पांच मिनट बाद बेदी को जैसे होश आया। कार दौड़ी जा रही थी। उसने हाथ में दबी रिवॉल्वर को देखा। कई पलों तक उसे घूरता रहा। फिर उसे जेब में डाल लिया। चेहरा निचुड़ा पड़ा था। एक निगाह उसने उदयवीर पर मारी । जो रफ्तार के साथ कार दौड़ाये जा रहा था।
"विजय।" उदयवीर की आवाज में खुशी के भाव थे— “हम कामयाब हो गये।"
बेदी ने सूखे होंठों पर जीभ फेरकर पीछे वाली सीट पर मौजूद शुक्रा को देखा।
शुक्रा ने आस्था को पेट के बल सीट पर लिटाकर उस पर खुद बैठा था। लगभग पूरी तरह जकड़ रखा था और अपनी हथेली आस्था के मुंह पर जमा रखी थी कि वह चीख न सके। परन्तु नीचे फंसी पड़ी आस्था आजाद होने के लिये छटपटा रही थी।
आस्था को संभालने और घबराहट के कारण उसके चेहरे पर पसीना नजर आ रहा था।
शुक्रा, उदय।" बेदी की आवाज में थरथराहट थी--- "म.. मैंने वि... विष्णु को-को गोली मार दी।"
उदयवीर के हाथ स्टेयरिंग पर कांपे। कार लहराई। फिर संभल गई।
शुक्ला के नीचे दबी आस्था ने यह सुनते ही पूरा जोर लगाया कि उसके होंठों पर जमी पड़ी शुक्रा की हथेली हट जाये। लेकिन शुक्रा ने उसकी सोच कामयाब न होने दी।
"तू-तूने गोली मार दी।" उदयवीर के होंठों से सूखा सा स्वर निकला।
"गोली की आवाज, मैंने सुनी थी।" शुक्रा ने अजीब से स्वर में कहा--- "मैंने सोचा तूने यूं ही विष्णु को डराने के लिये गोली चलाई होगी और तू कहता है, तूने विष्णु को गोली मार दी।"
"हां, मैं...।"
"तेरे को गलती लगी होगी। तुझे कौन-सा निशाना लगाना आता है।" शुक्रा बोला--- “गोली चलाकर घबराहट में भाग आया होगा और सोचा कि विष्णु को गोली मार दी।"
"मैं सच कहता हूं।"
“तू अभी होश में नहीं है। घबराया हुआ है, तभी...।"
"मैं कहता हूं मेरी गोली विष्णु को लगी है।" बेदी गुस्से से पागलों की तरह चीख उठा--- "वह मुझ पर झपटा था। मेरा इरादा गोली चलाने का नहीं था। जाने कैसे ट्रेगर दब गया। उसके शरीर से मैंने खून निकलता और उसे गिरते देखा है।"
शुक्रा हक्का-बक्का बेदी को देखता रह गया।
कई पलों तक कोई कुछ नहीं बोला।
अलबत्ता विष्णु को गोली लगी सुनकर, आस्था की तड़पन बढ़ गई थी। वह आजाद होने की चेष्टा कर रही थी। परन्तु शुक्रा उसके होंठों से हथेली हटने नहीं दे रहा था। सड़क पर ट्रैफिक था । होंठों से हथेली हट गई तो उसकी चीख बगल से गुजरते अन्य ट्रैफिक का ध्यान उनकी तरफ हो सकता था।
“शुक्रा।" बेदी के होंठों से कांपता स्वर निकला--- "म...मैंने गोली मार दी, उसकी जान ले ली।"
"अभी चुप कर।" यह सुनकर शुक्रा की हालत भी बुरी हो रही थी, उसे डर था कि कहीं घबराहट में उदयवीर एक्सीडेंट न कर बैठे— “गैराज पर पहुंचकर बात करेंगे।"
उदयवीर गोली मारने वाली बात पर वास्तव में घबराया हुआ था।
बेदी ने चेहरा घुमाया और सामने देखने लगा। उसके चेहरे पर भय की सफेदी नाच रही थी। हाथ-पैरों में कम्पन-सा महसूस कर रहा था। रह-रहकर सूखे होंठों पर जीभ फेर रहा था।
शाम के साढ़े पांच बज रहे थे। सड़कों पर वाहनों की भीड़ बढ़ती जा रही थी।
■■■
उदयवीर कार को गैराज के भीतर ले जाता चला गया। उसके जाने के बाद एक नई कार ठीक होने आई थी। कार का मालिक भी पास खड़ा था। छोकरे कार से चिपके हुए थे।
उदयवीर ने कार का ईंजन बंद करते हुए धीमे स्वर में कहा।
"मैं छोकरों के पास जा रहा हूं। ताकि उन्हें किसी तरह का शक न हो। तुम लोग लड़की को इस तरह केबिन में ले जाना कि यह शोर-शराबा न कर सके। वरना सारा मामला बिगड़ जायेगा।"
बेदी तो ऐसे निचुड़ा लग रहा था, जैसे उसमें जान ही न बची हो ।
शुक्रा का हाल भी खास अच्छा नहीं था।
उदयवीर कार से निकला और खुद को सामान्य रखने की चेष्टा करते छोकरों की तरफ बढ़ गया।
“विजय।” शुक्रा बोला--- “इसे केबिन में कैसे ले जायें। मौका मिलते ही यह शोर डालेगी। उधर छोकरे हैं। कार वाला है। क्या करें ?"
बेदी ने सिर घुमाकर आस्था को देखा, जिसे लिटाये शुक्रा उस पर बैठा उसे दबाये हुए था। एक हथेली जैसे स्थाई तौर पर उसके होंठों पर जमी हुई थी।
"ऐसे ही बैठा रह।" बेदी की आवाज में थकान और घबराहट थी।
"क्या मतलब?"
"हम रिस्क नहीं ले सकते। यह किसी को पता चल गया कि हम लड़की को उठाकर लाये हैं तो सारी मेहनत फिर से खराब हो जायेगी। पहले भी हम सफलता के किनारे पहुंचकर चोट खा चुके हैं। राघव और अंजना की वजह से। इस बार शायद मैं कोई झटका न सह सकूं।" बेदी का स्वर धीमा था।
"लेकिन इस तरह हम कब तक बैठे रह सकते हैं, यह...।"
"जब तक कार ठीक नहीं हो जाती। उसका मालिक उसे लेकर नहीं चला जाता। छोकरे इधर-उधर नहीं हो जाते। तब तक तू इसी तरह इस लड़की को दबाये रख।" बेदी ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी ।
आस्था जोरों से छटपटाई।
शुक्रा ने अपना पूरा ध्यान उसे काबू करने में लगा दिया। जो कार ठीक की जा रही थी। वो वहां से कुछ फासले पर थी। कार में क्या है। वो नहीं देख सकते थे। उदयवीर वहीं था। शुक्रा जानता था कि वो छोकरों को इधर नहीं आने देगा।
बेदी कार के बाहर निकला और थके-भारी कदमों से केबिन की तरफ बढ़ गया।
■■■
शाम के आठ बज रहे थे।
कार का मालिक कार लेकर जा चुका था। छोकरों को भी उदयवीर ने भेज दिया। उसके बाद गैराज के दोनों शटर गिरा दिए। गैराज के भीतर पर्याप्त रोशनी थी।
उदयवीर कार के पास पहुंचा।
शुक्रा वैसे ही आस्था को दबाये बैठा था और अपनी इस ड्यूटी में वह बुरी तरह थककर चूर हो गया था। उदयवीर ने बेचैन भाव से कार का दरवाजा खोला।
"इसे संभाल।” शुक्रा थके स्वर में कह उठा।
उदयवीर और आस्था की निगाहें मिलीं।
"सुन लड़की।" उदयवीर ने आवाज को सख्त बनाने की कोशिश की--- "यह जगह बंद है और कम आबादी में है। यहां चीखने से तेरे को कोई फायदा नहीं होगा और ऐसे में हमें गुस्सा आ गया तो तेरे हाथ-पांव टूट जायेंगे। तोड़ देंगे हम। यहाँ तेरी नहीं चलेगी, समझ रही है कि नहीं।"
आस्था उसे देखती रही।
"हाथ हटा इसके मुंह से ।" उदयवीर उसी स्वर में बोला ।
"चिल्लायेगी ?" शुक्रा ने कहा ।
“चिल्लाकर तो देखे, सिर तोड़कर रख दूंगा इसका। हाथ हटा।" उदयवीर का स्वर कठोर था।
शुक्रा ने उसके होंठों से हाथ हटाया।
आस्था की हालत इस वक्त बुरी हो रही थी। दो घंटे से ज्यादा का वक्त हो गया था। शुक्रा को उसके ऊपर बैठे और मुंह पर हथेली टिकाये। कार की सीट पर पेट के बल सिकुड़ी-सी पड़ी थी । शरीर दर्द हो रहा था। प्रतिरोध करने की हिम्मत बहुत कम हो चुकी थी।
शुक्रा ने दूसरी तरफ का दरवाजा खोला और कार से बाहर निकला ।
"उठ और बाहर निकल।" उदयवीर ने आस्था को घूरा।
आस्था किसी तरह सीधी हुई और सीट पर उठ बैठी।
"क्या चाहते हो तुम लोग?" आस्था के स्वर में गुस्सा था।
“बाहर निकल, मालूम हो जायेगा।" उदयवीर ने दांत भींचकर कहा।
"नहीं, मैं कार से बाहर नहीं...।"
उसके शब्द पूरे होने से पहले ही उदयवीर ने हाथ बढ़ाकर उसकी कलाई पकड़ी और कार से बाहर खींच लिया। आस्था के होंठों से चीख निकल गई।
"ध्यान से।" शुक्रा ने टोका।
उदयवीर ने खा जाने वाली निगाहों से आस्था को देखा।
"कान खोलकर सुन ले तू हमारे कब्जे में है। तभी तक ठीक-ठाक रहेगी, जब तक हमारी बात मानती रहेगी। जो कहें, वह मान। नहीं तो टांगे तोड़कर एक तरफ बैठा देंगे। तेरा भला कहां है, खुद ही सोच लेना।"
"लेकिन तुम लोग चाहते क्या हो, पता तो चले।" आस्था परेशान थी।
"चल जायेगा पता, चल उधर, उस केबिन में।"
आस्था ने उदयवीर को देखा।
"चल ।" उदयवीर ने आस्था की बांह पकड़कर केबिन की तरफ धकेला ।
उदयवीर शुक्रा, आस्था के साथ केबिन में पहुंचे।
बेदी नीचे बिछी चटाई पर दीवार से टेक लगाये थका-सा बैठा था। चेहरा उतरा हुआ था। उसने एक निगाह तीनों पर मारी, फिर मुंह घुमा लिया।
"बैठ जा यहां।" उदयवीर ने कहते हुए आस्था की बांह पकड़कर कुर्सी पर बिठा दिया।
आस्था इन्कार करने की स्थिति में नहीं थी। वह बारी-बारी तीनों को देख रही थी। चेहरे पर अब घबराहट आ चुकी थी। वह समझ नहीं पा रही थी कि यह लोग उसका अपहरण करके क्यों लायें हैं?
शुक्रा उसे घूरता हुआ बोला।
"हम कितने खतरनाक हैं, यह तो तुम देख ही चुकी हो। ऐसा कोई काम मत करना कि हम तेरे पर सारी सख्ती उतार दें। बची रहेगी, अगर हमारी बात मानती रही।" शुक्रा ने शब्दों को चबाकर धमकी भरे स्वर में कहा।
"कम-से-कम यह तो बता दो कि तुम लोग चाहते क्या हो?" आस्था ने संभलकर शुक्रा से कहा।
"जल्दी मत कर, मालूम हो जायेगा।" कहकर शुक्रा ने बेदी को देखा--- "क्या सोच रहा है विजय ?"
"शुक्रा।" बेदी के सूखे होंठ हिले--- "मैंने गोली मार दी, किसी की जान ले ली।"
"बार-बार एक ही बात मत सोच!" शुका के चेहरे पर परेशानी के भाव उभरे--- "वो...।"
"तुम लोग कमीने हो, कुत्ते हो ।" एकाएक आस्था फट पड़ी--- "तुमने मेरे विष्णु की जान ले ली। उसे जान से मार दिया। मेरे प्यार का खून कर दिया। मैं...।"
"चुपकर।" उदयवीर गुर्रा उठा।
"वो हरामी तेरा प्यार था।" शुक्रा गुस्से से कह उठा--- "तू जानती ही क्या है उसके बारे में? एक नम्बर का हरामजादा था वो। तेरे को उससे प्यार हो सकता है। उसे तेरे से नहीं। वो तेरे से अपना कोई काम निकाल रहा था, समझी। वो शांता बहन का भाई था। शांता बहन का भाई। वो लोग जो भी काम करते हैं, सिर्फ दौलत के लिये करते हैं और तेरा बाप दौलतमंद है। अक्ल की अंधी अभी तेरे को कुछ भी नहीं पता।"
"शांता बहन? कौन शांता बहन।" आस्था के होंठों से निकला।
"अभी बात मत कर। बहुत थके हुए हैं। तू ठण्डी-ठण्डी बैठे रहना। यहां से भाग नहीं सकती। शोर करेगी तो तेरे एक-दो दांत टूटेंगे जो कि दोबारा नहीं आयेंगे। हमारे कहने में रहेगी तो मैं तेरे को बहन बनाकर यहां कैद में रखूंगा। चालाकी करेगी तो बुरा भुगतेगी।" शुक्रा ने तीखे स्वर में कहा।
आस्था उसे देखती रही, बोली कुछ नहीं।
"उदय, होटल से खाना पैक करा ला। साढ़े आठ बज रहे हैं। रात को गैराज से निकलना ठीक नहीं होगा। मिले तो बोतल भी लेते आना। आज...।"
"नहीं।" बेदी ने फीके स्वर में टोका--- "बोतल नहीं, लड़की पर नजर रखनी है। पीकर लापरवाह नहीं होना है।"
"विजय ठीक बोलता है।" उदयवीर ने कहा और खाना लाने के लिये बाहर निकल गया।
शुक्रा ने आगे बढ़कर केबिन के दरवाजे की सिटकनी चढ़ाई और आस्था को देखा।
"कोई गड़बड़ मत करना, चुपचाप बैठी रहना।"
आस्था ने दोनों को देखा फिर गुस्से से भरी आवाज में बेदी से कह उठी।
“तुमने विष्णु को गोली क्यों मारी, उसकी जान क्यों ली?"
"चुप कर।" शुक्रा के माथे पर बल पड़े--- "इन्सान के मरने का अफसोस होता है। कुत्ते का नहीं।"
“तुम लोगों ने विष्णु की जान ली ऊपर से उसे कुत्ता कह रहे...।"
शुक्रा ने दांत पीसते हुए पास पड़ी कुर्सी को दोनों हाथों से पकड़कर सिर से ऊपर उठा लिया---
“अब बोल, बोल, कह कुछ।"
शुक्रा का गुस्से से भरा चेहरा देखकर आस्था सहम गई।
“शुक्रा।" बेदी कह उठा--- “होश में आ।"
“ये बार-बार विष्णु का गाना गाकर गुस्सा चढ़ा रही है।" शुक्रा ने सुलगते स्वर में कहा और कुर्सी रख दी।
बेदी ने आस्था को देखा।
"तुम कम बोलो। हम लोग थके हुए हैं। तुम्हें यहां लाने में हमें बहुत मेहनत करनी पड़ी।" बेदी बोला--- “ऐसे कामों की हमें आदत नहीं है। फुर्सत मिलने पर तुमसे बात करेंगे। मुंह बंद ही रखो तो अच्छा है।"
आस्था बेदी को देखती रही।
शुक्रा कुर्सी पर बैठा और सिगरेट सुलगा ली।
बेदी ने दीवार से सिर टिकाकर आंखें बंद की और कह उठा।
“शुक्रा, मैंने उसे गोली मार दी। खून कर दिया। जान ले ली उसकी।" बेदी का स्वर भर्रा उठा ।
"जो होना था, वो तो हो ही गया विजय।” शुक्रा व्याकुल स्वर में कह उठा--- "यह सोचना छोड़ दे कि तूने किसी को गोली मारी है। अपना काम खत्म होने दे। फिर हम इस शहर से दूर निकल जायेंगे। पुलिस तुम्हें कभी भी पकड़ नहीं सकेगी। सब ठीक हो जायेगा।"
बेदी ने आंखें खोलकर शुक्रा को देखा।
“पुलिस का डर नहीं है मुझे। मेरी आत्मा मुझे धिक्कार रही है कि मैंने किसी की जान ले ली। लेकिन वह भी तो बेवकूफ था। मैंने रिवॉल्वर पकड़ रखी थी। फिर भी उसने मुझ पर हाथ डालने की कोशिश क्यों की? मैंने उसे गोली नहीं मारनी थी, लेकिन घबराहट में ट्रेगर दब गया।" बेदी की आवाज में दर्द था।
शुक्रा ने कुछ नहीं कहा, बेचैनी से कश लेते हुए दूसरी तरफ देखने लगा।
आस्था एकटक बेदी को देखे जा रही थी।
■■■
बेदी के रिवॉल्वर से निकली गोली, विष्णु के पेट को दाईं तरफ से उधेड़ती चली गई थी। अगर गोली दो इंच बाईं तरफ होती तो ठीक पेट में जा घुसनी थी ।
छोटे लाल ।
जिसे शांता बहन ने विष्णु पर नजर रखने का काम सौंपा था। विष्णु पर निगाह रखते हुए अपने हिस्से के काम को बाखूबी अंजाम दे रहा था। विष्णु पर निगाह रखने के लिये वह शांता बहन की ही पुरानी कार का इस्तेमाल कर रहा था। चंद पुरानी कारें शांता बहन ने खास जगह रखी हुई थीं। जोकि खरीदी हुई थी परन्तु खरीदने के बाद किसी के नाम ट्रांसफर नहीं करवाया था ताकि जरूरत पड़ने पर कार छोड़कर भी जाना पड़े तो कार के दम पर कोई उस तक न पहुंच सके।
शांता बहन के चंद खास लोग ही उन कारों के बारे में जानते थे कि वह कहां खड़ी हैं। इस काम के लिये छोटे लाल ने भी वहां से कार ले ली थी।
विष्णु और आस्था जब होटल से निकले, छोटे लाल, विष्णु के पीछे लगा तो कुछ आगे जाकर उसे एहसास हुआ कि सफेद एम्बैसेडर कार, विष्णु की कार के पीछे लगी है। छोटेलाल ने तसल्ली के लिये अपनी कार पीछे रखी। विष्णु के साथ-साथ सफेद एम्बैसेडर पर भी नजरें टिकाये रहा। जल्दी ही उसे इस बात का एहसास हो गया कि उसकी सोच गलत नहीं है। एम्बैसेडर विष्णु की कार के पीछे है।
छोटे लाल ने एम्बैसेडर में मौजूद बेदी, शुक्रा और उदयवीर को भी देखा। तीनों चेहरे अनजाने लगे और शरीफों वाले लगे। वह समझ नहीं पाया कि विष्णु का पीछा यह लोग क्यों कर रहे हैं?
छोटे लाल पीछे लगा रहा।
उसके बाद उसने वह सब देखा जो हुआ।
तब मकान के बाहर, कुछ दूर कार में ही बैठा रहा। स्पष्ट तौर पर समझ चुका था कि विष्णु मुसीबत में है। परन्तु उसकी सहायता के लिये आगे इसलिये नहीं जा सका कि वह बे-हथियार था और जो विष्णु पर हाथ डालने की हिम्मत रखते हैं वह यकीनन हथियार बंद होंगे। इतना वक्त भी नहीं था कि खबर करके विष्णु की सहायता के लिये आदमी बुला पाता।
छोटे लाल के पास हौसले की कमी नहीं थी। उस वक्त सिर्फ रिवॉल्वर की कमी थी। इसलिये मामले में दखल नहीं दे सका।
उसके देखते-ही-देखते वह तीनों लड़की को कार में डालकर ले गये। छोटे लाल गोली की आवाज सुनकर परेशान हो उठा था।
वह तीनों ठीक-ठाक थे। तो क्या विष्णु को गोली लगी है।
एम्बैसेडर के वहां से रवाना होते ही छोटे लाल ने अपनी कार आगे बढ़ाई। मकान के सामने रोकी और बाहर निकलकर मकान के भीतर भागता चला गया। विष्णु को उसने फर्श पर गिरा पाया। आस-पास खून था। पेट के दाईं तरफ साइड में गोली लगी थी। छोटे लाल ने जल्दी से विष्णु को संभाला। उसके भारी शरीर को अपनी दोनों बांहों में उठाया और बाहर खड़ी पीछे वाली सीट पर लिटाया और कार दौड़ा दी।
रास्ते में कार उछली तो एक हाथ से पेट दबाये, दांत भींचे विष्णु के होंठों से निकला।
“धीरे।”
विष्णु बैड पर था। डॉक्टर के देख-रेख में था। दवा-दारु हो चुका था। कुछ देर पहले ही छोटे लाल विष्णु को लेकर पहुंचा था। शांता बहन के पास। विष्णु की हालत देखकर शांता का चेहरा कठोर हो गया था परन्तु उसने किसी से कोई सवाल नहीं किया। सत्या को इशारा किया तो सत्या ने डॉक्टर को फोन किया।
पन्द्रह मिनट में डॉक्टर वहां था।
डॉक्टर ने बता दिया कि विष्णु की जान को कोई खतरा नहीं है। वह उसकी मरहम पट्टी करता रहा और शांता-सत्या चेहरों पर कठोर भाव लिए, विष्णु और डॉक्टर को देखे जा रहे थे।
छोटे लाल एक तरफ खड़ा था।
केदारनाथ, खान वाला मूनलाइट होटल संभालने में व्यस्त था मीना सुबह लौटी थी और अभी तक सोई हुई थी। दामोदर को शांता ने सुबह ही किसी खास काम के तहत भेज दिया था।
डॉक्टर ने फारिग होकर शांता को देखा था।
“अब यह ठीक है। मैं सुबह आऊंगा, बैंडीज चेंज करने ।”
“डॉक्टर!" शांता ने शब्दों को चबाकर कहा--- "तुम रात भर विष्णु के पास रहोगे। सुबह बैंडीज चेंज करने के बाद ही जाओगे। विष्णु को इस वक्त तुम्हारी जरूरत है।"
"ठीक है शांता बहन।" डॉक्टर ने फौरन सहमति दी--- "मैं ऐसा ही करूंगा।"
शांता ने छोटे लाल को देखा और कमरे से निकलकर ड्राइंग रूम में आ गई।
छोटे लाल उसके पीछे-पीछे वहां पहुंचा।
"बैठ।" शांता का स्वर सपाट था।
छोटे लाल फौरन बैठ गया।
शांता ने सिगरेट सुलगाई और सोफे पर बैठने के बाद छोटेलाल पर नजरें टिका दीं।
“किसने किया? तूने जो देखा, जानता है, सब कुछ एक ही बार में बता।"
छोटे लाल ने सब कुछ बताकर कहा ।
"अगर गोली न चली होती तो मैं सफेद एम्बैसेडर के पीछे ही जाता, लेकिन..."
शांता ने हाथ उठाया तो छोटे लाल ने मुंह बंद कर लिया।
“तू तभी बोलेगा, जब मैं सवाल पूछूं।" शांता की आवाज में सुलगन थी।
छोटे लाल ने सिर हिलाया।
एम्बैसेडर का नम्बर देखा
"हां, शांता बहन ।" कहने के साथ ही छोटे लाल ने उदय की कार का नम्बर बताया।
"देखने में वह तीनों कैसे लगते थे?"
“शरीफ लोग।"
"शरीफ लोग रिवॉल्वर नहीं रखते। गोली चलाने का हौसला नहीं रखते।" शांता ने उसकी आंखों में झांका।
"कभी-कभी शरीफ लोग भी यह सब काम कर जाते हैं।"
"शरीफ लोग लड़की को उठाते हैं इस तरह?"
"यह उनकी जरूरत पर है कि कब उनको किस चीज की जरूरत है।" छोटे लाल संभलकर जवाब दे रहा था।
“तुम्हारे पास।"
तभी फोन की बैल बजी, शांता की निगाह फोन की तरफ गई।
उसी समय दूसरे कमरे से सत्या आई। फोन उठाकर बात की। फिर पास आकर शांता को फोन दिया।
"दामोदर ।" सत्या ने कहा।
शांता ने फोन लिया।
"बोल ।"
"हमारा दो करोड़ का माल किशनगढ़ की पुलिस ने पकड़ लिया है।" दामोदर की आवाज आई।
"कहां पर?"
"रेलवे क्रॉसिंग के पास ।"
"आदमी पकड़ा गया?"
“नहीं, सब भाग निकले। मैं माल के पीछे आ रहा था। इसलिये मुझे खबर लग गई। पांच मिनट पहले की बात है।"
"पकड़ने वाले पुलिस वाले कौन हैं?"
“पहले कभी नहीं देखा, उनमें एक हवलदार है। जिसे पहचान रहा हूं।" दामोदर की आवाज कानों में पड़ी।
"पुलिस वालों से बात कर ले, कितने पर माल छोड़ते हैं। फोन कर देना। पैसे अभी पहुंच जायेंगे।" कहने के साथ ही शांता ने फोन सत्या को दिया, तो सत्या ने फोन लेकर वापस रख दिया और वहीं खड़ी रही।
"तुम्हारे पास रिवॉल्वर क्यों नहीं थी?" शांता की निगाह छोटे लाल पर जा टिकी।
"शांता बहन।" छोटे लाल धीमे स्वर में बोला--- “तुम तो जानती हो कि शुरू से ही रिवॉल्वर को जेब में रखने की मेरी आदत नहीं है। वैसे भी इस काम में रिवॉल्वर की जरूरत नहीं थी।"
“अब से रिवॉल्वर रखा कर।"
“ठीक है शांता बहन ।'
“उन तीनों को देखेगा तो पहचान लेगा?" शांता का स्वर सख्त था।
"हां। तीनों के चेहरे मेरे दिमाग में हैं।"
"उनकी कार का नम्बर तेरे पास है। मालूम कर वह किसके नाम रजिस्टर्ड है।"
"कल दिन में मालूम हो जायेगा शांता बहन ।"
"तेरे ख्याल में वो तीनों जानते होंगे कि विष्णु कौन है या गलती से इस मामले में आ गये।"
"कह नहीं सकता।"
“ठीक है, तू जा। कार के नम्बर से उनके बारे में मालूम कर ।"
छोटे लाल उठा और वहां से चला गया।
सत्या उसके पीछे-पीछे गई और ग्रिल का ताला लगाकर वापस आ गई।
"विष्णु की जान भी जा सकती थी।" सत्या ने कठोर स्वर में शांता से कहा--- "गोली जिस तरह पेट में लगी है। उससे यह तो स्पष्ट है कि गोली चलाने वाले को इस बात की परवाह नहीं थी कि विष्णु मरता है या जिन्दा रहता है।"
शांता बिना कुछ कहे उठी और दूसरे कमरे में विष्णु के पास पहुंची। डॉक्टर पास ही कुर्सी पर बैठा अखबार पढ़ रहा था। शांता के आने पर भी उसने अखबार पर से निगाहें नहीं हटाई। जाहिर था कि शांता का वह पुराना डाक्टर है। शांता के खास घायलों का इलाज वो ही करता है।
विष्णु बैड पर पीठ के बल लेटा था।
पास पहुंचकर शांता ने विष्णु को घूरा। सत्या भी वहां आ गई थी।
"कौन थे वो लोग ?" शांता ने पूछा।
“मैंने उन्हें पहले कभी नहीं देखा।" विष्णु ने धीमें स्वर में कहा।
"लड़की को क्यों ले गये?"
"मालूम नहीं।"
"वो जानते थे कि तू विष्णु है। मेरे परिवार का है।"
"हां, वो मुझे नाम से बुला रहे थे।"
"मतलब कि वो तेरे बारे में जानते थे कि तू मेरा भाई है।" शांता का चेहरा बेहद कठोर हो उठा।
विष्णु कुछ नहीं बोला।
"और कुछ जानता है उनके बारे में?
"उनके नाम।"
"बोल!"
"जिसके हाथ में रिवॉल्वर थी, उसका नाम विजय था। दूसरा शुक्रा और तीसरे को वे उदय कह रहे थे।"
"कुछ और?"
"नहीं।" विष्णु का स्वर शांत था--- "इसके अलावा उनके बीच और कोई जिक्र नहीं हुआ।"
"वे तीनों एक-दूसरे का नाम ले रहे थे।" शांता बोली--- "इसका मतलब वे नये लोग थे।"
"हां, वे शरीफों की जमात के थे।” विष्णु ने धीमें स्वर में कहा--- "रिवॉल्वर वाला ठीक से रिवॉल्वर भी नहीं पकड़ पा रहा था। वह घबरा रहा था। उसके हाथ-पांव कांप रहे थे। एक बार तो बीच में चक्कर आने की वजह से गिर पड़ा था। मुझे लगता है, उसने रिवॉल्वर पहली बार पकड़ी थी।"
शांता की आंखें सिकुड़ीं।
"तो फिर गोली निशाने पर कैसे लगी?"
"मेरी गलती से।” विष्णु के चेहरे पर किसी तरह का भाव नहीं था--- "वे आस्था को उठा ले जा रहे थे। मैं गुस्से में होश खो बैठा और उस पर झपट पड़ा। घबराहट में उससे ट्रेगर दब गया।"
“किस बात पर गुस्सा आया तेरे को। लड़की जाने का या पच्चीस करोड़ जाने का ??
"चालीस करोड़ जाने का।" विष्णु का स्वर पहले जैसा ही था--- "आस्था पर काबू पाने के बाद तुमसे बात करनी थी कि उसके बाप से चालीस लिए जाएं। आस्था से मालूम पड़ा था कि वधावन के पास बहुत ज्यादा पैसा है।"
शांता ने कुछ नहीं कहा, सिर्फ मुस्कराकर सिर हिला दिया।
"अब तो आस्था हाथ नहीं आयेगी।” विष्णु पुनः बोला, “वो तीनों जाने उसे क्यों ले गये हैं।"
"दो-चार दिन में वह हमारे कब्जे में होगी।" शांता के स्वर में दृढ़ता थी।
"कैसे?"
उसके सवाल पर जवाब न देकर शांता ने पूछा।
"उस वक्त तुमने रिवॉल्वर निकालकर उन्हें निशाना क्यों नहीं बनाया?"
“मौका नहीं मिला, रिवॉल्वर निकालने का। सब कुछ बहुत जल्दी हुआ।” विष्णु ने कहा ।
शांता बिना कुछ कहे पलटकर, ड्राइंग रूम में आ गई।
कुछ देर बाद सत्या वहां पहुंची।
“मां, पैग बना।"
सत्या ने फौरन पैग तैयार किया और शांता को दिया। शांता ने घूंट भरा।
"मां, विष्णु हमें धोखा दे रहा है।" शांता का स्वर शांत था।
सत्या की निगाह शांता के चेहरे पर जा टिकी ।
"विष्णु की चालीस करोड़ की बात झूठी है। वह उस लड़की से प्यार करने लगा है। उसे ले जाते देखकर वह पागलों की तरह रिवॉल्वर वाले पर झपट पड़ा था। तभी इसे गोली लगी।" शांता ने शांत स्वर में कहा।
"जब यह काम खत्म हो तो लड़की को उसके बाप को वापस कर देना।” सत्या ने कठोर स्वर में कहा--- “फिर दस-पंद्रह दिन के बाद लड़की को खत्म करवा देना। नहीं तो विष्णु उसकी चाहत में भटक जायेगा। जबकि विष्णु ने सारी उम्र हमारे साथ काम करना है। कुछ महीने पहले ही तो शरीफों के हॉस्टल से पढ़कर लौटा है। इन कामों में, पकने में कुछ वक्त तो लगेगा। जब पूरी तरह अपने परिवार के ढांचे में ढल जायेगा तो फिर कभी किसी लड़की को दिल से नहीं चाहेगा।"
"तू ठीक कहती है मां। बाद में डॉक्टर की लड़की को खत्म करना जरूरी है। विष्णु को रास्ते पर लाने के लिये।” शांता ने शांत स्वर में कहा और हाथ में पकड़ा गिलास एक ही सांस में खत्म कर दिया।
■■■
रात उन चारों ने केबिन में ही गुजारी।
बारी-बारी जागकर, उन्होंने आस्था पर निगाह रखी। कोई भी ठीक तरह से नींद नहीं ले पाया था। आस्था रात भर उन्हें शक भरी निगाहों से देखती रही।
दिन निकला तो सबकी आंखें नींद से भरी हुई थीं।
उदयवीर ने गैराज में मौजूद स्टोव पर बिना दूध की चाय बनाई। चाय के लिये दूध तो बाजार से छोकरे लाते थे। आस्था के लिये भी चाय बनाई। परन्तु उसने चाय के गिलास को हाथ तक नहीं लगाया।
किसी ने उसे कहा भी नहीं कि चाय पी ले।
बेदी ने काली चाय का घूंट भरा और शुक्रा-उदयवीर को देखते हुए बोला।
"अब हमें अपना काम शुरू कर देना चाहिये। मैं डॉक्टर वधावन से बात करता हूं।"
"लेकिन उससे पहले मैं कुछ कहना चाहता हूं।" उदयवीर ने सोच भरे स्वर में कहा।
"क्या ?" बेदी ने उसे देखा ।
"इस काम को निपटने में पांच-सात दिन तो लग ही जायेंगे।"
"हां।"
"तो इतने दिन इस लड़की को यहां रखना ठीक नहीं।"
"क्यों ?"
"यहां लोग कारें ठीक करवाने आते हैं। गैराज के लड़के दिन भर यहां रहते हैं। केबिन में भी वे आ सकते हैं।" उदयवीर का स्वर गम्भीर था--- "और यह लड़की किसी भी वक्त, कोई फसाद खड़ा कर सकती है। हमारे लिये कोई नई मुसीबत खड़ी हो सकती है। जबकि इस वक्त हम किसी मुसीबत का सामना करने की हालत में नहीं हैं।"
"उदय ठीक कहता है।" शुक्रा ने सहमति में सिर हिलाया।
"लेकिन इसे रखने के लिये, इस वक्त कोई नई जगह कहां से पैदा करें।" बेदी बोला।
"यह सोचने वाली बात है।"
तभी खामोश बैठी आस्था ने बेदी से कहा ।
"तुम अभी कह रहे थे कि तुम मेरे पापा से बात करोगे?"
"हां।" बेदी ने उसे देखा ।
“मतलब कि मुझे किडनैप करके, छोड़ने के लिये पापा से पैसे मांगोगे ?"
"नहीं ऐसी कोई बात नहीं ।"
आस्था के चेहरे पर उलझन उभरी।
"तो फिर क्या चाहते हो पापा से? मुझे तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा।"
"समझने की जरूरत भी नहीं है। आराम से बैठी रहो।" बेदी ने शांत स्वर में कहा।
"आखिर मुझे भी तो पता चले कि तुम लोग दौलत नहीं चाहते तो आखिर पापा से चाहते क्या हो?" आस्था की निगाह शुक्रा और उदयवीर पर भी गई--- "क्या वजह है मुझे उठा लाने की।"
"तुम जानकर क्या करोगी?” बेदी ने उसे घूरा।
"शायद मैं तुम लोगों की सहायता कर सकूं।"
"सहायता? हमने तुम्हें उठाया है। इस पर भी तुम हमारी सहायता क्यों करोगी?" बेदी का स्वर कठोर हो गया।
"वह सहायता मैं अपने लिये करूंगी। क्योंकि मैं इस कैद से निकलना चाहती हूं। मैं इस तरह नहीं रह सकती।” आस्था ने कहा।
"हमें जो करना है। वह तुम्हारी सहायता के बिना भी कर सकते हैं।" शुक्रा ने सख्त स्वर में कहा--- “अगर तुम अपनी सहायता करना चाहती हो तो जब तक हमारी कैद में हो शराफत से रहो। यही हमारी और तुम्हारी भी सबसे बड़ी सहायता होगी ।
आस्था बारी-बारी तीनों को देखने लगी।
"तुम जानना चाहती हो कि हम क्या कर रहे हैं?" बेदी का स्वर गम्भीर था।
आस्था की निगाहें बेदी पर जा टिकीं।
"डॉक्टर वधावन से मैंने ऑपरेशन कराना है।"
"ऑपरेशन?" आस्था के होंठों से निकला।
"हां।"
“तो इसमें दिक्कत क्या है? पापा ने क्या ऑपरेशन के लिये मना किया है।" आस्था कह उठी।
“नहीं, ऑपरेशन के लिये मना नहीं किया। लेकिन ऑपरेशन की फीस बारह लाख देने को मेरे पास नहीं है। जबकि ऑपरेशन का जल्दी होना जरूरी है। हमारे पास इतना वक्त नहीं कि बारह लाख का इन्तजाम किया जा सके।"
"कैसा ऑपरेशन है?” आस्था का भय अब कम होता जा रहा था।
दो पल ठिठक कर बेदी ने कहा।
"बैंक में डाका पड़ रहा था और मैं वहां बुरी किस्मत लेकर पहुंच गया। बैंक लूटने वालों की एक गोली मेरे सिर में, दिमाग में आ लगी इत्तफाक से वह गोली दिमाग के दोनों हिस्सों के ठीक बीच में फंस गई। मैं मरा नहीं, जिन्दा रहा। वह गोली अब भी मेरे दिमाग में फंसी पड़ी है।"
“क्या?" आस्था के होंठों से हैरानी भरा स्वर निकला।
"हां, और डॉक्टर का कहना है कि अगर गोली न निकाली गई तो दो महीने से ज्यादा मैं जिन्दा नहीं रहूंगा। जबकि मुझे अपनी जिन्दगी से बहुत प्यार है। मैं मरना नहीं चाहता।" बेदी का स्वर भारी हो गया।
"यह ऑपरेशन तो तुम किसी भी डॉक्टर से करा सकते हो।" आस्था के होंठों से निकला।
"हां, कोई भी डॉक्टर यह ऑपरेशन कर सकता है। लेकिन उस कोई भी डॉक्टर का कहना है कि ऑपरेशन नाजुक है। जान भी जा सकती है। डॉक्टर शत-प्रतिशत गारंटी नहीं देते और ऐसे डॉक्टर से ऑपरेशन कराकर मैं खामखाह मरना नहीं चाहता। उन्हीं डॉक्टरों का कहना है कि अगर डॉक्टर वधावन यह ऑपरेशन करें तो ऑपरेशन सफल रहने की पूरी गारण्टी देंगे। वधावन से बात करने पर उसने गारण्टी दी, लेकिन साथ में बारह लाख फीस भी सुना दी। जो मेरे बस से बाहर की बात है।" कहकर बेदी ने गहरी सांस ली--- "यह सब बातें मैं तुम्हें इसलिये बता रहा हूं कि तुम बार-बार अपने सवाल दोहराकर, हमें परेशान मत करो।"
कई क्षणों के लिये वहां चुप्पी रही।
फिर आस्था सिर हिलाकर कह उठी।
"तो तुम लोगों ने मेरा अपहरण इसलिये किया है कि पापा तुम्हारा ऑपरेशन मुफ्त में कर दें। फीस न लें।"
"हां, यह दोनों मेरे दोस्त हैं। मेरे लिये खतरा उठा रहे हैं।"
आस्था ने उदयवीर और शुक्रा पर निगाह मारी।
"जब तुम्हारे पापा ऑपरेशन करके मेरे दिमाग से गोली निकाल देंगे तो हम तुम्हें छोड़ देंगे।"
"मामूली सी बात है। पापा तुम्हारा ऑपरेशन कर देंगे। मेरे लिये वह सबकुछ कर सकते हैं।" आस्था के स्वर में दुख भर आया--- "लेकिन विष्णु की जान लेकर तुमने गलत काम किया है। वह मेरा प्यार था। हम बहुत जल्द शादी करने जा रहे थे, वह...।"
"विजय ने उसकी जान लेकर तेरा भला किया है। इसका धन्यवाद अदा कर।” शुक्रा गुस्से से कह उठा।
"क्या मतलब?" आस्था ने शुक्रा को देखा।
"कौन था विष्णु, जानती है तू ?"
"कौन से क्या मतलब?"
“मतलब, उसका घर-बार, काम-धंधा, क्या जानती है तू उसके बारे में?" शुक्रा गुस्से में था ।
आस्था उसे देखती रही, माथे पर बल नजर आने लगे।
"चुप क्या है। बता, विष्णु क्या काम करता था? तूने कभी पूछा, पूछा तो उसने क्या बताया ?"
"मैंने पूछा था लेकिन वह टाल गया बात को ।”
"टालता नहीं तो क्या तेरे सामने अपना कच्चा चिट्ठा खोल देता।” शुक्रा ने दांत भींचकर कहा--- "तूने उससे उसके घर वालों के बारे में तो पूछा होगा कि उसके घर में कौन-कौन हैं, क्या करते हैं, ऐसी ही बातें ?"
"पूछा था।" आस्था के माथे पर अभी भी बल थे--- "इस बारे में भी वह टालता ही रहा।"
“तो इसके सिवाय वह और कर भी क्या सकता था।" शुक्रा ने पहले वाले स्वर में कहा— “सुन, कान खोलकर सुन, वह गुण्डा-बदमाश-मवाली था।"
आस्था धीरे से चौंकी।
“क्यों झूठ बोल रहे हो, विष्णु निहायत ही शरीफ इन्सान...।"
“उसकी शराफत के चर्चे मैं तेरे को सुनाता हूं ताकि तेरे दिल को ठण्डक पहुंचे और तू शान्ति से बैठे।" शुक्रा ने एक-एक शब्द चबाकर कहा--- “दादागिरी करना उनका पुश्तैनी धंधा है। पूरे परिवार का बहुत खतरनाक गैंग है उनका। पहले गैंग को उनका बाप केदारनाथ चलाता था। लेकिन उसकी बेटी शांता, जवान होने पर अपने बाप की मां की भी मां निकली और बाप को एक तरफ बिठाकर, गैंग खुद चलाने लगी और बाप से कहीं ज्यादा नाम कमाया। शांता के नाम से हर कोई खौफ खाता है। लोग उसे शांता बहन कहते हैं। बड़ा भाई दामोदर, छोटा विष्णु और छोटी बहन मीना, सब उस गैंग के खतरनाक मैम्बर हैं। शांता बहन की मां सत्या, शांता के सारे कामों का लेखा-जोखा रखती है । बाप केदारनाथ भी शांता के इशारे पर काम करता है। अण्डरवर्ल्ड में इन लोगों की बहुत पहुंच है। जरूरत पड़ने पर किराये के ढेरों खतरनाक लोग इकट्ठा कर लेते हैं। शांता बहन के इशारे पर सारा परिवार चलता है। विष्णु भी चलता था। वह लोग वही काम करते थे, जो शांता बहन करती है। ऐसे में विष्णु तेरे से प्यार कर रहा था।"
आस्था हक्की-बक्की शुक्रा को देखे जा रही थी।
"शांता बहन ने विष्णु को तेरे साथ चिपकाया तो दो ही वजह रही होंगी। या तो तेरे से शादी करके तेरे बाप की सारी दौलत पर कब्जा ज़माना और बाद में तेरे को लात मार देना, या फिर तेरा विश्वास जीतकर, तेरे को कहीं ले जाकर बंद रखता और तेरे को छोड़ने के बदले, तेरे बाप से मोटी रकम ली जाती। यह था तेरा विष्णु और मैं दावे के साथ कहता हूं कि ये ही उसके इरादे थे ।"
“मुझे विश्वास नहीं आता।" आस्था के होंठों से फटा-फटा सा स्वर निकला।
“कुछ लोग जब तक कुएं में न गिरें, उन्हें विश्वास नहीं आता कि वह कुएं की मुंडेर पर बैठे थे।" शुक्रा आस्था को घूरता कड़वे स्वर में कह उठा।
"तुम झूठ बोल रहे हो।" आस्था के होंठों से अविश्वास में डूबा स्वर निकला।
"झूठ, मैं झूठ बोलता हूं और वो साला- कुत्ता- कमीना, हरामजादा विष्णु तेरे से सच बोलता था।" क्रोध में शुक्रा की आवाज ऊंची हो गई— “आशिक था तेरा, वो झूठ क्यों बोलेगा।"
आस्था के चेहरे के भाव गुड़-मुड़ हो रहे थे।
“शुक्रा झूठ नहीं बोल रहा।" बेदी ने धीमे स्वर में कहा।
"म...मुझे विश्वास नहीं आया।" आस्था बुरे हाल हो रही थी।
"कौन कहता है तेरे को विश्वास कर। मैं तो तेरे को कहानी सुना रहा हूं। पसन्द है तो सुन, नहीं तो कान बंद कर ले।" शुक्रा खा जाने वाले स्वर में बोला--- "जब यहां से जायेगी तो शांता बहन के बारे में पूछताछ कर लेना। विष्णु के बारे में खुद-ब-खुद ही जानकारी मिल जायेगी। अब जो तेरे को बताया है। उस पर सोचती रह, व्यस्त रहेगी। मेरी बातों से तेरे सारे सवाल खत्म हो गये होंगे। अब तू फालतू की बात नहीं पूछेगी।"
बुत बनी आस्था, शुक्रा को देखे जा रही थी।
"विष्णु से बचाया है तेरे को, वरना जाने तेरा क्या हो जाता।” शुक्रा ने गुस्से से भरे स्वर में कहा।
आस्था के होंठ बंद थे। उसे तो जैसे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या सुन रही है। सिर चकराता-सा महसूस हो रहा था। विष्णु ऐसा नहीं हो सकता, जैसा कि शुक्रा ने कहा है। लेकिन शुक्रा की बातों से जो शक दिमाग में घुस गया था, वह उसके विश्वास को धकेल रहा था।
शुक्रा ने बेदी को देखा।
“मैं शांता बहन के बारे में मालूम करने की कोशिश करता हूं कि विष्णु के मरने से उस पर क्या असर हुआ है।" शुक्रा कह उठा--- "वैसे मुझे पूरा विश्वास है कि विष्णु की मौत से वह पागल हुई, हमें तलाश कर रही होगी।"
"यानी कि हमने एक और खतरा पाल लिया।" उदयवीर ने चिन्ता भरे स्वर में कहा।
बेदी ने व्याकुलता से भरे समन्दर में गोता लगाया।
"तुम लोग बेकार की बातें कर रहे हो।" बेदी ने जैसे खुद को तसल्ली दी--- "सब ठीक रहेगा। उन्हें भला कैसे मालूम होगा कि हमने विष्णु को मारा है और हम यहां हैं। हमारा शांता से कुछ लेना-देना नहीं, सब ठीक रहेगा।"
विष्णु की सोचों में आस्था इस कदर उलझी थी कि सामने हो रही बातें भी उसे समझ नहीं आ रही थीं।
शुक्रा ने उदयवीर को देखा।
"तू ठीक कहता है कि इस लड़की को यहां रखना ठीक नहीं। तेरे पास कोई जगह है, इसे रखने की ?"
"नहीं।" उदयवीर ने सिर हिलाया--- "मेरे पास इस गैराज या घर के अलावा और कोई जगह नहीं है। घर में मां-बहन हैं। उन्हें तो मालूम भी नहीं होना चाहिये कि हम क्या कर रहे हैं।"
बेदी ने शुक्रा से कहा।
"तेरी नजर में कोई जगह नहीं है।"
"नहीं।" शुक्रा ने स्पष्ट कहा--- "मैं बाहर के हालात जानने जा रहा हूं, नहा-धोकर ।"
ठीक है, मैं डॉक्टर वधावन से बात करता हूं।" बेदी ने कहा और उदयवीर से बोला--- “तू सारा दिन पूरा ध्यान गैराज पर देना ताकि किसी को शक न हो कि केबिन में क्या हो रहा है।"
"तू वधावन से अभी बात कर ।" शुक्रा बोला--- "बाहर जाने से पहले मैं भी जान लूं कि वह क्या कहता है ।"
बेदी के चेहरे पर सोच के भाव उभरे।
"शुक्रा ठीक कहता है। वधावन बंगले पर होगा।" उदयवीर बोला फिर उसने आस्था को देखा--- "किस नम्बर पर मिलेगा तेरा बाप?"
"पापा से मोबाइल फोन पर बात कर लो।" आस्था ने धीमे स्वर में कहा।
"नहीं।" बेदी ने कठोर निगाहों से उसे देखा--- “मोबाइल फोन पर यहां के फोन का नम्बर आ जायेगा और वह जान लेगा कि हम कहां हैं। तुम दूसरा नम्बर बताओ।"
बेदी ने फोन पर डॉक्टर वधावन से बात की।
"डॉक्टर ।" बेदी ने बात होते ही कहा--- "मेरी आवाज पहचानी।"
"नहीं, कौन हो तुम?"
"मैं वही हूं जिसके दिमाग के बीचोंबीच गोली फंसी हुई है, जिसे तुम निकाल सकते हो।"
"ओह तुम ! बदमाश हो तुम, तुमने मेरा अपहरण किया। मुझे बांध कर रखा। तुमने क्या सोचा कि मैं ऑपरेशन करके तुम्हारे दिमाग में फंसी गोली मुफ्त में निकाल दूंगा। में अपने उसूलों का पक्का हूं मिस्टर विजय बेदी। किसी के दबाव में आकर मैं अपने उसूल नहीं तोड़ता।"
"डॉक्टर ।"
“अब तो तुम्हारे पास डेढ़-दो करोड़ की दौलत है।" वधावन की आवाज पुनः कानों में पड़ी--- “अब तो बारह लाख के चौबीस लाख भी दे सकते हो। तो कब आ रहे हो ऑपरेशन के लिये, मेरे पास?"
"मेरे पास फूटी कौड़ी भी नहीं है, मैं...।"
"इतनी दौलत पास होने पर, बारह लाख भी नहीं देना चाहते। अपनी जिन्दगी बचाने के लिये बारह लाख...।"
“फालतू बात मत करो।" बेदी झल्ला उठा--- “मेरे पास एक ढेला भी नहीं है।"
"तो नदी में कूद मरो ।" वधावन की तीखी आवाज कानों में पड़ी--- "यही बताने के लिये फोन किया था कि पिशोरीलाल से लूटा डेढ़-दो करोड़ रुपया जुए में हार गये।"
बेदी के दांत भिंच गये। परन्तु सब्र के साथ, किन्तु कठोर स्वर में बोला।
"मैंने तुम्हें यह बताने के लिये फोन किया था कि तुम्हारी बेटी आस्था इस वक्त मेरे कब्जे में है।"
"क्या?" वधावन की चीखने जैसी आवाज उसके कानों में पड़ी।
बेदी सख्ती से रिसीवर पकड़े रहा।
"हैलो।" वधावन का तेज स्वर कानों में पड़ा।
"हां।"
"क्या बकवास कर रहे हो तुम। मेरी बेटी तुम्हारे पास है।" वधावन की आवाज बेकाबू हो रही थी।
"रात को वह बंगले पर थी। वापस आई कल घर से। क्या अभी वह सो रही है या तुम अपनी बेटी के साथ ब्रेकफास्ट करने की तैयारी कर रहे हो। अगर इनमें से एक बात भी नहीं है तो फिर तुम्हारी बेटी मेरे पास है ।"
"तुमने उसका अपहरण कर लिया?"
"हां।"
"बहुत कमीने हो, जो...।"
“कमीने तो तुम हो डॉक्टर।" बेदी दांत भींचकर कह उठा--- "अगर तुम पहली बार में ही मेरा ऑपरेशन कर देते, पैसे का लालच न करते तो मेरी भाग-दौड़ कब की खत्म हो चुकी होती।"
"मैं कहता हूं, मेरी बेटी को छोड़ दो।"
"कब आऊं ऑपरेशन कराने। तुमने मेरे दिमाग में फंसी गोली निकालनी है। बिलकुल ठीक तरह। मुझे पूरा विश्वास है कि तुम सब काम ठीक करोगे और जब सब काम ठीक हो जाएगा तो तुम्हारी बेटी तुम्हारे पास सही-सलामत पहुंच जाएगी।”
"कल आ जाऊं ऑपरेशन करवाने?"
"कहां है आस्था ?"
“मेरे पास।"
"तुमने उसे कोई तकलीफ तो नहीं दी।"
"क्या बात करते हो डॉक्टर ?" बेदी ने कहा--- “तुमने मेरा ऑपरेशन करना है। मुझे बचाना है। ऐसे में मैं तुम्हारी बेटी की तरफ टेढ़ी आंख से भी नहीं देख सकता। तो ऑपरेशन के लिये कल...।"
"आस्था से बात कराओ।" डॉक्टर वधावन की आवाज में बेचैनी के भाव थे।
बेदी ने आस्था की तरफ रिसीवर बढ़ाया।
"डाक्टर से बात करो।"
आस्था ने रिसीवर थामा, तभी उदयवीर गुर्रा उठा।
"सुन लड़की, अपने बाप को यह बताने की कोशिश मंत करना कि तुम कैसी जगह पर हो। यहां पर क्या होता है। अगर इस सिलसिले में कोई बात करने की चेष्टा की तो तेरी गर्दन मरोड़ दूंगा।"
आस्था ने उदयवीर पर निगाह मारी। फिर वधावन से बात की।
"पापा ।"
"बेटी, आस्था, कैसी है तू । तेरे की कोई तकलीफ तो नहीं दी, इन लोगों ने।"
"नहीं।"
"यह खतरनाक इन्सान हैं। इसके साथी भी खतरनाक हैं। इनसे बचकर रहना। ये...।"
“ऐसी बात तो नहीं पापा। ये बदमाश नहीं हैं। मुझे तो ये तीनों मुसीबत के मारे लगे हैं।"
"मैं मिल चुका हूं इन मुसीबत के मारो से। इन्होंने ही मुझे उठाया था कि मैं उसका ऑपरेशन करूं। अब तुम्हें...।"
"पापा।" आस्था बोली---- "आप ऑपरेशन करके विजय के दिमाग में फंसी गोली निकाल क्यों नहीं देते ?"
“ये सोचना-फैसला करना तुम्हारा काम नहीं है। मैं सब ठीक कर लूंगा, तुम...।"
तभी शुक्रा ने आस्था के हाथ से रिसीवर लिया और बेदी की तरफ बढ़ा दिया। बेदी ने जब रिसीवर कानों से लगाया तो वधावन की हैलो-हैलो आस्था जैसी पुकारने की आवाजें आ रही थीं।
"बात कर ली अपनी बेटी से।" बेदी ने व्याकुल स्वर में कहा।
"तुम? आस्था से बात... ।"
"बस डॉक्टर, तुम मुझसे बात करो। मेरा ऑपरेशन कर रहे हो?" बेदी का स्वर सख्त हो गया।
वधावन के दांत पीसने का स्वर कानों में पड़ा।
"जवाब दो।"
"एक-दो दिन बाद फोन करना।" वधावन का खा जाने वाला स्वर कानों में पड़ा।
"लगता है, तुम्हें अपनी बेटी की फिक्र नहीं है।" बेदी की आवाज में धमकी का भाव आ गया।
"है, तभी तो कह रहा हूं कि एक-दो दिन बाद फोन करना ।"
"एक-दो दिन इन्तजार करने की अब जरूरत क्या है, कल ही ऑपरेशन... ।"
"ऑपरेशन यूं ही नहीं हो जाता। कई तरह की तैयारियां करनी पड़ती है। स्टाफ को तैयार करना पड़ता है और भी पचास काम होते हैं। एक-दो दिन बाद फोन करना।" वधावन का गुस्से भरा स्वर कानों में पड़ा।
"प्लीज डॉक्टर ।" बेदी टूटे स्वर में कह उठा— “मेरा ऑपरेशन कर दो। गोली निकाल दो। मैं तिल-तिल करके मर रहा हूं। तुम्हारी बेटी अब मेरे कब्जे में है। कम से कम अब तो...।"
तभी शुक्रा ने बेदी के हाथ से रिसीवर खींचा और खा जाने वाले स्वर में कह उठा।
"बाकी बातें तो एक तरफ रही, इस बात को अच्छी तरह बिठा लो कि अगर तुमने इस बारे में पुलिस को कुछ बताया तो तुम अपनी बेटी को जिन्दा नहीं देख सकोगे। बोल, कब फोन करना है। बता...।"
"एक-दो दिन बाद।"
"ठीक है, अच्छी तरह सोच लेना एक-दो दिन में, अपनी बेटी को जिन्दा देखना चाहता है या मरा हुआ।" दांत भींचकर कहने के साथ शुक्रा ने रिसीवर रख दिया।
वहां पर अजीब-सी चुप्पी छा गई।
बेदी की निगाह सब पर घूमी ।
"क्यों शुक्रा, तेरा क्या ख्याल है। डॉक्टर मेरा ऑपरेशन कर देगा?"
“साला नहीं करेगा तो जायेगा कहां।" शुक्रा दांत भींचकर कह उठा--- “उसकी बेटी हमारे पास है।"
"पापा मुझसे बहुत प्यार करते हैं।" आस्था विश्वास भरे स्वर में कह उठी--- "वह मुझे बचाने के लिये कुछ भी कर सकते हैं। ऑपरेशन करना तो मामूली-सी बात है ।"
"मेरा भी यही ख्याल है।" उदयवीर बोला--- “अपनी बेटी को वापस पाने की खातिर, वह ऑपरेशन करेगा।"
"लेकिन मुझे कुछ और ही लग रहा है।" बेदी ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी ।
"क्या मतलब?"
"उसकी बेटी हमारे पास है। हमारे कब्जे में है।" बेदी ने सबको देखा— “ऐसे में उसे चाहिये कि वह जल्दी से अपनी बेटी को वापस पा ले। अभी बुलाकर ऑपरेशन की तैयारी कर दे। लेकिन इन बातों पर ध्यान न देकर, उसने एक-दो दिन बाद बात करने को इस तरह कहा, जैसे, हमारा कोई सगा उसने अपने पास बांध रखा हो।"
"तेरी बात सही है विजय।" शुक्रा दांतों से होंठ काटते हुए, कह उठा।
उदयवीर के चेहरे पर व्याकुलता नाची।
"तुम लोग, किसी शक-बहस में मत पड़ी। पापा की कोई मजबूरी रही होगी। मेरे लिये पापा कुछ भी कर सकते हैं।"
तीनों की निगाहें मिलीं।
"मेरे ख्याल में हमें इन्तजार करके यह देखना चाहिये कि डॉक्टर वधावन क्या करता है?" शुक्रा ने गम्भीर स्वर में कहा--- "बरे वक्त में इन्सान हमेशा गलत सोचता है। शक भरी सोच के साथ चलता है और हमारा भी यह बुरा वक्त ही चल रहा है।"
"हम ऐसे हालात में फंसे हैं कि डॉक्टर वधावन के जवाब के इन्तजार के अलावा और कुछ कर भी नहीं सकते।" बेदी खुद को हालातों में दबा मजबूर महसूस कर रहा था।
"सब ठीक होगा। मैं शांता बहन के बारे में खबर पाने की कोशिश करता हूं कि विष्णु के मरने पर, वह क्या कर रही है। उस तरफ देखना भी बहुत जरूरी है।"
"लेकिन इसे ज्यादा दिन इस तरह केबिन में नहीं रखा जा सकता।" उदयवीर ने कहा--- “यह... ।"
"इस पर फिर बात करेंगे।"
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आधी रात को दामोदर लौटा था। दिन भर का थका-टूटा। घर पहुंचते ही जब मालूम हुआ कि विष्णु को किसी ने गोली मारी है तो गुस्से से सुलगता दामोदर, विष्णु के कमरे में पहुंचा । डॉक्टर कुर्सी पर नींद लेने की कोशिश कर रहा था। दामोदर के चेहरे के भाव देखकर वह सीधा होकर बैठ गया।
"कौन हरामजादे ने तेरे को गोली मारी। बता, बोल, उसका पता बता। नाम बता, साले कुत्ते के टुकड़े-टुकड़े करके पूरे शहर में फैला दूंगा। बता कौन हरामी है वो ?"
"दामू ।" विष्णु ने शांत स्वर में कहा--- “गुस्सा मत...।"
"मैंने उसके बारे में पूछा है, जिसने तेरे को गोली मारी। उसका नाम-पता बोलता है कि नहीं ?" दामोदर दांत भींचकर गुर्राया--- "एक ही बार में बोल।"
उसकी ऊंची आवाज सुनकर शांता-सत्या और मीना वहां आ गई।
"चिल्लाता क्यों है?" शांता ने सख्त स्वर में कहा। हाथ में व्हिस्की का गिलास था।
दामोदर ने शांता को घूरा।
"क्यों, मेरे चिल्लाने पर मना है क्या ?" दामोदर की आवाज अभी भी ऊंची थी।
"यह घर है।" शांता की निगाह उसके चेहरे पर थी--- “धीरे बोल ।"
"विष्णु को किसी हरामजादे ने गोली मारी और तू बोली कि मैं धीरे बोलूं।"
"उसको गोली लगी, यह तेरा मामला नहीं, तू...।" शांता ने कहना चाहा।
"मेरा मामला नहीं।" दामोदर ने खा जाने वाली निगाहों से शांता को घूरा--- "मेरे भाई को किसी ने गोली मारी। जान लेने की कोशिश की और तू कहती है मेरा मामला नहीं। कल को कोई तेरी मुंडी काट देगा और मैं यह सोचकर हाथ पर हाथ रखे बैठा रहूंगा कि यह मेरा मामला नहीं। विष्णु को गोली मारना, मेरे को गोली मारना है। याद है उस दिन बैकुण्ठ ने विष्णु को भरे बाजार में घेर लिया था, तो मैंने खुद को खतरे में डालकर सैकड़ों लोगों के सामने बैकुण्ठ को घेरा था। यह जानने के लिए पढ़ें अनिल मोहन का विजय बेदी सीरीज़ का पूर्व प्रकाशित उपन्यास 'खलबली' । वो मेरा मामला था, क्योंकि बैकुण्ठ विष्णु को मारने जा रहा था। मैंने अपनी जान खतरे में डालकर विष्णु को बचाया। कल को, इसी तरह विष्णु मुझे बचायेगा। हम लोगों के मामले एक-दूसरे से जुड़े हैं। हम इकट्ठे हैं । तिनको की तरह बिखरे हुए नहीं। किस साले में इतनी हिम्मत आ गई, विष्णु को गोली मारने की । तू बोलती ये मामला मेरा नहीं, मैं...।"
तभी डॉक्टर धीमें स्वर में कह उठा।
"प्लीज, विष्णु को आराम की जरूरत है। इसके पास शोर न करें तो ठीक रहेगा।"
शांता ने कठोर निगाहों से दामोदर को देखा।
"मेरे पास आ ।" कहने के साथ ही शांता कमरे से बाहर निकल गई।
सब उसके पीछे निकले और ड्राइंग रूम में पहुंच गये।
सोफा चेयर पर बैठते हुए शांता ने घूंट भरा और दामोदर को देखकर सख्त स्वर में बोली।
"तू आज पहली बार मेरे सामने ऊंची आवाज में बोला। तूने आज पहली बार मेरी बात काटी दामोदर ।"
"हां, क्योंकि पहली बार किसी ने विष्णु को गोली मारी।” दामोदर दांत पीसकर गुर्राया--- "वो मर जाता तो...।”
“हमारे धंधे में होश खोना, आत्महत्या करने के बराबर होता है।" शांता का स्वर वैसा ही था।
"मैं होश में हूं।" दामोदर ने खा जाने वाली निगाहों से शांता को देखा।
शांता की आंखें सिकुड़ीं, घूंट भरा।
"बैठ जा।" शांता का चेहरा कठोर हो उठा।
"मैं ठीक हूं।”
"मैंने बोला, बैठ ।” शांता की आवाज में सर्द भाव झलक उठे ।
शांता को घूरता दामोदर दांत भींचे बैठ गया।
शांता ने मीना को देखा।
"तू जा।"
मीना बिना कुछ कहे बाहर निकल गई।
शांता ने व्हिस्की का गिलास रखा और सिगरेट सुलगाकर दुपट्टा ठीक किया। नजरें दामोदर के गुस्से से भरे चेहरे पर थी। सत्या की नजरें भी दामोदर पर टिकी हुई थीं।
“अब बोल क्या बात है?"
"बात तेरे को समझ नहीं आई अभी तक ।" दामोदर गुस्से से भरा हुआ था।
"मेरे को तेरी आवाज बिलकुल पसन्द नहीं आ रही दामोदर। ढंग से बात कर ।" शांता का स्वर कठोर हो गया।
दामोदर दांत भींचकर रह गया।
शांता उसे घूरती रही।
"विष्णु को किसने गोली मारी ?" दामोदर ने भिंचे स्वर में कहा।
"तेरे को जो काम करने को बोलूं, ऐसे में तेरे को गोली लगे तो यह मेरा मामला है। देखना मेरा काम है कि तेरे को किसने गोली मारी। विष्णु का बीच में दखल देना ठीक नहीं। उसे अपने काम से मतलब रखना।"
"तुम्हारा मतलब कि मैं विष्णु के मामले में दखल न दूं।" दामोदर का स्वर कठोर था।
"यही मतलब है मेरा, क्योंकि इस मामले को कैसे संभालना है यह देखना-सोचना मेरा काम है।"
"तेरे कहने पर हम चलते हैं, क्योंकि तेरे में ज्यादा समझ है।" दामोदर का स्वर कठोर ही रहा--- "लेकिन विष्णु को गोली लगने का मामला सिर्फ तेरा ही नहीं है। वो मेरा भाई है।"
"वो शांता का भी भाई है।" सत्या बोली ।
दामोदर ने सत्या को घूरा।
"मां, तुमने ये नहीं कहा कि वो तुम्हारा भी बेटा है।" दामोदर का स्वर चुभता हुआ था।
"बेटा तो मेरा ही है। लेकिन मुझे इसलिये चिन्ता नहीं कि शांता है, सब कुछ संभालने के लिये ।" सत्या ने सपाट स्वर में कहा--- "एक मामले में ज्यादा दिमाग इस्तेमाल हो तो नुकसान ही होता है। शांता जो कर रही है या करेगी, उसे करने दो, टोको मत ।"
दामोदर का चेहरा पुनः गुस्से से भर उठा।
"मतलब कि मुझे इस मामले के बारे में कुछ नहीं बताया जायेगा।" दामोदर गुर्रा उठा।
"बताने में कोई हर्ज नहीं था।" शांता ने दामोदर की आंखों में झांका--- "लेकिन जिस तरह तुम गुस्से में आ गये। जिस तरह तुमने मुझसे बात की और कर रहे हो। ऐसे में मेरा एक ही जवाब है कि तुम अपने काम से मतलब रखो। विष्णु को गोली लगने का मामला तुम्हारा नहीं है। इन सब बातों को देखने के लिये मैं बैठी हूं।"
दामोदर भड़क कर उठ खड़ा हुआ।
"परिवार से वास्ता रखता कोई भी मामला तुम्हारा नहीं है। यह धंधे का मामला नहीं है। विष्णु मेरा भाई है। उसे गोली मारी गई है। ऐसे में मेरा जानना जरूरी हो जाता है कि गोली किसने मारी ?"
"जा दामोदर ।" शांता ने सर्द स्वर में कहा--- “रात बहुत हो गई है।"
दांत भींचकर दामोदर ने शांता को खा जाने वाली निगाहों से घूरा। फिर इसी अन्दाज में सत्या को देखा उसके बाद फर्श रौंदने वाले अन्दाज में ड्राइंगरूम से बाहर निकलता चला गया।
शांता ने पास रखा गिलास उठाकर घूंट भरा।
"दामोदर ने पहली बार मेरे सामने जुबान खोली है।" शांता ने सपाट स्वर में कहा--- “वजह जो भी हो। दामोदर का यह व्यवहार साबित करता है कि वो कभी भी हमारे खिलाफ जा सकता है।"
"उस वक्त दामोदर नहीं, भाई का प्यार बोल रहा था।" सत्या ने शांता को देखा--- "सब बातों का जवाब देकर उसकी तसल्ली करा देनी चाहिये थी।"
शांता ने सत्या की आंखों में देखा
"दामोदर जिस ढंग से बोला, तो जवाब में मुझे ऐसे ही पेश आना चाहिये था।" शांता ने घूंट भरा--- “ताकि उसे इस बात का एहसास हो कि घर में चिल्लाकर, गुस्से से बात नहीं की जाती। खासतौर से मेरे सामने।"
सत्या खामोश रही।
"सिकन्दर को फोन लगा।"
सत्या फौरन फोन उठाकर नम्बर वाले बटन दबाने लगी।
“उससे पूछ कि उस मकान में, विष्णु के पास, दो आदमी भेजने को बोला था। वो पहुंचे क्यों नहीं या फिर सिकन्दर ही आदमियों को भेजना भूल गया।” शांता की आवाज में मौत के भाव थे।
फोन लगा, सत्या ने बात की।
“सिकन्दर से बात करा।" सत्या ने सपाट स्वर में कहा।
"वो दारू पीकर सो रहा है, तू कौन है।" नशे में भरी मर्दाना आवाज सत्या के कानों में पड़ी।
"सत्या"
"कौन सत्या?"
"शांता की मां, ज्यादा पी रखी है क्या?" सत्या की आवाज कठोर हो गई।
"समझा। समझा, रुक, अभी सिकन्दर को फोन देता हूं।"
करीब आधे मिनट बाद सिकन्दर की आवाज, सत्या के कानों में पड़ी ।
"नमस्कार सत्या।" सिकन्दर का नशे और नींद से भरा स्वर कानों में पड़ा--- "मेरे लायक सेवा?"
"तेरे को पता बताकर मकान में विष्णु के पास दो आदमी भेजने को बोला था, भूल गया क्या ?"
"कैसी बातें करती हो, तुम्हारा दिया तो खाता हूं, भूल सकता हूं क्या?"
"भेजे थे?" सत्या के चेहरे पर कठोरता उभरी।
"हां।"
"वक्त पर भेजे थे?"
"हां, पक्का करके भेजा था। दो बजे तक पहुंच गये होंगे। पहुंचे नहीं क्या?"
सत्या ने शांता को देखा।
"वो बोलता है, दो आदमी भेजे थे।"
"ला...।" शांता ने भिंचे होंठों से हाथ आगे बढ़ाया।
सत्या ने तुरन्त आगे बढ़कर फोन शांता को दिया।
"तेरे भेजे आदमी नहीं पहुंचे सिकन्दर ।" शांता ने शब्दों को चबाकर कहा।
"ओह, शांता बहन ये कैसे हो सकता है।" सिकन्दर की आवाज कानों में पड़ी--- "मैंने दो आदमी...।"
"वो नहीं पहुंचे सिकन्दर ।" शांता दांत भींचकर कह उठी।
पल भर की चुप्पी के बाद सिकन्दर का संभला स्वर आया।
"कोई लफड़ा हो गया है क्या शांता बहन ?"
"अगर तेरे भेजे दो आदमी पहुंचे होते तो विष्णु को गोली नहीं लगती। वह बच गया। किस्मत अच्छी थी। मर भी सकता था।" शांता की आवाज में खतरनाक भाव थे— “बोल किसकी गलती है ?"
"मेरी नहीं शांता बहन। मेरी गलती तो तब होती अगर मैं आदमी भेजने भूला होता।" सिकन्दर की आवाज में अब नशे के भाव नहीं थे--- "मालूम करता हूं उन दोनों से और...।"
"क्या नाम हैं उनके ?"
"कालू और असलम ।"
"उनके हुलिये बता ।" शांता के होंठों से गुर्राहट निकली।
सिकन्दर ने कालू और असलम के हुलिये बताये ।
"तेरे को उनसे कुछ भी पूछने की जरूरत नहीं है। कल सुबह दस बजे उन्हें मैट्रो सिनेमा पर भेज देना और इन बातों को भूल जाना।" शांता ने कहा और फोन बंद करके, सत्या को दे दिया— ''अगर सिकन्दर के भेजे आदमी वक्त पर पहुंच गये होते तो विष्णु को गोली नहीं लगती और डॉक्टर की लड़की भी हमारे पास होती। उन दोनों की वजह से मामला बिगड़ा।"
"हमारा धंधा ही ऐसा है।" सत्या ने फोन रखते हुए सपाट स्वर में कहा--- “चूक होते ही खेल खत्म हो जाता है ।"
"कल दिन में छोटे लाल का फोन आयेगा।” शांता ने भिंचे होंठों से कहा— “वो बतायेगा कि वो तीन लोग जो विष्णु को गोली मार कर लड़की जिस कार में ले गये, वो कार किसकी है।"
■■■
सब-इंस्पेक्टर जय नारायण सेंट्रल पार्क के बाहर सादे कपड़ों में मौजूद था। दिन के दस बज रहे थे। वह ऑटो पर यहां पहुंचा था। वधावन ने ही फोन पर कहा था कि वह ऐसे मिले कि पुलिस वाला न लगे। पूछने पर भी वधावन ने नहीं बताया था कि क्या बात है।
पार्क के बाहर पेड़ की छाया के नीचे खड़ा जय नारायण इन्तजार करता रहा। तय शुदा वक्त आधा घंटा लेट, वधावन अपनी विदेशी कार में वहाँ पहुंचा। कार उसके पास आकर ही रुकी। स्टेयरिंग पर ड्राइवर था। पीछे वाली सीट पर वधावन बैठा था। उसने दरवाजा खोल दिया। खुद बाहर नहीं निकला। सोचों में डूबा जय नारायण आगे बढ़ा और कार में बैठते हुए दरवाजा बंद कर लिया।
ड्राइवर ने कार आगे बढ़ा दी।
"कार को यूं ही खाली सड़कों पर चलाते रहो।" वधावन ने ड्राइवर से कहा।
जय नारायण ने वधावन को देखा।
"इस तरह मिलने की वजह मैं समझ नहीं पा रहा हूं।" जय नारायण ने कहा।
वधावन ने उसे देखा फिर गम्भीर स्वर में बोला।
"इस तरह मिलने की मजबूरी आ गई थी।"
"कैसी मजबूरी?"
"सारी जिन्दगी मैंने अमेरिका में प्रैक्टिस की है। वहां अपहरण को खतरनाक जुर्म माना जाता है।"
वधावन के शब्दों पर जय नारायण की आंखें सिकुड़ीं।
"क्या मतलब?"
"विजय बेदी, जिसके दिमाग में गोली फंसी हुई है। उसने सुबह फोन पर मेरे से बात की।"
"ओह! आपने ऐसा कुछ नहीं पूछा कि जिससे मालूम हो वह कहां से या...।"
"पूरी बात सुन लो, पहले यह जानो कि उसने फोन क्यों किया?" वधावन ने टोका ।
"क्यों किया?"
"विजय बेदी ने मेरी बेटी आस्था का अपहरण करके उसे कैद में रखा हुआ है।" वधावन के गम्भीर स्वर में परेशानी झलक उठी थी--- "वह चाहता है मैं ऑपरेशन करके उसके दिमाग में फंसी गोली निकाल दूं।"
जय नारायण चौंका।
"ओह!”
"वो कहता है कि जब मैं उसका ऑपरेशन कर दूंगा, उसे ठीक कर दूंगा, निकाल दूंगा, उसे छुट्टी दे दूंगा तो वह मेरी बेटी को आजाद कर देगा।" वधावन ने जय नारायण को देखा।
जय नारायण के होंठ भिंच गये। उसने अजीब-सी निगाहों से वधावन को देखा।
"आप यह कहना चाहते हैं कि विजय बेदी ने आपकी बेटी का अपहरण इसलिये किया कि उसे आपके द्वारा मांगी गई बारह लाख की फीस न देनी पड़े।" जय नारायण के होंठों से निकला।
"हां।"
"मैं आपकी बात पर विश्वास नहीं कर सकता।" जय नारायण ने स्पष्ट कहा--- "विजय बेदी समझदार है। अगर वह दिमाग से पैदल होता तो आपकी बात पर अवश्य विश्वास करता।"
"क्या मतलब?" डॉक्टर वधावन के माथे पर बल पड़े।
"डाक्टर साहब।" जय नारायण ने एक-एक शब्द पर जोर देकर कहा--- "विजय बेदी के पास इस वक्त पिशोरीलाल से लूटी डेढ़-दो करोड़ की दौलत है। उसने वह लूट ही बारह लाख के लिये की है कि आपसे ऑपरेशन कराकर, आपकी फीस दे सके। ऐसे में वह किसी भी हालत में बारह लाख नहीं बचाना चाहेगा। किसी भी हालत में आपकी बेटी का अपहरण करके कोई नई मुसीबत मोल नहीं लेना चाहेगा। उस जैसा समझदार इन्सान टोकरे में बारह लाख लेकर सीधा आपके पास आयेगा और कहेगा कि ऑपरेशन करके दिमाग में फंसी गोली को बाहर निकाल दीजिये और आप कह रहे हैं कि उसने आपकी बेटी को अपने पास कैद कर लिया है कि आप पर दबाव डालकर फ्री में आपसे ऑपरेशन करा सके।"
"मैं सच कह रहा हूं। विजय बेदी ने मेरी बेटी का अपहरण किया है। सुबह उसका फोन आया था कि...।"
"आपने शायद सुना नहीं कि उसके पास डेढ़-दो करोड़...।"
"यह बात मैंने भी उससे कही थी।"
"तो ?"
"जवाब में वह बोला कि मेरे पास फूटी कौड़ी नहीं हैं। एक ढेला भी नहीं है।"
"यह कैसे हो सकता है?"
"मैं क्या जानूं, उससे मेरी जो बात हुई, वही बता रहा हूं।"
जय नारायण सोच भरी निगाहों से वधावन को देखने लगा ।
"जो मैं कह रहा हूं, मेरी बात पर यकीन करो, सोचो मैं गलत क्यों कहूंगा।"
"वही सोच रहा हूं। उसने आपकी बेटी का अपहरण कब किया?"
"कल। कल ग्यारह बजे वह घर से निकली और वापस नहीं लौटी। रात भर उसके न लौटने की वजह से मैं परेशान रहा। लेकिन यही सोचकर दिल को तसल्ली देता रहा कि आ जायेगी, क्योंकि एक बार आस्था को उसकी सहेली मिल गई तो रात उसी के घर चली गई। फोन तक नहीं किया। मैंने सोचा शायद इस बार भी कुछ ऐसी लापरवाही कर गई होगी। परन्तु सुबह विजय बेदी का फोन आ गया।"
"आपने अपनी बेटी से बात की?"
"हां।"
जय नारायण ने एकाएक कुछ नहीं कहा।
"इंस्पेक्टर, मैंने सारी बात तुम्हें बताई है। जबकि उन्होंने कहा था कि मैं पुलिस से बात न करूं। उन्हें मालूम हो गया तो मेरी बेटी की जान खतरे में भी पड़ सकती है। ऐसे में तुम जो भी करो उससे आस्था की जान को खतरा नहीं होना चाहिये। इस बात की खबर किसी दूसरे पुलिस वाले की भी न होने देना। मैं तुम पर विश्वास करके सब कुछ बता रहा हूँ।"
"इस बात का मैं ध्यान रखूंगा।" जय नारायण के चेहरे पर उलझन थी--- "आपने उसे क्या कहा।"
"कि एक-दो दिन बाद फोन करे। मैं उस वक्त समझ नहीं पाया कि क्या कहूँ। क्या जवाब दूं।"
"तो अब आप मुझसे क्या चाहते हैं ?"
"मैंने अच्छे शहरी होने के नाते पुलिस को हालातों से आगाह किया है और चाहता हूं कि विजय बेदी को पकड़ा जाये। मेरी बेटी को उसकी कैद से छुड़ाया जाये। लेकिन पुलिस का हर कदम मेरी बेटी की सुरक्षा के लिये उठे। पुलिस ऐसी कोई काम न करे कि आस्था की जान खतरे में पड़ जाये।" वधावन ने गम्भीर स्वर में कहा।
सोच में डूबा जय नारायण अपनी नाक खुजलाने लगा।
“डॉक्टर ।" जय नारायण ने खामोशी तोड़ी--- "विजय बेदी पेशेवर मुजरिम नहीं है कि जिससे आपकी बेटी को किसी तरह का खतरा पहुंचे। वह मजबूरी में जुर्म की सीढ़ियां चढ़ रहा है।"
"तुम कहना क्या चाहते हो?"
“कानून के लिहाज से मेरी सलाह ठीक नहीं है। फिर भी कहना चाहता हूं कि विजय बेदी कानून से तो बच नहीं सकेगा। बेहतर होगा आप उसका ऑपरेशन करके अपनी बेटी को वापस पा लें। फिर...।"
"नहीं।" डॉक्टर वधावन ने दांत भींच लिए--- "मैं उसकी बदमाशी के नीचे दबकर उसका ऑपरेशन करके अपना उसूल नहीं तोड़ना चाहता। मैं चाहता हूं पुलिस मेरी बेटी को वापस लाकर दे। विजय बेदी को गिरफ्तार करे। मैं उसे सबक सिखाना चाहता हूं कि डण्डा दिखाकर, वह मेरे से कोई काम नहीं करा सकता ।"
जय नारायण गहरी सांस लेकर कार की खिड़की से बाहर दौड़ते ट्रेफिक को देखने लगा।
"इंस्पेक्टर।" वधावन ने टोका--- "तुमने मेरी बात का जवाब नहीं दिया।"
"डॉक्टर साहब।" सब-इंस्पेक्टर जय नारायण मुस्कराकर कह उठा--- "हम तो जनता के सेवक हैं। आप जायज बात कर रहे हैं। इसलिये मैं इन्कार नहीं कर सकता। वैसे भी विजय बेदी की गिरफ्तार करने के लिये मैं दौड़ रहा हूं। मैं पूरी कोशिश करूंगा कि आपकी बेटी को तलाश करके आपके हवाले कर सकूं। लेकिन यह बात जरूर कहूंगा कि ऐसे कामों में कभी-कभी ऊंच-नीच हो जाती है।"
"कैसी ऊंच-नीच ?" वधावन ने उसे देखा।
"जिसका अपहरण हुआ हो, कभी-कभार उसे नुकसान भी पहुंच जाता है।"
"नहीं।" वधावन सख्त स्वर में कह उठा--- "मेरी बेटी को सलामत रहना चाहिये। इस बात का वायदा करो।"
जय नारायण खामोश रहा।
"मैंने कहा है वायदा करो कि मेरी बेटी को सही-सलामत वापस करोगे।" वधावन अपने शब्दों पर जोर देकर कह उठा--- "अगर नहीं वायदा करते तो, तो मैं कुछ और रास्ता तलाश करूं?"
"कैसा रास्ता ?"
"यही कि विजय बेदी की बात मानूं।" वधावन दांत भींचकर कह उठा।
"जल्दी मत कीजिये। उसकी बात बाद में भी मानी जा सकती है। अभी हमारे पास वक्त है। मैं देखता हूं इस सिलसिले में क्या किया जा सकता है।" जय नारायण ने सोच भरे स्वर में कहा--- "विजय बेदी आपको अब फोन करेगा।"
"हां।"
“एक-दो दिन में।"
"मैंने दो-तीन दिन कहा था उसे।"
"हूं, एक्सचेंज से आपकी फोन लाइन टेप करनी पड़ेगी, ताकि पता चले कि वह कहां से फोन करता है।"
"हां, इस तरह उसे पकड़ा जा सकता है।"
"अगर एक जगह से फोन करता हो तो हाथ में आ सकता है।" जय नारायण ने सोच भरे स्वर में कहा--- “जब उसका फोन आये तो आपने यहीं कोशिश करनी है कि ज्यादा-से-ज्यादा देर बात हो।"
"मैं इस बात का ध्यान रखूंगा।"
"आपने उसे इन्कार नहीं करना है, ऑपरेशन के लिये।" जय नारायण ने समझाया--- "उसे यही महसूस होना चाहिये कि ऑपरेशन करने की आपको उससे भी ज्यादा जल्दी है। लेकिन किसी वजह से अभी ऑपरेशन कर नहीं सकेंगे। ऐसा करके दो-चार दिन और बढ़ाये जा सकते हैं। इस दौरान हो सकता है वह हाथ आ जाये।"
"समझ गया।" वधावन ने सिर हिलाया। “कार रोको ।" वधावन ने कहा फिर जय नारायण से बोला--- "इंस्पेक्टर इस बात का हमेशा ध्यान रखना कि मेरी बेटी को कोई नुकसान न पहुंचे। ऐसा कुछ महसूस करो तो पीछे हट जाना । मैं विजय बेदी की बात मान लूँगा। उसका ऑपरेशन कर दूंगा। उसके दिमाग में फंसी गोली निकाल दूंगा।"
कार रुकी, जय नारायण नीचे उतरा।
"मैं आपसे जल्दी मिलूंगा डॉक्टर वधावन ।"
"कोशिश करना कि हम में फोन पर ही बात हो जाये।" वधावन ने गम्भीर स्वर में कहा--- "विजय बेदी या उसका कोई साथी मुझ पर नजर रख रहे होंगे तो मेरे लिये सफाई देना भी कठिन हो जायेगा कि मैं तुमसे मिला। वह समझ जायेंगे कि मैं पुलिस की सहायता ले रहा हूं।"
जय नारायण सिर हिलाकर रह गया।
■■■
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