“जगमोहन ने इतनी देर कैसे लगा दी... ?” आख़िरकार भटनागर कह उठा – “तीन घंटे होने को आ रहे हैं।”

देवराज चौहान और सोहनलाल की आँखें मिली, परन्तु वे खामोश रहे।

केसरिया ने देवराज चौहान से कहा।

“उसे मालूम है कि यहाँ आना है ?”

“मालूम है।” देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा।

“तो फिर अभी तक पहुंचा क्यों नहीं ?” भटनागर ने दांतों से होंठ काटते हुए देवराज चौहान को देखा।

“आ जाएगा।” सोहनलाल ने गंभीर स्वर में कहा – “वो कभी रास्ता नहीं भूलता।”

नानकचंद ने सिगरेट सुलगाई और कश लेकर, देवराज चौहान को देखा।

“तेरे बारे में ये सुन रखा था कि तू अपने साथियों को धोखा नहीं देता। तभी तेरी बात बिना इनकार के मानी कि हीरे बाहर मौजूद जगमोहन को दे दिए जायेंगे। वो उन्हें लेकर यहाँ पहुंचेगा। लेकिन वो तो पहुंचा नहीं और हम पहुँच गए। सब ठीक है न देवराज चौहान। तेरा साथी यहाँ पहुँच जाएगा।”

“पहुँच जाएगा।” देवराज चौहान के होंठों में एकाएक कसाव आ गया – “अगर कोई ऐसी-वैसी बात होती तो तुम यहाँ तक न पहुँच पाते। रास्ते में ही तुम्हे झाड कर अलग कर दिया जाता। इसलिए अपनी शक से भरी बातें करना बंद कर दो।”

नानकचंद ने देवराज चौहान को घूरा।

“ओ केसरिया !”

“हाँ सरदार... !”

“देवराज चौहान का कहो हो ?”

“ये ठीक ही कहता है। अगर मन में बेईमानी होती तो हम दोनों को यहाँ भी क्यों लेकर आता।”

“हूँ। कोई गड़बड़ हुई तो ?”

“चिंता काहे की। निपट लेंगे।”

भटनागर ने सोच भरी निगाहों से एक तरफ सहमी-सी बैठी उस युवती को देखा, जो बारी-बारी से उन सबको देख रही थी, परन्तु उसकी आँखों में जाने किस बात की दृढ़ता भरी हुई थी।

“देवराज चौहान...।” भटनागर कह उठा – “इस लड़की का क्या करना है।”

सबकी निगाह युवती की तरफ उठी।

“इस मामले को बाद में देखेंगे।” देवराज चौहान ने सपाट स्वर में कहा।

“बाद में।” भटनागर के माथे पर बल उभरे – “तुम शायद मेरी पोजीशन नहीं समझ रहे। यहाँ, इस फ्लैट में मैं इज्ज़त से रहता हूँ। आस-पड़ोस के लोग मुझे बिज़नेसमैन समझते हैं। तुम्हारी, सोहनलाल और जगमोहन की बात और थी कि यहाँ बैठकर डकैती के मामलों पर सोच-विचार कर लिया गया। अब नानकचंद और केसरिया भी यहाँ आ गए हैं। ऊपर से ये युवती। स्पष्ट बात तो ये है कि इतने लोगों को मैं यहाँ नहीं रख सकता। खासतौर से इस युवती को। कभी भी ये चीख-चिल्ला सकती है। इसकी आवाज़ बाहर जा सकती है। ऐसे में मैं यहाँ रहने वाले लोगों को क्या मुंह दिखाऊंगा।”

देवराज चौहान के कुछ कहने से पहले ही युवती बोल उठी।

“मैं... मैं नहीं चिल्लाउंगी।”

देवराज चौहान के चेहरे पर सोच के भाव थे।

“मैं।” भटनागर ने देवराज चौहन की आँखों में देखा – “इस लड़की को यहाँ नहीं रख सकता। ये कभी भी मेरे लिए मुसीबतें खड़ी कर सकती हैं। अच्छा यहीं होगा कि कहीं ले जाकर इसका गला दबा दो। इसे साथ-साथ लेकर घुमने से, हमारे लिए खतरा बढेगा और ख़त्म कर देने से खतरा घटेगा।”

“बात तो चौखी बोले हो, ये...।” नानकचंद ने युवती को देखते हुए सिर हिलाया।

देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाकर भटनागर को देखा।

“आने वाले वक़्त में जो हालात पैदा होंगे, उन्ही को सामने रखकर, इस युवती के बारे में फैसला किया जाएगा। तब तक ये हमारे पास ही रहेगी। तुम लोगों की निगरानी में रहेगी। मुझसे पूछे बिना इसकी जान नहीं लेनी है, अगर ये किसी तरह की गलत हरकत करने की चेष्टा करे तो बेशक इसे ख़त्म कर दिया जाए।”

“लेकिन मैं इसे अपने फ्लैट पर नहीं रखना चाहता।” भटनागर अपने शब्दों पर जोर देकर कह उठा – “सही बात तो ये है कि मैं इतने लोगों को अपने फ्लैट पर रखकर, कोई नयी मुसीबत नहीं खड़ी करना चाहता। मैनें अपराध की दुनियाँ देखी है। देर-सवेर में किसी बात को लेकर यहाँ हंगामा हो जाएगा। सब तो खिसक जायेंगे और मैं फंस जाऊँगा। क्योंकि मैं रहता हूँ यहाँ। यहाँ के लोग मुझे जानते हैं।”

देवराज चौहान के होंठों पर शांत मुस्कान उभरी।

“मैं तुम्हारी परेशानी को बहुत अच्छी तरह समझ गया हूँ।” देवराज चौहान ने कहा – “इसके लिए कहीं दूसरी जगह का इन्तजाम करना होगा। ऐसी जगह जो आबादी से हटकर हो। अगर कोई शोर पैदा हो तो कोई सुन न सके।”

भटनागर के होंठ भींच गए।

“मैं कोशिश करता हूँ कि ऐसी किसी जगह का इन्तजाम हो सके।” भटनागर बोला।

“कहाँ से करोगे इन्तजाम ?”

“किसी को फोन पर बोलता हूँ। वो शायद कर दे।”

“इस मामले में किसी को लाना ठीक नहीं होगा।”

“वो इस मामले में नहीं आयेगा और मेरा ख़ास है। उसकी तरफ से तुम निश्चिंत रहो।” भटनागर बोला।

“ठीक है। अगर तुम्हे अपनी पहचान वाले पर भरोसा है तो, फोन पर उससे बात कर लो।”

भटनागर फोन की तरफ बढ़ गया।

देवराज चौहान उठा और युवती की तरफ बढ़ा।

“केसरिया... !” नानकचंद धीमे स्वर में फुसफुसाया।

“हाँ सरदार... !” केसरिया का स्वर भी धीमा था।

“ये छोरी तो कसी हुई, पूरी फिट लगे हो।”

“ठीक बोला सरदार...।” केसरिया ने सिर हिलाया।

“हमारा तो दिल ही छोरी पर आ गया हो।”

“चुप सरदार। किसी को पता चल गया तो, नयी मुसीबत खड़ी हो जायेगी।”

“वो तो ठीक है। पर दिल का क्या करें...।” नानकचंद मूंछ को उमेठ रहा था। नज़रें युवती पर थीं।

“दिल का इन्तजाम भी हो जायेगा सरदार। पहला मौका मिलते ही निपट लेना।”

“वाह केसरिया ! तेरी बात सुनकर लगा, जैसे सारा काम निपट ही गया हो।”

☐☐☐

देवराज चौहान युवती के दो कदम दूर कुर्सी पर बैठा और कश लेकर बोला।

“क्या नाम है तुम्हारा ?”

“जया...।” उसके होंठों से निकला। नज़रें देवराज चौहान पर थीं।

“केटली एंड केटली शोरूम में सेल्सगर्ल्स का काम करती हो ?”

जाया ने हौले से, सहमती से, सिर हिला दिया।

“तुम बहुत गलत मौके पर, गलत वक़्त पर बेसमेंट में आई।” देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा – “अब तक डकैती के बारे में मालूम हो गया होगा और तुम्हारे गायब होने के बारे में भी।”

जया कुछ नहीं बोली।

“ये लोग तुम्हे जान से ख़त्म कर देना चाहते हैं।” देवराज चौहान की निगाह उस पर थी।

“मालूम है मुझे। अभी तक तुमने ही बचाया है मुझे।” जया भर्राए स्वर में कह उठी – “मैं किसी को कुछ नहीं बताउंगी... बल्कि मैं तो कहती हूँ, लूट के माल से कुछ पैसा मुझे भी दे दो कि मैं अपने माँ-बाप को साथ लेकर कहीं दूर निकल जाऊं। पैसे की वजह से हमेशा हाथ तंग रहता है। पिताजी ने ब्याज पर कभी पैसा लिया था। मेरी आधी से ज्यादा तनख्वाह तो ब्याज देने में ही चली जाती है।”

देवराज चौहान के कुछ कहने से पहले ही, नानकचंद कह उठा।

“ओ छोरी ! सच बोले हो तू.... ?”

जया ने सहमति से सिर हिलाया।

“अगर तू सच बोले हो तो समझ तेरी जान बच गयी। तेरे घर के बारे में हमें मालूम करना पड़ेगा। लेकिन इसमें वक़्त लगेगा। पहले जगमोहन को हीरे लेकर, आ लेने दे।” नानकचंद ने कहा।

जया होंठों पर जीभ फेर कर रह गयी।

“तुम बिना कोई चालाकी दिखाए, आराम से हमारे साथ रहो। इन लोगों के ज्यादा करीब मत जाना। ये तुम्हारे लिए खतरा बन सकते हैं। मेरी पूरी कोशिश होगी कि तुम्हे कुछ न हो...।”

जया सिर हिलाकर रह गयी। चेहरे पर ऐसे भाव आ गए, जैसे हौसला मिला हो।

“मेरी बात हुई है किसी से।” भटनागर रिसीवर रखकर बोला – “शहर के बाहरी इलाके में एक बंगला खाली है।”

“हमारी जरुरत के मुताबिक़ वो बंगला ठीक है ?” देवराज चौहान ने उसे देखा।

“हाँ। मैनें इस बारे में अच्छी तरह तसल्ली कर ली है।” भटनागर ने कहा।

देवराज चौहान ने सोहनलाल को देखा।

“जगमोहन को अब तक हर हाल में आ जाना चाहिए था।” देवराज चौहान बोला।

सोहनलाल ने गंभीरता से सिर हिलाया।

“जगमोहन के बारे में मालूम करो।” देवराज चौहान ने कहा।

“कहीं वो टेम्पो उसके लिए मुसीबत न बन गया हो।” सोहनलाल गहरी सांस लेकर उठता हुआ बोला।

“टेम्पो... ?” भटनागर ने उसे देखा।

“हाँ। वो चोरी का टेम्पो था।”

कोई कुछ नहीं बोला।

“मैं चलता हूँ।” सोहनलाल ने कहा – “जगमोहन को देखता हूँ कि वो अभी तक क्यों नहीं आया ?”

सोहनलाल के जाने के बाद देवराज चौहान ने भटनागर से कहा।

“उस बंगले की चाबी ले आओ। कहाँ है चाबी ?”

“मैं एक घंटे में ले आता हूँ।” भटनागर सिर हिलाकर बोला।

☐☐☐

केटली एंड केटली ब्रदर्स।

सतीश केटली। अजीत केटली।

शोरूम खुलने के समय सतीश केटली वहाँ मौजूद था। अजीत केटली फील्ड के काम निपटाकर लंच के आसपास शोरूम में आता था और कभी नहीं भी आ पाता था। जया, जब काफी देर से बेसमेंट से नहीं लौटी और दरवाजा खटखटाने पर, बेसमेंट की तरफ से दरवाजा भी नहीं खोला गया तो सतीश केटली के कहने पर बेसमेंट का दरवाजा तोडा गया।

उसके बाद बेसमेंट में जाकर सतीश केटली और अन्य कर्मचारियों ने बेसमेंट का नज़ारा देखा तो हक्के-बक्के रह गए। जया भी उन्हें गायब मिली।

सतीश केटली ने वापस शोरूम में आकर सबसे पहले अपने छोटे भाई अजीत केटली को डकैती की खबर दी। उसके बाद पुलिस को और फिर बीमा कंपनी को।

☐☐☐

केटली एंड केटली ज्वेलर्स शोरूम के बाहर और भीतर, भीड़ ही भीड़ नज़र आ रही थी। अधिकतर खाकी वर्दियां चमक रही थीं। पुलिस के बड़े-बड़े ऑफिसर वहाँ मौजूद थे। यह कोई छोटा मामला नहीं था। साढ़े चार अरब के हीरों की डकैती का मामला था और मामला केटली एंड केटली ब्रदर्स से वास्ता रखता था, जो कि शहर की जानी-मानी हस्तियाँ थी।

बीमा कंपनी के कई अधिकारी वहाँ मौजूद थे। साढ़े चार अरब के हीरों का बीमा, समाप्त होने में अभी चार दिन बाकी थे कि ये हादसा हो गया। इतनी बड़ी रकम का नुकसान भरने की सोचकर बीमा कंपनी के अधिकारी बौखलाए हुए थे।

पुलिस वाले तेजी और सतर्कता से अपना काम करने में व्यस्त थे। नाले के पाइप से जो रास्ता बनाया गया था, वो उस रास्ते को भी चेक कर रहे थे और वहाँ मिलने वाली हर चीज को सावधानी से अपने पास सुरक्षित रख रहे थे। बीमा कंपनी के अधिकारी भी आगे बढ़कर सारे मामले को देख-समझ लेना चाहते थे, परन्तु पुलिस वाले उन्हें यह कहकर दूर रख रहे थे कि उनकी गलती से सबूत मिट सकते है। अभी उन्हें काम करने दिया जाए।

एस.पी. रामकुमार की केटली ब्रदर्स से बात हो रही थी।

“केटली साहब ! क्या हुआ था ? आप सब कुछ सिलसिलेवार बताएँगे।” एस. पी. रामकुमार ने कहा।

“मेरे पास बताने को कुछ नहीं है।” सतीश केटली ने गंभीर स्वर में कहा – “यूँ तो सुबह मैं अकेला ही शोरूम पर आता हूँ। लेकिन आज मेरे साथ मेरी बेटी जया भी थी। वो शादी पर पुणे जा रही थी, उसे डायमंड के जेवरात चाहिए थे, शादी में पहनने को। वो बेसमेंट में पड़े थे। शोरूम खुलने के बाद कुछ देर मेरे साथ वो ऊपर के कामों में व्यस्त रही। उसके बाद चाबियाँ लेकर अपनी पसंद के डायमंड जेवरात लेने बेसमेंट में गयी और आधा घंटा बीतने पर भी वो नहीं लौटी तो, हमें बेसमेंट का दरवाजा तोडना पड़ा। तब मालूम हुआ कि अभी हमने फ्रांस से जो नीलामी में साढ़े चार अरब रुपये की कीमत के डायमंड खरीदे थे, जिन्हें बेसमेंट में स्टील केबिन जैसे सुरक्षित जगह पर रखा था, वहाँ नहीं है। केबिन का दरवाजा खुला पडा है। और आने वालों ने दीवार तोड़कर रास्ता बनाया है, जिसके पीछे सुखा, न इस्तेमाल में आने वाला नाला है। और जिन लोगों ने वो हीरे चोरी किये हैं, वो शायद मेरी बेटी जया को भी साथ ले गए हैं। बेसमेंट की चाबियां जो जया लेकर गयी थी, वो तो फर्श पर पड़ी हमें मिल गयी, परन्तु जया नहीं मिली।”

“आपको किसी पर शक है कि...।”

“नहीं।” सतीश केटली ने बात काटकर कहा – “एस.पी. साहब, मुझे हीरों की ख़ास परवाह नहीं है। उन हीरों का बीमा हुआ पड़ा था। बीमा अवधि समाप्त होने में अभी चार दिन बाकी थे। हीरों का नुक्सान तो बीमा कंपनी से पूरा हो जाएगा लेकिन मेरी बेटी...।”

पास खड़े बीमा अधिकारी ने कुछ कहना चाहा तो एस. पी. ने टोका।

“मेरे सवालों के बीच आप कुछ नहीं बोलेंगे। जो पूछना हो बाद में पूछिये। आपको कंपनी की चिंता हो रही है कि अरबों रूपया देना पड़ेगा, जबकि हमारी परेशानियां आपसे कहीं ज्यादा है। हमें उन लोगों को तलाश करना है जो साढ़े चार अरब के हीरे ले गए। जो केटली साहब की बेटी को ले गए। इसके अलावा और भी कई परेशानियां हैं, जिन्हें बताना मैं जरुरी नहीं समझता।”

बीमा कंपनी के ब्रांच मैनेजर नेमचंद कटारिया ने तीखी निगाहों से एस.पी. को घूरा फिर दूसरी तरफ मुंह फेर कर भागदौड़ में लगे, पुलिस वालों को देखने लगा।

“मेरी बेटी मुझे हर हाल में सलामत चाहिए एस.पी...।” सतीश केटली शब्दों को चबाकर कह उठा।

“आप फ़िक्र मत कीजिये केटली साहब।” एस.पी. ने विश्वास भरे स्वर में कहा – “हीरों से ज्यादा जरुरी हम आपकी बेटी को समझते हैं। हम उसे ढूंढ निकालेंगे।”

तभी अजीत केटली ने कहा – “मेरे ख्याल में जया ने उन लोगों को देख लिया होगा, जो हीरे ले गए हैं। यही वजह रही होगी कि वो जया को ले गए ताकि उनके बारे में जया किसी को बता न सके।”

“हाँ।” एस.पी. राम कुमार ने सिर हिलाया – “यही बात रही होगी कि...।”

“लेकिन जया को साथ ले जाने से उन लोगों का मतलब हल नहीं हुआ।” अजीत केटली ने कठोर स्वर में कहा – “क्योंकि बेसमेंट में लगे विडियो कैमरे ने उनकी हर हरकत नोट कर ली है। सब चेहरे कैसेट में आ चुके हैं। अलार्म की तार तो उन्होंने काट दी। लेकिन इस बात की तरफ उन लोगों का ध्यान गया ही नहीं कि बेसमेंट में भी विडियो कैमरा लगा हो सकता है।”

एस. पी. चौंका।

अजीत केटली की बात पर नेमचंद कटारिया भी सतर्क हो उठा।

“वो कैसेट कहाँ हैं ?” एस. पी. के होंठों से निकला।

अजीत केटली ने पास खड़े एक व्यक्ति को इशारा किया तो उसने विडियो कैसेट एस.पी. के हवाले कर दी। तभी अजीत केटली कह उठा।

“मैनें तो उन लोगों को देख लिया है। जया के साथ क्या हुआ, वो भी कैसेट में है। आप उन लोगों को पह्चानियें और उनकी कैद से जया को छुड़ाइए।”

एस. पी. कैसेट के साथ फ़ौरन वहाँ से हट गया।

सतीश केटली ने अपने छोटे भाई अजीत केटली को देखा।

“कैसेट में जो लोग दिखे। उनमें से किसी को जानते हो ?” सतीश केटली का स्वर कठोर था।

“नहीं भाई साहब।” अजीत केटली ने दाँत भींचकर कहा – “मैनें उन लोगों को पहले कभी नहीं देखा। सबके चेहरे कैसेट में स्पष्ट हैं। वे बातों में एक-दूसरे का नाम भी ले रहे हैं। पुलिस उन्हें आसानी से पकड़ लेगी।”

“उन्होंने जया को तंग तो नहीं किया ?” सतीश केटली के स्वर में गुस्सा और तड़प थी।

“नहीं।” अजीत केटली के दाँत भींचे हुए थे – “जया को उन्होंने कोई तकलीफ नहीं दी। वैसे भी मैं जया की तरफ से निश्चिंत हूँ। वो डरने और हारने वालों में से नहीं हैं। हालातों का अंत तक मुकाबला करेगी। मैनें उसे लड़कों की तरह पाला है। बुरे वक़्त में कैसे रहना है, वो सब जानती है। उसमें जो गुण हैं, वो आप भी जानते हैं।”

“वो तो ठीक है अजीत, लेकिन है तो वो लड़की ही..।” सतीश केटली ने बेचैनी से कहा।

अजीत केटली दाँत पीसकर रह गया।

तभी नेमचंद कटारिया दो कदम बढ़कर पास आया और अफ़सोस भरे स्वर में कह उठा।

“मुझे इस बात का बहुत दुःख है मिस्टर केटली कि वो लोग आप की बेटी को भी साथ ले गए। दौलत तो आती-जाती रहती है लेकिन औलाद के साथ कुछ बुरा नहीं होना चाहिए।”

“सब ठीक हो जाएगा।” अजीत केटली ने विश्वास भरे, सख्त स्वर में कहा – “हमें जया पर पूरा भरोसा है।”

“भगवान् करें, आपकी बात सच निकले।” नेमचंद कटारिया ने हमदर्दी भरे स्वर में कहा – “मुझे वो विडिओ कैसेट मिल सकती है, जिनमें उन सब लोगों के चेहरे हैं ? और...।”

“श्योर मिस्टर कटारिया।” अजीत केटली ने कहा – “मैं एस. पी. साहब से कह दूंगा।”

“शुक्रिया।”

नेमचंद कटारिया वहाँ से हटा और अपने काम में व्यस्त एस.पी. रामकुमार के पास पहुंचा और बांह पकड़कर उसे एक तरफ ले जाकर उखड़े स्वर में बोला।

“स्कूल में तुम मेरी कॉपी से नक़ल मारकर पास होते रहे थे राम।”

“एक बार नकल मारी थी।” रामकुमार ने इधर-उधर देखते हुए कहा।

“पुलिस वाले बन गए हो। अब तो झूठ मत बोलो। तुम हर बार मेरी नक़ल मार कर...।”

“नेमचंद ! इस वक़्त मैं व्यस्त....।”

“मेरे पास भी फालतू वक़्त नहीं है।” नेमचंद कटारिया शिकायती स्वर में कह उठा – “उस वक़्त तुम क्या कर रहे थे कि बीमा कंपनी को अरबों रुपये देने की चिंता हो रही है। होगी नहीं क्या ? साढ़े चार अरब के हीरे थे। कंपनी की तो ऐसी-तैसी फिर जायेगी।”

“बीमा कंपनी को कोई फर्क नहीं पड़ेगा। हराम के बहुत अरबों रुपयें हैं कंपनी के पास...।”

“क्या तुम...।”

“प्लीज रामकुमार ! मैं बिजी...।”

“ठीक है। इस कैसेट की कॉपी मुझे आज ही चाहिए। ऑफिशियली तौर पर भी मैं ले सकता हूँ परन्तु उसमें एक-दो दिन का वक़्त लग जाएगा। केटली तुम्हे कह देगा कि एक कॉपी कैसेट की मुझे दे देना।”

एस.पी नेमचंद ने कटारिया को देखा।

“तुम करना क्या चाहते हो ?”

“मुझे जो करना होगा, मैं कर लूँगा। साढ़े चार अरब रुपये बीमा कंपनी से लेना आसान नहीं है।”

“नेमचंद ! बीमा कंपनी की हरकतें पुलिस के काम में अड़चन पैदा कर...।”

“मुझे पुलिस के काम से कुछ लेना-देना नहीं है।” नेमचंद कटारिया ने जले-भूने स्वर में कहा – “पुलिस का क्या है, वो केटली एंड केटली को लिखित रिपोर्ट दे कि डाका पड़ा और साढ़े चार अरब के हीरे चोरी हो गए। महीने बाद दूसरी रिपोर्ट केटली एंड केटली के पास पहुँच जायेगी कि पुलिस उन हीरों का तलाश करने में सफल नहीं हो सकी। केटली एंड केटली वो रिपोर्ट बीमा कंपनी को भेजेगा और खड़े पाँव कंपनी को साढ़े चार अरब रुपये के चेक केटली एंड केटली को देना पड़ेंगा। तुम्हारा क्या गया। माल तो हमारा गया। ऊपर वाले मेरे से जवाब मांगेंगे क्योंकि मैं ब्रांच मैनेजर हूँ। वो मेरे साथ कोई भी सख्त सलूक कर सकते हैं। इस सारे मामले में तुम्हारी वर्दी को तो कुछ नहीं होगा। लेकिन मेरी नौकरी को कुछ भी हो सकता है।”

एस.पी. रामकुमार नेमचंद कटारिया को देखता रहा।

“तुम ये कैसेट कब देखोगे ?”

“यहाँ से मुझे फुर्सत मिलने में आधा घंटा लगेगा। उसके बाद...।”

“आधा घंटा बहुत होता है। तुम मुझे कैसेट दो। मैं पंद्रह मिनट में ही, पास ही कहीं से इसकी दूसरी कॉपी करवा लेता हूँ।”

“सॉरी, मैं ये कैसेट तुम्हारे हवाले नहीं कर सकता।”

“कहीं मैं लेकर न भाग...।”

“समझा करो नेमचंद। इस डकैती का पूरा ब्यौरा दर्ज है कैसेट में और...।”

“ठीक है। मेरे साथ किसी पुलिस वाले को भेज दो। कैसेट उसके पास रहेगी। मैं हाथ नहीं लगाऊंगा।”

“जल्दी आना।”

“पंद्रह मिनट से ज्यादा का वक़्त नहीं लगेगा।” नेमचंद कटारिया ने जल्दी से कहा।

एस.पी. रामकुमार ने एक इंस्पेक्टर को बुलाया। कैसेट उसे दी। उसे समझाया फिर वो इंस्पेक्टर नेमचंद कटारिया के साथ केटली एंड केटली शोरूम से बाहर निकल गया।

☐☐☐

नेमचंद कटारिया और बीमा कंपनी के दो बड़े ओहदेदार तीन बार वो विडियो फिल्म देख चुके थे, जिसमें केटली एंड केटली के बेसमेंट में मौजूद, देवराज चौहान, सोहनलाल, भटनागर, नानकचंद और केसरिया अपने काम में व्यस्त नज़र आ रहे थे। और कैसेट के आखिर में जया केटली वहाँ पहुचती नज़र आई और कैसे उनकी गिरफ्त में पहुंची सब देखा-समझा गया।

कटारिया ने विडिओ ऑफ किया और होंठ भींचे टहलने लगा।

“ये सब खतरनाक लोग हैं, जिन्होंने डकैती डाली।” एक अधिकारी ने कहा।

“हाँ।” नेमचंद कटारिया ठिठका – “उसमें कोई शक नहीं कि ये सब खतरनाक हैं। और उन सबका बड़ा वो सफ़ेद चेक की शर्ट पहने है। उसी के कहने पर शायद जया की जान नहीं ली गयी...।”

“कैसेट में आवाजें क्यों नहीं स्पष्ट आ रहीं ?” दूसरा अधिकारी बोला।

“रिकॉर्डिंग में ही कोई खराबी है। मास्टर कॉपी में भी आवाजें इसी तरह थीं।” नेमचंद कटारिया अपना गाल मसलते हुए कह उठा – “उनकी बातें समझ नहीं आ रही कि वो क्या बातें करते रहे हैं लेकिन हो सकता है पुलिस इन्हें, इनके चेहरों से पहचानती हो।”

“मुझे तो नहीं लगता कि पुलिस इनसे हीरे बरामद कर पायेगी।” एक ने उलझन भरे स्वर में कहा – “कंपनी को सीधे-सीधे साढ़े चार अरब रुपये की चोट पड़ गयी है। हमारा ओहदा तो तुमसे छोटा है नेमचंद, लेकिन कंपनी के ऑफिसर अपना सारा गुस्सा तुम पर उतारेंगे। या तो तुम्हे कहीं दूर ट्रान्सफर कर देंगे या फिर तुमसे इस्तीफा ले लेंगे। डेढ़ साल पहले भी इस ब्रांच द्वारा किया गए बीमे की भारी रकम अदा करनी पड़ी थी। तब ऊपर वालों ने तुम्हे वार्निंग दी थी कि संभल कर काम करो।”

“अब इसमें मैं क्या कर सकता हूँ अगर कहीं डाका पड़ जाए, किसी का हार्टफ़ैल हो जाए।” नेमचंद कटारिया झुंझला कर बोला – “कंपनी को जो फायदा पहुंचाता हूँ, उसके बारे में तो कंपनी सोचती नहीं, और जब नुक्सान होता है तो वो लोग मेरा गला पकड़ने पर अमादा हो जाते हैं।”

तभी दरवाजा खोलकर एक युवक ने भीतर प्रवेश किया।

तीनों की निगाह उस पर गयी। वो नेमचंद कटारिया को देखकर कह उठा।

“सर, तिवारी साहब ने आने से मना कर दिया है।”

नेमचंद कटारिया के दाँत भींच गए। फिर वो उन दोनों से बोला।

“आप लोग जाईये।”

वो दोनों बाहर निकल गए।

नेमचंद पलटा और टेबल के पीछे मौजूद कुर्सी पर बैठता हुआ बोला - “बैठो।”

वो युवक आगे बढ़कर बैठ गया।

“क्या कहता है तिवारी ?” नेमचंद कटारिया ने पूछा।

युवक हिचकिचाया।

“बोलो बोलो। अपने सवाल का जवाब मैं बाखूबी जानता हूँ। क्या कहा तिवारी ने...?”

“सर तिवारी साहब को मालूम हो गया तो वो मुझे...।”

“मैं उसे कुछ नहीं बताऊंगा। तुम कहो।”

“सर, वो आपको बूढा कहकर, गलियाँ देने लगा और मुझे बिना चाय पिलाए कहा कि मैं चला जाऊं...।”

नेमचंद कटारिया ने सिर हिलाया। चेहरे पर सोच के भाव उभरे।

“अपने घर पर है वो ?”

“जी। कच्छा डालकर बैठा हुआ था।” युवक ने मुंह बनाकर कहा – “इतनी भी शर्म नहीं कि उसके ऑफिस से कोई आया है। कम से कम पायजामा तो डाल लूं।”

“तुम जाओ।”

“यस सर...।” कहने के साथ ही युवक उठा और बाहर निकलता चला गया।

नेमचंद कटारिया ने वी.सी.आर. में फंसी कैसेट निकाली और दरवाजे की तरफ बढ़ गया।

☐☐☐

वर्दीधारी ड्राईवर ने किनारे पर लगाकर कार रोकी फिर जल्दी से उतरकर, पीछे वाला दरवाजा खोला तो नेमचंद कटारिया बाहर निकला और बिना कुछ कहे सामने वाले मकान की तरफ बढ़ गया। मकान के गेट पर रंजन तिवारी, नाम की प्लेट लगी हुई थी।

गेट खोलकर नेमचंद कटारिया बरामदे में पहुँचा और कॉलबैल दबाई। कुछ सैकंडों में दरवाज़ा खुला। दरवाज़ा खोलने वाली पैंतीस बरस के आसपास की खूबसूरत औरत थी।

“नमस्कार-।” औरत ने दोनों हाथ जोड़कर कहा।

“नमस्कार। नमस्कार। कैसी हो बेटी?” नेमचंद कटारिया ने मुस्कराकर कहा।

“जी, अच्छी हूँ-।”

“रंजन है भीतर?”

“जी हाँ। आप आईये -।”

नेमचंद कटारिया भीतर प्रवेश कर गया। पहले कमरे में ही कच्छा पहने चालीस बरस का व्यक्ति सोफे पर पसरा पड़ा था और सिगरेट के कश ले रहा था।

नेमचंद कटारिया ने ठिठक कर उसे घूरा।

“रंजन तिवारी-!”

उसने नेमचंद कटारिया की तरफ बिना देखे कहा।

“मैं इस वक्त अपने घर पर हूँ। लम्बी छुट्टी इस शर्त पर ले रखी है कि ऑफिस की तरफ से कोई भी मुझे छुट्टी पूरी होने से पहले डिस्टर्ब नहीं करेगा। जब मैं ऑफिस आऊँगा तो सबको सलाम मारूँगा। ऑफिस के बाहर मैं छोटे-बड़े की परवाह नहीं करता।” कश लेते हुए रंजन तिवारी ने लापरवाही से कहा।

नेमचंद कटारिया ने गहरी साँस ली और कुर्सी पर बैठ गया।

“मैं तुम्हारे पास जरूरी काम से आया हूँ -।”

“सॉरी। मैं छुट्टी पर हूँ। लीव एप्लीकेशन में ये बात मैंने खास तौर पर लिखी थी कि छुट्टी के दौरान मुझे किसी भी हालत में डिस्टर्ब न किया जाए। मेरी इस शर्त को मानते हुए ही मुझे छुट्टी दी जाए। नहीं तो नहीं।”

नेमचंद कटारिया ने एक निगाह वहाँ खड़ी रंजन तिवारी की पत्नी पर मारी।

“कम से कम पानी के लिये तो पूछ लो -।”

“पानी पिला दो जनाब को।” रंजन तिवारी डंडा मारने वाले अंदाज में कह उठा।

उसकी पत्नी वहाँ से चली गई। पानी लाई तो नेमचंद कटारिया ने पानी पिया।

“चाय के लिये तो पूछ लो।” नेमचंद कटारिया अपने पर काबू पाता कह उठा।

“चाय भी पिला दो जनाब को।” कहने के साथ ही रंजन तिवारी ने कश लिया फिर सोफे पर उठकर बैठते हुए हाथ बढ़ाकर टेबल पर पड़ी ऐश ट्रे में सिगरेट डाल दी।

“मैं बहुत मुसीबत में -।” नेमचंद कटारिया ने कहना चाहा।

“मेरा बोनस कहने के बावजूद भी मुझे नहीं मिला। मेरी तरक्की रुकी हुई है। पचास बार कहने पर भी आपने मेरा पे स्केल नहीं बढ़ाया। जबकि ये तीनों चीजें आपके हाथ में हैं। मेरे कहने पर आप मुझे धौंस देते रहे। अपनी अफसरी मुझे पर झाड़ते रहे। महीने से आपके रंग-ढंग मैं देख रहा हूँ। सबको सबकी जरूरत पड़ती है। इस वक्त आप मेरे घर पर बैठे आप मुझे बता रहे हैं कि आप किसी मुसीबत में पड़ गये हैं और मैं सुन नहीं रहा। जैसे ऑफिस में आप मेरी बात पर ध्यान नहीं देते। कच्छा डालकर घर में बैठने का मजा ही कुछ और होता है।”

“रंजन तुम -।”

“मैं छुट्टी पर हूँ, और ऑफिस की कोई बात नहीं करना चाहता। मेरे ख्याल से आप यहाँ से निकल रहे होंगे। काफी दिन से मुलाक़ात नहीं हुई तो आपने सोचा तिवारी से मिलता चलूँ। खैर, मैं ठीक हूँ। चाय अभी आ रही है।”

“रंजन मुझे तुम्हारी सब बातें मंजूर हैं।”

“बातें? कौन सी बातें। मैंने तो कुछ कहा ही नहीं।”

“बोनस, तरक्की, पे स्केल सब ठीक कर दूँगा।” नेमचंद कटारिया ने अपने शब्दों पर जोर देकर कहा।

“तगड़ी ही मुसीबत सिर पर है।” रंजन तिवारी बड़बड़ाया- “वरना ये बुढऊ मानने वाला कहाँ था।” फिर उसने सीधे-सीधे नेमचंद कटारिया को देखा- “मैं कितने दिन से छुट्टी पर हूँ।”

“तुम्हें पता होगा।”

“अंदाजा तो होगा ही आपको...।”

“दस पंद्रह दिन हो गये।”

“ठीक है। मैं ये छुट्टी फिर ले लूँगा। मेरी छुट्टी की एप्लीकेशन फाड़ दीजिए और बीते पंद्रह दिनों से मुझे ऑफिस में हाजिर दिखाईए।” रंजन तिवारी ने लापरवाही से कहा।

“ठीक है। ऐसा ही करूँगा।”

रंजन तिवारी ने होंठ सिकोड़ कर नेमचंद कटारिया को देखा फिर ऊँचे स्वर में बोला।

“सुनती हो।”

“आई-।”

फौरन ही उसकी पत्नी वहाँ आई।

“काम बन गया है। मेरे 'सर' आए हैं। चाय के साथ बिस्कुट नमकीन भी ले आना।”

“जी -।” वो बाहर निकल गई।

नेमचंद कटारिया ने उसे घूरा फिर अपने पर काबू पाकर, कहा।

“मैं बहुत बड़ी मुसीबत में फँस गया हूँ रंजन-।”

“ऑफिशियल मुसीबत या प्राइवेट?”

“ऑफिशियल-।”

“मतलब की अपनी ब्रांच में किए गये बीमे की किसी को भारी रकम अदा करनी पड़ रही है।”

“साढ़े चार अरब रूपये।”

“साढ़े चार अ...।” रंजन तिवारी चौंका। अगले ही पल उसके होंठों से निकला- “मतलब की केटली ब्रदर्स के यहाँ साढ़े चार अरब के हीरे कोई ले उड़ा-।”

“हाँ। लेकिन तुम तो छुट्टी पर थे जब ये बीमा हुआ।”

“मैं कहीं भी रहूँ अपने ऑफिस की खबरें मुझे मिल जाती हैं। खूब- कब हुआ ये सब?”

“आज कुछ घंटे पहले। अगर हीरों को बरामद न किया गया तो, बीमा कम्पनी को साढ़े चार अरब की चोट पहुँचेगी। ऊपर वाले पहले से ही मेरे से खफा हैं। मेरा काम तो वो कर ही देंगे। सब कुछ तभी ठीक हो सकता है जब वे हीरे मिल जायेंगे। बीमा कम्पनी को पैसा नहीं देना पड़ेगा। ये काम तुम कर सकते हो।”

“मैं।”

“हाँ। तुम बीमा कम्पनी के नम्बर वन डिटेक्टिव हो। तुमने आज तक जो भी केस हाथ में लिया...।”

“सॉरी सर। जरूरी तो नहीं कि मैं ये काम कर सकूँ। मुझे नहीं मालूम डकैती कैसे हुई? हीरों को ले जाने वाले कौन थे? कितने थे? साढ़े चार अरब के हीरे-।” रंजन तिवारी की आँखें सिकुड़ गई - “नहीं सर, आसान नहीं है ये काम करना। ये बहुत बड़ी रकम है।”

“प्लीज़ रंजन। तुम्हारा रिकॉर्ड देखते हुए,मैंने हमेशा तुम पर विश्वास किया है। पुलिस को तो केटली की बेटी जया की चिंता है। जिसे हीरे ले जाने वाले साथ ले गये। साढ़े चार अरब के हीरों के बारे में तो वे सोच ही नहीं रहे।”

रंजन तिवारी ने नेमचंद कटारिया को देखा।

“हीरों की डकैती के विषय बारे में मुझे कुछ नहीं पता कि कहाँ क्या हुआ? और-।”

“ये वीडियो  कैसेट। इनमें उन लोगों के चेहरे हैं, जिन्होंने हीरों को लूटा है। तब वीडियो कैमरा ऑन था, जब वे लोग हीरे पाने के लिये शोरूम के बेसमेंट में प्रवेश कर आये। बाकी जो कुछ मैं जानता हूँ बता देता हूँ। जो बच जायेगा, वो तुम मालूम कर ही सकते हो।” नेमचंद कटारिया ने व्यकुलता से कहा - “तुमने जो करना है जल्दी करो।”

कैसेट थामे रंजन तिवारी उठ खड़ा हुआ, वी सी आर में उसे लगाने के लिए।

☐☐☐

“देवराज चौहान-।” कैसेट देखते हुए रंजन तिवारी के होंठों से अजीब-सा स्वर निकला।

नेमचंद कटारिया की निगाह फ़ौरन टी.वी से हटकर रंजन तिवारी पर गई।

“कौन देवराज चौहान?”

“सर, ये तो देवराज चौहान है। सफेद चेक, शर्ट वाला। परफेक्ट डकैती मास्टर।”

“ओह! शायद ये नाम सुन रखा है मैंने।” नेमचंद कटारिया कह उठा- “तुम देवराज चौहान को कैसे जानते हो?”

“जाती तौर पर तो नहीं जानता। बीमा कम्पनी का जासूस हूँ, तो ऐसे लोगों के चेहरे को याद रखना मेरी ड्यूटी में ही आता है।” रंजन तिवारी होंठ सिकोड़ कर कह उठा- “लेकिन इस कैसेट में दो बातें अजीब हैं।”

“वो क्या?”

“पहली बात तो यह कि इनमें जगमोहन नहीं है।”

“वो कौन है?”

“देवराज चौहान का सबसे ख़ास। देवराज चौहान की ज़िन्दगी में शायद ही ऐसी कोई डकैती हो, जिसमें जगमोहन शामिल न हो। और इस कैसेट में जगमोहन कहीं भी नज़र नहीं आ रहा। वीडियो कैमरे का साउंड सिस्टम शायद खराब था, तभी इनमें हो रही बातें रिकॉर्ड नहीं हो सकी।” रंजीत तिवारी बोला।

“दूसरी बात क्या है?”

“दूसरी बात मुझे ये खटक रही है, कि इस डकैती में इतने लोगों की जरूरत नहीं थी, जितने कि कैसेट में नजर आ रहे हैं। देवराज चौहान के बारे में सुन रखा है, कि वो सिर्फ जरूरत के मुताबिक ही काम के दौरान लोगों को साथ लेता है। फिर इतने लोग बेसमेंट में कैसे?”

टीवी पर उन लोगों के चेहरे नज़र आ रहे थे।

रंजन तिवारी की नज़रें स्क्रीन पर थीं।

“पुलिस क्या कहती है?” एकाएक रंजन तिवारी ने पूछा।

“अभी पुलिस कुछ नहीं कहती। केटली शोरूम के यहाँ पुलिस अपना काम कर रही है। एस पी रामकुमार ने अब तक कैसेट देख ली होगी। शायद वो किसी नतीजे पर पहुँचा हो। तुम-।”

“सर।” रंजन तिवारी कह उठा- “पुलिस भी पक्के तौर पर देवराज चौहान को पहचान लेगी, और वो देवराज चौहान की तलाश में भागा-दौड़ी करेगी। लेकिन देवराज चौहान हाथ में नहीं आने वाला। अगर देवराज चौहान के साथ के लोगों को तलाश किया जाये तो शायद सफलता हाथ लगे।”

“रंजन! तुम जो ठीक समझते हो, वो ही करो। लेकिन फौरन करो। अगर वो हीरे न मिले तो मेरी जान निकल जायेगी। न निकली तो बीमा कम्पनी के बड़े अफसर मुझे रगड़ देंगे। साढ़े चार अरब के हीरों को तलाश करो। हमें इस बात से कोई मतलब नहीं कि डकैती किसने की। वो पकड़े जाते हैं, या नहीं। हमे सिर्फ हीरे वापस चाहिए।”

तभी रंजन तिवारी की पत्नी चाय और बिस्कुट-नमकीन ले आई। वो रखकर चली गई।

रंजन तिवारी उठते हुए बोला।

“सर, आप चाय पीजिये। मैं अभी आया।”

नेमचंद कटारिया ने उसे सिर से पाँव तक देखा।

“कम से कम, किसी के घर पर आने पर तो कच्छे के ऊपर कुछ पहन लिया करो।”

“सर, आप मेरे पर्सनल मामले में दखल दे रहे हैं।”

“मेरी तरफ से ये भी मत पहनो, लेकिन साढ़े चार अरब रुपयों के हीरों को तलाश कर लो।”

रंजन तिवारी मुस्कराया और दूसरे कमरे की तरफ बढ़ गया। उसकी लम्बाई मात्र सवा पाँच फीट थी। क्लीन शेव्ड रहता था वो। शरीर अब थुलथुला होने लगा था लेकिन फुर्तीला था। उसे देखकर कोई सोच भी नहीं सकता था कि वो ऐसा इनसान है जो गंभीर से गंभीर उलझे मामलों की तह तक भी पहुँच जाता था।

☐☐☐

पुलिस हेडक्वार्टर के उस रूम में कम से कम पन्द्रह पुलिस वाले थे। अधिकतर पुलिस वालों का संबंध क्राइम ब्रांच से था। अभी-अभी ये सब वीडियो कैसेट देखकर हटे थे।

“तो ये डकैती देवराज चौहान ने की है।” एस.पी रामकुमार कह उठा।

“साथ में सोहनलाल भी है। जो केबिन का लॉक खोल रहा है। मैंने उसे देखा हुआ है।” एक पुलिस वाला बोला।

तभी एक पुलिस वाला कह उठा।

“सर, मैं कैसेट दोबारा देखना चाहता हूँ।”

कैसेट रिवाइंड करके, दोबारा लगाई गई।

सबने कैसेट दोबारा देखी। उसके बाद वो पुलिस वाला कह उठा।

“सर, वो मूँछों वाला और उसके साथ वाला। दोनों ही लम्बे इनसान हैं, और अगर मैं धोखा नहीं खा रहा तो मूँछों वाला चम्बल का मशहूर डाकू नानकचंद है, और साथ में उसका ख़ास साथी केसरिया है। बीते कई महीनों से, चम्बल में पुलिस वालों की हत्या करके ये लोग, वहाँ से फरार हैं। वहाँ की पुलिस को इनकी कोई खबर नहीं मिल रही। ये तो अब मालूम हुआ कि ये मुम्बई आ गये हैं। चम्बल की पुलिस को अभी भी इनकी तलाश है।”

“अच्छी तरह पहचाना है दोनों को?” एस.पी रामकुमार ने उसे देखा।

“यस सर। वैसे इन दोनों ने अपने हुलिये बदल रखे हैं। लेकिन मैं पहचानने में धोखा नहीं खा सकता। एक बार किसी भी अपराधी की फाइल-तस्वीर देख लेता हूँ तो फिर उसे नहीं भूलता।” उसने पक्के स्वर में कहा।

“अच्छी बात है। नानकचंद और केसरिया की फाइल मँगवाकर, तस्सली कर ली जाएगी। और तब तक हम तुम्हारी बात को पूरी तरह सच मानते हैं।” एस.पी रामकुमार ने गंभीर स्वर में कहा- “वीडियो फिल्म में पाँच चेहरे नज़र आये हैं, और हम चार को पहचान चुके हैं। लेकिन पाँचवे के बारे में हम में से कोई नहीं जानता। शायद इसलिए नहीं जानता होगा कि उसका कोई पुलिस रिकॉर्ड नहीं होगा, या फिर हो भी सकता है। देवराज चौहान नानकचंद,केसरिया, सोहनलाल और वो पाँचवा जो पहचाना नहीं जा रहा, वीडियो फिल्म से इनके प्रिंट तैयार करवा लिए जाएँ ताकि इन लोगों को ढूँढने में ज्यादा परेशानी न आये पुलिस वालों को।”

“सर !” पुलिस वाला बोला - “केटली एंड केटली ब्रदर्स ने हीरो को जब शोरूम में रखा तो एक रात ही वे सुरक्षित रह सके। दूसरी रात वहाँ डकैती हो गई। यानि कि देवराज चौहान को उन हीरों के वहाँ पहुँचने की पहले से ही खबर थी और डकैती के लिए उनकी तैयारी पहले से ही हो रही थी। वरना हीरों के आते ही, इतनी जल्दी डकैती न होती।”

“तुम ठीक कहते हो। जिस तरह उन लोगों ने शोरूम के बेसमैंट तक पहुँचने के लिए, बरसों से बंद, सूखे नाले का इस्तेमाल किया वो पुलिस स्टेशन के प्रवेश द्वार से मात्र सौ गज दूर था। उस मैनहोल के ऊपर रात से लेकर, दिन के ग्यारह-बारह बजे तक टैम्पो खड़ा रहा, और किसी ने उस टैम्पो वाले से पूछताछ नहीं की कि वो रात से पुलिस स्टेशन के बाहर क्यों खड़ा है, जबकि वो देवराज चौहान का ही साथी था और टैम्पो के माध्यम से वो अपने साथियों को, पुलिस की आड़ दे रहा था।” एस पी रामकुमार ने तीखे स्वर में कहा।

“सर !” एक ने कहा - “दिन में नौ-दस बजे तक एक कांस्टेबल टैम्पो के पास गया था, और टैम्पो के पास जो आदमी था उनसे इस बारे में पूछताछ की थी। तब कांस्टेबल को उस पर ज़रा भी शक नहीं हुआ। क्योंकि उसके मुताबिक टैम्पो खराब था और उसका मालिक कहीं से पैसे लेने गया था, टैम्पो ठीक कराने के लिए...।”

“मैं बीते वक्त की गलतियाँ नहीं सुनना चाहता।”, एस पी रामकुमार ने उखड़े स्वर में कहा - “देवराज चौहान और उसके साथियों तक पहुँचने के लिए हमारे पास पर्याप्त सबूत मौजूद हैं। यूँ तो इस मामले को इंस्पेक्टर पवन कुमार वानखेड़े सम्भालता, क्योंकि देवराज चौहान के सारे मामलों को वही देखता है, परन्तु किसी ख़ास किस्म के काम के सिलसिले में कल ही वानखेड़े जर्मनी गया है। उसे आने में कुछ दिन लग सकते हैं। इसलिए मैं ये केस इंस्पेक्टर शाहिद खान को सौंपता हूँ जो कि इंस्पेक्टर वानखेड़े के करीब है और देवराज चौहान की दो-चार बातों की और जानकारी रखता होगा।”

इंस्पेक्टर शाहिद खान फ़ौरन उठा और उसने सैल्यूट मारा।

“थैंक यू सर।”

“इस केस की पहली खासियत है सतीश केटली की बेटी जया केटली। जया केटली को जल्द से जल्द हमने सही सलामत उन लोगों से हासिल करना है। इस काम में अगर देर हुई या जया के साथ कुछ ऊँच-नीच हो गई तो केटली ब्रदर्स हमारे लिए ढेरों मुसीबतें खड़ी कर देंगे। ऊपर हर जगह पर उनकी पहुँच है। वैसे भी पुलिस वालों का उसूल है, पहले जान की रक्षा करो फिर माल की। साढ़े चार अरब के हीरे भी हमें हासिल करने हैं, लेकिन दिमाग में ये रखना है कि पहले जया केटली को ठीक-ठाक ढंग से, उसके घर पहुँचा दिया जाये। देवराज चौहान या उसके साथियों को, फौरन तलाश करो। जब तक उनमें से कोई हाथ नहीं आएगा, इस काम में सफलता नहीं मिलेगी।”

“यस सर...” शाहिद खान ने अलर्ट स्वर में कहा।

“इस केस में तुम किसी भी पुलिस वाले का, किसी भी थाने की सहायता का इस्तेमाल कर सकते हो शाहिद खान। ये आर्डर मैं तुम्हें अभी लिख कर दे देता हूँ।” एस पी रामकुमार की आवाज़ सख्त हो गई- “लेकिन जल्द ही,सबसे पहले मैं ये खबर सुनना चाहता हूँ कि जया केटली सही-सलामत मिल गई है।”

“यस सर। “ - इंस्पेक्टर शाहिद खान ने कहा - “इस बारे में प्रेस को किस हद तक बताना है?”

“जिन लोगों ने डाका डाला है, उनके नाम बता दो और कह दो कि पुलिस को इन लोगों का, काफी हद तक सुराग मिल चुका है- और पूरी उम्मीद है कि एक-दो दिन में सब जेल की सलाखों के पीछे होंगे।”

“यस सर।”

☐☐☐

दोपहर बाद के तीन बज रहे थे।

अमृतपाल और बुझे सिंह सड़क के किनारे , पेड़ की छाया में पुलिया पर बैठे चने खा रहे थे। टैम्पो चोरी हो जाने से अमृतपाल का मूड खराब था।

“उस्ताद जी ! लंच में चने खाने से पेट नहीं भरता। काम भी नहीं चलता। अभी तो पैसे जेब में हैं। ढाबे पर मक्खन वगैरह डलवा के खाना खा सकते हैं।” बुझे सिंह कह उठा।

“कितने दिन बेकार बैठकर खाना खा लेंगे?” अमृतपाल ने उखड़े स्वर में कहा।

“बेकार बैठने की जरूरत ही क्या है उस्ताद जी। मेरी बहन के हाथ की गर्मा-गर्म रोटियाँ खाओ। उंगलियाँ चाटते रह जाओगे, उसकी बनाई सब्ज़ी खाकर।” बुझे सिंह दाँत दिखाकर कह उठा- “लेकिन ये सब तो तब होगा, जब आप मेरी बहन से ब्याह कर लोगे। उसके बाद हम दोनों सुबह निकला करेंगे और कमा कर शाम को लौटेंगे। मेरे होते चिंता क्यों करते हो। कभी-कभी तुस्सी आराम कर लेना, मैं अकेला ही काम पर चला जाया करूँगा। आपके सुख का मैं और मेरी बहन पूरा ख्याल रखेंगे।”

अमृतपाल ने तीखी नज़रों से उसे देखा।

“छोले-भटूरे नान दी रेहड़ी वगैरह लगा लेंगे। वो एक मेरे बचपन का यार है। चालीस रूपये प्लेट। वाह, क्या नान होते हैं उसके। वो घर से कार पर जाता है नान की रेहड़ी पर। अब तो ढाई मंजिला कोठी भी खड़ी कर ली है। इतनी कमाई है। तुस्सी प्लेटा विच नान-छोले पाया करना और मैं आवाजां मार-मार के लोगों को बुलाया करूँगा। रेहड़ी के ऊपर मोटा-मोटा लिख देंगे। जीजा-साले दे नान। एक बार खा लो। याद रखोगे हमारा नाम।”

“बूझे...।” अमृतपाल ने गहरी साँस ली।

“जी....।”

“तू ये क्यों नहीं सोचता कि टैम्पो मिल जाएगा।” अमृतपाल के स्वर में खीझ थी।

“ये सोचकर आपको धोखा नहीं दे सकता -।”

“क्यों?”

“क्योंकि मैं जानता हूँ, दो गोल-गोल हैड लाईटा और टूटा-फूटा टूल बॉक्स चार-छः महीनों के बाद पुलिस हमारे हाथ में देगी और कहेगी, लिख दो टैम्पो मिल गया है।” बुझे सिंह मुस्कराया।

अमृतपाल गहरी साँस लेकर रह गया।

“उस्ताद जी- अब बताओ आपका क्या प्रोग्राम है?”

“चल पुलिस स्टेशन -।” अमृतपाल उठ खड़ा हुआ।

“पुलिस स्टेशन चलूँ। मैंने तो कुछ भी नहीं किया। फिर क्यों -?”

“उल्लू के पट्ठे, ये मालूम करना है कि टैम्पो मिला है कि नहीं।” अमृतपाल ने दाँत भींचकर कहा।

बुझे सिंह हँस पड़ा।

“वाह उस्ताद जी! कल शाम को टैम्पो चोरी हुआ और अब बीस घंटों के बाद मिल जाएगा क्या! ऐसा तो राम-राज्य में भी नहीं होता था। आप तो खामख्वाह की बातें-।”

“तू चलता है या मैं जाऊँ?” अमृतपाल गुर्रा उठा।

“जरूर चलूँगा।” बुझे सिंह गहरी साँस लेकर उठ खड़ा हुआ- “गलती से पुलिस वालों ने हेडलाईटें और टूल बॉक्स थमा दिया तो आपसे संभाला नहीं जाएगा। पकड़ने के लिए भी तो कोई चाहिए ना। चलिए। चलिए।”

☐☐☐

सोहनलाल दो घंटे बाद वापस लौटा तो उसके चेहरे पर गम्भीरता और व्याकुलता भरी पड़ी थी।

“ओ केसरिया - !”

“हाँ, सरदार- !”

“पूछ तो, जगमोहन कहाँ पे है। हीरे लेकर खिसक गया ना, वो।” स्वर में जहरीलापन था।

सोहनलाल का गम्भीर चेहरा देखकर, देवराज चौहान की आँखें सिकुड़ी।

भटनागर ने गहरी निगाहों से सोहनलाल को देखते हुए पूछा। “क्या हुआ?”

“जगमोहन को पुलिस वालों ने चोरी के टैम्पो के साथ पकड़ लिया है। इस वक्त वो पुलिस स्टेशन के लॉकअप में है।”

सब चौंके।

नानकचन्द उछलकर खड़ा हो गया।

“ओ केसरिया, ये तो बोत बुरी खबर लाया रे।” नानकचंद हड़बड़ाकर कह उठा।

“हाँ,सरदार। हमारा डेढ़ अरब डूब गया।” केसरिया का चेहरा उतर गया।

“चुप रहो।” देवराज चौहान ने दोनों को सख्त निगाहों से देखा- फिर सोहनलाल से बोला- “कौन-से पुलिस स्टेशन में -?”

“चूना भट्टा के -।”

“चोरी के टैम्पो की वजह से पकड़ा गया है, या साढ़े अरब के हीरों की वजह से - ?” देवराज चौहान ने पूछा।

“चोरी के टैम्पो की वजह से। पुलिस ने उसे पकड़ा तो जगमोहन भाग निकला, परन्तु पुलिस ने पीछा नहीं छोड़ा और उसे पकड़ लिया गया।” सोहनलाल ने कहा - “उसके पास से न हीरे मिले और न ही कोई हथियार। जाहिर है कि गिरफ्तार होने से पहले दोनों चीजें जगमोहन ने ठिकाने लगा दी होंगी।”

“बच गये केसरिया। माल ठीक-ठाक हौवे।”

“हाँ, सरदार। बच गये।”

“पुलिस ने उसे पहचाना कि वो जगमोहन है?” देवराज चौहान ने पूछा।

“नहीं। पुलिस उसे सिर्फ चोर ही समझ रही है।”

“हूँ।” देवराज चौहान ने गंभीरता से सिर हिलाया - “ये अच्छी बात है कि पुलिस ने उसे हमारे साथी के तौर पर, जगमोहन के तौर पर नहीं पहचाना। यानि कि उसके बच निकलने के चांसेस  हैं।”

“ऐसे वक्त में जगमोहन का फँस जाना बहुत बुरा हुआ।” भटनागर चिन्तित स्वर में कह उठा - “साढ़े चार अरब के हीरे उसने जाने कहाँ छिपाये होंगे। किसी तरह जगमोहन से ये मालूम करना होगा, ताकि हीरों को अपने कब्जे में किया जा सके। किसी ओर के हाथ लग गए तो, सारी मेहनत मिट्टी में मिल जाएगी।”

देवराज चौहान और सोहनलाल की नजरें मिलीं।

“जगमोहन को वहाँ से बाहर निकालना होगा।” देवराज चौहान ने होंठ भींचकर कहा।

“लेकिन कैसे?” सोहनलाल ने कहा - “वो भरा-पूरा भीड़ वाला थाना है। ये काम आसान नहीं होगा।”

“आसान हो या नहीं। ये काम तो करना ही है।” देवराज चौहान ने दाँत भींचकर कहा।

जया एक तरफ खामोशी से बैठी उन लोगों को देख सुन रही थी।

“केटली के यहाँ डकैती के सम्बन्ध में पुलिस क्या कर रही है?” देवराज चौहान ने पूछा।

“इस बारे में मैंने कोई पूछताछ नहीं की। जगमोहन के बारे में खबर सुनते ही यहाँ आ गया।” सोहनलाल ने कहा।

तभी भटनागर कह उठा।

“मेरे ख्याल में सबसे पहले हम लोग, उस बँगले में चलते हैं। उसके बाद नये हालातों पर सोच-विचार किया जायेगा। अगर रात-रात में जगमोहन को नही छुड़ाया गया तो कल सुबह उसे कोर्ट में पेश करके, जेल भेज दिया जाएगा। पुलिस उसे पूछताछ के लिए रिमांड पर ले लेगी।”

“ठीक है।” देवराज चौहान ने सोच भरे स्वर में कहा- “पहले हम सब यहाँ से, उस बँगले में शिफ्ट होते हैं। उसके बाद जगमोहन को पुलिस वालों के हाथों से निकालने की सोचते हैं।”

☐☐☐

पुलिस वालों की मीटिंग समाप्त हुई ही थी कि रंजन तिवारी ने, एस पी से मुलाकात की। उसे देखते ही एस पी रामकुमार के माथे पर बल उभरे।

रंजन तिवारी शांत भाव से मुस्कराया।

“नमस्कार एस पी साहब।” रंजन तिवारी मीठे स्वर में बोला।

“तो नेमचंद ने तुम्हें, इस मामले पर लगाया है।” एस पी रामकुमार तीखे स्वर में कह उठा।

“सच बात तो ये है सर, कि मैं देवराज चौहान के मामले में आना ही नहीं चाहता। लेकिन क्या करूँ, नौकरी है, हुक्म मिलता है, वो तो बजाना ही पड़ता है। ये नौकरी भी मुसीबत है।” रंजन तिवारी ने गहरी साँस ली।

“मैं तुम्हें बहुत अच्छी तरह जानता हूँ रंजन तिवारी कि तुम क्या हो।” रामकुमार ने पूर्ववतः स्वर में कहा- “और मैं नहीं चाहता कि तुम इस मामले में दखल दो।”

“ऐसा मत कहिये सर। ये मेरी रोजी-रोटी का सवाल -।”

“तुम बीमा कम्पनी की तरफ से काम करते हुए, पहले भी कई बार पुलिस के काम में दिक्कतें खड़ी कर चुके हो। और इस बार तो मैं बर्दाश्त ही नहीं करूँगा कि -।”

“सर, इस बार ऐसा कुछ होगा ही नहीं।” रंजन तिवारी मुस्कराया।

“क्यों, इस बार ऐसी क्या ख़ास बात है?” रामकुमार चुभते स्वर में बोला।

“सर, आपको सतीश केटली की बेटी जया की चिन्ता है, और जया में बीमा कम्पनी को जरा भी दिलचस्पी नहीं है। बीमा कम्पनी चाहती है कि साढ़े चार अरब जैसी मोटी रकम, केटली को न देनी पड़े। यानि कि पुलिस को जया की और मुझे उन हीरों की जरूरत है। इसलिए पुलिस को मेरे से कोई परेशानी नहीं होगी।”

“पुलिस को हीरों की भी तलाश है।”

“जरूर होगी सर। पुलिस भी हीरे तलाश करेगी और मैं भी। बीच रास्ते में हमारा टकराव ही नहीं हो सकता। हो सकता है, मेरे हाथ हीरे न लगें, जया ही लग जाए तो आपकी काफी बड़ी परेशानी खत्म हो जायेगी।”

“बहुत चालाक बन रहे हो रंजन तिवारी।”

“ऐसी बात नहीं है सर! मैं तो...।”

“अगर पुलिस वालों ने मुझसे शिकायत की कि तुम उनके लिए मुसीबतें पैदा कर रहे हो तो मैं तुम्हें बन्द कर दूँगा और तुम्हारी बीमा कम्पनी भी तुम्हें नहीं बचा सकेगी।”

“ठीक है सर। ऐसा वक्त आया तो मैं खुद हाजिर हो जाऊँगा।”

“हूँ।” एस पी रामकुमार ने सिर हिलाया- “तो तुमने वो वीडियो कैसेट देख ली।”

“जी तभी तो पता चला कि केटली के यहाँ देवराज चौहान ने डकैती की है।” रंजन तिवारी बोला।

“और क्या मालूम है इस बारे में?”

“कुछ और ही तो मालूम करने आया हूँ यहाँ। सुना है पुलिस के पास बहुत जानकारी इकट्ठी हो चुकी है।”

“ये केस इंस्पेक्टर शाहिद खान हैंडल कर रहा है। उससे बात कर सकते हो। लेकिन याद रखना अगर...।”

“याद है सर। पुलिस का रास्ता अलग और मेरा रास्ता अलग।” रंजन तिवारी मीठे स्वर में कह उठा।

☐☐☐

“एस पी साहब ने इंटरकॉम पर तुम्हें बताने को न कहा होता तो मैं तुम्हारे एक भी सवाल का जवाब नहीं देता। एक बार तुमने मेरी सारी मेहनत पर पानी फेर दिया था।” इंस्पेक्टर शाहिद खान ने सख्त स्वर में कहा।

“इन बातों को छोड़ो यार।” रंजन तिवारी मुस्कराया- “ऑफिशियल तौर पर भी बीमा कम्पनी पुलिस कार्यवाही की रिपोर्ट माँग सकती है। क्योंकि साढ़े चार अरब रुपयों की ठुकाई बीमा कम्पनी को भी हो रही है। मेरे जैसे लोगों को खासी मोटी तनख्वाह देकर इसलिए रखती है कि कम्पनी की कम से कम ठुकाई हो सके। रही बात पिछली बार की तो, इस बार ऐसा नहीं होगा। वादा रहा।”

“तुम्हारे वादों को मैं अच्छी तरह जानता हूँ रंजन।”

“इस बार सच मान ले। हर बार तो मैं झूठा वायदा नहीं करता।” रंजन तिवारी प्यार से बोला।

इंस्पेक्टर शाहिद खान उसे घूरता रहा।

“क्या चाहते हो?” शाहिद खान ने शब्दों को चबाया।

“इस मामले की सारी जानकारी कि पुलिस को क्या-क्या मालूम हुआ। वीडियो कैसेट में देख चुका हूँ और देवराज चौहान को मैंने पहचान लिया है। बाकी सब कुछ मोटे तौर पर बता दो।”

“सिर्फ देवराज चौहान को ही पहचाना है?”

“हाँ।” रंजन तिवारी ने उसकी आँखों में देखा - “और कौन-कौन हैं वीडियो फिल्म में?”

“मूँछों वाला, चम्बल का खतराक डाकू नानकचंद उर्फ़ नानू है। जो फिल्म में उसके पास रहा, वो उसके ख़ास साथी केसरिया है। पुलिस का दबाव ज्यादा होने पर ये दोनों चम्बल से भाग निकले। नानकचंद और इसके गिरोह ने एक साथ कई पुलिस वालों को मार दिया था।” शाहिद खान गम्भीर स्वर में बोला।

“ओह! ये नानकचंद देवराज चौहान के साथ कैसे मिल गया। नानकचंद को पुलिस तलाश कर रही है, ऐसे में देवराज चौहान शायद किसी भी हालत में, उसे अपने काम में न लें।” रंजन तिवारी ने कहा।

“तुम ठीक कहते हो। लेकिन बीच की बात क्या है। मैं नहीं जानता और जो स्टील केबिन का ताला खोल रहा था वो सोहनलाल हैं। अक्सर देवराज चौहान के साथ ही रहता है। इसके अलावा जो एक बचता है उसकी पहचान नहीं हो सकी।” शाहिद खान ने कह कर रंजन को देखा।

“हूँ।” रंजन तिवारी सोच भरे स्वर में बोला- “इसके अलावा सारी बातें भी बता दो, जो इस मामले में काम करने पर, सहायक हो सकती है।”

शाहिद खान ने मोटे तौर पर, सारी बातें बताईं।

सुनने के बाद रंजन तिवारी सिर हिलाकर कह उठा।

“जो टैम्पो मैनहोल पर खड़ा था। उसको नम्बर तो मालूम होगा।”

“नहीं, उसका नम्बर किसी ने भी नहीं देखा।”

“जो कांस्टेबल टैम्पो के पास गया था। उसने देखा हो।”

“मुझे, मेरा काम मत सिखाओ। सब पूछताछ हो चुकी है।” शाहिद खान ने कठोर स्वर में कहा।

“ठीक है। ठीक है। गुस्सा क्यों करते हो।” रंजन तिवारी सोच भरे स्वर में कह उठा - “देवराज चौहान या सोहनलाल का कोई ठिकाना जानते हो या उनकी कोई पहचान बताएं।”

“नहीं।” शाहिद खान ने सिर हिलाकर कहा - “मुखबिर छोड़ रखे हैं। जल्द ही कोई खबर मिलेगी।”

“मुझे बताना।”

“कोई जरूरत नहीं। पुलिस कार्यवाही बाहरी लोगों को नहीं बताई जाती। ये गंभीर केस है और देवराज चौहान से वास्ता रखता है। तुमने जो करना है अपने दम पर करो।” शाहिद खान कड़वे स्वर में कह उठा।

“ठीक है। ठीक है। लेकिन पुलिस इस वक्त कुछ तो कर ही रही होगी, इस मामले में - ?”

“पूरे शहर में नाकाबंदी है, लेकिन मुझे नहीं लगता कि वे लोग खुले में घूमेंगे।” शाहिद खान ने सोच भरे स्वर में कहा।

“ठीक कहते हो।” रंजन तिवारी सोच भरे स्वर में कह उठा- “तुम्हारा क्या ख्याल है, वो लोग जया केटली का क्या करेंगे?”

“क्या मतलब?”

“मैंने वीडियो फिल्म में देखा कि तीन लोग जया केटली को इसलिए खत्म कर देना चाहते थे कि, वो आने वाले वक्त में उनकी शिनाख्त करवाकर उन्हें फँसा सकती है, परन्तु शिनाख्त तो वीडियो फिल्म ने कर दी। जल्दी ही ये खबर उन तक पहुँच जाएगी। तब वो जया केटली का क्या करेंगे?” इंस्पेक्टर शाहिद खान ने सोच भरे स्वर में कहा- “फिल्म में देवराज चौहान और सोहनलाल उसे बचाने में लगे थे। फिलहाल बचा भी लिया था। देवराज चौहान के बारे में जो थोड़ा बहुत जानता हूँ उसके मुताबिक खामख्वाह वो किसी की जान नहीं लेता, परन्तु नानकचंद जैसा खतरनाक डाकू उसके साथ है, उसका कोई भरोसा नहीं। वो देवराज चौहान से आँख बचाकर भी जया को नुक्सान-।”

“वो तो ठीक है, लेकिन जब उन लोगों को मालूम होगा कि वीडियो फिल्म ने उनकी शिनाख्त कर दी है, तो जया की मौजूदगी बेईमानी लगने लगेगी। ऐसे में-।”

“मालूम नहीं, तब क्या होगा!” शाहिद खान ने बात काट कर कहा- “जो जरूरी बातें थीं मैंने तुम्हें बता दीं। मैं इसी केस पर काम पर रहा हूँ मुझे फील्ड में रहना पड़ेगा। तुम अपना काम करो। पुलिस के रास्ते में मत जाना और मुझे अपना काम करने दो।”

“हूँ।” रंजन तिवारी ने सोचते हुए सिर हिलाया- “इस सारे मामले में जगमोहन कहाँ है?”

“जगमोहन?”

“देवराज चौहान का साथी। जो उसके हर काम में शामिल रहता है।”

“मुझे उसकी कोई खबर नहीं...।”

“ये भी तो हो सकता है शाहिद खान -।” रंजन तिवारी बोला- “जो टैम्पो लेकर मैनहोल पर, पूरी रात भर मौजूद रहा, वो जगमोहन हो। टैम्पो के पास देवराज चौहान ने जगमोहन को इसलिए छोड़ा हो कि अगर कोई गड़बड़ होने लगे तो, वो सब सम्भाल ले। वहाँ जिम्मेदार आदमी ही छोड़ा जा सकता है, क्योंकि पुलिस स्टेशन के बाहर गड़बड़ की जा रही थी। किसी पुलिस वाले को शक भी हो सकता था।”

“तुम्हारा ख्याल ठीक हो सकता है।”

“जिस कांस्टेबल ने टैम्पो के पास मौजूद व्यक्ति से बात की थी उसे जगमोहन की तस्वीर दिखाकर पूछा। मुझे पूरा विश्वास है कि वो जगमोहन ही होगा।” रंजन तिवारी अपनी बात पर जोर देकर बोला।

“मालूम करूँगा।”

“मुझे बताना कि - “

तभी एक हवलदार ने भीतर प्रवेश किया।

“सर! पैट्रोल कार तैयार है।”

शाहिद खान फौरन उठ खड़ा हुआ।

“ओ के तिवारी। जितना मैं बता सकता था, बता दिया।”

“लेकिन - “ रंजन तिवारी ने कहना चाहा।

परन्तु इंस्पेक्टर शाहिद खान, हवलदार के साथ बाहर निकलता चला गया।

☐☐☐

देवराज चौहान, सोहनलाल, नानकचंद, केसरिया, भटनागर और जया केटली बँगले में पहुँच चुके थे। रास्ते में जया केटली की आँखों पर कपड़ा बाँध दिया गया था कि वो रास्ता न देख सके। आँखों में कपड़ा बंधवाने में जया केटली ने कोई एतराज नहीं उठाया था।

बँगले में जरूरत का थोड़ा-बहुत सामान मौजूद था।

देवराज चौहान, सारे रास्ते चुप और गम्भीर रहा था। उसके मस्तिष्क में जगमोहन था। जगमोहन को जल्द से जल्द पुलिस से छुड़ाना जरूरी था। अगर पुलिस को जगमोहन की असलियत मालूम हो गई तो फिर उसे पुलिस के पंजे से निकाल पाना बेहद कठिन हो जायेगा। खबर मिलने के बाद वे ये ही सोचे जा रहा था कि जगमोहन को पुलिस के फेर से कैसे निकाला जाये।

किचन में चाय का सामान मौजूद था। भटनागर ने चाय बना ली। जया को भी चाय दीं।

सोहनलाल सोफे पर पसर गोली वाली सिगरेट के कश लेने लगा।

देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाकर सोहनलाल से कहा।

“हमें चूना भट्टी थाने जाना होगा। वहाँ के हालात मालूम होने पर ही जगमोहन के लिए कुछ किया जा सकता है।”

“चलो।” सोहनलाल ने फौरन कहा।

“उसे छुड़ाने की बात छोड़ो।” नानकचंद बेचैनी से कह उठा - “बस ये पूछ कि हीरे कहाँ छिपाये हैं।”

देवराज चौहान ने कठोर निगाहों से नानकचंद को देखा। लेकिन कहा कुछ नहीं।

“सरदार!” केसरिया, देवराज चौहान के तेवर भाँप कर बोला- “वो देवराज चौहान का ख़ास है-।”

“देवराज चौहान का खास है। होगा, मेरा तो नहीं। मेरा तो तू है केसरिया। तू -।” नानकचंद हँसा।

भटनागर ने सूखे होंठों पर जीभ फेर कर जल्दी से देवराज चौहान को देखा। उसे विश्वास था कि देवराज चौहान, नानकचंद के ही - पाँव तोड़ेगा, परन्तु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।

देवराज चौहान और सोहनलाल उठे।

“तुम तीनों कान खोलकर सुन लो।” देवराज चौहान ने कठोर स्वर में कहा- “इस लड़की को कुछ भी नहीं कहना है। किसी ने इसकी जान लेने की चेष्टा भी की तो वो मेरे हाथों से मरेगा। समझे?”

नानकचंद और केसरिया की नजरें मिलीं।

भटनागर ने जया को देखा।

जया केटली की आँखों में व्याकुलता जागी।

“सुना सरदार!” केसरिया कह उठा- “हमने छोरी को देखना भी नहीं है।”

“मुझे तो नींद आवे है केसरिया। रात भर के जागे हैं।”

देवराज चौहान ने भटनागर को देखा।

“सुना तुमने।” देवराज चौहान पहले वाले स्वर में कह उठा।

“मुझ पर भरोसा रखो देवराज चौहान।” कहते हुए भटनागर के होंठों पर कसाव आ गया।

“मुझे इन तीनों के पास छोड़कर मत -।” जया केटली ने कहना चाहा।

“फ़िक्र मत करो। वापसी पर अगर तुम जिन्दा न मिली तो ये तीनों भी जिन्दा नहीं रहेंगे। इन्हें अपनी जान प्यारी होगी तो इनके हाथ तुम्हारे गले तक नहीं पहुँचेंगे।” देवराज चौहान ने खतरनाक स्वर में कहा, और सोहनलाल के साथ बाहर निकलता चला गया।

नानकचंद और केसरिया की नजरें मिलीं।

“ओ केसरिया!”

“हाँ सरदार!”

“लालपरी का इंतजाम तो कर। पीकर, नींद लेने का मन कर रहा है और खाना-खाने का भी इंतजाम कर लेना। भूख भी जोरों पर है। पेट में कुछ जाएगा तो दम आएगा ना।”

“ठीक है सरदार!” केसरिया ने अर्थपूर्ण नजरों से जया केटली को देखा - “अभी तो दिन है। पूरी तरह शाम भी नहीं हुई। कुछ अँधेरा होगा तो, दुकान ढूँढ कर बढ़िया वाली विदेशी बोतल ले आऊँगा।”

“कॉच लाना , कॉच। वो मजा देती है।”

“कॉच नहीं सरदार। स्कॉच, विदेशी स्कॉच।”

“हाँ- हाँ। वो ही।”

भटनागर ने जया केटली को देखा।

“तुम ऊपर वाले कमरे में जाकर आराम कर सकती हो।” भटनागर बोला।

जया केटली फौरन वहाँ से चली गई।

“छोकरी तो फिट हौवे।” नानकचंद, भटनागर को देखकर मुस्कराया।

“तो?” स्वर शांत और चेहरा सख्त था।

“हाथ फेर लेने में क्या हर्जा है।” नानकचंद हँसा- “चम्बल होता तो झरने के नीचे नहला देते।”

“देवराज चौहान को जानते हो।” भटनागर दाँत भींच कर बोला।

“हाँ-हाँ, जानते हैं। क्यों केसरिया -?”

“नहीं जानते। तभी तो हाथ फेरने की बात कर रहे हो।” भटनागर तीखे स्वर में कह उठा - “जिन्दा रहना चाहते हो तो लड़की को अपने दिमाग से बिलकुल निकाल दो।”

“धमकी देता है।” नानकचंद की आँखों में खूँखारता उभरी।

“समझा रहा हूँ। धमकी तो देवराज चौहान देकर गया है। तब उससे बात क्यों नहीं की?” भटनागर कड़वे स्वर में बोला।

नानकचंद के दाँत भिंचे।

“सरदार, ये चम्बल नहीं है। समझा करो।”

“समझ गया केसरिया। समझ गया।” नानकचंद ने गहरी साँस ली।

☐☐☐

शाम के पाँच बज रहे थे।

पुलिस स्टेशन के पीछे वाले एक कमरे में हवलदार सुच्चा राम और कांस्टेबल ओमवीर ने जगमोहन को घेर रखा था। अभी-अभी सब-इंस्पेक्टर उनके पास से गया था और सख्त अन्दाज में कहकर गया था कि इसका मुँह खुलवाकर, इसकी असलियत जानो। इस सख्ती की खास वजह यह थी कि जगमोहन के पास से पैंतीस हजार रुपया नगद बरामद हुआ था। पुलिस वालों की सोच के मुताबिक, इतना रुपया कोई गैरकानूनी काम करके ही हासिल किया गया है। क्योंकि जगमोहन इस वक्त मैले-कुचले कपड़ो में था और चेहरा भी मैला-सा ही कर रखा था। ऐसे में वो पैंतीस हजार तो क्या, पन्द्रह सौ रखने के काबिल भी नहीं लग रहा था।

जगमोहन को लकड़ी की हत्थे वाली कुर्सी पर बिठाकर पतली-सी रस्सी से उसके हाथ-पाँव बाँध रखे थे। हवलदार सुच्चा राम गुस्से में था और हर हाल में जगमोहन की जुबान खुलवाने पर आमादा था। परन्तु कांस्टेबल ओमवीर को ये सब पसन्द नहीं आ रहा था। उसे यही डर सताये जा रहा था कि कहीं ,ये आदमी टॉर्चर के दौरान, ये न बता दे कि वो, उसे पाँच हजार देकर भागा था।

“बोल?” सुच्चा राम ने जगमोहन के सिर के बाद मुट्ठी में जकड़े- “कौन-से गैंग से सम्बन्ध है तेरा। आज तक कितनी गाड़ियाँ कहाँ-कहाँ से चोरी की और कहाँ कहाँ बेचीं। सच बता, गाड़ियाँ चोरी करते हए कभी दो-चार का सिर फाड़ा होगा। एक-आध की तो हत्या भी की होगी तूने। सब बोलेगा तू। अभी नहीं तो कुछ देर बाद बोलेगा तू। लेकिन बोलेगा। मेरे हाथ जब पड़ते हैं तो बड़े-बड़े बोल पड़ते हैं। बोल, गाड़ियाँ चोरी करने का काम कब से कर रहा है तू?”

जगमोहन दाँत भींचे खामोश रहा।

“तो सीधी तरह मुँह नहीं खोलेगा।” सुच्चा राम पुलिसिया स्वर में कह उठा - “लगता है, पहले कभी पुलिस के हत्थे नहीं चढ़ा। वर्ना तेरे को मालूम होता कि पुलिस कैसे-कैसे हथकण्डे इस्तेमाल करती है। बेटे तेरे जैसों को नंगा करके, रस्सी बाँधकर, पंखे से उल्टा लटका देते हैं। उसके बाद घुटनों पर, पैरों की हड्डियों पर, पीठ पर, तेल लगाकर डंडा ठोकते हैं। लेकिन इतनी दूर तक जाने की नौबत नहीं आयेगी। तू अभी मुँह खोल देगा। बोल, सच बता दे। इसी में तेरी खैर है। तेरे साथी कौन-कौन हैं। कहाँ रहते हैं। कितनी गाड़ियाँ, कहाँ से चोरी की और कहाँ-कहाँ बेचीं। ये सब करते हुए कितनों के हाथ-पाँव तोड़े और कितनों की जान ली।”

“सिर के बाल छोड़ो।” जगमोहन दाँत भींचकर बोला।

“छोड़े। अब बता।” सुच्चा राम के भी दाँत भिंचे हुए थे।

“एक टैम्पो मेरे से क्या मिल गया, तुमने तो मेरा गैंग ही बना दिया।” जगमोहन कड़वे स्वर में बोला।

“तेरे और भी साथी हैं। पुलिस की आँखों में धूल झोंकना आसान काम नहीं। तू पुलिस की पकड़ से भागा। ये काम सिर्फ शातिर अपराधी ही कर सकते हैं। ऊपर से तेरे पास से पैंतीस हजार रुपया नगद मिला है। इस वक्त तू पुलिस के कब्जे में डंडे खाने की तैयारी कर रहा है, और तेरे को जरा भी डर नहीं। हम लोगों की नजरें, इसी से पहचानी जाती हैं कि सामने वाला घिसा हुआ बन्दा है। जो कि तू है। बता अपने बारे में बता-।”

जगमोहन मुस्कराया।

“साले मुस्कराता है।” सुच्चा राम गुर्रा उठा।

“तुम्हारी बेवकूफी पर।”

सुच्चा राम ने खा जाने वाली निगाहों से उसे देखा।

“बहुत दिनों से टैम्पो चलाने का मन कर रहा था इसलिए टैम्पो चोरी कर लिया और पकड़ा गया।”

सुच्चाराम ने ओमवीर को देखा।

“सुना ओमवीर?”

“सुच्चा राम।” ओमवीर ने टोका- “सुन तो ले आखिर ये कहता क्या है। तो इसलिए तूने टैम्पो चोरी किया।”

“हाँ।” जगमोहन ने सिर हिलाया।

“ठीक है। मान ली तेरी बात। वो पैंतीस हजार तेरे पास कहाँ से आया?” ओमवीर ने पूछा।

“पैंतीस नहीं, चालीस हजार था।” जगमोहन ने शांत स्वर में कहा।

ओमवीर सकपकाया।

“चालीस हजार।” उसे लगा जैसे सामने बैठा इनसान पाँच हजार के बारे में बताने जा रहा हो। उसने फौरन बात बदली।

“पैंतीस हो या चालीस, कोई फर्क नहीं पड़ता। इतने रूपये तेरे पास कहाँ से आये?”

“जब टैम्पो चोरी किया तो उसमें पड़े थे। मैंने उठाकर जेब में रख लिये।”

ओमवीर ने सुच्चा राम को देखा।

“टेम्पो चोरी की जो रिपोर्ट दर्ज है। उसमें पैसों का ज़िक्र है?” सुच्चा राम ने पूछा।

“मालूम नहीं। रिपोर्ट देखकर आना।”

“अभी आता हूँ। तू इसे डंडा देता रहे नहीं तो दूसरे ढंग से इसका इलाज करते हैं।” कहने के साथ ही सुच्चा राम बाहर निकल गया।

जगमोहन और ओमवीर की नज़रें मिलीं।

“तू अभी ये कहने जा रहा था कि चालीस में से पाँच हजार तूने मेरे को दिया।” ओमवीर तीखे स्वर में बोला।

“नहीं।”

“अगर मैं बात न बदलता, तो तू बता देता?”

“हवाई बातें न कर। मैं ऐसा कुछ नहीं करने जा रहा था।” जगमोहन ने कहा- “मैंने पहले ही कहा था कि पाँच हजार के मामले में मेरा मुँह बंद रहेगा। इस बात की चिंता में मरा मत जा।”

ओमवीर ने उसे घूरा।

“चक्कर क्या है?”

“कैसा चक्कर है?”

“तू है कौन?” टैम्पो चोरी और पैंतीस-चालीस हजार का क्या चक्कर है? ओमवीर ने होंठ सिकोड़ कर कहा- “ये तो मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि पुराना पापी है तू। यहाँ पहुँचकर तो बड़ों-बड़ों के पसीने निकल जाते हैं,लेकिन तेरे को जरा भी घबराहट नहीं। कोई डर नहीं।”

जगमोहन मुस्कराया।

“नाम क्या है तेरा?”

“नाम जानकर तेरे को क्या फायदा मिलेगा। जिस बात से फायदा मिलता है, वो बात सोच।”

“तू जानता है मुझे किस बात से फायदा मिलता है?” ओमवीर ने आँखें सिकोड़ी।

“हाँ।”

“किस बात से?”

“नोटों से।”

ओमवीर कई पलों तक जगमोहन को देखता रहा।

“तेरा मतलब है कि मैं तेरे को यहाँ से भागने का मौक़ा दूँ। पुलिस स्टेशन से -।”

“हाँ।”

“पागल तो नहीं हो गया है तू।” ओमवीर उखड़ा - “मेरी वर्दी उतरवाने की कोशिश में है तू-।”

“वर्दी नहीं उतरेगी, बल्कि मेरे से लाख रुपया तेरे को मिल जायेगा। बोल मौका देता है भागने का -।”

“ला-लाख रुपया।” ओमवीर हड़बड़ा-सा उठा।

“मैं जानता हूँ ज्यादा बोल दिया है लेकिन तू बढ़िया बन्दा है। लाख पूरे दूँगा।” जगमोहन मुस्कराया।

ओमवीर ने उसे घूरा।

“पागल बनाता है मुझे। खाली जेब बैठा है और लाख देने को बोलता है।” ओमवीर का कहना तीखा हो गया।

“विश्वास नहीं मेरे पर।”

“कहाँ है लाख?”

“मैंने पूछा है, विश्वास नहीं मेरे पर। भरोसा कर ले। लाख तेरे पास सुबह तक पहुँच जाएगा।”

“उधार - ?”

“तुम में और हम लोगों में, कुछ घंटों बाद मिलने वाले नोटों को उधार नहीं, नकद कहा जाता है। यही विश्वास हम लोगों के बीच बना पड़ा है। तभी तो गाड़ी आगे चलती है।” जगमोहन समझाने वाले स्वर में कह उठा- “ नहीं तो सोच क्या होगा। कल मुझे कोर्ट में पेश करके, टैम्पो चोरी करने के जुर्म में जेल भेज देंगे। इधर मेरे साथी हैं जो टैम्पो वाले पर जोर देकर, उसे नई रिपोर्ट लिखकर देने को कहेंगे कि, उसका टैम्पो चोरी नहीं हुआ। गलती से गलत रिपोर्ट लिखवा दी। टैम्पो ले जाने वाला मेरा रिश्तेदार था। मेरे से पूछ कर ले गया था। दो-चार दिन में मैं बाहर आ जाऊँगा। ऐसे में तेरे को जो लाख मिलने वाला है, वो तो गया। फिर शायद एक गड़बड़ और भी हो जाये।”

“क्या?”

“तेरे इनकार पर मुझे गुस्सा आ गया तो शायद बता दूँ कि तूने पाँच हजार मेरे से लेकर, मेरे को भागने का मौका-।”

“ये तो तू धोखेबाजी कर रहा है।”

“मैं कुछ नहीं कर रहा। बता रहा हूँ कि शायद मेरे मुँह से गुस्से में पाँच हज़ार वाली बात निकल जाए।”

सच बात तो ये थी कि ओमवीर खुद चाहता था कि ये आदमी यहाँ से चला जाये, ताकि पाँच हजार की रिश्वत के बारे में किसी को कुछ न बता सके।

“क्या सोचा?” जगमोहन पुनः मुस्कराया।

“अगर तूने लाख रुपया न दिया तो?”

“पागलों वाली बात न कर। हम लोग पुलिस से दोस्ती रखते हैं। दुश्मनी नहीं करते। समझ नहीं तेरे को क्या?”

“नाम क्या है तेरा?” ओमवीर ने पूछा।

“बेकार की बात मत कर। अपने काम की बात सोच।” जगमोहन ने मुँह बनाया।

दो पल की सोच के बाद ओमवीर बोला।

“नोट कहाँ देगा मुझे?”

“जहाँ तू कहेगा।”

“ठीक है। पुलिस स्टेशन के बाहर साईड में, बाईं तरफ छाता लगाकर एक पान वाला बैठता है। लाख रूपये का पैकेट बनाकर, कल उसे दे देना।” ओमवीर ने धीमे स्वर में कहा।

“चिंता मत कर। कल उसके पास लाख पहुँच जाएगा।”

“पैकिंग ऐसी करना कि, देखने पर, ये न लगे कि भीतर नोट हैं।”

“पैकिंग करने में तो मैं मास्टर हूँ। सब मुझ पर छोड़ दे।” जगमोहन मुस्कराया।

“एक बात बता।”

“क्या?”

“टैम्पो में मैंने लेदर के लिफ़ाफ़े जैसे थेले देखे थे। उनमें क्या था? वो टैम्पो में नहीं मिले।”

“ऐसा कुछ था टैम्पो में।” जगमोहन ने तीखे स्वर में कहा- “मुझे तो नहीं मालूम।”

ओमवीर ने उसे घूरा। फिर गहरी साँस लेकर रह गया। वो समझ गया कि सामने बैठा इनसान चोर नहीं, बल्कि कोई पहुँची हुई हस्ती है।

“यहाँ से कब निकालेगा मुझे?”

“रात को।”

“पहले नहीं हो सकता।”

“नहीं। सुच्चा राम लेवी की तरह तेरे से चिपका हुआ है। देख नहीं रहा उस पर इंस्पेक्टर बनने का भूत सवार है। वो ज्यादा से ज्यादा केस हल करके, जल्दी तरक्की पा लेना चाहता है। घर में बेशक खाने को ठीक तरह से रोटी न हो। वर्दी पर ज्यादा से ज्यादा स्टार देखना चाहता है।” ओमवीर ने कड़वे स्वर में कहा- “चार दिन से ड्यूटी इसके साथ है। न तो खाता है और न ही खाने देता है।”

जवाब में जगमोहन मुस्कराकर रह गया।

तभी हवलदार सुच्चा राम ने भीतर प्रवेश किया।

“टैम्पो चोरी की रिपोर्ट में किसी पैसे का जिक्र नहीं है कि टैम्पो में पैसा भी था। ये झूठ बोलता है कि पैसा इसे टैम्पो में पड़ा मिला।” सुच्चा राम दाँत भींचकर बोला- “कुछ बताया इसने?”

“नहीं।” ओमवीर सख्त स्वर में कह उठा- “बहुत घिसा हुआ लगता है।”

“सख्ती तो मैं इसकी तोड़ दूँगा।” सुच्चा राम गुर्राया - “मैं -।”

“तुम्हें तो किसी का मुँह खुलवाना भी नहीं आता।” ओमवीर तीखे स्वर में कह उठा- “और बातें क्या मालूम करोगे, इससे इसका नाम तो जान नहीं सके। ये तो अपना नाम बताने को भी तैयार नहीं।”

“डंडा लेकर आ।” हवलदार सुच्चा राम खतरनाक स्वर में कह उठा।

“मुझे तो लगता है ये किसी बड़े गैंग से ताल्लुक रखता है। तभी मुँह नहीं खोल रहा। डरता होगा।”

सुच्चा राम ने ओमवीर को देखा फिर कठोर निगाहों से जगमोहन को।

तभी एक सिपाही ने भीतर प्रवेश किया।

“ओमवीर! तुमसे कोई मिलने आया है। ये कार्ड दिया है उसने।”

ओमवीर ने सिपाही से कार्ड लेकर देखा तो रंजन तिवारी का कार्ड था।

“इससे कहो, बाहर जाकर चाय वाले से, मेरे खाते में से चाय पिए। मैं कुछ देर बाद आता हूँ।” ओमवीर बोला।

सिपाही चला गया।

“कौन है?” सुच्चा राम ने पूछा।

“दोस्त है। अब इसका मुँह कैसे खुलवाना है।” ओमवीर कह उठा।

“डंडा ला।”

ओमवीर फ़ौरन डंडा लाया।

सुच्चा राम डंडा थामे, जगमोहन पर टूट पड़ा।

ओमवीर गहरी साँस लेकर इधर-उधर देखने लगा।

☐☐☐

देवराज चौहान और सोहनलाल चूना भट्टी थाने के आस-पास ही टहल रहे थे।

थाने के अहाते में खड़ा टैम्पो उन्होंने देख लिया जिसे देखते ही देवराज चौहान के चेहरे पर कसाव आ गया। पुलिस स्टेशन में लोगों का और पुलिस वालों का आना-जाना बराबर लगा था।

“सोहनलाल!” देवराज चौहान ने कहा- “जाकर मालूम करो जगमोहन के बारे में।”

“इस थाने में कोई पुलिस वाला मेरी पहचान का नहीं।” सोहनलाल  बोला।

“पहचान वाला हो या न हो। मालूम तो करना ही है।” देवराज चौहान का स्वर सख्त हो गया।

सोहनलाल सिर्फ सिर हिलाकर रह गया।

“मालूम करने के लिये मेरा पुलिस स्टेशन में जाना ठीक नहीं। तुम्हारे बनिस्पत मुझे जल्दी पहचाना जा सकता है। तब हालात और भी बिगड़ जायेंगे।” देवराज चौहान ने गम्भीर स्वर में कहा।

“मैं समझता हूँ।”

तभी उनकी निगाह रंजन तिवारी पर पड़ी जो थाने से एक सिपाही के साथ निकला था और सिपाही उसे चंद क़दमों दूर फुटपाथ पर बैठे, चाय वाले के पास छोड़ गया। सिपाही और रंजन तिवारी इस दौरान हँस-हँस कर बातें कर रहे थे। सिपाही के जाने के बाद उसने सिगरेट सुलगा ली थी।

“सोहनलाल! उस आदमी को देख रहे हो जो चाय वाले के पास- “

“जिसे सिपाही छोड़ गया।” सोहनलाल ने टोका।

“हाँ। वो किसी भी तरफ से पुलिस वाला नहीं लगता और सिपाही उससे घुल-मिल कर बातें कर रहा था।”

सोहनलाल ने देवराज चौहान को देखा।

“यानि कि जगमोहन के बारे में खबर पाने के लिए उसे इस्तेमाल किया जा सकता है।”

“कोशिश करके देख लेने में कोई हर्ज नहीं। लेकिन पहले चेक कर लेना कि वो हमारे काम आ सकता है या नहीं। जब विश्वास हो जाये तो तभी उससे बात करना। नहीं तो नहीं।”

सोहनलाल रंजन तिवारी की तरफ बढ़ गया।

☐☐☐

रंजन तिवारी और ओमवीर में पुरानी पहचान थी। रंजन तिवारी को जब भी पुलिस की भीतरी खबर पानी होती तो वो ओमवीर को इस्तेमाल करता। ओमवीर उसे काम की खबर ला देता और मेहनत की कीमत उससे वसूल लेता। रंजन तिवारी, शाहिद खान से मुलाकात करके सीधा ओमवीर के पास आया था। उसे लग रहा था कि शाहिद खान ने उसे पूरी जानकारी नहीं दी।

ऐसे में डकैती के सारे मामले को जानने के लिए ओमवीर के इस्तेमाल की सोचकर रंजन तिवारी यहाँ आया था।  ओमवीर के व्यस्त होने पर सिपाही उसे चाय वाले के पास छोड़ गया था।

रंजन तिवारी ने कश लिया कि एकाएक उसके दिल की धड़कन थम गई। धुआँ मुँह में ही रह गया। आँखों में अविश्वास नाच उठा। सामने से सोहनलाल आ रहा था। वही सोहनलाल, जिसे चंद घंटे पहले वीडियो फिल्म में, स्टील केबिन का ताला खोलते हुए देखा था। उसने कपड़े भी वही पहन रखे थे।

रंजन तिवारी को विश्वास नहीं आ रहा था कि इस तरह बिना ढूँढे सोहनलाल उसे नजर आ जायेगा। उसे लगा कि साढ़े चार अरब के हीरे मिलने में, अब ज्यादा देर नहीं लगेगी।

रंजन तिवारी ने तुरंत अपनी बदली हालत को ठीक किया। लापरवाही से चलता सोहनलाल चाय वाले के पास आकर रुका।

“चाय बनाना।” सोहनलाल ने कहा।

“अभी लीजिए।” पहले से ही व्यस्त चाय वाला कह उठा।

एकाएक सोहनलाल, रंजन तिवारी के पाँवों के पास झुका और जमीन को हाथ लगाकर सीधा खड़े होते हुए, मुस्कराकर रंजन तिवारी से कह उठा।

“आपका कुछ गिरा तो नहीं-।”

“मेरा-।” रंजन तिवारी के होंठों से निकला- “नहीं तो-।”

पहले से ही हथेली में दबा रखा सौ का नोट, सोहनलाल ने उसकी तरफ किया।

“ये आपका है। आपके जूतों के पास पड़ा था।”

रंजन तिवारी के मस्तिष्क को तीव्र झटका लगा। वो फौरन से भी पहले समझ गया कि सौ का नोट उसका नहीं है और न ही उसके पाँवों के पास पड़ा था। अगर सोहनलाल सौ का नोट लेकर ये हरकत कर रहा है तो यकीनन इसके पीछे कोई ख़ास बात होगी।

सोहन लाल भी क्या जानता था कि उसका टकराव काइयाँ इनसान से हो गया है।

“वाह जनाब वाह!” दाँत दिखाकर, रंजन तिवारी, उसके हाथ से सौ का नोट लेकर अपनी जेब में ठूँसता हुआ बोला- “मैं तो समझता था कि दुनिया से शराफत पूरी तरह से ही उठ गई है। लेकिन गलत सोचता था। आपके रूप में शराफत अभी जिंदा है। वरना आज के जमाने में सौ का नोट कोई किसी को देता है। आपकी ईमानदारी देखकर मुझे बहुत ख़ुशी हुई। चाय मेरी तरफ से।”

सोहनलाल समझ गया कि ये लालची आदमी है। इसे इस्तेमाल किया जा सकता है।

“धन्यवाद।” सोहनलाल मुस्कराया- “वैसे आप गलत सोचते हैं कि दुनिया से शराफत उठ गई। शराफत के दम पर ही दुनिया कायम है। आप क्या पुलिस वाले हैं?”

“नहीं साहब।” रंजन तिवारी ने गहरी साँस ली- “मैं पुलिस वाला होता तो मजे आ जाते। सरकार से भी नोट लेता और पब्लिक से भी। कितना किस्मत वाला होता तब मैं।”

“लेकिन  सारे पुलिस वाले तो ऐसा नहीं करते।”

“मैं तो अपनी बात कर रहा हूँ। मुझे दूसरों से क्या। वो एक कांस्टेबल है इस थाने में। उसे माल देकर अपना काम करवाता हूँ। जब भी कोई काम अटक जाता है।” रंजन तिवारी ने कहा।

चाय बन गई। दोनों ने चाय के गिलास थाम लिए।

“काम तो मेरा भी अटका हुआ है, लेकिन मैं किसी पुलिस वाले को नहीं जानता, वो पैसे लेकर मेरा काम-।”

“कर लो बात। मेरे होते हुए आपको फ़िक्र करने की क्या जरूरत है। आप जैसे शरीफ आदमी के काम आकर मुझे ख़ुशी होगी। वरना आजकल सौ का नोट कौन वापस देता है। वैसे काम क्या है?”

“थोड़ा सा बड़ा, थोड़ा सा छोटा है।”

“अजी बड़े-छोटे की फ़िक्र मत करो। अपना वो कांस्टेबल बड़े कमाल की चीज है। काम तो बताइये आप।” रंजन तिवारी इस तरह बोला, जैसे उसका बहुत ही पुराना वाकिफकार हो- “कांस्टेबल को नोट मिलेंगे तो, वो पक्का काम करेगा। मैं करा दूँगा बात।”

“नोट तो दे देंगे।”

“काम?”

“मेरा एक दोस्त है। कभी-कभी उसका दिमाग हिल जाता है और उल्टा काम कर बैठता है।” सोहनलाल  ने अफ़सोस  भरे स्वर में कहा- “कल उसका दिमाग फिर हिला तो उसने टैम्पो चोरी कर लिया और पकड़ा गया।”

“टैम्पो?” रंजन तिवारी चौंका।

“क्या हुआ!”

“कुछ  नहीं!” रंजन तिवारी ने फौरन खुद को संभाला - “कुछ चोरी ही करना था तो कार वगैरह चोरी करता। ये टैम्पो चोरी करना अजीब बात नहीं है क्या? इसलिए हैरानी हुई।” जबकि रंजन तिवारी तुरन्त समझ गया था कि ये उसी टैम्पो की बात हो रही है, जो उस पुलिस स्टेशन के बाहर मैनहोल के ऊपर खड़ा था और उसके ख्याल के मुताबिक उस टैम्पो के पास जगमोहन था।

“जब उसका दिमाग हिल जाता है तो वो ऐसे ही अजीब काम करता है। अब दिक्कत ये है मेरे भाई कि कल उसे अदालत में पेश किया जायेगा। वहाँ तो ये नहीं कहा जा सकता कि जब उसने टैम्पो चोरी किया, तब इसके दिमाग की हालत ठीक नहीं थी। ये सुनते ही अदालत उसे पागलखाने भेजने को कह देगी। ये न कहा गया तो टैम्पो चोरी करने के जुर्म में, अदालत उसे जेल भेज देगी। यानि कि दोनों तरफ से मुसीबत।”

“हाँ, ब्रदर। ये तो है।” रंजन तिवारी ने सहानुभूति भरे ढंग से सिर हिलाया।

“मेरे ख्याल से कोई इतना बड़ा जुर्म नहीं है। जेल गया तो, बेचारे की ज़िन्दगी बर्बाद हो जाएगी। इसलिए मैं इस थाने से ही छुड़ा लेना चाहता हूँ, कि बात अदालत तक जाए ही नहीं।”

“ये तो तुमने ठीक सोचा।”

“तुम्हारा वो कांस्टेबल ये काम कर देगा?”

“पक्का कर देगा। साला हरामी है। देर तक पुलिस की नौकरी में नहीं रह सकेगा। कभी भी गड़बड़ करते हुए पकड़ा जा सकता है। तुम्हारे सामने बात कर लेता हूँ। क्या लेगा, ये बात तुम कर लेना।”

“ठीक है।”

“तुमने अपना नाम नहीं बताया?” रंजन तिवारी बोला।

“सोहनलाल।”

“मुझे रंजना तिवारी कहते हैं। सब्ज़ी मंडी में सब्ज़ी का होल-सेल का काम है।”

दूर खड़ा देवराज चौहान समझ गया था कि काम बन गया है।

☐☐☐

आधे घंटे बाद ओमवीर बाहर निकलता नज़र आया।

“ आ गया अपना बंदा। “ रंजन तिवारी बोला- “ तुम यहीं ठहरो मैं उसे पटा लूँ। तुम्हारे सामने बात शुरू होगी तो वो नखरे दिखलायेगा। भाव भी बढ़ा देगा।” कहने के साथ ही वो ओमवीर की तरफ बढ़ गया।

उसके पास पहुँचने पर ओमवीर मुस्कराकर बोला।

“नमस्कार तिवारी साहब। बहुत दिनों बाद मेरी याद आई।”

“यहाँ से निकल रहा था। सोचा तुमसे मिलता जाऊँ। मेरा आना तुम्हारे लिए अच्छा ही रहा।” रंजन तिवारी मुस्कराया।

“वो कैसे?”

“एक मुर्गा है तुम्हारे लिए। वो खड़ा है, चाय वाले के पास। उसका दोस्त टैम्पो चोरी के मामले में पकड़ा गया है वो उसे छुड़ाना चाहता है। बोलता है माल दूँगा।” रंजन तिवारी मुस्करा कर बोला।

टैम्पो चोर की बात सुनकर ओमवीर चौंका, फिर फौरन ही अपने पर काबू पा लिया। लाख का सौदा वो टैम्पो चोर (जगमोहन) के साथ भीतर कर चुका था और उसका साथ उसे छुड़ाने के लिये थाने के बाहर घूम रहा है यानि कि इससे भी माल झाड़ा जा सकता है। टैम्पो ही चोरी किया था उसने। कोई गम्भीर जुर्म तो किया नहीं था कि उसके भागने पर जो हल्ला पैदा हो जायेगा।

“ओमवीर! मैं चाहता हूँ तुम उस बेचारे का काम करा दो। बेचारा बहुत दुखी है।” रंजन तिवारी ने कहा।

“ठीक है तिवारी साहब। आप कहते हैं तो करा देता हूँ।”

“बात कर लो उससे।”

दोनों सोहनलाल के पास पहुँचे।

“ये मेरा दोस्त कांस्टेबल ओमवीर और ये मेरा दोस्त सोहनलाल है। बात कर लो दोनों।” रंजन तिवारी को पूरी आशा थी कि वो बहुत जल्द साढ़े चार अरब के हीरों को हासिल कर लेगा।

“कौन-सा टैम्पो चोरी किया है तुम्हारे आदमी ने?” ओमवीर ने पूछा।

“थाने में इस वक्त सिर्फ एक ही टैम्पो खड़ा है। वो ही टैम्पो।”

“हूँ। थाने से भागना है उसे?”

“हाँ।”

“क्या दोगे?”

“पचास हज़ार।” सोहनलाल ने कहा।

“अगर मैं तुम्हारे आदमी को थाने से निकाल दूँ तो तुम मुझे पचास हजार दोगे। पक्का?”

“पक्का।”

“सुना तिवारी साहब!” ओमवीर ने उससे कहा- “ये आपके सामने वायदा कर रहा है।”

“हाँ-हाँ, मैं गवाह हूँ।”

“ठीक है। पचास हज़ार ये देगा और भीतर उससे मेरी बात लाख में तय हो चुकी है। यानि कि कुल मिलाकर डेढ़ लाख हुआ। डेढ़ लाख मेरे हवाले करो। रात को उसे थाने से निकाल दूँगा।”

“ये क्या बात हुई। “सोहनलाल के होंठों से निकला- “एक काम की दो-दो जगह कीमत।”

“प्यारे मेरी वर्दी पर सवाल है। थाने से किसी को भगाना मजाक है। मेरी नौकरी जा सकती है।”

“दे दो। दे दो।” रंजन तिवारी जल्दी से कह उठा- “डेढ़ लाख देकर सारी परेशानियाँ दूर हो जाएँगी।”

सोहनलाल ने ओमवीर को घूरा।

“रात को काम पक्का हो जाएगा।”

“डबल पक्का। तुम नोट दो।”

“यहीं रुको, अभी आता हूँ।”

“आ जाना।” ओमवीर ने जल्दी से कहा- “कितनी देर में आ रहे हो?”

“दस मिनट में।”

☐☐☐

रंजन तिवारी, यूँ तो ओमवीर से बातें कर रहा था, परन्तु नजरें सोहनलाल पर थीं। जो कुछ दूर देवराज चौहान के पास पहुँचकर रुका था।

देवराज चौहान को पहचानते ही रंजन तिवारी का दिल जोरों से धड़का। तो देवराज चौहान भी यहाँ है। यानि की भीतर पक्का जगमोहन ही है, और सोचों ही सोचों में वो खुद को साढ़े चार अरब के हीरों के करीब महसूस करने लगा कि वो अब उसके हाथ में आये ही आये।

सोहनलाल वापस लौटा। हाथ में छोटा-सा लिफाफा थमा था।

“ये डेढ़ लाख रूपये हैं।” सोहनलाल ने लिफाफा थपथपाया।

“डेढ़ लाख!” ओमवीर ने अजीब से स्वर में कहा- “इतने से!”

“पाँच सौ की तीन गड्डियाँ हैं -।”

“हूँ। ठीक है।” ओमवीर दोनों हाथ जेब में डालकर बोला- “वो पानवाला है ना। उधर। उसे दे दो।”

सोहनलाल ने सिर घुमाकर कुछ दूर बैठे पानवाले को देखा फिर उधर ही बढ़ गया।

“ओमवीर!” रंजन तिवारी मक्खन भरे स्वर में बोला- “तुम्हारे तो मजे आ गये।”

“आपकी दया है तिवारी साहब।” ओमवीर मुस्कराया।

सोहनलाल वापस आ गया।

“जाओ तुम। रात को तुम्हारा आदमी थाने से बाहर होगा।” कहकर ओमवीर थाने के गेट की तरफ बढ़ गया।

सोहनलाल एक कागज़ निकालकर रंजन तिवारी को थमाता हुआ बोला।

“ये कागज मेरे दोस्त तक पहुँचा दो। उस पुलिस वाले को मत पढ़ने देना। उसे बोलना सोहनलाल ने दिया है।”

“ठीक है।” कहने के साथ ही रंजन तिवारी जल्दी-जल्दी ओमवीर की तरफ बढ़ गया। इसके साथ ही रंजन तिवारी समझ चुका था कि कागज में उस जगह का पता लिखा होगा, जहाँ जगमोहन ने पहुँचना है, थाने से निकलकर।

थाने के भीतर जाकर कागज खोला तो उसका ख्याल ठीक निकला। वो बँगले का ही पता था। रंजन तिवारी ने पता याद कर लिया और ओमवीर के साथ जाकर कागज जगमोहन को थमा दिया।

और पाँच मिनट में ही बाहर रंजन तिवारी ने सोहनलाल को खबर दे दी कि वो कागज, जगमोहन को दे आया है।

सोहनलाल ने दस-बीस बार उसे धन्यवाद देकर, उससे विदा ली।

रंजन तिवारी के चेहरे पर चमक भरी मुस्कान नाच उठी।

☐☐☐

अमृतपाल और बुझे सिंह पुलिस स्टेशन पहुँचे।

बाहरी गेट पर एक के बाद एक पुलिस की गाड़ियाँ आ जा रही थी। बुझे सिंह जल्दी से पुलिस वाले के पास पहुँचा और हाथ जोड़कर कह उठा।

“माई-बाप पाँव लागू। जी वो गोल-गोल, मोटी-मोटी। बुझे सिंह हाथ के इशारे से उनकी गोलाई और मोटाई भी बता रहा था। हेडलाइट और टूटा-फूटा बॉक्स मिल गया होगा।”

“क्या?” पुलिस वाले ने उसे घूरा।

“नहीं समझे जी! मेरा मतलब है कि -।”

“इन साहब को क्या पता!” अमृतपाल जल्दी से कह उठा- “जहाँ रिपोर्ट लिखाई थी, उन्हें पता होगा। चल।”

“ठीक है उस्ताद जी, चलो। मैंने तो सोचा था, बाहर-बाहर से ही काम हो जाए। भीतर जाकर टैम खराब न करना पड़े।  पर क्या फर्क पड़ता है। अपने पास तो टैम ही टैम है। टैम तो तब नहीं होगा जब नान की रेहड़ी पर कार में बैठकर नान बेचने जाया करेंगे।”

दोनों आगे बढ़ गये।

“सोच-समझकर बातें किया कर। तेरी बातें सुनकर कभी कोई टाँगे तोड़ देगा।” अमृतपाल तीखे स्वर में कह उठा।

“उस्ताद जी!” कहते हुए बुझे सिंह ठिठका। उसका चेहरा लटक गया- “मेरी बहन तो बर्बाद हो गई।”

“क्या?”

“मेरी बहन तो शादी से पहले ही बर्बाद हो गई।” बुझे सिंह दुःख भरे स्वर में कह उठा- “मेरे और आपके बीच जो फासले खत्म हुए थे। दूरियाँ मिट गई थी, वो सब कुछ फिर से पैदा हो गया। मेरी बहन की किस्मत ही खराब है। उसकी शादी नहीं हो सकती। वो आप जैसे देवता को पति के रूप में नहीं पा सकती इस जन्म में।”

“क्या बकवास कर रहा है?”

“कुछ नहीं हो सकता उस्ताद जी! बुझे सिंह पूरी तरह बुझ गया - वो देखो उस तरफ आपकी खुशियाँ खड़ी हैं।”

अमृतपाल ने उस तरफ देखा। दूसरे ही क्षण चेहरे पर अजीब से भाव उभरे। चेहरे पर ख़ुशी ही ख़ुशी नाच उठी। थाने के अहाते में एक तरफ उसका टैम्पो खड़ा नजर आ रहा था।

“म- मेरा टैम्पो।” अमृतपाल का स्वर  खुशी से काँप उठा।

“वो इस वक्त टैम्पो नहीं, मेरी बहन की दुःख भरी दास्तान है। टैम्पो न मिलता तो कभी तो आप मेरी बहन से शादी कर ही लेते। एक आशा थी मन में। वो भी ख़ाक हो गई।” बुझे सिंह मुँह लटकाये कह उठा।

अमृतपाल जल्दी से अहाते में खड़े टैम्पो के पास पहुँचा। वहाँ और भी वाहन खड़े थे। वो हाथ लगा-लगा कर टैम्पो को छू-छू कर देखने लगा। शायद उसे विश्वास नहीं आ रहा था कि उसका चोरी हुआ टैम्पो मिल गया है। बुझे सिंह के पास जाकर अमृतपाल काँपते स्वर में कह उठा।

“बुझे ! ये मेरा ही टैम्पो है ना?”

“उस्ताद जी! आपका ही होगा। नम्बर तो 2000 ही है। मैं तो इतना जानता हूँ कि पहले इस टैम्पो की झाड़ू-सफाई मैं ही करता था और अब फिर यही काम करना पड़ेगा। नान वाला प्रोग्राम तो खत्म ही हो गया। मैंने तो सोचा था कि मेरी बहन दस-पंद्रह दिन में आपके नाम का सिन्दूर माँग में भर लेगी। लेकिन-वेकिन, छोड़ो उस्ताद जी, कुछ नहीं बचा। देखा आप सारी उम्र टैम्पो पर ही हाथ फेरते रह जाओगे। शादी नहीं हो पायेगी।”

अमृतपाल तो अपनी ही खुशी में खोया हुआ था।

ये वो वक्त था, जब ओमवीर, बाहर मौजूद सोहनलाल से सौदा पक्का करके भीतर की तरफ आ रहा था। तभी उनकी निगाह इन दोनों पर पड़ी तो ठिठक गया। उसने ही टैम्पो चोरी की रिपोर्ट लिखी थी। इसलिए इन दोनों को देखते ही पहचान गया और इनके पास आ गया।

उसे देखते ही अमृतपाल खुशी से कह उठा।

“आपने मेरा टैम्पो ढूँढ दिया। मेरी रोजी-रोटी बचा ली। समझ में नहीं आता कि मैं आपका धन्यवाद कैसे करूँ !”

“धन्यवाद की जरूरत नहीं।” ओमवीर ने शांत स्वर में कहा - “ये तो मेरा फर्ज है। मेरा तो काम ही जनता की सेवा करना है।”

“माई-बाप, आपकी शादी हो गई।” एकाएक बुझे सिंह कह उठा।

ओमवीर ने बुझे सिंह को देखा।

“हाँ। हो गई। लेकिन ये सवाल तुमने क्यों पूछा?”

“कोई ख़ास बात नहीं जी, वो मेरी जवान बहन घर में बैठी है। उसके लिए किसी लड़के की तलाश थी। आपके साथ तो उसकी जोड़ी खूब जमती। अगर आपकी शादी न हुई होती। खैर, कोई बात नहीं। ढूँढ लूँगा कहीं से लड़का।”

“साहब जी!” अमृतपाल हाथ जोड़कर कह उठा - “मैं अपना टैम्पो ले जा सकता हूँ।”

“नहीं। बीस-पच्चीस दिन टैम्पो नहीं मिल सकेगा।” ओमवीर कह उठा।

“बीस-पच्चीस दिन।” अमृतपाल के होठों से निकला- “तब तक बिना टैम्पो के मैं भूखा मर जाऊँगा।”

“लेकिन भाई हम क्या करें। पुलिस वालों की भी तो मजबूरी है। टैम्पो को बरामद करने में पुलिस वालों का खर्चा हुआ है। जब तक वो खर्चा हमें ऊपर से नहीं मिलगा हम टैम्पो नहीं छोड़ सकते। और वो खर्चा आने में बीस-पच्चीस दिन तो लग ही जायेंगे। कई बार तो दो महीने भी लग जाते हैं।”

“दो महीने।” अमृतपाल के होंठों से निकला।

“उस्ताद जी! सरकारी काम है। सरकार की मर्जी से ही होगा ना। क्यों माई बाप -?”

“कुछ जल्दी नहीं हो सकता साहब जी?” अमृतपाल कह उठा।

“हमे तो खर्चे से मतलब है तुम दे दो या ऊपर वाले। उससे कोई फर्क नहीं पड़ता।” ओमवीर मुस्कराया।

“मैं दे देता हूँ। कितना हुआ?”

“कितना  है तुम्हारी जेब में?” ओमवीर ने पूछा।

“दो-तीन हजार तो होगा ही।” अमृतपाल ने कहा।

“कम है। लेकिन काम चल जाएगा। वो बाहर छाता लगाकर पानवाला बैठा है। जो भी जेब में है, उसे दे आना। तब तक मैं खानापूरी करके कागज तैयार करता हूँ। उस पर साईन करके टैम्पो ले जाना।”

“ठीक है , साहब जी। मैं अभी उस पानवाले को खर्चे के पैसे देकर आता हूँ।”

☐☐☐

अमृतपाल ने अपने में जहान भर की खुशी समेटे टैम्पो स्टार्ट किया।

“जय माता दी।” अमृतपाल कह उठा- “चलें बुझया।”

“चल्लो जी चल्लो। बुझया ते और बुझ गया।”

अमृतपाल ने टैम्पो आगे बढ़ाया और पुलिस स्टेशन से बाहर निकलकर सड़क पर आ गया।

“उस्ताद जी सारे पैसे तो पुलिस वाले को दे दिये। मुझे तो बहुत भूख लग रही है।”

“फिक्र नहीं कर।” अमृतपाल मुस्कराया।

“मुझे भूख लग रही है और तुस्सी कहते हो कि फिक्र नेई कर।” बुझे सिंह ने गहरी साँस ली।

“पैसे हैं मेरे पास। मैंने पाँच-पाँच सौ वाले दो नोट रख लिए थे।”

“वाह उस्ताद जी वाह! तुस्सी वी कमाल कर दिया। अब हम टैम्पो मिलने की खुशी में सब्जी में मक्खन डालकर खायेंगे। आखिर पार्टी-वार्टी तो होनी ही चाहिये। क्यों उस्ताद जी?”

“जरूर। जरूर। आज तुझे जो भी खाना हो खा लेना। “

“सोच लो उस्ताद जी!” बाद में कहोगे, मैंने इतने रूपये का खाना लिया।”

“फालतू मत बोला कर। एक बार क्या कह दिया। तूने मुझे सौ बार सुना दिया।”

“ठीक है। अब देखूँगा। दूसरी बार तुसी कब कहोगे।”

“बुझया! आज मैं बहुत खुश हूँ। टैम्पो मिल गया। अगर न मिलता तो फिर जाने पेट कैसे भरता।”

“मैंने तो नान की रेहड़ी लगाने का प्रोग्राम बना लिया था। पेट कैसे नहीं भरता। तब तो हम लोगों का भी पेट भरते। अभी-अभी मुझे एक बार याद आई उस्ताद जी। तभी ये कहना पड़ रहा है।” बुझे सिंह ने कहा।

“क्या बात।”

“यही कि आप चाहें भी, तब भी मेरी बहन से आपका ब्याह नहीं हो सकता।” बुझे सिंह ने उसे देखा।

अमृतपाल खामोश रहा।

“तुस्सी पूछा नहीं कि किस बात के याद आने पर मैंने ये कहा।”

“मैंने तेरी बहन से शादी करनी नहीं तो, पूछूँ क्यों?”

“ब्याह की बात तो बाद की है। दूसरी बात पूछने में क्या हर्ज है। पूछो तो सही उस्ताद जी।”

“पूछा।”

“वो बात ये है उस्ताद जी! एक बार मैं अपनी बहन के साथ दूसरे गाँव जा रहा था। दो-तीन साल पहले की बात है। गाँव के बाहर एक नीम का पेड़ आता है, उसके नीचे एक ज्योतिषी बैठता है। गाँव के बाहर वाले उसे तोते वाला ज्योतिषी कहते हैं, क्योंकि वो तोते को पिंजरे में बंद करके अपने पास रखता है। सिर्फ पचास पैसे में वो सामने वाले का हाल बता देता है। मैंने अपना तो नहीं, लेकिन अपनी बहन के भविष्य का हाल पूछा तो उसने बताया था कि इसका ब्याह जिसके साथ होगा उसके पास एक बार बहुत बड़ी दौलत आएगी लेकिन वो दौलत को अपनी बना पता है या नहीं, इस सवाल के जवाब में वो अटक गया।” बुझे सिंह ने सिर हिलाकर कहा- “खैर, मेरा कहने का तो मलतब ये था कि तुस्सी सिर्फ टैम्पो वाले। हज़ार-दो हजार गिनने वाले। भला आपके पास बहुत बड़ी दौलत कहाँ से आ सकती है। इसलिए मेरी बहन की किस्मत में, किसी और के साथ ब्याह होना लिखा है, जिसके पास ढेरो दौलत हो। वो तोते वाला ज्योतिषी कभी गलत नहीं कहता।”

अमृतपाल मुस्कराया।

“उस्ताद जी! मुझे छुट्टी चाहिये।”

“क्यों?”

“मैं गाँव जाकर पहले अपनी बहन को टैम्पो चोरी होने की दुःख भरी कहानी सुनाऊँगा। फिर टैम्पो मिल जाने की बात बताकर खुश कर दूँगा। महीना होने लगा है घर गये। बहन से मिले।”

“कुछ दिन बाद जाना।”

“ठीक है जैसे तुस्सी कहो।”

“स्टेपनी पैंचर है याद है कि भूल गया?” अमृतपाल बोला।

“न भी याद होता तो आपके कहने पर अब याद आ ही जाना था। आज तो टैम्पो मिलने की खुशी में आराम से खा लेने दो। कल पैंचर लगवा दूँगा।” बुझे सिंह ने जवाब दिया।

“याद से।”

“ये भी कोई भूलने की बात है।”

☐☐☐

“एक और डाल।” नानकचंद नशे से भरे स्वर में कह उठा।

केसरिया ने बोतल खोली पुनः गिलास भर दिया।

“मजा आ गया केसरिया।” नानकचंद गिलास उठाता हुआ कह उठा।

“हाँ,सरदार।” केसरिया ने भी अपना गिलास उठाया। वो कम नशे में था - “बहुत मज़ा आ रहा है।”

“अपना हिस्सा डेढ़ अरब रुपया हमे मिल गया होता तो अब और भी मज़ा आ रहा होता।” नानकचंद बोला।

“डेढ़ अरब हमें जरूर मिलेगा। देवराज चौहान गया है। जगमोहन को छुड़ाने। साढ़े चार अरब के माल का मामला है। इतनी दौलत को देवराज चौहान छोड़ने वाला नहीं है। जगमोहन पुलिस वालों के हाथ से निकला नहीं कि, फौरन मालूम हो जाना है कि वो हीरे कहाँ हैं। उसके बाद अपने हिस्से का डेढ़ अरब रुपया हाथ में सरदार।”

“तू ठीक बोले हो। ये कॉच बहुत बढ़िया लाया रे।”

“कॉच नहीं सरदार, स्कॉच-स्कॉच।”

“हाँ-हाँ, वो ही, कॉच।” कहने के साथ ही नानकचंद ने एक ही साँस में आधा गिलास खाली कर दिया।

दोनों बँगले में ड्राइंग हॉल में बैठे, बोतल खाली कर चुके थे।

रात के दस बज रहे थे। केसरिया खाना भी ले आया था सब के लिये। भटनागर ने खाना खा लिया था और किचन में पड़े बर्तनों में डालकर ऊपर बेडरूम में मौजूद जया केटली को भी खान दे आया था।

केसरिया ने चंद क़दमों दूर सोफे पर पसरे भटनागर को देखा।

“तेरा क्या ख्याल है भटनागर?” केसरिया ने पूछा- “हीरे मिल जायेंगे।”

“हाँ।” भटनागर के स्वर में विश्वास था- “हीरे जगमोहन ने छुपाये हैं और पुलिस वालों के हाथों से जगमोहन बहुत जल्द आज़ाद होगा। हीरे कहीं नहीं जाने वाले।”

“तुम्हारा कितना हिस्सा है, उन हीरों में?”

“जितना भी हो। तुम अपने हिस्से की सोचो।”

“हमे क्या- तुम सारा ले लो। हमे तो अपना डेढ़ अरब चाहिए। क्यों सरदार?”

“बिलकुल। बिलकुल-।”

भटनागर ने दोनों को ठीक-ठाक नशे में पाया तो उठते हुए बोला।

“खाना, जब भी खाना हो खा लेना। किचन में पड़ा है। मैं सोने जा रहा हूँ।”

“कहाँ?”

“उधर। दीवान पर।”

केसरिया ने देखा, कुछ दूर पर दीवार के साथ दीवान बिछा हुआ था।

“छोरी का ध्यान कौन रखेगा?”

“वो कहीं नहीं जा सकती। कमरे में बंद है और ताले की चाबी मेरी जेब में है।” भटनागर दीवान की तरफ बढ़ गया।

“तो सरदार! गिलास तो खाली हुआ नहीं।”

“हो जायेगा केसरिया! हो जायेगा। रात भी अपनी गिलास भी अपना और -।”

“आगे मत बोलना सरदार। उसे सो लेने दो।” केसरिया ने धीमे स्वर में कहा।

☐☐☐

दस मिनट में ही भटनागर थका-हारा गहरी नींद में डूब चुका था।

“सरदार - !”

“हूँ -।”

“वो तो नींद में लुढ़क गया।”

“अच्छा हुआ। तू जाकर छोकरी को देखकर आ। बिलकुल फिट माल है।”

“दरवाजे का ताला बंद है।”

“बिना चाबी के  दरवाजे का ताला खोल ले। छोटा सा काम है कर नहीं सकता क्या?” नानकचंद झल्लाया।

“कर लूँगा सरदार -।”

“तो जा। ये भी देख आना वो सीधी लेटी है कि उल्टी, कपड़े उतार रखे हैं या पहन रखें हैं।”

“चिंता मत करो सरदार। जो तुमने नहीं कहा, वो भी देख आऊँगा। पक्की रिपोर्ट दूँगा।” कहने के साथ ही केसरिया ने गिलास खाली किया। टेबल पर रखा और उठ खड़ा हुआ।

“जल्दी आना।” नानकचंद का स्वर नशे में झरझरा रहा था।

“गया और आया सरदार। दोनों दरवाजे खोल आऊँ -।”

“दोनों दरवाजे? ये दूसरा कौन-सा- ओह, रहने दे, दूसरा दरवाज़ा पहले से ही खुला होगा। वो कोई बच्ची नहीं है। काफी बड़ी है।”

“सोच लो सरदार। दूसरा दरवाज़ा बंद हुआ तो खोलना तुम्हारे बस का नहीं। सारा मजा खराब हो जायेगा। याद है ऐसे मौके पर चम्बल में भी मैं तुम्हारे लिए रास्ता तैयार करता था।” केसरिया नशे से भरे स्वर में कह उठा।

“चम्बल की बात और थी। ये शहर है। यहाँ सब कुछ खुला रहता है। तू जा और वापस आ।”

“ठीक है सरदार। तुम्हारी मर्जी।” केसरिया कहने के पश्चात ही, ऊपर जाने वाली सीढ़ियों की तरफ बढ़ गया।

नानकचंद ने नशे से भरी आँखों से उसे जाते देखा फिर दीवान पर सोये भटनागर को।

“वाह! अब मज़ा आएगा, शहरी छोरी के साथ। उसके बाद पेट भर के खाना खाऊँगा।”

उसके बाद इंतजार-इंतजार में, दस मिनट ही बीते होंगे कि नशे की अधिकता की वजह से नानकचंद सोफे पर ही लुढ़क गया।

रात के ग्यारह बजे, देवराज चौहान और सोहनलाल ने भीतर प्रवेश किया।

ड्राइंग हॉल में पड़े नानकचंद और भटनागर पर उनकी नज़र पड़ी। फिर टेबल पर खाने-पीने के सामान और व्हिस्की की खाली बोतल पर नजर पड़ी, तो सोहनलाल कह उठा।

“पी-पा  के पड़े हैं। वो लड़की जया अब तक भाग गई होगी।”

देवराज चौहान के होंठ भिंच गये।

“देखो। लड़की है या चली गई।” देवराज चौहान दाँत भींच कर बोला।

सोहनलाल बँगले के नीचे वाला हिस्सा चेक करने लगा और देवराज चौहान ऊपर की तरफ बढ़ गया। पहली मंजिल पर, सीढ़ियों की समाप्ति पर पहुँचते ही देवराज चौहान ठिठका।

सामने ही केसरिया की खून से लथपथ लाश पड़ी थी।

देवराज चौहान का चेहरा कठोर हो गया।

जिस्म पर जगह जगह चाकू के निशान थे। बहुत बेदर्दी से चाकू के वार किए गये थे। चाकू का एक वार गर्दन काटने वाले ढंग से भी किया गया था। आस-पास बिखरा खून यही बता रहा था कि केसरिया की हत्या यहीं की गई है। बिखरे खून की हालत बता रही थी कि उसे मरे ज्यादा देर नहीं हुई।

“सोहनलाल!” देवराज चौहान ने ऊँचे स्वर में पुकारा। नीचे देखा।

नीचे सोहनलाल नज़र आया। जो ऊपर देख रहा था।

“नानकचंद और भटनागर को उठाओ।” देवराज चौहान ने भिंचे स्वर में कहा।

“कोई ख़ास बात?”

“केसरिया लाश बना मिल गया है। चाकू से गोद-गोद कर बुरी तरह मारा गया है।” देवराज चौहान ने कहा- “मेरे ख्याल में वो लड़की भाग गई है। उसी ने केसरिया को मारा है।”

“ओह!”

कुछ ही पलों में सोहनलाल नानकचंद और भटनागर के साथ वहाँ मौजूद था।

केसरिया की लाश देखकर, नानकचंद हक्का-बक्का रह गया था। उसकी अविश्वास से भरी नजरें समझ नहीं पा रही थीं कि केसरिया को मरा माने या नहीं।

भटनागर अजीब-सी निगाहों से केसरिया की लाश को देख रहा था।

“तुम लोग एक लड़की को सम्भाल कर न रख सके।” देवराज चौहान ने दाँत भींचकर कहा- “वो भाग ही नहीं गई,बल्कि जाते-जाते केसरिया की जान भी ले गई।”

“हैरानी है।” भटनागर अजीब से स्वर में कहा उठा- “जिस तरह के जबर्दस्त वार केसरिया पर किये गये हैं, उससे जाहिर है कि वो बहुत हिम्मत वाली लड़की थी।”

“लेकिन एक लड़की केसरिया को इस तरह मार सकती है।” सोहनलाल ने आँखें सिकोड़ कर देवराज चौहान को देखा- “किस जबर्दस्त ढंग से वार किये गये हैं।”

देवराज चौहान के दाँत भिंच गये।

“केसरिया को कोई भी मार सकता था।” नानकचंद दुःख भरे स्वर में कह उठा- “तब वो ठीक-ठाक नशे में था। शायद अपना बचाव नहीं कर सका होगा, उस लड़की से। बहुत बुरा हुआ। केसरिया मेरा बहुत अच्छा साथी था। इसका बहुत सहारा था मुझे! वो लड़की केसरिया को मार गई।”

दो पलों के लिए वहाँ खामोशी रही।

“ये बँगला हमे फौरन खाली करना होगा।” देवराज चौहान भिंचे स्वर में बोला।

“क्या?” भटनागर के होंठों से निकला।

“हाँ। वो लड़की जया, हो सकती है अब तक पुलिस के पास पहुँच गई हो। यहाँ कभी भी पुलिस घेराबन्दी कर सकती है और मैं नहीं चाहूँगा कि पुलिस से मुकाबला किया जाये। इसलिए वक्त पर यहाँ से निकल चलना ही-।”

“लेकिन रात को किसी भी वक्त जगमोहन ने यहाँ पहुँचना है।” सोहनलाल के होंठ भिंच गये।

भटनागर और नानकचंद की आँखें मिलीं।

“जो- जो रास्ता बँगले की तरफ आता है, उस रास्ते पर छिपकर हमें नजरें रखनी होगी। और जिसे भी जगमोहन आता दिखाई दे। उसे रोक ले।” देवराज चौहान ने गम्भीर स्वर में कहा और नानकचंद भटनागर को देखते हुए सख्त स्वर में कहा- “तुम दोनों की ज़रा सी लापरवाही ने सारा खेल बिगाड़ दिया। तुम पीकर लुढ़के पड़े थे और तुम्हें नींद लेने की बहुत जरूरत थी। एक तो लड़की पर नजर रख सकता था।”

“ओ केसरिया!” नानकचंद भारी मन से कह उठा।

लेकिन केसरिया ने कहाँ जवाब देना था।

“मैं लाश को इस तरह यहाँ छोड़कर नहीं जा सकता।” भटनागर कह उठा।

“क्या मतलब?” सोहनलाल ने उसे देखा।

“जिस पहचान वाले के द्वारा मैंने ये बँगला लिया है, यूँ तो कुछ भी हो, वो मुँह बंद रखेगा। मेरा नाम उसके होंठों पर नहीं आएगा। लेकिन यहाँ से केसरिया की लाश मिली तो, फिर वो चुप नहीं रहेगा। ऐसे में लाश को यहाँ छोड़कर जाना ठीक नहीं।” भटनागर गम्भीर था- “लाश यहाँ से हटानी होगी।”

“और अगर तब तक पुलिस आ गई तो?” सोहनलाल ने उसे देखा।

“मैं नहीं जानता।” भटनागर ने स्पष्ट कहा- “तुम लोग मेरा साथ दो या न दो। लेकिन मैं लाश हटाने के बाद ही बँगला छोड़ेगा। पुलिस को लाश यहाँ मिली तो मैं और मेरी पहचान वाला मुसीबत में फँस जायेंगे।”

सोहनलाल ने देवराज चौहान के गम्भीर चेहरे पर निगाह मारी।

“ओ केसरिया!” नानकचंद गहरी साँस लेकर कह उठा- “बहुत गलत मौके पर और गलत जगह मरा रे तू। चम्बल के बीहड़ों में तो कहीं मर जाता। इतने शानदार बँगले में, गलत वक्त पर मरा तू।”

देवराज चौहान ने सिर हिलाकर भटनागर को देखा।

“ठीक है।” देवराज चौहान का स्वर गम्भीर था- “मैं तुम्हारी परेशानी को समझ रहा हूँ। हम लाश को बँगले से बाहर ले जायेंगे। जाते वक्त, साथ ही ले जायेंगे।”

“वो कैसे?”

“चादर में लपेट कर लाश को कार की डिग्गी में रख लेंगे। रास्ते में कहीं फेंक देंगे।”

“वाह केसरिया मरने के बाद ये ही तेरी किस्मत में लिखा था।” नानकचंद गहरी साँस लेकर कह उठा।

“चादर लाऊँ?” भटनागर कह उठा।

देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाई।

“ले आओ।”

भटनागर फौरन सीढ़ियाँ उतरा और कुछ ही पलों में दीवान पर बिछी चादर ले आया।

“जगमोहन ने बताया कि उसने हीरे कहाँ छिपाये हैं?” नानकचंद ने पूछा।

“जगमोहन किसी भी वक्त पुलिस स्टेशन से यहाँ पहुँच सकता है।” सोहनलाल ने कहा- “तब उससे हीरों के बारे में बात की जायेगी। शायद आज रात ही हमें हीरे मिल जाएँ।”

“एक मिनट की बात थी। पूछ लेते, उसने हीरे कहाँ रखे हैं।” नानकचंद ने मुँह बनाया।

“हमारी उसकी मुलाकात नहीं हुई।” सोहनलाल उसे घूरा- “पुलिस स्टेशन से वो निकल आये, इस बात का इंतजाम कर आये हैं। अपने ख़ास आदमी की मौत देखकर भी तुम ह्रीरों को कुछ देर के लिए नहीं भूले।”

“केसरिया की जगह मेरे दिल में थी और हीरों की जगह जेब में। दोनों अपनी-अपनी जगह -।”

“लाश पर चादर रखो।” देवराज चौहान ने सख्त स्वर में कहा।

भटनागर बड़ी-सी चादर को पास ही फर्श पर बिछा चुका था।

उसके बाद नानकचंद और भटनागर ने लाश को पकड़कर चादर पर रखा। दोनों के हाथ खून से सन गये थे। चादर को केसरिया की लाश पर अच्छी तरह लपेट दिया।

“बहुत बुरी तरह मारा ससुरी ने, केसरिया को।” नानकचंद भिंचे दाँतों से कह उठा- “ये चम्बल होता तो अब तक इसके हत्यारे को ढूँढकर बावन टुकड़े कर चुका होता।”

“मैं हाथ धोकर आता हूँ।” भटनागर खून से डूबे हाथों को देखकर कह उठा।

“जल्दी करो।” सोहनलाल बोला- “पुलिस यहाँ कभी भी पहुँच सकती है।”

“मैं भी हाथ धो लूँ।” नानकचंद बोला।

भटनागर और नानकचंद जल्दी से वहाँ से चले गये।

देवराज चौहान ने कलाई पर बंधी घड़ी में वक्त देखा। रात के बारह बजने जा रहे थे।

“केसरिया की मौत ने नई मुसीबत पैदा कर दी।” सोहनलाल गहरी साँस लेकर कह उठा।

इससे पहले देवराज चौहान, कुछ कहता। उसके कानों में दबी-दबी सी चीख पड़ी। जो कि बँगले के बाहर प्रवेश गेट की तरफ से आई थी।

दोनों चौंके।

“ये चीख गेट की तरफ से आई है।” सोहनलाल ने कहा।

लेकिन उससे पहले ही देवराज चौहान नीचे जाने के लिये तूफानी गति से सीढ़ियाँ उतरने लगा था। इस दौरान उसने रिवॉल्वर निकालकर हाथ में ले ली थी।

सोहनलाल उसके पीछे था।

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