बुधवार : दस मई : दिल्ली मुम्बई

इश्तिहारी मुजरिम फरार

करनाल के पास पंजाब पुलिस की वैन घात की शिकार

एक सब-इन्स्पेक्टर हलाक

उस रोज के अखबार में बैनर हैडलाइन्स में वो खबर छपी थी जो कि एस.एच.ओ. नसीब सिंह ने सब-इन्स्पेक्टर जनकराज के सामने पढ़ी।

खबर पंजाब पुलिस पार्टी के ड्राइवर चानन सिंह, हवलदार किशनलाल और सिपाही दाताराम के बयानों पर आधारित थी जो कि वारदात के कई घन्टों बाद हस्पताल में होश में आये थे और उसके भी कई घन्टों बाद पंजाब पुलिस के उच्चाधिकारियों को बयान देने के काबिल हुए थे।

“कमाल है!” — एस.एच.ओ. बोला — “उनकी जेल वैन में हथियारबन्द नकली कैदी घुसा दिया जो कि साथ में सांप भी ले गया!”

“सर” — जनकराज बोला — “इस खबर में खास गौर के काबिल बात ये है कि साफ जाहिर हो रहा है कि मायाराम को छुड़ाने वालों को पंजाब पुलिस के पूरे प्रोग्राम की खबर थी। उन्हें उनकी जेल वैन की भी वक्त रहते खबर थी जिसकी कि वो डुप्लीकेट तैयार करवाने में कामयाब हो सके।”

“कैसे खबर थी? ये तमाम जानकारी तो हमारे थाने के दायरे में ही सीमित थी। कोई बाहरी आदमी कैसे जान सकता था इन बातों को?”

“सोचिये।”

“तुम्हारा मतलब है कि हमारे थाने का ही कोई आदमी फोड़ लिया होगा मायाराम को छुड़ाने वालों ने?”

“और तो किसी तरीके से ये जानकारी थाने से बाहर जा नहीं सकती थी!”

“शायद पंजाब पुलिस वालों ने किसी के सामने मुंह फाड़ा हो!”

“उन्हें यहां कौन जानता था? ऐसे मामलों में नये आदमी के मत्थे भला कौन लगता है?”

“तुम्हारा मतलब है कि कोई पहले से हमारे थाने के किसी आदमी से वाकिफ था जिससे कि ये जानकारी निकलवाई गयी?”

“जी हां।”

“कौन होगा वो?”

“सर, जो कोई भी वो होगा किसी लोकल आदमी का पिट्ठू होगा। कोई बाहरी आदमी किसी लोकल थाने में ऐसी यारी नहीं गांठ के रख सकता।”

“लोकल आदमी से तुम्हारा क्या मतलब है? किन्हीं दिल्ली के दादाओं ने करनाल पहुंचकर मायाराम को छुड़ाया होगा?”

“क्या नहीं हो सकता?”

“हो तो सकता है — इसलिये तो खासतौर से हो सकता है क्योंकि तुम्हें एतबार नहीं कि ये काम सोहल का है — लेकिन क्यों? क्यों किया किसी ने या किन्हीं ने ऐसा? बेचारगी की हद तक पहुंचे उस लंगड़े के ऐसे मेहरबान दोस्त कहां से निकल आये कि खून खराबा करके उसे छुड़ा ले गये?”

“यही तो समझ में नहीं आ रहा। इस बात पर अगर कोई शख्स रोशनी डाल सकता है तो वो हमारे स्टाफ का वो बन्दा होगा जिसने कि तमाम जानकारी किसी के हवाले की।”

“उसका पता चल पाना क्या कोई हंसी खेल है! एक सौ चालीस आदमियों का स्टाफ है इस थाने में। कैसे एक एक जने को स्क्रीन किया जा सकता है?”

“वो तो है।”

“जनकराज, सोहल उसका मुंह बन्द करना चाहता था इसलिये उसने उसे छुड़ाया, अगर हम इस थ्योरी को रिजेक्ट कर दें तो दूसरी सम्भावना ये है कि मायाराम के किसी पुराने, हमपेशा साथी या शागिर्द या उस्ताद ने उस पर तरस खा कर, उस पर मेहरबान हो कर उसे छुड़ाया। मायाराम अपराध की दुनिया का पुराना पापी है। उसका ऐसा मुलाहजा किसी से भी हो सकता है।”

“सर, एक सम्भावना और भी है।”

“वो क्या?”

“शायद मायाराम ऐसा कुछ जानता था, कोई ऐसी खास जानकारी रखता था जो कि किसी के लिये बहुत मुफीद थी। हो सकता है मायाराम ने अपनी रिहाई के मामले में वो जानकारी उगलने की शर्त रखी हो।”

“ऐसा क्या जानता होगा वो? वो भी किन्हीं लोकल दादाओं के काम का? किन लोकल दादाओं के काम का?”

जनकराज को झामनानी का खयाल आया।

क्या वो अपने आला अफसर को बताये कि कनाट प्लेस थाने का एस.एच.ओ. देवीलाल पिछली रात उसके घर आकर उसके साथ क्या खुसर पुसर कर के गया था? आखिर वो तसवीरें, जिनकी कापियां हासिल करने का तमन्नाई झामनानी था, मायाराम का लिंक झामनानी से मिलाती थीं।

उसने फिलहाल खामोश रहना ही मुनासिब समझा।

“उसकी स्टार जानकारी तो ये ही थी” — एस.एच.ओ. कह रहा था — “कि‍ वो सोहल की पूरी केस हिस्ट्री से वाकिफ था। अब ये जानकारी किसी लोकल दादा के भला किस काम की?”

“किस काम की?”

“मेरे से पूछ रहा है?”

“नहीं, सर। अपने आप से ही पूछ रहा हूं।”

“कोई जवाब मिल रहा है?”

“नहीं।”

“तो फिर छोड़ ये किस्सा। अब बोल, गोल मार्केट में क्या हुआ? वो लड़की रात को वापिस लौटी?”

“नहीं।”

“यानी कि उसके इन्तजार में वहां आदमी बिठाये रखना बेकार है?”

“ऐसा ही जान पड़ता है।”

“ठीक है। शाम को उन्हें वापिस बुला लेना। ये सोच के वापिस बुला लेना कि‍ सोहल को गिरफ्तार करने का यश हमारी किस्मत में नहीं लिखा।”

जनकराज ने हिचकिचाते हुए सहमति में सिर हिलाया।

वही खबर सुबह की चाय के साथ विमल ने भी पढ़ी। अलबत्ता उसके अखबार में वो मुखपृष्ठ पर होने की जगह पांचवें पृष्ठ पर छपी थी जिस पर कि अन्य राज्यों के समाचार छपते थे।

उसे सख्त हैरानी हुई।

किसने मायाराम जैसे बेहैसियत और लुंजपुंज आदमी पर वो अहसान किया था?

और क्यों किया था?

वो उस्ताद जी कहलाता था।

क्या किसी ने उस्ताद को उसकी उस्तादी अदा की थी? पुलिस पर वार करके? एक पुलिस अधिकारी का कत्ल करके?

बात उसे हज्म न हुई। हज्म न हुई तो स्वयंमेव ही उसका ध्यान झामनानी और उसकी बिरादरी की तरफ चला गया। वो टॉप के गैंगस्टर सक्षम तो थे उस काम को करवाने में लेकिन किस हासिल की खातिर? मायाराम उनके किस काम आ सकता था? क्या संवार सकता था वो उनका?

कोई माकूल जवाब उसे न सूझा।

दिल्ली से मुबारक अली का अपेक्षित फोन तब तक नहीं आया था लेकिन फोन न आना भी इस बात की तरफ साफ इशारा था कि पिछली रात सुमन घर नहीं लौटी थी। वो घर लौटी होती तो मुबारक अली को उसकी खबर जरूर लगी होती और फिर उसने उस बाबत उसे जरूर फोन लगाया होता।

कहां चली गयी थी वो?

फिलहाल वो वाहेगुरु से सिर्फ दुआ कर सकता था कि वो जहां भी गयी हो, खैरियत से हो।

वो भी और सूरज भी।

उसने फोन अपनी तरफ घसीटा और सुमन के बताये पी.पी. नम्बर पर काल लगायी।

कोई जवाब न मिला।

हार कर उसने रिसीवर वापिस क्रेडल पर रख दिया।

“तुम मुझ से कुछ छुपा रहे हो।”

विमल ने हड़बड़ा कर सिर उठाया और नीलम की तरफ देखा।

“क्या?” — वो बोला — “क्या कहा?”

“मैंने कहा, तुम मुझ से कुछ छुपा रहे हो।”

“क्या?”

“तुम बताओ।”

“ऐसी कोई बात नहीं।”

“है भी तो साफ बोलो। अगर सूरज की कोई बुरी खबर है तो भी साफ बोलो। तुम्हें मेरी कसम है, बल्कि सूरज की कसम है, सरदार जी।”

“बुरी खबर नहीं है लेकिन...”

“क्या लेकिन?”

“खामखाह हलकान करने वाली खबर है।”

“क्या?”

“कल दोपहरबाद सुमन सूरज के साथ घर से निकली थी तो आधी रात तक वापिस नहीं लौटी थी।”

“कैसे जाना?”

विमल ने उसे मुबारक अली की फोन काल की बाबत बताया।

“ओह!” — नीलम बोली। वो एक क्षण खामोश रही और फिर बोली — “उसने सूरज के लिये कोई खतरा महसूस किया होगा इसलिये वो उसे लेकर किसी सेफ जगह चली गयी होगी!”

“कहां?”

“कहीं भी। जो भी जगह उसे सेफ लगी होगी। मसलन अपने ब्वाय फ्रेंड और होने वाले पति प्रदीप के यहां जो कि डाक्टर है और बहुत जिम्मेदार लड़का है।”

विमल खामोश रहा।

“हौसला रखो, प्राणनाथ।” — नीलम मुस्कराती हुई बोली — “वो दोनों जहां भी होंगे, ऐन भले चंगे होंगे।”

विमल ने हैरानी से उसकी तरफ देखा।

“हौसला रखो। मां भगवती सब ठीक करेगी। करेगी न?”

विमल ने हौले से सहमति में सिर हिलाया।

पौने ग्यारह बजे के करीब सुमन दादर जंक्शन पर ट्रेन से उतरी।

वो पता कर चुकी थी कि ट्रेन आगे मुम्बई सैन्ट्रल स्टेशन तक जाती थी लेकिन उसने वहीं उतरना मुनासिब समझा था क्योंकि मुम्बई सैन्ट्रल के मुकाबले में वहां से होटल सी-व्यू करीब था।

सूरज उसके कन्धे से चिपका सोया हुआ था।

सूरज और अपने एयरबैग को सम्भाले वो निकास द्वार की ओर बढ़ी। उसने टिकट कलैक्टर को वो टिकट थमाया जो कि उसने ट्रेन के आगरा पहुंचने पर जुर्माना भर के टी.टी. से बनवाया था और बाहर हाल में उस ओर बढ़ी जिधर एक कोने में पब्लिक टेलीफोन के बूथ बने हुए थे।

निकास द्वार पर हाल में टिकट कलैक्टर से जरा परे हट के दो सूरत से ही मवाली लगने वाले व्यक्ति खड़े थे। अलबत्ता कपड़े वो काफी सलीके के पहने थे। उसमें से एक डेनिम की जीन जैकेट में था और दूसरा खुले कालर वाली कमीज के साथ सूट पहने था। जीन जैकेट वाले का नाम कोली था और सूट वाले का नाम हुमने था।

“अकेली थी।” — सूट वाला, हुमने, बोला।

“हां।” — जीन जैकेट वाला, कोली, बोला — “और हलकान। सूरत से फासले की पैसेंजर जान पड़ती थी।”

“सामान का भी पंगा नहीं। खाली एक एयरबैग।”

“पण बच्चा?”

“हमें क्या कहता है?”

“उसका क्या होगा?”

“वही जो बच्चे की मां का होगा।”

“अभी तो दुधमुंहा है, यार। मुश्किल से चार महीने का जान पड़ता है।”

“तो क्या हुआ?”

“अब क्या बोलूं? इतने छोटे बच्चे के खयाल से मेरे को अन्दर से कुछ होता है।”

“स्साला! पाखण्डी!”

“वो तो मैं नहीं हूं, पण...”

“अबे हलकट, जान जान होती है। सालम। वो आधी पौनी या छोटी बड़ी नहीं होती।”

“पण...”

“अभी हौसला रख। अभी वो फोन कर रही है। अभी कोई उसे इधर लेने पहुंच गया तो वो हमारे काम की नहीं। अभी वेट करते हैं और देखते हैं आगे क्या होता है! ठीक?”

“ठीक।”

सुमन ने एक पब्लिक टेलीफोन से होटल सी-व्यू में फोन लगाया।

घन्टी निरन्तर बजती रही।

दूसरी ओर से फोन न उठाया गया।

उसने लाइन काट कर फिर फोन मिलाया तो फिर वो ही हाल हुआ। हार कर उसने फोन वापिस हुक पर टांग दिया और बूथ से निकल कर हाल से बाहर की ओर बढ़ी।

हुमने और कोली निकास द्वार के करीब से हटे और लापरवाही से टहलते हुए अपने शिकार के पीछे हो लिये।

“कोई नहीं आया।” — रास्ते में हुमने बोला — “अकेली जा रही है।”

“बढ़िया।” — कोली बोला।

सुमन टैक्सी स्टैण्ड पर पहुंची और एक टैक्सी पर सवार हो गयी।

दोनों मवाली एक दूसरी टैक्सी में सवार हुए और फिर उनकी टैक्सी खामोशी से सुमन की टैक्सी के पीछे लग गयी।

“किधर जाने का है, बाई?” — टैक्सी ड्राइवर बोला।

“जुहू।” — सुमन बोली — “होटल सी-व्यू।”

टैक्सी ड्राइवर ने सहमति में सिर हिलाया और टैक्सी सड़क पर दौड़ा दी।

होटल सी-व्यू पहुंच कर सुमन ने सामने निगाह डाली तो उसका दिल धक्क से रह गया।

“ये तो बन्द है!” — उसके मुंह से निकला।

“बाई, मैं तो उधर दादर में ही बोलने लगा था” — टैक्सी ड्राइवर बोला — “कि होटल तो कई दिनों से टोटल बन्द है।”

“क्यों बन्द है?”

“कैसे मालूम होयेंगा!”

“इसके तो बाहरले आयरन गेट को भी ताला लगा हुआ है।”

“ऐसीच है कई दिनों से।”

“ओह!”

“इधर जुहू में बहुत होटल हैं। मैं तुम्हेरे को किसी दूसरे होटल में ले के चलता है।”

“नहीं। चैम्बूर चलो।”

चैम्बूर में तुकाराम का आवास था, बाजरिया नीलम, जिसकी उसे खबर थी।

लेकिन वहां भी ताला पड़ा मिला।

अब? — परेशानहाल उसने सोचा।

चर्चगेट!

जहां कि बापू बालघर नाम का वो यतीमखाना था जिसमें अभी कल की बात थी कि इतना कोहराम बरपा था। जहां नीलम की बहादुरी से विमल की हारी बाजी पलट न गयी होती तो वो आज इस दुनिया में न होता।

“चर्चगेट चलो।” — वो ड्राइवर से बोली।

टैक्सी नयी मंजिल की ओर दौड़ चली।

ग्यारह बजे के करीब दिल्ली की गाड़ी मुम्बई सैन्ट्रल स्टेशन पर आकर लगी।

ब्रजवासी द्वारा उसके हवाले किये गये चिरकुट नाम के एक लोकल आदमी के साथ टोकस स्टेशन के निकास द्वार पर मौजूद था। ट्रेन आने से मुश्किल से दो मिनट पहले वो वहां पहुंचे थे। टोकस बार बार खुदा का शुक्र मना रहा था कि वो वक्त रहते वहां पहुंच गये थे वरना झामनानी उस देरी के लिये भी उसे ही जिम्मेदार ठहराता।

ऐसा ही नाशुक्रा काम था वो।

उसका दिल अभी भी यही कह रहा था कि इस बात की कोई गारन्टी नहीं थी कि वो लड़की मुम्बई जाने के लिये ट्रेन में सवार हुई थी। उसके रास्ते में कहीं उतर कर दिल्ली लौट जाने की ही सम्भावना उसे ज्यादा लग रही थी।

सैकड़ों की तादाद में मुसाफिर उस गाड़ी से उतरते दिखाई दे रहे थे और एक हुजूम की सूरत में निकास द्वार की ओर बढ़ रहे थे। इतने लोगों में एक लड़की को सिंगल आउट करना क्या कोई हंसी खेल था!

फिर उसके स्टेशन से बाहर निकलने की ही क्या गारन्टी थी?

वो दिल्ली की खाली होती गाड़ी से उतरती और स्टेशन से बाहर का रुख करने की जगह किसी लोकल में सवार होकर किसी और दिशा में चल देती तो उसे क्या खबर लगती? आंखें फाड़े वो निकास द्वार को पार करती भीड़ को देखता रहा।

उसे सुमन वर्मा के दर्शन न हुए।

तमाम हुजूम वहां से रुखसत हो गया तो उसने भीतर जाकर प्लेटफार्म को भी एक सिरे से दूसरे तक खंगाला और स्टेशन के रिटायरिंग रूम और रेस्टोरेंट में भी जाकर झांका।

वो कहीं नहीं थी।

हार कर वो वापिस चिरकुट के पास पहुंचा।

“चल, भाई” — वो आह सी भरता बोला — “ब्रजवासी के पास लेकर चल ताकि उसे बुरी खबर सुनायें और उसकी झाड़ पुजार सुनें।”

“रोक।” — हुमने बोला।

ड्राइवर ने टैक्सी रोकी।

अगली टैक्सी एक दोमंजिला इमारत के सामने पहुंच कर रुकी थी।

हुमने और कोली में से किसी ने टैक्सी से बाहर निकलने का उपक्रम न किया।

“यतीमखाना है।” — हुमने बोला।

“बापू बालघर लिखा है।” — कोली बोला — “बच्चों का होगा।”

“यतीमखाने में इसका क्या काम?”

“बच्चा हराम का होगा! जमा कराने आयी होगी!”

“हो तो सकता है, भीड़ू! क्योंकि शादीशुदा तो नहीं लगती थी वो शक्ल से!”

“अभी मालूम पड़ जायेगा। बच्चे के साथ भीतर गयी है, उसके बिना बाहर निकली तो यही बात होगी।”

“देखते हैं।”

दोनों यतीमखाने के प्रवेश द्वार पर निगाह टिकाये खामोश टैक्सी में बैठे रहे।

यतीमखाने की संचालिका फिरोजा घड़ीवाला यतीमखाने के आफिस में मौजूद थी।

सुमन ने उसका अभिवादन किया।

फिरोजा ने प्रश्नसूचक नेत्रों से सुमन की तरफ देखा।

“मैं सुमन हूं।” — सुमन बोली — “दिल्ली से आयी हूं।”

“दिल्ली से!” — फिरोजा भावहीन स्वर में बोली।

“मैं कौल साहब की बहन हूं।”

“कौल?”

“सोहल।”

फिरोजा सकपकाई।

“ये सूरज है। उनका बेटा है। दिल्ली में मेरे पास छोड़ आये थे।”

“आई सी।”

“वहां मेरी जान पर आ बनी थी। बच्चे की जान पर आ बनी थी। मैं वहां से भाग न आती तो हम दोनों जान से जाते।”

“ऐसा कौन लोग करते?”

“वही जो... जो उनकी जान के दुश्मन हैं। वो मुझे, इस बच्चे को कौल साहब के खिलाफ हथियार बनाना चाहते थे। बच्चे को सीढ़ी बना कर बाप तक पहुंचना चाहते थे ताकि वो उसे खत्म कर सकते। तकदीर से हमारी जान बची और मैं इसे लेकर इधर पहुंच सकी।”

“वो... सोहल... जिसे तुम कौल बोला, इधर है?”

“हां। नीलम भी।”

“नीलम?”

“उनकी बीवी। इस बच्चे की मां।”

“मेरे को तो खबर नहीं किया वो!”

“क्या! यानी कि आपको नहीं मालूम कि कौल साहब इधर मुम्बई में कहां है?”

“कैसे मालूम होयेंगा? वो न इधर आया, न फोन किया, कैसे मालूम होयेंगा?”

“ओह! ये तो... ये तो... बहुत मुश्किल हो गयी! मैं तो बड़ी उम्मीद से यहां आयी थी!”

“तुम उसको ढूंढना क्यों मांगता है?”

“उनका बच्चा है मेरे पास। उनकी अमानत है मेरे पास। मुझे सख्त अन्देशा है कि उनकी अमानत की मैं अब और हिफाजत नहीं कर सकूंगी। मैं बच्चे को उनके हवाले करके इसकी हिफाजत की जिम्मेदारी से मुक्ति पाना चाहती हूं। अब मैं कहां ढूंढूं उन्हें? आप... मेरी कोई मदद नहीं कर सकतीं इस बाबत?”

“कोशिश करेंगा।”

“क्या कोशिश करेंगी?”

“वो इधर यतीमखाने में हमारे पास रहता था। तब ये जगह उसको सेफ मालूम पड़ता था। तब विक्टर करके एक टैक्सी डिरेवर था जो उसको लेने या छोड़ने इधर अक्सर आया करता था। मैं विक्टर को ढूंढ़ने की कोशिश करेंगा।”

“कोई और तरीका?”

“सोचेंगा।”

“तब तक मैं...”

“तुम खुशी से इधर मेरे पास रह सकता है। इधर हमने सोहल के लिये जो बेडरूम ठीक किया था, वो मैं तुम्हेरे को देंगा।”

“शुक्रिया।”

“मैं तुम्हेरे लिये खाने का इन्तजाम करता है।”

“अभी जरूरत नहीं। थैंक्यू आल दि सेम।”

“ऐज यू विश।”

“मैडम!”

“यस।”

“मुझे आपके हसबैंड की मौत का अफसोस है।”

वो सकपकाई।

“तुम्हेरे को मालूम?” — वो बोली।

“मैंने वो तमाम नजारा अपनी आंखों से देखा था। कोहराम की उस घड़ी में मैं भी नीलम के साथ यहां मौजूद थी। आपके हसबैंड बहुत बहादुर आदमी थे जो कि मेहमान की जान बचाने के लिये अपनी जान पर खेल गये।”

“ही डिड दि राइटेस्ट थिंग। आई एम प्राउड ऑफ हिम। मैं और पेस्टनजी सोहल को अपना वर्ड दिया कि जब तक हम जिन्दा थे, इधर उसका बाल भी बांका नहीं होना सकता। जो मेरा हसबैंड किया, उसके बारे में सोचकर मेरा सिर फख्र से ऊंचा हो जाता है।”

वो खामोश हो गयी। उसकी आंखों से आंसुओं की दो मोटी मोटी बून्दें निकलकर उसके गालों पर ढुलक गयीं।

“बहुत टिमिड, बहुत कमजोर आदमी था पेस्टनजी” — वो रुंधे कण्ठ से बोली — “फिर भी कितना बहादुरी का काम किया! जब तक जिन्दा था, मुझे उसकी कभी कद्र न हुई, अब मर गया तो...”

वो फफक कर रो पड़ी।

खुद सुमन की आंखें डबडबा आयीं।

कुछ क्षण खामोशी रही।

फिरोजा ने असहाय भाव से एक आह भरी, अपने आंसू पोंछे और फिर अपेक्षाकृत सुसंयत स्वर में बोली — “गॉड ब्लैस हिम। मे हिज सोल रैस्ट इन पीस।”

“आमीन।” — सुमन के मुंह से अपने आप ही निकल गया।

“आओ।” — फिरोजा उठ खड़ी हुई — “तुम्हेरे को बेडरूम दिखाता है।”

सुमन उसके साथ हो ली।

फिरोजा उसे एक साफ सुथरे बेडरूम में लेकर आयी जहां सुमन ने सबसे पहले सूरज को पलंग पर लिटाया और फिर अपना एयरबैग एक साइड टेबल पर रखा।

“बाथरूम?” — फिर वो संकोचपूर्ण स्वर में बोली।

“उधर है।” — फिरोजा ने एक बन्द दरवाजे की तरफ इशारा किया — “तुम बाथ लो। मैं थोड़ा नाश्ते का इन्तजाम करता है।”

सुमन ने सहमति में सिर हिलाया।

सुमन ने स्नान किया, कपड़े बदले, फिरोजा के साथ चायपान किया और फिर बोली — “मैं फोन करना चाहती हूं।”

“आफिस में चल के करो।” — फिरोजा बोली।

“दिल्ली।”

“किधर भी। कोई वान्दा नहीं। आओ।”

सुमन ने आफिस के टेलीफोन से दिल्ली में अपनी पड़ोसन प्रेरणा आंटी को ट्राई किया तो तत्काल जवाब मिला। गनीमत थी कि पिछले रोज का बिगड़ा फोन ठीक हो चुका था।

“प्रेरणा आंटी” — वो बोली — “मैं सुमन बोल रही हूं।”

“अरे, बेटी। कहां से बोल रही है?”

“आंटी, मैं मुम्बई से बोल रही हूं।”

“अरे! मुम्बई पहुंच गयी एकाएक?”

“आप मेरी बात सुनिये।”

“सुन रही हूं। तू बोल तो सही।”

“मेरा कोई फोन तो नहीं आया?”

“अभी तक तो नहीं आया। कैसे आता? अभी आधा घन्टा पहले तो ये फोन ठीक हुआ है।”

“इसीलिये नहीं आया। आन्टी, फोन आता ही होगा। आंटी, कौल साहब का फोन आयेगा।”

“कौल साहब? वो जो नीचे सातवीं मंजिल पर रहते थे?”

“वही। उनका फोन आये तो आप बरायमेहरबानी उनसे कह दीजियेगा कि वो फौरन मुझे बापू बालघर में फोन करें या आकर मिलें।”

“बापू बालघर? वो कहां है?”

“इधर मुम्बई में चर्चगेट पर है। उन्हें मालूम है वो कहां है। उन्हें फोन नम्बर भी मालूम होगा लेकिन फिर भी आप नोट कर लीजिये।”

“बोल।”

सुमन ने डायल पर से पढ़ कर नम्बर माउथपीस में दोहराया।

“ठीक है। बोल दूंगी।”

“शुक्रिया, प्रेरणा आंटी।”

सुमन ने रिसीवर वापिस क्रेडल पर रख दिया।

“मैडम” — वो फिरोजा से बोली — “इधर एक दो जगह मेरी निगाह में हैं जहां से कि कौल साहब का कोई अता पता मालूम हो सकता है। मैं जरा उन जगहों का चक्कर लगा कर आना चाहती हूं। आप तब तक बच्चे को सम्भाल लेंगी?”

“नो प्राब्लम।”

“मैं जल्दी लौटने की कोशिश करूंगी।”

“यू टेक युअर ओन टाइम। मैं देखेगा बेबी को।”

“थैंक्यू।”

ठीक साढ़े ग्यारह बजे राजा साहब ओरियन्टल होटल्स एण्ड रिजार्ट्स के आफिस में उस फ्लोर पर मौजूद थे जिस पर कि चेयरमैन का आफिस था।

विमल के चेहरे पर उस घड़ी ईस्साभाई विगवाला से हासिल हुई फुल दाढ़ी मूंछ थीं। दाढ़ी पर उसने जाली बान्धी हुई थी और मूंछें फिक्सो से अकड़ाई हुई थी। उसकी आंखों पर बड़े स्टाइलिश सन ग्लासिज थे, सिर पर काली फिफ्टी के साथ लाल पगड़ी थी और जिस्म पर क्रीम कलर की पतलून, झक सफेद कमीज, लाल टाई अौर स्पोर्टसमैनों जैसा नीला ब्लेजर था। टाई में हीरा जड़ा टाई पिन था, बाईं कलाई पर रौलैक्स की गोल्ड वाच थी और दायीं में सोने का कड़ा था। उसके बायें हाथ की तीन और दायें हाथ की दो उंगलियों में हीरे जवाहरात से जड़ी भारी अंगूठियां थीं। सबसे रौबदार जेवर पगड़ी में लगा ब्रोच था जिसमें छोटे मोटे अंडे के आकार का पुखराज जड़ा हुआ था। उसके हाथ में एक सोने की मूठ वाली आबनूस की लकड़ी का वैसा डण्डा था जैसा कि फौजी जनरल बगल में दबा कर रखते थे।

विमल के चेयरमैन के आफिस में पहुंचने तक वहां के स्टाफ के जिस शख्स ने भी राजा गजेन्द्र सिंह एन.आर.आई. फ्राम नैरोबी को देखा, उस पर उनका रौब गालिब हुए बिना न रह सका। राजा साहब जिधर से भी गुजरे, हर किसी के हाथ स्वयंमेव ही अभिवादन में उठते चले गये।

ऐन उसी सजधज में कल रात वो लोहिया के साथ नौरोजी रोड वाले मिसेज सिक्वेरा के ठीये पर गया था और वहां भी उसकी आमद का वैसा ही रौब पड़ा था।

वस्तुत: विमल की उस लकदक का तमाम सामान नकली था जो उसने सिवरी में मिनर्वा स्टूडियो के बाजू की कई बार आजमायी हुई दुकान से हासिल किया था।

विमल के चेयरमैन के आफिस में दाखिल होते ही रणदीवे उछल कर खड़ा हुआ और उसने बड़ी गर्मजोशी से विमल से हाथ मिलाया।

“वैलकम! वैलकम, सर!” — रणदीवे एक कान से दूसरे कान तक मुस्कराता हुआ बोला — “प्लीज हैव ए सीट।”

“थैंक्यू।” — विमल एक कुर्सी पर ढेर होता बोला।

“मुझे आप से मिल कर बहुत खुशी हुई, राजा साहब।”

“हमें भी। हमें भी। हमें और भी खुशी होती अगरचे कि हमें आपके एम.डी. साहब की बाबत बुरी खबर सुनने को न मिली होती। हम उनकी असामयिक मौत पर अपनी संवेदनायें पेश करते हैं और वाहेगुरु से दुआ मांगते हैं कि उनकी आत्मा जन्नतनशीन हो।”

चेयरमैन ने बड़ी संजीदगी से सहमति में सिर हिलाया। फिर उसके इशारे पर चपरासी ने विमल के सामने जगमग करता पानी से भरा शीशे का एक गिलास रखा। विमल ने उसमें से केवल एक घूंट पानी पिया और फिर बड़े स्टाइल से अपनी अकड़ी हुई मूंछों पर हाथ फेरा।

“क्या पियेंगे?” — दाण्डेकर के जिक्र पर क्षण भर को गम्भीर हो गया चेयरमैन फिर मुस्कराता हुआ बोला — “ठण्डा! गर्म! या और गर्म!”

“जनाब” — विमल बोला — “और गर्म के हम बहुत रसिया हैं। आखिर गर्म खून वाले गर्म सरदार हैं लेकिन ब्रेकफास्ट और गर्म से नहीं करते।”

“ओह!”

“उसमें भी हम बहुत जल्द शिरकत करेंगे आपके साथ, फिलहाल तो कोई कोल्ड ड्रिंक पिला दीजिये।”

“जी हां। जरूर।”

तत्काल विमल की कोहनी के पास कोल्ड ड्रिंक का गिलास पहुंचा। वैसा ही गिलास चपरासी ने चेयरमैन के सामने रखा और फिर उसके इशारे पर वहां से रुखसत हो गया।

“अकेले तशरीफ लाये, राजा साहब!” — चेयरमैन बोला।

“जी हां। अकेले ही आये हैं।” — विमल तनिक हड़बड़ाहट का प्रदर्शन करता बोला — “हमारे ही लिये तो इधर हाजिरी भरने का हुक्म हुआ था आपका? क्या किसी और को भी बुलाया था आपने?”

“नहीं, राजा साहब, वो बात नहीं। दरअसल मैं आपके सैक्रेट्री को याद कर रहा था। मैं उम्मीद कर रहा था कि आपके सैक्रेट्री मिस्टर कौल आपके साथ होंगे। बहुत ही होनहार और काबिल नौजवान हैं आपके सैक्रेट्री साहब।”

“काहे का होनहार है, जी? काहे का काबिल है? काबिल होता तो इस मामूली काम को खुद अंजाम दे चुका होता। हमें न आना पड़ा होता इधर।”

“लेकिन कागजात पर दस्तखत तो आप ही के होना जरूरी था, राजा साहब!”

“कुबूल। लेकिन अब हम कागजात के पास पहुंचे हैं, हमारा वो सैक्रेट्री सच में उतना काबिल होता जितना कि वो आपको लगा तो वो ऐसा इन्तजाम भी तो कर सकता था कि कागजात हमारे पास पहुंचते!”

“जनाब” — चेयरमैन ठठाकर हंसता हुआ बोला — “फिर हमारी आप से मुलाकात कैसे होती?”

“कागजात खुद लेकर आप हमारे पास आये होते तो क्यों न होती?”

चेयरमैन हकबकाया। एकबारगी तो उसने यूं विमल का मुंह देखा जैसे कि उसने उसे गोली मारी हो। फिर वो खिसियाया सा फिर हंसा और बोला — “वैरी वैल सैड, सर, वैरी वैल सैड। बहरहाल क्या फर्क पड़ता है! कुआं प्यासे के पास जाये, या प्यासा कुयें के पास जाये, मकसद तो प्यास बुझाना होता है जो कि दोनों ही तरीकों से हल होता है।”

“हमें फर्क पड़ता है। हम पटियाले के शाही खानदान से ताल्लुक रखते हैं। हम प्यासे भी हों तो कुयें के पास नहीं जाते, कुयें को अपने पास तलब करते हैं।”

“वक्त बदल गया है, राजा साहब।”

“जी हां। तभी तो यहां हाजिरी भर रहे हैं!”

चेयरमैन फिर हड़बड़ाया, उसने तनिक बेचैनी से पहलू बदला।

“अब लाइये कागजात” — विमल बोला — “और दिखाइये कहां दस्तखत करने हैं हमने?”

चेयरमैन ने घन्टी बजायी तो उसका प्राइवेट सैक्रेट्री वहां पहुंचा। उसने बड़े अदब के साथ विमल के सामने दो फाइलें रखीं और उन स्थानों की तरफ इशारा करना शुरू किया जहां कि राजा साहब के दस्तखत दरकार थे। विमल ने कोट की जेब से पार्कर का पैन निकाल का बड़ी अदा से सब जगह साइन किये। फिर सैक्रेट्री ने एक फाइल बन्द करके उसके सामने ही छोड़ दी और दूसरी को साथ लेकर वहां से रुखसत हो गया।

“ये फाइल आपके लिये है, राजा साहब।” — चैयरमैन बोला।

“थैंक्यू।”

“अब इजाजत हो तो एकाध बात दुनियादारी की हो जाये!”

“जी हां। क्यों नहीं?”

“मुम्बई में कब से हैं?”

“कोई ज्यादा अरसा नहीं हुआ। यही कोई दो महीने से।”

“मेरा भी यही खयाल था।”

“इस खयाल की वजह?”

“जनाब, इतनी अजीमोश्शान हस्ती हैं आप। आप लम्बे अरसे से इधर होते तो हमने वैसे ही आपके बहुत चर्चे सुन लिये होते।”

“दम है आपकी बात में।”

“इधर रिहायश कहां है आपकी?”

“अब तो सी-व्यू में ही होगी।”

“पहले कहां थी?”

“चेयरमैन साहब, भविष्य में झांकना सीखिये। अतीत में क्या रखा है? पीछे मुड़ के वो देखते हैं जो आगे बढ़ने के तमन्नाई नहीं होते।”

“लाख रुपये की बात कही, जनाब।”

“जो कि टैक्स कटौती के बाद सत्तर हज़ार की रह जायेगी।”

“हा हा हा।”

विमल ने भी हंसी में उसका साथ दिया।

“राजा साहब, मुम्बई में कोई ऐसा नामचीन शख्स है जो आपका रेफ्रेंस दे सके?”

“अजीब सवाल है!”

“आप ये समझिये कि ये सवाल मेरा नहीं, ओरियन्टल के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स का है और आने वाले दिनों में आप भी उस बोर्ड का हिस्सा बनने वाले हैं। जनाब, तब ऐसा कोई सवाल करना आप को भी सूझ सकता है।”

“खुद अपने बारे में?”

“अजी नहीं, साहब। किसी और डायरेक्टर के बारे में। किसी ऐसे डायरेक्टर के बारे में जो कि तब बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स में शामिल होने वाला होगा। जैसे कि अब आप शामिल होने वाले हैं।”

“हूं। तो रेफ्रेंस के तौर पर हम शेषनारायण लोहिया का नाम लेते हैं जो कि हमारे करीबी दोस्त हैं। आप जानते ही होंगे उन्हें?”

“जी हां। बाखूबी। बड़े उद्योगपति हैं। नेपियन हिल जैसी एक्सक्लूसिव जगह पर रहते हैं।”

“वही।”

“दैट्स ए ग्रेट रेफ्रेंस। हमारे डायरेक्टर साहबान सुन कर खुश हो जायेंगे।”

“वो तो सुनेंगे तो होंगे, हम तो अभी खुश हो गये हैं ये सुन कर कि वो खुश हो जायेंगे।”

“हा हा हा। वैरी वैल सैड, अगेन।” — चेयरमैन एक क्षण ठिठका और फिर बोला — “नैरोबी से क्या शिकायत हुई आपको?”

“शिकायत नहीं हुई, आजिज आ गये परदेस से, वतन याद आ गया, वरना पैसा कमाने के लिये बहुत माकूल जगह है नैरोबी।”

“जो कि आपने खूब कमाया जान पड़ता है!”

“मेहर है, जी, वाहेगुरू की। तभी तो इतने शेयर एकमुश्त खरीद पाये और साबित कर पाये।”

“क्या?”

“यही कि हम सरदार लोग भंगड़े गिद्धे तक ही सीमित नहीं हैं। न ही हम सिर्फ खेतीबाड़ी करने और टैक्सी ट्रक चलाने के लिये पैदा हुए हैं।”

“वैरी वैल सैड।”

“आपका तकिया कलाम मालूम होता है।”

“क्या?”

“वैरी वैल सैड।”

“हा हा हा।”

विमल ने भी हंसी में उसका साथ दिया।

“गजरे साहब से खूब वाकिफ थे आप?”

“हमारे लिये काले चोर थे, जी, गजरे साहब। हमने क्या लेना था उनके खूब वाकिफ बन कर? उनके पास शेयर थे जो कि वे बेचना चाहते थे, हम वो शेयर खरीदना चाहते थे। बस, इतनी ही वाकफियत थी हमारी।”

“सौदा काठमाण्डू में क्यों हुआ?”

“उन्हीं की मांग पर हुआ। शायद इसलिये क्योंकि वहां के ज्यूरिच ट्रेड बैंक जैसी बैंकिंग इण्डिया में नहीं है।”

“यही बात होगी। राजा साहब, अब एक सवाल मैं बड़े संकोच से पूछ रहा हूं। आप चाहें तो उसका जवाब देने से इनकार कर सकते हैं। होटल चला लेंगे आप?”

“आप हवाई जहाज उड़ा लेंगे?”

“जी!”

“हम कैसे चला लेंगे होटल? हमें क्या तजुर्बा है होटल चलाने का?”

“तो?”

“चेयरमैन साहब, कोई कार खरीदे तो क्या ये जरूरी होता है कि वो उसे ड्राइव भी खुद करे?”

“मैं समझ गया आपका मतलब। तो आप किसी एक्सपर्ट को एंगेज करेंगे?”

“कर चुके हैं। होटल इन्डस्ट्री के टॉप मैन को। कल के बाद कभी तशरीफ लाइयेगा सी-व्यू में। आपको वहां इंकलाबी तब्दीलियां दिखाई देंगी।”

“किसे... किसे ऐंगेज किया आपने?”

“ताज इन्टरकान्टीनेंटल के मौजूदा जी.एम. को।”

“कपिल उदैनिया को?”

“जी हां।”

“कुबूल कर लिया उसने ताज को छोड़ना? ”

“मिस्टर चेयरमैन, हर शै की कीमत होती है, हर शख्स की कीमत होती है। अदा करने वाला होना चाहिये।”

“सही फरमाया आपने।”

“तो अब हम” — अपनी फाइल और डण्डा सम्भालता विमल उठ कर खड़ा हुआ — “इजाजत चाहते हैं।”

“थोड़ी देर और रुकिये, राजा साहब।” — चेयरमैन उछल कर खड़ा होता बोला।

“वजह?”

“मैं आपको बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स से मिलाना चाहता हूं।”

“वो इज्जत हम कभी फिर हासिल करेंगे। क्योंकि हमारी कहीं और भी, पहले से मुकर्रर, अप्वायन्टमेंट है।”

“ओह!”

“सो बैटर लक नैक्स्ट टाइम।”

“आफकोर्स। आफकोर्स, सर।”

चेयरमैन विमल को आफिस के दरवाजे तक छोड़ने आया।

विमल के वहां से रुखसत होते ही वो बोर्डरूम में पहुंचा जहां कि डायरेक्टर लोग मौजूद थे। सब की प्रश्नसूचक निगाहें उसकी तरफ उठीं।

“जन्टलमैन” — चेयरमैन संतोषपूर्ण स्वर में बोला — “आई अश्योर यू दैट दि होटल हैज पास्ड ऑन टु राइट हैंड्स। मैं पूरी तरह से मुतमइन हूं कि ये राजा साहब कुछ कर गुजरेंगे।”

“ऐसा?” — जठार बोला।

“हां। बहुत ही काबिल और तजुर्बेकार शख्स पाया है मैंने उन्हें। आत्मविश्वास से लबरेज था वो शख्स। ऐसा आदमी नाकाम हो ही नहीं सकता।”

“ये तो बड़ी अच्छी खबर है!”

“यकीनन है। और आप लोगों को बधाई है कि आपने सही निर्णय लिया।”

सब के चेहरों पर संतोष के भाव आये।

“नाओ वुई विल वेट एण्ड वाच।”

सब के सिर सहमति में हिले।

सुमन कोलीवाड़े पहुंची।

टैक्सी ड्राइवर जानता था कि होटल मराठा उधर कहां था, उसने टैक्सी को सीधे उसकी चारमंजिला इमारत के सामने ले जाकर रोका।

सुमन ने उसे भाड़ा चुका कर रुखसत किया और होटल में दाखिल हुई।

रिसेप्शन पर सलाउद्दीन का बड़ा लड़का जावेद मौजूद था। सुमन को देखकर वो स्वागतपूर्ण भाव से मुस्कराया।

“मेरा नाम सुमन है।” — सुमन बोली — “मैं यहां कौल साहब का पता करने आयी हूं।”

“कौल साहब?” — जावेद बोला।

“अरविन्द कौल। जो दिल्ली से आते हैं। जो उधर गैलेक्सी ट्रेडिंग कारपोरेशन में एकाउन्ट्स आफिसर हैं। जो हमेशा ‘मराठा’ में ठहरते हैं।”

“गुस्ताखी माफ, मैडम, आप क्यों पूछ रही हैं उनको?”

“मैं उनकी बहन हूं।”

“इधर मुम्बई में रहती हैं?”

“नहीं। दिल्ली से आयी हूं मैं। कौल साहब मेरे से पहले, तीन दिन पहले, इधर आये थे। एक ऐसी इमरजेन्सी आन खड़ी हुई है कि उसकी वजह से मुझे उनके पीछे इधर आना पड़ा।”

“हमारे होटल की बाबत आपको किसने बताया?”

“खुद कौल साहब ने बताया। और कौन बताता!”

“आई सी। आप एक मिनट रुकिये, मैं अभी हाजिर हुआ।”

रिसेप्शन के पहलू में आफिस था जिसका बन्द दरवाजा खोल कर जावेद भीतर दाखिल हुआ।

भीतर मौजूद सलाउद्दीन ने सिर उठा कर उसकी तरफ देखा।

“एक नौजवान लड़की आयी है।” — जावेद धीरे से बोला — “कौल साहब को पूछ रही है। क्या जवाब दूं?”

“है कौन?”

“सुमन नाम है। बहन बताती है अपने आपको कौल साहब की।”

“बहन! मुझे तो उसकी किसी बहन की खबर नहीं!”

“दिल्ली से आयी है। गैलेक्सी का नाम भी ले रही है। बहन है या नहीं, लेकिन जानती यकीनन है वो कौल साहब को।”

“हूं।” — सलाउद्दीन कुछ क्षण सोचता रहा और फिर उठता हुआ बोला — “मैं बात करता हूं।”

वो बाहर रिसेप्शन पर पहुंचा।

“गुड मार्निंग, मैडम।” — वो मुस्कराता हुआ बोला — “कौल साहब को आप पूछ रही हैं?”

“हां।” — सुमन बोली।

“वो तो यहां नहीं हैं!”

“इस वक्त नहीं हैं या ठहरे नहीं हुए?”

“ठहरे नहीं हुए।”

“आप समझ तो रहे हैं न कि मैं किन कौल साहब की बात कर रही हूं?”

“जी हां। बाखूबी समझ रहा हूं। मैं उनसे जाती तौर से वाकिफ हूं लेकिन इस बार वो यहां नहीं पहुंचे। कब आये मुम्बई?”

“तीन दिन पहले।”

“यहां तो नहीं पहुंचे! किसी और शहर की तरफ तो नहीं निकल गये?”

“नहीं, ऐसा नहीं हो सकता।”

“हूं। उन्होंने कहा था कि मुम्बई पहुंच कर वो ‘मराठा’ का ही रुख करेंगे?”

“कहा तो नहीं था ऐसा लेकिन मैं... मैं उम्मीद कर रही थी उनके इधर होने की। जब वो और कहीं नहीं हैं तो...”

“गोया आपने उन्हें और जगहों पर भी तलाश किया है?”

“हां।”

“मसलन कहां?”

“सबसे पहले तो मैं होटल सी-व्यू ही पहुंची थी जहां कि उनके होने की मुझे पूरी पूरी उम्मीद थी लेकिन वो तो बन्द पड़ा था। फिर मैं चैम्बूर गयी लेकिन तुकाराम जी का घर भी बन्द पड़ा था। चर्चगेट गयी...”

तब पहली बार सलाउद्दीन के चेहरे पर आश्वासन के भाव आये। जो लड़की सोहल के इतने ठिकाने जानती थी, वो उसके लिये गैर नहीं हो सकती थी। फिर उसने सुमन को अभी और आजमाया।

“ये कौल साहब” — वो अर्थपूर्ण स्वर में बोला — “एक और नाम से भी तो जाने जाते हैं?”

“जी हां।”

“क्या नाम है वो?”

सुमन हिचकिचाई।

“मोहतरमा, जो कहना है, बेखौफ कहिये।”

“सोहल।” — सुमन धीरे से बोली — “विमल।”

“मेरे साथ आइये।”

सलाउद्दीन उसे आफिस में लेकर आया।

“सोहल मेरा दोस्त है।” — सलाउद्दीन संजीदगी से बोला — “अजीज है। जो उसका सगा है, वो मेरा भी सगा है। अगर तुम उसकी बहन हो तो समझो मेरी बेटी हो। अब बोलो क्या माजरा है? क्यों इतनी बद्हवास हुई उसे तलाश कर रही हो?”

सुमन ने सविस्तार वजह बयान की।

“तौबा!” — सलाउद्दीन बोला — “इतना कुछ बीत गया तुम्हारे साथ? तुमने तो बहुत हौसला दिखाया, बेटी!”

सुमन खामोश रही।

“अगर वो मुम्बई में है तो पता तो मैं उसका लगा लूंगा लेकिन वक्त लगेगा। तब तक तुम यहां ‘मराठा’ में ही ठहरना चाहो तो तुम...”

“नहीं।” — सुमन मजबूती से इनकार में सिर हिलाती हुई बोली — “मैं चर्चगेट ही जाऊंगी क्योंकि बच्चा वहां है।”

“उसे ले के यहां आ जाना।”

“मैं वहीं ठीक हूं।”

“मर्जी तुम्हारी। मैं सोहल का पता लगते ही तुम्हें उधर फोन करूंगा।”

“नम्बर मालूम है आपको।”

“हां। फिरोजा से भी वाकिफ हूं। उसके खाविन्द पेस्टनजी से भी वाकिफ था। अच्छा आदमी था। बेमिसाल कुर्बानी दी उसने मेहमान की खातिर।”

उसने अवसादपूर्ण भाव से गर्दन हिलायी।

सुमन खामोश रही।

“ये ‘मराठा’ का एक कार्ड रख लो।” — सलाउद्दीन ने उसे एक कार्ड सौंपा — “इस पर यहां के फोन नम्बर हैं। काम आयेंगे। मेरा नाम सलाउद्दीन है। बाहर जो रिसेप्शन पर बैठा था, वो मेरा बड़ा लड़का जावेद है। इधर तुम्हें कैसी भी मदद की जरूरत हो, बेखौफ मेरे से बोलना, जावेद से बोलना, किसी से भी बोलना। ठीक?”

सुमन ने सहमति में सिर हिलाया।

“चर्चगेट खुद चली जाओगी या किसी को बोलूं कि तुम्हें छोड़ के आये?”

“चली जाऊंगी।”

“ठीक है फिर।”

सुमन वहां से रुखसत हुई।

उसके जाते ही सलाउद्दीन ने जावेद को तलब किया।

“नासिर को रिसेप्शन पर बिठा” — सलाउद्दीन आदेशपूर्ण स्वर में बोला — “और आरिफ को लेकर इरफान के घर पहुंच। सोहल अगर मुम्बई में है तो सिर्फ उसे ही मालूम होगा कि वो कहां है!”

“इरफान कोई घर होगा इस वक्त?” — जावेद संदिग्ध भाव से बोला।

“जाकर देखेगा तो पता लगेगा न?”

“घर न हुआ तो?”

“तो उधर ही टिकना है। और मालूम करना है कि वो उधर नहीं है तो किधर हो सकता है! इसीलिये आरिफ को साथ ले जाने को बोला। चाहे तो आमिर को भी ले जा। वहां इरफान न मिले तो तीनों भाई शिफ्ट में उसके घर के दरवाजे पर तब तक ड्यूटी भरना जब तक कि वो लौट न आये। समझ गये?”

“हां।”

“शाबाश!”

“बाप” — इरफान बोला — “तू कल की बाबत कुछ न बोला।”

वे विक्टर की टैक्सी में सवार थे जो कि तारदेव से जुहू जा रही थी। इरफान विक्टर के साथ आगे बैठा हुआ था और पीछे राजा साहब विराजमान थे।

“कल की बाबत?” — विमल की भवें उठीं।

“तू उधर नौरोजी रोड वाले ठीये पर जाने वाला था न? लोहिया साहब के साथ!”

“अच्छा, वो। हां, गया था कल रात मैं वहां।”

“अपना छोटा अंजुम आया था उधर?”

“हां। कल तो अपने फिक्स्ड टाइम से, ग्यारह बजे से, दस मिनट पहले पहुंच गया था। उसके फिक्स्ड टाइम का राज भी मेरी समझ में आ गया है।”

“क्या राज है?”

“अपना छोटा अंजुम वहां का खास ग्राहक है। उधर की मैडम मिसेज सिक्वेरा उसका बहुत लिहाज करती है इसलिये अपने ठीये की बेहतरीन लड़कियों को ग्यारह बजे तक उसकी चायस के लिये होल्ड करके रखती है। यूं लड़की छांटने की डैड लाइन ग्यारह बजे की मुकर्रर है।”

“उसके बाद वो वहां पहुंचे तो लड़की नक्को हो जाती है?”

“नक्को नहीं हो जाती, उसकी चायस खत्म हो जाती है। तब जो हासिल हो, उसी से उसको काम चलाना पड़ता है।”

“जैसे मेल ट्रेन निकल जाने पर” — विक्टर बोला — “पैसेंजर पर सफर करना पड़ता है।”

विमल हंसा।

इरफान ने हंसी में उसका साथ दिया।

“वैसे लगता ये था” — विमल बोला — “कि उसे पैसेंजर से सफर करना कुबूल नहीं होता था। मैडम बोलती थी कि अगर वो ग्यारह बजे तक नहीं आता था तो आता ही नहीं था।”

“ऐसा?” — इरफान बोला।

“हां। और विक्टर, तेरा अन्दाजा सही था। ठीये की पहली मंजिल पर तफरीह के लिये ही कमरे हैं। वहां कुल जमा बारह कमरे हैं। उन कमरों में भी अपने छोटे अंजुम की चायस है और लिहाज है।”

“क्या मतलब?”

“ऊपर वो हमेशा सात नम्बर कमरे में ही जाता है।”

“उसमें कोई खूबी है?”

“पता नहीं। वो कमरे में मौजूद था। उसकी मौजूदगी में कमरे में नहीं जाया जा सकता था।”

“यानी कि वो कमरा हमेशा छोटा अंजुम के लिये रिजर्व्ड रहता है?”

“हमेशा नहीं। ग्यारह बजे के करीब तक उसमें कोई भी कस्टमर जा सकता है। छोटा अंजुम अगर ग्यारह बजे वहां नमूदार न हो तो ग्यारह बजे के बाद भी कोई भी जा सकता है।”

“ओह!”

“छोटा अंजुम ग्यारह से दस मिनट पहले वहां पहुंचा था, उसने एक लड़की छांटी थी और उसके साथ ऊपर चला गया था। उसके पीछे पीछे वेटर वैट - 69 की बोतल और दो तन्दूरी चिकन लेकर ऊपर गया था।”

“खाने पीने का तगड़ा रसिया जान पड़ता है, बाप!”

“तगड़ा। एक घन्टे बाद वेटर उसके लिये जो खाना लेकर गया था, वो इतना था कि हैरानी होती थी कि दो तन्दूरी चिकन खा चुकने के बाद कोई उतना खाना खा सकता था।”

“इतना खा पी के वो उठ के भिंडी बाजार तो क्या जाता होगा?”

“उम्मीद नहीं, फिर भी तू अपने बुझेकर से तसदीक कर।”

“करेंगा, बाप।”

“और ये बात गलत है कि वो वहां अपने साथ एक ही बॉडीगार्ड लेकर जाता था। कल उसके साथ दो बॉडीगार्ड थे। उनमें से एक ऊपर गलियारे में सीढ़‍ियों के दहाने पर जम गया था और दूसरा नीचे हाल में प्रवेश द्वार के करीब खड़ा हो गया था। मैं और लोहिया आधी रात तक ही वहां रुके थे इसलिये छोटा अंजुम के वहां के प्रोग्राम की मुकम्मल पड़ताल नहीं हो सकी थी। वो पड़ताल आज होगी।”

“कैसे?”

“आज ग्यारह बजे से बहुत पहले राजा साहब के दो मेहमान वहां पहुंचेंगे।”

“कौन?”

“तू और शोहाब।”

इरफान खुश हो गया।

“लेकिन सूट बूट डाट के। औकात बना के। टपोरी बन के उधर पहुंचोगे तो राजा साहब की सिफारिश से भी कोई नहीं घुसने देगा।”

“तू फिक्र न कर, बाप। मैं अपना वही सूट निकालेगा जिसे पहन के मैं वैभवी के साथ ‘जैकपॉट’ गया था। आज ही कटिंग भी कराता है और घोट के शेव भी कराता है। शोहाब तो वैसे ही टीप टाप से रहता है। बाप, ऐन बारात का माफिक सज के जायेंगे।”

“बढ़िया।”

“बाप!” — रियरव्यू मिरर में से विमल को देखता विक्टर व्यग्र भाव से बोला।

“हां।”

“बाप, मेरे पास भी एक बढ़िया काला सूट है जो मैं लास्ट क्रिसमस के बाद से नहीं पहना। कोई मौका ही नहीं आया।”

“तो?”

“बाप, दे न मौका मेरे को भी सूट पहनने का और हाई फाई औकात बनाने का!”

विमल ठठाकर हंसा।

“तो ये इरादे हैं?” — वो बोला।

“बाप, एप्लीकेशन लगाया है” — विक्टर अनुनयपूर्ण स्वर में बोला — “आगे तेरी मर्जी।”

“ठीक है। समझ ले हो गयी मेरी मर्जी।”

“क्या?”

“आज शाम राजा साहब के दो नहीं, तीन मेहमान नौरोजी रोड पहुंचेंगे।”

“थैंक्यू वैरी मच, बॉस। थैंक्यू वैरी मच।”

टैक्सी होटल सी-व्यू पहुंची।

टोकस और चिरकुट कोलाबा पहुंचे जहां कि डाक्टर देशमुख का प्राइवेट नर्सिंग होम था।

उस वक्त वो दोनों बड़े सलीके के कपड़े पहने थे और बहुत भले और सम्भ्रान्त दिखने की कोशिश कर रहे थे।

रिसेप्शन पर उन्होंने अपने आगमन का मन्तव्य बताया तो रिसेप्शनिस्ट ने उन्हें आफिस सुपरिंटेन्डेन्ट डाक्टर पुंडलिक के पास भेज दिया।

“हम तुकाराम के गांव से हैं।” — टोकस विनीत भाव से बोला — “इधर मुम्बई आ रहे थे तो तुका की बीवी ने कहा कि हम उसकी कोई खोज खबर लायें।”

“क्या बीवी को मालूम नहीं” — डाक्टर पुंडलिक बोला — “कि तुकाराम इलाज के लिये लंदन गया हुआ है?”

“मालूम है, जी, बराबर मालूम है। ये भी मालूम है कि वागले तुका के साथ गया है और खुद डाक्टर देशमुख भी उन दोनों के साथ गये हैं लेकिन जाने के बाद से तो कोई खोज खबर नहीं हैं न, जी। बीवी बेचारी हलकान हो रही है। वो अनपढ़ औरत है, खुद मुम्बई आ नहीं सकती। इसलिये उसका ये काम हमें करना पड़ रहा है।”

“हम चैम्बूर गये थे” — चिरकुट बोला — “लेकिन वहां तो तुका के घर को ताला पड़ा है!”

“हम यहां इस उम्मीद में आये हैं” — टोकस बोला — “कि डाक्टर देशमुख तो लंदन से अपने नर्सिंग होम से सम्पर्क बनाये रखते होंगे इसलिये आप लोगों को तो मालूम होगा कि अब तुका किस हालत में है और वो कब तक वापिस लौट पायेगा!”

“आप अगर” — चिरकुट बोला — “लन्दन काल लगा कर डाक्टर देशमुख से हमारी बात करा दें...”

“या खुद कर लें” — टोकस बोला — “और हमें बता दें कि वो तुका की बाबत क्या कहते हैं तो...”

“उसकी जरूरत नहीं।” — डाक्टर पुंडलिक बोला।

“जी! क्या फरमाया आपने? बात की जरूरत नहीं?”

“नहीं, भाई। मैं बोला कि डाक्टर देशमुख के लिये लन्दन फोन लगाने की जरूरत नहीं क्योंकि वो तो यहीं हैं!”

“यहीं हैं?”

“हां। वो तो तुकाराम के इलाज का लन्दन में इन्तजाम कराने के लिये गये थे और इन्तजाम करा के और अपनी सुपरविजन में तुकाराम की टांग की सर्जरी करा के हफ्ते बाद ही वापिस लौट आये थे।”

“यानी कि अब वो यहीं हैं? नर्सिंग होम में?”

“हां। डाक्टर देशमुख तो कब के मुम्बई में हैं!”

“फिर तो आप उन्हीं से पूछ सकते हैं कि तुकाराम...”

“मैं बात करता हूं।”

डाक्टर पुंडलिक ने इन्टरकाम पर डाक्टर देशमुख से संक्षिप्त सा वार्तालाप किया जिसका कुछ भी उन दोनों की समझ में न आया। आखिरकार उसने रिसीवर वापिस क्रेडल पर रखा और उठता हुआ बोला — “आओ।”

“कहां?” — टोकस सकपकाया।

“डाक्टर देशमुख के पास। ताकि तुम जो पूछना चाहते हो, सीधे उन्हीं से पूछ सको।”

“ओह!”

झिझकते हुए दोनों उठे और उसके साथ हो लिये।

डाक्टर पुंडलिक उन्हें एक एयरकंडीशंड आफिस में लेकर आया।

दोनों ने डाक्टर देशमुख का अभिवादन किया।

“तो” — डाक्टर देशमुख बोला — “आप लोग तुकाराम के गांव से हैं?”

“जी हां।” — टोकस विनीत भाव से बोला — “तुका की बीवी बेचारी को बहुत फिक्र लगी हुई है तुका की। हम मुम्बई आ रहे थे तो वो बोली...”

“हां, हां। मुझे डाक्टर पुंडलिक ने बताया है। मेरे पास आप लोगों के लिये बहुत अच्छी खबर है। तुकाराम बिल्कुल ठीक है।”

“सर, डाक्टर पुंडलिक ने अभी बताया था कि वो लन्दन में हैं। अगर आप हमें ये बता सकें कि वो वहां कहां हैं तो हम...”

“अब ये सब जानने की कहां जरूरत रह गयी, मेरे भाई! वो तो वापिस आ रहा है।”

“ये तो वाकई बहुत अच्छी खबर है! ताई खुश हो जायेगी सुन कर।”

“वो एकदम तन्दुरुस्त हो के वापिस आ रहा है।”

“कब?”

“कल ही। बी.ओ.ए.सी. की एक फ्लाइट से। जो कि रात दस बजे सहर एयरपोर्ट पर पहुंचेगी। स्ट्रेचर पर लन्दन गया तुकाराम कल अपने पैरों पर चल कर वापिस लौटेगा। वागले के मामूली से सहारे के भी बिना खुद चल कर वापिस लौटेगा।”

“डाक्टर साहब, आप महान हैं।”

“मैं नहीं, भाई, लन्दन के डाक्टर। जिन्होंने कि तुकाराम का इतना कामयाब इलाज किया।”

“हम तुका को अपने साथ गांव ले कर जायेंगे।”

“ताई खुश हो जायेगी।” — चिरकुट बोला।

“आप एकदम सही कदम उठायेंगे।” — डाक्टर देशमुख बोला।

“बहुत बहुत धन्यवाद, डाक्टर साहब।”

दोनों वहां से रुखसत हुए।

टोकस का उखड़ा मूड तब कुछ सुधरा। शुक्र था कि कोई तो काम ठीक हुआ था। वो बड़ा डाक्टर उनकी आशा के विपरीत खुद नर्सिंग होम में मौजूद था इसलिये तुका की बाबत कोई चुपचाप पूछताछ करने का तो स्कोप ही नहीं रहा था। खुद वो कुछ बताने की जगह उन्हें डांट के भगा देता तो तुका की बाबत वो ही जानकारी जो कि अब उन्हें सहज ही हासिल हो गयी थी, पता नहीं कितने पापड़ बेलने पर और कितना वक्त जाया करने पर हासिल होती।

या पता नहीं हासिल होती भी या नहीं।

बढ़िया। बढ़िया।

सुमन ने ‘मराठा’ से बाहर कदम रखा तो पाया कि एक टैक्सी होटल के सामने ही खड़ी थी।

वो टैक्सी में सवार हो गयी।

टैक्सी ड्राइवर ने मीटर डाउन किया, रियर व्यू मिरर में से एक निगाह अपनी सवारी पर डाली और फिर बिना गर्दन घुमाये बोला — “किधर चलने का है, बाई?”

“चर्चगेट।” — सुमन बोली।

टैक्सी ने तत्काल रफ्तार पकड़ी।

सुमन ने टैक्सी की सीट पर अपना शरीर ढीला छोड़ दिया और आंखें मूंद लीं।

अपनी ‘मराठा’ की विजिट उसे बहुत संतोषजनक लग रही थी। उसका दिल गवाही दे रहा था कि विमल की तलाश में अब उसे और नहीं भटकना पड़ना था। वो फरिश्ताजात बुजुर्गवार, जिन्होंने अपना नाम सलाउद्दीन बताया था, जरूर जरूर आज ही उसकी सूरज के ममी पापा से मुलाकात करा देने वाले थे।

उसकी निगाह में अभी एक ठिकाना और था जहां वो अपनी तलाश के सिलसिले में जा सकती थी — वो भिंडी बाजार में अकरम लाटरीवाला को तलाश करने की कोशिश कर सकती थी — लेकिन सलाउद्दीन के आश्वासन के बाद वो कदम उठाना अब उसे गैरजरूरी लग रहा था।

उसने आंखें खोलीं और दौड़ती टैक्सी से बाहर झांका।

एकाएक वो सकपकाई और सीट पर सीधी हुई। उसने एक बार फिर टैक्सी से बाहर दायें बायें निगाह दौड़ाई। उसे टैक्सी उस रास्ते पर दौड़ती न लगी जिस पर होकर वो ‘मराठा’ पहुंची थी।

“ड्राइवर!” — फिर वो तीखे स्वर में बोली — “ये तुम मुझे किधर ले जा रहे हो? ये तो चर्चगेट का रास्ता नहीं है!”

“ये भी उधर ही पहुंचेगा, बाई।” — ड्राइवर इत्मीनान से बोला।

“लेकिन तुम सीधे रास्ते से...”

“उधर एक्सीडेंट होयेला है। ट्रैफिक जाम होयेला है।”

“तुम्हें क्या मालूम?”

“अपुन उधर से ही आया था।”

“अब तक जाम हट गया होगा। तुम उसी रास्ते से चलो।”

“बाई, बोला न, ये रास्ता भी चौकस है।”

“उसी रास्ते से चलो।”

“इतना वापिस घुमाना पड़ेंगा। भाड़ा बढ़ेंगा...”

“रोको।”

ड्राइवर के कान पर जूं भी न रेंगी।

“रोको, वरना मैं चिल्लाऊंगी।”

“इधर बीच सड़क में कैसे रोकेंगा? बाजू में लगा के रोकता है न!”

आखिरकार उसने टैक्सी जहां रोकी वहां सड़क पर इक्का दुक्का ही वाहन था।

“मैं इधर ही उतरती हूं।” — सुमन अपना पर्स खोलती हुई बोली — “मीटर देखो।”

“देखता है। देखता है।”

तभी एक कार ऐन टैक्सी के पहलू में आकर रुकी। उसकी ड्राइविंग सीट पर जीन जैकेटधारी कोली बैठा था और उसके पहलू में सूट वाला हुमने मौजूद था। हुमने झपट कर कार से बाहर निकला और सुमन को जबरन परे धकेलता टैक्सी की पिछली सीट पर सवार हो गया।

“ये... ये क्या बद्तमीजी है?” — सुमन चिल्लाई।

“आवाज नहीं।” — हुमने उसके पेट से एक चाकू सटाता क्रूर स्वर में बोला — “आवाज नहीं वरना आंतें बाहर निकाल कर गले में लटका देगा।”

भय से सुमन की घिग्घी बन्ध गयी।

कोली कार से बाहर निकला। उसके हाथ में एक इंजेक्शन की सिरिंज थी। वो टैक्सी की परली तरफ पहुंचा, उसने उधर का दरवाजा खोला और फिर सीरिंज की सुई जबरन सुमन की बांह में घुसेड़ कर पिस्टन दबा दिया।

तत्काल सुमन की आंखें मुंदने लगीं।

दोनों ने उसे टैक्सी में से निकाला और कार की पिछली सीट पर डाल दिया।

टैक्सी ड्राइवर अपनी टैक्सी में बैठा यूं सामने सड़क की तरफ देख रहा था जैसे जो कुछ हो रहा था, उससे वो कतई बेखबर था।

“तेरा काम खत्म।” — हुमने टैक्सी ड्राइवर से बोला — “रास्ता नाप अपना।”

टैक्सी ड्राइवर ने सहमति में सिर हिलाया और टैक्सी वहां से दौड़ा दी।

फिर उन दोनों के साथ कार भी वहां से रवाना हुई।

इस बार कार की ड्राइविंग सीट पर हुमने बैठा। उसने कार को दादर सी फेस की दिशा में दौड़ा दिया।

थोड़ी देर कार खामोशी से सड़क पर दौड़ी।

“हिला इसे।” — फिर हुमने बोला।

सहमति में सिर हिलाते कोली ने पीछे घूम कर हाथ बढ़ाया और सुमन को हिलाया डुलाया, पहले हौले से और फिर जोर से झिंझोड़ा।

“बेहोश है।” — फिर वो बोला।

“अब दूसरी सुई निकाल।”

कोली ने जेब से एक और सिरिंज बरामद की और उसकी सुई को सुमन की बांह की एक नस में घुसेड़ कर पिस्टन दबाया।

सुमन पर उसकी कोई प्रतिक्रिया न हुई।

कोली ने खाली सिरिंज खिड़की से बाहर फेंक दी।

कार एक उजाड़ स्थान पर आकर रुकी जहां कि समुद्र में बने पायर के साथ लगी एक मोटरबोट खड़ी पानी में हिचकोले ले रही थी।

दोनों कार में से निकले और सुमन को उठाये मोटरबोट के डैक पर पहुंचे।

“आजू बाजू देख।” — हुमने बोला।

“कोई नहीं है।” — कोली बोला।

हुमने ने सुमन को डैक पर से पानी में उतारा, उसके सिर पर हाथ रखकर उसको पानी की सतह से नीचे दबाया।

तत्काल सुमन तड़फड़ाई और सांस के लिये छटपटाई।

हुमने मजबूती से उसका सिर पानी की सतह से नीचे दबाये रहा। सुमन के हाथ पांव झटकना बन्द कर देने के बाद भी काफी देर वो उसे पानी में डुबोये रहा।

आखिरकार उसने उसे सतह पर उबरने दिया।

उसने उसकी नब्ज टटोली।

“खत्म।” — वो बोला।

“बढ़िया।” — कोली बोला।

दोनों ने लाश को डैक पर खींच लिया और उसे एक तिरपाल से ढंक दिया।

हुमने ने केबिन में जाकर मोटरबोट स्टार्ट की।

मोटरबोट दादर सी फेस और माहिम बीच के समानान्तर दौड़ने लगी।

माहिम क्रीक से पार एक स्थान पर उसने मोटरबोट रोकी।

वो केबिन से बाहर निकल कर डैक पर पहुंचा।

“आजू बाजू देख।” — वो बोला।

“चौकस है।” — कोली बोला।

हुमने ने तिरपाल का एक कोना एक तरफ पलटा और फिर लाश को डैक पर से पानी में धकेल दिया।

फिर मोटरबोट को उन्होंने एक जगह किनारे लगाया।

“उतर।” — हुमने बोला — “मैं मोटरबोट छोड़ कर कार लेकर इधर ही आता हूं।”

“ठीक है।” — कोली बोला।

“तब तक तू जानता है न कि तूने क्या करना है?”

“हां, जानता हूं।”

“बढ़िया।”

मोटरबोट वहां से रवाना हो गयी।

कोली एक पब्लिक टेलीफोन पर पहुंचा। उसने ‘100’ नम्बर डायल किया और बोला — “नवजीवन कालोनी से बोलता हूं। अभी मैं धारावी बान्द्रा लिंक रोड से गुजरा था। मैं ये बताने को फोन किया कि माहिम क्रीक में पुल के पास एक नौजवान छोकरी का बाडी तैर रयेला है। जल्दी पहुंचो, शायद अभी जान हो।”

“नाम बोलिये।”

“अरे, छोकरी का नाम मेरे को कैसे मालूम होयेंगा?”

“अपना। अपना नाम बोलिये।”

“ओह! अपना नाम बोलूं। अभी ताई से पूछ के आता है।”

उसने रिसीवर वापिस हुक पर टांग दिया।

जनकराज एस.एच.ओ. के आफिस में पहुंचा।

“मुम्बई से फिंगरप्रिंट्स की कापी कूरियर से आ गयी है।”

“गुड।” — एस.एच.ओ. नसीब सिंह बोला — “यानी कि ए.सी.पी. साहब की कल की ट्रंक काल ने असर दिखाया?”

“ऐसा ही जान पड़ता है।”

“चैक किया फिंगरप्रिंट्स को?”

“जी हां। सोहल के और राज्यों से हासिल प्रिंट्स से वो प्रिंट्स हूबहू मिलते हैं।”

“यानी कि अब हर जगह — दिल्ली में भी — सोहल के जेनुइन प्रिंट्स पुलिस के रिकार्ड में हैं?”

“जी हां।”

“हैं तो बड़ी अच्छी बात है लेकिन इससे हमें क्या मिला?”

“अभी तो कुछ नहीं मिला!”

“आगे क्या मिलेगा?”

“तब तक तो आगे भी कुछ मिलता नहीं दिखाई देता जब तक कि किसी वजह से वो बाबू कौल दिल्ली न लौट आये और किसी करिश्मासाज तरीके से हमारी पकड़ाई में न आ जाये।”

“सपने देखने का काम है।”

“है तो ऐसा ही!” — जनकराज ने वाल क्लाक पर निगाह डाली — “शाम तो हो गयी है! तो फिर आपके कल के हुक्म के मुताबिक सच में ही शीशपाल और भूरेलाल को गोल मार्केट से वापिस बुला लिया जाये?”

“हां। यही मुनासिब है। तुम्हें मालूम है कि आजकल स्टाफ की शार्टेज चल रही है।”

“जी हां।”

“वैसे ये हैरानी की बात नहीं कि वो लड़की अपने फ्लैट से अभी तक गायब है? बच्चे समेत!”

“साहब, हमारी उम्मीद ये थी कि मां बच्चे के पास पहुंचेगी। मेरा अन्दाजा ये कहता है कि किसी तरीके से सुमन वर्मा को खबर लग गयी थी कि उसकी निगरानी हो रही थी। नतीजतन किसी तरीके से उसने नीलम को खबरदार कर दिया कि वो गोल मार्केट न लौटे, फिर कल वो खुद घर से निकली, उसने अपने पीछे लगे शीशपाल से पीछा छुड़ाया और बच्चे को लेकर उसकी मां के पास पहुंच गयी।”

“कहां?”

“क्या पता कहां!”

“ट्रेन पर सवार वो आगे कहीं मां के पास पहुंची होगी या उतर का वापिस दिल्ली आयी होगी जहां कि कहीं मां छुपी हुई है?”

“कुछ कहना मुहाल है, सर।”

“छोड़ो फिर इस बात का पीछा। खामखाह हवा में लट्ठ चलाने का क्या फायदा!”

जनकराज ने सहमति में सिर हिलाया।

तभी एक हवलदार भीतर पहुंचा और जनकराज से बोला — “साहब, आपके कमरे में आपका फोन है।”

जनकराज ने एस.एच.ओ. का अभिवादन किया और लपकता हुआ अपने कमरे में पहुंचा। उसने मेज पर फोन से अलग पड़ा रिसीवर उठाया और माउथपीस में बोला — “हल्लो! एस.आई. जनकराज स्पीकिंग।”

“क्या बात है, भई, जनकराज? कोई नाराजगी हो गयी? मैं सुबह से तेरा माल सामने रखे अपने थाने में तेरा इन्तजार कर रहा हूं।”

“देवीलाल जी बोल रहे हैं?”

“भई, बोल तो रहा हूं अगर तेरी इजाजत हो तो!”

“कैसी बातें करते हैं देवीलाल जी! मैं तो आपका खादिम हूं!”

“की तो नहीं खिदमत?”

“जी, वो क्या है कि...”

“भाई मेरे, मैंने उस काम की बाबत पिछली शाम को आगे कोई जवाब देना था जो कि मैं, शाम होने को है, आज भी नहीं दे पा रहा हूं।”

“साहब, आपका काम आज नहीं हो पायेगा।”

“क्या मतलब? यानी कि आज हुआ तो है ही नहीं, हो भी नहीं पायेगा?”

“ऐसा ही है, साहब।”

“वजह?”

“आज ए.सी.पी. साहब ने आफिस में कदम ही नहीं रखा है।”

“वो तो और भी अच्छी बात है। तूने तो उनकी गैरहाजिरी मे उनके आफिस में जाना था और...”

“मैं गया था।”

“तो?”

“फाइल वहां नहीं है। लगता है वो साथ ले गये।”

“जनकराज” — इस बार देवीलाल का स्वर सख्त हुअा — “ये तू मुझे कोई पुड़िया तो नहीं दे रहा?”

“मेरी मजाल नहीं हो सकती, साहब।”

“मजाल तो तेरी हो गयी जान पड़ती है!”

“साहब, आप गलत...”

“तूने वो मसल सुनी है न?”

“कौन सी?”

“दरिया में रह कर मगर से बैर वाली?”

“साहब, आप...”

“कल को मैं पहाड़गंज थाने का एस.एच.ओ. बन सकता हूं। या तेरी ट्रांसफर कनाट प्लेस थाने में हो सकती है।”

“साहब, जब ऐसा होगा तो मुझे आपके अन्डर काम करके दिली खुशी होगी।”

“ये लिफाफेबाजी छोड़ और साफ बोल क्या मर्जी है तेरी?”

“मर्जी ठीक है लेकिन आज आपका काम नहीं हो सकता।”

“कल करेगा?”

“देखूंगा।”

“कल भी अभी देखेगा?”

“कल अगर ए.सी.पी. साहब...”

“अरे, जापान तो नहीं चला गया ए.सी.पी.? चीन तो नहीं चला गया?”

“ऐसा तो नहीं है लेकिन...”

“लेकिन वेकिन छोड़। तू या तो कोई पक्का वादा कर या फिर जाने दे।”

“अगर मेरे पास चायस है तो फिर तो जाने ही दीजिये, जनाब।”

जवाब में दूसरी तरफ से भड़ाक से रिसीवर क्रेडल पर पटके जाने की आवाज आयी।

साला! धमकी देता है! — जनकराज भी रिसीवर वापिस रखता हुआ होंठों में बुदबुदाया — आया बड़ा एस.एच.ओ.! आया बड़ा मगरमच्छ! अब तो मैंने कुछ करना भी होगा तो नहीं करूंगा। दोबारा धमकायेगा तो ए.सी.पी. के आगे सब पोल खोल दूंगा।

हुकमनी ने झामनानी के आफिस में कदम रखा।

हुकमनी भी टोकस की तरह झामनानी का भरोसे का आदमी था और झामनानी के आदेश पर मुम्बई रवाना होने से पहले टोकस हुकमनी को ही पीछे अपने छोड़े काम समझा कर गया था।

“वडी, क्या है, नी?” — झामनानी भुनभुनाया — “क्यों शाम को अपनी रोनी सूरत दिखा रहा है?”

“जुगनू।” — हुकमनी धीरे से बोला।

“क्या हुआ उसे?”

“किसी ने धुन दिया।”

“क्या?”

“हस्पताल में है।”

“वो तो गोल मार्केट उस लड़की सुमन वर्मा के फ्लैट की निगरानी पर था!”

“टोकस मेरे को यही बोल कर गया था। मैं भी यही समझ रहा था। लेकिन अब सारा दिन उसकी कोई खोज खबर न मिली तो मैं खुद उधर कोविल हाउसिंग कम्पलैक्स में गया था। वहां के चौकीदार रामसेवक से मालूम हुआ कि कल किसी ने उसके अच्छे हाथ पांव सेंके थे। चौकीदार कहता है कि उसी ने उसे लोहिया हस्पताल भिजवाया था।”

“वो खुद क्या कहता है, नी? तू उस कर्मांमारे से हस्पताल में जाकर मिला या तुझे सूझा ही नहीं ऐसा करना?”

“मैं अभी सीधा हस्पताल से आ रहा हूं।”

“क्या कहता है वो?”

“कहता है कि तीन चार लोगों ने एकाएक ही उसे काबू में कर लिया था और धुनाई करनी शुरू कर दी थी।”

“वडी, किस लिये, नी? कोई वजह तो होगी! लूटना चाहते थे उसे?”

“उसके पास क्या रखा था?

“लक्ख दी लानत हई। वडी, कोई सवाल करे तो उसको जवाब देते हैं या बदले में सवाल करते हैं?”

“लूटने वाली बात नहीं थी।”

“तो क्या बात थी? एक ही बार में बोल, नी?”

“वो लोग उससे पूछ रहे थे कि वो कौन था और उधर क्या कर रहा था! जुगनू कहता है उसे मजबूरन बताना पड़ा था कि वो आठवीं मंजिल के सुमन वर्मा के फ्लैट की निगरानी कर रहा था।”

“वो ये भी बका कि क्यों निगरानी कर रहा था?”

हुकमनी हिचकिचाया।

“वडी, बोलता क्यों नहीं? खामोश क्यों है?”

“जुगनू बोला कि उसे बताना पड़ा कि वो आपका आदमी था और आपके हुक्म से वहां तैनात था और सुमन वर्मा के लौटने का इन्तजार कर रहा था।”

“सत्यानाश! वडी, ये कैसा कच्चा आदमी पाल के रखा, नी, तूने?”

“मैंने नहीं, साहब, टोकस ने। टोकस ने।”

“इधर क्यों नहीं आया? आ के खुद क्यों नहीं भौंका कर्मांमारा कि क्या हुआ उसके साथ?”

“साहब, वो अभी भी चलने फिरने लायक नहीं है।”

“गोली लगे ऐसे आदमी को। सब काम बिगाड़ दिया। पता नहीं कब से नहीं है वो वहां। इतने में तो वो लड़की दस बार फ्लैट पर आकर चली गयी हो सकती है।”

“नहीं, साहब।”

“वडी, क्या नहीं साहब, नी?”

“पुलिस वाले अभी भी वहीं हैं। वो लड़की लौटी होती तो वो उनकी निगाहों में जरूर आई होती। फिर वो अभी भी वहां न होते।”

“अब तूने जुगनू की जगह किसी और आदमी का उधर के लिये इन्तजाम किया?”

“मैं वही पूछने आया था।”

“वडी, क्या, नी?”

“साहब, एक आदमी को उधर भेजने का कोई फायदा नहीं होगा। क्योंकि अकेले आदमी का अंजाम फिर वही हो सकता है जो जुगनू का हुआ।”

“तो?”

“उधर तीन चार आदमी होने चाहियें जो कि हथियारबन्द भी हों।”

“जो कि उधर कोई खून खराबा कर दें तो पकड़े जाने पर कहें कि झामनानी ने भेजा?”

हुकमनी गड़बड़ाया।

“तीन चार आदमी भेज — बल्कि पांच छ: आदमी भेज — हथियारबन्द भी भेज लेकिन समझा के भेज कि पुलिस से पंगा नहीं लेना, पुलिस वालों की जानकारी में किसी से पंगा नहीं लेना। कोई कर्मांमारे जुगनू की तरह उन पर भी हमला करें तो डट कर मुकाबला करना है और उनमें से एकाध को पकड़ के इधर लाना है ताकि पता चल सके कि कौन कर्मांमारा मेरे आदमी के पीछे पड़ा और क्यों पड़ा? वडी, समझ गया, नी?”

हुकमनी ने सहमति में सिर हिलाया।

“तो हिलता क्यों नहीं इधर से?”

हुकमनी अभिवादन करके वहां से रुखसत हो गया।

“झूलेलाल!” — पीछे झामनानी माथा थामता बोला।

तभी फोन की घन्टी बजी।

झामनानी ने फोन रिसीव किया।

“कनाट प्लेस थाने से एस.एच.ओ. देवीलाल बोल रहा हूं, झामनानी साहब।” — आवाज आयी।

“शुक्र है।” — झामनानी भुनभुनाया — “शुक्र है, साईं, कि तेरे को याद तो आया कि कोई झामनानी भी है कर्मांमारा दिल्ली शहर में। वडी, कल से तेरे फोन का इन्तजार कर रहा हूं।”

“झामनानी साहब, काम होता तो फोन करता न?”

“वडी, काम नहीं हुआ, नी?”

“नहीं हुआ।”

“वडी, फोन तो फिर भी कर रहा है, नी?”

“अब कभी तो करना ही था!”

“वडी, हुआ क्या, नी?”

“वो सब-इन्स्पेक्टर जनकराज... पहले तो हील हुज्जत करता रहा, अब साफ ही बोल रहा है कि वो ये काम नहीं कर सकता।”

“वडी, तेरे को बोला था उसकी कोई मांग पूरी करने को।”

“मैंने वही किया था। उसने दस हज़ार मांगे, मैंने दस हज़ार की हामी भरी। वो फिर भी कुछ नहीं करता। अब तो साफ ही न बोल दी।”

“वडी, कैसा थानेदार है, नी तू जो इतना सा काम अपने ही महकमे के आदमी से नहीं निकाल सका?”

“थानेदार की थानेदारी थाने के इलाके में ही चलती है, झामनानी साहब। दूसरे थाने के आदमी पर रौब गालिब करने लायक सीनियर अधिकारी पुलिस इन्स्पेक्टर नहीं होता।”

“वडी, ठीक है, नी। पता लग गयी तेरी औकात। अब कहता क्या है?”

“मैं ये कह रहा था कि अगर आप खुद इस बाबत कुछ करें तो कैसा रहे?”

“मैं जा के उस कर्मांमारे सब-इन्स्पेक्टर को बोलूं कि साई मेरा काम कर दे, झूलेलाल की किरपा होगी?”

“उसे नहीं।”

“तो और किसे?”

“थाने के किसी और आदमी को।”

“कोई और भी ये काम कर सकता है?”

“क्यों नहीं कर सकता? जनकराज खुद कहता था कि तसवीरें फाइल में थीं और फाइल तक थाने के किसी भी आदमी की पहुंच हो सकती है।”

“ऐसा है तो तू ही ये काम क्यों नहीं करता?”

“मेरा करना अब ठीक नहीं होगा। क्योंकि जनकराज मेरे खिलाफ हो गया है। उसने ए.सी.पी. को इस बाबत कुछ बोल दिया तो मेरी बहुत छीछालेदारी होगी। वो कहते नहीं हैं कि कुत्ते का कुत्ता बैरी? इसीलिये कह रहा हूं कि आप ही किसी तरह से पहाड़गंज थाने के किसी आदमी से इस बाबत बात करें।”

झामनानी को उस हवलदार का खयाल आया जिसने कि उसे मायाराम को पंजाब पुलिस द्वारा अमृतसर ले जाये जाने के पूरे प्रोग्राम की खबर दी थी।

“ठीक है, इन्स्पेक्टर साईं” — वो बोला — “मैं ही कुछ करता हूं।”

दोपहरबाद होटल सी-व्यू का लॉक आउट हट गया।

एन.आर.आई. राजा गजेन्द्रसिंह उसमें स्थापित हो गये।

विमल ने सबसे पहला काम ये किया कि होटल के निजाम को चलाने वाले तमाम अधिकारियों को वहां तलब किया। लॉबी में सब लोग जमा हुए तो उसने उन्हें अपना परिचय दिया, उन्हें कपिल उदैनिया की वहां नियुक्ति की बाबत बताया और उन्हें अपना प्रोग्राम समझाया।

सब के लिये ये अति सुखद समाचार सिद्ध हुआ कि होटल फिर चालू हो रहा था। उसने अधिकारियों को अगली सुबह की स्टाफ की जनरल मीटिंग के बारे में भी बताया और उन्हें डिसमिस कर दिया।

फिर उसने वो मोबाइल फोन अपने कब्जे में किया जो कि दिल्ली जाते वक्त वो वहीं छोड़ गया था।

तब तक शाम हो चुकी थी।

तब कहीं जा के उसे दिल्ली फोन करने का खयाल आया।

लेकिन पहले उसने नीलम को फोन किया।

मालूम हुआ कि उसकी गैरहाजिरी में दिल्ली से कोई फोन नहीं आया था।

जो कि भारी फिक्र की बात थी।

ऐसा गैरजिम्मेदार या अलगर्ज था तो नहीं मुबारक अली!

उसने सुमन का पी.पी. टेलीफोन ट्राई किया।

इस बार तत्काल सम्पर्क हुआ।

धन्न करतार!

दूसरी ओर से कोई महिेला बोल रही थी।

“नमस्ते, जी।”— वो मीठे स्वर में माउथपीस में बोला — “मैं मुम्बई से बोल रहा हूं। मैंने जरा सुमन वर्मा से बात करनी थी।”

“मुम्बई से?”

“जी हां।”

“आप जरूर मिस्टर कौल बोल रहे हैं!”

“कैसे जाना?” — विमल हैरानी से बोला।

“सुमन ने कहा था आपका फोन आयेगा।”

“ओह! सुमन ने कहा था। यानी कि वो आज आप से मिली थी।”

“आज नहीं। मिली तो वो कल थी। आज तो उसका फोन आया था।”

“कहां से?”

“वहीं से, जहां आप हैं।”

“जी!”

“मिस्टर कौल, सुमन भी मुम्बई पहुंची हुई है।”

“क... क्या कह रही हैं आप?”

“भई, आप मेरे सोसायटी मेट रह चुके हैं। मैं आप से झूठ बोलूंगी!”

“आप मुझे जानती हैं?”

“भई, आप भी जानते हैं मुझे। मैं प्रेरणा बोल रही हूं। कोविल में आठवीं मंजिल पर ऐन सुमन की बगल का फ्लैट है मेरा।”

“ओह!”

“नीलम मुझे अच्छी तरह जानती थी। मुझे प्रेरणा आंटी कहती थी। सभी यही कहते हैं। मैं तो जगत आंटी हूं। आप शायद भूल गये।”

“भूल गया था, प्रेरणा जी, लेकिन अब सब याद आ गया है।” — वस्तुत: विमल को उसकी बाबत कुछ भी याद नहीं आया था — “मुझे नहीं मालूम था कि सुमन ने मुझे आपका नम्बर दिया था। लेकिन फोन मिल तो नहीं रहा था आपका! मैंने कई बार ट्राई किया।”

“खराब था। कल से खराब था। अभी दोपहरबाद ही ठीक हुआ। ठीक होने के बाद पहली काल सुमन की ही आयी थी।”

“मुम्बई से?” — विमल को अभी भी यकीन नहीं आ रहा था कि सुमन मुम्बई पहुंची हुई थी।

“हां। मिस्टर कौल, उसने इधर आपके लिये एक मैसेज छोड़ा है।”

“क्या? जरा जल्दी बताइये। प्लीज।”

“उसने आपको कहलवाया है कि वो उधर बापू बालघर में है जो कि चर्चगेट पर है। बोलती थी कि आपको उस जगह की बाबत सब मालूम है। उधर का फोन नम्बर भी...”

“जी हां। मालूम है। शुक्रिया, प्रेरणा जी।”

उसने तत्काल लाइन काटी और धड़कते दिल और कांपती उंगलियों के साथ फिरोजा के यतीमखाने फोन किया।

तत्काल उत्तर मिला।

“मैं बोल रहा हूं, फिरोजा।” — विमल बोला — “मैं...”

“किधर है, मैन?” — फिरोजा बोली — “मैं अक्खे दिन से तुम्हारा तलाश में है। विक्टर टैक्सी डिरेवर का पता लगाने का कोशिश किया तो....”

“फिरोजा! फिरोजा! प्लीज कम टु दि प्वायन्ट।”

“वाट प्वायन्ट, मैन?”

“सुमन करके कोई लड़की तुम्हारे पास उधर पहुंची है?”

“हां। तुम्हारा सिस्टर बोला वो अपने आपको। तभी तो तुम्हेरे को ढूंढ रयेला था!”

“अब कहां है वो?”

“वो इधर नहीं है। तुम्हेरा तलाश में आया था, फिर तलाश में निकल गया है।”

“किधर?”

“बोल कर नहीं गया। बोला, एक दो जगह तुम्हेरी तलाश में जाना मांगता था। अभी लौट कर नहीं आया। पण आयेंगा। उसका लगेज इधर है। बेबी इधर है।”

“बेबी!”

“तुम्हारा बेबी। वैरी हैण्डसम। ऐन तुम्हारा माफिक।”

“वो तुम्हारे पास है?”

“हां।”

“क्या कर रहा है?”

“अभी सोता है।”

“फिरोजा, मैं नीलम को लेकर फौरन वहां पहुंच रहा हूं।”

“गुड।”

उसने लाइन काटी और लोहिया की कोठी पर नीलम को फोन किया।

“खुश हो जा। अच्छी खबर है।”

“क्या?”

“सुमन इधर पहुंची हुई है।”

“हाय रब्बा!”

“सही सलामत। सूरज के साथ। तू एक टैक्सी पकड़ और चर्चगेट फिरोजा के यतीमखाने पहुंच। मैं भी वहीं पहुंच रहा हूं।”

“मेरा सूरज उधर है तो मैं उड़ के पहुंचती हूं।”

“बढ़िया।”

उसने लाइन काट कर दिल्ली मुबारक अली के सुजान सिंह पार्क में स्थित टैक्सी स्टैण्ड का नम्बर डायल किया। उत्तर मिला तो वो बोला — “मुबारक अली से बात करनी है।”

“कहां से बोल रहे हैं?”

“क्यों पूछते हो, भाई?”

“अगर आप मुम्बई से कौल साहब बोल रहे हैं तो मुबारक अली का आपके लिये एक सन्देशा है।”

“हां, मैं कौल हूं और मुम्बई से बोल रहा हूं। क्या सन्देशा है?”

“मुबारक अली ने फोन के लिये दिल्ली का एक और नम्बर दिया है। नोट कीजिये।”

विमल ने नम्बर नोट किया और उस पर काल लगाई।

तत्काल मुबारक अली से बात हुई।

“क्या बात है, मियां?” — विमल बोला — “सुबह से तुम्हारे फोन का इन्तजार कर रहा हूं!”

“मैं शर्मिन्दा हूं, बाप। सुमन बीबी की कोई, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, खोज खबर मैं नहीं निकाल सका।”

“अगर उस वजह से शर्मिन्दा है तो दफा कर शर्मिन्दगी को।”

“क्या बोला, बाप?”

“सुमन सूरज समेत बाखैरियत इधर मुम्बई पहुंच गयी है।”

“ये तो वाकेई बढ़िया खबर है। क्या बोली वो? क्यों एकाएक मुम्बई चली आयी?”

“अभी मुलाकात नहीं हुई। लेकिन हो जायेगी। वो फिरोजा के पास यतीमखाने में है। कहीं गयी है। लौट आयेगी।”

“साहबजादा?”

“फिरोजा के पास है। मैं बस वहीं जा रहा हूं।”

“बढ़िया।”

“दिल्ली की और क्या खबर है?”

“बाप, हाशमी बिरादरीभाइयों को टटोल रहा है। पण अभी कोई खास खबर नहीं है। ऐसा भी अभी कोई, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, इशारा नहीं है कि इधर नशे का कारोबार कोई खास उठान पकड़ने वाला है। पण अभी जांच पड़ताल कोई खास नहीं हो पायी है। मैं फिर खबर करेगा।”

“ठीक है। इधर होटल खुल गया है। हम सिर्फ आज की रात लोहिया वाले नम्बर पर हैं। उसके बाद होटल सी-व्यू फोन करना जहां के नम्बर तुम्हें मालूम हैं। मालूम हैं या भूल गये?”

“मालूम, बाप। बरोबर याद। उधर का तो तुम्हेरा जेबी फोन का नम्बर भी मेरे को याद।”

“बढ़िया। तुम्हें फोन लगाने की मेरी असल मंशा यही थी कि अब तुम्हें सुमन और सूरज के लिये हलकान होने की जरूरत नहीं। अब मैं जल्दी में हूं इसलिये फोन रख रहा हूं।”

“कोई वान्दा नहीं, बाप।”

सूरत को निहायत फिक्रमन्द बनाये हुमने माहिम पुलिस स्टेशन पहुंचा।

तब उसने अपनी कमीज के बटन बन्द कर लिये हुए थे और सूट से मैच करती टाई लगा ली हुई थी।

“मेरा नाम रमेश वर्मा है।” — वो ड्यूटी आफिसर से बोला — “मैं दिल्ली से हूं। मैंने ‘100’ नम्बर पर फोन लगाया था तो मुझे यहां आने की राय दी गयी थी।”

असल में उसने ‘100’ नम्बर पर ऐसा कोई फोन नहीं किया था। कोली ने ‘100’ नम्बर पर लाश को क्योंकि माहिम क्रीक में तैरती बताया था इसलिये उसे यकीन था कि उस बाबत जो भी कार्यवाही हुई होगी, वो माहिम पुलिस स्टेशन से ही हुई होगी।

“क्यों फोन किया था?” — ड्यूटी आफिसर बोला — “क्या राय दी गयी थी? बात को जरा तरतीब से कहिये।”

“मेरी छोटी बहन वापिस नहीं आयी।”

“कहां से वापिस नहीं आयी?”

“जहां वो आज सुबह गयी थी।”

ड्यूटी आफिसर ने असहाय भाव से गर्दन हिलायी।

“आप बैठ जाइये।” — वो बोला।

“वो क्या है कि...”

“बैठ जाइये, जनाब। और ये लीजिये, पानी पीजिये। जरा अपने आप पर काबू कीजिये और ठीक से बताइये क्या प्राब्लम है आपकी?”

हुमने बैठा, गिलास छलकाते हुए उसने पानी पिया और फिर रूमाल निकाल कर चेहरे पर फिराया।

“कुछ तबीयत ठिकाने आयी?” — ड्यूटी आफिसर सहानुभूतिपूर्ण स्वर में बोला।

“जी हां।” — हुमने बोला — “जी हां।”

“अब कहिये, क्या कहना चाहते हैं?”

“मैं दिल्ली से हूं। अपनी नौकरी के सिलसिले मे यहां आया था। मेरी छोटी बहन सुमन वर्मा मेरे साथ आयी थी। आज सुबह वो सायन के इलाके में रहती अपनी किसी लोकल सहेली से मिलने गयी थी। लंच तक लौट आने को बोल कर गयी थी लेकिन सूरज डूब जाने तक नहीं लौटी थी। घबरा कर मैंने ‘100’ नम्बर पर फोन लगाया और वहां इस बाबत बताया। वहां से मुझे राय दी गयी थी कि मैं माहिम पुलिस स्टेशन पहुंचूं।”

“आपको ठीक राय दी गयी थी। वो क्या है कि हमने माहिम क्रीक से एक नौजवान लड़की की लाश बरामद की है।”

“हे भगवान! कहीं वो सुमन तो नहीं?”

“अभी क्या कहा जा सकता है! आप अपनी बहन की उम्र, हुलिया वगैरह बयान कीजिये और बताइये कि जब वो घर से निकली थी तो क्या पहने थी?”

हुमने ने अपनी दरिन्दगी के शिकार का हुलिया वगैरह बयान किया।

तत्काल ड्यूटी आफिसर का चेहरा गम्भीर हो उठा।

“जनाब!” — हुमने व्याकुल भाव से बोला — “क्या... क्या...”

“आपकी बहन ड्रग्स की आदी थी?”

“ड्रग्स!”

“मसलन हेरोइन? एल.एस.डी.?”

“हे भगवान! सुमन तो ऐसी चीजों का नाम भी नहीं जानती थी!”

“जिस लड़की की लाश हमने बरामद की है, वो हेरोइन के नशे के हवाले थी। उसकी बाईं कलाई पर सिरिंज का पंचर मार्क साफ दिखाई दे रहा था। लेकिन वैसा मार्क कलाई पर एक ही था। लगता था उसने पहली ही बार ड्रग्स का आनन्द लेने की कोशिश की थी, नशा उससे सम्भाला नहीं गया था और वो पुल पर से समुद्र में जा गिरी थी।”

“लेकिन मेरी बहन तो...”

“सोहबत बिगाड़ती है, जनाब, सोहबत बिगाड़ती है। हो सकता है, उसकी सहेली ड्रग एडिक्ट हो। आप इस बाबत कुछ जानते हैं?”

“जी नहीं। मैं तो सहेली को ही नहीं जानता।”

“आपको एक अनजाने शहर में अपनी बहन को अकेले कहीं नहीं भेजना चाहिये था।”

“अब मुझे क्या मालूम था कि...”

“तैरना जानती थी आपकी बहन?”

“नहीं।”

“यहां आप कहां ठहरे हुए हैं?”

“घाटकोपर में। अपने एक दोस्त के यहां।”

“दोस्त का नाम?”

“जीवराज हुमने।”

“पता?”

हुमने ने अपना ही पता बोल दिया।

“लाश मोर्ग में है।”

“मोर्ग?”

“मुर्दाघर। जहां कि उसका पोस्टमार्टम हुआ है।”

“पो... पोस्टमार्टम!”

“चीरफाड़। जो कि मौत की वजह जानने के लिये सरकारी डाक्टर करता है। पोस्टमार्टम से ही मालूम हुआ है कि वो डूब कर मरी थी और डूबते वक्त हेरोइन के नशे में थी।”

“हे भगवान! हे भगवान!”

“पोस्टमार्टम रिपोर्ट बस आपके आगे आगे ही यहां पहुंची थी।”

“जनाब, आप तो मेरा दिल दहला रहे हैं! जरूरी थोड़े ही है कि वो लाश मेरी बहन की हो!”

“पोशाक मिलती है, उम्र मिलती है, हुलिया मिलता है।”

“लेकिन आदतें नहीं मिलती। मेरी बहन का ड्रग्स से क्या लेना देना! वो सायन गयी थी, माहिम क्रीक पर उसका क्या काम!”

“आपको लाश की शिनाख्त करनी होगी।”

“नहीं, नहीं। वो मेरी बहन नहीं हो सकती।”

“फिर भी शिनाख्त करनी होगी। लाश आपकी बहन की नहीं, ये भी तो आप तभी जानेंगे, जबकि आप उसे देखेंगे।”

“हे भगवान!”

“दिल मजबूत कीजिये, मिस्टर वर्मा, ये जरूरी है।”

“जरूरी है तो...”

हुमने जानबूझ कर खामोश हो गया और यूं जाहिर करने लगा जैसे एकाएक उसका गला रुंध गया हो।

“वो मुर्दाघर बान्द्रा में है। मैं आपको वहां भिजवाने का इन्तजाम करता हूं।”

हुमने ने सहमति में सिर हिलाया।

नीलम ने सूरज को भींच कर गले से लगाया और रोने लगी।

“रोती क्यों है?” — विमल बोला — “सूरज से मिल रही है, ये रोने की बात है या खुश होने की बात है?”

“चुप करो, जी।” — नीलम बोली — “तुम्हें क्या मालूम मैं कितनी खुश हूं!”

“इतनी खुश है कि सुमन को भूल गयी।”

तत्काल नीलम संजीदा हुई।

“वो” — विमल फिरोजा से सम्बोधित हुआ — “कतई कुछ बोल कर नहीं गयी थी कि वो कहां जा रही थी?”

“नहीं।” — फिरोजा बोली — “खाली इतना ही बोला कि इधर एक दो जगह उसकी निगाह में थीं जहां कि कौल साहब होना सकता।”

“लौट के आने का क्या बोली थी?”

“बोली तो कुछ नहीं थी पण बातों से साफ लगता था कि जल्दी लौट के आना मांगता था। इसी वास्ते जाते वक्त खाने को नक्को बोला।”

“लौटी तो नहीं! दिन से रात हो गयी है।”

“आई माइसैल्फ एम वरीड, मैन।”

“ये एयरबैग उसका है?”

“हां।”

विमल ने हिचकिचाते हुए बैग खोला और उसके भीतर का सामान टटोला तो रिवॉल्वर उसके हाथ में आयी।

फिरोजा के नेत्र फैले।

“गन!” — वो बोली।

“इसका सुमन के सामान में होना ही साबित करता है” — विमल गम्भीरता से बोला — “कि दिल्ली में वो अपने आपको भारी खतरे में महसूस कर रही थी। इसीलिये सूरज के साथ वहां से कूच कर जाने में ही उसने अपनी और सूरज की भलाई जानी। इधर वो रिवॉल्वर पीछे छोड़ गयी, इससे लगता है कि वैसा खतरा वो इधर मुम्बई में महसूस नहीं कर रही थी।”

“मैन, तुम भी तो घोस्ट का माफिक फिरता है! तुम्हारा बेबी उसका पास, फिर भी उसको इधर का अड्रैस बोल कर नहीं रखा!”

“नौबत ही न आयी, फिरोजा। पहले मेरे को ही नहीं मालूम था कि इधर मेरा पता क्या था! जब तक कहीं सैटल हुआ तो दिल्ली बात न हो सकी।”

“इधर काहे नहीं आया?”

“आया था न एक बार! मौत का पैगाम लेकर?”

“मौत का पैगाम नहीं, मैन, जिन्दगी का वरदान लेकर आया। खुद को गजरे के सामने खड़ा करके तुम यतीमखाने के सौ बच्चों का जान बचाया। तुम सरन्डर न करता तो गजरे सब को मार डालता।”

“फिरोजा, ये सब लीपापोती की बातें हैं। असल में जो किया, पेस्टनजी की बेमिसाल कुरबानी ने किया। उसने...”

“उन बातों का इस वक्त कोई मतलब नहीं, मैन। इस वक्त तुम्हें पेस्टनजी की नहीं, सुमन की सोचना मांगता है।”

“हां। फिरोजा अगर हम सुमन के लौटने के इन्तजार में कुछ अरसा इधर ही रुकें तो...”

“आई विल भी माइटी ग्लैड। पण मेरा एक कंडीशन।”

“क्या?”

“डिनर इधर ही होयेंगा।”

“मंजूर।”

मुर्दाघर के अटेन्डेन्ट ने बैड जैसे एक स्ट्रेचर पर पड़ी लाश के चेहरे पर से चादर हटाई।

हुमने ने लाश पर एक निगाह डाली और पछाड़ खाकर लाश के ऊपर गिरा।

“सुमन! मेरी बहन!” — वो रोने बिलखने का अद्वितीय अभिनय करता बोला — “ये क्या हो गया तुझे! ये क्या...”

साथ आये सब-इन्स्पेक्टर ने, जिसका नाम रावले था, जबरन उसे लाश से परे खींचा।

“आपने पहचाना?” — वो बोला।

“हां।” — हुमने रुंधे कण्ठ से बोला।

“क्या पहचाना?”

“ये मेरी बहन है।”

“पक्की बात?”

“जनाब, मैं मांजायी को नहीं पहचानूंगा? ये मेरी बहन सुमन वर्मा है।”

“हूं।”

सब-इन्स्पेक्टर ने अटेन्डेन्ट को इशारा किया।

अटेन्डेन्ट ने चादर को पूर्ववत् लाश के सिर तक खींच दिया।

“ये” — हुमने बोला — “ये अब...”

“आइये, बाहर चल के बात करते हैं।”

सहमति में सिर हिलाता वो सब-इन्स्पेक्टर के साथ हो लिया। दोनों पुलिस की जीप के करीब पहुंच कर ठिठके।

“मैं” — सब-इन्स्पेक्टर खेदपूर्ण स्वर में बोला — “आपको वापिस थाने तक ही ले जा सकता हूं।”

“आप मेरी फिक्र न करें।” — हुमने बोला — “मैंने जहां जाना होगा, चला जाऊंगा।”

“रात भर यहीं बैठे रहने का इरादा तो नहीं आपका?”

हुमने ने उत्तर न दिया।

“लगता है, ऐसा ही कुछ है आपके जेहन में। लेकिन ऐसा करना नादानी होगी।”

“मेरी बहन यहां अकेली...”

“जब जिन्दा थी तो बहन थी। अब कुछ नहीं है। कल पंचतत्व में विलीन हो जायेगी तो दो मुट्ठी राख ही पीछे बचेगी।”

“लेकिन...”

“मरने वाले के साथ नहीं मर जाता कोई। इस वक्त घर जाइये। सुबह लौट के आइयेगा और आकर इसके अन्तिम संस्कार का इन्तजाम कीजियेगा।”

“वो तो दिल्ली में होगा।”

“जी!”

“ऐसा कैसे हो सकता है कि मेरी विधवा मां को अपनी इकलौती बेटी के अन्तिम दर्शनों का भी मौका न मिले!”

“आप लाश को दिल्ली लेकर जायेंगे?”

“जी हां। हर हाल में। आप मुझे ये बताइये कि सुपुर्दगी कैसे होती है?”

“उसमें कोई दिक्कत नहीं होगी, क्योंकि पोस्टमार्टम हो चुका है और ‘दुर्घटनावश हुई मौत’ का सर्टिफिकेट पोस्टमार्टम करने वाला डाक्टर जारी कर चुका है। इधर का एडमिनिस्ट्रेटिव आफिस सुबह नौ बजे खुलता है। तब मैं भी आपको इधर ही मिलूंगा। मैं बड़ी हद आधे घन्टे में आपको कागजी कार्यवाही से फारिंग करा दूंगा।”

“लाश अभी नहीं मिल सकती?”

“अभी कैसे मिल सकती है? कौन देगा? इधर तो एक अटेन्डेन्ट के अलावा कोई भी नहीं है!”

“वो क्यों है?”

“क्योंकि मुर्दाघर चौबीस घन्टे खुलता है। वो इधर न होता तो आप लाश की शिनाख्त कैसे कर पाये होते?”

“ओह!”

“लाश दिल्ली कैसे ले जायेंगे आप?”

“कैसे क्या मतलब?”

“आप प्लेन फेयर अफोर्ड कर सकते हैं?”

हुमने ने हिचकिचाने का अभिनय किया।

“आठ सौ मील का फासला आप बाई रोड तय करने की कोशिश करेंगे तो दिल्ली पहुंचने तक लाश की हालत बहुत बद् हो जायेगी।”

“लेकिन प्लेन फेयर...”

“आपका प्लेन में जाना जरूरी नहीं। आप लाश को प्लेन से बुक करा सकते हैं और खुद ट्रेन से जा सकते हैं।”

“ओह!”

“दिन में एक ताबूत ठोकने वाला इधर ही होता है। उसे तजुर्बा है कि प्लेन से ले जाने के लिये लाश को कैसे पैक किया जाता है। वो पुलिस के सामने लाश को ताबूत में बन्द करेगा और पुलिस ताबूत पर अपनी सील लगायेगी। पुलिस की सील की वजह से लाश को प्लेन से बुक कराने में आपको कोई दिक्कत नहीं होगी।”

“लेकिन उधर दिल्ली में छुड़ाने में...”

“कोई प्राब्लम नहीं होगी। कार्गो बुकिेंग से मिलने वाली कनसाइनीज कापी को आप दिल्ली में कहीं फैक्स कर सकते हैं जहां कि वो आपके घर वालों को मिल जाये। दिल्ली में फैक्स का कोई इन्तजाम है आपकी निगाह में?”

“है तो सही! जहां मैं नौकरी करता हूं, वहां फैक्स है।”

“फिर क्या प्राब्लम है?”

“कोई प्राब्लम नहीं।”

“वैसे अगर आप भी प्लेन से जाना अफोर्ड कर सकें तो बात ही क्या है!”

“मैं सोचूंगा इस बाबत।”

“तो अब इधर से चलें?”

हुमने ने सहमति में सिर हिलाया।

रात दस बजे यतीमखाने के फोन की घन्टी बजी।

फिरोजा ने फोन सुना।

“सुमन है?” — विमल आशापूर्ण स्वर में बोला।

“नहीं।” — फिरोजा माउथपीस पर हाथ रख कर बोली — “सलाउद्दीन। उसी को पूछ रहा है।”

“सलाउद्दीन सुमन को पूछ रहा है?” — विमल हैरानी से बोला।

“यस।”

“फोन मुझे दो।”

फिरोजा ने उसे फोन थमा दिया।

“बड़े मियां को मेरा सलाम पहुंचे।” — विमल माउथपीस में बोला — “आपका खादिम कौल बोलता हूं।”

“अरे, भाई कहां छुपे बैठे हो मुम्बई में?” — सलाउद्दीन की आवाज आयी — “तुम्हारे लिये तो कुओं में जाल डलवाने की कसर न छोड़ी मैंने। कहीं भी तो मिल के न दिये! सुमन के लिये यतीमखाने फोन लगाया तो जाना कि तुम वहां बैठे हो।”

“क्या माजरा है?”

“दोपहरबाद सुमन नाम की एक नौजवान लड़की यहां ‘मराठा’ में आयी थी। खुद को तुम्हारी बहन बताती थी। बड़ी शिद्दत से तुम्हें तलाश कर रही थी। कई जगह टक्करें मार आयी थी तुम्हारी खातिर। मैंने उसे ये कह के वापिस भेज दिया था कि अगर तुम मुम्बई में थे तो मैं तुम्हें तलाश कर लूंगा। ”

“कैसे कर लेते?”

“इरफान की मार्फत कर लेता तो कर लेता। और तो कोई जरिया था नहीं निगाह में। दोपहरबाद से ही मेरे तीन साहबजादे इरफान की देहरी पर शिफ्ट में निगाहबानी कर रहे हैं लेकिन दिन से रात हो गयी, दस बज गये, अभी तक वो ही घर वापिस नहीं लौटा। मैंने सुमन को यही खबर करने के लिये फोन किया था कि अभी तक तो तुम्हारी तलाश में हम नाकाम ही थे। अब देखो कि बात तुम्हारे से ही हो रही है। बहरहाल अन्त भला सो भला। अब जबकि लड़की से तुम्हारी मुलाकात हो ही गयी है तो मैं भी अपने बेटों को निगाहबीनी से फारिग कराता हूं।”

“सलाउद्दीन, सुमन मुझे नहीं मिली है। वो यहां नहीं पहुंची है।”

“ये कैसे हो सकता है! वो तो सीधी यहां से वापिस चर्चगेट गयी थी!”

“वो यहां नहीं पहुंची।

“कमाल है!”

“कहीं और जाने को तो नहीं कह रही थी?”

“नहीं तो! फिर भी कहीं गयी होती तो वहां से भी तो उसे कब का लौट आया होना चाहिये था!”

“वो नहीं लौटी। मुझे उसकी भारी फिक्र सता रही है।”

“कोलीवाड़े और चर्चगेट के बीच में कहीं गायब हो गयी?”

“क्या पता क्या हुआ लेकिन...”

“है सच में तुम्हारी बहन ही वो?”

“और क्या मैं अपना बच्चा किसी गैर के हवाले कर देता?”

“वो तो है। ...कहीं एक्सीडेंट न हो गया हो! तुम पुलिस से पता करो। उन्हें एक्सीडेंट्स की खबर होती है।”

“करता हूं।”

“जो मालूम हो, उसकी खबर मुझे भी करना। अल्लाह खैर करे, सच में ही कुछ हो न गया हो इतनी भली लड़की को।”

“करूंगा।”

विमल ने सम्बन्धविच्छेद करके ‘100’ नम्बर डायल किया।

तुरन्त उत्तर मिला।

“मेरा नाम कौल है।” — विमल बोला — “मैं चर्चगेट से बोल रहा हूं। मेरी छोटी बहन दोपहरबाद की इधर से निकली अभी तक घर नहीं लौटी है। कोलीवाड़े के ‘मराठा’ होटल से चर्चगेट की ओर उसकी वापिसी की हमारे पास तसदीक है। हमे अन्देशा है कि रास्ते में वो किसी एक्सीडेंट की शिकार न हो गयी हो। क्या इस बाबत आप हमारी कोई मदद कर सकते हैं?”

“होल्ड कीजिये।”

विमल रिसीवर कान से लगाये रहा।

“हल्लो।” — एक मिनट बाद आवाज आयी।

“यस!” — विमल व्यग्र भाव से बोला।

“दोपहरबाद से अब तक उस रिजन से किसी रोड एक्सीडेंट की रिपोर्ट नहीं है।”

“रोड एक्सीडेंट न सही, किसी और तरीके से किसी गुमशुदा लड़की की बाबत कोई रिपोर्ट आपके पास पहुंची हो? कोई और फैटल या नियर फैटल केस आप लोगों के नोटिस में आया हो?”

“फिर होल्ड कीजिये।”

इस बार विमल को लम्बा होल्ड करना पड़ा।

“माहिम क्रीक से एक लड़की की लाश निकाली गयी थी” — आखिरकार जवाब मिला — “लेकिन उसकी शिनाख्त हो भी चुकी है।”

“आई सी। बाई दि वे, कौन थी वो?”

“कोई ड्रग एडिक्ट थी जो कि नशे की हालत में समुद्र में जा गिरी थी और डूब गयी थी। पोस्टमार्टम से उसके नशे में होने की तसदीक हुई है। उसके सगेवाले मोर्ग में जाकर लाश की शिनाख्त कर चुके हैं।”

“ओह!”

“फरदर डिटेल्स के लिये आप माहिम पुलिस स्टेशन के एस.एच.ओ. को फोन कर सकते हैं।”

“क्या फायदा! जब लाश की शिनाख्त हो भी चुकी है, जब उसके रिश्तेदार उसके पास पहुंच भी चुके हैं तो वो हमारी बहन तो नहीं हो सकती!”

“वो तो है।”

“थैंक्यू आल दि सेम।”

विमल ने रिसीवर वापिस क्रेडल पर रख दिया।

कहां गायब हो गयी थी सुमन?

अब क्या चारा था उनके पास उसके खुद ही लौट आने का इन्तजार करने के अलावा?

“द डिनर इज सर्व्ड।” — फिरोजा बोली।

सख्त मायूसी और नाउम्मीदी के माहौल में विमल और नीलम का फिरोजा, उसके बेटे आदिल और बेटी यासमीन के साथ डिनर हुआ जो कि बहुत लजीज होते हुए भी उन हालात में बद््मजा था।

आधी रात के करीब एक कार पर सवार हुमने और कोली मुर्दाघर पहुंचे।

उनके साथ कार में एक तीसरा आदमी भी सवार था जिसे हुमने ने कहा — “इधर ही रहना। बुलाने पर आना।”

उस आदमी ने सहमति में सिर हिलाया।

दोनों कार से निकल कर इमारत में दाखिल हुए।

जैसी कि हुमने को उम्मीद थी, आधी रात को वहां वही अटेंडेंट ड्यूटी भर रहा था जो कि उसके पुलिस के साथ पहले फेरे में उसे वहां मिला था। मुर्दाघर के हाल के बन्द दरवाजे के बाहर गलियारे में एक कुर्सी मेज लगी हुई थी जिस पर वो मेज पर सिर डाले ऊंघता सा पड़ा था।

आहट सुन कर उसने सिर उठाया।

“वैस्टर्न एक्सप्रैस हाइवे पर एक एक्सीडेंट हो गया है।” — हुमने बोला — “हमारा एक रिश्तेदार मारा गया है। कन्ट्रोल रूम से खबर लगी है कि लाश इधर पहुंचने वाली है। अभी कोई लाश इधर पहुंची?”

“नहीं।” — अटेंडेंट बोला — “तीन घन्टे से इधर कोई केस नहीं आया।”

“अरे, भीड़ू। मैं तीन घन्टे की बात नहीं पूछ रहा हूं। क्योंकि ग्यारह के बाद तो एक्सीडेंट हुआ ही है!”

“क्यों, भई? जब मैं बोला कि तीन घन्टे से इधर कोई केस नहीं आया तो तुम्हारे वाला टाइम अपने आप शामिल न हो गया इसमें?”

“यार तू तो नाराज हो रहा है!”

“तुम लोग बातें ही ऐसी करते हो।”

“यार, घर का बन्दा मर गया है हमारा। मातम में हैं। दिमाग ठिकाने नहीं है। ऐेसे माहौल में जुबान से कोई ऊंच नीच निकल ही जाती है।”

“वान्दा नहीं।” — इस बार अटेंडेंट नम्र स्वर में बोला।

“इधर कोई गिलास-विलास मिल सकता है?”

“वो किसलिये?”

“बता, भई” — हुमने कोली से बोला — “किसलिये!”

कोली ने जैकेट की जेब से तीन चौथाई भरी हुई विेस्की की बोतल बरामद करके उसे दिखाई।

“दो गिलास और पानी मिल जाये” — हुमने बोला — “तो इन्तजार आसान हो जाये।”

अटेंडेंट ने ललचाई आंखों से बोतल की तरफ देखा लेकिन मुंह से कुछ न बोला।

“खुद भी पीता हो तो तीन।” — कोली अर्थपूर्ण स्वर में बोला।

अटेंडेंट उछल कर खड़ा हुआ। दो मिनट में वो तीन गिलास और एक पानी का जग ले आया।

अगले दस मिनटों में बोतल खाली हो गयी। बोतल यूं खाली हुई कि दो तिहाई अटेंडेंट के पेट में गयी और एक तिहाई उन दोनों ने पी।

“तुम्हारा केस तो आया नहीं!” — अटेंडेंट नशे में थरथराती आवाज में बोला।

“आ जायेगा।” — हुमने लापरवाही से बोला — “हम कार में जा के बैठते हैं। मुर्दागाड़ी इधर पहुंचेगी तो आयेंगे।”

“ठीक है।”

दोनों वहां से हटे और फिर इमारत से निकल कर बाहर कम्पाउन्ड में आ गये।

पांच मिनट बाद हुमने अकेला इमारत में दाखिल हुआ। वो अटेंडेंट के करीब पहुंचा तो उसने उसे घनघोर नींद के हवाले पाया। वो मेज के पीछे उसकी कुर्सी के पहलू में पहुंचा। उसने मेज का इकलौता दराज बाहर खींचा तो उसे भीतर पड़ा चाबियों का गुच्छा दिखाई दिया। उसने गुच्छा उठा कर दराज बन्द कर दिया और वापिस हाल के बन्द दरवाजे की तरफ आकर्षित हुआ। गुच्छे में पांच छ: चाबियां थीं जिनमें से दूसरी ही उस दरवाजे के ताले को लग गयी।

दबे पांव वो वापिस इमारत के प्रवेश द्वार पर पहुंचा।

कोली ने उसकी तरफ देखा।

उसने कोली को हाथ से इशारा किया और वापिस लौटा। वो निशब्द हाल में दाखिल हुआ और उस स्ट्रेचर बैड के करीब पहुंचा जिस पर कि सुमन की लाश पड़ी थी। उसने लाश पर से चादर खींच कर फर्श पर डाल दी और जेब से टार्च निकाल कर उसकी रोशनी उस पर डाली। जैसा कि पोस्टमार्टम के बाद अपेक्षित होता था, उसने लाश को मोटे मोटे सर्जिकल स्टिचिज के साथ गले से लेकर पेट तक सिला पाया।

तभी कोली और तीसरा आदमी वहां पहुंचे। दोनों के हाथों में बड़े बड़े बैग थे। दोनों ने बैग लाश की टांगों के करीब आजू बाजू रख दिये।

“मैं दरवाजे पर खड़ा होता हूं।” — कोली फुसफुसाया।

“यहीं खड़ा रह।” — वैसे ही दबे स्वर में हुमने ने उसे घुड़का।

“वो जाग गया तो...”

“तो मरेगा। यहीं लाशों में लाश बना पड़ा होगा।”

“फिर भी...”

“यहीं खड़ा रह।”

“मेरे से ये नजारा नहीं देखा जायेगा।”

“मालूम। तभी खिसकने की जुगत कर रहा है। चुपचाप खड़ा रह। तेरी इधर जरूरत है।”

बेचैनी से पहलू बदलता कोली खामोश हो गया।

“तू शुरू कर, भई, अपना काम।”

तीसरे आदमी ने सहमति में सिर हिलाया और अपना बैग खोला। बैग में से उसने कुछ सर्जरी में काम आने वाले औजार निकाल कर स्ट्रेचर पर रखे। फिर कैंची उठा कर वो लाश के टांके काटने लगा।

हुमने टार्च की रोशनी लाश पर स्थिर किये रहा।

कुछ ही क्षण बाद लाश की छाती पेट वगैरह सब खुला पड़ा था।

तीसरे व्यक्ति ने पेट में से आंतें बाहर खींचनी शुरू कर दीं।

कोली ने जोर की उबकाई ली।

“खबरदार!” — हुमने सांप की तरह फुंफकारा।

कोली बड़ी मुश्किल से हलक तक पहुंची उल्टी को रोक पाया।

तीसरे व्यक्ति ने आंतें काट कर, दिल और लिवर निकाल कर सब आर्गन एक पोलीथीन की थैली में डाले और थैली आगे कोली को पकड़ा दी। कोली ने बिना थैली की तरफ निगाह उठाये उसके मुंह को बांधा और उसे फर्श पर डाल दिया। फिर उसने अपने वाला बैग खोला और उसका सामान निकाल‍ निकाल कर तीसरे आदमी को पकड़ाने लगा।

वो सामान छ: किलो प्योर, अनकट हेरोइन थी जो कि सौ सौ ग्राम की साठ थैलियों में बन्द थी।

तीसरा व्यक्ति उन थैलियों को लाश के खुले पेट और छाती में स्थानान्तरित करने लगा।

साठ की साठ थैलियां लाश में समा गयीं तो उसने बड़ी दक्षता से लाश को ऐन पहले की तरह सी दिया।

तब कहीं जा कर कोली के उड़े हुए हवास उसके काबू में आये।

तीसरे आदमी ने अपने तमाम औजार सम्भाले। उसने आंतों की थैली उस दूसरे बैग में रखी जो कि हेरोइन की थैलियां निकाल ली जाने के बाद खाली हो गया था।

“खतम?” — हुमने बोला।

तीसरे आदमी ने सहमति में सिर हिलाया।

“चादर डाल” — हुमने कोली से बोला — “और एक बैग सम्भाल।”

कोली ने आदेश का पालन किया।

तब हुमने ने आखिरी बार तसदीक की कि सब कुछ पूर्ववत् था और फिर टार्च बुझा दी।

“छ: करोड़ का मुर्दा!” — वो धीरे से बोला।

कोई कुछ न बोला।

“चलो।”

तीनों दबे पांव बाहर निकले।

मेज पर सिर डाले पड़ा अटेंडेंट उन्हें पहले से भी ज्यादा गहरी नींद में मिला।

हुमने ने हाल के दरवाजे को पूर्ववत् ताला लगाया और चाबियां वापिस मेज के दराज में डालीं।

वो बाहर की तरफ बढ़े।

वापिसी के लिये अभी उन्होंने पहला ही कदम उठाया था कि एकाएक अटेंडेंट ने मेज पर से सिर उठाया और बड़ी विचित्र निगाहों से उनकी तरफ देखा।

“क्या!” — वो बोला।

उसकी उस अप्रत्याशित हरकत से सदा सन्तुलित रहने वाला हुमने भी घबरा गया।

“क... क्या?” — बड़ी मुश्किल से उसके मुंह से निकला।

“तुम्हारा केस नहीं आया?”

“नहीं आया। वो क्या है कि...”

“ये तीसरा आदमी कौन है?”

“हमारा ही साथी है। यही हमें यहां बताने आया है कि हमारा केस इधर क्यों नहीं आया!”

“क्यों नहीं आया?”

“मलाड पहुंच गया। वहां जो सरकारी हस्पताल है, उसमें भी मुर्दाघर है। उधर पहुंच गया।”

“ओह! तो गये क्यों नहीं अभी? तुम तो कार में बैठे थे। इधर भीतर क्या कर रहे हो?”

“तेरे को चेताने आये थे।”

“काहे?”

“पूछता है काहे।” — तब तक सम्भल चुका हुमने दबंग स्वर में बोला — “अरे, मेज पर से बोतल, गिलास वगैरह नक्की करेगा या नहीं? कोई अफसर आ गया तो...”

“ओह! ठीक है। ठीक है।”

“हम चलते हैं।”

“ठीक है। बाहर का दरवाजा भिड़काते जाना।”

“जरूर।”

चैन की लम्बी सांस लेते तीनों वहां से रुखसत हुए।

तीनों कार में सवार हुए। कोली ड्राइविंग सीट पर, हुमने उसके पहलू में पैसेंजर सीट पर और तीसरा आदमी पीछे।

कार मेन रोड पर पहुंची तो हुमने के कहने पर कोली ने उसे रोका।

“तेरा काम खत्म।” — हुमने पीछे घूम कर बोला — “तू इधर ही उतर। दोनों बैग साथ ले के जा। आंतें वगैरह ठिकाने लगाना तेरा काम।”

“बाकी का रोकड़ा?” — पीछे बैठा आदमी बोला।

“ब्रजवासी ही देगा। कल सुबह उसके पास पहुंच जाना।”

सहमति में सिर हिलाता, दोनों बैग सम्भाले तीसरा आदमी कार से उतर गया।

तत्काल कोली ने कार आगे बढ़ाई।

आगे एक पेट्रोल पम्प था जिस पर चौबीस घन्टे चलने वाला एस.टी.डी. बूथ था।

वहां से हुमने ने दिल्ली काल लगायी।

“झामनानी साहब?” — जवाब मिला तो हुमने बोला।

“हां। वडी, कौन है, नी, तू जो आधी रात को मुझे फोन पर...”

“मुम्बई से हुमने बोलता है, बाप।”

“ओह! वडी, क्या खबर है, नी?”

“ऐन फिट खबर है, बाप। सब काम चौकस हो गया है। माल इन्डियन एयरलाइन्स की ग्यारह बजे की फ्लाइट से इधर से रवाना हो रहा है। माल छुड़ाने का जो पर्चा आपके पास होना चाहिये, वो सुबह फैक्स से पहुंच जायेगा।”

“वडी,फैक्स का पर्चा चलेगा, नी?”

“चलेगा। मैं इन्डियन एयरलाइन्स के लोकल आफिस से तसदीक कियेला है।”

“कोई माल के साथ उसी फ्लाइट से पर्चा ले के क्यों नहीं आता, नी?”

“वो जरूरी नहीं है। ऐसे माल सेफ है। बाप, मैं इधर ये जाहिर करेंगा कि भेजने वाला इधर की पुलिस का महकमा है। अब पुलिस वाले क्या ऐसे माल के साथ आते हैं!”

“ओह!”

“यही प्रोग्राम पक्का है, बाप। कल माल हाथ में आने में कोई दिक्कत पेश आयी तो मैं एडवांस में खबर करेंगा।”

“दिक्कत आयेगी, नी?”

“नहीं। एहतियातन बोला।”

“ओह! एहतियातन बोला।”

“नमस्ते।”

“वडी, जीता रह, नी।”

हुमने ने सम्बन्ध विच्छेद कर दिया।

***