रूपेश के कण्ठ से हृदय-विदारक चीखें निकल रही थीं, होश में आते ही सबसे पहले उसने यह महसूस किया कि उसका समूचा जिस्म बुरी तरह जल रहा था—जाने किस अज्ञात शक्ति से संचालित होकर वह उछलकर खड़ा हो गया।
नजर किसी होली के समान जलते एक नग्न जिस्म पर पड़ी—खुद उसके जिस्म से आग की लपटें लपलपा रही थीं, उसके कपड़ों में आग लगी हुई थी।
जिस्म भी जल रहा था।
मुंह से स्वयं ही चीखें निकल रही थीं, और फिर जाने किस शक्ति ने उसे इतनी बुद्धि दे दी कि वह कमरे के आगरहित फर्श पर लुढ़कता फिरने लगा।
उसके अवचेतन मस्तिष्क में एकमात्र यही विचार उभरा था कि उसके कपड़ों में आग लगी हुई था और इस आग से बचने का केवल एक ही रास्ता है, वही उसने किया भी—चीखता हुआ जाने वह कितनी देर तक फर्श पर लुढ़कता रहा।
तन के कपड़ों पर लगी आग काफी हद तक बुझ गई।
मुंह से अब भी चीखें निकल रही थीं, क्योंकि वह काफी बुरी तरह जल चुका था—शायद जिस्म में गर्मी होने के कारण ही वह उठकर खडा हो गया था—कमरे का दृश्य बहुत ही खौफनाक था—नग्न जिस्म से लपलपाने वाली आग डबलबेड को घेर चुकी थी।
अब वह शेष कमरे में फैलने जा रही थी।
कमरे में धुआं भी काफी था।
एकाएक ही रूपेश के दिमाग में यह ख्याल उठा कि कुछ ही देर में यह सारा कमरा आग की लपटों की भेंट चढ़ जाएगा—चीखता हुआ ही वह दरवाजे पर झपटा।
यह महसूस करते ही उसके होश उड़ गए कि दरवाजा बाहर से बन्द है।
मुंह से चीखें बराबर निकल रही थीं, मगर फिर भी वह पीछे हटा—किसी सांड की तरह दरवाजे की तरफ दौड़ा—दरवाजे पर उसके कंधे की चोट पड़ी।
दरवाजा बहुत ज्यादा मजबूत नहीं था, चरमरा उठा।
स्वयं उसके कण्ठ ते भी चीख निकली थी, क्योंकि यह कंधा भी शायद जला हुआ था, जिससे दरवाजे पर चोट की थी— प्राणों को बचाने की लालसा बड़ी तीव्र होती है। विशेष रूप से उन क्षणों में, जब व्यक्ति को मृत्यु सामने नजर आ रही हो। उसी लालसा से प्रेरित रूपेश ने
असहनीय टीस और जलन की परवाह किए बिना दरवाजे पर पुन: हमला किया।
आग निरन्तर अपने विकराल रूप की तरफ बढ़ती जा रही थी, धुआं इतना ज्यादा भर चुका था कि सांस लेने पर अब उसे पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं मिल रही थी।
बुरी तरह खांस रहा था वह।
पांचवें प्रहार पर दरवाजा टूटकर भड़ाक्-से आंगन में गिरा और उस टूटे हुए दरवाजे पर ही गिरा रूपेश—वह गिरते ही उठा, संभलकर गैलरी की तरफ भागा, परन्तु मुख्य द्वार पर पहुंचने से पहले ही लड़खड़ाकर गिर पड़ा।
उसकी दुनिया में अंधेरा हो चुका था, दिमाग सुन्न पड़ता चला गया। जबकि आंगन में पहुंचने के बाद धुआं जाल की तरफ बढ़ा और उसे पार करके गगन की ओर।
¶¶
फायर ब्रिगेड आग पर काबू पाने के लिए प्रयत्न करने लगी। रूपेश के बेहोश जिस्म को देख जीप में डालकर अस्पताल पहुंचाया जा चुका था—जिस समय इमरजेंसी रूम में डॉक्टर रूपेश के जिस्म से जूझ रहे थे, उसी समय फायर ब्रिगेड मकान में लगी आग से।
आग पर काबू पाने में पूरा एक घंटा लग गया।
तब काम शुरू हुआ वहां पहुंचने वाली पुलिस टुकड़ी का नेतृत्व करने वाले इंसपेक्टर आंग्रे का—अपने साथ वह पुलिस के फोटोग्राफर तथा कुछ कांस्टेबलों को साथ लिए अन्दर दाखिल हुआ—बुरी तरह जले हुए कमरे के दरवाजे पर ही उन्हें ठिठक जाना पड़ा। जहाँ से आग शुरू हुई थी—कमरे के बीचो-बीच फर्श पर एक इंसानी हड्डियों का ढांचा पड़ा था।
खाल पूरी तरह जल चुकी थी।
हड्डियां भी काली पड़ चुकी थीं—बड़ा ही डरावना दृश्य था वह—सारा कमरा फायर ब्रिगेड वालों के पानी से बुरी तरह गीला था, कदाचित् पानी की तीव्र धारा ने ही फर्श पर पड़े इंसानी जिस्म की हड्डियों को भी अव्यवस्थित कर दिया था।
इंस्पेक्टर आंग्रे समझ सकता था कि इस आग में कोई बुरी तरह जलकर खाक हो गया है—वह स्त्री थी या पुरुष, जानने के लिए आंग्रे आगे बढ़ा—हड्डियों के ढांचे, बल्कि कहना चाहिए कि इंसानी हड्डियों के ढेर या मलबे के नजदीक पहुंचा।
आंग्रे ने शीघ्र ही मलबे में से एक नथ, सोने की बालियां और चांदी की पाजेब बरामद कर लीं—जाहिर था कि वह मलबा किसी स्त्री का था।
आंग्रे के दिमाग में यह कहानी स्पष्ट हो गई कि—किसी ने इस मकान में रहने वाले स्त्री-पुरुष को जलाकर राख कर देने की कोशिश की है, स्त्री को मलबे के ढेर में बदलने में वह कामयाब हो गया, परन्तु पुरुष बच गया।
मकान के किसी भी हिस्से से उसे हत्यारे की उंगलियों के निशान या उसके सम्बन्ध में किसी सूत्र के मिलने की आशा कम ही थी, इसीलिए कमरे से बाहर निकल आया।
आंगन पार करने के बाद गैलरी में से गुजरते वक्त अचानक ही उसकी ठोकर किसी भारी वस्तु पर पड़ी। उसने चौंककर देखा—कोयला तोड़ने वाली लोहे की एक भारी हथौड़ी थोड़ी दूर तक लुढ़कती चली गई थी।
इस हथौड़ी को उठाने के लिए आंग्रे नीचे झुका।
मगर तभी जेहन में यह विचार कौंधा कि भला गैलरी में यह हथौड़ी क्या कर रही है, इसी विचार ने उसे ठिठका दिया। उसे लगा कि हथौड़ी का निश्चय ही इस काण्ड से कोई गहरा सम्बन्ध है—सम्भव है कि हत्यारे ने ही इसका प्रयोग किया हो।
यह महसूस करते ही उसकी आंखें चमक उठीं कि इस हथौड़ी पर से उसे इस काण्ड के जन्मदाता की उंगलियों के निशान मिल सकते हैं—उसने पलटकर देखा।
गैलरी के इस सिरे से शुरू होकर आंगन के फर्श से गुजरती खून की एक रेखा पर आंग्रे की दृष्टि पड़ती चली गई—खून की यह लकीर दुर्घटनाग्रस्त कमरे के दरवाजे तक चली गई थी—हां, आंगन में पड़े दरवाजे ने उसका कुछ भाग ढक जरूर लिया था—शायद उस दरवाजे और फायर ब्रिगेड के पानी से गीले हुए फर्श के कारण ही खून की उस लकीर पर पहले उसकी नजर नहीं पड़ी थी।
फोटोग्राफर को उसने हथौड़ी तथा खून की रेखा का फोटो लेने के लिए कहा और स्वयं रेखा को घूरता हुआ, आंगन से गुजरकर कमरे के दरवाजे पर पहुंच गया।
अपना काम निपटाकर कमरे में आ गए फोटोग्राफर से आंग्रे ने पूछा—“ यदि किसी बेहोश जिस्म में आग लगा दी जाए तो क्या होगा मार्श?"
"उसे होश आ जाएगा।"
“ क्यों? ” प्रश्न करने के बाद अपने आशय को और स्पष्ट करते हुए आंग्रे ने पूछा—" जब वह बेहोश है तो उसे पता कैसे लगेगा कि आग उसे जला रही है?"
"बेहोश होना किसी की मृत्यु होना नहीं है, बेहोश व्यक्ति का सिर्फ चेतन मस्तिष्क निष्किय होता है, अवचेतन मस्तिष्क नहीं—जिस्म में होने वाली तीव्र जलन को अवचेतन मस्तिष्क महसूस करेगा और जलन जब असहनीय हो जाएगी, तो चेतन मस्तिष्क भी जाग्रत हो उठेगा और इस प्रक्रिया के होने को ही हम किसी को होश में आना कहते हैं।"
"मतलब यह कि जब आग लगाई गई, तब पुरुष बेहोश था और स्त्री बेहोश नहीं थी।"
"पुरुष के जीवित बचने से ही यह बात जाहिर है।"
चमकदार आंखों वाले आंग्रे ने कहा—" अब मेरे दिमाग में एक कहानी बन रही है, मार्श।"'
“कैसी कहानी?"
"इरादतन मकान के अन्दर दाखिल होकर किसी ने इसकी हत्या की—हत्या के बाद हत्यारा लाश को ठिकाने लगाने की कोई तरकीब सोच ही रहा था कि पुरुष मकान में आ जाता है—घबराया हुआ हत्यारा हथौड़ी की चोट से उसे बेहोश कर देता है—पुरुष किसी को हत्यारे के बारे में न बता सके, इसीलिए हत्यारा पुरुष को भी खत्म कर लेने का निर्णय लेता है—बौखलाहट में एक ही तरकीब उसके दिमाग में आती है—बेहोश व्यक्ति को भी लाश के साथ ही राख कर देने की, क्योंकि इस तरह उसकी समझ के मुताबिक आग लगने के बाद यहां उसके विरुद्ध कोई सबूत भी बाकी रह जाने वाला नहीं था—किचन से मिट्टी के तेल की कनस्तरी लाकर वह ऐसा करता है, मगर इस फैक्ट को भूल जाता है कि बेहोश व्यक्ति आग लगाते ही होश में आ जाएगा।" कहने के बाद आंग्रे सेफ की तरफ बढ़ गया।
सेफ बुरी तरह काली पड़ी हुई और गीली थी।
¶¶
उनके चारों तरफ अच्छी-खासी भीड़ लग चुकी थी।
लोग पिता और पुत्र के उस अजीब-से रोमांचक मिलन को देख रहे थे—देखने वाले उस लाल जर्सी वाले मासूम, प्यारे और खूबसूरत बच्चे की दीवानगी देखते ही रह गए थे, जिसके छिले हुए घुटनों से अभी तक खून बह रहा था। जाने किस भावना से प्रेरित युवक उसे अपने से लिपटाए कांप रहा था और साथ ही अपना दिमाग उसे अन्तरिक्ष में तैरता-सा महसूस हो रहा था।
उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह बच्चा उसे अपना पापा क्यों कह रहा है?
अभी वह बच्चे से अलग होने और कोई सवाल करने का होश भी नहीं जुटा पाया था कि बच्चों की रिक्शा का चालक बेतहाशा भागता हुआ वहां पहुंचा—वह ‘विशेष....विशेष’ करके चिल्ला रहा था। भीड़ के साथ ही बच्चे और युवक ने भी उसकी तरफ देखा।
हांफता हुआ रिक्शा चालक बोला—“ तुम्हें क्या हुआ विशेष?"
"देखते नहीं रिक्शा वाले—मेरे पापा मिल गए हैं?" लड़के ने मासूम आवाज में कहा।
"तुम्हारे पापा… मगर....।"
वह कुछ कहता-कहता रुक गया और आश्चर्य के साथ युवक की तरफ देखने लगा—युवक स्वयं हक्का-बक्का-सा उसकी तरफ देख रहा था। रिक्शा वाले ने पूछा— "भला आप विशेष के पिता कैसे हो सकते हैं?"
"क्या इस बच्चे का नाम विशेष है?" उसके इस प्रश्न पर चारों तरफ खड़ी भीड़ चौंकी थी, साथ ही बच्चे ने कहा— "आप कैसी बातें कर रहे हैं पापा, क्या आप मेरा नाम नहीं जानते हैं?"
हैरत में डूबे युवक ने एक नजर विशेष पर डाली, फिर रिक्शा चालक से पूछा— "विशेष कहां रहता है।"
"गांधी नगर में।"
"क्या तुम इसके पापा को जानते हो?"
"जी...जी।" रिक्शा चालक चकित-सा था—“ जानता तो नहीं हूं, मगर बीबीजी कहती हैं कि आज से तीन महीने पहले विशेष के पिता का इन्तकाल हो चुका है।"
"बीबीजी कौन?"
"विशेष की मम्मी।"'
"तुम झूठ बोलते हो रिक्शा वाले।" विशेष ने एकदम प्रतिरोध किया—“मेरी मम्मी ने मुझसे कहा था कि पापा मेरे लिए ढेर सारी टॉफियां लेने आकाश में गए हैं—क्या मैं आपको जानता नहीं हूँ पापा—मेरे लिए टॉफी लेने गए थे न आप।"
"हां बेटे—हां।" कहकर युवक ने उसे गोद में उठा लिया। ऐसा शायद विशेष के भोले अन्दाज की वजह से हुआ था। बड़ी ही मासूमियत के साथ कहा था उसने और कहने के साथ ही उसकी झील-सी गहरी नीली और बड़ी-बड़ी आंखों में पानी था।
एकाएक युवक को ध्यान आया कि यहां, इतनी भीड़ के सामने ये अटपटी बातें करना उसके हित में नहीं है—उन अटपटी बातों को सुनकर कोई पुलिस को बुला सकता है या ड्यूटी पर तैनात कोई पुलिसमैन स्वयं भी यहां आ सकता है—इस वक्त किसी भी चक्कर में उलझकर उसका पुलिस के हत्थे चढ़ना खतरनाक है, अत: वहां से बच निकलने की गर्ज से बोला—“आओ बेटे, अब घर चलें।"
"चलो पापा, मम्मी आज बहुत खुश हो जाएंगी।" कहकर खुशी से लगभग झूमते हुए विशेष ने उसके गले में अपनी बांहें डाल दीं।
¶¶
पहले तो राजाराम अपनी दुकान में दाखिल होते पुलिस इंस्पेक्टर को देखते ही हड़बड़ा गया था और उस वक्त तो उसके चेहरे पर हवाइयां ही उड़ने लगीं, जब एक कमीज काउण्टर पर डालते हुए इंस्पेक्टर ने सवाल किया— “ क्या तुम इसे पहचानते हो?"
"ज...जी—मैं समझा नहीं, साहब।"
"याद करके बताओ, यह कमीज तुमने कब और किसके लिए सिली थी?"
"ए...ऐसे कहीं याद रहता है साहब?"
" बको मत—तुम्हें याद करना होगा, यह एक हत्या का मामला है।"
"ह.....हत्या.....किसकी हत्या हो गई है साहब?" कहते हुए राजाराम का न केवल चेहरा ही फक्क पड़ गया था, बल्कि उसकी आवाज भी बुरी तरह कांप गई थी—कदाचित् इस वजह से आंग्रे को शक हो गया कि राजाराम कुछ छुपा रहा है, झपटकर उसने दोनों हाथों से राजाराम का गिरेबान पकड़ा और उसे आतंकित करने के उद्देश्य से दांत भींचकर गुर्राया—“ अगर तुमने सब कुछ सच-सच नहीं उगल दिया तो इस हत्या के जुर्म में मैं तुम्हीं को फंसा दूंगा—बोलो।"
"व...वो साहब, बात ऐसी है कि एक औरत तीन दिन पहले मुझसे एक ही नाप के ढेर सारे कपड़े सिलवाकर ले गई थी, वे सभी कपड़े मर्दाना थे—यह कमीज उन्हीं में से एक है।"
इंस्पेक्टर आंग्रे की आंखें अजीब-से अन्दाज में सिकुड़ गईं, बोला—“ क्या उसके साथ वह आदमी नहीं था, जिसके नाप के कपड़े सिले थे?"
"जी नहीं।"
"उस औरत का हुलिया?”
जवाब में राजाराम ने जो बताया, वह वही हुलिया था, जो इंस्पेक्टर आंग्रे को भगवतपुरे में स्थित दुर्घटनाग्रस्त मकान के आस-पड़ोसियों ने बताया था। किसी गहरी सोच में ड़ूबते हुए आंग्रे ने पूछा—“ क्या तुमने उससे यह नहीं पूछा कि एक साथ इतने कपड़े वह क्यों सिलवा रही है—और जिसके वे कपड़े हैं, वह कहां है?"
"स...साहब...।"
"सब कुछ बिल्कुल साफ-साफ बताओ। अगर तुमने कुछ छुपाया और आगे चलकर मुझे इस बारे में कोई जानकारी मिली तो मुजरिम को बचाने के आरोप में मैं तुम्हें भी फंसा दूंगा।”
"स...साहब, कपड़ों की सिलाई के अलावा उसने मुझे दस हजार रुपए भी दिए थे।"
"दस हजार रुपए?" आंग्रे की आंखें सिकुड़कर बिल्कुल गोल हो गईं। उत्सुकतापूर्वक उसने पूछा—" ये रुपए उसने तुम्हें किसलिए दिए थे?"
"उसने कहा था साहब कि एक आदमी मेरी दुकान पर यह पूछता हुआ अएगा कि ‘मैं कौन हूं'—मैं उसे पहचानने का नाटक करूं, साथ ही जॉनी कहकर उसे पुकारूं—यानि मैं उसे यह बताऊं कि उसका नाम जॉनी है और वह भगवतपुरे के एक मकान में रहने वाली रूबी नामक एक स्त्री का पति है। उस औरत ने अपना नाम रूबी ही बताया था।"
"क्या बकवास कर रहे हो, दुनिया में ऐसा भला कौन होगा, जो खुद को न जानता हो?"
"जब रूबी नाम की औरत मुझे यह सब कुछ समझा रही थी, तब मैंने भी उससे यही पूछा था, जवाब में उसने बताया कि उसका पति अपनी याददाश्त गंवा बैठा है, वह उसे अपनी पत्नी मानने से ही इन्कार करता है, उसे विश्वास आ जाए, इसीलिए वह मुझे गवाह बना रही है और दस हजार रुपए इस बात के दे रही है कि मैं इस सारे मामले का जिक्र किसी अन्य से न करूंगा—मुझे लालच आ गया साहब, दस हजार के फेर में पड़ गया मैं—सोचा कि यदि मुझे दस हजार मिलते हैं और मेरी मदद से किसी को अपना खोया हुआ पति मिलता है तो इसमें बुराई क्या है, म...मुझे नहीं मालूम था साहब कि बात इतनी बढ़ जाएगी।"
"विस्तार से वह सब कुछ बताओ, जो तुमने उस औरत के कहने पर किया।"
राजाराम ने युवक के अपनी दुकान पर पूछने से लेकर उसे भगवतपुरे के मकान में पहुंचाने तक की सारी घटना विस्तारपूर्वक बता दी। सुनकर हालांकि खुद आंग्रे को अपना दिमाग किसी तेजी से घूमने वाली फिरकनी के समान महसूस हो रहा था, परन्तु फिर भी उसने सवाल क्रिया।
"क्या तुम उस युवक से दुआ-सलाम करने वालों में से किसी को जानते हो?"
"नहीं साहब।"
इंस्पेक्टर आंग्रे बिखरी हुई कड़ियों को जोड़ने लगा, कुछ देर शांत रहने के बाद बोला—“मेरे साथ चलो।"
"क...कहां साहब?" राजाराम का चेहरा एकदम सफेद पड़ गया।
"जॉनी या रूपेश में से एक अस्पताल में है, तुम्हें बताना है कि वह दोनों में से कौन है?"
¶¶
विशेष उसे गांधीनगर की एक ऐसी बस्ती में ले गया, जहां अधिकांश मध्यम आय वर्ग के मकान थे… और जिस मकान को विशेष ने अपना मकान कहा, वह बस्ती से थोड़ा दूर हटकर एकान्त में था—उसके इर्द-गिर्द के प्लाट अभी खाली पड़े थे।
दो सौ गज के प्लाट पर खड़ा यह दो-मंजिता मकान था।
पूरी आत्मीयता के साथ नन्हां विशेष खींचकर उसे मकान के अन्दर ले गया और चिल्लाने लगा—“दादी, मम्मी.....कहां हो तुम, देखो… मैं किसको लाया हूं?"
किंकर्तव्यविमूढ़-सा युवक उसके साथ आंगन में पहुंच गया।
आंगन काफी बड़ा था।
सामने वाले कमरे से एक बूढ़ी महिला बाहर निकलती हुई बोली—"अरे, तू जा गया, वीशू?"
"हां दादी, देखो मैं किसे लाया हूं?"
"कौन है बेटा?" बढ़िया ने कम हो गई अपनी आंखों की ज्योति का प्रयोग करने की कोशिश करते हुए कहा और आंखों के ऊपर हाथ रखकर युवक को देखने लगी।
"मेरे पापा आए हैं, दादी।”
"प...पापा? ” युवक को ध्यान से देखती हुई बुढ़िया ने कहा, वह कुछ आगे बढ़ी और फिर अचानक ही बांहें फैलाकर युवक की तरफ दौड़ती हुई चीखी—"अरे मेरा बेटा, मेरा सर्वेश—हां, तू मेरा सर्वेश ही है।"
आगे बढ़कर युवक ने बड़ी जल्दी से उसे संभाल न लिया होता तो खुशी और जोश की अधिकता के कारण शायद यह गिर ही पड़ती। युवक ने उसे बांहों में भर लिया और उससे लिपटी थर-थर कांप रही बुढ़िया चीख रही थी—“ मेरा सर्वेश मिल गया है—हां, तू ही मेरा सर्वेश है—सब बकते थे, ये जन्मजले दुनिया वाले झूठ ही कहते थे कि मेरा बेटा मर गया है—हुंSS —मेरा सर्वेश कोई मर सकता है—देखो, ये रहा मेरा बेटा—हा-हा-हा—मेरा बेटा जिन्दा है, मेरा सर्वेश भला कभी मर सकता है—हा-हा-हा—मेरा बेटा जिन्दा है, मेरा सर्वेश भला कभी मर सकता है… हा-हा-हा।"
वह कुछ ऐसे वहशियाना ढंग से हंसने लगी थी कि युवक के जिस्म में झुरझुरी-सी दौड़ने लगी। उसे लगा कि यह बूढ़ी औरत शायद पागल है—वह पागलों की तरह ही हंसती चली जा रही थी—युवक ने उसे अपने से अलग करने को कोशिश की—मगर बुढ़िया ने बहुत ही कसकर पकड़ रखा था उसे।
जैसे डर हो कि वह कहीं भाग जाएगा।
युवक को लग रहा था कि उसके दिमाग की मशीनरी में अब जंग लग चुका है, जाम हो गई है वह—सोचने-समझने या किसी बात का सही अर्थ निकालने की क्षमता नहीं महसूस हो रही थी उसे, जबकि बुढ़िया ने उससे चीखकर पूछा— " तू सर्वेश ही है न, तू मेरा बेटा ही है न—बोल, तू रश्मि का पति है न?"
"हां...हां मांजी।" अवाक्-से युवक के मुंह से निकल गया।
“खबरदार, जो तुमने खुद को रश्मि का पति कहा।" अचानक ही वहां एक कर्कश आवाज गूंजी। विशेष और बूढ़ी औरत के साथ पलटकर युवक ने भी आवाज की दिशा में देखा। आवाज मकान के मुख्य द्वार से उभरी थी और वहां खड़ी संगमरमर की एक प्रतिमा को देखता ही रह गया युवक, चाहकर भी दृष्टि उस पर से हटा न सका।
उधर, उस युवक पर नजर पड़ते ही संगमरमर की वह प्रतिमा भी बुरी तरह चीख पड़ी थी, जाने क्यों—युवक के चेहरे पर दृष्टि पड़ते ही उसका मुंह खुला-का-खुला रह गया।
सारे जहां की हैरत मानो सिर्फ और सिर्फ उसी मुखड़े पर सिमट आई थी।
युवक के चेहरे पर उसकी दृष्टि जमकर रह गई।
जबकि युवक खुद उस मुखड़े से दृष्टि नहीं हटा पा रहा था… उस मुखड़े से, जिसके लिए सारे जहां से शर्त लगाकर यह दावा पेश कर सकता था कि यह मुखड़ा दुनिया की सभी हसीनाओं से कई गुना ज्यादा खूबसूरत है—निहायत ही सुन्दर थी रश्मि।
छोटी-सी, मासूम—रुई की बनी गुड़िया जैसी।
मुखड़ा गोल था उसका, रंग वैसा ही जैसा एक चुटकी सिन्दूर मिले मक्खन का हो सकता है—सुतवां नाक, गुलाब की पंखड़ियों से कोमल और गुलाबी होंठ—चौड़े मस्तक और कमान के आकार की भौंहों वाली रश्मि की आंखें नीली थीं।
किसी फाइव स्टार होटल के ' स्विमिंग पूल' में भरे स्वच्छ नीले जल-सी आंखें—तांबे के-से रंग के लम्बे बालों को बड़ी सख्ती के साथ सिमेटकर बांधे हुए थी वह—ऐसी अपूर्व सुन्दरी जिसे देखकर स्वयं सुन्दरता भी ईर्ष्या की लपटों की शिकार होकर राख में बदल जाए।
मगर जाने क्यों? उसे विधवा के लिबास में देखकर युवक की छाती पर एक घूंसा-सा लगा—सस्ती परन्तु धुली हुई बेदाग सफेद साड़ी पहने थी वह—कर्फ्यूग्रस्त सड़क-सी सूनी पड़ी थी उसकी मांग—गोरी, गोल, भरी-भरी बांहों में एक भी चूड़ी नहीं थी।
एक नन्हीं-सी गुड़िया को इस रूप में देखकर युवक को जाने क्यों धक्का-सा लगा। उसकी इच्छा हुई कि रश्मि को यह लिबास पहनाने वाले का मुंह नोंच ले, जबकि कुछ देर तक उसकी तरफ असीमित हैरत के साथ देखने के बाद एकाएक ही रश्मि की नीली आंखें सिकुड़ती चली गईं… चिंगारियां-सी बरसाने लगीं वे आंखें—मुखड़ा संगमरमर के किसी पत्थर की तरह ही साफ हो गया। युवक पर दृष्टि जमाए ही वह आगे बढ़ी।
उसके नजदीक पहुंची, मोतियों-से दांत भींचकर गुर्राई—"कौन हो तुम?"
" मैं...मैँ।" युवक चीखता गया।
"अरे, क्या तूने इसे पहचाना नहीं रश्मि बेटी—यह मेरा बेटा है—तेरा सर्वेश।"
" प...प्लीज मां, आप खामोश रहिए—कितनी बार कह चुकी हूं कि आप चाहे जिसको अपना बेटा कहती फिरा करें, मगर मेरा पति न कहें किसी को।"
"ये कोई थोड़ी हैं, मम्मी-मेरे पापा...।”
'चटाक्...।' रश्मि का एक जोरदार चांटा विशेष के गाल पर पड़ा।
मासूम की चीख सारे आँगन में गूंज गई।
जाने क्यों युवक को यह सब कुछ अच्छा नहीं लगा—सहमे हुए विशेष को खींचकर अपने गले से लगा लेने की प्रबल आकांक्षा दिल में
उबल पड़ी। स्वयं को रोक नहीं सका वह।
विशेष को पकड़ने के लिए हाथ आगे बढ़ाया।
रश्मि ने पहले ही खींचकर उसे अपने अंगों से लिपटा लिया। नीले नेत्रों से चिंगारियां-सी बरसाती हुई वह गुर्राई—"तुम्हारे इस जाल में मां फंस सकती हैं… मासूम वीशू धोखा खा सकता है, मगर मैं नहीं—मैं जानती हूं कि तुम कोई बहरूपिये हो।"
" म.....मैँ।"
"निकल जाओ यहां से।"
युवक चकरा गया, बोला—" अगर मैं सर्वेश नहीं हूं तो यह मां मुझे… ।"
"उन्होंने अपने बुढ़ापे का एकमात्र सहारा, अपना जवान बेटा खोया है—तब से वे पागल हो गई हैं—हर युवक को सर्वेश कहने लगती हैं, अपना बेटा कहकर हरेक से लिपट जाती, हैं।"
“ म… मगर विशेष?"
"यह बच्चा है, तुम्हारी उस सूरत से धोखा खा गया है, जो बनाकर तुम यहां आए हो, मगर मैं इस किस्म के किसी धोखे का शिकार होने वाली नहीं हूं… मैं जानती हूं कि तुम सर्वेश नहीं हो सकते—तुम कोई बहुरूपिये हो—ऐसे बहुरूपिये जो चेहरे पर उनका मेकअप करके शायद हमें ठगने आया है।"
"मेकअप?”
“हां, मैं जानती हूं कि तुम्हारे चेहरे पर मेकअप है।"
"आप यकीन कीजिए, मेरे चेहरे पर कोई मेकअप नहीं है।"
नीली आँखों में नफरत के चिन्ह उभर आए। खूबसूरत मुखड़ा कुछ और ज्यादा सख्त हो गया। बोली—“ क्या तुम यह कहना चाहते हो कि तुम सर्वेश हो?”
“नहीं।”
"फिर? ”
"केवल यह कि आप कैसे कह रही हैं कि मैं सर्वेश नहीं हो सकता?"
"इसीलिए क्योंकि उनकी लाश मैंने अपनी आंखों से देखी है—उनकी लाश के मस्तक पर इन कलाइयों को पटककर सारी चूड़ियां तोड़ी हैं मैंने—उनके मफलर से अपने मस्तक की बिंदिया, अपनी भांग का सिन्दूर पोंछा है।"
कहते-कहते उसका गला रुंध गया। नीली आंखें भर आईं।
कुछ देर तक अवाक्-सा युवक उसे देखता रहा। फिर बोला—" तो क्या मेरी शक्ल सर्वेश से मिलती है?"
"म...मैं फिर कहती हूं कि यह नाटक बन्द करो—तुम मुझे ठग नहीं सकते, बाहर निकल जाओ इस घर से, वरना मैं पुलिस को बुला लूंगी।"
पुलिस का नाम बीच में आते ही युवक के तिरपन कांप गए—उसकी इच्छा हुई कि वहां से भाग खड़ा हो, मगर वहां आने के बाद जो नई गुत्थियां उसके जेहन में चकराने लगी थीं—वह उनका जवाब चाहता था। अत: बोला—"इस वक्त आप गुस्से में हैं, यकीन मानिए, मैं कोई बहुरूपिया नहीं हूं… शायद बचपन ही से यह मेरी असली शक्ल है—शायद इस शक्ल को देखकर ही विशेष रिक्शा में से कूद पड़ा था।"
"त...तुम रिक्शा में से कूद पड़े थे वीशू?"
"हां मम्मी—पापा को देखकर।"
"अरे—तुझे तो चोट लगी है वीशू—घुटनों से खून बह रहा है—चल मेरे साथ।" उसकी चोट देखकर एकदम से बेचैन हो उठी रश्मि—सब कुछ भूल गई वह और विशेष को लेकर आंगन से ही शुरू होकर दूसरी मंजिल तक जा रही सीढ़ियों पर बढ़ती चली गई।
ढेर सारे प्रश्नों से घिरा युवक किंककर्तव्यविमूढ़-सा खड़ा उसे देख रहा था कि बूढ़ी मां उसके समीप सरक आई। धीमे से रहस्यमय अन्दाज में बोली—" रश्मि की किसी बात का बुरा मत मानना बेटा, पता नहीं किस कलमुंहे की लाश को सर्वेश की लाश समझकर बेचारी ने अपनी सारी चूड़ियां तोड़ डाली हैं—खुद को विधवा समझने लगी है यह—दिमाग में खराबी आ गई है, बेचारी रश्मि। सुहागिन बनने की उम्र में विधवा बन जाने पर भला किसका दिमाग ठिकाने रह सकता है?"
युवक चौंककर बूढ़ी मां की तरफ देखने लगा।
¶¶
अस्पताल के कमरे में, लोहे के बेड पर पड़े व्यक्ति पर नजर पड़ते ही राजाराम के कण्ठ से ऐसी ह्रदय विदारक चीख निकल पड़ी कि जिसने अस्पताल की नींव में रखी अंतिम ईंट को भी शायद झंझोड़कर रख दिया होगा।
बुरी तरह डर गया था वह। सहमकर पीछे हट गया।
अपनी आंखों पर हाथ रख लिया था उसने।
सचमुच रूपेश का चेहरा इतना भयानक हो गया था कि उसे देखकर किसी के भी कण्ठ से चीख निकल सकती थी। चेहरा अत्यन्त ही वीभत्स हो गया था—डरावना।
उसके सारे बाल जल चुके थे। काली जली हुई गंजी खोपड़ी नजर जा रही थी—जलकर चेहरे की खाल झुलस गई थी—ऐसी नजर आ रही थी जैसे चमगादड़ की खाल हो। दायां गाल पूरी तरह जल गया था—वहीं से रूपेश का जबड़ा साफ नजर आ रहा था, ज़बड़े के लम्बे-लम्बे भयानक दांत, फफोलेदार मोटे होंठ, जलने के बाद जाने कैसे नाक एक तरफ को मुड़-सी गई थी।
बुरी तरह भयभीत होकर कांपते हुए राजाराम ने कहा—" म...मुझे यहां से ले चलो साहब, मुझसे देखा नहीं जाता—म....मुझे डर लग रहा है।"
"ध्यान से देखो उसे और पहचानने की कोशिश करो कि वह जॉनी है या रूपेश?" इंस्पेक्टर आंग्रे ने गुर्राहट भरे स्वर में उसे आदेश दिया।
कांपते हुए विवश राजाराम को ध्यान से वह डरावना चेहरा देखना ही पड़ा, बोला—"' यह तो रूपेश बाबू हैं साहब।"
"गुड।" कहने के बाद आंग्रे नर्स की तरफ मुखातिब होकर बोला—“ थैंक्यू सिस्टर, अब आप इसके चेहरे को पट्टियों से ढक सकती हैं।"
“ मेन्शन नॉट।” कहती हुई नर्स ने वे पट्टियां पुन: रूपेश के जख्मी चेहरे और सिर पर लपेटनी शुरू कर दीं—जिन्हें इंस्पेक्टर आंग्रे की प्रार्थना पर ही उसने हटाया था।
राजाराम को साथ लिए आंग्रे बाहर निकल गया—गैलरी में उसकी टुकड़ी के कांस्टेबल खड़े थे। राजाराम को उनमें से दो के हवाले करता हुआ आंग्रे बोला—“ और सुनो, इस वक्त युवती द्वारा दिए गए दस हजार इसके घर पर हैं—इसे साथ लेकर उन्हें बरामद कर लो—और सुनो, इस वक्त यह पुलिस का मेहमान है।"
"स...साहब… म...मुझे गिरफ्तार क्यों कर रहे हैं आप? मैंने कुछ नहीं किया है।" राजाराम चीखता ही रह गया, जबकि उसके किसी शब्द पर ध्यान दिए बिना इंस्पेक्टर आंग्रे तेजी के साथ वहां से चला गया।
दो मिनट बाद अस्पताल के ड्यूटी-रूम में खड़ा वह फोन पर कह रहा था—“ जरा चटर्जी को बुला दीजिए—कहिए कि आंग्रे बात करना चाहता है।"
दूसरी तरफ से शायद होल्ड करने के लिए कहा गया था, क्योंकि ये कहने के बाद आंग्रे कुछ देर तक रिसीवर कान से लगाए खड़ा रहा और कुछ देर बाद एकदम बोला—"हां चटर्जी—क्या करू रहे हो?"
"मजे कर रहे हैं।" दूसरी तरफ से आवाज उभरी।
"क्या तुम्हारे पास इस वक्त कोई केस नहीं है?"
“ऐसा ही समझो।"
“ तो तुम फौरन यहां, अस्पताल में चले आओ।"'
"आता हूं, मगर मामला क्या है?”
"मेरे क्षेत्र में हत्या का बहुत ही जघन्य काण्ड हो गया है—बहुत ही उलझा हुआ मामला है चटर्जी, इसीलिए यहां सारे मामले पर तुम्हारे साथ बैठकर डिस्कस करना चाहता हूं। शायद कोई नतीजा निकल आये।"
"मैं आ रहा हूं प्यारे, दिमाग की नसों को झनझनाकर रख देने वाले मामलों की तो चटर्जी को तलाश रहती है—साली इनवेस्टिगेशन करने में मजा तो आए।"
¶¶
युवक नहीं जानता था कि मां का प्यार क्या होता है। यह भी मालूम नहीं था कि यह प्यार उसे कभी मिला है या नहीं, मगर उस बूढ़ी मां ने जो कुछ किया, जितना प्यार उस पर बरसाया, उसे महसूस करके कई बार उसकी आंखें भर आईं।
इच्छा हुई कि उस बूढ़ी के कलेजे में मुखड़ा छुपाकर फूट-फूटकर रो पड़े।
वह उसे अपने कमरे में ले आई थी—छोटी-छोटी कनस्तरियों से निकाल-निकालकर वह उसे जाने क्या-क्या खिलाने लगी—उसने बहुत इन्कार किया, मगर एक न चली—आखिर वह एक मां के हत्थे चढ़ गया था और उसे अपने हाथों से जाने कब की रखी सूखी मिठाइयां खिलाईं।
इतना प्यार पाने के बावजूद भी युवक का दिमाग बुरी तरह उलझा हुआ था—कहना चाहिए कि वहीं जाकर, इन नई उलझनों में फंसने के बाद यह भूल गया था कि आज हमें दिन में वह कितना जघन्य हत्याकांड कर चुका है।
इस वक्त तो उसके दिमाग में तीन ही नाम कौंध रहे थे।
सिकन्दर, जॉनी और सर्वेश।
इनमें से कौन है वह?
कहीं इस बूढ़ी मां की बात ही तो ठीक नहीं हैं—कहीं सचमुच ऐसा ही तो नहीं है कि उस नन्हीं-सी अभागिन ने किसी अन्य की लाश को ही सर्वेश की लाश समझकर अपनी चूड़ियां तोड़ डाली हों—कहीं मैं सचमुच सर्वेश ही तो नहीं हूं?
सोचते-सोचते युवक का दिमाग थक गया।
एकाएक ही कमरे में विशेष आया, उसके दोनों घुटनों पर पट्टी बंधी हुई थी। उसे देखते ही युवक खड़ा हो गया— उसके नजदीक जाते हुए विशेष के सुर्ख होंठों पर ऐसी प्यारी मुस्कान थी कि युवक के दिल में गुदगुदी-सी होने लगी।
उसके नजदीक आकर विशेष ने कहा—"पापा।"
"हां...हां बेटे।" दिल में कहीं संगीत-सा बज उठा।
“ आपको मम्मी ने ऊपर बुलाया है।"
एक बार को धक् से रह गया युवक का दिल.....फिर असामान्य गति से धड़कने लगा, कुछ वैसी ही घबराहट उसके दिलो-दिमाग पर हावी हो गई जैसी तब हुई थी, जब इंस्पेक्टर चटर्जी सबके हाथ सूंघ रहा था.....मस्तक पर कुछ ऐसी ही अवस्था में पसीना छलछला उठा, जैसा बन्द मकान में रूपेश के जाने पर छलछलाया था—हालांकि वह स्वयं रश्मि से बातें करने का इच्छुक था, परन्तु जाने क्यों रश्मि के इस सन्देश को पाकर घबरा-सा उठा—मुंह से स्वयं ही निकल गया—"क...क्यों?"
"मम्मी पूछने लगीं कि आप मुझे कहां मिले थे… मैंने बता दिया— सुनकर मालूम नहीं क्या सोचने लगीं, फिर बोलीं कि मैं आपको ऊपर बुला लाऊं।"
युवक चुप रह गया।
वह पुनः विचारों के जंगल में भटकने लगा था। उसे लगा—“ शायद विशेष की बात सुनकर रश्मि ने यह महसूस किया है कि मैं यहाँ जानबूझकर नहीं आया हूं—मैं उलझन में हूं तो क्या मेरी शक्ल ने उसे भी उलझन में डाल रखा होगा? '
'मुझसे बात करके शायद वह उस उलझन से निकलना चाहती है—मैं भी तो यही चाहता हूं—पता तो लगे कि आखिर ये सर्वेश का चक्कर क्या है? '
'म...मगर अकेले में कहीं मुझ पर पुन: वही जुनून सवार न हो जाए।'
इस एकमात्र विचार ने उसे अन्दर तक हिलाकर रख दिया—रूबी की लाश आंखों के सामने चकरा उठी और घबराकर बोला—" त...तुम भी चलो बेटे।"
"मम्मी ने भी तो यही कहा था कि मैं आपके साथ आऊं।" विशेष ने कहा।
¶¶
"जिस मकान में दुर्घटना घटी है, उसके मालिक का कहना है कि उस औरत ने, जिसने अपना नाम रूबी बताया था, मकान चार दिन पहले ही किराए पर लिया था।"
"केवल चार दिन पहले ही?"
"हां।" आंग्रे ने बताया—“ पड़ोसियों के बयान से भी यही स्पष्ट हुआ है—उनका कहना है कि तीन दिन पहले ही यह औरत मकान में जाकर बसी थी—कोई उसका नाम तक नहीं जानता है। जब से वह मकान में आई थी, तब से मकान में ही रही—मजे की बात ये है कि खुद मकान मालिक भी औरत का नाम बताने से ज्यादा और कुछ नहीं बता सका।”
"यानि मकतूल खुद एक अत्यन्त रहस्यमय व्यक्तित्व की है। खैर, आगे बढ़ो।"
"इसके बाद मैं घंटाघर पर स्थित राजाराम की दुकान पर पहुंचा।" कहने के बाद आंग्रे ने उसे राजाराम से हुई बातें, रूपेश की शिनाख्त आदि सभी बातें बता दीं।
चटर्जी ने एक सिगरेट सुलगाई, धुआं छोड़ता हुआ बोला—“ अब पूछो प्यारे, ऐसी क्या बात है, जो तुम्हारी बुद्धि के किसी भी 'खांचे' में ' फिक्स' नहीं हो रही है?"
"अगर भगवतपुरे में रूबी और जॉनी को कोई भी नहीं जानता था तो रास्ते में जॉनी से दुआ-सलाम किन लोगों ने की थी......जॉनी से ' जमने' के लिए किस युवक ने कैसे कह दिया था?"
"वे सभी राजाराम की तरह के लोग थे—रूबी से पैसे लेकर अभिनयकर्ता।"
"इस सबका मतलब तो यह हुआ कि कथित रूबी एक याददाश्त खोए व्यक्ति के दिमाग में यह बात बैठाना चाहती थी कि वह उसका पति जॉनी है।"
“ करेक्ट।"
"जाहिर है कि रूबी एक खतरनाक षड़्यन्त्र रच रही थी—फिलहाल नजर आता है कि हत्यारा याददाश्त भूला व्यक्ति ही है.......वह कौन है—कहां गया— उसने हत्या क्यों की?"
"तुम जरा याददाश्त खोए व्यक्ति का वह हुलिया बयान करो जो राजाराम ने तुम्हें बताया होगा।"
आंग्रे हुलिया बयान करता चला गया और चटर्जी की आंखें दो बहुत ही कीमती हीरों की तरह चमकने लगी थीं, आंग्रे के चुप होने पर वह बहुत ही उत्तेजित अवस्था में चीख पड़ा—“ओह! माई गॉड!”
"आखिर बात क्या है?"
"इस काण्ड के मुजरिम से शायद मैं मिल चुका हूं।"
"क.....क्या कह रहे हो तुम? वह तुम्हें भला कहां मिल गया?"
"हरिद्वार पैसेंजर में।""
"व...वह भला वहां क्या कर रहा था?"
"इस जघन्य हत्याकाण्ड को करने के बाद शायद भाग रहा था वह।" चटर्जी ने कहा और फिर खुद ही से बड़बड़ाकर बोला—"अब मेरी समझ में उसके फक्क चेहरे, हड़बड़ाहट और नर्वसनेस का अर्थ आ रहा है। अपना नाम उसने सिकन्दर बताया था—लारेंस रोड पर रहता है, पिता का नाम क्या बताया था उसने—याद नहीं आ रहा है, खैर—उस कागज में सब कुछ दर्ज है—हम उसके घर तक पहुंच सकते हैं आंग्रे।"
"मैँ कुछ नहीं समझ पा रहा हूं चटर्जी—क्या बड़बड़ा रहे हो तुम?"
“म.....मगर उसकी याददाश्त गुम तो नहीं लगती थी।" चटर्जी किसी पागल के समान बड़बड़ाता ही चला गया—"याददाश्त गुम—अभी कुछ दिन पहले कहां पढ़ा था मैंने—कहीं पढ़ा था कि एक युवक की याददाश्त गुम है—शायद अखबार में।"
“ तुम क्या बड़बड़ा रहे हो चटर्जी?"
"आंग्रे—प्लीज़, अस्पताल में अखबार तो आता ही होगा— जरा पिछले दस दिन के अखबार मंगा लो, मुझे लगता है कि तुम्हारे मुजरिम की तस्वीर अखबार में मिल जाएगी।"
हालांकि आंग्रे ठीक से कुछ समझ नहीं सका था, फिर भी पिछले दस दिन के अखबार उसने मंगवा लिए—अखबार आने के बीच में चटर्जी ने उसे हरिद्वार पैसेंजर में हुई घटना विस्तारपूर्वक सुना दी। सुनकर आंग्रे के चेहरे पर हर तरफ उत्साह नजर जाने लगा।
उसे लग रहा था कि वह आज ही इस हत्याकांड के दोषी को पकड़ लेगा।
जो मामला उसे कुछ ही देर पहले बहुत चक्करदार और उलझा हुआ नजर आ रहा था, वह अचानक ही सचमुच बेहद सीधा-सादा नजर आने लगा—अखबारों को खंगालता चटर्जी एकदम उछल पड़ा—“ य....यही है.....यही है, आंग्रे।”
"ये देखो, अखबार में दो फोटो छपी हैं—एक युवक की, दूसरी उसकी जेब से निकले पर्स में से किसी युवती की—यह उसी युवक की फोटो है, जो मुझे हरिद्वार पैसेंजर में मिला था, जरा इन फोटुओं के साथ छपे मैटर को पढ़ो।"
आंग्रे ध्यान से फोटो को देखने के बाद इंस्पेक्टर दीवान द्वारा छपवाए मैटर को पढ़ने लगा, पढ़ने के बाद बोला—“ अब इसमें कोई शक नहीं रह गया है कि यही हत्यारा है।"
"अभी शक है आंग्रे प्यारे, अन्तिम शिनाख्त बाकी है।"
"क्या मतलब?"
"राजाराम को ये फोटो दिखाए जाने चाहिए।"
"ठीक है, मैं देखता हूं कि फोर्स राजाराम के साथ वापस लौटी है या नहीं।" कहने के साथ ही उत्साहित आंग्रे उठकर खड़ा हो गया। कमरे से बाहर गया और पांच मिनट बाद ही राजाराम को लिए कमरे में दाखिल हुआ।
इंस्पेक्टर चटर्जी को समझने में देर नहीं लगी कि साथ वाला व्यक्ति राजाराम है—वह सहमा हुआ था—चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं, जब चटर्जी ने पुलिसिए अन्दाज में उसे ऊपर से नीचे तक घूरा तो बेचारे राजाराम की सिट्टी-पिट्टी ही गुम हो गई। आंग्रे ने अखबार उसके सामने फेंककर कहा—" इन दोनों फोटुओं को पहचानो।"
युवक के फोटो पर दृष्टि पड़ते ही राजाराम उछल पड़ा, बोला, " अ...अरे… यह तो वही युवक है साहब, जिसकी याददाश्त गुम थी—जॉनी।"
आंग्रे सफलता की जबरदस्त खुशी के कारण अपने जिस्म के सारे रोयें खड़े महसूस कर रहा था, जबकि चटर्जी ने राजाराम से पूछा—“और वह युवती का फोटो?"
"मैं...मैं इसे नहीं जानता साहब।"
"ध्यान से देखकर बताओ, कहीं यह वही औरत तो नहीं है, जिसने तुम्हें रुपये दिए थे?"
राजाराम ने पूरे विश्वास के साथ कहा—"यह वह नहीं है साहब।”
"तुम जा सकते हो।" कहने के बाद चटर्जी ने कुर्सी की पुश्त से पीठ टिका दी, राजाराम चुपचाप कमरे से बाहर चला गया, आंग्रे ने पूछा— " किसी नतीजे पर पहुंचे चटर्जी?"
"सारा मामला हल हो चुका है।"
“ कैसे? ”
"जिस हत्यारे का तुम्हारे पास नामो-निशान नहीं था, उसका फोटो सामने है, नाम और एड्रेस मैं बता रहा हूं—जाकर गिरफ्तार कर लो, अब इस केस में रखा ही क्या है?"
"अगर यह नाम-पता गलत हुआ तो?"
"गलत!" चटर्जी उछल पड़ा—"हां, यह बात जमती है, आंग्रे—वह नाम-पता आदि सब कुछ गलत हो सकता है और फिर जिसकी याददाश्त गुम है, वह भला अपना नाम बता ही कैसे सकता है?"
"उसने यूं ही, जो मुंह में आया नाम बक दिया होगा।"
“ऐसा हो सकता है।" चटर्जी उससे पूरी तरह सहमत था और शायद इसीलिए वह अचानक दुबारा सतर्क नजर आने लगा था, बोला—“मेडिकल इंस्टीट्यूट अथवा इंस्पेक्टर दीवान से यह मालूम कर सकते हैं कि वह याददाश्त खोया व्यक्ति कब, किन परिस्थितियों में अस्पताल से बाहर निकला।"
¶¶
"शायद होश आने पर रूपेश नाम का वह नौजवान भी उसके बारे में कुछ बता सकेगा।"
"मैँने डॉक्टर से कह रखा है, रूपेश के होश में आते ही सूचना दी जाएगी।”
"हालांकि इस केस की गुत्थियां अभी बुरी तरह उलझी हुई हैं—ऐसे ढेर सारे सवाल हैं, जिनमें से किसी का जवाब हमारे पास नहीं है—यह कि रूबी उसे जॉनी बनाने की कोशिश क्यों कर रही थी? यह कि युवक ने उसी का कत्ल क्यों कर दिया? वह अस्पताल से कैसे निकला और राजाराम की दुकान पर ही क्यों पहुंचा आदि?"
तभी कमरे में दाखिल होती हुई नर्स ने सूचना दी—" मिस्टर रूपेश होश में आ रहे हैं।"
दोनों ही इंस्पेक्टर एक साथ ऑन होने वाले बल्बों की तरह खड़े हो गए।
¶¶
विशेष को साथ लिए युवक ने धड़कते दिल से ऊपर वाले कमरे में कदम रखा और दरवाजे पर आकर रुक जाना पड़ा उसे—कमरे के, दरवाजे के ठीक सामने वाली दीवार पर एक बहुत बड़ा फोटो लगा हुआ था।
उसका अपना फोटो।
युवक की आंखें उस पर चिपककर रह गईं—दिल धक्...धक् कर रहा था—हालांकि फर्क था, परन्तु फोटो उसे अपना ही लगा-फर्क सिर्फ दाढ़ी-मूंछ, आंखों पर चढ़े सफेद लैंसों वाले चश्मे और हेयर स्टाइल का था, यानि युवक का चेहरा क्लीन शेव था, जबकि फोटो में यह गहरी मूंछों, घनी दाढ़ी में था—हेयर स्टाइल में मामूली फर्क—आंखों पर चश्मा।
युवक को याद नहीं आया कि उसने कभी इस ढंग की दाढ़ी-मूंछें रखी हैं या नहीं—दरवाजे पर ठिठका अभी वह यह सोच ही रहा था कि यदि एक महीने वह शेव न कराए तथा आंखों पर चश्मा पहन ले और फोटो खिंचवा ले तो उसमें और इस फोटो में कोई फर्क नहीं रहेगा।
फोटो के नीचे, स्टैंड पर अगरबत्तियां जल रही थीं, सारे कमरे में अगरबत्तियों की तीव्र खुशबू-सी की हुई थी—चाहकर भी युवक उस फोटो से नजर नहीं हटा पा रहा था...कि कमरे में रश्मि की आवाज गूंजी—" वह वीशू के पापा का फोटो है।"
युवक ने बौखलाकर रश्मि की तरफ देखा।
सफेद लिबास में वह बहुत पाक लग रही थी—कुरान या गीता की तरह।
युवक चाहकर भी कुछ नहीं कह सका, जबकि विशेष ने फौरन ही चटकारा लिया—“ वाह मम्मी—क्या मजे की बात है, आप पापा से ही कह रही हैं कि यह पापा का फोटो है।”
"वीशू!" रश्मि का लहजा सख्त था—“ तुम हमें डिस्टर्ब नहीं करोगे, और यदि किया तो हम तुम्हें यहाँ से बाहर निकाल देंगे।"
बड़े मासूम अन्दाज में विशेष ने युवक की तरफ देखा।
“ऐसा मत कहिए, बच्चों की तो आदत होती है।"
"आपको ऐसा कोई अधिकार नहीं मिला है मिस्टर, जिसके तहत आप मुझे विशेष को डांटने से रोक सकें।" रश्मि का लहजा पत्थर की तरह सख्त और खुरदरा था।
युवक सकपका गया।
पहले तो उसने कहा ही बहुत हिम्मत करके था, दूसरे—उसके वाक्य को बीच ही में काटकर रश्मि ने चेतावनी-सी दी थी, इस बार भी युवक ने बहुत हिम्मत करके कहा—“ स....सॉरी।"
संगमरमर के मुखड़े पर मौजूद तनाव कुछ कम हुआ, वातावरण को सामान्य बनाने की गरज से ही युवक ने कहा—" निश्चय ही सर्वेश से मेरी शक्ल हू-ब-हू मिलती है। केवल दाढ़ी-मूंछ, चश्मे और हेयर स्टाइल में फर्क है, मगर कम-से-कम विशेष के लिए यह फर्क काफी है—कहने का मतलब यह कि मेरा चेहरा क्लीन शेव तथा चश्मे रहित होने पर भी विशेष का सड़क पर मुझे "पापा' कहकर पुकारना आश्चर्यजनक है।"
"यदि वीशू ने अपने पिता का सिर्फ दीवार पर लगा यह चित्र ही देखा होता तो शायद इससे वह भूल नहीं होती, मगर इसने उनके दूसरे फोटो भी देखे हैं, जैसे यह।" कहकर रश्मि ने अपने हाथ में दबा पासपोर्ट साइज का फोटो उछाल दिया।
युवक ने फोटो को फर्श से उठाकर देखा।
वह दावे के साथ कह सकता था कि फोटो उसका अपना ही है—सर्वेश के इस फोटो में उसके चेहरे पर दाढ़ी-मूंछ और चश्मा नहीं था। हां—हेयर स्टाइल में अब भी फर्क था—इस फोटो पर युवक की नजर चिपककर रह गई। वह सोचने लगा कि क्या वास्तव में दो व्यक्तियों की शक्ल इस सीमा तक मिल सकती है? कहीं मैं सर्वेश ही तो नहीं हूं?
कहीं रश्मि मेरी पत्नी और विशेष मेरा बेटा ही तो नहीं है?
"इस फोटो के अलावा विशेष ने अपने पापा को अनेक बार बिना दाढ़ी मूछों और चश्मे के देखा है, शायद इसीलिए सड़क पर आपको देखकर वह...।”
"प....प्लीज मम्मी—पता नहीं पापा से आप कैसी बातें कर रही हैं, ये मेरे पापा.....।"
"गेट आउट!" अत्यधिक ही रश्मि गुस्से में चीख पड़ी। युवक ने उसके चेहरे को बुरी तरह सुर्ख होकर तमतमाते देखा। यह गुर्रा रही थी—“हमने तुम्हें डिस्टर्ब न करने के लिए कहा था वीशू आई से गेट आउट।"
विशेष ने सहमकर युवक को देखा।
युवक के मन में ममता उमड़ पड़ी, मगर फिर रश्मि का ख्याल आने पर वह कुछ बोला नहीं—युवक को अपना पक्ष न लेते देखकर विशेष मायूस हो गया। अनिच्छापूर्वक कमरे के दरवाजे की तरफ जाने लगा वह और यही क्षण था जब युवक के दिमाग में यह विचार बिजली की तरह कौंधा कि यदि विशेष बाहर चला गया तो इसके साथ वह इस कमरे में अकेला रह जाएगा।
अगर मेरे दिमाग पर पुन: उन्हीं भयानक विचारों ने कब्जा कर लिया तो?
रूबी की लाश उसकी आँखों के सामने नाच उठी।
फिर मर्डर के बाद से शुरू हुए आतंक ने उसे त्रस्त कर दिया। अधीर-सा होकर अन्जाने ही में वह झपटा और विशेष को अपने से लिपटाकर बोला—“ न...नहीँ, तुम बाहर मत जाओ।"
रश्मि ने गुर्राना चाहा—"म...मिस्टर...।"
"' प...प्लीज रश्मि जी।" युवक एकदम गिड़गिड़ा-सा उठा—" इसे कमरे से बाहर जाने का हुक्म मत दो… म...मैँ अकेला तुम्हारे साथ यहां नहीं रहना चाहता।"
रश्मि की आंखों में उलझनयुक्त आश्चर्य उभर आया।
वह कह रहा था—" प्लीज, अब यह डिस्टर्ब नहीं करेगा—तुम बीच में नहीं बोलोगे बेटे। म...मगर हमें यहां अकेला मत छोड़ो।"
अच्छी खासी सर्दी के बावजूद युवक के मस्तक पर उभर आए पसीने को देखती रह गई रश्मि—युवक के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं—अचानक ही वह बेहद आतंकित-सा नजर आने लगा था—गहन उलझन भरे आश्चर्य के साथ रश्मि देखती रह गई उसे। युवक ने पुन: कहा था—“ मेरी बस यह एक बात मान लीजिए—अब वीशू हमें बिल्कुल डिस्टर्ब नहीं करेगा, प्लीज रश्मिजी।"
हैरत में डूबी रश्मि ने मौन स्वीकृति दे दी।
युवक ने विशेष को एक बार फिर हिदायत दी—बड़े ही मासूम अन्दाज में विशेष ने स्वीकृति में गर्दन हिलाई। रश्मि ने पूछा—" आपका नाम?"
युवक गड़बड़ा गया। यह निश्चय नहीं कर सका कि खुद को सिकन्दर बताए, जॉनी या कुछ और, बोला—“ मेरा जवाब सुनकर शायद आप चौंक पड़ेंगी।"
"मतलब?" गम्भीर, कठोर और सौम्य लहजा।
“म….. मुझे अपना नाम मालूम नहीं है।"
रश्मि की आंखों के चारों तरफ का हिस्सा सिकुड़ गया। इस बार उसके मुंह से गुर्राहट-सी निकली—"बद्तमीजी से भरे आपके इस जवाब का अर्थ?"
अपनी विवशता पर युवक कसमसा उठा। चेहरे पर हल्की-सी झुंझलाहट के भाव उभरे, बोला—“ आप यकीन कीजिए रश्मि जी, मैं कोई बद्तमीजी नहीं कर रहा हूं—बहुत विवश हूं मैं—जाने भाग्य मेरे साथ क्या खिलवाड़ करना चाहता है। यह सच्चाई है कि मैं खुद को नहीं जानता—मेरा नाम क्या है, मैं कौन हूं… क्या हूं—ऐसे किसी भी सवाल का जवाब खुद मुझे नहीं मालूम है—दुनिया का कोई भी दूसरा आदमी शायद मेरी उलझन, कसमसाहट और विवशता को नहीं समझ सकेगा—स्वयं आपने किसी ऐसे आदमी की मानसिकता की कल्पना की है, जो खुद ही अपने लिए एक पहेली हो—जो खुद ही इनवेस्टिगेशन करके यह पता लगाने की कोशिश कर रहा हो कि वह कौन है? शायद मेरी कसमसाहट को कोई नहीं समझ सकेगा रश्मि जी, क्योंकि मैं खुद ही वह आदमी हूं।"
उलझन के असीमित भाव रश्मि के मुखड़े पर उभर आए। कुछ देर तक विचित्र-सी नजरों से युवक को देखती रही वह, फिर बोली—“मैं आपकी पहेली जैसी बात का अर्थ नहीं समझी।"
"उसके लिए शायद मुझे अपने से सम्बन्धित वे सभी बातें आपको बतानी होंगी, जितनी मुझे मालूम हैं।"
रश्मि मौन रही, अर्थ था कि वह सुनने के लिए तैयार है।
इसके बाद युवक ने उसे अपनी याददाश्त गुम होने के बारे में बता दिया—युवक ने न्यादर अली या रूबी के बारे में कुछ नहीं बताया था—बस यही कहा था कि उसकी जानकारी के मुताबिक एक एक्सीडेंट के बाद उसकी याददाश्त गुम हो गई है और अब वह पागलों की तरह यह पता लगाने की कोशिश में घूम रहा है कि एक्सीडेण्ट के पहले वह कौन था।
रश्मि के मुखड़े पर उसकी विचित्र कहानी सुनने के बाद हैरत का समुद्र-सा उमड़ पड़ा—एकदम से चाहकर भी वह कुछ नहीं कह सकी, जबकि युवक ने कहा—“ इसी वजह से वीशू के ‘पापा’ कहने पर, यह उम्मीद लेकर मैं यहां आ गया कि शायद मुझे मेरा अतीत मिल
जाए।"
"आप कुछ भी हों, मगर सर्वेश नहीं हो सकते।" रश्मि ने सपाट लहजे में कहा।
"हो सकता है मगर...।"
"मगर......?”
"अगर आप बुरा न मानें तो क्या मैं पूछ सकता हूं कि क्यों—आप यह बात इतने विश्वासपूर्वक किस आधार पर कह सकती हैं कि मैं सर्वेश नहीं हूं?"
"बता चुकी हूं कि उनकी लाश मैंने अपनी आंखों से देखी है।"
“म....मगर दो इंसानों की शक्ल इस हद तक मिलना भी तो...।"
"यह शायद कुदरत का खेल है।"
"हो सकता है, लेकिन क्या ऐसा नहीं हो सकता कि वह लाश, जिसे आप अपने पति की समझीं, दरअसल किसी अन्य की हो?"
"क्या आप खुद को मेरा पति साबित करना चाहते हैं?"
"प...प्लीज रश्मि जी। मेरी बातों को इस ढंग से न लीजिए—मैं तो खुद ही उलझन में हूं—मेरी विवशता को समझने की कोशिश कीजिए—खुद ही को तलाश करना पड़ रहा है मुझे—मैँ ऐसे सबूत नहीं जुटाना चाहता कि जिससे सर्वेश साबित होऊं—मैं आपसे ऐसा ठोस प्रमाण चाहता हूं जिससे साबित हो सके कि मैं सर्वेश नहीं हूं।"
"पहला प्रमाण है यह।" कहने के साथ ही वह कमरे में रखी एक डाइटिंग टेबल की तरफ बढ़ गई, दराज खोलकर उसमें से एक फोटो निकाला उसने, फोटो को उसकी तरफ उछालत्ती हुई बोली—" यह मेरे पति की लाश का फोटो है।"
युवक ने फोटो उठाकर देखा।
फोटो को देखते ही वह चौंक पड़ा, यह फोटो दाढी-मूंछ वाले किसी युवक की लाश का जरूर था, मगर लाश का चेहरा बिल्कुल स्पष्ट नजर नहीं जा रहा था, चेहरा विकृत-सा था। अत: भले ही हेयर स्टाइल सर्वेश जैसा हो, मगर यह दावा पेश नहीं किया जा सकता था कि फोटो सर्वेश की लाश ही का है—और जब यह बात युवक ने रश्मि से कहीँ तो रश्मि ने कहा—
"दूसरा सबूत आपकी पीठ पर से मिल जाएगा।"
"प… पीठ से?"
“ क्या आप कपड़े उठाकर मुझे अपनी पीठ दिखाने का कष्ट करेंगे?"
थोड़ा हिचकने के बाद युवक ने उसके आदेश का पालन किया, पीठ को देखते ही रश्मि कुछ और ज्यादा दृढ़तापूर्वक कह उठी—“ आप सर्वेश नहीं हैं।"
कपड़ों को ठीक करते हुए युवक ने उसकी तरफ घूमकर पूछा—"आपने क्या देखा?"
"यह।" रश्मि ने दराज से एक फोटो निकालकर उसकी तरफ उछाल दिया, बोली—“आपकी पीठ पर कहीं कोई मस्सा नहीं है।"
युवक ने देखा, इस फोटो में एक युवक की पीठ थी—पीठ पर एक काफी बड़ा मस्सा बिल्कुल स्पष्ट नजर जा रहा था—हालांकि फोटो पीठ का होने के कारण सर्वेश का चेहरा स्पष्ट नहीं था, किन्तु रश्मि उसे सर्वेश का फोटो कह रही थी, सो उसे मानना ही पड़ा।
युवक उस फोटो को अभी देख ही रहा था कि रश्मि ने कहा—" अब तो आपके दिमाग से अपने सर्वेश होने का वहम निकल गया होगा?"
"ज......जी हां।" इसके अलावा युवक और कह भी क्या सकता था?
युवक आश्वस्त हुआ हो या न हुआ हो, परन्तु रश्मि अवश्य आश्वस्त हो गई थी। शायद उसके अपने दिमाग में भी कहीं यह विचार कांटा बनकर चुभने लगा था कि कहीं यह सर्वेश ही न हो और उसे यहां बुलाकर रश्मि ने अपने उसी कांटे को साफ किया था, बोली—“ वीशू बच्चा है, यह मुझसे ज्यादा अपने पापा को प्यार करता था—शायद इसीलिए मैंने इससे कह दिया था कि इसके पापा आकाश में गए हैं—एक दिन इसके लिए ढेर सारी टॉफियां लेकर जरूर लौटेंगे और शायद उसी भुलावे और आपकी शक्ल के चक्कर में यह भरी सड़क पर आपको ‘पापा' कहकर पुकार बैठा—मेरे इस नादान बेटे की वजह से अगर आपको कोई मानसिक दुख पहुंचा हो तो मैं क्षमा मांगती हूं।" कहते-कहते रश्मि की आवाज भर्रा गई।
उसकी आंखों में डबडबाते नीर को युवक ने स्पष्ट देखा।
उस विधवा के दिल में उठ रही किसी टीस का एहसास करके युवक को अपने दिल में एक हूक-सी उठती महसूस हुई, वह बड़ी मुश्किल से कह सका—“ न.....नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है, रश्मि जी।”
एकाएक ही उसने सपाट स्वर में कहा—" अब आप यहां से जा सकते हैं।"
जाने क्यों, रश्मि के इस वाक्य से उसके मन-मस्तिष्क को एक झटका-सा लगा—पता नहीं क्यों युवक को इस घर से कहीं जाने की कल्पना अच्छी नहीं लगी—विशेष और रश्मि से वह अदृश्य लगाव-सा हो गया महसूस कर रहा था, एक नजर उसने विशेष पर डाली। अपनी मासूम आंखों से वह उसी की तरफ देख रहा था। उसकी आँखों में यह डर था कि कहीं उसके पापा पुन: कहीं चले न जाएं—युवक ने अपने मनोभावों का गला घोंटते हुए कहा—" यहां से जाना तो होगा ही रश्मि जी, क्योंकि मैं सर्वेश नहीं हूँ और यह घर मेरा नहीं है, मगर जाने से पहले मैं जानना चाहता हूं कि...।"
युवक स्वयं ही रुक गया।
रश्मि ने उसे सवालिया नजरों से देखते हुए पूछा—"क्या जानना चाहते हैं?"
"यह कि सर्वेश की मृत्यु कैसे हुई थी?"
इस वाक्य की रश्मि के चेहरे पर बड़ी ही तीव्र प्रतिक्रिया हुई। एकाएक ही उसका मुखड़ा हीरे से भी कई गुना ज्यादा कठोर नजर आने लगा, आंखें अन्तरिक्ष में जा टिकीं और गुर्राहट भरे स्वर में उसने कहा—"यह मेरी कहानी है, मिस्टर—मेरी और मेरे पति की व्यक्तिगत कहानी—इसमें किसी का दखल मुझे पसन्द नहीं आएगा।"
युवक ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला, मगर कह नहीं सका, क्योंकि तेजी के साथ, हवा के झोंके की तरह रश्मि कमरे से बाहर चली गई थी—युवक मूर्ख-सा, मुंह फाड़े—आश्चर्य के सागर में डूबा, हिलते हुए पर्दे को देखता रहा।
¶¶
उस वक्त शाम के सात बजे थे जब यूo पीo पुलिस की एक जीप, टायरों की तेज चरमराहट के साथ देहली में उस थाने के पोर्च में रुकी, जहां का इंचार्ज इंस्पेक्टर दीवान था—पाठक समझ ही सकते हैं कि इस जीप में इंस्पेक्टर चटर्जी और आंग्रे थे।
लगभग साथ ही वे जीप से बाहर निकले।
वातावरण में अंधेरा छा चुका था। लाइटें ऑन थीं और ठिठुरन बढ़ गई थी—उनके जीप से बाहर निकलते ही एक सिपाही उनके नजदीक आया। चटर्जी ने कहा—“ हम गाजियाबाद से आए हैं और इंस्पेक्टर दीवान से मिलना चाहते हैं।"
"वे ऑफिस में हैं।" सिपाही ने बताया।
कुछ ही देर बाद वे आँफिस में इंस्पेक्टर दीवान के सामने थे—औपचारिक परिचय के आदान-प्रदान के उपरान्त दीवान ने उन्हें बैठने के लिए कहा, वे बैठ गए।
दीवान ने कहा—" फरमाइए, मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूं?"
"पिछले दिनों आपने अखबार में दो फोटो छपवाए थे, एक एक्सीडेंट के बाद याददाश्त खोए युवक का और दूसरा उसके पर्स से निकली युवती की तस्वीर का।"
दीवान एकदम से सतर्क नजर जाने लगा। कुछ इस प्रकार जैसे इस विषय में उसकी अपनी व्यक्तिगत दिलचस्पी भी पैदा हो गई हो, बोला—“ जी हां।"
"आपका पता हमने अखबार से ही लिया था और अब यहां याददाश्त खोए उस व्यक्ति के बारे में आपसे कुछ जानने आए हैं।"
"उसके बारे में क्या जानना चाहते हैं आप?”
जवाब में चटर्जी ने उसे हरिद्वार पैसेंजर की घटना समेत सारी घटना सुना दी। सुनकर हैरत के कारण दीवान का बुरा हाल हो गया—" उफ्फ! उसने इतना जघन्य काण्ड कर डाला?”
"उसी हत्याकाण्ड के सिलसिले में हमें उसकी तलाश है।" सिगरेट ऐश ट्रे में मसलते हुए चटर्जी ने कहा—"होश में आने पर रूपेश नामक व्यक्ति ने हमें बताया कि लारेंस रोड पर रहने वाले सेठ न्यादर अली ने उसे सिकन्दर की देखभाल करने के लिए रखा था—सिकन्दर ने मीठी-मीठी बातें बनाकर उसे अपने विश्वास में ले लिया—दोस्त बना लिया—रूपेश के अनुसार सिकन्दर को यकीन नहीं आ रहा था कि वह न्यादर अली का लड़का है—उसके इस सन्देह को होश में आने के वक्त पहने कपड़ों पर लगी टेलर की चिट ने बल दिया—इन कपड़ों पर गाजियाबाद के ' बॉनटेक्स' टेलर की चिट थी, जबकि न्यादर अली के यहां मौजूद कपड़ों पर देहली के ही किसी टेलर की—सिकन्दर अपने अतीत के बारे में इनवेस्टिगेशन करने के लिए बेचैन हो गया—वह जानता था कि न्यादर अली उसे किसी भी कीमत पर बंगले से बाहर नहीं निकलने देगा, अत: उसने रात ही को गायब होने की स्कीम बनाई—रूपेश को विश्वास में लेकर उसने यह वादा करा लिया कि वह उसके गायब होने का रहस्य किसी को नहीं बताएगा-रूपेश ने उससे किए गए अपने वादे को पूरी तरह निभाया भी था कि आज शाम रूपेश भी टेलर की दुकान पर पहुंच जाएगा—सिकन्दर ने कहा था कि उसे टेलर से पता लग जाएगा कि मैं कहां मिलूंगा।"
"प्रोग्राम के मुताबिक रूपेश राजाराम की दुकान पर पहुंचा और वहां से राजाराम ने उसे भगवतपुरे के उस मकान में भेज दिया।" दीवान ने लिंक जोड़ा।
“ हां।”
"क्या रूपेश ने यह भी बताया कि उस मकान में उसके साथ क्या हुआ?"
"उसका कहना था कि सिकन्दर ने उसे बातों में उलझाकर हथौड़ी की चोट से बेहोश कर दिया, कम-से-कम सिकन्दर से उसे ख्वाबों में भी ऐसी उम्मीद नहीं थी, अत: वह बिल्कुल भी सतर्क नहीं था—उसे तभी होश आया जब वह जल रहा था।"
"उसने पूरे विश्वास के साथ कहा है कि हमलावर सिकन्दर था?"
"हां।"
इंस्पेक्टर दीवान जाने किस सोच में डूब गया।
चटर्जी कहता ही चला जा रहा था—" अब सिकन्दर द्वारा ट्रेन में बताए गए एड्रेस से रूपेश का बयान ' टेली' कर रहा था, इसीलिए हमने लारेंस रोड पर स्थित न्यादर अली के बंगले पर छापा मारने की योजना बनाई, मगर उसके लिए हमारे साथ देहली पुलिस का होना जरूरी है, सो आपके पास आए हैं—सोचा था कि इस मामले में आप ' इनवाल्व' भी हैं, अत: हो सकता है कि कोई नई जानकारी दे दें और केस पर विचार-विमर्श करने से नतीजे निकल आया करते हैं।"
दीवान की मुस्कान गहरी हो गई, बोला—" मेरे पास आकर आपने नि:सन्देह बड़ी होशियारी का काम किया है।"
"हम समझे नहीं।"
“ आपके मामले की सबसे महत्वपूर्ण गुत्थी यह है कि आखिर सिकन्दर ने यह हत्या क्यों की और इस सवाल का जवाब मेरे पास है।"
"कृपया पहेलियां न बुझाएं।"
गहरी मुस्कान के साथ दीवान ने बताया—"वह जब भी किसी युवा लड़की के साथ अकेला होगा, तभी उसकी हत्या कर देगा। फर्श पर पड़ी निर्वस्त्र लाश देखने और गर्दन दबाकर युवा लड़की को मार डालने का जुनून सवार होता है उस पर।"
"क्या कह रहे हैं आप?"
"उसे यह बीमारी है, इस बात का प्रमाण-पत्र आपको देहली का एक प्रसिद्ध मनोचिकित्सक डॉक्टर ब्रिगेंजा दे देगा और अदालत में यह एक ठोस वजह होगी।"
"क्या इस बारे में आप हमें विस्तार से बता सकते हैं?"
दीवान ने उन्हें युवक के द्वारा गर्दन दबाकर नर्स को मार डालने की असफ़ल चेष्टा, डॉक्टर ब्रिगेजा का दृष्टिकोण और युवक के पुन: होश में आने के बाद के बयान के बारे में बता दिया। सुनकर जहां उनकी आंखों में हैरत की चमक उभर आई, वहीं सफलता के साए भी नाचने लगे।
कुछ देर तक चुप रहने के बाद चटर्जी ने कहा—“ अब मैं इस सारे मामले के दूसरे ही पहलू पर सोच रहा हूं।"
"किस पहलू पर?"
"रूबी के बारे में।" चटर्जी ने कहा—“ सभी सवालों का जवाब मिल गया है—यूं कहना चाहिए कि एक प्रकार से यह समूचा केस पूर्णतया हल हो चुका है, केवल अपराधी की गिरफ्तारी बाकी है, सम्भावना है कि वह भी हो जाएगी, मगर यह सवाल अनुत्तरित है कि रूबी कौन थी—उस युवक को वह जॉनी क्यों बता रही थी.....और सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि रूबी को यह बात कैसे मालूम थी कि युवक अपने बारे में पूछताछ करने राजाराम की दुकान पर ही जाएगा?"
"सम्भव है कि रूबी को उसके कपड़ों पर लगी चिट की जानकारी हो?"
"सारी कहानी हमारे सामने है, यह जानकारी उसे किस माध्यम से रही होगी?"
इस प्रश्न पर दीवान और आंग्रे बगलें झांकने लगे—जवाब शायद खुद चटर्जी के पास भी नहीं था, इसीलिए उसने एक नया ही सवाल खड़ा किया—" और वह प्रश्न भी विचाराधीन गये है, जिसकी तलाश में युवक न्यादर अली के बंगले से फरार हुआ।"
"हम समझे नहीं।"
“ अगर युवक सचमुच न्यादर अली का लड़का सिकन्दर ही है तो उसके तन पर मिले कपड़े ही अलग टेलर द्वारा तैयार किए हुए क्यों थे, उसी टेलर द्वारा तैयार किए गए क्यों नहीं थे, जिसके न्यादर अली के बंगले में मौजूद उसके अन्य कपड़े थे? ”
"प्रश्न नि:सन्देह विचारणीय है।"
"तो क्या तुम यह कहना चाहते हो चटर्जी कि वह युवक सिकन्दर नहीं था?" अजीब दुविधा में फंसे आंग्रे ने पूछा।
"जिन सवालों का फिलहाल हमारे पास जवाब नहीं है, उनकी तह में कुछ भी हो सकता है। राजाराम कहता है कि वह युवक पहले कभी उसकी दुकान पर नहीं आया—तब सवाल यह भी उठता है कि उसकी दुकान के सिले कपड़े युवक के तन पर कैसे मिले?"
"सवाल वाकई गहरा है।"
"इन सबका जवाब रूबी का रहस्य खुलने पर ही मिलेगा कि वह कौन थी? किस चक्कर में थी और यह अकेली ही कोई षड्यन्त्र रच रही थी या उसका कोई साथी भी था?”
“ यह सब पता लगाने के लिए हमारे पास कोई ' क्लू' कहां है?"
"तुम उसके द्वारा राजाराम को दिए गए दस हजार रुपयों को भूल रहे हो।"
“द...दस हजार रुपए, उससे क्या होगा?"
"वे रुपए अपने आप में खुद एक बहुत बड़ा क्लू हैं।"
चकित आंग्रे बड़बड़ाया—“ रुपये भला किस रूप में ' क्लू' बन सकते हैँ?"
जवाब में चटर्जी ने कुछ कहा नहीं, सिगरेट में लम्बे-लम्बे कश लगाने के साथ ही वह अजीब-से रहस्यमय अन्दाज में मुस्कराता रहा। दीवान उसकी इस मुस्कराहट में से तंत निकालने के लिए अपने दिमाग के कस-बल निकाले दे रहा था।
¶¶
युवक अभी तक मुंह बाए कमरे के दरवाजे पर झूल रहे उस परदे को देख रहा था, जो रश्मि के तेजी से निकलने के कारण जोर-जोर से हिल रहा था।
एक बार फिर उसके दिमाग को ढेर सारे प्रश्नवाचक चिन्हों के जाल ने बुरी तरह जकड़ लिया था, हर कदम पर उसे उलझनों का सामना करना पड़ रहा था… किसी मूर्ति की तरह अवाक्-सा वह वहीं खड़ा रह गया।
उसे यह भी होश न रहा था कि नजदीक ही विशेष भी खड़ा है।
वह सोचने लगा कि न्यादर अली मुझे सिकन्दर साबित करना चाहता था और मैं खुद को सिकन्दर मानने के लिए तैयार न हुआ—रूबी मुझे जॉनी कह रही थी, पर्याप्त प्रमाण भी पेश किए थे उसने, मगर मैं फिर भी उस पर शक करता रहा—परन्तु यहां, इस छोटे-से घर में—छोटे-से परिवार के बीच हालात बिल्कुल उल्टे रहे—रश्मि सिद्ध कर रही थी कि मैं सर्वेश नहीं हूं और मैं खुद को सर्वेश ही साबित करने पर तुल गया।
पूर्णतया अभी तक मानने को तैयार नहीं हूं कि मैं सर्वेश नहीं हूं।
इसका कारण?
वह उस तरीके से सोचने लगा।
युवक इन्हीं विचारों के बीहड़ जंगल में भटक रहा था कि विशेष ने पुकारा—"पापा-पापा!"
तंद्रा भंग हो गई युवक की—उसने चौंककर विशेष की तरफ देखा, किसी शंका से डरा-सा वह युवक की तरफ देख रहा था, बोला—"चुप क्यों हो पापा?"
घुटनों के बल उसके समीप बैठ गया युवक, बोला—“ नहीं तो बेटे, भला हम चुप क्यों होते?"
"क्या आप हमारे पास से फिर चले जाएंगे, पापा?"
"न...नहीं बेटे, बिल्कुल नहीं।" विशेष को खींचकर अपने कलेजे से लगाता हुआ युवक उठा, गला जाने कैसे रुंध गया था—आवाज खुद-ब-खुद भर्रा गई—उसे लगा कि आंखें बेवफाई करने वाली हैं, भावावेशवश विशेष को कसकर भींच लिया उसने।
" म...मम्मी तो कह रही थीं।" विशेष अब भी किसी शंका से आतंकित था।
" व...वे इस वक्त गुस्से में हैं, बेटे।”
"तो आप नहीं जाएंगे?" अलग होते हुए उत्साहित-से विशेष ने पूछा, इस बच्चे की नीली आंखों में जो चमक इस वक्त थी, उसे देखकर युवक का दिलो-दिमाग हाहाकार कर उठा, अपने दिल के हाथों विवश होकर उसने कहा—" बिल्कुल नहीं बेटे।"
"तो खाइए मेरी कसम।" कहने के साथ ही विशेष ने उसका हाथ उठाकर अपने सिर पर रख लिया—युवक का मात्र वह हाथ ही नहीं, बल्कि दिल तक कांप उठा—अवाक्-सा मासूम विशेष को देखता रहा वह, जुबान तालू से जा चिपकी थी, विशेष ने कहा—" अगर आप फिर गए तो मैं बापू की तरह खाना-पीना छोड़ दूंगा—पढ़ने के लिए स्कूल भी नहीं जाऊंगा।"
युवक के सारे शरीर में झुरझुरी-सी दौड़ गई।
अन्जाने ही में उसके सेब-से गाल पर एक चुम्बन अंकित करता हुआ वह बोला—“ हम तुम्हें छोड़कर कहीं नहीं जाएंगे, बेटे। क्या अपने पापा पर तुम्हें यकीन नहीं है।"
"तो इसी बात पर मिलाइए हाथ।" जोश में भरे विशेष ने अपना नन्हां हाथ आगे बढा दिया— युवक ने हाथ मिलाया—विशेष के दमकते चेहरे को देखकर युवक के होंठों पर भी मुस्कान बिखर गई।
जैसे उनका दुख-सुख एक ही डोर से बंधा हो।
अचानक विशेष ने पूछा—“ आपको मेरे लेटर मिल गए थे, पापा?"
"लेटर?"
“हां, मम्मी के कहने पर मैंने आपको डाले थे।"
"हमें लेटर डाले थे आपने.....किस एड्रेस पर भाई?"
"आपका नाम, आकाशपुरी—तारा नम्बर फिफ्टीन।"
वेदना से लबालब भर गया युवक का हृदय। खुद को रोने से रोकने के लिए जबरदस्त श्रम करना पड़ा उसे, बोला—“अरे, हम तो तारा नम्बर फिफ्टीन में ही रहते थे।"
"फिर आपने हमारे इतने सारे लेटर्स का जवाब क्यों नहीं दिया?"
"लेटर तो तभी मिलता है न बेटे, जब उसे लेटर बॉक्स में डाला जाए?"
"मम्मी ने भी यही कहा था और हमारे सारे लेटर्स उन्होंने लेटर बॉक्स में ही डलवाए थे।"
" ल...लेटर बाक्स में—कौन-सा लेटर बॉक्स?"
" देखिए, वह रहा।" कहने के साथ ही विशेष ने जल्दी से एक तरफ को इशारा कर दिया। युवक ने जब उस तरफ देखा तो दिल धक्क से रह गया।
कमरे में मौजूद एक सेफ की पुश्त पर लेटर बॉंक्सनुमा एक खिलौना रखा था। लाल रंग का एक छोटा-सा, गोल लेटर बाक्स—दरअसल यह ' गुल्लक' थी, अत: अन्दर से खोखला था… पैसे डालने वाले स्थान से कोई भी कागज ' तह' करके अन्दर आराम से डाला जा सकता था।
युवक के सारे शरीर में झुरझुरी-सी दौड़ गई।
"क्या तुमने सारे पत्र उसी में डाले थे?"
"मम्मी ने कहा था कि उसमें डालने से पत्र आपको मिल जाएंगे।"
रोकने की काफी कोशिश के बाद भी आंखों ने विद्रोह कर ही दिया, जाने क्यों—युवक के दिल में उस लेटर बॉक्स को खोलने की तीव्र इच्छा उभरी-बॉक्स के खुलने वाले मुंह पर छोटा-सा ताला लटका हुआ था—एकाएक ही उसके दिल में यह सवाल उठा कि एक मां को, बिना पापा के बच्चे को पालने के लिए क्या-क्या करना पड़ता है!
वह खुद को रोक नहीं सका।
एक कुर्सी पर चढ़ाकर उसने बॉक्स उतार लिया—बॉक्स के समीप ही छोटी-सी चाबी रखी थी। विशेष के नजदीक आकर उसने ताला खोला, बॉक्स का ताला खोलते ही लुढ़ककर कई कागज फर्श पर गिर गए।
“ अरे, ये सारे लेटर तो इसी में रखे हैं पापा—फिर आपको मिलते कैसे?"
"इस तरफ का पोस्टमैन छुट्टी पर होगा, बेटे।" भर्राए स्वर में कहते हुए युवक ने उनमें से एक कागज उठा लिया, खोलकर पढ़ा, लिखा था—“मेरे प्यार पापा, मेरे लिए टॉफियां लेने गए आपको इतने ढेर सारे दिन हो गए हैं—मगर आप आते ही नहीँ—मैं हर समय आपके लिए रोता रहता हूं—जब मैं रोता हूं तो मम्मी भी रोती हैं, पापा—कहती हैं कि मैं हर समय आपसे टॉफियों के लिए जिद्द करता रहता था—इसीलिए आप चले गए हैं—अच्छा तो, मैं अपने कान पकड़ता हूं पापा—अब कभी टॉफी नहीं मांगूंगा, मगर आप आ तो जाओ—अब आओगे न पापा—टॉफी बहुत गंदी होती हैं—यस, पापा अच्छे होते हैं, सच है न पापा—देखो, अगर आप मेरा यह लेटर पढ़कर भी नहीं आए तो मैं रूठ जाऊंगा आपसे।
… आपका शैतान बेटा—विशेष।
‘टप-टप' करके कई बूंदें उस कागज पर गिर पड़ीं।
"अरे, आप रो रहे हैं, पापा?"
"ब...बेटे।" खींचकर उसने विशेष को अपने सीने से लगा लिया और बांध टूट चुका था—युवक की आंखों से आंसुओं का सैलाब-सा उमड़ पड़ा—फूट-फूटकर रो पड़ा वह—लाख चाहकर भी अपनी इस रुलाई को रोक नहीं सका था युवक।
विशेष की समझ में कुछ नहीं आ रहा था।
"नहीं पापा, रोते नहीं हैँ—मम्मी कहती हैं कि रोने वाले बच्चे कायर होते हैं—क्या आप कायर हैं पापा—कायर होना गन्दी बात है।"
विशेष का एक-एक शब्द उसके अन्तर में कहीं ज़बरदस्त खलबली मचा रहा था। तभी कमरे में रश्मि की आवाज गूंजी—“ आप अभी तक यहीं हैं?"
युवक एकदम से विशेष से अलग होकर खड़ा हो गया—बौखलाकर उसने अपने आंसू पौंछे और खुले पड़े लेटर बॉंक्स को देखकर रश्मि जैसे सब कुछ समझ गई—एक क्षण के लिए उसके मुखड़े पर असीम वेदना उभरी, अगले ही पल उसने सख्त स्वर में कहा—“ यह लेटर बॉक्स यहां से उतारकर आपने किस अधिकार से खोल लिया है?"
युवक चुप रहा, उसके पास कोई जवाब नहीं था।
"आप यहां से जाते हैं या मैं पुलिस को बुलाऊं?"
खुद को नियंत्रित करके युवक ने कहा—" मैँ आपसे कुछ बातें करना चाहता हूं।"
"मुझे आपकी कोई बात नहीं सुननी है।”
"प...प्लीज।" युवक गिड़गिड़ा उठा—" म.....मेरी सिर्फ एक बात सुन लीजिए। घर आपका है, अन्त में वही होगा, जो आप चाहेंगी।"
रश्मि खामोश रह गई, युवक की बात मान लेने के लिए यह उसकी मौन स्वीकृति थी। युवक ने विशेष को नीचे चले जाने के लिए कहा।
सहमे-से विशेष ने तुरंत ही उसके आदेश का पालन किया।
"कहिए।" विशेष के जाते ही रश्मि ने सपाट स्वर में कहा।
"द....दरअसल मैंने विशेष के द्वारा अपने पिता को लिखा गया पत्र पढ़कर ही वास्तव में अहसास किया है कि, विशेष को अपने पिता से बेइन्तहा मौहब्बत है… अपने पिता के लौटने का उसे बेसब्री से इंतजार था और वह मुझी को अपना पिता समझ बैठा है, अब अगर मैं यहां से इस तरह चला गया तो उसका दिल टूट जाएगा।"
"उसके बारे में चिन्तित होने का आपको कोई हक नहीं है।"
"जानता हूं लेकिन जज्जात नहीं जानते रश्मि जी कि हक क्या होता है—उन्हें तो दिल में खलबली मचाने से मतलब है.....वे जाने कब, किसके लिए, किसके दिल में मचल उठें… वीशू कहता है कि अगर मैं चला गया तो वह खाना नहीं खाएगा—स्कूल भी नहीं जाएगा।'"
"वे सब मेरी समस्याएं हैं, मैं जानूं… आपसे मतलब ?"
"अगर कुछ ज्यादा नहीं तब भी, इंसानियत का मतलब तो है ही—मुझे लगता है कि यदि मैं यहां से चला गया तो वीशू के विकसित होते दिमाग पर बहुत बुरा असर पड़ेगा।”
"तो क्या मैं आपको इस घर में बसा लूं?"
"म...मैंने यह कब कहा?"
"फिर क्या मतलब है आपका?"
“ अगर मैं किसी तरह वीशू के दिमाग में इस सच्चाई को भरने में सफल हो जाऊं कि मैं उसका पिता नहीं हूं तो शायद मेरे यहां से चले जाने का उसके दिमाग पर कोई असर नहीं होगा।"
"इस काम में कितना समय लगेगा आपको?"
उत्साहित-से होकर युवक ने कहा—“एक या ज्यादा-से-ज्यादा दो दिन।"
"दो दिन।" कहकर रश्मि किसी सोच में डूब गई महसूस हुई। शायद विशेष की मानसिक स्थिति का अंदाजा वह भी ठीक से लगा पा रही थी, बोली—“ ठीक है, आप केवल दो दिन यहां रह सकते हैं, दो दिन से ज्यादा एक क्षण भी नहीं।"
"थ...थैंक्यू।" खुशी से लगभग कांपते हुए युवक ने कहा।
"और इन दो दिनों में मांजी को भी समझा दीजिएगा कि आप उनके बेटे नहीं हैँ—मैं जितनी देर नीचे उनके पास रही, वे आपको बेटा ही कहती रहीं।"
"म...मैँ समझा दूंगा।"
"आप सिर्फ नीचे रहेंगे—एक क्षण के लिए भी ऊपर आने की कोशिश नहीं करेंगे।"
“म....मुझे आपकी हर शर्त मंजूर है।" कहने के बाद युवक तेज और लम्बे-लम्बे कदमों के साथ कमरे से बाहर निकल गया। जाने क्यों वह बहुत खुश था।
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