पैंतीस दिन
दिन के आठ बज रहे थे। ठंडी हवा चल रही थी साथ ही सूर्य भी चढ़ता जा रहा था। ऊपर आम का फैला पेड़ होने की वजह से वे धूप से बचे हुए थे। शरीर पर दोनों ने उल्टे-पुल्टे ढंग से कपड़े पहने हुए थे जो कि अस्त-व्यस्त की सी हालत में पहुंच रहे थे।
पहले रागिनी की आंख खुली। सिर उठाकर देखा। दूर-दूर तक खेतों में कोई नजर नहीं आया। कहीं से ट्रैक्टर चलने की आवाज आ रही थी। रागिनी ने अपने कपड़ों पर निगाह मारी फिर बगल में लेटे बेदी पर निगाह मारी।
बेदी अभी भी गहरी नींद में था। मुद्दत बाद आज वो चैन की नींद सो पाया था।
रागिनी ने उसे हिलाया।
"गुड मार्निंग दोस्त। उठो। सुबह हो गई।"
बेदी ने फौरन आंखें खोलीं। रागिनी को देखा फिर पेड़ के हिलते पत्तों को।
रागिनी के चेहरे पर चंचल मुस्कान बिछ गई।
"खा-पीकर तगड़ी नींद का मजा ले रहे हो।" रागिनी हौले से हंस पड़ी।
"और तुमने खा-पीकर तगड़ी नींद ले ली।" बेदी मुस्कराकर उठ बैठा।
"बुरा हाल कर दिया तुमने।" रागिनी के स्वर में शरारत थी।
"ये बात तो मैं कहने वाला था।" बेदी ने हाथ बढ़ाकर उसका गाल थपथपाया।
रागिनी चारपाई से उतर कर खड़ी हो गई और अंगड़ाई लेते हुए बोली।
"मुझे खुशी है कि मुझे अच्छा दोस्त मिला। शादी करोगे मुझसे?" रागिनी ने उसे देखा।
बेदी ने होंठ सिकोड़कर उसे सिर से पांव तक देखा।
"क्या देख रहे हो ?" रागिनी हंसी।
"ये बताने की बात नहीं है।" बेदी मुस्कराया।
"मैं जानती हूं कि मैं खूबसूरत हूं और देखने में अच्छी लगती हूं। मेरी उम्र साढ़े छब्बीस साल है।" रागिनी ने कहा। जबकि वो साढ़े छत्तीस की थी। ये जुदा बात थी कि देखने में पचीस-सत्ताईस से ज्यादा की हरगिज नहीं लगती थी--- "औरत मैं कैसी हूँ तुम देख ही चुके हो। बीवी भी अच्छी बनकर रहूंगी।"
विजय बेदी कुछ न बोला। सिगरेट निकालकर सुलगा ली।
"क्या सोचने लगे ?"
"पैंतीस दिन।" बेदी का स्वर गंभीर था।"
"क्या पैंतीस दिन, मैं तो... ।"
"जब तुम मिली तो मेरी जिंदगी के छत्तीस दिन बाकी थे। एक दिन और बीत गया। अब पैंतीस दिन की मेरी जिंदगी रह गई और पैंतीस दिन की दुल्हन बनना तुम कभी पसंद नहीं करोगी।"
रागिनी बेदी के गंभीर चेहरे को देखती रही। फिर आगे बढ़ी और पंजों के बल ऊंची होकर, उसके होंठों पर किस की फिर तसल्ली देने वाले स्वर में कह उठी।
"मैं समझ रही हूं तुम्हारी हालत। मुझे अपने से जुदा मत समझो। मैं हर कदम पर, हर अच्छे-बुरे वक्त में तुम्हारे साथ रहूंगी।" रागिनी के स्वर में अपनापन था।
बेदी को अंजना का ध्यान आया। वो भी ऐसा ही कहा करती थी। उससे प्यार करने और उस पर जान देने का दम भरती थी और बाद में ऐसे वक्त पर उसे दगा दिया कि कोई पानी पूछने वाला नहीं था। ये सब औरतें एक जैसी होती हैं। अंजना के बारे में जानने के लिए पढ़ें पूर्व प्रकाशित दो उपन्यास- 1. खलबली और 2. चाबुक । बेदी ने गहरी सांस ली। कहा, कुछ नहीं।
"आओ विजय।" रागिनी अपने कपड़े उतारकर, सीधे करके पहनते हुए बोली--- "यहां से चलते हैं। पास में गांव है तो पैंचर लगाने वाला भी कोई होगा। देवली सिटी पहुंचना है हमें। मेरे ख्याल में मेरा रुपया वापस मिल जाएगा और दो-चार दिन में उस डॉक्टर से तुम ऑपरेशन भी करा लोगे। आओ।"
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देवली सिटी।
सुबह के पांच बज रहे थे।
कोरियाई वैन छोटी-सी पहाड़ी सड़क के घुमावदार रास्तों को तय कर रही थी। ये काफी फैला हुआ पहाड़ था। जिस पर यहा-तहाँ खूबसूरत बंगले बने नजर आ रहे थे। कुछ बंगले तो महलों जैसे विशाल लग रहे थे। पहाड़ के बीच में काफी गहरी और फैली हुई जगह थी, जहां बरसात के पानी की वजह से कृत्रिम झील-सी बन जाती थी और झील में पानी साल के बारहों महीने रहता था, क्योंकि इस शहर में अक्सर बरसात होती रहती थी।
यहां पर रहने वालों के लिए वो झील जैसे पिकनिक स्पॉट बन गया था। हवा भरने वाली छोटी-छोटी नौकाएं लाकर लोग, उन पर सवार होकर, मौज-मस्ती करते।
दिन का उजाला निकलना शुरू हो गया था। कोरियाई वैन की हैडलाइट अभी भी रोशन थी। तंग पहाड़ी सड़क होने पर भी बैंक की रफ्तार में कोई खास कमी नहीं आई थी। ड्राइविंग सीट पर साड़ी पहने तीस-बत्तीस वर्षीय वही खूबसूरत औरत बैठी थी। इतनी लम्बी ड्राइविंग के पश्चात भी उसके चेहरे पर थकान अथवा नींद आने जैसा कोई भाव नहीं था।
कुछ देर बाद ही उस सड़क पर अन्य मोड़ नजर आया। उसने वैन को मोड़ा तो थोड़ा-सा आगे विशाल, खूबसूरत, महल जैसा बंगला नजर आने लगा। बंगले की दीवारें कम से कम पंद्रह फीट ऊंची थी कि भीतर क्या हो रहा है। यह देख पाना आसानी से सम्भव नहीं था। बीस फीट चौड़ा और बीस फीट ऊंचा लोहे का गेट था। जिसके पार देख पाना इसलिए संभव नहीं था कि लोहे की चादर से वो ढका हुआ था। बीच में छ: फीट ऊंचा और तीन फीट चौड़ा छोटा-सा दरवाजा था।
पंद्रह फीट ऊंची दीवारों के पार, भीतरी तरफ सफेदे के लम्बे-लम्बे पेड़ हवा में झूलते नजर आ रहे थे। बाहर से बंगले की दूसरी मंजिल का कुछ हिस्सा अवश्य नजर आ रहा था।
उसने गेट के पास वैन रोकी और हार्न बजाया।
कुछ ही सैकिंड बीते होंगे कि गेट के बीच लगा, छोटा-सा दरवाजा खुला और काली-सी वर्दी पहने व्यक्ति ने बाहर झांका। वैन को देखा फिर भीतर बैठी औरत पर नजर पड़ी तो फौरन और भी मुस्तैद हो उठा। वो वहां से हटा फिर तुरंत ही गेट खुलता चला गया।
गेट खोलने वाले दो दरबान थे। जो कि दाएं-बाएं खड़े हो चुके थे। सैल्यूट के लिए उनके दाएं हाथ माथे पर पहुंच चुके थे।
उसने वैन आगे बढ़ाई और खुले गेट से भीतर प्रवेश कर गई। भीतर की सारी जगह समतल थी। गेट से ही पक्की सड़क सीधी पोर्च तक जा रही थी। पोर्च में दो विदेशी कारें खड़ी थी। उस छोटे से रास्ते के दोनों तरफ तरह-तरह के महकते फूलों की कतारें थीं। बीच में कहीं-कहीं पेड़ था। उन कतारों के पार दोनों तरफ मखमली घास वाला लान था जहां दो-तीन तरह के अलग-अलग झूले लगे नजर आ रहे थे। हर चीज को नफासत के साथ सजा बना रखा था। दिमाग को शांति मिल रही थी यहां के माहौल से।
उसने वैन को पोर्च में रोका ही था कि साथ ही लगे खुले दरवाजे से एक नौकर निकलकर पास पहुंचा और सिर झुकाते हुए कह उठा।
"गुड मार्निंग मालकिन।"
वो वैन से उतरी तो उसका पूरा व्यक्तित्व चमक उठा।
"इस वैन को गैराज में बंद कर दो।"
"जी।"
"अभी।"
"जी।" नौकर फौरन आगे बढ़ा। वैन की ड्राइविंग सीट संभाली। और स्टार्ट करके आगे बढ़ा दी। करीब पचास फीट आगे वो सड़क बंगले के साथ-साथ पीछे की तरफ मुड़ गई।
वैन निगाहों से ओझल हुई तो वो भीतर जाने के लिए पलटी कि ठिठक गई। निगाह पहली मंजिल पर एक खिड़की पर जा अटकी। जहां से एक सूखा-सा चेहरा, उसे देख रहा था। उससे नजरें मिलते ही वो कुछ व्याकुल और कुछ घबराहट में नजर आई। दूसरे ही पल सामान्य नजर आने लगी और भीतर प्रवेश कर गई।
शानदार, देखने लायक वो खूबसूरत विशाल ड्राइंग हॉल था। वहां की सजावट में इस्तेमाल की गई अधिकतर वस्तुएं विदेशों से मंगवाई गई थीं। दीवारों पर ऑयल पेंटिग्स और शिकार किए गए जानवरों की खालों में फूस भरकर दीवार पर और फर्श पर, कई जगहों पर सजाया हुआ था। कहीं भी फर्श नजर नहीं आ रहा था। सुर्ख रंग का ईरानी कालीन वहां बिछा बहुत ही खूबसूरत लग रहा था।
सोफों के हत्थों पर सोने की पतली-सी परत चढ़ी, चमक रही थी। उनके बीच चांदी का टेबल था। जिस पर सोने की परत के टुकड़ों को खूबसूरती से काटकर, फूल के डिजाइन का आकार देकर सेंटर टेबल पर चिपका रखे थे। टेबल का साइज, सामान्य से ढाई गुना बड़ा था और भी ऐसी ढेरों चीजें थीं, जहां से दौलत की भरपूर महक उठ रही थी।
वो भीतर प्रवेश करके, विश्वास भरी चाल से चलते हुए, एक तरफ नजर आ रही सीढ़ियों के पास पहुंची और सीढ़ियां चढ़ते हुए पहली मंजिल पर पहुंची। ठीक सामने और दाएं को एक रास्ता जा रहा था। वो सामने वाले रास्ते पर बढ़ गई। कुछ आगे बढ़ने पर एक तरफ बंद दरवाजे नजर आने लगे। एक दरवाजा छोड़कर वो दूसरे के पास पहुंची और डोर नॉब को घुमाते हुए दरवाजा खोला और भीतर प्रवेश कर गई। दरवाजा बंद कर लिया।
ये बेडरूम था। दौलत की महक यहां भी मौजूद थी। खूबसूरत बेड। उस पर बिछी कीमती चादर। एक तरफ दीवार के साथ सटा वार्डरोब। टी.वी., फ्रिज, छोटा-सा टेबल और दो कुर्सियां ।
बेडरूम में हर वो चीज मौजूद थी जिसकी जरूरत पड़ सकती थी।
उसने एक निगाह बेडरूम में मारी फिर साड़ी उतारते हुए, कुर्सी पर रख दी। साड़ी के उतरते ही उसका हुस्न, शरीर का एक-एक हिस्सा चमक उठा था। वो और भी मारक लगने लगी थी। दोनों हाथों से उसने अपने शरीर को टटोला फिर मस्ती भरी चाल चलती हुई ड्रेसिंग टेबल के शीशे के सामने जा खड़ी हुई।
शीशे में देखते हुए अपने शरीर के एक-एक अंग को निहारा । ये सब देखते हुए जाने वो किस बात की तसल्ली कर लेना चाहती थी। बहरहाल जब तसल्ली हो गई तो ब्लाउज के हुक खोलते हुए पलटी। अभी दो ही हुक खोले होंगे कि दो पल के लिए चौंकी, फिर संभल गई। ब्लाउज की दो हुक्कें खुली होने की वजह से उसकी झलकती छातियां और आकर्षक लगने लगी थीं।
निगाहें दरवाजे पर खड़े उस व्यक्ति पर थी, जो खिड़की पर खड़ा उसे देख रहा था। उसकी उंगलियों के बीच सुलगता सिगार फंसा था।
वो पैंतालीस और पचास के बीच की किसी भी उम्र का हो सकता था। सिर के बाल काले थे। वो कलीन शेव्ड था। सवा पांच फीट से ज्यादा लम्बा नहीं था वो। सूखा-पतला था। गाल भीतर की तरफ धंसे हुए। चेहरे के हिसाब से उसके कान अपेक्षाकृत बड़े थे और नाक छोटी-सी लेकिन नुकीली थी। पतले होंठ, सांवला रंग। उसका व्यक्तित्व कहीं भी प्रभाव नहीं छोड़ता था, परंतु जाने उसमें क्या था कि जो देख लेता था, उसे भूल नहीं पाता था।
दिनेश ओबराय था उसका नाम।
देवली सिटी के लोग ही नहीं, दूसरे शहरों के लोग भी उसे जानते थे। इंसान वो जैसा भी था, लेकिन पक्का सफल बिजनेसमैन था। यूं लोग उसके बारे में कोई अच्छी राय नहीं रखते थे। हर कोई जानता था कि वो क्रूर किस्म का, गुस्से वाला, बेहद सख्त इंसान था। उससे मिलने वाले, उससे तब ही उससे मिलते थे, जब बहुत जरूरत होती वरना उससे दूर ही रहते थे। चूंकि वो अपनी हस्ती रखता था, दौलतमंद था। इसलिए हर कोई उसके आगे सिर झुकाता था। मजबूरी में ही सही, लेकिन झुकाता था। दिनेश ओबराय को बिजनेस के सारे हालातों की बराबर खबर रहती, बेशक वो पंद्रह-पंद्रह दिन घर में रहता था। लेकिन सारे काम-धंधे उसके कायदे से ठीक-ठाक ढंग से चलते रहते। जरूरत पड़ने पर फोन पर ही निर्देश दे देता। लोगों से कम ही मिलने की आदत थी उसकी।
बंगले में नौकर के तौर पर सिर्फ चार लोग थे। दो दरबान और एक नौकर और उसकी पत्नी, जो कि उनके लिए खाना बनाते थे और साफ-सफाई का ध्यान रखते थे। जबकि बंगले का काम करने के लिए दो लोग कम थे, लेकिन उसे भीड़भाड़ पसंद नहीं थी। यही वजह थी कि बंगले पर और नौकर नहीं था।
दिनेश ओबराय के मां-बाप कौन थे। वो खुद नहीं जानता था। जब वो सोचने-समझने के लायक हुआ तो खुद को सड़क पर ही पाया। यह उसके तेज-दिमाग और समझदारी का ही नतीजा था कि आज वो देवली सिटी का खास इज्जतदार इंसान था। बे-हिसाब दौलत थी उसके पास। लेकिन ये तो वो ही जानता था कि यहां तक पहुंचने के लिए किस तरह दिन-रात मेहनत की। चैन गंवाया। कौन-सा अच्छा-बुरा वक्त नहीं गुजरा उसके साथ और जब फुर्सत मिली तो खुद को चालीस से दो-तीन साल ऊपर की उम्र में पाया। तब उसे ध्यान आया कि उसकी मौत के पश्चात भी कोई होना चाहिए, जो उसके नाम और दौलत को जिंदा रख सके।
तब उसकी निगाह प्रिया पर पड़ी। जिसे कि किसी पार्टी के दौरान देखा था। बेहद खूबसूरत लगी वो उसको। दिलकश, दिलो दिमाग में उतर गई जैसे प्रिया। उसके बारे में मालूम किया तो पता चला कि वो काफी बड़े खानदान से है। बहुत बड़ा बिजनेस है प्रिया के पिता का। अपने मां-बाप की इकलौती औलाद है। ऐसे में वो बड़ी उम्र वाले से, प्रिया की शादी नहीं करेंगे।
दिनेश ओबराय ने बेहद ठंडे दिमाग से सोचा।
प्रिया को दिल-दिमाग से निकालने की कोशिश भी की। परंतु उसकी खूबसूरती आंखों के सामने से न हटी। अंत में उसने यही फैसला किया कि वो कुछ इस तरह के हालात बना दे कि जब प्रिया का हाथ मांगे तो उसके मां-बाप या प्रिया इंकार न कर सके।
इसके लिए सबसे पहला कदम था प्रिया के पिता के बिजनेस को बरबाद करना। जो कि उसके लिए मामूली काम था। उसके इशारे पर उसके चंद खास आदमी, इसी काम पर लग गए और मात्र तीन महीनों में प्रिया के पिता के बिजनेस को इस तरह बरबाद कर दिया कि उनका सब कुछ तबाह हो गया। ये जुदा बात रही कि इस काम में पचास लाख उसका भी लग गया। जो कि उसके लिए मामूली रकम थी। बिजनेस बरबाद होने के सदमे से प्रिया के पिता को हार्ट-अटैक हुआ और चल बसे। दिनेश ओबराय के लिए ये और अच्छा हुआ।
इधर बिजनेस में घाटा पड़ने के दौरान प्रिया के पिता ने पैसे की वजह से बंगला गिरवी रख दिया था। यानी कि तीन महीनों में ही शानो-शौकत के साथ जिंदगी बिता रही प्रिया के बुरे हाल हो गए। पिता की मौत से तो वो और भी टूट गई थी। उसकी मां का तो और भी बुरा हाल था। ऊपर से तकाजा करने वाले आ रहे थे, जिनसे उसके पिता ने, नुकसान होने की वजह से कुछ वक्त के लिए पैसा लिया। बंगला गिरवी रखने वाला भी तीन चक्कर लगा गया था कि उसके लाखों रुपए दो वरना कोर्ट-आर्डर लेकर बंगला नीलाम कराना पड़ेगा।
प्रिया और उसकी मां की हालत पागलों जैसी हो रही थी। ऐसे वक्त की तो उन्होंने कल्पना नहीं की थी। वो जानते थे कि वो दाने-दाने को मोहताज होने जा रहे हैं।
लोहा गर्म देखकर दिनेश ओबराय ने चोट मारी।
अपने दो आदमी और स्टाफ की एक औरत को अपना रिश्तेदार बनाकर प्रिया के घर भेजा कि प्रिया के पिता ने, मरने से दो दिन पूर्व जुबानी तौर पर प्रिया की शादी दिनेश ओबराय के साथ पक्की की थी, जो बे-पनाह दौलत का मालिक है।
बहरहाल ऐसी हरकतों के बाद, वो प्रिया से ब्याह कर सका। मां-बेटी तबाही के ऐसे कगार पर खड़ी थीं कि अच्छे-बुरे की होश कहां। जूडो-कराटे में माहिर प्रिया ने भविष्य के भले की खातिर दिनेश ओबराय से शादी कर ली। उसके बाद दिनेश ओबराय ने गिरवी पड़ा बंगला छुड़वा दिया था और ऐसा इंतजाम कर दिया था कि प्रिया की मां आराम से जिंदगी बिता सके।
प्रिया अभी तक नहीं जानती थी दिनेश ओबराय ने कैसी चालाकियां और मक्कारी करके उससे शादी की थी। बहरहाल शादी को चार साल हो चुके थे, परंतु प्रिया अभी तक मां नहीं बन सकी थी। और मां न बनने का दोष प्रिया पर लगाता रहता। जबकि वो इस हकीकत से वाकिफ था कि डॉक्टर के मुताबिक बच्चा न होने की वजह उसमें कमी होना था। परंतु ये बात उसने अपने तक ही रखी थी कि प्रिया उस पर हावी न हो सके। फिर भी इस बात को लेकर वो व्याकुल रहता था कि उसके बाद उसके नाम और पैसे को कौन संभालेगा ?
दिनेश ओबराय ने प्रिया को घूरा।
"तुमने आकर मुझे बताया नहीं कि तुम आ गई हो।" दिनेश ओबराय ने भिंचे स्वर में पूछा।
"तुमने खिड़की से मुझे देख लिया था।" प्रिया ने शांत स्वर में कहा।
"मैंने देखा या नहीं देखा। बात ये नहीं है।" ओबराय का स्वर कठोर हो गया--- "मैं ये कह रहा हूं कि तुम्हें, मेरे पास आकर बताना चाहिए था।"
प्रिया ने ओबराय की आंखों में झांका।
"मैं तुम्हारी बीवी हूं। तुमसे तनख्वाह लेने वाली औरत नहीं जो तुम्हारे हजूर में सलाम मारती रहे।"
"बीवी।" दिनेश ओबराय के दांत भिंच गए--- "तो तुम बीवी हो। अच्छा, मुझे तो अब मालूम हुआ। लेकिन तुम्हें मालूम है बीवियां बच्चे भी पैदा करती हैं। मालूम है ना। हां---मालूम क्यों नहीं होगा। तो तुमने कितने बच्चे जन डाले चार सालों में। एक-दो-पांच-दस। बोल कितने जने। बनती है औरत और एक भी बच्चा पैदा करने का दम नहीं रखती। ऊपर से जुबान चलाती है। हरामजादी मार-मार के तेरा वो हाल कर दूंगा कि मेरे सामने आने पर भी तेरे को डर लगेगा। भूल गई पहले की मार। पूरा महीना बेड पर पड़ी रही थी।"
बेहद शांत भाव से प्रिया, ओबराय के सुलगते चेहरे को देखती रही।
"क्या देखती है। बोल-क्या देखती...।"
"मैं दो लेडी डॉक्टर से चैकअप करवा चुकी हूं। मुझमें कोई कमी नहीं।" आवाज शांत थी।
ओबराय के होंठों से गुर्राहट निकली।
"तो तेरा मतलब कि मुझमें कमी है। नामर्द हूं क्या मैं। साली, अब तू बकवास भी करने...।"
"मेरा ये मतलब नहीं था।" प्रिया का लहजा बराबर शांत था--- "मैं तो ये कहना चाहती हूं कि जाने क्या वजह है जो बच्चा नहीं ठहर रहा। मैं तो...।"
"वजह सिर्फ ये है कि तेरे में कमी है। रंग-रूप तेरा बहुत जबरदस्त है। लेकिन असल में औरत के नाम पर तू सिर्फ धोखा है। बता, कौन बनेगा मेरी बेशुमार दौलत का वारिस। यही सोचकर मैंने शादी की वरना औरतों की क्या कमी थी मुझे।" दांत पीसते हुए ओबराय आगे बढ़ा और उसका सूखा-पतला हाथ प्रिया के गाल से जा टकराया। तेज आवाज वहां गूंजी।
प्रिया अपनी जगह स्थिर खड़ी रही। उसका खूबसूरत गाल लाल पड़ गया था। हाथ की उंगलियों की छाप गाल पर स्पष्ट नजर आने लगी। प्रिया का चेहरा शांत-सपाट ही रहा। नजरें बराबर, गुस्से से भरे, उसके सूखे चेहरे पर टिकी रहीं।
"अपनी औकात में रह समझी।"
प्रिया खामोश रही।
"मुझे वारिस चाहिए। समझी। हर हाल में चाहिए।" ओबराय की आंखें लाल सुर्ख हो रही थीं।
प्रिया ने हौले से गर्दन हिला दी।
ओबराय कई पलों तक उसे घूरता रहा फिर पीठ पर हाथ बांधे पलटा और तेजी से दरवाजे की तरफ बढ़ा। परंतु तीन कदमों के बाद ही ठिठका। पलटा ।
"तुम तो कल शाम को आ रही थी।"
"मां की तबीयत खास ठीक नहीं थी। इसलिए रुकना पड़ा। रात को ग्यारह बजे वहां से चली।"
"मैं तो समझा था, मर गई होगी वो बुढ़िया।" ओबराय जहरीले स्वर में कह उठा--- "तेरी मां की तबीयत खराब होती है। फिर ठीक हो जाती है। तेरे को बुलाने का ड्रामा करती है वो बुढ़िया । अब उसकी बीमारी की खबर मिलने पर जाने की जरूरत नहीं। एक ही बार जाना। जब मरने की खबर आए। बच्चा पैदा करने की कोशिश कर। नहीं तो तुझे हमेशा के लिए वापस बुढ़िया के पास भेज दूंगा।"
प्रिया खामोश रही। चेहरा शांत रहा। नजरें ओबराय पर थीं।
"अब क्या देखती है ?" ओबराय पुनः गुर्राया ।
एकाएक प्रिया के चेहरे पर मुस्कान उभरी।
"गॉड इज ग्रेट।" स्वर में मीठापन था।
"क्या मतलब ?"
"जब ऊपर वाला चाहेगा। तभी मैं मां बनूंगी। पहले नहीं।"
"मैं नहीं जानता ऊपर वाला कौन है।" ओबराय ने कड़वे स्वर में कहा--- "लेकिन तू नीचे वाले को जानती है क्या ?"
"हां।"
"कौन है वो ?"
"तुम...।"
"समझदार हो और ये भी समझ लो कि तुम्हें नीचे वाले की मर्जी से चलना है। क्योंकि तुम इस वक्त नीचे हो। जब ऊपर जाओ तो ऊपर वाले की मानना। मुझे बच्चा चाहिए। ये बात अपने दिमाग में बिठा लो। वरना कुछ भी हो सकता है। मैं कभी भी दूसरी शादी कर लूंगा।"
प्रिया के होंठों पर मुस्कान उभरी, बोली कुछ नहीं ।
"मेरे सामने दांत तब फाड़ना, जब बच्चा पैदा कर दे।" ओबराय ने खा जाने वाले स्वर में कहा।
प्रिया खामोश रही।
"किसकी वैन लेकर आई है। वो कार कहां है, जिसे लेकर तू गई थी ?"
"कार पँचर हो गई थी। रात का वक्त था। मैं जल्दी में थी। किसी औरत से ये वैन छीनकर आ पहुंची कि देर होने से तुम नाराज होगे।” प्रिया ने सरल स्वर में कहा--- "गाड़ी के पेपर्स हैं। वो कार ले आएगी और वैन ले जाएगी। अगर उसने पुलिस में रिपोर्ट कर दी होगी कि कोई वैन छीनकर ले गया तो तुम संभाल लेना।"
"ये बातें मैं देख लूंगा।" ओबराय ने तीखे स्वर में कहा--- “तू बच्चा पैदा करने की सोच। अगर मुझे वारिस नहीं मिला तो मेरी नजरों में तेरी कोई कीमत नहीं और आज के बाद खुद कार मत चलाना। तुम फास्ट ड्राइव करती हो। मैं ऑफिस से ड्राइवर मंगवा लेता...।"
"ड्राइवर की जरूरत नहीं। कई बार मैंने मना किया है मुझे कार ड्राइव करना अच्छा लगता है।"
"लेकिन मुझे नहीं अच्छा लगता।” ओबराय कठोर स्वर में बोला।
"ठीक है। मैं सोचूंगी ड्राइवर के बारे में।"
ओबराय ने उसे खा जाने वाली निगाहों से देखा फिर पलटकर बाहर निकलता चला गया। प्रिया आगे बढ़ी और दरवाजा बंद कर लिया। एकाएक उसके चेहरे के भाव बदलने लगे। दांत भिंच गए। चेहरा कठोर हो गया। आंखों में क्रोध नाच उठा। हाथ गाल पर पहुंचा। जहां ओबराय ने चांटा मारा था। फिर खतरनाक स्वर में बड़बड़ा उठी।
"गॉड इज ग्रेट।"
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पंचर लगाने के बाद, जब बेदी ने कार आगे बढ़ाई तो दिन के दस बज रहे थे। रागिनी उसके बगल वाली सीट पर मौजूद थी।
"बहुत देर हो गई।" रागिनी बोली।
"हां।" बेदी ने अपना पूरा ध्यान ड्राइविंग पर लगा दिया।
"कब तक पहुंचेंगे ?” रागिनी के स्वर में व्याकुलता उभरी।
"यहां से कम-से-कम तीन घंटे का रास्ता है देवली सिटी का।"
"तीन घंटे।" रागिनी ने गहरी सांस लेकर बेदी से कहा--- "सिगरेट है तुम्हारे पास।"
बेदी ने पैकिट निकालकर उसकी तरफ बढ़ाया।
"तुम सिगरेट भी पीती हो।"
"कभी-कभी, जब बेचैनी होती है।"
बेदी खामोश रहा।
"तुम्हें अच्छा नहीं लगता तो नहीं लेती।"
"मुझे कोई एतराज नहीं।”
रागिनी ने सिगरेट सुलगा कर कश लिया।
"तुमने बताया नहीं।"
"क्या ?"
"तुम्हारे पास करोड़ों रुपया कहां से आया। कोई कैसे तुमसे वो रुपया ले गया और तुम कौन हो। मैं अभी तुम्हारे बारे में कुछ भी नहीं जानता।" बेदी ने पूछा।
रागिनी ने पहलू बदला।
"ये सब बेकार की बातें हैं।"
"वैसे तो दोस्त बनती हो और मेरी किसी बात का जवाब देने को तुम तैयार नहीं।"
"मैंने कहा, ये सब बेकार की बातें हैं, पैसा कहां से आया, कहां से नहीं। ये जानने की तुम्हें क्या पड़ी है। मैं तुम्हारी हूँ। पचास लाख वायदे के मुताबिक तुम्हें दे दूंगी। मेरे से शादी करोगे तो जो मेरा है वो भी तुम्हारा ही होगा। तुम्हारे लिए सोचने की बात तो यह है कि मुझसे शादी करना फायदेमंद होगा कि नहीं। मेरे ख्याल में तो होगा।"
बेदी का ध्यान रफ्तार से दौड़ती कार पर था।
"मतलब कि तुम मेरी बात का जवाब नहीं दोगी।"
"दूंगी। सब बताऊंगी। पहले मेरा पैसा वापस आ लेने दो। तुम नहीं जानते कि मेरी जान निकली जा रही है, ये सोच-सोच कर कि अगर पैसा वापस न मिला तो मेरा क्या होगा। मेरी जगह कोई और होती तो पैसा जाने के गम में हस्पताल पहुंची होती।"
"मतलब कि तुम मजबूत दिल की हो।"
"मेरा सब कुछ मजबूत है। कई चीजों की मजबूती तुम देख भी चुके हो।" रागिनी मुस्कराई।
"हां, इसमें कोई शक नहीं कि तुम्हारे शरीर की कई चीजें मजबूत हैं। ठोक-बजाकर देखने पर भी कोई टूट-फूट नजर नहीं आई।" बेदी सिर हिलाकर कह उठा--- "मैं उन रुपयों के बारे में पूछ रहा था। कम से कम इतना तो बता दो कि कौन ले गया है, उन रुपयों को ?"
"एक औरत ।"
"औरत ?" बेदी के होंठों से निकला।
"हां।" रागिनी गंभीर-सी कह उठी--- "मैं अपनी विदेशी कोरियाई वैन में जा रही थी। करोड़ों रुपया उसी में था। सड़क के बीचो-बीच एक कार पँचर खड़ी और एक औरत खड़ी थी। तीस-बत्तीस साल की होगी। लम्बा कद है उसका। खूबसूरत है। तब साड़ी पहन रखी थी। वैन को आते देखकर वो सड़क पर इस तरह खड़ी हो गई कि मुझे वैन रोकनी पड़े। मैंने वैन रोकी तो उसने मुझे वैन से बाहर फेंक दिया और वैन ले जाते हुए बोली, कार में पेपर्स हैं। उन पर जो पता लिखा है, उस पते पर कार लेकर आ जाना और वैन ले जाना।"
"कमाल है, एक औरत तुमसे वैन छीनकर ले गई।"
"कुछ भी कहो। वो दबंग किस्म की औरत थी। जिस तरह उसने मुझे वैन से बाहर फैंका। उससे लगता है कि वो हाथ-पांव चलाने में एक्सपर्ट है। बहरहाल जो बात सच है। वो मैंने तुम्हें बता दी। अगर वो वैन में मौजूद रुपयों को न देख पाई तो फिर पैसे के साथ वैन मिल...।"
"ये कैसे हो सकता है कि वो वैन में मौजूद करोड़ों रुपया न देख सके।" बेदी कह उठा।
"रुपये किसी में बंद हैं और कुछ लोगों की ये आदत भी होती हैं कि वे बे-मतलब इधर-उधर नहीं झांकते। अपने में बिजी रहते हैं।"
"और तुम वो करोड़ों कहां से लाई थी ?"
"अभी ये बताने का वक्त नहीं आया।” रागिनी खिड़की से बाहर देखने लगी।
"किसी खास मुहूर्त पर बताओगी।"
"ऐसा ही समझ लो।" रागिनी ने मुस्कराकर बेदी को देखा--- "विजय तुम अच्छी तरह महसूस कर रहे हो कि इस बात का जवाब मैं नहीं देना चाहती।"
"दोस्तों से पर्दा रखना अच्छी बात नहीं है।" बेदी भी मुस्कराया। ध्यान ड्राइविंग पर था।
"कुछ भी कहते रहो।"
"ठीक है। इतना बताओ कि करोड़ों रुपया कहीं से चोरी करके भागी हो।" बेदी ने पूछा।
"क्या घटिया बातें करते हो। मैं तुम्हें चोर लगती हूं।"
"मैंने ये तो नहीं कहा। वैसे ये भी हो सकता है कि वो रुपया तुम घर से उठा लाई हो।"
"दिमाग फिर गया लगता है तुम्हारा।"
"अगर ये दोनों बातें नहीं हैं तो फिर अंदाजा लगाना कठिन है कि मामला क्या है क्योंकि डकैती लूट जैसा काम करने का हौसला तो तुममें लगता नहीं।" बेदी ने लापरवाही से कहा।
रागिनी हौले से हंसी ।
"क्यों हंसी ?"
"तुम्हारी समझदारी पर। कितना भी कुरेद लो। जो मैं नहीं बताना चाहती। वो नहीं बताऊंगी और जब बताना होगा, तभी बताऊंगी।" रागिनी बोली।
"मेरी बला से। तब भी तुम मत बताना। मुझे तो सिर्फ अपने नोटों से मतलब है।" बेदी ने मुंह बनाकर कहा। कार रफ्तार से दौड़ी जा रही थी।
"नाराज हो गए।" रागिनी मुस्कराई।
"चिंता मत करो। मैं औरतों की बातों से नाराज नहीं होता।"
"क्यों ?"
"क्योंकि मैं बाखूबी जानता हूं कि औरतों में अक्ल कम ही होती है।"
"लगता है मेरी जैसी पहले कभी नहीं मिली।"
"यही तो मुसीबत है। जो मिलती है, खुद को सबसे ज्यादा अक्लमंद समझती है।"
"हूं, तो छेड़ रहे हो मुझे।" रागिनी ने मुस्कराकर कहा--- "कोई बात नहीं। फिर कहीं आम का पेड़ और चारपाई मिलने दो। तब बताऊंगी कि मुझमें ही ज्यादा अक्ल है।"
दोपहर के डेढ़ बजे कार ने देवली सिटी में प्रवेश किया।
"पहुंच गए ?" शहर की शुरुआत होते देखकर रागिनी कह उठी।
"हां।" बेदी का ध्यान ड्राइविंग पर था।
रागिनी ने गोद में रखे छोटे से बैग की जिप जरा-सी खोली और उसमें रखे कार के कागज निकालकर ओबराय के नाम दर्ज, उसका पता देखा।
"ये पता है, जहां हमने जाना है।" रागिनी बोली।
"अभी कुछ नहीं, मैं बहुत थक चुका हूं। ठीक से आराम भी नहीं किया।" बेदी वास्तव में खुद को थका-सा महसूस कर रहा था--- "और कल रात से ठीक से कुछ खाया भी नहीं।"
"पहले ये काम निपट ले, उसके बाद...।"
"पेट भरे बिना मैं अब कुछ नहीं कर पाऊंगा।"
रागिनी ने सहमति भरे ढंग से सिर हिलाया
"अच्छी बात है। लंच ले लेते हैं।"
पंद्रह मिनट बाद कार देवली सिटी के मुख्य चौराहों से गुजरने लगी। सड़क के दोनों तरफ बड़ी-बड़ी बिल्डिंग्स नजर आ रही थीं। दोपहर का वक्त होने की वजह से कहीं भी खास भीड़ नजर नहीं आ रही थी। बाजारों में भी कम लोग ही नजर आ रहे थे।
"खाना कहां खाना है ?" बेदी ने पूछा।
"जहां भी तुम ठीक समझो।"
"मेरा मतलब है, पेमेंट तुमने ही करनी हैं। मुझे जेब से खाली ही समझो।"
रागिनी मुस्कराई।
"पैसे की फिक्र मत करो। किसी से पूछो, यहां बढ़िया खाने की जगह कहां है ?"
"पूछने की जरूरत नहीं। देवली सिटी मेरे लिए नई जगह नहीं है।" बेदी ने कहा।
"यहां पहले आ चुके हो ?"
"हां, मेरे ऑफिस की ब्रांच यहां भी है। साल भर मैं देवली सिटी रहा हूं।"
"ओह!"
कुछ देर बाद विजय बेदी ने कार को ठीक-ठाक नजर आ रहे, रेस्टोरेंट की पार्किंग में रोका और इंजन बंद करते हुए आस-पास देखते हुए बोला।
"यहां बढ़िया खाना मिलता है। दो-तीन बार ही यहां खाना खाया था कभी। महंगा होने की वजह से ज्यादा बार यहां नहीं आ सका। आओ, यहां का खाना तुम्हें भी अच्छा लगेगा।"
दोनों बाहर निकले। कार को लॉक किया।
बेदी की निगाह, उसके गले में लटके, छोटे से बैग पर जा टिकी ।
"जब से तुम्हें देखा है, बैग को गले से लटकाए हुए हो। कुछ खास है इसमें क्या ?"
"शायद।" रागिनी मुस्कराई।
"क्या ?"
"ये तुम्हारे जानने लायक नहीं है।"
बेदी ने उसे घूरा।
"मेरे जानने के लायक कुछ है भी या नहीं ?" आवाज तीखी हो गई।
"मैं हूं ना। मुझे देखो। मुझे पहचानो। अभी तुमने मुझे जाना ही कहां है।" रागिनी शौख स्वर में कह उठी--- "एक बार में भला क्या जान-पहचान होती है। पांच-सात बार तो हो लेने दो।"
"इस काम से और जरूरी काम भी हैं मुझे।"
"क्या ?"
"दिमाग के बीच फंसी गोली को निकलवाना । वधावन को अपना ऑपरेशन करने के लिए तैयार करना। बारह लाख के नोटों की गड्डियां उसके सामने रखना। वो बूढ़ा सनकी डॉक्टर। उसका कोई भरोसा नहीं कि जब बारह लाख उसके सामने रखूं तो चौबीस मांगने लगे।" बेदी ने गहरी सांस ली।
"क्या फर्क पड़ता है। तब तुम्हारे पास पचास लाख नकद होंगे।'' रागिनी मुस्कराई।
बेदी ने उसे देखा फिर चेहरे पर गम्भीरता समेटे रेस्टोरेंट के दरवाजे की तरफ बढ़ गया।
रागिनी ने भी अपने कदम बढ़ा दिए।
■■■
रेस्टोरेंट भी अच्छा था और खाना भी। रागिनी ने खाने की तारीफ की। खाने के दौरान बेदी ने कार के मालिक का पता देखकर कहा कि ये जगह यहां से आठ-दस किलोमीटर दूर है। आगे जाकर पहाड़ी रास्ता है। पंद्रह-बीस मिनट लगेंगे पहुंचने में और इस इलाके में अमीर लोग रहते हैं, जिनके पास बेहिसाब दौलत है।
खाना खाकर एक घंटे बाद जब वे रेस्टोरेंट से बाहर निकले तो नीचे उतरने के लिए चार सीढ़ियां थी। बे-ख्याली में सीढ़ी पर पांव ऐसा टेड़ा पड़ा कि लड़खड़ाकर बेदी बहुत बुरे ढंग से नीचे जा गिरा। होंठों से पीड़ा भरी चीख निकली।
"क्या हुआ ?" रागिनी फौरन उसकी तरफ लपकी।
रेस्टोरेंट का दरबान भी जल्दी से पास आ पहुंचा।
"क्या हुआ सर।"
बेदी के चेहरे पर पीड़ा के भाव दिखाई दे रहे थे।
"विजय।" कहते हुए रागिनी ने बेदी के जूते की तरफ हाथ बढ़ाया। जिसे बेदी ने पहले से ही थाम रखा था।
"हाथ मत लगाना।" बेदी होंठ भींचे दर्द भरे स्वर में कह उठा--- "पांव मुड़ गया है। मोच आ गई है।"
"ओह!"
बेदी ने पास खड़े दरबान को देखा।
"मुझे उठाकर, वो उस पेड़ की छाया में ले चलो।" बेदी ने कहा।
"जी।" लम्बे-चौड़े दरबान ने बेदी को दोनों बांहों में उठाकर संभाला और चंद कदमों पर स्थित पेड़ की छाया में ले आया--- "नीचे बिठा दूं साहब जी।"
"हां।"
दरबान ने बहुत संभलकर, बेदी को नीचे बिठाया। फिर भी बेदी के होंठों से पीड़ा भरी छोटी-सी चीख निकल गई। सांसें तेज चलने लगी।
"दर्द हो रही है विजय ?" रागिनी ने प्यार से पूछा।
"तुम!" बेदी ने दरबान से कहा--- "जाओ। बहुत मेहरबानी। शुक्रिया।"
दरबान वहां से चला गया।
"तुम्हें कभी मोच आई है, पांव मुड़ा है।" बेदी पीड़ा को सहते हुए बोला।
"नहीं, मेरे साथ तो ऐसा कभी भी नहीं हुआ।"
"तो फिर तुम मेरे दर्द का अंदाजा नहीं लगा सकतीं। कुछ वक्त बीतने पर और बुरा हाल होगा।"
"ओह!" रागिनी कह उठी--- "अब क्या होगा ?"
"दो दिन तो लग ही जाएंगे, ठीक होने में।"
"मैं तुम्हारे पांव की बात नहीं कर रही। ओबराय के यहां जाने की बात कर रही हूं।"
बेदी ने गहरी सांस ली। सब अपने मतलब के पीछे दौड़ रहे हैं।
"सॉरी कम से कम, एक-दो दिन तक मैं तुम्हारे किसी काम नहीं आ सकता।"
"एक-दो दिन, मैं तो अब एक-दो घंटे नहीं ठहर सकती।" अपनी पीड़ा दबाते हुए बेदी ने रागिनी को देखा।
रागिनी के चेहरे पर दृढ़ता नजर आई।
"तुमने बताया कि ओबराय के घर का, बीस मिनट का रास्ता है यहां से।"
"हां।"
"बीस जाने-बीस आने। रास्ता भटक जाऊं तो बीस मिनट वो ज्यादा लगा लो। यानी कि एक घंटा और ओबराय के घर मुझे पंद्रह-बीस मिनट से ज्यादा वक्त नहीं लगेगा।" रागिनी ने सोच भरे स्वर में कहा--- "ठीक है। मैं डेढ़ घंटे में ओबराय के यहां से अपनी कोरियाई वैन लेकर लौट रही हूं।"
"तुम--- अकेली ?"
"तुम्हें साथ ले जाना था।" रागिनी ने उसे देखा--- "लेकिन तुम चलने की हालत में नहीं हो।"
"लेकिन वहां तुम्हें खतरा हो सकता है। " बेदी के होंठों से निकला।
"मैं झगड़ा करने नहीं जा रही।"
"वो तो कर सकते हैं। हो सकता है वैन तुम्हें वापस न या फिर रुपया निकालकर दें।"
"मैं नहीं जानती, वहां क्या होता है। जो भी हो मैं झगड़ा नहीं करूंगी। फिर भी कोई भारी मुसीबत मेरे सिर पर पड़ी तो वो आसानी से संभाल लूंगी।" रागिनी ने दृढ़ता भरे स्वर में कहा।
"संभाल लोगी, कैसे संभाल लोगी ?" बेदी के माथे पर बल पड़े।
रागिनी ने बेदी की आंखों में झांका। चेहरे पर दृढ़ता और सख्ती झलक रही थी। दूसरे ही पल उसने गले में लटक रहे छोटे से बैग की जिप खोली। हाथ भीतर डाला। कुछ पलों बाद हाथ बाहर आया तो उसमें रिवॉल्वर दबी नजर आई। दूसरे ही पल उसने रिवॉल्वर वापस बैग में डाली और जिप बंद कर दी।
बेदी रिवॉल्वर की झलक देख चुका था।
"तुम्हारे पास रिवॉल्वर भी है।" बेदी के होंठों से निकला।
"करोड़ों की दौलत पास हो तो रिवॉल्वर भी होनी चाहिए।" रागिनी ने शांत स्वर में कहा--- "पहले मुझे रिवॉल्वर इस्तेमाल करने का मौका नहीं मिला। वरना वो मेरी वैन ले जाने में कामयाब नहीं हो पाती।"
"ध्यान रखना।" बेदी ने गहरी सांस ली--- "कहीं इस बार भी कुछ ऐसा मत हो कि बाद में ये बात किसी से कहने के काबिल हो न रहो कि रिवॉल्वर इस्तेमाल करने का मौका नहीं मिला। वरना तुम जाने क्या कर गुजरती।"
रागिनी ने बेदी को घूरा।
"तुम कहती हो कि वैन में करोड़ों रुपया है और हाथ आया करोड़ों रुपया कोई आसानी से वापस नहीं देता।"
"हो सकता है, किसी ने वैन के भीतर देखा ही न हो कि भीतर क्या है ?"
बेदी, रागिनी को देखता रहा ।
"मैं चलती हूं और...।"
"वापस आ जाना। कहीं मैं इंतजार ही करता न रह जाऊं।" बेदी उसकी बात काटकर गंभीर स्वर में कह उठा--- "भाग मत जाना। पैसा मिल जाए तो पचास नहीं तो कम-से-कम बारह लाख जरूर दे... ।'
"ओह विजय।" रागिनी ने मुंह बनाया--- "दोस्त पर विश्वास रखो। इंतजार करो। मैं यहीं पर आ रही हूं।" कहने के साथ ही रागिनी कार की तरफ बढ़ गई।
बेदी उसे देखता रहा ।
देखते-ही-देखते वो कार में बैठी। स्टार्ट की और वापस मोड़ काटते हुए आगे बढ़ा दी। एक बार उसने बेदी पर निगाह मारी। हाथ हिलाया फिर कार सड़क पर पहुंच कर तेजी से भागती चली गई।
बेदी पेड़ के नीचे बैठा, दर्द करता पांव थामे बेचैन-सी निगाहों से कार को जाते तब तक देखता रहा, जब तक कि वो कार नजर आती रही। फिर व्याकुल-सा बड़बड़ा उठा।
"भगवान ही जाने अब ये वापस भी आती है या नहीं।" इसके साथ ही उसने कलाई पर बंधी घड़ी में वक्त देखा, दोपहर के तीन बज रहे थे।
■■■
तब दिन के साढ़े दस-ग्यारह बजे थे।
दिनेश ओबराय ने सिल्क के पायजामे के ऊपर मैच करता कीमती गाउन पहन रखा था। मौसम खुशगंवार हो रहा था। आकाश पर बादल छाए हुए थे। ठंडी हवा चल रही थी। वो टहलता हुआ बंगले से बाहर लॉन में आ पहुंचा। दो घंटे वो फोन पर व्यस्त रहा था, अपने बिजनेस के सिलसिले में जानकारी हासिल कर रहा था और आगे क्या करना है, उसके बारे में निर्देश दे रहा था।
प्रिया अभी तक नींद में थी।
सदर द्वार से बाहर निकलते ही ठंडी हवा का तीव्र झौंका उसके सूखे चेहरे से टकराया। कुछ राहत-सी मिली उसके मन को। फिर वो लॉन में पहुंचा और टहलते हुए, ठंडी हवा का मजा लेने लगा। वक्त बिताने के लिए, वहां नजर आ रहे फूल-पौधों को चैक करने लगा।
प्रिया गहरी नींद में थी। बदन पर पड़ी पारदर्शी नाइटी अस्त-व्यस्त सी हालत में ऊपर चढ़ चुकी थी और कूल्हे स्पष्ट नजर आ रहे थे। जहां कोई कपड़ा नहीं था। जाने क्या था उसके जिस्म में कि देखने वाला पागलों की तरह उसके हुस्न को देखता रह जाए। उसका खूबसूरत चेहरा इस तरह चमक रहा था जैसे कोई नया तराशा हीरा चमकता है। वास्तव में ओबराय ऐसे जलवे को देखकर अपने होशो-हवास खो बैठा होगा तभी तो उसने प्रिया को हासिल करने के लिए कई तरह की चालबाजियां खेली और... ।
रातभर के सफर से थकी प्रिया जाने कब तक गहरी नींद में डूबी रहती। अगर फोन की बैल न बजने लगती। कई बार फोन की बैल बजी तो प्रिया का मस्तिष्क सक्रिय हो उठा। आंखें बंद ही रहीं। थोड़ा-सा बेड के किनारे की तरफ सरक कर, पास ही भौजूद तिपाई पर पड़े फोन का रिसीवर उठाया।
"हैलो।"
"मिसेज ओबराय ?"
प्रिया के कानों में अजनबी जनाना स्वर पड़ा तो उसकी आंखें फौरन खुल गई।
"यस।" प्रिया के होंठों से निकला।
"आप मुझे जानती हैं। अपनी शादी में मुझे देख भी चुकी हैं। मैं मिस्टर ओबराय की रिश्तेदार बनकर आपके घर आपके रिश्ते के लिए गई...।"
"हां।" प्रिया फौरन सीधी हो गई--- "पहचाना मैंने...।"
"मैंने आपको कुछ बताने के लिए फोन किया है।"
"क्या ?" प्रिया के माथे पर बल पड़े।
"ओबराय ने आपके साथ शादी करने के लिए बहुत चालबाजियां खेली। आपके पिता के बिजनेस को बरबाद किया। यानी कि उस वक्त आपके परिवार की बरबादी में पूरी तरह ओबराय का हाथ था। वजह ये थी कि आप लोग इतने कमजोर और टूट जाएं कि ओबराय के साथ शादी करने को आप इंकार न कर सकें। जैसा ओबराय ने चाहा । वैसा हुआ, ओबराय ने आपको हासिल कर लिया।"
प्रिया की आंखें सिकुड़ गई।
"मैडम, आपकी बात समझ कर भी, मैं समझ नहीं पा रही।" प्रिया के होंठों से निकला--- "खुलकर बताइए।"
उस औरत ने जल्दी-जल्दी सब कुछ बताया कि उसे बीवी बनाने के लिए दिनेश ओबराय ने क्या-क्या, कैसे-कैसे किया।
सुनकर प्रिया हक्की-बक्की रह गई।
"मेरे पिता की बरबादी, उनकी मौत और हमारा सड़क पर आ जाना, ये सब ओबराय की करामात थी।" प्रिया के होंठों से अजीब से शब्द निकले।
"हां, मैं...।"
"और ये बात आप मुझे चार साल बाद बता रही हैं।" प्रिया ने खुद को संभालने की चेष्टा की।
"शायद अगले चालीस साल भी न बताती।" औरत के आने वाले स्वर में तीखापन आ गया--- "लेकिन अब बताना जरूरी समझा। ओबराय कमीना इंसान है। यह तो किसी से भी छिपा नहीं है। लेकिन परले हद तक गिरा हुआ भी है। इसका मुझे तब एहसास हुआ, जब खुद मुझ पर बीती।"
"क्या बीती ?"
"मैंने अपनी इक्कीस बरस की बेटी को अपनी सेवा की दुहाई देकर, ओबराय के एक ऑफिस में नौकरी पर रखवा दिया। बदकिस्मती से मेरी बेटी खूबसूरत है।" औरत की आवाज में भरपूर गुस्सा झलक रहा था--- "कल रात ही मुझे मालूम हुआ कि कमीना ओबराय छः महीनों से मेरी फूल-सी बेटी के जिस्म को अक्सर रौंदता रहता है। ओबराय की धमकी की वजह से, मेरी बेटी ने किसी से कुछ नहीं कहा। लेकिन कल रात मैंने अपनी आंखों से उसे ओबराय के साथ...।"
"ओबराय रात को बंगले पर था।" प्रिया के होंठों से निकला।
"झूठ, वो मेरी बेटी के साथ था।"
हो सकता है। प्रिया ने सोचा। वो तो सुबह यहां पहुंची है।
"तुम्हारे परिवार को ओबराय ने किस तरह तबाह किया, मैंने बताना जरूरी समझा, ताकि जिंदगी भर तुम गलतफहमी में न रहो। मैं दावे के साथ कह सकती हूं कि ओबराय जैसे इंसान के साथ तुम किसी भी सूरत में चैन से जिंदगी नहीं बिता सकती। क्योंकि वो है ही जल्लाद। कमीना, घटिया इंसान।" औरत का कड़वा स्वर प्रिया के कानों में पड़ रहा था--- "मुझे आशा है कि आप ओबराय को नहीं बताएंगी कि ये सब बातें मैंने आपको बताई हैं। ओबराय को मालूम हो गया कि मैंने उसके साथ धोखेबाजी की है। तो वो मेरे साथ जाने क्या कर बैठे। मैं....।"
"फिक्र मत करो। समझो, तुमने मुझे कुछ बताया ही नहीं।" प्रिया का चेहरा कठोर होने लगा।
"थैंक्स।" इसके साथ ही दूसरी तरफ से उस औरत ने लाइन काट दी।
प्रिया ने रिसीवर रखा।
"गॉड इज ग्रेट।" प्रिया के होंठों से नागिन-सी फुंफकार निकली और बेड से उतरकर पास पड़ा गाउन पहनने लगी--- "मैं नहीं जानती थी ओबराय कि तुम इतने बड़े करामाती आदमी हो। मेरे साथ ब्याह करने के लिए मेरा पूरा घर तबाह कर डाला। रियली, गॉड इज ग्रेट।"
दिनेश ओबराय का सूखा चेहरा और भी सिकुड़कर छोटा हो गया था।
टहलते हुए वो गैराज की तरफ निकल आया था। गैराज का शटर पूरी तरह बंद नहीं था। यूं ही उसने शटर को ऊपर उठाकर वैन को देखा। उसके पास भी विदेशी कारें थी। परंतु ये वैन उसे अच्छी लगी। पास जाकर उसे देखने लगा। मन ही मन सोचा कि वो भी विदेश से ऐसी वैन मंगवा लेगा। वैन को भीतर से देखने के लिए उसने इंगीनेशन में लटक रही चाबी निकाली और वैन के साइड डोर का लॉक खोलकर, दरवाजा सरका दिया।
शीशे काले होने की वजह से पहले तो भीतर कुछ नहीं नजर आ रहा था। वैन डोर सरकारने के बाद ओबराय के चेहरे पर अजीब से भाव उभरे फिर होंठ सिकुड़ गए। उसकी पैनी निगाहें वैन में ठूंसे बड़े-बड़े मजबूत सरकारी थैलों और उनके मुंह पर लगी 'लाख' की सीलों पर फिरने लगी। एक क्षण में ही वो समझ गया कि ये सरकारी सामान है। आगे बढ़कर थैलों को चैक करने लगा। वो समझ नहीं पाया कि सरकारी सामान प्राइवेट वैन में कैसे आ गया। प्रिया ने बताया था कि इस वैन को उसने एक युवती से छीना है।
तभी ओबराय को एक थैला थोड़ा-सा कटा नजर आया। अपना सूखा-सा हाथ उसने थैले के कटे हिस्से में डाला और जब हाथ बाहर आया तो उसमें पांच सौ की गड्डी दबी हुई थी। ओबराय की आंखें सिकुड़ गईं। उसने गड्डी को वैन की छत पर रखा और दूसरी गड्डी निकाली। इस तरह उसने थैले में से पंद्रह-बीस गड्डियां निकालीं। जिन्हें वैन की छत पर रख चुका था।
इसके साथ ही उसने सीलबंद बाकी थैलों को चैक किया। तुरंत ही ओबराय महसूस कर गया कि सब थैले नोटों की गड्डियों से भरे पड़े हैं। इस बात का भी एहसास हो गया कि इस सरकारी पैसे को जिसने भी हासिल किया है, चोरी-डकैती करके हासिल किया है। वरना सरकारी दौलत इस तरह इस वैन में नहीं होती ।
"गॉड इज ग्रेट।"
ओबराय फौरन पलटा ।
पीछे प्रिया को खड़े पाया। वो जाने कब की उसके पीछे खड़ी थी। बदन पर नाइट गाउन मौजूद था। चेहरे पर शांत भाव थे। उसने भरपूर ठहरी निगाहों से ओबराय को देखा फिर वैन की छत के ऊपर पड़ी गड्डियों को देखने के बाद भीतर पड़े मोटे, सील लगे थैलों को देखने लगी।
"ये वैन तुम लाई हो।" दिनेश ओबराय ने उसे घूरा--- "कम से-कम देख तो लेती कि भीतर क्या है। जिस वैन को तुम ड्राइव करती रही, उसमें चोरी-डकैती की सरकारी दौलत भरी पड़ी है।"
"तब रात का अंधेरा था।" प्रिया ने कहा और आगे बढ़कर वैन की छत पर पड़ी गड्डियों में से एक गड्डी उठाकर उसे फुरेरी दी--- "उस युवती से वैन छीनने के बाद मैंने वैन को यहीं लाकर रोका था। वैन के भीतर क्या है या क्या नहीं। ये देखने का वक्त नहीं मिला।"
"अगर रास्ते में कहीं चैकिंग हो जाती तो तुम पकड़ी जाती। इतनी भारी दौलत के बारे में क्या सफाई देतीं, जो सीलबंद सरकारी बैगों में बंद है। मेरा तो नाम बदनाम हो जाता।"
"सॉरी दिनेश।" प्रिया ने हाथ में पकड़ी गड्डी को थपथपाते हुए कहा--- "मैं मानती हूं कि अनजाने में मेरे से भारी गलती हुई। लेकिन अच्छा हुआ कि चैकिंग के लिए पुलिस ने कहीं पर भी वैन को नहीं रोका। नहीं तो जाने क्या हो जाता। गॉड इज ग्रेट।"
"तुम्हारी ऐसी कोई लापरवाही कभी न कभी मेरा नाम मिट्टी में मिला देगी।" ओबराय कठोर स्वर में बोला।
कुछ पल खामोश रहकर प्रिया कह उठी।
"जिस युवती से मैंने वैन छीनी। वो चोर-डकैत नहीं लगती थी।"
"तो उनकी साथी रही होगी। वरना, इतनी बड़ी सरकारी दौलत उसके पास होने का क्या मतलब है।" दिनेश ओबराय ने कड़वे स्वर कहा--- "कार में पेपर्स थे ?"
"हा।"
"तो वो युवती या उसके साथी, पेपर्स से यहां का पता जान चुके होंगे। यहां वे कभी भी पहुंच सकते हैं। इतनी बड़ी दौलत को वो छोड़ने वाले नहीं। किसी पचड़े में पड़कर मैं अपना नाम बदनाम नहीं कराना चाहता।" कहने के साथ ही ओबराय ने वैन की छत पर रखी गड्डियां बोरे के कटे हिस्से में से वापस डाल दी--- "वो युवती या उसके साथी जो भी हमारी कार लेकर आए, वैन उनके हवाले कर देना। जब तक नोटों से भरी ये वैन यहां खड़ी है, हमारे सिर पर तलवार लटकती रहेगी।"
प्रिया ने हाथ में दबी गड्डी को भी वापस थैले में डाला।
ओबराय ने वैन का साइड डोर लॉक किया और चाबी वापस इंगीनेशन में फंसा दी।
"आओ।"
दोनों गैराज से बाहर निकले।
"शटर नीचे गिरा दो।"
प्रिया ने एक ही बार में शटर को नीचे गिरा दिया।
ओबराय ने सख्त निगाहों से प्रिया को घूरा।
"इस वैन को यहां लाकर तुमने भारी भूल की है। ऐसी लापरवाही फिर मत कर बैठना। वरना मार-मारकर वो हाल करूंगा कि तमाम उम्र के लिए सीधी नहीं चल सकोगी।" ओबराय की आवाज में खतरनाक भाव झलक उठे थे।
प्रिया उसका दरिंदगी से भरा चेहरा देखती रही।
"मैं तुम्हें छः महीने का वक्त देता हूँ।" ओबराय उसी लहजे में दांत भींचकर बोला--- "इन छ: महीनों में तुमने मुझे बताना है कि तुम मां बनने वाली हो। वरना मैं तुम्हें तलाक दे दूंगा।" कहने के साथ ही ओबराय तेज-तेज कदमों से वहां से आगे बढ़ता चला गया।
प्रिया की नफरत भरी निगाह, ओबराय की पीठ पर टिकी रही। जब वो नजरों से ओझल हो गया तो प्रिया दांत भींचे बड़बड़ा उठी।
"गॉड इज ग्रेट।" इसके साथ ही मुख्य दरवाजे की तरफ बढ़ गई।
इस वक्त पौने बारह बज रहे थे।
■■■
तीन बजकर चालीस मिनट हुए थे, जब नौकरानी ने आकर खबर दी कि बाहर कोई मैडम है, जो आपसे मिलना चाहती है। अपना नाम नहीं बता रही। पूछने पर इतना ही कह रही है कि अपनी मालकिन से कहो कि उनकी कार लेकर आई हूं।
प्रिया समझ गई कि वो वही युवती होगी जिससे रात उसने वैन छीनी थी और अब अपनी वैन लेने आई होगी।
प्रिया ने नौकरानी से कहा कि उसे कार सहित पोर्च तक पहुंचा दो ।
नौकरानी चली गई।
प्रिया नहा-धोकर सूट पहने थी। छातियों के पास का कट इतना नीचे था कि आधी से ज्यादा पुष्ट छातियां स्पष्ट नजर आ रही थीं। उसने स्लीपर पहने और बाहर निकल कर आगे बढ़ी तो चंद कदम उठाने के बाद ओबराय नजर आया, जो अपने कमरे से निकला था।
प्रिया ठिठकते हुए बोली।
"अपनी वैन लेने वो युवती आई है।"
"अच्छा हुआ।" ओबराय ने सिर हिलाया--- "तुम उसके सामने न ही पड़ो तो अच्छा है। मैं वैन उसके हवाले कर देता हूं।" कहने के साथ ही ओबराय पलटकर आगे बढ़ा।
"सुनो।"
प्रिया के पुकारने पर ओबराय ठिठक कर मुड़ा।
प्रिया मुस्कराई।
"बच्चा तभी ठहरेगा, जब तुम कोशिश करोगे।" प्रिया ने मीठे स्वर में कहा।
दिनेश ओबराय की नजरें उसकी छातियों पर जा टिकीं।
"रात को आना।" ओबराय बोला।
"रात को भी आ जाऊंगी और अब भी। बहुत दिन हो गए।" सिर से पांव तक लदी खूबसूरती से आधी से ज्यादा झलकती नजर आती, पास बुलाती छातियां।
ओबराय ने तसल्ली से उसे गर्दन से नीचे देखा।
"मेरे बेडरूम में जाओ। आता हूं।" कहने के साथ ही ओबराय आगे बढ़ गया।
आंखों में नफरत के भाव समेटे, प्रिया, ओबराय को जाते देखती रही।
■■■
दिनेश ओबराय को देखते ही रागिनी तुरंत मीठे ढंग से मुस्करा पड़ी।
ओबराय मुख्य द्वार से निकलकर उसकी तरफ बढ़ा। अपनी कार को देखा।
"हैलो।" उसके पास पहुंचने पर रागिनी ने मुस्कराकर उसकी तरफ हाथ बढ़ाया।
ओबराय ने दोनों हाथ पीठ पर बांधकर, रागिनी को घूरा।
रागिनी ने अपना हाथ वापस कर लिया। परंतु मुस्कराती रही।
"कल रात को मेरी पत्नी ने आपसे वैन छीनी थी ?" ओबराय सख्त-शांत स्वर में बोला।
"जी हां, मैं अपनी वैन लेने...।"
"मेरी पत्नी ने जो हरकत की, वो ठीक नहीं थी। खैर, आप अपनी वैन ले जा सकती हैं। आओ।"
ओबराय आगे बढ़ा तो रागिनी उसके साथ चल पड़ी। उसका दिल धड़क उठा कि वैन आसानी से वापस मिल रही है और इस व्यक्ति के हाव-भाव से ऐसा नहीं लगता कि किसी ने वैन का पीछे वाला हिस्सा खोला हो। सरकारी बोरों को या उसके भीतर के नोटों को देखा हो। इसके बातचीत के ढंग से समझ गई थी कि यही ओबराय है।
ओबराय गैराज के पास पहुंचकर ठिठका और पलटकर रागिनी को देखा।
"गैराज खोल लो। वैन भीतर है।"
रागिनी आगे बढ़ी। गले में लटक रहे छोटे से बैग को संभाला और झुककर शटर उठाने लगी। शटर भारी था। जिसे उठाने के लिए उसे भरपूर ताकत का इस्तेमाल करना पड़ा। इतने में ही वो हांफने लगी थी। शटर उठ गया था।
कोरियाई वैन के नजर आते ही दिल जोरों से धड़का। आंखें चमक उठीं।
ओबराय तीखी निगाहों से उसे देख रहा था।
रागिनी गले में लटक रहे बैग को संभालते जल्दी से आगे बढ़ी और इंगीनेशन में से चाबी निकालकर वैन का साइड डोर लॉक खोलकर, दरवाजा खोला तो सरकारी सीलबंद बोरों को सही सलामत देखकर उसे जहान भर की शांति मिली। उसने जल्दी से द्वार बंद किया। लॉक किया और पलटकर खुद पर काबू पाते हुए कह उठी।
"थैंक्स मिस्टर ओबराय ।"
दिनेश ओबराय चुभती निगाहों से उसे देखता रहा।
"मेरे ख्याल में अब मुझे अपनी वैन लेकर चले जाना चाहिए। अगर मुझे जल्दी न होती तो मैं अवश्य आपसे दो-चार बातें और करती।" रागिनी वास्तव में फौरन वैन के साथ वहां से निकल जाना चाहती थी। वो जल्दी से स्टेयरिंग सीट पर जा बैठी।
जवाब में ओबराय ने अपना सूखा चेहरा हौले से सहमति में हिलाया ।
"बाय।" रागिनी ने मुस्कराकर अदा के साथ कहा और वैन आगे बढ़ा दी।
वैन को आते देखकर दरबानों ने फाटक खोल दिया था।
वैन बाहर निकलती चली गई।
ऊपर, बेडरुम की खिड़की पर खड़ी प्रिया की निगाहें, जाती कोरियाई वैन पर टिकी थी।
"गॉड इज ग्रेट।" वो धीमे स्वर में बड़बड़ा उठी।
■■■
रागिनी को गए डेढ़ घंटे से, दस मिनट ऊपर हो चुके थे। बेदी उसी पेड़ के नीचे बैठा था। पांव दर्द कर रहा था। परंतु उसकी निगाह सामने सड़क पर थी, जो धूप में दूर तक स्पष्ट नजर आ रही थी। रागिनी का इंतजार था उसे। अब तक उसे आ जाना चाहिए था। परंतु वो नहीं आई थी।
बेदी ने गहरी सांस ली।
वो नहीं आएगी। करोड़ों से भरी वैन उसे मिल गई होगी। ऐसे में रागिनी को उसकी जरूरत ही कहां रही होगी। क्यों देगी वो उसे पचास लाख रुपये। उन दोनों में रिश्ता ही क्या है। जरा-सी तो जान-पहचान है। उसके बारे में तो वो कुछ जानता भी नहीं और... ।
तभी ब्रेकों की तीव्र आवाज उसके कानों में पड़ी।
बेदी की सोचें टूटी।
गर्दन घुमाकर देखा। पास ही फुटपाथ के पार, सड़क पर वैन खड़ी नजर आई। विदेशी वैन। उसमें से झांकती मुस्कराती रागिनी नजर आई।
दो पल के लिए बेदी के चेहरे पर अविश्वास के भाव उभरे फिर उसका चेहरा खुशी से भर उठा। उसने उठने की चेष्टा की तो पांव में पीड़ा की लहर तीव्रता से उठी। वो होंठ भींचकर रह गया।
"विजय।" रागिनी की आवाज कानों में पड़ी--- "आ जाओ, सब ठीक है।"
बेदी मुंह खोलकर ऊंचे स्वर में कहने लगा कि पांव में दर्द बहुत हो रहा है। उसके लिए चलना बहुत कठिन है। परंतु ये सोचकर वो खामोश रह गया कि कहीं ये सुनकर वो वैन लेकर चलती न बने। नोट उसके पास हैं। ऐसे में वो अपना वक्त बरबाद नहीं करेगी। जबकि उसे पैसे की सख्त जरूरत थी। बारह लाख की तो हद से ज्यादा जरूरत थी कि दिमाग में फंसी गोली निकलवा कर मौत के खतरे में फंसी जिंदगी को बचा सके।
दर्द को मन ही मन पीकर किसी तरह बेदी खड़ा हो गया। पांव की पीड़ा से उसका पूरा शरीर झनझना उठा। परंतु पैंतीस दिन के भीतर, बे-वक्त की मौत से ये दर्द सह लेना कहीं बेहतर था। पीड़ा के समन्दर में डूबा, लंगड़ाता हुआ किसी तरह, आगे बढ़ा। चेहरा लाल सुर्ख-सा हो उठा था। परंतु वो वैन के दरवाजे के पास जा पहुंचा।
"सॉरी विजय।" रागिनी की आवाज में खुशी झलक रही थी--- "मैं वैन को छोड़कर एक कदम भी दूर नहीं जाना चाहती। इसलिए मैं तुम्हें सहारा नहीं दे सकी, मैं...।"
"कोई बात नहीं।" अपनी पीड़ा पर बाबू पाता-सहता बेदी कह उठा।
"भीतर बैठो।"
बेदी ने वैन का दरवाजा खोला और लुढ़कने वाले ढंग में सीट पर जा बैठा। होंठों से धीमी-सी पीड़ा भरी चीख निकली। वैन का दरवाजा बंद कर लिया।
रागिनी ने वैन आगे बढ़ा दी।
"बहुत दर्द हो रही है।" रागिनी बोली।
"हूं।" होंठ भींचे बेदी ने सिर हिलाया।
"कोई बात नहीं। सब ठीक हो जाएगा। अच्छे डॉक्टर को दिखा देना।"
"पांव को आराम और मालिश की जरूरत है। डॉक्टर की नहीं।" बेदी ने धीमे स्वर में कहा--- "तुम्हारा रुपया वैन में है। वो करोड़ों रुपया जो...।"
"हां विजय, हां। बहुत खुश हूं मैं। सब ठीक हो गया। सच पूछो तो मुझे अभी भी विश्वास नहीं आ रहा कि मेरा करोड़ों रुपया दूर होकर, पुनः मेरे पास लौट आया है।" रागिनी का चेहरा खुशी से चमक रहा था। वो और भी खूबसूरत लग रही थी।
"मेरे पचास लाख...।" कहते हुए बेदी का दिल धड़क उठा।
"हां, भूली नहीं हूं अपना वायदा, एक बात बताओ।"
"क्या ?"
"शादी करोगे मुझसे।"
बेदी खामोश रहा, कुछ कह न सका।
"चिंता मत करो, तुम्हारे इंकार पर भी मुझे कोई दुःख नहीं होगा। पचास लाख तुम्हें मिलेगा।" कहते हुए वो हंस पड़ी।
बेदी ने उसे देखा।
"मैं इस वक्त उस गोली के बारे में सोच रहा हूं, जो मेरे दिमाग के दोनों हिस्सों के बीचो-बीच फंसी है। जो हर पल मेरी मौत बनकर मेरे साथ है। सबसे पहले मैं अपनी चंद दिनों की जिंदगी के खौफ से दूर होना चाहता हूं। उसके बाद ही मैं किसी दूसरी बात पर सोच सकता हूं।" बेदी ने धीमे-गंभीर स्वर में कहा।
"समझ गई, तुम पचास लाख चाहते हो। कोई बात नहीं।" रागिनी का मुस्कराता स्वर सामान्य था--- "हमारा जितना साथ रहा, बढ़िया रहा। इस छोटे से साथ को तमाम जिंदगी न तो तुम भूल सकोगे और न ही मैं। अगर मेरे पास इंतजार करने का वक्त होता तो मैं तुम्हारा ठीक होने तक अवश्य इंतजार करती। लेकिन इतनी दौलत पास होने पर मैं किसी सुरक्षित जगह पर पहुंच जाना चाहती हूं। वक्त ने चाहा तो फिर मुलाकात होगी।"
बेदी ने मुस्कराकर उसे देखा ।
इस वक्त शाम के पांच बजने जा रहे थे।
कुछ देर बाद रागिनी ने सुनसान सड़क पर पेड़ों की ओट में कोरियाई वैन को रोका और इंजन बंद करके मुस्करा कर बेदी को देखा।
"नीचे उतरने में पांव में दर्द तो होगी। लेकिन पचास लाख पाने के लिए, तुम दर्द को सह लोगे। मैं जानती हूं।" कहने के साथ ही उसने नीचे उतरने के लिए दरवाजा खोला--- "आओ।"
बेदी मुस्कराया। हिम्मत इकट्ठी की। कुछ देर के लिए पांव के दर्द को भूल गया। पैसे का इंतजाम हो गया। इस सोच के साथ उसका दिल जोरों से धड़कने लगा। अब दिमाग में फंसी गोली निकल जाएगी। वो बच जाएगा। चंद दिनों की बची छोटी सी जिंदगी को बदलकर, एक सौ छत्तीस साल तक जिएगा। अब वो नहीं मरेगा। दूसरे लोगों की तरह शांत-सामान्य जिंदगी बिता सकेगा। सब ठीक हो जाएगा। बाकी बचे पैसों से वो कोई अच्छा बिजनेस खोल लेगा। उदय का तो गैराज है। शुक्रा को अपने साथ ही काम पर लगा लेगा। उसे हिस्सेदार बना लेगा।
वैन के साइड डोर का लॉक खोलकर रागिनी ने, डोर को सरकाया। तो उसी पल वैन के भीतर ठूंसे हुए सरकारी सीलबंद बड़े-बड़े थैले नजर आने लगे।
बेदी की पैनी निगाह थैलों पर जा टिकीं।
रागिनी हंसी, बहुत खुश थी वो।
"विजय, मेरे दोस्त। ये है करोड़ों की दौलत । इन थैलों में, अच्छा हुआ जो मुझे वापस मिल गई, वरना मैं इसके बिना पागल हो जाती।" रागिनी का स्वर खुशी से कांप रहा था।
पांव के दर्द की वजह से बेदी लंगड़ाकर आगे बढ़ा। थैले के मुंह पर लगी मुहरबंद सील को देखा तो चौंका।
"ये तो सरकारी पैसा है। सरकारी बैग है।" बेदी के होंठों से निकला। साथ ही वो पलटा ।
रागिनी हौले से हंसी।
"क्या फर्क पड़ता है। थैलों से निकलने के बाद ये पैसा प्राइवेट हो जाएगा।"
"तुमने कहीं चोरी-डकैती की है।" बेदी ने पैनी निगाहों से उसे देखा।
"पागल हो क्या।" वो हंसी--- "मैं तुम्हें ऐसी लगती हूं क्या ?"
"ऐसा नहीं हो तो फिर कम से कम ये पैसा तुम्हारे पास नहीं आ...।"
"विजय।" रागिनी के होंठों पर मुस्कान थी, परंतु वो गम्भीर भी थी--- "मेरी किस्मत में पैसा था, इसलिए ये पैसा मुझे मिल गया। इसे पाने के लिए मैंने कुछ भी गलत नहीं किया। मुझे अपनी सफाई देने की जरूरत नहीं। फिर भी तुम्हें दोस्त मानकर सफाई दे रही हूं। विश्वास करना।"
बेदी कुछ नहीं बोला। रागिनी को देखता रहा।
"पीछे हटो। तुम्हारा पचास लाख निकाल दूं।"
बेदी फौरन हर तरह की सोचों से बाहर निकला।
"मैं---पचास लाख रखूंगा कहां, मेरे पास तो...।"
"उसकी तुम फिक्र मत करो।" रागिनी ने टोका--- "यहां से निकालकर, वैन में आगे रख लेंगे। किसी मार्किट से सूटकेस खरीद लेना। उसमें गड्डियां रख लेना। पांच सौ की गड्डियां हैं।"
बेदी ने फ़ौरन किसी मासूम बच्चे की तरह दाएं-बाएं गर्दन हिलाई ।
रागिनी आगे बढ़ी और थैलों को टटोलते हुए, वो थैला तलाश करने करने लगी जो थोड़ा-सा कटा हुआ था। जिसमें हाथ डालकर गड्डियां निकाली जा सकती थीं।
वो 'कट' वाला थैला मिला।
"तैयार हो जाओ। मैं गड्डियां निकालती हूं। उन्हें संभालकर, वैन की सीट के पास पैरों में रखते जाना। पचास लाख की, पांच सौ की गड्डियां कितनी बनीं ?"
"स-सौ गड्डियां।" बेदी के स्वर में थरथराहट उभर आई।
"रेडी।" रागिनी ने मुस्कराते हुए थैले के कट में हाथ डाला ।
एक पल बीता।
दो पल बीते ।
तीसरे ही पल उसके मस्तिष्क को तीव्र झटका लगा।
थैले के कट में गया हाथ उसने बाहर निकाला तो हाथ की उंगलियों में तुड़ा-मुड़ा अखबार दबा था। उसने अखबार फेंका और बौखलाएं ढंग से पुनः हाथ भीतर डाला तो दोबारा भी हाथ में अखबार ही दबा बाहर निकला।
रागिनी का जिस्म जोरों से कांपा ।
चेहरे पर से कई रंग आकर गुजर गए।
बेदी की आंखें सिकुड़ीं। वो समझने की कोशिश कर रहा था कि माजरा क्या है।
एक के बाद एक रागिनी ने कई अखबार बाहर निकाल फेंके। फिर वो हांफने-सी लगी। चेहरा बदरंग-भद्दा सा लगने लगा जैसे अभी-अभी उसकी हरी-भरी दुनिया को आग लगने की खबर मिली हो ।
दूसरे ही पल वो दांत किटकिटाकर गुर्रा उठी।
"हरामज़ादी।"
"क-क्या हुआ ?" बेदी के चेहरे पर अजीब से भाव उभरे--- "किसे गाली दे रही हो।"
जवाब देने की अपेक्षा रागिनी दांत भींचे, दोनों हाथों से अन्य सील बंद थैलों को चैक करने लगी थी। किसी में भी नोटों की गड्डियां होने का एहसास न हुआ। कुछ में अखबारें ठुंसी हुई थी कि देखने पर थैले उभरे लगे। कुछ में ईंट-पत्थर जैसे टुकड़े थे।
नोटों की गड्डियां किसी भी थैले में नहीं थी।
"विजय।" रागिनी के चेहरे पर पागलों जैसे भाव उभरे--- "उस-उस कुतिया ने मुझे बरबाद कर दिया। मुझे कहीं का न छोड़ा। वो-वो।"
"क्या हुआ ?" बेदी कुछ-कुछ समझा--- "थैलों में पैसा नहीं है क्या ?" उसका दिल भी धड़का।
"न-हीं।" रागिनी हांफने लगी--- “कमीनी ने थैलों में से करोड़ों रुपया निकाल लिया और बदले में पत्थर और अखबारें भर दीं। हरामजादी ने-ने-ने ।" दूसरे ही पल रागिनी को चक्कर- सा आ गया। वैन से टकराकर, नीचे गिरने को हुई कि बेदी ने उसकी बांह पकड़कर, उसे थामा और धीरे-धीरे नीचे बिठा दिया। वो होश में भी थी और बेहोश भी। तेज सांसें ले रही थीं।
बेदी का चेहरा भी बुझा-बुझा सा नजर आने लगा। उसकी आंखों के सामने अपनी मौत नाच उठी। मस्तिष्क में पैंतीस दिन-पैंतीस दिन का घंटा बजने लगा। पैसा हासिल होने के ख्याल से उसके शरीर में जो शक्ति-जो जोश आया था, वो फुर्र हो चुका था। जो होना है, वो ही होना है। वो बेशक कितने ही हाथ-पांव मार ले। ऊपर वाले ने चंद दिनों की और जिंदगी लिखी है तो चंद दिन और ही उसने जीना था। एक सौ छत्तीस साल कैसे जी सकता था।
एक-डेढ़ मिनट में ही रागिनी ने खुद को संभाला। मस्तिष्क में गुस्से का ज्वालामुखी फट रहा था। चेहरे पर दुनिया को खा जाने के भाव इकट्ठे हो चुके थे।
"विजय।" रागिनी गुर्रा उठी।
बेदी अपनी सोचों से बाहर निकला। बुझी-बुझी आंखों से उसके धधकते चेहरे को देखा।
"विजय। छोड़ना नहीं है उसे। थैलों में बंद एक-एक रुपया उससे वसूलना है।"
"किससे ?" बेदी के चिपके होंठ हिले।
"उसी कुतिया से।" पागल हो रही थी रागिनी--- "जिसने मेरी वैन छीनी और जब वापस दी तो थैलों में नोटों की गड्डियों की जगह, अखबारें और ईंट-पत्थर भर दिए। मैं नहीं जानती उसका नाम क्या है। मिसेज ओबराय है शायद वो। मालूम हो जाएगा, उसके बारे में। नहीं छोड़ेंगी उसे। नहीं छोडूंगी।। वो मुझे बरबाद नहीं कर सकती। मैं-मैं बरबाद कर दूंगी उसे, वो...।"
रागिनी बोले जा रही थी। जो मुंह में आ रहा था। कहे जा रही थी। बेदी महसूस कर रहा था कि करोड़ों रुपया हाथ से जाने और गुस्से की अधिकता की वजह से वो बे-काबू हुई पड़ी थी। उसकी खूबसूरती जाने कहां गायब हो गई थी। उम्र में भी एकाएक बड़ी लगने लगी थी। बेदी को लगा उसे संभालने की जरूरत है।
"रागिनी ।" आगे बढ़कर झुकते हुए बेदी उसका गाल थपथपाता हुआ बोला--- "खुद को संभालो रागिनी। कुछ भी तो नहीं बिगड़ा । हमें मालूम है करोड़ों रुपया किसके पास है। जैसे-तैसे कोशिश करके, उन लोगों से रुपया लिया जा सकता है। सब्र के साथ काम लो।"
बेदी के इन शब्दों से जैसे रागिनी को तिनके वाला सहारा मिला।
"सच विजय। तुम मेरा साथ दोगे। वो रुपया उस औरत से वापस ले लोगे ?" रागिनी का चेहरा निचुड़ा पड़ा था।
"हां।" बेदी के चेहरे पर गंभीरता थी, व्याकुलता थी--- "उस रुपये की जितनी जरूरत तुम्हें है। मुझे तुमसे कहीं ज्यादा बारह लाख की जरूरत है। वरना पैंतीस दिन के बाद मैं इस दुनिया में नहीं रहूंगा। इसलिए उस पैसे को हर हाल में वापस पाना मेरी जरूरत बन गई है।"
बेदी के इन शब्दों ने वास्तव में, रागिनी के लिए टॉनिक का काम किया। उसने खुद को संभाला और वैन थामें उठ खड़ी हुई। सांसें अभी भी तेज चल रही थीं।
"कैसे होगा ये सब विजय, कैसे उससे करोड़ों रुपया...।"
"जल्दी नहीं। यह कोई मामूली बात नहीं है। करोड़ों रुपया वापस पाने के लिए हमें बहुत सोच-समझकर आगे बढ़ना होगा।" बेदी ने गंभीर स्वर में कहा--- "पहले वैन में पड़े सरकारी थैलों को यहीं निकालना होगा। उसके बाद रहने के लिए किसी जगह का इंतजाम करना होगा। एक-दो दिन, मेरा पैर ठीक होने में लगेंगे। इस दौरान सोचेंगे कि क्या करना है।"
"मैं छोडूंगी नहीं, उस कुतिया-हरामजादी को।"
"हां-हां, मैं कब छोड़ने को कह रहा हूं। इन थैलों को वैन से बाहर निकाल फेंकों। मेरे पांव में दर्द है। इस काम में मैं तुम्हारी कोई सहायता नहीं कर सकता।" बेदी ने बेचैनी से कहा।
रागिनी वैन में भरे थैलों को निकाल-निकालकर बाहर फेंकने लगी। बेदी ने थैलों को चैक किया। थैलों के नीचे वाला थोड़ा-सा हिस्सा बहुत सफाई से काटा था और फिर उसे सिल भी दिया गया था। बेदी गहरी सांस लेकर रह गया।
जबकि रागिनी रह-रहकर गुस्से से कांप रही थी। आंखों के सामने बार-बार उस औरत का चेहरा (प्रिया) आ रहा था, जिसने उससे वैन छीनी थी।
■■■
शाम के साढ़े आठ बज रहे थे।
बेदी और रागिनी थ्री स्टार होटल के कमरे में डिनर ले रहे थे। दोनों गंभीर थे। नहा-धो चुके थे। दोनों ने बाजार से नए कपड़े खरीदे थे। उनके बीच खास बात नहीं हो रही थी। कुछ देर पहले ही रागिनी ये बताकर हटी थी कि वो नोटों से भरे थैले उसके पास कैसे आए।
लम्बी खामोशी के बाद बेदी ने कहा।
"मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूं कि कुछ लोगों ने सरकारी दौलत पर डाका डाला होगा। परंतु बाद में जाने कैसे वो दौलत उनके हाथ से निकल गई।"
होंठ भींचे रागिनी ने बेदी को देखा।
"अगर सरकारी पैसा लूटा गया है तो इसका जिक्र अखबारों में भी आया होगा।" रागिनी बोली।
"गुड।" बेदी के होंठों से निकला--- "ये ठीक कहा तुमने । हमें बीते दिनों के अखबार चैक करने चाहिए। मालूम तो हो कि सरकारी थैलों में पड़ी करोड़ों की दौलत आई कहां से।"
"लेकिन बीते दिनों के अखबार मिलेंगे कहां से?"
"इसका इंतजाम वेटर करेगा। जो भी दो-चार सौ रुपया देना पड़े, वो तुम दोगी। मैं तो खाली हूं।"
रात के दस बज रहे थे। उन दोनों के सामने बीते पंद्रह दिनों के अखबार पड़े थे। जो कि उनके कहने पर वेटर दे गया था और वो अखबारों को छानकर जान चुके थे कि वो दौलत कुछ दिन पहले लूटी गई है। नौ सील बंद सरकारी बोरों में नब्बे करोड़ की दौलत थी और उन्हें ध्यान था कि कोरियाई वैन से जो बोरे बाहर फेंके थे, वो करीब नौ बोरे ही थे।
अखबारें पढ़ने के बाद बेदी और रागिनी हक्के-बक्के रह गए।
"नब्बे करोड़।" बेदी के होंठों से निकला।
रागिनी ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी ।
"वो दौलत करोड़ों में है। ये तो मैं जानती थी। परंतु वो नब्बे करोड़ की होगी। हे भगवान।" रागिनी के शरीर में बिजली की भांति झुरझुरी-सी दौड़ती चली गई।
दोनों कई पलों तक एक-दूसरे को देखते रहे।
"मुझे अपनी जिंदगी बचाने के लिए सिर्फ बारह लाख चाहिए और नब्बे करोड़ जैसी बड़ी रकम उस औरत के पास है।" बेदी अजीब से स्वर में कह उठा।
"विजय।" एकाएक रागिनी हाथ मलते हुए, गुर्रा उठी--- "इतनी बड़ी रकम मैं नहीं छोड़ सकती। अगर हम किसी तरह समझदारी से काम लें तो नब्बे करोड़ हम पा सकते हैं।"
बेदी की नजरें, रागिनी के चेहरे पर जा टिकीं।
"चिंता मत करो दोस्त।" रागिनी ने फौरन कहा--- "अब तुम उस दौलत में से पचास लाख के हिस्सेदार नहीं हो। अब तुम आधे के हिस्सेदार हो। पैंतालीस करोड़ के।"
बेदी के चेहरे पर सोच के भाव उभरे।
"क्या हुआ ?"
"कुछ नहीं।" बेदी ने सिर हिलाया--- "मैं सोच रहा था कि कैसे उस औरत से नब्बे करोड़ ले पाऊंगा। ये इतनी बड़ी दौलत है। कि कोई भी आसानी से नहीं लौटाएगा।"
"तुम ठीक कहते हो।" रागिनी बेचैन और गंभीर हो उठी--- "रुपया कैसे उससे लेना है। ये बात मैं खुद नहीं समझ पा रही। तुम सोचो, कैसे उससे नब्बे करोड़ लिया जा सकता है। विजय इतनी बड़ी दौलत से, हमारी जिंदगी तो क्या, आने वाली पुश्तें भी संवर जाएंगी और फिर तुम्हें बारह लाख की तो फौरन सख्त जरूरत है। अपनी जिंदगी भी बचानी है तुम्हें।"
बेदी के चेहरे पर बेचैनी उछाले मारने लगी।
"सिर्फ पैंतीस दिन हैं मेरे पास।" बेदी के स्वर में दर्द भर आया।
"दिल छोटा मत करो विजय।" रागिनी तुरंत अपनेपन से कह उठी--- "पैंतीस दिन बहुत होते हैं। करीब सवा महीना है तुम्हारे पास। इतने वक्त में तुम कोई जुगाड़ भिड़ाकर उस औरत से नब्बे करोड़ वसूल कर सकते हो। इसके लिए तुम्हें सबसे पहले ये मालूम करना होगा कि उसने इतनी बड़ी दौलत बंगले में कहां छिपा रखी है।"
बेदी ने सिर झुकाकर अपने पैर को देखा।
"अभी मैं चलने-फिरने के काबिल नहीं। पांव में बहुत दर्द है ।"
"मेरे होते हुए इस जरा-सी बात की तुम फिक्र मत करो। मैं अभी तुम्हारे पांव की मालिश करती हूं। तुम आराम करो। बेड से मत उतरना । कल के दिन में मैं तुम्हें ठीक कर दूंगी और साथ-ही-साथ उस औरत के बारे में जानकारी भी हासिल करूंगी।"
उसके बाद वेटर से क्रीम मंगाकर रागिनी ने विजय के सूजन भरे पांव की दिल से मालिश की कि सूजन कम हो और वो जल्दी ठीक हो जाए। मालिश के दौरान रागिनी रह-रहकर नब्बे करोड़ का जिक्र कर रही थी कि उसे कैसे वापस पाया जाए। उसका कहने-बात करने का ढंग ऐसा था कि बेदी मन ही मन इस सोच को पक्का करता जा रहा था कि वो नब्बे करोड़ वापस पाकर ही रहेगा। लेकिन कैसे ?
"विजय।"
"हूं।" बेदी सोचों से बाहर निकला।
"कैसे नब्बे करोड़ लेना है उससे, कुछ सोचा?"
"सोचने दोगी तो, सोचूंगा।" कहकर बेदी ने गहरी सांस ली।
■■■
चौंतीस दिन
रागिनी रात को ठीक से नींद नहीं ले पाई। सोचों में या सपने में नब्बे करोड़ ही घूमते रहे। जबकि बेदी गहरी नींद में सोया। रागिनी सुबह जल्दी उठ गई। नहा-धोकर कपड़े भी पहन लिए तब बेदी उठा। भरपूर नींद लेने की वजह से चेहरे पर ताजगी थी।
"गुड मार्निंग विजय।" रागिनी ने अपने मूड को सामान्य रखते हुए कहा।
बेदी मुस्कराया।
"क्या हुआ ?"
"चौंतीस दिन।" बेदी ने गहरी सांस ली--- "जब तुम मुझे मिली थी तो मेरी जिंदगी छत्तीस दिन की थी। अब दो दिन और कम हो गए।"
"डोंट वरी, सब ठीक हो जाएगा।" कहते हुए रागिनी पास आई और उसके गालों पर 'किस' की--- "मैं तुम्हारे पांव की मालिश करती हूं। आज तुम्हारा पांव ठीक हो जाएगा और मैं बाहर जाकर उस औरत के बारे में जानकारी इकट्ठी करती हूँ कि वो हरामजादी है क्या चीज। उसे छोड़ना नहीं है विजय। तुम सोचो कि कैसे, क्या करके उससे नब्बे करोड़ वसूला जाए।"
उसके बाद रागिनी इस तरह बेदी की सेवा में लग गई कि जैसे उसके साथ जन्मों-जन्मों का अटूट बंधन हो।
बेदी को सहारा देकर बाथरूम तक ले गई। ब्रेकफास्ट करने तक हर काम में उसकी पूरी सहायता की। उसके बाद उसे बेड पर लिटाकर, मोच आए पांव की तबीयत से मालिश की और पांव को चादर से ढांप दिया।
"चलना-फिरना मत। पूरी तरह आराम करना। जिस चीज की जरूरत हो। रूम सर्विस से कहकर मंगा लेना। मैं दोपहर को आकर फिर मालिश कर दूंगी। तुम्हें शाम तक ठीक कर दूंगी।" कहकर रागिनी ने उसके गालों पर पुनः 'किस' की।
रागिनी के जाने के बाद बेदी ने आंखें बंद कर लीं। चेहरे पर गंभीरता थी और मस्तिष्क में तीन बातें कि दिमाग के बीच फंसी गोली को जल्दी निकलवाना जरूरी था। बारह लाख की सख्त फौरन जरूरत थी। नब्बे करोड़ उस औरत से कैसे वसूल करना है।
बेदी सोचता रहा।
सोचता रहा वो कि क्या करे?
■■■
तैंतीस दिन
रागिनी की मतलब परस्ती वाली सेवा की वजह से, बेदी का पांव काफी हद तक ठीक हो गया था। अब चलने में उसे कोई खास दिक्कत पेश नहीं आ रही थी। साथ ही साथ रागिनी, प्रिया के बारे में इकट्ठी कर रही खबरें उसे दे रही थी। प्रिया और दिनेश ओबराय के बारे में उसे जो मालूम होता, बेदी को बता देती।
और बेदी सोच चुका था कि उसे क्या कैसे करना है। ये बात वो रागिनी को भी बता चुका था। बेदी के करने को लेकर, रागिनी ने उसकी योजना पर देर तक बात की थी और उसे तसल्ली थी कि सिर्फ इसी तरह नब्बे करोड़ वापस पाया जा सकता है।
तब शाम का वक्त था। रागिनी उसके पांव की मालिश करके हटी थी।
"अब मैं ठीक हूं।" बेदी गंभीर स्वर में बोला--- "कल से मैं अपना काम शुरू करूंगा।"
"क्या मालूम प्रिया कब अपने बंगले से बाहर निकलती है। हो सकता है...।"
"इस बात का इंतजार करना ही होगा कि कब वो बाहर निकलती है। तभी मेरा काम शुरू होगा। सुबह साढ़े आठ बजे हम यहां से निकलेंगे।" बेदी के शब्दों में पक्कापन था।
रागिनी ने होंठ भींच कर सिर हिला दिया।
■■■
बत्तीस दिन
दिन के ग्यारह बज रहे थे।
कोरियाई वैन उस पहाड़ी सड़क से हटकर, पेड़ों और पहाड़ी चट्टानों के बीच खड़ी थी। मौसम अच्छा था। तेज हवा चल रही थी। मध्यम-सा सूर्य निकला हुआ था। वो भी रह-रहकर बादलों की ओट में गुम हो जाता था ।
बेदी के चेहरे पर शेव बढ़ी हुई थी। कपड़े बढ़िया पहने थे। रागिनी इस वक्त सदाबहार खूबसूरत लग रही थी। गुलाबी रंग का सूट उस पर बहुत जंच रहा था। आज फिर वो साढ़े छब्बीस साल की युवती लग रही थी। चेहरे पर गंभीरता थी। चिंता-व्याकुलता नहीं थी। उसे विश्वास था कि नब्बे करोड़ उसके पास वापस आ जाएंगे।
"अगर प्रिया दस दिन बंगले से बाहर न निकली तो ?" बेदी कह उठा।
रागिनी के चेहरे पर कड़वे भाव उभरे।
"हरामजादी, कमीनी के पास ताजे-ताजे नब्बे करोड़ आए हैं।" रागिनी शब्दों को चबाकर गुर्राई— "ऐसे में कुछ लाख बरबाद करने के लिए तो वो घर से निकलेगी ही।"
बेदी गहरी सांस लेकर रह गया।
यह बेदी की अच्छी किस्मत ही कहा जाएगा कि तभी सड़क पर से विदेशी कार गुजर गई। रागिनी के साथ-साथ बेदी ने भी कार को पहचाना और रागिनी ने ड्राइविंग सीट पर मौजूद प्रिया को भी देखा।
"विजय।" रागिनी हड़बड़ाई--- "जल्दी, वो ही है।"
दोनों जल्दी से कोरियाई वैन में बैठे।
रागिनी ने वैन आगे बढ़ा दी। सड़क पर आकर वैन कार के पीछे लग गई।
"हमें इंतजार नहीं करना पड़ा।" बेदी ने राहत भरे स्वर में कहा--- "सिर्फ दो घंटे का छोटा-सा इंतजार, जबकि ये इंतजार कई दिनों का लम्बा भी हो सकता था।"
"मैंने तो पहले ही कहा था कि वो कमीनी नब्बे करोड़ में से कुछ लाख तो फौरन ही खर्च करेगी। मेरी बात सच निकली।" रागिनी का स्वर तीखा था।
आगे दूर जाती प्रिया की कार नजर आ रही थी।
"वैन को पीछे ही रखो।" बेदी ने कहा--- "वो वैन को पहचान सकती है।"
"तभी तो बहुत फासला रखकर, कार का पीछा कर रही हूं।"
"कहां जा रही होगी ?" बेदी ने सोच भरे स्वर में कहा।
"जाना कहां है।" रागिनी खा जाने वाले स्वर में कह उठी--- "किसी बढ़िया-महंगे शापिंग सेंटर में मेरे नब्बे करोड़ में से एक-दो लाख उड़ाने जा रही होगी। पैसे की तो वैसे भी इसे कमी नहीं है। ऊपर से छप्पड़ फाड़कर नब्बे करोड़ आ गया। देखना, ये हर रोज एक-दो लाख उड़ाने के लिए निकला करेगी। लेकिन नब्बे करोड़ जैसी रकम फिर भी खत्म नहीं होगी।"
बेदी ने रागिनी पर निगाह मारी फिर सामने देखता हुआ कह उठा।
"तुम औरतों में जलने-भुनने की बुरी बीमारी होती है।"
"वो मेरा पैसा उजाड़ने जा रही है और मैं कुछ कहूं भी नहीं।" रागिनी दांत भींचकर कह उठी।
बेदी ने कुछ नहीं कहा।
बीस-पच्चीस मिनट के बाद प्रिया की कार को देवली सिटी के महंगे शॉपिंग सेंटर के कार पार्किंग में कार को रुकते देखा तो रागिनी सुलगे स्वर में कह उठी।
"देखा, मेरा पैसा बरबाद करने कैसी बढ़िया जगह आई है।" बेदी कुछ नहीं बोला। उसकी निगाह दूरी पर मौजूद प्रिया पर थी। जो पार्किंग में कार छोड़कर, ज्वैलर्स के शो-रूम की तरफ बढ़ रही थी। मन ही मन बेदी ने उसके शरीर की शानदार फिगर की तारीफ की। उसके लम्बे बाल खूबसूरत चुटिया, फैली सी, उसके कदम उठाते हुए कूल्हों को थपथपा रही थी। बहुत ही दिलकश अंदाज में चल रही थी वो। इस वक्त वो लम्बी स्कर्ट और ढीले-ढाले टॉप में थी। इन कपड़ों में वो जरूरत से ज्यादा जंच रही थी।
बेदी के देखते ही देखते वो ज्वैलर्स के शो-रूम में प्रवेश कर गई।
"वैन रोको।"
बेदी के कहते ही रागिनी ने कोरियाई वैन को सड़क के किनारे रोक दिया।
बेदी देख रहा था कि प्रिया, ज्वैलर्स शो-रूम में प्रवेश कर चुकी है।
"मैं बाहर निकल रहा हूं। तुम अपनी वैन लेकर दूर कहीं साइड में हो जाओ।" बेदी का स्वर गंभीर था और वो व्याकुल भी था--- "मैं अपना चक्कर चलाता हूं।"
"भगवान तुम्हारी सहायता करे।" रागिनी ने धीमे बेचैनी भरे स्वर में कहा।
बेदी ने सिर हिलाया फिर होंठ भींचे वैन का दरवाजा खोला और आगे बढ़ गया।
रागिनी कुछ पल उसे देखती रही फिर कोरियाई वैन आगे बढ़ा दी।
करीब एक घंटे बाद प्रिया ज्वैलर्स शो-रूम से बाहर निकली और शॉपिंग सेंटर की गैलरी में आगे बढ़ गई। पार्किंग में एक तरफ खड़े बेदी की निगाह प्रिया पर थी। कुछ आगे जाकर प्रिया को उसने कपड़े के बड़े शो-रूम में प्रवेश करते देखा।
बेदी ने उसके बाहर आने का इंतजार करना था। अपनी योजना के मुताबिक कैसे भी प्रिया के सामने दया का पात्र बनना था कि वो उसे किसी तरह नौकरी पर रख ले। कोई जरूरी नहीं कि ऐसा हो जाए। परंतु ये चांस लेना जरूरी था। अगर ऐसा हो गया तो वो प्रिया के करीब बंगले पर रहेगा और मालूम कर सकेगा कि बंगले में नब्बे करोड़ कहां रखा गया है। अगर ये चक्कर न चल सका तो फिर कोई दूसरा रास्ता सोचना पड़ेगा।
करीब पैंतालीस मिनट के बाद, उसने प्रिया को कपड़े के शो रूम से बाहर निकलते देखा। दोनों बांहों में छ:- सात डिब्बे समेट कर उठा रखे थे और वो गैलरी से उतर कर पार्किंग की तरफ बढ़ने लगी थी।
बेदी को ये मौका बहुत बढ़िया लगा। वो तेजी से उसकी तरफ बढ़ा। पाठकों, जैसा कि आप देख रहे हैं कि बेदी साहब की जिन्दगी के आखिरी बत्तीस दिन ही बचे हैं और वो बेहाल हो रहे हैं कि किसी तरह बारह लाख का इंतजाम करके अपनी जिन्दगी को एक सौ छत्तीस साल जितनी लम्बी बना सके। इसी फेर में फंसते-फंसते बेदी साहब प्रिया और रागिनी जैसे खतरनाक दो पाटों में जा फंसे कि किसी से तो बारह लाख वो हासिल कर ही लेगा। अब वो अपनी कोशिश में कामयाब रहा कि नहीं, रागिनी और प्रिया ने अपने-अपने मतलब की खातिर बेदी साहब को किस-किस तरफ से घिसा और बेदी साहब के सामने क्या-क्या हादसे पेश आए ? प्रिया उसे ड्राइवर बनाकर उससे क्या काम करवाना चाहती थी? और नब्बे करोड़ का क्या हुआ ? क्या बेदी साहब बंगले से नब्बे करोड़ तलाश करके उसे लेकर वहां से खिसक सके ? ये सब जानने के लिए पढ़ें विजय बेदी सीरीज का आगामी अनिल मोहन का नया उपन्यास "नब्बे करोड़।"
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"मैडम। लाइए मैडम आपका सामान मैं उठा लेता हूं। प्लीज मैडम। कल से कुछ खाया नहीं। आपसे जो इनाम मिलेगा उससे मैं पेट भर रोटी खा लूंगा। प्लीज मैडम।"
आगे बढ़ रही प्रिया के सामने पहुंच कर बेदी ने दयनीय स्वर में कहा।
"सॉरी।" प्रिया लापरवाही से बोली--- "मेरे पास नौकर है। शो-रूम वाले के पास भी नौकर हैं। परंतु मुझे अपना काम खुद करने की आदत है।"
"प्लीज मैडम। बात को समझें। आपका सामान उठाकर, मैं पेट भर रोटी खा लूंगा।"
बेदी के आगे आ जाने की वजह से प्रिया ठिठकी।
"पेट भरने के लिए पैसे दे देती हूं।"
"सॉरी मैडम।" बेदी ने मुंह लटकाए दुःखी स्वर में कहा-- "मैं पढ़ा-लिखा हूं। काम करके तो पैसे ले सकता हूं। लेकिन भीख नहीं। अगर आप चाहती हैं कि मेरी भूख मिट जाएं तो ये सामान मुझे उठाने दीजिए।"
प्रिया ने बेदी के शेव बढ़े चेहरे पर निगाह मारी।
"लो, पकड़ो।"
बेदी ने जल्दी से प्रिया से सारे डिब्बे थामे ।
"आपकी गाड़ी कहां है मैडम ?"
"मेरी पीछे आओ।" कहते हुए प्रिया आगे बढ़ गई।
डिब्बों को थामे बेदी उसके पीछे चल पड़ा। उसका मस्तिष्क तेजी से काम कर रहा था ।
प्रिया अपनी कार के पास पहुंचकर ठिठकी। पीछे का दरवाजा खोला।
"डिब्बे सीट पर रख दो।"
बेदी ने जल्दी से सारे डिब्बे पीछे वाली सीट पर रख दिए।
प्रिया ने दरवाजा बंद किया और स्टेयरिंग सीट पर जा बैठी। कार में पड़े पर्स में से सौ का नोट निकालकर बेदी की तरफ बढ़ाया।
"ये तो बहुत ज्यादा है मैडम।" बेदी ने कहा। जबकि उसकी निगाह प्रिया की छातियों पर बार-बार जा रही थी। टॉप का गला इतना ढीला था कि लगभग पूरी छातियां रह-रहकर नजर आ रही थीं।
"रख लो।"
बेदी ने फौरन सौ का नोट थाम लिया।
प्रिया कार स्टार्ट करने लगी तो बेदी ने मुंह लटका कर कहा।
"मैडम, कोई काम मिलेगा ?"
प्रिया ने अब पहली बार बेदी को ठीक तरह से देखा। सिर से पांव तक देखा। बदन पर कपड़े ठीक-ठाक थे। बाल संवरे हुए थे। खूबसूरत चेहरे पर शेव बढ़ी हुई थी। लम्बा कद, देखने में ठीक- ठाक, अच्छे घर का लग रहा था।
"मेरी नौकरी छूट गई है। आगे-पीछे कोई नहीं है। दूसरी नौकरी नहीं मिल रही। पेट तक नहीं भर पा रहा हूं। प्लीज मैडम, अगर आप कोई काम दे दें और मेरा पेट भरता रहे तो...।"
"क्या काम कर सकते हो ?" प्रिया ने शांत स्वर में पूछा।
"जो आप कहेंगी, वही काम करूंगा।" बेदी को टॉप में से पुनः पूरी छातियों की झलक मिली।
"जो मैं कहूंगी, वो करोगे ?"
"यस मैडम, वही करूंगा।"
प्रिया की निगाह, बेदी के चेहरे पर टिकी थी।
"सोच लो, अगर बाद में इंकार किया तो तुम्हारे हक में ठीक नहीं होगा।"
"मेरे मुंह से आप कभी भी इंकार नहीं सुनेंगी।"
प्रिया ने उसे सिर से पांव तक देखा। फिर एकाएक मुस्करा पड़ी।
"गॉड इज ग्रेट।"
"यस मैडम, यू आर राइट, गॉड इज ग्रेट।"
प्रिया के होंठों पर छाई मुस्कान और गहरी हो गई।
"कार चलाना जानते हो ?"
"यस मैडम। सब कारें चला लेता हूं।" बेदी ने जल्दी से कहा।
"तुम्हें ड्राइवर की नौकरी मिल सकती है। मेरा कार ड्राइवर ।"
"थैंक्यू मैडम। थैंक्स, वैरी मच।" बेदी का चेहरा खिल उठा--- "आप बहुत अच्छी हैं। आप...।"
"साथ में शर्त वही है कि जो मैं कहूं वही करना होगा। यूं समझो कि ड्राइवर की नौकरी तो सिर्फ बहाना है। असल काम तो दूसरा है।" प्रिया का स्वर मीठा और शांत था।
"आप जो कहेंगी, मैं वही करूंगा मैडम।"
"तनख्वाह तुम्हें ठीक मिलेगी।" कहने के साथ प्रिया ने अपने पर्स में से पांच हजार की गड्डी निकाली और बेदी की तरफ बढ़ा कर बोली --- "ये रख लो। अपनी हालत दुरुस्त करो। गालों पर बाल मुझे पसंद नहीं आते। शेव करके रखा करो। हमारे यहां नौकरों की वर्दी काली है। दो काले रंग की वर्दियां तैयार करवाओ। साथ में कैप भी। कब तक तैयार करवा लोगे ?"
"मैडम मैं दो घंटों में ही काले रंग की रैडीमेड वर्दी खरीद लूंगा और शाम तक कैप तैयार करवा लूंगा।" कहते हुए बेदी हद से ज्यादा खुशी जाहिर कर रहा था।
"कल दिन के ग्यारह बजे, मुझे यहीं मिलना। वर्दी पहनकर, कल से तुम मेरे ड्राइवर बन जाओगे। मेरी हर बात तुम तक रहेगी। आगे नहीं जाएगी।" प्रिया शांत थी।
"नहीं जाएगी मैडम, कसम से।" बेदी ने फौरन सिर हिलाकर कहा।
प्रिया ने एक बार फिर बेदी को सिर से पांव तक देखा।
"गॉड इज ग्रेट।" प्रिया बड़बड़ाई। उसकी आंखों में अजीब-सी चमक उभर आई थी। इसके साथ ही उसने कार स्टार्ट की। बेदी को देखा--- "डरपोक हो या हिम्मत वाले ?"
"मालूम नहीं मैडम। लेकिन आपके लिए जान तक की बाजी लगा दूंगा।" बेदी कह उठा।
प्रिया के चेहरे पर मुस्कान उभरी। मुस्कान में हल्का सा जहरीलापन था। जिसे बेदी नहीं देख सका। आंखों में उभरी चमक में कोई कमी नहीं आई थी।
"कब मिलना है तुमने ?"
"कल, यहीं पर, ग्यारह बजे, वर्दी पहनकर।"
"गुड, नाम क्या है तुम्हारा ?"
"बेदी, विजय बेदी।"
"कल मुलाकात होगी।" कहने के साथ ही उसने कार को जरा-सा बैक किया और फिर आगे बढ़ाती ले गई।
बेदी हाथ में पांच हजार की गड्डी थामे प्रिया की जाती कार को देखे जा रहा था। प्रिया का व्यवहार उसे अजीब-सा लगा। बेदी को महसूस हुआ कि उसे ड्राइवर की नहीं, बल्कि किसी और काम के लिए किसी की जरूरत थी और वो उसे मिल गया। यानी कि वो खुद ही ऐसे किसी इंसान की तलाश में थी, जो उसके कहे मुताबिक कुछ कर सके। क्या करवाना चाहती है वो उससे ?
तभी उसके कानों में हार्न की आवाज पड़ी।
बेदी की सोचें टूटी। उसने गर्दन घुमाकर देखा। सड़क के किनारे कोरियाई वैन में बैठी रागिनी उसे देख रही थी। उसने ही हार्न बजाया था ।
बेदी गहरी सांस लेकर पांच हजार की गड्डी थामे कोरियाई वैन की तरफ बढ़ गया। परंतु उसकी सोचों पर प्रिया छा चुकी थी।
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अगला भाग: नब्बे करोड़
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