बिशम्बर गुप्ता नियमपूर्वक सुबह के पांच बजे बिस्तर छोड़ दिया करते थे और अभी बिस्तर छोड़े मुश्किल से दस मिनट हुए थे कि कॉलबेल बज उठी—पैरों में स्लीपर और तन पर नाइट गाउन डाले वह यह सोचते हुए मुख्य गेट की तरफ बढ़े कि रात-भर फैक्टरी में काम करने के बाद हेमन्त आया होगा।
उनके दरवाजे पर पहुंचते-पहुंचते कॉलबेल दो बार और बजी।
जैसे दरवाजा खुलवाने के लिए कोई बहुत बेचैन हो।
नजदीक पहुंचकर उन्होंने चिटकनी गिरा दी।
दरवाजा तेजी से साथ दूसरी तरफ से धकेलकर खोला गया।
"अरे!" बिशम्बर गुप्ता उछल पड़े—"यह तुझे क्या हुआ, अमित?"
लहूलुहान अमित बेचारा क्या जवाब देता?
सारा चेहरा खून से पुता होने के बावजूद चेहरे पर उड़ती हुई हवाइयां साफ नजर आ रही थीं—सांस इस कदर फूली हुई थी कि जैसे वह मीलों दूर से दौड़कर आ रहा हो, जल्दी से अन्दर आकर उसने दरवाजा बंद कर लिया।
"क्या हुआ यह सब?" अधीर होकर बिशम्बर गुप्ता चीख पड़े—"बस का एक्सीडेण्ट हो गया था क्या?"
"न...नहीं—मुश्किल से जान बचाकर आया हूं।"
"क्या मतलब?"
"अन्दर आइए, पूरी बात वहीं बताऊंगा।" कहने के बाद अमित वहां एक पल के लिए नहीं रुका—बिशम्बर गुप्ता असमंजस में फंसे उसके पीछे लपके—ड्राइंगरूम में पहुंचकर वह धम्म से सोफे पर गिर गया।
"अब तो बताओ अमित—बात क्या...?"
बिशम्बर गुप्ता का दूसरा वाक्य पूरा होने से पहले ही अभी-अभी ड्राइंगरूम में दाखिल हुईं ललितादेवी और रेखा अमित की हालत देखकर चीख पड़ीं।
उनकी चीख सारे मकान में गूंज गई।
"श...शी।" अचानक बुरी तरह भयभीत अमित ने होंठों पर उंगली रखकर बड़े ही रहस्यमय अंदाज में उनसे चुप रहने के लिए कहा।
उसकी इस हरकत से सनसनी फैल गई वहां।
वातावरण रहस्यमय।
बिशम्बर गुप्ता, रेखा और ललितादेवी हतप्रभ एवं बुत के समान खड़े रह गए। चेहरों पर ढेर सारे सवाल, दहशत और आश्चर्य लिए।
किसी के मुंह से बोल न फूटा।
"कोई जोर से न बोले।" अमित ने लगभग फुसफुसाते हुए कहा—"अगर हमारी आवाज पड़ोसियों तक पहुंच गई तो गजब हो जाएगा।"
बिशम्बर गुप्ता से रहा न गया, अमित को झंझोड़ते हुए वे चीख पड़े—"बताता क्यों नहीं कि हुआ क्या है? किसी का खून कर आया है क्या कम्बख्त?"
"नहीं।"
"फिर बात क्या है? तेरी यह हालत कैसे हुई?"
खुद को काफी हद तक नियंत्रित करने के बाद अमित ने कहा—"जो हालात हैं, उनके मुताबिक मुझे लगता है कि हम सभी भाभी की हत्या के जुर्म में फंसने वाले हैं।"
"क...क्या बक रहा है तू?"
"चीखो मत बाबूजी, यह आवाजें अगर पड़ोसियों ने सुन लीं तो हालात और बिगड़ सकते हैं—कल वे भी हमारे खिलाफ अदालत में गवाही देंगे।"
"मगर यह सब आखिर तू बक क्या रहा है? दिमाग फिर गया है क्या? हम लोग भला बहू की हत्या क्यों करने लगे?"
"फिर भी हम फंसने वाले हैं।"
बुरी तरह आतंकित ललिता ने पूछा—"क्या सुचि...?"
"कुछ नहीं पता मम्मी, कुछ नहीं पता कि भाभी कहां हैं? जिंदा भी हैं या नहीं—मैं कुछ नहीं जानता, मगर उनके मां-बाप और भाई कह रहे हैं कि हमने भाभी को मार दिया है। दहेज के भूखे भेड़िए है हम।"
"हे भगवान, यह मैं क्या सुन रही हूं?"
पागल से हो गए बिशम्बर गुप्ता चीखे—"यह क्या बकवास कर रहा है तू—पहेलियां मत बुझा, ठीक से बता कि हुआ क्या?"
अमित ने एक सांस में वह सब बता दिया जो कुछ हापुड़ पहुंचने पर उसके साथ हुआ था, सुनकर रेखा और ललिता की ही नहीं खुद बिशम्बर गुप्ता की भी बुद्धि कुंद होकर रह गई। बड़ी मुश्किल से स्वयं को नियंत्रित करके वे पूछ सके—"बहू के हाथ का लिखा हुआ पत्र तुमने अपनी आंखों से देखा था?"
"हां।"
"क्या तुम्हें यकीन है कि पत्र में वही सब कुछ लिखा था जो तुमने बताया और वह खुद सुचि की ही हैंडराइटिंग में था?"
"जी हां, भाभी की राइटिंग मैं खूब पहचानता हूं—अगर वह पत्र भाभी की राइटिंग में रेखा ने नहीं लिखा था तो निश्चय ही भाभी ने लिखा था।"
"रेखा से मतलब?"
"ऐसा केवल इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि रेखा किसी की भी राइटिंग हू-ब-हू उतार देने में एक्सपर्ट है और संभव है कि इसने भाभी से किसी किस्म का मजाक करने के लिए उनके मायके इस मजमून का पत्र लिख दिया हो?"
"म...मैं भला ऐसा पत्र क्यों लिखूंगी?" रेखा हकला उठी—"ऐसा पत्र लिखकर भाभी से भला किस किस्म का मजाक किया जा सकता है?"
एकाएक बिशम्बर गुप्ता ने घोषणा की—"पत्र तो खुद बहू ने ही लिखा था।"
"आप ऐसा कैसे कह सकते हैं?" अमित ने चौंककर पूछा।
"पिछली घटनाओं और जो कुछ तुमने बताया, उससे जाहिर है, पत्र में लिखा था कि चार तारीख को वह उनसे बीस हजार रुपये लेने जा रही हैं और वह चार ही तारीख थी जब सुचि जिद करके हापुड़ गई, वह अपने पीहर से बीस हजार रुपये लेकर आई—पत्र में जो लिखा था, सुचि उस पर अमल कर रही थी, अतः सिद्ध हो जाता है कि पत्र सुचि ने ही लिखा था।"
"मगर क्यों?" ललिता चीख पड़ीं—"बीस हजार की बात तो दूर, यहां तो उससे कभी किसी ने एक पैसे की भी मांग नहीं की—यह बात तो दिमाग में भी कभी नहीं आई कि सुचि कम दहेज लाई है या अपने पीहर से उसे कुछ लाना चाहिए।"
कई पल के लिए किसी के भी मुंह से बोल न फूटा। अतः तनावपूर्ण खामोशी छा गई वहां और फिर इस खामोशी को बिशम्बर गुप्ता ने तोड़ा—"मौजूदा हालातों में यह बात एक जबरदस्त रहस्य है कि सुचि ने ऐसा पत्र क्यों लिखा, अगर वह हापुड़ से बीस हजार रुपये लाई थी तो वे कहां गए—आजकल वह बहुत ज्यादा जिद क्यों करने लगी थी—घटनाओं से साफ जाहिर है कि उसने खुद बहाना करके बराल से तुम्हें वापस भेजा, मतलब यह कि वह अकेली रहना चाहती थी, सवाल उठता है—क्यों? वह निश्चय ही किसी ऐसे चक्कर में उलझी हुई थी, जिसकी हममें से किसी को जानकारी नहीं हैं—यह हमें पता लगाना होगा कि सुचि किस चक्कर में है?"
"मेरा ख्याल तो यह है बाबूजी कि हमें अपने बारे में सोचना चाहिए।"
"मतलब?"
"इस वक्त हम बुरी तरह फंसे हुए हैं, उस पत्र के रहते पुलिस तो पुलिस, हमारा कोई सगे-से-सगा भी हमारा इस बात पर यकीन नहीं करेगा कि हमने भाभी को दहेज के लिए सताया नहीं था—खुदा-न-खास्ता अगर भाभी को कुछ हो गया तो न केवल हमारी सच्चाई की एकमात्र गवाह खत्म हो जाएगी, बल्कि उनकी हत्या के जुर्म में हम सबके हाथों में हथकड़ियां होंगी।"
रेखा और ललिता के तिरपन कांप गए।
बिशम्बर गुप्ता बोले—"कह तो तुम ठीक रहे हो अमित, हम बेगुनाह हैं—उस पत्र में जो लिखा है वह झूठ है—इस सच्चाई पर कानून के साथ-साथ समाज भी सिर्फ तब यकीन करेगा, जब खुद सुचि हमारी स्थिति स्पष्ट करे, अतः सबसे पहले उसे ढूंढ निकाल लेना जरूरी है।"
"मगर कहां ढूंढें भाभी को?" अमित बोला—"हममें से किसी को इल्म तक नहीं कि इस वक्त वह कहां होगी?"
"अजीब रहस्य है!" बिशम्बर गुप्ता ने दांत भींचकर कसमसाते हुए मेज पर घूंसा मारा—"अजीब उलझन में फंस गए हैं हम!"
"हमें जल्दी-से-जल्दी कुछ करना चाहिए बाबूजी, गनीमत है अभी तक यहां पुलिस नहीं पहुंची हैं, मगर मेरा ख्याल है कि पुलिस किसी क्षण पहुंच सकती है—अगर ऐसा हो गया तो, पहले तो कोई हमारी बात सुनेगा ही नहीं—सुन भी ली तो विश्वास नहीं करेगा, दरअसल सच्चाई पर विश्वास दिलाने के लिए हम लोगों के पास कुछ है ही नहीं।"
पुलिस के आने और हथकड़ियों की कल्पना मात्र से ललिता और रेखा के चेहरे राख-राख नजर आने लगे—रिटायर्ड मजिस्ट्रेट होते हुए बिशम्बर गुप्ता की टांगें कांप रही थीं—और ऐसे समय में कॉलबेल चीख पड़ी।
सभी उछल पड़े।
सिट्टी-पिट्टी गुम-होशो हवास नदारद।
"क...कौन हो सकता है?" रेखा के मुंह से निकला।
अमित बड़बड़ा उठा—"शायद पुलिस।"
रोंगटे खड़े हो गए।
"हमें बेवजह नहीं डरना चाहिए।" बिशम्बर गुप्ता ने विवेक से काम लिया—"यह भी हो सकता है कि फैक्टरी से हेमन्त आया हो।"
सांस में सांस आई।
कॉलबेल फिर बजी।
बिशम्बर गुप्ता ने हुक्म दिया—"तुम देखो ललिता, कौन है?"
"म...मैं?" कभी उनका आदेश न टालने वाली ललिता ने हकलाकर कहा—"न...नहीं—आप ही देखिए, मुझे डर लग रहा है।"
अगर कोई अन्य वक्त होता तो वे ललितादेवी को हुक्म-उदूली करने की सजा जरूर देते, परन्तु उस वक्त कुछ न कहा—दरअसल वर्तमान झमेले में फंसे होने के कारण इस प्वॉइंट की तरफ उनका ध्यान ही न गया कि उनकी पत्नी ने उनके आदेश की अवहेलना की है—चुपचाप दरवाजे की तरफ बढ़ गए।
गैलरी पार करते वक्त उनका दिल बुरी तरह धड़क रहा था।
¶¶
भरसक चेष्टा के बावजूद जब वे अमित तो क्या उसकी परछाई को भी न ढूंढ सके तो हांफते हुए मौहल्ले में वापस आ गए—मौहल्ले के लगभग सभी मर्द वहां भीड़ लगाए खड़े थे, स्त्रियां और बच्चे छज्जों पर।
अमित का पीछा करने वाले दल ने जब यह घोषणा की कि वह भाग निकला है तो मौहल्ले के एक बुजुर्ग ने कहा—"मैं तो पहले ही कह रहा था कि उसे मारो-पीटो मत, पकड़कर पुलिस के हवाले कर दो, मगर उस वक्त किसी ने सुनी ही नहीं।"
पार्वती दहाड़ें मार-मारकर अभी तक विलाप किए जा रही थी।
दीनदयाल बेचारा इस तरह घूम रहा था, जैसे उसका सब कुछ लूट लिया हो। मनोज एक खम्बे में चेहरा छुपाए सिसक रहा था, किसी ने सलाह दी—"इस वारदात की खबर फौरन पुलिस को कर देनी चाहिए।"
"यहां की पुलिस इस मामले में कुछ नहीं कर सकेगी।" किसी ऐसे व्यक्ति ने कहा जो खुद को कानूनी मामलों का मास्टर मानता था—"इसकी रपट एस.पी. को करनी होगी।"
"मगर जो कुछ यहां हुआ है, उसकी रपट तो यहीं के थाने में होगी न?"
"हां, वह हमें कर देनी चाहिए—मुमकिन है कि पुलिस रात-रात ही में अमित को तलाश करके गिरफ्तार कर ले—शायद अभी तक इन लोगों ने सुचि को न मारा हो।"
"यह रपट लिखवाने तो बुलंदशहर ही जाना पड़ेगा कि ये लोग सुचि से दहेज मांगते थे और अब उसकी हत्या कर दी है।" वह महाशय अपना ज्ञान बांट रहे थे।
"सुबह से पहले बुलंदशहर कैसे जाया जा सकता है?"
"सुबह ही सही, मगर जाना तो पड़ेगा ही।" उन्होंने दूसरी राय दी—"और सुनो दीनदयाल, सुचि के पत्र की दस-बीस फोटोस्टेट कॉपी करा लो—आजकल ऐसे मामले में 'ओरिजनल' कॉपी पुलिस के हाथ में देने का भी धर्म नहीं है।''
"इतनी रात में भला फोटो-स्टेट कॉपी कहां तैयार हो जाएंगी?"
एक उत्साही युवक ने आगे बढ़कर कहा—"मेरी फोटोस्टेट की दुकान है—इस काम के लिए मैं रात के इसी वक्त दुकान खोलकर काम करने के लिए तैयार हूं।"
"रोना-धोना छोड़कर पुलिस कार्यवाही शुरू कर दो, दीनदयाल—बेटी तो गई, कहीं ऐसा न हो कि हत्यारे भी फरार हो जाएं, पुलिस...।"
"क्या करेगी पुलिस?" एकाएक पलटकर मनोज ज्वालामुखी के समान फट पड़ा—"क्या वह मेरी मरी हुई बहन को जिंदा कर सकेगी?"
सभी सन्नाटे में आ गए।
कुछ देर के लिए सनसनी-सी फैल गई वहां, फिर एक अधेड़ ने कहा—"सुचि को तो अब कोई वापिस नहीं ला सकता बेटे, मगर पुलिस उसके हत्यारों को सजा जरूर दिलवा सकती है।"
"कोई सजा नहीं दिलवा सकती, चाचा—बुलंदशहर की पुलिस कुछ नहीं करेगी—क्योंकि इनका बाप रिटायर्ड जज है, बुलंदशहर में उसे देवता माना जाता है—अदालतें और पुलिस उनकी उंगलियों पर नाचेगी।"
"ऐसे नहीं कहते, बेटे।"
"सुचि ने अपने पत्र में खुद लिखा है।" मनोज दहाड़ उठा—"नहीं—पुलिस कुछ नहीं करेगी—पुलिस हमें इंसाफ नहीं दिलाएगी, मगर मैं—मैं इंसाफ करूंगा, मैं अपनी बहन की मौत का बदला लूंगा।"
वही महाशय बोल उठे—"कानून को अपने हाथ में नहीं लेना चाहिए।"
"श...शटअप।" मनोज इतनी जोर से दहाड़ा कि महाशय की पतलून गीली होते-होते बची—भावनाओं के भंवर में फंसा मनोज चिल्लाता चला गया—"कौन-सा कानून —किसका कानून—अपना कानून मैं खुद बनाऊंगा—सुचि के एक-एक हत्यारे को चीर-फाड़कर न डाल दिया तो मेरा नाम मनोज नहीं—खून पी जाऊंगा उनका—बोटी-बोटी काटकर चील-कोंवों के सामने डाल दूंगा—उन्होंने मेरी बहन को मारा है, मैं उनके घर में लाशों के ढेर लगा दूंगा।"
सनसनी फैल गई वहां, हर तरफ एक अजीब आतंक।
¶¶
सब कुछ सुनने और समझने के बाद हेमन्त भी हक्का-बक्का रह गया और यदि यह लिखा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी कि सारा वृत्तांत सुनने के बाद उसके चेहरे पर खौफ के चिन्ह रेखा, ललिता, अमित और बिशम्बर गुप्ता की अपेक्षा कुछ ज्यादा ही उभर आए, किन्तु शायद अपनी अभिनय क्षमता से उस अधिकता पर उसने जल्दी ही काबू पा लिया, बोला—"बाकी सब बातें समझ में आईं, मगर जब अमित रात ग्यारह बजे के करीब ही सुचि के मौहल्ले वालों के चंगुल से भाग निकला था तो यहां मुझसे कुछ देर पहले क्यों पहुंचा?"
"उनके चंगुल से मैं बच तो गया, कुछ देर तक गलियों के जाल में भाग-दौड़ करके खुली सड़क पर भी पहुंच गया, मगर अब मैं उन सड़कों पर भाग नहीं सकता था, क्योंकि सड़कें दूर-दूर तक वीरान पड़ी थीं—मेरे भागने से मैं संदिग्ध हो उठता—अतः भागने के स्थान पर तेजी से चलने लगा—कुछ देर बाद मुझे अपने सामने से एक पुलिस जीप आती नजर आई—मैं घबरा गया, मेरी हालत देखकर पुलिस का ध्यान मुझ पर केंद्रित हो जाना स्वभाविक था—लगा कि अगर उन्होंने मुझे देख लिया तो हजार सवाल करेंगे और तब पहली बार मेरे दिमाग में यह ख्याल आया कि पुलिस मुझ ही को भी तो ढूंढती फिर रही हो सकती है, मुमकिन है कि भाभी के घर या मौहल्ले वालों ने पुलिस से रिपोर्ट कर दी हो—पुलिस के चंगुल में फंसने की कल्पना मात्र से मैं कांप उठा और जीप के नजदीक पहुंचने से पहले ही एक गली में दौड़ लिया, उसके बाद—पुलिस के आतंक से डरा-सहमा मैं एक उजाड़ और टूटे-फूटे मकान के कोने से दुबका ठिठुरता रहा—तीन और चार बजे के बीच जब सर्दी मुझसे बरदाश्त न हुई तो वहां से निकला—'पक्के आम' के नजदीक फुटपाथ पर बहुत-सी कारें खड़ी थीं, उनमें से एक कार चुराई और बुलंदशहर आया—यहां कार मैंने घर से काफी दूर इसलिए छोड़ दी, ताकि कार-चोर की तलाश में पुलिस यहां तक न पहुंच सके।"
"सबसे ज्यादा मुसीबतों का सामना तुझे ही करना पड़ा है अमित।"
"जो गुजर गया मैं उसके बारे में नहीं सोच रहा हूं भइया। मैं तो यह सोचकर परेशान हूं, कि अब आगे क्या होने वाला है?"
बात सच थी।
वहां मौजूद हर शख्स यही सोचकर मरा जा रहा था।
हेमन्त तो कुछ ज्यादा ही।
"हमारे ख्याल से सात बजे तक दीनदयाल यहां पुलिस के साथ जरूर पहुंच जाएगा।" बिशम्बर गुप्ता ने कहा—"तब तक हमें अपने बचाव के लिए कोई-न-कोई तर्क या सुबूत ढूंढ लेना चाहिए।"
"लेकिन जब हमें मालूम नहीं है कि भाभी किस चक्कर में उलझी हुई थीं तो हम कर क्या सकते हैं, यह भी कैसे जान सकते हैं कि
इस वक्त वे कहां और किस हाल में हैं?"
"क्या इस बारे में तुम कुछ जानते हो, हेमन्त?"
"म...मैं?"
"मुमकिन है कि सुचि ने तुमसे अपनी किसी परेशानी का जिक्र किया हो?" बिशम्बर गुप्ता ने कहा—"हमारा इशारा किसी ऐसी परेशानी की तरफ है, जिससे निपटने के लिए उसे बीस हजार की जरूरत पड़ी हो?"
"मेरी नजर में तो ऐसी कोई बात नहीं थी।"
"याद करो, मुमकिन है कि उसने स्पष्ट कहने के स्थान पर सांकेतिक अंदाज में कभी कुछ कहा हो या कभी तुमने यह महसूस किया हो कि वह कुछ कहना चाहती है, मगर कह नहीं पाती—इंसान के साथ ऐसा अक्सर अनेक कारणों से होता है।"
"मैंने ऐसा कभी महसूस नहीं किया।"
"फिर आखिर बात क्या थी?" बिशम्बर गुप्ता ने अपने दाएं हाथ का घूंसा बाईं हथेली में मारा, बुरी तरह झुंझला रहे थे वे।
"अगर सुचि के पीहर वाले पक्के तौर पर ऐसा समझते हैं कि हमने उसे मार डाला है तो वे आगे भी हमारे खिलाफ कार्यवाही कर रहे होंगे?" हेमन्त ने संभावना व्यक्त की।
"निःसंदेह।"
"क्या कार्यवाही कर सकते हैं?"
"सुचि का पत्र उनके पास एक ऐसा ठोस प्रमाण है जिसे पुलिस तो क्या, दुनिया का कोई भी व्यक्ति झूठा नहीं कह सकता—उस पत्र के आधार पर वे हम पर सुचि कि हत्या का आरोप लगाएंगे।"
"दरअसल मैं उसी आरोप से बचने की तरकीब सोचने पर जोर दे रहा हूं।" झुंझलाए हुए अमित ने उनके बीच दखल किया।
"जो सच्चाई है, उसे फिलहाल हम लोग सिर्फ जानते हैं—प्रूव नहीं कर सकते और वह इतनी हास्यास्पद भी है कि अगर हर किसी से जिक्र करें तो वह हंसेगा—जिन हालातों में सुचि गायब हुई है, वर्तमान परिस्थितियां उन्हें हमारी स्कीम साबित कर देंगी—यानि लोग यही कहेंगे कि पूरी तरह सोची-समझी स्कीम के अन्तर्गत बहू की हत्या के बाद अब हम एक कहानी घड़ रहे हैं।"
"नाश जाए सुचि का।" ललितादेवी के मुंह से पहली बार ऐसे लफ्ज निकले—"हमने क्या बिगाड़ा था उसका—हाथों पर रखा, पलकों पर बिठाने का यह क्या बदला दिया उसने हमें—जाने किस मुसीबत में फंसा गई?"
"ऐसा नहीं कहते ललिता।"
"और क्या कहूं?" वह बिफर पड़ी—"ऐसी क्या बुराई की थी हमने उसके साथ?"
"निश्चय ही उसकी भी कोई-न-कोई मजबूरी रही होगी।"
"ऐसी क्या खाक मजबूरी थी, जो हममें से किसी से नहीं कह सकती थी, अरे, उसे बीस हजार ही चाहिएं थे तो हममें से किसी से ले
सकती थी—झूठा खत लिखकर पीहर से मंगाने की क्या जरूरत थी?"
हेमन्त अचानक चुटकी बजा उठा।
"क्या हुआ?" बिशम्बर गुप्ता ने आशान्वित नजरों से उसकी तरफ देखा।
"मेरे दिमाग में एक ख्याल आया है।"
अमित ने पूछा—"क्या?"
"हालातों पर अगर गौर किया जाए तो स्पष्ट होता है कि सुचि को पहले ही मालूम था कि उसे सारी रात गायब रहना है, हापुड़ भी नहीं पहुंचना है—पूरी योजना के साथ उसने बराल में अमित से पीछा छुड़ाया।"
"जाहिर है।"
"इस अवस्था में मुमकिन है कि उसने गायब होने की वास्तविक वजह अपने कमरे में कहीं लिखकर रख दी हो?"
"अगर उसका कोई ऐसा पत्र मिल जाए तो फिर सारी समस्याएं ही हल न हो जाएं—जो पत्र उसने पीहर भेजा था, उसका महत्व खुद-ब-खुद खत्म हो जाएगा।"
"आओ।" हेमन्त उठकर खड़ा होता हुआ बोला—"सबसे पहले हमें बारीकी से उसके सामान और कमरे की तलाशी लेनी चाहिए।"
उसके पीछे सभी मन में यह जपते हुए लपके कि—'हे ईश्वर, सुचि का कोई ऐसा पत्र मिल जाए तो हमारी इज्जत बचा सके।'
¶¶
जिस वक्त हेमन्त ने अपने और सुचि के टू-रूम सेट का दरवाजा खोला, उस वक्त उसके साथ-साथ घर के हर सदस्य का दिल बुरी तरह धड़क रहा था।
अगर गूंज रही थीं तो सिर्फ उनके सांसों की सरगम।
कमरे में अंधेरा था।
अंधेरे में ही स्विच तक पहुंचने का अभ्यस्त हेमन्त आगे बढ़ा—उसके स्विच ऑन करते ही कमरा रोशनी से भर गया—धड़कते दिल से वे आंखें फाड़-फाड़कर ड्राइंगरूम के रूप में इस्तेमाल किए जाने वाले इस छोटे से कमरे में मौजूद हर वस्तु को घूरने लगे—हर वस्तु और वातावरण रहस्यमय जरूर महसूस दिया, किन्तु कहीं भी किसी को कोई खास बात नजर न आई थी।
काफी देर की खामोशी के बाद हेमन्त ने कहा—"आप इस कमरे की तलाशी लीजिए बाबूजी, मैं और अमित बेडरूम में देखते हैं।"
जवाब किसी ने नहीं दिया।
बिशम्बर गुप्ता और ललिता उसी कमरे में रह गए—हेमन्त और अमित के पीछे रेखा बढ़ गई—बीच का भिड़ा हुआ दरवाजा खोलने के बाद हेमन्त ने स्विच ऑन किया।
कमरे में रोशनी होते ही रेखा की चीख से सारा मकान झनझना उठा।
चीखें हेमन्त और अमित के मुंह से भी निकली थीं और वे किसी भी तरह रेखा की चीख से कम डरावनी न थीं, मगर वे रेखा की तरह कर्कश न थीं—हेमन्त ने चीते की-सी फुर्ती से झपटकर रेखा का मुंह भींच लिया।
"ख...खून...खून...।" चिल्लाता हुआ अमित कमरे से भागा।
"क...क्या हुआ?" बिशम्बर गुप्ता और ललितादेवी के होश उड़ गए।
पत्ते की तरह कांपता अमित घिघियाया—"ख...खून हो गया है, भ...भाभी को किसी ने मार डाला है, बाबूजी—किसी ने भाभी की हत्या कर दी है।"
ललितादेवी बुत में बदल गईं।
बिशम्बर गुप्ता के होश फाख्ता, काटो तो खून नहीं।
पैरों तले से मानो जमीन निकल चुकी थी।
"भ...भाभी का खून हो गया है, उन्हें किसी ने मार डाला।" पागलों की तरह बड़बड़ाता अमित सारे कमरे में भागा फिर रहा था—उसकी ऐसी अवस्था देखकर बिशम्बर गुप्ता के छक्के छूट गए। इस विचार ने उन्हें आत्मा तक हिला डाला कि शॉक की ज्यादती के कारण अमित का दिमाग कहीं पागल तो नहीं हो गया है, वे चिल्ला उठे—"अमित...अमित...होश में आओ बेटे, क्या हो गया है तुम्हें?"
"भ...भाभी को किसी ने....।"
"श...शटअप।" बिशम्बर गुप्ता दहाड़ उठे।
आगे कुछ कहने के प्रयास में अमित का मुंह खुला-का-खुला रह गया—सूनी-सूनी आंखों से वह सिर्फ उन्हें देखता रह गया, मगर इस अंदाज में जैसे शून्य को घूर रहा हो।
आंखें पथरा गई थीं।
"इस तरह कमजोर पड़ जाने से काम नहीं चलेगा, बेटे।" बिशिम्बर गुप्ता के लहजे में दर्द-ही-दर्द था—"हौसला रखो, अगर हमने साहस छोड़ दिया मेरे लाल तो खुद को निर्दोष साबित नहीं कर सकेंगे!"
"म...मगर हमारी सच्चाई की एकमात्र गवाह भाभी ही तो थीं।"
"वह बात साबित नहीं हुआ करती जो हुई ही न हो।" बिशम्बर गुप्ता ने उसे समझाने की गर्ज से कहा—"हममें से किसी ने सुचि की हत्या नहीं की है, लाश के चारों तरफ ऐसे अनेक सूत्र होते हैं, जिनसे पुलिस असली हत्यारे तक पहुंच जाए—और फिर यह भी तो हो सकता है कि सुचि ने कुछ लिखकर छोड़ रखा हो?"
अमित के चेहरे पर से आतंक का कोई लक्षण कम न हुआ—हां, उसकी वह स्टेच्यू जैसी मुद्रा जरूर टूट गई—बिशम्बर गुप्ता ने ललितादेवी की तरफ देखा—दहशत की प्रतिमूर्ति बनी वे जहां-की-तहां खड़ी थीं।
"अपनी मां को संभालो, अमित।" कहने के साथ ही वे लड़खड़ाते, बल्कि कहना चाहिए कि कांपते कदमों से बेडरूम की तरफ बढ़े।
कमरे का दृश्य देखते ही उनके पैर फर्श पर चिपककर रह गए।
मुंह से निकलनी चाह रही चीख को उन्होंने बड़ी मुश्किल से रोका—चेहरा और शरीर ही नहीं, बल्कि तलवे और हथेलियां तक पसीने से भरभरा उठे।
सख्त सर्दी के बावजूद।
एक बार नजर सुचि की लाश पर पड़ी तो वहीं चिपककर रह गई।
डबलबेड के ठीक ऊपर छत में मौजूद उस लोहे के कुंडे में मजबूत रस्सी का एक सिरा बंधा हुआ था, जिसमें गर्मियों के दिनों में सीलिंग फैन लटकता था—इस रस्सी का फंदा सुचि की गर्दन में और सुचि के पैर बेड से काफी ऊपर थे।
बेड के नीचे एक स्टूल लुढ़का पड़ा था।
सुचि के हाथ दाएं-बाएं लटके हुए थे—जीभ बाहर निकली हुई-सी—आंखों से बिशम्बर गुप्ता को ही देखती-सी महसूस हो रही थी वह।
चेहरा बुझा हुआ और निस्तेज।
लाश को देखते ही वहशत होती थी।
रेखा के मुंह पर हाथ रखे हेमन्त अभी तक लाश को घूरे जा रहा था—चेहरे पर उड़ रही थीं हवाइयां—खौफ-ही-खौफ उसकी कनपटियों
तक नजर आ रहा था—यह तक ध्यान न रहा उसे कि उसने रेखा का मुंह भींच रखा था।
लाश से नजर हटकर बिशम्बर गुप्ता ने उनकी तरफ देखा तो—
"अरे!" चौंककर वे लपके—"रेखा को छोड़ो हेमन्त।"
इतनी देर में हेमन्त को पहली बार होश आया—उसने चौंककर रेखा की तरफ देखा तो घबरा गया, क्योंकि रेखा के जिस्म में कोई हरकत न थी—गर्दन के ऊपर का हिस्सा उसके कंधे पर झूल-सा रहा था।
“लगता है बेहोश हो गई है।” बिशम्बर गुप्ता बोला।
"ऐसा ही लगता है।" हेमन्त को अपनी आवाज किसी गहरे अंधकूप से आती महसूस हुई।
"इसे किसी बिस्तर पर लिटा देना चाहिए।"
हेमन्त बोलना चाहता था, किन्तु मुंह से आवाज न निकली—बेहोश रेखा को उसने ठीक से अपने कंधे पर लाद लिया—कमरे से बाहर निकलकर ड्राइंगरूम में पहुंचा तो ललितादेवी चीख पड़ीं—"क...क्या हुआ—क्या हुआ मेरी बेटी को?"
बेडरूम और ड्राइंगरूम के बीच का दरवाजा बंद करते हुए बिशम्बर गुप्ता ने कहा—"कुछ नहीं, डर के मारे बेहोश हो गई है।"
"हाय मेरी बेटी—मेरी रेखा।"
"श...शटअप।" हेमन्त गुर्रा उठा—"यह रोना-धोना बंद करो, मम्मी, हमारी आवाज अगर किसी पड़ोसी ने सुन ली तो सब धरे जाएंगे।"
ललितादेवी हैरत से आंखें फाड़े अपने आज्ञाकारी बेटे को देखती रह गईं।
हेमन्त रेखा को संभाले आगे बढ़ गया।
उसके पीछे लपकते हुए बिशम्बर गुप्ता ने कहा—"हेमन्त ठीक कह रहा है ललिता।"
"आओ मम्मी।" उन्हें अमित ने संभाला।
सभी नीचे पहुंचे, रेखा के कमरे में उसे बेड पर लिटाते हुए हेमन्त ने कहा—"रेखा की तरफ से घबराने की कोई बात नहीं है—कुछ देर बाद इसे खुद होश आ जाएगा।"
सब चुप रहे।
कुछ देर बाद अमित बड़बड़ाया—"अब हमारे बचाव का हर रास्ता बंद हो चुका है—भाभी की लाश घर में है—पुलिस आती ही होगी, दुनिया की कोई ताकत हमें बचा न सकती।"
"बेकार की बातें मत करो, अमित।" हेमन्त ने झुंझलाए हुए स्वर में कहा—"मैं और बाबूजी ऊपर जा रहे हैं, निरीक्षण करने पर निश्चय ही हमारे हक में कोई सूत्र मिलेगा—तब तक तुम मम्मी के साथ यहीं रेखा के पास रहो—होश में आने पर अगर रेखा चीखने-चिल्लाने की कोशिश करे तो इसे ऐसा मत करने देना।"
अमित के मुंह से बोल न फूटा केवल गर्दन हिलाकर रह गया वह।
¶¶
दोनों में मिलकर बड़ी सावधानी से कमरे का चप्पा-चप्पा छान मारा—हेमन्त ने तो हिम्मत करके पलंग पर चढ़कर फंदे से झूल रही सुचि की लाश तक की तलाशी ले ली, मगर सुचि का पत्र तो क्या, उसके हाथ का लिखा कागज का एक छोटा-सा जर्रा तक न मिला—चेहरे और मस्तिष्क पर हड़बड़ाहट तथा खौफ के साथ घोर निराशा के चिन्ह भी उभर आए।
हताश होकर दोनों ने एक-दूसरे की तरफ देखा।
कैसी अजीब बात थी!
कमरे में एक की प्यारी बहू और दूसरे की जिंदगी—लाश बनी लटक रही थी, मगर वे रो नहीं रहे थे, दु:ख नहीं मना रहे थे—मना भी नहीं सकते थे, क्योंकि कानून के पंजे इंसान को जब अपनी गर्दन पर नजर आएं तो अपना बचाव करने की कोशिश के अलावा उसे कुछ नहीं सूझता।
यही हालत उनकी, बल्कि पूरे परिवार की थी।
"कहीं भी, कुछ नहीं है।" हेमन्त बड़बड़ाया।
आतंक से घिरे बिशम्बर गुप्ता बोले—"कमाल है, कहीं सुसाइड नोट नहीं, जबकि कोई भी व्यक्ति जब आत्महत्या करता है तो आत्महत्या करने की वजह गुबार के रूप में उसके दिल में होती है, जिसे लिखकर वह मरने से पूर्व अपनी आत्मा को गुबार से मुक्त करना चाहता है—उसे सुसाइड नोट कहते हैं और उसी के जरिए अक्सर पता लगता है कि मरने वाले ने आत्महत्या क्यों की?"
"क्या आप यह कहना चाहते हैं कि सुचि ने आत्महत्या की है?"
"लाश की स्थिति और पलंग के नीचे लुढ़के स्टूल से तो यही कहानी बनती है कि इस स्टूल को ठोकर मारकर पलंग से नीचे गिरा दिया।"
"यह सब बातें तो बाद में भी सोची जा सकती हैं बाबूजी, फिलहाल हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पुलिस यहां किसी भी क्षण पहुंच सकती है—जरा सोचिए, इस अवस्था में यदि पुलिस पहुंच गई तो क्या होगा?"
बिशम्बर गुप्ता की सिट्टी-पिट्टी गुम।
"अपने बचाव के लिए सुबूत की तो बात ही दूर, तर्कसंगत बात तक नहीं है हमारे पास—पुलिस के ढेर सारे सवालों का क्या जवाब देंगे?"
"क...कैसे सवाल?" रिटायर्ड मजिस्ट्रेट होते हुए इन असाधारण परिस्थितियों में फंसे बिशम्बर गुप्ता ने मूर्खतापूर्ण सवाल किया।
"सबसे पहले पुलिस यह पूछेगी कि सुचि की लाश यहां कहां से आ गई?"
"ह...हमें क्या मालूम?" बिशम्बर गुप्ता कह उठे—"हम तो सिर्फ इतना जानते हैं कि यह अमित के साथ गई थी—इसी की जिद पर अमित इसे बस में अकेली छोड़कर हेयर पिन लेने बराल से लौटा—उसके बाद, हमने अब से कुछ ही देर पहले यहां सिर्फ इसकी लाश देखी है।"
"यानि सच बोलेंगे?"
"झूठ बोलें भी क्यों?"
"आपके इस बयान पर पुलिस ही नहीं, सारी दुनिया ठहाके लगाकर हंसेगी बाबूजी, कोई नहीं मानेगा कि आपके घर में सारी रात लाश लटकी रही और आपको मालूम ही नहीं—लाश भी बहू की—आज के माहौल में इस समाज का एक बच्चा भी आपकी इस सच्चाई पर यकीन नहीं करेगा और वह भी तब, जबकि सुचि के पीहर वालों के पास एक ऐसा पत्र है, जिसमें साफ लिखा है कि हम इससे दहेज मांगा करते थे।"
बिशम्बर गुप्ता का रहा-सहा रंग भी उड़ गया, बोले—"क...कुछ समझ में नहीं आ रहा है—आखिर यह सब कैसे और क्या हो गया, हम क्या करेंगे?"
"आप मजिस्ट्रेट रहे हैं न, बाबूजी।" हेमन्त ने बड़ा अटपटा सवाल किया।
बिशम्बर गुप्ता बौखला गए—"इस सवाल का मतलब?"
"अदालती कार्यवाही को आप अच्छी तरह जानते हैं, वहां सच वह होता है जो प्रूव हो जाए—झूठ वह जो प्रूव न हो—अपनी कुर्सी पर बैठकर आपने कई बार यह महसूस किया होगा कि सबूतों के अभाव में सच झूठ बन गया है और झूठ सच—कई बार ऐसा होता है कि जब आप जैसा मजिस्ट्रेट अच्छी तरह यह जानता है कि मुलजिम वाले कटहरे में खड़ा व्यक्ति मुजरिम है, किन्तु पर्य़ाप्त सबूतों के अभाव में आप उसे बाइज्जत बरी कर देते हैं।"
"ऐसा होता है, मजबूरी—कानून सबूत चाहता है—यह नहीं कि आपको क्या बात मालूम है, मगर इन सब बातों का जिक्र यहां क्यों?"
"इसलिए कि अदालत में आपका सच झूठ में बदल जाएगा और जो सच नहीं है, वह सुचि के पत्र सबूतों की रोशनी में सच बन जाएगा।"
"आखिर हम क्या करें?" बिशम्बर गुप्ता का दिमाग ठस्स होकर रह गया था।
हेमन्त ने कुछ कहने के लिए अभी मुंह खोला था कि कॉलबेल बज उठी, दोनों इस तरह उछल पड़े जैसे बिच्छू ने एक साथ डंक मारा हो।
"क...कौन हो सकता है?"
"शायद पुलिस।"
रोंगटे खड़े हो गए दोनों के—दिमाग में सांय-सांय की आवाज गूंजने लगी—एक पल के लिए तो दोनों में से किसी के मुंह से बोल न फूटा, फिर अचानक हेमन्त को ख्याल आया कि कहीं अमित दरवाजा न खोल दे। अतः तेजी से बोला—"अगर पुलिस हो तो किसी भी कीमत पर उसे यहां नहीं पहुंचने देना बाबूजी और न ही यह बताना है कि हमनें यहां सुचि की लाश देखी है।"
"ल...लेकिन?"
बिशम्बर गुप्ता कुछ कहने का प्रयास करते रह गए, जबकि हेमन्त उन्हें भी नीचे आने के लिए कहकर तेजी से भागता चला गया।
¶¶
जो बात हेमन्त ने बिशम्बर गुप्ता से कही थी, वहीं उतनी ही तेजी से अमित और ललितादेवी से भी कही—वे कुछ बोल न सके, डरे-सहमें, हक्के-बक्के से हेमन्त को देखते भर रह गए वह।
रेखा को अभी तक होश नहीं आया था।
कॉलबेल तीसरी बार बजी।
रेखा को वहीं छोड़कर उन्हें ड्राइंगरूम में आने के लिए कहता हुआ हेमन्त तेजी से बाहर निकल गया—तब तक हेमन्त के शब्दों की गहराई को तौलते हुए बिशम्बर गुप्ता भी नीचे आ चुके थे, हेमन्त तेजी से लपका।
गैलरी में पहुंचकर उसने ऊंची आवाज में पूछा—"कौन है?"
"पुलिस।"
कान के पर्दों से यह शब्द टकराते ही हेमन्त का दिमाग नाच उठा, टांगें कांप गईं, मगर मजबूरी थी—आगे बढ़कर उसे दरवाजा खोलना ही पड़ा।
दरवाजे पर पांच सिपाहियों के साथ सुनहरे बालों और बलिष्ठ जिस्म वाला एक साढ़े छः फुट लम्बा इंस्पेक्टर खड़ा था—सुनहरी पलकों से घिरी उसके पास किसी बिल्ली की तरह भूरी आंखें थीं, जब उसने यह महसूस किया कि वे भूरी आंखें उसे घूर रही थीं तो पेट से गैस का गोला-सा उठकर, रह-रहकर उसकी पसलियों पर वार करने लगा—संभालने की लाख चेष्टाओं के बावजूद चेहरा कम्बख्त पीला पड़ता ही चला गया।
पुलिस फोर्स के साथ दरवाजे पर दीनदयाल भी खड़े थे—वे उसे कुछ इस तरह घूर रहे थे जैसे कसाई बकरे को घूरता है, हेमन्त बड़ी मुश्किल से कह सका—"आइए।"
"य...यही हेमन्त है, इंस्पेक्टर।" दीनदयाल चीखा।
हाथ में दबे रूल को धीरे-धीरे अपनी बाईं हथेली पर मारते हुए इंस्पेक्टर ने कुछ ऐसे अंदाज में गर्दन हिलाई कि हेमन्त के देवता कूच कर गए—बिना कुछ बोले उसने अन्दर कदम रखा।
हेमन्त यंत्रचलित-सा एक तरह हट गया।
पुलिस फोर्स के साथ दीनदयाल भी ड्राइंगरूम में आ गया—वहां बिशम्बर गुप्ता, ललिता और अमित एक पंक्ति में बुत बने खड़े थे।
चेहरे पर आतंक ही आतंक।
इंस्पेक्टर ने एक-एक को घूरा और जिसको भी उसने घूरा, उसी के पेट में गैस का एक गोला-सा उठकर दिल में टक्करें मारने लगा और फिर वहां गूंजी इंस्पेक्टर की कर्कश आवाज—"आप लोगों को शायद मालूम होगा कि हम यहां क्यों आए हैं?"
"जी।" संक्षिप्त जवाब बिशम्बर गुप्ता ने दिया।
"मेरा नाम पी.सी. गोडास्कर है और आप ही के इलाके के थाने का इंचार्ज हूं। सबसे पहला सवाल मैं आपसे करना चाहता हूं, मिस्टर अमित।"
अमित के तिरपन कांप गए, हलक से निकला—"जी।"
"आपके जिस्म पर इतना खून क्यों है?"
"ज...जी...वो...।" अमित बगलें झांकने लगा, मदद के लिए हेमन्त और बिशम्बर गुप्ता की तरफ देखा उसने, हेमन्त ने तेजी से आगे बढ़कर कहा—"डरो मत अमित, अब तुम पुलिस के संरक्षण में हो—कोई मार नहीं सकेगा, जो कुछ तुम्हारे साथ हुआ है, वह साफ-साफ बता दो।"
दुनिया भर का साहस जुटाकर अमित ने कहा—"मुझे मिस्टर मनोज, दीनदयाल जी और इनके मौहल्ले वालों ने बहुत मारा है।"
"कब?"
"कल रात।"
"आप इनके मौहल्ले में क्यों गए थे?"
जवाब देने से पूर्व अमित ने एक बार फिर हेमन्त और बिशम्बर गुप्ता की तरफ देखा, उनकी मूक स्वीकृति मिलने पर बोला—"कल शाम करीब साढ़े पांच बजे एक टेलीग्राम...।"
अमित सब कुछ ज्यों-का-त्यों बता गया।
सुनने के बाद इंस्पेक्टर गोडास्कर ने पूछा—"जब तुम हेयर पिन लेकर हापुड़ पहुंचे तो पाया कि सुचि वहां नहीं पहुंची है?"
"पिन लेकर नहीं इंस्पेक्टर, क्योंकि पिन तो यहां थे ही नहीं, दरअसल वे तो भाभी की अटैची में ही रखे थे।"
"जो पत्र दीनदयाल ने तुम्हें दिखाया, क्या वह सुचि का ही लिखा हुआ था?"
"लगता तो भाभी का ही था।"
"लगता था से क्या मतलब?"
"यह कि एक नजर से वह राइटिंग मुझे भाभी की ही लगी थी, मगर बहुत ध्यान से नहीं देख पाया, क्योंकि उस वक्त मुझे अपनी जान की चिंता थी, अगर मैं वहां से भाग न आता तो मनोज और मौहल्ले के लोग मुझे मार डालते।"
"क्या उनके चंगुल से निकलने के बाद आप पुलिस की शरण में गए?"
"नहीं।"
"क्यों?" एकाएक गोडास्कर का लहजा किसी सख्त, खुरदरे और कठोर पत्थर की तरह उसके जेहन से टकराया—"आपको थाने में जाकर अपने साथ हुई मारपीट की रपट लिखवानी चाहिए थी, आखिर वे लोग तुम्हें जान से मारने पर आमादा हो गए थे?"
"म...मैं बहुत डर गया था।"
"यहां आकर इसने जैसे ही सारी बातें हमें बताईं, हमने सबसे पहले यही कहा कि पुलिस की शरण में न जाकर इसने गलती की है।" बिशम्बर गुप्ता बोले—"बच्चा है, बुरी तरह डरा हुआ था।"
एकाएक उनकी तरफ पलटकर गोडास्कर ने कहा—"आप तो बुजुर्ग और समझदार हैं।"
"ज...जी—क्या मतलब?" बिशम्बर गुप्ता सटपटा गए।
"आपने इसके यहां पहुंचते ही पुलिस को सूचित क्यों नहीं किया कि आपके लड़के के साथ इतनी जबरदस्त मारपीट हुई है, मेरे ख्याल से यहां पहुंचे मिस्टर अमित को काफी टाइम हो गया है।"
"व...वो बात यह थी इंस्पेक्टर कि आप देख रहे हैं।" बिशम्बर गुप्ता बुरी तरह बौखला गए—"अमित को अभी तक अपने जिस्म और कपड़ों से खून तक साफ करने का भी होश नहीं मिला है, जो कुछ इसने बताया, उससे हम सभी का दिमाग कुंठित हो गया—अभी तक हक्के-बक्के से हैं हम—ठीक से निश्चय न कर सके कि हमें क्या करना चाहिए?"
गोडास्कर की आंखों में एक बार फिर वही सख्ती उभरी जो सामने वाले के पेट में गैस का गोला उठा देती थी, बिशम्बर गुप्ता को घूरता हुआ वह बोला—"यानि अभी तक आप ठीक से अपनी योजना नहीं बना पाए हैं?"
"य...योजना से क्या मतलब?"
"यह मैं आपके पूरे बयान लेने के बाद बताऊंगा, मिस्टर गुप्ता।" गोडास्कर ने एक पल के लिए भी उनके चेहरे से नजर हटाए बिना कहा—"फिलहाल आप मेरे इस सवाल का जवाब दीजिए कि क्या मिसेज सुचि यहां पहुंच गई हैं?"
बिशम्बर गुप्ता के छक्के छूट गए।
होश उड़ गए उनके, क्योंकि इस घाघ इंस्पेक्टर को निरन्तर अपनी ही तरफ घूरता पाकर एक तो पहले ही उनके होश उड़े हुए थे, दूसरे अचानक उसने सवाल भी एकदम सीधा और तीखा ठोक दिया, बोले—"य...यहां से क्या मतलब?"
"मतलब सीधा है, सुचि अगर हापुड़ नहीं पहुंची तो यहीं आई होगी।"
"य...यहां तो वह नहीं आई।"
"तो फिर कहां गई?"
"ह...हम इस बारे में क्या कह सकते हैं।"
"तो फिर आपने अभी तक अपनी बहू के गायब होने की सूचना पुलिस को क्यों नहीं दी, आखिर सारी रात गायब रही है वह?"
इस सवाल ने बिशम्बर गुप्ता का दिमाग भक्क से हवा में उड़ा दिया—अपनी ही उलझनों में इस कदर फंसे रह गए थे कि सुचि के गायब होने जैसी प्राथमिक, स्वाभाविक एवं महत्त्वपूर्ण रपट उनके बचाव का सबसे पहला कवच होनी चाहिए थी—वही बात सामने आने पर वे बुरी तरह गड़बड़ा गए और यह देखकर हेमन्त तेजी से आगे बढ़कर बोला—"बाबूजी तो पहले ही परेशान हैं इंस्पेक्टर, आप उन्हें मानसिक यातनाएं देकर जाने क्या कहलवाना चाहते हैं।"
"मतलब?" इस बार गोडास्कर दांत भींचकर गुर्राया।
हेमन्त की पसलियों पर चोट करते उसके अपने दिल पर पेट से उठा गैस का गोला ठोकरें मार रहा था, उन सबको सहते हेमन्त ने कहा—"बाबूजी ने अभी तो बताय़ा कि सारी बातें कुछ देर पहले ही हमें पता लगी हैं—अमित के जिस्म से खून साफ करने का मौका तक नहीं मिला—कुछ देर बात हम दोनों रपट लिखवाने आपके थाने आने वाले थे।"
"मगर मिसेज सुचि तो रात से...।"
"हमें क्या मालूम कि वह रात से गायब है, हमारी जानकारी में तो वह हापुड़ गई थी—यह बात तो अमित के लौटने पर पता लगी कि सुचि वहां भी नहीं पहुंची है, यानि गायब है?"
"करेक्ट।" गोडास्कर ने कहा—"आपको यही जवाब सूट करता है।"
"स...सूट करने से क्या मतलब?"
"आपके इस सवाल का जवाब भी में बाद मैं दूंगा, पहले यह बताइए कि पिछली रात आप कहां थे?"
हेमन्त खुल गया, मगर खुद को संभालकर जल्दी ही बोला—"म...मैं कहां होता? यहीं—अपने घर में था।"
हेमन्त के इस जवाब ने बिशम्बर गुप्ता को ही नहीं बल्कि ललिता और अमित को भी हैरत के सागर में डुबो दिया, तीनों के दिमाग में एकदम यह सवाल उभरा कि हेमन्त बेवजह झूठ क्यों बोल रहा था? मगर हालात ऐसे नहीं थे कि वे कुछ कह सकते, जबकि गोडास्कर ने उसके जवाब में पूछा था—"यानी घर के दूसरे सदस्यों की तरह आप भी अमित के आने पर बिस्तर से उठे हैं?"
"ज...जी हां।"
"मगर जिस तरह मिस्टर गुप्ता के जिस्म पर नाइट गाउन और आपकी माताजी ने स्लीपिंग सूट पहन रखा है, उस तरह आपके तन पर नहीं है?"
"व...वो क्या है कि मैंने कपड़े चेंज कर लिए हैं।"
"मिस्टर अमित का खून साफ करने तक का समय नहीं मिला, गुप्ता जी को रपट लिखवाने तक का होश नहीं है, मगर आपको इतना होश है कि नाइट ड्रेस उतारकर आप न सिर्फ सूट पहन लेते हैं, बल्कि दुरुस्त अंदाज में टाई भी लगा लेते हैं।"
"अ...आप कहना क्या चाहते हैं?"
"साफ शब्दों में यह कि आप झूठ बोल रहे हैं।"
"झ...झूठ।"
"जी हां, सरासर झूठ।" गोडास्कर का गोरा चेहरा कनपटियों तक सुर्ख हो गया—"ये लिबास बता रहा है कि आप कुछ देर पहले कहीं बाहर से आए हैं।"
"यह बकवास और तुम्हारे दिमाग की मनघड़ंत कल्पना है, इंस्पेक्टर।" हेमन्त दहाड़ उठा—"मेरा लिबास यह बता रहा है कि अमित को साथ लेकर मैं थाने में रपट लिखवाने जाने के लिए तैयार हुआ हूं।"
"अमित को इस हाल में?"
"अमित को इसी हाल में थाने ले जाना जरूरी था, ताकि तुम्हें दिखाया जा सके कि इसे कितनी बुरी तरह पीटा गया है, इसके साथ ही हमें सुचि के गायब होने की रपट भी लिखवानी थी—और हम दोनों यहां से निकलने ही वाले थे कि तुम लोग आ गए।"
"आप अपने इस झूठ से मुझे संतुष्ट नहीं कर पाए हैं, मिस्टर हेमन्त।"
"और तुम वह साबित नहीं कर सकते इंस्पेक्टर गोडास्कर जो करना चाहते हो।"
इस बार मोहक मुस्कान के साथ पूछा गोडास्कर ने—"क्या साबित करना चाहता हूं मैं?"
"शायद यह कि मैं कहीं बाहर से सुचि की हत्या करके लौटा हूं।"
"आप बड़ी जल्दी मेरी मंशा समझ गए?"
"मंशा तो मैं आपकी और अपने ससुर साहब की उसी क्षण समझ गया था, जब अमित के मुंह से वह सब सुना जो इसके साथ घटा है।" हेमन्त कहता चला गया—"मगर जो कहीं हुआ नहीं है, इंस्पेक्टर, उसे आप साबित नहीं कर सकते।"
"यह तो मैं तब साबित करूंगा मिस्टर हेमन्त, जब सुचि की लाश मिल जाएगी, फिलहाल तो केवल यह साबित करना है कि एक पूरी तरह सोची-समझी गई स्कीम के अंतर्गत आप लोगों ने सुचि को कहीं छुपाकर रखा है।"
"ह...हम उसे क्यों छुपाएंगे?"
"यह देखने के लिए कि ऐसा होने पर कानून तुम्हारा क्या बिगाड़ सकता है और जो स्कीम तुम लोगों ने तैयार की है, उससे पुलिस को किस हद तक चकमा दे सकते हो?"
"यह बकवास है।" हेमन्त हलक फाड़कर चिल्लाया।
"बकवास नहीं, हकीकत है मिस्टर हेमन्त।" गोडास्कर उतनी ही बुलन्द के साथ गुर्राया—"न तो कल अंजू की शादी थी और न ही उसकी तरफ से कोई टेलीग्राम दिया गया।"
टेलीग्राम हेमन्त की जेब ही में पड़ा था—सो, उसने निकालकर गोडास्कर को पकड़ा दिया, बोला—"दीदे फाड़-फाड़कर देखिए इसे।"
गोडास्कर के होंठों पर मुस्कान उभर आई, ध्यान से टेलीग्राम का निरीक्षण करने के बाद बोला—"ऐसा टेलीग्राम हापुड़ के बड़े पोस्ट ऑफिस से कोई भी दे सकता है, मिस्टर हेमन्त।"
"हमें ख्वाब नहीं चमका था कि टेलीग्राम अंजू ने नहीं भिजवाया है।"
गोडास्कर ने कैवेण्डर का पैकेट निकाला, एक ठोस सिगरेट सुलगाई और कश लगाने के बाद सारा धुआं गटकता हुआ बोला—"दरअसल इस टेलीग्राम से ही तुम्हारी स्कीम कार्यान्वित होनी शुरू होती है। तुम्हें मालूम था कि अंजू तुम्हारी पत्नी की ऐसी सहेली है, जिसकी शादी का टेलीग्राम मिलने पर वह किसी भी हालत में शादी में शामिल होने जाएगी। इसीलिए हापुड़ से टेलीग्राम दिलवाया गया, जिससे वह शाम को पहुंचे—सो, स्कीम सफल रही और सुचि का अमित के साथ जाना तय हुआ—बराल में जब तुम इन्हें मिले उसे तो मालूम ही था कि पूर्व नियोजित योजना के अनुसार तुम्हें यहां मिलना था—सुचि से तुमने कह दिया कि अब तुम ही उसके साथ हापुड़ चल रहे हो—सुचि को यह सुनकर खुशी ही हुई, अमित योजना के अऩुसार घर के बाकी सदस्यों को स्कीम की कामयाबी की सूचना देने चला आया, परन्तु स्कीम यहीं खत्म नहीं हो गई थी—हेयर पिन वाले बहाने से सुचि को तुमने बस से रास्ते ही में उतार लिया—वह तुम्हारी पत्नी थी, अतः तुम्हारे साथ कहीं भी जाने में उसे उज्र न था, जबकि तुम उसे पूर्वनिर्धारित उस स्थान पर ले, जहां से गए ले जाना चाहते थे, वहां कैद करके वापस यहां लौट आए।"
"जो कुछ तुमने कहा, वह सच्चाई नहीं, इंस्पेक्टर गोडास्कर, सिर्फ एक कहानी है, कहानी भी ऐसी जिसे तुमने अपने दिमाग की कल्पनाओं से घड़ा है और इसीलिए तुम इस कहानी को कभी साबित नहीं कर सकते।"
"हर मुजरिम जब योजना बनाकर जुर्म करता है तो वह यही सोच रहा होता है कि योचना फुल-प्रूफ है और उसका जुर्म कभी साबित होने वाला नहीं है—मगर कहीं-न-कहीं, किसी-न-किसी रूप में ऐसी गड़बड़ जरूर हो जाती है, जो उसे कानून की गिरफ्त में फंसा देती है—अपनी समझ में तुमने भी एक फुल-प्रूफ योजना बनाई थी मिस्टर हेमन्त, मगर मेरे हाथ ऐसा सूत्र लग ही गया, जिससे मैं अपनी बात साबित कर सकता हूं।"
"कैसा सूत्र?"
"सुचि का पत्र।"
हेमन्त तिलमिला उठा—"ऐसा आखिर कौन-सा पत्र है सुचि का?"
"यह लो।" पत्र की एक कॉफी निकालकर गोडास्कर उसकी तरफ बढ़ाता हुआ बोला—"यह उस पत्र की फोटोस्टेट कॉपी है, दीदे फाड़-फाड़कर पढ़ो कि इसमें क्या लिखा है?"
पत्र अकेले हेमन्त ने नहीं, बल्कि बिशम्बर गुप्ता और ललिता ने भी पढ़ा—उनके चेहरे फक्क पड़ते चले गए, जबकि गोडास्कर के होंठों पर नाचने वाली मुस्कान आकर्षक और ज्यादा आकर्षक होती जा रही थी।
¶¶
गोडास्कर ने सिगेरट का अंतिम सिरा फर्श पर डालकर अपने भारी बूट से मसला और बोला—"सारी गड़बड़ इस पत्र की वजह हुई है।"
"क्या मतलब?"
"न यह पत्र होता, न आसानी से तुम पर शक किया जाता और न ही मैं इतनी जल्दी यह समझ पाता कि तुमने सारा काम किस स्कीम के अन्तर्गत किया है।"
"यानि तुमने जो कहानी सुनाई, उसका आधार यह है?"
"हर चीज का आधार यह पत्र है, मिस्टर हेमन्त।" गोडास्कर ने कहा—"इसे पढ़ने के बाद कुछ भी छुपा हुआ नहीं रह जाता, सब कुछ साफ-साफ लिखा हुआ है—इसी ने मुझे सोचने के लिए एक लाइन दी और तुम लोगों से चंद सवाल करने के बाद तुम्हारी स्कीम तक पहुंच गया—क्योंकि न तो लिखित, न ही मौखिक रूप से सुचि का इसके बाद का कोई स्टेटमेंट है, आप मजिस्ट्रेट हैं मिस्टर गुप्ता—कम-से-कम आप तो अच्छी तरह जानते होंगे कि इन हालातों में अगर सुचि मर गई होगी तो इस पत्र का उसका मृत्यु-पूर्व बयान मान लिया जाएगा और यह पत्र न सिर्फ आपको और आपके सारे परिवार को फांसी के फंदे पर झुला देगा, बल्कि पूरे शहर के सामने आपके चेहरे पर पड़ा शराफत का नकाब नौचकर फेंक देगा—जिस बुलंदशहर का बच्चा-बच्चा यह समझता है कि गुप्ताजी बहुत ईमानदार आदमी हैं—जिस बिशम्बर गुप्ता के बारे में यह प्रसिद्ध है कि अपने कार्यकाल में उन्होंने कभी रिश्वत नहीं ली—यह पत्र उसी बिशम्बर गुप्ता को नंगा कर देगा—इस शहर के बच्चे-बच्चे को बता देगा कि बिशम्बर गुप्ता दहेज का लालजी भेड़िया है, अपनी बहू से उसने बीस हजार रुपये मांगे और इतना ही नहीं, इसी बिशम्बर गुप्ता ने अपनी बहू की हत्या तक कर दी।"
"यह गलत है।" बिशम्बर गुप्ता मर्मांतक अंदाज में चीख पड़े—"झूठ है, अपनी बहू से हमने कभी एक पैसा नहीं मांगा।"
"तो क्या इस पत्र में गलत लिखा है?"
"सरासर गलत है।"
"क्या कोई बहू झूठ-मूठ ऐसा पत्र अपने मायके डाल सकती है?"
अचानक हेमन्त चीख पड़ा—"यह पत्र सुचि का लिखा हो ही नहीं सकता!"
"क्या आप यह कहना चाहते हैं कि यह राइटिंग सुचि की नहीं हैं?"
"राइटिंग सुचि की ही लगती है, मगर यह पत्र उसका नहीं हो सकता।"
गोडास्कर हंसा, बोला—"क्या आप खुद नहीं समझ रहे हैं मिस्टर हेमन्त कि आप कितनी अटपटी बात कह रहे हैं?"
"मैं ऐसा सिर्फ इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि सचमुच हममें से किसी ने भी उससे कभी कोई पैसा नहीं मांगा और झूठा पत्र सुचि अपने पीहर लिख नहीं सकती।"
"आपने खुद स्वीकार किया है कि यह राइटिंग सुचि की है।"
"हां—मैंने स्वीकार किया है, क्योंकि मुझे सचमुच यह राइटिंग सुचि की लगती है, मगर जरा सोचने की कोशिश करो, इंस्पेक्टर—मेरे शब्दों की गहराई को समझने की कोशिश करो।"
"क्या समझाना चाहते हैं आप मुझे?"
"क्या ऐसा नहीं हो सकता गोडास्कर कि यह पत्र किसी ऐसे व्यक्ति ने लिखा हो, जो किसी की भी राइटिंग की नकल मार देने में सिद्धहस्त हो?"
"अब बौखलाहट में आप बच्चों जैसी बात करने लगे हैं।"
"क्या मतलब?"
"किसी की राइटिंग मार देने में महारत हासिल रखने वाला व्यक्ति मुझे या आप जैसे साधारण व्यक्ति को तो धोखा दे सकता है, मगर राइटिंग एक्सपर्ट्स को नहीं—वे दोनों राइटिंग्स के फर्क को आसानी से पकड़ लेंगे।"
"यही तो मैं कह रहा हूं, क्यों न हम इस पत्र की राइटिंग का मिलान एक्सपर्ट से सुचि की वास्तविक राइटिंग से कराएं—मुझे पक्का यकीन है कि यह पत्र सुचि का लिखा हुआ नहीं हो सकता।"
काफी देर से खामोश दीनदयाल एकाएक चीख पड़ा—"यह बकवास कर रहे हैं, इंस्पेक्टर साहब, अगर यह पत्र सुचि के अलावा किसी अन्य ने लिखा होता तो इसमें लिखे मुताबिक चार तारीख को सुचि हमारे पास हापुड़ क्यों आती?"
"यह एक संयोग भी हो सकता है, यहां से तो वह केवल यही कहकर गई थी कि आप लोगों से मिलने का उसका बहुत मन कर रहा है।"
"इस पत्र के सम्बन्ध में वहां हमने सुचि से अनेक बातें कीं, इंस्पेक्टर।" दीनदयाल ने सीधे गोडास्कर से कहा—"इसमें लिखी एक-एक बात को सुचि ने केवल स्वीकार ही नहीं किया, बल्कि विस्तारपूर्वक यह भी बताया कि ये लोग उसे किस-किस तरह प्रताड़ित करते थे—बीस हजार रुपये भी लेकर आई है वह।"
हेमन्त और बिशम्बर गुप्ता आदि उसका चेहरा देखते रह गए, जबकि व्यंग्य-भरी मुस्कान के साथ गोडास्कर ने कहा—"कहिए, क्या मिस्टर दीनदयाल की इन तर्कपूर्ण बातों के बाद भी आप यह कह सकते हैं कि पत्र किसी अन्य का लिखा हुआ है?"
"हमें क्या मालूम कि यह सच ही बोल रहे हैं?"
"झ...झूठ और मैं?" दीनदयाल दहाड़ उठा—"मैं भला झूठ क्यों बोलने लगा?"
"अपनी बात को पुख्ता ढंग से साबित करने के लिए।"
गोडास्कर हंसा, बोला—"हालांकि मिस्टर दीनदयाल के झूठ बोलने की कोई वजह नजर नहीं आती मिस्टर हेमन्त और न ही यह बात बिल्कुल पल्ले पड़ती है कि राइटिंग की नकल करने में दक्ष कोई व्यक्ति सुचि के मायके में ऐसे मजमून का पत्र डालकर क्या हासिल कर लेगा—मगर फिर भी, राइटिंग एक्सपर्ट सुचि की वास्तविक राइटिंग से इस पत्र की राइटिंग का मिलान करके दूध का दूध, पानी का पानी कर देगा—और मैं इस पत्र को राइटिंग एक्सपर्ट के पास भेजने को तैयार हूं।"
"थ...थैंक्यू।"
"क्या आपके पास सुचि की वास्तविक राइटिंग है?"
"हां, शादी के बाद जब वह हापुड़ गई थी तो उसने मुझे कई पत्र लिखे थे—मेरी सेफ में उनमें से कोई-न-कोई जरूर पड़ा होगा, मैं लेकर आता हूं।" कहने के साथ ही वह अति उत्साह में ड्राइंगरूम से निकल गया।
बिशम्बर गुप्ता, ललितादेवी और अमित की समझ में नहीं आ रहा था कि हेमन्त क्यों और क्या 'खेल' खेल रहा था?
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"रेखा...ऱेखा।" हेमन्त ने दूसरी बात उसके चेहरे पर पानी के छींटे मारे, साथ ही पुकारा, मगर तब भी उसके जिस्म में हरकत न हुई तो हड़बड़ा गया—वह बेहद जल्दी में और व्यग्र नजर आ रहा था—तीसरी बार की कोशिश के बाद भी जब वह होश में न आई तो उसके चेहरे पर चिंता की लकीरें बिल्कुल साफ नजर आने लगीं।
दरअसल फिलहाल पुलिस से पीछा छुड़ाने की उसके दिमाग में एकमात्र तरकीब यह आई थी कि सुचि के पत्र को संदिग्ध बना दिया जाए—इस तरह वह एक या दो दिन के लिए पुलिस से पीछा छुड़ा सकता था, स्थायी रूप से नहीं।
एकाएक उसके दिमाग में स्थायी रूप से पीछा छुड़ाने की एक तरकीब आई, रेखा पर उम्मीद लगाकर उसने एक जुआ खेल डाला।
मगर अब।
रेखा होश में ही न आ रही थी।
उसे अपने सारे इरादे खाक होते नजर आए तो झुंझलाकर पानी से भरा पूरा गिलास उसके चेहरे पर उलट दिया।
रेखा ने झुरझुरी-सी ली।
"रेखा...रेखा।" आंखों में उम्मीद की किरण लिए उसने झंझोड़ा, आवाज को वह इस कदर बुलंद नहीं होने दे रहा था कि ड्राइंगरूम तक पहुंचे।
रेखा के मुंह से हल्की-हल्की कराहें निकलीं।
उसकी चेतना लौट रही थी, हेमन्त ने और प्रयास किया—रेखा ने आंखें खोल दीं और चंद पल बाद वह पूरी तरह होश में आ चुकी थी, किन्तु यह याद आते ही उसका चेहरा पीला पड़ गया कि वह किन हालातों में बेहोश हुई थी?
"जोर से मत बोलना रेखा, बाहर पुलिस है।"
"प...पुलिस?" सिट्टी-पिट्टी गुम।
"हां, मगर घबराने की कोई बात नहीं है—तुम मेरे साथ ऊपर चलो, इस तरह कि हमारे चलने-फिरने की आवाज ड्राइंगरूम में न पहुंच सके।"
"क्यों?"
"काम है तुमसे।"
"म...मुझसे काम?"
"हां।"
"क्या?"
हेमन्त उसे जबरदस्ती उठाता हुआ बोला—"तुम चलो तो सही।"
"भ...भाभी की लाश कहां है?"
"ऊपर ही।"
"न...नहीं....।" खौफ के कारण रेखा का बुरा हाल हो गया—"म...मैं ऊपर नहीं जाऊंगी, वहां मुझे हार्ट अटैक हो जाएगा भइया—भाभी मर कैसे गईं?"
"सवाल बाद में करना, मैं तुम्हें बेडरूम में नहीं ले जाऊंगा।" इस आश्वासन के बावजूद वह ऊपर चलने के लिए तैयार न हुई, मगर हेमन्त किसी तरह खींच-खींचकर उसे ले ही गया, ऊपर वाले ड्राइंगरूम के सोफे पर बैठता हुआ बोला—"तुम यहां रहो, मैं अभी आता हूं।"
रेखा के मुंह से बोल न फूटा, जबकि दोनों कमरों के बीच का दरवाजा खोलकर हेमन्त बेडरूम में चला गया—सुचि की लाश वहां ज्यों-की-त्यों लटक रही थी।
सारे कपड़े इधर-उधर पहले ही फैले हुए थे।
उसने अपनी शादी की एलबम निकाली—उसी के बीच रखे उसे सुचि के पत्र मिल गए—एक ऐसा पत्र देखकर उसकी आंखें चमक उठीं, जिसका कागज कॉपी के बीच वाले स्थान से फाड़ा गया था, यानि एक साथ दो पेज।
उल्टे-सीधे मिलाकर चार, बीच में पिंस के छेद।
मगर सुचि ने लिख एक ही पेज रखा था।
दूसरा पूरी तरह खाली।
हेमन्त एक पैन और उस पत्र को लिए रेखा के पास आया, बोला—"जल्दी से सुचि की राइटिंग में इस खाली पेज पर सुचि के पत्र का मैटर उतार दो। "
"इससे क्या होगा?"
"सवाल नहीं, जल्दी करो—क्विक।"
"मगर इतनी ज्ल्दी में राइटिंग हू-ब-हू नहीं मिल सकती भइया।"
"नहीं।" हेमन्त गुर्रा-सा उठा—"राइटिंग हू-ब-हू मिलनी चाहिए और काम तुम्हें जल्दी भी निबटाना है, यह किसी एक की नहीं, बल्कि हमारे सारे परिवार की जिंदगी और मौत का सवाल है, रेखा।"
"आखिर बात क्या है?"
"प्लीज, समय मत गंवाओ—जल्दी करो।"
रेखा ने पहले उसी कागज पर जिस पर सुचि ने पत्र लिख रखा था, सुचि की राइटिंग के कुछ अक्षर बनाए, फिर शब्द और कुछ देर की कोशिश के बाद पूरी एक पंक्ति लिखकर बोली—"देखना भइया, ठीक है क्या?"
देखते ही हेमन्त की आंखें हीरों की तरह जगमग करने लगीं—उसे सुचि की राइटिंग और रेखा द्वारा लिखी गई पंक्ति में कहीं भी कोई फर्क नजर नहीं आया, मुंह से बरबस ही निकल गया—"मार्वलस—वैरी गुड, रेखा—अब जल्दी से खाली कागज पर इस पत्र की नकल उतार दो।"
रेखा शुरू हो गई।
हेमन्त का दिल धाड़-धाड़ करके बज रहा था।
अब उसे यह चिंता सताने लगी थी कि पत्र लाने के बहाने नीचे वाले ड्राइंगरूम से हटे उसे काफी देर हो गई थी, वे सोच तो जरूर रहे होंगे—इस बीच बाबूजी, मां और अमित से जाने वह घाघ इंस्पेक्टर क्या-क्या पूछ रहा होगा?
कहीं उनमें से कोई कुछ उल्टा-सीधा न बक दे।
यह शंका भी उसके दिमाग में उभरने लगी थी कि कहीं इतनी देर होती देखकर गोडास्कर स्वयं ऊपर न चला आए—इस कल्पना ने उसके दिमाग को फिरकनी की तरह घुमा दिया था, उसके ऊपर चढ़ आने का मतलब था—
सब कुछ खत्म।
हथकड़ियां, जिल्लत और फांसी।
रेखा अभी आधा ही पत्र उतार पाई थी कि बाहर वाली गैलरी से भारी बूटों की पदचाप गूंजी—हेमन्त के कान कुत्ते की तरह खड़े हो गए।
उछलकर खड़ा हुआ।
हाथ रोककर रेखा फुसफुसाई—"प...पुलिस।"
"तुम अपना काम करो, मैं उसे संभालता हूं।" कहने को तो हेमन्त ने कह दिया, झपटकर दरवाजे की तरफ बढ़ भी गया, परन्तु गोडास्कर की कल्पना मात्र से ही उसके पेट से गैस का गोला उठकर दिल से टकराने लगा था।
बंद दरवाजे पर दस्तक हुई।
"क...कौन है?" हेमन्त की आतंक से सराबोर आवाज।
एक कांस्टेबल की आवाज—"आपको नीचे इंस्पेक्टर साहब बुला रहे हैं।"
स्वयं गोडास्कर नहीं था, यह सोचकर हेमन्त की हिम्मत बढ़ गई, बोला—"उनसे कहना कि ढूंढ रहा हूं, अभी तक मिला नहीं हैं—पांच मिनट में आता हूं।"
"जल्दी आइए।" सपाट स्वर में उस आवाज के बाद दूर होती भारी बूटों की पदचाप। हेमन्त फुसफुसाया—"जल्दी करो रेखा, अगर खुद इंस्पेक्टर ऊपर आ गया तो सुचि की लाश उसकी नजर से बचानी मुश्किल हो जाएगी।"
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