उन्होंने आंखें खोलते ही पुनः दीवार के पास उसी जगह पर पाया ।

फकीर बाबा ने मुस्कुराकर तीनों को देखा ।

"जाओ, उस किताब को तलाश करने का प्रश्न करो । जिसमें हाकिम को मारने का ढंग दर्ज है । वरना इस बार भी दालू अपनी चालबाजी में कामयाब हो जायेगा और फिर जाने दोबारा वो वक्त कब आये, जब तुम लोग दोबारा जन्म लेकर यहां आ सको और फिर दालू से टक्कर लो ।"  कहते हुए फकीर बाबा का स्वर गंभीर हो गया था--- "मैं चलता हूं ।" कहने के साथ ही फकीर बाबा ने हाथ उठाया तो दूसरे ही पल उनके देखते ही देखते हवा बनकर निगाहों से ओझल हो गये ।

रुस्तम राव गहरी सांस लेकर मोना चौधरी से बोला ।

"बाप, क्या तुम हवा में गायब होने की विद्या नेई जानेला ?"

"नहीं ।" मोना चौधरी ने इनकार में सिर हिलाया--- "जब गुरुवर के ही बेटे हाकिम ने उनसे सारी विद्याएं सीखकर अमरत्व प्राप्त करके उन्हें ही धोखा दिया तो गुरुवर ने तिलस्म के आगे की विधाएं सिखानी बंद कर दी थी । उसके बाद जिस पर उन्हें पूरा भरोसा होता, उसी को गुरुवर कुछ और विद्या सिखाते । परंतु सारी विद्याएं सिखाना तो उन्होंने पूरी तरह बंद कर दिया था, उनकी सिखाई विद्याओं का गलत उपयोग हो रहा है।"

"मतलब कि गुरुवर को तुम पर भी विश्वास नेई होएला ?"

"विश्वास था, परंतु मेरे क्रोधी स्वभाव को देखते हुए, उन्होंने मुझे तिलस्मी विद्या के बाद कोई विद्या नहीं सिखाई ।" मोना चौधरी का स्वर गंभीर था--- "और आज मैं सोचती हूं कि गुरुवर का निर्णय ठीक ही था । अगर मैं बड़ी विद्या ग्रहण कर लेती तो लड़ाई में गुस्से में आकर अवश्य उसका इस्तेमाल करती । जो कि ठीक नहीं होता । लेकिन उस वक्त गुरुवर के फैसले को गलत मानकर, उनसे नाराज हो गई थी ।"

देवराज चौहान मुस्कुराया ।

"युद्ध कला की विद्या हासिल करने के समय तुमने कईयों से झगड़ा मोल लिया था ।" देवराज चौहान ने कहा--- "जब कालूराम से तुमने झगड़ा किया तो एक दिन वो घात लगाकर तुम्हारी जान लेने जा रहा था । अगर मैं कालूराम से तुम्हें न बचाता तो उस दिन तुम खत्म हो गई होती ।"

"हां ।".मोना चौधरी ने गंभीरता से सहमति भाव से सिर हिला दिया--- "तब मैं कालूराम को ठीक तरह से जानती नहीं थी कि वो मेरी जान लेने की हद तक जा सकता है।"

"तुम्हें बचाने के बाद कालूराम के मन में मेरे लिए जो दुश्मनी उभरी, उसी को आधार बनाकर तुमने बाद में कालूराम को उकसाकर मेरी जान लेने भेज दिया ।" देवराज चौहान ने मोना चौधरी को देखा ।

रूस्तम राव मुस्कुरा कर बोला ।

"इसी बात पर अपुन ने अपने ब्याह के फेरों को छोड़ेला और उधर को दौड़ेला, जिधर कालूराम, तुम्हें मरने के वास्ते जाएला । ये खबर गुलचंद, अपुन का मतलब होएला, सोहनलाल ने ब्याह के मंडप में अपुन को देएला और लाडो से अपुन का ब्याह अभ्भी तक न होएला।"

देवराज चौहान और मोना चौधरी की निगाहें मिली।

"मेरे बारे में कुछ भी सोचो । इसकी मुझे परवाह नहीं ।" कहने के साथ ही मोना चौधरी दीवार की तरफ बढ़ गई ।

रुस्तम राव ने देवराज चौहान को देखा ।

"बाप, अब तो ये पिछली बातों को सुनने को भी तैयार नेई होएला।"

जवाब में देवराज चौहान मुस्कुरा कर रह गया ।

"तुम्हारा क्या ख्याल होएला बाप ? मोना चौधरी को वो डायरी मिलेएला । जिसमें लिखा होएला की हाकिम...।"

"अभी कुछ नहीं कहा जा सकता ।" कहने के साथ ही देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाई ।

"गुरुवर तुम्हें अच्छी तरह याद होएला ?"

"हां ।"

"उनसे मिलने के वास्ते दिल करेला ।"

"मुझे पूरा विश्वास है कि गुरुवर जहां भी होंगे, हमसे मिलने अवश्य आयेंगे ।" देवराज चौहान ने कहा और उसकी निगाह मोना चौधरी पर थी । रुस्तम राव ने भी उधर देखा ।

मोना चौधरी ने दीवार को छुआ फिर घुटनों के बल नीचे बैठकर हाथ जोड़कर होठों-ही-होठों में मंत्र बुदबुदाने लगी । पन्द्रह-बीस सेकंड के पश्चात मंत्र पूरा हुआ । उसने आंखें खोली ।

पल भर के लिए ऐसा लगा जैसे जमीन में कंपन हुआ हो ।

और फिर वो कभी न खत्म होने वाली दीवार, जिसे पार करने में पांच-छः दिन लगातार चलना पड़ता, एकाएक आंखों के सामने से ओझल हो गई और उस पार के दृश्य नजर आने लगे।

"बाप ।" रूस्तम राव ठगा-सा रह गया--- "ये क्या होएला ?"

■■■

दीवार के निगाहों से ओझल होते ही सामने खुला मैदान नजर आने लगा । मैदान के पार, दूर बड़े-बड़े पेड़ खड़े नजर आ रहे थे । शांत-सुनसान वातावरण रहस्यमय-सा लग रहा था। दूर से आती ठंडी हवा, शरीरों से टकराने लगी थी । सूर्य पश्चिम की तरफ सरकना शुरु हो गया था ।

मोना चौधरी की निगाह दूर-दूर तक जा रही थी । चेहरे पर सख्ती सी आ गई थी ।

"मैं सारा तिलस्म तबाह कर दूंगी ।" मोना चौधरी दांत भींचकर बड़बड़ा उठी--- "तिलस्म की जरूरत ही नहीं थी । मैं ही तब पागल हो गई थी, जो तिलस्म का निर्माण कर रहा डाला।"

"बाप, क्या बोएला ?" रुस्तम राव ने मोना चौधरी को देखा ।

"कुछ नहीं ।"मोना चौधरी ने सिर हिलाया और चेहरे के भावों पर काबू पाने लगी ।

"यहां से किस तरफ बढ़ना है ?" देवराज चौहान ने पूछा ।

"उत्तर दिशा की तरफ।" मोना चौधरी की निगाह उसी दिशा की तरफ गई ।

"कितनी दूर है तुम्हारा वो महल यहां से ?" देवराज चौहान ने उसी दिशा की तरफ देखा ।

"दूर है ।" मोना चौधरी ने सोच भरे स्वर में कहा--- "हम इस वक्त तिलस्म के बहुत भीतर हैं । कम-से-कम दो दिन तो लग ही जायेंगे, तिलस्म से निकलकर, महल तक पहुंचने में ।"

"दो दिन लगेएला बाप ?" रुस्तम राम ने कहा ।

"हां, इसलिए कि मुझे बाहर निकलकर, महल तक जाने का सीधा रास्ता मालूम है ।" मोना चौधरी के होठों पर मुस्कान उभरी--- "मैं रास्ते में आने वाले हर तिलस्म को तोड़ती चली जाऊंगी । अगर रास्ता मालूम ना हो तो तमाम उम्र यहीं भटकते रह जाओगे । इस हिसाब से दो दिन बहुत कम है।"

"ठीक बोएला बाप ।"

"चलो ।" देवराज चौहान ने कहा ।

तीनों तेजी से आगे बढ़ गये ।

आधे घंटे में ही मैदान पार करके वे जंगल में आ गये । पेड़ों की छांव की वजह से धूप से राहत मिली । तीनों के शरीर पसीने से भरे पड़े थे ।

वे तेजी से पैरों के नीचे से आगे बढ़ते जा रहे थे ।

"ये तो बहुत लंबा सफर होएला ।" रुस्तम राव ने मोना चौधरी से कहा--- "यहां कोई सवारी का इंतजाम नेई होएला क्या ? सफर आराम से तय हो जायेगा ।"

"नहीं, तिलस्म में किसी भी सवारी का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता । अगर कोई ऐसा करने की कोशिश करेगा तो उसकी सवारी खराब हो जाएगी । कोई जानवर हुआ तो वो मर जायेगा ।"

"बाप, तुम तो चलवा कर टांगे ही तुड़वाएला ।"

देवराज चौहान चेहरे पर गंभीरता समेटे, खामोशी से आगे बढ़ रहा था ।

करीब दो घंटे बाद रास्ते में एक कुंआ नजर आया । जो कि बेहद पुराना लग रहा था । कुएं की मुंडेर धूप और बरसात की वजह से काली पड़ चुकी थी ।

मोना चौधरी कुंए के पास पहुंचकर ठिठकी।

"ये कुंआ क्या होएला ?" रूस्तम राव ने पूछा।

"ये...।" मोना चौधरी शांत स्वर में बोली--- "तिलस्म से बाहर निकलने का रास्ता है ।"

"वो कैसे होएला बाप ?" रूस्तम राव के होंठ सिकुड़े ।

जवाब में मोना चौधरी ने आगे बढ़कर कुएं की मुंडेर को छुआ और घुटने के बल बैठते हुए दोनों हाथ जोड़कर आंखें बंद की और होठों-ही-होठों में कुछ बुदबुदाने लगी ।

रुस्तम राव ने देवराज चौहान को देखा, जिसकी निगाह मोना चौधरी पर ही थी ।

मात्र दस सेकेंड बाद मोना चौधरी ने आंखें खोली और उठ खड़ी हुई । तभी कुंए में से तीव्र घड़घड़ाहट का स्वर गूंज उठा । ऐसे लगा जैसे कोई ट्रक चलता हुआ जोरों से खड़खड़ा रहा हो । फिर तुरंत ही वो आवाज आनी बंद हो गई । शांति-सी छा गई

मोना चौधरी की निगाह बराबर कुएं पर ही टिकी रही।

एक मिनट पूरा भी नहीं बीता होगा कि कुंए में से लोहे की मोटी चादर का, कुंए की गोलाई के बराबर का टुकड़ा मुंडेर तक आ गया । अब देखने में ऐसा लग रहा था, जैसे किसी ने कुएं को लोहे के उस गोल टुकड़े से झांक दिया हो ।

"ये क्या होएला ?" रूस्तम राव के होठों से निकला ।

मोना चौधरी मुस्कुराई ।

"इसे लिफ्ट समझ सकते हो ।"

"लिफ्ट ?" देवराज चौहान के होठों से निकला ।

"हां, आओ । इसके ऊपर बैठना है ।" कहने के साथ ही मोना चौधरी आगे बढ़ी और मुंडेर पर चढ़कर लोहे की चादर जैसे टुकड़े पर जा बैठी ।

परंतु देवराज चौहान और रुस्तम राव उलझन में डूबे वहीं खड़े रहे ।

"आने का इरादा ही नहीं है क्या ?" मोना चौधरी मुस्कुराई ।

देवराज चौहान जैसे सोचों से निकला । वो आगे बढ़ा और ऊपर चढ़कर मोना चौधरी की तरफ से लोहे के टुकड़े पर जा बैठा । रुस्तम राव भी आ गया ।

"इस बात का ध्यान रखना कि शरीर का कोई हिस्सा इस लोहे के टुकड़े के दायरे से बाहर न जाये । वरना बहुत ज्यादा घायल हो सकते हो ।" मोना चौधरी ने कहा--- "कुछ देर बाद गहरा अंधेरा हो जायेगा । उस वक्त ऐसी कोई लापरवाही न हो ।"

दोनों खामोश रहे ।

मोना चौधरी ने आंखें बंद करके हाथ जोड़े और होठों-ही-होठों में बुदबुदाई ।

उसी पल वो लोहे का टुकड़ा कुंए से नीचे जाने लगा । कुछ समय ही बीता होगा कि वहां इतना गहरा अंधेरा हो गया कि हाथ को हाथ सुझाई नहीं दे रहा था ।

लिफ्टनुमा लोहे का वो टुकड़ा खामोशी से नीचे जाये जा रहा था । करीब दस मिनट बाद वो रुका और फिर नीचे जाने की अपेक्षा बाईं तरफ सरकने लगा ।

"अपुन लोग किधर को पौंचेला ?" अंधेरे में रूस्तम राव की आवाज उभरी ।

"हम लोग तिलस्म की गहराई तक आ चुके हैं ।" मोना चौधरी ने शांत स्वर में जवाब दिया---- "जब हमारा ये सफर खत्म होगा तो हम गहरे तिलस्म से निकलकर, ऊपरी सतह पर पहुंच जायेंगे ।"

"ऊपरी सतह ?" देवराज चौहान ने कहा--- "लेकिन यह तो नीचे जा रहा है, ऊपर नहीं ।"

"तुम इस बात का आभास नहीं पा सकते कि हम नीचे जा रहे हैं या ऊपर ।" मोना चौधरी ने पहले वाले स्वर में कहा--- "जब हमारी यात्रा शुरू हुई थी, तो तुम्हें उसी वक्त का एहसास है कि हम नीचे की तरफ गए थे । परंतु उसके बाद हम किन रास्तों को तय करते जा रहे हैं, यह तुम्हें नहीं मालूम । अंधेरा न भी होता तो भी तुम नहीं समझ पाते कि हम नीचे जा रहे हैं या ऊपर ।"

देवराज चौहान कुछ नहीं बोला ।

अंधेरे में उस लोहे की चादर ने कई बार रुककर रास्ता बदला ।

देवराज चौहान ने महसूस किया कि मोना चौधरी ने वास्तव में ठीक कहा था कि वे किस दिशा की तरफ बढ़ रहे हैं, ये मालूम हो पाना संभव नहीं । अंधेरे में तो वैसे भी सब कुछ भूल-भुलैया जैसा महसूस हो रहा था । कभी वे नीचे जाने लगते तो कभी ऊपर तो कभी सुरंग की तरफ सीधे ।

आधा घंटा उन्हें ऐसे ही बीत गया ।

"बोत देर होएला । कितना वक्त लगेएला, इस सफर को ?"

"करीब आधा घंटा और ।" मोना चौधरी बोली--- "ये एक घंटे का सफर कम से कम पच्चीस दिनों के बराबर है, अगर हम पैदल वाले रास्ते से ऊपरी सतह पर पहुंचते ।"

"अपुन की खोपड़ी में ये मामला नेई आएला ।"

"ये सब रास्ते तुमने बनाये हैं ?"

"हां, सारा तिलस्म मेरा है । तिलस्म में फंसने और निकलने के सारे रास्ते मैंने ही बनाये थे, जब मैं देवी बनी थी नगरी की तो सबसे पहला काम मैंने यही किया था । तिलस्म के सारे सिस्टम को मैंने कागजों पर उतारा कि कब क्या होगा और कहां होगा । तिलस्म को कई हिस्सों में बांटा गया था ताकि जो तिलस्म में आ जाये, वो तरह-तरह की मुसीबतों का सामना ही करता रहे, परंतु बाहर न निकल सके । तिलस्म से कैसे बाहर निकलना है, इस बात को सिर्फ कुछ ही लोग जानते हैं ।"

"मेरे ख्याल में ऐसा इंतजाम करने की कोई जरूरत नहीं थी ।" देवराज चौहान ने कहा ।

"उस वक्त मैंने जरूरत महसूस की थी । परंतु आज मुझे लगता है कि तिलस्म का निर्माण करना मेरी बेवकूफी थी । मैं जिस रास्ते से गुजर रही हूं, वहां का तिलस्म तोड़ती जा रही हूं । सारा तिलस्म खत्म कर दूंगी । इस वक्त हम जिस रास्ते से गुजर रहे हैं, जब ये सफर तय होगा तो ये रास्ता मैं हमेशा-हमेशा के लिए बंद कर दूंगी । रास्ते में जहां-जहां कभी मैंने मुसीबतों का इंतजाम किया था, उन्हें समाप्त करती चली जाऊंगी । जो बचा रह जायेगा, वो दालू से निपटकर उसे भी समाप्त कर दूंगी ।" क्षण भर में ठिठककर मोना चौधरी ने देवराज चौहान से कहा--- "इस तिलस्म में कई जगह ऐसी भी है, जो तुम्हारा साथ होने पर भी वो टूट सकती हैं।"

"इस अच्छे काम में मैं हर पल तुम्हारे साथ हूं ।" देवराज चौहान ने कहा ।

"मैं नगरी वालों को वही जीवन दूंगी, जो वे कभी जीते थे । मैं सबकी खुशियां लौटा कर ही रहूंगी ।" मोना चौधरी एक-एक शब्द चबाकर, दृढ़ता भरे स्वर में कह उठी ।

उनका अंधेरे से भरा सफर जारी रहा ।

■■■

करीब एक घंटे बाद लोहे की गोल चादर जैसे लिफ्ट ठीक वैसे ही एक कुएं की मुंडेर पर पहुंचकर रुक गई । वहां से चारों ओर का दृश्य नजर आने लगा ।

वो कुंआ बहुत ही खूबसूरत बाग में मौजूद था । जमीन पर हरी-हरी छोटी-सी मखमल जैसी घास थी। कहीं फूलों की क्यारियां तो कहीं फलदार वृक्ष थे । आसमान में सफेद-काले बादल मंडरा रहे थे । हवा में भली लगने वाली ठंडक थी । जिस गर्मी से वे करीब घंटा भर पहले गुजर रहे थे, उससे अब उन्हें राहत मिली थी।

पहले मोना चौधरी वहां से उतर कर नीचे आई ।

उसके बाद देवराज चौहान और रुस्तम राव ।

नीचे आते ही मोना चौधरी पलटी, उसने कुएं की मुंडेर छूकर, हाथ जोड़े और घुटने के बल बैठते हुए, आंखें बंद की और होठों-ही-होठों में बुदबुदाने लगी।

करीब दो मिनट तक यही आलम रहा ।

देवराज चौहान और रुस्तम राव की निगाहें मोना चौधरी पर टिकी रही । उसके बाद मोना चौधरी ने आंखें खोली और उठ खड़ी हुई । नजरें कुएं की मुंडेर पर मौजूद चादर पर जा टिकी । अगले ही पल वो चादर टुकड़ों-टुकड़ों में बदलने लगी ।

"ये क्या होएला बाप ?" रुस्तम राव के होठों से निकला ।

उस लोहे की चादर के करीब दस-बारह टुकड़े हो गये और बिखर कर वो वापस कुएं में गिरते चले गये । मोना चौधरी के चेहरे पर मुस्कान नाच उठी ।

"ये तुमने क्या किया ?" देवराज चौहान ने पूछा ।

मोना चौधरी ने देवराज चौहान को देखा ।

"तिलस्म को खत्म कर रही हूं ।" मोना चौधरी ने शांत स्वर में कहा--- "आखिर में सिर्फ तिलस्म के सारे खूबसूरत बाग ही बचेंगे, जहां नगरी के लोग घूम फिर सकेंगे । तिलस्म में मौजूद सब खतरे हटा दूंगी और आने-जाने के लिए सीधे रास्ते ही बचे रहेंगे । कहीं भी भूल-भुलैया नहीं रहेगी। तिलस्म का खौफ नगरी के लोगों के दिल से पूरी तरह निकाल दूंगी । मैं उनकी कुलदेवी हूं तो मैं उनके विश्वास को ठेस नहीं पहुंचने दूंगी ।"

"ये नगरी वाले हैं कहां ?" देवराज चौहान ने पूछा ।

"अभी दूर है । लेकिन जल्द ही उनसे मिलेंगे ।" मोना चौधरी ने ख़ास दिशा की तरफ देखा--- "हमें उस तरफ चलना है ।"

इसके साथ ही उस तरफ बढ़ गये।

कुछ ही देर में वो बाग समाप्त हो गया और सामने रास्ता नजर आया । वो तीनों उसी रास्ते पर आगे बढ़ते चले गये । हर तरफ सुनसान-शांत वातावरण था ।

"इतनी हरियाली होने पर भी यहां कोई पक्षी क्यों नहीं नजर आ रहा ?" देवराज चौहान ने पूछा ।

"तिलस्म में पक्षियों का आना वर्जित है ।" मोना चौधरी ने कहा ।

"क्यों ?"

"इसलिए कि सिद्धियों को प्राप्त करके, नगरी का कोई दुश्मन, पक्षी बनकर, तिलस्म का भेद जानने के लिए कोशिश न कर सके । तिलस्म के गुप्त रास्तों को न जान सके । पाताल लोक में और भी कई जातियां हैं, जिनके साथ हमारे संबंध मधुर नहीं है ।" मोना चौधरी ने कहा--- "परंतु अब सब ठीक हो जायेगा । तब तिलस्म ही तबाह हो जायेगा तो फिर रोक कैसी ?"

"परंतु आसमान तो खुला है । कोई भी पक्षी आ सकता है ।" देवराज चौहान ने कहा ।

"नहीं आ सकता । तिलस्म के ऊपर तिलस्मी रेखाओं का जाल बिछा है । ऊपर से आने वाली चीज को वे रेखाएं जलाकर भस्म कर देती हैं । उन तिलस्मी लकीरों को देखा नहीं जा सकता ।"

"बाप, हर तरफ से तगड़ा इंतजाम होएला, जैसे दुश्मन धावा बोलने आएला हो ।"

मोना चौधरी मुस्कुरा कर रह गई ।

देवराज चौहान की सोच भरी निगाहें आगे बढ़ते हुए इधर-उधर जा रही थी कि एकाएक उसके कदम रुकते चले गये । आंखें सिकुड़ गई । चेहरे पर अजीब से भाव आ गये ।

"ये क्या ?" देवराज चौहान के होठों से निकला ।

मोना चौधरी और रूस्तम राव ठिठके। उन्होंने उधर देखा जिधर देवराज चौहान की निगाहें थी ।

देवराज चौहान ने पेड़ों के पास से कटी लाश को देखा था । निसंदेह वो हरीसिंह की लाश थी । कटे गले से बहने वाला खून सूख चुका था । हरीसिंह की हत्या हुए आठ-दस घंटे बीत चुके थे ।

"ये तो मर्डर होएला बाप ।" रुस्तम राव के होठों से निकला ।

परंतु मोना चौधरी के चेहरे पर अजीब से भाव उभर आये थे।

"इसका मतलब तिलस्म में कुछ ऐसे लोग हैं जो हत्या जैसा काम करते फिर रहे हैं ।" देवराज चौहान के होंठ भिंच गये ।

"शुभसिंह ।" मोना चौधरी के होठों से निकला ।

"क्या बोएला बाप ?"

देवराज चौहान की निगाह भी मोना चौधरी की तरफ उठी ।

"शुभसिंह, पारसनाथ और महाजन की ही तरह, पहले जन्म में मेरा खास आदमी होता ।"

"जानता हूं उसे ।" देवराज चौहान ने मोना चौधरी की बात काटी ।

"अपुन को भी शुभसिंह की याद होएला ।'

"उसी शुभसिंह को दालू ने तिलस्म में कैद कर लिया था । पत्थर का बना दिया था और जब मैं तिलस्म में भटक रही थी, शुभसिंह के बुत के पास पहुंची और अनजाने में मेरे हाथों से उसकी कैद का तिलस्म टूट गया और पुनः वह बुत से इंसान बन गया ।" ये जानने के लिए पढ़े अनिल मोहन का पूर्व प्रकाशित उपन्यास :ताज के दावेदार' । और शुभसिंह की पुरानी आदत रही है कि वो जब भी किसी दुश्मन की जान लेता है तो उसकी गर्दन काटकर पास ही में कहीं जमीन में दफन कर देता है । मैं यकीन के साथ कह सकती हूं शुभसिंह इस वक्त तिलस्म में है और शायद मेरी तलाश कर रहा है ।"

"पण ये मर्डर किसका होएला ?"

"इसके लिए हमें आसपास की जमीन देखनी होगी, जहां शुभसिंह ने सिर काटकर दफन कर...।"

"वो देखो ।" देवराज चौहान की निगाह चंद कदमों के फासले पर गई--- "वो जगह ताजा खुदी लग रही है ।"

मोना चौधरी फौरन नीचे आगे बढ़ी और नीचे बैठकर दोनों हाथों से उस जगह से मिट्टी हटाने लगी, जो अभी सख्त न हो पाई थी ।

आधे मिनट में ही उसके हाथ की उंगलियां, किसी कठोर चीज से टकराई । मोना चौधरी ने देखा तो कुछ काला-काला झलकता देखा । कुछ और मिट्टी हटाने पर उसने पाया कि वो कालापन बालों का है । मिट्टी हटाकर बालों को इकट्ठा करके मुट्ठी में जकड़ा और बाहर खींच लिया ।

उसके हाथ में गले तक कटा चेहरा था । मिट्टी में लथपथ था ।

"ये हरीसिंह होएला ।" रुस्तम राव के होठों से निकला ।

"दालू का खास आदमी हुआ करता था ।" देवराज चौहान के होंठ सिकुड़ गये ।

मोना चौधरी उठ खड़ी हुई । निगाह हरीसिंह के चेहरे पर थी।  चेहरे पर गंभीरता और कठोरता आ गई थी । फिर देवराज चौहान और रुस्तम राव को देखा ।

"क्या होएला बाप?"

"इसे शुभ सिंह ने मारा है ।" मोना चौधरी एक-एक शब्द चबाकर कह उठी--  "और ऐसा करके शुभसिंह ने खुद को भारी खतरे में डाल लिया है ।"

"क्यों ?" देवराज चौहान ने मोना चौधरी को देखा ।

मोना चौधरी ने वो सिर वापस गड्ढे में फेंका और हाथों को झाड़ती कह उठी ।

"शुभसिंह की इस कार्यशैली से हर योद्धा परिचित है । जब हरीसिंह की हत्या की खबर दालू तक पहुंचेगी तो लाश की अवस्था के बारे में सुनते ही समझ जायेगा कि ये सब शुभसिंह का करा-धरा है और शुभसिंह दालू की ताकत का मुकाबला नहीं कर सकता । शुभसिंह मारा जायेगा ।"

रुस्तम राव ने देवराज चौहान को देखा ।

"शुभसिंह ने इसकी जान क्यों ली ?" देवराज चौहान के स्वर में उलझन थी ।

"मेरी खातिर । कुलदेवी की खातिर ।" मोना चौधरी दांत भींचे कह उठी ।

"क्या मतलब ?"

"शुभसिंह को खबर मिल गई होगी कि दालू मेरी जान के पीछे हैं । ऐसे में शुभसिंह, दालू के खिलाफ उठ खड़ा हुआ । मेरे ख्याल में वो दालू के खास आदमियों को खत्म करने में लग गया है । देवी के रूप में मेरा अहित वो नहीं देख सकता, जिसके बारे में दालू कोशिश कर रहा है । चूंकि शुभसिंह को मैंने, दालू की तिलस्मी कैद से डेढ़ सौ बरस बाद आजाद करवाया है तो वो मेरा और भी मुरीद बन गया होगा और अपनी जान की परवाह न करते हुए, मेरी सहायता के लिए दालू के साथियों को खत्म करने पर लग गया है । हरीसिंह को मारने की वजह, एक मात्र यही हो सकती है, वरना हरीसिंह और शुभसिंह आपस में अच्छे वाकिफकार थे।"

"अब तो इस बारे में कुछ नेई होएला ।"

"हरीसिंह को मैं खास नहीं जानता । परंतु शुभसिंह को मैं अच्छी तरह जानता हूं ।" देवराज चौहान ने कहा--- "गुरुवर के पास शिक्षा ग्रहण करते समय मेरा सहपाठी था ।"

मोना चौधरी के चेहरे पर व्याकुलता नजर आ रही थी ।

"यहां रुककर हम अपना वक्त बर्बाद कर रहे हैं । चलो यहां से ।" देवराज चौहान बोला।

"हां ।" मोना चौधरी ने गंभीरता से सिर हिलाया--- "अगर शुभ सिंह हमें रास्ते में मिल जाए तो, दालू के रूप में उसकी जान पर छाया खतरा कम हो सकता है ।"

वे तीनों पुनः तेजी से आगे बढ़ने लगे ।

■■■

शुभसिंह, कीरतलाल और प्रताप सिंह थके-मांदे नीचे मौजूद हरी घास पर बैठ गये। देर तक वो तिलस्म में घूमते रहे, हरीसिंह को खत्म करने के बाद, परंतु तिलस्म में मौजूद वे अपनी देवी यानी (मोना चौधरी ) को तलाश कर पाने में सफल नहीं हो सके थे ।

"समझ नहीं आता कि आखिर देवी तिलस्म में से कहां चली गई ?" प्रताप सिंह कह उठा ।

"हो सकता है, देवी तिलस्म से निकल गई हो ।" कीरतलाल बोला--- "और हम यूं ही यहां भटक कर अपना समय व्यर्थ में व्यतीत कर रहे हैं ।"

"नहीं ।" शुभसिंह ने सोच भरे स्वर में कहा--- "देवी तिलस्म में ही है ।"

"ये तुम कैसे कह सकते हो कि देवी इस वक्त भी तिलस्म में है ?" प्रतापसिंह ने पूछा ।

"देवी, अपने पूर्वजन्म की यादों से दूर है और इसी कारण तिलस्म के रास्तों से वाकिफ नहीं है । ऐसे में देवी अपने ही बनाये तिलस्म से बाहर नहीं निकल सकती। देवी तिलस्म में ही है कहीं भटक रही होगी ।"

"तो फिर हमें मिल क्यों नहीं रही ?"

"तिलस्म ऐसी भूल-भुलैया है, जहां कोई खो जाये तो उसे ढूंढ पाना आसान काम नहीं है ।" शुभसिंह ने सोच भरे स्वर में कहा--- "देवी अगर तिलस्म से निकलकर, नगरी के लोगों के बीच पहुंच जाये तो बहुत अच्छा रहेगा । जाने कितने लोग, देवी के साथ हो जायेंगे । दालू की अपनी जड़ें हिलती महसूस होने लगेंगी ।"

कीरतलाल ने इनकार में सिर हिलाया ।

"कोई कुछ भी करे, दालू की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा ।"

"क्या मतलब ?" प्रताप सिंह ने पूछा ।

"दालू इस हद तक घमंड में भर चुका है कि उसे किसी की परवाह नहीं ।" कीरतलाल बोला ।

"नगरी के लोग उसके खिलाफ हो जायें, तब भी नहीं ?"

तभी शुभसिंह ने गंभीर स्वर में टोका ।

"कीरतलाल का कहना शायद ठीक है ।"

"क्या मतलब ?"

"दालू के पास शक्ति है । तिलस्मी ताज पर उसका कब्जा है, जिससे वह कई करिश्माई काम ले सकता है । ऐसे में कोई दालू के सामने टिक सके, यह संभव नहीं और उसे हाकिम को बुलाने के विद्या आती है । मुसीबत के वक्त दालू अनुष्ठान करके हाकिम को बुला सकता है । वो हाकिम, जिसे अमरत्व प्राप्त है और उसे कोई खत्म नहीं कर सकता । एकमात्र देवी ही है, जो हाकिम की जान  किसी खास क्रिया के तहत ले सकती है ।"

"वो कैसे---मैं समझा नहीं ।"

शुभसिंह ने गंभीर निगाहों से दोनों को देखा 

"ये बात शायद तुम लोगों को नहीं मालूम । देवी के पास एक किताब है, जिसमें हाकिम की जान लेने की तरकीब दर्ज है । उस तरकीब का इस्तेमाल करके ही हाकिम को खत्म किया जा सकता है । परंतु चिंता का विषय यह है कि देवी को अपने पहले जन्म के बारे में याद नहीं और न मालूम, देवी ने वो किताब कहां रखी है ।"

तीनों एक-दूसरे को देखने लगे 

"जो भी हो ।" प्रताप सिंह बोला--- "हरीसिंह की जान लेकर तुमने खुद को खतरे में डाल लिया है । दालू अब तुम्हें किसी भी हाल में छोड़ने वाला नहीं ।"

शुभसिंह के दांत भिंच गये ।

"मुझे अपनी जान की परवाह नहीं । मैं सिर्फ इतना चाहता हूं कि मरने से पहले देवी से ज्यादा से ज्यादा काम आ सकूं ।" शुभ सिंह ने कठोर स्वर में कहा--- "दालू पर सीधा प्रहार नहीं किया जा सकता । क्योंकि उस तक सीधे पहुंच नहीं है हमारी । ऐसे में दालू के खास साथियों के समाप्त करके, देवी की पीठ पीछे सहायता की जा सकती है, क्योंकि वक्त आने पर दालू के यही साथी, देवी के खिलाफ सामने आयेंगे । जो हम कर रहे हैं, उससे देवी के लिए कुछ खतरा तो कम किया जा सकता है ।

"ऐसा है तो फिर हमें गुलाबलाल को भी खत्म करना चाहिये । ये हर मौके पर दालू की पूरी सहायता करता है गुलाबलाल के हवाले तो इस वक्त तिलस्म की रखवाली है ।" प्रताप सिंह बोला।

"तिलस्म से निकलकर पहला काम यही करेंगे । दालू की सारी बाजुओं को एक-एक करके काटना होगा ।" इसके साथ ही शुभसिंह आंखें बंद करके होठों ही होठों में बड़बड़ाया तो एकाएक सामने पड़ा खाना नजर आने लगा--- "खाना खाने का वक्त हो चुका है । भूख लग रही है । खाना खाने के पश्चात हम देवी की तलाश में आगे बढ़ेंगे ।"

उसके बाद वे खाना खाने में व्यस्त हो गये।

खाना अभी पूरा समाप्त भी नहीं हुआ होगा कि शुभसिंह की निगाह, दूर पेड़ों के बीच में से, तेजी से गुजरते गीतलाल पर पड़ी तो उसके होठों से निकला ।

"ये तो गीतलाल है ।"

प्रतापसिंह और कीरतलाल की निगाहें भी उस तरफ हो उठी ।

"ये गुलाबलाल का खास आदमी है और तिलस्म की खबरें गुलाबलाल तक पहुंचाता है ।" प्रतापसिंह ने होंठ सिकोड़कर कहा--- "और गुलाबलाल उन खबरों को, दालू तक पहुंचा देता है ।"

शुभसिंह और प्रतापसिंह की तीखी निगाहें मिलीं।

"मतलब कि इसकी हरकतें । दालू को ही फायदा पहुंचाती है ।" कीरतलाल कड़वे स्वर में कह उठा ।

तीनों की निगाहें मिलीं ।

"फिर तो इसका अंजाम भी हरीसिंह जैसा ही होना चाहिये ।" शुभसिंह जहर बुझे ढंग से मुस्कुराया ।

प्रताप सिंह उठ खड़ा हुआ ।

"कहां चले ?" कीरतलाल ने उसे देखा ।

"शुभसिंह की बात पूरी करने ।" प्रताप सिंह की आंखों में खून सवार था।

"ऐसे नहीं प्रतापसिंह ।" शुभसिंह ने कहा--- "गीतलाल के चलने का ढंग बता रहा है कि इस वक्त वो बेहद व्याकुल है और जल्द ही कहीं पहुंचना चाहता है । ये सब लोग चालाक है तो हमें भी इनके साथ चालाकी से ही चलना होगा । जाओ, गीतलाल को बुलाओ । कहना मैंने बुलाया है । उसके साथ दोस्तों जैसा व्यवहार करना है कि उसे ऐसा लगे जैसे हम नगरी की देवी के पक्ष में नहीं है ।"

"ऐसा क्यों ?"

"ताकि उसके मन के भीतर की बात जान सकें ।" शुभसिंह का तीखे भावों से भरा पड़ा था ।

"समझा ।" कहने के साथ ही प्रतापसिंह उस तरफ बढ़ गया, जिधर गीतलाल नजर आ रहा था।

गीतलाल जल्दी में था कि गुलाबलाल को ये खबर दे सके कि देवा और मिन्नो तथा उनके साथियों को नगरी में लाने वाला गद्दार पेशीराम है । ऐसी खबर गुलाब लाल को देकर, दालू की निगाहों में बड़ा बनकर, कोई ऊंचा ओहदा पा लेना चाहता था।

गीतलाल के कदम तेजी से हो रहे थे कि पीछे से आती पुकार सुनकर ठिठका ।

पलट कर देखा तो प्रताप सिंह को अपनी तरफ बढ़ते पाया ।

गीतलाल मन ही मन सतर्क हुआ । परंतु चेहरे पर सामान्य भाव ही रहे ।

"कैसे हो गीतलाल ?" पास पहुंचता प्रताप सिंह कह उठा, हाव-भाव में दोस्ताना भाव थे ।

"अच्छा हूं ।" गीतलाल मुस्कुराया--- "तुम कैसे हो ?"

"दुरुस्त हूं ।" प्रतापसिंह भी मुस्कुराया--- "तुम्हें शुभसिंह बुला रहा है ।"

"शुभसिंह ?" गीतलाल के होठों से निकला--- "कहां है वो ?"

"उधर बैठा है । खाना खा रहे थे कि तुम्हें देखा, तो बो बोला, तुम्हें भी बुला लूं, आओ ।"

गीतलाल मन-ही-मन हिचकिचाया।  वो जल्दी में था और वक्त बर्बाद नहीं करना चाहता था । परंतु शुभसिंह जैसे योद्धा का बुलावा टालना भी उसके हिसाब से ठीक नहीं था । इंकार करके वो शुभसिंह का अपमान नहीं करना चाहता था, जिसकी इज्जत उसका मालिक गुलाबलाल भी करता था ।

"क्या हुआ गीतलाल ? खामोश क्यों हो गये ।"

"खास वजह नहीं है, जल्दी में हूं, परंतु शुभसिंह का बुलावा भी नहीं टाल सकता, ठीक है चलो ।" गीतलाल ने ही मोना चौधरी को तिलस्म में भेजकर फंसाया था। पढ़ें 'ताज के दावेदार'।

प्रतापसिंह, गीतलाल के साथ शुभसिंह के पास पहुंचा ।

"नमस्कार शुभसिंह जी ।"

"नमस्कार गीतलाल, बैठो । तुम्हें जाते देखा तो सोचा थके-प्यासे होंगे । कुछ खाना लोगे और इधर-उधर की बातें भी हो जायेंगी, बैठो-बैठो।" शुभसिंह ने सामान्य स्वर में कहा ।

अब गीतलाल कैसे कहता कि वो जल्दी में है । कुछ वक्त यहीं गुजारना उसने ठीक समझा । परंतु मन ही मन इस बात के प्रति सावधान था कि शुभसिंह देवी का खास आदमी है ।

गीतलाल बैठ गया । प्रतापसिंह भी ।

"वैसे मुझे भूख तो लग ही रही थी ।" गीतलाल मुस्कुराकर कह उठा ।

"खाना ग्रहण करो गीतलाल ।"

गीतलाल भी खाना खाने लगा ।

खाना खा चुके वे तीनों खाने में थोड़ा-बहुत उसका साथ दे रहे थे।

"तुम यहां क्या कर रहे हो गीतलाल ?" शुभसिंह ने लापरवाही से पूछा ।

"नौकरी बजा रहा हूं ।" गीतलाल खाने के दौरान शांत भाव से बोला--- "तिलस्म की देख-रेख करना घूमना और कोई खबर हो तो वो गुलाबलाल तक पहुंचाना ही मेरी ड्यूटी है ।"

"हां, जानता हूं । कोई खास खबर मिली ?"

"नहीं ।" गीतलाल ने शुभसिंह पर निगाह मारी--- "तुम प्रताप सिंह और कीरतलाल के साथ यहां कैसे ?"

"मैं बहुत चिंता में हूं ।" शुभसिंह गहरी सांस लेकर कह उठा ।

"चिंता कैसी, तुम्हें तो खुश होना चाहिये कि डेढ़ सौ बरस के बाद देवी ने आकर तुम्हें कैद से मुक्त करा दिया ।"

"यही बात तो चिंता का विषय बन गई है गीतलाल ।"

"क्या मतलब ?"

"देवी वापस आ पहुंची है। मैं कैद से आजाद हो गया हूं । देवी चाहती है मैं उसी का सेवक बनकर रहूं ।"

"तो इसमें चिंता कैसी ?"

"यही तो चिंता है कि अगर मैं देवी का साथ देता हूं तो दालू से दुश्मनी मोल ले लूंगा । देवी के पास इस वक्त कोई शक्ति नहीं है क्योंकि वो करिश्मासाज ताज तो दालू के कब्जे में है और फिर देवी को अपने पूर्व जन्म की याद भी नहीं । ऐसे में मैं दालू को अपना दुश्मन नहीं बनाना चाहता।"

"फिर ?" गीतलाल की निगाह शुभसिंह पर जा टिकी।

"सच्ची बात तो यह है कि मैं अब देवी को छोड़कर, दालूबाबा की सेवा में जाना चाहता हूं ।"

"तो देर किस बात की, दालूबाबा को अपनी इच्छा बता दो।  तुम्हारी सेवा पाकर तो दालूबाबा यकीनन खुश होंगे । तुम जैसे विद्वान आदमी को कौन अपने पास नहीं देखना चाहेगा।"

"अपनी सोच को अंजाम देने में मुझे परेशानी इसलिए हो रही है कि देवी यहीं कहीं तिलस्म में है । देवी की मौजूदगी में, दालूबाबा की सेवा में जाने में मुझे शर्म-सी महसूस हो रही है । अगर देवी तिलस्म में और नगरी में मौजूद न होती तो मैंने कब का दालूबाबा की सेवा में लग जाना था ।"

गीतलाल के चेहरे पर रहस्य से भरी मुस्कान उभरी ।

"देवी की फिक्र मत करो, उसका खेल अब ज्यादा दिन नहीं चल सकेगा।" गीतलाल धीमे स्वर में बोला ।

"क्या मतलब ?" शुभसिंह ने भोलेपन से गीतलाल को देखा ।

"मुझे मालूम हो चुका है की नगरी की शांति किसने भंग की है ।" गीतलाल कह उठा--- "पृथ्वी से हमारी नगरी का रास्ता देवा और मिन्नो अन्य मनुष्यों को किसने दिखाया ।"

"अच्छा ।" शुभसिंह ने सिर हिलाया--- "इसका मतलब हमारी नगरी में कोई गद्दार है ?"

"हां, मैं उसे पहचान चुका हूं । उसी की खबर देने गुलाबलाल के पास जा रहा हूं । उसके बाद तुम इस बात का अंदाजा लगा ही सकते हो कि दालू उस गद्दार को कैसी सजा देगा।"

"तुम झूठ बोलते हो गीतलाल ।" कीरतलाल कह उठा ।

"क्या मतलब ?" शुभसिंह ने उसे देखा ।

"हमारी नगरी में कोई गद्दार नहीं है।  तुम किसी दुश्मनी की खातिर किसी पर भी झूठा इल्जाम लगा सकते हो । दालूबाबा से हर कोई डरता है । ऐसे में कोई उस से गद्दारी करेगा।"

गीतलाल ने शुभसिंह से कहा ।

"मैं सच कह रहा हूं शुभसिंह ।"

"मुझ पर विश्वास है गीतलाल । परंतु कीरतलाल की बात पर भी अविश्वास करना ठीक नहीं । बिना सबूत के तुम्हारे शब्दों को सत्य नहीं माना जा सकता ।" शुभसिंह ने सरल लहजे में कहा ।

"मैंने अपनी आंखों से उस गद्दार को देखा है ।" गीतलाल ने अपने शब्दों पर जोर देकर कहा ।

"आंखों से तो तुम, हमें भी देख रहे हो ।"

"मैंने उस गद्दार को अपनी आंखों से देवा और मिन्नो के साथ कुछ घंटे पूर्व देखा है ।"

शुभसिंह, कीरतलाल प्रतापसिंह मन ही मन सतर्क हुए ।

"तुम दोनों गीतलाल के इस सत्य को मानते हो ?" शुभसिंह ने कीरतलाल और प्रतापसिंह को देखा ।

"मैं ये ही मानने को तैयार नहीं कि नगरी में कोई दालू के खिलाफ चलकर गद्दारी कर सकता है ।" प्रतापसिंह अपने शब्दों पर जोर देकर कह उठा--- "मुझे लगता है गीतलाल, यूं ही किसी को गद्दार बनाकर, गुलाबलाल के सामने पेश करके, अपना ओहदा बढ़वा लेना चाहता है ।"

गीतलाल का चेहरा गुस्से से भर उठा ।

"तुम लोग मुझे झूठा कह रहे हो ?"

"हम क्या, कोई भी तुम्हें झूठा कह सकता है क्योंकि नगरी में कोई गद्दार नहीं है ।" कीरतलाल ने कहा ।

"इसका मतलब अपनी आंखों से मैंने जो देखा है । वो गलत है । झूठ है ।" गीतलाल के दांत भिंच गये ।

"क्या देखा तुमने ?" प्रतापसिंह ने जल्दी से कहा।

गुस्से में गीतलाल को सोचने का मौका नहीं मिला और मुंह से निकल गया ।

"पेशीराम को मैंने देवा और मिन्नो की सहायता करते देखा । साथ में त्रिवेणी भी था और...।" अगले ही पल गीतलाल ने होंठ भींच लिए । वो तुरंत महसूस कर गया कि जो बात उसके मुंह से नही निकलनी चाहिये वो निकल गई है ।

जबकि शुभसिंह, कीरतलाल और प्रतापसिंह मुस्कुरा पड़े ।

"गीतलाल अगर यही बात हम सीधे-सीधे पूछते कि तुम जल्दी में, क्या खबर ले जा रहे हो तो हमें कभी नहीं बताते । इसलिए हमें ये रास्ता अपनाना पड़ा ।" शुभसिंह ने कहा ।

"तुमने धोखे से मेरे मुंह से ये बात निकलवा ली ।" गीतलाल का चेहरा क्रोध से भर उठा ।

"धोखे से नहीं, समझदारी से । पीठ पीछे ऐसी कोई बात नहीं की कि तुम इसे धोखा कहो ।" शुभसिंह मुस्कुराया ।

गीतलाल भड़कती आग की तरह उठ खड़ा हुआ।

"तुम्हारी इस हरकत की शिकायत मैं गुलाबलाल से करूंगा, शुभसिंह ।"

"अवश्य ।" शुभसिंह के चेहरे पर जहरीले भाव उभरे--- "एक खबर मैं भी तुम्हें देना चाहता हूं ।"

गीतलाल ने सुलगती निगाहों से शुभसिंह को देखा ।

"इस तरफ, चार घंटे लगातार चलोगे तो तुम्हें एक लाश मिलेगी ।"

"लाश !"

"हां, उसकी गर्दन नहीं है । गर्दन शायद पास ही कहीं जमीन में दबा दी गई होगी ।"

गीतलाल ने आंखें सिकोड़कर शुभसिंह को देखा ।

"इस तरह की हत्या तो तुम अपने दुश्मनों की करते हो ।"

"हां, वो हत्या मैंने ही की है । देवी के खिलाफ जो काम करेगा, वो मेरा दुश्मन है और तुम भी जो काम कर रहे हो, वो देवी के खिलाफ है ।" शुभसिंह की आवाज कठोर हो गई--- "तुमने पूछा नहीं कि मरने वाला कौन था ?"

"क...कौन था ?"

"हरीसिंह, दालूबाबा का खास आदमी ।" गीतलाल के होठों से निकला--- "तुमने उसे मार दिया ।"

शुभसिंह कहर भरी मुस्कान से गीतलाल को देखता रहा ।

प्रतापसिंह और कीरतलाल सतर्क हो उठे थे ।

"तुमने ऐसा करके बहुत बुरा किया । दालूबाबा तुम्हें छोड़ेगा नहीं । तुमने उससे दुश्मनी मोल ले ली है ।"

"हरीसिंह को मौत देकर मैंने दालू के खिलाफ लड़ाई का ढोल पीट दिया है क्योंकि वो देवी के खिलाफ काम कर रहा है । वो देवी और नगरी वालों से गद्दारी कर रहा है । देवी ने दालू को रखवाला बनाकर नगरी में छोड़ा था और आज रखवाला ही मालिक बन गया। देवी को सब कुछ लौटाने की अपेक्षा वो देवी को खत्म करा देना चाहता है ।" सबसे खतरनाक स्वर में कह उठा ।

"जो भी हो । तुमने बहुत बुरा किया जो हरीसिंह...।"

"तुम्हारा अपने बारे में क्या ख्याल है गीतलाल ?" शुभसिंह जहरीले स्वर में बोला ।

"क्या मतलब ?"

"तुम भी देवी के खिलाफ चलकर, गुलाबलाल के सहारे, दालू की सहायता कर रहे हो । अब तुम पेशीराम के बारे में बताने के लिए गुलाबलाल के पास भागे जा रहे हो । ऐसे में तुम कैसे बच सकते हो ?"

गीतलाल खतरे का आभास पा ही चुका था उसने फौरन कमर में फंसा खंजर निकाल लिया ।

यह देखकर कीरतलाल और प्रताप सिंह खतरनाक मुद्रा में खड़े हो गये । उनके हाथों में कटार और तलवार नजर आने लगी।

शुभसिंह मुस्कुराया ।

"कोई फायदा नहीं गीतलाल । तुम तिलस्म के ज्ञाता अवश्य हो । परंतु इतने बड़े योद्धा नहीं कि कीरतलाल और प्रतापसिंह का मुकाबला कर सको । तुमने गुरुवर से युद्धबाजी की शिक्षा अवश्य ली होगी। परंतु हमने लड़ाईया लड़कर अपनी शिक्षा को बहुत संवारा है । हमारे औजार जाने कितनी बार खून से चमके हैं । अपना खंजर फेंक कर तेरे को सामने कर दो । अब तुम्हारी मौत लाजमी हो चुकी है ।"

परंतु गीतलाल खंजर लिए, नीचे बैठे शुभसिंह पर झपट पड़ा ।

तभी सावधान खड़े कीरतलाल और प्रताप सिंह शेर की तरह झपटे और गीतलाल को पकड़ लिया । तब गीतलाल का खंजर वाला हाथ मात्र एक फीट दूर रह गया था शुभसिंह से, और शुभसिंह अपनी जगह पर शांत बैठा था।

उन दोनों में जकड़ा गीतलाल दांत भींचे कसमसाकर रह गया ।

शुभसिंह खा जाने वाली निगाहों से गीतलाल को देख रहा था ।

"इसे भी हरीसिंह के पास पहुंचा दो ।" शुभसिंह मौत भरे स्वर में कह उठा ।

अगले ही पल गीतलाल को छोड़ते हुए धक्का दिया तो वो नीचे जा गिरा। इससे पहले वो दोबारा संभल पाता, कीरतलाल कटार के साथ उसके सिर पर खड़ा था । गीतलाल को संभलने का मौका ही नहीं मिला और कीरतलाल ने उसकी गर्दन पर कटार का वार कर दिया था।

खून के छींटों के साथ गर्दन कटकर अलग हो गई । गीतलाल का शरीर तड़पने लगा और शीघ्र ही शांत हो गया । चेहरे पर खूंखारतापूर्ण भाव लिए कीरतलाल खून से सनी कटार को, गीतलाल के ही कपड़ों से साफ करने लगा । कटार साफ करने के बाद, हाथ पर पड़े खून के छींटे को साफ किया।

उसकी गर्दन अलग होते देखकर, प्रतापसिंह कुछ कदम दूर गड्डा खोदने लगा ।

दस मिनट में ही उसने गड्ढा खोदा और गीतलाल के कटे सिर को बालों से पकड़कर उठाया और ले जाकर गड्ढे में डाला और फिर पास पड़ी मिट्टी हाथों से गड्ढे में डालना लगा ।

दोनों जब फारिग होकर शुभसिंह के पास पहुंचे तो वे सामान्य हो चुके थे । परंतु चेहरों पर गंभीरता नजर आ रही थी । दोनों शुभसिंह के पास बैठ गये ।

"हमने अच्छे मौके पर गीतलाल को पकड़ा ।" अशोक सिंह बोला--- "वरना वो जाकर गुलाबलाल को पेशीराम के बारे में बता देता और पेशीराम की जान पर बन आती ।"

प्रतापसिंह और कीरतलाल ने सहमति में सिर हिलाया।

"यह तो तुम ठीक कह रहे हो शुभसिंह ।" प्रतापसिंह बोला--- "लेकिन मुझे विश्वास नहीं आ रहा कि पेशीराम ऐसी भी कोई हरकत कर सकता है । आखिर उसने ऐसा क्यों किया ?"

शुभसिंह के होठों पर मुस्कान उभरी ।

"अपनी गलती सुधारने के लिए । पेशीराम के बारे में सुनकर अब कई बातें स्पष्ट हो गई है ।

"मैं समझा नहीं ।" कीरतलाल कह उठा ।

"देवा और मिन्नो की लड़ाई करवाने में पेशीराम की बहुत भूमिका रही । अगर पेशीराम ने जरा भी समझदारी से काम लिया होता तो शायद आज नगरी के हालात कुछ और ही होते । पेशीराम यूं ही इधर की बात उधर और उधर की बात इधर करता रहा । सिर्फ वक्त बिताने की खातिर या फिर कभी-कभार मजा लेने के लिए । लेकिन उसने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि उसकी यह हरकत नगरी में तबाही ला देगी । शायद इस बात का एहसास गुरुवर को हो चुका था । उन्होंने पेशीराम को सतर्क भी किया था कि ऐसा न करे । परंतु पेशीराम ने गुरुवर की बात को गंभीरता से नहीं लिया और जब तबाही पैदा हो गई तो गुरुवर ने पेशीराम को श्राप दे दिया था कि जब तक वो पुनः देवा और मिन्नो की दोस्ती नहीं करायेगा, तब तक तो किसी भी हाल में मृत्यु को प्राप्त नहीं होगा । यह श्राप पेशीराम के लिए बहुत भारी था क्योंकि कोई भी इतनी लंबी जिंदगी लेकर नहीं जीना चाहेगा । अपने जीवन से वो ऊब जायेगा ।"

दोनों की निगाहें शुभसिंह के गंभीर चेहरे पर थी ।

"उसी श्राप से मुक्ति पाने के लिए पेशीराम, देवा और मिन्नो को पृथ्वी से यहां ले आया कि किसी प्रकार चेष्टा करके उनमें दोस्ती करा सके और मुझे लगता है, पेशीराम अपनी कोशिश में कामयाब भी हो रहा है ।"

"वो कैसे ?"

"गीतलाल ने ही बताया था की पेशीराम, देवा और मिन्नो के साथ था । साथ में त्रिवेणी भी था । उनके एक साथ होने का मतलब तो यही निकलता है कि पेशीराम अपनी कोशिश में कामयाब होता जा रहा है, जो कि नगरी के लिए अच्छा है ।"

"समझा ।" प्रताप सिंह ने सिर हिलाया--- "इन लोगों को यहां लाकर पेशीराम ने दालू के लिए मुसीबतें खड़ी कर दी हैं । वो ये बात अवश्य जानना चाहता होगा कि देवा-मिन्नो और अन्य साथियों को कौन लाया नगरी में ।"

"हां और गीतलाल के द्वारा यही खबर दालू और गुलाबलाल तक पहुंचने जा रही थी ।" कीरतलाल ने कहा ।

"तभी तो कहा कि हमने सही मौके पर गीतलाल को पकड़ा ।" शुभसिंह मुस्कुराया--- "पेशीराम, देवा और मिन्नो के साथ हैं तो हो सकता है, देवा और मिन्नो अपने पूर्वजन्म के बारे में कुछ जान चुके हों । पेशीराम ने उन्हें याद दिला दिया हो ।"

"ऐसा हो गया होगा तो बहुत अच्छा होगा ।" प्रतापसिंह बोला।

"हमें मुद्रानाथ और बेला को भी याद रखना चाहिये ।" शुभसिंह ने कहा--- "वे दोनों तिलस्मी विद्या में माहिर हैं और भी कई शक्तियों के ज्ञाता हैं । खासतौर से मुद्रानाथ । उन्हें अवश्य खबर मिल गई होगी कि देवा-मिन्नो तिलस्म में है । ऐसे में उन्होंने देवा-मिन्नो से मिलने की कोशिश अवश्य की होगी या फिर उनकी मुलाकात भी हो गई होगी तो कोई बड़ी बात नहीं । हम भी देवा और मिन्नो की हरकतों से अनजान हैं ।"

"अगर देवा-मिन्नो को पूर्वजन्म की याद आ गई होगी तो तब की सब बातों पर गौर करने के बाद वे दो दालू को नहीं छोड़ने वाले ।"

कीरतलाल ने कहा ।

शुभसिंह ने सिर हिलाया और उठते हुए बोला ।

"आओ, यहां से चलते हैं । हमने देवी (मिन्नो) को तलाश करना है।"

प्रतापसिंह और कीरतलाल उठ खड़े हुए ।

"हमने गीतलाल से एक बात नहीं पूछी ।" प्रतापसिंह ने कहा ।

"क्या ?" कीरतलाल ने उसे देखा ।

"यही कि देवी कहां है । किस दिशा में है ? वो तिलस्म में इसी हिस्से में है या फिर तिलस्मी की दूसरी या तीसरी अवस्था में मौजूद है । ये मालूम हो जाता तो देवी तक पहुंचने में हमें आसानी होती ।"

शुभसिंह ने सोच भरे गंभीरता से सिर हिलाया ।

"तुम ठीक कहते हो । हमसे गलती हो गई ।" शुभसिंह ने कहा--- "गीतलाल से ये बात हमें पहले ही मालूम करनी चाहिये थी । खैर, आगे के वक्त में इस बात का ध्यान रखा जायेगा ।"

उसके बाद शुभसिंह, प्रतापसिंह और कीरतलाल आगे बढ़ गये।

■■■

उस वक्त शाम होने जा रही थी ।

देवराज चौहान, मोना चौधरी और रुस्तम राव खुले मैदान में तेजी से आगे बढ़ते जा रहे थे । घंटों लगातार चलने से थकान उन पर हावी हो गई थी, परंतु रुकने की या आराम करने के लिये कहने की किसी ने कोशिश नहीं की थी । वो तीनों जल्द-से-जल्द रास्ता तय कर लेना चाहते थे ।

"अभ्भी कित्ता चलेगा बाप ?" रुस्तम राव कह उठा ।

"बहुत रास्ता पड़ा है ।" मोना चौधरी ने कहा--- "लेकिन मैं रास्ते को छोटा करती जा रही हूं ।"

"ये छोटा है तो बड़ा क्या होएला बाप ?" रुस्तम राव ने गहरी सांस ली ।

मोना चौधरी ने मुस्कुराकर रूस्तम राव को देखा ।

"तुम्हें तिलस्म के रास्तों का ज्ञान नहीं । वरना ये बात नहीं कहते ।" मोना चौधरी ने कहा--- "तुम जिंदगी भर इन रास्तों पर बढ़ते रहो, परन्तु तिलस्म से बाहर नहीं निकल सकते।"

देवराज चौहान ने मोना चौधरी से पूछा ।

"हम कब तक तिलस्म से निकलकर, तुम्हारे महल तक पहुंचेंगे ?"

"अभी कम से कम तीस घंटे और लगेंगे ।"

"तीस ?" देवराज चौहान के होठों से निकला ।

"हां । अमरु ने मुझे तिलस्म में धकेल दिया था ।" मोना चौधरी बोली ।

"अमरु !" देवराज चौहान के होठों से निकला--- "वो मुझे भी मिला था।  उसने मुझे भी कहा था कि वो मुझे गहरे तिलस्म में भेज रहा है ।"

अमरु के बारे में जानने के लिए पढ़ें अनिल मोहन का पूर्व प्रकाशित उपन्यास 'ताज के दावेदार' ।

"वो गुलाबलाल का आदमी है और तिलस्म में फंसे लोगों को गहरे तिलस्म में भेजना उसका काम है ।" मोना चौधरी ने गंभीर स्वर में कहा--- "अक्सर वो तिलस्म की कई जगहों में भटकता रहता है ।"

चलते-चलते वे ऐसी जगह पर पहुंचे, जहां बड़े-बड़े पहाड़ी पत्थर बिखरे पड़े थे । उनके पास ही पत्थर का एक रथ मौजूद था । बनाने वाले कारीगर ने बहुत खूबसूरती के साथ उसको बनाया था। आगे दो घोड़े मौजूद थे, जैसे वो चलने को तैयार हों । परंतु वक्त के थपेड़ों ने, धूप, आंधी, बरसात ने उसका बुरा हाल कर रखा था । कई जगह से वो टूट-फूट चुका था ।

मोना चौधरी रथ के पास पहुंचकर ठिठकी ।

देवराज चौहान और रुस्तम राव भी रुके ।

"ये क्या है ?" देवराज चौहान ने प्रश्न भरी निगाहों से मोना चौधरी को देखा ।

"नजर नेई आएला बाप। ये पत्थर का रथ होएला ।"

मोना चौधरी ने देवराज चौहान और रुस्तम राव को देखा ।

"ये पत्थर का रथ अवश्य है, परंतु तिलस्मी है । ऐसे कई इंतजाम मैंने तिलस्म बनाते वक्त किए थे कि मैं जब भी तिलस्म में जाऊं तो मुझे कहीं जाने में परेशानी न हो । यह किस मंत्र से काम करता है, ये सिर्फ मैं ही जानती हूं । दालू को उस मंत्र का ज्ञान नहीं।"

"अपुन नेई समझेला बाप ।"

परंतु देवराज चौहान ने समझने वाले ढंग में सिर हिलाया ।

"रथ पर बैठो । सब समझ में आ जायेगा ।" कहने के साथ ही मोना चौधरी पत्थर के रथ पर चढ़ी और सारथी वाली जगह पर बैठ गई । जैसे कि वो असली हो और वो चलाने जा रही हो ।

देवराज चौहान और रुस्तम राव रथ के पीछे मौजूद सीट पर बैठ गये ।

"ये क्या होएला बाप ?" रुस्तम राव ने देवराज चौहान से पूछा ।

देवराज चौहान मुस्कुराया ।

"ये सारे तिलस्मी मामले हैं, जो कि हमारी समझ से बाहर हैं ।" देवराज चौहान ने कहा--- "मोना चौधरी तिलस्म के बारे में इसलिए जानती है कि नगरी की कुलदेवी बनने के बाद इसने ही तिलस्म का निर्माण किया था । तिलस्म में किसको कहां फंसाना है कैसे निकालना है, सब रास्ते इसने ही तैयार किए थे।"

"पण बाप, ये रथ क्या आराम करने के वास्ते बनाएला था ?"

"अभी मालूम हो जाएगा, देखते रहो ।"

आगे वाले हिस्से में बैठते ही मोना चौधरी ने दोनों घोड़ों की पत्थर की लगाम को छुआ फिर हाथ जोड़कर आंखें बंद की और होठों-ही-होठों में मंत्र को बुदबुदाया ।

मंत्र पूर्ण होते ही आंखें खोली और पत्थर के घोड़ों को देखा । नजरों में तीव्रता थी ।

दूसरे ही पल वो पत्थर का रथ, इस तरह हिला जैसे कई लोगों ने मिलकर उसे धकेलने का प्रयत्न किया हो । फिर जैसे ही रथ की वो मामूली-सी हलचल थमी, एकाएक वो पत्थर का रथ, बेहद धीरे-धीरे ऊपर हवा में उड़ने लगा । सीधा आसमान की तरफ ।"

"ये क्या होएला बाप ?" रुस्तम राव हड़बड़ाकर कह उठा ।

देवराज चौहान मुस्कुराया ।

"मोना चौधरी ।" रुस्तम राव ने गर्दन घुमाकर मोना चौधरी को देखा । जिसकी पीठ नजर आ रही थी ।

"हां ।" मोना चौधरी ने बिना गर्दन मोड़े कहा ।

"ये क्या होएला । रथ तो हवा में जाएला । जैसे वो पत्थर का घोड़ा अपुन को लेकर आसमान में उड़ेएला ।" पत्थर के घोड़े के बारे में जानने के लिए पढ़े पूर्व प्रकाशित उपन्यास 'जीत का ताज' ।"

इस तिलस्मी रथ के सहारे हम तिलस्म का काफी बड़ा हिस्सा पार कर जायेंगे । अभी मुझे डिस्टर्ब मत करो ।"

रुस्तम राव ने देवराज चौहान को देखा, बोला कुछ नहीं ।

वो पत्थर का रथ करीब हजार फीट ऊपर आसमान की तरफ सीधा उठता चला गया । फिर ऊपर जाने की अपेक्षा वो एक ख़ास दिशा में बढ़ने लगा । हर पल उसकी रफ्तार तेज होती जा रही थी ।

"अपुन गिरेला बाप ।" रुस्तम राव मोना चौधरी से कह उठा ।

"नहीं गिरोगे । छलांग मरना चाहोगे तो भी सफल नहीं हो सकते क्योंकि जब इस तरह से काम लिया जाता है तो तिलस्मी लहरें रथ को घेर लेती हैं जो किसी को नीचे नहीं जाने देती ।" मोना चौधरी ने कहा ।

रथ तेजी से एक ही दिशा में आगे बढ़ा जा रहा था ।

देवराज चौहान, मोना चौधरी और रूस्तम राव खामोशी से उसमें बैठे रहे।

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