चुड़ैलों का पहाड़

मेरा मोबाइल काफी देर से घनघना रहा था। मैंने तपाक से फ़ोन उठाया और जवाब दिया, “हम्म, हेलो!”
“हद है, देव भाई! तुम ऐसा ही करते हो हमेशा। एक तो वीकेंड का प्लान भी बनाओ और बिना बताए खुद कैन्सिल भी कर दो। यदि प्लान कैन्सिल है तो बता ही दो कम से कम। मैं कब से फ़ोन कर रहा हूँ, उठा क्यों नहीं रहे?”, गुस्से में एकदम शताब्दी एक्सप्रेस की तरह फ़ोन पर दूसरी तरफ से विकास की आवाज आई।
“अरे यार! किसने कहा कि प्लान कैन्सिल हो गया?”, मैंने तपाक से प्रतिउत्तर में कहा।              
“जब फ़ोन नहीं उठा रहे तो इसको मैं क्या समझूँ?”, विकास ने फिर ताने मारते हुए कहा। 
“भाई, जब तुमने फ़ोन किया था, तब मैं बाइक चला रहा था। फिर घर आते ही मैं वॉशरूम चला गया था।”, मैंने उसको शान्त करवाने की कोशिश की।
“ओह! चलो ठीक है। तो फिर क्या प्लान है कल का, चलना है ना?”, विकास ने उत्सुकता से मुझसे पूछा।
“बिल्कुल भाई!”, मैंने हामी भरी।
“मैंने तो सब तैयारी कर ली है। बाकी तुम्हारे ऊपर है।”, विकास ने इस बार खुश हो कर कहा।
“तो फिर बताओ, कल कब और कहाँ मिलोगे?”, मैंने विकास से कल के प्लान को अमलीजामा पहनाने के लिए पूछा।
“देखो, मैं आज रात 11:30 बजे गुरुग्राम से बस से निकलूंगा, जो मुझे ‘देहरादून आईएसबीटी’ सुबह 5:30 बजे पहुँचा देगी। फिर मैं वहाँ से रेलवे स्टेशन पहुँच जाऊंगा। तुम वहाँ कितने बजे तक आ जाओगे?”
“मैं 6 बजे तक आ जाऊंगा। तब तक तुम मसूरी जाने के लिए टिकट ले लेना।”, मैंने जवाब दिया।
“ठीक है! हमेशा की तरह देर मत करना। समय से आ जाना, नहीं तो मैं वहाँ बैठे-बैठे बोर हो जाऊंगा।”, विकास ने कहा।
मैंने उसको फोन पर ही दिलासा दिया और उम्मीद बनाए रखने को कहा।
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मैं, देव, देहरादून में शास्त्री नगर अपने घर आया हुआ था। विकास गुरुग्राम में पिछले चार साल से किसी कंपनी में नौकरी करता था। हम दोनों ने शुक्रवार और शनिवार, दो दिनों की ट्रेकिंग पर जाने की योजना बनाई थी।
ट्रेकिंग के लिए तीन तरह की तैयारियां करनी पड़ती है, जिन्हें शारीरिक, मानसिक और आर्थिक तैयारियां कह सकते हैं। किसी भी यात्रा के लिए मेरा ज़ोर मानसिक तैयारी पर ज्यादा रहता है। उसमें उस इलाके की अधिक से अधिक जानकारी हासिल करना शामिल होता है। कहने का मतलब यह हुआ कि वहाँ का मौसम, भौगोलिक परिस्थिति और उस जगह का इतिहास। आपको जितनी ज्यादा जानकारी होगी, मुश्किल हालातों में यह उतनी ही काम आएगी। मानसिक पटल पर वैकल्पिक मार्ग भी तैयार होना चाहिए।
बहरहाल, इसके लिए सबसे पहले हमें शुक्रवार की सुबह देहरादून में इकट्ठे होकर, वहाँ से मसूरी निकलना था। देहरादून से मसूरी लगभग 35 कि.मी. की दूरी और 6170 फुट की ऊंचाई पर स्थित है। यह पहाड़ों की रानी से विख्यात है।
मसूरी हमलोग बस से ही जाने वाले थे, जो देहरादून रेलवे स्टेशन के बाहर से ही मिलती थी। हम दोनों इस शुक्रवार को ‘परी टिब्बा’, जिसे ‘चुड़ैलों की पहाड़ी’ के नाम से भी जाना जाता था, वहाँ जाने का प्रोग्राम बनाया था, जो कि मसूरी से 12 कि. मी. की पैदल ट्रेकिंग थी।
फिर उसी दिन, शाम ढलने से पहले तक ट्रेकिंग खत्म करने के बाद, परी टिब्बा से वापस मसूरी तक आना था।
वहाँ से अगले दिन 7 कि.मी. दूर जॉर्ज एवरेस्ट भी जाना था और उसके बाद में रात वहीं जॉर्ज एवरेस्ट में स्थित ‘रिवर स्टोन कॉटेज’ में ही रुकना था।
अगले दिन शनिवार को दोपहर तक जॉर्ज एवरेस्ट में वहाँ की वादियों का आनन्द लेना था और फिर शाम को ‘कंपनी गार्डन’ घूमकर जॉर्ज एवरेस्ट के पास रिवर स्टोन कॉटेज में ही विश्राम करना था।
फिर अगली सुबह रविवार को देहरादून के लिए वापस आना था। वहाँ से शाम से पहले विकास को गुरुग्राम के लिए निकलना था और मुझे दोपहर की ट्रेन से लखनऊ।
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“हेलो! किधर हो भाई? अभी घर से निकले नहीं क्या?”, सुबह 5:30 बजे विकास मुझे फ़ोन पर कहता है।
“अरे! बस निकल ही रहा हूँ। मैं 6:15 तक आ जाऊँगा! ऐसा करो, तब तक तुम मसूरी जाने के लिए दो टिकट ले लो।”, मैं विकास को यह कहकर तैयार होने लगा क्योंकि मैं उसके कॉल आने पर ही उठा था।
रेलवे स्टेशन मेरे घर से मात्र 4 कि.मी. की अल्प दूरी पर ही थी। मुझे वहाँ पहुँचने में केवल 15 से 20 मिनट ही लगते। आधे घण्टे में ही मैं नहा-धोकर फ्रेश हो गया और पिट्ठू बैग उठा कर चलने ही वाला था कि मेरा फ़ोन एक बार फिर से घनघनाया।
“अरे! किधर पहुँचे? मैं टिकट लेने वाली पंक्ति में खड़ा हूँ और मेरी बारी आ गई है। यदि तुम्हें और वक़्त लगेगा तो बोलो, मैं थोड़ी देर बाद टिकट लूंगा।”, विकास ने काफी तेज स्वर में बोला, क्योंकि वहाँ भीड़ ज्यादा होने की वजह से, शोरगुल में उसकी आवाज दब सी रही थी।
“अरे भाई! मैं पहुँच गया हूँ। बस अभी-अभी विक्रम से उतर ही रहा हूँ। ऐसा करो, दो टिकट ले लो।”, मैंने विकास को कहा।
अभी फ़ोन रखें कुछ पल ही हुए थे कि फिर से विकास का फ़ोन आ गया।
“अरे! मसूरी में किधर जाना है? ये टिकट काटने वाले भाई साहब कह रहे हैं कि मसूरी में दो स्टोप्स हैं और केवल उन्हीं दो जगह बस रुकती है। पहला लाइब्रेरी और दूसरा पिक्चर पैलेस बोल रहे हैं।”, विकास ने मायूस हो कर पूछा था।
“लाइब्रेरी तक ले लो! हमें उधर से ही निकलना है। पिक्चर पैलेस तो दूसरे छोर पर है, वहाँ से बहुत दूर पड़ेगा।”, यह कहकर मैंने फ़ोन को काट दिया और विकास की तरफ बढ़ चला।
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देहरादून उसके लिए नया शहर नहीं था। उसने देहरादून से 19 किलोमीटर दूर ‘शिवालिक कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग’ से मेरे साथ ही अपनी इंजीनियरिंग पूरी की थी।
वह जानता था कि यह दिल्ली के जैसी भीड़ भाड़ वाली जगह से अलग होने के साथ, सुकून भरी जिंदगी के लिए बेहतरीन जगह है। बाहरी शहरों से प्रायः यहाँ लड़के और लड़कियां, अच्छी शिक्षा व्यवस्था और रूमानी मौसम के कारण, यह जगह सबको मंत्रमुग्ध करती है। शहर की भाषा, लहजा, रफ्तार, आत्मविश्वास इत्यादि सभी में एक तीक्ष्ण तेजी के साथ-साथ एक जादुई एहसास था, जो हर किसी को अपनत्व का एहसास करवाती थी।
छोटे या बड़े शहरों से आने वाले लोगों को यहाँ खुद के अनुकूल ढालने में ज्यादा वक्त नहीं लगता था। इस शहर ने कभी किसी को बाहरी होने का एहसास नहीं कराया और ये बात बाहर से आए लोगों को भी अच्छी तरह पता थी। लोग खुद को ज़रूरत के हिसाब से ढाल लेते थे और किसी बदलाव को लेकर सशंकित नहीं थे।
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मैं अगले ही क्षण में विकास के सामने था और वह टिकट लेकर मुस्कुराते हुए मेरी तरफ बढ़ रहा था।
हम दोनों ने एक दूसरे से गर्मजोशी से अभिवादन किया। विकास ने मुझे देर से आने के लिए दोषी ठहराया। मैंने भी कुछ छोटे-मोटे बहाने बनाए।
अपना बचाव करते हुए बोला, “भाई! मैं योजनाएँ बनाने में विश्वास नहीं रखता। योजना बनाने का अर्थ है कि आपको प्रस्थान का एक दिन निर्धारित करना पड़ेगा, एक बजट निर्धारित करना पड़ेगा। जैसे-जैसे दिन पास आता है, दबाव के साथ-साथ तनाव हावी हो जाता है।”
“हम्म! बकैती करने में तो तुमने पी.एच.डी. कर रखी है। एक तो देर से आओ और उलटे प्रवचन भी सुनो।”, विकास के इतना कहते ही हम दोनों हँस पड़े।
“अच्छा, टिकट लाओ। देखे, कौन सी बस में जगह मिली है, क्योंकि सामने मसूरी जाने के लिए दो बस खड़ी है।”, मैंने रोब झाड़ते हुए कहा।
“UK 07 XX 9134, ये बस का नम्बर है और सीट नंबर 7 और 8 है।”, इतना कहने के बाद, विकास दोनों बस के नम्बर प्लेट को देख कर मिलान करने लगा।
हमलोगों ने देखा कि जिस बस की टिकट हमें मिली थी, वह हमलोगों के दायीं तरफ ही खड़ी थी। विकास ने टिकट वापस जेब में रखे और हम मसूरी जाने वाली बस में अपनी सीट पर बैठ गए। इस बात की भी खुशी हुई कि हमें जो सीट मिली थी, उसमें एक सीट खिड़की वाली थी, जिससे हम देहरादून से मसूरी जाने तक, इस नैसर्गिक सुन्दरता का भरपूर नज़ारा ले सकते थे।
हम दोनों आज बहुत रोमांचित थे। उसके पीछे की वजह यह थी कि हमलोग ट्रेकिंग पर पहली बार एक साथ जा रहे थे। वैसे तो विकास मेरे कॉलेज के वक़्त से ही मित्र हैं और हमलोग काफी जगह एक साथ घूमे थे, परंतु यह पहला अवसर था, जो कई महीनों से ट्रेकिंग का प्लान टालते-टालते, आज पूरा होने वाला था।
हम दोनों की जो बातों का सिलसिला शुरू हुआ, वह मसूरी जा कर ही टूटा। वह अपनी व्यथा सुना रहा था कि उसके परिवार वाले उसपर शादी का दबाव बना रहें हैं, लेकिन वह अपने कॉलेज के दिनों से ही, हमारे कॉलेज की ही एक लड़की को पसंद करता हैं और उसी से शादी करने का विचार भी हैं।
मैंने उसे सुझाव भी दिया कि अगर वह कहें तो मैं उसकी बात आगे बढ़ा सकता हूँ क्योंकि वह जिस लड़की के प्रेम में गिरफ्तार था, वह मेरे ही साथ कम्पनी में जॉब कर रही थी।
विकास ने कहा कि वह अपने दिल की बात खुद ही बताना बेहतर समझता हैं और साफ शब्दों में मुझे उसे कुछ भी कहने से मना कर दिया। विकास के अंदर अजीब सी झिझक और बेचैनी थी कि यदि उसने मना कर दिया तो शायद उसकी बची-खुची उम्मीद भी चली जाएगी। विकास ने यह भी बताया कि उसे देखकर उसमें पॉजिटिव एनर्जी आती है, जो किसी भी तरह के काम को करने में उसे बल प्रदान करती है।
उसकी बातों को सुनने के बाद, मैंने उसे समझाते हुए कहा, “प्रेम के कारण नहीं होते; परिणाम होते हैं मित्र! पर प्रेम में परिणाम की चिंता तब तक नहीं होती, जब तक देर न हो जाए। पंछी घर के छतों, मेट्रो की सीढ़ियों, कॉलेज के खुले मैदानों में या फिर पार्क के पेड़ों के इर्द-गिर्द अपनी ज़िंदगी के नीड़ बनाने के सपने में खोए रहते हैं और परिणाम अपनी परिणति की ओर मंद गति से चला जाता है। यह परिणति सुखद होगी या दुखद, या फिर दुखद परिणति का सुखद परिणाम या फिर इसका उलटा होगा, यह महज इस बात पर निर्भर करता होता है कि प्रेम का परिमाण कितना है? है भी या नहीं?”
मेरी बातों का असर उस पर न होता देखकर, मैंने भी उसे उसके हाल पर छोड़ दिया। बातों और किस्सों से पता ही नहीं लगा कि डेढ़ घण्टे की यात्रा इतनी सरलता से कैसे गुजर गयी? हम ठीक 8 बजकर 12 मिनट पर मसूरी में खड़े थे।
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मसूरी का इतिहास सन 1825 में एक साहसिक ब्रिटिश मिलिट्री अधिकारी और श्री शोर, जो देहरादून के निवासी और अधीक्षक द्वारा, वर्तमान मसूरी स्थल की खोज से आरम्भ होता है।
मसूरी भारत के उत्तराखण्ड राज्य का एक पर्वतीय नगर है, जिसे पर्वतों की रानी भी कहा जाता है। देहरादून से 35 किलोमीटर की दूरी पर स्थित, मसूरी उन स्थानों में से एक है, जहाँ लोग बार-बार घूमने जाते हैं।
यह पर्वतीय पर्यटन स्थल हिमालय पर्वतमाला के शिवालिक श्रेणी में पड़ता है। इसकी औसत ऊंचाई समुद्र तल से 2005 मी. (6600 फुट) है, जिसमें हरित पर्वत विभिन्न पादप प्राणियों समेत बसते हैं। उत्तर-पूर्व में हिम मंडित शिखर सिर उठाये दृष्टिगोचर होते हैं, तो दक्षिण में दून घाटी और शिवालिक श्रेणी दिखती है। इसी कारण यह शहर पर्यटकों के लिए परीमहल जैसा प्रतीत होता है।
मसूरी गंगोत्री का प्रवेश द्वार भी है। देहरादून में पाई जाने वाली वनस्पति और इसके जीव जन्तु, इसके आकर्षण को और भी बढ़ा देते हैं। दिल्ली और उत्तर प्रदेश के निवासियों के लिए यह लोकप्रिय ग्रीष्मकालीन पर्यटन स्थल है।
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जब विकास और मैं मसूरी पहुँचे, चारों तरफ से बादलों ने अपने सफेद आँचल से मसूरी को ढक रखा था। ऐसा लग रहा था मानो कि मसूरी ने बादलों की सफेद चादर ओढ़ रखी हो।
गर्मी के मौसम में भी मसूरी में सैलानियों की काफी भीड़ थी। इसकी वजह, मसूरी का ठंडा वातावरण था क्योंकि नीचे मैदानी क्षेत्रों में इस वक़्त काफी गर्मी थी। मसूरी पहुँचते ही सबसे पहले हम लोग बस स्टैंड से ऊपर की तरफ बढ़ने लगे।
लगभग 150 मीटर की दूरी तय करने के बाद, हम लाइब्रेरी चौक पहुँच गए। वहाँ से मॉल रोड की तरफ जा ही रहे थे कि तभी वहीं पास की दुकान से गरमा-गर्म इलायची और अदरक की चाय की खुशबू ने हमें उस दुकान के अंदर जाने पर विवश कर दिया।
हमारे कदम उस मनमोहक सुगन्ध की ओर अकस्मात ही चल पड़े।
वैसे भी हमें भूख तो लगी ही थी इसलिए वहाँ बैठ कर गरमा गर्म अदरक वाली चाय के साथ आलू के पराठों का लुत्फ लिया।
चाय के साथ आलू के पराठे बहुत ही लजीज लग रहे थे। स्वादिष्ट पराठे होने के बावजूद भी हमलोगों ने 1-1 पराठे ही खाए, क्योंकि हमें 12 कि.मी. की पैदल ट्रेकिंग करनी थी।
विकास ने गूगल मैप में देखा और बताया कि हमें मॉल रोड से होते हुए वुडस्टॉक स्कूल जाना है, फिर वहाँ से दक्षिण की तरफ जाने पर नीचे की तरफ एक ढाल मिलेगी, जो सीधे धोबीघाट तक जाएगी। धोबीघाट से मात्र 7 कि.मी. की दूरी पर ही ‘परी टिब्बा’ है।
हम दोनों अपने लक्ष्य की तरफ बढ़ चले थे। इस सफर में हमारा मौसम भी बखूबी साथ दे रहा था। धूप का कहीं भी नामों निशान नहीं था और ठंडी-ठंडी हवाएं हमारे हौसले को और बढ़ा रही थी।
थोड़ी देर में ही हमलोग वुडस्टॉक स्कूल पहुँच गए। वहीं पास में एक हरे रंग की लकड़ी की तख़्ती दिखी, जिसमें सुन्दरता के साथ एक तीर के निशान नीचे की तरफ, धोबीघाट जाने का चिन्ह कुरेदा हुआ था। हमलोग भी उसी निशान की तरफ बढ़ गए।
चलते-चलते पौन घंटे हो चले थे, रास्ता लगातार ढलान वाला था। मेरे मन में यह भी चल रहा था कि जितना हम नीचे जा रहे हैं, आते वक्त उतनी चढ़ाई भी करनी होगी।
चलते-चलते दिमाग भी एक यात्रा पर निकल पड़ता है। वह यात्रा जो थकान के एहसास को कहीं पार्श्व में डाल देती है। हमारे जेहन के कई सारे ख्यालों के जवाब के तलाश में उलझाये रखता है।
कई छोटी-बड़ी ख्याल जेहन में यात्राएं करने लगते हैं। ऐसी यात्राएं जिनकी कोई मंजिल नहीं होती। जिनका कोई ठीक-ठाक रास्ता भी नहीं होता। ऐसे ही कई ख्याल इस वक़्त दिमाग की दुनिया में अपनी-अपनी यात्राओं में व्यस्त थे।
उन्हीं में से एक यह भी कि इतनी लम्बी थकान भरी लगातार ट्रेकिंग पहली बार की जा रही थी। इसे पहली बार किसने तय किया होगा? और कौन होगा जिसे इस रास्ते को मापने का ख्याल आया होगा?
मील के वह पत्थर रखने वाला और उन्हें मापी जा सकने वाली दूरियों में ढालने वाला, कोई तो रहा होगा जो इस आवारगी को जीता होगा?
थोड़ी देर में ही हमलोग धोबीघाट पहुँच गए थे। वहाँ से दो रास्ते दिख रहे थे। एक नीचे की तरफ जा रहा था तो दूसरा ऊपर की तरफ। विकास ने मोबाइल निकाल कर ‘परी टिब्बा’ जाने का रास्ता देखना चाहा लेकिन मोबाइल में नेटवर्क न होने की वजह से मोबाइल से हमें कोई मदद नहीं मिली।
वहाँ आसपास कोई भी व्यक्ति नहीं दिख रहा था। थोड़ी देर इंतजार करने के बाद, मैंने नीचे जाने वाले रास्ते पर जाने की सलाह दी और विकास भी हामी भरते हुए चल पड़ा।
रास्ता काफी छिछलेदार था, क्योंकि ढलान होने की वजह से पानी के बहने से रास्ता बन गया था और लगातार बहते रहने के कारण हरे रंग की काई सी जम गई थी। अभी मुश्किल से 15 मिनट चले ही थे कि रास्ते के अन्त में एक घर दिखा जिसके गेट पर लिखा था, ‘दिस प्रॉपर्टी बिलोंगस टू अनुष्का शर्मा।’
वह नाम देखकर हमलोग तो चौंक गए। हमें ये तो पता था कि मसूरी में सचिन तेन्दुलकर, अक्सर गर्मियों में परिवार के साथ आते रहते थे, लेकिन कहीं न कहीं इस बात को जानकर भी खुशी हुई कि अब अनुष्का शर्मा का भी इस जगह से नाम जुड़ गया था।
आगे वह अनुष्का शर्मा की निजी संपत्ति होने की वजह से रास्ता वहाँ से बन्द था। हमलोग गलत रास्ते पर आ गए थे। दोनों मन मारकर और हिम्मत जुटा कर वापस धोबीघाट की तरफ बढ़ चले।
थोड़ी देर में हमलोग वापस धोबीघाट पहुँच चुके थे। वहाँ मोड़ से थोड़ा ऊपर चलकर, रास्ते के किनारे बैठने के लिए स्थान बनाया हुआ था। वहाँ हमलोग थोड़ा सुस्ताने के लिए बैठे।
सामने का नजारा अद्भुत और विस्मयकारी था। ऊँचे-ऊंचे हरे चीड़ के पेड़ थे। आसमान बिल्कुल नीला दिख रहा था। बादल हवाओं के साथ हमारे पास से अठखेलियाँ करते हुए गुजर रहे थे।
विकास ने मेरी, अपनी और इन हंसीं वादियों की तस्वीरें ली और फिर हम जंगल के रास्ते से परी टिब्बा की तरफ बढ़ चले।
◆◆◆
जिस पैदल रास्ते से हम परी टिब्बा की तरफ बढ़ रहे थे, वह कच्ची थी और पैदल रास्ता होने की वजह से बहुत ही पथरीली थी। एक तरफ लगातार चीड़ के वृक्ष मिल रहे थे और कहीं-कहीं बुरांस के पेड़ के लाल पुष्प मन को मोह ले रहे थे। वहीं दूसरी तरफ गहरी खाई थी, जो मन में यह डर भी पैदा कर रही थी कि जहाँ भी हल्की सी चूक हुई, तो वह चूक ज़िन्दगी की आखिरी चूक भी हो सकती थी। कदमों को सँभालते हुए हम आगे बढ़ रहे थे।
अब धोबीघाट से चलते हुए हमें लगभग दो घण्टे होने वाले थे। हमारी हालत खराब हो रही थी, काफी ज्यादा थकान होने लगी थी। रास्ते में हमें कोई इंसान तो दूर की बात थी, हमें कोई जानवर भी नहीं दिख रहा था। चारों ओर एकदम वीराना पसरा हुआ था। मानो कोई इधर कभी आता ही नहीं होगा या आता भी होगा तो किसी मजबूरी में ही। यहाँ चारों और घने जंगल होने की वजह से धूप जमीन तक नहीं पहुँच पा रही थी इसलिए हमें थोड़ी बहुत ठण्ड का एहसास हुआ।
आगे चल कर दोमुंहा सड़क दिखी, जिसमें एक तरफ बोर्ड लगा था कि नीलकंठ धाम के लिए इस तरफ से जाएं। हमलोगों ने मोबाइल में देखा तो नेटवर्क अभी भी नहीं था। विकास ने बताया कि उसने मैप में पहले देख लिया था कि जिस तरफ नीलकण्ठ धाम मिलेगा, उसी रास्ते में वहीं से 1 कि.मी. के आस पास में ही परी टिब्बा है।
घड़ी में एक बजे का वक्त हो चला था। विकास अपने साथ कुछ पैकेट बिस्किट के और बोतल में ग्लूकोज़ घोल कर लाया था। उसने कहा कि हम लगभग पहुँच ही चुके है। यहाँ कुछ देर सुस्ता लेते हैं, बिस्किट खाकर और पानी पीकर आगे बढ़ते हैं। मैं चाहता तो था कि परी टिब्बा ही पहुँच कर दम ले लेकिन उसकी बातों को मैं काट नहीं पाया और उसके साथ सुस्ताने लगा।
विकास ने बातों ही बातों में कहा, “यहाँ कोई भी इंसान दिन में भी जाने से डरता है। यहाँ चुड़ैलों की काफी कहानियां है, जो प्रचलित हैं। इसे ‘द हिल ऑफ विचेज़ (The Hill of Witches)’ कहते हैं, जिसका मतलब होता है चुड़ैलों का पहाड़। कहते है कि यहाँ दिन के उजाले में भी लोगों को चुड़ैल दिख जाती है। यह चुड़ैलों की मन मुताबिक जगह है।”
उसकी यह बात सुनते ही मैंने कहा, “भाई, मुझे तूने क्या समझा है? मैं क्या किसी भूत से कम हूँ। रात को मुझे नींद नहीं आती है, भूत की तरह जागता रहता हूँ। नींद का इंतजार करते-करते जब थक जाता हूँ, तब जाकर सुबह 4 बजे तक नींद आती है।”, मेरे ऐसा कहते ही वह सुनसान वीराना हम दोनों के ठहाकों से गूंज उठा।
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थोड़ी देर में, जैसे ही हम उठकर अपनी मंजिल की तरफ बढ़ने ही वाले थे कि बहुत तेज दुर्गंध का एहसास हुआ, मानो जैसे आस-पास किसी जानवर की सड़ी हुई लाश हो। एक औरत दिखी, जिसने पीठ पर हरी पत्तियों को लाद रखा था और सिर पर सूखी हुई लकड़ियां लाद कर, हमलोगों की तरफ आ रही थी। उसके नजदीक आते ही वह दुर्गंध बहुत तेज हो गई थी। ये समझते हमें देर नहीं लगी कि वह गंध उसी औरत से ही आ रही थीं।
मेरा पूरा बचपन उत्तराखंड के टिहरी जिले में ही बीता था और मैंने अक्सर पहाड़ों में देखा था कि वहाँ के लोग बहुत ही ज्यादा मेहनती होते हैं। बारिश का मौसम हो, कड़ी धूप या ठिठुरन भरी ठंड हो, वहाँ की स्त्रियां नियमित रूप से जंगल में जाकर गाय, डंगरों के खाने के लिए हरी घास और मिट्टी के चूल्हे जलाने के लिए लकड़ियां काट कर जंगल से लाती हैं।
बारिश के दौरान भी ये इन कामों को भीगते हुए भी अंजाम देती हैं क्योंकि यह कार्य उनके दैनिक दिनचर्या में शामिल है। इसलिए हो न हो, ये गंध उसी की वजह से ही आ रही होगी।
मैं मन ही मन अपने आपको यह सब सोचकर दिलासा दिला रहा था। तभी मेरी नजर उस औरत पर पड़ी, जो कि शरीर से बिल्कुल ही नाजुक दिख जरूर रही थी, लेकिन उसका इतने भारी वजन को इस वीरान और खड़ी चढ़ाई वाली जगह में लेकर चलना, उसके मजबूत इरादों और बुलन्द हौसले को कहीं न कहीं बयान भी कर रही थी।
उसके चेहरे पर अजीब सा तेज था। उसकी आँखें बहुत ही खूबसूरत थी। होंठ बिल्कुल सुर्ख लाल थे। उसके बाल घुंघराले थे और उसकी लटाएं एक तरफ से उसके चेहरे पर हवा के झोंके के साथ मंडरा रही थी।
इतनी खूबसूरत लड़की, मैंने आज तक नहीं देखी थी। मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि कोई भला इतनी खूबसूरत कैसे हो सकती है। वह बिल्कुल परी की तरह ही लग रही थी। उस लड़की को देख कर अजीब सा आकर्षण महसूस हो रहा था। मेरा मन कर रहा था कि उसको लगातार देखता रहूँ। उसकी खूबसूरत चेहरे को देखने के बाद सारी थकान छू-मंतर हो गई थी।
मेरे लगातार टकटकी लगाए देखने की वजह से, उसने अपने आप को असहज महसूस किया और वह बोल पड़ी, “ऐ बाबा! कख जाणा छा तुम लोग?”
वह महिला स्थानीय भाषा में हमलोगों से पूछ रही थी कि हमलोग किधर जा रहे हैं?
विकास को वहाँ की स्थानीय भाषा की कुछ हद तक समझ थी इसलिए उसने उनसे बात की और उन्हें बताया कि हमलोग ‘परी टिब्बा’ ट्रेकिंग के लिए आए हैं। उस औरत ने कहा कि वह भी परी टिब्बा की तरफ ही रहती है और उधर ही जा रही है। उसने हम दोनों को साथ चलने को कह दिया।
एक से भले दो और दो से भले तीन, यह सोचकर हम दोनों भी उस औरत को अपनी गाइड मानकर, कदम से कदम मिलाकर उसके पीछे चल दिए।
“आप गलत जा रहे हो? परी टिब्बा जाने का रास्ता तो इस तरफ से है।”, विकास ने उस औरत को दोमुंहे रास्ते से नीलकण्ठ धाम वाले रास्ते से न जाकर, दूसरी तरफ से जाता हुआ देखा तो पूछा।
“नहीं, वह रास्ता आगे जाकर खराब है, बारिश की वजह से टूट गया है। अब लोग परी टिब्बा इधर से ही जाते हैं।”, उसने हमें नई जानकारी देते हुए कहा।
हमलोगों ने इस बात को सुनकर उसका धन्यवाद किया और उसके पीछे-पीछे हो लिए। अभी हमें चलते हुए लगभग दस मिनट ही हुए थे कि हमारे आसपास चमगादड़ों का झुंड मंडराने लगा। वे अजीब सी कर्कश आवाज करते हुए हमारे साथ आगे बढ़ने लगे।
मैंने विकास को उस नवयुवती से दो लम्बी-लम्बी लकड़ियां मांगने को कहा। विकास ने उस लड़की से बात की और उसने दो लम्बी लकड़ियां दी, जिसको पाने का बाद उसका इस्तेमाल करते हुए पथरीली चढ़ाई में सहारा बना कर चलने में आसानी हुई और हमारे मन से कुछ भय भी कम हुआ।
हवाएं भी तेज हो चली थी। हल्की- हल्की बारिश के आसार नजर आने लगे थे। तभी अचानक हल्की-हल्की बारिश ने और परेशानी बढ़ा दी। बारिश थोड़ी तेज हो चली थी। पेड़ की पत्तियों पर बारिश की मोटी बूंदें पड़ने से जंगल में अजीब सा शोर हो रहा था।
बारिश होना अभी हमारे हक में बिल्कुल नहीं था। हमने एक बड़ी गलती यह की थी कि हमारे पास रेन प्रूफ कपड़े बिल्कुल भी नहीं थे। हम अपने पिट्ठु बैग में छाता लेकर आए थे, पर यहाँ जिस तरह से तेज हवा चल रही थी, छाता का टिक पाना और बारिश से बचाव कर पाना बेहद ही मुश्किल का काम था।
बारिश के ये आसार कुछ देर में ही जाते रहे और कुछ देर में ही बारिश भी खत्म हो चली थी। हालाँकि हवा के नम हो जाने से ठण्ड अब कुछ बढ़ गई थी।
मैंने राहत की सांस ली, जब देखा कि बारिश आने के बाद थोड़ी देर में बन्द हो जाने की वजह से चमगादड़ अब दिख नहीं रहे थे।
हमारे आस-पास की वनस्पतियाँ अब हमें बताने लगी थीं कि हम ऊँचाई वाले इलाके में आ चुके हैं। आस-पास के जंगलों में पेड़ों को देखकर ऐसा लगता था, न जाने कौन इन्हें जला कर और उजाड़कर चला गया हो।
विकास ने बताया कि कुछ तो भू-स्खलन और कुछ बर्फबारी ने इनका यह हाल किया होगा। बर्फ की ठण्ड से भी पेड़ इस तरह जल सकते हैं, यह मैंने पहली बार देखा सुना था।
थोड़ी देर चलते ही एक छोटा सा तालाब दिखा, वह रास्ते के बिल्कुल ही पास था। इतनी ऊंचाई पर तालाब कैसे हो सकता है, यह सोचकर मैं उस तालाब को देखने लगा। उस तालाब को देखकर अजीब सा आकर्षण महसूस हुआ। ऐसा लग रहा था जैसे कि वह अपनी तरफ बुला रहा हो। मेरे कहने से पहले ही वह लड़की उस तालाब की तरफ मुड़ पड़ी।
मैंने दिल ही दिल में बजरंगबली को धन्यवाद दिया और मैं भी उस तालाब की तरफ बढ़ चला। उस लड़की ने अपने सिर का बोझ हटाने के लिए जैसे ही हाथ ऊपर किया, मैंने लपक कर उसके सिर के बोझ को पकड़ लिया और उस बोझे को नीचे उतारने में उसकी मदद करने लगा। जैसे ही बोझ उतार कर नीचे रखा, उसने मेरी तरफ तिरछी नजर से देखा और अपने सुर्ख लाल होंठों को अपने दांतों से काटते हुए मुस्कान छोड़ी।
अचानक इस बर्ताव के कारण मैं अपना आपा खो बैठा था। मेरे दिल में न जाने कितने उमंगें हिलोरे मारने लगी थी। मेरे दिल में विचार आया कि यही एक मौका है, क्यों न मैं इसकी मर्जी जाने बिना उसको अपने दिल की बात कह दूँ और अपने साथ शहर ले जाकर, इसके ख्वाबों को साकार करने के लिए, इसको किसी तरह सहमत करवा लूं। यह सोचकर मैं उस छोटे से तालाब के पास पहुँचा।
वह लड़की उस तालाब में झुककर अपने दोनों हाथों से अपने चेहरे पर तालाब के पानी से छींटे मार रही थी। वह तालाब बहुत ही चमकीला प्रतीत हो रहा था। यह बात मेरे समझ से परे थी। वहाँ बहुत घना जंगल था, जिसकी वजह से धूप की रोशनी नीचे तक पहुँचना नामुमकिन था, ऐसे में उस तालाब में धूप नहीं पड़ रही थी, तो फिर कैसे उसका जल इतना चमकीला हो सकता था। उस तालाब को देखकर, उसके जल को छूने की ललक मन में उमड़ रही थी।
दिखने में वह एकदम दिव्य तालाब सा लग रहा था, जिसके जल में न जाने कितने अनसुलझे रहस्य थे, जो शायद उसे छूने के बाद ही उजागर हो सकते थे।
मैंने अपना ध्यान तालाब से हटाकर उस लड़की की तरफ केंद्रित किया। उसके हाथ को पकड़ कर, अपने दिल की सारी बात कह देने का फैसला कर लिया था, अंजाम चाहे जो भी हो। मैं आपने चेहरे पर मुस्कुराहट लेकर जैसे ही अपने कदमों को आगे बढ़ाकर, उसके नर्म हाथों को पकड़ा, उसका हाथ बिल्कुल बर्फ की सिल्ली की तरह सुन्न पड़ा था।
इससे पहले कि मेरी समझ में कुछ आए, मेरी नजर अचानक तालाब के जल पर पड़ी। तालाब में जहाँ मेरा प्रतिबिंब तो नजर आ रहा था, लेकिन उस लड़की का प्रतिबिम्ब नदारद था। मैंने जिस झटके से उसका हाथ पकड़ा था, उससे कहीं दुगने झटके से उस हाथ को अपने से मुक्त करवाया। एक पल में जैसे डर के मारे मेरी साँसे फूलने लगी।
मेरे ऐसा करते ही अचानक वह अपनी जगह पर खड़ी हो गई। देखते-देखते उसके पीठ से दो सुनहरे रंग के पंख उभर आए। वह उन पंखों को फड़फड़ाते हुए मेरे सामने से उड़ती हुई, मुझ से कुछ दूरी पर सिर से ऊपर लगभग 8 फुट की दूरी पर उड़ते हुए जोर-जोर से हँसने लगी।
उसकी हँसी अब कानों में चुभ रही थी। उसकी कर्कश हँसी से सारा जंगल कांप उठा। जंगल से तरह-तरह की आवाजें आने लगी। जो चमगादड़ थोड़ी देर पहले हमारे आस-पास कदम से कदम मिला कर ऊपर मंडरा रहे थे, जो बारिश के बाद विलुप्त हो गए थे, वे पता नहीं अचानक फिर कहाँ से वापस आकर, फिर से हमलोगों के चारों तरफ पंख फड़फड़ाते हुए उड़ने लगे थे।
यह घटना मेरे लिए बिल्कुल ही अजीब थी। मुझे और विकास को यह समझते देर नहीं लगी कि हमलोग उसके चक्रव्यूह में बुरी तरह फंस गए थे। हम दोनों की हालत ऐसी थी मानों काटो तो खून नहीं।
“हा हा हा स्वागत है तुम्हारा, द हिल ऑफ विचेज़ (The Hill of Witches) में।” , यह कहते ही वह और जोर - जोर से हँसने लगी।
हवा में झूलती चुड़ैल की सुर्ख लाल आँखें , हम दोनों को बारी - बारी से घूरने लगी। विकास बहुत ही ज्यादा घबरा गया था। उसकी हालत इतनी खराब हो गई थी कि वह अपनी जगह पर ही पाँव जमा कर खड़ा था। ये कोई बुरे सपने की तरह था, जैसे सब कुछ हकीकत नहीं सिर्फ एक डरावना सपना था। लेकिन अभी सत्य सामने नज़र आ रहा था।
मैं थर्राते हुए तेज आवाज में चिल्लाया, “वि…वि... विकास! भाग यहाँ से!”
मेरे इतनी जोर से कहते ही, उसके विचारों की श्रृंखला टूटी और उसमें साहस आया और वह दौड़ने लगा। विकास को भागता देख वह चुड़ैल, जो थोड़ी देर पहले एक कमसिन जवान लड़की थी, वह विकास की तरफ अपने पंखों को फड़फड़ाते हुए उड़ते हुए जाने लगी।
विकास दौड़ते-दौड़ते तालाब के दूसरी तरफ आ पहुँचा था। भागते-भागते वह बार-बार पीछे चुड़ैल को भी देखता जा रहा था कि अचानक उसका पाँव वहाँ पड़े किसी पत्थर से टकराया। विकास अपना संतुलन खो देने की वजह से खुद पर नियंत्रण नहीं रख पाया और तालाब के दूसरी तरफ ढलान से नीचे गिरने लगा। थोड़ी देर गिरते-गिरते, वह दो पेड़ों के बीच उगे झाड़ियों में फंस चुका था।
मैं उसे अकेला नहीं छोड़ सकता था। मुझे पता था कि अगर हमने एक दूसरे को अकेला छोड़ दिया तो हम दोनों कमजोर पड़ जाएंगे और उस चुड़ैल को हमें अपना शिकार बनाने में बहुत आसानी हो जाएगी। मैंने निर्णय किया कि इस परिस्थिति को हम दोनों को समझना था और हर चुनौती को डट कर सामना करना था। मैं भी उस तरफ भाग पड़ा जहाँ विकास गिरा था।
वहाँ पहुँचते ही मैंने विकास को झाड़ियों से मुक्त कराया। मैंने जैसे ही विकास को मुक्त कराने के बाद, उसको सहारा देकर उठाने की कोशिश की, तो मैं हैरान हो गया। उसके चेहरे पर खरोंच के निशान थे और उसकी आँखें बंद थी।
मैंने उसको हिला डुलाकर उसको सामान्य स्थिति में लाने की कोशिश की, लेकिन मेरी हर कोशिश बेकार रही।
मैं बिल्कुल ही परेशान सा हो गया। मेरी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था कि मैं अब क्या करूँ? उसकी यह हालत देखकर मेरा सिर चकरा गया। मुझे लगा कि अब हमारा अंत निकट है।
मैंने उसकी नब्ज टटोलने के बाद अपने हाथों को उसके नाक के पास ले गया। मुझे इस बात को जानकर बेहद खुशी हुई कि उसकी सांसे चल रही थी। वह डर के कारण बेहोश हो गया था। शायद उसे कुछ अंदरूनी चोटें भी आयीं थीं।
वह पंखों वाली चुड़ैल, अब तालाब से थोड़ी दूरी पर ही थी और वहाँ से हमारी लाचारी को देख कर ठहाके लगा कर हँस रही थी, “आजतक कोई भी यहाँ से बचकर नहीं गया है और न ही जाएगा। अब तुमलोग अपनी बरबादी का मंज़र देखने को तैयार हो जाओ।” यह कहते ही वह और जोर-जोर से हँसने लगी।
इसे चुड़ैलों की पहाड़ी क्यों कहा जाता है, आज साफ़ नज़र आ रहा था। जिसकी कल्पना अब तक कोरी लग रही थी, अब उसका वास्तविक दृश्य हमारी आँखों के समक्ष था। मेरा हौसला अब टूट रहा था।
मैं विकास को ऐसी हालत में छोड़कर बुजदिलों की तरह नहीं जा सकता था, आखिरकार हम दोनों दोस्त थे। दोनों ने साथ में मिलकर यहाँ आने का फैसला लिया था, तो मैं अकेले उसे छोड़कर अपनी जान कैसे बचा सकता था।
तभी मेरे दिमाग में एक युक्ति आई। मैं विकास को वहीं छोड़कर तालाब की तरफ भागा। मैंने अपने दोनों हथेलियों को फैला कर तालाब के जल को उसमें संचय किया और जल लेकर जाने लगा। लेकिन जैसे ही वह जल लेकर मैं मुड़ा, वह पानी उंगलियों के बीच के दरारों से नीचे गिरने लगा।
तभी मुझे ख्याल आया कि मेरे पिट्ठू बैग के एक तरफ खाली पानी की बोतल है। मैंने फटाफट उसका ढक्कन खोला और उस तालाब में डुबो कर भरने लगा। जैसे ही बोतल एक चौथाई भरी, मैं उस जल को लेकर विकास की तरफ दौड़ पड़ा।
उस बोतल से पानी के कुछ छींटें मैंने उसके चेहरे पर मारे और बोतल में बचा हुआ जल मैंने उसका मुँह खोलकर डालने लगा।
जल उसके अंदर जाते ही उसको होश आया और वह एक झटके में ही अपनी जगह उठ कर खड़ा हो गया। चुड़ैल इस बीच हमारे ऊपर तेज़ी से मंडराती रही।
हम दोनों ने फैसला किया कि दोनों दूसरी तरफ भागेंगे, जिस तरफ नीलकंठ धाम था। दोनों साथ-साथ भाग रहे थे, साथ ही चुड़ैल भी कभी इस पेड़ से कभी उस पेड़ पर फुदकते हुए हमारा पीछा करने लगी।
“कहीं भी और कितनी भी तेज भाग लो, लेकिन तुम मेरी इस जगह से नहीं भाग पाओगे। तुम्हारा यहाँ से निकलना असंभव है। भाग लो जितना भागना है। हा...हा... हा...”, उसके ऐसा कहते ही फिर से उसकी कर्कश हँसी जंगल में गूंजने लगी।
वह अचानक से हमारे बिलकुल पास उड़ती हुई आयी और उसने विकास को दबोच कर ऊपर उठाना शुरू कर दिया। बिना एक पल गवाएं मैं विकास की कमर को पकड़ कर झूल गया। चुड़ैल की पकड़ ढीली पड़ी और हम दोनों तीन फुट की ऊँचाई से धम्म से ज़मीन पर आ गिरे। हमें अपनी मौत निश्चित लगने लगी थी। यहाँ आने वाले कुछ सैलानियों के खो जाने के किस्से भी हमारे दिमाग में घुमने लगे थे।
अचानक पैरों में जैसे फेरारी का इंजन लगाते हुए, हम भागते-भागते नीलकंठ धाम के मन्दिर के गेट के सामने पहुँच गए थे। मंदिर देखते ही जान में जान आयी।
सामने भोले बाबा की सफेद संगमरमर की मूर्ति पड़ी थी, जो एक त्रिशूल में लगे डमरू के साथ विराजमान थी। शिवजी के गले में काला नाग लिपटा हुआ था। यह देखकर हम दोनों चकित रह गए कि वह साँप बिल्कुल ही असली था। वह हमें देखकर फुफकारने लगा।
शिवजी की मूर्ति देखते ही ऐसा लगा जैसे हमारे अंदर धनात्मक ऊर्जा आ गई हो। हम दोनों फटाफट मंदिर के परिसर के अंदर आ गए। वह चुड़ैल मंदिर के गेट के बाहर ही खड़ी दहाड़े मार रही थी।
जब काफी वक्त हो गया तो हमलोगों के समझ में आया कि वह मंदिर के दहलीज को लांघ कर अंदर आने में सक्षम नहीं थीं। यह देखकर हमारी चिंता की लकीरें कुछ कम हुई।
वह मन्दिर के गेट के बाहर ही पंखों को फैलाते हुए, दाएं से बाएं चक्कर काट रही थी। उसकी शक्ल बहुत ही भयावह दिख रही थी। उसके दो दांत मुंह से बाहर निकले हुए थे, जिससे खून की कुछ बूंदें धरती पर टप-टप कर टपक रही थी। वह रह-रह कर हमलोगों की तरफ अपनी खौफनाक आँखों से बिना पलक झपकाए एकटक ही देख रही थी। उसके इस तरह से देखने से हमारे जिस्म में रोंगटे खड़े हो रहे थे।
हमें मजबूर देखकर वह चुड़ैल चीख पड़ी, “हा... हा... बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाएगी। मैं भी देखती हूँ, कब तक तुम यहाँ पड़े रहते हो। बाहर तो तुम्हें आना ही पड़ेगा।”, यह कहकर वह फिर जोर-जोर से हँसने लगी।
मैंने अपने आराध्य देव को याद किया और शिवजी से यहाँ से निकलने के लिए गुहार लगाई और चित्त को शान्त करके, आँखों को बन्द करके यहाँ से बाहर निकलने का उपाय तलाशने लगा। थोड़ी देर फरियाद करने के बाद मैंने जैसे ही अपनी आँखें खोली, बस थोड़ी दूर पर ही शिवजी का एक और त्रिशूल दिखा, जिसका कुछ अंश कच्ची मिट्टी में धंसा हुआ था। उस पर यहाँ के स्थानीय लोगों ने कुछ रुद्राक्ष की मालाएं अर्पित की थी, जो कि उसी त्रिशूल के ऊपर डमरू के साथ रखे हुए थे।
मैं फटाफट विकास के पास गया और उसे अपनी आगे की तरकीब समझाई। विकास ने जैसे ही मेरी योजना सुनी, उसकी आँखों में एक विशेष चमक आ गयी।
वह मेरी तरकीब समझ गया और गेट की तरफ बढ़ते हुए बोलने लगा, “अरे चुड़ैल! हमने तेरा क्या बिगड़ा है? हमें छोड़ दे! हम आज के बाद कभी भी इधर का रुख नहीं करेंगे।”
“व्यर्थ की बातें मत कर! तेरा अन्त निकट है, मूर्ख! अब तुझे मरने से कोई नहीं बचा सकता।”, ऐसा कहते ही वह अब अभिमान के साथ हँसने लगी।
“अच्छा! ठीक है, मुझे मारना है तो मार दे। लेकिन मेरे दोस्त देव को छोड़ दे। मैं ही इसको यहाँ लेकर आया था। इसमें उसकी कोई गलती नहीं।”, विकास यह कहकर दहाड़े मार कर रोने लगा।
“अब कुछ नहीं हो सकता। अब तुम दोनों मरने के लिए तैयार....”
खच्चाक... की आवाज के साथ अगले ही पल त्रिशूल उस चुड़ैल के सीने के आर-पार था।
मैंने विकास को उस चुड़ैल को बातों में उलझाए रखने को कहा था और वहीं पास के ज़मीन में आंशिक रूप से धंसी, दूसरे त्रिशूल के ऊपर पड़े रुद्राक्ष को हटा कर त्रिशूल को उखाड़ दिया था और उस चुड़ैल के सीने पर वार कर दिया था।
इतनी आसानी से एक ही बार में ही ऐसा हो जाएगा, इसकी उम्मीद तो नहीं थी पर शायद मेरे आराध्य देव की कोई धनात्मक ऊर्जा मेरा साथ दे रही थी, जिसके बिना ये मुमकिन ही नहीं था।
“धोखा... धोखा! मेरे साथ धोखा हुआ है। यह तुमने सही नहीं किया।”, यह कहकर वह धरती पर गिरी तड़पती रही।
मैंने त्रिशूल पर चढ़ाये हुए कुछ रुद्राक्ष की मालाओं में से दो मालाएं निकाली और एक विकास को दे दी। दूसरी अपने गले में डालते हुए शिवजी का कोटि-कोटि धन्यवाद करते हुए, हमलोग उस चुड़ैल को वहीं तड़पते हुए छोड़ धोबीघाट की तरफ भाग खड़े हुए।
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हम दोनों की हालत बहुत ज्यादा खराब थी। गिरते पड़ते हुए बेतहाशा हम दोनों भागे जा रहे थे, जैसे कोई खुला सांड हमारे पीछे पड़ा हो। हम तेज भागने के चक्कर से जैसे ही उस कच्ची सड़क पर गिरते, तो अगले पल उससे भी जल्दी ही उठ जाते थे, लेकिन पीछे मुड़कर एक बार भी नहीं देख रहे थे।
लगभग सवा घण्टे में ही हम धोबीघाट पहुँच चुके थे। वहाँ पहुँचते ही एक यूटिलिटी(जन उपयोगी सेवा) गाड़ी दिखी।
उस गाड़ी में पीछे मसूरी के बड़े-बड़े होटेल्स के बेड शीट, तकियों के कवर, पर्दे वगैरह ज़रूरी समान लादा जा रहा था।
धोबीघाट में अक्सर बड़े-बड़े होटलों से इस तरह के कपड़े रोज आते थे और सुबह धुलने का काम यहाँ होता था और दोपहर के बाद यहाँ से वापस जाते थे। धोबीघाट से मसूरी मात्र 5 कि.मी. की दूरी पर ही थी। यहाँ का खुला मैदान इस काम को अंजाम देने के लिए बिल्कुल उपयुक्त जगह थी इसलिए यहाँ कपड़ों को धोने के काम को कुछ स्थानीय लोगों ने पेशे के तौर पर भी चुना था।
गाड़ी में सारा सामान लद चुका था और गाड़ी अब चलने को तैयार थी। हम फटाफट भागते हुए ड्राइवर के पास पहुँचे और अपनी सारी व्यथा सुना दी। ड्राइवर ने हम दोनों को आश्चर्यचकित होकर देखा और फटाफट गाड़ी में आगे बैठने को कहा।
हमारे आगे बैठते ही उसने अपनी गाड़ी खोल दी और आगे बढ़ाते हुए बोला, “बहुत सौभाग्यशाली हो तुमलोग। हाँ! यह सच है कि वहाँ से आजतक कोई भी व्यक्ति ज़िंदा बचकर नहीं आया है और जो आया भी होगा, उसके बारे में कोई कुछ खास नहीं बता पाया। वह चुड़ैलों का पहाड़ नाम से कुख्यात जगह है। वह किसी को भी नहीं छोड़ती हैं। नीलकण्ठ धाम से पहले जो दोमुहाना पड़ता है, वहाँ पर एक बोर्ड भी लगा हुआ था, जो वक़्त और मौसम के थपेड़ों को सह नहीं पाया और कहीं गायब हो गया।”
उस पर साफ लिखा था, ‘यहाँ से आगे जाना सख्त मना है। यहाँ से आगे का इलाका चुड़ैलों का पहाड़ के नाम से कुख्यात है। जो व्यक्ति इस सीमा से आगे बढ़ता है, वह अपनी तबाही का खुद ज़िम्मेदार होगा।’
हमें ड्राइवर अपनी बहुमूल्य जानकारी दे ही रहा था कि तभी विकास बोल पड़ा, “यहाँ इस तरह की घटनाओं के पीछे ज़रूर कोई न कोई इतिहास या कोई कहानी रही होगी?”
“यहाँ होने वाली अलौकिक घटनाओं के लिए भी ये जगह प्रसिद्ध है और कई सारे बड़े रहस्य भी छिपे है।”
“कहा जाता है कि वहाँ अजीब सी असाधारण शक्ति है, जो कि वहाँ जाने वाले हर इंसान को हैरानी में डाल देती है। वह जगह बिजली गिरने की वजह से पूरी तरह बर्बाद हो चुकी है। कुछ लोगों का मानना है कि यह प्राकृतिक घटनाओं की वजह से हुआ है लेकिन कुछ स्थानीय निवासियों का मत है कि यह अदृश्य परियों का खेल है। यहाँ अक्सर आधे जले हुए, काले और भूरे रंग के पेड़ दिखेंगे।”
“इस बारे में यहाँ पर रहने वाले पुराने लोगों का कहना है कि एक प्रेमी जोड़ा वहाँ भाग कर आ गया था और रात्रि के वक़्त यहाँ एक खण्डहर में आश्रय लिया था। रात को अचानक बहुत तेज तूफान आया और इस जगह बिजली गिर गई, जिसकी वजह से दोनों मारे गए। उनकी मौत के बहुत दिनों बाद उनकी अधजली लाश वहाँ से बरामद की गई।”
“आज भी इस इलाके में ऐसी घटनाएँ होने की वजह है कि वह आत्माएँ आज भी उस जगह पर मौजूद हैं। यह कितना सच है और कितना झूठ, ये कोई कह नहीं सकता। ये ज़रूर है कि इस जगह के मशहूर होने के पीछे की वजह यह कहानियां और भौगोलिक स्थिति भी है, जिस वजह से यह जगह आकर्षण का केंद्र बन चुका है। उस जगह के अजीब वातावरण और उन अधजले पेड़ों के पीछे क्या कारण है, ये आज भी अपने आप में बहुत बड़ा सवाल है। ये भी सत्य है कि वे चुड़ैलें लोगों को हकीकत में दिखती है या कोई वहम हो जाता है, ये भी कोई नहीं जानता।”
ड्राइवर की इन बातों ने हमें और भी संशय में डाल दिया था। पर हम जानते थे, ये हमारा वहम तो हरगिज नहीं था। विकास और मैंने, एक दूसरे को घुरा और मन ही मन भगवान को लाख शुक्रिया कर रहे थे कि जान बची तो लाखों पाए।
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करीब सवा घण्टे में उस यूटीलिटी वाली गाड़ी ने हमें वुडस्टॉक स्कूल तक छोड़ दिया। हम दोनों ने उस वाहन चालक का शुक्रिया अदा किया।
फिर वहाँ से रिक्शा कर लिया, जो हमें 20 मिनट में ही मसूरी के दूसरी छोर, लाइब्रेरी के पास छोड़ चुकी थी।
उस घटना के बाद से, अभी तक हम संभल नहीं पाए थे। दिल कहीं न कहीं उस हकीकत को काफी करीब से महसूस कर चुका था, तो वहीं दूसरी तरफ यह सब होने के बावजूद भी दिमाग यह सब मानने को तैयार नहीं हो रहा था। अब भी वहम तो हमें नहीं लग रहा था, क्योंकि एक साथ दो लोगों को एक ही वहम जायज़ नहीं लग रहा था।
शहर की भीड़ में अपने आप को हम काफी हद तक सुरक्षित महसूस करने लगे थे। घड़ी में इस समय 6 बज रहे थे। इस घटना के बाद अब हम सिर्फ वापस अपने घर जाना चाहते थे।
सत्य और वहम के बीच अब भी दिमाग घूम रहा था, जिससे हम अब भी उबर नहीं पाए थे। ये कोई किताबी कहानी लग रही थी, पर उसे इस तरह महसूस करना सपना तो हरगिज नहीं था।
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