नीले रंग का सूट

सुबह के 06:00 बज रहे थे। वीर सोया हुआ था। अचानक उसका फ़ोन बजा तो उसने देखा कि किसी नए नम्बर से कॉल आ रहा था। उसने नींद में ही फ़ोन उठाया।

“हैल्लो... कौन?”

“गुड़ मार्निंग, माया बोल रही हूँ। सो रहे थे क्या अभी तक?”

माया का नाम सुनते ही वीर की आँखों से नींद एकदम से उड़ गई। वो इतनी फुर्ती से उठा कि जैसे किसी ने नींद में उसे करंट लगा दिया हो।

“गुड़ मार्निंग। कैसे हो?” वीर ने अपने बालों में हाथ घुमाते हुए कहा।

“मैं ठीक हूँ। तुम बताओ?”

‘मैं भी ठीक हूँ। मैं तो सोच रहा था कि सच में तुम्हारे पापा का ही फ़ोन आएगा, अगर आया तो।” वीर ने कहा।

‘पापा का बात करना ठीक नहीं था, तो सोचा कि मैं ही फ़ोन कर लेती हूँ, और वैसे भी किस्मत तुम्हारी।”

“अच्छा.... किस्मत मेरी? लगता है कि कुंभकरण के बात जो सबसे ज़्यादा सोई हुई थी, वो मेरी किस्मत ही थी जो अब जाकर उठी है तुम्हारे फ़ोन आने के बाद।” वीर ने हँसते हुए कहा।

“सो तो है। अच्छा, कालेज आ रहे हो क्या?”

“हाँ, आऊँगा ना। अब तो रोज़ आना पड़ेगा।” वीर ने कहा।

‘क्यों, ऐसा क्या है कालेज में, जो रोज़ आना पडेगा?” माया ने अनजान बनकर पूछा।

“बस, वैसे ही। चलो फिर मिलते है कालेज में, बाय।” वीर ने जवाब दिया।

फ़ोन रखने के बाद वीर ने कमरे से बाहर निकलकर ऊपर आसमान की तरफ़ देखा। आज की सुबह उसे कुछ अलग ही लग रही थी। सुबह जल्दी उठने में इतनी खुशी वीर को आज तक नहीं हुईं थी जैसी उसे आज हो रही थी।

वीर, आदि और नीलेश बाइक से कालेज जा रहे थे। नीलेश बाइक चला रहा था। वीर और आदि पीछे बैठे थे।

“अबे, क्या हुआ? आज चुप क्यूँ बैठा है?” नीलेश ने वीर से पूछा।

“कुछ नहीं, यार। वो आज माया से मिलने वाला हूँ कालेज के बाद, तो थोड़ा नर्वस हूँ।” वीर ने कहा।

“इसमें नर्वस की क्या बात है, मिल ले, लेकिन भाई मुलाक़ात बहुत जल्दी हो रही है। दो हफ्ते ही हुए हैं बात करते हुए और आज मुलाक़ात? सही स्पीड़ पकड़ रहे हो गुरू।” आदि ने वीर को कोहनी मारकर कहा।

“अबे, ऐसा कुछ नहीं है। मैं तो दो-तीन दिन से कह रहा हूँ मिलने के लिए, लेकिन वो आज तैयार हुई है तो प्यासे को तो कुआँ ही चाहिए।” वीर ने कहा।

“लेकिन मिलेगा कहाँ?” नीलेश ने पूछा।

“पुरानी कचहरी के पास जो सिटी हार्ट रेस्टोरेंट है, वहीं पर मिलने को कहा है।” वीर ने जवाब दिया।

“सही है, भाई। बहुत महँगा अड्डा चुना है आशिक़ी के लिए भी। वहाँ बैठकर बातें करने का भी घंटे के हिसाब से चार्ज लगता है।” नीलेश ने कहा।

“क्या बात कर रहा है?” वीर ने अचंभे से कहा।

“हाँ और क्या? वहाँ प्राइवेट चैम्बर भी हैं और उनका चार्ज तो ओर भी महँगा है।” नीलेश ने बताया।

“अरे, ये कैसा नियम बना रखा है कि खाने के भी पैसे दो और बैठने के भी। साला यह लोग बिजनेस में ऐसे-ऐसे फ़ॉर्मूले लाते है कि उनके आगे कैमिस्ट्री के फ़ॉर्मूले भी फ़ेल हो जाएँ। पर चलो, अब ठीक है जब उसे कह ही दिया है वहाँ मिलने का, तो एक बार मिल लेते हैं।” वीर ने कहा।

कालेज ख़त्म होने के बाद नीलेश और आदि ने वीर को रेस्टोरेंट के बाहर उतारा और वो दोनों अपने अड्डे पर चले गए और साथ में यह हिदायत दे गए थे कि माया के आने के बाद ही अन्दर जाए, नहीं तो चार्ज पहले से ही शुरू हो जाएगा।

वीर रेस्टोरेंट के बाहर खड़ा इन्तज़ार कर रहा था तभी सामने ऑटो से माया नीचे उतरी। उसने नीले रंग का सूट पहना हुआ था। बाल खुले हुए थे। माया ऑटो से उतरकर वीर के पास आ रही थीं तो वीर को लगा कि जैसे आस-पास सब कुछ थम-सा गया हो। जब माया वीर के पास आई तो उसने अपनी धड़कनों को सँभालकर उसे अन्दर आने को कहा। दोनों रेस्टोरेंट के अन्दर जाकर दाईं तरफ़ कोने की एक टेबल पर बैठ गए।

“क्या देख रहे हो? मैं ऑटो से उतरी तब भी मैंने देखा कि तुम आँखें फाड़कर मुझे देख रहे थे।” माया ने पूछा।

“नहीं, कुछ नहीं। बस, मैं तो तुम्हें ही देख रहा था। मन-ही-मन में अपनी पसन्द पर गर्व हो रहा था।” वीर ने कहा।

“अच्छा, कहाँ से सीखीं ये लाइन मारने वाली बातें?” माया ने कहा।

“जब दिल अपनी कहानी ख़ुद लिखना चाहता है तो लाइनें भी वहीं से निकलती हैं।” वीर ने माया की आँखों में देखते हुए कहा।

“बहुत ख़ूब। बातें भी बना लेते हो।” माया ने मुस्कुरा कर कहा।

“अच्छा छोड़ो यह बताओ कि क्या खाना है?” वीर ने मीनू कार्ड को माया की तरफ़ करते हुए कहा।

“ओके... तो पावभाजी और कसाटा आईसक्रीम लेते है।” माया ने कहा।

वीर ने वेटर को बुलाया और पावभाजी और कसाटा आईसक्रीम का ऑर्डर दे दिया। कुछ ही मिनट के बाद वेटर ऑर्डर टेबल पर सर्व कर गया था। माया इतनी ख़ूबसूरत लग रही थी कि वीर को अहसास हुआ कि उसने तो कलयुग में ही साक्षात् स्वर्ग देख लिया हो। माया के बोलने से वीर की ध्यान भंगिमा टूटी।

“तो बताओ, क्यूँ मेरे पीछे आते थे? क्यूँ प्रपोज़ किया?” माया ने आईसक्रीम खाते हुएपूछा।

“क्यूँ पीछे आता था और क्यूँ प्रपोज़ किया? अब इसका जवाब भी देना पड़ेगा क्या? तुम्हें नहीं मालूम कि मैं तुम्हें पसन्द करता हूँ। रूको, पसन्द शायद ठीक नहीं होगा, हाँ प्यार करता हूँ। तुम्हें जब पहली बार कालेज में देखा था तो मैं तो वही पर फ्लैट हो गया था। बस, उसी समय मैंने तो तुम्हें अपना मान लिया था। मुझे तो यक़ीन हो गया था कि मैं तो सिर्फ़ तुम्हारे लिए ही बना हूँ और तुम भी सिर्फ़ मेरे लिए ही बनी हो। बस, पता नहीं क्यूँ तुम में मुझे वो आर्कषण दिखा, जिससे मैं तुम्हारी तरफ़ खिंचता चला गया। अब तो यही ख़्वाहिश है कि हम हमेशा साथ रहें।” वीर ने माया को देखते हुए अपने मन की बात कही।

“यह आकर्षण वाला प्यार तो केवल मेरे चेहरे से हुआ न। तो तुम इसे तुम्हारी सच्चा प्यार टाइप वाली मोहब्बत का नाम कैसे दे सकते हो? यह आकर्षण तो कुछ समय बाद ख़त्म हो जाता है। मतलब, फिर आगे तुम्हारा प्यार भी ख़त्म। अगर आगे तुम्हें मैं आकर्षित नहीं दिखी या कोई मुझसे ज़्यादा आकर्षित हुई तो मतलब कि फिर तुम किसी और से प्यार भी कर सकते हो?” माया ने कहा।

“तो दो हफ़्तों में तुम मुझे बिल्कुल भी नहीं समझ पाई। ख़ैर छोड़ो, ऐसा है कि आकर्षण के बिना तो प्यार की कोई परिभाषा सम्भव ही नहीं है। बिना किसी पर आकर्षित हुए कोई अपनी प्रेमिका की तारीफ़ कैसे कर सकता है? बिना आकर्षण के तो प्यार हो ही नहीं सकता। प्यार तो चेहरे से ही शुरू होता है। अब बिना आकर्षित हुए कोई प्रेमी कैसे प्यार की चरमसीमा पर पहुँच सकता है? इसलिए देवी जी, प्यार में आकर्षण का होना ज़रूरी है और सभी का अपना-अपना आकर्षण होता है। मेरा आकर्षण तुम हो। वो कहते हैं कि कुछ अलग ही वाइब्स आती हैं तुम्हें देख कर। वैसे भी मैं ये नहीं कहता कि तुम्हारे अलावा कोई और ख़ूबसूरत नहीं है, पर जो बात इस सूरत में है, वो किसी और सूरत में नहीं है।” वीर ने अपनी बात रखी।

“तो पहले किसी और ख़ूबसूरत को भी प्रपोज़ किया होगा? कोई गर्लफ्रेंड़ तो रही होगी न तुम्हारी? अब तक मेरे लिए तो रूके नहीं रहे होगे।” माया ने कहा।

“हाँ, रूका हुआ ही था अब तक तुम्हारे लिए क्योंकि मैं उसी ऊँट की कैटेगरी मे आता हूँ।” वीर ने कहा।

“ऊँट, मतलब?” माया ने अचंभित होकर पूछा।

“हाँ, क्योंकि जब ऊँट को पता है कि बिसलेरी और ब्रिसली में उसे कौन-सा पानी पीना है तो हमें क्या अपनी पसन्द का भी नहीं पता होगा? इसलिए अब तक तुम्हारे इन्तज़ार में ही था मैं।” वीर ने जवाब दिया।

वीर की बातें सुनकर माया के चेहरे पर मुस्कान तैर रही थी। वो शायद अब वीर पर यक़ीन कर रही थी, और करे भी क्यूँ नहीं? वीर ने अपने शब्द रुपी ब्रह्मास्त्र जो छोड़े थे। वीर चाहता था कि उसके हाथ को अपने हाथ में ले और अपने पास थोड़ा और नज़दीक बैठा कर बातें करे, लेकिन मुलाक़ात पहली थी और दोनों नौसिखिए भी।

“अच्छा, बहुत फिल्में देखते हो लगता है।” माया ने कहा।

“फिल्मे? हाँ, वो तो देखता हूँ। क्या करें, अब तक वो ही तो थी तन्हाई काटने का ज़रिया।” वीर ने कहा।

“तो मिला तन्हाई से छुटकारा।” माया ने पूछा।

“हाँ, लगता तो है कि अब तन्हाई से छुटकारा तो मिल ही जाएगा, लेकिन अब बेचैनी ने घेर लिया है मुझे। जब तक तुम्हें न देखूं तो बेचैनी बढ़ती है और जब देख लूँ तो बस फिर तुम्हें ही देखते रहने की बेचैनी रहती है।” वीर ने कहा।

“ओह...इन रोमांटिक बातों से इश्क़ नहीं होने वाला मुझे, समझे मिस्टर?” माया ने अपने नख़रे दिखाए।

“इन बातों से ही तो इश्क़ हुआ करता है, मिस। शक्लें देखकर तो शादियाँ हुआ करती हैं। वैसे भी इश्क़ तो तुमको भी हो रखा है मुझसे। बस, कबूल करने में टाइम लगेगा।” वीर ने कहा।

“हम्ममम...देखते हैं, चलो अब निकलना चाहिए मुझे, लेट हो रहा है।” माया ने अपना हैंड़ बैग उठाते हुए कहा।

“हाँ, ठीक है। चलते हैं।एक बात कहूँ क्या?” वीर ने पूछा।

“हाँ, बोलो ना?”

“तुम्हारे ऊपर यह नीले रंग का सूट बहुत फबता है। इसमें तुम बहुत ख़ूबसूरत लगती हो।” वीर ने कहा।

“अच्छा जी...... ठीक है। और कुछ?”

“नहीं।”

“तो ठीक है, अब मैं चलती हूँ। फिर मिलेंगे।”

“हाँ, ठीक है। बाय।”

माया से मिलने के बाद वीर उसी चाय की दुकान पर पहुंचा जहाँ पर नीलेश और आदि पहले से ही मौजूद थे।

“और लौंडे, कैसी रही मुलाक़ात?” आदि ने पूछा।

“मौसम-ए-इश्क़ में मचले हुए अरमान हैं हम,

दिल को लगता हैं कि दो ज़िस्म एक जान हैं हम,

ऐसा लगता है तो लगने में कुछ बुराई नहीं,

दिल ये कहता है कि वो अपनी हैं पराई नहीं।।।”

“दोस्तो, ऐसा लगता है कि इस गाने की लाइनें केवल स्मिता पाटिल और माया के लिए ही लिखी गई थीं। आज जब उसे इतने नज़दीक से देखा तो उसके दो लज्जाशील आँखों ने तो मुझ पर बिजलियाँ ही गिरा दी। बस, लग रहा था कि बरसों तक हम वहीं पर बैठे रहें और मैं बस उसे ही देखता रहूँ। अब इससे तो तुम्हें मेरे दिल का हाल और मुलाक़ात का पता चल ही गया होगा।” वीर ने कुर्सी पर बैठते हुए कहा।

​ “जिओ चीते।” नीलेश ने तीन चाय का ऑर्डर देते हुए कहा।

“लेकिन भाई, अब एक दिक्कत है। रात को नींद नहीं आती। अब तो माया से सुबह तक बातें करने का मन करता है, लेकिन ये फ़ोन का बैलेंस ख़त्म हो जाता है। रोज़ दो सौ का रिचार्ज करवा रहा हूँ। अब तो जो रिचार्ज करता है, उस दोस्त को भी शक़ हो गया है। जब भी उसे रिचार्ज करने की कहता हूँ तो केवल एक बात पूछता है कि लगता है कि हमारी भाभी मिल गई है।” वीर ने अपना समस्या बताईं।

“तो भाई, रिलायंस का सिम यूज कर न। उसमें रिलायंस से रिलायंस के नम्बर पर फ्री कॉलिंग रहती है।” आदि ने सुझाव दिया।

“अच्छा.....ताऊ अंबानी ने यह प्लान तो सही चला रखा है।” वीर ने चाय पीते हुए कहा।

“और नहीं तो क्या? इस रिलायंस और अंबानी ने ही आशिक़ों को ज़िन्दा रखा है, नहीं तो बेचारे महँगाई के नीचे दब कर मर जाते। अब तो अंबानी से ही आशिक़ो को उम्मीदे रहती है।” आदि ने कहा।

“हाँ, ये सब तो ठीक है, लेकिन वीर मेरे भाई, इतने प्यार में भी मत पड़। प्यार करने वाले अक्सर मौसम की तरह बदल जाते हैं और उन तड़पते आशिक़ों में तेरा भी नाम होगा फिर।” नीलेश ने चाय के पैसे देते हुए कहा।

“मैं तो पहचानता ही नहीं कोई मौसम, मैं तो उसे चाहता हूँ चाय की तरह।” वीर ने टेबल पर रखे चाय के गिलास को हाथ में लेकर कहा।

“लगता है, अपना भाई माया से मिलने के बाद शेर से शायर बनता जा रहा है। ऐसे बदलाव सदियों में देखने को मिलते हैं।” आदि ने चुटकी ली।

“भाई, शायर तो ठीक है, लेकिन वीर को देखकर लगता है कि अजय ठीक ही कह रहा था उस दिन कि एक दिन इसका कटेगा ज़रूर क्योंकि यह डूबां ही इतनी शिद्दत से है प्यार में।” नीलेश ने कहकर बाइक स्टार्ट की।

“चल ना किसी का नहीं कटेगा। अब घर छोड़ दे मेरे को। रास्ते में अजय का फ़ोन आया था। उससे मिलना है, कोई ज़रूरी काम है उसे।” वीर ने बाइक पर बैठते हुए कहा।

नीलेश ने वीर को घर पर छोड़ने के लिए बाइक दौड़ा दी और आदि ऑटो लेकर बस-स्टैंड के लिए निकल गया था।