“ओह... तो वह सब उसने तुम्हारी सलाह पर किया था।”


“वह कहने लगी कि इस तरह तो वे मुझे अगली पार्टी में भी शामिल कर लेंगे । जब मैंने कहा कि वह शामिल हो जाए तो हैरान रह गई लेकिन अगली ही सांस में मैंने समझाया कि पकड़े वे तभी जाने चाहिएं जब इस तरह की दूसरी पार्टी कर रहे हों। यानी रंगे हाथों। मैंने उससे कह दिया था कि जैसे ही अगली पार्टी की जगह और तारीख पता लगे, मुझे बता दे । मैं दिल्ली के पुलिस कमिश्नर से कहकर वहां छापा डलवा दूंगी और उन्हें यह भी बता दूंगी कि जबरदस्ती किसके साथ की जा रही है । तब जाकर वह सारी बात समझी और मेरे प्लान पर काम करने को तैयार हुई लेकिन ..


“लेकिन?”


“उसका दूसरा फोन रतन की हत्या के इल्जाम में फंसने और कोर्ट से जमानत होने के बाद आया । बुरी तरह रो रही थीं वह । रोते रोते बताया कि दूसरी पार्टी भी हो चुकी है। उसमें रतन की हत्या भी हो चुकी है और उसके पिता को कैद करके उसे उस हत्या के इल्जाम में फंसाया भी जा चुका है। वहीं सारी बातें विस्तार से बताईं उसने जो कुछ देर पहले तुम अशोक के मुंह से सुन चुके हो। जब मैंने पूछा कि उसने पार्टी से पहले फोन क्यों नहीं किया तो उसने बताया कि उस रात अशोक नौ बजे घर पहुंचा और कहा कि पार्टी में चलना है। जगह तब भी नहीं बताई थी । उसके बाद लगातार वह उसके साथ ही रहा। फोन करने का मौका ही नहीं मिला और पार्टी में वह सब हो गया ।”


“ उसके बाद ?”


“मैं अवाक् रह गई । कहीं न कहीं गिल्टी भी थी कि चांदनी इतने बड़े झमेले में इसलिए फंसी है क्योंकि मैंने मसले को बहुत हल्का लिया था। अब उसे उस झमेले से निकालना मेरी ड्यूटी बनती थी । उसके पिता को रमेश की कैद से निकालना भी मेरा ही फर्ज था जिनकी वजह से वह उनके इशारों पर नाचने के लिए मजबूर थी। साथ ही दिमाग में यह बात भी थी कि इतने रहस्यमय तरीके से रतन की हत्या की तो किसने की ? कहने का मतलब यह कि अब दिल्ली आकर इस किस्से में इन्वॉल्व होना मेरी नैतिक जिम्मेदारी थी लेकिन सभी जानते हैं कि मैं आमतौर पर किसी केस की इन्वेस्टीगेशन के लिए जिंदलपुरम से बाहर नहीं निकलती हूं। इसलिए उसे मेरठ जाकर तुमसे मिलने की सलाह दी और किस्से को तोड़-मरोड़कर सुनाने को कहा। "


“तोड़-मरोड़कर क्यों?”


“ अगर वह तुम्हें सीधे-सीधे वह बताती जो हुआ था तो मुझे मालूम है कि तुम उसे मेरे पास नहीं लाते क्योंकि जानते हो, इतने सीधे किस्सों में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं होती । मुमकिन है कि अपने स्तर पर ही उसकी समस्या का कोई हल कर देते इसलिए मैंने उसे ऐसा किस्सा बनाकर तुम्हें सुनाने के लिए दिया जिसे सुनकर तुम्हारी खोपड़ियां घूम जाएं और तुम्हें लगे कि ---- हां, मामला विभा के स्तर का है। मुंबई से कोरियर द्वारा अशोक की अंगूठी उसे मिलने आदि के पेंचदार नजर आने वाले पंच किस्से में इसीलिए जोड़े गए थे ।


“ और वह पीले घर वाली पहेली ?”


“वह तो सचमुच मेरे लिए भी पेंच था जो बजाज-भवन में पपीतों के पेड़ों को देखने के बाद ही समझ में आया ।”


“ बाद में हमें सच्चाई बताने में क्या हर्ज था?”


“मेरठ में, जब तुम 'मिस्टर चैलेंज' बनकर मुझे छका रहे थे, तब नहीं सोचा था कि कभी तुम्हारे साथ भी कोई ऐसा कर सकता है?"


( पढें ---- 'मिस्टर चैलेंज)


“ओह, तो इस बार बदला लिया है तुमने मुझसे ?”


“ ऐसा भी समझ सकते हो ।” थोड़े शरारती अंदाज में कहने के बाद वह सीरीयस होकर बोली- - - -“लेकिन वेद, सच्चाई ये है कि पहले ही से काफी कुछ सच्चाई मालूम होने के बावजूद दिल्ली आते ही मैं घटनाओं में कुछ ऐसी उलझी कि खुद मेरा ही दिमाग घूम गया। थाने में कदम रखते ही मैं चांदनी को बेकुसूर साबित कर चुकी थी । सारे पेंच अवंतिका की हत्या ने फांसे । उसके बाद

यह धमाकेदार खबर मिली कि इन लोगों ने छंगा- भूरा को कहां रखा है। उन्हें गिरफ्तार किया । तुम्हें याद होगा कि जब वहां से लौट रहे थे तो एक फोन आया था जिसके बारे में तुम्हारे पूछने पर भी मैंने कुछ नहीं बताया । वह फोन चांदनी का था। उसने बताया कि वे लोग चाहते हैं कि यमुना में कूदकर सुसाईड करने का नाटक करूं ताकि लोग समझें कि मैं मर गई हूं, उन्होंने मुझसे एक डायरी में यह लिखवा लिया है कि मैंने रतन, छंगा- भूरा और अवंतिका की हत्या कैसे की । उसने उनका मकसद भी बता दिया था और यह भी कहा था कि वह अभी भी अपने पापा की खातिर वह सब करने के लिए मजबूर है। मैंने कहा कि इस तरह तो खुद तुम्हारी जान को खतरा हो सकता है तो उसने विश्वास दिलाया कि यमुना में कूदने से उसे कुछ नहीं होगा क्योंकि वह बहुत अच्छी तैराक है। उसके आश्वासन पर मैंने भी कह दिया कि धीरज आदि को धोखा देने के लिए यह नाटक कर देना ही ठीक है। उसके बाद वीणा ने चांदनी के यमुना में कूदने की खबर दी। अगले दिन हम बजाज भवन पहुंचे। वहां से गुडगांव| कामता प्रसाद को आजाद कराते ही मुझे लगा कि अब चांदनी प्रेशर से मुक्त हो जाएगी लेकिन रमेश की हत्या और वहां से बरामद चांदनी के कपड़ों ने जहां मेरा दिमाग घुमाकर रख दिया वहीं यह फिक्र भी खाने लगी कि चांदनी जिंदा भी है या नहीं और जब उसकी लाश मिली तो कहीं न कहीं मैं खुद को भी दोषी समझने लगी। शायद यह सोचकर कि मैंने उसे यमुना में कूदने की सहमति क्यों दी?”


“लेकिन अगर उसकी हत्या नहीं हुई, वह पत्थर से सिर टकराने के कारण ही मरी तो हत्यारे ने उसके साथ वैसा सुलूक क्यों किया जैसा अपने शिकारों के साथ कर रहा है?"


“इसके दो कारण हो सकते हैं।” विभा ने कहा----“पहला यह कि उसकी नजर में शायद वह भी उसी ग्रुप की मेंबर थी और दूसरा यह कि मुमकिन है वह उसकी लाश के साथ भी वैसा ही सलूक करके इंवेस्टीगेटर्स को धोखा देने की कोशिश कर रहा हो । ”


मैंने कुछ कहने के लिए मुंह खोला ही था कि लिमोजीन एम्बेसडर के पीछे रुक गई। हम थाने में पहुंच चुके थे।


धीरज सिंहानिया उस वक्त भी टार्चर चेयर पर बैठा था मगर जिस्म पर एक भी कपड़ा नहीं था ।


होता भी कैसे?


वे सब तो हमारे पास थे ।


हां, उसकी गोद में सुधा के कपड़े जरूर रखे थे ।


पेट पर 'ल' लिखा था ।


उसकी आंखें देखकर विभा ने बताया कि ये हत्या भी इंसुलिन के इंजेक्शन से की गई थी ।


गोपाल मराठा अपने दोनों कूल्हों पर हाथ रखे धीरज की लाश को ऐसे अंदाज में देख रहा था जैसे बच्चा अपने सबसे पंसदीदा खिलौने को देख रहा हो । होठों पर बहुत ही प्यारी मुस्कान थी उसके ।


यह वह गोपाल मराठा था जिसे थाने में आते ही वहां के स्टॉफ पर चढ़ जाना चाहिए था । चीख-चीखकर पूछना चाहिए था कि उनके रहते, उनकी कस्टडी में मौजूद कैदी मर कैसे गया ?


जिसे थाने के सारे स्टॉफ को सस्पेंड कर देना चाहिए था उसने किसी से एक सवाल भी तो नहीं किया ।


जबकि सभी सहमें हुए थे।


उस वक्त वहां केवल तीन आदमियों का स्टॉफ था ।


सब-इस्पेक्टर, कांस्टेबल और मुंशी ।


तीनों ऐसे खड़े थे जैसे मुर्दे खड़े हों ।


यह सवाल भी उनसे विभा को ही करना पड़ा कि क्या कैसे हुआ?


रोते-पीटते सब-इंस्पेक्टर ने केवल इतना ही बताया कि उन्हें इससे ज्यादा कुछ नहीं मालूम कि एक बजे के करीब अचानक ही वे तीनों बेहोश हो गए थे। करीब ढाई घंटे बाद होश आने पर कैदी को उस अवस्था में पाया जिसमें इस वक्त है ।


काफी देर की खामोशी के बाद शगुन ने कहा ---- “इसका मतलब आपका आइडिया ठीक निकला आंटी, सुधा के बाद हत्यारे का शिकार ये है और इसके पेट पर 'ल' लिखा है ।”


“ और इसके बाद वाली लाश पर 'ते' ।” मैंने कहा ।


“मेरे ख्याल से तो सिक्वेंस बनने ही वाला है।” कहने के साथ शगुन ने अपनी जेब से मोबाइल निकाला । उसके मेसिज वाले वर्जन में गया और हिंदी इंग्लिश मिक्स करके लिखा----‘क्यों' 'किवो' 'ठ' 'अ' 'यां' 'ब' 'द' 'ल' 'ते'।' फिर उसे पढ़ने की कोशिश करने लगा।


मैं भी उसके पीछे पहुंच गया था और स्क्रीन पर लिखे शब्दों को पढ़ने लगा----“क्यों किवो बीवियां बदलते... वाह ! ये तो हत्यारा साफ साफ कह रहा है कि वह उनकी हत्या इसलिए कर रहा है 'क्योंकि वो बीवियां बदलते' इससे आगे ' हैं' होना चाहिए विभा, या ‘थे'।”


“मतलब बस एक हत्या और होनी है।" उत्साह से भरा शगुन बोला----“और सेंटेंस पूरा हो जाएगा ।”


“बची भी तो एक ही है । "


मैंने कहा ---- “मंजू कपाड़िया ।”


“जल्दी से आओ ।” विभा दरवाजे की तरफ लपकी ।


एकाएक ही वह बहुत बेचैन - सी नजर आने लगी थी ।


“माफ करें विभा जी, मैं नहीं आ रहा हूं।” मराठा ने कहा। वह ठिठकी | घूमी और बोली----“क्यों?”


“ अब इस केस में मेरी बस इतनी ही दिलचस्पी रह गई है कि हत्यारा कभी न पकड़ा जाए।” उसने कहा ---- “सुना है कि जिस केस के पीछे आप पड़ जाती हैं, उसके हत्यारे को बेनकाब होना ही पड़ता है। जब तक आप कपाड़िया-विला पहुंचेंगी तब तक मैं मंदिर में जाकर अपने ईष्टदेव से यह प्रार्थना करूंगा कि वे आपके केरियर पर दाग लगा दें। इस केस को आपके जीवन का एक ऐसा केस बना दें जिसे आप सॉल्व नहीं कर सकीं, जिसके हत्यारे को कभी नहीं पकड़ सकीं ।”


विभा के जबड़े भिंच गए थे। फिर उसने आंखों से मुझ पर कहर बरसाया और शब्दों को चबाती-सी बोली“तुम्हारा भी यही फैसला है या चल रहे हो ?” मैं इंकार नहीं कर सका । शगुन भी मेरे पीछे लपक पड़ा था ।


लिमोजीन कपाड़िया - विला के पोर्च में जाकर रुकी ही थी कि सारा वातावरण एक गोली चलने की आवाज से दहल उठा । विभा दरवाजा खोलकर कूदने वाले अंदाज में बाहर निकली। मैंने और शगुन ने भी अनुसरण किया। गोली चलने की आवाज इमारत के अंदर से आई थी । लॉन में काम कर रहे माली, आयरन गेट पर तैनात गार्ड और बाहर मौजूद अन्य कई कर्मचारियों को चौंकता छोड़कर हम दौड़ते हुए अंदर पहुंचे। लॉबी में कई लोग एक तरफ को दौड़ते नजर आए । विभा भी उसी दिशा में दौड़ी और हम भी। चारों तरफ से बस यही आवाजें आ रही थीं-- - “क्या हुआ... क्या हुआ?”


जल्दी ही हम भी उस कमरे के बाहर पहुंच गए जो हर भागने वाले का टार्गेट था। धनजय कपाड़िया पागलों की मानिंद उस कमरे के बंद दरवाजे को पीटते हुए बार-बार मंजू को पुकार रहे थे।


अंदर खामोशी थी ।


“वेद, शगुन ।” उसने तेज आवाज में हमसे कहा ---- “जल्दी से देखो, इस कमरे की कहीं कोई खिड़की तो नहीं है?”


एक पल को तो हम हड़बड़ा से ही गए ।


अभी गैलरी में एक तरफ को भागने ही वाले थे कि धनजय ने -“नहीं, इस कमरे में कोई खिड़की नहीं है।" कहा


“तो फिर तोड़ दो... तोड़ दो दरवाजे को ।”


शगुन ने जोर से उसमें कंधा मारा ।


विला के कई कर्मचारी भी उसकी मदद करने लगे।


धनजय कपाड़िया भी शायद यही चाहते थे ।


उधर दरवाजे को तोड़ने की कोशिश चल रही थी इधर विभा ने उनसे पूछा----“कैसे हुआ ये सब ?”


“ह...हमें कुछ नहीं पता। हम तो खुद गोली की आवाज सुनकर अपने कमरे से दौड़े आए हैं । हे भगवान, क्या होने वाला है ?”


“क्या अंदर, मंजू के पास कोई रिवाल्वर था ?”


“र...रिवाल्वर तो घर में एक ही है। हमारा लाईसेंसी रिवाल्वर । मगर वो तो हमारे कमरे में होना चाहिए।"


तभी, 'धाड़' की जोरदार आवाज के साथ बंद का बंद दरवाजा अंदर की तरफ जाकर गिरा । शगुन, कर्मचारी और शायद धनजय कपाड़िया भी एक रेले के रूप में अंदर दाखिल होने ही वाले थे कि विभा की तेज आवाज ने सबको जहां का तहां रोक दिया----“ठहरो।”


हर निगाह केवल उसी के चेहरे पर अटककर रह गई ।


“हमारी परमीशन के बगैर कोई अंदर नहीं जाएगा ।”


“म... मगर विभा जी..


“केवल आप हमारे साथ थोड़ा अंदर तक आ सकते हैं।”


वे स्थिर से खड़े रहे।


“बाकी सबको यहां से हटाइए । "


वहां मौजूद सभी कर्मचारी झांक-झांककर कमरे में देखने की कोशिश करने लगे थे लेकिन वहां से किसी को वैसा कोई दृश्य नजर नहीं आ रहा था जिसे वे देखना चाहते थे।


धनजय कपाड़िया ने जब सबको हटने के लिए कहा तो भले ही वहां से हटने की मर्जी किसी की नहीं थी लेकिन हट सभी गए ।


बहरहाल, सब उनके नौकर ही थे ।


उसके बाद हमने कपाड़िया के साथ अंदर कदम रखा ।


एक छोटी-सी गैलरी पार करने के बाद जब पंद्रह बाई पंद्रह के एक कमरे में पहुंचे तो वह दृश्य नजर आया जो अपेक्षित था ।


बाईं दीवार के साथ लगे बैड पर मंजू लहूलुहान पड़ी थी ।


रिवाल्वर उसके दाएं हाथ में था और दाईं ही कनपटी से अभी तक भी खून बह रहा था । कोई भी, एक ही नजर में देखकर कह सकता था कि उसने खुद को गोली मार ली है।


साड़ी पहने हुए थी वह ।


पल्ला वक्ष-स्थल और पेट पर पड़ा था ।


विभा जिंदल ने धनजय कपाड़िया को बैड के ज्यादा नजदीक नहीं जाने दिया। उससे काफी पहले कंधे पर हाथ रखकर उन्हें रोका और पूछा ---- “रिवाल्वर आप ही का है ?”


अवाक् मुद्रा में वे बड़ी मुश्किल से 'हां' में गर्दन हिला सके।


“प्लीज, अब आप बाहर जाएं और हो सके तो पुलिस को फोन कर दें। तब तक मैं कमरे को अपने नजरिए से देखना चाहूंगी।"


धनजय विभा की तरफ ऐसी नजरों से देखते रहे जैसे समझ ही न पा रहे हों कि उसने क्या कहा है। विभा ने शगुन से कहा----“शगुन, अंकल को बाहर ले जाओ बेटे और तुम दरवाजे पर ही तैनात रहोगे । जब तक हम न चाहें तब तक कोई अंदर न आ पाए । "


शगुन ने तुरंत धनजय के कंधे पर हाथ रखा और उन्हें आहिस्ता आहिस्ता चलाता कमरे से बाहर ले गया ।


मैं और विभा बैड के नजदीक पहुंचे।


ड्राज के टॉप पर पेपरवेट से दबा एक कागज नजर आ रहा था ।


हम दोनों ही करीब-करीब एकसाथ उस पर झुके ।


उसे हाथ नहीं लगाया हमने ।


झुके ही झुके पढ़ा । लिखा था -- -- “क्योंकि मुझे भी इन लोगों ने इसी तरह अपने ग्रुप में शामिल किया था इसलिए काले मोतियों वाले पीले घर में एक एड्रेस छोड़कर चांदनी की मदद करने की कोशिश की मगर इससे मेरा गुनाह कम नहीं हो जाता।”


मैंने विभा की तरफ देखा लेकिन वह मेरी तरफ देखे बगैर बैड की तरफ बढ़ गई थी। फिर उसने अपने कोट के अंदरूनी हिस्से से कुछ कपड़े निकालने शुरू किए। वे मर्दाने कपड़े थे। विभा ने उन्हें एक गट्ठर की शक्ल दी और फिर गट्ठर को बैड पर उछाल दिया।


“व... विभा ।” मेरी आवाज बुरी तरह कांप रही थी ---- “क्या ये कपड़े अशोक बजाज के हैं?"


उसने बगैर कोई जवाब दिए मंजू की साड़ी का पल्ला उसके पेट से हटाया । अपने कोट की जेब से एक स्केच पेन निकाला और बाएं हाथ से उस पर 'थे' लिख दिया ।


काम पूरा करने के बाद जब उसने मेरी तरफ देखा तो उसके चेहरे पर वे ही भाव नजर आए जो कलेंडर्स में शेरांवाली के चेहरे पर असुरों का संहार करते वक्त नजर आते हैं।


मेरे पैरों तले से मानों धरती सरक गई ।


बहुत ही गहरे अंधकूप में गिरता चला जा रहा था मैं ।


समाप्त