पुलिस की ग्रश्ती गाड़ियों के सायरन रात को तीन बजे सुनाई दिये ।
कुछ ही देर बाद पुलिस के भारी बूटों की धमक से चौथी मंजिल का गलियरा गूंजने लगा । गलियारे में लोगों के बातें करने का शोर सा मचा हुआ था । हर आदमी कुछ न कुछ कह रहा था परिणामस्वरुप उत्तेजित स्वरों के अतिरिक्त कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था ।
उस शोर मे अनजान बनकर सोया रह पाना असम्भव तो था ही, सन्देहजनक भी था । सुनील ने गाउन पहना और द्वार खोलकर झूठी जमहाइयां लेता हुआ बाहर निकलकर आया ।
चार सौ सत्ताइस नम्बर के सामने पुलिस की लाल टोपियां दिखाई दे रही थी । लोगों की भीड़ सुनील के कमरे से भी परे पहुंची हुई थी ।
सुधा भी बाहर निकल आई थी ।
दोनों ने एक दूसरे को देखा लेकिन सुनील ने उसके पास जाने का उपक्रम नहीं किया ।
“क्या हो गया है ?” - सुनील ने अपनी बगल में खड़े एक वेटर से पूछा ।
“कत्ल हो गया है, साहब ।” - वेटर दहशतभरे स्वर में बोला ।
“किसका ?” - सुनील ने अनजान बनते हुए पूछा ।
“चार सौ सत्ताइस वाले साहब का । तिवारी नाम है उनका । किसी ने छुरा मार दिया है उन्हें ।”
“लाश किसे मिली थी ?”
“उन्हीं साहब के एक साथी जीवन को । अभी थोड़ी देर पहले जीवन साहब होटल में वापस आये थे । कमरे में घुसे तो उन्होंने दूसरे साहब को मरा पाया । उन्होंने मैनेजर को बुलाया और मैनेजर ने पुलिस को ।”
“च....च....” - सुनील दु:खभरे स्वर में बोला और वेटर के पास से हट गया ।
पुलिस वाले लोगों को चार सौ सत्ताइस से परे हटाने की चेष्टा कर रहे थे लेकिन उन्हें कोई विशेष सफलता प्राप्त नहीं हो रही थी ।
उसी समय जीवन कमरे से बाहर निकला । सुनील पर दृष्टि पड़ते ही वह भीड़ में रास्ता बनाता हुआ उसकी ओर बढा ।
सनीप आकर उसने सुनील की बांह पकड़ी और उसे भीड़ से परे गलियारे के दूसरे सिरे पर ले आया ।
सुधा विचित्र दृष्टि से दोनों को देख रही थी ।
“तुम परले सिरे के गधे हो ।” - जीवन दांत पीसता धीमे स्वर में बोला ।
“क्या बक रहे हो ?” - सुनील हैरान हो उठा ।
“मैंने तुम्हें कहा था कि तुम तिवारी को मुझ पर छोड़ दो । मैं सम्भाल लूंगा उसे ।”
“कहा था । फिर ?”
“फिर भी तुमने उसे कत्ल कर दिया है ।”
“तुम्हारा सिर तो नहीं फिर गया हैं ?”
“और उसे मारने के लिये भी तुमने मेरा ही कमरा चुना । तुम....”
“शटअप, यू डैम्ड फूल ।” - सुनील भड़ककर बोला ।
“मैं झूठ कह रहा हूं ?” जीवन उसके नेत्रों में झांकता हुआ बोला ।”
“झूठ ? इस बकवास के लिये मैं तुम्हारी खोपड़ी तोड़ सकता हूं ।”
जीवन ने अपनी जेब से एक चमकता हुआ टाईपिन निकाला और उसे सुनील के सामने करता हुआ बोला - “यह देख रहे हो ?”
“हां ।” - सुनील बोला - “तुम्हें कहां से मिला ?”
टाईपिन के क्लिप का स्प्रिंग ढीला पड़ चुका था और वह पहले भी कई बार सुनील की टाई में से निकल चुका था ।
“मेरे कमरे में पड़ा था यह ।”
“शाम को जब मैं तुम्हारे कमरे में आया था, उस समय गिर पड़ा होगा ।” - सुनील लापरवाही से बोला ।
“बेटे !” - जीवन व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला - “यह बाथ टब में तिवारी की लाश के पास पड़ा था ।”
सुनील चुप रहा ।
“इस पर तुम्हारा नाम भी लिखा हुआ है । अगर यह मेरी जगह पुलिस के हाथ में पडता तो अभी तक तुम्हारी ट्रांसफर सरकारी मेहमानखाने में हो चुकी होती ।”
“अच्छा ही हुआ यह तुम्हारे. हाथ में पड़ा ।” - सुनील बड़बड़ाया ।
“तो तुम मानते हो कि तिवारी को तुमने ही ठिकाने लगाया है ?”
“अगर मैं न मानूं तो तुम विश्वास कर लोगे ?”
“नहीं ।”
“वह तुम्हारे कमरे में मुझसे लड़ पड़ा था और छुरा लेकर मुझे मारने झपटा था । अगर मैं उसे नहीं मारता, तो वह मुझे मार देता ।”
जीवन चुप रहा ।
“तुम इतनी रात गए कहां से आये हो ?” - सुनील ने पूछा ।
“गुलनार से ।”
“कहां से ?”
“गुलनार से । कम सुनाई देता है क्या ?”
वहां क्या था ?”
“यह पूछो वहां क्या नहीं था और क्या नहीं होता ! शबाब और शराब की नदियां बहती है वहां । गुलनार राजनगर का सबसे बड़ा गैरकानूनी बार है और सबसे बड़ा चकला है ।”
“और मोहनलाल कहां है ?”
“वह शराब में धुत्त शबाब को सीने से लिपटाये गुलनार के एक कमरे में पड़ा है । होश आ जायेगा तो लौट आयेगा ।”
पुलिस वालों ने तुमसे क्या पूछा ?”
“बहुत कुछ पूछा है और लगता है अभी बहुत कुछ पूछेंगे । तुमने तिवारी को कितने बजे मारा था ?”
“दस बजे ।” - सुनील ने यूं ही कह दिया ।
“पुलिस का भी यही ख्याल है । मैं बीस गवाह पेश कर सकता हूं जिन्होंने मुझे नौ बजे से दो बजे तक गुलनार में देखा था । पुलिस मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकती ।”
उसी समय एक इन्स्पेक्टर कमरे से बाहर निकला ।
“मैं अभी आया ।” - जीवन बोला और इन्स्पेक्टर की ओर बढ़ गया ।
सुनील ने एक सिगरेट सुलगा लिया और भीड़ से पीछे आ खड़ा हुआ ।
जो इन्स्पेक्टर तफ्तीश कर रहा था । उसे सुनील ने पहले कभी नही देखा था । वह तनिक आश्वस्त हो उठा । अगर इस बार कहीं उसका टकराव इन्स्पेक्टर प्रभुदयाल से हो जाता तो शायद उसकी कोई सफाई प्रभुदयाल का विश्वास प्राप्त न कर सकती ।
लगभग दस मिनट बाद जीवन लौटा ।
“सुनील ।” - वह बोला - “कहीं यह भी तो तुम्हारी ही करामात नहीं है ?”
“अब क्या हो गया है ?” - सुनील हैरानी से बोला ।
“पुलिस को कमरे की तलाशी लेने पर हमारे कमरे में एक माइक्रोफोन मिला है ।”
“माइक्रोफोन !”
“धीरे बोलो ।”
“कहां था वह ?”
“बीच की मेज पर टेबल लैम्प के शेड के भीतर । चार सौ दो नम्बर कमरे में उससे सम्बन्धित रिकार्डिंग मशीन और लाउडस्पीकर मिला है । माइक्रोफोन और सम्बन्धित तार इतनी सफाई से छुपाये गये हैं कि स्थूल रुप से कुछ भी दिखाई नहीं देता ।”
“लेकिन माइक्रोफोन लगाना और उसकी तारें वगैरह फैलाना कोई पांच-सात मिनट का काम तो नहीं है । किसी को इतना कुछ तुम्हारे कमरे में कर डालने का मौका कैसे मिला ?”
“अगर यह काम तुमने नहीं किया है तो भगवान जाने कैसे हो गया यह सब !”
“चार सौ दो नम्बर में कौन रहता है ?”
“मैनेजर कहता है कि चार सौ दो किसी कर्णसिंह को दिया गया था । जो पता उसने होटल के रजिस्टर में लिखवाया है, इन्स्पेक्टर कहता है कि वह गलत है । इससे सम्भव है कि नाम भी गलत हो ।”
“और कर्णसिंह अब है कहां ?
“गायब है ।”
“क्या मतलब ?”
“अपने कमरे में वह है नहीं और होटल के किसी कर्मचारी को यह भी याद नहीं कि उसने कर्णसिंह को आखिरी बार होटल में कब देखा था !”
लेकिन जो कुछ वह पीछे कमरे में छोड़ गया है उसकी सहायता से उसके बारे में कुछ जाना जा सकता है ।”
“वह रिकार्डिंग मशीन और माइक्रोफोन के अलावा छोड़कर ही क्या गया है ?”
“कपड़े वगैरह ?”
“कुछ भी नहीं । केवल एक सूटकेस है और उसमें गत्ते भरे हूये हैं ।”
उसी समय सुनील ने देखा, सुधा जो अब तक गलियारे में खड़ी थी, चुपचाप अपने कमरे में घुस गई और फिर भीतर से द्वार बन्द कर दिया ।
एकाएक सुनील को एक ख्याल आया ।
वह जीवन को वहीं खड़ा छोड़कर सीढ़ियों की ओर सरक गया ! भीड़ की नजर से ओझल होते ही वह तेजी से नीचे भागा ।
उसे मालूम था, टेलीफोन एक्सचेंज नीचे बेसमेंट में लगा हुआ था ।
वहां पहुंचकर उसने देखा, की-बोर्ड पर से आपरेटर गायब था । शायद वह भी हत्या का हंगामा देखने उत्सुकतावश चौथी मन्जिल पर चला गया था ।
बोर्ड पर चार सौ बाइस नम्बर कमरे की एक्सटेन्सन की बत्ती बार-बार जल-बुझ रही थी जैसे कोई लगातार पलंजर टेप कर रहा हो ।
सुनील जल्दी से आपरेटर की सीट पर बैठ गया । उसने एक्सटेन्शन से सम्बन्धित छिद्र में कॉर्ड फंसाई और रिसीवर उठा कर बोला - “एक्सचेन्ज ।”
फौरन ही सुधा की आवाज सुनाई दी - “प्लीज गिव मी 212079 ।”
“प्लीज होल्ड आन ।”
सुनील ने जल्दी से बोर्ड की चाबियां आपरेट की और सुधा का नम्बर डायल कर दिया ।
कितनी ही देर घन्टी बजने के बाद दूसरी ओर से उत्तर मिला - “हल्लो ।”
“प्लीज स्पीक आन ।” - सुनील बोला ।
“हल्लो ।” - उसे सुधा का स्वर सुनाई दिया - “कर्नल साहब, मैं सुधा बोल रही हूं ।”
“कर्नल, इस समय नहीं हैं ।” - दूसरी ओर से एक भारी स्वर सुनाई दिया - “मैं आपको जानता हूं । मैं उन्हें बता दूंगा कि आपने रिंग किया था । कोई विशेष बात हो तो कहिये ।”
“नहीं, मैं दोबारा रिंग कर लूंगी ।” - सुधा निराश स्वर में बोली और उसने रिसीवर रख दिया ।
सुनील ने सुधा की लाइन का प्लग बोर्ड से निकाल दिया । उसने वहीं रखे पैड में से एक कागज फाड़ा और उस पर सुधा का मांगा नम्बर लिख लिया ।
नम्बर के विषय में सुनील बड़ी उलझन में फसा हुआ था ।
212079 राजनगर के विक्रमपुरे टेलीफोन एक्सचेन्ज से सम्बन्धित था । विक्रमपुरे एक्सचेन्ज के अन्तर्गत न तो लिटन रोड आती थी जहा पहली बार सुधा कर्नल पिंगले से मिलने गई थी न ही गृह मंत्रालय या सी. बी. आई. ही के आफिस उस । एक्सचेंज से सम्बन्धित थे । फिर उसने सोचा शायद यह कर्नल पिंगले के घर का नम्बर हो ।
उसने डायरेक्टरी खोली और फिर गृह मंत्रालय का पृष्ठ निकाल लिया । सी. बी. आई. के हैडिंग के नीचे उसे पिंगले का नाम दिखाई दे गया । वहीं उसके घर का पता भी छपा था लेकिन वह नम्बर 212079 नहीं था । वह 47004 था ।
सुनील ने घड़ी देखी । सवा चार बजे चुके थे ।
उसने दूसरा नम्बर भी उसी पृष्ठ पर नोट कर लिया और एक्सचेंज से बाहर निकल आया ।
वह शांति से सीढ़ियां चढ़ता हुआ ऊपर पहुंच गया । ऊपर से भीड़ काफी छट चुकी थी । होटल के स्टाफ के अतिरिक्त केवल चार-पांच होटल में ठहरे हुए लोग ही अब वहां दिखाई दे रहे थे ।
जीवन वहीं खड़ा था ।
“कहां गये थे ?” - जीवन ने संदिग्ध स्वर में पूछा ।
“वह इन्स्पेक्टर मुझे पहचानता था ।” - सुनील सहज स्वर में बोला - “इसलिये मैंने थोड़ी देर के लिये यहां से टल जाना ही उचित समझा था ।”
“इससे तुम उसकी नजरों में आने से बच थोड़े ही गये हो । इन्स्पेक्टर कहता है कि वह सवेरा होने के बाद वह इस मंजिल पर ठहरे हर आदमी का इन्टरव्यू लेगा । तब तुम्हारा क्या होगा ?”
“तब की तब देखी जायेगी, राजा ।” - सुनील उसका कन्धा थपथपाता हुआ बोला ।
जीवन विचित्र नेत्रों से उसे देखता रहा ।
“लाश हटा ली गई है ?” - सुनील ने पूछा ।
“अभी नहीं ।”
“तुम्हारा क्या इन्तजाम हुआ ?”
“मुझे तीसरी मंजिल पर एक कमरा दिया गया है !”
“तो जाओ । अभी सवेरा होने में बहुत देर है । सो जाओ जाकर ।”
“इतनी गड़बड़ के बाद नींद किसे आयेगी ?”
“मुझे तो आ रही है । गुड मार्निग प्यारेलाल ।” - सुनील बोला और उसे वही खड़ा छोड़कर अपने कमरे में घुस गया ।
***
सुबह के लगभग आठ बजे थे ।
सुनील चुपचाप होटल से बाहर निकल आया और पैदल ही एक ओर चल दिया ।
एक स्थान पर उसे पब्लिक टेलीफोन बूथ दिखाई दिया ।
वह बूथ में घुस गया ।
उसने 47004 घुमा दिया । वह कर्नल पिंगले के निवास स्थान का टेलीफोन नम्बर था जो पिछली रात उसने टेलीफोन डायरेक्टरी में देखा था ।
“हल्लो ।” - दूसरी ओर से एक महिला स्वर सुनाई दिया ।
सुनील ने जल्दी से कायन बाक्स में सिक्के डाले और बोला - “हल्लो, कर्नल पिंगले हैं ?”
“जी नहीं, वे तो इंगलैंड गये हुये हैं ।”
“अच्छा !” -सुनील हैरान होकर बोला - “कब से ?”
“लगभग दो महीने हो गये हैं ।”
“कब लौटेंगे ?”
“कल ही उनका पत्र आया था । शायद पन्द्रह दिन और रहेंगे वे वहां ।”
“आप......”
“मैं उनकी मिसेज बोल रही हूं । और आप... ?”
“मैं उनका बड़ा पुराना मित्र हूं । कई वर्षो के बाद आज ही टिम्बकटू से लौटा हूं । मेरा नाम प्रिंस है । जब लौटें तो मेरी नमस्ते कहियेगा उनसे ।”
और सुनील ने हुक दबाकर सम्बन्ध-विच्छेद कर दिया ।
फिर उसने 212079 डायल किया । वह वह नम्बर था जिससे पिछली रात सुधा ने कर्नल पिंगले से बात करने की चेष्टा की थी ।
“हल्लो ।” - दूसरी ओर से एक पुरुष स्वर सुनाई दिया ।
“यह कहां का नम्बर है ?” - सुनील ने स्थिर स्वर से पूछा ।
“आपको कहां का नम्बर चाहिये ?” - किसी ने रुखे स्वर में प्रश्न किया ।
“मैं विक्रमपुरे के एक्सचेंज से बोल रहा हूं । आपके कुछ ट्रंककाल के बिलों का भुगतान होना बाकी है ।”
“देखिये ।” - दूसरी ओर से पहले से नम्र स्वर सुनाई दिया - “यह गुलनार का टेलीफोन है और यहां से कभी कोई ट्रंकाल नहीं हुई है ।”
“ओ के । हम फिर चैक करेंगे ।”
सुनील ने रिसीवर हुक पर लटका दिया ।
वह कई क्षण बूथ में ही खड़ा रहा ।
फिर उसने दोबारा रिसीवर हुक से उठाया और एक बार फिर 212079 डायल कर दिया ।
“हल्लो ।” - दूसरी ओर से फिर वही स्वर सुनाई दिया ।
“कर्नल पिंगले हैं ?” - सुनील अपेक्षाकृत भारी स्वर में बोला ।
“आप कौन बोल रहे हैं ।” - दूसरी ओर से आने वाली आवाज एकदम सतर्क हो उठी थी ।
“मैं सुधा का मित्र हू और उसका ही एक संदेशा कर्नल साहब तक पहुंचाना चाहता हूं ।”
कुछ क्षण शांति रही और फिर वही स्वर सुनाई दिया - “होल्ड कीजिये । मैं कर्नल को देखता हूं ।”
लेकिन होल्ड करने के स्थान पर सुनील ने रिसीवर क्रेडल पर पटका और बूथ से बाहर निकल आया ।
उसने एक टैक्सी ली और यूथ क्लब पहुंचा ।
रमाकांत हमेशा की तरह सोया पड़ा था ।
सुनील ने उसे झिंझोड़ कर जगाया ।
“क्या मुसीबत आ गई है ?” - रमाकांत झल्लाया ।
“देखो, रमाकांत ।” - सुनील निर्णयात्मक स्वर में बोला - “मेरे पास समय नहीं है तुम एकदम उठकर बैठ जाओ और पांच मिनट मेरे साथ बात कर लो । उसके बाद तुम सोना या मर जाना, मैं परवाह नहीं करुंगा ।”
रमाकांत शायद काफी सो चुका था इसलिये वह बिना चिड़चिड़ाहट प्रकट किये बिस्तर में से निकला और बाथरुम में घुस गया ।
अगले ही क्षण वह सिर पर गीला तौलिया रखे लौट आया और सुनील के सामने बैठ गया ।
“कुछ पता लगा सेठ गूजरमल के पास बीस लाख रुपये किस सूरत में थे ?” - सुनील ने पूछा ।
“हां । हमारी तकदीर अच्छी थी जे कि यह बात जानने के लिये जिन लोगों के पास मुझे अपना आदमी विशालगढ़ भेजना पड़ता, वे राजनगर में ही मौजूद थे । सुनील, सेठ के पास बीस लाख रुपये मूल्य के हीरे थे ।” सुनील, सेठ के पास बीस लाख रुपये मूल्य के हीरे थे ।”
“अच्छा !” - सुनील हैरानी से बोला ।
“हां वे गिनती में पैंतालीस थे और उनमें से एक की कीमत तीन लाख रुपये से भी अधिक थी ।”
“तुम्हें ये सब कैसे मालूम हुआ ?”
“सेठ के एक नोकर की सहायता से हम उन व्यापारियों तक पहुंच गये थे जिनके पास उन रोज सेठ विशालगढ़ हीरे ले जा रहा था । वे व्यापारी तभी से राजनगर में हैं । वे कहते हैं उन हीरों के लिये उनका सेठ से बीस लाख का सौदा हुआ था जिसमें से दस लाख वे सेठ को दे भी चुके हैं । सेठ मर गया और हीरे खो गये इससे उनके दस लाख रुपये भी डूब गये हैं ।”
“क्यों ? अपने दस लाख रुपये वे सेठ की छोड़ी हुई सम्पत्ति से वसूर कर सकते हैं ।”
“नहीं कर सकते ।”
“क्यों ?”
“कोई लिखत पढ़त तो थी ही नहीं । सुनील, इन मारवाड़ी सेठों का धन्धा बहुत कुछ इन्सान की जुबान पर चलता है । जब तक सेठ जिन्दा था तब तक तो ठीक था, उसके मर जाने के बाद तो वे हरगिज भी सिद्ध नहीं कर सकते कि उन्होंने सेठ को दस लाख रुपये एडवांस दिये थे । सेठ इस संसार में अकेला था । उसकी सारी सम्पत्ति पर सरकारी कब्जा हो गया है और सरकार तो ऐसा क्लेम हरगिज भी नहीं मानेगी जिसकी बुनियाद ही जुबान है । अब उन व्यापारियों का रुपया इसी सूरत में वसूल हो सकता है कि वे हीरे मिल जायें । उन्ही हीरों के चक्कर में वे राजनगर आये हैं और वे हीरों का पता बताने वाले को सहर्ष एक लाख रुपये का इनाम देने के लिये तैयार हैं ।”
“वे यह सिद्ध कर सकते हैं कि हीरे उनके हैं ।”
“वे कहते हैं कि वे कर सकते हैं । सुनील, अब तो हमें माल के आकार की जानकारी है । हीरे कहां हो सकते हैं ?”
“हरीचन्द के पास या सुधा के फ्लैट में या किसी लाकर में,लेकिन मेरा अपना ख्याल यह है कि चौधरी ने हीरे हरीचन्द को सौंपे थे । चौधरी की मौंत के बाद हरीचन्द के मन में बेइमानी आ गई और वह हीरे स्वयं पचा जाने के लिये एकदम झूठ बोल गया कि चौधरी का न तो उससे कोई सम्बन्ध था और न ही उसने उसे कोई धन रखने के लिये दिया था ।”
“हरीचन्द को दुबारा चैक करना चाहिये ।” - रमाकांत बोला ।
“अब उसे तुम नहीं, मैं चैक करूंगा । मैं देखूंगा चौधरी जैसा बर्बर आदमी एक मजदूर पर कैसे मेहरबान हो गया ?”
“सुनील” - रमाकांत बोला - “अब मैं तुम्हें एक एसी बात बताता हूं जिसे सुनकर तुम फड़क उठोगे ।”
“इस केस से सम्बन्धित ?”
“इसी केस से सम्बन्धित और अप्रत्याशित भी ।”
“क्या ?” - सुनील आशान्वित स्वर में बोला ।
“कल मैंने तुम्हें कहा था कि मैं सुधा की निगरानी के लिये सुबह दिनकर और जौहरी को स्विस होटल भेज दूंगा लेकिन वास्तव में मैंने तुम्हारे क्लब से जाने के फौरन बाद ही उन्हें वहां भेज दिया था ।”
“क्यों ?”
“पता नहीं । बस एकदम झोंक सी आ गई । जौहरी और दिनकर मुझे क्लब में दिखाई दे गये, मैंने फौरन ही उन्हें वहां जाने के लिए कह दिया और उसी चक्कर में एक अनोखी बात पता चल गई ।”
“क्या ?”
जौहरी का कथन है कि आधी रात के बाद सुधा भागती हुई होटल के बाहर निकली थी, उसने एक टैक्सी ड्राइवर को न जाने क्या कहा कि वह बन्दूक में छूटी हुई गोली की तरह टैक्सी बाहर ले भागा । सुधा लपककर टैक्सियों के पीछे एक खम्भे की ओट में हो गई । उसी समय तुम होटल से बाहर निकले । तुमने खाली टैक्सी को कम्पउन्ड के बाहर जाते देखा और शायद यह समझा कि उसमें सुधा थी । तुम खाली टैक्सी के पीछे ही टैक्सी लेकंर भाग निकले ।”
“वह चोट तो मुझे जिन्दगी भर याद रहेगी, रमाकांत । एक मामूली सी औरत ने वह बेवकूफ बनाया है मुझे कि.....”
“तुम मेरी बात सुनोगे या नहीं ?” - रमाकांत बात काटकर बोला ।
“कहो ।”
“तुम्हारी टैक्सी के दृष्टि से ओझल होते ही वह बड़े इत्मीनान से बाहर निकली । उसने एक पब्लिक टेलीफोन से किसी को फोन किया, उसने एक टैक्सी ली और जानते हो कहां गई वह ?”
“गुलनार में ।” - सुनील भावहीन स्वर में बोला ।
“तुम्हें कैसे मालूम ?” - रमाकांत हैरान हो उठा ।
“मेरे पास क्रिस्टल बाल है । तुम आगे कहो फिर क्या हआ ?”
“गुलनार के द्वार पर एक आदमी उसकी प्रतीक्षा कर रहा था । सुधा उसके साथ भीतर घुस गई । लगभग आधे घन्टे बाद दोनों बाहर निकले । उस आदमी ने सुधा को एक टैक्सी पर बिठा कर भेज दिया और स्वयं वापस गुलनार में घुस गया ।”
“वह आदमी कौन था ?” - सुनील ने उत्सुकता से पूछा ।
“अभी पता नहीं है लेकिन पता लग जायेगा ।”
“कैसे ?”
“दिनकर से मिनियेचर कैमरे से उसकी एक तस्वीर खींच ली थी । वह उसे धुलवाने गया हुआ है, अभी आने ही वाला होगा ।”
“बहुत अच्छे ।” - सुनील सन्तुष्ट स्वर में बोला ।
“लेकिन तुम्हें यह कैसे मालूम था कि सुधा गुलनार गई थी ? तुम तो खाली टैक्सी के पीछे चक्कर लगा रहे थे !”
“मैंने अनुमान लगाया था ।”
“लेकिन कैसे ?”
“आज सुबह मुझे कुछ नयी बातें मालूम हुई हैं, उनसे ।”
“क्या ?”
“रमाकांत, सुधा जिस नम्बर पर कर्नल पिंगले से बात करती है, वह न तो सी बी आई के किसी आफिस का है और नहीं, कर्नल पिंगले के घर का है । वह नम्बर गुलनार का है ।”
“क्या !” - रमाकांत हैरान होकर बोला ।
“विश्वास न हो तो डायरेक्ट्री देख लो ।”
“अगर वह नम्बर गुलजार का है तो क्या यह सम्भव नहीं है कि कर्नल ने कोई ऐसा इन्तजाम कर रखा हो कि वह गुलनार में काल रिसीव कर सके ?” - रमाकांत विचारपूर्ण स्वर में बोला ।
“नहीं ।”
“क्यों ?”
“कई कारण हैं । उनमें सबसे बड़ा और वजनदार कारण यह है कि कर्नल पिंगले दो महीने से भारत में नहीं हैं ।”
“तो तुम और सुधा किस कर्नल पिंगले से मिल चुके हो ?”
“किसी अन्य व्यक्ति से जो जानता है कर्नल पिंगले सी बी आई का डिप्टी डायरैक्टर है और पिछले दो महीने से भारत से बाहर है । वह व्यक्ति स्वयं को सन्देह से दूर रखने के लिये और दूसरों पर अपना विश्वास जमाने के लिये कर्नल का नाम इस्तेमाल कर रहा है । शायद वह भी सेठ गूजरमल के हीरों के पीछे था, लेकिन चौधरी वगैरह पहले ही माल साफ कर गये । वह जीवन वगैरह के पीछे लग गया । उसे पता लगा कि चौधरी कहीं माल छुपा गया था । उसने सुधा से सम्पर्क स्थापित किया और पिंगले का ही नकली नाम इस्तेमाल करते हुये सुधा को विश्वास दिला दिया कि उसके पति ने सरकारी धन चुराया था और धन का पता लगते ही उसे पिंगले को सूचना दे देनी चाहिये थी । साथ ही यह तिवारी वगैरह के पीछे भी लगा रहा । स्विस होटल में उसने तिवारी वगैरह के कमरे में एक माइक्रोफोन छुपाया हुआ था जिसकी सहायता से चार सौ सत्ताइस नम्बर कमरे में हुये एक वार्तालाप से उसे लगा कि तिवारी को धन का सुराग मिल गया था और वह अपने साथियों को धोखा देने की चेष्टा कर रहा था । उसने भी समझा कि धन सुधा के उस हैंडबैग में था जो तिवारी उसके कमरे में से उठाकर लाया था लेकिन जिसे उसने चार सौ सत्ताइस में पहुंचने से पहले ही कहीं गायब कर दिया था । फिर पहला अवसर मिलते ही तिवारी की हत्या कर दी लेकिन शायद बैग में उसे कुछ भी नहीं मिला । इसलिये वह बैग को वहीं तिवारी की लाश के पास फेंक कर भाग गया ।”
“क्या यह सम्भव नहीं कि धन उसे मिल गया हो ?”
“नहीं । अगर उसे धन मिल गया होता तो तिवारी की हत्या के बाद जब आधी रात को सुधा ने उससे सम्पर्क स्थापित करने की चेष्टा की थी तो वह सुधा से मिलने में उतावली नहीं दिखाता । कर्नल पिंगले नाम का व्यक्ति एकदम गायब ही हो जाता । आधिर सुधा एक टेलीफोन नम्बर और एक झूठे नाम के अतिरिक्त उस व्यक्ति के विषय में जानती ही क्या थी ! लेकिन एक बात निश्चित है । कर्नल पिंगले का नाम धरण करने वाला वह आदमी गुलनार से जरुर सम्बन्धित है । हर बात इसी ओर संकेत करती है ।”
रमाकांत चुप रहा ।
“वह आदमी जब मुझे मिला था तो मैंने उसकी कार का नम्बर नोट कर लिया था । उसने मुझे नम्बर नोट करते देख लिया था और मुझे घिस्सा देने के लिये कह दिया था कि वह सी बी आई की गाडी थी जिसके नम्बर दिन में चार बार बदलते थे । उसका वह घिस्सा मुझ पर चल भी गया था । उसी नम्बर के साथ मैंने जीवन की गाड़ी का नम्बर भी लिखा था इसलिये वह कागज मेरे पास रह गया था । मैंने तो केवल मजाक के तौर पर तुम्हें उस नम्बर की कार के स्वामी का पता लगाने के लिये कहा था । तुम जानते ही हो वह नम्बर गुलनार के संचालक कर्मचन्द की गाड़ी का निकला था । मैं इसे तब भी संयोग ही समझा था लेकिन अब लगता है वह कर्मचन्द को पहचानते हो न ?”
“बहुत अच्छी तरह से ।”
उसी समय कमरे में एक लम्बे तगड़े युवक ने प्रवेश किया ।
“जौहरी आ गया ।”-रमाकांत बोला ।
“हल्लो ।” - जौहरी सुनील से बोला ।
हल्लो ।” - सुनील ने उत्तर दिया ।
“काम हो गया ?” - रमाकांत ने पूछा ।
“हां ।” - जौहरी बोला - “मैं तस्वीर का एनलार्जमेंट भी बनवा लाया हूं । यह लो ।”
रमाकांत ने तस्वीर ले ली । तस्वीर देखकर वह लगभग फौरन ही बोला पड़ा - “यह कर्मचन्द है ।”
“श्योर ?” - सुनील ने पूछा - “यही वह आदमी था जिसने मुझे स्वयं को सी बी आई का डिप्टी डायरेक्टर कर्नल पिंगले बताया था ।”
रमाकांत चुप रहा ।
“जौहरी ।” - सुनील जौहरी से बोला - “तुम एक काम करो ।”
“क्या ?”
“यह तस्वीर ले जाकर स्विस होटल के काउन्टर क्लर्क को दिखाओ । उससे पूछो, क्या यह वही आदमी नहीं है, जिसने कर्णसिंह के नाम से चार सौ दो नम्बर कमरा किराये पर लिया था !”
“ओ के ।”
“मैं सुधा के फ्लैट पर जा रहा हूं । मुझे फौरन ही वहां फोन कर देना ।”
“नम्बर ?”
“डायरैक्टरी में देख लेना । यू के चौधरी के नाम से ।”
और सुनील उठ खड़ा हुआ ।
***
डैक्स्टर हाउस में स्थित सुधा के फ्लैट में घुसते ही सुनील को यूं लगा जैसे वह एक ऐसे स्थान पर आ गया हो जहां से कुछ ही देर पहले हाथियों का झुन्ड गुजर गया हो । वह कई क्षण द्वार पर ही ठिठकर खड़ा रहा । फिर उसने द्वार को भीतर से बन्द करके ताला लगा दिया ।
फ्लैट की हर चीज बुरी तरह से अस्त-व्यस्त थी । आलमारियों में से समान निकालकर बाहर फेंक दिया गया था । मेज की दराजें उल्टी पड़ी थीं । तरह-तरह के कागज हवा में फड़फड़ा रहे थे । पलंग, कुर्सियों और सोफों के कुशन उधेड़ दिये गये थे । सूटकेस और अटैचियां फ्लैट के बीच में खुली पड़ी थीं और उनकी लाइनिंग की धज्जियां उड़ी हुई थी । किचन के सामने दो गमले टूटे पड़े थे और उनकी मिट्टी सारे कमरे में फैली हुई थी । किसी ने गमलों की मिट्टी को भी अच्छी तरह टटोला था । कई स्थानों से दीवारों का प्लास्टर उखड़ा हुआ था जैसे कोई उन दीवारों में कोई गुप्त स्थान खोज रहा हो । दीवारों से तस्वीरें उतार कर जमीन पर पटक दी गई थीं ।
वाकई किसी ने तलाशी में कसर नहीं उठा रखी थी ।
बैडरूम में रखी एक स्टील की आलमारी को ड्रिल मशीन से खोला गया था ।
सुनील उस आलमारी के समीप पहुंचा और फिर उसका हैंडल पकड़ कर उसे अपनी ओर खींचा ।
कोई चीज धम्म से नीचे आ गिरी ।
सुनील घबराकर पीछे हट गया ।
एक मानव शरीर फर्श पर औंधे मुंह पड़ा था ।
सुनील घुटनों के बल उसके पास बैठ गया । कहीं किसी प्रकार के घाव या रक्त का आभास नहीं मिल रहा था । उसने सावधानी से लाश को उलट दिया ।
वह बौखलाकर उठ खड़ा हुआ ।
वह मोहनलाल था ।
उसकी आंखें वीभत्स रूप से बाहर को उबल पड़ रही थी, जबान बाहर लटक रही और चेहरा एकदम लाल पड़ गया था ।
किसी ने उसका गला दबा दिया था ।
सुनील ने झुक कर उसकी बांह को छुआ । शरीर एकदम ठण्डा था । लगता था जैसे उसे मरे हुए कम से कम चार पांच घंटे हो चुके हों ।
उसी समय सुनील को बाहर कुछ खटका सुनाई दिया । वह बैडरूम के द्वार के पीछे खड़ा हुआ और फ्लैट के मुख्य द्वार की ओर झांकने लगा ।
बाहर से कोई मुख्य द्वार के ताले में चाबी घुमा रहा था । द्वार नहीं खुला ।
ताले के छेद में से चाबी निकल गई । कुछ क्षण बाद छेद में फिर चाबी घूमने लगी ।
ताला फिर भी नहीं खुला ।
लगता था जैसे कोई बाहर से कई चाबियां ट्राई कर रहा था ।
सुनील ने ड्राइंग रूम में आकर एक उल्टी हुई कुर्सी सीधी की ओर उस पर बैठ गया उसने लापरवाही से एक सिगरेट सुलगाया और लम्बे-लम्बे कश लेने लगा ।
उसी समय एक चाबी ताले में लग गई । हल्की सी क्लिक की आवाज से ताला खुल गया ।
कोई सावधानी से द्वार को धक्का देकर भीतर घुसा और फिर उसने द्वार बंद कर दिया ।
सुनील पर दृष्टि पड़ते ही वह चौंक पड़ा ।
सुनील ने एक सरसरी नजर उस पर डाली और फिर उसी लापरवाही से सिगरेट के कश लेता रहा ।
वह जीवन था ।
“तुम......तुम यहां क्या कर रहे हो ?” - वह लम्बे डग भरता हुआ सुनील के पास गया ।
“वही कुछ करने के इरादे से तुम आये हो । अन्तर केवल इतना है कि मैं इस फ्लैट की मालकिन की इजाजत से उसी की दी हुई चाबी द्वारा द्वार खोलकर भीतर घुसा हूं और तुम चोरों की तरह यहां आये हो ।”
“फ्लैट की यह हालत तुमने बनाई है ?” - जीवन ने पूछा ।
“नहीं ।”
“तो फिर ?”
“कोई मेरे से पहले ही यह करामात दिखा गया है । मैं तो अभी-अभी यहां आया हूं ।”
“माल गया ?” - जीवन ने निराश स्वर से पूछा ।
“भगवान जाने । और फिर यह भी तो पता नहीं कि माल यहां था भी या नहीं ।”
जीवन चुप रहा और फिर बैडरूम की ओर बढ़ा ।
सुनील जल्दी से उठा । उसने सिगरेट बुझाकर बचा हुआ टुकड़ा अपनी जेब में डाल लिया । वह लपककर जीवन के पास पहुंचा और उसके कंधे पर हाथ रखकर बोला - “चलो चलें ।”
“तलाशी नहीं लें ?” - जीवन हैरानी से बोला ।
“बेकार है । अगर इस फ्लैट में कुछ था तो जो लोग हमसे पहले यहां की तलाशी ले चुके हैं, वे ले गये होंगे ।”
“फिर भी अपनी तसल्ली के लिये तलाशी ले लेने में नुकसान क्या है ?”
“फायदा भी क्या है ?”
“मैं यहां तक आया हूं तो कुछ तो करके जाऊंगा ही ।”
“तो तुम करो । मैं तो चला ।”
“मर्जी तुम्हारी ।” - जीवन बैडरूम की ओर बढ़ता हुआ बोला ।
सुनील लम्बे डग भरता हुआ मुख्य द्वार की ओर बढ़ा ।
अभी उसने द्वार के हैंडल पर हाथ ही रखा था कि उसे पीछे से जीवन का तीव्र स्वर सुनाई दिया - “वहीं खड़े रहो ।”
आवाज ऐसी अधिकारभरी थी कि सुनील आगे बढ़ने का हौसला नहीं कर सका । वह घूम पड़ा ।
जीवन के हाथ में रिवाल्वर था ।
सुनील उसके समीप आ खड़ा हुआ ।
जीवन खा जाने वाली नजरों से उसे घूरता हुआ बोला - “इसलिये तुम मुझे फ्लैट की तलाशी नहीं लेने देना चाहते थे ?”
“मैंने नहीं मारा है इसे । मैंने इसे मरा ही पाया था ।”
“झूठ मत बोलो ।”
“मै सच कह रहा हूं, जीवन । तुम लाश की हालत देखो तो तुम्हें मालूम होगा कि उसे मरे कम से कम पांच घंटे हो चुके हैं । उस समय तुम खूब जानते हो, मैं होटल में था ।”
“अगर तुमने हत्या नहीं की तो तुम यह क्यों चाहते थे कि मैं उसकी लाश न देखूं ?”
“क्योंकि मेरी पोजीशन ऐसी थी कि तुम ये ही समझते कि मोहनलाल को मैंने मारा था और यही हुआ भी । वास्तव में मोहनलाल को भी उसी ने मारा है जिसने तिवारी को ।”
“तो तुम यह कहना चाहते हो कि तिवारी को भी तुमने नहीं मारा ?”
“यह सच है ।”
“फिर उस रात को तुमने हां क्यों की थी ?”
“तुम्हारे ऊल-जलूल सवालों से पीछा छुड़ाने के लिये ।”
“तुम्हारा टाईपिन तिवारी की लाश पर कैसे पहुंचा ?”
“मैं तुम्हारे कमरे में गया जरूर था । उस समय तिवारी मरा पड़ा था । वह टाईपिन पहले से ही ढीला था, वह गिर गया होगा ।”
जीवन चुप हो गया लेकिन उसका रिवाल्वर वाला हाथ स्थिर था ।
“और फिर तुम्हें मोहनलाल के मर जाने का दुख नहीं होना चाहिये । प्रत्यक्ष है कि वह तुम्हें धोखा दे रहा था ।”
“कैसे ?” - जीवन ने पलकें झपकायीं ।
“पिछली रात तुम उसे नशे में धुत्त समझकर गुलनार छोड़ आये थे जबकि वास्तव में वह जान-बूझकर तुमसे अलग होना चाहता था, ताकि वह अकेला यहां आ सकता और अगर माल मिल जाता तो उसे अकेला हड़प जाता । साफ जाहिर है कि तुम्हारे गुलनार से आने के फौरन ही बाद वह यहां आ गया था और कत्ल कर दिया गया था ।”
जीवन कई क्षण चुप रहा और फिर बोला - “हत्यारे तुम हो या कोई और, जिस ढंग से मेरे दो साथी मारे गये हैं उससे लगता है कि अब मेरी बारी है लेकिन मैं बली का बकरा नहीं बनना चाहता और न ही अब तुमसे सम्बन्ध रखना चाहता हूं ।”
“क्यों ?”
“मुझे तुम्हारा भरोसा नहीं । तुम एकदम हम पर छा गये थे इसलिये हम आनन-फानन तुम्हारा विश्वास कर बैठे थे । लेकिन तब न केवल तुम्हें उस माल में से एक धेला नहीं मिलेगा बल्कि तुम मुझे यह भी बताओगे कि मरते समय चौधरी ने तुम्हें क्या कहा था ?”
“मैंने तुम्हें पहले ही बताया था कि मेरे नीचे उस तक पहुंचने से पहले ही चौधरी के प्राण निकल चुके थे ।”
“सुनील, सह जवाब मैं पहले भी सुन चुका हूं ।”
“यही सच है ।”
“यह सरासर झूठ है ।” - जीवन कठोर स्वर में बोला ।
“मर्जी तुम्हारी ।” - सुनील बोला और उसने लापरवाही का प्रदर्शन करते हुये अपने कोट की जेब में हाथ डाला और सिगरेट का पैकेट निकाल लिया । उतनी ही निर्लिप्तता और लापरवाही से उसने एक सिगरेट निकालकर अपने होंठों से लगाया और फिर माचिस के लिये अपनी जेबें टटोलने लगा । जीवन विचित्र नेत्रों से उसकी एक - एक गतिविधी को लक्ष्य कर रहा था ।
कई क्षण जेबें टटोलते रहने के बाद सुनील बोला - “जरा माचिस देना ।”
“सिगरेट सुलगाना है ?” - जीवन ने स्थिर स्वर से पूछा ।
“और क्या तुम्हारे......”
“मैं सुलगाये देता हूं ।” - जीवन बोला ।
अगले ही क्षण जीवन की रिवाल्वर में से एक गोली निकली और सुनील एकदम हड़बड़ा कर पीछे हट गया ।
“पागल हो गये हो क्या !” - वह बौखला कर बोला ।
“हिलना मत अपनी जगह से ।” - जीवन बड़े दार्शनिक भाव से रिवाल्वर में से निकलते धुयें को फूंक से उड़ाता हुआ बोला - “कभी-कभी बातचीत के मुकाबले में मेरी एकदम एक्शन में आस्था हो जाती है । अभी तो तुमने केवल ट्रेलर देखा है । इस फायर का कमाल यह था कि गोली की गरमी के तनिक आभास के अतिरिक्त तुम्हारे चेहरे पर एक खरोंच तक नहीं आई है, क्योंकि मैं तुम्हे सही सलामत देखना चाहता हूं वरना ये ही गोली बड़ी आसानी से तुम्हारे दिल में से भी गुजर सकती थी । अगर अब भी तुम यही जवाब दोगे कि चौधरी ने मरने से पहले कुछ नहीं कहा था तो मजबूरन मुझे तुम्हें चौधरी के पास भेजना पड़ जायेगा और सुनील, तुम जिन्दा रहना चाहते हो या मरना चाहते हो, इस बात का फैसला करने के लिये तुम्हें मैं केवल एक मिनट दूंगा ।”
जीवन चुप हो गया । रिवाल्वर अब भी सुनील की ओर तनी हुई थी ।
सुनील भयभीत हो उठा । यह बात प्रत्यक्ष थी कि जीवन को और अधिक बातों में उलझाये रखना सम्भव नहीं था ।
“एक मिनट हो चुका है ।” - जीवन की उंगलिया ट्रीगर पर कस गईं - “और....”
“ठहरो, ठहरो ।” - सुनील एकदम बोल पड़ा - “मैं बताता हूं ।”
“तुम्हारी बातों में झूठ का एक अंश भी तुम्हें जीवित छोड़ने के मामले में मेरी नीयत बदल सकता है, इसका ख्याल रखना ।” - जीवन भावहीन स्वर से बोला ।
“चौधरी ने मुझसे यह कहा था कि वह अपनी पत्नी के लिये बीस लाख रुपये का माल छोड़कर मर रहा था ।”
“और......”
“और उसने हरीचन्द नाम के एक आदमी का जिक्र किया था । हरीचन्द धर्मपुरे में अट्ठारह नम्बर खोली में रहता है ।”
“हरीचन्द कौन है ?”
“मुझे नहीं मालूम । न ही उसने बताया मुझे ।”
“लेकिन उसने हरीचन्द का जिक्र किया किस सिलसिले में था ?”
“यह बताने से पहले ही चौधरी के प्राण निकल गये थे ?”
“सच कह रहे हो ?”
“शत-प्रतिशत । मुझे अपना जीवन बहुत प्यारा है, जीवन ।”
जीवन कुछ क्षण चुप रहा और फिर बोला - “कुर्सी पर बैठ जाओ ।”
सुनील यन्त्रचलित सा एक कुर्सी पर बैठ गया ।
“कोई शरारत करने की चेष्टा मत करना । मैं तुम्हें कुर्सी के साथ बांध रहा हूं ।”
एक पलंग में से निकली हुई निवाड़ फर्श पर फैली हुई थी । जीवन ने उसे उठाया और उसकी सहायता से सुनील को कुर्सी के साथ जकड़ दिया । फिर उसने सुनील के मुंह में एक रूमाल ठूंसा और ऊपर से पट्टी बांध दी ।
“मैं हरीचन्द से मिलने जा रहा हूं ।” - जीवन रिवाल्वर जेब में रखता हुआ बोला - “तब तक तुम यहीं रहोगे । जो कुछ तुमने बताया है, अगर वह गलत निकला तो फिर यहां से तुम्हारी लाश ही बाहर निकलेगी । तब तक के लिये गुड बाय ।”
और जीवन कमरे से बाहर निकल गया ।
दरवाजा बन्द हो गया और अगले ही क्षण दरवाजे में चाबी घूमने की आवाज सुनाई दी ।
छूट निकलने की कोई सम्भावना दिखाई नहीं दे रही थी ।
जितना सुनील अपने बन्धन तोड़ने के लिये जोर लगाता था, उतने ही बन्धन कसते चले जाते थे । फिर उसने मुंह से पट्टी हटाने की चेष्टा की लेकिन वह उसमें भी सफल नहीं हो सका ।
असहाय होकर उसने अपने हाथ-पांव ढीले छोड़ दिये ।
हे भगवान - उसने सोचा - इस समय घर में चोर ही घुस आये ।
उसी समय टेलीफोन की घण्टी घनघना उठी ।
यह जरूर जौहरी होगा । उसने सोचा ।
लेकिन टेलीफोन तक पहुंच पाना सम्भव नहीं था ।
कितनी ही देर घन्टी बजती रही और फिर बन्द हो गई ।
एक मिनट बाद घन्टी फिर बजनी आरम्भ हो गई ।
परिणाम वही हुआ । घन्टी कई क्षण बजती रहने के बाद बन्द हो गई ।
लगभग पांच मिनट बाद घन्टी फिर बजी । लेकिन इस बार दो-तीन बार टनटनाने के बाद ही बन्द हो गई ।
सुनील असहाय भाव से टेलीफोन को घूरता रहा ।
लगभग पन्द्रह मिनट गुजर गये ।
सुनील के शरीर में रक्त का संचालन बिगड़ने लगा और वह धीरे-धीरे चेतना खोने लगा ।
उसी समय किसी ने बाहर से दरवाजा खटखटाया ।
सुनील ने अपनी सारी मानसिक शक्तियों को सक्रिय करके स्वयं को सचेत कतने की चेष्टा की ।
दरवाजा फिर खटखटाया गया ।
सुनील ने पूरा जोर लगाया और एक भड़ाक की आवाज के साथ वह कुर्सी समेत फर्श पर आ गिरा दर्द से उसका चेहरा विकृत हो उठा लेकिन उसकी आशापूर्ण नजर दरवाजे पर टिकी रही ।
कुछ ही क्षण बाद खटाक की आवाज से ताला खुल गया ।
भीतर प्रवेश करने वाला जौहरी था ।
सुनील के नेत्र मुंद गये ।
जौहरी ने लात मार कर दरवाजा बन्द किया और फिर लपक कर सुनील के पास पहुंच गया । वह तेजी से उसके बन्धन खोलने लगा ।
मुक्त हो जाने के बाद भी सुनील फर्श से उठ नहीं पाया । उसकी सांस धौंकनी की तरह चल रही थी ।
जौहरी तेजी से उसके हाथ-पांव मसलने लगा ।
कुछ ही देर के बाद उसकी उखड़ी हुई सांस ठीक हो गई और उसके शरीर में रक्त व्यवस्थित रूप से प्रवाहित होने लगा ।
सुनील उठ खड़ा हुआ ।
“बड़े मौके पर आये, प्यारे ।” - सुनील बोला ।
“मैंने कितनी ही बार तुम्हें फोन किया लेकिन जब कोई जवाब नहीं मिला तो मैंने सोचा कोई गड़बड़ न हो गई हो और मैं भागा चला आया यहां ।”
“बड़ा अच्छा किया वरना कल तक शायद हम स्वर्ग में अखबार निकाल रहे होते ।”
“नर्क में ।” - जौहरी उपहासपूर्ण स्वर में बोला ।
“और भी अच्छा है ।” - सुनील फोन की ओर बढ़ता हुआ बोला - “वहां अखबार की सरकुलेशन और भी ज्यादा होगी ।”
सुनील ने फोन उठा लिया । उसने पुलिस का नम्बर मिलाया ।
“हल्लो ।” - दूसरी ओर से उत्तर मिलते ही वह बोला - “डैक्सटर हाऊस में मिसेज चौधरी के फ्लैट में एक हत्या हो गई है । जल्दी आइये ।”
और उसने रिसीवर क्रेडल पर पटक दिया ।
“स्विस होटल से कुछ पता चला ?” - उसने जौहरी से पूछा ।
“हां ।” - जौहरी बोला - “काउन्टर क्लर्क ने तस्वीर को पहचान लिया था । वह कर्मचन्द ही है और उसी ने कर्णसिंह के नाम से चार सौ दो नम्बर कमरा किराये पर लिया था ।”
“गुड !”
जौहरी चुप रहा ।
“चलो ।” - सुनील दरवाजे की ओर बढ़ता हुआ बोला ।
“कहा ?”
धर्मपुरे ।”
वे धर्मपुरे की ओर उड़े जा रहे थे ?
मोटर साइकल जौहरी चला रहा था । सुनील उसके पीछे बैठा था ।
हर्नबी रोड से धर्मपुरे की ओर ले जाने वाली सड़क पर आबादी नहीं थी । सड़क इक्के-दुक्के फास्ट मूविंग व्हीकल के अलावा खाली पड़ी थी ।
दोपहर हो चुकी थी ।
मोटर साइकल पचास मील प्रति घन्टा की रफ्तार से उड़ी जा रही थी ।
सुनील का दिमाग हरीचन्द और चौधरी को मिला देने वाली किसी कड़ी की खोज में परेशान था ।
उसी समय जौहरी ने एकदम पूरे जोर से ब्रेक लगा दी ।
सुनील का सिर जौहरी की पीठ से जा टकराया । मोटर साइकल के पहिये, तारकोल की सड़क पर बुरी तरह घिसटते हुए चरचराये । मोटर साइकल कई बार दायें-बायें घूमी और फिर उलटते-उलटते बची ।
सुनील ने देखा अगर जौहरी ने ब्रेक लगाने में एक क्षण की भी देर की होती तो मोटर साइकल सामने से तूफान की गति से आने वाली कार से टकरा गई होती । कार सामने से आ रही थी और जौहरी की मोटर साइकल के एकदम सामने से बिना किसी सिग्नल के बायीं ओर तारकपुर की पहाड़ियों की तरफ जाने वाली सड़क पर मोड़ काट गई थी ।
“हरामजादा ।” - जौहरी कार वाले को गाली देता हुआ बोला - “अभी खुद भी मरता और हमें भी मारता । मैंने कार का नम्बर देख लिया है । साले की रिपोर्ट करूंगा ।”
“क्या नम्बर था ?”
उसी समय सामने से पहली गाड़ी से भी तेज रफ्तार से भागती हुई एक और गाड़ी आई और उसी ओर घूम गई । उसके ड्राइवर ने भी बिना ब्रेक लगाये इतनी जोर से मोड़ काटा था कि कार के एक ओर के दोनों पहिये उठ गये थे ।
सुनील को ड्राइवर की केवल एक झलक दिखाई दी ।
“जौहरी ।” - सुनील उत्तेजित होकर बोला - “यह वही आदमी था जिसने मुझे अपना नाम कर्नल पिंगले बताया था और जिसकी तुमने वह तस्वीर दिखाई थी मुझे ।”
“कर्मचन्द ?”
“हां । अगली गाड़ी में कौन था ?”
“उसमें दो आदमी थे । मैंने सूरत नहीं देखी थी किसी की ।”
“कार का नम्बर तो देखा था ? नम्बर क्या था ?”
“आर एल आर 943 ।”
“यह जीवन की गाड़ी का नम्बर है ।” - सुनील एकदम बोल पड़ा - “जौहरी, जल्दी करो । अगर कर्मचन्द उसके पीछे लगा हुआ है तो समझ लो जीवन मरने वाला है ।”
जौहरी ने मोटर साइकिल स्टार्ट की और पूरी रफ्तार से उसे तारकपुर की ओर जाने वाली सड़क पर डाल दिया ।
“या सम्भव है कर्मचन्द ही मरने वाला हो ।” - जौहरी बोला ।
“सम्भव है । बहरहाल कुछ होने वाला है । शायद उसने मेरी और जीवन की बातें सुनी हों । जिस ढंग से वह जीवन के पीछे लगा हुआ है, उससे लगता है जीवन को हीरे हासिल हो गये हैं ।”
“लेकिन उसके साथ दूसरा आदमी कौन हो सकता है ?”
“भगवान जाने ।”
मोटर साइकल तारकपुर की पहाड़ियों की उतार-चढ़ाव, वाली सड़कों पर दौड़ रही थी । कारें अभी तक दृष्टिगोचर नहीं हुई थीं ।
उसी समय पहाड़ी फायरों की आवाज से गूंज उठी ।
जौहरी ने मोटर साइकल की रफ्तार और तेज कर दी ।
“अगर कारें दिखाई देने भी लगें तो उनसे दूर ही रहना ।” - सुनील बोला - “वरना वे लोग सबसे पहले हमें ही गोली का निशाना बनायेंगे ।”
“अच्छा ।” - जौहरी बोला और उसने मोटर साइकल पहाड़ी की चढ़ाई की ओर जाती हुई एक पेड़ों से ढकी राहदारी पर मोड़ दी ।
“इधर कहां जा रहे हो ?” - सुनील हैरान होकर बोला ।
“तुम सम्भल कर बैठे रहो । रास्ता ऊबड़-खाबड़ है, झटके लगेंगे, और तमाशा देखो ।” - जौहरी बोला ।
“फिर भी कुछ बको तो सही ।”
“इस शार्ट कट से मैं उनसे काफी आगे निकल जाऊंगा और उस मुख्य सड़क से कम से कम पचास फुट ऊंचाई पर ही रहूंगा । ऊपर एक पतली सी ढलवां सड़क है, वहां से नीचे की बड़ी सड़क साफ दिखाई देगी ।”
“ओह !” - सुनील सन्तुष्ट स्वर में बोला ।
कुछ ही मिनटों बाद उसे जौहरी की बात की सत्यता दिखाई देने लगी ।
नीचे मुख्य सड़क पर दोनों गाड़ियां भागती हुई दिखाई दे रही थीं । पिछली गाड़ी में से रह-रहकर एक रिवाल्वर वाला हाथ निकालता था और अगली गाड़ी पर फायर झोंक देता था । लेकिन इतनी तेज रफ्तार से जाती गाड़ियों में निशाना लग पाना असम्भव नहीं तो कठिन जरूर था ।
दोनों गाड़ियों मे फासला घटता जा रहा था ।
रह-रहकर अगली गाड़ी में से भी पिछली गाड़ी पर फायर झोंक दिया जाता था ।
उसी समय सड़क पर विपरीत दिशा से एक ट्रक आता दिखाई दिया । अगली कार की रफ्तार एकाएक कम हो गई । लेकिन पिछली कार उसी रफ्तार से आगे बढ़ती रही । परिणामस्वरूप दोनों कारों में केवल दस गज का फासला रह गया ।
ट्रक गुजरते ही पिछली गाड़ी में से एक साथ दो फायर हुए, अगली गाड़ी के पीछे के दानों पहिये बैठ गये । गाडी सड़क पर एक शराबी की तरह झूमने लगी । उसकी गति धीरे-धीरे कम होने लगी । शायद ड्राइवर बड़ी सावधानी से स्टियरिंग सम्भाले गति कम कर रहा था इसलिये गाड़ी उलटने से बच गई ।
पिछली कार एकदम तीर की तरह आगे बढ़ी और अगले ही क्षण वह अगली कार के एकदम बगल में दिखाई देने लगी ।
फिर एक फायर हुआ ।
सुनील को फटे टायरों वाली गाड़ी के ड्राइवर के हाथ से स्टियरिंग छूटता हुआ दिखाई दिया । शायद उसको गोली लग गई थी । गाड़ी अपना बैलेन्स खोकर एकदम एक गहरे गड्ढे की ओर बढ़ रही थी ।
ड्राइवर के साथ बैठा दूसरा आदमी एकदम चीखा । फिर उसने कार का अपनी ओर का द्वार खोला और चलती कार से बाहर कूद गया । उसका शरीर दो-तीन बार सड़क पर लोट-पोट हुआ और फिर निश्चेष्ट हो गया । उसकी एक टांग पर प्लास्टर चढ़ा हुआ था ।
“वह हरीचन्द है ।” - जौहरी ब्रेक लगाता हुआ बोला । उसका संकेत कार से बाहर गिरे आदमी की ओर था ।
सुनील ने देखा पिछली गाड़ी फिर पीछे रह गई थी ।
अगली गाड़ी सड़क के किनारे रखे ड्रमों से टकराती हुई नीचे गहरे खड्डे में जा गिरी ।
जौहरी ने मोटर साइकल रोक दी ।
पिछली गाड़ी में से एक आदमी बाहर निकला ।
वह कर्मचन्द ही था ।
वह हरीचन्द की ओर बढ़ा ।
उसने समीप आकर हरीचन्द के निश्चेष्ट शरीर को उलट दिया ।
सुनील के हलक से चीख निकलती-निकलती रह गई ।
हरीचन्द के पांव का प्लास्टर टूट गया था । प्लास्टर के टुकड़े जो अब तक उसके शरीर के नीचे दबे हुए थे दोपहर के सूर्य के तीव्र प्रकाश में एकदम सामने आ गये थे और उनमें से शोले से फूट रहे थे ।
तब तक जौहरी की भी नजर उधर पड़ चुकी थी ।
“हीरे !” - वह हड़बड़ा कर बोला ।
“तो यह था चौधरी का हरीचन्द से सम्बन्ध ।” - सुनील बड़बड़ाया - “चौधरी ने हीरे छुपाने के लिये लाजवाब जगह सोची थी, जौहरी प्यारे । और हरीचन्द को तो शायद खुद ही मालूम नहीं था कि उसकी टांग पर चढ़े प्लास्टर में बीस लाख रुपये के हीरे छुपे हुये हैं ।”
“वह हरीचन्द को अपनी कार में लाद रहा हैं ।” - जौहरी उत्तेजित स्वर में बोला ।
“लेकिन उसे रोकें कैसे ?” - सुनील परेशान होकर बोला ।
“मेरे पास एक रिवाल्वर है ।” - जौहरी हिचकिचाहटपूर्ण स्वर में बोला ।
“तो निकालो उसे । सोच क्या रहे हो ?”
जौहरी ने रिवाल्वर निकाल कर उसके हाथ में रख दी । सुनील ने चैम्बर खोलकर देखा । पांच गोलियां थीं ।
सुनील सड़क के मोड़ पर पेट के बल लेट गया । उसने बड़ी सावधानी से कर्मचन्द की कार के एक टायर को निशाना बनाया और ट्रीगर दबा दिया ।
निशाना एकदम ठीक लगा । टायर बैठ गया ।
कर्मचन्द ने घबराकर हरीचन्द का शरीर अपने हाथों से छोड़ दिया और फिर वह कार के पीछे पोजीशन लेने के लिये भागा ।
सुनील ने दूसरा फायर किया । गोली कर्मचन्द के सिर से एक फुट ऊपर से गुजर गई ।
कर्मचन्द एक छलांग मार कर कार के पीछे पहुंच गया । अब वह भी फायर कर रहा था ।
लगातार तीन गोलियां सनसनाती हुई सुनील के ऊपर से गुजर गयीं ।
तीन चार मिनट शांति रही ।
फिर सुनील को कर्मचन्द का रिवाल्वर वाला हाथ कार की ओट में से निकलाता दिखाई दिया ।
सुनील ने फायर कर दिया ।
कर्मचन्द ने हाथ एकदम पीछे खींच लिया ।
“जौहरी ।” - सुनील रिवाल्वर जौहरी के हाथ में रखता हुआ बोला - “यह लो रिवाल्वर । मोटर साइकल उठाओ आर चुपचाप भाग जाओ । तुम निचली सड़क पर कर्मचन्द के पीछे पहुंच जाओ । ख्याल रखना उसे मोटर साइकल की आवाज सुनाई न दे । उससे काफी दूर मोटर साइकल से उतर जाना । कोशिश यही करना कि वह समर्पण कर दे लेकिन शूट करने से हिचकना नहीं । मैं तब तक इसे उलझाये रखूंगा ।”
“अच्छा ।” - जौहरी बोला और वहां से खिसक गया ।
सुनील ने लेटे-लेटे ही अपने धड़ को सड़क से कुछ ऊंचा उठाया और फिर अगले ही क्षण जमीन के साथ चिपक गया ।
कार की ओर से फायर हुआ । गोली सुनील के सिर के ऊपर से निकल गई । वह बाल-बाल बचा ।
लगभग दो मिनट बाद जौहरी उसे लगभग पचास फुट पीछे दबे पांव कार की ओर बढ़ता हुआ दिखाई दिया । रिवाल्वर उसके हाथ में था ।
कर्मचन्द बेखबर था ।
सुनील एकदम उठा और झपट कर अपनी पहली स्थिति से दस फुट दूर पड़े एक बड़े से पत्थर की ओर लपका ।
फिर फायर हुआ ।
गोली सनसनाती हुई उससे कई फुट दूर से गुजर गई ।
सुनील पत्थर के पीछे जा छुपा ।
जौहरी और कार में अब केवल पच्चीस फुट का फासला रह गया था ।
सुनील ने अपनी पूरी शक्ति से पत्थर को नीचे ढलान की ओर लुढ़का दिया।
पत्थर बड़ी तेजी से लुढ़कता हुआ कार की बगल में से गुजर गया ।
उसी समय उसे जौहरी की तेज आवाज सुनाई दी - “रिवाल्वर गिरा दो, वरना गोली मार दूंगा....घूमो मत....हां । अब ठीक है ।”
सुनील को कर्मचन्द दिखाई नहीं दे रहा था ।
“सुनील ! आ जाओ ।” - उसी क्षण उसे जौहरी का स्वर सुनाई दिया ।
सुनील ढलान से उतरता हुआ निचली सड़क पर पहुंच गया।
नीचे आकर उसने देखा, कर्मचन्द के दोनों हाथ आसमान की ओर उठे हुए थे और उसकी पीठ पर जौहरी का रिवाल्वर लगा हुआ था । उसके पैरों के पास उसका अपना रिवाल्वर गिरा हुआ था ।
सुनील ने झुककर रिवाल्वर उठाया और उसे अपनी जेब में रख लिया । फिर उसने हरीचन्द का निश्चेष्ट शरीर और प्लास्टर के हीरों से जड़े हुए टुकड़े उठा कर कर्मचन्द की कार की पिछली सीट पर डाल दिये ।
उसने कार का द्वार खोला और स्टियरिंग व्हील पर बैठ गया ।
“तशरीफ लाइये ।” - वह दूसरी ओर का द्वार खोलता हुआ बोला - “मिस्टर कर्मचन्द उर्फ कर्णसिंह, उर्फ टी आर पिंगले ।”
जौहरी ने रिवाल्वर की नाल से उसे कार के भीतर धकेल दिया और स्वयं भी भीतर आ बैठा । रिवाल्वर अब भी कर्मचन्द की पसलियों में लगी हुई थी ।
सुनील ने गाड़ी स्टार्ट कर दी ।
“मोटर साइकल का क्या होगा ?” - जौहरी बोला ।
“फिलहाल यहीं रहेगी ।” - सुनील ने उत्तर दिया - “हम पुलिस स्टेशन चल रहे हैं , कर्नल साहब ।”
***
कर्मचन्द ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया । उसे फांसी की सजा हुई । गुलनार में भी कई गिरफ्तारियां हुईं जिनमें कुछ बदनाम तस्कर व्यापारी और भागे हुए मुजरिम भी थे । गुलनार से लाखों रूपयों का अवैध माल बरामद हुआ ।
कर्मचन्द की छत्रछाया उठते ही गुलनार बन्द हो गया ।
काफी सरकारी जांच-पड़ताल के बाद हीरे उन व्यापारियों को सौंप दिये गये जिनके लिये सेठ गूजरमल हीरे लेकर विशालगढ़ जा रहा था । उन्होंने सुनील को सहर्ष एक लाख रुपया भेंट कर दिया ।
हरीचन्द की हस्पताल में मौत हो गई । मरने से पहले वह केवल इतना ही बता सका कि जीवन एकाएक ही उसकी खोली में घुस आया था और उस पर इलजाम लगाने लगा था कि वह कोई बीस लाख रुपये दबाए बैठा है । बात सर्वदा निराधार थी लेकिन जीवन उस पर विश्वास नहीं कर रहा था । उसी समय कर्मचन्द भी वहां आ गया था । दोनों में वहीं लड़ाई हुई थी । फिर जीवन हरीचन्द को अपनी कार में बैठाकर भाग निकला था ।
सुनील ने तीस हजार रुपये हरीचन्द की विधवा पत्नी के नाम करा दिये और बाकी के सत्तर हजार रुपये सुधा के नाम से नेशनल डिफेंस फन्ड में अर्पण कर दिये ।
सुधा ने सुनील से कई बार सम्बन्ध स्थापित करने की चेष्टा की लेकिन उसके लिये तो सुनील गायब ही हो गया था । हार कर उसने प्रयत्न करना बन्द कर दिया ।
सदा की तरह सारे केस का प्रमाणित विवरण केवल ब्लास्ट में छपा । परिणामस्वरूप ब्लास्ट के एडीटर प्रोप्राइटर मलिक साहब एक बार फिर सुनील पर मेहरबान हो गये और उसे किसी भी प्रकार की फ्री लान्सिग की छूट मिल गई ।
सात मौतों के बाद केस समाप्त हो गाया ।
समाप्त
0 Comments