यहाँ के हम सिकन्दर
हॉस्टल में सुबह ही एक आकाशवाणी से होती थी- “जागो वत्स, जीवन रेस है। दौड़ो, क्योंकि तुम प्रतिस्पर्धा में हो।” 350 लड़कियाँ और सीमित संसाधन। हर एक मिनट में “हाउ लॉंग?” की आवाज़ बाथरूम एरिया को सजीव बनाए रखती थी। “आय विल टेक माइ टाइम।” का जवाब प्रतिस्पर्धा के निर्मम और आक्रामक होने का एहसास कराता था।
सुबह लगभग आठ बजे हम लोगों को इंस्टी यानी इंस्टिट्यूट जाना होता था। सुबह का समय सबके लिये बड़ा कठिन समय होता था। फिर जैसे-तैसे, कैसे-न-कैसे करके सब तैयार हो ही जाते थे। इंस्टी में नये ही संघर्ष हमारी बाट जोहते थे। हॉस्टल और इंस्टी की रैगिंग में बहुत फ़र्क़ था। लेकिन फ़ेवरेटिज़्म कहाँ नहीं होता! जो लोग सीनियर्स के फ़ेवरेट हो जाते थे, उनकी रैगिंग प्यार मोहब्बत से होती थी। हमारे लखनऊ में कहते हैं- “मुस्कुराइये, आप लखनऊ में हैं।” इसी तर्ज़ पर मेरा स्लोगन था- “जुगत लगाइये, आप कम्पटीशन में हैं।”
कॉलेज रैगिंग के इन्ट्रोडक्शन में अपनी दो रुचियाँ भी बतानी होती थी और सख़्त हिदायत थी कि कोई “गाना सुनना” और “टीवी देखना” क़िस्म की घिसी पिटी और बकवास रुचि नहीं बतायेगा। मैंने किताबों के बाहर कभी कोई शौक़ रखे ही नहीं थे और किताबें भी कोर्स वाली। मैं सोचती- ‘ऐसी क्या हॉबी हो सकती है, जो निर्मल आनन्द दे और साथ में सुरक्षित भी हो?’
सोचती हुई अपने स्कूल के दिनों तक जा पहुँची मैं। ज़ीरो पीरीयड में हम लोग ख़ूब मस्ती किया करते थे। मैं गाना गाती, कोई डांस करता, कोई कविता सुनाता, तो कोई जोक सुनाता। एक दिन मेरी दोस्त रश्मि ने कहा- ‘मैं हाथ देखना सीख रही हूँ। बहुत सारा सीख भी लिया है। अगर किसी को अपने बारे में कुछ जानना हो, तो मेरे पास या सकता है।’ किसी को? अरे, सबको! सबको अपने बारे में कुछ-न-कुछ जानना था। देखते-ही-देखते सब उसे घेर कर खड़े हो गये। अपनी बारी आने का इंतज़ार तो था ही, लेकिन दूसरे के बारे में भी बड़े ध्यान से सुन रहे थे सब। क्या सम्मोहन था! इसके बाद तो यह हर दिन की बात हो गयी थी। मिल गया! मुझे रास्ता मिल गया! मैंने दो शौक बताना शुरु किया “गाना” और “पामिस्ट्री”। और जैसा कि मेरा अनुमान था, गाना सुनने से ज़्यादा पामिस्ट्री का शौक़ सीनियर्स को आकृष्ट करता था। कभी-कभी मुझे गाना भी सुनाना पड़ा था, लेकिन ज़्यादातर मेरे हाथों में किसी-ना-किसी का हाथ होता था और मैं उसकी रेखाएँ पढ़ने का ड्रामा करती थी। इतने दिनों में रोज़ इन लोगों को देखकर, पढ़कर कुछ बातें, उनकी प्रकृति और स्वभाव का कुछ पता तो चल ही गया था।
यह मेरे लिए बचपन का कोई अबोध खेल नहीं था बल्कि बहुत सोची समझी युक्ति थी। मैं जानती थी कि अब आपसी व्यवहार में सेक्शूऐलिटी भी इन्वाल्व होती थी, भले ही अप्रकट ढंग से हो। मैं जब उन सीनियर लड़कों का हाथ पकड़ती थी, तो हथेली के स्पंदन या अकड़ से एहसास हो जाता था कि इस बन्दे का दिल इस समय किस गति से धड़क रहा होगा। वो धीरे से अपनी ही किसी फ़ैंटसी में खो जाते थे। लेकिन यह ज़ाहिर ना होने देने की जद्दोजहद में ऐसे जूझ रहे होते थे कि उनके लिये मेरी कही हर बात पर “हम्म” करने के सिवा कोई चारा न था। मन-ही-मन मुझे ज़बरदस्त ख़ुशी होती कि लड़कों की दुनिया में जीना आ गया मुझे। अब मुझे डर नहीं लगता था लड़कों से और ना ही लड़के एलियन लगते थे। शेर पर सवार होना सीख गयी थी मैं।
लेकिन सीनियर लड़कियाँ? उनके बारे में कुछ कहना वाक़ई मेहनत का काम था। एक तो लड़की और उस पर सीनियर, ज़रा सा चूके और निपटारा हुआ समझो। तो उन्हें कुछ ऐसी बातें बतानी पड़ती थी, जो मेरे सिवा किसी ने कभी न बताई हो और बताने का अन्दाज़ बहुत सॉलिड रखना होता था। ‘मेरे अफ़ेअर का क्या फ़्यूचर है?’ पहली बार जब यह पूछा गया, तो मैंने हथेली घूरते हुए सोचा- ‘जब सब झूठ का ही व्यापार चल रहा है तो बुरा झूठ क्यों बोलो।’
मैं कह देती थी- ‘मुश्किलें बहुत आयेंगी, लेकिन फिर सब ठीक हो जायेगा।’ वो प्यार कितना बोरिंग होगा ना, जिसमें दुनिया की कोई दिलचस्पी ही न हो। अरे! प्यार तो वही, जिसकी पूरी दुनिया दुश्मन बन जाये। प्यार तो वही, जो दुनिया से जूझ जाये। प्यार तो वही, जिसमें आशिक़ जान की बाज़ी लगा दे और प्यार तो वही जिसमें अंततः जीत प्रेमी-प्रेमिका की हो। इस तरह पूछने वाले को मुश्किलों का मज़ा और जीत की उम्मीद दोनों देकर मैं खिसक लेती थी। एक ही सीनियर लड़की थी, जो मेरी इस सब हेराफेरी में फँसती नहीं थी और मुझे उसी एक लड़की से बचकर चलना होता था। बहुत बड़ी समस्या सुलझा ली थी मैंने। जीवन आसान होने लगा था। जो कभी झमेले लगते थे अब उन्हीं क़िस्सों में मज़ा आने लगा था। हॉस्टल के जीवन और अपनी आज़ादी से प्यार होने लगा था। नयी जगह में बिना परिवार की मदद के मैंने अपनी अच्छी इमेज और मजबूत जगह बना ली थी। "छा गये" वाली अनुभूति मन को ख़ुशी और गुरूर से भर देती थी। अपने जैसी कोई दूसरी दिखती ही नहीं थी मुझे। आत्मविश्वास आसमान छूता था। सब कुछ संभाल सकती हूँ मैं। सब कुछ।
कहीं पड़ते हैं क़दम
हमारे क्लास में लगभग 70% लोग लोकल और बाकी दूसरी जगहों के थे। उन लोकल दोस्तों से कभी-कभी जलन भी होती थी क्यूंकि वो अपने पुराने दोस्तों के साथ अभी भी थे। हमारे क्लास में कुछ लोग थे जो इंदौर के होल्कर कॉलेज में भी साथ थे, उनका एक गुट था। एक दूसरा गुट था जिसने इंदौर में साथ ही कोचिंग की थी M.C.A. में दाख़िला पाने के लिये। उन लोगों को साथ देखकर रश्क होता था। याद आते थे अपने दोस्त और सोचती कि काश! वो भी इस समय मेरे साथ यहाँ होते तो, क्या बात होती! मुझे अक्सर ही उन्हें देखकर पलाश की याद आ जाती। हम दोनों दोस्त भी तो M.C.A. ही कर रहे थे, लेकिन एक दूसरे से कितनी दूर।
अक्सर रात को मुझे मम्मी, पापा, भाई, बहन, घर का सुकून और दोस्त याद आते थे। शुरू में मैंने घर के लिये एक दो चिट्ठियाँ लिखीं, लेकिन उन्हें पोस्ट करने की दिक्कत और अंतर्देशीय लाने की दिक्कत के चलते यह सिलसिला रुक गया। वैसे भी “चिट्ठी और तार” लिखना फ़ैशन से बाहर हो चुका था। फ़ोन हर घर तक पहुँच रहा था। उन दिनों मोबाइल इतने सुलभ नहीं थे। लैंडलाइन ही मुख्यधारा थी। झटपट कोई ख़बर पहुँचानी हो या ज़रूरी बात करनी हो तो ही फ़ोन किया जाये, ऐसा आदर भाव था फ़ोन के प्रति लोगों में। मैं हफ़्ते में एक बार ही घर पर कॉल करूँगी और सीमित समय अवधि के लिये, ऐसा अनकहा नियम बंधा था। अब वो सुख नहीं था कि जब चाहो जितना चाहो अपने घर वालों से बात करो, वो भी बिना यह सोचे कि बात फ़ालतू है या काम की है। आमने-सामने बैठ कर बातें करने के लिये हमारे बीच में महीनों का इंतज़ार था। इस तरह अपने घर वालों से ठीक-ठाक दूरियाँ हो गयीं थीं। हर इतवार चंद मिनटों के लिए, मेरी सुबह घर पर बात होती थी और ज़रूरी हाल समाचार का आदान-प्रदान होता था। हर बार पापा यही कहते थे- ‘पैसों की कोई दिक्क़त तो नहीं? पढ़ने में मन लगाओ और अपना ख़याल रखो।’ हर बार मम्मी कहती- 'सेहत का ध्यान रखना। अच्छे से खाना-पीना।' मैं भी फ़ोन पर कैसे समझाती उनको कि उनकी प्यार भरी छाँव से निकलकर उनकी सिखाई बातों को किताब में किसी मोर पंख की तरह सहेज कर रख दिया है मैंने? जीने का तरीका बदल गया है मेरा। मेरे जीवन ने जो 180 डिग्री का टर्न ले लिया था, वो उन्हें फ़ोन पर बताना उन्हें सदमा देने जैसा ही होता। ऐसे में बातें जितनी कम हों उतना ही बेहतर। लेकिन इस सब जिरह से उनसे अलगाव का दुःख तो कम नहीं हो जाता। प्यार तो अब भी उनसे पहले जितना ही करती थी मैं।
पलाश को ईमेल करती थी हर दूसरे दिन। लेकिन उसका कोई रिप्लाई नहीं आता था। ‘क्यों नहीं करता है वो मेल?’ जवाब में उसके “नो एक्स्पेक्टेशन” का हथौड़ा दिमाग़ पर बरस जाता था। क्या सचमुच ही वो कभी मेल नहीं करेगा? शायद स्नेहा को मेल करता होगा। वो उसके साथ बहुत हँसता खिलखिलाता था। फिर कभी सोचती कि पलाश के सारे अच्छे दोस्तों के नाम ‘प’ से शुरू होने वाले हैं- पीयूष, प्राची, पंकज। मुझे इंदौर जाकर अपने नाम का भी अफ़सोस होने लगा था। काश! मेरा नाम हर्षा की जगह प्रीषा होता! तो शायद उसकी मुझसे भी अच्छी दोस्ती होती? शायद! फिर कभी लगता, यह तो बड़ी बेतुकी बात है। कुछ और वजह होगी।
मैं कितनी तरह की बातें सोचती कि शायद उसके पास इंटरनेट की सुविधा ना हो। कैफ़े जाकर तो मेल वो नहीं करेगा, यह तो पक्का है। स्टूडेंट लोन से उसकी पढ़ाई चल रही थी और उसका बजट उसे साइबर कैफ़े का खर्च उठाने की इजाज़त नहीं देगा। ऐसी ही कितनी सम्भावनाएँ सोचकर ख़ुद को बहलाती रहती थी। मैं हर दूसरे दिन बदस्तूर पलाश को मेल करती थी और जो कुछ भी मेरे आस-पास हो रहा होता था, वो उसमें लिखती थी। धीरे-धीरे मेल लिखना मेरे लिये डायरी लिखने जैसा होता जा रहा था, जिसे मैं ही लिखती और मैं ही पढ़ती थी।
एक दिन कॉलेज में “रोज़ डे” मनाया गया और मैंने उस दिन मेल में लिखा कि मुझे कितने रेड और येलो रोज़ मिले। उस दिन भी, मेल लिखकर मैं चली गयी और अपने दस्तूर के हिसाब से जब मेल करने लौटी तो दिल ख़ुशी से उछल पड़ा। मेरी मेल का जवाब आया था।
पलाश की पहली मेल। उसमें हिदायतें थी– ‘दूर रहा करो ऐसी बकवास बातों से। तुम्हारे कॉलेज में क्या-क्या ड्रामा चलता है?’ वग़ैरह, वग़ैरह। मैं बहुत ही ख़ुश थी कि पलाश ने मुझे मेल की। पहली बार लगा कि मैं बिना दोस्त के नहीं हूँ। मेरा दोस्त है मेरे साथ, मेरे मेलबॉक्स में। मेल आने की ख़ुशी इतनी थी कि बहुत दिनों तक मेरा दिमाग़ दौड़ा ही नहीं इस तरफ़ कि किस मेल का जवाब आया है। मुझे लगा अब उसको इंटरनेट मिल गया है, अब वो मुझे मेल किया करेगा। उसके बाद मैं मेल करती रही पर जवाब नहीं आते थे। मैं फिर भी आस का दामन थामे हर दूसरे दिन मेल करती रही।
उन दिनों मेल पर ई-कार्ड भेजने का नया चलन था। न जाने कहाँ से लड़कों को मेल आईडी मिल जाती थी और वो तरह-तरह के कार्ड्स भेजते थे। कुछ तो शालीन होते थे और कुछ बहुत ही बेहूदे। एक दिन ऐसे ही कार्ड से खिन्न था मन और पिछले ही दिन हॉस्टल में किसी ने मेरे लिये कार्ड और बुके भिजवाया था। इस बात से भी मन अजीब सा हो रहा था। उस दिन मैंने मेल में लिखा- ‘ना जाने कौन मुझे अजीब ग्रीटिंग कार्ड्ज़ भेजता रहता है?’ और यह भी कि ‘हॉस्टल में किसी ने बुके भी भिजवाया।’ इस बार फिर से जवाब आया। उसमें लिखा था– ‘कम्प्यूटर से कुकीज़ डिलीट कर दिया करो और हिस्ट्री भी।’ ऐसी कुछ नसीहतें।
इस बार मेरा दिमाग़ घूम गया। मतलब, पढ़ता तो वो मेरी सारी मेल्स है, लेकिन जवाब तभी देगा जब उसे पता चले कि मैं परेशान हूँ। दोस्त नहीं मसीहा बन रहा है? एहसान कर रहा है मुझ पर? ग़ुस्सा तो बहुत आया था, पर ना जाने क्यों उससे कुछ कहा नहीं मैंने। ना जाने क्या था जो मुझे उससे बाँधें हुए था? सोचा चलो, एहसान ही सही, कोई तो वास्ता है उसे मुझसे। जब हफ्ते भर उसकी मेल नहीं आती थी तो कभी मन में आता कि झूठमूठ ही कोई परेशानी लिख दूँ। लेकिन फिर मेरा आत्मसम्मान मुझे रोक लेता था। मेल के ज़रिये मैं दोस्ती की अपनी रस्में निभाती रही और वो अपनी।
रीबॉक नहीं तो रीबूक ही सही
अजीब सा आलम होता जा रहा था। मुझे क्या हो रहा था, यह मैं ख़ुद भी नहीं समझ पा रही थी। पहले कभी इस तरह मैं इतनी अकेली भी तो नहीं रही थी। सब कुछ नया और ख़ुशगवार ज़रूर था, लेकिन नयापन अपने साथ केवल कौतूहल ही नहीं एक असहजता भी तो लाता है। दिल बेक़रार होकर ढूँढता था कहीं कुछ जाना पहचाना सा, जिससे मैं वैसे ही मिल सकूँ जैसी मैं अंदर से थी। यहाँ आकर मैंने नये दोस्त बनाए जरूर थे, लेकिन वो जिस हर्षा के दोस्त थे वो लखनऊ वाली स्वाभाविक हर्षा नहीं थी। यह दोस्त जिस हर्षा के थे, उसे तो हर समय बातूनी, मजाकिया और चुलबुली सी रहना होता था। अक्सर ख़ुद से पूछती थी मैं- ‘क्या यह नये दोस्त उस हर्षा को बर्दाश्त कर सकेंगे, जो बहुत कम बोलती है? क्या उसके आस पास रहेंगे, जो चुप रहकर भी सहज रहती है? जिसे किसी का ध्यान अपनी तरफ़ नहीं चाहिये?’
यह सब नये दोस्त और ढ़ेरों दोस्त, दोस्त होकर भी दोस्त नहीं थे क्योंकि इनके साथ मैं “मैं” होकर नहीं रह सकती थी। शायद यही वजह थी कि मुझे पलाश की बहुत याद आने लगी थी। एक वही दोस्त था, जो पुरानी हर्षा का दोस्त था और मेल पर उसे मिलता था। लेकिन वो जितना मिलता था उससे मन नहीं भरता था। क्या कम हो जायेगा उसका, क्या बिगड़ जायेगा उसका अगर वो रोज़ मुझे मेल करे तो? क्यों नहीं मिल सकता यह सहारा मुझे रोज़? क्यों मैं ख़ुद से नहीं मिल सकती रोज़? वैसे मैं समझती तो थी कि वो जादूगर है जादू नगरी का, जहाँ होगा वहीं उसके चारों तरफ़ उसे सराहने वाले ढ़ेरों होंगे। भला उसे मुझ जैसी चुपचाप रहने वाली की कमी क्यूँकर महसूस हो? इसलिये कभी कोई ग़िला शिक़वा नहीं किया उससे।
मेरे क्लास में एक लड़का था समर, जिसकी चीक बोन पलाश जैसी थी तो उसके साइड फेस में पलाश की झलक मिलती थी। मेरे लिये इतना सा ही जाना पहचाना कुछ मिल जाना बहुत बड़ी बात थी इसलिये मैंने उससे दोस्ती कर ली। उसमें पलाश जैसी और कोई भी बात नहीं थी। लेकिन शराफ़त से मिलता था, तो दोस्ती चलती रही। एक दिन जब मैं पलाश को मेल करके कम्प्यूटर लैब से बाहर आ रही थी, तो कॉरिडोर में एक लड़का मिला। यह समर का हॉस्टल फ्रेंड था।
उसने कहा- ‘तुम यहाँ हो, समर तुम्हें वहाँ ढूँढ रहा है।’
मैंने पूछा- ‘क्यों?’ तो बोला-‘पता नहीं।’
मैं क्लास की तरफ़ बढ़ी और रास्ते में ही मुझे समर मिल गया। मैंने पूछा- ‘तुम मुझे क्यूँ ढूँढ रहे हो? क्या हुआ?’
उसने हैरानी से कहा-‘नहीं तो, किसने कहा!’ तभी वहाँ उसका वो दोस्त आया और बोला-‘तुम दोनों साथ में अच्छे लगते हो।’
मैंने हैरान होकर उस लड़के को देखा और फिर पलटकर समर को। समर ब्लश कर रहा था। इस वाक़ये पर मेरा दिमाग़ ठनका और उस दिन के बाद से मैंने समर को भरपूर इग्नोर करना शुरू कर दिया। अब मैं क्लास में भी उसके साथ नहीं बैठती थी। उसे शायद तकलीफ़ हुई होगी लेकिन मैं भी क्या करती। वो बात सुनकर अजीब सी वितृष्णा जाग उठी थी मन में। कुछ गलत हो रहा है, यह एहसास होने लगा था।
एक दिन, ऑर्गनायज़ैशनल बिहेवियर के सर किसी कारण से हमारी क्लास नहीं ले सकते थे, तो उनकी जगह M.Tech. का कोई लड़का क्लास लेने आया था। उसने अचानक किसी की बात सुनते हुए “हूँहूँ” कहा, तो लगा पलाश आ गया। वो लहजा, वो लय और वही अंदाज़ जैसे हूबहू पलाश। मैं कुछ देर उसे देखती रही और फिर सिर झुकाकर दुआ की- ‘काश! यह रोज़ हमारी क्लास लेने आया करे।’ मेरी दुआ असर भी लायी, उस पूरे सेमेस्टर में उसने ही हमारी क्लास ली। मैं उसकी क्लास में चौकन्नी रहती कि वो कब “हूँहूँ” करे और मैं पलाश के पास पहुँच जाऊँ अपने ख़यालों में। यह तिनके का सही, पर सहारा तो था।
2001 में इंटरनेट नया ही था। जैसे जब नया-नया लैन्ड लाइन आया, तब लड़कियों को ब्लैंक कॉल करने वालों की बाढ़ ही आ गई थी। वैसे ही अब लड़कियों को अनजान लड़के ईमेल और ई-कार्ड भेजने लगे। शायद ही कोई लड़की होगी, जिसे ऐसी अनजान लड़कों की मेल न आती होंगी और मैं भी कोई अपवाद नहीं थी। मेरे मेल बॉक्स में पलाश की मेल यदा-कदा ही होती, लेकिन ऐसी फालतू मेल रोज़ थोक में आती थीं।
एक दिन मेरे मेल बॉक्स में कई अनजान नामों की मेल्स के बीच एक मेल किसी “पलाश शर्मा” की थी। वो नाम पढ़कर मैं ख़ुद को रोक नहीं पाई और मैंने उसकी मेल पढ़ी। जवाब भी दिया। आख़िर वो इतना भी अनजान नहीं था क्योंकि वो मेरे दोस्त का हमनाम था। वो भी मुझे रोज़ मेल करने लगा। मुझे उसका नाम स्क्रीन पर देखकर एक सुकून मिलता था। लेकिन फिर वही मायूसी कि छलावा ही तो है। वो मेरे लखनऊ वाला पलाश तो नहीं था। इसलिये एक दिन मैंने उसको लिखा- ‘यह मेरी आख़िरी मेल है। वो आगे से मुझे मेल ना करे क्योंकि मुझे उसकी मेल बिन पढ़े डिलीट करने में कष्ट होगा।’ मैंने उसे यह भी बताया कि उसकी कुछ मेल का जवाब मैंने क्यूँ दिया था। भारी मन से मैंने वो क़िस्सा भी ख़तम किया।
कितना अजीब था कि वो सारे लड़के मुझे मेल करते थे जिनकी मुझे कोई कद्र नहीं थी और एक वही लड़का मेल नहीं करता था जिसके लिये मैं मरी जाती थी। पलाश मेरी समझ के परे था। कभी सोचती थी कि किसी लड़के से समझूँ कि पलाश जो करता है वो क्यूँ करता है। पर पलाश जैसा कोई हो भी तो, जो उसे जाने समझे और मेरे समझने लायक सुलझा सके। कभी शक़ होता था कि दिमाग में आलू भर गया है मेरे, तो कभी लगता इन्हीं लड़कों की ही “हाय!” लग गई मुझे!
दिल की गिरह भी कितनी निराली! मैं हर तरफ़ पलाश जैसा कोई ढूँढती थी और जिसमें उसकी ज़रा सी झलक मिल जाती, उससे दोस्ती कर लेती थी। और कुछ दिनों बाद पलाश मुझे मेरे ही ख़यालों में ऐसे छेड़ता था जैसे तनुजा त्रिवेदी मन्नू भैय्या से कह रही हों- “वाह शर्मा जी! रीबॉक नहीं तो रीबूक ही सही।”
मुश्किल से दोस्त मिलते हैं
हॉस्टल में उज्जैन की एक लड़की पीहू से अच्छी दोस्ती हो गई थी। वो शांत, सौम्य और कोमल स्वभाव की स्वामिनी थी। उसका साथ मुझे आरामदायक और स्नेह लेप सा शीतल लगता था और उसे भी मेरा साथ अच्छा लगता था। उसे मेरे बोलने के ढ़ंग से एक लगाव था। मेरी बोली में उर्दू और हिन्दी का सधा हुआ स्वाद था। वो कहती थी- ‘तू बोलती है, तो ऐसा लगता है कि ऑल इण्डिया रेडियो पर कोई प्रोग्राम सुन रही हूँ।’
इसके अलावा और ढ़ेरों दोस्त थे। किसी से दोस्ती का आधार कभी मेरी छरहरी काया थी तो कभी मेरा कूल ऐटिट्यूड। किसी को बातें रिझाती तो किसी को बात कहने का अंदाज़। कुछ मुझे “हर्षा दी” कहते थे, कुछ “हर्षा” और कुछ “ओय हीरोइन” कहा करते थे। लगभग पूरा हॉस्टल ही था बात करने के लिये और अच्छा वक़्त बिताने के लिये।
अब तो हमारी रैगिंग खतम होने का समय भी क़रीब आ गया था। इंदौर के साया जी बैंक्वेट हॉल में हमारी फ्रेशर पार्टी रखी गयी थी। मैंने उसमें ग़ज़ल गायी- “तुम्हारे शहर का मौसम बड़ा सुहाना लगे। मैं एक शाम चुरा लूँ, अगर बुरा ना लगे।” इसके अलावा फ़ैशन शो में भी हिस्सा लिया और कैट वॉक की। फिर डिस्को कार्यक्रम शुरू हुआ। तेज आवाज़ और लाल, हरी, पीली डिस्को लाइट्स की टिमटिमाहट में सब मस्त मगन होकर झूम रहे थे। आज सीनियर्स और जूनियर्स का कोई फर्क नहीं था, सारा माहौल दोस्ताना हो रखा था। “क़सम से तेरी आँखें अय्या रे अय्या” और “कोई कहे कहता रहे कितना भी हमको दीवाना” ऐसे ही मदमस्त गीतों पर हर कोई आड़ा-तिरछा, जैसा जिससे बन पड़ा, नाचने में लगा हुआ था।
एक लड़का मेरे पास आया और बोला- ‘साथ में डांस करते हैं।’ मैं उसके साथ डांस करने लगी तो थोड़ी ही देर में वो हाथ जोड़कर बोला- ‘माफ कर यार! तेरे साथ नहीं नाच पाऊँगा।’ कुछ सालों बाद, जब उसकी शादी तय हुई तो उसने मुझे अपनी मंगेतर के बारे में लिखा था- ‘शी इज़ अ गुड डान्सर, बट नौट अ ग्रेट डान्सर लाइक यू आर।’ हॉस्टल आकर मैं डांसर भी बन गयी थी। ऐसी तारीफ़ काले बादलों से झाँकते चाँद सी होती है, जिसकी चाँदनी और ठण्डक कभी कम नहीं होती। जब याद आये, मुस्कुराहट ले ही आती है और कुछ यादें ऐसी भी होती हैं, जिनकी कड़वाहट कभी कम नहीं होती।
कुछ देर डांस करने के बाद मुझे प्यास लगने लगी और मैं हॉल से निकलकर बाहर पानी पीने गयी। सामने सौरभ शुक्ला, भट्ट, चतुर्वेदी और कुछ दूसरे सीनियर लड़कों की एक टोली दिखी, मैं वहाँ से आगे बढ़ ही रही थी कि शुक्ला जी ने आवाज़ दी- ‘हर्षा! इधर आओ।’ शुक्ला जी से यह मेरी दूसरी मुलाक़ात थी। पहली मुलाक़ात लखनऊ में हुई थी, जब सरोज वर्मा क्लासेज़ से मुझे मेरे कोचिंग वाले सर ने उनका पता दिया था। लखनऊ में D.A.V.V. की बहुत इज़्ज़त थी, कारण तो मुझे आज भी नहीं पता, लेकिन धूम थी इस नाम की। कोचिंग वाले सर के कहने पर M.C.A. की काउन्सलिंग से पहले, मैं शुक्ला जी से मिलने उनके घर गयी थी। उन्होंने मुझे समझाया- ‘D.A.V.V. ही लेना। और रैगिंग से डरना मत। मैं वहीं रहूँगा, कोई मुश्किल नहीं होगी। तुम तो हमारे लखनऊ की ही हो।’
मेरी रैंक अच्छी थी और काउन्सलिंग में मुझे भोपाल रीजनल इंजीनियरिंग कॉलेज मिल रहा था, जिसे छोड़कर मैं यहाँ पहुँची थी। जब इंदौर वालों को पता चला तो उन्होंने कहा- रीजनल कॉलेज छोड़कर यहाँ! ख़ैर, मैं इंदौर आ गयी थी और शुक्ला जी नदारद! आज पहली बार इंदौर में शुक्ला जी मिले थे और वो भी अपने पूरे लोमड़ दल-बल के साथ। जूनियर की संस्कृति में सीनियर्स को ना करने की रस्म नहीं होती, इसलिये ना चाहते हुए भी मैं उनके पास गयी। पास पहुँचते ही दारू की ऐसी तेज़ गन्ध नाक में घुसी कि मन घबरा गया। मेरे पास पहुँचते ही शुक्ला जी अपने गिरोह की तरफ़ मुख़ातिब होकर बोले- ‘यह हमारे लखनऊ की हैं।’ फिर अपनी आँखों में लाल डोरियाँ खींचे, लड़खड़ाती आवाज़ में मुझसे बोले- ‘हम लोगों के साथ कुछ फोटो खिंचवा लो।’
आज सोचती हूँ मेरे पास ना कहने का विकल्प था क्या? उस समय तो असमंजस में थी कि तभी एक कड़क आवाज़ गूँजी- ‘क्या हो रहा है वहाँ पर? हर्षा, वहाँ क्या कर रही हो? इधर आओ।’
यह हमारे सुपर सीनियर अभय सर की आवाज़ थी। उस समय मेरे लिये भगवान का रूप थे वो। उन्होंने मुझे वहाँ से बुलाकर अन्दर भेजा और ख़ुद उन सीनियर्स के पास चले गये। आगे क्या हुआ मुझे नहीं मालूम, लेकिन उस दिन पहली बार इंदौर शहर ने मेरे दिल पर दोस्ताना दस्तक दी थी। अभय सर इंदौर के लोकल थे और रैगिंग में कुछ बार मेरा उनसे सामना भी हुआ था। वो बहुत कड़क क़िस्म के लगते थे और उस शाम से पहले तक मेरे लिये कोई ख़ास व्यक्ति भी नहीं थे। उस शाम उनके लिये मेरे दिल में वही जगह हो गयी जो मेरे लखनऊ के दोस्तों की थी। उन्होंने मेरे जीवन में दोस्तों की कमी का जो एहसास था, उसे एक हद तक कम कर दिया था। यह थे मेरे इंदौर के दूसरे अच्छे दोस्त, मेरे अभय सर।
पीहू और अभय सर दो अच्छे दोस्त भी बन गये थे, लेकिन जाने क्या था पलाश और मेरे बीच कि उसकी कमी हरदम महसूस होती थी। पलाश जैसा ही क्यूँ ढूंढ रही थी मैं? यह मेरी भी समझ से परे था। दिखाई ना देने वाली एक कच्ची सी डोर थी जो मेरे दिल को बाँधे मुझे उसकी तरफ़ खींचे जाती थी। पहले भी कई दोस्त बिछड़े लेकिन ऐसी तड़प तो कभी नहीं हुई थी! उससे यह बिछोह इतना भारी क्यूँ पड़ गया? 'ऐसा क्या है उसमें कि रुक-रुक कर उसकी ही तरफ़ चल देती हूँ और चलते-चलते उस पर ही रुक जाती हूँ मैं। पलट-पलट कर उसे ही देखती हूँ। मेल बस उसे ही करना चाहती हूँ और केवल उसी की मेल पढ़ना चाहती हूँ। दुनिया में हर बात उससे ही जुड़ी हो, क्यूँ ऐसी ख़्वाहिशें? कोई वादा तो नहीं किया हमने कि साथ बना रहेगा। सब कुछ कितना औसत सा था सिवाय उसके। अब वो सब मामूली और बिनमोल पल इतने ख़ास और अनमोल क्यूँ लगने लगे?' इन बातों का कोई जवाब नहीं था मेरे पास।
हो गया है तुझको तो प्यार
मैं पलाश को मेल तो हर दूसरे दिन करती थी, लेकिन साइबर कैफ़े रोज़ जाती थी। उसकी पुरानी मेल पढ़ने। “पुनि-पुनि कितनी हो पढ़ी पढ़ाई, दिल की प्यास बुझत ना बुझाई” वाला हाल था। लेकिन वो कहते हैं ना “सब दिन होत ना एक समान”, तो कभी-कभी मन खिन्न भी हो जाता था उसकी बेरुख़ी पर।
ऐसा ही एक दिन था वो, जब मैं कैफ़े से बहुत ही कैफ़ियत में हॉस्टल लौटी और मेरे रूम के बाहर ही मुझे निधि मिल गयी। निधि मेरी हॉस्टल की सहेली थी जो होटल मैनेजमेंट का कोर्स कर रही थी। उसने मेरे गले में अपनी बाँहें डाली और बोली- ‘जानेमन, क्या हुआ? तेरे पलाश की मेल नहीं आयी?’
हॉस्टल में सबको पता था कि लखनऊ का मेरा एक प्यारा दोस्त है, पलाश। मैंने ही कुछ दोस्तों को यह बताया था, लेकिन जंगल की आग की तरह यह बात पूरे हॉस्टल में फैल गयी थी। मैं साइबर कैफ़े बस उसकी मेल के लिये ही जाती हूँ, यह भी सब पर ज़ाहिर था। कुछ दोस्त ऐसे भी थे जो छेड़ते थे कि तू उससे प्यार करती है और वो तेरा बॉयफ्रेंड है। अमूमन तो मैं हँसकर टाल देती थी और कभी सच समझाने की नाकाम कोशिश भी करती थी। लेकिन आज मूड बहुत उखड़ा हुआ था तो मैंने चिढ़ कर कहा- ‘वो मेरा नहीं है। दोस्त है, बस।’
निधि ने मेरी आँखों में झाँककर कहा- ‘साली KK,(कुत्ती कमीनी) झूठ मत बोल। मेरी जान तेरी आँखें गाती हैं उसके प्यार का तराना।’
मेरा मूड महा ख़राब था। मैंने गहरी साँस लेकर उसकी बाँहों से ख़ुद को आज़ाद करते हुए कहा- ‘तंग मत कर यार।’
हॉस्टल में दोस्त इतने सस्ते में छोड़ देते, तो क्या ही बात होती। वो पीछे से मुझपर लदते हुए मेरे साथ मेरे कमरे में आ गयी और बोली- ‘मुझे एक मैजिकल ट्रिक पता है। मैं होली स्पिरिट को कॉल कर लेती हूँ। मुझे एक पेपर और पेन दे। तू उससे जो भी पूछे, वो एकदम सटीक जवाब देगी।’
मैंने एक और गहरी साँस छोड़ी और उसे बेज़ार ढंग से घूर कर आँखों-ही-आँखों में कहा- ‘बेटा, ऐसा टाइम पास और दूसरों के मज़े लेने वाली नौटंकी हम कॉलेज में रोज़ करते हैं।’
लेकिन वो भी कहाँ हथियार डालने वाली थी, सो डटी रही ढीठ की तरह। उसने ख़ुद ही मेरी टेबल से एक पेपर लिया, पेन लिया और पेपर के एक सिरे पर हाँ लिखा और दूसरे सिरे पर ना। फटाफट अपनी उँगली से छल्ला निकाला और चादर से लटका एक धागा खींच लिया। धागे के एक सिरे पर छल्ले को बाँधा और मुझे सामने बिठाकर अपनी आँखें मूँद कर कुछ बुदबुदाने लगी, होली स्पिरिट का आह्वान करने के लिये। उसकी ध्यानमग्न सूरत और नौटंकी देखकर मुझे हँसी आ गयी। ‘साली ड्रामेबाज़’- मैंने मन-ही-मन कहा। थोड़ी देर में उसने आँख खोलकर बड़े गम्भीर अन्दाज़ में कहा- ‘शी इज़ हीयर।’ मेरा मूड इतनी देर में इस सारे ड्रामे से ठीक हो चुका था।
उसने पूछा- ‘होली स्पिरिट, डज़ पलाश लव हर्षा?’
मुझे हँसी आ रही थी किस अंग्रेज़ की आत्मा है, जिसे क्वेस्चन भी अंग्रेज़ी में चाहिये। ख़ैर, निधि पूरी शिद्दत से एक्टिंग कर रही थी। उसने धागे का दूसरा सिरा पकड़कर छल्ले को पेपर के ऊपर, ठीक बीच में, हवा में साधा और फिर छल्ले को “हाँ” वाले सिरे तक खींचकर लाई और छोड़ दिया। अब धागे से लटका छल्ला पेंडुलम की तरह हाँ और ना के बीच झूल रहा था। शुरू में तो मुझे मस्ती ही सूझ रही थी, लेकिन जब छल्ला “ना” पर आकर लगभग रुकने ही वाला था। मेरे दिल में कोई तड़पकर चीखा- ‘नहीं, इधर नहीं रुकना।’
उस पल, मैं ख़ुद से हैरान हो गयी। यह क्या हो गया! कब हो गया! मैं जिसे दोस्ती समझ रही थी वो प्यार में कब बदल गयी! सच तो यह भी है कि यह नहीं होने देना था मुझे। यह क्या अनर्थ हो गया! होली स्पिरिट वाला खेल मुझे मेरे सच से मिलवा देगा, यह मैंने हरगिज़ नहीं सोचा था। उस समय पहली बार महसूस हुआ कि मैं पलाश से प्यार करने लगी हूँ। पर कब से? इसका कोई जवाब नहीं मिल रहा था मुझे अपने भीतर। समय भी ठहर कर मेरा उत्तर जानने के लिये मुझे घूर रहा था और छल्ला भी मेरे ही जवाब के इन्तज़ार में और भी धीमी गति से दोलन कर रहा था। निधि की जासूस नज़रें मेरे चेहरे पर आते जाते हर हाव-भाव को पकड़ने की कोशिश में लगीं थीं। अन्ततः थककर और मुझसे निराश होकर छल्ला झूलते-झूलते हाँ पर रुका, पर मेरा यूरेका मोमेंट तो पहले ही हो चुका था और मैं किसी दूसरी ही सोच की गिरफ़्त में थी।
निधि ने छेड़ते हुए कहा- ‘साली KK, कहा था ना मैंने?’ फिर वो मुझसे लिपटकर गाने लगी- “आपके प्यार में हम सँवरने लगे, टूटकर बाज़ूओं में बिखरने लगे।”
मैंने उसे ‘बकवास ना कर’ कहकर अपने कमरे से जबरन निकाला और दरवाज़ा बंद कर बेड पर लेटी सोचती रही- ‘कब हो गया ऐसा! दूसरी बार जब उससे नाराज़ हुई थी, तब तक तो ठीक थी मैं। जब वो घर आकर ढ़ेरों बातें करता था तब सम्मोहित सी तो रहती थी, लेकिन प्यार? नहीं। प्यार तब भी नहीं करती थी। तब भी नहीं जब उसे छोड़कर यहाँ आयी थी। मुझे अच्छी तरह याद है। उसके बाद तो मिली ही नहीं, फिर कब दगा दे दिया दिल ने! कब पाला बदलकर उसके खेमे में जा छिपा। कहीं हॉस्टल के इन दोस्तों ने ठेल-ठेल कर मेरा यह हाल तो नहीं कर दिया?’ हॉस्टल के दोस्त अजीब होते हैं और उनकी दोस्ती उनसे भी ज्यादा अजीब। किसी को भी किसी से प्यार करवा सकते हैं वो, ठान लें अगर। जाने कौन सा “परमार्थ भाव” है यह!
मेरे महबूब में क्या नहीं!
प्यार कब हुआ यह तो पता नहीं चला, पर अपनी बेचैनी को प्यार कहना अच्छा ज़रूर लग रहा था। लेकिन पापा और समाज? ख़ुद पर इतना विश्वास हो गया था कि मैं सब सम्हाल लूँगी। राख से जी उठा फ़ीनिक्स थी मैं। मेरे लिये क्या असंभव? एक सुकून का एहसास हो रहा था। जो बेचैनी दिल को जलाती रहती थी, अब उसमें एक ठण्डक का एहसास हो रहा था मुझे। लेटे-लेटे मेरे मन में पलाश से पहली बार मिलने से लेकर अब तक हुई हर एक बात, बंद आँखों के पीछे, चलचित्र की तरह चल रही थी।
उसका वो नैस्टी कमेंट, वो अजीब सपना, फिर दोस्ती, चुप्पी और फिर से दोस्ती। उसके साथ नवल किशोर रोड पर चलना, उसके साथ बस स्टॉप पर बस का इंतज़ार करना, उसका लगभग हर शाम को मेरे घर आना, उसकी ढ़ेरों बातें। बातें करते समय उसकी आँखों की चंचल चमक, बात करते हुए उसके हाथों का हवा में बार-बार उठना और तरह-तरह की आकृतियाँ बनाना, उसके चेहरे की माँसपेशियों की हरकत, उसकी हल्की सी मुस्कान और उसका खिलखिला कर हँस देना। कम्प्यूटर कोचिंग वाला क़िस्सा सुनकर उसका मुझे डाँटना। यहाँ आने से पहले उसका मुझे ढ़ेरों हिदायतें देना। उसका लड़कों को सांड कहना। कैसे बोला था वो- ‘लड़के सांड होते हैं कहीं भी फट पड़ते हैं।’
उस समय वो ग़ुस्से में था, तो मैं हँसी नहीं। लेकिन आज... आज बीती हुई हर बात एक नये ही कलेवर में सामने आ रही है। प्यार का गुलाबी रंग जैसे पार्श्व में खिल गया हो, जैसे होली वाली रंगीन दोपहर हो गयी हो। उसके माथे पर लाल रंग का टीका कितना सुन्दर लग रहा है! टीका इतना सुन्दर और आकर्षक भी लग सकता है! लाल रंग में धड़कता हुआ दिल भी महसूस हो सकता है! पलाश जितना जादुई है, जितना दिलकश है, जितना चितचोर है, जितना शोख़ है, क्या दुनिया में कुछ भी ऐसा है जो उसके जादू को, उसके तिलिस्म को और भी बढ़ा सके? यह लाल टीका मानो इतरा कर कह रहा था- ‘कभी मेरे बारे में सोचा तुमने, मैं तुम्हारे पलाश के माथे पर सज जाऊँ तो?’
उफ़्फ़! सच में! पलाश की भौंहें जैसे सुडौल सुन्दर धनुष और लाल टीका जैसे दहकता हुआ जानलेवा बाण, जो धनुष पर मेरे दिल में उतरने के इरादे से चढ़ गया हो। ओह! पलाश, तुम और कितने अच्छे लग सकते हो! और क्या ख़ूबसूरती इस क़दर चुभती हुई तृष्णा भी जगा सकती है! मुझे याद आ रहा था कि कैसे पंकज के कंधे पर पलाश अपने दोनों हाथ रखकर कभी-कभी लद जाता था। हाय! अचानक ही मुझे अपने लड़की होने का अफ़सोस होने लगा।
काश! मैं भी लड़का होती, तो मैं भी पलाश के कंधे पर हाथ रखे पूरे शहर भर में घूमती। काश! मैं लड़का होती! काश!... ओह! क्या खो दिया मैंने लड़की होकर।
यह सिलसिला तब टूटा, जब पीहू ने आवाज़ दी- ‘हर्षा, चल डिनर टाइम। नौ बज गये!’ मैं जब लेटी थी तब दिन था और इस समय तो कमरे में पूरी तरह अन्धेरा हो चुका था। बाहर का गलियारा लाइट्स से जगमगा रहा था। मैंने मुस्कुराकर, अपनी चुँधियाई आँखों को मिचमिचाते हुए, लिपटकर पीहू से कहा- ‘चल।’
मेस्स वाली आंटी आज बहुत ख़ुश लग रही थी। मेस्स की प्लेट्स भी साफ़, चमकदार लग रही थीं। खाना सर्व करने वाली बाइयाँ भी बड़ी ख़ुशी से अपना काम कर रहीं थीं। आज मेस्स के शोर में एक संगीत था। जैसे शाम को किसी शाख़ पर ढ़ेरों चिड़ियाँ चहचहा रहीं हों। सब कुछ एकदम परफेक्ट, कहीं किसी शिक़ायत की कोई गुंजाइश ही नहीं, सब कुछ सही ठिकाने पर। मेस्स की टीवी पर कोई फ़िल्म चल रही थी जिसे कई लड़कियाँ बड़े मन से देख रहीं थीं। बीच-बीच में ‘ओय होय’ का शोर और सीटियाँ बज रहीं थीं। मैं खाना खाकर मेस्स से निकली और चहलकदमी एरिया के एक चबूतरे पर बैठ गयी।
यहाँ बहुत सी लड़कियाँ खाना खाने के बाद टहल रहीं थीं। टहलना दिन की बदहज़मी वाली ख़बरों और घटनाओं को हज़म करने का लक्ष्य भी पूरा करता था। किस ने किस को डिच कर दिया? कौन किसके साथ कहाँ दिखा? किसने किसको क्या बुरा या ग़लत कह दिया? हॉस्टल भाषा में बोले तो कैच अप टाइम। मैं यह सब देख रही थी और अपनी ही दुनिया में मस्त भी थी कि मेरे ख़यालों में एक तेज स्वर लहरी ने खलल डाला- “मेरी आँखों में प्यारा सा सपना है, है कशिश मीठी, यादों का पहरा है।” ओह! ग्यारह बज गए। एकता कपूर का सीरियल शुरू हो गया स्टारप्लस पर “कहीं ना कहीं तो होगा।”
अब बाहर हल्की ठण्ड और गहरी ख़ामोशी छा गयी थी। मैं अब भी वहीं बैठी थी। मन निधि की गैरज़िम्मेदारी पर गुस्सा भी करता कि एक वही है जिसे मेरे हाल का कुछ तो अंदाज़ा है। उस समय तो ज़बरदस्ती लिपट रही थी। अभी आकर गले नहीं लगा सकती क्या? छेड़ में ही कह दे- ‘ही लव्स यू एंड यू लव हिम।’ मैं उसे झिड़क ही दूँगी लेकिन उसने मेरी झिड़क की परवाह कब की है? ना जाने कहाँ “होली स्पिरिट” खेल रही होगी, बदमाश। इस पूरी दुनिया में क्या कोई भी नहीं जो मेरी दुनिया बदल जाने की ख़ुशी बाँट सके?
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