अलका के जिस्म ने एक तीव्र झटका खाया।
सारे प्रतिरोध, जिस्म की हर हरकत इस तरह रुक गई जैसे विद्युत से चलने वाली मशीन का 'स्विच' ऑफ कर दिया गया हो।
अलका अवाक् रह गई।
जिस्म ढीला।
मिक्की को लगा कि यदि उसने अलका को छोड़ दिया तो रेत की बनी पुतली की मानिंद फर्श पर गिरते ही ढेर हो जाएगी।
"होश में आ अलका, खुद को संभाल।" मिक्की ने कहा— "मैं मिक्की हूं—और अगर तू जोर से बोली तो यह राज सबको मालूम हो जाएगा। मेरी योजना, सारा प्लान मिट्टी में मिल जाएगा।"
बड़ी मुश्किल से अलका स्वयं को संभाल सकी।
चेतना लौटी।
उसके पुनः गूं-गूं की तो मिक्की ने उसे छोड़ दिया, मुक्त होते ही वह घूमी और सामने खड़ी शख्सियत को आंखों में हैरत के असीमित भाव लिए देखती रह गई। उसके मुंह से कोई बोल न फूट पा रहा था, जबकि उसने पूछा—"इस तरह क्या देख रही हो?"
"त.....तुम सुरेश हो या मिक्की?"
उसके होंठों पर बड़ी ही जबरदस्त मुस्कान उभरी, बोला— "जब तू ही फर्क नहीं कर पा रही तो अब मुझे यकीन है कि कोई फर्क नहीं कर पाएगा।"
"क.....क्या मतलब?"
"मैं मिक्की हूं, अलका।"
“सबूत दे।”
"सबूत!"
"हां, जिससे साबित हो सके कि तुम विक्की हो?"
"क्या सबूत चाहती हो?"
अलका सोच में पड़ गई—इस वक्त बड़ी ही अजीब उलझन में थी वह, मस्तिष्क गैस भरे गुब्बारे की तरह अंतरिक्ष में मंडरा रहा था, फिर भी उसने ऐसे किसी सबूत के बारे में सोचने की पुरजोर कोशिश की जो सामने खड़े व्यक्ति को स्पष्ट कर सके।
बता सके कि वह सुरेश है या मुकेश?
काफी देर सोचने के बाद अलका ने पूछा—"अच्छा ये बताओ कि बैंक में मेरे कितने पैसे हैं?"
"परसों, तूने मुझे डेढ़ हजार रुपये बताए थे, मेरे कमरे का किराया देने के बाद वहां पांच सौ अठहत्तर रुपये बाकी होंगे।"
अलका यूं खड़ी रह गई जैसी लकवा मार गया हो।
सामने खड़े व्यक्ति के चेहरे को ध्यान से.....बहुत ध्यान से अभी वह देख ही रही थी कि उसने पूछा—"क्या तुझे अब भी यकीन नहीं आया?"
अलका अब भी अवाक्-सी देख रही थी, जबकि उसने कहा— "मगर दुनिया वालों की नजरों में अब मैं मिक्की नहीं, सुरेश हूं, मिक्की मर चुका है—सुरेश जिन्दा है, वह सुरेश जिसके पास सबकुछ है—दुनिया का हर सुख जिसके कदम सिर्फ इसीलिए चूमता है क्योंकि उसे सेठ जानकीनाथ ने गोद ले लिया था और सुरेश बनने के बाद दुनिया का ऐसा कौन-सा सुख है अलका जो मिक्की तुझे न दे सके।"
"मुझे सिर्फ मिक्की चाहिए।"
वह तपाक से बोला— "तेरे सामने खड़े हूं।"
"म......मगर ऐसा कैसे हो सकता है?"
"योजना बनाने और उसे कार्यान्वित करने तक मैंने दृढ़ फैसला कर रखा था कि अपना राज सारी जिन्दगी किसी को नहीं बताऊंगा—तुझे भी नहीं, यह सच है अलका—तुझे भी मैंने अपना राज कभी न बताने का निश्चय किया था।"
"फिर?"
"जब आज दिन में तुझे अपने लिए विलाप करते देखा, तब पहली बार यह बात समझ में आई कि तू मुझे कितना चाहती है और निश्चय किया कि यदि जरूरत पड़ी तो तुझे अपने जिन्दा होने की हकीकत बता दूंगा—जीवन में पहली बार आज तुझे बांहों में भरकर प्यार करने का दिल चाहा, शायद अपने लिए तेरा रूदन देखकर.....लगा कि अगर मेरे पास तेरा प्यार नहीं है तो सुरेश बन जाने के बावजूद पूरी तरह 'कंगला' हूं—सो, अंधेरा होते ही यहां चला आया—पहले कोशिश की कि अपना राज बताए बिना ही पा लूं, किन्तु यह बात जल्दी ही समझ में आ गई कि ऐसा मुमकिन नहीं है—मुझे सुरेश जानकर जो कुछ तूने कहा, उसे सुनकर मेरा सीना फख्र से चौड़ा हो गया, क्योंकि तेरा एक-एक शब्द जिसके प्रति प्यार एवं असीम निष्ठा दर्शा रहा था, वह मैं ही हूं—बड़ा भाग्यवान हूं मैं जो तेरा प्यार पाया.....सच, आज के जमाने में तू एक दुर्लभ लड़की है अलका—जिसे तेरा प्यार मिल जाए, वह खुशनसीब है।"
"मिक्की तो हमेशा अपने नसीब को गालियां दिया करता था।"
"हुंह.....लद गए वह दिन, अपने नसीब को मैंने हरा दिया है—अब तो वह दुश्मन मेरे पास भी नहीं फटक सकता, क्योंकि मैं मिक्की नहीं रहा, सुरेश बन गया हूं—सुरेश का नसीब तक धारण कर लिया है मैंने।"
"नसीब धोखा नहीं खाता।"
"खाता है.....खा गया है, बल्कि आगे भी खाएगा।" पूरी तरह खुश उसने दृढ़तापूर्वक कहा— "जब तू मेरी परछाई होकर अभी तक विश्वास नहीं कर पा रही है कि मैं मिक्की हूं तो भला नसीब साला कैसे ताड़ सकता है—बचपन से उसके सामने घुटने नहीं टेके—बार-बार लड़ता रहा और अंततः मोहम्मद गोरी की तरह अपने दुश्मन को शिकस्त ही नहीं, बल्कि डॉज देने में कामयाब हो गया।"
"डॉज!"
"हां—वह नसीब जिसे छिटक कर मैंने दूर फेंक दिया है, अब बदला लेने के लिए उस शख्सियत को ढूंढता फिर रहा होगा जिसके तन पर घिसी हुई जीन्स, हवाई चप्पलें और ब्रूस ली—मुहम्मद अली वाला बनियान हुआ करता था, मगर वह शख्स उसे कहीं नहीं मिलेगा—यह डॉज देना नहीं तो और क्या है?"
"अगर तुम सचमुच मिक्की हो तो बताओ तुमने क्या, कैसे किया?"
"अपनी यह लम्बी-चौड़ी सुदृढ़ और 'आला' योजना मैंने करीब पांच महीने पूर्व बनाई थी—बचपन में जानकीनाथ द्वारा सुरेश को गोद लिये जाने की वजह से मुझमें और सुरेश में आकाश के तारे और कीचड़ में पड़े कंकड़ जितना फर्क आ गया था—अक्सर यही सोच-सोचकर कुढ़ा करता था कि यदि जानकीनाथ ने मुझे गोद लिया होता तो आज मैं सुरेश की जगह होता और सुरेश मेरी जगह—यह जानते हुए भी कि इसमें सुरेश का कोई दोष नहीं है, उससे 'डाह' करता था, जबकि सच्चाई ये है कि वह मुझे प्यार नहीं करता था, बल्कि छोटा होने की वजह से आदर भी करता या—जरूरत पड़ने पर मैं उसके पास मदद के लिए जाता, उसने हमेशा मदद की.....कभी इंकार नहीं किया।"
"आज से दो महीने पहले भी नहीं?"
"नहीं।"
"क्या मतलब?"
रहस्यमयी मुस्कान के साथ उसने बताया—"उसने कभी इन्कार नहीं किया बल्कि मैंने ही अपने परिचितों में यह अफवाह फैलाई कि सुरेश ने मुझे यह कहते हुए दो हजार रुपये देने से इन्कार कर दिया है कि वह मुझे सुधारना चाहता है।"
हैरत से आंखें फाड़े अलका ने पूछा—"ऐसी अफवाह तुमने क्यों फैलाई?"
"क्योंकि यह अफवाह फैलाना ही मेरी स्कीम का पहला 'पग' था।"
"कौन-सी स्कीम?"
"पांच महीने पहले आदत के मुताबिक जब मैं अपने और सुरेश के फर्क की तुलना कर-करके कुढ़ रहा था तो दिमाग में यह बात आई कि कीमती कपड़े पहनकर, जेब में ट्रिपल फाइव का पैकेट और सोने का लाइटर रखकर मैं विदेशी कारों में क्यों नहीं घूम सकता, सुरेश क्यों नहीं बन सकता—लगा कि मैं बड़ी आसानी से सुरेश बन सकता हूं.....उस पासे को उलट सकता हूं जो जानकीनाथ से सुरेश को गोद लिए जाने की वजह से पड़ा था।"
अलका सांस रोके सुन रही थी।
“ धीरे-धीरे मेरे दिमाग में सारी स्कीम कौंध गई।" वह कहता चला गया—"और जो योजना बन रही थी, उसने स्वयं मुझे 'दंग' कर दिया—सोचने लगा कि यह 'आला' विचार आज से पहले मेरे दिमाग में क्यों नहीं आ गया था—मुझे कोई कमी नजर न आई—सुरेश बनने के लिए जो कमियां मुझमें थी, उन्हें दूर कर सकता था, अतः जुट गया।"
"कैसी कमियां?"
"वे जो मेरी और सुरेश की भिन्न परवरिश ने पैदा कर दी थीं—मैं साधारण कॉलेज में पढ़ा था जबकि वह 'कान्वेण्ट' में, मेरे और उसके बात-चीत के अन्दाज, लहजे और स्टाइल में बहुत बड़ा अन्तर था—अगर यूं कहा जाए तो गलत न होगा कि शारीरिक तौर पर भले ही हम एक थे, किन्तु मानसिक तौर पर बहुत फर्क आ गया था—इस मामले में मैं उससे बहुत पिछड़ गया था।"
"तो क्या वे सब कमियां तुमने दूर कर लीं?"
"पूरी तरह तो शायद मानसिक रूप से कभी सुरेश के स्तर तक न पहुंच सकूं, परन्तु उसकी इतनी नकल करने में स्वयं को दक्ष कर लिया है कि सामान्य अवस्था में उसका कोई भी परिचित नहीं ताड़ सकता कि मैं सुरेश नहीं हूं।"
"क्या मतलब?"
"आज मैं उसके अन्दाज, लहजे और स्टाइल में बात कर सकता हूं—सुरेश के ऐसे साइन बना सकता हूं—पांच महीने तक मैंने बड़ी बारीकी से सुरेश की हर एक्टीविटी नोट ही नहीं की, बल्कि उसे अपने अभिनय में उतारने में भी महारत हासिल कर ली—तुमने देखा ही है कि बहुत से लोगों के साथ-साथ मैंने पुलिस को भी धोखा दे दिया है, उन्हें गुमान तक न हो सका कि मैं सुरेश नहीं, मिक्की हूं।"
अलका अवाक्।
सबकुछ सुन रही थी वह, मगर मुंह से बोल न फूटा।
जबकि उसने आगे कहा— "सुरेश बनने के लिए उसका खात्मा करना जरूरी था और यदि दुनिया की नजरों में सुरेश मर जाता तो मैं सुरेश कैसे बन सकता था, अतः उसका खात्मा करने की स्कीम इस ढंग से बनाई कि लोग उसकी लाश को मिक्की की लाश समझें—तरीका एक ही था—यह.....कि मिक्की आत्महत्या कर ले और मेरी आत्महत्या पर लोग तभी यकीन मान सकते थे जब कोई ठोस वजह होती.....मुझ जैसे गुण्डे की आत्महत्या की वजह केवल पैसे की कमी ही हो सकती थी और वह मेरे पास नहीं थी—सभी परिचित जानते थे कि मैं जब जितने पैसे चाहूं सुरेश से ला सकता हूं सो—सबसे पहले यह अफवाई फैलाई कि सुरेश ने मुझे किसी भी किस्म की मदद देने से इन्कार कर दिया है—यह अफवाह फैलाने के बाद खुद को कर्ज में डुबोना शुरू किया—धीरे-धीरे अपने इर्द-गिर्द के लोगों से इतना कर्ज ले लिया, जितना ज्यादा-से-ज्यादा मिल सकता था—खुद को सिर तक कर्ज में डुबोने के बाद मेरठ में ठगी की योजना बनाई।"
"उस ठगी का इस योजना से क्या मतलब?"
वह इस तरह मुस्कराया जैसे अलका ने कोई बचकानी बाद कह दी हो, बोला— "यह 'एलिबाई' भी तो तैयार करनी थी कि मिक्की ने खुद को कर्ज से निकालने की कोशिश की।"
"क्या मतलब?"
"आत्महत्या पर लोग तभी यकीन मानते हैं, जब वजह बहुत पुख्ता हो.....कर्ज में घिरा व्यक्ति परेशान जरूर रहता है, मगर एकदम से आत्महत्या नहीं कर लेता—उसकी पहली और पुरजोर कोशिश खुद को कर्जमुक्त करने की होती है—आत्महत्या तब करता है, जब कर्जमुक्त होने की हर कोशिश में नाकाम हो जाए—अतः यह दर्शाना जुरूरी था कि मैंने ठगी से कर्जमुक्त होने की कोशिश की।"
"तो क्या बस में तुमने जान-बूझकर खुद को पकड़वाया?"
"यकीनन।" उसने रहस्यमय मुस्कान के साथ कहा, "क्या मुझे मालूम नहीं था कि 'सीट पार्टनर' मेरी हरकत देख सकता है, मालूम था—वह देख ले, इसीलिए तो मैंने उसकी तरफ ध्यान नहीं दिया और जब उसने टोका तो मैंने वो हरकत की कि बात का बतंगड़ बन जाए.....सो बन गया, मैं पकड़ा गया—यदि वहां न पकड़ा जाता तो आगे कहीं ऐसी हरकत करनी थी कि मैंने जान-बूझकर स्वयं को पकड़वाया है।"
"क्या तुम्हें उम्मीद थी कि सुरेश जमानत करा लेगा?"
"हमेशा कराता आया था तो इस मामले के क्यों नहीं कराता?" वह मुस्काराया—"मेरे और उसके बीच कोई झगड़ा थोड़े की हुआ था जो न कराता।"
"तो कोर्ट में ऐसा क्यों किया जैसे तुम सुरेश से नफरत करते हो, उसके वकील से जमानत नहीं कराना चाहते?"
"जो नाटक सुरेश के द्वारा दो हजार रुपये देने के इन्कार करने की अफवाह उड़ाकर शुरू कर चुका था, उसे 'प्रूव' करने के लिए—इस गुत्थी ने रहटू को भी चकरा दिया कि जब सुरेश ने मुझे रुपये देने से इन्कार कर दिया था तो जमानत क्यों कराई—सो, मैंने इस गुत्थी को सुलझाने तथा सुरेश से दस हजार रुपये मांगे जाने का जिक्र रहटू से किया।"
"क्यों?"
"ताकि मेरी आत्महत्या के बाद वह पुलिस को बताए कि 'मिक्की' बहुत परेशान था—अपने किसी प्रयास में उसे कामयाबी मिलने की उम्मीद न रही थी—कर्जमुक्त होने के लिए उसे सुरेश ही अन्तिम सहारा चमक रहा था—जब सुरेश ने भी मदद न की तो हर तरफ से निराश होने की वजह से उसने आत्महत्या कर ली—आत्महत्या के बाद उसके मुंह से यही सब पुलिस को बताए जाने के लिए मैंने ठेके में उससे बातें की थीं और यही सब उसने पुलिस से कहा था।"
"इस सबकी क्या जरूरत थी, डायरी में तो लिखना ही था?"
"डायरी में 'सच' लिखा है, इसके गवाह की भी तो जरूरत थी?" अपनी सफलता पर खुलकर मुस्कराते हुए उसने कहा।
"ठेके से तुम सीधे सुरेश बाबू से मिलने उनकी कोठी पर गए?"
"नहीं।"
"क.....क्या मतलब.....पुलिस तो कह रही थी?"
"पुलिस बेचारी तो वही कहेगी न जो मैंने अपनी डायरी में लिखा है।"
हैरत में डूबी अलका के मुंह से निकला—"मैं कुछ समझी नहीं।"
"सुसाइड नोट के रूप में छोड़ी अपनी डायरी के अनुसार मैं ठेके से सीधा सुरेश की कोठी पर गया, उससे झगड़ने, दस हजार रुपये मांगने और उसके इन्कार कर देने का मैंने पूरा वृत्तांत लिखा, परन्तु वह सिरे से झूठ है, ठीक उसी तरह जैसे उसका दो हजार रुपये देने से इन्कार करना झूठ था, मैं वहां गया ही नहीं—ठेके से सीधा कमरे में आकर डायरी तैयार करने लगा।"
"लेकिन तुम्हारी डायरी के इस झूठ को पुलिस पकड़ सकती है?"
"नहीं पकड़ सकती।" उसने उंगली से अपना सीना ठोकते हुए कहा— "जब ये सुरेश स्वयं पुलिस के सामने स्वीकार कर रहा है कि हां, मिक्की मेरे पास आया था और डायरी में लिखी बातें हुई थीं तो पुलिस बेचारी भला कहां से पकड़ लेगी?"
"वह विनीता या कोठी के चौकीदार से.....।"
"किसी अन्य से पूछताछ पुलिस तब करती है, जब कहीं कोई 'शक' हो और शक की गुंजाइश कहीं है ही नहीं, क्योंकि जो कुछ मिक्की ने लिखा है, पुलिस की नजरों में 'सुरेश' उसे स्वीकार कर रहा है।"
"जब तुम्हें मालूम था कि योजना के अनुसार सुरेश बनने वाले हो तो मिक्की के रूप में आत्महत्या का जिम्मेदार तुमने 'सुरेश' को ही क्यों ठहराया—क्या तब यह नहीं सोचा था कि वह लफड़े में फंसेगा?"
"खूब मालूम था।"
"फिर?"
"यदि मैं ऐसा न लिखता यानी मिक्की के रूप में आत्महत्या की जिम्मेदारी 'सुरेश' पर न डालता तो वह 'मिक्की' की उस मानसिकता के ठीक विपरीत होता जिसके बारे में लगभग सभी परिचित जानते थे—सबको मालूम था कि 'मिक्की' सुरेश से डाह करता है— उसके दस हजार रुपये न देने की वजह से मिक्की ने आत्महत्या की है और सुरेश निर्दोष है तो यह अस्वाभाविक होता और मिक्की की डायरी की सच्चाई पर शक किया जा सकता था—एक तरफ मुझे यह ध्यान रखना था। दूसरी तरफ चूंकि भविष्य का सुरेश भी मैं ही था, अतः मिक्की के रूप में इतना भी नहीं लिख सकता था, कि भविष्य का सुरेश फंस जाए—दोनों पक्षों का बैलेंस बनाकर मैंने ऐसा लिखा जिससे कि सुरेश का बुरा चाहने वाली मिक्की की मानसिकता भी पूरी तरह झलके और सुरेश का कुछ बिगड़ भी न पाए—मुझे अच्छी तरह मालूम है कि मिक्की के रूप में जो कुछ डायरी में लिखा है, वह सुरेश के रूप में मुझे किसी कोर्ट में मिक्की को आत्महत्या के लिए उकसाने का मुजरिम नहीं ठहरा सकता—डायरी का वह हिस्सा मैंने खूब सोच-समझकर बैलेंस करके लिखा है—उसका सबसे बड़ा फायदा मुझे यह मिला कि कोई भी इस बात की कल्पना नहीं कर सकता कि मैं मिक्की हूं।"
"सुरेश की हत्या तुमने कैसे की?"
"वह मेरे लिए अपनी पूरी योजना का सबसे आसान काम था, क्योंकि सुरेश वास्तव में मुझसे बहुत प्यार करता था, बड़े भाई के रूप में बहुत आदर करता था मेरा।"
"तुम तो कहते थे कि.....।"
"हां, मैं कहता था कि वह वास्तव में आदर नहीं करता, बल्कि आदर करने का नाटक करता हैं—ऐसा ही मैंने डायरी में लिखा है मगर वह गलत है अलका—मैं जानता हूं कि वह सचमुच मुझे चाहता था, आदर करता था—'डाह' के कारण मैं ही अपने परिचितों से उसके बारे में झूठ बोलता था।"
"ओह!"
"कल रात को तिहाई डायरी लिखने के बाद मैं कमरे की लाइट खुली छोड़कर गुप्त रूप से बाहर निकला—इस बात का पूरा ख्याल
रखता हुआ कि किसी की नजर मुझ पर न पड़े—चांदनी चौक पहुंचा, पब्लिक टेलीफोन बूथ से सुरेश की कोठी का नम्बर डायल किया, रिसीवर उठाए जाने के साथ ही सुरेश की आवाज उभरी—"हैलो।"
"मैं मिक्की बोल रहा हूं सुरेश।" मैंने कहा।
"हैलो भइया।" उसने पूरे आदर के साथ कहा— "कहां से बोल रहे हो तुम?"
मैंने उसके सवाल पर ध्यान न देते हुए पूछा—"इस वक्त तुम्हारे आस-पास कौन है सुरेश?"
"कोई नहीं, क्यों?"
"विनीता कहां है?"
"वह अभी क्लब से लौटी नहीं है।"
मैंने अपने स्वर में घबराहट उत्पन्न करते हुए कहा— "मैं एक अजीब और बहुत बड़ी मुसीबत में फंस गया हूं, सुरेश। इस मुसीबत से तुम ही मुझे छुटकारा दिला सकते हो।"
"हुआ क्या है?" सुरेश का बेचैन स्वर।
"बात लम्बी है, फोन पर नहीं बताई जा सकती—अगर तुम मुझसे जरा भी प्यार करते हो तो इसी वक्त मेरे कमरे पर आ जाओ, वहीं बैठकर सारी बातें बताऊंगा.....अगर तुम नहीं आए तो मैं.....।"
"मैं आ रहा हूं, भइया।"
"मगर ठहरो।" मैंने उसके रिसीवर रखने से पहले ही कहा— "तुम्हें सुबह दस बजे तक के लिए मेरे पास आना है, अतः सारी रात घर से बाहर रहने का कोई अच्छा-सा बहाना बनाकर आना—वहां किसी को इल्म नहीं होना चाहिए कि तुम मेरे पास आ रहे हो।"
"ऐसा क्यों?"
उसकी बात काटकर मैंने आगे कहा, "इधर खारी बावली में भी तुम पर किसी की नजर न पड़े सके—अगर मेरे या तुम्हारे किसी परिचित ने तुम्हें यहां आते देख लिया तो मेरे बचाव का जो एकमात्र रास्ता है, वह हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा, अतः जितनी जल्दी हो सके पूरी तरह गुप्त तरीके से मेरे कमरे में पहुंचो।"
¶¶
मैं पूरी तरह आश्वस्त था कि वह आएगा।
स्वयं को रोकना भी चाहे तो यह सुनने के बाद नहीं रोक सकेगा कि मैं मुसीबत में हूं, अतः जिस तरह छुपता-छुपाता पब्लिक टेलीफोन बूथ तक गया था, उसी तरह कमरे में लौट आया—एक बार फिर सारी योजना को दिमाग से गुजारते हुए मैंने लिहाफ से रुई, चारपाई से अदवायन निकाली।
रस्सी के एक सिरे को मैं फंदे की शक्ल दे चुका था, सारा सामान गंदे तकिए के नीचे छुपाकर सुरेश के आने का इन्तजार करने लगा। करीब एक घण्टे बाद दरवाजे पर आहिस्ता से दस्तक हुई।
दरावाजा खोलते-खोलते मैंने अपने चेहरे पर घबराहट और बौखलाहट के भावों को आमंत्रित कर लिया—सुरेश के अन्दर आते ही मैंने दरवाजा इस तरह बन्द किया कि यदि वह एक सेकण्ड़ भी खुला रह गया तो कोई मुसीबत अन्दर आ जाएगी।
"क्या बात है, भइया, आप इतने डरे हुए क्यों हैं?"
"बैठो सुरेश।"
वह स्टूल पर बैठ गया।
'स्काई कलर' के उसके शानदार और कीमती सूट पर नजरें गड़ाए मैं चारपाई की 'बाही' पर बैठा, बीड़ी सुलगाने के बाद बोला— "अपनी ट्रेजड़ी का जिक्र बाद में करूंगा, पहले ये बताओ कि किस बहाने के साथ रात-भर बाहर रहने के लिए आए हो?"
"विनी तो क्लब से अभी लौटो नहीं थी, काशीराम से कह आया हूं कि वह आए तो बता दे कि मैं बिजनेस के सिलसिले में शहर से बाहर जा रहा हूं कल सुबह दस बजे तक लौट आऊंगा।"
"क्या वह तेरे रात-भर गायब रहने पर नाराज नहीं होगी?"
"नहीं।" सुरेश का स्वर सपाट और ठंडा था।
मैं चुप रहा।
सुरेश ने जेब से ट्रिपल फाइव का पैकेट और 'सोने का लाइटर निकालकर सिगरेट सुलगाते हुए कहा— "वह पति खुशनसीब होता है भइया जिसकी पत्नी, पति के एक रात गायब होने पर नाराज हो जाए क्योंकि यह नाराजगी इस बात का द्योतक होती है कि उसकी पत्नी उससे बहुत प्यार करती है।"
"क्या विनी तुझे प्यार नहीं करती?" मैंने जान-बूझकर उसके जख्म को कुरेदा, जाने क्यों यह अहसास मुझे सकून पहुंचाता था कि कोई दुख सुरेश को भी है और मेरे जज्बातों से पूरी तरह नावाकिफ कहीं खोया-सा बोला—"उसे क्लब, पार्टियों और गैरमर्दों के साथ डांस करने से फुर्सत मिले तो मेरे बारे में सोचे.....मेरे लौटने पर वह इतना तक पूछने वाली नहीं है कि रात-भर मैं कहां रहा, खैर छोड़ो—अपनी मुसीबत बताओ मिक्की भइया।"
"मेरे हाथ से एक खून हो गया है।"
"खू.....खून?" सुरेश के हलक से चीख निकल पड़ी, बुरी तरह चौंक पड़ा वह......सिगरेट फर्श पर गिर गई—अपने चेहरे पर ऐसी हवाइयां लिए वह मेरी तरफ देख रहा था जैसे खून स्वयं उसने ही किया हो और मेरे शब्द सुनकर उस पर यही असर होगा, इनका अनुमान मैं पहले ही लगा चुका था—उसने कोशिश जरूर की मगर मुंह से कोई आवाज न निकली, होंठ कांपकर रह गए।
"हां।" मैं बोला— "यकीन मानो, मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं था—खून करने के बारे में तो जिन्दगी में कभी सोचा भी नहीं, वह तो साला
तेवतिया.....।"
मैंने जान-बूझकर अपनी बात अधूरी छोड़ दी।
"चुप क्यों हो गए, बोलो?" सुरेश गुर्रा-सा उठा।
"पैसे की बहुत तंगी चल रही थी सुरेश।" गढ़ी-गढ़ाई कहानी उसी अन्दाज में सुनाई जिसमें सुनाना मेरी स्कीम का हिस्सा था—"उसे दूर करने के लिए एक चोरी करने की सोची, सेठ तेवतिया की कोठी में घुस गया—उसके कमरे में रखी नम्बरों वाली सेफ खोल चुका था कि जाने कैसे तेवतिया की नींद टूट गई, वह न सिर्फ 'चोर-चोर' चिल्लाने लगा बल्कि मुझ पर झपट भी पड़ा।"
"फ.....फिर?" सुरेश ने धड़कते दिल से पूछा।
"सारी कोठी में जाग हो गई, लोगों के भागते कदमों की आवाज तेवतिया के कमरे की तरफ आ रही थी—मैं भागने का प्रयत्न कर रहा था, किन्तु तेवतिया छोड़ता तभी न— पकड़े जाने के भय से मजबूर होकर मैंने चाकू निकालकर तेवतिया पर वार किया—सच सुरेश, उस
वक्त भी मेरी मंशा उसे कत्ल कर देने की बिल्कुल न थी—कम्बख्त एक ही वार में मर गया—चाकू उसकी छाती में लगा था।"
"उफ!" गुस्से मे भरा सुरेश कसमसा उठा—"चोरी करने की आपको जरूरत क्या थी—क्या मैंने कभी इन्कार किया है, अगर पैसे की तंगी थी आपको मेरे पास आना चाहिए था मिक्की भाइया।"
मैंने गुनहगार की तरह गर्दन झुका ली।
"बोलिए.....मेरे पास क्यों नहीं आए आप?"
मैंने कहा— "तुमसे इतनी बार, इतनी ज्यादा मदद ले चुका हूं सुरेश कि अब और ज्यादा मांगते शर्म आती है।"
"इसमें शर्म कैसी?" वह बिफर पड़ा—"आप मेरे बड़े भाई हैं, अगर बड़ा भाई मुसीबत में हो और छोटा सम्पन्न तो क्या भाई की मदद करना छोटे का कर्त्तव्य नहीं है?"
"इस बहस में पड़ने का समय निकल चुका है सुरेश, वह कोई बुरी घड़ी ही थी जब मैंने तुमसे पैसा न मांगकर चोरी करने की सोची, मगर यदि अब हम उन्हीं बातों में उलझे रहे तो मैं पकड़ा जाऊंगा, कत्ल के जुर्म में फांसी से कम......।"
"कैसे पकड़े जाओगे, वहां किसी ने तुम्हें देखा तो नहीं है?"
"देखा था।"
"क.....क्या?" सुरेश पसीने-पसीने हो गया।
"तेवतिया को चाकू मारने के बाद जब मैं भाग रहा था तो उसके एक नौकर ने मुझे देखा था, वह पुलिस को मेरा हुलिया बताएगा और हुलिया सुनते ही पुलिस का ध्यान मेरी तरफ जाना स्वाभाविक है।"
"ओह!"
सुरेश के दिमाग में बैठे खतरे का आकार और बढ़ाने की गर्ज से मैंने कहा— "मेरा चाकू वहीं रह गया है, तेवतिया की छाती में गड़ा—निकालने की कोशिश शायद हड़बड़ाहट के कारण कामयाब न हुई थी, उसकी मूठ से पुलिस को मेरी उंगलियों के निशान मिल जाएंगे—पुलिस हुलिए की वजह से यहां किसी वक्त भी आ सकती है, मेरी उंगलियों के निशान लेगी और.....।"
मैंने जान-बूझकर वाक्य अधूरा छोड़ दिया।
सुरेश पर सन्नाटा-सा छा गया। काफी देर तक वह मेरी तरफ देखता रहा, फिर बोला— "मैं हमेशा आपसे कहता रहा भइया कि ये चोरी—चकारी और गुण्डागर्दी से भरी जिन्दगी छोड़ दीजिए, मगर आप कभी नहीं माने, मेरी एक न सुनी आपने!"
"इन बातों की जगह इस वक्त हमें बचाव के बारे में सोचना चाहिए सुरेश।"
सुरेश निराश हो चला था, बोला— "बचाव की सूरत ही कहां है?"
"एक सूरत है।" मैंने कहा।
"क्या?"
"तुम्हें मेरी मदद करनी होगी।"
"आपके के लिए तो मेरी जान भी हाजिर है मिक्की भइया—मगर नहीं लगता कि मेरे मदद करने से भी अब कुछ हो सकेगा।"
"सब कुछ हो जाएगा, कानून धोखा खा जाएगा सुरेश।"
"कैसे?"
"तुम मेरे कपड़े पहन लो, मिक्की बन जाओ।"
चौंकते हुए सुरेश ने पूछा—"इससे क्या होगा?"
"पुलिस रात के किसी भी वक्त या ज्यादा-से-ज्यादा सुबह दस बजे तक यहां पहुंच जाएगी—बस, तुम्हें उसी वक्त तक के लिए मिक्की बनना है—यहां आकर वे अपनी समझ में मिक्की की उंगलियों के निशान लेंगे, तुम्हें मिक्की समझकर वे तुम्हारे निशान ले जाएंगे और जाहिर है कि वे निशान चाकू की मूठ से बरामद निशानों से बिल्कुल अलग होंगे—यानी पुलिस इस नतीजे पर पहुंचेगी कि जो हुलिया तेवतिया के नौकर ने बताया है, वह मिक्की का नहीं है।"
सुरेश चुप रहा।
मेरी समझ में उसे इस काम के लिए तैयार करना आसान नहीं था, इसीलिए गिड़गिड़ाया—"बस, अपने बड़े भाई की यही आखिरी मदद कर दो सुरेश—वादा करता हूं कि चोरी-चकारी और गुण्डागर्दी की इस जिन्दगी को हमेशा के लिए छोड़ दूंगा—वह जिन्दगी अपना लूंगा जो तुम कहते रहे हो—मगर उसके लिए खून के इल्जाम से बचना बहुत जरूरी है—और बचने का एकमात्र यही रास्ता है।"
"मैं तैयार हूं।" सुरेश ने कहा।
मुझे झटका-सा लगा।
सोचा था कि इस काम के लिए तैयार करने हेतु मुझे सुरेश के पैर पकड़े होंगे, मगर ऐसी नौबत नहीं आई—आशा के विपरीत बड़ी आसानी से सुरेश की 'हां' सुनकर मैं दंग रह गया, अभी कुछ बोल भी न पाया था कि उसने कहा— "लेकिन यदि वे ताड़ गए कि मैं मिक्की नहीं सुरेश हूं तो?"
"ऐसा नहीं होगा, तुम्हें खूबसूरत एक्टिंग करनी होगी।"
"तुम कहां रहोगे?"
"उसकी फिक्र मत करो, सुबह तक छुपे रहने के लिए मेरे पास कई जगह हैं।"
इस तरह.....।
सुरेश मिक्की बनने के लिए न सिर्फ तैयार हो गया, बल्कि देखते-ही-देखते मेरे कपड़े उसके तन पर और उसके कपड़े मेरे तन पर पहुंच गए—मुझे बचाने की गर्ज से वह बेवकूफ मिक्की बनने के लिए इस कदर आतुर था कि केवल तीन मिनट बाद वह पूरी तरह मिक्की और मैं सुरेश नजर आने लगा।
अपनी हेयर स्टाइल को मेरी हेयर स्टाइल में बदलने के बाद उस वक्त वह दीवार पर एक कील में लटके शीशे में देखता हुआ फाइनल टच दे रहा था कि मैं अदवायन की रस्सी लिए उसके पीछे पहुंचा।
मेरे दोनों हाथ मेरी पीठ पर थे, उनमें थी रस्सी।
दिल जोर-जोर से पसलियों पर चोट कर रहा था।
उस वक्त मेरा सारा जिस्म ठण्डे पसीने से भरभराया हुआ था, जब कंघा शीशे के पीछे फंसाकर सुरेश मेरी तरफ घूमा, बोला— "कैसा लग रहा हूं भइया?"
"कोई माई का लाल नहीं ताड़ सकता सुरेश, मेरी आवाज में बोलकर दिखाओ।"
उसने मुंह खोला ही था कि—
बिजली की-सी गति से मैंने फंदा उसकी गर्दन में डाल दिया।
और।
मेरे खतरनाक इरादों की अभी वह कल्पना भी न कर पाया था कि मैंने पूरी ताकत से रस्सी को झटका दिया।
फंदा कस गया।
चीख घुटकर रह गई।
पूरे साहस से मैंने दूसरा झटका दिया।
वह कुछ भी न कर सका।
अपनी योजना के अनुसार मैंने बचाव का उसे कोई मौका न दिया—जुनूनी अवस्था में रस्सी को उस वक्त तक झटके देता रहा जब तक कि सुरेश की छटपटाहट और मुंह से निकलने वाली गूं-गूं की आवाज रुक न गई।
दो मिनट से पहले ही वह मर चुका था।
हालांकि फंदे में झूल रही उसकी लाश को देखकर मेरे हौंसले पस्त होने लगे थे, किन्तु फिर भी अपनी योजना के अनुसार मैंने उसके खुले हुए मुंह में रूई ठूंसी।
उस पर कपड़ा बांधा।
स्टूल पर चढ़कर रस्सी का दूसरा सिरा कुंदे में बांधने में मुझे लाश के वजन के कारण बहुत मेहनत करनी पड़ी।
लाश के मुंह पर बंधा कपड़ा ढीला किया।
उसके पैरों से ही ठोकर मारकर स्टूल लुढ़काया।
खुली डायरी और पैन खाट पर डाले।
फर्श पर पड़ी ट्रिपल फाइव की सिगरेट ही नहीं बल्कि उसकी राख तक उठाकर मैंने अपनी जेब में डाल ली—जब आश्वस्त हो गया कि पुलिस उससे ज्यादा कुछ पता नहीं लगा पाएगी कि जितना मैं चाहता हूं, तो बाहर निकला।
गली में सन्नाटा था।
अब मैंने आहिस्ता से दरवाजा बन्द किया।
एक तार की मदद से बाहर ही से सांकल लगा दी—दोनों किवाड़ों को लगाने और खोलने की भरपूर प्रैक्टिस मैं पहले ही कर चुका था, क्योंकि जानता था कि पुलिस मिक्की की आत्महत्या पर तब यकीन करेगी जब दरवाजे की सांकल अन्दर से बन्द होगी।
¶¶
वह लगातार बोल रहा था।
जाने क्या-क्या कहता चला गया, मगर अब, अलका को मानो कोई आवाज सुनाई न दे रही थी।
कानों के पर्दे सुन्न।
बल्कि अगर यह कहा जाए तो उपयुक्त होगा कि उसका समूचा अस्तित्व ही सुन्न पड़ गया था—अवाक्-सी खड़ी रह गई वह।
आंखें तक पथरा गईं।
पलकों ने झपकना ही नहीं, बल्कि दिल ने धड़कना भी जैसे बन्द कर दिया—जितना सुन चुकी थी उसी ने उसके होश उड़ा दिए, इस कदर कि अब एक भी लफ्ज उसके पल्ले नहीं पड़ रहा था, जबकि अपनी बात समाप्त करके मिक्की ने अलका की स्थिति पर ध्यान दिया।
पथराई हुई आंखें उसके चेहरे पर टिकी थीं।
"अलका....अलका!" उसने उसे झंझोड़ा।
तन्द्रा टूटी।
"आं।"
"क्या सोच रही थी तू.....कहां खो गई?"
अलका का समूचा चेहरा भयाक्रांत हो उठा, मारे डर के वह दो कदम पीछे हटी और फिर बड़ी मुश्किल से बोली— "क.....क्या यह सब सच है?"
"पगली।" वह ठहाका लगा उठा—"क्या तुझे अब भी यकीन नहीं आया कि मैं मिक्की हूं, वही मिक्की जिसके मर जाने पर तू ठीक इस तरह रो रही थी जैसे कोई स्त्री अपना सुहाग उजड़ जाने पर रोती है।"
"तू.....तू वही मिक्की है, मेरा मिक्की?"
"हां, पगली, तेरा मिक्की।"
"और तूने सुरेश को मार डाला?"
"हां.....वह लाश सुरेश की ही थी जिसे दिन में तू मिक्की.....।"
जाने कौन-सी दुनिया में खोई अलका ने पुनः सवाल किया—"सुरेश के बारे में वह सब गलत था जो तू कहा करता था, जो डायरी में लिखा—?"
"हां.....हकीकत तो मैंने तुझे अब बताई है।"
"और वह हकीकत ये है कि सुरेश तुझे बहुत प्यार करता था—उसने कभी तुझे मदद देने से इन्कार नहीं किया—तुझे काल्पनिक तेवतिया के कत्ल के जुर्म में फंसने से बचाने के लिए जो खुद मिक्की बन गया, वह सुरेश था?"
"बेशक।"
"और तूने उसकी हत्या कर दी?"
"अब बार-बार इस बात को मत दोहरा, यदि किसी ने सुन लिया तो.....।"
"तू.....तू कमीना है—खुदगर्ज, बेवफा और जलील है।"
"क.....क्या मतलब?" वह भिन्ना गया।
अलका दांत भींचे मुंह से शब्द नहीं अंगारे उगलती चली गई—"अगर तू सच बोल रहा है, यदि तू सचमुच मिक्की है तो तुझसे बड़ा नीच सारी दुनिया में नहीं हो सकता। तूने उस छोटे भाई को मार डाला जो तेरे लिए जान तक हाजिर कर देता था!"
"होश में आ अलका!" वह गुर्राया—"पागल हो गई है क्या—अपने 'दलिद्दर' दूर करने का इसके अलावा कोई चारा नहीं था—अब मैं सुरेश बन चुका हूं, दुनिया की ऐसी कोई चीज नहीं जिसे मैं खरीद न सकूं—वह वक्त आ गया है पगली, जब हम पति-पत्नी बन सकते हैं, विनीता मुझे तलाक देने पर तुरन्त राजी हो जाएगी, उसके बाद तू होगी और मैं—सारा जहां हमारे कदमों तले होगा—सारी दुनिया की सैर कराऊंगा मैं तुझे—इंग्लैण्ड, अमेरिका, जापान, रोम, स्विट्जरलैण्ड।"
"बस....बस.....बन्द कर अपनी गन्दी जुबान।"
"अलका!"
"अरे चीखता क्या है, डराना चाहता है मुझे?" अलका बिफर पड़ी—"कभी डरी हूं तुझसे जो आज डरूंगी?"
"तू.....तू पागल हो गई है क्या?"
"हां.....मैं पागल हूं—मगर आज नहीं हुई, पिछले दो साल से पागल हूं—पहले तेरे प्यार ने पागल बनाए रखा और अब नफरत पागल किए दे रही है।"
"नफरत?"
"हां.....नफरत.....लेकिन तू नफरत के काबिल भी नहीं है।"
होश उड़ गए उसके, बोला— "म.....मगर तू तो मुझसे प्यार करती हैं!"
"प्यार करती नहीं हूं कमीने, करती थी।" उसने अंतिम शब्द पर जोर देते हुए कहा— "मैं उससे प्यार करती थी जो अपनी जरूरतों पूरी करने के लिए सिर्फ चोरी या ठगी करता था—मेरी नजर में वह सब करना जिसकी मजबूरी थी—मगर हत्यारे से प्यार करने के बारे में तो मैं सोच भी नहीं सकती।"
पलक झपकते ही मिक्की के जिस्म पर मौजूद हरेक मसामों ने बर्फ के मानिन्द ठंडा पसीना उगल दिया, हाथ-पांव फूल गए, बौखलाहट चेहरे पर साफ नजर आने लगी थी, बड़ी कोशिश के बाद मुंह से लफ्ज फूटे—"म.....मेरी बात समझने की कोशिश कर अलका, इसके अलावा कोई चारा नहीं था, ये बेकार की जज्बाती बातें छोड़ और.....।"
"और फिर अपनी घिनौनी करतूत चटखारे ले-लेकर मुझे सुना भी रहा है।" अलका कहती चली गई—"वाह.....बड़ी हिम्मत है तुझमें, मगर यह हिम्मत शायद तूने यह सोचकर कर ली कि अलका को बेवकूफ समझता है, सोचता होगा कि तुझे जिन्दा देखते ही गले से लगा लेगी।"
"द.....दिन में तुझे रोते देखकर यही सोचा था।"
"अब तेरे लिए जेल से ज्यादा बेहतर जगह कोई नहीं है।"
"ज.....जेल?" उसके छक्के छूट गए।
"हां—जेल।"
एकाएक उसका चेहरा सख्त हो गया, आंखों से वहशियत झांकने लगी और किसी जंगली गैंडे की तरह गुर्राया वह—"मुझे कौन जेल भेजेगा?"
"मैं।"
"हुंह!" बड़ी ही खूंखार मुस्कराहट उसके होंठों पर उभरी, गुर्रा उठा वह—"अब मिक्की को दुनिया की कोई ताकत जेल नहीं भेज सकती, किसी को पता नहीं लगेगा कि असल में क्या हुआ है?"
"मैं बताऊंगी सबको, चीख-चीखकर कहूंगी कि.....।"
"बकवास करने के लिए मैं तुझे जिन्दा छोड़ने वाला नहीं हूं।"
"त.....तू.....तू कत्ल करेगा मेरा?"
"मजबूरी है और ये मजबूरी मैंने खुद अपनी बेवकूफी से पैदा की है—आज दिन में आंसू और रूदन देखकर मैं बहक गया, किसी को भी राज न बताने के अपने निश्चय पर कायम न रह सका मैं—जज्बातों में बह गया, जो भूल की है उसे सुधारना मुझे अच्छी तरह आता है।"
"तू कुछ भी नहीं कर सकेगा।"
"अपना नसीब बदलने के लिए मैं कुछ भी कर सकता हूं, तेरा कत्ल भी—जिसने सुरेश जैसे भाई को मार डाला उसके लिए तू क्या है—तू मेरे बदले-बदलाए नसीब को ग्रहण लगाना चाहती है—तूने मिक्की को कभी समझा ही नहीं बेवकूफ—मैं ही पागल था जो भावनाओं में बहकर अपना राज बता बैठा—मगर अब मैं तुझे जिन्दा नहीं छोड़ सकता, इसके अलावा कोई रास्ता नहीं कि तुझे इसी वक्त.....यहीं खत्म कर दिया जाए।"
अलका को पहली बार अहसास हुआ कि 'वह' जो कह रहा है वही करेगा भी।
और।
ऐसा अहसास होते ही उसे दिलो-दिमाग पर घबराहट सवार हो गई—पलक झपकते ही जेहन में विचार कौंधा कि इस वक्त वह अकेली है, मिक्की का मुकाबला नहीं कर सकेगी। अतः झट बदलकर बोली— "अरे, तू तो सचमुच मिक्की है।"
"क.....क्या मतलब?" वह उछल पड़ा।
"यह सब बातें मैंने तुझे आजमाने के लिए कही थीं—यह सोचकर कि यदि तू सुरेश है और झूठी कहानी सुनाकर मिक्की होने का ढोंग कर रहा है तो मेरा ऐसा रुख देखते ही तू असलियत पर आ जाएगा—कहेगा कि नहीं, मैं मिक्की नहीं सुरेश हूं।"
"क्या तू सच कह रही है?"
"बिल्कुल सच, अब मुझे यकीन हो गया कि तू मिक्की ही है और तू जानता है कि मैं तेरी दीवानी हूं—तुझे जेल भेजने के बारे में तो मैं सोच भी नहीं सकती।"
"तो दूर क्यों खड़ी है, आ—मेरी बांहों में समा जा।"
अलका के होश उड़ गए।
उसने 'पैंतरा' बदला जरूर था, मगर लग न रहा था कि वह उसकी बातों में आ गया है—उसकी बांहों में गिरफ्तार होने की कल्पना ने ही अलका के होश उड़ा दिए।
अवाक्-सी खड़ी रह गई वह।
"क्या सोच रही है पगली, क्या अब भी तुझे शक.....?"
"नहीं।"
"फिर दूर क्यों खड़ी है, आ।" उसने बांहें फैला दीं।
अब।
उससे न लिपट जाना अलका के बदले हुए पैंतरे के ठीक विपरीत था, अतः साहस करके आगे बढ़ी, दौड़ी और फिर उससे जा लिपटी।
उसने अलका को अपनी मजबूत बाजुओं में भींच लिया।
इस वक्त अलका के जिस्म का रोयां-रोयां खड़ा था।
उसे अहसास था कि वह हत्यारे की बांहों में कैद है और यही अहसास उसके तिरपन कंपकपाए दे रहा था।
दिल हथौड़े के समान पसलियों पर चोट कर रहा था।
अपने अंक में समेटकर मिक्की ने इतनी सख्ती से भींचा कि अलका को अपनी हड्डियां कड़कड़ाकर टूटती-सी मालूम पड़ीं।
हल्की-सी चीख निकल गई उसके मुंह से।
"क्या हुआ?" स्वर बेहद ठंडा था।
मौत के भय से कांपती अलका ने कहा— "इतनी जोर से क्यों भींच रहे हो?"
बाजुओं का कसाव कुछ कम हुआ।
वह हंसा।
ऐसे वहशियाना अंदाज में कि अलका के समूचे जिस्म में ही नहीं, बल्कि अन्तरात्मा तक में मौत की तीव्र लहर दौड़ती चली गई, उसी पल...उसने उसके अधरों का एक चुम्बन लिया, बोला—"क्या तू मूझे बेवकूफ समझ रही है?"
"क्या मतलब?" बुरी तरह इस उलझन में फंसी अलका ने पूछा कि वह उसकी बातों पर यकीन कर रहा है या नहीं?
"मैं तेरी चाल खूब समझ रहा हूं।"
"क.....कैसी चाल?"
"तू यही सोच रही है न कि इस वक्त किसी तरह मुझे बहका ले और बाद में.....।"
"न.....नहीं।" उसका वाक्य पूरा होने से पहले ही भयाक्रांत अलका चीख पड़ी—"ऐसा बिल्कुल नहीं है, मिक्की।"
"ऐसा ही है।"
"म.....मेरा यकीन मानो।" कहने के साथ ही उसने आजाद होने की कोशिश की।
मिक्की उसकी पीठ पर हाथ फिराता हुआ बोला— "जज्बातों में बहकर कितनी बड़ी बेवकूफी कर बैठा, इसका अब मुझे पूरा-पूरा अहसास हो रहा है, अगर तू नाटक कर रही है तब भी और नहीं कर रही है तब भी—दरअसल तेरा खात्मा करना मेरे लिए बहुत जरूरी हो गया है, वर्ना तू हमेशा धारदार तलवार बनी मेरी गर्दन पर लटकी रहेगी—हमेशा डर बना रहेगा कि जाने तू कब, किससे मेरा राज, बक दे, ठीक कह रहा हूं न?"
"न.....नहीं—मैं इस बारे में कभी किसी से कुछ नहीं कहूंगी।"
"मैं इस वादे पर विश्वास करने की बेवकूफी नहीं कर सकता।" दांत भींचकर यह वाक्य कहने के साथ ही उसके हाथ अलका की गर्दन
पर पहुंच गए।
और।
यह वह क्षण था जब अलका को पूरा यकीन हो गया कि वह मरने वाली है, उसकी गिरफ्त से निकलने की कोशिश के साथ ही जोर से चीख पड़ने के लिए अलका ने मुंह खोला, मगर—
मुंह खुला-का-खुला रह गया।
चीख हलक में घुट गई।
चेहरे पर पैशाचिक भाव लिए, मिक्की अपने मजबूत हाथों का दबाव अलका की गोरी, सुराहीदार और कोमल गर्दन पर बढ़ाता चला गया।
अलका यूं छटपटाई जैसे शेर के पंजे में फंसी हिरनी।
दम घुटने लगा।
मुंह से 'गूं-गूं' की आवाजें निकल रही थीं।
खेल खत्म होने। में शायद एकाध पल ही बाकी बचा था कि मिक्की के दिमाग में न जाने क्या विचार कौंधा कि उसने झट अपने हाथ अलका की गर्दन से हटा लिए।
वह लहराकर धड़ाम से फर्श पर गिरी।
पसीने से लथपथ मिक्की ने जल्दी से झुककर अलका की नब्ज टटोली।
स्पन्दन का अहसास करके जैसे स्वयं मिक्की के प्राण वापस लौटे।
अलका का सिर्फ बेहोश हुई थी।
"उफ!" वह बड़बड़ा उठा—"यह मैं क्या बेवकूफी करने जा रहा था?"
वह खड़ा हुआ, जेब से रुमाल निकालकर पसीने से तरबतर चेहरे को पोंछा।
कुछ देर स्वयं को नॉर्मल करने की चेष्टा करता रहा।
जेब से ट्रिपल फाइव का पैकेट निकालकर सोने के लाइटर से एक सिगरेट सुलगाई और सारी स्थिति पर गौर करने के लिए चारपाई
पर जा बैठा।
सोचने की कोशिश करने लगा कि अब इन हालातों में क्या करना चाहिए—क्या किया जा सकता है—लगा कि सोचने में कुछ व्यवधान आ रहा है।
ठीक से कुछ सोच न पा रहा था वह।
शुरू में लगा कि अप्रत्याशित हालातों के कारण दिमाग जाम हो गया है, मगर शीघ्र ही उसे सोच न पाने की असल वजह का इल्म
हुआ।
दरअसल ट्रिपल फाइव के धुंए का स्वाद उसे कसैला-सा लग रहा था।
उंगलियों के बीच फंसी ट्रिपल फाइव को उसने यूं घूरा जैसे उस लम्बी और कीमती सिगरेट पर ताव खा रहा हो.....फिर झुंझलाकर सिगरेट एक तरफ फेंक दी।
अपने ही बिछाए हुए जाल में उलझकर रह गया था वह। अलका का जीवित रहना उसके लिए मौत था।
'हत्या' हजार बखेड़े खड़ी कर सकती थी।
'क्या करे वह.....क्या किया जा सकता है?' इसी सवाल में उलझा वह दूर, बहूत दूर तक सोचता चला गया।
¶¶
पहले दोनों किवाड़ों के बीच पतली-सी दरार उत्पन्न हुई, फिर वह चौड़ी होती चली गई और मिक्की ने झांककर गली का निरीक्षण किया।
सन्नाटा।
एकमात्र सरकारी बल्ब की रोशनी वहां छिटकी पड़ी थी।
मिक्की ने पुनः किवाड़ बन्द किए।
सबसे पहले उसने फर्श पर पड़े सिगरेट और बीड़ी के टोटे उठाकर जेब के हवाले किए—राख को सिमेटकर नाली में बहाया।
एक आले में रखा ताला उठाया, चाबी उसी में लगी थी।
इस तरफ से आश्वस्त होने के बाद कि अब यहां उसके आगमन का कोई चिन्ह बाकी नहीं बचा है, अलका के जिस्म को उठाकर कंधे पर लादा।
दरवाजे पर पहुंचा।
एक बार पुनः गली में अनुकूल वातावरण देखकर बाहर निकल आया और इसके बाद बिजली के पुतले की तरह अलका के कमरे की सांकल बाहर से लगाकर ताला लटका दिया।
लगभग दौड़ने के-से अंदाज में वह गली पार करने लगा।
इस वक्त मिक्की का दिल बुरी तरह धड़क रहा था। पसीने के कारण अपने समूचे जिस्म को चिपचिपा-सा महसूस कर रहा था वह.....भागते हुए ही चाबी उसने कंधे पर बेहोश पड़ी अलका के वक्षों के बीच फंसा दी।
यह सोच-सोचकर उसके होश उड़े जा रहे थे कि इस वक्त उसे कोई मिल जाए, देख ले तो क्या हो?
उसके सारे किए-धरे पर पानी फिर सकता था।
मगर।
ऐसा कुछ नहीं हुआ।
गली पार करके वह सड़क पर पहुंचा।
सड़क के दोनों तरफ पैदल चलने वालों के लिए बरांडेनुमा फुटपाथ था—इस वक्त जगह-जगह अनेक लोग सोए हुए थे।
दाईं तरफ से एक वाहन इस सड़क पर मुड़ा और उसकी हैडलाइटस की सीमा में आने से पहले ही मिक्की ने फुर्ती से अलका के बेहोश जिस्म को बरांडे के गन्दे फर्श पर लिटा दिया।
अभी वह लम्बी-लम्बी सांसें ले रहा था कि फर्राटे भरती कार उसके सामने से गुजर गई—राहत की सांस लेने के बाद वह तेज कदमों के साथ एक तरफ को बढ़ गया।
बीस मिनट बाद।
उसने लालकिले के पार्किंग में खड़ी सुर्ख रंग की मर्सडीज स्टार्ट करके आगे बढ़ा दी और वह तैरती हुई-सी फुटपाथ के उस हिस्से के नजदीक रुकी जहां मिक्की अलका के बेहोश जिस्म को छोड़ गया था।
सड़क पर सन्नाटा तो था, किन्तु ऐसा नहीं कि मिक्की अपना काम पूरी आजादी और निश्चिन्तता के साथ कर सके।
रह-रहकर कोई-न-कोई वाहन वहां छाई नीरवता को भंग करता हुआ निकल जाता—ड्राइविंग डोर खोलकर मिक्की बाहर निकला, दरवाजा आहिस्ता से बन्द किया।
फिर।
गाड़ी का पिछला, फुटपाथ की तरफ वाला दरवाजा खोला।
धड़कते दिल से सड़क के दोनों तरफ का निरीक्षण किया—दूर-दूर तक किसी व्यक्ति या वाहन को न देखकर तेजी से अलका की ओर लपका।
बेहोश जिस्म को उठाकर गाड़ी की पिछली सीट पर डालने में उसे पांच मिनट लगे, परन्तु इसे उसका सौभाग्य ही कहा जाएगा कि यह हरकत करते उसे किसी ने देखा नहीं—दरवाजा बन्द करके वह ड्राइविंग सीट पर बैठा।
और।
सड़क पर तैरती-सी मर्सड़ीज आगे बढ़ गई।
¶¶
उस वक्त रात के करीब दो बज रहे थे, जब मर्सडीज ताजमहल की डमी-सी नजर आने वाली कोठी के लोहे वाले गेट के नजदीक पहुंची।
बन्दूकधारी दरबान ने लपककर ताला खोला।
'हरामजादा।' ड्राइविंग सीट पर बैठा मिक्की बड़बड़ाया—'हमेशा नफरत से देखता था मुझे, आवारा कुत्ता समझता था।'
गेट खुलते ही वह मर्सडीज को गन से निकली गोली के समान अन्दर ले गया और गैरेज के नजदीक एक झटके से रोक दी।
दरबान दौड़कर नजदीक आया।
जोरदार सैल्यूट दिया।
मिक्की ने गर्दन में जुम्बिश तक पैदा न की।
दरबान ने गैरेज का लॉक खोलकर शटर ऊपर उठाया, मिक्की गाड़ी को गैरेज के अन्दर ले गया—दरबान ने शटर वापस गिरा दिया।
गाड़ी को लॉक किए बिना मिक्की बाहर निकला।
गैरेज में एक अन्य दरवाजा था जिसके लॉक की चाबी उसने अपनी जेब से निकाली—लॉक खोलकर कोठी के ड्राइंग हॉल में पहुंचा।
एक-एक चीज के बारे में यह सोचता हुआ कि अब वह मेरी है, मिक्की सीढ़ियों पर बिछे कालीन को रौंदता हुआ फर्स्ट फ्लोर पर पहुंचा।
अपने या यूं कहो कि सुरेश के कमरे की लाइट ऑन करने के बाद उसने एक बार फिर उसकी शानो-शौकत को निहारा।
दृष्टि कमरे के एक अन्य दरवाजे पर चिपक गई।
उसे मालूम था कि यह दरवाजा सुरेश और विनीता के कमरों को एक करता है, इस वक्त विनीता सो रही होगी।
एकाएक विनीता का माखन में मिले एक चुटकी सिन्दूर के रंग का चेहरा और गदराया जिस्म आंखों के सामने तैर उठा—इस ख्याल ने उसे रोमांचित कर डाला कि जिस विनीता के समूचे जिस्म से मुझे देखते ही नफरत की चिंगारियां छूटने लगती थीं, आज एक तरह से
वह मेरे पहलू में है।
मिक्की के दिल में विचार उठा कि आज मैं विनीता से नफरत-भरी नजरों का प्रतिशोध ले सकता हूं—उसके गुरूर को चूर-चूर कर सकता हूं—वह बेवकूफ और घमण्डी औरत क्या जान पाएगी कि मैं सुरेश नहीं मिक्की हूं—वही मिक्की, जिसे देखकर वह कुछ ऐसे अन्दाज में नाक सिकोड़ लेती थी जैसे मेरे शरीर से बदबू आ रही हो।
विनीता को पाने की इच्छा कम, बदला लेने की इच्छा ज्यादा लिए वह बन्द दरवाजे की तरफ बढ़ गया—नजदीक पहुंचकर दरवाजा खोलने के लिए हाथ से किवाड़ों पर दबाव बढ़ाया—किन्तु शीघ्र ही अहसास हुआ कि विनीता ने अपनी ओर से चटकनी चढ़ा रखी है—चोर चोर ही होता है—यह बात उस वक्त साबित हुई जब मिक्की ने 'की—होल' से आंख सटाकर विनीता के कमरे का दृश्य देखने का प्रयास किया।
मगर असफल रहा।
'की-होल' से वह सिर्फ दरवाजे के दूसरी तरफ खिंचे कीमती पर्दे का जर्रा देख सका—मन में विचार उठा कि दस्तक देकर विनीता को जगाए।
इस विचार को कार्यान्वित करने के लिए अभी उसने हाथ उठाया ही था कि जाने कैसे मस्तिष्क में विचारों का बवंडर उठ खड़ा हुआ—अलका के बेहोश जिस्म को गाड़ी में लादने से बाद के दृश्य आंखों के समक्ष चकरा गए।
दिलो-दिमाग पर अजीब घबराहट सवार हो गई।
यह सोचने पर वह विवश हो गया कि क्या आगे भी सबकुछ उसी तरह ठीक होगा, जिस तरह अब तक होता आया है? कहीं अलका की लाश मेरी सारी योजना को जर्रे-जर्रे करके बिखेर तो नहीं डालेगी? क्या सुबह तक वही सबकुछ होने जा रहा है जो मैंने सोचा है? क्या उसमें कहीं कोई गड़बड़ तो नहीं होगी?
इन्हीं सब विचारों ने मिक्की को इतनी उद्विग्न कर दिया कि दरवाजे पर दस्तक देने और विनीता के साथ हमबिस्तर होकर प्रतिशोध लेने का ख्याल मस्तिष्क के गर्त में जा गिरा—यह सोच-सोचकर अजीब-सी घबराहट उस पर हावी होती चली गई कि क्या आगे भी उसका प्लान पूर्णतया सफल रहेगा?
क्या अलका के मामले में भी पुलिस उसी तरह धोखा खा जाएगी जैसे सुरेश के मामले में खा गई? कहीं पुलिस वास्तविकता तक तो नहीं पहुंच जाएगी?
मिक्की बेचैन-सा हो उठा।
बन्द कमरे में दम घुटता-सा लगा।
राहत के लिए वह पिछले लॉन में खुलने वाली एक खिड़की की तरफ बढ़ा, चटकनी गिराकर दरवाजा खोलते ही उसके जेहन में स्वच्छ एवं ताजी हवा का झोंका टकराया—हल्की-सी राहत महसूस की उसने।
वे विचार छिन्न-भिन्न होने लगे जो मन में घबराहट पैदा कर रहे थे और अभी राहत की मुश्किल से एक या दो सांसें ही ली थीं कि बुरी तरह चौंक पड़ा।
जबरदस्त फुर्ती के साथ मिक्की ने खिड़की के किवाड़ भिड़ाए।
दिल धक्-धक् करके बज रहा था।
पसलियों पर एक निश्चित अंतराल से मानो हथौड़े की चोट पड़ रही थी और इस सबका कारण ये था कि उसने विनाता के कमरे की खिड़की खुलते ही नहीं, बल्कि उससे निकलकर एक साए को 'रेन वाटर पाइप' पर झूलते देखा था।
बुरी तरह धड़क रहे दिल का काबू पाने के असफल प्रयास के साथ मिक्की ने पूरी सावधानी के साथ, आहिस्ता से दोनों किवाड़ों के बीच दरार उत्पन्न कर झांका।
साया फुर्ती के साथ पाइप पर उतरता चला जा रहा था।
मिक्की के जेहन में ख्याल उठा—'कौन है ये?'
यह सवाल बार-बार उसके मस्तिष्क से टकराने लगा और तब तक टकराता रहा, जब तक कि साया चोरों की तरह लॉन से गुजरकर एक ही जम्प में चारदीवारी पार करके कोठी की सीमा से बाहर न निकल गया।
विनीता के कमरे की खिड़की बन्द होने की आवाज उभरी।
यह समझने में मिक्की को देर न लगी कि अपने 'यार' को सुरक्षित बाहर निकलता देखने के बाद विनीता ने ही खिड़की बन्द की है।
कौन है वो?
क्या सुरेश उसके बारे में कुछ जानता था?
जाहिर था कि साया उस रास्ते से विनीता से मिलने अक्सर आता था, क्या सुरेश ने भी कभी उसे इसी तरह देखा था, जिस तरह मैंने आज पहली रात में ही देख लिया था—क्या सुरेश विनीता के इस 'यार' की हकीकत से वाकिफ था?
क्या इसीलिए सुरेश को विनीता से नफरत थी?
¶¶
सारी रात मिक्की सो न सका।
कभी मस्तिष्क विनीता के कमरे से निकलने वाले साए के बारे में सोचने लगता तो कभी अलका से सम्बन्धित अपनी कारगुजारी के बारे में।
वह जानता था कि सुरेश सुबह सात बजे बिस्तर छोड़ देता था, सो—वह भी ठीक सात बजे उठा, एक घण्टे में नित्यकर्मों से निवृत्त होने के बाद ठीक आठ बजे नाश्ते के लिए डायनिंग टेबल पर।
कुर्सी पर बैठने के बाद उसने ठीक सुरेश की-सी स्टाइल में एक सिगरेट सुलगाई और हाथ बांधे खड़े काशीराम से पूछा—"विनी कहां है?"
"आने वाली हैं, साहब।"
हकीकत ये है कि उसे ट्रिपल फाइव में बिल्कुल मजा नहीं आ रहा था, किन्तु सुरेश के-से ही शाही अंदाज में उसे पीते रहना मिक्की ने अपनी मजबूरी बना ली थी।
"हैलो सुरेश!" खनखनाती आवाज उसके कानों में पड़ी।
मिक्की का चेहरा स्वतः आवाज की दिशा में घूम गया और तेजी के साथ डायनिंग टेबल की तरफ बढ़ी चली आ रही विनीता पर नजर पड़ते ही मिक्की के भीतर कहीं नफरत की चिंगारियां भड़कीं।
उसके जिस्म पर साड़ी नहीं बल्कि एक चुस्त पैंट और ब्रेजरी जैसा ब्लाउज था—न मांग में सिन्दूर, न मस्तक पर बिन्दिया।
कलाइयों में चूड़ियां तक नहीं।
किसी भी तरह वह शादीशुदा नजर नहीं आती थी—ठोस व गदराए जिस्म वाली खूबसूरत विनीता के जिस्म पर इस वक्त कपड़े थे, किन्तु मिक्की को वह पूर्णतया नग्न नजर आ रही थी।
अपने बेडरूम में।
किसी गैर और अज्ञात मर्द की बांहों में।
दिल तो मिक्की का ऐसा किया कि भारतीय नारी के नाम पर कलंक विनीता के गाल पर ऐसा थप्पड़ जड़े कि वह सात जन्म तक तिलमिलाती रहे, परन्तु अपनी समस्त भावनाओं को दबाए उसने सुरेश के अन्दाज में हौले से मुस्कराकर कहा— "गुड मॉर्निंग, विनी।"
"मॉर्निंग।" कहने के साथ ही वह उसके सामने वाली कुर्सी पर बैठ गई।
"कैसी हो?" सुरेश ने पूछा।
अपनी रेशमी जुल्फों को झटका देती हुई विनीता बोली— "यह सवाल तो मुझे तुमसे पूछना चाहिए।"
"क्या मतलब?"
"आज तीन दिन बाद तुम्हारी शक्ल देखी है।"
"क्या तुम्हें मालूम नहीं कि मिक्की.....।"
"हां, अखबार में पढ़ चुकी हूं।"
"परसों रात मैं बिजनेस के काम से आउट ऑफ स्टेशन था, कल दस बजे सीधा ऑफिस पहुंच गया और थोड़ा काम निपटाकर यहां आने के बारे में सोच ही रहा था कि पुलिस ने मिक्की की खबर दी—सारे दिन व्यस्त रहने के बाद रात को.....।"
"मैंने तुमसे बाहर गुजारे गए टाइम का हिसाब नहीं मांगा।" उसकी बात बीच में ही काटकर विनीता ने लापरवाही के साथ कहा।
"तुम इन दो दिनों में क्या करती रहीं?" मिक्की ने कटाक्ष किया।
विनीता मुंह बिचकाकर बोली— "तुम शायद मेरे और अपने बीच हुआ समझौता भूल गए.....न मुझे तुम्हारी दिनचर्या से कुछ लेना-देना है और न तुम्हें मेरी से।"
"सॉरी।" मिक्की ने धीमे से कहा— "मैं तो सिर्फ यह कहना चाहता था कि अगर कल शाम के न्यूज पेपर में मिक्की के बारे में पढ़ लिया था तो थोड़ी देर के लिए ही सही.....तुम्हें मिक्की की अन्त्येष्टि में आना चाहिए था।"
"मुझे.....क्यों?"
"आखिर वह तुम्हारा जेठ था।"
"ज.....जेठ?" विनीता ने बुरा-सी मुंह बनाया, बोली—"तुम जानते हो कि उस 'लीचड़' आदमी को मैंने कभी अपना कुछ नहीं समझा—वह इस लायक ही नहीं था कि उसे कोई अपना कुछ समझे।"
"विनी—।" मिक्की ने थोड़े गुस्से का प्रदर्शन किया।
"ऐसे गलीज आदमी को तुम जैसा कोई मूर्ख ही सारा जीवन भाई कहता रह सकता है।" विनीता उसके गुस्से से तनिक भी प्रभावित हुए बिना कहती चली गई—"और मैं तो कहती हूं कि अच्छा ही हुआ जो वह मर गया, अब कम-से-कम उसकी मनहूस सूरत तो मेरी आंखों के सामने नहीं आएगी?"
मिक्की को वास्तव में गुस्सा आ गया। आंखें सुर्ख हो उठीं और मुंह से गुर्राहट निकली—"कम-से-कम किसी के मरने के बाद उसके बारे में.....।"
वाक्य अधूरा रह गया।
दूर, एक कोर्निस पर रखे टेलीफोन की घण्टी घनघना उठी।
काशीराम उस तरफ लपका।
विनीता उसके गुस्से से लेशमात्र भी प्रभावित हुए बिना डबल-रोटी के पीस पर मक्खन लगाने में व्यस्त थी—मिक्की की नजरों में वह एक महाबदतमीज और बदमिजाज औरत थी। सो, उसके मुंह लगना उसे अच्छा न लगा।
उधर, रिसीवर उठाने और दूसरी तरफ से बोलने वाले की आवाज सुनने के बाद माउथपीस पर हाथ रखकर काशीराम ने कहा— "कोई औरत आपसे बात करना चाहती है, साहब।"
मिक्की ने विनीता की तरफ देखा।
काशीराम के वाक्य का उस पर कोई असर न हुआ—मिक्की ने सोचा, होगा भी क्यों—किसी औरत के अपने पति से बात करने की बात पर उस पत्नी के कान खड़े होते हैं जो खुद पतिव्रता हो।
मिक्की उठा।
काशीराम से रिसीवर लेकर उसने कहा— "हैलो, सुरेश हियर।"
"मैं बोल रही हूं, सुरेश।" दूसरी तरफ से कहा गया।
मिक्की के मुंह से निकला—"मैं कौन?"
"क्या मतलब.....क्या अब मेरी आवाज भी तुम नहीं पहचान सकते?"
"स.....सॉरी, मैं नहीं पहचान पाया।"
दूसरी तरफ से दांत भींचकर कहा गया—"मैं नसीम हूं।"
मिक्की का जी चाहा कि पूछ ले—“ कौन नसीम?”
मगर।
उसने जल्दी ही स्वयं को नियंत्रित कर लिया। दरअसल 'कौन नसीम' कहना उसके लिए घातक सिद्ध हो सकता था—जिस ढंग से नसीम ने बात शुरू की थी और उसके आवाज न पहचानने पर जिस कदर वह नाराज हुई थी, उससे जाहिर था कि वह सुरेश के 'क्लोज' थी। सो, संभलकर बोला, "ओह, अच्छा नसीम—तुम बोल रही हो, कहो क्या बात है?"
"तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है क्या?" दूसरी तरफ से गुर्राहट उभरी।
मिक्की के मुंह से निकला—"क.....क्या मतलब?"
"फोन पर मेरा नाम लेकर क्यों अपनी मौत को दावत दे रहे हो?" शब्दों के साथ नसीम के दांतों की किटकिटाहट भी सुनाई दे रही थी—"क्या इस वक्त तुम्हारे फोन के पास काशीराम और विनीता नहीं हैं?"
"हैं।"
"फिर?"
मिक्की का दिमाग चकराकर रह गया। कहने के लिए कुछ सूझा नहीं उसे और परिणामस्वरूप लाइन पर अजीब-सा पैनापन लिए सन्नाटा-सा छा गया, फिर इस सन्नाटे को नसीम ने ही तोड़ा—"मुझे तुमसे कुछ जरूरी बातें करनी हैं।"
"करो।" हतप्रभ मिक्की के मुंह से निकला।
पुनः गुर्राहट—"तुम होश में तो हो?"
"म.....मैं समझा नहीं।" मिक्की हकला गया।
"अपने बेडरूम में जाओ बेवकूफ.....वहां रखे फोन पर मुझसे बात करो।"
"अच्छा।" कहकर उसने रिसीवर क्रेडिल पर रख दिया।
दिमाग सांय-सांय कर रहा था—उसकी समझ में बिल्कुल नहीं आ रहा था कि नसीम कौन है, सुरेश से वह इस लहजे में कैसे बात कर सकती है और फिर ऐसी कौन-सी बात है, जिसे वह फोन पर नहीं कह सकती?
अनेक सवाल।
मिक्की का दिमाग झन्नाकर रह गया।
यह सोचकर कि शायद बेडरूम वाले फोन पर बात करने से कोई 'गांठ' खुले, वह सीढ़ियों की तरफ बढ़ गया। अपने ही विचारों में गुम था वह कि काशीराम ने टोका—"क्या नाश्ता नहीं करेंगे साहब?"
मिक्की की तंद्रा भंग हुई। काशीराम के बाद उसने एक नजर विनीता पर डाली। वह ऐसा दर्शा रही थी जैसे ध्यान इस तरफ न हो—मिक्की आहिस्ता से नाश्ते को इन्कार करके सीढ़ियों की तरफ बढ़ा। एकाएक पीछे से विनीता की आवाज उसके कानों से टकराई—"हमें नहीं बताओगे कि नसीम कौन है?"
पलटकर मिक्की सिर्फ उसे देखता रहा।
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