अगले दिन सुबह देवराज चौहान और जगमोहन नौ बजे उठे । उनके उठने का पता चलते ही बिल्लो खुद चाय बनाकर उनके पास ले आई ।
“लो जी चाय पिओ ।” उन दोनों को चाय के कप थमाती हुई बिल्लो बोली – “कल रात तो आपने कमाल कर दिया । मैं तो डिनर डालकर रात ग्यारह बजे तक आप दोनों के लिए बैठी रही । न तो जेठ जी आए, न देवर जी । मैं क्या करती, सुबह उठना होता है । भैंसों का दूध देखना होता है । जब तक वो मुझे न देखे, दूध देने में नखरे करती हैं । मैं तो फिर सो गई जाकर । खूब गाढ़ी नींद आई । सुना है रात को एक बजे आप दोनों लौटे ।”
देवराज चौहान के होंठों पर मुस्कान आ ठहरी ।
“हाँ, एक तो बज ही गया था ।” जगमोहन ने कहा ।
“मैं तो गाढ़ी नींद में थीं । मुझे नहीं पता चला । कल तो मुझे कुत्तों के भौंकने की भी आवाज नहीं सुनाई दी । पता नेई ये भी कब आए । तो आपके आने का पता कैसे चलता । वो तो मैं नौकर की ड्यूटी लगा गई थी कि जेठजी और देवरजी भूखे न सोएँ । उसने आपको खाना खिलाया, फिर सोया । एक बात मुझे समझ नहीं आती ।”
“क्या ?”
“येई कि आप दोनों जब भी जाते हो, इकट्ठे जाते हैं । आते भी एकसाथ हो । खाते-पीते, सोते-उठते भी साथ हो । आप दोनों में से शादी एक ने की, दोनों ने नहीं – ये भला क्यों ?”
देवराज चौहान के होंठों पर मुस्कान छाई रही ।
जबकि जगमोहन पल भर के लिए सकपका-सा उठा ।
“अब इस बारे में हम क्या कहें परजाई ?”
“चलो, मत कहो । पैले मुझे ये बताओ कि क्या करते फिर रहे हो ?”
“क्या मतलब ?”
“मतलब कि साइकिला दी फैक्ट्री लगा रहे हो या कोई दूसरा काम-धंधा देख रहे हो ?”
“हम तो पंचम के लिए कुछ करने की सोच रहे हैं ।” जगमोहन कह उठा ।
“उसके लिए कुछ भी करने की जरूरत नेइ है ! उसे तो बैठे-बैठे खाने की आदत है । उसके लिए कुछ करने से तो अच्छा है कि थैला भरके उसे नोट दे दो । खुश हो जाएगा वो ।” बिल्लो ने गहरी साँस ली ।
“जब वो नोटों वाला थैला खत्म हो जाएगा तो फिर क्या करेगा वो ?”
“करना क्या है ? आप जैसा कोई दूसरा ढूँढ़ लेगा । उसे बेवकूफ बनाकर, उससे भी नोटों वाला थैला झाड़ लेगा । ऐसा ही करता है पंचम । मेरा तो भाई है, मैं तो उसे बचपन से जानती हूँ । काम का न काज का, मन भर अनाज का । उसका डैडी उसे कहता-कहता मर गया कि कुछ कर ले, काम कर ले – लेकिन औ माँ दे पुत्तर ने काम नेई किया । मैंने तो कुत्ते की पूँछ को सीधा होते नेई देखा । इसी तरह ये पंचम भी सीधा नेई हो सकता । जीजे ने पूरा जोर लगा लिया कि पंचम को काम-धंधे में सैट कर दिया जाए । लेकिन जीजे ने भी थककर उसे गैराज ले दिया कि तेरी मरजी, काम कर या न कर । ये तो गैराज भी नहीं लेकर दे रहे थे उसे । वो तो मेरे कहने पे लेकर दिया । एक बात और कि... !”
तभी जसदेव सिंह ने भीतर प्रवेश किया ।
वो सोया उठकर आ रहा था । नाइट सूट पहना हुआ था ।
“सवेरे हो गई । रात को देर से आओगे तो सवेरे भी तो देर से ही होगी ।”
“आँख खुलते ही मैंने बिल्लो को ढूँढ़ा ।” जसदेव सिंह मुस्कराकर कह उठा – “बिल्लो कहीं न मिली तो मैं समझ गया कि जेठ-देवर से बातें कर रही होगी । मेरा खयाल ठीक ही निकला ।”
“छोड़ो जी !” बिल्लो पलटकर दरवाजे की तरफ बढ़ी – “हमेशा गलत टैम पे बिल्लो को ढूँढ़ते हो । आपको तो पता ही है कि सुबह-सुबह बिल्लो को कितने काम होते हैं । बिल्लो को ढूँढ़ना हो तो रात को ढूँढ़ा करो । वो भी जल्दी घर आकर ।”
“कहाँ चली ? चाय तो पिला दे ।”
“लाई जी – लाई । वो ही तो लेने जा रही हूँ । तुलसी डाल के बढ़िया चाय लाऊँगी आपके लिएा ।”
बिल्लो बाहर निकल गई थी ।
जसदेव सिंह ने देवराज चौहान और जगमोहन को देखा ।
“परसों से मैं बहुत व्यस्त रहा ।” वो बोला – “कैसी कट रही है ?”
“बढ़िया !”
“कोई दिक्कत तो नहीं ?”
“बिल्लो जैसी परजाई हो ध्यान रखने वाली तो दिक्कत कैसे आएगी ?” जगमोहन मुस्कराकर बोला – “तू बोत ही ज्यादा किस्मत वाला है, जो तेरे को बिल्लो जैसी पत्नी मिली ।”
जसदेव सिंह की निगाह बारी-बारी दोनों पर गई ।
“पंचम का क्या हुआ ?”
“काम चल रहा है ।”
“तुम दोनों उसकी बताई डकैती कर रहे हो ?” जसदेव सिंह गंभीर था ।
“न करें क्या ?” जगमोहन उखड़कर बोला ।
“तुम लोगों को मैं मना भी नहीं कर सकता । जो करोगे, ठीक ही करोगे ।” जसदेव सिंह ने पहलू बदला – “जाने क्यों मुझे इस काम में डर लग रहा है, कुछ ठीक नहीं हो रहा ।”
“वहम है तुम्हारा जो... !”
“हाँ, वहम ही होगा ।” जसदेव सिंह गंभीर था – “इस काम में मेरी कहीं जरूरत हो तो बताओ ।”
“कोई जरूरत नहीं ।” जगमोहन बोला ।
“तुम खुद को इस काम से दूर ही रखो, जैसे तुम्हें पता ही न हो कि क्या हो रहा है ।” देवराज चौहान ने कहा ।
जसदेव सिंह सिर हिलाकर रह गया ।
तभी बिल्लो चाय का प्याला थामे वहाँ पहुँची ।
“लो जी – चाय लो और ये बताओ कि नाश्ते में कौन से परांठे खाओगे । गोभी के, आलू के, मेथी के, मूली के, मिस्सी परांठा या पनीर के परांठे खाओगे । तीनों भाई सोच-विचार करके बता दो ।”
“परजाई !” जगमोहन कह उठा – “आज तो आपकी पसंद के खाएँगे ।”
“मेरी पसंद तो आलू की है । आलू का परांठा ही मुझे स्वादी लगता है ।” बिल्लो हाथ उठाकर कह उठी ।
“मुझे भी आलू ही पसंद है ।”
“वाह जी ! मेरी और देवर जी दी पसंद कितनी मिलती है । मैं अभी आलू तैयार करती हूँ ।” कहकर बिल्लो दरवाजे की तरफ बढ़ी – “आप तीनों जल्दी से नहा-धोकर खाने को तैयार हो जाओ ।” बिल्लो बाहर निकल गई ।
जसदेव सिंह ने दोनों को गंभीर निगाहों से देखा, फिर कहा –
“जिस दौलत पर हाथ मारने जा रहे हो, वो बहुत बड़ी है । डेढ़-दो सौ करोड़ जितनी बड़ी दौलत है । यूँ तो डकैती के मामले में देवराज चौहान से समझदार दूसरा नहीं । फिर भी सुरक्षा इंतजामों के बारे में अच्छी तरह पता कर लेना । कहीं चूक न हो जाए । इतनी बड़ी दौलत है तो इंतजाम भी बड़े होंगे । पंचम की बातों पर मत जाना । वो तो अनाड़ी हैं । उसे क्या पता कि इंतजाम क्या होते हैं और डकैती क्या होती है ?”
कुछ चुप्पी के बाद जगमोहन कह उठा ।
“पंचम इतना बेवकूफ नहीं है, जितना कि तुम कहते हो । वो मुझे समझदार लगता है ।”
जवाब में जसदेव सिंह मुस्कराया ।
“उसने जो भी बाते की हैं, उनमें उसकी बेवकूफी मुझे कहीं भी दिखाई नहीं दी । वो गंभीर है ।” जगमोहन ने चाय का घूँट भरते हुए कहा – “उसकी योजना में खास कोई कमी नहीं दिखी मुझे ।”
जसदेव सिंह ने देवराज चौहान को देखा ।
“तुम इस बारे में सोचकर खामखां परेशान हो रहे हो ।” देवराज चौहान ने कहा – “बेहतर होगा कि डकैती से अपना घ्यान हटाकर कहीं और लगा दो । अपने काम की तरफ ध्यान लगाओ । सोचो ही मत कि डकैती हो रही है, तो... !”
“कहाँ हो गई डकैती ?” तभी बिल्लो ने भीतर प्रवेश किया – “मैंने तो पूरी अखबार पढ़ी है । डकैती की खबर तो कहीं भी नहीं छपी !”
तीनों की नजरें मिलीं ।
“पुरानी बात कर रहे हैं ।” जसदेव सिंह हौले से मुस्कराकर बोला – “आलू के परांठों का क्या हुआ ?”
“होना क्या है । आलू कुकर में रख दिए । अभी सीटी बज जानी है । उसके बाद... ओह ! मैं इसलिए आई कि भेले नू बोल देना, ताजी-ताजी सब्जियाँ शाम तक पहुँचा दे । नेई तो कल खाने का कुछ नहीं मिलना । फिर न कहना कि जेठजी और देवर जी की खातिरदारी में कमी रह गई है । सब्जी नेई होगी तो मैं भी क्या बनाऊँगी । बिल्लो दा फिर कोई कसूर नेई होगा । सब्जी मँगवा दो, बना मैं दवांगी ।”
“तू करदे भोले नूँ फोन ।”
“मैं नेई कर दी । पिछली बार किया था तो उसकी बीवी ने फोन उठाया । कुड़़-कुड़ करने लग गई सी, सब्जी लाने की बात सुनकर । ओ नखरे बोत दिखाती है । आप ही फोन करो ।”
☐☐☐
अगले दिन पंचम लाल बँगले पर पहुँचा । जसदेव सिंह घर नहीं था ।
दस-पंद्रह मिनट तो पंचम लाल किचन में जाकर बिल्लो से बातें करता रहा । बातों-बातों में उसने पता किया कि देवराज चौहान और जगमोहन बँगले पर ही हैं और अपने बेडरूम में हैं ।
कुछ देर बाद पंचम लाल बेडरूम में उनके पास जा पहुँचा ।
“तेरा आना कैसे हुआ ?” जगमोहन ने पूछा ।
“आज छ: तारीख है ।” पंचम लाल बेचैनी से बोला ।
“तो ?”
“कल सात तारीख है । बैंक वैन गैराज पर आ सकती है । बलवान सिंह को वहाँ से कैसे हटाना है ? उसके बारे में तो कुछ सोचो ।”
“तुम इस बात की फिक्र न करो ।” देवराज चौहान बोला – “सब काम... !”
“कैसे फिक्र न करूँ ? वैन का फर्श और पहियों के कवर बदलने वाला जरूरी काम तो तभी पूरा होगा, जबकि दो घंटों के लिए बलवान सिंह गैराज से दूर हो जाएगा – वरना तो बाद में परेशानी है ।” पंचम लाल अपनी बात पर जोर देता, दोनों को बारी-बारी देखता कह उठा – “रफ्तार से दौड़ती वैन के टायरों का निशाना कैसे लोगे ? टायरों पर बुलेट प्रूफ कवर न बदले गए तो वैन को रोकना कठिन हो जाएगा । अगर वैन पर काबू पाकर, उसे सड़क के किनारे उतार लिया तो वैन के बुलेट प्रूफ केबिन में कैसे प्रवेश करेंगे, जिसके भीतर गनमैन बैठा होगा । मोटे स्टील का बुलेट प्रूफ फर्श और बॉडी हमारे रास्ते में आ खड़ी होगी । गनमैन भीतर बैठा, मोबाइल फोन पर अपने ऑफिसरों और पुलिस को सारे हालात बताता रहेगा । ऐसे में तो सड़कों पर कुछ ही देर में पुलिस ही पुलिस होगी । वो वैन के साथ हमें भी ढूँढ़ लेगी । वैन का फर्श बदलना बहुत जरूरी है कि वैन को काबू में करने के बाद, जल्दी से उसके फर्श की चादर काटकर, गनमैन को ठिकाने लगाकर भीतर पड़े नोट कब्जाए जा सकें । इसके लिए तब बलवान सिंह को दो घंटों के लिए गैराज से हटाना जरूरी है । जब वहाँ वैन पहुँचे ।”
देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाकर कहा –
“बोला लिया ।”
“तुम इसे बोलना कहते हो ।” पंचम लाल नाराजगी भरी आवाज में कह उठा ।
“हमने इंतजाम कर लिया है, बलवान सिंह को वहाँ से हटाने का ।”
“क्या किया ?”
“तुम्हें बताने की जरूरत नहीं है । जब भी वैन तुम्हारे गैराज पर पहुँचेगी, बलवान सिंह दो घंटों के लिए वहाँ से चला जाएगा ।”
“कमाल है । ऐसे कैसे चला जाएगा ? वो तो बोत हरामी बंदा है !”
“चला जाएगा ।” देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा ।
पंचम लाल ने दोनों के गंभीर चेहरों को देखा, फिर धीमे स्वर में बोला –
“समझ गया, मुझे बताए बिना सब तैयारी कर ली है लेकिन बलवान सिंह ऐसे कैसे गैराज से चला जाएगा । वो नोट खाने वाला बंदा नहीं है । क्या घुट्टी पिला रहे हो उसे, जरा मुझे भी तो पता चले ।” पंचम लाल ने बेसब्री से देवराज चौहान को देखा ।
“ज्यादा अंदर मत घुस ।” जगमोहन बोला – “काम होना चाहिए, वो हो जाएगा ।”
“समझ गया, नहीं पूछता ।”
तभी बिल्लो ने भीतर प्रवेश करते हुए कहा –
“साइकिलों की फैक्ट्री लगाने की बात चल रही है । जो मन में आए करो, मुझे क्या ! मैंने तो जो कहना था, कह दिया । शुभ मुहूर्त निकालना हो तो मुझे बोल देना । पढ़ा-लिखा पंडित है मेरी पहचान का । वो बढ़िया मंत्र देगा । टैम नेई होता उसके पास । लेकिन मेरे को मना नहीं करेगा । मेरा फोन सुनते ही आ जाएगा । क्योंकि मैं दक्षिणा उसे ज्यादा देती हूँ । बीच-बीच में आकर मुझसे हजार-दो हजार उधार भी ले जाता है ।”
“अभी मुहूर्त तक बात नहीं पहुँची परजाई ।” जगमोहन कह उठा ।
“कोई बात नेई, जब जरूरत पड़े बता देना । पंडित के बारे में आप लोगों को पता तो चल ही गया है अब । ओह ! पंचम मैं तो ये कहने आई थी कि आज आलू-मेथी बना रही हूँ । आया है तो खाना खाकर ही जाना । लानती को भी ले आता तू ।”
“मैंने जाना है ।”
“सोच ले – मेथी-आलू तेरे को बोत अच्छे लगते हैं । तभी मैंने कहा कि सुनकर तेरे मुँह से पानी आ जाएगा ।”
“बचा के रख लेना । शाम को लानती को भेजूँगा । पैक करके दे देना । रात को गैराज पर खा लूँगा ।”
“बचाने की गारंटी मैं नेई देती ।” बिल्लो हाथ हिलाकर कह उठी – “तेरे को तो पता ही है कि मेरे को भी बोत स्वाद लगते हैं मेथी-आलू । जो भी बचे होते हैं, सारे मैं खा लेती हूँ । पिछली बार तो मेथी-आलू खाकर मेरा पेट खराब हो गया था । लेकिन मैंने भी सारे खत्म कर दिए । बोत स्वादी लगते हैं ना । खाने हों तो रुक जाइयो ।”
“मैंने गैराज पर पहुँचकर काम देखना है ।” पंचम लाल ने कहा – “रूकूँगा नहीं ।”
“मरजी तेरी । बां फड़के ते बिठाऊँगी नेई ।” कहकर बिल्लो पलटी और बाहर निकल गई ।
पंचम लाल ने दोनों पर निगाह मारी ।
“हमारे पास तब ही आना जब बोत जरूरी हो ।” देवराज चौहान ने कहा – “फोन पर बात कर लो तो ज्यादा अच्छा ।”
पंचम लाल ने सिर हिलाया, फिर बोला –
“बैंक वैन के आज भी आने के चांसिस है । नहीं तो कल पक्का गैराज पर आएगी । सात तारीख तक वैन आ जाती है ।”
जगमोहन ने देवराज चौहान को देखा । देवराज चौहान ने कश लिया और कह उठा –
“इस बार आठ तारीख को वैन तुम्हारे गैराज पर आएगी ।”
“आठ तारी... !” कहते-कहे पंचम लाल ठिठका, फिर आँखें सिकोड़कर देवराज चौहान को देखने लगा ।
देवराज चौहान उसे ही देख रहा था ।
एकाएक पंचम लाल सर्तक सा दिखा । मुस्कराया और कह उठा –
“समझ गया, मुझे मालूम है कि तुम सही और सच कह रहे हो । वैन आठ तारीख को ही मेरे गैराज पर आएगी । मैं ही बेवकूफ हूँ – मुझे समझ जाना चाहिए कि सामने कौन है ? तुम्हें कुछ भी बताने-समझाने की जरूरत नहीं । समझना तो मुझे चाहिए । मैं तो पागलों की तरह सोच रहा था कि तुम आराम से बैठे हो । लेकिन... लेकिन तुम जैसा डकैती मास्टर काम के दौरान आराम से कैसे बैठ सकता था – ये मुझे पहले ही सोच लेना चाहिए था । चलता हूँ, जरूरत पड़ी तो फोन पर बात कर लूँगा ।”
जाने को कहकर भी पंचम लाल वहीं खड़ा रहा ।
“तुम जा रहे थे ।” जगमोहन बोला ।
“जीजे के बारे में पूछना था । वो... वो कोई बात हुई जीजे से डकैती के बारे में ?”
“उसे हमारे काम से कोई मतलब नहीं ।” जगमोहन ने कहा ।
“समझ गया ।” पंचम लाल ने सिर हिलाया – “वो लफड़े वाले काम से दूर रहना चाहता है । पैसे की उसको क्या जरूरत है । जो है, वो ही उससे संभलता नहीं । अच्छा है, जो जीजा इस काम में ध्यान नेई दे रहा – चलता हूँ !” कह कर वो बाहर निकल गया ।
सामने बिल्लो दिखी तो उसके पास जा पहुँचा ।
“जा रहा हूँ बिल्लो ।” पंचम लाल ने कहा ।
“कैसा भाई है तू, बहन के पास आया है तो मेथी-आलू भी खाकर नेई जाता । खुशबू आ रही है ना मेथी-आलू की ?”
“मैं कौन-सा दूर से आया हूँ । दोबारा जब मेथी-आलू बनाएगी तो फिर आ जाऊँगा ।”
“ईक बात तो बता !”
“बोल !”
“ये तू जेठजी और देवर जी के साथ घुट-घुटकर क्या बातें करता है – मुझे भी तो पता चले ?”
पंचम लाल पल भर के लिए हड़बड़ाया फिर कह उठा –
“बिल्लो, ये पैसे वाले लोग हैं और मेरे साथ काम खोलना चाहते हैं । फँसा रहा हूँ कि तैयार हो जाएँ ।” पंचम लाल ने कहा ।
“अच्छा !”
“हाँ, बात बन गई – काम चल निकला तो मैं तेरी भाभी भी ब्याह के ले आऊँगा ।” बिल्लो ने पंचम लाल को देखा ।
“ऐसे क्या देखती है बिल्लो ?”
“मुझे तो लगता है कि तू कुछ और ही बातें करता है !”
“और बातें ?” पंचम लाल संभला – “मैं समझा नेई कि मेरी बहन क्या कह रही है ? और बातें क्या करनी है ?”
“मैं जब भी आती हूँ, तुम लोग बातें करना बंद कर देते हो !”
“पागल है तू ! ऐसा कुछ भी नेई है । तेरे से क्या छिपा है ? सबकुछ तो पता है तेरे को ।”
बिल्लो ने कुछ नहीं कहा ।
“चलता हूँ – लानती मेरे बिना गैराज पर परेशान हो रहा होगा ।” कहकर पंचम लाल दरवाजे की तरफ बढ़ गया ।
वहीं बैठी बिल्लो गंभीर नजरों से पंचम लाल को देखती रही, फिर उसे पुकारा –
“पंचम !”
पंचम लाल ठिठका । पलटकर बिल्लो को देखा ।
“क्या है बिल्लो ?”
“असाँ लुधियाने वाले आँ... मेहमान दी इज्जत करते हाँ । तू ऐसा कोई काम न करीं कि मेहमाना दाँ दिल दुखे !”
“फिक्र न कर बिल्लो । मैं वी लुधियाने वाला आँ । मेहमाना नूँ इज्जत देनी आती है मैन्नू ।” पंचम लाल ने मुस्कराकर कहा और पलटकर बाहर निकल गया ।
बिल्लो गंभीर सी बैठी, खुले दरवाजे को देखे जा रही थी ।
☐☐☐
मदनलाल सोढ़ी !
उस बूढ़ा-बूढ़ी ने लकड़ी के साधारण से दरवाजे पर लकड़ी की तख्ती में ये नाम लिखा देखा तो बूढ़ा साथ खड़ी बूढ़ी को देखने लगा तो बूढ़ी झल्लाकर बोली –
“मुझे क्या देखते हो ? पढ़ो – ये क्या नाम लिखा है ?”
“मदनलाल ही लिखा है !”
“दरवाजा पीटो ।”
बूढ़े ने हाथ से दरवाजा थपथपाया तो भीतर से आवाज आई ।
“आ जाओ अंदर ।”
“चलो वो बुला रहा है ।” बूढ़ी बोली ।
“आवाज उसके बाप की न हो !”
“किसी की भी हो, हमें क्या ? हम तो बुलावे पे आए हैं । ऐसे तो आ नेई गए ।”
बूढ़े ने कमीज-पायजामा पहन रखा था । पाँवों में काले जूते थे । बुढ़िया ने पुरानी सी फूलों वाली साड़ी लपेट रखी थी । सिर में दबा के तेल लगाकर पतली सी चुटिया कर रखी थी ।
बूढ़े ने हाथ बढ़ाकर दरवाजा खोला और बुढ़िया के साथ भीतर प्रवेश किया ।
कच्चा सा दो कमरों का मकान बना हुआ था । बाहर ही बाथरूम-किचन बना नजर आ रहा था । फिर दरवाजे तक खुली जगह थी । उसी खुली जगह में चारपाई बिछाए, तीस बरस का सख्त सा दिखने वाला, सेहतमंद, अच्छे कद का व्यक्ति बैठा था । छोटी-मूँछें थी उसकी, जो उसको रोबिला बना रही थी । उसने तहमद और बनियान पहन रखी थी ।
उन दोनों को भीतर आते देखकर भी वो चारपाई पर बैठा रहा ।
बूढ़ा-बूढ़ी पास आए ।
“नमस्ते बेटा ।” बुढ़िया कह उठी – “हम तो मदनलाल जी से मिलने आए हैं !”
“सुरजीत सिंह ने भेजा है ?” मदनलाल सोढ़ी कह उठा ।
“हाँ-हाँ, वो मेरा पड़ोसी है ।” बूढ़ा कह उठा – “रिश्ते के वास्ते आए हैं !”
मदनलाल उठा और भीतर चला गया ।
“ये किधर गया है ?” बुढ़िया बोली – “न तो बैठने को कहा, पानी भी नेई पूछा और... !”
“चुपकर !” बूढ़ा मुँह बनाकर कह उठा – “हम यहाँ रिश्ता करने आए हैं, पानी पीने नहीं ।”
“बूढ़े हो गए हो सच में ।” बुढ़िया तीखे दबे स्वर में बोली – “रिश्ता करते हुए प्यास नेई लगती क्या ? लड़की देनी है, ऐसे तो नहीं फेंक देना लड़की को । ये बिलकुल ही कंगला हुआ तो हमारी लड़की सूखकर तीले की तरह हो जाएगी ।”
“तू सब में नुक्स निकालती रहेगी तो लड़की घर ही बैठी रह जाएगी । शादी नहीं होगी उसकी ।” बूढ़ा तीखे स्वर में कह उठा ।
“जब भी बोलोगे, सड़ा ही बोलेगे । मैं तो... !”
“ले, तेरी खातिरदारी शुरू हो गई ।” बूढ़ा कह उठा ।
मदनलाल सोढ़ी कमरे से बाहर आ गया था । दो फोल्डिंग कुर्सियाँ उसने थाम रखी थीं । करीब आकर एक-एक कुर्सियाँ दोनों को थमाई और सामने बने किचन की तरफ बढ़ गया ।
“कैसा बंदा है ये ?” बुढ़िया धीमे से कह उठी – “कुर्सी खोलकर भी नेई रखी ! ऐसे ही चला गया ।”
“उसने देख लिया था कि हमारे हाथ-पाँव सलामत हैं । हम खोल लेंगे ।” बूढ़े ने बुढ़िया को घूरते हुए कहा और कुर्सी खोलकर बैठ गया – “याँ पे तेरे को कुर्सी तो मिल गई । घर में तो तू ऐसे ही जमीन पर बैठ जाती है ।”
बुढ़िया ने कुड़-कुड़ करते कुर्सी खोली और बैठ गई ।
मदनलाल किचन से वापस आया । एक हाथ में दो खाली गिलास और दूसरे में पानी की बोतल पकड़ रखी थी । करीब आकर दोनों को एक-एक गिलास थमाया और बोतल से पानी भर दिया गिलासों में । फिर बोतल एक तरफ रखकर खुद चारपाई पर बैठ गया । दोनों ने पानी पीकर गिलास पास ही जमीन पर रख दिया ।
बूढ़े ने बात शुरू की ।
“सुरजीत सिंह बता रहा था कि तुम्हारी आदतें बोत अच्छी है । बोत बीबा (अच्छा) लड़का है मदन ।”
मदनलाल सोढ़ी ने बूढ़े को देखा । कहा कुछ नहीं ।
“अकेले रहते हो बेटा ?” बुढ़िया बोली ।
“हाँ ।” मदनलाल ने शांत स्वर में कहा ।
“तो रोटी-पानी कैसे होती है ?”
“जब घर होता हूँ तो गली के किनारे बने होटल से खाना आ जाता है । नौकरी पर होता हूँ तो कैटीन से खा लेता हूँ ।”
“सुना जी !” बुढ़िया कह उठी – “ये तो अच्छी बात है कि गली के कोने पे होटल है । हमारी बेटी भी बाहर का खा लिया करेगी । घर का खा-खा के भी कभी-कभी पेट खराब हो जाता है । कभी बाहर का भी खा लेना चाहिए ।”
“मेरे को तो तू खाने नेई देती ।” बूढ़ा कह उठा ।
“आपकी उम्र है क्या बाहर का खाने की । दाँत तो काम नहीं करते । जब भी खाने लगते हो, दाँतों का सैट निकालकर बैठ जाते हो । उसे धोते ही रहते हो ।” कहने के साथ ही बुढ़िया ने मदनलाल को देखा – “काम क्या करते हो । सुना है सरकारी नौकरी है !”
“बैंक में गनमैन हूँ ।”
“ये क्या होता है ?” बुढ़िया के चेहरे पर उलझन उभरी ।
“तेरे को ये भी नहीं पता ।” बूढ़ा कह उठा – “बैंक में जो बँदूक लेकर घूमते हैं, ये वो हैं ।”
“ओह ! समझ गई-समझ गई । एक बार देखा था मैंने बैंक में लंबी-लंबी मूँछों वाला इत्ती लंबी बँदूक लेकर खड़ा था । क्या रौब था उसका । मैं तो उसे देखते ही डर गई थी । क्यों बेटा – कभी गोली-वोली चलाई है ?”
“भगवान न ही ऐसा दिन दिखाए !”
“समझ गई । सरकारी नौकर तो मुफ्त की खाते हैं । काम नेई करते ।”
“ये क्या कह रही है ?”
“गलत क्या कह दिया ? सब ही यही कहते हैं । क्यों बेटा, मैंने गलत तो नेई बोला ना ?”
“मैं गन लेकर बैंकों में नहीं खड़ा होता । मेरी स्पेशल ड्यूटी है ।”
“अच्छा ! वो कैसे ?”
“बैंक वाले गाड़ी में करोड़ों रुपया भरकर दूसरी जगह भेजते हैं । उस पैसे की रखवाली के लिए मुझे साथ जाना पड़ता है ।”
“फिर तो तुसी बोत बड़ा काम करते हो । सुना जी, हर वक्त करोड़ों में बैठते हैं ये ! तब तो ये भी वहाँ से पैसे निकाल लेते होंगे !”
“क्या बात करती हो ! ऐसा नहीं होता ।” बूढ़ा झल्लाया ।
“तो कैसा होता है ?”
“नोट बक्सों में बंद होते हैं । सील लगी होती है । दूसरा कोई भी देख भी नहीं सकता उन्हें ।”
“अच्छा-अच्छा, मैंने समझा, यूँ ही नोट गाड़ी में रख देते होंगे ।” बुढ़िया ने समझने वाले ढंग में सिर हिलाया, फिर बोली – “सुरजीता बता रहा था कि आपकी छ: महीने पहले ही शादी हुई थी, उसके साथ क्या हुआ ?”
“वो झूठे लोग हैं ।”
“वो कैसे ?”
“ब्याह के वक्त मुझसे वादा किया कि स्कूटर देंगे और नहीं दिया ।” मदनलाल सोढ़ी ने मूँछों पर हाथ फेरा – “बहुत कहा, वो तो अपनी बात से भी पीछे हट गए । कहने लगे, हमने तो कहा ही नहीं ।”
“अच्छा ! फिर तुमने क्या किया ?”
“लड़की को उसके घर वापस भेज दिया ।”
“अच्छा किया । उसे न भेजते तो हम अपनी लड़की के ब्याह की बात करने कैसे आते । तनख्वाह क्या है तुम्हारी ?”
“चौदह हजार ।”
“वाह ! बहुत तनख्वाह लेते हो तुम तो... तो फिर बेटा अभी तक तूने स्कूटर क्यों नेई खरीदा ? खुद ही खरीद लेता ।”
“वो तो अब खरीद ही रहा हूँ । परसों तक मिल जाएगा ।”
बुढ़िया ने खुश होकर बूढ़े से कह उठी ।
“चलो जी, बढ़िया हुआ ! अब ये हमसे स्कूटर नेई माँगेगा और क्या-क्या है बेटा घर में – फ्रिज, टी.वी. है ?”
“हाँ !” मदनलाल सोढ़ी ने बुढ़िया को घूरा ।
“बोत ही बढ़िया हो गया ।” वो बूढ़े से बोली – “हमें फ्रिज, टी.वी. भी नहीं देना पड़ेगा ।”
बूढ़े ने बेचैनी सी दिखाई ।
“घर में बेड है ?”
“हाँ, गद्दे भी हैं ।” मदनलाल ने उखड़े लहजे में शब्दों को चबाकर कहा – “टेबल फैन, कपड़े धोने की मशीन, सिलाई मशीन – हर जरूरत की चीज है, मेरे पास । किसी भी चीज की कमी नहीं ।”
“ये तो बोत बढ़िया हो गया ! हम दहेज देने से बच गए ।” बुढ़िया ने खुशी से बूढ़े को कहा ।
मदनलाल सोढ़ी के चेहरे का गुस्सा कुछ बढ़ा, वो बोला –
“एक लड़की भी है ।”
“कौन-सी ?”
“सुबह सफाई-बरतन के लिए आती है ।” मदनलाल सोढ़ी ने बुढ़िया को घूरा – “वो हर काम कर जाती है, जो कि घर की औरत करती है ।”
“सुनो जी, लड़की भी है ! अब तो हम लड़की देने से बच गए । सस्ते में ब्याह हो... ।” कहते-कहते एकाएक वो चुप कर गई ।
बूढ़े के चेहरे पर स्पष्ट तौर पर परेशानी नाचती दिखाई दी ।
बुढ़िया हड़बड़ाई-सी मदनलाल सोढ़ी को देखने लगी थी ।
“मैं कुछ बोलूँ ?” मदनलाल सोढ़ी ने चुभते स्वर में कहा ।
“बोल बेटा, बोल !” बुढ़िया ने खुद को संभाला ।
“आप लड़की ब्याहने की कोशिश कर रहे हैं या मेरे यहाँ बिठाने की कोशिश कर रहे हैं ?”
“इन दोनों बातों में फर्क क्या होता है बेटा ?”
“फर्क मत पूछ ।” बूढ़ा बड़बड़ा उठा ।
“पूछने दो ।”
“फर्क ये होता है कि ब्याह बिरादरी के लोगों को दिखाकर, गवाह बनाकर होता है । लड़की फेरों के बाद घर आती है । दूसरी तरह से आप लड़की को चुपचाप मेरे पास छोड़ जाओ । तब भी होगा वही – जो ब्याह के बाद होता है । उसके बाद जब मैं चाहूँगा, लड़की को वापस आपके घर भेज दूँगा – ये फर्क होता है ब्याहने और बिठाने में ।”
“हम तो ब्याहने की बात कर रहे हैं बेटा ।” बुढ़िया बोली ।
“बिना दहेज के ।” मदनलाल सोढ़ी ने गुस्से से कहा – “सरकारी नौकर हूँ मैं । ऐसा-वैसा नहीं हूँ । बोत रिश्ते आते हैं मुझे । मेरी माँ भी दहेज लेकर आई थी । साथ में बैलगाड़ी लेकर आई थी । उससे बापू खेतों में जुताई करता था । मुझे दहेज में स्कूटर मिलेगा तो मैं उस पर सरकारी नौकरी करने जाया करूँगा ।”
“अब तो तू स्कूटर ले रहा है !”
“स्कूटर लेने में जितना खर्चा आएगा, कैश दे देना उतना मुझे । शादी के बाद आपकी बेटी को चाट-पकौड़ी खानी होगी तो क्या वो तब स्कूटर के पीछे वाली सीट पर नहीं बैठेगी ? आपने जो देना है, अपनी बेटी को देना है – मुझे नहीं ।”
“फिर तो तू पेट्रोल का खर्चा भी माँगेगा ?”
“कभी-कभी, हर बार नहीं ।”
“मेरी पहनी साड़ी देख रहा है । एक ही साड़ी है मेरे पास । कहीं आना-जाना होता है तो इसे ही धोकर पहन लेती हूँ । मेरी बेटी के पास एक ही सूट है । दूसरा बनवाने की कई बार सोची, लेकिन हिम्मत नहीं हो पाई । कैसे हो हिम्मत ? ये तो कमाते नहीं । बूढ़े हो चुके हैं । पैस घर आता नहीं । जो है, उसी को प्याज-अचार बनाकर खा लेते हैं । स्कूटर तो क्या बेटा, तेरे को हम सिर्फ लड़की ही दे सकते हैं । तेरी माँ बैलगाड़ी लाई थी दहेज में – वो अमीर होगी । हम तो कलेजे का टुकड़ा ही दे सकते हैं बेटी के रूप में । बेटी ही हमारी बैलगाड़ी, जहाज, स्कूटर – सबकुछ है ।” बुढ़िया की आँखों में पानी चमक उठा – “तू उसे नहीं ब्याहेगा तो दूसरा ब्याह लेगा । वो भी अपनी किस्मत में कोई दूल्हा तो लिखवाकर लाई होगी । मेरी मान तो जिससे ब्याह किया है, उसी को ले आ । कितनी भाग्यवाली है वो । छ: महीने पहले आई तो अब तू स्कूटर ले रहा है । हो सकता है, उसके पैर घर में रहे तो तू जल्दी ही कार ले ले । भाग्य तो बहू के धीरे-धीरे खुलते हैं बेटा । जो... !”
“आप रिश्ता करने आए हैं या नसीहत देने ?” मदनलाल सोढ़ी भड़क उठा ।
“तेरे से बेटी का रिश्ता करके हमने क्या करना है ? तू तो हमारी बेटी को भी वापस हमारे पास भेज देगा । तेरे को पैसे से प्यार है । ब्याह से, बीवी से, घर बसाने से नहीं । तेरी माँ जो बैलगाड़ी लाई थी, उसके बैल तो अभी जिंदा न होंगे लेकिन तेरी माँ की याद तो जिंदा है । इंसान के साथ रहना सीख । पैसा और दहेज तो आता-जाता रहता है । इंसान तो अंत तक जिंदगी का साथ देता है ।”
मदनलाल सोढ़ी खा जाने वाली नजरों से बुढ़िया को देखता रहा ।
“आओ जी ।” बुढ़िया उठते हुए बोली – “हम गरीबों की बेटी की बसर यहाँ नहीं हो सकती । ये तो स्कूटर माँगने वाले बड़े लोग हैं ।”
बूढ़ा फौरन उठ खड़ा हुआ ।
तभी बाहरी दरवाजे पर आहट हुई । सबने उधर ही देखा ।
वहाँ दुल्हन जैसी युवती, अपने पिता के साथ खड़ी दिखी ।
“तू !” मदनलाल सोढ़ी गुस्से से बलखाया उठा – “तेरी हिम्मत कैसे हुई, यहाँ आने की ?”
“गुस्सा क्यों करते हो ?” युवती भर्राए स्वर में कह उठी – “स्कूटर लेकर आई हूँ । साथ में पाँच हजार रुपये भी हैं ।”
मदनलाल सोढ़ी के चेहरे के भाव कुछ ढीले पड़े ।
“जुग-जुग जिए बेटी । जल्दी औलाद का मुँह देखो ।” उसके पास पहुँचते बुढ़िया ने अपनी साड़ी के कोने की गाँठ खोलकर एक रुपया निकालकर उसके हाथ पर रखा – “मुँह दिखाई में एक रुपया ही सही, लेकिन इसे कम न समझना ।” बुढ़िया ने अपना हाथ उसके सिर पर रखा, फिर बूढ़े के साथ निकल गई ।
“आओ, बाहर क्यों खड़ी हो ।” स्कूटर आए की बात सुनकर मदनलाल सोढ़ी मुस्कराने लगा – “आप भी आइए ससुर जी । मैं अभी पास के होटल से खाना मँगवाता हूँ । स्कूटर लाने की ऐसे ही तकलीफ की । मैं तो आ ही रहा था इसे लेने ।”
ये था मदनलाल सोढ़ी ! बैंक का गनमैन ! ! बलवान सिंह का साथी ! ! ! जिसकी कभी-कभी बलवान सिंह के साथ नोटों से भरी वैन में ड्यूटी लग जाती थी ।
☐☐☐
आठ तारीख की सुबह साढ़े सात बजे ।
दीपा तैयार होकर, कंधे पर बैग लटकाए स्कूल जा रहा था । दसवीं में पढ़ता था वो । खेल-कुद का शौकीन, शरारती । इस वक्त वो सड़क के किनारे जा रहा था । इक्का-दुक्का लोग ही इस तरफ नजर आ रहे थे । सड़क के एक तरफ दुकानें बनी हुई थीं । उनमें से दो-तीन दुकानें ही खुली थीं ।
तभी एक कार दीपा के पास आकर रुकी ।
देवराज चौहान ड्राइविंग सीट पर था । जगमोहन पीछे वाली सीट पर ।
“सुनो ।” जगमोहन ने दरवाजा खोला – हाथ में एक कागज थाम रखा था – “ये पता बताना ।”
दीपा पास आया । जगमोहन के हाथ में दबे कागज को देखने की कोशिश की ।
उसी पल जगमोहन ने उसकी बाँह पकड़कर भीतर खींचा और दरवाजा बंद कर दिया ।
“ओए !” दीपा चीखा – “ये क्या करते हो ?”
देवराज चौहान ने कार आगे बढ़ा दी ।
तब तक जगमोहन उसके होंठों पर हथेली रख चुका था ।
“चीखना मत, गोली मार दूँगा ।”
दीपा ने आँखों के इशारे से बताया कि वो नहीं चीखेगा, तो जगमोहन ने हाथ हटा लिया ।
“गोली कहाँ है ?” दीपा ने पहला सवाल जगमोहन से ये ही किया ।
जगमोहन ने रिवॉल्वर निकालकर उसे दिखाई ।
रिवॉल्वर देखते ही दीपा की हवा निकल गई । वो संभला, फिर बोला –
“मुझे छोड़ दो । मुझे क्यों उठाकर ले जा रहे हो ?”
“चुपचाप बैठा रह ।” जगमोहन ने उसे घूरा ।
दीपा डरा-सा चुप बैठ गया ।
“तेरे को तेरे माँ-बाप ने ये नेई समझाया कि कार में बैठा कोई पता पूछे तो उससे दूर ही रहकर बात करते हैं ।”
“नहीं बताया ।” दीपा ने भय भरी नजरों से जगमोहन को देखा ।
“देख ले अंजाम । तू पास आया और मैंने तेरे को कार में खींच लिया । दोबारा कभी किसी को पास जाकर पता मत बताना ।”
“समझ गया – अब मैं उतर जाऊँ ?”
“तेरे को मैंने उतरने के लिए नहीं बोला । चालाक मत बन, चुपचाप बैठा रह । ये बता नाश्ता वगैरह किया है कि नहीं ?”
“कर लिया !”
“क्या खाया ?”
“परांठा मक्खन के साथ ।”
कार तेजी से दौड़ी जा रही थी ।
☐☐☐
दिन के बारह बजने जा रहे थे, जब केबिन के टेबल पर पड़े फोन की घंटी बजी ।
“हैलो !” पंचम लाल ने फौरन रिसीवर उठाया ।
“पंचम !” उसके कानों में आवाज पड़ी – “आधे घंटे में बैंक की गाड़ी गैराज पर पहुँच रही है । चैक कर लेना ।”
रोशनी इंटरप्राइजेज से फोन था ।
पंचम लाल की जान में जान आई । दिल जोरों से धड़क उठा था । यूँ तो देवराज चौहान ने उसे बता दिया था कि बैंक वैन आठ तारीख यानी कि आज आएगी । फिर भी मन में डर था कि वैन न आई तो डकैती नहीं हो पाएगी ।
लेकिन वैन आ रही थी ।
“ठीक है ।” पंचम लाल ने कहा तो उधर से फोन बंद कर दिया गया था ।
पंचम लाल ने रिसीवर रखा तो उसे लगा जैसे हथेली में पसीना आ गया हो । उसने कमीज से रगड़कर हाथ साफ किया और केबिन से बाहर नजरें दौड़ाई । गैराज पर आज शांति थी । सुबह एक कार ठीक होने आई थी, परंतु मैकेनिक न होने का बहाना करके कार को वापस भेज दिया था ।
पंचम लाल ने कल ही एक मैकेनिक और चार लड़कों को कह दिया था कि आज छुट्टी कर ले । सिर्फ एक मैकेनिक और एक लड़का ही था वहाँ, जो कि उसके विश्वासी थे । यहाँ की बातें वे किसी को न बताएँगे ।
पंचम लाल केबिन से बाहर निकला ।
बाहर पेड़ की छाया में मिस्त्री, हैल्पर और लानती बैठे बातें कर रहे थे ।
लानती फौरन उठा और उसके पास आ गया ।
“वैन नेई आ रही क्या ?”
“आ रही है । फोन आ गया ।”
“बल्ले-बल्ले !” लानती कुछ व्याकुल-सा दिखा ।
“समझ में नहीं आता ।” पंचम लाल बड़बड़ा उठा ।
“अब क्या हो गया ?”
“देवराज चौहान, बलवान सिंह को यहाँ से कैसे दूर ले जाएगा ।”
“चिंता करने की बात नहीं है । हमसे ज्यादा देवराज चौहान को डकैती की जरूरत है ।” लानती समझाने वाले स्वर में कह उठा – “वो तो बोत पौंची हुई चीज है । सब निपट लेगा । उसने कहा है तो करेगा भी ।”
पंचम लाल कुछ न बोला ।
“देवराज चौहान को फोन किया कि वैन आ रही... !”
“ओह... ! मैं तो भूल ही गया !” कहकर पंचम लाल तेजी से वापस पलटा ।
“भूल गया !” लानती बड़बड़ाया – “फिर तो हो गई डकैती ।” इसके साथ उसने जेब से नौ हजार रुपये वाला मोबाइल फोन निकाला और नंबर मिलाकर बात की – “वैन अभी गैराज पर पहुँच रही है ।”
“. . . !”
“मैंने तो खबर देनी थी, दे दी ।”
“. . . !”
“फिक्र न करो । मेरा काम बहुत बढ़िया होगा । पहियो के कवर और फर्श की शीट बढ़िया ढंग से बदल दूँगा । मेरा हिस्सा आधा है, ये मत भूल जाना । बंद करता हूँ, वो आ रहा है ।”
लानती ने फोन बंद करके जेब में डाला । पंचम लाल पास आ पहुँचा था ।
“किसे फोन कर रहा था ?” पंचम लाल ने पूछा ।
“किसी को भी नहीं ।” लानती मुस्कराया – “वो तो फोन निकालकर, कान से लगाकर यूँ ही रौब झाड़ रहा था अपने मिस्त्री और छोकरे पर । आदत पड़ गई है, फोन निकालकर बार-बार कान से लगाने की । आदत पुरानी हो जाएगी तो ठीक हो जाएगा ।”
“देवराज चौहान को बता दिया कि वैन आ रही है ।” पंचम लाल ने कहा ।
“क्या बोला वो ?”
“कहता है, पता है । मैंने पूछा कि बलवान सिंह को वहाँ से हटाना है तो बोलता है – हट जाएगा । पता नहीं, कैसे हटाएगा उसे यहाँ से ?”
“तू क्यों चिंता करता है ? वो कहता है तो मामला निपट लेगा ।”
लेकिन पंचम लाल के चेहरे पर बेचैनी उछलती रही ।
एक बज रहा था तब, जब बैंक वैन गैराज पर पहुँची ।
☐☐☐
बलवान सिंह का कद छ: फीट के करीब का था । सेहत भी बढ़िया । सिर के छोटे-छोटे बाल और क्लीन शेव्ड चेहरा । कठोर आदतों जैसा लगता था वो । कमीज-पैंट पहन रखी थी । कमीज, पैंट के बाहर झूल रही थी ।
वो वैन को गैराज के बाहर रोककर उतरा तो सामने ही लानती पड़ गया ।
“क्यों भाई लानती, कैसा चल रहा है धंधा ?” बलवान सिंह ने पूछा ।
“बढ़िया ! आप लोगों की गाड़ियाँ आती रहे तो हमारी गाड़ी खींचती चली जाएगी ।”
“बोत बातें करने लग गया है तू । चल, गड्डी दा माल-पानी चैक कर ।”
“गड्डी से कोई शिकायत ?”
“खास नहीं... जब भागती है तो पीछे से आवाज आती है । देख लेना, क्या बजता है ? स्टेप्नी पंचर है । ट्यूब ही बदल दे ।”
“अभी निपटा देता हूँ ।”
बलवान सिंह गैराज में जा पहुँचा ।
पंचम लाल ने उठकर उससे हाथ मिलाया और वापस कुर्सी पर बैठ गया । चेहरा सामान्य बना हुआ था ।
“बच्चे ठीक हैं ?” पंचम लाल ने पूछा ।
“सब बढ़िया है ।” बलवान सिंह बैठते हुए बोला – “ऊपर वाला बढ़िया गाड़ी खींच रहा है हम इंसानों की ।”
पंचम लाल मुस्करा पड़ा । जबकि मन ही मन परेशान था कि देवराज चौहान इसे कैसे यहाँ से हटाएगा ।
“वैन में कोई खराबी ?” पंचम लाल ने पूछा ।
“कोई नहीं – वैन बढ़िया है । विदेशी है, खराब नहीं होती ।”
“कुछ तो खराब करके लाया कर । हमारा भी खर्चा-पानी निकले ।”
“मैं खुद क्या खराब करूँ ? तू सौ-पचास का बिल ज्यादा बना लियो ।”
“सौ-पचास से क्या होता है ?”
बलवान सिंह ने मुस्कराकर जेब से बीड़ी निकाली और सुलगाने लगा ।
“सिगरेट ले ले ।” पंचम लाल ने टेबल पर पैकेट की तरफ इशारा किया ।
“बीड़ी का मजा सिगरेट में कहाँ और खर्चा भी कम ।” बलवान सिंह ने कश लिया ।
“इतना कमाता है, फिर भी रोता रहता है !” पंचम लाल मुस्कराया ।
“अपने लिए नहीं कमाता । बच्चे पालने हैं । बहुत खर्चे हैं उनके ।”
“बलवान ! चल, आज पास के बाजार से पकौड़े खाकर आते हैं ।” पंचम लाल एकाएक बोला ।
“आज तेरे को पकौड़े कहाँ से याद आ गए ?”
“यूँ ही मन कर आया – चलता है, मैं खिलाऊँगा ।”
बलवान सिंह की निगाह शीशे के केबिन से बाहर गई । लानती बैंक वैन को चलाकर गैराज के भीतर ले आया था । इंजन का तेज शोर उनके कानों में पड़ने लगा था । बलवान सिंह की निगाह वैन पर ही रही । लानती ने वैन को गैराज में खड़ा किया और इंजन बंद करके नीचे उतरा । मिस्त्री और छोकरा भी वैन के पास आ गए थे ।
“तू तो वैन को ऐसे देखता रहता है, जैसे वो भागी जा रही हो या बीच में नोट रखे हों ।”
बलवान सिंह ने पंचम लाल को देखा, फिर मुस्कराकर बोला –
“पकौड़े यहीं मँगवा ले ।”
“आज लाने वाला कोई नहीं है । लड़के छुट्टी पर हैं ।”
“तू ले आ ।”
“मैं ?”
“तेरे को जाने में क्या है ?” बलवान सिंह हँसा – “पकौड़े लाएगा तो थोड़ा वक्त बढ़िया कट जाएगा । लंच का टाइम भी... !”
“तू साथ चल ।”
“मैं वैन छोड़कर नहीं जाऊँगा । पकौड़े रहने दे, तू चाय ही मँगवा दे ।”
पंचम लाल ने मन ही मन गहरी साँस ली और टेबल पर रखे पैकेट में से सिगरेट निकालकर सुलगाई ।
“थोड़ी देर ठहर जा, आगे के ढाबे से रोटी मँगवाता हूँ लेकिन पैसे तेरे को देने होंगे ।” पंचम लाल मुस्कराया ।
“अपने दूँगा, तेरे नहीं ।”
“मेरे क्यों नहीं ?”
“सरकारी नौकरी है । इतना नहीं बचता कि तेरे खाने के पैसे भी दूँ ।” बलवान सिंह गहरी साँस लेकर मुस्कराया – “मैं तो रोटी साथ ही लाता हूँ । तेरे को पता है । आज तैयार नहीं हो पाई सब्जी तो नहीं ला सका ।”
“ठीक है, तू अपने ही पैसे दे देना । घंटे तक मँगवाऊँगा । तबीयत से भूख लग जाए तो खाने का... !”
लेकिन बलवान सिंह का ध्यान उसकी बातों की तरफ नहीं था । वो तो दूसरी तरफ केबीन से बाहर सामने सड़क पार खड़ी कार को देख रहा था, जिसकी पीछे वाली खिड़की से किसी बच्चे का चेहरा बाहर निकला इधर ही देख रहा था और उसे लग रहा था कि वो उसका छोटा बेटा दीपा है ।
“दीपे !” कुछ देर बाद बलवान सिंह बड़बड़ाता खड़ा हुआ ।
“क्या हुआ ?” पंचम लाल ने उसे देखा ।
परंतु बलवान सिंह ने उसकी बात सुनी नहीं और दरवाजा खेलकर केबिन से बाहर निकल गया ।
पंचम लाल के चेहरे पर उलझन आ ठहरी । उसने बलवान सिंह को गैराज के बाहर जाते देखा । हैरान हो उठा कि ये तो वैन छोड़कर पंद्रह कदम भी दूर नहीं जाता, इसे क्या हो गया ?
पंचम लाल ने भी सड़क पार खड़ी कार को देखा । बलवान सिंह उधर ही जा रहा था ।
उसके देखते ही देखते बलवान सिंह सड़क पार करके उसी कार के पास जाकर ठिठक गया । कुछ पल तो वो कार के पास खड़ा रहा, फिर आगे वाली सीट का दरवाजा खोलकर भीतर बैठ गया और कार आगे बढ़ गई ।
पंचम लाल कुछ पल तो ठगा सा बैठा रहा, फिर चौंककर उठा । केबिन से बाहर निकला ।
“लानती !” वो ऊँचे स्वर में बोला – “जल्दी से फर्श की शीट और टायरों के कवर बदलने शुरू कर दे । देवराज चौहान ने कमाल दिखा दिया । वो बलवान सिंह को डंडा दिखाकर ले गया । बिना डंडा देखे तो बलवान सिंह हिलने से रहा !”
☐☐☐
बलवान सिंह ने पहचान लिया था कि कार की पीछे की खिड़की से झाँकता चेहरा दीपे का ही है । वो उसका छोटा बेटा ही है । लेकिन कार में क्या कर रहा है ? उसके मन में घबराहट उठी । वो कार के पास जा पहुँचा ।
“डैडी !” दीपा रो देने वाले स्वर में कह उठा ।
“तू यहाँ पे । ऐ कार किस दी है – किया होया जो... !”
तभी दीपा को पीछे से खींच लिया । वो सीट पर जा बैठा ।
बलवान सिंह को अब जगमोहन का चेहरा दिखा ।
बलवान सिंह की आँखें सिकुड़ीं । वो समझ गया कि गड़बड़ है ।
तभी जगमोहन ने रिवॉल्वर निकालकर दर्शन कराए तो बलवान सिंह सतर्क दिखा । उसकी निगाह ड्राइविंग सीट पर बैठे देवराज चौहान पर गई, फिर वो जगमोहन को देखने लगा ।
“तेरे बेटे का हमने सुबह साढ़े सात बजे ही अपहरण कर लिया था ।” जगमोहन ने आवाज को खतरनाक बनाकर कहा ।
बलवान सिंह के होंठ भिंच गए । परंतु आँखों में डर भी उभरा ।
“तेरे पे हम बैंक से ही नजर रख रहे हैं ।” जगमोहन ने रिवॉल्वर हिलाकर कहा – “कई दिन से तेरे को देख रहे हैं । ये भी हमने पता लगा लिया था कि तू टेढ़ा आदमी है । सीधे मुँह बात नहीं करेगा । इसलिए तेरे बेटे को उठाना पड़ा ।”
“दीपे को छोड़ दो ।” बलवान सिंह अपने शब्दों पर जोर देकर बोला ।
“ये तो मुझे बहुत अच्छा लगा है । तेरे से बात करनी है । कैसे करेगा ?”
बलवान सिंह खामोशी से जगमोहन को देखता रहा ।
“आगे वाली सीट पर बैठ जा । रास्ते में बात... !”
बलवान सिंह ने गरदन घुमाकर गैराज की तरफ देखा, फिर बोला ।
“मेरी वैन वहाँ खड़ी... !”
“उसे भी साथ ले आ ।” जगमोहन ने दाँत भींचकर कहा ।
बलवान सिंह के चेहरे पर मजबूरी के भाव उभरे ।
“कार की आगे वाली सीट पर बैठ जा ।” जगमोहन ने रिवॉल्वर वाला हाथ हिलाया – “अगर बात ठीक रही तो तेरे को यहीं छोड़ देंगे और इसे भी । नहीं तो ऊपर वाला ही मालिक है – बैठ अंदर ।”
बलवान सिंह के पास कोई दूसरा रास्ता नहीं था । वो भीतर आगे वाली सीट पर आ बैठा ।
देवराज चौहान ने कार आगे बढ़ा दी ।
“दीपू को यहीं उतार दो ।”
“दीपे की वजह से तो इंसान बना बैठा है तू ।”
कार में चंद पलों की चुप्पी रही ।
“डैडी, मेरे को मम्मी के पास जाना है ।”
“चुप रह, थोड़ी देर बाद चलेंगे ।” कहने के बाद बलवान सिंह ने गरदन घुमाकर पीछे बैठे जगमोहन को देखा – “क्या बात करना... !”
“सुना है, तू वैन में नोट भरकर अक्सर ले जाता रहता है ।” जगमोहन ने रिवॉल्वर थामे कठोर स्वर में कहा – “तेरी वही नोटों वाली गाड़ी लूटनी है । ये तो तू बताएगा कि वैन कैसे लूटें ?”
“नहीं... हरगिज नहीं !” बलवान सिंह के होंठों से निकला ।
जगमोहन ने रिवॉल्वर दीपा के सिर पर रख दी ।
“डैडी ! ये मुझे गोली मार देगा, जैसे अमरीश पुरी मारता है !”
“इसे कुछ मत करना ।” बलवान सिंह तड़पकर बोला – “जो बात करनी है, मुझसे करो ।”
जगमोहन ने दीपा के सिर से रिवॉल्वर की नाल हटाई और दाँत भींचकर बोला –
“तेरे को नहीं पता, हम बहुत खतरनाक लोग हैं । हमसे माथा न ही लगा तो बढ़िया रहेगा । जो कहते हैं, वो करता जा । वरना तेरे पूरे परिवार को खत्म कर देंगे । एक बार तेरे जैसे पागल के पूरे परिवार को हमने खत्म कर दिया था ।”
बलवान सिंह ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी ।
“तेरे को फर्ज प्यारा है या औलादें ?”
“औलादें !” बलवान सिंह जल्दी से कह उठा ।
“तो हमारी बात मान जा । हमें डकैती करवा दे । बता कैसे करें डकैती कि वैन में रखे सारे नोट हमें मिल जाएँ । घबरा मत, दो-चार लाख तेरे को भी दे देंगे । जल्दी बता ।”
“ये काम मत करो ।”
“क्यों ?”
“खतरनाक काम है । मेरी बैंक-वैन को लूटने में कोई भी सफल नहीं हो सका ।”
“तभी तो दीपे का अपहरण करके तेरे से पूछ रहे हैं कि तू बता कैसे तेरी बैंक वैन को लूटें । हमें डकैती करनी तो आती नहीं, तू बताएगा तो ही हम कुछ कर सकेंगे । मेरे दिमाग में एक बात है ।”
“क्या ?” बलवान सिंह के होंठों से निकला ।
“तू जब भी वैन को नोटों से भरकर चले तो मेरी बताई जगह पर आ जाना । वहाँ पर सब नोट निकालकर मुझे दे देना, फिर बैंक वापस चले जाना । उसके बाद मैं तीन-चार लाख रुपया तेरे घर भिजवा दूँगा ।”
बलवान सिंह चुप रहा ।
“थोबड़ा क्यों बंद कर लिया ? कुछ तो फूट मुँह से ।” जगमोहन ने कठोर स्वर में कहा – “अगर तूने मुझे रुपया लूटने में सहयोग न दिया तो मैं दीपे को... !”
“दीपे को कुछ मत करना !” बलवान सिंह जल्दी से कह उठा – “मेरी सहायता पाकर भी तुम वैन के नोट नहीं ले सकते ।”
“क्यों ?” जगमोहन ने उसे घूरा ।
“रूपये वैन के पीछे वाले हिस्से में होते हैं । वो अलग जगह है । उस पर गोली-बारूद का असर भी नहीं... !”
“पता नहीं क्या कह रहा है ?” जगमोहन ने उखड़कर कहा – “पैसे तेरी गाड़ी के पीछे वाले हिस्से में रखे जाते हैं । वो तू निकालकर मुझे दे देना या मैं वहाँ से निकाल लूँगा ।”
बलवान सिंह ने आहत भरे स्वर में जगमोहन को देखा । उसका मन कर रहा था कि अपना माथा पीट ले । कई पलों तक वो जगमोहन को देखता रहा ।
“मेरी बात सही लगी ?” जगमोहन मुस्कराया ।
“चुप करो । डैडी नू गुस्सा चढ़ गया वे । झापड़ मार देंगें ।” दीपा कह उठा ।
“तुम मेरी बात सुनो ।” बलवान सिंह ने किसी तरह खुद पर काबू पाया ।
“बता ।”
“वैन चलाने वाली मेरी सीट आगे है । पीछे जहाँ पैसे रखे जाते हैं, वो जगह अलग है । उसका रास्ता पीछे से है । यूँ समझ लो कि वो अलग से केबिन जैसी जगह है । उसका दरवाजा भी पीछे बाहर को खुलता है ।”
“ओह ! समझा, वो जैसे बिस्कुट सप्लाई करने वाला ऑटो होता है ।” जगमोहन जल्दी से कह उठा – “उसका ड्राईवर आगे बैठकर स्कूटर चलाता है और जब दुकानदार को आधा दर्जन बिस्कुट के पैकेट निकालकर देने होते हैं तो उतरकर पीछे की तरफ जाता है । दरवाजा खोलता है और पैकेट निकाल लेता है ।”
बलवान सिंह ने व्यंग और गुस्से भरी निगाहों से उसे देखते हुए कहा –
“ठीक कहा तूनु । बिस्कुट सप्लाई करने वाले स्कूटर जैसी ही है वैन । एक बात तो बता ?”
“हाँ ।”
“तेरे को वैन लूटने का ध्यान कैसे आया ?”
“नेई बताऊँगा । तू मेरे से क्यों पूछता है ये बात ? मैं बोत खतरनाक आदमी हूँ ।”
“तेरे बस का नहीं है वैन से रूपये लूटना ।” बलवान सिंह ने गहरी साँस लेकर कहा – “खामखाह जान गँवाएगा । दीपे को इस तरह उठाकर क्या सोचता है कि डकैती कर लेगा । सरकारी नोट लूट लेगा ।”
“चुप !” जगमोहन दहाड़ा । रिवॉल्वर उसके सिर पर रखा ।
बलवान सिंह होंठ भींचकर रह गया ।
“ओए ! मेरे डैडी पर रौब ना डाल ।” दीपा गुस्से से तिलमिलाकर बोला ।
जगमोहन ने रिवॉल्वर की नाल का दबाव उसके सिर पर बढ़ाया ।
“अपनी बातें कहकर तू मुझे डकैती से हटाने की कोशिश न कर ।” जगमोहन दहाड़ा – “मैं घर से माँ को कहकर निकला हूँ कि डकैती करने जा रहा हूँ । तेरे लिए बहुत सारा रूपया लाऊँगा । उस पैसे से तू बढ़िया फर्नीचर लेना । घर के पुराने हो चुके बरतन फेंककर नए लेकर आना । चार नए सूट सिलवा लेना । चायनीज बैली लेना । ला-बेला का कलर लाना सिर पर लगाने के लिए, बाल बढ़िया काले होंगे – क्योंकि मेरी माँ की इतनी उम्र है नहीं, जितनी कि सफेद बालों की वजह से लगती है । मैंने ये भी माँ से कह दिया कि घर में बढ़िया सफेदी का ले ।”
बलवान सिंह को लगा, कोई पागल उसके सामने बैठा है ।
“इन सब चीजों के लिए डकैती की क्या जरूरत है ? कहीं चोरी कर लो । ये जरूरतें पूरी हो जाएँगी ।”
“अभी तो तूने माँ की जरूरतें सुनी हैं, मैंने अपनी तो नहीं बताई ।”
बलवान सिंह उसे देखता रहा ।
“परसों ही मैं जुए में शेरसिंह से सोलह हजार रूपये हार गया था । उधार किया उससे । पाँच दिन में उसे पैसे न दिए तो वो मेरे हाथ-पाँव तोड़ देगा । उधर दरजी मेरा सूट नहीं दे रहा । कहता है सिलाई का उधार नहीं करूँगा । बनिए ने मेरी माँ को बासमती चावल देने से मना कर दिया है कि उधार में वो बासमती नहीं देगा । परमल लेने हैं तो ले जाओ । हमें तो बासमती खाने की आदत पड़ी हुई है । देख तू मेरे को डकैती करने से मत रोक । वरना सच में मैं तेरे को गोली मार दूँगा । दीपे का तो खयाल कर ले । इसने जिंदगी ही कितनी देखी है ।”
तभी देवराज चौहान ने कार रोकी ।
आस-पास का इलाका सुनसान था । खुला था ।
सड़क के दोनों तरफ छायादार पेड़ लगे हुए थे ।
“तुम इसे लेकर उतरो ।” देवराज चौहान ने गरदन घुमाकर जगमोहन को देखा – “मैं कुछ देर में वापस आा हूँ ।”
“ठीक है ।” फिर वो बलवान सिंह से बोला – “चल भई, नीचे उतरकर बातें करते हैं । बोत बातें करनी हैं तेरे से । तू मुझे बताएगा कि डकैती कैसे करते हैं ? नेई तो मैं तेरे दीपे को गोली मार दूँगा । बोत खतरनाक आदमी हूँ मैं । पुलिस वाले मेरे हाथ में रिवॉल्वर देख लें तो दूर भाग जाते हैं ।”
दीपा ने कार का दरवाजा खोला ।
“तू क्यों दरवाजा खोलता है । तू बाहर नहीं निकलेगा । मैं और तेरा बाप नीचे उतरेंगे ।”
“दीपे को भी नीचे... !”
“फिक्र न कर । तेरे दीपे को कुछ नहीं होता । कार के साथ जाएगा और कार के साथ आ जाएगा । इसके वापस आने तक तू मुझे बता चुका होगा कि तेरी बैंक की गाड़ी में से रूपये कैसे निकालूँ ?”
जगमोहन और बलवान सिंह नीचे उतरे ।
जगमोहन ने रिवॉल्वर जेब में डाल ली थी ।
“मेरे दीपे को कुछ मत कहना !” बलवान सिंह देवराज चौहान से कह उठा ।
देवराज चौहान ने न तो कुछ कहा, न उसे देखा । कार आगे बढ़ा दी ।
“डैडी... !”
“दीपे ! होशियार रही... !”
कार दूर होती चली गई ।
जगमोहन फिर उससे पूछने में लग गया कि बता, कैसे डकैती की जाए ?
☐☐☐
ढाई घंटे लगे, वैन का फर्श बदलने और पहियों के कवर बदलने में । मिस्त्री, हैल्पर और लानती तीनों इस काम में बिना रुके लगे रहे । पंचम लाल उनके सिर पर ही सवार रहा । जरूरत पड़ने पर उनके साथ काम में हाथ भी बँटा देता । वो बेचैन था । परेशान था । मन में यही डर था कि बलवान सिंह वापस न आ जाए ।
लेकिन ठीक से काम निपट गया ।
“चल जल्दी से वैन का उतारा फर्श और टायर कवर छत पर रखकर आओ ।”
लानती उन दोनों के साथ मिलकर सारा सामान गैराज की छत पर रख आया ।
“ध्यान से चैक कर लो कि कोई गड़बड़ न लगे । फर्श का मैट ठीक से बिछाओ । जहाँ भी वैन के भीतर काले दाग हैं, सब साफ कर दो । बाहर से भी वैन को शीशों की तरह चमका दो । वैन के आस-पास का, गैराज का फर्श भी साफ कर दो । बलवान सिंह को न लगे कि वैन के साथ कोई लंबा काम किया गया है । उसके बाद बाहर इस तरह बैठ जाओ कि जैसे काम निपटाकर सुस्ता रहे हो । वो हरामी कभी भी अब आ सकता है ।”
☐☐☐
दो घंटे बाद उसी कार पर देवराज चौहान वापस पहुँचा ।
दीपा कार में नहीं था ।
जगमोहन पेड़ की छाया में खड़ा तब से बलवान सिंह का दिमाग खा रहा था कि बता कैसे डकैती करें ? बलवान सिंह का गुस्से से पागल हुआ पड़ा चेहरा देखने के लायक था । उसने दीपा को कार में न देखा तो घबरा गया ।
“दीपा कहाँ है ? मेरा दीपा कहाँ है ? क्या किया तुम दोनों ने उसका – वो... !”
“चिंता मत कर । वो ठीक-ठाक हालत में है । अपनी माँ के पास ।” जगमोहन ने कहा ।
“माँ के पास ?”
“हाँ, घर छोड़ दिया है उसे । लेकिन याद रख, मैं दो दिन बाद तेरे से फिर मिलूँगा । तूने पक्की तरह बताना होगा कि तेरी बैंक वैन पर मैं कैसे डकैती मारूँ ? अगर तूने न बताया तो दीपे की खैर नहीं ।”
“सच कहते हो कि उसे घर छोड़ दिया है !”
“ये ले, अपनी तसल्ली कर ले ।” जगमोहन ने जेब से मोबाइल निकालकर उसे दिया ।
बलवान सिंह ने जल्दी से घर का नंबर डायल किया । बात की । ये जानकर कि दीपा घर में पहुँच गया है और ठीक-ठाक है, उसने चैन की साँस ली ।
जगमोहन ने उससे मोबाइल फोन लेकर, जेब में डालते हुए कहा ।
“याद रख, दो दिन बाद तेरे से मिलेंगे । मैं बोत खतरनाक आदमी हूँ । तू देख भी चुका है । तूने मेरे को बताना है कि वैन में से रूपये कैसे निकालूँ । न बताया तो तेरी खैर नहीं ।”
बलवान सिंह के देखते ही देखते वो दोनों कार पर चले गए । वो वहीं खड़ा रहा । फिर कुछ देर बाद वहाँ से जाते ऑटो पर सवार होकर पंचम लाल के गैराज पर पहुँचा ।
लानती बाहर ही पेड़ के नीचे आँखें बंद किए बैठा था । जैसे सुस्ता रहा हो ।
मैकेनिक और हैल्पर गैराज के भीतर चादर बिछाए नींद में पड़े लग रहे थे ।
बलवान सिंह केबिन में पहुँचा तो पंचम लाल को खाना खाते देखा ।
“तू कहाँ चला गया था बलवान सिंह ?” पंचम लाल बोला – “बता के भी नेई गया । तेरा इंतजार कर-करके मैंने अब खाना मँगवाया है । मेरे को तो बोत भूख लग रही थी ।”
बलवान सिंह कुर्सी पर बैठ गया । कुछ व्याकुल था वो ।
“कहाँ गया था तू ?”
“कोई काम याद आ गया था ।”
“ऐसा कैसा काम था कि तू मेरे साथ पकौड़े खाने नेई गया लेकिन काम पे चला गया । बता के भी नेई गया । मैं तो तेरे को ढूँढ़ने पैदल ही पैदल उधर मोड़ पर भी गया । तू अचानक ही पता नहीं कहाँ पे गायब हो गया ।”
“वैन तैयार है ?”
“बिल्कुल तैयार है । पद्रह मिनट का काम था । अब तक तो लानती ने नींद भी पूरी कर ली होगी ।”
“मैं चलता हूँ ।” बलवान सिंह उठा ।
“ये कागज रखा है । वैन में जो सामान डाला है, उस पर साइन तो कर जा ।”
बलवान सिंह ने जल्दी से साइन किए ।
“बैठता तो तेरे लिए कुछ खाने को... !”
बलवान सिंह बाहर निकल गया ।
जल्दी में उसने वैन को खुद ही बाहर निकाला और चला गया ।
लानती तुरंत भीतर दौड़ा आया ।
“ओ पंचम ! सारा काम बढ़िया हो गया ।”
“हाँ !” पंचम मुस्कराया – “देवराज चौहान कमाल का बंदा है । मक्खन में से छुरी की तरह बलवान सिंह को यहाँ से ले गया ।”
“देवराज चौहान का कमाल तो कल देखेंगे ।”
“कल ?”
“हाँ, कल वैन पर हाथ डालना है ना उसने ।”
“मेरा दिल धड़क रहा... !”
“डर गया ।” लानती हँसा ।
“डर से नहीं, ये सोचकर दिल तेजी से धड़कने लगा है कि इतने पैसों को रखूँगा कहाँ, जो डकैती से आएँगे ।”
“पैले पैसे आने तो दे । संभालने का इंतजाम भी हो जाएगा ।”
“आज देवराज चौहान मेरे से बात करेगा । कल के काम के लिए तैयारी करनी है ।”
“मैं भी तैयार रहूँ । मेरी भी जरूरत पड़ेगी ?”
“तू भी तैयार रह ।”
“पंचम, मुझे ऐसा क्यों लगता है कि कल डकैती में हम कामयाब नहीं हो सकेंगे ।”
“लानत वाली बातें मत किया कर लानती ।” पंचम लाल दाँत भींचकर कह उठा ।
लानती गहरी साँस लेकर रह गया ।
☐☐☐
“खाओ जी । पनीर दे कोफ्ते बोत मेहनत दे नाल तैयार किए हैं ।” बिल्लो देवराज चौहान की प्लेट में कोफ्ता डालते हुए कह उठी – “मिर्च थोड़ी ज्यादा पड़ गई है, लेकिन मजा आता है । तीखा-तीखा स्वाद आता है ।”
रात के ग्यारह बज रहे थे ।
देवराज चौहान और जगमोहन ने कुछ देर पहले ही बँगले पर पहुँचकर खाना शुरू किया था ।
“मैंने तो छ: कोफ्ते खाए । बोत स्वादी लगे । पहले तो मैंने सोचा जेठ जी और देवर जी का इंतजार कर लूँ । फिर सोचा, आप दोनों तो काम-धंधे में बिजी हो । रोज ही देर से आने लगे हो । यही सोचकर मैंने खा लिया और नौकरों से भी कह दिया कि वो भी खा लें । आज तो नौकरों ने भी कोफ्तों पर ही हाथ मारा । साथ में दाल थी, वो तो वैसे की वैसे ही पड़ी रह गई लेकिन मैं भी कम नहीं । सुबह वो सारी दाल नौकरों को ही नाश्ते में खिलाऊँगी । वैसे दाल सेहत के लिए अच्छी होती है । उसके विच प्रोटीन होते हैं ।”
“जसदेव नहीं आया ?” जगमोहन ने पूछा ।
“वो तो रोज ही लेट आते हैं । मैं तो बोल-बोल के थक गई कि कभी तो जल्दी आ जाया करो । पर वो भी क्या करें जी ? अकेले बंदे हैं, काम बोत रहता है ।” बिल्लो ने मुँह लटकाकर कहा – “काम-धंधा जब किया है तो संभालना भी पड़ता है । इधर मेरे को बोत काम रहता है, नेई तो मैं इनका काम-धंधा कर दिया करूँ । कल रात को कुत्तों के भौंकने की आवाज आई तो मैंने सोचा – चलो चंगा हुआ कि आज जल्दी आ गए । मैं बाहर गई तो वां पे कोई भी नेई था । हो सकता है कि कुत्ते किसी दूजे को देखकर भौंकने लग गए हों । उन्हें गलती लग गई हो । छोड़ो ऐ गल्ला । पैले तो मुझे ऐ बताओ कि मेरी सेवा विच कोई कमी तो नेई ?”
“की गल कर दी वें परजाई ।” जगमोहन खाते-खाते कह उठा – “ऐसी सेवा तो किसी ने भी नहीं की ।”
“सच ?”
“सच परजाई !” जगमोहन खाना छोड़कर बिल्लो को गंभीर निगाहों से देखने लगा – “रब दी सौं, सच । पिछले जन्म दाँ कोई रिश्ता जरूर है, जो यहाँ आना और ठहरना हुआ ।”
“देवर जी, ऐ गल्ला-बातां करके मुझे कमजोर न करो । वैसे लगता तो मन्नू भी है कि पिछले जन्म दाँ कोई रिश्ता है, तभी तो मैं दिल से जेठ जी और देवर जी दी सेवा कर रही हूँ । इतनी सेवा मैंने भी किसी की नहीं की ।”
“परजाई तेरा खाना हमेशा याद आएगा ।”
“कह तो तू ऐसे रहे हो, जैसे कल सुबह गाड़ी पे चढ़ना हो ।”
जगमोहन ने देवराज चौहान को देखा, फिर बिल्लो से कह उठा –
“ठीक बोलया परजाई । कल हम जा रहे हैं । दो-चार दिन के लिए ।”
“जा रहे हो – कहाँ ?”
“यहीं, पास में पंजाब में ही ।” कहकर जगमोहन ने पास बैठे देवराज चौहान को कहा – “हाँ, कादियाँ ।” जगमोहन ने याद आने वाले ढंग में सिर हिलाया ।
“गुरदासपुर के पास पड़ता है हादियाँ गाँव ।” बिल्लो खुश होकर कह उठी – “बोत अच्छी जगह है । मेरा बचपन तो वहीं बीता । अम्ब ढे पेड़ा ते चढ़ के कच्चे अम्ब तोड़ने । उसते झूला पा के झूलना । कितने मजे आते थे ।” एकाएक बिल्लो ठिठकी और दोनों को देखकर बोली – “वां पे किसके पास जाना है ?”
“कोई खास काम है ।”
“ठीक है, दो-चार दिन विच वापस आ जाओगे ना... !”
“सोचा तो यही है, आगे रब जाने ।”
“वापसी ते आके फिर यहीं रुकना । मैं मूँग दी दाल दिया पिन्नियाँ बनाके रखागीं । बोत स्वादी बनाती हूँ मैं । पूरे लुधियाने विच मूँग दिया दाल दिया पिन्नियाँ बनाने में मेरा मुकाबला नेई कर सकता । बनारसी दास हलवाई है ना, जिसने पूरे लुधियाने में पंद्रह दुकाना खोल रखियाँ वे । ओ वी मेरे से सीखकर गया है कि मूँग की दाल दिया पिन्नियाँ कैसे बनती हैं । आप दोनों के लिए पूरा पीपा भरके पिन्नियाँ तैयार रखांगी ।”
“परजाई ।” जगमोहन बोला ।
“बोलो देवर जी !”
“कमरे में दो पैकिट रखे हैं । उसमें मेरा पैंसठ लाख रुपया बँधा पड़ा है ।”
“वो ही, जो इन्होंने दिया था – मुझे पता है । मुझे नहीं बताया इन्होंने । लेकिन मुझे पता है । सब तरफ नजर तो रखनी पड़ती है कि घर में क्या हो रहा है ।” बिल्लो ने हाथ हिलाकर कहा ।
“वो संभाल के रखना । मैं आकर ले जाऊँगा ।”
“मैं अभी उसे अलमारी में रख लेती हूँ । किसी को हाथ नेई लगाने दूँगी । ये भी माँगेंगे तो नेई दूँगी । अच्छा ये बताओ कि सुबह कितने बजे जाना है ?” बिल्लो ने पूछा ।
“सात बजे ।”
“तो मैं साढ़े छ: बजे नाश्ता तैयार रखूँगी । गोभी दे परांठै, भूरी भैंस के दूध-दई नाल । दस-बारह पैक भी कर दूँगी । रास्ते में भी तो भूख लग ही जाती है । मैं तो जब भी इनके साथ गाड़ी में, कंई पे बाहर जाती हूँ तो रास्ते में खाती ही रहती हूँ । इससे पेट भी भरा रहता है और टाइम भी पास हो जाता है ।”
“परजाई, कोफ्ते और पा दे ।”
“ये लो । पेट भर के खाओ – कोफ्ते बोत स्वादी बने हैं । करारे-करारे । मैं पूरे छ: खादें ।”
☐☐☐
“जैसा समझाया है, वैसा ही करना ।” देवराज चौहान ने पंचम लाल और लानती को देखकर कहा – “काम ज्यादा कठिन नहीं है । लेकिन तुम दोनों की कोई भी गलत हरकत, काम को मुश्किल बना सकती है ।”
“हम-हम कोई गलत हरकत नहीं करेंगे ।” पंचम लाल दृढ़ स्वर में कह उठा ।
“तुम अपनी तरफ से तो नहीं करोगे, लेकिन गलत हरकत खुद-ब-खुद ही हो जाती है ।” देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा – “ऐसे में कभी अपनी तरफ से कुछ करना पड़े तो सोच-समझ कर करना ।”
पंचम लाल ने सिर हिला दिया ।
देवराज चौहान ने लानती को देखा तो लानती कह उठा –
“मेरे को कुछ भी समझाने की जरूरत नहीं है । आप तो जानते ही हैं कि समझदार हूँ । मेरी अक्ल का लोहा तो पंचम भी मानता है । आपने जो समझाया है, वैसा ही करूँगा मैं । पंचम दी तरफ से थोड़ी-बहुत गड़बड़ हो सकती थी । वो आपने इसे समझा ही दिया है । एक बात का जवाब तो मुझे दे दो ।”
“क्या ?” देवराज चौहान की निगाह लानती पर थी ।
“वो मुझे ऐसा क्यों लगता है कि कोई गड़बड़ हो जाएगी । वैन में रखे नोट हमें नहीं... ।”
“तेरे को ऐसा लगता है ।” जगमोहन ने खा जाने वाली नजरों से उसे देखा ।
“कभी-कभी तो ऐसा लगता ही है ।” लानती जल्दी से बोला ।
“लानती नाम है तो बातें भी लानत से भरी करेगा ।” जगमोहन ने कड़वे स्वर में कहा ।
“ऐसी बात नहीं – मैं तो... ।”
“चुप कर ।” पंचम लाल बोला ।
लानती चुप कर गया ।
सुबह के आठ बज रहे थे । पंद्रह मिनट पहले ही देवराज चौहान और जगमोहन तयशुदा जगह पर पहुँचे । पंचम लाल और लानती को बेसब्री से वहाँ इंतजार करते पाया । देवराज चौहान ने रात को दोनों को अच्छी तरह समझा दिया था कि काम कैसे करना है और अब एक बार फिर अच्छी तरह समझा दिया था कि सब कुछ याद रहे । मौके पर ये ठीक से काम करें । गड़बड़ न कर दें ।
इस समय वे सब ऐसी सुनसान सड़क पर खड़े थे जिसके एक तरफ शहरी आबादी थी और आगे का तीन किलोमीटर का रास्ता सुनसान था । उस रास्ते से बहुत कम ट्रेफिक निकलता था । देवराज चौहान ने यहीं पर बैंक वैन पर हाथ डालने की योजना बनाई थी ।
“इन्हें रिवॉल्वरें दे दो ।” देवराज चौहान ने जगमोहन से कहा ।
जगमोहन ने दोनों को एक-एक रिवॉल्वर दी जो कि उन्होंने कपड़ों में छिपा ली ।
“तुम इन्हें फिर बताओ कि कब क्या-क्या करना है । जो पूछे उसका जवाब दो ।” देवराज चौहान बोला ।
जगमोहन ने सिर हिला दिया ।
देवराज चौहान कुछ आगे खड़ी कार की तरफ बढ़ गया ।
“तुम कहाँ जा रहे हो ?” पंचम लाल के होंठों से निकला ।
देवराज चौहान रुका नहीं ।
“तुम्हें जो बात करनी है मुझसे करो ।” जगमोहन बोला – “उसे ढेरों काम हैं करने को ।”
देवराज चौहान को कार में बैठता देखकर पंचम लाल कह उठा –
“वो... वो कहीं जा रहा है, पीछे से वैन आ गई तो ।”
“वक्त क्या बजा है ?”
“सवा आठ – आठ-बीस ।” उसने कलाई पर बँधी घड़ी पर नजर मारी ।
“वैन बैंक से कितने बजे चलती है ।”
“स... सवा दस ।”
“यहाँ कितने बजे पहुँचेगी ?”
“दस चालीस के आस-पास ।”
“मतलब कि बैंक वैन आने में अभी सवा दो घंटे बाकी हैं ।” जगमोहन ने होंठ सिकोड़ कर कहा – “और इन सवा दो घंटों में देवराज चौहान पूरे लुधियाने का चक्कर काट कर आ सकता है ।”
“हाँ ।” पंचम लाल ने गहरी साँस ली – “ठीक कहता है तू ।”
“चल... एक बार फिर रिहर्सल कर । बता कि कब-कब तुझे क्या करना है ।” जगमोहन बोला – “देवराज चौहान ने जो भी योजना बताई है, वो दोहरा । मुझे बता । जो बात समझ में न आए, वो पूछ लेना ।”
“मेरे को तो सब समझ में आ गया ।” लानती कह उठा ।
जगमोहन ने उसे घूरा तो लानती जल्दी से कह उठा ।
“मेरी माँ बताती होती थी कि मेरे को पैदा करने से पहले, उसने बादाम बोत खाए थे । बापू एक किलो बादाम कहीं से ले आया था । मेरी माँ ने दो दिन में खाकर खत्म कर दिए । इसी वजह से मेरा दिमाग बोत तेज है । मैं बताता हूँ कि बैंक की वैन को लूटने के लिए हमें क्या-क्या करना है । तू भी सुन ले पंचम ।”
पंचम ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी ।
लानती बताने लगा कि तभी उसकी जेब में पड़े मोबाइल फोन की घंटी बजने लगी ।
“ओह ! फोन आ गया । बोत गलत टाइम पर बजा है । मैं अभी बात करके आया ।” कहते हुए लानती ने जेब से मोबाइल फोन निकाला और पंद्रह-बीस कदम आगे जाकर बात करने लगा ।
जगमोहन ने लानती पर से नजरें हटाकर पंचम लाल को देखा ।
“पता नहीं कहाँ से मोबाइल फोन ले आया है । नौ हजार का है ।” पंचम लाल कह उठा – “हैरानी की बात है कि दिन में दो-तीन बार घंटी भी बज जाती है । समझ में नहीं आता कि इसका ऐसा कौन सा खास पैदा हो गया जो दिन में दो-तीन बार इसे फोन करे । इस पर भी हैरानी ये कि जब कि मोबाइल फोन की घंटी बजती है तो अलग जाकर बात करता है । सामने में नहीं बात करता ।”
लानती बात करके लौट आया था ।
“किसका फोन था ?” पंचम लाल ने पूछा ।
“तेरे को बताया तो था, उसी यार का, जो बचपन का यार का है । जिसने मेरे को ये फोन दिया है ।”
“क्यों फोन किया ?”
“मेरा हाल-चाल पूछने के वास्ते । तू क्यों जलता है ।”
☐☐☐
नौ पैंतालीस हो रहे थे जब देवराज चौहान वापस पहुँचा ।
“तुम कहाँ चले गए थे ?” उसके पास आते ही पंचम लाल ने पूछा ।
“फिर वो ही सवाल ।” जगमोहन ने टोका – “ज्यादा पूछताछ मत करो ।”
पंचम लाल चुप सा रह गया ।
“अपने काम की तरफ ध्यान दे ।” लानती बोला – “हिम्मत इकट्ठी कर । अभी तूने गोलियाँ चलानी हैं ।”
जगमोहन, देवराज चौहान के साथ चार कदम दूर गया ।
“जमींदार राजेंद्र सिंह के यहाँ गए थे ?” जगमोहन धीमे स्वर में कह उठा ।
“हाँ, सब काम तैयार है उधर ।”
“मतलब कि कमरे तक गाड़ी ले जाने के लिए रास्ता समतल करवा दिया । कमरे का दरवाजा भी बड़ा कर दिया ?”
देवराज चौहान ने सहमति में सिर हिलाया ।
“राजेंद्र सिंह है उधर ।”
“नहीं । कमरे का दरवाजा खुला पड़ा था । भीतर कमरा साफ था ।” देवराज चौहान ने बताया ।
“मतलब कि सब काम पूरे हो गए ।”
“हाँ ।” कहते हुए देवराज चौहान ने घड़ी देखी – “ये दोनों अच्छी तरह समझ गए हैं कि क्या करना है ।”
“बढ़िया ढंग से समझे पड़े हैं ।”
“दस बजने जा रहे हैं । बैंक वैन के यहाँ से निकलने में पैंतीस-चालीस मिनट बाकी है ।” देवराज चौहान बोला ।
दोनों की नजरें मिलीं ।
☐☐☐
दस चालीस हो चुके थे ।
वो बैंक वैन साठ की स्पीड से उस सड़क पर दौड़ रही थी । बलवान सिंह उसकी स्टेयरिंग सीट पर बैठा था । इक्का-दुक्का वाहन कभी कभार सामने से आता बगल से निकल जाता था । भीड़-भाड़ वाला इलाका पीछे छूटना शुरू हो गया था । बलवान सिंह ने दरवाजे का शीशा थोड़ा सा नीचे किया तो तेज हवा उसके पर पड़ने लगी । यूँ तो उसके स्टेयरिंग केबिन में ए.सी. की ठण्डक थी । फिर भी उसने शीशा नीचे कर लिया था ।
बलवान सिंह सतर्क रहता था कि सफर के दौरान शीशा उठा रहे और डोर लॉक रहे । परंतु इस वक्त खाली सड़क थी तो उसने यूँ ही बाहरी हवा पाने के लिए शीशा नीचे कर लिया था । अगर उसे एहसास होता कि आगे क्या होने वाला है तो वो कभी भी शीशा नीचे न करता ।
तभी उसने जेब से मोबाइल फोन निकाला और एक हाथ से नंबर मिलाया ।
चंद पलों बाद ही उसके कानों में मदनलाल सोढ़ी की आवाज पड़ी ।
“बोल ।”
“मजे कर रहा है नोटों के बीच बैठा ।”
“तू भी कर ले ।”
“मैं बाहर ही ठीक हूँ ।” बलवान सिंह हँसा ।
“कहाँ पहुँचे ?”
“अभी वैन रुकने में पंद्रह मिनट बाकी हैं । मुझे अभी याद आया कि तू दूसरी शादी करने वाला है ।”
“किसने कहा तेरे से ?”
“रघुबीर ने ।”
“वो साला ढोलची है । उसकी बात पर विश्वास न किया कर । मेरी बीवी मेरे घर बैठी है ।”
“तो स्कूटर ले आई वो ।”
“बहुत कुछ जानता है तू ।”
“रघुवीर जानता है तो मैं भी जानूँगा । जब उसे मुफ्त की चाय पिलाता हूँ तो वो पेट की बात सब उगल देता है ।”
“वापस जाकर, हरामी की गरदन पकड़ूँगा ।”
“तूने अच्छा किया जो बीवी को ले आया... ।”
“मैं नहीं लाया, वो ही आ गई ।”
“फिर तो वो तेरे से ज्यादा अकलमंद है । मैंने सुना है, आज तू नए स्कूटर पर बैंक आया है । यही स्कूटर तेरी बीवी लाई होगी ।”
“तेरे को क्यों पीड़ा हो रही है ।”
“मैं तो खुश हूँ कि तेरे को स्कूटर मिला । मेरा घर रास्ते में ही पड़ता है । तू मेरे को आता-जाता छोड़ दिया कर ।”
“तेरी नौकरी करने का मेरा कोई इरादा... ।”
“ओह !” ड्राइविंग सीट पर बैठे बलवान सिंह ने एक पल के लिए उन दोनों को देखा, जो सड़क किनारे उन पेड़ों के तनों की ओट से रिवॉल्वरें थामे निकल रहे थे । उसे चौंकने का भी वक्त न मिला कि उन दोनों ने गोलियाँ चलानी शुरू कर दी वैन पर । उन दोनों ने अपने चेहरों को रूमाल से ढँक रखा था । गोलियाँ वैन के टायरों पर चलाई गई थी ।
“क्या हुआ ?” उसके कानों में मदनलाल सोढ़ी की तेज आवाज पड़ी ।
“वैन पर गोलियाँ चलाई हैं किसी ने । वैन पर हाथ डालने का प्रोग्राम होगा । लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ता । सब कुछ बुलेट प्रूफ है ।” वैन तेजी से भागी जा रही थी – वो फोन पर कह रहा था – “मैं तो... ।”
बलवान सिंह की आँखें सिकुड़ी ।
“चुप क्यों कर गया ?”
“सामने... ।”
बलवान सिंह की निगाह सामने सड़क पर थी । सामने से कार आ रही थी, जिसने उसकी बगल से गुजर जाना था । परंतु कुछ पहले ही वो एकाएक धीमी हुई और मुड़कर उसकी साइड वाली सड़क पर टेढ़ी खड़ी हो गई । बिलकुल सामने ही थी वो कार । बलवान सिंह समझ गया कि गड़बड़ है ।
उसका दिमाग दौड़ा कि ब्रेक लगाए कि नहीं ?
इतना भी वक्त नहीं था कि वैन को उसके बगल से निकाल ले जाता ।
तभी उसके देखते ही देखते कार का ड्राइविंग डोर खोलकर कोई बाहर निकला और सड़क के किनारे की तरफ दौड़ा । पल भर के लिए उसे लगा कि उसे कहीं देखा है । अगले ही पल उसने ब्रेक पैडल दबा दिया । हाथ में थमा फोन छूटकर नीचे जा गिरा । दोनों हाथ से स्टेयरिंग थाम कर ब्रेक दबा दिया ।
वैन के पहिए सड़क पर घिसटते चले गए । पहियों की तेज आवाज उभरी, रगड़ खाने की । परंतु वैन पहले न रुक सकी ।
‘धड़ाक’
वैन, कार से जा टकराई । टक्कर लगने और हैडलाइट के काँच टूटने की तेज आवाज उभरी । बलवान सिंह को तीव्र झटका लगा । उछला तो उसका सिर वैन की छत से जा टकराया । पेट पर स्टेयरिंग दब गया । जिस कार से वैन टकराई थी, वो पिचककर दब गई थी । टेढ़ी हो गई थी । उसके आगे-पीछे के दो पहिए ऊपर उठ गए थे ।
उसी पल देवराज चौहान और जगमोहन सड़क के किनारे से निकले और वैन के पास आ पहुँचे । दोनों के चेहरों पर शिकारियों जैसे भाव थे । देवराज चौहान ने रिवॉल्वर हाथ में ले रखी थी । वैन को रोक लिया था उन्होंने । टायर का आसानी से निशाना ले सकते थे, अगर वो भागती ।
परंतु आगे कार खड़ी थी । वैन को भागने के लिए मेहनत करनी पड़ती । उसने भीतर देखा तो बलवान सिंह को दोनों हाथों से सिर थामे बैठा पाया । उसी पल उसकी निगाह शीशे पर पड़ी जो कि एक हाथ नीचे हुआ पड़ा था । देवराज चौहान जानता था कि बलवान सिंह संभलने पर सबसे पहले शीशा ही ऊपर करेगा । ये एक अच्छा मौका था उसके सामने ।
देवराज चौहान ने फुर्ती के साथ वैन के फुटबोर्ड पर पाँव रखा और उतरे शीशे के भीतर हाथ डाला कि भीतर लगा डोर लॉक हटा सके । बलवान सिंह को शायद हाथ के भीतर आने की आहट से आभास हुआ । उसने तुरंत सिर घुमाया । सिर पर चोट लगने की वजह से खून की रेखा उसके माथे पर आ रही थी ।
सबसे पहले तो वो देवराज चौहान का चेहरा देखते ही चौंका । पहचान गया कि कल जिन लोगों ने उसके दीपे को उठाया था । ये उन्हीं का साथी है । कल कार चला रहा था । फिर उसका हाथ भीतर आया देखा तो समझ गया कि वो क्या करना चाहता है । बलवान सिंह ने अपनी पीड़ा को भूल कर फुर्ती से हाथ चलाया और शीशा ऊपर चढ़ा दिया ।
बीच में कलाई होने की वजह से शीशा बंद न हो सका । कलाई बीच में फँस गई थी ।
बलवान सिंह ने शीशा बंद करने के लिए जोर लगाया कि कलाई में दर्द हो और वो कलाई बाहर खींच ले ।
उसी क्षण देवराज चौहान ने दूसरे हाथ में दबी रिवॉल्वर की नाल को शीशे में फँसी अपनी कलाई के पास लगा दी । नाल का रुख बलवान सिंह की तरफ था ।
देवराज चौहान अगर ट्रेगर दबाता तो बलवान सिंह के चेहरे के चीथड़े उड़ जाते ।
बलवान सिंह की भय भरी निगाह देवराज चौहान से मिली ।
“शीशा नीचे करो ।” देवराज चौहान मौत भरे स्वर में कह उठा ।
बलवान सिंह के दाँत भिंच गए ।
“मैं गोली चलाने जा रहा हूँ ।” देवराज चौहान के लहजे में दरिंदगी भर आई थी ।
बलवान सिंह समझ चुका था कि गोली चलते ही वो मरेगा । उसे अपनी गलती का अहसास हो चुका था कि उसे शीशा नीचे नहीं करना चाहिए था । जरा सी लापरवाही ने सारे सिक्योरिटी सिस्टम भेद दिए थे ।
कुछ पल बलवान सिंह देवराज चौहान को देखता रहा फिर बोला –
“गोली मत चलाना ।”
“शीशा नीचे कर ।”
“कर रहा हूँ ।”
जगमोहन एक कदम के फासले पर खड़ा बेचैनी से ये सब देख रहा था ।
अगले ही क्षण बलवान सिंह ने शीशा नीचे किया । देवराज चौहान की कलाई को राहत मिली ।
उसी पल बलवान सिंह ने अपने दोनों हाथ देवराज चौहान के हाथ पर जोरों से मारें । अचानक हुआ था ये सब । देवराज चौहान के दोनों हाथ पीछे हुए । वैन के पायदान पर खड़ा था वो । लड़खड़ा गया और संभलने के लिए एक पाँव नीचे सड़क पर रखना पड़ा ।
इतना वक्त बहुत था, बलवान सिंह के लिए । उसने शीशा ऊपर चढ़ा लिया । अब वो पूरी तरह सुरक्षित था ।
बुलेट प्रूफ वैन में अब बाहरी व्यक्ति प्रवेश नहीं कर सकेगा । दाँत भींचे बलवान सिंह ने डोर लॉक के मास्टर स्विच को देखा । वो ऑन था । वैन भीतर से अच्छी तरह लॉक थी । उसके बाद तसल्ली भरी नजरों से उसने बाहर खड़े देवराज चौहान और जगमोहन को देखा ।
देवराज चौहान बेहद शांत नजरों से वैन में बैठे बलवान सिंह को देख रहा था । जबकि जगमोहन दाँत पीस रहा था ।
“ये तो भारी गड़बड़ हो गई ।” जगमोहन दाँत पीसते हुए कह उठा ।
देवराज चौहान, बलवान सिंह को देख रहा था ।
“हम बाजी हार गए । अब वैन पर काबू नहीं पा सकते ।” जगमोहन पुन: कह उठा – “लेकिन वैन के टायर को बेकार कर सकते हैं ।” बेचैनी से कहते हुए जगमोहन ने रिवॉल्वर निकालकर हाथ में ले ली ।
“गोली मत चलाना टायर पर ।” देवराज चौहान की निगाह वैन के भीतर बैठे बलवान सिंह को देखा ।
बलवान सिंह के चेहरे पर विश्वास से भरे भाव थे । एकाएक वो दोनों को देखकर मुस्कराया । उसकी मुस्कान में स्पष्ट तौर पर ये भाव थे कि मुझ पर काबू पाना तुम लोगों के बस का नहीं ।
“मेरा खून जल रहा है इसकी मुस्कान देखकर ।” जगमोहन गुर्राया ।
“वो इस वक्त जीता हुआ है ।” देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा – “बाजी इसके हाथ में है । तभी तो तसल्ली से बैठा हमें देख रहा है । अगर इसे विश्वास न होता इस बात का तो ये वैन लेकर कब का चला गया होता ।”
“अब... काम खत्म ।” जगमोहन के स्वर में बेहद ज्यादा गुस्सा भर आया ।
“एक पत्थर लाओ । बड़ा सा, तरबूज के साइज का ।”
जगमोहन पूछने को हुआ कि क्यों – परंतु चुप सा रह गया । वो तुरंत पास ही सड़क के किनारे की तरफ तेजी से बढ़ा । रिवॉल्वर उसने हाथ में थामी हुई थी ।
बलवान सिंह ने जगमोहन को सड़क के किनारे ढलान पर तेजी से उतरते देखा फिर गरदन घुमाकर देवराज चौहान को देखा । चेहरे पर वो ही विश्वास से भरी मुस्कान थी । फिर वो नीचे झुक गया । चंद पलों तक वो जरा-जरा ही नजर आया । ऐसा लग रहा था जैसे नीचे झुका वो कुछ ढूँढ़ रहा हो । फिर वो सीधा होता दिखा । हाथ में मोबाइल फोन था । जो कि पीछे बैठे गनमैन मदनलाल सोढ़ी से बात करते समय गिर गया था ।
देवराज चौहान की बेहद शांत निगाह, बलवान सिंह पर थी ।
बलवान सिंह ने मुस्कराकर देवराज चौहान को देखा फिर नंबर मिलाने लगा ।
देवराज चौहान की आँखें सिकुड़ी ।
वो या तो बैंक फोन करके यहाँ के हालातों की खबर दे रहा था या पुलिस को फोन कर रहा था ।
या... या फिर पीछे मौजूद गनमैन मदनलाल सोढ़ी को मामला बताने जा रहा था ।
देवराज चौहान उसे देखने के अलावा, कुछ कर नहीं सकता था ।
तभी पास से निकलती कार ने सड़क के हालात देखे तो तुरंत ब्रेक लगाकर रुकी । देवराज चौहान वाली कार टेढ़ी खड़ी, पिचकी पड़ी थी । वैन की हैडलाइट टूटी पड़ी थी । वो भी कुछ हद तक सड़क के किनारे की तरफ घूमी खड़ी थी । हैडलाइट की कांच के टुकड़े सड़क पर बिखरे पड़े थे ।
उस कार को रुकते पाकर देवराज चौहान ने रिवॉल्वर जेब में रखी ।
बलवान सिंह उसे देखता फोन पर बात करने लगा था । कार से दो व्यक्ति निकलकर देवराज चौहान के पास पहुँचे ।
“ठोक दिया ।” एक बोला और कार को ध्यान से देखने लगा ।
“ये ऐसा ही करते हैं ।” दूसरा व्यक्ति कह उठा – “आँखें बंद करके गाड़ी चलाते हैं । दूसरे की जान की तो परवाह ही नहीं करते । बताओ जी पूरी कार को पिचका दिया । चोट तो नेई लगी ?”
“नहीं ।” देवराज चौहान ने उसे देखा ।
“किस्मत वाले हो कि बच गए । दान-पुन किया होएगा । वो काम आ गया । वरना इस वैन वाले ने तो मारने में कमी नहीं छोड़ी थी ।” वो आदमी देवराज चौहान का कंधा थपथपाकर कह उठा ।
तभी जगमोहन दोनों हाथों में तरबूज के साइज का बड़ा सा पत्थर उठाए वहाँ आ पहुँचा ।
“ऐ कौन है ?” देवराज चौहान के पास खड़ा आदमी उसे देखते ही बोला ।
“मेरा साथी है ।” देवराज चौहान शांत स्वर में बोला ।
“ये भी कार विच बैठा सी ?”
“हाँ ।”
“बच गया – बोत बढ़िया किस्मत पाई है ।” उसने हाथों में थामे पत्थर को देखा – “इत्ता बड़ा पत्थर ?”
“वैन वाला भागेगा अब ।” देवराज चौहान बोला ।
बलवान सिंह मोबाइल फोन पर बात कर रहा था । कभी-कभी इधर भी देख लेता था ।
“भागेगा... मैं नेई भागने दूँगा ।” वो आदमी जोश भरे स्वर में कह उठा ।
जगमोहन पास पहुँचा तो देवराज चौहान ने कहा –
“पीछे वाले पहियों में पत्थर अटका दो । वैन बैक न हो सके ।”
अब समझा जगमोहन कि पत्थर क्यों मँगवाया है ?
उसने फुर्ती के साथ पीछे वाले पहिए के साथ पत्थर इस तरह फँसा दिया कि वैन बैक न हो सके । आगे कार पिचकी हुई थी । अब वैन का भाग निकलना आसान न रहा था ।
बलवान सिंह ने पत्थर का मामला देखा तो चौंका । फोन बंद करके जेब में रखा ।
“ये बोत बढ़िया कित्ता ।” वो व्यक्ति बोला– “अब वैन नेई भाग सकेगी । पीछे पत्थर है । आगे कार है । अब देखते हैं कि ये कैसे भागता है । साले को बाहर निकालकर धुन दूँगा । एक बार मेरी नई कार को टैम्पो ने मार दिया था । तब से इन लोगों को देखते ही मेरा दिमाग खराब हो जाता है । जब भी मौका मिलता है, वो टैम्पो वाली खुंदक जरूर निकालता हूँ । आज भी निकालूँगा ।”
तभी बलवान सिंह ने वैन स्टार्ट की ।
“भागने की कोशिश कर रहा है ।” वो व्यक्ति कह उठा ।
पहले वाला व्यक्ति कार को देख रहा था । वैन स्टार्ट होते देखकर वो पास आ पहुँचा ।
“बोत बुरी तरह कार को मारा है ।” वो गहरी साँस लेकर कह उठा – “कुछ भी नेई बचा कार में । ठोकते भी ऐसे हैं कि दोबारा कार सड़क पर चल ही न सके । मेरे को तो नेई लगता कि इस अनाड़ी के पास लायसेंस होगा । अब ये भाग रहा है । बाहर निकालो इसे ।”
“नेई भाग पाएगा । आगे कार है । पीछे पत्थर लगा दिया है ।” उसका साथी व्यक्ति बोला । इसके साथ ही हाथ ही आगे बढ़ाकर उसने ड्राइविंग डोर खोलना चाहा । परंतु नहीं खुल सका ।
“साले ने बंद कर रखा है । पता है कि बाहर निकलेगा तो हम इसके हाथ-पाँव तोड़ देंगे ।” उसका साथी बोला और आगे बढ़कर खिड़की के शीशे पर हाथ मारकर बोला – “ओए, बाहर निकल । भागता कहाँ है ।”
बलवान सिंह ने उन्हें देखा फिर बैक गियर डालकर एक्सीलेटर दबाया ।
इंजन की तेज आवाज उभरी । कार झटके के साथ पीछे हुई, परंतु उस बड़े पत्थर से पहिया अटक गया । टायर सड़क पर कुछ रगड़ा गया । परंतु वैन पीछे न जा सकी ।
उस पत्थर वाले पहिए के पास ही जगमोहन खड़ा था । वैन ने पीछे होने की कोशिश छोड़ी तो जगमोहन ने फुर्ती के साथ पत्थर को पुन: ठीक से पहिए के साथ लगा दिया ।
बलवान सिंह ने पुन: वैन को बैक किया । लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ । इंजन का तेज शोर और पहिया सड़क पर घिसटने का शोर होकर रह गया । वैन के आगे टेढ़ी, पिचकी कार खड़ी थी । ऐसे में वहाँ से तो वैन निकल ही नहीं सकती थी ।
“ओ तेरे को भागने नेई देंगे ।” वो व्यक्ति हाथ नचाकर चिल्लाया – “तूने इनकी कार की ऐसी-तैसी फेर दी । मॉडल भी नया है कार का । आँखें खोल के क्यों नेई चलांदा ।”
बलवान सिंह ने कठोर निगाहों से सबको बारी-बारी घूरा और पुन: बैक गियर डालकर, एक्सीलेटर पैडल पूरा दबा दिया । इंजन का कानों को फाड़ देने वाला शोर हुआ । देर तक वो एक्सीलेटर पैडल दबाए रहा । परंतु तरबूज साइज का वो बड़ा सा पत्थर सड़क पर इस तरह सैट हो गया था कि अपनी जगह से जरा भी न हिल पाया ।
जगमोहन बेचैन हो रहा था । जितना वक्त बीतता जा रहा था, उतना ही वैन में रखा पैसा दूर होता जा रहा था । अभी तो राह चलते ये दो ही रुके हैं । दो-चार वाहन यहाँ से और निकले, वो भी रुके तो तब कुछ नहीं हो सकेगा । वैन यहीं छोड़कर उन्हें निकलना होगा ।
“मेरी मानो तो शीशा तोड़कर ड्राइवर को बाहर निकालकर पिटाई करो । फिर पुलिस बुलाकर... ।”
“शीशा तोड़ने से, पुलिस कहीं हमको न पकड़ ले । यहीं खड़े होकर, इसके बाहर निकलने का इंतजार करते हैं । मैं तो इस पर दो-चार हाथ जमा कर ही जाऊँगा ।” दूसरा बोला – “साले ने नए मॉडल की कार को ठोक दिया । एक बार जब टैम्पो वाले ने मेरी कार को मारा था, तो वो भी नया मॉडल था । मेरे को बोत दुख हुआ था ।”
वैन की कोशिश जारी थी । परंतु वो पीछे वाले टायर के साथ पत्थर सटा होने के कारण बैक नहीं हो पा रही थी । वहाँ से निकलने में कामयाब नहीं हो पा रही थी ।
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