थाने पहुंचते ही मेरा खेल खत्म हो गया । मुझे थानाध्यक्ष ने ही पहचान लिया ।
“तुम फरार थे” - वह तीखे स्वर में बोला ।
“फरार !” - मैं बोला ।
“हां, फरार । जब किसी शख्स की पुलिस को तलाश हो और वह उससे बचता फिरे तो वह फरार ही माना जाता है ।”
“मैं पुलिस से बचता फिर रहा हूं ?”
“हां । इसलिए अभी तुमने अपनी आइडेंटिटी छुपाने की कोशिश की और अपने आपको अनिल साहनी नाम का वकील बताया । इसीलिये पिछली रात सोने के लिये तुम अपने फ्लैट पर नहीं गए । इसीलिये आज सारा दिन तुम अपने ऑफिस में नहीं घुसे ।”
“मुझे नहीं मालूम था कि पुलिस को मेरी तलाश थी ।”
“बकवास ! यह बात अखवार तक में छपी है ।”
“आज का अखबार देखने का इत्तफाकन मुझे मौका नहीं मिला ।”
“और अपने घर और ऑफिस भी तुम इत्तफाकन नहीं घुसे ?”
“हां ।”
“अभी निकालते हैं हम तुम्हारे सारे इत्तफाक ।” - वह मातहतों की तरफ घूमा और बोला - “इसका पंचनामा तैयार करो और इसे बन्द कर दो ।”
“बन्द कर दो !” - मैं चिल्लाया - “क्यों बंद कर दो ? सिर्फ इसलिए क्योंकि मेरे पास चंद जाली नोट निकले हैं ?”
“देखो साले को” - थानाध्यक्ष कहर भरे स्वर में बोला - “कैसा भोला बनके दिखा रहा है । अबे, तुझे इसलिए बंद किया जा रहा है क्योंकि तुझ पर कत्ल का इल्जाम है, क्योंकि तूने मुकेश मैनी नाम के एक आदमी का कत्ल किया है ।”
“मैंने उसका कत्ल नहीं किया ।”
“मुझे क्या बताता है ! यही बात कल कोर्ट में मजिस्ट्रेट को समझाना । यह भी समझाना उसे कि क्यों मरने वाला बतौर कातिल तेरा नाम लेकर मरा था और जिस रिवॉल्वर से कत्ल हुआ था, वह क्यों कर तेरे ऑफिस की मेज के दराज में पहुंची थी ।”
मैं घबरा गया । वह पुलिसिया तो मेरी फुल ऐसी-तैसी करने पर उतारू था ।
“मैं फोन करना चाहता हूं” - मैं व्याकुल भाव से बोला ।
“हमारे यहां लॉकअप में अभी फोन नहीं लगे ।”
“मुझे फोन करने का अधिकार है । मैं सिर्फ एक फोन करना चाहता हूं ।”
“किसे ? पुलिस कमिश्नर को या लेफ्टिनेंट गवर्नर को ? या कोई और ऊंची शख्सियत है तुम्हारी निगाह में ?”
“मैं सिर्फ अपने ऑफिस में अपनी सैक्रेट्री को फोन करना चाहता हूं ।”
“हां, उसे तो कर लो । बेचारी कोई नई नौकरी तलाश कर लेगी ।”
उसने अपनी मेज पर पड़ा टेलीफोन मेरी ओर धकेल दिया ।
बड़ी व्यग्रता से मैंने अपने ऑफिस का नंबर डायल किया ।
दूसरी तरफ से फौरन फोन उठाया गया ।
“युनिवर्सल इन्वेस्टीगेशन” - मुझे रजनी की मधुर आवाज सुनाई दी ।
“मैं बोल रहा हूं ।”
“मैं कौन ?”
“सुधीर कोहली । तुम्हारा एम्प्लॉयर ।”
“मैं सुबह से आपके फोन का इन्तजार कर रही हूं । यहां पुलिस वाले बार-बार आ रहे हैं और...”
“छोड़ो । वो अब और नहीं आयेंगे । उनका काम हो गया है ।”
“यानी कि आप गिरफ्तार हो गये हैं और आपने अपना अपराध स्वीकार कर लिया है ।”
मेरी ऐसी-तैसी हुई जा रही थी और मेरी वो कमबख्त सैक्रेट्री हंस रही थी, बात की चुस्कियां ले रही थी ।
“मैं गिरफ्तार हो गया हूं और इस वक्त कनाट प्लेस थाने में हूं । मैं तुम्हें कुछ नाम लिखवा रहा हूं । सबके पते और फोन नंबर डायरेक्टरी में हैं । तुमने उनमें से किसी से या सबसे, जैसा भी मुमकिन हो, संपर्क करना है, उन्हें हकीकत बतानी है और उन्हें कहना है कि वे फौरन से फौरन मुझे जमानत पर छुड़वाने का इंतजाम करें ।”
“कत्ल के केस में जमानत हो जाती है ?” - वह विनोदपूर्ण स्वर में बोली ।
“रजनी की बच्ची” - मैं दांत पीसता हुआ बोला - “मैं...”
“यस, सर ! यस, सर ! नाम बोलिए ।”
मैंने उसे नगर के चार-पांच ऐसे गणमान्य व्यक्तियों के नाम लिखवाये जिनकी कभी-न-कभी मैंने बहुत कीमती खिदमात की थी और जो खुद को मेरा अहसानमंद मानते थे ।
“कोई नहीं आने का” - मेरे फोन रखते ही थानाध्यक्ष बोला ।
मैंने हड़बड़ाकर उसकी तरफ देखा ।
“शाम का वक्त है” - वह बोला - “किसी ने पार्टी पर जाना होगा तो किसी के घर में पार्टी होगी, लोगों ने उसके वहां आना होगा । किसे फुर्सत होगी एक मामूली प्राइवेट डिटेक्टिव की खातिर इधर-उधर नाचते फिरने की !”
“मैंने इन लोगों की बहुत सेवाएं की हैं, वे मेरा बहुत अहसान मानते हैं ।”
“फिर भी नंगे पांव दौड़ा कोई नहीं चला आने वाला । ये रईस लोग तभी तक गले लगाकर दिखाते हैं जब तक फंसे होते हैं, उसके बाद जुबानी जमा खर्च ही होता है कि भई कोई काम हो तो बताना ।”
“ऐसा नहीं होगा” - मैं आश्वासन हीन स्वर में बोला ।
“ऐसा ही होगा । बड़ी हद होगी तो कोई यहां फोन करवा देगा के हवालात में हमारे बन्दे को कोई तकलीफ न होने देना । फिर सुबह तक किसी का कोई वकील पहुंच जाएगा और बाकी के दिन में अगर किसी को कतई कोई काम न हुआ और इत्तफाकिया इधर से गुजर रहा हुआ तो वह यहां आकर तुम्हें कोई जुबानी तसल्ली दे जाएगा । इसलिए कहते हैं दोस्ती अपनी बराबरी में करनी चाहिए ।”
“कोई न कोई जरुर आएगा” - मैं एक-एक शब्द पर जोर देता हुआ बोला - “कोई क्या सब आयेंगे ।”
थानाध्यक्ष ने जोर का अट्टहास किया ।
फिर मैं लॉकअप में बंद ।
कोई न आया ।
फिर कोई आया तो वो जिसके आगमन की मुझे सबसे कम उम्मीद थी ।
कमला ओबराय आयी ।
कमला ओबराय वो औरत थी जिसको मैंने उसके पति की हत्या के इल्जाम से निजात दिलाई थी । अपने पिछले केस के दौरान आपके खादिम ने उससे शादी करने का वायदा किया था । जिससे बाद में मुकरने के लिए मुझे दान्तों पसीने आ गये थे ।
मेरा अहसान याद रखा तो एक औरत ने ।
हाईकोर्ट का एक माना हुआ वकील वह अपने साथ लाई थी ।
उन दोनों ने थाने में बैठकर दिल्ली शहर की हाई सोसायटी का वो चक्का घुमाया कि जमानत के काबिल केस न होते हुए भी जमानत हुई, जमानत का कोई वक्त न होते हुए भी जमानत हुई ।
दस बजे से पहले मैं आजाद था ।
मैंने कड़क नौजवान धनाढ्य विधवा का जिसका नाम कमला ओबराय था, शुक्रगुजार होने की कोशिश की लेकिन उसने मुझे बीच में ही टोक दिया ।
“जिस झमेले में उलझे हुए हो” - वह बोली - “उससे निपट जाओ तो घर पर आना, फिर तुम्हें मैं सिखाऊंगी कि औरत से कैसे शुक्रगुजार हुआ जाता है ।”
“मैं जरुर आऊंगा ।”
“पहले तो रास्ता भूल गए थे ।”
“मैं जरुर-जरुर आऊंगा !”
“ठीक है, आना । और एक मेहरबानी और करना ।”
“क्या ?”
“कहीं गायब न हो जाना ! ऐसा हुआ तो मेरे जिन राजनैतिक संबंधों की वजह से तुम्हारी जमानत हो पाई है उनके सामने मेरी बहुत किरकिरी होगी ।”
“मैं ऐसी नौबत नहीं आने दूंगा ।”
“शुक्रिया । मुझे तुमसे ऐसी ही उम्मीद है ।”
रात के वक्त काली बाड़ी मार्ग पर मंजू मैनी का फ्लैट तलाश करने में मुझे थोड़ी दिक्कत जरूर लेकिन फ्लैट ढूंढना तो था ही, मैंने ढूंढ लिया ।
उसका फ्लैट एक चार मंजिला इमारत की सबसे ऊपरली मंजिल पर था ।
सारी इमारत में सन्नाटा था, अलबत्ता कोई-कोई बत्ती जल रही थी ।
मंजु मैनी के फ्लैट की तो कोई बत्ती भी नहीं जल रही थी । जरूर वह सो चुकी थी ।
मैंने कॉलबैल बजाई ।
कोई उत्तर न मिला ।
मैंने कॉलबैल फिर बजाई, दरवाजे पर दस्तक दी और उसको नाम लेकर भी पुकारा ।
भीतर एक बत्ती जली लेकिन दरवाजा फिर भी न खुला । मुझे लगा जैसे दूसरी तरफ कोई चलकर दरवाजे तक आया हो ।
मैंने उसे फिर पुकारा और दरवाजे पर दस्तक दी ।
“कौन है ?” - पूछा गया । मुझे उसकी आवाज सुबकती सी लगी ।
“मैं हूं सुधीर । सुधीर कोहली । दरवाजा खोलो ।”
“दिन में आना ।”
“मेरा इसी वक्त तुमसे मिलना निहायत जरूरी है ।”
“मैं इस वक्त नहीं मिल सकती । दिन में आना ।”
“तुम रो क्यों रही हो ?”
जवाब न मिला ।
“मंजु ! दरवाजा खोलो मैं तुमसे मिले बिना नहीं जाने वाला । वैसे भी मुझे लग रहा है कि इस घड़ी तुम्हें किसी की मदद की जरूरत है । मंजु, दरवाजा खोलो प्लीज ।”
दरवाजा खुला ।
मैं भीतर दाखिल हुआ और फिर दरवाजे के दहाने पर ही ठिठक गया ।
कमरे का बुरा हाल था । कोई चीज अपनी जगह पर नहीं थी । किसी ने बहुत बेरहमी से वहां उथल-पुथल मचाई थी । जरूर कोई वहां ऐसी चीज की तलाश कर रहा था जिसके सामने इस बात का कोई महत्त्व नहीं था कि उसकी तलाश से फ्लैट का सारा सामान कबाड़ बन गया था ।
खुद मंजु की हालत बद थी । उसके कपड़े अस्त-व्यस्त थे, बाल बिखरे हुए थे और चेहरे पर ताजी बनी खरोंचो के निशान दिखाई दे रहे थे । आंसुओं से उसका चेहरा भीगा हुआ था । उसके होंठों की एक कोर से ठोड़ी तक खून की लकीर खींची दिखाई दे रही थी ।
“क्या हुआ” - मेरे मुंह से निकला ।
उसने उत्तर न दिया । उसकी आंखों से और आंसू ढुलक पड़े ।
मैंने एक सोफा चेयर को सीधा किया और उसे बांह पकड़कर उस पर बिठाया ।
एक स्टूल खींचकर मैं उसके सामने बैठ गया ।
“क्या हुआ ?” - मैंने फिर पूछा - “यहां कौन आया था ? कौन था वो जिसने तुम्हारी और तुम्हारे फ्लैट की यह गत बनाई ?”
“मुझे नहीं पता वह कौन था” - वह बड़ी कठिनाई से कह पायी - “मेरे आने से पहले ही वह यहां घुसा हुआ था । और यहां की तलाशी ले रहा था ।”
“तुमने सूरत देखी थी उसकी ?”
“हां ।”
“वह सूरत तुम्हारी पहचानी हुई नहीं थी ?”
“जरा भी नहीं ।”
“उसका हुलिया बयान कर सकती हो ?”
उसने किया ।
“वह चाहता क्या था ?”
“लाख रुपए का वो प्रोनोट जो मैंने दिन में तुम्हें सौंपा था ।”
“फिर तो वह जरूर बंसीधर होगा ।”
“उसने तो ऐसा नहीं कहा था ।”
“बंसीधर के अलावा और किसी की उस प्रोनोट में दिलचस्पी नहीं हो सकती । वह बंसीधर नहीं होगा तो उसका कोई आदमी होगा ।”
वह खामोश रही ।
“उसने यह कैसे सोच लिया कि प्रोनोट तुम्हारे पास होगा ?”
“क्या पता ? क्या पता उसे सिर्फ इतना मालूम रहा हो कि मैं मुकेश मैनी की बहन थी और वह अंदाजन यहां आया हो ।”
“तुमने कबूल किया था कि प्रोनोट तुम्हारे पास था ?”
“हां । मुझे करना पड़ा था । वरना वह मार-मारकर मेरी चमड़ी उधेड़ देता ।”
“और वह शिफान का टुकड़ा..”
“मैंने उसकी बाबत भी बताया था लेकिन उसमें उसने कतई कोई दिलचस्पी नहीं ली थी । उस बाबत तो उसने बात को ठीक से सुनने तक की कोशिश नहीं की थी ।”
“और क्या पूछा उसने ? उसने यह नहीं कहा कि तुम्हारे भाई का छोड़ा जो कुछ भी यहां था, तुम वह सब उसे दिखाओ ?”
वह खामोश रही ।
“जवाब दो ।”
वह निगाहें चुराने लगी ।
“जो बात मुझे वैसे ही मालूम है” - मैं तनिक वितृष्णापूर्ण स्वर में बोला - “उसे छुपाने से फायदा ।”
“मैं क्या छुपा रही हूं ?”
“तुम रुपए की बात छुपा रही हो । तुम्हारे भाई ने जो ब्रीफकेस तुम्हारे पास छोड़ा था, उसमें कुछ रुपया भी था । कहो कि मैं गलत कह रहा हूं ।”
उसने उत्तर न दिया । भय के साथ अब उसके चेहरे से चिंता भी परिलक्षित होने लगी ।
“उस रुपए को तुमने खर्चने की कोशिश तो नहीं की ?”
मेरे स्वर में चेतावनी का कुछ ऐसा भाव था कि उसने चौंककर सिर उठाया ।
“वो रुपया कोरे कागज की कीमत का भी नहीं है ।”
“क...क्या मतलब ?”
“सारे नोट जाली हैं । उन्हीं में से पांच सौ रुपए तुमने मुझे दिये थे जिन्हें मैंने चलाने की कोशिश की तो मैं गिरफ्तार हो गया । तुम्हें मेरा अहसान मानना चाहिए कि इस सिलसिले में मैंने तुम्हारा नाम नहीं लिया वरना अब तक तुम भी जेल में होतीं । मैं तो किसी तरह से छूट गया, तुम छूट भी न पातीं ।” - “मैं एक क्षण ठिठका और फिर अपलक उसे देखता हुआ बोला - “अब बोलो क्या कहती हो उस रुपए के बारे में ?”
“बाकी चीजों के साथ”- वह कठिन स्वर में बोली - “मुकेश के ब्रीफकेस में सौ-सौ के नोटों की सूरत में बीस हजार रुपए भी थे ।”
“तुमने जिक्र क्यों नहीं किया उनका ?”
“क्या जरूरत थी ? वह मेरे भाई का माल था, जो उसकी मौत के बाद वैसे ही मेरा था ।”
“मुझे तो उसके बारे में बताना था ।”
“मैंने जरूरी नहीं समझा था ।”
“बाकी चीजों के बारे में भी तो बताया था ।”
“बाकी चीजों का मुकेश के कत्ल से रिश्ता मुमकिन था ।”
“तब मुझे नहीं मालूम था कि वे जाली थे । मुझे तो अब भी...”
“उनके जाली होने का विश्वास नहीं । यही कहने जा रही थीं न ?”
उसने जवाब न दिया ।
“अब वे नोट कहां हैं ?”
“यहीं हैं ।”
“यहां कहां ?”
“रसोई में । आटे के ड्रम में ।”
“निकालकर लाओ ।”
तनिक हिचकिचाते हुए वह उठी और जाकर नोट ले आई ।
“कितने कम हैं ?” - मैंने नोटों पर से आटा झाड़ते हुए पूछा ।
“दस” - वह बोली - “पांच तुम्हें दिये थे । पांच मैंने अपने पास रखे थे ।”
“खर्चे तो नहीं ?”
“नहीं । नौबत नहीं आई ।”
“वो भी लाओ ।”
“अपने हैंडबैग में से निकालकर पांच और नोट उसने मुझे सौंपे ।”
मैंने तमाम नोटों का मुआयना किया । सब उसी किस्म के थे और उसी सीरियल के थे जो कि पुलिस ने मेरे पास से बरामद किए थे । यानी कि सब जाली थे ।
“तुम” - वह बोली - “इनका क्या करोगे ?”
“पुलिस को सौंपूंगा ।”
उसके चेहरे पर मायूसी के भाव आए ।
“ये नोट नहीं हैं” - मैं बोला - “रद्दी कागज के टुकड़े हैं । इनके लिए मायूस होना मूर्खता है ।”
उसने सहमति में सिर हिलाया लेकिन उसकी सूरत से मायूसी के भाव न गए ।
“यहां फोन है ?”
उसने इंकार में सिर हिलाया ।
“मैं कहीं से फोन करके आता हूं ।”
“अच्छा ।”
पंद्रह मिनट में इंस्पेक्टर यादव वहां पहुंच गया ।
तब तक मंजु ने अपना हुलिया सुधार लिया था और मुझे एक कप कॉफी भी पिला दी थी ।
मैंने यादव को सारी कहानी कह सुनाई और उसे सारे जाली नोट भी सौंप दिये ।
“बंसीधर ?” - फिर वह बोला - “इस नाम का कोई नोन क्रिमिनल तो मुझे याद नहीं आ रहा ।”
“नाम फर्जी भी हो सकता है” - मैं बोला ।
“फर्जी नाम का प्रोनोट कौन कबूल करेगा ?” - वह बोला ।
“मुकेश मैनी को नहीं पता होगा कि प्रोनोट लिखकर देने वाले का वह नाम फर्जी था ।”
“हूं” - उसने फ्लैट में चारों तरफ निगाह दौड़ाई और फिर मंजु से संबोधित हुआ - “वह आदमी, बंसीधर, क्या दस्ताने पहने था ?”
“नहीं” - मंजु बोली ।
“पक्की बात ?”
“हां ।”
“फिर यहां की तलाशी के दौरान बहुत जगह उसने अपनी उंगलियों के निशान छोड़े होंगे । मैं यहां से फिंगर प्रिंट्स उठवाने का इंतजाम करता हूं ।”
“गुड आइडिया” - मैं बोला ।
“वह आदमी फिर यहां आ सकता है । मैं यहां की निगरानी का भी इंतजाम करवाता हूं । अगर इस बंसीधर के बच्चे ने फिर यहां कदम रखा तो शर्तिया गिरफ्तार होगा ।”
“वैरी गुड” - मैं बोला ।
मंजु के चेहरे पर राहत के भाव आए ।
“आपका भाई पिछले छ: महीनों से बिना कुछ किए-धरे बहुत ऐश की जिंदगी जी रहा था । मौजूदा हालात से ऐसा जान पड़ता है कि उसकी ऐश जाली नोटों के सदके थी । उसने कभी इस बाबत आपसे कोई बात की हो ?”
“नहीं की । मेरा भाई मेरे से किसी भी बाबत कोई बात नहीं करता था ।”
“फिर भी उसने अपना एक ब्रीफकेस आपको सौंपा ।”
“सिर्फ रखने के लिए । सेफ कीपिंग के लिए । अगर वह जिंदा रहता तो मैंने उसे खोला न होता, फिर वह उसे वापिस ले जाता और मुझे कभी पता न लगता कि उसके भीतर क्या था ।”
“आपने वह शिफान का टुकड़ा देखा था ?”
“देखा था और यह समझने के लिए खूब माथा-पच्ची की थी कि वह आखिर क्या था और उसे मेरे भाई ने इतना संभालकर क्यों रखा हुआ था ।”
“वह शिफान की एक साड़ी का टुकड़ा था और उस पर जो निशान थे, वे मोबिल ऑइल और ग्रीस के थे ।”
मंजु के चेहरे पर उलझन के भाव आए ।
“मतलब क्या हुआ ऐसे टुकड़े को संभालकर रखने का ?” - मैं बोला ।
“मतलब अभी मेरी समझ से बाहर है । अब तुम फूटो यहां से ।”
मैं बिना हुज्जत किए वहां से विदा हो गया ।
***
अब क्योंकि मैं जमानत पर रिहा था इसलिए रात को मैं अपने फ्लैट पर ही सोया और अगली सुबह नेहरू प्लेस में स्थित अपने ऑफिस भी पहुंचा ।
रजनी ऑफिस खोल चुकी थी और वहां मौजूद थी ।
मेरी सैक्रेट्री रजनी एक इंतहाई खूबसूरत लड़की थी । वैसे तो खूबसूरती से बड़ा कोई गुण औरत में होना मुमकिन नहीं होता लेकिन उसमें खूबसूरती के अलावा भी कई गुण थे । कई गुण क्या गुण ही गुण थे सिवाय एक अवगुण के : शरीफ लड़की थी ।
नहीं जानती थी कि शराफत और वर्जिनिटी दोनों ही शहरी लड़कियों में आउट ऑफ फैशन हो चुकी थीं ।
मैं अपने केबिन में दाखिल हुआ तो बाहरी ऑफिस में अपनी सीट से उठकर मेरे पीछे-पीछे आ गयी ।
“दरवाजा बंद कर दो” - मैं बड़े व्यस्त भाव से बोला - “और आकर मेरी गोद में बैठ जाओ ।”
वह हंसी ।
“हंस रही हो ?”
“हां” - वह बोली ।
“अपने एम्प्लोयर के आदेश का पालन करने की जगह हंस रही हो ।”
“मेरे एम्प्लोयर को कभी यह सूझा है कि वह ऐसे ही आदेश देता रहा तो एक दिन मैं यह नौकरी छोडकर भी जा सकती हूं !”
मैं हड़बड़ाया ।
“तुम्हारा ऐसा इरादा है ?” - मैं उसे घूरता हुआ बोला ।
“इरादा तो नहीं है लेकिन अगर आप बाज नहीं आएंगे तो इरादा बनाना ही पड़ेगा ।”
“मैं कोई नाजायज बात तो नहीं कर रहा ।”
“अच्छा !”
“रजनी, तुम्हारे में एक बहुत बड़ा नुक्स है । एक तो तुम्हें आता कुछ नहीं, ऊपर से तुम सीखना भी कुछ नहीं चाहतीं ।”
“क्या नहीं आता मुझे ? क्या नहीं सीखना चाहती मैं ?”
“तुम आधुनिक तौर-तरीके नहीं सीखना चाहती हो ।”
“वो कौन से हुए ?”
“मसलन क्या तुम्हें तुम्हारे सैक्रेट्रियल स्कूल में किसी ने यह नहीं सिखाया कि डिक्टेशन लेने के अलावा सैक्रेट्री का काम साहब की गोद में बैठना भी होता है ?”
“मेरे स्कूल में ऐसी वाहियात बातें नहीं सिखाई जाती थीं ।”
“वो स्कूल वाहियात था ।”
“आपकी निगाह में होगा ।”
“जो बात वहां नहीं सिखाई गयी वो तुम बाद में भी तो सीख सकती हो ।”
“मुझे नहीं सीखनी ऐसी बात जिसमें मेरे एम्प्लोयर का दर्जा कुर्सी जैसा हो जाये ।”
“अगर एम्प्लोयर को ऐतराज नहीं तो...”
“मुझे ऐतराज है । मैंने ऐसे एम्प्लोयर के अंडर काम नहीं कर सकती जो अपने रुतबे की गरिमा बनाए नहीं रख सकता ।”
मैं हड़बड़ाया । मुझे उस रोज वह बहुत गंभीर लगी । अमूमन हमारी ऐसी नोक-झोंक खूब लंबी चलती थी लेकिन उस रोज वह नोक-झोंक के मूड में नहीं मालूम होती थी ।
मैंने तुरंत विषय बदला ।
“कल तो तुमने कमाल ही कर दिया” - मैं प्रशंसात्मक स्वर में बोला ।
“जी हां” - वह गंभीरता से बोली - “कर दिया । लेकिन वो कमाल कर दिखाने के चक्कर में मैं ग्यारह बजे घर पहुंची जिसकी वजह से मेरे मां-बाप मुझ पर बहुत खफा हुए और जिद करने लगे कि मैं नौकरी छोड़ दूं ।”
“अरे, कहीं सचमुच नौकरी मत छोड़ देना ।”
“मेरा ऐसा इरादा होता तो मैं इस वक्त आपके सामने न खड़ी होती ।”
“शुक्रिया । शुक्रिया ।”
“ये कमला ओबराय वही बहनजी थीं न जो अपने पति की लाश के सिरहाने खड़े होकर, आप को जाम टकराकर चियर्स बोलती थीं ?”
“वही । उसकी जाती जिंदगी कैसी भी थी लेकिन यह बात मुझे हमेशा याद रहेगी कि कल मेरी संकट की घड़ी में सिर्फ वही मेरे काम आई जबकि मुझे कितने ही लोगों से बहुत उम्मीदें थीं । कल अगर उसने मेरी मदद के लिये जमीन आसमान एक न किया होता तो मैं अभी भी लॉकअप में ही बंद होता ।”
“कोई बात नहीं, अपनी मेहरबानी का बदला वह बमय सूद आपसे चुकता कर लेगी ।”
“कैसे ?”
“वैसे ही जैसे मकड़ी अपने जाले में आ फंसे कीड़े-मकोड़ों का खून चूसकर करती है ।”
“वह मकड़ी है ?”
“हां । शक्ल से भी लगती थी । मुझे यूं भाले-बर्छियां बरसातें देखती थी जैसे यह मेरी गलती थी कि आपने मेल स्टेनो को अपनी मुलाजमत का मौका नहीं दिया था ।”
“वह तुम्हारी खूबसूरती से जल मरी होगी ।”
“मैं खूबसूरत हूं ?”
“हां । बहुत ज्यादा । तुम्हें नहीं मालूम ?”
उसने इनकार में सिर हिलाया ।
“झूठ ! बकवास ! कोई औरत खूबसूरत हो और अंजान हो, यह हो सकता है लेकिन वह अपनी खूबसूरती से अंजान हो यह नहीं हो सकता ।”
“यह आपने मेरे बारे में कहा ?”
“हां ।”
“तो फिर इसमें एक करैक्शन कीजिये ।”
“क्या ?”
“मैं लड़की हूं, औरत नहीं । औरत कमला ओबराय थी ।”
“तुमने उसे मकड़ी कहा सो कहा, मुझे कीड़ा-मकौड़ा क्यों कहा ?”
“जो मकड़ी के जाले में फंसे वो कीड़ा-मकौड़ा ही होता है ।”
“मैं किसी मकड़ी के जाले में नहीं फंसने वाला ।”
“आप जरूर फंसेंगे । कुछ लोग एक्सीडेंट प्रोन होते हैं । हादसों में खामखाह फंसना उनकी फितरत होती है, उनका मुकद्दर होता है ।”
“बात सुनो । तुम भी कोई जाला बुन लो न । प्लीज । मेरी खातिर ।”
“अब छोड़िये ये बातें और मतलब की बात सुनिये ।”
“यह भी मतलब की ही बात है ।”
“दुनियादारी की बात सुनिये ।”
“यह भी दुनियादारी की ही बात है ।”
“अरे, वो बात सुनिए” - वह तनिक झल्लाई - “जिसका रिजक कमाने से रिश्ता हो सकता है ।”
“ओह !”
“पहली तारीख करीब आ रही है, चार पैसे कमाने की कोशिश कीजिये ताकि आप मेरी तनखाह अदा कर सकें ।”
“मैं इतना गया-बीता नहीं कि....”
“यूं गप्पे मारने में वक्त जाया करते रहेंगे तो हो जाएंगे ।”
“क्या ?”
“गए-बीते ।”
“बड़ी बदतमीज लड़की हो ।”
“यह आपको आज पता लगा ?”
“पता तो पहले से है लेकिन....”
“क्या लेकिन ?”
“छोड़ो । वो बात कहो जो कहने जा रही थीं ।”
“फरीदाबाद से किसी चारुबाला नाम की एक बहनजी का फोन आया था । आपको घर पर बुलाया है उन्होंने” - वह एक क्षण ठिठकी और फिर बोली - “एक बात खासतौर से कही थी उन्होंने ।”
“क्या ?”
“कि उनके पति कहीं बाहर गये हुए थे । अभी चले जायेंगे तो फायदे में रहेंगे आप, क्योंकि अभी तो बच्चे भी स्कूल में होंगे । इस तरह उन्हें अपना जाला मजबूत करने का भी कम ही वक्त मिलेगा ।”
“रजनी !”
“यस बॉस ।”
“यह मकड़ी पचास साल की है, इसे कैंसर है जिसकी वजह से यह उठकर अपने पैरों पर भी खड़ी नहीं हो सकती और यह एक साल में मर जाने वाली है ।”
“उम्र का औरत की ख्वाहिश से कोई रिश्ता नहीं होता, कैंसर छूत की बीमारी नहीं होती, मर्दों की रसिया औरतें वैसे भी अपने पैरों पर खड़ा होना पसन्द नहीं करतीं, उनका फेवरेट पोस्चर कोई और ही होता है, और एक साल में तीन सौ पैंसठ दिन होते हैं, हर दिन में चौबीस घण्टे होते हैं, हर घण्टे में साठ मिनट होते हैं ।”
और मैंने सोचा था कि वह शर्मिन्दा होगी, सॉरी बोलेगी ! मैं असहाय भाव से गरदन हिलाता हुआ उठ खड़ा हुआ ।
“जा रहे हैं ?” - वह मीठे स्वर में बोली ।
“हां । फरीदाबाद जा रहा हूं ।”
“शाम तक आपके न लौटने की गारंटी हो तो मैं अपने ब्वॉय फ्रेंड को यहीं बुला लूं !”
“अभी मत बुलाओ” - “मैं गम्भीरता से बोला – “अभी मैं पहले ही एक कत्ल के केस में उलझा हुआ हूं और जमानत पर छूटा हुआ हूं । वह मामला निपट जाये, फिर बुलाना ।”
“फिर क्या होगा ?”
“फिर मैं दूसरा कत्ल करने से पहले अपने बचाव का एडवांस इंतजाम कर लूंगा ।”
“दूसरा कत्ल किसका कीजियेगा ?”
“तुम्हारे ब्वॉय फ्रेंड का ।”
“आप मेरे ब्वॉय फ्रेंड का कत्ल करना चाहते हैं ?”
“हां ।”
“फिर तो आपको बहुत कत्ल करने पड़ेंगे ।”
“क्यों ? तुम्हारे क्या कई ब्वॉय फ्रेंड हैं ?”
“और क्या नहीं होंगे । आप ही ने तो कहा था कि मैं बहुत खूबसूरत हूं ।”
“इस बात का खूबसूरती से क्या रिश्ता हुआ ?”
“सरासर हुआ । क्यों न हुआ ? एक ब्वॉय फ्रेंड तो काली-कलूटी, भैंगी-ठिगनी लड़की का भी हो सकता है । मेरा भी एक ही ब्वॉय फ्रेंड हुआ तो खूबसूरत होने का मुझे क्या फायदा हुआ ?”
“मैं इस वक्त जरा जल्दी में हूं । लौटकर जवाब दूंगा मैं तुम्हारी बात का ।”
“जरा अच्छा-सा मुस्तैद जवाब सोचकर आईयेगा ।”
“हां । जरूर ।”
चारुबाला इस बार मुझे बैडरूम में कई तकियों के सहारे लेटी हुई मिली ।
“आओ, आओ” - वह मुस्कराने का उपक्रम करती हुई बोली - तुम्हें मेरा मैसेज मिल गया ?”
“जी हां ।” - मैं बोला - “मैं फौरन दौड़ा चला आया ।”
“शुक्रिया । शुक्रिया । बैठो ।”
मैं उसके पलंग के करीब एक कुर्सी पर बैठ गया ।
“गोपाल आगरा गया है” - वह बोली - “वहां कोई प्रोड्यूसर लोकेशन शूटिंग पर आया हुआ है । अपने नॉवल की बाबत उसी से मिलने गया है । रात तक लौट आयेगा ।”
“आई सी । आपने कैसे याद फरमाया मुझे ?”
“मिस्टर कोहली” - वह धीरे से बोली - “कुछ भी कहने से पहले मैं अपना एक गुनाह कबूल करना चाहती हूं ।”
“गुनाह !”
“जो कल मैंने तुम्हारी और गोपाल की बातें सुनने की कोशिश करके किया ।”
“आपने हमारी बातें सुनी थीं ?”
“सब नहीं, फिर भी काफी सारी बातें सुनी थीं ।”
“लेकिन आप तो स्विमिंग पूल के करीब....”
“गोपाल की स्टडी की एक खिड़की इमारत के पहलू में खुलती है । मैं अपनी कुर्सी लुढ़काकर वहां तक ले गयी थी । खिड़की खुली थी इसलिये तकरीबन बातें मुझे बाहर सुनाई दे रही थीं ।”
“आपने ऐसा क्यों किया ?”
“क्योंकि मुझे इस बात पर विश्वास नहीं हुआ था कि तुम्हारा यहां आगमन इस वजह से था क्योंकि गोपाल के नये नॉवल में एक प्राइवेट डिटेक्टिव का किरदार था और वह उसकी बाबत तुमसे कोई प्रामाणिक जानकारी इकट्ठी करना चाहता था ।”
“हूं । आई सी । आई सी ।”
“तुमने वह चुटकुला सुना है ?”
“कौन-सा मैडम ?”
“एक औरत मृत्यु-शैया पर थी । मेरी तरह । उसने अपने पति से पूछा कि क्या उसके मरने के बाद वह फिर शादी कर लेगा । पति ने उसे आश्वासन दिया कि पत्नी को ऐसा नहीं सोचना चाहिये था क्योंकि पति का ऐसा कोई इरादा नहीं था । इस पर पत्नी ने कहा कि वह दूसरी शादी कर भी ले तो कम से कम उसके कपड़े वह अपनी नयी बीवी को न पहनने दे । इस पर जानते हो पति का क्या जवाब था ?”
“क्या जवाब था ?”
“पति मरती हुई पत्नी को बोला कि तुम्हारे कपड़े तो सरोज को वैसे भी फिट नहीं नहीं आने वाले थे ।”
“चुटकुला अच्छा है” - मैं शुष्क भाव से बोला ।
“बंबई की फिल्मी दुनिया में यह बहुत प्रचलित था ।”
“मैंने पहले कभी नहीं सुना था । लेकिन मैडम है तो यह चुटकुला ही ।”
“जो कभी भी हकीकत में तब्दील हो सकता है । हो सकता है कि इस चुटकले की तरह गोपाल कोई सरोज तलाश भी कर चुका हो ।”
“वशिष्ठ साहब ऐसे आदमी नहीं ।”
“खुदा न करे कि हों लेकिन मैं धोखे में नहीं मरना चाहती । मैं इस बात की गारण्टी चाहती हूं । और वह गारण्टी मुझे तुम कराओगे ।”
“कैसे ?”
“गोपाल को टटोलकर । उसके पीछे लगकर । उसकी रोजमर्रा की जिन्दगी को स्टडी करके ।”
“आपको सूझा कैसे कि मैं आपकी ऐसी कोई खिदमत कर सकता हूं ?”
“बस, सूझ गया किसी तरह । दरअसल जो शक मेरे जेहन में पनप रहा था, उसको दफा करने का एक ही तरीका था कि मैं किसी प्राइवेट डिटेक्टिव की सेवायें हासिल करती । बतौर प्राइवेट डिटेक्टिव मुझे ताजा-ताजा तुम्हारा परिचय प्राप्त हुआ था, मैंने डायरेक्ट्री देखी तो उसमे तुम्हारा पता था । मैंने फोन कर दिया ।”
“आपको अपने पति पर पूरा-पूरा शक मालूम होता है ?”
“यह शक का सवाल नहीं है ।”
“यह शक का ही सवाल है, मैडम । खामखाह, शौक की खातिर, कोई इतना बड़ा कदम नहीं उठाता जो कि आप उठा रही हैं । और शक की हमेशा कोई बुनियाद होती है, कोई वजह होती है । वह बुनियाद महज एक चुटकुला नहीं हो सकता जो कभी आपकी फिल्म इण्डस्ट्री में प्रचलित था । अब आप साफ-साफ बताइये कि क्या आपके शक की कोई पुख्ता बुनियाद है, कोई वजह है ?”
“है ।”
“क्या ?”
“एक हफ्ता पहले यहां एक टेलीफोन कॉल गोपाल के लिये आयी थी जिसे कि इत्तफाकन मैंने भी सुन लिया था ।”
“कैसे ?”
“प्लग सॉकेट के माध्यम से यहां कई टेलीफोन पैरेलल में चलते हैं । कॉल आयी । गोपाल ने अपनी स्टडी में फोन उठाया तभी संयोगवश मैंने भी यहां फोन उठा लिया ।”
“संयोगवश या जानबूझकर ?”
उसकी बुझी हुई आंखों में नाराजगी की तीखी चमक पैदा हुई ।
मेरे चेहरे पर खेदप्रकाश जैसे कोई भाव न आये ।
वह कुछ देर और मुझे घूरती रही और फिर बोली - “टेलीफोन पर मुझे किसी नौजवान लड़की की आवाज सुनाई दी थी । वह कह रही थी - गोपू डार्लिंग मैं रोहिनी बोल रही हूं । फिर मुझे गोपाल का गुस्से भरा स्वर सुनाई दिया - यहां फोन क्यों किया ? मैंने मना किया था । फिर गोपाल ने रिसीवर रख दिया । थोड़ी देर बाद लाईन कट गयी ।”
“इतनी सी बात से आपके पति की बेवफाई साबित हो गयी !” - मैं हैरानी से बोला - “आपके पति लेखक हैं । लेखकों के फैन उनके टेलीफोन नम्बर का पता लगाकर उन्हें ऐसे फोन करते ही रहते हैं ।”
“लेकिन” - वह रूआंसे स्वर में बोली - “उस लड़की ने उसे गोपू डार्लिंग कहकर पुकारा था ।”
“पचास साल के आदमी को कोई यूं नहीं पुकारता । जरूर उस लड़की को अपने प्रिय लेखक की उम्र की खबर नहीं होगी । रूबरू वह वशिष्ठ साहब से कभी नही मिली होगी ।”
“फिर भी यूं गोपू डार्लिंग कहना.....”
“जो कुछ किसी अजनबी लड़की ने कहा, उसके लिये आपके पति कैसे जिम्मेदार हो गये ?”
“गोपाल ने उसे कहा था कि यहां फोन क्यों किया, मैंने मना किया था । क्या यह फिकरा यह नहीं बताता कि वह लड़की गोपाल के लिये अजनबी नहीं थी ?”
“यह फिकरा सिर्फ यह बताता है कि वह लड़की गोपाल को पहले भी फोन किया करती थी और गोपाल उसके टेलीफोनों से तंग था ।”
“मैं आश्वस्त नहीं । गोपाल तुम्हारा दोस्त है और तुम खामखाह उसकी हिमायत कर रहे हो । तुम्हें मेरा अपने क्लायन्ट का पक्ष लेना चाहिये । मैं यह चाहती हूं कि तुम तहकीकात करो कि गोपाल के उस रोहिनी नाम की छोकरी के साथ कोई ताल्लुकात हैं या नहीं । मगर तुम ऐसा नहीं कर सकते हो या नहीं करना चाहते हो तो साफ इनकार करो ।”
“कर क्यों नहीं सकता ?”
“कर सकते हो तो बोलो करोगे । मैं तुम्हें मुंहमांगी फीस दूंगी ।”
“फिर तो जरूर करूंगा ।”
“शुक्रिया । मिस्टर कोहली बात उस टेलीफोन पर ही खत्म हो गयी होती तो भी मैं तुम्हें यहां आने की तकलीफ न देती ।”
“यानी कि अभी कोई और भी बात है ?”
“आज सुबह डाक से गोपाल के नाम एक चिट्ठी आयी थी जिसे देखते ही मैं समझ गयी थी कि वह किसी औरत की थी ।”
“कैसे ?”
“एक तो जनाने हैंडराइटिंग से, दूसरे लिफाफे की गुलाबी रंगत से और तीसरे उस पर लगे सैंट की भीनी-भीनी खुशबू से ।”
“ओह ! यानी कि आपने वो लिफाफा खोल लिया ?”
“मुझे खोलना तो नहीं चाहिये था लेकिन वह लिफाफा था ही ऐसा कि मैंने....मैंने खोल ही लिया उसे । जब खोल लिया तो मुझे लगा कि अच्छा ही हुआ कि मैंने उसे खोल लिया था ।”
“क्या था उस लिफाफे में ?”
“खुद ही देख लो ।”
तकिये के नीचे से निकालकर उसने एक गुलाबी लिफाफा मुझे सौंपा ।
लिफाफे के भीतर से जो तह किया हुआ कागज बरामद हुआ, वह करोलबाग के महारानी नाम के होटल का लैटरहैड था । कागज पर लिफाफे वाले हैंडराइटिंग में ही लिखा था:
गोपू डार्लिंग,
एक हफ्ते से मिले नहीं हो । क्या मेरे से कोई खता हो गयी ? भगवान के लिये चिट्ठी मिलते ही आकर मिलो ।
तुम्हारी - रोहिनी
“यह लिफाफा मैं रख सकता हूं ?” - मैं बोला ।
“हां, हां, रख लो” - वह बोली - “और यह भी रख लो ।”
तकिये के नीचे से ही निकालकर उसने मुझे नोटों का एक पुलंदा सौंपा ।
“पांच हजार” - वह बोली - “केस चाहे कल खत्म हो जाये, इतने ही और दूंगी । लम्बा चले और यह फीस तुम्हें कम लगे तो तुम खुद ही अपनी फीस बता देना ।”
सुधीर कोहली” - मैं मन ही मन बोला - दि लक्की बास्टर्ड ।
“मैडम” - प्रत्यक्षतः मैं बोला - “जो आपने मुझे दिया है, यही जरूरत से ज्यादा है । और पांच हजार देने की जरूरत नहीं नहीं ।”
“मैं जरूर दूंगी । बस मैं सिर्फ यह चाहती हूं कि तुम लगन से मेरे केस पर काम करो ।”
“जरूर । अब आप एक बात बताइये ।”
“क्या ?”
मेरी रिपोर्ट से अगर यह जाहिर हुआ कि गोपाल की बेवफाई की बाबत आपका शक जायज है, सही है, तो आप क्या करेंगी ?”
“तो मुझे किसी वकील से मिलना होगा जो मेरे लिये नई वसीयत तैयार कर सके और मेरी जिन्दगी में ऐसे बेवफा मर्द से मेरा तलाक करा सके ।”
“फिर आप अपनी जायदाद किसके लिये छोड़कर जायेंगी ?”
“गोपाल के अलावा” - वह गहरी सांस लेकर बोली - “मेरा एक ही जीवित रिश्तेदार है ।”
“कौन ?”
“गीता । मेरी भांजी । फिर वही मेरी वारिस होगी । जिस आदमी ने मेरा दिल तोड़ा होगा, उसे अपनी ही दौलत से ऐश करने का मौका मैं भला क्यों कर दे सकूंगी ?”
“आप बजा फरमा रही हैं । अब एक बात और बताइये ?”
“वह भी पूछो ।”
“मुकेश मैनी – यहां का ड्राईवर – नौकरी क्यों छोड़ गया ?”
“नौकरी वो नहीं छोड़ गया था, मैंने उसे निकाला था ।”
“क्यों ?”
“एकाएक वह बहुत बदतमीज, बददिमाग, नाकारा और लापरवाह हो गया था । ड्राईवर लोग घर के और भी कई छोटे-मोटे काम करते हैं, वह उन्हें तो करता ही नहीं था, खुद अपना काम भी नहीं करता था । यहां दो गाड़ियां हैं । उसका काम था कि वह उन्हें धो धाकर चमकाकर रखे लेकिन वह था कि उन्हें कपड़ा तक नहीं मारता था । गाड़ी चलाता था तो यूं लगता था जैसे वह हमारी गाड़ी पर हमें बैठाकर, हमें कहीं ले जाकर, हमारे पर अहसान कर रहा था । गोपाल ऐसा व्यवहार बर्दाश्त कर सकता था, मैं नहीं कर सकती थी । मैंने एक बार उसे वार्निंग दी, वह नहीं सुधरा तो मैंने उसे निकाल दिया ।”
“उसने कहा नहीं कि उसे न निकाला जाये ?”
“उसने रत्ती भर परवाह नहीं दिखाई थी नौकरी के लिये । मैंने कहा वो छुट्टी करे, वो बोला ठीक है ।”
“आई सी” - फिर मैं एकाएक उठ खड़ा हुआ, मैंने दोनों हाथ जोड़े - “ठीक है, मैं आपसे फिर मिलूंगा ।”
“आ न सको तो फोन करना ।”
“जरूर । यह मेरा एक कार्ड रख लीजिये । इस पर घर का भी टेलीफोन नंबर है । शायद आपको कभी जरूरत पड़े ।”
उसने कार्ड लेकर तकिये के नीचे रख लिया ।
***
हाइवे पर स्थित एक पेट्रोल पम्प से मैंने कार मे पेट्रोल डलवाया । वहीं लगे पब्लिक टेलीफोन से मैंने अपने ऑफिस फोन किया ।
“एक काम करो” - रजनी लाइन पर आयी तो मैं बोला ।
“क्या ?” - वह बोली – “फोन पर डिक्टेशन लूं ?”
“नहीं, जरा हाथ-पांव हिलाओ । बैठी-बैठी मुटियाती रहती हो और मक्खियां मारती रहती हो...”
“पहली बात गलत । दूसरी ठीक हो सकती है ।”
“पहली गलत क्यों ?”
“क्योंकि बैठी रहकर अगर मैं मुटिया सकती होती तो मैं ढोल हो चुकी होती और आप इसी वजह से मुझे नौकरी से निकाल चुके होते । आपकी नौकरी में बैठे रहने के अलावा और तो कुछ...”
“रजनी, बकवास बन्द कर ।”
“क्या आप शुरू करना चाहते हैं ?”
“रजनी - रजनी” - मैंने दान्त पीसे ।
“यस, सर । यस, सर ।”
“तुम कभी सीरियस नहीं हो सकतीं ।”
“मैं हमेशा सीरियस हो सकती हूं । जब आपने मुझे भर्ती किया तो याद कीजिये तब मैं कितनी सीरियस हुआ करती था । तब उल्टे आपकी पसन्द में अपने आपको ढालने में यानी कि बकवास करना सीखने में मुझे बड़ी दिक्कत हुई थी । अब जबकि मैं....”
“मेरी बात सुनोगी या मैं फोन अपने सिर पर पटक लूं ?”
“उससे तो फोन को डैमज हो जायेगा । बहरहाल आप बोलिए ।”
“तुमने करोलबाग जाना है ।”
“करोलबाग ! आपके साथ ! क्या फिर पिकनिक का प्रोग्राम बना रहे हैं आप ?”
“नहीं । अकेले जाना है तुम्हें । और मैं कौन से करोलबाग का जिक्र कर रहा हूं यह तुम्हें बखूबी मालूम है । अब इससे पहले कि मैं दहाड़ें मार-मारकर रोने लगूं और दीवारों से सिर टकराने लगूं, मेरी बात सुन ले, कम्बख्त ।”
“सुन तो रही हूं । आप कुछ सुनायें तो सही । बताइये तो सही कि करोलबाग कहां जाना है और वहां जाकर क्या करना है ।”
“तुमने वहां के महारानी नाम के होटल में जाना है और वहां रोहिनी नाम की लड़की के बारे में पता करना है कि वह कौन है, कैसी है, क्या करती है, होटल में क्यों रहती है वगैरह ।”
“यानी कि मुझे जासूसी करनी है ।”
“हां ।”
“कमाल है । तनखाह तो आप मुझे स्टेनो की देते हैं...”
“तुम खातिर जमा रखो, बहुत जल्द टाइप मैं खुद ही किया करूंगा ।”
मैंने फोन पटक दिया ।
फिर कुछ सोचकर मैंने रिसीवर फिर उठा लिया और पुलिस हैडक्वार्टर में इंस्पेक्टर यादव को फोन किया ।
“यूं ही फोन किया था”- अपना परिचय देने के बाद मैंने उसे बताया - “कल जो उंगलियों के निशान तुमने मंजु मैनी के फ्लैट से उठाये थे, सोचा शायद उनसे कोई नतीजा निकला हो ।”
“निकला है” - मुझे अप्रत्याशित उत्तर मिला ।
“अच्छा ! क्या नतीजा निकला है ?”
“लड़की के फ्लैट से उठाये गये फिंगर प्रिंट्स एक नोन क्रिमिनल के फिंगर प्रिंट्स से मिलते हैं ।”
“अच्छा ।”
“हां । उसका नाम मोहरसिंह है और शर्तिया वही वो आततायी था जो कल रात मंजु मैनी के फ्लैट में घुसा था । जरूर उसी ने अपना नाम बंसीधर रख लिया है । नोन क्रिमिनल्स यूं अपने नाम अक्सर बदलते रहते हैं ।”
“किस अपराध की वजह से वह नोन क्रिमिनल है ?”
“कई अपराध उसके खाते में दर्ज हैं । चार साल पहले अफीम की स्मगलिंग के अपराध में गिरफ्तार हुआ था लेकिन अदालत में उसके खिलाफ केस साबित नहीं हो सका था इसलिये छूट गया था । उसके एक साल बाद शराब के केस में पकड़ा गया था लेकिन फिर छूट गया था । छ: महीने पहले नकली डाक टिकटें छापने वाली एक प्रिंटिंग प्रैस पकड़ी गयी थी जिसका मालिक उसे बताया जाता था लेकिन साबित फिर कुछ नहीं हो सका था ।”
“और अब उसी ने जाली नोटों का धन्धा किया है !”
“ऐसा ही मालूम होता है ।”
“पुलिस उसे तलाश तो कर रही होगी ?”
“कर रही है । उसके पकड़े जाने से उस गैंग का भण्डाफोड़ हो सकता है जो जाली नोटों के धन्धे में लगा हुआ है ।”
“अगर मैं पुलिस से पहले उसको तलाश कर लूं और वो कहां है, इसकी खबर सिर्फ तुम्हें दूं तो उसकी गिरफ्तारी की वजह से तुम्हारी कोई जयजयकार होगी ?”
“उसके चक्कर में मत पड़ना । खामखाह मारे जाओगे ।”
“इतना खतरनाक आदमी है वो ?”
“हां ।”
“फिर भी आजाद है । फिर भी कई बार पकड़ा जाने के बावजूद पुलिस उसे सजा न दिलवा सकी ।”
“इस बार ऐसा नहीं होगा । इस बार हमारे पास उसके खिलाफ अकाट्य सबूत हैं । वो लड़की उसकी करतूत की चश्मदीद गवाह है । और उस लड़की के फ्लैट से उसकी उंगलियों के निशान तो बरामद हुए ही हैं ।”
“लड़की उसके खिलाफ गवाही देने से मुकर गयी तो ?”
“मैं ऐसी नौबत नहीं आने दूंगा ।”
“ओके । आई विश यू आल दि बेस्ट ।”
उसने बिना उत्तर दिये लाइन काट दी ।
मैं दरियागंज पहुंचा और आकाश होटल के मैनेजर से मिला ।
उसने फौरन मुझे उस आदमी की सूरत में पहचान लिया जिस पर उसके होटल में हुए एक कत्ल का इल्जाम था लेकिन आदमी दब्बू था, इसलिये वह जल्दी ही मेरी बातों में आ गया ।
“होटल में ऐसा वाकया हो जाने से” – वह परेशान हाल स्वर में बोला – “होटल की बड़ी बदनामी होती है जनाब । मालिकान मुझसे बहुत खफा हैं ।”
“खामखाह !” – मैं हैरानी से बोला – “आपका कत्ल में क्या दखल है ?”
“वो कहते हैं कि मुझे आदमी को परखकर उसको कमरा देना चाहिए ।”
“कमाल है ! आप मैनेजर हैं या रिसेप्शन क्लर्क ?”
“यह तो मैंने कहा था” - वह व्यग्र भाव से बोला ।
“और फिर किसी के माथे पर थोड़े ही लिखा होता है कि वह कत्ल करने वाला है या कत्ल हो जाने वाला है ।”
“यही तो मैंने कहा था ।”
“आप यहां ठहरने आने वाले हर मेहमान से कैरक्टर सर्टिफिकेट थोड़े ही मांग सकते हैं, उसका भविष्य जानने के लिए कि कहीं यह कत्ल तो नहीं हो जाने वाला, उसका हारोस्कोप देखने कि जिद थोड़े ही कर सकते हैं ।”
“यही तो मैंने कहा था । लेकिन...”
उसने अवसादपूर्ण ढंग से सिर हिलाया ।
“आप खामखाह हलकान न होइए । मैं आपसे गारन्टी करता हूं कि मैं मुकेश मैनी के कातिल को पकड़वाकर दिखाऊंगा ।”
“उससे मुझे क्या फायदा होगा ?”
“वाह ! आपको क्यों नहीं फायदा होगा ! जब हर अखबार में यह छपेगा कि आपके सहयोग से हत्यारे को पकड़ पाना सम्भव हुआ तो क्या आप की जयजयकार नहीं होगी ? और फिर अपने होटल के मैनेजर की जयजयकार से आपके मालिकान खुश नहीं होंगे ।”
“मेरी जयजयकार होगी !” - वह मन्त्रमुग्ध स्वर में बोला ।
“यकीनन ।”
“हत्यारा पकड़ा जायेगा ?”
“यकीनन !”
“मेरे सहयोग से...”
“जो कि अभी आप मुझे देंगे ।”
“कैसे ?”
“निहायत मामूली तरीके से । सिर्फ मेरे चन्द सवालों का जवाब देकर ।”
“कैसे सवाल ?”
“मसलन यह बताइये कि होटल में ठहरे आपके मेहमान जो टेलीफोन कॉल करते हैं आप उनका रिकॉर्ड रखते हैं ?”
“रखते हैं । रखना ही पड़ता है । वर्ना मेहमान से टेलीफोन कॉल को चार्ज कैसे करेंगे । कॉल स्विच बोर्ड के जरिये होती है, इसलिये आउटगोइंग कॉल्स का रिकॉर्ड वहां अपने आप बन जाता है । अलबत्ता इनकमिंग काल्स का कोई रिकॉर्ड नहीं रखा जाता क्योंकि रिसीव करने का कोई चार्ज नहीं होता ।”
“यह रिकॉर्ड आप कब तक रखते हैं ?”
“जब तक बिल अदा न हो जाये ।”
“जो लोग लम्बे ठहरते हैं जैसे मुकेश मैनी ठहरा हुआ था, उनका ऐसा रिकॉर्ड कैसे रखते हैं ?”
“इनका मंथली बिल बनता है इसलिये टेलीफोन काल्स का भी मंथली रिकॉर्ड रखा जाता है ।”
“यानी कि इस महीने जो जो कॉल मुकेश मैनी ने की होगी उनका रिकॉर्ड यहां उपलब्ध है ?”
“हां ।”
“जरा पता लगवाइये तो कि वह रिकॉर्ड क्या कहता है ।”
उसने पता लगवाया ।
मालूम हुआ कि मुकेश मैनी ने उस महीने अपनी जिन्दगी में स्विच बोर्ड से सिर्फ तीन ही नम्बर मांगे थे । एक पर उसने कई बार फोन किया था बाकी दोनों पर सिर्फ इक्की-दुक्की बार ।
मैंने वे तीनों नम्बर नोट कर लिये, उन पर कॉल की जाने की तारीखें और वक्त नोट कर लिये । उसका शुक्रिया अदा किया और वहां से विदा हो गया ।
मैं अपने ऑफिस पहुंचा ।
रजनी तब तक वापिस न लौटी थी ।
मैंने टेलीफोन डायरेक्ट्री निकाली । मुझे मालूम था कि उसमें जनरल सर्विसिज के कॉलम में एक ऐसा नम्बर होता था जिस पर से टेलीफोन नम्बर बताकर ओनर का नाम और स्ट्रीट एड्रैस जाना जा सकता था ।
मैंने वहां फोन किया । उन तीनों नम्बरों के बारे में दरयाफ्त किया ।
एक नम्बर अनिल पाहवा के ऑफिस का निकला ।
दूसरा एल आई सी की जनपथ स्थित उस ब्रांच का जिसमें मंजु मैनी नौकरी करती थी ।
और तीसरा जिस पर कि होटल के रिकॉर्ड के मुताबिक कई बार फोन किया गया था, साउथ एक्सटेंशन में स्थित एक गैस्ट हाउस का था ।
अब मेरे पास यह जानने का कोई साधन नहीं था कि उस गैस्ट हाउस में मुकेश मैनी ने बार-बार किसे फोन किया था ।
सिवाय तुक्का भिड़ाने के ।
तभी रजनी वापिस लौट आयी ।
धूप में से आने की वजह से उसका चेहरा तमतमा रहा था और वह बला की हसीन लग रही थी ।
“क्या हुआ ?” - मैंने पूछा ।
“लड़का ।” - वह बोली - “सीजेरियन !”
“फिर शुरू कर दी बकवास ।”
“अगर आपको बकवास से इतना परहेज था तो आपने नहीं सिखाना था मुझे यह काम ।”
“बकवास करनी तुम्हें मैंने सिखाई है ?”
“और क्या मैं घर से सीखकर आयी थी ?”
“तुमने क्यों सीखी ? मैं और भी तो बहुत सी बातें तुम्हें सिखाना चाहता हूं वो क्यों नहीं सीखती हो ?”
“इसमें क्या है ! कोई काम जल्दी आ जाता है, कोई देर से आता है, कोई नहीं भी आता ।”
“तभी तो मैंने कहा कि एक तो तुम्हें आता कुछ नहीं, ऊपर से कुछ सीखना भी नहीं चाहती हो ।”
“एक काम तो आता है बखूबी ।”
“कौन सा ? अब यह न कह देना बकवास करना ।”
“मैं वही कहने जा रही थी ।”
“लानत ।”
वह हंसी ।
उसके हंसने की देर थी कि मैं भूल भी गया कि मैं उस पर ताव खा रहा था ।
“अब बताओ क्या हुआ ? क्या जाना ?” - मैं बोला - “और भगवान के लिये पहले वाला बेहूदा जवाब न देना ।”
“महारानी होटल करोलबाग की बैंक स्ट्रीट में एक मामूली होटल है । जो कि वहां की एक चार मंजिली इमारत में चलता है । उसके 201 नम्बर कमरे में वह लड़की रोहिनी – पूरा नाम रोहिनी माथुर - रहती है । उम्र कोई छब्बीस- सत्ताइस साल है । एक-दो टी. वी. सीरियल्स में और एक-दो विज्ञापन फिल्मों में काम कर चुकी है, लेकिन कामयाब नहीं हुई । अभी भी इस तरह के काम की तलाश में रहती है । विभिन्न एडवरटाइजिंग एजेन्सियों और टी वी के लिये वीडियो फिल्म बनाने वालों के दरवाजों पर खूब जूतियां चटकाती है । इण्डियन एयरलाइन्स में नौकरी करती है और आजकल उसके आसिफ अली रोड पर स्थित ऑफिस में पोस्टिड है । बहुत सोशल लड़की है इसलिये अपनी शामें अक्सर फाइव स्टार होटलों में गुजारती है । कोई भी ऐसा शख्स जिसके पास कार हो और जिसके पर्स में नोट हों, उसे डेट पर ले जा सकता है । इस मामले में उम्र का उसे कोई परहेज नहीं है । बकरा मोटा होना चाहिये, सोलह से साठ साल तक कोई भी हो, चलेगा । स्पेशल ब्वॉय फ्रेंड कोई नहीं, है तो मुझे उसकी खबर नहीं लगी । विस्की पीती है । कम्पनी के साथ भी और अकेले भी । कद उसका सवा पांच फुट है । आंखें स्लेटी रंग की हैं, बाल भूरे हैं, फिगर का नाप सैंतीस – अड़तीस है ।”
वह खामोश हो गयी । इतना सब कुछ वह एक ही सांस में कह गयी थी ।
मैं हक्का बक्का सा उसका मुंह देखने लगा ।
“यह सब कुछ - तुमने सिर्फ ढाई घण्टे में जान लिया !”
“एक घण्टे में” - वह बड़े इतमीनान से बोली - “बाकी वक़्त आने-जाने में लगा । यहां से करोलबाग का काफी फासला है ।”
“टैक्सी कर ली होती ।”
“वही करी थी । नब्बे रुपये का बिल मैं अभी पेश करती हूं ।”
“तुम उससे मिली ?”
“नहीं ।”
“नहीं मिली ?” - मैं अचकचाया ।
“कहा न, नहीं ।”
“फिर तुम्हें उसकी इतनी सारी व्यक्तिगत आदतों का और कद-काठी का कैसे पता है ?”
“है न कमाल ?”
“सरासर ।”
“जबकि जासूस आप हैं ।”
“अरे, मैं काहे का जासूस हूं । जासूस तो तुम हो । तुमने तो आज मुझे शर्मिंदा कर दिया । मैं तो इतनी जानकारी हासिल कर पाने में शायद हफ्ता लगाता ।”
“यकीनन लगाते ।”
“अब यह तो बता दो कि ऐसा क्योंकर हुआ ?”
“पहले प्लीज कहिये ।”
“कहा ।”
“क्या ?”
“प्लीज ।”
“क्या प्लीज ?”
“बहन जी, प्लीज, बता दो कि ऐसा क्योंकर हुआ ?”
वह फिर हंसी । हंसते हुए उसने दोहराया - “बहन जी !”
मैं हड़बड़ाया ।
“वैसे तो मेरी जुबान फिसल गयी थी ।” - मैं बोला - “लेकिन तुम्हें बहनजी कहने का मतलब यह नहीं है कि तुम मेरी बहन हो गयी हो ।”
“तो ?”
“बहनजी तुम्हारा नाम है, तुम्हारा समाजी रुतबा है । समाजी तौर तरीके की जुबान में हर नौजवान लड़की बहनजी होती है । बिलकुल वैसे ही जैसे हर उम्रदराज औरत माताजी होती है ।”
“ओह ! अच्छा हुआ आपने मुझे समझा दिया वरना मैंने तो राखी खरीदने बाजार पहुंच जाना था ।”
“अब बता भी चुको कि यूं आनन-फानन कैसे जान पायी इतना कुछ तुम ?”
“होटल वालों ने मुझे उसकी कोई सहेली समझा था” – वह गम्भीरता से बोली – “उन्होंने सहेली समझा तो मैंने भी दुक्की लगा दी कि मैं बहुत दूर से मेरठ से आयी थी और सफर में बहुत थक गयी थी । उन्होंने मुझे रोहिनी का कमरा खोल दिया । वहां तकरीबन बातें तो मैंने एक वेटर को बुलाकर और उससे मीठा-मीठा बोलकर पूछीं - वेटर नौजवान था, लार टपक रही थी मेरे पर इसलिये मैं जो पूछती गयी, वह बताता चला गया ।”
“बूढ़ा भी होता तो यही होता ।”
“बहरहाल दो बातें मैंने खुद अपने अन्दाजे से जानीं । शरलाक होम्स की तरह ।”
“वो कैसे ?”
“शरलाक होम्स को तो आप जानते होंगे । आपका हमपेशा था । शायद रिश्तेदार भी हो । करीबी का नहीं तो दूर का ।”
“अपना वंश-वृक्ष मैं तुमसे बाद में डिसकस करूंगा । पहले उन दोनों बातों पर आओ ।”
“एक साथ ? उनका बारी-बारी जिक्र हो तो बेहतर नहीं रहेगा ? एक साथ तो सब गड्ड-मड्ड हो जायेगा ।”
“पहले पहली बात बताओ ।”
“अच्छा हुआ आपने ऐसा कह दिया । वर्ना मैं तो पहले दूसरी बात कह बैठती ।”
“बको । बको । जी भरकर बको । मैं सुन रहा हूं । सुन रहा हूं मैं ।”
उसके कमरे मैं व्हिस्की की बोतल मौजूद थी और वह खुली थी । जो लड़की शाम को डेट पर जाती हो, पैसे वाले बकरे के साथ डेट पर जाती हो, उसे तो किसी को विस्की पिलाने की जरूरत थी नहीं । फिर भी कमरे में बोतल थी और खुली थी तो जाहिर है कि खुद ही पीती होगी ।”
“शाबाश !”
“शुक्रिया” - वह बड़ी अदा से सिर नवाकर बोली ।
“और दूसरी बात ?”
“दूसरी बात उसकी आंखों बालों वगैरह के रंग वाली थी, वह काम बिल्कुल ही आसान था ।”
“वो कैसे ?”
“उसके कमरे की मेज के दराज में उसकी एक फुल लेंग्थ तस्वीर की कई कापियां पड़ी थीं । उसकी फिगर के बारे में जो कुछ मैंने आपको बताया है, वह सब कुछ उन तस्वीरों के पीछे लिखा था । जाहिर है कि वैसी तस्वीरें वह अपना माडलिंग का धन्धा सालिसिट करने के लिए एड एजेन्सीज को भेजती रहती है । वैसी एक तस्वीर” – उसने पर्स में हाथ डालकर एक 5” x 7” की तस्वीर बरामद की और उसे मेरी तरफ बढ़ाया – “मैं वहां से उठा भी लायी हूं ।”
“शा....बाश !”
उसने तस्वीर मुझे सौंपी ।
वह तस्वीर उसी फुलझड़ी जैसी लड़की की थी जिसे पिछले रोज लंच टाइम में मैंने होटल प्रेसीडेंट के रेस्टोरेन्ट में आलोकनाथ के साथ बैठे देखा था ।
“रजनी” - मैं प्रशंसात्मक स्वर में बोला – “आई एम प्राउड ऑफ यू । यू आर ए जीनियस ।”
“पहली तारीख को” - वह बोली - “जब तनखाह देने का वक्त आये तो मेरी ये तमाम खसूसियात दोबारा से याद फरमा लीजियेगा ?”
“अरे, मेरा तो सब कुछ तुम्हारा है ? तुम मेरी एम्प्लाई थोड़ी हो ! तुम तो मेरी मालकिन हो ।”
“माफ कीजिये, मुझे यह दर्जा, यह रुतबा, पसन्द नहीं ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि मुझे ऐसा मर्द पसन्द नहीं जो औरत का गुलाम बनकर रहने में फख्र महसूस करता हो ।”
“रजनी” – मैं असहाय भाव में गर्दन हिलाता हुआ बोला – “तू मेरी समझ से बाहर है ।”
“और आपकी पहुंच से भी ?” - वह कुटिल स्वर में बोली - “थैंक गॉड ।”
मैंने हार मान ली ।
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