आग़ाज़

जून 2006

तराई क्षेत्र में बसे होने के कारण पंतनगर में जून का महीना गर्म होने के साथ-साथ बहुत ही उमस भरा होता है। लेकिन जीवन तो चलते जाने का नाम है, पसीने और उमस से भरा यह मौसम, मानो जैसे पंख लगाकर उड़ते समय को और भी तेज़ी से उड़ने के लिए बेचैन कर रहा था। बेचैन-सा गुज़रता हुआ यह वक़्त हर दिन पलाश को जीवन के नये अनुभवों से भी रूबरू करवा रहा था। पलाश हमेशा की तरह ही पंतनगर के समय चक्र में व्यस्त था, उस पर अभी सेमेस्टर ख़त्म होने के कगार पर था और सेमेस्टर की आख़िरी परीक्षाएँ चल रही थीं।

इसी बीच पलाश को ख़बर लगी कि उसका छोटा भाई कबीर, मल्टीमीडिया और मूवी एनिमेशन का कोर्स करने के लिए दिल्ली के अरीना इंस्टीट्यूट में आने वाला था। कबीर पलाश से दो साल छोटा था लेकिन किसी भी मायने में अपने आपको छोटा नहीं समझता था। वह एक मनमौजी और हठी क़िस्म का व्यक्ति था और यही कारण था कि अब उसने दिल्ली जाकर मल्टीमीडिया कोर्स करने का मन बना लिया था। वैसे तो कबीर, जयपुर के महाराजा कॉलेज से अपनी पढ़ाई कर रहा था लेकिन ज़्यादा रुचि नहीं होने के कारण वो अब मूवी एनिमेशन में अपना भविष्य बनाना चाहता था। कबीर, माता-पिता से सारी बात करके उनकी सहमति भी ले चुका था। पलाश घर में बड़ा और समझदार तो था ही, वह अब तक कई बार दिल्ली भी आ चुका था। इसीलिए माता-पिता चाहते थे कि वो दिल्ली आकर कबीर के अरीना इंस्टीट्यूट में प्रवेश प्रक्रिया को पूरी करने में सहयोग करे।

पलाश ने कभी अपनी ज़िम्मेदारियों से पीछे हटना तो सीखा ही नहीं था, इस पर उसे दिल्ली जाने का मौक़ा मिल रहा था तो जिग्ना से मुलाक़ात भी पक्की थी। फिर क्या था, सारी बातों को ध्यान में रखते हुए समय और दिन के अनुसार पलाश ने जिग्ना से बात करके मुलाक़ात भी निश्चित कर ली। सारे प्लान के अनुसार पलाश नियत तिथि पर रातभर रानीखेत एक्सप्रेस से सफ़र करके वो सुबह ही देव के घर पहुँच गया था। दूसरी ओर कबीर सुबह वाली ट्रेन से अपने जीजा के साथ दिल्ली पहुँचा। लगभग 11 बजे पलाश पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर कबीर और जीजा से मिला, फिर वहीं से सीधा वो तीनों पटेल नगर स्थित अरीना मल्टीमीडिया इंस्टीट्यूट आ गए। वैसे तो कबीर इंस्टीट्यूट के बारे में पहले ही फ़ोन पर सारी जानकारी ले चुका था। अब प्रत्यक्ष में मिलकर, सारा विचार-विमर्श और औपचारिकताएँ पूरी करने के बाद कोर्स की फ़ीस जमा करवा के प्रवेश प्रक्रिया भी पूर्ण हो गई थी। प्रवेश प्रक्रिया और बाक़ी सारी औपचारिकताएँ पूरी करने में कुछ एक घंटे के लगभग समय लगा और अब 12.30 बज गए थे। अब अगला काम था पास ही में कबीर के लिए एक रूम ढूँढना ताकि वो वहाँ रहकर ठीक से अपनी पढ़ाई कर सके। इंस्टीट्यूट के आस-पास में ही काफ़ी विद्यार्थियों के होने के कारण रूम ढूँढने में भी ज़्यादा समस्या नहीं हुई। आख़िर में इंस्टीट्यूट के पास ही सड़क पार करके ठीक सामने वाली कॉलोनी में रूम भी ले लिया और पास ही में टिफ़िन सर्विस थी तो खाने की समस्या भी ख़त्म।

कुल मिलाकर 1.30 बजे तक कबीर का सारा काम पूरा हो गया था। फिर कबीर तो जीजा के साथ पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के लिए निकल गया, क्योंकि उन्हें वापस जयपुर के लिए ट्रेन पकड़नी थी, जो 2.45 बजे थी। दूसरी ओर पलाश निकल गया EDM मॉल के लिए, जिग्ना से मिलने। हालाँकि, काम की वजह से मिलने का समय निश्चित नहीं था, लेकिन पलाश ने पहले ही अंदाज़ा लगाते हुए जिग्ना को 2 बजे के लगभग EDM मॉल आने को बोल दिया था। अभी पलाश EDM माल के बाहर ऑटो से उतारा ही था कि जिग्ना का फ़ोन आ गया, वो EDM पहुँच चुकी थी और मॉल के पीछे वाले STD से ही फ़ोन कर रही थी। बहरहाल, जैसे भी हो नियति ने दोनों को मिलने के लिए आज फिर सही समय और निश्चित स्थान पर पहुँचा दिया था।

पूरे 2 बज चुके थे, जब पलाश जिग्ना को EDM मॉल पर मिला। अभी शाम होने में काफ़ी समय था, तो दोनों प्रेम पंछी फिर से चल पड़े इंद्रप्रस्थ पार्क की ओर। हालाँकि, दिल्ली में प्रेम पंछियों के लिए स्थान की कोई कमी नहीं थी, और साथ ही घूमने-फिरने के लिए भी कई सारे स्थान थे। लेकिन पलाश और जिग्ना को ना तो इन सब का पता था और ना कुछ लेना देना। फिर उनके पास समय भी नियत ही होता था। उन्हें तो बस बड़ी मुश्किलों से मिले प्यार के उन पलों को जी भर के जी लेना था, फिर चाहे स्थान कोई भी हो। हमेशा की तरह ही देखते-देखते ही वक़्त कब निकल गया, पता ही नहीं चला। और फिर शाम 7 बजे के लगभग पलाश ने जल्द ही फिर मिलने के वादे के साथ जिग्ना को उसके घर के नज़दीक छोड़ दिया और तुरंत ही ख़ुद लौट पड़ा वापस देव के घर। घर पहुँचकर देव के साथ खाना खाया, तब तक लगभग 9 बज चुके थे। पलाश ने अपना बैग लिया और तुरंत ही ऑटो लेकर पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के लिए निकल गया। आगे थी, हर बार की तरह रानीखेत एक्सप्रेस के जनरल डिब्बे की रातभर की यात्रा और फिर सुबह पंतनगर की भागम-भाग।

अब पलाश को दिल्ली से लौटे हुए लगभग महीना होने को आया था और सब कुछ ठीक चल रहा था। अरीना इंस्टीट्यूट में प्रवेश के बाद बाद अब कबीर भी दिल्ली में ही रह रहा था और पलाश के साथ लगतार संपर्क में था। चूँकि, देव पहले से ही दिल्ली में रहता था, उसे भी कबीर के दिल्ली में ही रहकर पढ़ाई करने के बारे में पूरी जानकारी थी और पटेल नगर जाकर वो एक-दो बार कबीर से मिल भी चुका था। पलाश और देव तो अपनी-अपनी प्रेम कहानी को लेकर पहले ही संपर्क में थे। दिल्ली में रहने और देव से मिलते रहने का नतीजा यह हुआ कि अब कबीर को भी पलाश और जिग्ना की प्रेम कहानी के बारे में पता चल चुका था। वैसे इसमें कोई विशेष बात नहीं थी, यह तो एक दिन होना ही था। इसी बीच एक दिन देव ने पलाश को फ़ोन पर बताया, “वो और कबीर दोनों आज जिग्ना से मिले थे।”

असल में देव और जिग्ना दोनों क्लासमेट्स होने के साथ ही अच्छे दोस्त भी तो थे, इसीलिए उस दिन क्लास के बाद वो दोनों कबीर से मिलने चले गए थे। जिग्ना ने भी कबीर से हुई इस मुलाक़ात के बारे में पलाश को बताया। उसने पलाश को बताया कि वह देव के साथ गई थी और कबीर से हुई यह मुलाक़ात अच्छी थी। जिग्ना ने यह भी बताया कि कबीर ने उसे किसी और दिन अपने रूम पर मिलने का भी निमंत्रण दिया। पलाश को तो किसी भी बात से कोई समस्या नहीं थी और ना ही कबीर से हुई जिग्ना की इस मुलाक़ात में उसे कोई नकारात्मक भावना नज़र आई।

लेकिन यह भी सत्य है- ‘ज़रूरी नहीं कि इस दुनिया में हर कोई आपके बारे में वैसा ही सोचे जैसा कि आप उनके बारे में सोचते हैं।’ ठीक ऐसा ही पलाश के साथ कबीर को लेकर हुआ। पलाश को तो कबीर की जिग्ना से हुई मुलाक़ात से कोई परेशानी नहीं थी लेकिन दूसरी ओर शायद कबीर को जिग्ना और पलाश के बीच ये प्रेम का रिश्ता पसंद नहीं आया था। अब कबीर की इस नापसंदगी की क्या वजह थी, यह तो वो ख़ुद ही बता सकता था। बहरहाल, जिग्ना की कबीर से हुई अगली मुलाक़ात में कबीर की जिग्ना और पलाश के प्रेम को लेकर नापसंदगी साफ़ ज़ाहिर हो गई। इस मुलाक़ात में हुई कुछ असामान्य बातों ने जिग्ना को भी कबीर की इस नापसंदगी का संदेश दे दिया था। जब जिग्ना ने यही सब बात फ़ोन पर पलाश को बताई तो, उसे कबीर की इस सोच पर बड़ा आश्चर्य हुआ। साथ ही वह उसके और जिग्ना के रिश्ते को लेकर इस नकारात्मक भावना के बारे में सोचने पर मजबूर हो गया, आख़िर क्यों? इस क्यों का जवाब तो अपनी जगह था लेकिन पलाश ने तुरंत ही जिग्ना को कबीर से कम-से-कम बात करने और ना मिलने की हिदायत दे दी थी। पलाश ने देव को भी इस बारे में बताया और उसे भी जिग्ना के साथ दुबारा कबीर से मिलने को मना कर दिया।

कबीर की इस नापसंदगी के पीछे वजह कुछ भी रही हो लेकिन अगले कुछ महीनों में ही कबीर ने यह तो साफ़ तौर पर दिखा ही दिया था कि वह पलाश और जिग्ना के इस प्रेम संबंध के विरुद्ध है और साथ ही वो लोगों को यह बात इस प्रकार बता रहा था, जैसे की पलाश और जिग्ना कुछ ग़लत कर रहे हों। कबीर ने देव को भी उन दोनों के बारे में ऐसा ही बोला। देव ने कबीर की इस सोच के बारे में पलाश को बताकर, उसे सतर्क रहने को भी कहा। अब हम अपनी सोच को किसी और पर तो नहीं थोप सकते, इसीलिए सब-कुछ जानने के बाद भी पलाश ने कबीर से इस बारे में कुछ भी बात करके ज़्यादा उलझना ठीक नहीं समझा। बस पलाश ने ख़ुद को और जिग्ना को कबीर की इस नापसंदगी से दूर रखते हुए उससे कम-से-कम बात करने का फ़ैसला किया और बाक़ी सब वक़्त पर छोड़ दिया।

पलाश जीवन के हर अनुभव को बहुत ही बारीकी से समझते हुए, अपने आप को उसमें ढालने की कोशिश करता था। पलाश अच्छी तरह से जानता था कि अगर किसी को आपसे कोई समस्या या तकलीफ़ है तो हमें इस बारे में ज़्यादा सोचने या परेशान होने की ज़रूरत नहीं है, वो ख़ुद अपने आप किसी-न-किसी तरीक़े से अपनी समस्या को ज़ाहिर कर ही देगा।

अब नापसंदगी कबीर की थी, तो समस्या भी उसी की थी, इसीलिए पलाश ने उसको उसके हाल पर छोड़ दिया और सही वक़्त का इंतज़ार करने लगा। फ़िलहाल, कबीर की ये सारी हरकतें साफ़ ज़ाहिर कर रही थीं कि अपनी पढ़ाई को लेकर वो कितना संजीदा है।

बलवान समय से भला कौन जीत पाया है और आख़िर वो दिन आ ही गया जब कबीर की नापसंदगी, जो कि उसकी अपनी समस्या थी, सबके सामने ज़ाहिर हो ही गई।

पलाश को पंतनगर में दो साल पूरे हो गए थे और वह सेमेस्टर ब्रेक में घर आया हुआ था। इसी बीच कबीर भी सप्ताह के अंत की छुट्टी में दो दिन के लिए घर आ गया था। वैसे तो कबीर पलाश से छोटा था लेकिन अपने ज़िद्दी और हठी स्वभाव के कारण अक्सर छोटी-छोटी बातों पर पलाश से उसका झगड़ा हो जाना बहुत ही आम था। घर में भाई-बहन के झगड़े तो वैसे भी होते ही रहते हैं। उस दिन भी कुछ ऐसे ही हुआ। दोनों में किसी छोटी-सी बात पर बहस हो गई। यहाँ तक तो ठीक था लेकिन मामला तब ज़्यादा बढ़ गया, जब कबीर ग़ुस्से में पलाश को जिग्ना का नाम लेकर बुरा-भला कहने लगा। जब शोरगुल सुनकर माँ बीच-बचाव को आई तो कबीर ग़ुस्से में माँ को जिग्ना और पलाश के बारे में अपनी थोड़ी बहुत जानकारी के साथ उनकी प्रेम-कहानी सुनाने लगा। हालाँकि, माँ को तो जिग्ना के बारे में कुछ भी नहीं पता था और अभी बस वो कबीर की बात सुन रही थी।

पलाश के पिताजी एक ग़रीब परिवार में पले-बढ़े होने के कारण एक संघर्षपूर्ण जीवन के साक्षी थे और शिक्षा विभाग में सरकारी नौकरी पर कार्यरत थे। दूसरी ओर माँ भी शिक्षित थी लेकिन घर को ही सँभालती थी। पलाश की माँ अपने बच्चों को बख़ूबी पहचानती थी और हर परिस्थिति में अपने बच्चों की मंशा पहले ही भाँप जाया करती थी। वैसे तो वो खुले विचारों वाली महिला थी लेकिन ख़ुद अपने ही जीवन के अनुभवों ने उन्हें कुछ हद तक कठोर भी बना दिया था।

फ़िलहाल, पलाश मौक़े की अहमियत को तुरंत समझते हुए, बिना समय गँवाए बीच में ही बोल पड़ा और कबीर से पूछा, जिग्ना और उसे लेकर आख़िर उसकी समस्या क्या है?

वह दिल्ली में अपनी पढ़ाई करने के लिए रह रहा है या फिर जिग्ना और उसकी निगरानी करने के लिए? पलाश ने सही समय और सही जगह पर सीधा और साफ़ सवाल कबीर के सामने रख दिया था जिसका असल में कबीर के पास कोई जवाब नहीं था लेकिन फिर भी वो तर्क-वितर्क किए जा रहा था।

अवसर का सही उपयोग करते हुए पलाश ने कबीर से कहा, “मैं तो जिग्ना से साथ शादी करने वाला हूँ, इसमें उसे क्या समस्या है?” पलाश ने बड़ी चतुराई से अप्रत्यक्ष रूप से माँ को जिग्ना और अपनी प्रेम-कहानी के बारे में तो बता ही दिया था, साथ ही भविष्य को लेकर अपनी मंशा भी साफ़ कर दी थी। ज़्यादा गहराई में ना जाते हुए, माँ ने भी पलाश का साथ दिया क्योंकि कबीर का पहला काम अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना था। वो पहले ही अपनी पढ़ाई को लेकर काफ़ी समय और रुपये ख़राब कर चुका था। अब दिल्ली से पढ़ाई को लेकर भी अपनी इन्हीं सब हरकतों की वजह से कबीर की पढ़ाई के प्रति संजीदगी नज़र नहीं आ रही थी।

असल में तो यह अभी भी साफ़ नहीं था कि जिग्ना और पलाश को लेकर कबीर की समस्या क्या थी? लेकिन जो भी हो, उस दिन पलाश ने सही समय पर कबीर को एक अच्छा पाठ तो पढ़ा ही दिया था। पलाश के लिए उससे भी अच्छी बात यह थी कि अप्रत्यक्ष रूप से ही सही, लेकिन अब उसके माता-पिता को जिग्ना और उसके बारे में पता था। पलाश के लिए कहीं-न-कहीं ये एक बड़ी जीत जैसे ही था, जिसका मौक़ा कबीर ने उसे अनायास ही दे दिया था।

साथ-ही-साथ अब पलाश की बड़ी बहन को भी जिग्ना के बारे में पता चल गया था जो कि संभवतया माँ ने ही बताया था। पलाश की बहन जयपुर से लगभग 200 किलोमीटर दूर, अलवर, अपने ससुराल में रहती थी। वो पलाश से दो साल बड़ी थी और उसे एक प्यारी-सी बेटी भी थी। सेमेस्टर ब्रेक की छुट्टियों में ही पलाश एक दिन अपनी बहन से मिलने उसके घर भी गया जो कि ट्रेन से लगभग 1.30 घंटे की यात्रा थी। मुलाक़ात के दौरान ही बहन ने पलाश से जिग्ना के बारे में भी पूछा तो पलाश ने जिग्ना और उसके घर वालों के बारे में बताया। हालाँकि, पलाश को पता था कि उससे ये सब बातें जानकारी इकट्ठा करने के लिहाज़ से पूछी जा रही थी, इसीलिए उसने सभी सवालों का संक्षिप्त में ही उत्तर देना बेहतर समझा।

फ़िलहाल, अब कुछ ही दिनों में सेमेस्टर ब्रेक ख़त्म होने जा रहा था। पलाश ने काफ़ी कुछ हासिल किया था इस सेमेस्टर ब्रेक में घर पर बिताए उन कुछ दिनों में। जिग्ना और अपने भविष्य को लेकर उसका आत्मविश्वास अब और बढ़ गया था। इन्हीं सब बीती यादों के साथ, नये आत्मविश्वास से भरा हुआ पलाश वापस पंतनगर जाने को अपना समान समेटने में लगा था। और हाँ, अभी पंतनगर पहुँचने से पहले, हर बार की तरह जिग्ना से भी तो मिलना था।

अंतर

अगस्त 2006

अब पंतनगर में पलाश का तीसरा साल शुरू हो रहा था। पिछले दो साल तो जैसे मानो पंख लगाकर उड़ गए थे। पीछे रह गई थी, यादें और जीवन के सच्चे अनुभव जो सिर्फ़ समय के साथ ही मिल पाते हैं। अब चाहे यह कहा जाए कि समय पंख लगाकर उड़ गया था या कहा जाए कि‍ हम ही समय को छोड़कर आगे निकल गए थे। दोनों ही सूरतों में समय तो हमारे ही जीवन से कम होता जा रहा था। फ़िलहाल, पलाश इस समय चक्र से बेख़बर पूरी ताज़गी और नये जोश के साथ, पंतनगर में अपने तीसरे साल का स्वागत करने को तैयार था। साथ ही अब एक वर्ष से अधिक हो चला था, जब वो पहली बार जिग्ना से मिला था। पिछले दिनों बीते इस समय में वो जिग्ना से अभी तक मुश्किल से 6-7 बार ही मिल पाया था लेकिन ऐसा लगता था मानो वो दशकों से एक-दूसरे को जानते थे। पलाश को जिग्ना के कहे हुए वो शब्द अभी भी याद आते थे, जो अब सच हो गए थे, “आज के बाद हर गुज़रते दिन के साथ तुम मुझे अपने आप के और ज़्यादा क़रीब पाओगे।”

जिग्ना के शब्द तो सच हुए ही साथ ही इस गुज़रे हुए वक़्त ने उन्हें एक-दूसरे को क़रीब से जानने-पहचानने का मौक़ा भी दिया था। दोनों एक-दूसरे के व्यवहार, आदतों, पसंद और नापसंद को अब बख़ूबी समझने लगे थे। दोनों अब एक-दूसरे में पूरी तरह घुल-मिल गए थे और नियति के नियत फ़ैसले का उन्हें कहीं-न-कहीं आभास हो गया था कि वो दोनों एक-दूसरे के लिए ही बने हैं। जितना कि पलाश अभी तक जिग्ना को समझ पाया था, जिग्ना एक सीधी, सरल और दृढ़निश्चयी लड़की थी जिसकी ज़िंदगी सिर्फ़ अपनी कोचिंग क्लासेज़ और घर तक ही सीमित ही। जिग्ना हर संभव रूप से सीधी और सरल थी। साथ ही वह एक स्वतंत्र विचारों वाली लड़की थी, जो सीधे सरल ही अपने विचारों को अपने शब्दों में व्यक्त कर देती थी। उसे इस बात की बिल्कुल परवाह नहीं होती थी कि लोग उसके बारे में क्या सोचेंगे, वो तो बस मस्तमौला थी। कुल मिलाकर जिग्ना की ज़िंदगी जितनी अपने घर और आस-पास के माहौल तक सीमित थी, वो उतनी ही दृढ़ और हर चुनौती में साहस रखने वाली थी।

जिग्ना और पलाश दोनों ही जितना अपने विचारों और दृढ़निश्चयी स्वभाव में समानता रखते थे, उससे कहीं ज़्यादा उनके माता-पिता और परिवार के मानसिक विचारों में अंतर था। जिग्ना का परिवार मूल रूप से बिहार से संबंध रखता था। परिवार में जिग्ना को मिलाकर कुल चार लोग थे, माता-पिता, एक छोटा भाई और वो ख़ुद। जिग्ना अपनी माँ और भाई को बहुत प्यार करती थी। भाई उससे तीन साल छोटा था जो उस समय सीनियर सेकंडरी स्कूल में पढ़ता था। जिग्ना की माँ शिक्षित थी लेकिन घर को ही सँभालती थी, साथ ही स्वतंत्र और खुले विचारों वाली महिला थी। इन सबके बिल्कुल विपरीत जिग्ना के पिता कुछ अलग ही स्वभाव के व्यक्ति थे। वो पेशे से एक सिविल इंजीनियर थे और स्वभाव से काफ़ी कठोर। वैसे सही कहा जाए तो स्वभाव इंसान अपने साथ लेकर पैदा नहीं होता। हमारा स्वभाव हमारे परिवारिक माहौल, समाज, चारों तरफ़ के वातावरण और हमारी परिस्थितियों का ही प्रतिरूप होता है। शायद जिग्ना के पिता को भी इन्हीं सब परिस्थितियों और जीवन के अनुभवों ने कठोर बना दिया था। फ़िलहाल, वो अपने ख़ुद के अलावा और किसी की नहीं सुनते थे। घर में अनुशासन को लेकर उन्होंने सख़्ती इतनी कर दी थी कि‍ दोनों भाई-बहन को अपने दोस्तों के साथ भी ज़्यादा समय व्यतीत करने की अनुमति नहीं थी। पिता के हिसाब से यह सब समय की बर्बादी थी और इसी कारण से दोनों भाई-बहन का जीवन अधिकतर घर की चारदीवारी में ही गुज़रा था। यही कारण था कि जिग्ना को जब भी पलाश से मिलना होता था तो कोचिंग क्लास की छुट्टी मारना ही सबसे उचित समाधान था। हालत ऐसे थे कि अक्सर पिता ही उसे कोचिंग क्लास छोड़ने आते थे। इसी कारण से देव ने कई बार जिग्ना के पिता को देखा भी था और पलाश को बताया था कि जिग्ना के पिता दिखने में ही काफ़ी कठोर प्रतीत होते हैं। ख़ैर, इन सब मुश्किलों के बावजूद जिग्ना किसी तरह पलाश से मिलने का समय निकाल ही लेती थी।

अक्सर माता-पिता अपने जीवन के अनुभव अपने बच्चों को सिखाने की चाह में यह भूल जाते हैं कि बचपन की अपनी एक अलग ही आज़ादी होती है और उस आज़ादी में जीवन के जो अनुभव बच्चा सीखता है वो किसी बंधन में रहकर सीखना संभव ही नहीं है।

बहरहाल, जिग्ना की माँ, पिता के बिल्कुल विपरीत सीधी और सरल महिला थी जो अपने बच्चों को प्यार तो करती ही थी, साथ-ही-साथ उनकी हर इच्छा पूरी करने का भरपूर प्रयत्न भी करती थी। वो अपने बच्चों की हर बात को समझते हुए उनकी ख़ुशी का पूरा ख़याल रखती थी। यही कारण था कि जिग्ना अपनी माँ के बहुत क़रीब थी और अपनी लगभग हर बात अपनी माँ के साथ साझा भी कर लेती थी। जिग्ना ने अपनी माँ के बारे में पलाश को भी बताया था और यह भी कि वो अपनी माँ से कभी भी कुछ नहीं छुपाती है। पलाश को सुनकर बड़ा अच्छा लगा था और थोड़ा आश्चर्य भी हुआ था, जब जिग्ना ने उसे बताया कि उसने अपनी माँ को उन दोनों की दोस्ती के बारे में भी बताया है।

हाँ, लेकिन इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं था कि जिग्ना की माँ को दोनों कि प्रेम-कहानी के बारे में पता था, उन्हें तो सिर्फ़ इतना पता था कि वो दोनों अच्छे दोस्त है। ख़ैर, ये सब तो ठीक था लेकिन पलाश जिग्ना की माँ और विशेष रूप से उसके पिता के कठोर स्वभाव के बारे में जानकार आश्चर्यचकित था। जैसे भी हो, पलाश को जिग्ना के माता-पिता के स्वभाव के बारे में जानना तो ज़रूरी था ही क्योंकि यह सब बातें उन दोनों के भावी जीवन के फ़ैसलों के लिए बहुत मायने रखती थी।

पलाश अब हर समय, हर बात अपने और जिग्ना के भविष्य से जोड़कर ही देख और सोच रहा था। उसने कहीं-न-कहीं ये अंदाज़ा लगा लिया था कि जिग्ना के पिता का कठोर स्वभाव उन दोनों के लिए भविष्य में कुछ-न-कुछ समस्या तो ज़रूर पैदा करने वाला था। फ़िलहाल, पलाश छोटी-छोटी बातों को एक-एक कड़ी के समान जोड़ता हुआ जिग्ना के साथ अपने भावी जीवन के ख़्वाब बुन रहा था। अब नियति को क्या और कैसे मंज़ूर था? यह तो आने वाले समय के गर्भ में छुपा हुआ था जो सिर्फ़ आने वाले समय के साथ ही पता चल सकता था।

अगला क़दम

सितंबर 2006

अगला क़दम क्या होगा?

यह वो सवाल है जो हम सब के जीवन में कभी-न-कभी सामने आकार खड़ा हो ही जाता है। इस अगले क़दम के बारे में वक़्त रहते सोच लेना ही, कहीं-न-कहीं हमें सफलता के द्वार की ओर भी धकेल देता है। और जो लोग अपने वर्तमान के क़दम अपने भावी जीवन के लक्ष्य को सोचकर उसके अनुरूप रखते हैं, वो सफलता की दौड़ में आगे निकल जाते हैं। ठीक इसी तरह जिग्ना और पलाश भी अपने भविष्य को लेकर दृढ़निश्चय कर चुके थे और अब हर समय अपनी प्रेम-कहानी को एक रिश्ते का नाम देने का ख़्वाब देखने लगे थे।

सही कहा जाए तो प्यार तो प्यार ही होता है और वो किसी रिश्ते के नाम का मोहताज नहीं होता। लेकिन हमारे समाज ने प्यार के लिए भी रिश्तों की बेड़ियाँ बना ही ली हैं और आख़िरकार प्यार उन बेड़ियों में बँधकर रह जाता है।

ज़रा सोचकर देखिए, प्यार सिर्फ़ प्यार ही होता और उस पर किसी रिश्ते में बँध जाने का कोई बंधन ना होता तो शायद ये प्रेम कहानियाँ होती ही नहीं। ख़ैर, जिग्ना और पलाश इन सब बातों से बेख़बर, अपने आप को भी इन्हीं सामाजिक बेड़ियों, यानी शादी के रिश्ते में बाँधने का ख़्वाब देखने लगे थे। लेकिन इन सामाजिक बेड़ियों में बँध जाना भी इतना आसान कहाँ होता है, अग्नि परीक्षा तो प्यार को हर सूरत में देनी ही पड़ती है। फ़िलहाल, जिग्ना ने तो बहुत पहले ही पलाश से शादी के बारे में पूछकर अपनी मंशा साफ़ कर दी थी। अब दोनों ही पूरी ज़िंदगी साथ रहने के ख़्वाब बुन रहे थे। पलाश को अच्छी तरह एहसास हो चुका था कि अगर वो दोनों अपने इस ख़्वाब को पूरा करना चाहते हैं तो शादी ही एक मात्र ज़रिया था।

‘शादी’, यह शब्द दोनों के लिए ही उस उम्र और समय में बड़ा था लेकिन उनके दृढ़निश्चयी प्यार के कारण उन्हें यह निर्णय लेने में मुश्किल नहीं हुई। हालाँकि, यह दोनों के लिए ही इतना आसान नहीं था, जो कि आप आगे देख ही लेंगे। बहरहाल, अब चाहे मुलाक़ात हो या फ़ोन पर बातें, उनकी बातों का मुख्य केंद्र अब भविष्य की परिस्थितियों के बारे में ही होता था।

आगे क्या होगा? कैसे होगा?

अब हर वक़्त बस ये ही सवाल होते थे। और समय के साथ-साथ, सारी परिस्थितियों को देखते हुए पलाश यह समझ चुका था कि उन दोनों का मुश्किल समय जल्द ही आने वाला है। लेकिन जो भी हो ये प्रेम-पंछी तो एक-दूसरे के साथ जीवन भर के लिए शादी के बंधन में बँध जाने का दृढ़ निश्चय कर चुके थे।

पलाश और जिग्ना दोनों ही एक दूसरे को अपने माता-पिता और परिवार के अन्य सदस्यों के और उनके व्यवहार के बारे में लगभग सब कुछ बता चुके थे। यह सब जानना दोनों के लिए ही ज़रूरी भी था, जो कि कहीं-ना-कहीं आने वाले समय में उनके काम आने वाला था। दूसरे शब्दों में कहें तो अप्रत्यक्ष रूप से दोनों ही आने वाले समय के लिए अपने आप को तैयार कर रहे थे। जिग्ना पलाश को पहले ही कई बार बता चुकी थी कि उसके पिता इस शादी के लिए कभी तैयार नहीं होंगे। कारण, एक तो वो बहुत सख़्त स्वभाव के व्यक्ति थे, सख़्ती इतनी कि जिग्ना और उसके छोटे भाई को बचपन में छोटी-छोटी ग़लतियों पर भी कठोर सज़ा का सामना करना पड़ा था। दूसरा, एक अलग विषय ये था कि जिग्ना ब्राह्मण परिवार से थी और पलाश एक शूद्र परिवार से संबंध रखता था। इस पर जिग्ना के पिता जातिप्रथा में बहुत विश्वास रखने वाले व्यक्ति थे। हालाँकि, जिग्ना को इन सब बातों से कोई लेना देना नहीं था लेकिन हमारे भारतीय समाज में आज भी जीवित, जातिप्रथा रूपी इस राक्षस से तो इन दोनों प्रेम-पंछियों का सामना होना ही था। बड़ी विडंबना है, लेकिन सच्चाई यही है कि आज शिक्षित होते हुए भी हमारे समाज में लोग जातिप्रथा जैसी कुरीतियों का कट्टरता से पालन करते हैं और कई बार तो इसमें प्रेम-पंछियों को अपनी जान तक से हाथ धोना पड़ता है।

अब भला प्यार करने वालों को इन सब बातों की कहाँ परवाह होती है। हाँ, लेकिन सभी परिस्थितियों को देखकर पलाश आने वाली भयावह स्थिति का अंदेशा भली-भाँति लगा पा रहा था। असली चुनौतियों का आना तो अभी बाक़ी था लेकिन पलाश पहले ही महसूस कर चुका था कि अपने ख़्वाबों को हक़ीक़त बनाना आसान नहीं होगा। स्थिति, यह थी कि अब पलाश हर समय आने वाली मुश्किलों के बारे में ही सोचता रहता था। पलाश आने वाली हर संभव परिस्थिति की हर दिन सैकड़ों बार कल्पना करता ताकि वो उसे और अधिक गहराई से समझकर उसका कोई हल निकाल सके। पलाश परिस्थिति को ऐसे कल्पित करने लगा था मानो वो बस आ गई हो और अब उसे कैसे, उस मुश्किल घड़ी से बाहर निकलना है। पलाश निश्चिंत था कि कठिन समय का आना तो पक्का था इसलिए उससे निपटने की हर संभव कोशिश या कहिए कि उस से जुड़ी कोई भी बात जिसकी तैयारी उसे पहले ही कर लेनी चाहिए, वो बस वो ही करने और सोचने में लगा हुआ था।

पलाश अब अपने और जिग्ना जैसे, प्रेम-कहानी से जुड़े और मिलते-जुलते मामलों को अख़बार, समाचार या जहाँ भी संभव था, बड़े ध्यान से पढ़ने, सुनने और समझने लगा था। जब भी उसे इस प्रकार की किसी प्रेम-कहानी या शादी के बारे में अपने आस-पास के मित्रों या लोगों से पता लगता था तो वो उस मामले के बारे में पूरी जानकारी लेने की कोशिश करता। वह हमेशा ही अपने आप को ठीक उसी मामले में रखकर कल्पना करता था कि अगर ठीक वैसा ही उसके और जिग्ना के मामले में होगा तो वो क्या करेगा?

कैसे उस मुश्किल से बाहर आएगा?

दिल्ली, हमारे देश की राजधानी होने के साथ ही बहुत बड़ी आबादी वाला एक व्यस्ततम शहर है और सच कहें तो ऐसी कोई बात नहीं जो दिल्ली में आपको देखने को ना मिले फिर चाहे वो किसी भी मामले से जुड़ी हो। यही कारण था कि पलाश जिस तरह की प्रेम कहानियों और घटनाओं को आज-कल बड़े क़रीब से देखने-समझने की कोशिश कर रहा था, वो दिल्ली में आम थी। पलाश ने इस बात का पूरा फ़ायदा उठाया और वो जब भी दिल्ली जाता तो देव से इस तरह के मामलों पर विचार-विमर्श ज़रूर करता था। वैसे भी देव वीडियो एडिटिंग का काम करता था और उसके पास बहुत सारी शादियों के वीडियो एडिटिंग के लिए आते रहते थे, जिनमें से बहुत से इसी तरह के मामले होते थे। पलाश को इन सब से प्रेम कहानियों के साथ-साथ ही शादी से जुड़े और भी बहुत सारे मामलों के बारे में जानकारी प्राप्त हुई जो भविष्य में उसके काम आने वाली थी।

पलाश जिग्ना के साथ अपने भविष्य को लेकर बहुत चिंतित था और इसीलिए इन सब मामलों में इतना ध्यान दे रहा था। नतीजा यह हुआ कि अब उसका आत्मविश्वास तो बढ़ ही रहा था, साथ ही वो आने वाली परिस्थितियों को और अधिक गहराई से समझने लगा था। यहाँ पर यह कहना भी अनुचित नहीं होगा कि कहीं-न-कहीं पलाश की नियति उसे उसके भविष्य के लिए तैयार कर रही थी।

एक ओर तो पलाश हर दिन जीवन के सच्चे अनुभवों के आधार पर आने वाले समय को समझने की कोशिश में लगा हुआ था। दूसरी ओर यह भी सच था कि वो अपने माता-पिता की सोच के बारे में तो भली-भाँति जानता था और भविष्य में उनकी प्रतिक्रिया का भी एक हद तक अंदाज़ा लगा सकता था लेकिन जिग्ना के माता-पिता की सोच और प्रतिक्रिया के बारे में उसे बिल्कुल अंदाज़ा नहीं था। वह जानता था कि‍ जिग्ना के पिता से तो बात करना असंभव था लेकिन वो कम-से-कम उसकी माँ से तो बात करने की कोशिश कर ही सकता था।

जिग्ना की माँ पलाश और जिग्ना की मित्रता के बारे में तो जानती ही थी, फ़ोन पर उनसे बात करना इतना भी मुश्किल नहीं था। जब पलाश ने जिग्ना से उसकी माँ से बात करने की इच्छा जताई तो वो बहुत ख़ुश हुई। पलाश ने जिग्ना को बताया कि कम-से-कम माँ से फ़ोन पर बात करके मुझे उनकी मानसिकता को और उन्हें ज़्यादा समझने का मौक़ा मिल जाएगा। जिग्ना तो अपनी माँ के पहले ही बहुत क़रीब थी, उसने अपनी माँ को बता दिया कि उसका दोस्त पलाश उनसे बात करना चाहता है। फिर वो दिन भी आ ही गया जब पलाश ने जिग्ना की माँ से बात की।

हर बार की तरह ही पलाश उस दिन भी रानीखेत एक्सप्रेस से रात भर का सफ़र करके सुबह 5 बजे ही पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुँच गया था। सुबह अब ज़्यादा सर्द होने लगी थी लेकिन दिन अभी भी थोड़े गर्म थे। जैसे-तैसे कुछ घंटे स्टेशन पर ही बिताने के बाद पलाश आनंद विहार के पास EDM मॉल आ गया। आख़िर कुछ और घंटों के इंतज़ार के बाद लगभग 10.30 बजे जिग्ना आ ही गई और इंतज़ार ख़त्म हुआ। जनरल डिब्बे में रातभर का सफ़र और फिर घंटों का इंतज़ार, पलाश का थका होना तो स्वाभाविक था लेकिन जब वो जिग्ना से मिला तो अपने आपको एकदम तरोताज़ा महसूस कर रहा था। आख़िर यह प्यार का नशा था, उस पर आज वो पहली बार जिग्ना की माँ से बात करने वाला था तो उसकी ख़ुशी देखते ही बन रही थी। पलाश ने अभी तक ऐसी स्थिति सिर्फ़ बॉलीवुड मूवीज़ में ही देखी थी लेकिन आज उसके साथ सच में ऐसा घटित होने जा रहा था। देखते हैं आगे क्या हुआ?

दोनों ने कुछ देर वहीं मॉल में बैठकर बातचीत की, फिर पलाश ने जिग्ना के घर लैंडलाइन नंबर पर फ़ोन लगा दिया। उस समय जिग्ना के घर पर सिर्फ़ उसकी माँ ही थी, जो कि पलाश को जिग्ना बता चुकी थी। इसीलिए फ़ोन तो सिर्फ़ माँ को ही उठाना था। फ़ोन उठाते ही दूसरी ओर से आवाज़ आई, “हैलो!”

पलाश जवाब देते हुए, “प्रणाम मम्मी!”

जिग्ना की माँ आशीर्वाद देते हुए, “हमेशा ख़ुश रहिए।”

अगले लगभग 20 मिनट तक पलाश अपने वाक चातुर्य से जिग्ना की माँ से बात करने में व्यस्त रहा। पलाश ने जिग्ना की माँ के बारे में बिल्कुल वैसा ही पाया जैसा की उसने जिग्ना से सुना था। जैसा कि माँ को उनकी मित्रता के बारे में पहले ही पता था, उन्होंने पलाश से उसके माता-पिता के साथ-साथ पढ़ाई और भविष्य के बारे में भी बात की। बाक़ी बातें करते-करते उन्होंने भी पलाश को जिग्ना के पिता के सख़्त स्वभाव के बारे में बताया। बहरहाल, पलाश को माँ की मानसिकता को समझना था ताकि वो अपने भावी समय और परिस्थितियों को और अधिक गहराई से समझ सके।

पलाश ने अपने और जिग्ना के बारे में तो माँ को कुछ नहीं बताया था, लेकिन माँ तो माँ ही होती है। पलाश ने महसूस कर लिया था कि माँ उनकी मित्रता की गहराई को समझ रही थी, इसीलिए उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से ही पलाश को कहा कि, “आप भविष्य का कोई भी निर्णय लेने से पहले, दो बार अच्छी तरह सोचना।” पलाश के लिए इतना काफ़ी था और इसी के साथ प्रणाम करते हुए फ़ोन कट गया। माँ से फ़ोन पर बात के बाद दोनों प्रेम-पंछी चल पड़े इंद्रप्रस्थ पार्क की ओर, कुछ घंटों का सुकून ढूँढने। शाम ढलते ही पलाश ने जिग्ना को उसके घर के पास छोड़ दिया और फिर वही रानीखेत एक्सप्रेस के जनरल डिब्बे का सफ़र, नई यादों और नये अनुभवों के साथ।

अगले दिन जब फ़ोन पर बात हुई तो जिग्ना ने पलाश को बताया की माँ को उससे बात करके बहुत अच्छा लगा और उन्होंने उसे ढेर सारा आशीर्वाद दिया। पलाश के लिए माँ का यह आशीर्वाद एक जीत से कम न था। आख़िर कहीं-न-कहीं पलाश अपने प्यार की मंज़िल के रास्ते में एक क़दम और आगे बढ़ गया था लेकिन सवाल यह था कि अब अगला क़दम क्या होगा?

PJ

अक्टूबर 2006

अगर आप अपने लक्ष्य के लिए दृढ़निश्चयी हों तो नियति भी आपके साथ हो जाती है और लगता है कि जैसे पूरा संसार आपके साथ-साथ चल रहा हो। कुछ ऐसा ही जिग्ना और पलाश के साथ भी हो रहा था। पलाश तो दृढ़निश्चयी था ही, कि बस एक बार जो ठान लिया वो करना ही है। दूसरी ओर जिग्ना भी कम न थी और यही कारण था कि दोनों का प्यार और अपने भविष्य को लेकर आत्मविश्वास दिनों-दिन दृढ़ होता जा रहा था। जिग्ना एक बहादुर और दृढ़निश्चयी लड़की थी, हालाँकि, पलाश की तरह उसे जीवन का बहुत अधिक अनुभव नहीं था। इन सबके साथ-ही-साथ जिग्ना नैतिक विचारों से ओत-प्रोत और भगवान पर भरोसा करने वाली एक आध्यात्मिक लड़की भी थी। बाक़ी सब तो ठीक था लेकिन अध्यात्म पलाश से कोसों दूर था, वह पूरी तरह से एक प्रायोगिक और तार्किक लड़का था। इन सब के बावजूद जिग्ना के प्यार का ही असर था कि पलाश उसकी आध्यात्मिकता से अनछुआ नहीं रह पाया था। मुलाक़ात के बाद अगर थोड़ा भी समय मिलता था तो जिग्ना उसे अपने साथ ही आस-पास के मंदिरों में भी ले जाती थी।

अब भगवान पर भरोसा करने वाली जिग्ना के दिल में ग़रीबों, बच्चों ले लिए दया भावना का होना तो स्वाभाविक ही था। पलाश इसका साक्षी तब बना, जब एक बार मुलाक़ात के बाद घर लौटते समय जिग्ना पलाश को प्रीत विहार के एक प्राचीन साईं बाबा मंदिर में ले गई। लौटते समय शाम तो हो ही गई थी तो दोनों को मंदिर में शाम की आरती में सम्मिलित होने का मौक़ा भी मिल गया। जब वो दोनों आरती के बाद मंदिर से बाहर आए तो देखा वहाँ कुछ ग़रीब बच्चे थे जो उनसे पैसे माँगने लगे। जिग्ना ने तुरंत ही अपना बैग खोला और सारे खुल्ले पैसे बच्चों में बाँट दिए। और तो और मंदिर के बाहर ही जो भी कुछ खाने को उपलब्ध था बच्चों को खाने के लिए ख़रीद दिया। जिग्ना के बच्चों के लिए इस प्यार को देखकर पलाश को बड़ी ख़ुशी हुई। जिग्ना किसी के भी साथ बुरा होते नहीं देख पाती थी और ना ही किसी को मुसीबत में देखकर अपने आपको मदद करने से रोक पाती थी। वो सीधी, सात्विक, अपनी बात को सीधे सपाट कहने वाली और तुरंत ही लोगों से मिलने-जुलने के स्वभाव की धनी एक हँसमुख लड़की थी।

जिग्ना भी हर समय पलाश के साथ अपने भविष्य के बारे में ही सोचने में व्यस्त थी। हालाँकि, उसका जीवन और अनुभव बहुत हद तक सीमित थे, इसीलिए वो सिर्फ़ अपने आस-पास के लोगों से ही अपनी बातें साझा कर पाती थी।

इन्हीं क़रीब के कुछ लोगों में से एक थी जिग्ना की इकोनॉमिक्स पढ़ाने वाली मैम। जिग्ना, चौधरी चरण सिंह यूनिवर्सिटी से कॉमर्स में ग्रेजुएशन कर रही थी और इसी सिलसिले में वसुंधरा में अपने घर के पास ही इकोनॉमिक्स की क्लासेस भी ले रही थी। इकोनॉमिक्स पढ़ाने वाली मैम जिग्ना के पिता और परिवार को तो अच्छे से जानती ही थी, साथ ही जिग्ना से भी एक दोस्त की तरह ही घुली-मिली हुई थी। यही कारण था कि जिग्ना उनके साथ अपनी बहुत-सी बातें भी साझा कर लेती थी। जिग्ना ने पलाश से दोस्ती के बारे में भी मैम को बताया हुआ था। चूँकि, पलाश पंतनगर जैसी एक अच्छी यूनिवर्सिटी से पढ़ाई कर रहा था तो मैम को भी उसके बारे में जानकर बड़ी ख़ुशी हुई थी और वो उससे मिलना भी चाहती थी। मैम, पलाश के बारे में जानती ही थी इसीलिए जब भी वह जिग्ना से मिलने दिल्ली आता था तो वो समय का प्रबंधन कर, क्लासेज़ का समय परिवर्तन भी कर देती थी। जिग्ना ने पलाश को भी अपनी मैम के बारे में बताया था और यह भी बताया था कि वो उस से मिलना भी चाहती हैं। पलाश को और क्या चाहिए था उसके लिए तो यह जिग्ना के आस-पास के लोगों के क़रीब पहुँचने का एक अच्छा मौक़ा था। फिर क्या था, दोनों ने अपनी अगली मुलाक़ात से साथ-साथ ही मैम से मिलने का निर्णय भी कर लिया।

अक्टूबर का महीना था और हर बार की तरह ही पलाश रानीखेत एक्सप्रेस से रातभर का सफ़र करके दिल्ली पहुँच गया। सुबह 10 बजे के लगभग EDM मॉल पर मिलने के बाद दोनों ने कुछ समय वहीं बिताया और 2 बजे मैम के बताए समयानुसार उनके घर पहुँच गए। पलाश थोड़ा बेचैन था, होना स्वाभाविक भी था, वो पहली बार जिग्ना के साथ उसके किसी क़रीबी व्यक्ति से प्रत्यक्ष रूप से मिल रहा था और वो भी उसकी मैम जो कि एक तरह से देखा जाए तो जिग्ना के अभिभावक समान ही थी।

इतनी हिम्मत तो पलाश को करनी ही थी और अभी तो बस शुरुआत थी। फ़िलहाल, जैसे कि जिग्ना ने पलाश को मैम के बारे में बताया था, यह मुलाक़ात बहुत ही अच्छी रही। मैम का व्यवहार बिल्कुल एक परिचित व्यक्ति जैसा ही था। उन्होंने पलाश से उसके परिवार और पढ़ाई के बारे में बातें की। फिर चाय और नाश्ते के साथ चली 30 मिनट की उस मुलाक़ात के बाद दोनों वहाँ से निकल गए। यह सिर्फ़ एक छोटी-सी परिचयात्मक मुलाक़ात थी लेकिन पलाश के लिए किसी जीत से कम नहीं थी।

लगभग 3 बजे थे, अभी भी शाम होने में कम-से-कम तीन घंटे का समय बाक़ी था। इंद्रप्रस्थ पार्क तक आने-जाने में समय बर्बाद करने से अच्छा दोनों ने फिर से EDM मॉल जाने का फ़ैसला किया। कुछ ही मिनट रिक्शे में चलने के बाद दोनों फिर से पहुँच गए, EDM मॉल। जिग्ना और पलाश हर बार पहले मॉल में ही मिलते थे जहाँ पर खाने पीने की सुविधा भी थी, लेकिन दोनों ने बिरले ही खाने पर कभी रुपये ख़र्च किए थे। हाँ, लेकिन जिग्ना कभी-कभार घर से माँ के हाथ का बना खाना ज़रूर ले आती थी। उस दिन भी पहले EDM मॉल पहुँचकर जिग्ना ने बैग से अपना टिफ़िन निकाला और दोनों ने खाना खाया। फिर, मॉल में इधर-उधर घूमते-फिरते दोनों अपना समय व्यतीत कर ही रहे थे कि तभी जिग्ना ने पलाश से कहा, “आज तो वक़्त भी है और हम यहीं मॉल में है, मुझे तुम्हारे लिए कुछ ख़रीदना है।”

पहले तो पलाश ने मना किया, “इसकी कोई ज़रूरत नहीं है।” लेकिन जिग्ना की ज़िद के आगे उसकी कहाँ चलने वाली थी। वो पिछले कुछ समय से पलाश को कुछ गिफ़्ट देने के लिए पैसे भी जमा कर रही थी और आज उसे मौक़ा मिल गया था, फिर पलाश भी साथ में ही था। फिर क्या था, जिग्ना ने पलाश के साथ EDM मॉल की हर दुकान छान मारी लेकिन उसे कुछ पसंद नहीं आया। जिग्ना भी बिल्कुल पलाश जैसे ही थी, जल्दी कुछ पसंद ही नहीं आता था। अभी भी काफ़ी समय बाक़ी था तो दोनों ने पास ही के पैसिफ़िक मॉल जाने का निर्णय लिया और फिर दोनों चल पड़े रिक्शे से पैसिफ़िक मॉल। पैसिफिक मॉल में भी दोनों ने काफ़ी चक्कर लगाए लेकिन एक लंबी खोज के बाद, आख़िरकार, जिग्ना को एक ग्रे कलर का फ़ुल-स्लीव वाला स्वेटर पसंद आया जिस पर मरून कलर की बार्डर थी। ख़ास बात यह थी कि इस स्वेटर पर आगे की तरफ़ PJ लिखा हुआ था क्योंकि यह PepeJeans का स्वेटर था। पलाश और जिग्ना दोनों को ही स्वेटर बहुत पसंद आया, आख़िर स्वेटर पर लिखा PJ, दोनों के नाम को जो दर्शा रहा था। जिग्ना का पलाश को दिया यह स्वेटर उसके प्यार की निशानी तो था ही, साथ ही आप आगे आने वाले अध्यायों में यह भी देखेंगे कि किस तरह यह स्वेटर, नियति द्वारा निर्धारित उस पल का साक्षी बना जिसने दोनों की ज़िंदगी बदल दी।

मैं तुम्हें कभी नहीं जाने दूँगा

नवंबर 2006

पंतनगर में तीसरे वर्ष का प्रथम सेमेस्टर ख़त्म होने के कगार पर था। समय इस प्रकार उड़ा जा रहा था मानो वह पलाश की नियति को नियत समय से पहले ही गले लगा लेना चाहता हो। दो वर्ष पहले पंतनगर में पढ़ने आए हँसते-मुस्कुराते अल्हड़ चेहरे अब कुछ संजीदा हो चले थे। आख़िर, भावी करियर का सवाल था। समय अपने साथ-साथ सबको ज़िंदगी के उस मोड़ पर ले ही आता है जहाँ इंसान ख़ुद-ब-ख़ुद संदीजा हो जाता है। पलाश के लिए तो यह समय और भी जल्दी आ गया लगता था। उसे अपने भावी करियर की चिंता तो थी ही, साथ-ही-साथ वह तो जिग्ना के साथ भविष्य की चुनौतियों को लेकर भी गंभीर था। दिल्ली की यात्रा तो अब जैसे पंतनगर की कॉलेज लाइफ़ के समय-सारिणी में ही शामिल हो गई थी। वैसे तो पलाश अब पंतनगर में कुछ ही लोगों के क़रीब था, लेकिन प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से उसकी क्लास और हॉस्टल के काफ़ी लोग पलाश की प्रेम-कहानी के बारे में जानते थे। हालाँकि, पूरे मामले की जानकारी तो सिर्फ़ कुछ क़रीब के लोगों को ही थी, जिन्हें पलाश के हर बार की दिल्ली यात्रा के साथ ही व्यक्तिगत बातों के बारे में भी जानकारी होती थी।

इसी बीच पंतनगर में आल इंडिया एजुकेशनल टूर (AIET) की भी घोषणा हो चुकी थी जो कि तीसरे साल के पाठ्यक्रम का ही एक हिस्सा था। AIET की घोषणा तो हो चुकी थी लेकिन इसमें जाना या ना जाना पूरी तरह सबकी अपनी इच्छा पर निर्भर था। फ़िलहाल, यूनिवर्सिटी का एक आधिकारिक कार्यक्रम होने के कारण AIET में जाने के इच्छुक बच्चों को नियत तिथि से पहले पंजीकरण की औपचारिकता पूरी करना अनिवार्य था। पलाश भला इस मौक़े को कैसे छोड़ सकता था। उसकी ज़िंदगी का तो ये ही फ़लसफ़ा था कि हम ज़िंदगी सिर्फ़ एक बार ही जीते हैं।

वो अच्छी तरह जनता था कि वक़्त जो एक बार गया तो लौट कर कभी नहीं आता है और इसीलिए वो ज़िंदगी को भरपूर जीने कि कोशिश तो करता ही था, साथ ही ऐसा कोई भी मौक़ा नहीं छोड़ता था जो उसे जीवन के नये अनुभवों से रूबरू करवाए। उसने AIET में जाने वाले विद्यार्थियों की सूची में अपना नाम पहले ही दर्ज करवा लिया था। पलाश AIET को लेकर बड़ा उत्साहित था क्योंकि यह आल इंडिया टूर था जो पूरे 22 दिनों के लिए निर्धारित था। हालाँकि, अभी टूर की तारीख़ निश्चित नहीं थी लेकिन यह संभवतया दिसंबर के अंतिम सप्ताह में शुरू होने वाला था। ख़ैर, 22 दिन का यह आल इंडिया टूर, पलाश के अभी तक के जीवन का सबसे लंबा टूर होने वाला था और इसके लिए उत्साहित होना तो स्वाभाविक ही था।

पंतनगर यूनिवर्सिटी शहर से दूर तराई क्षेत्र में बसी हुई है। वैसे तो काम चलाने लायक़ हर सामान यूनिवर्सिटी के बाज़ार में मिल ही जाता था लेकिन अगर बड़े बाज़ार की बात की जाए तो निकटतम दूरी पर रुद्रपुर शहर ही था जो कि पंतनगर से 15 किलोमीटर की दूरी पर था। जब भी ज़रूरत पड़ती तो हॉस्टल के सारे लोग शॉपिंग के लिए रुद्रपुर ही जाते थे। पलाश तो पहले ही शॉपिंग का शौक़ीन था, उसे जब भी मौक़ा मिलता था, अक्सर अपने दोस्त UD के साथ रुद्रपुर शॉपिंग करने चला जाया करता था। UD का घर पत्थरचट्टा में था, जो कि रुद्रपुर के रास्ते में ही था तो दोनों के लिए और भी आसानी हो जाती थी। वैसे तो उस समय पंतनगर से रुद्रपुर के लिए ऑटो भी चलते थे जो लगभग 30 मिनट में रुद्रपुर पहुँचा देते थे, लेकिन UD का घर बीच में ही पड़ता था तो दोनों अक्सर उसके स्कूटर से ही रुद्रपुर जाया करते थे।

अगले महीने ही AIET आ रहा था तो इससे अच्छा शॉपिंग करने का मौक़ा और क्या हो सकता था। UD ने भी AIET में जाने के लिए पंजीकरण करवा लिया था। दोनों दोस्तों ने रविवार के दिन रुद्रपुर जाना निश्चित कर लिया। पलाश ने अपने पॉकेट मनी से कुछ पैसे पहले ही बचा रखे थे। दोनों दोस्तों ने ख़रीदारी करने में लगभग पूरा दिन ही लगा दिया। पलाश अपने लिए कपड़े देखते-देखते जिग्ना के बारे में सोच ही रहा था कि उसने जिग्ना के लिए भी कुछ ख़रीदने का मन बना लिया। काफ़ी समय लगाने के बाद उसने जिग्ना के लिए एक पिंक कलर का कैप वाला स्वेटर पसंद कर लिया। यहाँ तक तो ठीक था, लेकिन समस्या यह आ खड़ी हुई कि उसे जिग्ना के लिए कपड़ों का सही साइज़ तो पता ही नहीं था। जिग्ना के पास मोबाइल फ़ोन भी नहीं था कि वो फ़ोन करके तुरंत ही पूछ लेता। समय भी काफ़ी हो चुका था। पलाश सोच ही रहा था कि अब क्या किया जाए?

उसकी नज़र शो रूम में काम करने वाली लड़की पर पड़ी जो कि लगभग जिग्ना के जैसे ही क़द-काठी वाली थी। पलाश ने तुरंत ही बिना झिझके उस लड़की को अपनी परेशानी बताते हुए उसके कपड़ों का साइज़ पूछ लिया। आख़िर पलाश ने जिग्ना के लिए वो पिंक स्वेटर ले लिया लेकिन पलाश को क्या पता था कि यहाँ भी उसकी नियति उसके साथ-साथ चल रही थी। असल में पलाश का जिग्ना को दिया यह पिंक स्वेटर भी PJ वाले स्वेटर की तरह ही उन दोनों की प्रेम कहानी के उन पलों का साक्षी बना जिसके बाद उन दोनों के जीवन में एक नये अध्याय की शुरुआत हो गई थी।

यह सब क्या? कब? और कैसे हुआ? जानने के लिए आपको अगले अध्याय तक तो इंतज़ार करना ही पड़ेगा।

एक तरफ़ तो नियति उन दोनों के साथ हर क़दम पर चलती हुई उन्हें आने वाले समय के लिए तैयार कर रही थी तो दूसरी ओर गुज़रते समय के साथ उनकी मुश्किलें भी बढ़ रही थीं। ऐसा लग रहा था मानो उन दोनों की नियति भी अब उनको उस कठिन समय से सामना करवाने के लिए अधीर हो रही थी।

नवंबर की एक सर्द शाम। पलाश उस दिन लैब क्लासेज़ ख़त्म करके हॉस्टल थोड़ा जल्दी पहुँच गया था। अभी वह हॉस्टल पहुँचा ही था कि जिग्ना का फ़ोन आ गया। कुछ देर की बातचीत के बाद, अगले ही दिन मिलने की बात तय हुई। सौभाग्य से आने वाले दिनों में पलाश की कोई परीक्षा भी नहीं थी, तो उसका जाना निश्चित हो गया। यह पलाश की नियति ही थी, कि यूनिवर्सिटी में औसतन सेमेस्टर के लगभग हर दूसरे दिन कोई-ना-कोई परीक्षा होने के बाद भी वह जिग्ना से मिलने के समय का प्रबंधन बख़ूबी कर पा रहा था।

रात के 9 बजे थे और पलाश रात्री भोजन के बाद अपना कॉलेज बैग लिए गाँधी हॉस्टल के बाहर हल्दीरोड रेलवे स्टेशन जाने के लिए यूनिवर्सिटी शटल का इंतज़ार कर रहा था।

पलाश के क़दम अपने लक्ष्य की ओर बढ़ तो रहे थे लेकिन साथ-ही-साथ वह अपने स्वयं के, स्वयं से ही पूछे गए सवालों और स्वयं के निर्णयों को लेकर ख़ुद के साथ हो रही इन सारी घटनाओं के बारे में अपने दिमाग़ में चल रहे संघर्ष से भी जूझ रहा था। कुछ भी हो, पलाश पूरे जोश से भरा हुआ, अपने किए हुए दृढ़निश्चय पर अडिग था। इस बीच पलाश स्टेशन पहुँच चुका था और साथ ही स्टेशन पर खड़ा कुछ ही समय में आने वाली रानीखेत एक्सप्रेस के जनरल डिब्बे में सीट के लिए होने वाले वास्तविक संघर्ष के बारे में भी सोच रहा था। ट्रेन अपने निर्धारित समय पर थी और थोड़े जद्दोजहद के बाद पलाश को जनरल डिब्बे में सीट मिल ही गई। कुछ ही देर में ट्रेन अपनी रफ़्तार से दिल्ली की तरफ़ बढ़ रही थी। पूरे दिन के कॉलेज और दिमाग़ी कशमकश में थका हुआ पलाश, कब जिग्ना और अपनी प्रेम-कहानी के बारे में सोचता हुआ नींद के आग़ोश में चला गया, पता ही नहीं चला।

क़रीब आती दिल्ली की सर्दी से पलाश की नींद टूटी तो पता चला की ट्रेन 30 मिनट की देरी से चल रही है। नवंबर का महीना और दिल्ली की कंपकंपी छुड़ा देने वाली सर्द सुबह, पलाश बाबू की हालत तो ख़राब होनी ही थी। लेकिन प्यार के जुनून में, क्या समय और क्या सर्दी?

5.30 बजे ट्रेन पुरानी दिल्ली पहुँची और वहीं स्टेशन पर किसी तरह पलाश ने अगले चार घंटे बिताए। हर बार की तरह ही 10 बजे EDM मॉल पर जिग्ना से मिलना तय हुआ था। पलाश समय के मुताबिक़ स्टेशन से ऑटो लेकर EDM मॉल पहुँचकर बेसब्री से इंतज़ार कर रहा था। लेकिन आज शायद होनी को कुछ और ही मंज़ूर था। इंतज़ार करते-करते 11 बजने को आए थे लेकिन ना तो जिग्ना ही आई और ना ही उसका कोई फ़ोन आया। पलाश को पहले ही कहीं-न-कहीं मुश्किलों का पूर्वाभास हो रहा था और अब जब जिग्ना समय पर नहीं आई थी तो वो चिंतित होने लगा था। बहरहाल, उसके पास इंतज़ार करने के अलावा और कोई चारा नहीं था। उसे अंदाज़ा था कि जिग्ना अगर सुबह नहीं आ पाई तो 2 बजे तक तो आ ही जाएगी। वो एक ओर अपने मन को समझा रहा था तो दूसरी ओर मन में उठ रहे ढेर सारे सवालों से परेशान भी था। ऐसा पहली बार हुआ था कि जब जिग्ना अपने तय किए हुए समय पर नहीं आई थी। जिग्ना के आने की उम्मीद के साथ पलाश इंतज़ार कर रहा था, लेकिन रातभर के सफ़र की थकान अब उसकी हिम्मत तोड़ रही थी।

आख़िर, पलाश का इंतज़ार सफल हुआ और लगभग 2 बजे उसे जिग्ना का फ़ोन आया कि वो EDM मॉल पहुँच गई है। परेशान और मुरझाया हुआ-सा पलाश पलभर में ही नये जोश और ताज़गी से भर गया। अगले कुछ ही मिनटों में वह जिग्ना के सामने था। मिलते ही उसने जिग्ना से घर के बारे में पूछा और यह भी पूछा कि उसे आने में देरी क्यों हो गई? जिग्ना ने उसकी बात को अनसुना करके टाल दिया जैसे कि कुछ नहीं हुआ हो। लेकिन पलाश से भला यह सब कहाँ छुपने वाला था। वह तो जिग्ना तो देखते ही भाँप गया था कि कुछ-न-कुछ तो बात है। फ़िलहाल, पलाश ने भी उस पर ज़्यादा ज़ोर नहीं डालते हुए बातों का रुख़ बदल दिया।

कुछ ही देर में दोनों ऑटो में बैठे, यमुना नदी पर बने पुल को पार करते हुए इंद्रप्रस्थ पार्क की ओर बढ़ रहे थे। वे दोनों ही इस पार्क से अब काफ़ी अच्छे से परिचित हो चुके थे। अब उनकी मुलाक़ातें और विचार-विमर्श थोड़े गंभीर हो चले थे। दोनों को ही अपनी आने वाली कठोर परिस्थितियों का अब भली-भाँति आभास हो चला था। हालाँकि, दोनों को ही अपनी उम्र के हिसाब से जीवन का इतना अधिक भी अनुभव नहीं था लेकिन वो जीवन भर साथ रहने का दृढ़ निश्चय कर चुके थे। उसी दिन पलाश ने जिग्ना को उसके लिए लाया हुआ सरप्राइज़ गिफ़्ट, पिंक स्वेटर भी दिया। जिग्ना को वो स्वेटर बहुत पसंद आया, आख़िर वो पलाश के प्यार की निशानी थी। फ़िलहाल, दोनों ख़ुश थे और अपने आगे आने वाले जीवन के नये अध्याय का बड़ी बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे। उस दिन वो 3 घंटे की मुलाक़ात छोटी तो थी, मगर अपने साथ कुछ नये अनुभव ज़रूर लेकर आई थी।

जब इंद्रप्रस्थ पार्क से वापस लौटकर उन्होंने, आनंद विहार से वसुंधरा के लिए रिक्शा लिया तो कुछ अजीब ही दृश्य देखने को मिला। अभी रिक्शा कुछ ही दूर चला था कि आस-पास का माहौल काफ़ी भयावह हो गया था। लोगों में भगदड़ मची हुई थी और एक अजीब-सी धुंध चारों और छाई हुई थी। अचानक ही पलाश और जिग्ना, दोनों की ही आँखों से धुंध के कारण आँसू आने लगे थे। पलाश ने तुरंत ही रिक्शे वाले से भगदड़ का कारण पूछा तो उसने बताया, “थोड़ी देर पहले कुछ आक्रोशित लोगों का समूह किसी कारणवश यहाँ पुलिस चौकी पर धरना दे रहा था। पुलिस ने दंगे भड़कने की आशंका के चलते आँसू गैस छोड़कर भीड़ को भगाने की कोशिश की थी, उसी की वजह से यह धुंध है और आँसू आ रहे हैं।”

पलाश ने रिक्शे वाले को जल्दी चलाकर वहाँ से निकलने को कहा। जिग्ना को सुरक्षित घर पहुँचाना उसकी ज़िम्मेदारी थी इसीलिए वह चिंतित था कि कहीं दंगे में ना फँस जाएँ। रिक्शे वाले ने सूझबूझ से दूसरे रास्ते से होते हुए उन्हें नियत स्थान पर पहुँचा ही दिया, जहाँ पलाश हमेशा जिग्ना को छोड़ता था। पलाश को उसी रिक्शे से वापस आनंद विहार लौट जाना था लेकिन अचानक ही जिग्ना ने रिक्शे वाले वो वहीं रुकने को कहकर पलाश को अपने साथ आने को कहा। पलाश को कुछ समझ नहीं आया और वो उतरकर जिग्ना के साथ चल पड़ा। कुछ ही क़दम की दूरी पर एक निर्माणाधीन इमारत थी। इमारत के बग़ल से गुज़रते हुए दोनों एक निर्माणाधीन दीवार की आड़ में हो गए थे। शाम का समय था, आस-पास कोई नहीं था। अचानक ही जिग्ना ने पलाश को कसकर गले लगा लिया और कहा,“मुझे छोड़कर कभी मत जाना। मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती।”

असल में उस दिन जिग्ना बड़ी मुश्किल से पलाश से मिलने आ पाई थी। जिग्ना की माँ को उसके और पलाश की मित्रता की गहराई का पहले ही आभास हो चुका था, लेकिन माँ को जिग्ना के पिता का व्यवहार भी बहुत अच्छे से पता था। भविष्य में बात आगे ना बढ़े, इसीलिए, उस दिन माँ ने जिग्ना को घर से बाहर जाने से मना कर दिया था। माँ से बहुत विनती करने के बाद भी जब माँ नहीं मानी तो जिग्ना भावुक होकर रो पड़ी और माँ को अपने और पलाश के प्यार के बारे में बता दिया। माँ को तो पहले ही अंदेशा था, आख़िर बेटी की भावनाएँ माँ से कैसे छुपी रह पातीं। सच्चाई जिग्ना के मुँह से सुनकर माँ बहुत ग़ुस्सा हुई और जिग्ना को सिर्फ़ इस शर्त पर घर से बाहर जाने दिया था कि यह पलाश के साथ उसकी आख़िरी मुलाक़ात होगी। माँ अपनी जगह सही थी, उनकी प्रतिक्रिया बिल्कुल एक भारतीय माँ जैसी ही थी। जिग्ना को माँ की बात माननी पड़ी, नहीं तो वो उस दिन पलाश से मिलने नहीं आ पाती। इसीलिए जिग्ना डरी हुई थी, वो नहीं जानती थी की भविष्य में पलाश से मिल भी पाएगी या नहीं।

उस दिन के बाद जिग्ना के लिए उसके घर में परिस्थितियाँ बिल्कुल बदल गई थीं। वह पलाश से मिलना तो नहीं छोड़ सकती थी, लेकिन उस दिन के बाद उसने पलाश के बारे में अपनी माँ को कुछ भी बताना बंद कर दिया था।

पलाश जिग्ना के इस तरह अचानक गले लगा लेने से स्तब्ध था और तब तक जिग्ना के आँसुओं से भीगे अपने कपड़ों को कंधे पर महसूस कर पा रहा था। पलाश को समझते देर ना लगी कि जिग्ना के यूँ भावनाओं में बह जाने के पीछे भी वो ही कारण है जिसकी वजह से वो सुबह भी समय पर नहीं आ पाई थी। पलाश, ने स्थिति को सँभालते हुए जिग्ना को जवाब दिया, “वो किसी भी परिस्थिति में कभी उसे छोड़कर नहीं जाएगा। वह हर हाल, हर परिस्थिति में सदैव उसके लिए तैयार रहेगा।” हालाँकि, पलाश को अभी तक भी पता नहीं था कि आख़िर उस दिन जिग्ना के घर क्या हुआ था?

जल्द ही दोनों ने प्यार के उन सुनहरे और यादगार पलों को अपनी यादों की पोटली में बाँध लिया और जिग्ना अपने घर की ओर चल पड़ी। पलाश भी तुरंत ही रिक्शा लेकर आनंद विहार बस स्टैंड आ गया और फिर ऑटो से पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन। कुछ घंटों बाद पलाश रानीखेत एक्सप्रेस के जनरल डिब्बे में बैठा जिग्ना से मुलाक़ात की कभी ना भूलने वाली यादों को अपने दिल में सहेज रहा था। रानीखेत एक्सप्रेस पलाश को नींद के आग़ोश में लिए अपनी पूरी गति से पंतनगर की ओर बढ़ रही थी और पलाश की नियति कहीं-न-कहीं उसे भविष्य के संघर्ष के लिए तैयार करने में जुटी हुई थी।