जीवन पाल।

केशोपुर की हस्ती। चुनाव जीता हुआ। हर सरकारी महकमे में पूरी तरह घुसपैठ की थी जीवन पाल कि। इशारा करने की देर थी कि उसके काम पलों में पूरे हो जाते थे। बेशक वो कानूनी काम हो या गैरकानूनी। आदत सी पड़ गई थी जीवन को अपने कामों को पूरा होते देखने की।

पचास बरस वर्ष की उम्र का था जीवन पाल ।

यूं तो तमाम उम्र ही उसकी ही चली थी। अब भी चलती थी। परंतु अब उसके मुकाबले पर कुछ धनकुबेर खड़े हो गए थे। उनमें से एक अखबार का मालिक भी था। वो सब अपने-अपने तौर पर चेष्टा कर रहे थे जीवन पाल की छवि खराब करने के लिए। उसके बुरे कामों को उजागर करकेकेशोपुर की जनता के सामने रखने के लिए और खुद जीवन पाल की जगह लेने के लिए ।

पहले तो ऐसे लोगों को जीवन पाल खामोशी से खत्म कर देता था।

परंतु अब वो वक्त नहीं रहा था । दुश्मन कमजोर नहीं थे। वो जानता था। ऐसे में वह सामने वाले को खत्म करने की अपेक्षा अपने पावों को मजबूती से जमा रहा था। ऐसा कोई काम नहीं करना चाहता था कि उसके दुश्मन को उसके कमजोरी से लाभ उठाने का फायदा मिले ।पहले अधिकतर काम वह लापरवाही से करता था और अब सतर्कता इस्तेमाल करता था।

औलाद के नाम पर दो बेटियां थी जो कि केशोपुर के बाहर कॉलेज में पढ़ रही थी। छः साल पहले बीमारी से पत्नी रीना बाई नहीं बच सकी थी। पत्नी की मौत के कुछ महीनों बाद उसकी मुलाकात  मीरा नाम की औरत से हुई। जो कि पैंतीस बरस की थी और ब्याह नहीं किया था। पांच साल पहले उसने मीरा से ब्याह कर लिया। अब चालीस साल की हुई मीरा-मीरा पाल बड़ी शान से जिंदगी बिता रही थी। वो खूबसूरत थी । कशिश थी उसमें । जीवन पाल उससे ब्याह करके खुश था।

जीवन पाल यह जानता था कि मीरा का पीछे से परिवार नहीं है। मां-बाप एक्सीडेंट में मर गए थे। अकेली रह गई। मन खराब हुआ मीरा को तो उसने अकेले ही जीवन बिताने की सोच ली । वक्त बीतने लगा कि इसी बीच जीवन पाल से मुलाकात हुई और उससे ब्याह कर बैठी।

जीवन की हमेशा यही कोशिश रहती कि वो कोई ऐसा काम ना करें कि उसके दुश्मनों को शोर-शराबा डालने की का कोई मौका मिले। परंतु ऊंच-नीच हो जाती थी। गलत काम तो जैसे उसकी सांसों का हिस्सा बन चुके थे। कोई ना कोई झंझट सामने आ ही जाता था। इन दिनों भी ऐसा ही कुछ हुआ पड़ा था।

जीवन पाल को मजदूर की जरूरत थी।

अपने शब्दों के हिसाब से जीवन पाल उसे मजदूर कहता था जो हर काम करने में सक्षम हो। जान देना भी जानता हो और लेना भी जानता हो। जिस काम के लिए निकला होउसे पूरा करके लौटे या फिर लौटे ही नहीं। सामान्य शब्दों में पेशेवर हत्यारा और काम पूरा करने वाला इंसान।ऐसे को वो सादे शब्दों में मजदूर कहता था ।

जीवन पाल  नहीं चाहता था कि किसी को पता चले कि उसे किसी काम के लिए मजदूर की जरूरत है। यही वजह थी कि गुप्त रूप सेअपने खास लोगों के द्वाराकेशोपुर के बाहर से सुजान कश्यप नाम के मजदूर को बुलाकर उससे काम की बात की। दाम तय हो गए है। रात को मजदूर ने उसका काम पूरा करने के लिए निकल जाना था। परंतु कुछ देर पहले ही उसे खबर मिलेगी सुजान कश्यप को भरे बाजार में शो-रूम के भीतर किसी ने सिर पर गोली मार दी ।

ये खबर जीवन पाल को चौंकाने के लिए पर्याप्त थी।

यूं तो मीरा पाल अपने पति जीवन पाल के कामों में दखल कम ही देती थी। जानकारी उसे हर बात की होती थी। पता रहता था। परंतु बीच में बोलने की आदत थी उसकी।

जीवन पाल इस वक्त परेशान सा स्विमिंग पूल के पास टहल रहा था। छोटी सी टेबल पर व्हिस्की का सामान और कुर्सी मौजूद थी। एक तरफ आशाराम और प्रमोद खड़े थे। दोनों के चेहरों पर गंभीरता थी। आशाराम ने होंठ भींच रखे थे । प्रमोद सिंह माचिस की तीली से दांतो को कुरेदता दूसरी तरफ देख रहा था। वो पैंतीस बरस का का व्यक्ति था और आशाराम पचपन का पके बालों वाला था।

तभी बंगले से निकलकर चालीस बरस की मीरा पाल वहां आ पहुंची। लम्बे कद की वजह से साड़ी उसे बहुत जँच रही थी। गले में हीरों का हार। कलाइयों में कंगन। उंगलियों में हीरे-सोने की अंगूठियां। खूबसूरती के साथ ढेर सारी दौलत हो तो कोई क्यों ना दिखे।

जीवन पाल ठिठका।

आशाराम प्रमोद सिंह को देखा।

“तीन घंटे पहले सुजान कश्यप से मैं पहली बार मिला। नागपुर में उसे तुम लाए थे प्रमोद सिंह।” जीवन पाल बेहद धैर्य से एक-एक शब्द चबाकर कह रहा था- “एक घंटे की बातचीत में सब कुछ तय हो गया। मजदूरी के लिए रथपुर जाने के लिए तैयारी हो गया । एडवांस में तीन लाख उसे दिए बाकी काम होने के बाद। रात को उसने रथपुर रवाना भी हो जाना था। उसके जाने की तैयारी लगभग कर दी गई। एक घंटा मेरे पास रहकर वो वक्त बिताने के लिए बाहर घूमने चला गया और दो घंटे बाद मुझे खबर दी जा रही है कि उसे गोली मार दी गई।”

“जीवन पाल साहब।” आशाराम दबे स्वर में बोला- “छाती ठोककर हत्यारे ने उसे गोली मारी। ये कहने में मुझे जरा भी ऐतराज नहीं कि सुजान कश्यप को शूट करने वाला बहुत बड़ा जिगर रखने वाला इन्सान है। जेवरातों के शो-रूम में तब स्टाफ के बारह-पन्द्रह लोग मौजूद थे। गनमैन बाहर प्रवेश द्वार पर खड़ा था। दस-बारह कस्टमर भीतर मौजूद थे । वो भीतर आया और बिना किसी तरह की जल्दबाजी के सुजान कश्यप के सिर में गोली मार कर चला गया। उसके दोनों आदमियों की हिम्मत नहीं हुई कि हथियार होते हुए भी उसे कुछ कह सके। दरबान हिम्मत ना हुई कि उस पर गोली चला पाता। भरे बाजार में चलता हुआ आराम से वो चला गया।”

जजीवन पाल की निगाह आशाराम पर जा टिकी।

“ये काम सुजान कश्यप के दुश्मन का हैं?”

“नहीं पाल साहब।” आशाराम ने इनकार में सिर हिलाया- “सुजान कश्यप अपना काम इस तरह करता था कि उसके ज्यादा दुश्मन नहीं थे। इस शहर में उसे कोई भी नहीं जानता था। यहां पहली बार आया था। ऐसे में भला उसका कौन सा दुश्मन हो सकता है जो इस तरह जान हाथ पर रख कर उसे गोली मार दे।”

“उसे सूट करने वाला पागल रहा होगा।” जीवन पाल ने आशाराम को घूरा।

“ये नहीं हो सकता।” आशाराम के होंठों से निकला ।

“यही तो मैं कह रहा हूं कि बिना वजह सुजान कश्यप जैसे खतरनाक हत्यारे को शूट करने का खतराकोई मोल नहीं लेगा। उसे शूट करने के पीछे बहुत ही अहम वजह है।“ जीवन पाल ने दांत भींचकर कहा  और सिगरेट सुलगाकर बेचैनी भरे अंदाज में कश लेने लगा ।

आशाराम ने प्रमोद सिंह को देखा।

प्रमोद सिंह इस तरह खामोश खड़ा था कि जैसे कुछ कहने-बोलने का उसका इरादा है ना हो।

मीरा पाल भी बारी-बारी तीनों के चेहरों पर निगाह मार लेती थी।

“प्रमोद” एकाएक जीवन पाल ने कहा- “तुम्हारी जुबान बंद क्यों है?”

“मेरे पास कहने को कुछ नहीं है पाल साहब।” प्रमोद सिंह उठा ।

“मालूम नहीं किया कि सुजान कश्यप को शूट करने वाला कौन था?”

“कोशिश की थी। मालूम नहीं हो सका। हमारे आदमी अभी भी उस हत्यारे के बारे में मालूम करने की कोशिश कर रहे हैं। इतना ही पता चल पाया है कि उसने दाढ़ी-मूँछ नकली लगा रखी थी। हो सकता हैउसके बारे में कोई और भी जानकारी मिले। मैं इस चिंता में हूं कि सुजान कश्यप को बहुत ही गुप्त ढंग से मजदूरी के लिए यहां लाया गया था ऐसे में किसी को उसका पता चलना और इस तरह शूट कर देनामेरे ख्याल में किसी खतरे का सिग्नल ही है।”

जीवन पाल की आंखें सिकुड़ी ।

“इस शहर में इतनी हिम्मत किसमें आ गईजो अपना हाथ सीधे-सीधे मेरे गले पर रखने की कोशिश करें।”

“सुदर्शन सेठी हमेशा इस कोशिश में रहता है कि आपकी गर्दन पकड़ सके। ” मीरा पाल ने बेहद शांत स्वर में कहा।

जीवन पाल ने आंखें सिकोड़ कर अपनी पत्नी को देखा।

“सुदर्शन सेठी ?”

“जी हां।” मीरा पाल ने में सिर हिलाया-“सुदर्शन सेठी ये कोशिश कई बार कर चुका है कि आप उसके हाथों परेशान होकर कोई बड़ी गलती करें और वो उस गलती को सबूतों के साथ अपने अखबार में प्रकाशित कर दे। उसकी अखबार के रिपोर्टर अवश्य आपकी हरकतों पर नजर रखते होंगे।”

“ऐसे में उस मजदूर को शूट करने का क्या फायदा।” जीवन पाल धीमे स्वर में कह उठा- “सुदर्शन सेठी उसे पकड़ कर उससे पूछताछ करताइसमें उसे फायदा मिल सकता था ।”

मीरा पाल ने शांत स्वर में सिर हिलाया ।

“आप ठीक कह रहे हैं। ऐसा है तो उसे किसने गोली मारी?”

जीवन पाल उलझन में फंसा आशाराम प्रमोद सिंह को देखने लगा।

“अभी तक हम ये बात विश्वास के साथ नहीं कह सकते कि सुजान कश्यप के किसी दुश्मन ने उसे शूट किया या हमारे किसी दुश्मन ने उसे गोली मारी।” जीवन पाल ने कहा- “शक के सामने रखते हुए हम इतनी बड़ी बात के लिए किसी की तरफ उंगली नहीं उठा सकते। इस शहर में सुजान कश्यप पहली बार आया था पहले वो पन्द्रह बार आया हैहमें यकीन के साथ नहीं कह सकते। क्या मालूम वो पहले भी कई बार आ चुका हो। दूसरे ये की हम लोगों के अलावा कोई नहीं जानता था कि सुजान कश्यप हमारे लिए मजदूरी करने जा रहा है ऐसे में इस बात का बाहर जाना हैरानी ही है।”

तीनों का निगाह जीवन पाल पर थी ।

“इस बात को फिर तय करेंगे कि सुजान कश्यप के दुश्मन ने उसे मारा या हमारे दुश्मनों ने।” जीवन पाल ने कश  लेकर सिगरेट टेबल पर मौजूद ऐश-ट्रे में डाली-“मजदूर ने मेरे लिए क्या काम करना है। ये  खबर बाहर जाना असंभव है।”

पलों की चुप्पी रही।

“तुम दोनों को फिर से मजदूर का इंतजाम करना होगा।”

आशाराम और प्रमोद सिंह सतर्क दिखाई देने लगे ।

“अच्छी बात है पाल साहब।” आशाराम बोला- “मजदूर बाहर का हो या इसी शहर का?”

“बाहर का ही ठीक रहेगा। परंतु इस बारे उसे यहां नहींफार्म हाउस पर पहुंचा देना। वहीं पर उससे बात करूंगा। इस तरह शायद मेरे अनजान दुश्मनों को उसकी खबर ना मिल सकें।” जीवन पाल ने दोनों को देखा- “वो ही मजदूर मेरे सामने पेश करनाजो मेरे काम के लायक हो । ठोक-बजाकर देख लेना उसे ।”

आशाराम और प्रमोद सिंह चले गए ।

मीरा पाल ने देखा अपने पति को ।

“सुजान कश्यप को भला कौन मार सकता है?”

जीवन पाल मुस्कुराया ।

“सबसे बड़ी बात तो ये है कि चंद घंटे पहले इस शहर में आया सुजान कश्यप मेरे लिए काम कर रहा है। ये बात किसी बाहरी आदमी को-मेरे दुश्मन को कैसे पता चले?”

“हांकैसे पता चली?”

“घर के भेदी से।” जीवन पाल की मुस्कान में कड़वापन आ गया ।

“ये आप क्या कह रहे हैं?”

“ठीक ही तो कहा है। हम चार ही मजदूर के बारे में जानते थे। सुजान कश्यप के बारे में अभी रथपुर खबर नहीं की थी मैंने की बात खुल जाने का चांस खड़ा हो जाता। हम चारों में से किसी  ने मजदूर की बात उस तक पहुंचाई है जिसने सुजान कश्यप को शूट किया ।”

पलभर  को मीरा पाल ठगी सी रह गयी ।

“हममें से कौन बात बाहर करेगा?”

“कोई तो है जो दुश्मनों से मिला हुआ है।” जीवन पाल मुस्कुराया- “वो मैं भी कह सकता हूं और तुम भी। वैसे मुझे आशाराम और प्रमोद सिंह पर शक है। ऐसे गद्दार ज्यादा देर तक मेरी नजरों से छिपे नहीं रह सकते मीरा।”

जवाब में मीरा का सिर हौले से हिल कर रह गया।

तभी टेबल पर मौजूद फोन की बेल बजी।

“हैलो।” जीवन पाल ने रिसीवर उठाया।

“पाल साहब?” कानों में आवाज पड़ी।

“तुम?” जीवन पाल की आंखें सिकुड़ी-“कहो ।”

“देर हो रही है और।”

“कोई देर नहीं हो रही। मैं परेशान नहीं तो फिर तुम क्यों परेशान होते हो मुकद्दर सिंह।”

“वो कहता हैज्यादा देर नहीं रुकेगा। कहता है बहन बीमार हैरथपुर से बाहर जाना है।”

“बकवास करता है। हड्डी चूसने का लालच है उसे। दो लाख की हड्डी और डाल दो । पांच-सात दिन के लिए चुप हो जाएगा। तब तक मेरा मजदूर वहां पहुंच ही जाएगा।”

“अच्छी बात है।” मुकद्दर सिंह की गंभीर आवाज सुनाई दी-“मैं उसे संभाल लूंगा।”

दांत भींचे जीवन पाल ने रिसीवर रख दिया ।

“क्या हुआ?” मीरा पाल ने गंभीर स्वर में पूछा ।

“मुकद्दर सिंह कहता है कि शंकरलाल अपने भाव ऊंचे  करने की कोशिश में है।”

“ओह ! अपने दो देने को कह दिया?”

“हां। कुछ दिन ठीक रहेगा। मैं नहीं चाहता कि किसी तरह से मामला बिगड़े।” जीवन पाल खतरनाक स्वर में कह उठा“वैसे भी अब मेरी तरफ से देर हो रही है। सुजान कश्यप की हत्या कर दी गई होती तो कल सुबह तक वो रथपुर पहुंच जाता। फिर सब ठीक हो जाना था।”

“इस काम के लिए आशाराम या प्रमोद सिंह को इस्तेमाल कर लीजिये। इन्हें रथपुर भेज

“हर कोई जानता है कि ये दोनों मेरे लिए काम करते हैं। काम होने से पहले ही बिगड़ जाएगा। ” जीवन पाल की आवाज खतरनाक भाव आ गए।  आंखों में क्रूरता आ ठहरी-“मैं चाहता हूं ये काम ठीक तरह से निपट जाए। तब तक ही बेबस हूं मैं। उसके बाद तो उसका हाल करूंगा कि

“आप फिर गुस्सा कर रहे हैं। ”

जीवन पाल ने मीरा को देखा और दांत भींचकर रह गया ।

मीरा पाल आगे बढ़ी और जीवन पाल से सटकर गंभीर स्वर में कह उठी।

आप तो इतने समझदार इंसान हैं कि गुस्सा करते ही नहीं इस तरह। आज क्या हो गया।”

क्रोध उसके चेहरे पर उभर रहा।

“सब ठीक हो जाएगा। वो बचेगा नहीं।” मीरा पाल की आंखों में खतरनाक भाव नाच उठे। स्वर बेहद सामान्य ही रहा ।

जीवन पाल जैसे बेबसी से भरी लंबी सांस लेकर रह गया।

तभी एक नौकर वहां आ पहुंचा।

“मालिक ।” वो सिर झुकाकर बोला- “पुलिस वाले आपसे मिलने आए हैं।”

“पुलिस?” मीरा पाल के होंठों से निकला।

जीवन पाल ने खुद पर काबू पाया और सामान्य स्वर में कह उठा।

“इतना हैरान होने की जरूरत नहीं। शांत रहो। पुलिस वालों को अच्छी तरह मालूम है कि वो कहां आए हैं।”

■■

एक पुलिस इंस्पेक्टर और साथ में दो सब-इंस्पेक्टर थे। वर्दी में थे ।

बेहद खूबसूरत ड्राइंग हॉल में जब जीवन पाल पहुंचा तो उसी वक्त नौकर उन तीनों पुलिस वालों को लेकर भीतर पहुंचा ही था।

मीरा पाल अन्य दरवाजे के पास खड़ी चोरी-छिपे भीतर देख सुन रही थी।

जीवन पाल को सामने पाकर तीनों पुलिस वाले ठिठक से गए। हड़बड़ा कर एक दूसरे को देखा। फिर जीवन पाल को देखते हुए तीनों ने जल्दी से इस तरह हैलो की कि वो दूसरे से पहले कर सकें।

जीवन पाल ने उन्हें बैठने के लिए नहीं कहा और सिगरेट सुलगाकर कश लिया।

“बिना खबर के पुलिस के यहां आने पर मुझे हैरानी हो रही है। ” जीवन पाल ने कहा ।

“वोवो पाल साहब ।” इंस्पेक्टर हड़बड़ा कर कह उठा-“इधर से निकल रहे थे किकि मिलने का मन कर आया। वो

“खूब ! मिलने का मन कर आया। जबकि मैं तुम लोगों को जानता नहीं। जीवन पाल ने लापरवाही से कहा- “वर्दी पहनकर कोई पुलिस वाला मुझसे मिलने आएयह तो वैसे भी मुझे पसंद नहीं।”

पुलिस वालों के चेहरों पर घबराहट सी आ ठहरी थी।

“दरअसलहम गोल्डन मार्किट मेंज्वैलर्स की शॉप परशूट किए गए मामले को देख रहे हैं । बहुत हिम्मत वाला हत्यारा था। भीतर गया और एक व्यक्ति को गोली मारकर बाहर निकल गया। कोई जल्दी नहीं थी उसे। आराम से आया-आराम से गया। उसी सिलसिले में सोचाआपसे मिल लें।” इंस्पेक्टर ने सभंलकर कहा।

“मुझसे?” जीवन पाल की आवाज में सख्ती आई ।

तीनों पुलिस वालों ने एक-दूसरे को देखा ।

“मुझे देखो ।” इस बार जीवन पाल की आवाज सख्त थी । पुलिस वालों की निगाहजीवन के कठोर हुए चेहरे पर जा रुकी।

“बोलो।” शब्दों को चबाकर कहा जीवन पाल ने- “क्या कहना चाहते हो?”

“जो मरा हैउसे जानते हैं आप पाल साहब?” सब इंस्पेक्टर ने कहा।

“मैं ये भी नहीं जानता कि कोई मरा है। जो कहना है फौरन कहो और निकल जाओ यहां से।”

“मरने वाले का नाम सुजान कश्यप है। उसकी डायरी में उसका नाम लिखा था। उसी डायरी में आपका नाम-पता भी लिखा है  इससे हम इसी नतीजे पर पहुंचे हैं कि वो आपको और आप उसे जानते हैं। दूसरे सब-इंस्पेक्टर ने कहा ।

“कुत्तों की तरह मत बात करो।” जीवन पाल ने खा जाने वाले स्वर में कहा- “किसी की जेब में मेरा नाम-पता निकले तो वो मेरी पहचान वाला नहीं बन जाता। मुझे तो पड़ोस के शहर का बच्चा भी जानता है। अगर वो मेरा नाम-पता लिखकर अपनी जेब में रख ले तोवो मेरी औलाद बन नहीं बन जाएगी।”

पुलिस वालों ने शांत निगाहों से एक दूसरे को देखा।

“हम तो आपको सुजान कश्यप की डायरी के बारे में बताने आए थे ।” इंस्पेक्टर ने एकाएक बेहद सरल स्वर में कहा- “सुनने में आया है कि अखबार के मालिक सुदर्शन सेठी आप के खिलाफ मसालेदार खबर की अच्छी कीमत देंगे। हमें सोचा क्यों ना आप से बात कर ली जाए और घर की बात घर में ही रहे। इसी कारण आपके पास आए थे।

जीवन पाल के चेहरे पर क्रूरता भरी मुस्कान उभरी।

“कल जानते हो क्या होगा?” जीवन पाल दरिन्दगी भरे स्वर में कह उठा- “सुदर्शन सेठी के अखबार में ही एक और खबर छपेगी। तुम्हारे ये दोनों साथ ही पुलिस वालों को तुमने शूट करकेखुद को शूट करने की चेष्टा की। तुम घायलवस्था में बेहोश मिले और अपनी हरकतों का ब्यौरा तुमने पहले ही लिखकर जेब में रख लिया था। क्या तुम ऐसी आत्महत्या वाली मौत मरना पसंद करोगे। साथ ही इन दोनों की मौत भी। मेरे लिए ये सब करना आसान है। जानते भी हो।”

पुलिस इंस्पेक्टर ने सूखे होठों पर जीभ फेरी ।

दोनों सब-इंस्पेक्टरों के चेहरे चेहरे पर पीलापन उभरा।

“आप हमें जान से मारने की धमकी दे रहे हैं । वर्दी में है हम और।”

“इस वर्दी में तुम तीनों मेरे पास आकर मुझे धमकी दे रहे हो कि मैं तुम्हें नोट दे दूं नहीं तो तुम डायरी वाली बात सुदर्शन सेठी को बता दोगे। वो खबर में छाप देगाडायरी की बात। लेकिन तुम लोगों को किसी ने सिखाया नहीं कि जीवन पाल से किस तरह बात की जाती है। तुम जैसे कुत्तों के आगे हड्डियां फेंकने की अपेक्षा हड्डियों को नाले में फेकना ज्यादा पसंद करूंगा।”

दो पल के लिए तीनों के मुंह से कोई बोल ना फूटा।

“सुजान कश्यप की डायरी मुझे दो।” जीवन पाल के चेहरे दरिन्दगी के भाव उभरे।

तीनों पुलिस वाले ठगे सेउलझन में बे-मतलब भरे ढंग  में खड़े रहे ।

जीवन पाल ने उन्हें लाने वाले नौकर को देखा।

“लेखा है ?”

“हाँ मालिक ।”

“बुलाओ।” जीवन पाल का स्वर मौत से भर गया ।

नौकर पलटकर दरवाजे की तरफ बढ़ गया।

तभी इंस्पेक्टर  ने जल्दी से डायरी निकाली और घबराकर जीवन पाल की तरफ बढ़ाई।

“लेखा को क्यों बुला रहें है पाल साहब? डायरी लीजिएहम चलते हैं। ये बात किसी को भी नहीं और कभी किसी को मालूम नहीं होगी। हमहम तो आपके ही हैं ।”

दोनों सब-इंस्पेक्टरों ने भी तुरंत सिर हिलाया ।

जीवन पाल ने उन्हें निगाहों से उन्हें देखते हुए डायरी थामी और जेब में डाल ली ।

“सुदर्शन सेठी में भी इतनी हिम्मत नहीं कि यहां खड़ा होकर वो मुझे ब्लैकमेल करने वाली बात” कहते हुए जीवन पाल की निगाह दरवाजे की तरफ उठी और होंठ भींचकर रह गया।

नौकर ने बीस वर्षीय युवक के साथ भीतर प्रवेश किया था।

लेखा।

बीस बरस की उम्र मात्र ।

देखने में मासूमभोला-भाला तरस खाने लायक नजर आने वाला लेखादरिंदगी का दूसरा रूप था। पांच फीट पांच इंच लंबाई। होठों पर छोटी-छोटी मुझे। आंखों में हमेशा भूख सी नजर आती। देखने वाला नहीं समझ पाता कि वो खून की भूख थी। चौड़ा माथासिर के छोटे-छोटे बाल । होंठ मोटे और अधिकतर बंद ही रहते थे। जेबों में इस तरह हाथ डाले रहता था जैसे सर्दी से अपना बचाव कर रहा हो।

दबी सी सोच के साथ सब जानते थे कि लेखाजीवन पाल का विश्वस्त हत्यारा है।

मजदूर माँ-बाप का बेटा लेखा दस वर्ष की उम्र में लोगों के घर-घर जाकरउनके कारें साफ करने का काम करता था । पन्द्रह सौ रुपये महीने का काम लेता था। तभी कुछ दादा टाइप लड़कों ने उसके इस काम को हथियाना चाहा। लिखा अपने परिवार का रोजगार कैसे जाने देता। उन लड़कों के साथ ठन गई ।एक दिन चार लड़कों ने उस पर हमला बोला और ऐसी ठुकाई की कि महीना भर पर बिस्तर पर पड़ा। जख्मों का इलाज कराता रहा । झोपड़ी में पड़े हजार पांच सौ भी दवा-दारू में खर्च हो गए। उसकी देखभाल के लिए तो कभी मां घर पर रहती यो कभी बाप । ऐसे में रोज की आने वाली कमाई कम हो गई । खाना भी कभी मिलता तो कभी नहीं ।

लेखा उन लड़कों के प्रति गुस्से में सुलगता रहाजब तक कि ठीक ना हो गया ।

उसके बाद घर से निकला तो मालूम हुआ कि उसकी कारों को उन्हीं में से दो लड़के साफ कर रहे हैं । जमा-जमाया काम उसके हाथ से निकल गया। ठुकराई और काम के हाथ से निकल जाने का गुस्सा इतना बढ़ गया कि लोहे की रॉड के साथ उन लड़कों के पास पहुंचा और पीछे से उनके सिरों पर ऐसी चोट मारी कि दोनों ही मर गए।

यानी कि दस साल की उम्र में उसने दो की हत्या कर दी थी ।

उन दोनों की मौत के बाद लेखा भाग खड़ा हुआ। घर नहीं गयास्टेशन पर पहुंचा और शहर से दूर इस शहर में आ गया। कुछ दिन बाद ही यूं ही अखबार में नजर पड़ी तो मालूम हुआ कि कुछ लड़कों ने उसकी झोपड़ी में जाकर उसके मां-बाप को मार डाला है। मतलब कि उसका परिवार खत्म-दुनिया में अकेला रह गया था। उसके बाद छोटे-छोटे काम करके पेट भरने लगा। रात को जहां जगह मिलतीवहां नींद ले लेता । छः महीने ही बीते होंगेतब सड़क के किनारे रात को नींद ले रहा था तो गोलियों की आवाज सुनकर उसकी नींद खुली। वो उठ बैठा।

दो-तीन मिनट में ही मालूम हो गया कि उधर एक अकेला आदमी है। कुछ लोग उसे गोली मारने की कोशिश में है । लेखा यूं ही छिपता-छिपाता आगे बढ़ा । एक दीवार की ओट में घायल व्यक्ति मिला ।उसके कंधे पर गोली लगी थी । पास ही उसके रिवॉल्वर पड़ी थी । लेखा ने यूं ही रिवॉल्वर उठाई और उस घायल व्यक्ति की तरफ करके ट्रेगर दबा दिया ।

गोली उस व्यक्ति के चेहरे पर लगी वो वो मर गया।

इस तरह लेखा को पता चला कि रिवॉल्वर कैसे चलाई जाती है ।

उसके बाद उसने रिवॉल्वर में बची चार गोलियों सेवहां फायर कर रहे दो व्यक्तियों की जान ले ली। यानी कि तीन को मारा। बाकी के जो एक-दो खड़े थे वे उलझन में फंस गए कि जाने कौन आकर उन पर गोलियां चला रहा है ये जुदा बात थी कि लेखा के हाथ में रिवॉल्वर में तब कोई गोली नहीं बची थी। परंतु लिखा को इस तरह गोली चला कर सामने वाले को मार देना बहुत आसान लगा। अच्छा लगा ।  उसके कच्चे दिमाग में किसी खेल की तरह ये बात बैठ गई कि ये खिलौना अच्छा है ।

तभी लेखा ने अपने सामने जिस व्यक्ति को खड़े पायावो जीवन पाल था ।

“कौन हो तुम?” जीवन पाल ने अंधेरे में उसे घूमते हुए पूछा। उसके हाथ में रिवॉल्वर दबी थी ।

किसी को सामने पाकर लेखा घबरा-सा गया ।

“मैंमैं।”

“घबराओ मत । मैं तुम्हें कुछ नहीं कहूंगा। इन लोगों को तुमने मारा है।” जीवन पाल ने इस बार प्यार से पूछा ।

“हां।” लेखा ने भयभीत स्वर में कहा-“रिवाल्वर हाथ में पकड़ी की चल गई।”

“निशाना अच्छा लगा लेता है।” जीवन पाल के चेहरे पर मुस्कान उभरी ।

“ननही साब जी।” लेखा ने घबराकर भोलेपन से कहा- “मुझे निशाना लगाना नहीं आता।”

जीवन पानी ने रिवॉल्वर जेब में डाल ली।

“ये लोग मुझे घेर कर मारना चाहते थे।”

“क्यों?” बरबस उसके होंठों से निकला ।

“क्यों?” जीवन पाल के चेहरे पर छाई मुस्कान गहरी भो गई“छोड़ो इस बात को। तुम कौन हो?”

“मैंमैं” लेखा से कुछ कहते न बना। वो हड़बड़ा गया था

आगे बढ़कर जीवन पाल ने कंधे पर हाथ रखा।

“यहां से चलो। गोलियों की आवाज गूंज चुकी है। कभी भी पुलिस आ सकती है।”

उसके बाद लेखा ने बताया कि कैसे वो दो लड़कों की जान लेकरइस शहर में भाग आया और पीछे से लड़कों के साथियों ने उसके मां-बाप की हत्या कर दी ।

जीवन पाल को लड़का काम का लगा।

लेखा को उसने पास रख लिया। सड़ बरस की उम्र में लेखा को भी सहारे की जरूरत थी। परन्तु जीवन पाल ने उसे सहारा दियाअपने मतलब के हिसाब से।  अपने दो आदमियों के साथ लिखा को वीरान जगह पर बने फार्म हाउस पर भेज दिया। खाना-पीनाकारों में घूमना। हुक्म सुनने के लिए नौकर हर वक्त हाजिर रहते थे । लेखा को ये जिन्दगी  मजेदार लगी। सबसे ज्यादा अच्छा लगागोलियां चलाना ।

वो दोनों आदमी हर रोज उसे हथियार पकड़नासंभालना और निशाना लगाना सिखाते थे।

सब कुछ लेखा को पसंद था।

यही सब चलता रहा ढाई-तीन साल।

नम्बरी निशानची बन गया लेखासिर्फ चौदह साल की उम्र में ऐसा कोई हथियार नहीं बचाजिसकी जानकारी उससे न हो। जिसे संभालना उसे न आता है। जिससे अचूक निशान लेना उसे आता हो। बाद जीवन पाल के कहने पर उन दोनों व्यकितयों ने उसमे क्रुरता भरी।फार्म हाऊस पर खरगोशबकरीभेड़घोड़े इस तरह के जानवरों को लाकर बांध दिया जाता और लेखा के हाथ में चाकू या छुरा देकर कहा जाता कि इन्हें धीरे-धीरे काटकरइनकी जान ले।

लेखा ने ऐसा करना शुरू किया ।

पहले दिन से ही लेखा को इस तरह जानवरों की जान लेने में मजा आने लगा। दो महीने में ही जानवरों की जान लेने में उसे महारथ हासिल कर ली कि कैसे एक ही वार में जानवर को खत्म किया जा सकता है। इसके साथ उसका घूमना-फिरना बराबर जारी था। जेबों में नोट भरे रहते। जहां चाहतावही नोट उड़ाता। इसके साथ ही उसे शराब और औरत का आदि बनाने की चेष्टा की गई ,परंतु लेखा को ना तो शराब पसंद आई न ही औरत ।

पन्द्रह साल का हो गया लेखा ।

इस बीच कभी भी उसके बाद जीवन पाल से नहीं हुईफोन पर भी नहीं-आमने-सामने भी नहीं। जीवन पाल ने कभी भी उससे मुलाकात करने की चेष्टा नहीं की। लेखा ने भी जीवन पाल से बात मुलाकात करने में दिलचस्पी कभी नहीं उठाई।

फिर यदा-कदा लेखा के शिकार फार्म हाउस पर पहुंचाए जाने लगे। जीवन पाल ने जिसे खत्म करना होता। उसके आदमी उसे फार्म हाउस पर पहुंचा जाते और लेखा उनकी जान लेता। कभी तो चाकू से रेत-रेत करतडपा-तडपा कर उसे मारता तो कभी निशानेबाजी के अभ्यास में व्यस्त उन्हें शूट करता।

बहते खून को देखने का शैदाई (पागल) बन चुका था लेखा।

बेरहम खतरनाकबहशी शांत रहने वाला डरावना हत्यारा बन गया था लेखा। मात्र सत्रह साल की उम्र में । देखने में प्यार करने लायक मासूम सा लड़का नजर आता था। जब पूरी तरह लेखा को हत्यारे की डिग्री मिल गई तो जीवन पाल ने उसे अपने बंगले पर बुला लिया। बंगले पर ही रहकर लेखक किसी नौकर की भांति वहा के काम करने लगा। वक्त आने पर वो बंगले से बाहर जाता और बेहद सफाई से जीवन पाल के शिकार को खत्म करके वापस आ जाता। लेखा का बहुत सहारा था जीवन पाल को। स्पष्ट तौर पर लेखा के खिलाफ पुलिस के पास कोई सबूत नहीं था कि वो जीवन पाल के लिए हत्याएं करता हैपरंतु पुलिस जानती थी कि लेखा बहुत खतरनाक वहशी हत्यारा है ।

ऐसा हत्यारा जिससे पुलिस वाले और जीवन पाल के दुश्मन दूर ही रहना ठीक समझते थे ।

वहां प्रवेश करते ही लेखा ठिठका।

आदत के मुताबिक दोनों हाथ जेब में डाले हुए थे। चेहरे पर किसी तरह का भाव नहीं था। पुलिस वालों पर उसने सरसरी निगाह मारी फिर जीवन पाल को देखा ।

“आपने मुझे बुलाया मालिक?” लेखा ने शांत स्वर में पूछा ।

तीनों पुलिस वालों के चेहरों पर डर से भरा पीलापन उभर आया था ।

“क्या कर रहा था?” जीवन पाल ने शांत स्वर में पूछा ।

“फर्श चमका रहा था मालिक।” लेखा ने पुनः सरसरी निगाह पुलिस वालों पर मारी- “सफाई  वाला ठीक काम नहीं करता।”

“हूं।” जीवन पाल ने पुनः तीनों पुलिस वालों को देखा ।

“मैं जाऊं मालिक?” लेखा बोला।

“जा।”

लेखा चला गया।

जीवन पाल ने कश लेकर सिगरेट ऐश-ट्रे में मसल दी।

“अब गलती नहीं करेंगे।” पुलिस इंस्पेक्टर जल्दी से सूखे स्वर में कह उठा-“हम चलें?”

जीवन पाल ने सिर हिलाकर नौकर को इशारा किया।

नौकरतीनों पुलिस वालों को साथ लिए बाहर निकल गया ।

तभी लेखा ने भीतर प्रवेश किया ।

दूसरे दरवाजे से मीरा पाल भीतर आ गई।

“कहिये मालिक?” लेखा ने शांत स्वर में कहा ।

“तीनों पुलिस वालों को देखा?” जीवन पाल ने शब्दों को चबाकर पूछा।

“तीनों को ही पहचान लूंगा।”

“खत्म कर दो ।” ये मुझे ब्लैकमेल करने आए थे और ऐसी लाश से मेरा रिश्ता जोड़ रहे हैंजिससे मेरा रिश्ता है भी। मैं नहीं चाहता कि बात बढ़े। तीनों अभी खत्म हो गए तो बात यहीं दब जाएगी।”

“चलता हूं?” कहने के साथ ही लेखा बाहर निकल गया ।

जीवन काल ने गर्दन घुमा कर गंभीरकठोर नजरों से मीरा पाल को देखा।

“तुम इस मामले में ज्यादा ही दिलचस्पी ले रही हो मीरा ।”जीवन पाल ने कहा-“इस तरह बातें सुनना।”

“जब लगे कि बात ठीक नहीं हो रही तो दिलचस्पी लेनी पड़ती है।” कहां मीरा पाल ने गंभीर स्वर में ।

“क्या कहना चाहती हो?”

“आपने जिस आदमी को अपने काम के लिए तैयार किया उसे गोली मार दी गई। स्पष्ट है कि आपके किसी दुश्मन की नजर आप पर हैं। ऐसे में आपने तीन-तीन पुलिसवालों को खत्म करने के लिएलेखा को कह दिया। कुछ पैसे देकर उन पुलिसवालों को चुप करा सकते थे। उन्हें कत्ल कर देने की क्या जरूरत है?” मीरा पाल ने गंभीर स्वर में कहा- “अपनी पोजीशन देखिये। हर कोई आपकी इज्जत करता है और।”

“जरा-जरा सी बात के लिए मुझे ब्लैकमेल होना पसंद नहीं।”

“कभी-कभी सहना पड़ता है।”

“एक बार उन्हें पैसे दे देता तो पन्द्रह दिन बाद वो फिर मेरे दरवाजे पर खड़े होते।” जीवन पाल ने दांत पीसकर बोला।

“मैंने ये कहा है कि अभी ऐसा कोई कदम उठाना ठीक नहीं था। बाद मेंठीक वक्त पर उन्हें देख लेते।”

जीवन ने सख्त निगाहों से मीरा पाल को घूरा।

“तुम मुझे डराने की चेष्टा मत करो।"

“मैं तुम्हें डरा नहीं रही बल्कि बता रही हूं कि हालातों को देखो। जल्दबाजी में कदम मत उठाओ। इस मामले में लेखा को लाने की जरूरत नहीं थी।” मीरा पाल ने बेहद शांत गम्भीर स्वर में कहा और पलट कर बाहर निकल गई ।

होंठ भींचे  जीवन पाल गुस्से में भरे ढंग में टहलने लगा।

बेहद खूबसूरत बेडरूम में पहुंचकर मीरा पाल ने फोन पर बात की।

“देवराज चौहान ।” स्वर धीमा था मीरा पाल का- “बहुत सफाई से तुमने उस आदमी को शो-रूम में गोली मारी।”

“उसे कितनी तकलीफ हुई?” देवराज चौहान की आवाज कानों में पड़ी।

“बहुत ज्यादा। वो हैरान है कि किसी को उसके बारे में कैसे पता चला?” मीरा पाल ने दबे स्वर में कहा ।

“अब उसका क्या इरादा है?”

“आशाराम और प्रमोद को फिर से कोई मजदूर लाने को कहा है। दूसरे शहर से वो मजदूर लाएंगे ढूंढ़ढूंढा के।” मीरा पाल के स्वर में गंभीरता थी“इस बार नए मजदूर से जीवन पाल बेहद गुप्त रूप से मिलेगा। फॉर्म हाउस पर ।”

“ठीक है । मजदूर का वो इंतजाम कर ले तो मुझे फौरन खबर करना।”

“फौरन से भी फौरन खबर करूंगी। आज बसई तुम्हारे पास काम की पहली किस्त लेकर आएगा।” कहने के साथ ही मीरा पाल ने रिसीवर रखा। चेहरे पर सोच के भाव थे। होंठों में कसाव आ ठहरा था- “सब कुछ ठीक कर के रहूंगी मैं।” एकाएक वो बड़बड़ा उठी।

■■

दरवाजे पर हल्की सी थपथपाहट होते हीजगमोहन ने उसी पल आगे बढ़कर दरवाजा खोला। बसई आया था। ब्रीफकेस हाथ में पकड़ा हुआ था ।

“खड़ा क्या है जल्दी अंदर आ।”

बसई भीतर आया तो जगमोहन ने दरवाजा बंद किया ।

देवराज चौहान कुर्सी पर बैठा चाय के घुट भर रहा था। दोनों टांगे टेबल पर रखी थी ।

“तुमने उसे बहुत अच्छे ढंग से मारा।” बसई ने जगमोहन से कहा-“पुलिस परेशान हुई पड़ी है कि।”

“फालतू की बातें छोड़ो । जगमोहन ने उसके हाथ में दबे ब्रीफकेस को देखा- “मीरा पाल ने कहा था कि तुम्हारे हाथ वो पहली हत्या की किस्त पच्चीस लाख रुपए भेज रही है ।इस पर्स  साइज के ब्रीफकेस में पच्चीस लाख तो आने से रहे।”

“मैंने कब कहा कि ब्रीफकेस में पच्चीस रुपए हैं।” बसई ने कहा और कुर्सी पर जा बैठा।

“तो तू पच्चीस लाख नही लाया?” उसने पच्चीस लाख नहीं भेजे?” जगमोहन के माथे पर बल पड़े।

“मैंने तो ये भी नहीं कहा।”

“तो तूने क्या कहा?” जगमोहन ने कड़वे स्वर में कहा।

बसई ने टेबल पर ब्रीफकेस रखा और थपथपा कर बोला- “इसमें पांच लाख नगद रुपया है। ताकि खर्चे-पानी की तरफ से तुम लोगों का हाथ तंग ना रहे। मीरा पाल ने यही कहा है मुझे। अपनी जरूरतों के लिए तुम लोगों को पैसे की जरूरत पढ़ सकती है।”

“बाकी का बीस लाख?”

बसई ने जेब से छोटी-सी थैली निकाली और कहा।

“इसमें बीस लाख के हीरे हैं। तुम्हें संभालने में आसानी होगी और मीरा पाल को देने में आसानी है।”

जगमोहन ने आगे बढ़कर थैली थामी। उसे खोला। भीतर छोटे-छोटे चमकते ही नजर आए ।

“ये बीस लाख के हीरे हैं।”

“हां।”

“मुझे क्या मालूम कि ये बीस लाख के हीरे हैं। किसी जौहरी के पास जाकर इनकी कीमत तो लगवाने से रहा।”

“ये बीस लाख की कीमत के हीरे हैं।” बसई ने गंभीर स्वर में कहा- “इन हालातों में मीरा पाल हेराफेरी करने से रही।”

“लेकिन।”

“मुझे दिखाओ ।”

जगमोहन ने आगे बढ़कर थैली देवराज चौहान ने हीरों का चैक किया फिर थैली बंद करके  जगमोहन को थमाई और सिगरेट सुलगा कर बोला-

“बीस से ज्यादा की कीमत के हीरे हैं। ”

जगमोहन की तसल्ली भरे ढंग से थैली जेब में डाल ली। फिर ब्रीफकेस को खोल कर देखा । उसमें हजार और पांच सौ केपांच पांच लाख रुपए मौजूद थे।

“बहुत आसानी से पच्चीस लाख मार दिए।” बसई के होठों पर मुस्कान उभरी ।

“आसानी से?” जगमोहन ने बैठते हुए उसे घूरा- “तू ढेर सारे लोगों के सामने किसी को गोली मार कर निकल सकता है।”

“नहीं।”

“तो फिर आसानी से कैसे कहा तूने ।”

बसई कुछ नहीं बोला ।

“दूसरा शिकार कब तक लगेगा ?”

“मालूम नहीं। आशाराम और प्रमोद सिंह केशोपुर से बाहर चले गए हैकिसी का इंतजाम करने। मीरा पाल बता रही थी कि जीवन पाल इस बार और भी सावधानी इस्तेमाल करेगा । इस बार मजदूर से अपने अपने फार्म हाउस में मुलाकात करेगा। उसे सुरक्षा में रखेगा कि कोई उसे मार न  सके।” बसई ने गंभीर स्वर में कहा।

“कोई बात नहीं।” जगमोहन ने कहा- “हम अपना काम पूरा करना जानते हैं। मीरा पाल से तेरे को तेरा  पांच लाख मिला?”

“मैंने तो पहले ही ले लिया था।”

“अपना माल लेने में देर नहीं लगाता।”

“अपना माल लेने की तो सबको जल्दी रहती है।” बसई हौले से हंसा।

“मीरा पाल किस चक्कर मे है ?” देवराज चौहान कह उठा।

“कैसा चक्कर ?”

“अपने पति जीवन पाल के खिलाफ वो काम करवा रही है हमसे। उसका पति जो काम करवाना चाहता है । उसके काम को पूरा नहीं होने दे रही। इसके लिए वो हमें मोटी रख दे रही है। जो कि जीवन पाल की  ही है। वो ये भी जानती होगी कि जीवन पाल को ये सब मालूम हो गया तो उसे छोड़ेगा नहीं। यानि कि खतरा उठाकर मीरा पालउसके काम में रुकावटें डालने लगी है। यकीनन कोई खास बात होगी।”

बसई ने गंभीर निगाहों से देवराज चौहान को देखा ।

“ठीक कहते हो ।” जगमोहन बोला- “इतना बड़ा कदमखास वजह के कारण ही उठा रही होगी।”

“मैं नहीं जानता कि असल बात क्या है ।” बसई ने सिर हिलाकर कहा।

“तुमने सोचा भी नहीं ?” देवराज चौहान बोला ।

“जब पांच लाख मुझे मिले तो मैंने सोचना बंद कर दिया।” बसई एकाएक मुस्कुराया- “पार्टी कोई काम करा रही है तो इससे अवश्य उसका कोई मतलब हल होता होगा। हमें नोट चाहिएवो मिल रहे हैं।”

“हम नोटों के साथ मतलब जानने की आदत भी रखते हैं।” जगमोहन ने कहा ।

बसई कुछ नहीं बोला।

“खैर छोड़ । ये बता कि तू हमें ऐसा फायदा फायदे का काम बताने वाला था कि जिसमें तेरी कमीशन भी बनेगी।”

“ये काम खत्म कर लो। उसके बाद ये बात करूंगा।”

“अब बता दे।”

“एक वक्त में एक काम करना चाहिए।” बसई ने उसे देखा।

“तू तो मुझे ही समझाने लगा।”

बसई उठ खड़ा हुआ।

“चलता हूं । मुझे फोन पर रहना है। मीरा पाल को कभी भी मेरी जरूरत पड़ सकती है।” बसई ने कहा।

“वो जानती है कि हम इस होटल में ठहरे हैं।”

“हांमैंने बताया था । उसे खबर होनी चाहिए कि तुम लोग कहां हो। ताकि जरूरत पड़ने पर वो तुरंत तुम लोगों से बात कर सके।”

बसई चला गया ।

“जगमोहन ।” देवराज चौहान ने कश लेकर सिगरेट ऐश ट्रे में डाली-“जीवन पाल को दूसरे किसी आदमी का इंतजाम करने में पांच-सात दिनों का लग जाना मामूली बात है। ”

“ठीक कहा। ”

“हमारे पास वक्त है। तुम मीरा पाल के बारे में जानने की कोशिश करो। शायद मालूम हो जाए कि ये सब वो क्यों करवा रही है। इसके पीछे उसका मकसद क्या है।” देवराज चौहान ने सोच भरे स्वर में कहा-“हमारे द्वारा  वो जीवन पाल की सहायता कर रही है या उसके खिलाफ काम कर रही है।”

जगमोहन ने होंठ सिकोड़ कर सिर हिलाया ।

“ये बातें मालूम करने में कोई बुराई नहीं। वक्त भी बीत जाएगा।” जगमोहन कह उठा ।

■■

रात दस बजे देवराज चौहान और जगमोहन जगमोहन होटल के ड्राइंग हॉल में डिनर ले रहे थे। कुछ देर पहले ही जगमोहन लौटा था। नहा कर उसने कपड़े पहने और डिनर के लिए यहां आ गए थे।

“क्या मालूम हुआ मीरा पाल के बारे में?” देवराज चौहान ने पूछा।”

“पांच साल पहले जीवन पाल ने मीरा  से शादी की थी ।” जगमोहन धीमे स्वर में कह उठा- “जीवन पाल की पहली पत्नी बीमारी से मर गई थी। पहली पत्नी से दो बेटियां हैंजो केशोपुर से बाहर पढ़ रही है।”

“ये जीवन पाल की दूसरी शादी है। मीरा पाल उसकी दूसरी बीवी है।” देवराज चौहान ने सोच भरी निगाहों से उसे देखा।

जगमोहन ने सहमति में सिर हिलाया।

“मैंने मीरा पाल के बारे में जानने की चेष्टा कीपरन्तु कुछ भी मालूम नहीं हुआ।”

“क्या जानने की चेष्टा की ?”

“यही कि मीरा पाल शादी से पहले क्या करती थी। कहां की रहने वाली है। जीवन पाल से उसकी मुलाकात कहां हुई । मीरा पाल के घर वाले कहां हैं? परंतु इनमें से एक बात भी मालूम नहीं हुई ।”

“ये कैसे हो सकता है। कुछ तो मालूम हुआ ही होगा ।”

“नहीं। कुछ पता नहीं चला। सिवाय इसके कि मीरा पाल मुंबई की रहने वाली है।”

“मुंबई कहां?”

“नहीं मालूम हुआ।”

देवराज चौहान कुछ पलों तक जगमोहन को देखता रहा ।

“क्या हुआ ?”

“तुम्हारी बात सुनने के बाद मुझे इस बात की ज्यादा जरूरत महसूस होने लगी कि मीरा पाल का अतीत क्या है। बात जानने की कोशिश करते रहो कि मीरा पाल कहां से जीवन पाल की जिंदगी में आई।”

“तुम्हें यकीन है कि मीरा पाल गड़बड़ औरत है।”

“ऐसी कोई बात नहीं।” देवराज चौहान ने कहा- “पहले इस बात का शक तो हो कि उसके इरादे गलत है। क्या मालूम ये सब करके वो जीवन पाल के हक में अच्छा कर रही है या बुरा।”

“मैं मालूम करके रहूंगा कि मीरा पाल की बीती जिंदगी क्या है ।” जगमोहन ने पक्के स्वर में कहा ।

“जीवन पाल के बारे में मालूम हो सकेतो मालूम करना। इन दोनों में कोई एक गड़बड़ कर रहा है ।”

“जीवन पाल यहां का सफेदपोश दादा है। बदनाम है। बेपनाह दौलत है तो लोग इज्जत भी करते हैं । अब शहर में कई हैंजो जीवन पाल का नाम मिट्टी में मिलाना चाहते हैं । जीवन पाल इस बारे में सावधान रहता है कि उसके नाम पर ऐसा कोई धब्बा ना लगे कि अखबारों में उसका नाम उछले।” जगमोहन ने कहा-“जीवन पाल अच्छी तरह जानता है कि पुलिस की नजरें भी उसकी हरकतों की तरफ उठने लगी है और वो फंसना नहीं चाहता।”

बातों के बीच वे खाना भी खा रहे थे।

“जीवन पाल किसी खतरनाक बंदे सेखतरनाक काम लेना चाहता है। ” देवराज चौहान के कहा-“ये काम बहुत छिपकर और सावधानी से कर रहा है कि किसी को पता न चले। जाहिर है कि गलत काम ही करवाने जा रहा है।”

“मैं ये भी पता करुंगा की जीवन पाल क्या काम करवाना चाहता है।” जगमोहन के माथे पर बल पड़े।

“कोई फायदा नहीं। ये बात मालूम नहीं हो सकेगी। अलबत्ता तुम ही नजरों में आ जाओगे।” देवराज चौहान ने टोका- “जो भी करो सावधानी से करो। इस बात को ध्यान रखो कि हम मीरा पाल के लिए काम कर रहे हैं और जीवन पाल की निगाहों में हमने नहीं आना है। तो इन दोनों में से कोई भी हमारा सगा नहीं है। हमारा काम ही हमारा सगा है।”

जगमोहन ने देवराज चौहान को गहरी निगाहों से देखा ।

“मेरे से जितना भी हो सकेगामालूम करूंगा।”

“तुम्हारी भाग-दौड़ मीरा पाल की नजरों में या बसई की नजरों में भी नहीं आनी चाहिए। जो मालूम करोचुपके से करो ।”

खाना खाते हुए जगमोहन ने हौले से सिर हिला दिया।

■■

शाम के पांच बजे थे।

बगले के पोर्च के पास छोटे से बाग में लेखा ने खुद को व्यस्त कर रखा था। रंग-बिरंगे फूलों की पत्तियों में से उन पत्तियों को छांट कर तोड़ रहा था जो सुख चुकी थी। अभी भी धूप थी और उसका बदन पसीने में डूबा हुआ था। कमीज गीली हो रही थी। बहुत ही तन्मयता के साथ अपने काम में व्यस्त था।

मीरा पाल वहां आ पहुंची थी। लेकिन वो आहट न पा सका था।

“सूखी पत्तियों को निकाल रहे हो लेखा।”

मीरा पाल की आवाज सुनकर लेखा ठिठका।। गर्दन घुमा कर मीरा पाल को देखाजो कि दो कदमों पर वहां तक पहुंच रही बंगले की पहली मंजिल की परछाई की छाया में खड़ी थी।

“आप !” लेखा के होंठों से निकला। वो उठ खड़ा हुआ। मिट्टी वाले हाथों को झाड़ा फिर उल्टे हाथ से पसीने से भीगे चेहरे को साफ करने लगा।

“धूप में क्यों अपने को सुखा रहे हो।” मीरा पाल ने फूलों की क्यारियों पर निगाह मारी ।

“फुर्सत थी तो सुखी पत्तियों को हटाने में लग गया ।” लेखा के होठों पर शांत-सी मुस्कान उभरी।

“कुछ चीजें सुखी नजर नहीं आतीलेकिन वो सूखी होती हैं। तुम्हारा भी यही हाल है लेखा।” मीरा पाल ने कहा- “अपने बारे में सोचा है कभी । या फिर इसी तरह जिंदगी बिता दोगे।”

“मैं समझा नहीं मालकिन ? ” लेखा ने उलझन भरे स्वर में कहा ।

“तुम्हारे मालिक तो आज देर से आएंगे।”

“जीबोर्ड की मीटिंग में गए हैं। आठ बजे तो मीटिंग शुरु होनी है।”

“नहा-धोकर आओ मेरे पासबात करनी है।” कहने के साथ ही मीरा पाल पलट कर वापस चली पड़ी।

लेखा बाँहों पर चमक रहे पसीने को साफ करता हुआ एक तरफ बढ़ गया।

मीरा पाल साड़ी में थी।

साड़ी इस तरह बांध रखी थी कि शरीर की ज्यादा-से-ज्यादा नुमाइश हो और ब्लाउज ब्रा के साइज का था-छोटा सा। गले पर कटा थाजिसके भीतर का नजारादूर तक नजर आ रहा था। साड़ी का पल्लू कंधे पर रखती भी तो खिसक कर नीचे हो जाता। नाभी से नीचे बांध रखी थी साड़ी। चालीस की वो अवश्य थीलेकिन दूसरे का दिल बेईमान करने के लिएअठाईस से ऊपर नहीं थी। उसकी खूबसूरती कम होने की अपेक्षा बढ़ती जा रही थी इस उम्र में।

कुर्सी पर बैठी थी वो ।

शरीर के कई हिस्से नजर आ रहे थेजो कायदे में नजर नहीं आने चाहिए थे।

मीरा पाल ने लेखा को देखा। जो नहा-धोकर कपड़े बदल कर आया था।

“उन तीनों पुलिस वालों को मार दिया?” मीरा पाल ने कहा ।

“जी।”

“मैं जानती हूं तुम बहुत सफाई से काम करते हो। किसी को खबर भी नहीं होती।” मीरा पाल मुस्काई- “बैठ जाओ।” कब तक खड़े रहोगे। दरवाजा बंद कर देना।”

लेखा ने पलट कर दरवाजा बंद किया और वापस आकर कुर्सी पर बैठा।

मीरा पाल छातियों का काफी बड़ा हिस्सा और घुटने सहित एक पिंडली पूरी दिखा रही थी लेखा को। जिस अंदाज में बैठी थी। उसमें पेट भी आकर्षक ढंग से दिखाई दे रहा था और ब्लाउज के कट छातियों को आकर्षक बना रहे थे।

आसान नहीं थाऐसी मुद्रा में उसे दूर रहकर बर्दाश्त करना।

परंतु लेखा के चेहरे पर शिकन तक नहीं थी ।

“तुम्हारे मालिक ने एक बार बताया था कि औरतों मैं तुम्हारी जरा भी दिलचस्पी नहीं है।”

“जी ! औरत मुझे कभी भी अच्छी नहीं लगी।” लेखा ने सपाट निगाहों से मीरा पाल के चेहरे को देखा ।

“क्यों ?”

“मालूम नहीं ।” लेखा ने शांत स्वर में कहा- “औरतों में मुझे कुछ भी ऐसा नजर नहीं आया कि।”

“मतलब कि तुम्हें परिवार बनाने में कोई दिलचस्पी नहीं। क्योंकि परिवार बनाने के लिए औरत की जरूरत पड़ती है। ”

“औरतों में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं।”

“बच्चों में ?”

“सोचा नहीं।”

मीरा पाल मुस्कराई ।

“जब तक औरतों में तुम्हारे दिलचस्पी नहीं होगी,बच्चों में भी दिलचस्पी नहीं होगी। परिवार में भी नहीं होगी।”

लेखा मीरा पाल को देखता रहा।

“तुम्हारे सामने बाजारू औरतें पेश की गईं। तब तुम भी छोटे थे। ऐसे में तो औरत को समझ नहीं सके। यूं समझ लो कि ठीक ढंग से तुमने आज तक औरत को देखा नहीं। उसे इस्तेमाल नहीं किया।”  मीरा पाल मुस्कुरा कर बोली।

लेखा ने सोच भरे ढंग से सिर झुका लिया ।

“मेरी बात शायद तुम समझे नहीं।”

“पूरी तरह नहीं समझा।” लेखा ने पुनः सिर उठाया- “कुछ और कहिये मालकिन।”

“मैं चाहती हूं तुम अपना परिवार बना लो। तुम्हारी पत्नी होबच्चे हों।”

लेखा उसी ढंग में मेरा पाल को देखता रहा।

“जीवन पाल के लिए कब तक हत्याएं करते रहोगे। अगर अपना परिवार नहीं बनाओगे तो जीवन पाल के दुश्मन के हाथों कभी भी मारे जा सकते हो। पत्नी आएगी तो तुम्हें ठीक रहा पर डालेगी। कुछ तुम भी सुधरोगे।”

लेखा ने मीरा पाल की आंखों में देखा।

“आप मेरे लिए इतनी फिक्र बंद क्यों हो रही हैं ?”

“मैं नहीं चाहती कि तुम या कोई भी इन कामों में पड़कर अपनी जिंदगी बर्बाद करें।”

“मालकिन ।” लेखा ने गंभीर स्वर में कहा- “मालिक के एहसान हैं मुझ पर और

“तुमने जीवन पाल के लिए कई काम किए हैं। उसका एहसान तो कब का उतर चुका है। तुम पर जो खर्चा किया है। वो खर्चा उसे वसूल हो चुका है।” मीरा पाल ने शांत स्वर में कहा-“उसने तुम्हारे साथ कुछ भी ठीक नहीं किया लेखा । वो तुम्हारे सामने रोटी डालता रहा। तुम्हें निशाने बाज बनाता रहा कि बड़े होकर तुम उसके लिए हत्याएं करोगे और अब भी कर भी रहे हो।”

लेखा के चेहरे पर किसी तरह का भाव नहीं उभरा।

“उसे तुम्हारे भले की चाहता होती तो तुम्हारी पढ़ाई करवाता वो।”

“मालकिन आप बेकार की बातें तो नहीं कर रही।”

“अगर मेरी बात तुम्हें गलत लगे तो बेशक कमरे से चले जाओ लेखा।”

“मालिक को अगर मालूम हो गया कि आप ये बातें मुझसे कर रही हैं तो वो आप पर गुस्सा उतारेंगे।”

“मालिक को तो तुम ही बताओगी लेखा। दूसरा तो यहां है नहींबात तो बाहर करने के लिए । मेरी बात ठीक ना लगे तो बेशक जीवन पाल को ये सब बात तुम बता देना।” मीरा पाल ने शांत स्वर में कहा- “अगर जीवन पाल को तुमसे हमदर्दी होती तो पढ़ालिखा करआज तुम्हें अच्छे बिजनेस में अच्छी पोस्ट पर रखा होता। तुम्हारा परिवार होता। हत्यारे ना होते तुम कितुम्हें देखकर लोग रास्ता बदल लेते हैं। ये अच्छी बात तो नहीं।”

लेखा की आंखें सिकुड़ गई।

“इसे तुम भी बहादुरी मत समझना। खुद को समाज में रहने के काबिल बनाओ कि लोग तुम से डरे नहीं। बहुत अच्छा लगेगा तुम्हें। वरना किसी भी दिन पुलिस या जीवन पाल के दुश्मन की गोली से मर जाओगे। उसके बाद कोई भी तुम्हें याद नहीं रखेगा। तुम्हारी जगह कोई और लेखा आ जाएगा।”

लेखा के दांत भिंचने लगे ।

“तुम्हारा अस्तित्व कुछ भी नहीं है। तुम जिंदा होलेकिन सच ये है कि जीवन पाल तुम्हें खा चुका है। जिंदा नहीं हो तुम ।जीवन पाल का खिलौना हो। कभी भी उसका मन बहलाता हुए टूट कर बिखर जाओगे।”

लेखा कुर्सी से उठ खड़ा हुआ। चेहरा कठोर हो गया था।

“लगता है मेरी बातें पसंद नहीं आई।” मीरा पाल की निगाह लेखा के चेहरे पर थी-“मैं तो तुम्हारे भले की बात कर रही थी कि बुरे काम छोड़कर अच्छे रास्ते पर आ जाओ । इससे मेरा भी फायदा है। जब तक जीवन पाल को बुरे लोगों का साथ मिलता रहेगा। वो भी बुराई पर बढ़ता रहेगा। मैं जीवन पाल को अच्छे इंसान के रूप में देखना चाहती हूं।”

लेखा के होंठ भिंचे रहे।

“तुम भी अच्छे बन जाओ।”

“आपने जो कहा। ठीक कहा।” लेखा के होठों से निकला।

“अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है। बीस बरसपूरी जिंदगी पड़ी है तुम्हारे सामने कि

“मैं बहुत जल्द खुद को ठीक रास्ते पर ले आऊंगा।”

“तुम अकेले कुछ नहीं कर सकते लेखा । ठीक रास्ते पर लाने के लिए मैं तुम्हारा साथ दूंगी। जब तक तुम्हारे दिलचस्पी औरतों में नहीं होगीतुम ठीक रास्ते पर नहीं आ सकोगे। परिवार नही बना सकोगे। ” कहने के साथ ही मेरा पाल कुर्सी से उठी और अपनी साड़ी खोलकर एक तरफ गिरा दी । फिर ब्लाउज खोलने लगी । नजरें लेखा पर थीं।

“येये आप क्या कर रही है मालकिन ?” लेखा के होठों से निकला।

“आज तुम्हें मालूम होगा कि औरत क्या होती है। क्यों दुनिया औरतों के पीछे भागती हैइस बात का एहसास होगा तुम्हें। आज तक तुम अपने शिकार को तलाश करते रहेपरंतु आज के बाद औरत को तलाश किया करोगे।  औरत का नशा चढ़ जाए तो फिर दूसरे नशे की जरूरत नहीं रहती ।

लेखा की आंखें कपड़े उघड़ते ,मीरा पाल के जिस्म को देख रही थी ।

मीरा पाल की चमक भरी निगाहलेखा के चेहरे पर जाट की थी ।

■■

“जुगल किशोर तू जरा भी फिक्र मत कर।” साठ वर्षीय संतसिंह ने गिलास खाली करते हुए कहा-“बता चुका हूं कि लड़की के घर तक खबर पहुंच चुकी है । वो कभी भी आकर लड़की को ले जाएंगे ।”

“ये बात तू सप्ताह से कर रहा है।” जुगल किशोर ने झल्ला कर कहा।

“सप्ताह और भी कहता रहूंगा।”

“क्या मतलब?” जुगल किशोर ने उसे घूरा।

“अरे भई। लड़की के घर से उसे लेने कोई नहीं आया और तू कहता रहेगा मैंने खबर नहीं की। तो मैं यही कहूंगा की खबर कर दी हैआज-कल मैं उसके घर में कोई आ जाएगा। अब हफ्ते भर में कोई ना आए तो मेरी क्या जिम्मेवारी। एक बार फिर फोन खड़का देता हूं।”

जुगल किशोर उसे घूरने लगा ।

“बेटे जुगल किशोर।” संत सिंह के उठा- “मैं तेरे बाप की तरह हूं। विश्वास कर मेरा। मैं तेरा और रोनिका बेटी का भला चाहता हूं। तभी तो तुम दोनों को अपने घर में ठहरने की जगह दी। मैंने कोई एहसान नहीं किया तुम पर। पन्द्रह हजार रुपए का उधार था मुझ पर । तुमने अपनी गड्डी में से पांच-पांच के सौ नोट दिए। यानी कि पूरे पन्द्रह हजार। वो उस हरामि को देकरउधार चुकता करके मैंने चैन की सांस ली। वो तो ब्याज भी मांग रहा था मुंह फाड़कर। लेकिन मैंने सब ठीक कर दिया।”

कभी-कभी तो ये बूढ़ा नंबरी हरामि लगता है।

“सब ठीक हो जाएगा ।” संतसिंह ने उसके सिर पर हाथ फेरा-“कुछ बुरा होने से देर भली। दोपहर को तुम और रोनिका नींद में थे तो दो आदमी तुम दोनों को पूछते-पूछते आ पहुंचे थे।”

“मुझे पूछते ?”

“हां। तुम्हें और रोनिका को हुलिया बता रहे थे तुम्हारा कि इन दोनों को मैंने देखा तो नहीं । अब मै उन्हें कैसे बता देता कि तुम लोग यहीं हो। वो बुरे लोग थे। उनके चेहरे ही बता रहे थे। इसलिए कहता हूं जल्दबाजी मत करो। काम बेशक धीरे-धीरे हो लेकिन ठीक ढंग से होना चाहिए।”

जुगल किशोर ने सिगरेट सुलगाई और संत सिंह को देखते कश लेने लगा । चेहरे पर कोई भाव नहीं था।

“मेरे पर भरोसा रख। तेरे से ज्यादा चिंता है मुझे की लड़की सुरक्षित यहां से निकल जाए। लड़की के घर आज फिर फोन करूंगा। उन्हें समझाऊंगा कि लड़की के मामले में देर नहीं करनी चाहिए। ”

जुगल किशोर ने शांत भाव से सिर हिलाया ।

“बेटे जुगल ।”

“हूं।”

“वो पन्द्रह हजार तो मैंने उधार चुकाने में लगा दिए। तेरे को तो सब पता ही है। अकेला रहता हूं । घर में तो कोई है नहीं जो खाना बनाए। रोनिका बेटी से तो कह नहीं सकता कि खाना बना दे। सब कुछ बाहर से

“तू कहना क्या चाहता है संतसिंह ?”

“दस हजार और मिल जाए तो खाना पीना यूं ही बाहर से आता रहे और।”

“दस हजार ? दो-चार दिन के खाने के लिए?” जुगल किशोर की आंखें सिकुड़ी।

“समझा कर। रोनिका बेटी अपने घर चली जाएगी। तू भी चला जाएगा। तेरे दिए पैसों के बाद में भी मेरा खर्चा पानी चलता रहेगा। तेरे पास तो पांच सौ की गड्डी है। सिर्फ बीस नोट निकाल कर ही तो मेरे को देने हैं।”

जुगल किशोर के चेहरे पर कड़वे भाव उभरे।

“लगता है गड्डी दिखा कर गलती कर दी मैंने ।”

“तुमने कहा दिखाई । वो तो मैंने देख ली।” संतसिह ने दांत दिखाए- “अब दे दो तुम्हारा काम बढ़िया ढंग से होगा।”

ये तो मेरे से भी बड़ा कमीना लगता है।

जुगल किशोर ने जेब से सौ की पतली हो रही गड्डी निकाली और उसमें से दस नोट निकालकर संतसिंह के हाथ पर रखे तो वो उठा

“ये तो पांच है।”

“अभी इसी से काम चला ले ।”

“ठीक है। बाकी फिर ले लूंगा । रोनिका बेटी क्या कर रही?"

“नींद में है।”

“अच्छी बात है।” संतसिंह ने उठते हुए नोट जेब में डाले- “उस फोन नंबर पर मैं बात करके आता हूं। खाने को भी लेता आऊंगा। कल शाही पनीर बहुत अच्छा लगा। आज भी वो ही ले आऊं।”

पहले तो उबली दाल को तरसता होगा। अब शाही पनीर से नीचे की बात नहीं करता।

“जो तेरे को अच्छा लगे ले आना।”

संतसिंह सिर हिलाता हुआबाहर निकल गया ।

जुगल किशोर गहरी सांस लेकर रह गया कश लेकर उसने आंखें बंद की और कुर्सी की पुश्त से सिर टिका दिया। दसवां दिन था उसे यहां रोनिका के साथ ।

मुंबई से अगले ही दिनरोनिका के साथ में पैंतीस हजारी पर रवाना हो गया था रात भर वो मौका ढूंढता रहा कि रोनिका की पांच सौ की गड्डी और पहने जेवरात हासिल करें और खिसक ले। परंतु मौका नहीं मिल पाया। नोटों की गड्डी पेंट की टाइट जेब में घुसी हुई थी।

दिल को यहां तसल्ली देता रहा कि रास्ते में कहीं हाथ साफ करेगा।

रास्ते में रोनिका  ने दो जोड़ी कपड़े खरीद लिए थे अपने लिए। खाना-पीना खुला चलता रहारोनिका की पांच सौ की गड्डी से । मस्ती भरे ढंग से चलते हुए पैंतीस हजारी ने दो दिन बाद उन्हें रथपुर में पहुंचा दिया। रथपुर छोटा सा शहर था  जरूरत की हर चीज वह मिलती थी। रथपुर में तीन मील और बहुत सी फैक्ट्रियां थी  जिसकी वजह से लोगों का आना-जाना वहां लगा रहता था।

“ये  कौन सी जगह है  ? ”रोनिका ने इधर-उधर देखते हुए कहा ।

“रथपुर है ये।”

“यहां तुम्हारा कोई रहता है?”

“नहीं।”

“तो फिर क्यों आए?” रोनिका ने जुगल किशोर को देखा ।

“कहीं तो आना ही था। यहां पर तुम्हें और मुझे कोई नहीं जानता। यहां तुम सुरक्षित रह सकती हो।” जुगल किशोर ने कहा- “कितनी अजीब बात है कि मैं जानता तक नहीं कि तुम्हें किस से सुरक्षित रखना है।”

“बिना जाने ही सब काम ठीक हो रहा है तो फालतू बातों की तरफ ध्यान देने की जरूरत ही क्या है।” रोनिका मुस्कुरा कर कह उठी- “अब तुम यहां पर टिकने का इंतजाम करो । उसके बाद बताऊंगी कि फिर तुमने क्या करना है। ठहरने की जगह ढंग की हो कम से कम ऐसी ना हो कि वहां मेरा दम घुटे।”

“कोई ठीक होटल देख लेता हूं।” जुगल किशोर ने रोनिका के चेहरे पर निगाह मारी-“सच में तुम बहुत खूबसूरत हो ।”

“ये बात तुम हजार बार कह चुके हो।”

“अभी मैं दस हजार बार कहूंगा। खूबसूरती की तारीफ करना गुनाह नहीं है” जुगल किशोर हंसा ।

रोनिका मुस्कुराकर रह गई ।

“ये काम पूरा होने पर तुम मुझे पच्चीस लाख दोगी ?” जुगल किशोर बोला।

“हां।  ताकि तुम डिटेक्टिव एजेंसी खोल सको। फिर कभी मैं मुसीबत में पड़ूं तो तुम्हें सहायता के लिए कह सकूं।” कह कर वो हंसी। जुगल किशोर को देखा ।

जुगल किशोर गंभीर था।

“ये भी तो हो सकता हैबाद में तुम कहो कि मुझे पच्चीस रुपए से ज्यादा नहीं दे सकती ।”

“मेरा विश्वास करो। मैं बेईमान नहीं हूं।”

जुगल किशोर ने कुछ नहीं कहा ।

पैंतीस हजारी धूल में अटीरथपुर की भीतरी सड़कों पर हिम्मत बांधे चल रही थी । सुबह के दस बज रहे थे सूर्य की तपिश अभी नहीं बढ़ी थी।

“कोई होटल वगैरह देखा ।” रोनिका बोली ।

एक मोड़ पर मुड़ते हुए पीछे से एक टैक्सी ने पैंतीस हजारी को ठोक दिया। पैंतीस हजारी जोरों से डगमगाई फिर रुक गई । किसी ने उस छोटी सी टक्कर पर ध्यान नहीं दिया।

“गधे हैं यहां के लोग।” जुगल किशोर ने झल्लाकर कहा और दरवाजा खोलकर बाहर निकला ।

रोनिका  भी दरवाजा खोलते हुए बाहर निकली ।

“झगड़ा मत करना ।”

जुगल किशोर जैसा ठग नहीं जानता कि रथपुर में उससे भी बड़ा ठग उसकी सेवा में पेश होने जा रहा है जिसका नाम संतसिंह है।

साठ वर्षीय संतसिंह के सिर के बाल पूरी तरह सफेद थे । मूछों में दो-चार बाल काले नजर आ रहे थे। सादे से कपड़े पहने हुए थे। चेहरा शराफत से भरी टोकरी जैसा था कि जो उसे ना जानता होवो दोनों हाथ जोड़करउसके सामने सिर झुका देगा। शरीफ मासूम और दया से भरा लगता था संतसिंह। बोलता तो शब्दों में मिठास ही मिठास भरी होती।

उस टैक्सी को संतसिंह ही चला रहा था। सुबह कहीं जाना था तो पहचान वाले से कुछ घंटों के लिए टैक्सी ले ली थी। वापसी पर उसका नजर  पैंतीस हजारी पर पड़ी । धूल से भरी देखते ही समझ गया कि ये लोग दूर से आ रहे हैं। उसने जुगल किशोर और रोनिका को देखा। एक उन्नीस की दूसरा तीस का था ।

संतसिह ने  बहुत सोचा कि उनमें कोई रिश्ता कायम कर सकेपरंतु उसे यही लगा कि इसमें कोई गहरा रिश्ता नहीं है। घर से भागे लगे या उसे कोई और गड़बड़ लगी । उसके दिमाग में उनकी असलियत जाने के लिए ही पीछे से टैक्सी कोपैंतीस हजारी में ठोक दिया था।

जुगल किशोर गुस्से से भरा संतसिंह के पास पहुंचा। और संतसिह पहले ही हाथ जोड़े मासूम सा बना खड़ा था। चेहरे पर जहान भर का अफसोस ले आया था ।

“तेरे को नजर नहीं आता ।” जुगल किशोर ने झलककर कहा-“टक्कर मार दी । तुम

“माफ कीजियेगा । गलती मेरी है।” संतसिंह सिर झुका कर उठा-“गलती मेरी है ।आप जो चाहेमुझे सजा दे दीजिए। मैं वक्त पर ब्रेक नहीं लगा सका और

“तेरी इस बात से मेरी कार ठीक हो जाएगी क्या ?” जुगल किशोर ने खा जाने वाले स्वर में कहा।

“कार कि आप फिकर मत कीजिए ।” संतसिह ने   सिर हिलाकर कहा-“मैं ठीक करा दूंगा।”

“तुम ठीक कराओगे।”

“जी। मेरा दोस्त मैकेनिक हैं। दो दिन में आपकी कार ठीक कर देगा।”

“तेरी हालत देख कर तो नही लगता कि तेरी जेब में पांच सौ रुपया  भी होगा।” जुगल किशोर ने मुंह बनाया ।

“बेचारा टैक्सी चलाता है जुगल।” रोनिका ने कहा- “छोड़ो इसे गरीब हैमेरे से पैसे ले लेना कार ठीक कराने के लिए।”

संतसिंह मन ही मन सतर्क हुआ कि लड़की कह रही है मेरे पैसे से कार ठीक करा लेना इससे स्पष्ट हो गया कि इनमें अपनेपन का खास रिश्ता नहीं है। इनमें तेरे-मेरे की बात होती है। दोनों आशिकमाशूक भी हो सकते हैं घर से भागे भी हो सकते हैं। जो भी हो रुपया-पैसा तो खूब होगा इनके पास।

“बेटी।” संतसिंह फौरन कह उठा- “गरीब जरूर हूं लेकिन बेइज्जत नहीं। मेरी गलती से आपकी कार खराब हुई है। इसे मैं ही ठीक करा कर दूंगा। आप बताइए आपको कहां जाना है। मैं वहां पहुंचा देता हूं। दो दिन में आपकी कार भी ठीक होकर आपके पास पहुंच जाएगी।”

“ठीक है। कार आप ठीक करा दीजिये।” रोनिका  मुस्कुराई- “लेकिन पैसे हम देंगे।”

“अब बच्चों से क्या जिद करनी। जैसा आप  ठीक समझो ।” संतसिंह ने गहरी सांस ली- “ये बताओकहां जाना है। मैं वहां आपको छोड़ देता हूं । फोन कर देता हूं। मेरा दोस्त मिस्त्री यहां से कार ले जाएगा।”

जुगल किशोर ने सिगरेट सुलगाई।

दया का पुजारी बना संतसिह खड़ा था। बारी-बारी उन्हें देख रहा था।

“तुम हमें किसी ऐसे होटल में पहुंचा दोजो महंगा ना हो ।साफ हो। कुछ दिन आराम से रह जा सके।”

“होटल ?” संतसिह कह उठा-“होटल में ठहरना है आपने ?”

“हां ।”

“क्यों पैसा खराब करते हैं।” संत सिंह कह उठा- “मेरा घर होटल से बुरा नहीं। वहां।”

“टैक्सी चलाने वाले का घर।”

“मैं टैक्सी चलाने वाला नहीं हूं।” संत सिंह कह उठा– “ये  तो किसी से ली थी। कहीं जाने के लिए। मेरा घर आपको पसंद आएगा। आप दोनों मेरे बेटी-बेटे की तरह हो। मेरे घर रहोगे तो मुझे खुशी होगी। वैसे तो मेरा कोई नहीं है नहीं दुनिया में। कुछ दिन आप रहेंगे मेरा घर तो मैं तो खुद के धोखे में रहकर खुश हो जाऊंगा कि मेरे अपने भी कोई है।” संतसिंह की आवाज में दर्द झलक उठा था ।

तभी जुगल किशोर बोला।

“हमें तो कहीं रहना ही है। होटल में नहीं तो तुम्हारे यहां रह

“जुगल ।” रोनिका ने टोका- “हम इसे नहीं जानतेयूं किसी के घर पर ठहरना

“कैसी बातें करती हो रोनिका  पराये ही तो धीरे-धीरे अपने बनते हैं। कितने प्यार से हमें अपने घर पर रहने के लिए कह रहे हैं। टक्कर मार दी और शराफत से कार ठीक कराने को कह रहे हैं। सिर के सफेद बाल देखो। अगर इस इंसान में कोई खराबी हो सकती है तो दुनिया का कोई इंसान ठीक नहीं।”

जुगल !

रोनिका!

“ये दोनों के नाम ?"

“मैं नहीं चाहता कि आप लोगों को अपने घर पर रखकर दुख दूँ।” संतसिह बोला- “टैक्सी में बैठी मैं आपको होटल में ले चलता हूं। बच्चे जहां भी रहेखुश रहे।”

जुगल किशोर और रोनिका की नजरें मिलीं।

“हम आपके घर ही ठहरेंगे।” रोनिका गहरी सांस लेकर बोली ।

“सच बेटी?” संतसिह के चेहरे पर खुशी नाची।

इस तरह जुगल किशोर और रोनिका उनके घर पहुंचे। छोटा सा सासुथरा घर था ।

“आप दोनों आराम करो। मैं टैक्सी वापस दे आऊं और कार को अपने मकैनिक दोस्त के हवाले करके आता हूं भूख लगे तो किचन में सामान है बना-खा लीजिएगा।”

संत सिंह चला गया ।

“बंदा बढ़िया है । वरना इस तरह कोई अपना घर किसी के हवाले करके नहीं जाता।” जुगल किशोर ने कहा ।

“अकेला क्यों रहता है ? ”रोनिका बोली।

“शादी नहीं की होगी । कि होगी तो बीवी मर गई होगी या किसी के साथ भाग गई ।”

“जुगल।” रोनिका के होठों से तीखा स्वर निकला-“फालतू बात मत करो। उसकी बीवी के बारे में।”

“ठीक कहती हो। उसकी बीवी है ही नहीं तो।”

“मैं नहाने जा रही हूं । तुम कुछ खाने को बनाओ।”

“खाने को तो बन जाएगा।” जुगल किशोर ने गंभीर स्वर में कहा-“ये बताओ कि अब करना क्या है ।”

रोनिका ने जुगल किशोर को देखा ।

“करेंगे बात ।” रोनिका ने सोच भरे स्वर में  कहा-“कुछ आराम कर लेने दो। नींद ले लेने दो ।सोच लेने दो।”

“मैं तुम्हारा काम जल्दी निपटाना चाहती हूं।”

“मुझे तुमसे ज्यादा जल्दी है जुगल।”

जुगल किशोर ने उसके हाथ में थमें टॉवल को देखा ।

“नहाने जा रही हो।”

“हां ।”

“मुझे भी नहाना है। साथ चलता हूं। तुम मेरी पीठ पर साबुन लगा देना मैंतुम्हारी पीठ पर। फिर

“अपनी पीठ पर साबुन लगाने में मुझे बहुत आसानी होती है।” रोनिका ने उसे घूरा-“इस काम में किसी की सहायता की जरूरत नहीं पड़ती। तुम बाथरूम के बंद दरवाजे के बाहर बैठ जाओ।”

“क्यों ?”

“ताकि जब मैं नहा लूं तोतुम नहाने जा सको।”

“कोई फायदा नहीं ।” जुगल किशोर ने गहरी सांसे ली-“लगता है तुमने पीठ पर साबुन नहीं लगवाया किसी से।”

“अपनी टैक्सी संभाल। ” संतसिंह धीमे स्वर में बोला-“और समझ गया कि क्या कैसे करना है।”

“वो तो कर दूंगा। कोई गड़बड़ हो गई तो

“मैं कोई गड़बड़ नहीं होने दूंगा। समझा कर। ये काम नया है क्या तेरे लिए ?

कल्लू ने सिर खुजलाया।

“ठीक है संतसिंह। में आ जाऊंगा।”

“दो घंटे बाद आ जाना।”

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