शुक्रवार : 21 नवम्बर

सुबह नौ बजने में अभी दस मिनट बाकी थे जब कि जीतसिंह जोगेश्‍वरी ईस्ट पहुंचा। वहां लिटल गोवा नामक इलाका तलाश करने में उसे कोई दिक्कत न हुई। आगे वो ब्लॉक भी उसने उतनी ही सहूलियत से तलाश कर लिया जिसमें फ्लैट नम्बर बी-44 था।

उसने उस ब्लॉक में टैक्सी मोड़ी ही थी कि उसे अहसास हुआ कि आगे भीड़ लगी हुई थी। उसने तनिक हिचकिचाते हुए एक बाजू कर के टैक्सी रोकी और फिर पीछे डिकी पर पहुंचा जिसमें कि ब्रीफकेस बन्द था। वो डिकी खोलने ही लगा था कि उसका खयाल बदल गया।

क्या जल्दी थी! पहले पता तो चलता कि अलीशा वाज़ कर के मैडम घर पर थी भी या नहीं!

वो टैक्सी पर से हटा और घूम कर आगे बढ़ा।

भीड़ के करीब पहुंचने पर उसे मालूम पड़ा कि वो फ्लैट नम्बर बी-44 के सामने जमा थी।

वो सकपकाया।

क्या माजरा था?

वो भीड़ में शामिल हुआ। उसके करीब एक जींस और स्कीवीधारी गोवानी युवती खड़ी थी जिसके कन्धे पर उसने हौले से दस्तक दी।

वो घूमी।

जीतसिंह ने देखा उसके बाल मर्दों की तरह छोटे कटे हुए थे और वो निगाह का—लेकिन स्टाइलिश—चश्‍मा लगाये थी।

“गुड मार्निंग!”—जीतसिंह मीठे स्वर में बोला।

“मार्निंग गुड किधर है, मैन!”—युवती उदास भाव से बोली।

जीतसिंह सकपकाया।

“क्या मांगता है?”—युवती बोली।

“वो सामने बी-44 है?”

“यस।”

“अलीशा वाज़ से मिलना मांगता है।”

युवती ने विचित्र भाव से उसकी तरफ देखा।

“क्या!”—जीतसिंह सकपकाया।

“अलीशा को जानता है, मैन?”

“नहीं। इधर पहली बार आया।”

“क्यों मिलना मांगता है?”

“उसके वास्ते किसी का भेजा सा... पैगाम लाया।”

“दैट्स टू बैड।”

“बोले तो?”

“लेट आया। पैगाम कर के जो तुम बोला...

“मैसेज।”

“... नहीं डिलीवर होना सकता।”

“क्यों?”

“अलीशा बेबी तो गया अपना मेकर का पास।”

“क्या! मर गयी?”

“यहीच बोली मैं।”

“क्या हुआ? बीमार थी?”

“नो। नैवर। कभी जुकाम तक न हुआ।”

“तो?”

“हार्ट... गया।”

“धड़का लगा? दिल का दौरा पड़ गया?”

“सडन! मासिव! अभी अलाइव खड़ा था अलीशा बेबी, अभी फ्लोर पर डैड पड़ा था।”

“देवा! देवा! तुम जरा इधर आओ।”

“किधर?”

“अरे, जरा भीड़ से बाजू हटके एक मिनट बात करने का। प्लीज कर के बोलता है।”

वो हिचकिचाई।

“सुबह सवेरे दूर से आये भीड़ू पर अहसान होगा।”

उसने सहमति में सिर हिलाया, वो जमघट में से निकली और एक तरफ बढ़ी।

जीतसिंह उसके पीछे लपका।

भीड़ से कदरन दूर पहुंच कर वो ठिठकी, घूमी और फिर बोली—“अभी बोलो, क्या मांगता है?”

“अभी। अभी।”—जीतसिंह बोला—“पहले बोलो, तुम कौन हो?”

“मैं निकोल। निकोल मेंडिस। अलीशा का नैक्स्ट डोर नेबर।”

“क्या हुआ इधर? कब हुआ?”

“कल मिडनाइट में हुआ। जब कि पुलिस इधर आया।”

“पुलिस!”

“पेपर नहीं पढ़ता, मैन? आज के पेपर में लीड न्यूज।”

“पढ़ता है पण... आज नहीं पढ़ा।”

टीवी भी नहीं देखता? उधर भी कवरेज।”

“नहीं, सुबह सवेरे टीवी नहीं देखता।”

“तभी।”

“अरे, तुम बोलो न, प्लीज! जो छापे में है, टीवी में है वो तुम बोलो न!”

“बोलता है। वो क्या है कि लास्ट नाइट, मिडनाइट में, बोले तो एक बजे, इधर पुलिस आया। अलीशा बेबी तब सोता था। पुलिस उसको सोते से जगाया और शाकिंग न्यूज दिया।”

“क्या?”

“जोकम फर्नान्डो! खल्लास!”

“क्या!”

“सिवरी में रेलवे ट्रैक पर डैड बॉडी मिला।”

“लोकल से गिरा?”

“मर्डर किया कोई। मर्डरस अटैक हुआ उस पर। होल बॉडी पर वून्ड्स के ऐसे मार्क जैसे टार्चर किया गया। पुलिस बोलता था टार्चर का डोज ज्यास्ती हो गया इस वास्ते...”

उसने अवसादपूर्ण भाव से गर्दन हिलायी।

“देवा! बोले तो गैंग किलिंग!”

“अक्खा नेबरहुड जोकम को जानता था कि अलीशा का कजन। अभी मालूम पड़ा—पुलिस आकर बोला—कि हसबैंड। लीगल, लाफुल्ली वैडिड हसबैंड! तभी तो न्यूज सुनते ही अलीशा के हार्ट को थंडरबोल्ट जैसा शॉक लगा। जिधर खड़ा था, उधरीच गिर कर मर गया। दूसरा सांस न आया।”

युवती ने यूं शक्ल बनाई जैसे रोने लगी हो।

“हसबैंड गया।”—वो भर्राये कण्ठ से बोली—“इतना यंग एज में विडो हो गया अलीशा बेबी। शॉक तो लगना ही था। बट...ऐसा शॉक!...दूसरा सांस न आया! जीसस!”

“पुलिस ने लाश की शिनाख्त कैसे की?”—जीतसिंह ने पूछा—“इधर कैसे पहुंची?”

“सब पेपर में छपा न, मैन!”

“ठीक। ठीक। पण मैं तो पेपर नहीं पढ़ा न! तुम पढ़ा तो तुम को मालूम। तुम बोलो, प्लीज।”

“जोकम का डैड बॉडी से, उसका ड्रैस में से, पुलिस उसका पर्सनल सामान निकाला न, जिससे उनको मालूम हुआ कि वो लोअर परेल के एक वन रूम रैंटिड फ्लैट में रहता था। पुलिस उस फ्लैट पर सर्च मारा तो उन को उधर से जोकम और अलीशा का वैडिंग ड्रैस में पिक्चर मिला, कोर्ट से दो साल पहले इशु हुआ मैरिज का सर्टिफिकेट मिला जो कि कनक्लूसिव प्रूफ कि जोकम और अलीशा कजंस नहीं, हसबैंड-वाइफ था। उधर से ही अलीशा का इधर का अड्रैस पुलिस को मिला। फिर वो लोग इधर, और हसबैंड का ब्रूटल डैथ का न्यूज़ सुन कर अलीशा उन का आंखों के सामने फिनिश! ब्लडी ऐसा गया अलीशा बेबी जैसे कोई बल्ब फ्यूज होता है।”

“हसबैंड की मौत का सद््मा न बर्दाश्‍त हुआ!”

“सद््मा बोले तो?”

“वही जो तुम बोला। शॉक!”

“ओ दैट। यस, शी डाइड आफ सडन शॉक! आई सैड सो आलरेडी।”

“अब लाश...”

“बोले तो?”

“डैड बॉडी!”

“ओ, दैट। पुलिस ले के गया न पोस्टमार्टम का वास्ते!”

“उसके बाद?”

“उसके बाद क्या?”

“लाश कौन क्लेम करेगा? उसकी—बल्कि हसबैंड, वाइफ दोनों की—मिट्टी कौन ठिकाने लगायेगा? वो लास्ट कर के जो करते हैं...”

“राइट्स।”

“वही। कौन करेगा?”

“बोले तो इधर भी सब लोग यही डिसकस करता है। अलीशा बेबी इधर फोर इयर्स से। इधर सब को उसके एकीच रिलेटिव का खबर जो कि उसका कज़न जोकम। जो कि अब उसका हसबैंड जोकम। अभी दोनों फिनिश। पता नहीं कौन डैड बॉडी क्लेम करेगा! कौन लास्ट राइट्स अरेंज करेगा! सब लोग इधर यहीच डिसकस करता है। बोलता है कोई रिलेटिव सामने न आया तो ये काम पुलिस करेगा।”

“इतना अकेला तो कोई नहीं होता दुनिया में!”

“यहीच बोला कई लोग। सब बोलता है न्यूज पेपर में है, टीवी पर है, कोई न कोई इधर आ सकता है, इस वास्ते सब लोग वेट करता है।”

“इसी वास्ते भीड़ जमा है?”

“हां। अभी डिसकशन है कि कोई रिलेटिव सामने न आया तो पुलिस नहीं, इधर का कालोनी वाला दोनों के लास्ट राइट्स परफार्म करेगा।”

“आयेगा कोई रिलेटिव? रिश्‍तेदार? करीबी या दूर दराज का?”

उसने चिन्तित भाव से इन्कार में सिर हिलाया।

“जैसे जोकम के लोअर परेल के फ्लैट से अलीशा की जानकारी बरामद हुई, इधर का पता निकला, वैसे ऐसी कोई जानकारी अलीशा के फ्लैट की तलाशी से नहीं निकली?”

“नो, मैन, ऐसा कुछ नहीं मिला पुलिस को इधर से।”

“फ्लैट खुला क्यों हैं?”

“इन साइड में एक पुलिस वाला बैठेला है। वेट करता है शायद पेपर से, मीडिया से मिली इन्फो के अन्डर कोई इधर पहुंचे। बोलता है उस जैसा एक पुलिसमैन लोअर परेल में जोकम के फ्लैट पर भी वेट करता है।”

“हूं।”

“तुम बोला, मैन, कि तुम कोई, किसी का भेजा मैसेज लाया!”

“हं-हां।”

“किस का? किस का भेजा?”

जीतसिंह ने जवाब न दिया।

“मैसेज मेरे को बोलो।”

“तुम्हेरे को क्यों?”

“अरे, मैं जा कर आगे उस पुलिसमैन को बोलता है न, जो अलीशा के फ्लैट के भीतर बैठेला है! क्या मालूम उस मैसेज से पुलिस को कोई क्लू मिले!”

“अच्छा, वो!”

“हां, वो। अभी बोलो...”

“डायरेक्ट पुलिसमैन को बोलता है न!”

“क्या बोला?”

“पुलिसमैन को मेरी खबर करो। मैं इधर ठहरता है, तुम उसको इधर आने को बोलो।”

“तुम क्यों नहीं चलता?”

“मेरे को भीड़ से लोचा।”

युवती ने संदिग्ध भाव से उसकी तरफ देखा।

“प्लीज!”—जीतसिंह के स्वर में याचना का पुट आया—“प्लीज करके बोलता है न!”

“ओके। इधरीच वेट करने का।”

“बरोबर।”

वो घूमी और लम्बे डग भरती आगे, वापिस अलीशा वाज़ मरहूम के फ्लैट की ओर, बढ़ चली।

जीतसिंह ने उसके भीड़ में दाखिल होने का इन्तजार किया, फिर वापिस अपनी टैक्सी की ओर लपका।

 

साढ़े नौ बजे के करीब अमर नायक सो कर उठा।

नौकर ने उसे आ कर बताया कि नवीन सोलंके बाहर ड्राईंगरूम में बैठा उसके जागने का इन्तजार करता था।

नायक ने उसे दस मिनट और इन्तजार करने दिया और उतने में वो नित्यकर्म से निवृत हुआ।

फिर वो ड्राईंगरूम में पहुंचा।

उसके पीछे पीछे ही नौकर चाय ले आया।

सोलंके ने उठ कर बॉस का अभिवादन किया।

“बैठ।”—नायक खुद एक सोफे पर ढेर होता बोला—“कब आया?

“यही कोई दो घन्टा पहले।”—वापिस बैठता सोलंके बोला—“सात बजे।”

“मैं बोला था जब चाहे इधर आना और बात करना!”

“जागता होता तो करता पण तुम तो सोता था, बॉस।”

“अरे, मैं तो हो सकता था और दो घन्टा न उठता! तीन घन्टा न उठता!”

“वान्दा नहीं। मैं वेट करता न!”

“सुबह चार बजे बाद कहीं जाकर नींद आयी।”

सोलंके ने हमदर्दीभरी शक्ल बनाई।

“तेरी शक्ल से तो नहीं लगता कि तू रात को सो पाया?”नायक बोला।

सोलंके खेदपूर्ण भाव से मुस्कराया, तत्काल संजीदा हुआ।

“अक्खी रात खोटी की?”

“हां, बॉस। इसी वास्ते सोफे पर बैठा बैठा सोता था। तुम्हेरे कदमों का आवाज सुना तो जागा।”

“बोले तो कुछ हाथ लगा रात खोटी कर के!”

“लगा तो सही!”

“बुरा?”

“बहुत बुरा।”

“मेरे को भी यही अन्देशा था। बोल, क्या जाना?”

“बॉस, काम का जो जाना, सिवरी थाने से जाना आखिर।”

“उधर कैसे पहुंच गया?”

“बोलता है न! बॉस, रात भर भटकने के बाद मैं अर्ली मार्निंग में—बोले तो साढ़े पांच बजे—एक रेस्टोरेंट में बैठा चाय पीता था कि उस रोज का अखबार उधर पहुंचा। मैंने अखबार खोला तो फ्रंट पेज पर ही जोकम फर्नान्डो का फोटू?”

“क्या! काहे वास्ते? वो क्या किया फोटू छपने के लायक?”

“उसने क्या किया! करने वालों ने किया।”

“क्या?”

“जान से मार दिया।”

“अरे! जोकम गया!”

“लाश सिवरी में रेलवे ट्रैक के पास फेंक दी। अखबार में साफ छपा था कि मरने से पहले उसे बुरी तरह से टार्चर किया गया था। ठोका गया था, बॉडी को ब्लेड से काटा गया था।”

“देवा!”

“इसी वजह से दम निकल गया।”

“ये सब पेपर में छपा है?”

“हां। मैं पेपर साथ लाया न! खुद देखो।”

सोलंके ने अखबार पेश किया।

नायक ने जल्दी जल्दी खबर पढ़ी और अखबार एक ओर डाला।

“हूं।”—फिर एक लम्बी, विचारपूर्ण हुंकार भरी—“पण टार्चर!”

“बॉस, वजह अखबार वालों को नहीं मालूम, पुलिस को नहीं मालूम पण हमेरे को मालूम।”

“उसके पास हमारा माल! बीस करोड़ के हीरे!”

“बरोबर।”

“जो उसने कहीं छुपा दिये! उस बाबत जानकारी निकलवाने के लिये उसे टार्चर किया गया?”

“कोई और वजह हो ही नहीं सकती।”

“यानी तेरा खास भरोसे का भीड़ू ही टोपीबाज़ निकला! तेरे परखे हुए भीड़ू शिशिर सावन्त ने ही आखिर नीयत बद् की और...”

नायक खामोश हो गया, उसने देखा सोलंके पहले ही इंकार में सिर हिला रहा था।

“मूंडी क्या हिलाता है!”—नायक अप्रसन्न भाव से बोला—“अरे, जब उन दोनों के अलावा माल की किसी को खबर ही नहीं थी, जब पक्की हुआ कि माल बन्दरगाह पर हुसैन डाकी उन्हें सौंप चुका था तो सिवाय इस के और क्या हुआ हो सकता है कि एक की नीयत बद् हुई, उसने दूसरे पर घात लगाई। एक बेईमान निकला, दूसरे ने वफादारी दिखाई...”

“बॉस, सिलसिला इतना आसान नहीं, इतना स्ट्रेट नहीं।”

नायक ने अपलक उसे देखा।

“लगता है”—फिर धीरे से बोला—“अभी कुछ और भी बाकी है बोलने को!”

“हां।”

“क्या?”

“बॉस, अखबर पढ़ने के बाद मैं सिवरी थाने गया और उस सब-इन्स्पेक्टर का पता निकाला जिसके पास जोकम का केस था। नाम गोडबोले। मैं ने उस को सैट किया तो एक अनोखी बात सामने आयी।”

“क्या?”

“उस सब-इन्स्पेक्टर ने—गोडबोले ने—मेरे को वो सामान दिखाया जो लाश की जेबों से बरामद हुआ था। बॉस, वो सामान जोकम का ही नहीं था, अपने शिशिर सावंत का भी था।”

“क्या बोला?”

“सावंत का बटुवा—जिसमें रोकड़े के अलावा सावंत का ड्राइविंग लाइसेंस और दो क्रेडिट कार्ड थे—उस का मोबाइल, चाबियों का गुच्छा और रूमाल, कंघी जैसी और छोटी मोटी चीजें थीं।”

“जोकम की जेबों में?”

“हां।”

“उसका अपना सामान?”

“वो भी उसकी जेबों में। इस एक फर्क के साथ कि जोकम का मोबाइल चालू था, सावंत का स्विच्ड ऑफ था।”

“बोले तो सावंत के मोबाइल पर काल आना उसको मांगता नहीं था, अपने पर तेरा काल आता था तो सुनता नहीं था!”

“बरोबर।”

“अभी बड़ा बात ये कि सावंत का सामान जोकम की जेबों में! जोकम के कब्जे में! जो सामान सावंत का, जो सावंत की जेबों में होना मांगता था, वो भी जोकम की जेबों से बरामद हुआ?”

“यहीच बोला मैं। सिवरी थाने में जमा है वो सामान बरोबर।”

“क्या मतलब हुआ इसका?”

“तुम बोलो, बॉस।”

“अरे, तू बोल, भई।”

“जो मेरे को सूझता है, वो फुल डेंजर।”

“क्या? क्या सूझता है?”

“बॉस, ये सूझता है कि हमारे भीड़ू की नीयत बद् हुई बरोबर पण वो भीड़ू जोकम फर्नान्डो, न कि शिशिर सावंत। जोकम ने नीयत मैली की, उसने माल पर घात लगायी, उसने सावंत को खल्लास किया और लाश गायब कर दी। उसकी जेबों का सामान उसने इसलिये निकाल लिया ताकि लाश बरामद हो भी जाये तो जेबों में मौजूद सामान की वजह से उसकी शिनाख्त न हो पाये।”

“क्यों बरामद हो जाये! जो साला हरामी इतना बड़ा गेम खेल गया, उसने लाश का भी जरूर ऐसा कोई इन्तजाम किया होगा कि वो बरामद होने ही न पाये!

“हो सकता है। अगर ये हो सकता है तो ऐसी एक और बात भी गौर करने लायक है।”

“क्या?”

“जिन लोगों ने जोकम को खल्लास किया, उन को ऐसी कोई परवाह नहीं थी कि लाश की शिनाख्त होती थी या नहीं। होती तो लाश को रेलवे ट्रैक के करीब न फेंकते, रेलवे ट्रैक पर फेंकते ताकि ट्रेन आती तो लाश को ऐसा कुचल जाती कि हुलिया शिनाख्त के काबिल न रहता। बोले तो उन को शिनाख्त की कोई परवाह नहीं थी, होती तो जोकम की जेबें यकीनन खाली मिलतीं।”

“क्या मतलब हुआ इसका?

“यहीच कि जोकम पर घात लगाने वाले मौत के खेल के बड़े खिलाड़ी नहीं थे। जोकम को फिनिश करने की उन की कोई मंशा नहीं थी, वो उन की उम्मीद के खिलाफ मर गया, इत्तफाक हुआ कि मर गया इसलिये वो घबरा गये और घबराहट में उन को इतना ही सूझा कि लाश को कहीं नक्की करके निकल लें। मैं बोले तो उसकी जेबें खाली करने का, उसकी लाश को ट्रैक पर फेंकने काताकि वो कुचली जातीउन्हें खयाल तक न आया। इसी वास्ते दो बटुवों का रोकड़ा तक जोकम की जेब में सलामत।”

“बोले तो अभी भाईगिरी में कमजोर थे। पण थे कौन?”

“जाहिर है कि किसी दूसरे गैंग के थे; कोई दूसरा गैंग हमेरे भीड़ुओं पर घात लगाये था...”

“नामुमकिन! हीरों की आमद की किसी को खबर नहीं थी, उन की कीमत की किसी को खबर नहीं थी, हुसैन डाकी की किसी को खबर नहीं थी।”

“बॉस, कोई खबर लीक हो जाना क्या बहुत मुश्‍किल! जिस धन्धे में कुत्ते का कुत्ता बैरी, उसमें खबर लीक हो जाना क्या बहुत मुश्‍किल!”

“तो खबर लीक हो गयी?”

“ऐसीच जान पड़ता है।”

“किसी दूसरी पार्टी की हमारे कैरियर पर निगाह थी, माल की आगे ट्रांसफर उसकी निगाह में हुई?”

“हां।”

“इस लिहाज से तो जो हुआ होना चाहिये था, वो ये था कि दूसरा गैंग हमारे दोनों भीड़ुओं पर घात लगाता, उन्हें खल्लास करता और माल हथिया लेता।”

“बरोबर बोला, बॉस। यहीच होना चाहिये था पण हुआ तो नहीं! नार्मल कर के जोकम की लाश बरामद होती—उसको मौत से पहले टार्चर न किया गया होता—तो कहा जा सकता था कि दूसरे गैंग ने पहले सावंत को खल्लास किया पण जोकम माल के साथ भाग निकलने में कामयाब हो गया लेकिन बाद में फिर पकड़ा गया और उसे भी खल्लास कर दिया। यानी हमारे दोनों वफादार भीड़ू माल की हिफाजत में खल्लास और माल दूसरे गैंग के कब्जे में। पण इसमें दो फच्चर। एक तो फिर टार्चर का कोई रोल नहीं बनता—टार्चर मतलब जोकम माल कहीं छुपाने में कामयाब हुआ पण बाद में पकड़ा गया और माल का पता निकालने की कोशिश में उसे टार्चर किया गया जब कि वो मर गया। दूसरा ये कि फिर सावंत की जेबों के सामान का जोकम की जेबों में क्या काम!”

“हूं।”

“ये दूसरा फच्चर मेरे को खास तौर से ये सोचने पर मजबूर करता है कि सब करतूत जोकम की।”

“हूं।”

“पण उस का बैड लक खराब कि दूसरे गैंग के भीड़ू लोगों की पकड़ाई में आ गया।”

“दूसरा गैंग कौन सा?”

“मालूम करना पड़ेगा।”

“जो कोई बाहर से आकर करेगा।”

“हमीं करेंगे। हमारा माल लुटा है, हमीं करेंगे।”

“लुटा कहां है! वो तो तेरी थ्योरी के मुताबित बोले तो जोकम मरने से पहले कहीं छुपा गया!”

“वो तो है!”

“कैसे पता लगेगा कि कहां छुपा गया?”

“मुश्‍किल काम है। पण... कोशिश करेंगे।”

“क्या कोशिश?

“बॉस, जो आई-10 कार जोकम के कब्जे में थी, वो बन्दरगाह की पार्किंग में खड़ी पायी गयी थी और अभी भी उधरीच खड़ेली है। इसका मतलब है कि माल छीनने का जो ड्रामा हुआ वो बन्दरगाह के ही इलाके में कहीं हुआ, जोकम जब माल के साथ उधर से भागा तो उसे अपनी कार तक पहुंचने का मौका न मिला। इसका मतलब कि वो जब गया, जिधर गया, टैक्सी पर गया।”

“ठीक! तो?”

“हम बन्दरगाह से आपरेट करने वाले टैक्सी ड्राइवरों का पता निकालेंगे और उस टैक्सी ड्राइवर की शिनाख्त की कोशिश करेंगे जिस की टैक्सी पर सवार होकर जोकम उधर से भागा।”

“बोले तो भूसे के ढेर में सूई तलाश करने की कोशिश करेंगे।”

“काम तो ऐसीच है! मुश्‍किल! बल्कि बहुत मुश्‍किल! हो गया तो करिश्‍मा ही होगा।”

“क्या पता हो जाये करिश्‍मा! इस वास्ते कोशिश बराबर करने का। क्या?”

“कोशिश बरामद करने का।”

“पण ज्यास्ती कोशिश उस दूसरे गैंग की शिनाख्त की करने का जो तू समझता है कि हमारे भीड़ू लोगों पर घात लगाये था।”

“उससे क्या होगा? माल तो, जो हुआ, उससे नहीं लगता कि दूसरे गैंग के भीड़ू लोगों के पास होगा!”

“पता फिर भी लगाना जरूरी कि किसने अमर नायक के माल पर घात लगाने की जुर्रत की!”

“अगर पता ये लगा कि दूसरी पार्टी बेजान मोरावाला तो?”

नायक हड़बड़ाया, उसने बेचैनी से पहलू बदला।

“मैं बहरामजी के खिलाफ हूं”—फिर धीरे से बोला—“बल्कि उससे आजिज हूं क्योंकि अपनी गोवा इलैक्शंस की करारी हार के बाद जब से उसके कदम खामोशी से, बेजान मोरावाला की ओट से, वापिस समगलिंग के धन्धे में पड़े हैं, मेरे अपने धन्धे में लोचा आ गया है। मैं हमेशा उसकी मौत की कामना करता हूं लेकिन उसकी मौत का सामान करने की हिम्मत मैं अपने में नहीं पाता। इसलिये यही सपने देखता रहता हूं कि उस पर बिजली टूटी, उसका प्लेन क्रैश कर गया, वो मोटर एक्सीडेंट में मारा गया, उसे टर्मिनल कैंसर हो गया और और पता नहीं क्या क्या! एक तरह से बिजली टूटी भी—अपने मैंशन में हुए बम ब्लास्ट की चपेट में आ गया—लेकिन तकदीर का बादशाह निकला कि फिर भी बच गया। कुछ दिन नर्सिंग होम में पड़े जिन्दगी और मौत के बीच झूला, फिर बच गया। सोलंके, अगर मेरे माल पर बहरामजी के इशारे पर घात लगाई गयी थी तो मैं—कहते शर्म आती है—जा कर शेर को मूंछ के बाल से नहीं पकड़ सकता।”

“तो क्या करोगे, बॉस?

“कोई सुलह सफाई का रास्ता अख्तियार करना पड़ेगा ताकि जो एक बार हुआ वो कम से कम फिर न हो। पण पहले ये तो पता लगे कि हुआ क्या! जोकम ने छुपाया तो माल कहां छुपाया! और दूसरी पार्टी कौन है! बोले तो मोरावाला नहीं तो कौन है!”

“बॉस, दूसरी पार्टी की खबर निकालना बोले तो थोड़ा आसान होगा। अन्डरवर्ल्ड में हमारे बहुत भेदिये हैं, मैं सब को खड़काऊंगा कि इस बाबत कोई जानकारी निकालें। कोई न कोई नतीजा जरूर निकलेगा।”

“बढ़िया।”

“पण पहला काम बोले तो मुश्‍किल, बहुत मुश्‍किल। वो तभी किसी सिरे लग सकता है जब कि जोकम की कल की मूवमेंट्स ट्रेस करने में कामयाबी मिले। बॉस, मैं कुछ कर दिखाने में कामयाब होने की पूरी कोशिश करेगा।”

“बढ़िया।”

 

जीतसिंह वापिसी के रास्ते पर था और विचारपूर्ण मुद्रा बनाये मंथर गति से टैक्सी चला रहा था।

हालात ने अज़ीबोगरीब करवट बदली थी और एक मामूली काम में पेचीदगी पैदा हो गयी थी।

ये बात उसके पैसेंजर की—जोकम फर्नांडो की—खामखयाली साबित हुई थी कि पिछली रात रोड पर उसकी होशियारी काम कर गयी थी, उसके एकाएक ट्रैक बदल कर वापिसी के रास्ते जाती बस पर सवार हो जाने ने उसके पीछे लगे भीड़ू लोगों का छका दिया था, वो उसके पीछे लगे रहने में नाकाम रहे थे। उसकी मौत ही इस बात का सबूत था कि ऐसा नहीं हुआ था। नीली सान्त्रो के सवार, जरूर जिन के साथ और लोग भी थे, न सिर्फ उसके पीछे लगे रहे थे, उन्होंने उसे काबू में भी कर लिया था। फिर ब्रीफकेस उसके पास न पाकर उन का भड़कना लाजमी था। ब्रीफकेस उसने कहां गायब किया था, ये जानने के लिये उन्होंने उसे टार्चर किया था जिसके दौरान जोकम की मौत हो गयी थी तो उन्होंने उसकी लाश को सिवरी में रेलवे ट्रैक पर फेंक दिया था।

अब ये बात भी स्पष्ट थी कि जोकम तुरन्त ही उन के हाथ नहीं आ गया था। उसके उसकी टैक्सी से निकल भागने और पकड़े जाने के बीच जरूर बड़ा टाइम गैप था जिसके दौरान नीली सान्त्रो वालों ने समझा था कि वो ब्रीफकेस कहीं छुपाने में कामयाब हो गया था। वो तुरन्त पकड़ा गया होता तो उन लोगों को भी तुरन्त खयाल आया होता कि ब्रीफकेस उसने टैक्सी में छोड़ा था। उसको टार्चर किया जाना इस बात का सबूत था कि ऐसा कोई खयाल उन लोगों को नहीं आया था जो कि जीतसिंह के लिये खुशकिस्मती की बात थी।

अलीशा वाज़ का एकाएक हार्ट फेलियोर से मर जाना भी अब उसके लिये दुश्‍वारी का बायस बन गया था। अब ऐसा भी कोई शख्स सामने नहीं था जिसे कि वो अलीशा की जगह ब्रीफकेस सौंप पाता। उस काम को अंजाम देने के दोनों रास्ते बन्द थेवो ब्रीफकेस को आगे अलीशा वाज़ को सौंप नहीं सकता था और पीछे जोकम फर्नांडो को लौटा नहीं सकता था। तीसरा विकल्प पुलिस था जिसके वो करीब भी नहीं फटकना चाहता था। किसी भी तरीके से वो पुलिस का फोकस अपने पर बनना अफोर्ड नहीं कर सकता था। वो डकैती के केस में सन्देहलाभ पाकर कोर्ट से बिना सजा पाये छूटा हुआ था, पुलिस के पास उसका रिकार्ड था, वो सौ तरह से उसे परेशान कर सकती थी। फिर ब्रीफकेस में से कोई विस्फोटक सामग्री निकल आती तो वो लोग बिल्कुल ही उसे बिठा लेते।

नहीं, पुलिस तो हरगिज नहीं।

वो दो अंडरवर्ल्ड गैंग्स के टकराव का मसला था जिन में से एक गैंग का बॉस बल्लू कनौजिया था लेकिन दूसरे के बारे में—जोकम फर्नांडो के बॉस के बारे में—वो कुछ नहीं जानता था। जानता होता तो वो ब्रीफकेस को ले जाकर उसी को सौंप सकता था और बाकायदा ईनाम इकराम से नवाजा जा सकता था।

लेकिन जाना तो जा सकता था!

उसे अपने खास दोस्त गाइलो का खयाल आया जिसके कि मुम्बई अन्डरवर्ल्ड में कान्टैक्ट थे और वो पहले भी कई बार जीतसिंह के लिये कारआमद जानकारी निकाल चुका था।

लेकिन वो वक्तखाऊ काम था और जब तक वो किसी सिरे न पहुंचता, ब्रीफकेस ने उसके गले पड़े रहना था।

फिर इस बात की भी तो तसदीक होनी चाहिये थी कि जो उसका पैसेंजर बोलता था, ब्रीफकेस में वही कुछ था! वो कहता था ब्रीफकेस में कुछ ऐसे सबूत थे जो कि कोर्ट में पेश हो जाते तो बल्लू कनौजिया का सजा पाने से बच पाना नामुमकिन हो जाता लेकिन उन सबूतों की शक्ल क्या थी, इस बाबत उसने कुछ नहीं बताया था। वो सबूत कागजात की सूरत में हो सकते थे, तसवीरों की सूरत में हो सकते थे, किन्हीं स्टिंग आपरेशंस जैसी टेप्स की सूरत में जो सकते थे या किसी ऐसी सूरत में हो सकते थे जिस की कि वो कल्पना भी नहीं कर सकता था।

अब उसका दिल, उसका दिमाग गवाही देने लगा कि उसे मालूम होना चाहिये था कि ब्रीफकेस में क्या था।

उस वक्त उसकी टैक्सी अन्धेरी से गुजर रही थी।

साकीनाका चौक से उसने कार को अन्धेरी कुर्ला रोड पर डाला।

उस रोड पर स्थित एक बड़े पेट्रौल पम्प से वो वाकिफ था।

उसने टैक्सी को पम्प के एक बाजू उधर ले जा कर रोका जिधर पोलूशन चैकिंग स्टेशन था और हवा भरने का अड्डा था।

टैक्सी के डैश बोर्ड में कुछ औजार, कुछ बिजली की तार पड़ी थीं जिनमें से अपने मतलब के दो तीन औजार एक तार का टुकड़ा छांट कर उसने जेब में रखा। फिर वो टैक्सी से बाहर निकला पीछे जा कर डिकी खोली, उसमें से ब्रीफकेस बरामद किया और उसे सम्भाले पिछवाड़े की ओर बढ़ा जिधर वो पहले से जानता था कि वाशरूम था। वाशरूम में उसने कदम रखा तो पाया कि वो उस घड़ी खाली था। उसने वहां मौजूद दो में से एक लैवेटरी स्टाल में कदम रखा और भीतर से दरवाजा बन्द कर लिया। कमोड का ढक्कन गिरा कर वो उस पर बैठ गया और ब्रीफकेस उसने अपनी गोद में रख लिया।

ब्रीफकेस पर तीन अंकों वाले लॉक थे जिन का लाकिंग नम्बर न मालूम होने की सूरत में मीटर को ‘000’ से शुरू कर के बारी बारी ‘999’ तक घुमाया जाता तो रास्ते में वो नम्बर आके रहना था जो कि उन लॉक्स का लॉकिंग कोड था लेकिन वो वक्तखाऊ काम था क्योंकि वो कोड शुरुआत में भी हो सकता था और आखिर के करीब भी हो सकता था। लेकिन ब्रीफकेस ‘जीतसिंह’ के हवाले था जिसके लिये उस लम्बी, बचकानी ड्रिल से गुजरना जरूरी नहीं था।

पांच मिनट में उसने दोनों लॉक खोल लिये।

भारी सस्पेंस में उसने ब्रीफकेस का ढक्कन उठाया।

भीतर सिर्फ एक शनील की काली थैली थी।

कोई कागजात नहीं, कोई तसवीरें नहीं, कोई टेप्स नहीं।

शनील की थैली!

जो अमूमन ज्वेलर्स के इस्तेमाल में आती थी।

उसका दिल जोर से धड़का।

भारी सस्पेंस में उसने थैली के मुंह की डोरियां खींचीं। थैली का मुंह खुल गया। उसने भीतर झांका।

झिलमिल! झिलमिल!

उसका अन्देशा सही निकला था।

हीरे!

बेशुमार हीरे! बेशकीमती हीरे!

देवा!

कहीं किसी नाके पर पुलिस की दबिश होती, वो उस फौजदारी के साथ पकड़ा जाता तो वो उसकी अपने पास मौजूदगी का क्या जवाब देता! कौन उस वजह पर विश्‍वास करता जो उन के अपने पास होने की वो बयान करना! अभी भी उसने रोड पर ही होना था, अभी भी वो किसी नाकाबन्दी पर थाम लिया जाता तो कैसे वो उस मुसीबत से निजात पाता!

देवा रे!

कैसे कैसे बहानों से कैसी कैसी बलायें उसके गले पड़ती थीं!

उसने थैली का मुंह बन्द किया और उसे वापिस ब्रीफकेस में रखा। वो ब्रीफकेस का ढक्कन गिराने ही लगा था कि ठिठका। उसने ढक्कन को वापिस खड़ा किया, थैली का मुंह फिर खोला और उसे ब्रीफकेस में उलटा।

बेशुमार हीरे ब्रीफकेस में झिलमिलाने लगे।

उसने नोट किया कि वो सब एक साइज के थे।

बड़े सब्र के साथ उसने हीरों को गिना।

चार सौ।

क्या कीमत होगी एक की?

क्या पता! लेकिन लाखों में तो वो यकीनन होगी।

उसने एक हीरा अपनी जेब के हवाले किया, बाकी को थैली में बन्द किया और थैली को यथापूर्व ब्रीफकेस में बन्द किया।

उसने लॉक्स को वापिस स्क्रैम्बल किया लेकिन कोड नम्बर अपना लगाया और उसे कण्ठस्थ कर लिया।

ब्रीफकेस सम्भाले वो बाहर निकला। बाहर अभी भी कोई नहीं था। वो वापिस आकर टैक्सी में सवार हुआ। उस बार उसने ब्रीफकेस को डिकी में न रखा, यूं पिछली सीट पर रखा कि पूछ होने पर वो दावा कर पाता कि कोई पैसेंजर टैक्सी में भूल गया था।

एक हीरा, जो उसने अलग किया था, उसने उसे एक कागज में लपेटा और यंू बनी कागज की पुड़िया को ड्राइविंग सीट के आगे फर्श पर बिछे रबड़ के मैट के नीचे सरका दिया।

उसने टैक्सी को स्टार्ट किया और उसे वापिस सड़क पर डाला।

दादर तक वो सेफ पहुंच गया।

वहां की मार्केट से उसने एक सूटकेस खरीदा और सड़क पर बैठे एक हाकर से इतने अखबार खरीदे कि सूटकेस उन से तीन चौथाई भर जाता। टैक्सी में आकर उसने आधे अखबार सूटकेस में डाले, उन के ऊपर ब्रीफकेस रखा और बाकी के अखबार ब्रीफकेस के ऊपर रख कर सूटकेस बन्द किया और उसको लॉक किया।

उसने उसे हाथ में उठा कर तोला।

सूटकेस अब काफी वज़नी लग रहा था।

बढ़िया।

अब उसका निशाना दादर रेलवे स्टेशन था।

 

कीरत मेधवाल—जरनैल—गिरगांव में ठाकुरद्वार रोड पर स्थित एक बहुखण्डीय इमारत की तीसरी मंजिल के एक फ्लैट में रहता था। उसका वो फ्लैट छोटा सा था लेकिन वहां अकेले रहते जरनैल के लिये वो पर्याप्त था। जरनैल साठ के पेटे में पहुंचता पहलवानों जैसे डील डौल वाला भारी भरकम शख्स था, रेगुलर चरस पीता था इसलिये आंखों में लाल डोरे स्थायी रूप से मुकाम पाये थे। दिन में उसका वीजू नाम का एक नौजवान चमचा वहां होता था जो जरनैल जरूरत महसूस करे तो रात को लेट भी तो जाता था, और लेट हो जाता था तो उधर ही ठहर जाता था।

उसने कालबैल के जवाब में पंड्या और पठान को दरवाजा खोला।

उस घड़ी नौ बजने को थे।

वीजू ने उन्हें बैठक में पहुंचाया जहां एक सोफे पर पसरा पड़ा जरनैल चाय की चुस्कियां लगा रहा था और उस रोज के अखबार के पन्ने पलट रहा था।

उन को आया देख कर उसने अखबार एक तरफ डाल दिया।

दोनों ने उसका अभिवादन किया।

“आओ।”—जरनैल बोला—“बैठो।”

दोनों अदब से उसके सामने आजू बाजू बैठ गये।

“चाय पियोगे?”

“नहीं।”—सुहैल पठान बोला—“पी के आये।”

“और नहीं मांगता?”

दोनों के सिर इंकार में हिले।

“हूं।”

“हम पहले भी आये थे।”—विराट पंड्या बोला—“सात बजे।”

“अच्छा!”—जरनैल की भवें उठीं।

“पण वीजू बोला कि तुम अभी सोता था।”

“आठ बजे उठा। रात को लेट सोया। वेट किया कि तुम भीड़ू लोग कोई न्यूज देगा कि जिस चक्कर में कई भीड़ू और मांगता था, उसका क्या हुआ!”

“टेम ही न लगा, भाया। बस, भागते दौड़ते ही रहे, हाथ फिर भी कुछ न आया।”

“छापे में जोकम फर्नांडो करके भीड़ू की खबर है जिस की लाश सिवरी में रेलवे ट्रैक के करीब पड़ी पाया गयी थी। पुलिस के हवाले से छापे में छपा है कि उसको बेतहाशा टार्चर किया गया था, इसी वजह से यकायक उस की जान चली गयी थी।”

“बेतहाशा तो नहीं!”

“यानी मानते हो तुम्हारा कारनामा था? उसी के पीछे पड़ने को खड़े पैर तुम को कई भीड़ू मांगता था?

“हां।”

“क्यों?”

“हाथ से निकल गया था, पण माहौल ऐसा था कि कोशिश करने पर फिर पकड़ाई में आ सकता था, इस वास्ते और भीड़ू, ज्यादा से ज्यादा भीड़ू मांगता था।”

“फिर भी आ तो गया पकड़ाई में!”

“हां, पण...”

“क्या पण?”

“माल उसके कब्जे में न निकला।”

“माल! पहले माल की स्टोरी बोलो।”

“भाया, वो क्या है कि, मेरे को टिप मिली थी कि हुसैन डाकी करके एक भीड़ू दुबई से हीरों की एक बड़ी खेप लाता था...”

“कितनी बड़ी?

“बीस। बीस करोड़ जितनी बड़ी।”

“कितने हीरे?”

“मालूम नहीं।”

“आगे?”

“उसने वो माल बाहर आकर आगे शिशिर सावन्त कर के एक भीड़ू को सौंपना था...”

“ये भी टिप सरकाने वाला बोला?

“हां, भाया।”

“आगे?”

“हमारा इरादा सावन्त को थामने का था और उससे माल छीन लेने का था पण ऐन टेम पर पता लगा कि सावन्त उधर अकेला नहीं पहुंचा था, उसके साथ एक भीड़ू और था।”

“इस वजह से लोचा?”

“हां।”

“क्या हुआ?”

“उस दूसरे भीड़ू ने—हमें बाद में मालूम हुआ कि वो छापे की खबर वाला भीड़ू जोकम फर्नांडो था—सावंत को शूट कर दिया, माल खुद कब्जा लिया और उसकी लाश समन्दर में ठिकाने लगा दी।”

“दाता! कैसे मालूम पड़ा?”

“आंखों से देखा न!”

“पंड्या, तू मेरे को ट्रेलर न दिखा, तफसील से पूरी स्टोरी बता।”

पंड्या ने आदेश का पालन किया।

पांच मिनट उसने उस काम में लगाये।

“हूं।”—पंड्या चुप हुआ तो जरनैल बोला—“तो माल बिग बॉस अमर नायक का?”

“हं-हां।”—पंड्या बोला।

“कैसे सोच लिया कि इतने बड़े डॉन का माल तुम दो भीड़ू कब्जा सकते थे, कब्जा कर हज्म कर सकते थे, हज्म कर के सलामत रह सकते थे?”

पंड्या ने नर्वस भाव से पठान की तरफ देखा।

पठान ने अनभिज्ञता से कन्धे उचकाये।

“लगता है”—जरनैल पठान को घूरता बोला—“स्कीम का आर्किटैक्ट पंड्या। तू खाली पंड्या को फालो करता था! उसका हैल्प करता था!”

“बोले तो”—पठान दबे स्वर में बोला—“ऐसीच था।”

“हूं।”—जरनैल वापिस पंड्या की तरफ घूमा—“तेरे से मैंने कुछ पूछा था। जवाब दे उसका!”

“भाया, ऐन साइलेंट आपरेशन था।”—पंड्या बोला—“सब कुछ इस्ट्रेट करके होता तो किसी को कानोंकान भनक न लगती कि हम दो भीड़ू क्या किया! भाया, ये बड़ा काम था, बड़ी घात थी, तुम्हेरे को मालूम कि ये टेम इतने बड़े लैवल पर ऐक्ट कर सकने वाला डॉन बहरामजी कान्ट्रैक्टर के अलावा कोई नहीं। हम कामयाब हो जाते तो यही समझा जाता कि बहरामजी के इशारे पर उसके फ्रंट बेजान मोरावाला ने कुछ करवाया। किसी को खयाल तक न आता कि हमेरे जैसी छोटी मछली ने बड़े मगरमच्छ पर झपट्टा मारने की कोशिश की थी।”

“वहम है तेरा।”

“अब...क्या बोलेगा! तब तो यही सोचा था कि...”

“जब टिप मिली थी तभी इधर क्यों न आया?”

“भाया, सच्ची बोलूं?”

“और क्या झूठ बोलेगा मेरे सामने?”

“हम जोश खाये थे। कुछ करके दिखाना चाहते थे। कुछ ऐसा कर के दिखाना चाहते थे जिसकी वजह से तुम्हेरी निगाह में हमेरा रुतबा बढ़ता। फिर आखिर तो इधर आना ही था।”

“क्यों?”

“अपनी कामयाबी का बखान करने। शाबाशी हासिल करने। और फिर बीस करोड़ के हीरों को ठिकाने लगाने का भी तो सवाल था! वो हम अकेले कैसे कर सकते थे!”

“जो किया गलत किया। नाजायज किया। मेरे से बाहर जाने जैसा किया। तेरे को अपनी टिप के साथ पहले इधर आना चाहिये था।”

“माफी के साथ बोलता है, बाप, अगर आता तो तुम टिप पर एक्ट करने को हां बोलता?”

“नहीं। क्योंकि माल अमर नायक का। कोई पंगा पड़ जाने की सूरत में हम उसका मुकाबला नहीं कर सकते थे। वो हम को, हम सब को, मच्छर की तरह मसल देता।”

“पंगा पड़ जाने की सूरत में न! भाया, मेरे को पक्की था कि कामयाब हो जाते तो कोई पंगा नहीं पड़ने वाला था।”

“अभी पड़ा न पंगा! एक तरह से न पड़ा तो दूसरी तरह से पड़ा। खून से हाथ रंगे, माल फिर भी हाथ न आया।”

“वो खामखाह मर गया साला हरामी। नौजवान था। इतना जान था उसमें। मेरे को गारन्टी कि उसने टार्चर से टूट के रहना था, आखिर बोल के रहना था कि माल उसने किधर नक्की किया था। पण...वो तो...वो तो यकायक ढेर हो गया। साला कुतरा अभी था, अभी नहीं था।”

“जब वो काबू में आ गया था तो उसे तब तो इधर लाना था!”

“क्या बोला, भाया?”

“मैं हैंडल करता न उसे! तेरे कहने पर खड़े पैर, बुलेट का माफिक, तेरे लिये सात भीड़ुओं का इन्तजाम किया न मैंने! जब आखिर मेरे को हिन्ट मिल ही गया था कि तू किस फिराक में था तो तब तो जो किया, जो हुआ, उसका मेरे को खबर करने का था कि नहीं करने का था?”

“भाया, मेरी गारन्टी थी न कि मैं...”

“तो जा, अपनी गारन्टी को पिछाड़ी में ले। इधर काहे वास्ते आया?”

पंड्या का सिर झुक गया।

“स-सारी!”—फिर होंठों में बुदबुदाया।

“क्योंकि तेरे को सपना आया कि तू बन गया ओवरनाइट बड़ा सूरमा। साला सब हैंडल कर सकता था पर्फेक्ट कर के।”

“अभी सॉरी बोलता है न, भाया! दिल से शर्मिन्दा है न मैं कि मैं सब बंगल किया!”

“हूं। वो भीड़ू निकल कैसे गया, वो तू बोला, मैं समझा। पण वो फिर काबू में कैसे आया, अभी ये बोल।”

“निकल तो बोले तो ऐसे गया कि बड़ा रिस्क लिया। बैरीस्टर नाथ पाई मार्ग पर उसकी टैक्सी की रफ्तार घटी तो कुतरा शैतानी काम किया, यकायक टैक्सी से बाहर कूद गया, रोड डिवाइडर को फांदा और दूसरी ओर की सड़क पर जाकर उलटी आती बस पर चढ़ गया। उस वक्त हमारी कार ट्रैफिक में ऐसी हालत में थी कि पठान वैसीच उसके पीछू जाता तो नहीं जा सकता था।

“मैं पैसेंजर सीट पर था।”—पठान बोला—“ट्रैफिक में कार का उधर का दरवाजा खोलने का हाल नहीं था।”

“ठीक!”—जरनैल बोला—“फिर?”

“परली सड़क पर पहुंचने के वास्ते”—पंड्या बोला—“हमेरा आगे सिग्नल पर जाकर उस पर से यू टर्न लेना जरूरी था। जब तक हम ने ऐसा किया, तब तक रोड पर बस का कहीं पता ही नहीं था। तब मैंने पठान को बोला कि वो उन सातों भीड़ुओं से फोन पर कान्टैक्ट करे जो हमारे पीछे ही किधर थे और उन्हें बोले कि क्या हुआ था और क्या मांगता था। यूं सब जने मिलकर आगे का सारा एरिया छानने लगे कि यूं वो किसी को कहीं दिखाई दे जाता। भाया, बीस-पच्चीस मिनट वो हमारी निगाहों से ओझल रहा, फिर तकदीर ही जानो कि एक टैक्सी में बैठा वो हमें दिखाई दे गया और ये टेम उसके पीछे लगे रहने की जगह हमने उसे थाम लिया। तब हमेरे को मालूम पड़ा कि वो ब्रीफकेस उसके पास नहीं था जो शुरू से ही, बन्दरगाह से ही, उसके पास था, जिसमें कि माल था और जिसे उसने अपने साथी शिशिर सावंत को शूट करके अपने कब्जे में लिया था। उन बीस पच्चीस मिनटों में वो बस से कहीं उतरा था और ब्रीफकेस को कहीं छुपा आने में कामयाब हो गया था। पूछने पर बताता नहीं था कि ब्रीफकेस कहां गया! मजबूरन ठोकना पड़ा। बहुत ठोका, टार्चर किया पण कुतरा न ब्रीफकेस के बारे में कुछ बका, न अपने बारे में बका कि कौन था, किधर रहता था, किधर जाता था और पीछे बन्दरगाह पर जो कुछ उसने किया था वो क्यों किया था! मैं तो साला अभी भी उस पर ब्लेड चला रहा था कि पठान बोला कि वो तो खत्म था। हम घबरा गये। साला लक ने ऐसा काम किया कि माल का अता पता तो मिला नहीं, लाश गले पड़ गयी। बड़ी मुश्‍किल से लाश से पीछा छुड़ाया और सिवरी से नक्की किया।”

“बढ़िया। तो अब पता नहीं कि माल कहां है? बोले तो ब्रीफकेस कहां है?

“हां, भाया।”

“जब वो टैक्सी से यकायक उतर कर भागा था तो देखा था वो उसके हाथ में था?”

“और किधर होता! ब्रीफकेस ही तो—माल ही तो—वजह थी जो वो इतना रिस्क ले कर, किसी गाड़ी के नीचे आ जाने का खतरा मोल ले कर, टैक्सी को नक्की किया!”

“सवाल मत कर। जवाब दे।”

पंड्या खामोश हो गया, वो तनिक विचलित दिखाई देने लगा।

“अरे, जवाब दे, भई!”

“वो... वो क्या है कि... इस बात की तरफ तो मेरा ध्यान ही नहीं गया था। सब ऐसा यकायक हुआ था कि...कि...”

“ब्रीफकेस उसके हाथ में था या नहीं, इस बात की तरफ ध्यान नहीं गया था?”

“अभी... था तो ऐसीच।”

“तू क्या कहता है?”—जरनैल ने पठान से पूछा।

“बाप, मैं तो पैसेंजर सीट पर था।”—पठान दबे स्वर में बोला—“उसके टैक्सी से निकल कर डिवाइडर पार करते ही वो पहले तो पंड्या की ही ओट में हो गया था, फिर उधर के, परली तरफ की रोड के ट्रैफिक की ओट में हो गया था। खाली पंड्या को ही दिखाई दिया था कि वो बस में चढ़ गया था।”

“दिखाई दिया था?”

पठान ने हड़बड़ा कर पंड्या की तरफ देखा।

पंड्या ने बेचैनी से पहलू बदला।

“कैसे दिखाई दिया था? बस का दरवाजा तो उसकी परली तरफ होता, इधर से कैसे दिखाई दिया कि वो बस में सवार हुआ, सड़क से पार कहीं न निकल गया?”

“भाया, सवार होता न दिखाई दिया”—पंड्या फरियाद सी करता बोला—“पण जब भीतर पहुंच गया तो बस के पीछे के शीशे में से बस के भीतर दिखाई दिया न! एक झलक मिली न बराबर!”

“आइन्दा बीस पच्चीस मिनटों में वो कितना टेम बस में था, कितना टेम कहीं और था, कब फिर टैक्सी में सवार हुआ, ये नहीं मालूम?”

“ये तो नहीं मालूम!”

“ये तो बिल्कुल ही नहीं मालूम कि ब्रीफकेस उसके पास था या नहीं?

“ध्यान ही न गया।”

“जब दूसरी बार टैक्सी में थामा तो ब्रीफकेस उसके पास नहीं था इसलिये सोच लिया कि वो बीच के वक्फे में उसे कहीं छुपा आने में कामयाब हो गया था?

“हां, भाया।”

“पण तू या तेरा ये जोड़ीदार, दावे के साथ नहीं कह सकता कि बैरीस्टर नाथ पाई मार्ग पर जाता जब वो टैक्सी से कूदा था तो ब्रीफकेस उसके पास था?

“दावे से तो नहीं कह सकता, भाया”—पंड्या तनिक आवेश से बोला—“पण तब पास नहीं था तो किधर था! पीछे टैक्सी में तो नहीं छोड़ा हो सकता था न!”

“क्यों नहीं?”

“क्यों नहीं? क्योंकि... क्योंकि...क्योंकि ये नहीं हो सकता।”

“मैं भी बोलता है कि नहीं हो सकता। पण हुआ हो तो? लाखों में एक चांस के तौर पर हुआ हो तो?”

पंड्या मुंह बाये उसे देखने लगा।

“क्या असल में हुआ था, जो इस बात की तसदीक कर सकता था, वो तो तुम लोगों की नालायकी से गया। साला जोश में ज्यास्ती ठोक दिया तो गया...”

“नहीं, भाया। वो इत्तफाक था, बैड लक था, जाने वाली कोई बात नहीं थी। ऐसा कुछ नहीं किया था, इतना कुछ नहीं किया था कि...”

“अरे, चला तो गया न!”—जरनैल झल्लाया—“वो सिरा तो ब्लॉक है न! उस सिरे को पकड़ कर तो कहीं नहीं पहुंचा जा सकता न! जो मर गया, वो तो बताने नहीं आने वाला न कि उसने सूटकेस का क्या किया!”

“वो तो... वो तो है बरोबर!”

“तो ये टेम तेरे को क्या करना चाहिये?”

“क्या करना चाहिये?”

“मेरे से पूछता है?

“भाया, बोलो न! रिक्वेस्ट करता है। बोले तो, अपील करता है।”

“एक सिरा ब्लॉक तो दूसरा सिरा पकड़ने का।”

“दूसरा सिरा बोले तो?”

“वो टैक्सी ड्राइवर। जिसकी टैक्सी पर वो गेटवे आफ इंडिया से सवार हुआ और अक्खी मुम्बई में तुम्हें डांस कराया।”

“वो क्या बता सकता है?”

“बोले तो अक्खा घौंचू! अरे, वो बता सकता है कि पैंसेजर का ब्रीफकेस पीछे छूटा या नहीं! वो बता सकता है, अगर वो काबू में आ जाये और तू उसे भी ‘ज्यास्ती टार्चर नहीं किया न कर दे।”

“वो बता सकता है! वो किधर मिलेगा?

“अरे, इधर का टैक्सी ड्राइवर तो इधर मिलेगा, और किधर मिलेगा?”

“भाया, मुम्बई में अस्सी हजार टैक्सियां! कैसे होयेंगा!”

“इतना टेम उसके पीछे लगा रहा साये का माफिक। साला नम्बर नहीं देखा टैक्सी का?”

“वो तो... नहीं देखा। ध्यान ही न गया! खयाल ही न आया!”

“बढ़िया।”

“मैं देखा।”—पठान एकाएक बोला।

दोनों ने उसकी तरफ देखा।

“एमएच 01 जे 7983।”—पठान बोला—“बाप, पंड्या ड्राइव करता था इस वास्ते इसका सारा ध्यान ड्राईविंग की तरफ था। मैं पैसेंजर सीट पर था, इस वास्ते इस जितना बिजी नहीं था। मैं देखा टैक्सी का नम्बर। एमएच 01 जे 7983।”

“पक्की बात?”—जरनैल बोला।

“सौ टांक पक्की बात, बाप।”

“फिर तो समझो कि अभी कुछ उम्मीद बाकी है। उस टैक्सी का पता निकालो।”

“क-कैसे?”—पंड्या बोला—“अस्सी हजार टैक्सियां...”

“उनसे क्या प्राब्लम है तेरे को?”

“पण...”

“अरे, रजिस्ट्रेशन नम्बर मालूम हो तो गाड़ी का पता ट्रांसपोर्ट अथारिटी से निकाला जा सकता है।”

“ऐसा?”—पंड्या सन्दिग्ध भाव से बोला।

“बरोबर ऐसा।”

“मैं समझ गया।”—पठान जोश से बोला—“ज्यादा मुश्‍किल काम नहीं ये। आज कल ऐसा सारा रिकार्ड कम्प्यूटर में होता है। अपना जानकारी निकालने के वास्ते अथारिटी के आफिस में खाली किसी को गुलदस्ता थमाना पड़ेगा।”

“ये बात! देख! तेरे से तो अपना पठान श्‍याना है। क्या!”

“करते हैं कुछ, भाया।”—पंड्या दबे स्वर में बोला।

“कुछ?”

“सब कुछ।”

“हां। सब कुछ। जो मालूम पड़े, उसके साथ पहले इधर आने का। फिर मैं बोलेगा आगे क्या करने का! कैसे करने का! क्या?

“बरोबर, भाया।”

“निकल लो।”

दोनों खामोशी से वहां से रुखसत हुए।

 

रिजनल ट्रांसपोर्ट अथारिटी का दफ्तर, उन्हें मालूम पड़ा कि, मुम्बई में कई जगह था लेकिन नजदीकी तुलसीवाडी में बाडीगार्ड लेन पर था। दफ्तर सुबह दस बजे खुलता था और विराट पंड्या और सुहैल पठान साढ़े दस तक वहां पहुंच भी गये हुए थे। लेकिन जल्दी पहुंचने का जो फायदा वो उठाना चाहते थे, वो उन्हें हासिल न हो सका। लंच ब्रेक तक वहां ऐसी भीड़, ऐसी अफरातफरी रही कि गुलदस्ता कबूलना तो दूर, वहां का कोई कर्मचारी उन की बात सुनने को तैयार नहीं था।

आखिर पंड्या ने वहां तैनात एक हवलदार को पटाया कि वो भीतर किसी क्लर्क से उन की बात करा दे।

“भाया”—पंड्या बोला—“ये पांच सौ का नोट एडवांस में पेश करता है।”

हवलदार ने नोट की तरफ हाथ न बढ़ाया।

“हाथ जेब में।”—वो बोला—आजू बाजू लोग देखता है।”

पंड्या ने तत्काल नोट वाला हाथ जेब में सरकाया।

“क्लर्क से मांगता क्या है? बोले तो, काम क्या है?”

पंड्या ने बोला।

“हूं।”—हवलदार ने लम्बी, बनावटी हूंकार भरी—“सरकारी रिकार्ड! कैसे पब्लिक के साथ शेयर करना सकता!”

“भाया, फीस भरेगा न साइलेंट करके!”

“कितनी?”

“अभी क्या मालूम पड़ेगा!”

“मेरे को मालूम।”

“क्या?”

“कोई क्लर्क राजी होगा—अगर होगा—तो दो तीन सब से बड़े वाला गान्धी मांगेगा।”

“इतना!”

“कम से कम।”

“पण इतना!”

“तब भी हो सकता है कल आने को बोले, परसों आने को बोले, उसके भी बाद आने को बोले।”

“देवा! अरे, इतना टेम किधर है हमेरे पास!”

“हमें तो”—पठान बोला—“इमीजियेट करके अपना जरूरत का जानकारी मांगता है!”

“बोले तो पिराब्लम।”—हवलदार बोला।

पठान खामोश हो गया, उसने असहाय भाव से पंड्या की तरफ देखा।

“भाया”—पंड्या बोला—“पुलिस के महकमे के वास्ते तो वो पाबन्दियां नहीं हो सकती न, जो कि आम पब्लिक के लिये हैं?”

“वो तो है!”

“तो हमेरे वास्ते तुम कुछ करो न!”

“बोले तो अन्दर के क्लर्क से नहीं, मेरे से अपना काम निकलवाना मांगता है?”

“अगर हो सके तो।”

“काफी चिल्लाक है!”

“चिल्लाक किधर है! फिरयादी है, फिरयाद करता है।”

“हूं। मैं... कर तो सकता है!”

“इमीजियेट कर के?”

“हां।”

“तो करो न, भाया!”

“बाप, प्लीज!”—पठान बोला—“प्लीज करके बोलता है।”

“हूं। तुम बोलता है तो...”

“बोलता है न!”

“दो लाल वाला गान्धी इधर सरका चुपचाप।”

“भाया, ज्यास्ती...”

“फूट ले। मगज न चाट।”

मन ही मन हवलदार को कोसते हुए पंड्या ने उसकी मुट्टी में हजार-हजार के दो नोट सरकाये।

“टैक्सी का नम्बर कागज पर लिख के दे।”—हवलदार बोला।

पठान ने वो काम किया।

“आता है। इधरीच वेट करने का।”

दोनों के सिर सहमति में हिले।

हवलदार वहां से रुखसत हुआ और आफिस के मेन डोर की तरफ बढ़ा।

“दो तीन हजार!”—पीछे पठान बोला—“गुज्जू भाई, तेरे को लगता है अगर भीतर किसी क्लर्क से डायरेक्ट बात होती तो वो इस छोटे से काम का इतना रोकड़ा मांगता?”

पंड्या ने संजीदगी से इंकार में सिर हिलाया।

“बोले तो ठग लिया साले ने।”

“ज्यास्ती नहीं। क्लर्क को भी तो देगा कुछ! क्या पता फिफ्टी-फिफ्टी करे!”

“फिर उसके हवलदार होने का उसे क्या फायदा हुआ?”

“बोले तो बरोबर।”

“दोनों लाल गान्धी खुद हज्म। काम फोकट में।”

“हमेरे को क्या! काम होता है तो हमेरे को क्या!”

“ठीक।”

“अभी देखने का कि आगे क्या होता है! तब इस बारे में कोई राय काम करेंगे।”

पठान खामोश हो गया।

वक्त गुजरता गया, उनकी टेंशन बढ़ती रही।

चार बज गये।

“अब क्या कहता है?”—पठान बोला—“मैं बोले तो खिसक गया। चूना लगा गया साला।”

पंड्या के चेहरे पर झुंझलाहट के भाव आये, वो मुंह से कुछ न बोला।

“साला नाम भी न पूछा उसका।”—पठान भुनभुनाया।

“नाम पूछता तो क्या होता?”—पंड्या चिड़ कर बोला—“उसके थाने पहुंच जाता उसका पता करने? उससे अपना गुलदस्ता वापिस मांगने?”

“ऐसा कहीं होता है!”

“तो?”

“तो कुछ नहीं। अभी इधर कब तक वेट करने का?

“छ: बजे तक।”

“काम तो होना नहीं...”

“फिर भी छ: बजे तक। जब कि आफिस क्लोज होता है।”

“हूं। मैं अन्दर का चक्कर लगा के आये?”

“कोई फायदा नहीं होगा। बड़ा आफिस है, कई मंजिलों में है, फिर वो खिसक गया होगा तो किधर दिखाई देगा!”

“वो तो है पण...”

“वो हमें इधर वेट करने को बोल के गया। छ: बजे तक इधरीच वेट करने का।”

“फिर?”

“फिर देखेंगे। सोचेंगे। और कुछ नहीं तो तकदीर को कोसेंगे जो कल शाम से ही रूठी हुई है।”

“हूं। भूख लगी है। चल कर कहीं चाय पी आयें? वड़ा पाव खा आयें?”

“तू जा। जाके आ। मैं वेट करता है इधर।”

“बोले तो तेरे को अभी भी उम्मीद कि वो आयेगा?”

“अरे, जा न! काहे खाली पीली मगज चाटता है!”

पठान न गया।

सवा पांच बज गये।

तभी हवलदार उन के सामने आ खड़ा हुआ।

वो दोनों नाकामी का मातम मनाने में इतने मग्न थे कि उन्हें पता ही न लगा कि वो किधर से आकर वहां आन खड़ा हुआ।

दोनों ने आशापूर्ण निगाहों से उसकी तरफ देखा।

“ये पकड़ो अपना कागज।”—उसने पठान को वो कागज वापिस थमाया जिस पर उसने टैक्सी का नम्बर लिखकर दिया था—“इस पर मालिक का नाम, पता, सब दर्ज है।

तत्काल दोनों के चेहरे पर रौनक आयी, उनका मिजाज बदला।

“तुम्हें ज्यास्ती वेट करना पड़ा पण फच्चर पड़ा न उधर!”

“क्या हुआ?”—पंड्या बोला।

“एक अफसर आ गया। उस क्लर्क के सिर पर आ खड़ा हुआ जिससे मैं अपना काम निकालता था। बोला, थाने से रिटन रिक्वेस्ट लाने का या एसएचओ से आरटीओ को फोन कराने का। वो अफसर दफ्तर से टला तो तुम्हारा काम हुआ। पांच बजे गया। क्लोजिंग टेम के बाद जाता तो साला काम होना थाइच नहीं।”

“ओह!”

“साला मामूली काम पण फच्चर। इस वास्ते क्लर्क को पीला गान्धी सरकाना पड़ा वर्ना उस को अफसर से लोचा। कल आने को बोलता था।”

“ओह! तो बोले तो अभी तुम्हेरे को पांच सौ रूपिया और मांगता है?”

“नहीं मांगता। तुम्हेरा काम—जैसा कि बोला—इमीजियेट करके नहीं निकाल के दिया न! इस वास्ते नहीं मांगता।”

“ओह! फिर तो थैक्यू बोलता है न, भाया।”

“बोले तो”—पठान भी चहकता सा बोला—“तुम्हेरे से डील कर के खुशी हुआ।”

“ठीक, ठीक। जाता है।”

दोनों खामोशी से उसे जाता देखते रहे।

“साला हलकट खुद की कबूल कर गया”—फिर पठान बोला—“कि असल में पांच सौ रूपिये का काम! हम क्लर्क से खुद बात करते तो पांच सौ में होता।”

“या बड़ी हद हजार में होता।”—पंड्या अनुमोदन में सिर हिलाता बोला।

“ऊपर से अहसान कर गया कि क्लर्क को छोटा गुलदस्ता अपने गुलदस्ते में से थमाया!”

“पता नहीं थमाया भी या नहीं!”

“पण बोले तो वान्दा नहीं, गुज्जू भाई, काम तो हुआ न!”

“पढ़, क्या लिख के लाया?”

“जयन्त ढ़ोलकिया, नवगुजरात टूअर्स एण्ड ट्रैवल्स, स्वदेशी मिल रोड, चूनाभट्टी, धारावी, मुम्बई—400 017।”

“बढ़िया। अब धारावी पहुंचने का।”

 

छ: बजे जीतसिंह नागपाड़ा अपने रेगुलर टैक्सी स्टैण्ड पर पहुंचा।

इत्तफाकन ऐसा हुआ था कि सान्ताक्रुज से उसे ग्रांट रोड की सवारी मिली थी जिसे उतार कर वो अपने टैक्सी स्टैण्ड पर आ गया था जो कि ग्रांट रोड से करीब ही था।

गाइलो उसे एक बैंच पर अकेला बैठा सिग्रेट के कश लगाता दिखाई दिया।

उसने संतोष की सांस ली और लम्बे डग भरता उसके सामने जा खड़ा हुआ।

“अरे, जीते!”—गाइलो ने उसे देखा तो हर्षित स्वर में बोला—“अरे, आ न! बैठ।”

“नहीं, तू उठ।”—जीतसिंह संजीदगी से बोला।

“काहे?”

“बोलता है न! उठ।”

“किधर जाने का?”

“नहीं। फिर भी उठ।”

“कम्माल है!”

गाइलो ने सिग्रेट फेंका और उठ खड़ा हुआ।

जीतसिंह ने उसकी बांह पकड़ी और उसे अपने साथ चलाने लगा।

“किधर रहता है साला!”—गाइलो बोला—“मैं मार्निंग में...”

“अभी। अभी।”

गाइलो खामोश हो गया।

जीतसिंह उसे स्टैण्ड के परले सिरे पर खड़ी अपनी टैक्सी के करीब ले कर आया। उसने टैक्सी का पिछला दरवाजा खोला और बोला—“बैठ।”

“बोले तो”—गाइलो सकपकाया—“मैं तेरा पैसेंजर...”

“बैठ!”

सकपकाया सा गाइलो टैक्सी में दाखिल हुआ। जीतसिंह ने उसके पीछे दरवाजा बन्द किया और सामने से घेरा काट कर आगे ड्राइविंग साइड पर पहुंचा। उसने दरवाजा खोला, बाहर खड़े खड़े फ्लोर मैट हटाया और उसके नीचे से वो कागज की पुड़िया बरामद की जिस में हीरा था और उसे बायें हाथ की मुट्ठी में बन्द किये पीछे लौटा और उधर से टैक्सी में सवार होकर गाइलो के पहलू में बैठ गया।

“किधर रहता है साला?”—गाइलो शिकायतभरे लहजे से बोला—“आज तू अर्ली मार्निंग में ही अपना खोली में नहीं था।”

“अर्ली निकल गया न!”—जीतसिंह बोला।

“साला एक चाल में रहते हैं, फिर भी मुलाकात नहीं होती। कभी साला अर्ली मार्निंग निकल गया, कभी लेट नाइट लौटा...”

“मजबूरी है न!”

“क्या मजबूरी है साला?”

“जैसे तेरे का मालूम नहीं! तेरी टैक्सी अपनी है—तू उसका मालिक है—मेरी भाड़े की है; तू जो कमाया, वो तेरा, मेरे को पहले भाड़ा कमाने का, उसके बाद मेरी कमाई का नम्बर। इस वास्ते मेरे को ज्यास्ती टेम टैक्सी चलाने का। क्या?”

“बोले तो बरोबर। अभी बोल इधर काहे वास्ते लाया? उधर बैंच पर क्या वान्दा था?”

“बोलता है। हाथ आगे कर।”

“क्या बोला?”

“अरे अपनी दाईं हथेली आगे मेरी तरफ कर।”

“काहे वास्ते? तू साला पाम रीडर? मेरा लाइन्स रीड करेगा, फ्यूचर बोलेगा?”

“अरे, कर न!”

“ये ले।”

“अब आंखें बन्द कर।”

गाइलो ने प्रतिवाद करना चाहा लेकिन फिर चुपचाप आंखें बन्द कर लीं।

जीतसिंह ने पुड़िया से निकाल कर हीरा उसकी हथेली पर रख दिया।

“खोल!”

गाइलो ने आंखें खोलीं और सशंक भाव से हथेली पर निगाह डाली। तत्काल उसके नेत्र फैले।

“डायमंड!”—उसके मुंह से निकला।

“हां।”

“किधर से मिला?

“बोलता है। पहले कीमत का अन्दाजा बोल। क्या कीमत होगी?”

“जीते, फिफ्टी थाउ से कम नहीं।”

“बस!”

“साला साइज में बड़ा है, जगमग भी बहुत करता था, सेवेंटी, एटी भी हो सकता है प्राइस। बोले तो अक्खा एक पेटी भी हो सकता है।”

“एक लाख!”

“वहीच बोला मैं।”

“ऐसे तीन सौ निन्यानवे और, टोटल चार सौ, तो चार करोड़?”

“बोले तो बरोबर। किधर मिला तेरे को?”

जीतसिंह ने जवाब न दिया।

“बैलेंस थ्री नाइन्टी नाइन किधर है? क्या इस्टोरी है, जीते?”

“बोलता है।”

जीतसिंह ने सविस्तार पिछली रात का तमाम किस्सा बयान किया।

वो खामोश हुआ तो उसने गाइलो को भौंचक्का सा अपनी तरफ देखते पाया।

“ब्रीफकेस रात को मिला।”—फिर बड़बड़ाता सा बोला—“मैं साला मार्निंग में तब खोला जब मालूम पड़ा कि जोगेश्‍वरी में जिस अलीशा वाज़ करके बाई को पहुंचा के आने का था, वो खल्लास। अक्खी रात साला करोड़ों का माल मेरी टैक्सी में लावारिस पड़ा रहा।”

“रात को न आया मगज में बिरीफकेस खोलना?”गाइलो बोला।

“न! काहे वास्ते आता! मेरे को क्या लेना था खोल के! साला मार्निंग में बाई को सौंपता, वो मेरे को इधर से जोगेश्‍वरी का आने जाने का भाड़ा देती—हो सकता है कोई शाबाशी भी देती, पैसेंजर बोला तो था ऐसा—और मेरा काम खत्म। ब्रीफकेस खोलना तो मेरे को तब सूझा जब साला गले पड़ गया।”

“और मालूम पड़ा कि इन साइड में डायमंड्स। साला फोर हण्ड्रड!”

“हां।”

 

“वो...वो... आज जो छापे में था”—गाइलो मन्त्रमुग्ध भाव से बोला—“टीवी पर था...रेलवे ट्रैक पर डैड बॉडी...बोले तो गैंग किलिंग...वो...वो लास्ट नाइट में तेरा पैसेंजर?”

जीतसिंह ने सहमति में सिर हिलाया।

“उसके पीछे मवाली! जिन्होंने उस को थाम के फिनिश किया! बोले तो डायमंड्स का पता निकालने का वास्ते भीड़ू को टार्चर किया तो वो फिनिश हुआ?”

“हां।”

“उस पैसेंजर का—डैड पैसेंजरका माल तेरा पास?”

“वो खुद दिया मेरे को। अलीशा वाज़ करके बाई को आगे डिलीवर करने के वास्ते। मैं अर्ली मार्निंग में गया डिलीवर करने। मालूम पड़ा कि बाई भी डैड।”

“अरे! उसको क्या हुआ?”

“धड़का लग गया। दिल बैठ गया। वो, जो थंडरबोल्ट कर के अटैक करता है, जिससे साला सेकेंडों में हार्ट फेल हो जाता है, वो हो गया। क्योंकि मेरा पैसेंजर—नाम जोकम फर्नान्डो—उसका हसबैंड, सीक्रेट कर के हसबैंड। पुलिस आके सोते से उठाया और न्यूज दिया। साला सडन शॉक लगा, जिधर खड़ेली थी, बोलते हैं, उधरीच ढेर हो गयी।”

“जीते, ये छापे में तो नहीं था!”

“क्योंकि बोलते हैं पुलिस रात के एक बजे पहुंची। मैं सुना कि बारह बजे से बाद की न्यूज अखबार में नहीं जा पाती।”

“बोले तो है तो ऐसीच। तो ये न्यूज कल छापे में?”

“हां। अभी मेरा प्राब्लम ये है कि मेरा जो पैसेंजर ये इतना कीमती माल मेरे को आगे डिलीवर करने को दिया, वो खल्लास, जिसको डिलीवर करने का, वो फिनिश। जोगेश्‍वरी से मेरे को मालूम पड़ा वो बाई—अलीशा वाज़—खल्लास। भीड़ू की सीक्रेट करके वाइफ—उधर चार साल से अकेली रहती थी, सिवाय ‘कजन जोकम’ के किसी को उसके किसी करीबी या दूर के रिश्‍तेदार की कोई खबर नहीं। पैसेंजर का छापे में छपा कि वो लोअर परेल में अकेला रहता था। अभी मैं पैसेंजर की अमानत सौंपे तो किस को सौंपे?”

“पुलिस को।”

“चार करोड़ के हीरे!—जबकि पैसेंजर बोलता था कि कोई सबूत थे जो कि सलमान गाजी कर के बड़े मवाली के खिलाफ, भाई के खिलाफ, गोवा कोर्ट में पेश होने थे। पैसेंजर बोलता था कि रुपये-आने-पाइयों में ब्रीफकेस में बन्द सामान की कोई कीमत नहीं थी। असल में उसमें करोड़ों के हीरे, जो पता नहीं समगलिंग का माल है या डकैती का। मैं ब्रीफकेस के साथ थाने जाता तो क्या समझना बहुत मुश्‍किल कि मेरे साथ क्या बीतती? पुलिस रिकार्ड वाले, पुलिस को जानकारी वाले, भीड़ू के साथ क्या बीतती?”

गाइलो का सिर मशीनी अन्दाज से हमदर्दी में हिला।

“साला उधरीच बिठा लिया जाता मैं। हीरों की सफाई देना मुहाल हो जाता। कौन मानता कि वो माल पैसेंजर अपनी मर्जी से कहीं डिलीवर करने को मेरे को सौंपा! और पैसेंजर भी कैसा! जो मेरा टैक्सी छोड़ने के थोड़ा टेम बाद ही पकड़ा गया और बेरहमी से खल्लास कर दिया गया।”

“बोलता बिरीफकेस मिसिंग लगेज!”

“क्या बोला?”

“किसी पैसेंजर का सामान टैक्सी में रह गया। क्या बड़ी बात है?

“कोई बड़ी बात नहीं। पण ऐसा...ऐसा सामान टैक्सी में रह गया, बड़ी बात है। कौन मानता कि करोड़ों के हीरों वाला ब्रीफकेस कोई पैसेंजर भूल से टैक्सी में छोड़ गया! गाइलो, तू अन्डरवर्ल्ड से वाकिफ। जो भीड़ू ऐसी भूल कर सकते हों, उन को ऐसे काम नहीं सौंपे जा सकते।”

“ये तो... बरोबर बोला तू! सो पुलिस इज आउट?”

“हां। अभी बोल, और क्या करे मैं?”

“मैं बोलूं?”

“और कौन बोले? तेरे को ही तो, अपने फ्रेंड को ही तो, मैं सलाह करने के लिये इधर पकड़ के लाया!”

“मैं, वो जो तू सलाह करके बोल, वो दे? बोले तो एडवाइस दे तेरे को?”

“हां।”

“उससे पहले कुछ और बोले तो?”

“क्या?”

“तू साला मैगनेट।”

“क्या!”

“पिराब्लम्स, ट्रबल्स अट्रैक्ट करने वाला ह्यूज, ह्यूमन साइज मैगनेट। अभी और कुछ बोलना जरूरी?”

जीतसिंह ने आहत भाव से उसकी तरफ देखा।

“साला कुछ इस्ट्रेट करके होता हैईच नहीं तेरे साथ! तू ताला-चाबी का अपना काम साला किस वास्ते नक्की किया? क्योंकि उसमें पंगे ज्यास्ती—कोई फोर्स करके अपना काम निकलवाता था, कोई ब्लैकमेल कर के तो कोई तेरे को बड़ा रोकड़ा के लालच में डाल के अपना काम निकलवाता था और तेरे को फंसा के, मुसीबत में डाल के चलता बनता था। अभी टैक्सी चलाता है तो फिर पंगा, फिर पिराब्लम, फिर लार्ज साइज ट्रबल्स। अभी मैं तेरे को ट्रबल अट्रैक्टिंग ह्यूमन मैगनेट न बोले तो क्या बोले?”

“मेरी क्या गलती है?”—जीतसिंह होंठों में बुदबुदाया।

“तेरा गलती नहीं, मिस्टेक नहीं, तेरा बैड लक, जीते, कि गॉड का मर्सी तेरे को डॉज देता है। तू साला मेरा साथ चर्च गया, बड़े वाला कैंडल जला कर आया, पण तेरा बैड लक खराब कि गॉड किधर और बिजी। तेरा प्रेयर का नोटिस ही न लिया।”

“कतरे कतरे का है नसीब जुदा”—जीतसिंह पूर्ववत् होंठों में बुदबुदाया—“कोई गौहर कोई शराब हुआ।”

“क्या बोला?”

“कुछ नहीं बोला, यार।”—जीतसिंह ने आह भरी—“अपनी तकदीर से शिकवा किया। बुरे वक्त का मातम मनाया। बद््नसीबी को कोसा।”

“जीते, अभी भी सब मेरे सिर के ऊपर से गुजरा।”

“करोड़ों का माल हाथ लगा, दिल में खुशी होने की जगह दहशत है, उमंग होने की जगह अन्देशा है।”

“अभी पक्की किधर है कि करोड़ों का माल हाथ लगा?”

“क्या मतलब?”

“हम कोई जेम एक्सपर्ट हैं! क्या पता ये हीरे नकली हों!”

“नकली हों?”

“हां।”

“नकली माल के लिये इतनी हाय हाय! एक भीड़ू जान से गया, एक बाई उसके ग़म में फिनिश हुई, सब नकली माल की खातिर?”

“क्या पता!”

“मवाली उसके पीछे थे, उसकी जान के दुश्‍मन बने थे, नकली माल के लिये?”

“अरे, कैरियर को, तेरे पैसेंजर को नहीं मालूम होयेंगा कि माल नकली। पीछे पड़े मवालियों को नहीं मालूम होयेंगा कि पैसेंजर नकली हीरे कैरी करता था। जैसा तू इस्टोरी किया कि पैसेंजर बोला कि उस को लाक्ड बिरीफकेस मिला, उससे तो हो सकता है कि उसे ही न मालूम हो कि बिरीफकेस में—असली या नकली—हीरे थे। वो तेरे को बोला कि नहीं बोला कि बिरीफकेस में बड़े मवाली के खिलाफ सबूत?”

“बोला।”

“ऐसीच कोई उसको बोला।”

“यानी जिसने मेरे पैसेंजर को लॉक्ड ब्रीफकेस सौंपा, उसको बोला कि उसमें सलमान गाजी के खिलाफ सबूत थे लेकिन असल में भीतर दूसरा ही सामान रख दिया?”

“हां।”

“फिर ये हीरे नकली नहीं हो सकते।”

“अरे, नहीं भी हो सकते तो पक्की तो होना मांगता है कि नहीं मांगता? साला माल नकली निकला तो बिरीफकेस को गटर में फेंकने का, जेनुइन हुआ तो...”

“तो क्या?”

“तो सोचेंगे।”

“पता कैसे लगे असली नकली का?”

गाइलो ने उस बात पर विचार किया।

“मेरे को एक बात मालूम।”—फिर बोला।

“क्या?”

“जैम्स के, प्रेशस स्टोंस के गौरमेंट अप्रूव्ड वैल्युअर होते हैं जो फीस चार्ज करके जैम्स को खाली अवैल्युएट करते हैं, कुछ कैरेट करके होता है, बताते हैं और अप्रॉक्सीमेट प्राइस बताते हैं। मैं काला घोड़ा में फोरबेस रोड पर ऐसा एक साइन बोर्ड लगा सैवरल टाइम्स देखा। बोले तो उधर चलते हैं और मालूम करते हैं ये डायमंड जेनुइन या फेक!”

“अच्छा!—जीतसिंह के स्वर में अनिश्‍चय का पुट था।

“चल।”—टैक्सी से निकलता गाइलो बोला।

जीतसिंह भी हिचकता सा बाहर निकला और जा कर आगे ड्राइविंग सीट पर बैठा। गाइलो उसके पहलू में पैसेंजर सीट पर आ बैठा तो जीतसिंह ने टैक्सी को पार्किंग में से निकाला और फोर्ट की ओर दौड़ा दिया।

फोर्ट पहुंच कर गाइलो के निर्देश पर टैक्सी चलाता वो काला घोड़ा और आगे फोरबेस रोड पहुंचा।

“रोक!”—एकाएक गाइलो बोला।

जीतसिंह ने टैक्सी रोकी।

सामने ही एक जगह साइन बोर्ड लगा था जिस पर दर्ज था :

गायकवाड एण्ड संस

गौरमेंट अप्रूव्ड जैम्स एक्सपर्ट्स एण्ड इवेल्युएटर्स

स्थापित : सन् 1932

“तू टैक्सी में बैठ”—गाइलो बोला—“मैं आता है।”

जीतसिंह खामोश रहा।

“अरे, ओके तो बोल, जीते?”

“ओके।”—जीतसिंह हड़बड़ाया सा बोला—“ये कोई पूछने का बात...”

“है बरोबर। डायमंड तेरा है न...”

“थोबड़ा बन्द! तेरा मेरा करेगा तो देगा लाफा एक।”

गाइलो हंसा, फिर बोला—“आता है।”

वो टैक्सी से निकला, फुटपाथ क्रॉस करके उसने चार सीढ़ियां चढ़ीं और एक शीशे के दरवाजे के पीछे गायब हो गया।

पीछे जीतसिंह ने एक सिग्रेट सुलगा लिया और प्रतीक्षा करने लगा।

गाइलो उसकी अपेक्षा से बहुत पहले वापिस लौटा।

वो आकर उसके पहलू में पैसेंजर सीट पर बैठा। उसने हीरा वापिस जीतसिंह को सौंपा।

“क्या हुआ?”—जीतसिंह बोला—“काम नहीं बना?”

गाइलो ने संजीदगी से इंकार में सिर हिलाया।

“वजह?”

“बोला, परचेज का कैश मीमो होना।”

“अच्छा!”

“हां। साला ज्यास्ती ही हाई फाई ठीया। अंग्रेज के टेम से बिजनेस में। कोई काम आउट आफ दि वे नहीं करता।”

“कमाल है!”

“और मालूम, अप्रेज़ल का फीस कितना?”

“कितना?”

“फाइव थाउ।”

“क्या! एक हीरे की कोई औनीपौनी कीमत बताने की फीस पांच हजार?”

“यहीच बोला वो। बोलता था क्यों वो जॉब वर्थ फाइव थाउ था। स्टोन में क्या कुछ देखने का, परखने का, इवैल्युएट करने का, उस पर लैक्चर करता था जो साला मेरा सिर के ऊपर से गुजर गया।”

“फिर भी क्या बोलता था?”

“बोला, डायमंड का कीमत बोलने में पहले उस का फोर क्वालिटीज़ चैक करने का। वन, क्लैरिटी। टू, कट। थ्री, कैरेट। एण्ड फोर, कलर। फिर क्लैरिटी समझाता था। बोला, बैस्ट क्लैरिटी एफ एल। नैक्स आई एफ।”

“एफ एल क्या? आई एफ क्या?”

“एफ एल बोले तो फ्लालैस। आई एफ, इन्टरनली फ्लालैस।”

“ओह!”

“फिर बोला, कलरलैस मोस्ट एक्सपेंसिव। फिर नियर कलरलैस, फिर यैलो, फिर लाइट यैलो। बोला, हीरा पिंक शेड का हो तो फाइव टाइम्स एक्सपेंसिव, ब्लू शेड का हो तो ट्वेन्टी टाइम्स एक्सपैंसिव।”

“कमाल है! ये कैसा है?”

“कलरलैस लगता है पण क्या बोलेगा! वो तो झांका तक नहीं। साला इतना लैक्चर तो मेरे को इस वास्ते दिया कि अपना फाइव थाउ फीस जस्टीफाई करना मांगता था।”

“और?”

“और कैरेट का बोला। बोला एक कैरेट का हीरा तो प्राइस एटी थाउ से लेकर पांच पेटी तक। दो कैरेट का तो, जीते, प्राइस बोल तू?”

“डबल।”

“फाइव टाइम्स।”

“हीरा कैरेट में एक से दो तो कीमत पांच गुणा ज्यास्ती?”

“यहीच बोला वो।”

“कमाल है!”

“और ‘कट’ का भी कुछ बोला पण वो मेरे मगज में नहीं पड़ा, साला सब सिर के ऊपर से गुजर गया।”

“ऐसे सब भीड़ूओं की फीस पांच हजार! खाली एक नग को परखने की!”

“मैं भी पूछा। बोला गौरमेंट अप्रूव्ड तो यहीच फीस। रजिस्टर्ड तो यहीच फीस। साथ में ड्यूली स्टैम्ड एण्ड एनडोर्स्ड सर्टिफिकेट। इस वास्ते फीस फाइव थाउ। साला मंजूर भी करता तो थाइच नहीं मेरा पास फाइव थाड पॉकेट में।”

“मेरे पास भी नहीं है।”

“अब इधर काहे वास्ते खड़ेला है?”

जीतसिंह हड़बड़ाया, फिर बोला—“किधर चलूं?”

“इधर से तो हिल!”

“बात तो कुछ हुई नहीं!”

“करता है न! सोचता है न!”

जीतसिंह ने इग्नीशन आन किया, टैक्सी को गियर में डाला और रोड पर आगे सरकाया।

“एक बात मैं बोले?”—जीतसिंह बोला।

“बोल।”

“तू कुछ भी कह, कोई भी शक खड़ा कर, ये हीरा नकली नहीं हो सकता।”

“तू पहले भी बोला पिरेशर के साथ।”

“अभी भी बोलता है प्रैशर के साथ। रिपीट करता है पक्की करके। ये हीरा—सारा लॉट—नकली होइच नहीं सकता। साला इतना हाहाकार, इतना गलाटा कहीं नकली माल के लिये होता है! मेरा कल रात का पैसेंजर, जो अपना नाम जोकम फर्नान्डो बोला, जो जान से गया, वो साला तू नहीं देखा, मैं देखा। ब्रीफकेस को ऐसा छाती से चिपकाये था कि जान चली जाती ब्रीफकेस न छोड़ता...”

“चली तो गयी!”

“वो बाद की बात है। तू सुन तो!”

“सुनता है।”

“इम्पॉर्टेंट कर के डाकूमेंट्स का, किन्हीं सबूतों का जो स्टोरी वो करता था, वो मेरे को अब मालूम कि बंडल। वो स्टोरी खाली मेरे को काबू में रखने के वास्ते था। अब जब कि मैं ब्रीफकेस को खोल चुका हूं, जान चुका हूं कि भीतर क्या था तो जरूरत है किसी सबूत की कि वो स्टोरी उसने खाली मेरे को सुनाने के लिए हाथ के हाथ गढ़ ली थी?”

गाइलो का सिर मशीनी अन्दाज से इंकार में हिला।

“तो इसका मतलब ये नहीं हुआ कि वो ब्रीफकेस की हकीकत से—जिसमें उसकी जान अटकी हुई थी—वाकिफ था? बाखूबी जानता था कि भीतर क्या था?”

“बोले तो हुआ।”

“तो हीरे नकली कैसे होंगे?”

“मैं खाली एक आइडिया सरकाया जो कि मेरे मगज में आया।”

“अब सब कहा सुना, मगज में आया गया छोड़। गाइलो हमेरे को ये मान के चलने का कि हीरे असली।”

“तू बोलता है तो...”

“अरे, मैं तो बोलता है, तू भी बोल।”

“ओके। बोलता है।”

“हमें वो चार करोड़ के लगते है पण ये तू जो कैरेट, कलर, क्लेरिटी-वलेरिटी करके बोला वो अगर सौ टांक, बोले तो एन परफेक्ट करके, तो वो चार क्या, चालीस करोड़ के भी हो सकते हैं।”

“जीसस! जीते, कितना फेंक रयेला है साला!”

“अरे, गाइलो, अभी जो तू कैरेट करके बोला, बोला कि नहीं एक की कीमत एटी थाउ से लेकर फाइव पेटी तक। बोले तो अस्सी हजार से ले कर पांच लाख तक?”

“बोला मैं बरोबर। जो वो वैल्युअर भीड़ू बोला, वो मैं बोला।”

“फिर हमें क्या पता कलर कैसा, कलरलैस कैसा, नियर कलरलैस कैसा! हमें क्या पता साला पीला है, हल्का पीला है, गुलाबी है कि नीला है? हमें क्लैरिटी का क्या पता, कट का क्या पता! कैरेट का क्या पता कि एक कि डेढ़ कि दो! हमें तो खाली ये पता है कि हीरा साला जगमग जगमग करता है सौ टांक।”

“ठीक!”

“तो फिर चार सौ हीरों की कीमत चार करोड़ ही क्यों? क्योंकि हम साला छोटा लोग। हमारा थिंकिंग छोटा साला। नाक से आगे सोच सकता हैइच नहीं। साला एक डायमंड का कीमत एक पेटी भी यूं पक्की किया जैसे आसमान छू लिया हो। साला दस, बीस पचास पेटी काहे वास्ते नहीं सोचता?

“काहे वास्ते नहीं सोचता?

“अरे, तू बोल। मैं तेरे से पूछता है।”

“साला मेरे को ज्यास्ती ऊंचा उड़ने से डर लगता है।”

“जैसे मेरे को नहीं लगता!”

“ठीक। अभी मैं बोले तो अब ये फाइनल कि डायमंड्स का प्राइस साला फोर खोखा से लेकर फॉर्टी खोखा तक किधर भी हो सकता है!”

“हां।”

“बोले तो तेरे पोजेशन में करोड़ों का माल!”

“अभी है तो ऐसीच!”

“भाई लोगों का? बड़ा मवाली लोगों का?”

“डर के बोलता है पण हां।”

“भाई लोग, जिन का माल, तड़पता होयेंगा कि नहीं साला? ढ़ूंढ़ता होयेंगा कि नहीं कि इतना सैवरल खोखा प्राइस का डायमंड्स साला किधर गया?”

“क्या कहना मांगता है?”

“जीते, यू आर इन ग्रेट ट्रबल।”

“अरे, तू तो मेरे को दहशत में डाल रहा है!”

“अभी क्या बोलेगा!”

“अभी क्या करे मैं?”

“मैं बोले?”

“और कौन बोले? और कौन है इधर?”

“ठीक! तो बोलता है, सुन। तू बोला माल दादर रेलवे स्टेशन के क्लॉक रूम में! क्या?”

“हां। उधरीच है। बोला न मैं बरोबर!”

“उसको उधरीच छोड़ काफी टेम का वास्ते और ऐसा नार्मल बिहेव कर जैसे कुछ हुआ हैइच नहीं। फिर देखने का, वाच करने का, कि आगे क्या होता है! साला कोई हिल डुल नहीं होता, होता है तो फिनिश हो जाता है, तो उसके बाद सोचेंगे कि क्या करने का! नैक्स्ट स्टैप क्या होने का!”

“ठीक।”

“पण इस में एक फच्चर।”

“क्या?”

“मैं सुना कि रेलवे स्टेशन के क्लॉकरूम में फिक्स्ड टेम के लिये, शार्ट टेम के लिये ही लगेज रखा जाने का। वो ड्यूरेशन मेरे को नहीं मालूम पण इस रूल की मेरे को पक्की खबर। उस फिक्स्ड टेम में अगर कोई पैसेंजर क्लॉकरूम से अपना लगेज क्लेम नहीं करता तो उसको रेलवे के बड़े गोदाम में शिफ्ट कर दिया जाता है जिधर से उसको रीक्लेम करने में सैवरल पिराब्लम, सैवरल फारमलिटीज!”

“तो?’

“जीते, जगह तूने ऐन सेफ चुना। किसी को खयाल तक नहीं आना सकता कि माल किसी रेलवे स्टेशन के क्लॉकरूम में। इस सिचुएशन का एडवांटेज हम को लूज करना नहीं मांगता।”

“अरे, तो?”

“तो सोचता है न! मगज लगाना है न!”

जीतसिंह खामोश हो गया।

“हमेशा साला एकीच पिराब्लम कि ताकत नहीं।”—फिर यूं बोला जैसे बड़बड़ा रहा हो—“मेरे को साला ताकत बनाना मांगता है...”

“यू आर ड्रीमिंग, डियर ब्रो।”

“अभी मांगता है तो मांगता है।”

“नहीं होना सकता, जीते, नहीं होना सकता। वो एक बड़ा, नेशनल लीडर का सगा, हमेरे जैसे भीड़ुओं को क्या बोला, मालूम?”

“क्या बोला?”

“मैंगो पीपुल।”

“क्या?”

“आम आदमी। जीते, ख्वाब देखना नक्की कर। हम मैंगो पीपुल ताकत नहीं बनाना सकता। मुम्बई में ताकत या लीडर का हाथ में या ‘भाई’ का हाथ में। ताकत बनाना माँगता है तो दो में से एक बन। बोल, क्या बन सकता है? लीडर या ‘भाई’? या दोनों, बहरामजी का माफिक! हाजी मस्तान का माफिक! अरुण गावली का माफिक! बोल?”

जीतसिंह से बोलते न बना।

“अभी ऐसीच साइलेंट रहने का। मगज में आयेला था कुछ, साला बोल के निकाल दिया। क्या!”

जीतसिंह खामोश रहा।

फिर कई क्षण खामोशी व्याप्त रही।

“ओके!”—फिर एकाएक गाइलो बोला—“आई गॉट इट।”

“क्या?”—जीतसिंह ने उत्सुक भाव से पूछा।

“जीते, मुम्बई में खाली दादर ही एक रेलवे स्टेशन नहीं जिस पर पैसेंजर्स के लगेज के वास्ते क्लॉकरूम। ये सर्विस और स्टेशंस पर भी अवेलेबल। मुम्बई सैन्ट्रल और विक्टोरिया टर्मिनल का तो मेरे को डेफिनिट कर के मालूम, और भी ऐसा स्टेशंस जरूर होयेंगा जो हम मालूम कर सकते हैं।”

“ठीक! पण करने का क्या?”

“जो सूटकेस तू दादर स्टेशन पर जमा कराया, उसको शिफ्ट करते रहने का। परमिटिड टाइम लिमिट फिनिश होने से पहले उसको दूसरे स्टेशन के क्लॉकरूम में शिफ्ट करने का। फिर तीसरे में, चौथे में... ऐनी पिराब्लम?”

जीतसिंह का सिर मशीनी अंदाज से इंकार में हिला।

“और कोई तरीका नहीं। करोड़ों का माल तू अपना चाल का खोली में नहीं रख सकता। या रख सकता है?”

“नहीं।”

“तो फिर फार दि टाइम बीईंग मेरा सजेशन को डन बोल।”

“डन।”

“गॉड ब्लैस यू, डियर फिरेंड।”

 

वो धारावी पहुंचे।

नवगुजरात टूअर्स एण्ड ट्रैवल्स को तलाश करने में उन्हें कोई दिक्कत न हुई।

वो एक बड़ा सा अहाता था जिसमें कई गाड़ियाँ खड़ी थीं। गाड़ियां अधिकतर पीली छत वाली फियेट थीं, यानी टैक्सी थीं। पिछवाड़े में एक शीशे की खिड़की वाला दरवाजा था जिस पर ‘आफिस’ लिखा था।

वो आफिस में पहुंचे।

वो आगे पीछे दो कमरे थे। पिछवाड़े के दरवाजे की शीशे की खिड़की पर अंकित था :

नवगुजरात टूअर्स एण्ड ट्रैवल्स (रजिस्टर्ड)

जयन्त ढोलकिया

(प्रोप्राइटर)

बाहरले आफिस में एक युवक बैठा था जिसने अपने दोनों पांव एक स्टूल पर टिकाये हुए थे और अधलेटा सा कोई मैगजीन पढ़ रहा था।

आहट पा कर उसने मैगजीन को नीचे झुकाया, आगन्तुकों को देखकर सीधा हुआ, फिर सवालिया निगाह से बारी बारी उन दोनों की तरफ देखा।

पंड्या ने प्रोप्राइटर की बाबत पूछा तो मालूम हुआ ढ़ोलकिया साहब शाम की उस घड़ी हमेशा वहां होता था लेकिन उस रोज किसी काम से कहीं चला गया था।

पंड्या का मन वितृष्णा से भर गया।

देवा! कोई काम सीधे से हो के नहीं देता था।

फिर युवक ने बताया कि ढ़ोलकिया साहब पक्का बोल के गया था कि लौट के जरूर आयेगा।

उन्होंने इन्तजार करने का फैसला किया।

दो घन्टे उन्होंने कभी बाहरले आफिस में बैठे, कभी अहाते में तो कभी बाहर सड़क पर चहलकदमी करते गुजारे।

आखिर एक कोई पचास साल के रोली-पोली व्यक्ति ने आफिस में कदम रखा तो युवक ने बताया वो ढ़ोलकिया साहब था।

दोनों ने उठकर उसका अभिवादन किया।

ढ़ोलकिया ने गर्दन के खम से अभिवादन स्वीकार किया और गर्दन के इशारे से ही उन की आमद के बारे में सवाल किया।

“बात करने का, भाया।”—पंड्या बोला।

“क्या?”—ढ़ोलकिया की भवें उठीं—“क्या बात करने का?”

“बोलेगा न, भाया। दो घन्टा से वेट करता है, ऐसीच तो टेम नहीं खोटी किया न!”

“आओ।”

वो उन्हें अपने—बाहर से कदरन बड़े, कदरन सजावटी—आफिस में ले कर आया। तीनों जने बैठ गये तो वो बोला—“अब बोलो। नहीं, पहले नाम बोलो।”

“मैं विराट पंड्या।”—पंड्या ने अपने उपनाम पर विशेष जोर दिया।

“मैं सुहैल पठान।”—पठान बोला।

“हूं।”—ढ़ोलकिया बोला—“अब बोलो क्यों वेट करता था? क्या मांगता है?

“भाया”—पंड्या बोला—“एक टैक्सी के बारे में मालूम करने का। नम्बर एमएच 01 जे 7983।”

“इधर क्यों आया?”

“वो तुम्हेरे नाम रजिस्टर्ड है न!”

“कैसे मालूम?”

“आरटीओ से मालूम किया।”

वो सकपकाया, फिर बोला—“क्यों?”

“डिरेवर से मिलने का।”

“अरे, क्यों?”

“टैक्सी में सामान रह गया। कल रात गेटवे आफ इन्डिया से टैक्सी पकड़ा था और बैरीस्टर नाथ पाई रोड पर छोड़ा था। बाद में खयाल आया कि ब्रीफकेस टैक्सी में रह गया था। उसमें कीमती सामान, इस वास्ते वापिस मांगता है।”

“ड्राइवर ऐसा सामान थाने जमा कराता है। थाना जाने का था!”

“गये थे। वो बोले, कोई जमा करायेगा तो खबर करेंगे। दो तीन दिन बाद पता करना। भाया, इतना वेट मुश्‍किल।”

“इस वास्ते खुद ही टैक्सी की तलाश में निकल पड़े! मालिक का पता निकालने आरटीओ पहुंच गये!”

“बोले तो हां।”

“हूं।”

कुछ क्षण खामोशी रही।

“वो क्या है कि”—फिर ढ़ोलकिया ने खामोशी भंग की—“मेरे पास हर तरह की टैक्सियों की फ्लीट है जो मैं डेली, वीकली, मंथली भाड़े पर उठाता है। ये टैक्सी जिसका तुम नम्बर बोला, मंथली भाड़े पर है।”

“ये तो अच्छी बात है! बोले तो वो एकीच डिरेवर के कब्जे में। कौन है डिरेवर? क्या नाम है? कहां पाया जाता है?”

ढ़ोलकिया पहले ही इंकार में सिर हिलाने लगा।

“नहीं बोलने का।”—वो बोला।

“वान्दा क्या है?”

“है वान्दा। मैं किसी गैर को, नावाकिफ को, ड्राइवर के बारे में नहीं बोल सकता।”

“पण मेरा ब्रीफकेस जो...”

“थाने जाने का।”

“उसमें कीमती सामान...”

“थाने जाने का।”

“...जिसका जल्दी से जल्दी मेरे हाथ आना जरूरी, वर्ना मेरे को प्राब्लम। बिग प्राब्लम।”

“नो!”

“पण...”

“नो!!”

पंड्या और पठान दोनों एक दूसरे का मुंह देखने लगे।

एकाएक पठान आगे को झुका और पंड्या के कान में कुछ फुसफुसाया।

पंड्या ने सहमति में सिर हिलाया, वो फिर ढ़ोलकिया की तरफ आकर्षित हुआ।

“भाया”—वो दबे स्वर में बोला—“उसमें भाई का माल है।”

“कौन भाई?”

भाई नहीं समझता?”

“नहीं।”

“बिग बॉस! अन्डरवर्ल्ड डॉन!”

ढ़ोलकिया हड़बड़ाया, फिर सशंक भाव से बोला—“कौन?”

पंड्या तनिक हिचकिचाया, फिर कदरन सख्ती से बोला—“बेजान मोरावाला!”

“मैं ये नाम कभी नहीं सुना।”

“मोरावाला और भी बिग बॉस, बोले तो टॉप बॉस, बहरामजी कान्ट्रैक्टर का नजदीकी है।”

“बहरामजी कान्ट्रैक्टर बड़ा नेता है, मराठा मंच करके पोलिटिकल पार्टी का सुप्रीमो है। मैं क्या जानता नहीं! उसका किसी अन्डरवर्ल्ड डॉन से क्या लेना देना!”

“भाया, समझता नहीं है।”

“क्या नहीं समझता मैं? मेरी किसी भाई से, किसी अन्डरवर्ल्ड डॉन से कोई खुन्नस नहीं। कोई वास्ता नहीं। तुम काहे वास्ते ऐसे नाम की मेरे को हूल देता है?”

“पण...”

“नहीं मांगता पण। अभी नक्की करने का, नहीं तो मैं पुलिस को फोन लगाता है।”

“अरे, नहीं भाया, ऐसा न करना।”

“तो फिर...”

उसने एक हाथ के अंगूठे से दरवाजे की तरफ इशारा किया।

“बाप सुनो”—पठान व्यग्र भाव से बोला—“एक मिनट, खाली एक मिनट सुनो। प्लीज करके बोलता है।”

“सुनता है। बोलो।”

“बाप उस ब्रीफकेस का मिलना हमेरे वास्ते बहुत जरूरी। हम बिग बॉस के खाली मुलाजिम हैं। वो ब्रीफकेस न मिला तो हम मुलाजमत से तो जायेंगे ही, हमारे पर और तरह का भी कहर टूट सकता है।”

“और तरह का कहर क्या?”

“हमेरी लाशें समन्दर में तैरती पायी जा सकती हैं।”

ढ़ोलकिया हड़बड़ाया।

“भाया”—पंड्या बोला—“तुम मेरा गुजराती भाई है। और कुछ नहीं तो अपने जातभाई का ही लिहाज कर दो।”

“अच्छा!”

“प्लीज, भाया।”

“देखता है। क्या नम्बर बोला था?”

“एमएच 01 जे 7983।”

उसने मेज के दराज से एक बड़े साइज की डायरी निकाली और उसके पन्ने पलटने लगा।

सस्पेंस के मारे दोनों सांस रोके बैठे रहे।

“वो टैक्सी”—फिर ढ़ोलकिया ने डायरी बन्द की—“एक बद्रीनाथ करके भीड़ू चलाता है।”

“माहाना भाड़े पर?”—पंड्या बोला।

“हां।”

“कब से?”

“यही कोई दो-ढ़ाई महीने से।”

“किधर रहता है?”

“कोई पक्का ठिकाना नहीं उसका। जिधर मौका लगे, उधर रहता है।”

“ऐसे भीड़ू को टैक्सी दे देता है, भाया?”

“मैं क्या मैंटल है? साला धन्धा बर्बाद करना मांगता है मेरे को?”

“स-सॉरी!”

“दूसरे टैक्सी ड्राइवर भीड़ू की गारन्टी पर दिया ये टैक्सी बद्रीनाथ को। वो दूसरा भीड़ू अपनी टैक्सी का खुद मालिक है, इस वास्ते फ्रेंड के वास्ते उसकी गारन्टी मेरे को मंजूर।”

“बद्रीनाथ उसका फिरेंड?”

“पक्का! जिगरी! इसी वास्ते सपोर्ट करता है।”

“कौन? नाम क्या है?”

“गाइलो।”

“भाया, गुस्ताखी की माफी के साथ पूछता है, उसकी, इस भीड़ू गाइलो की, जुबानी गारन्टी तुम्हेरे को कबूल?”

“नहीं, नहीं कबूल। वो क्या लाट साहब है?

“तो?”

“उसकी खुद की टैक्सी के पेपर्स—आरसी, इंश्‍योरेंस, खरीद की ओरीजिनल रसीद वगैर सब मेरे पास बद्रीनाथ की जमानत के तौर पर जमा। साला मेरा टैक्सी को कुछ होयेगा तो मैं गाइलो को थामेगा न! उसकी टैक्सी को थामेगा न!”

“ठीक! किधर रहता है?”

“जम्बूवाडी। उधर इसी नाम की एक चाल है, उसमें।”

“खोली नम्बर?”

“नहीं मालूम। पण वो उधर बहुत पुराना रेजीडेंट, इस वास्ते बहुत पापुलर। किसी से भी पूछना, बोलेगा।”

“बद्रीनाथ भी उधरीच रहता है?”

“नहीं मालूम।”

“भाया, तुम बोला न कोई पक्का ठिकाना नहीं उसका, जिधर मौका लगे उधर रहता है। मैं सोचा शायद ऐसा कोई ठिकाना तुम्हेरे को मालूम हो!”

“भई, सुना है पहले पक्की कर के चिंचपोकली से रहता था। उससे पहले क्रॉफोर्ड मार्केट में कहीं रैन बसेरे का इन्तजाम किये था। फिर बोलता था थोड़ा टेम के वास्ते विट्ठलवाडी में शिफ्ट किया। अभी पता नहीं, किधर ठिकाना। हो सकता है जम्बूवाडी में गाइलो के साथ उसी की खोली में रहता हो!”

“ऐसा?”

“हां। बोले तो दोनों फास्ट फ्रेंड।”

“हूं। गाइलो का पूरा नाम?”

“वो तो नहीं मालूम मेरे को!”

“कमाल है!”

“कभी खयाल ही न आया पूछने का, जानने का। हर कोई गाइलो ही बोलता है उसको। पण ठहरो, उसके पेपर्स में—आरसी पर, इंश्‍यारेंस पर—उसका पूरा नाम जरूर होगा। देखता हूं।”

उसने फिर दराज खोला, उसमें से एक लम्बा, पीला लिफाफा बरामद किया, उसे खोल कर भीतर मौजूद कागजात निकाले और उनका मुआयना करने लगा।

“हां, है इधर।”—फिर बोला—“गाइलो सारडीना।”

पठान ने नाम एक कागज पर नोट किया।

“और कुछ?”—ढ़ोलकिया बोला।

“नहीं।”—पंड्या उठ खड़ा हुआ—“बहुत हैल्प किया, भाया, थैंक्यू बोलता है दिल से।”

“थैंक्यू बोलता है, बाप।”—पठान भी बोला और उठा।

“जाता है, भाया।”—पंड्या बोला।

“एक आखिरी बात सुन के जाओ मेरी।”

“सुनता है, भाया।”

“तुमने जातभाई होने की दुहाई दी, गुजराती होने की दुहाई दी, इसीलिये मैंने तुम्हारा लिहाज किया और तुम्हारे साथ जैसे मांगता था वैसे कोआपरेट किया...”

“मैं शुक्रगुजार है न, बाप!”

“सुनता नही है।”

“सॉरी!”

“जो कुछ मेरे से जाना, उसकी वजह से मेरे साथ कोई पंगा हुआ, मेरी टैक्सी के साथ कोई खराबी, कोई हादसा हुआ तो मैं समझेगा मैंने गलत आदमी के साथ कोआपरेट किया, लाइफ का बड़ा मिस्टेक किया।”

“ऐसा कुछ नहीं होगा, भाया, जुबान दे के जाता है, ऐसा कुछ नहीं होगा।”

“ठीक है फिर।”

दोनों वहां से रुखसत हुए।

वो बाहर सड़क पर पहुंचे और अपनी नीली सान्त्रो में सवार हुए।

“मैं साला गन निकालने लगा था”—पंड्या बोला—“जब तू ने मेरे कान में फूंक मारी और ‘भाई’ का आइडिया सरकाया।”

“पण काम तो न आया!”—पठान बोला—“वो तो न मोरावाला के नाम से हिला, न बहरामजी के नाम से हिला। आखिर हिला तो इसलिये हिला कि तेरा गुज्जू भाई था।”

“ठीक।

अब?”

“नागपाडा चलते हैं जिधर वो गाइलो सारडीना करके भीड़ू पाया जाता है?”

“ये टेम होगा वो उधर? भीड़ू टैक्सी ड्राइवर है और अभी”—पठान ने अपनी कलाई घड़ी पर निगाह डाली—“नौ ही बजे हैं!”

“अरे, जा के देखेंगे तो मालूम पड़ेगा न!”

“ठीक!”

 

वो जम्बूवाड़ी पहुंचे। आगे उसी नाम की विशाल चाल तलाश करने में उसे कोई दिक्कत न हुई। वो लम्बाई में बहुत आगे तक फैली हुई पांचमंजिला चाल थी जिस के सामने एक बहुत बड़े पीपल के विशाल पेड़ और गिर्द चबूतरे वाला यार्ड था। पीपल का पेड़ यार्ड के परले सिरे के कदरन ज्यादा करीब था। यार्ड में कुछ साइकलें, कुछ दो पहिया, चार पहिया वाहन खड़े थे।

पंड्या ने कार को मेन रोड पर ही छोड़ा।

दोनों पेड़ के गिर्द के चबूतरे पर पहुंचे जिस पर कुछ लोग बैठे धूम्रपान करते वार्तालाप में मशगूल थे। उनके करीब पहुंचने पर वार्तालाप को ब्रेक लगा।

“टैक्सी डिरेवर गाइलो सारडीना से मिलने का।”—पंड्या बोला—“किधर मिलेगा?”

“क्या काम है?”—एक व्यक्ति ने पूछा।

“गाइलो को बोलेगा न!”

“है कौन तुम? फिरेंड तो नहीं है! होता तो मेरे को मालूम होता।”

“मालूम होता!”

“अरे, मैं है न फिरेंड गाइलो का! बोले तो फास्ट फिरेंड। डिकोस्टा। बोले तो फैलो टैक्सी डिरेवर।”

“अरे, फिरेंड भाया, तो बोलो न, गाइलो का खोली किधर! प्लीज करके बोलता है न!”

“पहले माले पर जा। उधर एकीच हरा दरवाजा। ब्लॉक के मिडल में। वो गाइलो की खोली का।”

“वो होगा उधर?”

“जा के देख। क्या पता हो, क्या पता न हो!”

“ठीक! थैक्यू बोलता है।”

डिकोस्टा ने सहमति में सिर हिला कर थैंक्यू कबूल किया और फिर बातों में मशगूल हो गया।

वो दोनों वापिस घूमे और उधर आगे बढ़े जिधर सीढ़ियां थीं।

पहली मंजिल के इकलौते हरे दरवाजे पर उन्होंने ताला झूलता पाया।

वो वापिस लौटे।

“क्या हुआ?”—डिकोस्टा बोला—“जल्दी लौटे? बोले तो नहीं मिला?”

पंड्या ने इंकार में सिर हिलाया।

“किस टेम आता है?”—फिर पूछा।

“कोई टेम नहीं आने का। कई टेम अक्खा नाइट नहीं आता।”

“आता तो है!”

“हां, आता तो है! साला किधर जाके रैस्ट करने का, सोने का कि नहीं!”

“अकेला रहता है?”

“हां। बोले तो मार्निंग में आना।”

“बरोबर। आता है।”

“या काम बोलो। शायद मैं कुछ हैल्प कर सके।”

“नक्को। काम ऐसा कि उसी को बोलने का।”

“तो नाम ही बोलो। मैं बोलेगा गाइलो को कि कौन मिलने आया!”

“मार्निंग में आता है न!”

पंड्या घूमा और आगे बढ़ चला।

पठान उसके पीछे लपका।

दोनों अहाते में खड़े वाहनों के करीब से गुजरे।

एकाएक पठान ठिठका, उसने पंड्या को बांह पकड़ कर रोका।

“क्या हुआ?”—पंड्या झुंझलाया।

“गुज्जू भाई”—पठान सस्पेंसभरे स्वर में बोला—“उधर देख।”

“किधर? किधर देखे?

“वो सामने... जो चार पीली छत वाली टैक्सियां खड़ेली हैं, उन को देख।”

“क्या देखूं उन में?”

“जो दायें बाजू खड़ेली है, उस का नम्बर पढ़।”

“काहे वास्ते?”

“अरे, पढ़ न, खजूर!”

पंड्या हड़बड़ाया, उसने निर्देशित टैक्सी की फ्रंट नम्बर प्लेट पर दर्ज नम्बर पढ़ा। तत्काल उसके नेत्र फैले।

“एमएच जीरो वन जे सात नौ आठ तीन!”—उसके मुंह से निकला—“देवा! ये तो... ये तो वही टैक्सी है...”

“जिसका हमने अथारिटी से नम्बर निकाला, जिसकी फिराक में धारावी गये, जिस पर कल रात हमारा वो भीड़ू सवार था जिसके पास हीरे, जिसको अब हमेरे को मालूम कि बद्रीनाथ कर के टैक्सी डिरेवर चलाता है, वो इधर हमारी आंखों के सामने खड़ेली है। अभी क्या समझा?”

“बद्रीनाथ इधरीच रहता है।”—पंड्या सस्पेंसभरे स्वर में बोला—“अपने फिरेंड और गारन्टर गाइलो के साथ या अलग, पण इधरीच रहता है।”

“बिल्कुल! हम ये भी नहीं कह सकते कि इधर खास फिरेंड से मिलने आया, क्योंकि खास फिरेंड की खोली को तो ताला लगा है!”

“कोई और फिरेंड! इतनी बड़ी चाल है, कोई और फिरेंड!”

“हो सकता है पण मेरे मगज में यहीच घन्टी बोलता है वो इधरीच रहता है।

“किसी और फिरेंड से मिलने आया नहीं हो सकता?”

“क्यों नहीं हो सकता? बरोबर हो सकता है। पण जो मेरे मगज में पक्की करके आया, वो मैं बोल दिया।”

“हूं।”

“मिलने आया, बोले तो विजिट पर है तो लौटेगा। नहीं?”

“हां।”

“तो वेट करने का?”

“मैं... मैं वो डिकोस्टा कर के भीड़ू से फिर बात करता है जो बोला कि गाइलो का फास्ट फिरेंड। क्या पता वो बद्रीनाथ से भी वाकिफ हो!”

“ठीक है, कर।”

“तू इधरीच ठहर। क्या पता मेरे पीछे वो लौट आये!”

“आये तो क्या करूँ?”

“बातों में लगाना। मेरे लौटने तक रोक के रखना। न रुके तो सान्त्रो पर पीछे लगना।”

“ठीक।”

पंड्या ने कार की चाबी उसे सौंपी और घूम कर चबूतरे की तरफ बढ़ा।

डिकोस्टा ने साथियों से तवज्जो हटा कर पंड्या की तरफ देखा, उसकी भवें उठीं।

“क्या हुआ, भीड़ू?”—वो बोला—“इधरीच है अभी? गया नहीं?”

“एक बात और पूछने का।”—पंड्या जबरन विनयशील बनता बोला।

“क्या? पूछ।”

“बद्रीनाथ को जानता है?’

“कौन बद्रीनाथ?”

“बोले तो नहीं जानता!”

“अरे, कौन ब्रद्रीनाथ?”

गाइलो का फिरेंड है, उसका माफिक टैक्सी डिरेवर है।”

“नहीं जानता।”

“वो इधर रहता होता तो जानता होता?”

“बरोबर! गाइलो का फिरेंड तो जरूर जानता होता। वो भी टैक्सी डिरेवर तो जरूर ही जानता होता।”

“पण नहीं जानता?

“नहीं जानता।”

“इधर, इस चाल में बद्रीनाथ करके कोई टैक्सी डिरेवर नहीं रहता?”

“अरे, बोला न, नहीं रहता।”

“इधर और भी टैक्सी डिरेवर रहते हैं?”

“हां। कई हैं बोले तो। दो तो”—उसने करीब बैठे अपने साथियों की ओर इशारा किया—“मेरे साथ ही बैठेले हैं। और भी हैं।”

“तुम सब को जानता है?”

“हां।”

“पण बद्रीनाथ टैक्सी डिरेवर को नहीं जानता?

“अरे, क्यों मगज चाटता है? बोला न, इधर इस नाम का कोई टैक्सी डिरेवर नहीं रहता! अब नक्की कर।”

पंड्या घूमा और पठान के पास वापिस लौटा।

“क्या जाना?”—पठान उत्सुक भाव से बोला।

“जिस से बात किया”—पंड्या बोला—“पहले भी किया था, वो पक्की करके बोलता है कि कोई बद्रीनाथ नाम वाला टैक्सी डिरेवर इधर नहीं रहता।”

“तो?”

“पण मेरे को तेरी बात जंच रही है। वो इधर रहता हो सकता है।”

“तो? अभी रात इधरीच खोटी करने का?”

“नहीं। अब और दम नहीं है। सारा दिन धक्के खाते गुजरा, अब और दम नहीं है।”

“अरे, तो?”

“मैं जरनैल को फोन लगाता है और दो भीड़ू इधर भेजने को बोलता है। वो आकर इस टैक्सी पर वाच रखने का, इधर से निकल कर किधर जाये तो पीछू लगने का। अक्खी रात इधरीच खड़ी रहे तो भी चौकसी करने का। जब टैक्सी मूव करे तो हमेरे को खबर करने का।”

“ठीक।”

“अगर हमेरा भीड़ू इधर किसी से मिलने आया तो टैक्सी जल्दी मूव करेगी—हो सकता है हमेरे भीड़ूओं के इधर पहुंचने से पहले—अगर इधरीच रहता है तो ये कल सुबह से पहले इधर से नहीं हिलने वाली।”

“इधरीच रहता है। मेरे अन्दर से घन्टी बजता है, इधरीच रहता है।”

“तो मालूम पड़ेगा। पण अभी कुछ नहीं हो सकता। हम एक एक खोली का दरवाजा नहीं खटखटा सकते। उस भीड़ू को पहचानते होते तो साला वो भी कर देखते। अभी वेट करने का। मैं जरनैल को फोन लगाता है।”

पठान ने सहमति में सिर हिलाया।