पुलिस हैडक्वार्टर्स में ।



क्राइम ब्रांच विभाग का इंसपेक्टर रंजीत मलिक नाइट ड्यूटी पर था । पुलिस कार पर बम फटने के बाद से हालात सामान्य थे । कोई बड़ी या संगीन वारदात नहीं हुई थी । इस तरह की फुर्सत के वक्त को पेपरवर्क पूरा करने के लिये इस्तेमाल किया जाता था । रंजीत और उसका सहयोगी एस० आई० मनोज तोमर चौथे खण्ड पर अपने ऑफिस में इसी काम में व्यस्त थे ।



तीन बजकर चार मिनट पर आई टेलीफोन कॉल द्वारा सूचित किया गया होटल अकबर में शूटिंग की संगीन वारदात हुई थी और सेंट्रल पार्क एरिया के इलाके की पुलिस घटना स्थल की जांच कर रही थी ।



रंजीत ने एस० पी० मदन पाल को फोन पर इसकी सूचना दी तो कहा गया, इस मामले की पूरी रिपोर्ट तैयार करके उसके डेस्क पर छोड़ दी जाये ।



रंजीत और मनोज पुलिस कार में रवाना हो गये ।



दोनों एक–दूसरे को कोई खास पसंद नहीं करते थे लेकिन नापसंदगी के बावजूद एक–दूसरे की खूबियों के प्रशंसक थे और अफसर और मातहत के तौर पर दोनों में सम्मान की भावना थी ।



होटल अकबर फाइव स्टार था ।



वहां मौजूद वर्दीधारी पुलिस सब–इंसपेक्टर को रंजीत और मनोज ने अपना परिचय दिया तो एस० आई० ने बताया वारदात तीसरे खण्ड पर हुई थी ।



दोनों लिफ्ट द्वारा थर्ड फ्लोर पर पहुंचे ।



शानदार सुइट के बेडरूम में गोलियों से छलनी हुई दो लाशें पड़ी थीं–खून से लथपथ । दीवारों और छत पर फैले खून के छींटों ने कमरे की हालत कसाईखाना जैसी बना दी थी । बारूद की गंध भी अभी तक वहां मौजूद थी ।



दोनों मृतक पाजामा पहने थे । उनमें से एक के शरीर पर रेशमी गाउन था और वह फर्श पर पड़ा था ।



दरवाजे के पास वाली लाश कठपुतली की तरह पड़ी थी । उसका सर गायब था । चेहरे के स्थान पर मांस के लोथड़े की शक्ल में बस ठोढ़ी ही बची थी ।



दूसरी लाश करवट के बल बिस्तर के सिरे के पास पड़ी थी । उसके सर का पृष्ठभाग ही बचा था । पूरा चेहरा गोली से यूं उड़ा दिया गया था जैसे किसी ने शॉटगन की नाल ठोढ़ी के नीचे अडाकर ट्रीगर खींच दिया था ।



इंसपेक्टर रंजीत मलिक मौका–ए–वारदात का मुआयना करने के बाद मनोज तोमर सहित उधर बढ़ा जहां जरूरी कार्रवाही में जुड़े, पुलिस दल का इंचार्ज इंसपेक्टर खड़ा था ।



अधेड़ उम्र के इंसपेक्टर के चेहरे पर व्याप्त भावों से जाहिर था क्राइम ब्रांच वालों का आगमन उसे अच्छा नहीं लगा था । लेकिन विवशता थी । विभागीय औपचारिकता पूरी करना आवश्यक था ।



ऐसे सभी संगीन जुर्म की तुरंत क्राइम ब्रांच को सूचना देना जरूरी –बना दिया गया था ।



अधेड़ इंसपेक्टर ने किसी ऐसे डॉक्टर के अंदाज में जिसके पास वक्त बहुत कम था और मरीज के रिश्तेदारों को टालने के लिये तथ्यों की सरसरी जानकारी देने की कोशिश कर रहा था, जल्दी–जल्दी सब बता दिया ।



फर्श पर पड़े दोनों मृतक दुबई के रहने वाले थे । पेशे से बिजनेसमैन और होटल के रजिस्टर के मुताबिक उनके नाम थे–विक्टर सैमुअल और लिस्टर ब्रिगेजा । करीब तीन महीने पहले भी वे एक बार इस होटल में आकर ठहरे थे । होटल के स्टाफ के मुताबिक दोनों आदमी तगड़ी टिप देने वाले थे । अलमारी में मौजूद उनके कीमती कपड़ों से जाहिर था पैसे की कोई कमी उन्हें नहीं थी ।



पिछली दफा जब वे होटल में ठहरे थे तो ऐसा लगता था जैसे बिज़नेस के साथ वे मौज–मस्ती भी करने आये थे ।



इस बार वे सिर्फ तीन रोज पहले आये थे और पूरी तरह अपनी किसी बिज़नेस डील में मसरूफ रहे नजर आये थे । कई लोग उनके पास आये थे । वे दोनों भी बाहर जाते रहे थे । काफी टेलीफोन कॉल्स भी आयी और की गयी थीं । मीटिंगे भी होती रही थीं । इंसपेक्टर के चार मातहत होटल स्टाफ से पूछताछ करके उनके स्थानीय बिज़नेस कांटेक्ट्स का पता लगाने की कोशिश कर रहे थे । दोनों मृतकों के हुलिये और दूसरी डिटेल्स नई दिल्ली भिजवाई जा रही थीं ताकि इंटेलीजेंस ब्यूरो वाले अपने रिकार्ड देखकर उनके बारे में ज्यादा जानकारी दे सकें ।



रात में विक्टर और लिस्टर ने होटल के डाइनिंग हॉल में अकेले डिनर लिया था और ग्यारह बजने से कुछ देर पहले रिसेप्शन से अपने सुइट की चाबी लेकर ऊपर आ गये थे ।



दो बजकर तेंतीस मिनट पर तीसरे खण्ड पर गोलियों की आवाजें सुनकर कई गैस्ट और नाइट स्टाफ के लोग जाग गये थे । वरांडे या सीढ़ियों में कोई गैर मामूली बात या घटना नोट नहीं की गयी थी । तीसरे खण्ड पर ऊपर आता या वहां से नीचे जाता कोई संदिग्ध व्यक्ति नहीं देखा गया । अनुमान है कि हत्यारा या हत्यारे अभी भी होटल में ही हो सकते हैं । वे गेस्ट के तौर पर होटल में ठहरे भी हो सकते हैं और गैस्ट लिस्ट में ज्यादातर लोग दौलतमंद और इज्जतदार हैं । उनसे बेवजह ज्यादा पूछताछ नहीं की जा सकती ।



आखिरी बात कहते वक्त इंसपेक्टर के चेहरे पर परेशानी साफ झलक उठी थी ।



–"मृतकों का किस तरह का हुलिया आपके पास है ?" मनोज तोमर ने पूछा ।



–"सही और पूरा ।"



–"कहां से पता चला ?"



–"उनके पासपोर्टों से । उनमें पेशे से उन्हें बिज़नेस एग्जीक्यूटिव बताया गया है ।" इंसपेक्टर ने जवाब देकर पास खड़े अपने एक मातहत को इशारा किया ।



उसने दो पासपोर्ट निकालकर दे दिये ।



इंसपेक्टर ने पासपोर्ट खोलकर दिखाये ।



दोनों की उम्र पैंतालीसेक साल थी । उनकी फोटुएं गौर से देखते रंजीत ने लिस्टर ब्रिगेजा की फोटो की ओर इशारा किया ।



–"इसे मैं जानता हूं ।"



–"अच्छा ?" इंसपेक्टर उत्सुकतापूर्वक बोला ।



–"इस चेहरे को मैं पहचानता हूं । उन दिनों यह जवान हुआ करता था लेकिन अभी भी ज्यादा तब्दीली नहीं आयी है । मैं दावे के साथ कह सकता हूं इसका सम्बन्ध किसी माफिया से था ।"



फोटों पर नजरें जमाये रंजीत ने अपने दिमाग पर जोर डालते हुये दुबई के दिनों की अपनी याद्दाश्त को टटोलने की कोशिश की । लेकिन कोई और बात याद नहीं आ सकी । सिवाय इसके कि उस चेहरे को माफिया से सम्बन्धित मैगजीनों में कई बार देखा था ।



दोनों करीब एक घण्टे तक वहीं ठहरे । तमाम डिटेल्स नोट करके वापस अपने ऑफिस लौट गये ।



उस वारदात की अपनी रिपोर्ट में रंजीत ने आखिर में संक्षिप्त नोट के रूप में लिख दिया–लिस्टर ब्रिगेजा के फोटो को पहचानता है और उसे यकीन है लिस्टर का किसी माफिया गिरोह से सम्बन्ध रहा है ।



सुबह आठ बजे दोनों अपनी ड्यूटी खत्म करके घर चले गये ।



* * * * * *



रंजीत मलिक !



पटेल रोड पर चार मंजिला इमारत के दूसरे खण्ड पर स्थित अपने दो कमरों के फ्लैट में दाखिल हुआ । जागरण और थकान बावजूद नींद उससे कोसों दूर थी । रात में हुई वारदात का बोझ अभी भी उसके दिमाग पर लदा था ।



चारों ओर निगाहें दौड़ाते हुये उसने नोट किया–फ्लैट ज्यादा खुला और साफ–सुथरा नजर आ रहा था । जबकि डेढ़ महीने पहले तक उसे लगता था घर नहीं कबाड़ी की दुकान है । कोई चीज अपनी सही जगह पर नहीं टिकती थी । जब तक कि वह खुद ही उठाकर नहीं रख देता था ।



सूजी को गये ठीक पैंतालीस रोज हो गये थे ।



सूजी डीन ! उसकी मंगेतर । एंगेजमेंट रिंग उसके मुंह पर मारकर चली गयी थी ।



मंगनी टूट जाने पर रंजीत को कोई हैरानी नहीं हुई थी ।



सूजी उसकी जिंदगी में आंधी की तरह आयी थी और तूफान की तरह चली गयी थी । पच्चीसेक वर्षीया, सुन्दर और आकर्षक सूजी को देखकर कोई भी पहली नजर में दिल दे सकता था ।



यही उसके साथ भी हुआ ।



एक इतवार की सुबह चर्च में दोनों मिले और रंजीत उसे दिल दे बैठा । सूजी पर भी उसके मर्दाना आकर्षण का वैसा ही असर हुआ ।



लव–एट–फर्स्ट साइट ।



दोनों शिकार होकर रह गये ।



परिचय हुआ...मुलाकातों का सिलसिला चला और दोनों एक–दूसरे के नज़दीक आते चले गये ।



चर्च में फादर क्राइस ने एंगेजमेंट की रस्म करा दी ।



सूजी विशालगढ़ की रहने वाली थी । वह अपनी मां के पास लौट गयी ।



दोनों सुबह–शाम देर तक फोन पर व्यस्त रहने लगे ।



सूजी क्रिसमस की छुट्टियाँ गुजारने और शादी की तारीख तय करने उसके पास आ गयी ।



दोनों का ज्यादातर वक्त साथ गुजरने लगा ।



तब एक नई चीज भी सामने आनी शुरू हो गयी ।



वैचारिक मतभेद ।



सूजी अत्याधुनिक विचारधारा की कायल थी ।



रंजीत भी दकियानूसी नहीं था लेकिन आजाद ख्याली के नाम पर बेशर्मी और बेहूदगी से दूर रहता था ।



सूजी कट्टर रोमन कैथोलिक थी ।



रंजीत मलिक धार्मिक कट्टरता से कोसों दूर सभी धर्मों का समान आदर करता था–पूरे विश्वास के साथ ।



एक समर्पित पुलिसमैन के तौर पर वह संक्षेप में तर्कपूर्ण बातें करने वाला आदमी था । एक स्कूल टीचर होने के नाते तथ्यों के मामले में तो सूजी भी ऐसी ही थी लेकिन मज़हबी बातों पर उसकी दलीलों और सर्वधर्म समभाव वाली भावना से जरा भी सहमत नहीं थी ।



नतीजा बहस...बहस से पैदा होती खीज...अहं का टकराव...रंजीत पर जबरन हावी होने की कोशिश वगैरा ने मिलकर दोनों के बीच एक भारी बैरियर गिरा दिया जो तेजी से भारी होता चला गया ।



ठीक पैंतालीस रोज पहले रोजमर्रा की बहस फिर शुरू हुई और झड़प में बदलती चली गयी ।



–"मुझे अफसोस है, रंजीत !"



–"मुझे भी है, डार्लिंग !"



–"मैं तुम्हें पहली बार देखते ही प्यार कर बैठी थी । अब भी करती हूं ।"



–"मैं भी प्यार करता हूं तुम्हें ।"



–"चर्च में तुम्हें देखकर मैंने सोचा भी नहीं था, तुम ईसाई नहीं हो ।"



–"जब तुमने पहली बार मज़हब की बातें की तो मैंने साफ बता दिया था मैं हिन्दू बाप और ईसाई मां का बेटा हूं ।"



–"मैंने भी यह सोचकर तसल्ली कर ली थी मेरी मोहब्बत में तुम्हारा ईसाई मां का खून रंग लायेगा और तुम पूरी तरह ईसाई होकर रह जाओगे ।"



–"मेरी मां ने कभी मुझे ईसाई बनाने की कोशिश नहीं की । मैं जिस तरह बचपन में उसके साथ चर्च जाता था उसी तरह आज भी जाता हूं । उसी श्रद्धा और विश्वास के साथ जो मेरे मन में मन्दिर और गुरुद्वारा के लिये है ।"



–"लेकिन मुझे यह पसंद नहीं है ।"



–"मैं तुम्हें तो मन्दिर या गुरुद्वारा चलने के लिये भी नहीं कहता । फिर तुम्हें बुरा क्यों लगता है ?"



–"इस पर हम दर्जनों बार बहस कर चुके हैं ।"



–"मैंने हमेशा तुम्हें समझाया है मज़हब को बीच में न लाने के लिये । यह हर एक का जाती मामला है । मेरे मां–बाप अलग–अलग धर्मों के होते हुये भी हमेशा आदर्श पति–पत्नी रहे । मज़हब उनके आड़े नहीं आया...!"



–"यह जरूरी तो नहीं है, हम भी तुम्हारे मां–बाप की तरह जियें...!"



–"बिल्कुल नहीं ! हर शख्स अपने ढंग से जीने के लिये आजाद है ।"



–"इस मामले में हम एक नहीं हो सकते ।"



–"यह तुम्हारी जिद और सोच है, मेरी नहीं ।"



–"यानि हमें रास्ते बदलने पड़ेंगे ?"



–"बिल्कुल नहीं ! तुम अपनी कट्टरता की सोच के दायरे से बाहर आ जाओ तो सब ठीक हो जायेगा ।"



–"तुम अपने आपको नहीं बदल सकते ?"



–"नहीं ! अपनी मान्यताओं और संस्कारों को किसी की जिद पर कुर्बान नहीं कर सकता ।"



–"तुम बेवकूफ़ हो ।"



–"तुम इसे जो चाहो कह सकती हो । मगर मैं नहीं मानता ।"



–"सीधी और साफ बात करो ।"



–"किस बारे में ?"



–"क्या तुम मेरे साथ शादी करना चाहते हो ?"



–"बेशक !"



–"तो फिर तुम्हें सिर्फ चर्च का होकर रहना पड़ेगा ।"



–"यह नामुमकिन है ।"



–"यह तुम्हारा आखिरी फैसला है ?"



–"हाँ ।"



–"तब तो मेरे सामने एक ही रास्ता है–तुम्हें हमेशा के लिये भूल जाऊँ ।



रंजीत चुप रहा ।



–"तुम ढोंगी हो, रंजीत !" सूजी चिल्लाई–"मुझे यकीन हो गया है, तुम मुझसे प्यार ही नहीं करते ।"



–"यह यकीन तुम्हें कब हुआ ?"



–"यहां आने के बाद...!"



–"तुम गुस्से में अनाप–शनाप बक रही हो...!"



–"और तुम अपने ढोंग पर पर्दा डाल रहे हो ।"



"किस ढोंग की बात कर रही हो ?"



–"तुम्हारी जिन्दगी में मुझसे पहले कितनी लड़कियाँ आयी थीं ?"



–"कई थीं । क्यों ?"



–"उनमें से कितनी लड़कियों के साथ हम–बिस्तर हुये थे ?"



–"मैंने गिनती नहीं की ?"



–"और मुझसे मंगनी करने के बाद ?"



रंजीत ने जवाब नहीं दिया ।



–"चुप क्यों हो गये ?"



–"यह क्या बेहूदा सवाल है ?"



–"यह क्यों नहीं कहते सच्चाई कबूल करना नहीं चाहते ?"



–"कौन–सी सच्चाई ?"



–"यही कि मुझसे प्यार नहीं करते ।"



रंजीत की सहनशक्ति जवाब देने लगी ।



–"यह सच नहीं है ।" वह जब्त करके बोला ।



–"यही सच है, रंजीत ! मुझे अंगूठी पहनाने के बावजूद तुम दूसरी औरतों के साथ मौज–मेला कर सकते हो मगर अपनी मंगेतर के साथ नहीं । मेरे साथ चुंबन और आलिंगन से आगे कभी नहीं बढ़े । मेरे खुलकर कहने पर भी शादी से पहले नहीं कहकर टाल जाते हो, क्यों ? इसका और क्या मतलब हो सकता है ?"



रंजीत जानता था वह उसे नहीं समझा पायेगा । दूसरी लड़कियों की बात अलग थी । अपनी होने वाली दुल्हन के लिये वह ये सब सुहागरात के लिये बचाकर रखना चाहता था । ताकि सुहागरात को यादगार बना सके । इसलिये वह टालता रहा था । लेकिन मज़हबी जनून और गुस्से से अंधी सूजी को इसका बिल्कुल गलत मतलब निकालती पाकर वह और ज्यादा बर्दाश्त नहीं कर सका ।



–"शटअप !"



–"यू शटअप, मिस्टर रंजीत एण्ड लिसिन टु मी !" सूजी पुनः चिल्लाई और उंगली से अंगूठी उतारकर उस पर फेंक दी–"मैं तुम्हें एक महीने का वक्त देती हूं । अगर मजहब के बारे में अपनी राय बदल लेते हो और मुझे यकीन दिला देते हो कि मुझसे वाकई प्यार करते हो तो अंगूठी लेकर मेरे पास आ जाना, मैं तुमसे शादी कर लूंगी । गुडबाई फार नाऊ !"



वह अपना बैग उठाकर चली गयी ।



धीरे–धीरे डेढ़ महीना गुजर गया ।



रंजीत को मंगनी ट्टने का जरा भी अफसोस नहीं हुआ था । वह समझ चुका था सूजी जैसी लड़कियाँ कभी अच्छी पत्नी नहीं बन सकतीं और उस जैसा आदमी अपनी लाख कोशिशों के बावजूद न तो उसे खुश कर सकेगा और न ही खुद खुश रह पायेगा । इसलिये ताल्लुकात खत्म हो जाना ही बेहतर था ।



उसने जोर से सर हिलाया मानों इस तरह सूजी को अपने दिमाग से झटकना चाहता था । अपनी इस कोशिश में तो वह कामयाब हो गया लेकिन धीरे–धीरे बाथरूम की ओर जाता सोच रहा था सूजी के चले जाने से जो ख़ालीपन उसके अंदर आ गया था, उसे जल्दी ही भरना जरूरी था ।