वह कहता चला गया----“कोढ़ में खाज वाली स्थिति तब हुई जब पपीते के अंदर से आपको जाने क्या मिल गया? मैंने और पापा ने कितना पूछा लेकिन आपने कुछ नहीं बताया । वह तो आज भी हमारे लिए उतना ही बड़ा रहस्य है जितना उस दिन था।"
विभा अब भी केवल मुस्करा रही थी ।
“ उसके बाद पता नहीं आप कैसे गुड़गांव तक पहुंच गईं?" वह फिर बोला----“कामता प्रसाद को आजाद करा लिया। उन्हें कैद और किडनेप करने वालों से रमेश भंसाली के बारे में जान लिया।”
“ और तभी उसकी हत्या हो गई ?”
“आपके प्वांइट-ऑफ-व्यू से तो शायद वह भी हमीं ने की थी ! ”
अशोक ने मेरी तरफ देखते हुए कहा ।
मैंने पूछा----“तुम्हारे प्वांइट-ऑफ-व्यू से किसने की ?”
“एक बार फिर धीरज का ख्याल यही था कि वह हत्या भी चांदनी ने ही की है। उसका कहना था कि उसे नदी में कूदकर गायब होने के लिए कहकर तो हमने और बड़ी बेवकूफी की । अब तो खुद हमें ही नहीं मालूम कि वह कहां है और अब वह सामने आएगी भी नहीं, गायब रहकर ही हम सबसे बदला लेने की कोशिश करेगी ।”
“ और जब खुद उसी की लाश मिल गई? तब क्या सोचा तुमने ?”
“तब भी हम यही सोच रहे थे कि उसने हमें और आपको धोखा देने के लिए ठीक उसी ढंग से अपनी हत्या का नाटक किया है जिस ढंग से खुद हत्याएं कर रही थी । ”
“शिनाख्त करने के बाद भी ?”
“तभी से... तभी से तो हमारे दिमागों के धुर्रे उड़ने शुरु हुए। मैं तो उसकी पीठ के मस्से को देखते ही अपना दिमाग बदलने पर मजबूर हो गया था। इस बारे में जब बाकी सबको बताया तो सभी के होश फाख्ता हो गए। तब पहली बार दिमागों में ख्याल आया कि चार दिसंबर की रात से चांदनी अपनी बेगुनाही का जो राग अलाप रही थी, शायद वह सच ही था । हत्यारा कोई और ही था और हम अपनी धुनक में बेवजह चांदनी को हत्यारी समझते रहे । शायद वह ठीक ही कह रही थी कि रमेश के आऊट हाऊस में हम लोगों के अलावा कोई और भी था । उसी ने रतन को मारा । इस ख्याल ने हम सभी के जेहन सनसनाकर रख दिए । सबके दिमागों में एक जैसे सवाल कौंध रहे थे ---कौन है वह? क्यों एक-एक करके हम सबकी हत्याएं कर रहा है? वह रमेश के आऊट हाऊस पर क्या कर रहा था ? कैसे पहुंचा? और अगर वह वहां था तो हमारी पार्टियों का राज भी जानता है ! वह राज जिसे हम मरते दम तक नहीं खुलने दे सकते थे। आप समझ सकती हैं विभा जी कि हमारी क्या हालत हो रही होगी। एक तरफ आप हमें अपने उस भेद तक बढ़ती नजर आ रही थीं जिसके खुलने के मुकाबले हम सबको मरना मंजूर था क्योंकि उस भेद के खुलने पर कम से कम इस समाज में तो जिंदा रहा नहीं जा सकता था, दूसरी तरफ कोई ऐसा रहस्यमय शख्स एक-एक करके हमारी हत्याएं कर रहा था जिसे हमारी पार्टियों का राज मालूम था। न कुछ सूझ रहा था, न कुछ करते बन पड़ रहा था । उसके बाद जब ब्लैक डायमंड नाईट क्लब से मेरे पास यह फोन आया कि आप तीन नवंबर की मेरी और चांदनी की वहां मौजूदगी के बारे में जान चुकी हैं तो मेरी नजर में सारा किस्सा ही खत्म हो गया। घबराकर खुद को बेस्मेंट में छुपा लिया। अपने साथियों से भी पूरी तरह काट लिया मैंने खुद को । दिमाग में बस एक ही बात थी । यह कि मौका मिलते ही देश छोड़ दूंगा | कभी किसी को पता नहीं लगेगा कि अशोक कहां गया लेकिन.. ।
“वहां चांदनी पहुंच गई ? ” बात विभा ने पूरी की।
“एक बार फिर मुझे अपना विचार बदलना पड़ा । हत्याएं वही कर रही है। यकीनन मैंने गलत शिनाख्त की थी । अपनी हत्या का ड्रामा प्लांट करते वक्त चांदनी ने किसी और की लाश पर वैसा मस्सा भी बना दिया होगा जैसा उसकी पीठ पर है। "
विभा ने कहा ---- “इसका मतलब तुम्हें धीरज के एक और ऐसे नाटक की जानकारी नहीं है जिसके तहत वह मुझे संतुष्ट करके जिंदलपुरम भेज देना चाहता था और न ही यह जानते हो कि किरन, संजय और सुधा अब इस दुनिया में नहीं हैं। "
चेहरा कुछ और ज्यादा पीला पड़ गया अशोक का । मुंह से ऐसी आवाज निकली जैसे मुर्दा बोला हो ---- “क्या चांदनी ने उन्हें भी..
“नहीं, ये हत्याएं चांदनी नहीं कर रही है ।” विभा ने दृढ़तापूर्वक कहा ---- “वह बेचारी तो खुद भी मर चुकी है। "
“य...यहां आप गलत हैं विभा जी । मैंने उसे अपनी आंखों से देखा है। बेस्मेंट में उसने मेरे कपड़े..
“तुम्हारे द्वारा की गई शिनाख्त झूठी हो सकती है, मराठा के बताने पर उसकी एड़ी पर खुद मेरे द्वारा देखे गए निशान में कोई चूक हो सकती है लेकिन डी. एन. ए. टेस्ट की रिपोर्ट झूठी नहीं हो सकती ।”
“ड... डी. एन. ए. टेस्ट ?” इस बार अशोक के साथ-साथ मैं, शगुन और मराठा भी चौंक पड़े थे ---- “वो तुमने कब कराया ?”
“कमिश्नर साहब के आदेश पर लेबोरेटरी में रातों-रात काम हुआ । तब जाकर यह मेरे हाथ में आई है ।” कहने के साथ उसने कोट की जेब से रिपोर्ट का कागज निकलाकर मेज पर रख दिया ---- “सबसे बेहतर तुम जानते हो वेद, मैं कोई काम कच्चा नहीं करती। अशोक और मराठा की शिनाख्त के बावजूद मैं हंडरेट परसेंट श्योर हो जाना चाहती थी कि मरने वाली चांदनी ही है । "
“त... तो फिर वो कौन थी जो मुझे बेस्मेंट में..
“जाहिर है कि वह कोई और है जो खुद को चांदनी की शक्ल के पीछे छुपाने की कोशिश कर रहा है ।" कहने के साथ उस वक्त वह रिपोर्ट का कागज मेज से उठाकर वापस जेब में रख रही थी जब अचानक अशोक चिंहुका, मुंह से निकला ----“अरे, ये क्या चुभा?”
ऐसा कहने के साथ उसका हाथ अपने पेट पर गया था ।
हम सब भी चौंके। “य... ये सुईं । ”
अशोक के हाथ में एक सुई थी“ये सुईं ।”
हममें से अभी कोई कुछ समझ भी नहीं पाया था, बौखलाए हुए से ही थे कि ‘ओह!’ कहती हुई विभा उछलकर खड़ी हुई और दरवाजे की तरफ लपकती हुई चीखी---- “वो वहां है वेद ।” पलक झपकते ही वह दरवाजा खोलकर बाहर निकल गई थी। उसके पीछे मैं और मेरे पीछे मणिक लपका। दरवाजे की तरफ लपकते वक्त मैंने मराठा के मुंह से निकला अजीब वाक्य सुना था ---- “भगवान करे वह किसी के हाथ न आए।” विभा ने दोनों तरफ नजर मारी----गैलरी सूनी पड़ी थी। फिर वह उधर लपकी जिधर लिफ्ट थी। मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था और मेरे ख्याल से तो मणिक का दिमाग भी खाली था । उस क्षण हमें कुछ नहीं मालूम था कि क्या करना चाहते हैं । बौखलाए से बस उसके पीछे दौड़े चले जा रहे थे । एक मोड़ पार करने के बाद फ्लोर गार्ड नजर आया। हमें बहवाश हालत में दौड़ता देखकर वह चौंका ।
बोला ---- “क्या हुआ सर ?”
“कहां थे तुम ?” विभा ने उससे भन्नाकर पूछा ।
“म... मैं तो यहीं था मैडम ।” उसका जवाब सुनने के लिए विभा रुकी नहीं थी । बहुत तेजी के साथ भागती हुई वह लिफ्ट तक पहुंची। वह नीचे जा रही थी ।
“ओह !” विभा ने झल्लाकर दाएं हाथ का घूंसा बाएं हाथ पर मारा और फिर तेजी से मणिक की तरफ पलटकर बोली----“सीढ़ियों से जाओ, आज मुझे देखना है कि तुम कितने तेज दौड़ सकते हो । वह निकलना नहीं चाहिए । दौड़ो मणिक ।”
और... मणिक रिवाल्वर से निकली गोली की मानिंद सीढ़ियों की तरफ दौड़ा था | मेरी समझ में यह बात आकर नहीं दे रही थी कि इन हालात में मुझे क्या करना है जबकि विभा ने लगभग चीखते हुए गार्ड से कहा ---- “अपने बाकी साथियों से कहो बेवकूफ कि फिफ्थ फ्लोर से कोई भागने की कोशिश कर रहा है । सारे होटल में फैले सुरक्षा कर्मियों तक यह खबर पहुंचाओ कि वह निकल न पाए।”
अगले ही पल हड़बड़ाया - सा वह अपने हाथ में मौजूद वॉकीटाकी पर विभा के शब्द रिपीट कर रहा था।
तब तक दौड़ता हुआ फ्लोर इंचार्ज भी वहां आ पहुंचा। इससे पहले कि वह माजरा पूछता, विभा जिंदल ने नाराजगी भरे लहजे में कहा ----“कहां रहते हो तुम लोग ? कैसी सुरक्षा व्यवस्था है यहां की ?
कोई हमारे दरवाजे तक पहुंचकर वापस भी निकल गया और तुममें से किसी ने उसे देखा तक नहीं !”
इंचार्ज के मुंह से शब्द निकले जरूर थे मगर वे इस कदर गुड़मुड़ हो गए कि मेरी समझ में कुछ नहीं आया।
और विभा ने भी उन्हें सुनने की कोई कोशिश नहीं की। जाने क्या बात आई उसके दिमाग में कि जिस तरह भागती हुई वहां तक आई थी उसी तरह वापस कमरे की तरफ भागी। मैं फिर उसके पीछे ।
इंचार्ज मेरे पीछे था, गार्ड उसके पीछे ।
कमरे में पहुंचते ही मेरे और विभा के कदम जैसे जाम होकर रह गए। वहां का दृश्य ही ऐसा था ।
अशोक के दोनों हाथ अपनी गर्दन पर थे और वह सारे कमरे में छटपटाता फिर रहा था । कभी सोफे से टकराता था, कभी मेज से तो कभी रेफ्रीजरेटर से । साफ नजर आ रहा था कि वह जोर-जोर से चीखने की कोशिश कर रहा है लेकिन मुंह से 'गूं- गूं' की आवाज से ज्यादा कुछ भी नहीं निकल रहा था।
चेहरा लाल हो गया था, आंखें बाहर निकल आई थीं। साफ नजर आ रहा था कि वह अपना दम घुटता महसूस कर रहा है ।
मुंह से झाग भी निकल रहे थे ।
गोपाल मराठा और शगुन उसे देख रहे थे ।
सिर्फ देख रहे थे ।
कोई मदद नहीं कर रहे थे उसकी ।
मदद तो शायद उसकी इस वक्त कोई कुछ कर भी नहीं सकता था । विभा जैसी शख्सियत भी बस जाम हुई उसे देखती रह गई थी लेकिन असल बात यह थी कि मराठा और शगुन के चेहरों पर उसे देखते वक्त कोई दुख या वेदना नहीं थी । बल्कि अगर मैं यह लिख दूं तब भी शायद कुछ गलत नहीं होगा कि उनके होठों पर हल्की-हल्की सी मुस्कान थिरकती नजर आ रही थी ।
गोपाल मराठा की मुस्कान शगुन की मुस्कान से कुछ ज्यादा ही तीखी थी । ऐसा लग रहा था जैसे उसे अजीब-सी संतुष्टि मिल रही हो ।
अब मेरी समझ में उसके उस अजीब से वाक्य का मतलब आ गया था जो कमरे से निकलते वक्त सुना था।
देखते ही देखते अशोक कालीन पर गिर पड़ा।
कुछ देर वहीं पड़ा छटपटाता रहा और फिर शांत हो गया ।
उसी क्षण गोपाल मराठा के मुंह से निकला ---- “किस्सा खत्म ।”
विभा ने उसे घूरकर देखा ।
“भगवान ने शायद सुन ली मेरी ।" उसने विभा से कहा ---- “वह तुम्हारे हाथ नहीं आया । ' की होल' से ही काम करके निकल गया।"
“इसे तो खैर क्या कहूं ।” विभा मुझसे बोली- - - -“लेकिन अपने बेटे को समझाओ, किसी को मरता देखकर इस तरह..
“ शायद आप समझ नहीं सकेंगी आंटी । जिसने मेरी फ्रेंड को जीते-जी मार दिया था उसे मरते देखकर मुझे बहुत सकून पहुंचा है।"
हकीकत ये है कि उस वक्त मैं फैसला नहीं कर पा रहा था कि मैं किस तरफ हूं? विभा की तरफ या मराठा और शगुन की तरफ ?
कभी लगता-- हत्यारा ठीक कर रहा है ।
कभी लगता----किसी को मरते देखकर मुस्कराना ठीक नहीं है।
मराठा ने विभा पर बड़ा ही अजीब-सा व्यंग किया ---- “इसकी लाश को उठवाने की व्यवस्था करूं विभा जी या आपको किसी किस्म की इन्वेस्टीगेशन आदि करनी है ?”
विभा कुछ बोली नहीं, सिर्फ उसे घूरती रही।
सन्नाटा उस वक्त बहुत गहरा था जब अचानक गोपाल मराठा का मोबाइल बजा। उसने कॉल रिसीव करके कान से लगाया। कुछ देर तक 'हूं- हां' करता रहा । अपनी तरफ से कुछ बोला भी तो ऐसा बोला कि बात समझ में नहीं आई। कुछ देर बाद संबंध-विच्छेद करके मोबाइल जेब में रखता बोला----“एक और खुशखबरी है।"
“क... क्या ?” मेरे मुंह से निकला ।
“धीरज जी भी स्वर्ग सिधार गए । "
तभी दौड़ता हुआ मणिक सुईट में दाखिल हुआ।
वह बुरी तरह हांफ रहा था ।
हाथ में एक जोड़ी कपड़े थे । अशोक की लाश पर नजर पड़ते ही वह भी जहां का तहां जाम हो गया । फिर जैसे दिमाग को झटका-सा लगा। बोला- - - - “ये कपड़े मुझे लिफ्ट में से मिले हैं।”
धीरज के कपड़ों को पहचानते ही मेरे रोंगटे खड़े हो गए ।
लिमोजीन में ब्लेड की धार जैसा पैना सन्नाटा था । हम उस थाने की तरफ जा रहे थे जिसमें धीरज को छोड़कर आए थे । आगे-आगे मराठा की एम्बेसडर दौड़ रही थी । सन्नाटा जब मेरी सहनशक्ति से बाहर हो गया तो बोला---- “हर बात समझ में आ गई लेकिन एक बात अब भी समझ में नहीं आई।” शगुन ने मेरी तरफ सवालिया नजरों से देखा। लेकिन उस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई जिसे बोलने के लिए प्रेरित करने हेतु मैंने उपरोक्त बात कही थी । वह यूं बैठी रही थी जैसे संगेमरमर की मूर्ती बैठी हो अब मैंने सीधे-सीधे कहा ---- “तुम सुन रही हो न विभा?” अपनी सीट पर बैठे-बैठे वह थोड़ी घूमी | मेरी तरफ देखा और इतनी तीखी नजरों से देखा कि मैं सकपकाकर रह गया । फिर उसके मुंह से उतना ही तीखा लहजा निकला ---- “तुम्हें तो अब इस केस में कोई दिलचस्पी ही नहीं है न!”
“म ... मैंने केस की बात कब कही?” मैं थोड़ा बौखला गया | “ और क्या कहा था?”
“हत्यारे के बारे में कहा था । केवल यह कि मेरी नजरों में वह सजा का हकदार नहीं है और ... वह मैं अब भी कह रहा हूं । ”
“अगर मैं ये कहूं कि हत्यारे ने तुम्हारे दिमाग को किडनेप कर लिया है! तुम्हारे भी और तुम्हारे इस पुत्तर के भी । तो?”
“क... . क्या मतलब ?”
“ उसने तुम्हें एक दिशा दी और तुम उसी को सच मान बैठे।” “किसने?”
“वो जो एम्बेसडर में हमारे आगे-आगे जा रहा है । "
मेरा मुंह खुला का खुला रह गया जबकि शगुन के मुंह से चौंका हुआ स्वर निकला ---- “क... क्या बात कर रही हो आंटी ?”
“मान लो कि अपनी बहन के साथ हुए अन्याय का उसे बहुत पहले से पता था । ऐसी स्थिति में क्या उसे अन्याय करने वालों के साथ वही सब नहीं करना चाहिए था जो हत्यारे ने किया है ?”
“अशोक की हत्या हम सबके सामने हुई है । खुद तुम्हारे सामने भी । वह भी सुईट में ही था । तुमने हत्यारे का पीछा भी किया था।"
“वह मेरी बेवकूफी हो सकती है । "
“बेवकूफी?”
“हत्या करने के लिए हत्यारे ने किया ही क्या था ! जहरबुझी केवल एक सुंईं थी जो किन्हीं एक्सपर्ट हाथों ने इस तरह अशोक की तरफ फैंकी कि सीधी उसके पेट पर जा गड़ी। पहले झटके में मुझे लगा कि यह काम सुईट के बाहर से ' की होल' के जरिए से किया गया है क्योंकि अशोक का पेट उसके निशाने पर था पहली जम्प मैंने उसी तरफ लगाई। लेकिन, तुम साथ थे, इसलिए
तुम भी जानते हो कि दूर-दूर तक कोई नजर नहीं आया।”
“इसलिए तुम तिगड़म जोड़ रही हो कि..
“ये सिर्फ तिगड़म नहीं है वेद, थोड़ा दिमाग लगाकर सोचोगे तो लगेगा कि खुद मराठा भी उस वक्त ऐसे कोण पर खड़ा था कि उसके द्वारा फैकी गई सुंईं भी अशोक के पेट पर ही लगेगी।”
मैं चुप ।
“कहता है कि चांदनी के अपनी बहन होने की बात उसने हमें इसलिए नहीं बताई क्योंकि उसके पिता ने संबंध तोड़ लेने की धमकी दे रखी थी । जितनी बड़ी-बड़ी बातें हुईं, उनके होने पर क्या एक भाई इस बात को केवल इस छोटी-सी धमकी के कारण छुपाएगा?”
“ और क्या कारण हो सकता है छुपाने का ? "
“मन का चोर ।” उसने कहा - - - - “हत्यारा भले ही चाहे जितना चालाक और शातिर हो लेकिन उसके मन में एक चोर होता है । उसी चोर ने उससे कहा होगा कि अगर मुझे यह पता लग गया तो कहीं मेरा ध्यान उसकी तरफ न चला जाए । इसलिए यह राज हमें उसने नहीं बताया बल्कि हमने मालूम किया और जब उसे पता लगा कि हमें पता लग गया है तो कुछ देर के लिए तो उसका रंग ही उड़ गया था । "
मुझ पर कुछ कहते न बन पड़ा ।
“कितना आसान था उसके लिए यह सब । पट्ठा बार-बार कितने पुरजोर अंदाज में मेरे दिमाग में यह बात ढूंसने की कोशिश कर रहा था कि हत्यारी कोई लड़की है । और अब... अंत में उसने हमारे दिमागों में यह ठूंसने की भी कोशिश की कि हत्यारा जो कर रहा है, ठीक कर रहा है । शगूफा उसने छोड़ा और तुम दोनों उसके लपेटे में आ गए। इस कदर कि हत्यारा नेक काम करता नजर आने लगा ।”
“अगर तुम्हें अपनी इस थ्योरी पर इतना ही विश्वास है तो उसे गिरफ्तार क्यों नहीं कर लेतीं?”
“तुम्हें मालूम है, मैं बगैर सबूत के किसी पर हाथ नहीं डालती ।” उसने बात पूरी की ---- “ और सबूत जुटने में अब ज्यादा देर नहीं
“कुछ भी सही आंटी, मैं अपनी बात पर अडिग हूं।" शगुन ने कहा - - - - “हत्यारा चाहे मराठा हो या कोई और मगर मैं दिल से यही चाहूंगा कि उसे एक सेकिंड की भी सजा न हो ।”
“मुझे लगता है मैं भैंसों के आगे बीन बजा रही हूं।” नाराजगी भरे लहजे में कहे गए उसके इस सेंटेंस के बाद लिमोजीन में एक बार फिर पहले जैसी खामोशी छा गई और एक बार फिर उस खामोशी को मैंने ही तोड़ा ---- "उस सवाल का जवाब मुझे अभी-भी नहीं मिला जिसके लिए तुम्हारी तपस्या भंग की थी । ”
“कौन-सा सवाल?”
“चांदनी से संबंधित सारी बातें समझ में आ गईं लेकिन यह बात समझ में नहीं आई कि मेरठ आकर उसने इतने लंबे-लंबे झूठ क्यों बोले? सीधे-सीधे वही क्यों नहीं बता दिया जो उसके साथ हुआ था?”
“ ऐसा करने के लिए उससे मैंने कहा था । "
“त... तुमने ?” मैं और शगुन इस तरह उछल पड़े जैसे हमारे जिस्म के हर मसाम पर अलग बिच्छु ने डंक मारा हो।
उसने वही कहा था जो हमने सुना और बावजूद इसके, हमें यकीन नहीं आ रहा था कि उसने वही कहा है। हम उसकी तरफ ऐसे अंदाज में देखते रह गए जैसे कोई बच्चा कमालपाशा के किसी जादू पर उसकी तरफ देखता रह गया हो ।
“क...क्या बात कर रही हो विभा ?” मेरे मुंह से ये लफ्ज बहुत देर बाद निकलने के बावजूद अटक-अटककर निकले----“भला तुमने उससे ऐसा कब कहा ? ”
“ और क्यों कहा?” शगुन का सवाल ।
“पहले किसके सवाल का जवाब दूं?”
“ चाहे जिसका दो, मगर दो ।”
“तुम दोनों गधे हो। मेरे ख्याल से तो तुम्हारे दिमाग में उसी वक्त यह सवाल उठना चाहिए था, जिस वक्त यह पता लगा था कि चांदनी शगुन के साथ-साथ विराट की भी दोस्त थी, बल्कि भावनात्मक रूप से विराट के ज्यादा नजदीक थी। उसे वही समझाने के फेर में विराट को यह भी बताना पड़ा था कि वह मेरा बेटा है, जो एक दिन मैंने तुम्हें समझाया था । तुम्हें उसी समय समझ जाना चाहिए था कि उसे अगर मेरी मदद की जरूरत थी तो विराट के जरिए सीधे-सीधे मुझी से संपर्क क्यों नहीं साधा, शगुन के जरिए मेरे पास क्यों आई?”
“क्या तुम यह कहना चाहती हो कि विराट के जरिए वह पहले ही तुमसे संपर्क साध चुकी थी ? ” मेरे मुंह से हैरानी भरे शब्द निकले ।
“उसी दिन, जिस दिन सुबह और शाम की चांदनी में वह फर्क आया था जिस फर्क ने अशोक के दिमाग के धुर्रे उड़ा दिए थे ।” विभा कहती चली गई ---- “अशोक के ऑफिस जाते ही उसने विराट को फोन मिलाया था और मुझसे बात करने की रिक्वेस्ट की थी । विराट की सिफारिश पर मैंने उससे बात की और वह सब जाना जो पिछली रात उसके साथ हुआ था । मैं यह सुनकर दंग रह गई कि हमारी युवा पीढ़ी पतन के कितने गहरे अंधकूप में जा गिरी है लेकिन तब तक क्योंकि इस मामले में ऐसा कुछ नहीं था जिसकी वजह से मैं जिंदलपुरम से निकलती इसलिए दिल्ली आने की जरूरत नहीं समझी । मेरी नजर में इन लोगों को दो सजाएं मिलनी चाहिए थीं । पहली ----समाज के सामने एक्सपोजर हो जाना और दूसरी ---- पुलिस द्वारा उन सबकी गिरफ्तारी। चांदनी उस वक्त भावनात्मक रूप से बहुत आहत थी इसलिए मैंने उसे समझाया कि इस दुनिया में 'पिसने' से काम नहीं चलता। ‘पीसने' से काम चलता है अतः आज शाम को जब अशोक ऑफिस से आए तो उसे अपना बदला हुआ रूप दिखाओ, तब देखना उसकी क्या हालत होगी । वही हुआ। "
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