सुबह दस बजे के करीब श्याम डोंगरे इकबालसिंह से दैनिक प्रात:कालीन मुलाकात के लिए रवाना होने वाला था कि भौमिक उसके ऑफिस आ में पहुंचा ।
“क्या है ?” - डोंगरे भुनभुनाया ।
“कमाठीपुरे से एक भीड़ू आया है ।” - भौमिक ने बताया - “टैक्सी चलाता है । अपना आदमी है ।”
“तो क्या हुआ ?”
“वो बोलता है, कल के अंग्रेजी के अखबार में सोहल का फोटू छपा है ।”
“क्या !”
“सोहल का अखबार में फोटू छपा है ।”
“अखबार में फोटू ! वो कोई लीडर है ?”
“फिर भी फोटू छपा है ।”
“उसे कैसे मालूम ?”
“वो देखा अखबार में । उसके पास सोहल के नए चेहरे की तस्वीर भी है । वो झट पहचाना ।”
“मैं तो नहीं देखा ।”
“बाप, फोटो हिंदी या मराठी के अखबार में नहीं छपा है” - भौमिक दबे स्वर में बोला, वो जानता था कि लगभग अनपढ डोंगरे सिर्फ मराठी अपेक्षाकृत ठीक से और हिंदी अटक-अटककर पढ सकता था - “इंगलिश में भी वो फोटू एक ही अखबार में छपा है ।”
“और वो फोटू सोहल का है ?”
“उसके नए चेहरे का !”
“कमाल है ! वो आदमी... क्या नाम है उसका ?”
“किशोर ।”
“है कहां वो ?”
“बाहर टैक्सी स्टैंड पर । अपनी टैक्सी में ।”
“बुला के ला ।”
भौमिक वहां से विदा हो गया तो डोंगरे वापिस कुर्सी पर बैठ गया ।
हालात बहुत खराब थे । कहीं से कोई अच्छी खबर नहीं मिल रही थी । टापू की तबाही की खबर वह रात को ही इकबाल सिंह को सुना चुका था । वहां इमारतों में लगी आग ने जंगल को भी अपनी लपेट में ले लिया था और सारा टापू ज्वालामुखी की तरह धधक उठा था । उसके भेजे बारह आदमी वहां उस घड़ी पहुंचे थे जब वहां कुछ करने लायक या कुछ बचाने लायक बाकी नहीं रहा था । बादशाह की बाबत ये तक नहीं मालूम हो सका था कि वह उसी आग में जल मरा था या पाकिस्तान या दुबई या कहीं और बच निकलने में कामयाब हो गया था । इकबालसिंह को टापू की तबाही से इतना गहरा सदमा पहुंचा था कि उसके सामने रूबरू होने के ख्याल से डोंगरे का दिल हिल रहा था । लेकिन वो क्या करता ! हर सुबह अपने आका की हाजिरी भरना उसकी मजबूरी थी, उसकी ड्यूटी थी ।
भौमिक एक कोई चालीस साल के ड्राइवरों जैसी वर्दी पहने व्यक्ति के साथ उसके ऑफिस में पहुंचा । उसके चेहरे पर बुद्धिमत्ता के लक्षण थे और उसने हाथ में एक गोल लपेटा हुआ अखबार थामा हुआ था । उसने डोंगरे का अभिवादन किया जिसका जवाब देना भी डोंगरे ने जरूरी न समझा । न ही उसने उसे बैठने को कहा ।
“किशोर नाम है तेरा ?” - डोंगरे उसे घूरता हुआ बोला ।
“हां, साहब ।”
“छापे में तूने सोहल का फोटू देखा है ?”
“हां, साहब ।”
“दिखा ।”
किशोर ने हाथ में थमे अखबार को खोला और एक स्थान से मोड़कर डोंगरे के सामने मेज पर रख दिया ।
डोंगरे यह देखकर हकबकाया कि अखबार में वाकई सोहल के नये चेहरे की तस्वीर छपी हुई थी ।
“ये” - वह बोला - “कौन-सा अखबार है ?”
“इंडियन एक्सप्रेस ।” - किशोर बोला ।
“आज का है ?”
“नहीं, साहब । कल का है ।”
“कल ये तस्वीर छपी थी ?”
“हां, साहब ।”
“और तू” - डोंगरे आंखें निकालकर उसे घूरता हुआ बोला - “आज लाया है ?”
“साहब, मैं कल कई बार यहां आया था । लेकिन आप यहां नहीं थे ।”
डोंगरे को तब ख्याल आया कि कल तो इकबालसिंह ने उसकी फिरकनी जैसी हालत कर दी थी, एक क्षण भी तो वो अपने ऑफिस में टिककर नहीं बैठ पाया था ।
“हूं ।” - वह बोला - “अंग्रेजी जानता है ?”
“जानता हूं, साहब ।” - किशोर गर्व से बोला - “हायर सेकेंडरी पास हूं ।”
“फोटो किसी इश्तहार के साथ छपी है ?”
“नहीं, साहब । खबर के साथ ।”
“खबर के साथ ! क्या लिखा है खबर में ?”
“साहब हैडलाइन में लिखा है - बड़ौदा बिजनेसमैन रांगली अरैस्टिड बाई लोकल पुलिस । रिलीज्ड ।”
“अबे, हिंदुस्तानी में बता क्या लिखा है खबर में । खबर है क्या ?”
“साहब खबर ये है कि परसों बड़ौदा के किसी व्यापारी को मशहूर इश्तिहारी मुजरिम सरदार सुरेंद्रसिंह सोहल समझकर पुलिस ने पकड़ लिया लेकिन पुलिस हैडक्वार्टर में स्वयं पुलिस कमिश्नर के सामने उसने साबित कर दिखाया कि वो सोहल नहीं था इसलिए मजबूरन पुलिस को उसे रिहा कर देना पड़ा ।”
“साबित कर दिखाया ! कैसे साबित कर दिखाया ?”
“उसके उंगलियों के निशान सोहल की उंगलियों के निशानों से नहीं मिलते थे ।”
“ऐसा कैसे हो सकता है ?”
किशोर चुप रहा ।
“कोई नाम-धाम छपा है इस आदमी का ?”
“जी हां, छपा है । पेस्टनजी नौशेरवानजी घड़ीवाला । यही नाम उसके ड्राइविंग लाइसेंस पर भी लिखा बताया जाता है ।”
डोंगरे सन्न रह गया ।
पेस्टनजी नौशेरवानजी घड़ीवाला !
सोहल का ताजातरीन नाम !
पुलिस ने पकड़ के भी छोड़ दिया !
यकीन कर लिया कि वो सोहल नहीं था !
हे भगवान ! क्या माजरा था ?
“इसमें” - फिर वह बोला - “छापे में इस आदमी का कोई पता-ठिकाना छपा है ?”
“नहीं ।”
“ये तो छपा होगा कि वो कहां से गिरफ्तार किया गया था ?”
“नहीं ।”
“और क्या लिखा है इसमें ?”
“बस इतना ही लिखा है । और तो...”
“भाग जा ।”
किसी मोटे इनाम की उम्मीद लगाए वहां पहुंचा किशोर बौखलाया-सा वहां से बाहर निकल गया ।
***
विमल के होटल के दरवाजे पर दस्तक पड़ी ।
उसने दरवाजा खोला तो चौखट पर योगेश पांडेय के जोड़ीदार नरेंद्र यादव को खड़ा पाया ।
“गुड मार्निंग ।” - वह बोला ।
“गुड मार्निंग ।” - विमल तनिक असमंजसपूर्ण स्वर में बोला ।
“मैं सिर्फ एक मिनट लूंगा आपका ।”
विमल एक ओर हट गया ।
यादव भीतर दाखिल हुआ लेकिन उसने बैठने का उपक्रम नहीं किया ।
“पांडेय साहब” - वह बोला - “रात को ही एयरफोर्स के एक स्पेशल प्लेन से दिल्ली चले गए हैं । मुझे पीछे थोड़ा काम बता गए हैं जिसे करके शाम तक मैं भी यहां से चला जाऊंगा ।”
“हूं ।”
“पांडेय साहब की ये आपके नाम एक चिट्ठी है ।” - उसने एक सीलबंद भूरा लिफाफा विमल को थमाया - “इसकी बाबत उनकी खास हिदायत थी कि इसे मैं खुद जाकर आपकी हथेली पर रखूं ।”
“ओह !”
“मैं अब चलता हूं ।”
“बैठिए, कोई चाय-वाय...”
“आपकी बहुत मेहरबानी । मुझे बहुत काम है । रुकना मुमकिन नहीं । मैं पांडेय साहब की यह अत्यंत गोपनीय चिट्ठी आपको सौंपने आया था जोकि मैंने सौंप दी है ।”
“थैंक्यू ।”
“सो लांग । बैटर लक नैक्स्ट टाइम ।”
विमल ने उसके पीछे दरवाजा बंद किया और सीलबंद लिफाफे की ओर तवज्जो दी । लिफाफे पर ‘टॉप सीक्रेट । क्लासीफाइड’ छपा हुआ था, उसके अलावा किसी भी तरह की इबारत से वो एकदम कोरा था । उस पर उसका नाम तक नहीं लिखा हुआ था ।
उसने लिफाफा खोला ।
भीतर हाथ से लिखी हुई एक चिट्ठी थी और फिंगर-प्रिंट्स के रिकार्ड का एक कार्ड था जिस पर उसका असली नाम और आयु दर्ज थी ।
विमल ने चिट्ठी खोलकर पढी । लिखा था:
मेरे दोस्त,
भगवान तुम्हें लंबी उम्र दे ।
कल रात बादशाह अब्दुल मजीद दलवई को जीता-जागता, सही-सलामत लाकर मेरे हवाले करके तुमने मुल्क और कौम की जो खिदमत की है उसके लिए मैं तुम्हें कोई ओहदा, कोई तमगा, कोई सनद, कोई खिताब तो नहीं दिला सकता लेकिन इतना जरूर कह सकता हूं कि सिपाही सिर्फ वो ही नहीं होता जो जंग के मुहाम में मुल्क के बार्डर पर जाकर दुश्मन की सेना का मुकाबला करता है । सिपाही तुम्हारे जैसा भी होता है । बादशाह को हिंदोस्तानी जमीन पर हमारी गिरफ्त के दायरे में लाकर तुमने मुल्क की और उसके आवाम की जो खिदमत की है उसकी खामोश शाबाशी तुम्हें उन माओं से मिलेगी जिन्हें अपनी औलाद की लाशों को गोद में रखकर रोना नहीं पड़ेगा, उन बहनों से मिलेगी जिनके बेगुनाह भाई किसी टैरेरिस्ट की गोली के शिकार होने से बच गए, उन बच्चों से मिलेगी आइंदा दिनों में जिनके सिर से जिनके मां-बांप का साया कोई टैरेरिस्ट नहीं छीन सकेगा, उन गृहिणियों से मिलेगी, जिनकी मांग का सिंदूर और जिनकी कोख में पलने वाला मुल्क का मुस्तकबिल अब महफूज रहेगा । मेरे दोस्त, मैं मुल्क के कायदे-कानून की बात नहीं करना चाहता, मैं अपने दिलोदिमाग की बात करना चाहता हूं । मेरी निगाह में कल रात के अपने सद्कर्म से तुमने अपने सारे पाप धो लिए हैं ।
बादशाह को मैक्सीमम सिक्योरिटी में मैं रात को ही दिल्ली लेकर जा रहा हूं । वो हिंदोस्तानी सरकार की गिरफ्त में है, इस हकीकत से तुम्हारे और तुम्हारे दोस्तों के अलावा कोई वाकिफ नहीं । इसलिए ऐसा इंतजाम जरूर-जरूर करना कि इस हकीकत से कोई भी वाकिफ न होने पाए । तुम और तुम्हारे साथी खामोश रहेंगे तो यही समझा जाएगा कि अपने टापू के साथ बादशाह भी जल के मर-खप गया । बादशाह के सरहद पार के हिमायतियों और सरहद से इधर के मुल्क के गद्दारों द्वारा ऐसा समझ लिए जाने पर हमारा काम और आसान हो जाएगा ।
पत्र के साथ फिंगर-प्रिंट्स का वो चार्ट भेज रहा हूं, जो केशव राव भौंसले ने अपने फिंगर-प्रिंट्स लगाकर तुम्हारे चार्ट की जगह रखा था । इस चार्ट की रिकार्ड से गैरमौजूदगी के बाद अब रिकार्ड में उसके या तुम्हारे खिलाफ कुछ नहीं लेकिन फिर भी उसे समझा देना कि पहला मौका हाथ आते ही वो इस चार्ट की जगह कोई दूसरा चार्ट बनाकर जरूर रख दे, क्योंकि रिकार्ड से कोई चार्ट गायब पाए जाने पर जिम्मेदार उसे ही ठहराया जाएगा । तब हो सकता है जैसे वो इस बार बहुत बड़ी जहमत से बच गया है, वैसे दोबारा न बच पाए ।
दिल्ली के फिंगर-प्रिंट्स रिकार्ड तक मेरी पहुंच है । वहां के तुम्हारे फिंगर-प्रिंट्स का ‘इंतजाम’ कर देने का जिम्मा मैं लेता हूं । बाकी जगहों की बाबत खुद कुछ करने की कोशिश करना । कहने की जरूरत नहीं कि जब तक सरकारी रिकार्ड में एक भी जगह तुम्हारी उंगलियों के निशान हैं तब तक तुम्हारा नया चेहरा तुम्हारे किसी काम का नहीं ।
ऊपर मेरा दिल्ली का पता लिखा है, किसी भी घड़ी, किसी भी क्षण, कोई भी सेवा बताना, जी-जान से करूंगा ।
तुम्हारा दोस्त
योगेश पांडेय
विमल ने चिट्ठी को एक बार और पढा, फिर उसमें से पांडेय के पते का हिस्सा फाड़कर बाकी को लाइटर की लौ दिखा दी ।
***
डोंगरे ने अखबार इकबालसिंह की खिदमत में पेश किया और वस्तुस्थिति समझाई ।
उस घड़ी इकबालसिंह के चेहरे पर मुर्दनी छाई हुई थी । हमेशा की तरह तब वो डोंगरे पर गरजा-बरसा नहीं, बल्कि बड़े कातर स्वर में बोला - “कितने अफसोस की बात है ! इसके पते-ठिकाने की पुलिस को खबर है, हमें नहीं है, जबकि पुलिस से ज्यादा हमारे आदमी मुंबई के चप्पे-चप्पे में पाए जाते हैं ।”
डोंगरे खामोश रहा ।
“अब तू क्या करेगा ?” - इकबालसिंह बोला ।
“मैं इस अखबार के दफ्तर में जाकर पूछताछ करने की सोच रहा हूं ।”
“ठीक सोच रहा है तू । अखबार में खबर मुख्तसर करके छापी जाती है । असल में वो लोग ज्यादा बातें जानते होते हैं । खबर के लिए गैरजरूरी मानकार जो बातें उन लोगों ने छोड़ दी होंगी, वही हमारे काम की हो सकती हैं । डोंगरे, तू उसके उस रिपोर्टर को पकड़ जिसने ये खबर निकाली है, उस फोटोग्राफर को पकड़ जिसने ये तस्वीर खींची है । जरूर कोई कारआमद जानकारी हाथ लगेगी ।”
“मैं अभी जाता हूं ।”
“साथ में ऑफिस से कोई अंग्रेजी पढा-लिखा बाबू ले जा ।”
“ठीक है ।”
“इशितहार का क्या हुआ ?”
“सब अखबारों में भेज दिया है । कल छप जाएगा ।”
“तस्वीरें ?”
“बन रही हैं । शाम तक मिल जाएंगी ।”
“एक बात का और पता लगा ।”
“बोलो, बाप ।”
“बंबई के अंडरवर्ल्ड में कोई नया हादसा हो तो उसका चर्चा हुए बिना नहीं रहता । तू पता लगाने की कोशिश कर कि कल रात स्वैन नैक प्वाइंट पर जो कुछ हुआ उसमें सीधे से या छुप के इब्राहीम कालिया का कोई हाथ था या नहीं ।”
डोंगरे ने संदिग्ध भाव से अपने आका की ओर देखा ।
“अगर उसका हाथ होगा” - इकबालसिंह बोला - “तो उसके आदमी ये बड़क मारने से बाज नहीं आएंगे कि कैसे उन्होंने ‘कंपनी’ की आंख में इतना बड़ा डंडा कर दिया ।”
“ठीक है ।” - डोंगरे बोला - “मैं समझाता हूं अपने आदमियों को ।”
“और कालिया से कांटैक्ट करने की कोशिश कर । वो न मिले तो भट्टी को ट्राई कर । वो भी न मिले तो उसके किसी और भट्टी जैसे खास आदमी से कांटैक्ट करने की कोशिश कर । इतना भी न कर सके तो सारी बंबई में ये बात फैला कि इकबालसिंह इब्राहीम कालिया से मिल-बैठ के बात करना चाहता है ।”
डोंगरे ने हैरानी से उसकी तरफ देखा ।
“जरूरत के वक्त” - “इकबालसिंह गहरी सांस लेकर बोला - “गधे को भी बाप बनाना पड़ता है, डोंगरे ।”
“लेकिन कालिया अगर पहले से सोहल की तरफ हआ तो वो हमारी तरफ कैसे हो जाएगा ?”
“अरे, कौन चाहता है उस कुत्ते के पिल्ले को अपनी तरफ करना ! मैं तो उसे सिर्फ भरमाना चाहता हूं इस लाइन पर लाकर ताकि सोहल का सफाया हो सके । एक बार सोहल से पीछा छूटे तो मैं उसे भी देख लूंगा । उसे क्या, सबको देख लूंगा ।”
“बाप, यूं तो कालिया के ठीये पर वक्ती हमले भी बंद करने पड़ेंगे ।”
“बंद कर दे ।”
“लेकिन अभी कल रात आप चाहते थे अगर मलाड वाला फ्लैट कालिया की मिल्कीयत निकले तो उसे फूंक के रख दिया जाए ।”
“अभी वो बात रहने दे ।”
“वहां हमारे बहुत आदमी तैनात हैं ।”
“निगरानी चलने दे । फिलहाल चलने दे ।”
“ठीक है ।”
डोंगरे वहां से रुख्सत हो गया ।
***
ग्रांट रोड वाले फ्लैट में इब्राहीम कालिया विमल को छाती से भींच-भींचकर बिछड़े भाई की तरह मिला ।
“वाह !” - खुशी में दमकता कालिया बोला - “सुभाल अल्लाह ! करिश्मा कर दिया तूने !”
विमल खामोश रहा । वहां वह केवल वागले के साथ पहुंचा था । मुबारक अली को वहां लाना उसने मुनासिब नहीं समझा था ।
“अरे, भट्टी !” - कालिया बोला - “सरदार के लिए नई बोतल खोल काले कुत्ते की ।”
“सरदार !” - विमल की भवें उठीं ।
“मेरा मतलब है सरगना ।” - कालिया तनिक हड़बड़ाकर बोला - “बॉस ! आखिर तूने सरदारी के काबिल काम करके दिखाया है । आज तू मेरा भी सरदार है ।”
“शुक्रिया ।” - विमल शुष्क स्वर में बोला ।
“अरे भट्टी, सुना नहीं मैंने...”
“मैं दिन में विस्की नहीं पीता ।” - विमल बोला ।
“दिन कहां है ! अब तो शाम होने वाली है ।”
“होने वाली है । हो नहीं गई ।”
“तो मैं क्या खिदमत करूं तेरी ?”
“बताता हूं ।”
“बोल ।”
“थोड़ी देर के लिए लिफाफेबाजी छोड़ के मेरे सामने बैठ जाओ ।”
कालिया फिर हड़बड़ाया । इस बार उसकी हंसी को भी ब्रेक लगा । उसने कुछ क्षण अपलक विमल की ओर देखा और फिर उसके सामने बैठ गया ।
“बोलो बिरादर ।” - वह बोला - “बोलो, बाप ।”
“दुबई से कब आए ?”
“बस, पहुंचा ही हूं । भट्टी ने खबर की तो दौड़ा चला आया ।”
“आते कैसे हो ? सरेआम या चोरों की तरह ?”
“अरे, सरेआम आकर मैंने मरना है ?”
“दिन में आए ?”
“मैं समझ गया तेरा मतलब ? अमूमन मैं चोरों की तरह मुंबई के किसी उजाड़ समुद्र-तट पर आधी रात को उतरता हूं । लेकिन कैसीनो की खबर ही ऐसी फड़का देने वाली थी कि मैं अपने आपको रोक नहीं पाया ।”
“बहुत रिस्क लिया ?”
“हां । पहली बार ऐसा रिस्क लिया है मैंने ।”
“माल देखा ?”
“न सिर्फ देखा, परखा, गिना, चौकस किया ।”
“कितना माल निकला ?”
“तुझे नहीं मालूम ?”
विमल ने इनकार में सिर हिलाया ।
“कमाल है !”
“क्या कमाल है ?”
“तू चाहता तो आधा माल यूं ही हड़प जाता । तीन चौथाई माल यूं ही हड़प जाता । सारा ही माल हड़प जाता । कह देता सब जल-फुंक गया । कुछ हाथ न लगा ।”
विमल ने कोई उत्तर देने का उपक्रम न किया, उसने बड़ी तल्लीनता से पाइप का कश लगाया ।
“सोने, नकदी और जवाहरात की सूरत में” - कालिया धीरे से बोला - “कोई सात करोड़ का माल था वो ।”
“गुड !”
“तेरे से मेरा साठ लाख का वादा है लेकिन मैं तुझे आधा देने को तैयार हूं ।”
“खैरात नहीं चाहिए ।”
“अरे, ये खैरात नहीं, इनाम है ।”
“यूं इनाम भांडों और रंडियों को दिए जाते हैं ।”
कालिया हड़बड़ाया ।
“तो बांट के ले ले ।” - कालिया बोला - “दोस्त बन के । भाई बन के ।”
“मेरा हिस्सा साठ लाख है । मैं वहां से तीस लाख का माल लूट के लाया होता तो भी साठ लाख होता । खाली हाथ लौटा होता तो भी साठ लाख होता ।”
“घड़ीवाला ।” - कालिया असहाय भाव से गरदन हिलाता हुआ बोला - “तू मेरी समझ से बाहर है ।”
विमल खामोश रहा ।
“ठीक है ।” - वह हाथ फैलाकर बोला - “तेरी मरजी । तो फिर साठ लाख । कैसे लेगा ? कैश, बिस्कुट या जवाहरात ?”
“कैश ।”
“भट्टी इसको साठ लाख कैश...”
“कोई जल्दी नहीं । जाती बार ले लूंगा । अभी मैंने और बातें करनी हैं ।”
“और बातें ?”
“हां ।”
“कर ले । क्या वांदा है ?”
“सबसे पहले तो” - विमल अपलक उसे देखता हुआ बोला - “ये कबूल करो कि स्वैन नैक प्वाइंट पर बसने का तुम्हारा कभी कोई इरादा नहीं था, हकीकतन तुम उसकी मुकम्मल तबाही चाहते थे ।”
कालिया को एकाएक जैसे सांप सूंघ गया । पहले उसने विमल से निगाह मिलाने की कोशिश की लेकिन शीघ्र ही उसकी निगाह परे भटक गई । उसने एक बार भट्टी की तरफ देखा और फिर विमल की ओर घूमकर धीरे से बोला - “कैसे जाना ?”
“उन बमों से जाना” - विमल बोला - “जो भट्टी ने हमें दिए । वो बम इतने अधिक शक्तिेशाली थे कि टापू मुकम्मल तौर पर तबाह हुए बिना रह ही नहीं सकता था । एक बम जो हमने कैसीनो की मेन इमारत में लगाया था वह पता नहीं कैसे कमजोर निकल गया, वरना हमारा रोल तो वहां तबाही मचाने का ही होता, हम बादशाह या उसकी दौलत के तो करीब भी न पहुंच पाए होते । फिर भी कोशिश करते तो कोई बड़ी बात नहीं थी कि हम सब वहीं मर-खप गए होते जिससे कि तुम्हें कतई कोई एतराज न होता । वहां से लुटी दौलत के बंटवारे पर भी तुमने कोई हुज्जत नहीं की थी क्योंकि तुम समझते थे कि अगर दौलत का कोई अंबार मेरे हाथ लग गया तो मैं लौटकर ही नहीं आने वाला था और वहां से हमारे खाली हाथ लौटने पर मंजूरशुदा, तसदीकशुदा रकम मुझे सौंपने का तुम्हारा कोई इरादा नहीं था ।”
“यह झूठ है ।” - कालिया आवेशपूर्ण स्वर में बोला - “कसम है पाक परवरदिगार की, कालिया ऐसा बेईमान और जुबान का झूठा नहीं । तुम्हारी ये बातें सही हैं कि मेरा टापू पर बसने का कोई इरादा नहीं था, मेरे जैसी पोजीशन वाला कोई आदमी भला टापू पर कैसे बस सकता था ? वहां मैं मुंबई पुलिस से ही तो सेफ था ! वो तो मैं दुबई में भी हूं । मैं वहां बसता तो क्या ये इकबालसिंह से छुपा रहता ? वहां वो जब चाहे, पिंजरे में फंसे चूहे की तरह मुझे मार गिराता । मैं टापू की मुकम्मल तबाही ही चाहता था । पिछले दिनों में इकबालसिंह ने जो मुझे चोट-दर-चोट पहुंचाई थीं, उसकी भरपाई उस टापू की मुकम्मल तबाही ही कर सकती थी । मेरे मन में यह भी था कि इस काम के हो जाने के बाद मुझे तेरी सूरत दोबारा नहीं दिखाई देगी, उन्हीं वजुहात से नहीं दिखाई देगी जो तूने अभी बयान कीं । लेकिन कसम है मुझे अपने बनाने वाले की, रुपए-पैसे की कोई दगाबाजी तेरे से करने का मैंने सपने में भी ख्याल नहीं किया था । रोकड़े के बंटवारे की बाबत जो फैसला जुम्मे के रोज हम दोनों में हुआ था, उसे मैंने दिल से कबूल किया था । मेरे को पैसे का कोई तोड़ा नहीं है । बहुत पैसा है मेरे पास । पचास-साठ लाख की रकम की मेरी निगाहों में कोई बड़ी औकात नहीं । ऐसी रकम की अदायगी से बचने के लिए मैं अपनी जुबान से नहीं फिर सकता । मैं थूक के नहीं चाट सकता ।”
विमल खामोश रहा ।
“और कैसा चोर है तू, जो ये भी नहीं जानता कि ईमानदारी सिर्फ चोरों में होती है ?”
“ये किस्से-कहानियों की बातें हैं ।”
“किसी चोर से खता खाई मालूम होती है ।”
“हां । कइयों से ।”
“इब्राहीम कालिया वैसा चोर नहीं । आजमा के देख ले ।”
“जरूरत नहीं ।”
“पैसे की बाबत मेरी नीयत बद होती तो मैं तुझे ये न कह रहा होता कि साठ लाख की जगह साढे तीन करोड़ ले जो ।”
“आई अंडरस्टैंड ।”
“अब आगे बोल ।”
“इकबालसिंह की बीवी कहां है ?”
“क्यों जानना चाहता है ?”
“ताकि मैं उसे खलास कर सकूं ।”
“तू उसकी बीवी को मारेगा ?”
“तो क्या हुआ ? उसने तो मेरे सारे कुनबे को नहीं छोड़ा ।”
“तेरे कुनबे को ?”
“मेरे दो जवान लड़के । मेरी तेरह साल की लड़की । मेरी बीवी ।”
“ओह, हां । हां । पिछले बुध को बताया था तूने ।”
“भट्टी कहता है कि इकबालसिंह को हिट करने के लिए उसका जो दूसरा ठिकाना तुम लोगों ने सोचा हुआ है वो वो है, जहां आजकल उसकी बीवी बसी हुई है ।”
“ठीक कहा भट्टी ने ।”
“क्या ठिकाना है वो ?”
कालिया ने तुरंत उत्तर न दिया, उसने बड़े रहस्यपूर्ण ढंग से भट्टी की ओर देखा ।
“क्या हो गया ?” - विमल सशंक स्वर में बोला ।
“कुछ नहीं ।” - कालिया एकाएक बोला - “मेरे ख्याल से अब वो वक्त आ गया है जब हमें पाखंड, फरेब और पर्दादारी से किनारा करके एक-दूसरे से मुखातिब होना चाहिए ।”
“क्या मतलब हुआ इसका ?”
“तू सोहल है ।”
विमल पाइल का कश लगाना भूल गया । उसने अपलक कालिया की ओर देखा ।
कालिया बड़े इत्मीनान से मुस्कराया ।
“कैसे जाना ?” - विमल धीरे से बोला ।
“जाना बाद में । पहले सूझा ।”
“कैसे सूझा ?”
“तेरी तुकाराम के आदमियों से और उस मुबारक अली नाम के मवाली से जुगलबंदी से सूझा । फिर इस खोज-खबर से सूझा कि अंडरवर्ल्ड में बड़ोदा के घड़ीवाला नाम के घड़ियों के ऐसे स्मगलर से कोई वाकिफ नहीं जिसके धंधे और कुनबे का सर्वनाश ‘कंपनी’ ने किया हो । फिर स्वैन नैक प्वाइंट की तबाही से सूझा । उस कारनामे को अंजाम देना किसी घड़ीवाला के बस का काम नहीं था ।”
“हूं ।”
“तो तूने कबूल किया कि तू सोहल है ?”
“पहले तो मेरी जिद पर भी तुम्हें मेरा सोहल होना कबूल नहीं था ।”
“पहले हमें तेरे नए चेहरे वाली कहानी की खबर नहीं थी ।”
“अब कैसे हुई ?”
“इकबालसिंह तेरे नए चेहरे की कहानी बमय तस्वीर सारे अंडरवर्ल्ड में सर्कुलेट करवा रहा है, कभी तो वो खबर हमारे तक पहुंचनी ही थी ।”
“आई सी ।”
“भट्टी, इसे तस्वीर दिखा ।”
भट्टी ने विमल के नए चेहरे की एक तस्वीर विमल की गोद में डाल दी जिस पर कि उसने बड़ी लापरवाही से एक उड़ती-सी निगाह डाली ।
“कंपनी’ ने ऐसी तस्वीरें सैकड़ों की तादाद में बंबई के अंडरवर्ल्ड में सर्कुलेट कराई बताते हैं ।” - कालिया बोला ।
“सिर्फ अंडरवर्ल्ड में !” - विमल बोला - “पुलिस में नहीं ? प्रेस में नहीं ?”
“नहीं ! अभी तो ‘कंपनी’ अपने ही बलबूते से तुझे चित करने की ख्वाहिशमंद मालूम होती है ।”
“अब” - विमल ने नकली जम्हाई ली - “इकबालसिंह की बीवी के जिक्र पर वापिस लौटें ?”
“जरूर । सरदार, अब ये तो बच्चा भी समझ सकता है कि उसकी बीवी को खलास करने की तेरी कोई मर्जी नहीं है ।”
“मैंने बच्चे समझाए नहीं कभी ।” - विमल शुष्क स्वर में बोला ।
“मेरा मतलब है तू किसी और मकसद से इकबालसिंह की बीवी पर काबिज होता चाहता है ।”
“कबूल ।”
“वो मकसद क्या है ?”
“क्यों जानना चाहता है ?”
“कोई खास वजह नहीं । नहीं बताएगा तो भी चलेगा ।”
“फिर तो बताता हूं ।”
विमल ने मकसद बताया ।
“ओह !” - कालिया बोला - “यानी कि दौलत से तेरा कुछ लेना-देना नहीं ?”
“दौलत ! कैसी दौलत ?”
“जो इकबालसिंह की है और उसकी बीवी के कब्जे में है ।”
“क्या पहेलियां बुझा रहे हो, भई ?”
“मैं समझाता हूं । देख, तूने इकबालसिंह को जान से मार डालने की जो धमकी दी हुई है, उसकी सारी मुंबई को खबर है । ऊपर से इकबालसिंह कितना ही दिलेर, कितना ही सूरमा क्यों न बने लेकिन हकीकत ये है कि तेरी धमकी से वो बुरी तरह से थर्राया हुआ है । यही वजह है कि वो जब से बखिया की जगह ‘कंपनी’ का बादशाह बना है, तभी से वो इस तैयारी में है कि तेरी धमकी से पार पाना अगर उसे नामुमकिन लगने लगे तो वह ‘कंपनी’ का तमाम तामझाम छोड़कर फुर्र से उड़ जाए ।”
“क्या कह रहे हो ?” - विमल अविश्वासपूर्ण स्वर में बोला ।
“ठीक कह रहा हूं ।”
“ऐसा कहीं होता है !”
“होता है ।”
“लेकिन...”
“सुन । सुन । देख, आज ही की दुनिया में तूने ऐसे किस्से नहीं सुने कि कई मुल्कों में, जहां डेमोक्रेसी की जगह बादशाहत चलती है, बादशाह लोग मुल्क की दौलत धीरे-धीरे मुल्क से बाहर किसी महफूज, किसी खुफिया जगह सरकाते रहते हैं और फिर किसी दिन खुद भी मुल्क छोड़कर उस दौलत के पहलू में जा बैठते हैं ।”
“वो मैं जानता हूं ।” - विमल तनिक तिक्त स्वर में बोला - “ईरान का बादशाह रजा पहलवी ऐसे ही जाकर पेरिस बैठ गया था । फिलीपाइन का रूलर मारकोस भी यूं ही अमेरिका पहुंच गया था । अफ्रीकन कंट्रीज के प्रेजीडेंट और किंग तो मुल्क की दौलत समेटकर यूं इंग्लैंड-अमेरिका कूच करते ही रहते हैं लेकिन वो सियासी मसले होते हैं । वहां गद्दी छिनती देखकर दौलत कब्जाने की नीयत होती है । उस बातों का इकबालसिंह से क्या वास्ता ?”
“पूरा वास्ता है । ये भी वैसा ही किस्सा है । ‘कंपनी’ भी किसी बादशाहत से कम नहीं । तेरी धमकी का खौफ खाकर अगर वो किसी दिन दुम दबाकर भाग खड़ा होता है तो क्या ऐसा वो खाली हाथ करेगा ? बादशाहत हाथ से जाती देखकर उसकी नीयत भी तो दौलत कब्जाने की हो सकती है !”
“तुम” - विमल के स्वर में अभी भी अविश्वास का पुट था - “ये कहना चाहते हो कि इकबालसिंह चुपचाप ‘कंपनी’ का माल खिसका रहा है ?”
“हां । और तुझे ढेर न कर सकने की सूरत में एक दिन वो खुद भी उस माल के पीछे-पीछे खिसक सकता है ।”
“यकीन नहीं आता ।”
“इस बाबत मेरी जानकारी में कोई खोट नहीं, सरदार ।”
“सरदार मत कह ।”
“ठीक है ।”
“कितना माल खिसका चुका है वो ?”
“अभी चार-पांच करोड़ का जिक्र सुना है । कमीबेशी भी हो सकती है । आगे अभी और भी सरकाएगा ।”
“तुम्हें कैसे मालूम ?”
“वो माल हीरे-जवाहरात की सूरत में है । दुबई के जिस उमर अजीज नाम के स्मगलर ने उसकी रकम को हीरे-जवाहरात में तब्दील करने में उसकी मदद की थी, वो मेरा भी वाकिफ है । वही नशे में एक बार मेरे सामने इकबालसिंह की करतूत का पर्दाफाश कर बैठा था ।”
“सिर्फ तुम्हारे सामने ?”
“हां । जो कि इकबालसिंह की खुशकिस्मती है ।”
“खुशकिस्मती क्यों ?”
“ये बात उमर अजीज के मुंह से सीधे व्यास शंकर गजरे को लग जाए तो उन दोनों में आपस में ही खून-खराबा हो सकता है ।”
“तुम खबर कर दो गजरे को !”
कालिया ने इनकार में सिर हिलाया ।
“क्यों ?”
“उससे मुझे कुछ हासिल नहीं होगा ।” - कालिया बोला ।
“क्यों ? गजरे इकबालसिंह को खत्म कर दे तो उससे तुम्हें कुछ हासिल नहीं होगा ?”
“नहीं होगा । फिर गजरे इकबालसिंह बन जाएगा - जैसे पहले इकबालसिंह बखिया बन गया था । सरदार, मेरा दुश्मन ‘कंपनी’ किसी इकबालसिंह के खत्म हो जाने से खत्म हो जाने वाली नहीं ।”
“हूं ।”
कालिया एक क्षण खामोश रहा और फिर गहरी सांस लेकर बोला - “मैं समझता था मैं इकबालसिंह को पीट सकता था, इसलिए मैंने उससे पंगा लिया । मेरा ये ख्याल गलत न था, लेकिन ये मैंने बाद में जाना कि मेरा मुकाबला इकबालसिंह से नहीं, बखिया के स्थापित निजाम से था । उस निजाम का मुकाबला मुझे भारी पड़ रहा है । भारी बॉल का धक्का देकर लुढकाना शुरू किया जाता है, बाद में धक्का देना भी बंद कर दिया जाए तो बॉल लुढकती रहती है । यही कुछ बखिया के निजाम के साथ हो रहा है । उसकी लुढकाई, उसकी कूव्वत और दिलेरी से रफ्तार में आई ‘कंपनी’ की भारी बॉल अभी भी लुढक रही है, किसी इकबालसिंह की उस रफ्तार से शिरकत न होने के बावजूद लुढक रही है और जाने कब तक लुढकती चली जाएगी ।”
“आई सी ।”
“तभी मैं बोला कि ‘कंपनी’ किसी इकबालसिंह के खत्म हो जाने से खत्म हो जाने वाली नहीं ।”
“लेकिन अंत-पंत तो तुम यही चाहते हो ?”
“बिल्कुल चाहता हूं । लगा भी हुआ हूं इसी कोशिश में । लेकिन ये वक्त खाने वाला काम है । बहरहाल मौजूदा हालात में इकबालसिंह की करतूत की खबर गजरे को करने से मुझे कुछ हासिल नहीं । अव्वल तो गजरे ही इस बात पर यकीन नहीं करेगा । वो यकीन कर लेगा तो मुमकिन है इकबालसिंह उसे यह यकीन दिलाने में कामयाब हो जाए कि यह दुश्मनों की उनमें फूट डलवाने की चाल थी । उस सूरत में कम-से-कम उमर अजीज जिंदा नहीं बचने का ।”
“तुम्हें कैसे कुछ हासिल है ?”
“इकबालसिंह को उसके उस खुफिया माल से महरूम करके मैं उसे ज्यादा चोट पहुंचा सकता हूं ।”
“तुम वो माल लूटना चाहते हो ?”
“हां ।”
“जो कि इकबालसिंह की बीवी लवलीन के कब्जे में है ?”
“हां ।”
“और तुम्हें ये भी पता है, लवलीन कहां है ?”
“हां ।”
“तो लूट क्यों नहीं लेते ? क्या दिक्कत है ?”
“कोई खास दिक्कत नहीं ।”
“तो ?”
“वो क्या है कि एक तो यह बात मुझे पता ही अभी हाल ही में लगी है । बस ये समझ लो कि तुम्हारे से मुलाकात से एकाध दिन पहले । दूसरे अब मुझे दिखाई देने लगा है कि कहीं अंधाधुंध चढ दौड़ने के हमारे तरीके से तेरा, सोचा-विचारा, प्लान किया हुआ तरीका, कहीं ज्यादा कारआमद होता है । भट्टी ने जब मुझे बताया था कि स्वैन नैक प्वाइंट को हिट करने के लिए तुम सिर्फ पांच आदमी काफी बता रहे थे तो मैंने तो मन-ही-मन तभी तेरा फातिहा पढ दिया था । इस काम को मैंने अपने स्टाइल से प्लान किया होता तो मैंने कई दर्जन आदमी जरूरी समझे होते । हथगोले और बम तो क्या, मैंने रॉकेट, लांचरों और मीडियम रेंज मिसाइल्स तक की जरूरत महसूस की होती ।”
“ज्यादा आदमी भीड़ लगाते हैं और कन्फ्यूजन पैदा करते हैं ।”
“अब तेरे से सीखी न मैंने ये बात ! अब अच्छा है कि इकबालसिंह की बीवी और उसके खुफिया माल पर हाथ डालने के काम को भी तू ही प्लान करेगा । साधन और खर्चा-पानी सब मेरा, स्कीम तेरी । माल मेरा, बीवी तेरी । बोल मंजूर ?”
“वो हैं कहां ?”
“पूना में ।”
“अकेली ?”
“तीन हट्टे-कट्टे, खतरनाक भाइयों के साथ ।”
“सब कुछ एक ही बार में कह दो तो कैसा रहे ?”
“पूना में मानक मेहता रोड करके एक जगह है जहां एक पारसी म्यूजियम है । पारसी धार्मिक और ऐतिहासिक म्यूजियम । म्यूजियम एक चार मंजिली इमारत में है जिसकी तीन मंजिलों में पुरानी, हाथ की लिखी किताबें, मूर्तियां, पेंटिंगें, कुछ खास तरह के हस्तकला के नमूने और ऐसा ही पता नहीं कितना बेहूदा कबाड़ भरा हुआ है जिसकी वजह से वो जगह म्यूजियम कहलाती है ।”
“यानी कि पब्लिक प्लेस हुई वो ।”
“सिर्फ नाम को । क्योंकि पब्लिक तो वहां जाती नहीं । सच पूछो तो वहां कोई भी नहीं जाता । पहले वो म्यूजियम दस से पांच खुला करता था और वहां एक चपरासी, दो क्लर्क, एक गाइड और एक क्यूरेटर का स्टाफ भी हुआ करता था । लेकिन जब हफ्तों वहां कोई बंदा न घुसता पाया गया तो स्टाफ का खर्चा बेमानी मानकर क्यूरेटर के अलावा सबको डिसमिस कर दिया गया ।”
“यानी कि अब वहां सिर्फ क्यूरेटर होता है ?”
“वो भी नहीं होता । दरअसल म्यूजियम अब किसी की खास फरमाइश पर ही खोला जाता है । आमतौर पर उस पर ताला पड़ा रहता है और उसके मेन गेट पर एक नोटिस लगा रहता है कि म्यूजियम देखने के इच्छुक सज्जन क्यूरेटर को फलां टेलीफोन नंबर पर फोन करके अप्वायंटमेंट फिक्स कर लें । ऐसा फोन आने पर ही क्यूरेटर आता है, म्यूजियम देखने के इच्छुक दर्शक के लिए खासतौर से म्यूजियम खोलता है, उसे तीन मंजिलों में फैले कबाड़ के दर्शन कराता है और उसे रुख्सत करके म्यूजियम को ताले लगाकर खुद भी रुख्सत हो जाता है । सरदार, उस...”
“सरदार मत कह । पहले भी बोला ।”
“यहां क्या वांदा है ? यहां तो सब अपने हैं ।”
“बोला न ।”
“तो क्या कहूं तुझे ?”
“विमल ।”
“ठीक है । तेरी मर्जी । मैं क्या कह रहा था ?”
विमल ने पाइप का कश लगाया । उसने उसे जुबान देने का कोई उपक्रम न किया ।
“हां” - कालिया बोला - “मैं तेरे को इमारत की चौथी मंजिल की बाबत बताने जा रहा था ।”
“मैं सुन रहा हूं ।”
“सर... विमल, उस इमारत की चौथी मंजिल पर इकबालसिंह की पारसी बीवी लवलीन अपने इस्माइल, यूसुफ और सोराब नाम के तीन भाइयों के साथ रहती है ।”
“छुप के ?”
“इतनी ज्यादा छुप के कि किसी को भनक भी नहीं पड़ती कि उस बंद इमारत में इतने जने बसे हुए हैं, चौथी मंजिल, जो खाली समझी जाती है, हकीकतन आबाद है ।”
“म्यूजियम कौन चलाता है ?”
“पारसी सोसाइटी का एक ट्रस्ट है ।”
“उन्हें तो मालूम होगा ?”
“नहीं मालूम । इमारत में लवलीन और उसके तीन भाइयों की मौजूदगी की खबर सिर्फ म्यूजियम के इंचार्ज क्यूरेटर को है ।”
“नाम क्या है उसका ?”
“दाराबजी स्क्रूवाला ।”
“यानी कि ये सिलसिला इकबालसिंह और इस क्यूरेटर स्क्रूवाला की मिलीभगत से चल रहा है ?”
“हां ।”
“क्यूरेटर वहां नहीं रहता ?”
“नहीं । न सिर्फ रहता नहीं, आता भी तभी है जब फोन करके बुलाया जाए और ऐसे फोन इतने कम आते हैं कि कई-कई दिन उसके म्यूजियम में कदम नहीं पड़ते ।”
“वहां की कोई सफाई या झाड़ू-पोंछा तो नियमित रूप से चलता होगा ?”
“सिर्फ महीने में दो बार । क्यूरेटर ही एक सफाई कर्मचारी को पहली और पंद्रह तारीख को साथ लेकर वहां आता है ।”
“लवलीन और उसके भाई वहां से बाहर नहीं निकलते कभी ?”
“निकलते हैं । लेकिन बहुत सावधानी से । ताकि उनका ये राज न खुलने पाए कि उस उजाड़ इमारत में कोई रहता है ।”
“तुम्हें कैसे खबर लगी ?”
“इत्तफाक से लगी । पिछले महीने एक खास माल की फिराक में मैं और भट्टी पूना गए थे । वहां होटल ब्लू डायमंड के एक रेस्टोरेंट में हमें लवलीन दिखाई दी थी ।”
“वो वहां क्या कर रही थी ?”
“वहीं, जो खाविंद से दूर खूबसूरत औरतें करती हैं ।”
“तफरीह ?”
“एक कड़क नौजवान लड़के के साथ । उसे सालम हज्म कर जाने की फिराक में दिखाई देती थी पट्ठी ।”
“हूं ।”
“मुझे लवलीन को पूना में देखकर बहुत हैरानी हुई । इसलिए जब वो वहां से रुख्सत हुई तो हम उसके पीछे लग गए । आधी रात को हमने उसे म्यूजियम की उजाड़ अंधेरी इमारत में दाखिल होते देखा तो हमें और भी हैरानी हुई, तब हमने यही समझा कि वो उसका ऐयाशी का कोई खुफिया अड्डा होगा । लेकिन पिछले हफ्ते जब उमर अजीज ने इकबालसिंह के ‘कंपनी’ का माल सरकाते होने की बाबत बताया तो मैं फौरन समझ गया कि क्या माजरा था ।”
“है तो तुम्हारा ये अंदाजा ही कि लवलीन इकबालसिंह के सरकाए हुए माल की कस्टोडियन बनी पूना में छुपी बैठी है ?”
“है तो अंदाजा ही । लेकिन दमदार अंदाजा । यकीन में आने वाला अंदाजा । अक्ल को जंचने वाला अंदाजा ।”
“हूं ।”
“इस अंदाजे को ये बात भी पुख्ता करती है कि वहां उसके साथ उसके तीन निहायत खतरनाक भाई रह रहे हैं । बिरादर, उनकी वहां मौजूदगी की वजह माल की हिफाजत के अलावा और कोई नहीं हो सकती । और उन्हीं की वहां मौजूदगी ये भी साबित करती है कि माल सरकाया हुआ है ।”
“ये कैसे मालूम है कि वो इकबालसिंह के साले हैं, कंपनी के प्यादे या ओहदेदार नहीं ?”
“मालूम है ।”
“कैसे ?”
“क्या करेगा जान के ?”
“बताओ ।”
“ठीक है, सुन ले । भद्दी बात है लेकिन बोलता हूं” - कालिया एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “देख, ये जो लवलीन है न, ये फिल्म स्टार बनने की नीयत से अपनी मां और तीन भाइयों के साथ मुंबई आई थी । खूबसूरत तो वो आज भी कम नहीं लेकिन जब नई आई थी तो तब उसकी छटा देखते ही बनती थी । जो देखता था, लार टपकाने लगता था और उसे सुपर स्टार बना देने के झांसे देने लगता था । जैसी नातजुर्बेकार वो थी, वैसा ही नातजुर्बेकार उसका कुनबा था । स्टार तो वो क्या बनती, इसी झांसे में जिस-तिस की गोद में उछाली जाती रही और उसके भाइयों का दर्जा तो अपनी ही बहन के दलालों जैसा हो गया था । बिरादर, स्टार बनने के लिए मुंबई में उन दिनों जो दर्जनों पहलू इस औरत ने गर्म किए थे, उनमें से एक पहूल खाकसार का भी था । इसी वजह से मैं उसके तीनों भाइयों को जानता-पहचानता हूं ।”
“इकबालसिंह के पल्ले कैसे पड़ गई ?”
“जोगेश्वरी वाले सोहराबजी का नाम सुना है ?”
“वो बहुत बड़ा स्मगलर जो बखिया का यार होता था और शराब और शबाब की पार्टियां करने के लिए मशहूर था ?”
“वही । वहां की एक पार्टी में एक बार लवलीन भी बुलाई गई थी । इकबालसिंह उसे देखते ही उस पर फिदा हो गया था और फिर उससे शादी कर बैठा था । पट्ठा समझता था कि इतनी खूबसूरत लड़की ने उस जैसे अनपढ गैंडे से शादी करना मंजूर करके उस पर बहुत बड़ा अहसान किया था जबकि हकीकत यह थी कि लवलीन ने उसे मोटा बकरा मानकर तभी उससे शादी की थी जबकि उसे यकीन आने लगा था कि स्टार बनने का उसका सपना पूरा होने वाला नहीं था ।”
“आई सी । तो तुम्हारा कहना यह है कि लवलीन अपने तीन भाइयों की छत्रछाया में इकबालसिंह के ‘कंपनी’ से सरकाए माल की मुहफिज बनी बैठी पूना में है ?”
“हां ।”
“तुमने उसे पिछले महीने वहां देखा था । क्या पता अब वो वहां न हो ?”
“मैंने पिछले हफ्ते उमर अजीज से बात होने के फौरन बाद सबसे पहले इसी बात की तसदीक कराई थी कि वो वहीं है ।”
“पिछले हफ्ते ?”
“अभी भी वो वहां होगी । नहीं होगी तो मालूम हो जाएगा ।”
“ठीक है, पूना चलो ।”
“अभी ?” - कालिया सकपकाया ।
“और कब ?”
“इतनी जल्दी क्या है ?”
“मुझे जल्दी है ।”
“ठीक है, मरजी तुम्हारी । लेकिन मैं तो नहीं जा सकता । भट्टी सब कुछ जानता है, उसे ले जा ।”
“तुम क्यों नहीं जा सकते ?”
“क्योंकि तेरी तरह मेरे थोबड़े की प्लास्टिक सर्जरी नहीं हुई हुई ।”
“ठीक है । भट्टी ही सही ।”
“यानी कि तुझे सौदा मंजूर है ? लवलीन तेरी, माल मेरा !”
विमल ने वागले की तरफ देखा ।
वागले ने अनलभिज्ञता से कंधे झटकाए ।
“पहले तो” - विमल बोला - “इस बात की तसदीक जरूरी है कि लवलीन अभी भी वहां है ।”
“अगर ये तसदीक हो जाए तो मुझे सौदा मंजूर है ?” - कालिया बोला ।
“एक शर्त पर ।”
“बोल !”
“तुम वहां से चार-पांच करोड़ का माल हासिल होने की उम्मीद कर रहे हो । अगर माल ज्यादा निकला तो ऊपर का माल मेरा ।”
“सारा ?”
“पांच करोड़ से ऊपर का सारा ।”
“ठीक है, जो तू कहे ।”
“कालिया” - विमल बर्फ जैसे सर्द स्वर में बोला - “अब जबकि तुझे पता लग गया है कि मैं कौन हूं तो ‘जो तू कहे’ से काम नहीं चलने वाला ।”
“तो फिर जो तेरा हुक्म हो, मेरे बाप ।”
“गुड ।”
फिर उसने भट्टी की ओर देखा ।
“पूना” - भट्टी बोला - “वाकेई आज ही चलना है ?”
“अभी ।”
“अभी तो तूने अपना माल चौकस करना होगा ?”
“वो पंद्रह मिनट में हो जाएगा ।”
“ठीक है ।”
“पंद्रह मिनट बाद कहां मिलेगा ? यहीं ?”
भट्टी ने इनकार में सिर हिलाया, वह कुछ क्षण सोचता रहा और फिर बोला - “ग्रांट रोड स्टेशन के सामने ।”
“जाएंगे कैसे ?”
“गाड़ी पर । मैं लेके आऊंगा ।”
“गुड । पंद्रह मिनट बाद । ग्रांट रोड स्टेशन के सामने ।”
भट्टी ने सहमति में सिर हिलाया । फिर वह उठकर दूसरे कमरे में गया और एक सूटकेस के साथ वापिस लौटा । उसने सूटकेस विमल के सामने रखकर खोला ।
सूटकेस ऊपर तक नोटों से भरा हुआ था ।
“पूरे साठ लाख ।” - वह बोला ।
विमल ने इनकार में सिर हिलाया ।
“क्या मतलब ?” - भट्टी सकपकाया ।
“इसमें से वो रकम घटा जो हथियारों, वर्दियों वगैरह पर खर्च हुई ।”
भट्टी ने कालिया की तरफ देखा ।
“तू तो, यार” - कालिया बोला - “चावल बीन रहा है अब ।”
विमल खामोश रहा ।
“ठीक है, भई” - कालिया गहरी सांस लेकर बोला - “घटा ।”
भट्टी ने सूटकेस मे से कुछ गड्डियां निकालकर सूटकेस बंद किया और विमल के इशारे पर उसे वागले के हवाले कर दिया ।
विमल उठ खड़ा हुआ । उसने रुख्सत ली और वागले के साथ फ्लैट से बाहर निकला ।
गलियारे के सिरे पर खिड़की के करीब सलाउद्दीन का बड़ा लड़का जावेद यूं रुका खड़ा था जैसे वहां के फ्लैट की घंटी बजाकर दरवाजा खुलने का इंतजार कर रहा हो । केवल एक क्षण के लिए उसकी विमल से निगाह मिली । विमल ने हौले से सहमति में सिर हिलाया और फिर वागले के साथ लिफ्ट में सवार हो गया ।
वे नीचे पहुंचे ।
सड़क के पार एक काले शीशों वाली नीली ओमनी खड़ी थी । जिसकी ड्राइविंग सीट पर कोई नहीं था लेकिन पीछे सलाउद्दीन के नासिर और आरिफ नामक दो लड़के बैठे थे । विमल ने एक उड़ती-सी निगाह ओमनी पर डाली और फिर वागले के साथ सड़क पर आगे बढ गया ।
इमारत से थोड़ा आगे निकल आने के बाद वे ठिठके और फिर वापिस लौट पड़े ।
वे वापिस इमारत के सामने पहुंचे ।
विमल ने ओमनी की तरफ देखा ।
ओमनी का पिछला दरवाजा खुला और उसमें से नासिर बाहर निकला । उसने एक उड़ती-सी निगाह इमारत की ओर डाली, इनकार में सिर हिलाया और आगे बढ गया ।
सूटकेस संभाले वागले भी लापरवाही से उसी दिशा में आगे बढा ।
विमल इमारत में दाखिल हुआ और लिफ्ट द्वारा चौथी मंजिल पर पहुंचा ।
भट्टी उसे फ्लैट को ताला लगाता मिला ।
“क्या हुआ ?” - विमल को लौटा देखकर वह अचरज से बोला ।
“मेरा पाइप भीतर रह गया ।” - विमल बड़ी मासूमियत से बोला ।
“ओह !”
भट्टी ने फिर फ्लैट का ताला खोला और विमल के साथ भीतर दाखिल हुआ ।
पाइप ड्राइंगरूम में सोफे के पहलू में रखी एक तिपाई पर पड़ा था ।
विमल ने पाइप उठा लिया और सहज भाव से बोला - “कालिया गया ?”
“हां ।” - भट्टी बोला ।
विमल पाइप सुलगाने लगा ।
“अब चलें ?” - भट्टी तनिक उतावले स्वर में बोला ।
विमल ने अपनी कनकी उंगली उठा दी ।
“वागले कहां है ?” - भट्टी बोला ।
“स्टेशन के सामने । जहां तूने बोला था ।”
“माल ठिकाने लगा दिया ?”
“हां ।”
“इतनी जल्दी ?”
विमल खामोश रहा ।
“ये चाबी पड़ी है ।” - भट्टी ने फ्लैट की चाबी मेज पर डाल दी - “तू जब निपट जाए तो ताला लगाकर नीचे आ जाना । तब तक मैं गाड़ी निकालता हूं ।”
“ठीक है ।”
भट्टी चला गया तो विमल सारे फ्लैट में फिर गया ।
फ्लैट खाली था ।
जिस फराखदिली से भट्टी चाबी पीछे छोड़कर वहां से चला गया था, उसकी रू में फ्लैट खाली न मिलना करिश्मा ही होता । यूं चाबी मिलते ही विमल समझ गया था कि वहां कुछ नहीं रखा था ।
अलबत्ता कैसीनो की डकैती का माल लावारिस-सा एक बेडरूम में पड़ा था ।
विमल फ्लैट से बाहर निकला, उसने उसे ताला लगाया और जावेद की तलाश में गलियारे में निगाह दौड़ाई ।
जावेद उसे सीढियां उतरकर वहां पहुंचता दिखाई दिया ।
दोनों लिफ्ट के सामने पहुंचे ।
“तुम्हारे यहां से जाने के थोड़ी देर बाद ही” - जावेद दबे स्वर में बोला - “कालिया फ्लैट से बाहर निकला था और लिफ्ट में सवार हो गया था ।”
“किधर गया ?”
“नीचे । मैंने इंडीकेटर में नीचे वाले तीन में लाइट जलती देखी थी ।”
“हूं ।”
दोनों लिफ्ट में सवार होकर नीचे पहुंचे ।
भट्टी विमल को कहीं दिखाई न दिया ।
जावेद ने ओमनी की ओर कोई गुप्त इशारा किया जिसके जवाब में आरिफ ओमनी से बाहर निकला और टहलता हुआ लॉबी में पहुंचा ।
विमल ने प्रश्नसूचक नेत्रों से उसकी तरफ देखा ।
आरिफ ने इनकार में सिर हिलाकर जताया कि कालिया इमारत से बाहर निकलता नहीं देखा गया था ।
“पिछवाड़े से मालूम करो ।”
आरिफ सहमति में सिर हिलाता पिछवाड़े की ओर बढ गया ।
उधर की निगरानी के लिए सलाउद्दीन का सबसे छोटा लड़का आमिर तैनात था ।
दो मिनट में इनकार में सिर हिलाता वह वापिस लौटा ।
“इसका मतलब है” - विमल दबे स्वर में बोला - “कालिया इमारत में ही कहीं है । जरूर चौथी मंजिल के बंद फ्लैट जैसा कोई और फ्लैट भी इन लोगों के कब्जे में है । एक मंजिल पर कितने फ्लैट हैं ?”
“चार ।” - जावेद बोला ।
“यानी कि सारी इमारत में बत्तीस । सबको टटोलना है, मियां ।”
जावेद ने सहमति में सिर हिलाया ।
“लेकिन होशियारी से ।” - विमल बोला - “ऐसे मामलों में कारआमद जानकारी अखबार वाले से, दूध वाले से, डबलरोटी-मक्खन वाले से, किराने वाले से, नौकर-चाकरों से हासिल होती है ।”
“करेंगे ।”
“आजकल इलैक्शन के दिन हैं । वोटरों की लिस्ट की चैकिंग का चक्कर भी चल सकता है ।”
“वो भी चलाएंगे ।”
“मैं चला ।”
विमल इमारत से बाहर निकला और भट्टी की प्रतीक्षा में फुटपाथ पर जा खड़ा हुआ ।
***
इंडियन एक्सप्रेस के ऑफिस से श्याम डोंगरे को मालूम हुआ कि ‘विमल’ की गिरफ्तारी और रिहाई वाली खबर को जिस रिपोर्टर ने कवर किया था, उसका नाम झालानी था और वो उस घड़ी फील्ड में था ।
फील्ड में कहां ?
जवाब में खंडाला का नाम लिया गया लेकिन साथ ही ये भी कहा गया कि वो वहां से आगे पूना भी जा सकता था ।
वापिसी ?
अगले रोज शाम तक ।
घर का पता ? बंबई में कोई और ठिकाना ?
बता दिया गया ।
पेपर में छपी रिपोर्ट की बाबत सवाल करने पर मालूम हुआ कि झालानी ने उतनी ही रिपोर्ट दाखिल की थी जितनी कि छपी थी ।
मायूस डोंगरे वापिस लौट पड़ा ।
***
कार काली कौन्टेसा थी जो मानक मेहता रोड पर पारसी म्यूजियम के सामने से गुजरी ।
कार की ड्राइविंग सीट पर भट्टी था, उसके पहलू में विमल बैठा था और वागले पिछली सीट पर था ।
कार में एक कॉर्डलेस टेलीफोन लगा हुआ था जो कि बकौल भट्टी, भिंडी बाजार की ट्रेवल एजेंसी वाले फोन से यूं संबद्ध था कि वह उसकी एक्सटेंशन का काम करता था और भिंडी बाजार से पैंतीस मील के दायरे में ट्रेवल एजेंसी वाले फोन पर आई कॉल उस पर रिसीव भी की जा सकती थी और उस पर से पैंतीस मील के दायरे में पड़ने वाले किसी भी फोन पर कॉल की भी जा सकती थी । अलबत्ता उस घड़ी मुंबई से सवा सौ मील की दूरी पर वह फोन बेकार था ।
उस घड़ी रात के नौ बजे थे ।
“रोकूं ?” - भट्टी बोला ।
“हरगिज नहीं ।” - विमल तत्काल बोला ।
खिड़की में से विमल ने देखा कि वह उस वक्त अंधेरे के गर्त में डूबी सुदृढ चार मंजिली इमारत थी जिसके दोनों पहलुओं में संकरी गलियां थीं जो उसे ब्लॉक की बाकी इमारतों से अलग करती थी । सामने एक लॉन था जिसके और फुटपाथ के बीच तीन फुट ऊंची दीवार पर कोई चार फीट का लोहे का जंगला भी लगा हुआ था । दीवार के बाएं पहलू में जंगले के ही डिजाइन का फाटक था जिससे गुजरकर एक चौड़ा रास्ता इमारत के मजबूती से बंद मुख्य द्वार तक जाता था । इमारत की चारों मंजिलों की तमाम खिड़िकयां बंद थीं और कहीं से रोशनी का आभास नहीं मिल रहा था ।
इतना सब कुछ विमल ने एक निगाह में देखा ।
कार अगला चौराहा पार कर गई तो विमल ने उसे रुकवाया ।
“इमारत के पिछवाड़े में क्या है ?” - विमल ने पूछा ।
“सामने जैसा ही कंपाउंड है ।” - भट्टी बोला - “लेकिन उधर दस फुट ऊंची पक्की दीवार है और अभी उस पर भी कंटीले तार लगे हैं ।”
“इमारत में दाखिल होने का रास्ता तो उधर से भी होगा ?”
“है । उधर से भी है और इमारत की आजू-बाजू की दोनों गलियों में से भी है लेकिन वो तमाम दरवाजे मजबूती से हमेशा के लिए बंद हैं । वहां लकड़ी के मजबूत दोहरे दरवाजों के अलावा उनके आगे सरकाकर खोले बंद किए जाने वाले लोहे के शटर भी लगे हुए है ।”
“यानी कि इमारत में दाखिला सिर्फ सामने वाले दरवाजे से ही मुमकिन है ?”
“हां ।”
“अगल-बगल की इमारतों में क्या है ?”
“बाईं ओर की इमारत में कई दफ्तर हैं और दाईं ओर की इमारत में होटल है ।”
“होटल ?”
“मामूली । सेल्समैन और ट्रेवल एजेंटों के स्टैंडर्ड का ।”
“गुड ! हम उसी होटल में ठहरेंगे ।”
“उस होटल में ?”
“कोई प्रॉब्लम ?”
“बाप, वो तो घटिया होटल है ।”
“मैं खुद घटिया आदमी हूं ।”
भट्टी खामोश हो गया ।
“होटल में चलो ।”
भट्टी ने गाड़ी घुमाई ।
उसने गाड़ी ले जाकर होटल के सामने रोकी ।
तीनों बाहर निकले ।
“तुम जाकर दो कमरे ठीक करो ।” - विमल बोला - “मैं दस मिनट में आता हूं ।”
“ठीक है ।”
विमल उनसे अलग हो गया । उसने अपना पाइप सुलगा लिया और खामोशी से म्यूजियम वाली इमारत का चक्कर लगाया ।
दस मिनट बाद वह वापिस लौटा ।
वागले और भट्टी अभी रिसेप्शन पर ही थे ।
“क्या हुआ ?” - विमल बोला ।
“अगल-बगल के दो कमरे” - भट्टी भुनभुनाया - “सिर्फ टॉप फ्लोर पर खाली हैं और यहां साली लिफ्ट भी नहीं है ।”
“तो क्या हुआ ?” - विमल सहज भाव से बोला - “हमारे पांवों में कौन-सी मेंहदी लगी है !”
“ठीक है फिर ।” - फिर भट्टी रिसेप्शन की तरफ घूमा - “दे भाई वही दो कमरे ।”
एक वेटर कमरे दिखाने उसके साथ चला ।
वे चौथी मंजिल पर पहुंचे ।
रखरखाव में कमरे मामूली थे लेकिन साफ-सुथरे थे ।
“गुड ।” - विमल बोला ।
“अब जा” - भट्टी वेटर को कुछ नोट थमाता हुआ बोला - “बोतल ले के आ ।”
“कौन-सी ?” - वेटर बोला ।
“जो साली इस दड़बे में मिले ।”
“साहब की बात का बुरा न मानना ।” - विमल मीठे स्वर में बोला - “मुर्गीखाना चलाते हैं इसलिए दड़बा नहीं भूलता ।”
वेटर चुप रहा ।
“हम अगर जरा ठंडी हवा खाना चाहें तो छत पर जा सकते हैं ?”
“जी हां ।” - वेटर बोला - “बड़ी खुशी से ।”
“गुड !”
वेटर विदा हो गया ।
“यार” - भट्टी बोला - “ब्लू डायमंड में ठहरते । साला लग्जरी होटल है । उसमें नहीं तो कम-से-कम एशियन में तो ठहरते, अमीर में तो ठहरते । तू तो कहां इस...”
“बेवकूफ !” - विमल बोला ।
“कौन ?” - भट्टी हड़बड़ाया ।
“जो इतना नहीं समझता कि इस होटल में हम इसलिए रुके हैं क्योंकि ये उस इमारत की बगल में है जो कि हमारा निशाना है । जो पूना में अपनी मौजूदगी का मकसद नहीं याद रख सकता । जो काम और पिकनिक में तमीज नहीं कर सकता ।”
भट्टी हड़बड़ाया ।
“यही कुछ तूने शनिवार को कमाठीपुरे वाले होटल में किया था । वही खटराग यहां फिर शुरू कर रहा है ।”
“ओह !” - भट्टी बोला - “वो क्या है, बाप, कि अंधेरा होते ही बाटली याद आने लगती है इसलिए दिमाग साला ठस्स हो जाता है ।”
“बाटली आती है । तब तक चल, हवा खाकर आएं ।”
“कहां ?”
“ऊपर ।”
तीनों छत पर पहुंचे ।
वे म्यूजियम की साइड वाली मुंडेर पर पहुंचे । उन्होंने वहां से बीस फुट परे ऐन उतनी ही ऊंचाई वाली खाली पर निगाह डाली ।
विमल ने नोट किया कि म्यूजियम की इमारत की छत पर चारों तरफ लोहे के कोई ढाई इंच व्यास के पाइप की रेलिंग लगी हुई थी जबकि जिस छत पर वे खड़े थे उसकी मुंडेर ईंटों की थी । परली छत के एक कोन में एक बंद दरवाजा था जिसके सामने लोहे का चैनल डोर भी लगा हुआ था । उससे थोड़ा हटकर एक कोई दस फुट की लंबाई-चौड़ाई का बंद कमरा-सा दिखाई दे रहा था ।
“वो कमरा-सा क्या है ?” - विमल बोला ।
“लिफ्ट का कंट्रोल रूम है ।” - भट्टी ने बताया ।
“म्यूजियम की इमारत में लिफ्ट है ?”
“हां ।”
“और उसका कंट्रोल उस कमरे में है ?”
“बोला तो, बाप ।”
“पक्की बात है ?”
“एकदम ।”
“फिर बन गया काम । इमारत में दाखिल होने का तरीका सूझ गया ।”
“क्या सूझा, बाप ?”
विमल ने बताया ।
“बढिया ।” - भट्टी खुश होता हुआ बोला ।
“ये तरीका” - विमल व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला - “ब्लू डायमंड में या एशियन में या अमीर में ठहरने से सूझ जाता ? सूझ जाता तो वहां से यहां तक कमंद लग जाती ?”
“खता हुई, बाप । तू अपुन को अब बेवकूफ बोला न ! गधा भी बोल । उल्लू भी बोल । साला सूअर भी बोल...”
“बस, बस ।”
भट्टी चुप हुआ ।
“अब कल क्यूरेटर को फोन करके म्यूजियम देखने के लिए अप्वायंमेंट फिक्स कर ।”
“करेंगा, बाप ।”
“चलो ।”
***
“सब इंतजाम हो गया ।” - भट्टी बोला - “सब माल चौकस । म्यूजियम में तेरी दो बजे की अप्वायंटमेंट पक्की ।”
उस वक्त सुबह के ग्यारह बजे थे । भट्टी आठ बजे ही होटल से चला गया था और तब लौटा था ।
“माल दिखा ।” - विमल बोला ।
भट्टी के हाथ में एक झोला था जिसमें से सबसे पहले उसने दो टाइम बम निकाले ।
“बस, टाइम सैट करना बाकी है इन पर ।” - वह बोला ।
विमल ने बमों का मुआयना किया । फिर उसने संदिग्ध भाव से भट्टी की तरफ देखा ।
“बम, बिल्कुल वैसा ही है, बाप” - भट्टी बोला - “जैसा तू बोला ।”
“मैं कैसा बोला ?”
“तू बोला कि बम ऐसा हो जो नुकसान कम करे लेकिन आवाज ज्यादा करे ।”
“मैं बोला” - विमल सख्ती से बोला - “कि नुकसान करे ही नहीं ।”
“बाप, ऐसा तो दीवाली का पटाखा भी नहीं होता ।”
“ये क्या नुकसान करेगा ?”
“एकाध दीवार का थोड़ा-बहुत पलस्तर उधेड़ देगा ।”
“बस ?”
“लेकिन आवाज बराबर करेगा ।”
“इस बार स्वैन नैक प्वाइंट वाले बमों जैसा धोखा तो नहीं होगा ?”
“नहीं होगा, बाप । मां कसम, नहीं होगा ।”
“इन पर दो-दो मिनट के वक्फे से आधी रात का टाइम फिक्स कर ।”
भट्टी ने किया ।
“और ?” - विमल बोला ।
भट्टी ने उसे चार हथगोले और दिखाए ।
“ये दो लाल रंग वाले” - वह बोला - “फूटने पर सिर्फ धुआं छोड़ेंगे । और ये काले रंग वाले बेहोशी की गैस वाले हैं ।”
“गैस का असर कितनी देर तक रहेगा ?” - विमल ने पूछा ।
“दो घंटे कम-से-कम । ज्यादा-से-ज्यादा छः घंटे ।”
“गुड ।”
“और ये दो गैस मास्क ।”
“ठीक है ।”
“ये दो रिवॉल्वरें ।”
“बढिया ।”
“और ये आखिरी आइटम ।”
भट्टी ने झोले से जो आखिरी आइटम निकाली वह कोई तीस गज लंबी रस्सी थी जिसके एक सिरे पर लोहे का मोटा, मजबूत हुक पैवस्त था और सारी रस्सी में फुट-फुट पर गांठें बंधी हुई थीं ।
“हुक पर” - विमल बोला - “मोटा रबड़ चढा होना चाहिए ।”
“रबड़ ?” - भट्टी असमंजसपूर्ण स्वर में बोला ।
“रात के सन्नाटे में लोहा टकराने की आवाज बहुत दूर तक सुनाई दे सकती है । हुक पर मोटा रबड़ चढा होगा तो वैसी ताखी आवाज नहीं होगी ।”
“मैं समझ गया, बाप ! हुक पर रबड़ चढ जाएगा ।”
“गुड ।”
***
“अखबारों में इश्तिहार छप गया है ।” - डोंगरे बोला ।
“मैंने देखा है ।” - इकबालसिंह शुष्क स्वर में बोला ।
“नई तस्वीरें कल रात ही तैयार हो गई थीं । कुछ कल ही बांट दी गई थीं, बाकी आज बांट दी जाएंगी ।”
“बढिया ।”
“मैने खसरे के रजिस्टर से मालूम करवाया है । मलाड वाला फ्लैट कालिया का नहीं है ।”
“तो किसका है ?”
“दिल्ली के एक व्यापारी का है । उस फ्लैट को उसने मुंबई में अपनी तफरीह का ठीया बनाया हुआ मालूम होता है ।”
“डोंगरे, तेरी अक्ल मारी गई है ।”
“बाप !”
“अरे मूर्ख । तफरीह के ठीए पर डार्करूम का क्या काम ? वहां कैसीनी की तस्वीरों की रद्दी का क्या काम ?”
“मैं भूल गया ?”
“खुद ही बताया, खुद ही भूल गया ।”
डोंगरे खामोश रहा ।
“अगर फ्लैट दिल्ली के किसी व्यापारी का है” - इकबालसिंह भुनभुनाया - “तो उससे कालिया का कोई रिश्ता ढूंढ ।”
“बरोबर, बाप ।”
“निगरानी जारी है ?”
“हां । बाबू कामले वहां...”
“कोई आया-गया ?”
“कोई नहीं । वो लड़की तक लौटकर नहीं आई जो वहां अक्सर आती-जाती रहती कहते थे लोग ।”
“निगरानी फिर भी चलने दे ।”
“ठीक ।”
“और बोल ?”
“कैसीनो की डकैती की में कालिया का कोई हाथ नहीं मालूम होता ।”
“कैसे जाना ?”
“इधर-उधर चर्चा करके जाना । यही मालूम हुआ कि डकैती के वक्त के आसपास कालिया के सब आदमी मुंबई में थे ।”
“सब आदमी ?”
“सब खास आदमी । सब भरोसे के आदमी जो कि अंडरवर्ल्ड में कालिया के गैंग के आदमियों के तौर पर जाने जाते हैं ।”
“साले ने नई भरती कर ली होगी ।”
“बाप, वो नई भरती के भरोसे छोड़ने वाला काम किदर था ?”
“तू ठीक कहता है ।”
डोंगरे ने चैन की सांस ली । शुक्र था कि वो कुछ तो ठीक कहता था ।
“और” - वह बोला - “सितोले की बाबत भी आप ही की बात ठीक लगती है । वो जरूर किसी गलत बीवी पर हाथ डाल बैठा था जिसके मियां ने ही उसे खल्लास कर दिया ।”
“हां ।” - इकबालसिंह बोला - “कालिया से कांटैक्ट का कोई जरिया निकला ?”
“मैने” - डोंगरे बोला - “बात फैला दी है कि आप कालिया से मिलना चाहते हैं । उसका कोई नतीजा सामने आने में वक्त तो लगेगा ।”
“ठीक है । एकाध दिन देखते हैं । वो रिपोर्टर मिला अंग्रेजी अखबार का ?”
“उसका नाम झालानी है । शहर के बाहर गया हुआ है । आज शाम को लौटेगा । लौट आए फिर थामता हूं उसे ।”
***
पारसी म्यूजियम का क्यूरेटर दाराबजी स्क्रूवाला एक कोई साठ साल का बहुत ही नाजुक तंदुरुस्ती वाला वृद्ध निकला । उसको कोई सांस की बीमारी मालूम होती थी जिसकी वजह से वो चलते हुए तो हांफता ही था, बोलते हुए भी हांफता था । उसने बड़ी संजीदगी से विमल और वागले को म्यूजियम की सैर करवानी आरंभ की । वो वहां प्रदर्शित हर आइटम से वाकिफ था और उसकी जिक्र के काबिल हर बात उसे जुबानी याद थी ।
नीचे से शुरू करके वे तीसरी मंजिल पर पहुंचे ।
वहां कुछ पुरानी ऑयल पेंटिंग प्रदर्शित थीं जिनके बारे में वागले ने एकाएक बेतहाशा कुल जहान के सवाल पूछने आरंभ कर दिए । इस दौरान टॉयलेट का बहाना करके विमल थोड़ी देर के लिए उनसे अलग हो गया ।
पीछे वागले स्क्रूवाला को अपने सवालों में उलझाए रहा । जो केवल सवाल ही करता था, जवाब सुनने की या समझने की वो कोशिश तक नहीं करता था, जवाब में दिमाग खपाने की जगह वो वृद्ध के आख्यान के दौरान कोई नया, सजता-सा सवाल सोचने लगता था ।
विमल ने दोनों टाइम बम हॉल के प्रवेशद्वार के दाएं-बांए दीवार में करीब पड़े पाम के गमलों के पीछे सरका दिए ।
फिर वह लिफ्ट में पहुंचा ।
लिफ्ट के पिंजरे की छत में एक छोटा-सा निकास द्वार था जो कि अंदर की तरफ से चिटकनी से बंद होता था । विमल ने वो चिटखनी खोल दी ।
वह लिफ्ट से बाहर निकला ।
लिफ्ट के सामने ही एक बंद दरवाजा था जिस पर बिजली की वार्निंग वाला खोपड़ी और क्रॉस करती दो हड्डियों का निशान बना हुआ था । उसने आगे बढकर वह दरवाजा खोला ।
भीतर एक विशाल वोर्ड पर कुछ इलैक्ट्रिक मेन स्विच और कुछ सर्कट ब्रेकर लगे हुए थे । कितनी सारी तारें नीचे से वहां पहुंच रही थी और वहां से ऊपर को बढ रही थीं ।
उनमें केवल एक तार टेलीफोन की भूरी, चपटी तार थी ।
विमल ने वो तार काट दी ।
उसने अलमारी को पूर्ववत् बंद किया और वापिस हॉल में लौटा ।
वागले की उससे निगाह मिली । विमल ने सहमति में सिर हिलाया । तब निहायत दिलचस्पी से एक पेंटिंग को देखते और उसकी बाबत बड़े ‘कांटे के सवाल’ करते वागले के मिजाज में फौरन ऐसी तब्दीली आई कि स्क्रूवाला बोलता-बोलता हड़बड़ाकर खामोश हो गया ।
“बहुत-बहुत मेहरबानी, जनाब ।” - वागले ने अपने दोनों हाथों से वृद्ध का नाजुक हाथ थाम लिया और उसे हैंडपंप के दस्ते की तरह ऊपर-नीचे चलाता हुआ बोला - “बहुत बढिया समझाया आपने सब कुछ । बहुत ज्ञानवर्धन हुआ हमारा । अपना कीमती वक्त हमें देने का बहुत-बहुत शुक्रिया, जनाब । आइए चलें ।”
तीनों वहां से बाहर निकले ।
“ऊपर क्या है ?” - लिफ्ट में सवार होने से पहले एकाएक विमल बोला ।
“कुछ भी नहीं ।” - स्क्रूवाला बोला - “म्यूजियम की फ्यूचर एक्सटेंशन के लिए खाली फ्लोर है ।”
“आई सी ।”
तीनों लिफ्ट में सवार हो गए ।
***
झालानी के घर समेत उसके कई पते-ठिकानों की खाक छानने के बाद डोंगरे को झालानी प्रेस क्लब में मिला जहां कि वो बार में बैठा अपने हमपेशा लोगों के साथ गप्पें मार रहा था ।
डोंगरे बड़ी कठिनाई से उसे भीड़ से अलग कर पाया ।
उसे बार के एक तनहा कोने में ले जाकर उसने ‘खबर’ की बात चलाई ।
“हां ।” - झालानी बोला - “वो खबर मेरी थी लेकिन फुसफुसी निकली वो खबर । बड़ौदा का वो बिजनेसमैन सच में ही सोहल निकल आता तो तब तो कुछ बात होती ।”
“वो सोहल नहीं था ?” - डोंगरे बोला ।
“कहां था ? शक्ल जुदा । आवाज जुदा । फिंगर-प्रिंट्स जुदा । पता नहीं पांडेय नाम के दिल्ली से आए उस सरकारी आदमी की क्या खुंदक थी उस शख्स से जो वो उसे इतना खतरनाक इश्तिहारी मुजरिम साबित करने पर तुला हुआ था ।”
“उस आदमी से हुई सारी पूछताछ की तुम्हें खबर है ?”
“क्यों नहीं होगी ?” - झालानी गर्व से बोला - “मैं खुद हर घड़ी वहां मौजूद था ।”
“कहां ?”
“कमिश्नर के ऑफिस में । जहां कि पूछताछ हुई थी । मैंने तो वहां हुई मुकम्मल बातचीत रिकार्ड भी कर ली थी ।”
“रिकार्ड कर ली थी ?” - डोंगरे सकपकाया ।
“हां । एक पॉकिट टेपरिकार्डर मैं हर वक्त अपने पास रखता हूं । ऐसी न्यूज कवर करने के सिलसिले में बहुत काम आता है वो ।”
“वो टेप अब कहां है ?”
“यहीं है ।” - झालानी ने अपना कैनवस का बड़ा-सा बैग थपथपाया - “मेरे पास ।”
“वो टेप मुझे सुनाओ ।”
“क्यों ?”
“बाप, तेरा इदर बार का एक महीने का राशन पानी फ्री ।”
“वाह ! फिर तो मैं टेप के साथ कथकली डांस भी करके दिखा सकता हूं ।”
“बढिया ।”
***
वागले दौड़ता हुआ होटल के कमरे में दाखिल हुआ ।
वो विमल के लिए पाइप का तंबाकू लेने के लिए नीचे गया था और एक अखबार लेकर वापिस लौटा था ।
“क्या हुआ ?” - विमल हड़बड़ाया ।
“क्या हुआ, बाप ?” - भट्टी भी उसकी बद्हवासी से प्रभावित हुए बिना न रह सका !
वागले ने भट्टी की ओर ध्यान न दिया । उसने अखबार को एक स्थान से मोड़कर विमल को थमाया और बोला - “ये देखो क्या छपा है ! मेरी तो इत्तफाक से ही इस पर निगाह पड़ गई थी ।”
“क्या छपा है ?” - विमल आतंकित भाव से बोला ।
“पढकर देखो । इश्तिहार है । तुम्हारे ही लिए छपा मालूम होता है ।”
विमल ने दो कॉलम की चौड़ाई में हाशिए के साथ छपी उस इबारत पर निगाह डाली जो वागले को आंदोलित किए थी ।
लिखा थाः
प्रिय भांजे आत्माराम, मैं तेरे करीबी दोस्त इकबालसिंह की मेहमानी में अपनी जिन्दगी की आखिरी घड़िया गिन रहा हूं । मरने से पहले एक बार तेरे से मिलने की तमन्ना है । मेरी जिंदगी के सिर्फ दो दिन बाकी हैं । मेरी आखिरी तमन्ना पूरी करना चाहता है तो शनिवार शाम तक किसी भी तरह इकबालसिंह के पास पहुंच जाना । तुझे देखकर शायद मेरी जिंदगी की बुझती लौ फिर जोर पकड़ ले । मिलने न आ सके तो अंतिम संस्कार के लिए इकबालसिंह के यहां से मेरी लाश जरूर उठवा लेना ।
तुम्हारा मामा
तुकाराम
विमल ने अखबार की तारीख पर निगाह डाली तो पाया कि वह उसी रोज का अखबार था ।
“ये” - वह अखबार को एक ओर उछालता हुआ बोला - “मुझे अल्टीमेटम है कि अगर मैंने कल शाम तक खुद को कंपनी के हवाले न किया तो वे लोग तुका को मार डालेंगे ।”
“तू क्या करेगा ?” - भट्टी बोला ।
“मैं क्या करूंगा” - विमल बोला - “इसका दारोमदार इस बात पर है कि आज आधी रात को बगल की इमारत में क्या होता है !”
“अगर लवलीन हमारे हाथ न लगी तो तू क्या करेगा ?”
“तो मैं यही करूंगा” - विमल धीमे किंतु दृढ स्वर में बोला - “जो इकबालसिंह चाहता है ।”
“तू अपने आपके उसके हवाले पर देगा ?”
“हां ।”
“तुकाराम को वो फिर भी नहीं छोड़ेगा । वो भी ‘कंपनी’ का उतना ही दुश्मन है जितना कि तू ।”
“जो तुध भावे नानका, सोई भली कार ।”
“क्या मतलब ?”
“जो होना होगा सामने आ जाएगा । अभी मेरे पास कल शाम तक का वक्त है । वक्त से पहले ही सिर धुनने लगने का कोई फायदा नहीं ।”
वागने ने सहमति में सिर हिलाया ।
फिर हिचकिचाते हुए भट्टी ने भी ।
***
डोंगरे होटल सी व्यू पहुंचा ।
रिसेप्शन पर एक संक्षिप्त-से स्टाप के बाद वो बगूले की तरह छटी मंजिल पर पहुंचा ।
उसने कमरा नंबर 608 के दरवाजे पर दस्तक दी ।
दरवाजा फिरोजा ने खोला ।
“मेरा नाम डोंगरे है ।” - डोंगरे जबरन मुस्कराता हुआ चिकने-चुपड़े स्वर में बोला - “मैं होटल का सिक्योरिटी ऑफिसर हूं ।”
“फरमाइए ।”
“साहब कहां है ?”
“साहब ?”
“आपके पति ! पी. एन. घड़ीवाला । पेस्टनजी नौशेरवानजी घड़ीवाला !”
“वो पूना गए हैं ।”
“कब गए ?”
“कल ।”
“कब लौटेगे ?”
“आज रात ।” - फोन पर विमल ने जो उसे बताया था, वो फिरोजा ने दोहरा दिया - “या कल सुबह ।”
“क्या करने गए हैं ?”
“आपने बिजनेस के सिलसिले में गए हैं । इतने सवाल किसलिए ?”
“आप नहीं गई ?”
“जाना था लेकिन लड़की की तबीयत खराब हो गई इसलिए यहीं रुकना पड़ा ।”
डोंगरे ने पीछे टी.वी. देखते दोनों बच्चों पर निगाह डाली ।
“ये आपके बच्चे हैं ?” - डोंगरे बोला ।
“हां ।”
“और आप मिस्टर घड़ीवाला की बीवी हैं जो कि बड़ौदा के एक बिजनेसमैन हैं ?”
“ये क्या सवाल हुआ ?”
“वो क्या है कि मिस्टर घड़ीवाला ने रजिस्टर में सिर्फ अपना नाम लिखा, आप लोगों का नाम नहीं लिखा इसलिए मुझे यहां आना पड़ा ।”
“रजिस्टर में तो फैमिली हैड का ही नाम लिखा जाता है ।”
“हमारे यहां सारे मेंबरान का नाम लिखा जाना होता है । आपका क्या नाम है ?”
“फिरोजा । लड़के का नाम आदिल है, लड़की का यासमीन ।”
“और खुद मिस्टर घड़ीवाला पूना गए हैं ?”
“हां ।”
“पूना में कहां गए हैं, मालूम है ?”
“नहीं मालूम ।”
“शुक्रिया, बाई । तकलीफ के लिए माफी ।”
***
विमल रबड़ चढे हुक वाली रस्सी के साथ होटल की छत पर मौजूद था ।
वागले जरूरी सामान के झोले के साथ नीचे होटल और म्यूजियम के बीच की गली में था ।
भट्टी होटल की इमारत में था और उसका काम मौका लगते ही सारी इमारत की रोशनी गुल कर देना था ।
होटल की हर मंजिल पर कई ऐसे कमरे थे जिनकी खिड़कियां गली की ओर खुलती थीं । रोशनी में उधर से कोई भी बाहर झांकता तो उसकी निगाह ऐसा नजारा कर सकती थी जो कि उनकी स्कीम को चौपट कर सकता था । इसलिए एक खास वक्त पर होटल वाली इमारत में अंधेरा होना जरूरी था ।
विमल को पांच मिनट और प्रतीक्षा करनी पड़ी ।
फिर एकाएक सारा होटल अंधकार के गर्द में डूब गया ।
विमल ने हुक को कमंद की तरह म्यूजियम की छत की लोहे की रेलिंग की ओर फेंका ।
हुक रेलिंग से टकराकर वापिस लौटा आया ।
तीन-चार और प्रयत्नों के बाद विमल हुक को रेलिंग में फंसाने में कामयाब हो गया । उसने रस्सी की झटके दे देकर तसदीक की कि हुक मजबूती से पाइप में फंसा हुआ था और रस्सी को थोड़ा-थोड़ा करके नीचे छोड़ना आरंभ कर दिया ।
कुछ सैकेंडो में पूरी रस्सी उसके हाथ से निकल गई ।
फिर वह नीचे को भागा ।
भट्टी उसे रास्ते में कहीं न मिला ।
रिसेप्शन पर एक वेटर मोमबती जलाकर रख रहा था और रिसेप्शनिस्ट उसकी बगल में खड़ा बड़बड़ा रहा था - “देखो तो ! ये भी कोई शरारत हुई ! पता नहीं कौन कमीना मेन स्विच ऑफ कर गया और मेन स्विच बोर्ड के सारे कटआउट भी निकाल के ले गया । अब इतनी रात गए इतने कटआउट कहां से आएंगे ।”
विमल इमारत से बाहर निकला और उसका घेरा काटकर गली में पहुंचा । वहां घुप्प अंधेरा था । वह अंदाजन आगे बढा ।
“सरदार ।” - उसे अपने करीब से वागले की आवाज आई ।
“हां ।” - विमल फुसफुसाया ।
“मैं चढने लगा हूं ।”
“ठीक है ।”
“झोला संभाल ।”
विमल ने हाथ आगे फैलाया तो झोला उसका हाथ में आ गया जिसे कि उसने अपने कंधे पर टांग लिया ।
वागले ने रस्सी पकड़ी और फुर्ती से ऊपर चढने लगा ।
विमल ने रस्सी का नीचे लटका हिस्सा अपने हाथ में थामा और कंधे से झोला उतारकर उसके साथ बांध दिया । रस्सी को मजबूती से थामे वह स्तब्ध खड़ा रहा । उसकी चौकन्नी निगाह रह-रहकर अंधेरे में गली की दोनों दिशाओं में उठ जाती थी ।
थोड़ी देर बाद उसने रस्सी को कुछ पूर्वनियोजित झटके लगते महसूस किए जो कि इस बात का संकेत थे कि वागले निर्विघ्न छत पर पहुंच गया था ।
अब विमल रस्सी पकड़कर ऊपर चढने लगा । रस्सी में फुट-फुट के फासले पर लगी गांठे इस दिशा में बहुत सहायक सिद्ध हो रही थीं ।
वह ऊपर रेलिंग के करीब पहुंचा तो वागले ने बांह का सहारा देकर उसे छत पर चढा लिया । फिर उसने रस्सी सारी-की-सारी छत पर खींच ली और इस प्रकार झोला भी छत पर पहुंच गया ।
दबे पांव छत पर चलते हुए वे उस घन समान कमरे के सामने पहुंचे जिसमें लिफ्ट का कंट्रोल होना अपेक्षित था ।
कमरे का दरवाजा बंद था और उस पर ताला जड़ा हुआ था । लेकिन ताला मामूली था जिसे वागले ने दो मिनट में उमेठकर खोल दिया ।
हौले से दरवाजा खोलकर वे भीतर दाखिल हुए ।
वागले ने झोले से टार्च निकालकर जलाई ।
वो लिफ्ट का कंट्रोलरूम ही था ।
कमरे के बीचोबीच नीचे को जाता वो चौकोर कुआं बना हुआ था जिसमें से होकर लिफ्ट ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर आती-जाती थी ।
वागले ने टार्च की रोशनी कुएं में डाली ।
विमल ने देखा कि लिफ्ट उस वक्त चौथी मंजिल पर खड़ी थी और उसके पिंजरे की छत उनसे केवल छः फुट दूर थी जो कि उनके लिए भारी सुविधा की बात थी । लिफ्ट ग्राउंड फ्लोर पर खड़ी होती तो उसकी छत पर पहुंचने के लिए उनमें से एक को रस्सी नीचे लटकाकर संभालनी होती और दूसरे की उसके सहारे नीचे उतरना होता ।
विमल छत में सहुलियत से पिंजरे की छत पर उतर गया ।
उसने छत में लगा वो छोटा-सा निकास द्वारा खोलने का उपक्रम किया जिसकी चिटकनी उसने दिन में लिफ्ट के भीतर की ओर से खोली थी ।
दरवाजा बड़ी सहूलियत से निशब्द खुल गया ।
विमल ने संतुष्टिपूर्ण भाव से गर्दन हिलाई और वागले को इशारा किया ।
वागले ने पहले सामान का झोला नीचे लटकाया और फिर स्वंय भी नीचे उतर आया ।
“टाइम ?” - विमल बोला ।
वागले खड़ी देखी और बोला - “दस मिनट हैं ।”
“ठीक है ।”
वागले ने टोर्च बुझा दी ।
लिफ्ट के पिंजरे की छत पर बैठे दोनों प्रतीक्षा करने लगे ।
***
डोंगरे इकबालसिंह के पास पहुंचा ।
उसने इकबालसिंह को मुकम्मल रिपोर्ट दी और झालानी से हासिल हुआ टेप रिकार्डर भी सुनाया ।
इकबालसिंह सन्नाटे में आ गया ।
“वो यहीं था ।” - उसके मुंह से निकला ।
“पिछले शुक्रवार से यहीं है ।” - डोंगरे बोला ।
“मुझे सूझना चाहिए था ।” - इकबालसिंह खेदपूर्ण स्वर में बोला - “कि ये साला सोहल अपनी पिछली करतूत दोहरा सकता था । पहले भी वो यूं ही यही होटल में ही ठहरा हुआ था और हम सारी मुंबई में उसे तलाश कराते फिरे थे । पहले नीलम को अपने साथ हनीमून की जोड़ी बनाकर लाया था, इस बार बीवी के अलावा बच्चे भी ले आया ।”
“कुनबा साथ होने की वजह से ही किसी की उसकी तरफ तवज्जो नहीं गई ।”
इकबालसिंह कुछ न बोला । उसके चेहरे पर सोच और चिंता के भाव थे ।
“कैसा आडंबर रचा इस बार साले ने !” - डोंगरे वितृष्णापूर्ण स्वर में बोला - “शक्ल तब्दील । आवाज तब्दील । उंगलियों के निशान तब्दील । नाम तब्दील । मजहब तब्दील । इस साले पेस्टनजी नौशेरवानजी घड़ीवाला का जिक्र अगर अंजुम खान की जुबानी पहले से न सुना हुआ होता तो मैं यहीं समझता कि करिश्मा हो गया थो जो सोहल का नया चेहरा बड़ौदा के किसी व्यापारी के चेहरे से जा मिला था । साला शेर की मांद में घुसके बैठेला है ।”
“मुझे सख्स अफसोस है, डोंगरे कि मुझे नहीं सूझा कि सोहल यहीं हो सकता था । मुझे सूझना चाहिए था कि चिराग तले अंधेरा वाली बात उस पर एक बार लागू हो सकती थी तो दोबारा भी लागू हो सकती थी । मुझे बखिया साहब की एक बाद याद आ रही है ।”
“कौन-सी बात ?”
“तब जब वे गोवा से लौटे थे और उन्हें सोहल की मचाई तबाही की खबर लगी थी तो उन्होंने मुहम्मद सुलेमान से सवाल किया था कि ऐसा क्योंकर हुआ कि एक इकलौता आदमी मुंबई में ‘कंपनी’ की निगाहों से बचा रह पाया ! जब सारी मुंबई में उसको तलाश किया गया था तो यहां क्यों नहीं ? क्या ये होटल मुंबई में नहीं ? मुझे अफसोस है कि जो गलती सुलेमान ने की थी, वहीं मैंने की । मुझे सूझना चाहिए था कि सोहल फिर शेर की मांद में ही घुसा बैठा हो सकता था । तुझे सूझना चाहिए था ।”
“मुझे ?” - डोंगरे हड़बड़ाया ।
“हां । तुझे ।” - इकबालसिंह आंख निकालकर बोला - “सिपहसालार नहीं तू ‘कंपनी’ का ?”
“बाप, जब तुम्हेरे को नहीं सूझा तो...”
“बकवास बंद ।”
डोंगरे खामोश हो गया । उसने जोर से थूक निगली ।
“अब कुछ बोलेगा भी !” - इकबालसिंह भुनभुनाया ।
“बाप” - डोंगरे बड़े दयनीय स्वर में बोला - “अब्बी तो बोलने को मना किया !”
“बकवास करने को मना किया । बोलने को मना नहीं किया । क्या ?”
डोंगरे ने सहमति में सिर हिलाया ।
“मुंडी मत हिला । मुंह से बोल ।”
“बोलने को मना नहीं किया ।” - डोंगरे मरे स्वर में बोला ।
“तो बोल ।”
“इस बार वो बचकर नहीं जा सकता । वो इदर आते ही पकड़ लिया जाएगा ।”
“वो इधर आएगा ?”
“और कहां...”
“जैसे चैम्बूर आया था । तुकाराम के घर !”
“बाप, वो बात जुदा थी । वहां उसने आने की हमें सिर्फ उम्मीद थी । यहां उसके आने की हमें गारंटी है ।”
“क्यों गारंटी है ?”
“क्योंकि वह रोज आता है । ठहरा जो है इदर । मैंने फ्लोर वेटर से पूछा है । साहब फैमिली के साथ या फैमिली के बिना सुबह जाता है और रात के लौटता है ।”
“हूं । अगर इस बार भी बच निकला वो ?”
“कैसे बच निकलेगा ?” - डोंगरे तनिक अकड़ा - “जरा एक बार होटल में कदम तो रखे, फिर देखते हैं कि वो...”
“वो पूना क्यों गया ?” - इकबालसिंह बोला, अब उसे कोई चिंता सताने लगी थी ।
“होगी कोई वजह ।” - डोंगरे, जो अपने बॉस की ‘कंपनी’ का माल सरकाने वाली करतूत से कतई वाकिफ नहीं था, सहज भाव से बोला ।
“वो बेवजह पूना जाने वाला नहीं और वो भी दो दिन के लिए !”
“बाप, कोई वजह है भी तो हमें क्या ? हमारा तो पूना में कुछ रखा नहीं ।”
“वो तो है । अब तू जा और जा के सोहल के स्वागत का पुख्ता इंतजाम कर ।”
“बाप, वो तो मैं...”
“जा ।”
मायूस डोंगरे उठ खड़ा हुआ । यूं रात को मुलाकात होने पर इकबालसिंह हमेशा उसे विस्की ऑफर करता था और अपने बॉस का हमप्याला होने से डोंगरे को अपने और अपनो बॉस के बीच का फासला हमेशा मुख्तसर होता लगता था लेकिन आज इकबालसिंह उसे बेरंग ही टरका रहा था । विस्की का जिक्र ही नहीं आया था ।
डोंगरे के जाते ही इकबालसिंह ने वो टेलीफोन अपने काबू में किया जो कि होटल के स्विचबोर्ड से संबद्ध नहीं था । उसने घड़ी पर निगाह डाली तो पाया कि सवा बारह बजे थे । फिर बड़े चिंताजनक भाव से वह पूना में लवलीन का नंबर डायल करने लगा ।
***
फिरोजा बहुत फिक्रमंद थी । वो इतनी मूढ नहीं थी कि इतना भी न समझ पाती कि होटल के कथित सिक्योरिटी ऑफिसर की वहां उसके पास आमद का असल मकसद वो नहीं था जो उसने बयान किया था । अगर यह सच भी था कि रजिस्टर में हर फैमिली मेंबर का नाम लिखा जाता जरूरी होता था तो इतनी मामूली कोताही का मैनेजमेंट को ख्याल आने में कहीं एक हफ्ता लगता था ! जरूर वो मवाली-सा लगने वाला आदमी खुदा के उस दयावान बंदे की ताक में था जो यकीनन कोई सिख युवक था लेकिन उसके फर्जी पति का रोल निभाने के लिए पारसी बना बैठा था और अपना नाम विमल बताता था । जरूर विमल के सिर पर कोई खतरा मंडरा रहा था जिसका खामोश अहसास बड़ी शिद्दत के साथ फिरोजा को हो रहा था ।
क्या वो उसके लिए कुछ कर सकती थी ?
क्या वो उसको खतरे का पूर्वाभास देने का कोई जरिया निकाल सकती थी ?
उसकी तवज्जो अपनी पति की ओर गई ।
वो अपने पति को टेलीफोन करके वहां बुला सकती थी और उसे होटल के प्रवेशद्वार पर निगाह रखने का कह सकती थी । यूं विमल जब पूना से वापिस आना तो उसका पति उसके होटल में कदम रखने से पहले ही विमल को चेतावनी दे सकता था ।
उसने फोन पर रिसीवर उठाया ।
“नंबर प्लीज ।” - ऑपरेटर की आवाज आई ।
“काइंडली गैट मी...” - फिरोजा बोलते-बोलते रुक गई - “ओह, नैवर माइंड ।”
उसने हौले-से रिसीवर वापिस रख दिया ।
यतीमखाने में अपने पति को गई कॉल तो स्विच बोर्ड से होकर जानी थी, जहां कि उसका वार्तालाप चुपचाप बीच में सुना जा सकता था । उस सिक्योरिटी ऑफिसर ने यूं कॉल सुनी जाने का कोई इंतजाम किया हो सकता था ।
उसने खुद चर्चगेट जाने का फैसला किया ।
उसने बच्चों पर निगाह डाली जो कि उस वक्त गहरी नींद में सोए पड़े थे, फिर उसने उठकर कपड़े तब्दील किए और कमरे से बाहर निकल आई ।
बाहर गलियारे में एक फ्लोर वेटर मौजूद था ।
“कुछ चाहिए मैडम ?” - वह बड़े अदब से बोला ।
“न-नहीं, नहीं ।” - फिरोजा बोली - “थैक्यू ।”
वह लंबे डग भरती हुई लिफ्ट के सामने पहुंची । उसने कॉल बटन दबाया और प्रतीक्षा करने लगी । लिफ्ट उस फ्लोर पर पहुंची तो वह उसमें सवार हो गई ।
लिफ्ट के वहां से रवाना होते ही फ्लोर वेटर, जो कि वास्तव में डोंगरे का खास आदमी इंदौरी था, फुर्ती से फिरोजा के कमरे में दाखिल हो गया जिसे के वो बच्चों की वजह से खुला छोड़ गई थी ।
उसने तेजी से कमरे के सीमित सामान की तलाशी लेनी आरंभ की ।
दिलचस्पी के काबिल जो चीजें वहां से बरामद हुई वो थीं एक गंजा विग, नकली दाढी-मूंछ, एक मैली-कुचैली चार खाने वोली तहमद, एक गोल गले की जालीदार बनियान, जालीदार काली टोपी और काले धागे में बंधा ‘अल्लाह’ गुदा ताबीज !
उसने सब समान यथास्थान रख दिया और वहीं से नीचे डोंगरे का फोन किया ।
***
इस्माइल लवलीन के तीन भाइयों में सबसे बड़ा था और वहीं इकलौता शख्स था जो कि आधी रात को भी जाग रहा था । उसके दोनों भाई और लवलीन कब के सो चुके थे । वह अपने कमरे में बैठा सिगरेट फूंक रहा था और वीडियो पर ब्लू फिल्म देख रहा था । अपने कान में उसने साउंड की एक्सटेंशन वाला प्लग लगाया हुआ था जिसकी वजह से अभिसाररत जोड़े की आहों-कराहों की आवाजें सिर्फ उसके कान में ही पड़ रही थीं । इसी वजह से टी.वी. चलता होने के बावजूद इमारत की उस मंजिल पर मुकम्मल सन्नाटा था । उस फिल्म को वह पहले ही कई बार देख चुका था इसलिए वो उसे कोई खास आनंदित नहीं कर रही थी ।
इस्माइल को अनिद्रा की बीमारी थी जिसकी वजह से कई बार तो वह सारी-सारी रात जागता रहता था । उस हालत में पहले विस्की मददगार साबित हुआ करती थी लेकिन अब तो नशा भी उसे नींद की गोद में पहुंचाने में नाकामयाब रहता था ।
अपनी उस दशा में वह पूना पहुंचने के बाद से ही पहुंचा था । हर वक्त उसे यही अहसास सताए रहता था कि जवाहरात की सूरत में वहां मौजूद करोड़ों के माल को डाकू पड़ने ही वाले थे, जबकि उसकी बहन और दोनों भाई दौलत के ऐसे किसी अंजाम से बेखबर घोड़े बेचकर सोते थे ।
उसकी खुद की मर्जी ये थी कि सारे माल के साथ वे चारों जने रातोंरात योरोप या अमरीका में कहीं फरार हो जाएं । उसे यकीन था कि इतनी बड़ी दुनिया में इकबालसिंह उन्हें हरगिज भी तलाश नहीं कर सकता था । लेकिन लवलीन इकबालसिंह का पिछले चन्द महीनों में कुछ ऐसा खौफ खाने लगी थी कि उस के साथ उस दगाबाजी के ख्याल से ही उसकी रूह कांपती थी ।
नतीजतन सजा का मारा इस्माइल नींद की आमोश में पहुंचने की जगह रात-रात पर विस्की पीता था और वीडियो देखता था ।
एकाएक एक जोर का धमाका हुआ ।
इस्माइल ने घबराकर टी.वी. से निगाह उठाई और अपने कान से साउंड का प्लग निकाला ।
धमाका निश्यच ही इमारत में हो कहीं हुआ था ।
क्या हो गया था !
क्या कोई चोर भीतर घुस आया था ?
लेकिन कैसे ?
इमारत के चारों दरवाजे तो रात के एक अलार्म से संबद्ध हो जाते थे जिसकी वजह से किसी भी दरवाजे के साथ छेड़खानी किए जाने से ऊपर उनकी मंजिल पर अलार्म बज उठता था ।
लेकिन अलार्म तो बजा नहीं था ।
तो क्या ये उसका वहम था कि धमाका इमारत के भीतर हुआ था !
उसने रिमोट के वीडियो और टी.वी. दोनों को ऑफ किया और उठ खड़ा हुआ । लंबे डग भरता हुआ वह दरवाजे के पास पहुंचा । उसने दरवाजा खोला और कान खड़े करके आहट लेने की कोशिश करने लगा ।
खामोशी !
बगल के कमरे का एक दरवाजा खुला और उसकी चौखट पर आंखें मलता हुआ युसुफ प्रकट हुआ ।
“ये कैसी आवाज थी ?” - वह बोला ।
“पता नहीं ।” - इस्माइल बोला ।
“आवाज हुई तो थी ? या मैं सपना देख रहा था ?”
“हुई थी । यूं धमाका हुआ था जैसे बम फटा हो ।”
“इमारत में ?” - युसुफ नेत्र फैलाकर बोला ।
“हां । और...”
तभी पहले जैसा ही एक और धमाका हुआ ।
“ओह गॉड !” - युसुफ आतंकित भाव से बोला ।
“नीचे जाना पड़ेगा ।” - इस्माइल बोला - “इमारत में कोई है । हथियार ला ।”
युसुफ वापिस कमरे में घुस गया । वह वापिस अपने बड़े भाई के पास लौटा ते उसका हाथ में दो साइलेंसर लगी रिवॉल्वर थीं जिनमें से एक उसने इस्माइल को थमा दी ।
तभी एक और कमरे का दरवाजा खुला और सोराब ने गलियारे में कदम रखा ।
“क्या हुआ ?” - वह बोला ।
“मालूम करने जा रहे हैं ।” - इस्माइल बोला - “तू ऊपर ही रह ।”
वो और युसुफ लिफ्ट के सामने पहुंचे जो कि उसी फ्लोर पर खड़ी थी । युसुफ ने लिफ्ट का कॉल बटन दबाया तो दरवाजा निशब्द खुल गया । दोनों ने भीतर कदम रखा ।
“कहां ?” - युसुफ बोला ।
“पहले सबसे नीचे चल ।” - इस्माइल बोला ।
युसुफ ने ग्राउंड फ्लोर का बटन दबा दिया । दरवाजा बंद हो गया । लिफ्ट नीचे सरकने लगी ।
इस्माइल को एकाएक अपने सिर के ऊपर से एक हल्की-सी आहट सुनाई दी । उसने सिर उठाया तो लिफ्ट के पिंजरे की छत में एक चौकोर झरोखा-सा खुलता पाया लेकिन इससे पहले कि वह कुछ समझ पाता झरोखे में से एक काली गेंद-सी नीचे को गिरी ।
हथगोला !
“नहीं !” - वह आंतकित भाव से चिल्लाया ।
लिफ्ट के पिंजरे में हथगोला फटना निश्चित मौत थी ।
काली गेंद-सी लिफ्ट के फर्श से टकराकर अंडे की तरह फूटी और तत्काल उसमें से घना पीला धुआं निकलकर लिफ्ट में फैलने लगा ।
तब तक ऊपर लिफ्ट की छत में बना निकासद्वार बंद हो चुका था ।
“लिफ्ट रोक !” - इस्माइल विक्षिप्तों की तरह चिल्लाया - “लिफ्ट रोक ! जल्दी ! जल्दी कर !“
बौखलाहट में युसुफ ने स्टाप का बदन दबाया लेकिन लिफ्ट की रुकती न पाकर वह और बौखला गया और अंधाधुंध कभी कोई तो कभी कोई बटन खटखटाने लगा ।
लिफ्ट में घना धुंआ फैलता जा रहा था और उस धुंए में सांस लेने के अलावा उसने पास कोई चारा नहीं था ।
इस्माइल ने अपने भाई को परे धकेला और स्टाप का बटन दबाया ।
इस बार लिफ्ट रूकी लेकिन दरवाजा खुलने से पहले ही दोनों भाइयों की टांगे मुड़ने लगीं और उन पर बेहोशी तारी होने लगी ।
दरवाजा खुला तो दोनों भाई एक दूसरे से गड्ड-मड्ड होते लिफ्ट से बाहर जाकर गिरे । उनकी टांगे घुटनों तक लिफ्ट में थीं बाकी शरीर गहरी बेहोशी की हालत में बाहर थे ।
***
लॉबी में टेलीफोन बूथों की एक कतार थी जिनमें से एक में फिरोजा दाखिल हो गई । उसने रिसीवर उठाकर कान से लगाया तो डायल टोन की जगह वहां भी उसे ऑपरेटर की ‘नंबर प्लीज’ कहती आवाज ही सुनाई दी । उसने रिसीवर वापिस यथास्थान रख दिया और बूथ से बाहर निकल आई ।
वह बाहर की ओर बढी ।
“कहीं जा रही हैं ?”
फिरोजा थमककर खड़ी हो गई । उसने सिर उठाया तो अपने सामने डोंगरे को खड़ा पाया ।
“क्यों ?” - फिरोजा तनिक दिलेरी से बोली - “यहां आने-जाने पर कोई पाबंदी है ?”
“कतई नहीं ।” - डोंगरे जबरन मुस्कराता हुआ बोला - “मैंने तो महज कोई मदद ऑफर करने की नीयत से सवाल किया था । रात का वक्त है । कहीं दूर जाना हो तो होटल की गाड़ी हाजिर हो सकती है ।
“नहीं, मैं टैक्सी ले लूंगी ।”
“एक अकेली औरत के लिए आधी रात के वक्त टैक्सी का सफर खतरनाक साबित हो सकता है ।”
“ऐसी कोई बात नहीं ।”
“है । आप टैक्सी पर ही जाना चाहती हैं तो चलिए मैं आपके साथ चलता हूं ।”
“क्यों !”
“आखिर मैं यहां का सिक्योरिटी ऑफिसर हूं । आपकी सिक्योरिटी मेरी नौकरी है ।”
“मैं तुम्हें साथ नहीं ले जाना चाहती । रास्ते से हटो ।”
डोंगरे के चेहरे से मुस्कराहट एकाएक गायब हो गई थी । उसकी जगह बड़े हिंसक भाव प्रकट हुए ।
“वापिस अपने कमरे में जा ।” - वह सांप की तरह फुंफकारा ।
फिरोजा के सारे शरीर में सिहरन दौड़ गई, फिर भी वह हिम्मत करके बोली - “ये क्या बदतमीजी है ? मैं क्या गिरफ्तार हूं ?”
“सुना नहीं ?”
“मैं शोर मचा दूंगी ।”
“एक आवाज भी फालतू मुंह से निकली” - डोंगरे दांत पीसता हुआ बोला - “तो लाश का पता नहीं लगेगा ।”
फिरोजा भीगी बिल्ली की तरह वापिस लौटी ।
***
लवलीन दूसरे धमाके की आवाज पर जागी थी । अपनी नाइटी पर उसने आननफानन एक गाउन पहना और बाहर निकल आई थी ।
गलियारे में उसे सोराब दिखाई दिया ।
“क्या हुआ ?” - वह बोली ।
“पता नहीं ?” - सोराब बोला ।
“आवाज कैसी थी ?”
“पता नहीं ।”
“इस्माइल कहां है ?”
“युसुफ के साथ नीचे गया है ।”
“ओह !”
दोनों लिफ्ट के सामने प्रतीक्षा करने लगे ।
कुछ समय बीता ।
“यहां कोई आ सकता है ?” - लवलीन आशंकित भाव से बोली ।
“कहां से आ सकता है !” - सोराब बोला - “सारे रास्ते तो बंद हैं । तेरे को मालूम है ।”
“धमाका कैसे हुआ ? कहां हुआ ?”
“भाई लौटते हैं तो मालूम होता है ।”
“बहुत देर हो गई उन्हें गए हुए !”
“कोई ज्यादा देर नहीं हुई । आते ही होंगे ।”
“हूं ।”
“तू अपने कमरे में जा । तू क्या करेगी यहां ?”
“लेकिन...”
“खामखाह हलकान न हो । कुछ नहीं हुआ है । ऐसा कुछ हो भी नहीं हो सकता यहां जिसे हम तीन भाई हैंडल न कर सकते हों ।”
“तेरी रिवॉल्वर कहां है ?”
“ये रही ।” - सोराब ने अपने गाउन की जेब से एक रिवॉल्वर निकालकर लवलीन को दिखी - “तू जा अपने कमरे में ।”
“होशियार रहना ।”
सोराब हंसा ।
“इस्माइल आए तो खबर करना क्या हुआ था ।”
“अच्छा !”
लवलीन वापिस कमरे में चली गई ।
***
फिरोजा अपने कमरे में वापिस लौटी ।
अब उसे पूरी तरह यकीन हो गया था कि वो वहां नजरबंद थी और विमल के लौटने तक वही सिलसिला बना रहने वाला था । विमल ने तो वहां आते ही पकड़ा जाना ही था लेकिन तब भी उनकी खलासी होती या नहीं, यह बात उसे बुरी तरह से दहला रही थी । जिस हौलनाक तरीके से होटल के सिक्योरिटी ऑफिसर ने उसे धमकाया था उससे तो लगता था कि वो होटल होटल न होकर गुंडे-मवालियों का कोई अड्डा था । ऐसी जगह पर विमल की गिरफ्तारी के बाद कोई गवाह न छोड़ने की नीयत से वे लोग भी मार डालते तो क्या बड़ी बात थी ।
अब उसे विमल के साथ-साथ अपनी जान की भी फिक्र होने लगी ।
लेकिन - फिरोजा ने बड़े आशापूर्ण ढंग से खुद का याद दिलाया - वो तो कहता था कि मैंने तुम्हारी बांह थामी है, मैं तुम्हारा मुहाफिज हूं, मेरा सिर ही कट जाए तो तुम्हारे पर कोई आंच आ सकती है ।
विमल की वो भावप्रणव बातें फिरोजा को याद आई तो उसका दिल और भी चाहने लगा वो किसी तरह उसे खतरे से आगाह करे । विमल के बच जाने से उसका बचना भी मुमकिन था । वो ही पकड़ा गया तो फिर क्या मुहाफिज बनेगा वो उसका !
इसी उधेड़बुन में उसे एक तरकीब सूझी ।
वह कमरे में कोने में लगे राइटिंग डैस्क पर पहुंची । उसने वहां बैठकर अपने पति के नाम एक चिट्ठी तैयार की, उसे एक लिफाफे में बंद करके उस पर अपने पता का नाम और यतीमखाने का पता लिखा और लिफाफे को अपने पर्स में बंद करती हुई उठ खड़ी हुई ।
वह फिर कमरे से बाहर निकली ।
पहले वाला ही फ्लोर वेटर बाहर गलियारे में मौजूद था जिसने भृकुटि तानकर फिरोजा की ओर देखा । उसकी तनी भृकुटि से ही फिरोजा को लगा कि जरूर वो भी वहां उसकी निगरानी के लिए ही तैनात था । हालांकि पहले उसका इरादा चिट्ठी को अपने गंतव्य स्थान पर पहुंचाने के लिए उसी से सहायता लेने का था ।
उसकी ओर निगाह डाले बिना वह लिफ्ट की ओर बढ़ चली । वह लिफ्ट में सवार हुई । उसने पहली मंजिल का बटन दबाया । लिफ्ट नीचे सरकने लगी । उसने देखा कि लिफ्ट के इंडीकेटर पर छह के बाद सीधा एक आता था, यानी कि बीच की चार मंजिलों से उस लिफ्ट का कोई वास्ता नहीं था ।
लिफ्ट पहली मंजिल पर रुकी तो वह बाहर निकली । उस फ्लोर पर एक रेस्टारेंट था जिस पर अधिकतर आवाजाही सीढियों के रास्ते थी ।
तभी लिफ्ट का दरवाजा बंद हो गया और वह नीचे को बढ चली ।
फिरोजा ने वहां की दोनों लिफ्टों की टॉप फ्लोर का बटन दबा दिया ।
कुछ ही क्षणों में वही लिफ्ट वापिस लौटी जिस पर से वह उतरी थी । लिफ्ट का दरवाजा खुला तो उसने उसे खाली पाया । वह उसमें सवार हो गई । उसने भीतर से टॉप फ्लोर का बट दबाया ।
लिफ्ट ऊपर उठने लगी ।
अब उसे आश्वासन था कि उसकी मंजिल का फ्लोर वेटर अगर उसकी निगरारी के लिए वहां तैनात था तो उसकी निगाह में वह नीचे हो गई थी ।
अपने एक सप्ताह के वहां क आवास के दौरान उसने जाना था कि होटल के टॉप फ्लोर पर एक डिस्को था जो रात के दो बजे तक खूब आबाद रहता था । वहीं उसे अपना मतलब हल होने की कोई उम्मीद थी ।
लिफ्ट सीधे टॉप फ्लोर पर ही जाकर रुकी । वह लिफ्ट से निकली और लंबे डग भरती हुई डिस्को में दाखिल हुई ।
डिस्को में खूब शोर-शराबा था । कानफोडू संगीत की ताल पर कुछ युवक-युवतियां नाच रहे थे तो कुछ डांस फ्लोर के साथ-साथ, और उससे परे भी, लगी मेजों पर बैठे बतिया रहे थे ।
फिरोजा ने पहले पूरे फ्लोर का चक्कर लगाया और फिर उसने कोने की एक मेज पर सिर से सिर जोड़े बैठे एक कुलीन और कमसिन जोड़े को अपने मतलब के लिए छांटा ।
वह उनकी टेबल पर पहुंची और बोली - “हैल्लो !”
दोनों ने सिर उठाया, उन्होंने उलझनपूर्ण भाव से फिरोजा की ओर देखा, जो कि अपनी उम्र और आकार के लिहाज से डिस्को के माहौल में कतई नहीं खप रही थी, और फिर युवक बोला - “हल्लो युअरसैल्फ !”
“मैं तुम्हारा एक मिनट का, सिर्फ एक मिनट का वक्त लेना चाहती हूं ।”
“आप मुझे जानती हैं ?” - युवक बोला ।
“नहीं ।”
“नीला को ?”
“अगर नीला तुम्हारी फ्रेंड का नाम है तो इसे भी नहीं ।”
“तो !”
“मैं बैठ जाऊं ?”
“लेकिन आप...”
युवती ने युवक का हाथ दबाया और फिरोजा से बोली - “हां, हां । बैठिए आप ।”
“शुक्रिया ।” - फिरोजा एक खाली कुर्सी पर बैठ गई ।
“क्या चाहती हैं आप ?” - युवती बोली - “सम मानीटेरी हैल्प...”
“ओह नो ।” - फिरोजा ने तत्काल प्रतिवाद किया - “नैवर ।”
“तो ?”
“आप लोग होटल में ठहरे हुए हैं ?”
“नहीं ।”
“मुंबई में कहां रहते हैं ?”
“वो छोड़िए ।” - युवक बेसब्रेपन से बोला - “आप बताइए आप क्या चाहती हैं ?”
“मेरे पास एक चिट्ठी है जिसको चर्च गेट के एक पते पर फौरन पहुंचाया जाना बहुत जरूरी है । मेरी कुछ ऐसी दुश्चारी है जिसकी वजह से यह काम मैं खुद नहीं कर सकती इसलिए मैं चाहती थी कि अगर तुम लोग...”
“अरे चिट्ठी क्या प्राब्लम है । पोस्ट इट । किसी लेटरबक्स में डाल दीजिए...”
“तुमने मेरी बात ठीक से नहीं सुनी । उस चिट्ठी का फौरन डिलीवर होना जरूरी है ।”
“आप यहीं ठहरी हुई हैं ?”
“हां ।”
“आल दि बैस्ट दैन । चिट्ठी होटल के स्टाफ में किसी को सौंप दीजिए । वे लोग पहुंचाने का इंतजाम कर देंगे । ये फाइव स्टार होटल है । ऐसी सर्विस हासिल करना क्या मुश्किल है यहां ?”
“मैं ऐसा नहीं कर सकती ।”
“क्यों ?”
“यूं चिट्ठी के किन्हीं गलत हाथों में पड़ जाने का अंदेशा है ।”
“कमाल है !”
“मिस्टर प्लीज... प्लीज हैल्प मी ।”
“ऐसी क्या आफत...”
“ऐसी ही आफत है । समझ लो किसी की जिंदगी-मौत का सवाल है ।”
“कमाल है ! यह तो...”
“आप” - युवती बोली - “ऐसा क्यों नहीं करतीं ? नीचे से कोई टैक्सी वाले को पकड़ लीजिए उसे चर्च गेट तक का भाड़ा दीजिए, चार पैसे फालतू दीजिए, वही चिट्ठी पहुंचा आएगा ।”
“मैं” - फिरोजा दबे स्वर में बोली - “होटल से बाहर कदम नहीं रख सकती ।”
“आप होटल से बाहर कदम नहीं रख सकतीं ?”
“हां !”
“वजह ?”
“मैं नहीं बता सकती ।”
“ये” - युवक बोला - कोई लव ट्रायंगल तो नहीं ? पति, पत्नी और प्रेमी वाला कोई प्रेम-त्रिकोण तो नहीं ?”
“तुम कुछ भी समझ लो लेकिन किसी तरह मेरा ये काम कर दो ।”
“प्रदीप” - युवती बोली - “कम आन । बी ए सपोर्ट । ओब्लाइज हर । कोलाबा तो तुमने जाना ही है । रास्ते में मैडम की चिट्ठी डिलीवर करते जाना ।”
“लेकिन” - युवक भुनभुनाया - “अभी तो नहीं जाना । ये तो कह रही हैं उस चिट्ठी का फौरन डिलीवर होना जरूरी है ।”
युवती चुप हो गई । प्रत्यक्षतः अभी डिस्को छोड़ने की उसकी भी ख्वाहिश नहीं थी ।
“आप” - युवक बोला - “चिट्ठी किसी टैक्सी वाले की मार्फत इसलिए नहीं भेज सकतीं क्योंकि आप होटल से बाहर कदम नहीं रख सकतीं । अगर में जा के कोई टैक्सी वाला पटाऊं और चिट्ठी उसे दे दूं तो कोई एतराज ?”
फिरोजा हिचकिचाई ।
“मैं यहां रेगुलर आता हूं ।” - युवक बोला - “यहां के कई टैक्सी वाले मेरे वाकिफ हैं । मैं चिट्ठी किसी वाकिफकार टैक्सी वाले को दूंगा । वो पूरी जिम्मेदारी से चिट्ठी पहुंचाएगा । बोलिए, चलेगा ?”
“चलेगा ।” - फिरोजा बोली ।
“तो निकालिए चिट्ठी ।”
“हाथ मेज के नीचे करो ।”
युवक ने किया । फिरोजा ने उसे चिट्ठी और सौ-सौ के कुछ नोट थमा दिए ।
युवक ने चिट्ठी चुपचाप जेब में रख ली और फिर नोटों पर निगाह डाली ।
“एक ही नोट काफी होगा ।” - वह बोला और उसने बाकी नोट मेज के नीचे से ही फिरोजा को लौटा दिए - “अब आप निश्चिन्त हो जाइए । समझ लीजिए आपका काम हो गया ।”
“थैंक्यू ।”
“आप यहां से रुख्सत होइए, फिर मैं भी उठता हूं ।”
“ठीक है ।”
फिरोजा ने फिर दोनों का धन्यवाद किया और उठ खड़ी हुई ।
वह वहां से परे निकल गई तो पीछे युवक बोला - “साली फंसी हुई है । यार को बुला रही है । उम्र का भी लिहाज नहीं । शर्तिया बाल-बच्चेदार होगी ।”
“श... श ।” - युवती बोली - “सुन लेगी ।”
फिरोजा ने वाकई सुना था । वह खून का घूंट पी के रह गई लेकिन उसे इत्मीनान था कि चिट्ठी यकीनन उसके पति तक पहुंच जाने वाली थी । लड़का मुंहफट था लेकिन बेईमान नहीं था ।
वह अपने कमरे की ओर लौट चली ।
***
सोराब रिवॉल्वर हाथ में लिए लिफ्ट के सामने बेचैनी से चहलकदमी कर रहा था और बराबर अपनी कलाई पर बंधी घड़ी में टाइप देख रहा था ।
नीचे क्यों इतनी देर लग रही थी उसके भाइयों को ?
तभी एकाएक लिफ्ट के इंडीकेटर पर एक रोशनी चमकी ।
लिफ्ट ऊपर आ रही थी ।
सोराब ने राहत की सांस ली । वह लिफ्ट के दरवाजे के सामने जा खड़ा हुआ और उसके वहां पहुंचने की प्रतीक्षा करने लगा ।
लिफ्ट वहां पहुंची, उसका दरवाजा खुला, सोराब की आशापूर्ण निगाह भीतर पड़ी ।
लिफ्ट खाली थी ।
वह हकबकाया-सा खाली लिफ्ट को देखने लगा ।
खाली लिफ्ट ऊपर कैसे आई ? लिफ्ट की ऊपर भेजने के लिए भीतर की तरफ से उसका ऊपर का बटन दबाया जाना जरूरी होता था । ऐसा लिफ्ट में बिना दाखिल हुए खुले दरवाजे से भीतर हाथ डालकर किया तो जा सकता था लेकिन आधी रात को मौजूदा माहौल में उसके भाइयों में से कोई ऐसी शरारती हरकत भला क्यों करता ?
क्या माजरा था ?
उसके भाइयों के बिना खाली लिफ्ट कैसे आ गई थी ?
उसके भाई कहां थे ?
क्या वह नीचे जाकर उन्हें तलाश करे ?
लेकिन इस्माइल ने तो उसे ऊपर ही रुकने को कहा था ।
उसकी अक्ल ने यही फैसला किया कि अपने बड़े भाई की हुक्मउदूली करके उसे नीचे जा के तफ्तीश करनी चाहिए थी ।
वह लिफ्ट में दाखिल हुआ ।
उसने ग्राउंड फ्लोर का बटन दबाया । लेकिन बटन की कमांड के जवाब में लिफ्ट का दरवाजा अभी बंद होना शुरू भी नहीं हुआ था कि एकाएक जैसे लिफ्ट की छत फट पड़ी और दो काले साये उसके सिर पर कूद पड़े । दो आदमियों के सामूहिक भार के नीचे उसके घुटने मुड़ गए, रिवॉल्वर उसके हाथ से छिटककर पता नहीं कहां जा गिरी और वह दो आदमियों की मजबूत गिरफ्त में फंसा मछली की तरह तड़पने लगा । एक आदमी उसकी छाती पर चढा बैठा था और उसने उसकी बांहे दबोची हुई थीं, दूसरा उसका मुंह दबोचे था और उसका गला दबा रहा था । उसका दम घुटने लगा था, उसकी टांगे लिफ्ट के तब तक बंद हो चुके दरवाजे से टकरा रही थीं । और वह अपने को आजाद करने की जी तोड़ कोशिश कर रहा था ।
तभी किसी भारी चीज के एक प्रहार उसकी खोपड़ी पर पड़ा । तत्काल उसकी आंखे उलटने लगीं और शरीर शिथिल पड़ने लगा ।
चेतना लुप्त होने से पहले वह इतना ही देख पाया कि उसके दोनों आक्रमणकारी स्याह काली पोशाकें पहने थे और चेहरों पर गैसमास्क चढाए थे ।
***
आशंकित, आतंकित लवलीन एक सोफाचेयर पर ढेर हुई बैठी थी और अपने भाइयों के लौटने की प्रतीक्षा कर रही थी ।
वो पहला विघ्न था जो उसकी मौजूदा, निर्वासित जिंदगी में आया था ।
अपनी उस निर्वासित जिंदगी से लवलीन कतई नाखुश थी लेकिन अपने पति की आज्ञा का पालन करने के आलावा उसके पास कोई चारा नहीं था । जब से इकबालसिंह ने उसे मेरिन ड्राइव वाले उसके लव नैस्ट में ‘कंपनी’ के जल्लाद जोजो के साथ रंगे हाथों पकड़ा था, तब से लवलीन की तमाम अकड़ फूं निकल गई थी । उसका मनोबल बुरी तरह टूट गया था । उसे तो आज भी उस रात के नजारे को याद करके हैरानी होती थी कि इकबालसिंह ने उसे जिंदा छोड़ दिया था । लेकिन अब वह जानती थी कि ऐसी माफी जिंदगी में एक ही बार मिलती था, अपने पति से बाहर जाने की दोबारा गलती करने पर वह बहुत बुरी मौत मारी जा सकती थी । खासतौर से तब जबकि उसके पति का रुतबा भी पहले से बुलंद हो चुका था - पहले वह ‘कंपनी’ का एक सीनियर ओहदेदार था लेकिन अब टॉप बॉस था, नंबर वन था, बादशाह था । यही वजह थी जो अपने भाइयों की इकबालसिंह के माल के साथ भाग खड़े होने की बात को वो सुनने तक को तैयार नहीं होती थी ।
पूना में उस हाल में रहती वो स्वयं को उस मुसाफिर की तरह महसूस करती थी जिसकी फ्लाइट डिले हो गई थी लेकिन जसे किसी भी क्षण टेक आफ की घोषणा हो जाने के इंताजर में तैयार बैठे रहना पड़ता था । बड़ी मुश्किल कभी कभार ही वो कहीं आ-जा पाती थी और तब भी उसे यही खतरा लगा रहता था कि पीछे से इकबालसिंह का फोन न आ जाए और उसकी गैरहाजिरी को वो कोई गलत - जो कि असल में तो सही ही होता - मतलब न निकाल ले ।
उसने वाल क्लॉक पर निगाह डाली ।
सवा बारह बजने को थे, लेकिन वक्त से वो यह अंदाजा न लगा पाई कि वो कब से यहां बैठी अपने भाइयों के लौटने का इंतजार कर रही थी ।
इमारत में मुकम्मल सन्नाटा था । कहीं से कैसी भी कोई आवाज नहीं आ रही थी । पहले उसे बाहर लिफ्ट के सामने के गलियारे में टहलते फिरते अपने सबसे छोटे भाई सोराब की पदचाप सुनाई दे जाती थी लेकिन अब एकाएक उसे अहसास होने लगा था कि वो आहट भी कुछ अरसे से सुनाई नहीं दे रही थी ।
तभी एकाएक दरवाजा खुला ।
उसकी आशापूर्ण निगाह दरवाजे की तरफ उठी ।
काली पोशाकें पहने, हाथ में साइलेंसर लगी रिवॉल्वरें लिए दो आदमी भीतर प्रवेश कर रहे थे ।
लवलीन के छक्के छूट गए । दहशत से उसके नेत्र फट पड़े । वह उछलकर अपने पैरों पर खड़ी हुई और आतंकित भाव से दोनों आंगतुकों को देखने लगी ।
उन दोनों का यूं इत्मीनान से वहां घुस जाना अपने आप में इस बात का सबूत था कि उसके तीनों सूरमा भाइयों में से कोई भी अपने पैरों पर खड़ा नहीं था ।
क्या उन्होंने तीनों का मार डाला था ?
सूरत से ऐसे दुर्दांत हत्यारे वो लगते तो नहीं थे ।
विमल और वागले ने आगे कदम बढाए तो लवलीन आतंकित भाव में बोली - “खबरदार ! मेरे पास न आना ।”
“मंजूर ।” - विमल मुस्कराकर बोला ।
गैस मास्क को वे दोनों लिफ्ट में ही तिलांजलि दे आए थे ।
“कौन हो तुम लोग ?” - लवलीन हिम्मत करके बोली ।
“दोस्त ।” - विमल बोला ।
“दोस्त ।”
“हां ।”
“दोस्त ऐसे आते हैं ?”
“कभी-कभी ऐसे भी आते हैं ।”
“मेरे तीनों भाईयों को क्या हुआ ?”
“कुछ भी नहीं । तीनों सही-सलामत हैं ।”
“वो कहां हैं ?”
“नीचे ।”
“नीचे क्या कर रहे हैं ?”
“बेहोश पड़े हैं । लेकिन यकीन मानो बिल्कुल सही-सलामत हैं । वो हमारी मुलाकात में विघ्न डालते इसलिए हमें उनके साथ ऐसा सलूक करना पड़ा जिसके लिए हम माफी चाहते हैं ।”
“हो कौन तुम लोग ?”
“बोला न दोस्त । वैसे इस दोस्त से” - विमल ने अपने खाली हाथ के अंगूठे से अपनी छाती ठकठकाई - “तुम पहले भी मिल चुकी हो ।”
“मैं तुम्हें नहीं पहचानती ।”
“पहचानती नहीं लेकन जानती हो ।”
“जब पहचानती नहीं तो जानती कैसे...”
“याद दिलाता हूं पहले हम कहां मिले थे । खुद ब खुद जान जाओगी ।” - विमल अपलक उसे देखने लगा - “मैरिन ड्राइव । चौथी मंजिल का तुम्हारा लव नैस्ट । जहां मेरे फोन कर तुम पहुंची थी और तुम्हारे फोन पर जोजो पहुंचा था । जहां मैंने तुम्हारी आंखों के सामने जोजो को शूट किया था ।”
“तु... तुम... वो आदमी... न... नहीं हो सकते ।”
“मैं वही हूं । अलबत्ता सूरत नहीं मिलती । आवाज नहीं मिलती ।”
“तुम... तुम सोहल नहीं हो सकते ।”
“जोजो कैसे मरा था, इसकी खबर तुम्हारे और सोहल के सिवाय और किसे है ? वहां ऊपर से तुम्हारा पति इकबालसिंह आ गया था लेकिन वो यह फिर भी नहीं जानता था कि क्योंकर जोजो उस रात कंपनी की सिक्योरिटी छोड़कर अकेला मैरिन ड्राइव पहुंच गया था ।”
लवलीन ने जोर से थूक निगली ।
“हैरानी है कि रंगे हाथों पकड़कर भी इकबालसिंह ने तुम्हें बख्श दिया ।”
“क्या चाहते हो ?” - वह कांपती हुई बोली । जो इकलौता आदमी बखिया की बादशाहत तबाह कर सकता था, उसके रूबरू खुद को पाकर वह कांपती न तो क्या करती !
“माल कहां है ?” - विमल बोला ।
“कौन-सा माल ?”
“इकबालसिंह का कंपनी से सरकाया हुआ माल जिसकी अपने तीन भाइयों के साथ यहां तुम कस्टोडियन बनी बैठी हो ।”
“ऐसा कोई माल नहीं ।”
“देखो, मेरे सब्र का इम्तहान न लो ।”
“तुम किस माल की बात कर रहे हो ?”
“मैं उस माल की बात कर रहा हूं जो कम-से-कम पांच करोड़ रुपए की कीमत का है, जो जवाहरात की सूरत में है और जो यहां तुम्हारे कब्जे में है ।”
“ऐसा कोई माल नहीं है । तुम्हें जरूर कोई गलतफमी हुई है ।”
“मैं एक मिनट में आता हूं ।” - विमल सहज भाव से बोला ।
“कहां से ?” - लवलीन व्याकुल भाव से बोली - “कहां से एक मिनट में आते हो ?”
“नीचे से । जहां तुम्हारे तीनों भाई बेहोश पड़े हैं वहां से । मैं उन तीनों को शूट करके आता हूं और लौट के यही सवाल फिर करता हूं । मैं गया और आया ।”
वह दरवाजे की ओर बढा ।
“ठहरो ।”
विमल ठिठका, घूमा, उसने बड़ी मासूमियत से लवलीन की तरफ देखा ।
“म-माल लुट गया” - लवलीन बद्हवास स्वर में बोली - “तो इकबालसिंह मेरा गला काट देगा ।”
“नहीं काटेगा । जोजो के पहलू से नोचकर हटाते वक्त नहीं काटा तो अब क्या काटेगा । फिर माल आता-जाता रहता है, तुम्हारे जैसी खूबसूरत लड़की इकबालसिंह जैसे गैंडे को क्या रोज-रोज मिलती हैं !”
“तुम मजाक कर रहे हो । तुम मेरी हंसी उड़ा रहे हो ।”
“मैं एकदम संजीदा हूं ।”
“लेकिन...”
“इकबालसिंह ने तुम्हारा गला काट भी दिया तो समझना अपने तीन जवान भाईयों की जिंदगी की खातिर तुम शहीद हो गई ।”
वो खामोश रही ।
“अब बोलो भी कुछ ।”
“बगल के कमरे में बार्डरोब के नीचे के रैक में जूतों के एक खाली डिब्बे में एक शनील की पोटली पड़ी है ।”
“वार्डरोब को ताला लगा होगा ?”
लवलीन ने सहमति में सिर हिलाया । फिर उसने विमल को एक चाबी सौंपी । विमल ने चाबी आगे वागले को थमा दी । वागले चाबी के साथ वहां से बाहर निकल गया ।
“तुम तब तक बरायमेहरबानी कपड़े तब्दील कर लो ।” - विमल बोला ।
“क्यों ?”
“क्योंकि तुम हमारे साथ मुंबई चल रही हो । अभी ।”
“लेकिन...”
“जल्दी करो ।”
“मुंबई कहां ?”
“अपने पति के पास ।”
“क्या !”
“बाकी रास्ते में । कम आन । बी क्विक ।”
“लेकिन...”
“यानी कि ऐसे ही चलना चाहती हो ?”
“मैं... मैं चेंज करती हूं ।”
उसने अलमारी में से हैंगर पर टगी एक पोशाक निकाली और बंद दरवाजे की तरफ बढी ।
“कहां जा रही हो ?” - विमल सख्ती से बोला ।
“बाथरूम में ।” - पहली बार भय त्यागकर वो तनिक इठलाई - “चेंज के लिए ।”
विमल ने आगे बढकर वो बंद दरवाजा खोला और भीतर निगाह डाली ।
वो बाथरूम ही था और वो उसका इकलौता दरवाजा था । बाथरुम की गली की ओर वाली दीवार में एक खिड़की थी जो कि उस वक्त बंद थी ।
विमल सहमति में सिर हिलाता हुआ दरवाजे के पास हट गया ।
कूल्हे झुलाती हुई, तिरछी नजर से उसे देखती हुई लवलीन विमल के करीब से गुजरी और बाथरूम में दाखिल हो गई । बड़े नुमाइशी ढंग से उसने विमल के मुंह के दरवाजा बंद कर लिया । विमल को भीतर से चिटकनी चढाई जाने की आवाज आई ।
“बचाओ ! बचाओ !”
विमल चौंका । उसने अचकचाकर बंद दरवाजे की तरफ देखा ।
भीतर लवलीन रात के सन्नाटे में गला फाड़-फाड़कर चिल्ला रही थी ।
विमल का चेहरा कानों तक लाल हो गया । उसने दरवाजे पर वहां दो फायर किए जहां चिटकनी के होने की संभावना थी । फिर उसने कंधे को जोर से दरवाजे से टकराया ।
दरवाजा भड़ाक से खुला ।
वह भीतर दाखिल हुआ । उसने देखा कि लवलीन ने बाथरूम की बंद खिड़की खोल ली थी और बाहर की तरह मुंह करके अभी भी गला फाड़-फाड़कर ‘बचाओ-बचाओ’ चिल्ला ही थी ।
विमल ने उसके कटे हुए खूबसूरत बालों से पकड़कर उसे खिड़की से पहले घसीटा और खिड़की बंद की ।
वह लवलीन की तरफ घूमा ।
आतंकित लवलीन फटी-फटी आंखों से उसे देख रही थी ।
“जात दिखा दी न !” - विमल दांत पीसता हुआ बोला ।
लवलीन का शरीर जोर से कांपा । अपने दोनों हाथों की मुठ्ठियां बांधकर उन्हें छाती से भींचे वह अपलक विमल को देखती रही ।
“इस घड़ी तेरी जिंदगी की तेरे से ज्यादा जरूरत मुझे न होती तो मैंने मुर्गी की तरह तेरी गर्दन मरोड़ दी होती ।”
वो खामोश रही ।
“अब यहीं कपड़े बदल । मेरे सामने ।”
वो हिली भी नहीं ।
वागले दौड़ता हुआ वहां पहुंचा ।
“क्या हुआ ?” - वह बोला ।
विमल ने बताया ।
“ओह !” - वागले बोला ।
“माल मिला ?” - विमल ने पूछा ।
वागले ने सहमति में सिर हिलाया । उसने जवाहरात से भरी एक शनील की पोटली विमल को दिखाई ।
“पांच करोड़ का माल होगा ?” - विमल बोला ।
“कह नहीं सकता ।” - वागले बोला - “मुझे जवाहरात की कीमत का कोई अंदाजा नहीं ।”
“ऐसी” - कर्कश स्वर में विमल लवलीन से संबोधित हुआ - “और कितनी पोटलियां है यहां ?”
लवलीन ने उतर न दिया ।
“दाता !” - विमल होंठों में बुदबुदाया - “मेरी खता बख्शना !”
फिर उनसे एक झन्नाटेदार थप्पड़ लवलीन के चेहरे पर रसीद किया । तत्काल उसके गुलाब जैसे कपोल पर विमल के हाथ की पांचों उंगलियों उछल आई, उसकी आंखों से आंसू छलक पड़े ।
“हफ्ता दस दिन” - यह क्रूर स्वर में बोला - “जवाब का इंतजार करने का इरादा नहीं है मेरा ।”
“एक ही पोटली है ।” - लवलीन कराहकर बोली - “इतना ही माल है ।”
“मुकम्मल ?”
“हां ।”
“कोई गोल्ड या कैश नहीं ?”
“नहीं ।”
“कपड़े बदल ।”
लवलीन की उन्हें बाहर जाने को कहने की हिम्मत न हुई । उनकी तरफ पीठ करके वह खामोशी से कपड़े बदलने लगी ।
***
विमल के संकेत पर वागले ने घाटकोपर रेलवे स्टेशन के करीब सड़क पर कार रोकी ।
विमल ने कार के डैशबोर्ड में लगी घड़ी पर निगाह डाली ।
पूरे तीन बजे थे ।
उसने संतुष्टिपूर्ण भाव से गर्दन हिलाई ।
वागले यकीनन बहुत दक्ष ड्राइवर था - दो घंटे में वे लोग पूना से मुंबई पहुंच गए थे ।
कार की पिछली सीट पर भट्टी और लवलीन मौजूद थे ।
“उतरो ।” - विमल पीछे घूमकर बोला ।
“कौन ?” - भट्टी हड़बड़ाया - “मैं ?”
“हां ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि अब आगे तुम्हारा कोई काम नहीं ।”
“लेकिन...”
“अगर तुम समझते हो कि कंपनी के हैडक्वार्टर होटल सी-व्यू में तुम्हें कोई नहीं पहचानेगा तो बेशक साथ चलो ।”
“ओह !” - वह कुछ क्षण खामोश रहा और फिर बोला - “लेकिन तू अकेला...”
“खालसा अकेला भी सवा लाख के बराबर होता है ।”
भट्टी खामोश रहा ।
“और फिर अकेला मैं हूं भी नहीं । मेरे साथ वागले है ।”
“एक बात माननी पड़ेगी ।”
“क्या ?”
“हौसलामंद बहुत है तू ।”
“तारीफ का शुक्रिया ।” - विमल शुष्क स्वर में बोला ।
“माल...”
“वो मैं कालिया को खुद दूंगा ।”
“कब ?”
“जब भी वो उपलब्ध होगा । और वो कब उपलब्ध होगा, ये तो तुझे ही मालूम होगा ।”
“मैं खबर करूंगा ।”
“गुड ।”
भट्टी कार से उतर गया । वह कुछ क्षण अनिश्चित-सा कार के करीब खड़ा रहा और फिर आगे बढ गया ।
भट्टी दृष्टि से ओझल हो गया तो विमल के इशारे पर वागले पीछे जा बैठा, विमल ने ड्राइविंग सीट पर उसकी जगह ले ली और लवलीन उसकी बगल में आगे आ गई ।
“फोन करो” - विमल कार के डैशबोर्ड में लगे कार टेलीफोन की ओर इशारा करता हुआ बोला ।
“किसे ?” - लवलीन तनिक हड़बड़ाकर बोली ।
“अपने पति को और किसे ? रात के तीन बजे किसी और के बुलाए वो फोन पर नहीं आने वाला ।”
“ओह !”
“जब वो लाइन पर आ जाए तो फोन मुझे देना ।”
लवलीन ने सहमति में सिर हिलाया और फोन अपने अधिकार में करके एक नंबर डायल किया ।
उत्तर तो तत्काल मिला लेकिन लवलीन को अपना परियच देकर फोन पर बात की अहमियत समझाने में और इकबालसिंह के लाइन पर आने में वक्त लगा ।
“मैं लवी बोल रही हूं ।” - वह माउथपीस में बोली - “नहीं पूना से नहीं, मुंबई से । वो... वो क्या है कि...
विमल ने जबरन उसके हाथ से रिसीवर ले लिया ।
“इकबालसिंह ?” - वह माउथपीस में बोला ।
“हां ।” - उसे इकबालसिंह का उनींदा स्वर सुनाई दिया - “कौन ?”
“सोहल !”
“कौन ?”
“नींद से जाग जाओ, मोहन प्यारे ।”
“तू सोहल बोल रहा है ?”
“कोई शक ?”
“वो लवी... लवीलीन... मेरी बीवी...”
“मेरे पास है । मेरे कब्जे में है । पूना से साथ लेकर बस पहुंचा ही हूं मुंबई ।”
“पता कैसे लगा ?”
“एक उड़ती चिड़िया ने बताया ।”
“उसके भ-भाई...”
“तीनों जिंदा हैं । पूना में ही हैं । गहरी नींद में हैं । सूरज निकलने तक जाग जाएंगे ।”
खामोशी ।
“अब” - विमल बोला - “माल के बारे में भी पूछ ले ।”
“कैसा माल ?” - इकबालसिंह बोला - “कौन-सा माल ?”
“तेरा माल । ‘कंपनी’ से सरकाया हुआ माल । तेरी बीवी और तेरा वो खुफिया माल दोनों इस वक्त मेरे कब्जे में हैं ।”
“मेरे ऐसा कोई माल नहीं ।”
“कहना आसान है । लेकिन ये कहना आसान न होगा कि तेरी लवलीन जैसी कोई बीवी भी नहीं । बीवी से तो मुकर सकता ही नहीं लेकिन जब मैं माल समेत तेरी बीवी को लेकर तेरे जोड़ीदार व्यास शंकर गजरे के पास जाऊंगा और जब तेरी बीवी खुद अपनी जुबान से अपने पूना वनवास की दास्तान गजरे को सुनाएगी तो माल से भी नहीं मुकर सकेगा ।”
“तू चाहता क्या है ?”
“मैं तो तेरी गर्दन काटकर राजाबाई टावर पर टांगना चाहता हूं । तू बता तू क्या चाहता है ?”
“इस वक्त... इस वक्त तू-क्या चाहता है ?”
“वो भी तू ही बता, तू क्या चाहता है ?”
“फोन तूने किया है । ”
“ठीक है । फिर मेरे से ही सुन ।”
“सुन रहा हूं ।”
“तुका को छोड़ ।”
“बदले में तू मेरा माल और मेरी बीवी वापस लौटाएगा ?”
“माल नहीं, सिर्फ बीवी ।”
“और माल की बाबत कुत्ते की तरह भौंक के दिखलाएगा ?”
“तेरी कुतिया की भौंक की जुगलबंदी के बिना मेरा भौंकना कारगर साबित नहीं हो सकता । क्या समझा ?”
“क्या सबूत है कि मेरी बीवी तेरे कब्जे में हैं ?”
“अभी तूने बात नहीं की उससे ? दोबारा बात कर ले ।”
“वो कोई और हो सकती है । किसी की भी आवाज खी हूबहू नकल कर लेने वाले कलाकर बहुत मिलते हैं मुम्बई शहर में ।”
“मैं उसे फोन वापिस देता हूं । तू उसस कोई ऐसा सवाल कर ले जिसका जवाब तेरी बीवी के अलावा किसी और को मालूम न हो सकता हो ।”
“उसमें भी धोखा हो सकता है ।”
“तो तू ही बोल तू क्या चाहता है ?”
“अगर मेरी बीवी तेरे कब्जे में हो तो उसे लेकर यहां आ जा ।”
“यहां कहां ?”
“जहां फोन कर रहा है । मेरे पास ।”
“होटल में ?”
“हां । लवलीन को छोड़ जा । तुका को ले जा ।”
“ठीक है । मैं तेरी ये ख्वाहिश भी पूरी किए देता हूं । मैं पांच मिनट में होटल सी व्यू पहुंच रहा हूं । लॉबी में मिलना ।”
“पांच मिनट में ?”
“कोई एतराज ?”
“यानी कि तू करीब ही कहीं है ?”
“कोई एतराज ?”
खामोशी ।
“रात के तीन बजे” - विमल व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला - “इतने शार्ट नोटिस पर प्यादों की फौज जमा करने में दिक्कत महसूस कर रहा होगा ।”
“ऐसी कोई बात नहीं ।”
“हो भी तो मुझे कौन सी परवाह है । इकबालसिंह, ये क्या तुझे समझाना पड़ेगा कि तेरे किसी प्यादे की किसी ओहदेदार की या खुद तेरी एक टेढी निगाह भी मेरे ऊपर पड़ी तो तेरी बीवी मरी पड़ी होगी ।”
“मेरा कोई गलत इरादा नहीं ।”
“हो भी तो उससे मेरी वजह से भले ही बाज मत आना ।”
“जुबानदराजी अच्छी कर लेता है ।”
“कभी तेरे बाप बखिया ने भी मेरी इस खूबी की तारीफ की थी ।”
“तो तू आ रहा है ?”
“हां । पांच मिनट में । लॉबी में मिलना । तुका के साथ ।”
विमल ने फोन वापस डैशबोर्ड पर टांग दिया ।
“अब” - वह तबलीन की तरह घूमा और खेदपूर्ण स्वर में बोला - “थोड़ी-सी तकलीफ तुम्हें उठानी होगी ।”
लवलीन खामोश रही ।
विमल के इशारे पर वह फिर कार कि पिछली सीट पर वागले के पास पहुंच गई । वागले ने एक मजबूत डोरी से पहले टखनों के पास उसके पांव और फिर कलाइयां बांधी । फिर उसकी गोद में एक बंद ब्रीफकेस रखकर ब्रीफकेस के हैंडल को मजबूती से लवलीन के हाथों से और कलाइयों से लिपटी रस्सी से बांध दिया । अंत में उसने लवलीन के मुंह पर डॉक्टरों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले प्लास्टर टेप की एक चौड़ी पट्टी चिपका दी ।
“थोड़ी-सी जहमत” - विमल मीठे स्वर में बोला - “ये सोचकर गवारा कर ले कि ये भी तो सकता था कि तुम्हें पूना से ही इसी हालत में लाया जाता ।”
लवलीन ने सहमित में सिर हिलाया ।
“तुम्हारे जैसी परीचेहरा औरत के साथ ये बरताव करते मेरा दिल दुखता है लेकिन क्या करूं - खूबसूरत औरत होने के साथ-साथ तुम एक सुपर गैंगस्टर की बीवी भी तो हो ।”
लवलीन ने कोई प्रतिक्रिया न जताई ।
विमल ने अपने कोट की दाईं जेब में रखा टी.वी. का वो रिमोट कंट्रोल चौकर किया जो उसने पूना में लवलीन के बेडरूम से उठाया था और फिर होंठों में बुदबुदाया - वाहे गुरु सच्चे पातशाह ! तू मेरा राखा सबनी थांही ।
उसने कार आगे बढाई । कार एयरपोर्ट के पहलू से होती हुई सैंतूर होटल के सामने पहुंची जहां कि विमल ने वागले को उतार दिया ।
वागले को मालूम था कि आगे उसने क्या करना था ।
विमल ने कार आगे नेहरू रोड पर दौड़ाई ।
विले पार्ले स्टेशन के करीब रेलवे लाइन पार करके वह घोड़बंदर रोड चौराहे पर पहुंचा । चौराहा पार करके वह नेहरू रोड पर ही आगे बढा ही था कि एकाएक कार के ऐन सामने एक आदमी जैसे सड़क फाड़कर प्रकट हुआ । विमल ब्रेक के पैंडल पर लगभग खड़ा ही न हो गया होता तो कार यकीनन उस शख्स की रौंदती हुई गुजर गई होती ।
कार के नीचे आने से बाल-बाल बचा आदमी अपने दोनों हाथ अपने कंधों से ऊपर उठाकर उसकी तरफ हिला रहा था ।
तब विमल ने उसे पहचाना ।
वो फिरोजा का पिलपिलाया-सा उम्रदराज खाविंद नौशेरवानजी था ।
विमल चिंतित हो उठा । इतनी रात गए उसका यूं वहां टकराना महज इत्तफाक नहीं हो सकता था ।
वह कार से बाहर निकला और उसके करीब पहुंचा ।
“म...मैं” - नौशेरवानजी कंपित स्वर में बोला -“बड़ी मुश्किल से तुम्हें पहचान पाया । एक सैंकेड भी और देर हो जाती तो तुम निकल ही गए थे ।”
“तुम मेरी वजह से यहां मौजूद हो ?” - विमन हैरानी से बोला ।
“हां । इस सड़क के सिरे पर होटल सी-व्यू है । मेरा ख्याल था कि पूना गए तुम होटल लौटोगे तो इसी सड़क से गुजरोगे ।”
“तुम्हें मालूम था, मैं पूना गया हुआ हूं ?”
“हां ।”
“और इस वक्त लौटूंगा ?”
“ये नहीं मालूम था । मैं थोड़ी पहले ही यहां पहुंचा हूं । मेरा कम-से-कम कल शाम तक यहां ठहरने का इरादा था ।”
“मेरी ही फिराक में ?”
“हां ।”
“क्यों ?”
“फिरोजा ने बोला ।”
“फिरोजा ने बोला ? नौशेरवानजी, पहेलियां न बुझाओ । जो कहना है एक ही बार में कहो ।”
“ये... ये चिट्ठी पढो ।”
विमल ने एक मुड़ा-तुड़ा लिफाफा उसके हाथ से ले लिया । उसने उसका भीतर से चट्ठी निकाली और उसे खोलकर कार की हैडलाइट्स में उसका मुआयना किया । चिट्ठी होटल सी-व्यू के लेटरहैड पर थी और नौशेरवानजी से संबोधित थी । लिखा था:
डियर नौशेरवानजी,
मैं यहां दोनों बच्चों के साथ होटल सी-व्यू कमरा नंबर 608 में नजरबंद हूं । हमारा मोहसिन, जो अपना नाम विमल बताता है, पूना गया हुआ है और उसकी आज रात या कल सबह वापिसी की उम्मीद है । ये होटल मवालियों का अड्डा मालूम होता है और इसको चलाने वाले विमल के जान के दुश्मन । मुझे यहां से निकलने नहीं दिया जा रहा । फोन करने पर बात के बीच में सुन लिये जाने का खतरा है । ये चिट्ठी भी मैं बड़ी मुश्किल से तुम तक पहुंचा पाई हूं । मैं चाहती हूं कि तुम किसी तरह विमल के होटल पहुंचने से पहले उसे रास्ते में ही रोककर खबरदार कर दो कि यहां होटल में उसका कोई निहायत हौलनाक अंजाम उसका इंतजार कर रहा है । तुम फिलहाल मेरी फिक्र न करना लेकिन अगर कल शाम तक विमल से न मिल सको तो फिर मेरे लिए जो ठीक समझना, करना ।
तुम्हारी
फिरोजा
विमल ने चिट्ठी तह कर के वापिस लिफाफे में रखी और नौशेरवानजी की तरफ देखा ।
खौफजदा नौशेरवानजी के चेहरे पर बड़े दयनीय भाव थे ।
“नौशेरवानजी” - विमल उसका कंधा थपथपाता हुआ आश्वासनपूर्ण स्वर में बोला - “तुम कतई नहीं घबराओ ।”
“ल... लेकिन” - वह हकलाया - “लेकिन फिरोजा...”
“उसका बाल भी बांका नहीं होगा । अभी इस घड़ी तुम उसे अपने साथ यहां से लेकर जाओगे ।”
“ऐसा... ऐसा कैसे होगा ?”
“होगा । ऐसा ही होगा । तुम्हारे सामने होगा ।”
“लेकिन तुम...”
“तुम मेरी फिक्र न करो । तुम एक टैक्सी पकड़ लो और...”
“मैं कार लाया हूं ।”
“फिर तो और भी अच्छा है । तुम अपनी कार में बैठो और होटल सी-व्यू पहुंचो । कार को होटल की लॉबी में ले जाने की जगह बाहर सड़क पर ही खड़ी रखना । जब फिरोजा बच्चों के साथ बाहर निकले ते उसे बिठाकर वहां से कूच कर जाना ।”
“वो बाहर निकलेगी ?”
“निकलेगी । क्यों नहीं निकलेगी ?”
“वो तो... वो तो कहती है कि वहां नजरबंद है ।”
“अब नहीं रहेगी । तुम जैसा मैं कहता हूं, वैसा करो । चलो ।”
सहमति में सिर हिलाते हुए नौशेरवानजी को सड़क पर ही छोड़कर विमल वापिस कार में सवार हो गया ।
कार फिर होटल सी-व्यू की ओर दौड़ चली ।
ये विमल की खुशकिस्मती थी कि वह रोजमर्रा की तरह होटल नहीं लौट रहा था । रोज की तरह लौट रहा होता तो यकीनन पकड़ा जाता ।
जो तिसु भावे सोई करसी - वह मन-ही-मन बोला - हुक्म न करना जाई ।
***
“होटल तक पहुंचे के तीन ही रास्ते हैं ।” - इकबालसिंह बोला - “तीनों की नाकाबंदी करना ।”
डोंगरे ने सहमति में सिर हिलाया । होटल का एक कर्मचारी उसे सोते से जगाकर वहां लाया था और उसकी आंखों अभी रह-रहकर मुंदी जा रही थीं ।
“डोंगरे !” - इकबालसिंह कर्कश स्वर में बोला - “होश में आ जा ।”
“मैं होश में हूं ।” - डोंगरे हड़बड़ाकर बोला ।
“नहीं है ।”
बड़े नुमाइशी ढंग से डोंगरे ने अपनी गर्दन झटकी और आंखें मिचमिचाई ।
“होटल आती बार” - इकबालसिंह बोला - “उसे भनक नहीं लगनी चाहिए कि कोई उसकी ताक में है । आती बार सिर्फ उसकी कार पहचान में रखनी है लेकिन जाती बार वो किसी भी रास्ते से क्यों न जाए, यहां से जिंदा बच के नहीं जा पाना चाहिए ।”
“नहीं जा पाएगा ।” - डोंगरे पूरे विश्वास के साथ बोला - “वो एक बार आ जाए सही यहां, फिर...”
“आ तो रहा ही है वो ।”
“बाप, तुम्हेरी बीवी कैसे उसके हाथ लग गई ?”
“बकवास बंद । ये कैसे-कैसे करने का वक्त नहीं ।”
“बरोबर, बाप ।”
“और बीवी-बीवी क्या करता है । मैडम का नाम अदब से ले ।”
“खता हुई, बाप ।”
“डोंगरे, लवलीन हर हाल में यहां सलामत पहुंचनी चाहिए लेकिन वो साहल का बच्चे और तुकाराम यहां से जिंदा बच के नहीं जाने चाहियें ।”
“नहीं जाएंगे, बाप । मैं अभी सब इंतजाम करता हूं ।”
“जल्दी कर । वो आता ही होगा । सब इंतजाम उसके आने से पहले कर ।”
“ठीक है, बाप ।”
“मैं तुझे लॉबी में मिलूंगा ।”
डोंगरे सहमति में सिर हिलाया तत्काल वहां से दौड़ चला ।
***
विमल ने कार होटल सी-व्यू की लॉबी में रोकी और भीतर निगाह दौड़ाई ।
भीतर रिसेप्शन कमेटी के तौर पर उसे इकबालसिंह, श्याम डोंगरे और कोई दर्जन-भर सशस्त्र प्यादे दिखाई दिए । वैसे रात की उस घड़ी लॉबी में मुकम्मल सन्नाटा था ।
विमल कार से बाहर निकला । बड़ी लापरवाही से उसने अपना पाइप सुलगाया और फिर बड़ी शान से चलते हुए लॉबी में कदम रखा ।
रिमोट कंट्रोल हर घड़ी उसके हाथ में था ।
लापरवाही से पाइप के कश लगाता वह इकबालसिंह के करीब पहुंचा ।
“हल्लो एवरीबॉडी ।” - वह चहका ।
किसी ने उत्तर न दिया ।
“कमाल है जिस वाहिद आदमी की तलाश में कंपी का बच्चा-बच्चा तड़प रहा है, उसे सामने पाकर किसी के चेहरे पर कोई खुशी नहीं ।”
“लवलीन कहां है ?” - इकबालसिंह सख्ती से बोला ।
“क्या बात है ! कार में बैठी दिखाई नहीं दे रही ?”
“इतने फासले में सिर्फ ये दिखाई दे रहा है कि कार में एक औरत बैठी है ।”
“तो करीब जाकर तसदीक कर ले ।”
इकबालसिंह ने आगे कदम बढाया ।
“एक बात का ध्यान रखना ।” - विमल चेतावनी-भरे स्वर में बोला ।
इकबालसिंह ठिठका ।
“कार में एक शक्तिशाली बम मौजूद है । उस बम का रिमोट कंट्रोल मेरे हाथ में हैं । तूने जरा भी कोई होशियारी दिखाने को कोशिश की तो मैं रिमोट का बटन दबा दूंगा । फिर लवलीन समेत कार, साथ में तू और होटल की आधी लॉबी भक्क से उड़ जाएगी ।”
इकबालसिंह को जैसे सांप सूंघ गया ।
“तो” - कई क्षण बाद वह बोला - “ये राज है तेरी दिलेरी का !”
“हां ।” - विमल इकबालसिंह की नकल करता हुआ बोला - “तो ये राज है मेरी दिलेरी का ।”
इकबालसिंह खून का घूंट के रह गया । फिर वह लंबे डग भरता हुआ कार के करीब पहुंचा । उसने झुककर अपनी पत्नी पर निगाह डाली, आंखों-ही-आंखों में उसे आश्वासन दिया और वापिस लौटा ।
“मैं” - वह विमल के करीब आकर बोला - “तुका को बुलवाता हूं ?”
विमल ने इनकार में सिर हिलाया ।
“क्या मतलब ?” - इकबालसिंह के माथे पर बल पड़े ।
“पहले” - विमल बोला - “मेरी बीवी बच्चों को बुलाओ ।”
“तेरे बीवी बच्चे !”
“छः सौ आठ में मौजूद औरत और उसके साथ के दो बच्चे जो यहां नजरबन्द हैं ।”
इकबालसिंह के साथ-साथ डोंगरे के चेहरे पर भी हैरानी के भाव आए ।
“कैसे जाना ?” - डोंगरे के मुंह से निकला ।
“क्या ?” - विमल बोला ।
“कि वो यहां नजरबंद हैं ?”
“फिर मैं पूछूंगा कि तूने कैसे जाना कि मैं होटल में ही ठहरा हुआ हूं । साले काने, मैं यहां नोट्स एक्सचेंज करने नहीं, बंदी एक्सचेंज करने आया हूं ।”
“एक बंदी के बदले में एक बंदी ही बदला जा सकता है ।”
“अहमक ?”
“क्या ?” - डोंगरे आंखें निकालकर बोला ।
“क्या नहीं, कौन पूछ । ताकि मैं जवाब दे सकूं तू । बेवकूफ, जब तुझे ये पता लग ही गया है कि वो औरत मेरी बीवी नहीं, वो बच्चे मेरे बच्चे नहीं और मैं उनके पास यहां लौटकर नहीं आने वाला तो अब क्या तू उनका अचार डालेगा ?”
“तेरा” - इकबालसिंह बोला - “उनसे कुछ लेना-देना नहीं तो तू उनको रिहा क्यों कराना चाहता है ?”
“क्योंकि वो मेरी वजह से यहां हैं इसलिए उनकी रिहाई मेरी जिम्मेदारी है ।”
“बिल्कुल ! अब क्योंकि तू एक जिम्मेदार आदमी है इसलिए इस जिम्मेदारी की भी तो कोई कीमत अदा कर ।”
“करीब आ ।”
“क्यों ?”
“कान में सुनने लायक बात है ।”
इकबालसिंह झिझकता हुआ उसके करीब पहुंचा ।
“इसकी कीमत मैं ये अदा करता हूं - विमल धीमे स्वर में बोला - “कि मैं तेरी पूना वाली करतूत की खबर गजरे को नहीं होने दूंगा ।”
“माल ?” - इकबालसिंह भी वैसे ही दबे स्वर में बोला ।
“वो वापिस नहीं मिल सकता ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि वो किसी और की अमानत बन चुका है ।”
“किसकी ? कालिया की ?”
विमल ने हैरानी से उसकी तरफ देखा ।
“मैं इतना मूर्ख नहीं, जितना तू समझता है । लवलीन और उसकी पूना में मौजूदगी की वजह की जानकारी तुझे सात जन्म नहीं लग सकती थी । तेरी पीठ पर शर्तिया कोई है और वो कोई इब्राहीम कालिया के अलावा दूसरा कोई नहीं हो सकता ।”
“मैं बहस नहीं करना चाहता । माल नहीं मिल सकता ।”
“मेरा माल इतनी आसानी से किसी को हजम नहीं होने वाला । मैं कालिया की...”
“वो सब बाद की बातें हैं । यूं रात खोटी करने का कोई फायदा नहीं । ऐसे तो बहस-मुसाहबों में ही सवेरा हो जाएगा । जो फैसला करना है जल्दी करो, वरना मैं जाता हूं ।”
“ऐसे कैसे चला जाएगा ?”
“मुझे रोकने की कोशिश की तो मैं रिमोट का बटन दबा दूंगा । फिर अपनी खूबसूरत बीवी के खूबसूरत जिस्म के लोथड़े लॉबी की छत पर से खरोंचकर उतारना ।”
इकबालसिंह सोच में पड़ गया ।
“जल्दी फैसला कर ।” - विमल सख्ती से बोला ।
“डोंगरे ।” - इकबालसिंह उच्च स्वर में बोला - “उस औरत को और बच्चों को बुलवा ।”
डोंगरे रिसेप्शन पर पहुंचा । वहां से उसने ऊपर फोन किया ।
दो मिनट बाद इंदौरी फिरोजा और दोनों बच्चों के साथ लॉबी में पहुंचा ।
दर्जन-भर लोगों से घिरे विमल को लॉबी में पाकर फिरोजा के छक्के छूट गए ।
विमल ने मुस्कराकर आंखों ही आंखों में उसे आश्वासन दिया, इशारे से उसे अपने करीब बुलाया और दबे स्वर में उसे बाहर सड़क पर उसके पति की मौजूदगी की बाबत बताया ।
फिरोजा बच्चों के साथ तत्काल बाहर को बढ चली । उसे यूं वहां से जाने दिया जा रहा था यही उसके लिए पर्याप्त आश्वासन था कि विमल का भी वहां कुछ नहीं बिगड़ने वाला था ।
फिरोजा बच्चों के साथ दृष्टि से ओझल हो गई तो विमल बोला - “नाओ तुकाराम प्लीज ।”
डोंगरे खुद बेसमेंट में गया और तुकाराम को साथ लेकर आया ।
लॉबी में विमल को मौजूद पाकर वो भी बुरी तरह हकबकाया ।
विमल ने उसे लॉबी के दरवाजे पर खड़ी कार में जा सवार होने का इशारा किया ।
कई कहर-भरी निगाहों का बोझ खुद पर महसूस करता हुआ तुकाराम जाकर कार की अगली सीट पर बैठ गया ।
“अलविदा दोस्तो ।” - विमल बोला - “फिर मुलाकात होगी ।” - उसने एक क्षण अपलक इकाबालसिंह की तरफ देखा और फिर बोला - “खासतौर से तेरे से इकबालसिंह ।”
वह बाहर को बढा ।
“लेकिन” - इकबालसिंह सख्ती से बोला - “लवलीन...”
“अभी आती है ।” - विमल बोला ।
“उसके कार से बाहर निकलने से पहले तू भीतर न बैठने पाए ।”
“ऐसा ही होगा, मेरे आका ।”
वह कार के करीब पहुंचा । उसने कार के अपने ओर के दोनों दरवाजे खोले । पहले उसने रिमोट तुकाराम को थमाया जो कि उसने चेहरे पर गहन उलझन के भाव लिए झिझकते हुए थामा ।
विमल ने लवलीन के पैरों के बंधन खोले और फिर सहारा देकर उसे कार से बाहर निकाला । ब्रीफकेस उसके हाथों के साथ बंधा होने की वजह से वह उससे निजात नहीं पा सकती थी ।
विमल जानता था उस वक्त तमाम निगाहें उसके एक-एक एक्शन को नोट कर रही थीं और कई हथियार उसकी तरफ तने हुए थे ।
विमल के संकेत पर भारी कदमों से लड़खड़ाती-सी चलती लवलीन अपने पति और उसके मुसाहिबों की ओर बढी ।
“इकबालसिंह !” - विमल चेतावनी-भरे स्वर में बोला - “बम ब्रीफकेस में है । रिमोट इतना शक्तिशाली है कि एक मील फासले से भी इसका बटन दबाया जाएगा तो बम फट जाएगा । इसलिए मुझे रास्ते पर भी रोकने की कोशिश करना लवलीन के लिए जानलेवा कदम होगा ।”
“आज बाजी तेरे हाथ में है सरदार ।” - इकबालसिंह बड़े बेबस अंदाज में बोला - “तुझे कोई नहीं रोकने वाला ।”
विमल कार की ड्राइविंग सीट पर बैठा । तत्काल उसने कार बाहर को दौड़ा दी ।
“अपने आदमियों को खबर कर ।” - इकबालसिंह कार के सरकना शुरू करते ही डोंगरे से बोला - “उन्हें कह अभी कोई सोहल पर हमला न करे । जब वो होटल से एक मील दूर निकल जाए तो बेशक उस पर टूट पड़ें ।”
डोंगरे अपने ऑफिस की ओर भागा जहां कि वो वायरलेस टेलीफोन सिस्टम स्थापित था जिसके द्वारा उन तीनों पार्टियों से बात हो सकती थी जो कि सोहल की ताक में तीन रास्तों पर बिठाई गई थीं ।
इकबालासिंह ने आगे बढकर खुद लवलीन के बंधन खोले और ब्रीफकेस को उसकी गिरफ्त से अलग गिया ।
उसने डरते-झिझकते ब्रीफकेस खोला ।
भीतर से केवल एक ईंट बरामद हुई ।
उसका चेहरा कानों तक लाल हो गया । तब तक लवलीन ने अपने मुंह पर चिपकी प्लास्टर की पट्टी खुद उतार ली थी, वह हांफती हुई बोली - “उसके पास जो रिमोट था, वो भी टीवी का मामूली रिमोट कंट्रोल था ।”
क्रोध और बेबसी में इकबालसिंह का लाल-भभूका चेहरा लाल से बैंगनी होने लगा । सोहल का नाम ले-ले के गालियां बकता वो डोंगरे के ऑफिस की ओर दौड़ा ।
“रुक जा डोंगरे ।” - वो गरज रहा था - “कुछ मत कह । कहना है तो यही कह कि सोहल की कार का पुर्जा-पुर्जा उड़ा दिया जाए । बच के न जाने पाए हरामजादा ।”
विमल को अपने रास्ते में कहीं नाकाबंदी दिखाई चाहे नहीं दी थी लेकिन ऐसी नाकाबंदी की उसे पूरी उम्मीद थी । इसी वजह से उसने वागले के साथ ये प्रोग्राम फिक्स किया था कि वह जुहू रोड पर ही होटल सी-व्यू से थोड़ा आगे स्थित होटल हालीडे इन के करीब एक अन्य कार के साथ मिले ।
जिस अन्य कार के साथ वागले उन्हें मिला वो होटल हाली-डे इन की ही स्वराज माजदा एयरकंडीशन मिनी बस थी जिसके दोनों पहलुओं पर होटल का नाम लिखा था और उसे होटल का वर्दीधारी ड्राइवर चला रहा था ।
तुकाराम और विमल वागले के साथ उस बस में सवार हो गए ।
बस में दिखाने को छः सवारी और थीं रात के तीन बजे जिनका आननफानन इंतजाम करना वागले के ही बूते की बात थी ।
होटल हालीडे इन के मुअज्जित मेहमानों से भरी हुई वो बस, काली कांटेसा के लौटने के इंतजार में जुहू रोड पर घात लगाए बैठे डोंगरे के आदमियों की ऐन नाक के नीचे से गुजरी ।
उन्होंने बस पर दूसरी निगाह तक न डाली ।
विमल, तुकाराम और वागले निर्विघ्न डोंगरे द्वारा आयोजित नाकाबंदी से बाहर निकल गए ।
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