जगत नारायण वापिस सुखवीर की ओर घूमा । वह एक क्षण के लिये वह फैसला करने के लिये हिचका कि उसे सुखवीर से ज्यादा खतरा था या सुनील से । उसकी एक क्षण की हिचकिचाहट ही उसे ले बैठी । सुखवीर ने अपनी लम्बी बांह बढाकर देवी के हाथ से निकल कर डैक पर गिरी रिवाल्वर उठा ली । उसने बिना एक क्षण भी बरबाद किये जगत नारायण पर फायर कर दिया ।
गोली जगत नारायण के पेट में लगी ।
वह लड़खड़ाया । उसने अपना रिवाल्वर वाला हाथ सुखवीर की ओर तानने की कोशिश की ।
सुखवीर ने फिर फायर किया ।
इस बार गोली उसकी छाती से टकराई । उसके हाथ से रिवाल्वर निकल गई और वह धड़ाम से डैक पर आ गिरा ।
सुनील किसी प्रकार अपने बन्धे हाथों के सहारे ही जल्दी से मोटरबोट में चढा । वह झपट कर जगत नारायण के पास पहुंचा । जगत नारायण के शरीर से खून बह रहा था । उसके मुंह से गहरे लाल झागदार खून के बुलबुले छूट रहे थे । उसके नेत्र मुंदते जा रहे थे ।
जगत नारायण मर रहा था ।
सुनील सुखवीर की ओर घूमा ।
सुखवीर के हाथ में धुंआ उगलती रिवाल्वर थी और वह डैक पर अपनी बाई कोहनी के सहारे उकडू सा बैठा था ।
“इसकी जेब में से हथकड़ी की चाबी निकालो । जल्दी ।” - सुनील बोला ।
सुखवीर अपनी बुरी तरह घायल टांग को घसीटता हुआ जगत नारायण के पास पहुंचा । उसने जगत नारायण की जेब से हथकड़ी की चाबी निकाली । उसने सुनील को बन्धन मुक्त कर दिया ।
सुनील जल्दी से कॉकपिट में घुस गया । जब वह लौटा तो उसके हाथ में एक कागज और पेंसिल थी । उसने तेजी से कागज पर लिखना आरम्भ किया -
यह मेरा हल्फिया बयान है । मैं जगत नारायण इस बात की तसदीक करता हूं कि डैनी ने मेरे आदेश पर रोजी और राजपाल का कत्ल किया था ।
सुनील जगत नारायण पर झुक गया । जगत नारायण की पलकें अभी भी फड़फड़ा रही थी । सुनील उसके ऊपर झुक गया और उच्च और स्पष्ट स्वर में बोला - “जगत नारायण, मेरी बात सुन रहे हो ?”
“सुन रहा हूं, सूअर के बच्चे ।” - जगत नारायण होंठों में बुदबुदाया ।
“सूअर का बच्चा मैं नहीं, डैनी है । उसी ने तुम्हें धोखा दिया है । उसी की वजह से सारा बखेड़ा हुआ है ।”
जगत नारायण चुप रहा ।
“शायद तुम्हें अभी भी इस पर संदेह है कि डैनी ने तुम्हें धोखा दिया है या नहीं ।” - सुनील बोला - “सुखवीर थोड़ी सी डैनी की खातिर करना ।”
सुखवीर ने रिवाल्वर फेंक दी । वह लुढकता हुआ डैनी के पास पहुंचा ।
पहले से ही घायल डैनी की आंखें आतंक से फट पड़ी । वह अपने स्थान से उठ कर खड़ा होने की कोशिश करने लगा ।
सुखवीर ने उसे टांग खींचकर अपने समीप गिरा लिया ।
डैनी ने फुर्ती से अपनी जेब से चाकू निकाला । उसने उसका खटका दबाकर चाकू का फल खोला और उसका वार सुखवीर की आंखों पर किया ।
चाकू सुखवीर के माथे पर खून की लकीर खींचता हुआ गुजर गया ।
दूसरा वार करने का मौका डैनी को नहीं मिला । सुखवीर ने उसका चाकू वाला हाथ थाम लिया । चाकू डैनी की उंगलियों से निकल गया । सुखवीर की भारी बांह एक अजगर की तरह डैनी की गरदन से लिपट गई ।
डैनी की आंखें बाहर निकल आयीं ।
“डैनी” - सुनील बोला - “फौरन कबूल करो कि तुमने लोलिता की हत्या की है, वर्ना सुखवीर तुम्हारी गरदन तोड़ देगा ।”
डैनी नहीं बोला ।
सुनील ने सुखवीर की ओर संकेत किया ।
सुखवीर ने अपनी बांह का दबाव उसकी गरदन पर बढा दिया । डैनी बुरी तरह छटपटाने लगा । उसके गले से गों-गों की आवाज निकलने लगी ।
“ईजी ।” - सुनील बोला ।
सुखवीर ने अपनी पकड़ थोड़ी ढीली कर दी ।
“हां” - डैनी घुटे स्वर में बोला - “मैंने ही... मैंने ही लोलिता की हत्या की थी ।”
सुनील जगत नारायण की ओर मुड़ा ।
“जगत नारायण” - वह बोला - “सुन लिया तुम्हारा चमचा नम्बर वन क्या कह रहा है ।”
“हां” - जगत नारायण क्षीण स्वर में बोला - “सुन लिया ।”
“तो फिर इस हल्फिया बयान पर दस्तखत कर दो ।”
जगत नारायण चुप रहा ।
“जगत नारायण, तुम मर रहे हो” - सुनील फिर बोला - “डैनी ने तुम्हें धोखा दिया । उसकी वजह से तुम्हें आज मौत का मुंह देखना पड़ रहा है । तुम डैनी से बदला लेने के लिये जिन्दा नहीं रह सकते । तुम्हारे सामने डैनी से बदला लेने का यही एक रास्ता है कि तुम इस हल्फिया बयान पर दस्तखत कर दो कि डैनी ने तुम्हारे आदेश पर ही रोजी और राजपाल की हत्या की थी ।”
जगत नारायण ने सहमतिसूचक ढंग से सिर हिलाया ।
सुनील ने पेंसिल उसके कांपते हाथों में दे दी और कागज उसके सामने रख दिया ।
जगत नारायण ने दस्तखत कर दिये ।
सुनील कुर्सी पर बन्धी रत्ना देवी के पास पहुंचा । जल्दी से उसने रत्ना देवी के बन्धन खोले । रत्ना देवी दिग्भ्रमित सी उसकी ओर देख रही थी । उसका मुंह खुला था लेकिन उससे बोल नहीं फूट रहा था ।
“आपने सब कुछ देख सुना ही है, रत्ना देवी जी” - सुनील बोला - “आप गवाह के तौर पर इस पर दस्तखत कर दीजिये और साथ ही इस बात की तसदीक कर दीजिये कि जगत नारायण ने बिना किसी दबाव में आकर अपनी मर्जी से इस हल्फिया बयान पर दस्तखत किये हैं ।”
रत्ना देवी ने मशीन की तरह जो उसे कहा गया कर दिया ।
सुनील ने कागज सावधानी से तय करके जेब में रख लिया वह उसकी निर्दोषिता का प्रमाण पत्र था ।
फिर वह सुखवीर की ओर मुड़ा ।
सुखवीर की भारी बांहें अभी तक डैनी की गरदन से निपटी हुई थीं ।
“हे भगवान ।” - सुनील बोला - “अरे, अब तो उसे छोड़ो ।”
“यह लो ।” - सुखवीर बोला और उसने डैनी की गरदन से अपनी बांह निकाल ली ।
डैनी का मृत शरीर डैक पर लुड़क गया ।
सुनील के नेत्र फैल गये ।
“तुमने तो मार डाला इसे !” - वह फुसफुसाया ।
“अच्छा !” - सुखवीर सहज स्वर में बोला - “मर गया ? बांह का दबाव जरा ज्यादा पड़ गया होगा । अब भाई साहब मेरी बांह पर कोई प्रैशर मापने वाला मीटर तो लगा नहीं हुआ । मुझे बेचारे की मौत का अफसोस है । च-च-च- ।”
सुनील मोटरबोट के कॉकपिट की ओर बढा ।
“कहां जा रहे हो” - सुखवीर बोला - “पहले समुद्र में से नोटों से भरा रबड़ का थैला तो निकालो ।”
“कौन निकाले ?” - सुनील बोला - “मेरे में तो समुद्र की तह में गोता लगाने की हिम्मत है नहीं । अगर तुम निकाल सकते हो तो कूद जाओ समुद्र में ।”
सुखवीर चुप हो गया ।
सुनील काकपिट में घुस गया । उसने मोटरबोट को तेजी से राजनगर की ओर दौड़ा दिया ।
मोटरबोट के राजनगर पहुंचने तक जगत नारायण मर चुका था ।
अगर रत्ना देवी जी जान से सुनील की मदद न करती तो जगत नारायण के हल्फिया बयान और अपनी तमाम सफाइयों के बावजूद भी सुनील कानून की गिरफ्त से कभी न निकल पाता । ज्यों ही रत्ना देवी को यह मालूम हुआ था कि उसकी अन्तरात्मा पर किसी की हत्या का भार नहीं था, उसका पुराना आत्मविश्वास लौट आया था और वह फिर वही दौलत और समृद्धि की पुतली, समाज की नाक, और ऊंचे रुतबे वाली वही औरत बन गई थी जिसका नगर में हर कोई सम्मान करता था रत्ना देवी ने उसके लिये जो वकील किया था वह सुप्रीम कोर्ट का रिटायर्ड जज था और सरकारी वकील वैसे ही उसके नाम से थरथरा गया था ।
सुनील बाइज्जत बरी हो गया ।
सुखवीर को भी वापिस हस्पताल पहुंचा दिया गया । उस पर कोई नया चार्ज नहीं लगाया गया था । उस पर एक मामूली सा चार्ज यही था कि उसने दो सिपाहियों की खोपड़ियां एक दूसरे को टकरा दी थीं । सुखवीर ने उन्हें समुद्र में डूबे पांच लाख रुपये का पता बता दिया जिसके बदले में पुलिस ने उस पर से वह चार्ज वापिस ले लिया ।
डैनी कैसे मरा, यह जानने की किसी को परवाह नहीं थी । हत्या के अपराध में उसने फांसी तो चढना ही था इसलिये किसी ने उस बात को ज्यादा नहीं कुरेदा ।
रत्नी देवी सुनील को अदालत से बाहर ही मिल गई ।
वह सीधी सुनील को अपने बंगले पर ले गई । वहां उसने सुनील को शानदार दावत दी, अपनी हंगामाखेज जिन्दगी को फुल स्टॉप लगा लेने का संकल्प किया, सुनील का हजार-हजार बार धन्यवाद किया और जाती बार जबरदस्ती उसके हाथ में वही पच्चीस हजार रुपये ठूंस दिए जो वह जगत नारायण के कहने पर उसके राजनगर से खिसक जाने के बदले में एक तरह से रिश्वत के तौर पर देने के लिये लाई थी ।
सुनील ने सुखवीर को विक्टोरिया हस्पताल से एक प्राइवेट नर्सिंग होम में पहुंचा दिया और उसके इलाज के लिये पांच हजार रुपये एडवान्स जमा करवा दिये ।
अन्त में उसने सुखवीर की हीरे की अंगूठी वापस उसकी उंगली में पहना दी ।
न जाने क्यों सुखवीर के नेत्र डबडबा आये । शायद उसने जीवन में पहली बार महसूस किया था कि आंसू नाम की भी किसी चीज का अस्तित्व होता था और कभी-कभी इन्सान अपने निजी स्वार्थ को सोचे बिना भी दूसरे के लिये कुछ करता था ।
पांच हजार रुपये सुनील ने रमाकांत को दिये । रमाकांत की बांछें खिल गईं । उसकी निगाह में खुदा ने जब उसे रुपया देना होता था तो वह दे ही देता था, चाहे वह सुनील का सिर फाड़कर दे और चाहे वह यूथ क्लब का छप्पर यानी कि कंक्रीट की छत फाड़ कर दे ।
बाकी का पन्द्रह हजार रुपया सुनील ने चुपचाप रत्ना देवी के नाम से बंगलादेश से आये रिफ्यूजियों के सहायता कोष में जमा करवा दिया ।
लगभग पूरा सप्ताह दफ्तार से गायब रहने के बाद सुनील जब ब्लास्ट के ऑफिस में पहुंचा तो ब्लास्ट के चीफ एडीटर मलिक साहब उन पर बहुत खफा हुए । सुनील उनके सामने सिर झुकाये बैठा उनकी फटकार सुनता रहा । अन्त में उन्होंने सुनील को चेतावनी दी कि अगर उसने दुबारा अपने आपको किसी ऐसे बखेड़े में फंसाया जिसमें उसके ‘ब्लास्ट’ का रिपोर्टर होने की वजह से ‘ब्लास्ट’ का नाम बदनाम होने का खतरा हुआ तो वे उसे जरूर नौकरी से निकाल देंगे ।
सुनील ने भी मलिक साहब के फैसले का अनुमोदन किया ।
‘ब्लास्ट’ की टेलीफोन आपरेटर-कम-रिसैप्शनिस्ट को सुनील कभी विश्वास नहीं दिया पाया कि उसके चेहरे पर खरोचें गुण्डों द्वारा पिटाई होने की वजह से पैदा हुई थी न कि किसी ‘खसमांखानी’ ने अपने तलवार जैसे नाखूनों से उसका मुंह नोच लिया था ।
समाप्त
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