अगले दिन सुबह सुबह हम उठ कर तैयार हुए और बैग उठा कर, चाबियां काउन्टर के हवाले करके निकल गए। सुबह के सात बज रहे थे। पहले हमे नाश्ता करना था, क्योकि एक बार बस में बैठने के बाद तीन चार घंटे से पहले कहीं नाश्ता पानी होने वाला नही था। हरिद्वार स्टेशन के सामने ही एक छोटे से भोजनालय में हमने परांठे वगैरह खाए, मुझे चाय पिने का मन था, वसंत की वही बात कि चाय से उसे एसिडिटी हो जाएगी तो उसने मना कर दिया। हालांकि बिना चाय के भी दिन भर उसे कच्ची डकारें और गैस बनती रहती थी, मैंने उसे शुरुवाती दिन से नोटिस किया था कि वह जितना परहेज करता था उसे उतनी ही परेशानियां होती थी।
मुझे फ़िक्र नही थी तो मैंने खाने पिने में कोई कोताही नही बरती। फिर सब निपटा कर मैंने उन्हें बिल भरने के लिए कह दिया। खर्चें मिल बाँट के होने तय हुए थे, होटल के पैसे मैंने दिए थे। चाय नाश्ते के पचास रूपये ही प्रति व्यक्ति होते थे तो साढ़े तीन सौ का हिसाब तो फिर भी बच ही रहा था। रात के खाने का बिल उन्होंने ही भरा था तो अस्सी रूपये उसमे और कम हो गए थे। हम इसी प्रकार अपने खर्चे लेवल कर रहे थे। इस बार किसी ने पैसे भरे तो अगली बार के खर्चे में कोई दुसरा खर्चा करता था और पिछली बार के हिसाब में कुछ ज्यादा पैसे हो गए तो उसे अगली बार के खर्चो में माइनस कर लिया जाता था। हर पडाव पर खर्चे का हिसाब किताब साफ़ कर लिया जाता था।
हम बस एजेंसी के पास पहुँच गए, वहां पूछताछ करने का मन कर ही रहा था कि मनसूना जाने वाली बस दिखाई दी। उसे देखकर मुझे बेहद ख़ुशी हुई, मैंने फौरन निर्णय ले लिया कि अब पहले मदमहेश्वर जायेंगे।
"वह मनसूना की बस है, हम उसकी टिकट ले लेते हैं।" मैंने कहा।
"ये कहा जाएगी? हम तो गुप्तकाशी या सोनप्रयाग की बात कर रहे थे ना?"वसंत ने कहा।
"देखो अगर हमे आज गुप्तकाशी या सोनप्रयाग की बस मिली तो हम कल केदारनाथ यात्रा कर रहे होंगे, तुम दोनों को बर्फबारी भी देखनी है। तो वेदर रिपोर्ट के हिसाब से तीन दिन बाद से लगातार दीपावली तक केदारनाथ में बर्फबारी होगी, आज होने वाली है, लेकिन कल नही होगी। तो अगर हम कल यात्रा करते है तो तुम्हे बर्फबारी देखने को नही मिलेगी। अब फैसला कर लो बर्फबारी देखनी है या नही?" मैंने कहा।
"देखनी है।" दोनों ने एक साथ कहा।
"तो हम पहले मदमहेश्वर चलेंगे, वहां हमे दो तीन दिन लग जायेंगे और जब वहाँ से वापसी में केदारनाथ जायेंगे तो बढिया माहौल मिलेगा।" मैंने कहा।
"यह बस मनसूना जाती है, मनसूना उकिमठ से आगे पड़ता है, मनसूना से रांसी कुछ 14-15 किलोमीटर पड़ता है। आज रात वहीं किसी होटल में गुजारकर कल सुबह रांसी पहुँच कर मदमहेश्वर की यात्रा करते हैं।" मैंने कहा, उन्होंने सिर हिला दिया। वैसे भी उन्हें वहाँ की कोई जानकारी थी ही नही तो हां करने के अलावा और कोई चारा भी नही था।
"देखो मै पहले ही बता रहा हूँ, मदमहेश्वर की चढ़ाई कुछ सोलह सत्रह किलोमीटर की होती है। वहां जाकर वापस आने तक तुम दोनों की हालत खराब हो जाएगी तो केदारनाथ में दिक्कत हो जाएगी। तुम्हारी योजना केवल केदारनाथ की थी, मदमहेश्वर तो मुझे जाना था तो मेरी वजह से तुम परेशान मत हो। उकिमठ में भारत सेवा आश्रम में रुक जाना, मै मदमहेश्वर की यात्रा से वापसी में तुम्हे लेते चलूँगा।" मैंने कहा।
"अकेले ट्रेक करोगे?" वसंत ने पूछा।
"मै हमेशा अकेले ही करता हूँ, उसकी फ़िक्र मत करो।"मैंने कहा तो दोनों ने आपस में कुछ विचार विमर्श किया।
"हम भी मदमहेश्वर चलेंगे, पहली बार आये हैं तो इस अवसर का पूरा लाभ उठाएंगे।" महेश ने कहा।
"जैसी तुम्हारी मर्जी, लेकिन याद रखना जो मैंने पहले कहा था। अगर तुम दोनों बिच में चल नही पाए या हालत खराब हुयी तो मै तुम दोनों को हरिद्वार की बस में बिठा कर अपनी यात्रा पूर्ण करूंगा।"मैंने कहा तो दोनों ने सिर हिला दिया।
बस की टिकट कटा कर हम बैठ गए, मै अपनी पसंदीदा विंडो सीट पर बैठ गया। गाडी नौ बजे से पहले निकलने वाली नही थी। गाडी में कुछ लड़के सवार हुए जिन्हें सबसे पीछे वाली सीट मिली, वे हुडदंग मचा रहे थे। उनमे से दो तीन मुम्बई से थे, वसंत उनकी बोली देखकर खुश हो गया कि मैंने उसका हाथ दबा दिया।
"ज्यादा खुश होने की जरूरत नही है। आगे केदारनाथ यात्रा में बहुत से मिलेंगे।" मैंने कहा, लडके तेज आवाज में गाने सुन रहे थें, बतिया रहे थे। कुछ देर तक तो ठीक था लेकिन फिर उनकी हरकतें सिरदर्द करने लगी। चिल्ला चिल्ला कर बातें और ब्लूटूथ पर रैप और कानफाडू संगीत बजाना असहनीय होते जा रहा था। अगली सीट पर एक दम्पत्ति आकर बैठा, वे उत्तराखंडी थे। पीछे वाले लडके आपस में गाली गलौज भी करने लगे, अब मुझे टोकना जरूरी लगा, अभी नही टोका गया तो आठ दस घंटे की यात्रा में इन्हें झेलना मुश्किल हो जायेगा। इससे पहले कि मै कुछ बोलता, अगली सीट का व्यक्ति उठ खड़ा हुआ और बस की पिछली सीट वाले को देखकर मुंह पर ऊँगली रखकर चुप रहने का इशारा किया।
"कोई गाली गलौज नहीं? महिलाए बैठी है यहाँ। शान्ति से बैठों, दुबारा नही बोलूंगा।" कहकर वह पानी की बोतल लेने नीचे उतर गया, उसके कहने की टोन ही इतनी खतरनाक थी कि लडकों की बोलती बंद हो गयी। उन्होंने चुपचाप गाना भी बंद कर दिया और आपस में खुसपूसा कर बातें करने लगे। तब जाकर मुझे चैन मिला। हमारा ड्राइवर बड़ा ही मस्तमौला आदमी लग रहा था, कुछ तीस साल के आसपास की उम्र थी शायद उसकी, रे बेन या उसी का कोई डुप्लीकेट चश्मा लगा कर चेक्स की शर्ट और जींस के साथ उसका अलग टशन दिखाई दे रहा था। एक कोने में खड़े होकर ड्राइवर और कन्डक्टर दोनों सिगरेट पी रहे थे। सिगरेट खत्म हुयी, सीटें भी भर चुकी थी। ड्राइवर अपनी सीट पर आकर बैठा, सामने रखी महादेव और बद्रीनाथ की तस्वीरों के सामने हाथ जोड़े और गाडी स्टार्ट कर दी।
"बोलो बाबा केदारनाथ की..." एक व्यक्ति ने कहा।
"जय!!!" लास्ट सीट वाले लडकों को छोडकर बस की सभी सवारियों ने एक साथ जयघोष किया। गाडी चलने के साथ ही मेरा दिल जैसे उछलने लगा था। मुझे यह बस की यह घरघराहट पसंद थी, यह यात्रा में पहले पडाव तक पहुँचने की निशानी थी। अब कुछ ही देर में हम हरिद्वार को पीछे छोड़कर ऋषिकेश पहुँचने वाले थे। गाडी चल पड़ी और ठंडी हवाए महसूस होने लगी।
"देवप्रयाग के बारे में बताया था ना? वह कब आयेगा?" वसंत ने पूछा।
"निर्भर करता है कि बस कौन सा रास्ता अपनाती है, अगर बस टिहरी वाला रास्ता पकडती है तो हमे देवप्रयाग नही दिखाई देगा। हाँ टिहरी बाँध देख लेना।" मैंने कहा तो वसंत का मुंह थोडा लटक गया। उसने देवप्रयाग की काफी तस्वीरें देख रखी थी, उसका मन था देखने का। हरिद्वार से बस निकलकर नए बने पुलों से होते हुए ऋषिकेश की सीमा में दाखिल हुयी। यहाँ काफी ट्रैफिक थी, हमे हरिद्वार से ऋषिकेश पहुँचने में ही डेढ़ घंटे बीत गए थे। आगे एक चेकपोस्ट था, वहां बस रुकवा दी गयी।
"भाई मास्क वगैरह पहन लो सब। आगे चेकिंग हो रही है, कोरोना के दो वैक्सीनेशन हो चुके हैं ना सबके? अगर नही भी हुए हो तो बता देना हो गए है।" एक व्यक्ति ने कहा। उसके कहते ही हमे मोबाइल में मैसेज के रूप में आये उस लिंक का खयाल आया। दिल्ली में कश्मीरी गेट पर हमारी जो आरटीपीसीआर जांच हुयी थी, उसकी रिपोर्ट आ चुकी थी, लिंक पर क्लिक करके हमने रिपोर्ट की पीडीएफ कॉपी सेव कर ली, तीनों की रिपोर्ट निगेटिव थी।
"जिसके दो इंजेक्शन नही लगे होंगे उसका क्या?" एक व्यक्ति ने पूछा।
"हां तो कैम्प लगा कर बैठे है, जिसके नही है उसे इंजेक्शन दे देंगे।" कंडक्टर ने कहा, पता नही उसकी बात कितनी सच थी। ऐसे कोई किसी को इंजेक्शन थोड़े ही दे देगा और वैक्सीनेशन के बाद थोड़ा बुखार वगैरह होना आम बात थी, यदि कोई व्यक्ति केदारनाथ या लम्बी यात्रा करने जा रहा है और उसे इंजेक्शन दे दिया तो यात्रा के दौरान यदि बुखार वगैरह हो गया तो? ऐसी चर्चा बस में चलती रही। दो तीन लडकों को नीचे उतारा गया, वे चेकपोस्ट पर बने कैम्प में गए। काफी देर तक वहीं रहने के बाद वापस भी आ गए। उनके साथ क्या हुआ किसी को नही पता चला, इतनी देर तक बस खड़ी होने की वजह से तपने लगी थी। ऋषिकेश में भयंकर गर्मी पड़ने लगी थी। जिन्होंने जैकेट पहन रखे थे उन्होंने अपने जैकेट्स उतार दिए। फिर गाडी शुरू हुई और इस बार खाली रास्ता देखकर दौड़ लगा दी।
मै रास्ते को देख रहा था, वसंत और महेश अपनी आदत के अनुसार मोबाइल में क्रिकेट गेम में मेहनत कर रहे थे।
" आसपास के नज़ारे देखों भाई। अब तो मोबाइल को रख दो, तीस पैतीस रूपये कमा भी लिए तो क्या कर लोगे?" मैंने झिडकी दी तो वसंत खिड़की से बाहर देखने लगा। थोड़ी ही देर बाद रामझुला दिखाई देने लगा। वसंत उसे देखकर खुश हुआ। गाडी आगे बढती रही आगे जाकर वह बाएं जाने वाली सडक पर मुड गयी जो टिहरी जाने वाला मार्ग था।
"अब देवप्रयाग नही दिखाई देगा। हमारी बस टिहरी वाले रास्ते पर है।" मैंने बताया तो वसंत यहाँ वहां देखने लगा। अब उसका मोबाइल बंद हो चुका था। वह खिड़की से आसपास के नजारों के आनन्द ले रहा था महेश तस्वीरें खिंच रहा था। मैंने बस शुरू होते ही श्रीमती जी को मैसेज कर दिया था कि अब हरिद्वार से निकल चुके हैं, आगे नेटवर्क की दिक्कत होगी तो फोन ना लगे तो फ़िक्र नही करना। जब भी नेटवर्क मिलेगा लोकेशन भेजता रहूँगा। बलखाते रास्तों पर दौड़ती बस ने कुछ ही देर बाद मुख्य मार्ग छोड़ कर, दाहिनी तरफ जाने वाला एक दुसरा रास्ता पकड लिया। मैं बस को रास्ता बदलते देख चौंक गया, अब वह टिहरी वाले रास्ते पर नही थी, दूर से तेरह मंजिले शिव मंदिर की झलक दिखाई दे रही थी जो लक्ष्मणझूले के सामने ही स्थित है।
कुछ ही देर में बस ने ऋषिकेश से उपर जाने वाले रास्ते को पकड लिया, अब लक्ष्मण झुला साफ़ साफ़ दिखाई दे रहा था। उसके नीचे से बहते हरे रंग का गंगा का निर्मल प्रवाह देखकर हर कोई मंत्रमुग्ध था। यह दृश्य मैंने अनगिनत बार देखा है किन्तु हर बार मुझे यह दृश्य पहली बार देखा हुआ ही प्रतीत होता है। वसंत और महेश पहली बार किसी नदी के इस रूप को देख रहे थे।
"अब हम देवप्रयाग से जायेंगे। बस ने रास्ता बदल लिया है।" मैंने वसंत को बताया तो वह खुश हो गया। अब इसके आगे के रास्ते वसंत और महेश के लिए नए थे, लेकिन मेरे लिए नही। मै जानता था कि अब यहाँ से गन्तव्य तक ऐसे ही रास्ते और ऐसे ही नज़ारे मिलने वाले है। मेरे दोनों साथी हर तस्वीर खिंच रहे थे, लेकिन मै जानता था यह शुरुवाती उत्साह है जो कुछ ही देर में ठंडा पड़ जायेगा। और वही हुआ, एक घंटे बाद ही दोनों उन चीजों से उकता गए, उन पर सुस्ती छाने लगी थी। मै बस खिड़की से बाहर देख रहा था। हर बार मै इन दृश्यों को देखता हूँ, बहती नदी, पहाड़, घने जंगले, टूटते पर्वत, नदी के सफ़ेद रेतीले तट, मै इन्हें देखते हुए कभी निराश नही होता था। मुझे बस उन्हें देखना अच्छा लगता था, शहर की इमारतों के जंगल से यहाँ वीराना मुझे ज्यादा भाता था। कुछ घंटो की यात्रा के पश्चात एक स्थानीय ढाबे पर बस रुकी, मुझे कहीं जाने आने की इच्छा नही थी तो मै बैठा रहा। बस की सारी सवारियां उतर गयी, महेश और वसंत के पैर बैठे बैठे जाम हो चुके थे तो वे दोनों भी उठ कर थोड़ी चहलकदमी वगैरह करने लगे। मुझे कुछ भी खाने पिने की इच्छा नही थी इसलिए मै चुपचाप बैठा रहा। थोड़ी देर तक बस वहाँ रुकी रही, सवारियों चाय नाश्ता वगैरह किया और वापस बस अपने गन्तव्य की तरफ चल पड़ी। मार्ग में रोड कटिंग चल रही थी, मेरी प्रथम उत्तराखंड यात्रा के समय भी कार्य चल रहा था, अभी भी जारी था।
पहाड़ों के कटे हुए हिस्सों से पानी बह रहा था। कई स्थानों पर पानी और मिटटी मिलकर कीचड़ का रूप ले चुका था। कुछ जगहों पर छोटे छोटे पत्थर और गिला मलबा सडक पर पड़ा दिखाई दे रहा था। हमारे सामने ही गिले मलबे का एक ढेर बस के किनारे आकर गिरा। उससे महेश और वसंत दहशत में आ गए, मेरी सीट दूसरी विंडो की तरफ थी जहां से खाई और नदी दिखाई देती थी तो मैंने ज्यादा ध्यान नही दिया। ध्यान देकर भी क्या करना था। यह सब रास्तें भर दिखाई देने वाली चीजें थी। कुछ ही देर बाद दो किलोमीटर पहले ही मैंने देवप्रयाग संगम की एक हल्की सी झलक देखि और पहचान गया। बस सांप की तरह बलखाते रास्तों पर चलती रही।
"वसंत, महेश। अब आगे देवप्रयाग आ रहा है। भागीरथी और अलकनंदा का संगम यहाँ आकर मिलता है और यहाँ से गंगा का नामकरण होता है। इस स्थान से पहले भागीरथी और अलकनन्दा में अनेक नदियाँ आकर मिलती हैं, अनेक नदियों के संगम से अंतत: गंगा का निर्माण होता है। इसी स्थान पर तैतीस कोटि देवताओं ने माँ गंगा का स्वागत किया था। यहाँ भागीरथी और अलकनंदा के दो अलग अलग रंगत का पानी साफ़ दिखाई देता है, जो संगम के बाजूद कुछ दूर तक अलग अलग छटा बिखेरता दिखाई देता है।" मैंने बताया और थोड़ी ही देर में देवप्रयाग आ गया। बस वाले ने बस धीमी नही की लेकिन फिर भी काफी दूर से दिखाई देते उस अद्भुत संगम को जी भर कर देखने लायक समय तो मिल ही गया।
मै प्रकृति की उस अद्भुत चित्रकारी को देख रहा था, देवप्रयाग की छवि मुझे सदैव आश्चर्यजनक रूप से सम्मोहित करती रही है, एक हरी नदी तो एक गहरी नीली नदी, दोनों का मिलन और दोनों की हरी नीली छवि कुछ दूर तक साथ में बहते हुए दोनों एक हो जाती है। दोनों नदियों के मध्य स्थिट घाट और उस पर दिखाई देता रंगबिरंगा सा नगर, बीचों बिच खड़ा रघुनाथ मंदिर। प्राचीन ग्रन्थों एवं पुराणों में वर्णित किसी अद्भुत नगर के वर्णन को सजीव रूप में अपनी आँखों के समक्ष देखने का अनुभव है देवप्रयाग। इस स्थान को देखकर आप स्वयं समझ जायेंगे कि क्यों तैतीस कोटि देवताओं ने इसी स्थान पर आना चुना। मैंने अपनी यात्राओं में अनेकों बार देवप्रयाग को देखा है किन्तु कभी उसके घाट पर नही गया। मेरा वश ही नही होता था। हर बार मै देवप्रयाग से आगे बढ़ते हुए वचन देता हूँ कि एक ना एक दिन मै अवश्य घाट पर आकर यहाँ से कोई स्मृति चिन्ह अपने साथ ले जाउंगा। उस भूमि के स्पर्श से उन देवताओं के उपस्थिति की अनुभूति प्राप्त करूंगा जिनके मै नाम तक नहीं जानता। देवभूमि का यहीं आकर्षण मुझे हर बार बांधता है, हर बार जैसे अपनी ओर खींचता है। शायद देवप्रयाग की पावन भूमि पर कदम रखना फिलहाल मेरे भाग्य में नही लिखा है, अच्छा है, इसी बहाने फिर वापस आने के बहाने मिलते रहते हैं। देवप्रयाग पार हो चुका था। कुछ घंटो बाद श्रीनगर पहुँचने वाले थे, वहाँ चारों धाम की रक्षक देवी कहे जाने वाली माता धारी देवी का मंदिर है। धारी माता से ना मिल पपने की विवशता देवप्रयाग जैसी ही है। मै उनसे हर बार पुन: आकर दर्शन पाने का तुच्छ सा वचन देकर कान पकडकर क्षमा मांग कर निकल जाता हूँ। माता हैं तो पुत्रों की विवशता समझती होंगी, इसी कारण हर बार पुन: बुला लेती हैं। नदी की निर्मल धारा के मध्य किसी द्वीप सा खड़ा मंदिर दिखाई देने लगा था। दोपहर के लगभग ढाई बज रहे थे। मैंने वसंत और महेश दोनों को धारी देवी की महत्ता के बारे में बताया कि यहीं वह मन्दिर है जिसका स्थान बदला गया था, और स्थान बदलने के बाद ही संयोग से केदारनाथ प्रलय की घटना भी हो गयी। कहने वाले यह भी कहते हैं कि माता का मंदिर हटाने के कारण उनका कोप हुआ। लेकिन मन नही मानता, माता अपने बच्चों के साथ ऐसा नही कर सकती। अपने मन को इस प्रकार सांत्वना देता हुए मैंने पुन: एक बार माता धारी देवी को प्रणाम किया और उनकी उस दिव्य एवं अद्भुत छवि को अपने भीतर समेट कर यात्रा के लिए निकल गया। लगभग एक डेढ़ घंटे पश्चात बर्फ से ढंकी पहाड़ियों की श्रृंखला दिखाई देने लगी। मैंने वसंत और महेश को बस की खिड़कियो से दिखाई देते उन पर्वतों को दिखाया।
ऐसे भव्य पर्वत देखकर उनका मुंह खुला का खुला रह गया। मेरे लिए यह पर्वत नए नही थे, मुझे अब इनसे कोई हैरानी नही होती थी। मै सबसे अधिक उस विशाल पर्वतराज को देखकर मुग्ध हो जाता हूँ जो गढ़वाल के पर्वतों के मध्य किसी राजा के मुकुट की भाँती सबसे उंचा और वृहद खड़ा दिखाई देता है। चार कोनो वाला चौखम्बा। चौखम्बा को कहीं कहीं ब्रम्हांड का स्तम्भ भी कहा जाता है, मेरी पिछली केदारनाथ यात्रा के दौरान एक स्थानीय व्यक्ति ने मुझे इस विषय में बताया था कि चौखम्बा वास्तव में इस ब्रम्हांड का स्तम्भ स्वरूप है। मैंने उनकी बातों को सुन लिया और कोई तर्क वितर्क नही किया, इन पर्वतों से भावनाए जुडी होती हैं, और भावनाओं के आगे तर्क नही किये जाते।
पर्वतों की महिमा से हमारे लगभग सारे पौराणिक ग्रन्थ भरे हुए हैं, समस्त देवताओं को जैसे पर्वत ही सबसे प्रिय हैं। कृष्ण जी ने भी बाल्यकाल में धन सम्पदा प्रदान करने वाले गोवर्धन पर्वत को पूजनीय बताया था, जिस कारण इंद्र कुपित हुए और भयानक वर्षा उत्पन्न कर दी, श्री कृष्ण ने तब विशालकाय गोवर्धन पर्वत को अपनी कानी ऊँगली पर धारण करके इंद्र के दम्भ का नाश किया। सुमेरु पर्वत, हनुमान जी की जन्मस्थली आंजनेय पर्वत, माता पार्वती का मायका हिमाल क्षेत्र, महादेव का निवास स्थान कैलाश। ऊँचे पहाड़ों पर स्थित माता वैष्णो देवी, गंगोत्री यमुनोत्री का उद्गम स्थल हो अथवा केदारनाथ की छत्रछाया कहे जाने वाले केदार पर्वत, पर्वतों को अनेक नदियों के उद्गम स्थल होने का गौरव प्राप्त है। हमारे ऋषि मुनि, ज्ञानी, प्रबुद्ध जन सदैव से ध्यान, योग, ज्ञान, तपस्या हेतु इन्ही पर्वतों की ओर रुख करते हैं। और भी ना जाने कितनी ही बातें है, पर्वतों को लेकर यदि लिखना शुरू करें तो "अथ: पर्वत कथा।" लिखनी पड़ जाएगी। इन सभी पर्वत श्रृंखलाओं में किसी ने मुझे सबसे अधिक आकर्षित किया है तो वह चौखम्बा पर्वत, यह एक ऐसा पर्वत है जो आपको गढ़वाल में अधिकतम स्थानों से नजर आ ही जाता है, इसका राजसी और भव्य आकार इसे सबसे अलग बनाता है। उत्तराखंड में प्रवेश के साथ ही चौखम्बा जैसे मेरे साथ ही चलता है, यात्रा आरम्भ होने से अंत होने तक किसी ना किसी प्रकार चौखम्बा हर यात्रा का हिस्सा जरुर होता है।
मेरी लम्बी एकल यात्राओं में मै जब भी थक जाता था या कहीं मार्ग भटक जाता था तो चौखम्बा की तरफ देखता रहता था, ना जाने उसमे क्या चुम्बकीय आकर्षण है ना जाने उसमे ऐसा कौन सा तत्व है जो वह हर बार मुझे पुन: पुन: यात्राओं के लिए प्रेरित करता हुआ सा प्रतीत होता है। मै प्रेम और अपनत्व से चौखम्बा को पर्वतराज कहता हु, क्योकि इसका आकार मुकुट के समान ही तो है।
अब धीरे धीरे हम अपने गन्तव्य के समीप पहुँचते जा रहे थे, सर्दियां थी उपर से पहाड़, शाम को चार बजे ही सूर्य अस्त होने लगा था, सूर्य की अंतिम बची किरने केवल दूर दिखाई देती हिमशिखरों के शीर्ष पर ही दिखाई दे रही थी, वे पर्वत धीरे धीरे स्वर्णिम आभा ले रहे थे, उन पर्वतों की चोटियों पर पडती किरणों की रंगत क्षण क्षण बदलती रहती है, पहले पिली फिर हल्के से ताम्बे जैसे फिर उसके बाद सबसे अंत में तप्त लावे के समान रक्तिम लाल आभा में नहा कर एकदम से रंगविहीन हो जाते हैं। अब सूर्य अस्त हो चुका था, अन्धेरा फैलने लगा था, ठंडी हवाओं ने अब तक खुली खिडकियों के शीशों को बंद करने के लिए विवश कर दिया। धीरे धीरे प्रवासियों की भीड़ अपने अपने गन्तव्य स्थल पर खाली होने लगी, कंडक्टर नयी नयी सवारियों को भरने लगा।
अगस्त्यमुनि से कुछ सवारियां बैठी जिन्हें गुप्तकाशी जाना था, कंडक्टर ने उन्हें बिठा लिया। मै उलझन में पड़ गया, जहां तक मुझे याद है कुंड के बाद उकिमठ और गुप्तकाशी का मार्ग विपरीत हो जाता है, यानी दोनों के रास्ते अलग हो जाते हैं, गुप्तकाशी जाने के लिए आपको कुंड से दाहिनी तारफ मुड़ना पड़ता है और उकिमठ के लिए सीधे जाना है। मुझे लगा था कि हम सात बजे से पहले उकीमठ पार करके मनसूना पहुँच जायेंगे, लेकिन कन्डक्टर ने पूरी योजना पर पानी फेर दिया। यह अब गुप्तकाशी जाकर वापस लौटेगी मतलब डेढ़ दो घंटे का सफर और बढ़ गया। मैंने इस बात का विरोध किया।
"आपने कहा था बस सीधे मनसूना जाएगी, लेकिन अब आप इसे गुप्तकाशी क्यों घुमा रहें है? गुप्तकाशी जाकर वापस आना पड़ेगा हमे।" मैंने कहा, कुछ और सवारियां जो मनसूना जाने वाली थी उन्होंने भी विरोध किया। कन्डक्टर ने कुछ नही कहा।
"बस जी इन्हें छोडकर आ जाने है हम। टाइम के भीतर ही पहुँचायेगे सबको, हम पर यकीन करो।" ड्राइवर ने कहा, अब बस कुंड से गुप्तकाशी की तरफ घूम चुकी थी तो कुछ कहने का मतलब भी नही था। अब मुझे चिंता होने लगी थी कि क्या पता मनसूना में रहने की व्यवस्था मिले या ना मिले। मै वहाँ कभी गया नही था कुछ पता ही नही था। मेरी अगली सीट पर बैठा व्यक्ति भी मनसूना ही जा रहा था। तो मैंने उसी से पूछ लिया।
"भाई साहब मनसूना में रहने की व्यवस्था हो जाएगी?" मैंने पूछा।
"भैया मै भी पहली बार ही जा रहा हूँ, तो बता नहीं सकता।" उसने जवाब दिया। सबसे अगली सीट पर बैठे हुए व्यक्ति भी वहीं जा रहें थे, यह वहीं सज्जन थें जिन्होंने यात्रा शुरू होते ही पिछली सीट वाले बन्दों को घुड़क दिया था, जिसके बाद वे सारे रास्ते कुछ नही बोले। यहाँ तक कि वे कहाँ उतरे यह भी नही पता चला। मैंने उन्ही से पूछ लिया।
"भाई साहब, मनसूना में रहने की व्यवस्था हो जायेगी? मतलब कोई दिक्कत तो नही है ना? एकदम ही रिमोट एरिया तो नही है?" मैंने पूछा।
"वहां होटल वगैरह नही है, आप लोगों को कहा जाना है?" उन्होंने प्रश्न किया।
"जी हमे मदमहेश्वर जाना है, रांसी से।" मैंने कहा।
"तो आप आज रात उकिमठ में ही रुक जाइए, बस वहीं से जायेगी। उकीमठ में रहने की व्यवस्था ही जाएगी और सुबह सुबह वहाँ से शेयर वेहिकल मिल जाएगी रांसी के लिए।" उन्होंने कहा।
"रांसी के लिए गाड़ियां लगातार मिलती है?" मैंने पूछा।
"नहीं, एकाध दो जाती हैं। लगातार नही।" उन्होंने कहा तो मैंने उनकी जानकारी के लिए उन्हें धन्यवाद दिया। लगभग एक घंटे बाद हमारी बस गुप्तकाशी पहुँच चुकी थी, यह जाना पहचाना इलाका था मेरे लिए, मै पिछली यात्राओं के दौरान यहाँ ठहरा था, और गुप्तकाशी के मंदिर के दर्शन भी किये थे जो शीतकाल में बाबा केदारनाथ को ले जाते समय एक पडाव के रूप में प्रयोग होता है। गुप्तकाशी में महादेव जी ने गुप्तनिवास किया था। केदारनाथ एवं पंचकेदार मंदिरों के निर्माण सम्बंधित कथा तो सभी ने सुन रखी होगी, जिसके अनुसार महाभारत के युद्ध के पश्चात बंधू हत्या का पाप मिटाने के लिए भगवान श्री कृष्ण पांडवों को महादेव को प्रसन्न करने के लिए कहते हैं। पांडव महादेव को प्रसन्न करने का प्रयास करते हैं किन्तु वे इस भयानक नरसंहार के कारण कुपित थे तो उनके समक्ष आना नहीं चाहते थे, अब महादेव नही आयेंगे तो पांडवों ने खुद ही उनका पीछा करना आरम्भ कर दिया।
इस दौरान महादेव कुछ समय तक यही निवास कियें किन्तु जब पांडव पहुंचे तो फिर निकल लिए। इस बार वे एक भैंसों के झुण्ड में भैंस का रूप लेकर छिप गए ( अलग अलग कथाओं में बैलों का झुण्ड या अन्य प्राणियों का भी उल्लेख है) युधिष्ठिर समझ चुके थे कि महादेव इन्ही भैंसों के झुण्ड में छिपे हैं, तब उन्होंने बाकी भाइयों के साथ उस झुण्ड को एक दर्रे की दिशा में हांकना आरम्भ कर दिया। आगे मार्ग दो पर्वतों के मध्य एक संकरी गली से होकर जाता था। युधिष्ठिर ने भीम को उस गली के उपर दोनों पर्वतों पर पैर रखकर खड़े होने के लिए कह दिया। बाकी भाइयों ने झुण्ड को हांक दिया, सभी प्राणी भीम के पैरों के नीचे से होते हुए उस गली को पार कर गए लेकिन एक भैंसा ठिठक गया, महादेव जी कैसे भीम के पैरों के नीचे से निकल सकते थे? बस उस भैंसे को देखकर भीम कूद पड़ा और अपनी बलिष्ठ भुजाओं में उन्हें जकड़ लिया। किन्तु महादेव भी कम नही थे, सीधे भूमि के भीतर ही समा गए। उसके पश्चात उनके भैंसे रूपी अंग पांच अलग अलग स्थानों पर निकले, केदारनाथ में पीठ, मदमहेश्वर में नाभि, तुंगनाथ में भुजा, रुद्रनाथ में जटा, और कल्पेश्वर में मुख निकला। जहाँ जहां उनके अंग निकले वहां वहां पांडवों ने मंदिरों का निर्माण किया जिन्हें पंचकेदार कहा जाता है। इन पंचकेदार श्रृंखला में से मै अब तक प्रथम केदार केदारनाथ एवं तृतीय केदार तुंगनाथ जा चुका हूँ, इस यात्रा में द्वितीय केदार मदमहेश्वर के लिए निकला था। रुद्रनाथ के कपाट शीतकाल के लिए पहले ही बंद हो चुके थे, अन्यथा मै रुद्रनाथ की योजना भी बना रहा था।
हां तो मै बता रहा था इन मंदिरों और स्थानों की कथाओं के विषय में। तो पांडवों से छिपने के लिए महादेव ने यहाँ गुप्त निवास किया था इसलिए इस स्थान को गुप्तकाशी कहा जाता है। गुप्तकाशी से सोनप्रयाग जाने के लिए शेयर जिप्सी वगैरह आसानी से मिल जाती हैं। यहाँ की सवारियां उतर चुकी थी। इसी के साथ बस वापस घूमी और जहां से आयी थी उसी दिशा में चल पड़ी। अब अँधेरा घना हो चुका था। इसके बावजूद दूर दिखाई देते एक लाल रंग की इमारत को मै पहचान गया, वह भारत सेवा संस्थान का आश्रम था जो उकीमठ में था। मै अपनी यात्रा के दौरान वहां अनेक बार रुका हूँ। इसके बाद बस बलखाते रास्तों पर दौड़ने लगी, कुछ ही देर में उकिमठ भी पहुँच गए और यहाँ लगभग सारी सवारियां उतर गयी।
अब बस में केवल मै, वसंत, महेश और सामने वाली सीट पर बैठा व्यक्ति ही शेष थे। इसी बिच महेश को उसकी सीट के नीचे तीन लाठियां मिली, मैंने देखा और उन लाठियों को अपने पास रखने के लिए कह दिया, मै जानता था आगे चढाई में वे लाठियां बड़ी काम आने वाली थीं। हम तीनों ने लाठियां उठा ली, वह लाठियां किन्ही यात्रियों की रही होंगी जो यात्रा समाप्त होने बाद उन्हें यहाँ वहां रख देते हैं, जब तक यात्रा होती है तभी तक उन लाठियों का महत्व भी होता है। उसके बाद उन्हें कौन पूछता था। खैर अब ये लाठियां हमारे काम आनी थी।
अब धीरे धीरे पूरा रास्ता भयानक रूप से सुनसान होने लगा था। नीच गहरी खाई में इमारतों और घरों की लाइटें तारों के टिमटिमाते समूहों की तरह दिखाई दे रहे थे, ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे हम आकाश की ऊँचाइयों में उड़ रहे थे, तारों से भी उपर।
"आपको कहाँ जाना है भाई साहब।" कंडक्टर ने पूछा, मैंने उन्हें बता दिया।
"वहाँ रुकने की कोई जगह तो होगी?" मैंने फिर से पूछ लिया, कंडक्टर ने सिर हिला दिया, उन्होंने हाँ कहा आया ना कुछ समझ में ही नही आया।
अंतत: हम एक छोटे से कस्बे में पहुँच गए, जहां सन्नाटा छाया हुआ था। सडक के दोनों तरफ कुछ रिहायशी घर और दुकाने थी, सब के दरवाजें बंद थे, पूरी सडक पर कोई आदमी नही था। बस वहीं रुक गयी, रात के नौ बज रहे थे। हम तीनो बस से बाहर निकले। बाहर निकलते ही वसंत और महेश ठंड से कांपने लगे। यहाँ ठंड बहुत ज्यादा थी। मैंने अपनी उनी टोपी निकाली और सिर से कान तक खिंच लिया। हम तीनों अब उस कस्बें में अकेले भटक रहे थे। एक छोटा सा होटल खुला था तो मै वहां पहुँच गया।
"भाई साहब यहाँ रुकने की व्यवस्था कहा हो सकती है? रात भर के लिए रुकना है।" मैंने कहा।
"कितने लोग हैं आप?" होटल वाले ने पूछा।
"जी, तीन हैं।" मैंने कहा, तो वसंत और महेश भी सामने आ गए।
"मेरा कमरा है जी थोड़ी दूर पर। आप चाहे तो रुक सकते हैं।" उन्होंने कहा।
"जी क्या चार्ज करेंगे आप?" मैंने पूछा।
"नौ सौ दे देना।" उसने कहा तो मैंने भाव ताव करके सात सौ में मना लिया। फिर वह हमे लेकर चल पड़े। हम उन सुनसान गलियों में चल रहे थे, दूर चन्द्रमा के प्रकाश में दुधिया प्रकाश में दमकता चौखम्बा उस अँधेरे में भी दिखाई पड़ रहा था।
लगभग आधे किलोमीटर की दुरी पर उन भाई साहब का घर था। यहाँ दो कमरे बना रखे थे। जिनमे से एक में वे खुद रहते थे और दुसरे का इस्तेमाल होम स्टे की तरह करते थे।
"यह दुसरा कमरा आप लोगो का है जी। यहाँ अटेच्ड टॉयलेट बाथरूम है। और खाना वगैरह क्या खायेंगे बता दीजिएगा।" उन्होंने पूछा।
"कुछ स्पेशल नही खायेंगे, समान्य थाली बस।" मैंने कहा तो वे चाभी देकर चले गए। हम तीनों ने फौरन अपने बैग्स कमरे में रखे। वसंत सबसे पहले टॉयलेट गया, उसे दुनिया भर की समस्याए हो रही थी रास्ते भर से।
दुसरा टॉयलेट भी था तो वहां जाकर देखा तो पानी गर्म करने वाली रॉड देखकर मैं खुश हो गया, अब सबसे पहले नहाना था। मैंने देर ना करते हुए रॉड को प्लग में डालकर उसे बाल्टी के पानी में डाल दिया। फिर गर्म गर्म पानी से नहा धोकर अपनी सारी थकावट खत्म करके ही बाहर निकला। अब बारी थी वसंत और महेश की, इस भयानक ठंड में उनका नहाने का कोई इरादा नही था लेकिन मुझे तौलिये से सिर पोंछता हुआ देखकर वे अचम्भित हो गए।
"तुमने नहा लिया?" वसंत ने पूछा।
"नहा लिया, क्योकि शायद यही आखरी पडाव है जहां हम नहा रहें हैं। इसके बाद दो-तीन दिनों तक नहाना भूल जाओ।" मैंने कहा, मैंने अपनी पहनी हुयी टी शर्ट भी धो कर बाहर सूखने के लिए टांग दी। अब महेश और वसंत के साथ समस्या यह हुई कि रॉड उनके समय पर पानी गर्म ही नही कर रही थी। पानी बस हल्का सा गुनगुना होकर रह गया। उन्हें उसी से नहाना पड़ा।
सब नहा धोकर तैयार हो गए, अब खाने के लिए वापस आधा किलोमीटर जाना था। हमने अपनी जैकेट्स वगैरह फिर से लाद ली।
"लाठियां ले लो अपनी अपनी, होटल आधा किलोमीटर दूर है। बिच का रास्ता सुनसान और अँधेरे वाला है। सेफ्टी के लिए लाठी का साथ रहना जरुरी है।" मैंने कहा तो दोनों ने लाठियां ले ली।
"यहाँ क्या चोरी चकारी वगैरह होती है?" वसंत ने पूछा।
"नही, चोरी चकारी वाली बात नही है। ऐसी जगहों पर भालू तेंदुए वगैरह अक्सर दिख जाते हैं।" मैंने कहा और आगे चल पड़ा, दोनों जो अब तक धीमी गति से चल रहे थे, फौरन दौड़ते हुए मेरे पास आये। कुछ ही मिनटों में हम होटल पहुँच गए।
पहुँचते ही हमने देखा कि जिस बस से हम आये थे उसी बस का ड्राइवर और कन्डक्टर वहीं बैठे खाना खा रहे थे। हम एक बेंच पर जाकर बैठ गए और तीन थाली की ऑर्डर दे दी।
ड्राइवर और कंडक्टर लगे हुए थे एकदूसरे की टांग खींचने में, दोनों के बिच अश्लील चुटकुले चल रहे थे। वैसे भी उस पुरे इलाके में केवल वही एक होटल खुला था और हम ही गिने चुने चार पांच लोग थे। दोनों ने शराब भी पी रखी थी जिसकी महक आ रही थी।
हमने होटल वाले भाई साहब से सुबह रांसी जाने वाली गाड़ियों के विषय में पूछताछ की।
"जी गाडी तो उकिमठ से मिलती है, यह तो छोटा सा कस्बा है। यहाँ से गाड़ियां बुकिंग पर ही जाती है, हजार रूपये तक ले लेंगे।" होटल वाले ने कहा।
"नही, हमे बुकिंग में नही जाना है। हम शेयर गाडी से चले जायेंगे, नही तो उकीमठ से आने वाली गाडी पकड लेंगे।" मैंने कहा।
"जी ऐसा है कि जहाँ आप जा रहे हो वहां ज्यादा गाड़ियाँ नही जाती। दिन भर में एकाध जाती है, वह भी सवारी मिल गयी या बुकिंग हो गयी तो। तो कह नही सकते कि आपको सुबह गाडी मिल ही जाएगी।" होटल वाले ने कहा।
"आप तो यहीं के हैं, ऐसा तो हो ही नही सकता कि रांसी के लिए कुछ जुगाड़ ना हो। लोकल लोगो का भी तो आना जाना रहता होगा? हर किसी के पास तो खुद की गाडी या बाइक तो होगी नही। तो जो भी जुगाड़ रहेगा बता दीजिये।" मैंने कहा तो वह थोड़ी देर सोच में पड़ गए।
"अच्छा एक दूध सप्लाई करने वाली गाडी रोज आती है, रांसी तक वह दूध और किराना वगैरह की सप्लाई करते हुए जाती है। नौ बजे के आसपास गाडी आती है, मै उनसे बात करके बताता हूँ, उसी में जुगाड़ लगा दूंगा।" होटल वाले ने कहा। उनकी बात सुनकर हम खुश हो गए कि चलो रांसी पहुँचने का जुगाड़ तो हो गया।
खाना पहाड़ी था, एक अजीब सी सब्जी थी जो ककड़ी की तरह ही लम्बी थी। मैंने आज से पहले ऐसी कोई सब्जी नही देखि थी। वह साबुत ही पकाई हुयी थी, स्वाद को लेकर थोड़ा झिझक हुई लेकिन फिर मैंने खाना शुरू किया तो वह अच्छी लगने लगी। हमने पेट भर कर खाना खाया। सौ रूपये प्रति प्लेट के हिसाब से तीन सौ रूपये चुका दिए गए।
मैंने पेमेंट दी थी तो हिसाब में नोट कर लिया। फिर हम वापस उस ठंड में अपने कमरे में पहुँच गए। पहुँचते ही मै रजाई में जाकर लेट गया, वसंत और महेश फोन पर लगे हुए थे, वसंत अपनी पत्नी से बात करके पूरी अपडेट दे रहा था। मैंने भी दो तीन मिनट के लिए घर पर कॉल करके संक्षेप में सब बता दिया और फोन रख दिया। लेकिन वे दोनों आधे घंटे से फोन में लगे हुए थे, उनकी बडबड से मुझे नींद नहीं आ रही थी।
"अरे अब फोन बंद करो, चार्जिंग पर लगाओ। कल के बाद क्या पता कब फोन चार्जिंग करने का मौक़ा मिलेगा। और चुपचाप सो जाओ, नींद बढ़िया रहेगी तो ही आगे की यात्रा कर पाओगे, और अब जल्दी सो जाओ सुबह छह बजे उठना भी है।" मैंने कहा।
"छह बजे क्यों? गाडी तो नौ बजे मिलेगी ना?" वसंत ने पूछा।
"मैं उस गाडी के भरोसे नही रहना चाहता। सुबह जल्दी उठे तो कोई ना कोई गाडी जाते हुए मिली तो उसी में लटक जायेंगे, जितनी जल्दी रांसी पहुंचेंगे उतनी ही जल्दी मंदिर पहुंचेंगे। अगर हम नौ बजे तक ट्रेक शुरू करते है तो भी हमे मंदिर पहुँचते पहुँचते शाम हो जाएगी। शाम का मतलब है चार बज जायेंगे, और यहाँ चार बजे ही दिन डूब जाता है, 16-17 किलोमीटर की सुनसान और खड़ी जंगली चढाई है, अँधेरे में करना सेफ नही है। इसलिए लाईट बंद करो और सो जाओ।"कह कर मैं सो गया।
फिर सुबह अलार्म बजा तो मैंने दोनों को भी जगा दिया। सुबह की ठंड उनकी कल्पना से भी परे थी, वे रजाइयों से बाहर आना ही नही चाहते थे।
"जाओ भाई फ्रेश हो जाओ, ठंड के चक्कर में पड़े रहोगे तो पहुँच नहीं पायेंगे।" कह कर मैं उठा और गमछा, ब्रश वगैरह सब लेकर बाथरूम पहुँच गया। रॉड से पानी गर्म करने की कोशिश की लेकिन वह हद से ज्यादा समय ले रही थी तो मैंने उसे निकाल दिया, तब तक वसंत दुसरे बाथरूम में रॉड लेकर चला गया। पानी हल्का सा गुनगुना हो गया था जो मेरे लिए काफी था। उसी से नहा धोकर मै तैयार भी हो गया लेकिन दोनों पानी पूरी तरह गर्म होने का ही इन्तजार कर रहे थे।
किसी तरह मेरे डांटने डपटने पर दोनों ने गुनगुने पानी से ही स्नान किया। हम अपने बैग्स वगैरह सब लेकर, हर चीज की अच्छी तरह से जांच पड़ताल करके कुछ छूटा तो नही यह देखकर कमरे से निकल गए। ताला लगा कर चाभी मैंने अपनी जेब में रख ली।
कमरे से बाहर निकलते ही चौखम्बा का विराट स्वरूप हमारे सामने ही दिखाई दिया। हम बहुत सही समय पर बाहर निकले थे, इस समय चौखम्बा बर्फ से ढंका हुआ सफ़ेद रंग का दिखाई दे रहा था।
"अभी थोड़ी ही देर में सूर्य की किरणों से यह चौखम्बा का शिखर नहा उठेगा और उसका सम्पूर्ण रंग सोने के समान दमकने लगेगा।" मैंने उन्हें बताया, वे चौखम्बा की तस्वीरें लेने लगे, जिसमे पर्वत की कम और खुद की सेल्फियाँ ज्यादा थी। मुझे भी बुलाया लेकिन सेल्फियों में मेरी दिलचस्पी नही थी।
मैंने प्रकृति के इस अद्भुत दृश्य को पूर्णतया आत्मसात करने तक जी भर कर निहारा। सूर्य की किरने पड़ने से चौखम्बा का रंग अब बदलने लगा था, वह किसी राजमुकुट की भाँती दिखाई देने वाला चौखम्बा अब सूर्यकिरणों से नहाकर वाकई स्वर्ण मंडित मुकुट में बदल चुका था। मैं मंत्रमुग्ध सा होकर काफी देर तक चौखम्बा के उस विराट स्वरूप और अप्रतिम सौन्दर्य को निहार रहा था। मुझे विश्वास नही हो रहा था कि जिस चौखम्बा को मै हमेशा इतनी दूर से देखता आया था, आज मै उस पर्वतराज के समीप पहुँचने वाला हूँ। अब मुझे चौखम्बा पर्वत के बजाय श्रीकृष्ण के विराट ब्रम्हांड स्वरूप की भाँती प्रतीत हो रहा था, जिसके दर्शन कुरुक्षेत्र में अर्जुन ने किये।
काफी देर तक उस अप्रतिम और अलौकिक दृश्य में खोये रहने के पश्चात आखिरकार मैंने अपने मोबाइल में उन क्षणों की स्मृतियों को तस्वीरों और कुछ वीडियोज के रूप में हमेशा के लिए संजो लिया। अब चलना था, धुप निकल चुकी थी। कुछ गाड़ियां आती जाती दिखाई देने लगी थी। वसंत और महेश अभी भी अपनी तस्वीरों में व्यस्त थे तो उन्हें कुछ कहने के बजाय मैंने आगे बढना ज्यादा उचित समझा और अपनी लाठी लेकर चल पड़ा।
उन्होंने मुझे जाता देखा तो फौरन अपनी फोटोग्राफी रोक दी और दौड़े चले आये।
"अरे थोडा रुक जाते भाई, तस्वीरें ले रहें थे।" वसंत ने कहा।
"भाई अभी केवल शुरुवात है, मुख्य यात्रा तो हमने आरम्भ भी नही की है। ऐसे ऐसे दृश्य मिलेंगे कि तुम तस्वीरें खींचते खींचते उब जाओगे। यहाँ रुक कर टाइम वेस्ट करने से अच्छा है होटल पर जाकर गाडी का इन्तेजार करें।" मैंने कहा। थोड़ी ही देर में हम होटल पहुँच चुके थे।
पहुँचते ही मैंने चाभी उन्हें दे दी और नाश्ते के लिए पूछा। पराठें बन रहे थे, मैंने चाय परांठों का ऑर्डर दिया।
"मै चाय नही पियूंगा, मुझे एसिडिटी हो जाएगी।" वसंत ने कहा।
"मत पियो, मुझे क्या। आगे खुद ही पीना शुरू कर देगा।" मैंने कहा और जैकेट वगैरह उतार कर अपनी टी शर्ट में आ गया। रुके रहने की वजह से जैकेट में गर्मी हो रही थी। धुप पड़ने के बाद ठंड तो थी लेकिन इतनी नही कि जैकेट पहनने की जरूरत महसूस हो। वसंत और महेश अपनी जैकेट्स पहने रहें। पराठें और चाय वगैरह पिने के बाद मैंने बिल दिया और उसे वापस अपने हिसाब में जोड़ लिया।
"आपकी दूध वाली गाडी तो आ ही नही रही है, आठ साढ़े आठ बजने वाले हैं। हमे जल्दी पहुंचना है और आज ही मंदिर तक पहुंचना है।" मैंने कहा।
"अब तक तो आ जाना चाहिए था, पता नही क्यों लेट हो रखी है।" होटल वाले ने कहा। तो मै बाहर आया गया, बाहर बढिया गुनगुनी सी धुप पड़ रही थी, कस्बे में चहल पहल होने लगी थी। दुकाने खुल चुकी थी, आने जाने वाले लोग एक नजर हमारी तरफ जरुर देखते। छोटे कस्बों में लोग एकदूसरे को अच्छी तरह से जानते हैं, इसलिए नया आया हुआ आदमी फौरन पहचान में आ जाता है। कुछ लोगों ने पूछताछ भी की, मैंने मदमहेश्वर यात्रा पर आने के विषय में बताया।
"अगर समझो सप्लाई वाली गाडी नही मिली तो?" महेश ने पूछा।
"तो ज्यादा देर तक इन्तजार नही करना है, साढ़े नौ बजे तक देखेंगे और फिर बैग लेकर पैदल ही चल पड़ेंगे। चौदह पन्द्रह किलोमीटर का ही रास्ता है, रास्ता खुबसुरत है चलने में मजा आयेगा। बस यह समझ लेना की ट्रेक यहीं से शुरू हो गयी।" मैंने कहा और मैंने यह बात मजाक में नही कही थी, मै वाकई पैदल चलने के लिए भी खुद को मानसिक रूप से तैयार कर चुका था और यही मै उनसे भी उम्मीद कर रहा था।
"लेकिन इतनी दूर पैदल कैसे जायेंगे?" वसंत के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं।
"महादेव का नाम लेकर चल देंगे, रास्ते में कोई ना कोई गाडी आती जाती दिख ही जाएगी, लिफ्ट ले लेंगे।" मैंने कहा। उनका चेहरा उतर गया लेकिन अफ़सोस कि उस समय मेरे पास इस से बेहतर योजना कोई थी ही नही।
मैंने राह चलते कुछ लोगो को रोककर उनसे भी रांसी के लिए गाड़ियों के विषय में पूछताछ की तो उन्होंने सामने दिखाई देते बस स्टॉप की तरफ इशारा कर दिया कि यहाँ से गाड़ियां मिलती है, रिजर्व कर लोगे तो चले जाओगे। मैंने वसंत और महेश को वहीं रुकने के लिए कहा और बस स्टॉप की तरफ चला गया। वहां दो तीन जिप्सीयां सवारी भर रहीं थी। पूछने पर पता चला सब की सब उकिमठ जा रहीं हैं। रांसी के लिए कोई गाडी नही थी, एक जिप्सी वाले ने हजार रूपये बताए तो मैंने मना कर दिया।
इसी बिच एक व्यक्ति वहां एक छोटे से निर्माण का कार्य करवा रहें थे। उन्होंने मुझे देखा और मेरे पास आये।
"कहाँ से हो भाई?" उन्होंने पूछा।
"जी मुंबई से।" मैंने कहा।
"कहाँ जा रहें है?"
"जी, मदमहेश्वर जाना है।" मैंने कहा।
"उसके लिए तो गाड़ियां मुश्किल से ही मिलेंगी। जिससे भी पूछोगे वो रिजर्व की ही बात करेंगे।" उन्होंने कहा।
"वैसे आपको ठंड नही लग रही है क्या? यार इतनी ठंड में आप अकेले आदमी हो जो हाफ टी शर्ट पहन कर घूम रहे हैं।" उन्होंने कहा।
"ठंड तो है, लेकिन मुझे जैकेट में गर्मी हो रही थी इसलिए निकाल दी।" मैंने सफाई दी।
"आप मुम्बई के लगते नही हो, मूल रूप से कहाँ के हैं?" उन्होंने फिर पूछा।
"जी मूल रूप से मैं उत्तर प्रदेश का हूँ, लेकिन कर्मभूमि मुंबई ही है मेरी।" मैंने कहा।
"मुंबई में मैं भी काफी साल रह चुका हूँ, ठाने का नाम सुना ही होगा? मै दस साल रहा था वहाँ।" उन्होंने कहा तो मै हैरान रह गया।
"लगता है आप इस माहौल के काफी फैमिलियर हैं, मतलब आपको इस माहौल से कुछ ख़ास दिक्कत होते नही दिखाई दे रही हैं जैसा कि अक्सर मैदानी इलाके वालों को होती है।" उन्होंने कहा।
"जी यह मेरी चौथी उत्तराखंड यात्रा है।" मैंने कहा।
"अरे वाह! इससे पहले आप कहाँ कहाँ गए हैं?"
"मैने अपनी यात्रा 2018 में शुरु की थी, चोपता गया था। तुंगनाथ के दर्शन किये, फिर अगले साल केदारनाथ जाने का अवसर मिला। फिर अगले साल दिसम्बर में वापस तुंगनाथ जाना हुआ, उसी में हम कार्तिक स्वामी भी गए थे।" मैंने कहा।
"दिसम्बर में तो भयानक ठंड होती है, रास्ते बंद रहते हैं अक्सर। बर्फ काफी हो जाती है।" उन्होंने कहा।
"जी, उस समय भी बर्फ काफी थी जिसकी वजह से तुंगनाथ के आधे रास्ते से ही वापस आना पड़ गया। घुटनों से होते होते बर्फ आगे बढ़ते बढ़ते कमर तक पहुँच गयी, फिर एक जगह ऐसी आई जहां मै सीने तक बर्फ में था। तो हमने वहीं से रास्ता बदल लिया और वापस लौट आये और कनक चौरी जाकर कार्तिक स्वामी की यात्रा शुरू की। वहां भी काफी बर्फ पड़ी थी और जंगल भी घना था, मंदिर से मात्र एक किलोमीटर दूर रहने पर अन्धेरा हो गया तो हमे वापस आना पड़ा। दो ढाई घंटे हम उस अँधेरे और बर्फीले जंगल में भटकते रहें। फिर उसके अगले साल नवम्बर में केदारनाथ जाने का अवसर मिला और केदारनाथ के फौरन बाद वापस तुंगनाथ पहुँच गया।" मैंने कहा।
"तुंगनाथ मंदिर से डेढ़ किलोमीटर उपर चन्द्रशिला चोटी है, वहां से हिमालय का 360 डिग्री व्यू दिखाई देता है। कभी मौक़ा मिले तो जरुर जाना।" उन्होंने कहा।
"जी मै केदारनाथ के बाद तुंगनाथ और उसके बाद चन्द्रशिला ही गया था।" मैंने कहा तो वह मुस्कुरा दिए।
"आपका नाम नही बताया आपने?"
"संदीप पंवार।" उन्होंने जवाब दिया।
"जी मेरा नाम देवेन्द्र पाण्डेय।" मैंने अपना परिचय दिया।
"तो अब आगे कौन कौन सी यात्रा करने का इरादा है आपका?" संदीप जी ने पूछा।
"पंच केदार यात्रा का निश्चय किया है, जिनमे से प्रथम केदार केदारनाथ एवं तृतीय केदार तुंगनाथ तो हो चुके हैं। आज कल में द्वितीय केदार मदमहेश्वर की यात्रा भी हो जाएगी। बचे रुद्रनाथ और कल्पेश्वर तो वह मै इसी यात्रा में करने की सोच रहा था किन्तु रुद्रनाथ के कपाट बंद हो चुके हैं, और तुंगनाथ के शायद आज बंद हो रहें है।" मैंने कहा।
"आप तो यार काफी जानते हैं यहाँ के बारे में। मतलब मन रम गया है आपका यहाँ पर।" संदीप जी ने मुस्कुराते हुए कहा।
"जी हाँ कुछ ऐसा ही है।" मैंने जवाब दिया।
"आप यात्रा क्यों करते हैं? मजे के लिए या कोई और उद्देश्य है? क्योकि जिस पैटर्न पर आप निरंतर यात्रा कर रहें हैं वह मजे के लिए तो नही लगती। क्योकि निरंतर यात्रा कई बार यात्री को तोड़ देती है। लेकिन आप बार बार आते हैं, जैसा आपने बताया उस हिसाब से आप तुंगनाथ ही तीन बार गए हैं और चन्द्रशिला पर आप तीसरे प्रयास में पहुंचे हैं, इसका अर्थ यही है कि आप पिकनिक या ट्रेक वाले आदमी नही हैं।" संदीप जी ने कहा, आश्चर्य था कि वे जैसे मेरा मन पढ़ रहे थे।
"यात्रा मुझे अध्यात्म से जोडती हैं, इन पहाड़ों में मैं खुद को ईश्वर के समीप पाता हूँ। मुझे उनका आभास होता है। मुझे महादेव से जुडी सारी जगहें आकर्षित करती हैं किन्तु उत्तराखंड कुछ अधिक ही आकर्षित करता है।" मैंने कहा।
"वह तो करेगा ही, महादेव जी हमारे दामाद हैं ना, हम माता पार्वती के मायके वाले हैं। यही तो मायका हैं माँ पार्वती का।" संदीप जी ने कहा।
हमारे भारत देश में ईश्वरों को सदैव हमने अपने परिवार के सदस्यों की भाँती ही देखा है, हमने कभी अपने ईश्वर और पूज्यों को औपचारिकता एवं किसी भय के बंधन में नही बांधा है। हम कृष्ण को चोर, छलिया भी कहते हैं और योगेश्वर भी, सम्पूर्ण श्रृष्टि के पालक को लल्ला कहकर उससे प्यार दुलार भी करतें है तो उनके सामने नत मस्तक भी होते है। हम महादेव को बौरहा, भोले, औघड़, गुस्सैल, उग्र, शांत, सौम्य और असंख्य उपमाए देते हैं। प्रलय और विनाश के देवता कहकर भी उनसे इतना प्रेम करते हैं कि उन पर अपना अधिकार जताते हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम के जन्मदिवस पर उन्हें पालने में झुलाते हैं, सोहर गाते है। अयोध्या वाले उन्हें अपना बताते हैं तो मिथिला वाले दामाद कहते हैं और उनसे हंसी मजाक भी करते हैं। भोलेनाथ जी से भी यही रिश्ता है, कैलाश से आये और उत्तराखंड के दामाद बन गए, हम मायके वाले हो गए, यहाँ ससुराल है, वहां जन्मभूमि है, यहाँ कर्मभूमि है, यहाँ उन्होंने गंगा को जटाओं पर धारण किया, यहाँ उन्होंने हलाहल पीया, यहीं पर प्रेम किया, यहीं पत्नी वियोग सहा और पुन: यहीं वैरागी बने, पुन: प्रेम में पड़ें, यहीं त्रियुगीनारायण में माता पार्वती के साथ विवाह बंधन में बंधे। मतलब ऐसी असंख्य और कभी ना खत्म होने वाली कहानियों तथ्यों और आस्था के जरिये हमने अपने भगवान को अपने से जोड़ लिया है। ईश्वर के प्रति ऐसा अपनत्व भाव शायद ही विश्व के किसी और धर्म में मिलता हो। वही ईश्वर कभी हमारे लिए लल्ला है, कभी हमारे दामाद हैं, कभी चोर हैं, कभी छलिया हैं, कभी असभ्य तो कभी श्रृष्टि के पिता। असंख्य रूपों में हम अपने ईश्वर को असंख्य प्रकार से स्वयं से जोड़ते हैं।
"किसी ने सच ही कहा है, सैर कर दुनिया की गाफिल जिंदगानी फिर कहा।" सन्दीप जी ने कहा।
" जिंदगानी गर कुछ रही तो फिर यह जवानी कहाँ।" मैंने पंक्ति पूरी की।
"अरे आप तो जानते हैं।" वह मुस्कुराए।
"राहुल संकृत्यायन जी की किताबों में पढ़ा है , मूल रूप से किसने लिखी यह नही जानता।" मैंने कहा।
"अरे आप राहुल सांकृत्यायन जी को भी जानते हैं, वाह कमाल है। अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा।" संदीप जी ने कहा।
"साहित्य में रूचि रखने वाला शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति होगा जो उन्हें ना जानता हो।" मैंने कहा।
"तो आप साहित्य में रूचि रखते हैं? मै भी रखता हूँ, अनेक किताबें पढ़ी है।" संदीप जी ने कहा। वह कहते है ना आपको आपकी समान रूचि के लोग मिल जाए तो समय जल्दी बीतता है और वही हुआ, अब समय उबाऊ नही लग रहा था।
"आप साहित्य में विशेष रूचि रखते हैं लगता है? कौन से विषय आपको अत्यधिक आकर्षित करते हैं?" संदीप जी ने पूछा।
"जी विषय को लेकर मैंने अपने आप को किसी ख़ास दायरे तक सिमित नही रखा है, मै गंभीर साहित्य भी पढ़ लेता हूँ तो पल्प फिक्शन कहे जाने वाला साहित्य भी चाव से पढता हूँ, मुझे यात्रा वृतांत भी पसंद है तो ऐतहासिक और पौराणिक रचनाए अत्यधिक आकर्षित करती हैं।" मैंने कहा।
"साहित्य में रूचि रखने वाले लोग अक्सर छुपे हुए कलाकार होते हैं। आप में भी इस घुमक्कड़ी के अलावा कुछ होगा?" संदीप जी ने पूछा।
"जी मै भी पुस्तकें लिखता हूँ। छोटा मोटा लेखक तो मै भी हूँ, अपनी गढ़वाल की यात्रा पर मैंने 'कण कण केदार' नाम से एक छोटा सा यात्रा वृतांत भी लिखा है।" मैंने कहा।
"अरे वाह, यह जानकर तो मुझे काफी आश्चर्य और हैरानी हो रही है। बहुत ही अच्छा लगा जानकर कि आप लिखते भी हैं, यात्रा वृतांत के अलावा और क्या लिखते हैं आप?" संदीप जी वाकई अब अत्यधिक दिलचस्पी ले रहे थें। मैंने फौरन मोबाइल में उन्हें अपनी अब तक की प्रकाशित सभी पुस्तकों के विवरण दिखा दिए।
"वाह शानदार। मतलब आप हर प्रकार के विषय पर लिखतें हैं?"
"अजी कहां, बस प्रयास करता हूँ।" मैंने जवाब दिया।
"तो मै यह समझ लूँ कि इस यात्रा पर भी कोई किताब अवश्य आएगी?" संदीप जी ने मुस्कुराते हुए पूछा।
"वह तो यात्रा के अनुभवों पर निर्भर करता है, यदि पुस्तक आएगी तो उसमे हमारी इस भेंट और बातचीत का उल्लेख भी रहेगा।" मैंने हंसते हुए कहा तो वो भी मुस्कुरा दिए। इसी समय एक पिक अप पहुंची जिसमे कुछ सामान लदा हुआ था।
"यह आ गयी जी आपकी सप्लाई वाली गाडी। जाइए और अपने मित्रों के साथ यात्रा आरंभ कीजिये। आपकी यात्रा के लिए शुभकामनाए, जय केदार।" संदीप जी ने कहा।
"जय केदार जी। आपसे मिलकर अच्छा लगा। अब इजाजत दीजिये चलता हूँ।" कहकर मै भी लौट गया। वसंत और महेश मुझे संदीप जी से बातें करते हुए देख रहे थे।
"अरे उस आदमी से इतनी क्या बातें कर रहे थे?" वसंत ने पूछा।
"तुम्हे नहीं समझा पाउँगा। चलो बैग उठाओ और निकलो अब।" मैंने कहा, होटल वाले भाई साहब ने उस सप्लाई गाडी वाले से बात कर ली। सत्तर रूपये प्रति व्यक्ति की बात तय हुयी। हम अपने बैग्स पीछे रखकर उसमे सवार हुए। होटल वाले भाई साहब का धन्यवाद किया और जय केदार, हर हर महादेव के नारे के साथ गाडी में बैठ गए।
गाडी कुछ ही मीटर चली कि एक दुकान पर जाकर रुक गयी। उस दुकान में कुछ माल उतारना था और वहां से कुछ माल गाडी में लादना था। तकरीबन बीस से पच्चीस मिनट लगने थे तो हम गाडी से उतर गए। चौखम्बा अब भी उस गली से दिखाई दे रहा था।
इसी बिच वसंत को पेशाब की इच्छा हुयी और वह मुझे बता कर निकल पड़ा।
"अरे भाई, यहाँ वहाँ मत कर देना। बस्ती है, सार्वजनिक मूत्रालय होगा वहीं जाकर करना।" मैंने कहा तो वह हां हां कहते हुए निकल गया। थोड़ी देर बाद वह वापस लौटा। तब तक गाडी में सामान लद चुका था। अब गाडी शुरू हुयी तो एकाध दो किलोमीटर जाने के बाद ही रुकी। वहां फिर किसी दुकान पर रुकी, इस तरह वह रास्ते भर में तकरीबन छह से सात जगहों पर रुकते रुकाती चलती रही। अब हमने कस्बाई इलाका छोड़ दिया था और सांप की भाँती बलखाते रास्तों पर चल पड़े।
इसी के साथ हवा में ठंडक बढ़ने लगी। हमारे दाए तरफ ऊँचे पर्वत और घने जंगल थे तो बाई तरफ सीधी खाई, जिसमे नदी बह रही थी, नदी का पानी पूर्णतया हरे रंग का था, बिच बिच में उपर से ही कुछ अत्यंत सुंदर किनारे भी दिखाई दे जाते थे। गाडी इन्ही ऊँचे निचे रास्तों पर चली जा रही थी। जैसे जैसे गाडी बढ़ रही थी वैसे वैसे उंचाई भी बढती जा रही थी। अब मनुष्य बस्तियां दिखनी बंद हो चुकी थी। बिच बिच में पहाड़ी से रिसते पानी और झरनों की वजह से रास्तों में कीचड़ हुयी पडी थी, उस कीचड़ में गाडी बड़ी सावधानी के साथ चलानी पड़ रही थी, ज़रा सा भी कंट्रोल खोना मतलब सीधे सैकड़ों फीट गहरी खाई में गिरना। वसंत और महेश इन दृश्यों को सांस रोके देख रहे थे, मै रास्ते भर इन दृश्यों का आनन्द ले रहा था, कही गाडी धीमी होती तो मै कुछ तस्वीरें और वीडियो ले लेता था।
"और तुमने कहा था कि गाडी नही मिली तो हम पैदल चल देंगे, इतना लम्बा और सुनसान रास्ता हम पैदल पार कर लेते क्या?" वसंत ने कहा।
"भाई असली एडवेंचर तो वही होता। सोचो कितना मजा आता, भाई चौदह पन्द्रह किलोमीटर चलने में कौन सा आफत आ जाती? सीधी रोड बनी हुयी है बस थोड़ा उपर निचे होती रहती है। पुरे रास्ते इतने खुबसुरत नज़ारे दिखाई दे रहे हैं, इतने घने जंगल, वह बर्फीला चौखम्बा साथ चल रहा है। वाकई मदमहेश्वर की यात्रा से पहले ही काफी एडवेंचर हो जाता।" मैंने कहा।
"लेकिन फिर हम थक जाते।" महेश ने कहा।
"हां तो रांसी में कहीं रुक जाते। कोई बड़ी बात नही है, अगले दिन सुबह ट्रेक शुरू कर देते।" मैंने कहा।
गाडी चलती रही, रास्ते में कुछ लोग उतरते रहे तो कुछ और उसमे सवार भी होते रहें। लगभग पौने दो घंटो में हम एक आखिरी होटल के पास पहुँच चुके थे, उस स्थान का नाम था अगतोली, वहां छोटे छोटे दो होटल थे। और उनके आगे कुछ भी नही दिखाई दे रहा था, पीछे कुछ घर वगैरह दिखाई दे रहे थे।
"चलो भाई, उतर जाओ सब लोग। गाडी अगतोली से आगे नही जाएगी।" गाडी वाले ने कहा।
"थोड़ी दूर और चलो भाई।" वसंत ने कहा।
"नही इससे आगे नही जायेगी कह रहा हूँ।" ड्राइवर ने कहा।
"थोड़ा पैसा ज्यादा ले लो, लेकिन और आगे छोड़ दो। हमे मदमहेश्वर जाना है, काफी चलना पड़ेगा।" महेश ने कहा, वे लगे रहे और मै बैग लेकर उतर भी गया। मैंने अपनी लाठी भी थाम ली। मुझे उतरा हुआ देखकर वह भी उतर गए। ड्राइवर के पैसे चुकता करके हिसाब में लिखकर मै आगे बढ़ गया।
दोनों पीछे पीछे चलने लगे, आगे घना जंगल दिखाई दे रहा था। अब उसी जंगल से होते हुए हमे पैदल चलना था। कुछ ही मीटर आगे बढ़ने पर सैकड़ों पक्षियों की आवाजें गूंजती सुनाई देने लगी। मैंने पहली बार एक साथ इतनी भिन्न भिन्न प्रकार की आवाजे सुनी थी, निचे गहरी खाई थी जिसमे बहती नदी की आवाज सुनाई दे रही थी, हवा भी ठंडी और काफी तेज चल रही थी। मोबाइल में समय देखा तो दस बज रहे थे।
वसंत और महेश मेरे पीछे चलने लगे, मैंने यात्रा आरम्भ होने का एक छोटा सा वीडियो बनाया और चलने लगा। आगे जाकर देखा तो रास्ता ही नही था। हम तीनो वहां खड़े रहे फिर निचे की तरफ एक सीधी पगडंडी दिखाई दी जो निचे जंगल की दिशा में जा रही थी, हो ना हो यही रास्ता है सोचकर हम उसी में उतर गए। वहां निचे उतरने के लिए कुछ सीढियां बनी हुयी थी, हम उनसे निचे उतरे औत थोड़ा आगे जाते ही एक दिशासूचक लगा हुआ दिखाई दिया जिसपर मदमहेश्वर की दुरी पन्द्रह किलोमीटर लिखी हुयी थी और गोंडार 3 किलोमीटर।
गोंडार यात्रा का पहला पडाव था, उसके बाद था वनतोली, वनतोली के बाद खड़ी चढाई शुरू होती है, गोंडार तक का रास्ता ढलान वाला है, यह रास्ता जितनी तेजी से हो सके पार कर लें तो हम काफी कम समय में आसानी से काफी दुरी पार कर सकते थे। मैंने उन्हें ढलान वाले रास्ते के बारे में अच्छे से समझाया।
"अब समझा ड्राइवर आगे क्यों नही जा रहा था? आगे रास्ता ही नहीं है और तुम उसे गोंडार तक ले जाने के लिए तैयार थे। वह दूर जंगलो के बिच कुछ घर दिखाई दे रहे हैं, मेरे ख़याल से वही गोंडार है। वहाँ तक पूरा रास्ता ढलान वाला है जो निचे उतरता है, उसके बाद का रास्ता सीधी चढाई वाला है जो अंत तक और खड़ी चढाई में बदलते जाता है। दस बज रहे हैं तो ढलान का फायदा उठाते हुए शुरू में तेज तेज चलते हैं और अच्छा खासा डिस्टेंस कम कर लेते हैं। अगर हम घंटे में तीन किलोमीटर के हिसाब से भी चलते है तो भी हम तीन बजे तक मंदिर में पहुँच चुके होंगे। अगर चढ़ाई पर स्पीड कम हुयी तो दो घंटे एक्स्ट्रा भी मान कर चलो तो भी हर हाल में पांच बजे से पहले हम मदमहेश्वर पहुँच जायेंगे। आगे नेटवर्क का भरोसा नही हैं तो पांच मिनट में सब अपने अपने घरों में अपडेट देना चाहो तो दे दो।“ कहकर मैंने भी फोन लगा कर श्रीमती जी को अपनी यात्रा की शुरुवात और लास्ट लोकेशन के बारे में बताया।
साथ ही मैने हर बार की तरह इस बार भी आगे नेटवर्क न होने की वजह से फोन ना लगने की वजह से परेशान नही होने के बारे में बता दिया। उधर वसंत को जैसे बहाना ही चाहिए था फोन करने का, वह शुरू हुआ तो थमने का नाम ही नही ले रहा था। इसी बिच मैंने श्याम भाई को फोन लगाया, श्याम भाई के बारे में मैंने शुरुवात में ही बताया है। मैंने उन्हें अगतोली तक पहुँचने की अपडेट दी।
"जी देवेन भाई, बहुत बढ़िया। अभी दस ही बज रहें है। आप तीन बजे तक हर हाल में पहुँच जाओगे बेफिक्र रहो। यहाँ से गोंडार तक का रास्ता एकदम मक्खन है, बिलकुल थकान नही होगी, लेकिन उसके बाद खड़ी चढाई है, वहां थोड़ी तकलीफ होगी, और एक बात शार्टकट नहीं पकड़ना। वैसे यह बात आप मुझसे ज्यादा अच्छी तरह से जानते हैं। शार्टकट में थकान वाला मसला तो है ही लेकिन एक सबसे बड़ा रिस्क है साँपों वाला, ट्रेल के किनारों पर सूखी घास फूस और पत्तियों में काफी सांप रहते हैं, इसलिए ट्रेल छोडकर यात्रा नही करना। बाकी महादेव के आशीर्वाद से आप पहुँच जायेंगे।" श्याम जी ने कहा, मैंने हां में हां मिलाया और कुछ औपचारिक बातों के साथ फोन काट दिया।
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