वो फफक फफक कर रो रहा था।
उसके सामने गुरु का विशाल छायाचित्र था जिसे उसने स्वयं अपने हाथों से बनाया था।
वह कोई सिध्हहस्त कलाकार न था पर उसके द्वारा कैनवास पर उकेरा गया वो चित्र उसके गुरु की स्वतः ही पहचान कराती थी।
चित्र को फ्रेम में मढ़ने का काम भी उसने स्वयं ही किया था।
वह उसका साधना कक्ष था जो किसी पुरानी गुफा को साफ़ कर बनाया गया था। गुफा विषम आकर की थी जो सौ से अधिक लोगों को भी आसानी से समां सकती थी और ऐसा प्रतीत होता था की किसी संन्यासी ने किसी ज़माने में अपने साधना के लिए प्रयुक्त किया था। गुफा का प्रवेश द्वार सामने से न होकर ऊपर की ओर से था जो हमारे कहानी के विलन को अनायास ही मिल गया था। गुफा का ऊपर का मुंह जो किसी प्राकृतिक कारणों से ऊपर से एक विशाल चट्टान से ढक गया था पर उसके असीमित बल का ही परिणाम था कि अन्दर आने जाने में उसे कोई असुविधा नहीं होती थी।
कक्ष में लकड़ी की एक ऊँची चौकी पर उसके गुरुदेव का मुस्कुराता हुआ चित्र मौजूद था। उसी चौकी पर अपना माथा पटकता हुआ वह बिलखता हुआ अपने दर्द को बयां करता जा रहा था।
“देखा गुरु देव तेरे शिष्य की हालत! एक चतुर्वेदी ब्राह्मण को ज़माने ने क्या से क्या बना दिया। तू जिसे शिवपुत्र कहता था, जिसे तू एक महान साधक बनते देखना चाहता था उसे ज़माने ने राक्षस बना दिया। दस साल पहले अगर वो धूर्त पंडित मेरी राह में रोड़ा नहीं बना होता तो मेरी साधना कब की पूरी हो गयी होती। मेरी मोहिनी को मेरे विरोध में भड़काकर उसे पथ भ्रष्ट कर दिया। कहाँ से कहाँ पहुंचा दिया मुझे! क्या मेरा गुनाह इतना बड़ा था कि मुझे नौ साल तक मुझको मुझसे ही दूर रखा!”
“और आज जब मैंने होश संभाला तो मेरी मोहिनी को मुझसे ही दूर करा दिया! एक साल भटका तो मुझे मोहिनी मिली। और मैंने उसे अपने ही हाथों...।”
वो कभी कलपता, कभी रोता और कभी चौकी पर ही अपना सर पटकता।
“अब कहाँ से लाऊंगा मैं अपनी भैरवी!”
एक विशाल दीया उस गुफा के अँधेरे को पूरी तरह बुझाने में भले ही असमर्थ था पर बगल की गुफा में मौजूद एक शख्स तक उसकी आवाज भली भांति पहुँच रही थी। तीन दिन पहले संजोग वश उसके कदम यहाँ पड़े थे और बगल वाली गुफा और उस अनोखे गुफा-पुरुष का रहस्य अनचाहे ह़ी उसे मालूम हो गया था। ये गुफा-पुरुष अब उसके बहुत काम आने वाला था और इसकी शुरुआत कल से ही हो गयी थी।
इधर उसके गुरुदेव के छायाचित्र से उसका वार्तालाप जारी था। कुछ ठहरकर उसने अपने आंसू पोंछते हुए कहा।
“अगर ज़माने ने मेरा नाम राक्षस रखा है तो राक्षस हीं सही। पर ये तांत्रिक अपने धर्म से विचलित नहीं होगा। तांत्रिक धर्म को मैं समाज में प्रतिष्ठा दिला कर रहूँगा चाहे इसके लिए कितनों की बलि देनी पड़े मुझे। इन दो कौड़ी के आश्रम वालों ने आश्रम के नाम पर जो धंधा चलाया है उसकी सच्चाई सबके सामने ला कर रहूँगा। कमजोरों के लिए समाज में कोई स्थान नहीं।”
“बस कहीं से एक उपयुक्त स्त्री मिल जाए जो भैरवी की कमी पूरी कर सके उसके पश्चात अपनी साधना २१ पक्ष (एक पक्ष =१५ दिन) में नहीं बल्कि २१ दिनों में पूरी करूँगा।”
बगल वाली गुफा वाले शख्स ने अब उधर से अपना ध्यान हटा लिया और बुदबुदाया, “अब इस भैंसे के लिए भैरवी का इंतज़ाम ज़ल्द ही करना होगा। पर जाने भैरवी होती क्या बाला है?”
अचानक राक्षस चुप हो गया। शायद उसे अंदाज़ा हो गया था कि उसका हमराज़ बगल वाली गुफा में फिर से मौजूद था।
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जुन २७ सुबह
“ये आपने अच्छा नहीं किया अंकल।”
ये तो अल्फांसे को मालूम हीं था कि कन्हैय्या देर सवेर उस तक पहुँच ही जायेगा पर ये अंदाज़ा नहीं था कि इतनी ज़ल्दी वो उसके सर पर होगा। इस वक़्त सुबह के साढ़े पांच बजे थे और अल्फांसे हर दिन की तरह पार्क में एक बेंच पर बैठा था। इतना तो वो अनुमान लागा ही सकता था वो की रात भर उसे सोने का वक़्त नहीं मिला होगा फिर भी वो बिलकुल फ्रेश दिख रहा था। इस वक़्त कन्हैय्या सफ़ेद हाफशर्ट और ब्लैक पैंट में मौजूद था जो स्कूल ड्रेस जैसा प्रतीत हो रहा था।
“क्यों क्या हुआ?”
“आपने मेरे पेपर्स चोरी कर लिए।”
कन्हैय्या का अनुमान था कि पेपर्स के बारे में सुनकर वो घबरा जायेगा। पर उसे कहाँ मालूम था कि उसका सामना अल्फांसे जैसे घाघ क्रिमिनल से था।
“नहीं बेटे मैंने तुम्हारा कोई पेपर नहीं लिया।”
“और कौन लेगा अंकल? आप ही तो कल आश्रम से बाहर निकले थे।”
“मैं तो बस बाहर टहलने गया था बेटे। फिर सीधे यहाँ लौट गया। ज़रूर तुम्हारी मम्मी ने कहीं रख दिया होगा।”
“आप तो मजाक करते हैं अंकल।”
“शुरुआत किसने की थी?”
“बता दो अंकल नहीं तो पुलिस से कहकर तुम्हारे घर की तलाशी करवा दूंगा।”
“तलाशी तो तुमने वैसे ही शुरू करवा दी होगी। तुमने मुझे यहाँ घेर रखा है तो तुम्हारी औरत ज़रूर मेरे कमरे की तलाशी ले रही होगी।” अल्फांसे ने आराम से कहा।
कन्हैय्या हडबडा गया। उसके समझ में आ रहा था की ये आदमी कोई साधारण चीज़ नहीं।
“कौन अंकल? मेरी तो अभी शादी की उम्र भी नहीं हुई।”
“तो वो कौन थी जिसके साथ कल घूम रहे थे? बिना शादी के लड़की घुमा रहे थे? गन्दी बात।”
कन्हैय्या ये सोचकर उसके पास आया था कि अपने सवालों से उसे परेशान कर देगा पर ये आदमी उससे कई कदम आगे था। उसका ध्यान भटककर अल्फांसे के पीछे चला गया जहाँ से राधा पार्क में अन्दर आ रही थी।
अल्फांसे ने उसे टोका, “वो देखो मेरे पीछे से योगा मैडम पार्क में आ रही है। उसने तो तुम्हे इशारा कर ही दिया होगा की मेरे कमरे में कुछ नहीं मिला।”
कन्हैय्या सच में हक्का बक्का था। क्या चीज़ था ये?
“ठहरो भतीजे, अब इस संबोधन से चौंकना मत। मुझे अंकल कह रहे हो तो इस रिश्ते से मेरे भतीजे हुए न? तो मैं कहने जा रहा था की अगर तुम्हें योगा मैडम को यहाँ बुलाने में शर्म आ रही है तो मैं ही उन्हें बुला लेता हूँ।” मैडम जी....यहाँ आ जाइये, भतीजे को आपको बुलाने में शर्म आ रही है।”
राधा पास आ गयी थी।
“तो राधा जी, मेरे कमरे में कुछ गंदे कपड़े छोड़कर और कुछ नहीं मिला होगा।”
राधा को भी समझ में आ गया था की ये आदमी उससे कुछ कदम आगे चल रहा है। सहज होकर उसने कहा।
“वो मेरी बिल्ली अभी अभी मेरे कमरे से गायब हो गयी थी, उसी को तलाश करते करते आपके कमरे के पास पहुँच गयी थी। पर क़सम से, आपके कमरे के अन्दर नहीं गयी थी।”
“कौन सी बिल्ली? कल रात मैं तुम्हारे कमरे में गया तो वहां कोई बिल्ली नहीं थी।”
“पर मेरे कमरे में आप क्यों गए थे?”
“दरअसल कल रात मेरी बिल्ला भी खो गया था। उसी की तलाश में भतीजे के कमरे में भी चला गया था।”
“तो बिल्ला मिला या नहीं?” कन्हैय्या ने चिढ़े स्वर में कहा।
“मुझे लगता है कि मेरा बिल्ला तुम्हारी बिल्ली को लेकर भाग गया।”
कन्हैय्या प्रत्यक्षतः खुद को सामान्य दिखा रहा था पर नरेन्द्र की हरकत ने उसे अन्दर से परेशान कर दिया था। वैसे तो उसके कमरे में कोई ऐसी चीज़ न थी जिससे उसका कोई राज़ ज़ाहिर होता पर...।
“अच्छा आप दोनों एच आई जी में काम करते हो न?”
दोनों के चेहरे पर सन्नाटा छा गया था। कम से कम दोनों इतना तो आश्वस्त थे कि दोनों के कमरे में ऐसा कोई दस्तावेज नहीं था जिससे किसी तीसरे को इस नाम के बारे में पता चल पाता। या फिर उस कागज़ के पुलिंदे में ऐसी कोई जानकारी तो नहीं थी जो शरवन के कमरे से गायब हो गयी थी। अब कन्हैय्या ने जवाब देने में तनिक भी विलम्ब नहीं किया।
“जी अंकल जी, हम दोनों हाई इनकम ग्रुप में ही काम करते हैं। पर आपको कैसे पता चला?”
“बस तुम दोनों के चेहरे को देखकर अंदाज़ा लगाया।” अल्फांसे ने मुस्कुराते हुए कहा। “दोनों लो इनकम ग्रुप वाले तो बिलकुल नहीं लगते। वैसे मेरे कमरे का ताला तो सही तरीके से लगा दिया था न?”
“जी अंकल। आपने भी तो अच्छी तरह ताला लॉक कर दिया था मेरे कमरे का। हमें पता भी नहीं चला।”
“बस बेध्यानी में एक गलती हो गयी जा मेरे से। तुम दोनों का मोबाइल हाथ लग गया कमरे में और गलती से मैंने उन्हें फॉर्मेट कर दिया। उम्मीद है की सारे डेटा का बैक अप रखा होगा तुम लोगों ने।”
“हमनें तो तुम्हें सीधा साधा संन्यासी समझा था। तुम तो पहुंचे हुए खिलाडी निकले। कुछ और हरक़त किया हो तो वो भी कह डालो।”
“नहीं भतीजे कुछ ख़ास नहीं। बस एक अनुरोध है। कल से तुमने दो बार मेरे कमरे की तलाशी ले डाली है। मुझे ऐसी हरक़त बिलकुल पसंद नहीं की कोई मेरे पीछे पड़े।” उसने वही कहानी सरकानी शुरू कर दी जो आश्रम के लोगों को सुनाया करता था, “मैं बहुत दुखी इंसान हूँ। पांच साल जेल में गुज़रकर यहाँ पहुंचा हूँ। अब मैं नहीं चाहता की कोई यहाँ भी मुझे परेशान करे। गुरुदेव का आशीर्वाद है कि अब मैं दुःख के भंवर से बाहर निकल चुका हूँ। इसलिए मुझसे दूर रहो, यही मेरे लिए भी बेहतर होगा और तुम्हारे लिए भी।”
“समझ लिया अंकल।” इस बार राधा ने मुंह खोला, आपको कोई साधारण सा संन्यासी समझ लिया था इसलिए धोखा खा गए।”
“अगली बार अच्छी तरह होमवर्क करके आना भतीजों। अच्छा अब चलता हूँ, साधना कक्ष में जाने का भी वक़्त हो चला है। अगर चाहो तो तुम लोग भी आ सकते हो। और हाँ, शायद जिस कागज़ के पुलिंदे को तलाश कर रहे हो उसे तुम अपने कमरे में ही भूल आये थे।”
अल्फांसे अपनी मस्त चाल चलता हुआ दोनों को हैरान परेशान छोड़कर निकल गया।
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“तू वह अकेला आदमी है जिसे मेरे इस आवास के बारे में मालूम है।”
ताशी ने सर उठाकर देखा। अब वह उसके सामने बैठा था। एक दिन में ही प्रसिद्द हो गया था वह। कल का दृश्य याद कर उसे अन्दर ही अन्दर सिहरन सी महसूस हुई। जिस तरह उसने मोहिनी को उठाकर पटका था उससे उसे उसकी शक्ति का एहसास हो गया था। अब इस राक्षस का उसे संभल कर उपयोग करना था।
“कल विनय चतुर्वेदी को नया नाम मिल गया।”
“हाँ, तू भी चाहे तो मुझे उसी नाम से पुकार सकता है।”
“ज़रुरत नहीं। मुझे विनय नाम पसंद है। पर अगर मुझे पता होता कि तुम मोहिनी की हत्या कर दोगे तो उसका पता कभी नहीं बताता। मुझे हिंसा से सख्त नफरत है।”
“मैंने उसकी हत्या नहीं की। मैं उसे सही सलामत छोड़ आया था।”
“तो कुछ देर बाद मर गयी होगी। एक बार जो तुम्हारे हाथ में आ जाए वो बच सकता है भला। वो तुम्हारे गुस्से की बलि चढ़ गयी।” ताशी ने क्षोभ भरे स्वर में कहा। जबकि अन्दर ही अन्दर वह मुस्कुरा रहा था। वह जैसा चाहता था वैसा ही हुआ।
“दस साल बाद मिली थी वह। उसके कारण मेरी जिंदगी के कई साल बर्बाद हो गए। इतने सालों से दोहरी जिंदगी जी रहा था मैं। फिर भी सोचा था कि उसे माफ़ कर दूंगा। मैंने सोचा था कि उसे समझा बुझा लूँगा। पर उसने मेरे गुरु को गाली दी। मैं स्वयं पर नियंत्रण नहीं कर सका।”
“पर ऐसी क्या खास बात थी उसमें। मैंने कई बार देखा था उसे। कोई विशेष बात नहीं दिखाई दी।”
“तुम नहीं समझोगे। तांत्रिक की साधना भैरवी के बिना अधूरी होती है।”
“कोशिश करके देखो। हो सकता है समझ जाऊं।”
“क्यों समझना चाहते हो? तुम्हारे काम के पैसे तुम्हें मिल चुके हैं।”
“पैसे की मुझे ज़रुरत है। पर पैसे का मुझे लालच नहीं। हर काम मैं पैसे के लिए नहीं करता। भले हीं मैं इंडियन नहीं पर यहाँ के सारे धर्मों के बारे में बहुत कुछ पढ़ रखा है मैंने।”
“ऐसा है तो तू हीं बता क्या जानता है तांत्रिकों के बारे में?”
“तांत्रिकों के बारे में तो नहीं पर तुम्हारे वेदों के बारे में बहुत पढ़ रखा है। वेद पुराण....।”
“और हम तांत्रिकों के बारे में क्या जानते हो?”
“मेरे लिए तांत्रिक मान्त्रिक अघोरी कापालिक सब बराबर हैं। बस इतना सुन रखा है कि तांत्रिक लोग मांस मदिरा मैथुन और न जाने क्या क्या इस्तेमाल करते हैं साधना के लिए। शायद इसलिए समाज के लोग इसे गलत दृष्टि से देखते हैं।”
राक्षस हंसा।
“हजारों सालों से तुम सामजिक लोगों को उल्टा पाठ पढाया गया है। हम ही लोग असली साधक हैं। हम तांत्रिक लोग अपने अनुभव पर विश्वास करते हैं और ये वेद पुराण वाले किताबी ज्ञान पर। यही अंतर है हम दोनों में। मैं भी चतुर्वेदी ब्राह्मण हूँ। सारे वेद पढ़े हैं हमने। ये सारे किताबी ज्ञान है। दस किताबें पढ़कर ये लोग अपने को ज्ञानी समझने लगते हैं। या घंटे दो घंटे आँखें बंद कर बैठने को साधना कहते हैं। आश्रम में लड़कियां रखते हैं और उन्हें नशा करवाकर सम्भोग करते हैं। यही है इनकी साधना!” राक्षस भड़क उठा था।
“लड़कियां तो तुम लोग भी रखते हो!”
“भैरवी को लड़कियों में रखकर उनका अपमान न करो!” राक्षस गुर्राया,
हमारी तंत्र साधना आदिशक्ति की साधना है। भैरवी कोई ऐरी गैरी लड़की नहीं पर वही लड़की हो सकती है जो केवल कुंवारी हीं नहीं बल्कि जिसमें कौमेक्षा भी उत्पन्न नहीं हुई हो।”
“इसका मतलब तुम लोग भैरवी के साथ....।”
“नहीं। पर तुम लोगों को ये बातें समझ में नहीं आएगी। तुम लोग तो अपने माँ बहन पर भी बुरी नज़र रखते हो। चलो अब कुछ काम की बात कर लिया जाए।
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जिस कागज़ के पुलिंदे के लिए दोनों परेशान थे वो कन्हैय्या के पलंग के गद्दे के नीचे मौजूद था जिसे जाहिर है अल्फांसे ने रखा था। वो लगभग चालीस पन्ने का हस्तलिखित दस्तावेज था जिसे शायद दयाल ने ही तैयार किया था। उसमें आश्रम की एक एक बात बड़े ही बारीकी से लिखी गयी थी और बहुत ही करीने से हाथ से ही कमरों के नक़्शे तैयार किये गए थे।
“पेपर तो सही है न? कहीं अंकल ने कोई हेर फेर तो नहीं कर दी?”
“उम्मीद तो नहीं है। दयाल की राइटिंग मैं पहचानता हूँ।”
“पेपर की नम्बरिंग तो सही है। वैसे इसी तरह की पेपर की मैं उम्मीद भी कर रहा था। सबसे डिटेल में सरस्वती के कमरे की रेकी की है उसने। नरेन्द्र बाबु का भी ध्यान इस बात पर गया हीं होगा।”
“वैसे अंकल जी ने तो हम दोनों की वाट लगा दी।”
“वो भी अकेले ही। या हो सकता है कि उसके भी साथी हों।”
“हूँ। इस पर विशेष ध्यान रखना होगा। क्यों?”
“कोई ज़रुरत नहीं। इसकी ज़रुरत तभी पड़ेगी अगर इसका संबध हमारे केस से हो।”
“पर इस बात का पता लगाना होगा ही कि उसके कानों में एच आई जी के शब्द कैसे पहुंचा।”
“इस बाबत हमें ज्यादा सिर धुनने की ज़रुरत नहीं।” अब अगला क़दम क्या है हमारा?”
सिकंदर।
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इतनी सुबह एस पी गौतम सचदेवा को अपने घर पर देखकर सुधीर को हैरत हुई। अभी तो सात भी नहीं बजे थे।
इसके पहले एस पी उसके घर एक ही बार और आया था जब उसने अपने बेटी का पहला जन्मदिन सेलेब्रेट किया था।
“आइये सर। कोई ज़रूरी काम था तो मुझे बुलवा भेजा होता।”
“सोचा कि तुम्हारे घर आकर बात करूं तो बात कि अहमियत समझोगे।”
कुछ ही देर में दोनों छोटे से ड्राइंग रूम में बैठे थे। सुधीर कि पत्नी चाय बिस्किट पहुंचा आयी थी।
“इतना तो समझ हीं गए होंगे कि मैं किस विषय में तुमसे बात करने आया हूँ।”
“जी शायद कल के डुअल मर्डर वाले केस के बारे में।”
“हाँ। ये ऐसा पहला मौका है जब किसी केस के सिलसिले में हम पुलिस के हाथ पूरी तरह बाँध दिए गए हैं। पिछले चौबीस घंटे में ३ बार दिल्ली से नेताओ के फ़ोन आ चुके हैं कि आश्रम से सहयोग करना है। आचार्य जी को कोई तकलीफ नहीं होनी चाहिए, वगैरह वगैरह। पता नहीं कहाँ कहाँ तक पहुँच है इन लोगों की।”
“फिर भी इन्वेस्टीगेशन तो ज़ारी है।” एस आई ने कहा। हकीकत तो यह थी वो भी अपने काम से खुश नहीं था। ये सही था कि आचार्य जी में उसकी आस्था थी पर सारे पुलिस वाले आश्रम के स्टाफ तक के जी हुजूरी में लगे थे।
“क्या इन्वेस्टिगेशन चल रही है? अभी तक हम लोग आचार्य जी का ऑफिशियल स्टेटमेंट तक रिकॉर्ड नहीं कर पाए हैं।”
“पर आपको तो उन्होंने अन्दर बुलाया था बात करने को।”
“अपना प्रवचन सुनाने को बुलाया था। जितना उन्होंने बताया वही सब प्रेस को भी बताया जा चुका है। तुम्हें तो मैं सारी बातें बता ही चुका हूँ। हमारे पास कोई जरिया नहीं है पता करने का कि वही पुराना कापालिक जिसका नाम विनय चतुर्वेदी था आज का राक्षस है। आश्रम के पार्क में चार सीसीटीवी कैमरे कि मौजूदगी बताई जाती है पर वारदात कि रात उसमें से तीन खराब थे। आज दुनिया इतनी एडवांस हो चली है पर अन्दर मोबाइल जामर लगा कर रखा है इन लोगों ने। दो हत्या हो जाती है एक रात में पर आश्रम कि साधारण तलाशी तक से हम लोगों को रोक दिया जाता है। दिल्ली से एक छोकरा आता है और सारी इन्वेस्टीगेशन उसके हाथ में सौंप दी जाती है। कहते हैं कि मरने वाला पाकिस्तानी आतंकवादी था। २ घंटे भी नहीं दिए गए हम लोगों को और सारा काम इंटेलिजेंस को सौंप दिया गया। और उस पर से बेईज्ज़ती का आलम ये है कि पटना से फ़ोन आता है और हमसे पूछते है कि केस का क्या हुआ। कहते हैं कि तीन दिन के भीतर रिपोर्ट चाहिए।”
एस पी लगभग हांफ रहा था।
“ये है पुलिस विभाग कि औकात। दौड़ने को कहा जाता है और पीछे से दोनों पैर खम्भे में बांधकर रखते हैं। अगर पब्लिक का हेल्प नहीं मिला तो हम लोग क्या करेंगे।”
एस आई जानता था कि उसके बॉस कि कही एक एक बात सही है। पर वो कर भी क्या सकता था?
एस पी जारी था, “मैं ये नहीं कहता कि आचार्य जी का इन हत्या से कोई सम्बन्ध है या तुम्हारी उनके प्रति लगाव में कोई खराबी है। पर कम से कम हमें छानबीन का मौका तो मिलना चाहिए। पिछले एक साल में आश्रम से तीन लोग गायब हो चुके हैं। कोई रिपोर्ट दर्ज नहीं हुआ इसलिए हम लोग जांच करने में असमर्थ है। कई बार हमने यहाँ के मेहमानों की लिस्ट मांगी है पर आज तक एक बार भी लिस्ट नहीं सौंपी गयी। उस नरेन्द्र को इन्वेस्टीगेशन के लिए बुलाता हूँ तो मुझ पर हीं हाथ उठाकर चला जाता है।”
ये खबर सुधीर के लिए नयी थी। शायद वो सचमुच आश्रम वालों पर ज्यादा ही मेहरबान हो रहा था।
“आप आदेश दें सर। मैं आपको अब शिकायत का मौका नहीं दूंगा।”
“मैं तुम्हें आदेश देने नहीं आया। तुम्हारी काबिलियत मैं जानता हूँ। अपने एरिया से बाहर जाकर भी तुमने कई केस सोल्व किये हैं। यहाँ के लोगों में तुम्हारी इज्ज़त है। अगर अपने इलाके में हीं तुम कुछ नहीं कर पाओगे तो खुद को कभी माफ़ नहीं कर पाओगे। अगर ऑफिशियली नहीं कर पा रहे हो तो अनऑफिशियली करो पर इन्वेस्टीगेशन जारी रखो। कहीं भी परेशानी आये तो मुझे पर्सनल नंबर पर कॉल करो।”
अब तक उसने एस पी को एक चिडचिडे और सख्त बॉस के रूप में ही जाना था। यहाँ तक कि लोग उसका ज़िक्र घुसखोर एस पी के रूप में करते थे। पर आज पहली बार वो उसे पसंद आया था।
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“मुझे मैडम से मुलाक़ात करनी है।”
इस वक़्त अल्फांसे सरस्वती देवी के ऑफिस में बैठे रिसेप्शनिस्ट के सामने खड़ा था और काफी भड़का हुआ नज़र आ रहा था।
“जी आज तो शाम से पहले उनसे मिलना संभव नहीं। थोड़ा बिजी है आज।”
“पर मुझे अभी मिलना है उनसे।”
रिसेप्शनिस्ट समझ सकती थी की वो क्यों भड़का हुआ है। आश्रम में ये खबर आम हो चुकी थी कि केयरटेकर और मोहिनी की हत्या के बाद पुलिस उस पर शक कर रही है।
इण्टरकॉम पर बात करके रिसेप्शनिस्ट ने उसे अन्दर जाने दिया।
“क्या बात है नरेन्द्र जी। आज गुस्से में नज़र आ रहे हैं।”
“भड़कने की बात ही है मैडम जी। कल मैंने दयाल भाई की डेड बॉडी बरामद क्या कर दी सारे लोग मेरे पीछे पड़े हुए हैं। कल दिन भर पुलिस मेरे पीछे पड़े रहे। कल रात मैं अपने टेंशन को कम करने के लिए थोडा बाहर क्या निकल गया आज सुबह एक जासूस मेरे पीछे पर गया।”
“हम आपके असुविधा के लिए माफ़ी चाहते हैं। दरअसल केवल आप ही नहीं आश्रम के तमाम स्टाफ ऐसी परेशानी महसूस कर रहे हैं।”
दोनों की तेज़ आवाज कमरे से बहार आ रही थी। रिसेप्शनिस्ट तारा ने पहली बार नरेन्द्र उर्फ़ अल्फांसे को गुस्से में देखा था। आश्रम में हर तरह के लोग आते जाते रहते थे पर लड़कियों में विशेष लोकप्रिय था। पर एक अल्फांसे था जिसने शायद ही किसी लड़की पर विशेष ध्यान दिया हो। वैसे कुछ लोगों का ख्याल था कि सरस्वती देवी नरेन्द्र पर कुछ हद तक आकर्षित है।
“पर मेरी गलती क्या है? केवल यही न कि मैंने एक जिम्मेदार शहरी की तरह दयाल भाई की लाश देखकर सबको सबसे पहले सूचित कर दिया।”
“मैं समझती हूँ आपकी परेशानी इस बारे में। आप निश्चिंत रहे, जब तक हम लोग हैं किसी भी बेक़सूर को परेशान नहीं होने देंगे। आइये मेरे साथ।”
सरस्वती देवी अल्फांसे को लेकर अपने कक्ष से बाहर निकली।
तारा मुस्कुरा दी। ‘लगता है मैडम जी अपना लाइन क्लियर करने जा रहीं हैं।’
“नरेन्द्र साहब आज हम लोगों पर थोडा क्रोधित मालूम होते हैं। मैं थोडा इनका क्रोध शांत करके आती हूँ।” तारा को कहकर अल्फांसे के साथ वो बाहर निकल आयी।
सुबह के सात बज चुके थे। टहलते हुए दोनों आश्रम के खुले हिस्से में आ गए। अभी तक आश्रम का तीन चौथाई हिस्सा यूँ ही बेकार पड़ा था और उबड़ खाबड़ ज़मीन से अटा पड़ा था। यहाँ उन्हें सुनने वाला कोई न था।
“मैं बड़ी मुसीबत में हूँ अल्फांसे।”
अल्फांसे को अपना नाम सुनकर अच्छा लगा। बड़े दिनों बाद किसी ने उसे उसके नाम से पुकारा था।
“बड़ो बड़ो को चक्कर में डालने वाली आज खुद मुसिबत में है।”
“दरअसल मैं गलत लोगों के चंगुल में पड़ गयी हूँ।”
“क्यों तुम्हारे कर्मों का पता आचार्य जी को लगा गया?”
सरस्वती ने आहत भाव से अल्फांसे की ओर देखा।
“तुम जानते हो न कि मैं कभी भी गुरुदेव के विरोध में नहीं जा सकती। मैं जो कुछ कर रही हूँ वो किसी ख़ास मकसद के लिए है।”
“फिर पूछता हूँ। कौन सा मकसद?”
सरस्वती ने उसे मुस्कुराते हुए देखा।
“ओके। चलो ठीक है। अब उस मुसीबत का नाम बोलो।”
“सिकंदर नाम है उसका। दरअसल छः महीने पहले वो अशोक शर्मा के नाम से यहाँ ठहरा था। तुम्हें तो पता चल ही गया होगा यहाँ ठहरने वाले हर शख्स के बारे में सारी जानकारी निकालना मेरा शौक है। जब उसके पीछे पड़ी तो मालूम हुआ की उसका असली नाम सिकंदर है और नेपाल का रहने वाला है। नेपाल में किसी रसूख वाले नेता का उसके हाथों खून हो गया था और बचते हुए वो यहाँ भाग आया था। तुम जानते ही हो की यहाँ से नेपाल जाना या आना बहुत हीं आसान हैं। बस दो घंटे का ही रास्ता है।
मैंने उसे अलग नाम से आवाज बदलकर फ़ोन किया और उसका राज राज़ रखने के बदले पचास लाख की रकम मांगी। वो तैयार हीं नहीं हुआ बल्कि ये भी ऑफ़र दिया कि अगर मैं आश्रम के अन्दर की खबर उस तक पहुँचाने का वादा करूं तो वो और भी पैसे दे सकता है।
बात आई गयी हो गयी। पैसे उसने मेरे बताये अकाउंट में पहुंचा दिए थे। जिस नंबर से मैंने उससे बात की थी वो सिम कार्ड भी मैंने हमेशा की तरह फेंक दिया था। मुझे लगा था कि उसका मुझ तक पहुँच पाना मुमकिन नहीं है।
“पर वो फिर भी मुझ तक पहुँच गया। पर मैं उसके काम नहीं आ सकी।”
सरस्वती ने विस्तार से बतलाया की वो दयाल के मामले में उससे सहायता चाहता था। और वो उसकी सहायता नहीं कर सकी।
“मैं इस मामले में नहीं पड़ना चाहती थी। पर उसने मुझे कुछ कहने का मौका ही नहीं दिया। अब वो समझता है की मैंने दयाल की बात लीक कर दी।”
“उसने कुछ बताया था दयाल के बारे में?”
“विस्तार में तो नहीं पर इतना ज़रूर कहा था कि वो भारत का मुज़रिम है।”
“इतना जानकार भी क्या तुम उसकी सहायता करना चाहती थी?”
“कभी नहीं। पर मेरे कुछ सोचने से पहले ही उसकी हत्या हो गयी। और अब तो मुझे यकीन से मालूम है कि वो आतंकवादी है। अब ऐसे हालात में मुझे समझ में नहीं आ रहा कि मैं क्या करूं।”
“जाकर पुलिस या उन जासूसों के सामने सब क़ुबूल कर लों।”
“कौन कन्हैय्या और राधा? तुम जानते हो उनके बारे में?”
“हमारे जैसे लोगों को आँख और कान खुले रखने पड़ते हैं।”
“मुश्किल है।”
“क्यों जेल जाने से डर लगता है?”
“नहीं। पर आश्रम के बदनामी से ज़रूर डरती हूँ।”
“हूँ, मुझसे क्या चाहती हो?”
“सिकंदर जैसे लोगों से निपटने का तुम्हें तजुर्बा है।”
“पर ऐसा मैं क्यों करूँ?”
“अगर मैं फँस गयी तो तुम्हारा आगे का प्लान भी अधूरा रह जायेगा।”
अल्फांसे मुस्कुराया।
“ठीक है। पर मुझसे कोई गेम खेलने की कोशिश मत करना।”
“कभी नहीं। मैं तुम्हे जानती हूँ। और तुम्हारे बिना मेरा प्लान भी अधूरा रह जायेगा। मेरी जिंदगी की सारी उम्मीदें उसी पर टिकी है।”
“और कुछ?”
“हाँ। तुम्हारे पते पर पांच करोड़ पहुंचा दिया है मैंने।”
“खबर मिल गयी है मुझे।”
“कमाल है। यहाँ बैठे बैठे कहाँ से खबर निकाल लेते हो।”
“अपना अपना जरिया है।”
“कहीं यहीं तो नहीं है तुम्हारा कोई भेदिया?”
“अपने काम से काम रखो।”
“ओके सर।” सरस्वती मुस्कुराई। “निकलती हूँ, नौ बजे तक पहुँचाना है।”
अल्फांसे ने कोई जवाब नहीं दिया और पलट कर चल दिया।
सरस्वती उसे जाते हुए देखती रही। एक ही शब्द उसके मुंह से निकला।
“काश......................।”
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रजनी और श्याम उन ख़ास लोगों में से थे जिन्हें आचार्य जी की नजदीकियां हासिल थी। दोनों को तीन साल से ऊपर हो गए थे आचार्य जी की सेवा करते हुए। आचार्य जी के लिए भोजन बनाने से लेकर उनके कपड़े वगैरह तैयार करने तक हर जिम्मेदारी को वे बखूबी निभाते आये थे। यहाँ तक की आचार्य जी अगर अपने कमरे के बाहर आश्रम के अन्दर या आस-पास होते थे तो दोनों में से एक ज़रूर उनके साथ होता था। दोनों के कमरे भी आचार्य जी के घर के साथ ही लगे थे। आचार्य जी के घर में प्रवेश करने पर सबसे पहले एक छोटा सा अहाता था उसके बाद एक बड़ा सा बरामदा था। बरामदे के दोनों छोरों पर बायें और दायें दो कमरे थे जिसमें बाथरूम और छोटा सा किचेन भी अटैच्ड था। यही दो कमरे रजनी और श्याम को हासिल थे। दोनों को बाहर जाने की ज़रुरत कम ही पड़ती थी। दोनों अपना खाना खुद ही एक ही साथ बना लिया करते थे। राशन वगैरह के लिए खुदीराम जो आश्रम का ही कार्यकर्ता था रोज़ सुबह आता था और दोनों आचार्य जी के साथ-साथ अपना सामान भी उसी से मंगा लिया करते थे।
महंत जी ने कई बार आचार्य जी से अनुरोध किया था की उनके लिए कुछ गार्ड यहाँ तैनात कर दे। पर आचार्य जी ने यह कहते हुए मना कर दिया था कि वो कोई राजनेता नहीं कि बॉडीगार्ड की ज़रूरत पड़े। फिर भी दो हत्याओं के बाद महंत जी ने आश्रम में मौजूद गार्ड्स को विशेष निर्देश दे दिए थे।
फिर भी अनहोनी तो हो हीं जाया करती है!
आचार्य जी ने बरामदे पर आकर रजनी को आवाज दी।
श्याम दौड़ता हुआ अपने कमरे से बाहर निकला।
“रजनी थोडा बाहर निकला है।”
“चलो बाहर से टहल कर आते हैं।”
“कमरा लॉक कर दूं?”
आचार्य जी मुस्कुराये। वो जानते थे उनके नहीं कहने पर भी वो कमरा खुला नहीं छोड़ेगा।
कुछ ही देर में वो दोनों उधर निकल आये थे जिधर कुछ देर पहले अल्फांसे और सरस्वती गयी थी।
दोनों ने बारी बारी से उन्हें क्रॉस किया।
सरस्वती ठिठकी और आचार्य जी को अभिवादन किया।
“नरेन्द्र जी आजकल परेशान हैं।”
आचार्य जी सर हिलाते हुए निकल गए।
“मैडम जी परेशान दिखाती हैं।” श्याम बोला।
“कर्म का दवाब हैं उन पर।”
आचार्य जी खुली ज़मीन को निहारते रहे। अजब पहली बार यहाँ आये थे तो एक छोटा सा आश्रम था यह!
एक छोटा सा पक्का घर। पांच छः छोटी मोटी झोपड़ियाँ। गुरुदेव चांदीपुर महाराज उनकी शरण में आये और ये पूरा इलाका प्रभुकुंज ट्रस्ट के नाम कर दिया था।
फिर लोग आते गए और आश्रम बनता गया गुरुदेव के शरीर छोड़ने के बाद आश्रम का दायित्व उन पर आ गया।
फिर जाने अनजाने कितनी घटनाओं का क्रम आता जाता गया।
कभी सोचा नहीं था उन्होंने कि उनके जैसा घुमक्कड़ व्यक्ति इतने लम्बे समय तक एक जगह स्थिर होकर रह सकता है।
“उन्होंने घूम कर उत्तर की ओर देखा। जब भी वो उत्तर की और देखते थे तो ऐसा लगता था की हिमालय उन्हें पुकार रहा था। कई बार विचार आया कि सब छोड़कर हिमालय की तरफ भाग जाये।”
पर कर्म! कर्म ने इस तरह बाँध कर रखा था कि चाह कर भी यहाँ से भाग नहीं सकते थे।
मजाक-मजाक में इतना बड़ा रायता फैला दिया!
अभी तो बहुत कुछ करना बाकी था।
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रजनी आचार्य जी के बाहरी कमरे को लॉक देखकर समझ गया कि वे टहलने निकले हैं। तो आज उनके साथ निकलने का मौका चूक गया था। वरना दोनों के रहने की स्थिति में आचार्य जी पहला मौका उसे ही देते थे।
उसने घडी देखी। नौ बजने में अभी भी १५ मिनट बाकी थे। आचार्य जी १० बजे नाश्ता करते थे। नाश्ता बनाने में कुल ३० मिनट लगाना था। आधे घंटे में तैयार हो सकता था। वो अपने कमरे में प्रविष्ट हुआ। दरवाजा बंद कर पलटा हीं था की कमरे की घंटी बजी।
‘इतनी ज़ल्दी कौन आ गया था।’ अभी तो उसने कमरे में प्रवेश हीं किया था।
शायद खुदीराम होगा। भूत की तरह चलता था वो। इस वक़्त और कौन होगा। राशन पहुँचाने आया होगा।
गेट खोलने पर सामने आनंद को मौजूद देख रजनी को हैरानी हुई। आनंद से उसका कोई विशेष परिचय नहीं था पर कभी कभी वो आचार्य जी से मिलने आया करता था। आनंद को लोग कंप्यूटर जिनिअस के रूप में जानते थे और कंप्यूटर से सम्बंधित कामों के लिए सभी लोग उसी पर निर्भर थे। वो शायद आश्रम का इकलौता शख्स था जिसकी गणना आचार्यजी के शिष्यों में नहीं होती थी। उसे अपने ऑफिस-कम-निवास से निकलते हुए बहुत कम हीं लोगों ने देखा था। आज भी आचार्य जी से हीं मिलने आया होगा।
“आचार्य जी बाहर निकले हैं।”
“जी जानता हूँ। दरअसल मैं आपसे मिलने आया था। मैं नहीं चाहता था कोई मुझे यहाँ आता देखे। आचार्य जी भी नहीं।”
रजनी अचरज में था। ऐसी कौन सी बात थी कि वो आचार्य जी से भी शेयर नहीं कर सकता था! उसने आनंद को अन्दर बुला लिया। आनंद धीरे धीरे चलता हुआ अन्दर आया और कमरे में रखी इकलौती कुर्सी पर बैठ गया।
उसने आज पहली बार आनंद को ध्यान से देखा था। वो कोई साढ़े पांच फुट का इकहरे बदन का लड़का था और उम्र में १५-१६ वर्ष से ज्यादा का नहीं लगती थी। शरीर पर उसके एक ढीला ढाला शर्ट और जीन्स पैंट था। चेहरे पर एक मोटा शीशा वाला चश्मा था जिससे उसकी आंखें काफी मोटी प्रतीत हो रही थी।
रजनी उसके सामने पलंग पर ही बैठ गया।
“कहिये आनंद जी ऐसी कौन सी बात हो गयी जिसे आप गुरुदेव से छुपाना चाहते हैं?”
आनंद कुछ देर इधर उधर देखता रहा मानों निश्चय कर रहा हो की सामने वाले से अपने मन की बात कहे या नहीं।
“क्यों क्या हुआ भाई। निश्चिंत होकर कहिये।”
आनंद का मानों हौसला बढ़ गया।
“थोडा दरवाजा बंद कर देते तो अच्छा रहता।”
रजनी ने उठकर दरवाजा बंद कर दिया।
“हाँ अब ठीक है। दरअसल बात ये है कि मुझे एक बुरी लत लग गयी है।”
रजनी के दिमाग में पहला ख्याल यही आया कि उसे ड्रग्स की लत तो नहीं लगी।
“ड्रग्स?”
“नहीं नहीं। दरअसल मुझे...आप किसी से कहोगे तो नहीं?”
“अच्छा नहीं कहूँगा।” रजनी की झुंझलाहट बढ़ रही थी। सर झुककर सोच रहा था कि जाने क्यों मेरा दिमाग चाटने पहुँच गया है।
“दरअसल मुझे खून पीने की लत हो गयी है।” आनंद की आवाज एकाएक जहरीली सी हो गयी थी।
रजनी ने घबराकर सर उठाया। क्या ये वही आनंद था जो एक पल पहले मासूम सा घबराते हुए कुछ कहना चाह रहा था!
उसके चेहरे की एक एक नस तन गई थी।
“देखो न रजनी, क्या हो जाता है मुझे। रात रात भर सो नहीं पाता मैं। पूरा बदन ऐंठने लगता है।”
रजनी को बस एक बात समझ आ रही थी की एक भी पल वो यहाँ रुका तो उसका हार्ट अटैक हो जायेगा।
वो दरवाजे की और लपका। पर उसे पता नहीं था की उसका पाला किस ‘चीज’ से पड़ा है।
आनंद के हाथ तेज़ी से उस तरफ लपके और उसे लाकर ज़मीन पर पटक दिया। वो गुर्राया, “इतनी तमीज नहीं है तुम्हें की जब कोई कुछ समझाने की कोशिश कर रहा हो तो यूँ उठकर नहीं भागते?”
रजनी समझ गया था की आनंद या जो कोई चीज है, उसे कमरे से भागने नहीं देगा।
इस सूरत में उसके पास दो हीं आप्शन थे, ‘फाइट या फ्लाइट।
दूसरा आप्शन काम नहीं आया था, अब पहला आप्शन, रजनी संभलकर खड़ा हो गया था। गिरने पर उसका सर पलंग के पाए से टकराया था और वो सर पर खून की चिपचिपाहट महसूस कर सकता था।
आनंद गुर्राया, “अब संभल कर बैठ जाओ।”
रजनी ने आगे झुककर अपना दायाँ हाथ पलंग पर रखने का उपक्रम किया मानों पलंग का सहारा लेने जा रहा हो। उसने सामने देखा, आनंद उसके रेंज में था। एक हाथ पलंग पर टीकाकार उसने अपने दोनों पैर हवा में लहराए और दोनों पैर सीधे आनंद के चेहरे और सीने पर पड़े। आनंद ने शायद इसकी अपेक्षा नहीं की थी। वो कुर्सी को लिए उलट गया। इसके पहले की वो संभालता, रजनी के पैर की करारी ठोकर उसके पैरों के जोड़ पर पड़ी थी। आनंद कराहते हुए उलट गया।
अब रजनी अपने दोनों हाथ कमर पर रखे खड़ा था।
“मजा आये बेटे?”
पर आनंद इतनी ज़ल्दी हार मानने वालों में से नहीं था।
आनंद ने अपने पैर और हाथ ज़मीन पर टिकाये। रजनी को ऐसा लगा कि वो उठने का प्रयास कर रहा हो।
पर इसके पहले वो कुछ समझता अपने हाथ और पैर के जोर से पूरी ताक़त से उछला और पीछे से हीं अपने सिर को रजनी के सर में दे मारा। उसके पैर ज़मीन ज़मीन से उखड़ गए और वो सर के बल गिर पड़ा।
दिन में हीं उसे तारों के दर्शन हो गए थे।
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श्याम से बातें करते करते आचार्य जी का चेहरा अचानक शुन्य में स्थिर हो गया था।
“क्या हुआ गुरुदेव?”
“रजनी...ऐसा लगा रजनी ने मुझे आवाज दी है।”
“पर...।”
“रजनी मुसीबत में है...” अचानक आचार्य जी के कदम वापस मुड़ गए। उनके चाल में तेजी आ गयी थी। श्याम भी पीछे पीछे दौड़ पड़ा।
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आनंद पलटा। रजनी उसके चेहरे को दहशत से देख रहा था। मानों कि उसके सामने कोई आदमी नहीं भेड़िया खड़ा हो।
रजनी को उठने का भी समय नहीं मिला। अब आनंद उसकी छाती पर सवार था। उसका चेहरा रजनी के चेहरे के ठीक सामने था।
उसके दो दांत बाहर निकल चुके थे, जैसे किसी जानवर के दांत हो। चेहरे की एक एक नस तनी हुई, हे भगवान् क्या चीज़ था ये? आदमी या शैतान?
शैतान झुका और उसके छाती के मॉस का टुकड़ा उस शैतान के मुंह में था, कपड़े सहित!
रजनी चीखें मार रहा था, बेतहाशा।
पर शैतान इन सबसे बेखाबर उस मॉस के लोथड़े का मजा ले रहा था। जैसे किसी बच्चे को पसंदीदा टॉफ़ी मिल गयी हो। चबाये जा रहा था इसे।
अचानक आनंद की आंखें स्थिर हो गयी मानों कुछ सूंघने की कोशिश कर रहा हो।
कुछ ही पल में उसके चेहरा सामान्य होने लगा। अब भय ने खौफ की जगह ले ली थी। वो कमरे के इकलौती खिड़की की तरफ लपका जो बंद थी।
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बारासहब की हवेली चांदीपुर के सबसे पुरानी इमारतों में से एक थी और अंग्रेजों के ज़माने में बनवाई गयी थी। बारासाहब ने दूसरी शादी एक नाचने वाली बाई से की थी जिनसे हुई तीनो औलादें दिल्ली में बस गयी थी। पहली बीवी से हुई इकलौती औलाद ७० से ऊपर का हो चुका था पर इस हवेली पर अपनी मालिकाना हक जताता था और वो भी सपरिवार मुंबई में रहता हुआ बताया जाता था। हवेली पर हक के लिए कानूनी लड़ाई जारी थी और काफी साल से उन लोगों का यहाँ आना जाना बंद ही था। कुछ समय तक यह लोकल गुंडे मवालियों का अड्डा बना रहा पर अब उस्मान टिक्का ने इसे अपना कार्यक्षेत्र बना लिया था। कुछ लोगों का कहना था कि उसने बारासाहब की सबसे बड़ी औलाद से पॉवर ऑफ़ अटर्नी हासिल कर ली थी। उस्मान इसका इस्तेमाल बड़े बड़े जरायमपेशा लोगों के होटल के रूप में करता था और उनसे उसकी अच्छी कमाई हो जाया करती थी।
इधर ये हवेली सिकंदर के हवाले थी। उसी हवेली के एक कमरे में सिकंदर अपने साथी के साथ बातचीत में मशगूल था। सामने जोंनी वॉकर ब्लैक लेबल की बोतल खुली थी। सिकंदर हैरान था कि उसका साथी अभी तक सात पेग अपने नाम कर चुका था पर अभी तक नार्मल ही दिख रहा था। खुद सिकंदर ने अभी तक दो ही पेग लिए थे क्योंकि वो नहीं चाहता था कि सरस्वती से मिलने के वक़्त वो नशे में रहे। सिकंदर के समझ में आ गया था कि ये हर मामले में पहुंचा हुआ शक्श है। उसने अपना नाम ताशी बताया था पर वो जानता था कि इसका असली नाम कुछ और ही होगा। इस वक़्त हवेली में उन दोनों को छोड़कर कोई और न था। ताशी के कहने पर उसने सबको बाहर करवा दिया था। केवल दो हथियाबंद लोग बाहर पहरा दे रहे थे।
“साहब जी, मुझे तो ऐसा लगता है कि ये शराब आपके हलक से नीचे उतरने से पहले ही गायब हो जा रही है।”
ताशी के दोनों आंख सिकुड़ गए।
“मेरी गिनती दस के बाद शुरू होती है।”
सिकंदर ने बनावटी कहकहा लगाया।
“वैसे आप हो बड़ी पहुंची चीज़। सीधे इस्लामाबाद से आपके लिए फ़ोन आया कि आपके हर हुक्म कि तामिल करनी है। सो मैंने यहाँ भी आपके लिए एक कमरा तैयार कर दिया है। जब तक चाहो आराम से यहाँ रह सकते हो।”
वैसे इस बात से सिकंदर हीं नहीं बल्कि ताशी भी अनजान था कि एक नकाबपोश काफी देर से चुपचाप दोनों कि बातें सुनने में मशगूल है। कमरे में विंडो एसी वाली खिड़की के पास खड़े होकर बातचीत सुनने में उसे कोई परेशानी नहीं हो रही थी।
ताशी चुप रहा। उसे यह आदमी पसंद नहीं आया था। चेहरे से खूंखार मालूम होता था पर दिमाग से खाली मालूम होता था। उसे शातिर लोगों कि तलाश थी जो छुपकर काम को अंजाम दे सकें। वसीम काम का आदमी था। इतने दिन तक हिन्दू बनकर दयाल के नाम से आश्रम में रहा पर किसी कोई शक तक नहीं हो पाया। पर इस कमबख्त की बेवकूफी से उसका भेद खुल गया। बेचारा मारा भी गया। एक बार सच्चाई कि तह तक पहुँच जाये तो दो घंटे में सबसे निपट लेगा। इतनी लम्बी खोज इस छोटे से आश्रम में जाकर समाप्त होगी उसने सोचा न था। आश्रम के एक एक लोगों का चेहरा उसके दिमाग में फिट था। अगर सबको केवल ख़त्म करना होता तो उसके लिए केवल दो घन्टे काफी थे।
बस अल्फांसे को छोड़कर!
बस यही बात उसके हक में थी कि अल्फांसे उसे पहचान नहीं पाया था। एक साल भी नहीं हुए लॉस एंजेल्स में उसने दस मिनट में धूल चटा दिया था चीन के सबसे खतरनाक जासूस को। बस अल्फांसे उसका नकाब हटाने में कामयाब नहीं हो पाया था वरना...।
पहले भी एक दो बार उसने अपने प्रतिद्वंदी से हार का सामना किया था उसने पर वो चीज़ हीं कुछ और था। ये अलग बात थी कि उसने अल्फांसे का अच्छा खासा नुक्सान किया था और वो उसके लिए उसे माफ़ नहीं करने वाला था।
अल्फांसे उसकी असली सूरत से अनजान था पर उसके सामने आते ही जाने उसे क्या हो जाता था। बस उसे अल्फांसे से बच कर चलना था जब तक कि उसका मिशन पूरा न हो जाए।
ये बात भी उसके लिए अचरज की थी कि अल्फांसे यहाँ किस फेर में था। अगर उसके जैसा आदमी इतने लम्बे समय तक यहाँ टिककर रह रहा था तो ज़रूर वो किसी लम्बे चक्कर में था बात करोड़ों में भी हो सकती थी।
बस ये उस मैडम को तरीके से काबू में कर ले।
सरस्वती देवी ने जब हवेली के विशाल स्वागत कक्ष में प्रवेश किया तो सोफे पर सिकंदर को पसरा पाया।
“बैठो सरस्वती।” हॉल में सिकंदर की खुरदरी आवाज गूंजी। “जो कहना है कह डालो।”
“मैं यहाँ से दूर थी इसलिए दयाल के लिए बचा नहीं सकी।”
सिकंदर कुछ पल शांत रहा फिर चलता हुआ सरस्वती के पास पहुँच गया, काफी पास। वो हडबडा कर खड़ी हो गयी थी।
एकाएक सिकंदर का हाथ उठा और उसके गालों पर पड़ा। वो पुनः सोफे पर गिर पड़ी। चोट और बेइज्जती से उसके गाल लाल हो गए थे।
“हम्म अब बैठ सकती हो। और हाँ तुम्हारे उभारों के बीच एक तीसरा उभार दिख रहा है जो यकीनन छोटा सा रिवाल्वर है। खुद ही निकाल दो वरना जब मैं तुम्हारा ब्लाउज खोलूँगा तो वो खुद ही गिर जायेगा।”
सरस्वती में विरोध की हिम्मत नहीं थी। शान्ति से उसने रिवाल्वर निकालकर नीचे गिरा दिया।
“यकीन नहीं होता मोहतरमा कि आपके जैसी मासूम शक्ल ओ सूरत वाली लड़की इतनी खतरनाक हो सकती है। आपकी हिम्मत का कायल हुआ मैं। कहीं और हथियार तो छुपाकर नहीं रखा है न ब्लाउज में? ठहरो मैं चेक करता हूँ।”
सिकंदर बढ़ा और आराम से उसके दोनों उरोजों को थपथपाया। सरस्वती ने बेबसी से दांतों से अपने होठ काटे। शर्म से उसके दोनों गाल लाल हो गए। क्या यह स्त्री होने का इनाम था!
“बढियां। मतलब इन हथियारों के साथ कोई और हथियार नहीं। या कुछ और भी है जिसे छुपाकर रखा है?” वो अश्लील हंसी हंसा। “जरूर होगा। इतना बड़ा आश्रम चलती हो।”
“तुम्हें मेरे बारे में गलत फहमी हुई है। मैं आश्रम कि साधारण सी मुलाजिम हूँ।”
“और उस मुलाजिम का शौक़ मेहमानों को ब्लैकमेल करना है। कितना शेयर रहता है उसमें तेरे गुरु का?”
“मेरे गुरुदेव को बीच में मत लाओ।” वो बुदबुदाई।
सिकंदर को देखकर उसे घिन आ रही थी। ऐसा लग रहा था कि महीनों से नहाया नहीं हो। चेहरे पर खिचड़ी दाढ़ी और उसके बीच झांकते हुए पीले पीले दांत।
कुछ पल ठहरकर उसने नम्र स्वर में कहा, “देख मैडम, तेरे से कोई रंजिश नहीं है मेरी। अच्छा नुक्सान कर दिया है तूने मेरा। जिसे तू दयाल के नाम से जानती है वो मेरा अपना भाई था। वो हमारे धंधे में नहीं आना चाहता था। मेरी जिद पर वो इस काम के लिए तैयार हुआ था।”
वो पूछना चाहती थी, ‘कौन सा काम?’ पर उसने मुंह बंद रखा। जितनी जानकारी उसने सिकंदर के बारे में इकठ्ठा कि थी उसके मुताबिक वो अव्वल दर्जे का कमीना था। अगर वो यहाँ से अपनी इज्ज़त को बचाकर निकल भी जाती तो ये एक कमाल ही होता। और ये कमाल अल्फांसे के जरिये ही संभव था। अभी तक उसे सिकंदर के अतिरिक्त कोई और आदमी यहाँ नहीं दिखा था पर उसे यकीन था कि इतने बड़े घर में वो अकेला तो कम से कम नहीं होगा। और वो ही अल्फांसे उसके सिग्नल का इंतज़ार कर रहा था।
“लगता है तू मेरा ज्यादा ही खौफ खा गयी है। शायद पैसे कि चिंता कर रही है। अच्छा चल मैंने सारे पैसे माफ़ किये। धन्धे की बात करते हैं।”
सरस्वती कि नज़रें उठी। कौन से धंधे की बात करना चाहता था ये?
“देख तेरा गुरु बड़ा रसूख वाला है। तुझ पर यकीन भी बहुत करता है। बस मेरे लिए वहां थोड़ी जगह का इंतज़ाम करना है। समझी?”
“नहीं।”
“अच्छा चल खुल कर बात करता हूँ। मेरा हथियारों का बिज़नेस है। कुछ महीने से इस जगह को अपना अड्डा बनाया था। पर इधर लोकल पुलिस और इंटेलिजेंस वाले ज्यादा ध्यान देने लगे हैं। मैं चाहता हूँ कि तू कुछ ऐसा इंतेजाम कर कि आश्रम के भीतर मैं अपना स्टोर बना लूं। नेपाल के रास्ते मेरा सामान इंडिया में सीधा आश्रम में फिर वहां से सारे इंडिया में। इस बहाने तू भी कुछ कमा लेगी।
सरस्वती सोचने कि मुद्रा में आ गयी।
“काम रिस्की है।”
सिकंदर के आँखों में चमक आयी। लड़की धीरे-धीरे लाइन पर आ रही थी।
“पैसे भी भरपूर मिलेंगे। इतना कि तू सोच भी नहीं सकती।”
“पर ये सब काम मैं अकेले नहीं करती। अपने पार्टनर से बात करके हीं बता सकती हूँ।”
“तेरा पार्टनर भी है?” सिकंदर सोच में पड़ गया। ताशी ने उसे पहले हीं बता दिया था कि सरस्वती कुछ ऐसा ही कहेगी।
“तो जा उससे बात कर और मुझे बता।”
“तो मैं जा सकती हूँ?” सरस्वती आश्चर्य में पड़ गयी।
“हाँ जा। तू क्या सोच रही थी कि मैंने तुझे मुंह चाटने के लिए बुलाया है?”
वैसे सिकंदर के दिमाग में कुछ ऐसा ही चल रहा था पर ताशी के डर के कारण वो चुप था। कमबख्त ने उसकी इज्ज़त पर बट्टा लगा दिया। उसके यार दोस्त को मालूम हुआ कि एक अकेली औरत उसके घर से यूँ ही चली गयी तो...!
सरस्वती हैरत में थी।
उधर दुसरे कमरे में बैठा ताशी खुश था। उसे किसी हथियार के सौदे से कोई मतलब नहीं था। उसे तो बस यही जानना था इस औरत के साथ और कौन कौन लोग हैं?
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अल्फांसे भी बंगले से कुछ दूर एक चाय की दूकान में बैठा अपने कान में इयरफोन लगाये उनकी बातचीत सुन रहा था। अल्फांसे का खून सिकंदर के अश्लील डायलॉग को सुनकर कहल रहा था पर सरस्वती ने कोई इशारा नहीं किया था। शायद आज उसकी ज़रुरत नहीं पड़नी थी। मतलब अभी वो फ्री था और इस खाली समय में बंगले के चक्कर लगाने में कोई हानि नहीं थी।
बंगला चारों तरफ से ऊँची दीवार से घिरा था पर दीवारें इतनी ऊँची भी नहीं थी कि अल्फांसे के लिए कोई मुश्किल खड़ी कर सके। सरस्वती को मुख्य फाटक से निकलते देख वो और भी निश्चिंत हो गया। फाटक पर दो बंदूकधारी खड़े थे। साइड या पीछे कि दीवार को फांदकर आराम से वो बंगले में प्रविष्ट हो सकता था। पर इसकी ज़रूरत नहीं पड़ी। दोनों गार्ड्स को एक तरफ बढ़ते देखा जिधर एक लड़का और एक लड़की जो कॉलेज के ड्रेस में थे जाने कहाँ से चले आये थे, शायद एकांत कि तलाश में। दोनों विद्यार्थी उनसे उलझते हुए प्रतीत हो रहे थे। अल्फांसे के पास अच्छा मौका था अन्दर जाने के लिए।
स्वागत कक्ष से सटे अन्दर वाले कमरे से दो आवाजें आ रही थी। वो आराम से दीवार के पास में सटे मेज के नीचे हो लिया।
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ताशी के रवाना होने का वक़्त आ गया था।
“तो कैसा लगा मेरा बंगला हुज़ूर।”
ताशी ने बुरा सा मुंह बनाया।
“पहले सिक्यूरिटी का अरेंजमेंट करो। कोई भी आराम से यहाँ आ सकता है।”
“यहाँ लोग मेरे नाम से भी डरते हैं। कोई आने की हिम्मत नहीं कर सकता। और फिर दो बॉडीगार्ड आगे तैनात हैं।”
“बॉडीगार्ड रहने से लोग आकर्षित होंगे। सी सी टी वी कैमरों का इंतेजाम करो। वो भी छुपाकर। जगह बढियां है। ३-४ गार्ड अन्दर रखो। यहाँ अंडरग्राउंड कमरे भी होंगे। बंगले कि बनावट बताती है चेक करना।”
सिकंदर को ये ध्यान नहीं आया था। ये चीनी उसे काम का आदमी लगा था।
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“यहाँ क्या कर रहे हो?” दोनों बंदूकधारी में से एक गुर्राया।
लड़की घबराई, “जी यूँ ही कॉलेज से ज़ल्दी छुट्टी हो गयी तो हम दोनों इधर बढ़ आये।”
“और किताब कॉपी?”
“कॉलेज में ही छोड़ दिया।”
“जिधर से आई है उधर ही चली जा।”
“लड़की ने लड़के कि और देखा।”
“अंकल एक घंटे के लिए अन्दर जाने दो न। ज़रूरी काम है।” लड़का बोला।
एक गार्ड ने दुसरे कि तरफ देख आँख दबाई। लड़की अच्छी थी। अगर मालिक अन्दर न होता तो फ़ायदा उठा सकते थे। दोनों को बातचीत में मज़ा आ रहा था।
“क्या करोगे अन्दर जाकर?”
“बातचीत करेंगे और क्या?” लड़के ने मासूमियत से जवाब दिया।
“बातचीत करना है तो बाहर ही कर ले।” एक गार्ड ने कहकर ठहाका लगाया।
“और कुछ करना है तो उसके लिए हम भी हैं।” दुसरे ने लड़की के कंधे पर हाथ रख दिया। वो उत्तेजित होने लगा था।
लड़की पीछे हटते हुए चिल्लाई।
“सोनू।”
“हाँ मोनू।” लड़के ने कहा।
“इसने मुझे छू दिया।” मोनू सुबकने लगी थी। “तुम इस मारो।” दोनों गार्ड्स ने ठहाका लगाया। पर वे क्या जानते थे कि उनका पाला किस्से पड़ा है। सोनू के एक ही घूंसे में पहला वाला ज़मीन चाटने लगा था। दोनों को धराशायी करने में उन्हें एक मिनट से भी कम का वक़्त लगा था।
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उधर इन सब से अनजान ताशी निकलने को तैयार था।
“सामने के फाटक से ही निकलोगे साहब जी?”
“क्यों क्या हुआ?”
“किसी ने पहचान लिया तो?”
“क्यों मैं कोई क्राइम करने आया हूँ क्या? मैं तो बस अपने मित्र सिकंदर साहब से मिलने आया था। ये भी कोई जुर्म है क्या?”
दोनों ने एक साथ ठहाका लगाया।
“एक बात है साहब जी। चाइनीज होकर भी इतनी अच्छी हिंदी बोल लेते हो।”
स्वागत कक्ष में कदम रखते हीं दोनों कि नज़र लड़के और लड़की पर पड़ी जो गलबहियां डाले बैठे थे।
सिकंदर के साथ साथ ताशी भी चौंका। दोनों लड़के और लड़की भी छिटक कर अलग हो गए। अल्फांसे को भी सारे दृश्य में मज़ा आ रहा था। ताशी को यहाँ देखकर हैरानी ज़रूर हुई थी।
“सॉरी अंकल। मुझे लगा यहाँ कोई नहीं है।”
“दरवाजे पर तुम्हें किसी ने रोका नहीं?” सिकंदर गुस्सा अवश्य हुआ था पर जवान लड़की को देख उसके मुंह में पानी आने लगा था।
ताशी के पास पहुंचकर लड़का धीरे से मुस्कुराकर बोला, अंकल पहचाना मुझे!
ताशी चौंका। कन्हैय्या को पहचानने में उसे मुश्किल नहीं हुई। उसने फिर सिकंदर की और देखा। सिकंदर की नियत उसे समझ में आने लगी थी। अब सिकंदर को सावधान करने का मौका उसके पास नहीं था। प्रत्यक्षतः वह बोला, “मैं चलता हूँ।”
“साथ इस लड़के को ले जाते तो मेरा काम आसन हो जाता।”
“अपना काम खुद संभालो।” कहकर वो बाहर कि तरफ लपका।
सिकंदर ने लड़के कि तरफ देखा। साधारण सा लड़का था, आराम से निपट लेगा।
लड़की एकाएक हरकत में आयी और दौड़ते हुए ताशी के पीछे छुप गयी।
“अंकल बचा लो, ये कुत्ता मेरी इज्ज़त लूटना चाहता है।”
लड़की को भी उसने पहचानने में गलती नहीं की थी। राधा को वह योगा ट्रेनर के रूप में देख चुका था।
लड़के ने भी फ़िल्मी अंदाज़ में कहा, “चिंता मत कर पगली, इस कुत्ते से तो मैं अकेले हीं निपट लूँगा।”
सिकंदर मुस्कुराया। उसे ये सब बच्चों का खेल लग रहा था।
लड़का हाथ फैलाकर उसकी पेट में मुक्का मरने जा रहा है बच्चों कि तरह। उसने अपने दोनों हाथ फैला दिए उसे दबोचने के लिए। अपने असीमित शक्ति पर नाज था।
पर सामने कोई बच्चा नहीं एच आई जी का खुर्राट जासूस खड़ा था। दौड़ते हुए उसने अपने सर को सिकंदर के पेट में दे मारा। पलक झपकते ही वो पीछे की दीवार से टकरा कर गिर पड़ा। लड़के को भी सिकंदर की शक्ति का एहसास हो चुका था। पूरा सर झनझना गया था उसका। सिकंदर ने सँभलने में देर नहीं लगाई। झटके से खड़ा होकर उसने अपना पैर घुमाया। लड़के ने झटके से झुकने की कोशिश की पर तब तक उसका पैर लड़के के सर से टकरा चुका था। लड़का जो यकीनन कन्हैय्या था गिर पड़ा।
“सोनू गिर पड़ा सोनू गिर पड़ा।” कहते हुए राधा ने ताली बजाई।
अल्फांसे अब तक दोनों को पहचान चुका था और दोनों कि जुगलबंदी के मजे ले रहा था।
कन्हैय्या लड़खड़ाते हुए उठकर खड़ा हो गया और आराम से बोला, “लड़की के सामने बेईज्ज़ती करा दी मेरी। जा मोनू तू ही लड़।”
कन्हैय्या के मुंह से बात निकलते ही मोनू का शरीर उछलते हुए सिकंदर के भारी भरकम शरीर पड़ गिरा। उसके पैर में मौजूद भारी जूते का प्रहार सिकंदर के गर्दन पर पड़ा। वो गिरने से अपने आप को बचा नहीं सका।
सिकंदर के साथ साथ ताशी को भी समझ में आ गया था कि उनका पाला खतरनाक लड़कों से पड़ा है और दोनों यहाँ मस्ती करने नहीं आये हैं। भीतरी रूम के खिड़की के पास खड़ा नकाबपोश भी घूमकर स्वागत कक्ष के पास आ चुका था और मारपीट के मजे ले रहा था।
सिकंदर ताशी को देखकर चिल्लाया, “वहीँ खड़े खड़े तमाशा देखोगे या कुछ करोगे भी?”
तब तक राधा के पैर कि एक और ठोकर सिकंदर के कनपट्टी पर पड़ी। उसे अपने आँखों के आगे अँधेरा छाता महसूस हुआ। उसके जेहन पर बेहोशी छाती महसूस हुई।
तब तक ताशी भी हरक़त में आ चुका था। उसने राधा के कपडे को पकड़कर हल्का सा झटका दिया। राधा समझने में असमर्थ थी कि वो ५ फीट दूर जा गिरी थी। तभी कन्हैय्या ने एक फ्लाइंग किक उसके पीठ पर मारी। पर वो गिरने से पहले ही संभल चुका था।
अगला दस मिनट ताशी के नाम रहा। कभी वो कन्हैय्या के हाथ को पकड़कर झटका देता तो कभी राधा का गला उसके हाथों में फंसा होता। ज़मीन पर हाथ रखकर कभी ८-१० फीट ऊपर हवा में उछल जाता।
अल्फांसे पर अभी तक किसी कि नज़र नहीं पड़ी थी पर अल्फांसे हैरत से ताशी को देख रहा था। अगर वो गलत नहीं था तो ताशी चेंग लेई को छोड़कर कोई और नहीं था। दुनिया में कई लड़ाकों से उसका सामना हुआ था पर इस अजीबोग़रीब तरीके से लड़ने वाला एक ही शख्स उसे मिला था। अब उसे समझ में आ रहा था कि ताशी उससे नज़र चुराकर क्यों भाग जाता था।
इधर ताशी भी समझ चुका था कि यहाँ समय बर्बाद करने से कोई फायदा नहीं है। सिकंदर अभी भी अपने चोटों से संभाला नहीं था। आज और भी ज़रूरी काम करने थे उसे।
तीर कि तरह ताशी का शरीर बाहर की और लपका। कन्हैय्या और राधा ने एक दूसरे कि ओर देखा। बाहर जाने से कोई फायदा नहीं था। एक तो वो ताशी कि फुर्ती से वाकिफ हो चुके थे और दूसरा उनका मतलब सिकंदर से हल होने वाला था।
अल्फांसे को भी लगा कि कन्हैय्या से छुपने कि कोई ज़रुरत नहीं थी। कन्हैय्या और राधा सिकंदर कि ओर बढ़ ही रहे थे कि अल्फांसे कि नज़र उन पर पड़ी।
“अंकल जी आप यहाँ?” कन्हैय्या ने हैरत से कहा।
“अभी अभी मालूम हुआ कि तुम दोनों का शो यहाँ होने वाला है सो पहुँच गया।” अल्फांसे ने मुस्कुराते हुए कहा।
“चलो आश्रम चलते हैं।”
उन्हें नहीं मालूम था कि वहां एक और भयावह कहानी उनका इंतज़ार कर रही है।
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लगभग शाम सात बजे इंजेक्शन और दवा के प्रभाव से रजनी को मुक्ति मिली तो वो कुछ कहने की स्थिति में था। रजनी ने जो कुछ कहा वो कोई मानने को तैयार नहीं था। रजनी को सुबह साढ़े नौ बजे बहुत बुरी हालत में उसके कमरे में पाया गया था और उसकी बुरी हालत ने उसके सारे बयान की पुष्टि की थी सिवाए इसके की ये हरक़त आनंद की थी। जब आचार्य जी श्याम के साथ तेज़ी से अपने आवास की ओर बढ़ रहे थे तब रास्ते में उनकी मुलाक़ात आनंद से हुई थी जो महंत जी के साथ टहलता हुआ उनके पास से गुज़ारा था और बकौल उनके आनंद सुबह से उनके साथ था।
अंत में पुलिस जो ए एस आई दिवाकर के नेतृत्व में पहुंची थी ने यही निष्कर्ष निकाला था कि यह किसी पागल का कृत्य था जिसकी शक्ल आनंद से मिलती जुलती थी। एस आई गुप्ता किसी दूसरे केस में व्यस्थ होने के कारण वहां उपस्थित नहीं था। आनंद से पूछताछ को कुछ विशेष था नहीं क्योंकि उसके पास दो अहम गवाह श्याम और आचार्य जी के रूप में मौजूद थे।
रजनी ने उस हालत में भी जिद की थी की वो वापस आश्रम में लौट आने को तैयार है पर उसकी हालत को देखते हुए ये संभव नहीं था और डॉक्टर्स ने उसे कम से कम सात दिन हॉस्पिटल में ही रहने की सलाह दी थी। सीने का ज़ख्म गहरा था और उसे बहरने में महीने भर से कम का समय नहीं लगाने वाला था। उसे आई सी यू में रखा गया था और उसके डर को देखते हुए दो पुलिस की भी तैनाती कर दी गयी थी। आश्रम में उसका इकलौता साथी श्याम था और उसे भी रजनी की देखभाल के लिए हॉस्पिटल में हीं छोड़ दिया गया था जिसके लिए वो बामुश्किल तैयार हुआ था और आचार्य जी ने खुद इसके लिए उसे कहा था। स्वयं आचार्य जी ने चार घंटे का वक़्त रजनी जी के पास बिताया था।
सुधीर गुप्ता लगभग शाम सात बजे आश्रम पहुंचा। कुछ ही देर में वह आनंद के सामने मौजूद था। किसी ने उसे आनंद से मिलने से रोका नहीं था, यह उसके लिए राहत की बात थी।
“आनंद इस केस की सबसे महत्वपूर्ण कड़ी हो सकता है। आश्रम के सभी सी सी टी वी कैमरे का लिंक उसी के पास है। आश्रम में घट रही सभी घटनाओं का वह गवाह हो सकता है। और फिर आज जो कुछ रजनी के साथ हुआ उसके बाद तो वो महंत और आनंद दोनों शक के घेरे में आ जाते हैं। पता नहीं आनंद ने किस तरह उस घटना को अंजाम दिया, ये सब पता लगाना तुम्हारा काम है।”
एस पी ने फ़ोन पर सुधीर को कहा था।
वो एक छोटा सा कमरा था जो आनंद के ऑफिस से ही लगा था। एक सिंगल बेड, सोफे सेट और सेंटर टेबल, कोने में एक स्टडी टेबल। कमरे से ही छोटा सा किचन एक्सटेंशन और बाथरूम अटेच था। दोनों सोफे पर ही मौजूद थे।
सुधीर की निगाहें आनंद पर स्थिर हो गयी। पहली बार उसे ध्यान से देखने का अवसर मिला था। देखने से उसके उम्र का अंदाजा लगाना मुश्किल था। बीस से लेकर पचीस तक। हमेशा की तरह आँखों पर मोटा चस्मा मौजूद था। शरीर पर लाल रंग का बनियान और नीचे घर में पहना जाने वाला पाजामा। शरीर से एकहरा ही था।
सुधीर ने रजनी द्वारा बताये घटनाक्रम से उसकी पर्सनालिटी मैच करने की कोशिश की। पर सफल नहीं हो पाया।
“तुमसे मिलना चाह रहा था दो दिनों से। पर मिलने नहीं दिया गया।”
“इसमें मेरा कोई दोष नहीं। छोटा सा मुलाजिम हूँ यहाँ का। बिना किसी के मर्ज़ी के किसी से नहीं मिल सकता। वैसे भी व्यस्त रहता हूँ। सारे सी सी टी वी कैमरे मेरे जिम्मे है। आश्रम में आये सारे मेल मैं ही चेक करता हूँ। फिर उनके प्रिंट महंत जी के हवाले कर देता हूँ। उनका जवाब देना होता है तो मुझे बता दिया जाता है। मैं जवाब दे देता हूँ।”
“मुझे बताया गया था कि आश्रम में इंटरनेट नहीं है।”
“बस मेरे पास ही है। मेरे ऑफिस वाले कमरे में।”
“मतलब बहुत विश्वास है आश्रम वालों को तुम पर।”
“जी आप ऐसा कह सकते हैं।”
“यदि तुम्हें बाहर जाने की इच्छा हुई तो?”
“मुझे बाहर जाना नहीं होता।”
“मतलब! किसी रिश्तेदार से मिलने वगैरह?”
“हमारे जैसे लोगों के रिश्तेदार नहीं होते। अनाथ हूँ मैं।”
“ओह! Iam sorry! इसके पहले बाहर कब निकले थे?”
“याद नहीं। शायद तीन साल पहले।”
“और क्या कहते हो रजनी के साथ हुए घटनाक्रम के बारे में।”
लड़का मुस्कुराया,
“सुनकर हंसी आयी।” ऐसा कहीं होता है भला! ज़रूर कोई जानवर कमरे में चला आया होगा।”
“पर उसने तुम्हारा नाम क्यों लिया? किसी और का क्यों नहीं?”
“एक बार मैंने उसे बुरी तरह पीट दिया था। शयद वही घटना उसके दीमाग में हो।”
“तुम्हारे सारे उत्तर रटे रटाये लग रहे हैं। अच्छा होम वर्क किया है तुमने।”
“ऐसा नहीं है।”
“और परसों की घटना के बारे में क्या कहते हो।”
“कैमरे खराब थे। इसलिए घटनाओं को रिकॉर्ड नहीं कर पाया।”
“अच्छा एक सवाल और, उम्र कितनी है तुम्हारी?”
“चौबीस साल तीन महीने।”
“हमेशा इतने छोटे से कमरे में बंद रहते हो। जवान हो। बाहर जाने की इच्छा नहीं होती?”
“होती है। पर ये इस नौकरी की शर्त है। बाहर नहीं जा सकता।”
“फिर भी, यदि तुम्हें बाहर जाने की इच्छा हुई तो?”
“मुझे बाहर जाना नहीं होता।”
“बढ़िया।”
“और कोई सवाल?”
“नहीं। अच्छा लगा तुमसे मिलकर।”
“मुझे भी।”
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जून २७ संध्या
आज दूसरा दिन था जब सेवाराम अपनी ड्यूटी पर नहीं गया था। शरवन आज जेल में था और सेवाराम ने सारा दिन रो रो कर गुज़री थी। सुबह से कुछ खाया भी नहीं था। शाम को वो बाज़ार से बियर की दो बोतल और फुल प्लेट चिकन तंदूर खरीद लाया और अकेले ही बैठ गया। ये पहला मौका था जब वो अकेले पीने को बैठा था। थोड़ी बियर अन्दर गयी तो राहत महसूस हुई।
आज उसे अपने हालत पर रह रह कर गुस्सा आ रहा था। वो वाकई सच में इतना कमजोर और बेवकूफ था की कोई भी उसे उल्लू बनाकर निकल जाता। शरवन से उसकी कोई पुरानी यारी न थी फिर भी अच्छा दोस्त तो था।
और उसी ने उसका इस्तेमाल किया।
कई दिनों से वो आश्रम में जा रहा था और सभी उससे प्यार करते थे।
नहीं नहीं, ये प्यार नहीं था। लोग उस पर तरस खाते थे। पलटते ही लोगों के होंठो पर व्यंग भरी मुस्कान को कई बार उसने अपने पीठ पर महसूस किया था।
एक वो था और एक राक्षस, जिसका नाम ही लोगों के लिए खौफ का वायस बनाने लगा था। आश्रम वालों से जुड़ने से अच्छा था कि वो राक्षस को अपना गुरु बना ले।
आज समाचार पत्रों में राक्षस के बारे में छपा था। वो राक्षस जो अपने ज़माने में एक तांत्रिक था। ऐसा तांत्रिक जो पल भर में किसी की कोई भी इच्छा पूरी कर सकता था। किसी को भी अपने वश में कर सकता था। धन दौलत मनचाही स्त्री कुछ भी।
मनचाही स्त्री वाह!
अगर वो तांत्रिक था तो उसका ठिकाना श्मशान ही होगा।
उसने सोच लिया था आज से वो अपनी हर रात श्मशान में ही गुज़रेगा और जिस दिन राक्षस से मुलाक़ात हुई उसके पैर पकड़ लेगा। ज्यादा से ज्यादा वो उसे मार ही देगा ना? मृत्यु के भय से मृत्यु बेहतर होती है।
पर उसे अगली रात का इंतज़ार नहीं करना पड़ा।
शाम को जब कन्हैय्या राधा के साथ आश्रम लौटा तो ताशी को अपना इंतज़ार करता पाया। दोनों इस वक़्त सामान्य वेशभूषा में थे।
कन्हैय्या ने उसे आश्चर्य से देखा, “अरे आप तो वही हैं जो हमारे साथ हू तू तू खेल रहे थे। आपने तो हम दोनों को नचा कर रख दिया।”
ताशी शरमाया।
“मुझे नहीं मालूम था कि आप लोग पुलिस वाले हैं। गलती हो गयी साहब।”
“पर आप उछलते उछलते मेढक कि तरह गायब कहाँ हो गए थे। लाख ढूँढा पर नहीं मिले।”
“वो दरअसल मैं घबरा गया था।”
“घबरा तो हम दोनों गए थे।” राधा ने कहा। “क्या कमाल कि फाइट करते हैं आप। आप तो फाइटर टोड्स निकले।”
ताशी ने उलझन से उन्हें देखा।
“पर सिकंदर के फेरे में कैसे पड़ गए?”
“मैं तो उसे शरीफ आदमी समझा था। वो तो आश्रम पहुँचने पर एक पुलिस बाबु ने बताया कि वो कोई नामी गुंडा या ऐसा ही कुछ है। बस एक ही विनती है कि आचार्य जी को नहीं बताइयेगा आज कि घटना कि बाबत। वैसे भी हम चीनी लोगों को लोग शक की दृष्टि से देखते हैं।”
ताशी ने कलपने की एक्टिंग की।
“अरे नहीं बताएँगे पर उसके बदले में आपको रोज कम से कम एक घंटे हमें ये मेढक स्टाइल फाइटिंग सिखाएँगे।”
“जैसा आप कहें। सुबह सुबह बर्मन भाई तो हमारे पास आते ही हैं। आप दोनों भी आ जायेंगे।
ताशी ने हामी भर दी थी। पर वो जानता था कि दोनों इतनी आसानी से मानने वाले नहीं थे। ज़रूर उसके बारे में पता लगाने की कोशिश करेंगे। ऐसी सम्भावना के बारे में उसने पहले से ही सोंच रखा था। अपना बैकग्राउंड उसने बढ़िया से तैयार किया था। फिर भी वह सावधान तो था हीं।
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कहने की आवश्यकता नहीं कि वो एक तांत्रिक था।
व्याघ्र चर्म के आसन पर बैठे उस व्यक्ति के गले में रुद्राक्ष, स्फटिक और न जाने कितनी तरह की मालाएं झूल रही थी। बड़ी बड़ी आँखें सिन्दूर की तरह लाल प्रतीत हो रही थी जो निश्चय ही अत्यधिक मदिरा का परिणाम थी। सारे शरीर पर शमशान की राख पुती थी। पास में ही एक इंसानी खोपड़ी रखी थी जिसमें पास के बोतल से थोड़ा थड़ा ढारकर पी लिया करता। सामने हवनकुंड था जिससे निकलने वाला अग्नि मिश्रित धुआं सारे वातावरण को अजीब सा माहौल बनाये दे रहा था। शरीर पर लाल रंग का कपड़ा था। पास में हीं एक औरत थी और उसके शरीर पर भी एक साड़ी के सिवा कोई वस्त्र न था जिसे उसने जैसे तैसे लपेट रखा था। जिस तरह वो झूम रही थी उससे स्पष्ट था कि वो भी बुरी तरह नशे में थी। पास में ही एक अधजली लाश थी जो एक अधेड़ पुरुष की मालूम हो रहा था।
यह दृश्य नदी किनारे स्थित एक श्मशान का था जो चांदीपुर से करीब १५ किलोमीटर कि दूरी पर था। यहाँ पहुँचने के लिए लगभग ५ किलोमीटर के घने जंगले से गुज़रना पड़ता था इसलिए रात में शायद ही कोई भुला भटका यहाँ पहुँचता था। साधारणतया लोग शहर के पास वाले श्मशान का ही इस्तेमाल करने लगे थे। इस दृश्य को देखने वाले दो दर्शक थे जो विपरीत दिशाओं में अलग अलग पेड़ों पर बैठे थे।
“भैरवी!” तांत्रिक चिल्लाया।
“बोल मेरे भैरव”, उस औरत ने भी चिल्ला कर जवाब दिया।
“फिर तू अधजली लाश उठाकर ले आयी।”
“क्या करूं मंगल, एक ही लाश आई थी आज शमशान में। सीधा पेड़ से वहां कूदी और लेकर भाग आयी।” कहकर ही ही कर इतने जोड़ से हंसी की दूर बैठे सेवाराम के तिरपनवे काँप गए।
“साली कोई काम की नहीं रह गयी है तू। अपने भैरव को नाम से बुलाती है। एक दिन तुझे भी काटकर खा जाऊंगा कमिनी।” चल जाने दे, साधना शुरू कर। शरीर को अच्छी तरह नहला दिया है न।
“हाँ मंगल ओह माफ़ करना भैरव।” कहकर अपनी ट्रेडमार्क हंसी हंसी।
“अब कपडे खोल और अनुष्ठान के लिए तैयार हो जा।”
उसके बाद उस कापालिक ने अपना तांत्रिक अनुष्ठान शुरू कर दिया। अभी तक जो तांत्रिक नशे में झूमता प्रतीत हो रहा था अब उसके मुंह से मन्त्र यूं झड रहे थे मानों किसी एम पी3 प्लेयर को ऑन कर दिया गया हो।
लाश की अच्छी तरह पूजा करने के बाद उसने अपनी भैरवी को बैठने का आदेश दिया। भैरवी ने आदेश का पालन किया और लाश पर जम कर बैठ गयी।
मंत्रोच्चार जारी रहा।
धीरे धीरे आस पास का वातावरण भी मानों तान्त्रिक और उस भैरवी के रंग में रंगता जा रहा था।
जाने वो सेवाराम का भ्रम था जो एक पेड़ पर दुबका पड़ा था या फिर आस पास के बदलते हुए वातावरण का असर, गहराते हुए धुएं में तरह तरह की आकृति मनो अस्तित्व में आ रही था। पर दोनों पर कोई ख़ास असर न हुआ था। भैरवी का बेडौल शरीर किसी पत्थर की भांति तन चुका था। उसके दोनों स्तन जो कुछ समय पूर्व तक ढलके हुए से प्रतीत हो रहे थे अब पूरी तरह तन चुके थे।
“भैरवी।”
“हाँ मेरे देव।”
“वक़्त आ गया, अब तैयार हो जा।”
“मैं तैयार देव।” भैरवी की आवाज लड़खड़ाने लगी थी। उसने पास में रखा देसी दारु का बोतल थाम लिया।
मृत पुरुष का बदन कांपने लगा था। सेवाराम जिस पेड़ पर बैठा था वो अनुष्ठान स्थल से बहुत दूर नहीं था और सब कुछ देख पा रहा था। अब तक उसे सब कुछ साधारण पूजा-पाठ से ज्यादा प्रतीत नहीं हो रहा था पर लाश में कम्पन साफ़ साफ़ देखा था। वहीं दूसरी ओर बैठे शख्स जो राक्षस के अतिरिक्त और कोई नहीं था, अब तक पेड़ की एक लम्बी शाख पर आराम से बैठा था, संभल कर बैठ गया और बुदबुदाया, ‘ज़रूर कोई बड़ी गलती की है इसने।’
तांत्रिक को भी हल्का सा शक हुआ, ‘कहीं कोई और शक्ति तो इस पर जोर नहीं लगा रही?”
अब पट से उस लाश की आंखें खुल चुकी थी। पर उसमें कोई कम्पन न था।
प्रत्यक्षतः उसने अपने शक को दबाते हुए अगले कर्म के लिए तैयार हो गया। पास में ही एक बेहोश सा मुर्गा तैयार था अपनी आहुति के लिए। तांत्रिक ने पास में एक कटोरे में तैयार एक द्रव्य में अपनी अनामिका डूबा कर उसे तीन बार मुर्गे पर छिड़क दिया। फिर उसने दोनों हाथों से मुर्गे को उठाकर एक ही झटके में उसके गर्दन को धड़ से अलग कर दिया।
अब लाश में पुनः हरकत हुई और अब लाश का मुंह पूरी तरह खुल चुका था।
सेवाराम अब अपने हाथों से मुंह को पूरी तरह भींच चुका था।
उधर एक सिद्ध तांत्रिक की तरह उसने एक बूँद भी उसका रक्त ज़मीन के पर गिरने न दिया और सीधे उस मुर्दे के खुले मुंह के ऊपर कर दिया। भैरवी पर भी उसकी खुली आँख और मुंह का कोई असर न हुआ था। ऐसा खेल वो कई बार कर चुकी थी। वो भी बोतल से उसके मुंह में दारु गिराने को तैयार थी।
दोनों क्रिया साथ साथ होनी थी। पर आज भूल हो चुकी थी।
तांत्रिक को भी समझने में देर हो चुकी थी।
खून की बूँदें और दारु मुर्दे के मुंह में गिरने से पहले ही गायब हो चुकी थी।
“तांत्रिक और भैरवी को समझने में देर लगी पर राक्षस को दूर से भी साफ़ दिख रहा था कि दोनों चीज़ें मुर्दे के मुंह की जगह पर उस लम्बी जीभ पर गिरकर गायब होती जा रही थी। उस तंत्र के माहिर कापालिक को समझने में देर ना लगी की वो जीभ मन्दा की थी। उन दो बेवकूफ लोगों ने मन्दा को जिंदा कर दिया था!
…………………………..
वह एक बड़ा सा हॉल था जो किसी कोंफेरेंस हॉल जैसा प्रतीत होता था। जो आश्रम के ऑफिस का ही हिस्सा था। कमरे में एक विशाल ओवल टेबल था जिसके चारों ओर चेयर्स लगे थे।
सामान्यत: इसमें महीने में एक बार आश्रम के सभी निवासियों या स्टाफ को एकत्र कर सरस्वती देवी मीटिंग किया करती थी जिसमें आश्रमवासियों के दुःख सुख का ज़िक्र किया जाता था। कभी-कभी आश्रम के छोटे-बड़े स्टाफ भी एकत्र होते थे।
पर ऐसा पहली बार हो रहा था कि आचार्य जी स्वयं इस मीटिंग में मौजूद थे।
“तो सभी लोग आ चुके हैं?”
“जी आचार्य जी।” सरस्वती ने उत्तर देते हुए हाल में चारों तरफ आँखें दौडाई। महंत जी, अल्फान्से, कन्हैय्या, राधा, बर्मन के साथ साथ सभी नए पुराने शिष्य। अस्थायी सदस्यों में अल्फान्से के अतिरिक्त केवल ताशी भी मौजूद था। केवल आनंद और अर्जुन देव अनुपस्थित थे।
अल्फान्से ने तिरछी नज़र से ताशी को देखा। भले ही उसने उसे पहचानने में देर कर दी थी पर ताशी ने तो उसे शुरू में ही पहचाना होगा।
बर्मन ने सरस्वती से ताशी के लिए विशेष अनुरोध किया था जिसे स्वीकार कर लिया गया था।
सभी की नज़रें आचार्य जी पर जमी थी। इस वक़्त आचार्य जी कोई सन्यासी नहीं बल्कि कोई प्रिंसिपल प्रतीत हो रहे थे जो अपने स्टाफ का क्लास लेने बैठा हो।
आचार्य जी ने सरस्वती की तरफ देखा। ये मीटिंग शुरू करने का संकेत था।
“आचार्य जी अभी-अभी रजनी से मिलकर लौटे हैं। ये बताते हुए हमें ख़ुशी हो रही है कि उसकी हालत में सुधार है।”
“पर हुआ क्या था उसके साथ? क्या ये भी उस राक्षस का कृत्य है?” बर्मन ने पूछा।
“अभी कुछ भी कहना मुश्किल है। पर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि विशेषकर दयाल वाली घटना ने हमें झकझोरकर रख दिया है। एक विदेशी जासूस हमारे आश्रम में इतने लम्बे समय से रह रहा था यह बहुत खेदजनक है। इन्हीं घटनाओं के मद्देनज़र दिल्ली से दो जासूस भिजवाये गए थे। पर उनके आने से पहले ही दयाल की हत्या कर दी गयी। हम लोगों ने दोनों की पहचान गुप्त रखने की कोशिश की थी पर कुछ घटनाओं के कारण उनकी पहचान उजागर हो चुकी है।” सरस्वती ने राधा की ओर देखा।
राधा ने कहना शुरू किया, “कुछ महीनों से हम लोगों को खबर मिल रही थी कि नेपाल के बॉर्डर के पास कुछ देश विरोधी गतिविधियाँ चल रही है जिसमें ड्रग्स के बिज़नेस के साथ-साथ देश को अस्थिर करने की साज़िश भी शामिल है। इस लाइन पर हम लोग काफी दिन से काम कर रहे थे। इसी बीच दिल्ली में एक पाकिस्तानी जासूस पर हमारी नज़र थी। हमने उसके फ़ोन को ट्रेस किया तो मालूम हुआ कि उसने कई बार यहाँ के एक पब्लिक बूथ पर फ़ोन किया है। हमने अपना एक जासूस यहाँ भेजा इस तरह मालूम हुआ कि उसका लिंक दयाल से था। इसके पहले कि हम दयाल पर हाथ धर पाते और उससे इनफार्मेशन निकल पाते किसी ने उसका काम तमाम कर दिया।”
“तब तक हमें पता चल चुका था कि सिकंदर उसका भाई है। अब सिकंदर हमारे कब्ज़े में था। हमने उसे खासी सुरक्षा के साथ दिल्ली भिजवा दिया। पर यहाँ से निकलने के एक घंटे के अन्दर ही वह फरार हो चुका था और उससे भी हमें कोई इनफार्मेशन नहीं मिल सका।”
ताशी के गले की घंटी उछली। अब उसका नाम आने वाला था।
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