रात को ठीक तीन बजे देवराज चौहान की आंख खुल गई। वह समझ नहीं पाया कि नींद से खुद उठा है या बेला ने उसे उठाया है । बगल में ही बैड पर सोए बांकेलाल राठौर को हिलाकर उठाया ।


"खड़ा हो जा। चलना है यहां से ।"


दोनों उठे । कमरे में मौजूद पानी से हाथ मुंह धोया ।


"या से तो वो जगह पासो ही हौवे,जा म्हारे को पहुंचणो हौवे ।" बांकेलाल राठौर बोला ।


"हां ।" देवराज चौहान ने कहा ।


जब वे चलने के लिए तैयार हुए तो उनके बाहर जाने का रास्ता अपने आप बन गया।


"यो रास्तो वो ही छोरी बनायो ।"


देवराज चौहान ने सहमति में सिर हिलाया।


दोनों बाहर निकले। बाहर निकलते ही वो कमरा, रोशनी एकाएक गायब हो गई ।


"कमरों तो गधे के सिगों की तरहो गायब हो गयो । "


दोनों तेजी से आगे बढ़ गए । जंगल में घुप्प अंधेरा था । हाथ को हाथ नजर नहीं आ रहा था।


लेकिन वे दोनों तेजी से आगे बढ़ते जा रहे थे । आगे देवराज चौहान था । तभी उसके कानों में बेला की आवाज पड़ी ।


"आगे बिना मुंडेर का मायावी कुआं है । उसमें गिरते ही तिलस्मी कैद में पहुंच जाओगे।"


यहां सुनते ही देवराज चौहान रुका ।


"बांके रुक जाओ।" देवराज चौहान जल्दी से कह उठा ।


बांकेलाल राठौर ठिठका ।


"ईब का हुओ ?"


"आगे रास्ता ठीक नहीं है । "


"थारे को कैसा पता लगो कि-ओह समझो-समझो, वो ही बतायो थारे को।"


बेला की आवाज पुनः देवराज चौहान के कानों में पड़ी।


"वो सामने रोशनी का बिंदु जमीन पर नजर आ रहा है। उसके पीछे-पीछे चलो।" देवराज चौहान ने रोशनी के उस बिंदु को देखा, जो अभी-अभी ही नजर आने लगा था । "मेरे पीछे आओ बांके ।" 


कहने के साथ ही देवराज चौहान बिंदु की तरफ बढ़ा । बांकेलाल राठौर ने भी कदम बढ़ाए ।


अगले ही पल बांकेलाल राठौर को लगा जैसे उसका पांव किसी रस्सी के फंदे में फंस गया हो । उसने झटका देकर पांव छुड़ाने की चेष्टा की, परंतु फंदा और कस गया । इसके साथ ही लगा जैसे किसी ने फंदे के रस्सी को तीव्र झटका दिया हो ।


बांकेलाल राठौर जोरों से नीचे गिर पड़ा और फिर उसे लगा जैसे रस्सी को पीछे से कोई तेजी से खींच रहा हो । वो पीछे सरकता जा रहा था । गिरने की आवाज सुनते ही देवराज चौहान पलटा ।


"बांके ।"


"देवराज चौहान, अंम तो फंसो । लगो म्हारा तो कामो हो गयो । कोई रास्सा बांधकर म्हारे को पीछे को खिचो ।"


"बांके को देखो, क्या हुआ है ।" देवराज चौहान जल्दी से बोला ।


उसी पल वहां पर रोशनी फैल गई।


मात्र एक पल के लिए बांकेलाल राठौर नजर आया । वो किसी गहरे गड्ढे में समाता जा रहा था और देखते ही देखते गड्ढे में समाता हुआ निगाहों से ओझल हो गया । "बांके ।" देवराज चौहान जल्दी से गड्ढे की तरफ लपका।


"रुक जाओ देवराज चौहान ।" बेला का शांत स्वर कानों में पड़ा--- "तुम्हारा दोस्त मायावी कैद में पहुंच गया है। वो गड्डा नहीं, बिना मुंडेर का कुआं है। मायावी कुआं । जाने दो उसे ।" देवराज चौहान रुक चुका था ।


"तुम्हारे साथ होने पर भी मेरा साथी मायावी लोगों की कैद में पहुंच गया ।" देवराज चौहान बोला ।


"मैंने तुम्हारे जिम्मेवारी ली है देवराज चौहान । मायावी शक्ति तुम पर असर नहीं करेगी ।" बेला का स्वर कानों में पड़ा ।


"लेकिन मायावी लोग, मेरे साथियों को कैद करके ले कहां जाते हैं ?"


"जहां तुम जा रहे हो । तिलस्मी नगरी में । सब तुम्हें वहीं मिलेंगे । लेकिन वे वहां की स्थिति में होंगे, ये मैं नहीं जानती । परंतु किसी को भी शारीरिक नुकसान नहीं पहुंचेगा।


क्योंकि तुम लोग "मनुष्य हो ।"


देवराज चौहान को यह देखते ही देखते वो बिना मुंडेर का कुआं धीरे-धीरे बंद होने लगा और बंद हो गया। अब वो जगह अन्य जगहों की तरह सामान्य आ रही थी।


"आओ देवराज चौहान, वक्त बीता जा रहा है ।" बेला की आवाज कानों में पड़ी । देवराज चौहान ने गहरी सांस ली और आगे बढ़ने लगा । रोशनी का छोटा-सा बिंदु जो उसके आगे-आगे बढ़ रहा था, उसी पर निगाहें टिकाए देवराज चौहान चलता रहा । "रास्ता बिताने की खातिर अगर तुम अपने बारे में बताती रहो तो ठीक रहेगा । तुम मुझसे क्या चाहती हो, यह बात तो मेरी समझ में आ जाएगी और...।"


"अभी नहीं । तिलस्म के भीतर मुनासिब वक्त और मौका मिलेगा, तब सब कुछ बता दूंगी ।" बेला की आवाज कानों में पड़ी --- "अभी कुछ न कहने के पीछे मेरी मजबूरी है।" 


"मजबूरी जान सकता हूं ?"


"हां । " बेला का स्वर शांत था--- "तिलस्म से वास्ता रखती बातों को, तिलस्मी नगरी से बाहर करना मना है । अगर मैंने या किसी ने भी ऐसा किया तो मेरी तिलस्मी शक्तियां क्षीण पड़ जाएंगी । जब हम लोगों को तो तिलस्मी पढ़ाई, पढ़ाई जाती है तो, तभी से यह बात तिलस्मी सीखने वाले पर लागू हो जाती है । "


देवराज चौहान ने कुछ नहीं कहा । रोशनी के बिंदु पर निगाहें टिकाए आगे बढ़ता रहा ।


***


भोर के उजाले के साथी देवराज चौहान के कदम वहां पड़े। बहुत ही सुंदर जगह थी वो ।


छोटा-सा बाग था, जिसमें तरह तरह के फूल लगे हुए थे । फूलों की सुगंध से वहां का वातावरण महका हुआ था । फलदार वृक्ष कदम-कदम पर नजर आ रहे थे । जमीन पर मखमली, खूबसूरती घास बिछी हुई थी । पक्षियों के चहचहाने की आवाजें वहां गूंज रही थी । कई रंगों की तरह-तरह के पक्षी उड़ रहे थे । उस बाग के छोटे-छोटे रास्ते बने हुए थे। सबसे ज्यादा मन मोह रहा था वो झरना, जो सामने की छोटी-सी पहाड़ी से गिरता हुआ नीचे आ रहा था और उसका पानी कुछ दूर मौजूद बड़े-बड़े पहाड़ी पत्थरों के बीच में से गुजर कर जाने कहां जा रहा था ।


यहां का वातावरण देवराज चौहान के मन को बहुत अच्छा लगा ।


"यहीं पर आना था मुझे ? " देवराज चौहान का स्वर धीमा था ।


"हां । बेला की फुसफुसाती आवाज कानों में पड़ी । 


"तिलस्मी में जाने का रास्ता यहां से है ?" देवराज चौहान ने पूछा ।


" हां"


"कहां है रास्ता ?"


"यह मैं नहीं बता सकती । कोई भी तिलस्म जानने वाला, तिलस्मी नगरी का व्यक्ति किसी बाहरी इंसान को तिलस्म में जाने का रास्ता नहीं बता सकता । हम वचन से बंधे हैं।" बेला का शांत स्वर कानों में पड़ा ।


"तो यहां पर मैं क्या करूं ?" देवराज चौहान ने कहा ।


"आराम करो और वक्त का इंतजार करो ।"


देवराज चौहान ने फिर कुछ न कहा और टहलता हुआ आसपास देखता हुआ आगे बढ़ने लगा।


कुछ आगे जाने पर ठिठका । चेहरे पर अजीब से भाव आ गए ।


वो बरगद का विशाल पेड़ था । जिसके आसपास पक्का चबूतरा बना हुआ था । गोलाई में और उस चबूतरे पर मोना चौधरी गहरी नींद में लेटी हुई थी ।


देवराज चौहान आगे बढ़ा और मोना चौधरी के पास पहुंचा। परंतु वो थकी-सी इस कदर नींद में थी कि उसके आने की आहट पर भी उसकी आंखे न खुली ।


देवराज चौहान गहरी सांस लेकर, चबूतरे के दूसरे हिस्से पर जा बैठा और सिगरेट सुलगा ली।


तभी बहुत जोरदार दहाड़ वहां गुंजी । लगा जैसे वहां की जमीन कांप गई हो । देवराज चौहान समझ नहीं पाया कि ये कौन से जानवर की दहाड़ है, क्योंकि ऐसी दहाड़ से पहले कभी नहीं सुनी थी ।


इस दहाड़ पर मोना चौधरी की आंख खुल गई । वह चौंककर उठ बैठी | तिलस्मी खंजर उसके हाथ में आ दबा । वो चबूतरे से नीचे उतर आई ।


देवराज चौहान भी सतर्क नजर आने लगा था ।


"घबराओ मत । ये जानवर किसी को कुछ नहीं कहेगा ।" बेला की आवाज कानों में पड़ी ।


मोना चौधरी की निगाह अभी तक देवराज चौहान पर नहीं पड़ी थी । तभी उनकी निगाह सामने के रास्ते पर पड़े तो दोनों चौंक पड़े। वो जानवर वहां से इसी तरफ आ रहा था। वो बहुत ही विशालकाय और करीब सौ फीट ऊंचा था । चालीस फीट ऊंची उसकी गर्दन थी और चेहरा देखकर मन में झुरझुरी से दौड़ रही थी । वो॒ो बिल्कुल डायनासोर की तरह लग रहा था । उसके चलने से जमीन पर मध्यम-सा कम्पन हो रहा था ।


उसे इसी तरफ आते देखकर, मोना चौधरी चबूतरे के साथ-साथ घूमती हुई पीछे की तरफ हटने लगी । खंजर पर उसकी पकड़ सख्त हो चुकी थी । पीछे हटती वो वहां खड़े देवराज चौहान से टकराई तो फुर्ती से पलटी। देवराज चौहान को सामने पाकर चौंकी । ।


"तुम ?" उसके होठों से निकला ।


"इस जानवर से मत डरो । यह हमें कुछ नहीं कहेगा ।" देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा । 


"तुम्हें कैसे मालूम कि यह हमें कुछ नहीं कहेगा ।" मोना चौधरी ने उसे गहरी निगाहों से देखा ।


"ये मैं नहीं बता सकता ।"


तब तक जानवर उनके करीबी रास्ते पर पहुंच चुका था । इसमें कोई शक नहीं कि उसका विशालकाय रूप और उसकी लंबाई देखकर उनके दिल धड़क रहे थे ।


तीस-चालीस फीट दूर रास्ते से गुजरते वो जानवर ठिठका उसने अपनी लंबी गर्दन नीचे की और उनकी तरफ घुमाकर, दोनों को देखा । ऐसा करने पर उस जानवर का मुंह उनके बेहद करीब आ गया था और वो बहुत डरावना लग रहा था ।


दोनों दम साधे खड़े रहे ।


तभी जानवर की गर्दन वापस गई और ऊपर उठती चली गई। उसके बाद वो जानवर आगे बढ़ा और दूर होता चला गया । उसकी पूंछ किसी रस्से की भांति पतली थी ।


"यह-यह तो डायनासोर है ।" मोना चौधरी के होठों से निकला। 


"मैं नहीं जानता, क्योंकि मैंने कभी पहले कभी डायनासोर को नहीं देखा ।" देवराज चौहान ने कश लिया।


तभी मोना चौधरी को अपनी दुश्मनी का एहसास हुआ तो वो दो कदम दूर हट गई ।


"तुम्हारे बाकी साथी कहां है ?" मोना चौधरी ने देवराज चौहान को घूरा।


"मायावी जाल में फंसकर गुम हो गए हैं ।" देवराज चौहान का स्वर शांत था--- "और तुम्हारे साथी ?"


"वो भी तुम्हारे साथियों की तरह गुम हो गये हैं।" मोना चौधरी बोली। 


"फकीर बाबा ने यही मिलने को कहा था ।" देवराज चौहान बोला । 


"हां । लेकिन मालूम नहीं, वो कब मिलेंगे।" मोना चौधरी ने इधर-उधर देखा । 


बीतते वक्त के साथ पूर्व से सूर्य निकला । उसकी पहली किरण ज्यों ही वहां पड़ी । एकाएक जैसे जादुई जोर पर वहां के सारे नजारे गायब होने लगे। फूल-पेड़-पौधे, वो मखमली घास । बरगद का पेड़, चबूतरा । एक-एक करके सब कुछ उनकी निगाहों से ओझल होता चला गया।


ऊपर से गिरता झरना बंद होकर सो गया कहीं भी पानी या गीलापन का निशान नहीं था। पहाड़ी पत्थर जो झरने के पानी से गीले हो चुके थे एकाएक सूख गए। जहां से झरने का पानी गिर रहा था उस पहाड़ी पर तेज गड़गड़ाहट के साथ कोई बड़ा-सा पत्थर आ टिका।


दोनों हैरानी से यह सब देख रहे थे ।


ऊपर से झरने का पानी गिरने की वजह से पहाड़, पर जो निशान पड़ गए थे, वो निशान स्पष्ट नजर आ रहे थे। निशानों को देखकर ऐसा लगता था कि जैसे, जाने कितने बरसों पहले यह झरना यहां बहता होगा। क्योंकि अब तो पानी की बूंद तो क्या, कहीं गीलापन भी नहीं था ।


"ये क्या हुआ ?" मोना चौधरी के होठों से निकला ।


"यहां के बारे में जितना तुम जानती हो, उतना ही मैं जानता हूं ।" देवराज चौहान ने इधरउधर देखते हुए कहा।


तभी उनकी निगाह फकीर बाबा पर पड़ी जो एक तरफ खड़े नजर आए । फकीर बाबा का चेहरा शांत था, परंतु वे सिर से पांव तक गंभीरता में डूबे हुए थे ।


पाठको आप देख ही रहे कि कहानी का दायरा बढ़ता जा रहा है। अभी देवराज चौहान और मोना चौधरी ने तिलस्मी नगरी में प्रवेश करना है। वहां खतरनाक तिलस्मी हादसों से उनका सामना होना है। देखना यह है कि तिलस्म में उन पर क्या बीतती है ? क्या दोनों में से कोई तिलस्मी ताज को ले पाया । देवराज चौहान और मोना चौधरी के साथी गायब होकर तिलस्म में तो पहुंचे, परंतु वहां वे किस स्थिति में है ? वो मुद्रानाथ कौन था और जो मोना चौधरी को देवी कह कर पुकार रहा था और उसे तिलस्मी खंजर दिया था, क्यों दिया था । ? उधर वो बेला कौन थी जो अदृश्य होकर देवराज चौहान की सहायता करने पर तुल गई थी और देवराज चौहान से अपना क्या मतलब निकालना चाहती थी ? ऐसे और भी कई सवाल, जो अभी अनसुलझे हैं उन सबका जवाब आपको आगामी तिलस्मी उपन्यास में, यानि की 'ताज के दावेदार' में मिलेगा। आइए अब आगे पढ़ें।


दोनों आगे बढ़कर फकीर बाबा के पास जा पहुंचे ।


"बाबा ।" देवराज चौहान के होठों से निकला |


"पहुंच गए यहां तक ।" बाबा ने कहा


"हां, बाबा, लेकिन हमारे साथी....।" मोना चौधरी ने कहना चाहा ।


"उनकी चिंता मत करो । सबसे तुम लोगों की मुलाकात होगी । वो सब ठीक हैं।" फकीर बाबा ने दोनों को देखते हुए गंभीर स्वर में कहा--- "तिलस्मी नगरी में अपने कामों में व्यस्त हैं।"


"कैसे काम ?"


"वक्त आने पर सब देख लोगे । "


"ये जगह कैसी है बाबा ।" मोना चौधरी बोली --- "रात जब मैं यहां पहुंची तो ये सारी जगह रोशनियों से जगमगा रही थी । तिनका-तिनका प्रकाश में चमक रहा था । लेकिन सुबह होने पर---।"


"सुबह होने पर नहीं ।" फकीर बाबा ने गंभीर स्वर में बात कही --- "सूर्य की पहली किरण यहां पड़ने पर वो सारा मंजर गायब हो गया । यह जगह वीरान हो गई । ये सब तिलस्म की माया है और जब सूर्य की आखिरी किरण छिपेगी तो यहां पर फिर वही खूबसूरत मंजन नजर आने लगेगा।"


देवराज चौहान बोला ।


"बाबा । आपने यहां तक पहुंचने को बोला था, पहुंच गए। अब बताइए वो ताज कहां हैं ?" 


"वो ताज तिलस्मी नगरी के भीतर है।" फकीर बाबा ने कहा--- "सूर्य की किरण छिपते ही, जब वो रौनक पैदा होगी तो तिलस्मी नगरी के दरवाजे खुल जाते हैं । परंतु उनमें कोई मायावी इंसान प्रवेश नहीं कर सकता । तिलस्मी पहरा उन्हें रोक देता है। लेकिन मनुष्यों के लिए यहां कोई तिलस्मी पहरा नहीं है। क्योंकि यहां किसी मनुष्य के आने की संभावना कभी नहीं रही । ऐसे में तुम लोग आसानी से तिलस्म में प्रवेश कर सकते हो । तिलस्मी नगरी में वो ताज कहां है, ये तुम लोगों को ढूंढना है और लेकर आना है। जो ले आएगा, वो जीता हुआ माना जाएगा और दूसरा हमेशा के लिए अपनी इच्छा से उसका गुलाम बन जाएगा। तुम दोनों को ये शर्त याद है ।" बाबा ने दोनों को देखा।


मोना चौधरी का चेहरा सुलग उठा ।


"याद है बाबा । मैं अपना वायदा नहीं भूलती ।" मोना चौधरी ने एक-एक शब्द चबाकर कहा ।


देवराज चौहान मुस्कुराया ।


"मुझे भी याद है ।" देवराज चौहान बोला।


"एक बात याद रखना । ये तिलस्म बहुत खतरनाक और गहरा है । भीतर जाने के बाद जिंदा बचकर निकल आना शायद संभव नहीं । या तो तुम लोग मारे जाओगे या फिर हमेशा के लिए तिलस्म में फंसकर रह जाओगे । तभी बचे रह सकते हो, जबकि तिलस्म की चालबाजियों का जवाब चालबाजियों से दो । लेकिन ऐसा कब तक कर पाओगे । कहीं तो फंसोगो ही और...।"


"बाबा । ये शब्द कह कर मेरा हौसला पस्त मत कीजिए । मैं ताज लेकर आऊंगी ।" मोना चौधरी गुर्रा उठी ।


फकीर बाबा ने देवराज चौहान को देखा तो देवराज चौहान शांत स्वर में बोला ।


"वो ताज मैं लेकर आऊंगा बाबा ।"


मोना चौधरी दांत भींचकर रह गई ।


मैं तुम लोगों को तिलस्म के भीतर जाने का रास्ता बताने जा रहा हूं । वो समझ लो । क्योंकि जब तिलस्म के भीतर प्रवेश करने का वक्त आएगा, मैं यहां मौजूद नहीं रहूंगा।"


"रास्ता कहां है बाबा ?" मोना चौधरी ने पूछा।


फकीर बाबा ने उस तरफ देखा, जहां से पहाड़ी झरना गिर रहा था सुबह


तुम दोनों ने वो झरना गिरते देखा था ?" बाबा ने पूछा ।


"हां।" दोनों ने कहा ।


"आज जब सूर्य की आखिरी किरण छिपने पर, झरना बहना शुरू हो जाएगा, वहीं बाग, फूल और रास्ते नजर आने लगेंगे तो तुम दोनों ऊपर चढ़कर झरने तक पहुंचेंगे । जहां से पानी गिर रहा है, उसके पास ही सीढ़ियां नजर आएंगी, जो कि पहाड़ी के भीतर जा रही हैं। एक सीढ़ी दाईं तरफ जा रही है और दूसरी बाईं तरफ । दोनों आपसी रजामंदी से अपनी सीढ़ियां चुन लेना । याद रखना, दोनों एक ही दिशा वाली सीढ़ियों पर नहीं उतरोगे। वरना तुम दोनों उसी वक्त अपनी जान गंवा बैठोगे । तुम में से एक बाईं तरफ वाली सीढ़ियों से नीचे उतरेगा और दूसरा दाईं तरफ बाली सीढ़ियों से। वो सीढ़ियां तिलस्मी नगरी का प्रवेश द्वार है । सीढ़ियां समाप्त होते ही तुम लोग खुद को तिलस्म नगरी में पाओगे ।"


गंभीर स्वर में कहने के साथ ही फकीर बाबा ने देवराज चौहान और मोना चौधरी पर निगाह मारी ।


मोना चौधरी और देवराज चौहान के चेहरों पर दृढ़ता नाच रही थी ।


"उसके बाद तिलस्मी नगरी में तुम दोनों के साथ क्या होता है, उसके जिम्मेवार तुम दोनों खुद हो ।"


दोनों खामोश रहे ।


"अब मैं चलता हूं । तुम दोनों को दिन बिताना है और शाम ढलते ही तिलस्मी नगरी में प्रवेश कर जाना है। " फकीर बाबा ने कहा ।


"तिलस्मी नगरी से बाहर आने का रास्ता ।"


"ताज हाथ में आते ही बाहर आने के सारे रास्ते नजर आने लगेंगे।"


फकीर बाबा ने गंभीर स्वर में कहा ।


दोनों फकीर बाबा को देखते रहे ।


फकीर बाबा की निगाह मोना चौथी के हाथ में दबे तिलस्मी खंजर पर पड़ी तो चेहरे पर मुस्कान उभरी, उसी मुस्कान के साथ उसने देवराज चौहान को देखा और फिर देखते ही देखते फकीर बाबा दोनों की निगाहों से ओझल हो गया ।


मोना चौधरी और देवराज चौहान की निगाह मिली ।


यह चौधरी चौंकी ।


"अब हममें से एक को तो अपनी जान गंवानी ही पड़ेगी।" देवराज चौहान मुस्कुराया । 


"परवाह नहीं ।" मोना चौधरी तीखे स्वर में कह उठी--- "ताज मैं हासिल करूंगी और न हासिल कर पाई तो तुम्हारी गुलामी करने से अच्छा मौत को गले लगाना है।" 


देवराज चौहान मुस्कुराया और कुछ दूर हटकर एक पत्थर पर जा बैठा।


"बेला ।" देवराज चौहान फुसफुसाया---- "खाने का इंतजाम कर दो।" 


देवराज चौहान के शब्द पूरे होते ही जमीन पर चादर और उस पर गर्म खाना नजर आने लगा।


देवराज चौहान पत्थर से उठा और चादर पर जा बैठा फिर मोना चौधरी को देखा ।


"खाना खा लो ।" देवराज चौहान का स्वर शांत था । 


मोना चौधरी ने कुछ नहीं कहा और मन ही मन बुदबुदाई । "तिलस्मी खंजर, मेरे लिए खाने का इंतजाम करो।"


उसी पर उसके सामने टेबल और कुर्सी नजर आने लगी । टेबल पर खाना मौजूद था । मोना चौधरी में देवराज चौहान को देखा फिर कुर्सी पर बैठकर खाना खाने लगी ।


यह देखकर देवराज चौहान को मन ही मन हैरानी हुई।


"बेला।" देवराज चौहान फुसफुसाया--- "मोना चौधरी के सामने खाना कैसे आ गया ?" "इसके हाथ में तिलिस्मी खंजर है। जो बहुत शक्तिशाली है " बेला की आवाज कानों में पड़ी ।


"तिलस्मी खंजर मोना चौधरी को कहां से मिला ?" देवराज चौहान अजीब से स्वर में बोला ।


"इस बात का जवाब मैं नहीं दे सकती ।"


खाना खाने के बाद दोनों आराम करने के इरादे से इधर-उधर लेट गए । अब उन दोनों को इंतजार था, शाम होने का ताकि तिलस्मी नगरी में प्रवेश कर सकें । "


शाम ढल चुकी थी । वही सुखमय, खूबसूरत नजारा सामने था । वहां कई तरह की रोशनियां फैली नजर आ रही थी । वही पेड़-पौधे । मखमली घास, वही रास्ते, वही सब कुछ जो उन्होंने सुबह देखा था।


देवराज चौहान और मोना चौधरी पहाड़ी पर चढ़कर झरने के पास पहुंच चुके थे । सामने ही उन्हें वो जगह नजर आई, जहां सीढ़ियां नजर आ रही थी। दोनों एक साथ आगे बढ़े, सीढ़ियों के पास पहुंचे। सबसे पहले उन्हें बड़ी सीढ़ी नजर आई, उसके बाद दाईं और बाईं तरफ दो दिशाओं में सीढ़ियों बंट रही थी ।


दोनों ने एक दूसरे को देखा फिर एक साथ कदम उठाकर बड़ी सीढ़ी पर पहुंच गए।


"तुम किस दिशा वाली सीढ़ियों पर जाना चाहती हो ?" देवराज चौहान का शांत था । मोना चौधरी ने चुभती निगाहों से देवराज चौहान को देखा ।


"देवराज चौहान । इस बार मौत के खेल में जीत का ताज' मेरे सिर पर रखा जाएगा।"


"मैं जानता हूं मोना चौधरी । ताज तुम्हारे सिर पर अवश्य रखा जाएगा। लेकिन वह मौत का ताज होगा या जीत का, इस बात का फैसला तो आने वाला वक्त ही करेगा।"


अगले ही पल मोना चौधरी ने कदम उठाया और तिलस्मी नगरी में प्रवेश करने के लिए बाईं तरफ वाली सीढ़ी पर पैर रख दिया ।


देवराज चौहान ने कदम उठाया और दाईं तरफ वाली सीढ़ी पर जा खड़ा हुआ ।


दोनों ने एक दूसरे को चुनौती भरी निगाहों से देखा फिर तेजी से अपने-अपने रास्तों पर जाती सीढ़ियों पर उतरते चले गए । सीढ़ियां समाप्त होते ही उन्होंने तिलस्मी नगरी में प्रवेश कर जाना था । ज्यों-ज्यों वे उतरते जा रहे थे, त्यों-त्यों वहां अंधेरा गहराता जा रहा था । कुछ देर तक वो॒ो वे दोनों एक दूसरे को नजर आते रहे फिर अंधेरे की वजह से एक-दूसरे को देखना भी बंद होता चला गया। एक-दूसरे के कदमों की आहटें उनके कानों में पड़ रही थी और फिर धीरे-धीरे और उन आटों का सुनाई देना भी उन्हें बंद होता चला गया।


करीब आधे घंटे बाद देवराज चौहान को दूर प्रकाश का गोला नजर आया तो वे समझ गया कि वहां पर पहुंचकर सीढियां समाप्त हो रही है तिलस्मी नगरी की शुरुआत हो रही है ।


"सावधान, देवराज चौहान ।" बेला की फुसफुसाती आवाज उसके कानों में पड़ी--- "तुम तिलस्मी नगरी में प्रवेश करने जा रहे हो और वहां कदम रखते ही, तुम्हें कैसी भी हैरतअंगेज स्थिति का सामना करना पड़ सकता है । "


जवाब में देवराज चौहान ने होंठ भींच लिए । वो सीढ़ियां उतरता रहा। रोशनी का गोला बड़ा होता हुआ जैसे करीब आता जा रहा था।


समाप्त