एक ऑटो पर सवार होकर विमल तेलीवाड़े पहुंचा।
वहां तनवीर अहमद नाम का वो शख्स रहता था जो कहने को वकील था लेकिन असल में गैरकानूनी फायरआर्म्स का धन्धा करता था। ग्राहक बेहिचक पूरा पैसा भरने वाला हो और उसके पास माकूल हवाले से आया हो तो वो उसके लिये तोप तक मुहैया कर सकता था।
पिछली बार विमल उस तक सदर वाले हुसैन साहब के हवाले से पहुंचा था। वही हवाला उसने इस बार भी इस्तेमाल किया था। वहां आने से पहले वो तनवीर अहमद को हुसैन साहब के हवाले से फोन करके और अपनी जरूरत बयान करके आया था।
तनवीर अहमद पचास साल का, झोलझाल तन्दुरुस्ती वाला, ढीला-ढाला, दुबला-पतला आदमी था। उसने विमल को उसी पहले वाले आफिसनुमा कमरे में रिसीव किया जो कि कानून के सन्दर्भ ग्रंथों से भरा पड़ा था।
“अभी जिन्दा हैं, जनाब!” — विमल विनोदपूर्ण स्वर में बोला।
“अल्लाह का फजल है।” — तनवीर अहमद बोला।
“यानी कि मेरा ये कयास गलत निकला कि अपनी तमाम होशियारियों और फन्देबाजियों के बावजूद एक दिन आप यहीं अपने तमाम उलटे सीधे, आड़े तिरछे चलने वाले हथियारों के बीच मरे पड़े पाये जायेंगे!”
“मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है।” — उसने एक क्षण घूर कर विमल की तरफ देखा और फिर बोला — “तुमने भी तो खुदकुशी न की!”
“कैसे मालूम है?”
“भई, मेरे सामने बैठे हो।”
“ओह! ये बात तो मैं भूल ही गया था। वो क्या है कि चौवालीस कैलीबर की एफ-14 मॉडल की जो जर्मन रिवाल्वर आपने मुझे पिछली बार बेची थी, उसकी खूबियों से मुकम्मल तौर पर आप भी नावाकिफ थे। उस रिवाल्वर में एक खूबी यह भी थी कि वो बहुत वफादार थी, अपने ही मालिक पर चलने से साफ इनकार कर देती थी।”
“गोया अब तुम्हें ऐसी रिवाल्वर चाहिये जो इतनी वफादार न हो?”
“जी हां।”
“ताकि तुम फिर खुदकुशी की कोशिश कर सको?”
“जी हां।”
“कोई खास रिवाल्वर निगाह में है या मैं ही दिखाऊं अपनी मर्जी से कुछ?”
“खास रिवाल्वर निगाह में है।”
“कौन सी?”
“स्मिथ एण्ड वैसन। अड़तीस कैलीबर। चार इंज की नाल। छ: फायर करने वाली।”
उसने सहमति में सिर हिलाया।
“ले के आइये। लेकिन पिछली बार जैसी दुकानदारी न कीजियेगा। पहली ही बार में बेहतरीन आईटम निकालिये।”
“ऐसा ही होगा। पिछली बार मैं तुम्हें ठीक से समझ नहीं पाया था।”
“इस बार समझ लिया ठीक से?”
“हां।”
“गुड।”
“मैं खुद ‘खबरदार शहरी’ के कारनामों से बहुत मुतासिर था। वो बेचारा मर गया था तो पता चला था कि वो शिव नारायण पिपलोनिया नाम का एक रिटायर्ड कालेज प्रोफेसर था। ऍफ-14 मॉडल की मेरे पास दो रिवाल्वरें थीं जो कि एक दूसरे की जुड़वां मालूम होती थीं। उनमें से एक मैंने तुम्हें बेची थी और दूसरी पिपलोनिया को। वो दोनों रिवाल्वरें पिपलोनिया की लाश के करीब पड़ी पायी गयी थीं और दोनों से ही वैसी हालो प्वायंट बुलेट्स चलायी गयी थीं जिनके सौ राउन्ड मैंने तुम्हें बेचे थे। मैं वकील हूं। दो में दो जोड़ कर जवाब चार निकाल सकता हूं।”
विमल चुप रहा।
“मुझे अफसोस है कि पिछली बार मैंने तुम्हें कम करके आंका। तुम्हें गली मोहल्ले के स्तर का दादा करार दिया इसलिये झोलझाल माल भेजने की कोशिश की। इस बार ऐसा नहीं होगा। मैं तुम्हें टॉप की आइटम दिखाता हूं।”
“शुक्रिया।”
वो उठा और पिछवाड़े का एक बन्द दरवाजा खोल कर उसके पीछे ओझल हो गया। वो लौटा तो ऐन वैसी रिवाल्वर ले कर लौटा जैसी की तलाश में विमल वहां पहुंचा था।
“कीमत?” — विमल बोला।
“चालीस।”
“चालीस आप ने पिछ्ली बार लिये थे जब कि वो इस से कहीं फैंसी रिवाल्वर थी।”
“महंगाई बढ़ गई है।”
“चन्द महीनों में ही?”
“हां।”
“ठीक है। चालीस।”
“गोलियां?”
“उनके बिना रिवाल्वर किस काम की?”
“पहले जैसी ही? हॉलो प्वायन्ट?”
“नहीं। उतनी खास नहीं। लेकिन आम भी नहीं।”
तनवीर अहमद की भवें उठीं।
“कोई खूबी तो मैं इस बार भी चाहता हूं गोलियों में।”
“कैसी खूबी?”
विमल ने खूबी बयान की।
विमल मॉडल टाउन पहुंचा।
करीबी मार्केट के पी.सी.ओ. से उसने अपनी कोठी पर फोन किया लेकिन घन्टी बजते ही लाईन काट दी। एक मिनट बाद उसने फिर फोन किया और फिर लाइन काट दी। तीसरी बार उसने घंटी बजती रहने दी।
वह एक पूर्वनिर्धारित संकेत था जिससे सुमन जान सकती थी कि फोन करने वाला विमल था।
फोन सुमन ने उठाया।
“बात हो सकती है?” — वो बोला।
“नहीं।” — दबे स्वर में सुमन का जवाब मिला।
“मैं मार्केट में हूं।”
“रांग नम्बर।”
सम्बन्धविच्छेद हो गया।
विमल पी.सी.ओ. के बूथ से बाहर निकल आया, उसने अपना पाइप सुलगा लिया और प्रतीक्षा करने लगा।
कुछ क्षण बाद लपकती हुई सुमन वहां पहुंची।
“क्या खबर है?” — विमल बोला।
“करारी खबर है।” — सुमन बोली।
“क्या?”
सुमन ने बताया कि नीलम उससे क्या खास काम करवाना चाहती थी। विमल ने घड़ी देखी और बोला — “अभी तो बहुत टाइम है!”
“हां।” — सुमन बोली।
“उसने तुझे ट्रंक दिखाया?”
“हां।”
“ये बताया कि भीतर क्या था?”
“दीदी ने नहीं बताया लेकिन मैंने चोरी से खुद देखा।”
“क्या देखा?”
“ट्रंक नोटों से भरा पड़ा था।”
“क्या समझा?”
“कोई दीदी को ब्लैकमेल कर रहा है।”
“कौन?”
“जरूर वही लंगड़ा जिसे एक बार मैंने दीदी से मिलने के बाद कोठी से निकलते देखा था।”
“हूं। नीलम को वो निर्देश कैसे मिले जो उसने आगे तुझे ट्रांसफर किये?”
“जरूर चिट्ठी आयी होगी!”
“कैसे जाना?”
“मैंने कल दीदी की एक टेलीफोन काल बीच में सुनी थी। फोन करने वाले ने साफ कहा था की अब वो न कोठी में कदम रखेगा, न फोन करेगा क्योंकि उसे अन्देशा था की कोठी की निगरानी हो रही थी। उसने चिट्ठी भेजने की बात कही थी तो.....”
“वो सब तूने मुझे सुबह बताया था। तूने वो चिट्ठी देखी?”
“नहीं”
“कहां होगी वो चिट्ठी?”
“अगर दीदी ने फाड़ नहीं दी होगी तो...”
“नहीं फाड़ दी होगी। जिस चिट्ठी में रकम पहुंचाने की इतनी अहम हिदायतें लिखी हैं, उसको तो नीलम ने कई बार पढ़ा होगा ताकि कोई गलती न हो जाये, कोई कोताही न हो जाये।”
“....वो चिट्ठी दीदी अपने पास नहीं रखे होगी तो वार्डरोब में कहीं होगी।”
“वार्डरोब में?”
“हां।”
“तलाश करनी होगी। वहां नहीं तो जहां भी होगी, वहां से तलाश करनी होगी।”
“अगर चिट्ठी दीदी के पास हुई?”
“दुआ करो की ऐसा न हो।”
“मैं तलाशी लूं?”
“नहीं। तलाशी मैं लूंगा, क्योंकि मैंने वहां कुछ और भी तलाश करना है। लेकिन तलाशी के लिए मुझे मौका चाहिए।”
“मौका तो तैयार है!” — सुमन के मुंह से निकला।
“अच्छा!”
“हां। सूरज को पोलियो ड्राप्स दिलवाने के लिए डॉक्टर मिसेज कुलकर्णी के पास ले जाना है जो कि इस वक्त हनुमान रोड पर महाजन नर्सिंग होम में मिलेगी।”
“गुड। यानी कि तकरीबन एक घंटा पीछे कोई नहीं होगा?”
“हां। हम जाने की तैयारी कर ही रहे थे जब कि आप का फोन आया।”
“फिर तू जा वापिस।”
“जाती हूं। लेकिन ...”
“क्या लेकिन?”
“चिट्ठी घर में न मिली तो?”
“तो मुश्किल होगी। तो मुझे कुछ और सोचना होगा।”
“आप घर क्यों नहीं चलते? दीदी से सीधे बात क्यों नहीं करते?”
“है कोई वजह। जो तू नहीं समझेगी।”
“मैं समझूंगी नहीं या आप बताना नहीं चाहते?”
“एक ही बात है।”
“और नहीं तो सूरज की खातिर...”
“उसका जिक्र न छेड़ और भाग जा यहां से वरना मैं जज्बाती हो जाऊंगा और जो करना चाहता हूं, उसे करने की जगह कुछ और ही कर बैठूंगा। जा।”
वो चली गई।
कुछ क्षण बाद पाइप के कश लगाता विमल आगे बढ़ा और ऐसे स्थान पर जा खड़ा हुआ जहां से वो कोठी के प्रवेशद्वार को देख सकता था लेकिन उधर से उसे नहीं देखा जा सकता था।
वो प्रतीक्षा करने लगा।
थोड़ी देर बाद कोठी का दरवाजा खुला और नीलम और सुमन बाहर निकलीं। सूरज सुमन की गोद में था जो जाकर एम्बेसडर की पैसेंजर सीट पर बैठ गयी। नीलम ने कोठी के मुख्यद्वार को ताला लगाया और वो भी कार में सवार हो गयी।
दाता!
भाग्य की कैसी विडम्बना थी कि अपनी औलाद के इतना करीब होते हुए भी वो उसका मुंह नहीं देख सकता था!
और कुछ क्षण बाद कार सड़क पर दौड़ी चली जा रही थी।
विमल ने उसको दृष्टि से ओझल हो जाने दिया और फिर सड़क पार करके कोठी पर पहुंचा। उसने पाइप को बुझा कर जेब में रख लिया और जेब से चाबियों का गुच्छा निकाला। कोठी की चाबियों का एक सैट उसके पास भी उपलब्ध था, आखिर वो उस घर का कर्ता था और कल तक वहीं रहता था। चाबी लगा कर उसने कोठी का प्रवेशद्वार खोला और भीतर दाखिल हुआ। उसने अपने पीछे दरवाजा बंद किया और सीधा नीलम के बैडरूम में पहुंचा।
उसने वहां की वार्डरोब को ताला लगा पाया लेकिन उसकी भी चाबी उसके गुच्छे में मौजूद थी। उसने वार्डरोब को खोला। भीतर एक बंद दराज था। उसने उसे अपनी तरफ खींचा तो उसे भी ताला लगा पाया। उस दराज की चाबी उसके पास नहीं थी लेकिन ताला मामूली था जिसे उसने किचन से एक पतले फल का चाकू लाकर बड़ी सहूलियत से खोल लिया।
उसने दराज के भीतर निगाह डाली तो सबसे पहले उसे अड़तीस कैलीबर की ऐन वैसी स्मिथ एण्ड वैसन रिवाल्वर दिखाई दी जैसी कि वो तभी तनवीर अहमद से खरीदा कर लाया था। दोनों रिवाल्वरों में कोई फर्क था तो ये कि दराज वाली रिवाल्वर लाइसेंसशुदा थी, उस घर के स्वामी शिव नारायण पिपलोनिया की जिंदगी में उसकी मिल्कियत थी और अब वो मिल्कियत विमल के पास ट्रांसफर हो चुकी थी क्योंकि पिपलोनिया कानूनी तौर से उसे अपना वारिस करार देकर मरा था। करीब ही एक छोटा सा डिब्बा पड़ा था जिसमें, विमल जानता था कि, उस रिवाल्वर की अड़तीस कैलीबर की गोलियां थीं।
लेकिन फिलहाल उसकी तवज्जो का मरकज वो रिवाल्वर नहीं थी, फिलहाल उसे चिट्ठी की तलाश थी।
चिट्ठी मिली। शुक्र था कि उस दराज से ही मिली।
उसने लिफाफे में से चिट्ठी निकाल कर उसे खोला और गौर से मुआयना किया।
चिट्ठी टाइपशुदा थी। वो एक फूलस्केप कागज पर डबल स्पेस दे कर टाइप की गई थी। अक्षरों के उभार से लगता था कि वो किसी पुराने, खड़खड़, घिसे हुए रिबन वाले टाइपराइटर पर टाइप की गयी थी। उस पर न पाने वाले का नाम या उसके लिए कोई संबोधन था और न भेजने वाले का नाम या हस्ताक्षर थे। चिट्ठी में दो टूक अन्दाज में लिखा था :
उम्मीद है कि रकम को मेरे तक पहुंचाने के लिये कोई मुनासिब और भरोसे का शख्स तुमने अब तक छांट लिया होगा। वो जो कोई भी हो, उसके लिये हिदायत है कि वो पांच लाख की रकम के साथ ठीक सात बजे मॉडल टाउन से एक टैक्सी पर सवार हो और गोल डाकखाने पहुंचे। वहां डाकखाने में प्रवेश द्वार के सामने तीन लोकल टेलीफोन बूथ हैं। वो उनमें से बीच के टेलीफोन बूथ पर पहुंचे जहां ठीक पौने आठ बजे उसके लिए टेलीफोन आयेगी जिसके जरिये उसे बताया जायेगा कि रकम की डिलीवरी की बाबत उसने अगला कदम क्या उठाना था! हो सकता है जब तुम्हारा हरकारा वहां पहुंचे तो उसे वो टेलीफोन बूथ बिजी मिले। ऐसा होने पर उसने बूथ का टेलीफोन फ्री होने का इन्तजार करना है और फिर फोन आने तक उसे खुद काबू में करके रखना है। उसे बूथ खाली मिले तो उसने फौरन उस पर कब्जा कर लेना है, भीतर मौजूद रह कर टेलीफोन करते होने का बहाना करना है लेकिन असल में लाइन को फ्री रखना है ताकि निर्धारित वक्त पर उस लाइन पर इनकमिंग काल आ सके।
इस हिदायत पर पूरी जिम्मेदारी से अमल हो। हरगिज भी कोई कोताही न हो।
कोठी में एक पोर्टेबल टाइपराइटर मौजूद था जो कि अपनी जिन्दगी में पिपलोनिया इस्तेमाल किया करता था और जो उसके बैडरूम में उसकी स्टडी टेबल पर पड़ा रहता था। उसकी मौत के बाद जब विमल ने कोठी में रहना शुरू किया था तो उसने वो टेबल और टाइपराइटर स्टोर में रखवा दिये थे।
वो स्टोर में पहुंचा और वहां से टाइपराइटर निकाल लाया। उसने चिट्ठी को रोलर पर चढ़ाया और उसमें जहां ‘पांच’ लिखा था, वहां लकीर फेर उसकी जगह उसके ऊपर ‘सात’ टाइप कर दिया।
यूं पांच लाख की रकम की मांग सात लाख की बन गयी।
उसने कागज को रोलर में से बाहर खींचा, उसे मोड़ कर वापिस लिफाफे में डाला और लिफाफा यथास्थान रख दिया।
टाइपराइटर को वो वापिस स्टोर में रख आया।
फिर उसने वो ट्रंक तलाश किया जिसमें बन्द करके पांच लाख की रकम मुबारक अली ने वहां पहुंचाई थी।
ट्रंक भी उस वार्डरोब में से ही बरामद हुआ।
उसने ट्रंक को खोला, अपने बैग में से सौ सौ के नोटों की गड्डियों की सूरत में दो लाख रुपये बरामद किये और उन्हें ट्रंक में डाल दिया। यूं ट्रंक नोटों से खचाखच भर गया।
अब उसमें पांच की जगह सात लाख रुपये थे।
उसने ट्रंक को बन्द किया और उसे बदस्तूर वार्डरोब में पहुंचा दिया।
गुड! — संतुष्टिपू्र्ण ढंग से सिर हिलाता वो मन ही मन बोला।
आखिर में वो दराज में पड़ी रिवाल्वर की ओर फिर आकर्षित हुआ।
सात बजने को थे जब कि एक टैक्सी कोठी के सामने आ कर रुकी। ड्राइवर ने एक बार हौले से टैक्सी का हार्न बजाया।
नीलम ने वो टैक्सी मॉडल टाउन के टैक्सी स्टैंड पर फोन करके तलब की थी लेकिन वो नहीं जानती थी कि टैक्सी स्टैण्ड पर से नहीं आयी थी। उस टैक्सी को मुबारक अली का एक और भांजा अशरफ चला रहा था जो कि था ही टैक्सी ड्राइवर।
वस्तुतः उस काम को मुबारक अली खुद अंजाम देना चाहता था लेकिन विमल उस हक में नहीं था क्योंकि आगामी घटनाक्रम भारी प्रचार पाने वाला था और उसमें टैक्सी ड्राईवर की अखबारों में तसवीर छपना भी लाजिमी था। मुबारक अली फरार अपराधी था, उसकी तसवीर नेशनल डेलीज में छपना उसके लिए घातक साबित हो सकता था। उसकी सूरत की मौजूदा तब्दीलियों के बावजूद तसवीर से उसे कोई पहचान सकता था। नतीजतन उस अहम काम को अंजाम देने के लिए मुबारक अली ने अपनी जगह अशरफ को तैयार किया था।
ट्रंक उठाये सुमन कोठी से बाहर निकली और टैक्सी में सवार हो गयी।
पीछे नीलम बड़े सशंक भाव से दरवाजे की ओट से उसे जाता देख रही थी।
“गोल डाकखाना।” — सुमन बोली।
अशरफ ने खामोशी से सहमति में सर हिलाया और फिर टैक्सी को आगे बढ़ाया।
संयोगवश रास्ते में ट्रैफिक कम था इसलिए निर्धारित समय से पहले ही टैक्सी गोल डाकखाना पहुंच गयी।
“रुकना पड़ेगा।” — सुमन बोली।
अशरफ ने सहमति में सिर हिलाया।
सुमन बार बार घड़ी देखती प्रतीक्षा करने लगी।
पौने आठ बजने में दो मिनट रह गये तो ट्रंक उठाये वो टैक्सी से बाहर निकली। वो निर्देशित टेलीफोन बूथ पर पहुंची तो उसने उसे खाली पाया। वो बूथ में दाखिल हो गयी। उसने हुक पर से रिसीवर उठा कर कान से लगा लिया लेकिन दूसरे हाथ से हुक को दबाये रखा ताकि इनकमिंग काल में कोई विघ्न न आता। वो रह रहकर निशब्द होंठ चलाने लगी ताकि बूथ के शीशे के दरवाजे के बाहर से उधर कोई देखता तो वो यही समझाता कि वो बड़ी तन्मयता से फोन पर वार्तालाप कर रही थी।
ठीक पौने आठ बजे घंटी बजी।
सुमन ने तत्काल हुक पर टिका हाथ वापिस खींचा और व्यग्र भाव से बोली — “हल्लो।”
“कौन?” — सावधान स्वर में पूछा गया।
“मुझे नीलम ने भेजा है।”
“नाम बोलो।”
“सुमन। सुमन वर्मा।”
“क्या पहने हो?”
“महरून रंग का शलवार सूट।”
“टैक्सी का नंबर बोलो।”
सुमन ने शीशे के दरवाजे के पार परे खड़ी टैक्सी की दिशा में निगाह दौड़ाई और बोली — “डीएल 1टी 4979।”
“तुम्हारे पास क्या है?”
“क्या है, क्या मतलब?”
“तुम्हें क्या दे कर रवाना किया गया है?”
“अच्छा, वो! आम ब्रीफकेस के साइज का एक ट्रंक है मेरे पास।”
“भीतर क्या है?”
“मुझे नहीं मालूम।”
“खोल के नहीं देखा?”
“नहीं।”
“रचना सिनेमा पहुंचो। वहां बुकिंग आफिस के सामने एक ही पब्लिक टेलीफोन है। यहां की ही तरह बीस मिनट में वहां काल आने इंतजार करो।”
लाइन कट गयी।
सुमन बूथ से निकली और टैक्सी में आ सवार हुई।
“पूसा रोड।” — वो बोली — “रचना सिनेमा।”
तत्काल अशरफ ने टैक्सी आगे बढ़ायी।
टैक्सी रचना सिनेमा पहुंची।
पूर्ववत् ट्रंक उठाये वो बुकिंग आफिस पर पहुंची।
पहले जैसी ही काल उसने वहां भी रिसीव की।
“कनॉट प्लेस का रुख करो और होटल मैरीना पहुंचो। वहां टैक्सी का बिल चुकता कर देना लेकिन ड्राईवर को दस मिनट होटल के सामने पार्किंग में ही रुके रहने के लिए कहना। ट्रंक भी टैक्सी में छोड़ देना। ड्राईवर को खास हिदायत देनी है कि वो दस मिनट से पहले वहां से रवाना न हो।”
“दस मिनट में क्या होगा?”
“उससे तुम्हें कोई मतलब नहीं होना चाहिये। जो कहा जा रहा है, वो करो।”
“ठीक है। फिर?”
“फिर क्या? फिर तुमने वापिस टैक्सी का रुख किये बिना अपनी राह लगना है।”
“और ट्रंक!”
“वो हमारे लिए है, हमारे पास पहुंच जायेगा।”
“कैसे?”
“बोला न उससे तुम्हें कोई मतलब नहीं होना चाहिये।”
“लेकिन...”
लाइन कट गयी।
वो टैक्सी में आ सवार हुई।
“कनॉट प्लेस। मैरीना होटल।”
टैक्सी वापस मुड़ी और फिर पूसा रोड पर कनॉट प्लेस की दिशा में दौड़ चली।
पंचकुइयां रोड से कनॉट सर्कस में दाखिल होने पर वन वे ट्रैफिक था। मेरीना होटल वहां के क्रासिंग पर ही था लेकिन वाहन द्वारा उस तक पहुंचने के लिए पहले बायें घूम कर प्लाजा तक जाना पड़ता था और फिर मिडल सर्कल से होकर मैरीना पहुंचना पड़ता था। यूं वाहन उसकी उस पार्किंग में ही पहुंच सकता था जो कि होटल के पहलू में थी। होटल के प्रवेशद्वार के सामने की पार्किंग में पहुंचने के लिए मिडल सर्कल पर और आगे पालिका बाजार की अन्डरग्राउन्ड पार्किंग तक जाना पड़ता था और फिर रिवोली वाले क्रासिंग से दायें घूम कर आउटर सर्कल — जो कि कनॉट सर्कस कहलाता था — से वहां पहुंचना पड़ता था।
अशरफ ने लम्बा रास्ता अख्तियार करने की जगह टैक्सी को होटल की बाजू वाली पार्किंग में ले जा कर रोका।
सुमन ने उसे भाड़ा अदा किया और बोली — “दस मिनट यहां रुकना। इस बीच मैं लौट आऊं तो ठीक है, वरना तुम फ्री हो।”
अशरफ ने सहमति में सिर हिलाया।
सुमन टैक्सी से निकली और दायें, होटल के प्रवेशद्वार की ओर, बढ़ने के स्थान पर बायें, इनर सर्कल की ओर, बढ़ चली।
दो मिनट में वो अशरफ की निगाह से ओझल हो गयी।
अशरफ ने दो मिनट और इन्तजार किया और फिर टैक्सी स्टार्ट की।
उसने टैक्सी को मिडल सर्कल में डाला, आगे रिवोली वाले चौराहे से उसे खड़कसिंह मार्ग पर दौड़ाया और फिर पटेल चौक, जनपथ राउन्डअबाउट का लम्बा घेरा काट कर के.जी. मार्ग पर पहुंचा जहां कि उसका लक्ष्य हिन्दोस्तान टाइम्स की मल्टीस्टोरी बिल्डिंग था। उसने टैक्सी को पार्किंग में खड़ा किया, पीछे से ट्रंक उठाया और हिन्दोस्तान टाइम्स अखबार के रिसैप्शन पर पहुंचा जो कि ग्राउन्ड फ्लोर पर स्थित था।
“जगत नारायण जी से मिलना है।” — वो बोला।
“कौन जगत नारायण जी?” — लिपी पुती रिसैप्शनिस्ट युवती ने पूछा।
“जो यहां के बड़े अखबारनवीस हैं।”
“सीनियर एडिटर?”
“वही।”
“क्या काम है?”
“उन्हीं को बताऊंगा।”
“ऐसे मुलाकात नहीं हो सकती।”
“हो सकती है। मोहतरमा, मेरे पास बहुत बडी स्टोरी हैं। अपने अखबार को खुशकिस्मत जानो कि मैं यहां आया वरना स्टेट्समैन का दफ्तर भी बस मोड़ पर ही है।”
रिसैप्शनिस्ट सकपकाई, फिर उसने इन्टरकॉम पर एक नम्बर डायल किया, कुछ क्षण अंग्रेजी में कुछ फुसफुसाई फिर फोन रखती हुई बोली — “सामने सीढ़ियां हैं। पहली मंजिल पर दाईं ओर से तीसरा कमरा।”
“शुक्रिया।”
अशरफ निर्दिष्ट स्थान पर पहुंचा। उसने वयोवृद्ध सीनियर एडिटर को आदाब बजाया।
“क्या चाहते हो?” — वयोवृद्ध पत्रकार बोला।
“मैं टैक्सी ड्राइवर हूं।” — अशरफ अदब से बोला — “एक पैसेंजर का खास सामान, कीमती सामान टैक्सी में रह गया। पैसेंजर चलता बना। वो सामान अब मेरे पास है।”
“थाने जाना था सामान के साथ! यहां क्यों आये?”
“बोला न, खास सामान है। थाने ले के गया तो सब हज्म हो जायेगा। सब नहीं तो तीन चौथाई तो जरूर ही हज्म हो जायेगा। न पता चला तो बात ही क्या है, पता चल गया तो मेरे पर इलजाम आयेगा कि एक चौथाई पीछे छोड़ कर बाकी मैंने पार कर दिया।”
“ऐसा क्या माल है?”
“नकद रुपया है। सात लाख।”
“क्या!”
“वही जो बोला।”
“कहां है?”
“इस ट्रंक में।” — अशरफ ने हाथ में थमा ट्रंक दूसरे हाथ से थपथपाया।
“तुमने इसे खोल कर देखा?”
“हां। उसके बिना कैसे मालूम पड़ता कि भीतर क्या था!”
“ताला कैसे खोल लिया?”
“ये ताले वाला ट्रंक नहीं है। इसमें ब्रीफकेस जैसे खटके हैं आजू-बाजू, जिनमें ताला नहीं लगा हुआ।”
“खोलो तो!”
अशरफ ने ट्रंक को मेज पर रख कर खोला।
जगत नारायण के नेत्र फैले।
“कैसे मालूम है” — उसने पूछा — “सात लाख रुपया है?”
“मैने गिना था।”
“नीयत मैली न हुई?”
अशरफ तनिक हंसा और फिर बोला — “हुई होती तो इधर आता?”
“हूं।”
“सीधा थाने नहीं गया ताकि दूसरों की नीयत मैली न हो।”
“इधर आना कैसे सूझा?”
“सूझा किसी तरीके से।”
“पैसेंजर को ढूंढ़ने की कोशिश की?”
“बहुत की। न मिला तो तभी इधर आया।”
“कौन था पैसेंजर? कहां से बैठा था? कहां कहां गया था?”
अशरफ ने सब बताया।
“जब उस लड़की को पता लगेगा” — जगत नारायण बोला — “कि ट्रंक उसके साथ नहीं था तो वो वहीं लौट कर आयेगी जहां उसने तुम्हें छोड़ा था।”
“मैंने मैरीना की पार्किंग में बहुत देर इन्तजार किया था। वो नहीं लौटी थी। तभी मैं इधर आया।”
“क्योंकि तुम्हे अन्देशा था कि अगर तुम माल को थाने ले जाते तो पुलिस वाले अपने जौहर दिखा सकते थे? काफी सारा माल खुद हड़प कर वो तुम्हारे पर इलजाम लगा सकते थे कि माल तुम हड़प गये?”
“जी हां।”
“टैक्सी अपनी है?”
“किराये की है। गरीब आदमी हूं।”
“फिर भी लालच के हवाले न हुए? इतनी बड़ी रकम का गम खा गये?”
“यही समझ लीजिये।”
“मैं तुम्हारी ईमानदारी की तारीफ करता हूं। कोई दूसरा होता तो माल के साथ ऐसा गायब होता कि ढूंढे न मिलता।”
“मेरे लिये हराम का पैसा कुफ्र है।”
“शाबाश!”
अशरफ खामोश रहा।
“मैं अभी एक रिपोर्टर को तुम्हारे साथ थाने भेजता हूं ताकि ये रुपया मुनासिब कार्यवाही के साथ वहां के मालखाने में जमा हो सके। ताकि इसमें कोई पुलिस वाला भांजी न मार सके।”
“शुक्रिया।”
“देर सबेेर वो लड़की कनॉट प्लेस थाने जरूर पहुंचेगी। तब उसे उसका माल जरूर मिल जायेगा।”
“बढ़िया।”
“और तुम्हारी इस बेमिसाल ईमानदारी के लिये हमारे कल के अखबार के पहले वरके पर तुम्हारी तसवीर छपेगी।”
“वो जरूरी नहीं।”
“जरूरी है। इससे तुम्हारे जैसे और नौजवानों को इबरत हासिल होगी कि इमानदार होना एक बड़ा वाकया है। आनेस्टी वाकेई बैस्ट पालिसी है।”
“ठीक है। जैसा आप मुनासिब समझें।”
सफेद मारुति वैन मैरीना के मुख्यद्वार से थोड़ा परे हट के ऐसी जगह पर पार्किंग में खड़ी थी जहां से मुख्यद्वार का नजारा साफ साफ किया जा सकता था।
हमेशा की तरह मायाराम बावा पिछली सीट पर पसरा हुआ था। वैन में उसका जोड़ीदार हरिदत्त पन्त मौजूद नहीं था। वो थोड़ी देर के लिये वैन की ड्राइविंग सीट से उतर कर पान खाने गया था।
मायाराम के जेहन पर विमल की तसवीर उभर रही थी।
विमल के एकाएक आगमन से वो विचलित ही नहीं, भयभीत भी हुआ था लेकिन जल्दी ही सम्भल गया था, जल्दी ही उसे इस बात का अहसास हो गया था कि उसकी ये धमकी कारगर साबित हुई थी कि अगर मायाराम को उसने ठिकाने लगाया तो उसकी विधवा नीलम को उसके घरवाले जबरन उसके गाँव ले जायेंगे। अब उसे इस बात का भी यकीन था कि उसका ये अंदेशा बेमानी नहीं था कि नीलम की निगरानी हो रही थी। उसकी निगाह में और किसी तरीके से मौजूदा हालात की खबर मुम्बई बैठे विमल तक नहीं पहुंच सकती थी। रकम के साथ सुमन को दिल्ली के विभिन्न स्थानों के चक्कर इसीलिए लगवाये गये थे कि अगर कोई उसके पीछे लगा हुआ था तो उन्हें उसकी खबर लग पाती लेकिन अब तक उन्हें गारन्टी हो चुकी थी सुमन कि निगरानी की नीयत से उसके पीछे कोई नहीं लगा हुआ था।
विमल से मुलाकात के बाद से ही पिछले दो साल के वाकयात न्यूज रील की तरह उसके जेहन पर उभर रहे थे।
चण्डीगढ में नीलम के बैडरूम में विमल ने जब उसे सोते से जगाया था तो विमल को अपने सिर पर सवार देख कर उसे हार्ट अटैक होते होते बचा था। जिस शख्स को उसकी निगाह में उसकी हवा भी लग पाना असम्भव था, वो रिवाल्वर ताने उसके सिर पर खड़ा था। जाहिर था कि वैसा नीलम की धोखेबाजी की वजह से ही हो सका था लेकिन उसकी निगाह में तो विमल का नीलम तक पहुंचना और भी मुश्किल था। उसे वो जानता था, उसके साथ वो उठा बैठा था लेकिन नीलम के तो वजूद की भी खबर उसे नहीं हो सकती थी।
लेकिन हुई थी।
ऐसा ही पहुंचा हुआ आदमी था वो सोहल का बच्चा जो विमल कहलाना ज्यादा पसन्द करता था।
विमल ने मारपीट कर उससे ये कबुलवाने की कोशिश की थी कि डकैती का पैंसठ लाख रुपया कहां था लेकिन वो कामयाब नहीं हो सका था। फिर उस कमीने ने उसे कोई इंजेक्शन दिया था जिस ने पता नहीं कैसे उसकी जिद तोड़ दी थी और वो बेहिचक विमल के हर सवाल का जवाब देने लगा था। फिर वो उसे कार पर लाद कर शहर से बाहर हाइवे के करीब की एक उजाड़ जगह पर ले गया था। तब उसमें अपने पैरों पर खड़े रह पाने की भी ताकत नहीं थी फिर भी उस कमीने ने रिवाल्वर के भीषण प्रहारों से उसकी बांह और टांगों की हड्डियां तोड़ दी थीं।
पता नहीं उसे कब होश आया था।
होश आने पर उसने अपने आप को एक अनजान जगह पर लेटे पाया था। उसने अपनी दोनों टांगों और दाईं बांह पर पलस्तर चढ़ा पाया था और एक टांग को पुल्लियों के सहारे ट्रेक्शन पर टंगा पाया था।
उसे मालूम हुआ था कि दो दिन बाद उसे होश आया था।
तब हरिदत्त पंत नाम के अपने मौजूदा जोड़ीदार को उसने अपने करीब बैठे पाया था और उसी की जुबानी उसे मालूम हुआ था कि विमल के जुल्म का शिकार होने के बाद उस पर क्या बीती थी! पंत ने ही वो पर्चा उसे दिखाया था जो की विमल उसकी छाती पर टांक गया था और जिस पर लिख के छोड़ गया था :
ये आदमी भारत बैंक अमृतसर की डकैती का इश्तिहारी मुजरिम मायाराम बाबा है। इसी ने खासा के पास कर्मचन्द और लाभसिंह नाम के अपने दो साथियों को अपनी वैन के नीचे कुचल कर उनकी हत्या की थी। जिन साहब को ये यहां पड़ा मिले, वो बरायमेहरबानी इसे पुलिस स्टेशन (हस्पताल नहीं) पहुंचा दें।
किसी को तो वो पड़ा मिलना ही था। उसका परम सौभाग्य यह था कि हरिदत्त पंत नाम के जिस शख्स को वो वहां पड़ा मिला था, उसने विमल के निर्देश का पालन करते हुए उसे पुलिस स्टेशन नहीं पहुंचाया था — जहां कि उसकी कहानी ही खत्म हो जाती — वो उसे किसी हस्पताल भी लेकर नहीं गया था, वो उसे अपने एक लोकल फ्रेंड के घर ले कर गया था जहां की उस फ्रेंड ने ही मौत की कगार पर पहुंचे खस्ताहाल मायाराम की तीमारदारी का इंतजाम किया था।
क्यों?
क्योंकि पंत उसी की तरह जयरामपेशा आदमी था जो कि भारत बैंक की डकैती वाले केस से अखबारों के जरिये पूरी तरह से वाकिफ था। उसे मालूम था कि उस डकैती का चीफ आर्किटेक्ट मायाराम बावा था जिसने अपने साथियों को धोखा दिया था — दो को जान से मार डाला था और सारा माल खुद कब्जा के भाग गया था। वो ये भी जानता था कि माल तब तक बरामद नहीं हुआ था, न ही वो उस शख्स के हाथ लगा था जिसने कि मायाराम की हड्डियां तोड़ी थीं वरना वो उसकी वो गत न बनाता।
पंत उसी जैसा जयरामपेशा आदमी था जो उस वक्त की नजाकत को बाखूबी पहचान गया था। उसे पुलिस के हाथों पड़ने से उसने इसलिए बचाया था क्योंकि वो डकैती के पैंसठ लाख रुपये में अपनी कल्पना एक हिस्सेदार के तौर पर करने लगा था। मायाराम बोलने चालने के काबिल हुआ था तो पंत ने उसके साथ वो बात खोल के कर ली थी, अच्छी तरह से अपनी मंशा जता दी थी कि लूट के माल में हिस्सेदारी के लालच ने ही उसे मायाराम की मदद करने के लिये प्रेरित किया था।
उस वक्त मायाराम की जैसी हालत थी, उसमें वो पंत को हिस्सा तो क्या, मुकम्मल माल भी सौंपने को तैयार हो सकता था। आखिर जान थी तो जहान था। उसने खुशी खुशी पन्त को उस रकम में अपना हिस्सेदार बनाना कबूल कर लिया था।
पूरा एक साल मायाराम को उठ कर अपने पैरों पर खड़े होने के काबिल बनने में लगा था। तब भी उसने पाया था कि वो बैसाखियों के सहारे का हमेशा के लिये मोहताज बन चुका था। उसने विमल को हजार हजार गालियां दी थीं और उससे बदला लेने का संकल्प किया था।
उस दौरान पंत दिल्ली चला गया था जहां कि वो रहता था लेकिन वो हर महीने मायाराम का हालचाल दरयाफ्त करने के लिए एक फेरा चण्डीगढ़ का लगाता रहा था।
बैसाखियों के सहारे ही सही लेकिन चलने फिरने के काबिल होने के बाद मायाराम ने सबसे पहले नीलम की खोज खबर ली थी तो पता चला था कि उसने अपना बाइस सी सैक्टर का 2244 नम्बर वाला मकान बेच दिया हुआ था और अब किसी को खबर नहीं थी कि वो कहां रहती थी, किसी को ये भी खबर नहीं थी कि वो चण्डीगढ में ही थी या वहां से बाहर कहीं चली गयी थी।
यानी कि नीलम उसकी पहुंच से बाहर थी। उसकी दगाबाजी की सजा वो उसे नहीं दे सकता था।
फिर पंत के साथ वो दिल्ली पहुंचा जहां से उसने निजामुद्दीन में रहते अपने दोस्त कैलाश कुमार खन्ना की सुध ली जिसके पास िक डकैती के माल के साथ उसने पनाह पायी थी और जो उसके निर्देश पर नोटों से भरे उसके दो सूटकेस अपनी कोठी से निकाल कर किसी महफूज जगह छुपा आया था ताकि उन तक विमल की पहुंच न हो पाती, जो कि जगह जगह उसकी बाबत पूछताछ करता फिर रहा था, और हरनाम सिंह गरेवाल की पहुंच न हो पाती, जिसे कि पता नहीं कैसे उस रकम की सूंघ लग गयी थी और जो उसको हथियाने के लिए हाथ पांव मार रहा था। उसने खन्ना को खास तौर से कहा था कि उसके सूटकेस वो कहां छुपा कर आया था, इस बाबत वो अपनी बीवी तक को न बताये। इसी बात ने उस माल को गरेवाल और विमल की पकड़ से दूर रखा था। लेकिन इसी बात ने उसे मायाराम की भी पकड़ से दूर रखा था। खन्ना उस राज को अपने सीने में छुपाये गरेवाल की दुर्दान्तता का शिकार होकर उसके हाथों मारा गया था। एक साल बाद खन्ना की बीवी से मिलने पर ही उसे मालूम हुआ था कि उन दिनों माल की तलाश में अपने एक जोड़ीदार कौल के साथ पहले गरेवाल वहां खन्ना की कोठी पर पहुंचा था और फिर उसके पीछे पीछे ही विमल वहां पहुंचा था। गरेवाल का खन्ना की बीवी पर दिल आ गया था और वो उसके साथ बलात्कार करने पर आमादा हो गया था। खन्ना के विरोध करने पर उसने खन्ना को पीट पीट कर मार डाला था। फिर बाद में वो और कौल विमल के हाथों घायल हो गए थे और उनका बाकी का काम बलात्कार और पति के कत्ल से भड़की हुई खन्ना की बीवी ने तमाम कर दिया होता अगरचे कि किसी पड़ोसी ने गोलियों की आवाजें सुन कर पुलिस को फोन न कर दिया होता और वो गिरफ्तार न हो गये होते। गिरफ्तारी ने ही उन्हें खन्ना की बीवी के कहर से बचाया था। माल किसी के हाथ नहीं लगा था क्योंकि न किसी को खबर थी और न खन्ना की मौत के बाद ये जानने का साधन था कि खन्ना पैंसठ लाख के नोटों से भरे मायाराम के दो सूटकेस कहां छुपाकर आया था। आज भी वो रकम बदस्तूर लापता थी।
पंत उस बात से बहुत भड़का था। एक साल उसने इस उम्मीद में अधमरे मायाराम का बोझ ढोया था, उसका हर खर्चा उठाया था कि उसे पैंसठ लाख की बड़ी रकम में से हिस्सा मिलाने वाला था लेकिन वहां तो हिस्से के नाम पर एक झुनझुना भी नसीब नहीं था। तब तक मायाराम की गिरफ्तारी पर पंजाब सरकार पच्चीस हजार रुपये के इनाम की घोषणा कर चुकी थी जिसे कि वो भागते भूत की लंगोटी की तरह हथियाने का मन बना बैठा था। तब मायाराम ने ये साबित करके दिखाया था की वो नाम का ही उस्ताद नहीं था, सच में ही उस्ताद था। उसने पंत को ऐसा शीशे में उतारा कि लालच का मारा वो नौजवान आज तक मायाराम का मुरीद था, खिदमतगार था। अब जब कि नीलम से ऐंठी गयी नौ लाख की तीन रकमों में से उसे एक चौथाई का हिस्सा भी मिल चुका था, और आगे ऐसे हिस्से मुतवातर मिलते रहने की उम्मीद बन चुकी थी, तो उसके पांव जमीन पर नहीं लग रहे थे।
मायाराम का दिल जानता था कि उसके बाद दस महीनों के अनथक प्रयत्नों से कैसे तिनका तिनका जोड़ कर उसने विमल तक पहुंचने की वो सीढ़ी बनाई थी जिसके दूसरे सिर पर उसे सोने की खान नीलम मिली थी। ज्यों ज्यों वो विमल के कारनामों की केस हिस्ट्री टटोलता गया था, उसके छक्के छूटते गये थे। उसे यकीन नहीं आ रहा था कि वो शख्स, जो कभी सोहल के नाम से जाना जाता था, इतना ताकतवार बन गया था कि कई बैंक लूट चुका था, कई वाल्ट खोल चुका था, कई अपहरण के कारनामों को अंजाम दे चुका था और यहां तक कि बखिया जैसे टॉप अन्डरवर्ल्ड बॉस को खत्म कर चुका था। बखिया की बादशाहत के तमाम बड़े ओहदेदार उसने मारे थे और उस बादशाहत के आखिरी बड़े खलीफा व्यास शंकर गजरे की मौत में निमित्त बनकर उसने सारे एशिया के अन्डरवर्ल्ड की शक्ति के केन्द्रबिन्दु ‘कम्पनी’ को खत्म कर दिया था। मुम्बई का सारा अन्डरवर्ल्ड उसके नाम से थर थर कांपता था और दिल्ली तक उसकी धाक थी। ऐसे शख्स से पंगा लेने से पहले उसने सौ बार सोचा था और हर बार उसकी अक्ल ने उसे यही राय दी थी कि उसे सोहल का मुखालिफ बनने का खयाल तक नहीं करना चाहिए था। लेकिन उसे हर बार पंत ने उकसाया था कि उन्होंने सोहल का मुखालिफ नहीं बनना था, उन्होंने तो उससे दूर, बहुत दूर रह कर उसकी एक दुखती रग को छूना था जो कि नीलम थी। पंत को यकीन था कि वो नीलम को ऐसा काबू में कर सकते थे कि जो हो रहा था, उसकी दिल्ली से आठ सौ मील दूर बैठे विमल को भनक भी न लगती।
उनका खयाल कितना गलत था!
विमल को न सिर्फ भनक लगी बल्कि वो दिल्ली पहुंच गया।
सुबह विमल को अपने सामने खड़ा देख कर यही करिश्मा था कि मायाराम वहीं उसके सामने गिर कर मर ही न गया। उसकी जान में जान तभी आयी थी जब कि उसे अहसास हुआ था कि विमल विवेक को दरकिनार करके जज्बात की रौ में बह रहा था। इस हकीकत ने उसकी सारी हेकड़ी निकाल दी थी कि नीलम उसकी ब्याहता बीवी थी। शेर की तरह दहाड़ता आया विमल कैसे सुबह बकरी की तरह मिमियाता वहां से गया था! कैसे पलक झपकते उसके हाथ उसकी गर्दन को लपकते थे!
आया बड़ा हजार हाथों वाला।
कैसा तड़पा था वो ये जान के कि उसकी बीवी उसकी बीवी नहीं थी और उसका बेटा हरामी था, पाप की पैदावार था।
क्या माकूल हथियार लगा था उसके हाथ सोहल का गुरूर ठंडा करने का!
कैसे अमृत की तरह ये बात उसके कान में टपकी थी कि वो नीलम को उसके भाग्य के हवाले छोड़ कर वापिस जा रहा था! शाम को जाने को कह रहा था। अब तक तो चला भी गया होगा!
तभी पंत वापिस लौटा।
“कहां मर गयी?” — पिछले दरवाजे के करीब पहुंच कर वो भुनभुनाया।
“शाम के वक्त ट्रैफिक ज्यादा होता है।” — मायाराम जैसे खुद को आश्वासन देता हुए बोला — “उसकी टैक्सी कहीं रास्ते में फंस गयी होगी।”
“उस लिहाज से भी बहुत देर हो चुकी है। रचना सिनेमा से यहां तक का फासला मुश्किल से पन्द्रह मिनट का है। अब तो आधे घन्टे से ऊपर हो चुका है!”
“ये होटल इस ब्लॉक में बहुत दूर तक फैला हुआ है। वो कहीं और तो नहीं पहुंच गयी?”
“खामखाह! होटल कहीं तक भी फैला हो, इसका प्रवेशद्वार तो एक ही है जो कि हमें सामने दिखाई दे रहा है!”
“ओह!”
“टैक्सी कहीं भी खड़ी हो, होटल में दाखिल तो उसने उस सामने दरवाजे से ही होना है!”
“तूने उसे होटल में दाखिल होने को कब कहा था? तूने तो उसे सिर्फ होटल पहुंचने के लिए कहा था!”
“पहुंचने का और क्या मतलब होता है?”
“दाखिल होना तो नहीं होता!”
“पहुंचना तो होता है? पहुंची भी तो नहीं!”
“ये नहीं हो सकता। ऐसी हुक्मउदूली वो नहीं कर सकती। जब वो गोल डाकखाने पहुंची थी, रचना सिनेमा पहुंची थी तो यहां भला क्यों नहीं पहुंचेगी? न पहुंच के जायेगी कहां? उससे वो जिम्मेदारी भला क्योंकर टल जाएगी जिसको अंजाम देने का वो महज एक मोहरा है?”
“बात तो तुम्हारी ठीक है!”
“कुछ कहने सुनने में फर्क आ गया है। वो यहीं कहीं होगी!”
आजू बाजू का चक्कर लगा के आ।”
पंत ने सहमति में सिर हिलाया और फिर वहां से रुखसत हुआ।
पांच मिनट बाद वो वापिस लौटा।
“होटल की एक पार्किंग उसके परली तरफ के पहलू में भी है।” — वो बोला।
“और ये बात तुझे अब मालूम हुई है।” — मायाराम तिरस्कारपूर्ण स्वर में बोला।
“लेकिन वो टैक्सी, वो लड़की वहां भी तो नहीं है!”
मायाराम ने कलाई पर बन्धी घड़ी पर निगाह डाली और फिर धीरे से बोला — “लगता है हम खुद अपने हाथों बेवकूफ बन गए हैं।”
“क्या मतलब?” — पंत सकपकाया।
“फोन पर तूने उसे क्या कहा था? तूने उसे कहा था कि वो होटल की पार्किंग में पहुंच कर ड्राईवर का बिल चुकता कर दे और ड्राईवर को दस मिनट के लिये वहीं पार्किंग में ही रुके रहने को कहे। रकम वाला ट्रंक वो टैक्सी में ही छोड़ दे।”
“ठीक। लेकिन कौन सी पार्किंग में? होटल के सामने की पार्किंग में।”
“उस वक्त तुझे खबर थी कि सामने के अलावा बाजू में भी होटल की पार्किंग थी?”
“वो तो नहीं थी!”
“अब फर्ज कर कि उसकी टैक्सी बाजू वाली पार्किंग में पहुंची जो कि यहां से दिखाई नहीं देती। हिदायत के मुताबिक उसने ट्रंक टैक्सी में ही छोड़ा, ड्राईवर का भाड़ा चुकाया और उसे दस मिनट वहीं रुके रहने को कह कर चल दी। होटल में दाखिल होने की उसने कोई कोशिश ही न की क्योंकि साफ साफ ऐसा कुछ तूने उसे कहा ही नहीं था। दस मिनट बाद वो टैक्सी ड्राईवर भी चल दिया।”
“रकम के साथ?” — पंत घबरा कर बोला।
“ट्रंक के साथ। जिसकी पता नहीं कि उसे खबर भी थी या नहीं कि पीछे टैक्सी में पड़ा था।”
“लेकिन उसे ये नहीं पता कि भीतर क्या है!”
“नहीं है तो लग जायेगा। जब उसे ट्रंक की खबर लगेगी तो वो उसे खोले बिना मान जायेगा?”
“शायद मान जाये!”
“और फिर शायद वो उसे हमें हमारे घर पंहुचा दे क्योंकि कि उस पर हमारा नाम पता लिखा है!”
“वो कैसे लिखा होगा?”
“तो फिर?”
“यानी कि माल वो टैक्सी ड्राईवर हड़प जायेगा?”
“तेरा क्या खयाल है?”
“हमें टैक्सी का नंबर मालूम है।”
“जिसके जरिये हम उसे हफ्ता दस दिन में ढूंढ़ ही लेंगे!”
“उस्ताद जी, तुम तो मेरे छक्के छुड़ा रहे हो!”
मायाराम ने असहाय भाव से गर्दन हिलाई।
“इस गड़बड़ में कोई राज है।” — पंत फिर जिद करके बोला।
“कोई राज नहीं है। सब हमारी नातजुर्बेकारी की वजह से हुआ। हमने इतना ज्यादा आडम्बर कर लिया कि खुद ही उसे हैंडल न कर पाये। कोई निगरानी कर रहा था, इस रौब में ज्यादा ही पेंच डाल दिये हमने इस सीधे साधे काम में।”
“अब क्या होगा?”
“यहां रुके रहना तो बेकार है! वो लड़की अब तक वापिस मॉडल टाउन पहुंच गयी होगी। मालूम करते हैं कि वो क्या कहती है!”
“कैसे? कैसे मालूम करते है? वहां जाना, वहां फोन करना तो तुम्हारी निगाह में मुनासिब नहीं! तभी तो चिट्ठी लिखी!”
“ये बात भी ठीक है।”
“उस्ताद जी, बाद की बाद में देखेंगे। पहले तो मैं रचना सिनेमा तक का चक्कर लगाना चाहता हूं।”
“वो किसलिये?”
“मेरा दिल कहता है कि लड़की यहां पहुंची ही नहीं। जरूर उसकी टैक्सी का रास्ते में कहीं एक्सीडेंट हो गया है। ऐसा हुआ होगा तो मालूम पड़ जायेगा।”
“टाइम बर्बाद करेगा।”
“तो क्या हुआ? यहां भी तो अब टाइम ही बर्बाद कर रहे हैं!”
“ठीक है। चल।”
सुमन मॉडल टाउन पहुंची।
“क्या हुआ?” — नीलम ने उत्सुक भाव से पूछा।
सुमन ने तमाम घटनाक्रम कह सुनाया।
“वो ट्रंक तूने टैक्सी में छोड़ दिया!” — नीलम सकपकाई।
“मुझे ऐसा ही करने को कहा गया था।” — सुमन बोली।
“टैक्सी में से ट्रंक फोन करने वाले को कैसे हासिल होता?”
“क्या पता कैसे हासिल होता! कोई तो तरीका उसने सोच ही रखा होगा! मेरे पीछे वो जा कर टैक्सी में सवार हुआ होगा, कहीं तक गया होगा और फिर उतरते वक्त ट्रंक भी साथ ले गया होगा!”
“ड्राईवर ने एतराज नहीं किया होगा? कहा नहीं होगा कि एक पैसेंजर का ट्रंक दूसरा क्यों लिए जा रहा था?”
“अव्वल तो ऐसी नौबत नहीं आयी होगी। आयी होगी तो मेरे से बाद वाले पैसेंजर के पास ड्राईवर से निपटने का कोई जरिया होगा।”
“ये हो सकता है।”
“दीदी, ये तो बताओ की किस्सा क्या था?”
“किस्सा अब तू छोड़। जो हुआ, उसे भूल जा।”
“लेकिन…”
“चल, खाना खा। नौ बज रहे हैं।”
“लेकिन फिर भी …”
तभी फोन की घन्टी बजी।
नीलम ने आगे बढ़ कर फोन उठाया।
“मै बोल रहा हूं।”
नीलम ने सशंक भाव से सुमन की तरफ देखा और फिर सावधान स्वर में बोली — “क्या है?”
“करीब कौन है?”
“है कोई।”
तब सुमन जानबूझ कर ड्राइंगरूम से बाहर निकल गयी लेकिन दूर जाने की जगह वो बाहर गलियारे में ही ठिठक गयी और दरवाजे की ओट में हो कर कान खड़े करके भीतर से आती नीलम की आवाज सुनने लगी।
“तुमने तो” — नीलम कह रही थी — “फोन न करने के लिए कहा था!”
“मजबूरन करना पड़ा।”
“क्या हुआ?”
“रकम मेरे हाथ नहीं लगी।”
“क्या!”
“वो लड़की घर पहुंच गयी?”
“हां। लेकिन जो कह रहे हो, वो क्योंकर हुआ? जब सब कुछ तुम्हारे निर्देश के मुताबिक हुआ था तो....”
“तो भी गड़बड़ हो गयी। तू सुमन से पूछ, मैरीना पहुंचने के बाद उसने क्या किया था?”
“मैं पूछ चुकी हूं। उसने वही किया था, जो उसे करने को कहा गया था।”
“उसे होटल में जाना चाहिये था।”
“उसे ऐसा नहीं कहा गया था।”
“उसे बात को समझने की कोशिश करनी चाहिये थी।”
“अब हो क्या गया है?”
“रकम टैक्सी में ही रह गयी।”
“क्या!”
“टैक्सी वाला वो ट्रंक ले गया जिसमें कि रकम थी।”
“हे भगवान! अब क्या होगा?”
“तुझे और रकम का इन्तजाम करना होगा।”
“दिमाग खराब है तुम्हारा? मेरे पास नोट छापने की मशीन लगी हुई है?”
“वो तो ठीक है लेकिन …”
“तुमने खुद कहा था कि ये तुम्हारी आखिरी मांग थी।”
“पूरी तो न हुई!”
“मेरी क्या गलती है?”
“तुम्हारी गलती नहीं है। मेरी भी नहीं है। उस लड़की की भी नहीं है लेकिन फिर भी अब जो गलत हो गया है, उसे संवारना तो पड़ेगा न?”
“कैसे?”
“टैक्सी ड्राईवर शरीफ हो सकता है। वो ट्रंक को थाने में जमा करा सकता है। उस लड़की को, सुमन को, कनॉट प्लेस थाने जा कर ट्रंक की बाबत रिपोर्ट दर्ज करानी चाहिये।”
“पागल हुए हो! ट्रंक को क्लेम करने के लिये पुलिस को बताना पड़ेगा कि भीतर क्या था! उसकी मिल्कियत साबित करनी पड़ेगी। वो इतनी बड़ी रकम की अपने पास मौजूदगी का क्या जवाब देगी?”
“जवाब तुझे या उसे कोई सोचना होगा। ये खयाल करके सोचना होगा कि ये मेरा नहीं, तेरा नुकसान है जिसकी भरपाई भी तुझे ही करनी होगी।”
“सत्यानाश हो तेरा। अब क्या नयी मुसीबत खड़ी कर रहा है मेरे लिये?”
“कोई मुसीबत नहीं है। तू लड़की को कनॉट प्लेस थाने भेज।”
“क्या गारन्टी है कि टैक्सी ड्राईवर ट्रंक वहां जमा करा के जायेगा?”
“गारन्टी तो कोई नहीं लेकिन…”
“तुम कहते हो वो शरीफ हो सकता है। अगर वो ऐसा ही शरीफ होगा तो वो ट्रंक यहां मॉडल टाउन भी तो ला सकता है जहां कि वो सवारी उठाने पहुंचा था!”
“क्या मतलब?”
“अरे, सुमन ने उसे टैक्सी स्टैण्ड से, वहां फोन करके बुलाया था। उसे मालूम है उस ट्रंक के साथ सुमन कहां से उसकी टैक्सी में सवार हुई थी! अगर वो शरीफ होगा तो थाने क्यों जायेगा? वो ट्रंक लौटाने यहां भी तो आ सकता है!”
“आ तो सकता है!” — मायाराम को कबूल करना पड़ा।
“तो फिर?”
“न आया तो?”
“थाने भी न पहुंचा तो?”
मायाराम को जवाब न सूझा।
“फिलहाल देखो क्या होता है! मैं टैक्सी स्टैण्ड से भी उस टैक्सी ड्राईवर की बाबत दरयाफ्त करूंगी। कल सुबह तक अगर मुझे उसकी कोई खबर न लगी या वो ट्रंक के साथ यहां न पहुंचा तो मैं रिपोर्ट लिखाने के लिये सुमन को कनॉट प्लेस थाने भेजने की बाबत सोचूंगी। तब तक के लिये पीछा छोड़।”
भुनभुनाते हुए नीलम ने रिसीवर को वापिस क्रेडल पर पटक दिया।
मायाराम कश्मीरी गेट पहुंचा।
पंत को वैन की ड्राइविंग सीट पर बैठा छोड़ कर उससे बिना कुछ बोले वो अपनी बैसाखियां टेकता चाल में दाखिल हो गया।
उस वक्त वो बहुत बुरे मूड में था और बार बार उस घड़ी को कोस रहा था जब कि उसने रकम हासिल करने का ऐसा पेचीदा तरीका अख्तियार करने का फैसला किया था, बार बार अपने लंगड़ेपन को कोस रहा था जिसकी वजह से कि वो पंत का मोहताज था।
वो अपने पोर्शन के सामने पहुंचा तो उसने विमल को अपने बन्द दरवाजे से टेक लगाये पाइप के कश लगाता खड़ा पाया।
“तू!” — मायाराम सकपकाया — “कब से यहां है?”
“अभी थोड़ी देर पहले ही आया।” — विमल बोला।
“तू तो शाम को चला जाने वाला था!”
“टिकट नहीं मिली। कल अर्ली मार्निंग फ्लाइट की मिली है। सुबह चला जाऊंगा।”
“यहां क्यों आया है?”
“जाने से पहले एक बार फिर तुम्हारे से बात करने का दिल कर आया, इसलिए चला आया।”
“अब क्या बात करना चाहता है?”
“भीतर चलो, बताता हूं।”
मायाराम ने हिचकिचाते हुए सहमति में सिर हिलाया। उसने ताला खोला, भीतर बत्ती जलायी और फिर जाकर एक कुर्सी पर ढेर हो गया।
विमल ने भी भीतर कदम रखा।
मायाराम ने जानबूझ कर उसे बैठने को न कहा।
“क्या चाहता है?” — मायाराम बोला।
“ऐसे कैसे चलेगा, उस्ताद जी?”
“क्या कैसे चलेगा?”
“वही जो चला रहे हो! कब तक चलेगा?”
“क्या पता कब तक चलेगा! अभी तक तो चल ही रहा है! आगे जो होगा, सामने आ जायेगा।”
“मैं आखिरी बार दरख्वास्त करने आया हूं।”
“क्या? क्या दरख्वास्त करने आया है?”
“नीलम का पीछा छोड़ो।”
“पागल हुआ है? जन्म जन्मांतर के रिश्ते कहीं ऐसे छूटते हैं!”
“मैं फरियाद कर रहा हूं।”
“महान सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल फरियाद कर रहा है!”
“हां।”
“तू फरियाद नहीं, फरेब कर रहा है।”
“मायाराम, उसका पीछा छोड़, भगवान के लिये उसका पीछा छोड़, बदले में मैं तेरी एकमुश्त फीस भरता हूं।”
“क्या मुश्किल काम है तेरे लिये! आज तक करोड़ों, बल्कि अरबों रुपया लूट चुका है। लेकिन मुझे तेरी खैरात नहीं चाहिये।”
“मैं हरजाना भर रहा हूं।”
“मुझे हरजाना भी नहीं चाहिये। मुझे अपनी बीवी चाहिये। बस।”
“लेकिन …”
“अरे, जब मियां बीवी राजी तो क्या करेगा काजी?”
“काजी?”
“तू।”
“वो मेरे बच्चे की मां है।”
“सौ बार कह चुका पहले भी।”
“फिर कहता हूं। वो मेरे बच्चे की मां है।”
“सजा मिलेगी। हराम का बच्चा जनने की सजा मिलेगी उसे। मेरे से भी और अपने बनाने वाले से भी।”
“इतना जुल्म!”
“तेरे पर। खास तौर से तेरे पर। तुझे तड़पता देख कर मेरे कलेजे को ठण्डक पहुंचती है। दिल को चैन मिलता है ये देख कर कि कितना लाचार है तू मेरे सामने!”
“मैंने गलती की जो तुझे जिन्दा छोड़ा।”
“यूं ही पछताता रह और तड़पता कलपता रह।”
“तू कितने नम्बर का जूता पहनता है?”
वो हकबकाया, उसके नेत्र सिकुड़े।
“क्यों पूछता है?”
“पांव बड़ा मालूम हो गया मालूम होता है तेरा! जूते में समा जो नहीं रहा! निकल कर पता नहीं कहां कहां पड़ने लगा है!”
“जूते का नम्बर जानना चाहता है न? जान ले। आ के मेरे कदमों में झुक के देख ले कि मैं कितने नम्बर का जूता पहनता हूं!”
विमल ने बेचैनी से पहलू बदला। उसने पाइप का लम्बा कश लगाया।
“ठीक है, मैं ही तेरा काम करता हूं। तू भी क्या याद करेगा!”
उसने झुक कर अपने एक जूते के तस्मे खोले और उसे उतार कर कुर्सी के करीब एक ओर डाल दिया। उसने वैसे ही दूसरा जूता भी उतारा लेकिन उसे फर्श पर डालने की जगह उसने उसे खींच कर सोहल पर मारा।
बड़ी मुश्किल से विमल ने जूते को अपनी छाती के सामने लपका।
मायाराम ने जोर का अट्टहास किया।
“सात नम्बर।” — विमल जूते को उलटता पलटता बोला — “जूता तो कोई खास बड़ा नहीं, लिहाजा पांव ही बड़ा हो गया है तेरा!”
मायाराम ने फिर अट्टहास किया।
विमल कुछ क्षण और जूते का मुआयना करता रहा, फिर उसने उसे अपने हाथ से निकल कर फर्श फर गिर जाने दिया। उसने पाइप को दान्तों से निकाला, उसको बुझा कर कोट की बाहरी जेब में डाला लेकिन हाथ जेब से बाहर न निकाला।
“तुझे” — विमल बोला — “एक आखिरी बार समझाना मेरा फर्ज था।”
“मैं न समझूं तो” — मायाराम बोला — “धमकाना भी तेरा फर्ज होगा!”
“कितना सयाना है!”
तब विमल ने जेब से हाथ निकाला तो उसमें रिवाल्वर थी।
मायाराम की हंसी को तत्काल ब्रेक लगी। वो व्याकुल भाव से कभी विमल के हाथ में थमी रिवाल्वर को तो कभी उसकी सूरत को देखने लगा।
“तू मुझे नहीं मार सकता।” — फिर वो खोखले स्वर में बोला।
“लेकिन” — विमल धीरे से बोला — “तू मुझे मार सकता है।”
“क्या मतलब?”
विमल ने रिवाल्वर उसकी तरफ उछाल दी जो कि मायाराम ने बड़ी मुश्किल से लपकी।
“भरी हुई है।” — विमल बोला — “एक गोली मेरे पर चला और किस्सा खत्म कर।”
“मैं क्यों चलाऊं? खुद ही क्यों नहीं चलाता अपने पर?”
“आत्महत्या नहीं कर सकता।” — विमल कातर भाव से बोला — “नीलम की मौत की झूठी खबर सुन कर कल्याण में एक बार बेवड़ा पी पी कर जान देने की कोशिश की थी लेकिन किसी मेहरबान ने बचा लिया था। अब तो कोई मेहरबान भी करीब नहीं। इसलिये दुश्मन से इल्तजा करना पड़ रहा है!”
अभी तक मायाराम की सिट्टी-पिट्टी गुम थी लेकिन अब वो फिर शेर हो गया था। उसने रिवाल्वर वाला हाथ ऊंचा किया और उसे विमल पर ताना।
“शुक्रिया।” — विमल उसके सामने छाती खोल कर बोला — “तुम्हारा ये अहसान मैं उम्र भर नहीं भूलूंगा।”
मायाराम के होंठ भिंचे, उसकी उंगली रिवाल्वर के ट्रीगर पर कसी।
विमल स्तब्ध उसके सामने खड़ा रहा।
फिर मायाराम ने एकाएक अपना हाथ नीचे झुका लिया।
“मैं तेरे नापाक खून से अपने हाथ नहीं रंगना चाहता।” — वो नफरतभरे स्वर में बोला — “जा, जा के दरिया में छलांग लगा दे।”
फिर उसने रिवाल्वर वापिस विमल की तरफ उछाल दी।
विमल ने रिवाल्वर को लपकने की कोशिश की लेकिन वो उसके हाथ आने की जगह नीचे फर्श पर जा कर गिरी। उसे उठाने के लिये वो नीचे झुका, परे बैठे मायाराम की तरफ पीठ करके नीचे झुका। उसने नाल में अपनी कनकी उंगली घुसा कर रिवाल्वर को उठाया और वापिस अपने कोट की जेब में रख लिया।
“कोई साथ नहीं देता।” — उठ कर सीधा होता वो आहत भाव से बोला — “कोई मददगार नहीं बनता।”
मायाराम ने उपेक्षा से मुंह बिचकाया।
“ठीक है।” — विमल बोला — “चलता हूं।”
“मुम्बई पहुंच कर” — मायाराम व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला — “चिट्ठी लिखना राजी खुशी की। हाल मुरीदां दा कहना मित्तर प्यारे नूं।”
विमल ने उत्तर न दिया। वो खामोशी से वहां से रुखसत हो गया।
सड़क पर पहुंच कर जो पहला काम उसने किया वो ये था कि उसने अपने हाथों पर चढ़े झिल्ली जैसे बारीक रबड़ के सर्जीकल दस्ताने उतार कर एक तरफ फेंके।
सुबह हिन्दोस्तान टाइम्स के मुखपृष्ठ पर से अशरफ की तसवीर झांक रही थी। तसवीर में वो कनॉट प्लेस थाने के एसएचओ को ट्रंक सौंपता दिखाया गया था। साथ में हैडिंग था :
स्थानीय टैक्सी ड्राइवर की बेमिसाल ईमानदारी
पैसेंजर का टैक्सी में छूट गया
सात लाख रुपया थाने में जमा कराया।
नीचे घटना का वैसा ही विवरण छपा था जैसा कि उसने जगत नारायण को सुनाया था।
सुबह सवेरे मायाराम ने चाय पीते हुए अखबार में वो खबर पढ़ी।
अब उसे इत्मीनान था कि रकम कम से कम वो टैक्सी ड्राइवर हज्म नहीं कर गया था, रकम थाने में सेफ थी और क्लेम लगाने पर मिल सकती थी।
लेकिन — फिर उसका माथा ठनका — सात लाख!
रकम तो पांच लाख थी!
पांच लाख से सात लाख की कैसे हो गयी?
क्या छापे की गलती थी?
हो सकता था।
मायाराम आदतन शक्की मिजाज आदमी था, वो छापे की गलती के नाम पर उस बात को अपने जेहन से न निकाल सका। पांच मिनट बाद ही वो ये सोच सोच कर फिर छटपटाने लगा कि पांच लाख की रकम सात लाख की कैसे हो गयी थी?
क्योंकर हो गयी थी?
उसने अपनी बैसाखियां सम्भालीं और उन्हें ठकठकाता वहां से बाहर निकला। वो जानता था कि सुबह सवेरे लोकल बस स्टैण्ड के पास अखबार वाले बैठते थे। वहां पहुंच कर उसने पाया कि वो खबर बाकी अखबारों में भी छपी थी अलबत्ता टैक्सी ड्राइवर की तसवीर सिर्फ हिन्दोस्तान टाइम्स में ही छपी थी।
उसने तमाम अखबारों में वो खबर पढ़ी।
हर जगह रकम सात लाख ही दर्ज थी।
क्या माजरा था?
क्या नीलम अनजाने में ट्रंक में बड़ी रकम भर बैठी थी?
कैसे हो सकता था?
दो लाख रुपये की अतिरिक्त रकम क्या कोई मायने ही नहीं रखती थी जो कोई खामखाह किसी के हवाले कर देता! खास तौर से ऐसा कोई जिसे मूल रकम का इंतजाम करने में ही दिक्कत महसूस होती थी।
वो वापिस लौटा।
पंत का पोर्शन ग्राउन्ड फ्लोर पर ही उससे चार दरवाजे पहले था।
“आज का अखबार पढ़ा?” — उसने पंत से पूछा।
“नहीं।” — पंत सकपकाया-सा बोला — “क्यों?”
“वो टैक्सी ड्राइवर ट्रंक के साथ थाने पहुंच गया।”
“ऐसा अखबार में छपा है?”
“हां। साफ।”
“फिर तो ख़ुशी की बात है। यानी कि रकम सेफ है।”
“अखबार में छपा है कि रकम सात लाख थी।”
“क्या!”
“जो रकम ट्रंक में बन्द पायी गयी है, वो सात लाख थी।”
“ऐसा कैसे हो सकता है?”
“हुआ ही है। ये अखबार देख।”
पंत ने मायाराम के हाथ से हिन्दोस्तान टाइम्स थामा और गौर से वो खबर पढ़ी।
“जरूर छापे की गलती है।” — फिर वो बोला।
“मैंने भी यही समझा था। लेकिन ऐसा नहीं है। ये खबर और अखबारों में भी छपी है। सब में सात लाख लिखा है।”
“कमाल है! वो औरत इतनी मेहरबान क्योंकर हो गयी जो बोनस बांटने लगी! पांच के सात भेज दिये!”
“पागल हुआ है! यूं कोई रुपया लुटाता है! राजी से जो काला पैसा न देना चाहती हो, वो दो लाख रुपया फालतू दे देगी!”
“फिर क्या माजरा है, उस्ताद जी?”
“तू बता।”
“मैं क्या बताऊं?”
मायाराम खामोश रहा।
“उस्ताद जी, खामखाह सिर धुन रहे हो। अरे, कुछ आ ही रहा है, कुछ जा तो नहीं रहा!”
“कहां आ रहा है?”
“जब आ रहा था तो आ ही रहा था न! कल खामखाह घिचपिच न हो गयी होती तो ट्रंक हमारे काबू में होता, काबू में होता तो पांच की जगह सात लाख हमारे काबू में होते।”
“हमारे?”
“और क्या!”
“कल मैंने तो वैन में ही बैठना था! उस लड़की के चले जाने के बाद के दस मिनट के वक्फे में होटल का बैल ब्याय बन कर टैक्सी में से ट्रंक काबू करके तूने लाना था!”
“तो क्या हुआ? तुम्हारे कहने से तुम्हारे लिये ही तो लाना था!”
मायाराम ने उत्तर न दिया।
“उस्ताद जी, क्या सोच रहे हो? क्या है तुम्हारे मन में?”
“कुछ नहीं।”
फिर एकाएक वो घूमा और बैसाखियां ठकठकाता अपने पोर्शन की ओर बढ़ चला।
पंत नेत्र सिकोड़े हकबकाया-सा उसे जाता देखता रहा।
मायाराम के मन में जो था, वो उससे जुबान पर लाते नहीं बना था। ट्रंक ने पहले अकेले पंत के अधिकार में ही आना था। उसने टैक्सी से ट्रंक बरामद करके मायाराम के पास लाना था। उस दौरान वो उसे खोल कर उसमें से दो लाख रुपये निकाल कर खुद हज्म कर जाता तो उसे क्या खबर लगती!
लेकिन — मायाराम ने अपने आप से सवाल किया — उसे मालूम क्योंकर होता कि ट्रंक में दो लाख की अतिरिक्त रकम थी? अगर ऐसी कोई भांजी मारने की मंशा उसकी थी तो उसे एडवांस में मालूम होना चाहिये था कि ट्रंक में पांच नहीं, सात लाख रुपये बन्द थे।
अपने पोर्शन में दाखिल होने की जगह वो फिर सड़क पर आ गया।
एक पब्लिक टेलीफोन से उसने मॉडल टाउन फोन किया। नीलम लाइन पर आयी तो वो बोला — “मैं बोल रहा हूं।”
“अब क्या है सुबह सवेरे?” — नीलम भुनभुनाई।
“एक जरूरी बात है। इसलिये फोन किया।”
“क्या जरूरी बात है?”
“वो लड़की अपनी ड्यूटी पर चली गयी।”
“नहीं। अभी घर में ही है।”
“तेरे करीब ही है?”
“नहीं। अपने कमरे में है।”
“आज का अखबार पढ़ा?”
“हां, पढ़ा।”
“उसमे ट्रंक की खबर छपी है। पढ़ी?”
“हां, पढ़ी।”
“रकम पांच से सात लाख कैसे हो गयी?”
“मैं खुद हैरान हूं। जरूर गलती से ऐसा छप गया होगा।”
“गलती से नहीं छपा। और अखबारों में भी सात लाख छपा है।”
“कमाल है! रकम क्या जादू के जोर से बढ़ गयी!”
“तूने सूटकेस में कितनी रकम रखी थी?”
“ये भी कोई पूछने की बात है? पांच लाख।”
“पक्की बात?”
“पूछता है पक्की बात। मेरे पास तेरे जैसे वाहियात, कमीने आदमी पर लुटाने के लिये पैसा नहीं है। वो भी खामखाह। बिना वजह।”
“तो तूने ट्रंक में पांच लाख ही रखे थे?”
“हां।”
“किसी के सिखाये पढ़ाये तो ऐसा नहीं कह रही?”
“किस के?”
“किसी के भी।”
“अरे, किसके?”
“मेरे जोड़ीदार के।”
“वो कौन हुआ?”
मायाराम खामोश रहा।
“हल्लो!” — नीलम की व्यग्र आवाज आयी — “सप्प लड़ गया ई?”
“वो चिट्ठी कहां है” — मायाराम बोला — “जो मैंने तुझे भेजी थी?”
“पड़ी होगी घर में कहीं।”
“उसे तलाश कर और उसके साथ मुझे अल्पना सिनेमा के सामने मिल। मैं अभी वहां के लिये रवाना हो रहा हूं।”
“लेकिन….”
मायाराम ने जानबूझ कर लाइन काट दी।
विमल मुबारक अली से मिला।
“क्या खबर है?” — विमल बोला।
“हाशमी को कल कुल्लु रवाना कर दिया था। काम में, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, कोई अड़ंगा न आया तो आज ही शाम को लौट आयेगा।”
“बढ़िया।”
“मैंने लंगड़े के काल की बाई वाले शगल की नस पकड़ी है।”
“अच्छा! क्या जाना?”
“जिन तीन चार ऐसी बाइयों की वो सोहबत करता है, उनका अपना एक ग्रुप है। यानी कि एक को जान जाने पर बाकियों को जान जाना आसान होता है। उन्होंने निजामुद्दीन में एक फिलेट ठीक किया हुआ है जहां से कि वो, वो क्या कहते है अंग्रेजी में, आ-आपरे … आपरेशन करती हैं।”
“आपरेट करती हैं।”
“वही। होटल में वो तभी जाता है जब कोई बाई ऐसी जिद करे।”
“जब कि फ्लैट खाली न हो? जब कि वहां और लड़कियां अपने क्लायन्ट्स वो एन्टरटेन कर रही हों?”
“वही। मेरा खबरी ऐसीच बोला। एन्टर का टेन कर रही हो।”
“आगे।”
“कल लंगड़ा निजामुद्दीन वाले फिलेट पर नहीं पहुंचा था, एक से ज्यादा दिन का नागा उसे नागवार गुजरता है इसलिए आज जरूर पहुंचेगा।”
“उन्हीं बाइयों में से किसी एक के पास?”
“जाहिर है।”
“मुबारक अली, आज उसकी लाटरी निकलेगी। आज उसे एक नयी बाई मिलेगी।”
“ऐसा?”
“हां।”
“कौन है वो?”
“उसका नाम सीमा है। बहुत खूबसूरत है। बहुत नौजवान है। बहुत कमसिन है। लेकिन बहुत बिगड़ी हुई है। अपने कालगर्ल के धन्धे से ऐसी संतुष्ट है जैसे जिन्दगी का बहुत बड़ा काम कर रही हो।”
“खोटी अक्ल की मिसाल होगी!”
“बिलकुल। शायद तुझे उसकी याद हो! गुरबख्श लाल की नये साल की पार्टी में उसकी फरीदाबाद वाली कोठी में मेहमानों को एन्टरटेन करने के लिये लड़कियों का जो रेवड वहां जमा था, सीमा उनमें से एक थी।”
“जिसको मोनिका की तरह सुधरने के लिये तेरी माली इमदाद की पेशकश नाकबूल थी! जो अल्लामारी कहती थी कि छ: लाख कौन सी बड़ी रकम थी! इतना तो वो छ: महीने में कमा लेगी!”
“वही।”
“लंगड़े की उस तक पहुंच कैसे होगी?”
“पहुंच बनानी होगी। सीमा को देख कर खुद ही लंगड़े की लार न टपकी तो बाकी कालगर्ल्स से कहलवाना होगा कि उनमें से कोई भी फ्री नहीं थी इसलिए वो सीमा पर राजी हो।”
“ऐसा क्योंकर होगा?”
“कुशवाहा करेगा। अब तक वो सीमा को तलब कर चुका होगा। आगे उस बाबत जो मेरी मंशा है, उस पर अमल कुशवाहा के जरिये होगा।”
“बाप, मेरी अक्ल मोटी। पण जो मैं समझा वो ये कि तू उस बाई को, सीमा को, लंगड़े पर, वो क्या कहते है अंग्रेजी में, थोपना मांगता है?”
“ऐसीच है।” — विमल विनोदपूर्ण स्वर में बोला।
“मेरी जुबान बोलता है।” — मुबारक अली भी हंसा — “पण क्यों?”
“ताकि वो लंगड़ा, तेरी जुबान में, फिट हो जाये।”
“ऐसा?”
“हां।”
“फिर क्या वान्दा है?”
“कोई वान्दा नहीं। अब तू मुझे लोटस क्लब ले के चल।”
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