आधी दर्जन पुलसियों द्वारा टोका जाने के बाद कहीं मैंने अपने फ्लैट में कदम रखा ।
वहां भी पुलसिये मक्खियों की तरह भिनभिना रहे थे ।
किसी ने लाश को एक चादर से ढक दिया था जो कि अच्छा ही किया था । मृत मंजुला की सूरत दोबारा देखना शायद मैं बर्दाश्त न कर पाता ।
पलंग पर एक एयरबैग पड़ा था और उस के समीप ही भिन्न-भिन्न मूल्यों के नोटों की गड्डियां अलग-अलग ढेरों में पड़ी थीं । एक गड्डी के ऊपर दो चवन्नियां और एक दस पैसे का सिक्का भी रखे दिखाई दिए ।
मुझे सब-इन्सपेक्टर यादव के हुजूर में पेश किया गया ।
सब-इंस्पेक्टर यादव का पूरा नाम देदेन्द्र कुमार यादव था । वह एक लगभग पैंतीस साल का हट्टा-कट्टा जवान था । मेरे से उसकी ऐसी यारी थी ही नहीं कि वह मुझ देखते ही बगलगीर होकर मुझसे मिलता । अलबत्ता किसी केस में उलझाकर अगर वह मुझे जेल के सीखचों के पीछे बन्द कर पाता तो उसे बहुत खुशी होती । उसके साथ एक ए एस आई मौजूद था जो इतना बूढा था कि हैरानी होती थी कि अभी तक रिटायर नहीं हुआ था । ताजे-ताजे हल चले खेत से ज्यादा लकीरें उसके चेहरे पर थीं और वह अपनी नाक पर इतने मोटे लेंस वाला चश्मा लगाए हुए था कि लगता था कि उसकी तोते जैसी नाक चश्मे के ही वजन से मुड़कर गोल घूम गई थी ।
यादव ने वैसी कहर भरी गिगाह से मुझे देखा जैसी से हर पुलिसिए वाले को अपराध से सम्बंधित हर व्यक्ति को देखने की आदत होती है ।
“शुरू हो जाओ” - अन्त में वह बोला ।
मैं शुरू हो गया ।
मैने उससे कोई भी बात न छुपाई । पहले मेरी मरजी उसके सामने अपना और मंजुला का आखिरी, व्यक्तिगत, वार्तालाप दोहराने की नहीं थी, लेकिन तब मैने उसे वह सब भी कह सुनाया । मैने उससे यह भी छुपाने की कोशिश नहीं की कि मंजुला किस प्रकार की स्त्री थी और मेरा उससे तलाक क्यों हुआ था ।
अन्त में मैंने उसे राय दी कि मंजुला के कर्जन रोड स्थित आवास की पुलिस द्वारा निगरानी अभी फायदेमंद साबित हो सकती थी, क्योंकि मंजुला की तलाश में जैसे राजीव वहां पहुंचा था, वैसे ही डेविड भी पहुंच सकता था ।
“हूं” - मेरे खामोश होने पर यादव ने एक बड़ी गंभीर हुंकार भरी - “यानी कि एक बजे वह माल समेत डेविड से अलग हुई और किसी ऐसी जगह पहुंची जहां से कि कोई उसके पीछे लग गया । उसने ढाई बजे के करीब यहां उसका माल हथियाने की नीयत से उसका खून किया, लेकिन माल हथिया चुकने के बावजूद भी उसे प्लेट में सजाकर यहां तुम्हारी नजर कर गया ।”
“बात चाहे कितनी ही अजीब क्यों न लगती हो” - मैं बोला - “लेकिन मोटे तौर पर तो यही हुआ मालूम होता है । यहां आने के पहले वह किसी के पास गई । उस किसी को उसके पास मौजूद-माल की खबर लग गई, लेकिन वहां उसे माल हथियाना सम्भव न लगा । फिर वह मंजुला के पीछे लगा और यहां पहुंच गया । उस शख्स को माल दूसरे के हाथ में - यानी कि मेरे हाथ में - जाता लगा होगा इसलिए वह माल हथियाने की खातिर खून करने पर उतारु हो गया । मंजुला अपनी कार से उतरकर जब पीछे आन खड़ी हुई उसकी कार की तरफ बढ़ी थी तो वह एयरबैग, जिसमें कि माल था, शायद उसके हाथ में था । उसने मंजुला को चाकू घोंपा और एयरबैग हथिया लिया । मंजुला पर एक वार कर चुकने के बाद हत्यारा आतंकित हो उठा और इसीलिए उस पर दूसरा वार करने की ताव न ला सका । वैसे उसे उम्मीद यही थी कि एक ही वार में मंजुला का काम तमाम हो जाने वाला था । लेकिन वह घायलावस्था में गिरती-पड़ती, लड़खड़ाती, कराहती इस इमारत में दाखिल हो गई । हत्यारा तुरंत उसके पीछे आने का हौसला नहीं जुटा पाया होगा, लेकिन बाद में उसने महसूस किया होगा कि मंजुला इमारत में जिस किसी के पास भी जा रही थी, उसे वह अपने आक्रमणकारी का नाम बताकर मर सकती थी ।”
“फिर ?”
“फिर वह वापिस लौटा । वापिस आकर उसने सावधानी से इमारत का मुआयना किया । मैं दोबारा बाहर निकला था । दूसरी बार मैं यहां से उस कार पर सवार होकर रवाना हुआ था जिस पर, हत्यारा जानता था कि, मंजुला वहां तक पहुंची थी । यही उसको सुझाने के लिए काफी था कि मंजुला मेरे पास आई थी । मेरे वहां से रवाना होने से पहले उसने मुझे लैटर बॉक्स में फ्लैट की चाबी रखते भी जरूर देखा होगा । मेरे फ्लैट से मुख्य द्वार तक खिंची खून की लकीर से वह यह जान सकता था कि मेरा फ्लैट कहां था । उसने लैटर बॉक्स में से चाबी निकाली और मेरे फ्लैट में घुस आया । वहां उसने मंजुला को मरी पड़ी पाया । लेकिन अगर वह बिना किसी की सहायता के वहां तक पहुंच सकती थी तो मरने से पहले वह अपने कत्ल की सारी दास्तान सुना चुकने में भी कामयाब हो चुकी हो सकती थी । तब उसे अपनी सलामती इसी बात में दिखाई दी होगी कि वह लूट का माल मुझ पर थोप दे और बाद में जब कत्ल की मंजुला से सुनी जो कहानी मैं पुलिस को सुनाऊं, उसे पुलिस झूठी और अपनी जान बचाने के लिये मेरे द्वारा गढ़ी हुई करार दे दे । आखिर यह उसकी बात के खिलाफ मेरी बात होती । मैं इस बात का कोई गवाह तो पेश कर नहीं सकता था कि मंजुला ने मरने से पहले अपने हत्यारे के बारे में वाकई कुछ कहा था ।”
“लेकिन तुम्हारे कथनानुसार मंजुला ने तो हत्यारे के बारे में एक शब्द भी नहीं कहा था । इसका मतलब तो यह हुआ कि हत्यारे ने खामखाह ही माल से हाथ लिए ।”
“ठीक । लेकिन जाहिर है कि हत्यारे ने रिस्क लेना मुनासिब नहीं समझा था । उसने तो यही सोचा होगा कि वह मरने से पहले हत्यारे का नाम लेकर मरी थी और मैं उसके मरते ही उसकी कार पर सवार होकर शायद सीधा पुलिस स्टेशन के लिए रवाना हो गया था । यादव, खुद को हत्यारे की जगह रखकर सोचो कि उस वक्त तुम पौने दो लाख रुपए की रकम का मुंह देखते या अपनी सलामती की फिक्र करते ।”
यादव कुछ क्षण सोचता रहा और फिर बोला - “मंजुला के पीछे आकर तुम्हारे कत्ल की भी तो कोशिश कर सकता था ।”
“कर सकता था । लेकिन उसने ऐसा किया नहीं था । इतना हौसलामन्द होता तो मंजुला पर चाकू के दो-तीन और वार करके उसने नीचे सड़क पर ही यह तसल्ली न कर ली होती कि मंजुला के प्राण निकल चुके थे ।”
“ओह !”
“यही बात यह भी साबित करती है कि मंजुला का कत्ल किसी पेशेवर हत्यारे या आदतन हौसलामन्द अपराधी का काम नहीं था । कत्ल जिसने भी किया था, उसका ऐसा भयंकर कदम उठाने का कोई इरादा नहीं था, लेकिन हालात की मांग के आगे हथियार डालकर, वह मंजुला पर वार कर बैठा था और इसीलिए दूसरा वार करने का हौसला वह अपने आप में नहीं जुटा पाया था । जिस्म से एकाएक उफन पड़ते गर्म लाल खून और मौत की वीभत्सता को देखकर बड़े-बड़े सूरमओं के छक्के छूट जाते हैं, यादव साहब ।”
“यह क्यों नहीं हो सकता” - बूढ़ा ए एस आई पहली बार बोला - “कि कत्ल तुम्हीं ने किया हो ?”
“जरा भेजे पर जोर देते” - मैं विषाक्त स्वर में बोला - “तो तुम्हारी समझ में खुद ही आ जाता कि कत्ल मैंने किया क्यों नहीं हो सकता । लेकिन अगर तुम भेजे पर जोर देने के काबिल होते तो इस बुढौती में अभी तक ए एस आई ही न होते ।”
उसके चेहरे पर क्रोध के भाव उभरे । उसने यादव की तरफ देखा, लेकिन वहां से कोई प्रोत्साहन न मिलता पाकर वह खून का घूंट पीकर रह गया । उसकी औकात को शायद यादव भी समझता था ।
“फिर भी एक मिनट के लिये फर्ज कर लो कि कत्ल मैंने किया था । कहां किया होगा कत्ल मैंने ? यहां या नीचे सड़क पर ?”
“नीचे सड़क पर ।” - ए एस आई व्यथित स्वर में बोला ।
“क्यों ?”
“क्योंकि नीचे सड़क पर खून का एक बड़ा ढेर दिखाई दे रहा है और खून की लकीर-सी सड़क के रास्ते यहां लाश तक आती दिखाई दे रही है ।”
“शाबाश । इससे लगता है कि तुम्हें दो का पहाड़ा भी आता होगा । अब मेरी कातिल के रूप में कल्पना करो । मैंने नीचे सड़क पर मंजुला को चाकू मारा और उसका नोटों से भरा एयरबैग छीनकर ऊपर अपने फ्लैट में आ गया और बड़े इतमीनान से यहां आकर उसके रेंगते हुए ऊपर आने की प्रतीक्षा करने लगा ताकि सड़क पर मरने की जगह मेरे फ्लैट में आकर दम तोड़ सके और आश्वस्त हो सके कि उसकी मौत के बाद कोई उसकी लाश चुरा नहीं ले जाने वला था । चलो समझ लो ऐसा ही हुआ । फिर नोटों से भरा एयरबैग मैंने लागरवाही से अपने पलंग के नीचे फेंका और अपने दोस्त मलकानी को कत्ल की खबर दे दी ताकि वह आगे पुलिस को खबर कर सके और मैं खुद अखबार में अपनी करतूत का इश्तिहार देने और अपनी फांसी के प्रोग्राम की दावत का निमंत्रण पत्र छपवाने के लिए यहां से कूच कर गया । ओके ।”
ए एस आई नर्वस भाव से परे देखने लगा ।
“कत्ल तुमने नहीं भी किया” - यादव अपने सहयोगी पुलिसिये की हिमायत में कठोर स्वर में बोला -”तो भी इस हकीकत को नहीं झुठलाया जा सकता कि लाश तुम्हारे फ्लैट में बरामद हुई है, लूट का माल तुम्हारे फ्लैट से बरामद हुआ है, मरने वाली तुम्हारी भूतपूर्व पत्नी थी, पुलिस के आगमन के वक्त तुम घटनास्थल पर मौजूद नहीं थे और अपनी गैरहाजिरी को मुनासिब करार देने के लिये जो कहानी तुम मुझे सुना रहे हो वह घड़ी हुई हो सकती है ।”
“मैने जो मुनासिब समझा किया” - मैं झल्लाकर बोला - “अब अगर तुम मुझे फांसी पर लटका सकते हो तो लटकवा दो ।”
“यही तो नहीं कर सकता” - वह अफसोस भरे स्वर में बोला - ऐसी कोई ऑथोरिटी मुझे होती तो फिर बात ही क्या थी !”
मैंने उत्तर न दिया । मैंने जेब से डनहिल का पैकेट निकला और सिगरेट सुलगा लिया ।
“कृपालसिंह” - यादव अपने बुजुर्ग ए एस आई से सम्बोधित हुआ - “लाश उठवा दो । फिर कर्जन रोड पर स्थित मरने वाली के आवास की निगरानी का इन्तजाम करवाओ और निगरानी के लिए तैनात किये जाने वाले अपने आदमियों को बड़ी बारीकी से डेविड का हुलिया समझा दो । वैसा कोई आदमी कर्जन रोड पर दिखाई दे तो उसे फौरन गिरफ्तार कर लिए जाने का आदेश दो । समझे ?”
“जी हां ।”
“और पता लगवाओ कि क्या हमारे पास डेविड नाम के किसी अपराधी का रिकार्ड है ? अगर है तो उसमें से उसका कोई सम्भावित पता-ठिकाना मालूम करने की कोशिश करो ।”
“पता मैंने तुम्हें बताया तो है” - मैं बीच में बोला ।
मैंने फिर पहाड़गंज के उस होटल का पता दोहरा दिया जो राजीव ने मुझे बताया था ।
“होटल का पता स्थायी नहीं हो सकता । उसका स्थायी पता जरूर कोई और होगा ।”
मैं खामोश हो गया ।
“बहरहाल” - यादव फिर कृपालसिंह से सम्बोधित हुआ - “इस होटल को भी चैक करवाओ । शायद वहां डेविड का कोई और पता जानता हो । होटल्स के रूल्स के मुताबिक उसका कोई पता उनके रजिस्टर में भी लिखा होना चाहिए । वह भी मालूम करो कि क्या पता है ?”
“बेहतर ।” - कृपालसिंह बोला ।
“और अगर वह कोई ऊटपटांग किस्म का होटल निकले तो उसके मालिक पर भी दबाव डाला जा सकता है ।”
“मैं ध्यान रखूंगा ।”
“पानीपत पुलिस को फोन करके डेविड के फ्रांसिस नाम के उस चचेरे भाई की गिरफ्तारी का इंतजाम करवाओ जो कि डकैती में इन लोगों का मददगार था ।”
“बहुत अच्छा ।”
“और यहां से बरामद लूट के माल को मालखाने में जमा कराओ ।”
“अच्छा, जी ।”
यादव को आगे न बोलता पाकर वह वहां से बाहर निकल गया ।
“मैं एक सवाल पूछ सकता हूं ?” - मैं बोला ।
“पूछो” - यादव बड़ी दयानतदारी से बोला ।
“मलकानी कहां है ?”
“सामने मार्केट में कहीं होगा । किसी चाय वाले की तलाश में गया था वह । तुम्हारे आने से दो मिनट पहले तक तो यहीं था ।”
“ओह !”
“मकतूल के सगे वालों में उसकी मां और बहन के अलावा और कोई नहीं ?”
“नहीं !”
“ओह ।”
“अब सीरियसली बताओ, यादव । केस के बारे में तुम्हारा क्या ख्याल है ?”
“वही जो तुम्हारा है । डेविड से जुदा होने के बाद और यहां पहुंचने से पहले वह जरूर कहीं गई थी जहां से कि हत्यारा उसके पीछे लग गया था । अब हमें उन तमाम लोगों के बारे में जानकारी हासिल करनी है, ऐसी घड़ी में वह जिसके पास जा सकती थी । इस सन्दर्भ में मुझे उसकी मां और बहन से बात करनी होगी ।”
“वह तुम जरूर करना लेकिन इस सन्दर्भ में कोई बेहतर जानकारी तुम्हें मंजुला के साथ रहती लड़की सोनिया तलवार से हासिल हो सकती है ।”
“मैं उससे बात करूंगा लेकिन जैसा चरित्र तुम अपनी भूतपूर्व बीवी का बताते हो उसके लिहाज से तो ऐसे लोग दर्जनों हो सकते हैं जिनके पास संकट की घड़ी में मंजुला जा सकती थी ।”
मैंने बड़े अवसादपूर्ण ढंग से सहमति में सिर हिलाया ।
“यह सोनिया तलवार इस वक्त कहां है ?”
मैंने उसे हेली रोड की उस इमारत का पता बता दिया जहां कि मैं सोनिया को छोड़कर आया था ।
“वहां टेलीफोन है ?” - उसने पूछा ।
“मालूम नहीं ।”
“डायरेक्ट्री इनक्वायरी से मालूम करो ।”
मैं टेलीफोन की तरफ बढ़ा ।
तभी एकाएक टेलीफोन की घन्टी बज उठी ।
“मुझे सुनने दो” - यादव बोला । वह मुझे एक ओर धकेलकर टेलीफोन के पास पहुंचा । उसने एक झटके से रिसीवर को क्रेडिल से अलग किया और उसे कान से लगा लिया - “हैडक्वार्टर से कॉल होगी ।”
फिर वह माउथपीस में बोला - “हल्लो ! सब-इंस्पेक्टर यादव स्पीकिंग ।”
तभी उसके चेहरे पर वितृष्णा के भाव आए ।
वह कुछ क्षण रिसीवर हाथ में थामे रहा और फिर उसे क्रेडिल पर पटकता हुआ बोला - “हैडक्वार्टर से कॉल नहीं थी । किसी ने मेरा नाम सुना और फिर लाइन काट दी ।”
हेली रोड पर सोनिया की सहेली के घर टेलीफोन था ।
सोनिया ने बताया कि वैसे तो मंजुला नित-नए मर्द के साथ दिखाई देती थी, लेकिन ऐसे तीन ही जने थे जिनके साथ उसका मिलना-जुलना नियमित रूप से होता था । उनमें से एक विशाल दत्त नाम का लेखक था जो गोल मार्केट में डी डी ए के एक फ्लैट में रहता था । दूसरा अचरेकर नाम का एक फोटोग्राफर था जो झंडेवालान में रहता था और तीसरा सैमुअल नाम का एक म्यूजीशियन था जो करोलबाग में रहता था ।
उसने तीनों के पते भी लिखवा दिए ।
मैने सम्बन्ध-विच्छेद कर दिया और हासिल जानकारी यादव को रिले कर दी ।
“हूं” - यादव बोला - “एक लेखक, एक फोटोग्राफर और एक म्यूजीशियन । तीनों पुरुष । औरत कोई भी नहीं । सहेलियों में रस नहीं था तुम्हारी भूतपूर्व था पत्नी का ।”
मैंने उत्तर नहीं दिया ।
“तुम कहते हो सोनिया दस बजे घर लौटी थी । उसके बाद तुम्हें फोन करने तक वह घर में ही रही थी ।”
“हे भगवान !” - मैं हैरान हुए बिना न रह सका - “तुम उस पर भी कत्ल का शक नहीं कर रहे हो ?”
“मैंने सिर्फ एक सवाल पूछा है” - वह बड़ी मासूमियत से बोला ।
“लेकिन बेमानी सवाल पूछा है ।”
“पुलिस द्वारा पूछे गए नब्बे प्रतिशत सवाल लोगों को बेमानी लगते हैं, लेकिन नतीजा उन्हें में से निकलता है ।”
“इस बार नहीं निकलने वाला ।”
“न सही । बयान तो बहरहाल मुझे फिर भी लेना पड़ेगा उस लड़की का ।”
मैं खामोश रहा ।
“काली एम्बैसडर कहां है ?” - उसने पूछा ।
“नीचे सड़क पर खड़ी है ।”
“चाबियां ?”
मैंने चाबियां उसे सौंप दी ।
“अब तुम मेरे साथ चलो ।”
“कहां ?”
“सबसे पहले कर्जन रोड । मंजुला के फ्लैट पर । वहां मैं उसका व्यक्तिगत सामान टटोलना चाहता हूं । उससे हमें कोई कारआमद क्लू हासिल हो सकता है । उसके बाद जिन तीन आदमियों के नाम सोनिया ने बताए हैं उन्हें भी मैं तुम्हारी मौजूदगी में चैक करना चाहता हूं ।”
“वह किसलिए ?”
“क्योंकि तुम मकतूल के पति हो ।”
“था ।”
“था ही सही । हो सकता है उन तीनों में से किसी को नाम से न सही लेकिन शक्ल से तुम पहचानते होओ ।”
“कब चलना होगा ?”
“अभी ।”
“लेकिन मैं सारी रात का जागा हुआ हूं ।”
“हुज्जत मत करो ।”
“और मेरा सिर भी बुरी तरह दुख रहा है ।”
“कहा न? हुज्जत न करो ।”
“अच्छा मेरे बाप !”
तभी कृपालसिंह वापिस लौटा ।
“लाश-उठवाने के लिए गाड़ी आ गई है” - उसने बताया ।
“ठीक है” - यादव बोला - “एकाध काम मैं और तुम्हारे सुपुर्द कर रहा हूं ।”
“फरमाइये ।”
“ये चाबियां सम्भालो । ये नीचे खड़ी काली एम्बैसडर की हैं । मालूम करो कि क्या वाकई पहाड़गंज थाने में इसकी चोरी की रिपोर्ट दर्ज कराई गई थी और इसके मालिक किरण कुमार का बयान भी लो । कोहली, किरण कुमार का पता बोलो ।”
मैंने बोला ।
“पता सुना तुमने ?” - यादव कृपालासिंह से बोला ।
“मैंने नोट कर लिया है, जी” - कृपालसिंह बोला ।
“अड़ोस-पड़ोस से पूछताछ का कोई नतीजा निकला ?”
“अभी नहीं । लेकिन पूछताछ जारी है ।”
“ठीक है । जाओ ।”
वह चला गया ।
“अड़ोस-पड़ोस से क्या पूछताछ हो रही है ?” - मैंने पूछा ।
“सरीन” - वह बोला - “शायद कत्ल के समय के आस-पास आस-पड़ोस में किसी को नींद न आ रही हो और उसने नीचे गली में कुछ देखा हो । और कुछ नहीं तो शायद इतना ही देखा हो कि हत्यारा किस प्रकार की कार पर यहां पहुंचा था । ये काम बड़ी मेहनत और सब्र के साथ किए जाने वाले होते हैं, लेकिन कई बार इनसे बड़े कारआमद नतीजे निकलते हैं ।”
“आई सी ।”
तभी मलकानी वहां पहुंचा ।
“तुम अपने यार से बातें करो” - यादव बोला - “मैं आता हूं ।”
वह बाहर निकल गया ।
“क्या हुआ ?” - मलकानी ने पूछा ।
मैंने मोटे तौर पर उसे सब-कुछ बताया ।
“जिस रेस्टोरेन्ट पर मैं चाय पीने गया था” - मलकानी बोला - “वहां आज का अखबार पहुंच चुका था । उसमें पानीपत की डकैती की खबर छपी देखी है मैंने ।”
“आई सी ।”
“बताओ तो । एक सभ्रांत परिवार की पढी-लिखी समझदार लड़की और डकैती की संगिनी ।”
“एडवेन्चर की मारी ।”
“अब मेरे लिए क्या हुक्म है ?”
“कुछ नहीं, तुम चले जाओ ।”
“ठीक है । लकिन दोबारा मेरी किसी तरह की मदद की जरूरत पड़े तो बेहिचक फोन करना ।”
“बेहतर ।”
वह मुझसे हाथ मिलाकर वहां से विदा हो गया ।
पांच मिनट बाद यादव आया ।
“चलो” - वह बोला ।
मैं उसके साथ हो लिया ।
बाहर से लाश उठवाई जा चुकी थी लेकिन वहां पुलसिए अभी भी मौजूद थे ।
सीढ़ियों के रास्ते हम दोनों नीचे पहुंचे और एक जीप की तरफ बढे ।
मेरे अड़ोसी-पडोसी यूं मुझे देख रहे थे जैसे जरूर मैं वहां से गिरफ्तार करके ले जाया जा रहा था ।
“इसकी वीवी थी मरने वाली” - कोई भीड़ में से बोला ।
“फिर तो जरूर इसी ने कत्ल किया होगा” - कोई और बोला - आजकल बीवियों की बहुत शामत आई हुई है । ये लोग एक-दो साल बीवी के मजे लूटते हैं और फिर जब बोर हो जाते हैं तो कभी मिट्टी का तेल डालकर बीवी को फूंक देते हैं तो कभी किसी से कत्ल करवा देते हैं तो कभी खुद कत्ल कर देते हैं ।”
“क्या जमाना आ गया है ?”
“देख लेना, फासी पर लटकेगा ये । ये लोग तभी तक शेर होते हैं जब तक पकड़े नहीं जाते । अब याद आ रहा होगा आटे-दाल का भाव ।
मेरा जी चाहने लगा कि मैं भीड़ में घुस जाऊं और हर उस आदमी को पकड़कर मारूं जो इस प्रकार की बकवास कर रहा था ।
मैंने बड़ी मुश्किल से अपने आप पर जब्त किया और यादव के साथ एक जीप पर सवार हो गया ।
दिल्ली शहर ही ऐसा था । यहां कोई किसी की पर्सनल ट्रेजेडी से तो मूव होता नहीं था, अलबत्ता वह हर किसी के मनोरंजन और नुक्ताचीनी का मसला जरूर बन जाता था ।
यादव एक जीप की ड्राईविंग सीट पर बैठा था । हमारे साथ और कोई पुलिसिया नहीं था । यादव ने बताया कि आदमियों का तोड़ा था ।
उसने बड़ी दक्षता से जीप आगे बढ़ाई ।
सबसे पहले हम हेली रोड पहुंचे ।
वहां से मैंने सोनिया तलवार से उसके फ्लैट की चाबी हासिल की और फिर हम कर्जन रोड की तरफ बढ़े ।
“तुम्हारा ख्याल है” - यादव बोला - “कि डेविड यहां आएगा ?”
“मुझ पर आक्रमण करने के बाद राजेन्द्र नगर से भागे हुए उसे तीन घण्टे हो चुके हैं” - मैं बोला - “क्या पता वह यहां से आकर जा भी चुका हो ।”
“अगर वह एक बार आया था, तो फिर आएगा । जब तक फ्लैट बन्द है, तब तक तो उसे मंजुला के यहां आने की उम्मीद होगी ही ।”
“हां ।”
“वैसे अब तक मेरे आदमी यहां पहुंच चुके होंगे और वे भी डेविड की ताक में होंगे । उसके हद से ज्यादा खूबसूरत थोबड़े की वजह से उसे पहचानना आसान है । देख लेना, मेरे आदमियों की मौजूदगी में इस इलाके में कदम रखते ही गिरफ्तार कर लिया जाएगा ।”
“वैरी गुड ।”
“जब तक उसे यह मालूम नहीं हो जाता कि मंजुला को कत्ल हो चुका है, तब तक तो वह यहां के चक्कर लगाने से बाज नहीं आने वाला ।”
“और मंजुला के कत्ल की खबर उसे अखबार पढे बिना नहीं लगने वाली । और अखबार भी पता नहीं वह पढ़ता होगा या नहीं ।”
“यानी कि बहुत वक्त है ।”
उस वक्त जीप कर्जन रोड पर दौड़ रही थी ।
“हमारे आदमी यहीं कहीं होंगे” - यादव बोला ।
मैं उसकी बगल में खामोश बैठा रहा ।
मंजुला के फ्लैट वाली इमारत के करीब एक स्थान पर एकाएक यादव ने जीप रोकी ।
एक आदमी, जो कि सादे कपड़े पहने था, टहलता हुआ सा जीप की तरफ बढा । जीप के यादव वाले पहलू में पहुंचकर उसने यादव को सैल्यूट मारा ।
“क्या खबर है ?” - यादव बोला ।
“एक दोरंगी फियेट दो बार यहां से गुजर चुकी है ।” - वह आदमी बोला - “हमें ड्राइवर की एक झलक ही मिली है, लेकिन हमारे ख्याल से वह आदमी डेविड हो सकता है । आप एकदम ठीक मौके पर आए हैं । वह दो ब्लाक का चक्कर काटकर अभी फिर यहां आएगा और उस इमारत के सामने से गुजरेगा जिसका पता हमें बताया गया था ।”
“तुम्हारी गाड़ी कहां है ?”
“हमने छुपाकर खड़ी की है ।”
“क्यो ?”
“क्योंकि उसके पहलू पर पुलिस लिखा है । पुलिस की गाड़ी देखकर वह बिदक सकता है ।”
“अब गाड़ी निकालकर लाओ । जब दोरंगी फियेट दिखाई दे तो इस बार अपनी गाड़ी उसके रास्ते में अड़ा देना ।”
“बेहतर ।”
“कोई सशस्त्र आदमी भी है तुम्हारे साथ ?”
“मैं हूं” - वह बोला और उसने अपनी एक जेब थपथपाई ।
“गुड” - यादव ने सन्तुष्टिपूर्ण भाव से सिर हिलाया - “अब जाओ ।”
वह जीप के पहलू से हटा और एक तरफ भागा ।
“वह जरूर डेविड ही होगा” - मैं तनिक उत्तेजित स्वर में बोला - “राजीव ने मुझे वताया था कि उसके अधिकार में जो कार थी, वह एक दोरंगी फियेट थी....यादव, वह दोरंगी फियेट आ रही है ।”
यादव ने एक उड़ती निगाह उधर बढ़ती फियेट पर डाली और फिर उसके होंठ भिंच गए । उसने जीप को फिर से स्टार्ट किया और उसे गियर में डाल दिया ।
जीप बहुत धीमी रफ्तार से आगे सरकने लगी । यादव रियर-व्यू मिरर में से दोरंगी फियेट पर निगाह जमाए था ।
“वही है” - फियेट और करीब आ गई तो मैं एकाएक बोला ।
यादव ने सहमति में सिर हिला दिया । उसने अपनी जीप को सड़क पर थोड़ा तिरछा किया ।
दोरंगी फियेट एकदम करीब पहुंच गई तो एकाएक उसने एक्सीलेटर का पैडल दबाया और जीप को फियेट के रास्ते में लाकर पूरी शक्ति से ब्रेक लगाई । जीप दीवार की तरह फियेट के रास्ते में जम गई ।
तभी फियेट के पीछे एक एम्बैसडर प्रकट हुई । मैंने देखा उसको वह आदमी ड्राइव कर रहा था जो अभी-अभी यादव से बात करके गया था । उसके स्टियरिंग पर मौजूद दोनों हाथों में से एक में मुझे एक रिवॉल्वर दिखाई दी ।
एकाएक वातावरण ब्रेकों की चरमराहट से गूंज गया ।
दोरंगी फिएट जीप से कठिनाई से एक फुट दूर आकर खड़ी हुई ।
यादव जीप से बाहर कूदा ।
वह फियेट के ड्राइविंग सीट वाले दरवाजे के पास पहुंचा ।
“क्या है ?” - डेविड ने पूछा ।
“पुलिस” - यादव बोला - “तुम गिरफतार हो । बाहर निकलो ।”
पीछे पुलिस की एम्बैसडर आ खड़ी हुई थी ।
एकाएक डेविड ने फिएट को रिवर्स गियर में डाल दिया ।
यादव के हाथ से दरवाजे का हैंडल छूट गया और वह सड़क पर गिरते-गिरते बचा ।
फियेट तेजी से पीछे को लपकी ओर भड़ाक से एम्बैसडर के अग्र भाग से टकराई ।
कोई जोर से चिल्लाया ।
साथ ही एम्बैसडर से फायर हुआ ।
फियेट की पिछली खिड़की के परखच्चे उड़ गए लेकिन वह रुकी नहीं । वह आगे को लपकी । डेविड ने स्टीयरिंग को तेजी से बाईं तरफ काटा । फियेट जीप के पिछले भाग को ठोकर मारती हुई उसकी बगल से गुजरी और डेविड के कन्ट्रोल से बाहर होकर फुटपाथ पर चढ़ गई ।
जीप उलटते-उलटते बची ।
मैं उसमें से बाहर गिरते-गिरते बचा ।
फियेट सामने बस-स्टॉप के सायबान की तरफ यूं लपकी जैसे उसे रौंदती हुई गुजर जाना चाहती हो ।
दो फायर और हुए ।
दोनों गोलियां फियेट की बाडी में कहीं टकराई ।
फियेट बुरी तरह डगमगाई, बस-स्टाप के सायबान के ऐन सिर पर पहुंचकर वह ऐंगल काट गई । वह कुछ क्षण आधी आधी फुटपाथ पर और आधी सड़क पर दौड़ी और फिर जीप से आगे पहुंचकर फुटपाथ पर से उतरी और फिर पूरी सड़क पर आ गई ।
यादव लपककर जीप में सवार हुआ ।
उसने जीप को आगे बढाया ।
अब फियेट और एम्बैसडर के बीच में जीप थी, इसखिए एम्बैसडर की ओर से और गोली न चली ।
फियेट तूफानी रफतार से सड़क पर भाग रही थी ।
यादव ने भी जीप उसके पीछे दौड़ाई ।
एम्बैसडर जीप के पहलू में प्रकट हुई ।
दोनों गाड़ियां पूरी रफ्तार से फियेट के पीछे दौड़ी । सामने से आते ट्रैफिक की वजह से पुलिस का कोई गाड़ी फियेट को ओवरटेक नहीं कर पा रही थी और न ही अब गोली चला पाना सम्भव था ।
फियेट कनाट प्लेस की तरफ बढ रही थी ।
तभी आगे चौराहे पर बत्ती लाल हो गई ।
डेविड को फियेट रोकने की कोशिश न करता पाकर यादव ने भी जीप आगे दौड़ा दी । फियेट लाल बत्ती पार करके ज्योंही बाएं घूमने लगी, यादव की जीप और एम्बैसडर उनसे आगे निकली और फियेट का बाई ओर का रास्ता ब्लाक हो गया । दाई ओर बत्ती हरी होने की वजह से मोटर ट्रैफिक सैलाब की तरह उधर से आगे बढ रहा था । डेविड ने जीप से टकराने से बचने के लिए स्टीयरिंग दायें काटा, लेकिन उधर से एक अलमस्त हाथी की तरह दिल्ली परिवहन की एक बस उसकी तरफ लपकी चली आ रही थी । नतीजा यह हुआ कि फियेट डेविड के कन्ट्रोल से निकल गई । वह पहले सामने फुटपाथ पर चढी, फिर दो खम्बों के बीच में से होती हुई कनाट प्लेस के बरामदे में घुसी और फिर एक शोरूम की शीशे की खिड़कियां तोड़ती हुई उसके भीतर दाखिल हो गई । दूरी फियेट शो रूम के भीतर दाखिल हो जाने के बाद कहीं जाकर रुकी ।
चारों तरफ शोर मच गया ।
जीप और एम्बैसडर एक किनारे होकर रुकी और पुलसिये शोरूम की तरफ लपके ।
मैं भी उनके पीछे भागा ।
सब बगोले की तरह शोरूम में दाखिल हो गए ।
शोरूम लैम्प शेड्स का था । उसमें तबाही मच गई थी, खुद फियेट का भुरता बना हुआ था । वह एक टीन के डिब्बे की तरह पिचकी हुई शोरूम के बीचों-बीच खड़ी थी । डेविड स्टियरिंग पर सिर डाले पड़ा था और पता नहीं जिन्दा था कि मर गया था ।
शोरूम का स्टॉफ बड़े अविश्वासपूर्ण नेत्रों से शोरूम के बीचों-बीच खड़ी फियेट को यूं देख रहा था जैसे वह आसमान से टपकी थी या जमीन फाड़कर निकली थी ।
शोरूम का मालिक पागलों की तरह अपने बाल नोंच रहा था ।
बड़ी मुश्किल से फियेट की ड्राइविंग सीट की तरफ का दरवाजा खोला गया और डेविड को बाहर निकला गया । वह मरा नहीं था लेकिन उसका भी कार की तरह भुरता ही बना हुआ था । उसका चेहरा बुरी तरह से कट गया था और सारा शरीर लहूलुहान दिखाई दे रहा था ।
“एम्बुलेंस” - यादव बोला - “एम्बुलेंस बुलाओ ।”
एक पुलिसिया कोने में मौजूद टेलीफोन की तरफ लपका ।
डेविड को एक कुर्सी पर ढेर कर दिया गया ।
बाहर कोहराम मचा हुआ था और वहां तेजी से भीड़ जमा होने लगी थी ।
सड़क पर ट्रैफिक जाम जैसी हालत बनती जा रही थी ।
“मेरे शोरूम का क्या होगा ?” - शोरूम का मालिक कलपता हुआ दुहाई दे रहा था ।
किसी के पास उसके सवाल का जवाब नहीं था ।
डेविड बुरी तरह से घायल था, इसीलिए हर कोई जब्त किए बैठा था । वह तंदरुस्त होता तो जरूर अभी तक लोगों ने मार-मारकर उसका कचूमर निकाल दिया होता ।
“एक गीला कपड़ा लाओ” - यादव बोला ।
कोई एक तौलिया गीला करके ले आया ।
यादव खुद उससे डेविड के चेहरे पर बहता खून पोंछने लगा ।
कोई उसके कपड़ों पर से शीशे के टुकड़े झाड़ने लगा ।
डेविड की सांस फंस-फंसकर चल रही थी और रह-रहकर उसकी आंखें उलट जाती थी । पीड़ा से उसका चेहरा विकृत हो उठता था और उसका शरीर ऐंठ-ऐंठ जाता था ।
“तौबा !” - यादव के मुंह से बार-बार निकल रहा था ।
उस क्षण मुझे उससे और पुलिस की नौकरी करने वाले हर शख्स के साथ बड़ी हमदर्दी हुई ।
फिर यादव ने उसकी तलाशी लेनी आरम्भ की ।
उसने उसकी जेब से एक पर्स बरामद किया ।
“मेरा है” - मैं जल्दी से बोला ।
उसने पर्स खोलकर एक नजर उसके भीतर झांका और फिर पर्स मुझे सौंप दिया ।
मैंने देखा पर्स की हर चीज सही-सलामत थी ।
फिर यादव ने डेविड की जेब से एक रिवॉल्वर निकाली ।
“मेरी है” - मैं फिर बोला ।
यादव ने रिवॉल्वर का चेम्बर चैक किया, उसकी नाल को सूंघा और फिर रिवॉल्वर को अपनी जेब में रख लिया ।
“मैंने कहा है” - मैं तनिक विरोधपूर्ण स्वर में बोला - “रिवॉल्वर मेरी है ।”
“मिल जाती तुम्हें ।” - यादव लापरवाही से बोला ।
“यह क्या हाल ही में चलाई गई है ?”
“नहीं ।”
“तो फिर....”
“कहा न, मिल जाएगी रिवॉल्वर ।”
मैं खामोश हो गया ।
शायद मुझे रिवॉल्वर को अपनी मिल्कियत साबित करने के लिए कहा जाने वाला था ।
तभी बाहर फलाइंग स्कवायड का सायरन गूंज उठा ।
फिर स्ट्रेचर लिए दो आर्डरली शोरूम में घुस आए ।
डेविड को स्ट्रेचर पर लिटा दिया गया । तुरंत उसे वहां से बाहर ले जाया गया और एम्बूलेंस में लाद दिया गया ।
यादव ने एम्बैसडर वाले पुलिसियों में से दो को एम्बुलेंस के साथ जाने का आदेश दिया और कहा -”जब यह होश में आ जाए और बोलने के काबिल हो जाए तो मुझे खबर करना ।”
दोनों ने सहमति में सिर हिलाया और वहां से चले गए ।
बाहर “क्या हुआ-क्या हुआ” का शोर मचा हुआ था ।
“किसी ने शोरूम का कैश लूटने की कोशिश की थी” - किसी ने अपनी राय प्रकट की - “पुलिस वालों ने बेचारे को गोली मार दी ।”
“हाय-हाय !”
“निर्दयी !”
“हमारी पुलिस को तो मौका चाहिए किसी का खून बहाने का ।”
“पता नहीं बेचारे की क्या मजबूरी थी जो उसने डाका डाला था ।”
“जरूर भूखा होगा ।”
“अरे, भूखा होता तो किसी होटल पर डाका डालता ।”
“मेरे शोरूम का क्या होगा !”
आखिरी फिकरा बड़ी दर्दनाक फरियाद की सूरत में शोरूम के मालिक के मुंह से निकला था ।
“मुझे नहीं पता क्या होगा” - यादव झुंझलाए स्वर में बोला - “आप फिलहाल खामोश रहिए ।”
“कमाल है” - मालिक ने आर्तनाद किया - “पहले तो आपने मेरे शोरूम का सत्यानाश मार दिया और अब..”
“हमने नहीं मारा ।”
“और किसने मारा है ? आप लोग उस आदमी के पीछे न पड़े होते तो क्या वह यूं अन्धाधुंध कार चलाता.....”
“आप भगवान के लिए फिलहाल चुप कर जाइए ।”
मालिक खामोश हो गया ।
“क्रेन मंगवाओ” - यादव अपने एक अन्य मातहत से बोला - “और कार को यहां से बाहर निकलवाने का इन्तजाम करो ।”
“जी, जनाब ।”
“आओ” - यादव मुझसे बोला ।
हम दोनों शोरूम से बाहर निकले ।
बाहर आते ही लोगों ने हमारी तरफ “क्या हुआ क्या हुआ” की बौछार दाग दी ।
यादव किसी की परवाह किये बिना भीड़ में से रास्ता बनाता हुआ आगे बढ़ा और समीप ही मौजूद एक रेस्टोरेंट में घुस गया ।
मैं उसके पीछे लपका ।
रेस्टोरेन्ट में वह धम्म से एक कुर्सी पर बैठ गया । उसने अपने दोनों हाथों में अपना माथा थाम लिया ।
मैं धीरे से उसके सामने बैठ गया ।
वेटर आया तो मैंने उसे कॉफी का आर्डर दे दिया ।
मैंने एक सिगरेट सुलगा लिया और खामोशी से यादव के सामने बैठा रहा ।
वेटर कॉफी ले आया तो यादव ने सिर उठाया ।
“यार, क्या थी तुम्हारी बीवी” - वह वितृष्णापूर्ण स्वर में बोला - “मरकर उसने इतना कोहराम मचाया हुआ है, अपनी जिंदगी में तो पता नहीं क्या हंगामे खड़ी करती होगी वो ।”
“कॉफी पियो” - मैं बड़ी सादगी से बोला ।
उसने कॉफी में चीनी डाली और बड़ी बेचैनी से उसे चम्मच से हिलाया ।
“टाइम क्या हुआ है ?” - वह बोला ।
“पौने नौ” - मैंने अपनी कलाई पर बंधी घड़ी पर निगाह डालकर कर जवाब दिया ।
“और ढाई बजे तुम्हारी बीवी का कत्ल हुआ था ।”
“तुम बार-बार मेरी बीवी मेरी बीवी क्या करते हो ? वह मेरी बीवी नहीं थी ।”
“कभी तो थी ।”
“तो फिर क्या हुआ ? मरते वक्त वह मेरी कुछ नहीं थी ।”
“फिर भी वह तुम्हारे पास आई थी ।”
“इसे मेरी बदकिस्मती समझ लो, भाई । वैसे ही जैसे उससे शादी होना मेरी बदकिस्मती थी ।”
“ढाई बजे तुम्हारी बी...मंजुला का कत्ल हुआ था ।”
“तकरीबन ।”
“यानी कि तकरीबन सवा छ: घण्टे हो चुके हैं मंजुला का कत्ल हुए । इन सवा छ: घंटे की मुसलसल भाग-दौड़ के बाद हमारे हाथ क्या आया है ? कुछ भी नहीं आया है हमारे हाथ ।”
“कॉफी पियो ।”
वह खामोशी सें कॉफी पीने लगा ।
***
हम कर्जन रोड वापस लौटे ।
मैंने चाबी लगाकर फ्लैट का मुख्य द्वार खोला और हम लोग भीतर दाखिल हुए ।
यादव बड़ी बेचैनी से फ्लैट की तलाशी लेने लगा ।
पूरा एक घण्टा वह वहां की हर चीज को जांचता-परखता रहा ।
उसकी साइड किक के तौर पर जिस चीज में उसकी दिलचस्पी खत्म हो जाती थी, उसे मैं देखने लगता था ।
नतीजा सिफर निकला ।
कोई ऐसी जानकारी वहां से हाथ न लग सकी जो तफ्तीश को आगे बढ़ाने में सहायक सिद्ध हो सकती, हालांकि हमने नमक मिर्च, मसालों के डिब्बों तक में झांकने की कसर नहीं छोड़ी थी ।
एक दराज में से मंजुला की दस गुणा बारह इंच के आकार की बहुत ही शानदार खिंची हुई तस्वीरें बरामद हुई, जिनके पीछे फोटोग्राफर के तौर पर अचरेकर के नाम की मोहर लगी हुई थी । उसी दराज में से एक उपन्यास बरामद हुआ जिसका नाम “मेरी मौत के बाद” था और जिसके लेखक का नाम विशालदत्त था । उपन्यास के पहले पृष्ठ पर लेखक के हस्ताक्षरों के साथ लिखा था - मंजुला को सप्रेम भेंट । वार्डरोब से तीन रिकार्ड बरामद हुए जिनकी जैकेट पर कलाकार की तस्वीर के साथ छपा हुआ था - हिट म्यूजिक आन इलैक्ट्रिक गिटार बाई सैमुअल जोन्स । हर जैकेट पर लिखा था - “टु मंजुला डार्लिग विद लव और नीचे सेमुअल जोन्स के हस्ताक्षर थे ।
टेलीफोन के पास जेम्स क्लैवल के नवीनतम उपन्यास “नोबल हाउस” की एक प्रति पड़ी थी । उसके प्रथम पृष्ठ पर मंजुला के हस्ताक्षर थे और उसी पृष्ठ पर एक टेलीफोन नम्बर लिखा हुआ था । उपन्यास क्योंकि ताजा था इसलिए वह टेलीफोन नम्बर भी पुराना लिखा नहीं हो सकता था ।
मैंने उस नम्बर पर फोन किया ।
“हेल्लो” - दूसरी और से आवाज आई - “निगम बोध घाट ।”
यादव ने प्रश्नसूचक नेत्रों से मेरी तरफ देखा ।
मैंने रिसीवर उसे थमा दिया ।
“हल्लो” - यादव माउथपीस में बोला ।
दूसरी ओर से उत्तर मिलते ही यादव ने रिसीवर धीरे से वापस रख दिया और हंसा ।
मैं भी फीकी-सी हंसी हंसा ।
पता नहीं क्यों मंजुला ने उस पुस्तक पर श्मशान घाट का नम्बर लिखा हुआ था ।
“अब क्या इरादा है ?” - मैंने पूछा ।
“यहां से तो कुछ हाथ आया नहीं” - यादव थके स्वर में बोला - “अब चलते हैं मंजुला के इन तीनों विशेष चाहने वालों को चैक करने ।”
“पहले कहां चले ?”
“यहां से सबसे करीब गोल मार्किट है, इसलिए पहले लेखक के पास ही चलते हैं ।”
मैंने सहमति में सिर हिलाया ।
हम फ्लैट से बाहर निकले । फ्लैट को ताला लगाकर हम नीचे पहुंचे ।
सबसे पहले हम वापस हेली रोड गए ।
मैंने सोनिया को उसके फ्लैट की चाबी दे दी । मैंने उसे बताया कि दूसरा बदमाश डेविड भी गिरफ्तार हो गया था, इसलिए अब उसे कोई खतरा नहीं था, अब वह ठाठ से वापस अपने फ्लैट में जा सकती थी ।
दस बजे के करीब हम लोग गोल मार्किट पहुंचे ।
मामूली पूछताछ के बाद हमने विशालदत्त का डी डी ए का फ्लैट तलाश कर लिया । उसका फ्लैट एक बहुमंजिली इमारत की दूसरी मंजिल पर था ।
यादव ने कॉलबैल बजाई ।
एक मिनट बाद भीतर से पूछा गया - “कौन ?”
“यह विशालदत्त का फ्लैट है ?” - यादव ने पूछा ।
“हां ।”
“विशालदत्त है ?”
“आप कौन हो ?”
“अरे, पूछा है विशालदत्त है ?”
“आप कौन हो ?”
“पुलिस ।”
तुरन्त दरवाजा खुला । पल्ले के पीछे से किसी ने सावधानी से बाहर झांका ।
वह एक लगभग तीस सील का पिचका-सा आदमी था । कद उसका सवा पांच फुट से अधिक का नहीं था और उसकी सूरत से ऐसे लगता था जैसे उसने तीन दिन से खाना नहीं खाया था ।
लेकिन फिर मुझे खुद ही अपनी हैरानी बेमानी लगने लगी ।
मंजुला को तो हर तरह का मर्द पसन्द था । मंजुला की मेहरबानियों का हकदार बनने के लिए दरकार इकलौती क्वालीफिकेशन मर्द होना था, माडल कोई भी हो - नया या पुराना, अच्छा या बुरा, काला या गोरा, लम्बा या बौना ।
“विशालदत्त तुम्हारा नाम है ?” - यादव ने उसे घूरते हुए पूछा ।
उसने बड़े नर्वस भाव से सहमति में सिर हिलाया ।
“रास्ते से हटो । हमने तुमसे कुछ बात करनी है ।”
उसने दरवाजा पूरा खोल दिया ।
मैं और यादव भीतर दाखिल हुए ।
“मंजुला को जानते हो ?” - यादव ने कठोर स्वर में पूछा ।
उसने सहमति में सिर हिलाया ।
“तुम गूंगे तो नहीं हो ?”
“नहीं” - वह बोला ।
“आखिरी बार मंजुला को कब देखा था तुमने ?”
“कोई दो हफ्ते पहले । इतवार के दिन ।”
“मंजुला के बारे में क्या जानते हो तुम ?”
“यह पूछताछ हो किस लिए रही है, जनाब ? मंजुला खैरियत से तो है ? वह किसी मुसीबत में तो नहीं फंस गई ?”
“तुम्हारे ख्याल से से वह किस मुसीबत में फंस सकती थी ?”
“मुझे क्या मालूम ?”
“कुछ तो मालूम होगा ।”
“जनाब, अगर यह पूछताछ वाकई बहुत जरूरी है तो आप मुझसे ढंग के सवाल पूछिए ताकि मैं आपको ढंग से जवाब दे सकूं ।”
“हम बेढंगे सवाल पूछ रहे हैं ?”
“हां” - वह दिलेरी से बोला - “और बेमानी भी ।”
“हम पूछ रहे हैं कि मंजुला के बारे में तुम क्या जानते हो ? यह सवाल बेढंगा है, बेमानी है ?”
“लेकिन इस पूछताछ की कोई वजह भी बताओ, जनाब ।”
“वह भी मालूम हो जाएगी । लेकिन पहली बात पहले ।”
“मंजुला” - वह बोला - “एक असाधारण रूप से खूबसूरत युवती है । जवान, खुशमिजाज । जिन्दगी का भरपूर आनन्द लेने में विश्वास रखने वाली । पाबन्दियों में विश्वास न रखने वाली । तलाकशुदा । अलमस्त । बंजारा प्रवृत्ति । पति, परिवार और बच्चों वाली लीक से बंधी दकियानूसी जिन्दगी में आस्था नहीं । रूटीन से जल्दी बोर हो जाने वाली । हमेशा किसी नई एडवेंचर की तलाश में ।”
“और ?”
“और क्या ? क्या इतना काफी नहीं ?”
“तुमने कहा था कि वो तलाकशुदा थी ।”
“हां । शादी की थी उसने । लेकिन पति के साथ निष्ठा और ईमानदारी से पेश न आ पाई इसलिए तलाक हो गया ।”
“क्या बेईमानी करती थी वह पति से ?”
“वही जो शादी-शुदा औरतें सबसे ज्यादा सहूलियत से कर सकती है । सर, वन्स एक केक इज कट, नोबाडी मिसिज ए पीस ।”
वह ठीक कह रहा था ।
“तुम्हारा मतलब है वह बहुपुरुष-गामिनी स्त्री थी ।”
“हां ।”
“निम्फोमैनियक ?”
“एक ही बात है । यह तो एक बीमारी होती है, जिसमें औरत मर्द के सहवास के बिना रह ही नहीं पाती । और मर्द चाहे कोई भी हो । ऐसी स्त्री की कोई पसन्द-नापसन्द नहीं होती । जो मर्द उपलब्ध हो वही ठीक । इसी वजह से ऐसी स्त्री का मर्द से कोई इमोशनल अटैचमेंट नहीं हो पाता । आज वह पूरे जोशो-खरोश के साथ जिस मर्द के साथ हमबिस्तर होती है, कल वह उसकी सूरत पहचानने से भी इन्कार कर सकती है ।”
“तुम तो बहुत अच्छी तरह से जानते हो मंजुला को ।”
“हां । एक लेखक होने के नाते मैंने उसे बहुत स्टडी किया है । उसके कैरेक्टर पर मैं एक उपन्यास लिख रहा हूं ।”
“गुड । अब जरा अपनी कैरेक्टर स्टडी को टटोल कर यह बताओ कि मंजुला अगर कभी किसी मुसीबत में पड़ जाए तो तुम्हारे ख्याल से मदद के लिए वह किसके पास जाएगी ? उसके सबसे करीब कौन लोग हैं ?”
“मैं उसकी वाकफियत के सारे दायरे को तो जानता नहीं, लेकिन उसके सबसे करीब तो वह लड़की ही है जिसके साथ वह रहती है ।”
“सोनिया तलवार ?”
“हां । मेरे ख्याल से मैं भी काफी करीब हूं उसके । मुसीबत की घड़ी में वह मेरे पास भी आ सकती है । लेकिन जनाब, कुछ साफ-साफ बताइये न । कैसी मुसीबत में फंस गई है मंजुला ?”
“यह पक्की बात है कि तुमने तकरीबन दो हफ्ते से उसकी सूरत नहीं देखी ?”
“हां ।”
“वह कल रात एक और ढाई बजे के बीच किसी समय यहां नहीं आई थी ?”
“नहीं ।”
“वैसे थे तुम उस वक्त यहीं ?”
“हां ।”
“तुम साबित कर सकते हो कि कल रात एक और ढाई के बीच तुम यहीं थे ?”
“हां ।”
“कैसे ?”
“मेरे पास एलिबी है ।”
“क्या एलिबी है तुम्हारे पास ?”
“मैं बताना नहीं चाहता ।”
“तुम्हें बताना पड़ेगा ।”
“जब बताना पड़ेगा तो बता दूंगा । फिलहाल तो मुझे अपने साथ ऐसी कोई ज्यादती होती दिखाई नहीं दे रही ।”
यादव सकपकाया ।
“पहले मुझे गिरफ्तार करो, मुझ पर चार्ज लगाओ और फिर मुझसे मेरी एलिबी के बारे में पूछो । तब मैं साबित करके दिखा दूंगा कि मैं कल रात तक और ढाई के बीच तो क्या हर वक्त ही यहीं था ।”
“तुम गिरफ्तार होना चाहते हो ?”
“हरगिज भी नहीं । लेकिन अपनी एलिबी के बारे में मैं तब तक जुबान नहीं खोलने वाला जब तक मेरी जान पर ही आ न बने ।”
“आई सी । चलो मान लेते हैं तुम सच कह रहे हो ।”
“शुक्रिया । अब बराय मेहरबानी इतना तो बता दो कि कल रात एक और ढ़ाई के बीच ऐसा क्या हो गया था कि पुलिस इन्वेस्टीगेशन की जरूरत आन पड़ी है ।”
“वैसे वह यहां अक्सर आती थी ?” - यादव उसके सवाल की ओर कतई ध्यान दिये बिना बोला ।
“हफ्ते में एकाध चक्कर तो यहां लग ही जाता था उसका ।”
“मंजुला खैरियत से तो है ?”
यादव ने उत्तर न दिया । वह यूं विशालदत्त को घूर रहा था जैसे वह उसकी सूरत पर से अपना नया सवाल पढने की कोशिश कर रहा हो ।
मैंने अपना डनहिल का पैकेट निकाला । उसने मशीनी अन्दाज से मेरी तरफ हाथ बढा दिया । मैंने उसे एक सिगरेट दिया, एक खुद लिया और फिर दोनों सिगरेट सुलगा दिए ।
उसने शुक्रिया तक न कहा ।
उसने सिगरेट का लम्बा कश लिया । मैं कई क्षण तक इन्तजार करता रहा लेकिन रत्ती भर भी धुंआ उसके मुंह से या नाक से न निकला ।
“कोई और बात उसके बारे में ?” - यादव पूछ रहा था ।
“जनाब, जब तक मुझे असल बात न मालूम हो, मैं और क्या कहूं उसके बारे में ?”
“ठीक है । हम तुमसे फिर बात करेंगे । फिलहाल शुक्रिया ।”
“बस ?” - वह हैरानी से बोला ।
“हां ।”
“आप तो मुझे ससपेंस में डाले जा रहे हैं, जनाब ।”
“अच्छा है । इसी मूड में एक सस्पेंस नावल लिख डालो ।”
“जासूसी ?”
“हां ।”
“मैं जासूसी उपन्यास नहीं लिखता” - वह नाक चढ़ा कर बोला ।
“तुम क्या लिखते हो ?” - मैंने उत्सुक भाव से पूछा ।
“मैं क्या लिखता हूं” - वह बड़े गर्व से बोला - “मेरा सब्जैक्ट औरत है । और इस सब्जैक्ट पर जितनी रिसर्च मैं कर चुका हूं, दुनिया में किसी ने नहीं की है । अपनी सारी जिंदगी की रिसर्च से मैंने यह नतीजा निकाला है कि संसार में पैंतीस तरह की औरतें होती हैं....”
“इसका मतलब यह हुआ” - मैं बोला - “कि अपनी जिंदगी में अभी तक तुम सिर्फ पैंतीस औरतों से मिले हो ।”
“तुम भी लेखक हो ?” - वह बोला - “क्या तुम्हारा सब्जैक्ट भी औरत है ?”
“मेरा लेखन से वही रिश्ता है जो पनडुब्बी का पैराशूट से होता है ।”
उसने उलझनपूर्ण भाव से मेरी तरफ देखा ।
“आर यू कमिंग डियर” - तभी भीतर से एक बड़ी मधुर जनानी आवाज आई ।
“यस, डियर” - वह तनिक उच्च स्वर में बोला ।
“भीतर तुम्हारी बीवी है ?” - यादव ने पूछा ।
“बीवी !” - वह तिरस्कारपूर्ण स्वर में बोला - “जिन पैंतीस किस्म की औरतों की मैंने रिसर्च की है, उनमें बीवी वाली किस्म सबसे घटिया होती है ।”
“पीछे बैडरूम है ?”
“पीछे मेरी रिसर्च लैबोरिट्री है । लेकिन आम लोग उसे बैडरूम ही कहते हैं ।”
तभी पीछे का दरवाजा खुला और चौखट पर एक लड़की प्रकट हुई । लड़की मुश्किल से बीस साल की थी और निहायत खूबसूरत थी । उसकी रंगत काली थी लेकिन उसमें ताजी-ताजी पालिश हुई लकड़ी जैसी चमक थी ।
लेकिन सबसे ज्यादा छक्के छुड़ा देने वाली बात यह थी कि वह सिर से पांव तक एकदम नंगी थी और उसकी सूरत से जरा भी नहीं लगता था कि उसे अपनी नग्नता से कोई एतराज था ।
वह अपने नंगे गले में एक मर्दानी टाई बांधे हुए थी जो उसकी असाधारण रूप से बड़ी छातियों के बीच में से होती हुई उसकी जांघों तक पहुंच रही थी ।
“मैं भीतर अकेली बोर हो रही थी” - वह बड़ी मासूमियत से बोली ।
यादव कुछ क्षण हूक्का-बक्का सा उसका मुंह देखता रहा और फिर लेखक की तरफ घूमा - “यह तुम्हारी रिसर्च लैबोरेट्री की टैस्ट ट्यूब है ?”
“यह मेरी प्रेरणा है” - वह तन कर बोला - “यह मेरे नये उपन्यास का सातवां चैप्टर है । यह...”
“शट अप” - यादव दहाड़ा ।
वह सहमकर चुप हो गया ।
“तुम बालिग हो ?” -वह लड़की से बोला ।
“वह क्या होता है ?” - लड़की बड़ी सादगी से बोली ।
“आर यू एन अडल्ट ?”
“बाई माइन्ड ? बाई बॉडी ? और बाई एज ?”
यादव हड़बड़ाया ।
“डैडी ओ, यू आर लिविंग इन पास्ट ।”
“चलो” - एकाएक यादव बोला और फिर वह मुझसे पहले फ्लैट से बाहर निकल गया ।
“उस पुलिसिये को इस वक्त” - मैं लेखक से बोला - “तुम्हारी ऐसी करतूतों की तरफ ध्यान देने की फुर्सत नहीं है । लेकिन अगर अपनी खैरियत चाहते हो तो यह तमाशबीनी बन्द कर दो ।”
“क..क्या ?”
“लड़की नाबालिग नहीं भी है तो भी यह नशे की तरंग में जरूर है, और जैसे नशे की तरंग में यह है उस पर यहां पाबंदी है । तुम दोनों गिरफ्तार हो सकते हो ।”
लेखक के चेहरे ने कई रंग बदले ।
नंगी लड़की बड़े निर्विकार भाव से चौखट से लगी खड़ी थी और अपने एक हाथ से अपनी टाई की गांठ से खेल रही थी ।
मैं दरवाजे की तरफ बढ़ा ।
“तुम जा रहे हो ?” - लड़की बड़ी मायूसी से बोली ।
“हां” - मैं बोला ।
“जाने से पहले तुम मुझे यूज नहीं करना चाहते ?”
मैं जल्दी से फ्लैट से बाहर निकल गया ।
यादव बाहर नहीं था ।
सीढियां उतरकर मैं नीचे पहुंचा ।
वह जीप में बैठा था ।
मैं भी जीप में सवार हो गया ।
“तौबा !” - वह असहाय भाव से गर्दन हिलाता हुआ बोला - “क्या होता जा रहा है आज की नस्ल को । क्या होता जा रहा है दिल्ली शहर को !”
मैंने उत्तर नहीं दिया । मैंने खामोशी से एक नया सिगरेट सुलगा लिया ।
“मेरी छ: लड़कियां हैं” - वह बोला - “यह सोचकर ही मेरा कलेजा कांप जाता है कि उनमें से कोई बड़ी होकर ऐसी हरकतें कर सकती है ।”
“अभी इतना बुरा हाल नहीं है” - मैं बोला ।
“नहीं है तो हो जाएगा ।”
“और फिर ऐसी बातें लालन-पालन पर भी निर्भर करती हैं ।”
“मेरी पुलिस की नौकरी है । एक तरह से मैं चौबीस घंटे का मुलाजिम हूं । मैं कैसे अपनी औलाद के लालन-पालन पर नियंत्रण रख सकता हूं ।”
“तुम खामखाह बात का बतंगड़ बना रहे हो । अरे, यह बड़े घरों के नखरे हैं । बड़े घरों में बच्चों की बेहूदा हरकतों पर उन्हें टोकने के स्थान पर उन्हें प्रोत्साहन दिया जाता है और इस बात पर गर्व किया जाता है कि उनके बच्चे मॉडर्न हैं, मॉड सोसाइटी के अंग हैं ।”
वह कुछ क्षण खामोश बैठा रहा । फिर उसने जीप का इंजन चालू किया ।
जीप हौले से लुढकती हुई रोड पर आ गयी ।
“अब तो तुम्हारी बीवी का . . . मेरा मतलब मंजुला का” - एकाएक वह बोला - “कत्ल हो गया है । लेकिन अगर वह न मरी होती तो क्या होता ? सशस्त्र डकैती के इल्जाम में जेल में पड़ी सड़ रही होती । क्यों ? क्यों किया था उसने ऐसा ? क्योंकि देवी जी अपनी जिंदगी से बोर हो चुकी थीं, अपनी मिडल क्लास जिंदगी के मिडल क्लास अंदाज से तंग आ चुकी थीं । लानत ! लानत !”
मैं खामोश बैठा रहा ।
हमारे बुजुर्गवार हमें यही राय देते आए हैं कि हमें सदा हंसते रहना चाहिए ।
मौजूदा हालत में क्या मैं हंस सकता था ?
आजकल सदा हंसते रहने वाले शख्स के बारे में लोग यही कहते हैं कि साला कहीं पागल तो नहीं हो गया ।
***
हमारा अगला पड़ाव झंडेवालान था ।
वहां अचरेकर नाम का फोटोग्राफर एक चार-मंजिली इमारत की बरसाती में रहता था । वही उसका आवास था, वही उसका स्टुडियो था ।
बरसाती तक पहुंचने के लिए सीढियां भी अलग से थीं । वे लोहे की घुमावदार सीढियां थीं जो इमारत के पहलू में अलग से बनी हुयी थी - शायद फायर एस्केप के तौर पर इस्तेमाल के लिए । उन सीढ़ियों के रास्ते हम उपर पहुंचे ।
वहां एक दरवाजे पर लटकी हुयी थी जिस पर लिखा था : अचरेकर स्टुडियो एंटर
हमने तख्ती की इबारत का कहना मानकर एंटर करने की कोशिश की तो दरवाजा बंद पाया ।
यादव ने कॉलबैल बजाई ।
दरवाजा खुलने लगा ।
“डार्लिंग”- कोई खुलते दरवाजे के साथ बोला - “आज इतनी जल्दी ?”
फिर दरवाजा खुला और खोलने वाले ने हम दोनों पर निगाह डाली ।
वह सकपकाया ।
“अचरेकर ?” - यादव ने पूछा ।
“यस, डियर” - वह बोला ।
“मैंने देखा वह बांस जैसा दुबला-पतला, जनाना सा आदमी था । वह क्लीन शेव्ड था और नयन-नक्श भी औरतों जैसे थे । उसने आंखों में सुरमा डाला हुआ था और पलकों की थ्रेडिंग कारवाई हुई थी । उसके बाल खूब लंबे थे जिनमें उसने बीच में मांग निकाली हुई थी और मांग के दोनों तरफ बालों में लगाई जाने वाली दो सुइयां भी खोंसी हुई थीं । वह एक टखनों तक आने वाला भड़कीला कफ्तान पहने हुये था ।
उम्र में वह मुझे तीस से कम ही लगा था ।
“तुम फोटोग्राफर हो ?” - यादव ने पूछा ।
“येस डार्लिंगेस्ट” - वह इठलाकर बोला ।
“तमीज से बात करो” - यादव भड़का ।
“बट, डियर, आई एम डुइंग तमीज से बात ।”
यादव के चेहरे पर ऐसे हिंसक भाव आए कि वह घबराकर एकदम पीछे हट गया ।
हम भीतर दाखिल हुये ।
वह घूमा और औरतों की तरह ही लचककर चलता हुआ दरवाजे से परे हट गया ।
मेरा दिल गवाही दे रहा था कि वह हरामजादा होमो-सेक्सुअल था ।
यादव को भी शायद ऐसा ही लगा था, इसीलिए वह पहले ही उससे उखड़ने लगा था ।
“तुम्हारा नाम अचरेकर है” - यादव ने दोहराया - और तुम फोटोग्राफर हो ।”
“बट नेचुरली” - यादव की वार्निंग के बावजूद वह इठलाकर बोला, आदत से मजबूर जो था - “बाहर बोर्ड लगा है । नीचे भी बोर्ड लगा है ।”
मैं मन ही मन सोच रहा था कि वह जानना आदमी भी मंजुला को पसंद था । वह तो विशालदत्त से भी गया-बीता था ।
वह बरसाती बहुत बड़ी थी । हाल जैसी बड़ी । इतनी बड़ी कि उस विशाल इमारत कि आधी छत पर वह बरसाती ही थी । वहां सारे फर्श पर एक मोटा कालीन बिछा हुआ था और उस पर चारों तरफ रंग-बिरंगी फोम की गद्दियां बिखरी हुई थीं । फर्नीचर के नाम पर या तो वहां एक-दो स्टूल थे या एक कोने में असाधारण आकार की डबलबैड लगी हुई थी । बैड इतनी बड़ी थी कि उस जैसे दुबले-पतले दस आदमी उस पर सो सकते थे । चारों दीवारें अचरेकर द्वारा खींची बड़ी-बड़ी तस्वीरों से अटी हुई थीं ।
एक दीवार में एक दरवाजा था जिस पर “डार्क रूम” लिखा हुआ था ।
उसकी बगल में ही एक और दरवाजा था जो शायद बाथरूम का था ।
“क्या मुझे आदरणीय का” - अचरेकर यूं बोला जैसे स्टेज पर ड्रामे के डायलोग बोल रहा हो - “परिचय प्राप्त करने की इज्जत मिल सकती है ?”
“मेरा नाम यादव है” - यादव बोला - “स्थानीय पुलिस फोर्स का सब-इंस्पेक्टर हूं ।”
“आपकी वर्दी तो मुझे दिखाई नहीं दे रही ।”
“तुम्हें” - यादव उसे घूरकर बोला - “मेरे पुलिस अधिकारी होने पर शक है ।”
“नहीं” - वह सकपकाकर बोला । यादव की तीखी निगाह से निगाह मिलाने की ताव वह सह न सका । वह एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “लेकिन मेरे गरीबखाने पर पुलिस का क्या काम ?”
“अचरेकर” - यादव कठोर स्वर में बोला - “मैं यहां तुमसे एक केस से ताल्लुक रखते कुछ सवाल पूछने आया हूं । और जवाब मुझे बिना ड्रामे के, बिना थिएट्रिकल इफैक्ट्स के मिलने चाहिए । समझ गए ?”
“बट डेफिनेटली ।” - वह बोला ।
“और यह फर्जी जुबान भी बोलना बंद करो ।”
“बट . . .”
वह खामोश हो गया ।
“कल रात तुम कहां थे ?”
उत्तर देने के स्थान पर अचरेकर ने यूं मेरी तरफ देखा जैसे कोई ताजी-ताजी जवान हुई लड़की अपने फेवरेट फिल्म स्टार को देखती है । मुझे यह तक भी लगा जैसे मुझे देखते समय उसकी बाईं आंख तनिक झपकी हो ।
“क्या साहब भी पुलिस में हैं ?” - वह यादव से बोला ।
“साहब मेरे साथ हैं” - यादव बोला - “और मेरे सवाल की तरफ ध्यान दो । कल रात तुम कहां थे और किसके साथ थे ?”
“मैं यहीं था” - वह हंसा - “हमेशा की तरह । मैं किसी के साथ भी था । हमेशा की तरह । क्या सर्दियों की रातों में हर कोई किसी न किसी के साथ नहीं होता ?”
यादव का धीरज छूट गया ।
उसने हाथ बढ़ाकर गिरहबान के पास से अचरेकर के कफ्तान की मुट्ठी भर ली । उसने कफ्तान को यूं उमेठा कि अचरेकर का गला घुटने लगा । यादव ने अपना बलिष्ठ हाथ ऊंचा किया तो अचरेकर के पांव जमीन से हट गए । वह यादव की पकड़ में छटपटाने लगा ।
“छोड़ो” - वह फंसे स्वर में बोला - “छोड़ो । प्लीज ।”
यादव ने उसे छोड़ दिया ।
अचरेकर ने अपना गिरहबान ठीक किया और बालों पर हाथ फिराकर तसदीक की कि वे बिखर तो नहीं गए थे ।
“तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था” - वह आहत भाव से बोला - “मुझे कुछ हो सकता था ।”
“अब यह नजाकत छोड़ेगा या नहीं ?”
“नजाकत ?”
“हां, नजाकत । ये औरतों जैसे नाज-नखरे और हिजड़ों जैसे हाव-भाव । मैं तुम्हारे साथ शराफत से पेश आ रहा हूं । मैं अपनी आई पर आ गया तो रो-रोकर जान दे दोगे । आंखों का सारा सुरमा आंसुओं में बह जाएगा ।”
उसने थूक निगली ।
“अब इंसान के बच्चे बन के सीधे-सीधे जवाब दो । कल रात तुम कहां थे ?”
“यहीं था ।”
“किसके साथ ?”
“क्रिस्टोफर के साथ ।”
“यह कौन है ?”
“एक क्रिश्चियन लड़का है जो फोटोग्राफी के काम में मेरी मदद करने के लिए यहां आता है ।”
“वह यहां से गया कब था ?”
“नौ बजे ।”
“उसके बाद तुमने क्या किया ?”
“कुछ भी नहीं । उसके बाद आप लोग यहां आ गए ।”
“यानी कि रात नौ बजे से लेकर हमारे यहां आने तक के वक्फे में तुम यहां अकेले थे ?”
“नहीं । क्रिस्टोफर मेरे साथ था ।”
“लेकिन वो तो नौ बजे यहां से चला गया था ।”
“यह” - मैं बोला - “दिन के नौ बजे की बात कर रहा है ।”
यादव सकपकाया । उसने घूरकर फोटोग्राफर की तरफ देखा और फिर बोला - “वह क्रिश्चियन छोकरा रात भर यहां रहा था और सुबह नौ बजे यानी कि अब से कोई डेड़ घंटा पहले यहां से गया था ?”
“हां ।”
“वह तुम्हारी गवाही दे देगा ? वह यह कबूल कर लेगा कि सारी रात वह यहां तुम्हारे साथ था ?”
“जैसी जोर-जबरदस्ती तुमने मेरे साथ की है, वैसी अगर उसके साथ भी करोगे तो कर लेगा । और चारा ही क्या होगा उसके पास ।”
“उसका पता बोलो ।”
अचरेकर ने उसे एक पता लिखवा दिया ।
“कल रात यहां कोई और आया था ?” - यादव फिर बोला ।
“कोई और कौन ?”
“तुम बताओ । सवाल मैंने पूछा है ।”
“कल रात यहां कोई नहीं आया था ।”
“रात एक और ढाई के बीच ?”
“कल रात किसी भी वक्त यहां कोई नहीं आया था ।”
“मंजुला को जानते हो ?”
“जो कर्जन रोड पर रहती है ?”
“वही ।”
“जानता हूं ।”
“आखिरी बार तुम उससे कब मिले थे ?”
वह सोचने लगा । उसके सोचने का पोज बड़ा दिलचस्प था । अपना एक हाथ उसने बड़ी नजाकत से अपनी कमर पर रख लिया था और दूसरे हाथ की एक उंगली से वह अपने होंठ ठकठकाने लगा था और उंगली की टिप पर जुबान फिराने लगा था । यही हरकत कोई खूबसूरत लड़की कर रही होती तो मेरा कलेजा मुंह को आने लगता और मेरे लिए उसको फौरन दबोच लेने से अपने आप को रोकना मुहाल हो जाता । लेकिन उसे वह हरकत करते देखकर मेरा दिल उसे तमाचा मारने को चाह रहा था ।
“सदियां बीत गई हैं” - अंत में वह बोला ।
“फिर बकवास शुरू कर दी” - यादव डपटकर बोला ।
“आई मीन, बहुत अरसा हो गया है ।”
“कितना अरसा ?”
वह निगाह चुराने लगा ।
यादव ने एक धमकी-भरा कदम फिर उसकी तरफ बढाया ।
“यह कोई तीन-चार हफ्ते पहले की बात है” - वह जल्दी से बोला - “जब मंजुला ने मुझे एक सिटिंग दी थी ।”
“सिटिंग क्या मतलब ?”
“इसने उसकी तस्वीरें खींची थी” - मैंने बताया ।
“कैसी तस्वीरें ?” - यादव कठोर स्वर में बोला ।
“आर्ट पिक्चर्स” - अचरेकर बोला ।
“वो क्या होती हैं ?”
“पोर्नोग्राफी का दूसरा नाम” - मैं विरक्तिपूर्ण स्वर में बोला ।
“गन्दी तस्वीरें” - यादव बोला - “तुमने उसकी गन्दी तस्वीरें खींची थी ।”
“मैं आर्टिस्ट हूं” - वह गर्व के साथ बोला - “और आर्टिस्टिक तस्वीरें ही खींचता हूं । देखने वाला अगर उन्हें गन्दी तस्वीरें कहता है तो यह उसका नुक्स है, उसके दिमाग का नुक्स है ।”
“कहां है वो तस्वीरें ?”
“उनसे आपका कोई मतलब नहीं होना चाहिए । वे मेरी पर्सनल प्रापर्टी....”
“मैंने पूछा है कहां है वो तस्वीरें ?” - यादव गरजकर बोला ।
“मेरे पास है ।”
“निकालो ।”
“ऑफिसर, वो गन्दी तस्वीरें नहीं हैं” - उसने फरियाद की - “मुझे वैसी तस्वीरों पर फारेन से इनाम मिल चुके हैं ।”
“निकालो ।”
“लेकिन...”
“सुना नहीं ?”
“वह भारी कदमों से डार्क रूम की तरफ बढ़ा ।
थोड़ी देर बाद वह वहां से एक मोटा लिफाफा लेकर वापिस लौटा ।
“मैं कहता हूं” - वह लगभग रोता हुआ बोला - “मेरा इसमें कोई दोष नहीं । उन लोगों ने मर्जी से ये तस्वीरें खिंचवाई थी । मैं तो आर्टिस्ट हूं । मैंने आर्ट की निगाह से...”
“वे लोग कौन ?” - यादव उसे टोकता हुआ बोला - “अभी तो मंजुला की तस्वीरों की बात हो रही थी ।”
“वे नौजवान जो मंजुला के साथ थे ।”
“तुमने मंजुला की किन्हीं नौजवानों के साथ तस्वीरें खींची थी ?”
“यहां पार्टी थी । हर कोई एन्जॉय कर रहा था । हर कोई हाई था ।”
“हाई था क्या मतलब ?”
“हर कोई नशे में था” - मैंने बताया ।
“यह बात” - यादव अचरेकर को घूरता हुआ बोला ।
“हां” - अचरेकर दबे स्वर में बोला - “नशा सब पर हावी था । मंजुला पर भी और बाकी लोगों पर भी । किसी ने राय दी कि ऐसे माहौल की तो तस्वीर खिंचनी चाहिए थी । मैंने खींच दी । लेकिन मैंने इन तस्वीरों का कोई गलत इस्तेमाल थोड़े ही किया है । मैंने तो प्रिंट्स का एक ही सैट बनाया था जो कि अभी भी मेरे पास है । मैं तो आर्टिस्ट हूं । मैंने तो आर्ट की निगाह से...”
यादव ने उसके हाथ से लिफाफा झपट लिया और उसे परे धकेल दिया ।
यादव ने लिफाफे का मुंह खोला और उसके भीतर मौजूद आठ गुणा दस के सारे प्रिंट निकाल लिए । पहली तस्वीर पर निगाह पड़ते ही उसके होठों से सिसकारी-सी निकल गई । बाकी प्रिंट्स उसने देखने की कोशिश तक नहीं की । उसने सारा पुलन्दा मेरी तरफ बढ़ा दिया और आग्नेय नेत्रों से अचरेकर की तरफ देखा ।
अचरेकर पत्ते की तरह कांपने लगा ।
तस्वीरों पर निगाह डाले बिना भी मैं कल्पना कर सकता था कि वे कैसी तस्वीरें निकलनी थीं ।
मैंने एक एक करके तमाम तस्वीरें देखीं ।
उन तस्वीरों में मंजुला के खूबसूरत जिस्म पर कपड़े की एक धज्जी भी नहीं थी और वैसी ही पोशाक में चार युवक जोंक की तरह उसके जिस्म से चिपके हुए थे । हर तस्वीर रति-क्रियाओं में एक नया सबक मालूम होती थी ।
जिस औरत को चार नौजवान कुत्तों की तरह भंभोड़ रहे थे, वह कभी मेरी बीवी थी ।
“बाई गॉड” - अचरेकर कह रहा था - “प्रिंट्स का यह एक ही सैट बनाया है मैंने ।”
“चार सैट और नहीं बनाए” - मैं तस्वीरों से निगाह हटाता हुआ बोला - “इन चार लड़कों को देने के लिए ?”
“नहीं” - उसने आर्तनाद किया - “बाई गॉड, नहीं । बस यह एक ही सैट...”
“इनके नैगेटिव कहां हैं ?”
“लिफाफे में ही हैं ।”
मैंने यादव की तरफ देखा ।
लिफाफा अभी भी यादव के हाथ में था । उसने लिफाफे में हाथ डाला और भीतर से नैगेटिव निकालकर मुझे थमा दिए ।
मैंने लाइटर निकाला ।
मैंने सारी तस्वीरों और नैगेटिवों को आग लगा दी । जब आग मेरे हाथ तक पहुंचने लगी तो मैंने उन्हें हाथ से छोड़ दिया ।
“मेरा कालीन” - अचरेकर ने प्रलाप किया - “मेरा पंद्रह हजार का कालीन ।”
तस्वीरों की राख मैंने कालीन पर जूते से मसल दी ।
“एक बार फिर सोच लो” - यादव कहर-भरे स्वर में बोला - “इस लड़की की ऐसी कोई और तस्वीर या ऐसा कोई और नैगेटिव है तुम्हारे पास ?”
“नहीं है” - वह रोता हुआ बोला ।
“गुड । अब मेरी बात गौर से सुनो । ऐसी तस्वीरें खींचना और उनका धंधा करना कानूनन जुर्म होता है । इन तस्वीरों के साथ मैं तुम्हे गिरफ्तार भी कर सकता था, लेकिन मुझे लड़की का ख्याल है इसलिए मैंने ऐसा नहीं किया । मैं यहां की तलाशी लूं तो शायद ऐसी और, इससे भी ज्यादा गन्दी तस्वीरें, यहां से बरामद होंगी । लेकिन इस बार मैं तुम्हें छोड़ रहा हूं । अक्लमंद को इशारा काफी होता है । अगर इंसान के बच्चे हो - जो कि मुझे नहीं लगता कि तुम हो - तो इस किस्म की गन्दी फोटोग्राफी से किनारा कर लो और अपने टैलेंट को तरीके के कामों में लगाओ ।”
“मैं ऐसी तस्वीरें फिर नहीं खींचूंगा । आई स्वीयर ।” - वह आतंकित भाव से बोला ।
“और अभी मैंने तुम्हारे छोकरे क्रिस्टोफर का जिक्र नहीं किया है ।” - यादव गरजा - “हरामजादे, आई पी सी में सात साल की सजा है तुम्हारी उस करतूत की ।”
अचरेकर का शरीर बुरी तरह से कांपा । उसके चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं ।
यादव ने एक आखिरी कहर-भरी निगाह अचरेकर पर डाली और मुझसे बोला – “चलो ।”
वह यूं वहां से बाहर निकला जैसे एक क्षण भी और वहां ठहरना उसे मुहाल लग रहा हो ।
मैंने उसके पीछे कदम बढ़ाया ।
“सर” - अचरेकर बोला ।
मैं ठिठका । मैंने उसकी तरफ निगाह डाली ।
“इतना तो बता दीजिये” - वह बोला - “कि मंजुला की बात क्या है ? क्या हो गया है उसे ?”
“तुम विशालदत्त को जानते हो ?”
“लेखक ?”
“वही ।”
“मामूली वाकफियत है हमारी ।”
“वह भी हैरान हो रहा होगा कि मंजुला को क्या हो गया है ? उसे भी बता देना । मंजुला मर चुकी है ।”
“क्या ?”
“उसका कत्ल हो गया है ।”
उसको मुंह बाए खड़ा छोड़कर मैं लम्बे डग भरता हुआ वहां से बाहर निकल गया ।
यादव मुझे नीचे जीप में बैठा मिला ।
“बधाई हो !” - वह बोला ।
“मेरी ऐसी औरत से शादी की ?” - मैं बोला ।
“नहीं । तुम्हारे ऐसी औरत से तलाक की ।”
“ओह !”
“तुम तो बड़े काबिल आदमी हो । दुनियादार । जासूस । तुम्हें पता नहीं लगा था कि जिस औरत से तुम शादी कर रहे थे, वह कैसी थी ?”
“मैंने जानने की कोशिश ही नहीं की थी ।”
“तो फिर मालूम कैसे हुआ ?”
“कभी तो मालूम होना ही था ।”
अभी तक जिन दो आदमियों से हम मिले हैं, उनमें से किसी को तुम पहले से जानते-पहचानते थे ?”
“नहीं ।”
“एक और बाकी बचा है । उसके भी दर्शन कर लें कि वह किस तरह का नमूना है ।”
“ठीक है ।”
उसने जीप आगे बढ़ाई ।
“जब मालूम हुआ था” - उसने पूछा - “तो फौरन तलाक हो गया था ?”
“हां ।” - मैं बोला - “यह एक मेहरबानी उसने मुझ पर की थी । तलाक उसी ने मुझे दे दिया था और सारी औपचारिकतायें भी उसी ने पूरी की थीं ।”
जीप चौराहे से घूमकर लिंक रोड पर पहुंची और करोलबाग की तरफ बढ़ी ।
मैंने एक नया सिगरेट सुलगा लिया ।
मंजुला मेरी जिन्दगी से एकाएक किनारा कर गई थी लेकिन उसकी करतूत को भुलाने में मुझे पूरा एक साल लग गया था । अब उसकी मौत से सब-कुछ फिर तरो-ताजा हो गया था ।
मेरे जहन पर अचरेकर वाली तस्वीरों का अक्स उभरा ।
कब तक चल सकती थी मंजुला की वैसी जिंदगी ? - मैंने अपने आपसे सवाल किया - क्या उसकी मौत के अलावा और कोई फुलस्टाप उसकी वैसी जिन्दगी को नही लग सकता था ?
यादव ने करोलबाग पहुंचकर जीप को उस इमारत के सामने रोका जिसमें सोनिया तलवार के कथनानुसार मुंजुला का तीसरा पक्का यार, सैमुअल जोन्स नाम का म्यूजीशियन रहता था ।
वह एक बहुत आधुनिक पांच-मंजिली इमारत थी जिसकी दूसरी मंजिल पर सैमुअल जोन्स रहता था । इमारत के सामने बहुत शानदार लोहे का गेट था और गेट से ही मिलता जुलता लोहे का जंगला भी इमारत के सामने और उसके दायें पहलू में दिखाई दे रहा था ।
हम दूसरी मंजिल पर पहुंचे ।
यादव ने सैमुअल के फ्लैट की कॉलबैल बजाई ।
“कौन ?” - भीतर से पूछा गया ।
“दरवाजा खोलो” - यादव बड़े बेसब्रेपन से बोला । वहां पहली दो बार की तरह उसने यह नहीं पूछा कि भीतर से बोलने वाला सैमुअल था या नहीं ।
“जानी” - “भीतर से आवाज आई - “जरा देखना तो कौन आया है ।”
एक मिनट बाद दरवाजा खुला और दरवाजे पर जानी प्रकट हुआ ।
“कौन ?” - उसने पूछा ।
“पुलिस ।” - यादव भन्नाये स्वर में बोला ।
“सैमी” - उसने भीतर फ्लैट की तरफ मुंह किया और घबरा कर आवाज लगाई - “पुलिस आई है ।”
फ्लैट के भीतर से कोई जवाब न मिला, लेकिन तुरन्त भीतर से फर्श पर धम्म-धम्म पड़ते कदमों की आवाज आई ।
फिर एक कुर्सी पलटने की आवाज ।
फिर भड़ाक से कोई पिछला दरवाजा खुलने की आवाज ।
यादव ने चौखट पर अड़े खड़े युवक को जबरन परे धकेला और भीतर को भागा ।
मैं भी उसके पीछे लपका ।
आगे एक बहुत बड़ा हॉल था जिसके दूसरे सिरे पर एक दरवाजा था जो उस तरफ खुला था । दरवाजे से आगे खुली बाल्कनी थी । हमारे देखते-देखते एक आदमी दरवाजे से निकलकर बाल्कनी पर पहुंचा और उसकी रेलिंग पर चढ़ गया ।
“खबरदार !” - यादव उसकी तरफ भागता हुआ बोला - “रुक जाओ ।”
वह न रुका । उसने रेलिंग से परे कहीं छलांग लगाई ।
मैं और यादव बाल्कनी की तरफ लपके ।
तभी वातावरण एक हृदय-विदारक चीख से गूंज उठा ।
मैं एक क्षण को अपने स्थान पर थमक कर खड़ा हो गया लेकिन फिर लपककर बाल्कनी में यादव के पास पहुंचा ।
“तौबा ।” - बाल्कनी की रेलिंग के पास खड़ा यादव बार-बार एक ही शब्द दोहरा रहा था - “तौबा ! तौबा ।”
मैंने बाल्कनी से नीचे झांका ।
जो नजारा मुझे दिखाई दिया, उसे मैं देखते रहने की ताव न ला सका । मैंने फौरन उधर से निगाह फिरा ली ।
जो आदमी हमें बाल्कनी की रेलिंग फांदता दिखाई दिया था वह नीचे इमारत के पहलू की चारदीवारी के जंगले के सींखचो पर टंगा हुआ था । वे सींखचे कोई एक इंच मोटाई के थे और उनके ऊपरले सिरे भालों की तरह तीखे थे । वैसे चार सींखचे उस आदमी के जिस्म से आर-पार गुजर गए थे । और उसके जिस्म के उन स्थानों से खून के फव्वारे यूं छूट रहे थे जैसे कोई पानी की मश्क फट गई हो ।
“क-कैसे ?” - मैंने हकलाते हुए पूछा ।
उसने बाल्कनी से थोड़ा परे से गुजरती फायर एस्केप की गोल सीढ़ियों की तरफ संकेत किया और बड़े कठिन स्वर में बोला - “इस बाल्कनी से फायर एस्केप की सीढ़ियों के उस प्लैटफार्म पर छलांग लगाने की कोशिश की थी इसने । पट्ठे का पांव जूते के खुले तस्मे से उलझ गया मालूम होता है । प्लैटफॉर्म तक वह पहुंच ही नहीं सका । नीचे जंगले पर भी न गिरता तो शायद इतनी बुरी गत न बनती इसकी ।”
“लेकिन यह भागा क्यों ?” - मैं आतंकित भाव से बोला ।
“यह तो अभी मालूम होगा, लेकिन इसे भागने के लिए प्रेरित पुलिस के नाम ने ही किया था ।”
“ओह !”
मैंने एक भयभीत निगाह फिर नीचे डाली ।
वह औंधे मुंह सींखचों पर गिरा था । उसका सिर और धड़ इमारत से बाहर लटका हुआ था और टांगें भीतर की तरफ थीं ।
उसके एक जूते का खुला तस्मा मुझे दूर से ही दिखाई दे रहा था और वह अपनी कहानी खुद कह रहा था ।
“तौबा !” - यादव अभी भी बार-बार कह रहा था - “तौबा ! तौबा !”
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