किशनगंज, गंदा नाला रोड।

इंस्पेक्टर देशमुख ने अपनी जीप किशनगंज मेन मार्केट से गंदा नाला रोड पर मोड़ दी।
यह पुरानी दिल्ली का काफी तंग और गंदा इलाका था—इस इलाके में डीoडीoएo की चार मंजिली इमारत नजर आ रही थी—जिसमें कम आय वर्ग तथा मजदूर तबके के लोग एक-एक कमरे के क्वार्टर में रहते नजर आ रहे थे।
नाले के किनारे फल तथा सब्जी वाले थे—जिनकी वजह से यहां काफी भीड़-भाड़ थी।
आगे सब्जी मंडी लगी होने के कारण इंस्पेक्टर देशमुख ने अपनी जीप उससे पहले ही सड़क के किनारे पर रोक दी।
जीप से उतरकर उसने अपने समीप जा रहे व्यक्ति को रोककर पुलिसिया अंदाज में पूछा—“गंदा नाला रोड यही है?”
“ज...जी...साहब।” अपने सामने एक रौबीले पुलिस अफसर को देखकर वह व्यक्ति कुछ सकपका-सा गया।
“एक सौ बयालीस नंबर कहा पड़ेगा?”
“एक सौ बयालीस.....।” इंस्पेक्टर देशमुख के बताए नंबर को वह दोहराता हुआ सोचने लगा। बोला—“नाम क्या है?”
“रतनलाल और उसके लड़के का नाम मोहन।
“अरे, वह रत्तो शराबी!” वह व्यक्ति एकदम ऐसे बोला, जैसे उसे बहुत अच्छी तरह जानता हो।
"तुम उन दोनों को जानते हो?"
“उन बाप-बेटों को इस इलाके में कौन नहीं जानता साहब—रात को रोजाना आपस में गाली देते हुए, नालियों में गिरते-पड़ते आते नजर हैं—जिस रोज जुआ और सट्टा न खेलें, शायद उस दिन उन्हें रोटी भी हज़म नहीं होती।”
“घर में केवल यही दो व्यक्ति हैं?” इंस्पेक्टर देशमुख ने पूछा।
“अब तो दो ही हैं साहब!” वह व्यक्ति बोला—“ लेकिन रत्तो के एक लड़की और थी—बहुत अच्छी लड़की थी—अपने छोटेपन से ही लोगों के घरों में काम-काज करके अपने बाप और भाई को पालती रही—खुद भी पढ़ती रही—लेकिन इन दोनों ने कभी उस लड़की की कद्र नहीं की—अक्सर उसके साथ मारपीट करते थे—बाद में उस लड़की की किसी अच्छी जगह सर्विस लग गई—मगर इन लोगों ने उसके साथ अपना व्यवहार नहीं बदला—शराब पीने, जुआ और सट्टा खेलने के लिए उससे पैसा मांगते—उसके इन्कार करने पर हमेशा की तरह मारपीट करते और उसके द्वारा इकट्ठी की गई घर की चीजों को बेचकर अपने शौक पूरे करते—इनकी इन हरकतों से तंग आकर उंसने यह घर छोड़ दिया और शायद किसी से शादी कर ली।”
“क्या नाम था उस लड़की का?”
“पूनम।”
इंस्पेक्टर देशमुख के यहां आने का मकसद पूरा तो नहीं, लेकिन काफी हद तक पूरा हो गया था। पूछा— उसका घर कौन-सा है?”
“वो सामने देखिए साहब।” वह एक तरफ को उंगली से इशारा करता हुआ आता बोला—“जिस पर सफेदी हो रही है और दरवाजों पर हरा रोगन—मकान के बाहर कुछ बच्चे गोलियां खेल रहे हैं—बस, वही है साहब—रत्तो तो शायद अभी आया नहीं—लेकिन मोहन को आते मैंने अभी थोड़ी देर पहले ही देखा है।”
“ठीक है, धन्यवाद।” इंस्पेक्टर देशमुख ने अपनी कैप सिर पर रखकर बगल में दबा रूल हाथ में ले लिया।
दाएं हाथ से पकड़े रूल को बाएं हाथ की हथेली पर मारता हुआ वह उस मकान को तरफ बढ़ गया।
दरवाजा बंद था। इंस्पेक्टर देशमुख ने अपने रूल से दस्तक दी।
“कौन है बे?” अंदर से नशे में डूबी आवाज।
इंस्पेक्टर देशमुख ने पुन: दस्तक दी।
 क्या आफत आ गई?” इस बार आवाज के साथ दरवाजे की तरफ बढ़ती किसी की लड़खड़ाती पदचाप भी सुनाई दी।
दरवाजा खोलने वाला एक युवक था—जिसकी उम्र पच्चीस-तीस के मध्य रही होगी—वह नीली जीन्स की गन्दी-सी पैंट और फिरोजी कलर की शर्ट पहने हुए था—बाल बेतरतीब-से बिखरे हुए तथा शेव बढ़ी हुई थी—चूंकि रंग गोरा था, इसलिए बढ़ी हुई शेव उसके चेहरे पर स्पष्ट चमक रही थी—खूबसूरत अवश्य था, परंतु शराब की अधिकता ने उसकी रौनक लूट ली थी।
युवक की शक्ल काफी हद तक पूनम से मिल रही थी। इंस्पेक्टर देशमुख को यह अनुमान लगाते देर न लगी कि उसके सामने खड़ा युवक मोहन ही है।
शराब के नशे में उसकी आंखें सुर्ख हो रही थीं।
अचानक अपने सामने एक पुलिस अफसर को देखकर मोहन का सारा नशा हिरन हो गया—वह संभलकर खड़े होने की कोशिश करने लगा।
चेहरे पर घबराहट के भाव आ गए।
“तुम्हारा ही नाम मोहन है?” इंस्पेक्टर देशमुख ने कड़कदार आवाज में पूछा।
एक क्षण के लिए वह कांप-सा गया। बोला—"ज...जी स...साहब...!”
“अंदर और कौन है?”
“क...कोई नहीं…कोई नहीं, साहब...।” मोहन ने एकदम सकपकाकर कहा—“अ...आप अंदर आकर देख लीजिए—कोई भी नहीं है।"
उसकी हड़बड़ाहट को देखकर इंस्पेक्टर देशमुख के होंठों पर मुस्कराहट आ गई, जिसे वह अंदर घुसने के दौरान छुपा गया।
मोहन उसे एक ऐसे कमरे में ले गया, जिसमें पुराना-सा सोफा पड़ा था—सनमाइका उखड़ी हुई सेंटर टेबल पर एक कांच का गिलास और देशी शराब का पव्वा रखा था—साथ ही एक पत्ते में थोड़ी-सी आलू की पकौड़ियां।
“अ...आप बैठिए साहब...!” कहते हुए मोहन ने टेबल पर से ‘पव्वा’ और गिलास उठा लिया—अपनी तरफ इंस्पेक्टर देशमुख को देखता देखकर वह सकपका-सा गया—“वो स...वो स...साहब कभी-कभी घर पर लाकर ब...बस..बस यूं ही...।”
“बाहर फेंककर आओ इसे।” इंस्पेक्टर देशमुख ने आदेश दिया।
“अभी लो, साहब—यह लीजिए।” कहते हुए उसने कमरे की खिड़की से पव्वा बाहर फेंक दिया। बोला—“अ...आप विश्वास रखिए साहब, अब कभी इसे हाथ नहीं लगाऊंगा।”
इंस्पेक्टर देशमुख जानता था कि शराबियों के इस तरह के दावों में कितना दम होता है—इसलिए उसने मोहन की इस बात पर कोई ध्यान नहीं दिया—वह अपनी नजर को घुमाता हुआ कमरे का निरीक्षण कर रहा था—उसे एक जगह दीवार पर पूनम का फोटो लगा नजर आया—जिसमें वह काला चोगा पहने हुए और विश्वविद्यालय की डिग्री हाथ में लिए हुए थी—फोटो के शीशे और फ्रेम पर ढेर सारी गर्द जमी थी।
“पूनम कहां है?” एकाएक इंस्पेक्टर देशमुख ने सवाल किया।
“क...कौन...?” मोहन का चेहरा एकदम ‘फक्क’ पड़ गया।
“अच्छा?” इंस्पेक्टर देशमुख ने आंखें निकालीं  तुम्हें यह भी बताना पड़ेगा कि पूनम कौन है?”
“व...वो साहब… अब यहां नहीं रहती।” अचानक मोहन गंभीर-सा होकर बोला—“हमें तो यह कहते हुए भी शर्म जाती है कि वह घर से भाग गई—अपने बाप और भाई के माथे पर उसने कलंक का टीका लगा दिया—हम किसी को मुंह दिखाने के काबिल नहीं रहे साहब!”
“भागकर कहां गई?”
“पहले तो उसने किसी पत्रिका वाले लड़के ललित जाखड़ से शादी की—ल...लेकिन अब...।” आगे कहता हुआ मोहन रुक गया।
“लेकिन अब…?” इंस्पेक्टर देशमुख की नजरें मोहन के चेहरे पर स्थिर थीं।
“लेकिन अब सुना है साहब कि वह वहां से भी भाग गई है।”
“कहां?”
"यह नहीं मालूम साहब!”
“तुम्हें कैसे पता चला कि वह वहां से भी भाग गई है?”
“खुद वह लड़का हमारे पास आया था, जिससे पूनम ने शादी की थी....।”
उसकी बात को बीच में ही काटकर इंस्पेक्टर देशमुख ने जानबूझकर अनजान बनते हुए पूछा—“क्या नाम बताया था तुमने उस
लड़के का?”
"ललित जाखड़, साहब।”
"क्या पूछ रहा था वह?”
“साहब, विशेष तो कुछ नहीं।” मोहन ने कहा—“वह केवल यह जानने आया था कि पूनम यहां तो नहीं आई—हमारे पूछने पर उसने सिर्फ इतना ही बताया कि पूनम बिना बताए न जाने घर से कहीं चली गई है।”
“तुम झूठ बोल रहे हो न?” अचानक इंस्पेक्टर देशमुख ने अपना रुख बदला—वह एकदम गुर्राकर बोला—“बताओ, किसके इशारे पर
बोल रहे हो तुम यह झूठ?
“न...नहीं साहब...!” मोहन सिर से पांव तक कांप गया—“म...मैं बिल्कुल सच कह रहा हूं साहब...।”
“शराब के ठेकेदार से पांच हजार रुपये और जिन्दगी-भर मुफ्त शराब पीने का वायदा लेकर अपनी बहन की इज्जत का सौदा किसने किया था?” इंस्पेक्टर देशमुख गुर्राया।
“य...यह आप क्या अजीब बात कर रहे हैं स...साहब?” मोहन ने बुरी तरह चौंककर कहा।
"जब पूनम यहां रहती थी—तब एक बार शराब के किसी ठेकेदार को तू घर लेकर नहीं आया था?”
“किसी शराब के ठेकेदार से मेरा क्या मतलब साहब—कभी लेनी होती है तो पैसे देकर किसी भी ठेके से दारू ले आते हैं...।” मोहन बुरी तरह घबराया हुआ बोला—“और वैसे भी साहब, मैं अपने किसी भी दोस्त तक को घर पर नहीं लाता— और न ही पहले कभी लाया था साहब—यह बात चाहे आप इस मोहल्ले में किसी से भी पूछ लीजिए।”
"पांच हजार रुपये में पूनम की इज्जत का सौदा तूने नहीं किया था?” पूछते हुए इंस्पेक्टर देशमुख ने उसे घूरा।
“न...नहीं...साहब...।” मोहन लगभग रो देने वाले अंदाज में बोला—“भाई चाहे जितना बुरा, पापी और गंदा हो साहब…ल...लेकिन साहब, अपनी बहन का सौदा तो वह नहीं कर सकता—पांच हजार की क्या बिसात है साहब—मैं कहता हूं, दुनिया भर की दौलत मिलने पर भी कोई भाई इतना नीच नहीं हो सकता।"
“बिल्कुल सच कह रहे हो तुम?”
“मैं अपनी स्वर्गवासी मां की कसम खाकर कहता हूं—म....मैं बिल्कुल सच कह रहा हूं साहब!” भर्राई हुई आवाज में मोहन ने कहा।
इंस्पेक्टर देशमुख ने मोहन से आगे कोई भी सवाल करना व्यर्थ समझा।
¶¶
रात के एक बजे!
बसंत विहार की ‘एम्बेसी रोड’ लगभग हलचल रहित थी—कोई इक्का-दुक्का वाहन उसकी शांति को भंग करता हुआ निकल जाता था।
मिस्टर सिद्धार्थ बाली की कोठी एकदम मेन रोड पर थी—लेकिन पीछे कुछ न बना होने के कारण मैदान-सा पड़ा था।
कोठी के मेन गेट पर एक वर्दीधारी सिपाही ऊंघ रहा था।
और ऊपर, कोठी के पीछे, मैदान वाली साइड की तरफ एक साया, जो न जाने कहां से अभी मैदान में प्रकट हुआ और कोठी की दीवार से लगे रेन वाटर पाइप पर चढ़ने लगा।
लगभग दस मिनट के प्रयास के बाद वह किसी कमरे की बालकनी में पहुंच गया।
बालकनी में कमरे की खिड़की का दरवाजा था—जो शायद उस वक्त ताजा हवा आने के उद्देश्य से खुला रखा गया था।
कमरा किसी का बेडरूम था।
लंबे-चौड़े डबल बेड पर केवल एक इंसानी आकृति लेटी नजर आ रही थी—जो पूनम के अतिरिक्त और कोई नहीं थी।
उसने अभी एक मिनट के अंतराल में तीन-चार करवटें बदल ली थीं—जाहिर था कि वह नींद को जबरदस्ती अपनी आंखों की तरफ घसीट रही थी।
कमरे में नाइट बल्ब रोशन अवश्य था—लेकिन उसमें झालरदार ‘फैंसी’ लगे होने के कारण, प्रकाश केवल पूनम के डबल बेड तक ही सीमित था।
साया कुछ देर तक बालकनी के अंधेरे में खड़ा न जाने क्या सोचता रहा—फिर अपनी तरफ से पूरी सावधानी बरतता हुआ खिड़की से कमरे के फर्श पर कूद गया।              
हल्की-सी आहट हुई—जो सो रहे व्यक्ति को तो नहीं जगा सकती थी— हां, जागे हुए व्यक्ति को चौंका जरूर सकती थी।
पूनम ने चौंककर खिड़की की तरफ देखा।
वहां किसी साये का एहसास पाकर पूनम की सांस जहां-की-तहां रुक गई—वह बहुत जोर से चीखना चाहकर भी न चीख सकी—आवाज हलक में फंसकर रह गई थी।
चेहरा पसीने से ऐसा सराबोर हो गया, जैसे किसी ने एक लोटा पानी उड़ेल दिया हो—होंठ खुश्क पड़ गए—आंखों में  भय का साया लहराने लगा।
अपनी घबराहट पर काबू पाकर वह इस स्थिति से उबरने को कोशिश करने लगी।
हिम्मत जुटाकर बेड के बराबर में लगे कमरे के बल्ब का स्विच ऑन किया।
सारा कमरा तेज रोशनी से नहा उठा।
साये का चेहरा स्पष्ट नजर आने लगा।
जिसे देखकर पूनम इस तरह चौंकी, जैसे उसके पैर के नीचे अचानक कोई जहरीला सांप आ गया हो।
आंखों में भय और नफरत के मिश्रित भाव नजर आने लगे।
“त...तुम...?” दांतों को भींचते हुए वह बोली।
"पहचानने के लिए धन्यवाद।” साये ने व्यंग्यात्मक स्वर में कहा।
वह डबल बेड से नीचे उतर आई।
इस समय उसके खूबसूरत, सुडौल शरीर पर नाइट गाउन था—जिसकी डोरी बांधती हुई वह घबराहट-भरे स्वर में बोली—“त...तुम फिर आ गए यहां?”
"अब इसमें तुम्हें कोई शक नजर आ रहा है?"
“मैं कहती हूं......चलो जाओ यहां से।”
"इतनी रात गए न जाने कितने खतरे उठाकर, बड़ी मेहनत और मुश्किल से यहां पहुंचा हूं—इस पर तुम कहती हो कि चला जाऊं?”
पूनम अवाक्!
साया खूंखार अंदाज में उसकी तरफ बढ़ता हुआ बोला—“इस बार जाने के लिए नहीं, तुम्हें अपनी बनाने के लिए आया हूं पूनम रानी।”
पूनम सहमकर पीछे हटने लगी।
“त...तुम चाहते क्या हो?” लगभग रो देने वाले अंदाज में पूनम ने कहा।
“तुममें वह चीज देखना चाहता हूं, जो बड़ी-बड़ी हस्तियों को साधारण-से प्रेमी की तरह दीवाना बना देती है—तुम्हारे अंदर छिपी उस शराब को देखना चाहता हूं, जिसके नशे में डूबकर इंसान अपना कर्तव्य, अपनी हैसियत भूल बैठता है। आज मैं बहुत करीब से देखना चाहता हूं कि किसी को समर्पित करने के लिए तुम्हारे पास क्या है?” अपने एक-एक शब्द को चबाता हुआ बोला वह।
साये को अपनी तरफ बढ़ता देखकर पूनम के चेहरे पर मौत का-सा खौफ नजर आने लगा।
सहमी हुई हिरनी की तरह वह लगातार पीछे हटती जा रही थी।
“मेरे पास मत आओ।” चीखने की कोशिश करते हुए पूनम ने कहा।
साया किसी बाज की तरह पूनम पर झपटा—उससे बचने की भरसक कोशिश के बावजूद वह उसकी गिरफ्त में आए बगैर न रह सकी।
साये ने उसकी नाजुक कलाई पर अपने मजबूत हाथ का शिकंजा कस दिया—साथ ही धीमे से मुस्कराया—“अब तुम्हें हर हालत में वह सुनना पड़ेगा पूनम, जो मैं कहना चाहता हूं—मेरी वह हरकत सहनी होगी, जिसे मैं करना चाहूंगा।”
इसके साथ वह पूनम को जबरदस्ती बेड की तरफ घसीटने लगा।
“ब...ब...बचा...!”
पूनम अभी चीखना ही चाहती थी कि उसके शब्द हलक में घुटकर रह गए। साये का दूसरा हाथ उसके मुंह का ढक्कन बन गया।
“अगर इस बार चीखने की कोशिश की तो उठाकर खिड़की के रास्ते बाहर फेंक दूंगा—जहां से गिरकर अगर पूरी तरह खत्म नहीं हुईं तो अपंग जरूर हो जाओगी।”
इसी के साथ साये ने उसे डबल बेड पर पटक दिया।
पिंडलियों पर से उघड़े गाऊन को नीचे करते हुए वह बेड पर ही पीछे खिसकने लगी।
बड़ी-बड़ी खूबसूरत आंखों में भय व्याप्त था। साया मौत के दूत की तरह उसकी तरफ बढ़ रहा था। एकाएक साये ने अपनी जेब से एक कागज निकालकर उसकी तरफ उछालते हुए कहा—“पहले इसे पढ़ो, उसके बाद मुझसे बात करना।”
¶¶
“हैलो, मैं इंस्पेक्टर देशमुख बोल रहा हूं।”
“गुड मार्निंग सर!”
“ओह—मिस मंजु?”
“यस सर।”
“कोई विशेष बात?”
“विशेष बात ऐसी है सर कि आप फोन पर ही उछल पड़ेंगे।”
“क्या बात है?” दूसरी तरफ से इंस्पेक्टर देशमुख का बेताबी- भरा स्वर—“फौरन बोलो मिस मंजु!”
“सर, पूनम सुबह-ही-सुबह उठकर अब यहां सब लोगों से कह रही है कि ललित ही उसका पति है...।”
“क...क्या?” उसका स्वर ऐसा था, जैसे हवा में तैरता हुआ बोल रहा हो।
“मैंने आपसे कहा था न सर कि आप फोन पर ही उछल पड़ेंगे।” मिस मंजु ने कहा—“जिस समय नौकरानी ने बिस्तर से उठाकर चाय के प्याले के साथ मुझे यह खबर सुनाई, तब मैं भी उछल पड़ी थी—चाय का प्याला भी हाथ छूट गया था।”
"यह...यह तुम क्या कह रही हो मिस मंजु?”
 जो इस समय यहां हो रहा है सर!” मिस मंजु बोली—“वह कल जिन लोगों के आमने चीखा-चीखकर कह रही थी कि वह इस फरेबी मक्कार व्यक्ति को जानती तक नहीं—वह आज सोकर उठते ही लोगों को घरों में से जगा-जगाकर कह रही है कि कल न जाने उसे क्या हो गया था, जो उसने अपने पति को भी पहचानने से इन्कार कर दिया— कोई उसके पति को बुलाकर लाओ, वह उससे माफी मांगना चाहती है—अपने किए गए गुनाह की सजा पाना चाहती है—सर, बस इसी तरह की बातें कह रही है वह—साथ ही आंखों में ढेर सारे आंसू लिए रोती भी जा रही है।”
“यह औरत भी रहस्यमय पहेली बनती जा रही है।” दूसरी तरफ से इंस्पेक्टर देशमुख बुदबुदाया— “लगता है, यह दिमाग को बहुत दिनों की  ‘खुराक’ एकसाथ देने वाली है।”
“आप आ रहे हैं न सर?” मिस मंजु ने पूछा।
“पहले तुम मुझे पूरी घटना सुनाओ।”
“सर, नौकरानी के बताने के बाद मैंने तुरत नाइट ड्रेस एक तरफ फेंकी और कपड़े पहनकर जिस समय उसकी कोठी पहुंची, तब तक वहां काफी भीड़ इकट्ठी हो चुकी थी—जिसमें मल्होत्रा, वर्मा, भारद्वाज और जगत ऑटो के साथ आसपास के लगभग सभी लोग थे—वह उन सबसे रोती हुई वही कह रही थी, जो मैंने अभी बताया—मुझे देखकर वह एकदम मेरे पैरों से लिपट गई और फूट-फूटकर रोती हुई बोली—“मिस मेहता, मुझे माफ कर दीजिए...। मैंने पुलिस से भी झूठ बोला—इसकी मुझे चाहे जो सजा दे लो—ल…लेकिन उन्हें छोड़ दो—उनके कल पेश किए गए सारे सबूत सच्चे थे—म...मेरी आंखों पर ही कमबख्त खुदगर्जी के परदे पड़ गए थे—मैं  आपके साथ पुलिस स्टेशन चलकर अपने पति से माफी मांगना चाहती हूं...मिस मेहता!”
“उसको उसी हालत में छोड़कर मैंने सबसे पहले आपको फोन किया है सर!” मिस मंजु ने बताया।
“कहां से बोल रही हो तुम?”
“बराबर में ही वर्माजी की कोठी से।”
एक क्षण के लिए फोन पर सन्नाटा छा गया—दोनों तरफ से किसी ने कुछ नहीं कहा। लेकिन अगले ही क्षण इंस्पेक्टर देशमुख बोला—“अच्छा मिस मंजु, तुम वहीं रहना—मैं तुरंत पहुंच रहा हूं।” कहने के बाद इंस्पेक्टर देशमुख की तरफ से संबंध विच्छेद हो गया।
¶¶
“मल्होत्रा साहब, मैं सच कह रही हूं—अब मैँ आप लोगों के विश्वास के काबिल तो नहीं रही—लेकिन अगर हो सके तो आप सब मेरी इस बात पर यकीन कर लीजिए कि मिस्टर ललित ही मेरे वास्तविक पति हैं।” आंसुओं से लबालब आंखों से मल्होत्रा की  तरफ देखते हुए पूनम ने भर्राए हुए स्वर में कहा।
“मैडम, हमारी कुछ समझ में नहीं आ रहा कि तुम्हारी कौन-सी बात पर यकीन करें।” मल्होत्रा ने रूखे अंदाज में कहा—“उसे सच मानें, जो कल कह रही थीं या उसे, जो इस समय कह रही हो?”
“सिर्फ रात-भर में ही महारानीजी का पति बदल गया—हम लोगों को क्या तुमने पागल समझ रखा है कि जब तुम जो कहोगी, उसी पर यकीन कर लेंगे?” जो वर्मा कल तक उससे बेहद प्यार और सम्मान के साथ पेश आ रहा था, उसने इस समय पूनम को बुरी तरह झिड़कते हुए कहा।
“वर्माजी, इस रात की तो मरते दम तक मैं एहसानमंद रहूंगी—जिसने पूनम नाम की इस खुदगर्ज औरत की पाप के साये में सोई आत्मा को जगा दिया.....। उसका वही रुदन-भरा स्वर—“मैंने आप सब लोगों को बहुत परेशान किया है—आप मुझे जितना भी बुरा-भला कहें, कम है—लेकिन सिर्फ मेरी इस बात पर यकीन कर लीजिए कि मि. ललित ही मेरे पहले पति हैं।”
“अरी, तू औरत है या गिरगिट?” जगत आंटी ने आगे बढ़कर पूछा—“कल तक तेरा पति सिर्फ सिद्धार्थ बाली था और आज ललित भी हो गया—अभी रात दूर पड़ी है, शायद इस रात तक कोई और हो जाएगा—बस, यहां सब लोगों को इतना और बता दे कि अभी कितने रंग और बदलेगी तू?”
“बस आंटी, जितने रंग बदलने थे—सबके-सब किस्मत ने बदल दिए—अब चाहकर भी कोई और रंग नहीं बदला जा सकता—क्योंकि जिन्दगी में अब कोई रंग बचा ही नहीं है—एकदम बदरंग हो गई है यह जिन्दगी।” कहने के बाद वह दीवार पर सिर रखकर फफक पड़ी।
चेहरा आंसुओं से तर था—बाल बिखरे हुए—कपड़े अस्त-व्यस्त।
लेकिन आज किसी को उसके आंसुओं से हमदर्दी नहीं थी—न किसी को उसके दुख से सरोकार था।
अगर कुछ थी तो सबकी आंखों में उमड़ने वाली नफरत—सिर्फ और सिर्फ नफरत का भाव।
हर व्यक्ति उसकी तरफ ऐसी हेय दृष्टि से देख रहा था, जैसे उसके शरीर पर भयानक कोढ़ अपनी चरम सीमा के साथ पक रहा हो।
वह किसी से भी नजर मिलाने का साहस नहीं कर पा रही थी।
तभी एक अन्य पड़ोसी भारद्वाज ने बेहद उत्तेजित अंदाज में कहा—“अजी मैं तो कहता हूं, ऐसी औरत का अपने पड़ोस में रहना भी उचित नहीं है—इससे हम सबके परिवारों पर भी बुरा असर पड़ सकता है—कहावत गलत नहीं है कि एक मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है—मुझे डर है कि अगर यह औरत यहां रही तो शरीफ लोगों का यह इलाका गंदा हो सकता है।”
“हां-हां, भारद्वाज जी बिल्कुल सही कह रहे हैं।” जगत आंटी ने तुरंत उसकी हां-में-हां मिलाई।
“भारद्वाज जी, आप भी क्या बच्चों जैसी बातें कर रहे हैं।” मल्होत्रा ने जोश में कहा—“आपने यह सोच ही कैसे लिया कि इस घटना के बाद भी यह औरत यहां रह सकती है?”
“आने दो इंस्पेक्टर देशमुख को—हम उनसे कह देंगे कि यह औरत अब यहां नहीं रह सकती।” वर्मा भी बोला।
मल्होत्रा कुछ अधिक जोश में था। कहा—“हम मिस्टर बाली से भी कह देंगे कि वह इस औरत को साथ रखकर यहां नहीं  रह सकते।”
रोती हुई पूनम ने दीवार से लगे चेहरे को ऊपर उठाया। हिम्मत जुटाकर अपनी झिलमिलाती आंखों से उसने मल्होत्रा की तरफ देखा और सिसकती हुई बोली—“मल्होत्रा साहब, मैं तो अब खुद ही यहां नहीं रहूंगी—ज...जिस घर को छोड़कर मैं दौलत और शोहरत की चकाचौंध रोशनी की तरफ भागी थी, आज उसी रोशनी की दुनिया से ढेर सारी बदनामी और पाप के घने अंधेरे लेकर उसी घर में जाना चाहूंगी—अगर उस घर के देवता ने पुन: मुझे अपने चरणों में स्थान नहीं दिया तो अपनी इस गंदी जीवन-लीला को समाप्त कर डालूंगी।”
लोगों के होंठों पर विषाक्त मुस्कराहट आ गई।
“बेचारे इतने बड़े वैज्ञानिक मिस्टर सिद्धार्थ बाली भी न जाने कैसे इस गंदी औरत के चक्कर में फंस गए—उनकी किस्मत में यह डायन ही लिखी थी क्या?” जगत आंटी ने अफसोस-भरे स्वर में कहा।
तभी बाहर जीप के इंजन की आवाज आई, साथ ही कोई बोला—“इंस्पेक्टर देशमुख आ गए।”
¶¶
जीप के रुकते ही मिस मंजु मेहता तेजी से उसके पास पहुंची।
सम्मानित ढंग से इंस्पेक्टर देशमुख का अभिवादन किया।
कोठी की तरफ बढ़ता हुआ इंस्पेक्टर देशमुख बोला—“और कोई विशेष बात...?”
“सर, मैंने जितनी विशेष बातें आपको फोन पर बताईं—क्या वह कम हैं?” मुस्कराती हुई मिस मंजु ने कहा।
उसके इस हल्के मजाक पर इंस्पेक्टर देशमुख भी मुस्कराए बगैर न रह सका।
अंदर पहुंचकर इंस्पेक्टर देशमुख ने देखा—अच्छी-खासी भीड़ जमा थी।
इंस्पेक्टर देशमुख को देखकर सबकी नजरें उस पर केंद्रित हो गईं।
“इ...इंस्पेक्टर साहब—इंस्पेक्टर साहब—म...मुझे माफ कर दीजिए।” कहती हुई पूनम अपने दोनों हाथ जोड़कर उसके सामने आ गई। बोली—“म...मैंने आपसे कल झूठ बोला था—मिस्टर ललित ही मेरे पहले पति हैं—उनके सारे सबूत सच्चे थे—म...मैं पापिन, डायन ही उस देवता की पत्नी हूं।”
“केवल एक ही रात में तुमने अपना ‘पार्ट’ क्यों बदल लिया, मैडम?” घूरते हुए इंस्पेक्टर देशमुख ने पूछा—“क्या अब मिस्टर सिद्धार्थ की पत्नी वाले पार्ट में कोई घाटा नजर आ रहा है तुम्हें?”
“इस पार्ट में तो घाटा-ही-घाटा रहा इंस्पेक्टर साहब।” पूनम ने दर्दभरे स्वर में कहा—“अपने देवता जैसे पति को धोखा देने और अपने घर की चौखट लांघने के बाद कोई औरत चाहे जितना बड़ा ‘पार्ट’ प्ले कर ले—उसके बाद भी घाटे में ही रहेगी—किसी भी औरत का घर की लक्ष्मी बनकर, उसकी चारदीवारी में रहने से बड़ा कोई 'पार्ट' नहीं हो सकता इंस्पेक्टर!”
“मैडम, अचानक इतना बदलाव कैसे आ गया तुममें?” इंस्पेक्टर देशमुख ने व्यंग्यपूर्वक पूछा।
“इंस्पेक्टर, मैं जब रात को बिस्तर पर लेटी तो ऐसा लगा, जैसे कोई चुपके से मेरे कमरे में घुस आया—दरवाजे और खिड़की की तरफ देखा तो वहां कोई नहीं था—हां, हवा का एक झोंका जरूर अंदर आया था—और हवा के उस विचित्र झोंके ने जिंदगी का एक-एक पन्ना अलग कर दिया—और जब मैं बारी-बारी से उन पन्नों पर लिखी इबारत पढ़ने लगी तो आंखों के सामने से दौलत, शोहरत और खुदगर्जी के परदे खुद-ब-खुद सरकते चले गए—पाप के साये में सो रही आत्मा जैसे जाग उठी—तब सामने आया एक ऐसा आईना—जिसमें खुद को देखकर घृणा-सी हो गई अपने-आपसे।” तड़प-भरे स्वर में वह कहती चली गई।
अचंभित इंस्पेक्टर देशमुख उसे देख रहा था—उसके चेहरे को बार-बार पढ़ने की कोशिश कर रहा था वह—लेकिन वास्तविक इबारत पढ़ने में वह खुद को असमर्थ महसूस कर रहा था।
इंस्पेक्टर देशमुख को लग रहा था कि उसके सामने खड़ी औरत को अभिनय के क्षेत्र में गजब की महारत हासिल है।
क्योंकि कल जब वह खुद को सिद्धार्थ बाली की पत्नी बता रही थी तो उस समय यही लग रहा था, जैसे वह बिल्कुल सच्ची हो—और आज जब वह दूसरा बयान दे रही है, तब भी—अगर किसी ने उसका कल वाला रूप न देखा हो तो ऐसा लग रहा है कि वह सच की प्रतिमूर्ति है।
“सर, क्या सोचने लगे आप?” एकाएक उसे मिस मंजु ने झंझोड़ा।
“क...कुछ नहीं—कुछ नहीं।” इंस्पेक्टर देशमुख ने अपनी सोचों से बाहर आते हुए पूनम से पूछा—“हां तो मैडम, आप क्या कह रही थीं?”
"इंस्पेक्टर साहब, मिस्टर ललित कहां हैं?” पूनम आंसुओं को साड़ी के आंचल से पोंछती हुई बोली— म...मैं उनसे मिलना चाहती हूं।”
 उनसे भी मिल लेना—लेकिन पहले आप हमें अपनी इस अजीबोगरीब कहानी के ‘फ्लैश बैक' में ले चलिए मैडम!”
“क्या मतलब?”
“मतलब यह मैडम कि एक कहानी तो आपने हमें कल सुनाई थी और एक ‘हवा के झोंके’ वाली आज सुनाई।” इंस्पेक्टर देशमुख बोला—“लेकिन इन दोनों कहानियों के बीच वाले कुछ पेज गायब हैं—उन्हें जोड़कर अब आप एक और नई कहानी सुना दीजिए, ताकि सब लोगों का मनोरंजन हो सके।”
लोगों के होंठों पर मुस्कराहट आ गई।
पूनम उन सब लोगों की मुस्कराहट से बेखबर न जाने क्या सोच रही थी।
“मैडम, हम जानना चाहते हैं कि आप किस तरह ललित का घर छोड़कर मिस्टर सिद्धार्थ की जिन्दगी में आईं—वह कौन-सी वजह थी जिसने आपको यह घृणित कदम उठाने के लिए मजबूर किया?” इस बार इंस्पेक्टर देशमुख कठोर स्वर में बोला।
 बेइंतहा दौलत की चाह और महत्वाकांक्षा ने मुझे पागल कर दिया था इंस्पेक्टर—मैं अपना अच्छा-बुरा कुछ भी न सोच सकी।”
“कल मिस्टर ललित ने अपनी और आपकी जो कहानी सुनाई थी—क्या वह बिल्कुल सच है?” पूछते हुए इंस्पेक्टर देशमुख ने उसे घूरा।
बिना कोई क्षण लगाए पूनम तुरंत बोली—“हां इंस्पेक्टर साहब, एक-एक लफ्ज सच है।”
“हम यह जानना चाहते हैं कि आप मिस्टर ललित के घर से निकलकर सिद्धार्थ बाली के पहलू में कैसे आ गईं?”
हर व्यक्ति दिलचस्पी के साथ पूनम की तरफ देख रहा था।
जबकि शून्य में घूरती पूनम कहती जा रही थी।
¶¶
“मेरी यह कहानी बारह अप्रैल से शुरू नहीं होगी—शुरू होगी उस समय से, जब मैं ‘विज्ञान संस्थान’ में रिसेप्शनिस्ट के पद पर नियुक्त हुई और मैंने मिस्टर सिद्धार्थ को देखा—न जाने क्यों मिस्टर सिद्धार्थ को देखकर मुझे अजीब-सी बेचैनी होने लगती—इच्छा होती कि मैं उनकी निकटता प्राप्त करूं—लेकिन उनके और मेरे बीच बहुत बड़ी दूरी थी—यह बहुत बड़े वैज्ञानिक थे और मैं मामूली-सी रिसेप्शनिस्ट—कहां आकाश में नजर आने वाला ध्रुव तारा और कहां धरती की धूल!
परंतु इसके बावजूद धूल ने उड़कर ध्रुव तारे तक पहुंचने की अनेक बार कोशिश की—इस असंभव कोशिश में न तो मुझे सफल होना था, और न हुई—मैंने अपनी तरफ, से भले ही कोशिश की  हो, लेकिन मिस्टर सिद्धार्थ इस बात से एकदम अनभिज्ञ थे—बल्कि यूं कहना ज्यादा उचित होगा कि वह अपनी विज्ञान की दुनिया के अलावा हर बात से अनभिज्ञ थे—उनकी अपनी एक अलग ही दुनिया थी—वह अपनी उस दुनिया में पूरी तरह खोए हुए थे और मामूली-सी रिसेप्शनिस्ट की इतनी औकात भी नहीं थी कि वह इतने बड़े वैज्ञानिक की दुनिया में दखल दे— रिसेप्शनिस्ट को इस बात का भी पूरा डर था कि अगर कोशिश असफल हो गई तो एक अच्छी नौकरी से हाथ भी धोना पड़ सकता है—यह सोचकर वह कोई दुस्साहस तो क्या छोटा-सा साहस भी न कर सकी।
तभी मेरी जिंदगी में ललित नाम का एक ऐसा शख्स आया—जो मुझे पहली बार देखकर उसी तरह पागल हो गया था—जैसे मैं मिस्टर सिद्धार्थ को देखकर हुई थी।
उस वक्त मैं एक ऐसे दौर से गुजर रही थी—जिसमें मैं किसी को पाना चाहती थी और पूरी तरह असफल रही थी।
यह जानते हुए भी कि मैंने जिसे पाना चाहा था—उसको पाने की चाहत ही मुझे नहीं करनी चाहिए थी—उसके बाद भी मैं खिन्न और निराश थी।
अब मेरे साथ भी वह सब कुछ होने लगा—जो मिस्टर सिद्धार्थ के लिए किया था—कहां तो मैं इस आशा में उनकी प्रयोगशाला के बेमतलब चक्कर लगाया करती थी कि वह सिर्फ एक बार नजर आ जाएं—घंटों उनकी तरफ टकटकी बांधे इस इंतजार में देखती रहती थी कि शायद वे मुझे एक बार देख लें—और कहां अब ललित की यह हालत थी कि वह बिना किसी काम के सिर्फ मेरे लिए विज्ञान संस्थान आने लगा—मेरी एक नजर पाने के लिए वह हर वक्त बेताब रहता था।
अपने लिए मिस्टर सिद्धार्थ की लापरवाही ने मेरे अंदर जिस हीन भावना को जन्म दिया था—अब वह ललित की अपने प्रति दीवानगी देखकर धीरे-धीरे खत्म होती जा रही थी—मैं अपने-अपको गौरवान्वित-सा महसूस करने लगी।
कोई व्यक्ति मुझे पाने के लिए पागल था—सिर्फ इस छोटी-सी बात से ही मैं स्वयं अपनी तुलना मिस्टर सिद्धार्थ से करने लगी—इस तर्क के साथ कि अगर मैं उनके लिए पागल हूं तो कोई मेरे लिए भी तो पागल है।
बस यही सोचकर मैं बेइंतहा खुश थी।
अब वह सब याद आता है तो सोचती हूं कि क्या बेवकूफी-भरी सोच थी।
मैं और ललित प्यार करने लगे।
दिन यूं ही गुजरते चले गए।
लेकिन कभी-कभी मिस्टर सिद्धार्थ को देखकर दिल में एक कसक-सी अवश्य उठती थी—कभी काम न होने पर अकेले में ऐसी बेवकूफी भरी कल्पना करके देखा करती थी कि अगर मैं मिस्टर सिद्धार्थ की पत्नी होती तो लोग मुझे किस नजर से देखते—मैं किस तरह रहती—उन्हें कहीं सम्मानित किया जाता तो मैं भी उनके बराबर में उतना ही सम्मान पा रही होती।
यानी मैं अपनी महत्वाकांक्षा को ललित की जिन्दगी में आने के बाद कुछ भूली अवश्य थी—लेकिन वह महत्वाकांक्षा खत्म नहीं हुई थी।
इसी बीच एक दिन हम दोनों ने शादी करने का फैसला कर लिया—लेकिन हमारा यह फैसला मेरे नालायक पिता और बड़े भाई को मंजूर नहीं था—उनकी बातों से ऐसा लगता था, जैसे वे जिन्दगी-भर मुझ पर ही निर्भर रहना चाहते थे—अब मैं उनके साथ रहकर और यातना सहना नहीं चाहती थी—इसलिए उनकी मर्जी के खिलाफ ललित से शादी करने का फैसला कर लिया।
हमने गाजियाबाद जाकर किस तरह शादी की—यह आप कल मि. ललित के मुंह से सुन ही चुके हैं—मैं आपको अपनी कहानी का केवल वह हिस्सा सुनाऊंगी, जो ललित भी नहीं जानता।
शादी के बाद मैं और ललित शक्तिनगर स्थित उसकी कोठी में रहने लगे—उसके पास मध्यम स्तर वाले सुख-सुविधा के हर साधन थे—घर में किसी बात की कोई कमी नहीं थी और न ही उसके प्यार और व्यवहार में—ललित के परिवार में कोई नहीं था—वह शादी से पहले अकेला ही रहता था।
शायद यह बात बता देना भी बहुत जरूरी है कि विज्ञान संस्थान के नियमानुसार रिसेप्शनिस्ट के पद पर सिर्फ ‘मिस’ ही रह सकती थी, मिसेज नहीं—यह बेहतरीन नौकरी न तो मैं छोड़ना चाहती थी और न ही ललित छुड़वाना चाहता था। अत: ‘विज्ञान संस्थान’ के किसी भी कर्मचारी को भनक नहीं लगने दी कि हमने शादी कर ली है। मैं ‘मिस’ की तरह ही अपनी ड्यूटी पर जाती थी।
मैं इसे अपनी बदनसीबी ही कहूंगी कि इतना अच्छा घर और वर पाकर भी अपने दिल से बेइंतहा दौलत में खेलने और किसी बहुत महत्वपूर्ण व्यक्ति की पत्नी बनने की महत्वाकांक्षा खत्म न कर सकी—और मेरी नजरों में महत्वपूर्ण व्यक्ति भी एक ही था—और वे थे मिस्टर सिद्धार्थ बाली।
उस दिन नौ अप्रैल था।
मैं टी वी पर समाचार सुन रही थी—उन्हीं समाचारों में एक समाचार यह भी था कि अंतरिक्ष में जाने वाले अमेरिकी अंतरिक्ष शटल  में एक भारतीय वैज्ञानिक को भी ले जाया जाएगा—उसके लिए देश के दो प्रतिभाशाली युवा वैज्ञानिकों—मिस्टर सिद्धार्थ बाली और मिस्टर आलोक धवन के नाम प्रस्तावित हैं—इन दोनों में से ‘अमेरिकी अंतरिक्ष शटल’ के यात्री के रूप में एक का चयन होगा—युवा वैज्ञानिक मिस्टर सिद्धार्थ बाली देश के महान वैज्ञानिक मिस्टर रामन्ना बाली के सुपुत्र हैं और मिस्टर आलोक धवन...।
उक्त शब्दों के बाद टी.वी. उद्घोषक ने क्या कहा—मुझे मालूम नहीं—मेरा सारा ध्यान इसी खबर पर अटककर रह गया था।
मेरी चिर-परिचित गंदी महत्वाकांक्षा ने इस खबर के बाद और उग्र रूप धारण कर लिया—दिल में भारी उथल-पुथल होने लगी।
मैं उस रात सो भी नहीं सकी।
सारी रात पिछले भारतीय अंतरिक्ष यात्री और उसकी पत्नी को मिले सम्मान को याद करती रही और ख्यालों में ही मिस्टर सिद्धार्थ बाली की पत्नी बनकर मैं वह सम्मान लूटने लगी—वह सारी रात इन्हीं ख्यालों में चली गई—उसके बाद, अगले दिन दस अप्रैल को मैं काफी बेचैन-सी रही।
लौट-लौटकर वही ख्याल आने लगे।
लेकिन वह रात मैंने ख्यालों में खराब नहीं की—बल्कि अपनी महत्वाकांक्षा को सफल करने के बारे में सोचती रही—उन संभावनाओं पर विचार करती रही, जिनसे मैं अपनी इस महत्वाकांक्षा को पूरा कर सकती थी।
मुझे अच्छी तरह याद है कि उस वक्त मैं बिल्कुल पागल-सी हो गई थी—एकदम अंधी और बहरी भी—जो न अपना अच्छा-बुरा देख सकती थी और न किसी का कुछ सुन सकती थी।
इसी दस अप्रैल की रात मैंने किसी बुद्धिहीन ‘गैंगस्टर’ की तरह बिना आगा-पीछा सोचे एक योजना तैयार कर डाली—योजना मुझे बेहद सुदृढ़ नज़र आ रही थी।
उस दिन बारह अप्रैल, रविवार का दिन था।
ललित सुबह से ही पत्रिका के किसी काम से बाहर चला गया था—मैं इस मौके का फायदा उठाकर अपना लाल रंग का वी.आई.पी. ब्रीफकेस लेकर घर से निकल गई—जो पहले से ही तैयार करके रखा गया था। उसमें मेरे कपड़े और कुछ पैसे थे।
जिस समय मैं घर से निकली, उस समय करीब एक बज रहा था। सबसे पहले मैं अपने ऑफिस ‘विज्ञान संस्थान’ गई—वैसे उस दिन रविवार होने की वजह से मेरा साप्ताहिक अवकाश था—परंतु सिर्फ ब्रीफकेस को अपने ऑफिस की सेफ में रखने के लिए ही मैं विज्ञान संस्थान गई थी—यूं विज्ञान संस्थान चौबीस घंटे खुला रहता है—कर्मचारियों को ‘टर्न वाइज़’ साप्ताहिक छुट्टी मिला करती है।
मुझे अपने इस काम में मुश्किल से पांच मिनट लगे।
उस दिन मैंने रात तक का समय बिताने के लिए पहली बार फिल्म के मैटनी, ईवनिंग और नाइट—तीनों शोज लगातार देखे—उसका एक फायदा मुझे यह भी मिला कि पांच छ: घंटे लगातार स्क्रीन पर देखने की वजह से मेरी आंखें लाल और भारी हो गई थीं।
मुझे अपनी योजना में उदास-सी नजर आने वाली भारी और रोती हुई-सी आंखों की ही जरूरत थी।
मैंने नाइट शो विज्ञान संस्थान के बिल्कुल नजदीक वाले हॉल में देखा, ताकि वहां से विज्ञान संस्थान पैदल भी पहुंचा जा सके—मैं फिल्म के छूटने से आधे घंटे पहले ही बाहर निकल आई थी और पैदल ही विज्ञान संस्थान की तरफ बढ़ गई थी।
मैं अच्छी तरह जानती थी कि इस समय मिस्टर सिद्धार्थ बाली मुझे प्रयोगशाला में ही मिलेंगे—क्योंकि वह अपने ज्यादातर प्रयोग रात में ही करते हैं।
जिस वक्त खुद को बेहद दुखी और परेशान दर्शाती हुई मैं वहां पहुंची, उस वक्त सिद्धार्थ बाली प्रयोगशाला में अकेले ही थे—रात के उस वक्त मुझे वहां देखकर उनका चौंक पड़ना स्वाभाविक था—इसके बाद मेरे और उनके बीच वही बातें हुईं, जो मैं कल बता चुकी हूं—अब आप समझ ही गए होंगे कि मोहन द्वारा शराब के ठेकेदार को लाना, मेरा किशनगंज से तिपहिया स्कूटर से भागना आदि सब काल्पनिक घटनाएं थीं—मेरे दिमाग की उपज थीं। मुझे पूरा यकीन था कि जब सिद्धार्थ बाली से यह सब कहूंगी तो वे न सिर्फ मुझ पर तरस खाएंगे, बल्कि मुझसे सहानुभूति भी होगी उन्हें—और ऐसा ही हुआ भी। उसी के परिणामस्वरूप मैं आज यहां हूं।”
“मैडम, क्या यह सारी कहानी काल्पनिक नहीं हो सकती, जो आप इस वक्त सुना रही हैं?” इंस्पेक्टर देशमुख ने पूछा।
“नहीं, इंस्पेक्टर, नहीं!” पूनम एकदम तड़पकर बोली—"भगवान के लिए ऐसा मत कहो—मैं पहले ही अपनी जिंदगी में इतने झूठ बोल चुकी हूं कि आज खुद का जिंदा रहना भी एक झूठ ही नज़र आ रहा है।”
इंस्पेक्टर देशमुख के होंठों पर विषाक्त मुस्कराहट उभर आई। बोला—“अब तुम्हें इस नाटक की क्या जरूरत पड़ गई?”
“नाटक तो अब तक कर रही थी, इंस्पेक्टर—आज तो वास्तविक रूप में आपके सामने खड़ी हूं।”
“अचानक रात-ही-रात में आपमें इतना बदलाव कैसे...?” आगे कहता हुआ इंस्पेक्टर देशमुख एकदम रुक गया और फिर ऐसा नाटक करता हुआ बोला—जैसे अचानक कुछ याद आया हो—“ओह मैडम, मैं तो भूल ही गया था कि रात आपके पास कोई हवा का झोंका भी आया था—जिसने आपकी सोई हुई आत्मा को झकझोर दिया था।”
“ज...जी...।” वह कठिनता से कह पाई।
 जरा आप साथ चलकर मुझे अपना बेडरूम दिखाएंगी?” इंस्पेक्टर देशमुख बोला—“शायद वह हवा का झोंका हमारे लिए भी कोई संदेश छोड़ गया हो—जिससे हमारी सोई हुई बुद्धि उठकर सरपट दौड़ने लगे।”
पूनम कांप उसी। दिल ‘धाड़-धाड़’ करके बजने लगा। चेहरा एकदम ‘फक्क’ पड़ गया।
“अरे, यह अचानक आपको क्या हो गया मैडम?” चौंकने का अभिनय किया इंस्पेक्टर देशमुख ने—“आप एकदम इतना घबरा क्यों गईं?”
“न...नहीं तो इंस्पेक्टर—ऐसी तो कोई बात नहीं है।”
“आप अपना बेडरूम दिखाएंगी मुझे?”
“च...चलिए इंस्पेक्टर!” गले में अटका थूक सटकते हुए पूनम ने कहा और अपने बेडरूम की तरफ बढ़ गई।
इंस्पेक्टर देशमुख और मिस मंजु मेहता पूनम के पीछे चल दिए।
पूनम के बेडरूम में पहुंचकर इंस्पेक्टर देशमुख ने इधर-उधर नजर दौड़ाई। डबल बेड की तरफ देखकर इंस्पेक्टर के होंठ एक विशेष अंदाज में सिकुड़ गए—वह डबल बेड के नजदीक फर्श पर कुछ देखता हुआ खिड़की की तरफ बढ़ गया।
पूनम का दिल हलक के रास्ते से जैसे बाहर आ जाना चाहता था। खिड़की के पास पहुंचकर इंस्पेक्टर देशमुख उसे बहुत ध्यान से देखने लगा—और फिर खिड़की के बाहर बालकनी में झांककर देखा।
आंखों में चमक-सी उभर आई।
बराबर में लगे रेन वाटर पाइप को देखकर उसके होंठों पर अजीब-सी मुस्कराहट उभरी।
रेन वाटर पाइप के नीचे मैदान की कच्ची जमीन पर किसी के जूतों के निशान सड़क की तरफ जाते हुए स्पष्ट नजर आ रहे थे—बिल्कुल वैसे ही निशान जैसे उसने कमरे के फर्श पर और बालकनी में अस्पष्ट-से देखे थे।
मिस मंजु मेहता दिलचस्पी के साथ बहुत ध्यान से इंस्पेक्टर देशमुख की ‘इन्वेस्टीगेशन को देख रही थी।
इंस्पेक्टर देशमुख को बालकनी में देखकर पूनम अपने बेडरूम में चोरों की तरह इधर-उधर इस उद्देश्य से नजर दौड़ाने लगी कि कहीं ऐसी कोई चीज तो नहीं पड़ी है, जिस पर अभी तक इंस्पेक्टर देशमुख की नजर न पड़ी हो—जिससे उसे कमरे में किसी अन्य व्यक्ति के आने का आभास मिले।             
अचानक उसकी नजर कमरे के एक कोने में पड़े सिगरेट के टोटे पर गई। उसे देखकर वह इस तरह उछली, जैसे सिगरेट का टोटा न होकर कोई भयानक बिच्छू हो।
दिल एक बार फिर धाड़-धाड़ करके बजने लगा।
उसे लगा, जैसे चोरी पकड़ी जाने में अब कोई देर नहीं है—इंस्पेक्टर देशमुख को अब यह ताड़ते देर न लगेगी कि यहां कोई व्यक्ति
आया था।
इंस्पेक्टर देशमुख अभी भी बालकनी में ही था—मिस मंजु खिड़की के पास खड़ी इंस्पेक्टर देशमुख की तरफ देख रही थी—इंस्पेक्टर देशमुख लॉन में झांक रहा था।
दोनों की पीठें पूनम की तरफ थीं।
इस स्थिति का फायदा उठाते हुए वह तेजी से उस तरफ झपटी—वहां पहुंचकर वह जैसे ही सिगरेट के टोटे को उठाना चाहती थी कि—
 मैडम, उस सिगरेट के टुकड़े को उठाने की कोशिश मत करो।”
इंस्पेक्टर देशमुख की इस आवाज को सुनकर वह सिर से पांव तक बुरी तरह कांप गई—सहमी हुई नजरों से उसने इंस्पेक्टर देशमुख की तरफ देखा तो पाया कि वह अब भी उसकी तरफ पीठ किए बाहर झांक रहा था।
मिस मंजु ने तेजी से पलटकर पूनम की तरफ देखा—जिसका हाथ फर्श पर पड़े सिगरेट के टुकड़े की तरफ बढ़ा हुआ था—उसने आश्चर्य के साथ पुन: इंस्पेक्टर देशमुख की तरफ देखा—वह अब भी उसी अवस्था में खड़ा नीचे कच्ची जमीन की तरफ देख रहा था।
मिस मंजु को लगा, जैसे इंस्पेक्टर देशमुख के केवल चेहरे पर ही दो आंखें नहीं हैं—बल्कि चेहरे के पीछे भी दो आंखें हैं।
इंस्पेक्टर देशमुख मुस्कराता हुआ पलटा और पूनम की तरफ देखता हुआ बोला—“मैडम, अगर कोई ‘इन्वेस्टीगेटर’ कमरे के फर्श पर पड़ी इतनी मोटी चीज को भी न देख सके तो बेकार है उसकी इन्वेस्टीगेशन करनी—यह सिगरेट का टुकड़ा जान-बूझकर अनजान बनते हुए सिर्फ छोड़ा ही इसलिए गया था कि आपको रंगे हाथों पकड़ा जा सके।” कहता हुआ इंसपेक्टर देशमुख, कमरे में आ गया।
पूनम के पास पहुंचकर उसने सिगरेट का टुकड़ा उठा लिया और गौर से देखता हुआ बुदबुदाया— फोर स्क्वायर।
पूनम का चेहरा एकदम सफेद पड़ गया। काटो तो खून नहीं।
टांगों में कंपन-सा होने लगा—दिल जोर-जोर से पसलियों पर ठोकरे मार रहा था।
एकदम विचलित-सी नजर आने लगी वह।
 यहां ललित क्यों आया था?” अचानक इंस्पेक्टर देशमुख ने पूछा।
इस रहस्योद्घाटन पर मिस मंजु बुरी तरह चौंकी—उसके चौंकने का कारण यह नहीं था कि इंस्पेक्टर देशमुख ने यह जान लिया था कि कमरे में कोई आया था—चौंकी इसलिए थी वह, क्योंकि इंस्पेक्टर देशमुख ने कन्फर्म नाम लिया था।
और पूनम! उसे लग रहा था, जैसे वह भारहीन होकर हवा में तैर रही हो।
“मैडम, मैंने आपसे यह पूछा है कि यहां ललित क्यों आया था?” इस बार इंस्पेक्टर देशमुख का स्वर अपेक्षाकृत कठोर हो गया।
“म...मेरे पास तो कोई नहीं आया।” अपनी घबराहट को छिपाने की असफल चेष्टा करते हुए पूनम ने कहा।
“झूठ मत बोलो मैडम!” इंस्पेक्टर देशमुख गुर्राया।
“अ...आपको गलतफहमी हुई है, इ...इंस्पेक्टर...!”
उसका वाक्य पूरा होने से पहले ही इंस्पेक्टर देशमुख की गुर्राहट—“कमरे के फर्श, बालकनी और पीछे कच्ची जमीन पर ललित के जूतों के निशान—कमरे में पड़े 'फोर स्क्वायर' सिगरेट के दो टुकड़े—आपने तो अभी एक ही टुकड़ा देखा है और उसे ही आप छिपाने की कोशिश करने लगीं—दूसरा टुकड़ा जो ड्रेसिंग टेबल के पीछे वाले दाएं पाए के नजदीक पड़ा है, उसे तो देखा ही नहीं आपने—इतना ही नहीं मैडम, अगर आपने और अधिक इनकार किया तो फिगरप्रिंट्स स्पेशलिस्ट को बुलाकर बालकनी के बराबर से जा रहे रैन वाटर पाप पर फिंगरप्रिंट्स लेकर, उन्हें ललित के फिंगरप्रिंटस से मिलाकर यह अच्छी तरह साबित कर दिया जाएगा कि वह कल रात यहां आया था—इसलिए आपके लिए अच्छा यही होगा कि आप साफ-साफ बता दें।”
पूनम को लगा कि अब वह ज्यादा देर तक इंस्पेक्टर देशमुख के सामने यह बात नहीं छिपा पाएगी कि ललित यहां आया था।
उसने यह भी सोचा कि कहीं ऐसा न हो कि इस छोटे से झूठ को छिपाने में कोई और मुसीबत उसके गले आ पड़े।”
“मैडम, अब आप जवाब दे रही हैं या...।”
“रात मिस्टर ललित ही आए थे।” पूनम ने हिचकते हुए कहा—“उनकी बातों ने—उनके अटूट प्यार और भावना ने ही मुझे कल्पनालोक से वास्तविकता के धरातल पर पहुंचाया—इस पापिन को पाप की और अधिक गहरी खाई में गिरने से बचा लिया।”
“मैं सिर्फ यह पूछ रहा हूं कि वह किसलिए आया था?” इंस्पेक्टर देशमुख ने कठोरता से पूछा।
 अपनी खुदगर्ज बेवफा पत्नी से बदला लेने।”
“फिर...?” सवालिया नजरों से उसकी तरफ देखते हुए इंस्पेक्टर देशमुख ने पूछा।
पूनम के होंठों पर एक फीकी-सी मुस्कराहट आ गई। बोली—“फिर क्या इंस्पेक्टर—जो बहुत अधिक प्यार करता है, वह एक हद पर आकर टूट जाता है—वह मुझे हमेशा के लिए खत्म करने ही आए थे—परंतु उनकी बातों और प्यार की वजह से मेरे दिल में जो पश्चाताप आया—उसे देखकर वह टूट गए—मुझे माफी मांगने के लिए अपने पैरों में गिरा देखकर वह बुरी तरह तड़प उठे—मेरे आंसुओं ने उनके दिल की नफरत को धो दिया—उन्होंने अपनी इतनी बड़ी गुनहगार को क्षण-भर में माफ कर दिया—तभी तो मैं कहती हूं, ललित इंसान नहीं, देवता हैं—ऐसे देवता, जिसे जिन्हें-जन्मान्तर तक पूजा जा सके।”
व्यंग्यपूर्वक मुस्कराते हुए इंस्पेक्टर देशमुख ने पूछा—“जब ललित ने आपको रात ही माफ कर दिया था तो लोगों के सामने चीख-चीखकर यह नाटक करने की क्या जरूरत थी कि ललित को बुलाओ—मैं उससे माफी मांगना चाहती हूं?”
“जिन लोगों के सामने मैंने अपने देवता की बेइज्जती की थी—उन्हीं लोगों के सामने उस देवता से माफी मांगकर पश्चाताप करना चाहती थी—लोगों की गालियां सुनकर प्रायश्चित करना चाहती थी—सबके सामने रोकर अपने दिल के पापों का बोझ हल्का करना चाहती थी।”
इंस्पेक्टर देशमुख के चेहरे पर ऐसे भाव थे, जैसे वह किसी रंगमंच पर कोई नाटक देख रहा हो। पूछा—“चलो, माना कि यह सब सही है—लेकिन उस व्यक्ति का क्या होगा, जिसके साथ तुमने दूसरी शादी की?”
“रात से यही सोच-सोचकर तो पागल हुई जा रही हूं, इंस्पेक्टर कि मेरे इस गुनाह को जानकर मिस्टर सिद्धार्थ पर क्या गुजरेगी—कैसे वह अपने-आप पर काबू रख पाएंगे?” कहती हुई पूनम तड़प-सी उठी—आंखों में अथाह दर्द उमड़ने लगा। उदास और डूबे हुए-से स्वर में बोली—“कहीं ऐसा न हो, मेरे द्वारा पहुंचे इस भयंकर सदमे से वह कुछ उल्टा-सीधा कर बैठें—कोई अप्रिय घटना न घट जाए।”
“अगर कोई घट भी जाएगी तो तुम पर क्या फर्क पड़ेगा मैडम—तुम्हारा तो कोई नुकसान नहीं होगा न।” इंस्पेक्टर देशमुख ने उत्तेजित होकर कहा—“अगर कोई फर्क पड़ेगा तो उस मां पर जिसने उसे जन्म दिया—और उस बाप पर, जिसने उसे अपना नाम दिया है परवरिश की उसकी—और उस बहन पर, जो हर साल उसके हाथ पर राखी बांधा करती है—इनके अलावा और किसी पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा—हां, अगर कुछ नुकसान होगा तो विज्ञान की दुनिया को या फिर इस देश को—लेकिन तुम्हारी योजना तो शायद सफल हो ही जाएगी।”
“नहीं, इंस्पेक्टर, नहीं!" पूनम एकदम विचलित-सी होकर बोली—“कोई भी इल्जाम लगा दो—लेकिन भगवान के लिए यह इल्जाम मत लगाओ कि मेरी योजना उन्हें कोई नुकसान पहुंचाने की थी—उनकी पत्नी बनकर उन्हें पाने की महत्वाकांक्षा जरूर थी—परंतु उनकी उन्नति में बाधक बनने की मैंने कभी कोशिश नहीं की—हमेशा उन्हें इस बात के लिए ही प्रेरित किया कि वह अपने कार्य में और अधिक मन लगाएं—तरक्की करें और सारी दुनिया में खूब नाम कमाएं।” पूनम कहीं खोई हुई-सी कहती चली गई—“शायद आप नहीं जानते इंस्पेक्टर कि वे लंदन में होने वाली विज्ञान कॉन्फ्रेंस में हिस्सा लेने जाना नहीं चाहते थे—परंतु उनके कैरियर को ध्यान में रखते हुए मैंने ही जबरदस्ती उन्हें लंदन के लिए रवाना किया था, परंतु मौसम खराब होने की वजह से वह लंदन नहीं जा सके—उसके बाद भी, कल जब उनका मुम्बई से फोन आया था—अगर आपने ध्यान दिया हो इंस्पेक्टर, तो देखा होगा कि उनसे यह सुनकर कि उनकी कॉन्फ्रेंस ‘मिस’ हो गई है, मुझे बहुत दुख पहुंचा था और इसके लिए मैं फोन पर ही उनसे नाराजगी प्रकट कर रही थी—मिस्टर सिद्धार्थ बाली को अंतरिक्ष में जाने वाले अमेरिकी अंतरिक्ष शटल का यात्री बनाने की जितनी इच्छा मेरी है इंस्पेक्टर—उतनी शायद खुद मिस्टर बाली की भी नहीं होगी—चाहे अपने पति के रूप में ही क्यों न हो—एक बहुत बड़े वैज्ञानिक और उस पर भी अंतरिक्ष यात्री की पत्नी बनने की इस महत्वाकांक्षा ने ही तो मुझसे इतने पाप और गुनाह कराए हैं, इंस्पेक्टर!”
इंस्पेक्टर देशमुख और मिस मंजु मेहता उसे अवाक-से देखते रह गए—उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि पूनम की कौन-सी बात को सच मानें?
¶¶
जिस समय इंस्पेक्टर देशमुख ललित की कोठी पर पहुंचा—उस समय नौ बज रहे थे।
उसे अंदर आता देखकर ललित चौंका।
वह तुरंत अपनी रिस्टवॉच पर नजर डालता हुआ बोला—“इंस्पेक्टर, अभी तो केवल नौ बजे हैं—आपने ठीक दस बजे ही तो पुलिस स्टेशन पहुंचने के लिए कहा था न?”             
"क्या उससे पहले हम आपके पास नहीं आ सकते मिस्टर ललित?” कटाक्ष-सा करते हुए इंस्पेक्टर देशमुख ने पूछा।
“न...नहीं-नहीं—मेरा मतलब यह नहीं था...।”
“इस समय आपका चाहे जो मतलब रहा हो—लेकिन मैं यह जानना चाहता हूं कि आप रात पूनम के पास किस मतलब से गए थे?”
ललित के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं।
“म....मैं तो नहीं गया...।”
“झूठ मत बोलो।” इंस्पेक्टर देशमुख दहाड़ा।
“म...मैं सच कह रहा हूं, इंस्पेक्टर!" ललित मिमिया उठा—“अ...आपसे किसने कहा?”
“पूनम ने।”
“न....नहीं!” वह अविश्वसनीय स्वर में बोला—“य...यह नहीं हो सकता, इंस्पेक्टर...।”
"यह हुआ है, मिस्टर ललित!”
“क...क्या कहा उसने?”
“उसने सिर्फ कहा ही नहीं, बल्कि आपके खिलाफ पुलिस स्टेशन में  रपट भी लिखवाई है।”
"क...क्या?" ललित इस तरह चौंका, जैसे उसके आसपास कोई बम फटा हो। बोला—“उसने मेरे खिलाफ ‘रपट’ लिखवाई है?”
“जी हां—रपट।" इंस्पेक्टर देशमुख मुसकराता हुआ बोला।
“किस बात की?”
“कल रात आप कोठी के पिछले हिस्से में लगे रेन वाटर पाइप पर चढ़कर चोरों की तरह उसके बेडरूम में दाखिल हुए और उसे जान से मारने की धमकी देकर अपने पक्ष में बयान देने के लिए दबाव डाला।” उसके चेहरे पर आए भावों को पढ़ने की कोशिश करते हुए इंस्पेक्टर देशमुख ने कहा।
उसके चेहरे पर असीम आश्चर्य के भाव थे।
"य...यह कैसे हो सकता है?” वह परेशान-सा होकर बुदबुदाया।
"क्यों नहीं हो सकता?”
“इसलिए कि रात उसने अपने गुनाह के लिए मुझसे माफी मांगी थी।” झोंक में कहने के बाद एक क्षण के लिए ललित रुका, फिर सामान्य-सा होकर बोला—“यह ठीक है, इंस्पेक्टर कि मैं रात वहां गया था—और सचमुच मेरा इरादा यह था कि मैं अपने साथ बेवफाई करने वाली पूनम को जान से मार दूंगा—मैंने वहां जाकर जिस समय उसे वह सब बताया, जो उसके जाने के बाद मुझ पर गुजरी थी—किस तरह पागलों की तरह मैंने उसे जगह-जगह ढूंढा था—जब मैंने भावुक होकर अपने प्यार की तमाम दीवानगी उसे बताई तो वह मेरे बहाव में बह गई—उसकी सोई हुई आत्मा जाग उठी—उसकी आंखों पर पड़ा खुदगर्जी का परदा हट गया—उसे अपनी गलती का एहसास हुआ—वह रोती हुई मेरे पैरों में गिर गई और मुझसे माफी मांगने लगी—इंस्पेक्टर, मैंने उसे अपनी जिंदगी में सबसे ज्यादा प्यार किया था—टूट-टूटकर चाहा था उसको—उसको फूट-फूटकर रोते और साथ ही अपने गुनाह की माफी मांगते देखकर मैं एक बार फिर टूट गया—मैंने उसे माफ कर दिया—एक बार फिर उसे अपनाने और वापस घर आने की स्वीकृति दे दी—उसी समय वह मुझसे कह रही थी कि सब लोगों के सामने वह अपना गुनाह स्वीकार कर लेगी।” कहने के साथ वह इंस्पेक्टर देशमुख की तरफ देखने लगा।
इंस्पेक्टर देशमुख के होंठों पर धूर्त मुस्कराहट थी।
“आप मुस्करा क्यों रहे हैं, इंस्पेक्टर?” ललित ने आश्चर्य के साथ पूछा—“मुझे इस बात पर यकीन नहीं आ रहा है कि रात की घटना के बाद पूनम मेरे खिलाफ इस तरह का कोई बयान दे सकती है।"
“आपका यकीन सही है मिस्टर ललित—मिसेज पूनम ने ऐसा कोई बयान नहीं दिया है—बल्कि वही सब बताया है, जो कि आप बता रहे हैं।"
“इंस्पेक्टर—फ....फिर आपने...।”
“हम यह मालूम करना चाहते थे कि मिसेज पूनम जो बता रही हैं—उससे अलग तो कोई बात नहीं है—और हां, ग्यारह बजे तक पुलिस स्टेशन अवश्य आ जाना।” कहकर इंस्पेक्टर देशमुख घूमा और तेज-तेज कदम रखता हुआ हुआ कोठी के लोहे वाले गेट के पास खड़ी अपनी जीप की तरफ बढ़ गया।
¶¶
सिद्धार्थ भवन!
यह नाम था देश के महान, वयोवृद्ध वैज्ञानिक डाक्टर रामन्ना बाली की आलीशान भव्य कोठी का।
डॉक्टर रामन्ना बाली की उम्र साठ वर्ष के आसपास थी लेकिन स्वास्थ्य अच्छा होने की वजह से अपनी उम्र से कुछ कम ही नजर आते थे।
गोरा-चिट्टा रंग—उम्र के साथ कुछ झुर्रियां आने के बावजूद भरा हुआ चेहरा, नीली आंखें, चौड़ा मस्तक—मस्तक चौड़ा और भी अधिक इसलिए नजर आता था, क्योंकि सिर का अगला हिस्सा बालरहित था—सिर पर कहीं-कहीं बाल थे तो वे भी एकदम सफेद—कानों पर भी छोटे-छोटे सफेद बालों का झुण्ड नजर आ रहा था।
इस समय उनके शरीर पर नाइट गाउन था। सामने हाथी के आकार में बनी एक विशेष तरह की मेज पर सुबह की पहली चाय का प्याला जो रखा हुआ ऐसा नजर आ रहा था, जैसे हाथी ने अपनी सूंड से पकड़ रखा हो।
अचानक उन्होंने अखबार को ‘हाथी की पीठ  पर’ फेंककर जोर से चीखते हुए कहा—“सुमित्रा!”
“सुन रही हूं।” अंदर से  कोई नारी स्वर उभरा—“क्या बात हो गई? सुबह-ही-सुबह कैसे गरम हो रहे हो?”
“जरा यहां आकर अपने लाड़ले का एक और महान कारनामा पढ़ लो—तबीयत खुश हो जाएगी तुम्हारी।”
कोठी के अंदर से अधेड़-सी नजर आने वाली एक महिला निकलकर आई—जो कदाचित सुमित्रादेवी ही थीं—डॉक्टर रामन्ना बाली की धर्मपत्नी।
“क्या सिद्धार्थ का आज फिर अखबार में किसी सफल प्रयोग के लिए नाम छपा है?” सुमित्रादेवी ने लॉन में उनके पास आते हुए संभावना व्यक्त की।
“हां, आज का सारा अखबार ही साहबजादे के नाम से भरा पड़ा है।” दांत पीसते हुए डॉक्टर बाली खीज-भरे स्वर में बोले—“तुम भी देख लो।”
“अरे, मैं तो आपके चीखने की वजह से चश्मा लाना ही भूल गई।” अखबार लेने के बाद सुमित्रादेवी को ध्यान आया। वापस उन्हीं की तरफ बढ़ाते हुए वह फिर बोलीं—“लीजिए आप ही पढ़कर सुना दीजिए न—बिना चश्मे के मेरी आंखों पर जोर पड़ता है।”
"इसमें क्या खाक पढ़कर सुना दूं?” डॉक्टर बाली अखबार को हाथी की पीठ पर पटकते हुए गुस्से में बोले।
सुमित्रादेवी एकदम सहम गईं—उन्हें यह समझते देर न लगी कि आज ज़रूर सिद्धार्थ की तरफ से कोई बात हुई है।
उन्होंने बहुत आहिस्ता से डरते-डरते पूछा—“क्यों क्या हुआ?”
“उस बेवकूफ ने ‘लंदन वैज्ञानिक कॉन्फ्रेंस’ मिस कर दी।”
“क्या?” सुमित्रादेवी बुरी तरह चौंकीं— ल...लेकिन क्यों?”
“इस ‘क्यों’ का जवाब तो तुम्हारा वह लाडला ही दे सकता है—इसमें तो केवल इतना ही लिखा है कि भारत के प्रतिभाशाली युवा वैज्ञानिक मिस्टर सिद्धार्थ बाली को भी विश्व के शीर्ष वैज्ञानिकों की इस कॉन्फ्रेंस में आमंत्रित किया गया था—उन्होंने अपने आने की स्वीकृति भी आयोजकों को भेज दी थी—परंतु अज्ञात कारणों से वह इसमें हिस्सा लेने नहीं पहुंच पाए।”
“यह तो सिद्धार्थ ने अपने कैरियर के लिए अच्छा नहीं किया।” सुमित्रादेवी ने चिंतित स्वर में कहा।
“अच्छे की बात छोड़ो, बहुत बुरा किया है सिद्धार्थ ने।” कहते हुए बेहद गंभीर नजर आने लगे डॉक्टर बाली। बोले—“सुमित्रा, अब तो हमें ऐसा लगने लगा है, जैसे सिद्धार्थ के लिए देखे गए हमारे सारे ख्वाब—सिर्फ और सिर्फ ख्वाब ही रह जाएंगे।”
“न...नहीं, ऐसा नहीं हो सकता।” सुमित्रादेवी ने कमजोर-सा प्रतिरोध किया— आपके ख्वाब जरूर पूरे होंगे।”
“पूरे तो तब होंगे न, जब वह लड़की होने देगी?”
“समझ में नहीं आता कि उस लड़की ने सिद्धार्थ पर ऐसा क्या जादू कर दिया है—जो उस लड़की के अलावा दुनिया में कुछ और नज़र ही नहीं आता, वरना पहले तो उसे प्रयोगशाला और विज्ञान की मोटी-मोटी किताबों की दुनिया के अलावा यह भी मालूम नहीं था कि जिस दुनिया में वह रह रहा है—उसमें कब सुबह होती है और कब रात-दिन, तारीख और साल कुछ भी तो याद नहीं रहता था उसे।”
“सुमित्रा, हम तुम्हें क्या बताएं कि अब तो उसे विज्ञान संस्थान की प्रयोगशाला का दरवाजा देखे भी कई-कई दिन हो जाते हैं।”
 आप उसे एक बार फिर समझाने को कोशिश क्यों नहीं करते?” सुमित्रादेवी अपनी कुर्सी को उनके पास खिसकाती हुई बोलीं—“हो सकता है, जो बात उस समय उसकी समझ में न आई थी—वह अब आ जाए।"
डॉक्टर बाली ने एकदम भड़ककर कहा—“जब तक उस बेवकूफ पर उस लड़की का भूत सवार है, तब तक उसकी कुछ समझ में नहीं आएगा।”
सुमित्रादेवी कुछ नहीं बोलीं।
जाने क्या सोचती रहीं।
डॉक्टर बाली ने गाऊन की जेब से सिगार का पैकेट और लाइटर निकाला—एक सिगार सुलगाने के बाद उसमें गहरा कश लगाते हुए बोले—“हमें तो ऐसा भी लग रहा है सुमित्रा.......भगवान न करे हमारी यह आशंका सच हो कि सिद्धार्थ भारतीय अंतरिक्ष यात्री बनने का सुनहरा अवसर भी उस लड़की के चक्कर में पड़कर गंवा देगा—बाजी शायद आलोक मार ले जाए—उसमें हम कुछ कर गुजरने की लगन देख रहे हैं।”
“सिद्धार्थ को ‘अमेरिकी शटल’ का अंतरिक्ष यात्री अवश्य बनना है—आप इस बारे में सिद्धार्थ से बात क्यों नहीं करते?” सुमित्रादेवी ने कहा—“हमने उससे सिर्फ इतना ही तो चाहा है कि यह भारत का ही नहीं, विश्व का नंबर एक वैज्ञानिक बने—विज्ञान के क्षेत्र में इतना नाम कमाए, जितना आज तक किसी ने न कमाया हो—उसे ‘विज्ञान आकाश’ का ‘ध्रुव तारा’ बना देखने की इच्छा थी हमारी।”
“हमने कहा है न सुमित्रा, जब तक सिद्धार्थ पर उस लड़की का भूत सवार रहेगा—तब तक तुम उसे एक 'दीवाना पति’ बना देखने के अलावा और कुछ नहीं देख सकतीं।”
अभी सुमित्रादेवी कुछ कहना ही चाहती थीं कि उनके पीछे से आवाज आई—“ अंकल, मैंने आपसे कितनी बार कहा है कि आप एक बार आज्ञा तो दीजिए, मैं सिद्धार्थ पर से न केवल उस लड़की का भूत उतार दूंगा—बल्कि उस लड़की को सचमुच वाले भूतों की दुनिया का निवासी बना दूंगा।”
दोनों ने एकसाथ पलटकर पीछे देखा—लगभग एकसाथ ही दोनों के मुंह से निकला—“अरे आलोक—तुम...?”
“गुड मॉर्निंग अंकल एण्ड आंटी!” आलोक धवन उनके नजदीक आता हुआ बोला।
“मॉर्निंग बेटे!” अपने को सामान्य-सा करते हुए डॉक्टर बाली ने कहा—“आओ आलोक बेटे, बैठो।”
आलोक उन दोनों के सामने वाली कुर्सी पर बैठने के तुरंत बाद बोला—“अंकल आप एक बार मुझे आज्ञा क्यों नहीं देते—म...मैं उस लड़की को खत्म कर डालूंगा, जो लगातार विज्ञान की दुनिया और अपने इस गरीब देश से उसका विज्ञान में धनी वैज्ञानिक छीनती जा रही है।”
“तुम ऐसी उल्टी-सीधी बात भी दिमाग में मत लाया करो बेटे।” डॉक्टर बाली उसे समझाने वाले अंदाज में बोले—“तुम्हारे भी तो कैरियर का सवाल है—तुम्हें भी तो एक दिन बहुत बड़ा वैज्ञानिक बनना है।”
आलोक ने तुरंत कहा—“मुझे अपने कैरियर की कोई चिंता नहीं अंकल—भाड़ में जाए वह—लेकिन मैं अपने दोस्त सिद्धार्थ का कैरियर बिगड़ते नहीं देखना चाहता।”
“नहीं बेटे, ऐसा नहीं कहते।” सुमित्रादेवी ने प्रतिरोध किया—“तुम्हारे स्वर्गवासी डैडी-मम्मी की बड़ी हसरत थी कि तुम बहुत बड़े आदमी बनो—पूरी दुनिया में उनका नाम रोशन करो।”
“अ..आंटी।”
“पगले, उस एक्सीडेंट से दो दिन पहले ही तो तुम्हारी मम्मी ने मुझसे कहा था कि मैं वैष्णो देवी से सिर्फ यह ‘मन्नत’ मांगने जा रही हूं कि मेरे आलोक को बहुत बड़ा आदमी बना दे—हम तो गरीबी और गुमनामी की जिन्दगी भी मर-मरकर जिए हैं—लेकिन मेरे बेटे को बहुत बड़ा और नाम वाला आदमी बना दे—ताकि जब जब उसे दुनिया याद करें तो उसे जन्म देने वाले मां-बाप का नाम भी गुमनामी के अंधेरों से निकलकर दुनिया के इतिहास में नज़र आया करे।” कहते हुए सुमित्रादेवी का स्वर भर्रा गया।
आलोक उदास-सा हो गया।
“सुमित्रा, तुम भी इस वक्त यह क्या बात छेड़ बैठीं?” डॉक्टर बाली आलोक के उदास चेहरे की तरफ देखते हुए बोले—“अब देखो, तुमने हमारे बेटे को उदास कर दिया।”
“न...नहीं अंकल, ऐसी कोई बात नहीं—मम्मी-डैडी की यह इच्छा तो हमेशा मुझे याद रहती है।” होंठों पर जबरदस्ती मुस्कराहट लाते हुए आलोक ने विषय बदला—“अंकल, आजकल सिद्धार्थ तो लंदन कॉन्फ्रेंस में गया हुआ होगा?”
“उसी बात का तो रोना रो रहे थे हम।”
"क्या मतलब?”
“उस बेवकूफ ने वह कॉन्फ्रेंस मिस कर दी।”
"क...क्या?” आलोक चौंका।
"समझ में नहीं आता कि वह लन्दन क्यों नहीं गया?” डॉक्टर बाली परेशान-से होकर बोले—“वहां उसे दुनिया के बड़े-बड़े वैज्ञानिकों के बीच बैठने और कुछ समझने का मौका मिलता—और फिर इस कॉन्फ्रेंस में हिस्सा लेने के बाद वह अंत्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त वैज्ञानिक बन जाता।”
“आज मैं इस सिद्धार्थ के बच्चे से मालूम करके ही आता हूं, अंकल कि आखिर वह चाहता क्या है?” गुस्से में कहता हूआ आलोक एकदम खड़ा हो गया।
“आलोक!”
“आज मुझे मत रोकिए आंटी—मैं आज सिद्धार्थ से और साथ ही उस जहरीली नागिन से भी बात करके आऊंगा कि वह सिद्धार्थ का कैरियर खत्म करने पर क्यों आमादा है?”
“जोश की इन बातों से कोई फायदा नहीं होगा बेटे!” डॉक्टर बाली ने गंभीर स्वर में कहा— इस समय उसे अपने फायदे की बात भी बुरी लगेगी—उसे हर वह बात बुरी लगेगी, जो उस लड़की के तनिक भी खिलाफ होगी—हम उससे बात करके देख चुके हैं बेटे—उस लड़की के खिलाफ बात करके तो हम उसका रहा-सहा कैरियर भी खत्म कर देंगे।”
“फिर आखिर उस लड़की का इलाज क्या है अंकल?” आलोक ने भड़ककर पूछा—“मुझे तो उसकी मौत के अलावा और कोई इलाज नज़र नहीं आ रहा—कहावत है कि न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी।”
डॉक्टर रामन्ना बाली के होंठों पर एक फीकी-सी मुस्कराहट आई बोले—“आलोक बेटे, मैं तुम्हारी भावनाओं को अच्छी तरह समझता हूं—यह भी जानता हूं कि तुम सिद्धार्थ से कितना प्यार करते हो—उसके लिए अपनी जान दे भी सकते हो और किसी की जान ले भी सकते हो—मैं तुम्हारी दोस्ती को अजीबो-गरीब मिसाल कहूंगा बेटे—जो एक ही क्षेत्र में एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी होकर भी आपस में इतना प्यार करते हो वरना हमपेशा से तो खुद-ब-खुद दुश्मनी हो जाती है—अमेरिकी अंतरिक्ष शटल में भारत की तरफ से जाने वाले एक वैज्ञानिक  का नाम तुम दोनों में से ही किसी एक का आना है—लेकिन उसके बाद भी कोई दुश्मनी नहीं—कोई ईर्ष्या नहीं—दोनों एक-दूसरे को भेजने के इच्छुक—और हमारी तरफ से भी सिद्धार्थ ‘अंतरिक्ष यात्री’ बने या तुम—दोनों में खुशी बराबर ही होगी—परंतु हां, इस रिसेप्शनिस्ट के सिद्धार्थ की जिंदगी में आने के बाद, सिद्धार्थ अपने उद्देश्य से जो भटका है, उसका अफसोस जरूर है।”
“अंकल, मैं उस भटकाव को दूर करने का ही तो रास्ता बता रहा था।”
“ओह, शायद हम विषय से भटक गए थे बेटे।” डॉक्टर बाली आलोक की तरफ देखते हुए बोले—“हम कह रहे थे कि सिद्धार्थ का भटकाव दूर करने का रास्ता उस लड़की की मौत नहीं है।”
“फिर कौन-सा रास्ता है?” आलोक उत्तेजित था।
“उस लड़की को अपनाना होगा” डॉक्टर बाली ने कहा—“अपना तमाम स्वाभिमान ताक पर रखकर हमें पूनम को अपने घर की बहू स्वीकार करना होगा—तभी हम सिद्धार्थ को पा सकेंगे—और उसे पाने के बाद ही हम सिद्धार्थ को उसके मुख्य उद्देश्य की तरफ आकर्षित कर सकेंगे और इस दिशा में हमने प्रयास भी शुरू कर दिए हैं।”
आलोक एकदम चौंककर बोला—“क...कैसे प्रयास अंकल?”
“पिछले हफ्ते हमने दिशा को खुद सिद्धार्थ के पास कुछ दिन के लिए रहने को भेजा था—फिलहाल तो हमने उससे यह कहा था कि सिद्धार्थ को यह बताए कि वह हमारी चोरी से ही वहां गई है—अब हम दिशा को दो-चार बार और वहां भेजेंगे—फिर सुमित्रा को—इस तरह ऐसा माहौल बना देंगे, जिससे यह नजर आए कि सबको सिद्धार्थ की पसंद मंजूर है...और उसके बाद हम घर की बगावत को देखते हुए पूनम को घर की बहू के रूप में स्वीकार करने की मजबूरी जताते हुए उसे घर ले आएंगे।” डॉक्टर बाली बताते जा रहे थे— तब हम पूनम को ही इस बात के लिए तैयार करेंगे कि वह सिद्धार्थ को उसका उद्देश्य याद दिलाए—उसकी प्रेरणा बने—कहते हैं न कि लोहा ही लोहे को काटता है—उसी तरह पूनम की वजह से ही वह अपने उद्देश्य से विमुख हुआ है—और फिर पूनम के लिए अपने उद्देश्य को पाएगा।”
“अंकल, यह बहुत ही अच्छी योजना है आपकी।” आलोक ने प्रशंसनीय स्वर में कहा।
खुश होते हुए डॉक्टर बाली ने कहा—“इसीलिए तो बेटे हम तुमसे यह कह रहे थे कि जोश में ऐसा कोई कदम मत उठा बैठना—जिससे हमारी योजना को कोई नुकसान पहुंचे।”
“आप बेफिक्र रहें अंकल!" आलोक ने कहा—“मैं आपकी बात अच्छी तरह समझ गया हूं।”
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