पचास-बावन बरस का अजबसिंह, इस समय अपने होटल के उस कमरे में मौजूद था, जहां वो उन लोगों के साथ बैठता था कि बातें बाहर न निकले। कोई सुन न सके । यहां क्लोज-सर्किट टी.वी. भी रखा हुआ था । यदा-कदा टी.वी. का नॉब घुमाता और होटल में हो रही हलचल को देखता रहता ।

चेहरे से अजबसिंह मिलनसार व्यक्ति लगता था । होंठों पर फैली मुस्कान । हाव-भाव में मौजूद मैत्री भाव । आमतौर पर लोग उससे बात करना पसन्द करते थे।

इस वक्त उसका चेहरा कठोर हुआ पड़ा था । हाथ से वो बराबर टेबल पर पड़े गोल पेपरवेट को हिलाये जा रहा था । एकाएक हथेली को पेपरवेट पर रखकर उसे रोका और टेबल पार कुर्सी पर बैठे बज्जू को देखने लगा।

बज्जू ने बेचैनी से पहलू बदला ।

"बीचपॉम शिप में सामान के मौजूद होने के बारे में तुम लोगों को किसने बताया ?"

"ये मैं नहीं बता सकता ।" बज्जू ने इंकार में सिर हिलाया ।

"क्यों ?" अजबसिंह की आंखे सिकुड़ी ।

"अपने लोगों से जितनी गद्दारी कर ली । उतनी ही बहुत है ।" बज्जू ने गम्भीर स्वर में कहा--- "मैं अपने लोगों के लिए हर काम करने को तैयार रहता था । परन्तु पूरे शिप को तबाह करके, समन्दर में डुबो दूं। हजार से ज्यादा लोगों की जानें ले लूं।  इस बात के लिए मेरी आत्मा ने मुझे गवाह नहीं दी ।"

"मैं तुम्हें खत्म भी कर सकता हूं ।"

"उससे तुम्हें कोई फायदा नहीं होगा ।" बज्जू ने उसकी आंखों में झांका ।

अजबसिंह के होंठ भिंच गए ।

"क्या चाहते हो ?"

"कुछ भी नहीं । अपने लोगों की बात मैं नहीं मानना चाहता था कि शिप को तबाह करके बे-कसूर लोगों की जान ले लूं । इसलिए तुम्हारे पास आकर तुम्हें सब कुछ बता दिया । बदले में हो सके तो मुझे छिपा दो । मेरे लोग अब तक समझ चुके होंगे कि मैं उनसे गद्दारी कर चुका हूं । शिप उड़ाने के काम का इंचार्ज मुझे बनाया गया और मैं एकाएक लापता हो गया। वो अब तक मुझे तलाश करने लगे होंगे ।" बज्जू ने गम्भीर स्वर में कहा--- "वो किसी और के हवाले ये काम करने की चेष्टा करेंगे । शिप को बचा सकते हो । तो बचा लो ।"

"बिचपॉम शिप को कुछ नहीं होगा । इन बातों की खबर मुझे न मिली होती तो कुछ भी हो सकता था ।" कहने के साथ ही उसने रिसीवर उठाया और नम्बर मिलाने लगा ।

लाइन मिलने पर बात हुई ।

"हां । मैं अजबसिंह । सुनने लायक खबर ये है कि बिचपॉम शिप को-दूसरे लोग समन्दर में ही उड़ाने की योजना बना रहे हैं । बिल्कुल पक्की खबर है । ऐसा कुछ न हो । सारा मामला संभाल लो । कुछ देर तक अजबसिंह बातें करता रहा, फिर रिसीवर रखकर अजबसिंह बोला--- "तुम मेरे पास इसलिए आए हो कि मैं तुम्हें सुरक्षा दूंगा । लेकिन कब तक तुम्हारे लोगों से तुम्हें बचा कर रख सकूंगा । वो कम नहीं है।  आखिर कभी भी मेरे पास से बाहर निकलोगे । वे तुम्हें मार देंगे । गद्दार को तो कोई भी जिंदा नहीं छोड़ता।"

बज्जू ने व्याकुलता से पहलू बदला ।

"तुम ठीक कह रहे हो अजबसिंह ।" बज्जू ने गम्भीरता से कहा--- "मैंने जाने कितने गलत काम किए हैं । कईयों को मारा भी है । उम्र के इस पड़ाव पर पहुंच कर सब कुछ याद आने लगा है । मर जाऊं तो मेरी किस्मत । फिर भी कोशिश करूंगा कि तुम्हारे पास छिपकर, भविष्य के बारे में सोच सकूं । मैंने अपनी दौलत पहले ही सुरक्षित रखी हुई है । धीरे-धीरे तय कर लूंगा कि मुझे यहां से किधर निकलना है । ज्यादा देर तुम पर बोझ नहीं बनूंगा ।"

उसे देखते हुए अजबसिंह उठा और टहलने लगा ।

"बज्जू ।" चहलकदमी करते हुए गम्भीर स्वर में कहा अजबसिंह ने--- "तुम जब तक चाहो, मैं तुम्हें अपने पास सुरक्षित रख सकता हूं । लेकिन अपने लोगों के बारे में मुझे कोई तो जानकारी दो । कुछ तो बताओ । सबसे पहले तो ये बताओ कि तुम लोगों का बड़ा कौन है । लता का नाम अक्सर सुनने में आता है । लेकिन....।"

"सॉरी अजबसिंह । वो अच्छे-बुरे जैसे ही लोग हैं । बरसों मैंने उनके बीच काम किया है । मेरी वजह से वो किसी तरह की मुसीबत में फंसे, ये गलत होगा ।" बज्जू ने गम्भीर निगाहों से उसे देखा ।

अजबसिंह ठिठका । उसे देखा फिर तुरन्त ही सिर हिलाकर बोला ।

"मोना चौधरी का क्या किस्सा है । बात बीच में रह गई थी । उनके बारे में क्या बता रहे थे ?"

"मोना चौधरी के बारे में जितना बताया है । उतना ही है । खास कुछ नहीं ।" बज्जू ने गम्भीर स्वर में कहा--- "उसके गिर्द छोटा सा जाल फैलाकर उसे बिलासपुर तक आने के लिए मजबूर कर दिया था कि उसे अपने काम के लिए तैयार कर सकें । वो काम के लिए तैयार भी हो गई । काम की कीमत एक करोड़ रुपया, उसके कहने पर दिल्ली में ही उसके साथी पारसनाथ को डिलीवर कर दिया। वो काम के लिए चली तो पीछे इंस्पेक्टर सुनील नेगी लग गया । इसी घबराहट में वैन के ड्राइवर का बैलेंस बिगड़ गया । वैन खाई में गिरी और मोना चौधरी मर गई ।"

अजबसिंह के होंठ सिकुड़ गए।

"ये तो डबल चोट लगी तुम्हें । काम भी नहीं हुआ और करोड़ों रुपया भी गया ।" अजबसिंह ने शांत स्वर में कहा--- "एक करोड़ जैसी रकम देकर, मोना चौधरी से क्या काम करवा रहे थे ।"

बज्जू ने अजबसिंह को देखा । पहलू बदला ।

"ये बात बताने में तो तुम्हें एतराज नहीं होना चाहिए ।" अजबसिंह ने उसकी आंखों में झांका ।

"मोना चौधरी ने किसी तरह तुम्हें फंसाकर, इस बात के लिए तैयार करना था कि बिचपॉम जहाज में आ रहे सामान को समन्दर में गिरवा दो । ताकि उसे हमारे आदमी उठा लें।"

अजबसिंह मुस्कुरा पड़ा ।

"तुम लोगों ने कैसे सोच लिया कि मुझे मोना चौधरी इस काम के लिए तैयार कर लेगी।"

"ये बात मोना चौधरी ही जाने । उसने कहा था कि वो तुम्हें तैयार कर लेगी ।"

"खूब ! दिलचस्प थी मोना चौधरी । जिंदा नहीं रही । वरना उससे मुलाकात करने में मजा आता ।"

बज्जू ने कुछ नहीं कहा ।

"मैं तुम्हें अपनी आदमी के साथ ऐसी जगह भेज देता हूं जहां तुम्हारा कोई साथी नहीं पहुंच सकता । तुम्हारी जान को कोई खतरा नहीं होगा ।" अजबसिंह के शब्दों में सख्ती आ गई--- "लेकिन इस बात को हमेशा जेहन में रखना कि मेरे साथ जब भी तुमने कोई चालाकी दिखाने की कोशिश की, मेरे आदमी तुम्हें खत्म कर देंगे।"

"चालाकी ?" मुस्कुरा पड़ा बज्जू--- "चालाकी कहां दिखा पाऊंगा । मेरी तो अपनी जान खतरे में है । जिनके लिए जिनके साथ काम करता रहा, आज तो वो ही मेरी जान के पीछे हैं । तुमने मुझे सहारा दिया । छिपने की सुरक्षित जगह दे रहे हो । तुम्हारा तो एहसानमंद हूं । मेरे लायक कोई काम हो तो कहना ।"

"अजबसिंह ने टेबल के नीचे लगा रखी बेल बजाई और कहा ।

"मेरा आदमी आ रहा है । उसके साथ तुम्हें सुरक्षित जगह पर...।"

"मानो तो एक बात अवश्य कहूंगा ।"

"क्या ?"

"मुझे इस होटल से, अपने से दूर मत भेजो । कुछ दिन मुझे यहीं रख लो । यहां हर वक्त तुम्हारे आदमी मौजूद रहते हैं । यहां में खुद को ज्यादा सुरक्षित समझूंगा।  सच बात तो ये है कि मैं घबराया हुआ हूं, अपने साथियों से । कुछ दिन बीत जाएंगे तो फिर मुझे कहीं और छिपा देना । तब तक मेरा डर मेरे काबू में आ जाएगा ।" बज्जू ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी ।

तभी दरवाजा खुला और एक व्यक्ति ने भीतर प्रवेश किया । पढ़ा-लिखा, समझदार लग रहा था । उसने सफेद कोट-पैंट और लाल टाई लगा रखी थी । हिमाचल का ही लग रहा था वो ।

"आपने बुलाया सर ?" बज्जू पर नजर मारकर उसने अजब सिंह से कहा ।

ये राकेश जोगिया था और अजबसिंह का खास-खतरनाक आदमी माना जाता था।

"तुम्हारी बात पर मुझे कोई एतराज नहीं ।" अजबसिंह ने बज्जू से कहा । फिर राकेश जोगिया से बोला--- "बज्जू को नीचे, लोहे वाली कोठरी में रख दो । वो है तो कैदी की कोठरी, लेकिन ये मेहमान के तौर पर उसमें रहेगा । इसके बाहर घूमने में कोई पाबंदी नहीं है । ये इसकी मर्जी पर है कि ये हर समय भीतर रहना चाहता है या बाहर भी आना चाहता है ।"

"अच्छी बात है ।" राकेश जोगिया ने सिर हिलाया ।

"किसी को मालूम न हो कि ये यहां है ।"

राकेश जोगिया ने पुनः सिर हिलाया ।

"आओ ।" जोगिया ने बज्जू से कहा ।

बज्जू ने अजबसिंह को देखा फिर उठकर, राकेश जोगिया के साथ बाहर निकल गया।

अजबसिंह दरवाजे को तब तक देखता रहा जब तक वो दोनों बाहर निकल गए और जाते-जाते जोगिया ने दरवाजा बंद नहीं कर दिया । फिर सोचों में डूबे रिसीवर उठाकर फोन नम्बर मिलाया ।

नम्बर मिला । फिर लाइन मिली ।

"हैलो ।" उधर से आवाज आई ।

"बात कराना ।" अजबसिंह ने सोचों में डूबे कहा ।

"जी ।" दूसरी तरफ से आने वाले स्वर में सतर्कता आ गई थी ।

ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा । अजबसिंह के कानों में नई आवाज पड़ी ।

"कहो अजबसिंह ?"

"बज्जू मेरे पास आया...।"

"मालूम है ।"

"ओह ।" अजबसिंह के होंठों पर मुस्कान उभरी--- "मुझ पर नजर रखवा रहे हो ।"

"तुम भी तो मुझ पर नजर रखवाते हो ।" दूसरी तरफ से मुस्कुराहट भरी आवाज आई--- "हम लोगों में ये अच्छी बात है कि अपने कामों के साथ-साथ हम लोग एक-दूसरे पर नजर भी रखते हैं । यानी कि हम लोगों में से ही कब कौन हम पर नजर रख रहा है, मालूम नहीं होता । खैर, बज्जू की बात करो ।"

अजबसिंह ने उसे बज्जू से हुई सारी बात बताई ।

"आगे कहो ।"

"भगवानदास ।" अजबसिंह शब्दों पर जोर देकर कह उठा--- "बज्जू को लता ने बीचपॉम जहाज को तबाह करने के काम पर लगाया था कि हमारा माल सुरक्षित हम तक न पहुंच सके । इस काम को करने की कोशिश पहले मोना चौधरी ने करनी थी । वो जान गंवा बैठी । इधर बज्जू को ये पसन्द नहीं आया कि जहाज में मौजूद निर्दोष यात्रियों की जान ली जाए । तो वो मेरे पास आ गया । अपने लोगों की और जहाज के खतरे में होने की बातें बताई । उसके चेहरे से मैंने भांप लिया कि वो सच कह रहा है । परन्तु बज्जू की उम्र बीत गई अपने लोगों के साथ काम करते हुए । देर से सुनने में आ रहा था कि बज्जू का ओहदा बढ़ने वाला है । ऐसे में वो अपने लोगों से गद्दारी करें, विश्वास नहीं आता।"

"हूं ! कहना क्या चाहते हो ?"

"यही कि बज्जू कहीं ना कहीं हरामीपन दिखा रहा...।"

"वो ठीक भी तो हो सकता है ।"

"गलत भी तो हो सकता है ।" अजबसिंह के दांत भिंच गए ।

दो पल के लिए लाइन में चुप्पी-सी रही ।

"तुमने उसे तहखाने के केबिन में रखा है ?" भगवान दास की आवाज आई ।

"हां । ये उसकी इच्छा थी कि फिलहाल उसे कहीं दूर न भेजकर, होटल में ही रखूं ।"

"अजब ।"

"हूं ।"

"ये बात तेरी जंची कि बज्जू ने अपने लोगों के लिए गद्दारी की आशा करना, असंभव-सी बात है।"

"तो मैं क्या समझूं ?" अजबसिंह के होंठ भिंच गए ।

"उसे छूट दे दे । इधर-उधर आने की । अगर उसने कोई गुल खिलाना होगा तो खिलाएगा । हर वक्त उस पर नजर रखवाना ।"

"बहुत हिम्मत दिखाई बज्जू ने जो कोई योजना बनाकर मेरे पास आया आ गया ।" अजबसिंह का चेहरा कठोर हो गया ।

"हो सकता है, ऐसा कुछ भी न हो ।"

"ऐसा है । अगर उसने वास्तव में अपने साथियों को छोड़ दिया हो तो उनके बारे में और कुछ भी बताता । परन्तु अपने साथियों के बारे में कुछ नहीं बताया । मेरे सवाल को बहुत खूबसूरती से टाल गया ।"

"इन हालातों में उसके साथ सख्ती करने का तो कोई फायदा नहीं होगा ।" भगवान दास की आवाज आई।

"नहीं । तेरी बात ठीक लगी कि बज्जू को यही दिखाया जाए कि मैंने उसकी बात पर विश्वास कर लिया है । उसे होटल में कहीं भी आने-जाने की छूट दे दी जाए । वो जो भी करना चाहेगा । फौरन हमारी नजरों में...।"

तभी इंटरकॉम का बजर बजा ।

"होल्ड कर ।" अजबसिंह ने कहा और इंटरकॉम का रिसीवर उठाया--- "कहो ।"

दूसरी तरफ उसका आदमी था जो होटल में आने-जाने वालों पर नजर रखता था ।

"सर ! छोटे मालिक आए हैं । साथ में कोई लड़की भी है ।" आवाज कानों में पड़ी ।

"लड़की ?" अजबसिंह के चेहरे पर अजीब से भाव उभरे ।

"जी ! लड़की खूबसूरत है और दोनों हंस-मुस्कुराकर बात कर रहे हैं।"

"ठीक है ।" अजबसिंह ने इंटरकॉम का रिसीवर रखा--- फिर भगवान दास से बोला--- "भगवान दास ! बज्जू के बारे में ऊपर वालों को खबर कर देना । जरूरत पड़े तो इस बारे में फिर तुमसे बात करूंगा ।" कहने के साथ ही अजबसिंह ने रिसीवर रखा और चेहरा सामान्य बनाये, दरवाजे की तरफ बढ़ गया।

■■■

"जैसा समझाया है, सब याद है ?" संजीव सिंह ने धीमे स्वर में मोना चौधरी से कहा ।

"हां ।" मोना चौधरी ने सहमति में सिर हिलाया ।

"जैसा भी हो, शादी हो जाए हमारी । फिर कोई परवाह नहीं । तब तक तुम मां से यही कहती रहना कि तुम बहुत बड़े मां-बाप की बेटी हो । तुम समझ चुकी हो कि मां से कैसी बातें करनी है तुम्हें ?"

मोना चौधरी ने सिर हिलाया । नजरे होटल में फिर रही थी ।

दो पलों की खामोशी के बाद संजीव सिंह एकाएक कह उठा ।

"पापा आ रहे हैं सुधा । पापा की फिक्र मत करो । वो छोटे बड़े, अमीर-गरीब की परवाह नहीं करते ।"

अजबसिंह कुछ कदम पहले ही ठिठक गया था ।

मोना चौधरी संजीव सिंह के साथ, उसके पास पहुंची।

"सुधा, ये मेरे पापा हैं । जिनकी मैं हमेशा ही तारीफ करता हूं और सुन-सुनकर तुम तंग आ चुकी हो ।" संजीव सिंह ने इस तरह बात की जैसे मोना चौधरी को बहुत पुराना जानता हो ।

मोना चौधरी दोनों हाथ जोड़कर, अजबसिंह को देखकर मुस्कुराई ।

अजबसिंह ने शांत मुस्कान के साथ सुधा फिर संजीव को देखा ।

"तुमने इससे मेरा परिचय नहीं कराया ?" अजबसिंह ने कहा ।

"पापा ।" संजीवसिंह ने कहा--- "सुधा नाम है इसका । बहुत पुरानी फ्रेंड है । आपका और मां का आशीर्वाद लेकर हम दोनों शादी करने जा रहे हैं । एकदम फौरन।"

अजबसिंह ने सिर से पांव तक मोना चौधरी को देखा ।

"मैंने तो पहले ही कह रखा है कि जिसके भी सिर पर हाथ रखने को कहोगे । आशीर्वाद दे दूंगा ।"

"मां की दिक्कत है पापा ।" संजीव सिंह गहरी सांस लेकर बोला ।

अजबसिंह ने मोना चौधरी से कहा ।

"अपने मां-बाप के बारे में बताओ बेटी ।"

सुधा ने संजीव सिंह को देखा ।

"मुझे क्या देखती हो सुधा--- बता दो ।"

"क्या बताऊं ?" मोना चौधरी प्यार भरे स्वर में कह उठी--- "सच वाली बात या झूठ वाली ।"

अजबसिंह मस्करा पड़ा।

"तुमने ये शब्द मां के सामने दोहरा दिए तो फिर हमारी शादी नहीं होगी ।" संजीव सिंह उखड़े स्वर में बोला--- "समझदारी से काम लो । झूठ बोलना सीखो सच से जिंदगी नहीं चलती । मां के सामने वो ही कहना, करना, जैसा मैंने समझाया है ।"

"पापा से क्या कहूं ?"

"इन्हें सच बताओ ।"

मोना चौधरी ने अजबसिंह को देखकर धीमे स्वर में कहा ।

"जी ! मेरे पापा नहीं है । बूढ़ी मां है । गुड़गांव में रहती है । मैं नर्स हूं ।"

"नर्स होना बुरी बात नहीं है बेटी ।" अजबसिंह ने कहा--- "फिर मुझे तो तुम्हारे भविष्य से मतलब है ।"

"लेकिन मां को तो बड़े घर की बहू चाहिए ।" संजीव सिंह ने उखड़े स्वर में कहा ।

"सब्र से काम लो । वो तुम्हारी मां है ।" अजब सिंह ने कहा--- "तो मां से तुमने क्या कहने का सोचा ?"

"वो मैंने सुधा को समझा दिया है ।"

"झूठ इस तरह बोलना कि तुम्हारी मां शक न करें ।" अजब सिंह ने कहा और वहां से चला गया ।

मोना चौधरी ने अजबसिंह को जाते देखा ।

"पापा को कोई एतराज नहीं कि मैं कैसी लड़की को पसंद करता हूं । मां ही झंझट खड़ा करती है ।"

मोना चौधरी ने संजीव सिंह को देखा ।

"तुम्हारे पापा दिलचस्प लगे हैं।"

"यस ! पापा बढ़िया है ।" संजीव सिंह ने गहरी सांस ली--- "आओ मां के पास चलते हैं सुधा । मां के सामने मत पूछ बैठना कि सच कहूं या झूठ । इतना ध्यान रखना कि मां से तुमने अपने बारे में जो कहना है, झूठ ही कहना है।"

"अच्छा ।" मोना चौधरी ने भोलेपन से सिर हिला दिया।

संजीव सिंह मोना चौधरी को साथ लिए होटल की एक गैलरी में प्रवेश कर गया । रास्ते में मिलने वाले होटल के कर्मचारी संजीव सिंह को सलाम कर रहे थे ।

कुछ दरवाजों को पार करके, गैलरी में दोनों एक बंद दरवाजे के सामने रुके ।

"ये मां का ऑफिस है । होटल के सब काम मां ही देखती है । पापा ने कोई बिजनेस शुरू कर रखा है। वे व्यस्त रहते हैं । मां के सामने संभलकर पेश आना । वरना हमारी शादी कभी नहीं हो पाएगी ।" इसके साथ ही संजीव सिंह ने हाथ बढ़ाकर दरवाजा धकेला और मोना चौधरी के साथ भीतर प्रवेश कर गया ।

पचपन बरस की वो आकर्षक औरत थी । कद-काठी, लम्बी चौड़ी थी । साड़ी पहने हुए थी । सिर के बाल काले थे । जो कि काले किए हुए थे । चेहरे पर एक भी झुर्रियां नहीं थी । वो इस वक्त फाइल में उलझी हुई थी । चेहरे पर व्यस्तता भरी थकान दिखाई दे रही थी । नजर का चश्मा सिर पर रखा हुआ था । उसका नाम कमलेश था।

आहट पाकर उसने सिर घुमाया तो अपने बेटे संजीव सिंह को भीतर प्रवेश करते देखा । उसने पुनः अपनी नजरें फाइल पर लगा दी । संजीव सिंह पास आते हुए बोला ।

"मां । तुम्हें कितनी बार कहा कि होटल के सारे काम पापा के हवाले कर दो । या जो लोग होटल में काम करते हैं, उनसे काम लिया करो । सारा दिन खुद ही लगे रहते हो ।"

"बहुत हमदर्दी है तेरे को मां से ।" कमलेश के निगाह फाइल में लगे कागजों पर थी ।

"मां से हमदर्दी नहीं होगी तो किससे होगी ?"

"तो तू होटल के कामों को संभाल ले । जहां जरूरत पड़ेगी । मैं तेरी सहायता कर दिया करूंगी ।"

"मैं ? नहीं मां-मेरे बस का नहीं है, ये सब करना ।"

"हमदर्दी शब्दों से नहीं, कुछ करके दिखाई जाती है ।" कमलेश ने फाइल से नजरें उठाई--- "छोड़  इन बातों को । तू कहां था । एक दिन के लिए गया और तीन दिन बाद आ रहा है।

"मैं तेरे ही काम में व्यस्त था ।"

"मेरे काम में-दूसरा बहाना नहीं मिला तेरे को ।"

"सच मां-मैं तेरे लिए बहू ढूंढ रहा था ।"

"बहू ?" कमलेश ने सिर उठाकर संजीव सिंह को देखा तो उसकी निगाह मोना चौधरी पर पड़ी ।

मोना चौधरी के होंठों पर मुस्कान उभरी । आगे बढ़कर उसने कमलेश के पांव छू लिए ।

"ये है बहू ?" कमलेश के चेहरे पर उलझन थी ।

"हां मां ।" संजीव सिंह मुस्कुरा रहा था ।

"मैंने तेरे को कई बार कहा कि यूं ही किसी लड़की को मत उठा लाना । तूने मेरी नहीं मानी । अपनी करके ही रहा ।" कमलेश ने उखड़े स्वर में कहा--- "ये लड़कियां तुझसे नहीं । तेरी दौलत से प्यार करती हैं संजीव...।"

"इस बार तो तुम गलत हो मां । सुधा ऐसी नहीं है ।"

"हूं । तो सुधा नाम है इसका ।" कमलेश ने तीखी निगाहों से मोना चौधरी को देखा ।

"यस मां । बहुत अच्छी लड़की है । ये तो तैयार ही नहीं हो रही थी, मुझसे शादी करने के लिए ।"

"क्यों ?" स्वर तीखा ही था कमलेश का।

"इसके मां-बाप को होटल बिजनेस वाले लोग ही नहीं पसन्द । मुझे देखे बिना ही इसके मां-बाप ने इस रिश्ते से मना कर दिया । वो तो मैं मिला इसके मां-बाप से । दो-चार मुलाकातों के बाद विश्वास हुआ, उनको कि होटल बिजनेस वाले लोग बुरे नहीं होते । तब कहीं जाकर उन्होंने हां की ।" संजीव सिंह जल्दी से कह उठा ।

कमलेश ने बारी-बारी दोनों को देखा ।

"इसके मां-बाप करते क्या हैं ?" कमलेश की आंखें सिकुड़ी ।

"कुछ भी नहीं करते मां ।"

"कुछ भी नहीं करते ?" कमलेश के माथे पर बल नजर आने लगे ।

"हां मां । कुछ भी नहीं करते ।"

"बैंक से रिटायरमेंट लेकर पेंशन खाते हैं क्या ?" कमलेश की आवाज में कड़वापन आ गया ।

"तुम समझी नहीं । इसके मां-बाप तो ऐश करते हैं । उनका एक पांव हिन्दुस्तान में तो दूसरा यूरोप के किसी देश में । इंग्लैंड में हीरे-जेवरातों के दो शो-रूम हैं। सिंगापुर में अपनी शिपिंग कंपनी है । अफ्रीका में कपड़े की दो मिलें हैं और हिन्दुस्तान के लगभग हर शहर में करोड़ों की जायदाद है। तुम अमीर उसी खानदान की बहू चाहती थी । देख लो मां । मैं वैसी ही बहू ले आया । अब तो तुम्हारे आशीर्वाद की जरूरत है ।"

कमलेश ने मोना चौधरी को देखा फिर संजीव सिंह से कह उठी ।

"पहले मैं अवश्य कहती थी कि मुझे अमीर घर की बहू चाहिए । लेकिन अब मैंने विचार बदल दिया है ।"

"क्या मतलब ?"

"मैंने फैसला किया है कि मुझे शरीफ घर की पढ़ी-लिखी लड़की चाहिए । जो मेहनती हो । होटल के कामों को देखने-संभालने में मेरा हाथ बंटा सके ।" कमलेश ने गम्भीर स्वर में कहा ।

"मां । सुधा पढ़ी-लिखी और मेहनती लड़की है ।"

"लेकिन बड़े घर की है । जिम्मेवारी के काम संभालने में शायद ये दिलचस्पी न ले ।"

संजीव सिंह ने मोना चौधरी से कहा।

"जवाब दो मां को ।"

"क्या कहूं ?"

"शादी के बाद तो मां के कामों में हाथ बंटाओगी ?"

"क्यों नहीं ।"

"सुना मां ?"

"सुन लिया, इसे जहां से लाए हो, वापस छोड़ आओ ।"

"क्यों ?"

"अपनी सूरत देखो और इसकी । ये बहुत खूबसूरत है । इसके सामने तुम कुछ भी नहीं हो । जो देखेगा, इसे देखेगा । तुम्हें पूछेगा भी नहीं । ये तुम्हारे वजूद को फीका कर देगी ।"

"क्या कह रही हो मां । मैं तो बहुत हैंडसम-।"

"अपनी तारीफ मत करो । इसे छोड़ आओ ।"

"मैंने पापा से आशीर्वाद भी ले लिया है और...।"

"तुम पहले भी तीन बार पापा से आशीर्वाद ले चुके हो । कोई फायदा हुआ ?"

संजीव सिंह ने सकपकाकर मोना चौधरी को देखा ।

"मां जी । मोना चौधरी ने शांत स्वर में कहा--- "आप क्या सोचती हैं कि अमीर घर की लड़कियां मेहनत नहीं करती ।"

"जिन्हें बैठे-बैठे सब कुछ मिल जाए, वो मेहनत क्यों करेगा ।"

"आप ठीक कहती हैं । लेकिन मेरे पापा को बैठे-बैठे सब कुछ नहीं मिला । वो जब घर से निकले थे तो उनकी जेब में पांच सौ रुपये थे । पापा ने सब कुछ अपनी मेहनत से बनाया है और वो हमें भी शिक्षा देते हैं कि कर्म के बिना जीवन बेकार है । हर वक्त कुछ न कुछ करते रहो । मेहनत करो अगर आगे बढ़ना है तो । बैठकर खाने से तो खजाना भी खाली हो जाता है । हम खानदानी अमीर नहीं हैं। मेहनत करके बने हैं । पापा के इंग्लैंड के दोनों शो-रूम को मैंने संभाल रखा है । होटल बिजनेस इतना कठिन नहीं, जितना कि जेवरातों के शो-रूम को संभालना । आपकी इच्छा नहीं तो संजीव से मैं शादी नहीं करूंगी । चाहूं तो कर सकती हूं । लेकिन इस तरह की शादी मेरे घर वालों को भी पसन्द नहीं आएगी । आपसे मिलकर मुझे अच्छा लगा । अब मैं चलूंगी । नमस्कार, संजीव मुझे छोड़ आओ ।"

संजीव सिंह ने हड़बड़ाकर अपनी मां को देखा ।

"मां तुम...।"

"संजीव ।" कमलेश ने मोना चौधरी को देखते हुए गम्भीर स्वर में कहा--- "सुधा को होटल के सबसे बढ़िया कमरे में ठहरा दो ।"

"अच्छा मां ।" संजीव सिंह के चेहरे पर खुशी के भाव उभरे ।

"डिनर के वक्त हम मिलेंगे और अपने पापा से भी कह देना कि डिनर हमारे साथ लें ।" कमलेश का स्वर सामान्य था ।

"ठीक है मां । पापा से कह दूंगा ।" फिर वो मोना चौधरी से बोला--- "तुम अभी तक खड़े हो । मां के पांव छूकर आशीर्वाद लो।"

"जरूरत नहीं । रात को डिनर पर बात करेंगे । जाओ ।"

संजीव सिंह ने मोना चौधरी का हाथ पकड़ा और बाहर निकल गया ।

कमलेश सोचपूर्ण निगाहों से दरवाजे को देखती रही फिर बड़बड़ा उठी ।

"लड़की तो खानदानी लगती है । बाकी बातें डिनर टेबल पर ही करूंगी ।"

■■■

"तुम्हारी मां तो बहुत अच्छी है ।" मोना चौधरी ने होटल के खूबसूरत सूट में कुर्सी पर बैठते हुए कहा।

"मैंने कब कहा बुरी है ।"

"फिर तुमने, मुझसे झूठ क्यों बुलवाया ।"

"वो भी जरूरी था सुधा डार्लिंग। " संजीव सिंह मुस्कुराकर मोना चौधरी की तरफ बढ़ा ।

"पीछे रहो । तुम्हारे इरादे ठीक नहीं लग...।"

"अब तो हम पति-पत्नी होने जा रहे...।"

"जब हो जाएं, तब करीब आना । अभी तुम्हारी मां का भरोसा नहीं । वो इंकार भी कर सकती...।"

पास पहुंच चुके संजीव सिंह ने उसके हाथ पकड़कर कुर्सी से उठाया और बांहों में भर लिया ।

"ये क्या कर रहे हो ।"

"अपनी होने वाली पत्नी को प्यार ।"

"ये सब शादी के बाद । छोड़ो ।"

संदीप सिंह ने और भी कसकर भींच लिया ।

"हम कल ही ब्याह कर लेंगे सुधा ।"

"ब्याह के बाद मेरे पास आना ।" मोना चौधरी ने कहा-"जानते हो ।"

"क्या ?"

"छोड़ो तो बताऊं ।"

"लो छोड़ दिया ।" संजीव सिंह ने उसे बाहों से आजाद किया--- "कहो, क्या कहना चाहती हो ?"

"जानते हो । आज तक मुझे किसी मर्द ने हाथ नहीं लगाया । मैंने लगाने ही नहीं दिया ।"

"सच ।"

"हां ।"

"लो मेरी कसम ।"

"तुम्हारी कसम ।"

"मैं कितना किस्मत वाला हूं, जो तुम मिली । संजीव सिंह ने पुनः उसे बांहों के घेरे में ले लिया ।

"ये सब मत करो । मैं वैसी लड़की नहीं हूं । शादी से पहले मुझे ऐसा करना अच्छा नहीं लगता ।"

"कल हमारी शादी हो जाएगी ।"

"मां जी, ये नहीं पूछेंगी कि मेरे मां-बाप कहां है । शादी में उन्हें तो होना ही चाहिए ।"

"तब अपने मां-बाप को यूरोप ट्रिप पर भेज देना । कह देना महीने बाद लौटेंगे ।" संजीव सिंह ने मस्ती भरे स्वर में कहते हुए उसे और भी भींच लिया--- "शादी के बाद तो मां हमारी चालाकी पर हंसेगी ।"

"छोड़ो मुझे ।"

"क्यों ?"

"तुमसे बात करनी है ।" मोना चौधरी ने खुद को उसकी बांहों से छुड़ाते हुए कहा--- "शादी ब्याह मजाक नहीं होता । अभी मैंने तुमसे तो कुछ पूछा भी नहीं ।"

संजीव सिंह ने उसे बांहों के घेरे से आजाद किया ।

"क्या पूछना चाहती हो ?"

"तुम्हारी मां ने कहा कि तुम पहले भी तीन बार लड़कियों को लेकर उनसे आशीर्वाद लेने आ चुके हो ।"

"हां ।"

"कौन थी वो लड़कियां ?" मोना चौधरी हक भरे उखड़े स्वर में कह उठी।

"दोस्ती थी । शादी के लिए अच्छी लगी ।"

"तुमने उन्हें भी कहा होगा कि अब तो हमारी शादी हो जानी है । उनके साथ कुछ किया भी होगा।"

"नहीं ।" संजीव सिंह ने जल्दी से कहा ।

"झूठ बोलते हो ।"

"सच कह रहा हूं । मां ने उन्हें देखते ही, बाहर निकल जाने को कहा, तो वो रुक कैसे सकती थी ?"

मोना चौधरी संजीव सिंह को घूरती रही फिर तीखे स्वर में बोली ।

"आज तक तुमने जो किया या नहीं किया । वो तुम्हारा मामला था । लेकिन अब-तुम्हारी कोई बात तुम्हारी नहीं है । आज के बाद किसी तरह की कोई गड़बड़ की तो मैं अपनी मां के पास चली जाऊंगी।"

"ओह सुधा ! तुम कैसी बातें कर रही...।"

"अब जाओ । मुझे आराम करने दो । एक घंटा नींद भी लूंगी । डिनर से एक घंटा पहले मुझे लेने के लिए आ जाना ।"

"ओ.के. डार्लिंग । जो हुक्म ।" संजीव सिंह ने मुस्कुराकर कहा और बाहर निकल गया ।

■■■

बज्जू ने सिर उठाकर दरवाजे की तरफ देखा ।

"मैं देखने आया था कि तुम ठीक जगह पर हो ।" भीतर प्रवेश करते हुए अजब सिंह बोला ।

"तुम्हारा ही आदमी यहां छोड़ गया था ।

"अपने आदमी पर मुझे भरोसा है । लेकिन बज्जू मेहमान हो तो नजर मारने आना ही पड़ता है ।" कहते हुए अजबसिंह पास आया और कुर्सी पर बैठ गया ।

ये साधारण-सा कमरा केबिन जैसा था । सिंगल बैड बिछा था । इसके अलावा वहां दो कुर्सियां, टी.वी. और फ्रिज था । अटैच बाथरूम था। खाना मिलता रहे तो यहां वक्त बिताया जा सकता था ।

बज्जू की निगाह, अजब सिंह पर थी ।

"मुझे बताने के लिए कुछ याद आया ?"

"क्या ?"

"कैसी भी बात-जो मेरे काम की हो सकती है ।" अजबसिंह की नजरें बज्जू पर थी--- "मैं तुम्हारे साथियों से बचाकर रख रहा हूं । वो तो पहले से ही मेरे पीछे हैं । अगर उन्हें मालूम हो गया कि मैंने तुम्हें अपने पास रखा है तो सारी शर्म छोड़कर, वो मेरे होटल पर टूट पड़ेंगे ।"

"उन्हें ।" बज्जू ने गम्भीर स्वर में कहा--- "मालूम नहीं होगा ।"

"तुम्हें मेरे काम की बात याद नहीं आई ?"

"नहीं ।"

"क्या ख्याल है, कुछ याद आएगा ?" अजब सिंह ने बज्जू की आंखों में देखा ।

"नहीं । याद आने लायक मेरे पास कुछ नहीं है ।"

"लता कहां रहती है ?"

"मालूम नहीं ।"

"तुम मुफ्त में मेरे पास इस तरह नहीं रह सकते । मेरे काम की कोई खबर तो देनी ही होगी ।"

"कुछ याद आया तो अवश्य बताऊंगा ।" बज्जू ने धीमे स्वर में कहा।

अजबसिंह उसकी आंखों में देखने लगा ।

"इस कमरे का दरवाजा खुला है । तुम यहां कैद में नहीं हो । लेकिन अकेले बाहर जाने की कोशिश मत करना । बाहर जाने का मन हो तो वो-बेल का स्विच दबा देना । मेरे आदमी के साथ बाहर जाना।"

"इस बात का मैं ध्यान रखूंगा ।" बज्जू ने सिर हिलाया--- "मेरे साथी पानी के जहाज को तबाह कर सकते हैं । जहाज को बचाने के लिए तुम्हें कोशिश करनी चाहिए । उसमें हजारों लोग हैं ।"

"जहाज को कुछ नहीं होगा ।" अजबसिंह मुस्कुराया ।

"समझा नहीं ।"

"जहाज हिन्दुस्तान के समन्दर में प्रवेश करेगा ही नहीं । वो आज शाम तक दूसरे देश के बन्दरगाह पर ऐसा रुकेगा कि वहां से चलने में उसे सप्ताह लग जाएगा । जहाज के कंट्रोल रूम में खबर दे दी गई है कि उसमें बम है । अगर फौरन ही जहाज को पास के बन्दरगाह पर न ले जाया गया तो रिमोट से जहाज में बम विस्फोट कर दिया जाएगा।"

"ओह ।"

"इस वक्त जहाज में इस बात का फैसला किया जा रहा है कि क्या किया जाए ।"

"यानी कि वो जहाज पास के बन्दरगाह की तरफ मुड़ जाएगा ।"

"उन्हें ऐसा ही करना पड़ेगा ।" अजबसिंह ने गम्भीर स्वर में कहा--- "जहाज में सवार लोगों की जान का खतरा वे कभी भी नहीं उठाना चाहेंगे । बम की खबर उसको बेशक झूठा माने । तब भी जहाज को पास के बन्दरगाह पर वे अवश्य ले जाएंगे ।"

"ऐसा हुआ तो वे एक-दो दिन में जहाज को बन्दरगाह से रवाना कर देंगे ।"

"हां । लेकिन बन्दरगाह छोड़ने से पहले जहाज में छोटा-सा बम विस्फोट होगा और पुनः जहाज को वहीं खड़ा रहने की धमकी दी जाएगी, तो उस जहाज को वहां रुकना पड़ेगा।" अजबसिंह पक्के स्वर में कह उठा--- "सीधी-सी बात है कि कम से कम एक सप्ताह से पहले जहाज बन्दरगाह नहीं छोड़ पाएगा ।"

"वो सामान जहाज में है, जिसे संभालना है तुमने--- वो...।"

"उसकी तुम फिक्र मत करो ।" अजब सिंह व्यंग भरे स्वर में कह उठा--- "दो दिन बाद वो सारा सामान हिन्दुस्तान में पहुंच जाएगा।  सब इंतजाम हो चुका है।"

बज्जू गहरी सांस लेकर रह गया ।

तभी अजबसिंह के मोबाइल फोन की बेल बजी ।

"हैलो ।" फोन निकालकर, अजबसिंह ने बात की ।

"अजबसिंह ।" गम्भीर-मर्दाना स्वर उसके कानों में पड़ा ।

"जी ।" अजबसिंह सतर्क नजर आने लगा ।

"तुम्हें चार प्वाइंट पर जाना है । वहां कुछ गड़बड़ है ।"

"कैसी गड़बड़ ?"

"ये मुझे भी स्पष्ट नहीं है । वहां पहुंचोगे तो मालूम हो जाएगा ।"

"ठीक है।  मैं आज ही वहां के लिए चल देता हूं ।"

"वहां के हालातों के बारे में मुझे स्पष्ट बताना ।"

"जी ।"

दूसरी तरफ से लाइन कटते ही, अजबसिंह ने फोन बंद करके जेब में रखा ।

बज्जू की नजरें उस पर ही थी ।

"बज्जू ।" अजबसिंह ने गम्भीर स्वर में कहा--- "मुझे कहीं जाना पड़ रहा है । तुम यहां ठीक तरह से रहना । तुम्हारी कोई भी शरारत मेरे आदमियों को पसन्द नहीं आएगी।"

"बार-बार ये बात मत कहो । मैं शरारत क्यों करूंगा । बाहर मेरे ही साथी मेरे दुश्मन बन चुके होंगे ।" बज्जू ने गम्भीर स्वर में कहा--- "खुद को बचाये रखने के लिए तो मैं तुम्हारे यहां छिपा पड़ा हूं ।"

अजबसिंह ने कुछ नहीं कहा और सिगरेट सुलगा ली ।

"तुम्हारे पांव अच्छे हैं मेरे लिए ।"

"क्या मतलब ?" बज्जू के चेहरे पर अजीब-से भाव उभरे ।

"तुम्हारे पीछे-पीछे मेरा बेटा, एक लड़की को ले आया । उससे शादी करना चाहता है । वो लड़की मुझे पसन्द आई और मुझे पूरा विश्वास है कि मेरी पत्नी को भी पसन्द आएगी ।"

बज्जू के होंठों पर मुस्कान उभरी ।

"मतलब कि मुझे शादी में शामिल होने का मौका मिलेगा ।"

"तुम यहां रहकर खुद को बचा लो । यही बहुत है ।"

बज्जू ने सिर हिलाया ।

"छोटी सी सलाह है अजबसिंह ।" बज्जू बोला--- "अपनी औलाद को पास मत रखो । तुम खतरनाक कामों में फंसे पड़े हो। तुम्हारे ढेरों दुश्मन हैं । कोई तुम्हारे बेटे को भी निशाना बना सकता है ।"

"इस खतरे का एहसास है मुझे।" कहने के साथ ही अजबसिंह पलटा और बाहर निकल गया ।

■■■

"जाना जरूरी है ?" कमलेश ने शांत निगाहों से अजबसिंह को देखा ।

"हां कमलेश ।" अजबसिंह ने सिर हिलाया--- "मुझे वहां जाने को कहा गया है । चार नम्बर प्वाइंट पर कोई गड़बड़ होगी ।"

"खतरे में पड़े रहते हो हमेशा ।"

"इन्हीं खतरों ने हमें जिंदगी भी दी है कमलेश ।" अजबसिंह गम्भीर भाव में मुस्कुराया--- "हमें जीने का ढंग सिखाया है ।"

कमलेश व्याकुल-सी दिखी ।

"अजब ।" कमलेश पास आकर उसके साथ सट गई--- "छोड़ नहीं सकते, इन खतरों के भरे कामों को।"

"बुरा क्या है इनमें ।" अजबसिंह उसी ढंग में मुस्कुराया--- "मेरा तो काम ही यही रहा है । खतरा ही मेरी जिंदगी है।"

"मैं चाहती हूं तुम ये सब छोड़ दो अजब । हमारे पास किस चीज की कमी है ।"

"जब कमी थी तो इन कामों का सहारा लिया था । आज सब कुछ है तो, इन हम कदम काम का साथ कैसे छोड़ दूं । अब तो ये काम मुझे नहीं छोड़ेंगे ।" अजब सिंह धीमे स्वर में कह उठा--- "वो लोग, जिन्होंने बुरे वक्त पर मुझे सहारा दिया, कभी भी पसन्द नहीं करेंगे कि ऐसे मौके पर उनका साथ छोड़ दूं ।"

"सारी उम्र तो बिता दी, उनके लिए काम करते हुए ।" कमलेश ने गहरी सांस ली ।

"उन लोगों को ऐसी बातें नहीं, काम चाहिए ।"

"पच्चीस-तीस साल हो गए उनके लिए काम करते हुए । लेकिन वे कौन लोग हैं । मालूम नहीं कर सके ।"

"बहुत कोशिश की, गुपचुप तरीके से की उनके बारे में कुछ मालूम हो सके । लेकिन आज तक नहीं मालूम हो सका कि मैं किसके लिए काम करता हूं । उसके भेजे जो लोग, मेरे पास आते हैं, किसी काम के लिए । वो भी मेरी ही तरह इस बात से अंजान होते हैं, वे किसके लिए काम कर रहे हैं । उन्हें दौलत मिलती है और वे काम करते हैं बस ।"

"जो आपसे काम लेता है, उससे बात करके तो देखो । शायद आपका पीछा छोड़ दे।"

"ऐसा सम्भव नहीं । क्योंकि उन्हें न जानते हुए भी मैं उनके बारे में इतना जान गया हूं कि वो मुझे छोड़ेंगे । ये नहीं लोग कैसे काम कराते हैं । इनके ठिकाने कहां-कहां हैं। बहुत से आदमियों को मैं जानता हूं । और भी कई बातें हैं जो मेरे सामने खुल चुकी हैं । ऐसे में लोग मुझे छोड़ना कभी भी पसन्द नहीं करेंगे ।" अजबसिंह ने कमलेश का कंधा थपथपाकर उसे अपने से जुदा किया--- "फिर भी मौका मिलने पर मैं उस व्यक्ति से बात करूंगा जो फोन पर मुझसे बात करता है और काम करने का ऑर्डर देता है । उससे कहूंगा कि मैं रिटायर्ड होना चाहता हूं।"

कमलेश के चेहरे पर परेशानी और व्याकुलता के भाव थे ।

"अब आप कहां जा रहे हैं ?"

"चार नम्बर प्वाइंट पर ।"

"अपना ध्यान रखिएगा ।"

अजबसिंह ने सिर हिलाते हुए कमलेश का कंधा थपथपाया फिर पलटकर बाहर निकल गया ।

कमलेश कई सालों तक दरवाजे को देखती रही, फिर आगे बढ़कर सोफा चेयर पर बैठी और हाथ बढ़ाकर रिसीवर उठाने के पश्चात नम्बर मिलाने लगी । फौरन ही लाइन मिली।

"हैलो ।" औरत की आवाज कानों में पड़ी ।

"लता ।" कमलेश का स्वर धीमा और स्थिर था ।

"मैडम आप । लता की आवाज संभल गई--- "हुकुम मैडम ?"

"बज्जू को अजब सिंह ने होटल में रखा है ।" कमलेश बोली--- "क्या कर रहा है बज्जू।"

"हम खुद उलझन में है मैडम । मोना चौधरी की मौत के बाद मैंने बज्जू पर वो जहाज उड़ाने की जिम्मेदारी डाली थी। हां कहने के साथ ही वो गायब हो गया और खबरें मिली कि अजब सिंह के पास पहुंच गया है । वो कोई योजना बनाकर अजबसिंह के पास पहुंचा है या गद्दारी करके । ये बात हम समझ नहीं रहे ।"

"बज्जू गद्दारी कर सकता है ?"

"मेरे ख्याल से तो नहीं ।"

"कर सकता है । सब कुछ हो सकता है । सतर्क रहा करो लता । किसी पर विश्वास मत करो ।"

"यस मैडम।"

"अजबसिंह के पास बज्जू क्या कर रहा है मालूम करो ।"

"जी ।"

"अजब सिंह का चार प्वाइंट क्या है ?"

"वो ही आश्रम है ।"

"अजबसिंह को उन लोगों ने वहां भेजा है । वहां क्या हो रहा है ?" कमलेश के स्वर में ठहराव था ।

"सब ठीक है मैडम अगर कुछ हुआ तो मुझे खबर नहीं ।"

"कुछ तो हुआ ही है । अजबसिंह यूं ही नहीं गया चार नम्बर पर। मालूम करो, क्या वहां क्या हो रहा है ।" कमलेश का लहजा सख्त हो गया ।

"यस मैडम ।"

कमलेश ने रिसीवर रख दिया । चेहरे पर सोच के भाव थे ।

■■■

रात के साढ़े नौ बज रहे थे ।

मोना चौधरी और संजीव सिंह उस खूबसूरत डायनिंग टेबल पर मौजूद थे । टेबल पर बर्तनों का ढका खाना पड़ा था । बीते पन्द्रह मिनट से वो ऐसे ही बैठे थे ।

"डिनर के लिए अभी मां जी नहीं आईं।" मोना चौधरी ने टोका।

"नौ बजे तक वे डिनर ले लेती हैं । आज तो...।"

तभी दरवाजा खुला और कमलेश ने भीतर प्रवेश किया । वो मोना चौधरी को देखकर हल्के से मुस्कुराई फिर आगे बढ़कर कुर्सी पर जा बैठी । शरीर पर कॉटन की हल्की सी साड़ी थी ।

"बहुत देर लगा दी आने में मां ।" संजीव सिंह बोला।

"फोन आ गया था । बातों में देर हो गई ।" कमलेश ने सरल स्वर में कहा । मोना चौधरी को देखा--- "तुमने अपना क्या नाम बताया था बेटी ?"

"सुधा ।" संजीव सिंह ने टोका ।

"तुम खामोश रहो । मैं तुम्हारे से बात नहीं कर रही ।"

संजीव सिंह ने गहरी सांस लेकर मुंह घुमा लिया ।

"सुधा ! तुम्हें यहां किसी तरह की तकलीफ तो नहीं ?" कमलेश ने पूछा ।

"अपने घर में तकलीफ कैसी मां जी ।"

"गुड !" कमलेश मुस्कुराई--- समझदारी से जवाब देना भी आता है ।"

मोना चौधरी ने शर्माकर मुंह घुमा लिया।

"पापा नहीं आए अभी तक ?" संजीव सिंह ने टोका--- "उन्हें कहा था मां कि हम यहां...।"

"पापा, किसी काम पर बाहर गए हैं । वे कुछ दिन बाद वापस आएंगे ।" कमलेश ने कहा ।

"बाहर ?" संजीव सिंह के होंठों से निकला--- "जब मैं आया तब तो पापा ने नहीं बताया कि वो कहीं बाहर जाने वाले हैं । वो भी कुछ दिन के लिए ।"

"उन्हें अचानक जाना पड़ा ।" कमलेश ने सामान्य स्वर में कहा ।

"ये तो बहुत बुरा हुआ ।" संजीव सिंह ने मोना चौधरी को देखा-फिर कमलेश को--- "मैं तो सोच रहा था कल हम शादी कर लेंगे । मेरी शादी में हमेशा ही अड़चन आती है । कभी तुम टोक देती हो तो कभी पापा । अब सब कुछ ठीक है तो पापा शहर से बाहर चले गए।"

एकाएक मोना चौधरी कह उठी ।

"मुझे तो भूख लग रही है मां जी।"

इसके साथ ही तीनों ने डिनर शुरू कर दिया ।

"संजीव ।" कमलेश ने खाते-खाते कहा--- "मैं बहुत थक गई हूं, काम करते-करते । अब और काम नहीं होता । आराम करने को भी मन करता है ।"

"तो मां आराम कर लिया करो । काम करने वाले कम नहीं हैं जो....।"

"जो काम मैं संभालती हूं, उसमें घर का बंदा हो तो ठीक रहेगा । बिजनेस के बीच की बातें दूसरों को नहीं मालूम होनी चाहिए ।"

"तो ?" संजीव सिंह कमलेश को देखने लगा--- "तुम कहना क्या चाहती हो मां ?"

"मेरे काम, मेरी बहू संभाल सकती है ।" मुस्कुराते हुए कमलेश की निगाह, मोना चौधरी की तरफ उठी--- "सुधा ! तुम अपने मां- बाप को बुला लो । मैं चाहती हूं ये शादी जल्दी से जल्दी हो जाए।"

"लेकिन मां ।" संजीव सिंह बोला--- "इसके माता-पिता तो विदेश में है । वो अभी नहीं आ सकते ।"

"तुम फिर बीच में बोले । बात तो सुधा भी बता सकती है ।"

"ठीक है मां । नहीं बोलता ।"

कमलेश ने मोना चौधरी को देखा ।

"तुम्हारे माता-पिता कहां है सुधा ?"

"वो तो यूरोप में है मां जी । दो महीने से पहले नहीं लौटेंगे । परसों ही वो गए हैं । हम दोनों को आशीर्वाद देकर ।"

"ओह ।"

"उनके बिना मैं शादी कर सकती हूं । जाते समय वो हां कह गए हैं । शादी पर जो भी खर्चा होगा, वो पैसे हैं मेरे पास और...।"

"पैसे की बात नहीं बेटी ।" कमलेश ने टोका और सोच भरे स्वर में कह उठी--- "तुम दोनों जब भी चाहो शादी कर सकते हो ।"

"हम कल ही शादी करेंगे-क्यों सुधा ? मन्दिर में सादा-सा ब्याह...।"

"नहीं ।" मोना चौधरी कह उठी--- "कल हम शादी नहीं करेंगे ।"

"क्यों ?" संजीव सिंह सकपकाया ।

"मेरे मम्मी-पापा तो यूरोप में, बिजनेस टूर पर हैं । उनका न आ पाना तो मजबूरी है । कम से कम शादी में तुम्हारे मम्मी-पापा तो हों ।" मोना चौधरी ने कहा।

"पापा आज ही बाहर गए हैं और कुछ दिन बाद लौटेंगे ।"

"जल्दी क्या है ?" मोना चौधरी ने सहज स्वर में कहा--- "जब तुम्हारे पापा लौटेंगे । तब शादी कर लेंगे ।"

"सुधा तुम-।" संजीव सिंह ने कहना चाहा ।

"सुधा ठीक ही कहती है ।" कमलेश कह उठी--- "इतनी भी जल्दी क्या है शादी की । कुछ दिन रुका जा सकता है ।"

संजीव सिंह ने गहरी सांस लेकर, उखड़े अंदाज में दोनों को देखा ।

"आप दोनों की ये मर्जी है तो फिर मैं क्या कह सकता हूं ।" कहने के साथ ही वो खाना खाने लगा ।

खाने के दौरान उनमें यूं ही इधर-उधर की बात हुई ।

डिनर समाप्त हुआ तो मोना चौधरी ने संजीव सिंह से कहा।

"मुझे अपना होटल नहीं दिखाओगे ?"

"चलो । अभी दिखा देता हूं ।"

"आप भी चलिए मां जी ।"

"दिनभर की थकी हूं । मैं आराम करूंगी । तुम दोनों होटल का फेरा लगा लो ।" कमलेश ने मुस्कुराकर कहा ।

होटल के भीतर टहलते हुए दोनों कॉफी शॉप में कुर्सियों पर जा बैठे ।

"क्या लाऊं मालिक ?" एक वेटर फौरन पास पहुंचा ।

"कॉफी ले आओ ।"

वेटर चला गया तो संजीव सिंह ने शिकायत भरे स्वर में कहा ।

"तुमने ब्याह से इंकार क्यों किया ? हां कह देती तो कल हमारा ब्याह हो जाता ।"

"मैं डर गई थी ।" मोना चौधरी ने हड़बड़ाकर कहा ।

"कैसा डर ?"

"कल शादी होने की बात से डर गई थी । पहले कभी शादी नहीं की ना, इसलिए।"

संजीव सिंह ने उसे घूरा फिर तीखे स्वर में कह उठा ।

"बेवकूफ हो तुम ।"

"हां ।" मोना चौधरी ने मुंह लटकाकर कहा--- "मुझे भी ऐसा लगता है कि मैं बेवकूफ हूं ।"

"क्या मतलब ?" संजीव सिंह के माथे पर बल नजर आने लगे ।

"कोई भी समझदार लड़की तुमसे शादी नहीं करेगी । मैं बेवकूफ हूं, तभी तो हां कर दी ।

"शादी होने के बाद तुम जैसी बेवकूफ को इस बात का जवाब दूंगा ।" संजीव सिंह ने शरारत भरे स्वर में कहा ।

तभी वेटर टेबल पर दो कॉफी रख गया ।

दोनों ने कॉफी का घूंट भरा ।

"तुम्हारे पापा कब तक आ जाएंगे ।"

"क्या मालूम । मां के कहने के ढंग से तो लगता है कि पांच-सात दिन लग जाएंगे ।" संजीव सिंह बोला--- "मैंने तुमसे पूछा नहीं कि तुम कहां तक पढ़ी हुई हो । मां के काम में हाथ बंटा लोगी ?"

"क्यों नहीं ।" मोना चौधरी ने इधर-उधर देखते हुए कहा--- "ये काम तो मेरे लिए मामूली है । होटल में बहुत लोग आते-जाते हैं ।"

"हां । भून्तर में सिर्फ हमारा होटल ही चलता है । कुल्लू में ठहरने वाले कई लोग यहीं आकर ठहरते हैं । यहां शांति है ।"

"कुल्लू पास ही है यहां से ?"

"पांच किलोमीटर की दूरी पर है।" कहते हुए संजीव सिंह ने घूंट भरा ।

उसी पल मोना चौधरी जोरों से चौंकी । तुरन्त ही उसने अपने चेहरे पर उभरे भावों पर काबू पाने की चेष्टा की । खुद को सामान्य बनाने की चेष्टा की, कॉफी का घूंट भरा । उसके चौंकने की वजह थी बज्जू । कॉफी शॉप में घूमती मोना चौधरी की निगाह उस शीशे के द्वार पर जा ठहरी थी, जहां से बज्जू ने एक आदमी के साथ भीतर प्रवेश किया था । बज्जू के साथ वाले आदमी ने कोट की जेब में हाथ डाल रखा था । मोना चौधरी को समझते देर न लगी कि उस व्यक्ति ने कोट की जेब में पड़ी रिवॉल्वर को पकड़ रखा है।

बज्जू यहां ?

अजबसिंह के होटल में ?

मोना चौधरी बज्जू कि यहां पर अंसभव मौजूदगी को देखती रही ।

उसी पल बज्जू की निगाह मोना चौधरी पर पड़ी । वो भी वैसे ही चौंका । जैसे मोना चौधरी चौंकी थी । उसके चेहरे और आंखों में ढेर सारे हैरानी के भाव उभरे । वो ठिठका । दूसरे ही पल खुद को संभालते हुए आगे बढ़ा । उसके साथ का व्यक्ति, उसके साथ चिपका सतर्क नजर आ रहा था ।

बज्जू रह-रहकर मोना चौधरी को छिपी निगाहों से देख लेता था ।

मोना चौधरी की एकटक निगाह, बज्जू पर थी ।

"क्या बात है ?" संजीव सिंह ने टोका--- "तुम अचानक ही चुप क्यों हो गई ?"

"यूं ही ।" मोना चौधरी मुस्कान ले आई चेहरे पर ।

"तुम कुछ परेशान लगने लगी हो । तबीयत ठीक न हो तो, रूम में जाकर आराम कर लो ।"

मोना चौधरी ने मुस्कुराते हुए संजीव सिंह को देखा ।

"अभी से मेरा इतना ध्यान रख रहे हो तो शादी के बाद क्या करोगे ?"

"तब तो और भी ध्यान रखना पड़ेगा ।" संजीव सिंह मुस्कुराया । फिर गहरी सांस लेकर बोला--- "दिल करता है तुमसे नाराज हो जाऊं । तुमने तो मेरा सारा उत्साह गायब कर दिया ।

मोना चौधरी छिपी निगाहों से बज्जू को देख रही थी । वो साथ के आदमी के साथ खड़ा, कॉफी शॉप में नजरें दौड़ाता, शायद बैठने की जगह पसन्द कर रहा था और उसे भी देख लेता था ।

"क्या किया मैंने ?"

"कल शादी करने को...।"

"कुछ दिन बाद हो जाएगी ।" मोना चौधरी मुस्कुराई--- "तुम जानते हो तुम्हारे पापा कहां गए हैं ?"

"क्यों ?"

"एक बार उनके पास जाकर पक्का आशीर्वाद लेकर, शादी कर लेते हैं  ।"

"तुम भी अजीब हो ।" संजीव सिंह ने मुंह बनाया--- "मैं नहीं जानता पापा कहां गए हैं ।"

"मालूम तो कर सकते हो ।"

"जरूरत नहीं समझता । पापा जब वापस आएंगे । तब शादी कर लेंगे ।"

"अभी तो तुम उतावले हो रहे थे कि...।"

"पापा कभी भी पसन्द नहीं करेंगे कि मैं उनके पीछे-पीछे वहां जाऊं, जहां वो गए हैं ।"

तभी मोना चौधरी मन ही मन सतर्क हो उठी ।

बज्जू उस आदमी के साथ एकाएक उसकी तरफ आने लगा था।

बज्जू का इस तरह उसकी तरफ आना खतरनाक था । उसका एक शब्द, उसका असली चेहरा संजीव सिंह के सामने उजागर कर सकता था । उसकी सारी मेहनत को बज्जू खराब करने जा रहा था ।

वे पास पहुंचे, रुके ।

मोना चौधरी एकटक बज्जू को देखे जा रही थी ।

बज्जू के साथ का व्यक्ति आदर भरे स्वर में संजीव सिंह से कह उठा ।

"नमस्कार छोटे मालिक ।"

"कैसे हो राकेश ?" संजीव सिंह ने उसे देखकर सिर हिलाया । वो राकेश जोगिया था ।

"ठीक हूं मालिक । आप कब लौटे बाहर से ?"

"आज ही ।" संजीव सिंह ने बज्जू पर निगाह मारी--- "ये कौन है ?"

"ये मालिक के खास मेहमान है । मालिक ने इनका ध्यान रखने को कहा है कि ये बोरियत महसूस न करें ।"

संजीव सिंह सिर हिलाकर रह गया ।

मोना चौधरी कभी-कभार नजर उठाकर बज्जू को देख लेती थी ।

"ये साहब कौन हैं ?" बज्जू ने राकेश जोगी से पूछा ।

"ये मालिक के बेटे हैं ।"

"ओह ! फिर तो आपसे मिलकर खुशी हुई ।" बज्जू ने मुस्कुराते हुए हाथ बढ़ाया ।

संजीव सिंह ने हाथ मिला लिया।

"आपने इनका परिचय नहीं कराया ?" बज्जू ने कहते हुए मोना चौधरी की तरफ इशारा किया ।

"ये सुधा है । मेरी होने वाली पत्नी । पापा के आते ही हम शादी करने वाले हैं ।"

"सच में ।" आप दोनों की जोड़ी कितनी अच्छी लगेगी ।" बज्जू मुस्कुराकर कह उठा ।

"बज्जू साहब ।" राकेश जोगिया कह उठा--- "आइए हम उधर बैठते हैं ।"

"चलिए ।"

राकेश जोगिया बज्जू को लेकर कुछ दूरी पर अलग टेबल पर जा बैठा ।

मोना चौधरी ने मन ही मन चैन की सांस ली । उसका तो ख्याल था कि बज्जू उसके पास आ रहा है । लेकिन सब ठीक रहा । परन्तु मोना चौधरी इस बात को लेकर भारी तौर पर उलझन में थी कि बज्जू, जो कि अजबसिंह का पक्का दुश्मन था । अजब सिंह का मेहमान कैसे बन गया ।

"सुधा ।"

"हां ।" मोना चौधरी सोचों से बाहर निकली ।

"तुम्हारी कॉफी ठंडी हो गई है । तुम परेशान सी भी नजर आ रही हो।"

"ऐसा कुछ नहीं है संजीव । अचानक ही तुम्हारे पापा की याद आ गई । कितने भले इंसान हैं वो ।"

"अगर तुम्हें पसन्द न करते तो वो तुम्हें सब से बुरे लगते ।" संजीव सिंह मुस्कुराया ।

मोना चौधरी ने छिपी निगाहों से बज्जू की तरफ देखा ।

बज्जू उसे ही देख रहा था ।

मोना चौधरी से नजरें फेर ली ।

तभी कॉफी हाउस में एक वेटर ने भीतर प्रवेश किया और इधर-उधर देखने के बाद वो सीधा इसी तरह बढ़ा । मोना चौधरी की नजरें उस पर टिक गई।

"गुड ईवनिंग मैडम ।" फिर वो संजीव सिंह से बोला--- "ईवनिंग सर । सर आपके फ्रेंड का फोन है । कल भी उसका फोन आया था । लेकिन आप भून्तर से बाहर गए हुए थे ।"

"किसकी बात कर रहे हो ?" संजीव सिंह ने पूछा 

"राजन साहब ।"

"ओह ।" संजीव सिंह ने मोना चौधरी को देखा ।

"फोन अटैंड कर लो । मैं यहीं बैठी हूं ।" मोना चौधरी मुस्कुराकर बोली ।

"थैंक्स। मैं अभी आया ।" कहते हुए संजीव सिंह उठा और वेटर के साथ, कॉफी शॉप से बाहर निकल गया ।

मोना चौधरी ने बज्जू को देखा । बज्जू उसे ही देख रहा था । उसे देखते पाकर बज्जू ने आंख से उसे आने का इशारा किया और खुद उठते हुए राकेश जोगिया से कुछ कहा ।

राकेश जोगिया ने जवाब में सिर हिलाया तो बज्जू एक तरफ बढ़ गया ।

मोना चौधरी की आंखें सिकुड़ी ।

तभी बच्चों ने चलते-चलते पीछे देखा । मोना चौधरी से नजरें मिली तो आंख के इशारे से आने को कहा। कई पल बीत गए । मोना चौधरी सामान्य ढंग से इधर-उधर देखने लगी । राकेश जोगिया कोई कागज निकाल कर उसे देखने में व्यस्त था । एकाएक मोना चौधरी उठी और लापरवाही भरे ढंग से उस तरफ बढ़ गई, जिधर बज्जू गया था ।

वो होटल के कॉफी शॉप का कोना था ।

कोने के पास ही छोटी-सी गैलरी थी । मोना चौधरी गैलरी में मुड़ी तो सामने बज्जू को खड़े पाया । कुछ आगे नजर आ रहे दरवाजों पर आदमी और औरत का चेहरा बना था । वो बाथरूम था ।

"तुम्हें जिंदा सामने देख कर खुशी हुई ।" बज्जू ने गम्भीर स्वर में कहा--- "वरना मैं तो तुम्हें मरा समझ रहा था।"

"किस्मत से बच गई ।" मोना चौधरी का स्वर धीमा था ।

"यहां क्या कर रही हो ?"

"तुम्हारा काम ।" मोना चौधरी ने उसकी आंखों में देखा ।

"मतलब कि अजबसिंह को फंसाने आई हो कि...।"

"जिस काम का एक करोड़ रूपया लिया है, उसे पूरा करने आई हूं ।"

"अब उस काम को करने की कोई जरूरत नहीं है । जहाज को भूल जाओ ।" बज्जू ने शांत स्वर में कहा--- "उस करोड़ के बदले, तुम दूसरा काम कर सकती हो।"

"कैसा काम ?"

"अजब सिंह को खत्म कर दो ।"

"क्या कह रहे हो ?"

"एक करोड़ के बदले, सिर्फ एक ही जान लेनी है मोना चौधरी । इससे आसान सौदा दूसरा नहीं ।"

मोना चौधरी ने बज्जू की आंखों में देखा ।

"क्या देख रही हो ?"

"तुम्हें, अजबसिंह का मेहमान बनाकर देखकर मुझे सच में हैरानी हो रही है ।" मोना चौधरी बोली--- "कैसे पहुंचे यहां तक ?"

"कभी-कभी बड़े खतरे मोल लेने पड़ते हैं । तुम्हारी मौत के बाद मुझे ये कदम उठाना पड़ा ।

"तुम करना क्या चाहते हो, यहां आकर ?"

"अजबसिंह को खत्म करना चाहता हूं । अजबसिंह कई बार हमारे लिए परेशानी खड़ी कर देता है।"

"लेकिन अजब सिंह ने तुम्हें यहां कैसे रख लिया ? वो अवश्य जानता होगा कि तुम उसके खिलाफ हो ।"

"वो पुराना जानता है मुझे । उसे कठिनता से बातों में लिया । वैसे वो अभी भी मुझ पर शक कर रहा होगा । मैंने उसे बताया है कि अपने साथियों से गद्दारी करके उसके पास पहुंचा हूं । उसे बताया कि हम लोग उस जहाज को तबाह करने जा रहे थे । ये काम मोना चौधरी कर रही थी, परन्तु वो मारी गई।"

मोना चौधरी और बज्जू की आंखें मिली ।

"ये लोग तुम्हें चेहरे से नहीं, नाम से जानते हैं ।" बज्जू बोला ।

"कैसे कह सकते हो ये बात ?"

"चेहरे से जानते होते तो तुम्हें अपने ही होटल में पाकर अजबसिंह खामोश नहीं रहता और फिर तुमने तो उसके बेटे को फंसा लिया है । अजब सिंह से मुलाकात हुई ?"

"हां । उसने तो शादी के लिए हां भी कर दी ।" मोना चौधरी गम्भीर थी ।

"मतलब की अजबसिंह तुम्हें चेहरे से नहीं पहचानता ।

मोना चौधरी कुछ नहीं बोली ।

"अजबसिंह कहां गया है ?" बज्जू ने पूछा ।

"मुझे क्या पता ?"

"किसी तरह पता लगाओ । जितनी जल्दी उसे खत्म करोगी, उतना ही ठीक रहेगा ।"

"तुम लोग अजबसिंह के पीछे क्यों पड़े हो ?"

"वो हम लोगों के काम करने का ढंग अच्छी तरह जानता है । यही वजह है कि उससे हम चोट खा जाते हैं ।"

मोना चौधरी के चेहरे पर सोच के भाव थे ।

"मालूम करो कि अजबसिंह कहां है । फौरन उसे खत्म करो ।" मोना चौधरी उसे देखती रही ।

"हमारा एक करोड़ रूपया तुम्हारे पास है । तुम्हें करोड़ की हकदार बनकर दिखाना है।"

"अजबसिंह की हत्या करके ।" मोना चौधरी के होंठ सिकुड़े ।

"हां ।"

"लेकिन वो करोड़ रूपया तो किसी दूसरे काम के लिए था । किसी की हत्या के लिए नहीं ।" मोना चौधरी बोली ।

"जब तुम्हारी मौत की खबर सुनी तो सारा प्रोग्राम बदलना पड़ा ।"

मोना चौधरी कुछ नहीं बोली ।

"मैं यहां ज्यादा दिन नहीं रुक सकता । राकेश जोगिया मुझे ढूंढता यहां आ सकता है ।"

"मैं अभी तक नहीं जानती कि तुम लोग कौन हो और अजबसिंह किसके लिए काम करता है ?"

"जानने की जरूरत ही नहीं । अपने काम की तरफ ध्यान दो ।"

मोना चौधरी मुस्कुराई ।

"कर रही हो अजबसिंह को खत्म ?"

"कुछ तो करना ही पड़ेगा ?"

"जल्दी मालूम करो कि अजबसिंह कहां है । जितनी जल्दी उसे खत्म करोगी । उतना ही बढ़िया रहेगा ।" कहने के साथ ही बज्जू तेज-तेज कदम उठाता वापस चला गया।

मोना चौधरी कुछ देर वहीं खड़ी रही फिर वापस चल पड़ी ।

कॉफी शॉप में बज्जू राकेश जोगिया के साथ बैठा कॉफी के घूंट भर रहा था । संजीव सिंह अभी वापस नहीं आया था । चेहरे पर सोच के भाव समेटे मोना चौधरी कॉफी शॉप से बाहर निकल गई ।

■■■

मोना चौधरी चेंज करके हटी ही थी कि रूम की कॉलबेल बजी।

मोना चौधरी दरवाजे की तरफ बढ़ी । शरीर पर छोटी-सी नाइटी थी । जिसमें से उसका शरीर स्पष्ट झलक रहा था । नाइटी कठिनता से कूल्हों को ढांप रही थी । जब कदम उठाती तो कूल्हों पर से नाइटी मध्यम से झटके के साथ ऊपर होती । पैंटी न पहने होने के कारण कूल्हों में हलचल कुछ ज्यादा ही थी ।

"कौन है ?" मोना चौधरी ने पूछा ।

"खोलो सुधा ।" संजीव सिंह की आवाज आई ।

मोना चौधरी ने दरवाजा खोला ।

"तुम कहां चली गई थी ?" संजीव सिंह कह उठा ।

"तुम देर से आए । मैं वहां से उठ आई ।"

"भीतर तो आने दो । मैं बाहर खड़ा...।"

"ग्यारह से ऊपर का समय हो चुका है । सुबह बात करेंगे । मैं नींद लेना...।"

संजीव सिंह ने मुस्कुराकर मोना चौधरी को पीछे किया और भीतर आकर दरवाजा बंद कर लिया ।

उस खूबसूरत कमरे के शांत वातावरण में, नाइटी में मोना चौधरी बला की हसीन लग रही थी । उसका झलकता जिस्म संजीव सिंह के मस्तिष्क में कहर ढा रहा था ।

"ओफ्फ ।" संजीव सिंह के निगाह मोना चौधरी के पैर से सिर तक थी । उसका चेहरा अजीब-सा हो रहा था।

मोना चौधरी के चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान और ठहरी थी ।

"मैं नहीं जानता कि सुधा कि तुम इतनी हसीन हो ।" संजीव सिंह बड़बड़ा उठा ।

मोना चौधरी हौले से हंसी ।

"इतनी हसीन पहले कभी नहीं देखी क्या ?"

"नहीं देखी । तुम्हारा जिस्म । जिस्म का एक-एक जर्रा-ओह-मेरी जान ले रहा है ।" संदीप सिंह आगे बढ़ा और मोना चौधरी को बांहों में ले लिया । एक बार भी उसकी निगाह मोना चौधरी के जिस्म से हटकर, उसके चेहरे पर नहीं गई थी ।

"छोड़ो ।"

"नही सुधा।" संजीव सिंह की आवाज में नशा झलक उठा था ।

"प्लीज संजीव-शादी के बाद तुम...।"

"मैं मन से तुम्हें अपनी पत्नी मान चुका हूं । तुम...।"

"ये गलत है-तुम...।"

उसी पल संजीव सिंह ने अपने होंठ, मोना चौधरी के होंठों पर रख दिए ।

मोना चौधरी ने चेहरा पीछे करना चाहा । परन्तु कामयाब नहीं हो सकी । संजीव सिंह के हाथ भी मोना चौधरी के जिस्म पर फिरने लगे थे । वो बेकाबू होता जा रहा था ।

"संजीव ।" मोना चौधरी ने अपना चेहरा पीछे किया और गहरी-गहरी सांस लेते हुए कह उठी--- "बस करो।"

"नहीं । आज बस नहीं होगी सुधा । मुझे रोकने के लिए मत कहो ।" मोना चौधरी को दोनों बांहों से भींचे वो पागलों की तरह कंधों और उसके चेहरे को चूमता जा रहा था । हर पल उसकी बे-सुधी बढ़ती जा रही थी । उसकी सांसों की आवाज तेजी से सुनाई दे रही थी ।

"बस करो संजीव । तुम...।"

तभी संजीव सिंह ने एक झटके के साथ मोना चौधरी को उठाया और बैड की तरफ ले गया ।

"ये क्या कर रहे हो ?" मोना चौधरी जल्दी से कह उठी ।

संजीव सिंह ने मोना चौधरी को बांहों से निकालकर बैड पर लुढ़का दिया।

दूसरे ही पल संजीव सिंह की निगाह उसके कूल्हों पर जा टिकी । नाइटी ऊपर हो चुकी थी । बिना पैंटी के कूल्हे और खूबसूरत टांगे किसी की भी सांसें रोकने के लिए काफी थी ।

मोना चौधरी मुस्कुराती हुई, संजीव सिंह के नशे से भरे चेहरे को देखे जा रही थी ।

"सुधा ।" संजीव सिंह बड़बड़ाया और बैड पर चढ़ आया ।

"अब बस भी करो ।"

"आज बस नहीं होगी ।" पास पहुंचकर संजीव सिंह उसकी टांगों पर हाथ फेरने लगा । धीरे-धीरे दूसरा कूल्हों की तरफ सरकता जा रहा था । मध्यम रोशनी में मोना चौधरी का शरीर तराशा हुआ लग रहा था ।

"मुझे डर लग रहा है ।"

"क्यों ?" संजीव सिंह का हाथ कूल्हे पर जा पहुंचा था ।

"मैंने ये सब पहले नहीं किया । सुना है, बहुत तकलीफ होती है ।"

"कुछ नहीं होगा । कोई तकलीफ नहीं होगी ।" नशे में जैसे थरथरा रहा था संजीव सिंह का स्वर-"मैं तुम्हें जरा भी तकलीफ नहीं होने दूंगा । ये सब तो होना ही है सुधा । आज न होता तो कुछ दिन बाद होता।" दूसरे ही पल मोना चौधरी के साथ जा लेटा । उसके हाथ बराबर चल रहे थे ।

"तुमने ये सब पहले ही कर रखा है ?"

"हां ।" संजीव सिंह किसी और दुनिया में ही पहुंचा हुआ था--- "तुमने क्यों नहीं किया ?"

"डर लगता है ।"

"मैं तुम्हारा सारा डर अभी दूर कर दूंगा सुधा ।" उसके सांसों की आवाज तेज होने लगी थी ।

मोना चौधरी की आंखें भी भारी होने लगी थी ।

"संजीव ।"

"हूं ।"

"तुम्हारे पापा कहां गए हैं ?" मोना चौधरी ने उसके सिर के बालों में हाथ फिराते हुए पूछा ।

"मुझे क्या मालूम ?"

"मालूम करोगे ?"

"क्यों ?" संजीव सिंह बेहद व्यस्त था।

"हर बात का जवाब पूछोगे क्या ?"

संजीव सिंह ज्यादा व्यस्त हो गया ।

"मत करो । मुझे डर लगता है । तकलीफ होगी ।"

"कुछ नहीं होगा । सब बढ़िया रहेगा ।"

"पहली बार है । डर तो लगता ही है । हम वहां चलेंगे, जहां तुम्हारे पापा हैं ।"

"ये सब बातें मत करो । वो जहां भी जाएं, हमें क्या लेना देना ।"

उसी पल मोना चौधरी ने उसे अपने से परे धकेल दिया ।

"ये क्या कर रही हो सुधा ?"

"पहले मेरी बात सुनो । मैं वहां जाना चाहती हूं जहां तुम्हारे पापा गए हैं ।"

"लेकिन मुझे क्या मालूम, पापा कहां गए हैं ।"

"मालूम करो ।"

संजीव सिंह के चेहरे और आंखों में नशा छाया हुआ था ।

"अभी कैसे मालूम कर सकता हूं । इस वक्त मैं तुमसे प्यार करूंगा ।"

"उसके बाद मालूम करोगे ?"

"हां ।"

"भूल तो नहीं जाओगे ।"

"तुम्हारी बात कैसे भूल सकता हूं ।" कहने के साथ वो मोना चौधरी के साथ सट गया ।

"अगर बाद में तुमने इंकार किया तो मैं वापस मां के पास चली जाऊंगी । तुम्हारे साथ शादी नहीं करुंगी ।"

"मुझ पर विश्वास करो । मैं तुम्हारी बात मानूंगा ।"

उसके बाद संजीव सिंह ने कोई बात नहीं की । कोई जवाब नहीं दिया ।

दोनों की सांसों की तेज आवाज वहां महसूस होने लगी ।

संजीव सिंह बाथरूम से बाहर निकला ।

उसके चेहरे पर मस्ती के भाव नजर आ रहे थे । वो खुश था । जिस्म थकान से भर चुका था । परन्तु वो थकान उसे अच्छी लग रही थी । मोना चौधरी के शरीर पर गाउन था । बालों को संवारकर वो शीशे के सामने से हटी तो संजीव सिंह की निगाहों को उसने अपने जिस्म पर महसूस किया ।

"बस भी करो अब ।" मोना चौधरी मुस्कुरा पड़ी ।

"मन नहीं भरा ।"

"शादी के बाद भर जाएगा ।"

"सच में सुधा । तुम्हारा जवाब नहीं ।" संजीव सिंह ने प्यार भरे स्वर में कहा ।

"ये बातें बाद में करेंगे ।" पास पहुंचकर मोना चौधरी ने उसके गाल पर हाथ फेरा--- "पहले काम की बात करो ।"

"काम की बात ?"

"हां । तुम्हारे पापा जहां गए हैं। वो जगह मालूम करो । मैं तुम्हारे साथ वहां जाऊंगी ।"

"लेकिन-तुमने ऐसा क्यों सोचा ?" संजीव सिंह की नजरें मोना चौधरी के चेहरे पर जा टिकी ।

मोना चौधरी कुर्सी पर बैठी और संजीव सिंह को देखने लगी ।

"तुम मेरे पास आए । शादी से पहले प्यार करने का मेरा मन नहीं था । लेकिन मैंने तुम्हारा ख्याल रखा ।"

संजीव सिंह ने हौले से सिर हिला दिया ।

"इसी तरह तुम मेरा ख्याल रखो । ज्यादा सवाल मत करो ।"

"वो तो ठीक है । परन्तु मैं समझ नहीं पा रहा कि मेरे पापा में तुम्हारी क्या दिलचस्पी है ?"

मोना चौधरी कुछ पलों तक खामोश रही फिर गम्भीर स्वर में कह उठी।

"जब मैं होटल की कॉफी शॉप में बैठी थी, तब कोई आदमी मेरे पास आया । मैंने उसे पहले कभी नहीं देखा था । उसने मुझे बताया कि अजबसिंह खतरे में है । वो जहां गया है, वहां उसकी जान को खतरा है । इतना कहकर वो चला गया । पहले तो मैं समझ नहीं पाई कि वो क्या कह गया है । मैं किसी अजबसिंह को नहीं जानती । तभी एक वेटर से पूछा कि अजबसिंह कौन है तो उसने बताया कि तुम्हारे पापा है । ये मालूम होते ही मैं घबरा गई । तब मैं जल्दी से उस व्यक्ति को ढूंढने बाहर निकली जो मुझे कह गया था कि अजबसिंह खतरे में है । वो मुझे नहीं मिला । तो मैं चिंता में डूबी अपने कमरे में आ गई । मैं नहीं चाहती कि तुम्हारे पापा को कुछ हो।"

संजीव सिंह के माथे पर बल नजर आने लगे ।

"वो आदमी देखने में कैसा था, जिसने तुमसे कहा कि पापा खतरे में हैं ।"

मोना चौधरी ने यूं ही साधारण-सा हुलिया बता दिया ।

"मैं ऐसे किसी व्यक्ति को नहीं जानता, राकेश जोगिया से पूछता हूं ।"

"सुनो ! इस बारे में मां से बात मत करना । वो चिंता में पड़ जाएगी ।" मोना चौधरी ने जल्दी से कहा--- "किसी से भी बात मत करना । बात खुल गई तो तुम्हारे पापा की जान को खतरा बढ़ सकता है ।"

"ओह ! तुम ठीक कहती हो ।"

"बस ये मालूम कर लो कि तुम्हारे पापा कहां गए हैं । हम चुपके से वहां जाकर उन्हें बचा लेंगे ।"

"ठीक है । मैं मालूम करता हूं ।" संजीव सिंह गम्भीर स्वर में कहते हुए पलटकर दरवाजे की तरफ बढ़ा ।

"संजीव ।" मोना चौधरी ने स्वर को गम्भीर बनाकर टोका।

"किसी को ये मालूम न हो कि तुम अपने पापा के बारे में क्यों पूछ रहे हो । वरना, उनके लिए खतरा बढ़ जाएगा ।"

"किसी को नहीं मालूम होगा ।"

"कब तक आओगे ?"

"पापा के बारे में मालूम कर लूं ।"

"इंतजार कर रही हूं मैं । जल्दी आना ।"

संजीव सिंह दरवाजा खोलकर बाहर निकल गया ।

मोना चौधरी उठी और आगे बढ़कर दरवाजा बंद कर लिया । वो ये नहीं समझ पा रही थी कि खेल कौन खेल रहा है ? बज्जू या अजबसिंह ? दोनों कौन हैं। किन-किन लोगों से संबंध है इनका ?

■■■

"संजीव साहब ।" आकर जोगिया ने गम्भीर स्वर में कहा--- "आज से पहले तो कभी आपने नहीं पूछा कि बड़े मालिक कहां गए हैं।

"कभी जरूरत नहीं पड़ी ।"

"वही तो मैं जानना चाहता हूं कि आज क्या जरूरत पड़ गई ।"

संजीव सिंह ने पहलू बदला । नजरे राकेश जोगिया के चेहरे पर थी ।

"मैं नहीं बता सकता कि क्या जरूरत पड़ गई । तुम बताओ पापा कहां पर हैं । मुझे उनसे काम है ।" संजीव सिंह ने अपने शब्दों पर जोर देकर कहा ।

"मैं आपको वहां के बारे में नहीं बता सकता, जहां बड़े मालिक गए हैं । वो कभी भी पसन्द नहीं करेंगे कि...।"

"पापा से मैं बात कर लूंगा । तुम...।"

"मैं नहीं बता सकता । इस बारे में आप मालकिन से बात कर लें ।" राकेश जोगिया ने इंकार कर दिया ।

संजीव सिंह के चेहरे पर उखड़ेपन के भाव आ गए।

"राकेश ।" संजीव सिंह ने तीखे स्वर में कहा--- "अगर इस बीच पापा को कुछ हो गया तो तुम जिम्मेवार होगे ।"

"क्या मतलब ?"

"इससे ज्यादा मैं मतलब नहीं समझा सकता । तुम बताते हो कि पापा कहां गए हैं या नहीं बता रहे।"

राकेश जोगिया संजीव सिंह को देखता रहा । चेहरे पर व्याकुलता आ ठहरी थी ।

"जवाब दो ।"

"आप ये बात स्पष्ट कीजिए कि बड़े मालिक को कैसे कुछ होगा ।"

"इस बारे में मैं ज्यादा नहीं बता सकता । मुझे इतनी खबर मिली है कि पापा जहां गए हैं, वहां उन्हें कुछ भी हो सकता है ।"

"किसने दी ये खबर ?"

"उसके बारे में नहीं बताऊंगा ।" ये लाइन संजीव ने खुद ही जोड़ी--- "ये भी पता लगा  है कि पापा के साथ का ही कोई आदमी पापा की जान लेगा।" स्वर में दृढ़ता भर ली थी ।

राकेश जोगिया के चेहरे पर अजीब से भाव उभरे ।

"कौन ? कौन जान लेगा, बड़े मालिक की ?"

"उसका नाम नहीं जानता । लेकिन उसे मैं देखते ही पहचान सकता हूं ।" संजीव सिंह को लगा बात बन जाएगी ।

"मतलब कि उसकी कोई निशानी है तुम्हारे पास ?"

"ऐसा ही समझ लो ।"

"मुझे बताओ । यहीं बैठे-बैठे मैं सब ठीक कर दूंगा । बताओ कैसे...।"

"ये मैं नहीं बता सकता । तुम बताओ पापा कहां गए हैं । मैं सुधा के साथ, वहां जाऊंगा । सुधा भी उसे पहचान सकती हैं जो पापा की जान लेने वाला है । मैं और सुधा आसानी से उसे पहचान लेंगे ।"

"संजीव साहब । वहां और भी खतरे आ सकते हैं । आप...।"

"खतरों की बात मत करो । तुम पापा के बारे में बताओ कि वो कहां...।"

"इस बारे में आप मुझे थोड़ा-सा वक्त दीजिए ।"

"वक्त ?"

"हां कुछ देर बाद मैं इस बारे में आपसे बात करूंगा ।"

संजीव सिंह उठ खड़ा हुआ ।

"अपने रूम में मैं तुम्हारे जवाब का इंतजार कर रहा हूं ।"

राकेश जोगिया ने चेहरे पर गम्भीरता समेटे सिर हिला दिया ।

संजीव सिंह आगे बढ़ा और दरवाजा खोलकर बाहर निकल गया।

राकेश जोगिया के चेहरे पर सोच और उलझन के भाव नजर आने लगे । कमरे में हाथ बांधे कुछ देर वहीं टहलता रहा, फिर आगे बढ़ा और फोन का रिसीवर उठाकर नम्बर मिलाने लगा ।

कुछ देर बेल होती रही फिर उधर से रिसीवर उठाया गया।

"हैलो ।" कमलेश का नींद से भरा स्वरा राकेश जोगिया के कानों में पड़ा ।

"आपको डिस्टर्ब किया । इसके लिए माफी चाहता हूं ।" राकेश जोगिया ने जल्दी से कहा।

"क्या हुआ ?" कमलेश की आवाज में नींद गायब हो गई ।

राकेश जोगिया ने कमलेश को, संजीव सिंह की सारी बात बताई।

"मालकिन ।" बाद में राकेश जोगिया ने कहा--- "मालिक अपने काम में व्यस्त हैं। मैं नहीं चाहता कि छोटे मालिक उनके पास जाकर उन्हें डिस्टर्ब करें । अगर वो बता दें कि किससे बड़े मालिक को खतरा है तो सारा मामला संभाला जा सकता है ।"

"संजीव कहां है ?"

"वो अपने कमरे में है ।"

"मैं संजीव से बात करती हूं ।" गम्भीर स्वर राकेश जोगिया के कानों में पड़ा ।

"जी ।"

■■■

"संजीव ! तुम्हें साफ-साफ बात करनी चाहिए कि आखिर असल बात क्या है । कौन तुम्हारे पापा की जान लेना चाहता है । तुम्हें ये बात किसने बताई ?" कमलेश ने गम्भीर निगाहों से, संजीव सिंह को देखा।

कमलेश ने इंटरकॉम पर बात करके संजीव को बुला लिया था अपने पास।

"ये सब बातें मैं तुमसे करके, तुम्हें चिंता में नहीं डालना चाहता था, इसी कारण राकेश जोगिया से बात की । उसने गलत किया तुमसे बात करके ।" संजीव सिंह ने उखड़े स्वर में कहा ।

"कुछ भी गलत नहीं किया । ये मेरे पति और मेरे बेटे का मामला है । मुझे मालूम होना चाहिए कि कहां क्या हो रहा है । वरना आने वाले वक्त में बात राकेश पर आती कि उसने मुझे बताई क्यों नहीं, ये बात ?"

संजीव सिंह होंठ सिकोड़े अपनी मां को देखता रहा ।

"तुम्हें किसने बताया कि...।"

"ये मैं नहीं बता सकता । लेकिन जिसने बताया, मैं उस पर पूरा विश्वास करता हूं ।"

"उसके बारे में बताने में क्या हर्ज है बेटे ?"

"कुछ तो है, तभी तो नहीं बता रहा ।"

कमलेश की गम्भीर निगाह, संजीव सिंह के चेहरे पर थी ।

"उसके बारे में बता सकते हो, जिससे पापा को खतरा है ।"

"उसके बारे में बताने को मना किया गया है ।"

"उसी ने जिसने तुम्हें ये बात बताई ।" कमलेश बोली।"

"हां । उसका कहना है कि अगर मैंने बात मुंह से निकाली तो, वो अपने को बचाकर भाग जाएगा, जो पापा की जान लेने के लिए उनके करीब ही मौजूद है ।" संजीव सिंह ने कहा--- "क्या तुम जानती हो मां की पापा कहां गए हैं । तुम्हें तो पता ही होगा ।"

"नहीं ।" कमलेश ने इंकार में सिर हिलाया--- "अगर तुम राकेश को सबकुछ बता दो तो, वो सब कुछ ठीक कर देगा । उस पर विश्वास करके तो देखो ।"

"विश्वास करने के फेर में मैं पापा की जान का नुकसान नहीं कर सकता ।" संजीव सिंह उठ खड़ा हुआ--- "राकेश जोगिया के साथ सोच-विचार कर लीजिए कि मुझे पापा के बारे में बताना है कि नहीं, वो कहां है । मेरी तो समझ में नहीं आता कि पापा कहां है, मुझे क्यों नहीं बताया जा रहा ?"

"तुम्हारे पापा बिजनेस के सिलसिले में...।"

"है तो हिन्दुस्तान में ही । वो बिजनेस करते रहे, मैं अपना काम करूंगा । लेकिन एक बात जान लीजिए कि ये सवाल-जवाब महंगे पड़ सकते हैं । पापा की जान को खतरा हो सकता है।"

"मुझे समझ नहीं आता कि तुम पापा के पीछे जाने की जिद क्यों कर रहे हो ?"

"आप बिना मतलब के ये सवाल करके वक्त खराब करते रहिए ।" संजीव सिंह ने तीखे स्वर में कहा और पलटकर दरवाजा खोलते हुए बाहर निकलता चला गया। चेहरे पर गुस्सा भर आया था ।

चेहरे पर गम्भीरता समेटे कमलेश कुछ देर कुर्सी पर बैठी रही फिर उठी और फोन के पास पहुंचकर रिसीवर उठाकर नम्बर मिलाने लगी।

कुछ ही पलों बाद लता से बात हुई ।

"यस मैडम ?" लता का सतर्क स्वर कानों में पड़ा ।

"लता ।" कमलेश ने शब्दों पर जोर देकर कहा--- "अजब सिंह चार नम्बर प्वाइंट पर गया है । क्या तुमने उसके पीछे किसी को लगाया है कि जो उसकी जान ले सके ।"

"नो मैडम ।"

"मुझे अभी खबर मिली है कि कोई अजब सिंह को मारने के लिए उसके पीछे है, साथ है ।"

"कम से कम वो हमारा आदमी नहीं है । वैसे भी अजबसिंह को कुछ होता है तो हमारे लिए फायदे का सौदा है । हमारा एक दुश्मन कम हो जाएगा ।" लता का शांत स्वर कानों में पड़ा।

"हूं ।" कमलेश ने शांत स्वर में कहा और रिसीवर रख दिया । चेहरे पर सख्ती आ गई थी । कुछ पर सोचने के बाद कमलेश ने फोन पर राकेश जोगिया से बात की ।

"कहिए मालकिन ?" बात होते ही राकेश जोगिया का स्वर कानों में पड़ा ।

"तुम्हें मालूम है संजीव के पापा कहां गए हैं ?" कमलेश ने पूछा । जबकि वो सब कुछ जानती थी ।

"हां मालकिन ।"

"संजीव को बता दो ।"

"मालिक नाराज होंगे ।" राकेश जोगिया की आवाज आई ।

"मैं बात कर लूंगी ।"

"ठीक है मालकिन ।"

"संजीव को टटोलना, शायद कुछ बता दे । मुझे कुछ नहीं बताया ।"

"जी ।"

"वो अपने पापा के पास जाए तो कोशिश करना कि तुम भी उनके साथ चल पड़ो ।"

"समझ गया ।"

कमलेश ने रिसीवर रख दिया । चेहरे पर गम्भीरता उभरी हुई थी । एकाएक उसने रिसीवर उठाया और नम्बर मिलाने लगी । काफी चेष्टाओं के बाद नम्बर मिला ।

"हैलो ।" दूसरी तरफ से बेहद मध्यम-सी आवाज आई।

"तारा।" कमलेश के होंठों से दबंग स्वर निकला।

"मैडम ।" आवाज में सतर्कता आ गई थी ।

"कैसा चल रहा है ?"

"सब ठीक है मैडम ।"

"आश्रम में अजबसिंह आया ?"

"वो हिम्मत नहीं कर सकता इधर आने की । मारा जाएगा ।" तारा के स्वर में खतरनाक भाव आ गए।

"मुझे खबर मिली है कि अजबसिंह तुम्हारे आश्रम के आस पास ही है ।"

"ये कैसे हो सकता है?"

"आश्रम चैक करो । सतर्क रहो । आस-पास नजर रखो ।"

"यस मैडम ।"

कमलेश ने रिसीवर रख दिया।

■■■

"सुधा !" संजीव सिंह ने कहा--- "मुझे नहीं लगता कि राकेश जोगिया ये बताए कि पापा कहां गए हैं । अब तो मां को भी पता चल गया है कि मैं क्या चाहता हूं । वो मुझे इस तरह कहीं नहीं जाने देगी ।"

"तुम्हारे पापा की जान खतरे में है । उस आदमी ने स्पष्ट तौर पर मुझे कहा था ।" मोना चौधरी गम्भीर स्वर में बोली ।

"तभी तो मैं कोशिश कर रहा हूं कि मालूम हो जाए, पापा कहां गए हैं ।" संजीव सिंह ने होंठ भींचकर कहा--- "लेकिन राकेश नहीं बताएगा । पापा ने मना कर रखा होगा । वरना वो बता देता ।"

"लगता है मां जी को और राकेश जोगिया को तुम्हारे पापा की चिंता नहीं है।"

"मां के बारे में ऐसा मत कहो ।" संजीव सिंह ने कहा।

"लेकिन मां भी क्या करें । मां को तो नहीं मालूम कि पापा कहां गए हैं ।"

"वो राकेश जोगिया को तो कह सकती है कि तुम्हें बता दे कि वो कहां गए हैं ।"

"मां, पापा के कामों में दखल नहीं देती ।"

"ये दखल देना नहीं है । तुम...।"

तभी कमरे में पड़ा इंटरकॉम बजा ।

दोनों की नजरें इंटरकॉम की तरह उठी।

"मेरे से भला कौन बात करना चाहेगा ।" मोना चौधरी की निगाह संजीव सिंह के चेहरे पर जा ठहरी ।

संजीव सिंह ने आगे बढ़ता रिसीवर उठाया ।

"हैलो ।"

"मालिक ।" राकेश जोगिया की आवाज आई--- "आप अपने कमरे में नहीं थे । मैंने सोचा यहां पर...।"

"बोलो ।"

"मैं आपसे बात करना चाहता हूं । कहां पर मिलेंगे आप ?"

"तुम अपने ऑफिस में हो ?"

"हां-मैं...।"

"मैं आ रहा हूं ।" कहने के साथ ही संजीव सिंह ने रिसीवर रखकर मोना चौधरी से कहा--- "सुधा, राकेश मुझसे बात करना चाहता है । शायद वो बता दे कि पापा कहां गए हैं।"

मोना चौधरी ने सिर हिला दिया ।

संजीव सिंह बाहर निकल गया ।

■■■

"संजीव साहब । आप मुझे कुछ तो बताइए कि मालिक को कैसे-किससे खतरा...।"

"राकेश ।" संजीव सिंह ने टोका--- "ये सवाल तुम पहले भी भूल चुके हो और जवाब देने से मैं इंकार कर चुका हूं ।"

"मैं आपको बताने जा रहा हूं कि बड़े मालिक कहां पर हैं ।"

"कहां पर ?"

"लेकिन इससे पहले मुझे कुछ तो बताइए कि मामला क्या...।"

"मुझे बातों में लेने की जरूरत नहीं । तुमने मां से क्यों कहा कि पापा खतरे में है ।"

"मैंने अपना फर्ज पूरा किया । मालकिन तो ऐसी बातों की खबर करना जरूरी था । मैं तो शायद आपको किसी भी हाल में मालिक के बारे में न बताता । वो तो मालकिन ने कहा कि तुम्हें बता दूंगा और...।"

"मां ने कहा ?" संजीव सिंह के चेहरे पर हैरानी उभरी।

"हां । आपसे बात करने के बाद मालकिन ने कहा ।" राकेश जोगिया ने सिर हिलाकर उसे देखा--- "आप मुझे कुछ नहीं बताना चाहते तो मत बताइए । मेरे साथ चलने में तो कोई एतराज नहीं आपको ।"

"पूरा ऐतराज है ।" संदीप सिंह ने उसे घूरा--- "तुम मुझे बातों में फंसा रहे हो । मैं...।"

"छोटे मालिक ।" राकेश जोगिया ने गम्भीर स्वर में कहा--- "मुझे साथ ले जाने की हां करने पर ही आपको ये बता सकूंगा बड़े मालिक इस वक्त कहां पर मौजूद हैं।"

"मैंने यहां आकर वक्त खराब किया ।" संजीव सिंह दांत भींचे उठ खड़ा हुआ ।

राकेश जोगिया संजीव सिंह के उखड़े चेहरे को देखता रहा ।

"तुम लोगों को पापा की जान प्यारी नहीं । इस वक्त तुम लोग पापा की मौत का तमाशा देख...।"

"नाराज मत होइए । मैं बता देता हूं मालिक कहां है । बैठिए ।"

"मैं खड़ा ही ठीक हूं । तुम बताओ ।"

राकेश जोगिया ने बताया ।

संजीव सिंह की आंखें सिकुड़ गई । चेहरे पर अजीब-से भाव आ ठहरे ।

"पापा इस जगह पर हैं ?"

"हां ।"

"बहुत अजीब जगह है ।"

राकेश जोगिया ने कुछ नहीं कहा ।

"ये किस काम के लिए पापा गए हैं ?"

"मैं नहीं जानता ।"

"यहां पर मैं पापा को तलाश कैसे करूंगा ?"

"इस बारे में भी कुछ नहीं कह सकता ।" राकेश जोगिया ने इंकार में सिर हिलाया ।

"यहां पापा की पहचान वाला कोई हो । जिससे पूछ सकूं कि...।"

"इस बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं ।"

"मतलब कि वहां जाकर अंधेरे में हाथ-पांव मारने होंगे । पापा को तलाश करने के लिए ।" संजीव सिंह ने सोच भरे स्वर में कहा ।

"ऐसा ही समझ लीजिए।"

"हैरानी की बात है, आखिर पापा ऐसी जगह पर करने क्या गए हैं ?" संजीव सिंह बड़बड़ा उठा।

संजीव सिंह को भीतर प्रवेश करते पाकर, मोना चौधरी की निगाह उस पर जा ठहरी । उसके चेहरे पर मौजूद सोच और व्याकुलता के भावों को मोना चौधरी ने पहचान लिया था 

"क्या हुआ ?"

पास आकर संजीव सिंह कुर्सी पर बैठ गया ।

"पापा के बारे में मालूम हुआ है कि वो कहां पर हैं ।" संजीव सिंह ने उसे देखा ।

"हां ।" संजीव सिंह गम्भीर था ।

"कहां पर है ?"

"मध्य प्रदेश के घने जंगलों में, जहां आदिवासी लोग आज भी हैं, उधर स्वामी ताराचंद का आश्रम है । राकेश जोगिया का कहना है कि पापा उसी आश्रम में गए हैं । मुझे तो समझ नहीं आता कि आखिर पापा वहां क्या करने गए हैं ।"

मोना चौधरी के चेहरे पर सोच के भाव आ ठहरे । होंठ सिकुड़ गए।

"तुम्हारे पापा वहां पहले भी गए हैं ।"

"मालूम नहीं ।" संजीव सिंह ने गहरी सांस ली ।

कुछ पलों तक उनके बीच चुप्पी रही ।

"अब क्या करना है ?" संजीव सिंह ने पूछा ।

"इस जगह पर हम जाएंगे । तुम्हारे पापा की जिंदगी और मौत का सवाल है । कोशिश करेंगे कि वो किसी खतरे में हों तो उन्हें बचा सकें।" मोना चौधरी शब्दों पर जोर देकर कह उठी 

"सुधा ।" संजीव सिंह ने कहा--- "वहां जाने कैसा खतरा है । राकेश जोगिया को साथ ले ले ?"

"क्यों ?"

"वो खतरों से निपटना जानता है । रिवॉल्वर से निशाना भी अच्छा लगा लेता है ।"

"कोई जरूरत नहीं । हम भी खतरों से निपट लेंगे ।" मोना चौधरी ने मुंह बनाकर कहा--- "चलने की तैयारी करो संजीव ।"

"तैयारी-कब चलना है ?"

"सुबह निकल चलेंगे ।"

"ठीक है ।" कहने के साथ ही संजीव सिंह उठा और कमीज के बटन खोलने लगा।

"क्या कर रहे हो ?"

"सुबह होने में कुछ घंटे बाकी है । इतनी देर में तुम्हारे साथ प्यार भरी बातें...।"

"नहीं । जो होगा, वो शादी के बाद ही...।"

"बाद में तो होगा ही।  पहले भी हो जाए तो क्या बुरा है ।"

"नहीं तुम...।"

"तुम्हारे इंकार पर मैं रुकूंगा नहीं । स्वाद चख लिया है । पीछे हटने का सवाल ही पैदा नहीं होता ।"

मोना चौधरी के देखते ही देखते वो कपड़े उतार चुका था ।

"मां जी को आवाज देनी पड़ेगी।  मैं अभी...।"

संजीव सिंह हंस पड़ा।

"कोई फायदा नहीं । मां इस वक्त गहरी नींद में होगी । तुम तो इस तरह बात कर रही हो, जैसे मैं पराया हूं । मुझे पति समझ कर बात किया करो । मैं तुम्हें पत्नी मान चुका हूं ।" संजीव सिंह बैड पर जा पहुंचा ।

"जब तक शादी नहीं हो जाती, मैं तुम्हें अपना पति नहीं मान सकती ।" मोना चौधरी बैड पर पीछे हटी।

संजीव सिंह ने हाथ बढ़ाकर मोना चौधरी की कलाई थाम ली ।

"तुम मुझे पति मानो या ना मानो । मैंने तो तुम्हें अपनी पत्नी मान लिया है ।"

"छोड़ो । शादी के बाद ही---।"

उसी पल संजीव सिंह ने बिल्ली की तरह झपट्टा मारा और मोना चौधरी पर जा बिछा ।

"ये क्या कर रहे हो ?"

"प्यार ।"

"संजीव ! तुम तो ऐसा कर रहे हो, जैसे मैं बाहर की...।" मोना चौधरी ने कहना चाहा।

"बाहर वालों को नहीं घर वाली को इस तरह पकड़ा जाता है । जल्दी करो । सुबह हमने मध्य प्रदेश के लिए रवाना होना है ।"

मोना चौधरी इस वक्त संजीव सिंह के साथ सख्ती नहीं करना चाहती थी । ऐसे में उसने कोई एतराज नहीं उठाया । अपनी बांहों का घेरा उसकी कमर के गिर्द कस लिया।

■■■

मोना चौधरी और संजीव सिंह ने मध्य प्रदेश के जंगल में जिस जगह पर पहुंचना था । वहां के लिए सुबह कार का सफर शुरू किया और अगले दिन सुबह ही वहां पहुंच सके । राकेश जोगिया से कागज पर नक्शा बनवा लिया था । उसी के सहारे वो यहां तक पहुंचे ।

रास्ते में खाने-पीने के अलावा उन्होंने कार कहीं भी नहीं रोकी थी।

जब वे यहां पहुंचे तो सुबह के चार बज रहे थे । तारे आसमां में टिमटिमा रहे थे । हैडलाइट की रोशनी में हर तरफ पेड़ और हरी-भरी झाड़ियां भी चमक रही थी । ठीक जगह पाकर, उन्होंने कार में छोटा-सा टैंट निकाला और जमीन पर गाड़कर खड़ा किया । लंबे सफर में हुई थकान की वजह से उन्होंने ज्यादा बात नहीं की और टैंट में गहरी नींद में जा डूबे । मध्यम-सी ठण्डी हवा टैंट के भीतर तक आ रही थी।

जाने क्या-कैसी आहट थी या कुछ और, मोना चौधरी की आंख खुल गई ।

कुछ पलों तक आंख खोले वो वैसे ही पड़ी रही । यकीनन वो इस बात को तय कर रही थी कि उसकी आंखें खुली ? नींद क्यों टूटी । दूसरे ही क्षण उसकी आंखें सिकुड़ी । न सुनाई देने वाली आहट जैसे उसने सुनी । मोना चौधरी आहिस्ता से उठी और सरकते हुए टैंट से बाहर निकल आई।

बाहर दिन की तेज रोशनी फैली हुई थी ।

सुबह के आठ-नौ बज रहे थे ।

मोना चौधरी की सतर्क निगाह जंगल में हर तरफ जाने लगी । कहीं लम्बे-लम्बे पेड़ थे तो कहीं घने पेड़ दिखाई दे रहे थे । दूर देखने पर ऐसा लगता था, जैसे जंगल गहरा होता जा रहा हो । सूखी झाड़ियां कम ही थी । अधिकतर जंगली पौधे ने फैलकर झाड़ियों जैसा अपना साम्राज्य फैला रखा था। पेड़ पौधों की खुशबू से वातावरण महका हुआ था । कहीं-कहीं जंगली बेले जमीन से निकलकर, पेड़ों के तनों का पल्लू थामे, घने पेड़ में जाकर गुम सी होती नजर आ रही थी । तेज रंगो वाले जंगली फूल देखने में बहुत भले लग रहे थे, इस वक्त ।

तभी मोना चौधरी को अपने पीछे हल्की-सी आहट मिली ।

वो फुर्ती से पलटी ।

उसकी निगाह अपने पीछे, सांप पर पड़ी जो उससे पलटता पाकर, बचाव या आक्रमण की मुद्रा में अपना मुंह उठाकर बैठ गया था। मोना चौधरी उसे देखती रही । सांप मुंह उठाए उसे देख रहा था । रह-रहकर उसकी जीभ मुंह से बाहर आती और वापस चली जाती ।

कुछ पलों तक यही स्थिति रही फिर सांप ने अपना मुंह धीरे-धीरे जमीन पर रख लिया और दिशा बदलकर तेजी से दूसरी दिशा में जाते हुए नजरों से ओझल हो गया।

मोना चौधरी की नजरें जंगल में घूमने लगी । वो समझ न पा रही थी कि कैसी आवाज थी, जिसे सुनकर उसकी नींद टूटी । तभी वो जमीन पर लेटी और कान जमीन से लगा दिया ।

कुछ पलों तक ऐसे ही रही । फिर उठी और तेजी से दबे पांव दूसरी दिशा की तरफ बढ़ गई । जमीन से कान लगाने पर सरसराहट-सी महसूस हुई थी, जैसे कोई चल रहा हो । उस दिशा का अनुमान लगाकर उसी तरफ बढ़ने लगी थी । कुछ ही आगे गई थी कि पानी बहने का मध्यम स्वर कानों में पड़ा । वो समझ गई कि जंगल में नदी है । आधे मिनट बाद ही जंगल से होकर निकलती पन्द्रह फीट चौड़ी नदी दिखाई दी । जो कि शांत अवस्था में बह रही थी । परन्तु नदी में पड़े पत्थरों से बहते पानी के टकराने की आवाज छनकती हुई कानों में पड़ रही थी।

मोना चौधरी फौरन एक पेड़ के तने की ओट में हो गई थी ।

चीता नदी के किनारे पर खड़ा पानी में मुंह डाले, जीभ द्वारा पानी पी रहा था । मोना चौधरी खामोशी से खड़ी उसे देखती रही । पानी पीने के बाद चीता मस्ती भरे ढंग से पलटा और दूर होता चला गया।

तने की ओट में खड़ी मोना चौधरी की नजरें हर तरफ घूमने लगी । वो समझ नहीं पा रही थी कि कैसी आहट पर उसकी आंख खुली । क्या किसी जंगली जानवर की वजह से उठी आहट से उसकी नींद टूट गई थी ?

तभी हिरणों के झुण्ड पर उसकी निगाह पड़ी, जो दूसरी तरफ से नदी के किनारे पर आ पहुंचा था । उसी क्षण ही मोना चौधरी चिंहुक पड़ी । उसके देखते ही देखते एक-हिरन उछलकर गिरा और तड़पने लगा । अन्य हिरण एकाएक सहमे से दिखाई देने लगे । मोना चौधरी के होंठ भिंच गए । उसने हिरण के पेट में खून का धब्बा देख लिया था ।

स्पष्ट था कि कोई वहां है । जिसने हिरण का निशाना लिया था ।

मोना चौधरी सतर्क हो गई।

जिसने भी गोली चलाई है, वो अवश्य हिरण के पास आया । तभी हिरणों का झुण्ड पानी छोड़कर तेजी से एक तरफ भाग खड़ा हुआ । ये देखकर मोना चौधरी की आंखें सिकुड़ी । निगाह हर तरफ घूमी ।

उसकी सोचें ठीक निकली ।

वो हाथ में बन्दूक लिए, जमीन पर पड़े हिरण की तरफ बढ़ रहा था । वो पेड़ो के झुण्ड से निकला था । हिरण का शरीर अब शांत पड़ गया था ।

कौन है ये आदमी ? इस घने जंगल में क्या कर रहा है ?

वो करीब आया तो मोना चौधरी ने स्पष्ट देखा । वो काली पैंट और नीली कमीज पहने हुए, पैंतालीस बरस का व्यक्ति था । मोना चौधरी उसे देखती रही । उसने हिरण का शरीर कंधे पर डाला और पलटकर वापस चला गया । उसके चलने के ढंग से लग रहा था, जैसे वो हर तरफ से निश्चिंत है । ये सब करना उसके लिए रोजमर्रा का काम है । वो सोच भी नहीं सकता था कि यहां उसके अलावा कोई और भी हो सकता है।

मोना चौधरी के देखते ही देखते वो पेड़ों के झुण्ड के पीछे होकर, नजर आना बंद हो गया ।

मोना चौधरी जल्दी से पेड़ की ओट से निकली और नदी के पास पहुंची

पन्द्रह फीट चौड़ी नदी उसके लिए कोई समस्या नहीं थी । पानी मध्यम-सी गति से बह रहा था । मोना चौधरी नदी में उतरी । वो गहरी थी । गले तक वो पानी में हो गई थी । दूसरे ही पल मोना चौधरी तैरती हुई किनारे की तरफ बढ़ी ।

किनारे पर पहुंची ।

बाहर निकल ही रही थी कि पानी में हलचल सी हुई । मोना चौधरी के मस्तिष्क को तीव्र झटका लगा । वो उछली और पिंडलियां पानी से बाहर निकल आई । किनारे पर लुढ़कते चली गई वो । फिर अपने शरीर पर काबू पाकर संभली और पलटकर पानी में देखा।

उसी क्षण शरीर में झुरझुरी सी दौड़ गई ।

स्याह रंग का मगरमच्छ अपना कैंची जैसा मुंह खोले उसे देख रहा था । उसके नुकीले दांत खतरनाक ढंग से चमक रहे थे । दो- पल की भी देरी हो जाती तो उसकी पिंडली मगरमच्छ ने मुंह में दबा लेनी थी । बाल-बाल बची थी वो ।

गहरी सांस लेकर उठी और दबे पांव उस तरफ भागी जिधर नीली कमीज वाला गया था।

पेड़ों के झुरमुट के पास पहुंचकर मोना चौधरी ठिठकी । सतर्क निगाहों से आसपास देखने लगी । वो कहीं भी नजर नहीं आया । मोना चौधरी की आंखें सिकुड़ गई । उसने अच्छी तरह पेड़ों के झुरमुट को चैक किया । फिर तेजी से दबे पांव आगे की तरफ दौड़ी । निगाहें हर तरफ जा रही थी ।

परन्तु नीली कमीज वाला कहीं भी न दिखाई दिया । मोना चौधरी समझ गई कि हिरन का शिकार करके वो ज्यादा दूर नहीं जा सकता । आस-पास ही उसका ठिकाना होगा । मोना चौधरी पलटी और वापस चल पड़ी । चेहरे पर सोच के भाव नजर आ रहे थे । होंठ भिंचे हुए थे।

नदी को उस जगह से पार नहीं किया, जहां से आते वक्त वार किया था । मगरमच्छ वहीं पर उसके इंतजार में हो सकते थे।  दूसरी जगह से नदी पार की और तेजी से उस दिशा की तरफ बढ़ गई, जिधर टैंट था ।

संजीव सिंह उसके इंतजार में टैंट के बाहर ही, परेशानी से टहल रहा था ।

"तुम कहां चली गई थी सुधा ।" उसे आता पाकर संजीव सिंह कह उठा--- "मैं तो परेशान हो गया था ।"

मोना चौधरी करीब आकर ठिठकी ।

"कहां गई थी।" संजीव सिंह हक भरे स्वर में कह उठा--- "तुम तो भीगी हुई हो । कहने के साथ ही वो टैंट के भीतर गया और फौरन ही दो छोटी-छोटी कुर्सियां लाकर खोल दी और बैठता हुआ बोला--- "बैठो । बैठो ।"

मोना चौधरी बैठ गई ।

"अब बताओ । तुम गीली कैसे हुई । कहां चली गई थी ?"

"उस तरफ नदी है ।"

"नदी ?"

"उसमें मगरमच्छ भी है ।"

"ओह ।" संजीव सिंह ने पहलू बदला--- "लेकिन हुआ क्या ?"

"हम अपनी मंजिल के आस-पास ही हैं कहीं ।"

"मतलब कि स्वामी ताराचंद का आश्रम तुमने ढूंढ लिया है ।"

संजीव सिंह के होंठों से निकला।

"नहीं ।" कहने के साथ ही मोना चौधरी ने सब बात बता दी ।

संजीव सिंह ने गहरी सांस लेकर सिर हिलाया ।

"हो सकता है, वो कोई शिकारी हो । यूं ही हिरण का शिकार करने आया हो ।"

"बेवकूफों वाली बातें मत करो संजीव । इतनी दूर इस घने जंगल में, कोई सिर्फ शिकार करने नहीं आएगा । वो भी अकेला । उसके चलने के ढंग से स्पष्ट लग रहा था कि जंगल के रास्तों का वो अभ्यस्त है। जंगली जानवरों का उसे खौफ नहीं । मैं विश्वास के साथ कह सकती हूं कि वो व्यक्ति स्वामी ताराचंद के आश्रम से ही वास्ता रखता है।"

"अगर नीली कमीज वाला निगाहों से ओझल न होता तो उसका पीछा करके, उसका ठिकाना जाना जा सकता था ।" संजीव सिंह बोला।

"ठिकाना अब भी तलाश कर लेंगे । हम इस आश्रम से ज्यादा दूर नहीं हैं।" मोना चौधरी के स्वर में दृढ़ता थी ।

"स्वामी ताराचंद है कौन-इतनी दूर जंगल में-जानवरों के बीच आश्रम क्यों बना रखा है । लोग कैसे यहां आते होंगे ।"

"लोगों के यहां तक आने-जाने का इंतजाम कुछ तो कर ही रखा होगा ।" मोना चौधरी उठ खड़ी हुई--- "टैंट यहीं रहने दो । जरूरी सामान ले चलो । स्वामी ताराचंद के आश्रम की तलाश करनी है जंगल में।" कहने के साथ ही मोना चौधरी टैंट के भीतर प्रवेश कर गई और सामान में से कई तरह की जरूरी चीजें निकालकर जेब में ठूंसने लगी । 

संजीव सिंह भी भीतर आया और पीछे से मोना चौधरी को बांहों में ले लिया ।

"छोड़ो ।" मोना चौधरी ने उखड़े स्वर में कहा ।

"नाराज क्यों होती हो सुधा । प्यार करने को दिल कर...।"

"पागलों वाली बातें मत करो ।" मोना चौधरी ने तीखे स्वर में कहते हुए उसकी बांहों को अलग किया--- "अपने पापा अजबसिंह के बारे में सोचो । उसकी जान खतरे में है और वो स्वामी ताराचंद के आश्रम में आए हैं । उन्हें ढूंढो । बचाओ ।"

संजीव सिंह गम्भीर हुआ और चलने की तैयारी करने लगा।

■■■

पन्द्रह फीट चौड़ी नदी मोना चौधरी और संजीव सिंह ने पार कर ली थी । मगरमच्छ के खतरे से उन्हें सामना नहीं करना पड़ा था । मोना चौधरी को जंगल में चलने से कोई परेशानी नहीं हो रही थी । परन्तु जंगल के रास्तों से संजीव सिंह को परेशानी होने लगी थी । मोना चौधरी के कहने पर, भून्तर से चलने से पहले दो रिवॉल्वर, दो गोलियां और साइलेंसर का इंतजाम कर लिया था । इस वक्त साइलेंसर लगी रिवॉल्वर दोनों के पास थी।

"यहां शेर और चीता भी है ।" मोना चौधरी ने कहा ।

"ओह ।" संजीव सिंह की निगाह फौरन इधर-उधर घूमी ।

"लेकिन उन्हें देखते ही फायर मत कर देना ।" आगे बढ़ते हुए मोना चौधरी हर तरफ देख रही थी--- "ये जानवर हमला नहीं करते अगर उनका पेट भरा हो । ज्यादा भूख होने पर ही हमला करते है ।"

"तो मुझे कैसे पता चलेगा कि सामने खड़ा शेर भूखा है या नहीं ।" संजीव सिंह ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी।

"जब सामने आएगा, पता चल जाएगा ।" मोना चौधरी मुस्कुराई । चलते-चलते संजीव सिंह ने मोना चौधरी पर नजर मारी ।

"तुम तो नर्स हो । इन सब बातों का तुम्हे कैसे पता ?"

"एक बार महीने भर के लिए जंगल में कैंप लगाया था आदिवासियों की जांच के लिए । तब इन बातों की जानकारी हुई थी।"

"और रिवॉल्वर चलाना कहां से सीखा ?"

"वो तो मैंने कॉलेज के दिनों में यूं ही शूटिंग का कोर्स किया था । इसलिए थोड़ी-बहुत चलानी आती है ।" मोना चौधरी ने लापरवाही से कहा--- "बढ़िया निशाना नहीं ले पाती मैं । रिवॉल्वर संभाल लेती हूं-बस ।"

संजीव सिंह कुछ कहने लगा कि तभी उनके कानों में स्पष्ट आहट पड़ी ।

दोनों ठिठके । नजरें मिलीं । पास ही पेड़ों का झुरमुट था ।

मोना चौधरी रिवॉल्वर थामे दबे पांव पेड़ों के झुरमुट के पास पहुंची । भीतर झांका ।

दूसरे ही पल वो गहरी सांस लेकर रह गई । पेड़ों के झुरमुट की छाया में नील गाय का झुण्ड खड़ा था ।

दोनों पुनः आगे बढ़ने लगे । इस वक्त वो झुण्ड पार करके ऐसी जगह पर थे, जहां पर से वो नीली कमीज वाला व्यक्ति निगाहों से ओझल हुआ था । मोना चौधरी को ठिठकते पाकर, संजीव सिंह भी ठिठक गया।

"क्या हुआ ?" संजीव सिंह ने पूछा ।

"यहीं से वो व्यक्ति निगाहों से ओझल हो गया था ।" मोना चौधरी ने होंठ सिकोड़कर कहा।

"किस तरफ गया होगा ?"

"मालूम नहीं । अंदाज से ही किसी दिशा को पकड़कर, उस तरफ चल पड़ते हैं ।" मोना चौधरी बोली ।

"वो देखो-उधर...।"

मोना चौधरी की निगाह संजीव सिंह की बताई दिशा की तरफ घूमी ।

"वो-उधर । दूर...हरी घास के मैदान में जरा-सा चौड़ा रास्ता जा रहा था।" संजीव सिंह के होंठों में खिंचाव आ गया था--- "ऐसा रास्ता तभी बनता है, जब उस जगह से अक्सर कोई न कोई गुजरता रहे ।"

मोना चौधरी ने संजीव सिंह पर निगाह मारी ।

"क्या देख रहे हो ?"

"सोच रही हूं कि समझ है तुझमें।"

"क्यों नहीं होगी ।" संजीव सिंह मुस्कुराया--- "अपने पति को कम मत समझो ।"

"होने वाला पति कहो ।" कहने के साथ ही मोना चौधरी उस दिशा की तरफ चल पड़ी ।

संजीव सिंह उसके साथ हो गया।

वो घास में बना छोटा-सा रास्ता था । करीब डेढ़ फीट चौड़ा । उसे देखकर स्पष्ट महसूस हो रहा था कि कुछ लोगों का इस रास्ते से बराबर आना-जाना लगा रहता है । तभी वहां घास खत्म हो गई और नीचे की मिट्टी नजर आने लगी । वो डेढ़ फीट चौड़ा रास्ता जंगल में दूर तक जाता गुम हो रहा था।

"वो नीली कमीज वाला इसी रास्ते पर आगे जाकर जंगल में गुम हो गया होगा । तभी मेरी निगाहों से अचानक गायब हो गया। अब इस रास्ते को मैं नहीं देख पाई ।" मोना चौधरी की निगाह उस पगडंडी पर थी--- "सिर्फ एक आदमी के आने-जाने से इस तरह की पगडंडी नहीं बन सकती । यहां से ज्यादा आदमियों का आना-जाना है।"

संजीव सिंह ने मोना चौधरी को देखा ।

"तुम नर्स हो सुधा और बातें इस तरह कर रही हो जैसे पुलिसवाले करते हैं ।" संजीव सिंह बोला।

"नर्सों को तुम बेवकूफ क्यों समझते हो । नर्स हर तरह की बातें कर सकती हैं । दिमाग सबके पास होता है ।" मोना चौधरी ने शांत स्वर में कहा--- "आओ, इस रास्ते पर आगे बढ़ते हैं । हो सकता है कि ये रास्ता स्वामी ताराचंद के आश्रम तक जाता हो ।"

"वहीं जाता होगा । आश्रम के आदमी नदी पर नहाने-धोने आते रहते होंगे ।" संजीव सिंह फौरन बोला ।

उसी पल मोना चौधरी की आंखें सिकुड़ी ।

"संजीव ! कोई आ रहा है ।" मोना चौधरी के होंठों से निकला ।

"आ रहा है । कहां...?" संजीव सिंह की नजरें घूमी--- "मुझे तो कहीं नजर नहीं आ रहा।"

"बातों के मध्यम से आवाजें आ रही हैं । छिप जाओ ।" मोना चौधरी जल्दी से भागी और कुछ दूर तने की ओट में जा छिपी ।

संजीव सिंह भी एक तने की ओट में जा छिपा ।

दोनों की छिपी निगाह उस रास्ते पर थी, जो दूर जंगल में जाता हुआ गुम हो रहा था । उसी पल ही उस रास्ते पर एक तरफ को आते दो व्यक्ति दिखाई देने लगे । एक ने कमीज-पैंट पहन रखी थी । दूसरा साधुओं जैसे कपड़े पहने हुए था । गले में मालाएं पहन रखी थी । माथे पर चंदन का बड़ा-सा तिलक लगा स्पष्ट दिखाई दे रहा था।

"तुम लोगों ने बहुत गलत किया ।" कमीज-पैंट वाला गुस्से से कह रहा था--- "मैं तुम लोगों को पवित्र समझता था। लेकिन तुम लोग तो आम इंसानों से भी गए-गुजरे हो । बुरे से भी बुरे हो और...।"

"गुस्सा मत करो बन्धु ।" साधु के वेश वाले ने शांत स्वर में कहा ।

"क्यों न गुस्सा करूं ।" वो और भी गुस्से में आ गया--- "मैं अपनी बहन को यहां लाया था स्वामी ताराचंद का आशीर्वाद दिलवाने के लिए । स्वामी जी ने कहा दस दिन के लिए उसे आश्रम की सेवा के लिए छोड़कर चला जाऊं । मैं स्वामी जी की बात रखी और अब दस दिन बाद वापस आया तो तुम लोगों ने मेरी फूल-सी बहन के साथ क्या किया ?"

"क्या किया कुछ भी तो नहीं ।" साधु ने शांत स्वर में कहा।

"ये तो प्रकृति की क्रिया पर प्रतिक्रिया है । तुम्हारी बहन खूबसूरत है । स्वामी ताराचंद जी भी इंसान हैं । रसपान करने का मन कर आया । सप्ताह भर स्वामी का मन अच्छा लगा तुम्हारी बहन के साथ । उसके बाद स्वामी जी के शिष्य तुम्हारी बहन का ध्यान रखने लगे ।"

"बादशाह हो तुम लोग । स्वामी के वेश में जानवर और गंदे लोग।"

साधु वेश वाले व्यक्ति ने चलते-चलते टोका ।

"मालूम है एकान्त में तुम्हारे संग, इधर क्यों आया ?"

"क्यों ?" वो व्यक्ति ठिठक गया । चेहरे पर अभी भी गुस्सा ही था ।

"स्वामी जी ने मुझे आदेश दिया है कि तुम भटक चुके हो । समझाकर तुम्हें रास्ते पर लाऊं और...।"

"बंद करो अपनी बकवास ।" वो गुर्रा उठा--- "मैं पुलिस में रिपोर्ट करूंगा । तुम लोगों के कारनामों का भंडा फोड़ दूंगा कि आश्रम की आड़ में, आश्रम में आने वाली मासूम युवतियों और औरतों की इज्जत से खेलते हो । तुम...।"

"गलत मत सोचो ।" साधु ने टोका--- "जहां आग होगी, वहां पानी भी अवश्य होगा।"

"ये शब्द पुलिस को कहना । कानून से तुम लोग बच नहीं सकते । मैं गवाही दूंगा । मेरी बहन गवाही देगी । तुम लोगों के जुल्मों के सताए और लोग भी अवश्य सामने आ जाएंगे । तब...।"

साधु के होंठ भिंच गए । आंखों में कठोरता आ गई थी ।

"मेरे समझाने का तुम पर कोई असर नहीं हो रहा । तुम...।"

"तुम्हारी बहन के साथ ऐसा हुआ होता तो...।"

"मैंने अपनी पत्नी को स्वामी ताराचंद के चरणों में सौंप दिया था । ये सब तो सामान्य बातें हैं ।" साधु ने उस व्यक्ति की आंखों में झांका--- "तुम भी बातों को सामान्य लो । महीने बाद तुम्हारी बहन तुम्हें मिल जाएगी । अगर वो अपनी मर्जी से हमेशा के लिए आश्रम की सेवा में रहना चाहे तो, उसे ले जाने के लिए तुम जबरदस्ती नहीं करोगे।"

"बकवास बंद करो । मैं तुम लोगों की काली करतूतों के बारे में पुलिस को खबर करूंगा । आश्रम की आड़ में गलत काम...।"

"अभी तुम्हारा गुस्सा नहीं उतरा ।" साधु एकाएक मुस्कुराया--- "आओ, नदी पर चलते हैं । क्रोध, शरीर और मस्तिष्क के लिए नुकसानदायक होता है । अपने पर काबू पाओ ।"

साधु नदी की तरफ बढ़ा तो, गुस्से में भरा वो व्यक्ति भी साथ हो गया।

"स्वामी ताराचंद का एक शिष्य कल अपनी पत्नी को, आश्रम की सेवा में छोड़ जाएगा ।" साधु ने कहा ।

"क्या कहना चाहते हो ?

"उस शिष्य की पत्नी बहुत खूबसूरत है ।"

वो साधु को घूरता रहा । उसके संग चलता रहा ।

"तुम आश्रम में और शिष्य की पत्नी के साथ दस दिन बता सकते हो । जो हमारे खास-खास होते हैं उन्हें स्वामी ताराचंद ऐसा मौका देते हैं । उसी शिष्य ने छः दिन तुम्हारी बहन के साथ बिताए हैं । यूं ही अपनी पत्नी को आश्रम में सेवा में नहीं दे रहा । स्वामी के इशारे पर चलने में सबका भला है।"

"तुम मेरी बहन की इज्जत की कीमत चुकाने की कोशिश कर रहे हो ।"

"नहीं । बल्कि तुम्हें इस दुनिया में जीने का ढंग सिखा रहे हैं । भविष्य में तुम जब-जब भी आश्रम में आओगे । तुम्हारी सेवा के लिए कोई न कोई खूबसूरत स्त्री हाजिर हो जाएगी । प्रेम-भाव से रहना सीखो ।"

"गंदे लोग हो तुम ।" वो गुस्से से भड़क उठा--- "बहन-बेटी की इज्जत से खेलते हो । लोगों को गलत रास्तों पर डालते हो । परिवारों को बर्बाद कर रहे हो ।"

नदी का किनारा आ गया था । शांत भाव से नदी का पानी बह रहा था । पानी इतना साफ था कि चार-पांच फीट नीचे का हिस्सा स्पष्ट दिखाई दे रहा था ।

दोनों किनारे पर पहुंचकर ठिठके । साधु बोला।

"इस पानी को देखो । तुम्हारी निगाहों में ये बहता पानी स्वच्छ है । लेकिन बहता पानी कभी भी स्वच्छ नहीं होता । मालूम नहीं ये कहां-कहां से आ रहा है । किन-किन लोगों ने इसमें हाथ धोए । इस पर भी ये स्वच्छ ही नजर आ रहा है । क्योंकि बहता पानी है । इसी तरह स्त्री एक के पास न रहकर नए-नए का हाथा थामें तो ये स्त्री के लिए ठीक हो रहता है । जैसे ठहरे पानी में बदबू आने लगती है, उसी तरह एक व्यक्ति के पास रहने वाली स्त्री बुरी लगने लगती है । हमारी शरण में आ जाओ । तुम्हें सब कुछ ही भला-भला लगेगा।"

"बकवास मत करो । यही बातें कहकर, लोगों को बुरे रास्ते पर लगा लेते हो । मैं उन लोगों जैसा नहीं हूं । मेरी पहुंच है ऊपर । मेरे एक फोन पर यहां पुलिस ही पुलिस होगी । मेरी बहन को मेरे हवाले करो । मैं यहां से जाना चाहता हूं।"

साधू ने पानी में देखा । नीचे तक साफ पानी नजर आ रहा था । उसने कमर पर बंधे कपड़े में से ब्लेड निकाला और अपनी उंगली पर कट मारा । उंगली से निकलता खून चमक उठा । उसने हाथ सीधा किया तो उंगली से बहता खून बूंद-बूंद नदी के पानी में गिरने लगा।

उस व्यक्ति के चेहरे पर अजीब से भाव उभरे ।

"ये क्या कर रहे हो ?"

"खून लेने के लिए खून देना अति आवश्यक है।" साधू के होंठों पर शांत-छिपी क्रूरता भरी मुस्कान उभरी।

उस व्यक्ति के चेहरे पर उलझन भरी रही । वो कभी उंगली से टपक कर, नदी में गिरते खून की बूंद को देखता तो कभी साधू के शांत-ठहरे चेहरे को ।

"वो देखो-पानी में ।"

उसने पानी में देखा । दूसरे ही पल उसकी आंखें सिकुड़ी।

पानी के भीतर तीन मगरमच्छ नजर आने लगे थे । उसमें से एक किनारे पर मुंह निकाल कर बैठ गया था । खून की बूंद अब मगरमच्छ के चेहरे पर गिर रही थी । एकाएक उसने हाथ पीछे कर लिया । कटी उंगली को मुट्ठी में भींच लिया । खून बहना बंद हो गया ।

दूसरा मगरमच्छ भी किनारे पर आ पहुंचा था । उसका आधा शरीर पानी से बाहर था और आधा पानी के भीतर । वो बार-बार मुंह खोल रहा था ।

"खून की खुशबू उन्हें इधर खींच लाई ।" साधू ने मुस्कुराकर उस व्यक्ति को देखा।

"तुम्हारी इस हरकत का मतलब नहीं समझा । तुम...।"

"कुछ बेवकूफ होते है, जो हमारी बात नहीं समझते। परन्तु वो इन मगरमच्छों की भाषा अच्छी तरह समझ जाते हैं । तुम्हें अपनी बहन वापस चाहिए।  तुम पुलिस को बताओगे कि आश्रम में क्या होता है । लेकिन तुम किसी को कुछ भी नहीं बता पाओगे ।" कहने के साथ ही साधू फुर्ती से आगे बढ़ा और पूरी शक्ति से उसे धक्का दिया।

उस व्यक्ति के गले से चीख निकली । खुद को उसने संभालना चाहा परन्तु सब बेकार रहा । तेज आवाज के साथ वो पानी में जा गिरा । तभी वो मगरमच्छ पलटे और उस पर झपट पड़े । साफ पानी में सब कुछ स्पष्ट नजर आ रहा था । एक मगरमच्छ ने उसकी पिंडली को मुंह में लेकर खींचा । वो पानी से निकलने की चेष्टा में था कि पुनः पानी के भीतर चला गया । चीखने के लिए मुंह खोला तो पानी मुंह में जाने से तड़प उठा।

तभी दूसरा मगरमच्छ उसके सिर के करीब पहुंचा । उसके मुंह पूरा का पूरा जबड़ा खुला हुआ था । पलक झपकते ही उसका पूरा सिर अपने जबड़े में खींच लिया । उसका शरीर बुरी तरह तड़पा। तीसरे मगरमच्छ ने उसके कमर में मुंह मारा और मांस का बड़ा सा टुकड़ा मुंह में भींचकर पीछे हट गया।

साफ चमकता पानी खून की सुर्खी में धुंधला होने लगा ।

मगरमच्छों के खूनी शिकंजे में फंसा शरीर बुरी तरह तड़प रहा था।

खून की सुर्खी बढ़ जाने से, पानी सुर्ख होकर धुंधला हो गया था कि उसके पार देख पाना कठिन हो गया था । कभी-कभार मगरमच्छों के शरीर की झलक मिल जाती थी ।

साधू के चेहरे पर खतरनाक मुस्कान उभरी हुई थी । कई पलों तक वो खून की सुर्खी वाले पानी को देखता रहा।

"बहुत ईमानदार बनता था हरामजादा ।" दांत भींचकर बड़बड़ाते हुए वो पलटा ।

अगले ही पल ठिठक गया ।

चार कदमों की दूरी पर मोना चौधरी और संजीव सिंह खड़े थे ।

पहले तो वो हड़बड़ाया फिर उसके माथे पर बल नजर आने लगे । होंठ भींच गए।

"किसी को कत्ल करने का तरीका तुमने अच्छा ढूंढ निकाला है ।" मोना चौधरी ने कड़वे स्वर में कहा ।

"कौन हो तुम लोग ?"

"इस तरह कत्ल करने से लाश मिलने का झंझट नहीं रहता । हड्डियां नीचे बैठ जाती हैं । अगर लाश किसी को नजर भी आ जाए तो हर कोई यही कहेगा कि मरने वाला मगरमच्छों का शिकार हो गया ।" मोना चौधरी का स्वर विषैला ही रहा ।

"तुम लोग आश्रम के तो नहीं लगते ।"

"स्वामी ताराचंद और उसके चेले-चपाटे आश्रम की आड़ में औरतों की इज्जत से खेलते हैं । गैर-कानूनी काम करते हो । ऐसे काम करके बाद में लोगों को ब्लैकमेल भी करते होगे ।

दोनों को घूरते हुए वो साधू दांत पीसकर बोला।

"कौन हो तुम लोग और इस घने जंगल में क्यों आए ?"

"हमसे घबराने की जरूरत नहीं ।" मोना चौधरी ने मुस्कुराकर कहा--- "ये मेरे पति हैं । हम दोनों की शादी को कई बरस हो गए । लेकिन मैं मां नहीं बन सकी । किसी ने बताया कि अगर मैं स्वामी ताराचंद के आश्रम में चली जाऊं तो महीने भर में गर्भवती हो जाऊंगी।"

"ठीक कह रहे हो । स्वामी अवश्य कृपा करेंगे ।" साधू ने फौरन संभलकर कहा--- "लेकिन तुम लोग यहां क्या कर रहे हो ?"

"स्वामी ताराचंद का आश्रम तलाश कर रहे हैं । रास्ता भटक गए हैं ।" मोना चौधरी का स्वर सामान्य हो गया था।

संजीव सिंह ने मोना चौधरी को घूरा । परन्तु कहा कुछ नहीं ।

"फिक्र की कोई बात नहीं । आश्रम पास ही है । मैं तुम दोनों को वहां ले चलता हूं ।"

"मैं नहीं जाऊंगी । अब मुझे डर लगने लगा है ।" मोना चौधरी ने जल्दी से कहा ।

"डर-कैसा डर ?"

"तुमने अभी-अभी एक आदमी की जान ली है । उसे नदी में धक्का दिया । मगरमच्छों ने...।"

"हां । बेचारे का पांव फिसल गया था ।" साधू ने दुख भरे स्वर में कहा--- "स्वामी जी ने उसे बहुत बार कहा था कि पानी के पास मत जाना । तुम्हारी मौत हो सकती है । इस शिष्य के लिए आश्रम में ही नदी में पानी पहुंचा दिया जाता था । परन्तु आज जिद करके आ गया । पानी में मौत हो गई । स्वामी जी की बात सही निकली ।"

"नहीं-नहीं । उसे तो तुमने धक्का दिया था ।"

"मैंने ? नहीं तो-मैं तो उसे पकड़ने की कोशिश में था जब वो नदी में गिर रहा था।"

"हां डार्लिंग ।" संजीव सिंह कह उठा--- "ये साधू सही कह रहे हैं । मैंने उसका पांव फिसलते देखा था ।"

"सच ?" मोना चौधरी ने संजीव सिंह को देखा ।

"मैं भला तुमसे झूठ क्यों बोलने लगा ।"

"ओह ! मैंने यूं ही साधू महाराज पर शक किया । मुझे क्षमा कीजिए ।" कहने के साथ ही मोना चौधरी हाथ जोड़े जल्दी से आगे बढ़ी, साधू के पांव छूने के लिए ।

करीब पहुंचते ही मोना चौधरी ने फुर्ती से उसके कान के पास खास ढंग से हाथ मारा । साधु के होंठों से कराह निकली । उसके घुटने मुड़ने लगे । इससे पहले वो नीचे गिरता, मोना चौधरी ने उसे कंधे पर लाद लिया।

संजीव सिंह ने हैरानी से मोना चौधरी को देखा ।

"संजीव ! जल्दी चलो यहां से । कोई दूसरा भी आ सकता है ।"

"चलना कहां है ?" संजीव सिंह के होंठों से निकला ।

"अपने टैंट में।"

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