मायाराम ने रेलगाड़ी का पूरा चक्कर लगाया।

जिस छोटे-से डिब्बे में उसे करनैल सिंह बैठा दिखायी दिया, वह एकदम खाली था। उसमें करनैल सिंह के अलावा और कोई सवारी नहीं थी। करनैल सिंह चौकड़ी लगाए बैठा उर्दू का अखबार पढ़ रहा था। मायाराम धीरे से खांसा। करनैल सिंह ने सिर उठाया। उसने मायाराम को देख कर भी अनदेखा कर दिया। उसने यूं उसकी ओर एक सरसरी निगाह डाली जैसे मायाराम के आर पार देख रहा हो और फिर अखबार पर गर्दन झुका ली।

मायाराम खिड़की से परे हट गया। वह प्लेटफार्म पर खड़ा सिग्नल होने की प्रतीक्षा करने लगा।

पिछली रात को उसने करनैल सिंह को फोन करके सूचना दी थी कि उसने सत्यपाल गुप्ता के पास उसके नाम से नब्बे हज़ार रुपए जमा करवा कर उससे रसीद हासिल कर ली थी। उत्तर में करनैल सिंह ने इतना ही कहा था कि वह कल सुबह की गाड़ी से अपने एक दोस्त से मिलने बटाला जा रहा था और सम्बन्धविच्छेद कर दिया था।

मायाराम गाड़ी के वक्त रेलवे स्टेशन पर पहुंच गया था।

उस रोज रविवार था। शायद इसलिए उस खड़खड़-सी सवारी गाड़ी में कोई मुसाफिर दिखायी नहीं दे रहा था। वह गाड़ी पठानकोट तक जाती थी और अधिकतर उसमें रोज सफर करने वाली सवारियां ही होती थी जो कि उस रोज छुट्टी होने की वजह से नदारद थीं।

सिग्नल हरा हुआ, गार्ड ने हरी झंडी दिखायी, गाड़ी यूं थकी हारी-सी आगे सरकी, जैसे चलना न चाहती हो।

गाड़ी चलने तक करनैल सिंह वाले डिब्बे में कोई सवारी न चढ़ी।

गाड़ी रफ्तार पकड़ने लगी तो मायाराम लपक कर उस डिब्बे में चढ़ गया।

करनैल सिंह ने यूं उसकी ओर देखा जैसे वह कोई अवांछित व्यक्ति हो। उसने अखबार लपेट कर एक ओर रख दिया।

“लानत है।” — मायाराम धम्म-से उसकी बगल में बैठता बोला — “क्या बेहूदा जगह चुनी है मुलाकात के लिए!”

“यही जगह ठीक है।” — करनैल सिंह शुष्क स्वर में बोला — “मैं नहीं चाहता कि कोई मुझे तुम्हारे जैसे आदमी के आस पास भी देखे।”

“अगर यह डिब्बा खाली न मिलता तो?”

“क्यों न मिलता? मुझे पहले से मालूम है कि छुट्टी वाले दिन यह गाड़ी लगभग खाली जाती है।”

“फिर भी सारी गाड़ी तो खाली नहीं है! जो सवारियां और डिब्बों में हैं, वो इसमें हो सकती थीं!”

“होतीं तो वेरका, कत्थूनंगल तक उतर जातीं। न उतरती तो इस डिब्बे से मैं उतर जाता।”

“अच्छा, बादशाहो।” — मायाराम असहाय भाव से बोला — “तुसी खुश रहो।”

“रसीद निकालो।”

मायाराम ने रसीद निकाल कर उसे थमा दी।

“मैं सत्यपाल गुप्ता के हस्ताक्षर पहचानता हूं।” — करनैल सिंह बोला। वह बड़े गौर से रसीद का निरीक्षण करने लगा। अंत में उसने संतुष्टिपूर्ण ढंग से सिर हिलाते हुए रसीद तह की और उसे अपनी वास्कट की भीतरी जेब में रख लिया।

“ठीक है?” — मायाराम ने पूछा।

“हां।” — करनैल सिंह बोला।

“तो फिर कहानी शुरू करो।”

“सुनो।” — करनैल सिंह बेहद गम्भीर स्वर में बोला — “मैं सारी कहानी एक ही बार कहूंगा। कोई शंका हो तो हाथ के हाथ उसका समाधान कर लेना। कोई बात याद न रह सकने वाली लगे तो उसे नोट कर लेना। आज के बाद मैं तुमसे बात नहीं करना चाहता, मैं तुम्हारी सूरत नहीं देखना चाहता, मैं तुमसे कतई कोई वास्ता नहीं रखना चाहता। मैं तुम्हें चेतावनी दे रहा हूं, आज के बाद मुझे कभी फोन मत करना, कभी मुझे रास्ते में कहीं रोकने की कोशिश मत करना। तुमने ऐसी कोई हरकत की तो मैं बिना तुम्हारा लिहाज किए तुम्हारी पुलिस में रिपोर्ट कर दूंगा। मुझे यह भी बताने की जरूरत नहीं कि मेरे से हासिल जानकारी को तुम कब, किस तरीके से इस्तेमाल करने वाले हो। और मुझसे किसी अतिरिक्त मदद की भी उम्मीद न रखना। अगर तुमने मेरी ड्यूटी के दौरान बैंक पर धावा बोलने की कोशिश की तो मैं बिना तुम पर रहम खाए या तुम्हारा कोई भी लिहाज किए अपनी ड्यूटी भुगताऊंगा। और तुम्हें बताने की जरूरत नहीं कि मेरी ड्यूटी क्या है। मैं तुम्हारा सहयोगी नहीं, मैं तुम्हारी करतूतों में तुम्हारा कोई हिस्सेदार नहीं, इसलिए तुम मुझसे कोई ऐसी फिल्मी उम्मीद मत रखना कि तुम मुझसे कोई चाबी वगैरह हासिल कर लोगे या मुझे इस बात के लिए तैयार कर लोगे कि अलार्म मैं काट दूं या तुम्हें वहां देख कर मैं तुम पर गोली न चलाऊं। ऐसी कोई उम्मीद करना बेकार होगा।”

“अच्छा।”

करनैल सिंह ने अपनी वास्कट की भीतरी जेब में से एक लम्बा लिफाफा निकाला। उस लिफाफे में से उसने बड़ी सावधानी से एक बदरंग-सा कागज निकाला और उसे मायाराम की गोद में डाल दिया।

मायाराम ने कागज उठा कर बड़ी सावधानी से उसकी तहें खोलीं और उसे अपनी गोद में बिछा लिया। उस कागज पर कई आड़ी-तिरछी लकीरें खिंची हुई थीं। मायाराम को जल्दी ही समझ आने लगा कि वह मेहता हाउस का विस्तृत नक्शा था। उसमें सामने, पीछे और आस पास की सड़कें, मुख्यद्वार, विशाल कम्पाउण्ड, खिड़कियों तथा दरवाजों की स्थिति तथा हर फ्लोर का पूरा प्लान अंकित था और सम्बद्ध फासले भी फुटों और इंचों में अंकित थे।

“जहां जहां ‘एʼ लिखा दिखायी दे रहा है” — करनैल सिंह बोला — “उन तमाम जगहों पर अलार्म की घंटियां हैं। कुल चार घंटियां हैं जो इमारत के चारों कोनों पर सड़क से तीस फुट ऊपर लगी हुई हैं। एक घंटी और है जो वाल्ट के दरवाजे से सम्बन्धित है और इमारत में नहीं बल्कि नजदीकी पुलिस स्टेशन पर बजती है। सिक्योरिटी स्टाफ के कम से कम छ: आदमी हर वक्त ड्यूटी पर रहते हैं। दोपहर के बारह बजे भी। इमारत में दाखिल होने के कई रास्ते हैं लेकिन वाल्ट तक पहुंचने का केवल एक ही रास्ता है और वह है बेसमेंट को जाती सीढ़‍ियां। इमारत की बत्तियां चौबीस घंटे जली रहती हैं। बेसमेंट — तहखाना — में जहां सीढ़‍ियां खत्म होती हैं, वहां से वाल्ट साठ फुट दूर है। वाल्ट की दीवारें और छत स्टील की छड़ों पर मंढी रीइन्फोर्स्ड कंक्रीट की है और उनके भीतर इस्पात की मोटी परत चढ़ी हुई है। इसलिए ड्रिल द्वारा छत या दीवारों में छेद कर पाना असम्भव है। वाल्ट के भीतर घुसने के दरवाजे के अलावा कोई रास्ता सम्भव नहीं लेकिन शायद तुम्हारी निगाह में कोई रास्ता हो!”

मायाराम गौर से एक-एक शब्द सुनता रहा।

करनैल सिंह कुछ क्षण चुप रहा और फिर बोला — “गार्ड सबके सब सशस्त्र नहीं हैं लेकिन रात की ड्यूटी के गार्डों में कम से कम तीन गार्ड हमेशा सशस्त्र होते हैं। सशस्त्र गार्ड सभी अच्छे निशानेबाज हैं और आदतन बेरहम हैं।”

“छोड़ो। रात के इंतजाम के बारे में बताओ।”

“अच्छा। आम तौर पर पांच बजे वाल्ट बंद हो जाता है और सात बजे तक बैंक बंद हो जाता है। बंद होने के वक्त सारी इमारत चैक की जाती है और तमाम दरवाजों पर दोहरे ताले डाल दिए जाते हैं। रात को इमारत के भीतर कोई नहीं रहता। गार्डों की ड्यूटी बाहर ही होती है और बैंक बंद होते ही इमारत के इर्द गिर्द बड़ी मुस्तैदी से गश्त शुरू हो जाती है।”

“दोहरे तालों से क्या मतलब है तुम्हारा?”

“इमारत के जितने बाहरी दरवाजे हैं, उन पर दो दो ताले लगते हैं। एक एक चाबी सिक्योरिटी इंचार्ज के पास रहती है और दूसरी बैंक के एक उच्चाधिकारी के पास। कोई भी दरवाजा खोलने के लिए दोनों चाबियां होना जरूरी होता है और चाबी रखने वाला बैंक का अधिकारी रोज बदल दिया जाता है। उन तालों की एक्सट्रा चाबियां बैंक की दो अन्य ब्रांचों में जमा रहती हैं यानी कि उन चाबियों को हासिल करने के लिए तुम्हें दो विभिन्न बैंकों पर हल्ला बोलना पड़ेगा। अगर तुम सिक्योरिटी इंचार्ज पर हल्ला बोल कर एक चाबी हासिल कर भी लोगे तो दूसरी चाबी हासिल करना असम्भव होगा क्योंकि तुम यह तक नहीं मालूम कर पाओगे कि फलां रोज चाबी बैंक के कौन-से अधिकारी के अधिकार में होगी! दूसरी चाबी बैंक का कौन-सा अधिकारी रखेगा, इसका फैसला अधिकारियों द्वारा बैंक बंद होने से केवल पांच मिनट पहले किया जाता है। इसलिए एडवांस में यह जान पाना असम्भव है कि किस दिन चाबी किस बैंक अधिकारी को सौंपी जायेगी। यह बात सिक्योरिटी इंचार्ज को भी नहीं मालूम होती कि चाबी किस अधिकारी के पास होगी। यह बात उसे तभी मालूम होती है जब वह अधिकारी सुबह बैंक खोलने के लिए चाबी के साथ वहां प्रकट होता है।”

“ताले कैसे हैं?”

“निहायत मजबूत। विलायती। बाहर से बन कर आते हैं। कोई नौ लीवर से कम नहीं।”

“हूं। आगे बढ़ो।”

“मैं पहले ही कह चुका हूं कि बैंक बंद हो जाने के बाद इमारत के भीतर कोई नहीं ठहरता इसलिए किसी को डरा-धमका कर, बहला फुसला कर दरवाजा खोलने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। इमारत में जितनी भी खिड़कियां दरवाजे हैं, सब पर अलार्म की व्यवस्था है। घंटियां, मैं तुम्हें पहले ही बता चुका हूं कि, जमीन से तीस फुट ऊपर हैं, इसलिए पहुंच से परे हैं। वाल्ट का दरवाजा पांच टन वजन का है और ढाई फुट मोटा है। दरवाजे पर डायल वाला ताला लगा हुआ है। दरवाजे को खोलने बंद करने के लिए नम्बर घुमाना पड़ता है जो कि कोई एक ही पूर्वनिर्धारित नम्बर नहीं है। रात को ताला बंद करने के लिए डायल पर जो नम्बर घुमाया जाता है, सुबह वही ताला खोलने के लिए भी घुमाया जाना जरूरी है। इस प्रकार ताले के कम्बीनेशन नम्बर को रोज बदला जा सकता है।”

“नम्बर रोज बदला जाता भी है?”

“मुझे नहीं मालूम। ये बातें बैंक के उच्चाधिकारी ही निश्चित करते हैं। आम तौर पर जो अधिकारी वाल्ट बंद करता है, उसे प्रवेश द्वार की चाबी नहीं दी जाती। जिसे चाबी दी जाती, उसे वाल्ट बंद करने की जिम्मेदारी नहीं सौंपी जाती। इसे हमेशा एक सामूहिक जिम्मेदारी का काम बना कर किया जाता है।”

“आगे?”

“वाल्ट का जो अलार्म पुलिस स्टेशन पर बजता है, उसकी तार पुलिस स्टेशन पर लगी घंटी तक पी. एण्ड टी. की अंडरग्राउंड केबल में से प्राप्त की गयी है। मैंने नक्शे पर उस केबल का पूरा रूट लाल पेंसिल से अंकित कर दिया है और केबल के उस पेयर का कलर कोड भी लिख दिया है जो घंटी से सम्बन्धित है।”

“दिन में तो बैंक वालों को ही वाल्ट खोलना पड़ता है! इसलिए उस घंटी को बंद करने का और दोबारा चालू करने का कोई स्विच भी होगा?”

“है।” — करनैल सिंह तनिक हंसा — “लेकिन वह स्विच वाल्ट के भीतर लगा हुआ है।”

“यह कैसे हो सकता है? वाल्ट का दरवाजा रात को बंद हो जाने के बाद सुबह दरवाजा खोलने से पहले उस स्विच को बंद कैसे किया जा सकता है?”

“नहीं किया जा सकता। इसी वजह से जब सुबह दस बजे वाल्ट खोला जाता है तो पुलिस स्टेशन पर घंटी बजने लगती है। इसलिए रोज सुबह निर्धारित समय पर वाल्ट खोलने से पहले पुलिस स्टेशन पर टेलीफोन करके सूचित किया जाता है कि वाल्ट खोला जाने वाला है इसलिए खतरे की घंटी पर ध्यान न दिया जाये।”

“ओह! और?”

“शनिवार को बैंक तीन बजे बंद हो जाता है और फिर सोमवार सुबह दस बजे के करीब यानी कि तिरतालीस घंटे के बाद खुलता है। इमारत के बाहर की गश्त अंधकार होते ही शुरू हो जाती है और सुबह सूरज चढ़ने तक चलती है। कम्पाउण्ड के भीतर फाटक के पास एक बड़ा कमरा है जिसमें सिक्योरिटी चीफ का दफ्तर है और उन गार्डों के बैठने के लिए स्थान है जिनकी गश्त की ड्यूटी नहीं होती। गश्त के लिए एक वक्त में कम से कम चार गार्डों की ड्यूटी लगती है और उन्हें छ: घंटे की शिफ्ट में काम करना पड़ता है। गश्त में किसी लापरवाही या ढील की उम्मीद करना बेकार है क्योंकि वह बड़ी मुस्तैदी से की जाती है। गार्डों की पगार बहुत बढ़‍िया है और सब आदतन जिम्मेदार, कर्तव्यनिष्ठ और आदतन ईमानदार आदमी हैं।”

“सिवाय तुम्हारे।” — मायाराम के मुंह से अपने आप ही निकल गया।

करनैल सिंह ने कहरभरी निगाह से उसकी ओर देखा। फिर बड़ी मुश्किल से उसने स्वयं पर काबू किया और बोला — “मतलब की बात सुनो। ज्यादा उस्ताद बनने की कोशिश मत करो।”

“अच्छा अच्छा।”

“सिक्योरिटी चीफ के आफिस में भी अलार्म का बटन है जो वाल्ट के अलार्म से सम्बन्धित है। वहां रात को कम से कम एक आदमी की ड्यूटी जरूर रहती है। गश्त की ड्यूटी पर लगे गार्डों को निर्धारित समय पर बाहर से एक घंटी बजानी पड़ती है जिससे भीतर बैठे आदमी को मालूम होता रहता है कि गश्त चल रही है और अभी एक चक्कर समाप्त हुआ है। उस आदमी को कड़ा निर्देश है कि अगर घंटी न बजे तो वह बाहर निकल कर तफतीश करने से पहले वाल्ट से सम्बन्धित घंटी का बटन दबा दे ताकि पुलिस स्टेशन पर अलार्म खड़क जाये। कहने का मतलब यह है कि गश्त पर लगे गार्डों पर आक्रमण करके उन्हें अपने अधिकार में कर लेने से भी तुम्हें कोई फायदा नहीं पहुंचने वाला है।”

“आगे बढ़ो। और स्टेशन आने वाला है इसलिए जल्दी जल्दी जबड़ा चलाओ। मैंने तुमसे थोड़ी बहुत नहीं, पूरी नब्बे हज़ार की जानकारी हासिल करनी है।”

“नब्बे हज़ार के काबिल तो गश्त वाले गार्डों का टाइम टेबल ही है।”

“वही बताओ।”

“बैंक बंद होने के बाद पहली गश्त तेईस मिनट बाद आरम्भ होती है। इससे अगली चौबीस मिनट बाद और उससे अगली तिरेपन मिनट बाद। उसके बाद आधे घंटे के अंतर के बाद इस तरतीब को उलटा दोहराया जाता है अर्थात चौथी गश्त तिरेपन मिनट बाद, पांचवीं चौबीस मिनट बाद और छठी तेईस मिनट बाद। उसके बाद पहले वाली तरतीब फिर दोहराई जाती है। यह सिलसिला सूरज निकलने तक चलता रहता है। हर गश्त के अंत में एक बार मुख्य द्वार को चैक किया जाता है। मुख्य द्वार में एक छोटी सी ऑब्जरवेशन विंडो है, जिसमें आंख लगा कर बैंक के भीतर हाल में झांका जा सकता है। मैंने पहले ही बताया है कि बैंक के भीतर के हाल की बत्तियां नहीं बुझाई जातीं। उस विंडो से नीचे बेसमेंट की ओर जाती सीढ़‍ियां साफ दिखायी देती हैं। और वाल्ट तक पहुंचने का वही एक इकलौता रास्ता है। गश्त के ये तमाम टाइम मैंने इस नक्शे के पीछे नोट कर दिए हैं।”

“बेसमेंट में और क्या है?”

“कुछ भी नहीं। सिर्फ वाल्ट है।”

“बेसमेंट में ताजा हवा कहां से आती है?”

“वहां एयरकंडीशनिंग का डक्ट लगा हुआ है लेकिन अगर तुम समझ रहे हो कि उस डक्ट के रास्ते से बेसमेंट में पहुंचा जा सकता है तो यह खयाल छोड़ दो। यह नामुमकिन है।”

“हूं।” — वह बोला और गौर से नक्शे का अध्ययन करने लगा।

करनैल सिंह खामोश उसकी बगल में बैठा रहा।

गाड़ी वेरका के स्टेशन पर आकर रुकी।

मायाराम ने नक्शा लपेट कर अपनी जेब में रख लिया।

दो भिखारिनें डिब्बे में दाखिल हुईं और उनसे परे दरवाजे के पास फर्श पर बैठ गईं।

मायाराम ने एक सिगरेट सुलगा लिया। करनैल सिंह ने बुरा-सा मुंह बनाया तो मायाराम उसकी बगल से उठ कर खिड़की के पास चला गया और धुआं बाहर फेंकने लगा।

गाड़ी चली। उसके आउटर सिग्नल पार करने के बाद मायाराम ने नक्शा फिर निकाला और उसे अपने सामने फैला लिया। वह बड़े गौर से नक्शे का अध्ययन करने लगा। उसने जेब से एक कागज और पेंसिल निकाली और नक्शे के संदर्भ से कागज पर कुछ हिसाब किताब लगाने लगा। वह चाहता था कि अगर उसके मन में कोई शंका पैदा हो तो उसका समाधान तभी करनैल सिंह के सामने ही हो जाये। करनैल सिंह बड़ा अक्खड़ आदमी था। उसकी इस बात को गम्भीरता के साथ लेना जरूरी था कि भविष्य में वह मायाराम से कोई वास्ता नहीं रखना चाहता था। बाद में फिर संपर्क स्थापित करने की कोशिश करने पर वह बखेड़ा खड़ा कर सकता था।

उसका ध्यान वाल्ट के दरवाजे की ओर गया।

ढाई फुट मोटा दरवाजा!

उसका मुंह सूखने लगा।

वह डींग ही हांक रहा था या वह वाकई उसे खोल सकता था!

दरवाजे को बारूद लगा कर उड़ाने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता था। पूरा दरवाजा बारूद से उड़ाने के लिए इतना बारूद लगाना पड़ता कि वाल्ट के साथ साथ पूरी इमारत उड़ जाती और इमारत के भीतर मौजूद लोगों का तिनका तिनका बिखर जाता।

नहीं। उसे खोलने का एक ही तरीका था। वही जो उसने शुरुआत में सोचा था। दरवाजे को गला कर ही खोला जा सकता था। लेकिन तीस इंच मोटी पक्के लोहे की परत को गला कर उसमें छेद करना भी कोई मामूली काम नहीं था।

उसने कागज पर हिसाब लगाया।

वह इस नतीजे पर पहुंचा कि तीस इंच मोटे उस दरवाजे को अगर तीन हज़ार दो सौ डिग्री सेंटीग्रेड की लपट से गलाने की कोशिश की जाये तो दरवाजे में भीतर घुसने लायक छेद कर पाने के लिए कम से कम पांच-छ: घंटे के समय की जरूरत थी। इतना भीषण ताप न केवल दरवाजे को गला देता बल्कि वाल्ट के वातावरण में मौजूद ऑक्सीजन को भी जला डालता। इसका मतलब था कि ढंग से सांस ले पाने के लिए वहां ऑक्सीजन ले जाना भी जरूरी था। गलने के बाद दरवाजा अंगारे की तरह दहक जाता। उसके ठंडा होने के लिए भी काफी इंतजार करना पड़ सकता था।

उसने अनुभव किया कि गाड़ी की रफ्तार धीमी होने लगी थी। उसने नक्शे को सावधानी से तह किया और जेब में रख लिया। कागज को उसने पुर्जा-पुर्जा करके खिड़की से बाहर उड़ा दिया।

गाड़ी कत्थूनंगल के स्टेशन पर आकर रुकी।

मायाराम अपने स्थान से उठा और बिना करनैल सिंह पर दृष्टिपात किए गाड़ी से उतर गया।

स्टेशन के समीप ही मुख्य सड़क थी। वहां पहुंच कर उसने अमृतसर की बस पकड़ ली।